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________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 1] [657 43. संजयासंजये जीवे पंचिदियतिरिक्खजोणिय-मणुस्सा एगत्त-पुहत्तेणं जहा सम्मट्ठिी (सु० 33-37) / [43] संयतासंयत जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक और मनुष्य, (इन तीन पदों) में एकवचन और बहुवचन में (सू. 33-37 में उल्लिखित) सम्यग्दृष्टि के समान (कदाचित् प्रथम और कदाचित् . अप्रथम) समझना चाहिए / ) 44. नोसंजए नोभसंजए नोसंजयासंजये जीवे सिद्ध य एगत्त-पुहत्तेणं पढमे, नो अपढमे / [44] नो-संयत, नो-असंयत और नो-संयतासंयत जीव, तथा सिद्ध, एक वचन और बहुवचन से प्रथम हैं, अप्रथम नहीं / / विवेचन (7) संयतद्वार-प्रस्तुत द्वार में (सू. 41 से 44 तक में) एक और अनेक संयत, असंयत, नोसंयत-नोअसंयत, नो-संयतासंयत जीव, मनुष्य और सिद्ध के विषय में अतिदेशपूर्वक प्रथमत्व-अप्रथमत्व का निरूपण किया गया है। संयतपद में-जीवपद और मनुष्यपद दो ही पद आते हैं। सम्यग्दृष्टित्व की तरह संयतत्व भी प्रथम और अप्रथम दोनों हैं। प्रथम संयमप्राप्ति की अपेक्षा से प्रथम है और संयम से गिरकर अथवा अनेक बार मनुष्य जन्म में पुनः पुनः प्राप्त होने की अपेक्षा से अप्रथम है / असंयत-एक जीव या बहुजीवों की अपेक्षा से अनादि होने के कारण आहारकवत् अप्रथम हैं। संयतासंयत–जीवपद, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपद और मनुष्यपद में ही होता है, अतः एक जीव या बहुजीवों की अपेक्षा से यह भी सम्यग्दृष्टिवत् देशविरति को प्राप्ति की दृष्टि से प्रश्रम भी है, अप्रथम भी। नोसंयत-नो असंयत--जीव और सिद्ध होता है, यह भाव एक ही बार आता है, इसलिए प्रथम ही होता है।' जोव, चौवीस दण्डक और सिद्धों में एकत्व-बहुत्व को दृष्टि से यथायोग्य सकषायादि भाव की अपेक्षा से प्रथमत्व-अप्रथमत्वनिरूपण 45. सकसायी कोहकसायो जाव लोभकसायो, एए एगत्त-पुत्तहेणं जहा-आहारए (सू० 9.11) / [45] सकषायी, क्रोधकषायी यावत् लोभकषायी, ये सब एकवचन और बहुवचन से (सू. 9-11 में उल्लिखित) आहारक के समान जानना चाहिए / 46. अकसायी जीवे सिय पढमे, सिय अपढमे / [46] (एक) अकषायी जीव कदाचित् प्रथम और कदाचित् अप्रथम होता है। 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्र 734-735 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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