________________ 388] [ व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र [प्र.] भगवन् ! रसनेन्द्रिय-विषय-सम्बन्धी पुद्गलपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है / यथा-सुरस-परिणाम और दुर सपरिणाम / [प्र.] भगवन् ! स्पर्शन्द्रिय-विषय-सम्बन्धी पुद्गल-परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है?' __ [उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा--सुखस्पर्श परिणाम और दुःख स्पर्शपरिणाम / दूसरी बाचना में इन्द्रिय-सम्बन्धी सूत्रों के अतिरिक्त उच्चावचसूत्र' और 'सुरभिसूत्र' ये दो सूत्र और कहे गए हैं / यथा [प्र.] 'भगवन् ! क्या उच्चावच (ऊंचे-नीचे) शब्द-परिणामों से परिणत होते हुए पुद्गल 'परिणत होते हैं', ऐसा कहा जा सकता है ? [उ.] हाँ, गौतम, ऐसा कहा जा सकता है'; इत्यादि सब कथन करना चाहिए / [प्र.] भगवन् ! क्या शुभशब्दों के पुद्गल अशुभशब्द रूप में परिणत होते हैं ? उ.] हां, गौतम ! परिणत होते हैं; इत्यादि सब वर्णन यहाँ समझना चाहिए। // तृतीयशतक : नवम उद्देशक समाप्त / 1. (क) जीवाभिगम सूत्र प्रतिपत्ति 3, उद्देशक 2, मू. 191, पृ. 373-374 (ख) भगवती सूत्र अ. वत्ति, पत्रांक २०१-२०२—'सोइंदियबिसए"..."हंता गोयमा!' इत्यादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org