________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 9] [4-2 उ.] गौतम ! जो तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य अथवा देव पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने के योग्य है, वह भव्य-द्रव्य-पृथ्वीकायिक कहलाता है / 5. पाउकाइय-वणस्सतिकाइयाणं एवं चेव / [5] इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक के विषय में समझना चाहिए। 6. तेउ-वाउ-बेंदिय-तेइंदिय चरिदियाण य जे भविए तिरिक्खजोगिए वा मणुस्से वा। [6] अग्निकाय, वायुकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय पर्याय में जो कोई तिर्यञ्च या मनुष्य उत्पन्न होने के योग्य हो, वह भव्य-द्रव्य-अग्निकायिकादि कहलाता है / 7. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जे भविए नेरइए वा तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पंचेदियतिरिक्खजोणिए वा। [7] जो कोई नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य या देव, अथवा पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिक जीव, पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिकों में उत्पन्न होने योग्य होता है, वह भव्य-द्रव्य-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक कहलाता है। 8. एवं मणुस्साण वि। [8] इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में (समझ लेना चाहिए।) . 9. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा नेरइया / [6] वाणव्यन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिकों के विषय में नैरयिकों के समान समझना चाहिए। विवेचन-भव्य और द्रव्य का पारिभाषिक अर्थ-मुख्यतया भविष्यत्काल की पर्याय का जो कारण है. वह 'द्रव्य' कहलाता है। कभी-कभी भूतकाल की पर्याय वाला भी 'द्रव्य' कहलाता है / जैसे-भूतकाल में जो राजा था वर्तमान में नहीं है, फिर भी वह 'राजा' कहलाता है / वह द्रव्य राजा है / इसी प्रकार भविष्य में जो राजा होगा, वर्तमान में नहीं, वह भी 'राजा' के नाम से कहा जाता है / वह भी 'द्रव्य राजा' है / यहाँ मुख्यतया भविष्यकाल की पर्याय के कारण को 'भव्य-द्रव्य' कहा गया है / किन्तु 'भवितु योग्याः भव्याः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार भूतपर्याय वाले जीवों को भव्यद्रव्य नहीं कहा गया है / इसलिए भविष्यकाल में जो जीव नारक-पर्याय में उत्पन्न होने वाला है, चाहे वह पंचेन्द्रिय तिर्यच हो, चाहे मनुष्य हो, वह जीव भव्य-द्रव्य-नैरयिक कहलाता है। वर्तमान पर्याय में जो नै रयिक है, वह द्रव्यनै रयिक नहीं, भावनै रयिक है / भव्यद्रव्य तीन प्रकार के होते हैं(१) एकभविक, (2) बद्धायुष्क और (3) अभिमुख-नामगोत्र / जो जीव विवक्षित एक-अमुक भव के अनन्तर ही अमुक दूसरे भव में उत्पन्न होने वाले हैं, वे 'एकभविक' हैं / जिन्होंने पूर्वभव की आयु का तीसरा भाग प्रादि के शेष रहते ही अमुक भव का आयुष्य बांध लिया है, वे 'बद्घायुष्क' हैं / तथा जो पूर्वभव का त्याग करने के अनन्तर, अमुक भव के आयुष्य, नाम और गोत्र का साक्षात् वेदन करते हैं, वे 'अभिमुख-नामगोत्र' कहलाते हैं।' 1. भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भा. 12 पृ. 197-198 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org