________________ दसमो उद्देसओ : 'ओहो' दसवाँ उद्देशक : 'अवधिज्ञान' प्रज्ञापनासूत्र के अतिदेशपूर्वक अवधिज्ञान का वर्णन 1. कतिविधे गं भंते ! प्रोही पण्णत्ता? गोयमा ! दुविधा मोही पन्नत्ता / ओहोपयं निरवसेसं भाणियव्वं / सेवं भंते ! सेवं भंते ! / सोलसमे सए : दसमो उद्देसओ समतो // 16-10 // [1 प्र.] भगवन् ! अवधिज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! अवधिज्ञान दो प्रकार का कहा गया है। यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का 33 वां अवधिपद सम्पूर्ण कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर (गौतम स्वामी) यावत विचरते हैं। विवेचन–अवधिज्ञान : स्वरूप और भेद-प्रभेद-रूपी पदार्थों के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की मर्यादा को लिए हुए होने वाला अतीन्द्रिय सम्यग्ज्ञान, अवधिज्ञान कहलाता है / अवधिज्ञान, प्रज्ञापनासत्र के 33 3 पद के अनुसार दो प्रकार का कहा गया है-भवप्रत्ययिक और क्षायोपमिक भवप्रत्ययिक अवधि (ज्ञान) दो प्रकार के जीवों को होता है-देवों को और नारकों को। मनुष्यों और तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों को क्षायोपशमिक अवधि होता है। इसका विशेष विवरण प्रज्ञापना सूत्र के 333 अवधि पद से जान लेना चाहिए।' ॥सोलहवां शतक : दशम उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 719 (ख) पण्णवणासुतं भा. 1 (मू. पा. टिप्पण) सू. 1982-2031 पृ. 415, 418 (श्री महावीर जैन विद्यालय से प्रकाशित) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org