________________ अष्टम शतक : उद्देशक-१] [235 {76 उ.] गौतम ! वह द्रव्य परिमण्डल-संस्थानरूप में परिणत होता है, अथवा यावत् प्रायत-संस्थानरूप में परिणत होता है। विवेचन-मन-वचन-काय की अपेक्षा विभिन्न प्रकार से, प्रयोग से, मिश्र से, और विलसा से एक द्रव्य के परिणमन की प्ररूपणा–प्रस्तुत 31 सूत्रों (सू. 46 से 79 तक) में मन, वचन और काया के विभिन्न विशेषणों और प्रकारों के माध्यम से एक द्रव्य के प्रयोग-परिणाम की, फिर मिश्रपरिणाम की और अन्त में वर्णादि की दृष्टि से विस्रसापरिणाम की अपेक्षा से प्ररूपणा की गई है। प्रयोग को परिभाषा--मन, वचन और काया के व्यापार को 'योग' कहते हैं अथवा वीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम से मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा के पुद्गलों का आलम्बन लेकर आत्मप्रदेशों में होने वाले परिस्पन्दन (कम्पन या हलचल) को भी योग कहते हैं, इसी योग को यहाँ 'प्रयोग' कहा गया है / योगों के भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप-मालम्बन के भेद से प्रयोग के तीन भेद हैं -मनोयोग, वचनयोग और काययोग / ये ही मुख्य तीन योग हैं। फिर इनके अवान्तर भेद क्रमशः इस प्रकार हैं--सत्यमनोयोग, असत्य (मृषा) मनोयोग, सत्यमृषा (मिश्र) मनोयोग और असत्यामृषा (व्यवहार) मनोयोग। इसी प्रकार-सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, सत्यमृषा (मिश्र) वचनयोग, और असत्यामृषावचनयोग / इसी प्रकार-औदारिकयोग, औदारिकमिश्रयोग, वैक्रिययोग, वैक्रियमिश्रयोग, पाहारकयोग, पाहारकमिश्रयोग और कार्मणयोग / इस प्रकार 4 मनोयोग के, 4 वचनयोग के और 7 काययोग के यों कुल मिलाकर योग के 15 भेद हुए। इनका स्वरूप क्रमश: इस प्रकार है-(१) सत्यमनोयोग मन का जो व्यापार सत् (सज्जनपुरुषों या साधुओं या प्राणियों) के लिए हितकर हो, उन्हें मोक्ष की ओर ले जाना वाला हो, अथवा सत्यपदार्थों या सत्तत्त्वों (जीवादि तत्वों) के प्रति यथार्थ विचार हो / (2) असत्यमनोयोग-सत्य से विपरीत अर्थात् संसार की तरफ ले जाने रूप प्राणियों के लिए अहितकर विचार अथवा 'जीवादि तत्त्व नहीं हैं' इसका मिथ्याविचार / (3) सत्यमषामनोयोग-व्यवहार से ठीक होने पर भी जो विचार निश्चय से पूर्ण सत्य न हो / (4) प्रसत्या-मषामनोयोग-जो विचार अपने आप में सत्य और असत्य दोनों ही त , केवल वस्तस्वरूपमात्र दिखाया जाए / (5) सत्यवचनयोग, (6) असत्यवचनयोग, (7) सत्यमषावचनयोग और (8) असत्यामषावचनयोग, इनका स्वरूप मनोयोग के समान ही समझना चाहिए। मनोयोग में केवल बिचारमात्र का ग्रहण है और वचनयोग में वाणी का ग्रहण है। वाणी द्वारा भावों को प्रकट करना वचनयोग है। (1) औदारिफशरीरकाययोग-काय का अर्थ है--समूह / औदारिकशरीर, पुद्गलस्कन्धों का समूह होने से काय है। इससे होने वाले व्यापार को औदारिकशरीर-काययोग कहते हैं / यह योग मनुष्यों और तिर्यञ्चों में होता है। (2) औदारिकमिश्रशरीरकाययोग-औदारिक के साथ कार्मण, वैक्रिय या आहारक की सहायता से होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं। यह योग उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर जब तक शरीरपर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक सभी औदारिकशरीरधारी जीवों को होता है / वैक्रियलब्धिधारी मनुष्य और तिर्यञ्च जब वैक्रिय शरीर का त्याग करते हैं, तब भी औदारिकमिश्र शरीर होता है। इसी तरह लब्धिधारी मुनिराज जब पाहारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org