________________ 224] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र देवलोक में उत्पन्न हुए देव / पोरालिय = प्रौदारिक शरीर / तेया =तैजस शरीर / वेउब्विय = वैक्रिय शरीर / कम्मग = कार्मण शरीर / बट्ट= वृत्त-गोल / तंस = श्यत्र-त्रिकोण / चउरंस = चतुरस्त्र. चौकोर (चतुष्कोण) / तित्तरस = तिक्त-तीखा रस / अंबिल = आम्ल--खट्टा। कसाय = कसैला। जहाणुपुवीए = यथाक्रम से / ' मिश्रपरिणत-पुद्गलों का नौ दण्डकों द्वारा निरूपण 46. मीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णता ? गोयमा! पंचविहा पण्णता, तं जहा---एगिदियमीसापरिणया जाव पंचिदियमीसापरिणया। [46 प्र.] भगवन् ! मिश्रपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [46 उ.] गौतम ! वे पांच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं- एकेन्द्रिय-मिश्रपरिणत पुद्गल यावत् पंचेन्द्रियमिश्रपरिणत पुद्गल / 47. एगिदियमीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! एवं जहा पयोगपरिणएहि नव दंडगा भणिया एवं मीसापरिणएहि वि नव दंडगा भाणियव्वा, तहेव सव्वं निरवसे सं, नवरं अभिलायो 'मीसापरिणया' भाणियन्वं, सेसं तं चेव, जाव जे पज्जत्तासम्वट्ठसिद्धअणुत्तरो० जाव प्राययसंठाणपरिणया वि।। [47 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय मिश्रपुद्गल कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [47 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रयोगपरिणत पुद्गलों के विषय में नौ दण्डक कहे गए हैं, उसी प्रकार मिश्र-परिणत पुद्गलों के विषय में भी नौ दण्डक कहने चाहिए; और सारा वर्णन उसी प्रकार करना चाहिए। विशेषता यह है कि प्रयोग-परिणत के स्थान पर मिश्र-परिणत कहना चाहिए। शेष समस्त वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए; यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिक हैं; वे यावत् आयत-संस्थानरूप से भी परिणत हैं। विवेचन-मिश्रपरिणत पुद्गलों का नौ दण्डकों द्वारा निरूपण-प्रस्तुत सूत्रद्वय (सू. 46-47) में प्रयोगपरिणत पुद्गलों के भेद-प्रभेद की तरह मिश्रपरिणत पुद्गलों के भी भेद-प्रभेद का अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है / / विस्रसापरिणत पुद्गलों के भेद-प्रभेदों का निर्देश 48. वीससापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णता? गोयमा ! पंचविहा पण्णता, तं जहा-बष्णपरिणया गंधपरिणया रसपरिणया फासपरिणया संठाणपरिणया / जे बण्णपरिणया ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-कालवण्णपरिणया जाव सुश्किल्लवण्णपरिणया। जे गंधपरिणया ते दुविहा पण्णता, तं जहा-सुबिभगंधपरिणया वि, दुग्भिगंधपरिणयादि। 1. (क) भगवतीसूत्र (गुजराती अनुवादयुक्त) खण्ड-३, पृ. 42 से 46 तक (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचनयुक्त) भाग-३, पृ. 1236 से 1252 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org