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________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 1] [153 एक (वज्रऋषभनाराच) संहनन वाले जीव ही उत्पन्न होते हैं तथा स्त्रीवेद वाले जीव वहाँ उत्पन्न नहीं होते / क्योंकि स्त्रीवेदी जीवों की उत्पत्ति छठे नरक तक ही होती है। भवादेश से जघन्य तीन भव सातवें नरक में कहे गए हैं। वह इस प्रकार होते हैं--प्रथम भव मत्स्य का, द्वितीय भव नारक का और तृतीय भव मत्स्य का, इस क्रम से दो भव मत्स्यों के और एक भब नारक का होता है तथा उत्कृष्टत: सात भव इस प्रकार से होते हैं--प्रथम भव मत्स्य का, द्वितीय भव सप्तम पृथ्वी के नारक का, तृतीय भव पुनः मत्स्य का, चौथा भव पुन: सप्तम पृथ्वी के नारक का, पांचवाँ भव मत्स्य का, छठा भव सप्तम पृथ्वी के नारक का और सातवाँ भव पुन: मत्स्य का / इस प्रकार से उत्कृष्टतः 7 भव वे ग्रहण करते हैं तथा काल की अपेक्षा से जो दो अन्तर्मुहूर्त अधिक 22 सागरोपम कहा गया है, वह इस प्रकार है--सातवें नरक को भव सम्बन्धी जघन्य स्थिति 22 सागरोपम की है / इस अपेक्षा से 22 सागरोपम और तृतीय मत्स्यभव-सम्बन्धी दो अन्तम् हर्त समझने चाहिए तथा उत्कृष्ट 66 सागरोपम कहा है। वह यों समझना चाहिए कि सातवी नरकपृथ्वी में 22 सागरोपम की स्थिति से तीन बार उत्पन्न होता है, इस दृष्टि से 66 सागरोपम हो जाते हैं तथा 4 पूर्वकोटि की अधिकता जो कही गई है, वह नारक भवों से अन्तरित चार मत्स्यभवों की अपेक्षा से होती है। फलितार्थ यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी में जघन्य स्थिति बाले नैरयिकों में उत्कृष्टतः तीन वार ही उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से 66 सागरोपम घटित हो जाते हैं। यदि ऐसा न हो तो उपर्युक्त परिमाण घटित नहीं हो सकता / यहाँ उत्कृष्ट काल की विवक्षा है। इसलिए जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में 3 वार उत्पन्न होने का कथन किया गया है तथा चार मत्स्यभवों की अग पूर्वकोटि का कथन किया गया है। उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में दो बार के उत्पाद से 66 सागरोपम का प्रमाण लभ्य होता है और तीन मत्स्यभवों की अपेक्षा से तीन पूर्वकोटि का कथन किया गया है / यह प्रथम गमक है। जघन्यकाल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होने का दूसरा गमक है / उत्कृष्ट स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पाद-सम्बन्धी तृतीय गमक है। इसमें उत्कृष्टतः पांच भव-ग्रहण का कथन है, जिनमें तीन मत्स्यभव और दो नारकभव समझने चाहिए / इनसे यह निश्चित हो जाता है कि सातवें नरक में उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों में दो ही वार उत्पत्ति होती है। जघन्य स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पादसम्बन्धी मक है / इसकी वक्तव्यता रत्नप्रभापृथ्वी के चौथे गमक के तुल्य है। अन्तर केवल इतना ही है कि रत्नप्रभा में 6 संहनन और 3 वेद कहे गए हैं, किन्तु सातवें नरक के चौथे गमक में केवल एक वज्रऋषभनाराचसंहनन का कथन और स्त्रोवेद का निषेध करना चाहिए। शेष गमकों का कथन स्पष्ट हो है।' पर्याप्त संख्येयवर्षायुष्क संज्ञी मनुष्यों को समुच्चयरूप से सातों नरकों में उत्पाद प्रादि प्ररूपरणा 62. जइ मणुस्सेहितो उववज्जति कि सन्निमणुस्सेहितो उपयज्जति, प्रसन्निमणुस्सेहितो उववज्जति? गोयमा ! सन्निमणुस्सेहितो उववजंति, नो असनिमणुस्सेहितो उपवति / 1. (क) भगवती. अ. बत्ति, पत्र 812 (ख) भगवती. (प्रमेयचन्द्रिका टीका) भाग 14, पृ. 476 से 487 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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