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________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 2) 22. मणजोगत्ताए जहा कम्मगसरीरं, नवरं नियम छद्दिसि / [22] कार्मणशरीर की वक्तव्यता के समान मनोयोग की वक्तव्यता समझनी चाहिए तथा नियम से छहों दिशाओं से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है / 23. एवं वइजोगत्ताए वि। [23] इसी प्रकार वचनयोग के द्रव्यों के विषय में भी समझना चाहिए / 24. कायजोगत्ताए जहा पोरालियसरीरस्स। [24] काययोग के रूप में ग्रहण का कथन औदारिकशरीर विषयक कथनवत् है। 25. जीवे णं भंते ! जाई दवाइं प्राणापाणुत्ताए गेहइ? जहेव ओरालियसरीरत्ताए जाव सिय पंचदिसि / [25 प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है....? इत्यादि प्रश्न / [25 उ.] गौतम ! औदारिकशरीर-सम्बन्धी कथन के समान इस विषय में कहना चाहिए, यावत् कदाचित् चार तथा कदाचित् पांच दिशा से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है। 26. केयि चउवीसदंडएणं एयाणि पयाणि भणंति, जस्स जं अस्थि / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / ॥पंचवीसइमे सए : बितिम्रो उद्देसो समत्तो // 25.2 // [26] कई प्राचार्य चौबीस दण्डकों पर इन पदों को कहते हैं, किन्तु जिसके जो (शरीर, इन्द्रिय, योग आदि) हो, वही उसके लिए यथायोग्य कना चाहिए / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-स्थितद्रव्य : अस्थितद्रव्य : परिभाषा स्थितद्रव्य-जीव जितने आकाशक्षेत्र में रहा हुआ है, उसी क्षेत्र के अन्दर रहे हुए जो पुद्गलद्रव्य हैं, वे स्थितद्रव्य हैं, और उस क्षेत्र से बाहर रहे हुए द्रव्य अस्थितद्रव्य कहलाते हैं। वहाँ से आकर्षित करके जीव उन्हें ग्रहण करता है। इस विषय में किन्हीं आचार्यों का मत है कि गतिरहित द्रव्य स्थितद्रव्य और गतिसहित द्रव्य अस्थित द्रव्य कहलाते हैं।' वैक्रियशरीर द्वारा कितनी दिशाओं से द्रव्य-ग्रहण-वैक्रियशरीरी जीव वैक्रियशरीर के योग्य छहों दिशाओं से आए हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है, इस कथन का आशय यह है कि उपयोगपूर्वक वैक्रियशरीर धारण करने वाला जीव प्रायः पंचेन्द्रिय ही होता है और वह असनाड़ी के मध्यभाग में होता है। इसलिए उसके छहों दिशाओं का आहार सम्भव है। कुछ प्राचार्यों के 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 857 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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