________________ पन्द्रहवां शतक] [527 151. तए णं से दढप्पतिण्णे केवलो बहूई वासाइं केवलिपरियागं पाउणेहिति, बहू० पा० 2 अप्पणो माउसेसं जाणेत्ता भत्तं पच्चक्खाहिति एवं जहा उववातिए जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / ॥तेयनिसम्गो समत्तो॥ ॥समत्तं च पण्णरसमं सयं एक्कसरयं / / 15 / / [151] इसके बाद दृढप्रतिज्ञ केवली बहुत वर्षों तक केवलज्ञानी-पर्याय का पालन करेंगे, फिर अपना आयुष्य-शेष (थोड़ा-सा आयुष्य शेष) जान कर भक्तप्रत्याख्यान (संथारा) करेंगे / इस प्रकार प्रोपपातिक सूत्र के कथनानुसार वे यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेंगे। . हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन प्रस्तुत चार सूत्रों (स. 148 से 151) में गोशालक के जीव के अन्तिम भवमहाविदेहक्षेत्र में जन्म और दृढप्रतिज्ञ केवली होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने तक का वर्णन है। साथ ही यह भी प्रेरणात्मक वर्णन है कि उन्होंने अपने केवलज्ञान के आलोक में अपने अनादि-अनन्त संसारपरिभ्रमण का घटनाचक्र देख कर अपने अनुभव से अनुगामी श्रमणों से भी प्राचार्यादि के प्रति द्वेष, विरोध, अविनय, आशातना आदि न करने का उपदेश दिया। जिसे श्रमणों ने शिरोधार्य किया और आलोचनादि करके वे शुद्ध हुए।' पण्णरसमं सयं एक्कसरयं : आशय-इस शतक की पूर्णाहुति में 'एक्कसरयं' शब्द है, जिसका अर्थ हेमचन्द्राचार्य ने किया है—'एक्कसरियं' पद अव्यय है, उसका अर्थ है—शीघ्र, झटपट / प्राशय यह है कि वर्तमान में इस शतक के सम्बन्ध में ऐसी धारणा है कि इस शतक को झटपट एक दिवस में ही पढ़ना-पढ़ाना चाहिए। अगर एक दिन में यह शतक पूर्ण न हो तो जब तक इसका अध्ययनअध्यापन चालू रहे, तब तक प्रायम्बिल करना चाहिए / पुमत्ताए : पुत्तताए : दो पाठ : दो अर्थ--(१) पुरुष के रूप में, अथवा (2) पुत्र के रूप में / // तेजोनिसर्ग समाप्त // पन्द्रहवाँ : एकस्मरिक शतक समाप्त 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2. (मुलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 741-782 2. वही, पृ. 742 3. वही, पृ. 742 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org