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________________ 192] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [19 उ.] गौतम ! वे जघन्य अन्त महूर्त और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं। 20. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिनि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा, असंखेज्जा वा उववज्जति। सेवसंघयणी। ओगाणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभाग, उक्कोसेणं बारस जोयणाई। हुंडसंठिता। तिनि लेसाओ। सम्मट्ठिी वि, मिच्छादिट्ठी वि, नो सम्मामिच्छादिट्ठी। दो णाणा, दो अन्नाणा नियमं / नो मणजोगी, वइजोगी वि, कायजोगी वि / उवयोगो दुविहो वि। चत्तारि सण्णायो। चत्तारि कसाया। दो इंदिया पन्नत्ता, तं जहा—जिभिदिए य फासिदिए य। तिन्नि समुग्धाया। सेसं जहा पुढविकाइयाणं, नवरं ठितो जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराइं। एवं अणुबंधो वि। सेसं तं चेव / भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं संखेज्जाइं भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं, एवतियं० / [पढमो गमओ] / [20 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [20 उ.] गौतम ! वे (एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात याअसंख्यात उत्पन्न होते हैं / वे सेवार्तसंहनन वाले होते हैं। उनकी अवगाहनाजघन्य अंगुल के असंख्यातव भाग को और उत्कृष्ट बारह योजन की होती है। उनका संस्थान हुंडक होता है। उनमें लेश्याएँ तीन और दृष्टियाँ दो--सम्यग्दष्टि और मिथ्यादष्टि होती है। सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होती। उनमें दो ज्ञान या दो अज्ञान अवश्य होते हैं। वे मनोयोगी नहीं होते, बचनयोगी और काययोगी होते हैं। उनमें दो उपयोग, चार संज्ञाएँ और चार कषाय होते हैं। उनके जिहन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय, ये दो इन्द्रियाँ होती हैं। उनमें तीन समुद्घात होते हैं। शेष सभी बातें पृथ्वीकायिकों के समान जाननी चाहिए ! विशेष- उनकी स्थिति जघन्य अन्तमहर्त की और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है। अनुबन्ध भी इसी प्रकार होता है। शेष सब पूर्ववत् समझना। भव की अपेक्षा से-वे जघन्य दो भव और उत्कृष्ट संख्यात भव ग्रहण करते हैं। काल की अपेक्षा से- वे जघन्य दो अन्तमहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल तक यावत् गमनागमन करते हैं / [प्रथम गमक] 21. सो चेव जहन्नकाल द्वितीएसु उववन्नो, एस चेव वत्तब्वया सव्वा / [बीओ गमओ] / [21] यदि वह (द्वीन्द्रिय) जघन्य काल की स्थिति वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न हो तो पूर्वोक्त सभी वक्तव्यता समझनी चाहिए। [द्वितीय गमक 22. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, एस चेव बेंदियस्स लद्धी, नवरं भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवरमहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तममहियाई, उक्कोसेणं अट्ठासीति वाससहस्साई अडयालीसाए संवच्छरेहि अमहियाई, एवतियं० / [तइओ गमओ] / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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