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________________ पढमे एगिदियसए : बिइओ उद्देसओ पहला एकेन्द्रियशतक : द्वितीय उद्देशक अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय के प्रकारों की तथा अन्य प्ररूपणा 1. कतिविधा णं भंते ! अणंतरोक्वनगा एगिदिया पन्नत्ता? गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववन्नणा एगिदिया पन्नत्ता, तं जहा-पुढविकाइया०, दुयाभेदो जहा एगिदियसतेसु जाव बायरवणस्सइकाइया। [1 प्र.] भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय कितने प्रकार के कहे हैं ? / [1 उ.] गौतम ! अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रिय पांच प्रकार के कहे हैं। यथा-पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक / फिर प्रत्येक के दो-दो भेद एकेन्द्रिय शतक के अनुसार यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहने चाहिए। 2. कहि णं भंते ! अणंत रोक्वन्नगाणं बायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता? गोयमा ! सट्टाणेणं अट्ठसु पुढवीसु, तं जहा-रयणप्पभा जहा ठाणपए जाव दीवेसु समुद्देसु, एत्थ णं अणंतरोववनगाणं बायरपुढविकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता, उववातेण सव्वलोए, समुग्घाएणं सम्वलोए, सटाणणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, अणंतरोधक्नगसुहमपुढविकाइया गं एगविहा अविसेसमणाणत्ता सवलोगपरियावन्ना पन्नत्ता समणाउसो!। [2 प्र. भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? [2 उ.] गौतम ! वे स्वस्थान की अपेक्षा आठ पृथ्वियों में हैं। यथा--रत्नप्रभा इत्यादि / प्रज्ञापनासुत्र के द्वितीय स्थानपद के अनुसार-यावत् द्वीपों में तथा समुद्रों में अनन्तरोपपन्नक बादर पृथ्वीकायिक जीवों के स्थान कहे हैं। उपपात और समुद्घात की अपेक्षा वे समस्त लोक में हैं। स्वस्थान की अपेक्षा वे लोक के असंख्यातवें भाग में रहे हुए हैं / अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक सभी जीव एक प्रकार के हैं तथा विशेषता और भिन्नता रहित है तथा हे आयुष्मन् श्रमण ! वे सर्वलोक में व्याप्त हैं। 3. एवं एतेणं कमेणं सब्वे एगिदिया भाणियवा। सटाणाई सन्वेसि जहा ठाणपए / एतेसि पज्जत्तगाणं बायराणं उववाय-समुग्घाय-सट्टाणाणि जहा तेसि चेव अपज्जत्तगाणं बायराणं, सुहमाणं सर्वेसि जहा पुढविकाइयाणं भणिया तहेव भाणियन्वा जाव वणस्सइकाइय ति। [3] इसी क्रम से सभी एकेन्द्रिय-सम्बन्धी कथन करना चाहिए। उन सभी के स्वस्थान प्रज्ञापनासूत्र के दूसरे स्थानपद के अनुसार हैं। इन पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीवों के उपपात, समुद्घात और स्वस्थान के अनुसार अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय जीव के भी उपपातादि जानने चाहिए तथा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के उपपात, समुद्घात और स्वस्थान के अनुसार सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव यावत् बनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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