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________________ 296] [व्याख्याप्रप्तिसूत्र से, पूर्व और पश्चिम दिशा (दोनों मोर) के बीस-बीस प्रदेशों से तथा उत्तर और दक्षिण दिशा के एक-एक प्रदेश से, इस प्रकार कुल मिलाकर एक सौ दो प्रदेशों से स्पृष्ट होता है / असंख्यात और अनन्त प्रदेशों को स्पर्शना के विषय में भी पूर्वोक्त नियम समझना चाहिए। किन्तु अनन्त के विषय में विशेषता यह है कि जिस प्रकार जघन्य पद में ऊपर या नीचे अवगाढ प्रदेश औपचारिक हैं, उसी प्रकार उत्कृष्टपद के विषय में भी समझना चाहिए। क्योंकि अवगाह से निरुपचरित अनन्त अाकाशप्रदेश नहीं होते, असंख्यात होते हैं / ' ___ अद्धासमय की स्पर्शना-समयक्षेत्रवर्ती वर्तमानसमयविशिष्ट परमाणु को यहाँ अद्धासमय रूप से समझना चाहिए / अन्यथा धर्मास्तिकाय के सात प्रदेशों से श्रद्धासमय की स्पर्शना नहीं हो सकती। यहाँ जघन्य पद नहीं है, क्योंकि अद्धासमय मनुष्यक्षेत्रवर्ती है। जघन्य पद तो लोकान्त में सम्भवित्त होता है, किन्तु लोकान्त में काल नहीं है। अद्धासमय को स्पर्शना सात प्रदेशों से होती है। क्योंकि अद्धासमयविशिष्ट परमाणुद्रव्य धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश में अवगाढ होता है और धर्मास्तिकाय के छह प्रदेश उसके छहों दिशाओं में होते हैं। इस प्रकार उसके सात प्रदेशों से स्पर्शना होती है। श्रद्धासमय जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। क्योंकि वे एक प्रदेश पर भी अनन्त होते हैं। एक अद्धासमय पुद्गलास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से और अनन्त अद्धासमयों से स्पृष्ट होता है / क्योंकि अद्धासमय विशिष्ट अनन्तपरमाणुगों से स्पृष्ट होता है। क्योंकि ये उसके स्थान पर और अासपास विद्यमान होते हैं।' समग्र धर्मास्तिकायादि द्रव्यों की स्पर्शना-स्वस्थान-परस्थान--जहाँ धर्मास्तिकायादि द्रव्यों का केवल उनके ही प्रदेशों से स्पर्शना का विचार किया जाए, वह स्वस्थान कहलाता है और जब दूसरे द्रव्यों के प्रदेशों से स्पर्शना का विचार किया जाए, तो वह परस्थान कहलाता है / स्वस्थान में तो वह सम्पूर्ण द्रव्य अपने एक भी प्रदेश से स्पृष्ट नहीं होता, क्योंकि सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय द्रव्य से धर्मास्तिकाय के कोई पृथक् प्रदेश नहीं है / और परस्थान में धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्यों के असंख्य प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और तत्सम्बद्ध आकाशास्तिकाय के असंख्य प्रदेश हैं। क्योंकि धमोस्तिकाय असंख्य प्रदेश-स्वरूप सम्पूर्ण लोकाकाश में है। जीवादि तीन द्रव्यों के विषय में अनन्त प्रदेशों द्वारा स्पृष्ट होता है। क्योंकि इन तीनों के अनन्त प्रदेश हैं / अाकाशास्तिकाय में इतनी विशेषता है कि वह धर्मास्तिकायादि के प्रदेशों से कदाचित् स्पृष्ट होता है और कदाचित् स्पृष्ट नहीं होता / जो स्पृष्ट होता है, वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के असंख्य प्रदेशों से और जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेशों से स्पृष्ट होता है। क्योंकि धर्मास्तिकाय अनन्त जीवप्रदेशों से व्याप्त है। यावत्-- एक अद्धासमय, एक भी श्रद्धासमय से स्पृष्ट नहीं होता। क्योंकि निरुपचरित अद्धासमय एक ही होता है। इसलिए समयान्तर के साथ उसकी स्पर्शना नहीं होती। जो समय बीत चुका है, वह तो विनष्ट 1. भगवती. अ. वृत्ति, 611 2. वही, पत्र 612 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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