________________ सत्तमे 'अब्भ वग्गे : दस उद्देसगा सप्तम 'अभ्र' वर्ग : दश उद्देशक चतुर्थ वंशवर्गानुसार सप्तम अभ्रवर्ग का निरूपण 1. अह भंते ! अब्भरुह-वायाण'-हरितग-तंदुलेज्जग-तण-वत्थुल-बोरग-मज्जार- पाइ-विल्लिपालक्क-दगदिष्पलिय-दन्वि-सोस्थिक-सायमंडुक्कि-मूलग-सरिसव-अंबिलसाग-जियंतगाणं, एएसि णं जे जीवा मूलc ? एवं एस्थ वि दस उद्देसगा जहेव वंसवग्गो // ॥एगवीसइमे सए : सत्तमो वग्गो समत्तो // 21-7 // [1 प्र.] भगवन् ! अभ्ररुह, वायाण (वोयाण), हरीतक (हरड़), तंदुलेय्यक (चंदलिया), तृण, वत्थुल (बथुआ), बोरक (बेर, पोरक), मार्जारक, पाई, बिल्ली (चिल्ली), पालक, दगपिप्पली, दर्वी, स्वस्तिक, शाकमण्डकी, मूलक, सर्वप (सरसों), अम्बिलशाक, जीयन्तक (जीवन्तक), इन सब वनस्पतियों के मूल रूप में जो जात्र उम्पन्न होते हैं, वे कहाँ से श्राकर उत्पन्न ह / है ? [1 उ.] (गोतम ! ) यहाँ भी चतुर्थ वशवर्ग के समान समग्ररूप में भूलादि दश उद्देशक कहने चाहिए। विवेचन-अभ्रवृक्ष का स्वरूप-एक वक्ष में दूसरी जाति के वृक्ष के उग जाने को अनवृक्ष कहते हैं / यथा नीम के वृक्ष में पीपल के वृक्ष का उग जाना या बड़ में पीपल का उग जाना। // दश उद्देशक सहित सप्तम वर्ग समाप्त // 3. जिवंतगा"। 1. वोयाण। 2. मज्जारयाईचिल्लियालक्क""। 4. भगवती. विवेचन (. धेवरचंद जी) भा. 6, पृ. 2954 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org