________________ चौवीसवां शतक : उदं शक 1] [133 [32 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है। 33. [1] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केव० ? प्रवसेसं तं चेव, णवरं इमाइं तिनि जाणत्ताई-आउं अज्झवसाणा अणुबंधो य / ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [33-1 प्र. भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [33-1 उ.] गौतम ! (यहाँ से लेकर अनुबन्ध तक) समस्त (आलापक) पूर्ववत् समझना चाहिए / विशेषत: आयु (स्थिति), अध्यवसाय और अनुबन्ध, इन तीन बातों में अन्तर है / यथास्थिति (प्रायुष्य) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तमुहूर्त की है। [2] तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतिया अज्झवसाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पन्नत्ता। [33-2 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के अध्यवसाय कितने कहे हैं ? [33-2 उ.] गौतम ! उनके अध्यवसाय असंख्यात कहे हैं / [3] ते णं भंते ! कि पसत्था, अप्पसत्था ? गोयमा!नो पसत्था, अप्पसस्था। [33-3 प्र.] भगवन् ! (उनके) वे (अध्यवसाय) प्रशस्त होते हैं, या अप्रशस्त ? [33-3 उ.] गौतम ! वे प्रशस्त नहीं होते, अप्रशस्त होते हैं। [4] अणुबंधो अंतोमुहत्तं / सेसं तं चेव / [33-4 उ.] उनका अनुबन्ध (जघन्यकाल स्थिति वाले, पर्याप्त-असंज्ञीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक रूप में) अन्तर्मुहूर्त तक रहता है / शेष सब कथन पूर्ववत् / 34. से णं भंते ! जहन्नकाल द्वितीयपज्जत्ताअसन्निपंचेंदिय० रयणप्पभा० जाव करेज्जा ? गोयमा ! भवाएसेणं दो भवग्गहणाइं; कालादेसणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुसअमहियाई, उक्कोसेणं पलिश्रोवमस्स असंखेज्जतिभागं अंतोमुत्तमभहियं, एवतियं कालं सेविज्जा जाव करेजा। [सु० 32-34 चउत्थो गमो] / [34 प्र.] भगवन् ! वह जीव, जघन्यकाल की स्थिति वाला पर्याप्त-प्रसंज्ञीपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हो, (फिर) रत्नप्रभापृथ्वी में यावत् (नैरयिकरूप से उत्पन्न हो, और पुनः जघन्यकाल की स्थिति बाला पर्याप्त-असंजीपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक रूप में उत्पन्न हो, तो वह कितना काल सेवन करता है और कितने काल तक गमनागमन) करता रहता है ? [34 उ.] गौतम ! वह भवादेश से दो भव ग्रहण करता है और कालादेश से जघन्य अन्तर्मुहूर्त-अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त-अधिक पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org