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________________ भी वस्तु का संस्पर्श होने पर प्रात्मा में भी संवेदन होता है और कायकर्म का विपाक प्रात्मा में होता है। 202 चार्वाक दर्शन शरीर को ही प्रात्मा मानता था तो उपनिषद् काल के ऋषिगण प्रात्मा को शरीर से अत्यन्त भिन्न मानते थे। पर महावीर ने उन दोनों भेद और अभेद पक्षों का अनेकान्त दृष्टि से समन्वय कर दार्शनिकों के सामने समन्वय का मार्ग प्रस्तुत किया। इसी प्रकार जीव की सान्तता और अनन्तता के प्रश्न पर भी बुद्ध का मन्तव्य स्पष्ट नहीं था / यदि काल की दृष्टि से सान्तता और अनन्तता का प्रश्न हो तो अव्या कृत मत से समाधान हो जाता है पर द्रव्य या क्षेत्र की दष्टि से जीव की सान्तता और निरन्तता के विषय में उनके क्या विचार थे, इस सम्बन्ध में त्रिपिटक साहित्य मौन है, जबकि भगवान महावीर ने जीव की सान्तता, निरन्तता के सम्बन्ध में अपने स्पष्ट विचार प्रस्तुत किये हैं। उनके अभिमतानुसार जीव एक स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में है। वह द्रव्य से सान्त है, क्षेत्र से सान्त है, काल से अनन्त है और भाव से अनन्त है। इस तरह जीव सान्त भी है, अनन्त भी है / काल की दृष्टि से और पर्यायों की अपेक्षा से उसका कोई अन्त नहीं पर वह द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से सान्त है। - उपनिषद का प्रात्मा के सम्बन्ध के 'अणोरणीयान महतो महीयान' के मन्तव्य का भगवान महावीर ने निराकरण किया है। क्षेत्र की दष्टि से आत्मा की व्यापकता को भगवान महावीर ने स्वीकार नहीं किया है और एक ही आत्मद्रव्य सब कुछ है, यह भी भगवान महावीर का मन्तब्य नहीं है। उनका मन्तव्य है कि आत्मद्रव्य और उसका क्षेत्र मर्यादित है। उन्होंने क्षेत्र की दष्टि से प्रात्मा को सान्त कहते हुए भी काल की दष्टि से आत्मा को अनन्त कहा है। भाव की दष्टि से भी आत्मा अनन्त है क्योंकि जीव की जानपर्यायों का कोई अन्त नहीं है और न दर्शन और चारित्र पर्यायों का ही कोई अन्त है। प्रतिपल-प्रतिक्षण नई-नई पर्यायों का भाविर्भाव होता रहता है और पूर्व पर्याय नष्ट होते रहते हैं। इसी प्रकार सिद्धि के सम्बन्ध में भी भगवान महावीर ने अनेकान्त दृष्टि से उत्तर देकर एक गम्भोर दार्शनिक समस्या का सहन समाधान किया है। मृत्य: एक कला मृत्यु एक कला है। इस कला के सम्बन्ध में जन मनीषियों ने विस्तार से विश्लेषण किया है। जैन मनीषियों ने मरण के दो प्रकार बताये-बालमरण और पण्डितमरण / दूसरे शब्दों में उसे प्रसमाधिमरण और समाधिमरण भी कह सकते हैं। एक ज्ञानी की मृत्यु है, दूसरी अज्ञानी को मृत्यु है। अज्ञानी विषयासक्त होता है। वह मृत्यु से कांपता है। उससे बचने के लिए वह अहनिश प्रयास करता है, पर मृत्यु उसका पीछा नहीं छोड़ती। पर ज्ञानी मृत्यु का प्रालिंगन करने के लिये सदा तत्पर रहता है। उसकी शरीर के प्रति आसक्ति नहीं होती / वह समभाव से मृत्यु को वरण करता है। उस मरण में किचिमात्र भी कषाय नहीं होता। जब साधक देखता है कि प्रव शरीर साधना करने में सक्षम नहीं रहा है तब वह निर्भय होकर देहासक्ति का विसर्जन कर मृत्यु का स्वागत करता है। बालमरण के प्रस्तुत आगम में जो बारह प्रकार प्रतिपादित हैं उनमें कषाय की मात्रा को प्रधानता है। क्रोध, अहंकार मादि के कारण ही वह मृत्यु को स्वीकार करता है। उस मृत्यु को स्वीकार करने पर भी मृत्यु की परम्परा समाप्त नहीं होती प्रत्युत वह परम्परा लम्बी होती चली जाती है। पण्डितमरण में साधक समस्त प्राणियों में साथ सर्वप्रथम क्षमायाचना करता है। ग्रहीत व्रतों में यदि असावधानीवश स्खलनाएं हुई हों तो उन दोषों की पालोचना कर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है। पापस्थानकों का परित्याग 202. भागम युग का जैनदर्शन, पं. दलसुख मालवणिया, पृ. 66-67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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