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________________ विचार रहा होगा कि यदि मैं लोक और जीव को नित्य कहता हूँ तो उपनिषद् का शाश्वत वाद मुझं मानना पड़ेगा। यदि मैं अनित्य कहता है तो चार्वाक का भौतिकवाद स्वीकार करना पड़ेगा। उन्हें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों पसन्द नहीं थे, इसीलिये ऐसे प्रश्नों को अव्याकृत, स्थापित, प्रतिक्षिप्त कह दिया कि लोक अशाश्वत हो या शाश्वत, जन्म है ही, मरण है हो। मैं तो इन्हीं जन्म-मरण के विधात को बताता है। यही मेरा व्याकृत है और इसी में तुम्हारा हित है। इस तरह बुद्ध ने प्रशाश्वतानुच्छेदवाद स्वीकार किया है / इसका भी यह कारण था कि उस युग में जो वाद थे उन वादों में उनको दोष दृग्गोचर हुए, अतएव किसी वाद का अनुयायी होना उन्हें श्रेयस्कर नहीं लगा / 200 पर महावीर ने उन वादों के गुण और दोष दोनों देखें। जिस वाद में जितनी सचाई थी उतनी मात्रा में स्वीकार कर, सभी वादों का समन्वय करने का प्रयास किया। तथागत बुद्ध जिन प्रश्नों का उत्तर विधि रूप में देना पसन्द नहीं करते थे, उन सभी प्रश्नों का उत्तर भगवान महावीर ने अनेकान्तवाद के रूप में प्रदान किये / प्रत्येक वाद के पीछे क्या दृष्टिकोण रहा हुआ है, उस बाद की मर्यादा क्या है ? इस बात को नयबाद के रूप में दर्शनिकों के सामने प्रस्तुत किया। तथागत बुद्ध ने लोक की सान्तता और अनन्तता दोनों को अव्याकृत कोटि में रखा है, जब कि भगवान महावीर ने लोक को सान्त और अनन्त अपेक्षाभेद से बताया। इसी तरह लोक शाश्वत है या प्रशाश्वत है ? यह प्रश्न भगवतीसूत्र, शतक 9, उद्देशक 6 में गणधर गौतम ने जमाली को पूछा / प्रश्न सुनकर जमाली सकपका गये। तब भगवान महावीर ने कहा---लोक शाश्वत है और प्रशाश्वत भी है। तीनों कालों में ऐसा एक भी समय नहीं जब लोक किसी न किसी रूप में न हो। अत: वह शाश्वत है। लोक हमेशा एक रूप नहीं रहता है। प्रवसपिणी और उत्सर्पिणी के कारण अवनति और उन्नति होती रहती है। इसलिये वह प्रशाश्वत भी है। भगवान महावीर ने लोक को पंचास्तिकाय रूप माना। जीव और शरीर के भेदाभेद पर भी अनेकान्तवाद की दष्टि से जो समाधान किया है, वह भी अपूर्व है। उन्होंने आत्मा को शरीर से भिन्त और अभिन्न दोनों कहा है। किन्तु बुद्ध इस सम्बन्ध में भी स्पष्ट नहीं हो सके। उनका अभिमत था कि यदि शरीर को आत्मा से भिन्न मानते हैं तब ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं, यदि अभिन्न मानते हैं तो भी ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं। इसलिये दोनों अन्तों को छोड़कर उन्होंने मध्यम मार्ग का उपदेश दिया / 20' तथागत बुद्ध का यह चिन्तन था कि यदि प्रारमा शरीर से अत्यन्त भिन्न माना जाये तो फिर. उसे कायकृत कर्मों का फल नहीं मिलना चाहिये। अत्यन्त भेद मानने पर अकृतागम दोष की अापत्ति है। यदि अत्यन्त अभिन्न माने तो जब शरीर को जला कर नष्ट कर देते हैं तो आत्मा भी नष्ट हो जायेगा / जब प्रात्मा नष्ट हो गया है तो परलोक सम्भव नहीं है। इस तरह कृतप्रणाश दोष की प्रापत्ति होगी। इन दोषों से बचने के लिये उन्होंने भेद और अभेद दोनों पक्ष ठीक नहीं माने। पर महावीर ने इन दोनों विरोधी वादों का समन्वय किया / एकान्त भेद मोर एकान्त अभेद मानने पर जिन दोषों की सम्भावना थी, वे दोष उभयवाद मानने पर नहीं होते। जीव मौर शरीर का भेद मानने का कारण यही है। शरीर नष्ट होने पर भी आत्मा दूसरे जन्म में रहती है / सिद्धावस्था में जो प्रात्मा है, वह शरीरमुक्त है। प्रात्मा और शरीर का जो प्रभेद माना गया है, उसका कारण है कि संसार-प्रवस्था में प्रात्मा नीर-क्षीर-वत रहता है। इसलिये शरीर से किसी 200. आगम युग का जैनदर्शन, पं. दलसुख मालवणिया, पृ. 60-61 201. "तं जीवं तं सरीरं ति भिक्खु, दिदिया सति ब्रह्मचरियवासो न होति / अञ्ज जीवं अन सरीरं ति वा भिक्खु, दिटिया सति ब्रह्मचरियबासो न होति / एते ते भिक्खु, उभो अन्ते अनुपगम्म मज्झेन तथागतो धम्म देसेति...." -संयुत्त XII 135 [60 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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