________________ तृतीय शतक : उद्देशक-२] [305 हुए तथा परकीय देवियों के साथ (परिचार) संभोग करते हुए (वैमानिक) आत्मरक्षक देवों को त्रास पहुंचाते हैं, तथा यथोचित छोटे-मोटे रत्नों को ले (चुरा) कर स्वयं एकान्त भाग में चले जाते हैं। [2] अस्थि णं भंते ! तेसि देवाणं अहालहस्सगाई रयणाई? हंता, अस्थि / [13-2 प्र.) भगवन् ! क्या उन (वैमानिक) देवों के पास यथोचित छोटे-मोटे रत्न होते हैं ? {13-2 उ.] हाँ गौतम ! (उन वैमानिक देवों के पास यथोचित छोटे-मोटे रत्न) होते हैं। [3] से कहमिदाणि पकरेंति ? तनो से पच्छा कार्य पन्वहंति / [13-3 प्र.] भगवन् ! (जब वे (असुरकुमार देव) वैमानिक देवों के यथोचित रत्न चुरा कर, भाग जाते हैं, तब वैमानिक देव) उनका क्या करते हैं ? [13-3 उ.] (गौतम ! वैमानिकों के रत्नों का अपहरण करने के पश्चात् वैमानिक देव उनके शरीर को अत्यन्त व्यथा (पीड़ा) पहुँचाते हैं / [4] पभू णं भते ! ते असुरकुमारा देवा तत्थगया चेव समाणा ताहि अच्छराहि सद्धि दिव्वाई भोग भोगाइं भुजमाणा विहरित्तए ? जो इण? सम?, ते णं तो पडिनियत्तंति, तो पडि नियत्तित्ता इहमागच्छंति, 2 जति णं तानो प्रच्छरायो पाढायंति परियाणंति, पभ गं ते असुरकुमारा देवा ताहि अच्छराहि सद्धि दिव्वाई भोगभोगाइं भुजमाणा विहरित्तए, अह णं तानो प्रच्छरानो नो प्राढायंति नो परियाणति णो णं पम ते असुरकुमारा देवा ताहि मच्छराहि सद्धि दिव्वाई भोगभोगाइं भुजमाणा विहरित्तए / [13-4 प्र.] भगवन् ! क्या वहाँ (सौधर्मकल्प में) गए हुए वे असुरकुमार देव उन (देवलोक की) अप्सरानों के साथ दिव्य भोगने योग्य भोगों को भोगने में समर्थ हैं ? (अर्थात्-वे वहाँ उनके साथ भोग भोगते हुए विहरण कर सकते हैं ?) [13-4 उ. (हे गौतम !) यह अर्थ (ऐसा करने में वे) समर्थ नहीं। वे (असुरकृमार देव) वहाँ से वापस लौट जाते हैं। वहाँ से लौट कर वे यहाँ (अपने स्थान में) आते है। य पदि वे (वैमानिक) अप्सराएँ उनका (असुरकुमार देवों का) आदर करें, उन्हें स्वामीरूप में स्वीकारें तो, वे असुरकुमार देव उन (उध्वंदेवलोकगत) अप्सराओं के साथ दिव्य भोग भोग सकते हैं, यदि वे (ऊपर की) अप्सराएँ उनका आदर न करें, उनका स्वामी-रूप में स्वीकार न करें तो, असुरकुमार देव उन अप्सराओं के साथ दिव्य एवं भोग्य भोगों को नहीं भोग सकते, भोगते हुए विचरण नहीं कर सकते। [5] एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया घ, गमिस्संति य / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org