________________ अट्ठमो उद्देसओ : 'लोग' अष्टम उद्देशक : 'लोक' लोक के प्रमाण का तथा लोक के विविध चरमान्तों में जीवाजीवादि का निरूपण 1. केमहालए णं भंते ! लोए पन्नते ? गोयमा ! महतिमहालए जहा बारसमसए (स० 12 उ०७ सु० 2) तहेव जाव असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं / [1 प्र.] भगवन् ! लोक कितना विशाल कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! लोक अत्यन्त विशाल (महातिमहान्) कहा गया है। इसकी समस्त वक्तव्यता) बारहवें शतक (के सातवें उद्देशक सू. 2 में कहे) अनुसार यावत्--उस लोक का परिक्षेप (परिधि) असंख्येय कोटाकोटि योजन है, (यहाँ तक कह्नी चाहिए।) 2. लोगस्स णं भंते ! पुरथिमिल्ले चरिमंते कि जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपदेसा? गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि / जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा, अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसे / एवं जहा दसमसए अग्गेयो दिसा (स० 10 उ०१ सु०९) तहेव, नवरं देसेसु अणिदियाणं आदिल्लविरहिओ। जे अरूवी अजीवा ते छबिहा, अद्धासमयो नत्थि / सेसं तं चेव सव्वं / [2 प्र.] भगवन् ! क्या लोक के पूर्वीय चरमान्त में जीव हैं, जीवदेश हैं, जीवप्रदेश हैं, अजीव हैं. अजीव के देश हैं और अजीव के प्रदेश हैं ? 2 उ.] गौतम ! वहाँ जीव नहीं हैं, परन्तु जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीव के देश हैं और अजीव के प्रदेश भी हैं। वहाँ जो जीव के देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश और द्वीन्द्रिय जीव का एक देश है। इत्यादि सब भंग दसवें शतक (के प्रथम उद्देशक के सू. 6) में कथित आग्नेयी दिशा की वक्तव्यता के अनुसार जानना चाहिए। विशेषता यह है कि 'बहुत देशों के विषय में अनिन्द्रियों से सम्बन्धित प्रथम भंग नहीं कहना चाहिए, तथा वहाँ जो अरूपी अजीव हैं, वे छह प्रकार के कहे गए हैं। वहां काल (अद्धासमय) नहीं है / शेष सभी उसी प्रकार जानना चाहिए / 3. लोगस्स णं भंते ! दाहिणिल्ले चरिमते कि जीवा० ? एवं चेव। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org