________________ दशम शतक : उद्देशक-६] [2 प्र. भगवन् ! देवेन्द्र देवराज शक्र कितनी महती ऋद्धि वाला यावत् कितने महान् सुख वाला है ? 2 उ.] गौतम ! वह महा-ऋद्धिशालो यावत् महासुख-सम्पन्न है। वह वहाँ बत्तीस लाख विमानों का स्वामी है; यावत् विचरता है। देवेन्द्र देवराज शक्र इस प्रकार को महाऋद्धि-सम्पन्न और महासुखी है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है !'; इस प्रकार कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरण करते हैं / विवेचन–सूर्याभ के अतिदेशपूर्वक शकेन्द्र तथा उसको सुधर्मासभा आदि का वर्णन-राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभदेव का विस्तृत वर्णन है। यहाँ शकेन्द्र के उपपात आदि के वर्णन के लिए उसी का अतिदेश किया गया है। अतः इसका समग्र वर्णन सूर्याभदेववत् समझना चाहिए / यहाँ पिछले सूत्र में सूर्याभदेववत् शक्र को ऋद्धि, सुख, द्युति आदि का वर्णन किया गया है।' / दशम शतक : छठा उद्देशक समाप्त // DO 1. (क) राजप्रश्नीयसूत्र (गुर्जरग्रन्थ.) पृ. 152-54 (ख) वियाहप. (मू. पा. टि.), भा, 2, पृ.५०४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org