________________ निर्वचनार्थ 588, योनि के सामान्यतया तीन प्रकार 588, प्रकारान्तर से योनि के तीन भेद 586, अन्य प्रकार से योनि के तीन भेद 589, उत्कृष्टता-निकृष्टता की दृष्टि से योनि के तीन प्रकार 586, चौरासी लाख जीवयोनियाँ 586, विविध वेदना : प्रकार एवं स्वरूप 586, प्रकारान्तर से त्रिविध वेदना 560, वेदना के पुनः तीन भेद हैं 560, वेदना के दो भेद 560, वेदना के दो भेद : प्रकारान्तर से 560, मासिक भिक्षुप्रतिमा की वास्तविक पाराधना 561, भिक्षुप्रतिमा : स्वरूप और प्रकार 561, अकृत्यसेवी भिक्षु : कब अनाराधक कब आराधक ? 562, पाराधकविराधक भिक्षु की छह कोटियां 563 / तृतीय उद्देशक---आत्मऋद्धि (सूत्र 1-16) 564-601 देवों की देवावासों की उल्लंघनशक्ति : अपनी और दूसरी 564, देवों का मध्य में से होकर गमनसामर्थ्य 565, विमोहित करने का तात्पर्य 567, देव-देवियों का एक दूसरे के मध्य में से होकर गमनसामर्थ्य 567, दौड़ते हुए अश्व के 'खु-खु' शब्द का कारण 566, प्रज्ञापनीभाषा : मृषा नहीं 596, बारह प्रकार की भाषाओं का लक्षण 600 / चतुर्थ उद्देशक-श्यामहस्ती (सूत्र 1-14) 602-606 श्यामहस्ती अनगार : परिचय एवं प्रश्न का उत्थान 602, चमरेन्द्र के त्रायस्त्रिशक देव : अस्तित्व, कारण एवं सदैव स्थायित्व 603, त्रास्त्रिश देवों का लक्षण 605, बलीन्द्र के प्रायस्त्रिशक देवों की नित्यता का प्रतिपादन 606, धरणेन्द्र से महाघोषेन्द्र-पर्यन्त के त्रायस्त्रिशक देवों की नित्यता का निरूपण 607, शकेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक के प्रायस्त्रिशक : कौन और कैसे ? 607, बायस्त्रिशक देव : किन देवनिकायों में ? 601 / पंचम उद्देशक---अग्रमहिषी वर्णन (सूत्र 1-35) 610-623 उपोद्घात : स्थविरों द्वारा पृच्छा 610, अपनी सुधर्मा सभा में चमरेन्द्र की मैथुननिमित्तक भोग की असमर्थता 611, चमरेन्द्र के सोमादि लोकपालों का देवी-परिवार 612, बलीन्द्र एवं उसके लोकपालों का देवी-परिवार 614, धरणेन्द्र और उसके लोकपालों का देवी-परिवार 615, भूतानन्दादि भवनवासी इन्द्रों तथा उनके लोकपालों का देवी-परिवार 616, व्यन्तरजातीय देवेन्द्रों के देवीपरिवार आदि का निरूपण 617, व्यंतरजातीय देवों के 8 प्रकार 616, इन आठों के प्रत्येक समुह के दो-दो इन्द्रों के नाम 620, चन्द्र-सूर्य-ग्रहों के देवी-परिवार आदि का निरूपण 620, शक्रेन्द्र और उसके लोकपालों का देवी-परिवार 621, ईशानेन्द्र तथा उसके लोकपालों का देवी-परिवार 622 / छठा उद्देशक-सभा (सूत्र 1-2) 624-625 सूर्याभ के अतिदेशपूर्वक शकेन्द्र तथा उसकी सुधर्मा सभा आदि का वर्णन 624 / सात-चौतीस उद्देशक-उत्तरवर्ती अन्तर्वीप (सूत्र 1) 626 उत्तरदिशावर्ती अट्ठाईस अन्तर्वीप (जीवाभिगमसूत्र के अनुसार) 626 / // समाप्तिसूचक // [30] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org