________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 7] [727 देवों के नाम कर्मक्षय करने का कालमान 13. उपरितन ग्रेवेयक देव 14. विजय-वैजयन्त-जयन्त-अपराजित देव 15. सर्वार्थसिद्ध देव तीन लाख वर्षों में चार लाख वर्षों में पांच लाख वर्षों में अनन्तकांश क्षय का तात्पर्य यह है कि देवों के पुण्यकर्म प्रकृष्टतर और प्रकष्टतम रस वाले होते हैं / अतः यहाँ अनन्तकर्माशों के क्षय करने का जो कालक्रम बताया है, वह उत्तरोत्तर प्रकृष्ट, प्रकृष्टतर और प्रकृष्टतम रसवाले कर्मों के क्षय का समझना चाहिए। __ जैसे व्यन्तरों के अनन्तकर्मपुद्गल अल्पानुभागवाले होने से शी .. खप जाते हैं / उनकी अपेक्षा भवनपतियों के अनन्त कर्मपुदगल प्रकृष्ट अनुभाग वाले होने से अधिक काल यानी 200 वर्षों में खपते हैं। 1 / अठारहवां शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त // 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 2, पृ. 821-822 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 753-754 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org