________________ 299 पच्चीसवां शतक : उद्देशक 3) {17 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [17 उ.] पूर्ववत् समझना। 18. एवं जाव अच्चुते / [18] (ईशान से लेकर) अच्युत तक इसी प्रकार कहना / 19. गेविज्जविमाणाणं भंते ! परिमंडला संठाणा ? एवं चेव / [16 प्र.] भगवन् ! ग्रे वेयक विमानों में परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं ? इत्यादि प्रश्न / [16 उ.] (गौतम ! ) पूर्ववत् जानना। 20. एवं अणुत्तरविमाणेसु / {20] इसी प्रकार यावत् अनुत्तरविमानों के विषय में भी कहना चाहिए। 21. एवं ईसिपब्भाराए वि। [21] इसी प्रकार यावत् ईषत्प्रारभारापृथ्वी के विषय में भी पूर्ववत् जानना ! विवेचन-निष्कर्ष-रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर ईषत्प्रारभारापृथ्वी तक में परिमण्डलादि पांचों संस्थान अनन्त होते हैं, संख्यात, असंख्यात नहीं।' यवमध्यगत परिमण्डलादि संस्थानों की परस्पर अनन्तता की प्ररूपणा 22. जत्य णं भंते ! एगे परिमंडले संठाणे जवमझे तत्थ परिमंडला संठाणा कि संखेज्जा, असंखेज्जा, अणंता? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। [22 प्र. भगवन् ! जहाँ एक यवाकार (जौ के आकार) परिमण्डलसंस्थान है, वहाँ अन्य परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, प्रसंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [22 उ.] गौतम ! ये संख्यात नहीं, असंख्यात भी नहीं, किन्तु अनन्त हैं। 23. पट्टा णं भंते ! संठाणा कि संखेज्जा, प्रसंखेज्जा०? एवं चेव। [23 प्र.] भगवन् ! वृत्तसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [23 उ.] गौतम ! पूर्ववत् समझना चाहिए। 24. एवं जाव आयता। [24 प्र.] इसी प्रकार यावत् आयतसंस्थान तक जानना / 1. बियाहपष्णत्तिसुत भा. 2, पृ. 977 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org