SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीसवां शतक : उद्देशक 6) विवेचन प्रस्तुत तीन अप्कायिक-विषयक सूत्रों (21 से 23 तक) में पृथ्वीकायिक-विषयक 12 सूत्रों (6 से 17 सू. तक) के अतिदेशपूर्वक निरूपण किया गया है। विशेष यह है कि यहाँ धनोदधिवलयों में अप्कायिकरूप से उत्पाद का निरूपण है। सत्तरहवें शतक के दसवें उद्देशक के अनुसार वायुकायिक जीवों के विषय में पूर्व-पश्चात् पाहार-उत्पाद-विषयक-प्ररूपरणा 24. वाउकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोहणित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे वाउकाइयत्ताए उववज्जित्तए० ? ___ एवं जहा सत्तरसमसए वाउकाइयउद्देसए (स० 17 उ० 10 सु०१)तहा इह वि, नवरं अंतरेसु समोहणावेयव्वो, सेसं तं चैव जाव अणुत्तरविमाणाणं ईसिपब्भाराए य पुढवीए अंतरा समोहए, समोह० 2 जे भविए अहेसत्तमाए घणवात-तणुवाते घणवातवलएसु तणुवायवलएसु वाउक्काइयत्ताए उववज्जित्तए, सेसं तं चेव, से तेण?णं जाव उववज्जेज्जा / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति।' // वोसइमे सए : छट्ठो उद्देसमो समतो // 20-6 // [24 प्र.] भगवन् ! जो वायुकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में वायुकायिक रूप से उत्पन्न होने योग्य हैं; इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न ? [24 उ.] गौतम ! जिस प्रकार सत्तरहवें शतक के दसवें वायुकायिक उद्देशक (के सूत्र 1) में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के अन्तरालों में मरणसमुद्घातपूर्वक कहना चाहिये / शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए। इस प्रकार यावत अनुत्तरविमानों और ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के मध्य में मरणसमृदयात करके जो वायुकायिक जीव अधःसप्तमपृथ्वी में घनवात और तनुवात तथा घनवातवलयों और तनुवातवलयों में वायुकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य है, इत्यादि सब कथन पूर्ववत जानना चाहिए, यावत्---'इस कारण उत्पन्न होते हैं।' ___ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र 24 में सत्तरहवें शतक के दसवें वायुकायिक उद्देशक के प्रतिदेशपूर्वक वायुकायिक जीव-विषयक निरूपण किया गया है / सभी आलापक पूर्ववत् ही हैं, किन्तु विशेष इतना ही है कि वायुकायिक जीव के विशेषण के रूप में घनवात-तनुवात तथा घनवात-तनुवात-वलयों में उत्पन्न होने योग्य-ऐसा निरूपण किया गया है / // वीसवां शतक : छठा उद्देशक समाप्त // 1. तीन उद्देशक-दूसरी वाचना के अभिप्रायानुसार यहाँ पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वायकायिक विषयक पृथक्-पृथक उद्देशक माने गए हैं। - अ. वृ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy