________________ दसमो उद्देसओ : 'अन्नउत्थिय' दशम उद्देशक : 'अन्ययूथिक' अन्यतीथिक कालोदायी की पंचास्तिकाय चर्चा और सम्बुद्ध होकर प्रव्रज्या स्वीकार 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्या / वण्णो / गुणसिलए चेइए / वण्णो / जाव पुढविसिलापट्टए / [1] उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए / वहाँ गुणशीलक नामक चैत्य था / उसका वर्णन भी समझ लेना चाहिए / यावत् (एक) पृथ्वीशिलापट्टक था। उसका वर्णन। 2. तस्स णं गुणसिलयस्स चेतियस्स प्रदरसामंते बहवे अन्नउस्थिया परिवसंति; तं जहाकालोदाई सेलोदाई सेवालोदाई उदए णामुदए नम्मुदए अन्नवालए सेलवालए संखवालए सुहत्थो गाहावई। [2] उस गुणशीलक चैत्य के पास थोड़ी दूर पर बहुत-से अन्यतीर्थी रहते थे / यथा---कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती गृहपति / 3. तए णं तेसि अन्नउत्थियाणं अन्नया कयाई एगयो सहियाणं समुवागताणं सन्निविट्ठाणं सन्निसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समध्यज्जित्था-"एवं खलु समणे णातपुत्ते पंच अस्थिकाए पण्णवेति, तं जहा-धम्मत्यिकायं जाव भागासस्थिकायं / तत्थ णं समणे णातपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अजीवकाए पण्णवेति, तं०-धम्मस्थिकायं अधम्मस्थिकार्य प्रगासस्थिकार्य पोग्गलस्थिकायं / एगं च समणे णायपुत्ते जीवत्थिकार्य अरूविकायं जीवकायं पन्नवेति / तत्थ णं समणे णायपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अरूविकाए पन्नवेति, तं जहा-धम्मस्थिकायं प्रधम्मत्थिकार्य प्रागास स्थिकायं जीवस्थिकायं / एगं च णं समणे णायपुत्ते पोग्गलस्थिकार्य रूविकायं प्रजीवकायं पन्नवेति / से कहमेतं मन्ने एवं ? / [3] तत्पश्चात् किसी समय वे सब अन्यतीर्थिक एक स्थान पर पाए, एकत्रित हुए और सुखपूर्वक भलीभाँति बैठे / फिर उनमें परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप प्रारम्भ हुा-'ऐसा (सुना) है कि श्रमण ज्ञातपुत्र (महावीर) पांच अस्तिकायों का निरूपण करते हैं; यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय / इनमें से चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र 'अजीव-काय' बताते हैं / जैसे कि-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय / एक जीवास्तिकाय को श्रमण ज्ञातपुत्र 'अरूपी' और जीवकाय बतलाते हैं। उन पांच अस्तिकायों में से चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र अरूपीकाय बतलाते हैं। जैसे किधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय / केवल एक पुद्गलास्तिकाय को ही श्रमण ज्ञातपुत्र रूपोकाय और अजीवकाय कहते हैं / उनकी यह बात कैसे मानी जाए? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org