________________ 274] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 114. [1] सोइंदियलधियाणं जहा इंदियलद्धिया (सु. 113) / [114-1] श्रोत्रेन्द्रियलब्धियुक्त जीवों का कथन इन्द्रियलब्धिवाले जीवों की तरह (सू. 113 के अनुसार) करना चाहिए। [2] तस्स अलधिया गं० पुच्छा। गोयमा! नाणी वि अण्णाणी वि / जे नाणी ते प्रत्येगतिया दुनाणी, अत्यंगतिया एगन्नाणी। जे दुन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी / जे एगनाणी ते केवलनाणी। जे अण्णाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तं जहा--मइअण्णाणी य, सुतअण्णाणी य / [114-2 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रियलब्धिरहित जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [114-2 उ.] गौतम ! वे ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं / जो ज्ञानी होते हैं, उनमें से कई दो ज्ञान वाले होते हैं, और कई एक ज्ञान वाले होते हैं। जो दो ज्ञान वाले होते हैं, वे प्राभिनिबोधिकज्ञानी और श्रतज्ञानी होते हैं। जो एक ज्ञान वाले होते हैं, वे केवलज्ञानी होते हैं। जो अज्ञानी होते हैं, वे नियमतः दो अज्ञानवाले होते हैं / यथा-मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान / 115. चक्खिदिय घाणिदियाण लधियाणं अलधियाण य जहेव सोइंदियस्स (सु. 114) / [115] चक्षुरिन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय-लब्धि वाले जीवों का कथन श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमान् जीवों के समान (सू. 114 की तरह) करना चाहिए / चक्षुरिन्द्रिय घ्राणेन्द्रियलब्धिरहित जीवों का कथन श्रोत्रेन्द्रियल ब्धिरहित जीवों के समान करना चाहिए। 116. [1] जिभिदियलधियाणं चत्तारि गाणाई, तिण्णि य अण्णाणाणि भयणाए / [116-1] जिह्वन्द्रियलब्धि बाले जीवों में चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। [2] तस्स अलधिया नं० पुच्छा। गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी चि / जे नाणी ते नियमा एगनाणी-केवलनाणी / जे अण्णाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तं जहा-मइअण्णाणी य, सुतमन्नाणो य। [116-2 प्र.] भगवन् ! जिह्वन्द्रियल ब्धिरहित जीव ज्ञानी होते हैं या अज्ञानी ? [116-2 उ.] गौतम वे ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी होते हैं, वे नियमतः एकमात्र केवलज्ञान वाले होते हैं, और जो अज्ञानी होते हैं, वे नियमत: दो अज्ञान वाले होते हैं, यथा--मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान / 117. फासिदियलधियाणं अलधियाणं जहा इंदियलधिया य अलधिया य (सु. 113) / [117] स्पर्शेन्द्रियलब्धि-युक्त जीवों का कथन इन्द्रियलब्धि वाले जीवों के समान (सू. 113 के अनुसार) करना चाहिए। (अर्थात् उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाए जाते हैं / ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org