________________ दशम शतक : उद्देशक-३] [597 10. बाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिएणं एवं चेव (सु. 9) / [10] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी इसी प्रकार (सू. 6 के अनुसार) कहना चाहिए। विवेचन-अल्पद्धिक, महद्धिक और सद्धिक देवों का एक दूसरे के मध्य में हो कर गमनसामर्थ्य प्रस्तुत पांच सूत्रों (6 से 10 तक) में मध्य में हो कर गमनसामर्थ्य के विषय में मुख्यतया 4 पालापक प्रस्तुत किये गए हैं--(१) अल्प ऋद्धिक देव महद्धिक देव के साथ, (2) समद्धिक समद्धिक के साथ (3) महद्धिक देव का अल्पद्धिक देव के साथ और (4) अल्पद्धिक चारों जाति के देवों का स्व-स्व जातीय महद्धिक देवों के साथ / इन सूत्रों का निष्कर्ष यह है कि अद्धिक देव महद्धिक देव के बीचोंबीच हो कर नहीं जा सकते / महद्धिक देव अपद्धिक देव के बीचोंबीच हो कर उसे पहले या पीछे बिमोहित करके या विमोहित किये बिना भी जा सकते हैं। सद्धिक सद्धिक देव के बीचोंबीच हो कर पहले उसे विमोहित करके जा सकता है, बशर्ते कि जिसके बीचोंबीच होकर जाना है, वह असावधान हो / ' विमोहित करने का तात्पर्य-विमोहित का यहाँ प्रसंगवश अर्थ है--विस्मित करना, अर्थात् महिका (धूअर) आदि के द्वारा अन्धकार करके मोह उत्पन्न कर देना / उस अन्धकार को देख कर सामने वाला देव विस्मय में पड़ जाता है कि यह क्या है ? ठीक उसी समय उसके न देखते हुए ही बीच में से निकल जाना, विमोहित करके निकल जाना कहलाता है / देव-देवियों का एक दूसरे के मध्य में से होकर गमन सामर्थ्य 11. अप्पिड्डीए णं भंते ! देवे महिड्डीयाए देवीए मज्झमझेणं बीतीवएज्जा ? जो इणठे समठे। [11 प्र.] भगवन्! क्या अल्प-ऋद्धिक देव, महद्धिक देवी के मध्य में हो कर जा सकता है ? [11 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं / 12. समिडीए णं भंते ! देवे समिडीयाए देवीए मज्झमझेण ? एवं तहेव देवेण य देवीए य दंडओ भाणियब्वो जाव मागियाए। 12 प्र.] भगवन् ! क्या सद्धिक देव, सद्धिक देवी के बीचोंबीच हो कर जा सकता है ? [12 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त प्रकार से (सू. 7 के अनुसार) देव के साथ देवी का भी दण्डक यावत् वैमानिक-पर्यन्त कहना चाहिए / 13. अप्पिड्डिया णं भंते ! देवो महिड्डीयस्स देवस्स मज्झमझेणं० ? एवं एसो वि तइयो दंडओ भाणियब्यो जाव महिडिया वेमाणिणी अप्पिवियस्स वेमाणियस्स मज्झमझिणं वीतीवएज्जा? हंता, वीतीवएज्जा। 1. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 499 2. वही, पत्र 499 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org