________________ [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 81. नोसनीनोअसन्नी जीवपदे सिद्धपदे य अचरिमो, मणुस्सपदे चरिमो, एगस-पुहत्तेणं / [81] नो-संजी-नो-प्रसंज्ञी जीवपद और सिद्धपद में अचरम है, मनुष्यपद में, एकवचन और बहुवचन से चरम हैं। 82. सलेस्सो जाव सुक्कलेस्सो जहा आहारओ (सु० 72), नवरं जस्स जा अस्थि / [82] सलेश्यी, यावत् शुक्ललेश्यी की वक्तव्यता आहारकजीव (सू. 72 में वर्णित) के समान है / विशेष यह है कि जिसके जो लेश्या हो, वही कहनी चाहिए। 83. अलेस्सो जहा नोसण्णी-नोप्रसण्णी / [83] अलेश्यी, नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी के समान हैं / 84. सम्मट्ठिी जहा अगाहारो (सु०७३-७४) / [84] सम्यग्दृष्टि, (सू. 73-74 में उल्लिखित) अनाहारक के समान हैं। 85. मिच्छादिट्ठी जहा आहारओ (सु० 72) / [85] मिथ्यादृष्टि, (सू. 72 में उल्लिखित) अाहारक के समान हैं। 86. सम्मामिच्छट्टिी एगिदिय-विलिदियवज्जं सिय चरिमे, सिय अचरिमे। पुहत्तेणं चरिमा वि, अचरिमा वि। __ [86] सम्यग्-मिथ्यादृष्टि, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर (एकवचन से) कदाचित् चरम और कदाचित् अचरम हैं / बहुवचन से वे चरम भी हैं और अचरम भी। 87. संजनो जीवो मणुस्सो य जहा आहारओ (सु०७२) / [87] संयत जीव और मनुष्य, (सू. 72 में उल्लिखित) आहारक के समान हैं / 88. असंजतो वि तहेव। [87] असंयत भी उसी प्रकार है / 89. संजयासंजतो वि तहेव; नवरं जस्स जं अस्थि / [88] संयतासंयत भी उसी प्रकार है / विशेष यह है कि जिसका जो भाव हो, वह कहना चाहिए। 90. नोसंजय-नोअसंजय नोसंजयासंजओ जहा नोभवसिद्धीय-नोप्रभवसिद्धीयो (सु० 78) / [60] नो-संयत-नोप्रसंयत-नोसंयतासंयत, नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक के समान (सू. 78 के अनुसार) जानना चाहिए। 91. सकसायी जाव लोभकसायी सव्वट्ठाणेसु जहा आहारो (सु० 82) / [91] सकषायी यावत् लोभकषायी, इन सभी स्थानों में, आहारक के समान (सू. 72 के अनुसार) हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org