SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2421
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौवीसवां शतक : उद्देशक 20] [223 गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएसु, उक्कोसेणं पुषकोडीआउएसु उपयज्जेज्जा। |3 प्र. भगवन् ! रत्नप्रभा-पृथ्वी का नैरयिक, जो पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च-योनिकों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले (पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों) में उत्पन्न होता है ? 13 उ. गौतम ! वह जघन्य अन्तमहत्तं की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है / 4. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उबव० ? एवं जहा असुरकुमाराणं वत्तव्वया / नवरं संघयणे पोग्गला अणिद्वा अकंता जाव परिणमंति / ओगाहणा दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-भवधारिज्जा य उत्तरवेउब्धिया य। तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं सत्त धणई तिन्नि रयणीयो छच्च अंगुलाई / तत्थ णं जा सा उत्तरबेउब्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जतिभाग, उक्कोसेणं पन्नरस धणूई अड्डातिज्जाप्रो य रयणीयो। [4 प्र.] भगवन् ! वे जीव, एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [4 उ. जैसे असुरकूमारों की वक्तव्यता कही है, वैसे यहां भो कहनी चाहिए / विशेष यह है कि (रत्नप्रभा नैरयिकों के) संहनन में अनिष्ट और प्रकान्त (अप्रिय) पुद्गल यावत् परिणमन करते हैं। उनकी अवगाहना दो प्रकार की कही गई है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / उनमें से जो भवधारणीय अवगाहना है, वह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सात धनुष, तीन रत्नि (हाथ) और छह अंगुल की होती है। उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष ढाई हाथ (रत्नि) की होती है। 5. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा किसंठिया पन्नता? गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउम्विया य। तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया पन्नत्ता। तत्य णं जे ते उत्तरवेउम्विया ते वि इंडसंठिया पन्नत्ता। एगा काउलेस्सा पन्नत्ता। समुग्धाया चत्तारि / नो इथिवेदगा, नो पुरिसवेदगा; नपुसगवेदगा। ठिती जन्नणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सागरोवर्म। एवं अणुबंधो वि। सेसं तहेव / भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवगहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवम्गहणाई कालाएसेणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं चत्तारि सागरोवमाई चहिं पुवकोडीहि अमहियाई, एवतियं० / [पढ़मो गमप्रो]। [5 प्र.] भगवन् ! उन जीवों के शरीर किस संस्थान वाले होते हैं ? ; इत्यादि प्रश्न / [5 उ. गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के कहे गए हैं—भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / दोनों प्रकार के शरीर केवल हुण्डक-संस्थान वाले होते हैं / उनमें एक मात्र कापोतलेश्या होती है / चार समुद्घात होते हैं / वे स्त्रीवेदी तथा पुरुषवेदी नहीं होते, केवल नपुसकवेदी होते हैं / उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम की होती है / अनुबन्ध भी इसी प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy