SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्तरसमो : बेइंदिय-उद्देसओ सत्तरहवाँ उद्देशक : द्वीन्द्रियों में उत्पादादि सम्बन्धी दीन्द्रियों में उत्पन्न होनेवाले दण्डकों में उपपात-परिमारणादि बोस द्वारों की प्ररूपणा 1. बेइंदिया णं भंते ! कोहितो उववज्जति ? 0 जाव पुढविकाइए णं भंते ! जे भविए बेइंदिएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! केवति० ? स च्चेव पुढविकाइयस्स लद्धी जाव कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं संखेज्जाइं भवग्गहणाई; एवतियं० / [1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव कहाँ से आ कर उत्पन्न होते हैं, इत्यादि, यावत्---हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, जो द्वीन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होने योग्य हो, तो कितने काल की स्थिति वाले द्वीन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! यहाँ पूर्वोक्त (पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने योग्य) पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता के समान, यावत् कालावेश से-जघन्य दो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात भव, इतने काल तक यावत् गमनागमन करते हैं / ___2. एवं लेसु चेव चउसु गमएसु संवेहो, सेसेसु पंचसु तहेव प्रट्ठ भया / एवं जाव चतुरिदिएणं समं चउसु संखेज्जा भवा, पंचसु अटु भवा, पंचेंदियतिरिक्खाजोणिय-मणुस्सेसु समं तहेव अट्ठभवा / देवेसु न चेव उववज्जति, ठिति संवेहं च जाणेज्जा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति० / // चउवीसइमे सए : सत्तरसमो उद्देसओ समत्तो॥ 24-17 // [2] जिस प्रकार (पृथ्वीकायिक के साथ द्वीन्द्रिय का संवेध कहा गया है,) इसी प्रकार पहला, दूसरा, चौथा और पाँचवाँ इन चार गमकों में संवेध जानना चाहिए। शेष पांच गमकों में उसी प्रकार आठ भव होते हैं। पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों और मनुष्यों के साथ पूर्वोक्त आठ भव जानना चाहिए / देवों से च्यव कर आया हुआ जीव द्वीन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता। यहाँ स्थिति और संवेध पहले से भिन्न है। ___भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है'; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-स्पष्टीकरण-पृथ्वीकायिक जीव के पृथ्वीकायिक जीव में ही उत्पन्न होने की वक्तव्यता के समान द्वीन्द्रिय में उत्पन्न होने के विषय में भी जानना चाहिए तथा पृथ्वीकायिक जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy