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________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 20] [235 37/ यदि वही (उत्कृष्ट स्थिति वाला संज्ञी पं. तिर्यञ्च) जघन्य काल की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न हो, तो उसके विषय में भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि कालादेश से-जघन्य अन्तर्मुहर्त अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्वकोटि, इतने काल तक यावत् गति-प्रागति करता रहता है। [अष्टम गमक] 38. सो चेव उक्कोसकालद्वितीएसु उववन्नो, जहन्नेणं तिपलिनोवमद्वितीएसु, उक्कोसेण वि तिपलिग्रोवमट्टितीएसु / अवसेसं तं चेव, नवरं परिमाणं प्रोगाणा य जहा एयरसेव ततियगमए / भवाएसेणं दो भवगहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं तिणि पलिओवमाइं पुत्वकोडीए अब्भहियाई, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुवकोडीए अन्भहियाई; एवतियं० / [नवमो गमत्रो]। [38] यदि वह (उत्कृष्टकाल की स्थिति वाला सं. पं. ति.), उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न हो तो वह जघन्य और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले सं. पं. तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है। शेष सब पूर्वोक्त कथनानुसार जानना / विशेष यह है कि परिमाण और अवगाहना इसी के तीसरे गमक में कहे अनुसार समझना। भवादेश से-दो भव, और कालादेश से-जघन्य और उत्कृष्ट पूर्वकोटि-अधिक तीन पल्योपम, इतने काल तक यावत् गतिआगति करता रहता है। [नौवाँ गमक विवेचन-विशेष तथ्यों का स्पष्टीकरण-(१) संजी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, संख्यात-वर्ष की आयु वाले पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों से उत्पन्न होते हैं / (2) वह तीन पल्योपम की स्थिति तक में उत्पन्न हो सकते हैं। (3) संख्यात ही क्यों ?---उत्कृष्ट स्थिति वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च असंख्यात वर्ष के आय वाले ही होते हैं और वे (परिमाण में संख्यात होने से उत्कृष्ट रूप से भी संख्यात ही उत्पन्न होते हैं। (4) अवगाहना--सं. पं. तिर्यञ्च में उत्पन्न होने वाले संज्ञी पंचेन्द्रियतिथंचों को अवगाहना, रत्नप्रभा में उत्पन्न होने वाले संज्ञी ति, पं. के समान नहीं होती, क्योंकि वहाँ संज्ञो ति. पं. की अवगाहना केवल सात धनुष की बतलाई गई है, जबकि यहाँ उत्कृष्टत: एक हजार योजन की है, यह मत्स्य प्रादि को अपेक्षा से कही गई है। (5) संजी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च से प्राता हो तो भी पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिए / पहले और सातवें गमक में कालादेश सात पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम होता है। तीसरे और नौवें गमक में उत्कृष्ट संख्यात ही उत्पन्न होते हैं और भत्र भी दो ही होते हैं / अतः दो भवों का ही कालादेश कहना चाहिए। शेष गमकों में यौगलिक पं. तिर्यञ्च नहीं होते / अतः उनकी स्थिति का आकलन विचारपूर्वक करना चाहिए।' मनुष्य की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकों में उत्पत्तिनिरूपण 36. जदि मणुस्सेहितो उववज्जति कि सण्णिमगु०, असण्णिमणु० ? गोयमा ! सण्णिमणु०, असण्णिमणु / [36 प्र.] भगवन् ! यदि संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च, मनुष्यों से प्राकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या संज्ञी मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं या असंज्ञी मनुष्यों से ? 1. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्र 841 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भाग 6, पृ. 3134 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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