________________ 404]] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दोनों पहियों के एक साथ जुड़ने पर ही रथ चलता है तथा अन्धा और पंगु दोनों मिल कर ही अभीष्ट नगर में प्रविष्ट हो सकते हैं। ये दो दृष्टान्त दे कर वृत्तिकार श्रुत और शील दोनों के एक साथ समायोग को ही अभीष्ट फलदायक मानते हैं।' श्रुत-शील की चतुर्भगी का प्राशय---(१) प्रथम भंग का स्वामी शीलसम्पन्न है, श्रुतसम्पन्न नहीं, उसका आशय यह है कि वह भावतः शास्त्रज्ञान प्राप्त किया हुआ या तत्त्वों का विशेष ज्ञाता नहीं है, अत: स्वबुद्धि से ही पापों से निवृत्त है। मूलपाठ में उक्त 'अविण्णायधम्म' पद से यह स्पष्ट होता है, कि जिसने धर्म को विशेष रूप नहीं जाना, वह (अविज्ञातधर्मा) साधक मोक्ष-मार्ग को देशत:--अंशतः अाराधना करने वाला है। अर्थात--जो चारित्र की श्राराधना करता है, किन्तु विशेषरूप से ज्ञानवान् नहीं है (उससे ज्ञान की आराधना विशेष रूप से नहीं होती।) अथवा स्वयं अगीतार्थ है, इसलिए गीतार्थ के निश्राय में रहकर तपश्चर्यारत रहता है / इस भंग का स्वामी मिथ्यादृष्टि नहीं, किन्तु सम्यग्दृष्टि है। (2) दूसरे भंग का स्वामी शीलसम्पन्न नहीं, किन्तु श्रुतसम्पन्न है, वह पापादि से अनिवृत्त है, किन्तु धर्म का विशेष ज्ञाता है। इसलिए उसे यहाँ देशविराधक कहा गया है, क्योंकि वह ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप रत्न-त्रय जो मोक्षमार्ग है, उसमें से तृतीय भागरूप चारित्र की विराधना करता है, अर्थात्-प्राप्त हुए चारित्र का पालन नहीं करता, अथवा चारित्र को प्राप्त ही नहीं करता। इस भंग का स्वामी अविरतिसम्यग्दृष्टि है, अथवा प्राप्त चारित्र का अपालक श्रुतसम्पन्नसाधक है। (3) तृतीय भंग का स्वामी शीलसम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी। वह उपरत है तथा धर्म का भी विशिष्ट ज्ञाता है। अतः वह सराधक है; क्योंकि वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय-मोक्षमार्ग की सर्वथा पाराधना करता है। (4) चतुर्थ भंग का स्वामी शील और श्रुत दोनों से रहित है / वह अनुपरत है और धर्म का विज्ञाता भी नहीं ; क्योंकि श्रुत (सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन) से रहित पुरुष न तो विज्ञातधर्मा हो सकता है और न ही सम्यकचारित्र की आराधना कर सकता है। इसलिए रत्नत्रय का विराधक होने से वह सर्वविराधक माना गया है / 1. (क) भगवती सूत्र प्र. वृत्ति, पत्रांक 417-418 (ख) क्रियेव फलदा पुला न ज्ञानं फलदं मतम् / स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत् // 1 // विज्ञप्तिः फलदा पुसा, न क्रिया फलदा मता / मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् // 2 // (ग) 'जानक्रियाभ्यां मोक्षः।' 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' ---तत्त्वार्थसूत्र अ.१.स.१ (घ) नाणं पयासयं, सोहयो तवो, संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हंपि समानोगे मोक्खो जिणसासणे भणियो। (ड) संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ / अंधो य पंग य बणे समिच्चा,ते संपउत्ता नगरं पविट्रा / / 2. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 418 (ख) भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 3, पृ. 1541-1542 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org