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________________ | व्याख्याप्रमस्तिसूत्र तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न हो, तो जघन्य और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति वाले संजी-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होता है। 21. ते णं भंते ! जीवा ? एवं जहा रयणप्पभाए उववज्जमाणस्स असन्निस्स तहेव निरवसेसं जाव कालादेसो ति, नवरं परिमाणे-जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / सेसं तं चैव / तइयो गमओ] [21 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [21 उ.] जैसे रत्नप्रभा-पृथ्वी में उत्पन्न होने वाले असंजी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार की वक्तव्यता यहाँ यावत-कालादेश तक कहनी चाहिए। परन्त परिमाण के सम्बन्ध में विशेष यह है कि वह जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। शेष सब पूर्ववत् जानना ! [ तृतीय गमक ] 22. सो चेव अप्पणा जहन्नकालद्वितीओ जाओ, जहन्नेणं अंतोमुत्तद्वितीएस, उक्कोसेणं पुवकोडिआउएसु उवव० / [22] यदि वह स्वयं (असंज्ञी पं. तिर्यञ्च) जघन्यकाल की स्थिति वाला हो, तो जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि वर्ष की स्थिति वाले सं. पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च में उत्पन्न होता है। 23. ते णं भंते !? प्रवसेसं जहा एयस्स पुढविकाइएसु उथवज्जमाणस्स मज्झिमेसु तिसु गमएसु तहा इह वि मज्झिमेसु तिसु गमएलु जाव अणुबंधो ति। भवाएसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ट भवग्गहणाई। कालाएसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुत्वकोडीनो चहि अंतोमुहहिं अमहियाओ। [चउत्थो गमत्रो] / [23 प्र.] भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [23 उ.] पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होने वाले जघन्य स्थिति के असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के बिचले तीन गमकों (4-5-6) में जिस प्रकार कथन किया गया है, उसी प्रकार यहां भी तीनों ही गमकों में यावत् अनुबन्ध तक सब कहना चाहिए। भवादेश से-जघन्य दो भव और उत्कृष्ट आठ भव ग्रहण करता है, तथा कालादेश से--जघन्य दो अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त अधिक चार पूर्व कोटि वर्ष ; इतने काल तक यावत् गमनागमन करता है / चतुर्थ गमक ] 24. सो चेव जहन्नकाल ट्रितीएस उववन्नो, एस चेव वत्तब्वया, नवरं कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं अट्ठ अंतोमुत्ता; एवतियं / [पंचमो गमयो / [24] यदि वह (असंज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) जघन्य काल की स्थिति बाले सं. पंचेन्द्रियतिरंञ्चों में उत्पन्न हो, तो उसके विषय में भी यही वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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