________________ छठा शतक : उद्देशक-१] [11 12. देवा सुभेणं सातं / [12] देव (चारों प्रकार के देव) शुभ करण द्वारा सातावेदना वेदते हैं / विवेचन-चौबीस दण्डकों में करण की अपेक्षा साता-सातावेदन को प्ररूपणा-प्रस्तुत पाठ सूत्रों (सू. 5 से 12 तक) में करण के चार प्रकार बता कर समस्त संसारी जीवों में इन्हीं शुभाशुभ करणों के द्वारा साता-असातावेदना के वेदन की प्ररूपणा की गई है। चार करणों का स्वरूप-वेदना का मुख्य कारण करण है, फिर चाहे वह शुभ हो या अशुभ / मनसम्बन्धी, वचन-सम्बन्धी, काय-सम्बन्धी और कर्म विषयक ये चार करण होते हैं संक्रमण प्रादि में निमित्तभूत जीव के वीर्य को कर्मकरण कहते हैं।' जीवों में वेदना और निर्जरा से सम्बन्धित चतुभंगी का निरूपरण ___13. [1] जीवा गं भंते ! कि महावेदणा महानिज्जरा ? महावेदणा अप्पनिज्जरा ? प्रत्यवेदणा महानिज्जरा? अप्पवेदणा अध्पनिज्जरा? गोयमा ! प्रत्येगइया जीवा महावेदणा महानिज्जरा, प्रत्थेगइया जीवा महावेयणा अप्पनिज्जरा, प्रत्येगइया जीवा अप्पवेदणा महानिज्जरा, प्रत्थेगइया जीवा अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा / [13-1 प्र.] भगवन् ! जीव, (क्या) महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं, महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं, अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं, अथवा अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं ? [13-1 उ.] गौतम ! कितने ही जीव महावेदना और महानिर्जरा वाले हैं, कितने ही जीव महावेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं, कई जीव अल्पवेदना और महानिर्जरा वाले हैं तथा कई जीव अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा वाले हैं। [2] से केपट्टणं०? गोयमा ! पडिमापडिवनए प्रणगारे महावेदणे महानिज्जरे। छठ्ठ-सत्तमासु पुढवीसु नेरइया महावेदणा अल्पनिज्जरा / सेलेसि पडिबन्नए अगगारे अप्पवेदणे महानिज्जरे / अणुत्तरोववाइया देवा अप्पवेदणा अप्पनिज्जरा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। [13-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? [13-2 उ.] गौतम ! प्रतिमा-प्रतिपन्न (प्रतिमा अंगीकार किया हुआ) अनगार महावेदना और महानिर्जरा वाला होता है। छठी-सातवीं नरक-पृथ्वियों के नैरयिक जीव महावेदना वाले, किन्तु अल्पनिर्जरा वाले होते हैं। शैलेशी अवस्था को प्राप्त अनगार अल्पवेदना और महानिर्जरा 1. भगवती सूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 252 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org