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________________ पंचम शतक : उद्देशक-६ ] [465 इसके अतिरिक्त अल्प-पायु के जो दो प्रारम्भिक कारण-प्राणातिपात और मृषावाद बताए गए हैं, वे भी यहाँ सभी प्रकार के प्राणातिपात और मृषाबाद नहीं लिए जाते, अपितु प्रसंगोपात्त तथारूप श्रमण को आहार देने के लिए जो वाधाकर्मादि दोषयुक्त श्राहार तैयार किया जाता है, उसमें जो प्राणातिपात होता है उसका, तथा वह दोषयुक्त प्राहार साधु को देने के लिए जो झूठ बोला जाता है कि यह हमने अपने लिए बनाया है, आपको तनिक भी शंका नहीं करनी चाहिए; इत्यादि रूप से जो मृषावाद होता है, उसका यहाँ ग्रहण किया गया है।' कि आगे के अशुभ-दीर्घायु तथा शुभ दीर्घायु के कारण बताने वाले दो सूत्रों में प्रासुक एषणीय तथा अप्रासुक अनेषणीय का उल्लेख नहीं है / वहाँ केवल प्रीतिकर या अप्रीतिकर आहार देने का उल्लेख है / इसलिए यहां जो प्रीतिपूर्वक मनोज्ञ पाहार, अप्रासुक अनेषणीय दिया जाता है, उसे शुभ अल्पायु-बन्ध का कारण समझना चाहिए, शुभ अल्पायुबन्ध का कारण नहीं। दूसरे सूत्र में दीर्घ-बाय-बन्ध के कारणों का कथन है, वह भी शुभ दीर्घायु समझनी चाहिए जो जीवदया आदि धार्मिक कार्यों को करने से होती है। जैसे कि लोक में दीर्घायुष्क पुरुष को देखकर कहा जाता है, इसने पूर्वजन्म में जीवदयादिरूप धर्मकृत्य किये होंगे। देवगति में अपेक्षाकृत शुभ दीर्घायु होती है / च कि अवहीलना, अवज्ञा मात्सर्य आदि करके दान देने में जो प्राणातिपात एवं मृषावाद की क्रियाएँ देखी जाती हैं, वे नरकगति का कारण होने से अशुभ दीर्घायु हो सकती हैं / अन्य ग्रन्थों में भी इसो तथ्य का समर्थन है। विक्रेता और क्रेता को विक्रेय माल से सम्बन्धित लगने वाली क्रियाएँ 5. गाहावतिस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स केइ भंडं अवहरेज्जा, तस्स णं मते ! तं भंड अणुगवेसमाणस्स कि प्रारंभिया किरिया कन्जइ ? पारिग्गहिया०, मायावत्तिया०, अपच्चपखा०, मिच्छादसण. ? ____ गोयमा ! प्रारंभिया किरिया कज्जइ, पारि०, माया०, प्रपच्च०; मिच्छादंसकरिया सिय कज्जति, सिय नो कज्जति / अह से भंडे अभिसमन्नागते भवति ततो से पच्छा सव्वानो तातो पयणुई भवति / 1. तथाहि प्राणातिपाताधाकर्मादिकरणतो मृषोक्त यथा-साधो! स्वार्थ सिद्धमिदं भक्तादि, कल्पनीयं वा, नाशका कार्या'–स्थानांग. टीका 2. (क) अनुस्वय-महावएहि य बालतवो अकामणिज्जराए य / देवाउयं निबंधइ, सम्मदिट्टीय जो जीवो। -भगवती टीका, पत्रांक 226 (ख) समणोवासगस्स लहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएणं असण-पाण-खाइम साइमेणं पडिलामेमाणस्स कि कज्जइ ? गोयमा ! एगंतसो णिज्जरा कज्जइ। -भगवतीसूत्र, पत्रांक 227 3. 'मिच्छदिट्ठी महारंभपरिग्गहो तिब्बलोभनिस्सीलो / निरयाउयं निबंधइ, पावमई रोद्दपरिणामो // ' -भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 227 में उद्धत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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