________________ तीसवां शतक : उद्देशक 1] के दोनों समवसरणों (प्रक्रियावादी एवं अज्ञानवादी) में भवसिद्धिक हैं, अभवसिद्धिक नहीं। शेष सब पूर्ववत् जानना / 123. पंचेंदियतिरिवखजोणिया जहा नेरइया, नवरं जं अस्थि / [123] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव नैरयिकों के सदृश (जानना,) किन्तु उनमें जो बोल पाये जाते हों, (वे सब कहने चाहिए)। 124. मणुस्सा जहा प्रोहिया जीवा / {124! मनुष्यों का कथन औधिक जीवों के समान है / 125. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। // तीसइमे सए : पढमो उद्देसओ समत्तो // 30-1 // [125) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का निरूपण असुरकुमारों के समान जानना / 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-भवसिद्धिक एवं प्रभवसिद्धिक का निरूपण-प्रस्तुत 32 सूत्रों (64 से 125 तक) में क्रियावादी आदि चारों तथा लेश्या प्रादि 11 स्थानों में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक की चर्चा की गई है / सभी सूत्र स्पष्ट हैं / भवसिद्धिक और प्रभवसिद्धिक का अर्थ भव्य और अभव्य है। / तीसवाँ शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त // Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org