________________ बाम शतक : उद्देशक-१] [ 585 19, पोरालियसरीरे गं भंते ! कतिविहे पाणते? एवं ओगाहणसंठाणपदं निरक्सेसं भाणियचं नाव अप्पाबहुगं ति।। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। ॥दसमे सए पढमो उद्देसो समत्तो // 10-1 / / [16 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [16 उ.] (गौतम !) यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के (२१वें) अवगाहन-संस्थान-पद में वर्णित समस्त वर्णन यावत् अल्पबहुत्व तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! विवेचन–शरीर : प्रकार तथा अवगाहनादि----प्रस्तुत दो सूत्रों (18-19) में शरीर सम्बन्धी प्ररूपणा प्रज्ञापनासूत्र के 21 वें अवगाहनसंस्थानपद का अतिदेश करके की गई है। वहाँ शरीर के औदारिक प्रादि 5 प्रकार, उनका संस्थान (प्राकार), प्रमाण, पुदगलचय, शरीरों का पारस्परिक संयोग, द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ, तथा अल्पबहुत्व एवं शरीरों की अवगाहना आदि द्वारों के माध्यम से विस्तृत वर्णन किया गया है / वही समग्र वर्णन अल्पबहुत्व तक यहाँ करना चाहिए।' // दशम शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त / / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र : अवगाहन-संस्थानपद, 21, सू. 1474-1566, पृ. 328-349 (महा. जै. विद्यालय) (ख) संग्रहगाथा--कइ 1 संठाण 2 पमाणं 3, पोपलचिणणा 4 सरीरसंजोगो 5 / ___दव्व-पएसऽपबहुं 6 सरीरोगाहणाए य // 1 // --भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 495 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org