Book Title: Mularadhna
Author(s): Shivkoti Acharya, 
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. MISHRUN 25 REA - recxi .. ... " Preen .:. .. श्री स्वामी देवेदकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रंथमाला-२. श्रीशिवकोटि आचार्य-विरचित. मलाराधना. (अपरनाम भगवती आराधना) श्रीअपराजितरिकृत विजयोवया टीका, और महापंडित आशावरकृत मूलाराधना वर्षण, और आचार्य अमितगतिमान सकता लोक,भाषादीकासहित काकासाहत ESSAY Tोप भाषादीकासहित Tagsires smrsersey 20ma Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hi योत्कर्षच्छ, लोकाच्या दाराप्रथावर अवलंबून आहे. या मालेतर्फे । नागकुमार चरित' हा प्रथ-माखनमाका आहे. आणि हे दुसरे पुष्प श्री. राराबजी सखाराम दोशी यांच्या उधार द्रव्यसाहाय्यामुळेच पाचकाच्या हाती : परत आहे. यामक पोशी महामति । हाल र मामारी मा.. ..श्री.पं. जिनदास पाधताय फरकुले यांनी अनुवाद केल्याबरल मंडळ त्यांचेही मामारी आहे. तसेच ग्वा ज्या 'धर्मप्रेमी बांधवांनी या प्राय प्रकाशना या काय मदत केली त्या साव फारआभारी आहे. . ' कोण्या धर्मप्रेमी बांधवास प्रथाचा जीर्णोद्धार करण्याची मनीषा झाल्यास त्यांनी मंत्रीकडे पाध्यवहार करावा म्हणजे त्यांना संस्थेचे उद्देश व नियम यांचा खुलासा करण्यात येईल. .. . कारंजा प्रस्तावक . . ता.११११ । १९३५. . . रतनलाल नरसिमसाराऊळ: - . . मंत्री-बलात्कारगण अंध प्रकाशक मंडळ कारंजा, माना जा Ritesi visit : सहा सोनाम लामासंग MES पकाला अमरावती कारंजा.. बाबुसा टी . कारंजा ANS .. CHAIR mare Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना १ प्रस्तावना. --+++++ यह महान् मंथ मूलाराधना अथवा भगवती आराधना इस नाम से प्रसिद्ध है. जैसे मुनिओंके प्रधान आचार विशेष को मूलगुण कहते हैं. वैसे मोक्षप्राप्ति के लिये रत्नत्रय प्रधान कारण होनेसे उसको मूल कहते हैं. इस मूलभूत रत्नश्य की प्राप्ति जिससे होती है ऐसे उपायों को आराधना कहते हैं. इस ग्रंथ में मूलभूत रत्नत्रय की प्राप्ति होने के उपायोंका सविस्तर वर्णन किया है अतः इसको मुढाराधना यह अन्वर्थ नाम दिया गया है. अत एव पं. आशा घरजीने इस अंध का मुलाराधना इस नाम से उल्लेख कर के उसके ऊपर मूळाराधनादर्पण नाम की पञ्जिका लिखी है. प्रस्तुत ग्रंथ निर्माता ऋषिराव शिवकाचार्यजीने भगवती आराधना ऐसा भी इस महान ग्रंथ का नामकरण किया है, 'आराधना भगवदी एवं तीय गिदा मंत्री इस गाथार्द्धके द्वारा उपर्युक्त नामकरण का खुलासा होजाता है, जैसे पूज्य, पूजक, पूजा और पूजा फल ऐसे चार विभाग जिनपूजन प्रतिपादक ग्रंथोंमें किये गये हैं वैसे इस अन्य में भी आराध्य, आराधक, आराधना और आराधनाफल इन कारणों का वर्णन आचार्यने किया है. रत्नत्रयामाराभ्यं भव्यस्त्वाराधको विशुद्धात्मा आराधाना सुपायस्तत्फलमभ्युदयभोक्ष स्तः ॥ रहन अमूल्य चीज है और उससे पदार्थ की प्राप्ति होती है. सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक् चारित्र रत्न के समान अमूल्य हैं. उनसे जीवों को स्वर्गादि मोक्षान्त फल प्राप्त होते हैं अतः आचार्य इनको रत्नत्रय यह सार्थक नाम देते हैं. यह रत्नत्रय आराध्य है. निर्मल परिणामवाले भव्य जीवको आराधक कहते हैं. गृहस्थ में मुनिवर्य जिनके परिणाम निर्मल हैं वे इस रत्नश्रय को प्राप्त कर लेते हैं अतः उनको आराधक कहते हैं. जिन उपायोंसे रत्नत्रयकी प्राप्ति होती हैं ऐसे उपायोंको आराधना कहते हैं. जैसे धार्मिकों में वात्सल्यभाव रखना, उनके अवर्णवादको हटाना धार्मिकों को कोई तकलीफ देता होगा तो उसका निराकरण करना बगैरे उपाय करनेसे सम्यग्दर्शनादि रत्नोंकी प्रस्तावना १ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना प्रस्तावना प्राप्ति होती है. इस रलत्रय की आराधना करनेसे अभ्युदय और मोक्षरूप फलकी प्राप्ति होती है. इन सब बातोंका इस ग्रंथमें वर्णन किया है. रत्नत्रय आराध्य है, वसा तपभी आराध्य माना है परंतु उसका चारित्र में अन्तर्भाव होनेसे रत्नत्रय ही आराध्य है ऐसा सिद्ध होता है. जिस ने सुखिया स्वभावको छोड दिया है वही चारित्रको धारण करता है अर्थात् अनशनादि बाहा तपश्चरण करने की प्रवृत्ति करनेवाला साधु चारित्रमें उत्साहयुक्त होता है जिससे उसके पापोंका नाश होता है. चारित्रके परिणामोंको अर्थान् विनयादि तपोको चरित्रकी वृद्धि करनेवाले होनेसे आचार्य चारित्रमें ही अन्तर्भूत करते हैं. यदि तपको अलग गिनाया जाय तो आराध्य पदार्थ चार होते है. इन चार आराध्य पदार्थों की आराधना उद्योतन, उद्यरन, निर्वहण, साधन और निस्तरण इन उपायोंसे होती है. सम्यग्दर्शनाविकों को अतिचारोंसे अलिप्त रखना अर्थात उनमें दोष उत्पन्न न होने देना उद्योवन है. आत्मामें धार बार सम्यग्दर्शनादिकोंकी परिणति होते आना उधवन कहते हैं. एरीपहादिक प्राप्त होनेपर भी स्थिरचित्त होकर सम्यग्दर्शनादिकोंसे घ्युत्त न होना इसको निर्वहण कहते हैं. अन्य कार्यों में चित्त लानेसे यदि सम्यग्दर्शनादिक तिरोहित होनेपर पुनः उपायोंसे सनको पूर्ण करना इसको साधन कहते है..आमरण सम्यग्दर्शनाविकों को निर्दोष धारण कर अन्यजन्म में उनको पोहोंचानां निस्तरण है. सम्यग्दर्शन, सम्यमान, सम्यचारित्र और वप इन चारोंकी उन्नति होने के लिये उपयुक्त पांचोकी आवश्यकता है ही. प्रत्येक में उद्योतादिक पांच उपाय मान लेनेसे २० वीस भेद होते हैं, अत: यह अराधना उद्योतनाविक पीस भुजाओंको धारण करनेवाली अम्बिकाषी है ऐसा श्री अमितगतिमाचार्यने आराधनास्वनमें वर्षान किया है यह योग्य. ही है ऐसा हम समझते हैं. इस भगवती अराधनापंथ में आराधकके मरणोंका विस्तृत विवेचन किया है. ऐसा वर्णन अन्यत्र इतना विरतारयुक्त नहीं है. प्रस्तुत ग्रंथमें मरणके १७ सत्रह प्रकारोंका विवेचन हैं उसमें भी पंडितपंडित मरण, पंडित्तमरण, बालपंहित मरण, चालमरण और पालचालमरण इन भरणों में आद्य के तीन मरण ही गिने हैं क्योंकि इन में समाधि मरण अर्थात सोखना मरण सिद्ध होता है. यह सल्लेखना मरण रत्नत्रयकी आराधनासे युक्त होनसे भव्यजीव इसक आश्रय लेकर संपटारपंजर को तोडफर मुक्त होते है. मुनिओंके सल्लेखना मरणका अर्थात् भक्तप्रत्याख्यान मरणका आचार्य शिवकोटीजीने ४० चालिस अधिकारोंमें RRIBERSSERTISE ArA Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलाराधना प्रस्तावना RAMERAMATARATRA इसमा पोग्य वर्णन किया है कि जिसका विवेचन सुननेसे और पाचनेसे उनकी पिशासद्धिक विषयमें मन साम्रर्यानंदित झेता है। इन सब बातोंका अनुक्रमणिकासे खुलासा होगा. अम हम श्रीशिषकोटि आचार्य विषयमें थोडासा कयन करते हैं. प्रस्तुत ग्रंथकी २११५वी गाथामें श्री शिवकोटि थापाथने मार्य जिननंदिगणी, आर्य सगुप्तगणी तया आर्य मित्रनंदिगणी इन नाचायोंके पास मैने अत और उसके अर्थका अध्ययन किया है ऐसा बल्लेख किया है. अनंतर २१५६ वी गाथामें पूर्वीचार्योके बनाये हुय शाम्रोंसे थोडा थोडा अर्थ संगृहीत करके इस्तरूपी पात्रमें भोजन करनेवाले अर्थात दिगंबर मुनि ऐसे मैनेशिवायने यह आराधना नामक महाशाख रचा है.' इस नाम से पंथकार अपना परिचय देते हैं. श्री पं. आशाधरजी 'सिवजेण शिवकोट्यापार्येण मतेति लक्षयति ' सिवज इस शब्दका शिवको टि आचार्य ऐसा अर्थ निकालते हैं. सिवा यह शब्द नामका एक देश बतलाता है. नामैकदेशो नाम्न्य पि प्रवर्तते इस नियम के अनुसार शिक्षकोटि आचार्य इतना पूर्ण नाम सिवज शब्दसे सुचित करते हैं ऐसा अवगत होता है. इस आराधना शासकी रचना शिवकोटि आचार्य ने ही की है ऐसा ग्रंथातरसे भी सिद्ध होता है. महापुराण के कर्ता श्री. जिनसेन आचार्य शियकोटिके विषय में देसा विधान करते हैं:-- शीतीभूतं जगद्यस्य वाचाराध्य चतुष्टयम् ।। मोक्षमार्ग स पायानः शिवकोटिमुनीश्वरः॥ १९॥ महापुराण पर्व १ ला. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप रूप जो चार प्रकार का मोक्षमार्ग है उसकी आराधना जिसके वचनोंसे भन्यजीव करके कर्मसंतापसे रहित होते हैं अर्थात् अपने निराकुल शांत आत्मस्वरूप की प्राप्ति कर लेते हैं वे शिक्षकोदि आचार्य महाराज इम लोगोका रक्षण करें, इस श्लोकमें चार प्रकारके पाराधनावोंका स्वरूप विस्तृत शिषकोटि आरार्थने भगवसी आराधनामें कहा है ऐसा खुलासा होता है. अतः सिवज' यह नामकदेश शिवकोट्याचार्य का ही याचक है ऐसा व्यक्त होता है. शिवकोटि आचार्यने रत्नमाला' नामक भाषकाचार का वर्णन करनेवाला छोटासा ग्रंथ लिखो है, श्रीश्रुतसागरजीने षट्पाहुड की टीका के एक स्थल में इस रत्नमालों को श्लोक उद्धृत किया है वह इस प्रकार तथा चोक्तं शिवकोटिनाचार्येण ... Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाराधना प्रस्तावना चमपात्रगतं तोयं घृतं तेल अवर्जयेत् ॥ नवनीतप्रसूनादिशाक नावात्कदाचन ।। यह रत्नमालापंथ किसी भट्टारका बनाया होगा, शिवकोट्याचार्यको नहीं है ऐसा पं. नाथुराम प्रेमीजी लिखते है तथा उसकी सिद्धिके लिये वे इस प्रकार कहते हैं. रत्नमाला गंधर्म मुनिराज इस पंचम काल में बन में न रहकर गांव शहर बगैरेह स्थानों में जो जिन मंदिर हैं उनमें रहे ऐसा विवेचन है. और यह शिथिलाचारका विवेचन है. परंतु पेसा लिखनेसे क्या शिथिलाचार हो गया यह इमें मालम नहीं होता है. श्रीसमतभट्टाचार्य भी प्रावकों को मुनिओंक | लिये वसतिकादान देना चाहिय ऐसा उपदेश करते हैं. तथा बसतिका ग्रामसे दूर नहीं होनी चाहिये इत्यादि विस्तीर्ण वर्णन खुद भगवती आराधनामें भी आया है. अत: इसमें शिथिलाचारका पोषण कैसे हो गया ? इस कलिकाल के मुनिओको समाधिमरण सथ जाय इस हेतृसे शिवकोट्याचार्यजीने भक्तप्रत्याख्यान मरणका ही मुख्यतासे भगवती आराधना में निरूपण किया है.इंगिनीमरण और पायोपगमनमरणका इस कलिकालमें निषेध किया है. अतः वसविकामें रहने की जो आशा शिवकोटि आचार्यने दी है वह समंतभद्रादि प्राचीन आचायॉ पंथों में भी पायी जाती है. इसमें शियिलाचार नहीं है, रत्नमाल| अंघमें नीचे लिखे दो श्लोक गृहस्थके स्नामाकरणमें आये हैंपाषाणोत्स्फुटित तोयं घटीयंत्रेण ताडितम् !! सद्यः सन्तप्तवापीनां प्रासुकं जलमुच्यते ।। देवर्षीणां प्रशौचाय स्नानाय च गृहार्थिनाम् । अप्रामुक परं वारि महातीर्थजमप्यदः ।। पाषाणके उपर जोरसे गिरनेवाला जलप्रपातका पानी, घटीयंत्रसे ताडित जल, गरम बावडियों का जल ये प्रासुक हैं. मुनि इस जलसे शौच क्रिया कर सकते है तथा इस जलमे गृहस्थ स्नान कर सकते हैं. परंतु नाथुरामजी प्रेमी कहते हैं कि यह वर्णन किसी भट्टारक महाराजने ही किया होगा शिषकोट्याचार्यका नहीं हो सकता है. परंतु हम ऐसा कहते हैं कि यह कथन शिवकोट्याचार्यने ही किया है और इसमें शिथिमाचार नहीं है. जैसा उपर्युक्त वर्णन शिवकोटी आचार्यने किया है इसी प्रकारका वर्णन अमितगति आचार्यने भी सुभाषितरत्नसंदोह प्रथमें चारित्र के प्रकरणमें किया है. शिवकोटि आचार्य के समान अमितगति आचार्य भी भट्टारफ नहीं धे, एकाद समय कमंडलुभे गरभ जळ नहीं हो तो उपरि शोक वर्णित जलसे मुनि शौषकिंवा कर सकी हैं. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना शिवकोटि आचार्यने रत्नमाला में समन्तभद्राचार्य का बढे गौरवसे नामोल्लेख किया है इससे वे समन्तभद्राचार्यजो अपना गुरु मानते होंगे ऐसा सिद्ध होता है, जैसे स्वामी समंतभद्रो मेऽहर्निश मानसेऽनघः । तिष्ठताज्जिनराजोद्यच्छासनाम्बुधिचंद्रमाः ॥ मेरे में हमेशा निवास करे. आचार्य समन्तभद्र जैन शासनरूप समुद्रको चंद्रके समान वृद्धिंगत करनेवाले थे. पाणितलभोजिया सिवज्जेण ऐसा भगवती आराधना में अपना नामोल्लेख किया है अर्थात् हस्तपात्र में भोजन करनेवाले शिवकोट्याचार्यने यह भगवती आराधना रची है. अर्थात् पाणितभोजि शब्द से उन्होंने अपना दिगंबर जैनयतित्व सूचित किया है. परंतु पं. नाथुराम प्रेमीजी इस शब्दसे यह अभिप्राय निकालते हैं कि उस समय कोई मुनि पात्र में भी भोजन करते होंगे. परन्तु यह शंका बिलकुल निरर्थक है. जबतक में खट्टा होकर इस्तरूपी पात्र से आहार लेने में समर्थ रहूंगा aea ही भोजन करूंगा. जब खड़ा रहने का सामर्थ्य मेरा नष्ट होगा तब मैं आहारका त्याग करूंगा ऐसी दीक्षा के समय में दि०जैन मुनि प्रतिक्षा महण करते हैं. चाहे वे स्थविरकल्पी मुनि हो चाहे जिनकरुपी मुनि हो. दोनोंके मूलगुण समान ही रहते हैं. दि० जैन मुनि कभी बैठकर और पात्र में आहार लेते नहीं हैं. उयेतविरत्व की किसीको शंका होगी वह न हो इसी हेतुसे शिवकोटि आचार्यनें अपने नाम के पीछे पाणितळ भोजी यह विशेषण जोड दिया है. चतुर्थकालमें भी स्थविरकरपी मुनि होते थे परन्तु पंचमकाल में स्थबिरकल्पी मुनि ही उत्पन होते हैं. वचवृषभसंहननादि तीन उत्तम संदननोंके धारक ही जिनकी मुनि होते हैं. इन उत्तम संहननौका सद्भाव चतुर्थकाल में ही रहता है. अन्यत्र नहीं. श्वेताम्बेके यहां अचेलक्य, वगैरह दशविध स्थितिकल्पका उल्लेख होगा परंतु यह नाममात्र ही है. उसका आचरण दि. जैन मुनियोंमें ही समीचीनरूपसे पाला जाता है. श्रीशिवकोटी आचार्य दि. जैनयविधी थे उन्होने अपने प्रध में नग्नता, छोच, शरीरममत्वका त्याग तथा मयूर पिच्छ धारण करना ये जैन यतीका उत्सव लिंग है. ऐसा लिंगाधिकार में वर्णन किया है इससे दिगंबर और इवेतांचरत्व का भेद उस समय भी था ऐसा झटकता है. शिवकोटि आचार्य गृहस्थावस्था में शिवकोटि नामके काळी देश के राजा थे. इनके भाईका नाम शिवायन प्रस्तावना Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना प्रस्तावन ऐसा था, घे योनो शवधर्मके परमोपासक थे. स्वामी समंतभद्राचार्य के उपदेशसे ये दोन भाई जैन मुनि हो गये ऐसा फामताप्रसादजीने वीरपाठावलीमें लिखा है. भायधना कथा कोषमें भी इनकी कथा मिलती है तथा श्री नेमिदत्त कविने शिवकोटि आचार्यने भगवची आराधनाकी रचना की है पेसा उल्लेख भी किया है. शिवकोटी आचार्यके प्रस्तुत ग्रंथपर श्रीअपराजित सूरीकी विजयोदया टीका, श्री. पं. आशाधरजीकी मूलाराधना दर्पण टीका, शिवजीलालकी भायार्थ दीपिका टीका, है. इनमेंसे अपराजित सूरीकृत विजयोदया टीका, और पं. आशाधरजी की मूलारायना दर्पण पंजिका ये दोन दीकायें तथा श्री अमितात्ति आचार्यके भगवती आराधनाके प्रत्येक गाथाका जिसमें अभिप्राय आया है ऐसे शोक इतने ग्रंथ इस भगवती आराधना के साथ जोड दिये हैं. विजयोदया टीका श्रीअपराजित सूरिने रची है यह टीका बहुत विस्तृत है. इसकी श्लोक संख्या लगभग सोलह हजार होगी. हमने आचार्य अपराजित सूरिकी प्रशस्ति ग्रंथ में जोड़ दी है. इस से पाठकगणको आचार्य का परिषय होगा. श्री अपराजित सूरिका ही दूसरा नाम विजयाचार्य अथवा श्रीविजय ऐसा है. पं. आशाधरजीने मूलाराधना दर्पण नामकी टीका लिखी है. उसमें अनेक स्थलोंमें 'इमां गाथा श्रीविजयो नेच्छति' अर्थात् यह गाथा श्री विजयाचार्य क्षेपक समझते हैं. श्रीविजयाचार्यस्तु मिथ्यात्वसेवामतिचार नेप्रति । तथा च तनयो । मिथ्यात्मश्रद्धानं नत्सेवायां मिध्याष्टिरेवासौ इति नाविचरता" अर्थात् श्रीविजयावाय मिथ्यात्वकी सेवा करना यह सम्यग्दशेनका अतिचार नही है अर्थात उससे तो श्रद्धान अर्थात् सम्बग्दर्शन नष्ट ही होता है ऐसा कहते हैं. ऐसा लिखकर आगे पं. आशाधरजीने खुद्द विजयोवा टीकाका उस अभिप्रायका उनका वाक्य भी दिया है. यह वाक्य इसी गंधके १४४ पृष्ठपर पाठकगण देख सकते हैं, सही प्रकार कभी श्रीविजयके बदले केबल टीकाकार ' इस शब्दका भी पं. आशाधरजी प्रयोग करते हैं. जैसे " टीकाकारस्तु 'सामान्यमृतेः विशेषमतिः फर्मवया निर्दिष्टा तथा गोपो पुष्टमित्याचष्टे ग्रह पंक्ति १.८ पृष्ठ पर छपी है. इन प्रमाणों में यह बात सिद्ध होती है कि श्री विजयाचार्य अन्य कोई नहीं है. श्री अपराजिससूरि ही है. अपराजिस सूरीन भगवती अराधनाकी स्वकृत टीकाका विजयशेक्या ऐसा नाम विधान किया है उसी प्रकार दशवकालिक प्रेथपर भी इन्होने दीका रची है. और उसका नाम भी यही श्रीविजयोदया टीका ऐसा ही दिया है. इसी प्रथमें पृष्ट ११९६ में खुद आचार्यजीन ' दशकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नह Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ७ प्रपंचयते ' ऐसा उल्लेख किया है. इस तरहके प्रमाणोंसे अपराजित सूरि और श्रीविजयाचार्य एकही है ऐसी हमारी धारणा है. पं. नाथुराम प्रेमीजी इस टीकाका विनयोदया यह नाम अधिक अन्वर्थक है ऐसा समझते हैं. वे कहते है कि, मुनिओं के आकार में विनयाचार प्रधान है अत एव इसका नाम नियोजया होना चाहिये. परंतु यह युक्ति जोरदार नहीं है. अंधकार जिस समय जिस विषयका वर्णन करते है उस समय उस विषयको मुख्य कर अन्य विषयको गौण कर देते हैं. अर्थात् विनयको जैसी उन्होंने मुख्यता दी है वैसी स्वाध्याय, वैयावृत्य वगैरह विषयोंके वर्णनमें भी मुख्यता दी है अतः जैसा विजयोदया नाम होना चाहिये वैसे इतर विषयों की भी प्रधानता होनेसे अन्यनामकी भी क्यों मुख्यता नहीं मानी जायगी. फिर वे कहते है कि यदि आचार्यका नाम श्रीविजय था तो टीकाका भी श्रीषिजया ऐसा होता परंतु उसके साथ उदय शब्द जोडना उपयुक्त नहीं है. ऐसा कहना भी हमें युक्तियुक्त मालूम नहीं होता. हरिचंद्र कवीने धर्मनाथ तीर्थंकरका चरित्र लिखा है ओर उसका नाम उन्होने धर्मशर्माभ्युदय ऐसा रक्खा है. इस नामसे तो अनभिज्ञ लोगों को यह काव्य है और इसमें धर्मनाथ जिनेश्वरका चरित वर्णन किया है ऐसा बोध होना कठिन हि पडेगा. परंतु इस चरितके पठन से पाठकों को धर्म, शर्म-सुख, और अभ्युदय-स्व संपत्ति प्राप्त होगी ऐसे विचारसे कविने उसको उपर्युक्त लंबाचौडा नाम दिया है और धर्मनाथ के चरितका भी बोध हो जाता है. उसी प्रकार विजयोदया इस शब्दसे टीकाकार के नामके साथ पाठकको कर्म के ऊपर विजय और आत्मोन्नतिको प्राप्ति होगी देखा अभिप्राय सूचित होता है. अत: विजयोदया यह नाम अन्वर्थक हो हैं, निरर्थक नहीं है. ऐसी हमारी धारणा है. अपराजितसूरीने विस्तृत टीका लिखकर भन्यों को आराधना का वास्तविक स्वरूप समझा दिया है इस टीकाका मनन करनेसे वास्तविक आत्मशांति प्राप्त होगी. आरावना ग्रंथपर जो टीका लिखते हैं उनको समाधिमरण की प्राप्ति होती है ऐसा श्रीदेवसेन आचार्यजीने सावयधम्मसंग्रह नामक प्रन्थ में विधान किया है. वह इस प्रकार ---- जिणभवणई फारावियई लग्भइ सम्गि विमाणु ॥ अह टिकट आराहणहं होइ समाहिहि ठाणु ॥ १९३ ॥ पृष्ठ ५९ ॥ प्रस्तावना ७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाराधना अर्थात् जो जिनमंदिर बनवाते हैं उनको स्वर्ग विमानकी प्राप्ति होती है, तथा जो आराधना मन्थपर टीकायें रचते हैं उनको समाधिमरणकी प्राप्ति होती है. श्री अपराजितसूरिका कालनिर्णय करने में हम असमर्थ है, क्योंकि अभी इनके अस्तित्वकालका निर्णय इतिहासों को भी ठीक मालूम नहीं हुआ है. श्री. पं. आशाधरजी जैनधर्मप्रभावक महाकवि हो गये हैं, इनका काल विक्रमका १३ वा शतक निर्णीत है. इन्होंने अनेक जैन साहित्य के प्रन्य बनाये हैं. इनका साहित्य बहुत प्रौढ व गंभीर है. इनके समान उद्भट विज्ञान गृहस्थोंमें बहुत विरल हुए हैं. इनका यहां वर्णन करनेका कारण यह है कि इन्होंने भगवती आराधना मन्थपर मुलाराधा नामकी पञ्जिका टीका रवी है. यह टीका संक्षिप्त है. इसलिये प्रत्येक अध्यायके अन्तमें वे पदप्रमेवाप्रकाशीकरणप्रवणे मूळाराधनादर्पण' ऐसा उल्लेख करते हैं. अर्थात् इन्होंने कठिन पदोंका खुलासा करके उनके प्रतिपाय विषयका निर्णय किया है. जो टीका श्लोकके अथवा गाथाके संपूर्ण पक्षका खुलासा न कर कुछ पका-फठिन पदों का स्पष्टीकरण करती है उस टीकाको पञ्जिका या पंधिका टीका कहते हैं. सुलभ गाथाओंका स्पष्टीकरण करनेकी astra न होनेसे स्पष्टम् ' इतना ही लिखकर वे आगे चले गये हैं यह टीका किस समय बनाई गई है इसका खुलासा उन्होंने अंथ के अन्त में स्वप्रशस्ति में जरूर किया होगा परंतु इस टीकाकी जो प्रति हमको मिली है उसमें प्रशस्ति पूर्ण नहीं है इससे हम खुलासा करनेमें असमर्थ हैं. पंडितजीकी टीका बहुत विद्वत्तापूर्ण है. उन्होंने इस टीकाम अनेक श्लोक अन्य जैन ग्रन्थोंकि विषयका खुलासा करनेके लिये दिये हैं. भगवती आराधनावर अनेक आचार्यांने टीकायें और निबंध लिखे हैं, पंडितजीने सीन चार टीकायें तथा सीन चार निबंधका आश्रय लेकर अपनी टीका रची है, आचार्य जयनंदि, प्राकृत टीका कर्ता [ नाम ज्ञात नहीं है ] श्रीचंद्राचार्यकृत भगवती आराधनाका टिप्पनक, विदुग्धप्रीतिवर्धनी नामक भन्थ, विजयाचार्यकृत विजयोद्या टीका, श्री अमितस्थाचार्यकृत लोकरूप भगवती आराधना ऐसे अनेक ग्रंथोंका आश्रय लेकर प्रस्तुत टीका पंडितजीने लिखी है. इससे पंडितजीकी अन्वेषण करनेवाली बुद्धिका परिचय पाठकगण को मालुम पढेगा, पंडितजीने इस महान्प्रन्धके विषयोंका खूब मनत करके अपनी टीका आठ आश्वासो में विभक्त की है. यह टीका आठ हजार श्लोक प्रमाण होगी ऐसी हमारी धारणा है. प्रस्तावना Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना S प्रस्तावना यह टीका विजयोदया टीकाके नीचे दी है. अर्थात इस ग्रन्थ में प्रथमतः शिवोहाना की शार अमितगति आचार्यका समानार्थक श्लोक, तदनंतर विजयोदया टीका और मूलाराधनावर्पण टीका, इन के अनंतर विजयोदया टीकाका हिंदी अनुवाद ऐसा क्रम है. भगवसी आराधनाका हिंदी अनुवाद भी. पं. सदासुखजी का भी प्रसिद्ध हुआ है. इसमें श्री विजयोदया टोकाका उन्होने कितनेक स्थलोंमें भाभय लिया है। कितनेक स्थलों में इस टीका के विषय में संवेयुक्त है. उनको यह टीका श्वेताम्बराचार्य कत है ऐसा भ्रम हुआ है. परंतु वह कोरा धम ही है. उलटा इस टीका श्वेताम्बरोंके आपा. रांगावि पथों के पक्षपात्रादि प्रहण वगैरेह विषयों का जोरदार खरन है. पाठक टीका तथा उसका अनुवाद पढ़कर संशयनिवृत्त अवश्य होंगे. आणतक सिसी भी जिनवाणीभक्त ने भगवती आराधना की संस्कृत टीकायें प्रकाशित नहीं की थी. यह न्यूनता जानकर जिनवाणीभूषण श्रीमान् धर्मवीर रावजी सखाराम दोधीने विपुल धनध्यय कर यह सटीक अन्य प्रकाशित किया है. इसके लिये वे अतीय यन्यवाद के पात्र हैं. श्री. धर्मवीर रावसाहेब का जैन ग्रंथका प्रकाशनकार्य आजकलका नहीं है. करीब तीस वर्षसे उन्होंने यह प्रकाशन कार्य सतत चालु रक्खा है.स्याद्वादभूषण स्व. पं. कल्लाप्पा भरमापा निटषेने प्रथमतः शालिवाहन शक १८३० में महापुराणका अनुवाद महाराष्ट्र भाषामें प्रसि किया. उन्होंने प्रस्तावनामें श्री रावजी सखाराम दोशी इन्होंने हमारे इस प्रकाशनके कार्यमें दो तीन वर्षसे साहाय्य दिया है इस लिये वे धन्यवादके पात्र है ऐसा उलेख किया है.. परमपूज्य श्री शांतिसागर आचार्यजीने इस महान ग्रंथको प्रकाशित करने के लिये श्री. धर्मवीर रावसाहेबको प्रेरणा की थी, महाराजकी आज्ञा गुरुभक्तशिरोमणि रावसाहेबने मस्तकपर धारण कर तथा दो वर्ष पूर्व श्री. क्षुहक विमलसागरजी के सान्निध्य में शोलापुरमें विजयोदया टीकाका हमने चहांकी संपूर्ण दि. जैन जनता के साथ स्वाध्याय किया था. श्री. क्षु, विमल सागर महाराजकी भी प्रेरणासे तथा खुद उनकी अभिरुचीसे भी यह ग्रंथ उन्होने प्रकाशित किया है. जैनधर्मकी प्रभावना तथा उसका सत्यस्वरूप जैन ग्रंथके प्रकाशनसे प्रगट होता है ऐसा प्रशंसनीय विचार इनके हृदयमें सदैव विराजमान है. इस विचार की प्रेरणा सतत होनेसे आजतक सैकहो मंत्रों का सेठ साहेबने प्रकाशन किया है. PALI ९ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मा प्रस्तावना सेठेजीके इस प्रशंसनीय उद्योगको कोन सहएय मनुष्य प्रशंसा न करेगा. तथा उनको हर्षसे धन्यवाद न देगा। परस्त महाम ग्रंथ सेठजीके सुवर्णजयंती अर्थात् वर्षवृद्धि महोत्सबके लिये जो श्री महावीर जिनविप्रतिष्ठा इस सालमें हुई उस समय अडे समारोह के साथ प्रकाशित करनेका सेठजीका विचार था परंतु उस समय मुद्रणकार्य पूर्ण न हो सका इस लिये कार्तिक शुद्ध पंचमीके दिन इसका प्राणप्रतिष्ठापूर्वक प्रकाशन किया गया है. इस महान मन्थके प्रकाशनके लिये पूना मांडारकर.प्राव्य षियासंशोधक संस्थाने अपराजितसूरिकृत विजयोध्या टीकाकी दो प्रति भेज दी थी उन प्रतियोंसे हमने प्रेसकॉपी तयार की, ये दो प्रति प्रायः शुद्ध और सुवाच्य । थी. इस संस्थाने ये पुस्तकें भेजकर हमको अत्यंत उपकृत किया है अतः हम उसको अन्तःकरणसे धन्यवाद देते हैं. श्री. प. प. सरस्वती भवन मुंबई से हमको श्रीमान् पं. रामप्रसादजी शास्त्रीने मूलाराधनादर्पण पूर्वार्ध पांच आश्वास पूर्ण ग्रह अंथ और श्री अमितगति आचार्यकृत संस्कृत श्लोकानुयादरूप भगवती आराधना मन्ध ऐसे दो ग्रंथ भेजे थे. इन दो प्रद्यक रामको अनिदान समारा गिला. शशितगनि गावती आराधनाके प्रथमके १९ श्लोक मल ग्रंथ में नहीं थे परंतु बीसवे श्लोकसे आगे ग्रंथ पूर्ण है. हमने अन्यत्र इसके प्रारंभके १९ श्लोक प्राप्त करने के लिये प्रयत्न किया था परंतु प्राप्त नहीं हुए. इन यो ग्रंथोंको भेज कर इमको पं. रामप्रसादजी शास्त्रीने बहुत उपकृत किया है, वहमेशा ऐसा साहाय्यदान हमको करते है अत: आपके म अत्यंत आभार पूर्वक धन्यवाद मानते हैं. कारजासे मूलाराधना दर्पण पूर्वाध तथा कनरार्ध श्रीगंत रतनलाल नरसिंगसा राऊल इन्होने भेजा था परंतु पूर्वाध में प्रारंभका प्रथमपत्र नहीं है. चौदहये पत्रसे १५ वे पव्रतक ६ पत्र नही है.तथा ३१ वा पत्र नहीं है. अतः हमको इस पूर्वार्धका विदोष उपयोग नहीं हुआ. बंबई सरस्वती भवनसे प्राप्त हुये प्रतीसे हमको पूर्ण साहाय्य हुआ. उत्तरार्धमें भी प्रारंभके दो पत्रे हैं तदनंतर तीसरे पत्रसे ११ वे पत्रतक १२ पत्र नहीं है. अतः उतनी टीका हम नहीं छपा सके. अन्तिम प्रशस्ति भी पूर्ण नहीं है, अतः प्रशस्ति हम पूर्ण प्रगट न कर सके. यह पुस्तक श्रीमंत रतनलाल नरसिंगसा राजळने भेज दी थी. मूलाराधनादर्पण की हस्तलिखित प्रति भेजकर हमपर जो उपकार उन्होने किये हैं उनके लिये आभार मानना हम आवश्यक कर्तव्य समझते हैं और मानते हैं. इस भगवची आराधना मेथका संशोधन मेने मेरी तुच्छ बुद्धिके अनुसार किया है. तथा विजयोदया टीकाका हिंदी भाषा अनुवाद किया है. मराठी भाषा मेरी मातृभाषा है. असः इस हिंदी अनुवाद, लिंग, विभक्ति वगैरहोंक Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूलाराधना ११ व्याकरण शुद्ध प्रयोग न होने से बहोत सी भूर्जे होजाना नितरां संभवनीय है, तथा भाषांतर में भी अज्ञानवश प्रमाद रहे होंगे. विजयोदया टीकामें दशस्थितिकसके विषयका विवेचन करते समय अपराजित सूरीने आचारांगादि वेषां बर मथोंके जो प्राकृत भाषाके श्लोक दिये है उनका मराठी अनुवाद करके श्री प्रो. ए. एन. उपाध्यायजीने मेरी प्रार्थनासे भेज दिया था उसका मैने हिंदी अनुवाद किया है अतः श्री. प्रोफेसरसाहेबका में अतिशय आभारी हूं. सज्जन पाठकवर्ग तथा विद्वर्गको मेरी सविनय यह प्रार्थना है कि इस संशोधन, अनुवादावि कार्य में रहे हुए कान करके मेरेको उपकृत बनावे. जैन साहित्यकी सेवा मेरे द्वारा आजन्म होती रहे ऐसी भीजिनेंद्रदेव से प्रार्थना करके मैं यह प्रस्तावना पूर्ण करता हूँ. जिनवाणीका तुच्छ सेवक -- जिनदास पार्श्वनाथ फडकुले. ता. १-११-२५ वीर सं० २४६२ कार्तिक शुद्ध ५ मी. प्रस्तावना ५१ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना विषय ८४ हिंदी अनुवादके अनुसार भगवती आराधना मुख्य पिपयों की सूची. विषयनाम पृष्टसंख्या | विषयनाम पृष्टसंख्या १ मंगलपूर्वक आराधना वर्णनकी प्रतिज्ञा. १५ मरणसमयमेही रत्नत्रयाराधना करनी चाहिये ऐसी २ आराधनाका स्वरूप और वह किसको होती है. . शिष्यको शंकाका सत्तर. ३ आराधनाके दो भेद. 20 १६ सदैव रत्नत्रयाराधना करना चाहिये इसका ४ मिथ्या दृष्टि सम्यग्ज्ञानका आधिक नहीं हैं. ३0 सदृष्टान्त खुलासा, ५ पारिवाराधनाम तप आराथनाका अन्तभीच. ३३/१७ अन्तमुहूर्त में रत्नत्रयकी आराधना करने से भी भुक्ति ६ अतिसंक्षेपकी अपेक्षासे चारित्राराधनामें ही इतर | मिलेगी अतः सर्वदा रत्नत्रयाराधन क्यों करना आराधनाओंका अन्तर्भाव, इसका उत्तर. ७ ज्ञानाराधना और दर्शनाराधनाका चारित्राराधनामें १८ मरणके सत्रह भेद. अन्तर्भाव १६ १९ पांच प्रकारके मरणोंका वर्णन. ८ चारित्राराषनामें तप आरावनाका अन्तर्भाव ५० २० वर्शनाराधनाका वर्णन. ९ यथान्यास चारित्रका सरूप और फलका वर्णन ५४, २१ सम्यम्हष्टि जीवका वर्णन. १२२ १. दु:ख दूर करना यह ज्ञानका फल है इसका दृष्टांत- | २२ किनफे सूत्र प्रमाणभूत माने जाते हैं. युक्त वर्णन ५. २३ भविपरीत अर्थका निरूपण करनेवालेका लक्षण १२८ ११ कर्मका नाश होनेसे मुक्तिफल मिलता . ५८ २४ आशासम्यक्षीभी भाराधक है. १२ मरणसमयमें आराधनाकी विराधना करनेसे अनंत | २५ जीवद्रव्यके ऊपर प्रदान करना चाहिये. १३२ संसारकी प्राप्ति. ६.१ २६ मात्रधाविकोंकामी श्रदान करना चाहिये. १३५ १३ रत्नत्रयमे स्थिर होकरभी संक्लेश परिणाम उत्पन्न २७ थोडासा अन्नद्धान और बहुतसा प्रदान करले. होनेसे होनेवाली हानि. ६५ याला मिध्यादृष्टि है. १४ आराधनाओका विशिष्ट फल. ६६' २८ भिध्याष्टिका स्वरूप. ०६ १२६ PARATORS Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाशधना * २९ तत्वश्रद्धान न करने से होनेवाली हानि. २० संसारसे डरनेवाला भव्य जीव केसा विचार रखता है. ३१ सम्यग्दर्शनके पांच अतिचारोंका वर्णन. ३२ सम्यग्दर्शनको निर्मल बनानेवाले गुणका वर्णन ३३ दर्शन विनयका वर्णन. १४१ ४३ उत्सर्गलिंगका विशेष वर्णन | ३९ भक्तप्रत्याख्यान मरण व उसके भेद. ४० अधिकारकां वर्णन ( भक्त प्रत्याख्यान मरणके योग्य व्यक्ति ) ४१ भक्तप्रत्याख्यान के लिये जो अयोग्य है उसका वर्णन १४२ १४६ १५० १५५-१६५ । ३४ जघन्य मध्यम व उत्कृष्ट सम्यक्त्वाराधनाके स्वामी. १७६ ३५ जघन्य सम्यक्त्वाराधनाका प्रभाव तथा सम्यक्त्व लाभमाहात्म्य. ३६ मिया के प्रकार और उनसे होनेवाली हानि ३७ मिध्यात्व के आश्रय से अहिंसादिक गुण भी दोष होते हैं.. ३८ व्रतशीलयुक्त मिध्यात्वीका भी संसार भ्रमण होता है. ४२ लिंगाधिकारका वर्णन और अपवादर्लिएका वर्णन १७८ १८१ १८५ | २०० २०४ २११ ४४ अपवाद लिंगीकी शुद्धता कैसी होती है, २२२ ४५ केशलोच न करने में दोष और लोपमें गुण २२३ ४६ शरीरममत्वत्यागका वर्णन २२९ ४७ पिच्छिका से क्या क्या कार्य करने चाहिये तथा पिकाका लक्षण १८ निचनका अध्ययन करनेसे प्राप्त होने वाले सगुणका विस्तृत वर्णन ४९ विनयका २३ गाथाने विस्वीर्ण विजयके सर्व १८८. ५४ भावनिति और द्रव्यभितिका सविस्तर कथन १९२ । ५५ क्लेशभावनाके कंदपदि मेदका वर्णन ५६ संक्लेशरहित भावनाओंफा वर्णन ५० बाह्य व अभ्यंतर सल्लेखनाका वर्णन ५८ अनशनादि बाह्यरूपका सविस्तर वर्णन १९ वविका उत्पादनादिदोषों का वर्णन ६० निर्जरे यती तपका वर्णन २०७६१ सल्लेखना के उपायका वर्णन २३४ २४१ वर्णन अर्थात् का वर्णन २६० ३१२ ५० समाधि अधिकारका विस्तारसे कथन ५१ अनियत विहारके दर्शन विशुद्धयादि गुणों का वर्णन ३२५ ५२ परिणाम अधिकारका आठ गाथाओं में वर्णन ३५२ ५३ उपाधिस्थानका ९ गाथाओं में वर्णन ३७६ ३८८ ३९७ ४०५ ४२३ ४२५ ૪૨૭ ४५६ ४६८ विषय १३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १४ ६२ कपासलेखनाका वर्णन ६३ एलाचार्यकी स्थापना ६४ क्षमणाधिकार ६५ गण और एलाचायकी आचार्यका उपदेश ६६ वैयात्यके १५ गुणका वर्णन ६७ आर्थिकासंगति स्याग ६८ दुर्जनसंगति त्याग ४७९ ८१ प्रतीच्छाधिकार ४९२ १९४ ४९६ ७६ अवपीडक आचार्य क्षपकके दोष बाहर निकाछते हैं. ७७ उपसंपद अधिकारका वर्णन ७८ परीक्षाधिकारका वर्णन ७९ प्रतिलेखाधिकार ८० पृच्छाधिकार ५२४ ५४३ ५५३ ५५७ ५७० ५९० ६९ सुसंगतीका माहात्म्य ७० परगणाचार्याधिकार ७१ मार्गनिरूपणाधिकार ७२ निर्यापककाचार्यका अन्वेषण करनेके लिये निकले हुए आचार्यका कार्यक्रम ५९३ ७३ निर्यापकाचार्य आचारत्वादि आठगुणों का वर्णन ६०७ ७४ दर्शविकल्पका वर्णन. ७५ अपक्ष आचार्यका आश्रय करनेसे उत्पन्न होने वाले दोपों का वर्णन ८९ योग्यायोग्यवस तिकाका विचार ९० संस्तरोंका वर्णन ९१ परिवारकों का स्वरूप ९२ आक्षेपण्यादि कथाओं का स्वरूप ६१८९३ परियारको भिन्न भिन्न कर्तव्य ६५९ ६९९ ७२५ ८२ आलोचना शुद्धचधिकार ८३ सामान्यविशेषालोचनाका स्वरूप ८४ सशस्य मरणमें दोष और शहयोहारमें गुण ८५ आलोचना कम और किस स्थानमें करना योग्यहै७६८ ८६ आलोचना गुण और दोषोंका स्वरूपवर्णन ७७६ ८७ दपदिकवीस अतिचार कारणके प्रकारोंका वर्णन८१५ ८८ आलोचना करने के अनंतर गुरुके कर्तव्यका वर्णन ७३९ ७४३ ९५ आहार प्रकाशन प्रकरणका विवेचन ९६ हानिप्रकरण का स्वरूपकथन ९७ पानोंके प्रकारका वर्णन. ७५२ ૧૮ ९४ सल्लेखना करनेवाले सुनिका दर्शन सबको लेना चाहिये. ७३४ ७३६ ९९ चार प्रकारके संघका क्षमापण विधि ७३८ १०० क्षपणाविकार वर्णन ८२१ ८३४ ८४० ८४७ ८७० ८७५ ८७९ ८८२ ९८ तीन प्रकारके आहारोंका त्याग क्षपक करता है. ८८६ ८८९ ८९१ ८५३ ८५७ विषय १४ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूलाराधना १५ १०१ आचार्य का क्षपकको उपदेश १०२ मिध्यात्व त्यागनेका उपदेश १०३ सम्यक्त्यभावनाका उपदेश १०४ जिनमरिक माहात्म्य वर्णन १०५ नमस्कार वर्णन १०६ ज्ञानोपयोगका वर्णन १०७ अहिंसा महाप्रत पालनका विस्तीर्ण उपदेश १०८ सत्यमाता सविस्तर विवेचन १०९ अचौर्य महावत के उपदेशका सविस्तर क ११० ब्रह्मचर्य महामतका वर्णन १११ श्रीकांत्यागका उपदेश ११२ अशुचिनिरूपण, देहकी अपवित्रताका वर्णन १०५७ १३४ होम विजयवर्णन ११३ वृद्धसेवाका उपदेश ११४ श्रीसंसर्गदोषों का वर्णन ११५ परित्याग महावत वर्णन १९६ महाजनकी निरुक्ति, रात्रिमुक्ति त्यागादिक मतके संरक्षक हैं. ११७ मनोगुप्ति वाग्गुमिओंका वर्णन ११८ फागुप्तिका स्वरूप ११९ इयमित्यादि पांचसमितिओंका वर्णन १२० प्रत्येकन्त्रतों के पांच पांच भावनाओं का वर्णन २२१ मायामिध्यात्व निदान इन इल्योंके त्यागका उपदेश ८९५ १२२ मानकवाय के त्यागका विस्तीर्ण उपदेश ८९८ १२३ भोगनिदानके त्यागका उपदेश ९०३ १२४ अवसन्नादि मुनिओका वर्णन ९१३ १२५ इंद्रियायों की दुष्टताका उपदेश ९१६ ९२३ ९३२ १२९ मायादोषत्याग वर्णन ९६३ १३० लोभदोष वर्णन २०९ १३ काजिय २८ १३२ मानविजय वर्णन १०२५ १३३ मायाजय वर्णन • १२२२ १२३४ १२७० १२८५ १२६ पांच इंद्रियों से मनुष्यको दुःखउत्पन्न होता है १३११ १३१४ १२७ कोपदोपयाग वर्णन १२८ मानदोषव्याग वर्णन १०९७ १३५ निद्राजयवर्णन १९०७ १३६ निर्जरानिमित्त तपमें क्षपक को प्रेरणा ११२३ ११३७ वपदेश सुननेपर क्षपकका वक्तव्य | १३८ सारणानामक अध्यायका वर्णन ११८५ १३९ क्षपकको पुनः उपदेश ११७९ १४० परीषद्दसहन करनेवालोंके उदाहरण ११८३१४१ नरकगतिके दुःखका विचार करने के लिये ११८७ क्षपकको प्रेरणा १२०५ | १४२ तिर्यग्गतिदुःखवर्णन १४३ मनुष्यगतिदुःख वर्णन १२१४ । १४४ देवगतिदुःख वर्णन १३२२ १३२७ १३३० १३४८ १३५४ ११५७ १३६० १३६४ १३६९. ११८६ १३९० १४०१ १४१८ १४२९ १४४६ १४५३ १४५९ विषय १५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना विपय. • १४५ कर्मोदय से औषधादिनोंका फल्य १४६५/१५९ अविचारभरू त्यागवर्णन १७६२ १४६ प्रतिज्ञाभंग करना मरणसे भी अनिष्ट है. १४८० १६० इंगिनीभरणका विस्तारसे वर्णन १७७४ १४७ माहारलंपटता यांच पापोंका कारण है १४८६/१६१ प्रायोपगमनमरणका वर्णन १७९१ १५८ समताका वर्णन १५०९/१६२ बालपंडित्तमरणका वर्णन १४९ आर्तध्यान और रौद्रध्यानका वर्णन १५३११६३ ध्यानके बाझ परिकरोंका वर्णन १८०४ १५० ध्यानका परिकर और धर्मध्यानका वर्णन १५३४|१६४ सम्यक्त्वधाति प्रकृतिओंके क्षपणका वर्णन १८०५ १५१ अध्रुवादि बारह अनुशेक्षाओं का वर्णन १५०८१६५ अनिवृत्तवायर गुणस्थान में प्रकृतिओका क्षपण १५. शुक्लध्यानका वर्णन १६८१ वर्णन १८०७ १५३ लेदयाविशुद्धिका वर्णन १७०० १६६ केवलज्ञानका वर्णन १५४ आराधना और विराधनाओंके फलोका वर्णन १७१०.१६७ सिद्धोंके परमस्वारस्यका वर्णन ९८४१ १२५ अवसनादि पंच मुन्याभासोंका वर्णन १७२३ १६८ मंथकार शिवकोट्याचार्यका अन्तिम वक्तव्य १८५० १५६ निषद्याका वर्णन १७१८१६५ भानपरित प्रशस्ति १८५४ १५७ अयोग्य संयममें क्षपकमरण होनेसे जागरणादिक । १७० श्रीमदाशावरसूरिकृत आराधनास्तबादि करना चाहिये १७४.१७१ श्रीमदमितगति प्रशस्ति १८६३ १५८ आराधकांगत्याग वर्णन १७५२ १७२ आराधनास्तवनम् इति विषयसूची संमाता Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाराधना ܚܕ श्री शिवकोटि आचार्यकृत भगवती आराधना. इसमें अपराजितरित सं टीका और पं. आशाधरजीकृत संस्कृत टीका और श्री अमितगति आचार्यकृत संस्कृत लोक और पं. श्री. जिनदास पार्श्वनाथ फडकुले सोलापूरबालोंकी हिंदी टीका सहित यह ग्रन्थ छपाया गया इसके लिये जिन्होने सहायता दी उन महाशयोंको शुभ नामावलिः- ७०५ श्री पूजा आचार्य शांतिसागर दिगम्बर जैन ग्रंथगाला ५० शहा गुलचंद मखाराम सोलापूर ५० सौ० राजुबाई वजी दोशी, ५० सौ० नपलवाई गुलाबचंद दोशी. ५० सी० कस्तुरबाई वालचंद हिराचंद दोशी ५० शेठ गांधी शिवलाल मलुकबंद पंढरपूर. ५० रा. मेथा माणिकचंद पानाचंद निमगांव ५० रा. शेठ रामचंद धनजी दावढा नातेपुते. ५० म. राजुबाई अ, गोतम चंद, बारामती. ५० रा. काळप्पा आण्णाजी लेंगडे शाहपुर बेळगांव ५० शा. माणिकचंद मोतीचंद आनंद सागवाडा. ७०१ श्री पूज्य आचार्य शांतिसागर अंथमाला. ५० श्री. जिनसेन भट्टारक कोल्हापुर. ५० स्व. लक्ष्मीसेन भट्टारक ५० संघभक्त शिरोमणि शेठ पुनमचंद घासीलाल मुंबई. ५० मेथा कस्तुरचंद मलुकबंद अकलकोट. ५० शहा देवचंद रामचंद सोलापूर. זן ५० श्री. रतनबाई देवचंद करजगीकर. ५० सौ. केशरबाई . हिराचंद रामचंद वळसंगकर. ५० श्री. म. कुबाई कारंजा. ५० शा माणिकचंद अमीचंद B. A. सोलापुर, ५०. रखमाबाई सोलापुर, ५० गंगूबाई पदमशी करचकर. ५० माणिकबाई कस्तुरचंद निबर्गीकर, ५० सी० चतुराई मोतीचंद शहा ५० रा. बळवंत ग्यानोबा ढोले आळंद. ५० रा. निबराज हिराचंद शहा आळंद ५० जोतीराम दलुषंत्र पंढरपूर. ५. नरसिंगा घोडी चिंचवाडे इचलकरंजी व श्री. जिनगौडा आपगोडा पाटील. ५० श्री. माणिकवाई हिराचंद जयचंद निमगांव. मस्ता. १७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना प्रस्त ५. श्री. कंकूबाई भ्र. रामचंद दोशी निमर्गाव. ५० स्व. मो. कंकुधाई वीरचंद कोदरजी गांधी फलटण, ५. श्री. चतुराई भ. मोतीचंद गांधी चिकोडीकर. ५० श्री. शंकरलाल गांधी मुंबई, ५० श्री. जिवराज माणिकचंद मेथा निमगांव. ५. शेठ मुणकरण मदनमोहन मुंबई. ५० शेठ नधुराम तलकचंद दोशी. ५. शेठ फरचंद वीपचंद नागपुर • श्री. बेणीचंद रामचंद मथा निमगांव, |५. सौ. चतुरबाई भ्र. हिराचंद अमीचंद गांधी उस्मानाबाद ५० श्री. द्विगचंद दाजी शहा. ५० शेठ हरीचंद खुशालचंद मोडनिय ५. श्री. मनायाई फुलचंद दोशी फलटणकर व गोतमचंद ५०० शेठ भूपाल आप्पा जिरगे. मोतीचंद करमाळेकर. ५० लक्ष्मण भामप्पा आरबाड सांगली ५०. शहः गुलाबचंद सुरचंद आउंद, 4. रतनबाई त्र. माणिकचंद. ५. सदा नचन्द रचई अद. १८. जिउ.बाई. मोतीमंद करजग:कार. १ शेठीलारंद हनचंद हिंगळी. 1५३ माबल बाद कळसकर. ५० मोतीचंद हरीचंद शहा नकदुर्ग. ५. मोतीचंद रावजी पगडकर. ५. स्व. सौ. चंद्रभागाबाई दत्तात्र मा कर.. ५.८ मनशालाल भगाराम नांदगांव. ५. मोतीचद जगचंद फलटणकर, पुना. 14. श्रेट धनराज गोकुळवंद कोपरतब, ५. भाऊ नभण्या दुर्ग कुरुंदवाड. .५० शेट दाहा परमचंद मोनीचंद करकंब. ५० श्री. बालुयाई भ्र. दलचंद हिवरेकर. ५. न. जिऊयाई अ. जिवनचंद विजापुर, ५० कुंदनलाल जयचंदलाल मदारीपूर, ५. मोतीलाल ल्हीला मुंबई. ५. दुलीचंद रतनलाल ५. श्री. प्र. जियराज गौतमचंद दोशी सोलापूर. ५० श्री. अमीचंद दलुचंद शहा मुंबई. ५. श्री. विहारीलाल कठनेरा जैन मुंबई. ५० श्री. रोडमल मेघराज सुसारी. २५ बी, गांधी नानचंद अमीचंद पंढरपूर. २५ भी. लिलाचंद रावजी कोठारी आळंद Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HESAR manca thatanaach Attithili. sex . roseminatiya in १२१५ ३.. M en .. . ... ... unita .. 0.17 A मलाराधना ( अपरनाम-भगवती आराधना) टीकाद्वयोपेता हिन्दीभाषानुवादसहिता च । in अथ अपराजितमरिकता विजयादया टीका । १ । दर्शनशानचारित्रतपसामागधनायाः सपरिकल्प, मदुपायं, साधकान महायान फलं च प्रतिपादायमुद्यतस्यास्य शास्त्रयादी मतलं सस्य श्रोतृणां च प्रारम्वकार्य प्रत्यूहभिगकृतीप्रम शुभपरिणामं विदधता तदुपायभूतयमरचि गाथा सिन्द जयप्पसिद्दे चउब्बिहाराहणाफलं पत्ते ॥ बंदित्ता अरहते बोच्छं आराहणं कमसो |॥ १ ॥ सिद्धा जगत्प्रसिद्वांश्चतुर्विधाराधनाफलं प्राप्तान् ।। वंदिस्वाहतो वक्ष्याम्याराधनां नमशः ॥१॥ १सिद्ध-सिद्धे जयप्पसिद्धे इत्यादिका । अत्राम्ये कथयन्ति । " निवृत्तविषयरागस्य निराकृतसकलपरिग्राहस्य क्षीणायुपासाधकस्पाराधना विधानाबधोधनार्थमिदं शाखें" तस्यायिनमसिभ्यर्थभियं मङ्गलस्य कारिका गाथेति । असंयत Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना अध्याय SANTONTACT सम्यग्हाटिसंयतासंयतप्रमत्ससंयताप्रमत्तसंयतादयोऽप्याराधका पप । तरिकमुच्यते निवृत्तविषयरागस्य निराकृतसकलपरि प्रहस्येति । न हासंयतसम्यग्रऐः संयत्तासंयतस्य या निवृत्तविषयरागता, सफलग्नस्थपरित्यागो पास्ति । क्षीणायुष सि चानुपपन्न । भक्षीणायुयोऽप्याराधकता दर्शयिप्यति सूत्रं । 'अणुलोमा या सत्तू चारिसविणासया हवे जस्से' ति। . शास्त्रान्तरे पश्चानां गुरुणां नमास्क्रिया प्रारभ्यते । तत्र चाईतामेधोपावानमादौ । न तु पुनईयोरेय नमस्कारो विपर्ययश्च । तस्किकृतं पैधय मिति । अत्रोच्यते अन्यथाप्रवृत्तायस्ति कारणं । बह द्विप्रकाराः सिजसाधकभेट्न जीयाः । अईता सिद्धानां साहाराधनोफलस्यात्, भाचार्यादीनां प्रयाणां साधकानामनुग्रहाये शादं प्रस्तूयत इति सिवामां मालरखेनोपावान युकं, मेतरेपामाधिक्रियमाणत्यासेषामिति माध्यपरिहारी केषांचित् । तापसाताविव लक्ष्ये ते। तत्र चाचस्य निषेद्यतेऽयुचता ! किमर्थ नमस्कारः क्रियते शास्त्रादिषु? अधिवप्रसिद्धये । कथं निहन्ति विघ्नमसी' सहियक्तुः श्रोतु मरेत् । उभयस्यापि नियन्धनमन्तरायः, 'विघ्नकरपामन्तरायस्य त.सू.] इति वचनात् । पश्चप्रकारोऽसौ दानलामभोगोपभोगवीर्याणां विद्यकारणभेदेन, तत्र घपतुर्दानान्मरायरसम्पादयति प्रत्यहं, विविधस्य हि दानस्य प्रतियाधको दानान्तरायः शानलार्भ विहन्ति श्रोतुर्लाभान्तरायस्तदायस्तो विघ्नः कथं तस्मिन्सति न भवेत् सत्यपि ममस्कार, यथा बीजसतिस्पसुम्परामरहिमकर संघाताधीनजन्मा ह्यिाद्यंकुर: स्वहेतुसामग्न्यां भवत्यन्यूनायां सन्निहि सेऽपि सालतमालादी नभेडापि । अथैवं वर्ष अन्तगरायोऽशुभप्रकृतिः। सच शुभपारपणामोन्मूलितरसप्रकर्षः स्वकार्य निष्पादयितुं गाजमिनि । यदाच शुमपरिणाममाषस्योत्रापयोगस्तथा सति सिमादिगुणानुरागः सर्य धयोपयोगी विना निराचिकीर्षतस्तत्र कस्मात् प्रेक्षापूर्वकारिणः क्रमाश्रयणभन्याय्य ! उपयात्मलामहेतुत्वमात्रनिवन्धनमुपायानामुपायत्वंतरानयत्रास्ति तस्य तस्योपायता तेन सर्य एवाईदादिगोचरा गुणानुरागास्तत्पुरःसरवाकायक्रिया अनारतक्रमा भवन्ति । धाछितफलप्रसाधना कैकरूपाथहयोऽपि 1 इमामानुपूर्धेमन्त गैषा सिद्धिः साध्यस्यान्यथा न विद्यत रति यत्र तत्राश्रीयते उपायक्रमः। यथा घर सिसाधयिपतो मृन्मर्दनपिण्डकरणच कारोपणादयः । युगपवनेकवच मप्रवृत्तिर संभाषिन्धकस्य चतुरिति नान्तरीय कत्तया क्रमाश्रयण तत्र च कामखारः । तथाहि सि सिटाणं ठाणमयोबममुहगयाणमिति। शासनगुणानुस्मरणमेव केवल । कचित्तीर्थस्वपि वीरस्वामिनः एव प्रथम नमरिक्रया। पस सुरासुरमणुसिक्वेदिदं घोदघादिकम्ममले । पपामामि बङमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ सेसे पुण तिथयरे ससम्वसिझे विसुझसम्भाषे । समणे य णाणदसणचरित्ततवधीरिगायारे । इति कादिकप्रघटेन, दसविदाणं तिहुश्रणविदमधुरविसषक्षाणमिति । कविजीवगुणा एवानाधितावादिस्वामिविशेषो निरूपितः "धम्मो मालमुकि" मिति । पये सति थैचित्र्ये का विपर्ययाशा' ययोक्त साधकानुनहाधिकारे सिद्धारममामवे मालेस्वमाधिकारो युक्त पति । इदं पर्यनुयोज्योऽयं श्रुतसाधकार्थमुत यद्येवं सकलस्य श्रुतस्य सामायिकावलौकबिन्दुसारान्तस्यादी मालं Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय मूलाराधना कुर्वद्भिर्गणधरैः मो. अरहताणमित्यादिना कथं पञ्चाना नमस्कारः कृतः ? तेन सूत्रविरोधिनी व्याख्या अनेनापि च सूत्रेण विरुध्यते। यदित्ता अरहते' इति अईतामुपादानात् । तेऽपि लिशा इति चेम् पृथगुपादानानर्धक्यं । अथैकदेशामदास्त इति पृथगुपात्ताः. आचार्यादयोऽपिकि नोपासानेपामध्येकदेशसिद्धतास्ति । एक शासिता अईतामप्याराधकन्ये सत्युपपदाने खव्याख्यानविरोधमाधत्त इति ॥ 'सिद्धे' सिद्धान्' जगप्पसिझे' जगति प्रसिद्धान् 'यदुटियधाराधणा फलं' चतुर्विधाराधनाफलं गत्ते प्राप्तान , वदिस्ता' बंदिया अरहते' अईतः 'बोच्छ' वक्ष्यामि . आराधणं - आराधना 'कमसो'कमशः॥ सिद्धशब्दस्य चत्वारोऽर्थाः नामस्थापनाव्यभावा इति । तत्र नामासद्धः क्षायिकं सम्यकावं, मानं दर्शन, घीर्य, सूक्ष्मता, अतिशयवतीमवगाहनां, सकस्बाधारहितता बानपेक्ष्य सिद्धशब्दप्रवृत्तेनिमित्तं कस्सिंचित्प्रवृत्तः -सिद्धशम्दः। ननु स्वरूपनिष्पत्तिः सिशनस्य प्रवृत्तेनिमित्तं न सम्यक्त्वादय इति चेत् सत्यं, व्यावर्णितयत्किचिन्यूनात्मरूप, निम्पत्सिनिमिसत एम्यत पयः। पूर्वभावप्राप्तिनयापेक्षया चरमशरीरानुमविष्टो य आत्माः क्षीरानुनविष्टोदकमिव संस्थानवसामुपगतः, शरीरापायेऽपि तमामानं..चरमशरीरात् किचिम्न्यूनात्मप्रदेशसमयस्थानं साधारोप्य तदेवेदमिति स्थापिता' भूर्तिः । स्थापनासिंहः । सिद्धस्वरूपप्रकाशनपरिणामपरिणतिसामाभ्यासित . आत्मा आगमदम्यासिकः । नोभागमद्रष्यसिसूखेधा सायकंशरीरमाषितस्यतिरिक्तभेदात् । हायकशरीरसि सिरप्राभृतमस्थ शरीरं भूतं भवत् भावि था । भविष्यस्सिदत्वपर्यायो जीपो भाबिसिङ्गः । तद्यसिरितमसंभषि,कर्मनोकर्मणोः सिध्दत्वस्य कारणस्वाभाषालासिद्धप्राभूतगदितरषरूपसिलमानमागमभावसिद्धः क्षायिकशानदर्शनोपयुक्तः परिमाताव्याबाधस्वरूपनिविएपशिखरस्थो नोआगमभावसिद्धः । स रह गृहाते । मनु सामान्य समस्यान्तरण प्रकरण विशेषणे पाभिमितार्थवृत्तिता दुरषगमा अत पव विशेषणमुपातं चतुर्विधाराधनाफल प्राप्तानिति । सम्यकत्र्य केबलकानदर्शने सकलकर्मविनिमुक्ततेति चतुर्विध, चतुर्विधाया आराधनायाः फलं साध्य तत्प्राप्तिरात्मनः सम्यग्दर्शनादिरूपेण समस्थानं । ततोयमर्थः- फलं पसे 'त्यस्य क्षायिकसम्यक्त्वकेषलझानवर्शमनिरपशेपकर्मविनिर्मुक्ततारूपेणा-य. स्थितामिति । जगति आसत्रमध्यजीवलोके समीचीनशुतज्ञामलोचने प्रसिध्दान् प्रतीतान विदितान । 'अरहते' इत्यत्र न शब्दमम्तरेणापि समुश्चयार्था गतिः। पृथिव्य लेजोवायुराकाशं कालो विगारमा मन इति व्याणीत्येवं यथा निहतमोहनीय तयारत शानदर्शनाघर पात् अतिशयितपूजामाज प्रत्ययमर्थोऽनेन 'अरहते इत्यनेनोक्तः । अनुगतार्थत्यादभिति संज्ञाया:यथा सर्वनामशब्दोऽङ्गीकृत शब्दार्थसंशाभावमुपयाति। अथवा 'जगप्पसिध्दे प्रति भहनां विशपणं, यतः पश्वकल्याणस्थानेषु विएपनयेणाधिगता महात्मानः, नैयमितरे सिद्धाः । सर्यस्यैव हि वस्तुनः कथंचिःमतीतत्वे सति अप्रतीतस्य कस्यचिदभवात् प्रसिधग्रहणमुपात्तप्रकर्षमिति गभ्यते । यथाऽभिरूपाय कन्या देयेति । तेनायमों जगति प्रसिध्दतमानिति । अहंतामेव प्रतीततरत्वमुक्तेन क्रमेण । अनधिगलप्रयोजनः थोता न यनते श्रवणेऽध्ययने बा । परोपकारसंपादनाय चेदं प्रस्तूयते मया, नतः प्रयोजन प्रकरयाभारयार 'घोर आराहण' मिति। एतेनाराधनास्वरूपायगमन प्रयोजन शानचवपाद वतीन्यावेदितम् । E ARTStaline Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना ४ नन्वाराधनास्वरूपावगमनं पुरुषार्थः पुरुषार्थो हि प्रयोजनं, पुरुषार्थश्च सुखं दुःख निवृत्तिर्वा न चासयोरम्यतरताऽस्य । अयमस्याभिप्रायः, यो येनार्थनार्थी सतरप्राप्तये तदीयमुपायमधिगमुपादेयं वा यतते । येन प्रयुक्तः क्रियायां प्रवर्तते तत्प्र योजन, मागेन प्रयुज्यते श्रवणादिक्रियायामुपयोगिवस्तुपरिज्ञानं प्रयोजनं भवतु, भाराधना तु कथमुपयोगिनी सकलसुख रूप केवलज्ञानपर माग्यायाधतां जनयतीत्युपयोगिनी । तथा चोक्तं चतुर्विधाराधनाफलं प्राप्तानिति । ततोऽयमर्थः, अनन्त शानादिफलनिमिताराधनाऽवयोधनार्थमिदं शास्त्रमारभ्यत इति साध्यमाराधनास्वरूपक्षानं साधनमिदं शास्त्रमिति साध्य साधनरूपसंबन्धोऽपि शास्त्रप्रयोजनयोरत एव वाक्यालभ्यते । अभिधेयभूतास्तु चतस्त्र आराधनाः । प्राह्यमिदं शास्त्र प्रयोजनादित्रय समन्यतत्वात् व्याकरणादिवदिति । एवमनया मल प्रयोजनादित्र्य व सूचितं । 'कमसो क्रमेण पूर्वशास्त्रनिगदितेन, पतेन स्यमनीपिकाचर्चितमिति । वचनानुसारितया प्रमाणमिदमाख्यातं भवति । 'पुच्चसुताणं' इति वाक्यशेषादित्यं लभ्यते ॥ अथ श्रीमदाशाचरकृतं मूलाराधनादर्पणम् । २ । नव्याहतः समुग्धानां विवृणोम्यहम् ॥ श्री मूलारावजागृपदान्वाशावरोऽर्थः ।। १ ।। तत्रादी ऐन्द्रयुगीनश्रमणोपयुज्यमानप्रवचनविष्यामृत माधुर्यश्तत्र भवान् शिवकोट्याचार्यवर्यः शिष्टाचारं प्रमातुं मंगलपुरःसरमुपदेश्यं वस्तु निर्दिशन् श्रोतृप्रवृत्संगतया च प्रयोजनादित्रयमवबोधयन् ' सिद्धे ' इत्यादि सूत्र चतुर्विंशतिगाथामयपीठिकाप्रथमावयवभूतमासूत्रयामास ॥ एतदर्थः करपते सभा - बोच्छे वक्ष्यामि । प्रतिपादयिध्याम्यहं ग्रंथकारः । को आराधनां १ आराध्यते सेव्यन्ते स्वार्थप्रसाधकाने क्रियते सम्यग्दर्शनादीनि मोक्ष सुखार्थभिरनयेत्याराधना आराध्यनिष्ठ आराधकव्यापारः । उपजातसम्यग्दर्शनादिपरिणामस्यात्मनस्तद्द्वतातिशयवृत्तिरित्यर्थः ॥ तथा चोक्तम् रत्नन्नयमाराध्यं भव्यस्वाराधको विशुद्धात्मा ॥ आराधना सुपायस्तत्फलमभ्युदयमोक्षौ स्तः ॥ aat | केन ? कमलो क्रमशः पुण्बसुत्ताणमित्यध्याहारात्पूर्व सूत्रमेणेत्यर्थः ॥ एतेन गुरुपूर्वक्रमायातामाराधनामहं वक्ष्यामि न स्वमनाविकार्चितामित्युक्तं स्यात् । किं कृत्वा ? बंदिता वंदित्या अणस्य स्तुत्वा वा । कान् ? सिद्धे अध्याय १ ४ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलाराधना ५ सिद्धान् । किविशिष्टान् ? पचे पातात् । किं तत् ? हाराहाफलं सम्बग्दर्शनाद्याराध्यचतुर्विध्याच्चतुर्विधाया आराधनायाः फलं खाभ्यं क्षायिक सम्यक्त्व केवलज्ञान दर्शनानि सर्वकर्मनिर्मोवश्वेति चतुष्टयं तद्रूपेय समवस्थितानित्यर्थः ॥ एतेन नामादिसिद्धष्ट व्यवच्छेदासो आगमभाव सिद्धाः संगृह्यन्ते ॥ नामादिनिशेषापेक्षा हि नया सिद्धाः संभवन्ति । कर्मनो कर्मणोः सिद्धत्वस्य अकारणत्वेन तद्व्यतिरिक्तस्यासंभवात् । तथादि नामसिद्धाः स्थापनासिद्धाः आगमद्रव्यसिद्धाः, भाविनोशरीरनो भाग मद्रव्यसिद्धाः । भवज्ञाय कशररिनो आग मद्रव्यसिद्धाः भविष्यज्वाय कशरीरनो आगमद्रव्य सिद्धाः, भाविनोआगमद्रव्यसिद्धाः आगमभाषसिद्धाः, नोभागमभावसिद्धाञ्चति ॥ अत एव सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिरेषामतिशयेनाशरीरत्वलक्षणेनास्तीति 'अर्श आवे' इत्यनेन अनत्वयेऽन्यर्थतया लिद्धशब्दोऽपि व्युत्पाद्यः ॥ एवं तते धूपगिलोके केनाप्यनुपलच्यत्वाद्धीमतामयया भविष्यति इति अनाश्वः सनिरासार्थमाह--पुनः किंविशिष्टान् ? 'जलिद्धे' जगत्यासन्नभव्यता के समीचीनज्ञानलोक्ने प्रतवान् । कतिपयज्ञन संवेद्यानित्यर्थः । एतेन लोकोत्तरत्वादतिदुश्यन्ववकारी हुनुनुभिः कर्तव्य इत्याद्यते । न केवलं ताकि वार्ड, अरहन्ते ' अर्द्दतञ्च वंदित्वा । अरिहनना जोरहस्यहननाथ परिमाप्रतिचतुस्त्ररूपाः सतः शक्रादिवर्तीपूजामतीस्वम् इति निरुक्तमिनि तलक्षणं स्फुटीकर्तुं जयप्यतिद्धेत्वापि योग्यः | जनलोक: कालोकयुक्त्येन साक्षाद्भावेन च सिद्धं निर्णीतं यैर्येभ्यश्च संदेहादिव्यवच्छेदेन मय्यैगति च तेषु महाकल्याणस्थानेषु प्रतिद्वाः प्रतीताः ये तान् लोकालोक साक्षात्कारिणस्तदुपदेशकान्त्रनयतीश्वत्यर्यः ॥ अत्र सर्व एव अदादिगुपानुरागा: शुभपरिणामत्याशुभकर्मप्रकृतीनां रसप्रकर्षमुन्मूल्य यांछितार्थसाधनाय प्रभवन्तीति प्रेक्षापूर्वकारिणः पूर्वाचार्याः स्वस्थ ज्ञाननांतराय श्रोतॄणां च ज्ञानलामांतराचं निराकर्तुकामा निजनिजशात्रारंभेऽईदादीनां समस्तानां व्यस्तानां व कामचारेण मंगलं उपात्तयन्तः प्रतीयन्ते । इत्यस्य शास्त्रत्या स्वरवताय प्राक् सिद्धाः पञ्चाश्वन्तो मंथकृता नमस्कृताः । भवति चात्र लोक:--- नेष्टं विहन्तुं शुभभात्रभनरसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः || कामचारेण गुगारागान्नत्यादिरिष्टार्थदादेः ॥ किंच, यो पद्गुणार्थी मंथकृत सिद्धान्प्रथमं नमञ्चकार तत्प्राप्त्युपायोपदेशज्येष्ठतया च पञ्चावतोऽपि । तथा चोक— अवष १ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लागधना अध्याय - अभिमतफल सिद्धेरभ्युपायः सुबोधः । प्रभवति स च शास्त्रात्तल चोत्पत्तिरातात् ।। इति भवति स पूज्यस्वत्प्रसाद प्रबुद्धनहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ।। अतश्च सामग्रलब्धत्यात् पुव्यसुत्ताणमिति नोक्तं ॥ तथा क्षिप्रं मोक्षार्थिनां मुक्तारमान एव परमार्थतो भक्तच्या . इत्युपदेष्टुं प्राक् सिद्धस्तुतिः कृता । तथा पोका .' : .. :: . सपयत्यं तिथपर अधिगदबुद्धिस्स सुतरोइस्स ॥ . वरतरं णिव्याण संजमतपसपउत्तस्त ।। वहा णिव्युदिकामो णिसंगो जिम्ममो य भविय पुणो : . .. .. "सिद्धसु फुगदि भत्ती णिन्धाणं सेण पप्पोदि ॥ . . . . . ... ... : - L: .:. . . .सर्वस्यैव दि शास्त्रस्य कर्मणो यापि कस्यचित् ।। . . ... .. । यावत्प्रयोजनं नोक्त तावतत्कन गमताम् ।। इत्यस्य शाबस्य प्रायत्यप्तसिद्धये प्रयोजनमाकर्ण्यत । येन नियायां प्रयुज्यते तत्प्रयोजनमिति शास्त्रश्रयणादि... 'क्रियायां शासन प्रयुम्यते इति तदेव शास्त्रस्य प्रयोजन | शासश्रवणादेझोन में जानिष्यत इति हि तत्र प्रवर्तते । तदस्य : शास्त्रस्य मुख्यमाराधनास्वरूप ज्ञान प्रयोजनं, आनुषंगिकं तु तद्विकल्पादिनानमपि । ज्ञानाचाराधनायाः स्वरूपविकल्मतदुपायसाधकसहायफलानां पण्णामप्यनेन शास्त्रेणाभिधास्यमानस्यात् ।। भवति चात्र श्लोकः शास्त्रं लक्ष्म विकल्पास्तदुपाय: साधकस्तथा ॥ सहायाः फलमित्याह शनापाराधनाविधेः ।। तत्परिज्ञानात्पुनः सम्यक्त्वावाराधनाया प्रवर्तमानः सकलसुखस्वभावं केवलझान, परमावघोषत्वं च प्राप्नोतीति परंपरया तदुभयमप्यस्य शास्त्रस्य प्रयोजनं । वस्तुतः सुखस्य दुःखमिवृत्तेषी पुरुपेणार्यमानत्यात तत्स्वरूपादिपटकस्य शास्त्रस्य चाभिधानाभिधयभाषलक्षण: संघधः | आराधनाया अनंतलानादेश्च साध्यसाधनभावस्वभावः । तत्त्रयं च घोच्छ आरादणा' मिति बुधाणेन सूरिणा सूचितं लक्ष्यते । ततो प्राथमिदं शास्त्र प्रयोजनादिनयसमन्वितत्वात् ।। - - ........ . .. . .... . . .. .. . . . .. . Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधना अध्याय अथ हिंदी भाषानुषादः। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनके आराधनाका स्वरूप, इस आराधनाके विकल्प अर्थात् भेद, और उपाय, साधक, सहायक तथा आराधनाका फल इतनी बातोंका यह भगवती आराधनाशास्त्र विवेचन करेगा. अर्थात जो विषयोंका हा मानमें बनाम किया है । इस शास्त्र के प्रारंभमें स्वतःके तथा श्रोताओंके प्रारब्ध कार्यमें उत्पन्न होनेवाले विनोंके परिहारमें समर्थ ऐसा मंगल और शुभ परिणाम करनेवाले श्री शिवकोटि आचार्जाने उसके उपायभूत यह ऊपरकी गाथा रची है. यहां पर कोई विद्वान् ऐसा कहते है-पंचेंद्रियोंके विषयोंसे जिसका प्रेम हट गया है. संपूर्ण परिग्रहाँका जिसने त्याग किया है, जिसकी आयु क्षीण हई है, ऐसे साधकको आराधनाका विधान समझाने के लिए यह शास्त्र थाचार्य महाराजने लिखा है. साधकके आराधनासाधनमें निर्विघ्नता हो यह हेतु मनमें धारणकर आचार्यने उपयुक्त मंगलश्लोक रचा है. इस विचारसरणीका खंडन आचार्य इसप्रकार करते हैं-असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत वगैरह गुणस्थानोंके धारक पुरुप आराधक हैं ही अतः पंचेंद्रिय विषयासे जो पराङ्मुख है, जिसने सर्व परिग्रह तजे है, तथा जिसकी आयु क्षीण हुई है ऐसे साधकके लिए यह शास रचा है पह कहना अनुचित है. क्योंकि असंयत सम्यग्दृष्टि तथा संयतासंयत वि संपूर्ण विषयोसे विरक्त नहीं है, तथा वे सर्व परिग्रह त्यागी भी नहीं है. तो भी वे आराधक माने गये है. क्षीणायु व्याक्त ही आराधक हो ऐसा कहना भी योग्य नहीं है. क्यों कि 'अणुलोमा वा ससू चारित्तविणासपा हवे जस्स' इस सूत्रसे अक्षीणायु व्यक्ति भी आराधक होता है यह सिद्ध होता है. अर्थात् कुटुंबादिक बांधव जिसके चारित्र धर्मका नाश करनेके लिये उद्यमी हुए हों अथवा | कोई शत्रु चारित्रसे भ्रष्ट करनेके लिए उतारू होगया हो तो उस समय अक्षीणायु भी आराधक होता है, इसका आचार्य आगे खुलासा करेंगे ही। प्रश्न-अनेक शास्त्रों में पंच परमेष्ठिओंको नमस्कार किया है, तथा अईल्परमेष्टिको प्रथम नमस्कार लिखा है परंतु इस आराधना शास्त्रमें अईत् और सिद्ध ऐसे दोही परमेष्टिओंको नमस्कार किया है और वह भी विपरीत प्रकारसे किया है. अर्थात प्रथम सिद्ध परमेष्टिको नमस्कार करनेके अनंतर अहत्परम देवको नमस्कार किया है, ऐसे विपरीत क्रमका क्यों आश्रय किया है ! Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्याय सराधना उत्तर-विपरीत क्रमका आश्रय करने में यह कारण है-इस शास्त्रमें लिद और साधक एमे दो प्रकारक जीद कहे हैं. अहत और सिद्ध परमेष्ठि आराधनाका फल पाचुके हैं अतः वे सिद् जीव हैं, आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्टि ये तीनों भी साधक माने गये हैं. इन साधकोंक ऊपर अनुग्रह करने के लिए इस शास्त्रकी रचना की है. अत: सिदोंको मंगलरूपसे स्वीकार कर उनको आचार्य ने प्रथम नमस्कार किया है, यह योग्यही दुआ. आचायदि तीन परमेष्टिनाको चंदन नहीं किया है क्योंकि वे आराधनाके अधिकारी है. उन्होंने आराधना फलको प्राप्ति नहीं की है. ऐसा किसी विद्वानोंका भाप्य व परिहार है, परंतु य दोनों भी असंगत सरोग्य मायम पदंत हैं. प्रधमतः यहां भापकी अयुक्तता आचार्य दिखाते है शास्त्रादिको नमस्कार क्यों करते हैं? यदि निधि रीती से शासकी सिद्धि हो। इस हेतुसे नमस्कार BE करते हैं ऐसा कहोगे तो हम आपसे ऐसा पूछते हैं कि वह कैसा विलपरिहार करता है ? विन श्रोताको अथवा वक्ताको होना है क्या ? विन्न दोसको भी होता है तथा अन्तसय कर्म उपका कारण है. 'बिनकरणमन्तरायस्य । ऐसा आचार्य उमास्वामीका वचन भी है. इस अन्तराय कर्मके दान, लाभ, भोग, उपभोग, व घीर्य इन पांच कार्य। में विघ्नलागा होनेसे मान कर है, ना बकमें दानांतराय फर्म उपस्थित होता है उससमय वह उसको विन करता है, अर्थात् वक्ता उससमय शास्त्रत्चना करने में असमर्थ होता है. दानान्तराच कर्म आहारदान, सतिकादान और शाखदान ऐसे तीन दान में विन्न करता है, अतः दानान्तसय कर्म ज्ञानलाभका पात करता है. श्रोताको लाभांतराय कर्म हो तो वह शाखलाभ-शाख प्रब गलाभ होने नहीं देता, नमस्कार करनेपर भी यदि अन्तराप कम उदयमें आया हो तो शाख रचना तथा अनगलाभ क्यों नहीं होते? इस प्रश्नका उत्सर यह है--शाल्यं कुर उत्पन्न होनेमें शालिबीज, जल, जमीन, सूर्य के किरण इतने कारण होते हैं. वह सर्व समग्री पूर्ण रहनेपर भी, यदि साल तमालादि घृक्ष मौजद हो तो शल्यंकुर उत्पका नहीं होना. प्रकृत प्रकरणमें भी ऐसा ही समझना चाहिए. अयात् वक्ता और श्रोताओने नमस्कार किया हो तो भी अन्तराय कर्म होनेसे प्रस्तुन कार्य करने में वे समर्थ नहीं होते हैं. यहाँपर यदि आप ऐसा कहोग-" यदि अन्तराय अशुभ कर्मप्रकृति है, परंतु शुभ परिणाम उत्पन्न होनेसे उसका विन्न करनेका उत्कट म नट हो जाने से वह विनरूपी स्वकार्य करने में असमर्थ हो जाता है तो - - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय राधना A शुभ परिणाम मात्र ही प्रस्तुत प्रसंगमें उपयोगी होते हैं ऐसा सिद्ध हुआ, अतः सिध्दादि परमेष्ठिओंके गुणोंमें अनुराग करना यह सर्व विघ्न दूर करनेके लिए आवश्यक है ऐसा सिद्ध हुआ, विद्वान् पुरुष शास्त्रमारंभमें अहंदादिकोंको क्रमपूर्वक नमस्कार करते हैं." ऐसा आपने जो भाष्य किया वह सरोजसा ज्ञात होता. वस्तु प्राप्त होनेमें अथवा प्राप्य वस्तुका जन्म होनेमें जो कारण लगते हैं ये उपाय हैं, जहां जिस कारणसे प्राप्य वस्तु प्राप्त हो वह वहां उपाय समझना चाहिए, अतः सर्व ही अहंदादिविषयक गुणानुराग तथा तत्पुररसर वचन और शरीरकी चेष्टायें क्रमयुक्त ही होती हैं ऐसा नियम नहीं है. एकेक उपाय भी इष्टफल प्राप्तिके लिये सहायक हो सकता है, ऐसे बहुत से उपाय हैं जो एकेक भी इष्टफल प्राप्तिमें सहायक होते हैं, अतः ऐसे स्थानोंपर क्रमका आश्रय करनेकी आवश्यकता नहीं होती है. जहां क्रमये उपायोंका आश्रय करनेसे कानगिदि होती है वहां उपायक्रनका शुरपा लेना चाहिए, जैसे घट बनाने की इच्छा हो नो नट्टीका मर्दन करना, पिंट करना, चाकपर उसका आरूढ करना वगैरे उपाय क्रमसे ही करने पड़ेंगे. अन्यथा घटोत्पत्ति न होगी. बताके मुखसे एक समगमें एक ही शब्द निकलेगा. अनेक वचनोंकी प्रवृत्ति होना असंभव है. इस वास्ते शब्द क्रमसे ही मुख से निकलेंगे. अत: नमस्कार वचन में वक्ताकी स्वेच्छाही मुख्य रहेगी. नमस्कार विषयमें स्वेच्छाप्रवृत्ति शास्त्रों में प्रायः देखी गई है. यहां आचार्य उसके थोडेसे उदाहरण देते है, यथा--'सिद्ध सिद्धहाणं ठाणमपावमसुहगयाणं' अर्थात् जो अनुपम सुखको प्राप्त हुए, कृतकृत्य, ऐसे अईत्परमेटिओंका शासन अनादि है, तथा वह सिद्धीका कारण है. इस श्लोकांशमें जिनशासनके गुणोंकर हिं केवल स्मरण किया है. क्वचित शास्त्रमें चोवीस तीर्थकरोमिसे प्रथमतः वार लर्थिकर को ही नमस्कार किया है. यथा--एस सरासर मणसिंद इति । यहाँ श्री बुंदधुदाचार्यजीने क्रमसरणका उल्लंघन किया है. पंचास्तिफाय-समयसारमें सामान्यतः संपूर्ण जिनेश्वरोंका स्मरण किया है । वाचे शास्त्रमें अईदादिकोंको नमस्कार न करके केवल जीवगुणका ही स्मरण किया है. जैसे--'धम्मो मंगलमुक्किहमिति । इस तरहसे देखा गया तो नमस्कारके विषयमें अनेक प्रकार होनेसे विपरीत पना की शंका लेना पर्थ है। "साधकोंके उपर अनुग्रह करने के लिये यह शास्त्र है अतः इसमें सिद्धपरमेष्ठिको ही मंगलरूपता है" ऐसा कहना भी अयुक है। हम यहां ऐसा पूछ सकते हैं कि--सिद्धिको चाहनेवाले साधकोंपर अनुग्रह करनेका अधि Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारावना १० कार होनेसे यहां सिद्धों को नमस्कार किया है अथवा श्रुतसाधकों पर अनुग्रह करनेका अधिकार होनेसे सिद्धों को बंदन किया है? दूसरा पक्ष मानेंगे तो भी आपका मत सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि, सामायिकसे लेकर लोक बिंदुसार पर्यंत जितना द्वादशांग है उसकी रचना गणधरोंने की हैं. उसके प्रारंभ में गणधरोंने ' णमो अरहंताणं ' इत्यादि वाक्योच्चार करके पंचपरमेष्ठिओं को नमस्कार किया है। यह भी आपके मंतव्यके विरुद्ध है । यतः पंदण मोकार रूप मंगलमें प्रथम अरहंत परमेष्ठीको नमस्कार किया है. अनंतर सिद्ध परमेष्ठीको किया है। परन्तु " सिद्धे जयप्पसिद्धे " इस मंगल गाथामें प्रथमतः सिद्ध परमेष्ठीको अनंतर अरहंत परमेष्टीको नमस्कार किया है। यदि अस्परमेष्ठी भी सिद्ध ही है ऐसा कहोगे, तो सिद्धपरमेष्ठिओंका ' सिद्धे जयप्पसिद्धे ' इस वाक्यसे स्मरण किया ही है फिर अर्हत्परमेष्ठीका सिद्धत्वरूपसे स्मरण करना व्यर्थ होता है। यदि अर्हत्परमेष्ठी एकदेशसिध्द हैं इस वास्ते उनको पृथक नमस्कार किया है ऐसा कहोगे, तो आचायदि भी एकदेशसिध्द हैं, उनका ग्रहण क्यों नहीं किया यह प्रश्न उपस्थित होगा. एकदेश सिध्द होने पर अहंत भी आराधक हैं ही तो भी, उनका मंगलरूप समझ करके ग्रहण किया है ऐसा कहोगे तो तुम्हारा यह विवेचन विरुध्द होगा. अतः इतने विवेचनका यहां यह अभिप्राय है कि, यह ग्रंथ रखनेवाले आचार्य श्री शिवकोटिकी यहां क्रम विवक्षा नहीं है. अतएव उन्होनें प्रथम सिध्द्ध परमेष्ठीको, अनंतर अईत्परमेष्ठीको नमस्कार किया है. यहां संक्षिप्त गाथार्थ इस प्रकार है" . जिन्होंने चार आराधनाओंका फल प्राप्त किया है, जो जगतमें प्रसिध्द हुए हैं ऐसे सिध्द परमेष्टीओंको, तथा सिध्द के समान जिनको चार आराधनाओंका फल मिला है ऐसे जगत्प्रसिध्द अर्हत्परमदेवको भी वंदन कर मैं ( श्री शिवकोट्याचार्य ) क्रमशः - पूर्वाचार्य प्रणीत शास्त्रों के अनुसार इस आराधना ग्रंथको कहता हूं अर्थात् भगवती आराधना नामक ग्रंथ की रचना करता हूं. ' सिद्धे जयपसिद्धे' इस गाथामें जो सिद्ध शब्द आया है उसके नाम, स्थापना, द्रव्य व भाव ऐसे चार अर्थ हैं. इन अर्थोक विशेष विवेचन इस प्रकार है १ नाम सिद्ध- क्षायिक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्मता, संसारावस्था में प्राप्त न होनेवाली अवगाहन शक्ति तथा सर्व बाधाओंसे रहितपना ऐसे गुणों की अपेक्षा न करके सिद्धशब्दको प्रवृत्तिके निमित्त किसी अध्याय १ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रश्चना ११ व्यक्तिमें सिद्ध शब्दकी प्रवृत्ति होना वह नाम सिद्ध है. शंका-स्वरूपकी उत्पत्ति सिद्ध शब्दकी प्रवृत्तीका निमित्त होता है. सम्यक्त्वादिगुण सिद्ध शब्दकी प्रवृतीका निमित नहीं होते हैं. फिर यहां पर सम्यक्त्वादिगुणों को सिध्द शब्द की प्रवृत्तीका निमित्त क्यों बताया इस शंकाका उत्तर आधार्थने ऐसा दिया है २ ठीक है. सम्यक्त्वादि गुणोंके स्वरूपकी निष्पात्री निमित्तसे हो जाती है, ऐसा हम मानते ही हैं. पूर्वभाव प्रज्ञप्ति नयकी अपेक्षा अर्थात् सिध्दत्व प्राप्त होनेके कालमें अन्तिम शरीरमें प्रविष्ट जो आत्मा वह दूधमें मिले हुवे पानी के समान सीकर था. यही रमा शरीरका नाश होनेपर भी अन्तिम शरीरसे किंचित् न्यून आत्मप्रदेशोंकी आकृतीसे युक्त है, ऐसा बुध्दीमें आरोपण कर ' वही यह है' ऐसा समझकर स्थापन की गई जो मूर्ति उसको स्थापना सिध्द कहते हैं. ३ आगम द्रव्यसिध्द-सिध्दों का स्वरूप प्रकट करनेवाले ज्ञानकी परिणती के सामर्थ्य से युक्त जो आत्मा उसको आगम द्रव्य सिध्द कहते हैं. अर्थात् जिस आत्मा के ज्ञानमें सिध्दों का स्वरूप जाननेका सामर्थ्य प्राप्त हुया है परंतु वर्तमान अवस्थामें वह सिद्धोंको नहीं जानता है, ऐसे ज्ञानसे युक्त आत्माको आगमद्रव्यसिध्द कहते हैं. ४ नो आगम द्रव्य सिध्द इनके ज्ञायक शरीर, भावि तथा तद्व्यतिरिक्त ऐसे तीन भेद हैं, ५ ज्ञायक शरीर सिध्द-सिध्दोंके स्वरूपका प्रतिपादक ऐसे सिद्ध प्राभृत शास्त्रको जाननेवाले जीवका भूतकालीन, भविष्यत्कालीन व वर्तमान कालीन जो शरीर वह सिध्द स्वरूप जाननेमें जीवको मदत करता है अतः ऐसे त्रिकाल गोचर शरीरको ज्ञायक शरीर सिध्द कहते हैं. ६ जिस आत्माको भविष्यकालमें सिध्दत्वपर्याय प्राप्त होगा वह आत्मा भाविसिध्द है. ७ तद्वयतिरिक्तसिध्द यह भेद होता नहीं, क्योंकि, कर्म और नोकर्म ये सिध्दत्वके कारण नहीं हैं. कर्म, नोकर्म जबतक जीवके साथ रहेंगे तबतक सिद्धत्व प्राप्त नहीं होता. ८. आगम भावसिध्द - सिध्देप्राभृतमें जो सिद्धोंका स्वरूप लिखा है उसको वर्तमान कालमें जाननेमें उपयुक्त हुए ज्ञानको आगमभावसिध्द कहते हैं. ९ नो आगमभावसिध्द - क्षायिक ज्ञान दर्शनसे युक्त, अव्याबाध स्वरूपको प्राप्त हुवा, लोक शिखर में अध्याय R ११ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १२ विराजमान जो शुध्दात्मा वह नो आगमभावसिद्ध है. यहां नो आगमभावसिध्द को ही सिध्द समझना चाहिए. शंका- प्रकरण अथवा विशेषण के बिना सामान्य शब्द की अभीष्टार्थ में प्रवृत्ति हैं यह समझना कठिन बात है. अतः सामान्य सिध्द शब्द से नो आगम भावसिध्दका ग्रहण यहां कैसा हो सकेगा ? उत्तर- अतएव आचार्य महाराजने 'चतुराना प्राप्तान् ' यह विशेषण देकर यहां नो आगमभाव सिध्दका ही ग्रहण करना योग्य है ऐसा प्रकट किया है. सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, केवलदर्शन, व संपूर्ण कर्मरहितता यह चार आराधनाओंका फल है, अर्थात् सम्यन्दर्शनादिगुणोंसे परिपूर्ण होना- ट्रप होना यह आराधनाका फल है. फलं पत्ते - क्षायिक सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, दर्शन व सर्व कमसे मुक्तता ऐसे स्वरूपसे सिद्ध परमात्मा युक्त होगये है, यह आराधनाका फल उनको मिल गया. अरहंत भी जगप्पसिद्ध-जगत्प्रसिद्ध है. निर्दोष स्तज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले आसन्न भव्य जीवरूप जगतमें अरहंत प्रसिद्धि पाचुके हैं अतः वे जगत्प्रसिद्ध है. अरहंते इस शब्द के आगे 'च' शब्दक योजना नहीं की है तो भी यहां समुचयार्थ समझ लेना. व शब्द के बिना भी समुच्चयार्थका बोध होता है; उसका उदाहरण यह है-' पृथिव्यप्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन ' इति इस वाक्यमें च शब्दके विना सर्व द्रव्यों का वैशेषिक मतवालोंने संग्रह किया है. मोहनीय कर्म नष्ट करनेसे, तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म दग्ध करनेसे जो इंद्रादिक के द्वारा विशिष्ट पूजाको प्राप्त हुए हैं ऐसे जिनेश्वरोंको अरहंत यह अभ्यर्थ नाम प्राप्त हुआ है, जैसे सर्वनाम शब्द समस्त शब्दार्थों की संज्ञा हो जानेंसे अन्वर्थ हैं. अथवा ' जगप्पासिद्धे' यह अर्हत्परमेष्ठीका विशेषण समझना चाहिए. क्योंकि गर्भ जन्मादि इतर पंचकल्याण स्थानों में त्रैलोक्यके द्वारा वे महात्मा से विन होते हैं। ऐसे इतर सिध्दपरमेष्ठी सेवित नहीं हैं. कोई भी वस्तु किसी प्रकार से प्रसिद्ध होती ही है. अप्रसिद्ध ऐसी कोई वस्तु नहीं है अतः जगप्यसिध्दे यह अर्हन्तका विशेषण व्यर्थ दीखेगा. परंतु व्यर्थ नहीं है. जैसे अभिरूपाय कन्या देया रूपवानको कन्या देनी चाहिये ऐसा इस वाक्यका अर्थ है. परंतु रूप रहित कोई पुरुष जगत में रहता ही नहीं. सभी पुरुषोंमें रूपगुण रहताही हैं अतः यह वाक्य व्यर्थ होता है ऐसा नहीं. अभिरूप इसका अर्थ विशिष्टरूपवान् अर्थात् सुंदर पुरुष ऐसा करने से अध्याय ? १२ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARCHR अध्याय राधना व्यर्थता नष्ट होती है. उसी तरह 'जगत्प्रसिद्ध ' इस अईन्त के विशेषणका प्रसिद्धतम पेसा अर्थ समझना चाहिए इस विशेषणसे अइत्परमेष्टीकी ही अधिवाना परिद मूभिर गई है. जबतक श्रोताको प्रयोजनका ज्ञान होता नहीं तबतक वह शास्त्र अत्रण करने में अथवा उसका अध्ययन करनेमें प्रयत्न नहीं करेगा इस वास्ते परोपकार करने के लिए उयुक्त हुवा मैं यह शास्त्र रच रहा हूं. अत: म शास्त्र रचनेका प्रयोजन प्रगट करता हूं ऐसा आशय मनमें धारण करनेवाले आचार्य' बोई आराहणमिति' इस वाक्यसे प्रयोजन कहते है. आराधनाके स्वरूपका ज्ञान होना यह प्रयोजन है तथा यह प्रयोजन श्रोताको इस शास्त्रक सुननेसे प्राप्त होगा ऐसा अभिमाय ' वोच्छ आराहणं' इस वाक्य से झलकता है। शंका--आराधनाको स्वरूपरि ज्ञान होना यह पुरुषार्थ नहीं है. पुरुषार्थको प्रयोजन कहते हैं । सुख अथवा दुःख निवृशिको पुरुषार्थ कहते हैं। आराधनाका स्वरूप ज्ञान होना यह सुखरूप अथवा दुःखकी निवृत्ति एतप नहीं है अतः स्वरूपारगमन प्रयोजन नहीं है. इसका खुलासा हम इस तरह करते हैं जो जिस प्रयोजनको चाहता है वह उसको प्राप्त करनेके लिए उसके उपाय जानने का प्रपत्र करता है। अथवा माप्य वस्तु मिलानेका प्रयत्न करता है । जिसके द्वारा प्रयुक्त होकर कार्यमें मनुश्य प्रवृत्त होता है उसको प्रयोजन कहते हैं। आत्मा ज्ञानके द्वारा शास्त्रश्रवणादि किया प्रवृत्त होता है अव उपयोगिरस्तुका शान होना यह प्रयोजन कह सकते है। शंका-परन्तु आराधना तो कुछ उपयोगिनी नहीं है अतः उसका ज्ञान कर लेना आवश्यक नहीं है । उत्तर--यह आराधना अनंत सुखरूप केवलशान व परम अध्यावाधवा इन गुणोंको उत्पन्न करती है अत: यह आराधना अवश्य उपयोगी है. अतएर सिध्द और अरहंत ये महापुरुष चार प्रकार के आराधनाओका फल प्राप्त कर चुके हैं ऐसा आचार्य कहते हैं, अनंत शानादिफल देनेवाली आराधनाका स्वरूप भब्धोंको ज्ञात हो जाय इस हेतूसे प्रेरित होकर आचार्य इस शास्त्र की रचना करते हैं. यह शव आराधना स्वरूपका शान उत्पन्न करता है अतः यह साधन है तथा आराधनाशान साध्य है. साख और प्रयोजन इन दोनों में साध्यसाधन संबंध है या भी 'चतुर्विधाराधनाफलं प्राप्तान' इस वाक्यसे स्पष्ट हो जाता है. यह शास्त्र चार आराधनाओंका वर्णन करता है अतः इसको अभिधायक-प्रतिपादक कहते हैं. सम्यग्दर्शनादि आराधना इस शास्त्र में वर्ण्य-अभिधेय हैं अतः इन earlese - SHAH - S Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलारावना १४ दोनोंमें प्रतिपाद्य प्रतिपादक अभिधेयाभिधायक संबंध है, अतः इस शास्त्रमें प्रयोजन, संबंध व फलनिर्देश होने से व्याकरणादि शास्त्रवत् यह पानीले ग्राम हा है. अंथक प्रथम गाथासे मंगल व प्रयोजनादि तीन बातोंको भी आचार्य महोदयने मूचित किया है. यह शात्र पूर्वाचायोंके वचनानुसार रचा गया है इस लिये यह प्रमाण है. प्रथम गाथामें 'कमसो' ऐसा शब्द आया है, उसका योग्य संबंध मिलानेके लिए 'पुण्यसुत्ताणं यह राक्य शेष अध्याहृत लेना चाहिए विजयोदया का धाराधना कस्य था ? न धाराध्यापरिज्ञानेनात्मभूताराधना शक्या प्रतिपरंतु हत्यारे कायामाह - उज्जीवमुज्जवणं णिव्वहणं साहणं च णिच्छरणं । दंसणणाणचरितं तत्राणमाराहणा भणिदा ॥ २॥ २ उजोषण - उजोवणमुजवणमित्यादिकं 'उजवणं उद्योतनं शङ्कादिनिरसनं सम्यकत्वाराधना श्रुतः निरूपिते वस्तुनि किमित्थं भवेन्न भवेदिति समुपजातायाः शङ्कायाः संशयप्रतिशिन्दाया अपाकृतिः । कथं? हेतुलेन आतपयनेन वा समुपजाताथा इत्थमेवेदमिति निश्चित्या । यदि यस्य विरोधि पत्रोपजातं तम नेतरदास्पदं नाति यथा शीतस्पर्शनाकार शिशिरकरे उष्णता । विरोधे च निश्चयज्ञानं संशीनिविशेधता व नियोगतस्तद्भावे नषेतरस्य तदा अभवनात् वक्ष्यामः फांक्षादीनां खरूपं तत्रिरासकमं व प्रस्तावे । अनिश्चयो वैपरीत्यं वा शास्त्र मलं निश्वयेनानिश्चयव्युदासः । यथार्थ तया वैपरीत्यस्य निरासो ज्ञानस्योद्योतनं । भावनाविरहो मलं चारिषस्य तालु भावनासु वृत्तिरुयोतने चारिषस्य तपसोऽ. संयमपरिणामः कलङ्कतया स्थितस्तस्यापारतिः संयमभावनया तप उद्योतनं । उत्कृष्टं यवनं उद्यवनं । ननु मिश्रणं युप्रकृते. रर्थः, मिश्रणं च संयोगता । तथा हि-गुडमिश्रा धाना इति कथिते गुंडेन संयुक्ता इति प्रतीयते । संयोगन्ध विभिन्नयोरर्थयोरप्रासयोः प्राप्तिर्नदर्शनादयोऽर्थान्तरभूता आत्मनस्त द्वपविकरूपाभावात्। तत्कचं दर्शनादिभिरात्मनो मिश्रणमिति ? उच्यतेविशेषवाच्योऽपि सामान्योपलक्षणतया वर्तते यथा काकेभ्यो रक्ष्यतां सर्पिरित्यत्रोपघातक सामान्यमेवार्थः काकशष्णस्य प्रतीतस्तद्वत्संबन्धसामान्यमत्र यवनशब्दाभिधेयं । असकृदर्शनाविपरिणतिरुवनं । निराकुलै बहनं धारणं निर्वहणं, परी पापनिपातेऽप्याकुलतामन्तरेण दर्शनादिपरिणती शिः। उपयोगान्तरेणान्तर्हितानां दर्शनादिपरिणामामां निष्पादन साधनं । भवान्तरप्रापणं दर्शनादीनां निस्तरणम्। एवमाराधनाशब्दस्यानेकार्थवृशितायां यथावसरं तत्र तत्र व्याक्या कार्या । अत्राम्ये व्याचक्षते निस्तरणशेषः सामर्थ्याची स प्रत्येक संबध्यते उद्योतनादिभिरद्योतनादीनां तद्दर्शनादिभि अतुर्भिरपि यथासंख्येन संबन्धः। उद्योतनं मरणकाले प्रागवस्थाया उत्कर्षेण निर्मलीकरणं अविप्रेण दर्शनाराधनेत्यादिना मध्याव १४ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAA बाराधना अध्याय क्रमेण । त एवं पर्यनुयोज्या किमत्र मानादीनां निर्मलीकरणमिएमनिए वा । नेदर्शनेनेत्र फिमिति संयध्यते निर्मलीकरण : उत्कण यवनमपि सर्वेपामिप्यते । अनाकुलं वहनमपि साधारण। किमुच्यते प्रगुन्तिसमितीनां निश्चयेनानाकुल बहनमिति ? नच निस्तराणशमात्यामध्य प्रतीयते। उद्योतने सामर्थ्य, उद्ययनं सामर्थ्यमित्यादिषु न च कश्चिदर्थः, अविनेनेति कथमयम लभात उज्ज्ञोषणादिशन्दैग्नुपातो, मरणकालश्च का मनुष्यभवपर्यायविनाशसमयो मा पाकालसमयेन य युभ्यते । न तत्र भावनोत्कर्षः. मारणान्तिकसमुदाते परिणाममान्यात् । यत्र भावनाकालो मरणकालशन्देनोग्यते सोऽनासः । प्रकाश कथामिह लभ्यते । भावनाकालगतच्यापारकथनायेदं शास्त्र प्रस्तुतमिति लभ्यत इति चेत्, न तथाऽसूत्रितत्वात् । सण. जाणाचारिसतयाणमुमोमणमाराहणा भणिया''इंगणाणचरित्ततवाणुजषणमाराधणा' इति, इति प्रत्येकमभिसंपन्धोऽत्र कार्यः । अन्यथा समासेन निर्देश कुर्यात् । GRATARRAN का आराधना कस्य वेत्यनुयोगे सत्याहमूलारा दर्पणम्---- उजावणमित्यादि । दर्शनादीनां प्रत्येक मुद्योतनादिपंचकमाराधना पतुर्विधा भणिता जिन रिसि संबंधः ॥ तत्र उद्योतनं दर्शनादीनां निर्मलीकरणं ॥ तन्मला यथा शफादयो मला रष्टेब्यत्यासानिश्चयो मते । वृत्तस्म भावनात्यागस्तपसः स्याएसंयमः ॥ उजषण उत्कृष्ट यवनं मिश्रण असत्परिणतिः । णिचहणं परीषहायुपनिपातेऽपि निराकुलं लाभादिनिरपेक्ष पा यह धारणं । साइणं साधन उपयोगान्तरेणान्तर्हितानां निष्पादनं । नित्यं नैमित्तिकं वा किंचित्कुर्वता व्यवहिवत्य सम्यग्दर्शनाचन्यतमस्य पुनरूपायप्रयोगात्सम्पूर्णीकरणमित्यर्थः। गिछछरणं भवान्तरमापर्ण । निस्तारो मरणान्तप्रापयामि त्यर्थः । बसणेत्यादि । दर्शनं तत्यार्थश्रद्धानं, ज्ञानं स्वार्थनिर्णयः , चारित्रं पापाशननिमितकियोपरमः, तपः इंद्रियमनसोर्नियमानुष्ठानम् ॥ अश हिंदी भाषानुबादः। २ आराध्यका बान होनेसे आराधनाका स्वरूप ज्ञात होता है. अतः आराधना क्या चीज है तथा वह किसको होती है । इस प्रश्नका उत्तर आचार्य कहते हैं--- Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय माराधना SA उद्योतन-शंकाकांक्षादि दोषोंको दूर करना यह उद्योतन है इसको सम्यक्त्वाराधना कहते हैं. द्वादशांगमें जीवादितत्वोंका जो स्वरूप कहा हुवा है वह यही अब अन्य है ऐसी जो शंका मनमें उत्पन्न होती है-जिसको संशय भी कहते हैं उसको अपने हृदय से दूर करना इसको उद्योतन कहते हैं. जैनसिद्धांतको भविरुद्ध युक्तियों द्वारा ओर आगमवचनसे जीपादिक वस्तुओंकायही स्वरूप है ऐसा ही ऐसा निधपका संपादिकदोषों को दूर करना चाहिए. जो जिसकी विरुद्ध मील लो उत्पादोधी है उससे उलटी वस्तुं यहां नहीं रह सकती. जैसे शीतपसे युक्त चंद्रमें उसकी विरोधी उष्णता अपने पैर नहीं जमा सक्ती, संशयके विरुद्ध निधी है. वह जहां उत्पन्न होता है वहाँ संशय कैसा रहेगा ! निश्चपसे विरोध करता हुआ बद संशय पिलाल टिक नही सकता. शंशाकाक्षादिक दोपोंका स्वरूप और उनका निरसन आगे दर्शनाराधनाके प्रकरण में आचार्य स्वयं लिखेंगे ही. निश्चय न होना अथवा उलटा शान होना यह ज्ञानका मल है. जर निश्चय होता है तब अनिश्वर नहीं रहता है. यथार्थ वस्तुज्ञान होनेसे विपरीतता चली जाती है. यह कानका उद्योतन है. अर्थात् ज्ञानके अनिश्चय विपर्यासादि दाप दूर करना ज्ञानका उद्योतन है, भावनाओंका त्याग होना चारित्रका मल है. अर्थात् भाराओम तत्पर होना ही चारित्रका उद्योतन होता है. असंघम परिणाम होना यह ताका कलंक ई, संयम भावनामें तत्पर रहकर उस कलंकको हराकर तथा निर्मल वगना एह तपका उद्योतन है. ___उद्यान--उत्कृष्टं ययनं उययन अर्थात् उत्कृष्ट मिश्रण होना उग्रवन है. आत्माको माया दर्शनादर परिणति होल उद्यान शब्द का अर्थ है. का--उर्वक यु धातुसे उग्रपन शब्द बना. उसका मिश्रग ऐसा अर्थ है. मिश्रग और संयुक्तपन । दामो समनार्थक है. जैसे गुडस मिश्रित पाना है. अर्थात् गुडसंयुक्त धाना है ऐसा अभिप्राय होता है. विभिन पदार्थ आगसमें मिल जाना उ.पको संयोग कहते हैं परन्तु सम्यग्दर्शनादिक गुण आत्माले भिम नहीं है. आत्मा तद्रूप है. वह उससे विकल नहीं है अर्थात् सम्यग्दर्शनादिसे भिन्न उसका और रूप नहीं है. अर्थात् सम्पग्दर्शनादिकसे उसका संयोग होना यह उधक्नका अर्थ यहां योग्य नहीं दीखता. उत्तर-विशेष शब्दसे जो विशिष्ट अर्थ कहा गया है वह भी उलमणसे सामान्य अर्थ लामो माना जाता Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राखन) १७ है. जैसे 'काकेभ्यो रक्ष्यतां सर्पिः ' अर्थात् कौवोंसे घृतका रक्षण करो यहां कौवा शब्द विशिष्टार्थवाचक होने पर भी 'उसका उपघातक सामान्य ही अर्थ अनुभवमें आता है. अर्थात् घृतको बिगाडनेवाले सब प्राणियोंका कांक शब्द वाचक हो जाता है, वैसा यहांपर उद्यवन शब्दका सामान्य संबंध ऐसा अर्थ समझना अर्थात् वारंवार सम्यग्दर्शन गुणोंसे आत्मा परिणत होजाना यह उधवन शब्दका अर्थ है, निर्वहण - सम्यग्दर्शनादिगुणोंको निराकुलतासे धारण करना अर्थात् परीपहादिक प्राप्त हो जानेपर भी व्याकुलचित्त न होकर दर्शनादि परिणतीमें तत्पर रहना, उससे च्युत न होना यह निर्वहण शब्दका अर्थ है. साधन - अन्य कार्यके तरफ ज्ञानोपयोग लगनेसे तिरोहित हुए दर्शनादिपरिणामको उत्पन्न करना. अर्थात् नित्य कार्य तथा नैमित्तिक कार्य करने में चित्त लगने से तिरोहित हुए सम्यग्दर्शनादिको मेसें किसी एकको पुनः उपायोंके प्रयोगसे संपूर्ण करना उसको साधन कहते हैं. निस्तरण—अन्यभबमें सम्यग्दर्शनादिकों को पोहोंचाना, अर्थात् आमरण निर्दोष पालन करना जिससे वे अपने साथ अन्य जन्ममें भी आसकेंगे. आराधना शब्द अनेकार्थमें रूढ होनेसे प्रकरणानुसार अविरुद्ध व्याख्या करनी चाहिये. अब यहां दूसरे विद्वान ऐसा कहते हैं निस्तरण शब्दका सामर्थ्य ऐसा अर्थ है तथा इस शब्दका उद्यो तन, उद्यवन इत्यादि शब्दोंके साथ संबंध करना चाहिये. तथा उद्योतनादिकोंका दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप इनके साथ यथाक्रम संबंध करना चाहिये. अर्थात् दर्शनका उद्योतके साथ, ज्ञानका उद्यवनके साथ, चारित्रका निर्वहणके 'साथ तथा तपका साधनके साथ संबंध करे. दर्शनोद्योत - पूर्वावस्थापेक्षा से भी मरणकालमें निर्विभतया सम्यग्दर्शन अधिक निर्मल करना यह दर्शनाराधना समझनी चाहिये. इत्यादिरूपसे अन्यविद्वान् व्याख्यान करते हैं, इस विवेaaपर आचार्य निम्न प्रकारसे विचार करते हैं. यहां आपको ज्ञानादिकोंको निर्मल करना इष्ट है या अनिष्ट है ? यदि इष्ट है तो दर्शनके साथ ही उद्योत नका क्यों संबंध जोडते है ? अर्थात् ज्ञानांदिकोंके साथ भी उद्योतका संबंध जोड़ देना चाहिये. उधवनका मी सर्वके साथ संबंध करना चाहिये. निर्वाई अर्थात् निराकुल धारण करना इसका भी दर्शनादिक, चारोंके साथ संबंध जाना अध्याय १ १७ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधना अध्याय चाहिये. व्रत, गुप्ति, समितिओंको निश्वयसे निर्विघ्न धारण करना अर्थात् चारित्रके साथ ही निर्वाहका संबंध करना चाहिये ऐसा कहना अनुचित है. निस्तरण शब्दका सामर्थ्य ऐमा अर्थ है ऐसा आप कहते हैं परंतु उसको उद्योतन, उद्ययन, निर्वाह इत्यादकोंके साथ जोडनेसे कुछ प्रयोजन सिद्ध होता नहीं. मरणकालमें निमितया सम्यग्दर्शन निर्मल करना उसको उद्योतन कहते हैं ऐसा आप कहरे गड उज्जग और शदावा निर्मिभक्ष्या ऐट: अर्थ नहीं है. आप मरण काल कोनसा समझते है। मनुष्यभव पर्यायका नाश होनेका जो समय उसको यदि मरणकाल समझते हो तो अयुक्त है. कारण मरणकालमें भावनाका उत्कर्ष होता नहीं. मारणान्तिक समुद्रातमें परिणाम मंद होते हैं, यदि मरणकाल शब्दसे भावना कालका अर्थ समझना चाहिए ऐसा कहोगे तो उसका यहाँ ग्रहण किया नहीं है. तया 'वह अपफत होनेसे उसका यहां कुछ प्रयोजन नहीं है. . मायनाकालकी प्रवृत्ति कैसी होती है. इसका विवेचन करनेके लिए इस शासकी रचना हुई है अतः भावनाकालका यहां ग्रहण हो जाता है ऐसा कहोगे तो योग्य नहीं है. 'दसणणाणचरित्ततवाणुज्जवणमाराहणा मणिया' इस वाक्यमें उज्जवण शब्दका प्रत्येकसे संबंध करना चाहिये उज्जोवणमुज्जवणं' इस गाथामें उज्जचणादिक शब्द समास रहित लिखे है अतः दर्शनादिकोके साथ उद्योतनादिकका प्रत्येकका संबंध होता है ऐसा समझना अर्थात् सम्यग्दर्शनका उद्योत, शानका उद्योत, चारित्रका उद्योत तथा तपका उद्योत. इसी तरह उद्यवनादि शब्दोंका मी सबके साथ संबंध. समझना चाहिये. अन्यथा आचार्य उद्योनादिकोंका समासपूर्वक उल्लेख कर सकते कि चतुर्विधैयाराधनेत्यानाशायामाह दुविहा पुण जिणवयणे भणिया आराहणा समासण ॥ सम्मत्तम्मि य पढमा विदिया य हवे चरित्तम्मि || ३ || विजयोदया- दुषिहा समासेण दुविधा आराधणा मणिया इति पदसंबम्धः । आवरणमोहजयाजिनाः शानदर्शनावरणजयासर्वक्षाः सर्वदर्शिनः । मोहपराजयाडीतरागोपाः । सर्वज्ञानां सर्ववर्शिमां वीतरागद्वेषाणां बधगं जिनवचनं । एतेग असत्यवचनकारणामापात 'प्रामाण्यमाख्यातमागमस्य । वक्तुरखानादागद्वेषाभ्यां या प्रवृत्त पच Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अध्याय २ भयथार्थाययोधनादमामाण्यमारकन्दति । तथ. च 'समासेण' संक्षेपेण 'दुविधा' विप्रकारा · भणिदा 'कषिता 'आराणा' आराधना का प्रधमा चाराधना का द्वितीयेत्यत माह-सम्मसम्मिय पदमा' धज्ञानविषया प्रथमाराधना। विदिया य'द्वितीया चहवे' भवेत् 'चरिसम्मि'चारित्रविषया आराधना। वर्शनचारित्राराधनयोः प्रथमद्वितीयध्यपदेशः उम्पत्यपेक्षया गुणस्थानापेक्षया चेति । केचिश्च दर्शनपरिणामोयत्युत्तरकाले हि चारित्रपरिणाम उत्पद्यत इति प्राथम्यं दर्शनाराधनायाः । असंयतसम्यग्रएिगुणस्थानं पूर्वं प्रमत्तसंयतादिकं तु परमिति । श्रद्धानविरतिपरिणामयोर्युगपदप्यस्ति मातुर्मावः, यशामयतो वा असंयतस्य पवाद्विरतिरुपजायते | तरिकमुच्यते, उत्पत्यपेक्षयेति । असंपतसम्यग्हशीनां कुतः क्रमो येन तदपेक्षया प्रथमद्वितीयव्यपदेशवृत्तिः स्यात् । उत्पत्त्यपेक्षया तत्रोक्त पय नियमः । अथागमे पौर्वापर्यापेक्षया 'असंजनसम्मादिसियदासयदापमत्तसंयदा' इति घचनात् । तदेव वचनं किमर्थ काममाश्रित्य प्रवृत्तमुत नान्तरीयकतया? न तायवास्ति परिणामानां नियोगमधीक्रमः। यदि स्यान योगपद्य कदानित्स्यात् । हृदय ते च सम्यग्दृष्टिसंयतासंयता इति यैकदा । अथ मानेकवचनमेकः प्रयोक्तं क्षमत इति वक्तुरिच्छविधायी कमः सूचियक्षाकृतं प्राथम्यं द्वितीयता चेति वाच्यं न गुण स्थानापेक्षयेति । किं चोपजातवर्शनादिपरिणामस्यात्मनस्तद्रतातिशययुसिराराधमा साऽत्र प्रस्तुता । तत्र च प्राथम्यं द्वितीयता या, तरिकमुच्यते उत्पत्यपेक्षया गुणस्थानापेक्षया चेति । अस्य सूत्रस्योपोद्धातमेवमपरे वर्णयन्ति । असिन्दा किमयोग निधिदारामलनि, जायोपि विकल्पः संभवतीति ! अस्तीत्याइति तदयुतम् 'दसणणाणचरितसषाणमाराधणा भणिया' इत्यतीतकालाभिधानक्रियातः प्रतीयते नास्य शाखस्य व्यापार इति । ययस्य व्यापारस शास्त्रस्य वक्तुमिधः स्यात् 'भण्णादि' पति पूयात् । 'जिगषयणे भणिया दुविकर आराधणा' इति वचनात् । संक्षेपनिरूषणापि तपैवेति नेह संक्षेपवाच्यम् । वस्तु बहुपन्यस्तं दुरवगर्म मन्दबुद्धीनामिति । तवनुग्रहाय सल्पस्योपन्यासः। स संक्षेपखिरकार पचनसंक्षेपोऽर्थसंक्षेपस्तत्रुभयसंक्षेपश्चेति 1 पचनबहुत्वस्यार्थनिश्चयो न जायते जडानामिति वश्चमं संक्षिप्यते । अर्थस्तु सम्रपञ्च पव । अनुयोगद्वारादीनां यहूनामुपन्यासमकरवा दियात्रोपन्यासः प्रस्तुतस्यार्थसंक्षेपः । वचनानि तु बडूनि । तस्योभयसंक्षेपः पाश्चात्यः । द्विविधाराधनेति वचनसंक्षेपो नार्थसंक्षेपः । कामस्याराधना तपसव विधमानापि न पचनेनोच्यते । परमुखेनैवाघधोधयितुं शक्यत इति । मूलारा दर्पणम्-एवं आराधनाया भेदनिरूपणद्वारेण रयरूपं दर्शनादिविषयभेदाश्चातुर्थिध्यं चानुशिष्येदानी संक्षपातदै थिध्यमनुशास्ति जिगवयणे जिनानां वीतरागसर्वज्ञानां वचने प्रगागभुत आगमे । प्रथम विस्तररुचिविनयाशयवशावातुर्विधाराधनाभिहिता । पारसले परुचि शिष्यापेक्षया सा द्विप्रकारा करिता । क्षानेन दर्शनस्य, तपसा च चारित्रस्व अविना Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधना अध्याय भावात्तत्र तयोरन्तर्भावनात् । तत एव चारित्रार्थस्य संक्षेपः । स हि संक्षिप्तायुमतिपलशिष्यानुग्रहाय । स्वल्पस्यो पन्यासो रचनार्थोभयभेदाधा । श्लोकः यत्राल्पोक्त्यानुयोगादिद्वारैरर्थः प्रपंच्यते ॥ संक्षेप उक्तेः सार्थस्य दिएमात्रक्रुिदघणुयोः ।। सम्म सम्मि तत्वश्रद्धानविषये इत्यर्थः । पढमा सम्यक्त्वाराधनायो सत्यामेव मानाराधनापूर्वकत्वेन चारित्राराधनायाः संभवात् ।। क्या आराधनाके चार ही भेद है । इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते है-- हिंदी-जिनागममें संक्षेपसे आराधनाके दो भेद कहे हैं। एक सम्यक्त्वमें आराधना अर्थात् सम्यक्त्वाराधना तथा दूसरी चारित्र में आराधना अर्थात् चारित्राराधना. विशेष-आधरण व मोहको जीतनेसे अईपरमेष्टिको जिन कहते हैं. ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्मको जीवनसे वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हुये है. मोहनीय कर्मको परास्त करनेसे वे रागद्वेष रहित हो चुके हैं. अर्थात् सर्वश, सर्वदर्शी, रागद्वेष रहित ऐसे अर्हत्परमदेवके बचनको जिनवचन कहते हैं. जिनेश्वरके वचनमें असत्य वचनके कारण नहीं पाये जाते हैं अतः उनका वचन अर्थात जिनागम प्रमाण है। वक्ता यदि अज्ञानी अथवा रागदेषयुक्त हो तो उससे निकला हुवा वचन असत्यवस्तूका वर्णन करनेवाला होनेसे ममाण नहीं है. ममागरूप जिनागममें संक्षेपसे आराधनाके दो मेद कहे हैं. प्रधानको विषय करनेवाली पहिली आराधना है तथा दूसरी आराधना चारित्रको विषय करती है। दर्शनाराधना और चारित्राराधना को क्रमसे प्रथम तथा दूसरी आराधना ऐसे नाम उत्पसि की अपेक्षासे तथा गुणस्थानों की अपेक्षासे प्राप्त हुए हैं. आत्मा प्रथम सम्पग्दर्शन परिणामसे परिणत होता है तदनंतर उत्तरकालमें उसमें चारित्र परिणाम उत्पन्न होता है. अतः दर्शनाराधना प्रथम कही है. असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान प्रथम हो जाता है, नंतर प्रमत्तसंयतादिक गुणस्थान आत्माको प्राप्त होते हैं ऐसा कोई विद्वान् कहते हैं। श्रद्धान तथा विरति परिणामोंकी युगपत्कालमें-एकसमयमें भी उत्पत्ति होती है अर्थात् सम्यग्दर्शन और चारित्र परिणाम एककालमें भी उत्पन्न होते हैं. अथवा श्रद्धानवान् जीवको पश्चात् भी विरतिपरिणाम हो जाते है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाराधना अध्याय Pitar अतः उत्पत्तिकी अपेक्षासे पथमता द्वितीयता क्यों कही जाती है ? जो असंयत सम्पन्ष्टचादिजीव है उनका अपेक्षासे क्रमघटना कैसी होंगी ! जिससे उसमें प्रथम द्वितीयता आजा. उत्पत्तिकी अपेक्षासे यदि कहोगे तो हमने उस विषयमें नियम कहा ही है। अब आगममें जो प्रथम वचन कहे है और जो नंतर कहे है उनकी अपेक्षा लेकर हम यथम तथा द्वितीयकी कल्पना करते हैं क्योंकि आगममें 'असंजदसम्मादडीसयदासंयदापमर्सयदा' ऐसा क्रमपूर्वक उल्लेख है, यह भी कहना योग्य नहीं है. हम इस विषयमें आपको ऐसा पूछते है कि, वह आगमका वचन क्रमका आश्रय लेकर क्यों प्रवृत्त हुवा है ? क्या क्रमके साथ आगम पचनका अविनाभाव है ? परिणाम क्रमसे ही होने चाहिये ऐसा नियम नहीं है. अन्यथा सम्यग्दर्शनरूप तथा विरतिरूप परिणाम एक समयमें किसी कालमें भी नहीं होंगे. परंतु एक कालमें सम्यग्दृष्टि और संयतासंयतरूप परिणाम अनुभवमें आजाते है. यदि एक वक्ता एक समयमें एकही शब्द बोल सकता है, अनेक शब्दोंका उच्चारण नहीं करता है अतः वक्ताके इच्छानुकूल वचनक्रम है तो परिणामों में वचनकृत ही क्रमता सिद्ध हो गई गुणस्थानापेक्षया वहां काम नहीं रहा। यदि सम्यदर्शनादि परिणाम जिसमें उत्पन्न हुए है ऐसे आत्माकी सम्यग्दर्शनादिकोमें अतिशय एकरूपता होनाही आराधना है. और ऐसी आराधनाही प्रस्तुत प्रकरणमें समझनी चाहिये और उसमें प्रथमता या द्विर्तायता है ऐसा यदि कहोगे तो, उत्पत्तिकी अपेक्षासे और गुणस्थानकी अपेक्षासे प्रथमता और द्वितीयताका प्रतिपादन क्यों किया? दूसरे आचार्य इस सूत्रका उपोद्घात इस प्रकार लिखते हैं-इस आराधनाशासमें आराधनाके चार प्रकारही है ऐसा निश्चय है ? अथवा अन्य भी विकल्प यहां माना गया है 'हो दसरा भी विकल्प है ऐसा कहोगे तो यह आपका कहमा अयोग्य है. 'दसणणाणचरित्तताणमारामणा भणिया' अर्थात् दर्शन, शान, चारित्र तथा तप इन्होंकी आराधना कही है यहां भृतकालकी क्रिया कही गई है अतः सिबू होता है कि यह इस शास्त्रका व्यापार नहीं है । यदि यह इस शास्त्रका व्यापार होता तो वह 'भणिया' इस शब्द प्रयोगके स्थानयर 'भण्णादिति' अर्थात् कहते हैं ऐसा प्रयोग करता. परंतु 'जिणवरणे भणिया दुविहा आराहणा' जिनागममें आराधना दो प्रकारकी कही है ऐसा वचन है अतः संक्षेपसे आराधना कहने के लिए भी इस शास्त्रका व्यापार नहीं है. संक्षपसे विवेचन करनेका भी व्यापार आगमही है. 301 POSTHISTAMBHARA Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधना अध्यार वस्तुका विस्तृत विवेचन मंदबुद्धि जन नहीं समझते है उनके उपर अनुग्रह करनेके लिए वस्तुओंका स्वल्प विवेचन होता है. उसके तीन भेद है-वचनसंक्षेप, अर्थसंक्षेप व उभयसंक्षेप । यदि वचनोंका विस्तार हो जाय तो मंदबुद्धि जनोंको अर्थनिश्चय नहीं होता इसलिए वचनोंका जिसमें संक्षेप हो परंतु पदार्थका विस्तार किया मया है उसको वचन संक्षेप कहते हैं. अनुयोग, प्रमाण, नय, निक्षेप वगैरे वस्तुका विवेचन करनेके उपाय हैं. इन सबोके द्वारा विवेचन न करके प्रस्तुत विषयकी केवल दिशा दिखाना उसको अबसष कहते है. इसमें वचन तो बहुत रहते है, परंतु अनुयोगादिकोममें किसी एकका आश्रय लेकर दिहमात्र वर्णन रहता है. उभय संक्षेपमें अर्थ व उसका शब्दों द्वारा विवेचन दोनों भी संक्षिप्त होते है उसको उभय संक्षेप कहते हैं. चारो आराधनाओंका | स्वरूप दो आराधनामें जहां किया जाता है यह बचन संश्लेष ही है. अर्थसअप नहीं है. यहां शानकी और तप की आराधना विद्यमान है सो भी यह वचक बारा उत्तः महा दर्शनारापना कथा चारित्रायधना इनके मुख से ही उनका स्वरूप प्रगट कराना शक्य है. दसणमाराहंतेण णाणमाराहिद भने णियमा ॥ णाणं आराहतरस दसणं होइ भयणिजं ॥ ४ ॥ विजयोदया-सणमाराईतेण दर्शनाराधनायां कधितायां हामाराधनापि शक्यते प्रतिपत्तुम् । समयानयनचोदनायांशरापाद्यन्यतममाजममात्रप्रतिपत्तियत् । ननु चान्तरेणाधारमानयनं न संभवतीति भवत्यानभिडितेऽपि भाजनमात्रे प्रति पत्तिरिह कथम् ? हाप्यविनाभावावित्याच 'दसणमाराधतेण' । अत्रापरे संबन्धमारम्भयम्ति गाथायाः । यदि द्विविधा आराधना आराधयन्ति चेश्चतुर्विधाराधनाफलं प्राप्ताः सिद्धा इति प्रतिक्षा हीयते द्वयोरसंग्रहास् इति चेत् नास्मिन्नपि विकस्पे तयोरपि संग्रहार्थम् । कथं 'दंसपमाराधतेग ' इति प्रतिमा हीयते इति । अत्र प्रतिमाशपेन किमुख्यते । साध्यनिर्देशः प्रतिक्षेति ताप गृहीतम्। चतुर्विधाराधनाफलप्राप्तत्वस्येह साध्यता नास्ति । सिरमेष हि चतुर्विधाराधनाफलप्रापतत्वमनुद्यत इति 1 अधाभ्युपगतिः प्रतिझा सा कि नोपपद्यते ? चतस्रः आराधनास्तासां च फलं ते प्राप्तयन्तस्ततासन्यभ्युप गन्तव्ये कथमभ्युपगमानुपपसिः? चतुर्विधेत्युक्तवन्तः द्विविधति कर्थ म विरुद्धमिति पूर्वापरब्याडतिरिति चोयते । तथा यश्चौद्यमेव चोद्यते समासेन द्विविधेति वचनात् , प्रपञ्चनिरूपणायां चतुर्विधा तत्को विरोधः तेन विरोधपरिहाराय चागतयं माथा । 'देसणं' धज्ञानं रुचिः, 'थारार्धतेण' आराधयता, 'पाणं 'सम्पाशानं, 'भाराधिर्व' ROMALE+ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारापरा अध्याद माराधित हवे' भवेत् नियमा' निश्चयेन । यस्य हियविषया श्रद्धा तस्य कचिदप्यमाने नसा भवति। न हिनिर्षिपया रुचिः प्रवर्तते । बुद्धिपरिगृहीतषस्तुषिषया अत्यविनाभाषः श्रवाया शानेन । मत्र परा ब्याक्या-आस्मनो विषयाकारपरिणामवृत्तिनि सदावरणक्षयोपशमजनितम् । भूम्यापरणापगमे तोयजन्मवत् । ततविशुद्धिःप्रसपता भभिरुचिः श्रजा श्रुतिनिरूपितार्थविषया सत्यभावनादर्शनं। न च वर्शनमोहोक्रामक्षयोपशमनिमितोयाधयकाभावे जलप्रसादवत् । तस्मिन्नाराश्यमाने शानसिगिरवश्यंभाषिनी निराधपधर्मस्य केवलसिम्यभाषाविति । तत्रेय परीक्ष्यते, विषयाकारपरिणतिरात्मनो यदि स्यादपरसगन्धस्पर्शापात्मकता स्यात्तथा च 'अरसमरुषमधं अव्व चेदणागुणमसई' इत्यनेन विरोधः । विरुवश्व नीलपीतादिपरिणामो नैकत्र युज्यते। एकदा माकारवयसंवेदनपसंगश्च । बायस्थकनीलादिविनानगतमपर विज्ञानागतविशुद्धिः प्रसन्नता अभिरुचिः श्रध्धेति वा समीचीनं गवितम् चैतन्यस्य धर्मः शयानम् । ननु शामस्थ मानधर्मत्ये क्षायोपशमिकज्ञानाधिनाशे कथमवस्थितिदर्शनस्य । न हि धर्मिणि विनों धर्मस्यापस्थितिः। चैतन्यमविमाशि तदाश्रयं तविति चेत् शानस्य धर्मता नश्यति । किं च यो यस्य धर्मः स तस्य स्वरूपम् । न चान्यस्य धर्मिणो रूपं धर्धन्तरस्य प्रभवति । न दि बलाकाया- लता मरकुसुम सदान। न यार दे स्यात् । श्रुतादेवी प्रसन्नता मतेरिभ्यते । एवं शानमेरे तगोवराया अवि प्रसतेमेव इति हाधियां का वाती न तस्याः प्रत्यनायाः प्रादुर्भूतिः पलयो घा। न हि दर्शनमोहोदयं विना दर्शनस्याभावो युस्यते । यदि स्यादर्शनमोहनीयक्रस्पना अघटमाना भवेत् । अथ याथाम्यविषया श्रद्धा आत्मनि प्रतिबंधकसनाबानोदेति, तदपाये उद्गच्छति, यदि प्रतिबंधकारि किंचित्र स्यात् । आत्मनि परिणामिनि सति किमिति । सदा न भवेत् । अतत्परिणामत्वे नात्मनि कदाचिदपि भवेत् । तत् अनुभयसिनवासी सहकारिकारणानामसाशिभ्यादात्मा श्रद्धानरूपेण न परिणमते । न तु किंचित्प्रतिबंधकामस्येति चेत् किं तत्सहकारि यस्थाभायादनुत्पत्तिः धायाः । अन्वयव्यतिरकसमधिगम्यो हि हेतुफलभाषः सर्व एष तायंतरेण हेतुता प्रतिशामाप्रत पय कस्यचित्सा वस्तुचितायामनुपयोगिनीति प्रतिबंधफसद्भावानुमानमागमेऽभिमतं तावदसति न घटते । किंचित् श्रुतमरूपितार्थविषया सत्यभावेनेति या सद्धम् । अवध्यादिनिरूपितार्थविषया सत्यभावना किं न दर्शन ! अबध्याविकमपि वस्तुयाथात्म्यसंस्पर्श | अथ धुतप्रवर्ण समीचीनकानोपयोगोपलक्षणमिति मन्यसे भवतु । मलमतिप्रसंगेन-- "समतणाणदसणवीरियसुहम तहेव भयगणं ॥ भगुरुलहुमव्वाचादमगुणा होन्ति सिद्धाण ॥" 'इत्यनेन च व्याख्या विरुध्यते । गुणान्तरत्वेन उपभ्यासानुपपत्तेः । क्षायिकशायोपशमिकयोदोऽसि वा न वा! यदि नास्ति भावपंचफनिरूपणकारिणा आगमेन विरोधः। खच भस्ति भेदपरिणामः परिणामान्तरस्य स्वरूप न भवति । परिणामकदेवस्य परिणामिसरूपता न्याय्या ॥ यौ भिन्नमतिघकापायजन्यो, न तापन्योऽन्यस्य धर्मभिपी 1 २३ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय मूलाराधना २४ यथा अचाधिकेवले मिशप्रतिबंधकापायजन्ये, तथा न ज्ञानदर्शने ॥ ज्ञानाराधना चारित्राराधनेति वैविध्य कमानोपन्यस्तं इत्यत्र चोधे प्रतिषिधानायाह 'णाणमाराधंतेण दंसर्ग होर मयणिनशानशब्द: सामान्ययाची संशये, विपर्यास, समीचीने च वृत्तः । संशयशानं, विपर्यासशाने, सम्यग्शानमिति प्रयोगदर्शनात् । ते न शाने परिणत आत्मा नियोमतस्तत्वश्रद्धाने विपरिणमन पवेति न नियोगोऽस्ति । मिश्याशानपरिणतम्य तत्त्वश्रद्धाया अभावात् । ततो शानस्य दर्शनायिनामावित्वस्थाभावात् न शानाराधनोक्त्या दर्शनाराधनायगंतुं शक्येतिन तथा संक्षेपाभिधानमागमे प्रांतमिति भावार्थः । 'णाण' ज्ञानं ॥ 'आराधनेगा 'भाराधयना । 'सी' दर्शनं । 'होनि 'भवति । 'मणि' भजनीय विकल्यं । सत्र सणशब्देन दर्शनविषयमाराधनमुच्यते । ततोऽयमर्थग्दर्शनाराधना भाज्येति भजनीयतया भविनामावित्वाभाषः सूचितः। सम्यग्ज्ञाने आराधिने भवस्याराधिता, मिथ्याशानाराधनायर्या नेति भजनीयता ॥ अथवा ज्ञानाराधना वारिपाराधनेति च शक्यते संकोच्तुं। ननु यस्य येनाविनाभाषस्तदुको तस्य प्रतिपचियुक्ता अग्न्यानयनोको शराबायन्यतमपात्रमात्रप्रतिपत्तिवत् । इह पुनः सकथमित्याहः मूलारा.दसणमित्यादि---दर्शन हिमवान तन्तु अशाते वस्तुनिन स्वादिस्यविनामा: अखाया शानेन । ततः साधूर्क सूत्रे तत्वश्रद्धानाराधनायां सम्यम्हानमाराधितमवश्यं स्यादिति | आराईतेण आराधयता उद्योतनाचविशयेषु वर्तयता । अथ ज्ञानाराथना चारित्राराधना चेति वैविध्य करमानोपन्यस्त सूत्रे इत्यत्राह-याणमित्यादि । ज्ञानमत्र सामान्य । यंसर्ण दर्शनविषयाराधना, भयणि विकल्प्य । इसमत्र । तात्पर्य-सम्यग्ज्ञाने आराधिते सति सम्यक्त्वमाराधितं भवति न मिथ्याज्ञाने इत्यविनाभावाभावात् सानाराधनायां दर्शनाराधना भाज्या । ननु तर्हि सम्यग्ज्ञानाराधनो की सम्यक्त्वाराधना बोधयितुं शक्यते इति सा करमानोच्यते इति चेत ज्ञानस्थ सम्यगिति व्यपदेशे सम्यक्त्वमुखप्रेक्षितचा प्राधान्याभावात् ॥ हिंदी-सम्यग्दर्शनकी आराधना करने वाले नियमसे ज्ञानाराधना करते है, परंतु मानाराधना करने बालेको दर्शनकी आराधना होती है अथवा नहीं. विशेष--आचार्यने दर्शनाराधनाका वर्णन किया है इससे ही शानाराधनका भी ग्रहण हो जाता है। जैसे Ladoo RAN ITED Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना २५ आधासः किसी मनुष्यको अमिलानके लिये आज्ञा की तो वह सरायमें विना कहे भी अग्नि लाता है. सरावमें अग्नि लावो ऐसा कहनेकी आवश्यकता नहीं रहती है. आधारके बिना अग्नि नहीं लासकते अतः पात्र लेकर अग्नि लावो ऐसा नहीं कहने पर भी पात्रका बोध हो ही जाता है। परंतु सम्यग्दर्शनकी आराधना करने वालेको ज्ञानकी भी आराधना कैसे होगी यह समझमें नहीं आता है. इस शंकाका उत्तर यह है कि, सम्यग्दर्शन और ज्ञान इन दोनों में अविनाभाव संबंध है अर्थात् सम्यग्दर्शनकी जो व्यक्ति आराधना केरंगी बह जरूर ज्ञानाराधक होता ही है. यहां कोई आचार्य इस गाथाका संबंध ऐसा जुड़ानेका प्रयत्न करते है. यदि दो प्रकारक, आराधना कहते हो तो ' चतुर्विधाराधनाफलं प्राप्ताः सिद्धाः ' ' चार प्रकारकी आराधनाओंका फल सिद्धोंको प्राप्त हुवा है । यह प्रतिज्ञा नष्ट होती है. क्योंकि आपने दर्शनाराधना और चारित्राराधना ऐसी दोही आराधनायें कही हैं, और प्रथम गाथामें सिद्ध परमेष्टीको चार आराधनाओंका फल प्राप्त हुआ ऐसी आपने प्रतिज्ञा की है. वह चरितार्थ नहीं होती यह दोष अर्थात प्रतिज्ञाहानि नामका दोष यहां आता है. इसका उत्तर-आराधनाके दो भेद माननेसे भी दोष नहीं है. क्योंकि हमने दर्शनाराधना तथा चारित्राराधनामें कमसे मानाराधना और तप आराधनाका संग्रह किया है. अतः हमारी प्रतिमा नष्ट नहीं होती है. प्रतिमा शब्दसे आपका क्या अभिमत है ? यदि साध्यका वर्णन करना यह प्रतिमा है ऐसा कहोगे तो यह योग्य नहीं है. चार प्रकारके आराधनाओंका फल सिद्ध परमेष्ठिगेको प्राप्त हुआ है यह रात यषं साध्यरूप नहीं है, क्योंकि, जो असिषद वस्तु साध्य मानी जाती है, सिद्धोंको पार आराधनाओंका फल प्राप्त हुवा है यही पात फिरसे आचार्यने यहां कही है. यदि चार आराधनाओंका फल सिद्धोंको प्राप्त हो गया है ऐसा मानना यह प्रतिक्षा है ऐसा कहोगे तो यह क्या युक्ति संगत नहीं है। चार आराधनाओंका फल उनको प्राप्त हुवा है यह मान्य करने योग्य है इसको नाकबूल करना कैसा योग्य होगा? पूर्व गाथामें आराधनाके चार भेद कहे हैं अब यहां उसके दो भेद आप कहते हैं यह पूर्वापर विरुद्ध नामका दोष दुबा, इसका उत्तर यह है कि, संक्षपसे आराधनाके दो भेद हैं व विस्तृत वर्णनकी अपेक्षासे चार भेद होते हैं अतः इसमें कोनसा विरोध है ? अतः यह गाथा विरोधपरिहार करनेके लिए आचार्थने रची है ऐसा समझो. सम्यग्दर्शनकी आराधना करनेसे सम्यानका आराधन अवश्य होता है. जिस पुरुषको जिस विषयको नाओंका फल सिद्धोंको प्राराधनाओंका फल प्रार ह क्या पाक्ति संगत Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना २६ श्रद्धा होती है उसको यदि उस विषयमें किसी प्रकारसे अज्ञान होगा तो श्रद्धा नहीं होगी. श्रद्धा रुचि अविषयमें नहीं होती. अर्थात् पदार्थका स्वरूप समझ लेनेपर उसमें मनुष्यकी श्रद्धा उत्पन्न होती है. बुद्धीके द्वारा जिस वस्तुको ज्ञान लिया वह वस्तु श्रद्धाका विषय होती है. अतः श्रद्धाका शानसे अविनाभाव है ऐसा समझना चाहिए. इस गाथापर दुसरी व्याख्या है वह इस प्रकार है- आत्माका पदार्थाकार परिणमन होना यह मान है. जैसे भूमीका आवरण हट जानेसे पानी उत्पन्न होता है, वैसा धानावरण कर्मका क्षयोपशम हो जानेसे धान उपजता है, ज्ञानमें जो विशुद्धि, सपना, अभिहाने रहती हैं उसकी श्रध्दा सम्यग्दर्शन कहते है. यह आगममें कहे हुए पदार्थोंको विषय करता है. अर्थात् आगम कथित पदार्थ सत्य है ऐसी भावनाको सम्यग्दर्शन कहते हैं. जैसे तलाब मे कीचंड नष्ट होनेसे पानीमें स्वच्छता दीखती है. वैसे दर्शन मोहनीय कर्मका उपशम, क्षय, वा क्षयोपशम होनेसे जो ज्ञानमें निर्मलता उत्पन्न होती है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं. ऐसे सम्यग्दर्शनकी आराधना करनेसे अवश्य ज्ञान की प्राप्ति हो जायगी. जिसका आधार नहीं होगा उसकी सिद्धि नहीं होती है. दर्शन ज्ञानका धर्म हैं. ज्ञान उसका आश्रय है. उपर्युक्त विवेचनका आचार्य खंडन करते हैं— यदि मान विषयके आकार से परिणमेगा तो वह स्पर्श, रस गंध वर्णात्मक होगा. ऐसी अवस्था हो जानेपर "" ज्ञान रस, रूप, गंध रहित है. वह दृष्टि गोचर नहीं होता अर्थात् अमूर्तिक है. शब्द रहित तथा आत्माका गुण है " ऐसा आगममें ज्ञानका वर्णन किया है, वह विरुद्ध होगा. तथा एक पदार्थमें विरुद्ध ऐसे नील व पीत परिणाम नहीं रह सकते हैं. एक समयमें दो आकारोंका अनुभव आवेगा. एक बाह्य पदार्थका आकार व दूसरा ज्ञानाकार ऐसे दो आकाशका संवेदन होगा. ज्ञानमें जो निर्मलता, प्रसन्नता अभिरुचि है उसको श्रद्धा कहना यह भी अयुक्त है. क्योंकि, श्रद्धा चैतन्यका धर्म है, वह ज्ञानका धर्म नहीं है. यदि ज्ञानका धर्म कहोगे तो क्षायोपशमिक ज्ञानका नाश हो जाने पर श्रद्धाका सम्परदर्शनका भी नाश मानना पडेगा. धर्मीका नाश हो जानेसे धर्मका नाश होना अनिवार्य है. चैतन्य विनाश रहित है और सम्यग्दर्शन उसके आश्रयसे रहता है ऐसा यदि मानोगे तो वह ज्ञानका धर्म है ऐसा आपका कहना व्यर्थ है. अश्वासः २६ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारापना आश्वासः जो जिसका धर्म होता है वह उसी वस्तुका स्वरूप है ऐसा समझना चाहिये, एक वस्तुका धर्म उस वस्तुसे | मिन्न ऐसे अन्य वस्तुका धर्म नहीं हो सकता, बगुलाका सफेदपना कुंद पुष्पका नहीं होता है, इसी तरहसे मति ज्ञानको प्रसन्नता उसकीही होती है वह श्रुतादि शानकी नहीं होती है. श्रुतादि ज्ञानकी प्रसन्नता मतिज्ञानकी नहीं होती है. अतः ज्ञानमें भिन्नता होनेसे उनमें रहनेवाली प्रसन्नतायें भी भिन्न भिन्नही माननी पडेगी. सम्यग्दर्शन शायोपशमका धर्म मानोगे तो थायिक सम्यग्दर्शनको सिद्धि नहीं होगी वह नया न उत्पन्न होगा न विनाश पावेगा. दर्शनमोहनीय कर्मके उदय बिना सम्यग्दर्शनका अभाव नहीं होता है, यदि होगा तो दर्शनमोहनीय कर्मकी कल्पना व्यर्थ हो जाती है. पदार्थके यथार्थ विषयपर जो श्रद्धा होती है उसको सम्यग्दर्शन कहते है. वह प्रतिबंधक कारण उपस्थित होने पर उत्पन्न नहीं होता है. यदि उसका विनाश हो तो वह उत्पन्न होता है. यदि प्रतिबंधक कारण कोइ न होगा और आत्मा सदा परिणमनयुक्त है ऐसा कहोगे तो सम्यग्दर्शन हमेशा क्यों न उत्पन्न होता है? यदि आत्मा परिणमनशील नाहीं है तो कमी भी आत्मामें सम्यग्दर्शन न होगा. अतः सहकारिकारणोंका सानिध्य न होनेसे आत्मा सम्यग्दर्शनरूप परिणत नहीं होता है. उसको जगतमें कोई भी प्रतिबंधक कारण नहीं हैं ऐसा यदि कहोगे तो यह युक्ति संगत नहीं है. ऐसा कोनसा सहकारिकारण है कि जिसके न होनेसे श्रद्धाकी उत्पत्ति नहीं होती है । अर्थात् जिस सहकारिकारयाके सद्भावसे श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा जिसके न होनेसे उत्पन्न नहीं होती. ऐसा कोनसा सहकारिकारण है ? जगतमें पदार्थका संपूर्ण कार्यकारणभाव अन्वय व्यतिरेकसे जाना जाता · | है. अन्वयध्यातिरेकके विना कोई पदार्थ किसीका कारण मानना केवल प्रतिज्ञामात्र ही है. ऐसी प्रतिमा वस्तुके विचार समयमें कुछ भी उपयोगी नहीं है. आगममें प्रतिबंधक कारणले कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है ऐसा खुलासा है. जैसे सहकारिकारण नहीं होनेसे कार्यसिद्धि नहीं होती वैसे प्रतिबंधकका सद्भाव होनेसे भी कार्य होता नहीं. सहकारिकारण होते हुए प्रतिबंधककारणोंका अभाव होगा तो कार्य उत्पन्न होता है अन्यथा नहीं होगा. अतः प्रतिबंधकके सद्भाबमें कार्य नहीं होता है यह मानना पडेगा. · श्रुतमानसे जाने गये पदार्थोंपर ये पदार्थ सत्य है ऐसी अद्धा होना उसको ही सम्यग्दर्शन कहते है ऐसा ॐ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासः लाराश्ना Terola समझना भी अयोग्य है, क्योंकि अबध्यादिशानसे जाने गए पदार्थोपर सत्यभावना होती है उसको भी सम्यग्दर्शन मानना चाहिये. अवधिमान, मनः पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान भी वस्तुके यथार्थ स्वरूपको ही जानते हैं अतः वहां जो सत्यभावना होती है वह भी सम्यग्दर्शन है ऐसा मानना चाहिये. यदि 'धुत शब्दसे ' सर्व प्रकारके सम्यग्ज्ञानका अहण होता है क्योकि यहां श्रुत शब्द उपलक्षण चाती है. ऐसा कहोगे तो योग्य ही है. अतः अब इस विषयमें अधिक लिखनेको आवश्यकता नहीं है, सम्मत्तणाण दंसण इस गाथामें सिद्धोंके आठ गुणोंके नाम बताये है. उसमें सम्यक्त्व गुण मथम लिखा है परंतु आप तो सम्यग्ज्ञानका धर्म बता रहे हैं. अतः सम्पग्दर्शन आपके मतसे गुण नहीं है यह सिद्ध होता नहीं. अत: आपका कहना इस गाथाफे विरुध्द है. क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा क्षायोपशामिक सम्यग्दर्शन इसमें आप भिन्नता मानते हैं या नहीं? यदि भेद नहीं है तो पांच भावोंका वर्णन करने वाले आगमसे आपका कहना विरुद्ध होता है. यदि भेद मानोगे तो एक परिणाम दुसरे परिणामका स्वरूप नहीं होता यह कबूल करना पडेगा. अर्थात क्षायिक परिणाम और क्षायोपशमिक परिणाम परस्पर एक दुसरेके स्वरूप हो नहीं सकते. जितने परिणाम है ये परिणामीका स्वरूप होते है यह मानना न्यायसंगत है. अथात् जीव परिणामी है तथा उसके ज्ञानादिक गुण परिणाम है, परंतु ज्ञानको परिणामी मानकर सम्यग्दर्शनको उसका परिणाम स्वरूप मानना अन्याय्य है. जो परिणाम भिन्न भिन्न प्रतिबंधक कारण नष्ट होनस उत्पन्न होते है ये अन्योन्य धर्मि धर्मताको नहीं प्राप्त होते है, जैसे अवधि ज्ञान व फेवल मान ये दोन जान अपने अपने प्रतिबंधक कारणोंका अभाव होनेसे उत्पन्न होते हैं अनुः उनका अन्योन्य धर्म धर्मिभाव नहीं है वसे शान और सम्यग्दर्शनमें धर्म धर्मिभाव नहीं है. ज्ञानाराधना और चारित्राराधना एसी दो आराधना क्यों नहीं मानी है. ऐसे प्रश्नपर आचार्यका यह उत्तर है"शनकी आराधना करने वालेको सम्यग्दर्शन आराधना होती है नहीं भी होती है." यहांपर नानशब्द सामान्यवाचक्र भी है और संशय, विपर्यय तथा सम्यग्ज्ञानवाचक भी है, अर्थात संशय ज्ञान, विपर्यय ज्ञान, सम्यग्ज्ञान ऐसे शानके भेद देखे जाते है, अतः शानमें परिणत हुआ आत्मा निश्रयसे तत्व श्रद्धानमें परिणत होगा ऐसा नियम नहीं है. क्योंकि यह मिथ्याज्ञानपरिपात हो तो उसमें तमन्दाका अभाव TA S HRESTORAGHATOPATANGA Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आथासः रहेगा. इसवास्ते ज्ञान दर्शनका अधिनाभावी है ऐसा सिद्ध नहीं होता. मानाराधनसे दर्शनाराधनाका स्वरूप नहीं जाना जाता है. इसलिए ज्ञानाराधनामें सम्यग्दर्शनाराधना अन्तर्भूत नहीं होती है ऐसा आगममें कहा है. सम्परज्ञानकी आराधनाके साथ सम्परत्वाराधनाका अविनाभाव है. परंतु मिथ्याज्ञानकी आराधनाके साथ सम्यक्त्वाराधना नही रहती है. अतः बद्द भजनीय है ऐसा आचार्यने युक्तियक्त कहा है. सम्यग्ज्ञानके साथ अवश्य सम्यग्दर्शन रहता है अतः सम्यग्ज्ञानमें सम्यग्दर्शनाराघना क्यों अन्तर्भत नहीं की गई है इसका उत्तर ऐसा हैज्ञानको समीचीनपना माप्त होनेमें सम्यग्दर्शन ही कारण है अतः उसकी मुख्यता होनेसे सम्यग्दर्शनाराधना तथा चारित्राराधना ऐसे आराधनाके संक्षेपसे दो भेद किये है. RRARAMATARAPATAARAAAAAYATRAPATANAMEERTOPATREATRE मनुष ज्ञानमतरेणापि वर्शन यर्तते, यतो मिथ्यारिपि शानस्याराधको भयति । अतो बिनाभावाभाव सुद्धणया पुण णाणं मिच्छादिहिस्स वेति अण्णाणं | तम्हा मिच्छादिठी णाणस्साराहवो णेव ॥ ५ ॥ विजयोदया-शुभमयाः पुगः। अतधर्मात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमधर्मपरिसरस्तदविनामाविधर्मबलप्रसूतो नयः । तथा चोक्तम् । “उपपत्तिबलावर्थपरिच्छेदो नय" इति ॥ शुध्धो नयो येषां ते वादनया:। निरपेअनयनिरासाय शुराइविशेषणम् । नित्यमेव सर्वथा क्षणिकमेवेति ये परिच्छेदास्ते विपर्यासरुपास्तथाविधस्थ प्रतिपक्षधर्मानपेजस्य वस्तुनि रूपस्याभावात् । सापेध रूपं निराकांक्षतारूपेण दर्शयतः प्रत्ययस्य अतस्मिस्तदिति शान भ्रान्तमिति भ्रान्तता । तहोवरहितता शुध्दता। तथा हि कत्तकस्वेन अनित्यतामेव वस्तुन: प्रत्येति मान न तत्सर्वथा वस्त्वनित्यं, निम्यानित्यारमकस्वास्सकलस्य । यदि हि नित्यमेव स्यात् क्रियमापतानुरूपहेतुकर्दयकेनायुक्ततास्य स्यादतो नित्यं भवस्येय च न भवतीति रक्ष्यप्रतिपत्तयः ।। शुध्दा नया येषां प्रतिपतृणां ते शुध्दनया।पुण पुनः । णार्ण ज्ञानमित्यभिमतं परस्य । मिनछादिहिस्स मिथ्यारऐः।धेति बने । अण्णाणं अशानं इति । न ज्ञानशब्दः सामान्यचाची किंतु यथार्थप्रतिपत्तिरेव ज्ञानशब्दाभिधेयेति । ज्ञायते मन्यते अधः परिच्छिद्यते येन तज्वानं । बस्स्वन्यभूतं च रूपमादर्शयता नार्थः परिच्छिद्यते तस्मान्न मिथ्याज्ञानं चानशब्दस्यार्थः, तदशात मित्येष ग्राह्यम् । ननु च-- "गदि दिये च काय जोगे वेदे फसाय णाणे य ॥ संजमंदसगलेस्सा भाषिया सम्मतसषिण आहारे॥" Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काराधना आश्वासः इत्यत्र झामशद: सामान्ययाची,सत्यं प्रातिनिमिति ब्युस्पसी सा निरूपणा सामान्यशब्द इति । वमा तस्मात् । मिच्छादिड्डी तत्त्वज्ञानरहितः। माणस्ताराधको प.होविसि पवघटना । ज्ञानं नाराधयतीत्यर्थः॥ अत्रापरा व्याख्या ययुक्तं अक्षाने दर्शनाभाष इति किं, तज्ञानं कस्य भवतीति । ततः सूर्य इति । तदतिऐलयं । किं तवज्ञानमित्यस्य प्रश्नस्य प्रतिवचनं न सूत्रेऽस्ति । मिथ्याचागलक्षणतिपावनपरामिय्याष्टिसंयंधिज्ञानत्वमेव अज्ञानलक्षणमित्युभयोरपि प्रतिवचनमिति विकल्प्यते । एवमपि तम्हा न मिच्छदिहि' इति सूबे मिथ्यारानस्याराधकत्वाभाषमेव सूत्रकार उपसंहरति । तत्परित्यज्यासूत्रितमुपादेयमिति फेयं खतंत्रता। ननु च ज्ञानमतरेणापि दर्शनं वर्तते यतो मिथ्यादृष्टिरपि झानस्याराधको भवति । गतानुगतिकत्वेन लोकानां श्रद्रामात्रेणैव प्रवृत्तिप्रनीतेरतो ज्ञानेन दर्शनस्याविनाभावाभाषः इत्यत्राह मलारा०-मुद्धणया। अनंतधर्मात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमधर्मपरिच्छेदस्तदबिनाभाविधर्मपरिच्छेदबलप्रसूतो नयः। शुद्धाः प्रतिपक्षसापेक्षतया निर्दोषा नया येषां प्रमातॄणां ते शुद्धनयास्तीर्थकरदेवादयः । पुण यस्मात् । णाणं परस्याराध्यतया इष्ट ज्ञानं । वैति ब्रुयते । आण्णार्ण ज्ञायते परिच्छिश्यते रस्तुतत्वं येन तज्ज्ञान। न ज्ञानमज्ञान अयथार्थपरिच्छेदक मिध्येत्यर्थः । रनके विना भी सम्यग्दर्शन होता है क्यों कि मिथ्यादृष्टि भी ज्ञानके आराधक देखे गये है. अतः ज्ञान के साथ दर्शनका अविनाभाव नहीं है. इस आक्षेपका उत्तर आचार्य कहते है-- __हिंदी अर्थः-वस्तु अनंत धर्मात्मक है अर्थात् वस्तुमें एकत्व, अनेकत्व, नित्यपना, अनित्यपना, अस्तित्व नास्तित्व, अमेयत्व वगैरह अनंत धर्म है, अत: वस्तुको अनंत धर्मात्मक कहते हैं. ऐसे वस्तुमसे किसी एक धर्मको जो मुख्यतासे जानता है तथा उससे भिन्न अविनाभावी धर्मको जो गौण समझता है ऐसा जो शान उसको नय कहते हैं. 'उपपत्तिबलादर्थपरिच्छेदो नय इति' अर्थात् युक्तीके आश्रयसे पदार्थको जान लेना उसको नय कहते हैं ऐसा पूर्वाचार्योंने कहा है, वस्तके एक धर्मकोही वस्तु समझनेवाला तथा वस्तुके अन्य धर्मकी जो अपेक्षा रखता नहीं ऐसे मानको मिथ्यानय कहते हैं, जैसे वस्तु सर्वथा वणिकही है। सर्वथा नित्यही है, एकही इत्यादि रूपसे वस्तुका प्रतिपादन करनेवाला मान मिथ्यानयरूप है. इस मिथ्या नयफा निरसन करनेके लिए आचार्थने गाथामें 'सुद्ध गया' ऐसा शब्द रख दिया है. मिध्यानय प्रतिपक्षरूप धर्मकी अपेक्षा नहीं करते है. अर्थात् वस्तुका सर्वथा RATEBARBATAItARANASAST Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उलाराधना ३१ एकांत रूपसे विवेचन करते हैं. परंतु प्रतिपक्ष धर्मकी अपेक्षा न करनेवाला ऐसा वस्तुका स्वरूपड़ी नहीं बन सकता. अर्थात् परस्पर प्रतिपक्षी धर्मोसे वस्तु सदाही युक्त रहती है, जैसे वस्तुमें एकत्व धर्म रहता है उसी तरह अनेकत्व भी धर्म रहता है. जैसे अस्तित्व धर्म वस्तुमें विद्यमान है वैसे नास्तित्व धर्मभी विद्यमान है. अतएव वस्तु इन दोनो विरुद्ध धर्मो को अपने में स्थान देती हुई अपनी अनंत धर्मात्मकता जाहीर करती है. इस तरह वस्तुमें सापेक्षता है. परंतु जो ज्ञान सापेक्ष वस्तुको निरपेक्षरूप बताता है वह ज्ञान भ्रांत है. जैसे देवदत्तको जो कि जिनदत्तरूप नहीं जिनदच समझना, ऐसी भ्रांतता मिध्यान्यमें रहती है. सच्चे सापेक्षनयमें नहीं रहती है. अतः उसको शुद्ध नय कहते हैं । मिथ्यानय वस्तु कृतकता धर्म दीखने पर उसको सर्वथा अनित्य ही मानने लगता है परंतु वस्तु सर्वथा अनित्य नही है किंतु नित्यानित्यात्मक है. यदि सर्वथा वस्तु नित्यद्दी होती तो उससें जो कार्य करना हो उसको अनुकूल कारण प्राप्त करनेका प्रयत्न व्यर्थ होगा. क्योंकि, कारणोंकी प्राप्ति होनेपर भी वस्तु पूर्वरूप छोडकर कार्यरूपता धारण नहीं करेंगी अतः वस्तु सर्वथा नित्य भी नहीं है। वस्तु नित्यानित्य है ऐसा अनुभवही योग्य हैं. इस विवेचनका अभिप्राय यह है कि, साक्षात् वस्तुका अनुभव करा देनेवाले शुध्दनय जिनके हैं ऐसे तीर्थकरादिक महापुरुष मिथ्यादृष्टि लोगोंके ज्ञानको अज्ञान कहते हैं. क्योंकि मिध्यादृष्टियोंका ज्ञान वस्तुका थार्थ स्वरूप नहीं दिखाता है. इस वास्ते वह 'ज्ञान' इस नामको अपात्र है, उसको अज्ञान ही कहना चाहिये, यद्यपि ज्ञान शब्द सामान्यवाची होनेसे यथार्थ अयथार्थ रूप दोनों ज्ञानोंको ज्ञान कह सकते हैं तथापि मिथ्यादृष्टीका जो ज्ञान है वह अयथार्थ स्वरूपको दिखानेवाला होनेसे उसके लिए प्रयुक्त ज्ञान शब्दका अर्थ अज्ञान ऐसा ीं करना चाहिये. 1 यह शंकाकार ऐसा कहता है--' गइ इंदिये च काये इस गाथामें जो ज्ञान शब्द है उसका क्या अभि माय है ? क्या उसको सामान्य शब्द कहते हैं ? उत्तर - यहाँ ज्ञान शब्द की ' ज्ञातिज्ञानम् ' ऐसी निरुक्ति है. वहां पदार्थको जानना ऐसा सामान्य अर्थ अभिमत है. मिथ्या या सच्चे ज्ञान की विवक्षा वहां नहीं है. जो मिथ्यादृष्टि है वह तत्व श्रध्दानरहित होनेसे सम्यग्ज्ञानका आराधक नहीं है. ऐसा इस गाथाका अभिप्राय है. आश्वासक १ ī Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना बाश्याप्तः ३२ इस गाथापर कोह विद्वान् ऐसी व्याख्या लिखते है. पिछलेक गाथामें 'अमान होनेसे दर्शनाराधनाका अभाव होता है, ऐसा जो कहा है वह अज्ञान क्या चीज है तथा वह किसको होता है। ऐसे प्रश्नका उत्तर देनेकेलिये 'सुध्वणया पुण गाण' यह गाथा आचार्यने रची है ऐसा कोई विद्वान कहते है. परंतु यह उनका कहना युक्तिशून्य है. 'वह अज्ञान क्या चीज है, इस प्रश्नका मिथ्याचानका लक्षण कहनेवाला उत्तर उपर्युक्त स्त्री आचार्यने नहीं दिया है. मिथ्यापिका लोहार है नही समान लषण ऐमा दोनों प्रश्नोका उत्तर आचार्य ने दिया है ऐसी आपने कल्पना की है. 'तमाण मिच्छदिही' इस सूत्रमें मिथ्याष्टिजन झानके आराधक नहीं होते है इस अभिप्रायका ही उपसंहार किया है ऐसा समझना चाहिए, परंतु वह अभिप्राय छोड करके सूत्र में न दिखाया हुवा अभिप्राय समझ लेना अयोग्य है. चारित्राराधना कथ्यते । चतुर्थ्या आराधनायाः प्रतिपसिफर्म दर्शयत्राह संयममाराहंतेण तवो आराहिओ हवे णियमा ॥ आराहतेण तवं चारित्तं होइ भयणिज ॥ ६ ॥ विजयोदया-संयममाराहतेण संयम इत्यनेन शब्देन इह चारित्रमित्युच्यते । कर्मादाननिमितक्रियाभ्य उपरम संयमः । । सच चारित्रं । तथा चाभ्यधायि-कार्यादाननिमितकियोपरमो शानवतश्चारित्रमिति | संजमं चारित्रं आराधतेण भाराधयता। नचो तपः । आराधिदो आराधितं । इव भवेत्। णियमा अवश्यमय । कथं! इइ अनशनं नाम अशन न्यागः । स च त्रिप्रकारः । मनसा मुंजे. भोजयामि, भोजने व्यापृतस्यानुमतिं करोमि 1 मुंजे, अश्व, पचनं कुर्चिति वचसा। तथा चतुर्वेधस्याहारस्यामिसंधिपूर्वक कायनादानं, इस्तसंझायाः प्रवर्तन अनुमतिसूचनं कायेन । पतासां मनोवाकायफियाणां कर्मोपादानकारणानां त्यागोऽनशनम् चारित्रमेय । योगत्रयेण तृप्तिकारिण्यां भुजिक्रियायां दर्पवाहिन्यां मिराकृतिः अवमोदर्यम् । तथा याहारसंशाया जयो घृत्तिपरिसंख्यानं । रसगोचरगायत्यजनं त्रिधा रसपरित्यागः । कायसुखामिलापत्यजनं कायलेयाः। चित्तव्याकुलतापराजयो विविक्तशयनासनं। स्वकृतापराधगृहनत्यजनं आलोचना । स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृत्तिः प्रतिक्रमणे । तदुभयोजसनं उभयं । येन यत्र वा अशुभोपयोगोऽभूतपिराफिया, ततो परासन विषेकः। देहे ममत्वनिराला कायोत्सर्गः। तपोऽनशनादिकं यथा भवति खारिवं तथोकमेव । असंयमजुगुप्सामेष प्रषज्याहापनं छेदः। मूलं पुनम्बारित्रादानं । शानदर्शनचारित्रतपसामतीचारा अशुभक्रियाः । तासामपोनं दिनयः, चारित्रस्य कारणानुमननं वैयावृस्य । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आवासः R पदि ये कह चुके हैं तो फिर चे पुनः कैसे कहेंगे ? अतः वह कैसा ? ऐसा प्रश्न फरना भी अयुक्त है । क्योंकि सूत्रमें चारित्र सिद्धिमें इतर आराधनासिद्धिके क्रमका उपन्यास-विवेचन नहीं किया है । और केवल प्रतिज्ञासे अक्षको अथवा संशय ग्रस्तको वस्तुका स्वरूप ज्ञान नहीं होता है । इस वास्ते वह कैसा ऐसा युक्तिप्रश्न भी यहां पूछना योग्य नहीं है। यहां संयमके विषयम आर जो विवंचन अन्य विद्वानोंने किया है वह भी योग्य नहीं दीखता-" तेरा प्रकार के चारित्रमें सर्वथा प्रयत्न करना वह संयम हैं, यह संयम बाह्य तपसे अभ्यंतर तप जब सुसंस्कृत होता है तब प्राप्त होता है. उसके बिना होता नहीं. अतएव संयम बाह्य व अभ्यंतर तपसे सुसंस्कृत होता है ऐसा मानना होगा." यह संयमका स्वरूप विवेचन योग्य नहीं है, तेरा प्रकारके चारित्रमें प्रयत्न करना उसको संयम कहते है ऐसा संयम शब्दका अर्थ नहीं है. अपने जो अभिप्राय कहा है उसमें संयम शब्दका प्रयोग किया है ऐसा कहां भी हमारे देखने मुनने में नहीं आया है, शब्दका अर्थ बार बार प्रयोग आनेसे निश्चित होता है परंतु तेरा प्रकारके चारित्रमें प्रयत्न करना यह संयम है ऐसा शब्दप्रयोग कहां भी आया नहीं है. विदिया य हवे चरित्नम्मि' इस सूत्र में चारित्र शब्द सामान्ययाची है. परंतु आप 'सझलचारित्र' ऐसा चारित्र शब्दका विशिष्टार्थ क्यों कहते है ? सामाथिक, छेदोपस्थापनादि समस्त चारित्रभेदोंको चारित्राराधना कहते हैं 'पंडिदपंडिदमरणं खीणकसाया मरति केवलिणो' इस सूत्रमें यथा ख्यातचारित्र समझना इसका आगे वर्णन करेंगे, बाह्य तपके संस्कारसे युक्त ऐसे अभ्यंतर तपके विनर संयम नहीं होता है यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है. क्योंकि बाह्य तपके आचरणविना भी आदि भगवंतके शिष्य भदणराज चगैरे मरत चक्रवर्तीके पुत्र अन्तमुंहतमें रत्नत्रयको पाकर मोक्षको गये है ऐसा आगममें प्रसिद्ध उल्लेख है. -PRASARAMAT ननु तपस्यायत्तनिर्जरानुक्रमेण निर्जरामुपगच्छन्ति संति कर्माणि यदा निःशेषाण्यपगतानि भवन्ति तदा स्वास्थ्यरूप निर्वाणमुपजायते ततो निर्माणस्य कारणं निर्जरैप, तस्याश संपादकं तपस्ततो युक्तं दर्शनाराधना तप आराधना चेति द्विविधा आराधनेति गवितुं इत्यारेकायां, तो निर्जरां मुक्तरनुगुणां करोति सति चारित्रे संवरकारिणि नान्यथेति प्रदर्शयति-- Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आवास: D हिंदी अर्थ-जिन्होंके द्वारा कर्मका ग्रहण होता है ऐसे मन, वचन व शरीरके द्वारा होनेवाली क्रियाओंका त्याग-परिहार करना उसको चारित्र कहते हैं। प्रस्तुत गाथामें जो संयम शब्द है वह चारित्रका वाचक है। अन्य आचार्योंने भी चारित्रका लक्षण 'फर्मादानानिमित्तकियोपरमो ज्ञानवतश्चारित्र, इति ' ऐसा कहा है. इसका भी आभप्राय ऊपरके समानही है । जो चारित्रकी आराधना करते हैं उनको नियमसे-अवश्य तपकी भी आरधना हो जाती है । इस आराधनाका स्वरूप निमप्रकारसे समझना चाहिये । ___ अनशन-चार प्रकारके आहारोंका त्याग करना इसको अनशन कहते हैं । यह अनशन तीन प्रकारका है। मैं भोजन करूं, भोजन कराउ, भोजन करनेवालेको अनुमति देउ इस तरह मनमें संकल्प करना. मैं आहार लेता है, भोजन कर, तम पाओगेगा दोलना. नार प्रचारके आहारको संकल्पपूर्वक शरीरसे ग्रहण करना, हाथसे इपारा करके दूसरोंको ग्रहण करनेमें प्रवृत्त करना. आहार ग्रह्ण करनेके कार्यमें शरीरसे सम्मति देना ऐसी जो मन, वचन, कायकी कर्मग्रहण करनेमें निमित्त होनेवाली क्रियायें उनका त्याग करना उसको अनशन कहते हैं, यह चारित्र ही है. दृप्ति करनेवाला, दर्प उत्पन्न करनेवाला ऐसा जो आहार उसका मन, वचन, कायके तीन योगोंमे त्याग करना अचमोदर्य है, अर्थात् स्वयं पेट पूर्ण भरेगा इतना आहार में ग्रहण करूंगा, कराऊंगा, करनेवालेको सम्मति प्रदान करूंगा ऐसे मन वचन शरीरके संकल्पका त्याग करना इसको अवमोदर्य कहते हैं, आहारकी अभिलाषाको जीतना-इतने घरोंमें, गल्ली में आहार मिलेगा तो लेऊंगा इत्यादि प्रतिज्ञा करके आहारा भिलापाको जीतना इसको वृत्तिपरिसंख्यान कहते हैं. सविषयकी लंपटताको मन बचन शरीरके संकल्पसे त्यागना रसपरित्याग नामका तप है. शरीरको सुख मिले ऐसी भावनाको त्यागना कायक्लेश तप है. चिनमें उत्पन्न हुई व्यग्रताको भगा देना अथात् चित्त व्याकुल न हो इसलिये स्वी, पशु, पण्ड विवर्जिव एकान्त स्थानमें सोना बैठना इसको विविक्तशय्यासन कहते हैं. अपने द्वारा हुवे अपराधोंको छिपानेकी कोशिस न करना, अपराध हो गया तो शघि उसका निवेदन करना यह आलोचना तप है. स्वतः के द्वारा किये गये अशुभ योगसे परावृत्त होना अर्थान् मेरे अपराध मिथ्या होवे ऐसा कह कर पश्चात्ताप करना प्रतिक्रमण है, अपराधोंको न छिपाना तथा अशुभ योगोंसे परावृत्त होना वह तदुभय तप है. जिस जिस पदार्थके अवलंबसे अशुभ परिणाम होते हैं उनको त्यागना अथवा उनसे स्वयं दूर होना यह विवेक Au HAMAREKARAHATTARAKHAN Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना तप है. देहमसे ममत्व-स्नेह देर करना कायोत्सर्ग तप है.अनशादिकको तप कहते हैं. यह तप दोषोंका नाश करनके लिए गुरूने दिया हुवा पायश्चित्त स्वरूप है. असंयमसे तिरस्कार उत्पन्न होवे इस लिये दीक्षाके दिन कम करना छेद तप है. पुनः दीक्षा देना उसको मूल तप कहते है, ये सब प्रायश्चित्त तपके भेद हैं. अशुभ क्रियायें ज्ञान दर्शन चारित्र तप इनके अतीचार है. इनको हटाना विनय तप हैं, चारित्रके कारणाको सम्मति देना इसको वैयावृत्य कहते है. अर्थात् जिन कारणोंसे चारित्रकी वृद्धि होगी ऐसे कारणोंसे मुनीश्वराकी सेवा करना. अर्थात् संयमोपकरण पिंछी, कमंडलु, ज्ञानोपकरण शास, आहार, औषध वगैरह वस्तुओसे उपकार करना यह सब वैयावृत्य है. स्वाध्याय और ध्यान भी चारित्रकी वृद्धि करनेवाले तप है, अंग पूर्वादि शास्त्रोंको पढना स्वाध्याय तप है. शुभ विषयमें एकाग्र चित्त करना ध्यान है. अविगति, प्रमाद, कषायोंका त्याग स्वाध्याय करनेसे तथा ध्यान करनेसे होता है इस वास्ते वे भी चारित्ररूप है. अतः सब तर्पोका चारित्राराधनामें अन्तर्भाव होता है अतः दर्शनाराधना व चारित्राराधना ऐसे आराधनाके दो भेद माने हैं. अशनादिकोंका- आहारादिकोंका यद्यपि त्याग किया तो भी अपिरतिका त्याग नहीं होता है क्योंकि, आहारादिकोंका त्याग करनेवाले भी असंयत दीख पडते हैं. ऐसा आशय मनमें धारण कर आचार्य ऐसा कहते हैं... जो तपकी आराधना करते हैं वे चारित्राराधना करते हैं अश्या नहीं. अर्थात् तप करनेवाला पापोंसे विरक्त होकर चारित्र धारण करनेवाला होता है अथवा नहीं भी. परंतु चारित्र धारण करनेवाला नियममे विरतिपूर्वक तप करता | है अतः चारित्रमें तपका अन्तर्भाव होता है, परंतु तपमें उद्युक्त हुवा पुरुष असंयमका परिहार करेगा वा न करेगा. इस गाथापर दुसरे विद्वान् आपना आगे दिखाया दुवा आभिप्राय प्रगट करते हैं “चारित्राराधनामें तप आराधनाकी सिद्धि अवश्य होती है ऐसा कहा गया है. वह कैसा ? ऐसा प्रश्न होनेपर 'संयममारा_तण ऐसा सूत्रोपोद्घात किया है " ऐसा जो अन्य विद्वान् कहते है. वह युक्ति संगत नहीं दीग्यता है. क्योंकि आचार्थने ' चारित्राराधनामें तप आराधनाकी सिद्धि होती है। ऐसा वाक्य सूत्र में कहा नहीं है. तो आप उन्होंने कहा है ऐसा क्यों कहते हैं ? यदि त्रिदिया य हवे चरित्तम्मि' इस वचनके द्वारा उन्होंने कहा है ऐसा कहोगे तो यह कहना अशब्दार्थ है, अर्थात् 'चारित्राराधनमें तप आराधनाकी सिद्धि होती है ऐसे शब्द गाथामें नहीं हैं. शब्दोंके द्वारा जो अनुभव आवेगा उसकोही' कहा गया है। ऐसा कहना चाहिये. . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूलाराचना ३६ यदि ये कह चुके हैं तो फिर वे पुनः कैसे कहेंगे ? अतः वह कैसा ? ऐसा प्रश्न करना भी अयुक्त है । क्योंकि सूत्रमें चारित्र सिद्धिमें इतर आराधना सिद्धिके क्रमका उपन्यास-विवेचन नहीं किया है। और केवल प्रतिज्ञासे अशको अथवा संशय प्रस्तको वस्तुका स्वरूप ज्ञान नहीं होता है। इस वास्ते यह कैंसा ? ऐसा युक्तिप्रश्न भी यहां पूछना योग्य नहीं है । asi area विषयमें और जो विवेचन अन्य विद्वानोंने किया है वह भी योग्य नहीं दीखता - " तेरा प्रकार के चरित्र में सर्वथा प्रयत्न करना यह संयम है. यह संयम बाह्य तपसे अभ्यंतर तप जब सुसंस्कृत होता है तभ प्राप्त होना है, उसके बिना होता नहीं. अतएव संयम बाह्य व अभ्यंतर तपसे सुसंस्कृत होता है ऐसा मानना होगा. " यह संयमका स्वरूप विवेचन योग्य नहीं है. तेरा प्रकारके चारित्रमें प्रयत्न करना उसको संयम कहते हैं ऐसा संयम शब्दका अर्थ नहीं है. अपने जो अभिप्राय कहा हैं उसमें संयम शब्दका प्रयोग किया है ऐसा कहां भी हमारे देखने सुनने में नहीं आया है, शब्दका अर्थ बार बार प्रयोग आनेसे निश्चित होता है परंतु तेरा प्रकारके चारित्रमें प्रयत्न करना यह संयम है ऐसा शब्दप्रयोग कहां भी आचा नहीं हैं. विदिया यह चरितम्मि ' इस सूत्र में चारित्र शब्द सामान्यचाची है. परंतु आप ' सकलचारित्र ' ऐसा चारित्र शब्दका विशिष्टार्थ क्यों कहते हैं? सामायिक, छेदोपस्थापनादि समस्त चारित्रभेदोंको चारित्राराधना कहते हैं 'पंडिडिदमरणं खीणकसाया मरति केवलिणो इस सूत्र में यथा ख्यात चारित्र समझना इसका आगे वर्णन करेंगे. बाह्य तपके संस्कारसे युक्त ऐसे अभ्यंतर तपके बिना संयम नहीं होता है यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है. क्योंकि बाझ तपके आचरणविना भी आदि भगवंतके शिष्य भद्दणराज वगैरे भरत चक्रवर्तीके पुत्र अन्तरत्नत्रयको पाकर मोक्षको गये हैं ऐसा आगम में प्रसिद्ध उल्लेख है. 4 ननु तपस्यायस निर्जरानुक्रमेण निर्जरामुपगच्छन्ति संति कर्माणि यदा निःशेषरण्यपगतानि भवन्ति तदा स्वास्थ्यरूपं निर्वाणमुपजायते ततो निर्वाणस्य कारणं निर्जरय, तस्याथ संपादकं तपस्तप्तो युक्तं दर्शनाराधना तप आराधना चेति द्विविधा माराधनेति गर्दितुं इत्पारेकायां तपो निर्जरां मुकेनुगुणां करोति सति चारित्रे संवरकारिणि नान्यथेति प्रदर्शयति आश्वासः १ ३६ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलाराधना ३७ आश्वासः सम्मादिहिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि ॥ होदि हु हत्थिाहाणं चुपच्चुदगंव तं तस्त ॥ ७ ॥ विजयोदया-सम्माविस्स वि स्यादिना । सम्मादिहस्सयि तत्वार्थश्रद्धानवतोऽपि । अविरदस्स मसंपतस्य । न तयो तपः । महागुणो गुगशोऽनेकार्थवृत्तिः । रूपादयो गुणशब्देनाच्यन्ते क्वचिद्यथा-'रूपरसगंधस्पर्शसंख्यापरिमाणानि, पृथक्त्वं, संयोगविभागी, परत्वापरत्वबुद्धया, सुखदुःखेच्छाखेवप्रयत्नादयः क्रियावद्गणसमषाधिकारणं द्रव्यं' इत्यसिसम्सूबे गृहीताः । गुणभूता वयमा नगरे इति अत्र प्रधानवाचीवस्य गुणस्य भाषादिति विशेषण वर्तते । गुणोऽनेग गृत रस्यत्र उपकारार्थे वृत्तिः । इह उपकारे वर्तमानो गृद्यते । महागुणः उपकारोऽस्येति महागुणं । हरेदि भवति । क्रिया चैव हि भाव्यते निषेच्यते वा इति वचनात् । न तु भवनकिया संबध्यते । तयो न भवति महोपकारमिति। एतदुक्कं भवति कर्मनिर्मूलनं कर्तुमसमर्थ तपः सम्यग्दरप्यसंयतस्य पुनरितरस्य असति संवरे प्रतिसमयमुपचीयमानकर्मसंहते: का मुक्तिः। ननु सत्यपि संयमे विना निर्जरां न निवृत्तिरिति । शक्यमेवमाभिधान 'सम्मादिस्स वि अदनबो भाषणाविसेसस्स ने चारिसं महागुणं होदित्ति'। सत्यमेवमेतत् चारित्रप्राधान्यविक्षापराय चोदना । असि' दिन्टनत्तीत्यत्र छत्तारमंतरेण अभिनय संपवते छिदा, तथा तदीप्रतक्ष्ण्य गौरवकाठिम्पातिशयनिरूपणवांछायां नम्बर स्वातंत्र्यं निगद्यते । एवमिहापीति न दोषः । कुतः? यस्मात् होदि खु हत्यिहाणं होदि भवति । खु शब्द एकागर्थ: स हथिण्हाणमित्यनेन संबंधनीयः । हथिण्डाणमेवेति । यथा हस्ती स्नातोऽपि न नैर्मस्य वहति पुनरपि कमवर्जित पांसुपटलमलिनतया' तद्वत्तपसा निर्माणेऽपि कर्माशे बहुतरादाने असंयममुखेनेति मन्यते । दृष्टान्तान्तरमाच-चुदन्चु दगंध मंथनचर्मपालिकेच तद्वत्संयमहीनं तपः । दृष्टातरापन्यासः किमर्थ इति चेत् । अपगतादातरोपादान कर्मणो ऽसयमनिमिसस्येति प्रदर्शनाय हस्तिस्नानोपन्यास: 1 आईतनुतया बहुतरमुपादते रजः । बंधरहिता निर्जरा स्वास्थ्य पापयति नेतरा बंधसहभाविनीति । किमिव मंथनर्भपालिकेव । साहिबंधसहिता मुक्ति वर्तयति । अधान्ये व्याचक्षतेकालभेदमनपेक्ष्य शुद्धिमशुद्धिं च दर्शयता प्रथम उपात्तः । तदयुक्तं सकलकर्मपायो हि शुद्धिः, अशुदिश्च कर्मणासहवृतिः, तपासती शुतिः काथमादयेते कौशापगममात्रतः शुद्धिा या मुक्तिःसा कस्य न विद्यते ? फल दत्वा प्रयांन्यात्मन! कर्मपुगलस्कंधाः । यच्चोक्तं यदा तु कालभेदेन वैधय॑माशंक्यते बंधनशातनयोरेकसमयत्वात् इति ततो द्वितीयो शांतः । रज्जुवेष्टननिर्गमनयोरेककालत्वादिति तदप्यसारं । न हि चंद्रमुखी कन्या इत्यत्र एवमाशंका संभवति, सदा सपू. माननं चामलोचनायाः निशानाथस्य कदाचिदेव पूर्णता ततोऽनुमानमिति साधारणधर्ममावावलंबम परोपमानोपमेय भावः, वैधये तूपमानोपमेययोरस्ति अन्यथा उपमानमिद उपमेयमिति भयो निरास्पदः । अपि च उपमेयस्यातिशय प्रदर्शयितुमेवोपमानं प्रवृतं ॥न स्वेकस्योपमानस्यानुक्ततारितरतुपादीयते इति युक्तम् । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः लारावना ननु मुक्ते : कारण निर्जरैष तत्कारण च तपः इति सम्यक्त्याराधना तप आराधना चेति संक्षिप्य वक्तुं युक्त। तत्र संवरकारिणि चारित्रे सत्येव निर्वाणानुगुणाया निजरायास्तपसा कर्तुं शक्यत्वात् । तदेवाह-- मुलास-सम्मादिठुिस्स वि । तत्वश्रद्धानपतोऽपि किं पुनर्मिध्यादृष्टेरित्यतिशयोऽपिशब्दार्थः। अविरदस्स हिंसादिषु विषयेषु च प्रवर्तमानस्य । महागुणो अनल्पोपकार कर्मनिर्मूलनमर्थमित्यर्थः । संयमहीनस्य संवराभावे प्रतिक्षणमपरापरकर्मसंघावोपादानान्मुक्तिर्न स्यादिति भावः। एतच्चारित्रस्य प्राधान्यायियक्षायामेवोक्यते । यथा " मुक्तिस्तपसैच तत्तपः कार्यमि" ति तपसः प्राधान्यविवक्षायां ।खु मेदविवझायां इयार्थे अभेदविवक्षायां वा एकार्थे । हस्तिस्नानमिव असंयतस्य तपो भवतीति योज्यं ॥ यथा इस्ती स्नातः सनातनुत्तया स्वकरार्पित रजो बहुतरमादत्ते तथा तपसा निर्जीर्णकमांशोऽसंयमार्पितं कर्म पुनर्मुक्तयादिलंपटतया बहुतरमादत्ते इत्यर्थः ।। दारगंव मथनचर्मपालिकेष । तं तत्तपः । तस्स सम्यग्रष्टेरप्यविरतस्य । यथा वेष्टनसहभाब्युद्वेष्टनं कुर्वाणा आकर्षणधर्मवधिका भ्रमियत्रस्य स्थैर्य न करोति तथा अथसहभाविनी निर्जरां कुर्वसपोs संयतरू सो कोनी अ इमिरमानेनापगतादातरस्यापादनं धर्मवद्धिकया प बंधसहमाविन्या निर्जरया स्वास्थ्याभावो दश्यते । उपमेयगतातिशयफलत्वादृष्टान्तान्तरोपन्यासस्य । ये तु चुंछिंदकर्मेति पठन्ति तेषामिय व्याख्या दं मानकसेतिकादियोग्य काव दिन्ति चिकीर्पितबास्त्वनुगुणभावेन कृततीति चंदारिच्छदाफारास्तेषां कर्म व्यापारधर्मबद्भिकया अभिपरिभ्रमणं । तपथा खुशब्देन यथार्थेनोभयत्र संबंधात् । शेष पूर्ववत् ।। - - निर्जरा तपके आधीन है. तथा विद्यमानकर्म इस तपके प्रभावसे क्रमसे निर्जाणे होता है. जब संपूर्ण कर्म निःशेष हो जाता है तब स्वास्थ्य रूप मोक्ष प्राप्त होता है, अतः मोक्षका कारण निर्जरा ही है. वह निर्जरा त होती है. अतः दर्शनाराधना व तपआराधना ऐसी दो आराधनाओंका वर्णन करना योग्य है ऐसी शंका होनेपर संबरको उपन्न करनेवाला चारित्र सहायक होनेसे हि तप मुक्तीकी साधक ऐसी निर्जरा उत्पन्न कर सकता है अन्यथा नहीं ऐसा उत्तर निम्न लिखित गाथामें देते है हिंदी अर्थ-जीवादि तत्वोंपर जिसकी श्रद्धा है ऐसे अविरत अर्थात् असंयमी पुरुषका तप महान् उपकार करनेवाला नहीं होता है. वह उसका तप हाथीके स्नान समान होता है, जैसे हाथी नमें स्नान करता है परंतु फिर तटपर आकर अपने सूंडसे सर्वांगपर धुलि फेकता है वैसे असंयत सम्यग्दृष्टि कर्म निर्जीर्ण करता हुवा भी Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना আস্থা असंघमके द्वारा बहुत कर्मका ग्रहण करता है. अथया लकडीको छिद्र पाइनेवाला वर्मा जैसा छेद पाडते समय दोरी बांधकर घुमाते हैं उस समय उसकी दोरी एक तरफसे दिली होती हुई भी दूसरी तरफसे उसको दृढ़ बद्ध करती है वैसे सम्यग्दृष्टीका पूर्वबद्ध कर्म निर्जीर्ण होता हुवा उसी समय असंयम द्वारा नवीन कर्म बंध जाता है, अतः असंयत सम्यग्दृष्टीको तप आराधना नहीं होती है, इसलिये तप आराधनामें चारित्राराधना अंतर्भूत नहीं होती है ऐसा समझना चाहिये. विशेष-गाथामें 'महागुणो' ऐसा शब्द है. यहां गुणशब्दके अनेक अर्थ होते हैं. जैसे रूप, रस, गंध, स्पर्श इनको भी शास्त्रमें गुणसंज्ञा है. गुणोंकी संख्या दिखानेवाला मूत्र इसप्रकार है. 'रूपरमगंधस्पर्शाः मंल्याः परिमाणान यावं संयोगविभागां त्वापरत्वयुद्धयः मुखदुःखन्छाद्वेषप्रयत्नादयः ' क्वचिद् गुणका अर्थ मुख्य ऐसा भी होता है. जैसे-'गुणीभृता वयमत्र नगरे' अर्थात् इस नगरमें हम प्रधान मुख्य है. यहां गुण शब्दकी प्रधान अर्थमें वाचकता है, कचिन गुण शब्दका अर्थ उपकार एया होता है. जैसे गुणोऽनेन कृतः" अर्थात इसने उपकार किया. प्रकृत गाथामें गुणशब्दका अर्थ उपकार ऐसा समझना चाहिये. अविरत सम्यग्दृष्टिका भी तप महागुण नहीं होता है अर्थात् वह कर्म निर्मुलन करनेके लिये समर्थ नहीं होता है. पुनः जो मिध्यादृष्टि है उसका तप मुक्तिकेलिये कैसा कारण होगा ? उसको संवर न होनेसे प्रतिममय नया कर्म आता ही रहेगा अतः उसको मुक्ति नहीं होगी. शंका-संयम प्राप्त भी हो गया तो भी कर्मनिर्जरा न होनेसे मुक्ति नहीं प्राप्त होगी. अथवा ऐसा भी कह सकते हैं जिसने तपका अभ्यास किया नहीं है ऐसे सम्परदृष्टीको भी केवल चारित्र महोपकारक नहीं होता है. अर्थात् संवरसहित निर्जराको उत्पम नहीं करता है. उत्तर-आपका कहना ठीक है. परंतु यहां चारित्रकी मुख्यता है अतः चारित्र न होनसे मुक्ति प्राप्त नी होगी ऐसा कहा है. जैसे 'असिश्च्छिनत्ति' अर्थात् तरवार काटती है. इस वाक्यका विमर्श करेंगे तो ऐसा मालूम होगा कि, छेदनेवाले पुरुषके बिना केवल तरवार ही स्वयं छेदनकार्य नहीं करेगी परंतु तरवारकी तीक्षणता, काठिन्य व.रे गुणातिशयको देखकर उसमें छेदनकार्य करनेका कर्तत्व आरोपित करके तरवार तोडती है ऐसा कहते हैं. वैसे चारित्रका वर्णन करनेकी मुख्यता होनेसे चारित्रक त्रिना नप महोपकारक संवर निजराका उत्पादक He Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ etaSES घलाराधना आवासः ४. नहीं होते है ऐसा कह सकते है. असंयत सम्यदृष्टिका तप हस्तिस्नानके समान है. जैसे हाथी तालाबमें स्नान कर निर्मल होता है परंतु आपनी सुंडाके द्वारा धूलको शरीरपर फेककर अपनेको मलिन करता है. तद्वत् तपके द्वारा कर्माश निजीण हो गया तो भी असंयमसे सम्पदृष्टि बहुत कर्मसमुदायको ग्रहण करता है, आचार्य दुसरा दृष्टान्त मंथन चर्मपालिकाका देते है. उसका विवेचन किया है. आचार्यने दो दृष्टान्त क्यों दिये है ? इसका खुलासा इस प्रकार है. सम्यग्दृष्टिने पूर्वमें जितनी कर्म निर्जरा की है उससे भी अधिक कर्म उसको असंयमसे बंध जाता है. यह खुलासा करनेके लिये इम्तिस्नानका दृष्टांन दिया है. हाथी स्नानसे गीला होता है अतः बहुत धूलीका संग्रह उसके अंगपर हो जाता है. उसही प्रकारसे सम्यग्दृष्टिको बहुत कर्मबंधन होता है, जो निर्जरा बंध रहित होती है वही स्वास्थ्य अभीत मोक्षपटान करती है परंत बंधके साथ होनेवाली कर्म निर्जरा मुक्तिका कारण नहीं होती है इसका स्पष्टीकरण करने के लिये आचार्यने मंथन चर्मपालिकाका दृष्टान्त दिया है वह बंध सहित मुक्तिको दिखाती है.. यहां दूसरे विद्वान ऐसा कहते हैं- कालभेदकी अपेक्षा न करके शुद्धि और अशुद्धिको दिखानेकी इच्छासे आचार्यने प्रथम उदाहरण-हस्तिस्नानका गाथामें लिखा है." परंतु यह उनका अभिप्राय युक्ति युक्त नहीं है. क्योंकि, संपूर्ण काँका नाश होना यह शुद्धि है व कर्म सहितावस्थाही अशुद्धि है जब शुद्धि की नहीं तो आचार्य उसको हस्तिस्नानका उदाहरण देकर भी कैसे दिखा सकेंगे. यदि कुछ कर्म नष्ट होना उसको शुद्धि या मुक्ति कहोगे तो ऐसी शुद्धि किस प्राणीमें न मिलेगी? अर्थात् ऐमी शुद्धि प्रत्येक प्राणीमें विद्यमान है. कारण प्रत्येक प्राणीके कर्मस्कंध उसको फल दे देकर खिरतेही है. अतः ऐसी शुद्धि मिलना असंभव नहीं है, वह तो सुलभ ही है, और भी जो उन विद्वानोंने कहा है । जहाँ कालभेदका आश्रय लेकर दो धर्म रहते हैं वहां उन धमें भिन्नता-विरुद्धता दीखती है, परंतु कर्मबंध होना ब उसकी निर्जरा होना ये दो धर्म एक समय में होते हैं अतः ये विरुद्ध नहीं हैं, इस बास्ते यहा दुसरा दृष्टांत मंथन चर्मपालिकाका दिया है. यहां रज्जुसे मंथनदंड वेष्टित भी हो जाता है और मुक्त भी हो जाता है, ये दोन क्रियायें एक समय में होती है Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास अतः इसमें वैधर्म्य नहीं है. यह कहना भी असार है. 'चंद्रमुखी कन्या' इस उदाहरणमें ऐसी वैषम्यकी शंका उपस्थित नहीं होती.कन्याका मुख हमेशा पूर्ण ही रहता है, परंतु चद्रकी पूर्णता कदाचित होती है. सदा नहीं होती अतः अनुमानसे मुख और चंद्रमें साधारण धर्म-आल्हादकत्व, सुंदरता इत्यादिका आश्रय लेकर उपमानोपमेय भाव रहता है. मुख और चंद्रमें वैधर्म्य है ही अन्यथा चंद्र उपमान है व मुख उपमेय है यह भेदही उत्पन्न नहीं होता. उपभेयमें विशेषता दिखानेके लिये ही उपमान प्रवृत्त होता है. उपमानको छोडकर दुसरेका ग्रहण कोइ नहीं करते है. नात्पर्य-मंथनचर्मपालिका का उदाहरण देनेका कारण इतनाही यहां समझना चाहिये कि, अवितसम्यग्दृष्टीका नप असंयमपूर्वक होनेसे कर्मगंध और निर्जराका कारण है. वैधर्ना दिखानेके लिये आचार्य ने यह उदाहरण नहीं दिया है. % संक्षेपस्य प्रकारान्तराख्यानायाह अहवा चारित्ताराहणाए आराहियं हबइ सव्वं ।। आगहणाए सेसन चारित्ताराहणा मज्जा ॥८॥ विजयोदया-अहवेति । एकाधादिसंख्येयासस्येयानंतरूपेण हि जैनी निरूपणा ॥ चरति यांति तेन हितप्राप्ति अहितनिवारा चेनि चारित्रं, चर्यत सेव्यते साजनैरिति या चारित्रं सामायिकादिकं, तस्याराधनायां तत्परिणती सत्यां आराधितं निष्पादितं । इवह भवति । सव्वं सर्व ज्ञान दर्शनं तपश्च, प्रकारकात्म्ये सर्वशवोऽन प्रवृत्तः। यथा सर्वमोदनं भुक्त इति मीहिशाल्योदनप्रकारकास्य भुझिक्रियायाः कर्मत्वेन प्रतीयते । एवमिहापि मुक्त्युएरायप्रकाराण हानादीनां सामस्त्यमाख्यायते । चारिमाराधनैवेत्यनेन गाधाद्धेन कथितम् । अत्रेयमाशंका-कस्मादेकस्वनिरूपणाराधनायाश्चारित्रमुखनैव कियते नान्यमुनेनेत्यत आह-आराधणाप आराधनाय । सेसस्स शेषस्य । बामदर्शनतपसां सम्पतमस्य । पारि साराधणा भिज्जा भाज्या विकराया । कथं असंयतसम्पग्राष्टिभवति ज्ञानवर्शनयोराराधको नेतरयो । मिथ्याष्टिस्त्वनशनदाधुचतोऽपि न चारित्रमाराधयति । काचित्पुनः ज्ञानाचीनि चारित्रमपि संपादयतीति नाधिनामाविता इतराराधनायो चारित्राराधनाया इति न सन्मुखेनैकत्यनिरुपणेति भावः । मनु माथिकवीतरागसम्यकस्वाराधनाया, क्षायिकहानाराधमायां च इतरेषामाप्याराधना नियोगतः संभवति तस्फिमुच्यते शेषाराधनायां चारित्राराधना भाज्येति? भायोपशमिकज्ञानदर्शनोपायैतदुक्तं इति क्षेयम् । अनान्येषां व्याख्या "चारित्ताराधणाप इत्यत्र चारित्रशब्देन सधारित्रमुणतं । तथ सदर्शनात्मकहाननिरूपितक्रमाप्रच्यवनेम प्रयन्नवृशिरूप समिभराभ्यमाने शेषसिद्धिर्भवत्येव कथं ? सजानकार्य चारित्रं सज्वानं च दर्शनाद्धितं कार्य हि कारणाविनाभावित्वं प्रयुक्तं इति सानुपपन्ना" | प्रतिशामात्रेण हि सूत्रमिदभव 929 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना STATISTORE स्थित, पतत्साधनाय सूत्रद्वयमुत्तरं यत्र हि सूत्रकारा तान्नबंधन पदात । आत्मनः प्रतिज्ञातस्य तत्र व्याख्यातुरखसरा निबंधनाण्याने यत्र तु स एय बदति तत्र सदेव व्याख्यातुमवगम्तव्यमिति व्याख्यानमः शाकोषु । न वेदमनेन प्रतिविधाममभूनिरम् सीधी साध्यमिणमकादत्वयसि णातूण होवि परिहारो, इत्या निरूपयिष्यति यतः सूत्रकारः । किं च उत्सरसूत्रानुष्ठानमस्यां व्याख्यायर्या चारित्राराधनामुखेनैकैवाराधनेति प्रतिपिपादयिषितं । तब सेप्रति विधानं प्रतिपादयितुं कोऽवसर उत्तर गाथायाः । इतराराधमान्तावकारिण्याचारिपाराधनाया निरूपणायां चारित्रस्वरूपास्यानाय उसरगाथायातेति कथममयसर इति चेत् यद्येवं दर्शनाराधनायां कानारामनामन्तव्य प्रवर्तमानायां दर्शनखाए कि नोच्यते सूत्रकारेण ? स्वेच्छेति चेन न्यायानुगामियां शास्त्रकाराणां न्यायादपेतेच्छा मयुक्ता। इदनी परमसंपादेकधैवाराधना स्यादिति दर्शयति मूलारा-चारिताराहणाए-परन्ति यान्ति तेन हिसप्राप्तिमदितनिवारण चेति, चर्यते सेव्यते सद्भिस्तदिति या चारित्रं सामायिकादिकं । तत्परिणती सत्यां आराहिदं निष्पादित । सञ्चं ज्ञानं दर्शनं तपश्च । सेसस्स ज्ञानादित्रयस्य भन्जा भाज्या विकल्पाः। तद्यथा-असंयतसम्यग्दृष्टिनिदर्शनयोराराधको भवति नेतरयोः । भिध्यादृष्टिरनशनादितपस्युचतोऽपि न चारित्रमाराधयति । कश्चित्पुनः ज्ञानादीनि चारित्रमपि संपादयति । नतो न ज्ञानादिमुखे कत्यमुक्तमाराथानाया इति भावः । पतक श्राधिकवीतरागसम्यक्त्वाकेवलज्ञानाचान्यव बोध्यम् ॥ द्वाज हिंदी अर्थ-चारित्रकी आराधना करनेसे सर्व आराधनाओंकी आराधना होती है. परंतु दर्शनादि आराधनासे चारित्रकी आराधना होगी या नहीं भी होगी. विशेषार्थ-एक, दोन, तीन, संख्यात, असंख्यात अनंत रूपसे श्री जिनेश्वरके मतमें वस्तुका वर्णन होता है. अतः वस्तुका अतिशय संक्षेप व विस्तार पूर्वक विवेचन जैन ग्रंथमें पाया जाता है. जिससे जीव हितको प्राप्त होते हैं अथवा अहितका निवारण करते हैं उसको आचार्य चारित्र कहते हैं. अथवा सज्जन जिसका आचरण करते हैं, सेवन करते हैं उसको चारित्र कहते हैं. इस चारित्रके सामायिक वगैरे भेद हैं. ऐसे चारित्रकी आराधनामें जब आत्मा तत्पर होता है तब इसमें तन्मयता होनेसे शान, दर्शन, तप ऐसी सर्व अर्थात् तीनों आराधनायें आराधी जाती हैं. अर्थात् इन तीनाकी भी प्राप्ति होती है. यहां प्रकार व संपूर्णता ऐसे दो अर्थोमें सर्व शब्दका प्रयोग किया है. जैसे 'सर्व मोदनं भुक्त' अर्थात "बीही वगैरे जितने शालीके भेद है उतने सर्व मेदसहित शालीका भात खाता है." इस Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाराधना ४३ वाक्यमें सर्वे शब्दका प्रकार ऐसा अर्थ है. इसी तरह यहां भी मोक्षोपायके प्रकार जो ज्ञान, दर्शन तप हैं वे यहां ' सव्वं ' इस शब्द से संगृहीत होते हैं. एक चारित्राराधनामें सब आराधनाओंका अन्तर्भाव हो जाता है. शंका- चारित्रको मुख्यता देकर ही क्यों आराधनाका एकत्व आप दर्शाते हैं ? अन्य आराधनाको मुख्यता देकर आराधना की एकता आपने क्यों नहीं दिखायी है ? इस प्रश्नका उत्तर- इतर आराधना - ज्ञान, दर्शन तप इनमेंसे किसी एक आराधनाकी मुख्यता होने पर भी चाtिoriver भाज्य ही है अर्थात् इतराराधना प्राप्त होगी परंतु चारित्राराधना प्राप्त होगी अथवा नहीं होगी, इसका खुलासा- असंयत सम्यग्दृष्टि ज्ञान और दर्शन ऐसी दोनो आराधनाओंका आराधक हैं. जय आराधकको सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है तब उसके ज्ञानमें भी सम्यग्दर्शनके साथ सम्यक्पना प्राप्त होता है. अतएव वह सम्यग्दृष्टि दर्शन ज्ञानका आराधक है. मिथ्यादृष्टि जीव अनशनादि तपोमें उयुक्त होकर भी चारिarrer नहीं होता. कोई सम्यग्दृष्टि जीव व्रतसहित होनेसे ज्ञानादि तीन आराधनाओंका आराधक होता है चारित्रका भी. अतः चारित्राराधनाका इतर आराधनाओं में अविनाभाव नहीं है. जहां चारित्राराधना है वहां चारोंहि आराधनायें है ही परंतु जहां अन्य आराधनायें हैं वहां यह चारित्राराधना रहे या न रहे. अतः चारित्रकी मुख्यतासे आचार्य ने सबका अन्तर्भावकरके एक चारित्राराधनाही कही है. शंका- क्षायिकवीतराग सम्यक्त्वाराधना और क्षायिकज्ञानाराधना ऐसे दो आराधनाओं में बाकीकी तप और चारित्राराधनायें निश्वयसे अन्तर्भूत होती हैं अतः शेष आराधनाकी प्राप्ति हुई तोभी चारित्राराधना भाज्य है ऐसा क्यों कहा हैं. उत्तर - क्षायोपशमिक ज्ञान और दर्शनकी अपेक्षासे हमारा उपर्युक्त कथन समझना चाहिये. अर्थात् जहां जहां क्षायोपशमिक ज्ञान व दर्शन है वहां चारित्र होता ही है ऐसा नियम नहीं है. क्योंकि क्षायोपशमिक ज्ञान व दर्शन चतुर्थ गुणस्थानसे शुरू होते हैं. इस गुणस्थान में अविरतिपरिणाम होनेसे चारित्राराधना नहीं है अतः आचार्यका कथन किस अपेक्षासे है यह ध्यानमें आया होगा. is प्रकृत गाथापर अन्य विद्वानोंका आगे लिखा हुवा व्याख्यान है— चारिताराधणाए इस गाथामें चारित्र शब्दका अर्थ सच्चारित्र ऐसा समझना चाहिये. सम्यग्दर्शन युक्त व सम्यग्ज्ञान निरूपित ऐसा जो आचरण आश्वासः १ ४३ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FETRIES मूलाराधना आशमा SHATABASEEMARBHATASARAMMELITERAITAS क्रम उससे व्युत न होकर दृढ रहनेका जो प्रयत्न उसको चारित्र कहते हैं. अर्थात् आगममें जो धर्माचरणके क्रमका उल्लेख किया है उसके उपर अद्धा रखकर उसका स्वरूप समझ लेनेके अनंतर उस आचरणकमसे क्युत न होकर | उसमें दृढ रहना यह सच्चारित्रका लक्षणा है. ऐसे चारित्रकी आराधना करनेसे ज्ञान, दर्शन, तप इनकी आराधना अवश्य होती है, चारित्र सम्यग्ज्ञानका कार्य है, और ज्ञान भी सम्यग्दर्शनके प्रभावसे हितकारक होता है. कार्य हमेशा कारणसे अधिनाभावी होता है. जो जो कार्य उत्पन्न होता है वह २ कारणपूर्वक ही होता है. कारणके हिना होती ही है. पाटि ज्ञान व दर्शनका कार्य है व सम्यग्दर्शन शानके साथ अविनाभावी है. उनके विना चारित्रकी उत्पत्ति होती ही नहीं, अतः चारित्राराधनामें सब आराधनाओंका प्रवेश हो जाता है." यहां आचार्य उनके व्याख्यानकी अयुक्तता दिखाते हैं. आपने जो सच्चारित्रके कारण और लक्षण बताये हैं उनकी यहां आवश्यकता नहीं है, इस गाथामें तो फक्त चारित्र की प्रतिज्ञा ही अर्थात् नामोल्लेख ही किया है. इस प्रतिज्ञाका स्पष्टीकरण और उसके कारणोंका उल्लेख ग्रंथकारने आगेकी दोन गाथाओं में स्वयं किया है अतः उन स्थलोंमें व्याख्याकारको कारणोंका विवेचन करनेका अवसर है. ऐसा ही व्याख्याक्रम शास्त्र में सुना जाता है. 'कादष्वामणमकादम्बयत्ति णादण होदि परिहारो इस गाथामें चारित्रका लक्षण आचार्य कहेंगे, परंतु आपने उत्तर सूत्रानुष्ठान इस व्याख्यानमें किया है. इस गाथासूत्र में चारित्राराधनाकी मुख्यतासे एक ही आराधना है यह प्रतिपाद्य विषय है. इसलिये उत्तरगाथा का विषय यहाँ प्रतिपादन करनेका अवसर कैसा है ? इतर आराधनाका अन्तर्भाव अपने में करनेवाली चारित्राराधनाका निरूपण करते समय चारित्रके स्वरूपका वर्णन करनेके लिये उत्तर गाथा है अतः यह हमारा विवेचन ठीक है ऐसा भी आप नहीं कह सकते, अन्यथा ज्ञानाराधनाको अपने में प्रविष्ट करनेवाली दर्शनाराधना है अतः सम्यग्दर्शन का स्वरूप वर्णन सूत्रकारने क्यों नहीं किया ? यदि कहोगे जैसा उन्होंने चाहा वैसा वर्णन किया है तो यह उत्तर योग्य नहीं है, क्योंकि न्यायका अनुसरण करनेवाले शास्त्रकारकी न्यायविरुद्ध इच्छा रहना ठीक नहीं है. अतः इतने विवचनसे यह सिद्ध होता है कि आचार्य का उद्देश इतर आराधनाओंका चारित्राराधनामें अन्तर्भाव करना यही है, चारित्रका व सम्यग्दर्शनका लक्षण लिखनेका उनका उद्देश नहीं था. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना । आश्वासः कथं बारिशराधनायां कथितायां इतरासां प्रतिपसिरधिनाभावात् तायमानदर्शनाराधनयोरन्तभाव इत्यु सरगाथायाः पूर्वार्दैन कथयति कायच्वमिणमकायव्वयात्त णाऊण होइ परिहारो । तंत्र हवइ जांग तं चंब व हाइ सम्मत्त ।। ५ ॥ कायध्वं कर्तव्यं । पूर्ण इदं । आकायधयत्ति अकर्तव्यमिति । णादूण ज्ञात्वा । यदि भवति । परिहारो परिवर्जन चारित्रमिति शेषः । कर्तव्याकर्तव्यपरिज्ञानं पूर्व तदप्तरकालं कर्तव्यपरिहरणं यसरुच चारिमिति सूत्रार्थः ॥ ननु परि हार इत्यत्र परिछारो पर्जनार्थः । तथा दि-परिहरति सर्पमित्यत्र सर्प चर्जयतीति गम्यते । ततश्च यजनीय तत्परेशानमेव बर्जनमुपयुज्यते तत एवं यरुप-यफादवसि णा यदि परिवारो इति, कादवमित्येतारिकमर्धमुपन्यस्त ? कर्तव्यपरिमानं करणे एखोपयुज्यते इति || अत्र प्रतिविधीयते-काववामिणति णादण इवनि परिवारो रति पदघटनका, अकादमिणसि णादृण हवदि परिवारो इत्यपरातत्राद्यायांपघटनायां परिवादः समताद्रावत्तियथा परिधावतीत्यहि समंतासायतीति गम्यते । हरतिरुपादानवचनः । तथाहि प्रयोग:-कपिरिकां हरति-कपिलिकामुपादत्ते इति यावत् । मनसा, वचसा, कायेन कर्तव्यस्य च संघरतोरुपादान गप्तिसमितिधर्माचमेक्षापरीपहजयानां उपादान चारित्रमिति वाक्याथैः । आस्वयंधहेतचो ये परिणामात न कर्तव्याः, न निर्धास्तेषां परिहरण परिवर्जन चारिमिति संबंधनीयम । परिहार्य पर परिशानमंत रेणापि तत्परिंदारो दृश्यते । यथा शारजनाध्यासितं ददा परिहरति कश्चित्तत्र तपां अवस्थान अप्रतिपद्यमानोऽपि मागाग्तरगामी, एवमज्ञात्वापि परिहार्य परिहरेदिति विनाभावितति चेदयमभिप्रायः सूरे:-सामान्यशन्दा अगि विशेषप्रवृत्तयों हृदयंते । तथा हि-गोशन्नो गोन्यसामान्यांनीकरणेन प्रवृत्तो गौहंतच्या, मौस्तदा न स्मपन्या इत्यादी विशेषमाभिधेयी करोति महति गोमडले गोपालकमासीनमेत्य कश्चित्पृच्छति गौर्दष्टा भवतेति । अन पाक्ये गोशम्दस्तदमिमेताकांक्षी स्वस्तिमी या प्रत्यायपति । पयमा परिहारशमा परिवर्जनसामान्यगोचरोऽपि नियतानेकपरिहार्य विषये पपिरणे प्रयुक्तः । न च नियोगभाय्यनेकपरिहार्यविषयं परिहरण असरुत्तिपरिकानं विना युज्यते । इति मिथ्यादर्शनं, असयमाः, कषाया, अशुभाश्च योगाः प्रत्येकमनेकविकल्पा: सततं परिधरणीयाः। तत्कथं परिहरेदसः। ननु शानचारित्रयोरविनामाविता धोत्या।' नादूण होदि परिहारो'इत्यनेन श्रद्धानाविनाभावितेत्याशकायामाह-त घेष हवा इत्यादिक चे व तदेय चैतन्यं । हवा भवति, गाणं ज्ञानं । तं चेष य तदेव च हषा भवति, सम्म सस्वभावान खेति चैतन्यद्रव्यार्थीव्यतिरेकात् जानदर्शनयोरेफता ख्याता । ततो सानाविनामाषिता कथनेन अचानस्यापि कथितैय भवति । चारित्रमेष कामदर्शने इति करपनायां - नादूण वा परिहारोमति- पूर्व कानं पश्चापरिहार इति । अत्र भेदोपन्यासः सूत्रकारस्म अघटमानः स्यात् । ते पेवेति नपुंसकलिंगनिर्देशध न स्यात् । ATRARIANCAREAMAHARA + ४५ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासः । सो चेष हया गाणं इति वक्तव्यं भवति परिहारशब्दस्य पुलिंगत्वात् । अथवा कर्तव्याकर्तव्यपरिक्षाने सत्यतम्यानां मिथ्यादर्शनं, सानं, असंयमा, कपाया, योग इत्यमीषा परिहारश्चारित्रमित्येतलिभर्थे परिगृहीते 'तं चेष परिहरणसामाम्यं चारित्र, शानं दर्शनं हत्येकमेवेति । चारित्राराधनायामेव मेववादिनोऽभिमतस्याराधनापकारस्यान्तीनतया चारित्राराधनैफेवेति सूत्रार्थः ॥ चारित्राराधनायां शानदर्शनयोरन्तर्भावं तावदर्शयति काययमित्यादि। अत्र. पटने । तत्रैका । इणं गुप्त्याविक । कायन्वं कर्तव्य संवरकारणत्वात्, इति णादूण ज्ञात्वा चिरित्य कहानस्य | परि समन्वान्मनोवामायैहीरो हरणमुपादान कर्तव्यस्य गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षा परीपाजयरूपस्य भवति ॥ ..कंबलिको हरतीत्यादिवत् अत्र हरविरुपादानार्थः । द्वितीया त्वियं । इदं मिध्यावर्शनादिक अकर्तव्य पानपर्वधनिबंधनत्वात् । इति निधित्य रोचमानस्य परिहारः परिषर्जनं अकर्वव्यस्य मिप्यादर्शनमिध्याभानासंयमप्रसावकषायाशुभयोगलक्षणस्य भवति । अत्र णमिति उभयत्र फाकाभिगोलकन्यायेन संबंधनीय । श्रकायव्य | गतीत्यत्र कुत्सायां पादपूरणे या कः । . पादूणेत्यत्र परकालैफकर्तृकादिति क्त्वान्तसामल्लिब्धं प्रधानस्येति संबंध नीर्य 1 सब कर्तव्योपादानमकर्तव्यपरिवर्जनं घोभयमेव चारित्रं । त पेवेत्यादि । तदेव शानदर्शनोपहितहिताहित प्रातिपरिहारपरिणतं चैतन्यमेव द्रव्यार्थाच्यतिरेकाम ज्ञान दर्शनं च भवतीत्यविनाभावधारित्रस्य ज्ञानदर्शनाभ्यामिप्ति चारित्रेऽन्तर्भावस्तयोः ।। चारित्राराधनाके कथनसे इतर आराधनाओंका ज्ञान कैसा हो जाता है इसका उत्तर अविनाभाव ही देगा. अर्थात् अविनाभाव होनेसे शेप आराधनाओंका चारित्रमें अन्तर्भाव हो जाता है. अब ज्ञान और दर्शनका अन्तर्भाव आगेकी गाथा के पूर्वाईसे दिखाते है... हिंदी अर्थ यह करने योग्य कार्य है ऐसा ज्ञान होनेके अनन्तर अकर्तव्य का त्याग करना यह चारित्र है ऐसा इस सूत्रका अर्थ है. शंका---गाथामें परिहार शब्द है. उसका त्याग करना, छोडना ऐसा अर्थ होता है. जैस ' परिहरति सर्प' इस वाक्यमें सर्पका परिहार करता है, उससे दूर होता है. ऐसा परिहरति धातूका अर्थ है, अतः जो पदार्थ वर्जन Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारावना M आवासः .. करने योग्य है उसका ज्ञान होना ही वर्जनके लिये उपयुक्त है. अतः यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि जो अकार्य है । उसको समझकर छोर देना यह ही चारित्र है. करने योग्य क्या है उसको जाननेकी कुछ जरूरत नहीं है. अतः 'कादम्वमिदिणादण हयदि परिहारो' ऐसा आचार्यका लिखना व्यर्थ है. उत्तर- इस गाथाका पदसंबंध ऐसा समझना 'कायब्यमिणत्ति पादण हयदि परिहारो' ऐसा प्रथमतः पद संबंध समझना चाहिये. 'अकादव्यानिणत्ति णाग हदि परिहारो, ऐसा दूसरी बार पदसंबंध करना चाहिये. पहिले इसका निवेनन--परिहार इस शब्दका अर्थ ऐसा समझना. परि-चारों तरफ. जैसे 'परि धावति' यहां समतान् चारो तरफ, धावति दौडता है. ऐसा अर्थ होता है. उसी तरह परिहार शब्दमें परि इस उपसर्गका चारो तरफ ऐसा अर्थ होता है. इधातुका अर्थ इस प्रकरणमें ग्रहण करना ऐसा है. अर्यात् सर्व तरफसे ग्रहण करना ऐसा परिहार शब्दका अर्थ यहां समझना. जैसे 'परिहरति कंबलिका' अर्थात कंवलको ग्रहण करता है. उसी तरह संचरको उत्पन्न करनेवाले गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीपहजय ऐसे कर्तव्यको-करने योग्य कार्यको परिहरति सर्व तरफसे अर्थात् मन, बचन, कायसे ग्रहण करना यह चारित्र है ऐसा प्रथम पदसंबंधका अर्थ है. आस्रव और वैधके कारण ऐसे कार्य अर्थात् आत्माके परिणाम कर्तव्य नहीं है उनका परिहार-त्याग करना चाहिये. अर्थात् यहां ऐसे अयोग्य कर्तव्यका त्याग करना चारित्र कहलाता है. जो पदार्थ त्याज्य है उसका ज्ञान न होने पर भी त्याग हो जाता है, जैसे कोई मनुष्य शत्रुजन जहां रहते हैं ऐसे देशका त्याग करता है. अर्थात् शत्रुका.वहां अस्तित्व न जानता हुवा भी. शत्रुपदेशका त्याग कर अन्य मार्गसे चला जाता है. वैसे यहां भी त्याज्य पदार्थका मान नहीं हो तो भी उसका त्याग करना चाहिये. शंका-त्याज्य पदार्थको त्याज्य समझकर त्याग होता है ऐसा अविनाभाव यहाँ नहीं रहा. क्योंकि उसका स्वरूप समझे बिना भी त्याग होता है. उत्तर-आचार्यका यह अभिप्राय है-सामान्य शब्द की भी विशेष में प्रवृत्ति होती है जैसे 'गौनइन्तन्या' गौर्न स्पष्टच्या, इस बास्यमें गोवध नहीं करना चाहिये. गायको स्पर्श नहीं करना चाहिये इन बायोमें गोशब्द सामान्य है, परंतु विशेष अर्थमें भी इसकी प्रवृत्ति होती है. अथा गाईयोंके समूहमे ग्याला बैठा था उसके पास जाकर कोई मनुष्य ' मेरी गौ नूने देखी है क्या? ऐसा पूछने लगा. इस वाक्य में गोशब्द विशिष्ट गायका वाचक Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अत्रासः EATHeadana है ऐसा मानना पड़ेगा. इसी तरह प्रक्रन प्रकरणमें परिहार शब्द त्यागसामान्य को विषय करता हुवा भी नियतनिश्चित ऐसे त्याज्य विषयके त्यागमें प्रयुक्त समझना चाहिये. नियत ऐसे अनेक त्याज्य विषयोंका त्याग उनका वारंवार ज्ञान हुगलिगा अशक्य है. अतः याजमा मिश्यादान, मिथ्याज्ञान, असंयम, कपाय, अशुभयोग ऐसे अनेक भेद है. तथा इनके भी अनेक विकल्प हैं। उनका सतत त्याग करना चाहिये, परंतु अबको इसके भेद प्रभेद ज्ञात न होनसे वह उनका कैसा त्याग करेगा! शंका-ज्ञानचारित्रका अविनाभाव है यह 'णादण होदि परिहारो' इस वाक्यसे अनुभव में आता है नन्तर चारित्र होता है. परंतु श्रद्धानका चारित्रके साथ विनामा उत्तर--जो ज्ञान अधवा जो दर्शन है वे दोनों भी चैतन्यरूप होनेसे अविनाभाव युक्त ही है. अर्थात् चैतन्यही ज्ञान है और चैतन्यही दर्शन है. द्रव्यार्थिक नबसे ज्ञान और दर्शनमें चेतनारूप ता होनेसे एकरूपता-अभिन्नपना है. अतः जैसा चारित्रका झानसे अविनाभाव है पैसा सम्यग्दर्शनके साथ भी है. क्योंकि सम्यग्दर्शन ज्ञानसे अभिन्न है. चारिश ही ज्ञान और दर्शन है ऐसी कल्पना करनेसे पूर्वमें शान नंतर चारित्र होता अर्थात् मथम बस्तुका स्वरूप वह य है या ग्राम है इसका निर्णय होता है तदनंतर ग्राषका स्वीकार व त्याज्यका त्याग एतत्स्वरूपी चारित्र होता है. ऐसी जो सूत्रकारकी भेद कल्पना उपर प्रदर्शित की है वह, चारित्रही ज्ञान दर्शनमय है ऐसी कल्पनाके आगे कैसी टिकेगी. यहा विरुद्धता दोष उत्पन होगा तथा 'तं चेव' ऐसा जो नपुंसकलिंग शब्द है बह योग्य न होगा. कारण परिहार शब्दके साथ उसका संबंध आनेसे 'सो चेव हवह गाणं' ऐसा कहना पडेगा. क्योंकि परिहार शब्द पुल्लिगी है. अथवा कर्तव्य क्या चीज है, अकर्तव्य कोनसी वस्तु है इसका जब ज्ञान हो जाता है तब अकर्तव्य-मिथ्यादर्शन, ज्ञान, असंयम, कपाथ, और योग इनका परित्याग होना उसको चारित्र कहते हैं ऐसा माननमे जो परिहरण सामान्य चारित्र है वही ज्ञान, चारित्र एक ही है अतः चारित्राराधनामें ही भेद चादीको अभिमत-मान्य ऐसा जो आराधनाका प्रकार है वह अन्तलीन हो जाता है. इस वास्ते चारित्राराधना एक ही है ऐसा सूत्रार्थ समझना चाहिये. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वाम: ४२ चारित्राराधनायामतभावी ज्ञानदर्शनाराधनयोरेष निगदितो न तपस आराधनाया हत्यत आहु चरणाम्म तम्मि जो उज्जमो य आउंजणा य जो होई॥ सो चेव जिणेहिं तबो भणिदो असदं चरंतस्स ॥ १० ॥ विजयोन्या-चरणम्मि चारित्रे। तम्मि एतस्मिन् । अकर्तव्यपरिहरणे । जो य उज्जमो उद्योगः। आउंजणा य उपयोगध, जिणेहिं तयो होदित्ति भाणदो इति पदयटना । चरणोद्योगोपयोगावेच तपो भवतीति जिनैः कृतकारिपराजयरुक्तमिति यावत् । कृससुखपरिहारो हि चारि प्रयराते न सुखासक्तचित्तस्ततश्च बाह्यानि सपासि चारित्रप्रारंभ प्रति परिकरता पान्तरित्या पश्चात चाहिस्तषण हादखु सब्वा सहसीलदा परिचत्ता' इति । तथा स्वाध्यायहरुतभायना पंचविधा सत्र वर्तमानम्बारित्रे परिणसो भवति । तथा च वक्ष्यति 'सुभावणाप णार्ण दसणतवसंजमं च परिणमदि' सि परिणाम पब उपयोगः । 'कृतातिचारजुगुप्सापुरःसरं वचनमालोचनेति ' अकर्तव्यपरिहरणोपयोगः कथं न चारित्र? कृतातिवारस्य यतेस्तदतिचारपराक्मुखतो योगत्रयेण हा दुष्टं कृतं चितितमनुमतं चेति परिणामः प्रतिक्रमणम् । उभयं चरणोपयोगः । पबमतिचारनिमिसद्रव्यक्षेत्रादिकान्मनसा अपगतिस्तत्र अनारतिबिधेकः । रति उपयोगता विवेकश | दुस्त्यजशरीरममावनिवृतिर्ममेदं शरीरं न भवति नाइमस्येति भावना सा च परिप्रदपरित्यागोपयोग एवेति चारित्र । तपसोऽनशनादेचारित्रपरिकरतोतैष । सातिचारं चारित्रमचारित्रमेवेति बुनपा निश्चित्यात्मनो न्यूनतापादन, कियास्व. भ्युत्थानादिकासु असंयमपरिहारेण वृतश्चारित्रपरिकरः। पुनः प्रमज्यादानमपि चारित्रोपयोग एवेति । बिनयस्तु पंच प्रकारः बामदर्शनविनयो शानदर्शनपरिकरतया तदुपयोगरूपतया च शानदर्शनाभ्यामभेदासदेव चारित्राराधनांतर्भाषः । द्वियविषयस्य रागद्वेषयोः कषायाणां च परित्यागः, अयोग्यषाकायक्रियायास्त्यागः, र्यादिषु निरषया व वृत्तिभारित्रोपयोग पवेति चारित्रविनयस्थान्तर्भायः । तपोऽधिके तपसि च भक्तिः, अनासादना च परेषां तपोविनयः, तं विना सुतपसोऽभावात् तपसः परिकरता । अस्य परिकर 'हि तपश्चारित्रस्य परिकरः । उपयोगो या नान्यथास्सिता मन्यते । भसद घरतः स्पाच्छापमंतरेण वर्तमानस्य भषेसथा चर्षिधा, शिषिधा, एकविधा पा आराधना स्यात् करमाश निरूप्यते ॥ पुरुषो वि प्रेक्षापूर्वकारी प्रयोजनायत्तचेष्टः सति प्रयोजने तत्साधनाय :प्रयतते. नान्यथा, तत्कथमियमाराधना व्याख्या प्रयोजिता श्रवणस्येत्यासंकाय, निर्याणसुखस्याव्याबाधात्मकस्य पुरुषार्थस्योपायत्यप्रवर्शनेम आराधमाश्याख्या तदर्थनामुपयोगिनी इत्येतत्यतिपादनायोत्तरप्रबंधः। अथवा ध्यायर्णित बिकल्पा या आराधना तस्यां चेष्टा कर्तव्येस्येतदाख्यानायोत्सरसूत्राणि, तथा थोपसंहारः 'कादच्या सु तवत्थं भादहिदग येसिपणा हा' इति ।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाराधना आश्वासः चारित्रे तपसोऽन्तर्भावो भाज्यते | मूलारा-उज्जमो उद्यमः | आउंजणा उपयोग: अनुष्ठानमित्यर्थः। सो चेय आर्षे प्राकृते पचनादिव्यत्ययस्य बहुलं दर्शनात् । सो इत्यनेन उद्यमायोजने परामश्यते । तेन ते एव चरणोद्योगोपयोगावेवेत्यर्थः । असदं अशाठय। चरंतस्स प्रवर्तमानस्य मायाहीनमनुपानं कुर्वतः इत्यर्थः | व्यक्तमुख एव हि चारित्ने प्रयतते इति । तदुनामस्तायाद्वाहा तपो भवति तदारंभे परिकरत्यात् । चारित्रपरिणामोऽन्तरंग तपो भवति । प्रायश्चित्तादीनां दुष्कृति निराकृतिपरत्वेन तदन्यतिरेकान् । आर्या त्यक्तसुखोऽनशनादिमिरुत्सह कृत इत्यय क्षिति ।। प्रायश्चित्तादीत्यपि चरणेन्तर्भवति तप उभयम् ॥ वृत्तं वा-- कृतमुखपरिहारो वाइते यश्चरित्रे न सुख निरत चिसस्तेन यावं तपः स्यात् ॥ परिकर इह वृत्तोपक्रमेणात्र पाएं क्षिपत इति सदेमेश्यति मूने तमोऽन्तः।। चारित्राराधनामें शान और दर्शनका ही अन्तर्भाव आपने दिखाया है तपका नहीं दिखाया इस शंकाका उत्सर आचार्य आगे की गाथामें देते हैं--- अर्थ-चारित्रमें जो उद्योग और उपयोग किया जाता है जिनेंद्र भगवान उसकोही तप करते हैं. यह तप आराधना जिसने मायाका त्याग किया है उसको होती है. अर्थात् माया-कपटाचरणका त्याग कर चारित्रमें उद्योग करना तथा उसमें उपयोग लगाना यही तप है. ऐसा इस गाथाका भावार्थ है. विशेषार्थ---अकर्तव्य अर्थात् मिथ्यात्वादिकका त्याग करने में जो प्रयत्न करना उसको यहां उद्योग कहते है. जिसने सुखासक्तिको छोड़ा है वह ही चारित्रमें प्रयत्न करता है. ऐसे प्रयत्नशील मुनिराजको बाह्य तप चारित्रप्रारंभ करने के लिये सहायप्रदान करता है. अर्थात् अनशनादि वाद्य तप चारित्रका सहकारी परिकर है. इस बाह्य तपके पालनसे मुनिवर्यकी सब प्रकारकी सुखासक्ति नष्ट होती है. यही अभिप्राय “बाहिरतवेण होदि खु सब्बा akal S Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाराधना! ५१ सुहसीलदा परिवता " इस गाथा के मरूपण में आचार्य महाशय आगे कहेंगे. स्वाध्याय और श्रुतभावनाके जो पांच भेद है उसमें जो हमेशा परिणति करता है वह चारित्रमें परिणत हो जाता है. श्रुतभावनाके प्रभावसे आत्माका ज्ञान, दर्शन, तप और संयम ये पक्काबस्थाको प्राप्त कर लेते हैं. "सुदभावणार गाणं दंसण तब संजमं च परिणमदि " इस भावनाकी महती आचार्य आगे कहेंगे. ज्ञान, दर्शन, तप आदिमें परिणति होनाही उपयोग है. चारित्राचरण करते समय जो अतिचार होते हैं उसकी पश्चात्तापपूर्वक निंदा करना यह आलोचना है. आलोचना में अकर्तव्यों का परिहार करनेमें आत्माका उपयोग लगता है अतएव ऐसे उपयोगको चारित्र कहना अयोग्य नहीं हैं, जब मुनिको चारित्र पालते समय दोष लगते हैं तब मन वचन योगसे मैंने हा! दुष्ट कार्य किया कराया न करने बालको अनुरोद दिया, यह किला ऐसा उनके आत्माका परिणाम हो जाता है, और उस समय बे अतिचारोंसे पराङमुख होते हैं अतः ऐसे आत्मपरिणामोंको प्रतिक्रमण कहते हैं. आलोचना और प्रतिक्रमण इन दोनोंके मेलको उभय कहते हैं. अतिचारको कारणीभूत ऐसे द्रव्य, क्षेत्र और कालादिकसे मनसे पृथक रहना अर्थात् दोषोत्पादक द्रव्यादिकों का मनसे अनादर करना यह विवेक है. यह भी आत्माका परिणामही है. जिसका त्याग करना कठिन है ऐसे शरीरसे ममत्व दूर करना अर्थात् यह शरीर मेरा नहीं हैं और न मैं शरीररका स्वामी हूँ ऐसी जो भावना उसको व्युत्सर्गे कहते हैं. अर्थात् परिग्रहत्यागके प्रति जो उपयोग है उसको व्युत्सर्ग कहते हैं. यह प्रतिक्रमणादिरूप परिणाम चारित्ररूप हैं. अनशनादिक तप चारित्रके परिकर हैं ऐसा उपर कहा हैं. अतिचारसहित चारित्र अचारित्र है ऐसा बुद्धी से निश्चित कर आत्मामें चारित्रकी वृद्धि करना, वंदना करना, खड़े होना इत्यादि क्रियाअमि असंयमका परिहार करके प्रवृत्त होना यह सब चारित्रका परिकर है. मुनित्रत लेना अर्थात् दीक्षा धारण करना यह भी चारित्रोपयोग हैं. विनयके पांच प्रकार हैं. ज्ञान विनय और दर्शन विनयं ये ज्ञान व दर्शन के सहायक हैं. और उनके प्रति उपयोगरूप होनेसे ज्ञान और दर्शनसे थे अभिन्न हैं. पांचो इंदियोंके स्पर्श रसादिक विषयोंका त्याग तथा रागद्वेषका और कषायका त्याग इनका चारित्राराधना अंतर्भाव होता हैं, अयोग्य वचन और शरीरकी अयोग्य चेष्टाओंका त्याग करना, जाना, बोलना, आहारा लेना पदार्थोंका ग्रहण करना इत्यादि कार्यों में पापरहित प्रवृत्ति करना ये सब चारित्रोपयोग हैं. अतः इस चारित्र विनयका चारित्र अंतर्भाव होता है. जो तपसे श्रेष्ठ हैं ऐसे मुनिओमें तथा तपश्चर्या में आदर रखना, किसीकी आवास:" १ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाराधना ५२ अवहेलना न करना यह सब तपोविनय है. इसके विना तपश्चरणमें श्रेष्ठता नहीं आती है. अतः यह तप आराधनाका परिकर है. तथा यह तप आराधना चारित्राराधनाका परिकर है. कपटका त्याग करके जो तप किया जाता है वही तप आराधना है. इस प्रकार चार प्रकारकी, दोन प्रकारकी एक प्रकारकी आराधना कही हैं. ये आराधनाके भेद अथवा समग्र आराधना कारण के बिना कहना योग्य नहीं है, क्योंकि पुरुष बुद्धिसे विचार कर कार्य करता हैं तथा उसका प्रयोजन किसी कार्य करनेसे सिद्ध होता दीखेगा तो वह उसको करनेके लिये प्रयत्न करता हैं. अथवा प्रयोजन सिद्धी के लिये उसके साधनोंका संग्रह प्रयत्नसे करता है, प्रयोजन सिद्ध होनेकी संभावना नहीं दीखनेपर वह कार्य करनेसे हट जाता है. अतः यह आराधना पुरुषको श्रवण कार्य में कैसी उद्युक्त करेंगी ? ऐसे प्रश्नका उत्तर आचार्य देते है किसी प्रकारकी बाधा जिसमें नहीं है ऐसा मोक्षका सुख प्राप्त कर लेना यह आत्माका दृष्ट प्रयोजन है. उसके सिद्धिका उपाय यह आराधना ही हैं, अतः इस आराधनाका विवेचन निर्वाण सुखेच्छु भव्योंका अवश्य उपयोगी दोगा. ऐसा उद्देश मनमें धारण कर आचार्य आगेका प्रबंध कहते हैं, अथवा बार, दोन, एक ऐसे भेद जिसके ग्रंथकार ने बताये है ऐसे इस आराधनामें मोक्षसुरेखेच्छु भव्योंकों प्रवृत्ति करना योग्य है. इसके निरूपणके लिये यह उत्तर प्रबंध हैं, इसबास्ते आत्महितका अन्वेषण- शोध करनेवाले भव्यात्माका मुक्तिसुखके लिये इसमें प्रवृत्ति करना अवश्य कार्य है इसलिये ग्रंथकारने " कादच्या खु तदत्थं आदहिंदगवेसिणा चेट्ठा " ऐसा उपसंहार किया है. ज्ञान, दर्शन और चारित्र इन तीनोंमें कौन मुख्य है ऐसा प्रश्न किया जाने पर आचार्य चारित्र की मुख्यता दिखानेके लिये उत्तर गाथा कहते है ऐसा कितनेक विद्वान कहते हैं परंतु यह उनका कहना अयोग्य हैं. अन्येऽत्र व्याचक्षते ज्ञानदर्शनचारित्रेषु किं प्रधानमिति चीधे चारित्रप्राधान्यख्यापनायोत्तर सूत्रमिति तदयुक्तम् । णाणस्स दंसणरस य सारो चरणं हवे जहाखादं ॥ चरणस्स तस्स सारो णिव्वाणमणुत्तरं भणियं ॥ ११ ॥ आश्वासः { Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ meena मूलाराधना आवासः REP विजयोदया-माणस्स देसणस्स य सारो चरणं जहारवाद' इत्युक्त ज्ञानदर्शनाभ्यां प्रधामं चारित्रं इति प्रतीतेरनुपपसेः । त्रयाणामपि कर्मापायनिमित्तताति पा न था? यदि मास्तीत्युच्यते सूचविरोधः 'सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति सूत्रमपस्थितम् । अथोपायतास्ति। परार्थतया गुणत्वं चयाणामिति का प्रधानता चारित्रस्य ? शानदर्शने चारित्रार्थे चारित्रं तु न तदर्थमिति परतुं अयुक्तम् । शानदर्शनयोः साध्यत्वात्तवुपायतया चारित्रस्य चारित्रं तदर्थमिति तस्य किमित्यप्रधानता न भवति। न हि चारित्रमतरेण क्षायिक ज्ञान, क्षायिकं चीतरागसम्यक्त्वं चोपजायते । तस्मात्पूर्वक्ति एवं उत्तरप्रबंधफ्रमा । ई सूत्रं यथाख्यातचारित्रस्वरूपं तत्फलं च गनिनु आयातम् । 'णाणस्स सणस्स य सारो' सारशनोऽत्रातिशयितगुणवचनः । तथा प्रयोगः परमंचि य विगलियमच्छरण सुयणेण गहियसारम्मि । दोसं मोतृण खलो गाउ कम्मम्मि कि अण्णं ॥ प्रथममेव साधुजनेन विगलितमात्सर्वण गृहीतऽतिशषितगुणे काव्ये दोष मुक्त्वा खलः किम्म्यमान इति गाथार्थः ।। ज्ञानदर्शनयोरतिशयितरूपं किं तन्मोहनीयजन्यकलंकरहितं, चरणं चारित्र । हचे भवेत् । जहाखादं यथाख्यातं । तथा चोतं "चारित खलु धम्मो धम्मो जो सो सम्मोसि पिट्ठिो। मोहमखोहचिकणो परिणामो अपणो य समो॥" इति ॥ "मोद्दो द्विविधो दर्शनमोहश्चारित्रमोहश्च । तत्र दर्शनमोहजन्य मशान शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टि प्रशंसासंस्तवरूपं । चारित्रमोहजन्यौ रागद्वेषी तदन्मित्रै ज्ञान दर्शनं च यथाल्यातचारित्रमित्युच्यते" इति सूत्रार्थः । चरणस्स चारित्रस्य, तस्स तस्य, यथाण्यातास्यरस । सारो अतिशयितं फलं साध्यसाधमलक्षासंबधनिमित्ता यं षष्ठी तेन साध्यफल लध, सारशलस्तु तस्यातिशयमाच। ततोऽयमों जातः पाण्यात बारित्रस्य फलतिशयितामिति। कि तत् निव्वाणं निर्वाणं विनाशः, तथा प्रयोगः-निर्वाणः प्रदीपो नष्ट इति यावत् । बिनाशसामाम्यमुपादाप वर्तमान ऽपि निर्याणशः चरणशब्दस्य निर्जीतकर्मशातनसामाभिधायिनः प्रयोगात्कर्मधिनायागोबरो भवति । स व कर्मणां विनाशो द्विप्रकारः, कतिपयःप्रलयः सकलप्रलयान । तत्र दितीयपरिप्रहमाचष्टे अणुसरमिति न विद्यतेऽन्य दुसरमधिकं अस्मादित्यनुत्तरं। भणिवं उक्तं पषयण इति शेषः । अथवा मानधद्वानयोः फल दुरुसासुक्रियापरिद्वार: यस्तो फल सत्र समिहितो हेतुस्ततश्चारित्राराधनायां इतरेतरातर्भाव इस्यायासम् । एवं सूर्य 'णाणस्स सणस्स य सारो चरण हवे अधाखाद 'इति। परपक्रियाबुःखहेतु तत्परिबारम बसति हाने श्रज्ञाने वा न संभवति, कविमनसो रंजन अप्रीति पाक्रियामिनषकर्मसंषरण चिरंतननिरास च विदधाति बरणमदो युक्तमुध्यते 'परणस्स तस्स सारो णिव्याणमणुशरं 'ति । ... १ खपुस्तके यदन्न च फलमिति पाठः । २ खपुस्तके इतरान्तर्भाव इति । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ५४ - करकल्पास नागनाति दर्शयितुं तत्फलत्वात्तत्र स्वहितैषिणा पेष्टितव्यमिति कुं गाथा सूत्रयंस्तत्रादौ तत्साधकतमत्वाद्यथाख्यातवारित्रस्य स्वरूपं फलं च वकुमिदमाह - मूलारा-सारोऽतिशयितं रूपं । रागद्वेषरहिते ज्ञानदर्शने एवं थथाख्यातं नाम यथोकमागमे वा चारित्रं भवति इत्यर्थः । सारो अतिशयितं फलं तस्येत्यत्र साध्यसाधनसंबंधे षष्ठीविधानात् । गिब्वाणं विनाशोऽर्थात्कर्मणा मेव । अणुत्तरं न विद्यते अन्यदुत्तरमधिकमस्मादित्यनुत्तरं । यथास्यात चारित्रस्य परममुक्तिः फलमित्यर्थः । अर्थ-- रागद्वेष रहित ऐसे ज्ञान व दर्शन ही यथाख्यात चारित्र है. ऐसा आगममें कहा है. अर्थात् यथास्यान चारित्र यह रागद्वेष रहित ऐसे ज्ञान दर्शनका उत्कृष्ट सार है. इस यथाख्यात चारित्रका फल निर्वाण मोक्ष है. सर्व कर्म आत्मासे हट जानारी मोक्ष हैं. यह चारित्रका सर्वोत्कृष्ट फल है. ऐसा इस गाथाका संक्षेपार्थ है. विशेषार्थ - ' ज्ञान और दर्शनका सार फल यथाख्यात चारित्र है ' इस वाक्यसे ज्ञान और दर्शनले यथाख्यात चारित्र श्रेष्ठ है एसा अर्थ कोई विद्वान मानते हैं परंतु यह मानना असंगत हैं. हम उनको पूछते हैं कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनोंको कर्मका नाश करने में निमित्तता हैं या नहीं ? यदि ये तीनो भी निमित नहीं हैं। ऐसा कहोगे तो " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " इस सूत्र के साथ विरोध आवेगा. क्योंकि यह मूत्र ज्ञानादिकोंको कर्मनाश करनेमें निमित्त समझता है. यदि ये तीनों भी मोक्षके उपाय है ऐसा कहोगे तो तीनों भी उत्कृष्ट पदार्थ होनेसे सबको ही गुणपना प्राप्त हुवा. अतः चारित्रकी प्रधानता कैसी समझी जायगी ? ज्ञान और दर्शन चरित्र मासिके लिये है परंतु चारित्र उनकी प्राप्तिके लिये आवश्यक नहीं है यह कहना भी योग्य नहीं है. हमे तो ज्ञान और दर्शन चारित्रसे प्राप्त हो जाते है अतः चारित्र साधन और ज्ञान दर्शन साध्य है ऐसा समझते हैं. क्योंकि चारित्रके बिना क्षाविज्ञान- केवलज्ञान और क्षायिक वीतराग सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होते. हैं अतः यह सूत्र चारित्रकी मुख्यता बतानेके लिये नहीं है, किंतु यथाख्यातचारित्रका स्वरूप और उसका फल प्रदर्शित करनेके लिये है ऐसा समझना चाहिये ' णाणस्स दंसणस्स य सारो ' यहां सार शब्द उत्कृष्ट गुण इस अर्थ में उपयुक्त हुवा है. इसका उदाहरण आचार्य लिखते है “ जिसने मत्सरदोषका त्याग किया है ऐसे सज्जनने काव्यका सार भाग अर्थात् उत्कृष्ट गुण ग्रहण आश्वासः १ ५४ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ आभासः मूलाराधना करनेपर दुर्जनको दोषोंके सिवाय काव्यमें और कौनसी वस्तु प्राप्त होगी। यहां सार शब्दका उत्कृष्ट गुण ऐसा अर्थ ME किया है, प्रकृत विषयमें भी बही अर्थ करना योग्य है" _ मोहनीय कर्मसे उत्पन्न हुए दोष जिसमें तिलमात्र भी नहीं है ऐसा यथाख्यात चारित्र ही शान और ॥ दर्शनका उत्कृष्ट स्वरूप है. रागषरहित जो आत्माकी समावस्था उसको चारित्र कहते है. मोहका उदय न होनेसे परिणामोंमे जो निर्मलता पायी जाती है उसीको समावस्था कहते हैं. इस समावस्था को धर्म कहते हैं. इसीफो ही चारित्र कहते हैं. इस विषयमें चारित्त खलु धम्मो' यह गाथा प्रसिद्ध है-- दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ऐसे मोहकमके दो भेद है. उसमें दर्शनमोहके उदयसे जीवादि तत्वोंपर अश्रद्धान उत्पन्न होता है. इसके शंका, कांक्षा, विचिकित्मा, अन्यष्टि प्रशंसा, अन्यदृष्टिसंस्तब ऐसे उनर भेद हैं. चारित्र मोहसे रागोष होते हैं. इस दो प्रकारके मोहकमसे अलिस ऐसा श्रद्धान और ज्ञान ही यथाख्यात चारित्र है. ऐसा ' णाणस्स देसणम्स य' इस गाथाका अभिप्राण है. _ यथारख्यात चारित्रका अतिशय फल निर्वाण है. निर्माण शब्दका विनाश ऐमा अर्थ है, जैसे "निबाणः | प्रदीपो नष्ट इनि यावद" दीप निर्वाण हुवा, नष्ट हुवा, यहां निर्वाण शब्दका सामान्य अर्थ नाश ऐसा है. तो भी प्रकृत विषयमें चारित्रमें जो कर्मनाश करनेका सामर्थ्य उसका प्रयोग यहां निर्वाण शब्दसे किया है. अर्थात् कर्मका नाश करना यह चारित्रका फल है. कर्मका नाश दो प्रकारका है. १ थोरे कर्मोंका नाश २ सर्व कर्मोका नाश. 'णिब्याणभणुत्तर भणियं' अर्थात् अनुत्तर शब्दका निर्वाण शब्दसे संबंध होनेसे सर्व काँका नाश की यहां अभिप्रेत-इष्ट है. यही बघाख्यातका सर्वोत्कृष्ट फल है ऐसा आगममें प्रतिपादन किया है. अथवा दुःखकी कारण ऐसी क्रियाओंका परिहार होना यह मान और श्रद्धाका फल है, जहां फल रहता है. वहां उसका कारण भी रहता है जैसे घट कार्य है तो उसके साथही मट्टी रूप कारण भी रहता है. उसी तरह जहां चारित्ररूपी फल अर्थात् दुःखोंके कारणोंका परिहार एतत्स्वरूपी फल है उस आत्मामें चारित्रके हेतुरूप अर्थाद फलको उत्पन्न करनेवाले ज्ञान और श्रद्धान भी रहतेही है. अतः चारित्राराधनामें मान और दर्शनाराधनाका अंतर्भाव होता है ऐसा सिद्ध हुवा. जसे घट कार्य है तो उसके सरस्वरूपी फल है उस आत्मार दर्शनाराधनाका Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आयासः जितनी पापयुक्त क्रियायें है ये सब दःख उत्पन्न करती है इसका जब आत्माको ज्ञान हो जाता है व श्रद्धान हो जाता है तब आत्मा ऐसी दाख कारक क्रियाओंका त्याग करता है, परंतु ज्ञान व श्रद्धान न हो तो ऐसी क्रियाओंसे आरमा त्रिरक्त नहीं होता. ऐसी कियाओंमें उसको आनंद होता है व कल्याणकारक क्रियामें वह अग्नीति रखता है. जब ज्ञान दर्शन युक्त चारित्रकी आत्माको प्राप्ति होती है तब वह चारित्र नवीन कर्म आत्मामें नहीं आने देता व पूर्व बद्ध कर्मकी निर्जरा करता है. अतः इस चारित्रका उत्कृष्ट फल कर्मका पूर्ण विनाश करना ऐसा आचार्यका कहना योग्य ही है. यज्ज्ञाने दुस्खंतुनिराकरणफलभित्यस्यान्वयनसाधनाय हाम्तमाई ' चक्खुस्स दसणस्स य सारो सप्पादिदोसपरिहरणं ॥ . चक्खू होइ णिरत्थं दहण बिले पडतस्त ॥ १२ ॥ विजयोदया-बक्खुस्स ईसणस्स य सारो इति । षखुस्स चक्षुषः। द्रव्येन्द्रियमिह चक्षुरिति गृहीतं निई तिरुपकरणं च तज्जन्यस्याद्रूपगोचर विज्ञानं दर्शनं तस्य संबधितयोच्यते । ततोऽयमों जायते-खान्यायाः पतीतेः सारो फल किं सप्यादिदोसपरिहरण सर्पफटकादीनां स्पर्शनादिक्रियायाः दु:खदाधिम्या परिहारः सादिभिः सपायत्वात् स्पर्शनभक्षणादिकः क्रियाविशेषः मर्याविदोष इत्युच्यते, तस्य परिहरणं परिवर्जन, ततोयं वाक्यार्थः-पज्ञानं तद्दवनिराकरणफलं यथा चक्षुर्जन्यसानियोचरक्षान सपदिस्पर्शनभक्षपाादिपरिहरपाफलमिति । चक्षुनिमिड चक्षुरुच्यते चक्षु प्रसूतं शाने । होदि भयति । गिरत्थं निरर्थकं । दहण स्ट्या मास्या बिलादिकमप्रतः स्थितं, पिलग्रहणमुपलक्षणं उपघातकारिणाम् 1 पद्धतस्स पततः पुरुषस्य । अापरा व्याख्या-जानादर्शनाचारमोपकारिथिशिएफलदायिचारिच इत्युक्तं । मनु ज्ञानमिष्टानिष्टमागोपदार्श तदयुक्तं जानस्योपकारित्वमभिधातु इति चेत्र ज्ञानमात्रणे प्रार्थसिद्धिः, यतो ज्ञान प्रवृत्तिहीन असत्समं । अत्र वस्तुनि दृष्टान्तवर्शनेन निगमयति-चक्बुस्स देसणस्स य इति । शानदर्शनाभ्यामपि चारित्रस्यात्मोपकारिता कस्मिन्मधे निगदिता येनोक्तमित्युच्यते । अतीतसूत्र इति चैतन्मिथ्या 13 णाणस्स ईसणस्स य सारो चरणं हंचे जहाखाद ' । त्यतो वाफ्यार्तिक शानदर्शनाभ्यां चारित्रमेयोपकारीत्ययं प्रत्ययो मायते? एवमिति नदनुभयविरुद्धमाचरतीत्युपेक्ष्यते, न चत्कथमुक्तमित्युच्यते । किंच तस्य सूत्रस्य या पातनिका कृता मानदर्शनचारिषु कि प्रधानमित्यत्र प्रभे, मधानस्य निरूपणार्थ सूत्रमित्यनया च विरुध्यते ।' चरणस्स तस्स सारो णियाणमणुत्तरं भाणिय' इत्युक्तं चारित्रस्य समतारूपस्य फलमशेषकर्मापाय इत्युक्तं ।। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Padal 1 मलाराधना आश्वासः यज्ञान तबनिराकरणफलं यथा चक्षुनिमित्यन्वयदृष्टान्त प्रकृते दर्शयन्नाह मूलारा-चक्खुस्स सणस्स-चक्षुर्ज्ञानस्य सारो फलं। सप्पादिदोसपरिहरण । सर्पोदीनां भुजगकीटकादीनां दोषो दुःखहेतुः स्पर्शनभक्षणादिक्रिया तस्य परिषर्जनं । चक्खू चक्षुर्वानं, णिरत्यं निष्फलं । बिले गर्तादावुपघातहेतौ ।। ५७ कहते हैं . दुःखोंके कारणाको दूर करना यह ज्ञानका फल है इसका अन्वय सिद्ध करनेके लिये आचार्य दृष्टांत हिंदी अर्थ नेत्र और उससे होनेवाला जो भान उसका फल सर्पदंश, कंटकव्यथा इत्यादि दुःखोंका परिहार करना यह है. परंतु जो बिलादिक देखकर भी उसमें गिरता है उसका नेत्रज्ञान व्यर्थ है, विशेषार्थ--यहां चक्षु शब्दका अर्थ द्रव्यचक्षु ऐसा है. इस चभूके निवृत्ति और उपकरण ऐसे दो भेद हैं.. उत्सधागुलके असंख्येयभागममाण नेत्रंद्रियावरणक्षयोपशमविशिष्ट ऐसे आत्ममदशॉकी जो नेत्राकार रचना होती है बह कक्षुकी अम्यंतर निचि समझना चाहिये. नेत्राकार आत्मप्रदेशोंके उपर जो पुगलकी रचना होती है उसको बाघ निर्वचि कहते हैं. निचिरूप भक्षुके संरक्षणके लिये जो कृष्ण शुक्ल मंडल तथा पापनी मगरे रचना है यह उपकरण है. अर्थात् उपर्युक्त निर्वृत्ति और उपकरणरूप नेत्रको द्रव्यचक्षु कहते हैं. इस चक्षुसे उत्पन होनेवाले | हानको यहाँदर्शन कहते हैं. दुःखनिराकरण करना यह ज्ञानका फल है. जैसे सर्पकंटक इत्यादि दुखकारणोंका चक्षुसे उत्पन्न हुवा शान, सर्पादिदंश, कंटकादिव्यथाका परिहार करता है. अर्थात् ऐसे दोषोंसे मनुष्यको अलग रखना यह नेत्रहनका फल है, उसी तरह दुःखोत्पादक संसारकारणोंका परिहार करना यह सम्यग्ज्ञानका फल है, यहां दसरी व्याख्या एसी है." छान और दर्शनसे भी आत्माका अधिक हित करनेवाला विशिष्टफलदायी चारित्र है "ऐसा गत गांधामें कहा है. परंतु यहां एसी शंका उत्पन्न होती है "ज्ञान इष्ट मार्ग कोनसा और अनिष्ट मार्ग कोनसा है यह दिखाता है. अतः वह उपकार करता है ऐसा कहना योग्य है." यह कहना योग्य नहीं है. ज्ञानमात्रसे इष्ट सिद्धि नहीं होती. कारण प्रचत्तिहीन शन नहीं समान हैं. जैसे नेत्रसे शान होकर भी वह यदि कुचेमें गिरते हुये पुरुषको नहीं बचाता है तो वह व्यर्थ है. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारापना माश्वास SODI यहाँ आचार्य उपयुक्त व्याख्याकारको प्रश्न करते है__ "शान और दर्शनसे भी चारित्रका आत्माके ऊपर अधिक उपकार है" ऐसा किस गाथामें कहां हैं ? पूर्व गाथामें कहाँ ऐसा आप कहते हैं परन्तु यह आपका कहना मिथ्या है. - 'णाणस्स देसणस्स य सारो चरणं इथे जहाखाद' इस वाक्यसे ज्ञान और दर्शनसे भी चारित्रही उपकारी है ऐसा अनुभव आता है क्या आता है ऐसा कहोगे तो वह अनुभवसे विरुद्ध शेनेसे उसकी उपेक्षा करनी चाहिये. यदि यह अनुभव विरुख नहीं है ऐसा कहोगे तो 'कद्दा है' ऐसा क्यों कहा ? और भी मुक्तिके कारण ऐसे शान, दर्शन और चारित्र इन तीनोंमें कोन प्रधान है ! ऐसा प्रश्न होनेपर प्रधानका निरूपण करने के लिये यह सूत्र है ऐसा जो शीर्षक आपने लिखा है वह भी आपके उपर्युक्त निरूपणसे विरुद्ध है. ईसणस्स य सारो चार ऐसा कहोगे तो वह अनुमा क्यों कहा ? और भी प्रा लिये यह Hole कर्मापायो हि कथं पुरुषार्थः दुःमनिवृत्तिः सुखं चामिमतं फलमित्यारेकायां प्रधानपुरुषार्थस्य अखिलवाधाव्यपगमरूपस्य सुखस्य नियंधनतयोपयोगितामाचऐ कर्मापायस्य णिचाणस्स य सारो अव्याबाहं सुहं अणोवमियं ॥ कायचा हु तदळं आदहिदगसिणा चठ्ठा ॥ १३ ॥ विजयोदया-णिव्यावसन य सारो इति । निरचशेषकर्मापायस्थ सारः फलं । अव्ययाई कर्मजन्यसकलदुःस्यापायः कारणाभाचे कार्यस्य अनुत्पत्तेः । अणोवमियं उपमातीतं । कादच्या कर्तव्या । चेवा चेपा । तडं अध्यायाधसुखार्थम् । आदहिदगवेसिगा आत्महितं मृगयता । के नेपा कार्या? आराधनायां मृताचनतिचार ज्ञानदर्शन चारित्रपरिणतिरूपायां। कस्मात् ? निर्वाणफलमाह मूलारा-अव्यायाह निर्तुःख दुःखहेतुनामशेषकर्मणां प्रक्षयात् । तत एव अणोवमियं अनौपम्य 1 स्वर्गादि मुखाना कमाधीनतया सव्याबाधत्वात् । वदट्ट अन्याराथसुखार्थे । आदहिदगषेसिणा आत्महितान्वेषिणा । चेट्टा अनुष्ठान । प्रकृतत्यान्मरणे शानदर्शनचारित्रतप:परिणतिरूपागामाराबनायामिति योज्यं । | ५८ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ५९ 'चरणस्स तस्स सारो णिव्वाणमणुत्तरं भणियं ' इस सूत्र से समतारूप चारित्रका संपूर्ण कर्मका नाश होना यह फल है ऐसा पूर्व गाथा में कहा है. परंतु कर्मका नाश होना यह पुरुषार्थ कैसा ? दुःखका नाश होना तथा इष्ट सुखकी प्राप्ति होना यही फल मानना योग्य है. ऐसी शंकाका आचार्य इस प्रकार उत्तर देते हैं जिसमें तिलमात्र भी बाधा नहीं है ऐसे पुरुषार्थ रूपी सुखकी प्राप्ति होने में सर्व कर्मका नाश होना यह कारण है अतः वह उपयोगी है ऐसा विवेचन ग्रंथकार करते है- हिंदी अर्थ - धर्म उत्पन्न हुए समस्त दुःखों का अभाव होना यह संपूर्ण कर्मके नाशका फल है. कर्मही सर्व दुःखोंका जनक है अतः जब कमेका पूर्ण क्षय होता है तब दुःखका लेश भी नहीं रहता है. कारणके नाशसे कार्यका नाश होना यह योग्य ही हैं. अतः यह दुःखाभाव अर्थात् सुख अनुपम है उपमारहित है. आत्महितका शोध करनेवाले मुमुक्षु जनोंको मरण समयमें ज्ञान दर्शन और चारित्रमें निरतिचार परिणति करना चाहिये, क्योंकि, जमा चरितसारो भणिया आराहणा पवयणम्मि ॥ सव्वरस पवयणरस य सारो आराहणा तझा ॥ १४ ॥ विजयोदया जा यस्मात् चरितसारो चारित्रस्य ज्ञाने दर्शने पापक्रियानिवृत्तौ न प्रयतस्य चरणं प्रवृत्तिः परिणतिरिह चारित्रशब्देन गृहीता, ततोऽ यमर्थो लब्धः साः फलमिति । भणिदा कथिता । आराहणा आराधना 1 मृतौ अनतन्त्रारत्रयता। एचयणम्मि प्रोच्यते इष्टप्रमाणाविरुद्धेन जीवादयः पदार्था अनेनास्मिन्वेति प्रवचनं जिनागम स्तस्मिन् । अतिशयवतां प्रत्रांताया आराधनाया उपसंहरत्युत्तरार्जुन सास इत्यादिना । समस्त समस्तस्य । पवयणस्त्र जिन्नागमस्य । सारो अतिशयः । आराहणा आराधना व्यावतिरूपा । तम्हा तस्मात् । च शब्द एवकारार्थः स चाराध नाशब्दात्परतो इष्टव्यः । आराधनंध सम इति । अन्यत्र व्याख्या - पवित्र फलं एतचारित्रमात्रात विशिष्टाज्जायते इत्याह-जह्मा चरित्तसारो इति । fर्फ पातनिकार्थी गाथायां संवादमुपयाति न वतीत्यत्र श्रोतास प्रमाणं । कस्मात् ? अतिशयवत्तया राधनागमे ऽभिहिता यस्मात् — आश्वासः ' ५९ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAAMERA लाराधना आधासः कस्मात् । मूलारा-चरित्तसारो चरित्रस्य जीवदवस्थाभाविनिरतिचाररत्नत्रयप्रयतनस्य सारः फलं | आराहणा मरणे निरतिचाररत्नत्रयपरिणतिः । पवयणम्मि प्रकण दृष्ट्र प्रमाणाविरोधेन उच्यते प्रतिपाद्यन्ते जीवादयो भाषा अनेन भाम्मच प्रजननं जनमासम्म म आग्रहमा आरामनंट सादर क रण्यात हिंदी अर्थ-प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रमाणोंके अनुसार जीवादिक पथार्थोंका जिसने अथवा जिसमें विवेचन किया है ऐसे जिनामममें ज्ञान, दर्शन और पापोंका परिहार रूपी चारित्र इन तीनोंमें जो पूर्ण उद्यमशील हुवा है उसको आराधना रूप फल प्राप्त होता है, अतः संपूर्ण जिनागमनका आराधनाही सार है अर्थात् सर्वोत्कृष्ट फल है. यहां दूसरी व्याख्या एसी है-उपरकी गाथामें जो फल कहा है वह चारित्रमात्रसे मिलता है या विशिष्ट चारित्रसे उत्तर विशिष्ट चारित्रसे मिलता है जम्हा परित्तसारो इस सूत्रके उपर जोशीपक आपने लिखा है उसका अभिप्राय गाथाके अभिप्रायसे मिलता जुलता है या नहीं इसमें हम श्रीनाओको ही प्रमाण समझन है. क्योंकि आगममें आराधना मोत्कृष्ट फलरूप है ऐसा कहा है. 16MARATH.44AARNATAMATALAtUTAM सुचिरमवि णिरदिचारं बिङ्गित्ता णाणदसणचरिते ॥ मरणे विराधयित्ता अणंतसंसारिओ दिछो ॥ १५ ।। विजयोदया-सुचिर अतिचिरकालमपि । णिरदिचारं अतिचारमंतरेण । बिहरिसा चिहत्य ? णाणदसणचरित शानं श्रयाने समतायां च । मरण भवपर्यायचिनाशकाले । विराधयित्ता रत्नत्रयपरिणामान्विनाश्य मिथ्यादर्शने ज्ञाने संयमे परिणतो भूत्वा । अतससारिओ अनंतषपर्यायपरिवर्तने उद्यतः । दिछो दृष्टः । देशोनं पूर्वकोटीकाले अतिचाररत्नत्रयप्रवृत्तानामपि मरणकाले ततः प्रच्युतानां मुक्त्यभापं संसारे चिरपरिभ्रमणकथनव्याजेन दर्शयति सूत्रकारः। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ६१ कम्मादतिशयबतसा माणे आराधनागमेऽभिहितेति चेत् यस्मात् — मूलारा - सुचिरमवि अष्टवर्षोन पूर्वकोटिकालमपि । विहरित्ता परिणतो भूत्वा भरणे भवपर्यायविनाशे वर्तमान इति शेषः । विराइयिता - रत्नत्रयपरिणतिं विनाश्य मिथ्याज्ञानासंयमेषु परिणतो भूत्वेत्यर्थः । अनंतसंसारिओ अनंतभव पर्यायपरिवर्तने उग्रतः ॥ हिंदी अर्थ - चिरकालपर्यंत भी ज्ञान दर्शन और चारित्रमें निरतिचार प्रवृत्ति कर मनुष्यभव छोडने के समय में यदि रत्नत्रय परिणामसे यह जीव भ्रष्ट होगा अर्थात् रत्नत्रयपरिणामोंका नाश कर मिथ्यादर्शन, ज्ञान और असंयममें परिणत होगा तो अनंतसंसार युक्त हो जाता है अर्थात् अनंतभव के पर्याय धारण करनेवाला होता है. जिन्होंने देशोन पूर्व कोटिकाल पर्यंत निरतिचार रत्नत्रयका पालन किया परंतु मरणसमय में वे उससे अष्ट होगये तो उनको मुक्तिका अभाव होता है यह संसार चिरकाल परिभ्रमणके कथनके निमित्त आचार्यने दिखाया है. अनुपगतमिध्यात्वस्य अविचलितयारित्रस्यापि परीपपरिभवादुपगतसंक्लेशस्य महती संमृतिरिति भयोप दर्शनेन संशः परित्याज्यः इति निगदति सूत्रकारः । समिदीय गुत्तीय सणणाणे य णिरदिचाराणं ॥ आसावणचाणं उपस्सं अंतरं होई ॥ १६ ॥ अमितगतिआरा- समितिगुप्तिसंज्ञानदर्शनादित्रये शिनाम् ॥ प्रवर्तितापादानां जायते महदंतरम् ॥ १९ ॥ विजयोदया-समिदीसु य इत्यादिना अन्ये व्याचक्षते-" उत्तस्यानंतसंसारस्य प्रमाणप्रतिपादनाय आयाता गाथा, अनंतस्यानतविकल्पत्वात् अनंतविशेषः प्रतिपावनीयः " अस्यां व्याख्यायां उकस्लं अंतर होती स्येतावदुपयुज्यते । इतरस्य वचनसंर्भस्य मनर्थकस्यं प्रसज्यते इति । समिदीसु य सम्पगमनादिषु अयन समितिः सम्यक्ज्ञाननिरूपितक्रमेण गमनात्रिषु वृतिः समितिः । सावद्ययोगेभ्य आत्मनो गोपनं गुप्तिः । वस्तुयाथात्म्यानं दर्शनं । मपेतमिथ्या आश्वासः १ ६१ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराघना। आश्वासः त्वकलंकस्यात्मनो घस्तुतत्त्वपरिशान मत्यादिक्षायोपशामिकं ज्ञानं । क्षायिके सति ज्ञाने आसादनाया असंभवः । मोहजन्यत्वात्संक्लेशस्य, मोहस्य च अवलमानोतात्तेः प्रागय विनएत्वात् । तथा चोक्तं-मोक्षयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच फेवलम्' इति । वीतरागसम्यक्त्वं च नेह गृहीतम् । मोहमलयमन्तरेण वीतरागता नास्तीति । ईयासमितेरतिचारः मंदालोकगमन, पदविन्यासदेशस्य सन्यगनालोचनम् , अन्यगतविचादिकम् । इदं वचनं मम गदितुं युक्तं न मिः अनालोच्य भाषर्ण, मनापा । बरगत तं' अ से मास्स अंतरे ' इति अपृष्ट थुनधर्मतया मुनिः अपुट इत्युच्यते । भाषासमितिकमानभित्रो मनि गृड्डी पात् इत्यर्थः । पयमादिको भाषासमित्यतिवारः । उदमादिदोरे गृहीतं भोजनमनुमनन बचता, कायेन चा प्रशंसा, तैः सहवासा, किया प्रवर्तन वा एपणासमितेरतीत्रारः । यादातव्यस्य, स्थाप्यस्य चा अनालोवन, किमत्र जंतवः सन्ति न सति ति दुःप्रमार्जन च आदाननिक्षेपणसमित्यतिचारः | कायभूम्यशोधनं, मलसंधातवेशानिरूपणादि, पवनसंमिवेशदिनकराविक्रमेण वृत्तिश्च प्रतिष्ठापनासमित्यतिचारः || असमाहितवित्ततया कायक्रियानिवृत्तिः कायगुप्तेरतिबारर । एकपादाविस्थान या जनसंबरणवेशे, अशुभध्यानाभिनिविष्टस्य वा निकलता । आप्ताभासमतिर्षिषामिमुखतया था तवाराधनाव्यात यावस्थानं । सचित्तभूमी संपतत्तु समततः अशेषेषु महति वा पाते हरितेषु, रोपाखा पत्तूष्णीं अबस्थानं निश्चला स्थितिः कायोत्सर्गः ] कायगुप्तिरित्यक्षिापक्षे शरीरममताया अपरित्यागः कायोत्सर्गदोषो वा कायगुप्तेरतिचारः । रागादिसाहिता स्वाध्याय वृत्तिर्मनोगुप्तेरतिचारः । शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यरष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दर्शनातीबाराः। इठ्यक्षेत्रकालभाषशुद्धिमतरेण भ्रुतस्य पउन थुतातिचारः । अभरपदादीनां न्यूनताकरणं, अतिवृद्धिकरण, विपरीतपौर्वापर्यरचनाविपरीतार्थनिरूपणा अंधार्थयो(परीत्यं अमी झानातिचाराः । उनातिचारविगमो निरतिचारता चारिप्रादीनाम । मरणकाले रत्रत्रयपरिणामाभावे दोष उक्तः ॥ रत्नत्रयसुस्थस्यपि मरणे परीपहभाषादुपगतसंग्लेशस्य महती संमृतिरिति भयोपदर्शनेन संशव परित्याज्यता वक्तुमाह मूलारा-नायनन्तस्यानन्तविकरूपत्वादुक्तस्वानंतसंसारस्य प्रमाणप्रतिपादनार्थ गाथेयभित्यन्ये व्याचक्षते । तद्युक्तं । तत्र उकसं अंतर होदि इत्येतावन्मात्रस्योपयोगित्वान इतरस्य वचनसंदर्भस्य अनर्थकत्वप्रसंगात् । पूर्व गाथायाः संवादगार्थयामिति जयनंदिपादाः । समिदीसु-सम्यक् अनभिरूपितक्रमेण गमनादिश्वयनमिति प्रवृत्तिः समितिः । - . - १ ख पुस्तके अपुष्टश्रुतधर्मघया मुनिरपुष्ट इति पाटः Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ६३ तामु समितिषु ईयांसमित्याविषु पंचसु । गुतीसु सापद्ययोगेभ्य आत्मनो गोपनै रक्षणं निवारणं गुन्निः तासु कायगुप्त्यादिषु तिसपु । वंसगणाणे दर्शनमत्र सरागसम्यक्त्वं मानं च क्षायोपशामिक माझं तयोरेय असादनाथा: संभवात् । वीतराग सम्बक्रवक्षायिकज्ञानयोर्मोहापायप्रभवत्वेन तवभावात् । संक्लेशस्य मोहनन्यत्वेन तदभाषस्तत्रावर्तनात् । गिरदिचाराणं माहात्म्यापकर्पहेतुः परिणामस्तस्मानिष्कान्तानां । तत्र ईवसिमितेरतिचारो मंदालोके गमन पदविन्यासदेशस्य सम्यगनालोचन, अन्यत्र गतचित्तत्वादिकं च । भाषासमितेरिदं वचो वक्तुं मम युक्तं न घेत्यनालोच्याज्ञात्वा वा भाषण. मित्यादिकः ॥ एषणासमितेरुद्दमादिदोषोपहतभोजनस्य मनोवाकाय; करणकारणानुमोदनानि, तत्कारिभिः सह संवासो वा । आदाननिक्षेपापसामनेराश्यस्य स्थाप्यस्य वा किमत्र जन्तवः सन्ति न सन्ति येत्यनालोचनं । दुष्प्रमार्जन गर्भमार्जमं च । प्रनियापनासमितेः कायभूम्यशोधन, मलसंपातदेशानिरूपणमित्यादिकः ॥ कायगुप्तेरसमाहितचित्ततया करयति यानिवृत्तिजनसंवरणदेशे एकपादादिना अवस्थान मशुभयानाभिनिविष्ठस्य निश्रलत्वमाताभासप्रसिभित्राभिमुख तथा नदाराधनान्यापुनस्येवावस्थानं ॥ सचित्तभूम्यादा रोषारपीद्वाऽनिभला स्थितिः । कायोत्सर्गे तदोषाः कायममत्या त्यागो वेत्यादिकः । मनोगुमे रागादिसहिता स्वाध्याये वृत्तिः । दर्शनस्य शंकाकांक्षाविचिकित्सान्याष्टिप्रशंसासंस्त वादिकः । ज्ञानस्य द्रष्यादिशुद्धि विनाध्ययनं, वर्णपदादीनां न्यूनाधिकखकरण, विपरीतपावापर्यरचना, विपरीतार्थनिरूपण, ग्रंथार्थयोपरीत्य, संदेडविपर्यासानध्यवसाया वा । समिदीसु य च शब्दातेषु च । गुसासु य च शब्दात्तपसि च । आसादणबहुलाणं मरणकाले परीषपराभवात्समित्यविषु पुनः पुनः संक्लेश कुर्वता । उस अंतरं अपुगलपरिवर्तन कालमात्रमतरालं । मरणे रत्नत्रयाच्च्युताः पुनस्तावति काले अतिक्रान्ते तल्लभंसे इति भावः ।। RATARATPATRA जो मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं हुवा है, जिसका चारित्र र है ऐसा भी मुनि परीषदके भयसे यदि संक्लेश परिणामी होगा तो उसको दीर्घकाल तक संसारभय रहेगा अतः संक्लेश परिणामोंका त्याग करना चाहिये | ऐसा सूत्रकार कहते हैं. हिंदी अर्थ-ईर्यासमित्यादि पांच समिति, मनोगुप्त्यादि संग गुप्सित सम्बग्दर्शन और शान ऐसे आत्महितकारक आचरणों में जो संक्लेश परिणाम रखते हैं, इनमें जो अविचार लगाते हैं वे मुनि दीर्घकालतक संसारभ्रमण करते हैं. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आवासः विशेष—यहाँ कोइ आचार्य उपयुक्त गाथामें, 'अनंतसंसारिओ होदि ऐसा शब्द आया है उसका खुलासा करनेके लिये यह गाथा है ऐसा कहते हैं, अनंतसंख्याके अनंत विकल्प होते हैं अत: उपर्युक्त अनंत संसारका प्रमाण दिखाने के लिये यह गाथा है ऐसा कोई आचार्योका कथन है परन्तु यह अयुक्त है. यदि इतना ही अभिप्राय होता तो ' उक्कस्में अंतर होदि' इतना ही वाक्य उपयुक्त है ऐसा समझकर गाथाके तीन चरण व्यर्थ है ऐसा मानना पड़ेगा. अतः पूर्व माथाका स्पष्टीकरण और सत्यताका समर्थन करने के लिये यह गाथा है अर्थात् संक्लेश परिणाम रखनेका फल दिखानेका उद्देश इस गाथामें ग्रंथकाने लिखा है ऐसा समझना चाहिये. गमन, भाषण, आहार, वस्तु रखना, उठा लेना, मलमूत्रादिक क्षेपण करना ऐसे कार्याम श्रुत्तज्ञानमेंआगममें जैसी प्रवृत्ति करनेका वर्णन किया है वैसीहि प्रवृत्ति रखना उसको समिति कहते है. अर्थात् प्राणि हिंसा न हो, उनका संरक्षण हो इस तरहसे प्रवृत्ति करना वह समिति है. ___मनवचनकायकी अशुभ प्रत्तीसे आत्माको दूर रखना अर्थात् अशुभ प्रवृत्तीको छोड देना यह गुप्ति है, जीवादितत्वापर यथार्थ श्रद्धान काना सम्यग्दर्शन है, जिससे मिथ्यात्वदोष हट गया है ऐसे जीवको वस्तुके स्वरूपका जो ज्ञान होता है वह सम्यग्जान है, उसके यहां मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय ऐसे चार भेद मानने चाहिये. ये शानभेद भायोपशामिक है. शायिकहानमें आसाइना नहीं रहती है. स्पोंकि, मोहजन्य संहेशपरिणाम और मोहकर्म केवलज्ञान उत्पन्न होनेके पूर्व ही नष्ट होते हैं, 'मोक्षयाज्झानदर्शनावरणान्तरायषयाच केवलं' ऐसा सूत्रकार उमास्वामीका भी क्चन है, इसवास्ते यहां केवलशानका ग्रहण नहीं किया है. वीतराग सम्यक्त्वका भी यहाँ प्रहण नहीं किया है क्योंकि वह भी मोहका नाश हुये बिना होता नहीं. ईर्यासमितीके अतिचार-सूर्यके मैदप्रकाशमें ममन करना, जहां पांव रखना हो यह जगह नेत्रसे अच्छी तरहसे न देखना, इतर कार्य में मन लगना इत्यादि. माषासमितीके अतिचार-यह भाषण बोलना योग्य है अथवा नहीं इसका विचार न कर बोलना. वस्तुका स्वरूपज्ञान न होनेपर भी बोलना. ग्रंथांतरमें भी 'अपुरो दुण भासेज्ज भासमाणस्स अंतरे' कोई मनुष्य पोल रहा है और अपनेको प्रकरण, विपय मालूम नहीं है तो बीचमें बोलना अयोग्य है. जिसने धर्मका स्वरूप सुना +Auradabita.taruM24taas. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IFIL मूलारापना आश्वास: नहीं अथवा धर्मस्वरूपका जिसको पूर्णतया ज्ञान नहीं है ऐसे मुनिको अपुष्ट कहते हैं. भाषासमितिका क्रम जो जानता नहीं यह मौन धारण करे ऐसा यहां अभिप्राय समझना. इस तरह भाषासमितिके अतिचार है. एपणासमितीके अतिचार-उद्गमादि दोषोंसे सहित भोजन लेना, मनसे, वचनसे ऐसे आहारको सम्मति देना, नामी प्रपा पागा, रेसे आहारडी प्रशंसा करनेवालोंके साथ रहना, प्रशंसादि कार्यमें दुसरोंकों प्रवृत्त करना. आदाननिक्षेपणसमितीके अतिचार-जो चीज लेनी है अथवा रखनी है रह लेते समय अथवा रखते समय इसमें जीव है या नहीं इसका खयाल ध्यान नहीं रखना, तथा अच्छी तरहसे जमीन व बस्तु स्वच्छ न करना. प्रतिष्ठापन समितीके अतिचार-शरीर व जमीन पिच्छिकासे न पोछना, मलमूत्रादिक जहां क्षेपण करना है वह स्थान न देखना. मनकी एकाग्रता बिना शरीरकी चेष्टाये बंद करना काय गुप्तिका अतिचार है. जहां लोक भ्रमण करते हैं ऐसे स्थानमें एक पाव उपर कर खडे रहना, एक हाथ ऊपर कर खड़े रहना. मनमें अशुभ संकल्प करते हुए अनिश्चल रहना, आप्ताभास-हरिहरादिक की प्रतिमाके सामने मानो उसकी आराधना ही कर रहे हैं इस दंगसे खडे रहना या बैठना. सचित्त जमीनपर जहां कि बीज अंकुरादिक पड़े है ऐसे स्थलपर रोपसे, वा दपस निश्चल बैठना अथवा खडे रहना. ये कायगुप्लीके अतीचार है. कायोत्सर्गको भी गुप्ति कहते हैं अतः शरीरममताका त्याग न करना, किंवा कायोत्सर्गके दोपाको न त्यागना ये भी कायगुप्तीके अविचार है. रागादिविकार सहित स्वाध्यायमें प्रवृत्त होना, मनोगुसिके अतिचार हैं, . शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि पशंसा, संस्तव ये पांच सम्यग्दर्शनके अतिचार हैं. इसका खुलासा आगे आचार्य करेंगे. . द्रव्य शुद्धि, काल शुद्धि, भाव शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि इन शुद्धिओंके बिना शास्त्रका पठन करना यह श्रुतातिचार है. अक्षर, शब्द, वाक्य, चरण इत्यादिकोंको कम करना, चढाना, पीछेका संदर्भ आगे लाना, आगेका पीछे करना, विपरीत अर्थका निरूपण करना, ग्रंथ व अर्थमें विपरीतता करना ये सब ज्ञानातिचार हैं. संदेह, विपर्यय, अनध्यवसाय ये भी ज्ञानके अतिचार हैं. उपर्युक्त अतिचारोंसे समितिगुप्त्यादिक रहित होनेसे पारित्रादिकोंमें निर्मलता आती है. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ६६ इदानीमाराधनाफखातिशयख्यापनायाह दिठा अणादिमिच्छादिट्ठी जसा खणेण सिद्धाय ॥ आराया चरितस्स तेण आराहमा सारो ॥ १७ ॥ चारित्राराधने सिद्धाविर मिध्यात्व भाविताः ॥ क्षणादृष्टा यतः सूत्रे चारित्राराधना ततः ॥ २० ॥ विजयोवा - दिट्ठा इत्यादिकं । दिठ्ठा दटा उपलब्धाः । अणादिमिध्यादिडी अनादिमिथ्यादयः । भाइयो राजपुत्रास्तस्मिन्नेव भवे असतानापन्नाः अत पधानादिमिथ्यादृष्टयः प्रथमजिन पादमूले श्रुतधर्म साराः समारोपितरत्नत्रयाः । अक्षा यस्मारक्षणेन क्षणग्रहण कालस्यापत्योपलक्षणार्थम् अन्यथा क्षणस्याल्पकालतया कर्मशातनस्य कर्तुमशक्यत्वात् सकलकर्मशालमपुरस्सर सिखरथमेव न स्यात् । सिद्धा व सिद्धान परिप्राप्ताशेषज्ञानादिस्वभावाः, वशलेन निरस्तद्रव्य भावकर्म संहतया इष्टा आराधना संपादकाः। धरितरस चारित्रस्प । चारित्रग्रहणं रत्नत्रयोपलक्षणं । एतेन चारिवाराधनां त्रायनस्य नायं प्रस्तावः । आयुरंते रात्रयपरिणतिरि प्रक्रांत' स्तोतुं, किमुच्यते चारित्राराधन सौतीति । एवं मरणसमये रत्नत्रयविराधनाया दोष प्रकाश्येदानीं तदाराधनायाः फलातिशयं प्रकाशयति मूखारा - अणामिच्छारठ्ठी अनादिकालं मिथ्यात्योदयोद्रेका नित्य निगोदपर्यायमनुभूय भरत चक्रिणः पुत्रा भूत्वा भद्रषि वर्द्धनाद त्रयोविंशत्यधिक नवशत्संख्या: पुरुदेषपादमूले श्रुतधर्मसारा: समारोपितरत्नत्रयाः स्वणेण अल्पकालेनैव सिद्धा य सिद्धाः संप्राप्तानंतज्ञाना विश्व भाषाशब्छ। भिरस्तद्रव्य भावकर्मसंहतयश्च । चरितस्स रत्नश्यस्य । वेण तेन कारणेन आराहणा आयुरन्ते रत्नप्रयपरिणतिः । सारो सर्वांचरणानां परमाचरणम् । मरणकालमें रत्नत्रयपरिणति न होनेसे दीर्घकालपर्यंत संसारभ्रमण करना पडता है इस दोपका वर्णन किया. अब आराधना के फलका माहात्म्य कहनेके लिये ग्रंथकार कहते हैं आश्वासः १ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारापना माथासः ६७ हिंदी अर्थ-चारिखकी आराधना करनेवाले अनादि मिथ्यादृष्टी जीव भी अल्पकालमें संपूर्ण कर्मोंका नाश करके मुक्त हो गये ऐसा देखा गया है. अत:जीवोंफो झारापनाका अपूर्व फल मिलता है, ऐसा समझना चाहिये. मावार्थ-अनादिकालसे मिथ्यारयका तीव्र उदय होनेसे अनादिकाल पर्यंत जिन्होंने नित्य निगोदपर्यायका अनुमव लिया था ऐसे नउ तेवीस जीव निगोवपर्याय छोडकर भरत चक्रवर्तीके भद्रविवर्धनादि नाम धारक पुत्र उत्पन्न हुए थे. उनको आदिभगवान के समवसरणमें द्वादशांग वाणीका सार सुननेसे वैराग्य होगया. ये राजपुत्र इसही भत्रमें सपर्यायको प्राप्त हुये थे. इन्होने जिनदीक्षा लेकर रत्नत्रयाराधनासे अस्पकालमें ही मोक्ष लाभ किया. अर्थात मरणसमयमें इन्होने रत्नत्रयकी विराधना नहीं की इसलिये उनको आराधनाका उत्कृष्ट फल-मोक्ष प्राप्त हुघा. ऐसे अनादि मिष्यापिओंका मीने ना होना है। अनंत ज्ञानादिगुणरूप सिद्धत्व प्राप्त होता है. गाथामें ' चारित्तस्स य आराहया' यह शब्द है. चारित्रका अर्थ यहां रत्नत्रय ऐसा समझना चाहिये, अतः 'चास्त्रिाराधनाकी स्तुति करते हैं । ऐसा कोई च्याख्यान करते है उनका खंडन हो गया. क्योंकि यहां चारिबाराधनाका महत्व बतानेका प्रसंग नहीं है. आयुके अंतमें रत्नत्रय परिणामकी विराधना नहीं करना चाहिये यह अभिप्राय इस गाथामें कहा है. अतः 'पारिवाराधना की स्तुति करते हैं' ऐसा व्याख्यान करना योग्य नहीं है। TOTATIMATE 'सध्यरस पवयणम्स य सारो आराहणा तला' इति यदुकय ते, यस्मिन्नेव काले मरण तस्मिन्नेव काले रत्नभयपरिणतेन भाव्यं हितार्थिना अन्य दा किमिति सारित्रे तपसि च प्रयासः क्रियते इति शिष्यकामुपन्यस्यति सूत्रकार: जदि पवयणस्स सारो मरणे आराहणा हवदि दिठा । किं दाई सेसकाले जदि जददि तवे चरित्ते य ॥ १८ ॥ मृतावाराधनासारो यदि प्रवचने मतः ।। किमिदानी सदा यत्नश्चतरंगे विधीयते ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POS मूलाराधना आयात विजयोदया--अदि पवयणस्स इत्यादिना । पवयणस्स प्रवचनस्य । सारी अतिशय इति । मरणे आयुरते। आराहणा भाराधना रनभयपरिणतिः दि विद्या इति पदसंबंधः यापलब्धा । हृयदि भवेत् । किंदाई किमिदानी । सेसकाले मरणकालादयः कालः दोपकालसात्र जददि प्रयतनं क्रियते । फ तब तपसि । चरित सामायिकाधिक सावद्यक्रियापरिहारात्मक । चापानियो । एकदुत भयाले--क्षणकालादिषु भावित रखत्रयभागि पर तदभाये यदि ने मिद्धिः, अमृतभाधनस्यापि मृतौरतत्रयसानिध्यात्सा सिद्धियदि मयति मरणकालतिरत्नत्रयमेव निर्वाण हेतुरित्यापनं ततश्च शपका प्रयासो विफल इति । अस्योत्तरं-मरणे या विराधना सा महती संसृतिमावदति । अन्यदा जातायामपि विराधनायां मृतिकारे. रत्नत्रयोपत्तो संसारोच्छित्तिर्भवत्येव ततो मरणकाले प्रयत्न कार्य इत्यस्माभिरूपन्पस्तं | इतरफालवृत्तं तु रत्न त्रय संवरनिर्जरयोतिकर्मणां च क्षयकारणनिमिर्स इतीघयत एव । तथा चोक्तं- 'सम्यग्दृष्टिभावकविरतानंतयियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमफोपशांतमोरक्षएकक्षीणमोइजिनाः क्रमशो ऽसंख्येयगुणनिर्जराः ' रति एतेषामसंख्यातगुणनिर्जरा सभ्यग्दर्शनादिगुणनिमित्तारकथमफलता? अनाइ शिष्यः-- मूलारा--कि बाई किमिदानी । सेसकाले मरणकालादन्यत्र प्रहणशिक्षाप्रतिसेवनाभावनासलेखनाकालेस्त्रि त्यर्थः । जबिज्जाद यत्नः क्रियते । परिते य च शब्दाज्ज्ञाने पर्शने छ । इदमत्र तात्पर्य महणाषिषु भाविनेऽ पि रत्नत्रये मृताचभाषिते यदि सिद्धिने स्पादन्यदा तदभावनेऽपि मरणे सत्परिणौ सा स्यात्तवा साम्यदा मुधैव भवेत् । मरणकालबर्तिन एव रत्नत्रयस्य निर्वाणहेतुत्वापत्तेः । अत्रोच्यते-मृतौ विराधना महती संसृतिमावहत्यन्यदा पुनर्जातायामपि तस्यां मृतावाराधनायो भयोच्छेदो भवत्येव । ततो मरणे सत्र प्रयतितव्यमित्यस्माभिरुपन्पस्तम् | ग्रहणाधिकालभाषितं तु रत्नत्रयमचरमदेहस्व अशुभकर्मणां संवरनिर्जरयोश्वरमदेहस्य च घातिकमक्षयेऽपि निमितमिष्यतेऽत एव । तथा चोक्त-सम्बर ष्टिश्रापकविरतानंतचियोजक्रदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशोतमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽ संख्येयगुण निर्जराः ॥ इति । तचोद्यमचोदि त्वया। सर्व द्वादशांगका सार आराधना है. ऐसा आपने कहा है. अतः मरण कालमेहि हितार्थी पुरुषको रत्नत्रयकी आराधना करना योग्य है. अन्य कालमें चारित्र और तपमें क्यों प्रयास किया जाता है. ऐसी शिष्यकी शंका आगेके गाथामें आचार्य प्रगट करते हैं Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: मूलाराधना हिंदी अर्थ-आगमका सार ऐसीरत्नत्रयपरिणति मरण कालमें यदि होती हुई देखी जाती है तो मरणकालसे भिन्न कालमें अर्थात् दीक्षा ग्रहण, शिक्षा ग्रहण, गण पोषण, आत्म संस्कार इत्यादि कालमें चारित्र और तपश्चरणमें प्रयत्न करनकी क्या आवश्यकता है ? अर्थात् अनशनादिक तप, सामायिकादिक चारित्र और सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन इनमें प्रति करना व्यर्थ है. दीक्षा, शिक्षा वगैरे कालमें रत्नत्रयकी आराधना करने पर भी मरणकालमें यदि रत्नत्रयकी आराधना न हो तो सिद्धिप्राप्ति नहीं होती है, और यदि अन्यकालमें रत्नत्रयभावना नहीं की और मरणकालमें रत्नत्रयाराधनासे मोक्ष प्राप्त हो गया तो मरणकालीन रत्नत्रयही मोक्षका कारण है ऐसा सिद्ध होना है. अतः शेषकालमें रत्नत्रयाराधना करना निष्पलही है, प्रयास मात्रही है, इस शंकाका उत्तर-मरणसमयमें रत्नत्रयकी विराधना करनेसे विराधकको दीर्घ कालतक. संसारमें भ्रमण करना पड़ता है. परंतु दीक्षादि कालमें विराधना होगई हो तो भी मरण कालमें रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जानेसे संसारका नाश हो जाता है अतः मरणकालमें रत्नत्रयमें परिणति करनी चाहिये ऐसा हमारा अभिप्राय है. इतर कालमें रत्नत्रयाराधना की तो वह विफल नहीं होती है, उससे कर्मका संवर और निर्जरा होती है. तथा पाति कर्मका क्षय करनेमें वह निमित्त होगी ऐसा हम समझते है. “ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानंतषियोजकदर्शनमोह क्षपकोपातमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः " सम्यग्दृष्टि, श्रावक, चिरत इत्यादिक व्यक्तियोंको सम्यग्दर्शनादि गुणोसें उत्तरोत्तर असंख्यात गुण रूपसे निर्जरा होती है ऐसा पत्रकार उमाखाम्याचार्य कहते हैं, अतः दीक्षा शिक्षादि कालमें रत्नत्रयाराधना व्यर्थ नहीं है, क्षायिक सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र यह सब साध्य इतर कालीनभावनासे भी प्राप्त होते हैं अतः व्यर्थ नहीं है. अतः तुम्हारे प्रश्नके अनुसार भी शंकाका परिहार करना शक्य है. यही बात आगेके गाथामें दिखावे है - क्षायिकं सम्परवं ज्ञान चारित्रं च यत्साध्य तदखिलमवाप्यत एष इतरकालसयापि भावमया । तदेष घोर चोद्यते इति देतसि कृत्या मूरिशोद्यानुसारेणापि परिहत्तुं शक्यते इत्याचष्टे ॥ आराहणाए कज्वे परिचम्म सबदा वि कायव्यं ।। परियम्मभाविदस्स हु सुहसम्झाराहणा होइ ॥ १९ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासः परिकर्म विधातव्यं सर्वदाराधनार्थिना ॥ सुसाध्याराधमा तेन भावितस्य प्रजायते ॥२२॥ विजयोदया-आराहणाप कज्जे इति । आराधनाशब्दः सम्यग्दर्शनादिपरिणामससिदिमनाश्रितकालभेदां प्रतिपादयितुं उथतोऽपि मरणे विराधयित्ता इत्यत्र सरकाउनिदोपतात पारणानुरोधेन नविपयायामेवारा. धनायां प्रवत्तो गृह्यते । ततोऽयमर्थः-मृतिकालगोबरगमत्रपनि धर्थ परियम्म परिकमै परिकरः । सम्वदा सर्वस्मिपि काले-ग्रहणकालः, शिक्षाकालः, प्रतिसेवनाकालः सल्लेखनाफालवह सर्वशम्देन गृहात । करणि अयश्वकरणीय । बतोऽपनियोग इत्याशंक्याह-परिकम्मभाविदस्त खु परिकरेण भावितस्पैच शब्दोऽवचारणार्थः। सुखसमा होदि सुखेन क्लेशमतरण साध्या भवति । का अपराधपणा आराधना मृतिगोचरा ।। तथापि तदनुसारेणापि परिहर्तुं शक्यते इतीदमुच्यते। मूलारा-आराहणाए करजे-मृतिकालगोचररत्नत्रयसंसिद्धयर्थ । परियम्म-परिकरः सम्यक्त्वाचनुष्ठानं । सम्वदा षि-दीक्षाशिक्षागणपोषणात्मसंस्कारसल्लेखनाकालेषु । करणिज्जं अवश्यमेव कर्तव्यम् । हु एवार्थे परिकर्मभा. वितस्यैवेत्यर्थः । बेन हि यत्साध्य तेन सत्पूर्व परिकरो निषेव्यः । SARAL हिंदी अर्थ-मरणससबमें रत्तत्रयकी सिद्धि के लिये सम्यग्दर्शनादि कारणकलापकी अवश्य प्राप्ति कर लेना चाहिये. अर्थात् दीक्षा शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना इत्यादिकालमें सम्यग्दर्शनादिककी प्राप्ति कर लेना कर्तव्य है, जिसने दीक्षादिकालोमें सम्यग्दर्शनादिकों की अच्छी भावना-अम्यास की है उसको मरणसमयमें विना श्लेषके रत्नत्रयाराधना सिद्ध होगी. येन हि यत्साध्यं तेन पूर्व तस्य परिकरोऽनुष्ठेय इत्य, अर्थ रष्टांतरलेन साधयितुमुत्तरसूत्रम् । तथा च वदंति 'दृष्टांतसिद्धावुभयोर्विवादे साध्यं प्रसिद्धयेत्' इति । जह रायकुलपसूओ जोग्गं णिच्चमवि कुणइ परिकम्म ॥ तो जिदकरणो जुद्दे कम्मसमत्थो भविस्सदि हि ॥ २० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काराधना आश्वासः राजन्य सर्वदा योग्यां विदधानः परिक्रियाम् ।। शक्तो जितनमीभूतः समरे जायते यथा ॥२३॥ विजयोवजह पयागराजकपदी राजपुत्राः । जोगा योग्यं । प्रहरणक्रियायाः परियम्म परिकम परिकरं । विद्यमवि समकालास्मासिदिषसमपि। कुणदिकरोति । तो ततः पश्चात् । जिदकरणो क्रियते रूपादिगोषरा विलय एमिरिति करणानि रनियापयुध्यते वितरणशम्देन । सम्पब क्रियानिष्पत्तौ यतिशयितं साधर्फ सत्करणमिति साध. कतममात्रमुच्यते । पचिन्तु फ्रियांसामान्यरचनः यथा हुकम् करणे इति । अत्र क्रियावाची गृहीतः । जिप्तशम्दम स्वपशीकरणवधिस्तथा सिदभार्थः स्वमशीतभार्यः इति गम्यते। तेनायमर्थः स्वयशीकृतक्रिया सन् जुद्धे युद्धे समरे। कम्मसमत्यो कर्मसमर्थः । कर्मशब्दो ऽनेकार्थः । मिथ्यावर्शनाविरतिप्रमादकपायानप्रतिबंधादिसामर्याध्यासितानि मियते इति कर्माणि ज्ञानापरणादीनि कर्तुः क्रियया व्यापकत्वेन विवक्षितमपि कर्म, यथा कर्मणि द्वितीयेति । तथा क्रियाषचनोऽपि अस्ति, किं कर्म करोधि? का क्रियामित्यर्थः ।ह क्रियावान्त्री गृहीतः । सा चात्र कियाऽन्यवनप्रहरणताडनादिका लस्या, समत्थो भबिस्सदि समर्थो भविष्यामीति ।। यो यत्साधयितुं वांछति स तत्परिकर्मणि प्राक प्रयतते, यथा रिपूनिहन्तुकामो हननकोपार्य अस्त्रशिक्षा करोति इत्येतारानर्थोऽनया गाथया दार्यतः । कोऽत्र रमान्त इति चेदुच्यते मूलारा-जोग युद्धयोग्य । णिकचमावि युद्धकालापार प्रतिदिवसमाप । परियम्म शस्त्रायभ्यासं । सो पश्चात् । जिदकरणो स्वबशीकृतक्रियः सन । कम्मसमत्थो ग्यधनादिकार्यनमः ।भविस्मति अहं भविष्यामीति मत्वा । जिस पुरुषको जो कार्य सिद्ध करना है- वह उसके कारण कलापका संग्रह करे इस अर्थको दृष्टांत घलसे सिद्ध करने के लिये आगेका सूत्र है. वादी प्रतिवादीके विवादसमयमें दृष्टांतके द्वारा साध्यकी सिद्धि होती है. इस न्यायसे प्रस्तुत आराधनाकी सिद्धि के लिये आचार्य दृष्टांतप्रदर्शन करते है-- हिंदी अर्थ-जैसा राजपुत्र शखविद्याके साधनभूत कारणसामग्रीका नित्य अभ्यास करता है अर्थात युद्धके पूर्वकालमें दररोज शत्रोंका अभ्यास करता है, उसके प्रभावसे यह वास्तविद्यामें पूर्ण स्वाधीनक्रिय होता है. अर्थात्-निपुण होता है जिससे युद्ध में लक्ष्यभेद, शब्दमेदादिकार्य करने में यह समर्थ होता है. उसी तरह मुनि भी आराधनाओंका हमेशा अभ्यास करनेसे मरणकालमें रत्नत्रय सिद्ध करेंगे, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासः मृलाराधना ७२ विशेष---गाथामें जिदकरणो यह शब्द है. यहां करण शब्दके अनेक अर्थ है. रूपादिविपयको ग्रहण करनेवाले ज्ञान जिनसे उत्पन्न होते हैं वे करण हैं. अर्थात् करण शब्दका इंद्रिय ऐसा अर्थ होता है. इंद्रियोंसे रूपादिक पदाधीका ज्ञान उत्पन्न होता है. कार्य उत्पन्न करने काको जो अतिशय सहायक होता है उसको भी करण अर्थात् साधकतम कहते हैं, जैसे देवदत्त कुल्हाडीसे लकडी काटता है. कुल्हाडीके बिना लकढीका काटना देवदत्तसे असंभव है अर्थात् लकड़ी काटनेमें देवदत्तको कुल्हाडी अतिशय मदत करती है अतः वह करण साधकतम कहलावेगी. करण शब्दका कहां कहां सामान्यक्रिया ऐसा भी अर्थ माना है, यथा हुकृञ् करणे. प्रस्तुत प्रकरणमें करण शब्दका क्रिया ऐसा अर्थ इष्ट है. 'जित ' शब्दका अर्थ अपने तायेमें रखना, पूर्णहस्तगत करना ऐसा है, जैसेजितभार्यः स्वरशीकृतभार्यः अर्थात् जिसने पत्नीको अपने स्वाधीन रक्खा है एता भनुम्ब, प्रस्तुत प्रकरणमें 'जिदकरणो स्ववशीकृतक्रियः' अर्थात शस्त्रादिकोंको घुमाना, लक्ष्यभेद करना इत्यादि क्रियाओंमें निपुण उसमें न चुकनेवाला ऐसा समझना चाहिये. 'कम्मसमत्यो ' इस समस्त शब्दमें कम्म शब्दके अनेक अर्थ है जैसेमिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कपायोंके द्वारा जो ज्ञानादिक गुणोंको प्रतिबद्ध करनेके सामथ्र्यसे युक्त किये जाते हैं उनको कर्म कहते हैं, अर्थात् ज्ञानावरणादिकोको कर्म कहते हैं. कर्ताकी होनेवाली क्रियाके द्वारा जो व्याप्त होता है उसको कर्मकारक कहते है. कर्मकी व्याकरण शास्त्रमे द्वितीया होती है. जैस सूत्र- कर्मणि द्वितीया' घट करोति देवदत्तः' इस वाक्यमें देवदत्त कीत्व क्रियाने घटको व्यापता है. अर्थात् घट कर्तत्वक्रियासे व्याप्य होता हैं, कर्म शब्दका क्रिया' ऐमा भी अर्थ है, यहां कर्म शब्द क्रियावाची समझना. जैसे 'किंकर्म करोपि' तू कोनसा कार्य करता है ? ' कम्मसमत्यो इसका अर्थ-छुट जाना, प्रहार करना, ठोकना इत्यादि कर्म शब्दका अभिप्राय यहां समझना चाहिये. जो जिस कार्यको साधनको इन्छा रखता है वह उसक साधनभूत सामग्रीमें प्रथम प्रयत्न करता है. जैसे शत्रुको मारनंकी इच्छा करनेवाला मनुष्य मारनेकी माधन मत मात्र विद्या पढता है उसी तरह मुनि भी आराधनाओंका अभ्यास करके मरण कालमें रत्नत्रयकी प्राप्ति कर लेते है, m Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधासः इदानी हेतोः पक्षधर्मयोजनाया इय सामण्णं साधू वि कुणदि णिच्चमवि जोगपरियम्म । तो जिद करणो मरणे झाणसमत्थो भविस्संति ॥ २१ ॥ श्रामण्यं सर्वदा कुर्वन्परिकर्म प्रजायते ॥ आश्वस्त (अभ्यस्त) करणः साधुनिशक्तो मृतौ तथा ॥ २४ ।। विजयोदया-इय सामग्णमिदिय एवं । सामपणे समणस्स भायो सामण समता इत्यभियुक्ता निरुक्तिमत्राः । भवतोऽस्माभिधानप्रत्ययौ इति भावशम्देन व्यशष्यस्य वृत्ती निवृत्तं ततो गुण उच्यते । तथा बोक्तम्-यस्य गुणस्य भावामध्ये शब्दनिवेशस्तवभिधाने स्वतलाषिति । ततोऽत्रापि समण स्थिस्य शम्दस्य जीवे प्रवृत्तौ कि निमि गुणः समता के जीपिते, मरणे, लाभेलामे, सुखे, दुःख, बंधुषु, रिपौ च पतेषु रायः कचि. कचिद्वेषश्वासमानता, तदुभयाकरणं सीवितादिखरूपपरिकानं समचित्तता । अर्थयाथात्म्पप्रादित्वेन जीविताविषिषयाणां ज्ञानानां समता | जीवितं नाम प्राणधारणं तदायुरायत्तं न समेच्छया पतेते, सख्यामपि तस्यां प्राणानामगषस्थानात् । सर्व हि जगदिग्छति प्राणानामनपायं न च तेऽयतिष्ठन्से | मरणं नाम रंद्रियाविप्राणेभ्यो घियम मात्मनः । तथा चोक्तम् । मृङ् प्राणत्यागे इति । त्यागो हि वियोग आत्मनः सकाशात्प्राणानां पृथम्भाषः । स चायुः संक्षिनानां पुद्रलानां अशेषगलनात् । अत्र च्याद्रियाणां उपधातकशरादिद्रव्यसंपाताद्भावद्रियस्य चोपयोगस्य विनाशः विपशासानायरपोदयात् । मद्दयादेव च धेरभावः वीर्यान्तरायोदयास्त्रिविधबलमाणहानिः । मुखम्य नासि कायाश्च पिधानात ग्लेष्मादिनावोधात उकळवासनिश्वासहानिः । अभिमतस्य लाभो लाभांतराधक्षयोपशमात् । अलारस्तटुम्यात् । सुखं नाम प्रीतिः सद्धेद्योदयात् अभिन्तरितत्रिपयसान्निध्यात् । दुःसं तु बाधात्मकमसहयोदयहेतुकम् । बंधयो नाम न नियमाः सन्ति केचन । संसती परिभ्रमनः उपकारापक्षा दित यदि न एब भग्यदा हाता. पफाग इनि किनारम: ? अयोऽपि कदाचिदगागवितानुग्रहा नि किनबंधयः अपि च हस्य सर्वासंयममूटिस्य हेतुना सन्मार्गप्रतिबंधकाग्निया च ने महासत्रयः । 1: च पुण्योदयादेय संपद्यत सकलं सुम्स । गुसइंतवस्तुसानिध्य च । निपुण्यस्य न ने किञ्चिदपि करें क्षमाः । न च कुर्वन्ति । तथा हि-मानरं त्यजति पुत्रः मा च सृतं । तथा सत्यसद्वेद्योदय न कश्चिन्किांचदयपकार करोति । चाया हि शत्रयो भाभ्यंतरकमणि असति पीडामुपजनयन्ति । इन्यवंभूता सर्वत्र सममित्तना सामण्णं । साधू वि साधुरपि । कुणदि करोति । णिधमवि नित्यमपि सदाधि । जोगपरिपकम्म यो शब्दोऽनकार्थः । * योगनिमित्तं ग्रहणं ' इत्यात्मप्रदेशपरिस्पंदं १ ख पुस्तके निमित्तभूतः इति पाटः । ७३ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवास: मूलाराधना त्रिविमर्गणासहायमाघ । कमिसंबंधमाघबसमा 'मत्यानेन योग 'इति । कचिस्यानपचनः यथा 'योगस्थित ' इति । शहापं परिगृहीतः । सप्तो पाहपरिकर करोतीति यावत् । रागद्वेषमिथ्याश्यासंश्लिष्ट अर्थपाथारम्यस्पशि प्रातिनिवृत्त विषयांतरसंचारं हार मानमि सध्यभामा रितसमानमाको नमितास्तुसमापन ध्यात न ममते इति भाषः । तो ततः पराजिलकरपो पस्या करणशम्या मंतःकरणे मगास वर्तते ततोऽयमर्थः । वशीकृतचित्तोर मरणे भवपर्यायनाशवेलायो । साणसत्यो ध्यानस्यैकाग्रचिन्तानिरोधस्य । ध्यानशब्दोऽत्र प्रशस्तभ्यामविषये प्राहोमा शुभयोनारकतिर्यस्यतिनिर्धेतनप्रषणयों । योगे परिकणि सदात्मनः प्रवृत्सत्वात् अयत्नसाध्यता | धर्मशुक्लयोनिबेर्तने समत्थो शक्तः मधिस्संति भविष्यामीति ॥ . यो शकिचकीर्पति स तत्परिफर्मणि प्राक् प्रयतते । यथा रिपूजिघांसुस्तद्धननक्रिपयोग्यायामशिक्षायामिति दर्शयित्वा इदानी हेतोः पक्षधर्मत्ययोजनायाह-- मूलास-इय एवं । सामण जोदितमरणादिपु समानस्य भावस्तत् समचरितव, श्रामण्वं वा चारित्रमित्यर्थः । जोगपरियम्म सधानपरिकरं तथा घोक्तं संगत्यागः कपायाणां निमहो प्रतधारणं || मनोऽक्षाणां जयश्चति सामग्री ध्यानजन्मनः ।। सिढकरणो स्ववशीकृतमनाः । करणं सत्रान्त:करणम् । स्वषशीकृतचित्तेन्द्रिय इति वा मानम् । उमाणसमस्यो धर्मशुक्लध्यानसमर्थः ॥ यही आशय आगेकी गाथामें आचार्य स्पष्ट करते है हिंदी अर्थ-जीवित, मरण, लाभ, अलाभ, शत्रु, मित्र, सुख, दुःख इन चीजोंमें रागद्वेष रहित होना इसको समता कहते हैं. यह समता पानाभ्यास करने में सहायक होती हैं. जो ऐसी समता हमेशा धारण करते हैं, जिन्होंने मन और इंद्रियों को अपने आधीन रक्खा है. अर्थात जो जितेंद्रिय और जितचित्त हैं वे साधु मरणसमयमें दुर्गति अर्थात् नरक तिर्यग्गतिको दूर करनेवाले ऐसे धर्म व शुक्ल, ध्यान करने में समर्थ होंगे. विशेषार्थ-जीवित, मरण, लाभ, अलाम इत्यादिकोंमें जो आत्मा रागद्वेष रहित है उसको समान कहते Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः दलाराधना ७५ हैं. ऐसे समान आत्माका जो स्वभाव उसको सामान्य अर्थात समता कहते हैं. 'समान' इस शब्दकी प्रवृत्ति जीवमें होनेका कारण समता है. अर्थात् जिसमें समता है उसको समान कहते हैं. जीवित मरण, लाभ अलाम, सुख दुःख, बंधु व शत्रु इनमें अर्थात् जीवित, लाभ, सुख, बंधु इनमें रागभाव करना और मरण, अलाभ, दुःख और शत्रु इनमें देष-अग्रीति रखना यह असमानता है. इस असमानताका त्याग करना ही समता है. जीवित मरण इत्यादिकोंका यथार्थ स्वरूप समझनाही समता है. परंतु उसमें प्रीति व अप्रीति करना यह समानता नहीं है. इंद्रियादि प्राणाको धारण करना यह जीवित शब्दका अर्थ है. परंतु इंद्रियादिप्राणोंका अस्तित्त्व आयुकर्मके आधीन है. वह आयु जब तक रहेगी तब तक जीवित टिक सकता है, वह जीवित मेरे आधीन नहीं है, क्योंकि जीवितेच्छा होकर भी प्राण चले जाते हैं. सर्व जगतके प्राणी हमेशा प्राण रहे ऐसी इच्छा करते हैं परंतु आयुका वियोग होनेसे प्राणों का निर्गमन होता ही है उसको वे रोकने में असमर्थ है. २ मरा-इंद्रियादि प्राणोंसे आरमाका अलग हो जाना मरण है. अर्थात् प्राणोंका त्याग होना मरण है. मुझ प्राणत्यागे' ऐसा म धातुका अर्थ है. प्राणोंका त्याग अर्थात् आरमासे प्राणोंका वियोग होना, आत्मासे उनका अलग होना. आयुकर्म संपूर्ण गल जानेसे प्राणोंका वियोग होता है. विष, शस्त्र, बाण इत्यादि प्राणहारक पदार्थोका संयोग होनेसे द्रव्येद्रियोंका नाश होता है. ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोग ये भाव प्राण हैं. विष शस्त्रादिकाका संयोग होनेसे शानदर्शनादि आवरण कर्मका उदय होता है. जब इन कर्मोंका उदय होता है तब लन्धिका विनाश हो जाता है. बीर्यान्तराय कर्मका उदय होनेसे कायबल, बचनचल, और मनोबल इनका नाश होता है. मुख बंद करनेसे, नाक बंद करनेसे तथा श्लेष्मादिकोंसे उछासनिश्वास प्राण नष्ट होने हैं. लाभांतराय कर्मका क्षयोपशम होनेमे इष्ट पदार्थकी प्राप्ति होती है. तथा लाभानरायका उदय होनेये अलाभ होता है. प्रीतिरूप परिणामको सुख कहते हैं यह प्रीति परिणाम जीवमें साता वेदनीय कर्मके उदयसे होता है. इष्ट पदार्थ साथ होनेसे मनुष्यको आनंद होता है. अंतरंग कारण साता बदनीयका उदय और बहिरंग कारण इष्ट वस्तुकी प्राप्ति इन दोनोंसे जीवमें प्रीति उत्पन्न होती है.. पीडा रूप परिणामको दु:ख कहते हैं. वह असाता वेदनीय कर्मके उदयसे जीवमें प्रगट होता है, संसारमें भ्रमण करनेवाले जीयके कोई नियत बांधव नहीं है, जिसके उपर यह जीव उपकार करता है वह Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STATB81 मूलाराधना आश्वासः STATINISTOTAToraneeTOSCARRASTAKSATTA जीव उपकारकर्ताका बंधु होता है. यदि जीव अपकार करे तो वही बंधु शत्रु हो जाने में देर नहीं लगती. शत्रुओंके उपर भी यदि हम अनुग्रह-उपकार करेंगे तो वे भी हमारे बंधु होते हैं. स्नेह सर्व असंयमका मूल कारण है. इस स्नेहके भी-बंधु कारण होते हैं. अर्थात बंधु असंयमके कारण है. ये बांधवगण सन्मार्गमें प्रवृत्त हुये जीवके विरोधी बन जाते हैं. अतः ये बांधव महाशत्रु हैं ऐसा समझना, पुण्यके उदयसेही जीवको सर्व प्रकारके सुख मिलते हैं। सुखदायक वस्तुओंका उसको समागम होता है. परंतु पुण्यरहित जीवको सुखदायक पदार्थोंका संयोग होने पर भी मुख नहीं होता है, असाता वेदनीय कर्मका उदय हो तो पुत्र माताका त्याग करता है. अथवा माता भी पुत्रको त्यागती है. यदि असाना वेदनीय कर्मका उदय न होगा तो कोई भी अपने उपर अपकार नहीं कंग्गा. यदि अंतरंगम असावा यंदनीय कामका उदय न हो तो बाय शत्रु जीभको कुछ भी पीडा नहीं दे गा , इस नरह विचार करना यह समता है. यह नमता घोगपरिकर्म है अर्थात शुभध्यान-धर्मध्यान और शुक्रध्यान उत्पन्न होनम कारण है.. योगपरिवर्म इस समस्त मान्दमें जी गोग शब्द उगक अनफ. अर्थ है. जस योगनिमित्र ग्रहण ' यहां मनोरगंणा, बचनवगणा व कायवगणा इनके आश्रयने जो आस्मप्रदेवोमें चंचलता उत्पन्न होती है वह योग शब्दमे वाच्य होती है. योग शब्द का संबंध ऐसा भी अर्थ होता है, जैसे -इसका इसके साथ योग है. अर्थात मंबंध है. योग शब्द कहीं कहीं ध्यानवाचक भी है, जो योगस्थितः' अर्थात् मुनि ध्यानमें स्थिर है. ग्रस्तुत प्रकरणाम योगका अर्थ ध्यान एमा मानना चाहिये, राग-ए, और मिथ्यात्वसे रहित, पदार्थके यथार्थ स्वरूपको स्पर्श करने वाला अर्थात् जाननेवाला तथा विषयांतरसे हटकर एक विषयमें ही स्थिर होनेवाला एमें ज्ञानको ध्यान कहते है. जिसने समताका अभ्यास नहीं किया है. और जिसको वस्तुका सत्यस्वरूप ज्ञात नहीं हुवा है ऐसा पुरुष ध्यान करने में असमर्थ है ऐसा समझना चाहिये. जिसने अंतःकरण घश किया है, वह मुनि मनुष्यपर्यायका नाश होनेके समयमें अर्थात मरणकालमें धर्मशुक्लध्यानमें में समर्थ होउंगा ऐसा समझकर हमेशा समताका अभ्यास करता है, यद्यपि गाथामें ' ज्झाणसमत्थो' इस समस्त शब्दमें ध्यान शब्द सामान्य ध्यानका वाचक है तथापि यहाँ प्रशस्त ध्यानका वाचक समझना चाहिये, अर्थात् धर्म व शुक्ल ये दोन ध्यान प्रशस्त है तथा आर्त और रौद्र ये दो ध्यान अशुभ है. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुलाराधना आश्वासः ५७ कृतपरिकरो राजपुत्रो व्यधनादिकासु मियासु उपगतकौशलः क्रियां प्रहरणादिकां संपाद्य यथाफलं मामोति इति पतदुत्तरगाथयाचऐ जोगाभाविदकरणो सन्तू जेदूण जुहुरंगम्मि । जह सो कुमारमल्लो रज्जवडायं बला हरदि ॥ २२ ॥ कृतयोग्यक्रियो युद्धे जगतीपतिदेहजः ।। आदत्ते विद्विषो जित्वा पलाद्राज्यव्यजं यथा ॥ २५॥ विजयोदया-जोगाभाषित इत्यनया । जोगाभाविदकरणो परिफर्मणा असफत्मवर्तितन्यधनताउनमहरणादि. क्रियः । आभावित इत्यत्राह भूशार्थ प्रयुक्तः । तथा व प्रयोगः-आधूमितं भृशं धूमेन परिपूर्णमित्यर्थः । सस् शत्रून् । जेदूण जित्वा । सुरंगम्मि युद्धार्थ संस्कृतो देशो युवरंगमित्युच्यते तत्र । जह यथा । सो स मावितात्मा । कुमारमलो प्राणिनां कालकतोऽवस्थाविशेषणे द्वितीयः कसारत्वं नाम । तद्योगाद्राजपुत्रः कुमारः स एछ मल्लः । रझापडागं पराभव । बाग कारेण । महति । यताति ॥ प्राक् परिकर्मभावनायाः 'सलं दृष्टान्ते प्रदर्य दाटन्तिके थोजयितुं गाथाद्वयमाह मूलरा-जोगाभाविदकरणो योग्यया परिकमा भावितमसकनवर्तितं करणं व्यधनादिक्रिया येन । जुदरंगम्मि बुद्धाधु संस्कृत देो । ररजपा र उयध्वज । थला बलात्कारेण । हरदिहाति प्रत्यानयतीत्यर्थः । जिसने शस्त्रविद्याकी मामग्रीका खूब अभ्यास किया है ऐसा राजपुत्र लक्ष्यवेधादिक क्रिया करनेमें चतुर हो जाता है, और सबको मारकर अथवा पकडकर राज्यादिकका फल राप्त कर लेता है यह आगेकी गाथामें | आचार्य कहत है हिन्दी अर्थ-लक्ष्यवेध, तारन, प्रहार करना इत्यादि क्रिया करनेमें अतिशय चतुर, तरुण, पहिलवानके समान शक्तियुक्त ऐसा राजपुत्र युद्ध करनेके मैदान में शत्रको जीतकर जैसे बलात्कारसे राज्यध्वजको हरण करता | है. उसी तरह मुनि भी मोइरिपूको जीतकर बलात्कारसे. आराधनापताका, इर लेता है. ऐसा आगेकी गाथामें | आचार्य कहते हैं, उपर्युक्त गाथा दृष्टान्त रूप है-दार्शन्तिक गाथा यहाँ आचार्य कहते हैं, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलाराधना ७८ दार्शन्तिके योजयितुं उत्तरगाथामाड तह भाविदसामण्णो मिच्छत्तादी रिबू विजेतॄण || आराहणापायं हरइ सुसंथाररंगम्मि ॥ २३ ॥ साधुर्भावतचारित्र गृहोते संस्तराहवे ।। आराधनाध्वजं जित्वा मिथ्यात्वाविद्विषस्तथा ।। २३ ।। विजयोदया - तह भाविदसामणो इति । तह तथैव राजपुत्रवदेव । भाविदसामण्णो भावितसमानभावः । पुव्यमिति शेषः । मिच्छतादी मिथ्यात्वा संयमकायाशुभयोगाः इत्येतान् । रिव् रिपून् । विजेण भृशं जित्वा । विशम्दो भृशार्थे प्रयुक्तः । यथा विवृद्धो मलः भृशं वृद्ध इति यावत् । अथवा विजेण नानाप्रकारे जिल्ला यथा चित्रित्रमिति नानाचित्रमिति यावत् । एकान्त मिध्यात्वं, संशय मिध्यात्वं विपर्ययमिध्यात्वं इत्यनेकधा मिथ्यापरिणामाः स्थिताः । तत्रैकान्त मिथ्यात्वं नाम वस्तुनो जीवादेर्नित्यत्वमेव स्वभावो न चानित्यत्वादिकं असदुत्पत्या सतो निरोधे वा अनित्यता भवति । न चासत उत्पत्तिर्यदि स्थगनकुसुमादिकं किं नोपजायते ? असत्वाविशेषे कुसुमादेर्घादेव घटादिकं उपजायते न वियत्कुसुमादिकं इत्यत्र न नियामक हेतु पश्यामः । न स सद्विनश्यति, विनाशो वसत्त्वं भावाभावो हि परस्परपरिहारस्थितिलक्षणी नैकतां यातः । न भावोऽभावो भवति इत्थमसत्ये उत्पाद निरोधयोरभावानित्यतैवावतिष्ठते इदमेकं मिथ्यात्वं एतस्य जय उच्यते--न नित्यतैय वस्तुनो रूपं अनित्यताया अपि प्रमाणसमधिगम्यन्यात 1 रागछेयमिध्यात्व संशय विपर्ययादीनां आत्मनि सतां पश्चादनुभवप्रतिष्ठापितमसत्यम भयोगनीतं च सत्वं प्रागननुभूतानामित्यनित्यता पुद्रलद्रव्यस्यापि मेादेर्वर्णान्यथाभावः । आम्रफलादीनां रूपरसर्गवाचन्यथाभावश्च प्रत्यक्षमाशोऽशक्यापद्रवः तथानुमानग्राह्यश्च यत्तत्सबै नित्यानित्यात्मकं यथा घटस्तथा च जीवादिकं सदिति । कारणानां प्रतिनियतजननस्वभावकार्यत्यात् । घटादेर्जनकानि सन्ति इत्युत्पत्तिः न खरविणादेः । न च भाषाभावयोर्विरोधः एकस्मिन्वस्तुन्येकदा प्रवृत्तेः रूपरसादीनामिय। अपररूपेणासत्वं सति विद्यते न था । यद्यस्ति न विरोधः न चेत्सर्वात्मकता न भावो नाम भावादन्यः । अपि तु भावान्तरस्येव रूपान्तरम् । ततोsयुक्त नित्यत्वैकान्तवादः इति । पर्वभूतया तत्त्वश्रद्धया पराभूयते नित्यमेवेति मिध्यात्वम् । तथा क्षणिकमेवसर्व कथं कार्यकारि, यद्वस्तु सर्वथा सामर्थ्यविरहो भांवलक्षणं । कार्यकारिता च न नित्यस्य । कथं तद्धि नित्य स्वल पार्थ क्रमेण वा कुर्याद्युगपदेवः या १म तापक्रमेण कार्यात्मलाभस्य कारणखभावसानिध्यमात्रपराधीनत्वात् । सर्व कार्यप्रादुर्भूतूनां सामर्थ्यानां सदा सान्निध्यत्वात् कुतः कार्याणां क्रमः । समर्थहेतुभावेऽप्यभावे न तत्तस्य कार्य स्यात् । थथा समितेिऽपि यमपीजे ऽनुपजायमानस्य शास्यंकुरस्य न यवथीजकार्यता । युगपत्करोति वेद द्वितीयादी भाश्वासः १ ७८ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना 12 क्षणेऽकिचित्करता स्यान्न च तथा दृश्यते । इत्थं नित्यवस्तुलक्षणस्य कार्यकारित्वस्याभावात् अनित्ये सद्भाषात् क्षणिकमेवेत्यभ्यवसायो मिथ्यात्वमेय तस्य जय उच्यते - सत्यं सर्वथा नित्ये वस्तुलक्षणे नास्त्युक्तया नीत्या नित्याऽनित्यात्मके तु समविनी' कार्यकारिता एकान्तेन क्षणिकतैय वस्तुनो यदि रूपं कार्यकारिता नास्ति । एकस्य वस्तुन एकमेव रूपं मापरमिति प्रतिज्ञानात् । एवमन्यत्रापि त्रयः एकतमिध्यात्वजयः । संमिध्यात्वं वस्तुस्वरूपानवधारणात्मकं तस्य जयः कथंचिन्नित्यानित्यात्मकाः सर्वे भावा इति भावना विपर्ययमिध्यात्वं हिलाया दुर्गतिर्तिम्याः स्वर्गादिहेतुतावसितिशानम् | अहिंसायाश्च प्रत्यपायहेतुतेति एतस्य जयः । परोक्षस्थोपायोपेयभावस्य अम. त्यत्यात् । अनुमानस्य च प्रत्यक्ष भान तत्रावृत्तेः आगमः सर्वशेन निरस्तरागवेण प्रणीतः उपेयोपायत स्वस्थ रख्यापकः आश्रयणीयः । कपिलाड़ीना मसर्वशतया न तत्प्रणीत आगमोऽष्टमतिपत्तावुपायः । तदसर्वशता दष्टेटप्रमाण विरुद्धवचनतया रथ्यापुरुषवत् । नित्यस्तु शब्दो न विद्यते । यदि स्यात्सर्वस्य नित्यतया पुरुषदोषानुपतास्तीति प्रामाण्यं भवेत्ततो जिनागमेन हिंसाया दुःखहेतुत्वप्रतीतेर्विपर्ययभिध्यात्वप्रसिद्धिः तस्य जयः अविपरीतानेन | माराधणापडायं आराधनापताकां । हरदि गृहाति । सुया शोभता ॥ मूलारा माविदसामणो प्रागभ्यस्तसमभावः । मिच्छत्तादी मिध्यात्वासंयमकषायानुभयोगान् विजेण भ्रशं विविधं वा प्रतिहत्य | आराहणापवार्य आराधनैव पताका त्रिजगत्परमैश्वर्यचिन्हं तां मिध्यात्वादिशत्रुतां । यदि बा आराधनायाः पताका इन्द्रादिनिर्मितपूजाचैश्वर्यातिशयसंपत् । सुसंधाररंगम्मि उद्गमादिशेषानुपहते संस्तररंगे । .: हिन्दी अर्थ - तरुण राजपुत्रके समान मुनि भी समताकी बारबार भावना करके मिथ्यात्व असंयम, कषाय, अशुभ मन वचन, कायकी प्रवृत्तियां इन शत्रुओंको अच्छी तरह जीतकर - नाना प्रकारोंसे इनका पराभव कर उगमादि दोषोंसे रहित ऐसे संस्तरका आश्रय कर आराधना पताकाका हरण बलात्कारसे करते हैं. विशेष स्पष्टीकरण - नाना प्रकारसे मिथ्यात्वादिशत्रुओंको मुनि कैसे जीतते हैं. इसका वर्णन यहां लिखते है-- मिथ्यात्व परिणाम के एकांत मिध्यात्व, संशय मिध्यान्त्र, विपरीत मिथ्यात्व ऐसे अनेक भेद हैं. एकान्त मिथ्यात्वका स्वरुप- जीवादिक वस्तु सर्वथा नित्य ही है, उसमें अनित्यत्वादिक धर्म नहीं है, यदि असत् पदार्थ उत्पन्न हो जाय और संत्पदार्थका नाश हो जावे तो अनित्यता वस्तुका स्वरूप है ऐसा मानना योग्य होगा. परंतु असत् कभी उत्पन्न नहीं होता है. यदि वह भी उत्पन्न होगा तो आकाशपुष्प, और खरगोशका सींग भी क्यों न उत्पन्न होगा ? क्योंकि आश्वासः १ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आभासः - -- - ये भी तो असत ही हैआकाशपुष्प असत् है तथा घटादि भी उसके समान असत ही है तो आकाश पुष्पसे घटादिक अथवा घटादिकसे आकाश पुष्प बनते है ऐसा मानना पडेगा. घटादिफसे घटादिक ही उत्पन्न होते हैं. और आकाशपुष्पादिसे आकाशपुष्पादिक ही बन जाते हैं ऐसा मानने में कुछ नियामक कारण हमको नहीं दीखता है. सत्पदार्थका नाश होता है यह मानना भी अयोग्य है, विनाश असदय है. अर्थात अभाव रूप है. सरपदार्थ विनाशके उलटा है अर्थात् भाषरूप है, जहां भावात्मक पदार्थ रहता है वहां अभावात्मक पदार्थ नहीं रह सकता. अतः भावपदार्थ और अभावपदार्थ एकस्वरूपनाको प्राप्त नहीं होते हैं. अर्थात् भिन्न भिन्न स्वरूपके धारक है. भावपदार्थ कभी अभावरूप नहीं होता है. अमन पदाथसे उत्पाद और नाश दोनों भी सिद्ध नहीं हति. अतः नित्यता ही पदार्थका स्वरूप समझना चाहिंय. पदार्थ अनित्य ही भानना यह एक मिथ्यात्व है. एस मिथ्यात्वका समताकाअभ्यान करनेवाले मुनिराज पराजय करते है. अब नित्यता ही वस्तुस्वरूप है ऐमा मानना भी मिथ्यात्व है यह दिखाते हैं-नित्यता ही वस्तुस्वरूप है यह कहना भी युक्तियुत्त नहीं है. आत्मामें प्रथमतः रागद्वेप, मिथ्यात्व, संशयविपर्यय वगैरे अशुद्धस्वरूपके द्योतक विकार दीग्नते हैं परंतु नंतर इसका अभाव होता है. यह सबके अनुभवमें आनेपाली बात है. यदि आत्मा सर्वथा नित्य ही मानोगे तो उसमें से रागद्वेषादिक कभी भी नष्ट होंगे ही नहीं, तथा जो विकार पूर्वमें अनुभव में आये नहीं थे वे कमी भी उत्पन्न न हो सकेंगे, परंतु पूर्वपर्यायका नाश और नवीन पर्यायकी उत्पत्ति प्रत्येक पदार्थमें होती हुइ अनुभवमें आती है. अतः वस्तु नित्य माननेसे ये बातें नहीं बनेंगी. मेघादिक पुद्गलद्रव्य, जो पूर्वक्षणमें वर्ण था यह अनंतर समयमें नहीं रहता दुसरा ही वर्ण नजरमें. आता है. आत्रफलादिकोंमें फच्ची अवस्थामें हरा रंग, अर्धपक अवस्थामें लाल पीला रंग और पक्कावस्थामें पीलापना आता है यह सम प्रत्यक्ष प्राय बातें है. इन बातोंको मानना ही पडेगा. अनुमानसे भी वस्तु कथंचित नित्यानित्यात्मक है यह सिद्ध होता है. जो जो सत्पदार्थ है वे सब नित्यानित्यात्मक है जैसा घट. अर्थात् घटके समान सभी जीपादिक पदार्थ सत् है अतएव वे नित्यानित्यात्मक है. कारणों में प्रतिनियत कार्य ही उत्पन्न करनेका स्वभाव है अतः उनसे विशिष्ट ही कार्य उत्पत्र होते है. जैसे मृपिंडसे घट ही होता है पटोत्पत्ति नहीं होती है. अतएव खर विषाणादिकस घटादिक सत्पदाथोंकी उत्त्पत्ति नहीं होती है, जैनमतमें भाव और अभावमें परस्पर विरोध है नहीं, अर्थात् वस्तुमें एक ही समय में Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना ८१ अस्तित्व और नास्तित्व दोनों मी धर्म पाये जाते हैं. जैसे वस्तु रूपरसादिक धर्म रहते हैं उसी तरह अपर पदार्थ स्वरूपका अभाव भी उसमें रहता है या नहीं ? यदि दूसरे पदार्थके स्वरूपका अभाव है ऐसा कहोगे तो मात्राभावत्व एक पदार्थ में अविरुद्ध रूपसे रहता है ऐसा सिद्ध हो चुका. यदि दुसरे पदार्थ का भी स्वरूप पदार्थ में मानोगे तो प्रत्येक वस्तु सर्वात्मक है ऐसा मानना पडेगा. घट पदार्थ स्वस्वरूपसे युक्त तो हैं ही परंतु पटादिस्वरूपता भी उसको आवेगी और ऐसा होनेसे यह घट ही है ऐसा कहते समय पर ही हैं ऐसा भी कहनेका प्रसंग आरेगा अतः वस्तुके निश्चित स्वरूपका लोप होगा. वस्तु जो अभाव माना गया है वह भावसे भिन्न है नहीं. अर्थात् भावान्तरको ही अभाव कहते हैं, वस्तु स्वस्वरूपसे जैसी भावात्मक मानी है वैसी परस्वरूप से अभावात्मक भी मानी है अतः प्रत्येक वस्तु भावाभावात्मक है, अतः नित्यत्वैकान्तवाद अयुक्त है. ऐसी तत्वश्रद्धा करनेसे वस्तु नित्य ही हैं यह मिध्यात्व पराजित होता है. सर्वथा क्षणिक वस्तुमें कार्य करने का सामर्थ्य ही नहीं रहता है, वह पहिले क्षण में उत्पन्न होकर नष्ट होती है अतः कार्य कब करेगी, क्षणिक वस्तुकी उत्पत्ति भी पूर्व क्षणिक वस्तुसे यदि होती तो कार्यकारिता उसमें है ऐसा मान सकते थे. परंतु सर्व पूर्व क्षणिक वस्तुओं में कार्यकारण भाव नहीं हैं. तथा प्रत्येक क्षणक वस्तु एक समय बाद निश्वयसे यदि नष्ट होती ही है तो उसको कार्य करनेके लिये अवसर ही नहीं रहा. अतः वस्तु क्षणिक है यह मानना अयुक्तियुक्त हैं. नित्य भी पदार्थ कार्य नहीं कर सकता है. यह यदि कार्य करेगा तो क्या क्रमसे करेगा अथवा एकदम करेगा ? ऐसे दो प्रश्न यहां उपस्थित होते हैं. क्रमसे कार्य उत्पन्न करेगा यह आपका कथन योग्य नहीं है, क्योंकि कार्य का जन्म होना कारण में विद्यमान जो स्वभाव है उसके आधीन है और नित्य पदार्थ में कार्य उत्पन्न करनेका स्वभाव सदा ही विद्यमान होनेसे सदाही कार्य होते रहेंगे अतः कार्यमें क्रम कैसा रहेगा ? एकदम सब कार्य होंगे. यदि हेतुमें सामर्थ्य होता हुवा भी कार्य न होगा तो कभी भी न होगा. अथवा वह उसका कार्य है ऐसा मानना योग्य नहीं है, जैसे यवबीज समीप होते हुए भी उत्पन्न न होनेवाले शाकुरको यब बीज कारणरूप नहीं मानते हैं वैसा नित्यपदार्थ कार्यके प्रति कारण नहीं होगा. यदि सर्व कार्य युगपत् नित्य माश्वासः ८१ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काराधना पायाप्त: ८२. - - पदार्थसे हो जाते हैं तो प्रथम समयमें ही उससे सब कार्य हो जानेसे द्वितीयादि समयमें वह अकिंचित्कर होगा. परंतु पदार्थ द्वितीयादि क्षणमें भी कार्य करता हुवा दृष्टिगोचर होता है अतः वह सर्वथा नित्य है ऐसा मानना अनुचित है. नित्यवस्तुमें कार्य करनेका स्वभाव नहीं दीखता है वह अनित्यमें है अतः वस्तु क्षणिक ही है यह श्रद्धान करना भी मिथ्यात्व ही है, ऐसे मिथ्यात्वका समताधारक मुनि पराजय करते हैं, सर्वथा निन्य व अनित्य पदार्थमें कार्य करने का स्वभाव नहीं है परंतु कचित् नित्यानित्य पदार्थ में कार्य करनेका स्वभाव अवश्य होनेसे वह कार्य करता हुवा दीखता है. यदि क्षणिकता ही वस्तुका स्वरूप है तो वह कार्य नहीं करेगी क्योंकि उसका एक ही रूप रहेगा. उसमें पूर्वस्वरूप नष्ट होकर दुसरा स्वरूप नहीं आता है. इसी तरह नित्यमें भी समझना चाहिये. संशय मिथ्यात्वका स्वरूप-वस्तुस्वरूपका जिसमें निश्चयही नहीं होता है उसको संशय मिथ्यात्व कहते हैं अर्थात् वस्तु नित्य है ? अथवा अनित्य है ? वा नित्यानित्यात्मक है ? ऐसा अनिश्चय रहता है. ऐसे मिथ्यात्यका पराभव मुनिराज वस्तु नित्यानित्यात्मक है ऐसा निश्चय करके करते हैं. जगत्के समस्त पदार्थ कथंचित्रित्यानित्यात्मक हैं. द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे वस्तु अपने स्वरूपको नहीं छोडती है. जीवका चैतन्य जीवको कभी छोडता नहीं है. वह हमेशा उसमें रहताही है अतः जीवको नित्य कह सकते हैं, मनुष्यत्व देवत्वादि पर्याय सदा स्थिर रहते नहीं, मनुष्यत्व नष्ट होकर जीव देव, नारकी, तिर्यच ऐसी पर्याय धारण करता है. अतः पर्यायकी अपेक्षासे वह अनित्य भी है. अतः उसको नित्यानित्य समझना योग्य है. जीवके समान अजीच-पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश, काल ये पदार्थ मी नित्यानित्यात्मक हैं, विपर्यय मिथ्यात्वका स्वरूप-हिंसा दुर्गतिमें भ्रमण कराती है. तथापि वह स्वर्गादि मुखके लिये कारण होती है ऐसा निश्चय ज्ञान होना यह विपर्यय मिथ्यात्व है, अहिंसा दुःख देने में कारण है ऐसा समझना विपरीत मिथ्यात्व है. ऐसे मिथ्यात्वका पराजय मुनि करते हैं. हिंसा स्वर्गप्राप्ति में कारण होती है अतः हिंसा कारण है और स्वर्गप्राप्ति होना उसका कार्य है ऐसा कहना योग्य नहीं है. जिसको लोक धर्म हेतुसे मारते है उसको अत्यंत दुःख होता है. तिलमात्र भी उस प्राणीमें शांतता उस समय रहती नहीं है. अतः उस प्राणीको तथा मारनवालको स्वर्ग लाभ होना नितांत असंभव है, दयाक्षमादि गुणही स्वर्गादि सुखके लिये कारण होते हैं, हिंसाही यदि स्वर्गके लिये HTTARA Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना नावात कारण हो तो व्याघ्रादि हिंस्र प्राणीही मरणांचर स्वगादि सुखको प्राप्त होंगे. अतः हिंसा स्त्रगदायिनी है यह मानना अयोग्य है. वर्ग व मोक्षकी माप्तिके उपाय व वर्गादिक उपेय इन दोनोंका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है. अनुमानसे मी इनका स्वरूप नहीं जाना जाता है क्योंकि वह भी प्रत्यक्षके विना उत्पन्न होता नहीं. आगमसे उपाय और उपेयका ज्ञान होता है अतः आगमका आश्रय लेना ही योग्य है. वह आगम जिसने रागद्वेषका नाश किया है ऐसे सर्वज्ञ जिनेश्वरने रचा है. अतः वह ही स्वादिके उपाय और उपेय सुखादिकका प्रतिपादन करता है. कपिलादिक अन्यमत प्रणेताऋषि असर्वज्ञ थे अतः उनका आगम अदृष्ट पदार्थोंका ज्ञान करानेमें उपाय हो नहीं सकता. कपिलादिकके वचन प्रत्यक्ष और अनुमादिक प्रमाणांसे विरुद्ध हैं अतः वे रथ्यापुरुषके समान अपमाण है. शब्द नित्य है यह कहना भी योग्य नहीं है यदि वे नित्य हैं तो सर्व शब्द नित्य होनेसे पुरुषोंके रागद्वेषादि दोपोंसे वे अलिप्त होनसे प्रमाण मानने पटेंगें. जिनागमसे हिंसा दुःखोत्पत्तिके लिये कारण है ऐसा अनुभव आता है अतः हिंसाको सुखका कारण समझना विपरीत मिथ्यात्व है. इस विपरीत मिथ्यात्वका सत्यज्ञानसे मुनिराज पराभव करते हैं. मिथ्यात्व, असंयम, कषाय ऐसे शत्रुओंको जीतकर घे अलात्कारसे आराधनापताका हरण करते है. चिरमभाषितरत्नत्रयाणामतर्मुद्वर्तकालभायनानां सिद्धिरिष्यते तकिं चिरभावनयेत्यस्योसरमाचष्टे पुब्बमभाविदजोग्गो आराधेज मरणे जदि वि कोई ॥ खण्णुगदिठंतो सो तं खु पमाणं ण सव्वत्थ ॥ २४ ॥ यभावितयोगोऽपि कोऽप्याराधयते मृति ॥ तस्पमाणं न सर्वत्र स्थाणुमूलनिधानषत् ॥ २७॥ पुवं पूर्व मरणकालात् । अभाविदजोग्गो अभावितपरिकरः । आराधेज आराधयेत् । किं मरणं रत्नत्रयानुगतभवपर्यायालयं । जदि वि यद्यपि | कोई कश्चित् । खण्णुगदिट्टतो स्थाणुदृष्टान्तः । सो सः । तं खु तदेव । अकृत Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८४ परिकरस्य कस्यचित्नत्रय समापनं । सव्वत्थ सर्वत्र । ण पमाणं न प्रमाणं । अर्थाख्यानमंत्र वाच्यम् । एवं पीठिका समाप्ता ॥ ↓ मूलारा – आराहेज्ज मरणं रत्नत्रयानुगतं भवपर्याथालयं कुर्यादित्यर्थः । स्वणुगदितो सो स्थाणुदृशन्तः स: । तं खु । तदेव अकृतपरिकर्मणः कस्यचिन्मरणे रत्नत्रयपरिणमनं । सव्वस्थ सर्वत्र सर्वेषु न प्रमाणं न गमकं । यो यो जीवः स स स कवित् प्रसिद्वो जीय इति व्याप्तेरभावात् । पूर्वममातियो ययाराधयन्मृतौ कश्चित् ॥ स्थाणौ निधनलाभो निदर्शनं नैव सर्वत्र || अ पीठमासनमिष समस्तथार्थसंग्रहस्याधारभूतत्वात् । लोकः - त्यक्त्वा संग सुधीः साम्यसमभ्यासवशाज्जयं । समाधि मरणे लब्ध्वा इत्यल्पयति वा भषम् ॥ इति मूलाराधनादर्पणे पीठिकाप्रतिष्ठा । जिन्होंने बहुत कालपर्यंत रत्नत्रयाराधन नहीं किया है अर्थात् अन्तर्मुहूर्त कालपर्यन्त ही आराधन किया है उनको भी मोक्षलाभ होगया है, अतः चिरकालरत्नत्रय भावनाकी आवश्यकता नहीं है ऐसे प्रश्नका उत्तर आचार्य कहते हैं अर्थ — मरणकाल के पूर्व अर्थात दीक्षा, शिक्षा वगैरे समय में रत्नत्रय के साधनभूत कारणों का किसी जीवने आराधन नहीं किया हो परंतु मरणसमय में उसने रत्नत्रयकी आराधना की हो तो भी यह स्थाणुदृष्टांत के समान हो गया. रत्नत्रय के साधन बिना यदि किसी विरले मुनिको मरण समय में रत्नत्रयाराधना होनेसे यह सार्वत्रिक नियम नहीं हो सकता. जैसे किसी विरले अंधको स्तंभसे टकरानेसे नेत्रलाभ हुवा और स्तंभ गिरनेपर उसके नीचे रक्खा हुबा निधि उसको दीख पडा परंतु तमाम अंध जनाको इसी उपायसे निधिलाभ होगा यह समझना नितांत आश्वासः ? ८४ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः भूलभरा समझना चाहिये. अतः इस दृष्टांतके अनुसार रत्नत्रयाराधना मरणसमयमें किसी. एकादे मनुष्यको हो गई हो तो सर्वत्र यह नियम प्रमाणभूत नहीं है, पीठिका समाप्त. मरणाणि सत्तरस देसिदाणि तित्थंकरहिं जिणचयणे ॥ तत्थ विय पंच इह संगहण मरणाणि वोच्छामि || २५ ।। विस्तरेणागमोक्तेषु मध्ये सप्तदशस्वहम् ।। मरणान्यत्र पंचैव कथयामि समासतः ।। २८॥ विजयोदया-मरणान्यनेकप्रकाराणि इति शास्त्रान्तरे निर्दिष्यानि । तेष्विह निरूप्याणीमानीति निरूपयितुं इदमुत्तरं सूर्य मरणाणीति । मरणं विगमो विनाशः विपरिणाम इत्येकोऽर्थः । तच मरणं जीवितपूर्व । जीवित स्थितिरविनाशोऽवस्थितिरिति यावत् । स्थितिपूर्वको विनाशः । यदस्थितिकं तघ्न विनश्यति यथा चंध्यासुतः । तथा च स्थितिरहितं वस्तु क्षणिकवादिनिरूप्यं । जीवितं जन्मपुरोगे । अनुत्पत्रस्य स्थित्यभाषात् । तत उत्पत्तिर्विगमो धौयं च सर्वेषां रूपाणि । अस्यां च प्रक्रियायां मरपां नामोत्पन्नपर्यायविनाशः । देवत्वं, तिर्यक्त्वं, नारफत्वं, मनुष्यत्वं, इत्यमीषां पर्यायाणां मध्वंसह मरणशवयाच्यः । श्रथवा प्राणपरित्यागो मरणं । तथा थाभ्यधायि-मृ प्राणत्यागे इति । एवमेव प्राणग्रहणं जन्म, प्राणानां धारण, जीवितं । प्राणा विषिधा व्यशणा भायप्राण्यथा तत्र द्रव्यमाणा इन्द्रियाणि, पलं, उच्छवास, आयुरित्येतानि पुगलद्रव्याणि । शवप्राणा शानदर्शनचारित्राणि पतत्प्राणापेक्षया लिबानां जीवितं । तपायुभिर्ष अडायुर्भपायुरिति च । भषधारणं भयापूर्भया शरीर तब प्रियते भास्मेना भायुकोषयेन । ततो भक्धारणमापुकाब कर्म तव भषायुरित्पुच्यते । तथा चोक्तम् हो भयोशि सम्बदि धारिन बागेण य भयो सो । तो उम्पदि भवधारणमाउगकर्म भवाउति॥ इति आयुर्वंशेनेय जीवो जायते जीवति च माधुष एचोश्येन । अन्यस्याधुष उदये सति मृतिमुपैति पूर्वस्य चायुष्कस्य विनाशे। १ सृम् भाणत्यागे इत्ति ख पुस्तके पाठः। २ ख-आत्मनेति । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः युलाराधना ८६ तथा घोक्तम् आउगवसेण जीवो जायदि जीवदि य याउगस्सुदये । अण्णाउगोदये था मरदि य पुयाउणासे घा ॥ इति ॥ अद्धाशब्देन काल उच्यते । आउगशब्देन द्रव्यस्थ स्थितिः, तेन द्रव्याणां स्थितिकालः अद्धायुरित्युत्यते त्यापेक्षया ट्रष्यायामनाथानिधनं भवत्यशायुः । पर्यायार्थापेक्षया चतुर्विध भवत्यनाद्यनिधनं, साद्यनिधन, सनिधनमनादि. सादिसानिधनामति । चैतन्यरूपादिमत्यगतिस्थितिहेतुत्वादिसामान्यापेक्षया अनाद्यनिधना स्थितिः 1 केवलझानादिकानां सादिर भव्ययस्य नायिसाधमता, सादिसनिधनता कोणादीनाम् । अथवा द्रव्यशेत्रकालभाषानानित्य चतुर्विधा भवति स्थितिः । पतस्यायायुषो वशेन भवधारणायुषो निरूपणा भरति । आयु:संहिताना कर्मणां पुलद्रव्यतया आयुःस्थितेन द्रव्यस्थितेरत्यताम्यधात्वं । अथवा अनुभूयमानायुसिमकपुद्गलगलनं मरणं । तानि मरणानि । ससरस सप्तदश । देसिवानि कथितानि । तित्थंकरहिं तीर्थकरैः । शिणवयणे जिनानां बचने । ननु तीर्धक रक्तानि इत्यनेनैष गतं कि जिनवचनप्रहणेन ? नैष दोषः। जिनशचेन गणधरा उच्यन्ते । अंतरेण घशम्ब समुश्चयाथंगतिः । तत्राय संबंध:-जिनघबने च कि सप्तदशमरणानि । पतेन तीर्थकृतो गणधराध मरणविकल्पानुपादितवन्तः। तवुभयवचनसिद्ध प्रमाणभविशंकनीयमित्येतदाचष्टे -१ आवीचिमरण २ तद्भषमरणं ३ अवधिमरणं ४ आदिअंतायं ५ बालमरणं ६ पंडितमरणं ७ मासण्णमरणं ८ बालपंडिद ९ ससलमरण १० बलायमरणं ११ पोसहसरण १२ पिप्पाणसभरणं १३ गिद्धपुछमरण १४ मत्तपश्चनमार्ण १५ पाउषयमणमरणं १६ इंगिणीमरण १७ केवलिमरणं चेति । तेषां स्वरूपता यथागर्म संक्षेपतो निरूप्यते॥ पीधिशदस्तरंगाभिधायी श्रीचिरिष वीचिरिति । भायुष उदये वर्तते । यथा समुशादी बीचयो नैरंतयेणोलच्छन्ति एवं समेण आयुष्काप कसे मनुलमपमुदेति इति तदुक्य भाषीचिशष्देन भग्यते। मायुषः अनुभवर्न जीवितं, तब्य मतिसमयं जीषितमंगस्य मरणे। मतो मरणमपि अत्र आधीचि, उदयावनंतरसमये मरणमपि वर्तते इति । तत्पुनराधीचिकामरण अनादिसनिधन भन्यानां 1 ननु सिवानामेष मरणं विच्छिन्तिमुपयाति नेतरे ते च नमज्याः। भविव्यत्सिवस्वपर्याया विभत्र्याः। सिद्धास्वधिगतसित्वपर्यायास्सतः फिमुच्यते भव्यानामनादिसनिधनमिति । 'मवियाणमणादियं मरण आधीचिग सणिधणं च'इति यदेवाधिमतभव्यत्वपर्याय द्रव्यं तदेवेदमिति कृत्वा भव्यानामित्युकं इति नियतम् । अभव्यानां पुनरुदयं प्रति सामान्यापेक्षयाऽधीचिकमनादिनिधनं । मवापेक्षया क्षेषाधपेक्षया च सादिर्क | चतुर्णामायुकाणां मध्ये योर्यचपि सत्कर्मता तथापि एकस्यैवायुष उदयः । द्वयोः प्रकृत्योः सत्कर्मता सह भवति । उच्यते-तिर्यस्मनुध्यायुष्कयोः सर्वैगयुकैः सह सत्कर्मता देवनारकायुष्कयोस्तिर्यमानवायुकाभ्यां सत्कर्मता । भवनु नामैषां सन्कमव्यवस्था । वयोरायुष्कमास्योः किं तयुगपदुदयः १ अयोच्यते-अनुभूयमानप्रतिस्थितीनामुपरि इतरस्यायुषो निधेको यतस्ततो न युगपदायुकप्रकृत्योरखयः । किं च यस्मादेकस्प जीवस्य द्वयोर्भवयोर्गत्योर्वा न संभवः । भवं गति च Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना प्रयोज्य अपेक्ष्य मायुष उवयो नाम्यथा ततो मायुष्कस्योरुदयः । एवमेकस्यायुष्कर्मणः एकैप प्रकृतिरुवेत्येकस्यात्मनस्तस्मादेकैकायुकमकतिगलनरूपामेष भूतिमुपैति । तदेतत्प्रकृतिमरणं। भवधारणकारणत्वंपरिणताना पुत्रकामा डावात्मप्रवेशष्यवस्थितिरित्युच्यते । भारमनः कषायपरिणाम साकारी पुकानां स्निग्धताया. .परिणामिकारणं तु तदेय पुबलदम्य । सा चैषा स्थितिरेकाविककोचरा देशोनश्यखिचात्सागरोपमाणां यायता समयास्ताषनेदा उत्कर्षस्थितिःभेतमुहर्तभवा परा। तस्या वीषय व कमणावस्थितायाः विनाशावात्मनो भवति स्थित्यावीचिकामरण 1 भषांतरप्राप्तिरगतरोपापपर्वभवाविगमन सहरमरणं । तत्वनंतशः प्रामे जीवेनेति शातयं तेन तद्भवमरणं न दुर्लभम् । अनुभवावीचिकामरणमुख्यते-कर्मपुद्गलानां रसः अनुभव इत्युच्यने, स प परमाणुषु पोढा वृद्धिहानि रूपेण थापीचय इव क्रमेणारस्थितस्य प्रलयोऽनुभवावीचिमरण । आयुःसंहितानां पुद्गलानां प्रदेशा जयभ्यनिषेकादारभ्य एकादिवृद्धिक्रमेणावास्तवीवय इय तेषां गलनं प्रदेशाधीचिकामरणं । ___ अपधिमरण नाम कथ्यते यो यादृशं मरणं सांप्रतमुपैति तादृगेय मरणं यदि भविष्यति नदवधिमरण । तदिवविध देशापधिसरणं सर्वाधिमरण इति । नत्र सर्वावधि मरण नाम यदायुर्यधाभूतमुदेति सांप्रतं प्रकृतिमिधल्यनुभवप्रदेशस्तथानुभूतमवायुः प्रकृन्यादिविशिष्ट पुनबध्नाति उदेण्यति च यदि तत्सर्वावधिमरणं । यत्सांप्रतमुदेयायुधामूतं तथाभूतमेव बनाति देशतो यदि नद्देशावधिमरणं । एतदुक्तं भवति देशतः सर्वतो वा सादृश्येन विशेपितं मरणमवधिमरणमिति | सांप्रतेन मरखोनासादृश्यभावि यदि मरणमातमरणं उच्यते, आदि। शम्नेन सांप्रत प्राथमिकं मरणमुच्यते तस्य अंतो बिनाशभावो यस्मिन्नुप्सरमरणे तरेतवायंतमरणं अभिधीयते । प्रकृति स्थित्यनुभषप्रवेशैर्यथाभूतैः सप्रितमुपैति मृति तथाभूतां यदि सर्वतो देशतो था नोपैति तवायंतमरणं । पालमरणमुच्यते-बालस्य मरणं पालमरण, स च याला पंचप्रकारः अव्यक्तवालः, व्यवहारबाला, शानपाला, दर्शनकाला, चारित्रवाल इति । भव्यतः शिशुः धर्मार्थकामकार्याणि यो न बेसिन ना, तदाचरणसमर्थशरीरः सोऽ. व्यक्तबालः । लोकथेवसमयब्यवहारान्यो न ति शिशुर्यासो व्यवहारपालः | मिथ्याहएयः सर्वथा तस्वधयानरहिताः वर्शनयालाः । वस्तुयाथात्म्पमाधिनानन्यूमा शानबालाः । प्रचारित्राः प्राणभूतश्चारित्रबालाः । पतेर्षा पालानां मरणं बालमरणं । एतानि च अतीते काले अनंतानि । अनंताब मृतिमिमां प्रपते । इह दर्शनबालो गृहीतः नेतरवाला कथं ? यस्मात्सम्यग्दृष्टेरितरवालत्वे सत्यपि वर्शनपंडिततायाः सद्भावात्पंधितमरणमेवेष्यते । दर्शनवालस्य पुना संक्षेपतो द्विषिधं मरणमिष्यते । इच्छया प्रवृत्तमनिच्छयेति च । तयोरायमग्निना धूमेन, मा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्विासः शस्त्रेण, विपेण, उनकेन, मरुत्पपातेन उच्छ्वासभिरोधन, अतिशीतोष्णपातेन, रज्वा, क्षुधा, तृषा, जिलोत्पाटनेन, विरुवाहारसेचनया वाला मृति टोकन्ते. कुतश्चिनिमित्ताजीवितपरित्यागैषिणः काले अकाले वा अध्यवसानादिना यन्मरण जिजीविषोः तद्वितीयं । पतैलिमर पौटुंगतिगामिनो नियन्ते । विषयव्यासक्तबुद्धयः अज्ञानपरलावगुंठिताः, ऋद्धिरससातगुरुकाः । बहुतीनपापकर्मानवद्वाराण्येतानि बालमरणानि जातिजरामरणव्यसनापादनक्षमाणिः || पंडितमरणमुच्यते--व्यवहारपंडितः, सम्यक्त्वपंडिता, मानपंडितश्चारित्रपंडितः रति चत्वारो विकल्पाः । लोकवेदसमयध्यबहारनिपुणो व्यवहारपंडितः, अथवाऽनेकशास्त्रज्ञःशुश्रूषादियुद्धिगुणसमन्वितः व्यवहारपंडितः, क्षायिकेण, क्षायोपशमिकेनौपशमिकेन चा सम्यग्दर्शनेन परिणतः वर्शनपंडितः । मत्यादिपंचप्रकारसम्यग्नानेषु परिणतः ज्ञान पंडितः । सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसापराययथाख्यातचारित्रेषु कस्मिंश्चित्मवृत्तश्चारित्रपंडितः । रए पुनर्न ज्ञानदर्शनचारित्रपंडितानां अधिकारः । व्यवहारपंडितस्य मिथ्याचऐः चालमरणं यथा भवति सम्यम्दष्टे स्तदेव दर्शनपंडितमानी शति । नासो गरने, रिमाले दोसिस च रेषु, द्वीपसमुदेषु च सानपंडितमरणानि च तेश्च । मनुष्यलोके एच केवळमनापर्ययज्ञानपंडितमरणं भवति । - ओसष्णमरणमुच्यते-निर्याणमार्गप्रस्थितासंयतसार्थीयो हीनः प्रच्युतः सोऽभिधीयते भोसण्ण इति । तस्य मरण भोसपणमरणमिति । ओसपणग्रहणेन पार्श्वस्थार, स्वच्छदार, कुशीलाः संसक्ताम्म झम्ते । तथा चोकम् ॥ . पासस्थो सच्छंदो कुसील संसत होति ओसण्णा ॥ जं सिद्धिपच्छिवादो मोहीणा साधु सत्थादो ॥ के पुनस्ते ? ऋद्धिप्रिया, रसेप्चासत्ताः, दुःखभीरवः सदा दुःरकातराः, कषायेषु परिणताः, संशावशगाः, पापभुताभ्यासकारिणः, प्रयोदशविधासु कियास्थलसाः, सदा संक्लिएचेतसः, भक्ते उपकरणे च प्रतियज्ञाः, निमित्तमंत्रोषध योगोपजीचिनः गृहस्थयावृत्त्यकराः, गुणहीना गुप्तिषु समितिषु चानुद्यताः मंदसंबेगा दशभकारे धर्मे अकृतबुद्धयः शाचलचारित्राः आसन्नात्युच्यते । पर्वभूताः संतो मृत्वा चराका भचसहस्रेषु भ्रमन्ति । दुःखानि भुक्त्वा भुक्त्वा पाश्चेस्थ' रूपेण सुचिरं विहत्यान्त आत्मनः शुद्धि कृत्वा यदि मृतिमुपैति प्रशस्लमेघ मरणं भवति । सम्यग्दृष्टेः संयतासयतस्य चालपंडितमरणं यतीसावुमयरूपो चालः पंडिता । स्थूलतात्प्राणातिपातादेविंग. मणलक्षपी चारित्रमस्ति दर्शनं च ततश्चारित्रएडितो दर्शनपंडितश्च कुतश्चित्सूक्ष्मावसंयमादनिवृत्त इति चारिप्रवालः । तनु बालपंडितमरणं गर्भजपु पर्याप्तकेषु तिर्यक्षु मनुजेषु भवति । दर्शनपडितमरण तु तेषु देवनारफेषु । सशस्यमरण द्विविध यतो द्विविध शल्यं ज्यशाल्यं भावशल्यमिति । मिथ्यादर्शनमायानिदानशल्यानां कारण कर्म दृश्यशल्यं । ग्याल्येन सह मरणं पंचानां स्थावराणां भवति असंज्ञिनां प्रसानां च । ननु द्रव्यशल्यं सर्वधास्ति सकिमुच्यते स्थाचराणामिति । भाचशल्यविनिर्मुक्त द्रव्यापमपेक्ष्यते । एतदुक्तं-सम्यक्त्वातिचाराणा दर्शनशल्यत्वात्स म्यग्दर्शनस्य च स्थावरेषु अभावात् असेषु च विकलेंद्रियेषु। इदमेव स्यादनागते काले रति मनसः प्रणिधानं निदान । - - RAATES - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RamaithuainteAdarmathakareMMS मूलाराधना आश्रातः न च तदसंशिष्यस्ति ।मार्गस्य दूरणं, मार्गनादान, उन्मार्गप्ररूपण, मार्गाप्ररूपण, मागस्थानां भेदकरण मिध्यादर्श नशल्यानि! तत्र निदानं त्रिविध प्रशस्तमप्रशस्त मांगकृतं चेति । परिपूर्ण संयममायायतकामस्य जन्मांतरे पुरुषादिप्रार्थना प्रशस्तं निदान, मानकपायप्रेरितस्य कुलरूपादिप्रार्थनमनागतभवविषयं अप्रशतं निदानं । अथवा क्रोधाविष्टस्य स्वशत्रुयधप्रार्थना वशिष्ठस्यवोग्रसेनोन्मूलने । रह परत्र च भोगा अपि इत्थंभूता अस्माइत. शीलादिकाद्भवस्थिति मनःप्रणिधानं भोगनिदान । असंयत्तसम्यम्दष्टेः संयतासंयतस्य पा निदानशल्यं भवति । पार्श्वस्थादिरूपेण चिरं विहत्य पधादपि आलोचनामंतरेपण यो मरणमुपैति तन्मायाशल्यं मरणं तस्य भयति । एतय संयते. संयतासंयते, अविरतसम्यग्दृष्टावपि भवति । बलायमरणमुच्यते-विनययावृत्त्यादायकृतावरः, प्रशस्तयोगोशहनालसा, प्रमादवान्यतेषु, समितिषु, गुप्तिषु च खचीर्यनिगृहनपरः, धर्मचिंतार्या निया घूर्णित इव ध्याननमस्कारादेः पलायते अनुपयुक्ततया, पतस्य मरण बलायमरणं । सम्यक्त्वपंडिते, मानपंडिते, चरणपंडिसे च बलायमरणमपि संभवति । ओसण्णमरणं ससल्लमरणं च यदाभिहितं तत्र नियमेन बलायमरणम् । तस्यतिरिक्तमपि बलायमरणं भवति । निशल्यः संषिलो भूत्वा चिरं रत्नत्रयमवृत्तस्य संस्तरमुपगतस्य शुभोपयोगात्पलायमानस्य शुभस्य भाषस्थामवस्थानात् । वसहमरणं नाम-आर्ने रौद्रे च प्रवर्तमानस मरणं तत्पुमचतुर्विध-इंदियषसहमरणं, वेदणाषसट्टमरणं, कसायवसहमरण, नोकसायवसहमरण इति । ईदियवसमरणं यत् तत्पंचविध इंद्रियषिषयापेक्षया। सुरैनरैस्तिर्यभिरजीपैश्च कृतेषु ततषिततघनमुषिरेषु मनोनेषु रक्तोऽमनोकेषु शिष्टो मृतिमेति । तथा चतुःप्रकारे आहारे रक्तस्य दिस्य वा मरणं, पूर्वोक्तानां सुरनरादीनां गंधे विएस्य रक्तस्य वा मरणं, तेषामेव रूरे संस्थाने वा रक्तस्य द्विष्टस्य वा मरणं, तेषामेच स्पर्श रामचतो पवतो या मरणं । इति इंद्रियानिद्रियातवशमरणविकल्पाः । घेदणावसहमरणं दिभेदं समासतः । सातवेदनावशार्तभरणं असातवेदनावशार्तमरणं । शारीरे मानसे वा दुःख्ने उपयुक्तस्य मरणं दुःखयशार्तमरणमुच्यते । यो दुःखेन मोहमुपागतस्तस्य मरणमिति यावत् । तथा शारी मानसे या सुखे उपयुक्तस्प मरणं सातबशार्तमरण । कषायभेदात्कषायवशार्तमरणं चतुर्विध भवति । अनुचंधरोषो य आत्मनि परत्र उभयत्र रामारणवशोऽपि मरणवशः भवति । तस्य क्रोधवशार्तमरणं भवति । मानवशार्तमरणमष्टविधं भवति । कुलेन, रुपेन, चलेन भतेन पेश्वर्यण, लाभेन, प्रया, तपसा वा आत्मानमुत्कर्पयतो मरणमपेक्ष्य, विख्याते विशाले उशते फुले समुत्पमोहमिति मन्यमानस्य मृतिः कुलमानवशातमरणम् । निरुपहतपंचेंद्रियसमग्रगानस्तेजस्वी प्रत्यप्रयौवनः सकलजनताचेतासम्मदकररूप इति भावयतो मृतिः रूपवशार्तमरणं । वृक्षपर्वतायुत्पाटनक्षमोऽहं योधवानई, मित्राणां च बलं ममास्ति इति यला. भिमानोशहनान्मानवशार्तमरणं | बहुपरिवारोबटुशासनोऽहं प्रति ऐश्वर्यमानोन्मत्तस्य मरणं मानवशार्तमरणं । लोकवेदः समयसिद्धान्तशास्त्राणि शिक्षितानि इति श्रुतमानोग्मत्तस्य मरणं श्रुतमानवशासमरणमुच्यते। तीक्ष्णा मम बुद्धिः सर्वत्राप्र FRIENTERSTARStanAmA Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाराधना आयातः Festerter0HERST सिहता इति प्रहामत्तस्य मरणं प्रशाषशार्तमरणमुच्यते । व्यापार क्रियमाणे मम सर्वत्र लामो जायते इति काम मान भाषयतो मरणं लामवशार्समरणम् । तपो मयानुष्ठीयते अन्यो भत्सराचरणे नास्ति इति संकल्पयतस्तपोमामवशात मरणं भवति । माया पंचषिकरपा निकतिः, उपधिः, सातिप्रयोगः, प्रणिधिः प्रतिकुंचनमिति । भतिसंधानकुशलता धने कार्ये था कटाभिलाषम्य धनना निकृतिः उन्यते । वहा पहाच धर्मध्याजेन स्तन्याविदोषे प्रवृत्तिरपधिसंहिता माया । अर्थेषु विसंवादः स्वहस्तनिक्षिप्तवव्यापकरणं, दूषणं, प्रशंसा वा सातिप्रयोगः । प्रतिरूपद्रव्यमानकरणानि, ऊनासिरिक्तमान, संयोजमया व्यषिनाशनमिति प्रणिधिमाया । आलोचनं कुर्वतो वोपविनिगूडने प्रतिकुंचनमाया । एवंविधमायायशर्तमरणं । उपकरणेषु, भक्तपानक्षेत्रेषु, शरीरे, निवासस्थानेषु च इच्छा मूली च बहतो मरणं लोभवशार्तमरणं । हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुंचपुंसकवेन्दे मूढमतेमरणं नोकपाययशार्तमरणं । नोकपायवशाते. मरणमुपगतो जायते मनुजतिर्यग्योनिथु, असुरेषु, कंदर्पेषु, किल्बिषिकेषु च मिथ्याऐरेतदेवं बालमरणं भवति । दर्शनपंडितोऽपि अविरतसम्यग्दृष्टिः संयतासंयतोऽपि चशामरणमुपैति तस्य तद्वालपंडितं भवति दर्शनपंडितं था। अप्रतिषिद्धे अननुशाते च हे मरणे । विप्पाणसं गिडमितिसंहिते कृते प्रवर्तते । दुर्भिक्षे, कांतारे, दुरुत्तरे, पूर्वशत्रुभये, दुष्ठनपभये, स्तेनभये, तिर्यगुपसमें पकाफिनः सोमशक्ये ब्राह्मवतनाशाविचारित्रपणे च जाते संविग्नः पापभीरुः कर्मणामुदयमुपस्थितं ज्ञात्वा तं सोदुमशक्तः तनिस्तरणस्यासन्युपाये सावधकरणभीरु विराधनमरणभीरुश्च एतस्मिन् कारणे शाते कालेऽस्मिन् किं भवेत्कृशलमिति गणयतो ययुपसर्गभयत्रासितः संयमाचश्यामि ततः संयमभ्रो वर्शनावपि न वेदनामसक्लिष्टः सोढुं उत्सदेत ततो रत्नत्रयाराधनाच्युतिर्ममेति निश्चित मतिर्निर्मायवरणदर्शनविशुद्ध, धृतिमार, मानसहायोऽनिदानः, हेदन्तिके, आलोचनामासाध कृतशुद्धिः, सुलश्या, प्राणापाननिरोघे करोति यत्तद्विपाणसं मरणमुच्यते । शनग्रहणेन यद्भवति तद्विद्धपुष्टमित्युच्यते । मरणाविकल्पसंभवप्रदर्शनमिदं सर्वष कर्तव्यतयोपविश्यते । प्रायोपगमनमगिणीमरणं भक्तप्रत्याख्यान इत्येतान्येबोसमामि पूर्षपुरुषः प्रय तितानि । एवं दिनमात्रेण पूर्वांगमानुसारि सप्तदशमरणव्याख्यानमत्रोपकान्तं । ATOTARA अथाह शिष्यः । आयुःसंज्ञकपुद्गलगलनं मरणमिष्यते तत्किल सप्तदशप्रकारं । तदिह कतिधा भवद्भिरभि धास्यते ? आराधनानुगतमरणस्यैवेद शास्ने विधेयत्येनेष्टत्वात् । तद्वाक्यानुसारितथा सूरिरिदमाइ-- मूलारा-सचरस सप्तदश | जिणवयणे जिना इह गणधरास्तेषां पचनं तद्रचितं सूत्र नस्मिम् । अयमर्थःन केवलं तीर्थकरैमरणानि सप्तदश देशितानि यात्रता गणवरैरपि स्वसूत्रे तानि तावन्त्येयोपनिषद्वानि । उत्तरवाक्य च शब्दोऽत्र योज्यः । तत्वषि सेष्वपि वीर्थफरोपविष्टगणवरोपनिषद्धेषु सप्तदशमरणेषु मध्ये पंचविधसंगहेण-पंचानां प्रकाराणां संक्षेपण । एतेनेदंयुगीनविनेयजनानुरोधेन प्रशस्तररूपतया कृत्येतररूपतां गतानि पंच मरणान्यहं वक्ष्यामीति Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासा प्रतिज्ञा मरेलक्ष्यते । मरणं चात्रानुभूयमानायुःपुदगलगलनं मरणभेदस्मरणार्थमिवमार्याद्वयमषधार्य आवीचितद्भवावध्यायतसशल्यगृध्रपृष्ठमृतीः । जिब्रासयुत्सृष्टबलाकासं क्लिश्यमरणानि ||१|| शिशुशिशुशिशुशिशुपंडितमृतीः सभक्तोज्झनेंगिनीमरणं ॥ मायोपामला हिताधिरमरणे च सप्तदश विद्यात् ॥ २॥ १ सत्र प्रतिक्षणमायुःक्षय आवीचिमरणं । समुद्राम्बुषु वीचीनामिव आयुःपुद्गलाणुषु रसानां प्रतिसमय मुयोड्य विलयनात् । २ भुष्यमानायुषश्चरमसमये मरणं तद्भवमरणं ३ यादशेन मरणेन पूर्व मृतस्तादृशेनैव मरणमवधिमरण । ४ देशवः सर्वतो वा प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रेदेशलादृश्येन अबधीकृतेन विशेषितल्यान्। प्रकृतिस्थित्यनुभव प्रदेशैर्देशतः सर्वतो मान्यारशमरणमातभरणं । आदेः प्रथममरणस्पान्तो विनाशो यस्मिन्नुसरमरण इति इयुत्पत्तेः । ५ मायानिदानमिथ्यात्वलक्षणशल्यसमेतस्य मरणं सशस्यं मरणं। ६ इस्तिकलेयरादिषु प्रविश्य मरणं गूपृष्धमरणं ७ वाणनिरोधं कृत्वा मरण जिघ्रासमरणं । ८ वर्शनशानचारित्राणि त्यक्त्वा मरण व्युत्सृष्टमरण ९ पार्श्वस्थरूपेण मरणं बलाकामरणम् । १० दर्शनशानचारित्रेषु संक्लेशं कुत्या मरणं सायमरणं । शेषसप्तकस्य लभणानि म्वयमेवाचार्योऽये वक्ष्यति । हिन्दी अर्थ-श्रीजिनेश्वरोंने जिनागममें मरणोंके सतह प्रकार कहे हैं, उसमेंगे संग्रह करके मैं (शिवकोट्याचार्य) पांच मरणोंका स्वरूप कहता हूं। विशेषार्थ-मरण, विगम, विनाश, विपरिणाम ये एकार्य वाचक अर्थात मरणके वाचक शब्द हैं. मरणके पूर्व में प्राणीका जीवन पर्याय होता है अनंतर मरण पर्याय होता है ऐसे दो पर्याय जीवमें होते हुए देखे जाते हैं. जीवन पर्यायकही स्थिति, अविनाश, अवस्थिति ऐसे नाम है. जिस पदार्थकी स्थिति होनी है वही पदार्थ नष्ट भी होता है. जिसकी स्थिति ही नहीं उसका नाश भी नहीं होता है, जैसे बंध्यासुतकी स्थिति नहीं है अतः उसका नाश भी नहीं है. स्थितिरहित वस्तु क्षणिकवादि बौद्धोनें मानी है. चे सर्वथा वस्तु क्षणिक मानते है. जीवन जन्म पूर्वक ही रहता है, जो चीज उत्पन्न हुई नहीं उसकी स्थिति भी नहीं रहती है. अतः नाश, उत्पत्ति और ध्रौव्य थे तान Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारामना मायामा अवस्थायें संपूर्ण पदार्थोकी होती हैं. ऐसी यदि प्रक्रिया माने तो उत्पन्न हुए पर्यायका जो नाश उसकोही मरण कहना चाहिये. देवपना, मनुष्यपना, तिर्यचपना, और नारकपना इन पर्यायोंका नाश होना यह यहां मरण शब्दका वाच्यार्थ है. अथवा प्राणोंका त्याग बद्द मरण शब्दका अर्थ है. अत एव 'मुख् प्राणत्यागे' ऐसा मृ धातुका अर्थ धातुपाठमें है. उसी तरह प्राणोंको ग्रहण करना यह जन्म शब्दका अर्थ है. अर्थात् प्राण धारण करना यह जीवित है. प्रार्णा द्रव्यप्राण व भावप्राण ऐसे दो भेद है. स्पर्शनादिक पांच इंद्रिया, मनोचल, बचनबल और कायबल श्रासोच्छास और आय ऐसे दस भेद द्रव्य प्राणोंके है. ये द्रव्यप्राण पुद्गलात्मक हैं. ज्ञान, दर्शन, चारित्र ये भावनाण हैं. भावप्राणोंकी अपेक्षासे सिद्धांमें जीवित माना गया है. आयुष्यके दो भेद हैं पहिला भेद अद्धायु और दुसरा भेद भवायु, भवधारण करना बह भवायु है. शरीरको भव कहते हैं. इस शरीरको आत्मा आयु कर्मके उदयका साहाय्य प्राप्त करके धारण करता है. अतः शरीर धारण करनेमें असमर्थ ऐसे आयुकर्मको भवायु कहते है. इस विषयमें अन्य आचाय ऐसा कहते है, देहको भव कहते है. वह भय आयु कर्ममे धारण किया जाता है. अतः भवधारण करनेवाले आयु कर्मको भवायु ऐसा कहते हैं, आयु कमके उदयसे ही उसका जीवन स्थिर है. और जब प्रस्तुत आयु कर्ममे भिन्न अन्य आयु कर्मका उदय होता है नर यह जीव मरणावस्थाको प्रान होता है. मरण समयमें पूर्वायुका विनाश होता है. इस विषय में पूर्वाचार्य ऐसा कहते हैं अदायके विषय में विवेचन-अदा शब्दका काल एसा अर्थ है. और आय शब्दसे टव्यकी स्थिति सा अर्थ समझना चाहिये. द्रव्योंका जो स्थितिकाल उसको अडायु कहते है. द्रव्याथिक नयकी अपेक्षासे द्रव्योंका अद्धायु अनाद्यनिधन है अर्थात् द्रव्य अनादि कालसे चला आया है और वह अनंत कालतक अपने स्वरूपसे च्युत न होगा इसलिये उसको अनादि अनिधन भी कहते हैं, पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे जब विचार करते हैं तो अद्धायुके चार भेद होते है, वे इस प्रकार है-१ अनाद्यनिधन २ साधनिधन ३ सनिधन अनादि ४ सादि सनिधनता. चैतन्यादिकगुण, रूपादिकगुण, गविहेतुत्य, स्थितिहेतुत्व इत्यादि सामान्य धर्मापेक्षया द्रष्योंकी अनाध Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधासः निधन स्थिति है अर्थात उपर्युक्त धर्म द्रव्यों में अनादिकालसे विद्यमान हैं और इनका कभी भी नाश होता नहीं. अतः इनकी अनाद्यनिधन स्थिति विद्वानोंने मानी है, जीवमें भव्यत्वगुण, अनादिकालसे है परंतु मुक्तीके समयमें उसका नाश होता है अतः वह अनादि और सनिधन है. कोप, हर्षादिविकार सादि और सनिधन हैं, अर्थात् वे बार बार उत्पन्न होते हैं और नष्ट भी होते हैं. केवलज्ञानादिक गुण सादि हैं परंतु वे कभी नष्ट नहीं होते, अतएव चे सादि और अनिधन हैं. अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रय लेकर अद्धायुके चार भेद होते हैं, अद्धायुके आश्रयसे भवधारणरूप आयुका निरूपण होता है. आयुसंज्ञक जो कर्म है थे. पुद्गलद्रव्यस्वरूप ही हैं. अतः आइस्थिति द्रव्यस्थितिसे मिल नहीं है. अथण जीव जिसका अनुभव ले रहा है ऐसे आपसंबक पुद्गल आत्मासे नष्ट होना वही मरण है. अतः आयु:स्थितीसे द्रव्यस्थिती अत्यत भिम नहीं है. आयुकर्म भी पुद्धल द्रव्य है अतः आयुकी स्थितीको अद्धा काल-द्रव्यस्थिति ऐसा भी कह सकते हैं. आयुकर्म नष्ट होना यह मरण है ऐसा उपर कह चुके हैं. इस मरणके तीर्थकरोंने जिनवचनमें सतरह प्रकार कहे है. शंका--तीर्थकरोंने मरणके १७ प्रकार कहे हैं इतना कहनेसे भी अभिप्राय ध्यानमें आता है 'जिनवचनमें ' ऐसे अधिक शब्दकी क्या आवश्यकता थी? उत्तर-आपकी शंका टीक है. जिन शब्दका यहां गणधर ऐसा अर्थ समझना चाहिये. गाथामें च शब्द नहीं है तो भी उसके बिना भी समुच्चयार्थ माना जाता है. यहां ऐसा संबंध करना चाहिये, तीर्थकरीने मरणके सतरह प्रकार कहे हैं. और गणधरोंके वचनम अर्थात् उनके राचित सूत्रोंमें भी मरणके सतरह प्रकार कहे है. अतः दोनोंके वचन प्रमाण अर्थात शंकाके स्थान नहीं है । सतरह मरणों के नाम इस प्रकार हैं--१ आचीचिमरण २ तद्भवमरण ३ अवधिमरण ४ आदि अंतियमरण ५ बालमरण ६ पंडितमरण ७ ओसण्यामरण ८ बालपडित मरण १ मशल्यमरण १० बलाकामरण ११ बोसट्टमरण १२ विप्पाणसमरण १३ गिद्धपुट्ठमरण १४ भक्तप्रत्याख्यान मरण १७ केबलिमरण । आगमक अनसार इनका सक्षपस.पहा बर्णन करते ह. . .. .. . ... . ... . SHAHIslated Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलाराधना आश्वासः १ आवीचिमरण-वीचि शब्दका अर्थ 'तरंग' ऐसा होता है. तरंगके समान जो आयु कर्मका प्रतिसमय उदय आता है उसका भी.यहां वोचि शब्दसे आचार्य उल्लेख करते हैं, जैसे नदी समुद्र इत्यादिकोंमें निरंतर लहरें उछलती हैं वैसे आयु कर्म प्रतिसमय उदयमें आता है. अतएव उसके उदयको आवीधि कहते हैं. आयुका अनुभव लेना वह जीवित है. वह जीवित प्रति समयमें रहता है. प्रत्येक समयका जीवित नष्ट होना यह मरण है. अतः प्रति समयके भरणको भी यहां वीचि कहते हैं आयुफे अनंतर मरण भी प्रतिसमय होता रहता है अतः वह मरण 'आवीचि मरण' ऐसे नामसे प्रसिद्ध है, यह आवीचि मरण भव्य जीवोंके प्रति अनादि और सनिधन है. भव्यको जप मोक्षपासि होती है तब यह मरण नष्ट हो जाता है अतः इसको सनिधन कहते हैं, मोक्षके पूर्वम भन्यको हमेशा मरण था इसकी अपेक्षासे उसे अनादि भी कहते हैं. अतः यह मरण भव्योंकी अपेक्षासे अनादि सनिधन है. शंका-सिद्धाको ही मरण नहीं है उनके जन्म मरणका नाश हो चुका है परंतु सिद्धसे व्यतिरिक्त जीयोंको हमेशा मरण है ही. सिद्ध जीवको भब्ध भी नहीं कहना चाहिये । जिनको भविष्य कालमें सिद्धत्व पर्याय प्राप्त होगा उनकोही अन्य कहते हैं. सिद्धोंकोचो सिद्धत्व पर्याय मिल चुका है अतः उनको भव्य कहना योग्य नहीं है, सिद्धोंकी अपेक्षासे ही आबीचि मरण अनादि सनिधन है. भन्योंकी अपेक्षासे वह अनादि और सनिधन ही समझना चाहिये. उत्तर- भरियाणमणादियं मरणं आपीचिगं सणिणं च' अर्थात् भव्योंका आवीचि मरण अनादि और सनिधन है ऐसा आगममें कहा है. जिसने भच्यत्वपर्याय प्राप्त किया था वहीं यह द्रव्य है ऐसी अपेक्षासे भव्योंका मरण अनादि सनिधन है ऐसा कह सकते हैं. अर्थात् सिद्धोंको भी भूतपूर्व नयकी अपेक्षासे भत्र्य कहते हैं. अभव्योंकी अपेक्षासे यह आवीचि मरण अनादि अनिधन है, अर्थात प्रतिसमय उनको आयुका उदय रहता ही है. भयकी अपेथाले अथवा क्षेत्रकी अपेक्षासे यह मरण सादि कहते है. आयु शर्मा के चार भेद है। उसमें यद्यपि प्रत्येक गतिमें दो. आयुकी सत्ता रहती है तो भी एकही आयुका उदय रहता है अर्थात् जिस गतिमें यह प्राणी उत्पन्न होता है उस गतिके अनुकूल आयुकाही उदय होता है. । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आधासः परंतु दो आयु कर्म एक साथ रह सकते हैं. तिर्यंचायु और मनुष्यायुके साथ सर्व आयुष्यकी सत्ता रहती है. अर्थात तिथंच जीवको देवायु, नरकायु, मनुष्यायु, नियंचायु ऐसे आयुमेंसे कोई भी आयुका बंध हो सकता है इस लिये सर्व आयुकी सत्ता रहती है ऐसा आचार्य कहते हैं. इसी तरह मनुष्यायुके साथ भी सव आयुकी सत्ता रहती है. देव आयु और नारकायुके साथ तिथंचायु और मनुष्यायु की ही सत्ता रह सकती है. अतएव देव नारकी नहीं होता और नारकी मरकर देव नहीं होता. देव मरकर तिर्यच अथवा मनुष्य ही होगा. नारकी भी मरकर तिर्यच अथवा मनुष्यगतीमें ही उत्पन्न होगा. शंका-दो आयुष्यों की एक समयमें रूसा रहती है १६ हम मानत है परंतु एकदम दो आयुओंका | उदय होता है क्या? उत्तर---जिस आयुकी प्रकृति और स्थिति अनुभवमें आ रही है उसके उपर इतर आयुके निषेक | रहते है, अर्थात पूर्वायूकी प्रकृति और. स्थिती पूर्ण अनुभवमें आकर समाप्त होनेपर नंतर दुसरे आयुका उदय होता है. अतः एकदम दो आयुष्योंका उदय होता नहीं. आपके प्रश्नका उत्तर अन्य प्रकारसे भी दे सकते हैं एक जीवको युगपत् दो भव अथवा दो गतिओंका संभव नहीं है. भव और गति की अपेक्षासे आएका उदय होता रहता है. इनकी अपेक्षाका उल्लंघन कर आयुका कभी उदय होता नहीं ऐसा नियम है. एक आत्मामें एक ही आयु कर्म की प्रकृती का उदय एक भवमें आता है. इसलिये एक एक आयु की प्रकृति गलित होनेसे आरमा मरणावस्थाको प्राप्त होता है. इसको प्रकृतिमरण कहते हैं. भवको धारण करने में कारण ऐसे पुद्गलोंमें स्निग्धता रहती है अतः ये पुदल आत्माके प्रदेशोंमें संबद्ध होकर रहते हैं. उसको स्थिति कहते हैं. आत्मामें कपाय परिणाम है. वह पुनलॉमें स्निग्धता लानेमें सहकारि कारण है. स्निग्धताका उपादान कारण तो वे पुद्गल ही है परंतु कपाय न हो तो पुद्गलकी स्निग्धता व्यक्त होती नहीं अतः उसकी व्यक्तीमें कपाय महकारी कारण माने गये हैं. यह पुद्गल द्रव्यकी स्थिति एक समयसे लेकर बढती है. देशोन तेतीस सागरोंके जितने समय होते हैं उतने भेदवाली जो स्थिति हैं उसको उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं, अंतमहत परिमाणवाली स्थिति जघन्य स्थिति है, इन स्थितिओंकी तरंगोंके समान अमरचना है, इनका Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ९६ क्रमसे नाश होनेसे आत्माको स्थित्याची चिक मरण की प्राप्ति होती है. . अनुभवावीचिमरणका स्वरूप-कर्म पुद्गलोका जो रस अनुभव मे आता है उसको अनुभव कहते है, यह अनुभव कर्मपुङ्गलोंके परमाणुओंमें छह प्रकार की हानि रूपतासे तथा छह प्रकारकी वृद्धिरूपतासे हीन होता और बढ़ता है, क्रमसे रहे हुए इस अनुभव का तरंगों के समान क्रमसे नाश होता है. इसको अनुभवावीचिक मरण कहते हैं. प्रदेशवीच मरणका स्वरूप - आयुसंज्ञक पुलोंके प्रदेश जघन्य निषेकसे प्रारंभ करके एक दो तीन इत्यादि वृद्धिक्रमसे तरंगके समान नष्ट हो जाते हैं उसको प्रदेशावीचिक मरण कहते हैं. इस तरह आवीचिकामरण का विवेचन हुआ । २ तद्भव मरणका स्वरूप पूर्वभवका नाश होकर उत्तर भक्की प्राप्ति होना वह मरण है यमर इस जीवने अनंत बार प्राप्त किया है. यह मरण इस जावको दुर्लभ नहीं है. ३ अमिरका स्वरूप जी प्राणी जिस तरहका मरण वर्तमानकाल में प्राप्त करता है, वैसा ही मरण यदि आगे भी उसको प्राप्त होगा तो ऐसे मरणको अवधिमरण कहते हैं। इस मरणके देशाविमरण और ऐसे दो भेद हैं. सर्वाधिमरणका स्वरूप- प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेशों सहित जो आयु वर्तमानसमय में जैसी उदयमें आती है वैसी ही आयु फिर प्रकृत्यादि विशिष्ट बंधकर यदि उदयमें आवेगी तो उसको सर्वाधि मरण कहते हैं । देशाधिमरणका स्वरूप- जो आयु वर्तमानकाल में प्रकृत्यादि विशिष्ट होकर जैसी उदयमें आती है. वैसी ही आयु यदि किसी अंश सहश होकर बंधेगी और आगे के कालमें - भविष्यकालमें उदयमें आवेगी तो उसको देशावधिमरण कहते हैं. अभिप्राय यह है कि कुछ अंशमें अथवा पूर्णरूपसे साहस्य जिसमें पाया जाता है ऐसा अवधिसे विशिष्ट अर्थात् जिसमें पूर्ण साहश्य मर्यादित हुआ है अथवा जिसमें कुछ हिस्से में सादृश्यकी मर्यादा है और कुछ हिस्से में नहीं ऐसे मरण को अवधिमरण कहते हैं। आर्थतमरण — धर्तमानकालमें जैसा मरण जीवको प्राप्त हुवा है वैसा अर्थात् सदृशमरण आगे प्राप्त न होना उसको आद्यन्तमरण कहते हैं. यहां आदि शब्दसे वर्तमानकालीन प्रथम मरण ऐसा अर्थ समझना चाहिये । आश्वास १ ९६ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . -- मूलारापना आधासः ऐसे मरणका उत्तर मरणमें नाश होना उसको आद्यतमरण कहते हैं. प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेशांसे युक्त ऐसे आयुका नाश होनेसे वर्तमानकालमें जैसा मरण प्राप्त हुआ है ऐसा ही सदृश मरण आगे जीवको यदि प्राप्त न होगा तो उसको आधतमरण कहते हैं। . ५ वालमरणका स्वरूप-बालका-अर्थात् अज्ञानी जीचका जो मरण उसको बालमरण कहते हैं. पालजीवके पांच भेद हैं. उनके नाम यथा-अन्यक्तयाल, व्यवहारबाल, ज्ञानबाल, दर्शनबाल और चारित्रवाल, अव्यक्तबाल-अव्यक्त शब्दका अर्थ छोटा लडका ऐसा होता है. अर्थात जो धर्म, अर्थ, काम और मो. क्षका स्वरूप जानता नहीं और इन चार पुरुषार्थोंका आचरण करनेमें जिसका शरीर असमर्थ है ऐसे बालकको व्यवहार चाल-लोकव्यवहार, वेदका ज्ञान, शास्त्रज्ञान, जिसको नहीं है वह व्यवहार बाल है. दर्शन चाल-तत्वार्थ श्रद्धान जिनको बिलकुल नहीं हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव दर्शन चाल है. ज्ञान बाल-जीवादि पदार्थोंका यथार्थ शान जिनको नहीं है वे ज्ञान बाल है. चारित्र बाल--चारित्रहीन प्राणीको चारित्र बाल कहते हैं. ऐसे पांच बालोंका जो मरण उसको बाल मरण कहते हैं. ऐसे बाल मरण अनंतवार भूतकालमें इस जीवने प्राप्त किये हैं. अनंत जीव इस मरणको प्राप्त होते हैं. यहां दर्शनबालका प्रकरण ही प्रस्तुत है. इतर बालोंका विवेचन करनेकी यहां आवश्यकता नहीं है, सम्यग्दृष्टीमें इतर बालकत्वका सद्भाव है तो भी सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होनेसे वह दर्शनपंडित कहा जाता है. अतः सम्यग्दर्शन सहित उसका मरण होनेसे उसके मरणको पंडित मरण ही कहते हैं. दर्शनवालके मरणके संक्षेपसे दो भेद है. इच्छाप्रवृत्त और अनिच्छाप्रवृत्त. इच्छाप्रवृत्त मरण--अग्नीसे, धूमसे, शस्त्र के द्वारा, विषसे, पानीसे, पर्वतपरसे कूदनेसे, श्वासोच्छ्रास रोकनेसे, अति शीतोष्णके पहनेसे भूक और प्याससे, जिव्हाको उखाइनेसे, प्रकृति के विरुद्ध ऐसे आहारका सेवन करनेसे, इत्यादि कारणासें जीवनका त्याग करनेकी इच्छासें जो प्राण त्याग करते हैं वे इच्छाप्रवृत्त भरण करनेवाले दर्शन बाल है. योग्य कालमें अथया अकालमें ही मरनेका अभिप्राय धारण न करते हुए भी दर्शन पालाको जो मरण आता है वह अनिच्छाप्रवृत्त मरण है. जीनकी इच्छा होते हुए भी जो मरण आता है वह Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधासः ४ मृलागना अनिच्छा प्रवृत्त मरण है. जो दुर्गतिको जानेवाले हैं, जिनका चित्त विपयोंमें आसक्त हुवा है, जिनके हृदयमें अज्ञानांधकार छाया हुवा है. जो ऋद्धिमें आसक्त हुवे हैं, रसोंमें आसक्त हुवे हैं, और सुखका अभिमान रखते है अर्थात् मैं बड़ा सुखी हूं, मेरेको ही अच्छे अच्छे पदार्थ खानेको मिलते हैं, और मैं बडा श्रीमंत था इत्यादिक रूप तीन गारवोंसे जो युक्त हैं ऐसे जीव ऊपर कहे हुए बाल मरणसे मरते हैं. इन बालमरणोंसे बहुत तीव्र पाप कर्मके आस्रव जीवमें आते हैं, ये बालमरण जरा, मरण वगैरह संकटोंमें जीवाको फेकते हैं. पंडित मरणका कथन करते है १व्यवहार पंडित २ सम्यक्त्व पंडित ३ सम्यग्ज्ञान पंडित ४ चारित्र पंडित एसे पंदितके चार भेद है. लोक, येद, समय इनके व्यवहारों में जो निपुण हैं वे व्यवहार पंदित हैं. अथवा जो अनेक शाखोंके जानकार हैं, शुश्रूषा, श्रवण, धारणादि बुद्धिके गुणोंसे जो युक्त हैं उनको व्यवहार पंडित कहते हैं. दर्शन पंडित-जिनको क्षायिक सम्यग्दर्शन, अथचा औपशमिक सम्यग्दर्शन या क्षायोपशामिक सम्यग्द- र्शन हैं वे जीव दर्शन पंडित हैं। झामपंडित-मल्यादि पाच प्रकारक सम्यग्नानसे जो परिणत है उनको ज्ञानपडित कहते हैं। चारित्र पंडित–सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसापराय, यथाख्यात ऐसे चारित्रके पनि भेद है, उनमेंसे किसी एक चारित्रके धारक जो है उनको चारित्रपंडित कहते हैं. यहां ज्ञानपंडित और चारित्र पंडितोंका ही ग्रहण करना चाहिये क्योंकि व्यवहारपडित मिथ्यादृष्टि होता है इसलिये उसका मरण बालमरणमें समाविष्ट होता है. और ज्ञानादिपडितोंका मरण पंडितमराममें अन्तर्भूत होता है ऐसा समझना चाहिये. नरकमें, भवनवासिदेवोंके स्थानों में, स्वर्गवासिदेवोंके तथा ज्योतिर्वासिदेबाक विमानों में व्यंतरोंके निवास स्थानोम, द्वीप और समुद्रों में दर्शनपंडितका मरण होता है. ज्ञानपंडितोंका मरण भी उपर्युक्त स्थानों में होता है परंतु जिनको मनःपर्यय प्राप्त हुआ है ऐसे ज्ञानपंडित और जिनको केवलज्ञान हुआ है ऐसे ज्ञानपंडित इनका मनुष्य लोकमें ही मरण होता है। अवसनमरणका वर्णन-रत्ननथमार्गमें विहार करनेवाले मुनिओंका संघ जिसने छोड दिया है एसे सुन्निको PORAILateratu8458antraute SHARMATNTSTORE Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना । आधामः अवसम्म कहते हैं और उसके मरणको अवसनमरण कहते हैं. अपसन्न शब्दसे पार्श्वस्थ, स्वच्छद, कुशील और संसक्त ऐसे भ्रष्ट मुनिओका भी ग्रहण होता है. इनका वर्णन पार्श्वस्थ, स्वच्छंद, कुशील, संसक्त और अवसन ये पांच प्रकारके मुनि रत्नत्रयमार्गमें विहार करनेवाले मुनिओंका त्याग करते हैं. अर्थात् स्वच्छंदसे चलते हैं. ये मुनि ऋद्धीमें आसक्त होते हैं, रमोंमें आसक्ति रखते हैं. दुःखमे डरते हैं, हमेशा सुखको चाहते हैं, कषायोमें परिणत होकर आहारादि संज्ञाके आधीन रहते हैं. जिससे पाप उत्पन्न होना है ऐसे कुशास्रोंका अभ्यास करते हैं. ३ गुप्ति ५ समिनि और ५ महावत ऐसे तरह प्रकारकी क्रियाओंमें आलमी रहते हैं. इनके परिणामोमें हमेशा संक्लेश रहा करता है, आहारके पदार्थ और पिछी, कमंडल्वादिक उपकरणोंमें इनका चित्त आसक्त होता है. निमित्त शास्त्र, मंत्र शास्त्र, औषध इनका कथन कर ये उपजीविका करते है. गृहस्थोंका वैयावृत्य करते हैं. उत्तरगुणोंसे रहित होते हैं. गुप्ति और समितिमें इन की तत्परता नहीं रहती है. इनका मन संसार दुःखोंसे भययुक्त होता नहीं हैं. उत्तम क्षमादिक दशधोंमें ये प्रेम नहीं करते हैं. इनके चारित्रमें दोष लगने हैं. ऐसे मुनिको अबसन्न कहते हैं. ये मुनि मरकर हजारों भवमें भ्रमण करते हुवे दुःखोंको वारंवार भोगते हैं. यदि पार्श्वस्थरूपसे चिरकाल बिहार कर अंतमें उन्होंने अपनी शुद्धि की होगी तो वे प्रशनमरणको प्राप्त होते हैं, जो सम्यग्दृष्टि होकर संयमासयम अर्थात अणुव्रत धारण करता है वह श्रावक बाल पंडित कहा जाता है. उसके भरण का नाम बाल पंडित मरण ऐसा है. यह श्रावक बाल और पंडितत्व ऐसे दोनों भावोसे युक्त होनेसे इसको चाल पंडित कहते है. स्थूल हिंसादिक पंच पापोंका त्याग इसने किया है, तथा सम्बग्दर्शन का धारक भी है. अतः यह चारित्र पंडित और दर्शन पंडित है. परंतु सूक्ष्म असंयमसे निवृत्त नहीं है, सूक्ष्म हिंसादि पापोंका त्यागी न होनेसे इसमें चालत्व भी है अतः इसको थालपंडित कहना अन्वर्थ है, यह बाल पंडित भरण गर्भजपर्याप्त ऐसे पिच और मनुष्योंमें होता है. देव और नारकी जीवों में नहीं होता. क्योंकि वे केवल दर्शन पंडित ही है. दर्शनपंडितमरण उपर्युक्त तिच, मनुष्य, देव और नारकी जीव इनमें होता है. सल्यमरणके दो भेद हैं क्योंकि शल्यके द्रव्यशल्य और भावशल्य ऐसे दो भेद माने हैं. मिथ्यादर्शन माया, निदान ऐसे तीन शल्योंकी जिनसे उत्पत्ति होती हैं ऐसे कारणभूत कर्मको द्रव्यशल्य कहते हैं, इनके Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः उदयसे जविमें जो मायारूप, निदानरूप और मिथ्यात्वरूप परिणाम होते हैं वे भावशल्य हैं, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति इन पांच स्थावरोंके मरणको द्रव्यशल्यमरण कहते हैं. असंक्षि ऐसे त्रस जीव भी इसी मरणसे मरते हैं.. शंका-द्रव्यशल्य पर्व त्रस म्यावर प्राणिआम है ही। तो स्त्रावरांम हो यह है ऐसा आप कहते हैं यह योग्य नहीं है, उत्तर-भावशल्यसे रहित कंवल द्रव्यशल्यकी अपेक्षासे हमने ऐसा कहा है. सम्यक्त्यमे दोनशल्यसे अतिचार उत्पन्न होते हैं. मम्यग्दर्शन स्थावर जीवों में और विकलेन्द्रियों में नहीं उत्पन्न होता है. मेरेको भविष्यकालमें ऐसी ऐसी वस्तु मिलनी चाहिये ऐसा मनका संकल्प होना उसको निदान कहते है. यह असंज्ञिजीवोंमें मन न होनेसे नहीं होता है.. रत्नत्रयमार्गको क्षण लगाना, मार्गका नाश करना, मिथ्यामार्गका निरूपण करना, रत्नत्रयमार्गमें चलनेवाले लोगोंका बुद्धिभेद करना ये सब मिथ्यादर्शनशल्यके प्रकार है, निदानके प्रशस्त, अप्रशस्त और भोगकृत ऐसे तीन भेद है, परिपूर्ण संयमकी आराधना करनेकी इच्छासे जन्मांतरमें मेरको पुरुषत्व प्राप्त हो, उत्तम कुल, उत्तम दृढ शुगर इत्यादि सामग्री प्राप्त हो ऐसी प्रार्थना करना प्रशस्तनिदान है, कषायसे प्रेरित होकर आगेके जन्ममें कुलरूपादिकोंकी प्रार्थना करना अप्रशस्तनिदान है. अथवा क्रोघांध होकर अपने शत्रको मैं उत्तर भवमें मार सकूँ ऐसी इच्छा रखना जैसे बशिष्ठमुनीने उग्रसेन राजाका नाश करनेकी इच्छा की थी, वह वशिष्ठमुनि मरकर केस हुवा था. उसने अपने पिताका राज्य छीन लिया था और उसको कारागृहमें कैद किया था. यह अप्रशस्तनिदानका उदाहरण है. भोग निदान-इस लोक तथा परलोकमें-स्वगादिकमें मरेको अच्छे २ भोग इस व्रताचरणसे मिलने चाहिये ऐसा मनमें संकल्प करना वह भोगनिदान है, यह भोगनिदान असंयतसम्यग्दृष्टि ब संयतासंयत अर्थात् श्रावकको होता है, ये जीव भोगनिदानसे मरते है. इसको भोगनिदान मरण कहते हैं. मायाशल्यमरण-पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त वगैरे भ्रष्ट मुनीके रूपसे चिरकाल तक बिहार करके जा मुनि मरणसमयमें भी दोषोंकी आलोचना किये बिना ही मरते हैं उनका वह मरण मायाशत्यमरण समझना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूलाराधना आश्वासः चाहिये. यह मायाशल्यमरण मुनि, श्रावक, और असंयतसम्यग्दृष्टिको प्राप्त होता है. चलाय मरण-बलाका भरण-देववंदनादिक नित्यनैमिात्तिक क्रिया करनेमें अलसी-प्रमादयुक्त, विनय, वैयावृत्य वगैरे कार्योंमें आदरभाव न रखनेवाला, व्रत, समिति और गुप्ति इनके पालनमें अपनी शक्ति छिपाने वाला, धर्मके स्वरूपका विचार करनेके समय मानो नींद लेनेवाला, और ध्यान, नमस्कारादिसे दूर भागनेवाला ऐसे मुनीके मरणको बलाकामरण कहते हैं, उपयुक्त कार्योंमें अनुपयुक्त रहनेवाले मुनि इस मरणसे मरते हैं. सम्यक्त्वपंडित, ज्ञानपंडित, चारित्रपटित ऐसे लोक इस मरणसे मरते हैं. इनके सिवाय अन्य भी इस मरणसे मरते हैं. अवसनमरण और मशल्यमरणका स्वरूप पीछे कह चुके हैं उसमें नियमसे पलाय मग्ण होता है.. ओसमरण-जिसने शल्यरहित और संसार नुस्खसे भयभीत होकर चिरकाल रत्नत्रयका पालन किया है, जिसने ममाधिमग्णके लिये मंस्तरका आश्रय लिया है. ऐसा मुनि यदि शुभोपयोगको छोड दे नो शुभभाव उसमें नहीं रह सकेगा उसको आसध्यान और रौद्रध्यान घेर लेगा. ऐसी अवस्थामें पुनकिा यदि मरण होगा तो उसको सट्टमरण कहते हैं. इस मरणके १ इंदियवसट्टमरण २ वेदनावसहमरण, ३ कसायवसट्ट भरण ४ नोकषायचसट्टमरण ऐसे चार भेद है. इंदियवसदृमरण-स्पर्शनादिक पांच इंद्रियोंके स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द ऐसे पांच विषय है, इन विषयोंकी अपेक्षासे इस मरणके पांच भेद होते है. जैसे-स्पर्शनेंद्रियवसट्टमरण, रसनेंद्रियवसहमरण इत्यादि. देव, मनुष्य, तिर्यच, और अजीच पदार्थ इनके द्वारा किये गये तत, वितत, घन, और सुषिरशब्दोंमें-यदि ये मनोहर हो तो उनमें आसक्त होकर, अमनोहर हो तो उनमें देषयुक्त होकर जो मरण होता है उसको श्रोत्रंद्रियवसहमरण कहते हैं. अब, पान, खाद्य और लेह्य ऐसे चार प्रकारके सुंदर और असुंदर आहारमें क्रमसे आसक्त और द्वेष युक्त होकर मरना यह रसनेंद्रिय वसट्टमरण है. पूर्वोक्त देव, मनुष्य, तिर्यच और अजीव पदार्थ इनके गंधर्म आसक्त या द्वेषयुक्त होकर मरना यह घ्राणेंद्रियवसट्टमरण है. उपर्युक्तपदार्थोंके रूप में या आकृतमि आसक्त अथवा द्वेषयुक्त होकर मरना नेत्रंद्रिय बसट्ट मरण है. इनही पदार्थोंके पॉम आसक्त या विष्ट होकर भरना स्पर्शनेंद्रिय यस मरण है. इन सब मरणाका इंद्रियानिद्रिय वसट्ट भरण ऐसे एक नामसे उल्लेख करते हैं, बेदनावसट्ट मरण---इस मरणके सातवेदनावशात मरण और असातवेदनावशात मरण ऐसे दो भेद हैं, Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AARA मूलाराधना आश्वासः शारीरिक और मानसिक रेवनारी भीतिर होकर अर्थात् उनमें एकाग्रचित्त होकर, दुःखसे मूर्छित होकर जो मरण होता है वह असातवेदनावशात मरण है, शारीरिक और मानसिक सुखोंमें अनुरक्त होकर जो आर्त ध्यानसे मरण होता है वह मातवेदनावशात मरण है. कपायत्रशात मरणकषायके चार भेद होनेसे इस मरणके भी चार भेद होते हैं. स्वतःमें, दूसरे अथवा उभयत्र उत्पन्न हुवा जो क्रोध मरणको कारण हो जाता है वह क्रोधकषायवशात मरण है. मानवशात मरण-इसके आठ भेद है. कुल, रूप, चल, शास्त्रज्ञान, ऐश्वर्य, लाभ, प्रज्ञा-बुद्धि ब तप इन उत्पन्न हुए अभिमानके नशेमे मरण होना मानवशात मरण है. १ विख्यात, विशाल और उत्कर्षको प्राप्त हुए कुलमें उत्पन्न हुवा हूं ऐसे अभिमानसे जो भरण होता है वह कुलमानवशात मरण है. २ मेरी पांचो इंद्रियां नियंग हैं, मेरा शरीर संपूर्ण अवयवोसे युक्त है, मैं तेजखी है, नवीन यौवनसे मेरा शरीर युक्त है, मेरा सौंदर्य समस्त लोकोंके अंतःकरणको हर लेता है ऐसी भावनामें जो मरण होता है वह रूपमानवशात मरण है. ३ मै वृक्ष और पर्वतोंको भी उखाडनेमें समर्थ ई, बडे बडे योद्धा मेरे आश्रयमें रहते हैं, बहुतसे मित्र भी मेरेको सहाय प्रदान करते हैं. ऐसा खकीय बलका अमिमान करते करते मरण होना बह बलाभिमानवशात मरण है. मैं बडे परिवारका मालिक हूं, बहुत लोगोंपर मेरी हुकमत चलती है ऐसे ऐश्वर्यके मानसे उन्मत्त होकर जो मरण होता है वह ऐश्वयमानवशात मरण हे. ५ मैने लोक व्यवहार, वेद, अनेक मत इनके सिद्धान्त शास्त्रोका अध्ययन किया है ऐसे शास्त्रज्ञानके अभिमानमें चूर होकर मरण करना यह श्रुतमानवशात मरण है. ६ मेरी बुद्धि तीक्ष्ण है, सर्व विषयों में बिना रुकावटके प्रवेश करती है ऐसे बुद्धयभिमानके वशमें आकर भरण होना वह प्रज्ञामानवशात मरण है. ७ व्यापारमें मेरेको हमेशा लामही होता है ऐसा लाभके अभिमानमें मत्त होकर जो मरण होता है वह लाभमानक्शात मरण है. ८ मै तप करता हूं, मेरे समान तप करनेवाला कोई नहीं है ऐसे अभिमानमें आकर Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आयासः - - जो मरण होता है वह तपोमानवशात मरण है. मायाके पांच प्रकार है. निकृति, उपधि, साति प्रयोग, मणिधि और प्रतिकुंचन. १ धनके विषय में अथवा किसी कार्यके विषयमें जिसको अभिलाषा उत्पन्न हुई है ऐसे मनुष्यका जो फसानेका चातुर्य उसको निकृति कहते हैं २ अच्छे परिणामको ढककर धर्मके निमित्तसे चोरी वगैरे दोषों में प्रवृत्ति करना वह उपधिसंज्ञक माया है. ३ धनके विषयमें असत्य बोलना, अपने हाथमें किसीने रखनेकेलिये द्रव्य दिया हो तो उसका कुछ हिस्सा हरण करना, दृषण लगाना, अथवा प्रशंसा करना वह सातिप्रयोग माया है. ४ हीनाधिक कीमतकी सदृश वस्तुयें आपसमें मिलाना तोर और मापके शेर पोती वगैरह साधन पदार्थ कम जादा रखकर लेन देन करना, सच्चे और झूटे पदार्थ आपसमें मिलाना, यह सब प्राणिधि माया कहते हैं. ५ आलोचना करते समय अपने दोष छिपाना यह प्रतिकुंचन माया है. ऐसे मायाके प्रकार करते हुए जो मरण होता है उसको मायावशार्तमरण कहते हैं, उपकरण पिछी, कमंडलु आदिक, भक्तपान-आहारके और पीनेके पदार्थ, शरीर, निवासस्थान इत्यादिकोमें इच्छा-ममस्य रखते हुए जो मरण होता है वह लोभवशार्तमरण कहते हैं. हास्य, रनि, अरति, शोक, भय, जुगुप्मा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद इनमे जिसकी बुद्धि मृद हो गई है ऐसे मनुष्यका जो मरण वह नोकषायवशात मरण है. जो प्राणी वशार्तमरण को प्राप्त होते हैं वे मनुष्य और तिर्यचोंमें जन्म धारण करते हैं. तथा असुर, कंदर्पजातिके देव, किल्विष देव इनमें वसातभरणसे मिथ्यारष्टि जीव उत्पन्न होते हैं. इनके इस मरणको बालमरणमें अन्तर्भूत कर सकते हैं. दर्शन पंडित भी, अविरत सम्यग्दृष्टि, और संयतासंयत जीव भी चशातमरणको प्राप्त होते हैं. उनका यह मरण बालपंडित मरण अथवा दर्शन पंडित भरण समझना चाहिये विप्राणसमरण और गृद्धपृष्ठ ऐसे नाम जिनके हैं ऐसे दो मरणोका शास्त्राम निषेध नहीं है और इनकी अनुज्ञा भी नहीं है. दृष्कालमें, अथवा दुर्लध्य ऐसे जंगलमें, पूर्वकालके शत्रुका भय उपस्थित दुवा हो ऐसे समयमें, दुष्ट राजासे भीति उत्पन्न हुई हो, चोरसे भय उत्पम दुवा हो, तिर्यचका उपसर्ग हो रहा हो, एकाकी स्वयं सहन करने में असमर्थ होनेसे, ब्रम्हवतका नाश वगैरेके द्वारा चारित्रमें दोप लगनेका प्रसंग आया हो तो संसारभीरू, SON Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वासः १०४ पापोंसे डरनेवाला, कर्मका उदय इस समय उपस्थित हुवा है ऐसा जानकर उसको सहन करने में असमर्थ होता है,ऐसे संकटोंसे पार पडने का उपाय उसको नहीं दीखता है तो भी पापकार्यसे वह डरता है, आत्माका घात करनेवाले मरणोंसे भययुक्त होता है. उपर्युक्त कारण उपस्थित हो जानेयर अब मेरा कुशल होगा क्या ऐसा वह मनमें विचार करता है-यदि मैं इस उपसर्गके भयमे पीडित हो जाउं तो मेरा संयम नष्ट होगा और मेरा सम्यग्दर्शन भी नष्ट होगा. इस उपसर्गसे जो वेदना हो रही है वह सहन करते समय परिणामोंमे संक्लेश होगा ही. अब मेरी रत्नत्रयाराधना नष्ट होगीन टिकेगी ऐसा जब उमको निश्चय होता हैं उस समय निष्कपट होकर चारित्र और दर्शनमें विशुद्धता धारण कर धैर्ययुक्त होता है. ज्ञानहा सहाय लेकर निदानरहित होता है, अर्हन्तके समीप आलोचना कर के विशुद्ध होता है. निर्मल लेण्याधारी वह पुरूष अपने श्वासोछासका निरोध करता हुवा प्राण त्याग करता है. ऐसे मरणको विप्राणस मरण कहते हैं, उपयुक्त कारण उपस्थित होनेपर शस्त्रग्रहण करके जो प्राणत्याग किया जाता है वह मृद्धपृष्ठ मरण है. इस तरह मरणके जितने विकल्प संभनीय थे वे कहे हैं, ऐसे मरयाँस प्राणी प्राणत्याग करते हैं. प्रायोपगमन मरण, इंगिनी मरण, और भक्तप्रत्याख्यान मरण ऐसे तीन मरणही उत्तम है. पूर्व कालीन महापुरुषोंने इनकी ही प्रवृत्ति चलायी है. हमने संक्षेपसे आगमका अनुसरण करके सतरा प्रकारके मरणका विवेचन किया है. - Wione - पतषु सप्तदशसु पंच मरणानि इह संक्षेपतो निरूपयिष्यामीति प्रतिशानेन कृता । कानि नानि पंच मरणाति इत्याशंकायां नामनिर्देशार्थ गाथामाह पंडिदपंडिदमरणं पंडिदयं बालपंडिदं चेव ।। बालमरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च ॥ २६ ॥ पंडितं पंडितादिस्थ पंडितं बालपंडितम् ॥ चतुर्थ मरणं यालं बालयालं च पंचमम् ॥ २१ ।। - Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १०५ एक विजयोदया - पंडितपंडितमरणमित्यादि । ननु भवपर्यायप्रयो मरणं यदि गृह्यते तस्य को मेदो भवपर्यायस्य अपात् मरणं तद्विनाशः कथं न भिद्यते इति । मनुष्ये पंचमकारतानुपपन्ना अनंतत्यात् । जीगतस्यापि पर्यायस्य नानाजीवांपेक्षार्या कोऽवसरः पंचत्यस्य । प्राणिनः प्राणेभ्यो वियोगो मरणं इति तदेकविधमेष सामान्यतः । प्राणभेदापेक्षयेति नेहशप्रकारतापद्यते । उदयप्राप्तकर्मपुङ्गलगलनं मरणं इति यदि गृह्यते प्रतिसमयं गलनाथ पंचता । गुणभेदापेक्षया जीवान्पंचधा व्यवस्थाप्य तत्संबंधेन पंचविधं मरणमुच्यते । अध्यातरी मलाई ईषत्प्रशस्तं अविशिएं, अविशिष्टतरं हति पंडितपंडितमरणादीनि केचिद्याचक्षते । पंडितशब्दः प्रशस्तमित्यस्मिन्नर्थे च प्रयुक्तो दृशे येनैवं व्याख्यायते ? किंच आगमांतरा ननुगतं वेदं व्याख्यानं 1 नवहारे सम्मत्ते पाणे चरणे य पंडिदस्स तदा । पंडिदमरणं भणिदं दुविधं तम्भवति द्विति ॥ इति वा चतुःप्रकाराः पंडिता उपदर्शिताः । तेषां मध्ये अतिशयितं पांडित्यं यस्य ज्ञानदर्शनचारित्रेषु स पंडितपंडित इत्युच्यते । एतत्पांडित्यप्रकर्षरहितं पांडित्यं यस्य स पंडित उच्यते । व्याख्यातं वाय॑ पांडित्यं च यस्य स भवति बालपंडितः तस्य मरणं बालपंडितमरण । यस्मिन्न संभवति पांडित्यं चतुर्णामप्येकं असी दालः । सर्वतो म्यूनो बालबालः तस्य मरण बालबालमरणं । कानि तानि पंचमरणानीत्यनुयोगे गुणभवापेक्षया जीवान्पंचधा व्यवस्थाप्य तत्संबंधेन मरणपंचकनिर्देशार्थमाहमूलारा--- पंडिदपंडिवमरणं - सवपर्यायविनाशः । निरुक्तिगम्यत्वाच्वैषां लक्षणस्थावचनम् । तथादि---- सुतचे सम्म वा णाणे चरणे य पंडिवं जम्हा ॥ पंडिदमरणं भणिदं चविहं तन्निहिं जर ॥ एवंविधचतुर्विधपंण्डितानां मध्ये अतिशयित पांडित्यं यस्य ज्ञानदर्शनचारित्रतपस्सु स पंडित: संपूर्णक्षायिकज्ञानादिरित्यर्थः । ततोऽन्यः पंडितः प्रमत्तसंयवादिः । पंडा हि रत्नत्रयपरिणता बुद्धिः संजाता अस्येति पंडित: । अत एव संयतासंयतो बालपंडित इत्युच्यते । कुतश्चिदसूक्ष्मादसंयमादनिवृतित्वाद्वालस्ततोऽन्यत्र रत्नत्रये परिणतबुद्धित्याच पंडित, घाउञ्चासौ पंडितश्च बालपंडितः । यतश्च सर्वत्रासं यतोऽसयतसम्यग्दृष्टिस्ततो यथोक्तपांडित्यधियुक्तत्वाद्वाल इत्युच्यते । दर्शनज्ञानद्वये सत्यपि सर्वथा चारित्ररहितत्वाम् । अत एव मिध्यादृष्टिबोलबाल इत्युच्यते सम्यक्त्वस्याप्यभावेन प्राप्तबाल्वार्तिशयत्वात् । पंडिदं पंडितभरणं संज्ञकदेशेनापि तद्व्यवहारदर्शनात् भीमादिवत् एवमुचरत्रापि बोध्यं । Y अश्वासः १ १०५ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास: सत्राद्यानि त्रीणि मरणानि सुगतिगमननियवानिमित्तस्वाग्जिना स्तुवन्ति नेतरवयं तद्विपरीतत्वात् ॥ तथा पान्यस्मादानीय सूत्रे पठन्ति पंडिवपंडिदमरणं च पंडिदं बालपंडिदं चेक ॥ एदाणि तिणि मरणाणि जिणा णिचं पससति ।। मतरा प्रकारके मरणोमेसे पांच प्रकारके मरणोंका संक्षपसे मैं वर्णन करूंगा ऐसी ग्रंथकारने प्रतिज्ञा की है ये पांच मरण कौनसे हैं । ऐसी शंका होनेपर मरणका नाम निर्देश करने के लिये आचार्य गाथा कहते हैं हिन्दी अर्थ-पंडितपंडितमरण, पंडितमरण, बालपंडितमरण, बालमरण और बालबालभरण ऐसे पांच मरण है. विशेषार्थ- भवपर्यायप्रलयो मरण, मनुष्यादिभवके पर्यायका नाश होना वह मरण है ऐसा यदि मरणका लक्षण करोगे तो भवपर्याय अनेक प्रकारके है उनका नाश होना यह भी मरण है ऐसा मानना पडेगा. पर्यायोंका नाश और मरण इसमें कुछ विशेपता अनुभवमें न आवगी. यदि भवपर्याय अनेक हैं और उन सबका ही नाश होना मरण माना जाता है अतः पर्यायका नाश और मरण इनमें अंतर है ऐसा कहोगे तो मनुष्यमें मरणके पंच प्रकारोंकी संभावना न होगी. क्योंकि एक जीवका भी भवपर्याय अनंतरूपका होता है. नाना जीवोंकी अपेक्षा | से तो मरणके पांच प्रकार नितरां सिद्ध न होंगे. 'प्राणिनः प्राणेभ्यो वियोगो मरणं' प्राणोंसे प्राणीका अलग होना मरण है ऐसा यदि लक्षण करोगे तो सामान्यकी अपेक्षासे एकही मरण सिद्ध होगा. मरणके पांच प्रकार सिद्ध न होंगे. प्राणभेदकी अपेक्षासे मरणभेद मानोगे तो मरणके दश भेद होंगे. 'उदयप्राप्तकर्मपुद्गलगलनं मरणं' उदयमें आये हुए कर्मपुद्गलका खिरना वह मरण है ऐसा यदि कहोगे तो कर्मपुद्गल प्रतिसमयमें खिरते हैं अतः मरण के पांच प्रकार सिद्ध नहीं होते हैं, गुणभेदकी अपेक्षासे जीवोंके पांच प्रकार होते हैं अतः गुणोंके संबंधसे मरणके पांच भेद हम मानते हैं ऐसा यदि कहोगे तो यह कहना सयुक्तिक है. यहां दुसरे विद्वान् अन्य तरहसे व्याख्या लिखते हैं Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १०७ पंडितपंडित मरण प्रशस्ततम हैं, पंडितमरण प्रशस्ततर, बालपंडित मरण ईषत्प्रशस्त - थोडासा प्रशस्त है. बालमरण और बालबालमरण क्रमसे अविशिष्ट और अविशिष्ट तर है " ऐसी व्याख्या करते हैं. परंतु पंडित शब्द प्रशस्त इस अर्थ में किस प्रकरण में प्रयुक्त किया हुआ उन्होंने देखा हैं । जिससे वे ऐसा व्याख्यान करते हैं. दुसरे आगमका आश्रय न लेकर यह व्याख्यान किया गया हैं. आगमान्तर में व्यवहार, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनमें जो पंडित हैं ऐसे जीवोंका जो मरण वह पंडितमरण है ऐसा कहा है. उसके चार प्रकार हैं. जैसे - व्यवहारपंडित मरण, सम्यक्त्वपंडितमरण, ज्ञानपंडित मरण, और चारित्रपंडित मरण. व्यवहारादिक अर्थों में आगमान्तरमें पंडित शब्दका प्रयोग किया हुवा है. परंतु प्रशस्ततम, प्रशस्ततर वगैरे अर्थ में प्रयोग नहीं देखा गया है. " ज्ञान, दर्शन और चारित्र में जिनका अत्यंत पांडित्य है ये पंडितपंडित हैं. इस तरहका पांडित्यका प्रकर्ष ज्ञानादिकांमें जिसका नहीं है अर्थात् जिनमें ज्ञानादि विषयक पांडित्य अल्प है ये पंडित हैं. जिसका विवेचन पूर्वमें कर चुके हैं. बाल्य और पांडित्य जिनमें हैं वे चालपंडित है. जिनमें चार प्रकारके पांडित्योंमेंसे एक भी पांडित्य नहीं है वे बाल हैं. तथा सबसे जघन्य जो वह बालचाल है. इन सबके मरणाको क्रमसे पंडितपंडित मरण, पंडितमरण. बालपंडित मरण, बालमरण और बालबाल मरण ऐसे नाम हैं. पंडिद पंडिदमरणे खीणकसाया मरंति केवलिणो ॥ विरदावरदा जीवा मरंति तदियेण मरणेण ॥ २७ ॥ विज्ञातव्यमयोगानां तत्र पंडितपंडितम् ॥ देशसंयत जीवानां मरणं बालपंडितम् ॥ ३० ॥ विजयोदय- दिडिदमरणं खीणकसाया मरंति के लियो । सामान्यमृतेर्विशेषमृतिः कर्मतया निर्देष्टुं पंडित पंडितमरणमिति । यथा गोपोषं पुष्टः । श्रीणकसाया कपन्ति हिंसन्ति आत्मानमिति कपायाः शब्देन वनस्पतीनां मूलफलरस उच्यते । स यथा वस्त्रादीनां वर्णमन्यथा संपादयति एवं जीवस्य क्षमा । कषाय. १०७ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना vie आश्वासः १०८ Raigade मार्दवार्जवसंतोपाख्यगुणान्विनाझ्यान्यथा जाणार्यतीति कोभयानारायानोभाः कषाया रति मण्यंते । क्षीणाः कथाया येषां ते क्षीणकपायाः । द्रव्यकर्मणां कषायवदनीयानां विनाशात्तन्मूला अपि भावकपायरः प्रलयमुपगता इति क्षीणकषाया इनि भयंते । केवलमसहाय शानं इंद्रियाणि मनःप्रकाशादिकं च नापेक्ष्य गुमपबशेषद्रव्यपर्याय भासनसमर्थ सद्यत्र प्रवर्तते तोषामस्ति ते केवलिनः । यद्यपि केवलक्षानवस्तुसामान्पेन प्रवर्तते केवलिशब्दस्तथापि सीगफेवरिटनो मरणस्यासंभवादयोगकेचलिनो ग्रहण । अमान्ये क्षीणकषायाः श्रुतकेलिनश्चेति व्याचक्षते । तेयां तहास्थानमसमंजसे । थुतशब्दमंतरपा फेवलिशब्दस्य क्वचिदप्यागमे समस्तथुतरत्नवत्यपि प्रयोगादर्शनात् । प्रसिस्शब्दार्थासंभवो थवि स्थात् कथंचिदन्योऽर्थों व्याख्यया स्यात् । संभवति प्रतीते कर्थ तस्परित्यागः । अपि च पांडित्यत्रकर्षः क्षायिकशानदर्शनचारित्रापेक्षस्तत्र सन्निहितो न श्रुतफेबलिनि । घिरदाविरदा जीचाः स्थूलतामाणातिपातादेया॑वृत्ताः इति विरताः सूक्ष्माचाव्यावृत्तेरविरताः। विरता यदि कथमविरता अधिरताकथं विरताः इति विरोधाशंका न कार्या । विरतत्वाविरतरवयोः अर्पणामेदाद्विरोधो नास्पद चनाति । यथा इव्यपर्यायापेक्षे नित्यानित्यत्वे पकद्रव्याधिकरणे एकसिपि समय न विरोधमुपयातः । अथवाऽप्रत्याख्यानापरणानां क्षयोपशमे सति स्थूलात्माणातिपातादेर्विरतोऽस्मि न सूक्ष्मादित्येक एव परिणाम उपजायते । घिरोधश्च नाम अनेकाधिकरण यथा शीतोष्णस्पर्शादीनां । इध्यभाषमाणधारणाजीवा रति निरूप्यते । तदिपण तृतीयेन मरणेण मरणेन । नियन्ते । यस्तुपरिणामवृत्तिकमो यदि स्यात्तथा गणने द्वित्वं नित्यं या प्रतिपोरन् । गुणस्थानापेक्षायां सम्यनिध्यारेव तृतीयता न संयत्तासंयतत्वस्य तत्किमुच्यते तृतीयेनेति! मरणस्य तु सामाम्यापेक्षायां एकत्वमेवेति न तृतीयता । विशेषापेक्षायां च अतीतानां च अनंतत्वादनागतानां चातिबहुत्वसंभवात् । अत्रोच्यते सूत्रनिर्दिएक्रमापेक्षया तृतीयता प्राया। मरणानां स्वामिविशेषनिर्णयार्थ नाथावं विवभुरादौ प्रशग्यत्तमप्रशस्वमरणद्यनिर्देशार्थमाहू-- मूलारा-पंडिदपंडिंदमर-पंडिद पंडितपंडितभरणेनेत्यर्थः । आत्याद्विभक्तिविपर्ययः । आर्षप्राकृते सर्व विधयो विकस्पते इत्यभिधानात IX टीकाकारस्तु सामान्यभृतेः विशेषमृतिः कर्मतया निर्दिष्टा तथा गोपाषं पुष्टमित्याचष्टे । अथवा मरंति प्राप्नुवन्ति इति व्याख्येयं धातूनामनेकार्थत्वात् । एवमुसरत्रापि सर्वत्र व्याख्याचव्यम् । खीणकसाया-कपम्ति हिंसन्ति शुद्धचिद्विवर्तलक्षणप्राणेवियोजयत्यात्मानमिति कषाया द्रव्यकोपादयः अथया वनस्पतीनां त्वम्मूलफलाश्रितो रसविशेषः कषायः । कपाय इव कषायः क्रोधादिः वनादीनां वर्णस्येव जीवस्य क्षमादिगुणानां अन्यथात्वसंपादकत्वात् । कपायशब्देन चात्र कषायोदयजनिताभिभवसंस्कारकः कर्मानवकारणमात्मप्रदेशपरिस्पदो + टीकाकार अपराजितसरि. १०८ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आभासः प्रायः । केवलज्ञानस्म मोहादिकर्मनिर्मूलनमूलत्वेन केवलिनः क्षीणकषायत्वविशेषणस्य निष्फलस्वात् । किं च मरण- 11 करणात् क्षीणकपाया इत्यनेन अयोगा निश्चीयते सवोगकधीलना मरणासंभवात् । क्षीणा विशपं गताः कपाया येण्याने श्रीणकपायवेदनीयाः तत्वादेन च विनष्टतन्मूलभावकपाय: मरंति द्रव्यप्राणांत्यजन्ति । सिद्धानामपि सत्ताचैतन्य पोधादिस्यभावप्राणधारावल अनजाबस्वभावाविपान । तथा चोक्तम् जरि जीवसहावी गस्थि अभावो (ध मव्व हा तस्न ॥ ते होन्ति भिषण देहा सिद्धा बचिगोचरमदीदा । केबलिणो करणादिसम्ायकनिरपेक्षतया युगपन्निःशेपद्रवपर्यायसाक्षात्करणसमर्थ ज्ञानं ये नित्यमस्ति ते फेवलिनः । विरदाधिरदा एकस्मिन्नब समये स्थूलात्माणातिपातादम्यावृत्ताः सुक्ष्माचाव्यावृत्ताः श्रावकाः इत्यर्थः । जीवा: पुरुषाः न प्रथानं । सांख्या हि प्रधानस्य मरगमिच्छन्ति । तदियेण बालपंडितेन । जिनके भरणको पंडितपडित मरण ऐसी संज्ञा है वे पंडितपंडित कौन है. १ अर्थात् पंडितपंडित किनको कहते हैं ऐसे प्रश्नका उत्तर आचार्य देते हैं हिंदी अर्थ-पंडितपंडित मरण, पंडितमरण और बालपंडित मरण इन तीन मरणोंकी जिनेंद्र देव नित्य प्रशंसा करते हैं. क्षीपाकपाय केवली भगवान पंडितपंडित मरासे मरते हैं. अर्थात् केवलीके मरणकी पंडित पंडित ऐसी संज्ञा है. विरताविरत जीवके मरणको पालपंडित मरण ऐसा नाम है. गावार्थ-पंडितपंडितमरण खीणकसाया मरति केवलिणो' इस वाक्यमें 'मति' इस सामान्य मरणरूप क्रियाका 'पंडितपंडितमरण 'यह विशेष भरण कर्मरूपसे प्रतिपादन किया है. जसे 'गोपोएं पुष्टः' अर्थात् त्रैल जैमा पुष्ट रहता है वेला यह आदमी पुष्ट है. जैसे यहां पुटिसामान्यका गोपोषं यह कर्मसरीखा विशेषण है उसी तरह सामान्य मरणका ही पंडिनडितमरण यह एक विशेष प्रकार समझना चाहिये. जो आत्माका घात करते हैं वे कषाय हैं, अतएव कपायशब्द की निरुक्ति आचार्य - कान्ति हिंसनि आत्मानमिनि कयायाः ' ऐसी कहते हैं. अथवा वृक्षों की छाल, मूल, पत्ते और फलोंका जो रस निकलना हैं । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास उसको भी कषाय कहते हैं. यह रस जैसा यखादिकोंका वर्ण अन्यथा करता है, उसी तरह क्रोध, मान, माया और लोभ ये कवाय जीवके उत्सम क्षमा, विनय, सरलपना, और निस्पृहपनाको अन्यथा करते हैं, उनका नाश करते हैं. अतः इन क्रोधादिकोंका 'कवाय' यह नाम अन्वर्थक है. के मकान और भाव कषाय ऐसे दो भेद हैं. क्रोध, मान, माया लोभ इन कषायवेदनीय कर्मको द्रव्यकषाय कहते हैं. और इनके उदयसे आत्माकी क्रोध मान माया लोभरूप परिणति हो जाती है वह भावकषाय है, केवली भगवानके द्रव्यकषाय और भावकषाय दोनों भी नष्ट हो चुके हैं अतः वे क्षीणकषाय इस अन्वर्थ नामसे युक्त हुए हैं. इंद्रियां, मन और प्रकाशादिक बस्तुओंकी अपेक्षाके विना युगपन-एकदम संपूर्ण द्रव्योंकी त्रिकालवी पर्यायें जानने में जो ज्ञान समर्थ होकर समस्त पदार्थोम प्रयत्न होता है वह केवल ज्ञान है. यह ज्ञान केवल अर्थात् असहाय है. इंद्रियादिकोंकी मदत न लेकर स्वयं अपने सामथ्यसे पदार्थोंको जानता है अतः इसको केवल-असहाय ऐसा कहते है, ऐसा माहात्म्यशाली ज्ञान जिनको हैं वे मुनि केवली अर्थात् केवल ज्ञानी कहे जाते हैं, केवली यह शब्द सयोग केवली और अयोग केवली दोनोंमें रूद है नो भी यहाँ केवली शब्दसे अयोगकेवलीका ही ग्रहण करना चाहिये. इसका भी कारण यह है कि-सयोगकेत्रालि गुणस्थानमें मग्ण नहीं होता हैं अतः अयोग केवलीका ही केवली शब्दसे ग्रहण होता है. काई २ विद्वान केवली शब्दका अर्थ शीणकपाय मुगस्थानवर्ती मुनि और भूतकवली ऐसा करते हैं. पन गमा अर्थ करना अयोग्य है. अंत शब्द केवली शब्दके पूर्व में जोड देनेने ही भूतकेवली ऐसा अर्थ होगा. अत्तशब्द रहिन केवली शब्दका किसी भी आगममें समस्त श्रुतरूपी रत्न धारण करनेवाले श्रुतफेवलीके विषय में प्रयोग किया है ऐसा देखने में आया नहीं. प्रसिद्ध शब्दका अर्थ प्रकरणमें यदि असंभवरूप मालूम पडेगा तो अन्यार्थ की कल्पना की जा सकती है. यहां तो प्रसिद्ध अर्थ ही योग्य जंचता है, अतः श्रुतकेवली ऐसा अर्थ निकालने की अपेक्षा नहीं है, दुसरा कारया यह भी है कि, पांडित्यका प्रकर्ष केवलज्ञानियों में ही होता है अन्यत्र श्रुतकेवल्यादिकमें नहीं है. अतः पंडितपंडित केवली भगवानको ही कहते हैं. केवली भगवानमें क्षायिकज्ञान, क्षायिक दर्शन और चारित्र रहते हैं यह पांडित्यप्रकर्ष केवलीमें है. परंतु यह श्रुतकेवलीमें नहीं है. अतः केवली शब्दका अर्थ श्रुतकेवली ऐसा समझना योग्य नहीं है, AAAAMADARANASAN Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावना seeds विस्तारित जीवोंके करते हैं. आवक स्थल हिंसादि पांच पापोंसे विरक्त रहते है अतः उनको विरत कहते हैं, सूक्ष्मपापका ने त्याग नहीं कर सकते हैं इसलिये उनको अविरत भी कह सकते हैं. शंका- यदि श्रावकको आप 'विरत' ऐसा कहना चाहते हो तो उनको अविरत मत कहो, यदि अविरत कहोगे तो विरत कहना अनुचित है ? उत्तर- विरतत्व और अविरतत्वमें विवक्षाभेदसे विरोध नहीं. जैसे एकही पदार्थको द्रन्यापेक्षा से और पर्यायापेक्षा एकसमयमें नित्यानित्य समझते हैं, अर्थात् द्रव्यरूप आधार में एक समय में नित्य और अनित्य ऐसे दो धर्म रहते हैं. वैसे अप्रत्याख्यानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होने से मैं स्थूलपातको विरक्त हुए हूं लक्ष्मपातकोंसे नहीं ऐसा एकही परिणाम युगपत् उत्पन्न होता है. इसलिये विस्ताविस्तत्व में विरोध नहीं है. जहां एक पदार्थमें दो धर्म यदि अनुभव में आते हैं तो वहां विरोध कैसा ? विरोध अनेक आधारमें रहता है, जैसे शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श एक आधार में नहीं रहता. विरताविरत जीव द्रव्य प्राण और भावप्राणके धारक है अतः वे जीव है. ये विरवाचिरत तृतीय मरण से बालपंडित मरणसे मरते हैं. यहां तृतीय शब्द वस्तुके परिणामगणनामें यदि उपयुक्त है ऐसा कहोगे तो गणनाके समय विस्तारितजीवको द्वित्व या त्रित्व भी प्राप्त होगा. तृतीय शब्दसे तिसरा गुणस्थान ऐसा अर्थ मानोगे तो सम्य मिथ्यादृष्टिको तृतीयपना प्राप्त होगा. संयतासंयतको तीसरेपना प्राप्त न होगा. अतः ' तृतीयेन ' ऐसा कहना योग्य नहीं है. यदि मरणकी अपेक्षासे तृतीयता मानते हो तो मरण सामान्यापेक्षा से एक ही है उसको तृतीयता नहीं है. विशेष मरणापेक्षा तृतीयता मानोगे तो भूतकाल में अनंतभरण हो चुके हैं और भविष्यत्कालमें भी बहुत होंगे अतः विशेषणापेक्षा भी यता सिद्ध नहीं होती. उत्तरत्र कहे हुए कमकी अपेक्षासे मरणकी वीयता ग्रहण करनी चाहिये. अर्थात् पहिला भरन पतिपतिमरण, दुसरे मरणको पंडितमरण कहते हैं. और तिसरा मरण बालपंडित इस नामका है. आश्वासर १ १११ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वासः अथ के पंडितपंडिता यणं मरण पंडितपंडिनमरणं इति भण्यते इत्यारेकायामाह पंडिदपंडिदमरणं च पंडिदं बालपंडिदं चेव ॥ एदाणि तिपिण मरणाणि जिणा णिच्चं पसंसति ॥ २८ ॥ निःश्रेयससुखादीनां आसन्नीकरणक्षमं ॥ . आदिम जायते तत्र प्रशस्तं मरणत्रयम् ।। ३१ ।। विजयोदया-परिदपंडिदमरणं पंडिदं वाटप दिदं चैव इति । बिरताविरतपरिणामधिशेषनिर्देशालेय जीव द्रव्यल्प गते जीया इति सूत्रे बचनमपार्थकमिति चेक्षानर्थक । मतांतरनिवृत्तिपरत्वात् । सांख्या हि प्रकृतिधर्मतां मरणस्वाभ्युषयन्ति पुरुषस्य सर्वथा नित्यत्वात् । तत्तथा न, उत्पादन्ययधोव्यात्मकत्वादात्मनः । अनोच्यते-पंडितपरितमर णादनंतर पंडिनमरपी तदुलंध्य कृतीयम्य स्वामित्व कस्मातादयते नामोल्लंसने प्रयोजन वाग्यम् ? इति बुच्यते-टस्कृष्टजघन्य पंडितत्वमध्यनुत्तिपडितत्वमित्येतदाण्यातुं उभयावधिप्रदर्शन कियने । अथवा पंडितमरणे बटुवक्तव्यमस्तीति तत्सान्या. निक व्यवस्थाप्य अल्पवकन्यतया बालपंदितमेव प्राग व्याचष्टे । शंका-विरताविरतपरिणामविशेपसे ही श्रावक जीव है ऐसा समझम आता है तो मी 'विकायदा जीवा' इसमें जीवशब्दका ग्रहणा व्यर्थ है. उत्तर जीय शन्द गाथामें दिया है उसका उद्देश मतांतर निराकरण करने के लिये है, सांख्य मरण प्रकृतिका धर्म है ऐसा समझते है. वे पुरुपको-आत्माको सर्वथा नित्य समझने है. परंतु वह समझना योग्य नहीं हैं, आन्मा उत्पाद, व्यय और धोव्य इन तीन खरूपासे युक्त है अतः वह सर्वथा नित्य नहीं है. शंका-पंडितपंडित मरणके अनंतर पंदिनमरणका वर्णन करना योग्य था परंतु वह उहंघन कर तिसरे मरणके स्वामी आपने क्यों बताये ? कमका उल्लंघन करने में आपका क्या हेतु है ? उत्तर --- उत्कृष्ट पंदितस्व और जघन्य पंडितत्व इनके बीच जो है मो मध्यम पंडितत्व है ऐसा दिखानके अभिप्रायसे उपर्युक्त कथन है, अर्थात उत्तम पंडितत्व और जघन्य पंडितत्वके विवेचनसे मध्यम पंडितत्व विना कहे सिद्ध होता है. अथवा पंडितमरणके विषयमें ग्रंथकार बहुत विस्तारयुक्त लिखनेवाले है. इस वास्ते उसको आचार्य अलग रखते हैं और थोडासा विवेचन करनेकी इच्छासे बालपंडितत्वका प्रथम आचार्यने उल्लेख किया है. ११२ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास कतिविधं पंडितमरण कि स्वामिक वा इत्यारेकायर्या रयं गाथा--- पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णा य इंगिणी चेव ॥ तिविहं एडियमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स ॥ २५ ॥ पाधोपमा मन भतिज्ञा मासिक वदन्ति पंडितं त्रेधा पोगिनो युक्तिचारणः ।। ३२ ।। .. विजयोदया-पायोपगमणमरणं इत्यादि । पादाभ्यामुपगमनं दौकाम तेम प्रयतितं मरणं पावोपगमनमरणं । तरमरणयोरपि पावाभ्यामुपगमनमस्तीति त्रैविण्यानुपपत्तिरिति अन्न मरणविशेष पश्यमाणलक्षणे दिसणाय प्रवर्तते, रूढौच क्रिया उपादीयमाना शब्दव्युत्पत्त्यर्थव । यथा गच्छत्तीति गौरिति शम्दव्युत्पत्तौफियमाणायामपिममनक्रियाकर्टतास्तीति गोशब्देन न मद्विष्यादयो मण्यते । अथवा पाउनागमणमरण रति पारः । मषांतकरणप्रायोग्यं संहनन संस्थानं च इह प्रायोग्यशध्देनोच्यते । अस्य गमन प्राप्तिः, तेन कारणभूतेन यषिर्वत्यै मरणं तदुच्यते पाउग्गगमणमरणमिति । भज्यते सेव्यते इति भक्तं, तस्य पइण्या त्यागो भत्तपण्णा । इतरयोरपि भक्तमत्याख्यानसंभवेऽपि रूढिवशान्मरणविशेधे एव शम्दोऽय प्रवर्तते । रागणी शब्देन इंगितमात्मनो भण्यते स्वाभिप्रायानुसारेण स्थित्वा प्रवर्त्यमान मरणं गिणीमरण । तिविहं त्रिविधं विप्रकारं 1 पंडितमरणं कस्य तद्भवति ? साधुस्स साधो जधुत्तचारिस्स यथा येन प्रकारेण उक्तं श्रुते तथा चरितु शीलं यस्य साधोस्तस्येति यावत् । सदाचारः सर्व पव जनः संयतोऽसंयत लोके साधुशब्दवाच्यः, इति संयतपरिग्रहार्थ यथोक्तचारित्वविशेषणं कृतम् ॥ प्रशस्यतरपंडितमरणस्य भदोन्प्ररूपयन्स्यामिनं निरूपयति । मूलारा-पाउवयमणमरण-पादाभ्यामुपगगनं टोकन संघानिर्गत्य योग्यदेशास्याश्रयणं । तेन मवर्तितं मरणं पादोपगमनमरगं स्वपरयात्मनिरपेक्षा प्राणत्याग उच्यते रूढिवशात् । यदा पाउग्गगमणमरणं इति पाठस्तदा प्रायोग्यस्य भवान्तकरण योग्यस्य सहगम्य संस्थाननस्य च गमभेन प्राय निर्वयं मरणे प्रायोन्यगमन मरण । प्रायोगगनमित्य पदमु च्यते प्रायस्य मंन्यासबदनशनम्योपगमनेन साध्यत्वात् । प्रायोपवेशनमिति चैतदाख्यायते । मतपदिपणा भज्यते दहस्थित्यर्थमिति भक्तमाहारः तस्य प्रतिज्ञा प्रत्याख्यानं त्यागः । भक्तप्रतिझा स्वपरपैयाऋत्यसापेक्षं मरणं । इंगिणी शब्देन इंगितमात्मनोऽभिप्रायो भएयते स्वाभिप्रायानुसारेण स्थित्या प्रवर्त्यमानं मरणं इंगिणीमरणं । अत्र पत्वं नेच्छति १५ ११३ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृल.घना आश्वासः १४ फेचित् । यत्पुनः बधैयावृत्तिसापेक्षमेव । जहुत्त चारिम्स । येन प्रकारेण उक्त अवे तेन चरितुं शीलं यस्य तस्य यधोक्तचारिणः संयतयेत्यर्थः । पंडितमरणके कितने भेद है और उसके स्वामी कितने हैं ऐसी शंकाका उत्तर आगेकी गाथा देती है हिंदी अर्थ-आगममें जिस प्रकारसे चारित्रका वर्णन है बैसा स्वयं आचरण करना यह जिनका शील है अर्थात आगमसे अविरुद्ध चारित्र जो धारण करते हैं ऐसे मुनिराजका पंदितमरण पादोपगमनमरण, भक्त प्रतिज्ञा मरया और झंगनी मरण ऐसे तीन भेदयुक्त है. अर्थात् निरतिचार मुनिराजके मरणके भेद उपर्युक्त गाथामें तीन कहे हैं. विशेषार्थ-पादोपगमन मरण इसका शब्दार्थ - 'पादाभ्यामुपगमनं दौकनं तेन प्रवर्तितं मरणं पादोपगमन' अपने पावोंके द्वारा संघसे निकलकर और योग्य प्रदेशमें जाकर जो मरण किया जाता है वह पादोपगमन मरण है. इस मरणको चाहनेवाले मुनिराज अपने शरीरका चयावृत्य स्वयं भी नहीं करते हैं और इतर मुनियोंके द्वारा भी स्वशरीरकी शुश्रूषा नहीं कराते हैं, ऐसे मरणको पादोपगमन मरण्य कहते हैं. शंका-इतर मरणमें भी पावोंके द्वारा संघसे मुनिराज अन्यत्र चलकर मरण करते हैं अतः इतर मरणोंको भी यही नाम प्राप्त होनेसे पंडितमरणके तीन भेद नहीं ठहरेंगे एसी शंकाका उत्तर इस तरह है-पादोपगमन मरण यह नाम कार्डिका आश्रय लेकर विशिष्ट मरणामें ही आचार्यने प्रयुक्त किया है. इस पादोपगमन मरणका स्वरूप आगे ग्रंथकार स्वयं कहेंगे, रुदीमें जो शब्दकी निरुक्ति-व्युत्पत्ति करते हैं उसका मतलब यह शब्द किस धातुको कोनसा प्रत्यय जोडनेसे बन गया यह दिखानेका होता है, जैसे गछतीति गौः' ऐसी गो शब्दकी व्युत्पत्ति है, इसमें गमनक्रियाका कर्तत्व इसमें व्यक्त होता है, एतावता गो शब्दसे माहषी, अश्व वगेरह प्राणी गो शन्दका अर्थ नहीं माना जाता है. वैसे प्रकृत विषयमें पादोपगमन यह शब्द विशिष्ट मरणका वाचक माना जाता है. तथा वह मरण भक्तप्रतिज्ञा और मंगनीमरणसे मित्र ही है ऐसे समझना चाहिये, ११४ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलाराधना आधास: ११५ अथवा माथामें 'पाओग्गगमणमरणं' ऐसा मी पाठ है. उसका ऐसा आभप्राय है-भवका अंत करने लायक ऐसे संस्थान और संहननको प्रायोग्य कहते हैं. ऐसे संहनन और संस्थान की प्राप्ति होना यह प्रायोग्य | गमन है. अर्थात् विशिष्ट सहनन और विशिष्ट संस्थानवाला ही प्रायोग्यगमन मरणका अंगीकार करता है. मलारतिज्ञामरण--- मा. ना. वर्ष आहार और प्रतिज्ञा शब्दका अर्थ त्याग होता है अर्थात् आहारका त्याग कर मरण करना वह भक्तप्रतिज्ञामरण है. यह मरण स्वपरवयात्य की अपेक्षासे होता है. अर्थात् इस मरणमें मल्लेखनाधारक की परिचारक मुनि शुश्रूषा करने हैं तथा वह भी अपनी शुश्रुषा करता है. यद्यपि आहारका त्याग इंगिनीमरण और प्रायोग्यगमन मरणमें भी होता है तो भी इसको ही रूढीसे भक्तप्रतिज्ञा कहते हैं, अर्थान स्वपरवैयावृत्यकी अपेक्षा करके जो मरण किया जाना है यह भक्तप्रतिज्ञामरण है. ऐसे विशिष्ट मरण को ही भक्तप्रतिज्ञा कहते हैं. इंगिनी मरण-स्वाभिप्रायको इंगित कहते हैं, अपने अभिप्रायसे युक्त होकर स्वयं ही स्वतः की शुश्रषा कर जो मरण किया जाता है. यह इंगिनी मरण है. परिचारक मुनिकी शुश्रुषा इसमें क्षपक मुनि नाहते नहीं है. यथोक्त चास्त्रिका पालन करनेवाले मुनिके ऐसे तीन मरण कहे है इन मरणाको सामान्य रीनीसे पंडित मरण कहते है. इतरयोलमरणयालबालपोरिस्यनयोः स्वामित्वसूचनार्थगाथा अविरदसम्भादिट्ठी मरंति बालमरणे चउत्थम्मि ।। मिच्छादिछी य पुणो पंचमए बालबालम्मि ॥ ३० ॥ + सदाचारसे प्रदर्तनेवाले सव संयत अथवा असंयत जगगमें भाधु कहे जाते हैं. परंतु यहां मुनिओंका ही प्राण होवे इस हेतुले 'अधुत्तचारिस्स यह साधुका विशेषण करके यथोक्त चारित्र पालनेवाले मुनिका ही पहण किया है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना ११६ भजते भरणं बालं सम्यग्दृष्टिरसंयतः ! मिथ्यात्वाकुलितस्वान्तो बालबालमपास्तधीः ॥ ३३ ॥ विजयोदया— अविरदसम्मादिट्टी इति प्रसिद्धार्थत्वान्न व्याख्येयं । अत्रावसरे इदं घोद्यमाशस्यते । योच्छ आराधणं कमको इति प्रतिज्ञातं । सा च द्विप्रकाश दर्शनाराधना चारित्राराधना चेति । तज्ञ्याख्यानमकृत्वा भरणविकल्पास्तत्स्वामिनश्च कस्मानिर्दिश्यते । प्रस्तुत परित्यागमप्रस्तुताभिधानं च न क्षमंले विद्वांसः । अत्रोच्यते न अप्रस्तुतं अंतरनिर्विषु मरणं । आराधनानुगतमरणस्यैष शास्त्रेऽमिवेत्त्वात् । आराधनायाच आराधकमंतरेणासंमवात् । स्वामी च निर्देष्टव्य पति सुरेरभिप्रायः ।। अशस्थाप्रशस्थत र मरणद्वयस्वामिनी निर्दिशति - मूलारा अविरसम्माइड इति । मिच्छादिट्टी य । नो इंदियेसु विरदी को जीवे यावर तसे वापि जी सददि जित्त सम्माइली अविरदी सो ॥ ६ ॥ मिच्छत्तं बदतो जीवो विवरीयदंसणो दोदि ॥ णय धम्मं रोचेदि महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥ २ ॥ बालमरण और बालबालमरण के स्वामी कोन होते है यह विषय आचार्य विशद करते हैं. हिंदी अर्थ - अविरत सम्यग्दृष्टि जीव चौथे बालमरणसे मरते हैं अर्थात् अविरतिसम्यग्दृष्टीके मरणको बालमरण कहते हैं, और मिथ्यादृष्टी जीव जिस मरणसे मरते हैं वह बालबाल नामका पांचवा मरणभेद है. यहां शंकाकार ऐसी शंका करता है—' योच्छं आराधणा कमसो' ग्रंथकारने 'मैं क्रमसे आराधनाओंका विवेचन करूंगा' ऐसी प्रतिज्ञा की है. वह दर्शन आराधना और ज्ञानाराधना ऐसी दो प्रकारकी है. इनका विवेचन तो ग्रंथकारने किया ही नहीं परंतु मरणके विकल्प और उसके स्वामीओका ही विवेचन किया है ऐसा करना अयोग्य हैं. प्रस्तुत विषयका त्याग करके अप्रस्तुत विवेचन करना बुद्धिमानोंको सहन नहीं होता है. इस शंकाका परिहार आचार्य करते हैं- आश्वास १ ११६ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ग्रंथकारने अप्रस्तुत विषयका विवेचन किया नहीं है, बीच जो मरणके विकल्पका विवेचन किया है वह अप्रस्तुत नहीं है. आराधनाके साथ मरणका संबंध है. अतएव इस शास्त्रमें उनका उल्लख आचार्यको करना पड़ा है. आराधना आराधकके विना होती नहीं, आराधक आराधनाका स्वामी है. अतः उसका उल्लेख करना न्यायप्राप्त ही है. इस तरह आचार्यने शेकापरिहार किया है। अत एय प्रस्तुतां प्राथमिकी दर्शनाराधना आचरे तत्थोबसमियसमत्तखइयं खवोवसामयं वा ॥ आराहतस्स भवे सम्मत्ताराहणा पढमा ॥ ३१ ।। शामिकी क्षापिकी दृष्टिं वैदिकीमपि च त्रिधा ।। समाराधयतः पूर्वा सम्यक्त्वाराधनेष्यते ॥ ३४॥ विजयोइया-तयोवसमियसम्ममित्यादिना । अधवा अंतरसुत्रनिर्दिष्ट बालमरणच्यारूपानं प्रस्तुतां प्राथमिकी सम्यक्वाराधनां पुरस्कृत्य प्रवत ते त्यत आह-तत्धोवसमियसम्मत । अथवा सम्यग्दर्शनविशषभ्य कस्यचिदेव आराधना उत सबस्येत्याशंका । कुतः संदेहः । आचार्यमतभेदेन पदानामर्थद्वविध्यात्सामान्य पदानामभिधेय । पदाच्छुतार्थसामान्य निर्भासप्रतीत्युत्पत्तेन हि गामित्यतः पदाच्छुक्ला रणां शयनामिति वा प्रतीतिः, खंडामुंडा इति वा जायते । यश पदोपलधिकार्यभूतायां बुद्धौ न प्रतिभाति तत्कथं शब्दस्याभिधेयतां गंतुमुत्सहते । अप्रतीयमानस्याप्यर्थत्वे अयमेघास्यायों नान्य इसीय व्यवस्था न स्यात् । तेन सामान्यमवार्थ इति । अन्ये तु मन्यते त्यागोपादानोपेक्षारूपा हि लोकव्यवतिस्तत्र पुमांसं प्रवर्तयितुं शश्वाः प्रयुज्यते । दुखसाधनं यत्तस्यज्यते । सुखसाधनमुपादीयते । तदुभयस्यासेपादकमुपेक्ष्यते । विशिष्टमेव च वस्तु सुखादीनां संपादकं । तथादि--स्त्रीयनगंधमाल्याविक अतिशयिसमेवावातुं उत्सहन्ते । दुःखसाधनं चात्ममिकटष]ष कंटकाविक परिजिहीर्षन्ति । तेन शम्वेनापि तदर्थिनां तथाभूतमेव घस प्रतिपायमित्यभ्युपगम्तम्य अतो विशेषः पदानामर्थः । इति सारूप्यानामनेकविशेषयतिना पानामपंचायोगाचदि नाम विशेषो न प्रतीयते नैतापता विशेषस्याभिधेयताहानिः पदांसरसमधाने विशेषप्रतीतेरनुभवसिधवात् इति। नानामुमय पदार्थः । पदानामुभयव प्रतीत्युत्पते तथाहिन हिंस्याः प्राणिनः मानिसामान्य परिहार्यत्वेन प्रतीयते । देवदत्तमानयेत्युक्ते पुरुषविशेषमचगच्छन्ति । ततो न ज्ञायते 'समत्तमि य.' इत्यत्र सामान्य सम्यक्त्वं गृहीतं उत तशिशेष इति तेन तत्संदेहनिवृत्तिः क्रियते । तत्थ तेषु सम्यक्त्वेषु । उपसमियसम्मत्रं अनंतानुबंधिकोधमानमाया लोभाना सम्यक्त्वमिथ्यात्वसम्यमिथ्यात्वानां च सतानामुपशमापजातं सत्त्वश्रद्धानं प्रौपश मिकं सम्यक्त्वं । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: तासामेव सपाकतीलगदुपाताराग्यात्म्यगोबरा श्रद्धा क्षायिक दर्शन | तासामेच कासां चिदुपशमात् अन्यासां चक्षयादुपजातं श्रमानं क्षायोपशमिकं । या शब्दःप्रत्येक संबध्यते । औपशामिक वेत्यादिना क्रमेण । आराधंतस्स आराधयतः । हवे भवेत् । सम्मत्ताराहणा सम्यक्रवाराधना । पदमा प्रथमा । "अविरदसम्मादिट्टी मरंति बालमरणे' इत्युक्तं । तत्राचिरतग्रहण सम्यग्दृऐविशेषत्वेनोपात्तं । प्रतीतेन हि विशेष्येषा भाव्यम् । तथाभावप्रतीतपदार्थयोर्चिशेषणविशेष्यभावः इति । RS एबमाराधनायाः स्वरूपलामफलविशेषसिद्धयर्थं स्वागिमरणविशेषावभिधायेदानी प्रस्तुतां प्राथमिकी दर्शना राधनामभिधत्ते: मूला-तच्छ तत्र । तेषु आगमप्रसिद्धेषु त्रिषु सम्यक्त्वेषु मध्ये यत्किंचिदेकमाराधयतः सम्यक्त्याराधना भवन इति पदघटना । उपसमियसम्मत्तमित्यादि अनंतानुबंधिचतुष्कमिथ्यात्वसम्यमिथ्यात्वसम्यक्त्वाना उपशमाजातं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मस्वरूपलक्षणं सत्वार्थश्रद्धान औपशमिकं । तेषामेव भयात् भायिकं । तेषामेव व पण्णामु दयाभावलक्षणे अयेऽनुववप्राप्तानी सम्मात्रापस्थितिलक्षणे योपशमे तथा सम्यक्त्वरेशधातिस्पर्बफोदये सत्युत्पन्न सम्यक्त्वं क्षायोपशमिक लोका:-- पाकादेशनसम्यक्त्वप्रकवेरुत्यक्षये ॥ शमे परेषक षण्णामगाढं मलिनं चल ॥ १॥ धूद्धयष्टिरिवास्यक्तस्थाना करतले स्थिता ॥ स्थान एव स्थितं कंप्रमगाद वेदकं तया ॥२॥ स्वकारितेऽईश्चैत्यादी देवोऽयं मेऽन्यकारिते ॥ अन्यस्यासाविति भ्राम्यन्मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते ॥ ३ ॥ तदप्यलब्धमाहात्म्य पाकात्सम्यक्त्वकर्मणः ।। मलिनं मलसंगेन शुद्धं स्वर्णमिवोद्भवेत् ॥ ४ ॥ लसत्कहोलमालासु जलमेकमिव स्थितम् ॥ मानात्मीयविशेषेषु चलतीति चल यथा ।।५।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना समेऽप्यन्तशक्तित्ये सर्वेषामईतामयं ।। देवोऽस्मै प्रभुरेषोऽस्मा इत्यास्था मुरशामपि ॥६॥ आश्वासः जीवके विना आराधना होती ही नहीं अतएव प्रथम सम्यग्दर्शनाराधनाका आचार्य वर्णन करते हैं--- हिन्दी अर्थ--बीचके सूत्रमें पालमरणका वर्णन किया है, उस मरणका स्वामी सम्यग्दर्शन आराधनाका आराधन करनेवाला जीव है. अतः बालमरणका सम्यग्दर्शनके साथ संबंध सिद्ध है. उपशमसम्यक्त्व, शायिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व इन तीन आराधनाओंमेसें किसी भी सम्यग्दर्शनकी आराधना करनेवाला सम्यक्त्वाराधक कहा जाता है. विशेषार्थ-यहां शकाकारकी शंका यह है- सम्यग्दर्शनके सर्व भेदोंकी आराधना करनेवाला सम्यन्दागाराधक है अथवा कोई एक सम्यग्दर्शनकी भी पागधना करनेवाला आराधक होता है? यहाँ ऐसी शंका क्यों होनी है ऐसा कोई पृळेगा तो उसका उत्तर शंकाकारने इस तरह दिया है.--आनाक मतभेदसे शब्दके दो अर्थ माने गये है. अर्थात् कोई आचार्य शब्द सामान्य अर्थके वाचक है ऐसा कहते हैं, और दुसरे कोई आचार्य उसका विशेष अर्थ वाच्य होता है ऐसा मानते है. अर्थात सम्बग्दर्शन इस शब्दका सामान्य अर्थ सम्यग्दवीन सामान्य ऐसा है ऐसा किसीका मत है और विशिष्ट सम्यग्दर्शन ही सम्पग्दर्शन शब्दका वान्य है ऐसे अन्य आचायाँका मत्त है. अतएव हमने उपयुक्त शंकाकी है ऐसा शंकाकारने अपनी शंकाका समर्थन किया है.. आचार्य क्रमशः दोनोंके मतोंका दिग्दर्शन करके अनंतर शब्दका अर्थ जैनमतसे क्या होता है इसका निरूपण करेंगे. प्रथमतः शब्दका सामान्य ही अर्थ है इस मतका निरूपण करते हैं-- शब्द सुनने पर अर्थसामान्यका ही अनुभव आता है, जैसे किसीने गौ लाबो ऐसा वाक्य कहा इस वास्यके सुननेसे सुननेवालेको काली गाय, चितकबरी गाय, वा सफेत रंगकी गाय ऐसा ज्ञान नहीं होता है, किंतु गोसामान्यका ही उसको बोध होता है. शब्दका श्रवण करनेके अनंतर जो अर्थ बुद्धीमें झलकता नहीं वह शब्दका अर्थ कैसे माना जायगा युद्धीमें न झलकनेवाला. भी अर्थ यदि माना जायगा तो अमुक शब्दका अमुक ही अर्थ होता है ऐसी अर्थव्यवस्था नहीं होमी. अर्थात् गोशब्दका अर्थ जैसा गाय होता है वैसा भैस, घोडा वगरे भी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवायुः उनके अर्थ होंगे. अतः सामान्य पदार्थ ही शब्दका वाच्य होता है यह मत मानना चाहिये. विशेष पदार्थ ही शब्दका अर्थ है ऐसे मतका विवेचन इस प्रकार है-जगतमें लोक किसी पदार्थका ग्रहण करते हैं, किसीका त्याग करते हैं और किसीकी उपेक्षा करते हैं ऐसा व्यवहार देखने में आता है. इस व्यवहारमें प्रवृत्ति करनेके लिये शब्दोंका प्रयोग किया जाता है. जो दुःखका कारण है वह वस्तु छोडते हैं, जो सुखकर होती है वह चीज लोक लेते हैं. जिससे मुख और दुःख दोनों भी उत्पन्न नहीं होते है ऐसी चीजसे लोक उपेक्षा करते हैं अतः विशिष्ट वस्तु ही सुख या दुःखकी उत्पादक मानी जाती है, जैसे स्वी, वस्त्र, गंध पुष्पमाला वगरे पदार्थ विशेषरीतीसे सुख साधक है ऐसा समझकर लोक इनका ग्रहण करते हैं. जो दुःखके कारण है एसे समीपस्थ कंटक शत्रु वगैरह पदार्थोंका त्याग करनकी इच्छा करते है. शुन्दके द्वारा भी ऐसे ही पदयाका निवेदन होता है ऐमा समझना चाहिये, अर्थात् शब्दका अर्थ सामान्वपदार्थ नहीं है किंतु विशेष ही समझना चाहिये, अनेक पदार्थोमे रहनेवाला सादृश्य एक शब्दके द्वारा उल्लेखित होता है अतः शब्दका विशेष पदार्थ अर्थ नहीं है ऐसा मानना अयोग्य है. जैसे गो शब्द समस्त सदृश गायोमें प्रयुक्त होता है अतः गो शब्दका विशेष पदार्थ वाच्य नहीं हैं, ऐसा कहना अयोग्य है. उस गो शब्दका दुसरे शब्दसे जब संबंध होता है तब विशेष पदार्थका उससे अनुभव अवश्य होता है. शब्दका विशेष पदार्थ ही पाच्य है ऐसा विशेष पादियोंका मत है. सामान्य पदार्थ और विशेष पदार्थ दोनों शब्दके द्वारा प्रतीत होते हैं ऐसा जैनियोंका मत है-उसकी सिद्धि आचार्य करते है -'न हिंस्याः प्राणिनः' अर्थात् 'प्राणिओंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये ' इस वाक्यमें माणि शब्द संपूर्ण प्राणिओंका चाचक है. दुसरा बाक्य 'देवदत्तमान्य' देवदत्वको लाओ यहां देवदत्त शब्द पुरुष विशेएका वाचक है. अर्थात् शब्द सामान्य और विशेष दोनो पदार्थोके वाचक है ऐसा जैनियाका मत है. ___ अतः प्रस्तुत बिपयम-सम्यक्त्याराधनामें क्या सामान्य सम्यक्त्वका ग्रहण करना चाहिये ? अथवा उसके विशेषाका ग्रहण करना चाहिये ? ऐमी शंका उपस्थिन होती है. उसका आचार्यन इस प्रकार निरमन किया है सम्यग्दर्शनके उपशम सम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यग्दर्शन और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ऐसे तीन भेद है. इनमें से किसी भी सम्यग्दर्शन की जो आराधना करता है उसको पहिली सम्यक्त्वारधना होनी है. औपशमिक सम्यग्शन-अनंनानुबंधि क्रोध, मान, माया और लोभ, तथा सम्यक्त्य, मिथ्यात्व और . . ... .. .ain - - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वास: सम्पमिथ्यात्व ऐसे सात कर्म प्रकृतिओंका उपशम होनेसे जो तत्वोंके उपर श्रद्धान होता है उसको औपशमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं. क्षायिक सम्यक्त्व-उपर्युक्त सात प्रकृतियोंका क्षय होनेसे जो जीवादि सात तत्वोंके ऊपर श्रद्धा होती है वह क्षायिक सम्यक्त्व है. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व---इन सात प्रकृतियोंमेसे किसी प्रकृतियांका उपशम और अन्य प्रकृतियोंका क्षय होनेसे जो सवश्रद्धान होता है वह क्षायोपशामक सम्यग्दर्शन है. 'अविरदसम्मादिही मरंति बालमरणे' ऐसा पूर्वमें कहा है. अर्थात् उनके मरणको बालमरण कहते है. अविरत सम्यग्दृष्टि इस सामासिक शब्दमें अविरत शब्द विशेषणरूप है और सम्यग्दृष्टि यह शब्द विशेष्य है. यह विशेष्य प्रसिद्ध है. अर्थात् तत्वार्थ श्रद्धान करनेवालको सम्यग्दृष्टि कहते हैं यह बात सुप्रसिद्ध है. प्रसिद्ध पदार्थों में विशेषण विशेष्यभाव होता है. तस्मारतीतीनोऽभिषेप गायनसिपोरा - सम्मादिठी जीवो उवइट पवयणं तु सहइ ॥ सदहइ असम्भावं अयाणमाणो गुरुणियोगा ॥ ३२ ॥ मन्यते दर्शितं तत्व जन्तुना शुभदृष्टिना ॥ पूर्व ततोऽन्यधापदिमजानानेन रोच्यते ॥ ३५॥ विजयोन्या--सम्मादिही जीयो अत्यनया । अत्रैव पनघटना ' उयश्टुं पचयणं तु सददि यो जीयो सो सम्मा विट्टी'ति । उपाई उपवियं कथितं । ननु उपर्यो विशिरथारणक्रिया तथा हि प्रयोग-उपविष्टा या उच्चारिताः इति। सत्यम्, समुच्चारणक्रियस्तच वर्तते नान्यत्र इत्यत्र न निबंधनं किंचित् । यथा गां दोन्धि इत्यादिषु सास्नादिमति एप्रयोगोऽपि गोशम्बो यागादिषु अपि वर्तते एवमिदापीति किं न गृह्यते ? उपदिष्टमपि किन बेसि ल्यादौ कधितमिति प्रतीतिरुपजायते सा कथमपास्यते । प्रायोग्यवृत्तिसमधिगम्यो हि शब्दार्थः । प्रोड्यन्ते जीवादयः पदार्था अनेनास्मिनिति वा प्रवचनं जिनागमः । प्रकर्षश्चोक्तः ऐएपमाणाधिरोधिवा वस्तुयाथारम्यानुसारिता च । मबचनवाच्योऽर्थः साहचर्यात्प्रवचमिति संगृह्यते । तु शचः पवकारार्थः । स च क्रियापदापरतो द्रष्टव्यः । व्याख्यातं जैनागमार्थ यः श्रधात्येष न Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Feman मूलाराधना माश्यासः RETARAN १२२ सुश्रद्दधाति इत्ययोगव्यवच्छेदः। स जीया सम्माविष्ठी सम्पग्राष्टिशववाच्य इति प्रतीतपशर्थकत्वमावर्शितं । सहइदि श्रद्धानं करोति । असम्भाषमपि असल्यमप्यर्थ । अयाणमाणो अनवगच्छन् । किं ? विपरीतमनेनोपदिश्वमिति । गुरोर्व्याख्यातुरस्यायमर्थ इति कधनामियुज्यते प्रतिपत्त्यां श्रोता अनेन बचनेन इति नियोगः कथनं । सर्वत्रमणीतस्यागमस्यायः बाचार्यपरंपरया अविपरीतः श्रुतोऽवघृतश्चानेन सूरिणा उपदिष्टो ममेति सर्वशासाया सचिरस्यास्तीति । आवारचितया रायपेवेति | ननु अविरदसम्माइटी इत्युक्तं तत्र कीदनीयः सम्यग्दृष्टिः स्यात् इति पृष्टः सन आचष्टे-- मूला - पचयणं जिनागमः तद्वाच्योऽर्थः साहचर्यादिह ग्राह्यः । तु एवार्थे । स जीवः सम्यग्दृष्टिर्भवति यः उपदिन प्रवचनं श्रद्धात्येवेति संबंधः। यो ज्ञानावरणोदयवशात्स्वयं तत्त्वमजानन्गुरुनियोगासद्भाव अद्धत्ते सोऽपि तदैव सम्यराष्टिः म्यादिन्युत्तरोन दर्शयते ।। असदभाचं असत्यमवर्थ प्रकृतत्वादागमवाक्ये । अयाणमाणो मिथ्या अनेन उपदिष्टनि अजानन । भियोगा मुख्यालयातुनियामादलारामवाक्यस्य असमर्थ इति कथनान् । निगुज्यते नियत संघ यते आना अनेक नियोगः कथन । इदमत्र तात्पर्य-सर्वज्ञोक्तस्यागमन्यार्थी गुरुपर्वक्रमण सम्यक् श्रुतोऽवाशानेनाचार्यणोपनिटो ममेति सर्वज्ञाज्ञया कचिरस्यास्तीति आज्ञारुषितया सम्यग्दृष्टिस्तदाप्येष भवत्येव ।। कोनसा जीय सम्यग्दृष्टि शब्दका चान्य होता है इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते हैं हिंदी अर्थ-गुरुने कहे हुए आगमका अर्थात् जीवादि पदाथोंके स्वरूप का जो श्रद्धान करता है वह पुरुष सम्पदृष्टि है. पुरूके वचनाको प्रमाण मानकर जीवादिके असत्य स्वरूप में विश्वास रखता हुवा भी वह पुरुष सम्यग्दृष्टि ही है. क्योंकि सर्वज्ञप्रणीत आगमका अर्थ आचार्यपरंपरासे अविपरीत ऐसा गुरूने सुना है और हृदयमें धारण कर उसका ही उपदेश उसने मेरेको किया है ऐसा समझकर वह जीवादि पदार्थोपर विश्वास रखता है अतः असत्यखरूप सत्य मानता हुवा भी बह जीव सम्पग्रष्टि ही है ऐसा इस गाथाका आभिप्राय है. विशेषार्थ--गाथामें 'उबइष्ट-उपदिष्टं' ऐसा शब्द है, यह शब्द उप पूर्वक दिश् धातुसे बना दुवा उच्चारण करना इस अर्थमें प्रसिद्ध है और आप इसका अर्थ ' कहा हुवा' ऐसा करते हैं परंतु इस अर्थमें प्रयोगवाक्य दीखते नहीं हैं. 'उपदिष्टा वर्णा उचारिता इति ' यहां उपदिष्टका अर्थ वर्ण उच्चारे गये हैं ऐसा किया है. यह Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासा १२३ का खुलासा इस प्रकाशब्दका अर्थ समझना मानना पडेगा। हुई शंका अब इस का उत्तर सुन लीजिये-उच्चारण करना इस अर्थमें ही उपदिष्ट शब्दका प्रयोग है अन्य अर्थमें नहीं है ऐसा सिद्ध करनेके लिये आपके पास जी भार नहीं है. जैसे 'गां दोग्धि ' इस वाक्यमें गोशब्दका अर्थ गाय ऐसा होता है अर्थात् माय इस अर्थमें गोशब्द का प्रयोग जैसा होता है उसी तरह वाणी, स्वर्ग, पृथ्वी इत्यादि अर्थोमें भी गोशब्दका प्रयोग देखा जाता है. उसी तरह उपदिष्टशब्द का प्रयोग अन्यार्थ में भी होता है. जैसे 'उपदिष्टमाप किं न वेत्ति' इस वाक्यमें उपदिष्ट शब्द 'कथितं ' कहा हुवा इस अर्थमें है ऐसा अनुभव आता है. इसको मानना पडेगा ही. जिस शब्दका जो अर्थ प्रकरणादि से योग्य मालूम होता है वही उस शब्दका अर्थ समझना चाहिये, गाथामें जो पबयण शब्द है उसका खुलासा इस प्रकार है जिसके द्वारा जीयादिक पदार्थ कहे जाते हैं अथवा जिसमें जीवादिक पदार्थ कहे हैं उसको प्रवचन कहते हैं अर्थात् जिनश्वरके आगमको प्रवचन कहते हैं. प्रवचन शब्दकी निरुक्ति आचार्य इस प्रकार कहते हैं--'प्रोच्यन्ते जीवादयः पदार्था अनेन अस्मिमिति वा प्रवचनं जिनागमः' जिनेश्वरके वचनोंमें प्रकर्षता अर्थात् उत्कृष्टता आनेका कारण यह है कि उनके वचन दृष्टष्टप्रमाणोंसे अर्थात् प्रत्यक्षानुमानादि प्रमाणोंसे अविरुद्ध सिद्ध होते हैं. और वे वस्तुके यथार्थ स्वरूपका अनुसरण करनेवाले हैं. ऐसे प्रवचनके द्वारा जो जीवादि पदार्थ कहे गये हैं उनको भी माहचर्यसे अथवा अभिधेयाभिधायकसंबंध होनेसे 'प्रवचन ' कह सकते हैं. ___ गाथामें जो तु ग्रन्द है उसकी सहहह 'इम कियापदकं ग योजना करनी चाहिये. अर्थात विवचित जिनागमके. जीवादि अथोंमें जो श्रदान करता ही है यह मम्याटि है ऐसा आभिप्राय उससे व्यक्त होता है. यह सभ्यन्दष्टि जीव असत्य पदार्थका भी श्रदान करता है परंतु वह तब तक असत्य पदार्थके उपर अदान करता है जब तक वह गुरुने मेरको असत्य पदार्थका स्वरूप कहा है यह नहीं जानता है. जब तक यह असत्य पदार्थका श्रद्धान करता है तबतक उस गुरुने आचार्ययरंपराके अनुसार जिनागमके जीरादितत्वका म्वरूप कहा है और जिनेंद्र भगवानकी आज्ञा प्रमाणभूत माननी चाहिये ऐसा भाव हृदयमें रखता है अतः उसके सम्यग्दशनमें हानि नहीं है. बह मिथ्यादृष्टि नहीं गिना जाता है. सनकी आज्ञाके ऊपर उसका प्रेम रहता है, वह आज्ञारुचि होनेसे सम्यग्रष्टि ही है. ऐसा इस गाथाका भाष है, १२३ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः फिमेप विपरीतं प्रतिपद्यमानोऽपि सर्वदा सम्यग्दृपिरव! नेत्याह सुत्तादो ले सम्म इसिजसं जड़ा ग सद्दहदि । सो चेव हबइ मिच्छादिट्ठी जीवो तदो पहुदि ॥ ३३ ॥ दर्यमानं पदा सम्यक् श्रदधाति न सूत्रतः॥ तमर्थ स तदा जीवो मिथ्यादृष्टिर्निगयते ॥ ३६॥ बिजयोदया-सुत्तादो इति । मुत्लादो सूत्रात् । तं आत्मना पिपरीतं गृहीतमय 1 सम्म सम्यक् अविपरीतरूपेण । वरसिजंतं दयमानं प्ररूप्यमाण अन्येन भाचार्यण । जदा यदा यस्मिन्करले । न सहइदिन थदधाति । सो वेब स एव सभ्यग्रहितयोक्तः । मिच्छादिट्टी हवर मिथ्याधिर्भवति । आप्तामाथ्रज्ञानवैकल्पात् अर्थयाथात्म्या. थशाना 1 तवो ततः। पहुँदि प्रभृति आरभ्य । असंदिग्धसूत्रांतरदर्शितार्थाथद्धानादारभ्येति यावत् । किमेष विपरीतं प्रतिपद्यमानोऽपि सर्वदा सम्पपिरेव नेत्याह-- मूलारा-सत्तादो सूत्राद्गधरागन्यतमप्रथितमागममानित्यत्ययः । तं प्रथमगुरूपदेशेन भित्र्याप्रतिपन्नमर्थ सम्म दरसिज्जत अन्येन गुरुणाऽविपरीत प्ररूप्यभाण । सो येव स एव सम्यग्दृष्टितयोक्तो मिथ्याष्टिभवति । आमाज्ञानदानवैधुर्यादर्थयाधात्म्याश्रद्धानाञ्च । तदो पहुदि । असंदिग्धमुत्रतिरदर्शितार्थाश्रद्धानादारभ्य । क्या जीवादि पदार्थीका विपरीत स्वरूप मानता हुवा भी यह हमेशा सम्यग्दृष्टि ही रहता है अथवा नहीं ? इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देने है-- हिंदी अर्थ---' तुमने पदार्थीका विपरीत अर्थ जाना है उसका श्रद्धान छोड दो और हमने जो पदाथका सच्चा स्वरूप कहा है उसके ऊपर श्रद्धा करो.' ऐसा आचार्यके कहने पर भी जब वह आपना आग्रह नहीं | छोडेगा तो तबसे वह मिथ्यादृष्टि समझा जायगा. आचार्यने प्रमाणभृत ऐसे गणधरादिकोंके रचे हुए आगमसे जीवादकोका स्वरूप बताया था तो भी उसका उस आप्ताबाके उपर श्रद्धान नहीं रहनेसे और अर्थके यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धान न होनेसे वह मिथ्या दृष्टि ही समझा जाता है. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अप्रास सुप्तादो ते सम्म दरसिरजत रन्युरू. कन गितानि मुत्राणि प्रमाणभूतानीस्थत आह सुतं गणधरगधिद तहेव पत्तययुद्धकाहय च ।। सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुविगधिदं च ॥ ३४ ॥ ज्ञेयं प्रत्येकयुद्धेन गणेशेन निवेदितं ॥ श्रुतकेवलिना सूत्रमभिन्नदशपूर्विणा।। ३७ ॥ पिजयोदया-सुस गणधरगश्चिय इति । मुतं सूत्रं । गणशब्देन द्वादशमणा उच्यते । तान्धारयन्ति इति गणधराः । दुर्गतिपस्थिता हितेन रत्नत्रयोपदेशन धार्यन्ते ते सप्तविधर्दािमुपगताः । उक्तं च बुद्धितवचिगुब्बणोसधिरसबलं च अक्सीण ॥ सत्तविध इद्विपत्ता गणधरदेवा मो तेसि। इति । तैः गथिदं प्रथितं सहमधं । फेवलिभिरुपदिएं अर्थ ते हि मध्नन्ति । तधाभ्यधायि-अत्य कहन्ति कहा गंथं गंधति गणधरा तेसि 'ति । तहेब तथैव । पत्नययुद्धगधिवं च प्रत्येकवुद्धमाथितं च । ध्रुतज्ञानाधरणक्षयोपशमात् परोपदेशमंतरेणाधिगत्मागतिशयाः प्रत्येकवुन । समलिगा सस्त धारिणा कथितं चेति । अभिभदसपुब्धिकधिद च । दशपूर्वाण्यधीयमानस्य विद्यानुभवादस्था शुल्लकविद्या महाविद्याध अंगुष्ठप्रसेनाद्याः प्राप्त्यादयश्च तैरागत्य रूप प्रदय, सामथ्य स्वफोभाष्य पुरःस्थित्वा आज्ञायता किमस्माभिः कर्तव्यमिति तिष्ठति । तद्वचः श्रुत्वा न भवतीभिरस्माके साध्यमस्तीति ये बदन्ति अचालितचित्तास्ते अभिन्नदशपूर्विणः । एतेषामन्यतमेन अथितं सूत्रं प्रमाण । प्रमाणेन केवलेन श्रुतेन वा गृहीतमय अरक्तद्विष्टाः संतो यदुपदिशति वनस्तरचला प्रामापर्य इति भावः । प्रमाणपरिदृष्टार्थगोचरं भरक्त.. द्विष्टवक्तृप्रभवं बचः प्रमाणं । यथा पितुररक्ततिप्रस्य स्वप्रत्यक्षगोचरं वचः यटोयं रक्ष्य इति । तथा च गणधरादीनां वच: प्रमाण परिशर्थगोचरं । अरक्तद्विएचक्तमभच । केन रचितं सूत्र प्रभाणं स्मादित्यत्राइ-- गणहरकथिदं नागा द्वादश यत्याद्यो जिनेंद्रसभ्याः । गणान्धारयति दुर्गतिमागान्मिध्यानद्धानादेपिनि वृत्त्य शिवमार्गे सम्पग्दर्शनादौ स्थापयन्तीति इति गणधराः सप्तविधा प्राप्ता धर्माचार्याः । पत्तेयबुद्धा--एकं केवल परोपदेशनिरपेक्ष श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमविशेष प्रतीत्य बुद्धाः संप्राप्तज्ञानातिशया: प्रत्येकमुखाः । सुबकेवलिणा समस्तश्रुतधारिणा । अभिभइसपुषि-दश पूर्वाणि उत्पादपूर्वादिविद्यानुवादास्तान्येषां सन्तीति दशपूर्षिणः । अभिन्ना विद्याभिरप्रच्या Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना ९२६ विचारित्रास्ते च ते दश पूर्विणश्च । विधानुवादपांठे स्वयमागत द्वादशशत विद्याभिरचलितचारित्रा इत्यर्थः । ' सुनादो तं सम्मं दरसिज्जंतं ' ऐसा उपरकी गाथामें वाक्य आया है परंतु प्रमाणभूत सूत्रोंकी रचना किन्होंने की है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य उत्तर देते है- हिंदी अर्थ - गणधररचित आगमको सूत्र कहते हैं. प्रत्येकबुद्ध ऋषिओंके द्वारा रचे गये आगमको भी सूत्र कहते हैं. श्रुतकेवली और अभिन्न देशपूर्वधारक आचार्योंके रचे हुए आगम ग्रंथको भी सूत्र कहते हैं. विशेषार्थ -- गणके चारा प्रकार है. चौदापूर्वके ज्ञाता मुनि, विक्रियाऋद्धिके धारक मुनि, अवधिज्ञानी मुनि, मन:पर्ययज्ञानी मुनि, वाद करनेवाले मुनि वगैरे बारा गण उनको रत्नत्रयधर्मका उपदेश देकर जो दुर्गतीसे बचाते हैं उनको गणधर कहते हैं. गणधरोंको सात ऋद्धियां प्राप्त होती हैं. उनके नाम इसप्रकार है-बुद्धि, तप, विक्रिया, औषधि, रम, चल और अक्षीण ऐसे सात ऋद्धिको प्राप्त हुए गणधरोंको मेरा नमस्कार हो गणधरोंने रचे हुए आगपको मूत्र कहते हैं. केनलिने रहावा ग्रमित करते हैं. इस विषय में 'अत्यं कहति अरुहा ग्रंथ गंधन्ति गणहरा तेर्सि ' अर्थात् केवल भगवान जो अर्थ कहते हैं उसका गणधर देव आगममें ग्रथन करते हैं. प्रत्येकबुद्ध ऋषियोंने रचे हुए शास्त्रोको भी सूत्र कहते हैं. श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे गुरूपदेशके बिना जिनको सातिशय ज्ञान होता है ऐसे महर्षियोंको प्रत्येकयुद्ध कहते हैं. द्वादशांगत ज्ञानको धारण करनेवाले महर्षियोंको श्रुतकेवलि कहते हैं. उनका कहा हुवा जो आगम वह भी सूत्र हैं. अभिन्नशपूर्वके जाननेवाले आचार्योंके रचे हुए शास्त्रको भी सूत्र कहते हैं, दशपूर्वोका अध्ययन करते समय विद्यानुवादमें जिनका वर्णन है ऐसी अंगुष्ठप्रसेनादि क्षुक विद्या व प्रज्ञप्त्यादि महाविद्या इन आचार्योंके पास आ जाती है तथा वे आपना रूप दिखाकर सामर्थ्य और अपने कार्यका स्वरूप कहती हैं. आगे खडे होकर हे प्रभो ! हमे को कार्य करनेकी आज्ञा दीजिये ऐसी प्रार्थना करती हैं. उनका भाषण सुनकर आपसे हमारा कुछ कार्य नहीं है ऐसा जो ऋषि निचलचित्त होकर बोलते हैं. उनको अभिन्नदशपूर्वघर महर्षि कहते हैं. उपर्युक्त कहे हुए ऋषियोंके आगमको सूत्र कहते हैं. प्रत्यक्षादिक प्रमाणोंके द्वारा केवलज्ञानके द्वारा और श्रुतज्ञानके द्वारा जाना हुवा वस्तुका स्वरूप रागद्वेष आधास १ १२६ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासः मूलाराधना रहित होकर उपयुक्त महर्षि प्रतिपादन करते हैं इसलिये इनके वचनामें प्रमाणता रहती है. जैसे राग द्वेष छोडकर पिता अपने लडकेको इस घटका रक्षण करो ऐसे वचन कहता है, उसका वह कहना जैसा प्रत्यक्ष गोचर है और प्रमाण है उसी तरह रागद्वेषरहित होकर प्रमाणोंके द्वारा देखा हुवा जीवादिपदार्थ का स्वरूप महर्षिओंने कहा है अनःनह प्रमाण मानना वाडिये, गधरादिक महर्षि रागद्वेषरहित और महाज्ञानी थे. उन्होंने सब पदार्थाका प्रमाणोंके द्वारा निर्णय किया था अतः उनके आगम प्रमाण मानने में हर्ज नहीं है, भवतु नामैषां अन्यतमेन प्रणीतं सूत्रं प्रमाण तदर्थकथनं तु को विपरीतं करोति को वाऽविपरीतमित्यारेकायां अविपरीतार्थकथनकारिणो लक्षणमाहोत्सरया गाथया गिदित्यो संविग्गो अच्छुबदेसेण संकणिजो हु ॥ सो चेव मंदधम्मो अच्छुवदेसम्मि भजणिज्जो ॥ ३५ ।। प्राप्तार्थारुचारित्रः शंक्यते न महामनाः ॥ शंक्यते मंवधर्माऽसौ कुर्वाणस्तत्त्वदेशनाम् ॥ ३८ ।। विजयादया-गिहिदाथो संघिग्गो गृहीतं आत्मसात्कृतो ऽवधारितोऽर्थः सूत्रस्य येन सः गृहीतार्थः अबकृतम् धार्थ इति यावत् । संमिग्गो संसाराद्व्यभावरूपात परिवर्तनास भयमुपगतः । विपरीतोपदेश रागात्कोपाद्वा अनंत काल संसारपरिभ्रमणं मम मिश्यादृष्टेः सतो भविष्यतीति यः समयः । अच्तुद्रुपदेसे अर्थस्थाभिधेयस्य सूत्राणामुपदेशे ।न संकणिजो नैनाशक्यः । खु शब्द पपकारार्थः । सो व स य च गृहीतार्थः । मंदधम्मो धर्मशब्दश्चारित्रवाची 'चारसं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोति णिहिट्टो' इति वचनान् । ततो मंदचारित्र इत्यर्थः । अकछुवदेसम्हि सूत्राथव्याण्याने ? भयाणिज्जो भाग्यः । यदि सूत्रानुसारि युक्त्यनुगत पातद्वधास्याने ग्राह्यमन्यथा नेति यावत् । प्रमाणपरिदृष्टायगोचरस्बेन रागद्वेषानुपहतयकृषभवत्वेन च पित्रादिवाक्यवत्प्रमाणभूतस्यापि सूत्रस्यार्थ यो । पथावत्कथयति तं लभ यति-- गीदत्यो- सम्यग्गुरूपदेशादषधारितसूत्रार्थः । संविग्गो रागाद्वा द्वेषादा सूत्रार्थमन्यत्रोपदिशतो मम मियादुष्टे मतोऽनंतकाल संसारे परिभ्रमणं भविध्यतीति भयमापन्नः । अच्छुबदेसे सूत्रार्थव्याख्यानविषये । ॥ संकणिम्जो खु । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराचना ૨૮ te शंकनीयः । यं यथायं व्याचष्टे सूत्रार्थं स तयैवेति मन्तव्यः । सो चैव गीतार्थ एव । मंदधम्मो सातिचारचारिश्रः । भवणिजः भाग्यः । यदि मन्नानुसारी युक्तियुकं वा तद्याख्यानं ततो माझं नान्यथेत्यर्थः । इन महर्षियों किसी भी बनाये हुए सूत्र हम प्रमाण मानते हैं, परंतु इनका अर्थका कथन करनेवालों में हम किसको सत्यार्थ प्रतिपादन करनेवाला समझे और किसको न समझे? ऐसी शंकाका निरसन करते हैं. प्रथमतः अविपरीत पदार्थका विवेचन करनेवालेका लक्षण आगेकी गाथासे कहते हैं--- हिंदी अर्थ --- जिसने सूत्रका अर्थ समीचीनरूपसे जान लिया है, तथा जिसके अंतःकरण में कमरूप, द्रव्यसंसार और भावरूप कषाय, मिथ्यात्वादिरूप भावसंसारसे भय उत्पन्न हुआ है ऐसे व्यक्तिद्वारा कहा हुवा सूत्रार्थ निःसंशयचित्त होकर प्रमाण मानना चाहिये. यदि रागभावसे अथवा क्रोधसे में विपरीत उपदेश करूंगा तो अनंतकालपर्यंत मिध्यादृष्टियुक्त ऐसे मेरेको संसार में भ्रमण करना पडेगा ऐसा जिसके मन में भय है उसको संवि कहते हैं. उसको सूत्रार्थके कहने में प्रमाणता है. परंतु जिसका चारित्र मंद है उसको सूत्रार्थनिरूपण में प्रमाण मानना विकल्पनीय है, अर्थात् यदि उसका व्याख्यान सूत्रानुसार और युक्तियुक्त हो तो ग्रहण करना चाहिये. सा न हो तो ग्रहण करना नहीं चाहिये. . किमधिगतसमपंच्चवचनार्थो भूत्वा श्रद्धावान्यः स एव च सम्यग्दृष्टिः स एव सम्यक्त्वाराधका हत्यारेका माइ अन्योन्यस्तीति धम्मा धम्मागासाणि पोग्गला कालदव्व जीवे य ॥ आणा सदहन्तो समताराहओ भणिदो ॥ ३६ ॥ सिद्धाः संसारिणी जीवाः प्रयाताः सिद्धिमेकधा ॥ आज्ञया जिननाथानां श्रद्धेयाः शुद्धदृष्टिना ॥ ३९ ॥ विजयोदया – धम्मार्धम्मागासाणित्ति - जीवपुद्गलयोः स्वावस्थिताकाशदेशादेशान्तरं प्रतिगतिः परिस्पंदपर्यायः परप्रयोगतः स्वभावतो वा विद्यते । अन्येषां निष्क्रियतेति न गतिरस्ति । अनयोर्गतिपर्यायस्य वा गतिहतुत्य er आश्वासः १ १२८ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १२९ संहितं गुणं धारयतीति धर्मः । तं न धारयतीत्यधर्मः । यद्यपि सीवादिष्यपि अस्ति गतिहेतुतायाः साधारण्य तथापि न सत्र धर्मशम्वस्य वृत्तिः । प्रतिनियतविषया रुदयः इत्युक्तमेष । अथवा स्थितरुदासीनहेतुत्यादृधर्मः ।। न च जीयादीनां स्थितेरुदासीनहेतुत्यमस्ति । तायतावुभाषपि असंण्यातप्रदेशी एकतामेवोदइन्ती सूक्ष्मी निःकियो रूपादिरहितौ । माका अनंतमदेशाध्यासितं सबैषां अवकाशदानलामोपेतं । पुद्गलास्तु रूपरसगंधस्पर्शवंतः अणुस्कंधरूपभेदाद्विविधाः । कालो निश्चयेतरविकरूपः । जीवा उपयोगात्मका- एतानीन् । आणाप आशया । प्राप्तानां सावधारणं वेद । आशयय पक्ष ब्याणि सन्तीति श्रद्धातव्यं भवतीति राप्तवचनबलेनैव श्रद्धानं करोति । निक्षेपनयादिमुखेन प्रवृत्तयाधिगत्या सोऽपि सम्यक्त्यस्याराधकः । + धर्माधर्मनाकाल पुद्गलाजिनदशितान् ।। आज्ञया पानोऽपि नाममनो ! कि प्रमाणादिमुपेन सप्रपचं प्रवचनार्थमधिगम्य श्रद्दधानः सम्यक्त्वस्याराधकः स्यादुतान्योऽप्यस्ति इति अत्राह मूलाग-धम्मा इत्यादि -जीयपुद्गलयोः साधारण्येन गतिनिमित्तं धर्मः । तयोरेव साधारण्येन स्थितिइंतुरधर्मः । सयामवकाशदायकं आकाशम् । रूपिणः पुद्रलाः। वर्तनालक्षणः कालः । चेतनालक्षणो जीवः । एतान्यदेव गुण पर्यायत्याद्व्याणि 1 आशयापि पद्व्याणि संति इत्याप्रवचनबलेनापि प्रदधानः सम्यक्त्वमाराधयतीत्युक्तः । वृत्तं सर्वपापतिस्थितिपरीणामावगाहान्यथायोगाद्धमतदन्य कालगगनान्यात्मा त्वईप्रत्ययात सिधस्वस्य परस्य वास्नमुखतो मूर्तत्वतः पुद्गल - स्ते द्रव्याणि पढेव पर्ययगुणात्मानः कथंचिद्धृवाः ।। + ऊपरके पेज १२८ की गाथा नं. ३६ के नीचे जो श्लोक आया है वहां यह श्लोक आना चाहिये था और आगकी गाथा नंबर ३० के आगे गाथा नं. ३६ के नीचे वाला प्रोक आना चाहिये | गलतीसे ये उलदे लगा गये हैं । इसलिये यह श्लोक यहोपर लगा दिया गया है। पाठक सुधार कर पटेंगे ऐसी आश है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलाराधना आचाप्तः ARTS सविस्तर मागवचन, और सादे अर्थो ममता दुभागो उसके ऊपर श्रद्धा रखता है क्या वही सभ्यहष्टि है ? वही सम्यक्त्वाराधक है ? ऐसी शंका होनेपर आचार्य अन्य भी सम्यग्दृष्टि होता है ऐसा आगेकी गाथामें उत्तर कहते हैं हिन्दी अर्थ-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, काल, व जीव इन छह द्रव्योंको जिनेश्वरकी आज्ञासे श्रद्धान करनेवाला आत्मा सम्यक्त्वका आराधक होता है. विशेषार्थ-जीव और पुद्गल ये दो पदार्थ जहां रहे हैं ऐसे आकाशप्रदेशसे प्रदेशांतरमें दुसरेके निमित्तसे अथवा स्वभावतः गमन करते हैं, इन ो ही द्रव्योंमें क्रियायत्व धर्म है. परंतु धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्योंमें क्रिया नहीं है, जिनेंद्र. मगवान इनको निष्क्रिय कहते हैं, जीव और पुगलद्रव्यमें एक स्थानसे दुसरे स्थानमें गमन क्रिया होने में धर्मद्रव्य कारण माना गया है, अर्थात् धर्मद्रव्यमें गतिहेतुत्व यह धर्म है. अधर्म द्रव्यमें स्थितिहेतुत्व धर्म है. इसके निमित्तसे जीव और पुद्गलमें स्थिरता आती है. यद्यपि जीव पुद्गलादि भी गतिके लिये कारण होते है तो भी धर्मद्रव्यकाही यह असाधारण स्वभाव है अतः जीव पुद्गलको 'धर्म' ऐसी संज्ञा प्राप्त नहीं होती है. रूदि नियतविषयमही प्रवृत्त होती है ऐसा पूर्वमें कह चुके हैं. धर्मद्रव्य जैसा जीवपुद्गलके मतिमें उदासीन कारण है वैसा जीर गतिमें उदासीन नहीं है. वह दुसरेको गतिकार्यमें प्रेरक होता है. इस लिये उदासीन रूपसे गनिहेतुत्व धर्मद्रव्यमही है अन्यत्र नहीं है. अधर्मद्रव्य जीच पुद्गलके स्थिरतामें उदासीन कारण है. उदासीनरूपसे स्थितीको हेतु हो जाना यह स्वभाव अधर्मद्रव्यके सिवाय अन्यद्रव्यमें नहीं पाया जाता है. धर्मद्रन्थ और अधर्मद्रव्यके असंख्यात प्रदेश है, परंतु इनके ये प्रदेश आपस में मिलकर एकताको प्राप्त हुये हैं. ये द्रव्य सूक्ष्म, निःक्रिय और रूप, रस, गंध, स्पर्श इन गुणोंसे रहित अर्थात अमृत हैं. आकाश द्रव्य अनंत प्रदेशी है. संपूर्ण द्रव्योंकों अवकाश देनेका सामथ्र्य इसमें है. पुद्गल रूप, रस, गंध, स्पर्श इन गुणोंसे युक्त रहता है. उसके अणु व स्कंध ऐसे दो भेद है, कालके व्यवहारकाल व निश्यकाल ऐसे दो भेद हैं. जीव ज्ञान व दर्शनोपयोगमय है. ऐसे छह द्रव्योंका जिनेश्वरकी आज्ञासे जो श्रद्धान करता है वह सम्यक्त्वाराधक है. तथा जो निक्षेप नय वगैरहका आश्रय करके जीवादि पदार्थों का स्वरूप समझकर श्रद्धान करता है वह भी सम्यक्त्वका आराधक है. .-.. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आचासः जीवद्रव्य विपयं नियोगतः श्रयाने कर्तव्य हस्येतदालयानायोत्तरगाथा मसारममावण्णा य छुब्बिहा सिद्धिमस्सिदा जीवा ॥ जीवणिकाया एदे सहहिदव्या हु आणाए ॥ ३७ ॥ ॐ सिद्धाः संसारिणो जीवाः प्रयाताः सिद्धिमेकधा ॥ ___आज्ञया जिननाथानां श्रद्वेयाः शुददृष्टिना ॥१०॥ विजयोदया-संसारं चतुर्गतिपरिभ्रमण । समायण्णा भानाः शोभनाशोभन शरीरग्रहणमोचनाभ्युद्यताः, म्बयोगप्रयातीत पुण्यपापोदयजनित सुखदुःखानुभवनिरताः, । प्रसस्थावरकर्मोदयापादितघसस्थाबरभायाः, विचित्रमति. झानावरणोदयेन तत्क्षयोपशमविशेषण व पद्रिया, विफलेंद्रियाः, समंन्द्रियाः पर्याप्स्यपाप्तिकर्मोदयनिवर्तितपयिधपर्याप्त यस्तदितरे च. पृथिव्यादिशरीरभारोहनचतुराः, आयुराग्यप्रकृतिघनशृखलावगाढ़बंधनपराधीनमयः । नवयिकल्पयोनिसमाश्रयोपजाततनुम्वासक्तबुद्धयः, । जराडाकिनीपीतरूपरक्ताः, मृत्यूदुर राशनिसंपातचकितवेतसः संसारिणः छविधा प्रश्काराः पृथिम्यादिशरीरसंबंधतः । सिद्धि सम्यफचकेवलज्ञानदर्शनवीर्याव्यायाधत्वपरमसूक्ष्मवाघगाहमादिस्वरूपनिष्पत्तिम् । अस्सिदा आश्रिताः। जीवा जीवाः । ननु जीव प्राणधारणे इति वचनात् । जीवति प्राणाधारयति इति जीवः । प्राणाश्चेद्रियादयः कर्मनिर्वाः पुद्गलस्कंधधारणभूतेषु कर्मस्वसत्सु न विद्यते ततः कथं सिद्धानां जीवतेति ? नैष दोषः, द्विविधाः प्राणाः द्रव्यमाणा भावमाणाश्चेति । द्रव्यप्राण्या इंद्रियादयः यर्महेतुकाः। भावप्राणास्तु शानदर्शनादयः। न ते कर्मनिमित्तकाः । कर्माभावे प्रसूतेः । तेन भावप्राणधारणात् जीयता न्याय्या सिद्धानां । अथवा यदेव कृतप्राणधारणं पस्तु तदेयमिति प्रत्यभिज्ञोपदर्शितमेकत्वमाश्रित्य जीयध्यपदेशः सिद्धानाम् । अथवा जीवशब्दश्चेतनापति रूढशष्दः । रुढी च क्रिया व्युत्पत्त्यर्थेष तदसभः पि तदुपलक्षणगृहीतं सामान्यमाश्रित्य चर्तत एव । यथा गच्छतीति गौरिति व्युत्पादितोऽपि गोशब्दोऽसत्यामपि गती स्थिता गौर्मिपणेत्यत्र वर्तते । गमनेगाधरणोपलक्षितस्य गोत्वस्य सद्भावात् । एवं प्राणधारणोपलक्षितचैतन्पाश्रयाज्जीवशब्दस्य सिद्धेषु वृत्तिः । जीवनिकाया जीपसमूहाः । सहहिदव्या खुश्रद्धानन्याः एव । आणाए आप्तानामाक्षाबलात् ।। जीवाथद्धाने मुक्तिसंसारविश्यपरिमाप्तित्यागार्धायासानुपपत्तेरिति भावः। यदि नाम धर्मादिद्रब्यापरिशानान् परिझानसहचारिश्रद्धानं नोत्पनं तथापि नासौ मिथ्यार्दिर्शनमोहोदयस्य अश्रद्धानपरिणामस्याज्ञानविषयस्याभावात । न हि थद्भानस्यानुत्पत्तिरशहानं इति गृहीतं । श्रद्धानादन्यदधदान इदमिरथमिति श्रुतनिरूपितेऽरचिः । १३१ * यह शोक पल १२८ की ३६ बी गाथा के नीचे गलती: लग गया है वस्तुतः यहाँ ही चाहिये । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः जीवद्रव्य नियमेन श्रद्धेयं तदनद्धाने मुक्तिमस्मृतिनामित्यागार्थप्रयासानुपपत्तेरित्यनुशासितुमाह समावण्णा-प्राप्ताः शोभनाशोभनशरीरमहणमोचनाभ्धताः । छविड़ा पृथिव्याजोवायुबनस्पतिग्रसकायिक मेदान् । अम्सिदा आश्रिताः। शिकाया निकायाः समूहाः । आयाए आप्तानामामात्रछात् । यद्यपि च ज्ञानावरणोदया द्वर्मादरज्ञाने सति तमद्धानं नोत्पाते तथापि नासौ मिश्याष्ट्रिदर्शनमाहोदयजन्यस्य अश्रद्धानस्य ज्ञातव्यश्रद्धयविषय स्याभावात् । न हि श्रद्धानस्यानुत्पत्सिरश्रद्धानं किं तर्हि ? श्रद्धानादन्यदिवमित्यमिति श्रुतनिरूपितेऽर्थे रुचिः । - - STERRITOREDMRPBREAterAAAAPAARAMA जीवद्रव्यके उपर नियमसे श्रद्धान करना चाहिये इसके विवेचनके लिये उत्तर गाथा आचार्य कहते हैं हिंदी अर्थ-इस जगत में चार गतिमें भ्रमण करनेवाले जीवोंके छह प्रकार हैं. पृथिवी, हवा, पानी, अग्नि, बनस्पति ये पांच स्थावर काय जीव हैं. दीन्द्रियादि जीयोको त्रसकाप जीव कहते हैं, ऐसे छह भेद संसारी जीवके हैं, जिन्होंने झानावणादि आट कमका नाश करकं मुक्ति प्राप्त की है वे जीव सिद्ध है. जिनधरकी भाज्ञा इम जीवनिकायपर श्रद्धा करनी चाहिये. विशेषार्थ—पदकायके जीव संगारमें चार गतियों में भ्रमण कर रहे हैं. उनको शुभाशुभ कर्मके उदयम शुभाशुभ शरीर मिलते हैं तथा नट होते हैं. कभी कभी स्वतःके मनोयोग, वचनयोग और काययोगसे पुण्य कर्मबंध हो गया तो उनको सुख मिलता है. और यदि पापबंध हुवा तो दुःखानुभवमें उनको प्राप्तपर्याय खतम करनी पड़ती है. सकर्मके उदयसे हीन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रियतकके प्राणिोंमें उनका जन्म होता है, और स्थावरकर्मके उदयमे वे पृथिवी, हवा वगैरह प्राणिोंमें जन्म धारण करते हैं, विचित्र मतिज्ञानावरणके उदयसे और उसके क्षयोपशमविशेषम उनको एकन्द्रिय, विकलेंद्रिय और पंचेन्द्रियावस्था प्राप्त होती है, पर्याप्ति नाम कर्मके उदयमे यथायोग्य चार, पांच और इलाह पर्याप्ति प्राप्त होती हैं. यदि अपर्याप्ति नाम कर्मका उदय आवे तो अपर्याप्त बनते हैं. पृथिच्यादि शरीराको धारण करनेमें ये सब संसारी जीव चतुर हैं. आयुनाम कर्मरूप चटीमे जखड जानेसे पराधीन हो गये है. सचित्तयोनि इत्यादि नउ योनियोंसे उत्पन्न हुए शरीरमें इनकी मति आसक्त हो गई है. जरा- वृद्धावस्थारूप ढाकिनी इनका रूप और रक्त पीनेमें चतुर रहती है, मृत्युरूपी अनिवारणीय बज्रपातसे Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना इनका चित्त भययुक्त हो जाता है. एमे ये संसारी जीव पृथिवी, हवा, इत्यादि रूपसे छह प्रकारके है. जिनको सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, केवलदर्जन, अनंतशक्ति, अन्यावाधता, सूक्ष्मता, अवगाहन, अगुरुलधुता ऐसे आठगुणोंकी प्राप्तिरूपी मुक्ति पाप्त हो गई है वे सिद्ध जीव हैं. - शंका-जीव धातूका अर्थ प्राणधारण करना है, 'जीवति प्राणान्धीपति इति जीवः ' अर्थात् जो इंद्रियादि प्राणोंको धारण करता है वह जीव है ऐसी जीव शब्दकी निरुक्ति है. इद्रियादिक प्राणाकी उत्पत्ति कर्मसे होती है. परंतु सिद्धाको कर्म नहीं है अतः सिद्धोमें जीयत्व कैसा मानोगे ? उत्तर-द्रव्य प्राय और भाव प्राण ऐसे प्राणों के दो भेद है. इंद्रियां, आयु श्वासोच्छास और काय वल, मनोबल और वचनबल पे द्रव्यप्राण हैं, ज्ञानदर्शन वगैरह भावप्राण है द्रव्यप्राण कमसे उत्पन्न होते हैं. बैं भावप्राण कमसे उत्पत्व नहीं होते हैं. कार अभाव होनेपर उनका हा होता है. सिद्धोंको भाचप्राण हैं अतः वे जीव है यह सिद्ध हो चुका. अथवा जिन्होंने संसारावस्थामें द्रव्यप्राण धारण किये थे वेही अब सिद्ध बने हैं ऐसे प्रत्यभिज्ञानसे उनमें एकत्वसिद्धि होती है इस लिये एकत्वके आश्रयसे हम सिद्धोंको भी जीव कह सकते है. || अथवा जीव शब्दकी चेतनावान प्राणीमें रूढी है, अर्थात् जीव यह शब्द रूढि शब्द है. रूट शब्दमें क्रिया व्युत्पत्तीके लिये ही होती है. इस लिये वह क्रिया वहां नहीं भी हो तो भी उपलक्षणसे ग्रहण किये हुए सामान्यके आश्रयसे उस शब्दकी प्रवृत्ति होती है. जैस 'गछत्तीति गौः' इस निरुक्तिसे घनाया हुबा भी मोशन्द गमन त्रिया न होनेपर भी अर्थात् बैठी हुई वा खडी हुई गौमें भी प्रवृत्त होता है. क्योंकि अनित्यगमनक्रियासे युक्त गीत्वका गौमें सद्भाव है और गोशब्द उपलक्षणसे गोत्वका वाचक होता है, उसी तरह प्रकृत विषयमें माण धारणासे उपलक्षित चैतन्यके आश्रयसे जीव शब्दकी सिद्धोंमें प्रवृत्ति होती है, संसारी और मुक्त ऐसे जीवसमूहोंपर जिनाशासे श्रद्धा करनी चाहिये ऐसा इसका अभिप्राय है. जीवके विषयमें यदि श्रद्धा नहीं हो तो मुक्तिके साधनभूत रत्नत्रयकी प्राप्ति करना और संसारवर्धक मिथ्यात्वादि कारणोंका त्याग करना यह सब प्रयासमात्रही होगा. यद्यपि धर्मादि द्रव्योंका ज्ञान न होनेसे ज्ञानके साथ होनेवाली श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई तो भी वह सम्यग्दृष्टिही है, मिथ्यादृष्टि नहीं है. क्योंकि दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न दुवा जो अश्रद्धान जो कि अन्नानको विषय करता है वह यहां नहीं है. मिथ्यादर्शनसे उत्पन्न हुआ जो अश्रद्वान वह अरुचि रूप है अर्थात् SOMAN Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना यह वस्तुस्वरूप इस तरहसे है ऐसा जो आगममें कहा गया है, उस विषयमें अरुचि होना यह मिथ्यादर्शनरूप अश्रद्धान है. और प्रकृत विषयमें ऐसी अश्रद्धा नहीं है. यहां जीवादिकका ज्ञान नहीं है परंतु जिनेश्वरके प्रतिपादित जीवादि तत्व सच्चे हैं ऐसी मनमें प्रीति-नि उत्पन्न हो र वियोग समरनी चाहिथे. आश्वास १३५ अजालव्यं प्रकारांत पापि निदेष्टु उत्तरगाथा--पूर्व सद्यचिपयश्रधानमुकं, 'पश्चादतिशयप्रतिपादनार्थ जीवद्रव्यविषया अद्धा निरूपिता अनंतरगाथया । इह तु भास्त्रबादयोऽपि श्रद्धातल्या इति सूच्यते आसवसंवरणिज्जरबंधो मुक्खो य पुण्णपावं च ॥ तह एव जिणाणाए सदहिव्या अपरिसेसा ॥ ३८ ॥ आस्रव संवरं यं निर्जरां मोक्षमंजसा ।। पुण्यं पापंच सष्टिः अधाति जिनाज्ञया ।। ४१ ।। विजयोश्या-असयसंवरणिज्जर | आस्रवत्यनेनेत्यानयः । भानपत्यागच्छति जायते कर्मत्वपर्यायः पुगलानां येन कारपभूतेनात्मपरिणामन स परिणाम आनन । ननु कर्मपुद्रलानां नान्यतः आगमनमस्ति यमाकाशप्रदेशमाश्रित आत्मा सधैयायस्थिताः पुगलाः अनंतपदेशिनः कर्मपायं भजन्ते । 'एयक्ष्यितोवगाढ मिति वचनात् तत् किमुच्यते आगच्छतीति न दोषः । आगच्छन्ति टीफरते शानावरणाविपर्यायमित्येषं प्रदातव्यं । न देशान्तरपरिस्पद हागमन विवक्षितं । तेन तत्वोचनिन्दषमात्सर्याम्तरायासादनोपधातादयः जीवपरिणामाः कर्मस्वपरिणतेः पुनलानां साधकतमतया विषक्षिताः यासंवशम्देनोच्यते । अथवा आश्रयण कर्मतापरिणतिः पुद्गलाना आस्रव इत्युच्यते । सवियते संकभ्यते मिध्या शनादिः परिणामो येन परिणामांतरेण सम्यग्दर्शनादिना, गुप्त्यादिना वास संपरः । निर्जीयते निरस्यते यया, निर्जरण या निसरा । आत्मप्रदेशस्थ कर्म निरस्यते यया परिणत्या सानिर्जरा। निर्जरणं पृथग्भयन विश्लेषणं या कर्मणां निर्जरा। मोक्ष्यतेऽस्यते येन मोक्षणमात्र वा मोक्षः। निरवशेषाणि कर्माणि येन परिणामेन क्षायिकशानदर्शनयथाण्यातचारित्रस शितेन अस्यते स मोक्षः । विश्लेषणे या समस्तानां कर्मणां । बध्यते अस्वतंत्रीक्रियन्ते कार्मणद्रव्याणि येन परिणामेन आरमनः स बंधः । अथवा वापते परवशतामापाद्यते सत्मा येन स्थितिपरिणतेन कर्मणा तत्कर्म बंधः । पुण्यं नाम अभिमतस्य प्रापकं । पापं नाम अनभिमतस्य प्रापकं । इह बंधशब्देन जीवपरिणाम पत्र गृहीतः न कर्म एच, पृथफ पुण्यपापग्रहणात्। ननून परिणामेन जीवपुत्रलयोरेवांतर्भाय आस्वादीना जीवपुलायथद्वानस्य पूर्वमुपन्यस्तत्वात किमर्थमिद सूत्रमिति नैप दोषः । विनेयाशयवैचिच्याद्देशनाभेद भागमवाश्येषु । ततः श्रद्धा तत्र सर्वत्र कार्येति चोदितं भवति । अश्रद्धानं न मनागपि कार्यम् । १३४ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ torrARATARATI मृलाराधना भाश्चाम: १३५ BRes भानयादितत्वं जीवपुद्रव्योः पर्यायधिशेषत्वात्तच्छदेयत्वनिरूपणार्या श्रद्धेयतया निरूपितमपि विनेयाशययैचित्रीवशात् पृथक् श्रद्धेयतया निर्देष्टुभाह मूलारा-आसय-आत्रपन्न्यागच्छन्ति मानावरणादिकर्मभावं तयोग्याः अनंतप्रवेशिनः समानदेशस्याः पुद्रला येन मिथ्यावर्शनादिना तत्प्रदोषनिहाविना पर विघ्नकारण तेन जीवपरिणामेन स आनषः । अथषा आसषणमात्रषः । पुद्गलाना कर्मत्वपरिणतिः । तथा चोक भत्ता कुणाव सहावं तत्थगदा पुग्गला सहादि । गच्छति कम्मभावं अण्णोण्णागाहमषगाढा । संघर--संघियते निरुध्यते आसपो येन सम्यग्दर्शनाविना, गुप्त्यादिना या जीवपरिणामेन स सबरः ! सवरण संवरः । ज्ञानावरणादिकर्मयोग्यानां पुद्गलानां तद्भाव--परिणतिानवारणं । हिजर-निर्जीयते आत्मप्रदेशादेकदेशेन पृथक् क्रियते कर्म यया जीवपरिणत्या सा । अथवा निर्जरणं निर्जरा । कर्मणामेकदेशेन संभयः । बंधो-यभ्यतेऽस्वतंत्री. क्रियते कर्मद्रव्याणि येन स्थितिपरिणामेन भारमनः स बंधः । अथवा यथ्यले परवशतामापाद्यते आत्मा येन स्थिति परिणामेन कर्मणा तत्कर्म बंध: । यदि वा बंधनं बंथः, जीर्वकमणोरन्दोऽन्यप्रदेशानुप्रबेशः । मोक्खा मोक्ष्यतेऽस्वते आत्मनः पृथक क्रियते समस्तानि कर्माणि येन संपूर्णरत्नत्रयलक्षणेनात्रपरिणामन से मोक्षः । अथवा मोक्ष्यते विशिष्यते जीवो येन नीरसौभूतेन कर्मणा । तच्छादितफलदानमामय कर्म मोक्षः । यदि वा मोक्षग मोनः जीव शर्मगोगत्यतिको विनमः । पुण्गपावं-पुण्यं सद्वेषभुभायुनानगात्रागि अतोऽन्यत्कर्म पापं । प्रथगनयोहगादिह बंध शब्देन जीवपरिणाम एव गृहीतो लक्ष्यते । न कर्म नापि बंधनक्रिया । अपरि सेसा समापि । FOHOKES श्रद्धाके विषयका विवेचन प्रकारांतरसे आचार्य करते हैं. प्रथमतः सर्व द्रव्य श्रद्धानके विषय कहे हैं, अनंतर महत्व दिखानेके लिये जीव द्रव्यकी श्रद्धा करनी चाहिये ऐसा कहा. अब प्रस्तुत गाथामें आस्रवादि तस्बोंपर भी श्रद्धा करनी चाहिये ऐसा आचार्य कहते हैं हिंदी अर्थ-आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष, पुण्य और पाप ऐसे बाकीके पदाथोंपर भी जिनभगवानकी आज्ञासे श्रद्धान करना चाहिये. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आधासः AR T HASTRIES विशेषार्थ-आत्माके जिस परिणामसे पुद्गलद्रव्य कर्मरूप बनकर आता है उस परिणामको आस्रव कहते हैं. अर्थात् आत्मपरिणाम पुद्गलमें कावस्था उत्पन्न होने निमित्त हुआ अतः आत्मपरिणामको आस्रव-भावानव कहते हैं. और पुद्गलकी कर्मरूप परिणातिको द्रव्यालय कहते हैं. शंका - कर्मपुद्गलोंका अन्य स्थानसे आगमन नहीं होता है: जिस आकाशप्रदेशमें आत्मा है उसी आकाशप्रदेशमें अनंतप्रदेशी पुद्गल द्रव्य भी है. और वह कर्मस्वरूप बन जाता है. 'एयक्वित्तोबगाढ' ऐसा कर्मपुद्गलके विषयमें आचार्य वचन कहने हैं अर्थात् कर्म और आत्मा एक प्रदेशाबगाही है ऐसा शास्त्र वचन है. इस लिये आप पुद्गलद्रव्य आत्मामें आकर कर्मरूपता धारण करता है ऐसा क्यों कहते हैं ? उसर - आपकी शंका ठीक है यहां पुद्गलद्रव्य आता है इसका अभिप्राय ऐसा ममझना चाहिये 'आगच्छति दौकन्ते ज्ञानावरणादिपायमित्येवं ग्रहीतव्यम्' अर्थात् जीवमें पुद्गल आते हैं ज्ञानाबरणादि पर्यायको प्राप्त होते है. ऐसा अभिप्राय यहां समझना चाहिये, देशान्तरसे आकर पुद्गल फर्मावस्था धारण करते हैं ऐसा कहनेका हमारा आशय नहीं है. अतः प्रदोप, निन्हव भान्सादिक जीवके परिणाम प्रदगलकीकर्मरूप परिणति होनेमें माधकतम है. अर्थात जीवके मात्सत्यादिक परिणाम हानसही पुद्गल, कमरूप होता हे अन्यथा होताही नहीं. जीवपरिणाम करण रूप है. करणरूपपरिणामकी मुख्यता जब मानी जाती है तब उस परिणामकोही आस्रव कहते हैं. अथवा 'आम्रवर्ण कमतापरिणतिः पुगलाना आखपशब्देनोच्यते पुद्गलोंकी कमरूप परिणतिमें भी आसव शब्दका व्यवहार किया जाता है. इसको द्रव्यास्त्रव कहना चाहिये. संचर-जिस सम्यग्दर्शनादि परिणामोंसे अथवा गुमि, समिति, धर्म, अनुप्रक्षा, परिषह जय इत्यादि परिणामोंसे मिथ्यादर्शनादि परिणाम रोके जाते हैं वे रोकनेवाले परिणाम संवर शब्दसे कहे जाते है, अर्थात् सम्यग्दर्शनादि परिणाम वा गुप्त्यादिपरिणामोको आचार्य संवर कहते हैं, उसको ही भाव संवर कहना चाहिये. निर्जरा-आत्माके जिन परिणामोंसे आत्मासे कर्म झह जाता है उसको निर्जरा कहो. अर्थात् आन्माके प्रदेशों में जो कर्मबद्ध हो चुका है वह जिस परिणामों के द्वारा वहांसे अलग किया जाता है ऐसे परिणामाका नाम निर्जरा है. अथवा कर्मका आत्मासे अलग हो जाना यह भी निर्जरा है. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १३७ मोक्ष - जिससे कर्म दूर किया जाता है वह मोक्ष अर्थात् क्षायिकज्ञान, धार्थिकदर्शन, यथाख्यात चारित्ररूप जिनपरिणामोंसे आत्माके संपूर्ण कर्म आत्मासे दूर किये जाते हैं उनको मोक्ष - भावमोक्ष कहो अथवा संपूर्ण कमका आत्मासे अलग हो जाना वह भी मोक्ष अर्थात् द्रव्यमोक्ष है. बंध - जिस मिध्यादर्शनादि परिणामो काम द्रव्य किया जाता है अर्थात् तक उसकी स्थिति पूर्ण नहीं होती तबतक आत्मामें उसको परतंत्र होकर रहना पडता है ऐसे कर्मको परतंत्र करनेवाले मिभ्यादर्शनादि आत्मपरिणामोंका संघ- भावबंध कहते हैं, अथवा स्थिनिबंधयुक्त कर्मकेद्वारा आत्मा परतंत्र किया जाता है इस लिये कर्मको भी कहते हैं, वह कर्म द्रव्यरूप समझना चाहिये. पुण्य - इष्ट पदार्थोकी प्राप्ति जिससे होती है ऐसे कर्मको पुण्य कहते हैं. पाप - अनिष्ट पदाधांकी प्राप्ति जिससे होती हैं ऐसे कर्मको पाप कहते हैं. यहां बंध शब्दसे जीवके परिणामोंकाही ग्रहण किया हैं. कर्मका ग्रहण किया नहीं है. पाप और पुण्यका अलग ग्रहण किया है अतः उससे कर्मका ग्रहण किया है ऐसा समझना चाहिये. शंका-- आपने परिणामोंका वर्णन किया है इससे आसव, बंध, संचर, पुद्गलोंमें अंतर्भाव होता है. जीव और पुङ्गलका पूर्व गाथामें आपने वर्णन किया है. करनेवाली यह सूत्रगाथा व्यर्थसी मालूम पड़ती है, उत्तर - आपकी शंका ठीक है, शिष्योंके अभिप्राय भिन्न भिन्न हुवा करते हैं अर्थात् कोई संक्षेपरुचि रहते हैं, किसीको विस्तार प्रिय रहता है और कोई शिष्य मध्यप्रकार प्रिय होते हैं. अतः वे समझ सके ऐसे मार्गोका - तत्व कथनकी प्रणालीका आगममें कथन है. इस लिये आचार्यने दो तीन प्रकारोंसे जीवादि पदार्थोंका स्वरूप कहा है. यह योग्यही हुवा है. इसलिये भव्याने तत्व विवेचनके सर्व प्रकारभि श्रद्धा करनी चाहिये. थोडीसी भी अश्रद्धा नहीं करना चाहिये. 4 निर्जरा व मोक्ष इनका जीव अतः आस्रवादिकों का वर्णन freefear किमल्पस्य अश्रद्धानेन भवति ? बहुतरं श्रद्धीयते इत्याशंका न कार्येत्येतदाचष्टेपदमक्खरंच एकं पि जो ण रोचेदि सुत्ताद्दिहं ॥ सेसं रोचतां बिहु निच्छादिट्टी मुणेयव्यो ॥ ३॥ आधारः १३७ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधासा १३८ नेकमप्यक्षरं येन रोच्यते तत्त्वदर्शितम् ।। स शेर्ष रोचमानोऽपि मिथ्यावृष्टिरसंशयम् ॥ ४२ ॥ विजयोदया--पदमावर प्रति । पदमप्लेन पदशम्यस्य सहकारी पदस्यार्थ उच्यते । अपनरं च प्रति स्वल्पशन्दो पलक्षणं स्वल्पमप्यर्थ शम्मश्रुतं या नोया। ण रोदिन रोचते । सुसणिदिई पूर्वोत्तप्रमाणनिर्दिम् । सेसं इतरश्रुतार्थ भुतांश । रोचतोऽपि मिच्छाविष्टी मिथ्याइधिरिति । मुणेदव्योहातव्यः । महति कुडे स्थित बकपि पयो यथा विषकणिका दूषयति । पचमश्रदानकणिका मलिनयत्यारमनमिति भावः। बहुतरं श्ररघतोऽस्पस्याश्रद्धाने किं मे मिष्यामित्व मादित्याशा न कार्या, बृहत्कुण्डसंभृतश्रीरस्व विष कणिमाप्रश्नपत्र तत्वावधानकणिक याप्यात्मनो दुष्यत्वारिति शिक्षा प्रयाछत्राह मूदाराः पदं, पदस्थार्थ साहवर्धात् । अक्खरं स्वल्पमप्यय शब्द श्रुतं चा । हम बहुतोंपर श्रद्धा करते हैं और थोडेकी अश्रद्धा करते है तो हम मिथ्यारष्टि कैसे होंगे ऐसी शंका नहीं करना चाहिये. इसका खुलासा आचार्य करते है हिंदी अर्थ-मूत्र में कहा हुवा एक पदका अर्थ और एक अक्षरका भी अर्थ जो प्रमाण भूत मान कर श्रद्धा नहीं करता है वह बाकीके श्रुनाथको या अतांशको प्रमाण मानता हुवा भी मिथ्यादृष्टिही है ऐसा समझना चाहिंय. बड़े पात्रमें रक्खे हुए बहुत दूधको भी छोटीसी विषकणिका बिगाइती है. इसी नरह अश्रद्धाका छोटासा अंश भी आत्माको मलिन करता है ऐसा समझना चाहिये. मिथ्याधिरिति मातम्यमित्युकं स एवज्ञायते एवंखरूप इत्याशंकायां मिथ्याष्टिस्वरूपनिरूपणार्थी मापा मोहोदयेण जीवो उबइठं पवयणं ण सददि ॥ सहहदि असम्भाचं उबइठं अणुबइ8 वा ॥ ४० ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः मोहोदयाकुलस्तत्वं तथ्यमुक्तं न रोचते ॥ जंतुरुक्तमनुक्तं वा विपरीतं तु रोचते ॥ ४३ ॥ चिजयोदया-मोहोदयेणेनि | मोहोदयेय ण सहदि सो मिच्छादिङ्गीति । मोहयति मुहातेऽनेनेति वा मोदी दर्शनमोहनीयाच्यं कर्म मरोन जुन्यबीर्थम । यथा मद्यमान्यमान अपाटवं प्रशाया वैपरीत्यं च संपादरासि । मियादृष्टः कि लक्षणमित्याह मूलारा:-मोहोदयेण-मद्यमिय प्रज्ञा मोयति, अपाटवं वैपरीत्यं या यो नवति, मोझते येन वा स मोहो मिथ्यात्यकर्म सस्योदयः सहकारिसानिध्यायप्रतिबद्धा म्वकार्ये प्रमान्तिः : एमग तम्गाभायं : भन्नकार्य असत्त्वं । अत्र साभ्याहारत्वात्सूत्राणमित्य पवघटना । यो जीवो मोहोदयेन कारणेन सभ्यग्गुरूपविष्ट न अद्भुते सद्भावं पुनः उपविष्टमनुपदिष्टं या अधाति स मिघ्यारष्टिरेष्टव्यः । तथा च मूले सूक्तमन्यास्यायते मिच्छ वेदन्तो जीयो विवरीयसणो होदि ॥ ण य धम्म रोचेदि हु महुरं खु रसं जहर जरिदो । ‘मिच्छादिही मुणेयञ्चा' अर्थात् अल्पभी अश्रद्धा करनेवाला मिथ्यादृष्टि समझना चाहिये ऐसा आपने कहा है परंतु उसका स्वरूप हमको मालूम नहीं है ऐसी आशंका होनेपर आचार्य मिथ्याष्टिका स्वरूपनिरूपण करने के लिये गाथा कहते हैं हिंदी अर्थ-दर्शन मोहनीयकर्मका उदय होनेसे यह जीव कहे हुए जीवादि पदाथोंके सच्चे स्वरूपपर श्रदान फरता नहीं है. परंतु जिसका स्वरूप कहा है अथवा कहा नहीं ऐसे असल्य पदार्थों के ऊपर यह प्रदान करना है. जैसे मदिगका पान करनेसे मनुष्यके युद्धीमें मंदना आती है और वह पदार्थका स्वरूप उलटा जान लेता है वैसे ब, दर्शनमोहनीयकम भी मदिराके समान शनिको धारण करता है. यह कर्म आत्माको मोड युक्त करता है. समलिन असलर पदाधाको बह पत्य समझकर उसमें अदा करता है. भश्वा पदार्थका स्वरूप जानता नहीं है. १ खपुस्तके-मोहोदयेणेति--साध्याहारस्यात्मूत्राणां अध्याहारेणैवं पदघटना । जो जीवो इति । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मूलाराधना आश्वासः मिच्चत्तं बंदतो जीवो विवरीयदसणो होदि । ण य धम्म रोचदि हु महुरं स्खु रसं जहा जरिदो ।। ४१ ।। मिथ्यात्वं वेदरानगी न तत्त्व कुरुते रुचिम् ।। कस्मै पित्तज्वरा य रोचते मधुरो रसः? ॥ ४४ ।। विजयोदया एवं मिथ्यात्वस्य कर्मत्वकल्पितस्य उदयः सशिहितसहकारिफारणस्य स्थकार्यजनने प्रतिबत्तिस्तेनोदयेन कारणेन निरुपितं वस्तुयाधात्म्यं न असे अतत्वं तु कथितं अकथितं पा खसे । वस्तुयाधात्म्याथशाने को दोषो येन कारणेन निरूपितं वस्तुयाथात्म्यं न इसे । अतत्वं तु कधितं मकथितं घा भरते। हिंदी अर्थ-मिथ्यात्व कर्मका अनुभव लेनेवाला यह जीव विपरीत श्रद्धावाला बन जाता है, उसको जैनधर्मका स्वरूप अच्छा मालूम नहीं होता है. जैसे ज्वरपीडित मनुष्यको मधुर भी खांडका रस कटु ज्ञात होता है. जब सहकारिकारणोंकी मदत मिथ्यात्व कमको मिलती है तब वह अपना कार्य करने में कटिबद्ध होता है. अ. र्थात् वस्तुका यथार्थ म्वरूप बतानेपर भी जीव इस कर्मके उदयसे उसपर श्रद्धान नहीं करता है. और अतच्चक ऊपर उसका स्वरूप कहो अथवा न कहो श्रद्धा हो जानी है. बस्तुके यथार्थ स्वरूप पर अश्रद्धा होनम अनवमें श्रद्धा हो जाती है यह दोष उत्पन्न होता है. वस्तुयाथात्म्याचजान को दोपो येन तम्प्रतिपक्षश्रद्धानभावनामा तदपास्यते इत्याशंकाच अश्रद्धानकन दोपमाद्वारम्यख्यापनार्थी गाथा सुविहियमिमं पवयणं असहहन्तेणिमेण जीवण ।। बालभरणाणि तीदे मदाणि काल अणताणि || ४२ ॥ अनेनाप्रधान जिनवागमनेकशः ।। बालबालमृतिःमाप्ताः कालेऽतीते ( यतोऽट्रिना) ॥ ४५ ।। विजयोवथा-सुपिडिमिति । सुष्ठ विहितं कृतं पूर्वापरविरोधशेषरहितवस्तुयाथारम्यवाहि विशानकारण । इम इदं । पचयर्ण प्रषचनं । असइहतेण अश्रावधानेन । इमेण अनेन । जीवेण जीवन पथमच पदसंबंधः । चालमरणाणि Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचना १४ १ अाणि मदानि तीदे काले हति । बालमरणान्यनंतानि गतीतकाले मृतानि । ननु मिथ्यादर्मरणं बाबालमरणं त सुज्यतेऽपि विद्यते इति वालमरणानीत्युक्तं । ========== तवा श्रद्धाने को दोषो येन तत्सम्यक्त्वभावतया निरस्यते इत्यत्राह – मूलारा सुविद्दिदं द्रष्टेष्टावि पूर्वापविरोधहने वा । केचित्तु सुबिदि इति पठति । ६ सुचरित्र इति व्याख्यानयंति च । इमं इदं गुरुपर्वक्रमायातं इमिणा अनेन स्वसंवेदनसिद्धेन । बालमण्यानि बालबालमरणानि बाह्यत्वसामान्यस्य बालबालेऽपि विद्यमानत्वात् । सीदे अतीते । मदाणि मृतानि प्राप्तानि धातूनामनेकार्थत्वात् । F वस्तुके यथार्थ स्वरूपमें श्रद्धा न करनेसे कौनसा दोष उत्पन्न होता है. कि जिसको यथार्थ श्रद्धान की भावनाके द्वारा दूर करना पडता है. ? ऐसी शंका होनेपर अश्रद्धानले उत्पन्न हुए दोषका माहात्म्य वर्णन करनेके लिये उत्तर गाथा कहते हैं हिंदी अर्थ --- यह जिनागम पूर्वापरविरोधादिदोषरहित है. और वस्तुकें यथार्थस्वरूपका ग्रहण करनेवाले ज्ञानको उत्पन्न करता है. परंतु ऐसे आगमके ऊपर अश्रद्धान करनेसे इस जीवने अतीत कालमें- भूतकालमें अनंत चालबालमरण किये हैं. शंका मिथ्यादृष्टीके मरणको बालबालमरण कहते हैं और आप उसके मरणको चालमरण कहते हैं, उत्तर --- बालत्व नामका सामान्य धर्म बालबालमरणमें भी विद्यमान है इसलिये उसको बालमरण कहते हैं. कीदृशी मितिः कार्या संसारभीरुणा णिग्गंथ पञ्वयणं इणमंत्र अणुत्तरं सुपरिसुद्धं ॥ इणमेव भोक्खमग्गोत्तमदी कायव्विया तम्हा ॥ ४३ ॥ इदमेव बची जैनमनुत्तममकल्मषम् || निर्भयं मोक्षवत्र्मेति विधेया धिषणा ततः ॥ ४६ ॥ विजयोदया- जिथं पव्वणं । प्रथनंति रचयन्ति दीघांकुर्वन्ति संसारमिति ग्रंथाः । मिथ्यादर्शनं, मिथ्या आश्रासः १४१ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कान १४२ ज्ञानं, असंयमः कषायाः अशुभयोगत्रयं चन्यमी परिणामाः । मियादर्शनानिकान्तं किं सम्यदर्शनं । मिथ्याज्ञानाभिष्यां सम्यग्ज्ञानम् । असंयमात्कपायेभ्योऽशुभयोगत्रयाश्च निष्क्रान्तं सुचारिषं तेन तत्त्रयमिह नित्र्यशब्देन भण्यते । प प्रवचनस्येदं अभिधेयं । मेव इदमेव अणुसरं न विद्यते उत्तरं उत्कृष्टमस्मादिति अनुत्तरम् । सुपरिशुद्धं सुष्ठु परिशुद्धं । णमेव इदमेष | मोस्वमग्गोत्ति कर्मणां निरवशेशपायस्थोपाय इति । मदी बुद्धिः कार्यान्विया कर्तव्या । तम्हा तस्मात् यस्मादेवंभूतायामस्य दुःखी विषयति का भविष्यतीति । भगवन्यद्येवं तर्हि संसारभीरुणानेन कीदृशी मतिः कर्तव्येत्यत्राह - मूलारा-निमांथमित्यादि--प्रधनंति रचति दीर्घीकुर्वन्ति संसारमिति अंथा मिध्यादर्शनादयः । तंत्र मिध्यादर्शना निष्क्रान्तं सम्यग्दर्शनं मिथ्याज्ञानात्सम्यग्ज्ञानं, असंयमकपायाशुभयोगेभ्यश्च सम्यक्क्षारि इति । रत्नत्रयमत्र निय शब्देनोच्यते ॥ पात्रयणं प्राचनं प्रवचनस्य जिनागमस्य अभिधेयं केवलिप्रशान्तमित्यर्थः । अन्ये तु निःसंगं प्रवचनमिति प्राधान्येन व्याचक्षते । इणमेव सुपरिसुद्धं इदमेव सुषु समन्तान्निर्दोष सत् । अनुत्तरं लोकोत्तमं । केवलिपण्णत्तो श्रम्मी लोगोमो, इति वचनात् । मदी मतिरभ्युपगमः । कान्विया कर्तव्या । तम्हा तस्मात् । यत एवंत्रिधां मि वता अनेन जीवेन दुःखेकमये भवार्णवे अनादिकालं भ्रान्तमिति भावः । संसारसे डरनेवाले मनुष्यको अपने मनमें कैसे विचार करने चाहिये इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते हैंहिंदी अर्थ - जो संसारको गूंथते हैं अर्थात् जो संसारकी रचना करते हैं, जो संसारको दीर्घकाल तक रहनेवाला करते हैं उनको ग्रंथ कहना चाहिये. मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अनंयम, कपाय, अशुभ योगत्रय अर्थात् अशुभ मनोयोग, वचनयोग और काययोग इन परिणामको आचार्य ग्रंथ ऐसा नाम देते हैं. मिथ्या श्रद्धा जब हट जाती है तब सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है. मिथ्याज्ञान नष्ट हो जानेसे सम्यग्ज्ञान पैदा होता है. असंयम, कपाय और अशुभ तीन योग इनसे रहित जो चारित्र उसको सम्यक्चारित्र कहते हैं. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको अर्थात् रत्नत्रयको आचार्य निर्ग्रन्थ यहं संज्ञा देते हैं. यह निर्ग्रन्थ ही अर्थात् रत्नत्रय ही जगतमें सर्वोत्कृष्ट पदार्थ है. इससे भी उत्कृष्ट पदार्थ दूसरा कोई भी नहीं है. यह पदार्थ पूर्ण निर्दोष हैं. यही मोक्ष है. अर्थात् इससे ही संपूर्ण कर्मोंका नाश होगा. ऐसा मनमें सदा विचार करना चाहिये. इस तरहका विचार आश्वासः १५२ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मला यदि न हो तो जैसे भतकालमें जन्ममरणके दुःख इस जीवको भोगने पड़े थे ऐसे ही दुःख भविप्पत्कालमें भी अवश्य मोगने पड़ेंगे. आश्वासः मम मम्मका निरतिवारं गुणोज्वलिन भायनीय इयतदानऐ उत्तरमधेन तत्रातिचारनिवेदनार्थोत्तरगाथा सम्मत्तादीचारा संका करखा तहेव विदिगिछा ।। परविठ्ठीण पसंसा अणायदणसेषणा व ॥ ४ ॥ शंकाकांक्षाचिकित्सान्यदृष्टिशंसनसंस्तवाः॥ सदाचाररतीचाराः सम्यक्त्वस्य निवेदिताः ॥ ४७ ॥ विजयोदया-सम्मसादीचारा भवानस्य दोषाः । संका शंका, संशयप्रत्ययः किं स्विदित्यनषधारणास्मकः । स निश्चयप्रस्ययाश्रयं दर्शने मसिनयति । ननु सति सम्यपत्ये प्ततिचारो युज्यते । संशयन मिथ्या. स्वमायहति । तथाहि मिथ्यात्यमेवेचु संशयोऽपि गणितः। संसदमभिगहिवं अणभिग्गदिदं च तं तिधिध ' इति । सत्यपि संशये सम्यग्दर्शनमस्त्येषेति अतिचारता युक्ता । कथं ? श्रुतज्ञानाधरणक्षयोपशमधिशेषाभावात् उपदेष्टुरभावात् , तस्य था पवननिपुणता नालि, तन्निर्णयकारिश्रुतयचनानुपलब्धेः, अभावाद्वा, काललम्धेरभावाद्वा यदि नाम निर्णयो नोपजायते । तथापि तुर्द यथा सर्वबिदा उपलब्धं तथैवेति असहमिति भाययतः कथं सम्यक्त्वहानिः । एवंभूतधद्वारहितस्य को वेति किमत्र तत्व मिति अहऐषु कपिलादिषु सर्चशतष तुरपधारा, अयमेव सर्ववित्रेतर रति भागमशरणतायां को घस्तुयाधात्म्यानुसारीको घा नेति संशय पवेति यत्तत्त्वाश्रद्धानं संशयप्रत्ययोपनीतत्वासत्संशयमिथ्यान्वमित्युच्यते । अश्रज्ञानरूपतव लक्षणं मिथ्यात्वस्य यथा पक्ष्यति तं मिच्छस समसइइणं तशाण होदि अस्थाण' मिति । अन्यथा मिथ्याशानस्य मिथ्यावर्शनस्य च मेदोन मेवेद, भेदश्च स्फुटो चाफ्यांतरे 'मिच्छाणाणमिच्छाईसण मिच्छाचारितादो परिविरदोमीति'। किं च व्यस्थानां रज्जूरगस्थाणुपुरुषाविषु किमियं रज्जूरुरगः, स्थाणुः पुरुषो पाकिमित्यनेकः संशयप्रत्ययो जायते इति ते सम्यग्दृष्टयः स्युः ।। कांना गाड्या आसक्तिः, सा च दर्शनस्य मर। यो आहारे कांक्षा, स्त्रीवस्त्रगंधमायालंकारादिषु वायरसम्यग्दृष्टरिताभिरतम्य या भवति । यथा प्रमनुसंयतस्य परीपहाकुलस्य मझ्यपानादिषु पंक्षा सभवतीनि मानिचारदर्शनता स्यात् । तथा मध्यानां सुग्नकांक्षा असल्येयेत्यत्रोच्यते न कांक्षामाप्रमतीचारः किंतु दानाद्रनादानाहेवपृजाधास्तपसश्च जागेन पुण्येन ममेदं कुलं, रुप, विसं, स्त्री-पुत्रादिकं, शत्रुमर्दन, स्त्रीत्वं. 'स्वं या सातिदार स्यादिति कांक्षा इह गृहीता एपा अतिचारो दर्शनस्य । HTTE १४३ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलारावर आश्वासा विचिकित्सा जुगुप्सा मिध्यान्यासंयमाविषु अगुप्सायाः प्रवृत्तिरतिचारः स्यादिति चेत् हापि नियतधिपया जुगुप्सेति मतातिचारत्वेन । रत्नप्रयाणामन्यतमे तद्वति वा कोपादिनिमिता शुगुप्साह एवीता। तसस्सस्य दर्शन, सान, चरणं वाऽशोभनमिति । यस्य छिदं भद्रं इति श्रद्धानं स तस्य अगुप्सां करोति तितो रत्मवपमाहारम्या रुचिर्युज्यतेऽतिचारः ।। परदिठ्ठीण पसंसा परशब्दोऽनेकार्थयाची । नापरो प्रामः पाटलिपुत्रादित्यावी । तथा कचिवम्याथै, परे आचार्या अन्ये इत्यर्थः । तथा इमाथे, परं धाम गतः इमिति यावत् । इह तु धन्यवाची । रष्टिः धडा रचिः परा अन्या रणिः श्रद्धा येषां ते परहणयः । तत्त्वहनापक्षाया अतत्वदृष्टिरन्या तेषां प्रशंसा स्तुतिः । अपायदणसवणा चय-अनागतनं पइविध मिथ्या, मिथ्याश्य, मिथ्याज्ञानं, तसन्तः, मिथ्याचारित्र मिथ्याबारित्रवन्त निमिध्यान्वमशदान तनवायां मिथ्यारिचासी नातिचारता । मिथ्याणीनां तु मया बहु मननं तणं । मिथ्याशानसया नाम निरपक्षनयदर्शनोपवा इदमेव तस्यामिति श्रद्धानम्पादयामि श्रोतगामिति कियमाणो मिथ्याशानिभिः सह संवासः । तत्र अनुरागो वा ददननिर्वा तत्सेवा । मिथ्याचाग्निं नाम मिध्या शानिनामाचरण तषानुवृार्तद्रव्यलाभाद्यपंप्रया द्रव्यालाभोपतप पा सांगत्यादिकं एतेषां सम्यकस्यानिचाराणां वजनं । एवं उत्पन्न सम्बन्धनबारपरहार भाग्यमान महायं लभते इति सम्यक्त्वातिचारानिदिशक्ति - मूलास-- शेका-. संशयप्रत्ययः किं यदि यनय यात्मक: स चेह ज्ञानावरणकदिवमात्रप्रवृत्त विवक्षितो, न मिथ्यात्वकोदयनिमित्तस्तस्यैव निश्चयप्रत्ययाश्रयं दर्शन प्रनि महत्वोपपलनतरस्य । तस्य मदर्शनोपमईनात्मक मिथ्यादर्शनाबिकल्पात्मकत्वना वक्ष्यनागावात । तथादि-इदं वस्तुजा सवन यथादृष्टं तथैवति प्रतिपाद्यमानस्यैव यदा स्वस्य शुनज्ञानावरणक्षयोपशमविशेपाभावान, उपदेशकविरहात्तस्य वा सताऽपि बचनचातुर्यवेधु निर्णयकारि श्रुतवचनानुपलब्धेर्वा, काललधेरभाषावा किमिदीदृशं या अन्यदन्याथै बा तत्वमिति संशयः स्यात्तदा दर्शनस्यातिचारः शंकेति व्यपदिश्यते । यदा पुनरहषु सर्वज्ञतैय दुषधारा अयमेव सर्वज्ञो नेतर इति आगमशरणतायामपि आगमेषु को वस्तुयाथात्म्यानुसारी को या नेति मिथ्यात्वकर्मपाकपारतंत्र्यात्संशयमाभिनिवेशमानस्य तत्त्वाश्रद्धानमुदेति । तदा संशयप्रत्ययोपनीतत्यात्तत्संशयमिथ्यात्वमित्युच्यते । न संशयोऽस्सीत्येतायतैव दर्शनस्यातीचारो वाध्यः किं सर्हि प्रवचन गोचरायां चलत्या प्रतीतो सत्यामन्यया अन्नत्यानां समरष्टीनां रज्जूरंगस्थाणुपुरुषाविषु किमयं रज्जुक्त सर्पः, स्थाणुः 'पुरुषो वा किमित्यनकः संशयात्ययो जायते । इति निःशंकत्वं सुदुष्करं स्यात् । वथा अत्राणभयमपि शंका केचिदाहुः । O Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १४५ तथा वो दमको ज में कचिदस्ति जगत्रये ॥ इति व्याधित्रजो कान्तिभीति शंकां विदुः पराम् ॥ १ ॥ केला आकांक्षा | सा चेह प्रतिनियतविषयैव माझा न तु सार्वनिकी, अन्यथा असंयतसम्यग्टष्टादेरपि स्त्रीवस्त्रालंकारभक्तपानाविक्रमभिलवतः सम्यक्त्वमालिन्यमनुषक्येत । ततो दर्शनमतदानदेवार्चनतपोजनितपुण्यमाहात्म्याकुलं रूपं, बिर्श, श्रीपुत्रादिकं, शत्रूपमर्द्दनं, स्त्रीत्वं पुंस्त्यं वा सातिशयं मे भूयादित्याशंसनं दर्शनस्य मलः स्यात् इति मंतव्यम् । विदिगिछा — विचिकित्सा जुगुप्सा । सापि चेह सम्यक्त्वादीनामन्यतमे सत्ति या कोपादिनिमित्ता न सार्वत्रिकी, इतरया मिथ्यात्यासंयमाविजुगुप्सायां वर्तमानानां सम्यग्टतीनां सकलं कुदर्शनत्वं स्यात्तवो न तस्य दर्शनं, शानं, चरणं बा शोभनं तद्वानभद्रकः इति च द्वेपपूर्विका मनोवृत्तिर्विचिकित्साख्यो दर्शनदोष पतिभ्यः || परदिठ्ठीण परा तस्वगोन्दराया दृष्टेरन्या अतन्वगोचरा दृष्टिः बद्धानं येषां ते परदृष्टयः मीमांसकता ससांख्यसौगतादयः । अथवा परा अनेकांतदृष्टेरन्यायः एकान्तदृष्टयः परसमया वेदन्यायशास्त्रादयः । पर्ससा स्तुतिर्मनीवाकाचैः सत्कारः । अणायण से बया-- आयतनं सम्यग्दर्शनादिगुणोद्योतनायागमं तन्वंति पृथक् कुर्वन्ति इति आयतनानि सम्य ग्दर्शनादीनि त्रीणि । तन्तञ्च त्रयस्तेभ्योऽन्यानि अनायतनानि षद् - मिध्यात्वं मिथ्याज्ञानं, मिथ्याचारित्र, मिथ्यादृष्टि मिथ्याज्ञानी, मिथ्याचारित्री चेति । तत्सेवा वत्र मिथ्यात्वस्य सेवा तत्परिणामयोग्यद्रव्यायुपयोगः, तां च कुर्वन् सम्य त्वं निर्मूलयिष्यतीति तो मिध्यादृष्टिरेवासी इति कथं न सम्यक्त्वा विचारवान् अतीत्य चरणं ह्यतिचारी माहात्म्या पकर्षोऽतो विनाशो वा । श्रीविजयाचार्यस्तु मिथ्यात्व सेवागतिचारं नेच्छति । तथा च तद्मयो " मिध्यात्वगश्रद्धानं रात्सेायां मिध्यादृष्टिरेव साविति नातिचारता " इति । मिध्यादृष्टिसेवा नाम एकान्तमहरक्तानां बहुमननं । मिथ्याज्ञानसेवर्न पुनरिंदमेव तत्वमिति श्रद्धानमुत्पादयामि श्रोतॄणामिति क्रियमाणो निरपेक्षनयदर्शनोपदेशः । मिथ्यशानिसेवा मिथ्याज्ञानिभिः सह संवासस्तन्नानुरागस्तत्रानुवृत्तिर्वा । मिथ्याचारित्रसेवा द्रव्यलाभाद्यपेक्षया मिथ्याज्ञानिनामाभरणस्यानुवर्तनं मिथ्याचारिविसेया पंखामि साधकादिषु संगत्यादिकं एताः मंत्र सम्यक्यादिना शंकाश्यः चमासः । सम्यक्त्वारः कैरिति सम्बंधः सामर्थ्यासिद्ध श्रोद्धव्यः । १९ आधारः १ १४५ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः सम्यग्दर्शन निरतिचार और गुणोंसे उज्ज्वल करनेका अभ्यास करना चाहिये. इसका आचार्य विस्तारसे नर्णन करते है. प्रथमतः सम्यग्दर्शनके अतिचारोंका वर्णन करते हैं. हिंदी अर्थ-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परररिप्रशंसा व अनायतनगर से सम्मलवाने पांच अतिचार हैं. विशेषार्थ--यस्तुका स्वरूप यह है अथवा यह है ऐसा अनिश्चयात्मक जो ज्ञान उसको शंका फहते है. यह शंका निश्चयज्ञानका आश्रय करनेवाले सम्यक्त्वको मलिन करती है. शंका-यदि सम्यग्दर्शन हो तो उसका शंका अतिचार मानना योग्य है. परंतु संशय मिथ्यापनाको धारण करता है अर्थात् संशय स्वये मिथ्यात्य ही है. मिथ्यात्वोंके भेदोंमें आचार्योने संशयकी भी गणना की है. 'संशयित, अभिग्रहित और अनभिग्रहित ऐसे मिथ्यात्वके तीन भेद हैं, 'ऐसे आगममें उल्लेख पाये जाते हैं. उत्तर-आपका कहना ठीक है. संशयके सद्भावमें भी सम्यक्स्य रहताही है. अतएव संशयको अतिचारपना मानना युक्तियुक्त है, इसका स्पष्टीकरण ऐसा है-अपनेमें श्रुतज्ञानावरणीय कर्मका विशिष्टक्षयोपशम न होना, विद्वान्. उपदेशकका अभाव रहना, अथवा उपदेशक होकर भी उसमें वचनचातुर्यका अभाव रहना, संशय दूर करनेवाले आगमके वचन न मिलना, अथवा उसका अभाव रहना, कललब्धिकी प्राप्ति न होना इत्यादि कारणोंसे वस्तुस्वरूपका निर्णय नहीं होता है. तो भी जैसा सर्वज्ञ जिनेश्वरने वस्तुस्वरूप जाना है वह वैसाही है ऐसी मैं श्रद्धा रखता हूं ऐसी भावना करनेवाले भव्यके सम्यकचकी हानि कैमी होगी अथान् शंका नामके अतिचारसे उनका सम्यग्दर्शन ममल होगा परंतु नष्ट न होगा. उपयुक्त श्रद्धाग जो रहित है वह हमेशा मंशयाकुलही रहना है. वास्तविक नयस्वरूप क्या है ? उसको कनि जानता है कुछ निर्णय कर नहीं सकते ऐसी उसकी मति रहती है. कपिल, युद्ध वगैरे नवेज़ थे इसका निर्णय नहीं होता है. यदि अहन सर्वज्ञ होता है कपिलादि सवन नहीं होने है एमा मानकर आगमके द्वारा निर्णय मानना भी वह संशयमिथ्यात्वी कबूल नहीं करता है. कौनसा आगम वस्तुके यथार्थस्वरूपका प्रतिपादन करता है और कौनसा नहीं यह भी निर्णात नहीं है अर्थात् आगमके विषयमें भी संशय है ऐसा संशयमिथ्यात्वी कहेगा. इसलिये उसकी तच्चके ऊपर अश्रद्धा संशयज्ञानसे सहित होनेसे वह संशय मिथ्यात्वही है. तत्त्वोंके अर अश्रद्धान होना यह NNARESISTASHTOTRNATHERISTMANGERTAINMENT - A १४६ - - PARAN Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... nilesapana -लाराधना यामास मिथ्यात्यका लक्षण है इसका आसे आचार्य विवेचन करेंगे. इस संशयमिथ्यात्वमें सहे तच्चके प्रति अरुचि भाव रहता है. यह मिथ्यात्व मिथ्याज्ञानसे मिन्न वस्तु है. ' मिच्छाणाण मिच्छादसण मिच्छाचारितादो पहिविरदो मीति' अर्थात मिथ्यासान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र इनसे मैं विरक्त हुवा हूं, इस वाक्यसे मिध्याज्ञान और मिथ्यादर्शन ये भिन्न चीजें हैं ऐसा सिद्ध होता है. छमस्यों को भी दोरी, मर्प, खुट, मनुष्य इत्यादि पदाथोंमें यह रज्जू है ? या सर्प है? यह खट है या मनुष्य हे इत्यादि अनेक प्रकारका मंाय उत्पन्न होता है. नो भी वे सम्पराधि ही है. इतने विवेचनका सारांश यहां एसा समझना चाहिये-- मिथ्यात्व कभके उदयस सत्र सझयरूपही तत्वोम अरुचि पैदा होती है। इस असाचको संशयज्ञानका सहाय मिलता है इसलिये इसको संशयमिथ्यात्व कहते हैं. आगमकथित जीवादिक पदार्थोंमे ज्ञानावरणकमेके उदयसे और सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयसे जो यह वस्तु स्वरूप है या यह है ऐसी जो चंचल मति होती है उसको शंका अतिचार कहते हैं यह अतिचार सम्यग्दर्शनको मलिन बनाता है इस लिये यह अतिचार है. दोरी, साप, पुरुष, खूट इत्यादिकॉमे जो संशय होता है वह यदि अतिचाररूप माना जावेगा तो सम्यग्दर्शनका निःशकितांगही दुर्लभ हो जायगा. कांक्षा-इष्ट पदार्थोपर जो आसक्ती अथवा लंपटता होती है उसको कांक्षा कहते हैं. यह कांक्षा सम्यग्दर्शनफा अतिचार है. शंका-यदि कांक्षाको अतिचार कहते हो तो आहारमें अभिलाषा उत्पन्न होती है. स्त्री, वख, अत्तर, पुष्पहार, अलंकारादिकोंमें असंयत सम्यम्हष्टिको और विरताविरत अर्थात् अहिंसावणुव्रत पालनेवालाको अभिलाषा उत्पन्न होती है. छवे गुणस्थानवर्ती मुनीकोमी जब ये क्षुधादि परीपहोंसे व्याकुल होते हैं तब आहारमें, पेयपदार्थोमें अभिलाषा उत्पन्न होती है. इसलिये उनके सम्यग्दर्शन में भी यह अतिचार उत्पन्न होगा. सभी भम्याको सुखोकी इच्छा रहेगी ही अतः इच्छाको अतिचार मानना युक्तियुक्त है नहीं. उत्तर .. केवल इच्छाको अतीचार हम भी मानते नहीं. किंतु इस सम्यग्दर्शनके प्रभावसे, दानके सामयमे, देवपूजा और तपश्चरणके शक्तीसे मेरेको जो पुण्य उत्पन्न हुवा है उससे कुल, रूप, ऐश्वर्य, स्त्री पुत्रादिक, 2 . Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराघना १४८ शत्रुका नाश, ऐसे सर्वोत्कृष्ट पदार्थोंकी प्राप्ति हो. सातिशय स्त्रीपना, माहात्म्ययुक्तं पुरुषपना मेरेको प्राप्त हो ऐसी अभिलाषा रखना सम्यग्दर्शनका अतिचार है ऐसा यहां समझना विचिकित्सा जुगुप्सा, तिरस्कार इनको यदि अतिचार कहोगे तो मिथ्यात्व असंयम इत्यादिकों में जुगुप्सा तिरस्कार होता है वह भी अतिचार है ऐसा मानना पड़ेगा. यी विषय नियत समझना चाहिये. अर्थात् नियत विषयमधी जुगुप्साही अतिचार है ऐसा समझना चाहिये. रत्नत्रयमेंसे किसी एक में अथवा रत्नत्रयधारकांमें कोपादिकसे जुगुप्सा होना यहां सम्यग्दर्शनका अतिचार हैं. इस जुगुप्साके वश होकर सम्यग्दृष्टि जीव अन्य मध्य के ज्ञान, दर्शन वा आचरणका तिरस्कार करता है. जिसमें ये सम्यग्दर्शनादिक निरतिचार है ऐसे पुरुषका वह तिरस्कार करता है, अतः ऐसी जुगुप्सासे रत्नत्रयके माहात्म्यमें अरुचि होनेसे इसको अतिचार समझना योग्य है. परदृष्टिप्रशंसा प्रतिचार यहां पर शब्दके अनेक अर्थ है. जैसे 'नापरीः ग्रामः पाटलिपुत्रात् पाटलिपुत्रसे और दुसरा गांव नहीं है. यहां अपर शब्द अन्य बाची है. ' परे आचार्या ' अन्ये आचार्याः ' अर्थात् दूसरे आचार्य यहां 'पर' शब्दका अर्थ ' अन्य ' ऐसा समझना इष्टार्थमें भी पर शब्दका प्रयोग होता है जैसे परं धाम गतः अर्थात् इष्ट स्थानको वह चला गया. प्रस्तुत प्रकरण में पर शब्द अन्यार्थवाची है. तत्वदृष्टीसे-पारमार्थिक दृष्टीसे विपरीत दृष्टि जिनकी है ऐसे सांख्य, बौद्ध, जैमिन्यादि मतके विद्वानांकी परदृष्टि कहते हैं. उनकी प्रशंसा करना यह सम्यग्दर्श नका मल हैं. अनायतनसेवना - अनायतनके छह भेद हैं. अर्थात् मिथ्यात्व, मिध्यादृष्टि जन, मिथ्याज्ञान, मिध्या ज्ञानी, मिथ्याचारित्र और मिथ्याचारित्रवान् इन ग्रहोंमेंसे मिध्यात्व अनायतनका अर्थ अतश्वश्रद्धान ऐसा होता है. यदि भव्य जीव मिथ्यात्वकी सेवा करेगा तो वह मिथ्यात्वीही होगा, सम्यग्दर्शनही उसका नष्ट हो गया ऐसा समझना शाहिये. इसलिये 'मिथ्यात्व ' यह सम्यग्दर्शन का अतिचार नहीं है. वह अनाचार हैं. मिथ्यादृष्टिसेवा - मिथ्यादृष्टियों को अच्छा समझकर उनका आदर करना. मिथ्याज्ञानसेवा - मिथ्यामतके तत्व अच्छे हैं ऐसी भावना श्रीवर्गके मनमें मैं उत्पन्न करूंगा ऐसा विचार करके नया की अपेक्षा छोडकर मिथ्यात्व का उपदेश करना. आश्वासः Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलाराधना १४९ मिथ्याज्ञानसेवा - मिथ्याज्ञानियोंके साथ सहवास रखना, उनमें प्रेम रखना, उनका अनुसरण करना. मिथ्याचारित्र – मिथ्याज्ञानिओंका आचरण देखकर वैसा स्वयं आचरण रखना, उसका अनुसरण करना. उनसे द्रव्य लाभ होगा इस अपेक्षासे उनका महवास करना ऐसे सम्यक्त्वके अतिचारोंका त्याग करना चाहिये. गुणान्दर्शनविशुद्धिकारियों निरूपयति उठिदिकरणं बच्पभावणा गुणा भणिदा ॥ सम्मत्तविसोधीए उवगृहणकारया चउरो ॥ ४५ ॥ उपबृंहः स्थितीकारो बत्सलत्वं प्रभावना | याज्मोगुणाः प्रोक्ताः सम्यग्दर्शनवर्द्धकाः ॥ ४८ ॥ विजयोदया - उषगूहणमित्यनया । उपबृंहणं नाम वर्द्धनं । बृद्द वृद्धि बृद्धाविति वचनात् । धात्यर्थानुवादी चोपसर्गः उप इति । स्पध्रेनाग्राम्येण घोषमनः प्रीतिदायिना यस्तुयाथात्म्य प्रकाशनप्रवणेन धर्मोपदेशेन परस्य तत्त्वश्रद्धानयूर्द्धनं उपबृंहणं । सर्वजनविस्मयकारिणी शतमखप्रमुख गीर्वाणसमितिविरचितो पचितिसदृशी पूजां संपाथ दुर्धरतपो योगानुष्ठानेन वा आत्मनि श्रद्धास्थिरीकरणम् । कृपाप जीवादीनि द्रष्याणि तत्सामान्यविशेषरूपाध्यासितानि उत्पादव्ययभीष्यात्मकानि प्रतिसमयमिति जिनैः सम्यगमाणि एवमेव नान्यथा श्रधे जिनानां मतं । न हि जिना वीतरागा विदितामिलवेद्यतया याथातथ्याः रिगताः विपरीतमुपदिशतीति भावनया स्थिरीकरण अस्थिरस्य रत्नत्रये स्थिरतापादनं । मिथ्यारषाभिमुखस्य सम्यग्ट ऐरस्थिरस्य मिथ्यात्वं मूलमेव तद्नुभवतः कर्मादानं, मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषायाद्वि बंधहेतवः । तद्बंधहेतुकं वानंतसंसारपरिभ्रमणं चतुरशीसियोनिशतसहस्रेषु । सदर्शनं तु विचित्रायातनासंकट भयमासियोर्नरकतियम्यतियर्तियो खालीभूतं । शतमत मनुष्यलोकयो र न्यून मान्यरूपभोगादिसंपत्संपादनचतुरं क्रमेण निर्वाणमपि प्रयच्छति । ततो दुःखजलवाहिनी मिथ्याष्ट्रिकुल्ल्यामुल्लंघय, प्रतिपद्यस्व जैनी दृष्टिमिति तत्र स्थिरताकरणम् । तथा सम्यग्ज्ञानभावना यच ममानिसं दृष्ट्वा एमसी वक्तव्यः । ज्ञानं हिताहित प्रकाशनपूड, तदंतरेण हितमजानतः कथं तत्र वृत्तिग्रहतपरिद्वाशे वा । हितादितमाभिपरिहारी विना न सुखाधिगमदुःखविश्लेषौ । तदर्थमेव चार्य प्राशो जनः क्लिश्यति । ततः पंचविधस्वाध्यायत्यागं मा कृथाः इति ज्ञाने स्थिरीकरणं । अथवा अनधिगतसूत्रार्थनिश्चयस्य तत्र निश्चयसंपादनं । असरुद्भावनात्मनः स्थिरीकरणं चारित्रात् प्रच्यवमानं हृष्ट्वा हिंसादिसावद्यक्रियायां प्रवर्तमाना रब दुःखभाजो यन्ते, आश्वासः * १४९ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलाराधना। १५.० तथा परं हन्तुमुद्यतः स्वयं सेनैव वा इत्यते प्राक्तनमित्रैर्येधुभिचांदीवरैः । परत्राशुभां गतिमुपति । दुःखाय्यसद्वेयं नाति । अली घुषसिद्वैव बंधुजनस्यापि विद्वेष्योऽविश्वास्यश्च भवति किं पुनरम्यस्य । जिव्हां चोत्पादयति पा बलिनः । परत्र च भूतां यास्यति इत्येवमाद्य संयमगत प्राप्य नीरोगनां दीर्घजीवन, सौरूप्यं, प्रियवचनात्रिकं गुणसुपदिश्य आसादिताचरणफलं चारित्रे स्थिरीकरणम् । असंयमत्रोषं संयमगुणं वा पुनः पुनः स्मृत्यात्मनः स्थिरीकरणं । धर्मस्थेषु मातरि पितरि भ्रातरि वानुरागो वात्सल्य, रत्नपादरी चात्मनः । प्रभावना माहात्म्यप्रकाशनं रत्न अयस्य तद्वत वा । विचार निरासेन विशुद्धस्य सम्यग्दर्शनस्य वृद्धिकारिणो गुणानुपदिशतिः नूला स्वयमककम्य मार्गत्य लाजनाश्रयवच्तनिरामः । टीकाकारास्तु गृहस्थस्य 'उप-वर्द्धन' मित्यर्थमकथयत् । तच परस्य स्पष्टायाम्यश्रवण मनःश्रीनिक रतच्य प्रकाशनपर धर्मोपदेशेन तश्वश्रद्धानस्कारीकरणं स्वस्य च शक्रनिर्जितसपर्यासोदर्यपूजाविशेषेण दुर्द्धरतपोयोगानुष्ठानेन जिनेंद्र पज्ञ श्रुतज्ञानातिशयभावना वा श्रद्धानवर्द्धनं ॥ ठिदिकरणं स्वस्य परस्य वा सम्यक्त्यायन्यतमात्मन्यवमानस्य पुनस्तत्रैष युक्तिवला दूरढमवस्थापनम् । तादिदेवात्मवाद्वा मिध्यात्वमभिपसंतमात्मानं स्वसंवित्या परं वा तदनुरूपाकचेष्टाभ्यां निश्चित्येवं ब्रूयात् । ' मा स्म भोः दुसह दुःखोर्मिनिकरव्यतिकीर्णसंसारार्णवपरिवर्तनक कार्यक्रम निर्माण सूत्रधारे सुदुर्निवारेऽस्मिन्मिथ्यात्व महावैरिण पुनर्व्यतिषजः । परिप्यजस्व सरभसममंत्रदह विपर्यवसानबिलासां सम्यग्गृष्टि प्रेयसीमिव । मा स्म विस्मरस्तास्ताश्चतुर्गतियातनस्यातुधानी एवं दूषणगुणगणाविष्करणेन श्रुतज्ञानभावनायां प्रमार्थतं चारित्राश्यन्तं स्वं परं वा पुनस्तत्रैष स्थिरीकुर्यात् । वच्छ — धर्मस्थेषु धेनोः स्ववत्स व स्नेहः, स्वस्य च रत्नश्रयेऽनुरागः ॥ पहावणा-रत्नत्रयस्य तद्वनां माहात्म्य प्रकाशनं || उबगूणकारया वृद्धिकरा: अत एव सेव्या इति प्रतिपत्तव्यम् || अब आचार्य सम्यग्दर्शनको वृद्धिंगत करनेवाले गुणोंका वर्णन करते हैं- हिंदी अर्थ --उपगूहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये चार गुण सम्यक्त्वको निर्मल करनेवाले और उसको बढानेवाले हैं. आश्वासा १ १५० Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयागधना १५१ Succes विशेषार्थ — उपगूहन - उपगूहन अथवा उपग्रहण ऐसे इस गुणके दो नाम है. उपण इसका अर्थ बढाना ऐसा होता है, 'बृह यहि वृद्धी' इस धातूसे बृंहण शब्दकी उत्पत्ति होती है. उप इस उपसर्गके योगसे वृद्द धातुका अर्थ बदला नहीं है. स्पष्ट, अग्राम्य, कान और मनको प्रसन्न करनेवाला, वस्तूकी यथार्थता भव्योंके आगे दर्पण के समान दिखानेवाला, ऐसे धर्मोपदेशके द्वारा तत्त्वश्रद्वान बढाना यह उपहण गुण हैं. उपबृंहण - इंद्र प्रमुख देवोके द्वारा जैसी महत्वयुक्त पूजा की जाती हैं वैसी जिनपूजा करके अपनेको जिनधर्ममें, जिनभक्तिमें स्थिर करना अथवा दुर्धर तपश्वरण वा आतापनादि योग धारण करके अपने आत्मामें श्रद्धा गुण उत्पन्न करना इसको भी उपबृंहण कहते हैं. स्थितिकरण - जीवादिक पदार्थ सामान्य और विशेष धर्मोसे युक्त हैं अर्थात् चेतनत्व, स्पर्शादिमत्त्व, गति हेतु होना इत्यादि विशेष धर्म और अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व, द्रव्यत्य, इत्यादि सामान्य धर्मोसे युक्त हैं. जीवादि छहो द्रव्योंमें उत्पाद, व्यय और श्रव्य यह स्वरूप सदाही प्रतिसमय रहता है ऐसा जिनोपदेश है और वह बिलकुल सच है ऐसी मेरी श्रद्धा है, मैं इससे उलटी श्रद्धा धारण नहीं करूंगा. जिनेश्वर वीतराग हैं अर्थात रागद्वेष, क्षुधा तृषादि अठारह दोपोंसे वे पूर्ण अलिप्त हैं. उनमें संपूर्ण पदार्थ जाननेवाला ज्ञान है. अतः कभी भी विपरीत उपदेश नहीं देते हैं. भव्यजीवका संसारसे उद्धार करनेका प्रयत्न करनेवाले जिन भगवान् क्या वस्तुका विपरीत स्वरूप कहेंगे । ऐसी भावनाओंसे अपनेको जैन धर्ममें स्थिर करना यह स्थिती करण है. जो भव्य रत्नत्रय चलित हुबा हो तो उसको फिर रत्नत्रयमें स्थिर करना चाहिये. जो सम्यग्दृष्टि भन्य सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट होकर मिथ्यात्वी बननेके स्थित आरहा हो तो फिर उसको सम्यग्दर्शनमें स्थिर करना चाहिये. " मिध्यात्वही कर्मग्रहण करनेका मूल कारण है. मिध्यात्व अविरति प्रमाद, कषाय और योग ये कर्मबंधन के कारण हैं, इन कारणोंसे जीवको अनंत संसारमें भ्रमण करना पडता हैं, चौरासी लक्ष योनियोंमें इन ही कारगोसे जीव भ्रमण करता है. परंतु जब जीवको सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है तब नानाप्रकारकी यातनाओं की उत्पत्ति करनेवाली तिर्यग्गति और नरकगति दल जाती है. अर्थात् सम्यग्दर्शन धारण करनेवाला मनुष्य तिर्यचोंमें और नरकों में उत्पन्न नहीं होता है, स्वर्गलोकके और मनुष्यलोकके अनुपम भोग, मान्यता, सौख्य वगैरह उत्कृष्ट पदार्थ भश्वरसा १ १५१ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tala पृलाराधना आभासः यह सम्यग्दर्शन जीवोंको अर्पण करता है. और अन्त में यह जविको मोक्ष भी प्रदान करता है. अतः दुःखरूपी जल जिसमें बहता है ऐसी मिथ्यादर्शनरूपी नदीको तू लांघकर जैनधर्मको धारण कर "ऐसे उपदेशस मिथ्यादर्शनसे हटा कर लोकोंको जनधर्ममें स्थिर करना चाहिये, यह भी स्थितीकरण है, जो भव्य सम्यग्ज्ञानकी आराधना करने में प्रमादी और अलसी बन गया है उसको सम्यग्ज्ञानमें आगे लिखे हुए वचनोंसे स्थिर करना चाहिये-जान ही हित और अहितका स्वरूप दिखानेमें प्रवीण है. बिना ज्ञानके मनुष्योंको हित और उसके उपायोंका स्वरूप अवगत नहीं होता है. इसलिये वह अहितसे हटकर हितमें प्रवृत्ति नहीं कर सकेगा. जबतक जीच हितकी प्राप्ति और अहितका परिहार न करेगा तबतक उसको सुख न मिलेगा और वह दुःखोंसे मुक्त न होगा. सर्व विद्वान लोक सुखकी प्राप्तिक लिये और दुःख दूर करनेके लिये ही प्रयत्न करत है. सुख प्राप्ती के लिये हे भव्य ! तूं पांच प्रकारका स्वाध्याय कर, उसका त्याग करनेसे तेरी आत्मोअति नहीं होगी, एस उपदेशसे उसको सम्यग्ज्ञानमें स्थिर करना चाहिये, अथवा जिसको आगमके सूत्रार्थका निधय नहीं हुवा हो तो उसको उसका परिचान कर देना चाहिये. सम्यग्ज्ञानका बारधार अभ्यास करके स्वतः भो उसमें स्थिर होना चाहिये. चारित्रसे भ्रर होते हुए भव्यको देखकर उसमें उसको स्थिर करने के लिये यह उपदश उपयुक्त है हिंसा, चोरी, असत्य बोलना इत्यादि पापोंमें जो मनुष्य प्रवृत्त होते हैं उनको इस लोकमेंही बहुत दुःख भोगने पड़ते हैं. दुसरोंको मारनेका प्रयत्न करनेवाला मनुष्य स्वयं दुसरोंसे मारा जाता है, जो पूर्वकाल में उसके मित्र अथवा संबंधी थे वे भी उसके वैरी बनने हैं. पाप करनेवाले मनुष्य मरकर अशुभ गतिको अपनाते हैं. पापाने असाता वेदनीय कर्म बंधता है. जो अदमी झूट बोलते हैं उनके बंधगण भी शत्रु बनते है. वे भी उसके ऊपर विश्वास नहीं रखते हैं.. फिर दुसरे शत्रु अविश्वास रखनेवाले होंगे इसमें आश्चर्यही क्या है, असत्य बोलनेवालकी जिला क्रुद्ध बलिष्ट लोक उखाड देते हैं. झूट बोलनेका फल यह है कि वे परलोकमें गूंगे हो जाते हैं. इस तरहसे असंयमके दोष बतलाकर हिंसादिक पाप न करनेवाले भन्यगण नीरोग, दीर्घजीवी, सुंदर, प्रिय और मधुरभाषी होते हैं. प्रिय वचनादिक गुण उनको प्राप्त होते हैं. ऐसा उपदेश करना चाहिये. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आयाम: अथवा असंयमके दोष और संयमके गुणोंका बार बार स्मरण कर चारित्र में खतःको स्थिर करना चाहिये. यह सब स्थितिकरण गुणका विवेचन कुमा वात्सल्य-धार्मिक लोगोंपर और माता, पिना, धाता इनके ऊपर प्रेम रखना यह धात्मत्य गुण है. अथवा रत्नत्रयमें आदर करना यह भी बालल्प है. प्रभावना-रत्नत्रयका और उसके धारक श्रावक और मुनिगणका महत्व बतलाना यह प्रभावना गुण है. ऐसे गुणांसे सम्यक्त्व वृद्धिंगत होता है. दर्शनविनयप्रतिपादनार्थ गाथाद्वयमुत्तरम्-- अरहंतसिद्धचेइय सुदे य धम्मे य साधुवग्गे य ।। आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दसणे चावि ॥ ४६ ॥ जिनेशसिद्धचैत्येषु धर्मदर्शनसाधुषु ॥ आचार्येऽध्यापक संघे श्रुते श्रुततपोधिके॥४९॥ विजयोक्या-मरहंत इत्याविकम् । अरिहनमायजोहननाद्रहस्याभावादतिशयपूजाइत्वाच्चाधिगताचपदेशा नोभागमभाषाहन्त गृहीताः । न नामाईन् , निमित्ताभायेऽपि पुषधाकराषियुक्ताईयपवेशः । अईसा प्रति विषानि सोऽयमित्यभिसंधादहवद्यपदेशभाजि पूजातिशयाईस्वेपि अरिबनना विगुणासंभषाभेद्य गृह्यन्ते । भागमव्याईन्नईत्स्वरूपव्यावर्णनपरमाभृतहोऽनुपयुक्तस्तदर्थेऽन्यत्र व्यापूतःहायकशरीराईनाम सत्याभृतमस्य त्रिकालगोचरं शरीरं। यस्मिनात्मनि श्ररिहननादयो भविष्यति गुणाः स भाव्याईन् । तीर्थकरनामकर्मतव्यतिरिक्तद्रव्याईन् । अहवयापर्णन परप्राभृतप्रत्ययोऽईविर्भासो बोध आगमभावाईन् । एतेषु अरिहननाविगुणानामभावात् नेहाईच्छब्देन ग्रहणम् । एवं नामसिनः थलब्धसकलात्मस्वरूप सिद्धशब्दः । यस्थ वा निमित्तनिरपेक्षा सिद्धसंशा । स्थापनासिद्धा इति तत्प्रतिधिचानि उच्यन्ते । ननु सशरीरस्यात्मनः प्रतिबिंब युज्यते, अशरीराणां तु शुद्धात्मना सिद्धानां कथं प्रतिबिंब संभवः ? पूर्वभावमशापननयापेक्षया शरीरमनुगतो य आत्मा सयोगकेवलीतरो बा न शरीरानिक्तुं शक्यते । विभागे हि शरीरासंसारिता न स्यात् । अशारीरः संसारी चति विरुद्धमेततत् । ततः शरीरसंस्थानवश्चिवारमापि संस्थानवानेय संस्थानवतोऽव्यतिरिक्तत्वाच्छरीरस्थात्मवत् । स पर चाय प्रतिपन्नसम्यक्त्वायएगुपा इति स्थापनासंभवः। आगम व्यसिद्धः सिद्धमाभृताः सिद्धशदनोच्यते अनुपयुक्तः । सिमास्तमस्थ शरीरं झापकशरीरं । भविष्यत्सिद्धत्वपयायो AtApAtasterber SARASWAR २१ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BHATE मूलाराधना आश्वास: भाविसिवः । व्यतिरिका सियोन समबति । सिदत्वं न कर्मकारणम् इति सकलकर्मापायहेतुका सिद्धता । पुगलक्ष्यस्य तदुपकारिणोऽसंभपात्रोकर्मलियामामः: सिहासानुसारिसिमानारिण्ट हागमभावगितः । निरस्तभाष ट्यकर्ममलकला परिमाप्तसकलक्षायिकभाषः मोभागमभाषसिबः सह गृहीतो न इतरे सकलात्मस्वरुपप्राप्यभावात् । चेदिय चैत्यं प्रतिषिः इति यावत् कस्य । प्रत्यासत्तेः श्रुतयोरेबाईत्सिद्धयोः प्रतिषियग्रहणं । अथवा मध्य प्रक्षेपः पूर्वोत्तरगोचरस्थापनापरिप्रहार्थस्तेम साध्या विस्थापमापि गृह्यते।। श्रुतमानावरणक्षयोपशमाज्जातं वस्तुयाथात्म्यप्राहि श्रद्धानानुगतं श्रुतं अंगपूर्वप्रकीर्णकभेदमित्रं, तीर्थकर श्रुतवल्यादिभिगारचितो वचनंसदर्भो वा, लिप्यक्षरश्रुतं वा। धभशब्देन चारित्रं समीचीनमुन्यते । शानदर्शनाभ्यामनुगनं सामापिकादि पंचयिकरूपम् । दुर्गतिपस्थित जीवधारणान.शुमे स्थान या दधाति इति धर्मशब्देनोच्यते । अगा 'नंती महय अज्जय लाधव व संजमा आनणदा ।। तह होदि बम्मचेरं स नागो य दस धम्मा।। इति सूत्रांतरनिर्दिधर्मपरिग्रहः । शोधनिमित्तसान्निध्य ऽपि कालुष्याभारः क्षमा स्नेहकार्याद्यनपेक्षः । जात्याद्यभिमानाभायो मानदोपानपेक्षश्च दृष्टकार्यानपानयो मार्दवम् । आरुपान्तद्वयसूत्रवद्वक्रताभावः आर्जवमित्युन्यते । द्रव्येपु ममेदं भावमूलो व्यसनोपनिपातः सकल इति ततः परित्यागो लाघ । अशनादिपरित्यागात्मिका किया अनपेक्षित हरफला हादशविधा तपः। द्रियविषयरागद्वेपाभ्यां निवृत्तिरिद्रियसंयमः । षड्जीवनिकायबाधाऽकरणादपरः प्राणि संयमः । अकिंचनता सकल ग्रंथत्यागः । ब्रह्मचर्य नयविधमहापालनं । सतां साधूनां हितभाषण सत्यम् । संयतमायोग्याहारादिशा त्यागः । एते दाधर्माः ।। साधयन्ति रमप्रयमिति साधवस्तेषां वर्गः समूहः । तस्मिन्वस्तुयाथात्म्यग्राहिशाने परिणतिर्शनाचारः । तत्त्वथजानपरिणामो वर्शनाचारः । पापकियानिवृत्तिपरिणतिश्चारित्राचारः । अनशनादिक्रियासु वृत्तिस्तप आचारः । स्वशक्त्यनिगृहनरूपा वृत्तिर्मानादौ वीर्याचार: पतेषु पंचस्थाचारेषु ये वर्तन्ते परांश्च वर्तयति ते आचार्याः । रत्नत्रयेषु उचता जिमागमार्थ सम्पगुपदिशति येते.उपाध्यायाः । उपेस्य विनयेन ही कित्या अधीयते श्रुतमस्मादित्युपाध्यायः । पवयणे प्रवचने । ननु भुतशम्दः प्रधचनयाची तसः पुमरुक्तता रत्नवयं प्रयचनशनोच्यते । तथा चोक्तम्'माणसणचरितमेग पक्षयणमिति' अथवा तज्ञानं श्रुतमिस्युक्तं पूर्वमिह तु प्रोच्यते जीवावयः पदार्था इति शव्यथुतमुच्यते । दसणे सम्यग्दर्शने च ।। ४६ - दर्शन विशुद्धिविवृद्ध्यर्थं तद्विनयं गायायेनाह मूलारा-वेदियप्रतिषिथानि मध्ये पाठादईदादीनां पंचानामपि । सुदे भाव श्रुते ज्ञानात्मके । धम्मे चारित्रे, उत्तमक्षमादौ या । पषयणे रत्नत्रयेऽयवा द्रव्य ते शब्दात्मके लिप्यक्षरे वा॥ १५४ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Baroo मूलाराधना आश्वासः दर्शनविनयका विवेचन आचार्य दो गाथाओंसे करते हैं हिंदी अर्थ--अरहंत, सिद्ध, अहंत और सिद्धोंकी प्रतिमायें, श्रुतज्ञान, जिनधर्म, आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्टी, रत्नत्रय, आगम और सम्यग्दर्शन इनमें भकि, पूजा, करना. इनमें अन्यमतीयोंने आरोपित किये दोपोंको इटाना, इनका महत्व बताना, इत्यादि भातासे दर्शनविनय होता है. विशेषार्थ-जिन्होंने अरिहनन किया अर्थात् मोहनीय कर्मका नाश किया, रजोइनन अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरयाको नष्ट किया, रहसहनन अर्थात् अन्तराय कर्मका पात किया तथा इन्द्रादिकोंके द्वारा जो सातिशय पूजाको प्राप्त हुए इस लिये जो नो आगमभाव निक्षेपसे अर्हन्त इस नामको प्राप्त हुए हैं उनकोही प्रकृत विषयमें अईन् समझना चाहिये. चार पारिफर्मोका नाश होनेसे जिनको अईतकी अवस्था साझाद प्राप्त हो गई वेही यहां अईन्त माने हैं. केवल जो नामसे ही अहंत है वे यहां अईन्त नहीं समझे जायेंगे. निमित्त न होनेपरभी मनुप्यके प्रयत्नसे जिसमें अईन ऐसा नामकरण विधि होता है उसको नामर्हत कहते हैं. अर्हन्त की प्रतिमाम वही यह अर्हत है ऐसे संकल्पसे जो स्थापना की जाती है वह ' स्थापनाईत है. स्थापनारूप अर्हत में पूजातिशय होनेपर भी अरिहननादि गुण अर्थात् मोहनीयादि चार घातिकर्मोका नाश करनेका गुण नहीं है. अतः स्थापनात् भी प्रकृत विषयमें उपयुक्त नहीं है, अर्हन्तके स्वरूपका वर्णन करनेवाले शास्त्रका जिसको अच्छा ज्ञान है परंतु उस तरफ जिसका सांप्रत उपयोग नहीं लगा है, दुसरे तरफ जिसका चित्त लगा है ऐसे पुरुषको द्रब्यनिक्षपसे अर्हत कहते हैं. अईतके स्वरूपका वर्णन करनेवाले शास्त्रको जाननेवाले विद्वानका जो त्रिकालवी शरीर वह जायकशरीर अर्हन् है. जिस आत्मामें भाविकालमें अरिहननादिक अर्हन्तके गुण उत्पन्न होंगे ऐसे आत्माको सांप्रनमें अर्हत कहना यह भावि अहेन है. नीर्थकरनामकर्मको तद्व्यतिरिक्त अर्हत् कहते हैं. अहंन्तके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रका महान जिसको है और वर्तमान कालमें वह ज्ञान अहम्वरूपका विचार कर रहा हो तो उसको आगमनावाईन कहते है, नो आममभावाईन्तके शिवाय नामादि अर्हन्ताम अग्हिननादि गुणोंका अभात्र है अत एव नामादि । अहतका यहां ग्रहण नहीं किया है. सिद्धोंके भी नामसिद्ध, स्थापनासिद्ध गरे भेद है. जिसको सिद्धस्वरूप प्राप्त नहीं हुवा है ऐसे मनुष्यको नामसिद्ध कहते हैं. उसका सिद्ध यह नाम गुणादिनिमित्तोंके बिना केवल व्यवहारार्थ रक्खा गया है. Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा मालमें सिद्ध है येही पाती है. सयोगकेवली मारता नहीं है ऐसा मानना पार सिद्धोंके प्रतिबिंबाको स्थापनासिद्ध कहते हैं, (यहां शंका-शरीसहित आत्माका प्रतिबिंच अर्थात् प्रतिमा मानना योग्य है, परंतु जिनके शरीरका अभाव है, जो शुद्धात्मस्वरूपको प्राप्त हो गये हैं ऐसे सिद्धाकी प्रतिमा मानना अर्थात् मतिमा सिद्धाका आरोप करना यह कैसा न्यायसंगत है ? उत्तर-पूर्वभावप्रज्ञापननयकी अपेक्षासे सिद्धाको प्रतिमा स्थापन फर सकते हैं. अर्थात् जो वर्तमान कालमें सिद्ध है वेही पूर्वकालमें शरीरसहित सयोगकेवली थे अतः उनकी अपेक्षासे सिद्धॉमें भेद न मानकर प्रतिमामें सिद्धाकी स्थापना हो सकती है. सयोगकेवली अथवा इतर आत्मा शरीरसे विभिम नहीं होता है. यदि सयोग केवलीको देहसे विभिन्न मानोगे तो सयोगकेवलीको संसारिता नहीं है ऐसा मानना पड़ेगा. अशरीर माननेसे संसारी व अशरीरता यह परस्पर विरुद्ध है. अतः शरीरकी आकृतीक समान चिदात्मा भी आकृतिमान समझना चाहिये. जैसी शरीरकी आकृति रहती है उसी तरह चिदात्मा सिद्धकी भी आकृति रहती है. इस लिये शरीरके समान चिदात्मा सिद्ध भी संस्थानवान्-आकृतिवान है. शरीरस्थ आत्मा जैसा अपने संस्थानसे आकृतिसे अभिन्न है पैसा मुक्तात्मा भी अपने संस्थानसे अभिन्न है. अतः प्रतिमा में सम्यक्त्यादि अष्ट गुणोंसे बिराजमान वही सिद्ध ये है ऐमा संकल्प कर सकते हैं, अतः सिद्धों में स्थापनाका संभव होता ) आगमद्रव्यसिद्ध-सिद्धप्राभृतकं ज्ञाता परंतु संपनि अनुपयुक्त एवं विद्वानको आगभद्रचसिद्ध कहत हैं. सिद्धप्राभृतके ज्ञाताका जो शरीर वह ज्ञायकशरीर है, जिसको भविष्यकालमें सिद्धावस्था प्राप्त होनेवाली है ऐमा प्रान्मा भाविसिद्ध है. व्यतिरिक्त सिद्धकी संभावना नहीं है. क्योंकि जंगे तीर्थकरनामकमसे अहेत्पर्याय प्राप्त होती है वैभ सिद्धपर्याय किसी कर्मके उदयस होता नहीं है. चह संपूर्ण कर्मक नाशसे होता है. इसलिये व्यतिरिक्तसिद्ध यह भेद नहीं है. कोइ पुगलद्रव्य भी सिद्धत्वपर्यायका उत्पादक है नहीं इसलिये नोकर्मसिद्ध यह भी भेद नहीं है. सिद्धप्राभृतके अनुसार सिद्धोंका स्वरूप जाननेवाले ज्ञानसे परिणत आत्माको आगमभावसिद्ध कहते हैं. __ संपूर्ण द्रण्यकर्म और भावकर्ममल जिनका नष्ट हो चुका है. अनंतशानादि सर्व क्षायिकमाय जिनको १५६ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबामः मूलाराधना प्राप्त हो गये हैं. उनको नो आगमभान सिद्ध कहते हैं. इसी सिद्धका प्रकृतविषयमें ग्रहण किया है, इतर सिद्धोंगा ग्रहण नहीं किया है क्योंकि इतर सिद्धार्म संभूर्णतया आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं हुई है. ३ चंदिय- चैत्य अर्थात् प्रतिमा चत्य शब्दमे प्रस्तुत प्रसंगमें अर्हत और सिद्धोंके प्रतिमाओंका ग्रहण समझना चाहिये. अथवा यह मध्यप्रक्षेप है. इसलिये पूर्वविषय और उत्तर विषयक स्थापनाका यहां ग्रहण होता है. अर्थात् पूर्वविषय तो अरहंत और सिद्ध है ही. उत्तर विषय - श्रुत, शास्त्र, धर्म, साधुपरमेष्टी, आचार्य, साधु वगैरह है. इनका भी यहां संग्रह होता है, इनकी भी स्थापनाप्रतिमा होती है.. ४ श्रुतज्ञान-श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे वस्तुके यथार्थ स्वरूपका ग्रहण करनेवाला सम्पग्दर्शन सहित जो ज्ञान बह श्रुतज्ञान है. इस ज्ञानके आचारांगादि बारा अग, उत्पाद पूर्वादि चौदा पूर्व, और सामायिकादि चोचीस प्रकीर्णक अर्थात् अंगबाट ऐसे इसके भेद हैं. इसकी रचना तीर्थकर, श्रुतफेवली, गणधर और आरातीय आचार्य इन्होंने की है. ५ धर्म-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका अनुसरण करने वाला सम्यक् चारित्र यहां धर्म शब्दका अर्थ है. इस धर्मके सामायिक छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसापराय, और यथाख्यात ऐसे पांच भेद हैं. दुर्गतिको जानेवाले जीवको जो धारण करता है अर्थात् उसका उद्धार करता है और शुम इंद्रादिपदवीपर जो स्थापन करता है वह धर्म है ऐसी धर्मशब्दकी व्याख्या है, अथवा क्षमा, मार्दव, आर्जब, शौच, तप, संयम, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य, सत्य और त्याग ऐसे दश धर्म अन्य ग्रंथ कहे हैं उनका भी यहां धर्म शब्दसे संग्रह करना चाहिये, १ क्षमा-कोधके निमित्त-कवचन, निंदा बगैरे उपस्थिन होनेपर भी मनमें कलुपना उत्पन्न न होने दना, किसीके साथ अपनी मित्रता होता है तब क्रोचक कारण उपस्थित होनेपर भी मन कलुपित न होने देना यह कुछ क्षमा नहीं समझी जाती है, अथवा अपना कार्य सिद्ध होने तक मनुप्य क्रोधका कारण उपस्थित होनेपर मी शांति धारण करता है यह भी सच्ची क्षमा नहीं है. परंतु स्नेहादिकी अपेक्षाविना जो शांतिभाव मनमें धारणा करना वही क्षमा है. २ मार्दव -- जाति, कुल, तप इत्यादिका अभिमान न होना वह मार्दव है. मैं अभिमान करूंगा तो लोक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृलाराधना भाषासा मेरेऊपर रुए हॉग अथवा मेरे ऐहिक कार्यो वाधा उपस्थित होगी ऐसी भीतीसे मान न करना यह सच्चा मार्दन नहीं है, किंतु मान करनेसे आत्मा पवित होता है. मानसे नीचगति में भ्रमण करना पडेगा ऐसी भावना हृदयमें धारण कर मादेवधर्मका पालन करना चाहिये। ३ आर्जक- दोरीके, दो छोर पकड़कर खीचनेसे चूह सरल होती है उसी तरह मन से कपट दूर करनेपर बह सरल होता है, अर्थात् मनकी सरवतीको आर्जव कहते है.. ४ लाघव धनादि वस्तुम ये मेरे है ऐसी अभिलाषघुद्धिही सर्व संकटोंमें मनुष्यको गिराती है इस ममत्वको हृदयसे दूर करनाही लाघव अर्थात शौच धर्म है. तए - प्रश, राज, रेखमा साम करना, रसोंका त्याग करना, दाता पात्र इत्यादिकोंका नियम करना यह सब तप है. इस लोकमें अपनी कीर्ति हो, अपनेको लोक पूजे इत्यादि अभिलाषा छोडकर बारह प्रकारका तप करना चाहिये. ६ संयम --- इंद्रियोंके स्पशीदि इष्ट व अनिष्ट विपयोंसे अपने मनको हटाना. इष्ट वस्तुमें रागभाव रखना. अनिष्ट वस्तुसे द्वेष करना यह इंद्रिय असंयम है. इनसे निवृत्त होना यह इंद्रियसंयम हैं, पंच स्थावर और वसजीव इनको बाधा देनेसे विरक्त होना यह प्राणिसंयम है. ७ संपूर्ण परिग्रहाँका त्याग करना यह आकिंचन्य धर्म है. ८. नर प्रकारके नामचर्थका पालन करना या ब्रह्मचर्य है. ". मुनि और उनके भक्त अधीन श्रावक इनके साथ आत्महितकर भाषण बोलनाथह सत्य धर्म है. 2- मुनिओंके लिये योग्य ऐसे आहार, अभय--यसतिका और शास्त्र ये चीजें देना यह त्याग धर्म है, गये धर्मके दश भेद कहे. जो रत्नत्रयको साधते हैं ऐसे मुनिराजको साधु कहते हैं. १ वस्तुके यथार्थ स्वरूप जाननेवाले ज्ञानमें परिणति होना यह ज्ञानाचार है. २ तत्वश्रद्धानमें परिणति होना यह दर्शनाचार है. ३ हिंसादि पांच पापक्रियाओंसे निरक्त होना चारित्राचार है. १५८ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MORE पूलाराधना आश्वास: ने आगमार्थकान दीकिल्ला अधीन कहा हुवा अर्थ शिष्य ४ अनशनादि क्रियाओंमे प्रवृत्ति रहना तप आचार है. ५ अपनी शक्तीके अनुसार ज्ञान दर्शन चारित्रादिको प्रवृत्ति करना वीर्याचार है. ऊपर कर गये पांच आचारोंमें जो स्वयं उद्युक्त होते हैं और शियाको उक्त करते हैं ये मुनि आचार्य कहलान है, जो रत्नत्रयमें प्रवृत्ति करते हैं और जिनेन्द्र भगवानका कहा हवा अर्थ शिष्योंकी अविरुद्ध तासे कहते हैं ये उपाध्याय परमेष्टि है. उपेत्य विनयेन दौफिल्बा अधीयते श्रुतमस्मादिति उपाध्यायः । अर्थात विनयसे आकर जिनसे शिष्यमुनि आगमार्थका पठन करते हैं ऐसे मुनिराजको उपाध्याय परमेष्टि कहते हैं. प्रवचन-शंका-श्रुत शब्द प्रवचनवाची है उसका खुलासा किया गया है, प्रवचनका अर्थ श्रुत होता पुनरपि यहां श्रुतका ग्रहण करनेसे पुनरुक्तमा दोष आया. उत्तर --प्रवचन शब्दका अर्थ यहाँ रत्नत्रय है. 'णाण दसणचरित्तमेग पवयणं ऐसे आगम वाक्यसे रत्नत्रयको प्रवचन कहते हैं यह सिद्ध होता है. अथवा श्रुतज्ञानको श्रुत फहना चाहिये ऐसा पूर्वमें कहा है. यहाँ 'प्रोच्यते जीवादयो येनेति' जिनके द्वारा जीवादि पदायाँका विवेचन किया जाता है वह प्रवचन है अर्थात् शब्दात्मक श्रुतको यहां प्रवचन कहते हैं. अरहंत, सिद्ध, इनके और आचार्यादिकोंके प्रतिबिन, श्रुतज्ञान, धर्म, साधुवर्ग, आचार्य, उपाध्याय, शन्द अत और सम्यग्दर्शन इनमें भाक्ति, पूजा प्रशंसा वगैरे करना यह संक्षेपसे दर्शन विनय है. ऐसा इस गाथाका अभिप्राय है. ॥ ४६॥ भत्ती पूया वणजणणं च णासणमवण्णवादस्स ।। आसादणपरिहारो दमणविणओ समासेण ॥ ४७ ॥ भक्तिः पूजायशोवादी दोषावज्ञा तिरस्क्रिया ।। समासेनेघ निर्दिष्टा बिनयों दर्शनाश्रयः || विजयोदया का भी पूजा? अहदायगुणानुरागो गतिः । पूजा द्वियकारा ध्यपूजा भावपूजा नेति । गम्धपुग्धपाक्षतादिदानं दादिश्य द्रव्यपूजा । अभ्युत्थान पदविकरणप्रणमनादिका काकिया च । नया गस्तवनं च भावपूजा मनसा तदगुणानुसारर्ण । - - - । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना भाभासः अण्णजणणं वर्णशब्दः कचिदुपयाची शुक्रवर्णमानय शुक्लरूपमिति | अक्षरपाची कचिचथा सिशो वर्णसमात्रायः इति । कचित् ग्राहाणादी यथाव वर्णानामधिकार इति। कचियशसिधार्थी वाति । तथा इहायतरार्थों गृहीतः । तेन अहंदादीनां यशोजननं घिर्षा परिषषि । भन्येषामविश्वेदिनां होएविक्षसनताप्रदर्शनेन निषेध तत्संथाविवचमतया महत्तामस्याएनं भगवतां वर्णजननम् । . बैतन्यमाप्रसमवस्थानरूप निर्याणे नापूतिशयप्राप्तिरस्ति । यत्नमंतरेण सर्वात्मसु चैतन्यस्य सदा स्थितेः । विशेषरुपरहिनत्यादसधैतन्यं स्वपुष्पवन । प्रकृतेरचेतनाया मुक्तिनपयोगिजी । किं गया नहा मुक्तया घा पाटमा मनः? अनया दिशा कापिलपत सिदता दुमपपादा। गादिवशेषगुणरहितता सिंहनाऽन्यां। आत्मनोनितनवां का सन्देशमोऽभिलपनि विशेषरुपयन्यं या कोमामनः ससा? नव न्यासाचारमा पराभ्युपगतः बुधादिगुणरहित पाइसरबन्द रागादिक्लचासनारहितं चित्तमेव मक्तिदाब्दनोग्यत इत्यत्र विसमत्यतासाधारणरूपं । पगेकं निद्रयं तदिलित स्वभावोऽनिरुप्यः । असाधारण स्वरूपन्य पराइसाथा-नमस्तामरस । असाधारणरूपशून्यं च विवक्षितचित्तादन्यदिति । एवं मतान्तरे निरूपिताजा सिहानामघटमानत्वाद्वाधाकारिसकलकर्मलेपनिर्दहनसमुपजाताचलस्वास्थ्यसमवस्थिताः 1 अनंतशानात्मकेन सुखेन संतसाः सिद्धा दांत तन्माहात्म्यकथन सिद्धानां वर्ण जननं । ___ यथा बीतरागद्वेपास्त्रिलोकचुलामणयो.ईदादयो भज्यानां शुभोपयोगकारणतामुपयान्ति । तदेतान्यपि तदीपानि प्रतिबिंबानि। बाह्यद्रध्यालेबनो हि शुभोऽनुभो वा परिणामो जायते । यथात्मनि मनोज्ञामनोशविषयसान्निध्याद्रा गहेपी स्वपुत्रसरशदर्शनं पुत्रस्मतरालयन । एवमईदादिगुणानुस्मरणनिबंधने प्रतिबिंब । तथानुस्मरण अभिनवा शुभप्रने संबरणे, प्रत्याशुभवार्मादान, गृहीनशुभप्रत्यनुभवस्फवारीकरणे,पूर्वोपात्तामप्रकृतिपटल रसापन्हाले च सममिति सकलाभिमतपुस्पार्थसिडिदेतुनया उपासनीयरानीति चयमहत्ताप्रकाशनं चैत्यवर्णजननामिति । केवलज्ञानबदशेषजीवादिद्रव्ययाथात्म्यप्रकाशनपड, कर्मधर्मनिर्मूलनोद्यतशुभध्यानचंदनमलयापमान । स्व. परसमुद्धरणनिरताविनेयजनताचित्तमार्थनीय, प्रतिवद्धाशुभात्रय, अप्रमत्तायाः संपादकं । सकलविफलप्रत्यक्षशानबीजे। दर्शनचरणयोः समीचीनयोः प्रवर्तकं इति निरूपणा श्रुतपर्णजननम् । दुखाधातु, सुखं वातुं, निधीनां चाधिपत्ये स्थापयितुं, स्वचक्रविक्रमानमितसकलभूपालघरगणपवमरच्चकांञ्चकलांछनान्पादयोः पातयितु, सुरविलासिनीचेतः समोहावई, तबीयविलुठल्पाठीनलोचनरागमभिषधयती, हर्षभरपरचशोनिनसांवरोमांचकंचुकमाचरितुं, उच्चतां रूपशोभामंदिर संपादयितुं, अतिशयिताणिमाविगुणप्रसाधनां, सामानिकादिसुरसहस्रानुयानोपनीतमहत्तां सततप्रत्ययुपतालिगितां सुभगतालतारोहयष्टिम्, अनेकसमुद्रबिंदुगणनागणितायुःस्थिति, मेरुकुठसुरसारस्कुलाचलादिगोचरस्वेच्छाविहारचतुरां, सुरांगनापृथुलनितंचाबियाधरकठिननिविड समुन्नतकुचतटकीहाटोकनस्पशनादिक्रियोपयोगामितप्रीतिविस्मिता, शतमखतामसवने सरिति घरयितुं, चिरूपताज ननीजरााकिनीनामगोचरी शोक वृफानुलंधिता, विपहायानटाशखाभिरनुपप्लुतां, रोगोरगरदष्टचपुष, यममष्टिमा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १६१ रायंडिता, भीतिवराइसमितिभिरनुल्लिखिता, संशशतशरभैरनध्यासितां, प्रियवियोगचईपुंडरीकरसेविता, अनध्य सुस्वरत्नप्रभयभूमि निति प्रापयितुं समय जिनप्रणीतो धर्म इसि धर्मस्वरूपंकथनं धर्मवर्णनजनमम् ।। उपोटितप्रियवक्षनमुखर दुर्भेदबंधुसमिसिखलाः, दुस्तरतरसंसारावर्तचिरपरिभ्रमणकितसवेपथुझ्याः , अनित्यभाषनावहितचेतस्तया निरस्तशरीखविणादिगोचराः, दुःस्वसहतिसंपातरक्षाक्षमस्यापरस्य जिनप्रणीता शुगमाया परिणामस्पतहानरत्नप्रदीपप्रभाप्रकरनिभूलितभुषनभवनान्तलीनरवानभ्यान्तसंततयः, कर्मणामावाने, रात्फलादुभंषने, तनिर्मूलने च वयमेकका एवेति रुतविनिश्चितयः, असाधारणचैतन्यादिलक्षणोएनीतभेदापेक्षयाऽम्ये बयमितरदज्यकलापादित्यन्यताभाबनायामासाः , सुखदुःखयोरहताइरखेषाः,सदसद्यिोदयकर्मनिमित्तत्वेन ममातिमनभिपत .वापेक्षते पति उपकारापकारयोरमेय प्रणेता, मात्मनः शुभाशुभकर्मारोपणे ममैय स्वातंत्र्याप्सदुपचरितस्यात् । अनुग्रहनिमहयोः परे बराकाः किं कुर्वन्तीति मत्वा खजनपरजनविवेकनिरुसुकाः, समतादुपसर्ग महोरगरचार्य वीरबएन्धा अपयविचलवृत्तयः, क्षुत्पिपासादिपरीपट्टमहारातिसरभससंपातेऽप्यदीनासंक्तिएचेतोप्नयः, त्रिगुप्तिगुप्तिमुपाश्रिता, अनशनावितपोराज्यपालनोगुक्तमतयः, धृतानुनमतकवचाः, गृहीतशीलखेटाः, उदाणध्याना तिनिशितमंडलामा कमरिक्तनासाधनाद्यताः साधर इति साधुमाहात्म्य प्रकाशनं माधुवर्गवर्णजनमें । ___ मुक्ताहारपयोधरनिशाकरषासराधीश्वरकल्पमहीमहादय हय प्रत्युपकारानपक्षानुप्रद्दच्याताः, निर्वाणपुरपरिमापणक्षमे मार्ग निर्मले स्थिताः, परानपि विनतान्चिनयान्प्रवर्तयन्तः, आयतातिधवलशागपृधुलदर्शनपक्ष्मलक्षणाः, फुलाना, विनता, विभया, विमाना, चिरागा, विशल्या. विमोहा, क्यामि तपसि महसि घाऽद्वितीया इय-भूषणं सूरय इति रिवर्ण जननम् । अधिंगततार्थयाथातथ्यवाच्यवाचकानुरूपव्याख्यानाः, निरस्तनिदातंद्रीप्रमादाः,सुचरिताः. सुशीलाः, सुमे. धसः, इत्याध्यापकवणअननं । ...... मित्रालाभादनंतकालं अयमनादिनिधनोऽपि भव्यजीवराशिननिर्वाणपुरमुपैति तामे च सफलाः संपद सुलभाः इति मार्णवर्णजनन । मिथ्यात्वपटलविपाटनपीयसी, ज्ञाननमज्यकारिणी, अशुभगतिगमनप्रतिबंधविधायिनी, मिथ्यादर्शनविरोधिनीति निगलन : समीचीनरचर्णजननम् । सर्वज्ञतावीतरागते माहति विद्यते रागादिभिरविद्यया च अनुगताः समस्ता एष प्राणमृतः इत्यादिरईतामवर्णवादः । लीवगंधमान्यालंकारादिविरहितानां सियान सुख किंचिक्तीमितमामा । तेषां समाधिगती ने निधनमस्ति किचिदिति सिजापर्णयावः .: .::..." : सकपनामियमईप सिद्धा इत्यचेतनस्य ध्यपस्थापनायामपि पारिवाणीकविम्यकश्यवहतिरिव न मुस्पषस्तूपसेबमोङ्ग फलं लभ्यते । न प्रतिदियादिस्या शहदाययः तद्गुणषकक्ष्या प्रतिविधानामहदादित्वमिति Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः चैत्यावर्णवादः 1 . .. पुरुषातरवादशवाडिमावियाक्यवदयथार्थता नातींद्रियं वस्तु पुंसो मानगोयर, भडातं चोपदिशतो पचः कथं सत्यं तदुद्गतं च मानं कथं समीचीनमितिश्रुतावर्णवादः । दुर्गतिमतिबंध स्पादिकं च फलं विधत्ते धर्म इति कथमबष्टं अद्धीयते । न हि सन्निहितकारणस्य कार्यस्यानुद्भवोऽस्ति यथाकुरस्य । सुखप्रदायी चेर्मः स्वनिणत्यनंतरं सुखमात्मनः किं न करोति इति धर्मावर्णवादः । अहिंसादिवतपालनोधताः साधवः,सूरयोऽध्यापकाश्रेष्यन्ते । अहिसामतमेवैषां न युज्यते षड्जीवनिकायाकुले लोके वर्तमामाः कथमहिंसकाः स्युः? केशोल्लम्रनादिभिः पीडयतां च कथं नात्मवधः १ माष्ठमात्मनो विषयं, धर्म, पाप, तत्फलं च गदतां कथं सत्यवतम् ! रति साध्यवर्णवाटः । एषामितरयोरपि । विरुवामा एकत्र धर्मापामसंमठात विवाभिमतधर्माधिकरणकवस्तुज्ञापन न सम्पर । तदमिरुन समी चीनताविषयवहानानुगतत्वान्भृगतृष्णोदकष, मिथ्याशानानुगतत्वाधरणमपि न सम्यक 1 उरगप्रत्ययषलाद परिहार इषेति प्रवचनापर्णषादः। पतेषामवर्णवादानामसमवनदर्शनं । पुरुषत्वाइध्यापुरुषवत् सर्वहो पीतरागो था म भवत्पईन् इति साधन मनुपपत्रं । असमतामयीतरागतां थान्तरेण पुरुषता नोपपद्यते इत्यम्यधानुपपत्तेरभाषात् 1 जैमिम्यादयोग सफलवेदार्थक्षा पुरुषत्यावविपालषत् इति शक्यं वक्तुम् । सर्षशतावीतरागतासिदिश्चान्यत्र निरूपितेति ने प्रतम्पसे । दुःखपतीकाराथेषु यस्तुपु मूढानां सुखसाधनव्यवहारः । शरीरायासमात्रत्यान, कामिनीसमागमसुखं । वैरुप्यनाशनर्वखातिभिर्न कृस्प सियान । मशरीराणां सकलबुरखापायरूपं सुखं अविकलमनतमानात्मकं तेध्यवस्थितं । श्रुतं निबंधनं तवधिगमे । शुभोपयोगनिमित्तताईवादीनामिव प्रतिबिंबानामिति न बुजयोत्प्रेक्षिता ।। मूलारा-भती-भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागः पूया पूजा सा पद्वेधा द्रव्यभावभेदात् । ता इव्यपूजा अईदादीनुदिश्य गंधाक्षतादिदानं । भावपूजा कायेन अभ्युत्थानप्रदाभणीकरणप्रणामादिका । वाचा गुणस्तवनं । मनसा गुणानुस्मरणं ॥ पणजणणं-विदुषां परिषदि यशोजननं गुणकीर्तन मिति यावत् । तत्र सुगतादीनां दृशेनविरुद्धवचनता. प्रकाशननासर्वशत्वं प्रज्ञाप्य तत्संवाविषचनतया महत्त्वप्रख्यापनमहतां वर्णजननं । एवं परमतप्रसिद्धान् सिद्धानयोस जिनमतेन तत्स्वरूपनिरूपणं सिद्धानां वर्णजननं । तथा हि-न नावत्सांख्योका सिद्धता घटत्ते । चैतम्यमात्रावस्थानरूप निर्माण पुंसोऽपूर्वातिशयमाप्रमावात् न संसारिभ्यः कचिद्विशेषस्तद्रुपमुक्तः सर्वेषामयलसिद्भूतया सदा सत्वान । चैतन्यमात्रस्य झयाकारपरिच्छेदे परामुखस्य विशेषरूपरहितत्वादसत्वं खपुष्पवत् । न च प्रकृतेर्वद्धत्ववन्मुक्तरेपि किंचिरफलमात्मनः । नापि वैशेषिकोक्तानां Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवास: लाराधना तु तस्यापि समारहितो यदि भामाश्मवन! नापि बौद्ध ज्ञानाविगुणानां अत्यंतोन्मुक्तिर्मुक्तियुक्ता । न खलु कश्चिन् स्वगुणस्य सतो विनाशाय सचेताः प्रयतते, कि तर्सतिशयाधानाय । किं पुनश्चैतन्यस्य विशेषलक्षणशून्यस्य चात्मनः कथं सत्सा स्वपुष्प यत् , कथं वात्मतत्वं ? तपाहि-नासो वैशेषिकाभ्युपगत आत्मा आत्मबुद्धयादिगुणरहितस्थादश्मवन । नापि बौद्धमतो निरालवचित्तोत्पत्तिलमणो मोक्षः भोद भमते। चित्तणो हिरागादिक्लेशवासनारहितो यदि प्राक्तनात्सासवचित्तक्षणादुत्पधेत तहिं कुतस्तस्य निराम्रपत्वं ? निरास्त्रवात्तस्मात्स्योत्पत्तौ तु तस्यापि कुतो निरावसवत्वमित्यनवस्था । न च पूर्वेण सर्वथा नऐन परो अन्येत मृतेन पित्रा पुत्रवत् । नानि ब्रह्माद्वैतबादिकल्पित्तनिर्वाण प्रमाण । से हि यथा घटविघटने घटाकाशमाकाशीभवति तथा देहोकछेदात्सर्चः प्राणी परे प्रमणि बीयते इति तरक्षणमाचक्षते । तदसन् । निस्तरंगकरूपपरमश्रण: कुतश्चित्प्रमाणादसिद्धत्यान् , भेदस्यैव सकलप्राणिनां निराबाधबोधे प्रकाशमानत्वात् । अभेदस्य तनिरपेक्षस्य स्वप्नेऽप्यतीतेः । एवं मतान्तरोक्तानां सिद्धानां अध टनादुःखारिसंसारकाराकरणकमनिमूलमोन्मीलितनिर्मलनिश्चलविश्वदार्शचिपसमवस्थानलक्षणं स्वास्थ्यमास्थिताः अनंतज्ञानात्मकेन सुखेन संतृप्ताः सिद्भा इत्यादि तद्गुणकीर्तने सिद्धवर्णजनन । चैत्यवर्णजननं यथा—अईदादीनां शांतरूपत्ववीतरागत्वादिगुणानुस्मरणादपूर्वपापनिरोधोऽभिनयपुण्यासवर्ण, पुण्योदयस्करीभावः, पापोदयापकर्षश्च स्यात् । तच्च तत्प्रतिपिंप्रदर्शनादुत्पद्यते । पुत्रस दृशदर्शनात्तद्गुणस्मरणयत् । बाह्यद्रव्यालंबनो हि शुभोऽशुभो वा परिणामः स्यान् इष्टानिष्टार्थसान्निध्याद्रागद्वेषवत् । अथवा अदादिप्रतिरूपदर्शनासप स्मयते, ततश्च तद्गुणाः ।। तथा चोक्तं-भूषावेषायुधत्यागी बिगादमदयापरं ॥ रूपमेव तवाचष्टे धीरपोषविनिमहम् ।। सवेवमहदादिवत्तचैत्याग्यपि शुभोपयोगहेतुतया सकलाभिमतपुरुषार्थसिवितुत्वादुपासनीयानि इति चैत्यमहत्तामकाशनं सद्वर्णजननं । श्रुतज्ञानं हि केवलज्ञानवद्विषतत्त्वाषभासि, कर्मनिर्मूलनोद्यतशुभध्याननिदानं, स्वपरसमुशरणानिरतविनयजनता पार्थनीय, प्रतिवद्धशुभासवं, अप्रमत्ततायाः संपादक, सफलत्रिमलप्रत्यक्षज्ञानबीजे, समीचीनदर्शनचरणप्रवर्तकमिति निरूपणं श्रुतवर्णजननं ॥ तुर्गतिदुःखात्रा, निरासकातिशयितदीर्घकालोपलालितं सुखं दातुं, सकलसाम्राज्यं स्वर्गाधिराज्य चाधिकतुं, सुरेंद्रनागेंद्रान्पादयोः पातायतुं, समवसरणाविषदिरंगानंतशानाश्तरगलश्मीलक्षणां जीवन्मुक्ति, सम्यक्त्वाद्यष्टगुणलक्षणामात्यंतिकी परममुक्ति च संपादयितुं समर्थो जिनप्रणीत एष धर्मो नान्य इति धर्ममहिमस्यापनं धर्मवर्णजननम् ॥ ROCKSTARATBIRTERTATATARATE १६३ ROMANTER Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना SO आश्वTH: ... . रत्नत्रय साधयतीति साधवस्त्रुट्यकर्मबंधनाः, संसारभीरयोऽमित्यभाषनानिरस्तदेहाचादराः, जिनधमैफशरणा, ज्ञानाकतेजोनिरस्तान्तस्तमसः, कर्मणागादाने फलानुभवने च वयमेकाकिन इति कृतनिश्चयाः, स्वचैतन्यादिगुणार्पितभेदापेक्षाया कायादिपरद्रव्येभ्योऽन्ये चयमिनि अन्यत्वगावाब हिताः, सुखासुखचोर कृतादरपाः, सदसदद्योदयार्थमिष्टानि वापय स्वयोगकारापारोतरी ता. भागमामांगोगा मगर स्थानं यादपरत शक्तिकत्वाद नरहनि गहलो यगकाः किं कुर्वन्ति इति नत्वा नविवेकानरमा नभन्नादुपरानॉपनि मानेऽयचटया, पारिदिया . संक्रिटमनमस्निगुनिगुप्तास्तपन्युपक्षः शसिननना, शील्पस, जनानाः निलामार्गटा इति नामाहान्याला साधुवर्णजननं ।। पंचधाचार स्वयमाचरन्ति शियानाचारयन्ति इति आचार्याः । प्रत्युपकारनिरपेक्षपरोपकाराः, सुरभूधग्बद्धीराः, सर्वशास्त्रपारदृश्वानः, स्वयं श्रेयःपथे स्थिताः, विनीतविनेयास्वत्र स्थापर्यतः, शुद्धदेशकुलजातयो, विनयंसिद्धा, मानमर्मारिधो, विगतरागद्वेष मोहाः, शल्यव्यपेताम्तपसि, तेजसि, यशसि, तरसि, वचसि च निरोपभ्या इति गुणग्रहण सूरीणां वर्णजननम् ।। उपेत्य सिमर्थन दौकिल्वाऽधीयते श्रुनमतेभ्य इति उपाध्यायाः, प्रबुद्धजिनागमार्थयथातथ्याः, सुचरितचूडामणयः षट्तर्कीलुरस्रोतस्विनीनदीष्णमतयो, निरस्तनिद्वातंद्राप्रमायाः, सुमेधसः, शिष्यमेधानुरूपव्याख्याना इत्यध्यापकवर्णजननम् ।। रतापगम्गामामफालना गोऽगि मनगाधिर्ग निर्धाति सखामे सुलभा। मम्मपनो सम्माविषमतम समस्तविपद इत्यादिप्रयचनवर्णजननम् ।। मिथ्यात्य कर्मनिर्मूलन, झाननै ल्यमूलं, दुर्गतिगमनप्रतिबंधनं, सुगसिद्धारोद्धादर्न इत्यादि पर्शनयर्णजननम् ॥ अयण्णवादस्स-असद्भूतदोषोद्भावनस्य नाशनं प्रकूतत्वादहवादीनामेष । वद्यथा-वीतरागत्वसर्वज्ञत्वेऽईति न विद्यते सर्वप्राणिनां रागादिभिरविद्यया च नित्यमनुस्यूतत्यादित्यादिरहतामवर्णवादः ॥ सिद्धानां सुखं न किंचिदास्त तत्कारणकामिन्यादीनामभावात् । सतोऽपि वा सुखस्य तेषां नानुभवस्तनिमित्तानामिद्रियाणामतीन्द्रियतया तत्रासत्वा दित्यादिः सिद्धानाम् ।। सोऽयगई नित्यादिस्वकल्पनया पापानादारचेनने तयवस्थापनायामपि कन्यकानां कृत्रिमपुवकध्यय. इताविध न मुरुरवस्तूपसेननो फागुपलभ्यते इति न प्रशिनादिपु संबान्ता अदालो, नापि प्रतिमानामईदादित्यममा सद्गुणशून्यत्वात्ततोऽन्यपापाणादिवन्न तगामाराधने मिनिममन्नममित दन्यानिश्चयानां ।। इदमाईतं श्रुतं पुरुषलवादादादिमादियात सयक्षार्थ । गचंगारांजनादिवत्कालप्योकप्रियम्य मिल कुत Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासा चिद्विशुद्धिरिति सर्वे पुरुषाः सर्वदा सगादिदोषदूषिताः अस एवातीन्द्रिय वन्त न कस्विजानाति । भगा लपदिसणे न 10 ५चः सत्यं, सद्भूतं च झान मिथ्यैयेत्यादिः श्रुतस्य ।। शीतोष्णस्पर्शवत्परस्पर विरुद्धानामस्तित्वादिधर्माणामेकत्र वस्तुन्यसंभवात् चिरुद्वाभिमतधर्माधिकरणकवस्तुझापनं न सम्यक् । नापि तन्छूद्धानं मृगतृष्णोदक श्रद्धानवन्निध्याज्ञानानुगत्यान्नापि चरण रज्जो सर्पप्रत्ययात्तत्परिहारवत् अस. त्यज्ञानपूर्वक इत्यादिः प्रवचनस्य || यदा तु प्रवचनशब्देन द्रव्यश्रुतमुच्यते । तदेदं जैनानां शास्त्रं शब्दशास्त्रविरोधि। म्लेच्छभाषादिषड, लोकशास्त्राप्रसिद्भूत्वाविवक्षितार्थप्रतिपादनासमर्थमित्यादिः ॥ दर्शनावर्णवादस्तु रत्नत्रयावर्णवा दान्तर्गत एव । पृथग्दर्शन स्योपादानं तु विशिष्टतइत्यादिगोचरत्वमचनार्थे । अर्हदायवर्णवादपरिहारस्तु यथाशास्त्रं प्रति पत्तव्यः ।। आसादना अवज्ञा ।। अहंदादिगु दशम्बपि मायादयः पंचापि सम्यक्त्वम्य यिायो माहात्म्यायकरमान नि गाथाद्वयसंग्रहार्थः ।। हिंदी अर्थ-अहंदादिगुणोंमें प्रेम करना भात है. पूजाक द्रव्यपूजा और भावपूजा एस दो भेद है. अहंदादिकोंके उद्देश्यसे गंध, पुष्प, धूप, अक्षतादिक ममर्पण करना यह द्रव्यपूजा है. तथा ऊट करके खडे होजाना: तीन प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना वगरे शरीरक्रिया करना, वचनोंसे अहेदादिकोंके गुणोंका स्तवन करना यह भी द्रच्यपूजा है, मनसे उनके गुणोंको चितन करना यह भावपूजा है, वर्णजनन-वर्ण शब्दके अनेक अर्थ हैं. वर्ण-शुक्लादिक वर्ण, जैसे 'शुक्लवर्णमानय । अर्थात् सफेत रंगको लाओ. वर्ण शब्दका अर्थ अक्षर ऐसा भी होता है 'सिद्धो वर्णसमाम्नाथः । वणोंका समुदाय अनादि कॉलसे है. वर्ण शब्दका अर्थ ब्रामणादिक ऐसा भी है. यथा ' अत्रैव वर्णानामधिकारः । इस कार्यमें ही ब्रामणादिक चोंका अधिकार है. यहांपर, वर्ण शब्दका 'यश' ऐसा अर्थ माना जाता है. असे 'वर्णार्थी ददाति यशकी काम नासे देता है. प्रस्तुत वजनन ' इस शब्दमें वर्ण शदका अर्थ या ऐसा समझना चाहिये...... _ अईदादि परमेष्ठिओंका विद्वानोंकी 'सभामें पेशोगान करना, उनका महत्त्वं चताना इसको वर्णजनन । कहते हैं, RA फपिलं, बुद्ध, ईश्वरादिक सर्वज्ञ नहीं थे, उनके वचन प्रत्यक्ष अनुमानादिकोंसे विरुद्ध-याधित होते हैं ऐसा सिद्ध करके अईदादिकोंके बच्चन युक्ति और आगमसे अविरुद्ध है.ऐसा सिद्ध करना, इस गैंतीसे उनकी महत्ता Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६६ प्रकट करना यह अर्हदादिकोंके वर्णजनन है. आत्मको जब मोक्ष प्राप्त होता है तब वह अपने चैतन्यर्मे स्थिर होता है ऐसा सांख्य कहते हैं. मुक्तात्माका चैतन्य फक्त स्वस्वरूपको जानता है, बाह्य पदार्थको वह जानता ही नहींऐसा उनका मत है. परंतु यह मत युक्तीसे बाधित होता है. प्रयत्नके बिना ही सर्व आत्मामें चैतन्य सदा विराज मान है ही, वैसा ही यदि मुक्तमें भी होगा तो उसका विशेषरूप संसारी आत्माके चैतन्यस्वरूपसे भिम नहीं है ऐसा मानना पडेगा. अर्थात् मुक्तात्माके चैतन्यमें कुछ अपूर्वता है नहीं ऐसा सिद्ध हो गया, जिसमें कुछ अपूर्वता नहीं रहती है वह चीज इतर वस्तुसे अपना मिश्रपना सिद्ध नहीं कर सकनेसे खपुष्पके समान असत् ही समझनी चाहिये । प्रकृतितच्च अचेतन होनेसे उसमें मुक्तिकी कल्पना करना फिजूल हैं. वह मैं बद्ध हूं अथवा मुक्त हुई है ऐसा जानती ही नहीं. अतः कापिलके-सांख्यके मत में मुक्तावस्था आत्माकी सिद्ध हो नहीं पाती. बुद्धयादि विशेष गुणोंसे रहित मोक्ष है ऐसा वैशेषिकों का मत है परंतु वह भी समुचित नहीं है. आत्मामें अचेतनताकी कल्पना कोन सचेतन प्राणी करेगा ? अर्थात् आत्मामें ज्ञान है यह बात बाल गोपालतक स्वीकारते हैं. यदि मुक्तावस्था में आत्माका ज्ञान नष्ट हो गया तो वह अपनी सिद्धिके लिये किसका आश्रय करेगा ? अर्थात् ज्ञान यह आत्माका विशेष लक्षण हैं. उसके बिना उसकी सत्ता ही नष्ट हो जाती है, जैसे भस्ममें ज्ञान न होनेसे उसको कोई आत्मा नहीं कहते हैं वैसे ही मुक्तात्मा ज्ञानशून्य हो जानेसे अपना आत्मत्व खो चुके हैं ऐसा मानना पडेगा. रागद्वेषादि क्लेशोंको उत्पन्न करनेवाला बासनाओंसे रहित जब ज्ञान हो जाता है तब वह मुक्त माना जाता है ऐसा बौद्धका मत है. यहां हम उनको पूछते हैं कि, यदि वह ज्ञान अत्यंत असाधारण रूप और एक ही है. दुसरे पदार्थ ज्ञानके समान असाधारणरूपके धारक नहीं है ऐसा कहोगे तो दुसरे पदार्थोंका स्वरूप वर्णन करने लायक नहीं है ऐसा निश्चित हो गया. जो जो वस्तु असाधारण स्वरूपसे रहित है वह वह आकाशपुष्पके तुल्य अभावरूप माननी पड़ेगी. इस रीतीसे अन्यमतमें सिद्धोंका स्वरूप सिद्ध होता नहीं. अतः बाधक सकलकर्मका नाश हो जानेसे अविनाशी आत्मस्वरूपको जो प्राप्त होगये हैं वे सिद्ध परमेष्ठी हैं. वे अनंत ज्ञानरूपसुखसे तृप्त हुये हैं. ऐसा उनका माहात्म्यकथन करना यह सिद्ध माहात्म्य वर्णन हैं. भावासः १ १६६ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आभासः १६७ जैसे जिनके रागदेप नष्ट हुये हैं जो त्रैलोक्यचूडामणि हैं ऐसे अईदादिक भन्योंको शुभोपयोग उत्पन्न होने में कारण हो जाते हैं. वैसे उनके प्रतिबिभी शुमोपयोग उत्पम करते हैं. बाझ पदार्थके आश्रपसे शुभ या अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं. आत्मामें इष्टानिष्ट पदार्थका सानिध्य होनेसे रागद्वेष उत्पन्न होते हैं. अपने पुत्रके समानही दुसरेका सुंदर पुत्र देखनेसे अपने पुत्रकी याद आती है. इसीतरह अदादिकोंके प्रतिबिंब देखनेसे अर्हदादि परमेष्ठिओंके गुणोंका स्मरण हो जाता है. इस स्मरणसे नवीन अशम कर्मका मंवर होता है. नवीन सभ कोका आगमन होता है. जो शुभप्रकृति, ग्रहण की गई है उसमें वृद्धि होती है. पूर्वम ग्रहण की हुई अशुभ प्रकृतियोंका रस कम करनेमें समर्थ होता है, इसलिये समस्त इष्टपुरुषार्थकी सिद्धि करनेमें प्रतिबिंब हेतु होते हैं. अतः उनकी उपासना अवश्य करनी चाहिये. इस तरहसे चैत्यकी महत्ता प्रकाशित करना यह चैत्यवर्ण जनन है. अतज्ञानवर्णजनन-अवज्ञान केवलज्ञानके समान संपूर्ण जीवादि द्रव्योंके यथार्थ स्वरूपका प्रकाशन करने में समर्थ है, कर्मरूपी उष्णताको नष्ट करनेके लिये उद्युक्त हुवा जो शुभ ध्यानरूपी चंदनवृक्ष उसको यह अतन्नान मलयपर्वतके समान है. स्वतःका और भव्यजीवोंका उद्धार करने में तत्पर ऐसे विद्वान लोगोंके द्वारा यह ज्ञान आराधने योग्य है. यह अशुभ कर्मके आम्रवोंकी उत्पत्ति होने नहीं देता है. इस श्रुतज्ञानसे आत्माका प्रमाद नष्ट होता है. सकल और विकल ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञानोंकी उत्पत्ती यही कारणभूत है. सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रकी इससेही प्रवृत्ति टिक सकती है. इस तरहसे श्रुतज्ञानके महत्वका कथन है. धर्मवर्णजनन-यह जैनधर्म दुःखोंसे जीवको बचाता है. सुख देनेमें समर्थ है, नवनिधी और चौदह रत्नोंका अधिपति करता है, जिन्होंने अपने पक्ररत्नसे संपूर्ण भूगोचरी राजे, विद्याधर नृप और गणबद्ध देव वश किये है ऐसे चक्रवती भी इस धर्मके प्रभावसे नन होकर चरणोंपर नमस्कार करते हैं. इसके प्रभावसे इंद्र पदवी प्राप्त होती है. यह पदवी देवांगनाके चित्तको लुभानेवाली है. उसके चंचलमत्स्यके तुल्प नेत्रों में प्रेम उत्पन्न करती है. हर्षसे शरीरमें रोमांच उत्पन्न करती हैं. इस पदवीके धारक देवमें धर्मके प्रसादसे सर्व देवोंसे भी अधिक महत्त्वशाली अणिमामहिमादिक प्रद्धि प्राप्त होती है. हमेशा इंद्र तारुण्यसे युक्तही रहता है. उसका शरीर सौंदर्यरूपी लताके आरोहणके लिये यष्टीके समान होता है. इंद्रका आयुष्य अनेक सागरोंके जलबिदुओंकी गणना Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अवस: १६८ तुल्य बरा रहता है. अर्थात अनेक समुद्रोंमें जलविदु जैसे अगणित रहने हैं चैसा इंद्रका आयुष्य अनेक सागरोपम रहता है. वह इंद्र मेरुपर्वत, कुरुभूमि [देवकुरु और उत्तरकुरु भोगभूमि ] गंगादि महानदियां, हिमबदादि कुल पर्वत, इत्यादि स्थानों में खेच्छासे विहार करता है. देवांगनाओंके विशाल नितंब, अधरोष्ठ, कठिन, ऊँचे और विशाल ऐसे सनतट इनके माथ वह क्रीडा करता है, उनको अवलोकन और स्पर्श करके बहुत आनंद लूटना हैं. ऐसी महत्वशालिनी इंद्रपदवी इस जिनधर्मके प्रमादसे मनुष्य प्राप्त कर सकता है. . इस जिनधर्मक प्रसादसे मोक्षकी भी प्राप्ति होती है. कुरूपता उत्पन्न करनेवाली वृद्धावस्था रूप डाकिनी इस अविनश्वर ज्ञानमय मोक्षको स्पर्श नहीं करती है, शोकरूपी वृकुर मोक्षभूमीमें प्रवेश नहीं करते हैं, यह भूमी विपत्तिरूप दावानीकी ज्वालाओस अंलिम रहती है. रोगरूपी दुष्ट सर्प इसके शरीरको देश नहीं करते हैं. यह मोक्षभूमि यममहिपके शंगसे अखंडित रहती हैं. भीतिरूपी वराहांसे उकीरी जाती नहीं है. संक्लेन परिणामरूपी शरभ इसमें वास नहीं करते हैं। मियवियोगरूपी ऋर च्यात्रोंसे यह रहित है। यह अनुपम सुखरूप रदको अपम वाली बनी है। ऐसी मचिनिः जिनधर्मके प्रसादसे भव्य जीव पा सकते हैं. इस तरह धर्मका माहात्म्यकथन फरना यह धर्मवर्णनजनन है. " . . सांधुवर्ग वर्णजनन-प्रियंत्रचन बोलने में चतुर ऐसे बंधुगण दुर्मेध शंखलाके समान है, परंतु साधुगण इस बंधुशंखलाको झटसे तोडते हैं. दुस्तर संसाररूपी भोवरोमें चिरकालतक भ्रमण करनेसे उनका हृदय भययुक्त रहता है, हमेशा अनित्य भावनामें उनका चित्त आसक्त रहनेसे शरीर, धन, वगैरे पदार्थोंमें ये आसक्ति नहीं रखते हैं. यह जिनधर्म ही सैंकडो दुःखोंसे हमारा रक्षण करता है. इनको छोडकर दुसरा कोई भी हमको दुःखासे छुटानेवाला नहीं है ऐसा मनमें विचार कर उसके ही शरणमें जाते हैं, श्रीमाधुपरमेष्ठी ज्ञानरूपी रत्नदीपककी ममान जगदपी गृहमें छिपकर बैठे हुए अज्ञानांधकारको भगाते हैं. कमोंको ग्रहण करना, उनके फलाको चखना और उनको निमूलन करना इन कार्योंमें हमको कोई सहाय्य नहीं कर सकता है. हमको ही ये कार्य करने पढते हैं, ऐमा अपने मनमें निश्चित करते हैं, अगाधारणतन्य हमारा लक्षण है इससे हम इतर अजीचादि पदाथोंगे भिन्न है एमी भावना कर इनर द्रव्योंस वे अपनको सर्वथा भिन्न भाते हैं. वे सुख में आदर तथा दुःखमें दंप करत नहीं है. यदि मेरमें सातावदनींव कम होगा तो अन्यजन मेरा आदर करेंगे यदि नहीं होगा तो मेरा वे ए करेंगे" अतः मैं Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना 10 भारात ही अपने ऊपर उपकार या अनुपकार करता है, शुभ या अशुभ फम उत्पन्न करनेमें में स्वतंत्र ई. अनुग्रह और निग्रह अन्य लोक करते हैं यह मानना औपचारिक है. ये लोक दीन है ये कुछ करने धरनमें समर्थ नहीं है ऐसा विचार कर ये मेरे बंधुगण है, ये मेरे शत्र हैं ऐसी भावनाको वं हृदयसे दूर करते हैं. जिनका सामर्थ्य अनिवार्य है ऐसे उपसर्गरूपी सोस घिरे हुए भी वे विलमात्र भी घबडाते नहीं है. क्षुधा, तृषादिपरीयहरूपी शत्रु बड़े जोरसे आक्रमण करते हैं, तथापि वे दीन होकर मनमें संक्लेशयुक्त नहीं होते हैं. वे तीन गुप्तिरूपी गुप्ती का आश्रय लेते हैं. अनशनादिपोराज्यका पालन करने में उद्युक्त होते हैं. संपूर्ण महारतरूप कवचको धारणकर हाथमें शीलरूपी ढाल लेते हैं. म्यानसे बाहर निकाली हुई ध्यानरूपी तरवार वे अपने हाथमें लेकर कर्मशत्रकी सेना जीतते हैं. इस तरहसे साधुपरमेष्ठीका माहात्म्य प्रगट करना यह साधुवर्णजनन है. आचार्यवर्णजनन-मोतिओंका हार, मेघ, चंद्र, सूर्य, कल्पवृक्ष वगैरे पदार्थ प्रत्युपकारकी अपेक्षा न करके ही उपकार करते हैं, आचार्यपरमेष्ठी भी उनके समान परानुग्रह करने में सदा उद्युक्त रहते हैं, वे निर्वाणनगरी के प्रति ले जानेवाले निरतिचार चारित्ररूपी मार्गका स्वयं अवलेपन करके नत्र हुए ऐसे शियादिक भव्य जीदों को भी उस मागमें प्रवृत्त करते हैं. आचार्य निर्मल ज्ञान और विशालदर्शनरूपी पक्ष्मल नेत्रीसे सम पदार्थाको जानते हैं और देखते हैं, वे कुलीन, नम्र, निर्भय, अभिमानरहित, रागद्वेष रहित, माया, मिथ्यात्व, निदानरहित और मोहरहित होते हैं, बचनोंमें, तेजमें, तपमें थे अद्वितीय होते हैं. वे जमतके अद्वितीय अलंकार हैं, इस तरह आचार्यवर्णजनन समझना. उपाध्यायवर्णजनन-उपाध्याय परमेष्ठी अच्छी तरहसे आगमके ज्ञाता होते हैं. वे जीवादि पदाथांका यथार्थ वर्णन करते हैं, शम्द और अर्थके वाच्यवाचक संबंधका निर्दोष विवेचन करते हैं, वे निद्रा, आलस्य और प्रमादका त्याग किये हुये हैं. निरतिचार चारित्रके धारक, शील संपन्न और सम्यग्ज्ञान संपन्न होते हैं, यह उपाध्याय वर्णजनन है. मार्गवर्णजनन-रत्नत्रयही मोक्षका मार्ग है, इसका लाभ जीवको यदि न हो जायगा तो अनादि व अविनश्वर ऐसी यह भव्य जीवराशि मोक्षपुरकी प्राप्ति नहीं कर सकेगी. जब उसका लाम होता है तम जगतकी सर्थ संपत्ति इस जीवको प्राप्त होती है. यह मार्गवर्ण जनन है. Hinditate69849990989054 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना अपचास: - सम्यग्दर्शन वर्णजनन सम्यग्दर्शन मिध्यात्वपटलको नष्ट करके सम्यग्ज्ञानमें निर्मलपना लाता है. नरक निर्यचादि अशुभं गति में जानेसे रोकता है. यह मिथ्यादर्शनका शत्रु है ऐसा वर्णन करना यह सम्यग्दर्शन वर्णजनन है. गुणवान ऐसे पंच परमेष्टीऑमें जो दोष नहीं है वे दोष निकालना उसको अवर्णवाद कहते हैं. ऐसे अवर्णवादका निराकरण करनेसे दर्शनविनय होता है, अब अवर्णवादका वर्णन करते वीतरागता और सर्वज्ञपना अर्हन्तमें नहीं है, जगतमें संपूर्ण प्राणी रागद्वेष और अज्ञानसे घिरे हुए ही देखे जाते हैं ऐसा कहना यह अर्हन्का अवर्णवाद है. वी, वस, इत्र वगैरे मुगधी पदार्थ, पुष्पमाला और वखालंकार येही सुखके कारण हैं. इन पदार्थोंका अभाव होने सिद्धाको मुख नहीं है. मुग्न इंद्रियोंसे प्राप्त होना है. परंतु गिद्धोंको स्पादि इन्द्रियां नहीं है अतः वे सुखी नहीं है. ऐसा कहना यह सिदावर्णवाद है. जैसे छोटी छोटी कन्यायें गुड्डी यह मेरा बालक है मेसा व्यवहार करती हैं. परंतु जैसे साक्षात् बालक गोदमें लेनेसे उनको सुख मिलेगा वैसा गुहीसे नहीं मिलता है वैसहि ये अहन्त है ये सिद्ध परमेष्टि हैं ऐसी अचेतन पदार्थमें स्थापना करके उपासना की तो भी समवसरणमें साक्षात विराजमान अर्हन्तकी पूजा करनेसे जो फल मिलता है वह नहीं मिलेगा, मूर्ति में अईद सिद्ध वगैरे पूज्य पुरुष पास नहीं करते हैं. क्योंकि उनके गुण मूर्ती में दीखते नहीं हैं. ऐसा कहना चैत्यावर्णवाद है. श्रुतावर्णवाद-जैसे नदीके तीरपर दस दाडिम गिरे हैं हे लडको : भागो ऐसा कहनेवाले पुरुषका वाक्य जैसा असत्य है वैसे आगम भी पुरुषकृत होनेसे असत्य है अप्रमाण है. पुरुषको अतींद्रिय वस्तुओंका ज्ञान होता नहीं है. और अज्ञात वस्तुका यदि वह उपदेश करेगा तो उसके उपदेशमें प्रमाणता कैसी आवेगी ? उसके उपदेशसे लोगोंको जो ज्ञान उत्पन होगा वह भी प्रमाण कैसा माना जायगा ? अतः आगमज्ञान प्रमाण नहीं है ऐसा कहना यह श्रुतावर्णवाद है. धर्मायणवाद-धर्म वुर्गतिस प्राणीको बचाता है, और स्वादिफल देता है यह कहना ही है. ये सब बातें परोक्ष हैं. प्रत्यक्ष नहीं है. अतः इनके ऊपर विश्वास रखना कैसा योग्य होगा जिसके कारण मौजूद रहते हैं वह १७० Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधना आश्वास An वस्तु उत्पन्न होती है जैसे बीज होनेसे अंकुरोत्पत्ति होती है. यदि धर्म मुखदायक है तो वह उत्पन्न होनेफे अनंतर ही सुस्व क्यों उत्पन्न नहीं करता है, ऐसा कहना यह धर्मावर्णवाद है... साधु, आचार्य और उपाध्याय ये सर्व मुनिराज अहिंसावतका पालन करते हैं ऐसा जनलोक कहते हैं परंतु इन मुनिका आहिमावत युक्तीसे सिद्ध होता नहीं. ये सर्वमुनि पांच स्थावरजीब ब और उस जीत्रके समुदायमें बिहार करते हैं, इसलिये ये आहेगक कैसे होंगे ? ये साधु केशलोच, उपवासादिके द्वारा आपने आत्माको दुःख देते हैं. इसलिये इनको आत्मवधका दोप क्यों न लगेगा पाप और पुण्य हार्टगोचर होते नहीं है तो भी ये मुनि उनका और उनके नरक, स्वर्गादिफलोंका वर्णन करते हैं. उनका यह विवेचन झूटा होनेसे असत्य बोलनेका दोष उनसे होता है. इत्यादि कहना यह साधु अवर्णवाद है. इसी तरह आपार्य और उपाध्याय परमेष्ठीका भी अवर्णवाद समझना चाहिये। : प्रवचनाबर्णवाद-एक वस्तूमें परस्पर विरुद्ध स्वभाव नहीं रहते हैं. तो भी एक वस्तूमें उनकी कल्पना करना यह युक्ति संगत नहीं है. जो मनुष्य एकवस्तुमें बिरुद्ध स्वभाव रहते है ऐसी श्रद्धा करता है वह सम्परष्टि नहीं है. क्यों कि उसके श्रद्धानने विपरीत ज्ञानका अनुसरण किया है. उसे मृगतृष्णा में की गई श्रद्धा मिथ्याज्ञानका अनुसरण करनेवाली होनेसे मिथ्या मानी जाती है. जैनलोगोंका चारिख भी मिथ्याज्ञानका अनुसरण करता है अतः यह भी सच्चा नहीं है. दोरी में सर्पकी श्रांति होनसे जैसे रज्जुका त्याग हो जाता है. इस त्यागके ममान ही मिथ्याज्ञानसे होनेवाला चारित्र भी भ्रांत है. इत्यादि कहना प्रवचनावर्णवाद है. अब उपर्युक्त अवर्णवादोंका असत्यपना संक्षेपमें दिखाते है. अर्हन् पुरुष होनेसे रास्तेसे जानेवाले प्रवासीके समान सर्वझ और वीतराग नहीं है यह कहना असत्य है, क्योंकि असर्वझपना व रागद्वेषीपना इनसे पुरुषत्वका अविनाभाव नहीं है. जैनलोक भी जैमिनी, बुद्ध वगैरह पुरुष भी भेडियाँको पालनेवाले मनुष्यके समान है ऐसा कह सकेंगे. अर्हन सर्वज्ञ और वीतराग है इस बातका विवेचन अन्य न्यायग्रंथों में होनेमे हम यहां करते नहीं. जो पदार्थ केवल दुःख प्रतीकारार्थ ही है उनमें मूढ लोक सुखमाधनना मानते हैं. स्त्रीके साथ संभोग करना यह वास्तविक सुख नहीं है, क्योंकि स्त्रीको भोगते समय शरीरको बहुत आयामयुक्त करना पड़ता है अतः उसको सुख कहना Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना यह मोलह आना झूट है. कुरूपताको मिटानेवाले वस्त्रादिकोंकी सिद्धपरमेष्ठीको बिलकुल आवश्यकता नहीं है. वे सिद्ध भगवान शरीररहित हैं, अशरीर आत्मामें सकल दुःखोंका नाश होना यही सुख है. यह पूर्ण, अनंत और अनंतज्ञानात्मक है. आत्मा में रहा हआ श्रुतज्ञान जीवादि पदार्थों को जानने में निमित्त होता है. जैसे अरहंत और आचार्यादिक शुभोपयोग के लिय कारण है बसे उनके प्रतिचिंच भी शुभोपयोगके लिये कारण हैं. यह संक्षेपसे अवर्णधादका निरसन हुवा. एवं दसणमाराहतो मरणे असंजदो जदि बि कोवि ॥ सुविसुद्धतिब्बलेस्सो परित्तसंसारिओ होइ ॥ १८ ॥ मृतावाराधयमेवं निश्चरियोऽपि दर्शनं ।। मकृष्टशुद्धलेश्याको जायते स्वल्पसंमृतिः ।। ५१ ॥ विजयोदया-वमियनया गाथया असंयासम्यग्दृऐः सम्यक्त्यमागध यतः फलमाची पयमिति पत्रोक्त पग मर्शः। Aध्यमेव मोक्षमागः प्रकृयः इति । प्रधानाः शंकादिकमपाकुर्वन्ति उपटणादिभिः । सभ्य वन्वाय शक्ति वर्धयन्समीनिं वर्शनविनग पादयन ।दसणं कानवाधिरता निरादयन्मरण नयपधनुनिक जना जदि वि यद्यव्यसयतः। सुविसुनिव्वलेस्सो कापायानरं जिना योगवृत्तिले श्या, साघोढा प्रयिमता हर्नरलकापीततेजःपपल ले भन्यामेदेन । तपाशुमलेदयानिरासार्थ मुविसहणं । तीमहणं परिणामप्रकोपादानाय । सुबिशुद्धा तीवा लेल्या यस्य सुविशुद्धतीमलेश्यः । परित्तसारिओ अल्पचतुर्गतिपरिवर्तः 1 होदि भवति । अल्पसंसारता सम्य. पवाराधनायाः फलवेन दर्शिता ॥ एवंविधसम्यक्तत्वाराधनायाः फलमाचटे मूलारा-आराईतो निष्पादयन् । सुविसुद्धातव्वलेरसो सुविशुद्धतीत्रले श्यः विशुद्धा शुभा सीत्रा परिणामप्रकर्षयती लेश्या कषायानुरंजिता योगप्रवृत्तिर्यस्य सः । परित्त परिमितः । सम्यक्त्वाराधनायाः स्वस्पसंसारत्वमित्यर्थः । अर्थ-सम्यग्दर्शनकी आराधना करनेवाले असंयत सम्यग्दृष्टीको कौनसा फल मिलता है इसका इस गाथामें आचार्यने उल्लेख किया है. उपगृहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये सम्पग्दर्शनके चार गुण हैं इनसे सम्यग्दर्शन शंकादिदोषोंसे रहित हो जाता है. सम्यग्दर्शनमें विशुद्धि १७२ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आसान: पढ जाती है. और दर्शनविनयकी प्राप्ति होती है, सम्यक्त्वकी आराधना करनेवाला कोई जीव यद्यपि असंयत सम्यग्दृष्टि होगा तथापि वह विशुद्ध और तीय लेश्या धारक होनेसे अल्पसारी होता है. कोधादि कपायोग अनुरंजित योगकी प्रवृत्तिको लेश्या कहत हैं. उसके कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, और शुक्ल ऐप्त छह भेद हैं. कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्यायें अशुभ है. यहां उत्तर तीन लेश्याओंका ग्रहण समझना चाहिये, जिसके तीन शुभ लेश्याके तीत्र निर्मल परिणाम है वह सम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्दर्शनकी आराधनासे चतुर्गतिम थोडा भ्रमरर करने युक्त होता है. मत्पसार रह जान यह सभ्यदर्शनाराधनाका फल है ऐसा यहां समझना चाहिये. सहहया एसियया रोचय फासंतया पवयणस्स ।। सयलस्स जेण पदे समत्ताराया होति । रोचका जंतवों भक्त्या स्पर्शकाः प्रतिपादकाः॥ आगमस्य समस्तस्य सम्यक्त्वाराधका मताः ॥ ५२ ॥ संवादार्थ व्याख्यातृभिः सूत्रे पठिता पाथा यथा सदहया पच्चियया रोचय फासतया पबयणस्स ॥ सयलरस जे गरा ते सम्मचाराया होति । मूलारा-सहहया श्रद्धानकारकाः मनसा। पत्तियया प्रीतिमतः इदमेवोत्तममिति वचनेन । रोचय रुचियुक्ताः नखरूद्रोटिकया। फासंतया अनुष्ठातारः अर्थ-जो जीव जीवादितचोंके प्रतिपादक आगमपर मनसे श्रद्धान करते है. जो जिनकथित तय ही सर्वोत्कृष्ट है ऐसा वचनके द्वारा उच्चार करके श्रद्धान करते हैं, अर्थात् अन्तःकरणमें उत्पन्न हुवा अद्वानपरि णाम वचन के द्वारा व्यक्त करते हैं. जो चुटकीके द्वारा अर्थात् करतलवनिके द्वारा अपना तत्चश्रद्धान प्रगट करते है, तथा जो अपना तत्वश्रद्धान कार्य करके-धर्मप्रभावना-जिनपूजा, दान इत्यादिके द्वारा प्रगट करते हैं. ये सब जीव सम्यग्दर्शनके आराधक हैं ऐसा मानना चाहिये. १७३ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आभासः १७४ तन्यश्रद्धानपरिणामः कतिमेवः किं फलं इत्यस्य प्रतिषचने उत्तर प्रबंधः । तत्र भेदप्रतिपादनाया तिबिहा समत्ताराहणा य उक्करसमज्झिमजण्णा ।। उकस्साए सिज्झदि उफस्ससुसुक्कलेस्साए ॥ ४९ ॥ . उत्कृष्टा मध्यमा हीना सम्यक्त्वाराधना विधा॥ .: ... उत्कृष्टलेश्यया तत्र सिद्धयत्युत्कृष्टया तया ॥ ५३ ॥ विजयोन्या-तिविडा विविथा। सम्मत्ताराहणा सम्यक्त्वाराधना । उकस्समझिमजहण्णा उत्कटमध्यमगया थेति राम पानी सम्परालया। सिमा सिध्यति निर्वृतिमुपैति । जस्कृष्ठशुहलेण्यासहितया । सम्यक्त्वाराधनाया भैपनिर्देशपूर्वकं उत्कृष्टभेदस्य फलमाचष्टे-- मूलारा स्पष्टम् । . तत्त्वश्रद्धानरूप परिणाम कितने तरहके हैं ? उनसे क्या फल मिलता है। इसका उत्तररूप आगेका विषय लिखते हैं. प्रथमतः सम्यचाराधनाके भेद दिखाते है-- अर्थ-मम्यग्दर्शनाराधनाके उत्कृष्टाराधना, मध्यमाराधना य जयन्याराधना ऐसे तीन भेद हैं. उत्कृष्ट शुबलश्यामहित जीवको उत्कृष्ट सम्यक्त्याराधना प्रभावसे मुक्तिसुख प्राप्त होता है, - - - - - नेसा य हुंति भवसत्त मज्झिमाए व सुक्कलेम्साए ।। संखेज्जा ऽसखेज्जा वा संसा भवजहणाए ।। ५० ॥ भवन्त्यन्ये भवाः सप्त मध्यया मध्यलेदयया ।। संख्याता बाप्पसंख्याता हीनया हीनदयया ॥ २४ ॥ विजयोदया-सेसा अवशिधाः । होति भवन्ति । किं भवा मनुप्यन्यादिपर्यायाः । कति सत्र सप्त । मजिसमाए य सम्यक्रवाराधनया । सुफलेस्साए शुक्लेश्यया मध्यमया बर्तमानस्येत्युभाभ्यां मध्यमशनस्य संबंधो व्याख्येषः। 1 सखेज्जा संख्याता असंख्याता वा सेसा शेषा भवन्दि भयाः । जहण्णाय जघन्यसम्यक्त्वाराधनमा मूतिमुपेतस्प । १७४ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना 20 Hoessantrees मध्यमजघन्ययोः फलमाह--- I भूलारा— मझिगाए मध्यमया इदमुभयत्र योज्यं । तेन मध्यन शुक्ललेश्यायां वर्तमानस्य मध्यमया सम्यक्त्वा राया मृतिमुपगतस्यावारीष्टाः सप्तभवा: स्युरित्यर्थः संखेज्जा इत्यादि संख्याता असंख्याता वा भवन्ति शेषा भवा जयन्यथा मृतस्येत्यर्थः । अन्ये तु संखेज्जा संखेज्जा भवा य इति पठित्वा मत्रायेत्यत्र च शब्देन अनंत इति समुचिन्व न्ति । वयं 'युवा शब्दात् । अर्थ – मध्यम शुक्ल लेश्याका आश्रय करके जो जीव मध्यम सम्यक्त्वाराधना करते हैं वे सात भव धारण करके मोक्षको प्राप्त करते हैं। जघन्य सम्यक्त्वकी आराधनाये जो मरण करते हैं वे जीव संख्यात अथवा असंख्यात जन्म धारण करके मोक्ष हस्तगत करते हैं. उक्तास्तिस्र आराधनाः कस्य भवति इत्यस्योत्तरमाद गाथाउक्कस्सा केवलिणो मज्झिमया सेससम्मदिक्षणम् । अबिरद्सम्मादिस्सि संकिलिङ हु जहण्णा ॥ ५१ ॥ सत्र केवलिनो दर्या मध्या सा शेषसहशाम् ॥ असंयतस्य सद्रष्टेर्हीनं संष्टिचेतसः || ५५ ।। विजयोद्धा उत्कृष्टा सम्यक्त्वाराधना भवति । कस्य केवलिणो केवलिनः । केवलमसहायं भ्रानं इंद्रियाणि, मनः प्रकाशोपदेशादिकं वानपेक्ष्य वृत्तेः । प्रत्यक्षस्यावभ्यादेः आत्मकारणत्वादसहायतास्तीति केवलस्थप्रसंगः स्यादिति चेन्न रूढेर्निराकृताशेषशानावरणस्योपजायमानस्यैव बोधस्य केवलशयवृत्तेः । केवलिशन्द्रो यद्यपि सामान्येन के लिये प्रवृत्त स्तथापी अयोगिकेबलिग्रहणं इत्यन्यत्र मरणाभावात् ॥ उत्कृष्टता कथं सम्यक्त्वाराधनाया इति चेन इह दिविधं सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वं वीतरागसम्यक चेति । ग्रेगो द्विविधः प्रशस्तरागः अप्रशस्तराग इति । तत्र प्रशस्तरागो नाम पंचगुरु, प्रवचने च वर्तमानस्तद्गुणानुरागत्मकः । अस्तो रागो द्विविधः इंद्रियविषयेषु मनोशेषु जायमानः | आताभासेषु तत्प्रणीते सिद्धांत, निरूपिते मार्च तत्स्थेषु वा वर्तमानः दृष्टिरागः इति तय प्रशस्त रागसहितानां श्रद्धानं सस्र्शनं । रागद्रयरहितानां क्षीणमोहावरणानां वीतरागस्यर्शन I तस्याराधना उत्कृमागमाभावात् । अशेषविकलगोचरवस्तुयाथात्म्यादिसकलान सहचारिया | मझिनगा मध्यमिका खाना भवति सम्म उपयुक्तवचनः शेषशब्दः इति केलि आश्वासः १७५ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वासः भ्यो येऽन्येऽसंयतसम्यग्दृष्टयादयस्ते परिगृह्यन्ते शेषाने सत्रापचादमाह-असिरदसम्मादिहिस्स असंयतसम्यग्रष्टः । जहण्णा जघन्या सम्यक्त्वाराधना भवति । कि सर्वस्य ? नेत्याव-संक्रिलिठुस्स लक्लिष्टस्य परीषदष्याकुलचेतसः इति यावत् ।। का सम्यक्त्याराथना कस्य स्यादित्याह मूलारा-उक्कस्स उत्कृष्टा प्रशस्नेतररागारकर्ममलविलयानिखिलवस्तुयाथात्म्यपाहिसकलमानसह चरितत्वाक । - अर्थादयोगकेवलिनस्तस्यैव मरणसभरात्परमोत्कृष्टशुधरेयासंस्कारव्यवहरणानुसरणाच्च । पूर्वप्रयोगादाविद्धकुला लचकददिति सूचकारवचनात् । सेसा असंक्लिष्टसम्यग्दृष्ट्यादिः । गंकिलिठुस्स परीपझ्याकुलमनसः । • कहीं हुई ये तीन आराधनायें किस जीवको प्राप्त होती है ? इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते हैं, अर्थ--उत्कृष्ट सम्यक्त्वकी आराधना अयोगकेवलीको होती है. मध्यम सम्यग्दर्शनाराधना बाकीके सम्यग्दृष्टी जीवोंको होती है, परंतु परीपहोंसे जिसका मन उद्विग्न हुवा है ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टीको जघन्य सम्यक्त्वाराधना प्राप्त होती है, विशेशर्थ-असहाय ज्ञानको कंबलज्ञान कहते हैं. शंका-इंद्रिया, मन, प्रकाश और उपदेशादिकाका सहारा न लेकर फक्त आत्माके आश्रयसे अवधि व मनापर्यय ज्ञान उत्पन्न होते हैं. इस लिये उनको भी केवलज्ञान क्यों नहीं करते हो ? उत्तर अवघ्यादिक ज्ञानको केवलज्ञान नहीं कहते हैं. जिसने सर्व ज्ञानावश्याकमका नाश किया है ऐसे ज्ञानको ही केवलज्ञान यह शब्द रूढ है अन्य ज्ञानोंमें केवल शब्दकी रूदी नहीं है. केबलि शब्द सामान्यसे सयोगकेवली और अयोगकंबली इन दोनों में प्रवृत्त है तो भी यहाँ कयली शब्दसे अयोग केवलीकाही ग्रहण होता है. सयोगकवलीकी अवस्थामें मरण होताही नहीं, केवलीका सम्यग्दर्शन उत्कृष्ट कैसा ? उत्तर--सम्यग्दर्शनके सराग सम्यग्दर्शन और धीतराग सम्यग्दर्शन ऐसे दो भेद हैं. रागके भी प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग ऐसे दो भेद है. पंच परमेष्टी, और जिनागममें जो गुणानुराग उत्पन्न होता है उसको प्रशस्तराग कहते हैं. अनशस्तरागसे मनोहरविषयोंमें जो प्रेम उत्पन्न होता है वह पहिला अप्रशस्त राग है. और वुद्ध, कपिलादिक. आप्ताभास और उनके सिद्धान्त, उनके द्वारा प्ररूपे हुए कुमाग तथा कुमार्गस्थ लोक इनके विषय में हुआ जो अनुराग बह दसरा अप्रशस्त राग है, प्रशस्तरागसहित जीवांका जो Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आघाला मृताराधना - १७७ सम्पग्दर्शन वह सगग सम्यग्दर्शन है. जिनके प्रशस्त और अप्रशस्त दोनो ही राग नष्ट हो गये हैं अर्थात् मोहनीय कर्म, ज्ञानावरण और दर्शनावरणा कर्म जिनका नष्ट हो गया है उनके सम्यग्दर्शनको वीतराग सम्यग्दर्शन कहते हैं, केवली भगवानको उत्कृष्ट सम्यग्दर्शनाराधना होती है, क्योंकि संपूर्ण रागरूपी मल उनका नष्ट हुआ है. तथा त्रिकालवी संपूर्ण पदार्थोंका यथार्थस्वरूप जाननेवाला ज्ञान सम्यग्दर्शनका साथी है. इसलिये भी केवली भगवानझी सम्यग्दर्शनाराधना सर्वोत्कृष्ट है, अविरतसम्यग्दृष्टयादिक सम्यग्दृष्टि जीवाकी सम्यग्दर्शनाराधना मध्यम दर्जेकी है. जो परीषहाँसे व्याकुलचित्त हो गये हैं ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टी जीव जघन्याराधक है ऐसा समझना चाहिये. TEDOS - जधम्पसम्यक्रवाराधनामाहात्म्य कथयति-- संखेजमसंखेचगुणं या संसारातिर्ण : दुक्खक्खयं करते जे सम्मत्तेणणुमरंति ॥ ५२ ॥ संख्यातामप्यसंख्यातामनुसत्यापि संसृतिम् ॥ मन्युकालेऽनुगच्छन्ता जीवाः सिध्यन्ति दर्शनम् || ५६ ॥ विजयावया-संसजभसंखअगुण या संसारमाणि परिभाय नमवयं दुःखदार । बलि पन्ति ॐ. सम्भपाणुमति सभ्य पवन सह. मुनिमुपयाति । नन्धियं जयन्था सम्यक्त्याराधना तस्यां च प्रयुगस्य संसार कन्दों निरूपित पय । सखेज वा असंखेज या ससा जहाजार' इति नत्गुनरुक्तता स्यानिति । न, उक्तस्यार्थस्याविशेषण भूयोऽभिधानं पुनरक्तमिति, पह तु विशेाभिधानमस्ति ' दुनसक्वयं करतित्ति' । जपम्यसम्यक्त्वाराधनामाहा यमाह मूलारा-गुणं वा । वा शब्दादनंत चेत्यर्थः । अनुत्तरितृणं । परिभ्रम्य । अणुसरिता मरणे प्रतिपद्य । काति इत्यादि । एतद्विशेषल्यापनार्थत्वादस्योवार्थत्वेऽपि न दोपः। जघन्य सम्यक्त्वाराधनाकी विशेषता आचार्य दिखाते हैं अर्थ-जिनका सम्यक्त्व के साथ मरण होता हैं वे जीव संख्यांत या असंख्यातभवतक संसारदुःखोंका क्षय करके मोक्षकी प्राप्ति कर लेते हैं. పందం దం IA Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः अंका-इस जवन्यसम्यक्त्वाराधनाका काल पूर्व में संबज्जा संखज्जा वा सेसा जहण्यााए ' इस माथाधर्म कहा है. वही अभिप्राय प्रस्तुत गाथामें पुनः आप कहने हैं इस लिये यहां पुनरुक्ति दोष आता है. समाधान आपका कहना ठीक है, कहे गये अथकोही बार बार कहना वह पुनरुक्तिदोप है. परंतु यहाँ सम्यक्त्वाराधनाकी विशंपता कही है इस लिये पुनरुक्ति दोष नहीं है. सम्यक्त्वाराधक दुःखोंका श्रग करके मुक्त हो जाता है यह विशपता इस गाथामें आचार्यने दिखायी है अतः यहां पुनरुक्ति नहीं है. सम्यक्षलाभमाहात्म्यनियेषनाय गाथा लसूण य सम्मत्तं मुहुत्तकालमवि जे परिवडंति ॥ तेसिमर्णताणताण भवदि संसारवासद्धा ॥ ५३ ॥ मुहूर्तमपि पे लब्ध्वा जीवा मुंचन्ति वर्शनम् ॥ नानंतानंतसंख्याता तेषामद्धा भवस्थितिः ।।५७ ॥ इलि शासमरणं समाप्तम् ॥ विजयोदया-लण लब्ध्या । सम्मत्तं तत्वश्रद्धानं । क्रियत्काले ! मुटुत्तकालमयि अंतर्मुहर्तमानमपि ।। जे ये परिवर्डति सम्यक्त्यात्प्रच्ययान्ति । अनंतानुबंधिनामुदयात् । नास तेषां सम्यक्त्वान्युज्य मिथ्यात्यं गनानां मसारवासमा ससारयसनकालोऽनंनो भवत्यति, तुशन एवकारार्थोऽथ संबंधन नेयः । अनंताननप्रहां कुर्वता अनंतकालपरिभ्रमण सद्भावसूचनं कृतम् ॥ इति वालमग्नम ।। भूला-दु एवार्थ । मुटुत्तकालं अन्तर्नुमा बिहान । साय+बाच्या अनानुबंधिनामन्यनमोदयान । अन्नानी' । अनंतस्तु म्यादिति भावः । अजा का भालारणं प्रकरणात । सम्यकबके लाभका माहात्म्य करते हैं, अर्थ---जो जीव सम्यग्दर्शनको मुहर्तकालपर्यंतभी प्राप्त करके अनंतर छोड देते है वे भी हम संसारमें अनंतानन कालपर्यत नहीं रहते हैं. अर्थात् उनको अईपुदलपरिवर्तन कालतकही फिरना पडता है. इससे जादा कालतक वे भवभ्रमण करते नहीं, वालमरण प्रकरण समाप्त हुवा, अच बालनाल प्रकरणका वर्णन करते है. १७८ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १७९ मिथ्यावदर्शनस्याभावान तस्थाराधकः स्यात् ज्ञानचारित्रयोः परिणत इति तयोराराधकः स्यादितीमा शंकाम जे पुण सम्मत्ताओ पहा ते पमाददोषेण || भामन्ति भवा संसारमव भांगे ॥ १४ ॥ क्षेपकगाथा | हु जो पुणमिच्छादिट्टी दहचरितां अनुचरितां वा ॥ कालं करंज्जण सो कम्स आगह होदि ॥ १९ ॥ संयतोऽसंयतो वा यो मिथ्यात् तम ॥ विदधात्ययमः कालं कस्याप्यारापको न सः ॥ ९८ ॥ पाकर्तुमाह विजयोदया - जो गुणमिच्छादिट्टी । यः पुनर्मिथ्यादृष्टिस्तत्यथानरद्विनो यः पुनर्वचरो अतिवा चारित्र वा चारित्रो या कालं करेज्ज मृतिमुपेयशत् । सो सखु नैव कम कचिदपि आराधयो आराधको भवति । सम्यक्त्वमंतरेण सम्यग्ज्ञानसम्यक् चारित्रे न स्तः । इति रत्नत्रये कस्यचिपि नारानक इति प्राह्यम् । अन्यथा मिथ्यादर्शनादीनामाराधक प्यासौ इति कृत्या न कस्यचिदपि इत्ययुक्तं स्यात् ॥ अथ मिध्यादृष्टिः सम्यक्त्वाभावात्तदनाराधकोऽपि ज्ञानचारित्रपरित्या श्रियमाणस्तदाराधकः स्यादित्याशंकापनोदार्थ आह मुलारा - कस्सवि रत्नत्रयमध्ये कस्यचिदपि सम्यक्त्वं विनान्ययोरपि अभावात् । मिथ्यादृष्टि सम्यग्दर्शन न होनेसे सम्यग्दर्शनका आराधक नहीं है. तो भी ज्ञान और चारित्रमें वह परिणत होनेसे उनका आराधक होगा इस शंकाको दूर करते हैं- अर्थ - अनंतानुबंध के उदयसे प्रमाद दोष उत्पन्न होकर जो जीव सम्यक्त्वसे भ्रष्ट हो जाते हैं. अर्थात् जो मिथ्यात्वी होते हैं वे इस भयंकर संसारसमुद्र में पड़कर अनंत कालतक कुत्सितभव धारण करते हुये भ्रमण करते हैं। अर्थ-तार्थश्रद्धानरहित जो मनुष्य अर्थात मिथ्यादृष्टी चारित्रका धारक हो अथवा शिथिलचारित्री आश्वास १७९ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आथाम्। हो वह यदि मरेगा तो किसी भी आराधनाका धारक नहीं है, अभिप्राय यह है कि उसको सम्यग्दर्शन नहीं है. सो सम्यग्ज्ञान और सम्पचारिच उसके बिना उसको कैसे प्राप्त होंगे। अत: रत्नत्रय से वह किसीका भी आराधक नहीं है. यदि वह मिथ्यादर्शनादिकोंका आराधक हैं ऐसा मानोगे तो 'ण हु सो कस्स हु आराहगी होदि ' 'वह किसी भी आराधनाका आराधक नहीं है' यह वचन मिथ्या कहना पडेगा. मध को मिथ्याठियों मिध्यान्ववान । अश तदेव मिथ्यात्वं नाम किं. कतिविध इत्ान याह तं मिच्छतं जमसदहणं तच्चाण होइ अत्थाणं ।। संसइयमभिगहियं गमिमाहियं च तं निविहं ।। ६ ।। जिरमादिभियानमा सामरोचनम् ।। इदं सांशयिक तोगहीतमगृहीतकम् ।। ५५ ।। तत्र जीवादितत्वानां कथितानां जिमेश्वरैः।। विनिश्चयपराचीना दृष्टिः सांशयिकी मता ॥ ६ ॥ परोपदेशसंपन्नं गृहीतमभिधीयते ।। निसर्गसंभवं प्राज्ञैमिथ्यात्यमगृहीतकम् ॥ ६१ ।। बिजयोदया तं तत् । मिच्छत्तं मिय्यात् । होदि भवति । जं यत् असहवणं अश्रद्धानं । कस्य तयाणं अस्थाणं तत्वार्थानामनंतद्रव्यपर्यायात्मकानां जीवादीन । अर्थस्य तत्त्वषिशेषणमनर्थकम् । अतस्वरूपस्याभावात् इति चेन्न । मिथ्याज्ञानोपदर्शितस्य नित्यत्वक्षणिकत्वाद्यन्यतमधर्ममात्रात्मकस्यातत्त्वरूपसंभषास् । तस्य भायस्तत्वं तत्वशब्दो भायमचनः । भाववत्वमर्थशयो घीति । ततोऽनयोािधिकरपाभृतोः कथं समानाधिकरणतेति न दोषः । भाववनव्यतिरेकाद्भावस्य सरंवशब्दोऽर्थ पच पर्सते इति । तथा च प्रयोगः तत्त्यार्थश्नद्धानं सम्यग्दर्शनमिति । अथवाज्यधिकरणव । अर्थाना जीवादीनां यानि तत्वानि अधिपरीतानि रूपाणि तेषामश्रद्धाने यत्तन्मिथ्यावं इति संबंधः क्रियते । संसपिदं संशयितं किंचित्तत्त्वमिति । तत्वावधारणात्मक संशयशानसहचारि यश्रद्धानं संशयितं । न हि संदिहानस्थ तत्वधिवयं श्रद्धानमस्ति रमित्यमेवेति । निश्चय प्रत्यय सहभावित्वात् श्रद्धानस्य । अभिगहिद संघशाभिमुरायन गृहीतं स्वीकृतं अथवानं अभिगृहीतमुच्यते । एतदुक्तं भयति । न संति जीवादीनि च्याणि इति गृहाण सति जीवादीनि निस्थान्ये वेति यदा परस्य वचनं श्रुत्या Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना प्रायासः जीवादीनां सत्ये अनेकांतात्मकत्थे चोपजातं अश्रद्धानं अरुचिमिथ्यात्वमिति । परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायत यदथवा सदनभिगृहीतं मिथ्यात्वं । यद्वान्मिध्यादृष्टिःयातन्मिथ्यात्वं किं कतिविध पेत्यत्राह-- मूलारा--तच्चाण अत्याणे अनराद्रव्यमान कानां जीपादाना, असा अधाना यानि तरपनि अविपरीतानि रूपाणि तेषां । संसइदं कि सथतायां मुक्तिनिधतायां वत्यादि तत्वानवधारणात्मको दर्शनमोहोदयनिमित्तः प्रत्ययः संशयः । तेन सहचरितं तत्त्वाश्रद्धानं संशयितं, संशयः संजातोऽस्येति व्युत्पत्तेः । न हि संदिहानस्य तत्त्वश्रद्धानमस्ति ।। इदमित्वमेषेति निश्चयसहभावित्वान्तस्य । अभिग्यहिदं । परोपदेशादाभिमुख्येन स्वीकृतं परोपदेशज इत्यर्थः । तथा हि-न सति जीवादीनि इति गृहाग । सति बा तानि, नित्यान्येवेत्यादि परवचः श्रुतवतो यदा तेषां सत्वे अनेकांतात्मकत्वे या अश्रद्धानं स्यात्तदाभिगृहीतमित्युच्यते । तच्चतु—क्रियावाद्यादिमतभेदान् । ते यथा-- असिदिसदं किरियाण अफिरियाणं च होदि चुलसीदि । सत्तट्ठी अण्णरणी वेगइयाणं च होदि बत्ती ।। अगभिागहिद परोपदेशं बिनापि भिल्यात्योदयाजात । जिसको आप मिथ्यादृष्टि कहते हैं उसका क्या स्वरूप है ? तथा मिथ्यात्वके कितने भेद हैं ? इस प्रश्नका | उत्तर आचार्य देते हैं अर्थ-अनंत द्रव्यपर्यायोसहित जीवादि पदार्थाका श्रद्वान न करना मिथ्यादर्शन है. इस मिथ्यादर्शनके ! संशयमिथ्यात्व, अभिग्रह मिथ्यात्व और अनभिग्रह मिथ्यात्व ऐस तीन भेद है. विशेषार्थ---गाथामें ' तुच्चाण होइ अस्थाणं ' ऐसा वाक्य है उसमें अर्थ शन्दका तत्व' यह विशेषण व्यर्थ मालूम होता है. क्योंकि जीबादिक अर्थ तयरूपही रहते हैं. अतस्वरूप मिथ्यारूप नहीं होते हैं. इस शंकाका उत्तर आचार्य देते हैं. मिथ्याज्ञानीओने जीवादि पदार्थ सर्वथा नित्यही हैं अथया अनित्यही हैं, एकही है, अनेकही हैं ऐसा उपदेश किया है. परंतु वस्तु सर्वथा नित्यादि एक एक धर्ममय है ऐसा सिद्ध नहीं होता है. अत: एफेक धर्मात्मकही वस्तुस्वरूप समझना मिथ्यात्व है. एक एक धर्मात्मक वस्तु अतय है. उससे व्यावृति करनेके लिये ' तच' यह विशेषण ग्रंथकारने जोड दिया है, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागधना आश्वासः यहां तच्च शब्द भाववाचक है. जो पदार्थ जिस स्वरूपमें विराजमान है वह उस रूपसे रहनाही तच कहलाता है, जैसे चेतना आत्माका स्वरूप है. इसलिये हमेशा आत्मा चैतन्यस्त्ररूपमें रहता है. अर्थशब्द भावपानका साया है. सी. पोवारण कमेकाले पदार्थको भाववान कहते हैं, तच्च शब्द और अर्थ शब्द ये दोनो शब्द भिन्नाधिकरणवृत्ति है अतः इनकी समानाधिकरणता कैसी जुडेगी? आचार्य इस शंकाका उत्तर देते है --भात्रवानसे भाव अभिन्न होता है. जीवसे चतन्य अभिन्न है. जीय भाववान है और चैतन्य भाव है. चैतन्य जीवसे अपृथक् है अतः दोनोंकी समानाधिकरणता जुड़ सकती है. अतः पुद्गल, धर्मादिक पदार्थों में भी अपने अपने स्वरूपसे अभिन्नता होनेसे समानाधिकरणता सिद्ध होती है. अथवा भित्रधिकरणता माननेसेभी कुछ हानि नहीं है, इसलिये जीवादि पदार्थोंके जो तस्य अर्थात् सच्चा स्वरूप ऐसा अभिप्राव भिमाधिकरणता माननेसे सिद्ध होता है... संशयितमिथ्यात्व-जिसमें तत्त्वोंका निश्चय नहीं है ऐसे संशयज्ञानसे संबंध रखनेवाले श्रद्धानको संशयमिथ्यात्व कहते है, जिसको पदार्थके स्वरूपका निश्चय नहीं है अर्थात् जो व्यक्ति संशययुक्त बनी है उसको जीवादिकोंका स्वरूप ऐसा ही है अन्य नहीं है ऐसी तस्वविषयक सच्ची श्रद्धा नहीं रहती है. जीवादितचोंपर जब सच्ची श्रद्धा होती है तब उनका निश्चयज्ञान अवश्य रहता ही है. अभिगृहीतमिथ्यात्व---कुगुरूके उपदेशसे जीवादितत्वोंपर जो अश्रद्धा पैदा होती है यह अभिगृहीतमिथ्यात्व है. जीवादिकतत्व नहीं है, अथवा वे अनित्य ही है, वा नित्य ही है ऐसा दुसरोंका उपदेश सुनकर जीवादिकोंके अस्तित्वमें अथवा उनके अनेक धर्मोंमें अश्रद्धा होती है. यह अभिगृहीतमिथ्यात्व है. ____ अनभिगृहीतमिथ्यात्व-दुसरेके उपदेश बिना ही जो अश्रद्धान मिध्यात्र कर्मके उदयसे हो जाता है. यह अनभिगृहीतमिथ्यात्व हैं. मिश्यात्पदोषमाहात्म्यख्यापनायाइ जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकड़ागदा होंति ॥ ते तस्स कडुगदोडियगदं च दुद्धं हवे अफला ॥ ५७ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गधना আঘাষ। merateletATAMERAMASTErstar अहिंसादिगुणाः सर्वे व्यर्था मिथ्यास्वभाबिते ॥ कटुकेलाधुनि क्षीरं सफलं जायते कुतः ॥ १२ ॥ विजयोदया-जे थि हिंसा नाम प्रमादयतः प्राणेभ्यो वियोगकरणं प्राणिनस्ततो निवृत्तिरष्हिसा । असदभिधानाहिरतिः सत्यम् । अदत्तादानाद्विरतिरस्तेयं । मैथुनाद्विरातिब्रह्म । ममेदं भावो मोहोदयजःपरिग्रहः । ततो निवृत्तिरपरिग्रहता । एते अहिंसादयो गुणाः परिणामा धर्म इत्यर्थः । ननु सहभुवो गुणा इति वचनात चैतन्यामूर्तिवादीमांमधागनः सरभुयां गुणता। हिंसादिभ्यो विरतिपरिमा पुनः कादाचिकत्यात् मनुष्यन्यादिक्रोधादिवपर्याया इति चन्ननु गुणपर्य यथयमिन्यादावुभयोपादान अधांतरभदौपदर्शनमतद्यथा ' गोवलीवहम ' इत्युभयोरुपादाने पुनरुक्तानापरिहतये स्त्रीगोशब्दवाच्या इति कथनमेकस्यैय गुण दाब्दस्य ग्रहणे धर्ममात्रबचनता ॥ यहिसादयश्च ते गुपणा: अहिंसादिगुणाः । मित्तकगिदा मिथ्यात्येन तस्याश्रद्धानेन । कगिया ककृताः ककतां गताः । होति भवंति । कदा मरणे मरणकाले इति । अफला भयंति। कस्य मिथ्यात्वकटूताबिसादिगुणस्यात्मनः । किमिव ? दुईब क्षीरमिव । कीटग्भूतं ? कवुद्धियगई कट्टकालायूपगतम् यथा अफलं फलरहित । पिसाद्युपशमन प्रीतिरित्यादिकं यत्फल क्षीरस्य प्रतीतं तेन फलेन अफलं जातम् । यथा क्षीरं भाजनशेषादव मिध्यात्ववत्यात्मनि स्थिता हिंसादिगुणा स्वसाध्येन फलेन बरफलवंतः पंचानुत्तरषिमानासित्वं लोकांसिकत्वमित्याद्यभ्युदयफलमिह गृहीतं । अहिंसादयो न वोचितफलातिशयदायिनः दुष्टभाजनस्थितत्वात् कटुकालाबुकगतषयोचदिति सूत्रायः ॥ मिथ्यात्वमाहात्म्य कथयतिमूलारा-गुणा धर्माः । ननु च सहभुयो गुणा इति वचनाचैतन्यामूर्तत्यादीनामेवात्मना सह सदा लन्धवृत्तीना गुणत्यं न्याय, न त्यहिंसादीनां कादचित्कत्वेन मनुध्यादिवत्क्रोधादिषदा तेषां पर्यायत्वादिति पेन 'गुणपर्ययमद्रव्यमित्यादावुभयोपादानेऽवांतरभेदोपदर्शनमेत यथा गोयलीबई मित्युभयोपादाने बी गोशब्दयास्येति कथन । एकस्यैव तु गुणशब्दस्य प्रणे धर्ममात्रवचनता । कडुगिदा कटुक्रिताः दूषिताः । स्वोचितफलातिशयदानेऽन्यथाकतसामा इत्यर्थः । तस्स मिथ्यात्वकटूफताईसादिगुणस्पात्मनः । कहुदोदियगदं कटु कतुवकस्थितं । कदमिति पाठे शतं प्रक्षिप्तमित्यर्थः । हवे भवति । अहले-पंचानुत्तरविमानशामित्वं लौकान्तिकत्वाथभ्युदयलक्ष्यफलरहिताः । श्रीतित्वपित्तायुपशमनादिफलरहितं च ।। परोपदेशाभिमुखेन इति खपुस्तके पाठः । १८३ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलाराधना आश्वास -es मिथ्यात्वके दोषीका आचार्य वर्णन करते हैं अर्थ- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग ये आत्माके गुण हैं परंतु मरणसमयमें यदि ये गुण मिथ्यात्वसे युक्त हो जायेंगे तो कटवी तुंबीमें रक्खे हुए धके समान व्यर्थ होते हैं, फलरहित होते हैं. विशेपार्थ-पाययुक्त होकर प्राणीके प्राणों का नाश करना हिंसा है. इस हिंसासे विरक्त हो जाना आया मानी जाती है. प्राणीको दुःख देनेवाले भाषणसे विरक्त होना सत्य है. अन्यजनोंके द्वारा नहीं दी गई वस्तु ग्रहण करना अचार्यत्रत है. मैथुनके त्यागका नाम ब्रह्मचर्य है, तथा यह धनादिक मेरा है ऐसा संकल्प मोहकर्मक उदयसे होता है उसको परिग्रह कहते हैं. उमसे निवृत्त होना अपरिग्रह-परिग्रइत्याग कहलाता है, ये अहिमादिगुण आत्माके परिणाम है अर्थात् धर्म हैं. शंका-गुण दून्यके साथ हमेशा रहते हैं. ' सहभुवो गुणाः' ऐसा गुणक विषयमें आगमका वचन है. चैतन्य, अमृतित्व ये ही आत्माके गुण है. ये गुण कभी आत्मासे अलग नहीं होते हैं. इनको ही गुण कहना चाहिये. परंतु दिसादिकोसे जो विरक्तिस्प परिणाम है वे कादाचित्क है-अर्थात वे परिणाम मनुष्यपना, क्रोधादिकांके समान सदाही आत्मामें रहते नहीं है. अतः उनको गुणा कहना योग्य नहीं. इस शंकाका उत्तर - गुणपर्ययवद्र्व्प म् ' इस सत्र में दोनोंका ग्रहण किया है अर्थात गुण और पर्यायको ग्रहण किया है. यहां गुणशब्द उपलक्षणवाचक समझना चाहिये. अर्थात वह ज्ञानादिगुणोंक समान अहिंसादिधमाका भी वाचक है, जैसे गोवलीपर्दम् ' इस शब्दोंस एक ही गोका दो शब्दोंसे ग्रहण करनेसे एकको व्यर्थता अर्थात् पुनरुक्तता आती है वह दूर करनेके लिये गोशब्दका अर्थ गाय करना पडता है. उसी तरह 'अहिंसादि गुणा' इस गाथाके शब्दसे यहां धर्ममात्रको गुण कहा है ऐसा समझना चाहिये. कई तुंबी में रखा हुआ दुग्ध पित्तोपशमन करना, माधुर्य इत्यादि गुणोंसे हाथ धो बैठता है, अर्थात् पात्र के दोषसे धमें जैसे अफलता आती है वैसे ही मरणकालमें अहिंसादिगुण यदि मिथ्यात्वसे युक्त हो जायेगे तो उनसे आत्माको विजय वैजयंतादि पंचानुत्तरों में जन्म होना, लौकांतिकदेवत्व प्राश होना ऐसे २ सातिशय फल प्राप्त नहीं होते हैं. मिथ्यात्व दृषित अहिमादिकोंसे फक्त फलातिशय मिलता नहीं है ऐसा भी नहीं है प्रत्युत बे आत्मामें रहकर महादोषोंको भी उत्पन्न करते हैं. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास न केवलं फलातिशयाकारिथं आईसादिगुणानां अपि तु मिथ्यात्वकटुकिते स्थिता दोपानपि कुर्वन्ति त्याच जह भेमजं पि दोसं आवहइ विसेण संजुदं संतं ।। तह मिश्राविराजुदा गुणा वि दोसावहा होति ॥ ५८ ।। सर्वे दोषाय जायन्ते गुणा मिथ्यात्वदाषताः ॥ · किमौषधानि निमंति सविषाणि न जाचितम् ॥ ६३ ॥ विजयोदया-यथा भेस पि इति स्पष्टतया न व्याख्यायते । मिच्छत्तविसशुदा मिथ्यात्वन विषण संयशाः गावि गुणबी सिलवणा अपि । दोसावहा दोषावहाः संसारे चिरपरिभ्रमणदोषमावदन्तीत्यर्थः । अथवा मिथ्यार गुणाः पापानुषंधि स्वल्पमिद्रियसुखं दवा बहारंभपरिग्रहादिषु आसक्तं नरके पातयन्ति इति दोषापहाः। रशन्तप्रदर्शनेन इष्टनितिः माप्तिश्च मिथ्यात्वमाहात्म्यान भवतीति प्रमाणेन वर्शषितुं गाथाडूयमायातम् । न केवल मरणे मिथ्यात्य पिता आहेसावयः फलातिशयाश्यति कि तहि दोषमपि कुर्वन्ति इत्याह मूलारा-आवहादि करोति । दोसावदा संसारे चिरभ्रमणकारिणः । अयचा मिथ्यारगुणाः पापानुबन्धि स्वल्पमिद्रियसुसं दत्वा बहारंभपरिमहादिष्वासक्तं कृल्या नरके पासपन्ति इति दोषावहाः ।। उन दोषोंका आचार्य एवं प्रकारसे वर्णन करते हैं-- अर्थ -- औषध यद्यपि गुण करनेवाला होता है तथापि वह यदि विषमिश्रित होगया हो तो बह दोषयुक्त होता है, अर्थात् उसके सेवनसे मनुष्यकी हानि होती है. उसी तरह अहिंसादिगुण जब मिथ्यात्वसे युक्त होते हैं तब ये गुण होते हुए भी संसारमें दीर्घकालतक परिभ्रमण करानेवाले दोषोंको धारण करते हैं. अथवा मिथ्यारष्टिके ये अहिंसादिगुण पापानुबंधी स्वल्प इंद्रियसुखकी जीवको प्राप्ति कर देते हैं. परंतु उसको बहु आरंभ और परिग्रहोंमें आसक्त करके नरकमें ले जाते हैं अतः ये मिथ्यात्वक्षित अहिंसादिगुण दोषाको उत्पन्न करते हैं ऐसा समझना चाहिये, विपमिश्रित औषधसे आरोग्यका लाभ होता नहीं वैसे मिथ्यान्वयुक्त अर्हिसादिकगुणोंसे जीवको मोक्ष प्राप्त होता नहीं ऐसा समझना चाहिये, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास भलाराधना १८६ SARERAIGAD दिवसेण जोयणसयं पि गच्छमाणो सगिच्छिदं देसं ॥ अण्णतो. गच्छंतो जह पुरिसो व पाउणदि ।। ५९ ॥ निति संयमस्थोऽपि न मिथ्याष्टिरभुते ॥ जवनोऽप्यन्यतो यायी किं स्वष्टं स्थान मृच्छति ॥ ६४ ।। विजयोदया-त्पनेन प्रकृष्टगमनसामाजमणमाख्यातम् । आगंतो नन्छतो इत्यनेन तन्मार्गाप्रवृसत्यात् प्रत्ययं हेत्वों दर्शितः । तेभ टं वेश न प्रामोतीति साध्यधाँ दृष्टान्तेनोपदर्शितः । सगिच्छदं देसं अह पुरिसो गेच पाउणदि । इत्यनेन दृष्टान्त उपवार्शितः । मिथ्या दृष्टिनैवेष्टं प्राप्नोति तन्मात्तित्त्वादाः स्वमान्यस्य मार्गे न वर्तते नासौ तत्प्राप्नोति । यथा दक्षिणमथुरातः पाटलिपुत्र प्राप्तुमिच्छुदक्षिण दिशं गच्छनित्ति प्रमाणेनाभिमतनिर्वृति प्रातिप्रतिबंधकत्वमपि मिध्यात्वस्य दर्शयितुं गाथाद्वयमाइ मूलारा-सगिछिछदं स्वेष्टं । अण्णतो अन्यत्र । पाउणदि प्राप्नोति । अर्थ-एक दिन में सौ योजन भी गमन करनेवाला आदमी यदि वह अपने इष्ट स्थानसे बिलकुल उलटी दिशाको गमन करने लग जाय तो जैसे वह कभी भी अपने स्थानको प्राप्त न होगा उस तरह मिथ्यात्वसे युक्त अहिंसादिगुण जिसके हो वह पुरुष कभी भी मुक्तिपदको प्राप्त होनेवाला नहीं है. यह निश्चित समझना चाहिय. धणिदं पि संजमतो मिच्छादिट्ठी तहा ण पावई ॥ इलु णिवुइमग्गं उग्गेण तवेण जुत्तो वि ॥ ६ ॥ विजयोदया-धणिदं पि नितरामपि । संजमन्तो चारित्रे वर्तमानोऽपि । जम्गेण तरेण जुत्तोधि उग्रेण तपसा युक्तोपिऽपि, नैव निवृति प्रामोति इत्यनेन साध्यधर्माख्यानम्। मिच्छाविट्ठी इत्यनेन साध्यधर्मि दर्शितम् । एवं ममाप्यरचना कार्या मिच्यादृष्टिनवेष्टं प्राप्नोति सन्मार्गावृत्सित्वात् । यः स्वप्राप्यम्य मार्गे न प्रवर्तते न स तमभिमतं प्रामोति । यथा १ बलमाख्यातं इति खपुस्तके । S Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधना आचामः दक्षिणमथुराता पारलिपुत्रं प्राप्तमिच्दुः दक्षिणां दिशं गन्ममिति । गिब्बुदि निवृति । अग्रा अयां । अथवा निर्वृतिस्तुष्टि एंथा मनसो निर्बुतिर्मनस्तुष्टिरित्यर्थः । निर्वृतेर्मार्गमुपाये क्षायिकमानचारित्राख्यम् । स्पष्टतया न प्रतिपदव्यारहया कृता । __ मूलारा-धाण अत्यर्थं । पि संजमतो संगर्म कुर्वन्नपि । दुई णिव्युदिन भायिकरत्नत्रयाख्यं मुक्तिमार्ग । अथवा प्रष्ट बांछिता निर्धतिं तुधि । अग्न्यां प्रधानभूतां । अनंतमुखमित्यर्थः । अर्थ-मिथ्यादृष्टि मनुष्य चारित्रका पालन अच्छी तरहसे करेगा और उग्रतप भी तपेगा तो भी उसको इच्छित मोक्षमागकी प्राप्ति कभी भी नहीं होगी. जैसे कोई आदमी पाटलिपुत्र नगरको जानेकी इच्छा रखता हुआ दक्षिणमथुरासे दक्षिणदिशाके तरफ ही चलने लगा अब बोलो वह कभी पाटलिपुत्र शहरको पोहोंच सकता है। उसी तरह यह मिथ्यारष्टिजीव भी मोक्षमागमें न होनेसे स्वेष्टस्थान-मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकता. मोक्षका मार्ग क्षायिकज्ञान, यथारख्यात चारित्र ये है, मिथ्याष्टिको इनकी प्राप्ति नहीं होती है ऐसा इस गाथाका अभिपाय है. शा व्रतेन शीलेन तपसा या युक्तोऽपि मिथ्यात्पदोषाश्चिरं संसारे परिभ्रमति इतरस्मिन्त्रताविहीने किं । वाच्यमिति दर्शयति-- जस्स पुण मिच्छदिहिस्स णस्थि सील बदं गुणो चावि ।। सो मरणे अप्पाणं कह ण कुणइ दाहसंसारं ॥ ६१ ॥ न विद्यते व्रतं शीलं यस्य मिथ्याशः पुनः॥ न कध दीर्घसंसारमात्मानं विदधाति सः ॥ १५ ॥ विजयोदया--स्वम्पापि मिथ्यात्यविस्कणिका सुत्सितासु योनिषु उत्पादयति कमाति वाच्यं सर्वस्य जिनदृष्टस्या भ्रद्धाने । इति गाथा या अर्थः ।। भगवन्यधनं अत्तादियुक्तोऽपि मिभ्या दृष्टिर्थि संसारे भ्राम्यति तईि मरणे व्रतादिरहितोऽसौ की रक्फळभाजनमात्मानं कुर्यादित्यत्राह १८७ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवासः १८८ शीलं प्रतपरिरक्षणं । बदं ।ईसादिभ्योऽभिप्रायकता विरतिः । गुणो सामादिः । कहत्यादि । कह कथं । अनंतानंतसंसारमप्यात्मानं करोतीति भावः । बत, शील और तपश्चरण धारण करता हुवा भी यह जीय यदे मिथ्याष्टि हो तो मिथ्यात्वदोषसे चिरकाल तक संसारमें भ्रमण करता है. यदि यह वतादिकोंसे भी रहित हो तो अवश्य संसारमें भ्रमण करेगा ही भी अभियपूफार गम्मा कहते है। अर्थ--जो मिध्याइष्टि शील, यत और गुणोंसे रहित है वह मरणके अनंतर दीर्ष संसारी क्यों न होगा! अवश्य होगा. एक पि अक्सरं जो अरोचमाणो मरेज जिणदिळें ॥ सो वि कुजोणिणिवुडो किं पुण सव्यं अरोचन्तो ।। ६२ ।। अरोचित्वाजिनाख्यातं एकमप्यक्षरं मृतः ।। निमजाति भवाम्भाधी सर्वस्यारोचको न किम् ।। ६६ ॥ विजयोदया--पक्रमपीत्यस्य बालवालमरणप्रवृत्तस्य भव्यस्य संख्याता, असंख्याता, अनंता वा भवन्ति भवाः । अभस्यस्य तु अनंतानंताः । मिश्यादर्शनदोषमाहात्म्यसूचन संसारमहत्ताख्यापनेन फियतेऽनया गाथा ।। जिनदृष्टस्यैकस्याप्यभरस्याश्रद्धाने कुयोनियूत्पत्तिः स्वात्किं पुन: समस्तस्यापि झुतस्यत्यामूलारा-कुजोणिणि चुड़ो कुत्सितयोनिनिमग्नो भवति । अर्थ-जिनेश्वरने उपदेशा हुवा एक अक्षरपर भी जो मनुष्य श्रद्धान नहीं करेगा बह भी कुयोनियोम चिरकाल भ्रमण करेगा. तो जो संपूर्ण जिनवचनोंको अमान्य समझता है उसको तो संसारमें अनंतकाल तक भ्रमण करना पडेगा ही यह अलग कहनेकी आवश्यकता नहीं है. अल्प भी मिथ्यात्वरूप विपकणिकाका सेवन करनेसे जीवको कुयोनी में भ्रमण करना पडता है. जिनमगवानने कहा हुआ समस्त जीवादिक पदायाँका उपदेश जो जीव अप्रमाण समझकर अश्रद्धान करता है उसके लिये तो कहना ही क्या रहा ? ऐसा इस गाथाका भाव है. १८८ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आयामः सरखेज्जासंग्वेज्जाणता वा होति बालबालम्मि ॥ सेसा भब्वम्स भवा ताणता अभध्वस्स ।। ६३ ।। संख्ययाः संत्यसंख्येया चालबालमृती भवाः ॥ भव्यतारमता वा परस्य गणानातिगाः ।। ६७ ।। अनंतेनापि कालेन प्रभज्य भवपंजरं ।। सिद्धयन्ति भयिनो भव्या माभव्यास्तु कदाचन ॥ ६८ ॥ इति यालयालमरणम् । विजयोन्या--भारपाल गई खे ज हत्यनया। इदानी भन्याभन्ययोर्भवेयत्वावधारणेन मिथ्यात्वमरणमाहात्म्यं कथयतिःमूलारा--स्पष्ट । थाल बालमरणम् ।। बाल्येनापि यदि त्यजन्नयमसून्संसारपोरार्णदे। दीर्घ भ्राम्यति चेतनस्त्यजति कस्तवाल्याल्येन तान् ।। इत्यनान्तमनुस्मरजिनपःपीयूषमवासिम ।। भत्तत्यागमुपेतु जीवितधनायाशापरभम् ॥ . इत्यासापरानुस्मृतमंथसंदर्भ मूलाराधनादर्पणे पदप्रमेयाषेप्रकाशीकरणप्रवणे पालमरणयापंचमरूपणो नाम प्रथम आश्वासः॥ अर्थ-जो भव्यजीव वालवाल मरणसे देहत्याग करता है उसको संख्यात, असंख्यात अथवा अनंत जन्म मरण करने पड़ते हैं. और अभव्य अनंतानंत जन्ममरण धारण करता हुआ सदाही संसारमें भ्रमग करता है. इस गायासे मिथ्यात्वदोपका माहात्म्य सूचिन होता है. सप्तदशमरणचिकल्पेषु पंचमरणा-पत्रोच्यते इति प्रतिक्षात । तन यत्पडितमरणं तत्मायोपगमनमरणभिगिनीमरां भक्तप्रत्याख्यानमिति त्रिविका सूचित । तत्र भक्तपत्याख्यानं प्राग्वर्णनीयमिति दर्शयति सूषकार स्वयमेघ संबंध उत्तरप्रयंधस्य Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचासः मूलाराधना SPOTTE BHARATARA पुर्व ता वण्णास भत्तपइण्णं पसत्थमरणेसु । उस्सणं सा चेव हु सेसाणं वण्णणा पच्छा ।। ६६ ।। भक्तत्यागः प्रशस्तेषु मध्ये मृत्युषु वपर्यते ॥ आवावयभवत्वेन शेषवर्णनमग्रतः ।। ३९ ॥ विजयोदया-पुवं पूर्व प्रथमं तावत् । वाणसिं वर्णयिष्यामि । भतपापा मक्तप्रत्याख्यानम् । पसस्थमरणेसु प्रशस्तमरपणेषु व्याख्येयेषु निर्धारपालक्षणा चेर्य सप्तमी यथा-कृष्णा गोषु संपन्नक्षीरतमति समुदायादेकदेशस्य पृथकरणं निर्धारणं । प्रशस्तमरणसमुदायात् अवययिकात् भक्तप्रत्याख्यान पृथग्यचस्थाध्यते । पूर्वक्ष्यास्येयत्वेन पतत्कालप्रयोग्यत्येन गुणेनेति मन्यते । उस्सपण नितरां बाटुल्येन यावदित्यर्थः । मरणं सा वैष भक्तमत्त्यास्थानमृतिरेष । साध्याहारयात्सर्यस्त्रपदानां । पदहि काले इति वाफ्यशषः कार्यः । सहननविशेषसमन्विताना इतरमरणद्वयं । म ब संहननविशेष धनयमनाराचावयः अद्यत्वेऽमुश्मि क्षेत्रे सति गणानां । संसाणं शेषयोः प्रायोपगमनस्य रंगिनीमरणस्य च । वण्णणा कथने। ' पच्छा' इति शेषः। यदि ते वर्तयितुं इदानींतनामामसामर्थ्य किं तदुपदेशेनेति चेत् तत्स्वरूपपरिज्ञानात्सम्परहानं । तच मुमु. धूणामुपयोग्यवेति । द्वितीय आश्वासः । हित्वा बालमूत्तित्रयं क्षतपुनर्जन्मानमिच्छन्मृतिम् ।। पांडित्येन पर समधुरपि तन्मृत्यों कलियलेशतः ॥ मध्येऽपि प्रतिघद्धशक्तिमयधार्यात्मानमत्राय यां धन्यो विदप्ति वर्णयिष्यत इयं भक्तप्रतिज्ञामृतिः। अपि च जैन योग्यतयादाय लिंग पीतश्रुतामृत: ।। विनीतः स्ववशश्रांते निर्मूई विहरेद्धराम्॥ अथेह क्षेत्रे ऐवंयुगीनानां मुनीनां प्रशस्तमरणांतरयोग्यताविरहात्तद्योग्यत्तया भक्तपत्याख्यानमेष वावदादी व्याख्यातुमुपक्रमते । । मुलारा-पुत्वं प्रथमं । सा वायत । षण्णसिं वर्णयिष्यामि । भत्तपदिन्नं भक्तप्रत्याख्यान । पसत्थमरणेसु पंडित Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आवासः मरणभेदेषु प्रायोपगमनमरणादिषु त्रिपु व्याख्यातेपु मध्ये । कुत एतदित्याह-उस्सष्यमित्यादि । यस्मादेतस्मिन्काले अत्र लेने जातानां साधूनां । उस्सणं मरणं । सा घेष सैव भक्तप्रतिज्ञैव संभवति । प्रायोपगमनादिसाधनोचितसंहननविशेषाभावात् । सर्वत्र सूत्रातिरिक्तानि पदानि साध्याहारत्वात्सूत्राणामिति मंतव्यानि ॥ ननु यद्ययेह साधना भक्त प्रत्याख्यानमेव स्यात्तीतरे किं न वर्षे इत्यत्राह । सेसाणं शेषयोः प्रायोपगमनस्येन्निनीमरणस्य च । वाणा व्याख्यान । पच्छा पश्चारकर्तव्या भवतीति संबंधः ।। नन्वते यद्यद्य साधूनामसाध्ये तल्किमेतयोरञोपदेशेनेति चेनमस्तस्वरूपोपदेशासत्र सम्यग्ज्ञानं स्यासच मुमुक्षणानुपयोग्यवेति ।। मरणोंके सत्रह प्रकार हैं उसमेंसे पांच मरणोंका यहां हम वर्णन करेंगे ऐसी आचार्यने प्रतिज्ञा की है, पांच मरणोमेंसे जो पंडितमरण नामका भेद है उसके प्रायोपगमनमरण, इंगिनीमरण, भक्तप्रत्याख्यानमरण ऐसे तीन भेद है. इनमें भक्त प्रत्याख्यानमरणका वर्णन प्रथमतः आचार्य करते हैं. आगे जो विषय प्रतिपादन किया जायेगा उसका संबंध यहां दिखाते हैं--- हिंदी अर्थ-प्रशस्त मरणोमेंसे प्रथमतः आचार्य भक्तप्रत्याख्यान नामक मरणका वर्णन करेंगे यह मरणही इस कालमें अतिशय उपयुक्त है. यहां प्रशस्त मरणोंका समुदाय अवययी है और भक्तपत्याख्यानादिभेद अवयव है. जहा निर्धारण होता है अर्थात अनेक वस्तुओमेंसे एकाद वस्तुको अलग करके दिखाना पड़ता है उसको निर्धारण कहते हैं. जैसे- गाईओमेसे काली गाय बहुत दूध देती है, यहां अनेक गाईयोमेंसें काली गायका प्रथककरण किया है. उसी तरह प्रशस्तमरणके भेदोमेंसे भक्तप्रत्याख्यान मरणका पृथकरण किया है. क्योंकि वह ही इस कालमें अत्युपयुक्त है. वर्षभनाराच संहनन, बचनाराच वगैरह उत्तम संहननके धारक जीयोंको इंगिनीमरण प्रायोपगमनमरण ऐसे मरण उपयुक्त माने गये हैं. इस पंचम कालमें वज्रर्पभनाराचादि उत्तम संहननके धारक जीव यहां भरतक्षेत्र में उत्पन्न नहीं होते हैं. अतः भक्तप्रत्याख्यान मरणकाही प्रथम विस्तृत वर्णन आचार्य यहां करेंगे. अनंतर इंगिनी वगैरे दो मरणोंका वर्णन करेंगे. यदि इंगिन्यादि दो मरणों के लिये इस काल में शरीरही योग्य नहीं है तो उन मरणोंका वर्णन करना निष्प्रयोजन है। इस प्रश्नका उत्तर यह है कि उनके स्वरूपोंका ज्ञान होनेसे सम्यग्ज्ञान होता है, और वह समक्ष लोकोंको उपयोगी है. ... ... ... ... । - Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ফ্লাশ্বার १५२ कतिविकल्एं भक्तप्रत्यास्थानमित्यारेकायामाह दुविहं तु भत्तपच्चक्खाणंः सविचारमघ, अविन्यारं॥ सविचारमणागाहे मरणे सपरचमस्स हवे ॥ ६५ ॥ सवीचारमवीचारं भक्तत्याग द्विधा विदुः॥ शक्यचिरायुषामाद्यस्तत्रान्योऽन्यस्य कथ्यते ॥ ७० ॥ चिजयोदया-दुविधं तु भत्तारुचक्खाणं द्विविधमेध भक्तमत्याख्यान । सषिचारमध धविचार इति । विचारणं नानागमनं विचारः। विचारेण घर्तते इति सविचारं । पतदुक्तं भवति । पक्ष्यमाणाईलिंगादिषिकल्पेन सहितं भक्तमत्याल्यानं ति । अविचार पक्ष्यमाणाविनानाप्रकाररहितं । भवतु विविधं । सचिवारमतरत्याख्यानं कस्य भवति इत्यस्यो सरं । सपिचार भक्तमत्याल्यानं अणागा सहसा अनुपस्थिते मरणे चिरकालभाविनि मरणे इति यावत् । सपरकमस्स सहपराकमेण वर्तते रति सपराक्रमस्तस्य भये मषत् । पराकमः उत्साहः पतेनेच सहसोपस्थिते मरपो पराक्रमरहितस्थ अबिचारभक्तप्रत्याख्यानं भवतीति लभ्यते यतो विचारभक्तप्रत्याख्यानं अस्य अस्मिन्काले इति सूखे नोक्तं ॥ कतिविकल्प भक्कपत्याख्यान स्यादित्यवाह मूलारा-सविचार अत्याविभेदसहितं । विधिपूर्वकपरगणगमनलागेन विगारेण सह वर्तमानत्वात् । अविचारं परगणसंक्रमणलअगाबिचाररहित । तयारी कम्य स्यात् इत्यत्राह-अगागाढे चिरकालमापनि । सरकार बलयुक्तस्य । एलेनैव सहसोपस्थिते मरण बलही स्व अरिवार भवेदिति लभ्यते इति तथा सूत्र नोक्कम ।। भक्तप्रत्याख्यानक भेदोका वर्णन आचार्य करते हैं, हिंदी अर्थ -भक्तप्रत्याख्यान भरपाक मविचारभक्तप्रत्याख्यान और अविचारभक्त प्रत्यारख्यान ऐसे दो भेद कहे हैं. उसमेंसे जो गृहस्थ अथवा मुनि उल्लाह बलयुक्त है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित हुवा नहीं है. अर्थात् जिसको दीर्घ कालके अनंतर मरण प्राप्त होगा ऐसे साधुके मरणको सचिचारभक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं. जिसको सामर्थ्य नहीं है और मरणकाल एकदम उपस्थित हुवा है ऐसे पराक्रमरहित साधुके मरणको अविचारभक्तप्रत्याख्यान मरण कहते हैं. नाना प्रकारसे चारित्र पालना, चारित्रमें बिहार करना रिचार है, इस विचारके अर्ह, लिंग वगैरे चालिस प्रकार हैं उनका विवेचन ग्रंथकार आगे करेंगही. १९२ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना माश्च तयोः कस्य भक्तप्रत्याख्याना अनेन गारमेण निरूपणेत्याशंकाय आह सविचारभत्तपच्चक्खाणस्तिणमो उवकमो होइ॥ तत्थ य सुत्तपदाई चत्तालं होंति णेयाई ।। ६६ ॥ भक्तत्यागं सवीचारं मृत्यु तत्र विवक्षुणा ।। चत्वारिंशद्विबोध्यानि सूत्राणीमानि धीमता ॥ ७१ ।। विजयोदया सविचारभत्तपश्चग्वाणस्स इति सविचारभक्तप्रत्याख्यानस्य । इणमो अयं । उवक्कमो व्याख्यानमारंभः। होदि भवति । तत्थ य तत्र च भक्त प्रत्याख्याने । सुत्नपदार्थ सूत्रपदानि । मन थे, सूचयनीति वा मुत्र । मचाणि च नानि पदानि च मत्रपदानि । चत्तानं चत्वारिंशत् । होति भवन्ति । णयाई भानस्यानि । व इदानीं सबिचारस्य भक्तप्रत्याख्यानम्य व्याख्यारंभसूचनपूर्वकं अईदादिभेदसूयतां निर्दिशति । मूलारा--इणमो अयं । उवफमो व्याख्यानमारंभः । तत्थ य तत्र सविचारभक्तप्रत्याख्याने । सुप्तपदाई सूत्राणि च तानि पदानि च न वाक्यानि । चत्तालं चत्वारिंशत् । हिंदी अर्थ--अब यहां आचार्य सविनारभक्तप्रत्याख्यानमरणका स्पष्टीकरण करनेके लिये प्रारंभ करते हैं. इम मरणके वर्णन करन चालिस सूत्र जानने लायक हैं. जो अथको उत्पन्न करते हैं अर्थात प्रकत विषयकी सुनना करते हैं ऐस वाक्योंको मुत्र कहते हैं, ऐसे सूत्र इस मरणका विवेचन करनेवाले चालीस है. तानि स्त्रपदानि गाथाचतुष्यनिषद्धानि अरिहे लिंगे सिक्वा बिणय समाधी य अणियदविहारे ॥ परिणामोवधिजहणा सिदी य तह भावणाओ य ।। ६७ ॥ प्रस्तावना, अहे. लिंग, शिक्षा, विनय, समाधि, अनियतविहार, परिणाम, उपधित्याग, भिति, भावना, सल्लेरखना, दिक, क्षमण, अनुशिष्टि, परगणचर्या, मार्गणा, सुस्थित, उपसर्पण, निरूपण, प्रमिलेग्व, पृच्छा, एकसंग्रह, आलोचना, गुणदोष, शय्या, संस्तर, निर्यापफ, प्रकाशन, हानि, प्रत्याख्यान, श्वामण, अपणा, अनुशिष्टि, सारणा, कवच, समता, ध्यान, लेश्या, फल, आराधकत्यागलक्षणानि चत्वारिंशत्सूत्राणि ।। ७२।। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना १९.४ FATABAZAMAA विजयोत्या-अरिहे अहः योग्यः । सविचारभक्तमत्याख्यानस्यायं योग्यो नेति प्रथमोऽधिकारः। कर्तृव्यापारा लिंगादयः कर्तपुरमग भयंतीति मागेव लिंगशिक्षादिभ्यो योग्य कर्तनिदेशः सूत्रे रुतः अरिह इति । शिक्षाविपिनाया भक्तप्रन्या यानक्रियांमभृताया योग्यपरिकरमादर्शयितुं लिंगोपादानं कृतम् । हतपरिकरो हि कता क्रियालाधनायोद्योग कगति लोके । मथा हि घटादिकरण प्रवर्तमाना रदवकक्षाः कुलारा दृश्यते । ज्ञानमंतरण न चिनयादयः कने शक्यन्त इति तेभ्यः प्राइ निदेशमति शिक्षा | यथावसमितरक्रममादर्शयिष्यामः । लिंगशनश्चिवाची। नाहि वक्ष्यति । ' चिहं करण' इति । सिक्खा शिक्षा श्रुतस्य अध्ययन मिह शिक्षाशदेवोच्यते । तथा च वक्ष्यति । जिण. चयण कस्तुसहरं अहो ये रकीय पदिदध्यमिति'। विनयः मर्यादा तथा हि-शानादिभावनाव्यवस्था हि सानादिविनयतया पश्यते । समेकीभाष वर्तते तथा व प्रयोग: संगतं घृतमित्यर्थ एकीभूतं तैलं एकीभूतं घृतमित्यर्थः । समाधान मनसः एकाग्रताकरण शुभोपयोग शुद्ध बा । अनियतक्षेत्रायासः अनियतविहारः। तावः परिणामः इति पचनात्तस्य जीपादेव्यस्य क्रोधादिना नर्शनादिना वा भवन परिणाम रति यद्यपि सामान्येनोक्तं तथापि यतेः स्वेन कर्तब्यस्य कार्यस्यानोचनमिह परिणाम इति गृहीतम् । उपाधिः परिग्रहः तस्य महणा रयागः।सिदीय श्रिप्तिः निधेमिः सोपानमिति यायत्। भाषनाभ्यासः तत्र असकृयवृत्तिः ॥ तत्सूत्रोदेशार्थ गाथाचतुष्टयमाचष्टे मूलारा अरिहे अहः । सीब चारभक्तपस्याख्यानस्य योग्यः । लिंगादियापासमा योग्य कनीरं विना असंभवादम्य तापूर्वमुपन्यामः 1 लिंगे लेग चिन्ह । शिनादिक्रियाशेपाणां कर्तुः परिकर भूतत्वादस्य तेभ्यः प्राग्निर्देशः । शिक्षा श्रुताध्ययन : ज्ञानं बिना विनयादीनां कर्तुमशक्यत्वान् । तरः पूर्वमुपन्याम: शिक्षायाः । यथावसरं चान्येषां में दर्शायप्यामः । विगय त्रिमयः मर्यादा, ज्ञानादिभावनाव्यवस्था हि ज्ञानामिवियतया वक्ष्यने । उपास्तिवा बिनयः । ममाही समाधान मनस एकापना करणं शुभ उपचोगे .देवा । अगिय द बिहागे अनियतवायामः । परिणामो स्वकार्यपयो लोचन । पिजा परिहत्यामः । सिदि श्रिति: शुभ परिणागण्यानणं । भाषणा अभ्यागः। कनाइसक्लश परिमानानां । इन सूत्रों का आचार्य चार गाथाओंसे वर्णन करते हैं. हिंदी अर्थ- अरिह-अह, लिंग, शिक्षा, विनय, समाधि, अनियनविहार, परिणाम, उवाधिजहणा-उपधित्याग, श्रिति और भावना ऐसे दस सूत्रों के नाम इस गाथामें कहे हैं. इन सूत्रोंका संक्षेपमे विवरण इस प्रकार है. . Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - लारापना आवासः १९५ mmam अरिह-अई- सविचारभक्तप्रत्यारयान के लिये कोन योग्य होता है इसका वर्णन अर्ह सूत्रसे किया जाता है. यह प्रथमाधिकार है. लिंग, शिक्षा, विनय, समाधि वगैरहको धारण करने लायक जो व्यक्ति है उसको अहं कहते हैं. योग्यता हो तो लिंग, शिक्षा, बिनयादि गुण रह सकते हैं. अन्यथा नहीं, लिंग-शिक्षा, विनय, समाधि वगैरह क्रिया भक्तप्रत्याख्यान की साधनसामग्री हैं, उस मामग्रीका यह लिंग योन्य परिकर है यह मूत्रित करने के लिये अहंके अननर लिंगका विवचन किया है. पर्व परिकरसामग्री जुटनेपर जसे कुंभकार घटनिर्माण करता है वैसे अई-योग्य व्यक्ति भी साधनसामग्रीसे युक्त होकर महावनादि कार्य करनेके लिये मन्त्रद्ध होता है. लिंग शब्द चिन्हका वाचक है. शिक्षा-ज्ञानोपार्जन करना. विना ज्ञानके विनयादिक कार्य करना शक्य नहीं है. अतः विनयादिकका वर्णन करनेके पूर्व शिक्षाधिकारका वर्णन करते हैं. शास्त्राध्ययन करना यह शिक्षा शब्द का अर्थ है. जिनेश्वरका शास्त्र पाप हरण करने में निपुण है अतः उसको दिनगन पहना चाहिये ऐसा ग्रंथकार आगे स्वयं कहेंगे. विनय-मर्यादा, ज्ञानादिभावनाकी व्यवस्था ज्ञानादिका बिनय करनेसे होती है ऐमा आग कहेंगे. समाधि -- मनको एकाग्र करना. सम शब्द का अर्थ एकरूप करना ऐसा है. जैसे धत मंगत हुवा है. तेल संगत हुवा है अर्थात एकरूप हुवा है. मनको शुभोपयोगमें अथवा शुद्धोषयोगमें एकाग्र करना यह नमाधि शब्दका अर्थ समझना. आणियदविहार- अनियत ग्राम, पुरादिक स्थानों में रहना, परिणाम-'सद्भावः परिणामः' ऐसा पूर्वाचार्यका वचन है अर्थात जीवादिकपदार्थ क्रोधादिक विकारोंसे अथवा सम्यग्दर्शनादिक पर्यायोंसे परिणत होना यह परिणाम शब्दका सामान्यार्थ है. तथापि यहां यातको अपने कर्तव्यका हमेशा ख्याल रहना परिणाम शब्दका प्रकरण संगत अर्थ समझना चाहिये. उपधिजहणा-परिग्रहका त्याग करना, सिदी--शिति अर्थात् शुभपरिणामसे उत्तरोतर परिणामांकी उन्ननि होना. उत्तरोत्तर उन्कट भावनाको अभ्यास करना इसको भावना कहते हैं. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधन! १९६ सल्लेहणा दिसा खामणा य अणुसिहि परगणे चरिया || मग्गण उपाय पडलाय पाडलेहा ॥ ६८ ॥ विजयोदयमा सम्यकतमकरणं । दिया परलोकादिगुपदर्शनपरः सूरिणा स्थापितः भवतां दिशं मोक्षवर्तम्याश्रयमुपदिशति यः सुसिदिशा इत्यस्यनावणाश्रमाग्रहणं । असिहि सूत्रानुस शासनम अन्य चरिया प्रवृत्तिः । मध्यणमात्मनो विशुद्धि समाभिर वा संपादयितुं अमस्य मूंग सुहिंदी सुस्थितः पुरोपक स्वयोजन च सम्यक स्थिनः सुस्थितः आचार्यः । उपसंपया आचार्यस्य दोन पि परीक्षा गणस्य परिचारकस्य, आराधकस्य, उत्साहशक्य आहारगतामिलाएं यनुमयं क्षमो नेति । पाउलेडा आराधनाथा व्याक्षेपेण विना सिद्धिर्भवति न वा राज्यस्य देशस्य ग्रामनगरादेस्तत्र प्रधानस्य वा शोभनं वा नेति एवं निरूपणम् । मूलारा-सहा सम्यक्ऋशीकरण अर्थात्कायकपायाणाम दिसा एठाचार्य : संघाधिपतिना या जीवमा चार्ययागेन स्वपदे प्रतिष्टितः स्वगभानगुणग्रामः शिष्य इत्यर्थः । खामणा परम्परक्षमापणा अणुमिति स्त्रानुसारेण शिक्षादानं । परगणे चरिया अन्यस्मिन्सचे गमनं । मन्गण आत्मनो रत्नत्रयशुद्धि, समाधिमरणं व संपादयितुं क्षमस्य सूरेरन्वेषणं । सुदि परोपकारकरणे स्वप्रयोजने च सम्यक् स्थितः सुस्थितः आचार्यः । उवसंपा आचार्यस्य आत्मसमर्पणं । पढिच्छा परीक्षा नरकस्य मनोज्ञाहारलाल्यगोचरा । पडिहा आराधनानिर्वित्र सिद्धयर्थं देवतोपदेशाष्टांगनिमित्तादिगवेपणं । हिंदी अर्थ -- सछेहणा, दिशा, क्षामणा, अनुशिष्टि, परगणचर्या, मार्गणा, सुस्थित, उपसंपदा, परीक्षा, प्रतिलेखन ऐसे दस सूत्रोंका विवरण इस तरह समझना चाहिये. सल्लेखना -- शरीर और कषायोंको कृश करना. दिशा - आचार्यने अपने स्थानपर स्थापित किया हुवा शिष्य जो परलोकका उपदेश करके मोक्षमार्गमें भव्योंको स्थिर करता है, संघाधिपति आचार्यने यावजीव आचार्य पदवीका त्याग करके अपने पदपर स्थापा हुवा और आचार्यके समान जिसका गुणसमुदाय हैं ऐसा जो उनका शिष्य उनको दिशा अर्थात बाळाचार्य कहते हैं. खामणा अन्योन्य क्षमाकी याचना अविरुद्ध उपदेश करना. करना. अनुशिष्टि आगमके परगणचर्या - अपना संघ छोड़करके अन्यसंघमें गमन करना मम्गण - रत्नत्रयकी विशुद्धि करनेमें समर्थ अथवा समाधिमरण करने में समर्थ ऐसे आचार्यका शोध करना. यह मार्गणा सूत्र है. सुडिद- परोपकार करने में तथा स्वकीय आचार्य पदवीके लायक कार्य करनेमें प्रवीण गुरुको सुस्थित कहते हैं. आध १९ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवासः उपसंपदा----आचार्यके चरणमृलमें गमन करना. पडिच्छा-गण, शुश्रषा करनवाल मुनि, ममाधिमरणाराधक, जन्साहशक्ति, आहारकी अभिलाषा, इत्यादिककी परीक्षा करना. पहिलहा - भागधना, अदि बिन उपस्थित हो तो आराधनाकी सिद्धि नहीं होती है. अतः उसकी निविनताके लिये राज्य दश, गांव, नगर वगैरहका शुभ होगा या अशुभ होगा इसका अवलोकना करना. । आपच्छा य पडिन्छणमेगस्सालोयणा य गणदासा ॥ सेज्जा संथारो वि य णिजवग पयासणा हाणी।। ६९ विजयोदया-आपुच्छा प्रतिप्रश्नः । किमयमस्माभिरनुगृहीतव्यो म यति संघप्रश्नः । पहिच्यणमेगस प्रति चारफैरभ्यनुमानस्यैकस्य संग्रह आराधकस्य । आलोयणाय स्वापराधनिवेदने गुरुगाामालोचना । गुणदोला तस्या गुणा दोपाः । सज्जा शच्या बसतिरित्यर्थः । भाराधकापासगृहमिति यावत् । संधारो बिय संस्तरश । णिजागा नियों TET: PITriPE समाधिशहाशा गालणा चरमोहारप्रकाशनम् । हाणी कमाणाहारज्यागः हानिः । मूलारा-- आपुच्छा किमयमस्माभिरनुगृहीतव्यो न वेति संथ प्रसि प्रश्नः ! परिच्छमियरस संघानु गते कम्य क्षपफम्म स्वीकारः । आलोयणा गुरोः स्त्रयोषनिषेवन । गुणदोसा गुणा दोपय प्रत्यासनेरालोचनाया एव । सेम्जा शग्या वसतिरित्यः । सथारो संम्तरः । पिज्जनग निर्यापकाः आराधकस्य समाधिसहायाः : पयालणाचरणं आहारप्रकटनं । हाणी कमेणाहारत्यागः । हिंदी अर्थ-आपुच्छा, पडिन्छण, आलोयाणा, गुणदोस, मेज्जा. संथार णिजबग, पपासणा व हानि ऐसे दस सूत्र भक्तप्रत्याख्यानके उपयोगी है. आपुच्छा-यह आराधक भक्तपत्याग्यान करने के लिये आया है इसके उपर अनुग्रह करना योग्य है या नहीं है एमा संघका प्रश्न करना अर्थात् उनकी अनुज्ञा प्राप्त करना. पहिच्छण-प्रणिचारक मुनिओकी म्बीकारना मिलने पर एक आराधकका ग्रहण करना. आलोयण-गुरूके आगे अपने पूर्वापराध कहना. गुण दोसा-आलोचनाके गुण और दोपाका वर्णन करना. सेजा समाधिमरण साधने के लिये आराधककी योग्य वसतिका-निवास स्थान, मधार-संस्तर-अर्थात् आराधकके लिये आगमोक्त शय्या. णिञ्जवग-आराधकको समाधिमरण साधने में सहायता करनेवाले आचार्यादिक, १९७ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पामणा-अन्तिम आहारको दिमाना. आणी-कमी आहारका त्याग करना. नलागवना यात्राम ।३।। स्यामा वम अणुस हमारणाकपचे ।। ममदासांग दस्मा फलं विजहणा य गेयाई। ७० चिडयोदय-मममा प्रन्याख्यानं त्रिविधाहारस्य । खामगं आचार्यदीनां समानहगं । घमण स्वमान्य मापराधक्षमा । अणुसहिअनुशान मिलेग नियरिकभ्याचार्यस्य । सारणा दुःस्वाभिमानमोडमुगगनस्य निधननम्र चलनाप्रवनमा सारणा | कवना या दमदम्पतनियातदुखनिवारणक्षमता एबमाचार्यग नियापकन धीपदेशश्च अतिपरिभ्रमण दृानहानि मानिनद मासपश्यदानया शुतानि निष्फलानि । इदं पुनः महनं विरा) पत्रमा ने सकलदः स्यान्तं मुम्ब मायनःन्द्रिय मापनप पमन्यावाधात्मकं संपादयिष्यतीति मिरमाणो दासनिवारणासामान्यात् कवच सदनोग्यत । यथाविधिवपयः भाणमशिदः प्रयुज्यमानः शाशदाणाशासने देवदत्तमनगमगांभ। समदा नमारविन योगायोगदम्पादिपु गगढपयोगकाणं । व्याने एकाधिनाin Hindi : । फलं खायाराधना in.mm :111 बायगः । मला। प iiiमः . 1-1 आचायादीतं पकन क्षमा ५. ना.गाभार्य । अगायिण आगंध कर शिक्षणं । मारणा अनाभिभवान्मोह ननम्न चेतनामा । यो नापशन दुम्बा गा विमानादिपु रागद्वेष बोरकरण । झाणे एका चितानिरोधः । रूमा पं. गायानुरी जरा गोpit: I साध्यं । विजा आराधशारीरत्यागः । हिंदी अर्थ-प्रमाण, मियाय जलके तीन प्रकारके आहारोंका त्याग करना. ग्य(मण ग्राण-प्राचार्यादिकोंको क्षमाकी याचना करना. तथा दसरोंने किये हुए अपराधोंकी क्षमा करना. अनुशिष्टि - जानाधका माशिमरण के लिय उद्युक्त हाए मुनिराजको उपदेश देना. मारणा-दुःयाग गदित पर मोहको प्राप्त हुने, यमु ए आराधकको नंत काना. कवन-जैसे काच चिलखत शेकडो बाण पडनेपर उत्पन्न होनेवाले दुःखाँस बार पुरुषको बनाता है. वस आचार्यन किया हुया धर्मोपदेश आराधकको दुःखास बचाता है. चतुगती में पूर्वभवमें आराधकके आत्मान Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আশ্ব लाराधना १० ..SAMZ दामह दावोंका अनुभव किया है. पांतु यह सब व्यर्थ दुबा, वह दुःखका सहन कुछ आत्मकल्याणकारी नहीं हा. परंतु आराधक ! इस समय जो दाब तेरे द्वारा महा जा रहा है वह तेरे कर्मकी निर्जरा करेगा, वर्तमान दुःखोंका नाम का अतीन्द्रिय, निचल, उपमारहित, बाधारहित मुख देगा इस रीतीसे कहा हुआ आचार्योका उपदेश आगधकके दु:खों का नाश करनेवाल्या होनेसे कवचके तुल्य है. अतः इसको कवच यह नाम देना योग्य ही है, जैसे कमी तजम्त्री बालकका गायगग मानन करनेक लियं उसमें जैसे सिंह शब्डका आगेषण करते है से वहां भी । कवचक गुणाका अध्यागेपः उपदेया में करके उसको करच शब्डले गौरचिन किया है. ममता- जीतता करनाल, गंगाग, वियोग, मुख जोरदार मापक न्य वायुर्वि कारण करना झाण-अन्य पदार्थ चित्तवृत्ति हटाकर एक विषयमें उमको नियुक्त करना. लश्या-मान वचन और शरीरक व्यापार कपाययुक्त होना, फल-आराधनासे प्राप्त हुवा साध्य उसको फल कहते हैं. मिजहणा-आराधकका शारीर त्याग. इस तरह भक्त प्रत्यापपानके चालीस अधिकारोंकी संक्षेपसे निरु. तिमात्र कही गई है, अब एकक अधिकारका सविस्तर वर्णन आचार्य यहांसे करेंगे, प्रथमतः अधिकारका वर्णन करते हैं. TDiwanaPaamrpura. नघाहानरूपायानग गाथा वाटिव्य दापसझा ज य समण्गजोमहाणिकरी || उबसग्गा बा देवियमाणुसतेरिच्छया जस्स ॥ ७१ ।। गंगो दुरुत्तरो यस्य जरा श्रामण्यहारिणी।। निरिभानवैदेवरूपसर्गाःप्रवर्तिताः॥७३ || विजयादया- जाहिद । अत्र नवं पदघटना । वाद्विच दुप्पसज्झा मो अरिहो होइ भत्तपदिणाप रति । पिनजामशन मन पथमन चयापन शिकित्स्यः यस्य वियते सो मतप्रत्याख्यान करें । जायति नियति पायापालगन गणः य पामयम्थायां प्राणिनः सा जरा । ससमा जोगदागिरी यति त पापनि A Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारामना) শাস্বাৰঃ श्रमणः तस्य भाषः श्रामण्यं श्रमशम्दस्य पुंसि प्रवृसिनिमित्तं तपःक्रिया श्रामण्यं, नेन योगः सर्वधः साध्यसाधनलक्षणस्तस्य हानि विनाशं करोति या सा जरा यस्य सोईति भक्तमत्याख्यान विधार्नु । जरापसारितशरीरयलः शरीरबलसाश्येषु...कायक्लेशेषु न वर्तितुमुत्सहते । अथवा समणो समानमणो समणस्स भाषो सामण्णं कचिवपननुगतरागद्वेषता समता सामण्णशब्देनोच्यते । वस्तुयाथात्म्यावहितचेतस्तया योग: संधो ध्यानयोग इति यावत् । बस्तुयाथारभ्यावयोधो निश्चलो यस ग्यानमिष्यते । जरापरिप्लुतयोधस्य ध्यानं विनश्यति । नतो ध्यानयोगविनाशकारिणी जरा यस्य सोई नि भक्तं स्यक्तम । अधना सामण्ण समता. युज्यतेऽनेन मिर्जपर्थिन प्रति योगः, सपस! योगशध्यस्तपसि कायक्लेशाम्ये रूः सोऽप गृहीतः । 'भादावणादिजो. गधारिणो अणागारा' इत्युक्तेः आतापनादितपोधारिणः इति प्रतीयते ॥ वंदे अस्परथरत्यायोगशब्दस्य पूर्वनिपातमसंग इति चेत् न अभ्यहि तन्वान्समनायाः सामग त्या पूर्वनिपात इति मन्यते, पूर्वजोऽभ्यर्हितमिति पचनात् । न हि समताशून्यात्तपसो विपुला निर्जग भवति । ततस्तपसो निर्जराहेतुता परपशेति प्रधान समता। उपसग्गा वा उपद्रया या 'देवियमाणुसतेरिकिग्वगा'चैमरम्तियुग्मिभ प्रचनिनाम्य मोति भक्तंपयाण्यानं रति संबंधः । चतुर्मिलातामर्गमा विविध पदेनाः कति ? शत्रोच्यते-अपनगी ना नि या शायः समुया!:मा • देघियमाणुसतेरिफिग्वगा वा इति संयधनीयमनाचेतनोपसर्गस मुभायः विगत । अधुना गाथापक्रेनाई लक्षणमा भूलारा-बादीन म्याधियो । दुगना महत्ता का संयमपच यापन कि । पधादिका निन यो यः । सामपणजोग भाम्यदि तपस्यनीति भमणस्तस्य भाव: आमायं सपा नन या माध्यमाचा मावला: मधः । अथवा सामान्येन कायदयानुगतरागद्वेषतया योगो ध्यानं । अथवा साग समना जोग आतापनादि ती । लयसग्गा या एप या शब्दोऽनुक्तसमुच्चय तेन अचेतनकृताश्चेति लभ्यते ॥ हिंदी अर्थ-जिसको संयमसमुदायका नाश करनेवाला और महाप्रयत्नये चिकित्सा करने योग्य रोग हुआ है वह मुनि भक्तप्रत्याख्यानमरणके योग्य है, अर्थात् जिस रोगको दूर करने के लिये संयमको छोडना पडेगा और महाक्लशसे भी जिसके नाशकी संभावना नहीं है ऐसे रोगसे पीडित होनेपर मुनिवर्य भक्तप्रत्याख्यानके लिय योग्य माने जाते है. पापीओंके रूप, बल, वय वगेरे गुणांका नाश वृद्धावस्था आनसे होता है. यह वृद्धावस्था जब अतिगाय बढती है तब मुनि तपाकिया करने में असमर्थ हो जाने है. एगी परिस्थिनीमें वे भक्तप्रतिज्ञामरणक लिये योग्य समझे गये हैं, वृद्धावस्था प्राप्त होनेसे शरीरकी ताकत नष्ट होती है. कायहेश तप शरीरमें बल Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आश्वासः २०१ होनेसेही हो सकता है. परशा नहीं है. खातामयाभारम्पयोगकी हानि करनेवाली है. किसी भी इष्टानिष्ट विषयमें रागद्वेषरहित मनोवृत्ति होना ही समता है. वस्तुके यथार्थ स्वरूपको जानने चित्तसी एकाग्रता होनाही योग अथवा ध्यान कहते है. जत्र वस्तुके यथार्थ ज्ञानको निश्चलता प्राप्त होती है तब उसको ध्यानसंज्ञा प्राप्त होती है. बुढापेसे ज्ञानमें अस्थिरता आती है तब ध्यानका विनाश होता है. अर्थात् ध्यानका नाश करनेवाली वृद्धावस्था शरीरको जब जर्जर करती है तब मुनिराज भक्तपतिज्ञामरणसे देहोत्सग करते है. सामान्ययोग इस शब्द का अर्थ इस तरहसे भी आनार्य करते हैं-समता शब्दका अर्थ उपर लिखा है. निर्जगीं मुनि जिससे संयुक्त होते हैं वह योग है अर्थात् यहां कायश्लेशको योग कहना रूद है, आतापनादिकायतशतपको योग कहते हैं यह बात प्रसिद्ध ही है, 'आदावणादिजोगधारिणो अणगाग' आतापनादि योगोंको धारण करनेबाले मुनियोंको अनगार कहते हैं ऐसा आगममें कहा है. जराजजेरित होनेसे उपयुक्तयोग धारण करनेमें शरीर समर्थ नहीं रहता है, सामण्ण जोग' इस शब्दसमूहमें योग शब्द अल्पस्वरयुक्त होनेसे द्वंद्व समासमें उसको प्रथम नियुक्त करना चाहिये. इस प्रश्नका उत्तर यह है कि, समता अर्थात् सामण्ण प्रधानरूप है, महत्वयुक्त है, जिसमें महत्त्व रहता है उसको द्वंद्व समासमें प्रथम नियुक्त करते हैं. समतारहित केवल तप विपुल निर्जराका कारण नहीं होता है. अतः तपश्चरणमें निर्जराहेतुत्ता स्वयं नहीं है किंतु वह समताका साहाय्य पाकर होती है, देवोंका उपद्रव, मनुष्यकृत उपद्रव तथा तियंचकृत उपद्रव इन उपद्रवामेसे किसी भी उपद्रवसे निष्प्रतीकार पीटा हो जानेसे मुनि भक्तप्रत्याख्यान मरणके योग्य माने जाते है.. उपसर्गके चार भेद है. परंतु तीन उपसर्गकाही यहाँ उल्लेख क्यों किया है ? उत्तर-'उचसग्मा वा' इस गाथोक्त शब्दोंमे 'या' शब्द समुच्चयार्थक समझना चाहिये, अतः अचेतन उपसर्गका भी यहां समुच्चय होता है. अणुलोमा वा सत्तू चारित्तविणासया हबे जस्स ॥ दुभिक्खे घा गाढे अडवीए विप्पणठो वा ॥ ७२ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः २०२ 12948SARAN अनुकूलहीतो वा वैरिभिर्वृत्तहारिभिः॥ योऽव्यां पतितो घोरे दुर्भिक्षे च दुरुत्तरे ।। ७४॥ विजयोदया-अणुलोमा वा अनुकुला बा शषयः । चारित्तविणासगा चारित्रं पापकियानिवृत्तिः तस्य विनानाकाः । बंधा हे स्नेहान्मिध्यान्वशेषात् स्वरायणलोभाहा यस्य चारित्रं विनाशयित्तु उद्यताः अनुलोमत्ये शत्रुत्वविरोघिपातिकल्ये समपस्थिता हि भवन्ति शत्रबस्तरिकमुच्यते अणुलोमा या सत्तू इनि ? प्रियवचनभाषणादनुलोमता अहिते उसंयमे प्रवर्तनाद्धितस्य संयमधनस्य विनाशनात शत्रवो भवन्ति । अथवा अनुलोमा बधवः सत्तू या शत्रवश्वेति समुकचयः या शब्दसमुच्चयार्थत्वान् । देविगमाणुसतेरिक्खगा उचसम्मा अस्स इति वचनात् मनुकुलशनुकतोऽप्युपसर्पः संगृहीतः एव किमर्थ पुनरुकयते 'अणुलोमा या' इति पुनरुक्तता । तत्र हि सूत्रे मनुष्योएलगों नाम धमताडनविलंबनादिकः शरीरोपद्रवः परकृतो गृहीतः । इह तु जिम्होत्पाटनाविकं कुर्मो यदि श्रामण्यं न त्यजसीति खलीकरणं वक्तुमिष्टम् । दुम्भिवखे या दुर्भिक्षे घा । मागावे दुरुत्तरे महति अशनिपासमिव सर्वजनगोचरे । भर्हति प्रत्याक्यातुं । बडपीए अटण्यां महत्या ग्यालमृगाकुलायां मागोपदेशिजनरहितायां दिक्दा पापाणकटकबहुलतया दुचारापां । विप्पणडो वा विप्रनष्ठो या अहतीति संबंधः ॥ मूलारा-अणुलोमा बांधषादयः । स्नेहान्मिध्यावदोषात्स्वपोषणलोभादा यस्य चारित्रं विनाशयितुमुथताः स्युः। अनुलोमल चैषां प्रियभाषणमात्राच्छत्रुत्वं च संयमधनविनाशनाइसंयमविषप्रवर्तनाथ ॥ अथवा शत्रवोऽत्र जिव्होत्पाटना दिकं तव कुर्मों यदि म यतित्वं त्यजास इति सप्लीकारिणो वैरिणः । तेऽपि यस्य चारिवातका इति माझं। पूर्वसूत्रे मनुष्योपसर्गस्तु बंधनाउंदनताढनादिरुपातः । आगाढे दुरुत्तरे । विपण्णछो मार्गविमूढमनाः । हिंदी अर्थ-अनुकूल शत्रु जिसके चारित्रका नाश करनेके लिये उद्युक्त हुए दो वह मुनि अपने पाप क्रियाओंका त्यागरूपी चारित्रके रक्षणार्थ भक्तप्रत्याख्यानमरण करने के लिये योग्य माना गया है. अभिप्राय यह है कि, बंधुगण स्नेहवश होकर अथवा मिथ्यात्य दोषसे किंवा यह स्वपोपण करेगा इत्यादि लोभसे प्रेरित होकर जिसके नारित्रका नाश करनेके लिये उद्यमी हो जाते है वह मुनि समाधिमरण धारणाकेलिए योग्य है. उपद्रव करनेवाले बंधु शत्रु क्यों माने जाते हैं यह ऊपर दिखाया है. ये प्रिय मापण करते हैं अतः उनको बंधु अर्थान् अनुलोम कह सकते है परंतु अकल्याणकारक असंयममें वे जीवको प्रवृत्त करते हैं और हितकारक संयमधन का नाश करते हैं अतः २०२ वे शत्रु है. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना भाश्वासः शंका-' देविगमाणुसतेरिक्खगा उवसग्गा जस्य' अर्थात् देवकृत, मनुष्यकत, तिर्यचकृत उपसर्गों मेसे मनुष्यकृत उपसर्ग एक उपसर्ग है गेमा पिडली मान लिया है. माहुकुन उपद्रव अयना बंधुकृत उपसर्ग मी मनुष्यकृत उपसर्गमें अन्तर्भूत होता है अतः पुनः इस गाथामें शत्रु व बंधुकत उपसर्गका वर्णन क्यों किया है ? उत्तर--पूर्व गाथामें मनुष्योपसर्गका खुलासा इस प्रकार समझना चाहिये-बंधन, ताटन, वृक्षशाखासे लटकाना इत्यादि शरीरोपद्रव जो परकेद्वारा किये जाते हैं उनको मनुष्योपद्रव कहना चाहिये. इस सूत्रमें बंधु वा शत्रुकृत उपद्रवका अभिप्राय यह है-यदि तुम अपना मुनिपना न छोहोगे तो तुझारी जिहा हम निकालेंगे. इत्यादि शब्दोंके द्वारा उपद्रव करना ऐसे उपद्रव उपस्थित होने पर मुनि समाधिमरणका स्वीकार करते हैं. विद्युत्पातके समान भयंकर और जिसमें जीनकी संभावना नहीं है ऐसा दुष्काल आपडनेपर भी मुनि भक्तप्रत्याख्यानके लिये योग्य हैं. कारण एसे दुष्कालमें अन्न मिलताही नहीं, अतः चारित्रनाश न हो इस हेतुसे उनको सल्लेखना करना योग्य है. जिससे उनके धर्मका रक्षण होगा. जिसमें ऋर प्राणी हैं और जिसमेंसे पार पाडनेवाला मार्गोपदेशक भी नहीं है ऐसे जंगल में मुनि दिमूद हो जाते है. तथा वह जंगल पाषाण कंटकादिकोंसे व्याप्त होनेसे मुनिको उसमें विचरना अशक्य सा मालूम हो नो वे ऐसी अवस्थामें प्रत्याख्यान करनेके लिये योग्य हैं, चरखं व दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं व दुबलं जस्स ॥ जंघाबलपरिहाणो जो ण समत्थो विहरिदुं वा ॥ ७३ ।। दुर्थली यस्य आयेते श्रवणी चक्षुषी तथा ॥ विहन समों यो जटायलविवर्जितः ।। ७५ ।। विजयोदया-चालु व चक्षुर्वा । चर्यान्वशर्यतीति चक्षुः । दुम्बल घुर्वलं मल्पशक्तिकं सूक्ष्मवस्तुदर्शनाक्षम । जस्स यस्य । होज्ज भवेत् । सो व श्रोषा श्रूयते शम्द उपलभ्यते येन तत् थोत्रम् । तुम्बलं शम्योपलविध जननसामर्थ्ययिकलं । सोप्याईति । अंघायलपरिहीणो जंधायलपारिहीनो । जो यः । ण समत्थो न शक्तो । विहरिदु था गर्नु वा सोप्याईति ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आयाम मूलारा-दुबलं सूक्ष्मनिरीशमं । दुम्बलं झाय्दशव मशक्ति विकलं । विहरि गंतुमार्ग, या।। हिंदी अर्थ - जिसकी आंखे कमशक्तिकी हो जानेसे सूक्ष्म वस्तु देखनेमें असमर्थ हो गयी हैं, जिसके । कानोंका शब्द सुननेका सामर्थ्य नष्ट हो गया है. वथा जिसके पायोंकी चलनेकी शक्ति नष्ट होगई हो यह मुनि भी भक्तप्रत्याग्न्धानके लिये योग्य है, --பயாங்காயமபடியான் -- अपणम्मि चावि पदारिसंमि आगाढकारणे जादे ।। अरिहो भत्तपइण्णाए होदि विरदो अविरदो वा ॥ ७४ ॥ तुर्वारं कारणं यस्य जायतेऽन्यदपीदृशम् ॥ भक्तत्यागमृतयोग्यः संयतोऽसंयापि सः ।। ७६ ॥ विजयोदया-अण्णमि चाथि अन्यस्मिन्नपि उक्तावस्मात् । भागाढकारणे आगाढे कारणे जावे जाते । एदारिसम्मि उक्तकारणसहशे । भत्तपदिण्णाए अरिहो छोदि विरदो अविरदो चा इति पवघटना । प्रत्याख्यामस्याहाँ भवति घिरतः अधिरसो वा ॥ मूलारा-घिरदो यतिः । अविरदो श्राचकः । हिंदी अर्थ ---उपर कहे हुए कारणोंसे अन्य भी तत्सदृश कारण यदि तीयतया उपस्थित हुए हो ऐसे समयमें मुनि अथवा गृहस्थ प्रत्याख्यानके योग्य समझे जाते हैं. अनहसूचनायोत्तरगाथा--- उस्सरइ जस्स चिरमवि सुहेण सामण्णमाणदिचारं वा ।। णिज्जाक्या य सुलहा दुभिक्खभयं च जदि त्थि ।। ७५ ।। प्रवर्तते मुग्वं यस्य श्रामण्यमपदृषणम् ।। दुर्भिक्षानभयं योग्या दुरापा न च सूरयः ।। ७७ ।। विजयोदया--उस्सरदि तितरां प्रवर्तते । जस्स यस्य । चिरमवि चिरकालमपि । कि सामण्णं चारित्रं । मुहण अक्लेशेन । अणविचार वा । निरतिचारं । चारिचविनाशभयादयं अतीतषु कारणेषु सत्सु प्रत्याख्यामायोयोगं करोति । २.४ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधना आश्वासः २०५ तत्प्रवर्तते निरतिचारमक्लेशेन नैय भक्तप्रत्याख्यानमइति । इदानीमहं यदि न त्यागं कुया निर्यापकाः पुनर्ग लप्स्यन्ते सूरयस्तदभाचे नाइं पंडितमरणमाराधयितुं शक्नोमि इति यदि भयमस्ति भक्तप्रत्याश्यामाई एव । अईप्रसंगादायातमनई तन्मुखेन वा पुनरर्हमेव लक्षयितुं गाथायमाह मूलारा-उस्सरदि नितरा प्रवर्तते । णिज्जायगा पंक्तिमरणाराधनासहकारिणः सूरयः । सुलहा तत्काले युसर कालेऽपि सुभापाः : दुभिक्खभयं अग्रे धान्यायादिओ विना चारित्रदानिमें भविष्यतीति भीतिः । प्रत्याख्यानमरणके लिये अयोग्य कोन है इसका खुलासा -- अर्थ-जिस मुनीश्वरका चारित्रपालन निरतिचार होता है और आयासके विना होता है वह भक्त प्रत्याख्यानके लिए अयोग्य है, अथवा सल्लेरखनाके साधक निर्यापक आचार्य मुलभ हो तथा दुर्भिक्षका भय यदि न हो तो ऐसे समयमें मुनि समाधिमरण धारण न करे, अभिप्राय यह है कि, उपर्युक्त गाथाओंमें कहे हुए कारण आपहनेपर मेरे चारित्रका नाश होगा ऐमा समझकर मुनि भक्तप्रत्याख्यान करते हैं और यदि वे कारण नहीं हो तो मुनि भक्तप्रत्याख्यानमें प्रयत्न नहीं करते हैं. इस समय यदि मैं मक्तप्रत्याख्यान न करूंगा और आगे यदि नियापक आचार्य मेरेको न मिलेंगे तो उनके अभावसे मैं पंडितमरण न साध सकुंगा ऐसा यदि भय हो तो वह मुनि भक्तप्रत्यारल्यानके योग्यही है ऐसा समझना चाहिए, यदि निर्यापकाचार्य सुलभ हो और भविष्यकालमें दुर्भिक्षकी भीति न हो तो वह मुनि भक्तप्रत्याख्यानके लिये अयोग्य समझना चाहिये. यदि च सुलभा निर्यापका अनागतदुर्भिक्षभयं च यदि न स्यान्न भययईः इति कथयति । तस्स ण कप्पदि भत्तपणं अणुबढ़िदे भये पुरदो ॥ सो मरणं पच्छितो होदि हु सामण्णणिविष्णो ॥ ७६ ॥ नासावर्हति संन्यासमदृष्टे पुरतो भये ॥ भरणं याचमानोऽसौ निर्विषणो वृत्ततः परम् ।। ७८ ।। इति अभिधेयं सूत्रम् ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासः गलागधना विजयोदया-तस्स तस्य । ण कप्पदि भत्तपापणं न योग्य प्रत्याख्यानं मक्तस्य । भये पुरदो अगुवष्टिदे भये पुरस्तादनुपस्थिते । सो सः । निरतिचारधामण्यः सुलभनिर्यापकः अनुपस्थितदुर्भिक्षभयःमरण मृति । पेच्छतो प्रार्थयमानः । खुशब्द पयकारार्थः । पबमसी संभारनीय! मामण्णगिविण एवं होदित्ति । श्रामण्यात्रिविण पन संभवतीप्ति । ननु च अरिहेति आई. एव सूचितो नानई, तन्किमर्थमसत्रितयाख्या कियते मृत्रकारेण ? अईमगादायानमिति केचिन् । अनहमपि लक्षणतया अनन्य सूचित इति वा न दोषः । स्वपरभाराभावो नयाधीनामलाभन्वात्सर्ववस्तूनां इति मन्यते ॥ अरिहरेसि गबम् ।। मुलारा-ण कप्पदि योग्यो न भवति । अणुवठ्ठिदे अद्योकिते ।। खु इत्यादि श्रामण्यनिर्विपण एव | अहः । सूत्रतः ।। १॥ अकतः ॥ ६॥ यही अभिप्राय आगेकी गाथामें आचार्य कहते है हिंदी अर्थ --जिसके चारित्रमें निरतिचारता है, निर्यापकाचार्य जिसको सुलभतासे मिलते हैं, दुर्भिक्षकी भीति जिसको उपस्थित नहीं हुई है ऐसा भी मुनि यदि मरणकी इच्छा करेगा तो वह मुनि चारित्रसे विरक्त हुआ है ऐसा समझना चाहिये. शंका--' अरिहेति ' इस शुत्रसे अईकाही वर्णन करना चाहिये सूत्रकारने क्यों सूत्रके विरुद्ध अनईका भी निरूपण किया हैं ? इसका समाधान-अईके प्रसंगसे अनईका भी वर्णन सूत्रकारने किया है ऐसा कोई समाधान | करते हैं. .. .. . स्वस्वरूपकी अपेक्षास जो बस्तु है वही परस्वरूपकी अपेक्षासे अवस्तु होती है, ऐसी सर्व वस्तुओंकी व्यवस्था है. अतः अई जैसे अपने लक्षणसे अई है उसी तरह जनई भी अहके उलटा होनेसे अनर्ह माना जाता है अनह सर्वथा अभावरूप नहीं है. जितने पदार्थ है ये सभी नयसे सिद्ध होते है. अतः अनईका भी लक्षण आचार्यने लिखा है वह अयोग्य नहीं है, भक्तप्रत्याख्यानके लिये जो अर्ह-योग्य है उस मुनिको भक्तप्रत्याख्यानके लिये उचित सामग्री रूप लिंगका वर्णन आचार्य आगेकी गाथाओंसे करते हैं. 21 २०६ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधना आथासः भक्तपत्याल्यानाईस्य तरप्रत्याख्यानपरिफरभूतलिंगनिरूपणं उत्तराभिर्गाथामिः फियते-- उस्सग्गियलिंगकदस्स लिंगमुस्सग्गिय तयं चेव ॥ अववादियलिंगस्स वि पसत्थमुवसग्गियं लिंगं ॥ ७७ ।। तवीत्सर्गिकलिंगानां लिंगमौत्सर्गिकं परं ॥ अनौत्सर्गिकलिंगानामपीदं वय॑ते जिनः ॥ ७९ ॥ विजयोदया-उस्सम्गिवालिंगफदस्स उत्कर्षेण सर्जन न्यागः सकलपारप्रहस्य उत्सर्गः । उत्सर्गे त्यांग सकल अंधपरित्यागे भवं लिंग भोस्लार्गक । किं करोति झियासामान्यवचमोऽत्र एज्यों ग्राहः । तेनापमर्थः पौत्सर्मिकलिंग. स्थितस्य भक्तमत्थाण्यानाभिलापवतः । तं चेय उस्सगिगग लिंग तदेव प्राह गृहीतं लिंग औरसार्सेकम् । अचवादियालिंगरस वि यतीनामपचादकारणत्वात् परिग्रहोऽपवायः, अपवादो यस्य विद्यते रत्यावादिकं परिप्रहसहितं लिंग अस्येन्यपचालित लिंग भवति । चाफ्यशेष कृत्वा एवं पदसंबंधः कार्यः । जइ पसग जर चांद प्रशस्त शभिनं लिंग मेहनं भवति । चर्मरहितत्व, अतिदीर्घत्वं, स्थूलत्वं, असकदुत्थानशीलतेत्येवमादिदोषरहितं यदि भवत् । पुंस्त्वलिंगता रह ग्रहीदेति वीजयोरपि लिंगशब्देन ग्रहणं । अतिलबमानतादिदोषरहितता । प्रशस्ततापि तयोगृहीता ॥ अथ गाथाद्वाविंशत्या भक्तप्रत्याख्यानाईस्य तत्परिकर भून लिंग व्याधष्टे । मलागा. उम्यग्गियाँ टाकवस्ग उत्कर्षण गर्जन मत्सर्ग: रिग्रहत्यागः । नत्र भत्र मौत्सर्गिक तब ततिर्ग + न कृतः स्थित: तस्य बरोभक्तं त्यतुमिच्छोः । तथं घेव तदेव प्रारगृहीतभेय भवेत् । अववादियलिंगरस । यतीनां अपवादहनुत्वादपवादः परिपहः सोऽस्यास्तीत्यपधादिकं लिंग यस्य सोऽपवादिकालगः सथचिह्न आर्यादिस्तस्यापि भतं त्यक्तीमच्छोरौगिकमेव लिंग वर्णितम । यदि निश्चमत्वातिदीयत्वस्थूलत्वासकृदुत्यानशीलत्वादिदोषरहित, वृषणा चातिलबमानतादिदोपवर्जितौ स्याताम् || हिंदी अर्थ-उत्सर्ग-संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग करना यह उत्सर्ग है, अर्थात संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग जब होता है उस समय जो चिन्द मुनि धारण करते हैं उसको औत्सर्गिक लिंग कहते हैं. अभिप्राय यह है कि, जिस मुनीने संपूर्ण परिग्रह छोड़कर पूर्ण नम्रता धारण की है उसके लिंगको नग्नताको औत्सर्गिक लिंग कहते हैं, जब वह भक्तमत्याख्यान धारण करता है तब भी उसका नपठा ही लिंग रहेगा, मतीको परिग्रह अपवादका कारण होता है अतः परिग्रहसहित लिंगको अपवादिकलिंग कहते हैं. २०७ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना २०८ अर्थात् अपवाद लिंगधारक गृहस्थ जब भक्तप्रत्याख्यानके लिये उक्त होता है तब उसके पुरुषलिंगमें यदि दोष न हो तो औत्सर्गिक लिंग नग्रता धारण कर सकता है. गृहस्थ के पुरुषलिंगमें चर्म न होना, अतिशय दीर्घता, वारंवार चेतना होकर ऊपर ऊठना ऐसे दोष यदि हो तो वह दीक्षा लेनेके लायक नहीं हैं. उसी तरह उसके अंड भी यदि अतिशय लंबे हो, बड़े हो तो भी गृहस्थ नम्रताके लिये अयोग्य है. परंतु एवं दोषविशिष्ट भी गृहस्थ भक्त प्रत्याख्यानके समय एकान्तादिक में सर्व परिग्रहका त्याग करके नम्र रह सकता है. जिसको उपर्युक्त दोष है वह औत्सर्गिक लिंगका धारक नहीं होता है इस नियमका अपवाद कहते हैं भौत्सर्गिकं लिंग न भवत्येवेत्यस्यापवादमाह - जस्स वि अव्यभिचारी दोसो तिठाणिगों बिहारस्मि ॥ सो विहु संथारगदो गेहेज्जोस्मुग्गियं लिंगं ॥ ७८ ॥ यस्य त्रिस्थानगो दोषो दुर्निवारो विरागिणः ॥ लिंगमत्सर्गिकं तस्मै संस्तरस्थाय दीयते ॥ ८० ॥ विजयोदया - जस्स वि यस्यापि । अव्याभिचारी अतिराकार्यो। दोस्रो दोषः । तिद्वाणिगो स्थानत्रयभवः मेहने वृषणयोश्च भवः भौषधादिनानपसार्यः । सोऽपि तु शब्द पवकारार्थः स च गेण्हेज स्यनेन संबंधनीयः । गृण्डीयादेव किं ? उग्गिमं लिंग औत्सर्गिक अलतालक्षणं । के बिहार विद्वारे वसती, संधारगदे संस्तरारूढः संस्तरारोहणकाले । एवं संस्तरामस्यैव औत्सर्गिकं नान्यत्रेत्याख्यातं भवति । अस्तालिंगम्यत्सर्गिकं लिंग न भवत्येवेत्यस्यापवादमाह मूलारा-अब्बगिचारी औषधादिना निराकर्तुमशक्यः । विट्टाणीओ त्रिषु स्थानेषु मेदवृपाणयोश्च भवः म प कुटो लिंग दुधगत्थं स्तत्वं च । बिहार बसती । खु एयार्थे । संस्तरगत एवं गृहीयादेवेत्यर्थः । उत्सगिये अलता क्षणं ॥ हिंदी अर्थ - जिसके उपर्युक्त तीन दोष औपधादिकोंसे नष्ट होने लायक नहीं है वह ययतिकामें जब संस्रारूढ होता है तब पूर्ण न रह सकता है. संस्तरारोहण के समयमेही वह नम रह सकता है अन्य समय में उसको गना है. आश्वास: २ 206 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधास: बलाराधना २०९ अपवादलिंगस्थान प्रशस्तलिंगानां सर्वषामेव किमीत्सर्गलिंगतेत्यस्यामारेकायां आह आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महडिओ हिरिमं ॥ मिच्छमणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंग ॥ ७९ ॥ समृद्धस्य सलजस्य योग्य स्थानमबिंदतः।। मिथ्याप्रचुरझातेरनौत्सर्गिकमिष्यते ॥ ८१ ।। विजयोदया-आवसधे षा निवासस्थाने । अप्पाउंग्गे अप्रायोग्ये अविषिक्ते । मएरादिकलिंग यदिति शेषः । जो वा महाहिगो महर्द्धिकः। हिरिमं हीमान् लजावान् । तस्यापि छोज अपवादिकं लिगं । मिच्छे वा मिथ्यारौ । सजणे स्वजनी धुवों । होज्ज भवेत् । अपवादिकलिग सचेललिगं ॥ इदानीमपादिकलिंगस्थान प्रशस्तलिंगानामपि येषामौत्सर्गिकं लिंग न स्यात्तानाह मूलार:- आपसधे निवासस्थाले । पासो जनसंकुल यायोग्ये । महविगो महर्डिकः । हिरिमं हीमान् लज्जाबाम् । मिच्छे मिथ्यादृष्टौ ॥ जिनके पुरुषलिंगमें दोष नहीं है ऐसे अपवादालिंगस्थित सभी लोक औत्सर्गिकलिंगधारी हो सकते हैं क्या ? इस प्रश्नका उत्तर हिंदी अर्थ --जो श्रीमान्, लज्जावान् है तथा जिसके बंधुगण मिथ्यात्वयुक्त है ऐसे व्यक्ति एकान्त रहित वसतिकामें सबसही रहना चाहिये, पूर्वनिर्मियोत्सगालिंगस्वरूपनिरूपणार्थोत्तरगाथा-- अचेलक लोचो बोसट्टसरीरदा य पडिलिणं ॥ एसो हु लिंगकप्पो चदुविहो होदि उस्सग्गे ।। ८० ॥ औत्सर्गिकमचलत्वं लोचो व्युत्सृष्टदेहसा॥ प्रतिलेखनमित्येव लिंगमुक्तं चतुर्विधम् ॥ ८२ ।। विजयोत्या-अबेलकमिति । अञ्चलकं अचेलता । लोचो केशोत्पाटनं इस्तेन । योसट्टसरीरदा य व्युत्स्टशरी. रता च । पडिलहणं प्रतिलेखनं । एसो दु एषः । लिंगकप्पो लिंगविकपः । चडविहो चतुर्विधः भवति । उस्सम्गे औत्सर्गिकसंहिते लिंगे। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः २१. मौसर्गिकलिंगस्वरूप निरूपयति-- मलारा-आचेलक पापभाषः । भ्यमित्यर्थः । लाँचो हस्तेन फेशोत्पादनः ।। पास पुत्र व असंस्कार इत्यर्थः । लिंगकप्पो लिंगविधिः ।। पूर्वमें नाममात्रसे कहे हुए उत्सर्गलिंगका स्वरूप कहते हैं हिंदी अर्थ-संपूर्ण वस्त्रोंका त्याग अर्थात् नमता, लोच- हायसे केश उवादना, शरीरपरसे ममत्व दुर करना अर्थात् कायोत्सर्ग करना, तथा परिलिहन-प्रतिलेखन माणिदयाका चिह्न-मयूरपिच्छिका हाथमें धारण करना इस तरह चार प्रकारको औत्सर्गिक लिंग है. अतीताभिर्गाधाभिः पुरुषाणां भक्तमत्याख्यानाभिलाषिणां लिंगविकल्पोऽभिष्टनिधयः । अधुना स्त्रीणां तदर्थिनीनां लिंगमुत्तरया गाथया निरूप्यते इत्थीवि य जं लिंग दिलं उस्सग्गियं व इदरं बा ॥ तं तह होदि हु लिंग परित्तमुधिं करतीए ।। ८१ ।। बिजयोदया-त्थीपि य नियोऽपि । लिंग यालिंग । दिलु दृएं आगमेऽभिहितं । उस्सग्गिय व मोत्सागैकं तपस्विनीनां । वरं वा धाधिकाणां । तं तदेव । तत्य भक्तप्रत्याख्याने। होदि भवति । लिंग तपस्विनीना प्राक्तनम् । इतरासां पुंसामिय योज्यम् । यदि महर्षिका लजावती मिथ्याररिस्वजना च तस्याः प्राक्तनं लिग विधिक्त आवसथे, उत्सलिंग वा सकलपरिमहस्यागरूपं । उत्सर्गलिंग कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तं तत् उत्सगे' लिंग । तत्थ स्त्रीण होदि भयति । परिसं असं । उवधि परिग्रहं । करतीए कुर्वत्याः। अधुना भक्तप्रत्याख्यानार्थिनीनां श्री लिंग निर्दिशति ।। मूलारा-इच्छीए विखिया अपि । उसग्गिय दिढ़ आगमेऽभिहितं ॥ परित्तमयहिं करतीए परिग्रहमपं कुईत्या इति योज्यं । औत्सर्गिक तपस्विनीनां साटकमात्रपरिग्रहेऽपि तत्र ममत्वपरित्यागादुपधारतो नैमध्यव्यवहरणा नुसरणात् । इयर अपयादिकं विकाणां तयाविषममत्वपरित्यागामायादुपचारतोऽपि नैर्मन्ध्यन्यषहासनषतारात् ।। तच्छ तत्र भक्तप्रत्याख्याने सन्न्यासकाले इत्यर्थः । लिंग तपस्विनीनामयोग्यस्थाने प्राक्तनं । इतरासा पुंसामिषेति योज्यम् । इदमन तात्पर्ये--तपस्विनी मृत्युकाले योग्ये स्थाने बसमात्रमपि त्यजति । अन्या तु यदि योग्यं स्थान लभते । यदि च मोर भवति । परिसं अहम निर्दिशति ॥ ॥ परित्तमुवहिं करती. त्यष्यबहरणा 491celeme Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाधासः महार्दिका सलज्जा मिथ्यात्वप्रचुरशातिश्च न तदा पुंवदनमपि मंचति ।। नो त्याग्गिनेव म्रियते । तथा चोक- . यदौत्सर्गिफमन्यद्वा लिंगं दृष्ट खियाः अवे ।। पुंवत्तदिप्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोपधेः ।। यहांतक भक्तप्रत्याख्यानकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंका दो प्रकारका लिंगभेद-उत्सर्ग लिंग और अपवादलिंग आचार्यने कहा है. अब भक्तप्रत्याख्यानेच्छु त्रियोंका लिंग आगेकी गाथासे कहते हैं हिंदी अर्थ-परमागममें खियोंका अर्थात् आर्यिकाओंका और श्राविकाओंका जो उत्सर्गलिंग और अपवादलिंग कहा है वही लिंग भक्तप्रत्याख्यानकै समय समझना चाहिये, अर्थात् आर्यिकाओंका भक्तप्रत्याख्यानके समय उत्सर्गलिंग विविक्तस्थानमें होना चाहिये अर्थात् वह भी मुनिवत् उस समय नग्नरूपता धारण करे ऐसी आगमात्रा है, परन्तु श्राविकाका उत्सर्ग लिंग भी है और अपवादलिंग भी है, यदि वह श्राविका संपचिवाली अथवा लज्जावती होगी अथवा उसके गांधवगण मिथ्यात्वी हो तो वह अपवादलिंग धारण करे अर्थात् पूर्ववेपमेंही रहकर भक्तप्रत्याख्यानसे मरण करे तथा जिस श्राविकाने अपना परिग्रह कम किया है वह एकान्त वसतिकास्थानमें उत्सलिंग-नग्नता धारण कर सकती है, नन्वहस्य रत्नत्रयभावनाप्रकर्षेण मृतिरुपयुज्यते किममुना लिंगविकल्पोपादानेनन्यस्योत्तरमाह जत्तासाधणचिह्नकरणं खु जगपच्चयादठिदिकरणं ।। गिहभावविवेगो विय लिंगग्गहणे गुणा होति ।। ८२ ॥ यात्रासाधनगाईस्थ्यविवेकात्मस्थितिक्रिया ।। परमो लोकविश्वासो गुणा लिंगमुपेयुषः ।। ८३ ॥ विजयोदया---जसासाधणचिण्डकरणं यात्रा शरीरस्थितिहेतुभूता भुजिकिया । तस्याः साधनं यलिगजात चिन्द्रजानं नम्ग करणं । न दिगृहस्थ वेषेण स्थितो गुणीति सर्वजनताधिगम्यो भवति । अज्ञातगुणविशेषाश्च दानं न प्रयपछति । ततो न स्पाच्छरीरस्थितिः । असत्या तस्यां रत्नत्रयभावनाप्रकर्षः कमोगोषचीयमानो न स्यात् 1 बिना तं न मुरित्यमिलापित कार्य सिविरच न स्यात् । गुणवत्तायाः सूचनं लिंगं भवति । ततो दानाविपरंपरया कार्यसिद्धिर्भवतीति भावः । अथवा यात्राशब्दो गतिवचनः यथा देवदत्तस्य यात्राकालोऽयम् । गतिसामान्यवचनादप्ययं शिवगतावेव वर्तते, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना २१२ दारकं पश्यसीति यथा । यात्रायाः शिवगतेः साधनं रत्नत्रये तस्य चिह्नकरणं भवजकरणं । जगपच्यावठिदिकरण जपच्छन्दोऽम्यन खेतमाचेननवव्यसंहतिषचनो 'जगन्नकावस्थं युगपदखिलानंत विषयम्' इत्येवमावी रह प्राणिविशेषवृत्तिः। यथा-'आईतस्त्रिजगबंधान्' इति । प्रत्ययशब्दोऽगेकार्थः । कचियाने वर्तते यथा 'घटस्य प्रत्ययो' घटहानं इति यावत्। तथा कारणवचनोऽपि मिथ्यात्यप्रत्ययोऽमंतः संसार' इति गदिते मिध्या हो तुम इनिभातीयते। अडावदनोऽपि 'अर्य अत्रास्य प्रत्ययः' अखेति गम्पते । इहापिथशावृत्तिः । अगतः श्रद्धेति । ननु धज्ञा माणिधर्मः अचेलतादिकं शरीरधर्मो लिंग तकिमुच्यते 'लिंगं जगत्मत्यय'ति । सकलसंगपरिहारो मागों मुक्तेः इत्यत्र भन्यानां थर्ण जनयति । लिंगमिति जगत्प्रस्यय इत्यभिहित । न चेत्सकलपरिणाहत्यागो मुक्तिलिगं फिमिति नियोगतोऽनुष्धीयते इति । आदठिदिकरणं आत्मनः स्वस्थ अस्थिरस्य स्थिरतापावनं । क ? मुक्तिवर्मनि वज़न । किं मम परित्यक्तयसनस्य रागण, रोपेण, मानेन, मायया, लोमेन बा । बसनासराः सर्या लोकेऽलंक्रियाः तथ निरस्त । को मम रावस्था. वसर इति | तथा परिग्रहो निबंधनं कोपस्य । तथा हि-पिया मुतो युध्यत धनार्थितया ममेदं भवति तवेदमिति । तन्कि मनेन स्यजनवैरिणा रिक्थेन, लोभ, आयास, पाप, दुर्गतिं च वईयता इति सकलः परित्यक्तो वसगपुरःसरः परिग्रहो रोपविजितय । हुसंति च मां परे साधयो रोषमुपयातं । केयमवसनता मुमुक्षोः कायमस्य कोपष्टुताशनः ज्ञानजलसेकपरि वृक्षतपोवनपिनाशनबद्धविभ्रमः इति । तथा च माथा धनाथिभिः प्रयुज्यते सा च तिर्थग्गति प्रापयतीति भीन्या मायोम्मू लनार्ययेदमनुष्ठित । गिहिमायषिवेगोविय गृहित्यात्पृथग्भावो दर्शितो भवति । मन्यस्य रत्नत्रयभावनाप्रकर्षेण मृतिरुपयुज्यते किममुना लिंगीवकल्पोपादानेनेत्यस्योत्तरमाह मूलारा-जत्तत्यादि-जत्ता सापचिण्डकरणं । यात्रा-पुत्स्यगरत्नत्रयप्रकषाय देहरिथतिहेनुराहार; शिवगतिर्वा यात्रा तस्याः साधनं गुणातिशयः । तस्य चिहकरणं ज्ञापक, संयमध्वजीभूतं वा लिंगमाचेलक्यादि स्यात् । तथा जगापपयादटिदिकरण जगतो भन्यलोकस्य प्रत्ययो नैमध्यादेव मुक्तिरिति प्रतीतिः श्रद्धेवि यावत् । तथा आत्मनो यत्यात्मनः कषायोदयकशान्मुक्तिमागावलतः स्थितिः सूत्रस्थिरता जगत्प्रयश्चात्मस्थितिश्च तयोः करणं संपादन वल्लिंग भवति । तथा गिहिभावविवेगो गाईरध्यपूथग्भावस्तदुपदर्शकत्वालिंगमपि । तथा घोक्तं । आचळक्यादिलिंगेन हि गृहस्थत्यं त्यक्तं, अनेन मग चेति झाप्यते । लिंगेत्यादि मुमुक्षुणा गृप्रमाणे आचेलक्यालिंगे मोकाश्चत्वारो गुणा: स्पपरोपकारिणो धर्मा भवन्ति इत्यर्थः। जो भक्तप्रतिझायोग्य है उसको रत्नत्रयभावनाका प्रकर्ष करके मरण करना योग्य है. उत्सगलिंग अथवा अपवादलिंग धारण करके भक्तमत्याख्यान मरण करना चाहिये ऐसा क्यों । इस प्रश्नका उसर RAS Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ मूलाराधना - हिंदी अर्थ ---उत्सगलिग नयतापामा मतपत-सीर स्थिर रहने के लिये कारणीभूत जो आहार उसकी प्राप्ति होनेके लिये कारणरूप चिन्ह है. गृहस्थवषसे ही यदि भिक्ष भी रहने लगे तो ये गुणी है ऐसा नहीं समझे जायेंगे तथा उनका आदर न होगा. गृहस्थवषसे उनके विशिष्ट गुण ज्ञात न होनेसे गृहस्थ उनको दान नहीं देंगे. दान न मिलने उनके शरीरकी स्थिरता न होगी, शरीरस्थितीके बिना रत्नत्रयभावनाका प्रकर्ष कैसे होगा ? रत्नत्रयके प्रकर्षसे ही मुक्ति प्राप्ति होती है. उसके चिना वह न मिलेगी. अतः अभिलषितकार्य अर्थात् मुक्तिप्राप्ति गृहस्थवेषसे होती नहीं. अतः यह नाता गुणीपनाका सूचक चिन्ह है. इस नातागुणसे दानादिकार्यपरम्पराकी सिद्धि होती है. __ अथवा यात्रा शब्द सामान्य गतिवाचक है जैसे 'देवदत्तस्य यात्राकालोऽयम्' अर्थात् यह देवदत्तका गमनकाल है. यहां यद्यपि बात्राशन्द सामान्य गतिवाचक है तो भी प्रस्तुत प्रकरणमें वह शिवगति-मोक्षगमन इस अर्थमें रूह समझना चाहिये. 'दारकं पश्यसि' इस वाक्यमें दारकशब्दका सामान्य अर्थ लडका ऐसा होनेपर भी जो लडकेको देख रहा था उसका ही पह लड़का है ऐसा अभिप्राय सिद्ध होता है उसी तरह 'जत्तासाधणचिन्हकरणं ' इस शब्दसमुच्चयका अर्थ यात्राका अर्थात् मोक्षगतिका साधन जो रत्नत्रय उसका नयता यह लिंग ध्वजके समान है. . ___ इस लिंगमें जगत्प्रत्ययता यह गुण है. 'जगत्प्रत्ययः ' अर्थात् सर्व जगाकी इसके ऊपर श्रद्धा होती है. जगत् शब्दका चेतनअचेतनरूप संपूर्ण द्रव्यसमूहको जगद् कहते हैं ऐसा अन्य प्रकरण में अर्थ होगा. 'जगन्नकावस्थं युगपदाखिलानंतविषयम' अर्थात् चेतनाचेतनरूपी इस जगतकी एक अवस्था नहीं है, यह संपूर्ण और अनंतपर्यायाको धारण करने वाला है, परंतु प्रस्तुतप्रकरणमें जगत् शब्दका अर्थ प्राणिनिशा ही लेना चाहिये. जैसे 'अहतखिजगद्यान' अथीत इंद्र, देव, मनुष्य व सिंहादितिर्यच ऐसे विशिष्टप्राणियोग वंदनीय जिनेश्वरको हम नमस्कार करते हैं. यहां जगत् शब्दका विशिरपाणी ऐसा अर्थ होता है. प्रत्ययशब्दक भी अनेक अर्थ है. जसे 'घटस्य प्रत्ययः घटका ज्ञान यहां प्रत्यय शब्दका ज्ञान ऐसा अर्थ होता है, तथा प्रत्यय शब्द कारणवाचक भी है जैस' मिध्यात्वप्रत्ययः अनंतः संसारः ' अर्थात् इस अनंतसंसारको मिथ्यात्व कारण है. प्रत्यय शब्दका श्रद्धा ऐसा भी अर्थ होता है जैसे 'अय अत्रास्य प्रत्ययः' इस मनुष्यकी इसके ऊपर श्रद्धा है' यहां प्रस्तुत प्रकरणर्म प्रत्यय शब्दका श्रद्धा यह अभीष्ट अर्थ है. CON Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः २१५ SARKI Rew माधव नाला देशकर उन सब जगत्का श्रद्धान होता है ऐसा जगत्प्रत्यय इस शब्दका अभिप्राय समझ लेना चाहिये. शंका-श्रद्धा प्राणिओंका धर्म-स्वभाव है और अचेलतादिक शरीरका धर्म है अतः लिंगका जगत्प्रत्यय यह विशपण कैसा उपयुक्त है ? उत्तर-संपूर्ण परिप्रहका त्याग ही मुक्तिका माग है ऐसी नग्नता देखकर श्रद्धा उत्पन्न होती है अतः लिंगका यह विशेषण सार्थक है संपूर्ण परिग्रहत्यागही मुक्तिका लिंग यदि नहीं होता तो नियोगसे क्यों उसकी आराधना की जाती है। नग्नतामें ' आदठिदिकरणं' इस नामका एक गुण है. स्वतःमें अस्थिरपनाको निकालकर स्थिरपना उत्पन्न करना यह आदिठिदिकरण इस शब्दका अर्थ है. मुक्तिमार्गमें प्रयाण करनेमें स्थिर होना ऐसा इसका अभिप्राय है, इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-मुनि विचार करते हैं- मैने वस्त्रका त्याग किया है अतः अब राग, द्वेप, अभिमान, माया और लोभ इनसे मेरा क्या प्रयोजन है ? वस्त्रकी इच्छा ही अलंकारदिकी इच्छाको उत्पन्न करती है, अर्थात वस्त्र यदि पास होवे तो अलंकारादिक भी मेरेको मिलेंगे तो अच्छा ही होगा ऐसी इच्छा होती है. मैने रख ही फेक दिया है अब रागभावनासे मेरा क्या प्रयोजन है ऐसा विचार करते हैं, तथा परिग्रह कोपोत्पत्तिका कारण है. धनकी आवश्यकता पड़ने पर पुत्र भी अपने पितासे लड़ता है. यह धन मेरा है यह धन तेरा है इस तीसे झगडा करता है. अतः स्वजनोंमें पैर उत्पन्न करने वाले धनको लेकर मैं क्या करूं? यह परिग्रह लोभ, आयास, पाप व दुगतिको उत्पन्न करते हैं. इसी वास्ते मैरे यसपमुख समस्त परिग्रहको कोपको जीतनेके लिये छोट दिया है. में यदि रोपवा हो तो मेरेको इतर साधु हसेंग. ये कहेंगे देखो इनकी नग्नता और देखो इनका कोपग्नि! यह कोपाग्नि ज्ञानजलसे सींचा और वृद्धिंगत हुषा ऐने तपरूपी बनका नाश करनेके लिये तयार हुआ हैं । धनवान लोक हमेशा कपट व्यवहार करते हैं, वह उनको तियेग्गतीमें पटकता है. अतः ऐसे घर कपटसे दरकर इसका नाश करनेके लिये ही मैने यह मुनिपना धारण किया है. ऐसा विचार मुनि मनमें करते हैं. अतः नग्नता आत्मस्थितिकारण गुणको उत्पन्न करती है ऐसा कहना योग्य है. इस नग्नता से मुनि गृहस्थोंसे भिन्न है ऐसा भी व्यक्त होता है, . . . . -------- U Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना SARAMERARMA আঘB: गंथच्चाओ लाघवमप्पडिलिहणं च गदभयत्तं च ॥ संसज्जणपारहारो परिकम्मत्रिवज्जणा चेव ।। ८३ ।। एनिम गया किनातिनः ॥ लोभमोहमदक्रोधाः समस्ताः सन्ति वर्जिताः ॥ ८४ ।। विजयादगा-गंथन्चामो परिग्रहत्यागः । लायन हदयसमागेपितलि व भवति परिग्रहवाम् । कमिदमन्य जागदिभ्यः पालयामि इति दुधेरचित्तखेदविगमालघुता भवति । अप्पाइलिह्मण बसनसहितलिंगधारिणो दि वनखंडादिकं शोधनीयं महत् । इतरस्य पिच्छादिमात्र । परिकम्मविवज्ञणा चेव याचनसीवनशोषणप्रश्नालनादिरनेको हि व्यापार स्वाध्यायध्यानविनकारी अचेल लस्य तन तथेति परिकर्मविपर्जन। ........ . गदभयत्र भयरहितता । भयव्याकूलितचित्तस्य न हि रत्नत्रयघटनायामुधोगो भवति । सषसमोथतिर्वसेषु यू कारिक्षाविसम्मूठमजजीवपरिहार विधातुं नाईति । भवेलस्तु तं परिगरतीत्यह-संसजणं परिहारो इति। परिसामधिषासणा बेव । शीतोपावशमशकाविपरीपहजयो 'युज्यते नमस्य । वसनाच्छादनवतो न शीतादिवाधा येन तत्सहनपरीषड्जयः स्यात् । पूर्वोपासकर्मनिर्जराथै परिपोरव्याः परीषवाः इति वचनाभिराथिभिः परिषोदव्याः परीषहाः॥ एवं सामान्यतो लिंगगुणानभिधायेदानी लिंगविशेषस्याचेलक्यस्थ गुणान्गाथात्रयेणोपविशति । मूलारा-संगचाओ परिमइत्यागः शरीरेऽपि निर्ममत्वामित्यर्थः । लाघर्ष कथमिदं चौराविभ्यो रक्षयमिति दुर्द्धररझोपायपिताखेदविगमालधुता, कर्मलधुरवं था। अप्पडिलिइर्ण चर्षिपच्छादिना वादेर्निरीक्षणशोधनाघभावः । गर्भयत्तं चौरादिभ्यबासस्पाभावः । संसजण यूकादिसंमूर्धनं । परियम प्रक्षालनादिसंस्कारः। अर्थ-ग्रंथत्याग, लाधव, अप्रतिलेखन, गतमयत्व, संसर्परिहार, परिकर्मविवर्जन ऐसे गुण मुनिलिंगमें समाविष्ट हुये हैं. ग्रंथत्याग-मुनिलिंगधारण करनेसे परिग्रहत्याग होना है. लापव-परिग्रहवान मनुष्यको परिग्रह छातीपर रक्खे हुए पर्वतके समान बहुत कष्टप्रद होता है. परंतु जो परिग्रहरहित है उसको अपने ऊपरसे बडा भारी परिवटका बोझा उतर गवासा मालूम होता है, अतः पुनिलिंगमें लापथगण है यह सिद्ध होता है '* Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना २१६ चौरादिसे कैसा रक्षण करूं ऐसी चिन्ता निष्परिग्रहीको सेती नहीं, अतः वत्रिक स्वदका नाश होनेसे लघुता गुण प्राप्स जाता है. अप्रतिलेखन - जो सबखलिंग धारण करते हैं उनको वत्रखंडादिकको बहुत शोधना पडता है, परंतु मयूरपिच्छादिमात्र परिग्रह जिनके पास हैं उनको बहुत सोधनेकी आवश्यकता नहीं रहती है. अतः अप्रतिलेखन गुण उनको प्राप्त होता है. परिकर्मवर्जनात्रके विषयमें याचना करना, उसको मीना, धूपमें सुखाना, जलसे धोना, वगैरे अनेक क्रियायें करनी पड़ती है. तब ध्यान, स्वाध्यायादि कार्यमें विघ्न उपस्थित होता है. परंतु जो मुनि अंचल है का त्यागी है उसको याचनादिकार्य करना नहीं year है अतः उसके ध्यानस्वाध्यायादि क्रियाये निर्मित पार पडती है, गतभयत्व निर्वस्त्रमुनीश्वरको परिग्रहाभाव होनेसे भय रहता नहीं भय से जिसका चित्त व्याकुल हो उठा है उसकी रत्नत्रयमें प्रवृत्ति होती नहीं सब मुनि वस्त्र में यूकादिसम्पूर्च्छन जीवोंका परिहार करनेमें असमर्थ होता है. परंतु वरहित पुनि उन जीवोंका परिहार कर सकता है, परिपहाधिवासना - नग्न मुनि शीत, उष्ण, देशमशकादि परीपह सहन करते हैं. परंतु वत्रेष्टित यति को शीतादि बाधा होती नहीं. अतएव वे शीतादिपरीह विजयी नहीं हैं. पूर्वोपार्जित कर्मकी निर्जरा करनेके लिये परीषद सहन करने चाहिये ऐसा आगमवचन है इसलिये निर्जराथीं मुनिओने परिषह सहन करने चाहिये. बिस्सासकरं रूवं अणादरो विसयदेहसुखे || सव्वत्थ अप्पवसदा परिसह अधिवासणा चेव ॥ ८४ ॥ अङ्गाक्षार्थसुखत्यागो रूपं विश्वासकारपणम् ॥ परीषहसहिष्णुत्वमर्हदाकृतिधारणम् ॥ ८५ ॥ विजयोदया - विस्वासकरं रूपं विश्वासकारि जनानां रूपं असतात्मकं । एवं असंगा नैतेऽस्यन्ति नापि परोपकारि शस्त्रग्रहणं प्रच्छन्नमा संभाव्यते । विरूपषु वामीषु नास्मदीया स्त्रियोरागमनुबध्नंतील विश्वासः ॥ २ २१६ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः २१७ अणादरो विसपहसुक्नेमाविषयजनितेषु शरीरसुखेषु प्रेताकारस्य किं मम धामलोचनाविलोकितेन । तास कलगीतश्रवणेन । ताभिर्जुगुप्सनीयशरीरस्य कावा रतिक्रीडेति भावना चैवानादरः । अथवा शरीरसुस्ने विषयसुखे चाना दरः। विषयसुखध्यतिरेकेण न शरीरसुखें, नाम किचिदिति चेत-शारीरदुःवाभावः तारीख। रियापयसमिधानजनिता प्रीतिर्विषयसुखमिति महाननयोर्मेदः ॥ सध्यस्थ सर्वसिन्देशे। अपवसदा भात्मवशता । स्येच्या भास्ते, गच्छति, शेते वा । इहासनादिकरणे इ मम विनश्यति यस्थिति तदनुरोधछता परतंत्रता नास्ति संयनस्य । परिग्रहविनाशभीरराम्मनोऽयोग्येऽपि उभ्रमादिदोरोपहते प्राणिसंयमधिनाशकारिणि वा आसनस्थानशयनादिक संपादयति । प्रसस्थावग्वाधामावाहता यम्भन्ना यजति । नतो. पपरिहारोऽसंगस्प भयति || परिसह अधियासणा चव पूनागासकर्मनिरार्थना यतिना सोढव्याः पीपहा नियोगन शुदादयो याधाविद्याप दार्विशतिप्रकाराः । तभायं सामान्ययनमाडप पीपहशम्दः प्रकरणाचलाण्यासदनुरुपएपसिनमः । नन नाम्न्यशीतोष्ण शमशकपरपहसहनमिह कथितं भवति । सचेलस्य हि साधरणास्य ने तादशी शीतोपनामा कजनिता पीडा यथा अचेलस्पेति मन्यते ॥ ... . मूलारा--बिम्भासकर नवमसंगा एते कथमन्यस्य किमपि ग्रहीष्यन्ति । न च परोपघातपारि शलादिकमन्त्र प्रच्छन्न संभाव्यते । प्रेताकारे नाममत्कामिन्यो रागमा जन्ति इति जनानां विश्वास करणशीलं । बिसयदेहमा सस विषयेभ्यः स्त्रीकटाक्ष निरीक्षगादियो जातेपु देहस्याल्हादनेषु । कि में प्रेताकारस्य आसां कटाक्षनिरीक्षणेन, कलगीत अवऐन, तन्निदनस्य बातद्वाग्मिश्रमाया, त्या चस्मादिभावनया अन्नदरोऽनासक्तिः । यदि था सौख्येष्वाल्हादनाकार, देह. सौख्ये च दुःखनिवृत्तिरूपे चानादरः प्राप्त्यनाकांक्षा । सव्वत्थ अपवसदा सर्वनिमन्देशे स्वेच्छया आगमाविरोधेनासनायनगमनादिप्रवृत्तिः । परिसहअधिवासणा परीषहाणामाचेलफ्योचिताना . नारन्यशीतोष्णदेशमशकादीनामधिवासना अभ्यासना सहन सबिनापि नाभिभवनमित्यर्थः। . अर्थ-निर्वस्वताही चिश्वास उत्पन्न करनेवाली है इसको कोई हरण करते नहीं, निर्वस्त्र मुनीके पास शस्त्रादिक छिपे हुए नहीं रह सकते हैं. अर्थात् शस्त्रादि परोपयातक वस्तु उनके पास रहती भी नहीं हैं अतः उनके ऊपर लोगोंका विश्वास उत्पन होता है. वनरहित होनेसे विरूप दीखनेवाले मुनिओपर हमारी खिया मोहित नहीं होती है. अतः उनपर वे लोग विश्वास करते हैं, अनादर-परिग्रहका त्याग करनेसे विषयजनित सुखोंसे आदर नष्ट होता है. मैं मेतके समान है अतः २१७ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलाशचना অস্থায়ী त्रियोंकी तर्फ देखना मेरेको योग्य नहीं है. उनका मधुर गीत सुनना योग्य नहीं है, मेरा शरीर ग्लानि उत्पन्न करनेवाला है अतः उससे उनके साथ रतिक्रीडा करना क्या योग्य है। इस तरह भावनाओंसे अनादरगुण उत्पन्न होता है. अथवा इस निर्वखतासे शारीरसस्वमें व विषयसुखमें अनादर उत्पन्न होता है. विषयसुखको छोड़कर शरीरसुख भिन्न पदार्थ नहीं है इस प्रश्नका उत्तर इस तरह समझना । शरीरके | दुःखोंका अभाव होना शरीरसुख कहलाता है व इंद्रियोंके विषयोंसे जो मनमें प्रेम आल्हाद उत्पन्न होता है वह विषयसुख है। इस प्रकार इन दोनोंमें महानभेद है. मर्वत्र आत्मवशता-यह गुण भी प्राप्त होता है. मुनीके पास कोई परिग्रह न होनेसे वे स्वेच्छासे बैठते है, भाने हैं तथा सोते हैं. बैठने उठने में मेरी अनुक वस्तु नष्ट हुई, अमुक वस्तु मेरेको चाहिये इस प्रकारकी चिन्ता उनको होती नहीं. अतः परिग्रहविषयक परतंत्रतासे वे छूट गये है. मेरे परिग्रहका विनाश हो जायगा ऐसी भीति यदि मुनिको उत्पन्न हो जावेगी वो वे अपनेको अयोग्य तथा उद्गमादिदोषोंसे सहित, प्राणिसंयमका नाश करनेवाले ऐसे आसन शयनादिकोंका संपादन करेगें. परिग्रहको चौरादिक हरण करेंगे इस भीतीसे अस स्थावर जीवोंको जिसमें दुःख पोहोचेगा ऐसे मार्गसे वे जावेगे. परंतु जो परिग्रहरहित है ऐसे मुनिराज उपर्युक्त दोषसे अलिम रहते हैं. परिसह अधिआसणा-पूर्वकर्मकी निर्जरा करनेकी इच्छा जिनको है ऐसे मुनीको परीषद सहन करनेही नाहिये. शुधादिक बावीस परिपह हैं. यद्यपि परिषह शब्द सामान्यनया प्रयुक्त किया है तो भी यहां अचेलत्वका प्रकरण हानी उनके अनुरूप परिपहोंका ग्रहण हो आला है. इस लिये नग्नना, शीत, उष्ण, दंशमशक, इतने परिपहाको पहन करना चाहिये ऐसा अभिप्राय सिद्ध हुवा. जैसी निर्वम्रमुनीको शीत, उष्ण, दंशमशकोंसे पीडा होती है चमी वस्त्र ओडे हुए मनुष्यको होती नहीं है. अचेलताया गुणान्तरसुचनाय माथा जिणपडिरूवं विरियायारो रागादिदोसपरिहरणं ॥ इच्चेवमादिबहुगा अच्चलक्के गुणा होति ॥ ८५ ॥ २१८ HOTA Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गराधना आधास: स्ववशत्वमदोषत्वं धैर्यवीर्यप्रकाशनम् ॥ नानाकारा भवन्त्येवमलत्वे महागुणाः ।। ८६ ॥ विजयादया-मिणपडिरूबं जिनान मावि बद अचेल लिगं । तेहि मुमुक्षबा मुफ्त्युपायशा यद्गृहीतयन्तो दिन देदेव नविना योग्यमित्यभिप्रायः । यो हि यदर्थी विषयान नानौ तदनुषयमादत्ते यथा घटाया तंतुरित्येवमात्रीना क्यों न यतिन चलं माति मुक्तेरनुपायरयात् । यद्यात्मनोऽभिप्रायस्योरायस्तभियोगत उपादत्ते यथा चकानिक तथा पनि अनारदातां तदुपायतां या अचेलताया जिनाचरणादेव हानागाचारयोरिय। विरियायारो घीयतराय क्षयोपशमजनितसामयपरिणामो बीय, तदधिगृहनेन रत्नत्रयवृत्तिवीर्याचारः । सच पंचविधेष्याचारेवेकः स च प्रवर्तितो भवति । अचेलतामुखहताऽशक्यच्नेलपरित्यागस्य कृतत्यात् । परिग्रहत्यागो हि पंचमं यतं तनावरितं भवेत् शक्कोऽपि यदि न परिहरेत् ।। रागादिदोसपरिहरणं । लाभे रागोऽलाभे कोपः । लब्धे ममेदभावलक्षणो मोहः । अथवा मृदुत्वं वायमित्येय. मादिषु वसनाच्छादनगुणेषु रागो मृदुस्पर्शनादिषु द्वेष इत्येषां परिहारः । इञ्चेषमादि इत्येवमादयः पहुगा महान्तः महाफलतया अपेल के अचेलतायां सत्यां गुणा होति । यांचादीनतासंक्लेशाविपरिहार: आदिशब्देन गृहीताः । मूलारा-जिणपडिरूवं जिनसदृश जिना हि मुमुक्षवो मुफ्त्युपायहा यदाहीतवतो लिंग लदेव तपर्थिनां योग्यमित्यभिप्रायः । विरियाचारो स्वसामध्यांनिगृहनेन निर्मलरत्नत्रये प्रवृत्तिः । रागादि-लब्धे वने रागोऽलब्धे रोषो, लब्धेऽपि य ममेदमिति मूळ । अश्रया वखगोषु मृदुत्वदादिगुणेषु रागः प्रीतिः । कर्कशत्यजर्जरत्वादिदोषेषु द्वेषः । दुरुचेत्रमाइ इत्येवमादयः । आदिशब्देन यांचादेन्यरक्षासंक्लेशादिपरिहारग्रहणे । बहुगा महाफलत्वान्महान्तः । आचेलो वस्नत्यागे सति यतेः। अचलरबमें और भी गुण है यह आगेकी गाथासे सूचित होता है अर्थ-जिनप्रतिरूप-यह अचलत्व गुण है. मुक्तिप्राप्तिके अभिलापी तीर्थकरोंको मुक्तिका उपाय मालूम था अतः उन्होनें जो लिंगधारण किया था वही मुमुक्षु मुनि ओंको धारण करना चाहिये, जो जिस वस्तुको चाहता दै वह विचकवान् उसके पासिके लिये जो उपाय है उनकाही आलंचन लेता है. उसके उपाथ न होनेवाले वस्तूको यह ग्रहण नहीं करेगा. जैसे जिमको घटकी चाह है तो वह मृस्पिट, चक्र इत्यादि कारकोंको ही ग्रहण करेगा वह कदाचिदपि बलोत्पत्ति के कारणोंका-तंतु इत्यादि कॉका स्वीकार न करेगा. उसी तरह वस्त्र मोक्षप्राप्तिका उपाय नहीं है अतः मुमुक्षुजन उसका ग्रहण नहीं करते हैं. जो जो अपनी अभीष्ट वस्तु है लोक उसके कारणोंको ही ग्रहण २१९ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलारापना PARA करते हैं जैसे घटार्थी चक्रादिक कारणाको ग्रहण करते हैं, उसी तरह मुनिगण भी मुक्तिका उपाय जो अंचलना उम का अंगीकार करने है, इरा अचलदाको लिबान इत्तिका उपाय है एला समझकर धारण किनाश. जन जिनेश्वरीने ज्ञानाचार और दर्शनाचार धारण किये थे बसे उन्होंने अंचलता भी धारण कीथी. बीयांचार-अंचलनाग वीर्याचार गुणकी प्रानि होती है. बीयन्तिरायकर्मका श्योपशम होने जो भामा में सामध्यपरिणाम. उत्पन्न होता है उसको वीर्य करते है. इस वीर्यको न छिपाकर मनायो प्रवृत्ति करना बीयाचार है. ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप आचार व वायांचार ऐसे आचारोंके पांच भेद आगे ग्रंथकार कहेंगे ही. जिसने अचलता धारण की है उसने अशक्य वखत्यागको शक्य करके दिखाया है. यदि वस्त्रत्याग मुनिओंने नहीं किया तो परिग्रहत्याग नामका पांचवा महावत जन्होंने पाला नहीं है ऐसा समयाना चाहिये. सामर्थ्य होकर भी वस्त्रका त्याग न करनेसे परिग्रहत्याग महावत कैसे पाला जायगा, रामाददोस परिहरण-यह मी गुण अचेलतासे ही मिलता है, वखका लाभ होनेसे उसमें आसक्ति हो जाती है, उसकी प्राप्ति न होनेसे मनमें कोप घर करता है. वस्त्र मिलनेसे बह वस्त्र मेरा है ऐसी. मोहभावना उत्पन्न होती है, अथवा ओक्ने के पहरनेके वस्त्रों में मृदुपना, दृढता वगैरे गुण देखकर प्रेम उत्पन्न होता है तथा उसके कठोरस्पर्श, जल्दी फट जाना इत्यादिक दोष अनुभव में आनेसे उससे मेष उत्पन होता है. बत्रका त्याग करनेसे ये सर्व रागादि दोष नहीं रहते हैं, अर्थात् अचेलताके धारण करनेसे पूर्व गाथाओंमें कहे हुए सब महागुण मुनिराज को मिलते हैं. वस्त्रका त्याग करनेसे याचना दोष नष्ट होता है. दीनता और संक्लेशपरिणाम विलीन हो जाते हैं. पुनरप्यचेलतामाहाम्यं सूभय युभर गाथा--- इय सबसमिदकरणी कामासासयममणकिरियास ।। गिगिणं गुन्तिमुबगड़ो पन्गहिददरं परक्रमदि ।। ८६ ।। सम्यकप्रवृत्तनिःोषच्यापार समितेन्द्रियः ॥ इस्थमुत्तिष्ठते सिद्धी नारयगुप्तिमाधिधिनः ॥ ८७ ।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * A मुलाराधना २२१ c hadieselo - - यिजयोदया-नय पयं । सव्यसमिवकरणो सम्पगितानि प्रवृत्तानि समितानि, क्रियते रूपायुपयोग पभिरित्ति करणानि रंद्रियाणि, समितानि च तानि करणानि च समिकरणानि, साणि च तानि समितफरणानि च सन्चेसांमन करणानि, सर्यसमिसकरणान्यस्येति सर्वपिनकरणाः। गडपरहिता भाचान्द्रयाणां प्रयुनिः समीचीनाम्यामार: निधनं । रागादिविजयाग गृहीतासंगन्यायधभिवरगावी प्रक्षाचान्यतंत । टापासणसयागमणकिरियासु पकगादनमापादादिका स्थानमिया, उत्कटासनादिका आसनफिया, दंडायनशयनादिका शयनकिया । सूर्याभिमुखगमनादिका गमनक्रिया पतासु ! पग्गहिदहरं प्रगट्टीततरं । घरकर्माद चटते । कः? निगिण गदरता। गुप्ति गुर्ति । उचपदो उपगतः प्रतिपन्नः । कृतवसनत्यागस्थ शरीरे निःस्पृहस्य मम किं. शरीरलपणन तपसा निर्जरामेव कतु उन्सहते इति । नासि यतते रति भावः ॥ आचेलक्यातिपत्रो यतिः लमितिपरत्वेनैकापादादिस्थानादिदुर करानुष्टानेध्वतितरामुत्सहते इति पुनराचेलका. माहात्म्य प्रकासयति ॥ मूलारा--सबसभिकरणी सर्वप्यिानिविषयपु सनिनानि रागडेपोवरहितानि कृतानि करणानि दिनगि येन । अथवा सर्वत्र सनिनानि अवनिरूपितरगंग प्रवृत्तत्नि करणानि ईर्यादिकाः क्रिया या ! हा त्यादि स्थानाक्रिया एकपादममणदादिका । भग्नक्रिया हायसन्वापादिका । गमनक्रिया सूर्याभिमुखवजनादिका तासु गिरीश नमतां । गुन्तिं गुप्निं रक्षा रत्नत्रयस्य । पनगहिददरं प्रगृहोत्ततरं सुदृढ़ इत्यर्थः । परकमदि पराकमने चेष्टते । त्यक्तवस्त्रस्य देहेऽपि निर्ममस्य मे कि शरीरतपणेन तपसा मिर्जरामेव कर्तुमुत्सहेऽहमिति यथोक्तस्थानादिदुष्करकायकेशलक्षणे तपसि यतत इति भावः ॥ पुनः अचेलताके महत्ताको आगेकी गाथा दिखाती है -- - अर्थ-इस अचेलताके प्रभावसेही मुनिराजकी स्पर्शनादि पांचों इंदिया रूपादिक विषयों में समितियुक्त प्रवृत्ति करती हैं. अर्थात् उनके इंद्रियोंकी स्पादि विषयों में रागद्वेपरहित प्रवृत्ति होती है. अचेलता रागादिकाको जीतने के लिये हि मुनियोंने ग्रहण की है अतः चे रागादि विकारीम कैसे प्रवृत्त होंगे ? अचलता धारण करगही वे एक पावसे खडे होना, समपाद रखकर कायोत्सर्ग करना, इत्यादिरूप स्थानक्रिया, उत्कटासनादिकोंको आसन क्रिया कहते हैं. दंडके समान शयन करना, एक पार्श्वसे शयन करना इत्यादिक शयनक्रिया, सूघोभिमुख गमन करना इत्यादिक गमनक्रिया इत्यादिकायोंमें खुब प्रवृत्ति करते है. वस्त्रत्याग करनेवाले व गुसिको पालनवाले मुनि - - comsaeyeTASARA 450 २२१ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागना। SUBT शरीरमे प्रेम दूर करते हैं. वे निःस्पृह होकर शरीरको खुश करनेसे क्या प्रयोजन सिद्ध होगा. मैं तपश्चरणके द्वारा कर्मको निर्जीर्ण करूंगा ऐमा विचार करके तपश्चरणमें यत्न करते हैं. शाश्चासः मपत्रादलिंगमुपगतः किमु न शुद्धयत्येवत्याशंकायां सम्यापि शद्धिरनेन मेणा भवतीत्याबऐ अववादियलिंगकदा विसयासत्तिं अगृहमाणो य ॥ जिंदणगरहणजुत्तो सुज्झदि उवधि परिहरतो।। ८७ ।। आपवादिकलिंगोऽपि निन्दागर्हापरायणः॥ . जन्तुरच्छादकः शक्तेः संगत्यागी विशुद्ध्यति ॥ ८८ ॥ इत्यचेलम्॥ विजयोदया-अचेलक गर्द। अषवादियालिंगकदो वि अपवादलिंगस्थोऽपि । करोति स्थानार्थवृत्तिरिह एरिगृहीतः । तथा च प्रयोगः एवंच हत्या एवं च स्थित्वेत्यर्थः । सुजयदि शुष्यति छ । कर्ममतापायेन शुलपति । कीरफ सन् यः स्वां सात शार्क । अग्नमाणो अगूहमानः सन् । उपाधि परिग्रह परिहरंतो परित्यजन् योगत्रयेण । निंदणगरहपशुत्तो सकलपरिहत्यागो मुक्केागों मया तु पातकेन बस्नपात्रादिका परिग्रह परीषहभीरुणा गृहीत इत्यतःसंतापो निदा । गह परेपर्व कथनं । ताभ्यां युक्त निद्रागाफियापरिणत। इति यावत् । एषमचेलता याचर्पितगुणा मूलतया गृहीता ॥ यद्येवनाचेलक्यगतस्य शुद्धिस्त पवादलिंगगतः शुद्धयति न वा यदि शुद्धधति तत्केन क्रमेणेति पृच्छन्तं तं प्रत्याह मुलारा-अववादियलिंगगदो अपवादिकलिंगम्यो आयोतिरित्यर्थः । रवि य अपि च । कौपीनादिप्रथवानति शुद्धयति किं पुन:श्वधर इत्यपिचत्यस्त्रार्थः । सगसर्ति निजसामय । निंदन सर्वसंगत्यागो जिनोपझं मुक्तिमार्गः भया पुनः पापेन परीपहभीरणा वलपात्रादिप्रयो गृहीत इत्यतःसताररूपा निंदा । गरक्षण मिदैव गुर्वादिसाक्षिकेत्यर्थः । उबहिं परिधरंतो त्यक्तमशक्यतया परिपृष्टीतेऽपि यखादा निर्गगो भवमित्यर्थः । अपवादलिंग धारण करनेवाले आर्यादिक अर्थात् ऐलकादिक शुद्ध नहीं होते हैं क्या ऐसा प्रश्न होनेपर उनकी भी शुद्धि आगे कहे गये ऋमसे होती है ऐसा आचार्य कहते हैं. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलाराधना आश्वासः अर्थ-अपवादलिंगधारी ऐलकादिक भी अपनी चारित्रधारणशक्तीको न छिपाता हुवा कर्ममल निकल जानेसे शुद्ध होता है. क्योंकि वह अपनी निंदा ब गहीं करता है और मन, बचन व शरीर ऐसे तीन योगंपूर्वक परिग्रहकात्याग करता है, संपूर्ण परिग्रहका त्याग करना ही मुक्तिका मार्ग है. परंतु मेरेको परीषहाँका डर होनेसे पापोदयसे मैने वस्त्र पात्रादिक परिग्रहका ग्रहण किया है ऐसी मनमें पश्चातापपूर्वक वह निंदा करता है. तथा सुचीदिनांके सभी अपनी निंदा करता है. यह निंदा और गही ऐसे दो परिणामोंसे युक्त होकर परिग्रह स्वल्प करना जाता है अतः उसके पूर्वकर्मकी निर्जरा होकर आत्मद्धि होती है. इस तरह अचेलताके गुणोंका वर्णन किया. यह अचनशा मुनियोंके अहाईस मूलगुणो से एक मूलगुण है. अनि मैने वस्त्र पाह, संपूर्ण परि कालांचाकरण के दोपा या परिहणु लोचोऽनुष्टीयते इल्परकायां दोषप्रतिपादनायोत्तरं गाधाइयम् केसा संसज्जति हु गिप्पडिकारस्स दुपरिहारा य ।। सयणादिसु ते जीवा दिछा आगंतुया य तहा ॥ ८८ ॥ संस्काराभावतः केशाः संमूच्र्छन्ति निरन्तरम् ॥ विशन्त्यागन्तवो जीवा दूरक्षाः शयनादिषु ।। ८९ ॥ विजयोदया-केसा केशा: 1 संसज्जति दु खुशद पवकारार्धः । यूकामिक्षोत्पतेराधारभावमुपवजन्त्येय । कस्य केशाः ? णिप्पडियारस्स निष्क्रान्तः प्रतीकारात् निष्पतीकार । प्रतीकारशः सामान्यवननोऽयि संसजमस्य प्रकृतत्वात् संसजनप्रतिकार एव वृत्तो गृह्यते । तैलाभ्यंगगंधादिप्रक्षेपजलप्रक्षालनादिक्रियामकुर्वत इत्यर्थः । ते च सम्मूचनामुपगता यूकादयः ।दुपरिद्वारा य दुःखेन परिडियन्ते। क सयणादिसु शयनं शय्योपगमनं, शिरसा कस्यचिदवष्टंभने । निद्रामुद्रितलोचनस्य पतनं परयशस्थ सतः आदिशग्दन गृख्यते । बाधा जीषेभ्यः कथंचिदन्यदेशकालस्वभावभेदात् । ततःपाधाय दुष्परिहारायां जीषा एध दुष्परिहारा पक्ष भवंतीति मन्यते । अन्यथा इस्तेनापनेतुं शक्याः कर्थ दुष्परिहाराः स्युः। न केवल तत्रोत्पन्ना एक दुपरिबारात्तथा तेनैव प्रकारेण जीवाः मागेतुका य अभ्यत आगतान कीटादश । पतेन हिंसादोष आख्यातः॥ मूलारा-केमा संराउति खु यूकालिश्रोत्पत्तेराधारभावमुपप्रजन्त्येव । णिपडियारस्स स्नानादिप्रतीकारमकुर्वतः । दुपारीत्यादि-स्वाध्यायादिखिन्नस्य शिलातलादी सेवेशन, आदिशब्देन शिरसा करयाचदवष्टंभन, निद्रामुदितलोचनस्य Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना परवशस्य सत: पतनं या, तेषु वर्तमानेन यतिना ते फेशसम्माच्छिनो जीवा बाधां गच्छंतो दुष्परिहारा रक्षितुमशक्याः । दिठ्ठा प्रतिपद्माः । न केवलं त एवं अपि त्यागतुकाश्च कीटकादयस्तथा दुष्परिहारा दृष्टाः। एतेन हिंसादोष उक्तः । केशलोच नहीं करनेस कोनस दोष उत्पन्न होते है जिनका परिहार करनेके लिये मुनिगण लोच करते हैं ? ऐसी शंका होनेपर लोच न करनेसे जो दोपं हो जाते है उनका दो गाथाओंसे आचार्य वर्णन करते हैं। . अर्थ-तेल लगाना, अभ्यंगस्नान करना, सुगंधित पदार्थसे केशोका संस्कार करना, जलसे धोना इत्यादि क्रियायें न करनेसे केशो युका और लिखा गे जन्न वन होते हैं. जब वी त्पत्ति केशोमें होती है तब इनको वहसि निकालना बडा कठिन काम है. वे लिक्षादिक जंतु नटाइ वगैरहमें घुस जात हैं. मस्तकसे यदि किसी पदार्थका आश्रय लिया हो तो उसमें उनका प्रवेश होता है. जब निद्रा आती है तब मस्तकसे वे नीचे गिरते हैं. अन्य देशकालस्वभावभेदसे उत्पन्न हुए प्राणियोंसे इन लिक्षादि जंतुआको घाधा भी पोहोंचती है । अन्य देश, काल, स्वभावसे यह बाधा भी मिटाना बढा कठिन काम है. बाधाका दुष्परिहार होनेसे जीय भी परिवार होते है ऐसा कह सकते हैं. अन्य स्थलसे कीटादिक जीय आकर भी वे वहाँ ठहरते हैं उनको निकालते समय वे मर जानसे हिंसादोप उत्पन्न होगा. जुगाह य लिक्वाहिय वाधिनतस्स संकिलेसोय ।। संघटिजति तणमा लामा ॥ ॥ संलशः पीयमानस्य यूकान्दिक्षेण दुःसहः ॥ पीक्यत तच कंडता यता लोचस्ततो मतः ॥ ९० || विजयोदया--याहिं य युकाभिश्च । लिपन्याहि य लिक्षाभिश्च । गाधिज्जतस्म वाध्यमानस्य यतः । संकि लेस्रो य सङ्ग्रेशश्च । जायते इति शेषः । स च ऋशोऽशुभपरिणाम पायास्रयः । पूर्वोपात्तकमपुलरसाभिवई ननिपुणः । अथवा वाधिज्जतस्स भक्ष्यमाणम्य सकिलेसो य दुःख पा । तथा चोक्त-फ्लिश विबाधन इति । पतेनात्मविराधनादोरः सूचितः । अथ तद्भक्षण असहमानः कंडूयति तद दोपमाह-संघटिरजति य संघट्यंते ने यूकादयः । थागंतुकाच कंधणे कंफरणे । तेन दोषेण हेतुनासा आगमयः लोचः क्रियते इति शेषः । प्रदक्षिणावतः केशमधुविषयः हस्तांगुलीनिरव संपाद्यः द्वित्रिचतुमासगोचरः।। 1-1.0mmiaminimum Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराचना २२५ मूळारा - सांर्कलसो दुष्परिणामः, संततदुःखं वा । एतेनात्मविराधना क्षेषः सूचितः । संघटित संघट श्रीयंते यूकाद्याः कीटाद्याश्च । नो भागमःटः केशमाय इत्यर्थः । अर्थ - जूं और लिखाओंसे पीडित होने पर मनमें नवीन पापकर्मका आगमन कराने वाला अशुभ परिणाम - संक्कश परिणाम होजाता है. तथा इस परिणामसे पूर्ववद्धपापकर्म में अधिक अनुभव - रस बढ जाता है, इन जीवोंके द्वारा भक्षण किये जानेपर शरीर में दुःख होता है. अतः इससे आत्मविराधना होती है. जब इनके दंश करनेसे असह्य वेदना होती है तब मनुष्य मस्तक खुजाता है. मस्तक खुजानेसे जूं लीख आदिक जंतुओंका परस्पर मर्दन होकर नाश होता है, ऐसे दोषोंसे बचनेके लिये मुनिगण आगमके अनुसार केशलोच करते हैं. मस्तक, दादी और मूछके केशका लोच हाथोंकी अंगुलियोंसे करते हैं. दाहिने बाजूसे आरंभकर बायें तरफ आवर्त रूप करते हैं. इस लोचकी उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य मर्यादा दो मास, तीन मास और चार मासकी हैं. ऊपर लोच नहीं करनेसे होनेवाले दोष दिखाये हैं. एवं लोचाकरणे दोषानुद्भाव्य लोचे गुणवयापनाय गाथाश्रयमुत्तरम् - लोचकदे मुंडतं मुंडन्ते होइ णिब्बियारतं ॥ तो णिब्वियारकरणो पग्गहिददरं परक्कमदि ॥ ९० ॥ त्वं कुर्वतो लोमतो निर्विकारिता ॥ प्रकृष्टां कुरुते पेष्टां वीतरागमनास्ततः ॥ ९१ ॥ विजयोदया-- लोकदो लोचे कृतः स्थितः लोचकृतः सप्तमीति योगविभागात्समासः । तस्मिन लोच कृतं लोचस्थिते इति कचित् । अन्ये तु वदन्ति लोयगंदे इति परंतः लोचं गतः प्राप्तः लोचगतः तस्मिन्निति । अथवा कृतशब्दो भावसाधनः ततः सहक्षणा सक्षमी लोच एवं कृतं तस्मिन् । लोचकियायां सत्यां मुंड मुंडशिरस्कता नाम भवति । न मुंडशिरस्कता मुक्त्युपायो गुणोऽरत्नत्रयत्वादसत्याभिधानवत् तत्किमुकेनानेनानुपयोगिता गुणेनेत्याशंकायां आद्द - मुंडते दोदि णिब्वियारतं इति । मुंडते मुंडनायां सत्यां । होदि भवति । णिष्विगारतं निर्विकारता । बिकारो विक्रिया सलीलगमनशृंगारकथाकटाक्षेक्षणादिकः । तस्मान्निष्क्रान्तः सत्राप्रवृत्तः निर्विकारः तस्य भाषः निर्विकारता निर्विकारो भवति इति २९ अश्वासः २ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना oratola यावत् । तो ततः णिब्वियारकर णो विकाररहितक्रियः । पगडिददरं प्रगृहीततरं। परक्कमवि चेष्टते कारणत्रये इति शेषः रत्नत्रयोद्योगः परंपरया लोचस्योपयोगः समास्यातोऽनया गाथया । नमस्य मुंडस्य सविभ्रम गमनादिकं जनो दृष्य हसति, शोभते तरामियमस्य विलासिता पंरकस्य वामलोचनाविलास इयेति मन्यमानो निरस्तधिकारी मुक्तये केवलं घटते इत्यभिमायः॥ एवं लोचाकरणे दोषानुक्त्वा तत्करणे गुणान्वतुं गाथात्रयमाद्द मूलारा-लोचकदे लोचस्य करणे मीत । णिब्वियारत्तं सन्डीलगमनहसनश्रृंगारकथायटानिरीक्षणादिलक्षणाधिकाररहिनत्वं । णिनियारकरणे वीतरागगमनादिमियः सन । परकमरि शुभमनोवाकायब्यापार प्रवर्तत इत्यर्थः । एतेन लोच; परंपर या रत्नत्रयोपयोगी भवतीत्युक्त प्रतिपत्तव्यम ।। अब लोचके गुणोंका वर्णन आचार्य तीन गाथाओंसे करते है अर्थ-लोच करनेपर ही शिरोमुंडन हुवा ऐसा माना जाता है. शंका शिरोमुंडन करना अर्थात् लोच करना मुक्तिका उपाय नहीं है पनि यह राय नहीं है, अतः लोच करना व्यर्थ है. इससे कोई गुणविशेष उत्पत्र नहीं होता है. इस शंकाका उत्तर आचार्य इस प्रकार देते हैं-शिरोमुंडन होनेपर निर्विकार प्रवृत्ति होती है. अर्थात केशलोच किया हुआ साधु लीलासे गमन करना, श्रृंगारिक कथायें कहना, कटाक्षसे अबलोकना- तिरछी नजरये देखना, इत्यादिक विकारभावसे प्रवृत्ति नहीं करता है. इस निर्विकारप्रवासे बह मुक्तिके उपायभूत रत्नत्रयमें खूब उद्योगशील बनता है. अतः लोच परंपरथा रत्नत्रयमें प्रवृत्ति होनेके लिये कारण होता है ऐसा इस गाथासे सिद्ध हुवा. नन और मुंडितमस्तक मैं यदि हावभावसे गमन करूंगा और इधर उधर कटाक्षपात करते चलूंगा तो मेरेको देखकर लोग इसँगे और वीके विलासके समान इस हिजडेका यह विलास शोभा पाता है ऐसा कहेंगे ऐसा मनमें विचार करके साधु संपूर्ण विकारभावाको त्याग करके केवल मुक्तीके लिये भयत्न करते हैं. ऐसा अभिप्राय समझना. HOS I २२६ NSTATESSARY अप्पा दमिदो लोएण होइ ण सुहे य संगमुबयादि। साधीणदा य णिदोसदा य देहे य जिम्ममदा ॥ ९१ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना २२७ दयमानस्य लोवेन हृषीकार्थेऽस्य नाग्रहः ॥ स्वाधीनत्वमदोषत्वं निर्ममत्यं च विग्रहे ॥ ९२ ॥ विजयोदया-अय्या दनिदो होदि वशीकृतो भवति । कस्य? आत्मन एव। केन कारणेन ? लोएण कंशोत्पाटनेन । दुःखभावनया निगृहीतदर्पः सर्व एव शांतो भवति यथा बलीवर्दादिरिति मन्यते । सुखे य सुखे च | संग भासकतां । नोपयाति । सुखमेष सुखलंपटं जनं करोति । दुःखेऽन्तर्भाव्यमाने सुखासकि न्यते सुरषोपयोगमूसहभावात् । बीजाभावेऽकुर एव । इंद्रिय सुखवान्सुखशब्देनोच्यते तत्रासको हिंसादिषु प्रवर्तते ! तेन परिप्रारंभूला सुखासंगाचा वृत्तेः संवर एवेति मुक्तेर्भवत्युपायः अभिनवा स्त्रवनिरोधर्मतरेण का नाम निर्जरा? तस्यां या सत्यां का मुक्तिरिति भावः ॥ साधीणदाय स्वचशता व केशासतो हि जनोऽवश्यं शिशेघ्रक्षणे, सम्मर्थन, प्रक्षालने, तच्छपणे प्रयतते । स चायं व्यापारो विप्रमावद्दति स्वाध्यायाः । सिवाय निर्दोषता का । या सशेषकिया सा न कार्या यथा स्तेयादिका । निद्रशत्वनुष्ठीयते यथानशनादिका । तथा चयमवरेषा लोवक्रिया । देव देव । म्मदा ममेदं बुद्धिरहितता अनेन शीवाय धर्मो भावतो भवतीत्युक्तं भवति । प्रकृष्टश लोभनिवृत्तिः शोचं, शरीरलोभनिवृत्तिः शौचं । शरीरलोभनिवृत्तिः सकललोभनिराकियाया मूलं । शरीरोपकृतये बंधुधनादिवस लोभः । धर्मश्च संथरहेतुः, गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिजयैरिति वचनात् ॥ मूलाग- दामेदो वर्षे निगृश्य बलीवर्दवद्वशीकृतो भवत्यात्मन एव । सुद्दे विषयोत्थे सुखे। संगं आसक्ति दुःखभावनया सुखासविहान्युपलब्धः । साधणदा शिरोक्षणादिपारतंत्र्याभावात् स्वाध्यायादी स्वातंत्र्यं । णिदोसा अनशनादिक्रियावल्लोच क्रियाविशेषत्वं रत्नत्रयोपयोगित्वात् । अर्थ - जैसे बैल वगैरह पशु उनको दुःख देनेसे उन्मत्तताहीन होकर शांत होते हैं वैसे केशलोच करनेसे और दुःख सहन करनेकी भावनासे आत्माका दमन होता है, वह शांत होता है इसीलिये मुनि लोच करके अपने आत्माको स्ववश करते हैं. सुखोंमें वे आसक्ति नहीं रखते हैं. क्योंकि मुख मनुष्य प्राणीको सुखलंपट बनाता है. दुःखका विचार करनेसे उसकी भावना करनेसे सुखासक्ति नष्ट होती है. सुखकी भावना करनेसे ही सुखासक्ति पैदा होती है. परंतु वह भावना नष्ट होनेसे ऋजिके अभावसे अंकुर जैसे अपने अस्तित्वको नहीं रखता वैसे सुख भी अपना अस्तित्व नहीं रख सकता है. इंद्रियसुखोंके पछि दौडनेवाला मनुष्य उनमें आसक्त होकर हिंसादिक पापकार्य करता है इंद्रियसुखकी प्राप्तिके लिये आरंभ परिग्रह मूल कारण हैं. अतः सुखसे परावृत होनेसे संपर होता आश्वासः २ २२७ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास 17 BHARuter है, यह संवर ही मुक्कीका उपाय है. जबतक नचान काँका निरोध न होगा तबतक निर्जरा होकर भी कुछ आत्माका कल्याण न करेगी, अर्थात संवर पूर्वक निर्जरा ही मुक्तिका उपाय है. तोत्रमे स्वाधीनता गुण प्राप्त होता है, केशोंपर जो प्रेम करता है वह मस्तक धोनेमें, केशप्रक्षालन करनेमें, उनको मुखानेमें, प्रयत्न करता है. इसके इन कृत्योंसें स्वाध्याय ध्यानादिकोंमें विघ्न उपस्थित होता है. अतः वह इन कृत्यों में लगनेस पराधीन हुवा है ऐसा समझना चाहिये, लोच करनेसे उपर्युक्त कृत्य नहीं करने पडते हैं तथा स्वाध्यायादिक स्वकृत्यों में लगनेसे वह स्वार्थान कहा जाता है. लोच करनेसे निदोषता गुण मिलता है. चोरी करना, झूट बोलना यह सदोष क्रिया है. मुनिराज अनशनादिक निदोष क्रिया जैसी करते हैं वैसा लोच भी निर्दोष क्रिया होनेसे वे इस क्रियाको भी करत हैं. लोचसे देहममता नष्ट होती है. यह देह मेरा है ऐसी भावना नष्ट होती है. तथा लोचसे शौचधर्मकी प्राप्ति होती है, प्रकृष्ट लोभकी निवृत्ति होना शौच है. शरीरपरसे लोभ नष्ट होगया तो समस्त लोभोंके प्रकारका नाश होता है. शरीरके उपकारके लिये ही बंधु धनादिकांक ऊपर लोम उत्पन्न होता है. इन लोभोंका नाश होनेसे शौचधर्म संचरका कारण होता है. क्योंकि गुप्ति, समिति, धर्म अनुप्रेक्षा,और परीपह जय संवरके कारण है ऐसा पूर्वाचार्य कहते हैं. आणविखदा य लोचन अपणो होदि धम्मसट्टा च ॥ उम्गों नबो य लोचो तहेब दुक्खस्स सहणं च ।। ५२ ॥ आत्मीया दर्शिता अन्द्रा धर्म लोचं वितन्वता ।। भावितं सकलं दुराचं दुश्चरं चरितं तपः॥ ९३ ॥ इति लोचः ॥ विजयोदया-आणवियदा य होदि आदर्शिता भवति । सोचेण लोचेन । का? धम्मसट्टा धर्म चारि धद्धा । कस्य ? चप्पणी आत्मनः । महती धर्मस्य श्रद्धाऽन्यथा कथमि दुःसहं केशमारमते इति । आन्मनो धर्मशक्षाप्रकाशनेन परस्थापि धर्मश्रज्ञाममनोहपां वृत मवति । सोऽयमुपहणाल्यो गुणी भाषितो भवति । उग्गो तबो य जुग्ग्रे च तपः २२८ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - नृलारावना कायक्लेशाध्यं दुःोनगाणि न महल। कहो चःतधव यात्रर्ण नगणया । दयम्बरमबम साह, च मान २ ।। भावयन् दुःखान्तराणिच सहन । दुःखसहनाशिजग मनायशुभकामगा । टोचोषित गर्ने । मूलार'-आणविदा आनक्षिता : ण न इत्यस्य प्रयोग. । आदर्शिनेन्यन्य प्रयोगः । ग! नया र तपः कायकशास्वं ।। अर्थ--मुनि लोग करने है उसम उनया धमक-नारित्रक ऊपर वही भारी श्रद्धा व्यक्त होती है. याद उनमें-चारित्रमें श्रद्धा न होती तोव इतना दुःसह कुश क्यों करत! वे अपनेमें धर्मश्रद्धा प्रगट करते है अन: अन्य जनामें भी उनकी धर्मश्रद्धा देखकर धमके प्रति श्रद्धा बढ़ जाती है. अतः लोचके द्वारा उपबृंहण नामका गुण भी प्राप्त होता है. लोच करनेवाले मुनि उग्रतप अर्थात् कापलेश नामका तप करके होनेवाला दुःख सहते हैं. जो लोच करते हैं उनको दुःख सहनेका अभ्यास हो जाता है अतः वे अन्य दुःखके प्रसंग आने पर डरते नहीं शांततासे सहन करते हैं. दुःख सहन करनेसे अशुभ कर्मकी निर्जरा होती है. ग्युस्सपशरीरताभिधानायोत्तरः प्रबंधः सिण्हाणभंगुबट्टणाणि णकेसमंसु संठप्पं ॥ देतोछकण्णमुहणासियच्छिभमुहाई संठप्पं ॥ १३ ॥ न रूदन्तीष्ठकांक्षिम बकशादिसंस्कृतिम् ।। भजन्त्युद्वत्तेनं स्नानं नाभ्या ब्रह्मचारिणः ।। ९४ । विजयोदया-सिपहाणभंगप्पणाणि शादिति पदघटना स्नानाभ्यंजनोद्वर्तनानि ॥ पाहंक.ममममटाय नम केशभमभुसंस्कारं चयनि । अन्तरापि चशसमुनयाचप्रतीतिः ॥ गृधिव्यापम्तजी यायुगकार कादो दिनमा मनः इनि द्रव्याणि इत्यत्र यथा । दंतोहकण्णमुसामिपन्निममहादि संग पञ्जदिति पदाचना नामयोः..! मवर नासिकाया, अक्षणायारादिग्रहणापाणिपादन यसकृति परिहति ॥ साानमनेकप्रकार शिरोमानप्रक्षालन, निगममा अध्यन वा गात्रस्य, समस्तम्य पानन्न शीतोदकन ... स्थायराणां प्रसानां च वाधारादिति । कई मवालुकादिर्दनाजलक्षीनपात्तच्छरीराणां च चनसताना पाहाताना सक्ष्मत्रसानां च स्मानं निबार्यने । उन्नाईकन मायादिति चन्न, तत्र बसस्थावरवाधावस्थितव । भूमिदविधरस्थिताना ES पिपीलिकादीनां मृतेः, तरुणतृणपलवानां चोणांबुमितताना दुःखासिका महती जायते । तथा क्षारतया धान्यरसादीनां । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराना २३० न चास्ति प्रयोजन मानेन सप्तधातुमपस्य देहस्य न शुचिना शक्या कर्नु । ततो न शांत्रप्रयोजनं । न रोगापहतये रोगपरीबहसहनाभावप्रसंगात् । न हि भूपायै विरागत्यात् । घृततैलादिभिरभ्यंजनमपि न करोति प्रयोजनाभाषायुक्तेन प्रकारेण घृतादिना क्षारेण स्पृष्टा भूम्याविअंतयो.. पाभ्यते । असाच तवावलझा. .. ' उदरीने इतस्ततः पततां व्याघातः । मूलत्यफलपत्रादेः पेरणे, पलने छ महानसंयमः । निनिधिलेखनपर्षणरंजनादिको मरषसंस्कार । भोटमलापकर्षणं तदागकरणं या गोष्ठसंस्कार । केशसंस्कारो इस्तवर्षपोम मसूणतासंपादनं. तथा एमथणामपि । छतमलापकर्षणं तवंजन वा तसंस्कारः | हस्वयोलयतागवन दीर्घयोर्या म्हस्थकरण | सम्मलनिरासोऽलंकारग्रहणं कर्णसंशा । मुरवक्ष्य परंपराभरा वा सुखरकार । भक्ष्णोः प्रक्षालनं अंजनं भक्षिसंस्कारः। विकटोस्थितानां रोम् उत्पाटनं आनुलोम्यापादनं । लंबयोरुमतीकरण, रुसंस्कारः । शोभा इस्तपादादिप्रक्षालनं, औषधविलेपादि-संस्कार आदिशम्देन गृहीतः। अधुना व्युत्यूएशरीरतारुयागविकल्पव्याख्यानाय गाधनियमाह मूलारा-सिण्हाण स्नानं । अम्भंग तैलादिना स्निग्धत्वापादनं । उव्वट्टण जलादिप्लुतमसूरादिपिष्टादिना देहस्येतस्ततो मईन । मंसु इमच कूर्च इत्यर्थः । संठम्म संस्कारं । ममुशादि आदिशब्देन इस्तपादादि । तत्र लेखनकर्तनपणरंजनारिको नखसंस्कारः । इस्तमर्षणेन महणताकरणं फेशश्मश्रुसंस्कारः । मलापनयनरंजनादिको दन्तोष्ठसंस्कारः । हस्वीकरण लंबीकरणमलापकर्षणाभरणादिकः कर्णसंस्कारः । लेप्न मंग्रेण या तेजःसंपादनं मुखसंस्कारः । अंतर्मलरोमापनोदादिको नासासंस्कारः । प्रक्षालनांजनादिको नेत्रसंस्कारः । विकटोत्थितानां रोम्णां केशानामुत्पाटनं आनुलोम्यापादनं च । थ्योरेष वा लंबयोरुन्नतीकरण भ्रसंस्कारः । शोमार्थ प्रक्षालनमोषधलेपनादिकं च हस्तपादादिसंस्कारः। व्युत्पृष्ट शरीरता शरीर परसे ममत्व भाव दूर करना अर्थात् कायोत्सर्ग करना यह भी लिंगका एक प्रकार है इसका वर्णन करनेके लिये उत्तर प्रबंध आचार्य कहते हैं अर्थ-मुनिगण जलस्नान, अभ्यंगस्नान और शरीरको उबटन लगाना इनका त्याग करते हैं. वे नोका संस्कार, केशोंका संस्कार और दाढी मूछोंका संस्कार इनका त्याग करते हैं. दांत, ओठ, कान, नाक, मुंह, आखे और भौहें आदिका भी ये कभी संस्कार नहीं करते हैं. आदि शब्दसे हाथ और पावॉका संस्कार भी बे नहीं करते हैं ऐसा समझना. विशेष --स्नानके अनेक प्रकार है, जलसे केवल मस्तक धोना, अथवा मस्तक छोडकर अन्य अवयवको २२० Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलागधना आश्वासः धोना अथवा समस्त अवयवोंको धोना. परंतु त्रस और स्थावर जीवोंको बाधा न होवे इसलिये मुनि शीतलजलसे स्नान नहीं करते हैं. स्नानके जलसे कीचड होता है, वालुकादिकोंके मदनसे जलकायिक जीवोंका घात होता है. वनस्पति जीवोंको बाधा पोहोंचती है. मत्म्य, मेंडक, और सूक्ष्म सोंको बाधा पोहोंचती है अत: मुनिगण शीत जारो नान नहीं करते हैं, सदिने पटे पानीको मान नहीं करते हैं, तो गरम पानीसे क्यों नहीं करते हैं? इस प्रश्नका उत्तर यह है-गरम जलमे स्नान करनेसे भी सस्थावर जीवोंका बाधा होती ही है. जमीनके छिद्रोंमें, पडे बडे बिलोंमें वह पानी प्रवेश करेगा तो वहांके चाटी वगैरह प्राणिओंको चाधा अवश्य होगी ही. गरम पानीसे घास, कोमल अंकुर संतप्त होकर महान्कष्टी होते हैं. गरम पानीसे धान्योंका रस नष्ट हो जाता है, मुनिआको जलस्नानकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि, जलस्नानसे सप्त धातुमय देह पवित्र नहीं होता है. इस वास्ते शुचिताकेलिये स्नान करना भी योग्य नहीं है, रोगपरिहार करनेके लिये भी स्नानकी आवश्यकता नहीं है. यदि वे स्नान करेंगे तो रोगपरीपह सहन करना व्यर्थ होगा. शरीर सौंदर्य युक्त होनेकेलिये भी ये स्नान नहीं करते हैं क्यों कि वे वीतराग है. मुनि श्री, तेल इत्यादिको अभ्यंगस्नान भी बुर प्रयोजन न होनस करते नहीं है, घृतादि क्षारपदाथों का स्पर्श होनेसे भूमि वगैरह में रहनेवाले जन्तुओंको पीडा होती है. भूमिपर चिपकं हुए त्रस जीव इधर उधर होते हैं. गिरते हैं तब उनको एकस्थानसे दूसरे स्थानपर जाते समय बाधा पोहोंचती है. वृक्षोंक मुलभाग, छाली, फल, पत्ते इत्यादिकोंका चूर्ण करनेमें, पीसनेमें महान् असंयम होता है. नख निकालना, घिसना, रंगाना इत्यादि कार्यको नखसंस्कार कहते हैं. ओठाका मल निकालना, उनको रंगाना अधिक लाल दीखने लायक बनाना यह ओष्ठसंस्कार है. हाथोंके द्वारा वर्पण करके स्निग्धता उत्पन्न करना यह केश संस्कार है. दाही और मूंछोपर भी हात बार बार फेरकर स्निग्धता उत्पन्न करना यह श्मश्रुसंस्कार है. कान हस्य हो तो उनको दीर्घ करना, दीघ हो तो उनको छोटे बनाना, उसमें से मल दुर करना, उनको अलंकारासें भूपित करना यह कणसंस्कार है. कुछ उबटन वगैरे पदाथ लगाकर मुहको तेजस्वी बनाना. अथवा मंत्रके द्वारा मुहको तेजस्वी करना यह मुखसंस्कार है. आंखे स्वच्छ धोना, वे अंजनसे आंजना यह नेत्रसंस्कार है, जो केश इधर उधर तिरछे ऊगे हैं उनको निकाल देना, दीर्घ केशोंको हस्व करना, उन्नत बनाना यह भोहोंका संस्कार है. T Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना माथा २३२ सुंदरता ववे इसलिये हाथ और पाय, बगैरे धोना, औषधादि विलपन करना यह हस्तपादादिसंस्कार है, ऐसे सव देहसंस्कारोंका मुनि त्याग करते हैं. इससे वे शरीरके ऊपर स्नेह रहित है यह सिद्ध होता है. शरीर स्नेह छोडना यह भी मुनिलिंगका एक भेद है. बजेदि बभचारी गंध मलं च धूबवासं बा ॥ संवाहणपरिमहणपिणिदणादीणि य विमुत्ती ॥ १४ ॥ न स्कन्धकुहनं वासं माल्यं धूपविलेपनम् ॥ कराभ्यां पलनं दी चरणाभ्यां च मर्दनम् ।। १५ ।। विजयोदया-धं कम्तरिकादियः । म मान्य च तृप्तकार । अपवासं च : धर्ष कारागादिकापस नाव: च जातिफलादिक । अनेकस चिदन्यगिध वा. संचास्ना मरनं । चरणायमदन पग्नि' परियार उन्नति दाका च क य प गडमिन्ययन म तिमनि प्रयोजनाभरामाननुनी । :::10 निवृनिपगे यतिः । कहनं । पाणधणादण असंयोन्नति दी का पान-न्युच्यने । पुटपुटीयन्य । आका। चुहुदहिकादिमईनम् । विहा विमुक्ताः यि ययः । = हे अश्चारिणां स्नानादिना प्रयोजन्नस्ति पर कायस्य शोधयितुमशक्यत्वात् नान्यलाचाभ्यां च बासन्मभ्यामपायरामनीयकत्वात् । न भूभ्यादिम्थन सम्यार हिंसारागादिप्रसंगाश्च । अर्थ--ब्रह्मचर्य धारकने कस्तूरी बगैरे मुंगध वस्तुओंका त्याग करना चाहिये. पुष्पमाला, रत्नमाला मुक्तमाला, सुवर्णमाला इनका त्याग करना चाहिये. कालागरु, तगर बगरहका धूप भी त्यागना चाहिये. मुम्बको सुगंधित करनेवाले जायफल, इलायची, लवंगादि पदार्थ छोडने चाहिये. हाथोंसे अंग चूरना, पाओंसे अंग रगडना, पुष्ट दृढ करने के लिये बाहमर्दन करना इत्यादि कार्य मधुनसेवाके त्यागी मुनिवर्य छोड देते हैं. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वातः मूलाराधना किं ग्रहवतस्य कुर्वन्ति स्नानादिपरित्यागाः येन तद्वताचरणप्रियस्तदनुष्ठाने यतते इत्यारकायामाह जल्लविलित्तो देहो लुक्खो लोयकदवियडबीभत्थो ॥ जो रूढणक्खलोमो सा गुत्ती बंभचेरस्स ।। ९५ ॥ या रूक्षा लोचनीमत्सा सागणिमला तनुः ।। . सारमा महाचर्यस्य प्ररूढनखलोमिका ॥ ९६। इति व्युत्सृष्टदेहता ।। _ विजयोदया-जलयिरित्तो देहति । देवो गुप्तीभचेरमसति पद घटना । देशः शरीर । गुत्ती मुनिः रक्षा। कीर? अलविलित्तो घनीभूतमपर्युपरिचितं शरीरभलं जलशब्दनोच्यते । तेन विलित्तो विलिप्तः देहः । स्नानादिन्या. गात् । कयो रुक्षस्पर्शः स्नानादिचिरकादेव लोनाकदधिगदाधीभन्यो कोचकर णचिकृत भन्सः। जो यो y: २२ पदक:लोगो दीवानूनमस्तपाद्यशलोमान्वितः । सेति शुतिः || सामानाधिकार प्रयान मागिन्यात् । न मियरस ब्रह्मचर्यस्य ॥ स्नानादित्यारस्य फलमा: मूलारा-जालु पनीभूननुपर्नुपरिचित शरमन जलयुग्यने । सर्वामीणमली का जहः । जयहमीभक्छो लोचकडं लोचकृत लोदकरण तेन विथडा लिहतो वैरूप्यं नीतोऽत एव वीभत्सो जुगासाविश्यः । रुकनलोमो दीभूतनखप्रच्छायदेशादिलोनकः । गुती गुप्तिः रक्षा। आता रूढवैराग्यकरत्वात् । ब्रह्मवतधारक मुनि स्नानादिकोंका त्याग करते हैं. यह मत्य है. परन्तु स्नानादिकाका त्याग करनेन ब्रह्मव्रतमें क्या विशेषता होती है ? इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देत हैं-.. अर्थ-स्नानादिकोंका त्याग करनेसे यतके देहपर चार बार मल जम कर दृढ होता है. अथात इस तरहसे मल संचित होनेपर उनके ब्रह्मचर्यका रक्षण होता है. स्नानत्यागसे और मलसंजय हानसे दहकी स्निग्धकांति नष्ट होकर वह रूखी बनती हैं. लोच करनेसे देह बीभत्स दीखता है. नखसंस्कार न करनेम नख बद कर लंब होते हैं और गुप्तमदेश कशासे ढक जाता है. अतः स्नानादिकार्य न करनेसे ब्रह्मचर्यका रक्षण होता है. यह सिद्ध होता है. 'ब्युत्सृष्ट शरीर। यह प्रकरण समाप्त हुआ. SSIONS । २३ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना २३४ प्रतिसेन साध्य प्रयोअमाण्यानायोरगाथाद्वयम् - यस्य येन हि संबन्धो दूरस्थमपि तस्य तत् इत्यनेन क्रमेण बोससरीरं गदं । इरियादाणणिखेवे विवेगठाणे निसीयणे सयणे ॥ उच्चत्तणपरिवत्तण पसारणा उंटणारसे ॥ ९६ ॥ आसने शयने स्थाने गमने मोक्षणे ग्रहे ॥ आमर्शन परामर्शप्रसाराकुञ्चनादिषु ।। ९७ ।। विजयोत्रया - इरिया दाणे पडिले गण पडिलिहिज्जदित्ति एवं सयंत्र । इयां गमने वजतः स्वपादनिक्षेपदेश यदि दुष्परिहाराः स्युः पिपीलिकादयोऽथवा मामू पादावलझरजसो विरुद्धयोनिर्वा भूमिरुत्तरा जलं प्रवेष्टव्यं यदि पडिलेणेण प्रतिलेखनेन पडिले हिज्जदि निराक्रियते प्रसादिकं । आदाने ग्रहणे शानचारित्रसाधनानां । णिखेवे विवेके । ज्ञानसं यमोपकरणान निक्षेपे स्थापनाय । यचिक्षिप्यसे यत्र च तदुभयप्रमार्जनं कार्य। शरीरमलानां उच्चारादीनां विवेके उत्सजैने या कर्तरि प्रदेशः । सा च सूर्यद्ययोग्या प्रमार्जनीया । ठाणे निसीयणे लयपणे स्थाने आसने च शयने शयनकियायां । उत्तणपरित्तणपसारणा उटणामर से उच्चत्तर उत्तानशयनं । परिवत्तणं पार्श्वतिरसंचारं पारणं प्रसारण हस्तपादादीनां । आउंट सकोचनं । स्पर्शक्रिया आमरसशब्देनोच्यते ॥ अश्रुना प्रतिलेखनाख्यागभेदस्य साध्यममिश्रातुं गाश्राद्वयमाह - मूलारा - इरिया ईर्ष्या गमनमित्यर्थः । तदादौ प्रतिलेखनेन पिचादिना प्रसादिकनपसायते । तथाहि — मार्गे गच्छतः संयतस्य स्वपाद निक्षेपदेशे पिपीलिकादयो दुष्परिहारा यदि स्युर्यदि वा प्रापदावलग्नरजसो बिरुद्धयोजन भूमि तथा जलं वा प्रवेष्टव्यं तदा यत्पिपीलिकारजःप्रभृति लेखनेन निराक्रियते । एवमादाने ज्ञानसंयमाधुपकरणे, विशेष तत्स्थापनायां विवेके विण्मूत्राद्युत्सर्गे, स्थाने उद्भीभावे, शिसयणे निषीदने उपवेशने, सयणे स्वापे, उबट्टणे उसायने, परियणे पार्श्वन्तरसंचारे, पसारणे हस्तपादादिप्रसारणे, आउट्टणे तेषामेव संकोचने, आमासे आम स्पर्शन कियायां, अन्यत्राप्येवंविधे कर्मणि अबश्यकार्य यतिर प्रमत्तस्त्रसादिकं प्रतिलिखेत् । संबन्ध: प्रतिलेखनसे मुनि कोनसा प्रयोजन सिद्ध करते हैं इसका वर्णन आगेकी दोन गाथाओंसे आचार्य करते हैं:-- जिसका जिसके साथ संबंध है वह चीज दूर भी हो तो भी वह उसकी ही मानी जाती है. इस न्यायसे ' प्रतिलेखन ' यह लिंगका अन्तिम भेद है अर्थात् पहिले तीन भेदोंके अनंतर होनेसे इसको दूर कह सकते हैं अश्वास २ २३४ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास: तथापि लिंगसही इसका संबंध है अतः यह उसका ही संबंधी है ऐसा कह सकते हैं. अर्थ-देवबंदना के लिये जब मुनि जाते हैं तब बहुत मावधान होकर सूर्यके प्रकाशमें गमन करते हैं. जाते समय जहां ये पांव रखना चाहते हैं उस जमीनपर यदि चीटी वगैरे जन्तु दुष्परिहार्य होंगे तो उनको मृदु पिच्छिकासे दूर करके आगे पांव रखकर गमन करते हैं. अथवा पूर्व भृमीसे आगेकी जमीन यदि भिन्न स्वभाव-रंग वंभरहम युक्त होगी तो मुनि प्रथम पिच्छिकासे पावोंकी धूल हटाकर उसमें प्रवेश करते हैं. यदि पान में प्रवेश करना हो नो पाणिनिछका अपने शरीर पर फेरकर वहां के त्रसजीव हटाते हैं और नदनंतर जलमें प्रवेश करते हैं. ज्ञान और चारित्रके साधन शास्त्र वगैरहको ग्रहण करते समय वे पिच्छिकासे माफ करके ग्रहण करने चाहिये, जब ज्ञानचारित्रके शास्त्रादिक साधन जमीनपर रखना हो तो पिच्छिकासे जमीन और शास्त्रादिक माफ करके रखना चाहिये. और अलग अलग रखते समयमें भी पिच्छिकासे उनको स्वच्छ करना चाहिये. शरीरके मलमूत्रादिक जहां फेकना हो उस स्थानको पिरिडकासे साफ करनेसे वहाँक त्रस जीव चिना बाधा दूर हो सकते हैं. जब मुनि बैठते हैं, खडे हो जाते हैं, सो जाते हैं, अपने हाथ और पांव पसारते है, संकोच लेते हैं, जब वे उत्तानशयन करते हैं, एक बाजूसे दूसरी बाजूपर मुडकर सोते हैं तब अर्थात् इतने कार्य करते समय ये अपना शरीर पिच्छिकासे स्वच्छ करते हैं ऐसा करनेसे शरीरपर सजीव हो तो चे विना तकलीफके दूर होते हैं, और मुनिओंका आचारक्रम भी इस कृत्यसे पाता जाता है. पडिलेहणण पाडिलेहिजइ चिण्हं च होइ सगपक्खे ।। विस्सासियं च लिंगं संजदपडिरूबदा चेव ॥ १७ ॥ स्वपक्षे चिहमालम्व्यं साधुना प्रतिलेखनम् ॥ विश्वाससंयमाधारं साधुलिङ्गसमर्थनम् ॥ ९८ ॥ विजयोदया-जिगह न होदि त्रितां भजते । सगपरखे स्वप्रतिज्ञायां । सर्वजीयदया हि यतः पक्षः। विस्सासियं च विश्वासकारि च जनामा । सिंग प्रति सनाख्यं कथमयमतिसूक्ष्मान्कुंथ्यावीनपि परिहतुं गृहीतप्रतिलेखनोऽस्सा २३५ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाराधना २३६ Feat जीवान्कथमिष बाधितुं उत्सहते इति । संजदपडिरुवदा वेव । संयवानां प्रधानानां प्रतिबिंयम व प्रतिलेखना ग्रहणेन भवति ॥ मूलारा--सयपत्र स्वकपक्षे सर्वजीवक्याप्रतिज्ञालक्षणे । बिस्सासिगं वैश्वासिक लिंग प्रतिलेखनाख्यं जनानां । अयमेवं सूक्ष्मतरकुन्ध्वादिजीवानपि रक्षितुं गृहीत प्रतिलेखनः कथमस्यान्स्थूलतराम्हन्तुमुत्सहे ते टि विश्वासकारीत्यर्थः । यदहिवदा प्राकायतिदिवता येतेः प्रतिलेखन स्यादित्यर्थः । अर्थ- मुनि पिच्छिकांने उपयुक्त व कार्य करते हैं. सर्व जीवोंपर दया करूंगा यह कि पिके ग्रहण पाली जाती है. पिच्छिका लोगोमें गतिविषयक विश्वास उत्पन्न करनेका चिन्तनमुनि राजाने अति क्ष्म कुंवादिजंतुओं का भी रक्षण करनेके लिये हाथमें पिचिका धारण की है जीवोंको कैसे सतायेंगे ? यह कभी संभवनीय होगा क्या ? इस तरह लोगोंके भनमें विश्वास पैदा होता है, पिच्छिका धारण करनेसे वे मुनिराज प्राचीन मुनिओके प्रतिनिधिस्वरूपी हैं ऐसा सिद्ध होता है. प्रतिलेखनालक्षणाख्यानायाद रसेयाणमग्रहणं मद्दव सुकुमालदा लघुतं च ॥ जत्थेदे पंच गुणा तं पडिलिहणं पसंसति ॥ ९८ ॥ लध्वस्वेदरजोग्राहि सुकुमारहृषितम् ॥ इचिगुणं योग्यं ग्रहीतुं प्रतिलेखनम् ॥ ९९ ।। इति प्रतिलेखनम् ॥ इति लिंगसूत्रम् । विजयोदया - रजसेाणमगणं रजसः सचितस्य अचित्तस्य वा स्वेदस्य अग्राहकं । अभिसरजोआहिणा प्रतिलेखनेन सचितरजो विसध्यते सचित्तरजोग्राहिणा चेतरस्य विराधना स्वेदग्रादिणा रजसामुपहतिः । मवकुमाल दुस्पर्शता माईये, सुकुमालदा सौकुमार्थ । लघु लघुत्वं च एते पंच गुणाः यथैते पंच प्रकारगुणाः सति तं न पडिल प्रतिलेखने प्रसंसंति स्तुयंति दयाविविशाः । अमृटुना, असुकुमारेण गुरुणा च प्रतिलेखनेन जीवानामुपवान एव तो न दयेति भावः । पत्रं चतुर्गुणयुक्तं लिंगं व्याख्यातं गृहीतलिंगस्य यतेः ॥ आश्वास २ २३६ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना - आश्वासः मूलारा-रजसेदाणमगणं रजःस्वेदयोरग्राहकं अचित्तरजोपाहितिलखनेन सरिसरजो विराध्यते तमाहिया वा अचित्तं रजः ! स्पेदनाहिगा तु रजसामुपतिः स्यात् । मघ माईर्ष मृदुस्पर्शता । सुकुमाया नमन शीलता | लहुत्त लघुत्यमभारिफत्वं । नार्दवादिविपर्ययरता प्रतिलेखनन जीवानामुपयात एव कुतो दयेति भावः । अग्रे चतुर्षिधलिंगसंमहकारिका मुमुक्षुणा भाषनीया । नम्नो मुंशो ऽस्तसंस्कार: प्राणिरक्षाध्य दधत् । सराग यदि चेष्ट्रय हास्येवाह मम मिः ।। लिंगं ।। सवतः ।। २ ।। अंकतः २२॥ प्रतिलखमांक-पिछिकाके लक्षणोंका वर्णन करते हैं. अर्थ-सनित्त और अचिच ऐसे पलीके दो प्रकार है. जो पिलिका इन दोनो प्रकारके लिओका ग्रहण नहीं करनी है यह रजोवाहक नामक गुण से युक्त है ऐसा समजमा चाहिंय. पिभिलका यदि मचिन लीको ग्रहण करने वाली होगी तो उसने अचित्त बलीकी विसाधना दोगा और अनिन नीकी एदि गला भी हो. सचिन चलीका विगधन होगा, अतः लिमात्रका ग्रहण न करना यह पहिला गण है. स्वेदको ग्रहण न करना यह उमका दसरा गुण है. स्त्रेदके ग्ररण करनेये रजकी-धूलिकी विराधना होगी. इसलिये म्बेदको घामके-जलको ग्रहण न करना यह उमका दुमा गुण है. मादेव नामक तीमरा गुण है. अर्थान पिनिकाका म्पर्श मुद होना चाहिये. मृदु मार्श न होगा तो उसने प्रमादि जन्तु जब हटाये जानोगे नौ उनको कट होंगे कदाचित् मर भी जावेंगे. सुकुमालता यह चौथा गुण है, अर्थात् वह नमनशील होनी चाहिये. यदि न नमगी कढी होगी तो उससे भी जीव विराधना होगी, तथा वह लघुतागुणयुक्त होनी चाहिये. अर्थात् वह हलकी होनी चाहिये. भारयुक्त न हो ऐसे पांच गुण जिस पिचिलका हो वह दयाके प्रकारोंके जाननेवालोंसे प्रशंसी जाती है. जिसने लिंग धारण किया है ऐसे मुनीक लिंगके चार गुणाझा वर्णन किया. २३७ शिक्षानंतरेति तनिटपणा उत्तरप्रधः । जिणवण जिनयंचने । महों य रत्ती य नक्तं दिय । पढिवयं मध्ये तव्यं । कीरग्भूतं जिममधचनमत यौह Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलागधना! आयास: णिउणं विलं मुई शिकाचिदमणुतरं च सव्वहिंद ॥ जिणवयणं कलमहरं अहो य रत्ती य पढिदव्यं ।। ९५ ॥ निपुणं विपुलं शुद्धं निकाचितमनुत्तरं ॥ पापच्छेदि सदा ध्येयं सार्वीयं वाक्यमाहतम् ।। १०० ।। विजयोदया-निउणं जीवादीनान्भमाणनयानुगतं निरूपयतीति निपुणं । सुदं पूर्यापरविरोधपुनरुक्तादिद्वात्रिंशदोषयर्जितत्वात् शुष । त्रिमुलं निक्षेप, पता, निमः अनुगोगमारं, पति अनेकविकल्पेन जीवादीनान्सप्रपंच निरूपयतीति विपुलं । अर्धगाढत्याधिकाचितं अर्थनिचितं । अणुत्तरं च म विद्यते उत्सरं उत्कृष्टमस्मादित्यनुसरं । परेषा वचनानि पुनरुक्तानि, अनर्थकानि, ज्यादतानि, प्रमाण बिरुद्धानि च तेभ्य इदमुत्सरं तदसंमषिगुणत्वात् । सबहिद सर्व माणिहितं । अन्येषां मतानि केपांचियेय रक्षा सूचयति 'जिघांसन्त जिर्यासीयात् न तेन प्रहाहा भयेत् 'स्युपदेशात् । " यहाथै पशषः स्थाः स्वयमेव स्वयंभुवा ॥ यो हि भूत्यै सर्वेणं तस्मायने षधोऽवधः॥१॥ “अनिदो गरखश्चैव शत्रपाणिर्धनापहः । क्षेत्रदारहरति पडेते थाततायिनः ॥" "आततापिनमायांतमपि येयांतचिद् द्विजम् । जिघांसतं जिघांसीयान तेन ग्रह्महा भवेत्।" कलुसहरं द्रव्यकर्मपाशातावरणादीनां भज्ञानादेयमलस्य च विनाशनात् कालुबई । अहो य रसीय पढियव्यमित्यनेन अनारतं अध्ययन सूचित । अथैर्य बक्षु लिमयाम्याय सप्रित क्रमानां शिक्षा समस्या वयोदश भगांवाभिमतकमी वजावा. गवनरनिराश्यगनाय राहीन्दिर गगनगिन्माद .... मूलागः . . . नि माश्रीनराय III अनिवा ] । सुर चा पनि नानादिद्वात्रिंशदोपवितत्वा । बिलं विपुल निभकानिरस्य योगदारसंग नावाप्रधानां प्रपंचकवान । निकाचिदं निकाचिनत्वादविगानं । अगुशरं नास्त्युत्तरमाकान्यदस्मादिन्यनुतरं । परवनसां प्रमाणविरुदत्रादि दोपदुटतया तदसंभत्रिगुणत्वात् । सयहिं सर्वप्राणिहितं मतांतरा केषांचिदेव रक्षासूचकत्वात । तथा च तग्रंथः ___ यज्ञार्थ पशवः सष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा ।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना भावासः - यज्ञो हि भूत्यै सर्वस्य तस्मायके वधोऽवधः ।। अग्निदो गरदश्चय शत्रपाणिर्धनापहः ।। क्षेत्रदारहरशेति पड़ने आतनागिनः ।। आततायिनमागांगमपि वेदार्गावर सिजन । जिमने जिपामगा। बतादामन ।। कालमहरं द्रव्यभावगलाम ! अब शिक्षाधिकारका आचार्य विस्तृत वर्णन करते है अर्थ-श्री जिनेश्वरका बचन जीयादि नव पदार्थाका प्रमाण और नयके आश्रवसे वर्णन करता है, अतः उनको निपूण विशेषण है. जिनवचन शुद्ध है क्योंकि उसमें पूर्वापरविरोधादि बत्तीस दोष बिलकुल नहीं है, यह विपुल है अर्थात् नाम स्थापनादि निक्षेप, प्रतिज्ञा हेतु उदाहरणादि अनुमानके अंग, शब्दका व्याकरण द्वारा धातु प्रत्यय विभक्ति इत्यादि रूपमे स्पष्टीकरण, सत्संख्यादिक अनुयोग और नैगम संग्रहादिक नय ऐसे अनेक विकल्पोंमे जीवादिक अर्थाका सविस्तर विवेचन करता है. अतः उसको विपुल कहते है. जिनवचनका प्रत्येक शब्द अर्थसे गाढ भरा हुआ है अतः उसको निकाचित कहते हैं. जिनवचनको छोडकर अर्थात् इसस बहकर उत्कृष्ट किसीका भी वचन नहीं है इसलिये यह अनुत्तर है. अन्यमतोंके वचन पुनरुक्त है, अनर्थक-अर्थहीन और पूर्वापरविरोधयुक्त हैं. प्रमाणाविरुद्ध हैं परंतु जिनवचनमें ये दोष नहीं है इसलिये यह वचन अनुत्तर है. इस वचनमें सर्व जीवोंका कल्याण करना यह गुण है. इतरोंके मत सर्व जीवोंका रक्षण नहीं करते हैं थोडे जीवोंका ही चे रक्षण करते हैं जिघासन्तं जिघांसीयान तेन ब्रह्महा भवेत ''अपनेको मारनेके लिये आवेगा उसको मारना चाहिये इस कृत्सके करनेसे वह मारनेवाला बनयाती नहीं होता है, यज्ञार्थं पशवः सृष्टा इत्यादि-ब्रह्मदेवने यज्ञ करनेके लिये पछु उत्पन्न किये हैं. यज्ञ सर्वको ऐश्वर्य देता है अतः यजमें प्रणिध करना हिमा नहीं है वह अहिंसा ही है. अग्निदो गरदश्चैवत्यादि-जो मनुप्य अग्निकद्वारा दमरोंके घर जलाता है, जो अन्नमें विए देकर भारता है, जो शस्त्रस मारना है, जो धन हरणा करता है और जो खेत और मरेकी श्री हरण करता है, ऐमे छे प्रकार ---- - - Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना २४० लोकको आततायी कहते हैं, वे आततायी लोक यद्यपि वेद जानने वाले त्राह्मण जातीके भी हो तो भी वे मारने की इच्छा रखते हैं अतः उनको मारना चाहिये उनको मारनेसे हत्याका दोष लगता नहीं है. इत्यादिरूप अन्यमतों के सेवक सूचक नहीं हैं. जिनधरफान कलपहर है अर्थात् ज्ञानावरणादि उच्च कर्म अज्ञानादिक भाकप का नाश करता है, इसलिये इसका हमेशा अध्ययन करना चाहिये. जिनशिक्षा गुणाम आवहिदपणा भावसेव वणवो य संवेगी ॥ विपदा तवो भावणा य परदेसिंगचं च ॥ १०० ॥ गद्यम् - सर्व भावहिताहित। श्वोधपरिणामसंवर प्रत्यग्र संवेगरत्नत्रय स्थिरत्वतपोभावनापरदेशकस्वलक्षणा गुणाः सप्त संपयन्ते जिनवचन शिक्षणा ॥ १०१ ॥ बिजयोदयादपिण्णा आत्महितप्रतिशानं इंद्रियसुखं गतिं हितमिति कुन्तिं जनाः | दुःखप्रतीकारमात्र तत् । अपकालिक, पराधीनं रामानुबंधकारि, दुर्लभ, भरावदे, शरीरायासमात्र, अशुचिशरीरसंस्पर्शनजं । तमास्य बालस्य सुखबुद्धिः निःशेषदुखपायजनित स्वास्थ्यं मचलं सुखमिति नवेति। जिनवचोऽभ्यासाधिगच्छति । भावपरो भावः परिणामः तस्य संषरो निरोधः । ननु परिणाममंतरेण न श्रध्यास्यास्ति क्षणमात्रमव्यवस्थानं तत्किमुध्यते भावसंबर इति । परिणाम विशेषसिरिह भाषशम्य दति मन्यते । तथा वक्ष्यति सात पंत्रेदीसंबुडो इति अशुभकर्मा दाननिमि परिणामहणमिह सरागापेक्षया । पीता योगनिमित्ततया पुण्यः सवपरिणामसंवरोऽपि ग्राह्यः प्रवणत्रो य प्रत्यन्नः प्रत्ययः । संवेगो में श्रद्धा जिनवचनाभ्यासादुपजायते। किंदा निश्चलता। ये तो स्वाध्यायाख्ये तपश्च । भावणाय भावना च गुणां परदेसिंगनं च परेषामुपदेशकता च । | कटहरे भावकर्ममलाप मूढाः — अवहिदपरिमाण नया हिन हिनहित च आत्मादितपक्षाने अनात्मशब्देोपः जीवाजीवाद । वोत्तर गावा। नाव भावोऽव सरगापेक्षया पाप .. HTT आश्रा २४ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना २४९ अलवण मातुः परिणामस्तस्य संवरो निरोधः । वीतरागाणां केषांचिच्छुद्धोपयोगनिमित्ततया पुण्यासषपरिणाम सबरोपि प्रायः । संवेगो धर्मे श्रद्धा । अत्र संसारभीरताक्षणसंवेगकारणको धर्मोऽपि संवेशवेन ते । कारणे कार्योपचारातू । शिक्षकंपदा रत्नत्रये निश्चलत्वं । तबो स्वाध्यायाख्यं तपः । भावणा गुतितत्परता परदेसगतं परेषामुपदेशकर्तृ । ते स गुणा जिनवचनाभ्यासाज्जायते इति संबंध: । जिनवचन के अध्ययनसे कोनसे गुण प्राप्त होते हैं इसका वर्णन आचार्य संक्षेपसे करते हैं अर्थ — आत्माके हितका ज्ञान जिनवचनसे होता हैं-लोक अहितकर इंद्रियसुखको हितकर समझते हैं. यह सुख दुःखका केवल प्रतीकार ही है, अल्पकालतक ही रहता है. तदनंतर उसका नाश होता है. इंद्रियां और पदार्थों के यह आधीन है. रागभावको उत्पन्न करके आत्माको कर्म बद्ध करता है. दुर्लभ है. दुर्गतीका भय उत्पन्न करता है. शरीरके आयाससे वह उत्पन्न होता है. अपवित्र शरीरके स्पर्शसे उत्पन्न होता है. ऐसे इंद्रियसुख में अज्ञ जीवको मुखबुद्धि हो रही हैं. संपूर्ण दुःखोंका नाश होनेसे उत्पन्न होनेवाला, आत्मामें हमेशा रहने वाला, निश्चल ऐसे आत्मसुखको अड़जन सुख समझते नहीं है. परंतु जिनवचन के अभ्याससे भव्यजीवोंको आत्मिक सुखका ज्ञान होता है, इसलिये जिनवचनमें आत्महितप्रतिज्ञा नामका गुण है यह सिद्ध हुबा, भावसंबर - यह दूसरा गुण है. शंका भाव पदार्थका परिणमन-संवर-निरोध अर्थात् पदार्थो का परिणमन होना बंद पडना ऐसा भावसंवरका अर्थ होगा. परंतु यह अर्थ ठीक नहीं है. क्योंकि पदार्थने यदि परिणमन होना बंद होगा तो वह एक क्षणतक भी अपना अस्तित्व न रख सकेगा. अतः भावसंवर जिनवचनका गुण मानना योग्य नहीं है. उत्तर -- यह भावशब्दका अर्थ आपने जो किया है वह नहीं है. अशुभ कर्मका आसव जिनसे होता है ऐसे पापपरिणामोंका- विचारोंका त्याग करना यह भावसंवरका अर्थ यहां प्रस्तुत है। सरागी जीव अशुभ परिणामोंको जिनवचन के अध्ययनसे त्यागते हैं. अतः जिनवचनमें भावसंवर नामका गुण है ऐसा आचार्य कहते हैं. वीतराग अवस्थाको प्राप्त हुए मुनिओंको जिनवचन शुद्धोपयोंगके लिये कारण होता है. अतः वीतराग मुनीकी अपेक्षासे yourari लिये कारण जो परिणाम उनका संवर होना भावसंवर शब्दसे कहा जाता है, जिनवचनका प्रतिदिन अभ्यास करनेसे नवनच संवेग नामक गुष्णका लाभ होता है, अर्थात् जिनधर्म में गाढ श्रद्धा ३६ आ २४३ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास उत्पन्न होती है. इस जिनवचनके अभ्याससे रत्नत्रयमें निक्षलता प्राप्त होती है. स्वाध्याय नामक तपकी सिद्धि होनी है. गतिओंमें भावना होती है और भव्योंको उपदेश देनेका सामर्थ्य पैदा होता है. १२ आदहिदपणा इत्यस्य व्याख्यान माथोत्तरा पणाणेण सव्वभाबा जीवाजीबासवादिया तधिगा ॥ णज्जदि इहपरलोए अहिदं च तहा हियं चेव ॥ १०१ ॥ सर्व जीवादयो भावा जिनशासनशिक्षया ॥ तत्वतोऽत्रावबुध्यन्त परलोक हिताहिते ।। १०२॥ विजयोदया-जाणेण ज्ञानेन । सम्बनाया सर्व पदार्थाः । जीवाजीवादिगा जीचाजीवाम्नचर्यधसंघरनिर्जरा. मोक्षाः । तधिगा तथ्यभूताः। णक्रांति शायन्ते । सधा तनय प्रकारेण । इहपरलोप रह परमिश्च लोक । अहिले अहितं । हिद हितं चैन । ननु च ग्रादझिंदाणा त्या हितर वैध दिसूचितत्वात् जीयादिपरिक्षानं असूचितं कथं त्याच्यायते पूर्वममिहितं हितमनुक्त्या ? अश्रोच्यते-आत्मा च हितं च आत्महिते तयोः परिक्षानं रति गृहीतं । न चात्मनो हितमिति । ततो युक्त व्याक्यातं । पयमपि जीव पष निर्दिष्ट इत्यजीवाधुपन्यासः कथं ? आरमशब्दवस्तूपलक्षणस्वाददोषः । जीवाजी वास्त्रवर्षधसंघरनिर्जनमोक्षास्तत्त्वं इस्पत्र सूने भादौ निर्विधो जीवः असिस्नोत्तरोपलक्षणं क्रियते। अधषा " जा सये समतं पाणमणेतस्थविस्थिदं विमर्श । रहिवंतु उग्गदादि सुइति एयतिय भणिय" इति षचना भतहानरूपं सुग्ने यदि हितमिति गृहीतं, तथापि चेतनाया जीवत्वाच्चैतन्यावस्थास्वरूपत्वात् केवलस्यावस्थानास्मात्मा ज्ञातव्य एष । मोक्षस्तु कर्मणां तदपायतयाधिगंतन्यः । तस्परिज्ञानमजीयेऽनिर्माते न भवति । पुनलानामेव द्रव्यकर्मत्वात् तहियोगस्य मोक्षत्वात् । स च मोक्षो बंधपुरस्सरः । न यसति धंधे मोक्षोऽस्ति । स च बंधो नासत्यापे। मोक्षस्य चोपापी संपर निजरे । अहित इति यदि दुः गृहशते तदेहलौफिकमनुभवसिद्धमेय । कि तत्र जिनवचनेन ? अहितकारणं यद्यहितमुच्यते तत्कर्म तच्चाजीववचनेन आक्षिसे । अध हिसादयः परंपराकारणत्वेन दुःखस्यावस्वित्ताः अहितशम्देनोच्यन्ते । तथाप्ययुक्तं भाम्रयऽन्तर्भूतत्यात् । अयोध्यंत-अमुभूनमपि दान अस्मिअन्मनि जनमतयो विस्मरंत्यत पप सम्मान दकित । तेषां स्मृति जेन्यते जिमयननन मजमवापदा प्रफटनन । जुगुनिसते कुल मातुभूतिर्षिनिभास्ता रोगोरगरशनमनिता विपदः । निद्रथिणसा, दुर्भगता, अबधुता, अनाथता, मार्थितदधिणपरांगनालाभधूमध्यजनिग्धचित्तता, द्रविणवतां कुत्सितप्रेषणकरणं, तथापि तेषां आमोशननिर्भर्सनताउनादीनि परवशतामरणावीन्येवमादिना, इव लोके हित दान तपःप्रभृतिक हितकारण हित इति यदा गृखते ' हितमारण्यमौषधं पति यथा । यतो दानाविके कुशलकर्मणि वर्तमाना जनैः स्तूयते पंचते । उक्तं च २४२ - - Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावासः मूलाराधना ....... . वामन तिति पशांसि लोके । बानेन पैराण्यपि यान्ति माशम् ।। 'परोऽपि बंधुत्यमुपैति वानात्तस्मात्सुवान सततं प्रदेयम् । चक्रधरावयोऽपि प्रगतिमायाम्ति तपोदधिणानाम् । परलोके अद्वितं भवान्तरभाषिदुःख मरकगती हि, तिर्यक्त्यं च, परलोके हित नि(तिमुह, तदेतत्सकलं नवघोधयति जैनी भगवती मारती ।। आत्महितपरिझा व्याचष्टेमूलारा--तधिया तथाभूताःआत्महितपतिज्ञा नामके गुणका वर्णन-- अर्थ-ज्ञानके प्रभावसे जीव, अजीच, आस्रव, बंध, संघर, निर्जरा और मोक्ष ऐसे सात पदार्थोंका सत्य स्वरूप जाना जाता है. तथा इसके सामर्थ्यसे इहलोकमें और परलोकमें हिताहितका भी परिज्ञान होता है. शंका- आद हिटगडण्णा इस रूट में हितहाटी परित्रात भरलेना सूचित किया गया है. जीवादिकोंका परिज्ञान उपयुक्त शब्दसे सूचित नहीं होता है. अतः पूर्वमें कहे हुए हितका स्वरूप प्रथम कहकर ही इतरोंका स्वरूप कहना चाहिये था. यह तो आपका अनुचित कथन हुआ? उत्तर-आत्माहत प्रतिज्ञा इस शब्द का अर्थ या समझना--यहाँ द्वंद्वसमास है अर्थात् ' आत्मा च हितेच आत्महिते 'एला आत्मादित्त शब्दका विग्रह होता है. अथान आत्मा और हित इन दोनोंका जा ज्ञान उसको आमहितप्रतिज्ञा कहते हैं. 'आत्मनो हित आत्माका हित एसा पाठीतत्पुरुष नमाम यहां समझना भूल है. - शंका-आत्महितप्रतिज्ञासे जीवके हितका ज्ञान होना ही अभीष्ट रहा, अजीवादिकोंके ज्ञानकी आवश्य - कता न रही ? उत्तर-आत्मा शब्द उपलक्षणात्मक है अतः उसके साथ अजीवादिकोंका भी ग्रहण कर सकते हैं, 'जीवाजीवास्रबंधसंबरनिर्जरामोक्षास्तत्वं ' इस सूत्रमें प्रथम जीवका निर्देश किया है. इसलिये वह प्रसिद्ध है. प्रसिद्धके साथ अप्रसिद्धकाभी उपलक्षणसे ग्रहण होता है अतः अजीवादिकका भी आत्महितप्रतिज्ञा इस शब्दसे ग्रहण कर सकते हैं. अथवा केवलज्ञान अनंत पदार्थों को जानता है, वह स्वयं कर्मका नाश फरफे उत्पन्न हुआ है, पूर्णताको प्राप्त हुआ है, विस्तीर्ण है और कर्ममलसे रहित होनेसे निर्मल है. अवग्रह, ईहा वगैरे विकल्पोंस ATMELABRDASTIMATALABEBEST २४३ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना २४४ गहित और सर्वथा सुखमय है. ऐसा केवलज्ञानका आचार्य स्वरूप कहते हैं. सुखपदार्थ ज्ञानरूप ही है, वह आन्मा का आस्तविक हित है. अतः वह यहां हितशब्द से संगृहीन होता है. तथापि चेतना यह जीवका स्वरूप है व चैतन्य रूप अवस्था है. उसको जानने के लिये आत्माको जानना आवश्यक है. कमॉका संपूर्ण नाश होना ही मोक्ष है. उसका स्वरूप अजीय पदार्थको जाने विना समझ में आ नहीं सकेगा. सूक्ष्म पुद्गल ही द्रव्यकर्मरूप बनता है. उसका नाश होनाक्षी मात्र है, मोक्ष बेधपूर्वक होता है, यदि कर्मबंध न होगा तो मोक्ष किसको होगा. अर्थात् जो आत्मा कर्म बद्ध है वही कोका नाश कर स्वतः मुक्त हो जाता है, यह बंधी कासबके विनर होता नहीं. संवर और निर्जरा मोक्षके उपाय है. अहित शम्दका अर्थ यदि दुःख ऐसा है तो वह इहलोकसंमंधी दुःख अनुमबसिद्ध है ही उसको जतलानेकेलिये जिनवचनकी क्या आवश्यकता है । अहितका जो कारण है वह यदि अहित शन्दको पाच्य है तो कर्म ही अहितका कारण है ऐसा मानना पडेगा. उस कर्मका इसही माथामें अजीब शब्दसे ग्रहण किया है. यदि हिंसादिक दुःखके परंपरा कारण हैं और वे अहित शब्दसे संगृहीत होते है ऐसा कहते हो तो यह भी कहना युक्तियुक्त नहीं है. क्योंकि हिंसादिक कारणोंका आसव में अन्तभाव होता ही है, इस शंकाका उत्तर आचार्यने इस प्रकार दिया है अनुभवमें आया हुआ भी दुःख अज्ञजन भूल जाते हैं इसीलिये सन्मार्गके प्रति गमन नहीं करते हैं. ऐसे लोगोंको जिनवचन दुःखोंकी स्मृति दिलाता है. अर्थात् वह मनुजमवमें क्या क्या आपदायें आती है उनको दिखलाता है. जैस-जुगुप्सितकलम-हीन कुलमें उत्पत्ति होती है. और वहां नानाविध रोगरूपी सर्पके दंशसे अनेक आपचियां उपस्थित होती हैं. दारिन्ध, कुरूपता, बंधुरहितपना, अनाथपना, ये अवस्थायें प्राप्त होती हैं. इच्छित धनकी प्राप्ति होना, परांगनाका लाभ न होनसे मनमे झरना, श्रीमान लोगोंके द्वारा कुत्सित कार्य करनेकी आज्ञा होना, उनकी गालियां सुनना, उनके द्वारा किया गया अपमान, पीटे जाना, परवशता इत्यादि दुःखोंको महन करना पड़ता है. इत्यादि दुःखोंका स्वरूप जिनवचन अज्ञ जीवोंको बतलाता है. असे अरण्यकी वनस्पतिजन्य औषधि हित करती है बैंस इस लोकम दान, तप बगैरह कार्य हितके कारण हैं अतः उसको हित कहते हैं. दानादिक पुण्यकार्यमें जो तत्पर रहते हैं उनकी लोक स्तुति और चंदना करते है, आगममें इस विषयमें ऐसा कहा है--- Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भासः दान देनेसे जगतमें दाताकी कीर्ति चिरस्थायी होती है. दानसे वैरका नाश होतर है. शत्रु भी मित्रताको शा हो. हैं . यो सामान देना चाहिये. तपस्पी धन जिनके पास है उनको इंद्र चक्रवर्ती वगैरह महापुरुष वंदन करते हैं. हिमादिक पाप करनेसे परलोको दुःख भोगना पड़ता है. अर्थात् नरकगतीमें नरकायस्थामें दुःख ही दुःख भोगना पडता है. तिर्यम्गतिमें पशु होकर दुःख सहना पडता है. दानादिकस परलोको हित होता है. अन्तमें मोक्षसुख मिलता है. इन सब हिताहितोंका जिनश्वरकी पूज्य वाणी वर्णन करती है. आत्महितापरिक्षाने दोषमाचष्टे आदहिदमयाणतो मुज्झदि मूढो समादियदि कम्मं ॥ कम्मणिमित्तं जीवो परीदि भवसायरमणंतं ॥ १०२ ।। हिताहितमजानानो जीवो मुवति सर्वथा । मूढो गृह्णाति कर्माणि ततो भ्राम्यति संसृतौ ॥ १०३ ।। विजयोदया-यादहिदमयाणतो आत्महितमबुध्यमानः । मुज्झदि मुखति । अहित द्वितमिति प्रतिपद्यते मोहं । को दोष इत्यत आह-मूढो मोहवान् समादियदि समादत्ते । क कमेसामान्यशब्दोप्पय अशुभमतृत्तिाहाः । कर्म प्रहाणे को दोष इत्यत आइ-कम्मणिमिस कर्महेतुकं, जीवः परीदि परिभ्रमति । किं ? भबसायरम् भवसमुद्रं अणंनं अनन्तम् ॥ अत्महितापरिक्षाने दोषमान - मृलारा-समादियदि समादने सगम्दान्मनोवाक्कायरादत्ते गृहाति । कम्म कर्म मोहदे तुकवादशुमं । परीदि पर्यन परिभ्रमतीत्यर्थः। श्रात्मा और हितका यदि ज्ञान न हो तो क्या दोष उत्पत्र होगा इस प्रश्नका उत्तर अर्थ-जिसको आत्माका और हितका स्वरूप ज्ञात नहीं हुआ है वह जीव मोहित होता है अर्थात् अहितको हित मानता है, मोहले वह अनंत संसारमें भ्रमण करानेवाले अशुभ कर्मका बंध कर लेता है. तात्पर्य - Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना २४६ मोहयुक्त जीव हिताहित न समझकर अशुभ कर्मसे बद्ध होता है. और वह कर्म जीवको अनंत संसारमै घुमाता है. अतः संसारसे छुटकारा पानेकेलिये आत्मा और हितका परिज्ञान कर लेना आवश्यक हैं. आत्महितपरस्योपयोगमादर्शयति जाणतसादहिदं अहिदणियत्ती य हिदपबत्ती य । होदि य तो से तम्हा आदहिदं आगमेदव्वं ॥ १०३ ॥ ferrer हिदिधने ॥ यतस्ततः सदा कार्य हिताहितविबोधनम् ॥ १०४ ॥ विजयोश्या-जाणतस्स जानतः । आइहिनं आत्महितं । अदिणियसीय अहितनिवृत्तिश्व हिंदूपवतीय हिते प्रवृति होदिय भवति । तो तनः हितज्ञानात्पश्चात् । तथा तस्मात् आदहिदं आत्महित | आगमेदज्य शिक्षित । अब चोद्यतन निशम्य हि प्रवृत्ति अशिकि? अनि हित महि यतो न भवति । वया-वागरेऽववते न सकः भिन्नं न हिताहितं तखारिनोट अजानन कतिभियोगतो निवनेत ते सर्वमंत्र वस्तु स्वपरभावाभावो भयाधीनात्मानं यथा घटः पृधुलोदरायाकारात्मकः पटादिरूपतयाऽग्राहाः, अन्यथा विपर्ययस्थं तज्ज्ञानं भवेत् । एवमिहापि द्वितविलक्षणमहिनं अजानता लक्षणता हि बाता भवेत् । अतो निशोऽहितमपि वेतीति युक्ता निवृतिस्ततः शिक्षाया अशुभभाव संवर हेतु प्रतिपद्याह । आत्महितपरिज्ञानस्योपयोगमादिशति— मूलारा-अहिणियत्ती अहितान्निवृतिः । न चैवं शेक्त्र आत्महित्रज्ञस्य कथमहिता निवृत्तिस्तत्त्वरूपापरिज्ञानात् । हितं हि अतिविलक्षणं अवस्तज्जानन्नहितमपि जानात्येवान्यथा दिवज्ञातस्याप्यसंभवात्पटायपरिज्ञाने तद्विलक्षणचटापरिज्ञानवत् । तो शतां दिवाहितानाखान् से तस्य हिताहितमपि जानात्येव । अन्यथा प्रवृत्तिनिवृत्यर्थिनः कर्तुः आगमेवव्यं आगमयितव्यं शिक्षितव्यमित्यर्थः । आत्महित साधनेमें उद्युक्त हुए प्राणीका उपयोग बताते हैं- अर्थ - जो जीव आत्माके हितको पहिचानता है वह अहितसे परावृत्त होकर दितमें प्रवृत्ति करता है. इस वास्ते हे भव्यजन हो ! आत्महितका आए परिज्ञान करलो, आश्र २४ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाराधना आश्वा यहां शंका जो आत्महित जानता है उसकी हितमें प्रवृत्ति होती है यह कहना योग्य है परंतु जो अहिन के स्वरूपको जानता ही नहीं है तो वह उससे कैसे परावृत्त हो सकेगा. जो अहितज्ञ है वही उससे परामृत्त होगा. हित और अहित ये दोनो ची मिट है जो भित्रि ३ दि जाना जायगा तो उसमे भिन्न अन्य भी फैंसा जाना जावंगा जैसे वानरका ज्ञान होनेसे मगरका ज्ञान नहीं होता है, वैसे हितसे अहित भिन्न है. अनः हितको जाननेयाला अहितको न जाननेसे अहितसे कैसे परावृत्त होगा? उत्तर-सर्व ही वस्तु स्वभावसे उत्पन्न होती है और परभावसे अनुत्पन्न मानी जाती है. अर्थात् स्वस्वरूप की अपेक्षासे प्रत्येक वस्तु भावात्मक है. वही वस्तु परकी अपेक्षासे अभावात्मक भी है. जैसे बड़ा पेट, शंखाकृति गला इत्यादि स्वस्वरूपसे घट पदार्थ जाना जाता है. यदि वह घट परस्वरूपसे भी जाना जायगा तो वह जानना 'विषरीतज्ञान' है. अतः घटको जाननेके समयमें ही घट पट नहीं है ऐसा भी ज्ञान होता है. हितको जानते समयमें ही अहित भी हिससे उलटा है यह जाना जाता है. यदि हितके विलक्षणरूप अहितको न जाना जायगा तो हितका ज्ञान नहीं होगा. इसलिये हितज्ञ जीव अहितको भी जानता है ऐसा समझना चाहिये अतः वह आहितसे परावृत्त होता है. सम्झायं कुवंतो पंचिदियसुबुडो तिगुत्तो य ॥ हवदि य एयग्गमणो विणएण समाहिदो भिक्खू ॥ १० ॥ स्वाध्यायं पञ्चशः कुर्व स्त्रिगुप्तः पंचसंघृतः॥ एकाग्रो जायते योगी विनयेन समाहितः॥ १०५ ॥ विजयोदया-मुज्झाय स्वाध्याय पंचविधं वाचनाप्रश्नानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशभेदन । तत्र निरवार ग्रंथस्य ध्यायनं तदर्धाभिधानपुरोगं वाचना । संनिवृत्तये निश्चितबलाधानाय वा सूत्राविषयः प्रश्नः । अवगतार्थानुप्रेक्षणं अनुप्रेक्षा । आम्नायो गुणना । आक्षेपपी, विक्षपणी. संवेजनी, निवेदनौति चतस्रः कथास्तासां कथन, धर्मापदेशः । तं स्वाध्याय कुर्यन पिचिंदिय सत्रुडा होदि पंचद्रियसंवृतो भवति । ननु निष्ठांतस्य पूर्वनिपातासंवृतपंचेंद्रिय' इति भवितव्यम् ? सत्यं । जातिकालसुखादिभ्यः परवचनम्' इत्यनेन पंचेंद्रियजातिसिरिति जातिवचनः । ततो निष्टांतः परत:प्रयुज्यते इति मन्यते । इंद्रियमनेकमकारं द्रव्येद्रियं भावेन्द्रियं इति इद तु रूपाएपयोगाद्रियानोच्यते। तेनायमर्थ स्वाध्या SA -edamAdstar-ARASTRATAK १४ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूजाराधना २४८ यानिरुद्धरूपाद्युपयोगो भवति इति । रूपाद्युपयोगनिरोधे किं फलं ? रागाद्यप्रवृत्तिः । मनोज्ञामनोरूपयोगावलेवनी रागद्वेषौ । नानवबुध्यमानो विषयः स्वसत्तामात्रेण तो करोति । सुप्तेऽन्यमनस्के या रागादीनां विषयसभिधायव्यदर्शनात् । " गदिमधिगदस्त देहो देहादो इंदियाणि जायंते ॥ तत्तो बिसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥ 19 इति घञनाच्च । कथं स्वाध्याये प्रवर्तमानः । विप्रेण समाहिदो नविनयेन समन्वितो भूत्वा यः स्वाध्यायं करोति । तिगुत्तो य होदि । तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तइव भवति । मनसोऽप्रशस्त रागाद्यनवलेपाल्, अन्दतरूक्षपयप्रकर्कशात्मस्त्वनपरदुषणादावव्याप्तेः हिंसादी शरीरेणाप्रवृत्तेश्च समणो य होदि भिक्खू इति पद्मटना – एकमुखांतः करणश्च भवति भिक्षुः स्वाध्याये रनः । एतदुक्तं भवति-ध्याने प्रवृतिमन्यासादयतीति । न कृतश्रुतपरिचयस्य धर्मशुलभ्याने भवितुमर्हतः । अपायपायभवविपाक लोकविना परवाने जिवलादेव 'शुक्ले चाये पूर्वविदः ' इत्यभिहितत्वाच्च ॥ शिनाया अशुभ भाव संवर हेतुत्वं विवृण्वन्नाह - मूलारा -- सज्यायं वाचनादिचविधं स्वाध्याय पंडियो पंचापि इंद्रियाणि संवृतानि यथास्वमिष्टानित्रयेभ्यो व्यावर्ततानि येन । तितो निगृहीताशुभमनोवस्कायव्यापारः एवमणी एकाग्रमनाः ध्यानप्रवृत्तिमानपि स्यादिति भावः । विषएण समाहिदो अप्रविधज्ञानविनयेन संयुक्तः सन्वाध्यायं कुर्वमिति संबंधः । जिनवचनका अध्ययन करनेसे अशुभ भावों का संबर होता है इसका आचार्य वर्णन करते हैं अर्थ - चाचना, प्रश्न, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ऐसे स्वाध्यायके पांच भेद है. जिसके पदनेसे और पढानेसे पापात्रय न होंगे ऐसे ग्रंथको और उसके अर्थको पढ़ा देना वाचना स्वाध्याय है. प्रश्न- जो आगमका fare मनमें निश्चित किया है उसमें विशेष दृढताके लिये अथवा संशय दूर करनेके लिये सूत्रार्थविषयक प्रश्न आगमज्ञको पूंछना. अनुप्रेक्षा-जो विषय जान लिया है उसका मनमें चिंतन करना. आम्नाय पढा हुत्रा विषय बार बार बोकना. धर्मोपदेश- आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी, और निर्वेजनी ऐसी चार धर्मकथायें है. उनका भष्योंको उपदेश देना, यह पांच तरहका स्वाध्याय करनेसे पांच इन्द्रियों संयम युक्त होती हैं. अर्थात रूपादि विषयों प्रति ये दौडती नहीं. इन्द्रियसंयमसे नये रागद्वेष आत्मामें उत्पन्न नहीं होते हैं. इष्ट रूपादि वस्तुओंके तरफ जब इंद्रियां प्रश आश्वासः २ २३८ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः होती है तब रागविकार पैदा होता है. अनिष्टरूपादि विषयासें उप उत्पन्न होता है. इष्टानिष्ट पदार्थ समीप होनेपर भी यदि उनके तरफ इंद्रियोंका उपयोग न लगेगा तो वे पदार्थ केवल अपने अस्तित्वमात्रसे जीवमें रागद्वेष उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते हैं. जिस समय आस्माका दूसरे तरफ मन चल जाता है अथवा यह सोता है उस समय इंद्रिय विषय समीप होनेपर भी रागद्वेष उत्पन्न नहीं होते हैं. शंका-निष्ठास्ययास शब्दके साथ जब समास होना है तब वह शब्द समासमें प्रथम प्रयुक्त होता है अतः ' मंचनपंचेंद्रिय ' एसा समस्त शब्द बनेगा. ' पंचेंद्रियसंवृतः ' यह समास योग्य नहीं है, उनर--'जातिकालसुखादिभ्यः परवचनम् ' इस सूत्रमे पंचेंद्रिय शब्द जातिवाचक होनसे समास करते समय प्रारंभ में पंचेंद्रिय शब्दका प्रयोग किया है. अनंनर निष्ठाप्रत्ययांत संवृत शब्द जोर देनेस' पंचेन्द्रिय मंचनः एमा समस्त शब्द हुआ है. इन्द्रियशब्द जातिवाचक है. इंद्रियके द्रव्येद्रिय और भावेंद्रिय पसे दो भेद हैं. रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द ये इन्द्रियोंके विषय हैं. अपने अपने विषयोंक नरफ उपयोग लगना यह भावन्द्रिय है, स्वाध्याय करनेसे इंद्रियानरोध होता है और इंद्रियनिराधसे रागादिक विकार उत्पन्न नहीं होते हैं. चतुगति में भ्रमण करनेवाले इस जीवको देह प्राप्त होता है. देहकी प्राप्ति होनेसे इंद्रियां उत्पन्न होती है. वे अपने अपने विषयको ग्रहण करती हैं, अतः विषयग्रहणसे रागद्वेष उत्पन्न होते हैं. जो मुनि ज्ञानविनयपूर्वक स्वाध्याय करता है वह त्रिगुप्तिधारक होता है अर्थात् उसका मन अप्रशस्त रागद्वेयादिकोंसे आलिप्त रहता है. उसके मुखसे असत्य, रूक्ष, कठोर, कर्कश, स्वस्तुतिपर और परदूषणात्मक वाणी बाहर आती नहीं. हिंसादि कार्यों में उसका देह प्रवृति करता नहीं, इस रीतिमे त्रिगुप्ति धारक वह मुनि एक विषयक तरफ अपने मनको स्थिर करके ध्यानमें तत्पर हो जाता है. स्वाध्याय करनेसे श्रुतज्ञानमें परिचय होता है, जब श्रुतज्ञानकं साथ यतीका परिचय होता है तब धर्मध्यान और शुक्लध्यानकी प्राप्ति होती है. अपायविचय, उपायविचय, भवविचय, लोकविचय, विपाकविचय वगैरह धर्मध्यानके भेदोंका ज्ञान जिनवचनके सामर्थ्यसे होता है. आगममें 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः' अर्थात् चौदह पूर्वाका श्रुतज्ञान जिसको है ऐसे मुनिराजको धमध्यान और शुक्लध्यानकी माप्ति होती है ऐसा कहा है. ShareTestBSION Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारामना आश्चार २५० मत्पप्रसंवेगमभवकममाचप्ले जह हह हुदमोग्गाहदि शदिसभरलारणलटतपु ॥ तह तह पल्हादिज्जदि नवनवसंवेगसडाए ॥ १०५ ।। अदृष्टपूर्वमुच्चार्थमभ्यस्यति जिनागमम् ॥ यथा यथा यतिधर्म प्रहष्यति तथा तथा ॥ १०६॥ घिजयोदया-जह जद्द यथा यथा । सुदं श्रत ओग्याइदि अयगाइते । शचक्षुताभिधेयमधिगच्छतीति यावत् । अविसयरसपसरं अतिशयरसप्रसरं समयांतरेषु अनुपलब्धोऽर्थोऽतिशयितो रसः । शन्दस्य हि रसोऽर्थः तस्य सारस्वात् आम्नफलादिरस य । प्रसरशदेदन प्राचुर्यमतिशयितार्थस्य सूचयति । ततोऽयमोऽस्थ-चतिशयाभिधेयवहुलं श्रुतमिति । ननु प्रयादिनोऽपरेऽपि स्वसमय मेव प्रशंसन्ति । प्रत्यक्षेणानुमानेन च विरुद्धमर्थस्वरुपं केवलं नित्यत्वमनित्यतां या निरूपयतामागमानां नातिशयार्थप्रसरता । प्रमाणांतरसंघाद्यागमार्थोऽतिशयितो भवति नापरः । असुदपुच्वं तु भभुतपूर्वमेव । ननु भयानाममब्यानां च कर्णगोचरतामायात्येव श्रुतं किमुच्यतेऽथुतपूर्वमिति ? अर्थश्रुताभिधेयापरिज्ञानाच्छन्दमात्रं श्रुतमप्यनुतं रति गृह्यते । तदप्ययुक्तं अर्थोपयोगस्यापि असकृत् शातत्यात् । अयमभिप्रायः प्रधानसहचारियोधाभावारळूतमप्यातमिति । तइ तह पल्हादिज्जइ तथा तथा प्रल्हावमुपैति । नवनयसबेगसाप प्रत्यनतरधर्मश्रद्धया। ननु च संसारा. श्रीराता सेवेगः ततोऽयमर्थः स्यादसंबंधः । न दोषः । संसारभीरुताहेतुको धर्मपरिणामः । आयुधनिपातमीरताहेतुककषधग्रहणयत् । तेन संयेगशब्दः कार्ये धर्मे वर्तते ॥ श्रुतावगाहनस्य नवनवसंवेगनिमित्तत्वं प्रतनोतिमूलारा-उम्गाइ दि अषगाहते शब्दसमयादर्थसमयमधिगच्छति ॥ १०३ ॥ नधीन संवेग भी स्वाध्यायसे प्राप्त होता है इसका वर्णन आचार्य करते हैं अर्थ-जिनेश्वर के शब्दात्मक श्रुतज्ञानमें अन्य मतोंमें अप्राप्य ऐसा अर्थ भरा हुआ है. जैसा आन फलमें रस भरा हुआ रहता है वैसा ही शब्दात्मक श्रुतज्ञानमें सर्वोत्कृष्ट अर्थ भरा हुआ है. यह अर्थरस अन्यमत के शब्दात्मक कुश्रुतमें भरे हुए अर्थकी अपेक्षासे अधिक उत्कृष्ट है.. शंका-जैसे आप अपने मतकी प्रशंसा करते हो वैसे अन्यमती भी आपने ही मतकी प्रशंसा करते हैं. अतः आपके मतकी विशेषता कैसी सिद्ध होगी? HOR HB २५० Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास लाराधना उत्तर-अन्यमतमें कहा हुवा जीवादिक पदार्थोंका स्वरूप प्रत्यक्ष और अनुमानसे बाधित है. जीवादि पदार्थ सर्वथा नियही है या अनिरर ही है ऐसा उनके आगममें कहा हुआ है. पदार्थ सर्वथा नित्य वा अनित्य सिद्ध नहीं होते हैं. उनका नित्यानित्यपना सिद्ध होता है, जो वस्तुस्वरूप एक प्रमाणसे सिद्ध होता है वही अन्य प्रमाणसे भी सिद्ध हो तो वह वस्तु सातिशय मानी जाती है. और यदि प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध दुवा वस्तु स्वरूप अनुमानादिकसे बाधित होता है तो वह वस्तु सातिशय नहीं है. अस्तु. यह जिनप्रतिपादित शब्दश्रुतज्ञान पूर्व कालमें इस जीवने कभी सुना नहीं है. शंका-भव्य अथवा अभव्य जीयक कर्णपथ पर यह शब्द श्रुत आयादी होगा अतः आप इसको अश्रुतपूर्व नहीं कह सकते हैं. इस शंकाका कोई ऐसा समाधान करते है. "जो शब्द सुने उनके अर्थके तरफ ध्यान नहीं दिया अथवा उनका अर्थ ज्ञात नहीं हुआ तो वह अश्रुतपूर्व ही है" यह समाधान भी योग्य नहीं है. शब्दात्मक श्रुत सुनकर उसके अर्थको भी अनेकवार जान लेते हैं तथापि वह अनुतपूर्व ही समझना चाहिये. उपर्युक्त शंकाका परिहार इस प्रकार समझना चाहिये-शब्दात्म श्रुत सुनकर उसके अर्थ को भी समझ लिया परंतु उसके ऊपर यदि श्रद्धा नहीं है तो वह सब सुनकर और जान लेने पर भी अश्रुतपूर्व ही समझना चाहिये. इस शब्दश्रुतके अध्ययनसे अपूर्व अर्थोका ज्ञान होता है. और उत्तरोत्तर संवेगधर्मश्रद्धा बहनसे मनमें बड़ा आनंद उत्पन्न होता है, संवेग शब्दका अर्थ संसारभीरता ऐसा होता है परंतु उपयुक्त अर्थ असंबद्ध दिखता है एसी शंका भी ठीक नहीं है. जैसे मेरे अंगपर शस्त्रप्रहार होगा इस भयसे वीरपुरुष कवच धारण करता है अर्थात् शस्त्रप्रहारभय यह कवच धारण करनेका हेतु है वैसे संसारभीरुता यह कारण है और उससे उत्पन्न हुई धर्मश्रद्धा कार्य है, यहां आचार्यने संवेग शब्द कार्यरूप धर्मश्रद्धा में रूह किया है ऐसा समझना चाहिये. REARREARNADA निष्कंपताख्यानायाह आयापायविदण्डू दसणणाणतवसंजमे ठिच्चा ।। विहरदि विसुज्झमाणो जावो दु णिकंपो ॥ १०६ ।। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना २५२ शुद्धा निःकंपनी भूत्वा हेयांदेयविचक्षणः ॥ रत्नत्रयात्मके मार्गे यावज्जीवं प्रवर्तते ॥ १०७ ॥ विजयोदया - आयापायविदण्ड वृद्धिहानिक्रमशः । प्रवचनाभ्यासादेयं रत्नप्रयाभिवृद्धिः पर्व तथा हानिरिति योजनाति असी, दणाणतसंजमे श्रद्धाने, ज्ञाने तपसि संयमे वा । दिच्चा स्थित्वा । विहरदि प्रवर्तते । विमुज्झमाणो शुद्धिमुपानयजीवं जीवितकालावधि | तु शब्दोऽन्तं नेयः । किं दु विनिजांगे निश्चल एवेति यावत् । निःशे फितल्यादिना दर्शनस्य वृद्धिः शंकादिना हानिः । अर्थत्र्यंजनतदुभयशुया स्वाध्याये चोपयोगात् शानवृतिः । अनुपश्रादपूर्वाग्रह शानदानिः । तथा चोकम् - "गहिदं पि गाणं संकुडद विजुतजोगिस्स" प्रति । तपसो द्वादशfat वृद्धिः संयमभावनया बीर्याविनिगूहनात् शानोपयोगात् । द्वातिः पुनस्तद्विपर्ययाद्वैदिककार्यासंगाद्वा । सम्यक् पापक्रियान्य उपरमः संयमः । पापक्रियायाशुभमनोवाक्काययोगाः तेन चारित्रं संयमः । 'पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रं इति वचनात तस्य संयमस्य वृद्धिः पंचविंशतिभावनाभिनिः तासां भावनानां अभावेन । श्रुताविना शानादीनां गुणदोषं या न वेति । अज्ञातगुणः कथं गुणानुवृइथेत् । अचिदितदोषो या न तांस्त्यजेत् । तेन शिक्षायामादरः कार्यः । ताभ्यासादर्शनादिषु निष्कंप प्रकाशयति मूलारा— आयापायविदण्डू वृद्धिहानिक्रमज्ञः । त्रिइरदि प्रवर्तते प्रकृतत्वादर्शनादादेष । विमाणो विद्धिं गच्छन् | तु शिकपो | तुरेवार्थे भित्रकमः । निचट एयेत्यर्थः । तथाहि निःशंकितत्वादिना दर्शनस्य वृद्धिः शंक दिना हानि: । अर्थव्यंजनतदुभयशुद्धच्या स्वाध्याये चोपयोगात् समस्य वृद्धिपनासूर्याणाम शनिः । तपसो वृद्धिः संघभावनया वीर्यविनिगूहनोपयोगाचानिः पुनस्तद्विपर्ययादैहिककार्यासंगा । संयमस्य वृद्धिर्षाङ्मनोऽप्तीयदानेत्यादिनत्रसूच्या निर्दिष्टाभिः प्रतिनियतेत्तर भावनाभिस्तदभावे च हानिः । स्वाध्यायसे निष्कंपता गुणकी प्राप्ति होती है उसका वर्णन - अर्थ-स्वाध्याय करनेसे मुनिराजको हानि और वृद्धिका ज्ञान होता है. अर्थात् आगमका अ यास करनेसे रन्नत्रय में वृद्धि कैसी होती है और उसके अभाव में कैसी हानि होती है ऐसा जाननेवाले मुनीश्वर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, चारित्र और तपमें स्थिर होकर आमरण विशुद्ध परिणामको धारण करनेवाले होकर निश्चयरूपसे रत्नमें विहार करते हैं. सम्यग्दर्शनके निःशंकितत्वादि गुण आगमाभ्यास करनेसे बढ़ते हैं. आगमान्यासके अभाव में संकादिक दोष उत्पन्न होनेसे सम्यग्दर्शनकी हानि होती है. अर्थशुद्धि, व्यंजनशुद्धि, उभय वगैरह ज्ञान विनयके आठ प्रकार है. इनका आश्रय लेकर श्रुतज्ञानमें मन यदि एकाग्र होगा तो सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि होगी अन्यथा माश्वासः २ २५२ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरावना आधामा श्रुतज्ञान में एकाग्रना न होनस और अपूर्व जीवादिपदार्थ का स्वरूप न जाननन सम्यजानकी हानि होती है. 'पुच्चगहिद पि णाणं मंकुडइ विजुनजोगिस्स ' "सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति पूर्व काल में । नुकी हो तो भी अभ्याम छोड देनेसे तथा अपूर्व पदार्थीका ज्ञान कमानेका प्रयत्न न करनेसे वह पूर्व ज्ञान संकृवित होता है ऐसा आगमवचन है. संयमकी भावनासे तपकी वृद्धि होती है. अपनी शक्ति न छिपाना, ज्ञानाभ्यासमें तन्घर रहना, ऐहिक कार्याने अनासक्त रहना यह भी तपोवृद्धिके लिये कारण है. और इसके विरुद्ध प्रवृत्ति करनेसे तपमें हानि होती है. पापक्रियाओं विरक्त होना यह संयम है. मन, वचन और शरीर इन तीन योगोंकी अशुभ प्रवृनीका त्याग करना चारित्र है ' पाप क्रियानित्तिश्चारित्र' ऐया आगण्का गचन है. प्रत्येक अहिंसादिवतोंकी पांच पांच भावनायें हैं. ऐसी पच्चीस भावनाओंके अभ्याससे चारित्रकी उन्नति होती है. भावनाओंका अभ्यास न करनेसे चाग्यि हानिके मार्गका आश्रय करता है. श्रुतका अभ्यास न करनेसे ज्ञानादिकोंके गुण दोपोंका परिक्षान होता नहीं. गुणोंका ज्ञान न होनेसे मुनि उनको उन्नति शिखर पर नहीं ले जा सकते. दोपोंका ज्ञान न होगा तो उनका ये कैसा त्याग कर सकेंगे. अत एव ज्ञानाम्यास आदर करना चाहिये. जिनवचन शिक्षा तपः इत्येतदुग्यते थारसविहम्मि य तवे सभतरबाहिरे कुसलदिहे ।। ण वि अस्थि वि य होहिदि मझायसम यो कम्म ॥ १०७ ।। नास्यभ्यन्तरे याये स्थित द्वादशधा तपः ।' स्वाध्यागन समं नास्ति न भन न भविगान ।।१८।। विजयोदया- चाहम्मि र हादशाप्रकारे । तवे तरसि सयंतरवाहिरसहाय नमान्यां वर्मन ति गाभानग्या हो । यापन यंतर या पो मुक्या किमन्यत्तपो नाम यत्तात्रांसह बनेते इत्युपते: तपःसामान्य विशः सह वर्मतम्यन्यते । सरजारातत्यात अभ्याई लत्याकन अभपतरशम्दस्य पूर्वनिपातोऽल्पस्वरादपि वाहवाध्यात् । कुसददिहे संसारः, संसार कारणं, अधो, बंधकारणं, मोक्षस्त उपायः इत्यष वस्तुनि ये कुशलः सर्वविदस्तै रुपदिष्ट । सायसमें स्वाध्यायेन महश । तपोकम्म तपःक्रिया . वि अस्थि नैवास्ति । ण चिय नैव । होहिदि भविष्यति । नापासीदिति कालत्रयेऽपि स्वाध्याय सदृशस्यान्यस्य तपसोऽभायः कथ्यते । अत्र चोद्यते-स्वाध्यायोऽपि तपो अनशनाधिनपो बुद्धरविशेषान् कमैतपनसा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PHOfeH नुलासचना A RSENIORRHOE मम्मानिदोपान । किगनात वाच्यारसद तपो नेति? कर्मनिर्जराहेनुन्वातिशयापनया सरक्षामन्यत्तपो नवाम्तीमा भिधाय । जरी नाम किमामारिकामा भवत् वा नक्षात्मपरिणामत्वं कय काचदाशयता अनारमपरिणामत्व न निजग कर्यात घटादिवादम्य पोयत -भानपरिणाम ण्य तपः कथं तर्हि बाधता ? बाह्याः सद्धर्ममार्गावे जनाः तैरष्यवगम्यन्यात थाहामिन्यख्यतः नदानादि । बापाचरत् सन्मार्गक्षा अभ्यंतराः । तदगम्पन्चात् घटादिवनेराचरितन्यादा वाहा भ्यंतरमिति मृगगभिप्रायः । संयोपानश्रुतम्रीव म्या यायाय तरः स्यादतस्तन्माहात्म्यमभिष्टौति लारा-भंडाबाहिर अध्यंतराः सन्मार्गशास्तधिगम्यत्वात्तैरेवा चरितत्वादा प्राधान्यनान्तद्रच्याश्रितत्वाधा तपोऽभ्यन्तरनुच्यन । वायाः सन्मागेपहिभूताः तदवगम्यत्वात्तैरेवाचरितत्याहा प्राधान्येन बाहादल्याभितत्वाबा चाहा तपः । अध्यंतरं च बाय च अभ्यंतरबाये सद्द ताभ्यां वर्तमानं तपः सामान्यापेक्षया तथीतम । कुसलदिठे भवजापदिऐ । गा वि य । अब च शब्दात्रायासीन इति प्राधम । सज्झायममं कर्मनिर्जराहेतुत्वानि शबारश्या का प्रयेऽपि म्वा यायेगम्यं नान्यापी तात्यभिप्राय: ।। ध्यानस्य तस्मातुःकृष्टय:पि तत्पूर्वकस्वाहप्राधान्य) म शिक्षित ॥ जिनराकर शिक्षामा यः तय है गया आचार्य कहत हैं. अर्थ संसार श्रीर उन का बंध और उसके कारण, मोक्ष और उसके पाय इनकी जाननबार गा धगादक आन:र्य धारा प्रकारक. । और अभ्यंतर तपश्चरणों में स्वाध्याय नामका तप ही एसा है कि जिस चगवरी करनेवाला दमग तप पर्व कालमें हुआ नहीं और आगे न होगा व संप्रति वर्तमानकालम नहीं है। एमा निरूपण करते है, अर्थात नीनो काल में भी स्वाध्यायके समान दुसरा तप जगत में है ही नहीं. गाधाम 'गल्भतम्याहिम्मि ऐमा समस्त दाद है, इसका अर्थ अभ्यंतर य बाह्य तपम युक्त तप गम' । होता है. यहां अभ्यंतर तप और चाय नप इन दोनों को छोडकर तिसरा नप है ही नहीं तो अभ्यंतर और वाय तपम युन, नप या अकरना अनुगिन है ? इस शंकाका उत्तर-तपरुष सामान्य बा! और अभ्यंतर नार विशेषांम युक्त होनस · मभतरवाहिम्मि ' यह नपका विशेषण योग्य है. शंका-स्वाध्याय भी नप है और अनशनादिक भी तप ही है दोनाम भी कर्मको सतप्त करनका मामथ्य है अतः स्वाध्यापक समान अन्य तप नहीं है यह कहना क्या उचित है ? उत्तर-स्वाध्याय तप करनेसे A ajavelemanikpalitpa Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलारापना| २५५ जितनी कम निर्जग होनी है उतनी अन्य तप करनेसे होती नहीं है अतः अन्य तप इसक समान नहीं है एसा कहना क्या अयोग्य है ? शंका-तप यह आत्माका परिणाम है या नहीं ? यदि तप आत्मपरिणाम रूप है तो कुछ तप अभ्यंतर है और कुछ तप बाह्य है एम भेद मानना अयोग्य है, यदि उनको आरमपरिणामात्मकता नहीं है तो बे परादिकके समान वायही मानने चाहिये कि मग तप ? रनर-नप यह 'भान्मा का परिणाम है तो तपको बाह्यपना किम गतम समझ । सद्धर्म माग आ जन अलग ही अचान जनधर्म धारण न करनवाल ऐमे मियाची लोकीको बाहर कहते है । जो न करने का नाम अथात् अनशन अवमोदय मेरह पका चार नप रहन है. अयना बाद गृहस्थ रनक द्वारा जिनका आनरण किया जाता है ऐसे अनशनादि नपको बाध कहत है. मन्भाग मुक्तिमार्ग-रत्नत्रय इसको जाननवाल मुनि जिसका आनरण करते हैं ऐसे तप 'अभ्यंतर तप' इस शब्दसे कहे जांत है. एसा आचार्यका अभिप्राय हैं. पनिशामात्रेण स्वाश्यायस्यान्यनगेभ्योऽतिशयितता न सिसयतीति मन्यमानं पति अतिशयसाधनायाह जं अपाणी कम खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं ॥ तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि अंतोमुहुत्तेण ॥ १०८ ॥ उदभरतमदुबालसहि अण्णाणियस्स जा रोही ।। नत्ता बहुगुणदग्यिा होज्ज हु जिमिदस्म णाणिस्स || १.०५ ॥ थहाभिर्भवकोटोभिर्यदज्ञानेन हन्यते । इति ज्ञानी बिभिर्गुप्तस्तत्कर्मान्तर्मुहूर्ततः ॥ १०९ ।। षष्ठाष्टमादिभिः शुद्धिरज्ञानस्यास्ति योगिनः ।। ज्ञानिनो बल्ममानस्य मोक्ता पहुगुणा ततः ॥ ११ ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास विजयोक्या-जं यत् । अण्णाणी सम्यवानरर्वताप कम्मं कर्म । स्रषेदि क्षपयति । भवसदसहस्सकोडीहिं भवशससहनकोटिभिः। तत् कर्म.। पाणी : समबहानमा निहि.गुसो विगुप्तियुक्तः । खषेवि वपरति 1 अंतोमुहुरोण अन्तर्मुहर्तमात्रेण । अटिति कर्मशातनसामर्थं तपसोऽन्यस्य न विद्यते इत्ययमतिशयः स्वाध्यायस्य ॥ अर्थवादमात्रमेतद्भविष्यतीति परो मा मेस्तेति झटिति कर्मशातनशक्तिलक्षणततिशयममर्थनार्थमिदमाहमूलारा- अण्णाणी सम्यग्ज्ञानरहितः ।। अनशनमाप्रतपोवद्धानहस्य प्रयोधनाय सत्तोऽतिशयितां शक्ति नाभ्यःया प्रमया याद . . मूलारा देत्यांव-ष्ट वायुपवासी, अष्टम त्रयो, दशनं चत्वारों द्वारा पंच उपलक्षापात्यनायव मादयोऽपि । बहुगुणदरिया बहुगुगतरा। होज भयेगा जिमिहरूम भोजनं कुर्वतः ! गाणिम्ग स्वारिंगानग्य । इमा गय टीकाको न भन्यो । पूर्वगाथोतातिरिक्तस्यार्थरय अनयानभिधानात् ॥ केवल प्रतिज्ञा स्वाध्यायकी अन्य तपसे विशिष्टता सिद्ध नहीं होती है । म समझनेवालोंके लिय आचार्य बाध्याय तपकी महाना हिरवाते हैं अर्थ-सम्यग्ज्ञानन रहिर जीव लक्षावधि कोटि भयोमे जितने कमाकर य करन में गाय होता है वानी जीव तीन गुनियोस युक्त होकर अन्तर्मुहूर्त मात्र कालमें सीन उनन कमाका श्रय करता है. अभिप्राय यह है कि, स्वाध्याय तपको छोडकर अन्य तपमें शीघ्र कर्मका नाश करनेका मामथ्र्य नहीं है. यह बाध्याय नपका अतिशय है. दो, तीन, चार, पांच उपवाससे पक्षोपवास, मासोपवास वगैरह उपवास करनेवाले समज्ञानरहित मिथ्याष्टिकी अपेक्षा भोजन करनेवाला, स्वाध्याय तपमें तत्पर ऐसा सम्यन्दष्टि परिणामोंकी जादा विशुद्धि कर लेता है. तात्पर्य यह है कि, सम्यग्दृष्टि जीवको सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञानका भी साहाय्य मिलनेसे वह यद्यपि थोडासा तपश्चरण करता है तो भी विषयवासनासे रहित होनेसे अपने आत्माको उत्तरोत्तर अधिकाधिक निर्मल परिणामोंसे विशुद्ध करता है. उसका कर्म उत्तरोत्तर असंख्येय गुणित पद्धतीसे निर्जीर्ण होता है. और उसको बंध कम २ होता जाता है. परंतु मिथ्याष्टिजीव विपश्वासनाके वश होकर तप करता है. श्रद्धा व मम्यरज्ञानके आधारपर उसका तप अधिष्ठित नहीं है अतः उसका आत्मा सम्यन्दष्टीक समान विशुद्ध नहीं होता है. in Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः । २५७ यम मHिEMAMAT __स्वाध्याये उद्यतो गुप्तिभावनायां प्रवृत्तो भवति तत्र च वृत्तस्य रत्नत्रयाराधनं सुखेन भवति इत्युत्तरगाथया कथयति सज्झायभाषणाए य भाविदा होंति सब्बगुत्तीओ ॥ गुत्तीहिं भाविदाहिं मरणे आराधओ होदि ॥ ११ ॥ स्वाध्यायेम यतः सर्वा भाविताः सन्ति गुप्तयः ।। भवत्याराधना मृत्यौ गुप्तीनां भावने सति ।। १११ ।। विजयोन्या-मनोचाकायच्यापाराः कर्मादानहेतवः सर्व एव व्यावतते स्वाध्याय सति, सतो भाविता भवन्ति गुसया । मृताभिमताधियोग–यनिरोधश्च रस्नत्रय एप घरने पति सुखसाध्यता । अनंतकालाभ्यस्ताशुभयोगत्रयस्य कर्मोदयसहायव्यावर्तनमतिदुष्करं स्वाध्यायभावनव क्षमा कर्तुमिति भावः । सज्झायभायणारय स्वाध्यायभावनया था । भाविदा भाविताः । होति भवन्ति । सब्बगुस्सीओ सर्पगुप्तयः । गुत्तीदि गुप्तिभिः । मायिदाहिं भाषिताभिः । मरणे मरणकाले । आराधगो रत्नत्रयपरिणामाराधनपरः । होदि भवति || स्वाध्यायभावनां विना अनादिकालाभ्यस्तमशुभयोगचं कर्मोदयसहायमन्येन केनापि ध्यावर्तयितुं न शक्यते इत्युपदेदुगाचष्टे-- मूलारा-आराधओ रत्नत्रयाराभवापरः। म्याध्यायमें तत्पर मुनि गुप्ति भावना में प्रवृत्ति करता है. जब गुप्तिमें वह तत्पर होता है नय उसुको रत्नअयकी आराधना मुखसे होती है. यही अभिप्राय आगे की गाथा कहती है अर्थ-स्वाध्याय करनसे क्रमको ग्रहण करने वाली मन वचन और शरीरकी सर्व पत्तियां बंद होजाती हैं. इन बंद होनस गुप्तियोंका अभ्यास मुनि कर सकते हैं. शरीरादिकके द्वारा स्वयं कार्य करना, दसके द्वारा कराना और स्वयं कार्य करने वाले को सम्मतिप्रदान करना इन तीन योगोंका निरोध रत्नत्रयकी प्राप्तिसे होजाता है. यह रत्नत्रय स्वाध्यायस मुनि स्वतःमें प्रगट करते हैं. मन वचन शरीरकी प्रवृत्तियां अर्थात तीन प्रकारके अशभ योग और उनको मिलनवाला कर्मका सहाय्य ये सब स्वाध्यायके वलसे नष्ट होते हैं. अभिप्राय यह है कि, स्वाध्याय में सर्व मुप्तियां मिल जाती है. गुप्तियां प्राप्त होनेसे मरणकालमें आत्मा रत्नत्रयका आराधक होता है, aanasama २५७ 1+sti Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना २५८ स्थाध्यायभावनारतः परस्योपदेशको सेवन् इतरोऽन्यः कमुपकारं परस्य संपादयेदन्यस्य परस्पोपदेशकत्वे फिमस्यायातमित्यत्राह आदपरसमुहारो आणा वच्छल्लदीवणा भत्ती। होदि परदेसगते अब्बोच्छित्ती य तित्थरस ॥ १११ ॥ जिनाज्ञा स्वपरोत्तारा भरिर्वात्सल्यबर्द्धनी ॥ तीर्थप्रवर्तिका साधाज्ञानतः परदेशना ।। ११२ ॥ इति शिक्षासूत्रम् ॥ विजयोदवा- मादपरसमुद्धागे आत्मनः परस्य वा उद्धरणमुद्दिश्य च्यातः स्वाध्याय स्वार्मापिसा नि परंगामप्युपयुक्तानां । माणा "}योर्थिना हि जिनशासनवत्सलेन कर्तव्य एवं नियमन हितोपदेश" इत्याशा सन्निा , सा परिपालिता भयनीति शपः । वच्छलदीवणा वात्सल्यमभावना परपामुपदेशकरने कृता भवति । भनी भक्तिश कता भवति जिनवचन तदभ्यासात् । होदि भवति । परदेसगने परंपामुपदेष्ट कन्ये सति । अवोच्छित्तीय अव्युच्छिसिश्च । तिस्थरस निसु चिदित्ति तिथं मोक्षमार्गः शुत या । श्रुतमपि रत्नत्रयनिरूपणे व्यापूतत्वात् तत्रस्थं भवति । ततोऽय अर्थी-थुतम्य मोक्षमार्गस्य या अव्युच्छित्तिरिति । सिफ्वा गदा॥ एवं स्वाध्यायभावनायवृत्तया भिंगुप्तिभावनया मरणकाले सुखपाप्यामाराधनां प्रदश्येदानी परोपकारोऽपि स्वोपकारकरंबित: स्वाभ्यायपरस्य परोपदेशकरचे सति भवतीत्युपदिशति मूलारा-आदपरसभुत्तारो आरमनः परस्य च संसारदुःखादुद्धरणममेश्य स्वाध्याये प्रवृत्तः स्वस्वेव परेपामप्यु. पर्युकानां कर्याणि शातयतीति तात्पर्य । आणा श्रेयार्थिना जिनशासनवत्सलेन फर्तव्य एव हितोपदेश इति सर्वविदामाज्ञा सा परिपालिता भवतीति शेषः । भत्ती जिनवचनाविषयति श्रेषः । परदेसगते परेषामुपदेशकत्वे सति । तित्थस्स श्रुतस्य मोक्षमार्गस्य वा ॥ शिक्षा । सूत्रतः ३ । अंकतः १३ ॥ स्वाध्याय भावनामें आसक्त मुनि इतरोंको कोनसा उपदेश देता है तथा दूसराको उपदेश देनसे इसको क्या लाभ होता है ? इस प्रश्नका आचार्य उत्तर देते हैं अर्थ - स्वाध्याय करनेवाले मुनि परोपदेश देकर आगे लिख हुए गुणगणोंको प्राप्त कर लेते हैं. परोपदेशक गुनि सामायिकादिक आवश्यक कर्मके द्वारा खुदकी संसारसे मुक्ति कर लेता है और आवश्यकममें तत्पर इतर FASTATER Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधासः मलाराधना २५० - - पिन - - मुनिको उपदेशदानसे संसारस छुटाता है, अतः आत्मपरसमुद्धार यह गुण परोपदेशकपनेसे मुनिको मिलता है, आज्ञागुण-"जिनमतपर प्रीति रखनेवाले मोक्षच्छु मुनिश्रीने नियमसे हितोपदेश करना चाहिये " ऐसी श्रीजिनेश्वरकी आज्ञा है उसका पालन धर्मोपदेश देनसे होता है. वात्सल्य प्रभावना- परोपदेशसे वात्सल्य और प्रभावना इन गुणोंका लाभ होता है. अर्थात् सार्मिक बांधवोंपर प्रेम व्यक्त होता है तथा उनका अज्ञानांधकार दूर करनेसे प्रभावना गुण भी प्राप्त होता है. भक्ति-जिनवचनका अभ्यास करके परोपदेश करनेवाले मुनिका जिनवचन में अनुराग प्रगट होता है. अव्युच्छित्ति-'तिसु चिदित्ति तित्थं ' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंमें रहने वाला जो मोक्षमार्ग उसको त्रिस्थ किंवा तीर्थ कहते हैं, अथवा जिनागम भी तीर्थ है क्योंकि वह भी रत्नत्रयका वर्णन करने में तत्पर रहता हैं. उस को त्रिस्थ अथवा तीर्थ कहते हैं. धर्मोपदेशदानसे श्रुत और मोक्षमागकी परंपरा टिक सकती है. शिक्षाका प्रकरण समास हुआ. लिंगाणानंतरं शानसंपत्तिः कार्या, ज्ञानसंपादि वर्तमानन विनयोऽनष्ठातव्यः । स च पंचप्रकार इन्याह विणओ पुण पंचविहो गिट्टिो णाणदसणचरिते ।। तबविणवो य चउत्थो चरिमो उबयारिओ विणओ ॥ ११२ ॥ विनयो दर्शने जाने चारित्रे तपसि स्थितः ॥ उपचारे च कर्तव्यः पंचधापि मनीषीभः ॥ ११३ ।। विजयोदया-बिनयन्यपनयति यत्कर्माशुभं नहिनयः । तथा योक्त----" जहा विणदि कम्म अविहं बाउरेगा मोक्खोय" रति । पुष पश्चात् जिनवचनाभ्यासोत्तरकालें । पंचविहीं पंचमकारः । णिहिहो निर्दियः। गाणदमणचरि से विषयलनणय सामीन शानदर्शनचारित्रचिपन्यः ॥ तववियो य तपसि विनयश्च ॥ चदन्थो चतुर्थः । चरमो अन्न्यः॥ उधयारिओ विणयी उपचारविनयश्चेति । ___ अhण लिंगमादाय समभ्वस्तश्रुतेन तत्फलभूतो मोक्षांगतया बिनयोऽनुष्टयः इति तत्प्रपचार्थे गाथास्त्र योविंशतिमादिशति ॥ तत्र तावन्निरुक्तिगम्यं विनयस्य सामान्वलक्षणं विषयभेदात्तदेदांश्च निर्देष्टुमाइ मूलारा-विणओ-अशुभकर्माणि विनयत्यपनयतीति विनयः । इति निरुक्तिगम्यमपि तल्लक्षणं श्लोफेनोच्यते २५९ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Farmere मूलाराधना आश्वासः हिताहितातिलुप्त्यर्थ सदंगाना सदोजसा ॥ यो माहात्म्योर्वे यत्नः स मतो विनयः सताम् ।। पुण शिक्षानंताम् । लिंगधारणा करनेपर ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये. ज्ञानसंपत्नि धारण करनेवालोने विनय अवश्य करना चाहिये. वह विनय पांच प्रकारका है-- अर्थ-विनयत्यपनयति यत्कर्म अशुभं तद्विनयः' जो अशुभ कर्मको विनयति प्रवीत् दर करता है, नष्ट करता है ऐसे कर्तव्यको विनय कहते हैं. आगममें विनयके बिषयमें ऐसा कहा है. 'जमा विणेदि कम्म अलविहं चाग मोक्खो य' अर्थात् जो आठ प्रकारके ज्ञानावरणादि कमांका नाश करता है और मिथ्यात्य, अविरनि प्रमाद और योग जिसके कारण है ऐसे संसारमे जो आत्माको छुढ़ाता है वह विनय दै. विनयकी निरुक्ति आचार्यानि इस तरहसे कही है. इस विनयके पांच प्रकार देवानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, नपोविनय और उपचारविनय. ज्ञानभन्दानावरे-काले स्वाध्यायवाचनकालाविह कालशन गृहोते । गन्यथा काटमन्तरण कस्यचिदपि वृत्त्या भायात् कालग्राइणमनर्थकं स्यात् । भवतु नाम कालविशेषः कालशब्दचाच्यः तथापि नासो बिनयो न कर्म व्यपनयतीति, यदि व्यपनयेत्सर्वयाकर्मवत्ता प्राप्नुयात् काले निणये उबधाणे. बहुमाणे तहे व पिण्ड्यणे ॥ बंजण अत्थ तदुभये विणओ गाणम्मि अविहो ॥ ११३ ॥ ज्ञानीयो विनयः काले विनयेऽवग्रहे मतः ।। बहुमानेनपणत्यां व्यंजनेर्थे द्वयेऽष्टधा ॥ ११४ ।। विजयोदया-काले इति सप्तभ्यतं पदं । नेन याक्यशेषपुरस्सरोऽयं स्थाथों जायत । साध्याहारत्वात् सर्य सूत्राणां । काल थध्ययनमिति । परिवर्जनीयस्येन निर्दिष्ट कालं संभ्यापर्वदिनदाहोल्कापातादिक परिहत्याध्ययनं कर्म विन यति इति । विणए इति प्रथमान्तः विनयः श्रुतश्रुतधरमाहात्म्यस्तवनं श्रुतधुतधरभक्तिरिति यावत् । AMAMTAS Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना! २६१ उघडणे अवग्रहः । यावदिदमनुयोगद्वारं निष्ठामुपैति तावदिदं मया न भोक्तव्यं इदं अनशनं चतुर्थषष्ठादिकं करिष्यामीति संकल्पः । स च कर्म व्यपनयनीति विनयः । घुमा सम्मानं । शुचेः कृताञ्जलिपुत्रस्य अनाक्षिनमनसः सादरमध्ययनं । तह तथा । offered assess निवोऽपलापः कस्यचित्सकाशे श्रुतमधीत्यान्यो गुरुरित्यभिधानमपाः 1 वंजण अथ तदुभये व्यंजनं शब्दप्रकाशनं । अर्थः शमवाच्यः, तदुभयशब्देन व्यंजनमर्थश्च निर्दिश्यते । वंजण अन्यतमये व्यंजने च अर्थश्च तदुभयं वेति मं कृते सर्वो दो विभाषया एकवद्भवतीति एकवद्भावार्थस्य एकवचनं कृतं । अर्थ शब्दस्य अजावदतत्वादल्पाच्तरत्याच्च पूर्वनिपातप्रसंग इति चेन्न सर्वतोऽभ्यर्हितं पूर्व निपतति इति व्यंजनशब्दः पूर्व प्रयुज्यते । कथमभ्यर्हितं १ स्वयं परप्रत्ययहेतुत्वात्स्वयं च शब्दांदेवार्थाथात्म्यमति परं चावबोधयति । अत्र व वंजणअस्थतदुश्ये सुद्धी इति शेषः । तत्र व्यंजनशुद्धिर्नाम यथा गणधरादिभिर्द्धात्रिंशदोपवर्जितानि सुवाणि कृतानि तेषां तथैव पाठः । शब्दश्रुतस्यापि व्यज्यते शायते अनेनेति प्रहे ज्ञानशब्देन गृहीतत्वात् तन्मूलं हि श्रुतज्ञानं ! अथ अर्थशब्देन किमुच्यते ? व्यंजनशब्दस्य सानिध्यादर्शशब्दः शब्दाभिधेये वर्तते, तेन सूत्रार्थोऽर्थ इति गृह्यते । नस्य का शुद्धिः ? विपरीतरूपेण सूत्रनिनिरूपणार्या अवधारत्वानिरूपणा या अवैrterer अर्थशुद्धिरित्युच्यते । शार्थनिरूपणायाः शब्दश्रुतत्वादविपरीतनिरूपणापि व्यंजनशुद्धिरेव भवतीति नार्थशुद्धिः कदाचिदिति चेत्, न परवृत शब्दश्रुताविपरीत पांडे व्यंजनशुद्धिस्तदर्थनिरूपणाचा अवैपरीत्य अर्थशुद्धिः । प्रत्ययश्रुते तु अर्थयाथात्म्यमतिभासोऽर्थशुदिः ॥ तदुभयशखिनोम तस्य व्यंजनस्य अर्थस्य च शुद्धिः । ननु व्यंजनार्धशुद्धयोः प्रतिपावितयोः तदुभयशुद्धिर्गृहीता न लक्ष्यतिरेकेण तदुभयशुद्धिर्नामास्ति ततः कथमः प्रविधता ? अप्रोच्यते पुरुषमेवापेक्षयेयं निरूपणा कविपरीत सूत्रार्थं व्याच सूत्र तु विपरीत । तसथा न कार्यमिति व्यंजनंशुद्धिरुता । अन्यस्तु सूत्रमवि परीतं पठति निरूपयत्यन्यथा सूत्रार्थं इति तन्निराकृतयेऽर्धशुजिरुदाहृता । अपरस्तु सूत्र बिपरीतमधीते सूत्रार्थं च कवियितुकामो विपरीतं व्याचष्टे तदुभयापाकृतये उभयशुद्धिरूपन्यस्ता । अयमनकारी शानाभ्यासपरिकरोऽविषं कर्म विनयति व्यपनयति विनयशब्दवाच्यो भवतीति सुरेरभिप्रायः । यदि ज्ञानादिभेदात्पंचधा त्रिनयस्तर्हि ज्ञानविनयः कविधेति प्रो सत्याह मूलारा - काले संध्यादिग्दाहोल्कापातादेः सूत्रेतिनिषिद्धादन्यत्र यथोक्ते काले अध्ययनं कालत्रिनय इति व्याख्येयं सोपस्कारत्वात्सूत्राणां । मिण प्रथमतोऽपरेऽपि च श्रुतश्रुतधरभक्तिरित्यर्थः । आश्वासा २ २६१ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुलाराधना २६२ ___ बहाणे अवग्रहविशेषः यावदिदगनुयोगद्वारं समाप्यते ताबदिदं मचा न भोक्तव्यमिदं दानशनादिकं करियागीति संकल्पः । बहुमाणे शुधः छत्तांजलिपुटम्यान्याक्षिप्रचित्तस्य सादरमध्ययनं । अणिण्हवणे अन्यतः श्रुतमधीन्यान्यस्य गुरोः कथन निहननं गुरोरपलापस्तद्विपर्ययः । पंचमो विनयः । बंजणअस्थतदुभये सुद्धी इत्यध्याहार्य । तेन व्यंजनशदिशद्धिः शब्दार्थाभनयुद्धिरित्यमी यो ज्ञानमेदाः। तन्न व्यंजनशुद्धियोक्तसूत्रपठनं । अर्थशुद्धिः सम्यारावार्य निरूभाग : गभगशुद्धियथोक्तं सूत्रं पठतः सम्बनदर्थप्रतिपादनं । वश्चिठि सूत्र विपर्यस्यति तदर्थ तु सभ्याच्या या । अन्बस्नु सूत्रं सम्यगचीयानोऽपि तदर्थमन्यथा कथयति । अपरः पुनः नत्रमर्थ च विघस्थितीति पुरुषवापस नत्रा परिहारण ज्ञानविनयभेदब्रयमुपपातं । अविहो अबमष्टप्रकारो जानाभ्यासपरिकरो ' जमा विणेदि कम्म अमा विणशी गो' इनि त्रचनादष्टविध काग विन्तीति विनया काविप इति मरेरभित्रायः । ज्ञानविनयक भद कहते है अर्थ-काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिव, व्यंजन, अर्थ, नदुःभय वानविनयक बाट मद . कालविनय-यहां कालयब्दन स्वाध्यायकाल यह अर्थ समझना चाहिय. अन्यथा काल शिना कोट भी पाय अपना अस्तित्व सनम असमर्थ है अतः काल शब्दके ग्रहणको यथ्य आवंगा. कारण काल को हमेशा ही रहना है उसका उपस कनिकी कुछ भी जरूरत नहीं थी अतः काल शब्दग म्वाध्यायकालका अथात् कालविश्यका यहां ग्रहण किया है. शंका-कालशब्दमें विशिष्ट कालका ग्रहण करे तो भी कुछ ह नहीं है, परंतु उसको विनय क्यों कहना चाहिये ? क्योंकि यह अशुभ कर्मको दूर नहीं करता है. यदि वह अशुभ कर्मको दूर करेगा तो सर्व प्राणि मात्र कर्मगहत हो जायेंग. उत्तर - यहां काल शब्द सप्तम्यंत समझना चाहिये तथा उसके आगे 'अध्ययन' यह शब्द जोड़ देना चाहिये. सर्व सूत्र संक्षेपमें रचे जाते हैं अतः ऊपरसे भी कुछ शब्द जोडने पडते हैं. 'काले। इसका मतलब 'काले अध्ययन ' एसा समझना चाहिये. संध्याकाल, पर्वकाल, दिशादाइ, उल्कापात इत्यादि वर्जनीय कालका परिहार करके अन्य कालमें यदि स्वाध्याय, व्याख्यान, पठन, भजनादिक करनेसे अशुभ कर्म नष्ट होता है. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना विनय-श्रुतज्ञान और अतधर अर्थात् श्रुतकेवी इनके माहात्म्धका स्तवन करना. अर्थात् श्रुतभक्ति पढना चाहिय. उपभान -विशप नियम धारण करना. जबतक यह अनुयोगका प्रकरण समाप्त होगा तबतक में उपनाम करूंगा अथवा दो उपवास करूंगा इस तरहसे संकल्प करना यह विनय अशुभ कर्मको दूर करता है. बहुमानविनय--पवित्रतासे, हाथ जोडकर, मनको एकाग्र करके बडे आदरसे अध्ययन करना. अनिश्चय----अपलाप करना निदव हैं. एक आचार्यके पास अध्ययन करके अन्य आचार्यका नाम लेना यह निहब है ऐसे दोपका त्याग करना अनिवविनय है. 'हमान व्यंजन, अर्थ, तदुभय विनय-शब्दको व्यंजन कहते हैं, शब्दका जो वाच्य यह अर्थ है. जस मनुष्य शब्दका वाच्य आदमी ऐसा होता है. शब्द और उसके अर्थको तदुभय कहते हैं. गाथामें बंजण, अस्थ, तदुभय इन शब्दाम द्वंद्वसमास किया है. सर्व द्वंद्वसमास विभाषासे एकरचनयुक्त होता है इस व्याकरणके नियमानुसार 'बंजण अत्य तदर्भय' इस समासमें एकवचन किया है.. शंका-यहां अर्थ शब्द स्वरादि व अल्पस्वर युक्त होनेसे बंजण इस शब्दके पूर्व उसका निवश होना चाहिये, इस शंकाका उत्तर ऐसा है-'सर्वतोऽभ्यर्हित पूर्व निपतति' इस परिभाषासे बंजण-शब्द अभ्यहित अर्थात महत्वयुक्त होनेसे वही अर्थशब्दके पूर्वमें प्रयुक्त किया है. व्यंजनको अर्थात् शब्दको महत्त्व-प्राधान्य क्यों है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि शब्दके द्वारा हम दमरोंको समझा सकते हैं और स्वयं शब्दश्रुतादिके सहाग्गे पदार्थका यथार्थ स्वरुप जान लेते हैं. प्रयजनशुदि-गणवदि आनायान पीस दीपोंसे रहित सूत्रोंका निर्माण किया है, उनको दाप सहन पहना व्यंजन शुद्धि है, शब्दाको कोई भी ज्ञान नहीं कहते है अतः शब्दोंकी शुद्धि ज्ञानविनयम कमी अन्नान कर सकोगे एसी का यहां उपस्थित होती है. इसका उत्तर इस मुजर है-शब्दके द्वारा ही हम वस्तुको जान । लेते हैं. ज्ञानोत्पत्ति के लिये शब्द कारण हैं. समस्त श्रुतन्त्रान शब्दके भित्तीपर ही खड़ा हुवा है अतः शब्दोंको 'बायतेऽनेन ' इस विग्रहसे ज्ञान कह सकते हैं. ___ अर्थशद्धि-अर्थशब्दसे हम क्या समझे ? अर्थशब्द व्यजनशब्दफे समीप होनेसे शब्दोंका उच्चार +.BP.BIPSMAXSXIMEG . M . . ... . . ... DMAATAPNNeir . ... .... .. " 59 4 4 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना गावासा होनेपर मनमें जो अभिप्राय उत्पन्न होता है वह अर्थशब्दका भाव है. अर्थात् गणधरादिरचित सूत्रों के अर्थको यहां अर्थ समझना चाहिये. अश्रशद्धिका अर्थ इस मुजब सम्झना-विपरीतरूपसे म्बार्थके निरूपणा अर्थ ही ! आधार भूत है अतः ऐसी निरूपणा अर्थशुद्धि नहीं है. कितु यर्थार्थरूपसे जो सूत्रार्थका विवेचन होता है वही अर्थ शुद्धि हैं संशय, विपर्यय अनध्यवसायादि दीपोंस रहित सूत्राथनिरूपणको अशुद्धि कहते हैं, शंका-सूत्रार्थनिरूपण भी शब्द श्रुत है इसलिये अविपरीतनिरूपण भी व्यंजनशुद्धि ही है. उसको अर्थशुद्धि समझना भूल है. इस शंकाका उत्तर -- शब्द श्रुतके वाक्योंका जो अविपरीन उच्चार किया जाता है वह व्यंजनशुद्धि है. और उन बाक्योंका जो अविपरीत रूपसे अर्थ समझाया जाता है वह अर्थधुद्धि है अर्थात् वाक्योंक शब्दोंका स्पष्ट उच्चार, दीर्घ-हस्त्रादिकको ध्यान में लाकर जो उच्चारण किया जाता है वह व्यंजनशद्धि है. और उनका अभिप्राय बतानेके लिये जो अविपरीत शब्दाचार किया जाता है वह अर्थशुद्धि है.. वानश्रुतमें जो अर्थकी सत्यताका अनुभव आता है वही अर्थशुद्धि है. तदुमयशुद्धि- व्यंजनकी शुद्धि और उसके वाच्य अभिप्रायकी जो शुद्धि है वह उभयशुद्धि है. शंका-उपर व्यंजनशुद्धि और अर्थशुद्धि इन दोनोंका स्वरूप आप कह चुके हैं उनमें ही इसका भी अन्तर्भाव हो सकता है. इन दोनोंको छोटकर तदुभय शुद्धि नामकी तीसरी शुद्धि है नहीं. अतः ज्ञानविनयके आठ प्रकार सिद्ध नहीं होते है. उतर-यहां गुरूपभेदोकी अपेक्षास निरूपण किया है खुलासा-जस कोई पुरुष सत्रका अर्थ तो ठीक कहता है परंतु त्रको विपरीत पढता है टीक पढ़ना नहीं. श्रीगचार स्थानमें हम्बोच्चार इत्यादि दोपयुक्त बोलता है ऐसा दोपयुक्त, पहना नहीं चाहिय इस वास्ते व्यंजनशुद्धि कड़ी है. दमा कोई पुरुप सूत्रको टीक पहलेता है. परंतु मूत्रार्थ का विपरीत निरूपण करता है यह भी मान्य नहीं है इसका निराकरण करनेके लिये अर्थशुद्धि कही है, तीसरा अदमी मूत्रभी विपरीत पढ़ता है और उसका अर्थ भी अंटसंट कहता है. इन दोनो दोपोंको दूर करनेके लिये तदुभयशुद्धिको मिन्न मानना चाहिये. ज्ञानाभ्यासके ये आठ प्रकार आठ प्रकारके कर्मोको आत्मासे दूर करते हैं इसलिये इनको बिनयशब्दसे संबोधन करना सार्थक है ऐसा आचार्योका अभिप्राय है. २६५ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूलाराषना। आश्वास २६५ - दर्शनविनयसूचनपरोत्तरगाथा उवगृहणादिया पुव्वुत्ता तह भात्तियादिया य गुणा । सकादिवजणं पि य णेओ सम्मतविणओ सो ॥ ११४ ॥ उपहादितात्पर्य भक्त्यादिकरणोद्यमः ॥ सम्यक्त्वविनयो ज्ञेयः शङ्कादीनां च बजैनम् ॥ ११५ ।। विजयोदया-उबगृहणादिगा उपहणादिकाः । उपचहणं, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना चेत्यने । पुय्युत्ता पूर्वानाथरता पूर्वका अस्मारी भूमापूधगसूत्रम "उधाहणां ठविकरण बच्छहपभावणा भणिदा" इत्यननोत्ताः पूर्व. मुक्ताः । पूक्तिो वा सम्मत्तविणगो सम्यक्त्वविनय रति संबंधनीयं । सध भत्तियादिगा य गुणा तथा ममत्यादिकाध गुणाः विनयस्तथा ते तरप्रकारेण अवस्थिताः इति । अहंदादिविपया मक्यादिगुणा रति यावत् । संकादिवजण पि य शंफादिवर्जनं च । चशनः पादपूरणःओ शेयः ॥ सम्मत्तविणओ सम्यक्स्यविनय इति ॥ उहणादीनां भक्त्यादीनां च गुणानां बहुत्वात् तेषामेव च चिनयत्वात् समतविणया इति वाच्यमिति चेत्, विनयसामान्यापेक्षया तस्यैकत्वादेकअबनेन पदसंस्कारः रुतो न निवर्तते । न च पदातरवाच्यापेक्षया बहुत्वमस्तीत्येतावता अप्रतिपदिका सुत्रुत्पद्यते । तथा च प्रयोगः वृक्ष एव वनमिति ॥ सम्यक्त्यविनय निर्दिशति-- मूलाराधना—स्पष्ट । दर्शनविनयकी सूचना करनेवाली गाथा अर्थ-उपमूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ऐसे सम्यग्दर्शनके चार गुण पूर्वाचायाँने कहे हैं तथा इस ग्रंथके कर्ताने भी पीछे ' उवगृहणठिदिकरण बच्छल्ल पभावणा गुणा भणिदा । इस गाथामें इनका वर्णन किया है, अहंदादिकी भाक्त, पूजा, वर्णजनन बगैरह गुणोंका भी वर्णन पीछे विशदतया किया है इन सबोंको दर्शनविनय कहते हैं. शंका, कांक्षा, चिचिकित्सा, परदृष्टिप्रशंसा व अनायतनसेकन ऐसे सम्यग्दर्शनके पांच दोप हैं इनका त्याग करना यह भी दर्शनविनय है. शंका--उपगृहनादिगुण, भक्त्यादिगुण इनकी संख्या बहुत है और ये ही दर्शनविनयके स्वरूप है अतः गाथाम 'सम्मत्तविणओ'ऐसा एकवचनका प्रयोग अयोग्य है. 'सम्मत्तविणया ऐसा बहुवचनमें प्रयोग होना चाहिये. - २६५ ३४ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः उत्तर-विनयसामान्यकी अपेक्षासे सम्यक्त्वविनयको एक समझकर 'समत्तविणओ' यह एकवचनमें प्रयोग किया है. अतः एकवचनरूप किया हुवा पदसंस्कार अब बदलता नहीं है. चारित्रविनयनिरूपणाय गाथा इंदियकसायपणिधाणं पि य गुत्तीओ चेच समिदीओ !! एसो चरित्तविणओ समासदो होइ णायचो ॥ ११५ ॥ कुर्वतः समितीगुप्तीः प्रणिधानस्य वर्जनम् ॥ चारित्रविनयः साधोर्जायते सिद्धिसाधकः ॥११६ ॥ विजयोदया-दियकसायपणिधाणं पि य । इंद्र आत्मा तस्य लिंगमिंद्रियं । यरकरणं तत्कर्तृमद्यथा-परकाः । करणं च चक्षुरादिकं । तेनास्य कर्या केनचिद्भाब्य मिति । तच द्विविधं येद्रिय भावेन्द्रियमिति । तघ ट्रव्येन्द्रियं नाम निर्वृत्युपकरणो मसूरिकादिसंस्थानो यः शरीरावयवः कर्मणा निर्वयते इति निर्वृतिः । उपक्रियतेऽनुगृह्यते कानसाधनर्मिट्रियमनेनेत्युपकरणं अक्षिपश्रशुक्लकृष्णतारकादिकं । भाद्रियं नाम ज्ञानावरणक्षयोपशमविशेपोपलब्धिः, द्रव्येद्रियनिमित्तरूपाघुपलाधिध । इट्रियाशब्देन मनोशरूपादिसानिध्येन रागकोपानुगरूपादिनिर्भासा प्रतीतयो गृहीताः कर्ष ति हिसंति आत्मक्षेत्रमिति कषायाः । श्रथवा तरूणां वाल्कलरसः कपायः, कषाय व कषायात्युपमाद्वारेण क्रोधादी वर्तते कपायशन उपमार्थः । यथा कषायो घनावे साफ्ल्यशुद्धिमपनयति, निराक चाशक्यस्सहादात्मनो शानदर्शनशुपई विनाशयति, आरमाबलमव दुःखेनापोह्यते इति । यथा वा पटादेः स्थैर्य करोति कषायस्तवदेव कर्मणां स्थितिप्रकर्पमात्मनि निदधाति क्रोधादिः। इन्द्रियाणि च कषायाश्च इन्द्रियकषायाः । इन्द्रियकवाययोः अप्रणिधानं अनाक्षेपः आत्मनो व्यावर्णितेंद्रियकरायापरिणतिः । गुत्ती चेव गुप्तयश्च संसारकारणादात्मनो गोपनं गुप्तिः। संसारस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावभवपरिवर्तनस्य कारणं कर्म शानावरणादि तस्मात्संसारकारणादात्मनो गोपनं रक्षा गुप्तिरित्याण्यायते । भावे तिः, अपादानसाधनो वा, यतो गोपनं सा गुप्तिः । गोपगतीति कर्तृसाधनो वा तिन् । शब्दार्थव्ययस्थेयम् । किं स्वरूपं तस्यां इति चेत् । सम्यम्योगनिग्रहो गुमिः । कायवाङ्मनःकर्मणां प्राकाम्यामावो निग्रहः, यथएचारिताभायो गुतिः । सम्यगिति चिशेषणात्पूजापुरस्सगं कियां संयतो महानयमिति यशश्वानपेक्ष्य पारलौकिकमिट्रिय सुस्र या क्रियमाणा गुसिरिति कथ्यते । इति सूरयो व्यवस्थिताः । रागकोपाभ्यां अनुपटुता नोइंद्रियमतिः मनोगुमिगिन महे । एवं चार्य वक्ष्यति सूत्रकारो 'जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणादितं मणीगुत्ति ' मिति । अनृतपरुपकर्कशमिथ्यात्वासंयमनिमित्तवचनानां अवक्तृता वाग्गुप्तिः । अप्रमत्ततया यदप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितभूभागऽचंक्रमणं, द्रव्यांतरादाननिक्षेपशयनासनक्रियाणां अफरणं कायगुप्तिः कायोत्सर्गो पा । २६६ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलाराधना २६७ समिविभो समितयः । प्राणिपीडापरिहारारयतः सम्यगयनं प्रवृत्तिः समितिः । सम्यग्विशेषाणाज्जीवनिकाय स्वरूपान जानपुर स्सरा प्रवृत्तिर्गृहीता । ईयभाषेषणाशननिक्षेपोत्सर्गाः पंचसमितयः । " ईर्यादिसमितीनां वाकायगुप्तिभ्यां अविशेषततो भेदेनोपादानमनर्थक, प्राणिपीडाकारिण्याः कार्याक्रियाया निवृत्तिः कायगुप्तिः, ईर्यादिसमितयश्च तथाभूत काय क्रियानिवृतिरूपाः " अत्रोच्यते--- निवृत्तिरूपा गुप्तयः प्रवृत्तिरूपाः समितयः इति भेदैः विशिष्टा गमनभावणा भ्यवहरणग्रहण निक्षेपणोत्सर्गक्रियाः समितय इति उच्यन्ते । एसो एषः । चरितविणभो चारित्रविनयः । समासदो संक्षेपतः । माच्यो छातव्यः | होदि भवति । इंद्रियायाणिधानं मनोगुभिरेव किमर्थे पृथगुच्यते ? सत्यम् । चाकाय गुप्त्योरेव गुत्तीओ इत्यनेन परिग्रहः । अथवा रागद्वेपमिध्यात्वाद्यशुभ परिणाम बिरहो मनोगुप्तिः सामान्यभूता। इंद्रियकपायाप्रणिधानं तद्विशेषः । सामान्यविशेप्रयोश्च कथंचिद्धेन पीनरुत्यं मनोमुतावन्तर्भूतस्यापि इंद्रियपायमविधानस्य भेदेनोपादानं चारित्रार्थिनोऽवश्यं परिहार्यत्व स्थापनार्थे वा । ननु त्रयोदशविधं चारित्रं पंच महाव्रतानि, पंच समितयः तिस्रो गुप्तयः इति । ततः समितीनां गुप्तीनां चारित्रत्वे चारित्रचिनय इति कथं भेदेनाभिधानं व्रतान्येवान्यत्र चारित्रशब्देनोच्यते । तेषां परिकरत्वेनावस्थिताः गुप्तयः समितयश्चेति सूत्रकार स्याभिप्रायः । तथा चोकमनीः 'कर्मादाननिमित्तकियाभ्यश्च विरतिः अहिंसादिभेदेन पंचप्रकारा गुप्तिसमिति विस्तारसंक्षेपो भवति । कञ्चारित्रचिनयन्यास इति चेत् पंचविंशतिभावनाः । ' तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंच पंचेति निरूपिताः ॥ चारित्रविनयं निरूपयति — मूलाराधना - इंदियकसायपणिवाणं इह इंद्रियशब्देन मनोशामनोज्ञरूपादिसान्निध्ये रागद्वेपानुगत रूपादिनिर्मासाः प्रतीतयो गृहीताः । कषायाच भावक्रोधादयः तेष्वप्रणिधानमपरिणतिरात्मन इंद्रियकपायाप्रणिधानं । कसायपणिधानमित्यत्र शर्कध्वादित्यात्पररूपं । अन्ये तु प्रणिधानशब्देनात्र निरोधं व्याचक्षते । इंद्रियकषायनिरोध इत्यर्थः । सस्य व मनोगुप्रावन्तर्भूतस्यापि भेदेनेोपादानं चारित्रार्थिनोऽवश्यकार्यत्वख्यापनार्थ | चारित्रशब्देन चात्र प्रतान्येवेष्टानि तेषां च परिकरत्वेनावस्थिता गुप्तयः खामितयश्चेति सर्व सुस्थम् । अन्यैस्तु पंचविंशतिभावनाश्चारित्रविनय उक्तः ॥ चारित्रविनयनिरूपण करनेके लिये आचार्य आगेकी गाथा कहते हैं अर्थ - आत्माको इंद्र कहते हैं. इस इंद्रका जो चिह्न अर्थात् आत्माका स्वरूप पहिचाननेका जो साधन वह इंद्रिय है. यह इंद्रिय करण है, जो जो करण होता है वह कर्तासे युक्त रहता है. क्योंकि कर्ताको क्रिया करने में जिससे साहाय्य मिलता है वह करण है, इस करण के बिना कर्ता क्रिया नहीं कर सकता है, जैसे देवदच जब आश्वासः २ २६७ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलाराधना आश्वास - LA I Mia...+ AAAAMRATBHELORADASA लकडी तोडता है तब वह कुन्हाडीका साहाय्य लेता है. विना कुन्हाइकि वह लकडी नहीं काट सकता है. इसलिये जैस देवदन कर्ता और कुत्तहाडी करण है वैसे आत्मा कर्ता है क्योंकि वह पदार्थोंको जाननेकी क्रिया करता है और इंद्रियां पदार्थ जानने में आत्माको माहाय्य करती हैं इसलिये वे करण हैं. यहां इंद्रियोंके द्रव्गइंद्रिय और भाव इंद्रिय म दो भेद कहे हैं. द्रव्येन्द्रिय-मसूर, यवनाल, खुरपा इत्यादि पदाथोंके आकारके समान नेत्र, कर्ण, जीभ वगरे द्रव्यन्द्रियांका आकार है. वे निवृत्ति और उपकरणसे युक्त रहती है. और वे शरीरके अवयवरुप मानी गयी है. तात्पर्य यह है कि, आत्माके प्रदेश इन्द्रियाकार हो जाना यह अभ्यंतगनिवृत्ति है, और उसके ऊपर पुद्गलोकी जो इन्द्रियाकार साक्षी है यह माहमिति निरिओगा जिससे रक्षण होता है वह उपकरण है. उसके भी दो भेद है, बाम उपकरण व अभ्यंतर उपकरण. जैसे नेत्रमें तारका, काला और सफेत जो भाग है वह अभ्यंतर उपकरण है. अक्षिपत्र-पापनी, मोहें वगैरह बाह्योपकरण है, ज्ञान के साधनभृत इंद्रियाको जो सहायप्रदान करते है उसको उपकरण कहते हैं. यह द्रव्येन्द्रियका स्वरूप है, मावेन्द्रिय-आत्मामें ज्ञानावरण कर्मका जो विशिष्ट क्षयोपशम प्रगट हुवा है वह तथा द्रव्येन्द्रियके सहारेसे रूपादिकाका जो ज्ञान होता है वह भाद्रिय है। यहां मनचाहे रूपादि पदार्थोंका सानिध्य होनेसे जो रागद्वेपसहित ज्ञान होता है वह इंद्रियशब्दका अर्थ है, . पाय- कान्ति हिंसंति आत्मक्षेत्रं इति कषायाः 'जो आत्माका घात करते हैं वे कपाय हैं. क्रोधादिक विकार आत्माका अहित करते हैं अतः उनको कषाय कहते हैं, अथवा वृक्षोंकी छालीसे जो रस निकलता है उसको ऋयाय कहते हैं. वह चिकण होनेसे वस्त्रमें लगनेपर निकलता नहीं है. उपयुक्त उपमाके द्वारा क्रोधादिकोंको भी कषाय कहते हैं. जैसे कपायरस यखको लगनेपर उसका सफेतपना, स्वच्छता नष्ट होते हैं और वह रस गी वस्त्रसे निकालना अशक्य है. वैसे क्रोधादिकपाय भी आत्माके ज्ञान और दर्शनगुणकी निर्मलताको नष्ट करते हैं, और इन रुपार्योंका आत्माके साथ संबंध होनेपर वहांसे बड़े कष्टसे दूर होसकते हैं. जैसे कपायरससे वस्त्रादिकोंमें ऋद्धता Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भावासः २६९ आती है. वैसे ये क्रोधादि कषाय आत्मामें ज्ञानावरणादि कर्मको स्थिर करते हैं. अर्थात् कपायसे ही कमकी काल- स्थिति बहती है. ऐसे कषाय और इंद्रियों में मनकी एकाग्रता न होने देना चाहिय अर्थात इंद्रियोंके विषयमें प्रवृत्ति होनेसे आत्मामें राग द्वेप उत्पन्न होजाते हैं. ये न होने देखें, रागद्वेषरूप परिणति आन्मामें न होना यह इंद्रिया प्राणिधान है. और कषायवश न होकर आत्माकी ज्ञानशुद्धि और दर्शन शुद्धि कायम रखना यह कषायाप्रणिधान गुप्ति-संसारके कारणोंसे आरमाकारणा करना बहुगु िहै इसलिन मारिन, कालपरिवर्तन, भावपरिवर्तन और भवपरिवर्तन ऐसे संसारके पांच भेद हैं ( इसका आगे ग्रंथकार वर्णन करेंगे. ) ज्ञानावरणादि कर्म समूह समारका कारण है. इससे आत्माका रक्षण करना यह गुप्ति है. 'संसारकारणादात्मनो गोपनं गुप्तिः ' यह गुप्तिका लक्षणा हैं. 'भावे तिः' इस सूबमे भाव अर्थम क्ति प्रत्यय जोड देनेसे गुप्ति यह शब्द सिद्ध हुआ है. अथवा अपादानकारकमें भी इस गुप्तिशब्दकी सिद्धि होती है. 'यतो गोपन सा गृप्तिः ' अर्थात् संसारकारणोंमे आनमाका बचाव करना वह गुप्ति है. किंवा कर्ता कारकमें भी यह शब्द सिद्ध होता है, 'गोपयतीनि गुप्तिः' आत्मा ही संसारकारणोंसे अपनको बचाता है अतः आत्मा ही गुप्ति है. यहां कर्तृकारकमें गुप् धातू के आगे तिन् प्रत्यय जोड देनेसे गुप्ति शब्द सिद्ध होता है. इस रीतीसे गुप्तिशब्दके अर्थका विवेचन किया है. गुप्तिका स्वरूप क्या है ? उत्तर- सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः 'शरीर, वचन और मनकी यथेष्ट प्रवृत्तिको रोकना यह गुप्ति है. सम्यक यह विशेषण योगनिग्रहका है, यह महान् तपस्वी है ऐसा समझकर लोक मेरी पूजा करेंगे. मेरी सर्वत्र कीर्ति फैलेगी, ऐसी अपेक्षा मनमें धारण करके जो योगनिग्रह किया जाता है अथवा पारलौकिक गुखकी इच्छासे जो योगनिग्रह किया जाता है उसका निषेध करनेकेलिय सम्यक् यह विशेषण योगनिग्रह शब्दके पीछे जोडा है. उपर्युक्त इन्छाओंका त्याग करके जो गुप्ति पाली जाती है वह मुंवरका कारण होती है अन्यथा नहीं. ऐसा आचार्योंका उपदेश है. मनोगुप्ति -राग और कोपसे अलिप्त ऐसे भानसिकज्ञानको मनोगुरित कहते हैं. ग्रंथकार भी आगे 'जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि त मोगुती' इस सूत्र में मनोगुप्तीका लक्षण कहेंगे. मनमें जो रागादि विकार उत्पन्न होते हैं उनका नियमन करना मनोगुप्ति है ऐसा समझना चाहिये. R Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आश्वास वचनगुमि--असत्य, मनको दुःखित करनेवाली और कठोर वाणीको मुंहसे न निकालना. तथा मिथ्यात्व और असंयम उत्पन्न करनेवाली वाणी मुंहसे न निकालना वचनगुप्ति है. कायगुप्ति-साबधान होकर देखभाल न की हुई जमीनपर तथा न झाडी हुई अप्रासुक जमीनपर गमन करना, उससे वस्तु उठा लेना रखना, सोना बैठना इत्यादि क्रियाओं का त्याग करना यह कायगुप्ति है अथवा शरीरपरसे ममत्व छोडना-अर्थात कायोत्सर्ग करना यह भी कायगुसि है. ये तीनो गुप्तियां भी चारिखविनय हैं. समिति-प्राणिऑको पीडा न होवे ऐसा विचार करके दयाभावसे अपनी सर्व प्रवृत्ति जो करता है वह साधु समितिधारक माना जाता है, 'प्राणिपीहापरिहारादरक्तः सम्यगयनं प्रवृत्तिः समितिः' यह समितीका लक्षण है. इस लक्षणमें जो समितिका सम्पर यह विशेषण है उसका भाव ऐसा है-जीवोंके भेद और उनके स्वरूप के ज्ञान के साथ श्रद्धान गुण सहित जो पद Tetri, रखना, मन करना, बोलना इत्यादिक प्रवृत्ति की जाती है वहीं सम्यक है. ईर्यासमिति, भापासमिति, एपणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति और एषणासमिति ऐमी पांच समितियां हैं, शंका-ईर्यादिसमितिऑकी वाग्गुप्ति और कायगुप्ति इन दोनोंसे कुछ विशेषता नहीं है, अतः दोनोंको अलग अलग दिखाना व्यर्थ है. प्राणिऑको पीडा करनेवाली प्रवृत्तिाका त्याग करना यह कायगुप्ति है, और इंगों समिति में भी प्राणिपीडा करनेवाली देह प्रवृत्तियां त्यागी जाती है. अनः दोनोंमें अविशेक्षा ही मालम होता है.. उत्तर-गुप्नियां नियतिरूप होती हैं और प्रवृत्तिरूप नियाको समिनि कहते हैं एसा होनीम विशप है, माणपीठापरिहारपतक गमन करना, बोलना, आहार लेना, कोई चीज उटाना, रखना मलमत्र न्यागना इन सब क्रियाओंमें प्रवृति करना समिति है. इस प्रकार चारित्र विनय संक्षेपसे समझलेना चाहिये. शंका-इंद्रिया और कपायोंका अपणिधान मनोगुप्तिरूप ही है इसलिये उनका पृथक् कथन क्यों किया है ? उत्तर-वचनगुप्ति और कायगुप्ति इनका ही गुप्तिरूपसे ग्रहण किया है ऐसा समझो. अथवा रागद्वेप, मिथ्यात्व वगैरह अशुभ परिणामोंका त्याग करना यह मनोगुप्ति है. यह सामान्य है और इंद्रिय कपापोंकी तरफ आत्माका झुकाव न होना अर्थात् इंद्रियकपायरूपपरिणति आत्माकी न होना यह उसका विशेष है. सामान्यसे विशेष सर्वथा भिन्न नहीं है, कथंचिद्भित्र है, अतः यहां पुनरुक्तिदोष नहीं है, अर्थात् मनोगुप्तिसे SHOWSAG34 २७० Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ আম্মা মুম্পানি काAstsA Recene यदि इंद्रियकपायापरिणति सर्वथा समानरूप होती तो यहां एक ही विपय दुहराया जानेसे पुनरुक्ति दोप आता परंतु सामान्य और विशेषतासे यहां वह दोष नहीं है. मनोगुप्ति यहां सामान्यरूप है और इंद्रियकषायापरिणति विशेषरूप है अतः पुनरुक्ति दोष यहां नहीं है. इंद्रियकपायापरिणति विशेषात्मक होनेसे मनोगुप्तिम अन्तर्भूत होती है तथापि उसको भिन्नरूपनया दिखानेका प्रयोजन यह है कि, चारित्रका निदोप पालन करनेकी इच्छा रखनेवाले इंद्रियविषय और कपायपरिणति इनका त्याग करें. शंका-चारित्रके तेरा प्रकार है-पांच महाव्रत, पांच समिति, और तीन गुप्ति. समिति और गुप्ति भी चारित्रात्मक हो है अतः उनको चारित्रविनय कहने हैं. परंतु समिनि और गुप्तिको आप यहां चारित्रसे भिन्न दिखाते हैं. क्या यह युक्ति संगत है ? उत्तर-आचार्योंने अन्य ग्रंथों में पांच महावतोंको ही चारित्र कहा है. गुप्ति और ममिति ये महात्रतरूप चारित्रके परिकर है ऐसा इस ग्रंथकारका अभिप्राय है. अन्य आचार्योंने इस विषयमें ऐसा कहा है " कर्मादान निमित्तक्रियाभ्यश्च विरतिरहिंसादिभेदेन पंचप्रकारा गुप्तिसमितिविस्तारसंक्षेपो भवति " मन, वचन और शरीर की क्रिया ही कर्मग्रहण करने में निमित्त है. इस क्रियासे विरक्त होना चारित्र है, चारित्रके अहिंसा, सत्य, अचार्य, इत्यादिरूपसे पांच भेद है. यह संक्षयरूप चारित्र है. और गुप्ति समिति इस भेदसे वह विस्ताररूप है. इस चारित्रविनयकी स्थिरता पचीस भावनाओंसे होती है. 'तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पंच पंच' अर्थात । प्रत्येक व्रतकी स्थिरता हो। एतदर्थ पांच पांच भावनाएं आचार्यने कही है. - - - - -- - पणिधाणं पि य दुविहं इंदिय णोइंदियं च बोधव्वं ॥ सद्दादि इंदियं पुण कोधाईयं भवे इदरं ॥ ११६ ।। प्रणिधानं द्विधा मोक्तमिद्रियानिद्रियाश्रयम् ॥ शब्दादिविषम् पूर्व परं मानादिगोचरम् ।। ११७॥ Sare Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना आश्वास: २७२ सहरसरूवगंधे कासे य मणोहरे य इयर य ॥ जं रागदोसगमणं पंचविहं होदि पणिधाणं ॥ ११७ ॥ उक्तं शब्दे रसे रूपे स्पर्श गंधे शुभेऽशुभे॥ रागद्वेषविधानं यत्तदाय प्रणिधानकम् ।। ११८ ॥ णोइंदियपणिधाणं कोधो माणो तधेव माया य ।। लोभो य णोकसाया मणपणिधाणं तु तं बजे ॥ ११८॥ मानमायामदक्रोधलोभमोहादिकल्पनम् ।। अनिद्रियाशेयमारनपनेक १११ इंद्रियमनःप्रणिधानपरिहारद्वारेण चारित्रधिनयं प्रपंचयितुं गाथात्रयमाह.. मूलारा-प्रणिधानं आत्मनः परिणामोऽत्र नेंद्रियादिनिरोधः । सदादि-मनोज्ञामनोज्ञशब्दादिविषयरागद्वेपपरिणतिः । गृलारा-पंचविध-भोत्रादीनामिष्टानिएशन्दादिविषयभेदान् । मूलारा-गोकसाया हास्यरत्यरातशोकभवजुगुप्सास्त्रीवेदवेदनपुंसकवेदाः । तं तदाद्वविधर्मेंद्रिविकमानसं व प्रणिधानं 1 बजे वर्जयेत् । चारित्रबिनयार्थीति शेषः । एतदपि गाधात्रय टीकाकारो नेच्छति ।। इंद्रिय और मन वश करनेसे चारित्रविनय होता है. इस नारित्रविनयका तीन गाथाओंमें आचार्य वर्णन करते हैं अर्थ- प्रणिधानके इंद्रियप्रणिधान और नोइंद्रियप्रणिधान ऐसे दो भेद हैं. आठ स्पर्श, पांच रम, दो गंध, पांच वर्ण और शब्द ये इष्ट और अनिष्ट ऐसे दो प्रकारके हैं. इनसे आत्मा में रागडे पकी उत्पत्ति होती है. इसको इंद्रियप्रणिधान कहते हैं. स्पर्शनेंद्रियप्रणिधान, रसनेंद्रिय प्रणिधान, घ्राणेंद्रिय प्रणिधान, चक्षुरिद्रियप्रणिधान, और श्रोत्रंद्रियग्रणिधान एमे पांच भेद हैं. क्रोध मान, माया-कपट, लोभ, हास्य, रति-उत्सुकता, अरति-तिरस्कार, शोक, भय, जुगुप्सा-अन्यके २४२ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना २७३ दोष प्रकट करना व अपने दोप छिपाना, स्त्रीवेद- पुरुषाभिलाषा, पुरुषवेद- स्त्रीकी अभिलापा होना, नपुंसक वेद- दोनोंके साथ रमण करने की इच्छा होना, इन सर्व मनके परिणामको नोइंद्रिय प्रणिधाहते हैं. चारित्रचिनयेच्छु सुनिराज इन दो प्रणिधानों का त्याग करते हैं. इन दो प्रणिधानोंको जिन्होंने जीता है उनकी चारित्रचिनयका शीघ्र लाभ होता है. टीकाकार अपराजित रि उपर्युक्त तीन गाथाओं को क्षेपक समझते हैं. तपोनिरूपणार्थं गाथाद्वयमुत्तरम्- उत्तरगुणउज्जमणे सम्मं अधिआसणं च सढाए ॥ आवासयाणमुचिदाण अपरिहाणी अणुरसेओ ॥ ११६ ॥ परीषद सहिष्णुत्वं श्रद्धोत्तरगुणीयमः ॥ योग्य कसं हात्युत्सेधनिराकृतिः ॥ ११७ ॥ विजयोदया - सम्यग्दर्शनज्ञानान्यामुतरकालनावित्यात्संयमः उत्तरगुणशब्देनोच्यत । न हि श्रद्धानंशानं संयमः प्रवर्तते । अज्ञानतः श्रानरहितस्य वाऽसयमपरिहारो न संभाव्यते । तेनायमर्थ:-संयमोचनतपसो निर्जराहेतुता सति संगमे, नान्यथेति तपसः संयमः परिकरः । तथा चातुः संजमहीणं च तवं जो कुद्द विरत्वं कुण‍ इति । सम्मं सम्यक । संशयं चांतरेण । अधियास सहने क्षुधादेः । अनशनामोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानेषु नृजनितंवेदनया अव्याकुलता, कथमिदमुहामीति वा अना | मरुपानयोर्मनसोऽप्रणिधानं, अनि पिवामीति वा कथापरित्यागः, तत्कथनानादरः इतस्ततञ्चापरिवर्तनं । अत्रा वृ या बाधित एवं वचनं सहने अथवा भोजनविसे यांचाया अकरणं । आंगोऽस्युपवासेन रुष्टं भोक्तु न कोमि । श्रीग्धृतशर्करादिकः दातव्यमिति वचनेन यांचाया करणं मनसा वा री लत भई म्यान ति वाऽप्रार्थना । कायशया वा क्षीदिदानं हसितश्यमानमुखता गीतक्षायादाराने वा अर्पितानता। अन्ययभऽपि लाभालाभो परं तपोवृद्धिरिति नालाप सहने की। अथवा लौकिकानां धर्मस्थान वा सत्कार पुरस्काराकरण तपसि महति वर्तमान मेन पूजितः इति कोपसंशाकरण सत्कारपुरस्कार सहने वा । रसपरित्यागं कृतवतः रसवदाहारकथादर्शनोपजायमानत्तदा दराने वारणं रसपरित्यागजात शरीर संतापक्षमा वा सहनं आतापयोगधारिणो धर्माधुपनिपाते असंक्लिचिता तत्प्रतीकारयस्तुषु अनादरश्च सहनं । जनविधिकदेशे विशतः पिशाचव्यालमृगान्प्रवलोकना विकृत भीतिग्युदासोऽरतिविजयश्च सहनं । प्रायश्चित्तमाचरतोऽपि महदिदं दत्तं गुरुणा लावलं ममानिरूप्येति कोपाकरणं, प्रायथित करणजनितभ्रमेण वा असंक्लिष्टतासनं । शानधिको वर्तमानस्य * अयं पाठः कपुस्तके नास्ति । खपुस्तकटुद्धत्य संयोजितोऽत्र । --- ३५ भधासः २ २७३ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना HARAT बाबा नकालाद्धिकरण ममैव नियोजयति इति कोनिगमो त्रा, नद्तधम या असंक्लेशश्च सहन । दर्शनविनये अभ्युद्यनस्यसम्मागांच्यवभानस्य स्थिरीकरण महामायास बंचतसोपि कजतापादनमतिदुष्करं किमंग पुनः रम्य बकल्पः महनं । पुरस्नानारियविन्यम् ईयर्यादिसभितयो दुफराः । जीवनिकायाकुले जगति कियतः परिहतुं शक्यते ? निपुणतरं प्रतिपदग्यास जवायलोकम तापरिहती च कियद्गन्तुं शक्यता तथा प्रवतमान बाधन्ते तरामातरादयः । मयको टिपरमा भिक्षा क लास्यने खलपु वृतज्ञता नि मनसोऽप्यमणिधान चारित्रचिंगया। तपोविनयमुपगतम्यानशनादितपो उनुष्ठानातिदायम्य मम स्वल्पमधर्म अपारकोदकपानेन, अद्धभिक्षाग्रहणन या आजप एवोन्मूलयतीति असंकल्पने सहनं । असदभ्युत्थान, अनुगमन, प्रेषणकरणं, उपकरणशोधनादिकं बा का कतु कामोति प्रतिदिन मिश्थनामसाधरूप चारविनयसहनं । महाय अव च । तपसि । तपसा नंपाद्यमपकारमात्मनोऽत्रलोक्य वदया। तपो हि प्रत्यये कम संतृणोति, निराजितानां कर्मणा निर्जरामापादयति, इंद्रमालांछनादिसंपदोऽग्यानयति । समीचीनम्य तपसोऽलाभादेव जननमरणा वर्नमहन, अमुम्बाकुल भवाभोधी पर्यटन ममामीदभविष्यति इति तपस्यनुगः कार्यः । मायानगाणे आवश्यकानां । । यसो पायमो अचमस्स कम्ममायाम् इति यानापि मामयिकादियाय शब्दावनत व्याधिदात्यादिना व्याकुलो भगवन अनशः परयश इति पाचन । नाग कनय कति । यथा ] गच्दनाय नमनानयाधादा यतत प्रवान्दो पिगमाहाशात नगर समिपि atithit कम गवरनं. मा ननदभापत ॥ अथवा शापामफानो ग्यता पानामांकन रमपमानानान कामासाधक चढ़ानातम्भ तो, चंदना, प्रवकम याम्यान, यमग, यति । नत्र रामायकं नाम नतविध नरामम्थापनादन्यभावभंदन । निमसानपक्षा कस्यचिवाध्याहिला या सामयिकांमान नामगामायिकमा । गवसायद्यनिजिपरिणागवता यान्मना एकीभूतं दागरं यत्तदाकारमारश्यानदवामान शायन यांचनाम्नादिक नत्यापनासामागिकम । आगमद्रव्यसामायिकं नाम श्रतम् सामायिक नाम ग्रंथः, नन्दर्भमा यो सामाएकाग्यात्मपरिणामप्र-वभामा प्रत्ययगंण मांगनमारणतः आत्मा। नो आगमद्रव्यमामाथिक नाम विकल्प शायका ग्भाचिन तिग्निदेन । मायायिकाम्य यह तदए सामाणिकशानकारण, आन्यव शरीरमंतराइ तम्या भावात ! यस्य दिभावाभावी नियोगनो यदनकरोति तत्सम्य कारणमिति हतूफलव्यवस्था वस्तुप । ननः प्रत्ययभामााय कम्य कारखान्याना त्रिकालगांचा सामायिकदाम्प वाच्यं भवति । चाग्निमहिनायत्रयोपशविशेयसहायो य मारमा भविष्यसमावायोगानत्तिपरिणामः सोऽभिधीयत भाचिसामायिकशब्देन । चारित्रमोहनीयाएवं कर्म परिमाप्तन्नयोगशभावम्यं नो भागमद्रव्यं नंदपनिकिकर्म । सामायिक नाग प्रत्ययसामायिक मो भागमभावसामायिकं नाम समायद्य योगनिनिनिमः । अमिह गुहीनः । चतुर्विंशतिसंख्यानां तीर्थक्वन्तामन भारत प्रवृत्तानां वृषभादीनां जिनवरवादिगुणज्ञानथद्धानपुरस्सरा चतुधिश तिस्तवनपठनक्रिया नो भागमभाषचनुपिशतिस्तव इद्द गृयत । १७, Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलाराधना Maa-A वंदना नाम यसमन्दिताना रतीना पानापासायनिक विषाणां पातशय चशाय भन्दापुर संग्गा अभ्युत्थानापयनिदेन द्विविध विमरप्रतिसगोनभदाता । मनभान, कम्प, फा. काहानियारानात । अभ्गा कनोदिप किंवा मदिव्य कर्तव्य पर्वमय विवरः काव्यिनयोपदिष्टः सवर्जिनः कर्मभूमिपु सदा माननायअंगः ।। गरमानं.दीनमण पक्षालंपादन, धमागधनात्रियः मानिद्रगजयं. नुपि च फलमपन्य तर नगिंन आगमानन, पहनायगानुपाणाधिना परणयकाशनोचतेन मघवन्सलेन । अमेयनामासस्य बा नाम्पाना TREE चाप वा । रणय तपांचव नित्यमयतानां अध्यायानं कर्नग्य निगम जनयामानानं मायानोपजकारणात् । सबिझन मनि क्रियमाणमभ्युत्थानं निर्जरानिमितं चिनि स्थापनापदभकालान । कचनामनुस वा शिकयतः अधमरखर यस्यान्वधातव्यं मम्मूले अध्ययन कोड: नाय । चमतः, काUिRE. FAIR चस्पात् , गुरुसाशात् , नामांतराडा प्रायमनकाम्याधातव्यं । गुरुजगश्च पदाकि.पाय ति निकाय प्रषितालियाना कदा त्यानं कार्य । अनया दिशा पथागनसिनगद पनगवयग । दुऊण जहाजार्द बारखावसमवय।। चस्सिर तिसुद्धं न किदिकम्म पजप ॥ मादिक परदः । प्रातिक्रमण प्रतिनिवृप्तिः पोढा विद्य-नामस्थापनादब्य क्षत्रकालभायविकल्पेन । अयोग्यदानासनच्चारण नामतिकमणं । नहि दारिमा सामिणी इत्यादिकमयोग्य नाम । आप्ताभासानामा, प्रसस्थाचराणां मपाणि, लिखितान्युकीणानि वा स्थापनाशयेनेह गृह्यते । तत्राप्ताभासपतिमाशं पुर स्थितायो यदभिमुन्नतया कृतांजटिपुटता, शिरोचनिः, गंधभियन च न कर्तव्यम् । पर्व सा स्थापना परिहता भवति। प्रसस्थावरस्थापनानामविनाशगं, अमाईनं. अनाउन वा परिहारः प्रतिक्रमण | रास्तुक्षत्रादीनां दशप्रकाराणां उद्दामोत्पावनपणादोपदुष्टानों वसनीनां. उपकरगानां भिक्षाणां च परिरणं, अयोग्यानां चाहारादीना. मृद्धर्षम्य च कारणानां संक्लेशहेतुना वा निरसन द्रव्यनिकमणं । उदककईमत्रसस्थानाननित क्षेत्रेषु गमनादिवर्जन क्षत्रपनिकमणं । यस्मिन्बा भन्न बसतो रत्नत्रय हानिर्भयान तम्य या परिहारः नच्च शिाननयोवृद्धग्नध्यासितं । रात्रिसंध्याश्रयस्वाध्यायावश्यककालेषु गमनागमनादिव्यापाग करणान् कानप्रनिकमा । काटा दुष्परिहार्यत्याकालाधिकरपव्यापारविशेषाः कालसाहचर्याकालशचनमीनाः । मिथ्यात्यममयमा कपायःगगः, द्रपः संज्ञा, निदान, आगामन्यादयोऽशुभपरिणामाः, पुण्यालयभूताश्च शुभपरिणामाः बदभावशदन गृहान्त,नभ्यो निवृत्तिभावप्रतिक्रमर्ग इनि केचियाख्याग । चतुर्विधमिन्यपर! निमित्तनिरपेन कस्य चिन्नामत्येन नियुज्यमान प्रतिममित्यभिधान नामपतकमणं || अशुभारण्यामानां विशिष्टजीवद्रव्यानुगतश्रीराकार १ भट्टि दारिता सामियी इति खयुस्तके । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ક્ सादृश्यापेक्षया चित्रादिरूपं स्थापित स्थापनाप्रतिक्रमणं ॥ प्रमाणनया नशेपादिभिः प्रतिक्रमण।वश्यकस्वरूपशसूत्रानुपयुक्तः प्रत्ययप्रतिक्रमणकारणत्वात् आगमद्रव्यप्रतिक्रमणशब्देनोच्यते । नो आगमद्रव्यप्रतिक्रमणं त्रिविधं । शायकशरीरभावितद्व्यतिरिक्तभेदैः । यथात्मा कारण प्रतिक्रमणपर्यायस्य, तथा तदीयमपि शरीरं विकालगोचरमिति प्रतिक्रमणशब्दवाच्यं भवति । चारिणमोक्षयोपशमसांनिध्ये भूविणण अक्षरेवशमावस्यामुपगतः चारित्रमोहः नो आगमद्रव्यव्यतिरितकर्म प्रतिक्रमणं । प्रतिकमणप्रत्यय आगमभावप्रतिक्रमणं । भिच्छणाणमिच्छामिच्छाचारितादो एडिबिरदोमिति एवं स्वरूपशानं । अशुभपरिणामदोषमनुष्य बजाय तमपिपरि वृत्तिन आगमनावप्रतिक्रमणं ॥ सामायिकस्य प्रतिक्रमणस्य च को भेदा ? साधययोगनिवृत्तिः सामायिकं । प्रतिक्रमणमपि अशुभमनचयन. वृत्तिरेव तत्कथं पडावश्यक व्यवस्था ? अत्रोच्यते - सभ्यं सावज जोगं पञ्चषयामीति वचनादिसादिभेदमनुपादाय सामान्येन सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिः सामायिक | हिंसादिभेदेन सावद्ययोगविकल्पं कृत्वा ततो निवृतिः प्रतिक्रमण । तथा च सूत्र "मिच्छ्रतपडिकमणं, तदेव असंजमपडिकमण, कलासु परिक्रमणे, जोगे अ अभ्यसन्धे " इति यत्रनादि ति केचित्परिहरानी । इदं त्वन्याय्यं प्रतिविधानं । योगशवेन वीर्यपरिणाम उच्यते । स च वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितत्वात् arrheapest भावस्ततो निवृत्तिरशुभकर्मादाननिमित्तयोगरूपेण अपरिणतिरात्मनः सामायिकं । मिथ्यात्वा संयमकारायाच दर्शनचारित्रमोहोदयजा मौदयिकाः । मिध्यात्वं तस्याश्रद्धानरूपं, असंयमो हि हिंसादिरूपः । क्रोधादयस्तु परस्परतो मिथ्यावादसंयमनुभवसिद्धये लक्षण्यरूपाः । ये भिन्नतुखरूपास्ते नैक्यमापयन्ते यथा शालियवगोधूमाविधान्यं । भिन्नहेतुरुपाध मिथ्यात्वासंयमकषायाः । तेभ्यो विरतिर्व्यावृत्तिः प्रतिक्रमणं । सावप्रयोगमात्र निवृत्तिः सामायिकमिति मेवो महाननयोः । भेदमेवाभित्यामीषां परिणामानां 'बदुपच्चयाण बंधो इति सूत्रमवस्थितं । अन्यथा योगविकल्पये मिथ्यात्वादीनां चतुःसंख्या न न्याय्या योगेन सह । प्रत्याख्यानं नाम अनागतकालविषयां क्रियां न करिष्यामि इति संकल्पः । तच्च नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकाल भावविकल्पेन पधिं । अयोग्यं नाम नोच्चारयिष्यामीति चिंता नामप्रन्यान्यानं | आताभासानां प्रतिसा न पूजथिथ्यामीति, योगत्रयेण सस्थावरस्थापनापीडां न करिष्यामीति प्रणिधानं मनसः स्थापनाप्रत्याख्यानं । अथवा अहिंदादीनां स्थापना न विनशयिष्यामि नैवानाद सब करिष्यासि इति वा । अयोग्याहारोपकरणद्रव्याणि न सहीष्यामीति चिंताव्याख्यानं । अयोग्यानि वानियोजनानि संयमहानि केशं या संपादयति यानि मंत्राणि तानि व्यश्यामि इति क्षेत्रायानं । कालस्य दुःपरिहार्यत्वात् कालस्वाध्यायां विश्वायां परिहतायां काल एव प्रत्याख्यातो भवतीति तेन संध्याकालादिष्वय्ययनगमनादिकं न संपादयिष्यामीति चतः । भावोऽशुभपरिणामः तं न आश्वास ગ્ २७६ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास: २७७ निर्वतयिष्यामि इति संकल्पकरण भावान्याख्यातं । तद्विविध मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुगप्रत्यास्थानमिति । ननु च भूलगुणा मतान तेषां प्रत्याख्यानं निरासो भविष्यत्कालविषयश्चेन स संवरार्थिना कार्यः, संवरार्थमवश्यमनुष्ठीयते इति उत्तरगुणानां कारणत्यान्मूलगुणव्यपदेशो यतेषु वर्तते । मूलगुणशब्दः मूलगुणध सः प्रत्याण्यानं च तत् इति । बतोत्तरफालभावितत्यादनशनादिकं उत्तरगुण इति उच्यते । उत्तरगुणश्च सःप्रत्याख्यानं च तदिति उत्तरगुणप्रत्याख्यान 1 तर सयताना जीवितायधिक मूलगुणप्रत्याख्यान । संरतासंयताना अणुव्रतानि भूलगुणवतन्यपदेशभाजि भवति तेषणं द्विविध प्रत्याख्यानं अल्पकालिक, जीषितावधिकं चेति । पक्षमासषण्मासादिरूपेण भविष्यत्कालं साबधिकं कृत्वा तत्र स्थूलहिसानृतस्तेयानह्मपरिग्रहानाचरिष्यामि इति प्रत्यारूपानगल्पकालकम् । मामरणमषधि रत्वा न करिष्यामि स्थूलहिंसादीनि रति प्रत्याश्यानं जीचितावधिकं च । उत्सरगुणप्रत्याख्यान संपतसंयतासंयतयोरपि भल्पकालिक जीवितायधिकं वा । परिगृहीतसंयमस्य सामाथिकादिकं अनशनादिकं च पर्तते इति इत्तरगुणस्पं सामायिकादेस्तपसश्च । भविष्यकालगोचराशनादित्यागात्मकत्वात्प्रत्याख्यानत्वं । सति सम्यक्त्वे चेतनुभयं प्रत्यास्थ्यानं जीवनिकायं हिंसादिस्वरूपं च सात्या अशाय सर्घतो येशतो वा हिंसादिविरतिर्षतते प्रतं । तथा चोक्त-निशल्यो अती' इति । मिय्यादर्शनशल्यं,मायाशल्यं, निदानशल्यं चेति त्रिविध शल्य तेभ्यो निकांतः निःशल्यः । सावधाराम चंद निःशल्य एय वतीति । तेन सशत्यवतिता निरस्ता भवति । न च असति श्रद्धाने मिथ्यात्वशस्यनिवृत्तिः । न च जीवाद्यपरिक्षान मंतरेण श्रद्धानस्यास्ति संसब इति शानदर्शनवत एव प्रतिता सूत्रकारेण ख्याता। तथायश्यकेऽप्युक्तम् "पंचवदाणि जदीणं अणुब्बदाई च देसविरदाणं " "ण हुसम्मत्तेण विणा तो सम्मत्त पढमदाए । " इति हिंसादिषवर्ननपर माषित मिति क्रियाः पंचापि सरात्रिभोजनाः प्रयान यात स्त्रिधा मनोवाकायविकल्पेन इतकारितानुमनर्याचज्जीवं । सम्यम्हण्टिरपगारी मूलगुण उनग्गुणं वा स्वशकया गृहानि परिमितकानं यावज्जीचं या । पाल्पना प्रा. स्कन हिनादिकंदा दुई कतं, हा दुष्ट संकल्पितं । यचो बा हिमादिपवर्तनापरं भापितं इति निंदामहाभ्यां दूपचन्वनमानं चासयम कृतं क्रियमाणासंयमसदृशं न करिष्यामि इति मनसि कुर्वन्प्रत्याख्याता भवति । अगारिणां विरतिपरिणामविकल्पो निरूप्यते । स्थूलनपाणातिपासादिकं कृतकारितानुमतविकल्याधिविकरूपकं मनोवाकायविकल्पैर्न स्पजति । मनसा स्थूलएतमाणातिरातादिकं न करोमि, तथा बचसा कायेनेति त्रिविधं कृतम् । मनमा स्थूल मापाातिपातादिकं न कारयामि, तथा मनसा स्थूलरुतमाणातिपातादिक नानुजानामि, तथा वनसा कायेन चेति त्रिभ कारिनमनुमननं च ॥ एवं नवविधं स्थूलरुतप्राणवधादिकं त्यक्नुमशहोडमारी। १ पाठोऽय पुस्तकें नास्ति खपुस्तकात्संयोजितोऽयम् । वा २७७ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृमाराधना HO नधा मनोवाम्भ्यां स्थलरुतमागातिपाताविक कृतकारितामुमतिविकल्पास्थिविधं कर्तुमगनो मनसा न करोमि, न कारखानि, नानुजानामि वचसा काम,न कापयामि नानुजानामि इति ॥ कायन करकाग्निान गायिका हिमादा न समनी बिहानु तथा कम नानिधि निविधा यदरियायिक मानिनति को नगा विरतिमुपैति । अत्रायते ।। कवकारितायकम्पादद्रिप्रकार नादिकं मनोमाकान्यज । चाचा कथिग वा हिखादिविण्यं कुल कारि त्यजति । शायन एकन बार कारिन भ्य जनि । अत वाला थं पुगतिचिंधणय इधिनिधण या निम्मा 'इति । अथवा हिंसायाः स्वयं करणं एवं. मनायकाय त्यति न मनसा चाचा कायेन स्थलकतप्राणाविशनादिकं पंचक करोमांति ॥ अभिमधिपूर्वक, विमण कागति । वाकाया या स्वयं कर यजनि कायकन या। तथा चेम-कविध तिविवश चापि बिरमरज' || गमते बनदिकपा भाग्यकालावपयनयानयुज्यमानाः प्रत्यास्मानविकरूपाः भगायत्रोपन्यासः ॥ कायोनगी निकाय-कायः शरीरं नस्य उत्सर्गस्त्यागः उपाध्यधिष्टानेंद्रियाययाकः कर्मनिवर्निनः पटलः चयनिशप धीदाक्किारज्या कावादन गृहीतः । इसपर उन्समस्यासंभवान वक्ष्यमाणस्य। ननु साना नित्यंगटन मारमा वीरभुम्हजति नाम्पदा तन्क्रिमन्यत काारसर्ग इनि। शावादारीयोच्योऽन्यप्रदेशानुपंचशिनोगयुवशम्बन अनधियऽपि शरीर अनि मायानुमानया अधिनमक्षकमितीजन्यात नित्यन्यं, अपित्व. दरम्न. समारस्य दाबहतन्त्र, शरीगतममताभननमागरपरिभ्रमण इत्यादिकामधये दोपानंद रम माहमयनि संझल्पवतम्सदादाभावान्कायस्य त्यागो घटत पय । यथा माणध्यावधिगतमा कतापराधावस्थिता कस्मिन्मंदिरे व्यक्तित्युच्यते तस्यामनुरागामायान्मभेदं भावच्यावृत्तिमपंधर पव मिहापि । के च काथापाचसक्षिपातेऽपि अपायनिराफरमाभिलाषास्याभावात् । यो यदपायनिराकरणानुत्सास्तेन तापरित्यत्ती अशा असमादिक पनि । शरीरापायमिराफरमानुएवार यतिस्मायुज्यते कायत्यागः। जागतिर पृष्टः, म्याग्विायफाया, प्रलंबिनभुजः, प्रशस्तभ्यत्नपारणतोऽनुमिनानकायः, पीपहाना माथा महाना, निन्निजन्तु कमवायलापी धिर्वत वा माता कायमस्य जघन्य कला वर्षमुस्कृतः । अनभितरो मारमा पकाग मस्ति । गरिनपानसशामाका मन्लि । गमिदनमपत्यवत्सरमनिया गानाति : नया सापा : - . भि . भिमातानि. मायुशन:पंचाता : मलवामान पनि गनिचरूतीच्या प्रयासोश्यानमारकादः कार्यान्सर्गः । कायोमी ग पर शपयन एमाझाकर मारने का परिणामय उसकामाकमाधिक स्थानाध्य । उभिनिधन, उनि निषिधम्, उपविष्टोन्धितं. उजविपविष्ट्र इतिधारी विकल्पाः । श्रम शाल वा श. पता यतिधनायकाचनः डायलोस्थिती नाम । दरभावोत्यानरमाचतादादुन्याना कपः उपाधि Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलारारना । २७९ नोच्यत । नत्र द्रव्योत्थानं शरीरं स्थाणुबद्ध अविचलमयस्थान । ध्येयेकवस्तुनिष्ठता शानामयस्य भावस्य भावोधानं । आर्तरीयाः परिणतो यस्तिष्टति तस्य उत्थितानपणो नाम कायोत्सर्गः । शरीरोत्थानादुन्धितत्वं शुभपरिणामोशतिरूपस्यास्थानस्याभाचाविषण्णण इत्युच्यते । अत विरोधानाच मिनिमित्तत्वादुत्थानासनयोः एकत्र एकदा । यस्यासीन गत्र धर्मशभ्यानपरिणतिमुपैति मस्य उत्थितनिगरानो भवति परिणामोत्थानात्कायानुत्थानाच । यस्तु निघणणा शभयानपरता निमापनिषण्णकः | कायाशभपरिणामाभ्यां अनुत्थानाता देवसिकाद्यतीबारं रत्नत्रयगत मनसा विमृश्य रर्द मया दुष्ट स्तं प्रमादिनेनि संचिन्त्य पश्चाद्धर्म शुरू का ध्याने प्रतितव्यम् । कायात्मग प्रानः स्थानदापारिहरत् । के न इति चदुच्यते । १ तुरग व कुंटीकृतपादन अचस्थान पर टवास्तनधादशोऽवस्थानं ३ संभवस्तब्धशारीरं कृत्वा न्यानं । ४ स्तमोपाश्रयण बा कुड्याख्यण वा मालाधनापिसा करना: या, हमनट्या वायस य इनमततो नयनोइतने कम्बायस्थानम् । ६ खटीना पपीडिशमुखवाय इथ मुखचालनं संपादयनोऽवस्थानं। ७ युगावष्टम्धवलीबाई इव शिरोऽधः पानयना | ८ कापिन्थफलनाहीय विकाशिकरवल, संकुचितागुलिपंचकं वा कृचा ॥१.शिरवादन कुर्वन १० मुकच हंकारे गंगाद्यावस्थान ११ मृक इव मासिकया यस्तूपदर्शयता वा । १२ अंगुलिस्फोटन १३ सनतनं या कन्या १५ शववार व स्वकानंदशा चलानपुरगंबलावाद इवाकारयान। गीतमंदिर व नरहातारा न. भृत्यावस्थाने इन्य भी दायः॥ म्यादागिनामावश्यकाना अपरिमाणिहानि का प्रसंगी अधिकानाकरण च । तपोधिनप्रापणाय गाथायमाह ---- मूलारा-उत्तरगुण उजामा अदानज्ञानी तर कालभाविवादुत्तरसुणः संवमः, नत्र उद्यनः । सपझो दिमागम निर्जराहेतुत्वं नान्यथेनि तपांबर: मयमः । तथा बाहु। - "यमीगं च तवो जो कुगइ णिरत्यय कुणइ' इति । मम्म सम्यक् मेंटेशदैन्याभ्यां विना । अधियासणं सहनं क्षुधादेरिति शेषः । सना श्रद्धा तपस्यनुराग इत्यर्थः । आवासयाण आवश्यकानां सामायिकचतुर्विशतिस्तवधंदनाप्रतिक्रमणप्रत्याख्यानकायोत्सर्गलक्षणानां अवश्चकार्याणाम् । उचियाण सचिताना, चोग्यानां, यथोक्तानामित्यर्थः । अपरिहाशि अन्यूनता । अस्लेगो अनुरसेकः, आधिक्येन करणं । नपका निरूपण करने के लिये आगेकी दो गाथायें आचार्य कहते हैं अर्थ-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकं अनंतरकालमें चारित्रकी उत्पत्ति होती है इसलिये चारित्रको-संयम को उत्तरगुण कहते हैं, श्रद्धान और ज्ञानके विना संयम होता नहीं. जिसको ज्ञान नहीं है और जो श्रद्धानरीहत है - SALMERTAINME NT २७ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना २८० वह असंयमका त्याग नहीं करता है. यहां इस विवेचनका यह अभिप्राय है कि, संयमका उद्योत करनेवाला तपश्चरण निर्जराका कारण होता है. अर्थात् संयमपूर्वक तप हो तो कर्मकी निर्जरा होती है अन्यथा नहीं होती है. इस लिये संयम तपका परिकर है. इस विषय में पूर्वाचार्य ऐसा कहते हैं " संजमहीणं च तत्रो जो कुणह गिरत्थयं कुणइ " संयमरहित तप जो व्यक्ति करता है वह व्यर्थ ही क्लेश करता है. संयमका उद्योत करनेके लिये मनमें संक्लेश परिणामको उत्पन्न न करते हुए क्षुधादि बाधाओंको महना चाहिये. उपवास, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान इन तपोंको करते समय भूख प्यासकी वेदनासे मनमें व्याकुलता न होनी चाहिये. अथवा यह तपश्चरण में कैसा धारण करूं ऐसी कायरता छोड देनी चाहिये. आहारके और पानके पदार्थो मनको चलित न करना चहिये. मैं यह पदार्थ भक्षण करूंगा यह पदार्थ पी लूंगा ऐसे मुहसे कथा न करें तथा उस कथा अनादर करें. उपवाससे थका हुआ इधर उधर लोटना छोदे, मैं क्षुधासे पीडित हुआ है, प्यासस मेरेको कट हो रहा है ऐसा वचन न चील अथवा आहारकं दिन याचना न करे. मैं उपवाससे थक गया हूं इसलिये यह रूखा भोजन में नहीं खा सकता हूं. मेरेको दूध, घी, खांड वगैरह पदार्थ आप देवें ऐसी वचनसे याचना नहीं करनी चाहिये. अथवा यदि यह पदार्थ मिले तो बहुत अच्छा होगा ऐसा मनमें भी विचार न लाना चाहिये. शरीरपर भी इस विचारका कुछ चिन्ह व्यक्त न होना चाहिये, जैसे दाता क्षीरादि पदार्थ देने लगा तो मुख हास्यसे मफुल्लित होना, थंडा और रूक्ष आहार देता हो तो मुखपर कोप प्रगट होना. इस तरह क्षुधादिक परीषह सहन करने चाहिये. आहारादिककी प्राप्ति न होनेपर भी लाभकी अपेक्षा अलाभसे ही मेरे तपकी वृद्धि होती है ऐसा मनमें विचार करता हुआ अलाभ पपिह सहन करना चाहिये. लोकव्यवहारज्ञ और धार्मिक जन तप और उपस्थिओंका बडा आदर करते हैं, मैं चडा कठिन तप करता हूं तो भी ये लोक मेरा आदर करते नहीं है. यह विचार मनमें लाकर कोपसे संक्लेशपरिणामके वश न हो जाना चाहिये, अथवा सत्कारपुरस्कार परीषह सहन करना नाहिये. रसका यदि परित्याग किया है तो रसयुक्त आहारकी कथाके तरफ अपने मनको न लगायें रमयुक्त पदार्थका अवलोकन होनेसे उस विषयके आदरभाव को दूर हटाना चाहिये. रसोंका त्याग करनेसे यदि देहमें दाह उत्पन्न हो तो सहन करना चाहिये. आश्वास २ २८० Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः २८१ आतापनयोग धारण करते समय मुयकिरणमे, म्बेदमे बदद कप होनेपर भी मन संक्लिष्ट न होने देना चाहिये. और उनका प्रतीकार करनेवाले वस्तुओंमें आदर भी नहीं करे. जहां लोगोंका आना जाना नहीं है ऐसे एकान्तस्थान में प्रवेश किया हो और वहां पिशाच अथवा दुष्ट व्याघ्रादि पशुओका उपद्रव होनेपर भी मनमें भयभीत न होना चाहिये और अरतिपरीपह सहन करना चाहिये. प्रायश्चित्तका आचरण करते समय में भी गुरुने मेरे अलाचलका विचार न करके बडा प्रायश्चित्त दिया है ऐसा विचार कर मनमें क्रोध न उपजावें. प्रायश्चित्त करते समयमें होनेवाले क्लेशको सहकर संक्लेश परिणाम न होने देवें शानविनयके कार्य में प्रवृत्त हुये मेरे को ही क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि करनेके लिये गुरु नियुक्त करते हैं. दूसरों को इस कार्य में नहीं लगाते ऐसा विचार कर कोप नहीं करना चाहिये और ज्ञानविनयके कार्यमें श्रम दुआ तो भी सहन करना चाहिये. दर्शनविनय में तत्पर रहनेवाले मुनिवर्यने सन्मार्गसे भ्रष्ट हुए व्यक्तीको सन्मार्गमे पुनः स्थिर करना चाहिये, ऐसे कार्यमें महान परिश्रम करने पड़ने पर भी खेद न मानना चाहिये. स्वतःका चित्त वक्रविचारयुक्त हुआ हो तो उसको भी सीधे मार्गपर लाना वडा दुष्कर कार्य है तो अन्य व्यक्तिको सन्मार्गमें स्थिर रखना क्या सुलम है? ऐसा मनमें विचार न करना चाहिये. अर्थात् स्थिरीकरणकार्यमें होनेवाले परिश्रमको सहन करना अपना कर्तव्य समझना चाहिये. चारित्रविनयमें सदा ही तत्पर रहकर ईर्यादिसमितियों पालनी चाहिये. ये समितियां बड़ी दुष्कर हैं. जगमें सर्वत्र जीव भरे हैं अतः जीवहिंसाका कैसे परिहार हो सकेगा ? प्रत्येक पाव रखते समय अच्छी तरहसे देख माल करने पर भी जीवोंका दर्शन और उनका परिहार होना अशक्य है. इससे तो इष्टस्थान पर जाना ही न होगा, इयर्यासमितीसे चलते समय सूर्यकी उष्णता, कंटकादिकसे बाधायें होती हैं. ऐसे विचार मनमें लाकर संक्शपरिणाम नहीं बनाना चाहिये. जैसे दुष्टपुरुषमें कृतज्ञता गुण पाना दुर्लभ है वैसे ही नउ प्रकारसे विशुद्ध आहार पाना कठिन है. ऐसा मनमें कभी भी विचार न करे. यह सब चारित्रविनय है. मैने तपोधिनय धारण किया है, अनशनादिक सप फेरनसे मैं हमेशा तत्पर रहता , अप्रासुक पानी । O Bees Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ पानस तथा अशुद्ध भिक्षा ग्रहण करनेसे जो पाप उत्पन्न होता है उसको. मेरा तप भस्म कर डालेगा ऐसा मनमें संकल्प नहीं करना चाहिये. वारचार ऊठना, गुरुओंके पीछे गमन करना, उनकी आज्ञा शिरोधारण करना, उपकरणाको सोधना पोछना' वगैरे उपचारविनय है, ये कार्य दररोज करनकी यह आपत् व्यर्थ ही पीछे लगी है, ऐसा मनमें विचार न करें, बड़े आनन्दम उपचारबिनयका पालन करें, तपश्चरणमें श्रद्धा रखना यह भी तपोविनय है. तपश्चरणके द्वारा आरमापर उपकार होता है यह अपने बुद्धिस जानकर तपके उपर श्रद्धा करनी चाहिये. तपश्चरणसे नवीन कर्मका संवर होता है. और पूर्वकालमें बंधा हुआ कर्म निर्जीर्ण होकर आत्मासे छूट जाता है. तप जीवोंको इंद्रपदवी, चक्रवर्तिपद वगैरे लोकपूज्य पद अर्पण करतर है. उत्कृष्ट तपके अलाभसे ही जीवको संसारसमुद्र में जन्ममरण के आवर्तमें घूमना पडता है. दुःखोंसे भरे हुए इस भवसमुद्र में तपके अभावसे ही मैंने भ्रमण किया है और करूंगा. ऐसा विचार करके तपमें येम करना चाहिये. सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, बंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ऐसी छह आवश्यक क्रियायें हैं. ये क्रियायें शास्त्रमें जंसी कही हैं वैसा उनका आचरण करना चाहिये, उसमें न्यूनता न होवें. यदि होगी तो तपोविनयमें न्यूनता आवेगी. 'ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासयंति योधव्या' ऐसी आवश्यक शब्दकी निरुक्ति है, व्याधि-रोग अशक्तपना इत्यादि विकार जिसमें है ऐसे व्यक्तिको अवश कहते हैं. ऐसे व्यक्तीको जो क्रियायें करना योग्य है उनको आवश्यक कहते हैं. जैसे 'आशु गच्छतीत्यश्वः' अर्थात् जो शीघ्र दौडता है उसको अश्व कहते हैं. अर्थात् व्याघ्रादिक कोई भी प्राणी जो शीघ्र दौड सकते हैं वे सभी अश्वशब्दसे संगृहीत होते हैं, परंतु अश्वशब्द प्रसिद्धिक वश होकर घोडा इस अर्थमें ही रूट है. बैंसें अवश्य करने योग्य जो कोई भी कार्य है वह आवश्यक शब्दसे कहा जाना चाहिये जैसे - लौटना, करवट बदलना, किसीको बुलाना वगैरह कर्तव्य अवश्य करने पड़ते हैं परंतु आवश्यक शब्द यहां सामायिकादि क्रियाओं में ही प्रसिद्ध है. ___अधत्रा आवासक ऐसा शब्द मानकर 'आवासयन्ति रत्नत्रयमात्मनि इति आवासकाः' एमी भी निकि करते हैं. अर्थात जो आन्मामें रत्नत्रयका निवास करते हैं उनको आवासक कहते हैं. सामायिक, चतुर्विशनिस्तय, । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना २८३ वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक क्रिया है- उसमेंसे सामायिक क्रियाका वर्णन आचार्य कहते हैं. सामायिक के चार भेद हैं-नामसामायिक, स्थापना सामायिक, द्रव्यसामायिक और भावसामायिक. नामसामायिक – जाति, गुण, क्रिया वगैरह निमित्तों के बिना किसी भी जीवादि पदार्थोंका सामायिक ऐसा नाम रखना. स्थापना सामायिक सर्व पापका त्याग करनेवाले परिणामोंसे परिणत ऐसे आत्मासे एकरूप हुए. शरीरका जो आकार सामायिक करते समय होता है वैसा ही आकारसाहस्य जिनमें है ऐसे चित्र, फोटो वगैरह पदार्थ में यह सामायिक है ऐसी स्थापना करना यह स्थापनासामायिक है. आगमद्रव्यसामायिक अंगबाह्य श्रुतज्ञान का सामायिक नामका आद्य ग्रंथ है. उस ग्रंथका अर्थ जो जानता है अर्थात् सामायिक रूप आत्मपरिणामका अनुभव जिसको आ चुका था परंतु सांप्रत जो सामायिकरूपज्ञान से परिणत नहीं हुवा है वह व्यक्ति आगमद्रव्यसामायिक है. नो आगमद्रव्यसामायिकके ज्ञायकशरीर, भावि और तव्यतिरिक्त ऐसे तीन भेद हैं, सामायिकको जाननेवाले आत्माका जो शरीर हैं वह भी आत्माके समान सामायिकका ज्ञान होनेमें कारण है, क्यों कि शरीरके बिना आत्माको ज्ञान होता नहीं है, जो पदार्थ जिसके सद्भावमें रहता है या उत्पन्न होता है और जिसके अभाव में उत्पन्न नहीं होता है वह उत्पन्न होनेवाला पदार्थ उसका कार्य समझना चाहिये. शरीरके बिना सामायिकका ज्ञान आत्मा स्वयं अपने में धारण नहीं कर सकता है. अतः वह ज्ञान शरीरका कार्य माना जाता है. अर्थात् ज्ञान और शरीर में हेतुफलव्यवस्था है ऐसा यहां समझना चाहिये. ज्ञानरूप सामायिकका शरीर कारण होनेसे त्रिकालस्थित यह शरीर सामायिक शब्दमे वाच्य होता है. भाविसामायिक — चारित्रमोहनीय कर्म के विशेष क्षयोपशमसे आत्मामें भविष्यत्कालमें जो सर्व सावद्य योगसे निवृत्त करनेवाला परिणाम होगा उसको भावि सामायिक कहते हैं. तद्व्यतिरिक्त नो आगमद्रव्यसामायिक -- क्षयोपशमरूप अवस्थाको प्राप्त हुए चारित्र मोहनीय कर्मको जो कि सामायिकके प्रति कारण है वह नो आगमंद्रच्य तद्वयतिरिक्त सामायिक है, भाश्वास २८३ २ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः २८४ नो भागमभावसामायिक-संपूर्ण सावधयोगोंसे विरक्त ऐसे आत्माके परिणामको नो आगमभाव सामायिक कहते हैं. यही सामायिक प्रकृत विषयमें ग्राम है. आगमभावसामायिक-सामायिक शास्त्रका ज्ञान जिसका सांप्रतमें उपयोग हो रहा है चतुर्विंशतिस्तव -- इस भरतक्षेत्र में पैंर्तमानकालमें वृपमनाथसे महावीर तक चोवीस तीर्थकर होगये हैं। उनमें अर्हन्तपना वगैरे अनंतगुण हैं. उनको जानकर तथा उनके ऊपर श्रद्धान रखते हुये उनकी स्तुति करना यह चकातिम्तव है. चंदना-रत्नत्रयधारक यति, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, बुद्धसाधु, इनके उत्कृष्ट गुणाको जानकर श्रद्धा माहित होता हुवा अभ्युत्थान और प्रयोग ऐसे भेदसे दो प्रकारके विनयों में प्रवृत्ति करना यह वंदना आवश्यक है. इस अभ्युत्थान और प्रयोगके और भी अनेक भद है। यह बंदना कार्य किसको करना चाहिये, किसके प्रत्ति करना चाहिय, किस समय में और कितन चार करना चाहिये? अभ्युत्थान-ऊठकर आदरसे खड़े होना यह कर्तव्य किसने बताया है ? तथा किस फलकी अपेक्षा करके यह करना चाहिये । पूर्वकालमें कर्मभूमीमें विनयको कर्तव्य कर्म समझकर सर्व जिनश्वरोने उसका उपदेश दिया है यह कर्तव्य करनेसे मानकपायका नाश होता है, बहुमान करनेका श्रेय मिलता है. अथवा गुरुजन विनय करनेवालाको आदरकी दृटीसे देखते है. तीर्थकरोकी आज्ञा हमने शिरोधार्य की है ऐसा सिद्ध होता है. इस विनयसे ज्ञान और धर्मकी आराधना होती है. परिणामांमें निर्मलता, निष्कपटता और संतोष ये फल प्राप्त होते हैं. इन फलोंकी प्राप्तिके लिये यह कर्तब्य वंदना करनेवालाको करना चाहिये. विनय करनेवाला गवरहित, संसारभीरु, आलस्थरहित स्वभावयुक्त, अनुग्रहकी इच्छा रखनेवाला, अन्य व्यक्तिओंके गुण प्रकाशित करनेवाला, संघवत्सल, एवंविधगुणविशिष्ट होना चाहिये. मुनिओंको श्रावकके आनेपर ऊठकरके खडे होना योग्य नहीं है. अथवा पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनिओंका आगमन होनेपर भी ऊठना योग्य नहीं है, जो मुनि रत्नत्रयमें, और तपश्चरणमें तत्पर हैं वे आनेपर अभ्युत्थान करना योग्य है, जो सुखके वश होकर अपने आचारमें शिथिल हो गये है उनके आनेपर ऊठ करके खडे हो जानेसे कर्मबंध होता है, सुखशीलोंका विनय करनेसे प्रमाद उत्पन्न होता है, और जादा प्रमादी बनानेका साधन हो जाता है. संसारभीक मुनिओंके आनेपर अभ्युत्थान करना चाहिये, उससे अशुभ कर्मकी निर्जरा होती है. संसार २८७ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आवास: - -- भीरुता सिपर जोर वृद्धिंगत होती है. जोश और को एटाना है अथवा सदादि अनुयोगोंका शिक्षण देता है वह व्यक्ति यदि अपनेसे रत्नत्रयसे हीन है तोभी उसके आनेपर उठकर खड़े होना चाहिये. जो जो उसके पास अध्ययन करते हैं वे सवजन उठकर खडे होवें. वसतिकास्थानसे, कायभूमीसे (?) भिक्षा लेकर लौटते समय, जिनमंदिरसे आते समय, गुरुके पाससे आते वख्त अथवा ग्रामांतरसे आते समय ऊठना चाहिये. गुरुजन जब बाहर जाते हैं अथवा बाहरसे आते है, तबतब अभ्युत्थान करना चाहिये. इसी प्रकारसे इतर बातें भी जाननी चाहिये. पंचनमस्कारोच्चारण करते समय प्रथमनः भूभिपर हाथ जोडकर एक. नमस्कार करना चाहिये. नवा चतुर्विशतिम्नबनके प्रारंभमें ही नम्र होकर एक नमस्कार करना चाहिये. प्रत्येक दिशामें तीन आवर्त कर एक नमस्कार करना चाहिये, ऐसा करने चार दिशाओमें चार नमस्कार और बारा आवत होते है. (हमने इसका अर्थ संक्षेपमे लिखा है. इसका खुलासा मूलाचार ग्रंथमें पडावश्यकाधिकार की १०४ गाथामें वसुनंदि आचायेने किया है पाठकगण वहां देख ले..) अब प्रतिक्रमणका विवरण करते हैं अशुभ प्रवृत्तीसे निवृत्त होना प्रतिक्रमण है. उसके छह भेद हैं. जैसे नामप्रतिक्रमण, स्थापनाप्रतिक्रमण द्रव्यप्रतिक्रमण, क्षेत्रपतिक्रमण, कालपतिक्रमण, और भावप्रतिक्रमण, अयोग्य नामोंका उच्चारण न करना यह नाम प्रतिक्रमण है, भर्वदारिका, स्वामिनी इत्यादिक अयोग्य नामोंका उच्चार न करना यह नामप्रतिक्रमण है. स्थापना प्रतिक्रमण ---आमाभास-हरिहरादिकोंकी पतिमायें, बस और स्थावरोंके चित्र, जो कि रंगके द्वारा लिख गये हैं अथवा पाषाण, लकही इत्यादिकोंमें उकिरे गये हैं इन सबको स्थापना कहते हैं. आमाभासकी प्रतिमाके आगे खडे होकर हात जोडना, मस्तक नम्र करना, उनकी गंधादिद्रव्योंके द्वारा पूजा करना यह कार्य नहीं करना चाहिये, इस प्रकारके स्थापनाका त्याग होनेसे स्थापना प्रतिक्रमण होता है. अथवा सजीवोंकी वा स्थावरजीवोंकी जो स्थापनायें होती है उसका नाश न करना, मर्दन न करना, ताहन न करना, यह भी स्थापना प्रतिक्रमण है. द्रव्यप्रतिक्रमण-वास्तु, क्षेत्र, धनधान्यादि दशप्रकारके परिग्रहोंका त्याग करना, उद्गम, उत्पादनादि २८५ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना २८६ दोपयुक्त वसतिका उपकरण व आहार इनका त्याग करना, जो आहारादिक पदार्थ अयोग्य हैं, अभिलापको अधिकता उत्पन्न करते हैं, जिनसे उन्मत्तता और संक्लेशपरिणाम बढते हैं ऐसे आहारादिकों का त्याग करना यह सब द्रव्यमतिक्रमण हैं. क्षेत्रप्रतिक्रमण --- पानी, कीचड, त्रमजीव, स्थावर जीव इनसे व्याप्त हुए प्रदेशो में जाने आनेका त्याग करना. अथवा जिसमें अपने रहनेसे रत्नत्रयधर्म की हानि होगी ऐसे प्रदेशका त्याग करना यह भी क्षेत्रप्रतिक्रमण है. जहां ज्ञानवृद्ध व तपोवृद्ध मुनि रहते नहीं हैं ऐसे स्थानोंको त्यागना यह क्षेत्रप्रतिक्रमण है. कालयतिक्रमण - रात्री, तीनो संध्यासमयों में, स्वाध्याय काल, और सामायिकादि आवश्यक क्रियाके कालोंमें जाना आना गैरे क्रियाओंका त्याग करना यह कालप्रतिक्रमण है. काल तो सदा ही रहता है उसका स्थान ही नहीं सकता परंतु उस कालमें होनेवाली क्रियाओंका वह काल आधार है उसके साहचर्य उन क्रियाओं को भी काल कहते हैं, भावप्रतिक्रमण -- मिथ्यात्व असंयम, कपाय, रागद्वेष, संज्ञा, आहार, भय, परिग्रह और मैथुनकी अभिलापा, निदान और आर्तध्यान, रौद्र ध्यान इत्यादिक अशुभ परिणाम व पुण्यालायके कारणभूत अशुभपरिणाम इन सबको यहां भाव कहते हैं. उनसे निवृत्त होना भावप्रतिक्रमण है ऐसा किसी आचार्योंका मत हैं. कोर आचार्य प्रतिक्रमणके चार भेद कहते हैं नामप्रतिक्रमण - द्रव्य, गुण, क्रिया, जाति इत्यादि निमियोंके बिना ही किसीका प्रतिक्रमण ऐसा नाम रखना यह नाम प्रतिक्रमण हैं. स्थापना प्रतिक्रमण - विशिष्ट जीव द्रव्यके शरीराकारकी सदृशताकी अपेक्षा चित्रादिकोंमें अशुभ परि ग्रामों की स्थापना करना वह स्थापना प्रतिक्रमण हैं. आगमद्रव्यप्रतिक्रमण - प्रमाण, नय, निक्षेप वगैरहके द्वारा प्रतिक्रमणावश्यक ग्रंथका स्वरूप जो जानता हैं परंतु वर्तमानकालमें प्रतिक्रमण के सूत्रों में उसका उपयोग लगा नहीं है, परंतु आगामिकाल में उत्पन्न होनेवाले ज्ञानरूप प्रतिक्रमणका जो कारण हैं ऐसे जीवको आगमद्रव्यप्रतिक्रमण कहते हैं. नो आगमद्रव्यप्रतिकपणके तीन भेद हैं, ज्ञायकशरीर, भावि और वृद्वयतिरिक्त. जैसे प्रतिक्रमण अश्वा २ २८६ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः २८७ पर्यायको आत्मा कारण है वैसे उस आत्माका शरीर भी प्रतिक्रमणपायको कारण है. इसलिये उसका त्रिकालगोचर शरीर भी प्रतिक्रमणशब्दसे वाच्य होता है. भाविप्रतिक्रमण-चारित्रमोहनीय कर्मके क्षयोपशमका सान्निध्य होनेसे जो आगे प्रतिक्रमणपाय धारण करेगा यह आत्मा भाविनातिक्रमण है. ___नो -- आगमद्रव्यव्यतिरिक्त प्रतिक्रमण-वयोपशमावस्थाको प्राप्त हुया जो चारित्रमोहकर्म बह तद्वयतिरिक्त प्रतिक्रमण है. प्रतिक्रमणका जो ज्ञान बह आगमभावप्रतिक्रमण है मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र इनसे मैं विरक्त हुआ है ऐसा जो ज्ञान आत्मामें उत्पन्न होता है वह आगमभावयतिक्रमण है. अशुभपरिणामोंके दोप जानकर और श्रद्धा कर उसके उलटे परिणामोंसे आत्मा जब परिणत होता है तब वह नो आगमभावप्रतिक्रमण है. प्रश्न-सामायिक और प्रतिक्रमणमें क्या भेद है ? साबधमनवचन कायकी प्रवृत्तियोंसे विरक्त होना यह सामायिकका लक्षण है. और अशुभ मनोवाकायकी निवृत्ति होना यह प्रतिक्रमण है अर्थात् प्रतिक्रमण धार सामायिक इनमें कुछ भी भेद नहीं है। इसलिये छह आवश्यक क्रियाओंकी व्यवस्था कैसी होगी ? इस प्रश्नका उन्नर कोई विद्वान इस प्रकार देते है सर्व सावायोगोंका मैं त्याग करता हूं' ऐसा वचन अर्थात् प्रतिज्ञा सामायिकम की जाती . हिंसादिकोंक भेद पृथक् न ग्रहण कर मामान्यसे सर्व पापोंका त्याग करना सामायिक है. और हिंसा, असत्य वगैरे भेदोंमें सावधयोगके विकल्प करके उससे विरक्त होना प्रतिक्रमण है. इस विषयके सूत्र का अभिप्राय यह है कि-मिथ्यात्वका त्याग करना, असंयमका अर्थात् उसके प्रभावसे उत्पन्न होनेवाले अतिचारॉका त्याग करना, कपायोंका तज्जनित अतिचारोंका त्याग करना तथा अप्रशस्त मनोवारकाय विषयक व्रतातिचारोंका त्याग करना यह भाव प्रतिक्रमण है. इस रीतीसे उपरके प्रश्नका कोई विद्वान उत्तर देते हैं परंतु यह उनका उत्तर अयोग्य है. - .. योग शब्दसे वीर्यपरिणाम ऐसा अर्थ होता है. यह वीर्यपरिणाम वीर्यान्तराय कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मावासा मूलाराधना २८८ होता है. इसलिये बह वायोपत्रमिक भाव है. ऐसे योगसे निवृत्त होना यह सामायिक है अर्थात् अशुभकर्मका ग्रहण करनेवाले योगरूप आल्मा की परिणति न होना यह सामायिक शब्दका अर्थ है. मिथ्यात्व, असंयम और कपाय ये दर्शनमोहनीय कमके उदयसे आत्मामें उत्पन्न होते हैं. अतः ये भाव औदमिक हैं. मिथ्यात्व-तत्वोंमें श्रद्धान न करना, असंयम-हिंसादि पंच पापोंको असंयम कहते हैं. क्रोध, मान, माया, लोभ ये परिणाम परस्परसे और मिथ्यात्व असंयमसे बिलकुल भिन्नस्वरूप है ऐसा अनुभव में आता है. जिसके कारण भिन्न रहते हैं वे पदार्थ एकस्वरूपके नहीं होते हैं. जैसे शाली और गेदुओंके कारण भिन्न होनेसे वे एक नहीं है. वैसे ही मिथ्यात्व, असंयम और कपाय इनके हेतुओंमें और स्वरूपमें भी भिन्नता होनेसे ये परस्पर तो भिन्न है. ऐसे परिणामांस. विरक्ति, होना यह प्रतिक्रमण कहा गया है. सावद्ययोगमात्रसे निवृत्त होना सामायिक है. ऐसा दोनों में बडा भेद-विशेष है. इन परिणामोंके भेदोंका आश्रय कर 'चुपच्चयाण पंधो' यह सत्र भवस हुआ है. यदि योगके ही चार भेद माने जाते तो योगके साथ मिथ्यात्वादिकांको चार संख्या मानना न्याय नहीं होता. प्रत्याख्यान आवश्यक-भविष्यकालीन क्रिया में नहीं करूंगा ऐसा गंकल्प करना यह प्रत्याख्यान आवश्यक है. यह नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से विकल्पसे छह प्रकारका है. अयोग्य नामका में उच्चार नहीं करूंगा ऐसे संकल्पको नामप्रत्याख्यान कहते हैं, आप्ताभासके हरिहरादिकांकी प्रतिमाओंकी में पूजा नहीं करूंगा, मनसे, बचनसे और कायसे त्रम और स्थावर जीवोंकी स्थापना में पीडित नहीं करूंगा ऐसा जो मानसिक एकाग्र रूप संकल्प वह स्थापना प्रत्याख्यान है. अथवा अहंदादि परमेटिओंकी स्थापनाका-उनकी प्रतिमाओंका में नाशन करूंगा, अनादर नहीं करूंगा. यह भी स्थापना प्रत्याख्यान है. द्रव्यप्रन्याख्यान-अयोग्य आहार, उपकरण वगैरह पदार्थोंको में ग्रहण न करूंगा एसा संकल्प करना. शत्रप्रत्याख्यान-अयोग्य व जिनमे अनिष्ट प्रयोजनकी उत्पनि होगी, जो संयमकी हानि करेंगे अथवा 10 संकुशपरिगामीको उत्पा करेंगे ऐगे श्रेत्रोंको में त्यागूगा ऐसा संकल्प करना यह क्षत्रमत्याम्यान है कालप्रत्याख्यान-कालका त्याग करना शक्य ही नहीं है. इसशिये उम कालमें होनेवाली क्रियात्राको त्यागने कालका ही त्याग होता है ऐमा यहां समझना चाहिये. अर्थात् मध्याकाल, रात्रिकाल वगैरह समयमें Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मावासः २८९ अध्ययन करना, आना जरना इत्यादिकार्य मैं नहीं करूंगा ऐसा संकल्प करना कालप्रत्याख्यान है. भावप्रत्याख्यान-भाव-अशुभपरिणाम उनका मैं त्याग करूंगा ऐसा संकल्प करना. इसके दो भेद है. मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तर गुणप्रत्याव्यात, शंका-मूलगुण इस शब्दका अर्थ व्रत ऐसा होता है. उनका त्याग भविष्यकालमें मैं करूंगा ऐसा संकल्प संवरको चाहनेवाले यदि करें तो कर्मसंवर होगा ही नहीं. संवरको चाहनेवालाको व्रतका अवश्य पालन करना चाहिये अतः मूलगुणप्रत्याख्यान होता नहीं है.. उत्तर - उत्तरगुणोंको कारण होनेसे व्रतोंमें मूलगुण यह नाम प्रसिद्ध है. मूलगुणरूप जो प्रत्याख्यान यह मूलगुणप्रत्याख्यान है. अर्थात यहां पष्ठीतत्पुपुरुष समास नहीं है. कर्मधारय समास है. अतः उपर्युक्त शंकाका परिहार हुआ. बताके अनंतर जो पाले जाते है ऐसे अनशनादि तपाको उत्तरगुण कहते हैं. उत्तरगुणप्रत्याख्यान इस शब्द भी कर्मधारय समास ही है.' उत्तरगुणश्च सः प्रत्याख्यानं च तदिति उत्तरगुणप्रत्याख्यानं ' उत्तरगणप्रत्याख्यानका ऊपर कहा हुआ विग्रह समझना चाहिंय. मुनियाको मूलगुणप्रत्याख्यान आमरण रहता है. संयतामंयत अर्थात पंचमगुणस्थानवी आवक उसके अणुव्रताको मूलगुण कहते हैं. गृहस्थ मूलगुणप्रत्याख्यान अल्पकारिक और जीवितावधिक एसा दोन प्रकारका कर सकते हैं. पक्ष, छह महिने इत्यादिरूपसे भविध्यत्कालकी मटा करके उसमें स्थल हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुनसेवन, और परिग्रह ऐसे पंचपातक में नहीं करूंगा ऐसा कल्प करना यह अल्पकालिक प्रत्याख्यान है, मैं आमरण स्थूल हिंसादिपापाको नहीं करूंगा ऐसा संकल्प कर उनका त्याग करना यह जीवितावधिकप्रत्याख्यान है. उत्तरगुणप्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ जीवितावधि और अल्पावधि भी कर सकते हैं. जिसने संयम किया है. उसको सामायिकादिक, और अनशनादिक भी रहते हैं अतः सामायिकादिकोंको और तपको पना है. भविष्यत्कालको विषय करके अशनादिकोका त्याग किया जाता है. अतः उत्तरगुणरूप यह प्रत्याख्यान है ऐसा माना जाता है. सम्यक्त्व यदि होगा तभी यह दो तरहका प्रत्याख्यान मुनि और गृहस्थाको माना जाता है. यदि सम्यग्दर्शनके साथ यह प्रत्याख्यान न होगा अकेला ही होगा तो वह प्रत्याख्यान इस नामको नहीं पाता है. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना गाथा २९० प जीवनिकाय और हिंसादिकोंका स्वरूप जानकर और उनके ऊपर श्रद्धा कर यदि सर्व प्रकारसे अथवा एकदेशसे हिंसादिकोंका त्याग करनेपर उस त्यागको बतसंज्ञा प्राप्त होती है. यही अभिप्राय ' निःशल्यो व्रती' इस सत्र में है. मिथ्याशल्य, मायायल्य और निदानशल्य एसे तीनशल्य हैं. ऐसे तीनशल्याम जो रहित है वहीं निःशल्य है. निःशल्यको ही व्रती कहना चाहिये. जो शल्यसहित है वह व्रती नहीं है, यदि जीवादि पदाथापर श्रद्धा न हो तो मिथ्यात्यशल्यका त्याग नहीं हो सकता. जीवादिपदार्थीका ज्ञान यदि न होगा तो मम्यग्दर्शन नहीं होगा इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान युक्त प्राणीको ही बतियना प्राप्त होता है ऐसा सूत्रकारने कहा है. सही अभिणय प रं परें भी कहा है-- “मुनिक अहिंसादि पंचमहाव्रत और श्रावकोंके पांच अणुव्रत ये सम्यग्दर्शनके विना नहीं होते हैं. इसलिंग प्रथमतः आचार्याने सम्यक्त्वका वर्णन किया है." मुनिराज मनसे, वचनसे और शरीरसे हिंसादिक पाप कार्य वयं नहीं करते, न कराते और न अनुमोदन देते हैं. यावज्जीव नउ प्रकारसे पापोंका त्याग करते हैं. परंतु सम्यग्दृष्टि गृहस्थ मूलगुण अथवा उत्तरगुण अपनी शक्त्यनुसार ग्रहण करता है और यावज्जीव किंवा अल्पकालपर्यंत पालता है. मैंने पूर्वकालमें हिंसादिक कार्य किये, हाय मैंने यह दुष्ट कार्य किया, मैंने दुष्ट संकल्प किये और मैंने हिंसादि प्रवृत्तिकर भाषण किया. यह मैंने अयोग्य किया है इस प्रकार निंदा और गहाके द्वारा वर्तमान कालीन असंयम बुरा समझता है. पूर्वमें जैसा असंयम मैंने किया था अथवा अन जो असंयम प्रवृत्ति हुई ऐसी असंयम प्रवृत्ति मै आगामिकालमें नहीं करूंगा, इस रीतीसे वह श्रावक पापोंका प्रत्याख्यान करता है. अब गृहस्त्रों के हिसादि त्यागरूप परिणामाके विकल्पोंका विचरण करते हैं स्थूल हिमादिक पांच पापोंको कृत, कारित, अनुमत ऐसे तीन विकल्पास तथा मन, वचन और शरीरके विकल्पोंसे त्याग नहीं करते हैं. उनका क्रम--मैं मनसे स्थूल हिंसादिक पंच पाप नहीं करूंगा, तथा वचनसे और शरीरसे भी नहीं करूंगा. यह कृत के तीन भेद हैं, मनके द्वारा मैं स्थूल हिंसादिक पांच पाप नहीं कराऊंगा, तथा वचन और शरीरके द्वाग भी नहीं कराऊंगा. ये कारितके तीन भेद हैं. मनके द्वारा स्थूल हिंसादि पापोंको सम्मति मैं नहीं देऊंगा. वचन और शरीरके द्वारा भी मैं सम्मति नहीं देऊंगा इस तरहसे तीन प्रकारकी सम्मति Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SATTA आश्वास मूलाराधना ३९ हैं. परंतु गृहस्थ स्थूलाईसादि पापोंका नउ प्रकारों से त्याग करनेमें असमर्थ रहते हैं. क्यों कि वे गृहकार्योंसे विरक्त नहीं रहते हैं. मन और वचनके द्वारा स्थूल हिसादिक पापोंको कृत, कारित, अनुमतीके विकल्पोंसे नहीं करता है. परंतु शरीरके द्वारा हिंसादिक पापोंका कृतकारितानुमति विकल्पपूर्वक त्याग करने में असमर्थ होता है, अर्थात् मनके द्वारा में स्थूल पातक नहीं करूंगा, नहीं कराउंगा और अनुमति नहीं देउंगा. तथा वचनके द्वारा भी स्थूल पातक नहीं करूंगा, नहीं कराउंगा और अनुमति नहीं देउंगा इस प्रकार हिंसादिकका व्याग कर सकता है. इस विषयमें ऐमा सूत्र है--'ण खु तिविधं तिविधेण य दुविधकविधण वापि विरमेज्ज 'इति. गृहस्थ किस प्रकारले विरक्त होता है ? इस प्रश्नका उत्तर आचार्य लिखते हैं-कृत और कास्तिविकल्पसे मन वचनकायक द्वारा ये हिंसादिक त्यागते है. अथवा शरीर के द्वारा और गाणीक द्वारा रियादिविषयक कृतकारितका त्याग करते हैं. इसीलिये इस विषय में पूर्वाचान्यांन आनका मत्र कहा है-'गिधं पुण लिविशेष दुविधेविषेण वापि विरमेन्ज' : .. . . अथवा मनयरन और शरीरके द्वारा धूलाहमादिक पाप फल स्वयं में नहीं मांगा ऐसा संकल्पपूर्वक प्रत ग्रहण करता है. किंवा वचन और शरीरके द्वारा ही पांच पापोंको स्वयं नहीं करता है अथवा केवल शरीरसे ही स्वयं हिंसादिकोंका कृतरूपसे त्याग करता है. अर्थात मैं सरीरके द्वारा ही पांच पातक नहीं करूंगा. ऐसा व्रत लेता है. इस विपयका सूत्र ऐसा है—एकविधं विविधणापि विरमेज्ज' इस रीतीसे जो व्रतोंके विकल्प होते हैं इनको भविष्यत्कालका विषय करनेसे प्रत्याख्यानके विकल्प उपजत है. जैसे-मैं मन, वचन और शरीरके द्वारा कृत, कारित और अनुमोदनोंसे आगेके कालमें हिंसादिकोंका त्याग करूंगा इत्यादि. कायोत्सर्गका निरूपण करते है कायोत्सर्ग काय शब्दका अर्थ शरीर होता है. और उत्सर्ग शब्दका अर्थ त्याग होता है, अर्थात् शरीरका त्याग करना यह कायोत्सर्ग शब्दका समग्न अर्ध हुआ. पदार्थाको जाननेशले ज्ञानको आधारभूत इंद्रियरूपी अत्रयबास जिसकी रचना हुई है ऐसा कर्मनिर्मित औदारिक नामका जो विशिष्ट पुद्गलसमुदाय वह यहां Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः २९२ काय शब्दसे गृहीत होता है. अर्थात औदारिकारीस्को यहा'काय' कहते हैं. क्योंकि इतर वैऋियिकादि शरीरोंमें उत्सर्ग-त्यागका संभव सिद्ध नहीं होता है. औदारिक शरीरसे ही चारित्र पाला जाता है. इससे ही मनुष्य मोक्षको हस्तगत करते है अतएव इसमें ही उत्सगकी संभावना है, अन्यत्र नहीं है. इस उत्सर्गका आगे खुलासा लिखेंगे. ___ शंका-जब आयुकर्म पूर्ण निकल जाता है तभी आत्मा शरीरको छोडती है. अन्यसमयमं नहीं. इसलिये अन्यमगर कापात्पर्ग नामकी आवश्यक क्रिया कंगी होगी। उत्तर-आत्माके और शरीरके प्रदेश परस्परोंमें मिलजानसे अबतक आयुकर्म है तरकत आत्मासे शरीरका विछोह नहीं होगा तोभी शरीर सप्तधातुओंसे बना हुआ है, अत्यंत अपवित्र शुक्र और शोणितासे इसकी उत्पत्ति हुई है अतः यह अशुचि है. तथा यह अनित्य, विनाशशील, असार, दुःखका हेतु है. इस शरीरपर ममता करनेसे जीवको अनंत कालतक संसारमें भ्रमय करना पडेगा. इत्यादिक शरीरदोषोंका विचार कर यह शरीर मेरा नहीं है और मैं इसका स्वामी नहीं हूं ऐसा संकल्प मनमें पैदा हो जानेसे शरीरपर प्रेमका अभाव होता है. उससे शारीरका स्याग सिद्ध होता है, जैसे प्राणसे भी प्रियपत्नीने यदि कुछ अपराध किया हो तो वह पतिके साथ एक ही घरमें रहती है तो भी पतीका प्रेम उसपरसे हट जानेसे वह त्यागी गई है ऐसा कह सकते है. क्यों कि यह मेरी है यह ममत्वभावना पुरुपके हृदयसे नष्ट हुई है. से यहां शरीरपरसे ममत्व भाष हटनेसे कायोत्सर्ग-शरीरका त्याग सिद्ध होता है. शरीरका नाश होनेका कारण उपस्थित होनेपर भी नाशको हटानेकी अभिलाषा कायोत्सर्ग नामक आवश्य क्रिया करते समय मुनिवर्यमें नहीं होती है. जो जिसके नाशके कारण हटाने में उत्सुक नहीं हैं उसने बह । त्यागा है ऐसा समझना चाहिये जैसे वस्त्रादिकोंका त्याग, शरीरके अपायकारणको हटाने में यति निरुत्सुक रहते हैं इस लिये उनका कार्यत्यार्ग योग्य ही है. कायोत्सर्ग करनेवाले मुनि शरीपर निस्पृह होकर स्तंभक समान खडे हो जाते हैं, अपने दो बाहु जानु तक रखते हैं. और प्रशस्तध्यानमें निमग्न होते हैं. अपने ऊपरके शरीरको ये उन्नत और नम्र भी नहीं रखते हैं अर्थात वे छातीको आगे जादा उठाते नहीं है अथवा नीचे उनका शरीर जादा इकता भी नहीं है. कर्मका नाश करने की इच्छा रखते हुए ये निर्जन्तुक एकान्त स्थानमें उपसर्ग सहन करते हैं. २६२ 18 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासर २९३ कायोत्सर्गका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल एक वर्षका है. रात्रिकायोत्सर्ग, दिनकायोत्सर्ग, पक्ष, मास, चारमास, संवत्सर ऐसे कायोत्सर्गक बहुत भेद हैं. अतिचार नष्ट होनेके लिये ये कायोत्सर्ग किय जाते हैं. रावि, दिवस, पंधरादिन, महिना, चारमहिने, वर्ष इत्यादि समयमें जो व्रतमें अतिचार लगते हैं उनको दूर करनेके लिये ये कायोत्सर्ग किये जाते हैं. सायंकालमें सो उच्छ्वास और प्रातःकाल में पचास उच्छ्याम किये जाते हैं, एक पक्षमें नीनसो वासोच्छ्वास,चारिमहिनेमें चारमो और वर्ष ५.८ पांचसो कायोत्सर्गका काल कहा है. प्राणिहिंसादि पांच प्रकारके अतिचारों से जो कोई अतिचार होगा तब एकसो आठ उच्छ्वास करने चाहिये. कायोत्सर्ग करनेपर यदि श्वासोत्तमाल करते सगर इनकी यदि लाभाबमें ही है अथवा परिणामोंमें स्खलन हुवा हो तो आठ उच्छ्वास काल तक अधिक कायोत्सर्ग करना चाहिये. कायोत्सर्गके १ उत्थितोस्थित, २ उत्थितानिविष्ट, ३ उपविष्टोस्थित ४ और उपविष्टोपविष्ट ऐसे चार भेद कहे हैं. १ धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यानमें परिणत होकर जो खडे होकर कायोत्सर्ग करते हैं उनका वह उत्थितीस्थित कायोत्सर्ग हैं. शरीर और आत्माके परिणाम दोनो भी उन्नत है यहां उनका उन्नतिप्रकप दिखानेके लिये 'उत्थितोत्थित शब्दका प्रयोग किया है. उसमें शरीर खंके समान स्थिर खडा हुआ है यह द्रव्योत्थान कहा जाता है. तथा ज्ञान स्थिर होकर ध्येय वस्तुमें एकाग्र होता है उसको भात्रोन्थान कहते हैं. आर्तध्यान और रोद्रध्यान में परिणत होकर जो खटा होता है उसके कार्यन्मर्गको उस्थितनिषण्या कायोत्यग कहने हैं, शरीरये वह बटा है अनः उसको उस्थित कहने है. परंतु शुभपरिणामरूप उन्धानका अभाव होनस निषणा कहत है. उत्थितावस्थाका और आसनावस्थाका भिन्न भिन्न कारण होनेसे यहां उन्थिन और उपविष्ट में विरोध नहीं है. जो मुनि बैठकर ही धर्म और शुक्लध्यानमें लवलीन होता है उसका उपविष्टोत्थित कायोत्सर्ग है. परिणाम उसके उन्नतशील है परंतु शरीरमे वह उठकर खड़ा नहीं हुआ है. जो मुनि बैठा हुवा है और अगमध्यान कर रहा है वह निपणनिषणा कार्यात्मर्गयुक्त समझना चाहिये. वह शरीरसे धैठा हुवा है और परिणामोंसे भी उत्थानशील नहीं है. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलारापना आश्वास दिवस, रात्रि, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक रत्नत्रय संबंधी जो अतिचार होगये हो उनका मनसे स्मरण करना चाहिय. अनंनर मन प्रमादवश होकर यह दुष्ट कार्य किया है ऐसा चिन्तन कर धर्म अथवा शुक्लध्यान प्रयत्न करना चाहिये, कायोत्सर्ग धारण करनेवाले मुनियों ने उस्थित कायोत्सर्ग दोषोंका त्याग करना चाहिये. उन दोपोंका स्वरूप इस प्रकार है १ जैसे घोडा आपना एक पांच थोडासा अकड लंगडा करके खडा हो जाता है वैसे खडा होना २ बेली जैसी इधर उधर चंचल होकर हिलती है वैसे खडा कायोत्सर्ग करते समय हिलना, ३ खंबेके समान शरीर ताठ करके खडे होना ४ खके आश्रयसे, भित्तीके आधारसे अथवा मस्तकको ऊपरके पदार्थका आश्रय देकर खड़े होना. ५ अधरोष्ट लंबा करके और स्तनके तरफ दृष्टि देकर कौवेके समान दृष्टीको इतस्ततः फेकना. ६ लगामसे पीडित देकर बोस यो पुसको हिसला है वैसे मुखको हिलाता हुआ खडे होना ८ बैलके मानपर जूं रखनेसे यह अपनी मान नीचे करता है वैसे मान नीचे करता हुवा खड़े होना. ८ कैथका फल पकडनेवाला मनुष्य हाथका तलभाग जैसे पसरता है बैसे करनल पसारकर खडे होना, ९ हाथके पांचो अंगुलिया संकुचित करके खडे हो जाना, १० गूगामनुष्य जैसे इंकार करता है वैसे खडे होकर इंकार करना. अथवा गूगा आदमी जैसे नाकके तरफ हाथ उठाकर वस्तुको दिखाना है वैस खडे होकर वस्तुको हायसे दिखाना, चुटकी बजाना, भोंहे टेढी करना, भोहे नचाना. अर्थात् बडे होकर उपयुक्त दोषसहित कायोत्सग करना. १४ भीलकी स्त्री जैसी अपने गुह्यप्रदेशको हावर्ग हकती हैं या कायोत्सर्गक ममत्रमें करना. १५ जिसके पात्र बेडीसे जकडे हुये हैं ऐसे मनुष्यके. ममान ग्वटे रहना. १६ मद्यपान किये हुए मनुष्य के समान शरीरको इधर उधर झुकाता हुआ खड़े होना ऐम कायोत्गग. । दोप है. इन छह आवश्यक कमामें हानि नहीं करनी चाहिये नथा इनमें घटबढ भी नहीं करनी चाहिये. - - - भत्ती तबोधिगंमि य तवम्मि य अहीलणा य सेसाणं ॥ एसो तवम्मि विणओ बहुत्तचारिस साधुस्स ॥ ११७ ॥ तपस्तपोधिके भक्तिर्यच्छेषाणामहेडनं । स तपोविनयोऽवाचि ग्रंथोक्त चरतो यतेः॥११८॥ १९४ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHETATATA भुलाराधना आश्वासः २२५ विजयोश्या-भत्ती भक्तिः । यदननिरीक्षणादिप्रसादेन अभिव्यज्यमानोऽन्तर्गतोऽनुरामःतयोऽधिगस्मि । तपो ऽधिकं च तवम्मि य सम्यकतपसि, तद्वति च, भक्तिरिति यावत् । तच सम्यग्भानदर्शनसंयमानुमतं । अद्दीलणा य अपरिभवश्य । मसाणं शेषाणां तपसा न्यूनानामात्मनः शानधदानचरणवतां परिभवे झानादीन्येय परिभूतानि भवति । ततो यह मानामावो सानातिचारः, यात्सल्याभावो दर्शनातिना मानिवारयमनल चारिति , भाई इति भावः । गसरो पर ध्यावर्णितारणामसमूह उत्तरगुणोद्योगादिकः । तस्मि तपसि तपोविषयः । विणी विनयः धुनचारिस श्रुतनिरूपिनकगंगाचरतः । साधुस्स सायोः । मूलारा-तयोहियाम्म आत्मनः सकाशात्तपसाधिके राधौ । अहीलणा अपरिभवः । सेसाण अत्मनः सकाशान्तपसा न्यूनाना । सो योक्तः परिणामसमृधः। अर्थ-तपसे अधिक अर्थात् अपनेसे श्रेष्ठ ऐसे मुनिका दर्शन होनेपर मुखमें प्रसन्नता आनंद वगैरह उत्पन्न होकर मनका अनुराग गुण प्रकट होना यह भक्ति है. यह भक्ति तपोधिक मुनि और तपमें करनी चाहिये, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और संयमपूर्वक जो तय किया जाता है वही सम्यक् तप है. इससे उलटा तप संवर और निर्जराका साधन न होकर संसारभ्रमणका साधन होता है. जो मुनि अपनेस तपसे हीन है, न्यून है परंतु जो ज्ञान, श्रद्धान और चारित्रसंपन्न हैं उनकी अबहेलना कदापि नहीं करनी चाहिये. उनकी अवहेलना करनेसे ज्ञानादिक सद्गुणोंका तिरस्कार होता है. ज्ञानादिकका बहुमान न होनेसे ज्ञानमें अनिचार दोष उत्पन्न होता है. अवहेलनासे वात्सल्यगुणका नाश होकर दर्शनमें सदोषता पैदा होती है, ज्ञान और सम्यग्दर्शन अशुद्ध होनेपर चारित्र भी अशुद्ध हो जाता है. यह तो महा अनर्थ हुवा ऐसा समझना चाहिये.. पूर्व गाथामें और इस माथामें कहे, हुए गुणोंका पालन करनेसे शासके अनुसार आचरण करनेवाले साधुको तपोविनयकी प्राप्ति होती है. उपचारनिरूपणार्थोत्तरगाथा काइयवाइयमाणसिआत्ति तिविधो हु पंचमो विणओ ॥ सो पुण सब्बो दुविहो पञ्चरखो चेत्र पारोक्खो ॥ ११८ ।। कायिको बाचिकश्चैतः पंचमो विनयमिधा ।। साप्यसौ पुनढेधा प्रत्यक्षतरभेदतः ॥ ११९ ।। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आभास विजयोदया-कागवारगमाणसिगोति पदसंबंधः । पंचमो विनयस्त्रिप्रकारः । कायेन, मनसा, वखसाच निर्वयते इति । सो पुण सत्यो स पुनखिप्रकारोऽपि विनयः। दुविधो द्विविधः । पचक्यो चेच प्रत्यक्षः । पारोपको परोक्षश्चेसि। उपचारिकविनयं गाथादशकेनोपदिशतिमूलारा-पच्चम्खो प्रत्यक्षः संनिहितगुर्वादिविषयत्वात् । पारोक्यो परोक्षः। उपचार किया विरूपा करनेवाली गाथा अर्थ-उपचारविनयके कायिक विनय, वाचनिक विनय, और मानसिक विनय गरी तीन भेद है. शरीरसे, वचनोंसे, और मनसे ये तीनो विनय किये जाते हैं इसलिये इनको कायिक विनय इत्यादि नाम प्राप्त हुए है. ये कायिकरिनयादि तीनो विनय प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रकारके हैं. तत्र प्रत्यक्षकाधिविनयप्रदर्शनाय गाथाचतुष्टयमुत्तम् अन्मुठ्ठाणं किदियम्भ णवंस अंजली य मुंडाणं ॥ पच्चुग्गच्छणेमत्तो पच्छिद अणुसाधणं चेव ॥ ११५ ॥ संभ्रमो नमन सूरेः कृतिक जलिक्रिया ॥ सम्मुखं यानमायाति यात्यनुव्रजनं पुनः ।। १२० ॥ विजयोदया-अभुक्षण अभ्युत्थानं गुर्यादीनां प्रवेश निःक्रममायोः। किदियम्म णचंसपो, बंदना, शरीरावनतिश्च । अंजलीय कृतांजलिपुटताचामुंडाणं शिरोषनतिश्च । पञ्चुग्गच्छर्ण प्रत्युद्गममं । आसीने स्थिते या गुरी। पच्छिद अणुसाधणं धेय स्वयं मच्छतः दूरपरिङ्कत्य निभूतकरचरणस्यावनतगात्रस्य गमनं, सहगमे धा पृष्ठतः सशरीरमाचप्रमाणभूभागेन तं परिहत्य गमनं । प्रत्यक्षकायिफविनयनिवदनाय गाथाचतुष्टयमाइ मूलारा-अमुठ्ठाण गुर्वादीनां प्रवेशनिष्क्रमणयोः सम्मुखमुत्यानं । किरियम वंदना । णमणं शरीरावनतिः । अंजली करमुकुलीकरणम् । मुंडाणं शिरोवनतिः । अथवा मुंडानां मस्तकादीनां सम्बंधी अंजलिः मस्तके कृतांजलिपुटस्येत्यर्थः । पच्चुग्गच्छणं प्रत्युगमनमभिमुखगमनमित्यर्थः। एते आगच्छति सति गुरो, मान्यमुनी वा । पत्थिदस पलितस्य Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना २९७ गुर्वादेः । अणुसाहणा अनुब्रजनं । टीकाकारस्तु पकिछदसंसाणा शति पठति, व्याख्याति न, आचार्योपाध्यायादिभिः प्रार्थिलस्य मनसाभिलषितस्य सम्यक्प्रसाधर्म अनाज्ञातस्यापींगितेनैवावगम्येति । प्रत्यक्षकायिकविनयका आचार्य चार गाथाओंमें वर्णन करते हैं अर्थ-गुरुजन, तपोधिक महान गैरह पूज्यमुनि आएर अधया प्रयास करते समय स्वयं बडे आदरसे ऊठना चाहिये, वंदना करना चाहिये और शरीरमें नम्रता लानी चाहिये, हात जोडने चाहिये, और मस्तकसे नमन करना चाहिये. तथा वे बैठ गये अथवा खड़े हुए हैं तो उनके पास जाना चाहिये, स्वागत करना चाहिये, जब गुरु आदिक पृज्यमुनि प्रयाण करते हैं तब उनके पीछे थोडे अन्तरसे हाथ और पावोंका चलते समय शब्द न होवे इस प्रकार शरीर नन करके शांतिसे गमन करना चाहिये. यदि साथ जानेकर प्रसंग आवे तो स्वशरीरमात्र प्रमाण भृमीका अन्तर छोरकर उनके अंगका अपने अंगको स्पर्श न होगा इस रीतीसे गमन करना चाहिये. णांचं ठाण णीचं गमणं णीच च आसणं सयण ॥ आसणदाणं उबगरणदाणमोगासदाणं च ॥ १२० ।। नीचं यानमवस्थानं नीचं शयनमासनं ।।। प्रदानमवकाशस्य विष्टरस्योपकारिणः ॥ १२१ ॥ विजयोदया–णीयं च भासणं नीचैरासनं । पृष्ठतः स्वहस्तपादश्वासादिमिरुपद्रुतो यथा न मयति गुर्चाविस्तयासनं । अतोऽभिमुखं मनागपसृत्य वामपार्वेऽनुद्धतस्पेषदवनतोसमांगस्य चासने । आसने गुरायुपविए स्वयं भूमा. बासनं च । सयण च णीयमिति एघटना । नीचैः शयनमिति यावत् । अनुत्तरे देशे शयनं, गुरुनाभिभमाणमात्रभूभागे या स्वशिगे भवति यथा तथा शयनं । हस्तपादादिभित्री यथा न घट्यते गुर्यादिः । आसणदाणं सितुमिच्छति इत्यपगम्य निमप्य चक्षुपा प्रमार्जनयोग्यं न वेति, पक्षात्प्रतिलेखनेन लाघवमाईवादिगुणान्वितेनातिशनकैः प्रमार्ण भूभाग पीठादिक या आसनवानं । उपकरणदानं ज्ञानसंयमी उपकियेते अनुगृह्येते येन तदुपकरणं पुस्तकादि प्रहीतुमाभिप्रेतं तस्य दान । अथवा उन्मोत्पादनैपणादिदोरदुएस्य सुप्रनिलेवनस्थात्मना लब्धस्य उपकरणस्य दानं । ओगासदाणं च अवकाशदानं च शीतातस्यावस्थितनिवातावकाशदान, उणार्वितस्य शीतलस्थानदानं, ग्रामनगरादिस्वावासस्थानदानं चा। १ अनुन्नते देशे इति पाठः खपुस्तके । ASTMarera Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना मूलारा-पीचं लागं नीचैः स्थान गुर्वादों माम्यस्थाने उद्रीभूते निविष्टे या ततोऽन्यत्र तस्य वामपा पृष्ठदेशे वा शिष्यगणावधानं कर्तव्यमित्यर्थः । पीपं गमणं आसीन स्थित वा गुरौ स्वयं गच्छतः शिष्यस्य तं दुरारपरिहत्य ftमृतकरचरणस्य अवनतगात्रस्य गमनं । सहगमने वा पृष्ठतः स्वशरीरमावभूभागेन तं परिहत्य गमनं । णीचं च आसणं चशब्दोऽयमुत्तरत्र योध्यः। नीचैम्पयेशनं, पृष्ठतः स्वहस्तपादश्वासापद्ववर्जनमपवेशनम् । अग्रतोऽभिमुखं मनागपसस्य वामपा अनुद्धतम्य मनागवनतोत्तमांगस्य चोपवेशनम् । आसन गुरायनविष्ट स्वयं भूगायासन या । अयनं च नीचमिनि पदघटना । अनुन्नने देश शयन गुमनामात्रामा भूभाग वा स्वशिरो यथा भवति तथा शयां वा हस्तपादादि चट्टणवर्ज । आगणदाणं आसितुभिर छन्तं गुर्वादियः ज्ञात्वा भूभाग पीठादिक च प्रमार्जनयोग्यं न चेति चक्षुषा निरूप्य प्रतिलेखनेन च विः शनैः प्रमृज्य नत्र भूभागे प्रमाणपीठादेः स्थान! उत्सला गया मजवाडेगुर्वादिना जिक्षितस्य स्वयं वा संपादनं । ओगासदाण अवकाशनं शीनातस्य स्वाधिष्ठितनिवातस्थानदान, उगाचस्य स्वशीनलस्थानं, ग्रामनगरादौ स्वनिवासस्थानदानं बा । अर्थ- अपने हाथ, पांव, श्वासोच्छ्वासादिकोंसे गुरु आदि मुनिजनोंको उपद्रव न होगा इस पद्धतीसे उनके पीछे बैठना चाहिये. गुरुजनोंके सम्मुख बैठना हो तो उनके वामपार्श्व बैठना चाहिये. उद्भूततारहित, अपना मस्तक किंचित नम्र कर बैठना चाहिये, गुरु आसनपर विराजमान होनेके अनंतर स्वयं जमीनपर बैठना चाहिये, गुरु जहां सोये हैं उसके ऊपरकी जमीनपर शिष्यका शयन करना अनुचित है, गुरुके नाभितक जो जमीनका परिमाण होगा उतनी जमीन छोडकर नीचे सोना चाहिये अर्थात दीड, पान दो हाथका अंतर छोडकर नीचले भूमीपर उनके चरण तरफ अपना मस्तक करके शिष्य शयन करे, अथवा अपने हाथ, पांव इत्यादिकोंसे गुरुको धक्का न लगेगा इस रीतीसे शयन करना योग्य है. जब गुरुकी बैठनकी इच्छा दीखेगी तब जमीन और आसन वगैरह प्रमार्जन करने के योग्य है या नहीं यह आखोंसे देखकर नंतर हलकी और कोमल पीडीके द्वारा जमीन अथवा चटाई वगैरह स्वच्छ करके गुरुको देना चाहिये. ज्ञान और संयमका जिससे उपकार-वृद्धि होगी एसे शास्त्र, पीछी वगैरह इनको उपकरण कहते है. शास्त्र में जो उपकरण मुनिओंको ग्रहण करनेमें दोष नहीं है वह गुरुओंको यदि उनकी इच्छा हो तो प्रदान करना चाहिये. उद्गम उत्पादनादिदोपोंसे रहित जो अच्छी तरह प्रमार्जित हो सकते हैं ऐसे नाहिये. यदि गुरु शीतसे पीडित हुए हो तो अपना निर्वात स्थान उनको देवें, यदि गुरुको उष्णतास Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना २९९ बाधा हुई होगी तो उनको शीतल स्थान रहनेके लिये देना चाहिये. अथवा प्राममें वा नगरादिकोंमे जहां अपना रहनेका स्थान होगा बह गुरुओंको देना चाहिये. आ पडिरूवकायसंफासणदा पडिरूवकालकिरिया य ।। पेसणकरणं संथारकरणमुबकरणपडिलिहणं ॥ १२१ ।। देशकालवयोभावधर्मयोग्यक्रियाकृतिः॥ करण प्रेषणादीनामुपधेः प्रतिलेखनं ॥ १२२॥ विजयोदया-पडिरूबकायसंफासणदा कायस्य संस्पर्शनं कायसंस्पर्शनं । प्रतिरूप कायस्य संम्पर्शनं प्रतिरूपकायसंस्पर्शनं तस्य भावः मतिरुपकायसंस्पर्शनना । गुर्वादिशरीगनुकूल संस्पर्शन मिति यावत् । अयं चात्र कमा-मनागुपसृत्य स्थित्वा तदीयेन पिच्छेन काय त्रिः प्रमृज्य आगंतुकजीववाधापरिहारोपयुक्त सादगम स्वबळानुरूपं यात्र ग्राहम्मईनलहस्ताबदेव मर्दन कुर्यात् । उमणाभितप्तस्य यथा शैत्यं भवति तथा प्रशच्छीताम्य यथास्थयं तथा। पडिरुवकालकिरिया य कालातोऽवस्थाविशेषो बालत्वादी कालशब्देनोच्यते कालप्रभवत्वात् । तन बालत्याद्यनुरूपयावृत्त्ये ति यावत् । पेसणकरण गुर्चादिभिराक्षप्तस्य । संथारकरणं तृणफलकादिकसंस्तरणक्रिया। उवकरणपडिलिहणे गुर्चादीनां ज्ञानसंयमोपकरणमतिलेखन अस्तमनवेलायां आदित्योद्मने च। मूलारा-पडिरूवकायर्सफासणदा गुर्षादेः शरीरस्यानुकूलं स्पर्शनम । अयं चात्र क्रमः-नागुपसृत्य स्थित्वा तदीयेन पिच्छेन तत्काचं त्रिः प्रसृज्य आगंतुजीबाधापरिहारोपयुक्तः सादरः स्वबलानुरूपं यावत्सुखं मईयेत् । उण्णार्तस्य यथा शत्यं स्याच्छीतार्सम्य च यथो स्यात्तथा स्पृशेन् । पहिस्वकालकिरिया कालशब्देनात्र कालकृतो पालन्यद्यवस्थाविशेपो विवक्षितः । ततो थालत्याधनुरूपं वैयावृवं कुर्यादित्यवतिष्ठते । पेसणकरणं आसप्तस्य कार्यस्य निष्पादनं । संथारकरणं तृषफलकादिसंस्तरणक्रिया। उवगरणपडिलिइर्ण । गुर्वादीनां पुस्तकादेरस्तमनवेलायामादित्योद्गमने च प्रमार्जनम् । पडिस्वकायसंफासणदा इतिअर्थ-गुरु वगैरह मुनिओंके शरीरानुकूल मर्दन करना यह भी कायिक विनय है. इस विषयमें ऐसी PARA Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधार RSHADBTSIC पद्धति है-थोडा गुरुके नजदीक खडे होकर उनके पीछीसे उनका शरीर तीनवार पोंछना चाहिये. आगंतुक जीयाको बाधा न होगी इस रीतीसे, उन जीवोंको इटाना चाहिये. और बडे आदरसे गुरु जितना मर्दन सह मान्न उतना ही धीमईन करना चाहिये. यदि उष्णतासे गुरु पीडित हो तो उनकी उष्णतापीडा दर होकर जैसे उनको शांतिलाम होगा वैसे अंगमर्दन करना चाहिये. शीतपीडित गुरुके अवयवांमें उप्णता उत्पत्र होनेतक उनका शरीरमर्दन करना चाहिये. बालपना, बृद्भपना वगैरह अवस्था देह में कालके द्वारा होती है, उस उस अवस्था के योग्य बैंगावृत्य करके दुःखपरिहार करना चाहिये. गुरुओंने जो आज्ञा की होगी वह सफल करना चाहिये. गुरुओंको सोनके लिये तणका बिछाना करदेना, लकडीका फलक सानेके लिये रखना, चटाई विछाना यह कर्तच्यभी कायिक विनयमें अन्तर्भून है. गुर्चादिकांके ज्ञानके उपकरण शास्त्र, संयमके उपकरण पिछी, कमंडल्यार्दिककी सूर्यास्त समय और सूर्योदय के समय स्वच्छता करनी चाहिये. -- -- ...... - इच्चेवमादिविणओ उबयारो कीरदे सरीरेण । एसो काइयविणओ जहारिहो साहबग्गम्मि ।। १२२ ॥ व्यापारः क्रियते नित्यं यः कायेनैवमादिकः ।। कायिको बिनयोश्याचि साधूनां स यथोचितः ।। १२३ ॥ विजयोदया-उपचारिकविनयः। शेष सुगम। मूलारा--जहारिहो यथोचितः। अर्थ-गुरुजनोंमे योग्यताके अनुसार इत्यादि प्रकारका विनय शरीरके द्वारा करना चाहिये, यह सब कायिक उपचारविनयका विस्तार दिखाया है, १२३ बाचिकविनयनिरूपणार्थ गाथावयम् पूयावयणं हिदभासणं च मिदभासणं च महुरं च ॥ सुत्ताणुवीचिचयणं अणिडुरमकक्कसं बयणं ॥ १२३ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आश्वास पूजासंपादकं वाक्यमानिष्टुरमकर्कशम् ।। अक्रियावर्णकं श्रव्यं सत्यं सूत्रानुवीचिकं ।। १२४ ।। विजयोदया-पूयावयणं पूजापुरस्सरं बचने भट्टारक रर्द शृणोमि, भगवत्रिदं कर्तुमिच्छामि युष्मदनुभयेत्यादिकं । हिदभासणं च भुर्वादीनां यद्धिसं लोकद्वयम्य तप भापणं । भितभाष यात्रता विविदिषितार्थप्रतिपत्तिभवति नारदेव वक्तव्यं न प्रसक्तानुसतं । मधुरं च धोत्रप्रियं । सुत्ताणुत्रीश्वियण सूत्रानुबीचिवचनं । भापासमित्यधिकार, यानि चान्यानि निर्दैि पानि बचासि ते कथनं । अणि दर अनिठुर पगचितपीडाकृतायनुयनं । अककसं वयणं अकर्कशे वचन थपरूपमिति यावत् । वाचिकविनयं गथाद्वयेनाह मूलारा-पूयावरण पूजाबचनं । भट्टारक इदं शृणोमि, भगवभिदं कर्तु इच्छामि भवदाज्ञयेत्यादि । मिदभासणं यावता विवक्षितार्थस्य प्रतीतिः स्यात्तावन्मात्रस्यैव जल्पनं । मधुरं कर्णप्रिय । सुत्ताणुवीचिवयणं भापाममित्यधिकारोक्तबचोभाषणम् । अणिठ्ठुरं यन्मनःकदर्थनं न | अककस अपरुपं चित्तसुखद वा । बाचिकविनयका निरूपण दो गाथाओंसे आचार्य करते हैं. ___ अर्थ-आदरपूर्वक भापण करना बह पूजावचन कहा जाता है. जैसे हे पूज्य भट्ठारक मैं सुन रहा हूं, हे भगवन् मैं आपकी आज्ञासे यह कार्य करना चाहता हूं. द्वित भाषण-गुर्वादिकोंका इहपरलोकमें हित होगा ऐसा भाषण करना चाहिये. मित भापण-जितना योलनेसे अपने मनका अभिप्राय गुवादिजन जान सके उतना ही बोलना इससे जादा और अप्रासंगिक न बोलना. जो भाषण बोलना हो वह कर्णमधुर शास्त्रके अविरुद्ध होना चाहिये. भापा समितीके अधिकारमें जिन भापणोंका उल्लेख किया है वेहि बोलने चाहिये. अनिष्टुरभाषण दूसरोंके मनको दुःखित न कर देना, अकर्कश कटोरता जिसमें नहीं है ऐसा भाषण उपर्युक्त भाषण बोलना बचनविनय है. १२४ उबसंतत्रयणमगिहत्थवयणमकिरियमहीलणं वयणं ॥ एसो बाइयविणओ जहारिहो होदि कादश्यो ॥ १२४ ।। उपशांतमगार्हस्थ्य हित मितमहेडनम् ॥ योगिनो मापमाणस्य बिनघोवानि धाचिकः ॥ १२५ ।। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना विजयोदया-उवसंतवयण प्रशांतरागकोपः उपांतः | तस्य वचनं उपशांतवचनं । विरामस्य विरोषस्य च यदचस्तंदव भायं । अगिहथवयर्ण गृहस्था मिथ्यादृष्टयोऽसंयता अयोग्यवचनधिकल्पानभिज्ञास्तां यद्वचनं न भवति । तस्य अमिधाने । अकिरिय पदकर्मव्यावर्णनपर यक्ष भवति। अहीलणं परानवशाकारि । पसो व्यावनितनवव्यापारः । वाचिगविणो वाग्विनयो । जधारिई यथाई। होमिकाप्यो कर्तव्यो भवति। मूलारा-वसंतववर्ण विरागविरोपवचनं । अगित्यययणं गृहस्था मिथ्यादृष्टयोऽसंवताः योग्यवचनविकमालभिज्ञास्तद्वचनानभिधानं । अकिरियं कृप्याघारंभवर्णनशून्य । अहीलणं अवज्ञाधिक्षेपहीन । अर्थ-उपशांतवचन-जिसके राग और कोप शांत हुव है एसे व्यक्तीको 'उपशान्त' कहते है. उपशांत का जो भाषण उसके उपशांत वचन कहते हैं. अर्थात् रागद्वेषहित लोक जो भाषण करते हैं वही भाषण बोलना चाहिये. अगृहस्थ वचन-गृहस्थ अर्थात् मिथ्यादृष्टि और असंयमी लोक वे कोनसा भाषण बोलने योग्य है कोनसा योग्य नहीं है कुछ जानते नहीं हैं ऐसे लोगोंके सरीखा भाषण न बोलना चाहिये. अर्थात् योग्य भाषणको अगृहस्थ वचन कहते हैं. अक्रियवचन-असि, मषि, कृष्यादि पदकार्योंमे प्रधुत्त करनेवाला भाषण जीरराधाके लिये हेतु है. ऐसे भाषणका त्यागकर जीवोंका रक्षण करनेवाला भाषण बोलना चाहिये. अहीलनवचन-न्दुसरोंकी अवज्ञा करनेवाला वचन नहीं बोलना चाहिये. इस प्रकारके यथायोग्य बचन बोलना यह वाचनिक विनय है. - - -"-- - मानसिकचिनय निरूपयति पापविसोत्तिय परिणामवजणं पियहिदे य परिणामो ॥ णायव्यो संखेवेण एसो माणस्सिओ विणओ ॥ १२५ ।। हितप्रियपरीणामं विदधानस्य मानसः॥ पापानवपरीणाम मुंयतो विनयो मतः ॥ १२६ विजयोदया-पापदिसोत्तिगपरिणामवजणं पापशब्देन अशुभकर्माण्युच्यते । स्रोतःप्रवाहः स्रोत इव अधि. च्छेदेन प्रवृत्तेः । कर्माणि अपि पापविस्रोतःशब्दन उच्यते । पापविनोतःप्रयोजनाः परिणामा पतेपां बर्जन । इह गुरुविनयस्य प्रस्तुतत्वात् गुरुविषयोऽशुभः परिणामः । आत्मनो यथेष्टचारित्त्वनिबारपाजनितक्रोधः । अविनीततादर्शनादनुप्रहाभावमपेक्ष्य नाध्यापयति । पूर्यवन्न मया सह संभाषणं करोति इति वा क्रोधः । गुरुविनये आलस्य, गुरं प्रत्यक्षा, PAR Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना २०३ निश, संभ्रमः वत्थतिकूलवृत्तिरित्येवमादयः । पियहिंदे य परिणामः । गुरोर्यत्मयं तस्मै यद्धितं आत्मने वा तत्र परिणामः । णादयो ज्ञातव्यः । संखेत्रेण समासेन । एसो एषः । माणस्सिगो मानसिकः । विणओ विनयः । मानसविनयग्रह भूलारा- पापवियोत्तिय परिणामवज्जणं । पापान्यशुभकर्माणि तान्येव विशिष्टं स्रोतः प्रवाह: अविच्छेदेन प्रवृत्तः । पापविस्रोतः प्रयोजनं येषां ते पापविसोतिकाः ते च ते परिणामाइन ते चेह गुरुविषयास्तद्विनयस्य प्रस्तुत्वा । आत्मनो यथेष्टचारित्व निवारणजनितः क्रोधो अविनीतादर्शनादनुग्रहा भावमपेक्ष्य मां नाध्यापयति पूर्वच भया मह संभाषणं न करोतीति वा को गुरुविनये आलस्यं, गुरु प्रत्यक्षा, निंदनमसंयम स्वत्प्रतिकूलवृत्तितेत्येवमादयः । पियहिदे गुरोर्चत्प्रियं स्वचयति तस्मिन् । अर्थ -- जिससे पापसमुदायका जलप्रवाह के समान अखण्डरूपसे आगमन होगा ऐसे परिणामोंको अपने हृदयमें मानसिक विनय पालन करनेवाले मुनिओने उत्पन्न नहीं होने देना चाहिये. यहा गुरुविनयका प्रकरण है इसलिये गुरुविषयका अशुभ परिणाम मनमें उत्पन्न न होने देवें गुरु जब शिष्यका स्वैराचार देखते हैं तब वे उसका निवारण करते हैं. ऐसे समय में शिष्य अपना मन यदि क्रोधसंद करेगा तो अशुभ कर्मका आसव होने लगेगा. शिष्यकी उदंडवृत्ति देखकर गुरु उनपर अनुग्रह नहीं करते हैं, तब मेरेको गुरु पढाते नहीं हैं, पूर्वके समान मेरेसे संभाषण नहीं करते हैं ऐसे विचार कर गुरुविषयक क्रोध शिष्य के मन में उत्पन्न होता है, यह पापागमनका कारण होता है ऐसा समझकर छोड़ देना चाहिये. गुरु विनय में आलस्य करना, गुरुकी अवज्ञा करना, निंदा करना, उनका आदर न करना, उनके विरुद्ध चलना ये सच कुचेष्टायें छोड़ देनी चाहिये. गुरुको जो प्रिय लगे और जिससे उसका हित होगा, स्वयंका भी जो हित करेगा ऐसा परिणाम - संकल्प मनमें उत्पन्न करना चाहिये. इस तरहसे मानसिक चिनयका संक्षेपसे वर्णन किया है. एसो पक्खो विणओ पारोक्खिओ वि जं गुरुणो || विरहमि विज्जिइ आणाणि सचारिया || १२६ ॥ आव २ ३०३ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना ३०४ इत्ययं विनयोsध्यक्षः परोक्षः स मतो गुरोः ॥ अप्रत्यक्षेपि या वृत्तिराज्ञानिर्देशचर्ययोः ॥ १२७ विजयोदयाय एवं दसो एपः । पत्रो प्रत्यक्षो विनयः । सनिहित गुरुषियत्वात् । पारोग वि गुरोःपरोक्ष कियमाणोऽपि विनयः । कोऽसाविति चेदाह गुरुणो विरहमि विवदिज गुरोर्विरेऽपि क्रियते । भणाणि सवरियाए । याशायाम्-इत्थमेव भवता कार्य मुमुक्षुणा न कांचनत्थमिति यनिदिश्यते तदाज्ञानिर्देशः । 'बतगो बिहारी सणणाणचरणेसु काग्यो । इत्येवमादिसदृशः 1 एवं त्रिधा प्रत्यक्षविनयं निरूप्य परोक्षविनयं व्याचष्टे मूलारा - पारोक्खिगो गुरोः परोक्षे क्रियमाणः । आणाणिदेसचरियाए । आज्ञायामित्यमेव त्वया मुमुक्षुगा कार्य, न कवात्थं इति यनिर्देशस्तयां गुरोः सामान्यविशेषोपदेशानुष्ठाने इत्यर्थः । इय एसो पञ्चकखो इति अर्थ — इस प्रकार प्रत्यक्ष विनयका वर्णन किया. अब परोक्षविनयका वर्णन करते हैं -- गुरुके परोक्षमें किया जानेवाला जो विनय उसको परोक्षविनय कहते हैं, जैसे तुम मुमुक्षु हो इसलिये तुम आगमके अनुसार आचरण करो, विरुद्धाचरण कभी भी मत करो ऐसी गुरुकी आज्ञा गुरुके परोक्ष भी यथार्थ रीतीसे पालन करना परोक्ष विनय है. 'ववगो विहारो दंसणणाणचरणेसु कादव्यो' सम्यग्दर्शन, ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपरत्नत्रयमें उत्तरोत्तर अधिकरूपसे प्रवृत्ति करो ऐसा गुरूका उपदेश उनके परोक्षमें भी पालन करना यह परोक्ष विनय है. न गुरुण्येव विनयः कार्य इति ग्रहीतव्यं, पतेष्वपि विनयः कर्तव्य इत्याह-राइणिय अराइपीएस अज्जा व मिहिवरगे ॥ विणओ जहारिहो सो कायव्त्रो अप्पमन्तेण ॥ १२७ ॥ संतानां गृहस्थानां आर्यिकाणां यथायथम् ॥ चिनयः सर्वदा कार्यः संसारान्तं विघासुना ॥ १२८ ॥ बिजयोदया--- राइणिय अराइणिप यथा रत्नानि दुर्लभानि अभिलाषितदानक्षमाणि तथैव सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि रत्नशब्दषाच्यानि श्रद्धानादिपरिणामेनोत्कृष्टेन वर्तमानः । रायणिय इत्युच्यते | आत्मनो न्यूनरलत्रया भरायाणया । अथ वा रात्रिणिग ऊमराविणिगेसु ज्येष्ठकनिष्ठमतेषु च शेषं सुगमं । आश्वासः २ ३०४ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूसाराधना आश्वासः एतेष्यपि च विनयोऽभिधेय इत्यधुनाभिधत्ते--- मूलारा-रादिणिगऊमरादिणिगेसु । रादिणिमा आत्मनः सकाशाद्रत्नत्रयणाधिकाः समा वा साधवः । ऊमरादि-1 णिगा अपमराविकाः आत्मनः सकाशानन्यूनरत्नत्रयाः । रातिकाश्च अबमरातिकाश्च तेषु तपसैकरामादिना ज्येष्ठकनिवित्यन्ये। फक्त गुरूका ही विनय करना चाहिये ऐसा नहीं समझना परंतु मुनि, आर्यिका, श्रावकवर्गका भी विनय यथायोग्य करना चाहिये ऐसा प्रतिपादन करते हैं ____ अर्थ-जैसे रत्न दुर्लभ होते हैं परंतु उनकी प्राप्ति होने पर उनसे अभिलषित पदार्थ मिलते हैं. वैसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र दुर्लभ है इसलिये इनको रत्नत्रय कहते हैं. यह रत्नत्रय जीवोंका अभिलषित पदार्थ जो मोक्ष वह देता है. रत्नत्रयरूप परिणाम जिसेक उत्कृष्ट है ऐसे मुनिको 'रायणिय' ऐमा नाम है, अपने से जिस मुनिका रत्नत्रय न्यून है वह मुनि 'अरायणीय' इस नामका धारक है. अथवा जिसके अपनसे श्रेष्ठबत है और जिनके अपनेसे न्यून व्रत है उनको भी उपर्युक्त शब्दोंका क्रमसे प्रयोग कर सकते हैं, अर्थात् उपर्युक्त मुनिओका उनके योग्यतानुसार आदर करना चाहिये. आर्यिकायें और गृहस्थवर्ग इनका भी यथायोग्य विनय करना चाहिये. PORNO विनयाभावे दोषमाच-दोपप्रकटनेन भयमुत्पाद्य विनये हप्तां कर्तुम् विणएण विप्पट्टणस्त हयदि सिक्खा णिरस्थिया सव्वा ॥ विणओ सिक्खाए फलं निणयफलं सव्वकल्लाणं ॥ १२८ ॥ विनयेन विना शिक्षा निष्फला सकला यतेः ।। विनयो हि फलं तस्याः कल्याणं तस्य चिन्तितम् ।। १२१॥ विजयोदया-विणरण विप्पाहुणस्स विनयरहितस्य यते। हवा-सिक्या णिरत्थिया सर्वशिक्षा निष्फला। किं शिक्षायाः फलं प्रत्यारेक्य भाइ-विणओ सिक्साए फलं व्यावर्णितः पंचप्रकारो विनयः शिक्षायाः फलं । तस्य बिनयस्य किं फल ? पुरुषार्थो हि फलमित्याशंक्याइ-विधायफलं संवकल्लाणं सर्वमभ्युदयनिःश्रेयसरूपं कल्याणस्थानमानैश्वर्यादिकं दियमुम्नं च। ३०५ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना बावा ३०६ Emai பாத்துயரத்தத்தால் विनयफलं गायाचतुष्टयेन व्याचिल्यामुर्विनयाभावे दोषप्रकाशनेन भयमुत्पाद्य विनये रखता कर्तुमाहमूलारा--सन्यकलाप्यं सर्षमभ्युदयनिःश्रेयसरूष कल्याणं स्थानमानैश्वर्यादिकमिद्रियानिद्रियसुखं च । विनयके अभावस कोनसे दोष उत्पन्न होते हैं. अर्थात् दोषप्रकटनसे भय उत्पन्न करके विनयम दृढ़ता उत्पन्न करते हैं. अर्थ-जो मुनि विनय नहीं करता है. उसकी सब शिक्षा व्यर्थ होती है, क्योंकि उक्त पांच प्रकारका विनय शिक्षाका फल है. यदि शिक्षासे विनयकी प्राप्ति न हुई तो शिक्षाकी प्राप्ति करना व्यर्थ ही है. जैसे शिक्षाका फल विनय है वैसे विनयका फल क्या है ? पुरुषार्थ उसका फल है ऐसा किसीने उत्तर दिया. तब आचार्य कहते है कि नहीं यह उत्तर नहीं है, किंतु पंचकल्याणिकोंकी प्राप्ति होना, ऐश्वर्य प्राप्त होना, इंद्रियसुत्रकी प्राप्ति होना ये सब विनयके फल हैं. ----- -- - विणओ मोक्खद्दारं बिणयादो संजमो तबो णाणं । विणएणाराहिज्जइ आयरिओ सव्वसंघो य ॥ १२९ ॥ विमुक्तिः साध्यते येन श्रामण्यं येन वयते ॥ सूरिराराध्यते येन येन संघः प्रसाद्यते ॥ १३०॥ विनयेन विना तेन निति यो यियासति ।। तरंडेन विना मन्ये सतितीति वारिधि ।। १३१ ।। विजयोदया-विणओ मोफ्सदारं यथा द्वारमभिमतदेशप्राप्स्पायस्तद्वत् मोक्षस्य निरवशेषकर्मापायस्य प्रान्त्यामुपायो बिनय रति मोक्षद्वारमित्युच्यते । निरूपिसेषु पंचमकारेषु विनयषु अनवरतं प्रवर्तमानो असंयम परिवर्तु शक्नोति नापरः । इंद्रियकपाययोगमणिधान यदि न स्यात् कमिद्रियसंयमा प्राणिसंयमो वा भवति । तयो तपः शानादिविनयशून्यं अनशनादिकं न कर्म तपतीति विनयहेतुकं तपस्त्वमिति मत्वोच्यते विनयासप इति । णाणं मानं च विनयहेनुकं । अविनीतो हि शान न लभते । विणरण विनयेन । भाराधिन्जवि आराध्यते स्पषशे स्थाप्यते। आयरिथो आचार्यः । सव्यसंम्रो य सर्व संघः । मूलारा-मोक्खदार यथा द्वारमभिमतदेशमामरुपायस्तद्धन्मोक्षप्राप्लेविनयो यथोक्ते विनये सत्येच कर्मापायसंभवात् द्वारमभिमत विनयेषु अनयम वा भवति । तथा मानव Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाम: मूलाराधना ३०७ __ अर्थ जैसे दरवाजा इच्छित देशकी प्राप्तिका उपाय है वैसे संपूर्ण कर्मका नाशरूप जो मोक्ष उसकी प्राप्तिका विनय उपाय है, अतः विनय मोक्षका द्वार है ऐसा आचार्य कहते हैं, उक्त पांच प्रकारके बिनयोंमें जो हमेशा प्रवृत्ति करता है वह असंयमका त्याग करनेमें समर्थ होता है. विनय न करनेवाला मनुष्य उद्धत होकर | असंयमी बनता है, इसलिये विनयस संयमको प्राप्ति होती है. इंद्रियांक विषयस और कपायपरिणतीसे यदि आत्मा नहीं हटेगा तो इंद्रियर्सयम और प्राणिसंयमकी रक्षा कैसी होगी ? ज्ञानविनय, दर्शनविनय बगैरह विनयोंसे शून्य अनशनादि तप कर्मको पीडित नहीं कर सकता है. इसलिये विनय तपका कारण है ऐसा आचार्य कहते हैं. विनयसे ज्ञानकी प्राप्ति होती है. अविनयी मनुष्यको घानका लाभ होता नहीं विनय करनेवालेपर आचार्य प्रसन्न होते हैं. सर्व संघ भी उसके चश होता है. SERIA STATESTATEsamatara आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधि णिज्झंझा ॥ अञ्जव महर लाघव भत्ती पल्हादकरणं च ॥ १३ ॥ कल्याचारपरिज्ञानं दीपनं मानभंजनम् ॥ आत्मशुद्धिरवैचित्त्यं मैत्री मार्दवमार्जवम् ।। १३२॥ विजयोदया-आयारजीदकप्पगुणदीवणा रत्नत्रयाचरणनिरूपणपरतया प्रथममंगमाचारशब्दनोच्यते । बाचारशास्त्रनिर्दिष्टः क्रमः आचारजीदशन्देन उच्यते । करप्यते अभिधीयते येन अपराधानुरूपो दंडः स कल्पस्तस्य गुणः उपकारस्तेन निर्घस्यत्वात् । अनयोः प्रकाशनं आचारजीदकप्पगुणदीवणा । पतदुक्तं भवति-कायको याचिकश्च विनयः प्रवर्तमानः आचारशास्त्रनिर्दिष्ट क्रमं प्रकाशयति । कल्पोऽपि विनयं विनाशयतो दंड्यतो बिनय निरूपयति । तयास्य प्रवयते इति कल्पसंपाद्य उपकारः प्रकरितो भवति इति केषां विद्याथ्यानं । अन्ये तु वदन्ति । कल्प्यते इति कल्यं योग्य कल्प्या गुणाः कल्प्यगुणाः । आचारसमस्य करण्यानां च गुणानां प्रकाशन | आचारजीदकल्पगुणदीवणाशयेनोच्यते । भ्रताराधना चारित्राराधना च कृता भवतीत्येतदाण्यातं अनेनेति । अत्तसोधिणिसंझा विनयपरिणतिरात्मशुद्धीनदर्शनवीतरागास्मिकाया निमित्तमिति शात्मशुधिरुच्यते । अथवा ज्ञानादिविनयपरिणतिः कर्ममलापायलभ्यत्यात् शुद्धिरुच्यते आत्मनः पंकापायलभ्या जलादिशुद्धिरिष । बैमनस्याभावो णिझज्झा । विमनस्को भवति चिनयहीनो गुर्चादिभिरननुगृह्यमाणः । BengaNDIDISE Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना माश्वासः ३०८ असा आर्जवं नाम जुमार्गवृत्तिः, शास्त्रनिर्दिष्ट वा चरपर्णा अजु । महब अभिमानत्यागो माईर्ष परगुणातिशये श्रद्धानेन, तम्माहात्म्यप्रकाशनेन च विनयेन च अभिमाननिरासा कृतो भवति । लायव विनीतो हि आचार्याविषु न्यस्तभरो भवतीति । लाघवं विनय मूलं । भत्ती बिनीतस्य हि सर्वजनो विनीतो भवति । इति विनयहेतुका भक्तिः। पल्दाइकरण च प्रकृष्ट सुखं प्रकृष्णसुखं प्रल्हादस्तस्य करण क्रिया प्रल्हादकरणमित्युच्यते । येषां विनयः क्रियते तेषां सुख संपादितं भवति इति परानुग्रहो गुणः आत्मनो वा परदादकरणं । कथमविनीतो हि निर्भर्सनादिमिरनवरतं दुःखितो भवति । विनीतो हि निर्भसनाद्यभावात्सुखी भवति । वाधामाये एव सुस्सा व्यवहारो लोके। मूलारा --- आ यारेत्यादि आचारशासनिर्विष्टः क्रमः आचारजीद | कल्पगुणः प्रायश्चित्तशाने कृत उपकारस्तयोर्दीपना प्रकाशना । अन्ये तु कल्पा योग्या गुणा इत्याहुः । अत्तसोधि आत्मशुद्धिानिकपारणतज्ञानदर्शनवीतरागतालक्षणात्मशुद्धिनिमित्तत्वात् । णिज्झंझा वैमनस्याभावः । विनयहीनो हि गु दिनाननुगृहमाणो विमनस्कः स्यात्। अजवं आर्जवं नाम ऋजुमार्गवृत्तिः शास्त्रनिर्दिष्टं वाचरणं जुः । मद्दवं निरभिमानता । परगुणातिशयश्रद्धानेन तन्माहात्म्यमकाशनेन च विनयो ाभिमानं निरस्यति । लाघवं बिनीतस्याचार्यादिषु न्यस्तभारत्यालघुत्वं स्यात् । भत्ती विनीतस्य सर्वजनभाक्तिविषयत्वात् । पल्हादकरणं परेषां स्वस्य वा प्रकृष्टसुखोत्पादनम । अर्थ-रत्नत्रयके आचारका निरूपण करनेवाले पहिले अंगका आचार' यह नाम है. आचारशास्त्र में कहे हुए क्रमको आधारजीद कहते हैं, जिसमें अपराधानुरूप दंडका विधान कहा है उस शास्त्रको कल्पशास्त्र कहते हैं. इससे जो उपकार उत्पम होता है उसको कल्पगुण कहते हैं. इस कथनका यह आभपाय है-किया जानेवाला कायिक और वाचिक विनय आचारशास्त्रके क्रमको प्रकाशित करता है. कल्पशास्त्र भी विनयका नाश करनवालको दंड करता हुआ विनयको प्रगट करता है. अर्थात् कल्पशास्त्रके भयसे साधु विनय करने लगते हैं. विनयसे फल्प. संपादित उपकार प्रगट हो जाता है. ऐसा कोई आचार्य व्याख्यान करते हैं, दुसरे आचार्यका व्याख्यान इस प्रकार है-योग्य गुणाकी कल्प्यगुण कहते हैं. आचारका क्रम और कल्प्यगुण अर्थात योग्य गुण इनका जो प्रकाशन करना उसको 'आचारजीदकल्प्यगुणदीवणा ' ऐसा कहते हैं. अर्थात् विनय करनेसे श्रुतकी आराधना और चारित्रकी आराधना सिद्ध होती है ऐसा भाव समझना चाहिये, विनयसे आत्मशुद्धि और निहझा ऐसे दो गुणोंकी प्राप्ति होती हैं, विनयस ज्ञानदर्शनरूप आत्मशुद्धि Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास: होती है, ज्ञानविनयपरिणति और दर्शनविनयपरिणति कर्ममलका नाश होनेसे प्राप्त होती है. अतः ज्ञानविनयपरिणति और दर्शनविनयपरिणतिको ही आत्माकी शुद्धि कहते हैं. कीचडका नाश होनेसे जलादिकांकी जैसी शुद्धि-निर्मलना होती है पैसी कर्ममलका नाश होनेसे आत्मामें ज्ञानविनयादि शुद्धि उत्पन्न होती है. विनयसे वैमनस्य नष्ट होता है. जो विनय नहीं करता है उसके ऊपर गुरुका अनुग्रह नहीं होता है जिससे उसमें वैमनस्य उत्पन्न होता है. विनयसे जुगुण-सरलता अगट होती है. अथवा जो बिनय करता है वह शास्त्रनिर्दिष्ट आचरण करता है यह सिद्ध होता है. विनय करनेसे अभिमानका नाश होता है. अर्थात् मार्दवगुण प्रगट होता है. दुसरोंके उत्कृष्ट गुणा में श्रद्धा उत्पन्न होनसे, और गुणोंका महत्व प्रगट करनेसे तथा विनयसे अभिमानका नाश होता है. विनयसे लाघवगुण प्राप्त होना है. विनीतमान आचार्यादिकोपर अपना भार सोपता है, अर्थात जो कुछ कार्य करता है वह आचार्यकी कृपामही में यह कार्य कर सका हूं ऐसा समझता है. अतः विनय लाघवगुणका मूल है. विनयरी मनुष्यक ऊपर सर्व ही भक्ति करते हैं. विनयसे दुसरे पुरुषों को उत्कृष्ट आनंद की प्राप्ति होती है और खुद को भी आनंद होता है, जो विनय नहीं करता है. लोक उसकी निर्भर्त्सना करते है अतः अचिनयी मनुष्य हमेशा दुःखी रहता है. विनयी की कोईभी निंदा-निर्भर्त्सना नहीं करता है अतः वह सुखी है उनको कोई बाधा नहीं देता है. बाधाके अभावमें ही सुखकी लोक कल्पना करते हैं, - कित्ती मेत्ती माणस्स भजणं गुरुजणे य बहुमाणो । तित्थयराणं आणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा ॥ १३१ ॥ भक्तिः प्रल्हादन कीर्तिलाघवं गुरुगौरवं ॥ जिनेंद्राज्ञा गुणश्रन्दा गुणा वैनयिका मताः॥ १३२ ।। विनयं न विना ज्ञान दर्शन चरितं तपः॥ कारणेन विना कार्य ज्ञायते कुत्र कथ्यताम् ।। १३३ ।। ३०९ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ३१० समस्ताः संपदः सद्यो विधाय वशवर्तिनीः ॥ चिंतामणिरिवाभीष्टं विनयः कुरुते न किम् ॥ १३४ इति विनयः ॥ विजयोदया- किसी विनीतोऽयमिति संशब्दनं कीर्तिः । मेन्ती परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषो मैत्री । परस्य दुःख नैवेच्छति विनीत रति । मापस्स भेजण मानस्य भंगः 1 मानाभिहित एब मानभंगः पूर्वसूत्रे ततः पौनरुपत्यं इत्युच्यते माणस्स भंजणं परस्त इति शेषः एकस्य विनयदर्शनात् परोऽपि स्वं मानं जहाति । गतानुगतिको हि प्रायेण लोकः । नूनमसिमानत्यामो गुणो अन्यथा किमित्ययं विनयं करोतीति । गुरवो हि यहुमान्याः कृता भवन्ति विनयेनेत्याह – गुरुजणे य यहुमाणो इति । तिराणं आणा संपादिदा होदिति शेषः । विनयमुपदिशतां तीर्थकृतां आशा संपादिता भवति, अनुष्ठितेन मित्रसेन कृतितं भवति इति केचित् । गुणेषु श्रद्धानादिषु हर्षः कृतो भवती त्येचं वदन्ति । एते विनयगुणाः गुणशब्द उपकारपत्रनोऽत्र विनयजन्यत्वाविनयस्य गुणा त्युच्यते । मूलाश - कित्ती विनीतोऽयमिति संशब्द। मिती परस्य हि दुःखं नैवेच्छति विनीतः । माणस्स भंजणं परस्व हि मानभंग एकस्य विनयदर्शनात्परोऽपि स्वमानं त्यजति । गतानुगतिकत्वाल्लोकस्य । गुर्वित्यादि । विनीतेन हि गुरवो बहुमान्याः कृताः स्युः | आणा संपादिता होदीति शेषः । गुणानुभोदा गुणिषु विनयं वितम्बता तद्गुणानुमननं कृतं स्यात् । गुणेपुवानुगत मोदो हर्षो गुणानुगोद: । विजयगुगा विनयकृता उपकाराः । विनयः । सूत्रतः । अतः २ ॥ अर्थ - जो मुनि गुरुजनोंका विनय करते हैं उनकी ये मुनि नम्र है' ऐसी कीर्ति जगमें फैलती है जो विनयी है उसको मैत्रीगुपणका लाभ होता है अर्थात् यह किसी को भी दुःख होवे ऐसी अभिलाषा रखता नहीं है. विनयगुण मानका नाश होता है. शंका - मार्दवगुणका वर्णन पिछली गाथा में किया है उससे ही मानभंगका वर्णन हो चुका पुनः इस गाथा में वर्णन करनेसे पुनरुक्ति दोष यहा हुआ है. उत्तर 'माणस्स भंजण' इन शब्दोंके आगे पर यह शब्द जोड़ देना चाहिये. अर्थात् एक मनुष्य विनय करता हुआ नजर आनस दूसरा भी अपना मान त्याग कर विनय करता है क्योंकि लोक प्रायः गतानुगतिक होते हैं. लोक भी ऐसा मनमें समझते हैं कि अभिमानका त्याग करना यह सद्गुण है यदि यह सद्गुण न होता तो यह पुरुष विनयगुणका क्यों आश्रय लेता ? विनयसे गुरुजनोंका आदर होता है, विनय करने से तीर्थकरोंकी आज्ञा जातीपाती है. तीर्थकरोने गुरुजनोका विनय करना पाली जाती हैं. आव ३१ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना चाहिये ऐसी भव्योंको आज्ञा की है, गुणी लोगोंका विनय करनेसे उनके गुणोंको अपनी सम्मति है ऐसा सिद्ध होता है. अधीत दुसरोंके सम्यग्दर्शनादि गुण दीखनेपर विनयवान जन हर्पयुक्त होने हैं. यह हर्षित होना गुणानुमोदनको सूचित करता है. ये सब अपर कहे हुवे विनयके गुण है. - - - बिगनव्याख्यानानंतर समाधिनिरूपणाथ उत्तरप्रबंधः । योग्यस्य, गृहीतलिंगस्य, शानभावनांचनमय, मान निरूपित विगये वर्तमानस्य, रत्नत्रयमनसः, सम्यगाराधनं न्यास्यमित्यधिकारसंबंधोऽनुगंतव्यः । चेतः समाहित कीहक् तस्य वा समाहितस्य किंफन्टमिति चोद्यद्वयमतिविनोधनार्था गाथा विणयत्तिगर्द ।। चित्तं समाहिदं जस्स होज्ज वज्जिदविसोत्तियं वासयं । सो वहदि णिरदिचारं सामण्णधुरं अपरिसंतो ॥ १३२ ॥ समाहिनंगलो रुप रसरशुभारुपम ॥ उद्यते तेन चारित्रमातेनापदृषणम् ॥ १३५ ।। विजयोदया:-चित्त समाहिद जस्स अस्स चित्तं घन्जिचिसोसिगं वसिय समाहिद इति पघटना । यस्य चेतः परित्यक्ताशुभपारणातिप्रसरं यशवर्ति च यत्र नियुके तय तिष्ठति, तच्चिस समाहितमिति प्रायम् । थम्यरेष विचार्यते । किमिदं चित नाममन रति चेद्रव्यमनो भाषमनश्चेति सविद्वप्रकार, कस्यह प्रावण ? न तावत् द्रव्यमनः पुनल. त्वावसंभविनी कर्मावाननिमित्सतया फर्मपरिणतिरिति । यज्जिवविसोत्तिगमिति। विशेषणमसंभवीति । न च तशयात्मनः तेन भाषमनो गृह्यते । नोइंद्रियमतिः सारागाविसहभाविनी । तहिता चास्तीति युज्यते यज्जदिसोत्तिगं इति विशेषणं । बसिगमिति च तस्यां घटते | नो इंद्रियमतिहानाचरणक्षयोपशमवत आत्मनो यशेन नो इंद्रियमतिर्वर्तते । तधा हिरागकोपभयदुःखादयो नटादीनां वशेन परिणामा यतेते तत्कार्यपुलकादिदर्शनेनानुमीयमानाः । तद्वदेव नोइंद्रियगतिरपि आन्मेच्छया छचिदेवावरुखानुभूयते इति । सो सः समाहिवाचत्तो वहदि धारयति । तथा व श्योगः-विनय यहति धारयति इति गम्यते । निरदिचारं निरतिचार निदो । सामण्णधुरंरागकोपानुपप्लुतचित्तः समण इत्युच्यत । तथा च नैरुक्तका यान्ति' सम्पायो 'समणो इति सगणस्स भायो सामाणं तच्च किं समानता चारित्रं । नस्य भारं फादर्श निरतिचार निर्मलं । अपरिसंतो अधान्तश्चारित्रभारोद्वनं फलं समाहितचित्तस्येत्याख्यातं भवति । अनिभृतमनस्ताया दोपारयानव्याजेन निभृतं मनः कार्यमिति द्रढयत्युत्तरगाधया। कश्चित्कंविदुज्जयिनीस्थं दक्षिणापथाभिमुखमाह अल्पधान्यः क्षुद्रजनबहुलो मिलदेशः इति । स पवमुक्तं प्रत्येति अर्य जनएदः सुभिक्षः सुजनाधिवास। इति । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास: मितापदे अथ योग्यस्य, गृहीतमुक्युपायलिंगत्य, ज्ञानभावनोद्यतस्य,विनवे वर्तमानस्य,रत्नत्रये मनसः सम्यगाधान न्याय्यगायादशकमादिशति तत्र ताबनचेतः समाहित कीरक् तस्य वा समाहितस्य किं फलमिति प्रश्ने सतीदगाइ। मूलारा-चित्त भाषमनः । तल्लक्षणं यथा-गुणदोपविचारस्मरणादिप्रणिधानमात्मनो भावननः । तदभिमुख स्वास्यैवानुमाही पुद्गलोचयो द्रव्यमनः ॥ १ ॥ वज्जियविसोत्तिग वर्जितविस्रोतकं धर्जितानि निरूपाणि स्रोतांसि पापासघकारणाशुभपरिणामप्रयाहा येन तत्परित्यक्ताशुभपरिणतिप्रसरमित्यर्थः । बसगं वशवति । यन्त्र नियुक्त तत्रैव तिष्ठतीत्यर्थ पताशपणोपेतं समाहितमित्युच्यते । सामण्णा नागिनभार ! अपरितनो प्रस्नः। विनयके निरूपणके अनंतर आचार्य समाधिनिरूपण करते हैं. जो समाधिमरणकलिए योग्य है, जिसने मुनिलिंग धारण कर ज्ञानाम्याससे विनयगुण धारण किया है, जिसका मन रत्नत्रयमें लीन हुआ है उसको आराधना करना योग्य है. ऐसा आगेके अधिकारके लिये पूर्व संबंध ध्यान रखना योग्य है. इसके अनंतर एकाग्र अन्तःकरणका क्या स्वरूप है ? उसका फल क्या है ऐसे दो प्रश्नोंका उत्सर आचार्य देते हैं अर्थ--जिसके चित्तने अशुभ विचारपरिणतिको छोडा है, जो वश हुआ अर्थात् जिस पदार्थमें उसको नियुक्त करते हैं वहां ही वह स्थिर होता है तो वह चिस समाहित हुआ है ऐसा समझना चाहिये. अन्य आचार्य मनका एवं विचार करते हैं-चित्त किसको कहते हैं? यदि मनको चित्त कहते हो तो उसके द्रव्यमन और भावमन ऐसे दो भेद हैं. यहां कोनसा मन समाहित होता है ऐसा हम समझे द्रव्यमन तो समाहित होता नहीं क्योंकि वह पुद्गलस्वरूपी है. वह कर्मका ग्रहण करनेमें यद्यपि निमित्त कारण है तथापि स्वयं बह रागद्वेषादि कर्मरूप परिणतीको प्राप्त होता नहीं है. इसलिये द्रव्यमनका वज्जिदविसोनिंग' यह विशेपण नहीं है. क्योंकि पुद्गल मन अभात् द्रव्यमन आत्माके वश में रहनेवाला नहीं हैं अतः यहां चित्त शब्दसे भावमन ही समझना चाहिये. भावमन माने मनस उत्पन्न होनेवाला ज्ञान वह रागद्वेपादि विकारके साथ रहनेवाला और न रहनेवाला ऐसे दो भेदोंसे युक्त है, अतः भावमनका ही 'वज्जिदविसोतिर्ग' यह विशेषण समझना युक्तियुक्त है, वासगं यह भी विशेषण उसमें ही जुड़ता है. नोइंद्रियमतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे नोइंद्रियमतिज्ञान आत्माके वश होकर रहता हूँ, इसका खुलासा इस प्रकार समझना-नट, वेश्या, नर्तकी वगैरोंके हावभाव, नृत्यादि कार्य देखनेपर प्रेम, कोप, मय, मान E0%-- Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ३१३ दुःखादिक परिणाम आत्मामें उत्पन्न होते हैं और इनका अनुमानज्ञान शरीरमें रोमांच, मुखमें विकास, म्लानि इत्यादि कार्यके दीखनेपर होता है. वसे नोइंद्रियमतितान आमच्लासे किसी एक पदार्थ में एकाग्र होता हुआ अनुभवमें आता है. जिसका मन एकाग्र और वश है ऐसा मुनि रागकोषादि विकारोंसे रहित, निरतिचार चारित्रको न थका हुआ यावज्जीव धारण करता है. चारित्रभार धारण करना यह एकाग्रचिचका फल है, बिना एकाग्र चित्तके चारित्र घारण नहीं होता है. आगकी माथायें चंचल मनसे होनेवाले दोपोंका वर्णन करती हैं. उस वर्णनसे मनको निश्चल करना चाहिये यह अभिप्राय उत्तर गाथाओंका व्यक्त होता है. उदाहरणके द्वारा यही आभिमाय आचार्याने पुष्ट किया है जैसे-उज्जयिनीका कोई आदमी-दाक्षिणादिशाके तरफ जानको उद्यत हुआ. उसको देखकर कोई पुरुष कहता है द्रमिल देशमें धान्य थोडा है, और क्षुद्रलोक वहां अधिक है तो उस पुरुपके वचनका आभिमाय यह निकला कि उज्जयिनीदेश में सुभिक्षता है और यहांके लोक सज्जन हैं, वैसे चंचल मनके दोषवर्णनसे मनको निश्चल करना चाहिये ऐसा आभिनाय समझना चाहिये. चालणिगयं व उदयं सामण्णं गलइ अणिहुदमणस्स ॥ कायेण य वायाए जदि वि जधुत्तं चरदि भिक्खू ।। १३३ ॥ तितवाविव पानीयं चारित्रं चलचेतसः ।। वचसा वपुषा सम्यक कुर्वतोऽपि पलायते ।। १३६ ॥ विजयोदया-चालणिगर्ग व उदयं उनकमिय चालनीगतं । सामणं सामान्य समानभायो । गल गलति। कस्स आणिटुवमणस्स अनिभृतं चतो यस्य । कायेण य वायार कायेन च वचसा न । जदि विचरदि यधपि चरति प्रवर्तते भिक्षुः । जधुत्तं यथाशानेणोक्तं । तथा याकाथाभ्यामाचरतोऽपि मनोनिभृतताभावे धामण्यं नश्यतीत्यर्थः । तस्मातःसमाधानं कार्यमित्युपसंहारः। चलधिरावदोषण्यापनव्याजेन मनःस्थैर्य कार्यतया ज्ञापयतिमूलारा-अणिहुदं चले। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराना आश्वास अर्थ-जिस मुनिका चित्त चंचल है उसका चारित्र चालिन में डाला हुआ पानी उसमेसें जैसे निकल जाता है रहता नहीं बसे नष्ट होता है. यद्यपि यह साधु शरीरसे और वचनस शास्त्रोक्त चारित्र पालन करना है. शरीर और वचनस चारित्र पाले तो भी यदि साधूका चित्त स्थिर नहीं हो तो वह नष्ट होता ही है. अतः चित्तकी चंचलता नष्ट कर उसमें स्थैर्य लानेका साधुओका प्रयत्न करना चाहिये. ३१४ मनमो दुपतां प्रपंचेनोपदिश्य तदेवंभूत मनो यो निगृहाति तस्य श्रामण्यं भवति समानमायो नतरस्वत्यतउत्तरप्रयंधनोच्यते तदौरात्म्यमकाशनार्थ गाधापंचकम् बादुन्भामो ३ मणो परिधावइ आहिदं तह समंता ॥ सिग्धं च जाइ दूरपि मणो परमाणुदव्व वा ॥ १३४ ।। परितो टाव्यते [ धावते ] चेतश्चरण्युरिव चंचलम् ।। परमाणुरिच क्षिप्र दूरं यात्यनिवारितम् ।। १३७ ।। विजयोदया-वादुम्मामो इत्यादिकं । पाहुप्मामो व बाल्येष। मणो मनः। परिधावद | धावति परिरनर्थकः। प्रलंबित इति यथा । अछिदं ति क्रियाविशेषणं अस्थितं धावति । कचिद्विषयेऽनयस्थितिराण्याता मनसः । तह समंता तथा समंतात् । तर पि दूरमपि । सिग्वं च जाइ शीघं याति । मणो मनः । परमाणुवष्वं वा परमः प्रष्टो अणुः सूक्ष्मः परमाणुः स एव व्यं गुणपर्यायगमनात् तविय 1 पतेन झटिति दूरस्थितविषयमाणं तस्स दौरात्म्यमावेदितं । क्रमशोऽनवस्थितत्वादितिदूर स्थित विषयमाहित्वात्मस्वामिचिकीर्षिताप्रवर्तनाशनाशिववस्तुसदसदूपनिराकरणमाइणप्रवृत्यप्रति निवर्तनीयत्वमार्गप्रवृत्तवातिदुर्भहत्यदुरंतदुःखप्रदचेष्टत्वसंसारकारणदोषकारिजीवितव्यत्वलक्षणं नवधा मनसो दौष्ठ्यं गाथापंचकेन व्याचष्टे मूलारा-वादुम्भामोव वातावलीय यातामलीतुल्यं । अदि कचिदपि विषये अनव स्थितं यथा भवति । परमाणुदव्यय मनसो झदितिदूर स्थितविषयप्रणलक्षणदौरात्म्योपलक्षणार्थमिदं भवति । आगे पांच गाथाओंसे मनकी दुष्टता आचार्य दिराते है. दुष्ट मनका जो निग्रह करते हैं. उनका चारित्र निर्दोष पला जाता है. अन्य साधुका चारित्र निदोष नहीं पल सकता यह विषय विस्तारसे आचार्य दिखाते हैं - अर्थ--बड़े जोरसे बहने वाली वायु किसी भी स्थान में स्थिर नहीं रहती है. चारो तरफ दौडती है. मन भी किसी भी विषय में स्थिर नहीं होता है. गुणपर्यायांसे युक्त परमाणुद्रव्य जैसा एक समयमें बहुत दूर जाता है Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्लाराधना आश्वास पैसा मन भी एक विषयको छोडकर अतीव दूरके विपयको भी ग्रहण करता है, मनकी दूरके विषयको भी तत्काल ग्रहण करनारूप दुष्टता इस गाथासे आचार्यने प्रदर्शित की है. अंधलयबहिरमूवो ब्व मणो लहुमेव विप्पणासेइ ॥ दुक्खो य पडिणियत्तेदं जो गिरिसरिदमादं वा ॥ १३५ ॥ वांछिताभिमुख स्वान्तं निषढे केन शक्यते ।। नगापगापयो निन्ने प्राप्तं (तद्रुध्यते ) कथम् ॥ १३८ ।। न मूको बधिरोऽन्धो वा ते शृणोति पश्यति ।। वस्तु हेयमुपादेयं विषयाकुलितं मनः ॥ १३९ ।। विकल्पैर्विविधैर्लोक पूरायत्या मलीमसः ।। मेघवृन्दमिव स्वान्तं क्षणेनैव विनश्यति ॥ १४ ॥ विजयोदया-अंधलययहिरमूभी ब्व मणो हवह इति शेषः । अंधपधिरवन्मूकपच्च भवति मनः । कदाचित्कथंचित्कचिद्विषये सक्तं मनः सन्निहितमपि विषयं न पश्यति, न शृणोति, न ब्रवीति, ति । ननु चक्षुरादेः कर्तृता दर्शनादौन मनसम्तत्सर्वदापि न किंचित्पश्यति, न शृणोति चक्ति वा ? उच्यते-मनसः करणस्य कर्तृता परशुदिच्छनतीति यथा । यतदुक्तं भवति-इएव्ये जीवादिके, श्रोतव्ये जिनवचनादिके, स्वपरहितवाक्ये च कदाचिवप्रवृत्तिर्मनसो दुपतेति । यथा भूत्यो दुप इत्युच्यते स्वामिनो नियुक्त कर्मण्यप्रवर्तमानः । पचं मनोऽप्यात्मना नियुक्तेऽव्यापृतेदुमिति भावः । लहुमेव विपणासदिय आशु विनश्यति च । अनित्यतादोपतस्तु याथात्म्यग्राहिणो मनसः नो इंद्रियमतः दुःख अशक्यं । पद्धिनियत्ते, जं मतिनिवर्तयितुं यदन्यभूतरूपग्रहणे भूतरूपनिरास च प्रवृत्तं ताभ्यां निवर्तयितुं न शक्य रागादिसहचारित्वात् प्रतिनिवर्तयितुं । किमिव गिरिसरिदसोदंव्य नदीप्रवाह इच। मूलारा--बंधलयबहिरमूव अथमधिरभूकवद्भवति कदाचित्कथंचिद्विषये सक्तं मनः संनिहितमपि विषयं न पश्यति, न श्रृणोति, न ब्रवीति इत्यर्थः । अत्र सर्वत्र चक्षुरादिकर्तृकेऽपि दर्शनादौ मनसः करणस्य कर्तृत्वमुकं पक्षच्छिवाया परशोरिव आत्मनाए जीवादिफे द्रष्टुमिष्टे जिनवाक्ये, श्रोतुमिष्टे स्वपरहिवे च, बकुमिष्ट नियुज्यमानस्य मनसः कदाचिदप्रवृत्तिरेव दुष्टता स्वामिना भत्यस्य यथा निर्दिष्ट कर्मणि । लटुमेव विप्पणादि य आवेव विनश्यति प। एतेन वस्तुयायल्यमाहिणचित्तस्यानित्यत्वदोष उक्तः । दुःलो य दुखं अशक्यमित्यर्थः। पडिणिवत्तेदुज प्रतिनिवर्तयितुं वस्त्वन्य ३१५ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वासः ३१६ भूवरूपग्रहणे भूतरूपनिराकरणे च प्रवृत्तं मनस्ताभ्यो व्यावर्तयितुं न शक्यते रागादिसहचारित्वादिति भावः । गिरिसरिदसोदंव्व पर्वतनदीप्रवाह इव । अर्थ-अंधा, बहिरा और गूगके समान दुष्ट मनका स्वभाव है, किसी समयमें किसी प्रकारसे व किसी विषयमें आसक्त हुआ मन समीपस्थित भी दुसरे विषयको देखता नहीं है, सुनता नहीं और बोलता भी नहीं है. शंका-देखना, सुनना और बोलना इस क्रियाका कर्तृत्व नेत्र, कर्ण और जिह्वाके तरफ है. मन तो इन क्रियाओंका कर्ता नहीं है. वह सर्वदा भी किसी विषयको देखता नहीं है, सुनता नहीं है. और बोलता भी नहीं है. उत्तर-मन यद्यपि करण है तो भी उसमें कर्दताका आरोप किया है जैसे 'परशुश्च्छिनत्ति' कुन्हाट लकडी काटती है. यहां कुन्हाड छेदन क्रिया करने में देवदत्तको सहाय करती है अतः करण है. तोभी उसके तीक्ष्ण तादि गुणोंकी प्रशंसामें उसको कई पद मिला है. चैसे मनमें पदार्थोंको जाननेकी उत्कटता होनेसे इतर इंद्रियोंको उनके विषयमें वह सहाय्यता देता है तो भी उसमें कर्तृत्वका अध्यारोपण किया जाता है. अभिप्राय यह हैकि जीवादिक पदार्थ अवलोकनके योग्य है. जिनवचनादिक सुनने के योग्य है, स्वपराहेत करनेवाले वाक्य भी सुनने योग्य हैं परंतु इस मनकी उनमें कदाचित् प्रवृत्ति नहीं होती है, यह इसकी दुष्टता है, जैसे मालिकने किसी कार्यमें प्रेरा हुआ नोकर यदि उस कार्यको न करेगा तो उसको दुष्ट कहते हैं वसे मनभी आत्माने नियुक्त कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है अनः वह दुष्ट कहां जाना है. किसी कार्यमें संलग्न हुआ तो भी वह वहां स्थिर न होकर वहांसे शीघ्र हटता है अर्थात् वस्तुका यथार्थ स्वरूप ग्रहण करता हुआ भी उससे जल्दी हटता है. यह मन वस्तुका जो सत्य स्वरूप है उसको ग्रहण न कर असद्रूपको ग्रहण करता हैं, उसमेंसे उसको हटाना अतीव कष्टकर कार्य है अर्थात् मनको सदूषके ग्रहण कराने में असद्रूपसे हटाने में कोई प्रयत्न करेगा तो उसको बड़ा कष्ट होगा. जैसे पर्वतपरमे बहनेवाली नदीका प्रवाह हटाना अर्ताय दुष्कर है वैसे मन भी रागद्वेषादि विकारोंमे युक्त होनेपर उसको असन से हटाकर सत्र में प्रवृत्त करना बडा कठिन कार्य है. तत्तो दुखे पंथे पाडेदुं दुदओ जहा अस्सो । बीलणमच्छोव्व मणो णिग्धेत्तुं दुकरो धाणिदं ॥ १३६ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुलाराधना आधास: न प्रवर्तयितु मागे दुष्टो वाजीव शक्यते ॥ ग्रहीतुं शक्यते चेतो न मत्स्य इव वालनः॥ १३ ॥ विजयोदया-तत्तो तस्मात्प्रतिनियर्तनात् । दुपाने दुष्करे पंथे । पाडेदु मागें पातयितु किमिव । दुखो जहा यस्सो दुधोऽतिव्यालो यथैयाश्यः । पतेन तुष्करमार्गायपातित्वदोषः प्रकटितः । बीलणमच्छोव्व मसूणतरदेहमरस्य इस । धणि दुसरो णिप्रेतुं नितरां दुष्करं ग्रहीतुं मनः । एतेन दुरवग्रहता ण्यात्ता। मूलारा-तत्तो अशक्यप्रतिनिवर्सनत्यात् । दुक्खं दुःशक । पाडेदु नेतुं । बील यमच्छोब्ब ममृणतरदेहेमस्थ इव । णिग्येत्तुं ग्रहीतुं । धणि अत्यर्थए । अर्थ--यदि मनको अयोग्य विषयसे हटाया जाये तो जैसा दुष्ट अश्व दुःखदायक मार्गमे मनुष्यको गिराता है वेसे दाखदायक कुमार्गमें यह जीवको गिराता है. इस माथासे दुष्करमार्गाचपातित्व नामका मनका दोप प्रगट होता है. जिसका देह अतिशय स्निग्ध है ऐसा बीलण मत्स्य हायसे नहीं पकड सकते है वैसे यह मन भी ग्रहण करना दुष्कर कार्य है. इससे दुरवग्रहता नामका दोष मनमें रहता है यह आचार्यने दिखाया है. जरस य कदेण जीवा संसारमणतयं परिभमंति ।। भीमासुहगदिबहुल दुक्खसहस्साणि पायंता ॥ १३७|| यस्य दुःखसहस्राणि भजते वशवर्तिनः ॥ संसारसागरे घोरे चंभ्रम्यन्ने शरीरिणः ॥ १४०॥ विजयोदया-जस्ल य यस्य च । कदे करोति क्रियासामान्यवाची इद्द चेतावृत्तिर्गृहीतस्तेनायमर्थः यश मनसचेष्टितेन जीवाः संसार पंचविधं परावर्त परिश्रमन्ति । अणतगं अनंतप्रमाणावन्छिन । भीमासुहगदिबहुलं । भयाबहाशुभनरकादिगतिप्रचुर । दुसलहस्साणि शारीरागंतुकमामलस्वाभाधिकारयानि प्रत्येकमनकविकल्यानि । पावता मापनुवंतो जीवाः । पतेन चतुर्गतिपरावर्तमूलतादोषः प्रकटितः। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ३१८ मूलारा-कदैण ऐष्टितम । अर्थ- इस भनकी दुष्ट प्रवृत्तीसे जीत्रको पाच प्रकारके परिवर्तनसहित इस अनादि अनंत संसारमें शारीरिक, मानसिक और स्वाभाविक हजारो दुख सहन करने पड़ते हैं. यह संसार अशुभ नरकादिगतिओंसे भरा है. इसमें शारीरिक, मानसिक और स्वाभाविक दुःखोंके अनेक प्रकार इस जीवको प्राप्त होते हैं. अभिप्राय यह है कि, यह मनही चतुर्गतिमें भ्रमण करनेका मूल कारण है. लाही य नारिदमने सव्वे संसारकारया दोसा ॥ णासंति रागदोसादिया हु सज्जो माणुस्सस्स ।। १३८ ॥ संसारकारिणो दोषा रागद्वेपमदादयः॥ जीवानां यस्य रोधेन नश्यति क्षणमात्रतः॥१४१ ।। विजयोदया-जनि यसिश्च मनसि । पारिदमेस चारित पप । मात्रग्रहण वारणादाय निराफर्तुमुपातं । मनो निवारणादव । रागदोसादिया रागद्वैपादयः। णासंति खुनश्यत्वेष। सज्जो सद्यः तदानीमेव । संसारकारया परावतपंचकस्य संपादनोद्यताः । भूलारा वारिदगित्ते वारित एव । अर्थ ... इस मनको रोकने मात्रसेही पंच परावर्ननात्मक संसारकी उत्पत्ति करनेवाले राग, द्वेष, मोह वगैरह दोष तत्काल नष्ट होते हैं. RasasexTMadasreteratoTANE इय दुठ्यं मणं जो वारेदि पडिठ्वेदि य अकंपं ॥ सुहसंकप्पपयारं च कुणदि सज्झायसण्णिाहिदं ॥ १३९ ॥ तद्दष्टं मानसं येन निवार्याशुभवृत्तितः॥ प्रवृत्तशमसंकल्प स्वाध्याये क्रियते स्थिरम् ।।१४२ ॥ बिजयोदया-इय । एवं व्यावर्णितरूपेण । दुट्टयं दुएकं दुष्टं । मणे । मनो जो वारेदि यो निवारयति रागादिभ्यः । परिवेदि य प्रतिष्ठापयति च श्रद्धानपरिणामादी । अर्क निश्चलं । क्रियाविशेषामेतत् Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARSetokarested मूलाराधना तस्स सामगण होदि । वक्ष्यमाणेन संबंधः । सुभसंकप्पपयारं जो कुणदि तस्स सामणं दोदित्ति संबंधनीय । शुभः संकल्पः तस्मिन्प्रकृयश्वारो गमनं प्रवृत्तिर्यस्य मनसस्तच्छुभसंकल्पप्रचार मनो यः करोति । सज्झायसण्णिहिदं यजो कुणदि तस्स सामपणं इति संबंधः । सम्यगध्ययन स्याध्यायः द्रुतविलंबितादिदोषरहितत्वं अर्थव्यंजनशुद्धिश्च सध्यावं । स पुनः पंचप्रकारः वाचनाप्रश्ना-प्रक्षामायधर्मोपदेशभेदेन । प्रश्नस्य कथं स्वाध्यायता? प्रश्नो हि अंथेऽर्थे वा संशयच्छेदाय इत्यमेवैतविति निश्चितार्थवसाधानाय वा प्रच्छन। तहिं वरच्छायप्रद्दमर्थ या सोऽधीते अध्ययनमवृत्यर्थत्यात् । प्रोऽध्ययनक्यपदेशः इंद्रमतिमाथे दारुणि इन्यव्यपदेश इव । अथवा किमिदमे लियामिति । मर्यात श्व सविधान. । बसदेऽपि किमस्य वाक्यस्य पवस्य वायमर्थः इति । यद्वाप्यते पचं निधितवलाधानेऽथै प्रक्षे योज्यम् । . अनुप्रेक्षा कथं स्वाध्यायः ! अधिगतार्थस्य मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा अन्तर्जल्परूपमध्ययनमस्त्येष तापीति मन्यते । घोषपरिशुद्ध थुतं परावर्त्यमानं भाम्नाय स्वाध्यायो भवत्येव । आक्षेपणी, विक्षेपणी, संजनी, निर्वेदनी चेति कथाश्वतम्रस्तासामुपदेशो धर्मोपदेशः स च स्वाध्यायः एतस्मिन्स्वाध्याय सम्यक् निहितं निक्षिप्त मनो यः करोति इत्यर्थः। अन्नैवं पदघटना अध्याहतं कृस्था । इय दुठ्ठक मणो सो वारेदि अपं पडिहवेदि य जो मणं सुभसंकप्पपया रमेव कुणदि सज्झायसण्णिहिद काऊण इति । पर्व दुष्ट मनः स वारयति निश्चलं प्रतिष्टापयति वा । यो मनः शुभसंकल्प प्रचारमेव करोति । स्वाध्याये सन्निहितं कृत्वेति सूत्रार्थः । तस्येत्थंभूतस्य धामण्यं समानता वा भवति । एवं प्रबंधेन मनसो दुष्टता प्रकाश्य तददीष्टयकारिणः फलं गाथात्रयेणा मूलारा-परिवेदि श्रद्धानसंयमादौ प्रतिष्ठापयत्ति । सुहसंकप्पपयारं । शुभपरिणामप्रचारं । शुभसकस्पेष ईदादिभफिजीवदयादिपु प्रचारः प्रवृत्तिर्यस्य । अत्रार्य सूत्रार्थः । स्याये सम्या निक्षिप्तं कृत्वा यो मनः शुभप्रवृत्तिकमेव करोति स तथा दुष्टं चारयति निश्चलं प्रतिष्ठापयति चैतत्तस्यैव च समाहितादिगुण श्रामण्यं भवतीति सम्बन्धः । अर्थ--उपयुक्त दुष्ट प्रवृत्ति करनेवाले मनको जो रागादि विकारोंसे हटाता हुवा सम्यग्दर्शनादिपरिणा. मोमें हद स्थिर करता है उस मुनिको समता भाव प्राप्त होता है. जो मुनि अपने मनको शुभविचारोंमें प्रवृत्त करता है और स्वाध्यायमें तत्पर करता है उसको समताभावकी प्राप्ति होती है. विशेपार्थ-स्वाध्याय करते समय शाखकी पंक्तिया जल्दीसे अथवा अनिमदरीतीसे नहीं पढना चाहिये, अर्थशुद्धि और व्यंजन शुद्धिके तरफ ध्यान देना चाहिये. इस तरह जो-शास्त्र पहना वह स्याध्याय है. स्वाध्यायके वाचना Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूलाराधना आचांसः ३२० 689 Cam प्रश्न, अनुप्रेक्षा, आम्नाय. और धर्मोपदेश ऐसे पांच भेद है. प्रश्नको स्वाध्याय क्यों मानना चाहिये? ग्रंथ और अर्थमें संशयका नाश करनेकेलिये अथवा इस पदार्थका ऐमाही स्वरूप है अन्य नहीं है इत्यादि रूपसे जो स्वयं निश्चय किया होगा उसको पुष्धि लानेकलिये जो विहानाको पूछना नद मन है. पण स्वाध्याय करनेवाला यदृच्छासे जान लेता है अथवा अर्थका पठन करता है. प्रश्न करना भी स्वाध्याय ही है क्योंकि प्रश्न अध्ययनमें प्रवृत्ति करनेके लिये कारण है. जसे जिस काष्ठमे इंद्रकी मतिमा बनाना है उसको हम द्रव्यनिक्षेपसे इंद्रप्रतिमा कहते हैं, पैसे प्रश्न भी स्वाध्याय करनेमें जीवको प्रेरणा करेगा अतः उसको स्वाध्याय कहना कुछ अनुचित नहीं है. अथवा पढ़े हुए ग्रंथमें भी क्या यह शाख इस रीतीस 'पहना चाहिये ! अश्चवा अन्य प्रकारसे पहना चाहिय एसा यदि ग्रंथमें संशय उत्पन्न हुआ हो किंवा अर्थमे यदि संशय हो तो इस पदका अथवा इस वाक्यका क्या यह अर्थ है ? इस तरहसे पूछना यह प्रश्न स्वाध्यायको कारण होनेमे स्वाध्याय कहा जाता है. अथवा जो निश्चित किया है ऐसे अर्थमें और दृढता उत्पन्न करनेकेलिये जो प्रश्न किया जाता वह भी स्वाध्याय को कारण होनसे म्वाध्याय ही है. अनुप्रेक्षाको स्वाध्यायपना कैसा ? जाने हुवे पदार्थका मनक द्वारा बार वार चिनना करना अनुप्रेक्षा है. यह अन्नजेल्परूप होनेसे इसमें मी स्वाध्यायपना है ही. उकचारणसे शुद्ध, जो शास्त्रको बार चार घोकना उमको आम्नाय कहते हैं. यह भी स्वाध्याय है. आक्षपणी, विक्षपणी, संवेजनी. निवेजनी, एसी चार कथाओंका भव्याके सामने कथन करना धर्मोपदेश है यह भी स्वाध्याय है, ऐसे पांचो प्रकारके स्वाध्यायोंमें जिसने अपने मनको संलग्न किया है उसको श्रामण्यप्राप्ति होती है. अर्थात् अपने मनको जो साधु स्वाध्यायमें स्थिर करके रागद्वेषादिसे उसको हटाता है. शुभसंकल्पोंमें स्थिर करता है उसकोही श्रामण्य प्राप्ति है. ऐसा इस गाथाका अभिप्राय जानना चाहिये, 900- ३३० जो बिय विणिप्पडतं मण णियत्तेदि सह विचारेण ॥ णिग्गहदी व मणं जो करेदि अदिलब्भियं च मणं ॥ १४ ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ३२१ OTHEREBRARIAter TANSENTERST अभितो धाचमानं सद्विचारेण निवर्त्यते ।। निगृह क्रियते चित्तं दुर्थत्त इव लज्जितम् ॥ १४३ ॥ विजयोदया-जो वि य यथापि । विणिप्पडतं वि शम्मो नानार्थः निर् इत्युपसर्गो बहिर्भारे पडिर्गमनार्थः । सतोऽयमर्थोऽस्य पदस्य विचित्र वाहिर्निर्गच्छन्निवर्तयेदिति । ननु च सत्यभ्यंतरे कस्मिचित्तदपेक्षो भवति यहि षस्ततः किम् अभ्यंतरमिड गृहीत रामवर्य, कथमस्याभ्यंतरता? आत्मनो निजस्वरूपमिति । रायकोपादयस्तु चारित्रमोहोदयशा भावाः परिणामा बाबा मिथ्यात्वयायादिमेवेन विचित्रास्तदभिमुखतया प्रवृत्तेः । णियत्तेदि सब विचारेण जो इति शेषः । " कोऽसौ विचारः ? उच्यते-- तत्याथद्धान, इयं च हिंसादिपरिणतिर वा कोधादिको भाचोमया परिणामि कारणभूतेन निर्धय॑मानो जातिजरामरणपरिणामरूपानंतसंसारकारणानां कर्मणां मूलोत्तरप्रकृतिभेदेन संख्यातासंख्या. तविकल्पानां, स्थितिविशेषमात्मप्रदेशष्यवस्थानरूप, तीवमध्यममंदरूपाश्रद्धानासंयमकपायपरिणामनिवर्तनसामर्थ्यममनुभवाम्य च निर्वतयति ।तानि चात्मप्रदेशस्थान्यनंतप्रदेशेषु पुलस्कंधद्रव्याणि सन्निहितद्रव्यक्षेत्रकालभवभावसहायापेक्षया पुनरपि, मिथ्यात्वादिपरिणाममापादयन्ति । न हि सन्निहिताविकलकारणसमूहस्य अनुत्पत्तिर्नाम संभाव्यते । तेन चाश्रद्धानादिपारणामेन तथैव कर्मणामादानं. आत्तानां स्थितिः, सामातिशयः इत्यादिका परंपरता। तयानंतकालपरि भ्रमणमित महरनयमन गोवियोग, एरोन विधारण मनो निवर्तयति यस्तस्य श्रामण्यमिति संबंधः । पिरगदादि य मणं जो यो मनो निगृहात हा दुई चिंतितमिदमिति निंदागाभ्यां तस्य धामण्यमिति संबंधः । करेदि अदिलज्जियं च मणं, करोत्यतीच लज्जापरं यो मनः । कथं संसारमदितं तत्कारणभूनान्परिणामान्मुक्ति तदुपायांध भावानधिगच्छतः श्रद्धानस्य तत्परिणामव्यपोहनामवं गृहीतनिग्रंथलिंगस्य चिंतेयमयुकेति, निरूपयत्ति, अतिमीडां मनसो जनयति । एवं बहिरंगयोगेन समाधिमिद्धिमनुशिष्यांतरंगयोगेन तामनुशास्ति मूलारा--विणिप्पड विनिष्पतत् विनाशार्थे, नि बहिर्भावे प्रतिर्गमने । रत्नत्रयात्प्रत्युत्य विचित्रेषु शुद्धचिट्ठ पादहिभूतेषु रागादिषु गच्छदित्यर्थः। सह विचारेण, वर्तमान इति शेषः । अयं मिध्यात्वादिदुर्विपाककर्मणां कारणं, तानि च दुरंतसंसारदुःखफळानि, ततोऽस्मानिवृत्ति, श्रेयसीत्येवं मायो विमर्शश्चात्र विचारः। गिहिदि हा दुष्टं चिंतितं इति निंदागर्दाभ्यो निगृहादि । अनशनादिदुष्करतपोऽनुष्ठानद्वारेण क्षपितदुर्विकल्पशक्तिकं करोति वा । अदिलजिदं एवं गृहितलिंगरय मम कथमीटचिंता करोषीति निरूपणेनाविमान्न लज्जा नीतम् । अर्थ-जो मुनि अनेक प्रफारसे बाहर धुमनेवाले मनको विचारोंके द्वारा आत्मामें लगाता है, जो साधु अपनी I ONSERICA ३२१ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ३२२ निंदा और गर्दा करके मनका निग्रह करता है और उसको लज्जित करता है उसको ही श्रामण्यकी सिद्धि होती है. विशेषार्थ -- वीणप्पतं इस शब्दका अर्थ इसप्रकार है. वि शब्दका नाना, अनेक ऐसा अर्थ है. निस् यह उपसर्ग है. 'बाहर' बाह्य यह निम् उपसर्गका अर्थ है. ' पढि ' धातु गमन करना इस अर्थका बाधक है. विणिप्प इस पद का समुच्चयार्थ 'नाना प्रकारसे बाहर जानेवाले मनको वापिस आरमामें लौटाना चाहिये' यह हैं. शंका- यदि अभ्यंतर कोई चीज हो तो उसकी अपेक्षा बाह्य पदार्थकी सिद्धि होगी. यहां अभ्यंतर चीज कोनसी है ? उत्तर - यहां रत्नत्रयको अभ्यंतर वस्तु कहते हैं, इसको अभ्यंतर वस्तु क्यों कर कहना चाहिये ? उत्तर - यह रत्नत्रय आत्माका स्वरूप है अतः इसको अभ्यंतर कहना चाहिये. रागद्वेषादिक विकार चारित्र मोहके उदयसे होते हैं अतः वास्तु है, मिथ्यात्व काय वगैरह भेदोंसे राग द्वेषादिकों में विचित्रता आती है। इन विकारोंके तरफ मनकी मवृत्ति हुई हो तो उसको वहां से हटाकर आत्मामें प्रवृत्त करना चाहिये. जिनके साहाय्य से मनको आत्माभिमुख कर सकते हैं ऐसे विचार कोनसे हैं इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार हैमैं यदि श्रद्धान करूं, यदि हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना इत्यादि पापरूप परिणति मेरे में हो जावेगी, यदि क्रोध, मान, मायादिक मेरे में उत्पन्न होंगे तो चार प्रकारके कर्मबंध उत्पन्न होंगे, जन्मजरामरणरूप अनंतसंसार के कारणभृत कर्मो का प्रकृतिबंध मेरे आत्मप्रदेशों में होगा. इस कर्मके मूल प्रकृतिभेद आठ हैं, उत्तर प्रकृतिभेद संख्यात असंख्याती होते हैं. कर्म आत्मामें आकर स्थिर होना स्थिति बंध है. अश्रद्धान, असंयम, कपराय इत्यादि परिणामों में तीव्रता, मध्यमता, मंदता, उत्पन्न करनेवाला जो कर्मका सामर्थ्य उसको अनुभवबंध कहते हैं. अश्रद्धानादि परिणामोसे चार प्रकारके कर्मबंध जीवमें होंगे. आत्माके समस्त प्रदेशों में अनंतानंत प्रदेशयुक्त पुइलस्कंधरूप यह कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावका साहाय्य प्राप्तकर नवीन मिध्यात्व, असंयम, कपायादि परिणामोको उत्पन्न करते हैं. जिसके समस्त कारण इकट्ठे होते हैं वह कार्य अवश्य होता है. इस न्यायसे कर्मको द्रव्य, क्षेत्र, कालादि सामग्री मिलनेपर वह मिध्यात्वादि परिणामोंका अवश्य उत्पन्न करेगा ही. अश्रद्धानादि परिणामोसे जीव कर्मका स्वीकार करता है. स्वीकृत कर्म आत्मामें स्थिर होता है, और अपना प्रभाव दिखाता है. फिर नवीन कर्मबंध होनेसे जीवको अनंतकालतक संसारमें भ्रमण करना पडेगा यह वडा भारी अनर्थ होगा. इस विचारसे जो मनको वाह्य मिथ्यात्वादि परिणामोसे हटाकर आत्मामें स्थिर करेगा उसको ही मुनिपनाकी सच्ची प्राप्ति होती है. आश्वास २ ३२२ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मूलाराधना आश्वासः ३२३ हाय ' मैंने मनमें दुष्ट विचार किये हैं। ऐसा बोलकर जो अपनी निंदा और गर्दा करता है उसको श्रामण्यसिद्धि होती है. जो मनको लज्जित करता है उसको भी श्रामण्यलाभ होता है " हे मन अकल्याण करनेवाले संसारको, उसको बहानेमें कारणभूत रागद्वेषादि परिणामाको, मुक्ति और उसके उपायोंको तूं जानता है. अद्धान करता है, अश्रद्धानादि परिणामोंका नाश करने के लिय ही तूने निग्रंथ लिंग धारण किया है इसलिये उलटे विचार रखना क्या तरेको योग्य दीखता है' इस विधि से जो मनको लज्जित करता है उसको समताकी प्राप्ति होती है. दास व मणं अवसं सघसं जो कुणदि तस्स सामण्णं ॥ होदि समाहिदमविसोत्तियं च जिणसासणाणुगदं ॥ १४१ ॥ अवशं क्रियते वश्यं येन दास इव चतम् ।। श्रामण्यं निश्चलं तस्य सर्वदाप्यवतिष्ठते ॥ १४४ ॥ इति समाधिसूत्रम्। विजयोदया-अवसं दासं व मणं सबसं जो कुणदि इनि पदसंबंधः । दास व चेटीपुर्व अवशतिनं पधा कश्चिदलास्ववदा करीन्यवमधीन जिनवचन आत्मनो मनी निरयनहतया प्रवृत्तं अशुभपरिणामयसरे यदि नाम नथापि - यलात्तशिस्याभिमताभभावपरंपरानुक्कलतया यः स्थापयति जैनमतामृतास्वादकारितत्सामातिधान्यस्तस्य सामाणं समानता होदि भवति । समाहिद एकमुखे । अविसोत्तिगं दुरापस्तविश्वरूपाशुभपरिणामप्रवाई । जिणसासणाणुगदं संपारितद्रव्यभावकर्मकरपराभवानां यच्छासनं-शिष्यंत जीवादयः पदार्था अनेनास्सिन्चेति शासनं बागमस्तेगानुगतम् । मूलारा--समाहिद एकमुखं शुद्धस्वचिद्रुषमात्रालम्बनमित्यर्थः । अविसोत्तिगं निवृत्तपापानवपरिणाम ।। समाधिः । सूत्रतः ५। अंकतः । १० ॥ अर्थ--जसे कोई समर्थ मनुष्य उन्मत्त नोकरको बलात्कारस अपने आधीन रखता है जैसे जिनागमका जिसने अभ्यास किया है ऐसा यति भी स्वच्छंदी होकर अशुभपरिणामोंक प्रबाहमें पडे हुए पनकी निंदा, निर्भत्सना कर बलात्कारसे अपने वश रखता है. इष्ट ऐसे शुभ परिणामोंमें उसको स्थिर करता है. यतिको जनमतामृतका आस्वादन करनेसे ही मनको वश करनेका विशिष्ट सामर्थ्य प्राप्त होता है. इसकी प्राप्ति होनेसे समानताका लाभ भ्रनिको Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ३२३ होता है. जिनाममके अभ्याससे मनकी इष्ट विषयमें एकाग्रता होकर अशुभ परिणामसे व्यावृत्ति होती है. अर्थात अशुभएरिणामकी उत्पति गमें नहीं होती है जिन्होंने द्रव्यकम ज्ञानावरणादि और भावकर्म-रागद्वेषादिकोंका पराभव किया है ऐसे जिनेश्वरके आगमका ही वह मन हमेशा अनुगामी बनता है. जीवादिक पदार्थोंका जिसमें अथवा जिसके द्वारा उपदेश किया जाता है उसको शासन कहते हैं. जिनेश्वरने जीवादि पदार्थों का उपदेश करने वाला शासन-आगम भव्य जीवोंके हितार्थ कहा है. इस आगमका अभ्यास कर मुनिवर्य अपने अवश मनको वशकर समताकी-रागद्वेषके अभावकी माप्ति कर लेते हैं, योग्यस्य गृहीतमुफ्त्युपायलिंगस्य श्रुतशिक्षापरस पंचविधविनयवृत्तेः स्वचशीकृतमनकाः अनियतधासो युक्तः। कस्त गुणः ? इत्यारेकायां समाधिगतस्य अनिय तषिहारगुणप्रकाटनार्थ उत्तरसूर्य दसणसोधी ठिदिकरणभावणा अदिसयत्तकुसलत्तं ।। खेत्तपरिमग्गणावि य अणियवासे गुणा होति ॥ १४२ ॥ दृष्टिशद्धिस्थिरीकारौ भावना शास्त्रकौशलम् ।। क्षेत्रस्य मार्गणा साधोर्गुणा नित्यविहारिणः ॥ १४५ ।। विजयोपया-वसणसोधी दर्शनशुद्धिः । रशिर प्रेक्षणे इति पठितोऽपि धातुः श्रद्धानार्थवृत्तिरिह गृहीतः । धातूनामनेकार्थत्वात् । तथा च सूत्र- 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' इति जिनागमनिरूपितार्धयिषयश्रद्धानमिह दर्शनरावेन भण्यते । तस्य शुद्धिनमल्यं । ठिविकरण स्थितिकरण रत्नत्रयपरिणामस्यात्मनोऽनपायपरिणामः | तस्य करणं स्थितिकरणं । भावणा भावना अभ्यासः पुनर्वृत्तिः । अदिसयत्तकुसलत्तं अतिशयितवर्थेषु निपुणता । घेत्तपरि मम्गणा विय क्षयंति निवसंति तस्मिन्निति क्षेत्र प्रामनगरादिकं क्षेत्र : तस्य अन्धेपणा च । अनियतस्थानयसने गुणा होति भवति । अथैवं स्यवंशीकृतमनसो गुनेरनियतविहारो दर्शनविशुद्धि इत्यादि गुणपंचककारकत्वेन युक्त इति द्वादशभिर्गायाभिः प्रकाशयति--- मूलारा--भावणा-परिषद्सहून । अणियदवासे अनियतस्थानरसने । ३२४ ARATHI Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - a n - . . . धूलाराधना आश्वासः जो समाधिमरणकेलिये योग्य है, जिसने मुक्तिके उपायभूत ऐसे लिंगको धारण किया है. जो शाखाध्ययन करनेमें तत्पर है। पांचों प्रकारका विनय करनेवाले, अपने मनको वश रखनेवाले ऐसे मुनिओके लिये ग्राम नगरादिक अनियत क्षेत्र में निवास करना योग्य है, अनियत क्षेत्रमें निवास करनेसे कोनसे गुणोंकी प्राप्ति होती है. ! ऐसी शंका होनपर समाधिको प्राप्त अर्थात् मनकी एकाग्रताको धारण किये हुए मुनीश्वरके अनियत विहारके गुण आगेकी गाथामें आचार्य दिखाते हैं. अर्थ- अनियत स्थानमें निवास करनेसे मुनिऑको जिन गुणोंकी प्राप्ति होती है उसका खुलासा-मुनिओं के सम्यग्दर्शनमें निर्मलता प्राप्त होती है. अर्थात् जिनागममें कहे हुए जीवादि सप्त तत्वॉपर निर्मल श्रद्धान उत्पन्न होता है. स्थितिकरण- मुनिओके रत्नत्रय परिणाममें स्थिरता आती है. वह किसीसे बाधित नहीं होता है. अनियत वाससे पुनः पुनः रत्नत्रयमें अभ्यास होता है-प्रवृत्ति होती है. जीवादिक पदाथोंके सूक्ष्म अर्थका प्रतिपादन करनम चतुरता आती है, अनियत वास करनेसे कोनसा क्षेत्र अर्थात् ग्रामनगरादि समाधिमरण करने के लिये योग्य है इसका भी ज्ञान होता है, अर्थात् दर्शनादि, स्थितिकरण, भावना, अतिशयार्थ कुशलता और क्षेत्रपरिमागणा इतने गुणोंकी प्राप्ति अनियत वासस होती है ।। १४३ ।। ---- ---- - दसणसुद्धी इत्येतत्पदन्याख्यानकारिणी गाथा जम्मणअभिणिक्खवणं णाणुप्पत्ती य तित्थणिसहीओ ॥ पासंतस्स जिणाणं सुविसुध्दं दसणं होदि ॥ १४३ ॥ विशुद्ध दर्शनं साधोर्जायते पश्यतोऽहताम् ॥ जन्मनिष्क्रमणज्ञानतीर्थचिहनिषिद्धिकाः ॥ १४६॥ विजयोदया-जम्मण जन्माभिनवशरीर ग्रहणं तस्मिन्प्रेष जातं तदिह साहचर्याजन्मशब्देनोच्यते । गृहीतशरीरस्य वात्मनो जन्म, जनयुदराात्र निष्क्रमणे जातं तद्वा । थभिणिक्यबणे रत्नत्रयाभिमुरण्येन गृहाइलिममनं यस्मिन्क्षेत्रे तविह निफमाण । णाणुप्पत्ती य केयलशानायरणक्षयात् सार्थयाथात्म्यग्रहणक्षम यकवलं तदिह शानमिति गृहीतं । सामान्यशदानामपि विशेषवृतिः प्रतीतैव । तस्य शानस्योत्पत्तिर्यस्मिन् क्षेत्र तदिह साइ. चर्यात् णाणुप्यत्ती य शब्देनोच्यते । तित्थं चिण्ई । तीर्थमिह समवसरणं गृह्यते । तरंति तस्मिन्भन्याः पापवि. ३२५ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलाराधना आश्वास नाशार्थिनः इति । तस्य चिद्वनया स्थिता मानस्तंमाः । णिसिहीबो निषिधीयोगिवृत्तिर्यस्यां भूमी सा निविधी इत्युच्यते । एतज्जम्मादिस्थान श्रुतेन प्रागवगतं । पासंतस्स पश्यतः । फस्स जिणाणं जिनानां सुचिसुदं सुप्छु विशुद्धं । देसणं अदान । होदि भवति । एतदुक्तं भवति देशांतरातिथिः जिनानां जन्मादिस्थानदर्शनान्महती अद्धोत्पद्यते । यथा कांचियावय॑मानरूपां बिलासिनी परोक्षामगवत्य परस्य वचनेन जाताभिलापस्तस्यां दर्शनपथमुपजातायां श्रद्धातिशया जायते इति । २. या मेम साया तथा अनियतविहारो यतिर्जिनानां शानघयचारिणां अवाप्तस्वर्गावतरणपूजातिशयानां जन्माभिरेककल्याणं भुवनभवनांतीनतमोवितानापनयनोद्यत, सुधापानमिय सकलमायाभृवारोग्यविधायि, सुरविलासिनीनर्तनमिव सकलजगदानंददाथि, प्रियचवनमिव मनःप्रसादकारि, पुण्यकर्मय अगण्यपुण्यचितरणप्रवीण, लक्ष्मीपरिचारिकाभिःसाधय ससंभ्रम ईक्षित, गुह्य कामरप्रकीर्णानेकसुरभिप्रस्नकरणमंधानुभ्रममरकृतकोलाहलं । अनारतमहतमंगलभेरीमंभावनिभरितभुवन विचरं, सुरवधूनर्तनजिगीषयेय सौधशिखररंगनन्य. त्पत्पग्रपंचवर्णपताफाविलासिनी, हरिविएरप्रचलनोपनीतसाध्यसनवमरवल्लभारभसकंउद्दप्रीतिविकासिमुखशतमसुलं, संभ्रमोन्धितकृतांजलिपुटसुरपरिवारसादराकर्ण्यमानवजदार्श, भेर्याध्वानाइतपुरुङ्कतप्रमुखसकलगीर्वाणच, परस्परसंघर्पगृहीतोत्तरवक्रियिकदेवपृतनाव्याप्तपवनपथदेश, जम्माभिषेकसमयप्रयाणसपादनायातपौलोमीनपुरध्वानचकितई सीषिलासविराजमानराजमंदिरांगणं, ऐरावतावतीर्णप्रसारितवनिवज्रघन भुजागेलं, मुरकरप्रहारप्रसरदुंदुमिमेरीध्यानसम्मिश्रसिंहनादवधिरितविशालाशामुख, महतानेकपयाकपटहगमीरधीगराचे, असकलशशिकरावदातचमररुहविक्षेपदक्षवलमिनिरुबजिनावलोकनव्यग्रसुराग्रमहिषीक, ध्वेतातपत्रजलधर घटावरुद्धनमोभइल. विद्युदायमानपताकाकुल, इन्द्रनीलमयसोपानमयायिसुगतन, सुरगजरदनजरोनटिनरंगशोभाविधायिनतासलीलपदन्यास, गृहीताटमंगल देवीसहस्रपुरोयान, देवप्रतादादापसार्यमापनद्राभर गम्, आम्मरक्षदेवसनसंपाद्यमान क्षाविधान, नर्ननगग्राद्भुतविग्रहानेसरभून, प्रश्निांकनमगचलं, पारुदसर्गगरिशिखगयमाणसिंहामान, तहेवकुमारपांगगनातक्षीरवारिधिजाटारताभिषेक, पीलोमीरचिनवादानुरूपमडन. स्तवब्यानवेनालिकसहन, सुगधिपरचित जन्मोत्सववर्तन, जन्माभिककल्याणं पश्यति तस्य पम्पती। अमिनियमांग वा जिनानामहक तदिति वपर्यत । सर्व धव जिनाः समधिगतोडीरितजन्मानियककल्याणाः, शतमखासनस्थसादरघनदापनीयमानदिव्योचितांगरागवसनभोजनवाहनालंकारसंपत्संदोहाः, मनोनुकलक्रीडासंपादनचनुरदेवकुमारपरिवारा, फेचिन्पुरातनपुण्यपरिपाकोदयाचलोद्तविराजमानारकसहस्रचक्ररविसाहाय्ये, अमयेमुतविक्रमेण चशीभूताशेषमागधनमाजादिदेव, विद्याधरभूमिपालसंता , सुरकुमारीरूपयौवनविभ्रमापहसनचतुरानेकद्वात्रि शदेवीसहस्राननारविंदविकसनोद्यताः, पाकशासनप्रहितनर्तिकानृत्तावलोकनविनोदाः, सादराकर्णित किन्नरादिदेवगांधर्वगीताः, कालमहाकालादिनचनिधिमभवः, प्रत्येकदेवसदनपरिपाल्यमानचादिचतुर्दशरत्नानुयाताः, द्वात्रिंशत्सहस्रमुफुटबद्भशातकुंभवादितमौलितटसकरिकास्थितरत्नमदीपालीप्रकरणानचरतमय॑मानपादपीठार, देवकुमारोपनीयमानोपायन Auram ३२६ hti ... .. Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना STERBARI आश्वास: ३२७ विलोकनैफन्यनाः, मनुजभोगानेसरं सुखमखदेनानुभवन्ति । अपरेऽपि मंडलीकमहामंडलीकपदमुपगताः। पुनस्तीर्थकरनामकर्मोदयात् चारित्रमोहक्षयोपशमप्रकर्यादनमतादनादिकालाचलग्नस्थपरकर्मरजोविननावबद्धकक्ष्या इत्थमन्तः प्रतिवधति । कथं मोहस्य बलवत्ता येनास्मानध्यध्यक्षीक्रियमाणदुरंतसंसारसारदाधिपतिभयददःखापान प्रवर्तयत्यारंमपरिग्रहयो । अणिमाद्यएगुणसंपत्कं, अपदमापदां, अभिलारस्याप्यविषयम, अपरामरामा कुशाग्रीयवदीनामपि बलभिदामगोचर, यससार प्रत्यूह, अपराधीनं, अनारवादितान्यनतारसं, अहमिंद्रसुसं चिरतरमनुभनन नामस्माकं केयमुत्कंठा मनुजमोगसंपत्रि, खलजनमैत्रीय विचित्रदुःसानुबंधविधानोयनायां चलायर्या च पुण्यसांगतिवि परायत्तवृत्ती, कुकविक्रांतरियालपार्थसंग्रहार्या, दुरभव्यस्य मुक्तिपदवीगतिरिव अनेकप्रत्यूहप्रतिहतार्या अनंतकाल. परिमुक्तार्या इति । तदैव च ब्रह्मलोकातायासादधिगतलौकान्तिकश्यपदेशाः, शस्त्रावदाततनवः, स्वावधिज्ञानलोचनेनापलोक्य स्वपरोत्तारणाबद्धपरिकरतां जिनानां महदिदं फाय अनेकभव्यानुग्रहकर भगवता प्रारब्धं, अस्माभिरपि पतदनुर्मतव्यं । पूज्य पूजायनिक्रम स्वार्थभ्रंशकारीति सुरपथादवतीय स्वामिनः पुरस्तात्सबहुमानमयस्थिता एवं विज्ञापयंति- भट्टारका ! उचित पवायमुद्योगो भवतां कल्पमाहीरुहा इव प्रत्युपकारनिरपेक्षा, जगदनुग्रहकारिणो मदान्तः, मिथ्यात्वतिमिरावगुंठितज्ञानलोचनतया विनेयजनराशिरुपत्थप्रस्थानोऽसकृत्कुमतिपतंपतितो निःसर्तुभभिलयापि असमर्थः किश्यति । स च भवत्या यतहसमीचीनपिरज्वाचकरः युष्मदुपदर्शितातिश्गुणविशालमुक्तिमार्गढकनादनंतशानात्मकेन सुखेन सुखी भवयित्यभिधाय गतेषु सारस्वतादिपु । जिननिदसमीरणांदोलितहरिपिटरो हरिः मणिधानमयतितावधिलोचनाधिगतगुरुप्रारभ्यमाणकार्यः, सिंहास नतः ससंभ्रममुस्थाय, स्वामिसमवस्थितदिगभिमुखं गत्या सप्तपदमा, ललाटतटविन्यस्सेन प्रबुज्नलिनवलन्छायापद्वासिना अंकुशकुलिशादिलक्षणोद्भासिना, दक्षिणेन करेणालंकृतमौलिरत्नप्रभादंतुरमवनम्य शिरः सलीलं नमः सद्धर्मतीर्थप्रवर्तनोय. तेभ्यः शरणागतबिनेयत्राणकारिभ्योऽलौकिकनयनेभ्यो जिनेभ्य इत्यभिधाप, पुरो धावनेरीध्यानादिभिटिति विदितका. येण, समुदितावनतेन, स्वनायकपुरोयायिना, चिचित्रातपयशरचनविभूषवाहनोपलेन गीर्वाणयफ्रेणानुगम्यमानः सौधर्मः सह नरामरेन्द्रः, चमरसडहरिविष्टरज्वेतातपत्रादिपरमेश्वरलांछनमखिलमपहाय प्रसीहारनिवोदितागमनस्तदाशयाश धर्मचक्रलांछनांतिकमवाप्य सबहुमानप्रणाममारमत स्म । ततो जिनात्सादरावलोकनप्रसादमात्मोचितमुपलभ्य विज्ञापनं करोति । समालोकयायमाशतोऽच्युताधिपपुरःसरः शकलोको भट्टारकाणां परिनिष्क्रमपरिचयोमुपपादयितुमना अयगतमुक्तिमार्गाज्ययं स्वाचीतक्षानात्मकानंतसुखानुभवलंग. टोऽपि, अवधीरितद्रियसुखग्वेदोऽपि, अपरिप्राप्तसंयमधासिकर्मक्षयोपशमः, न चारित्रं प्रवर्तते, न परान्प्रवर्तयितुमाहते। १ मोहस्य महत्ता इति पाठःख पुस्तके ।' Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलांराधना ३२८ सुविशुद्धज्ञानदर्शनोऽपि विना समीचीनं चारित्रं तपश्च कर्माणि निरवशेषं क्षपयितुं घटते अनेक समुद्रगणनायु:स्थितित संसारी वनकोऽसवादि क्रिश्यति । उत्थातुमभिलपि दारको यथा पतत्येवमपि जनश्वारिया भिलाप्यपि तदुमसमर्थस्तिष्ठति । यूयं पुनर्विदितवेदितव्याः क्षयोपशमपरिप्राप्तिनिवृत्ति परिणामाः पूज्यतमाः । जन्मांरेमी वीतरागता सफलारंभपरमपरित्यागाद्योग्य विनेयजनोपकार शक्तिश भवत्प्रसादारस्यानुमननाच भवतु । सजीकृतमिदं विमानं धानीतमलंकरोतु देवः इत्युपरतवचसि सुराधिपे हर्षविपात्रपरवशं शातिवर्ग अंतःपुराणि परिवारं चावलोक्यं कृपया जिना । चिरवासादल्पकोपकारापेक्षया अनस्यानुरागो भवति । तदनुसारी कोपस्ताभ्यां दुरंतकमोदानं ततो भवति ममेदभावः सर्वदुःखानां मूलमपनेतुमर्हति विद्वान् । न हि कस्यचित्किचिन्मित्र, धनं, शरीरं वानपाय्यस्ति । पात्रेसमिताद्विबंधन, परिवारा, घनं च पुनरर्जने विनाशे च महतीमानयति दुःखासिकां । तदार्थेभिरन्यैश्व सह विरोधं कारयति । तृष्णां प्रकर्षतीमादधाति लवणजलपीतमिव । वामलोचनाः पुनः सुरा इयं चि मोडयन्ति । व्यलीकरोदनदसनेन चाटुभित्र पुंसामल्प सत्यानां चेतः स्वत्रवशीकुर्वेति । धर्ममयपुत्रिकासु चपलासु, सभ्याम्बुदावलीवास्थिररांगा, मायाजननीषु, मृषचोरीनायिकासु, सुगतिषजरार्गलयष्टिषु कोऽनुरागः प्रज्ञावताम् ? शरीरं पुनरिदमनका शुम्विनिधानं, कवारपुंजरमाणभूतामनपायी भारः । महारोगनागानां वक्ष्मीकीभूतं जराव्याधीनिवास पिलं, नेत्रं खंडचमवेष्ठितलोष्टषदन्तर्निः सारं पर्मिनोहरं गुणा पुनरने एक एवं धर्मसहायता । गिरिनदीस्रोतांसीवानवस्थितानि यौवनानि । तृणासिज्याला इस संपदः क्षणमा दना । इत्यमवगभ्य मा कृथा वृथा प्रमोदं जननंरत्नाकरपारगमनाय कुरुतोद्योगं । मर्चणीयोऽस्माभिः प्रमादात्कृतोपराध शते । भगवद्भारतीसमनंतरं सुरकुमारकर प्रद्दताः समंततो दुंदुभयो ध्वनंति । सकलं च जगद्रिप्रमुख जयध्व निमुखरं जायते । समंतात्पुरतरुण्यः सविलासं नृत्तमारभते । जगन्नाथाश्च त्रिलोकभूपणा धबलकूलपरिधानाः पर मशुक्ललेश्यथा निर्वृतिसंफल्येव मुक्तार्कटिकाव्याजेनोपगतपालंकृतग्रीवः विरागाणामपि मुखरागकरणे पाटवं नः पश्यनेति दर्शयामिव कुंडलाभ्यां विराजमान पूर्णमण गंडस्थलाः । वृत्तं प्रिये येषां चेनोसर इतीवोपचंतेन कटका कोष्ठाः । यत्रामीणामतिशयरत्नाभिमानाः तत्पश्यामः स्थित्वोवेरितीवोसमांगरुपेन मुकुदरत्नकलापेन शोभमानः निर्वाणपुरगोपुर भिव विमानं प्रावेशन्ति । ततः शतमुग्नयुग्मबाद्दस्कंधोत्क्षिसेन सदेवीकचतुर्निकायाम र सप्तानीकपरिवृत्तेन गत्या अवतीर्य रम्यतमे देशे उमराभिमुखाः कृतसिद्ध नमस्कृतयः मुकुटादिकं क्रमेण अलंकारादिकं अपनयन्ति । परित्यक्तोभयसकलग्रंथाः परिगृण्हन्ति योगत्रयेण रत्नत्रयमित्थंभूतं परिनिष्कमणं पश्यतः । णायति शानोत्पत्तिशी येतऽवयुध्यते सकलमर्थयाथात्म्यमनेनेति ज्ञानं इति केवलमुच्यते । तस्योत्पत्तिरनारितमोहनीयभाराणां योगघांसराधीश्वरर्निर्मूलित ज्ञानर गावरणतमसां उत्थातान्तरायविपचिटपिनां धीतकसम. अवासः २ ३२८ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः नपक्षिनकरणचटमत्यस्तसंशीतिक, दूर्गकृतयिषयांसं केवलमुत्पत्यते । तस्य फलस्य दर्शनाजिनप्रीत माग अपनीतशंकादिकलंगा श्रद्धोत्पद्यते । फलार्थी तवत्स रोचते दृष्टसामर्थ्य इति किं चित्रम? देशांतरातियः साधोः कथं दर्शनशुद्धिः स्यादित्याशंका निराकरोति __ मृला--जम्मण, जन्म अभिनय रहाणे, जरन्युवराजमणं वा यत्र क्षेत्रे जातं सदा जन्मशब्देनोच्यते गाचर्यान | उत्तरत्राप्ययमेव न्यायो योज्यः । अहिणिखमणे रत्नत्रयाभिमुख्यन गृहाइदिगान वा यरिभग क्षेत्र नत् । म त ति मिनभव्याः पापनाशाचिन इनितीर्थमिह समवसरणं । जम्मणणिकग्यमणेणाणोपत्तो तित्यचि सि कनपाठः । नत्र तीर्थस्य स गवसरणस्य चिन्हानि मानस्तंभा गृह्यन्ते । णिसिंधी योगबृत्तिस्यां भूमी सा निसिधीयुमयने । दर्शनशुद्धि गणका वर्णन करनेवाली गाथा अर्थ-अनियत स्थानों में विहार करनेवाले मुनिओंके सम्यग्दर्शन में तीर्थकराके जन्मादि स्थानोंका दर्शन होनेसे निमलता प्राप्त होती हैं. - जन्म--नबीन शरीर ग्रहण करना. जिस क्षेत्रमें जन्म होता है उसको भी साहचर्यसे जन्म कहते हैं. अथवा जिसने नबीन शरीर धारण किया है ऐसा आत्माभी जन्म शब्दसे वर्णित होता है. अथवा माताके उदरसे बाहर आनेकी क्रिया जिस स्थानपर हो वह स्थान भी जन्म शब्दसे गृहीत करना चाहिये. अर्थात् जिस क्षेत्रपर जिनेश्वरका जन्म हुआ है ऐसे क्षेत्रोंको जन्मक्षेत्र कहने हैं. अभिनिष्क्रमण-रत्नत्रयके अभिमुख होकर गृहका न्याग कर जिस स्थानपर तीर्थकर गमन करते हैं उस स्थानको अभिनिष्क्रमण कहत है. ज्ञान--केवलज्ञानावरण कर्मके क्षयरे संपूर्ण पदाधोंका यथार्थ रूप जाननेवाला. कंवलज्ञान यहां ज्ञान शब्दका बाच्य है. सामान्य शब्दभी प्रकरणके अनुसार त्रिपार्थको जतलाते हैं. अतः यहां ज्ञानशब्दसे केवल ज्ञान समझना चाहिये. केवलज्ञानावरणीय कमक क्षयमे संपूर्ण पदार्थोंका यथार्थस्वरूप ग्रहण करनेवाला जो ज्ञान उत्पन्न होता है वहीं ज्ञान इस प्रकरणमें संगृहीत किया है, क्योंकि ज्ञान यह शब्द यद्यपि सामान्य है तो भी विअपम समझना चाहिये, यह केवलज्ञान जिस क्षेत्र में होता है उसको भी ज्ञानके साहायसे 'ज्ञानोत्पत्ति यह नाम है, तीर्थ---चिन्ह. तीर्थ इस शब्दका अर्थ इस प्रकरण में समवसरण ऐसा होता है. पापका नाश करने की इच्छा बनवाले भव्य जीव समवसरण में जाकर समारोत्तीर्ण होते हैं अतः समवसरणको तीर्थ कहना योग्य ही है. अमुक ३२९ ट Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास स्थानमें भगवानका समवसरण आया था यह समझनेकेलिये चिन्हरूप जो मानस्तंभ स्थापन करते हैं वह यहां तीर्थ शब्दका अभिप्राय समझना चामिका अदादिन र मुनिराले समातियानो लिपिदिका कहते हैं. जन्मादि स्थानोंको मुनिराज प्रथम शाखोंस जानने है और अनंतर उनकी बंदना करनेके लिय जाने हैं, तब उनका सम्यग्दर्शन अतिशय निर्मल हो जाता है. अदि मुनिराज इमंशा अनेक देशोंमें भ्रमण करते हैं तब वहां के जन्मादि स्थानीका दर्शन कर अतिशय श्रद्धालु होते हैं, जैसे कोई आदमी किसी सुंदर स्वीका स्वरूप वर्णन करता है तब कोई श्रोता वह वर्णन सुनकर परोक्षरूपसे उसका परिज्ञान कर लेता है और उसको देखने की अभिलाषा उत्पन्न होती है. यदि यह स्त्री उसको दृष्टिगोचर होती है तो उसके विषयमें उसको महती श्रद्धा उत्पन्न होती है. वैसे आगमसे जन्मादि स्थानोंको जानकर जब मुनि उनको साक्षात् देख लेते हैं तब उनको महाश्रद्धान उत्पन्न होता है. अथवा जब तीर्थकर उत्पन्न होते हैं तब अनियत विहार करने वाले यति उनके जन्मादिक कल्याणोंको साक्षात् जानकर अपने सम्यग्दर्शनमें निमलता उत्पन्न करते हैं. अब यहां तीर्थकरोंके जन्मादि कल्याणकोका विस्तारसे टीकाकार अपराजित सूरिने वर्णन किया है. उस का भावार्थ हम यहां लिख देते हैं. तीर्थकर तीनज्ञानके धारक रहते हैं. जब स्वर्गमें उनका आयुष्य समास होता है तब वे माताके उदरमें आते हैं. इंद्रादिदेव आकर उनका गर्भमहोत्सव करत हैं, तीर्थकरका जन्माभियक महोत्सव भुवनरूपगृहमें जमा हुवा अज्ञानरूप अंधकारको नष्ट कर देता है. अमृतके पानसे प्राणिऑको आरोग्यलाभ होता है वैसे जन्म महोत्सवसे संपूर्ण प्राणी रोगमुक्त होजाते हैं. देवांगनाओंका नृत्य देखनेम जैसा आनंद होता है वैसा इसके अवलोकनसे भी सर्व जगत आनंदमय होता है. प्रियवचनंक समान यह महोत्सव मन में प्रसन्नता उत्पन्न करता है. प्रास्त पुण्यक समान यह अगणित पुष्यको | समर्पण करता है. लक्ष्मी अपने परिचारिकाओंके साथ इस उत्सवको आश्चर्यमे देखती है. गुलक जानीके देव आकाशमसे पुष्पवृष्टि करते हैं. तम चारो तरफसे भौरें आकर गुंजारव करते हैं. इस उत्सबके ममय नगारे और शंखांकी ध्वनि सतत हवा करती है. इनके ध्वनीम जगतका अवकाश भर जाता है, देवांगनायें नृत्य करती है. मानो उनको जीतनके लिय ही सौधोंके शिरवरोंकी पचरंगयुक्त पताकायें भी नृत्य करती हैं. जन्माभिषकोत्सबके 3 . Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावासः मूलाराधमा समय आसन कंपित होनेसे देवांगनाये भीतीसे इंद्रोंको आलिंगन देती है तब उनका मुख हपसे कमलतुस्य प्रफुल्लित होता है. इंद्र जब जन्माभिषेक करने का कार्यक्रम देवोंको सुनाता है तब वे आदरसे अपने हाथ जोडकर उसकी आज्ञा मानने हैं. नगारेकी ध्वनि सुनकर सर्व इंद्र और सामानिकादिक देव भी एकत्र होकर सौधर्मेंद्रके पास जाते. हैं. परस्पर की ईप्यासे देव वक्रियिक शरीर धारण कर आकाशमार्गसे प्रयाण करने लगते हैं. जिनबालकका जन्माभिपकोत्मत्र करने के लिये जब इंद्राणी राजभवन में आती है तब उसके न पुरोंको ध्वनि सुनकर राजहंमी राजभवन के अंगणमे मविलाम गमन करती है. ऐरावतसे उतरकर जय इंद्र जिनवालकको ग्रहण करनेके लिये अपने हाथ पसारता है नव दाभ भग ध्वनीने मिहनादौ सब दिशारों शब्दमय होती है. प्रणाम करने समय अनेक पटहाँका गंभीर और धीर शब्द होता I SACH इंद्र अपने हाथमें अष्टमी चंद्रके समान शुभ्र चामर लेकर प्रभुक ऊपर दोरते हैं. तब जिनबालकको देखनेके लिये इंद्रोंकी दरियां उत्कंठित होती हैं. सफेत छत्ररूप मेघामें आकाश व्याप्त होता है. बिजली के समान पीरखनेवाली पताकाओंग आकाश व्याप्त होता है, इंद्रनीलमणिआम ग्ने हुये सोपानोपर पांच रखकर दयों का सैन्य आगे गमन करता है, ऐरावत हाथी क दंतपंक्तिक सरोबरम कमलोपर देवांगनायें लीलासे पदनिक्षेप कर नृत्य करता हैं. हजारो देवी अष्टमंगल धारण कर आगं गमन करती हैं. उस समय द्वारपाल देव क्षुद्र देबाको हटात है. आत्मरक्ष जातीके हजारो देव अपने ऊपर पड़ा हुआ रक्षा का कार्य एकाग्रता से करते हैं. इस रीतीसे देव मेरु पर्वतके सौष जाकर उसको प्रदक्षिणा देते हैं. तदनन्तर मेरुपर्वतके ऊपर शिखरक समान ऊंचे सिंहासनपर इंद्र प्रभृको विराजमान करता है. अनेक देव समूह क्षीर समुद्र का जल लाते हैं नब इंद्र प्रभृका अभिषेक करता है इसके अनंतर इंद्राणी प्रभूको बालक योग्य अलंकारों से भूषित करती है. हजारो इंद्रके भाटदेव प्रभूकी स्तुति करते हैं, उस समय इंद्र भी आनंदसे नृत्य करते हैं, इस तरहका जन्माभिषेक कल्याण देखनेसे यतिओंका सम्यग्दर्शन दृढ होता है, Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवासः ३३२ अब दीक्षाकल्यागिकोत्सवका वर्णन करते हैं संपूर्ण जिनेश्वरों का जन्माभिषकोत्सव होता ही है. इंद्रकी आज्ञासे कुबेर वडे आदरसे दिव्य और योग्य ऐसे उबटन, वस्त्र भोजन, यान, बाड्न, अलंकार वगैरह वस्तु मभूको समर्पण करता है, मनके अनुकूल क्रीडा करनेवाले देवकुमारसमुदाय भक्तीसे प्रभूकी सेवा करते हैं. कितनेक तीर्थकरोंका पूर्वपुण्य उदयमें जब आता है तब उनको चक्ररत्नकी प्राप्ति होती है. यह चक्ररत्न हजारो सूर्यके समान चमकीले आगेगे युक्त होता है. इस साधने और स्पने गहरामसे तीर्थकर समस्त प्रभास, मागधादि देवोंको, विद्यारराजाओंको और भूगोचरी भूपतिओंको घश करते हैं. देवांगनाओंके समान, रूप, तारुण्य और विलासयुक्त, उपहास करने में चतुर ऐसी बत्तीस हजार पट्टरानिओंके मुखकमलोंको चक्रवर्तित्वको प्राप्त हुए वे तीर्थकर विकसित करते हैं, इंद्रसे भेजी गयी अप्सराओंका नृत्य अबलोकन करके अपने मनका बिनोदन करते हैं. बड़े आनंदम किन्नर गंधवांदि देवोंका गायन मनने हैं. काल महाकालाधिक नवनिदिआंकी उनको प्राप्ति होती है. चक्रवतीक चौदह रत्नोंका हजार हजार दश करते हैं. वर्चास हजार मुकुटबद भूपाल अपने मुवर्णगचित किरीटक अग्रभागपर भकरिकाम याय हा रम्नापी दीपपंतीसे चक्रवर्तीका चरणयुगल पजते हैं. देव कुमार द्वारा हा उपहागको देखने में व एकाग्रचित हो जाने हैं. ऐसे वे चक्रवती मनुष्याको जो भोग प्राप्त होत है उसस भी सात्कष्ट भोगांको पुण्यो. दयमे प्राप्त कर लते हैं, ये भोगांक पदार्थ उनको विना प्रयत्नंग ही प्राप्त होते हैं, कितनकतीर्थकर मंडलीक, महामंडलीक पदको प्राप्त होकर उत्कृष्ट भोगोंका अनायाम भोग लेते हैं। जय तीर्थकर नामकर्मका उदय होता है और चारित्रमोह कर्मका अपकर्ष होता है तब अनादिकालसे आमाके साथ बंधे हुए स्वनःके और इतर जीवॉक कर्माका नाश करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं और मन में इस प्रकार विचार करने हैं.-- बडे कप्टसे जिसका अंत आता है ऐसे संसाररूपी समुद्र में दुःस्वरूपी भोवरोंका हमको खूब ज्ञान है. अनुभव है, तो भी मसरीख भी लोग इस मोह के फंदे में पड़े हुए है अतः यह मोहकम महाबलवान है. हमको भी इसने आरंभ और परिग्रहोंमें खूब फसाया है. हमने अणिमामहिमादिक आठ गुणांकी संपत्तीसे परिपूर्ण, आपत्तीका अधिपय, अभिलाषाओसे दूर, जिनकी बुद्धि कुशाग्रंके समान तीक्ष्ण है ऐसे इंद्रादिक मी TIMAT Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलाराधना ३३३ जिसको अपने ज्ञानसे जाननेमें असमर्थ हैं, जो बचन के अविषय है, अपराधीन है, जिसमें कभी न्यूनताका अनुभव आता ही नहीं हैं, ऐसा अहभिद्रोंका सुख भी हमने बहुतकालतक भोगा है, अतः मनुष्योंके तुच्छ संपत्ति सुखमें क्यों उत्कंठित हो रहे हैं. यह मनुजभोगसंपदा दुष्ट जनकी मैत्रीके समान विचित्र दुःखोंका संबंध उत्पन्न करती है, चंचल है, पुण्यका समूह जैसा पूर्व कर्मके अधीन होता है वैसे यह भोग संपदा भी पराधीनही है. कुकनीकी कृति में अल्प ही अर्थ भरा रहता है वैसे इस मनुजसुखमें अल्प प्रयोजनही सिद्ध होता है. दूर भव्य जीवका मुक्तिमार्ग जैसे अनेक विघ्नोंसे रुका रहताही वैसा यह मनुजसुख भी अनेक विपत्तिओसे घिरा हुवा है, यह मनुजवैभव अनंतकालतक मैने भोगा है. इस प्रकार प्रभु वैराग्यभावना में लीन हुये हैं ऐसे समय में ब्रह्मस्वर्गसे शंखके समान शुभदेह जिनका है ऐसे लोकांतिक देव जिनेश्वर भगवान अपनेको और भव्य जनों को संसद से निकालने के लिये उक्त हुए ऐसा अवधिज्ञानरूप नेत्रसे जानकर प्रभुके पास आते हैं. और अनेक भव्य जीवोंपर जिससे अनुग्रह होगा ऐसा यह महाकार्य प्रभूने अपने हाथमें लिया है. आपके इस कार्यमें हम लोगों की भी सम्मति है. पूज्य पुरुषोंकी पूजा का उलंघन करनेसे स्वार्थहानि होती है अर्थात् इस स्वर्गादि संपदाकी प्राप्ति नहीं होती है, ऐसा मनमें विचार कर ये लोकांनिक देव आकाशसे नीचे उतरकर मधुके पास महा आदरसे बैठकर प्रभुकी इसप्रकार प्रार्थना करते हैं- हे भट्टारक ! आपका यह उद्योग प्रशंसनीय है. कल्पवृक्ष प्रत्युपकारकी अपेक्षा न रखकर जगतपर अनुग्रह करते हैं. हे प्रभो आप महापुरुष है अतः आपभी कल्पवृक्षके समान जगत पर अनुग्रह करो. fate अर्थात् भव्य जीवों के ज्ञानरुपी लोचन मिथ्यात्वरूपी तिमिररोगसे व्याप्त होगये हैं. अतः वे खोटे रास्तेपर जा रहे हैं और कुमतिरूप खड्डे में गिर रहे हैं. कुमतिरूप से निकलनेकी इच्छा मनमें होते हुये भी असमर्थ होनेसे क्लेश पाने लगे हैं. दीर्घ और दृढ ऐसे निर्दोष सम्यग्दर्शनरूपी डोरेसे आप उनको कुगतिमेंसे निकालकर आपके दिखाये हुये विशाल मोक्षमार्गपर स्थिर करो जिससे वे अनंतज्ञानात्मक सुखकी प्राप्ति होनेसे सुखी होंगे. इस प्रकार स्तुति करके सारस्वतादिक लौकांतिकदेव अपने स्थानको चले जाते हैं. भगवान के वैराग्यरूपी वायुसे इंद्रका सिंहासन कंपित होता है. तच प्र महाकार्यका प्रारंभ करनेका विचार कर रहे हैं ऐसा इंद्र अवधिज्ञानसे जानकर सिंहासनसे बडे आदर से नीचे उतरकर प्रभु जिस दिशा में मुंह कर आश्वासः २ ३३३ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना আখা ३३१ बैठे हैं उस दिशाक तरफ सात पाद परिमित भूमीतक चला जाता है. अपने मस्तकपर विकसित कमलदुलकी कांतिको हंसनेवाला, अंकुश, बजादिक शुभलक्षणास भनोहर दीखनेवाला, ऐस अपन दक्षिण हायसे किरीटके रत्नों से भूषित अपना मस्तक नीचे झुकाकर सद्धर्मतीर्थको चलानेमें उद्युक्त, शरणागत भव्यलोकोका रक्षण करनेवाले और अपूर्व ज्ञानरूपी नेत्रके धारक ऐसे जिनश्चरको मेरा नमस्कार हो ऐसा वचनोच्चार इंद्र करता है तब नगारेके ध्वनिसे सब देवोंको प्रभृके कार्यका ज्ञान होता है. सब एकत्र होते हैं. अपने अपने स्वामीके आगे वे देव प्रयाण करते हैं. नानाप्रकारके छत्र, शस्त्र, वस्त्र, अलंकारोंसे सज्ज होकर श्रेष्ठ देव सोधर्मेद्रके सन्निध जाते हैं. सर्व इंद्र और इतर राजा लोकोंके साथ इंद्र राजवाडे के पास जाता है. तब चामर, सिंहासन, श्वेतच्छत्रादि राजनिन्हाँको छोटकर दखाजेके पास खड़ा होता है. द्वारपालकी अंदर प्रवेश करनेकेलिये अनुज्ञा मिलनेपर धर्मचक्रसे मुशोभित एसे भगवान के पास जाकर उनको बहुमानसे प्रणाम करता है. जिनेश्वर प्रभु बड़ी प्रसन्नताम देखते हैं तब इंद्र इस प्रकार प्रभुको विज्ञापन करता है हे भट्टारक! आपका दीक्षा कल्याणविधि करनेकेलिये अच्युतेन्द्र के साथ सब इंद्र आये हैं. हमको मुक्तिमार्ग का स्वरूप मालूम है. इंद्रिय मुख वदस्वरूप होनेसे उससे हम उदासीन है, ज्ञानात्मक अनंत सुखानुभव प्राप्त करनेके लिये हम उद्यत भी है परंतु संयमघाति कर्मका क्षयोपशम न होनेसे चारित्र धारण करनेमें स्वयं चारित्र में प्रवृत्ति नहीं करते हैं और अन्य भव्योंको भी प्रवृत्त नहीं करते हैं. यद्यपि हमको विशुद्ध ज्ञान और सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होगयी है तो भी निर्दोप चारित्र और तपके बिना हम संपूर्ण कमोंका नाश करने में असमर्थ है. हमारा आयुष्य अनेक सागरोंका होनेसे हम दर्घिसंसारी हैं. अतः हम को बहोत खेद होता है. ऊठकर खडे होनेकी अभिलाषा रखता हुआ भी बालक जैसे गिर पड़ता है जैसे चारित्र की अभिलाषा रखते हुये भी उसको हम धारण करनेमें असमर्थ हैं. हे भगवन् ! आप ज्ञातव्य वस्तुयें सब जानचुके हैं. मोहनीय कर्मके क्षयोपशमसे आपमें त्यागरूप परिणाम उत्पन हुये हैं, आप हमारे लिये सर्वोत्कृष्ट पूज्य है. पूर्व जन्ममें संपूर्ण आरंभ और परिग्रहोंका त्याग करने से जैसी आपको अपूर्व वीतरागता और सर्व भव्य जीवोपर उपकार करनेकी शक्ति प्राप्त हुई है वैसी वीतरामता और उपकार शाक्ति हमको भी अन्य जन्ममि मिले ऐसी अभिलाषा रखते हैं. आपके दीक्षाकल्याणके HOME Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ३३५ कार्यमें हम सहानुभूति रखते हैं अतः हमको इस सहानुभूतीका उपर्युक्त फल मिले ऐसी हम इच्छा रखते हैं. हे भगवान् ! हम यह विमान सज्ज करके लाये हैं. इसके उपर आप आरोहण करो. ऐसा बोलकर जब सौधर्मेन्द्र मौन धारण करता है तब संपूर्ण ज्ञातिवर्ग, अंतःपुर और परिवार के समस्त लोक हर्ष और विषादयुक्त हुये. उन सब लोगोंको हर्ष विपादयुक्त देखकर जिनेश्वर इस प्रकारसे बोलते हैं- हे जनहो ! चिरकालीन सहवाससे जो अल्प उपकार लोक अन्योन्यमें करते हैं उससे अन्योन्यमें अनुराग उत्पन्न होता है. तथा जहां अनुराग प्रेम उत्पन्न होता है वहां द्वेष भी उत्पन्न होता है. इस प्रेम और कोपसे अर्थात् रागद्वेषसे दुरंत कर्मबंधन होता है. इन सब आपत्तिओंका मूलकारण यह मेरा है, में इसका स्वामी हूँ ऐसा ममत्वभाव है. यह सर्व दुःखांका आधकारण हैं, विद्वान् पुरुषने इस ममस्वभावको फेक देना चाहिये. किसीका मित्र अथवा धन वा शरीर ये पदार्थ कायम टिकनेवाले नहीं हैं. सर्व बंधुगण, परिवार जन लड्ड उड़ाने में खूब सहायता करते हैं. धन कमाने में बड़ा दुःख होता है. यह धन धनेच्छु लोगोंके साथ बखेडा उत्पन्न कराता तीव्र लोभको बढाता है. जैसे खारा पानी पीने चालेको अधिक प्यास लगती है वैसे धन तृष्णा-लोभको उत्तरोत्तर अधिक रूपसे बढ़ाता है. aur मदिरा के समान अन्तःकरणको मोहित करती हैं. असत्य रोना, इसना और असत्य प्रार्थनाओंके द्वारा धैर्यरहित लोगों के मनको शीघ्र हरलेती हैं. स्त्रिया धर्मसे बनी हुई पुतलियां हैं. वे स्वभावसे चंचल होती है संध्याकालकी मेघपंक्ति जैसी अस्थिर रागभावसे युक्त हैं. संध्याकालके अनंतर विलनि होता है वैसे स्त्रियोंका प्रेम अल्पकालमें नष्ट होता है, वे दूसरेपर प्रेम करने लगती है. वे कपटकी मातायें हैं. असत्यभाषणरूप दृतीकी वे स्वामिनी है. और सुगतिकी प्राप्तिको बजार्गला के समान प्रतिबंध करनेवाली है. ऐसी स्त्रियोंमें बुद्धमान पुरुषोंको प्रेम करना क्या उचित है ? यह शरीर अनेक अपवित्र पदार्थोंका स्थान है. जैसे कूड़े कचरे में एक भी पवित्र पदार्थ नही रहता है वैसे शरीर में सब रक्त, मांस, मलमूत्रादिक अपवित्र ही पदार्थ मरे हुवे हैं, प्राणिओंको यह शरीर कभी नष्ट होनेवाले 'भारके समान है, अर्थात् जबतक इस जीवको मोक्ष प्राप्त न होगा तबतक इस शरीरका बोझा इसको हमेशा धारण करना पडेगा ही. यह शरीर महारोगरूपी सपके लिए बामीके समान है, जरारूपी व्याघ्रीका रहनेका यह स्थान भावार २ ३३५ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना || है, चर्मके टुकडोंसे वेष्टित भट्टीके डेलेके समान नेत्र अंदर तो निःमार और ऊपरसे मनोहर दीखते हैं, ऐसे शरीरमें एक ही गुण है. वह यह है कि, यह धर्मसाधनकेलिए सहाय करता है. पर्वतपरसे बहनेवाली नदीके प्रवाहके तुल्य यौवन अस्थिर है. तिनकेकी आंग्रेज्याला उत्पन्न होकर जल्दी नष्ट होती है वैसे संपत्ती भी प्राप्त होकर शीघ्र नष्ट होती है, शरीर संपदा और तारुण्यका स्वरूप जानकर हे जनहीं आप प्रमादको छोड़ दो. जन्मसमुद्रके दुसरे किनारे की माप्ति करने के लिए उद्योग करो, प्रमादस हमसे जो अपराध हुये होंगे उनकी आप क्षमा करो. ऐसा नीर्थकर का भाषण होनेके अनंतर सुरकुमारों द्वारा देव इंदभि शब्द करने लगते हैं. इंद्रप्रमुख सकल जगत उससमय जय जय कार करता है. चारों तरफ देवांगनायें सुंदर नृत्य करनी है. उमसमय त्रैलोक्य को अलंकार सदश प्रभु शुक्ललेश्याके समान श्वेतवस्त्र पहेनते हैं. मानो मुक्तिकी दूतीही है एसी रत्नमालाको धारण कर व अपना गला स्मोमिन करते हैं, विरक्त पुरुपाके भी मुखपर हम रागभाव उत्पन्न करने में हम चतुर हैं. हमारा चतुरपना देखो एसा कहकर अपनी मानो चतुरता दिखानवाल ऐसे कुंडलोंके द्वारा प्रभूके दो खिग्ध और सुंदर कपोल अपूर्व शोभाको धारण करने लगे. यदि प्रभूको वृत्त चारित्र प्रिय है तो इस समय प्रभूको हमसे प्रयोजन है क्यों कि हम भी वृत्त है अर्थात् वृत्त-गाल हैं ऐसा अभिप्राय मानो धारण कर प्राप्त हुए कटकासे-कर कंकणोंसे प्रभूके हाथ आश्लिष्ट होगये. जिनमें प्रभूकी महारत्रकी कल्पना है वे कितने सुंदर है हम भी उच्च स्थानमें रहकर देखेंगे मानो ऐसे अभिप्रायसे ही मस्तकपरके मुकुटके रत्नसमुदायसे प्रभु शोभने लंग. इस तरह भूपणालंकृत होकर भगवानने निर्वाणपत्तनका मानो गोपुर ही है ऐसे विमान में प्रवेश किया. तदनंतर इंद्रोंने यह विमान अपने कंधोंपर धारण किया. देवांगना, चतुर्णिकायके देव और सातपकार का देवसैन्य इनसे वेष्टित होकर प्रभू रम्यतम देशमें जाकर विमानसे उतरे, उत्तर दिशाको मुखकर सिद्धको नमस्कार कर मुकुटादिक अलंकार क्रमस अंगपग्स उतरते हैं. बाह्याभ्यंतर परिग्रहोंका त्याग कर मनवचन कायसे रत्नत्रयका स्वीकार करते हैं. इस तरहका दीक्षा II कल्याणिक देखनसे मुनिओंका सम्यग्दर्शन निर्मल होता है. संपूर्ण पदार्थोंका स्वरूप जिससे जाना जाता है उसको ज्ञान कहत है, यहां केवल ज्ञानको ज्ञान कहते ३३६ ManojASSASSESED Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारावना आश्वास ३३७ हैं उसको उत्पत्ति इस प्रकार होती है. जिन्होंने मोहनीय कर्मका भार फेक दिया है, शुक्लध्यानरूपी सूर्यके सहाव्यसे जिन्होंने ज्ञानाबरण और दर्शनावरणरूप अंधकार नष्ट किया है, अन्तराय कर्मरूप विपवृक्षको जिन्होंने निर्दलित किया है एमें भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न होता है. यह शान महत, शंद्रियों की प्रथसिंस रहित, और संशय विपर्ययज्ञानस रहित होता है. इस कवलज्ञानसे मोक्षफलबी माप्ति होती है. केवलजानकल्याण देखनंसे जिनप्रणीत मोक्षमार्गमें शकादि दापरहित श्रद्धा उत्पन्न होती है. जिनको मोक्षफलेच्छा है ये रत्नत्रययुक्त अथवा जन्मकल्याणादिकांस युक्त तीर्थकरादिकॉपर उनके सामर्थ्य देखनेसे श्रद्धान करते हैं. Sara CA एवमनियतविहारे दर्शनशुद्धिस्वार्थमुपवर्य परोपकारं स्थिरीकरणं प्रकटयति संविग्गं संविग्गाणं जणयदि सुबिहिदो सुविहिदाणं ॥ जुत्तो आउत्ताणं विसुद्धलेस्सो सुलेस्साणं ॥ १४ ॥ संचिनो वृत्तसंपन्नः शुद्धलेश्यस्तपोधनः॥ देशांतरातिथिः साधुः संवेजयति तद्वतः (तद्रतान् ) ।। १५७॥ विजयोदया-संनिग संसारभीरता । जयदि जनयति । कः ? मुविहिदो सुन्धग्निानां । संविगाण सविझानां । जुनो सनशनादिके तपसि युक्तः । आजुत्ताण योगचाराणां । विसुद्धलेस्सो विशुसलेश्यः । मुलम्साणे सुलझ्यानां च । सम्यक चारि मतपसोः शुद्धलेण्यायो च प्रवर्तमानं वृष्ट्वा सर्वेऽपि सुचारित्राः सुतपसः शुद्धलेश्यायतपः अतिशयवती संसारभीरता प्रपर्यते । न वयमतीच संसार मीरवः, यथायं भगवान् अत एव नचारि तपश्च सातिचार इति मन्यमानाः। एवमनियत विहारे दर्शमशुद्धिं स्वार्थमुपदश्चेदानी स्थितिकरण परार्थमुपदर्शयति मूलारा--संघे संसारमीरुता । जण यदि बर्द्धयति । जनिरिह स्वरूपातिशयोत्पादनार्थो न स्वरूपाविर्भावनार्थः । संवगम्य धागपि सद्भायात् । सुविहिदो सुचरितः । अनशनादिके तपसि समाहितः । आजुत्ताणं योगधरिणाम् । अनियतविहारस दर्शनविशुद्धि होती है. अब साधर्मिक स्थिरीकरण भी इससे होता है यह दिखाते हैंअर्थ-अनियतविहारी मुनि उत्तमचारित्र धारक होनेसे उनको देखकर सर्व मुनि उत्तम चारित्रधारक ३३० Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ३३८ होते हैं. इनकी संसारभीरुता देखकर वे भी संसारभीरुताको प्राप्त होते हैं. इनकी अनशनादि तपश्चरणोम निमग्नता देखकर अन्य मुनि भी फंस बनते है. विशुद्ध लेश्याके धारक ऐसे इन मुनिआंको देखकर ये भी अपने परिणाम विशुद्ध करत हैं. यह कायदा अनियत विहारस होता है, इस लिये मुनिको अनियतविहारी बनना अवश्य योग्य है. अभिप्राय यह है कि, अनियबिहारी मुनिवयकी सभ्याचारित्र और तपमे प्रवृत्ति देखकर सब उत्तम चारित्र युक्त, महातपस्वी और विशुद्धलेश्या धारक यति भी संसारभयकी उत्कृष्ट सीमाको प्राप्त होते हैं. जैसा ये महामुनि अतिशय संसारभीक हैं वैसे संसारभीरु हम नहीं हैं. इसलिये हमारा तप और चारित्र अतिचारसहित है ऐसा मनमें विचार कर अन्य साधु भी संसारभीरु, महा तपस्वी, सच्चारित्रधारक और विशुद्धलेश्यावान् बनते हैं. अतः अनियत विहारसे साधुओंपर उपर्युक्त उपकार होता है यह सिद्ध होता है. उत्तरगाथया एतदाचंष्ट्र न केवलं अतिशयितचारित्रतपोगुण पच परं संविग्नं करोति किंतु एवंभूतोऽपि इत्याच पियधम्मवज्जभीरू सुत्तत्थविसारदो असढभावो॥ संबेग्गाविदि य परं साधू णियदं बिहरमाणो ॥ १४५ ॥ प्रियधर्माशयः साधुरागमाविचक्षणः॥ भ्रमन्नवद्यवित्रस्तः संविग्नं कुरुते परम् ॥ १४८ ॥ विजयोदया-पियधम्मच जभीरू मिय उत्तमक्षमादिधर्मो यस्य, यश्वायत्रस्य पापस्य भीरुः । सुत्तस्थघिसारदो सुथार्थयोनिपुणः, । धसभावो शायरहितः । संबग्गाबिदिय परं संचिग्नं करोति । साथू साधुः। णिवदं सर्वकालं यिहरमाणो देशांतगतिथिः। न केवलं सम्यक् चारित्रतपोविशुद्धलेश्यावृत्तिस्तयाभूतानन्यान्साधूनतिसं विमान्झरोत्यपि त्वयंभूतो पि -- मूलारा-बजनीक पापभीरः । संविग्गायेदि सविमं करोति । जियदं सर्वदा। जिसका तप व चारित्र गुण उत्कृष्ट है वही मुनि अन्य मुनिआमें संसारभीरुत्व उत्पन्न कर सकता है ऐसा नहीं है किंतु अन्य गुणवालाभी संसारभीरता उत्पन्न कर सकता है इसी बातका वर्णन आगेकी गाथा करती है. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलारापना अर्थ-जिसका उत्तम क्षमादि दशधर्मोपर अतिशय प्रेम है, पापसे जो भयभीत है, जो सूत्र और अर्थमें निपुण है, जिसमें कपट विलमात्र भी नहीं है. बह अनियत बिहारी साधु हमेशा देशतिरका अतिथि बनता है अतः उसके उपयुक्त गुणोंको देखकर अन्य साधभी संसारसे भयभीत होते हैं, पूर्धगाथायां प२.२रीकरण प्रतिपाप उत्सरयात्मानमपिस्थिरयति त्योभधत्त संत्रिग्गदरे पासिय पियधम्मदरे अवजीरुदरे ॥ संयमवि पियथिरधम्मो साधू विहरतओ होदि ॥ १४६ ॥ अययभीमःसंविग्नः प्रियधर्मतरेक्षणे ॥ अवयभीमः संविग्नः मियधर्मतरोऽस्ति सः॥ १४९ ॥ विजयोदया-टिदिगणं । संनि गतरं इत्यादिकया । असापंचविधापरावर्तनिरूपणादितचंतस्तयोषगतनदागमनभयातिशयाः संविग्नतगः । अभिनयकर्मनिरोधं चिरंतनगलनं करोति, अभ्युदयनिःश्रेयससुखानि च प्रयति सुचरितो धर्म इति । धर्मस्य फलमाहात्म्ये अनारतं चतःसमाधानाप्रियधर्मतराः, स्वल्पमप्य शुभयोगानामवसरादानाद. यद्यभीमतराः । स्वयमात्मना नियम्धिरधर्मतगः । अतरेणाप्यतिशायिकप्रत्ययमतिशयार्थगतिरत अभिरूपाय कन्या देवति' यथा प्रियस्थिरधर्मतरः इति । अपिशदेन संविनतरः अवयभीरुतरश्चेति ग्राहाम् । एवं नानादेशविहारिणः परस्थिरीकरण धर्मोऽभिधाय स्वस्थिरीकरणमाह - मूलारा-पासिय दृष्टा । नियथिरचम्मा अंतरेणाप्यतिशायिक प्रत्ययमतिशयार्थगतिरत्र । अभिरूपाय कन्या देयेति यथा । तेन प्रियस्थिरचर्मतर इति चोध्यम् । अथवा पियरधम्मा इति पाठः । प्रियतरधर्मेत्यर्थः । अपिशब्देन संविग्नतरोऽषधभीरतरश्चति माहाम् । तथान्येऽप्यूचुः। अवधभीकः संघिग्नः प्रियधर्मतरेक्षणे। अवयमीरुः संचिग्नः नियधर्मतरोऽस्ति सः ।। पूर्व गाथामें परस्थिरीकरण दिखाया है अब आगेकी गाथामें आनयत विहारी साधु स्वयको भी गुणोंमें स्थिर करता है यह दिखाते हैं, Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना आश्वास: ३३० अर्थ-अन्य देशों में रहनेवाले साधुतानोलेरो भनिय बिहारी मधु भी उनके समानहीं हो जाता है. बार पार पांच प्रकारके संसारका निरूपण श्रवण करनेसे मन घ्यथित होकर जिनको संसारसे अत्यंत भय उत्पन्न हुवा है ऐसे साधुओंका दर्शन होनेसे अनियतविहारी साधु भी संसारसे अधिक भययुक्त होता है. धर्मका आचरण करनेसे नवीन काँका निरोध अर्थात् संवर होता है, पूर्वबद्ध कर्म निर्जीर्ण होकर आत्मासे अलग होते है. यह जिनधर्म अर्थात् मुनिधर्म स्वर्गादिसुख और मोक्षसुख जीवोंको देता है ऐसा धर्मका फल और उसका माहात्म्य सुनकर उसमें जिनका मन हमेशा अधिक रुचि रखता है ऐसे मुनिवर्यको प्रियधर्मतर कहते हैं. उनको देखनेसे विहारी यति भी धर्म में प्रगाढ रुचि रखता है. जो थोडेस अशुभयोगोंको अपन आत्मामें उत्पन्न होने नहीं देते ऐसे मुनिओंको अयद्य भीरुतर कहते हैं. ऐसे साधुओंको देखकर अनियत विहार करनेवाला साधु धर्म पर अतिशय प्रेम करता है और उसमें अधिक स्थिर होता है. जैसे 'अभिरूपाय कन्या देया 'रूपवानको कन्या देनी चाहिये, यहां सर्व मनुष्य रूपयुक्तही होत है. कोहभी मनुष्य रूपरहित नहीं होता है. अतः 'अभिरूपाय कन्या देया ' इस वाक्यका अधिक सुंदर पुरुपकों कन्या दंनी चाहिय' ऐसा अभिप्राय है. बगे नियस्थिरधर्मा, इसका प्रियस्थिरधर्मशरः ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये. अथांत अनियत विहार करनेवाला साधु अधिक प्रिय और अधिक स्थिर धर्मको धारण करनेवाला होता है. भावना व्याचऐ--परीषदसहनमिह भावनेत्युच्यते-- चरिया छुहा य तण्डा सीदं उण्हं च भाविदं होदि । सज्जा वि अपडिबहा विहरणेणाधिआसिया होदि ॥ १४७ ।। शीतातपक्षुधासृष्णानिषद्यायाः परीषहाः।। यतिनाटाव्यमानेन समस्ताः सन्ति भाविताः ।। १५०।। विजयोफ्या-चरिया चर्याजन्यं दुःसामिह चयति गृहीतं । उपानहान्यन वा अस्तपादरक्षस्य, गच्छतो निशितशर्करापाराणकंटकाविभिस्तुचमानचरणस्य, उपरजःसंतप्तपादस्य, चा यहःखं तस्यानुभव नमसंशन चर्यामाचना । छुहा 4 अपरिचिते देशे संयतैः पूर्वमनध्यासिते अल्पयाम्य संग्रहे प्रयोन्याया लामात् भिक्षायाः समुपजाता झुदेवना ३४० - - - Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ३१० अर्थ- अन्य देशोंमें रहनेवाले साधुओंका दर्शन होनेसे अनियतविहारी साधु भी उनके समानही हो जाता है, बार बार पांच प्रकारके संसारका निरूपण श्रवण करनेसे मम व्यथित होकर जिनको संसारसे अत्यंत भय उत्पन्न हुवा है ऐसे साधुओंका दर्शन होनेसे अभियतविदारी साध भी संसारसे अधिक भययुक्त होता है. धर्मका आचरण करनेसे नवीन कमाको निरोध अर्थात् संवर होता है, पूर्ववद्ध कर्म निजीणे होकर आत्मासे अलग होते हैं. यह जिनधर्म अर्थात् मुनिधर्म स्वगादिसुख और मोक्षसुख जीवांका देता है ऐसा धर्मका फल और उसका माहात्म्य सुनकर उसमें जिनका मन हमेशा अधिक रुचि रखता है ऐसे मुनिवर्यको प्रियधर्मतर कहते हैं. उनको देखनेसे विहारी यति भी धर्म में प्रगाढ रुचि रखता है, जो थोडेसे अशुभयोगोंको अपने आत्मामें उत्पन्न होने नहीं देते ऐसे मुनिओंको अवद्य भीस्तर कहते हैं. ऐसे साधुओंको देखकर अनियत विहार करनेवाला साधु धर्म पर अतिशय प्रेम करना है और उसमें अधिक स्थिर होता है, जैसे 'अभिरूपाय कन्या देवा'रूपवानको कन्या देनी चाहिये, यहां सब मनुष्य रूपयुक्तही होते हैं. कोईमी मनुष्य रूपरहित नहीं होता है. अतः 'अभिरूपाय कन्या देगा ' इस वाक्यका ' अधिक सुंदर पुरुषकों कन्या देनी चाहिये ऐसा अभिप्राय है, बस 'प्रियस्थिरधर्मा, इसका प्रियस्थिरधर्मतरः 'ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये, अर्थात् अनियत विहार करनेवाला साधु अधिक प्रिय और अधिक स्थिर धर्मको धारण करनेवाला होता है. - - - भावना व्याचो परीषहसहनमिद मायनेत्युच्यते चरिया छुहा य तपहा सीदं उपहं च भाविदं होदि । सेज्जा वि अपडिबद्धा विहरणेणाधिआसिया होदि ।। १७ ॥ शीतातपक्षुधातृष्णानिषधाद्याः परीषहाः॥ यतिनाटाध्यमानेन समस्ताः सन्ति भाविताः।। १५०॥ चिजयोदया-चरिया चर्याजन्यं दुःयमिह बर्येति गृहीतं । उपानहान्येग वा अकृतपादर नस्य, गच्छतो निशिसशर्फरापापाणकंटकादिभिस्तुद्यमानबरणस्य, उरणरजःसंतसादस्य, वा यहाख तस्यानुभवनमर्सलेशेन चर्या भावना । छुहा य अपरिचिते देशे संयतैः पूर्वमनभ्यासिते अल्पधान्यसंरहे प्रयोग्याथा अलाभात् भिक्षायाः समुपजाता भुवेदना ३४० Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलाराधना ३५१ सोदा भवति । चिरमेक वसतो जनः परिचयादाक्षिण्याद्वा भित्रां प्रयच्छतीति व महापरिधमः । सी उ शोणपर्श दुःखे दह गृहाने । तदनुभवनं संक्लेशरहितमाचिनां सोदं भवति । सज्जा यशाच वसतिः । अपमिमेदं सारहिता अधिसिदा सोढा भवति । विहरणेण विविदेशमनेन । भावनां भावयति--- मूलाराचरिया गमनजन्यं दुःखमित्यर्थः । छुवा अपरिचिते पेशे संयतः पूर्वमध्यासिते अस्पधान्यसंग्रहे च योग्यभिअाया अलाभादुपजाता क्षुद्धेदना | सीदं शीतस्पर्शनजं दुःखं । अधियासिया असेक्लेशेन सोढा । सेज्जा वसतिः । अपचिबद्धा ममेदंभावरहिता । भावना - परीषद सहन करना यह भावना शब्दका अर्थ है. इसका विवेचन इस प्रकार है अर्ध-चर्या – उत्पन्न हुए दुःखको चर्य कहते हैं. जूता अथवा अन्य पदार्थसे जिसने अपने पायका रक्षण नहीं किया है, तथा गमन करते समय तीक्ष्ण शर्करा पत्थर, कांटे इत्यादिकोंके द्वारा जिसके चरण व्यथित हो रहे हैं. उष्णधूलीसे जिसके पैर संतप्त हुए हैं, ऐसे मुनिको जो दुःख उत्पन्न होता है वह मुनि विना संक्केश परिणामसे सहन करते हैं, यह वर्या भावना हैं. क्षुधा भावना - जहां मुनिओने निवास नहीं किया था ऐसे अपरिचित तथा अल्प धान्य के संग्रह युक्त देश में योग्य भिक्षा न मिलनेसे जो भूखसे वेदना होती है वह सहन करना क्षुवाचर्या कहलाती है. बहुत दिनपर्यंत एकस्थान में ही निवास करनेसे सव श्रावकों के साथ परिचय होता है इस लिये वह भिक्षा मिलने महान परिश्रम नहीं होता है. संक्लेश परिणाम न करके शीतसे और उष्ण से होनेवाले दुःखोंको सहन करना यह शीतोष्ण चर्या हैं, वसतिका के ऊपर भी यह मेरी है ऐसा ममत्वभाव उत्पन्न नहीं होता है. अनियत विहार करनेसे ये उपर्युक्त फायदे होते हैं. णाणादे से कुसलो णाणादेसे गढ़ाण सत्थाणं || अभिलाव अत्थकुसलो होदि य देसप्पवेसेण ॥ १४८ ॥ अश्वासः २ ३४१ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचार ३४२ शृण्वतो भूरिसुरीणां व्याख्यां नानार्थदर्शिनीम ॥ देशांतरातिधेः साधोरस्ति सूत्रार्धकौशलम् ॥ १५१ ।। बाणादेसे कुसलो णाणा दा सस्था । अहिलाय अस्थकुसलो होदि य देसप्पयसैण || १ ॥ इति गाथा सूत्रे क्षिप्ता मन्तव्य।। अपराजितरि और पं. आशाधरजीने इस गाथाकी टीका नहीं लिखी है. वे इसको क्षेपक समझते हैं, अर्थ- अनेक देश में विहार करनसे क्षुधाभावना, चर्या भावना इन्यादि भावनाओंका पालन होता है. अर्थात श्रुधादि परीपह, महन करनका अभ्यास होता है, अनेक दशोका परिज्ञान होता है. अनेक देशों में जो मुनिओं के भिन्न भिन्न आचार हैं उनका ज्ञान होता है, नाना भापामें जीवादि पदाथाका स्वरूप प्रतिपादन करनका चातुर्य प्राप्त होता है. इतने गुण अनियत विहारमें हैं. अतिशयाफुशलतास्यं गुणं कथयति सुत्तत्थथिरीकरणं अदिसयिदत्थाण होदि उवली ॥ आयरियदसणेण दु तह्मा सेविज आयरियं ॥ १४९ ॥ चिनिप्क्रममवेशाविसमाचारविचक्षणः॥ सूरीणां यह भेदानां जायते पादसेवया ।। १५२ ।। विजयोदया-सुत्तत्थथिरीकरणं अत्यवर्णरचनं. अभिधेयविषयसंशयाकारि सारार्थषदभ्यंतरीकृतोत्पत्तिक, प्रमाणांतरदर्शितवस्तुनया विरुद्धानुपदर्शनेन निर्दोषं इत्येतद्गुणसहितं सूर्य तस्याओं वाच्यं पायः आंतरो चा अर्थः, तयोः सूत्रार्थयोः स्थिरीकरणं इत्यमेवदं सूर्य शब्दतः, अभिधेयं चास्येदमेवेति यन्तेन । अदिसादत्थाणं अतिशयितानां सूचार्थानां उपलद्धी उपलब्धिः । होदि भरति । प्रमाणनयनिक्षेपैनिरुक्त्या अनुयोगबारेण निरूप्यमाणः सूत्राथों अतिशयितो भवति । आचार्याणां व्याख्यातॄणां दर्शनेन मतभेदन । फेचिन्निक्षेपमुखेनैव सूत्रार्थमुपपादयंत्यपरे नैगमादिविचित्रनयानुसारेण, अन्य सदायनुयोगोपन्यासेन । अपरे, 'अदिसयसत्थाणं होर उबलझी रति पठन्ति । तत्रायमर्थ:-अतिशयभूतान शास्त्राणां प्रत्यमाणामरातीयैः सूरिभिः कृताना चिरंतनानां उपलब्धिर्भवति । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा ३४३ अमियतविहारिणोऽतिशयार्थकुशलत्वगुणलब्धिमाह-- गूलारा-सुत्तत्वगिरीमा अस्सीहापानि जारीटोलात्तिकं प्रमाणान्तरदर्शितबस्तुतदुपविरुद्धानुपदेशनेन निर्दोपमित्येतद्गुणसहित सूत्रं, तस्थार्थो बायोऽन्सरो वा तयोः स्थिरीकरणमित्यमेवेदं सूत्र शब्दतोड़भिधेयं पास्येदमेयेति । अदिसयिदत्याण विशिष्टार्थानां प्रमाणनवनिक्षेपेनिरुक्त्यनियोगद्वारेण च निरूप्यमाणः सूत्रार्थो ह्यतिशयितः स्यात् । अदिसयसच्छायेत्यपरे पठन्ति, तत्रायमर्थोऽतिशयभूतानां शास्त्राणां प्रत्यप्राणामरातीयसरिफतानां चिरंतनानामेव वा प्रचरदुपाणां | जबलद्धी इतिः प्राप्तिर्वा । आचरियदसणेण व्याख्यातमतभेदेन । फेचिद्धि निक्षेपमुखेनैप सूत्रार्थमुपपादयन्त्यपरे नयानुसारेणान्ये सदाद्यनुयोगोपन्यासेन च । अत्र - अतिशयार्थ कुशलता नामक गुणका वर्णन-- अर्थ -जिसमें अल्पवाकी रचना है, प्रतिपाद्य विपयमें संशय उत्पन्न न हो इस रीतीसे सारयुक्त अर्थका जो निरूपण करता है, जिसमें प्रत्येक पद साथ ही है, निरर्थक एक भी पद जिसमें नहीं है, प्रमाणांतरसे जो वस्तुका स्वरूप दिखाया होगा उससे विरुद्धस्वरूपका प्रतिपादन जिसमें नहीं है. अर्थात पूर्वापरासंबद्धतादि दोपोंसे जो दर है उसको सूत्र कहते हैं. अर्थात् सूत्रमें उपयुक्त गुण हो तो वह सूत्र निर्दोष समझना चाहिये. इस सूत्रस्थ शब्दरचनास जो । अर्थ निकलता है वह बाह्यार्थ है. और प्रत्येक शब्दकी उपयुक्तता ध्यान में आनेपर जो विशेष अर्थ तथा सुसंबद्धता अनुभवमें आती है उसको अध्यंतरार्थ कहना चाहिये. इस सूत्रमें जो शब्द हैं ये बिलकुल ठीक हैं और इसका वाच्यार्थ यही है ऐसा जो प्रतिपादन करना उसको सूत्रार्थस्थिरीकरण कहते हैं, देशांतरमें विहार करनेस मुनिको यह गुण प्राप्त होता है. अनियन विहार करनेसे प्रमाण, नय, निक्षप, अनुयोग इन उपायोंके द्वारा मूत्रार्थका निरूपण करनकी पति भी मालुम होती है. व्याख्यान करनेवाले आचार्योंका मतभेद अनुभवमें आता है. कितनक आचार्य निक्षपका आथय लेकर मूत्रार्थका विवेचन करते हैं. कोई नैगमादि नयाकी नानाविधता ध्यान में रखकर उनके आश्रयसे सूत्रार्थविवेचन करते हैं. अन्य आचार्य सत, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन इत्यादि अनुयोगोंके द्वारा मूत्रार्थ कहते हैं. ऐसी नानापद्धतिओंका परिज्ञान देश बिहारसे होता है, 'अदिसयसत्थाण होइ उबलद्दी' ऐसा भी पाठ है. इसका अथें इस प्रकार है Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूलाराधना ३४४ आरातीय आचार्य - वलीके अनंतर जो आचार्य उत्पन्न हुए हैं उनको आरातीय आचार्य कहते हैं. अर्थात् आरातीय और प्राचीन आचार्योंने रचे हुये शास्त्रोंका भी ज्ञान होता है. प्रकारांतरेण अतिशयार्धकुशलस्य माझ्यातुमीहते णिक्खवणपर्वसादिसु आयारयाणं बहुप्पयाराणं || सामाचारीकुसलो य होदि गणसंपवेसेण ॥ १५० ॥ विजययावयवसादिया गाया आयरियाणं आचार्याणां । बहुविधानं । केचिदाचार्या चरक्रममवनन्छन्ति । परैः महाचरणात् । पुनः शास्त्रनिगदितमेव । इनि बहुशारद । एवं अनेकप्रकारार्णा संवत्रेण शेन निःप्रवेशादिकाका । होदि । कुशल भवति । का ? समाचारी ते यथा आचरेति तथा प्रवर्तमानः । स्वःयास देशातुमिच्छता शीतला देशा गरमार्जनं कार्य, तथा विस्तापि । किमर्थ ? शीतोष्णजतनामावाधापरिहारार्थ अथवा श्वेतराभासु भूमिपु अभ्यस्या निःक्रमेण अन्यस्याध प्रवेशन प्रमार्जनं कटिप्रवशाद्धः कार्ये । अन्यथा विरुद्धयोनिसंक्रमेण पृथिवीकाचिकानां तद्भूमिभागोत्पन्नानां त्रानां चाबाधा स्यात् । तथा जलं प्रविशता सवित्ताचित्तरजसोः पदादिषु योगिसः । या पादौ शुष्यतस्तायन्न गच्छेजांतिक एव तिछेत् । महतीनां नदीनां उत्तर आराद्भागे दिनः यावत्परकुलप्राप्तिवन्मया सर्व शरीर भोजनमुपकरणं च परित्यक्तमिति गृहीतमयाख्यानः समाहितचितो होण्यादिकमारोल. परकूले य कायोत्सर्गेण तिष्ठेत् । तदतिचारव्यपोहार्थे । एवमेव महतः कांतारस्य प्रवेशनिः कमणयोः । तथा भिक्षानिमित्तं गृहं प्रवेष्टकामः पूर्व अवलोकयेत्किमित्र बलीवद्दी, महिष्यः प्रसूता वा गावः दुष्टश वा सार मेवा मिश्राचराः धमणाः सन्ति न सन्तीति । सन्ति चेन्न प्रविशेत् । यदि न विभ्यति ते यत्नेन प्रवेशं कुर्यात् । ते ि भीता यति वा स्वयं वा पलायमानाः प्रसस्यावरपीडां कुर्युः । हियति मति वा गर्ताद पतिता मृतिमुयुः । गृहीतभिक्षाणां वा तेषां निर्गमने गृहस्यैः प्रत्याख्याने या दृष्ट्वा श्रुत्वा वा प्रवेष्टव्यं । अन्यथा वह आयाता इति दानुमशक्ताः स्मदपि न दद्युः । तथा च भोगांतरायः कृतः स्यात् । क्रुध पानादिक कुर्यु रस्माभिराशया प्र ि किमर्थं प्रविशतीति । अभिशाचरा यत्र स्थित्वा लभते भिक्षां यत्र वा स्थितानां गृहिणः प्रयच्छन्ति तावन्मात्रमेव भूभागं यतिः प्रविशेष गृहाभ्यंतरं । ग्रदिभिस्तिष्ठ प्रविशेत्यमिहिनोऽपि नांधकारं प्रविशेवस tea L स २ ३४४ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ३४५ A स्थायरपीडापरिहतये । तद्वारकाचुलंघने कुप्यन्ति च गृहिणः। [ एलकं वत्सं या नातिकम्य प्रविशेत् । भीताः पला यन कुर्युराष्मानं या पातयेयुः] । बामनिमदीन प्रतिशत. गायपोडासंकुचितांगस्य षिवृताधोभागस्य पा प्रवेश रष्ट्या कुप्यति हसंति या। आस्मविराधना मिथ्यात्वाराधना च । द्वारपार्श्वस्थजंतुपीडा खपात्रमईने शिष्याचलंबितभाजनानि श अनिरूपितप्रवेशी वा अभिइति । तस्मादुर्य तिर्यक्चावलोक्य प्रवेष्टव्यं । तदानीमेव लिप्तां, जलसेका, प्रकीर्णहरितकुसुमफलपलाशादिमिनिरंतरां, सचित्तमृत्तिकावी, छिदग्रहलां, विचरत्रसजीचा. गृहिणां मोजनायें कृतमंडलपरिहार, देवताभ्युषितां निकटीभूतनानाज़नामंतिकस्थासनशयनामासीनशयितपुरुषां, मूषानपुरीयादिभिरुषहतां भूमि न प्रविशेत् । संयमविराधना मिथ्यात्याराधनां च परिहर्नु भुक्त्वा निर्मच्छन्नपि शनैरतीबानयनतो बंदमानं मति दत्ता योग्या शीर्वादी निर्गच्छेत् । तथा भिक्षाकालं, बुभुक्षाकार्स च त्वा गृहीतावग्रहः, प्रामनगरादिकं प्रविशदीर्यासमिति संपन्नः। भोजनकालपरिमाणं त्या ग्रामादिभ्यो निःसरेत् । जिनायतन, यतिनिवास वा प्रविद्वान्प्रदक्षिणीकुर्याग्निसीधिकाशब्दप्रयोग चा निर्गतुकाम आसीधिकेति । आदिशन्देन परिग्रहीतास्थानभोजशयनगमनादिक्रिया । तत्रापि यत्नो यतीना । तं सकलं वेशि गुरुकुल वासी सूत्रार्थनोई, न मयाचारक्रमः सूत्रार्थो वान्यसकाशे ज्ञातव्य इत्याममानं न बहेत् । प्रकारांतरेणातिशयकुशलार्थत्वं व्याख्यातुमाह-- मुलारा --णिक्रूवणबेसादिसु घसनिदातगृहादेनिष्क्रमणे प्रवेशे आदिशब्देन स्थानभोजनशयनासनादिक्रियासु । बहुप्पयारामं के चिद्धि सुर यश्चरणममशारुत एवाबगरछन्ति, परे सहाचरणात् । अपरे गुन. शास्रोतमेव । अन्ये त दुभयज्ञाः इति बहुकारता । सामाचारीकुरुलो निष्क्रमणादिषु यत्तेषां सम्यगाचरणं समानुष्टानं वा तत्र प्रयीणः । एतत्प्रपंचस्तु टीकायां द्रष्टव्यः । अर्थ--अनियत विहार करनेवाला साधु अनेकगणोंमें प्रवेश कर अनेक आचापोंसे वसतिकामें और दाताके घर आदिकोंमें प्रवेश करना और वहांसे गमन करना, स्थान, भोजन, शयन, वगैरे क्रियाओंका स्वरूप जानकर कुशल होता है. अतः साधुओंको विहार करना चाहिये. कितनेक आचार्य अन्यमुनिओंके आचरणसे आचारका क्रम जानते हैं. कोई आचार्योंको शास्त्रोक्त आधार और अन्य मुनिओंका आचार दोनोंका स्वरूप मालूम १ अयं पाठः कपुस्तके नास्ति खपुस्तकादुदत्य संयोजितः । ४४ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्चार ३४६ रहता है. इस लिये आचार्योंके अनेक प्रकार होते हैं. आचार्य जिस तरहसे आचारमें प्रवृत्ति करते हैं वह सब स्मरणमें रखकर वैसा आचरण करता हुआ देशांतरविहारी साधु आचारमें कुशल हो जाता है. उस आचारक्रमका टीका कार अपराजितमरि वर्णन करते हैं ---- वसतिकासे बाहर जानकी साधुको जब इच्छा होती है तब वह शीतलस्थानसे अथवा उष्णस्थानसे बाहर जाने के पूर्व में अपने सर्व अंग पिच्छिकासे साफ करे जब वह साधु वसतिका में प्रवेश करेगा उस समयमें भी अपना अंग पिच्छिकासे साफ कर ही घसतिकामें प्रवेश करे. यह अंग पोछनकी क्रिया करनी चाहिये. क्यों? इसका शुगर । ई शीत और उष्ण जंतुओंको बाधा न हो इसलिये शरीर प्रमार्जन पिच्छिकास करना पडता है. अथवा सफेत भूमि या लालरंगकी भूमिमें प्रवेश करना हो अथवा एक भूमिसे निकलकर दूसरे भूमिमें प्रवेश करना हो तो कटिमदेशसे नीचेवक सर्व अवयव पिच्छिकासे प्रमार्जित करना चाहिये. ऐसी क्रिया नहीं करनेसे विरुद्ध योनि संक्रमसे पृथ्वीकायिक जीव और प्रसकायिक जीवाफी बाधा होगी. जलमें प्रवेश करने के पूर्वसमय साधु पांव हाथ, वगैरह अवयवों में लगे हुए सचिन और अचित्त धुली को अपनी पिच्छिकास दर करे. अनंतर जल प्रवा करे. जलस याहर आनेपर जब तक पांव न सूरख जायेंगे उतने कालतकबह जलके समीप ही खड़ा हो जावं. पांच सूबने पर आगे विहार कर. चटी नदीको उलंयकर यदि जानका प्रसंग आये तो नदीके प्रथम वटपर सिद्धवंदना करे जबतक दुसरे तटकी प्राप्ति न होगी तबतक मेने शरीर, भोजन और उपकरणका त्याग किया है ऐसा प्रत्याख्यान स्वीकारना चाहिये. मनमें एकाग्रता धारण कर नौका वगैरह पर आरूढ होवे. दसरे तटपर पोहोंचनेके अनंतर उसके अतिचार नाशार्थ कायोत्सर्गसे खडे होना चाहिय, प्रवेश करने पर अथवा वहांसे बाहर निकलनपर भी यहीं आचार करना चाहिये. भिक्षाके लिय थावकके घरमें प्रवेश करते समय प्रथमतः इस घरमें बैल, भैंस, प्रमूत गाय, दुष्ट कुत्ता, भिक्षा मांगनेवाले साधु है या नहीं यह अवलोकन करे यदि न होंग तो प्रवेश करे. अथवा उपर्युक्त प्राणी साधुके प्रवेश करनेसे मययुत्त न हो तो यहांसे सावध रहकर प्रवेश करे. यदि वे प्राणी भययुक्त होंगे तो उनसे यतीको बाधा होगी. इधर उधर के प्राणी दाँडंगतो त्रसजीबोका, स्थावरोंका नाश होगा. अथवा साधुके प्रवेशसे उनको क्लेश KHAANIगया . Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधास । होगा. किंवा भागते समय गढमें गिरकर मृत्युवश होंगे जिन्होंने भिक्षा ली है ऐसे अन्यसाधु घरसे बाहर निकलते हुये देखकर अथवा गृहस्थांके द्वारा उनका निराकरण किया हुआ देखकर वा सुनकर तदनंतर प्रवेश करना चाहिये यदि मुनिरर्थ इसका विचार न कर श्रावकगृहमें प्रवेश करें तो बहुत लोक आये है ऐसा समझकर दान देनमें असमर्थ होकर किसी को भी दान न देंगे. अतः विचार के बिना प्रवेश करना लाभांतरायका कारण होता है. दसरे भिक्षा मांगनेवाले पाखंडी साधु जैन साधु प्रवेश करनेपर हमने कुछ मिलने की आशासे यहां प्रवेश किया है यह मुनि क्यों यहां आया है एसा विचार मनमें लाकर निर्भर्सना तिरस्कारादिक करेंगे. इतर भिक्षा मांगनेयाले साधु जहां खड़े होकर भिक्षा या अकरते है अथक मिसाननरहुये साधुको गृहस्थ दान देते है उतना ही भूप्रदेशतक साधु प्रवेश करे. गृहके अभ्यंतर भागमें प्रवेश न करें. गृहस्थाने तिष्ठो, प्रवेश करो ऐसा कहने पर भी अंधकारमें साधुको प्रवेश करना उचित नहीं. अन्यथा उस स्थावर जीवोंका नाश होगा. द्वारादिकोंका उल्लंघन कर जानसे गृहस्थ कुपित होगे. घरमें बकरा जथवा गायका बछडा हो तो उसको लांघकर प्रवेश न करे. अन्यथा वे डरके मारे पलायन करेंगे वा साधुको गिरा देंगे, दीर्घता व चौडाइसे रहित द्वारमें प्रवेश करनेसे शरीरको व्यथा होगी, अंगोंको संकुचित करके जाना पडेगा. नीचे के अवयवोंको पसारकर यदि साधु प्रवेश करेगा तो गृहस्थ कुपित होंगे अथ हास्य करेंगे. इससे साधुको आत्मविराधना व मिथ्यात्वाराधना होगी. संकुचित द्वारसे गमन करते समय उसके समीप रहनेवाले जीवोंको पीडा होगी, अपने अवयवों का महन होगा. यदि ऊपर साधु न देखे तो सीके में खखे हुये पात्रोंको धका लगेगा अतः साधु ऊपर और चारो तरफ देखकर प्रवेश करे. तत्काल लेपी गई, पानी के छिडकावसे गीली, हरा तृण, पुष्प, फल, पत्रादिक जिसके उपर फैले हुए हैं एसी, सचित्त मसि बुक्त, बहुत छिद्रोंसे युक्त, जहां उस जीव फिर रहे है, जहां गृहस्थों के भोजन लिय रंगावली रची है, देवताओं की स्थापनासे युक्त, अनेक लोक जहा बेटे हैं, जहां आसन और शय्या रख है, जहां लोक बैठे हैं और मोय है, जो मूत्र, रक्त, विष्टादिस अपवित्र यनी है ऐसी भूमीमें साधु प्रवेश न करे. अन्यथा उस के संयममें विराधना होगी व मिथ्यात्वाराधनाका दोष लगेगा। साथ भोजन कर जब निकलेगा वय धीरे धीरे गमन करे, नम्र होकर चले. नमस्कार करनेवालाको योग्य आशीर्वाद दवे, इस तरह स्वस्थानगमन करें, REATE Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOR मूलाराधना आश्वास भिक्षाका समय, और क्षुधाका समय जानकर कुछ वृत्तिपरिसंख्यानादि नियम ग्रह णकर ग्राम या नगर में ईर्यासमितीये प्रवेश करे, भोजनकालका प्रमाण जानकर ग्रामादिकसे निकले. जिनमंदिर अथवा यतिका निवास अ नि वसतिका मट इनमें प्रवेश कर प्रदक्षिणा करें. उस समय निसीधिका सदका उच्चारण करे. और जब वहांसे लौटने यमग अमीधिका शब्दोच्चार करे. इसी तरह स्थान, भोजन, शयन, गमनादि क्रिया करते समय भी मुनिओंको प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिये, सब आचारक्रम मैं जानता हूं, मैं गुरुकुलवासी हूं, सूत्रका अर्थ मैं जानता हूं. आचारक्रम अथवा सूत्रार्थ अन्यसे जाननेकी मरेको जरूरत नहीं है. ऐसा अभिमान न धारण करे. शिक्षायामुगलों मवेदिसा.... कंठगदेहिं वि पाणेहिं साहुणा आगमो हु कादब्वो ॥ सुत्तस्स य अत्थस्स य सामाचारी जय तहेव ॥ १५१ ।। कर्तव्या यझतः शिक्षा प्राणैः कंठगतैरपि ॥ आगमार्थसमाचारप्रभृतीनां तपस्विना ॥१५३ ।। विजयोदया-कंठगदेहिं वीस्यादिना । कंठगतैः प्राणैः सह वर्तमानेनापि साधुना आगमशिक्षा कर्वव्यैव सूचस्यार्थस्य सामाचारस्य । कंठगदेहिं वि पाणेहि साहुणा आगमो हु कादयो। मुत्तस्स य अत्यस्स य सामाचारी अध तधेव ॥ २ ॥ मूलारा-इत्येषापि गाथा भिन्नैव ।। अनियतवास करनेवाले मुनीने आगमाभ्यास करना चाहिये अर्थ--प्राणकठमें आगये हो तो भी मुनिका आगमका अध्ययन करना अवश्य कार्य है, जैसे वह सूत्र अर्थ व आचारोंका अध्ययन करता है वैसे आगमका भी अध्ययन करे, Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना ३४९ परिमाणां ध्या- संजदजणस्स य जहिं फाविहारो य सुलभक्ती य ॥ तं तं विहरतो पाहिदि सल्लेहणाजोग्गं ॥ १५२ ॥ मासुकं सुलमाहारं संयतेवरीकृतम् || सलेनोचितं क्षेत्रं पश्यत्यनियतस्थितिः ॥ १५४ ॥ विजयोश्या-संजदजण इत्यादिना । असंयमान्हिसादीन्ज्ञात्वा श्रद्धाय च तेभ्य उपरतो व्यावृत्तः सम्यग्यतः संयतः इत्युच्यते तस्य संयतजनस्य । जति यस्मिन्क्षेत्रे फासुविहारो य प्रासु विहरणं जीवबाधारहितं गमनं अपहरितबहुलत्वा प्ररोदककर्दमत्याच्च क्षेत्रस्य । सुलभकुन्ती य सुखेनालेशेन लभ्यते वृत्तिराद्वारो यस्मिन्क्षेत्र । ते खेत्तं तत्क्षे । णाहिदि शास्यत्यात्मनः परस्य चा । सहेद्दणाजोग्गं सम्यक्कायकायतकरणं सल्लेखना तस्या योग्यं । कः विहरन्तो देशांतराणि भ्रमन् । क्षेत्रपरिमार्गणामाह - मूलारा – फामुविद्दारो जीवबाधारहितं गमनं । प्रसरितोदककर्द माधबहुत्वान् । णाहिदि ज्ञास्यति । आनियतविहारी साधूने क्षेत्रका अवलोकन करना चाहिये. इस विषयका विवेचन करते हैं अर्थ -- असंयमरूप हिंसादि पापोंका स्वरूप जानकर तथा श्रद्धाकर उनसे जो मुनि परावृत्त होते हैं और अपनेको अहिंसादिकोंमें प्रयत्नशील करते हैं उनको संयत-संयमी मुनि कहते हैं, ऐसे संयमी मुनिको प्रासुक विहार करने योग्य क्षेत्रका अवलोकन करना योग्य है. जहां गमन करनेसे जीवोंको बाघा नहीं होगी, जो अस जीव और वनस्पतिओंसे रहित है, जहां बहुत पानी और कीचड नहीं है ऐसा क्षेत्र प्रामुक है. मुनिओकेलिये विहार योग्य है. जिस क्षेत्रमें सुनिओको सुलभतासे आहार मिलेगा वह क्षेत्र अपनेको और अन्य मुनिओको मलेखना योग्य है. शरीर और कषायोको संक्लेश परिणामोंका त्याग कर शाखोक्त विधीके अनुसार कश करना सल्लेखना है. देशांतर में विहार करनेवाले मुनीने इस प्रकार क्षेत्रमार्गणा करनी चाहिये. आश्वास २ ३४९ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TERROSCN आश्व मूलाराधना ३५० न देशांतरभ्रमणमात्रादनियतबिहारी भवति कित्येविध साचष्टे- . वसमातुन उवधीसु य गामे णयरे गणे य साणिजणे ॥ सम्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणियदविहारो ॥ १५३ ॥ श्रावके नगरे ग्रामे वसतायुपधा गणे || सर्वत्राप्रतिबद्धोऽस्ति योगी देशांतरातिथिः ।। १५५॥ इति अनियतविहारसूत्रम् | विजयोदया-वसईसु भइत्यादिना-वसतिषु उपकरणेषु । ग्रामे नगरे गणे धावकजने च । सर्वत्र अप्रति बद्धः । ममेदं बसस्यादिकं अहमस्य स्वामीति संकल्परहितः अनियविहारी भवति इति संक्षेपतः प्रतिपसम्मः ॥ विहारो गदो । न देशांतरभ्रमणमात्रादनियतविद्दारी कित्येवंविधो भयभित्याह-- मूलारा-सणिजणे श्रावकलोके । अपहिबद्धो ममेपमहस्य स्वामीति संकस्परहितः । अनियतविहारः । । सूत्रतः । ६ अंकतः ।। १२ ।। जैनी दीक्षामास्थितोऽभ्यस्तशास्त्रः । श्रेयोमार्गे सार्थवाहावते यः ।। कीर्तिव्यानाशाघर: सोऽगभेदेड । बुद्यनीतिः सद्गतः शश्वदीष्टे ।। इत्याशाधरानम्मृतधमंदर्भ मूलाराधनादणे पदप्रमेयार्थपकाशीकरणप्रवणे ग्रहणशिक्षणप्रतिसेवनाविधिप्रकाशनो नाम द्वितीय आश्वासः ॥ २॥ देशांतरमें भ्रमण करनेमात्रसेही साधु अनियत विहारी कहा जाता है ऐसा नहीं किन्तु अन्य प्रकारसे भी वह अनियत बिहारी कहा जाता है, उसीका खुलासा करते है अर्थ -- यसतिका, उपकरण, गांव, नगर, स्वसंघ, श्रावकलोक इन सचोंमें जो ममत्वरहित है अर्थात ये SOCCASLOAAAALMAME R + Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मेरे है और मैं इनका स्वामी ह ऐसा मनमें कभी संकल्प जो साधु नहीं करता है वह भी अनियतविहारी है ऐसा संक्षपसे कहा जाना है. विहार अधिकारका वर्णन समाप्त हुवा. आश्वास ३५१ अनियतवासादनंतरं परिणाम प्रतिपादयितुं उत्तरगाथा अशुपानिज का दीहो परियामओ वायणा य मे दिण्णा ॥ णिप्पादिदा य सिरसा सेयं खलु अप्पणी कादं ॥ १५४ ॥ पर्यायो रक्षिता दीर्घ वितीर्णा वाचना मया ॥ शिष्या निष्पादिताः श्रेयो विधातुमधुनोचितम् ।। १५६ ।। विजयोदया-अपारिदो य अनुपालिनच सूत्रानुसारेण रक्षितः । दही दीर्घः चिरकालप्रवृत्तिः । परियायो पर्यायः ज्ञानदर्शनचास्त्रितपोरूपः । वायगा वि वाचनापि। मे मया । दिण्णा दता । णिप्पादिदा य सिरसा निष्पादिताश्च शिष्याः । सेयं श्रेयः हितं । अपणो काउं आत्मनः क जुत्तं इति शेषः । एतदुक्तं भवति । शानदर्शनवारिपु चिरकालं परिणतोऽसि । सूत्रानुसारेण परेभ्यश्च निरवधग्रंथार्थदानं च कृतं । शिष्याश्च व्युत्पन्नाः संवृत्ताः । एवं स्वपरोपकारक्रियया गतः कालः । इतः प्रभृत्यात्मन एच हितं कर्तुं न्याय्यमिति चेत पणिधानं इस परिणामाबलेनोच्यते । तथा चोक्तम् अप्पहिय फायव्यं जइसका परवियच कायचं ॥ अपहियपरिहियादो अप्पद्विव सुख काव्यं ।। तृतीय आश्वासः। कतु केवलमात्मने हितमपोह्याशेषबामप्रहम् । श्रेयःसंततिबसिवित्परिणतिर्युक्तस्तपस्यन् श्रुते || सत्त्वैकत्वधृतिप्रबंधविधुतत्रासान्यसंगोर्मिरक् । कार्य प्रायहुताशिहेतुमुभयोमभ्येतु सल्लेखनाम् ।। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आया ३५२ HD अथ गाथाष्टकेन परिणाम प्रणेप्यन तथाभावितधामण्यस्य आत्मसंस्कारसल्लेखनोद्यतस्य मुमुक्षोः समीक्षापूर्वक सहितककरणीयताप्रणिधानमाह मुलारा-परिमाओ व्यवहाररत्नत्रयरूपः पर्यायः । मे मया । सेओ हित । खलु अपणो स्वस्येव घरोप - कारस्य पूर्व फूतस्यात् । काट कर्तुम । युक्तमिति शेषः । उक्तं च-अपहियं कायव्वं जा सका परिहिंद घ कायव्यं । अपहियपरहियायो थप्पहिया कादम्य ॥ अनियतवासके अनंतर परिणामका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरगाथा कहते है अर्थ-मैने बहुतकालपर्यंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूप मनिपर्यायका पालन किया है. मैने शिष्यों को वाचना भी दी है अथीत ग्रंथ और अर्थ दोनोका भी स्वरूप अच्छी तरह समझा दिया है, शिष्य पढाये हैं. वहुत शिष्य तयार किये हैं. अब इस समय अपना कल्याण करना योग्य है. अभिप्राय यह है कि, ज्ञान, दान और चारित्रका मैने चिरकालतक पालन किया है, निदीप ग्रंथ और अर्थ समझाकर शिष्य घुत्पन्न किये हैं, इस रीतीस स्वपरोपकार करनेमें मैने दीर्घ काल बिताया है. अब यहांसे में अपना ही हित करनेके लिये प्रयत्न करूंगा. इसरीतीमे मनकी एकाग्रता करना इसको परिणाम कहते हैं. अपना हित करना ही श्रेयस्कर हैं इस विषयमें पूर्वाचार्य ऐसा कहते हैं अपना हित करना चाहिये. शक्य हो तो परका भी हित करना कर्तव्य है परंतु आत्महिन और परहित इन दोनोमेस कोनमा मुख्यतया करना चाहिये ऐसा प्रश्न उपस्थित होनेपर अवश्य ही उनम प्रकारमे आत्महित करना चाहिये, किणुगु अधालंदविधी भत्तपइण्णगिणी य परिहारो ॥ पादोवगमणजिणकप्पियं च विहरामि पडिवण्णो ।। १५५ ॥ wwnanmitem Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाता मूलाराधना किमालवं परीहारं भक्तत्यागमुगिनीं ।। पादोपगमनं किं किं जिनकल्पं श्रयाम्यहम् ॥ १५७॥ विजयोदया-किं णु अधालंदविधी भत्तपहरण । कोसावधालंदविधिः उच्यते-परिणामः सामथ्य, गुरुविसर्जनं, प्रमाण, स्थापना, आचारमार्गणा, अथालंदमासकरपक्ष । गृहीतार्थाः कृतकरणाः, परीपदोपसर्गजये समर्धाः, अनिगृहित बलवीर्या, आत्मानं मनसा तुलयन्ति । किमयालंदविधिराराधनीयोऽथया प्रायोपगमनविधिरिति । गरिहारम्यानमधी अथालंदविधिमुपगतुकामात्रयः, पंच, सप्त, मघ घा पान मसंगमानीयसंगगाममा, म्यांगरमलगाया अपना मसामर्या विविनायु स्थितयः शिविरं विनापयनि--- ! विमानी : A|| प्रnिal मा स्यविरोधारयति या शरीरेण च तुला परिणामानिशयपिसिनांध कांश्चितनुजाना म lam नि रेण प्रशस्नेऽयकाशे स्थिताः कृतलोमाः, गुरूणामालोवा छत्या वातसमारोपणा अनिगेन आवित्ये कमिलता. म्या - लोचनां श्रोतुं शुसि नैय कर्तुं समुद्यतं स्थापयन्ति । स एव प्रमार्ण गणस्य । आन्मनः महाया याचन्मो गणानिर्गतास्ता. वन्त पप तत्स्थाने स्थापयितव्या गणे। मानारो निरूप्यते-अथालंदसंयतानां लिगं औत्सर्गिक, देहस्योपकारार्थ आहारं वसतिं च गृहन्ति, शर्ष सकल त्यजन्ति । तृणपीठकटफलकादिकं उपधि च न गृअन्ति । प्राणिसंयमपरिपालनार्थ जिनप्रतिरुपतासंपादनार्थ च गृहीतप्रतिलेखना नामांतरगमने पिहारभूमिगमने, भिक्षाचर्यायां, निपधायांच अप्रतिलेखना एव व्युत्सएशरीरसंस्काराः परीपद्वान्सहन्ते नोवा धृतियलहीनाः । अस्ति च मनोबलं संयममाचरितु इति मत्वा प्रयः पंच वा सह प्रपर्तन्ते । रोगेणामिधातेन वा जाताया वेदनायाः प्रनिकियया वा यदा तपसातिश्चान्तास्तवा सहायहस्तावलंयनं कुर्वन्ति । वाचनाविका य न कुर्वन्ति । यामाएके प्यनिद्रा पकन्वित्ता ध्याने यसते । यदि बलादायाता निद्रा सत्रात प्रतिमाः । स्वाध्यायकालप्रतीक्षणादिकाश्च क्रियास्तेपन सन्ति । इमशानमध्येऽपि तेषां ध्यानमप्रतिषियं बाषयकेषु च प्रयतते । उपकरणमतिलेखनां फालयेऽपि कुर्वन्ति । सस्वामिकेषु देवकुलादिषु तदनुमाया घसन्ति । अनायमानस्वामिफेषु यस्येदं सोऽनुशां करोतु इस्थभिधाय घसन्ति । सहसातिचारे जाते अशुभपरिणामे था मिथ्या में दुष्कृतमिति नियतते 1 वशयिधे समा. चारे प्रवर्तन्ते । दानं, पाहणे, अनुपालन, विनया, सहजपनं च नास्ति संघेन तेषां । कारणमपेक्ष्य केषांचिक एव सल्लापः कार्यः । यत्र क्षेत्रे सधर्मा तत्क्षेत्रं न प्रविशन्ति । मौनावप्रनिरताः पंथानं पूच्छन्ति, शंकितव्यं वा द्रव्य शय्याधरगृदंषा । पर्ष सिस्न एष भाषा: | प्रामाद्विरागंतुकागारे कल्पस्थितेनानुनाते बसन्ति । पशुपक्षिप्रभृतिभिर्यत्र ध्याने विघ्नो भवति ततः स्थानावपयांति । को भयान , कुत आयातः, क प्रस्थितः, कियत्काल अत्र भवतो वसन, कति यूयमिति पृपाः श्रमणोऽहमित्येवं प्रतिषचनमेकं प्रयच्छन्ति, इतरे कृततूष्णीभावाः । अपसरातः स्थानादयका मे प्रयच्छ, परिपालय गृहं, इत्यादिको बाम्ब्यापारो यत्राम्येपो भवति, गहिरपि वसतः यदि भवति, ततोऽयामिन। स्थानण Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास: गृह प्रोट, बलान नि यात्रामा मृग्यपारप्या द्विगव्यूतमध्यान गान्त । यदि गमनव्याघातो महायानेन यर्यादिना जातः समतीतगमनकाल पम तिष्ठन्ति । व्यानादिका, व्यालमृगाचा यद्यापति सतोऽपसर्पम्ति न या । पाये कंटकालन, क्षषि रजाप्रवशे या, अपनयन्ति न वा । दृढधृतिकाः मिथ्यात्वचर्याराधनामात्मविराधनामवस्था दोपान्या तस्मात्परिहरन्ति नया । तृतीयपरियां भिक्षार्थमयतरंति । कृपणवनीपफपशुपक्षिगणे अपगते पंचमी पिंप पुर्वन्ति मोन । एकातियतनः गंच वा गोत्रर्यो यत्र क्षेत्रे तजालंदिकयोग प्रचर्तयनित । सरमात्पाणिपायमोजी मिथ्याराथनां न वर्जयति तसा उपमलंप वा मुक्त्वा तापक्षालयन्ति । धर्मोपदेशं कुर्यन्तः तत्पश्रयानि नन्द्रामि भगवता यादमुत्युक्ता अपि न मनसापि वन्ति । किं पुनर्वचसा काथेन । इतरे तत्सहाया धमोपदेश कृत्वा सशिम गुभिनं या गणाधिपतयेऽयन्ति । मत मातिशतधामधेपु गति । काठसा था । चारिप्रतः सामायिकच्छेदोपस्थापनयोः । तीर्थतः मानातीभवती मनि पिंपावर्षभागिता | HINन पकोनविंशतिः । श्रुतेन नयापूर्वधगः । यदतः पुगांसी नम।। मान लेगा । ध्यान धर्मध्यामा । संस्थागता पविधेयम्पसग्मस्थाना देशोनमास्नाति नीया । कालनी भिमसनीयनपूधकोशिकालस्थितया । पिक्रियाचागपाताशीरासायि. पानमय तो जान | immया गया । गमरधिनिर्गतासअधिधिरेप गावयासः । मनिषादालंवधिधिकच्यते-गच्यामिर्गअन्नो पहिः सक्रोशयोजमे बिहरन्ति । सपराक्रमो गणधरी दयाति क्षेत्रात पहिर्गम्यार्थिय। तेण्यपि समर्धा आगत्य शिक्षा गृहन्ति । पको त्रयो या परिवानधारणागुणसमना गुरुखकाशामायान्ति । कृतप्रतिप्रश्नकार्याः स्वक्षेत्र भिक्षाग्रहणं कुर्यन्ति । अपराक्रमस्तु मणधरो गच्छ सूत्रार्थरूपी हरषा अप्रोपानं गन्वा यत्नेन वदात्यर्थपदं । गथवा स्वीपाश्मय एव गणधरो अन्यापसरणं इत्या एकस्मै उपविधाति । यदि गठन्क्षगांतर गणः अथालंदिका अपि गुईनुश्या यांति क्षेत्रं । गच्छनिवासिनः क्षेत्रप्रतिलेखनार्थ प्रयतंते तदा. सत्र मार्गेण द्वी अथालंदिकी यातः। व्याख्याप्तोऽयमथालेवषिधिः। परिकार उच्यते-जिनकल्पस्यासमर्थाः परिहारसयममरं बोढुं समर्थाः भात्मनो बलं वीर्यमायुः परयचायांच कारवा ततो जिनसकाशं उपगत्य कृतविनयाः प्रांजलयः पृच्छन्ति "परिहारसयमै प्रतिपत्तुमिच्छामो युष्माकमागया" इति तच्छुत्या येणे शानमनुसरं उपजायते विनो या तानिवारयति । निसृष्टास्तु यतीन्द्रेण संयतानां कृतनिःशल्याः प्रशस्तमपकाशमुपगता, लोन मृत्या सुनिश्चिता गुरूणां कृतालोचना प्रतानि विशुसानि कुर्वन्ति । परिहारसयमाभिमुणना मध्ये एक सूर्योदये स्थापयन्ति काल्पस्थितं गुरुन्वेन । सच प्रमाण तस्य गणस्य । स चालोचनां श्रुत्वा शुद्धि करोनि । यास्पस्थितमाचार्य मुक्या भोगणामी अग्रे परिहारसंयम गृहन्ति इति परिहारिका भण्यन्ते । शेपास्त. पामनुपरिहारिकाः । पश्चासंयमग्राहिणः अनुपरिहारिका मण्यते । एवं कल्पस्थिते सति ये पश्चात्परिहारसंयमार्थमात्मानमुपसृतास्तानपि स्वगणे प्रक्षिपति गणी । याचद्भिरूनो गणः तावत्प्रमाणं गर्ण कृत्वा परिहारिकाननुपरिहारिकांश य ३५४ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माराधना आधासः ३५५ BHATESEGORIGIOE पस्थापयति । नन परिकारसयम निविशमाना अनुपरिहारिकाच पको ही पहचो या भवन्ति। जदि तिगिण, गणी विदियो परिवारसयम पश्चिण्णो, तदिओ अणुपरिहारगो इये । जदि पंच एको कप्पादिवो, दो परिहारसंजमं पडिया नाति । तेसिपमुहमा सदिगो फ-पद्विदो, तिण्णि परिदारगा, इदरे तिषिण अणुपरिहारगा । जदिणय पगो कप्पष्टिदो, चत्तारि परिहारगी, वत्तारि अणुपरिहारगा 1 छहिं मासे दि. परिहारीणिचिट्ठा हवंति । ततो पच्छा अणुपरिहारी परिहारं पट्टचेदि । सेसि णिधिपरिहारी इयंसेणुपरिहारगे ते पुण मासेहि णिपिटाई भवन्ति । नु कम्पद्विदो पच्छा परिहार पडिचज्जवि । तस्सेगो प्रणुपरिहारी एगो कप्पष्टिदो वि । असोविस छहि मालेहि णिविकृपरिहारगो महारसमासा ते एवं होति पमाणंदा।। - लिंगारिकस्तेपामाचारो निरूप्यते-कोपधिक अपसानं लिंग परिहारसंयतानां । वसतिमाहारं च मुफ्त्या नान्यद् गृहन्ति सृणफलफपीउकटकादिकं । संयमार्थे प्रतिलेखन गृहति । त्यक्तवहाश्व चतुर्षिधानुपसर्मान्सहन्ते । दृढतयो निरंतरं ध्यानावहितचित्ताः । अस्ति नो बलवीर्य सर्वगुणसमग्रता च । एयंभूता अपि यदि भणे वसामो वीर्याचारो न प्रयर्तितः स्यादिति मन्चा प्रयः, पंच, सप्त, नव वैषणां निर्यान्ति । रोगेण चेदनयोपटुताश्च तत्प्रतिकारं च न कुर्वन्ति । प्रायोग्य माहारं मुफ्त्वा, चाचना प्रश्नं परिवर्तना मुक्त्या सूत्रार्थपहिलीवपि सूत्रार्थमेवानुमेक्षन्ते । एवं यामाएके ऽपि निरस्तनिद्रा ध्यायन्ति । स्थाध्यायकालप्रतिलेखनाविकाच क्रियान सन्ति तेषां । यस्मारकमशानमध्येऽपि नपां न ध्यानं प्रतिपिद्धं । आवश्यकानि यथाकालं कुर्वति । 'कालहये तोपकरणशोधना अनुशाप्य वेधकुलादिषु वसन्ति । अनियिमानस्वामिषु यस्येदं सोऽनुशानं नः करोतु इति विशति । आसीधिकां च निधीधिकां च निष्कमणे प्रवेश च संपादयंति । निर्देशक मुफ्त्वा इतरे दशषिधे समाचारे धनते । उपकरणाविदानं, प्रदणं, अनुपालन, नियो, वंदना सालापश्य न संपागस्ति सधेन सह । गृहस्थैरन्यालिंगिभिश्मदीयमान योग्य गन्ति । तरपि न शेपोऽस्ति संभोगः । तो अपाप माला, मनाना, मधानां परसारणारित संभोगः । कालिदो कापी भुमणसघाबयाणगण थि ।। गांधारावणालाषणामप्ति भयो संघामपंचागोगाववाग भापालणानि परिणारि ॥ भणुपरिहारी भुजवि निवसमाणो चंदणसेवासालाधणादि ।। कप्पहिवं भुंजदि अणुपरिहारि पि गहणासंवाटाणाहि ॥ .. तु णिविसमायो णिब्बिसमाण संवासदोण अण्णेण || __कप्पष्टिदो भुजवि संचासणुपासणगिराहिं । कप्पट्टिदोणुकप्पी वंदित्ता घेति धम्मलाहोत्ति । गारात्थ अण्णतिस्थी मण्यतिथीहिं निविसंतो परसुणी को सब्वे वि विणय अण्णोणं गणं पादति वण य सोपूण जत्थ हु साधम्मिगो चसदि खेत्तोतं ण संसति । खेर कुदो हुणो यंदणावीगं || एवं कल्पोक्तः क्रमः सोनुगंतव्यः। RAMATA | ३५५ MASAJasateeI Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्लाराधना आश्थामा A R मौमाभिप्रहरहास्तिो भायाः मुकाया प्रधुम्पादतिम मुसाकरणी ममे ब प्रभूत्ता व मार्गस्प शक्तिस्प वा योग्यायोग्यत्वेन शय्याधरगृहस्प, वसतिस्वामिनो वा प्रश्नः । प्रामावहिः मशान, शून्यगृह, देयकुल, गुहां षा भागेतुकरई, तरुकोटरं वा अनुशापयंत्येकवारं । कस्ब, कुतो धागडसि, गमिष्यसि वा के देश, कियधिरमत्र वसतिथं फतिजना इति प्रश्ने श्रवणोऽहमित्येकमेव प्रतिवचनं प्रयकट्रन्ति । इतरत्र दूष्पीभावः । इतोऽवकाशादपसर्पर्ण कुरु, स्थानमिदं प्रयच्छ, परिपालय गृहमित्येवमादिको चाग्यशपारो यत्र तत्र न वसन्ति । गोचर्या यद्यपर्याप्ता तृतीययामे गयुतिद्वयं यान्ति । वर्षमहायातादिभिर्यदि व्याधातो गमनस्य अतीतगमनकालास्तत्रैव तिम्रति । व्यानादिव्यालागमने यदि ते भद्रा युगमात्र अपसपैति । दुधाश्वेत्पमात्रमपि न चलन्ति । नेप्रयोधूलिप्रवेशे कंटकादिविढे वा स्वयं न निराकुर्वन्ति । परे यदि निराकुर्युस्तूष्णीमवतिष्ठते । तृतीययाम एव नियोगतो भिक्षार्थ गच्छन्ति । यत्र क्षेत्रे षद् गोनर्या अपुनरुक्ता भवन्ति तरक्षेत्रमावासयोग्यं शेश्मयोग्यमिति पर्जयन्ति । क्षेत्रं, तीर्थ, कालचारित्रं, पर्यायं, श्रुतं, वेदः, लेश्या, ध्यान, सहमनं, संस्थान, आयामो माघस्य, वायुः, लन्धयः, अतिशयज्ञानोत्पत्तिः, सिद्धिरिस्येते मिहोगा बहातर्गतम्णः । मेषत: भरतराषतपो, पाम्पारचाल्पयोः तीर्थ, उत्सर्पिणीअषसपियाः कालता, दोपस्थापनाप्रमवाश्चारित्रता, प्रथमतीर्थकरकाले देशोनपूर्वकोटीकायकालः । विशतिवर्षाप्रशतघर्ष कालः पाश्चात्यतीर्थे । जम्मतत्रिंशद्वर्षाः पर्यायतः एकोनर्षिशतिवर्णः। श्रुतेन दशपूर्विणः, वेदेन पुरुषवेदार, लेश्या. तस्तेजःपयशुक्ललेझ्याः, धर्मध्यानपरा ध्यानतः, पाचत्रिकसंहननाः पद्कान्यतरसंस्थानाः । सप्तहस्तादिषचधनु-शप्तायताः। अष्टादशमासाः पूर्वकोटी घामायुः। चारणताहारसिद्धिः, विक्रियाहारासिंच लक्धयः । अवधिमनापर्ययं केवलं पा योगसमाप्ती प्राप्नुवन्ति । सियन्ति था परेषां । संक्षेपता परिहारविधिवर्णना। जिनकल्यो निरूप्यते-जितरागद्वेषमोहा, उपसर्गपरिषदारिखेगसहाः, जिना इव विहरति इति जिनकल्पिका एक पवेत्यतिशयो जिनकश्पिकानां । इतरो लिंगादिराचारः प्रायेण व्यावर्णितरूप एव । क्षेत्रादिभिर्निरूष्यते-सर्वधर्मक्षेत्रेषु भवन्ति जिनकल्पिकार । काला सर्वदा । सामायिकरुयोगस्थागने था बारित्रतः । संघतीर्थेषु तीर्थता । जम्ममा प्रिंधावर्षा । भामण्यत: एकाधिपतियनी । गमावर्षशामिणा । मजः पालेश्याः । धर्म शुक्लण्यामा । प्रथमर्सहनमा, वनस्वभ्यतरसंस्थामा | सजगताविनयधनानापामा । मित्र मुहीदिन्यूना पूर्वयोटिः कालः । बिक्रियाहारकचारणमाशीरामापिधादिकाश्च सपमा कमी आगमन । धिगगास्स न सेवन्ते । अयधिमनापर्ययं केवल वा प्राप्नुवन्ति केचित् । केवालमस्ते मियीन सिस्ति । वहिनकपरो मुगुक्षुर्वीर्याचारानुरोधेग नानाविधापरमाबियोग्यागाचरण विधान्विमृश्य स्थानुरूपे यत्र मति विधत्ते तदुपदेष्टुं गाथाद्वयमाद्द---- मूलारा-अधालंदविधि, अथालंदविधिमृषीणामुत्कृष्टाचरणं । तद्वत्सरिहारं जिनकल्पं च । एषां च स्वरूप RedmateARATHI ThanrAnita+AtARAMATARAHAT ३५६ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारापना आश्वासा नि पूर्वरिभानुलारोगा कि मिशिलागते । साभादमिशिधा, गच्छविनिर्गतगछप्रतिषभेदात् । तत्र तावद्गमाथिमिमाथाले विधिर भिधीयते । परिहारसयममाचरितुमसमर्था अधालंदविधिमुपगंतुकामाश्रयः, पंच सम, नय, वा ज्ञानवर्धन सपन्नास्तीत्रसंगमापन्ना, धर्मानार्यपादमूल निवासिनोऽवधतात्मसामया, विदिनायु:स्थितयो, धर्माचार्य विज्ञापन्ति । भगवन्निकट्ठामोऽधालंदकर्सयम प्रतिपनुमिति । गुच्छया सूरि सामान जानाति । ततस्ते में स्थित्वा कृतलोचा गुरूणामालोचनां कृत्वा कृतघतारोपणा धिरोद्रते सूर्य काल्पस्थितमंत्र गणस्यालोचनां श्रोतुं. नाविभुद्धि प विधातुमुन धायन्ति स एव प्रमाणे गणस्य । आत्मना सह यावन्तो गणानिर्गतास्तावन्त एष तत्स्थाने स्थापवितव्या गणे । गलाचारी निरूपर। अयालघरायशानां लिंगमौत्सर्गिकमेव । कायस्थित्यर्थमाहारं सति कमंडल प्रतिलेखन प ति । शेष परिशाह यजति । प्रतिकायचालिन श्वेत्सरीपहाधीम्सचन्ते । अम्बथा चेत्ततः पूर्वमेवापसरति । रोगेण्याभिघालेन मा जनिता बेबनान प्रविति । षदा तपसातिभान्तास्तदा सहायहस्तानकैबन कुर्वति । अहोरात्रं म पन्ति । यधिका निद्रा तदा रात्री स्वपति छ । स्वाध्यायकाले प्रतिलेखनादिकियास्तेषां न सन्ति ।गशानमध्येऽपि तेषां ध्यानमप्रतिषिमेव । आवश्यकेषु ते प्रयतन्ते । उपकरणप्रतिलेखनं कादयेऽपि कुर्नति । सस्वामिकेषु देषकुलादिषु तत्स्वान्यनुक्षया वसति । अनि तस्वाभिकेषु चस्वेदं सोऽनुशां करोत्वित्यभिधाय वसति । सहसाविचारे जातेऽशुभपरिणामे या मिथ्या मे दुष्कृतमिति निवर्तते । इच्छामिछाकारो य वधाकारो म आसियाणिसिही ।। बापुच्छा पत्रिपुच्छा रणसणिमंतणा य सरपंपा । इस्येवं वशबिधे समाचार प्रवर्तते । संधम सह तेषां दानं, प्रहण, अनुपालने, बिनया, सहभोजनं च नास्ति । कारणमपेक्ष्य केषाचिदेफ एच संलापः कार्यः । यत्र सभा तत्क्षेत्रं न प्रविशन्ति । मौनावमनिरता अपि पंथानं, शंकितव्यद्रव्यं, पाल्याधरगृहका पृच्छन्ति । प्रामाहिरागन्तुकागारे कल्पस्थितेनानुझाते वसंति । पशुपक्षिणमुवेर्थव भयानापिघासस्ससोऽपयालि । को भवान कुरा आयाता, कुन प्रस्थितः, कियन्त फालं अन भवता स्मेय, कति यूयमिनि पृष्टा भगणोऽहमित्येव प्रतिवपनमकमेव प्रयछति । अपसरामः स्थानादवका में प्रयच्छ, परिपालय गृहमित्यादिको जनजल्पो यत्र तत्र न चसंति । बहिरपि वसतां, यदि भवति ततोऽपयान्ति । स्त्रावासगृहे प्रज्वलिते न चलन्ति । चलन्ति ५५ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मायासः ल वा । यदि कंटकादिकं लग्न, चक्षुधि वा.घूल्याविकं प्रविष्टं स्फेटयन्ति न स्फेट यन्ति पा । व्याघ्रादिका, व्यालमृगाचा वा यद्यापतात ततोऽपसर्पन्ति न चा । एका द्वे, तिस्रश्चततः पंच पा गोवर्थो यल श्रेय तत्राथारूंदकयोर्ग मबर्तयन्ति । तृतीययागे प्रविष्टगोचर्या काललाभालामेऽपि गम्यूतिय गस्ति । यदि गमनण्यामामो महापासेन पानिमा मा जानस्तदा तव निष्ठन्ति । यदि कोपि मेषां पापीक्षा शामत तवा मनगापि नेति। परे Rarm भोपदेश कृत्वा सशिख मुडिन बान्येपागाचार्गाणां सं नीत्वा समर्पति । म धमक्ष डोपु सती मर्यदा । सामायिक छेदोषस्थापना बाचरन्ति । जन्मतस्विंशद्वर्षाणि भोगान्गुक्त्या श्रामण्येने फोनषिशशिषमित्र दशपूर्विणः पुरोना, नपुंसपाया वा पनशुक्ललेश्या या धर्मध्यानिनः, षद्संहननेषु संस्थानेषु चैकतरसंहननसंस्थाना देशोनसतहप्तादि यावत् पंचशतो. सेधा अथालंदककालतो जयन्येन भिन्नमुहूर्तायुःस्थितयः, उत्कर्षेण गतवर्षानपूर्वकोटिस्थितिकाः । क्षीरस्वादादितपोलन्धीरपि गरागमसेवमानाश्च भवन्ति । एवं गच्छविनिर्गताथालंदकविधिर्याख्यातः । गप्रतिगद्धाचार्लदकविधिकच्यते । गच्छामिर्गफनो पहिः सकोवायोजने विरनि । पराक्रमो गणधरः क्षेत्राहिंर्गत्वा सेभ्यो ददायर्यपदम् । तेऽपि समर्था आगत्य शिनो गृहसि । एको, यो, यो वा परिक्षामधारणागुणसममा गुरुसकाशमायान्ति । कृतप्रतिप्रशकार्याः स्वक्षेत्रे गत्वा भिश्नां गृह्णन्ति । अपराक्रमस्तु गणघरो गल्छे सूत्राथपोपी कृत्या अग्रोणानं गत्वा यत्नेन ददात्यर्थयदं । अथवा स्योपाश्रय एव गणधरोऽन्यापसारणं कृत्या एकमे उपदि. शति । यदि गछत्क्षेत्रांतरं गणस्तदाथालंदिका अपि गुर्वनुनया गच्छन्ति । यदा गच्छनिवासिनः क्षेत्रप्रतिलेखनाथ प्रयत। तदा तन्त्र मार्गेण द्वावयालंदिको यात इति । परिहार उच्यते । जिनकल्पस्थासमर्थाः परिहारसंयमभार बोढुं समर्था आत्मनो वीर्यमायुः प्रत्यषायांश्च कात्या ततस्तीर्थकरपादमूलमुपगम्य पृच्छन्ति भगवन्परिहारसयममाचरितुमिच्छामो वयमिति । ततो येषां शानमनुत्तरमुपजायते पिनो षा तेभ्योऽन्ये तीर्थकरेणानुमता लोच कृत्या गुरूणामालोच्य व्रतशुदि कुर्वन्ति । परिहारसंयमाभिमुखाना मध्ये एकमाचार्य कल्पस्थित स्थापयन्तीति परिहारका मण्यन्ते । सेषां शेषाः पश्चात्परिहारसंयम रहनतीत्यनुपरिवारका जच्यन्ते । यावन्नो गणाभिर्गतास्तावन्तो जना न कर्तध्याः । यथ पय सानप वा भगिनना केषिस्परिहारसयमान आयान्ति सना से गरी भयोमल्या गायकाव । यदि प्रया को 10), नाय! परिवारमयम प्रतिपन्नः, तृतीयोऽनुपरिहारको भवति । एवं पण्मास। परिहार संयनः परिहार यो नि मन । बोपरिहारी Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना ३५९ परिहारं गृहाति । सोऽपि पण्मासे परिहारे निविष्टो भवति । ततः कल्पस्थित आचार्याऽनुपरिहारकतामा परिहारं प्रविष ते । सो पण्मासैः परिहारे निविष्टो भवति । एवमष्टादशमासाः परिहारप्रवेशने त्रयाणां मुनीनां भवति । एवं पंचानां समानां नवानामपि वक्तव्यम् । इदानी परिहार संयतानामाचार उच्यते । वसतिमाहारं प्रतिलंसनं प गृह्णन्ति । शेषं परिप्र त्यति । गृहस्थैरन्यलिंगिभिर्वा दीयमानं योग्यं प्रतिग्रहन्ति । उत्पन्नचतुर्विधोपसर्गान्सहन्ते । रोगाभिभूता प्रतीकारं न कुर्वन्ति । वाचनादिषु पौरुष यथाकालं कुर्वन्ति । अहोरात्रेऽपि निरस्तनिद्राः | स्वाध्यायकाले प्रतिलेखनादिक्रियास्तेषां न सन्ति । ध्यायन्ति च निरन्तरं यतः श्मशानेऽपि ध्यानं न प्रतिषिद्धं । कालद्वयेऽप्युपकरणानि शोषयन्ति । संबेन सह वंदना, भोजनं, संभाषणं नास्ति। नेषां परस्परमस्ति । भाषात्रयादन्यत्र मीनः । तृतीया गोर्या प्रविश्य लाभावेऽपि यूनिवर्तमापादिना यदि गव्याधातो जायते तदा ते निष्कान्तगमनकालास्तचैव सन्ति । शुभगाश्रमपसरन्ति । अथ दुष्टास्ते परमपि न लेमन्ते । अक्षिणि परिस्फेटने तु तूष्णीका | क्षेत्रः सर्वधर्मक्षेत्रेषु भवन्ति । ततः सर्वतीर्थेषु । कालः सर्वदारिगः सामाविस्थाप निकाः । जन्मणि भोगभोजिनः । तपसेकोनविंशतिषकाः । भुतेन नवदशपूर्विणः । वेन पुरुषः । श्या: शुभत्रिलेश्याः । ध्यानतो धर्मध्यानिनः संहननवत्र्यादिविक संहननाः | संस्थानतः पडेकतरसंस्थानाः । उत्सेधतः सप्तस्वतायाः परिहारको अन्येनाष्टादशमासायुकाः । उत्कर्षेण वनाः पूर्वकोयायुकाः । श्रीरा दाहिनोसाद म्योन्नदीविरागवते । शकुयाविन्नभूम्यां गमनाभावादुत्किदेव पण्मासं निमानिनः योग केवलं वाप्नुवन्ति एवं परियम त्रिधर्मेणवः ॥ 1 जिनकल्पो निष्यते जितरागद्वेषमाः परिगरिसड़ा जिला एव विहरन्ति इति जनकल्पिताः । वे च एक बिहारिणः । पूर्वोक्तपरिहार संयताचारलक्षणसमग्रा: । अयं तु विशेषो धर्म्यशुक्लध्यानिनस्ते जघन्येनाभिअमुहूर्तायुकाः अवधि मनः पर्यर्य, केवलं वा प्राप्नुवन्ति । अर्थ - अथालंद विधि, भक्तप्रतिज्ञा, इंगिनीभरण, परिहार विशुद्धिचारित्र, पादोपगमनमरण और जिनकल्पावस्था इनमेसे कोनसी अवस्थाका आश्रय कर मैं रत्नत्रयमें बिहार करूं ऐसा विचार करके साधुको धारण आश्वासः ३ ३५९ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 45 मूलाराधना आश्वास फन योग्य आ हारण माधि मरण पारना नाहि. अब आलंदविधिका स्वरूप टीकाकार कहते हैं पागाम, गागरुक ना अनुमति मिलना, प्रमाण, स्थापना, आधार मार्गणा और अथासंद मास फरप इनका वर्णन इस प्रकरण में आवंगा. जिनको आगमार्थका स्वरूप ज्ञात हुवा है, अपना मुनिअवस्थाका कर्तव्य जिन्होंने किया है, परीषद और उपसर्गको जीतनेमें जो समर्थ है, अपना बल और वीर्य जिन्होंने व्यक्त किया है, ऐसे मुनि क्या हम आलंद विधि धारण कर सकते हैं या प्रायोपगमनविधि धारण कर सकते हैं ऐसा विचार मनमें करते है. परिहार विधि धारण करने में असमर्थता मालूम करनेपर अथालंदविधीको धारण करते हैं. अथालंदविधीका स्वीकार करनेकी इच्छा रखनेवाले तीन, पांच, सात अथवा नउ मुनि जो कि ज्ञान और दर्शन संपन्न है, तीत्र संसारभीरुताको धारण करते है, धर्माचार्यके परण कमलका आश्रय करते हैं, जिनको अपने सामथ्र्यका ज्ञान है, अपनी आयुष्य स्थिति जिनको मालुम हो चुकी है, धर्माचार्यको प्रार्थना करते हैं. हे भगवन् । हम अथालंदविधीका आभय लेना चाहते हैं, धर्माचार्य उनकी विज्ञप्ति सुनकर जो धैर्यहीन, शरीरसामध्यहीन है, जिनके परिणामोमें अतिशयपना नहीं है उनको स्यागकर, धैर्यादिगुणविशिष्ट पनिओंको अनुशा देते हैं. गुरुले परवानगी मिलनेपर गुरुके साथ वे प्रशस्त स्थानमें ठन्चरफर लोप करत है. गुरूके सामने दोपोंकी आलोचना करते है. आलंदविधीके प्रतोंका अपनेमें आरोपण करते है. सूर्यादयके अनंतर घोट समयमही कल्पस्थित सुनिआमस एकको जो कि गणकी आलोचना सुननेके लिय और व्रतशुद्धि करनेके लिये उद्यत है, स्थापना करते हैं. वह ही गणके लिय प्रमाणभून माना जाता है, अपनेका साहाय्य करनेवाले जितने मुनि गणसे निकले है उसने मुनि संघमें उनके स्थान में स्थापन करने चाहिये. अब इन मुनिका आधारक्रम फड़त है-- था विभिगो गालनेवाले मुनि औसगिक लिंग धारण करते हैं. अर्थात् नमही रहते हैं. दहोपकारार्थ आचार, घसरिफा, कागबाट छिकाया आभय लेते हैं. घावी सच परिग्रहका त्याग करते हैं, तृण, चटाई, फलक गरह उपाधिका माग फरत है. प्राणिमयमका रक्षण करने के लिय और जिनरूपताका संपादन करने के लिये पिडिफा धारण करते हैं. यदि धैर्य और चलसे रहित न होंगे तो अन्य ग्रामको जाते समय, मठादि भूमीके तरफ गमन करते समय, आहार लेते समय, बैठते समय, प्रति लेखन नहीं करते है अर्थात पिच्छिकासे शरीरस्पर्शन नहीं .६७ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आधासा करते हैं. शरीरसंस्कारको छोड़ देते हैं. और परिपहों को सहते हैं. हमारमें संयमाचरण करनेके लिये योग्य मनोबल है ऐसा विचार कर तीन वा पांन मुनि मिलकर प्रवृत्ति करते हैं, रोगसे अथवा आघातसे वेदना उत्पन्न हो तो उसका इलाज नहीं करते हैं, नपसे जब आंतशय थक जाते हैं. तब अपने सहायकोंका हस्त-हाथका आश्रय लेते है. वाचना छानादि काका व न्याग करते हैं. अहोरात्र में कदाचितभी नहीं गोते है, एकचित्त होकर ध्यानमें प्रयत्न करत है. यदि बलात् निद्रा आ जाब तो वे प्रतिज्ञा नहीं करते है अर्थात मै सोउंगाही नहीं ऐसी प्रतिज्ञा नहीं करते है. अथात् रात्रमें सोते भी है. स्वाध्यायकालमें प्रतिलेखनादि क्रिया उनको नहीं है. श्मशानमें भी उनके लिये ध्यानका निषेध नहीं है. सामायिकादिक अवश्यकॉमें चे प्रयत्न करते हैं. प्रातःकाल और सायंकालमें पिच्छिका कमंडलु इनका वे संशोधन करते हैं. जिनमदिर, वसतिका वगैरह सस्वामिक हो अर्थात् उनके कोई मालिक हो तो उनकी अनुज्ञासे वे उसमें रहते हैं. यदि इनके स्वामीका पता मालूम न हो तो जिसके ये जिनमंदिरादिक हैं वे हमको ठहरनेकी अनुज्ञा देने' ऐसा कहकर उनमें ठहरते है. सहसा अतिचार या अशुभ परिणाम हो गया तो 'मिथ्या मे दुष्कृत' ऐसा बोलकर अतिचार व अशुभपरिणामसे निवृत्त होते हैं. दश प्रकारके ममाचारों व प्रवृत्ति करते है. उनकी गंधक साथ दान, ग्रहण, विनय, आपस में बोलना ये क्रियायें नहीं होती हैं. किसी कार्यकी अपेक्षासे उनमेंसे एक मनि भापण करते हैं. जिस क्षेत्र में सधर्मा मुनि होंगे उस क्षेत्र में चे प्रवेश करते नहीं है. मौनका नियम होते हुए भी वे रास्ता पूछते हैं, किसी पदार्थ शंका उत्पन हुई हो तो उसके निराफरणार्थ प्रश्न करते है. वमतिकाका जो स्वामी है उसके घरका पता पूछते है. इस तराधीन विषयों में ही वे बोलने है. गांवकं बाहर जहाँ प्रयासी लोक ठहरते हैं ऐसे स्थानमें कम्पस्थित मुनि यदि अनुसाद मो ठहरते है. पण, पक्षी वगैरह प्राणियास जहां ध्यानमें विन होता है वह स्थान चे छोडते हैं. आप कोन है ? आप कहांसे आये है? आप कहाँ जा रहे है, आप यहां कितने समयतक ठहरेंगे, आप कितने मुनि हैं ऐसा पूछने पर मैं श्रमण अर्थात मुनि है इतना एक ही प्रत्युनर दने हैं. अथवा इनर मुनि मौन धारण करते हैं. इस स्थानसे हटो, मेरको यहां रहनेके लिये स्थान दो, मरे परका रक्षण करो. इस तरहसे यदि कोई गृहस्थादिक उनको बाहर ठहरते हुये भी बोले तो वहांसे भी चे चल जाते है. जिसमें वे ठहरे हैं उस घरको यदि आग लगी तो वे यहांसे गमन नहीं करते है. अथवा गमन करते हैं. आहार यदि नहीं मिला तो तीसरे प्रहरमें दो गम्युति प्रमाण मार्ग वे जाते हैं, यदि बढे वायुसे, महाराष्टिसे Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृलाराधना ३६२ गमनमें रुकावट उपस्थित हो तो वहां ही ठहरते हैं. आगे जात नहीं. व्याव वगरह प्राणी अथवा दुष्ट पशु यदि रास्तमें आये तो उस रास्तेसे हट जाते हैं अथवा इटते नहीं है. पायमें यदि कांदा चुभ गया, आखोंमें यदि धूलीके कण गये तो व निकालते हैं अथवा नहीं भी, रद्ध धैर्ययुक्त ऐसे वे मुनि मिथ्यात्वचाराधना व आत्मविराधना और अन्य दोषोंका परिहार करते है अथवा नहीं है. तृतीययाममें भिक्षाके लिये ये उतरते हैं-आन है, कृपण, यामक पशु पक्षी, ये सब चले जानेपर आहार लेनकी इच्छा करते हैं और मौन धारण करते हैं. एक, दोन तीन, चार अथवा पांच गोचा जिस क्षेत्र में होती है उस क्षेत्रमें आलंदिका योग करते है. [ जिससे पाणिपात्रम भोजन करनवाला मिथ्यावका त्याग नहीं करना है. उसस लपाहार अथवा अलपाहार का भक्षण कर उसका व प्रक्षालन करत है । इसका अभिप्राय ध्यानमें आना नहीं है. ] धमापदेवा पारनमें यदि कोई पुरुष आपके घरगणमूलमें मैं दीक्षा लेनेकी इच्छा करता ऐसा कहे तो भी उसको दीक्षा दनका विचार य मनसे भी करते नहीं फिर वचन और शरीर के द्वारा वे उसको क्यों दीक्षा देंगे? उनको साध करनेवाले अन्य सुनि समपदेश देकर शिवसात अथवा मुंडन जिसने किया है ऐसे उस पुरुषोंको आचार्यके सन्निध ले जाते हैं, क्षेत्रकी अपेक्षासे ये अथालंद विधि करनेवाले मुनि एकसो सत्तर कर्मभूभीमें होते है. कालकी अपेक्षासे देखा जाय तो हमेशा होते हैं. चारित्री अपेक्षासे इनको सामायिक और छेदोपस्थान ऐसे दो चारित्र होते हैं. तीथकी अपेक्षास सर्व तीर्थकरोंके तीर्थ में ये उत्पन्न होते हैं, जन्मसे तीस वर्ष तक भोगों को भोगकर मुनि अवस्था में उन्नीस वर्ष तक रहते हैं. अनंतर अथालंदक विधिको धारण करते हैं, ज्ञानकी अपेक्षासे इनको नो या दस पूर्वोका शान रहता है. वेद की अपेक्षासे ये पुरुषवेदी या नपुंसकवेदी रहते हैं. लेश्याकी अपेक्षासे ये पन व शुक्ल लेश्याके धारक होते हैं. ध्यानकी अपेक्षासे ये धर्मध्यानी होते हैं, संस्थानकी अपेक्षासे छहों संस्थानामसे किसी एक संस्थानके धारक होते हैं, इनके शरीरका प्रमाण कुछ कम सात हाथसे पांचोधनुष्यतक रहता है. कालकी अपेक्षासे जघन्य आयुध भिन्नमूहत और उत्कए आयुःस्थिति आलंद क विधि धारण करने के पूर्व जितना आयुष्य व्यतीत हुआ है वह पर्व कोटिमें कम करना यह उत्कृर स्थिति समझनी चाहिये. उनको विक्रियाऋद्धि. चारण ऋद्धि क्षीरासावित्व अद्धि इत्यादि ऋद्धियां प्राप्त होती है. परंतु विराग होनसे उनका सेवन नहीं करने हैं. गच्छग निकल Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आभार कर आलंदविधि करनेवाले मुनिओंका यह स्वरूप दिखाया है. अब गच्छप्रतिबद्धालंदकविधिका विवेचन करते हैं गच्छसे निकलकर बाहर एक योजन और एक कोसपर ये मुनि विहार करते हैं. शक्तिमान आचार्य क्षेत्रक बाहर जाकर उनको अर्थपदका अध्ययन कराते हैं. अथवा आलंदविधि करनेवालों मेंसे समर्थ मुनि आकर उनके पास अध्ययन करते हैं. एक, दो या तीन मुनि जो कि परिधान, धारणा वगैरह गुणोंसे परिपूर्ण हैं वे गुरुके पास आते हैं. प्रश्नका कार्य करनेपर अपने क्षेत्र में जाकर आहार ग्रहण करते हैं. शक्तिरहित आचार्य गछमें सूत्रार्थ पौरुषी करके गांवके निकट अनमें जाकर यत्नसे अर्थषदका अध्यापन करते हैं, अथवा अपने आश्रय स्थानमें ही वे इतर शिप्याको दूर करके गकको पढाने हैं. यदि गच्छ क्षेत्रांतरको चला जायगा तो आनंदविधि करनेवाले मुनि मी आचार्यका अनुज्ञा संकर क्षमाताको जाते हैं. जब गच्छनिवासी क्षेत्रकी शुद्धि करनेका प्रयत्न करते हैं अथान कोनगा क्षेत्र योग्य है इसका यदि अन्वेषण करते है तो आलंदविधि करनेवाले दो मुनि भी उस क्षेत्र गागम जाने हैं. इस प्रकार यह अथालंदविधिका विवेचन पूर्ण हुआ. अब परिहाराविधिका विवचन करत है जिनवाल्पको धारण करने में असमर्थ ऐसे पनिराज परिहारसंयमका भार धारण करते हैं. अपनी शक्ति, धीप, आयुष्य, उपसगादिक विघ्न जानकर य जिनेन्द्र भगवान के पास जाते हैं. विनय कर और हान जोड कर है भगवस ! हम आपकी आज्ञाम परिवारसंयम धारण करनकी इछा करते है. उनका यह भाषण सुन कर जिनको उत्कृष्ट का था। कंबलदान उत्पन्न होगा. अथवा जिनको विघ्न उपस्थित होगा उनको जिनभगवान रोकते हैं. जिनको जिननावानने आज्ञा दी है व मुनि निःशग होकर प्रशस्त स्थान में जाकर लोच कर, उत्तम निश्चयसेगुरुके पाम आलोचना करते हैं और व्रतोंको विशुद्ध करते हैं. परिहार संयमके अभिमुख हुए मुनिआमसे एकको मूदिय में कल्पस्थित आनार्य पदवीपर स्थापन करते है. वह उस गणमें प्रमाण माना जाता है. वह गणकी आलोचना सुनकर शुद्धि करता है, कल्पास्थित आचार्यको छोडकर शेष मुनिओंमें अर्धमुनि प्रथम पारिहारसंथम ग्रहण करते हैं. और बाकी के मुनि नंतर परिहारसंयमको ग्रहण करते हैं अतः उनको अनुपरिहारफ कहते हैं. इस रीतिसे जो पीछेस संयम Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासः ग्रहण करने के लिय आचार्यक पास आते हैं उनको भी अपने गणमें स्वीकारते हैं. जितने मुनिओंसे गण कम हैं उतने प्रमाणका गण करके उसमें परिहारक और अनुपरिहारककी व्यवस्था करते हैं. इसलिये परिहारसंयममें प्रवेश करनेवाले अनुपरिहारक मुनि एक दो और तीन होते हैं. यदि तीन युनि गणमें होंगे तो एक गणी है, दुसरा मुनि परिहार संयमको स्वीकार करनेवाला होता है और तिसरा अनुपरिहारी होता है. यदि गणमें पांच मुनि होंगे तो एक कल्पस्थित आचार्य, दो मुनि परिहार संयमके धारक और दो मुनि अनुपरिहारक समझने चाहिये. यदि सात मुनि होंगे तो उसमें एक गणी, तनि परिहारसंयमी और नीन अनुपरिहारक मुनि होते हैं. यदि नो मुनि हो मो एक गणी पार परिहारफ मुनि और चार अनुपरिहारी मुनि समझाने चाहिये. हमाम होने के बाद अनुपरिहारी गुनि परिहारगया में पूर्ण पायर होता है. नेसर अनुपरिहार्ग परिहार गयमको ग्रहण करता है, वह भी छह गागर्म परिहारमें निविष्ट होता है. सबनेगर फापस्थित आचार्य जो कि अनुपरिहार तथा परिहारक होता है. वहभी हमासके अनंतर परिहार में निविष्ट होता है. इस गनास तीन निओंको परिहारके प्रवेश प्रमाणसे अठारहमास परिहार चरित्रमें लगते हैं. अब परिहार संयत मुनिओका लिंगादिक आचार क्रम कहते हैं परिहार संयतमुनि वसति और आहारको छोड़कर अन्यका स्वीकार नहीं करते हैं. तृण, फलक, आसन, चटाइ आदिक यमके लिये ग्रहण करते हैं. पिच्छिका भी मेयमके लिये पाम रखते हैं. शरीरमे प्रेम हटाकर पार प्रकार के उपमग सहन करते हैं. उनमें दृढ धेय होनेसे वे ध्यानमें निरंतर निमग्न रहते हैं. हमारेमें बलवीर्य और सर्व गुण है नथापि यदि हम गणमें निवास करेंगे तो हम वीर्याचार आचरणमें कैसा ला सकेंगे गया समझकर व नीन, पांच मान अथवा नो एपणाके लिये आहारके लिये जाते हैं. (१)रोगसे और वेदनासे पीडित होनेपर भी उसका इलाज नहीं करते हैं. अयोग्य आहारको छोड़ देते हैं. वाचना, प्रच्छना, और परिवर्तन रूप स्वाध्यायको छोड सूत्रार्थ पौरुषीमें भी (?) सूत्रार्थकाही वारवार अनुमनन करते हैं. इस रीतसे आठों प्रहरीमें भी निद्राका त्याग कर ध्यान करते हैं. चिंतन करते हैं, स्वाध्याय कालमें प्रतिलेखनादि क्रिया अर्थात् पिच्छिकामे अंग पोछना वगैरह क्रियायें इनको नहीं होती है। क्योंकि श्मशानमें भी उनको ध्यानका निषेध नहीं है। यथाकाल में आवश्यक क्रियायें वे करते हैं. सायंकाल-सूर्यास्त समय और सूर्योदयके समयमें उपकरणोंको शुद्ध २६४ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास करते हैं. जिनमंदिरादिकोंमें अनुज्ञा लेकर वे रहते हैं, जिनके स्वामीका परिज्ञान नहीं है ऐसे मंदिरों में जिनके ये स्थान हैं वे यक्षादिक हमको आज्ञा देवें ऐसा बोलकर वहां निवास करते हैं. असीधिका व निषेधिका ये दोन विधि बाहर निकलनेके और अंदर प्रवेश करनेके समय करते हैं, निर्देशको छोडकर आकीके दश प्रकारके समाचारों में वे प्रवृत्ति करते हैं. उपकरणादिकाको देना, और ग्रहण करना, अनुपालन करना, बिनय करना, बंदना करना, अन्योन्य गंभाषण करना इन बातोंका मंधक माथ बे न्याग करते हैं. गृहस्थ अथवा अन्य लिंगिधोने साधुओन योग्य बस्तु दी तो वे लेते हैं. परंतु उनके साथ भी विनय, चंदना वंगर बातें वे नहीं करन है. तीन, पांच, सात और नो ऐसे उन मुनिओंका दानादि विधि परस्पर होना है, कप्पटिदोणुकप्पीइति-कल्पस्थित आचार्य और परिवार गंयम पालनवाले दूसरे मुनि इनका परस्पर व्यवहार होता है अर्थात् महायता देना, ग्रहण करना, एक स्थानमें निवास करना, वंदना करना और परस्पर बोलना ये विधि होते हैं. जो पीछेसे परिहार संयम धारण करते है व अनुपरिहारी हैं। चे परिहारीके साथ संत्राम, वंदना, विनय, अनुपालना ये विधि करते हैं. अनुपरिहारी परिहारसंयममें पूर्ण प्रवेश करनेवाले मुनिके माथ चंदना, संचास मुंभापण ये विधि करते हैं. कल्पस्थित आचार्य मुनि अनुपरिहार्गके माथ ग्रहण, संबाम स्थान ये विधि करते है. परिहारगंधममें पूर्ण अवश करनेवाले मुनि अपन गाधीक साथ अर्थात परिहारमयम पण धारण करने वालोंके साथ संवास ही विधि करते हैं दूसरा विधि नहीं करते है, कल्पस्थित आचार्य इतर मुनिक साथ रहत हैं च प्रसनतास भाषण करते हैं. कलपस्थितको अब अनुकल्पी वंदन करते हैं तत्र कल्पस्थित धर्मलाभ गया कहते हैं. गृहस्थ अन्य धर्मी साधुओंको मार्गका संशय हो तो पूछते हैं व गणके साध बोलते है. जहां माधर्मिक मुनि रहते हैं उनको देखकर अथवा सुनकर उनके क्षेत्रकी प्रशंसा नहीं करते हैं, तो बंदनादिक क्यों करेंगे? [ इन गाथाओंका अर्थ संपूर्ण तया ध्यानमें नहीं आता है. भूल हुई होगी. पाठक सुधार लेवे.] इस रीतीसे कल्पोक्त सर्व कार्य जानना चाहिये. ये परिहार संयमी तीन भाषाओंको छोडकर मौनव्रतको धारण करते हैं. किसीने प्रश्न पूछा तो उसका संदेह दूर करना, धर्मकार्यमें अनुज्ञा देना और स्वयं प्रश्न करना ऐसी तीन भापायें वे बोलते हैं. विहार करते समय मार्गके ३६. TOTopicial Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवास भुलाराधना ३६६ | - - विषयमें शंका हो जैसे यह मार्ग कहां चला जाता है इसका यदि निर्णय न हो तो, उपकरणादिक योग्य है या अयोग्य हैं इसका निर्णय होनेके लिये, और शय्याधरका घर और बसतिकाके स्वामी इस विषयमें वे प्रश्न करते हैं. (वसतिकाको चनानवाला, उसकी मरम्मत करानेवाला और यहां आप ठहरो ऐसा कहकर वसतिका देनेवाला इन तीनोंको शय्याधर कहते हैं.) ग्रामके बाहर, श्मशानमें, शून्य घरमें, देवगृहमें, गुहामें, प्रवासी रहनेके घरमें अर्थात् धर्मशालामें और झाडके पोलमें एकवार अनुज्ञा लेकर रहते हैं. आप कोन हैं, आप कहांसे आये हैं, आप किस देशको जानेवाले हैं. यहां आप कितने दिन ठहरेंगे, आप कितने जन है, ऐसे प्रश्न करनेपर मैं मुनि हूं या एक. ही उत्तर देते हैं, अन्यसमयमें ये मौन धारण करते हैं. इस स्थानम तुम चले जाओ, हमको गह जगह दो, इस घरको संभालो या बाद कोई भापण तो उस स्थानमें वे रहने नहीं है, तीसर प्रहरमं आहारको जान है उस समय भिक्षा मिले अथवा न मिल हमेशा दो गगनितक विहार करते हैं. घृष्टि, जोरग बेहनवाली हवा इत्यादिकोसें यदि बाधा हो जहां तक गमन किया है वहां ही ये स्थिर रहते हैं. च्याघ्रादि प्राणी, दुष्ट बैल बंगरह पश आनेपर यदिथे भद्र हो वा पारमान जमीन व पीठं हटते हैं. पदि दुष्ट हो तो एक पैर भी य इटने नही. वहो ही स्थिर बंद होते हैं. नाम चल यदि गई हो अथवा पायमें यदि कांटा चुभ गया हो तो स्वयं व मुनि निकालते नहीं है. यदि वगरे कोई पुरुष निकाले सो मौन रहते है. नीसरे प्रहरमें ही नियमसे भिक्षाको जाते हैं. जिस क्षेत्रमें छा भिक्षा अपुनरूरत होती है यह क्षेत्र रहने के लिये योग्य समझते हैं, पाकीका क्षेत्र अयोग्य समझते हैं, क्षत्र, तीर्थ, काल, चारित्र, पर्याय, श्रुत, बद, लेश्या, ध्यान संहनन, संस्थान शरीरकी दीर्घता, आयुष्य, लब्धि, अतिशय ज्ञानोत्पति और सिद्धि, इतने नियोग यहां वर्णन करने योग्य है ऐमा समझना चाहिये. ये मुनि क्षेत्रकी अपेक्षासे भरत और ऐरावत क्षेत्रमें होते हैं. तीर्थकी अपेक्षासे पहिले तीर्थकर व अन्तिम तीर्थकरके समय होते है. कालकी अपेक्षासे उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालमें होते हैं, चारित्रकी अपेक्षासे उनको छेदोपस्थापना चारित्र होता है. प्रथम तीर्थकरके समयमें इनके शरीरकी अवस्था देशोनपूर्व कोटी रहती है, और अन्तिम तीर्थकरके समयमें एकसो बीस वर्णकी अवस्था होती हैं, जन्मतः तीस वर्षतक भोगोपभोगका सुख-अनुभव लेकर मुनिपर्याय में उनीस वर्ष व्यतीत होते हैं. इनको दशपूर्वीका ज्ञान होता है. वेदसे ये पुरुषवेदी होते हैं. लेण्याकी अपेक्षासे इनको तेजो लेश्या, पालेश्या और शुक्ल लेश्या होती है. ध्यानकी अपेक्षासे उनको धर्मध्यान - - Na-24 - - ६६ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास होता है. इनको पहिले तीन स्थान होते हैं. और छहों संहननोमसे कोई एक सहनन होता है. इनके देहकी अव गाहना माता लवर पांगगा धनुध्यपर्यत होती हैं. इनका आयु अठारह मास अथवा पूर्व फोटी होता है, उनको पारण माजि, आहारमा प्रति अथवा विक्रिया गति और आहारक ऋद्धि होती है, यांगसमाांक अनंतर अवधिज्ञान, मनःपर्यय अथवा केवल ज्ञान उत्पन्न होना है. इस तरह परिहार संयमका विधि कहा है. जिनकल्पका निरूपण जिन्होंने राग द्वेप और मोहको जीत लिया है, उपसर्ग और परीपहरूपी शत्रुके वेगको जो महते हैं और जो जिनेंद्र भगवानके समान विहार करते हैं ऐसे मुनिओंको जिनकल्पी मुनि कहते हैं. इतनी ही विशेषता इन मनिआ में रहती है. बाकी सर लिंगादिक आचार मायः जैसा पूर्वमें वर्णन किया है वैसा ही इनका भी समझना चाहिये. क्षत्रादिकोके द्वारा इनका वर्णन करते हैं - सर्वधर्म क्षेत्रों में ये जिनकल्पी मुनि होते हैं. कालकी अपेक्षासे ये मुनि सर्व कालमें होते हैं. ये मामायिक और छेदोपस्थापना चारिप धारक होते हैं, तीर्थकी अपेक्षारो पर्व तीर्थकांकि तीर्थ में इनकी उत्पति होनी है. जन्मग तीस पपतक भोगोंको भोगते हैं. तदनंतर उन्नीस अप तक मुनिपर्यायमें रहकर अनंतर जिनकल्पी मुनि होते है. इनको नो या दश पोंका ज्ञान होता है. इनको तेजोलझ्या. पीतलश्या, और पालेश्या ये लेश्यायें होनी हैं. धर्मध्यान और शुकलध्यान में लीन रहते हैं. इनका प्रथम संहनन बर्षमनाराच नामका होता है. छहसंस्थानों से कोई एक मस्थान होता है. इनके देहका आयाम सात हाथको आदिलेकर पाचसो धनुष्य पर्यंत होता है. इनका जघन्य आयष्य मित्रगहनादिक रहता है. आर. उत्कृष्ट आयप्य कुल कम पूर्व कोटि वर्षका होता है. इनको विक्रिया, आहारक, चारण और क्षीगाविनादिया माद्धि होती है, परंतु पपीतराग होनसे उनका उपयोग करते नहीं. इनको अवधिज्ञान और मन। पर्यशान होना है. कितनाहीको कवलजान भी होता है. जो कंबली होते थे नियमसे मोक्ष प्राप्त कर ३६७ न Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवासः SPORONSHDSIS एयमथालंबाविक प्रतिपय चारित्रविधि मयोरसाल। कर्तपा इति विचारयति एवं विचागयत्ता सदि माहप्पे य आउगं असन्दि ।। अणिमूहिदबलविरिओ कुणदि मदि भत्तबोसरणे ॥ १.५६ ॥ सत्येव स्मृतिमाहात्म्ये विचार्य सति जीवित ॥ भक्तत्यागे मतिं धत्ते बलवीर्यनिगरकः ॥ १८ ॥ बिजयोदया-एवं विचारयिता-चमुनेन प्रकारण 1 विधायित्ता विचार्य । मदिमाहापे व स्मृतिमाहात्म्ये च । अपदि भाउगे भायुष्यसति दीर्थे । अणिगूहिदबलायरिंगो असंवृतबलसहाय वीर्य आहारमायामाभ्यां कृतं श्वले । कुणः करोति । मह मनि । भभघोमरण । भज्यते मन्यते इति भतः आहार । नग्य न्यागं आहागण रमयसा. धनेन शरीस्थिति चिरं कृत्वा व परोपकारः कृतः । आधुप्यस्ये न शरीरमवस्थातुमलमाहारग्रहणऽपि । तन श्याज्यो मयाहारः इति भालोऽस्य । अत पत्र सूत्रकारणेदमुक्तं नीदो गरियामो इति । अवमिप्रकासाल्पताच्यापनाय न केयलमायुषोऽल्पता एव भनत्यागमतेः कारणं, अपि तु अन्यदपीति ।। मूलारा-सदि माइप्पे स्मृतिमाहात्म्ये। जह्मा चरित्तसारो इत्यादिजिनागमरहस्योपदेशश्रवणाहितसंस्कारो. ड्रोधवशान्मरणान्तेऽपश्यमई विधिना सोसनां करिष्यामि इत्यंभूतायाः स्मृतेर्माहात्म्ये स्फारीभावे सति । न परमव । असदि आयुष्यसति च । ईपत् सत् असत् तस्मिन् असति । अल्पे सतीत्यर्थः । इस रीतीम अथालंदादिक विधीको जानकर चरित्र धारण करने में मेरेको उत्साह करना योग्य हैं इसका विचार मुनि करत है अर्थ-उपर कहे हए अथालंदादि चारित्रविधि का विचार कर चारित्र धारण करना ही आगम पहनका सार है. मैं मरणसमयमें अवश्य सल्लखना धारण करूंगा इस तरहका स्मृतिमाहात्म्य यदि शत्मामें स्फुरायमान होगा तो मुनि आहारका त्याग करने में बुद्धि लगाते हैं, अपना आयुष्य अब दीर्य नहीं है रह भी Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारामना आश्वासः || जब उसको मालुम पड़ता है तो यह आहारका त्याग करने मतिको उक्त करता है. उस समय आहार और व्यायामसे प्राप्त किया हुआ बल वह छिपाता नहीं है. धर्म साधनको सहायता प्रदान करनेवाले आहारसे मैंने शरीर धारण कर चिरकाल तक स्वपरोपकार किया है. परंतु जर आयुप्य थोडा रहता है तब शरीर, आहार ग्रहण करनेपर भी टिक नहीं सकता है. इस लिये मेरेको अब आहारका त्याग करनाही योग्य है. ऐसा वह मुनि विचार करता है. दीर्घकालतक मैन यह मुनिपर्याय धारणा किया है अन आणज्य बना रहा है. गइ पाहाद मागका कारण पुव्युत्ताणण्णदरे सल्लेहणकारणे समुप्पण्णे ॥ तह चेव करिव मदि भत्तपइण्णाए णिस्छयदो ॥ १५७ ॥ संन्यासकारणे जाते पूर्वोक्तान्यतमे सति ॥ करोति निश्चितं वृद्धि भक्तस्यागे तथैव सः ॥ १५९॥ विजयोत्या-पुखुत्ताणपणदरे पूर्वमुक्तानां 'बाहीच दुप्पसज्झा ' इत्यादीनां मध्ये अन्यतरस्मिन् । सल्लहणकारणे सम्यक् कायकषायतनूकरणे सल्लेखना तस्याः कारणे था | समुप्पयो समुपस्थिते । तह चेव तथैव च । यधाप आयुषि करोति भक्तत्यागे मति । तथैव णिच्छयदो भत्तपहष्णाय मदि करे का । निश्चयतो भक्तप्रत्याख्याने मतिं कुर्यात् । एतगाथाद्वयं सूत्रकारवचनम् । न केवलमायुपोऽल्पनैव भक्तल्यागमतेः कारणमपि तु ननम्य पपि इति दी यमाह.. मूलारा---यथा आयुष्यरूपे नथैवात्राचीन्यर्थः ।। आयुष्यकी अत्यल्पता ही आहार त्यागके प्रति का है एमा नहीं है किंत और भी कारण है अर्थ- इसी ग्रंथ आहारत्यागके दुसरे भी कारण पूर्वमें बताय है 'वाही व दप्पसज्झा' इत्यादि गाथामें कारणोंका उल्लेख किया है, जैसे असाध्य व्याधि होनेपर आहारका स्याग करना चाहिये बगैरह इन कारगोमेंसे कोई कारण उपस्थित होनेपर सल्लेखना करनी चाहिये. शास्त्रोक्त विधि की अनुसार शरीर और कपायोंको कश करना सल्लेखना है. जैसे अल्पायुष्य रहनेपर आहार त्याग करने में अपनी बुद्धि लगानी चाहिये उसी तरह ३६९ Sorter Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना पूर्वोक्त कारण उपस्थित होने पर भी निश्श्यसे भक्तपत्याख्यानम-आहारके त्यागमें अपनी मतिको मुनि लगायें. उपर्युक्त दो गाधाओंमें स्त्रकारने अपना अभिप्राय व्यक्त किया है. STATURSamme आराधयाय मनामपिणाम प्रवर्शयति जाव य सुदी ण णस्सदि जात्र य जोगा ण मे पराहीणा ॥ जाब य सहा जायदि इंदियजोगा अपरिहीणा ॥ १५८ ॥ योगा याचन्न हीयंते यावश्यति न स्मृप्तिः ।। श्रद्धा प्रवर्तते यावद्यावदिद्रियपाटवम् ।। १६०॥ विजयोदया-झाब य सुईण जस्सवि यायस्स्मृतिन नश्यति । रलयाराधनागोचरा सरनुभूतविषयमाहिती तदित्थंभूतमिति प्रयतमाना स्मृतिरित्युच्यते मतिज्ञानषिकल्पः । वस्तुयाथाम्यवानं, वर्शन तयाथात्म्याषगमो शान, समता चारित्रमिति । शुतेमावगसे परिणामबरो यतुपक्षायते साझानं तयिड स्मृतिरित्युच्यते । स्मृतिमूलो व्यवहार, स्मृती नष्टायां न स्यादिति, स्मृतिसताघकाल पय प्रारभ्या मया सल्लेन नेति चित्यम् । जाव य यावश्च । जोगा योगाः भातापनादयः । ण में पराईरणा म मे परायत्ताः शक्तिवैकल्यात् । विचित्रेण तपना निर्जरी विपुलां कर्नुकाममय मम तोऽतिचारे गा न भवतीति यासिरतिचा मस्तावत्सल ग्वनां करीमीति कार्या चिता। जाव याहा जायदि पायाभा जायन राषयमागधयितु । नाय मग कादमिति यक्ष्यमाणेच मरधः । उपभरकाटकरणम्चयो दि दानशाः प्राणिनां तुझदो विद्वांस इय । मूल ताः श्रमायाः, नच विनटा सा पुनई भ्यते । न च तामन गालियबतामाभ्यागः सुग्वेन नपगंन 1 वियोगा ईदिया चक्षुगदीनां स्पादिभिर्चिपरीः संपदा अपरिडी हाना न नि । मधोत्रे द्रियाणामपाटव दर्शनश्रवणाभ्यां परिहायोऽसंयमः कथं परिन्हियते । इपक्ष्या शुत्वा स वायोग्यामिति वेति नान्यथा । आराधकस्य प्रणिधानं प्रदर्शयन् गाथाचतुष्टयमाह-- मूलारा--सदी स्मृतिः । मा चेद्द रत्नत्रयाराधनागोचरा। स्मृतिसद्भावकाल एवं प्रारभ्या मया सल्लेखनेति भाषः । जोगा आपनादयः । पराहीणा परायत्ताः स्युः शक्तिकस्यात् । यावनिरतिचारं तग इनि भावः । सट्टा रत्नप्रयाराथने : नि दिनीविना भवति । उपशमकालकरालस्यो हि दुर्लभा वति भावः । इदियजोगा चक्षुग. दीनदयाय मंयाः । दर्शनसवणगलो संगत्यागः। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ३७१ आराधक चित्तकी एकाग्रताका वर्णन करते हैं. " अर्थ --- रत्नत्रयाराधनाको विषय करनेवाला, अनुभूत विषय जो रत्नत्रय उसको जाननेवाला, और जिसमें वह ' इस शब्द ज्ञानाकार प्रदर्शित किया जाता है ऐसे ज्ञानको स्मृति कहते हैं. यह स्मृति मतिज्ञानका एक मेद है. वस्तुकं यथार्थ स्वरूपपर श्रद्धान होना उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं. वस्तुकं यथार्थ स्वरूपको जानलेना सम्यग्ज्ञान है. और रागद्वेषाभावरूप समताको चारित्र बोलते हैं. इस रत्नत्रयका शास्त्रोंसे स्वरूप जाननेपर सम्यग्दर्शनरूप, सम्यग्ज्ञानरूप और चारित्र रूप तीन प्रकार के परिणाम आत्मा में उत्पन्न होते हैं. इस परिणामत्रय मंचघी जोक ज्ञान उत्पन्न होता है उसको इस प्रकरण में स्मृति कहना चाहिये, जितना जगत्का व्यवहार चल रहा है उसको स्मृतिही कारण है. स्मृतिका नाश होनेपर जगद्व्यवहार नष्ट होगा. यह बात ध्यान में रखकर स्मृतिज्ञान नगरेको साधारण करना योग्य है ऐसा विचार करना चाहिये. जयतक मेरे आमायनादि रोग पारण करने का मामयी गोद में शक्ति कम हो जाने आतापनादि योग में कर नहीं सहूंगा तब लखना मेरेद्वारा निभाना कठिन हो जायेगा. शक्तिरहित होनेपर नाना प्रकारके तपोंसे में कर्मको निर्जीर्ण करूंगा ऐसी इच्छा करना व्यर्थ ही है. क्यों कि उस समय मेरे द्वारा जो तप किया जावेमा उसमें अतिचार उत्पन्न होंगें. तपमें अतिचार लगनेपर सल्लेखना कैसी सिद्ध होगी? अतः जबतक निरतिचार तप करने में मेरा सामर्थ्य है तबतक में सल्लेखना धारण करनेके लिये उयुक्त होऊं ऐसा मनमें विचार करना चाहिये. जबतक रत्नत्रयाराधन करनेमें मन श्रद्धायुक्त - उत्साहयुक्त हैं तबतक में सल्लेखना धारण करनेमें समर्थ होऊंगा ऐसा विचार साधु करे. प्राणिआको उपशमलब्धि, काललब्धि और करणलब्धि इनकी प्राप्ति होना दुर्लभ है. विद्वान मित्र जैसे प्राप्त होना दुर्लभ है. ये तीन लब्धियां श्रद्धाके मूलकारण हैं. श्रद्धा विनष्ट हो गई तो फिर उनकी प्राप्ति होना अतिशय दुर्लभ है. श्रद्धाके विना अतिशययुक्त मनुष्य भी आहारका त्याग सुखसे नहीं कर सकता हैं. जबतक इंद्रियां अपने विषयको ग्रहण करनेमें समर्थ हैं तबतक सल्लेखना धारण करना योग्य हैं. नेत्र और कर्ण अपने विषयको ग्रहण करनेमें असमर्थ होनेपर देखनेसे और श्रवण करनेसे जो असंयमका परिहार होता है वह कैसा होगा ? देखकर और सुनकर यह अयोग्य है ऐसा मुनि जानेंगे अन्यथा नहीं. आश्राम ३ ३७१ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना ३७२ जाय खेमसुभिक्खं आयरिया जाब णिज्जवणजोग्गा ॥ अस्थि तिगारवरहिदा णाणचरणदंसणविसुद्धा ॥ १५९ ॥ क्षेमं यावत्सुभिक्षं च संति मष्टास्त्रिगारवाः ॥ यावन्निर्यापका योग्या रत्नचितयसुस्थिताः ॥ १६९ ॥ विजयोदया - जाधव खेमसुभिक्खं यावच्च क्षेमसुभिक्षं, स्थन कोपश्यस्य व्याधेर्मार्याचामायः क्षेम इत्युच्यते । रधान्यता सुभिक्षत्यम् । एतदुभयमंतरेण दुर्लभा निर्वाचकाः, तानन्तरेण चतुष्काराधना | आयरिया जान आचार्या यावत् । अस्थि सन्ति । कीदृग्भूता पिज्जयाजोग्गा निर्यापकत्वयोग्याः । तिगारधरहिदा गारवत्रयरहिताः मंदिरस सात गुरुकाः ये न भवन्ति । काप्रियो संयतमपि जनं निर्यापकत्येन स्थापयति । स्वयं च नासंयमभीयर्भवति । असंयमकारणं अनुमननं च न परिहरतीति । रसरसतगुरुकी क्लेशासही भाराधकस्थ शरीरपरिकर्म कथं कुरुतः ? किं स्वयं सरागो वैराग्यं परस्य संयत्येवेति दियोमीडरिश का शानवारित्रदर्शनेषु विशुः निर्मलाः । जीरियाथात्म्यगोचरता शानस्य विशुः । दर्शनस्यापि समीचीनामसभाविता, अकविता] चारित्रशुद्धिः । शुशान चरणवशमशुयाः मानवशनच्चारित्रशुद्धा भगमे । यथा योगालतम इत्युच्यते पटादिः ॥ मूलारा - क्षेमं म्बबकपरचोपद्रवमारिगदागभावः । सुभिक्खं प्रचुरधान्यता । तद्वयं दि बिना निर्याणका दुर्लभाः स्युः । णिज्जवणजोगा विजवणं संसारार्णवा निर्यातः प्रयोजकत्वं । तत्र योग्याः समर्थाः । तिगारवरहिया ऋद्धिरमसतिगुरुका ये नस्युः । ऋद्धिप्रियो संवतमपि जनं निर्वापकत्वेन स्थापयति । स्वयं वा नासंयमाहिति । नाध्यसंग्रमकारिणीमनुमतिं त्यजति । रससातगुरुकों तु क्लेशासह कथभाराधकस्य कायपरिकर्म कुरुतः | अर्थ - जचतक देशमें क्षेम और सुभिक्ष हैं तबतक शरीरका त्याग करना मेरे लिए योग्य अवसर है, अपने देशके सन्यसे उपद्रव न होना, और किसी रोगसे और मारी रोगसे देश पीडित न होना ऐसी अवस्थाको क्षेम कहते हैं. और देशमें धान्यकी समृद्धि होना सुभिक्षता है, देशमें ये दोनो परिस्थितियां जबतक हैं तबतक सल्लेखना धारण करना श्रेयस्कर है. क्षेम और सुभिक्षताके अभाव में निर्यापकों की प्राप्ति होना दुर्लभ होता है इसलिए सल्ले' एवं सहि परिणामों 'संजम साधणमेत्तं ' इति गायाश्रयं सव्याख्यं 6 १ इत आरभ्य ताव खमं खपुस्तके नष्टमिति । आश्वासः ३ ३७२ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ३७३ खनाके लिए इन तीनोंकी आवश्यकता है. इन तीनोंका अभाव होनेपर रनत्रयाराधना और तपआराधनाकी सिद्धि होना दुर्लभ है. निर्यापकत्वके योग्य आचार्य जबतक देश में विद्यमान है तबतक सालखना करना चाहिए. ऋद्धिगाख, रसगारच, और सातगारव इनसे रहित आचार्य हो तो उनसे सल्लेखना की सिद्धि मुनि कर सकते है. जिनको अद्धि प्रिय है ऐसे आचार्य असंयत पुरुषको भी निर्यापक पदमें स्थापेंगे. स्वयं भी असंयमसे भययुक्त न होंगे. असंयमके कारणभूत अनुमोदनका उनसे परिहार होना असंभवनीय होता है. जो आचार्य रसप्रिय और सुखप्रिय हैं वे स्वयं क्लेश सहन करना नहीं चाहते हैं. अतः ये आराधकके देहकी शुश्रूषा कैसी करेंगे ' स्वयं मरागी आचार्य आराधको वैराग्यके भाव उत्पन्न करंग यह निश्चय नहीं है. जो आचार्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र को निरतिचारतया पालते हैं उनसे ही आराधककी सल्लेखना सधेगी जो जीवादि पदार्थोके यथार्थस्वरूप को पहिचानता है वही ज्ञान विशुद्ध समझना चाहिये. दर्शन भी सम्यग्ज्ञान का साथी होता है, रागपका अभाव होनसे चारित्रमें निर्मलता आती है, अर्थात निर्मल रत्नत्रयधारक आचार्य से ही आराधक मलखना धारण कर सकता है अन्यथा नहीं. नाव खमं में कार्यु सरीरणिक्खेत्रणं विदुपसत्थं ॥ समयपडायाहरणं भत्तपइण्णाणियमजण्णं ॥ १६ ॥ तावन्मे देहनिक्षेपः कर्तुं युक्तो युधेहितः ॥ भक्तत्यागो मतः सूत्रे व्रतयज्ञो ध्वजग्रहः ॥ १६२ ॥ विजयोदया-ताव समं मे कार्ड । शाययुक्तं कर्म मम । किं ? मरीगणिग्राण शरीनिक्षपण शरीरयजनं । चिपमा चिजनम्तुतं आत्मादितम्यात् । समयगडागाहरणं ममयः सिद्धांतः तस्मिन् कीनिता पनाका आराधना पताकर पनाका उपमार्थः । यथा पताका बस्त्राविरचिता जयादिकं प्रकटयति । एवमियं आराधनापि भवनिर्मुक्ति प्रफटयनि । तस्या हरणं ग्रहणं । भत्तपदण्ण मनःप्रत्याख्यान नियमजणं बतयशं । ननु शरीरल्यागोऽन्यः, अन्यमानं, श्रद्धाने, तपासु परिणतिरन्थान्यदकत्यजन, अन्यानि च बतानि चस्कथं सामानाधिकरणनिदेशः ? अत्रोच्यते-प्रत्येकमभिसंबंधः कार्यः । ताप खमं मे काउं इत्यनेन शरीरनिक्खेवणे इत्यादीनां । ततोऽयमर्थः-शरीरत्यजनं, सम्यग्दर्शनाविपरि. गमनं, भक्तप्रत्याण्यानं, अतयशश्च नायक अयुक्तमिति । ३७३ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराषमा श्रा मूलारा-सर्ग अभ युक्तं । शकसेवा त्यजनं । विदुपसत्थं विद्वज्जनसंस्तुतं स्वहितत्वात । मगरपटायाहरण पताकेव पताका आराधनोच्यते । भाचिन्या मुक्तेर्जयश्रियः प्रकटनान । समये सिद्धान्ते कीर्तिता पताका तम्या हरणं ग्रहणं । शियमज व्रतयज्ञ शरीरत्यजनं । सम्बग्दर्शनादिपरिणमनं भक्तप्रत्याख्यानं । व्रतयज्ञश्च तावत्कर्तुं युक्ता । किविशिष्टासी ? शरीरणिक्यो० देहगमत्वत्यागहे.नुकत्थान । पुनः किंविशिष्टा समयपडायाहरणं । मरणे आराधना परिणनेम्तमाध्यत्वात । अन एव मा व्रत यशः समीहिमार्थसाधकं प्रतम । अथ-- उपयुक्त कारणोंका सवाब होनेपर शरीरका त्याग करना मरेको योग्य है और यह आत्महितका करनेवाला होनम विज्जन इसकी मशंसा करते हैं. यह शरीरका त्याग अर्थात् मलेखनाराधना आगममें जयपताका समान माना है. जैस पताका वस्त्रादिसे रची आनी है और वह जयादिकको व्यक्त करती है वैसे यह आराधना भी संसारसे मुक्तता की सूचक होती है. उपर्युक्त कारण के सद्भावमें शरीरका त्याग करना मानो हाथम आराधना पताका धारण करना है. यह भक्तप्रत्याख्यान अर्थात आहारत्याग व्रतयक्ष है. शंका-शरीरत्याग भित्र है, ज्ञानगुण भिन्न है श्रद्धा, चारित्र और तपमें परिणति ये बातें भी मिन ही हैं और आहार का त्याग करना उनसे भिन्न है और व्रत भी भिन्न है अतः भक्तप्रत्याख्यानके साथ इनकी समानाधिकरणता कैसी सिद्ध होगी? * ताव खमं मे का इस नाक्यमे शरीरनिक्खेवणं इत्यादिकोंका संबन्ध करना चाहिये ऐसा करनेसे समानाधिकरयाता सिद्ध होगी. इसका अभिप्राय यह है-जबतक उपर्युक्त कारणोंका सडाद न होगा तबतक शरीरत्याग, सम्यग्दर्शनादिरूपसे परिणमन, आहारोंका त्याग और व्रतयज्ञ करना अयोग्य होगा. - E - स्थामार्णतम्य परिणामन्य गुणमाहात्म्यकशनायानरगाथा एवं ग्नदिपरिणामो जस्त दढो होदि गिकिछदमदिस्त ।। तिव्बाए वेदणाए वाच्छिञ्जदि जीविदासा से ॥ १६१ ॥ एवं स्मृतिपरीणामो निश्चितो यस्य विद्यते॥ तीवायामपि पाधायर्या जीविताशास्य नश्यति ।। १६३ ॥ इति पर्यायसूत्रम् ॥ ३७ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना विजयोदया-एवं सविपरिणामो व्यायाणितस्मृतिपरिणामो यस्मानज्ञानमेष परिणामः । जस्स दढो होज्ज यस्थ स्मृतेहंदी भवेत् । णिच्छियमदिस्स निश्चितमतेः । करिष्याम्येव शरीरनिक्षपर्ण इति कृतनिश्चयस्य । जीविदासा योचिछज्जइ जीविते आशा व्युच्छिद्यते । तिचाप घेदणाप, तीमायामपि घेदनामुवीर्णायां पतन्प्रतीकारं कृत्या जीवामीति चिता न भवति । म नम्यति जीविताशाव्यच्छेदो गुणः सूचितः । परिणाम गर्द।। लारा -वीणाको निपरिणामः । जिकिदमदिरस करिष्याम्येव काययागादिकमिति कननिधगम्य । जीविदासा एजल्पनिका कृत्या जीवामीति चिंता । म तस्व । परिणामः । सूत्रतः । ७ । अंकराः ।। जिसका वर्णन पूर्व माथाम किया है ऐसे परिणामक गुणमहात्म्यका वर्णन इस गाथाम् आचार्य कहने PRSociendeandiracalerate अर्थ-मैं शरीरका न्याग करूंगा ही ऐसा जिसने निश्चय किया है उस मुनिका स्मृति परिणाम उपर्युका विचारमे दृद्ध हो जाता है. तब तीन बदना उत्पन्न होनेपर भी इसका इलाज कर में पुनः जीऊंगा एमी चिन। उसक मनमें उत्पन्न नहीं होती है. उसकी जीनकी इच्छा नष्ट होती है, अनः इस स्मृति परिणाममें जीविनाशाका नाश करनेवाला गुणमा मगाना चाहिए. परिणाम गुणका वर्णन हुआ. उपाध जमा रनिराईच्याम प्रबंधन --- स जमसाधणमत्तं उबधि मोत्तण सेसय उवधिं ॥ पजहदि विसुद्धलेस्सो साधू मुर्ति गवेसन्तो ॥ १६२ ॥ उपधि मुंचतेऽशेषं मुक्त्वा संयमसाधकम् ॥ मुमुक्षुगयन्मुक्ति शुद्धलेश्यो महामनाः ॥ १६४ ॥ विजयोदया-संजमसाहणमत-संयमः साध्यते येनोपकरणेन तावन्मानं कमंडलुपिच्छमात्रं । उधि परिग्रहं मोनण मुक्या । सस अवशिष्ट । उाँध अवशिष्ट । उपधिर्नाम पिच्छान्तर कमण्डस्वन्तरं या सदानी संयमसिद्धी न करणमिति संयमसाधनं न भवति । येन सांप्रत संयमः साध्यते तवेष संयमसाधनं अथवा मानोपकरणं अयशिनोपधिरुच्यते । पजहर प्रर्पण योगायेण त्यजति । विसुजलेस्सो विशुद्धलेश्यः । साह साधुः । मुत्ति मुक्ति, कर्मणामपायं । गधेसतो मृगयन लोभकामेणाननुरंजिसा योगसिरह विशुद्धलक्ष्या गृहीता । सा परिग्रहत्यांग प्रवर्तयन्यात्मानमिति Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना अश्रोपधित्यागमाराधकस्य विधेयतया गाथानवकेनोपनिशति तत्र चादी द्रव्योपथित्याग गाथाद्वगेनाह मूलारा-मज़ममा कमंडलुपिच्छमात्र । मेस पिलान्तारकामा नन्तरम् । तदानीमन्यस्य संयममाघनत्याभाषात । अथवा पुस्तकादिक शेपशनानोक्यते । पाहादि योग या यानि । विसुजलेम्सी लोभापायाननुरांजितयोगत्रवृत्तिकः ।। उअधि व जहण इन दो पदोंका आगेके प्रबंधसे ग्रंथकार वर्णन करते हैं अर्थ जिस उपकरणसे मंयम माध्य होता है उतना ही परिग्रह छोडकर बाकीका परिग्रह विशुद्ध लेश्यावान और कमक अपायाका अन्वेषण करनेवाला साधु गोगत्रयंस छोडना है. नात्पर्य-मल्लेखनाके समय माकी योगप्रवृत्ति लोभकपापसे अनुरंजित नहीं होती है. अतः वह एकही पिच्छिका और एकही कमंडलु रखता है. क्योंकि उसमे हि उसका संयममाधन होता है. दुसरा कमंडल और दूसरी पिच्छिका उसको मयमसावन में कारण नहीं है. जिसमें सरकारसम राम सिसोश नही गया है. अवशिष्ट ज्ञानोपकरण शास्त्र भी उस समय परिग्रह माना गया है. उनका भी वह साधु त्याग करता है. उसकी निर्लोभवृत्ति उस समय सर्व परिग्रहोंका त्याग कराती है. बसल्यादिकं तर्हि स्याज्यतया नोपदिशमिति धाशंकिते तत्त्यागमुपदिशति-- अप्पपरियम्म उवधि बहुपरियम्मं च दोवि वज्जेइ सेज्जा संथारादी उस्सग्गपदं गवसतो ॥ १६२ ।। साधुर्गयेषयन्मुक्तिं शुद्धलेइयो महाममाः ।। विमुंचत्युपधि सर्वमरूपानल्पपरिफ्रियम् ॥ १७४ ।। विसकोदया- अप्पपरियम्म उवधि अल्पपरिकर्म निरीक्षणप्रमार्जनविधूननादिकं यस्मिन्नं परिग्रह । बहु Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काराधना आश्वासः महर परिकर्म यत्र तं च । दो वि द्वायपि वज्बेदि वर्जयति मनोवाशायैः । सेज्मासंधारादी वसतिसंस्तरादिकं । उस्समापद उत्सर्जन त्यागः तदेव पर्व । परिमइत्यागपदान्वेषणकारीति यावत् । गाथाद्वयेनातिक्रांतेन द्रव्योपधित्यागो व्याख्यातः। इयता परिसमाप्तः परिग्रहत्यागः। मूलारा-परियम्म निरीक्षणप्रमार्जनविधूननादिकम् । उस्सग्गपदं परिग्रहपरित्यागस्थानं । संस्तर वगैरह त्याज्य है ऐसा नहीं कहा होगा ऐसी शंका की जाने पर आचार्य उनके त्यागका उपदेश HARSATTA अ-जिसमे अल्प परिकम है अर्थात् निरीक्षण करना, स्वच्छ करना, झटकना इत्यादि किया जिसमें थोडी करनी पड़ती है और जिसमें उपर्युक्त क्रिया अधिक करनी पड़ती है ऐसे दो प्रकारके भी परिग्रह मन, वचन और कायसे साधु त्यागते हैं. क्योंकि परिग्रहत्यागका वे अन्वेषण करनेमें तत्पर रहते हैं. इस लिये वसतिका और शय्याका भी त्याग ये करते हैं. पंचविहं जे सुद्धि अपाविदूण मरणभुवणमन्ति ॥ पंचविहं च विवेग ते खु समाधि ण पावेन्ति ॥ १६ ॥ औत्सर्गिकपदान्वेषी शय्यासंस्तरकादिकम् ॥ पंचधा शुद्धिमप्राप्य ये बियेकं च पंचधा ॥ १६६ ॥ विपयंसे समाधि ते लभते न विमोहिनः । विजयोदया-पंचविहं जे मुदि इत्यादिना कि प्रतिपाद्यते पूर्वमसूचितमिति । अत्रोच्यत-योग्योपादनमेवायोग्यत्यागस्तत्परिदार इत्युपधिस्याग एवाख्यायते उत्तरग्रंथेनापि ॥ पंचविहं पंचप्रकारां। सुखि शुदि । अपाविदूण अप्राप्य । जेये । मरणं मृति । उवणमंति प्राप्नुचंति । पंचविई च विवेग विवेकं परिहरणं पृथग्मावं अमाप्य मृतिमुपयान्ति। खु शब्द पचकारार्थः स च कियापदापरतो योज्यः । समाधिन प्राप्नुवत्येवेति । उपधिपरित्यागाभावे समाध्यभायो दोष आख्यातः । गृलारा-सुद्धिं नमस्य । उधणमति प्राप्नुवति । विवेगं पृथग्भावं । अन्ययेनाह-- अर्थ-पांच तरह की शुद्धिको प्राप्त न करके जो साधु मरण करते हैं, तथा पांच प्रकारके विवेककाभी ४८ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचा ३७८ | आश्रय न लेकरही जो साधु मरते हैं वे समाधिको प्राप्त होते नहीं है, 'पंचविई जे सुाद' इत्यादि मूत्रसे कोनसा विषय आचार्य कहते हैं ? पूर्वमें न कहा हुआ विपय दिखाते हैं क्या? इसका उत्तर आचार्य देते हैं. योग्यका ग्रहण करना ही अयोग्यका त्याग है. अतः आगेके मुत्रोंसे भी परिग्रह त्यागका ही वर्णन किया है ऐसा समझना. पंचविह जे साई पत्ता णिखिलण णिश्चिदीया ।। पंचविहं च विवेगं ते हु समाधि परमुवेंति ॥ १६५ ।। शुद्धिं ये पंचधा प्राप्ता ये विवेकं च पंचधा॥ सर्वत्र निश्चितस्वान्ताः समाधिमुपयान्तिले ॥१६७॥ विजयोदया-के समाधं प्राप्नुपतीत्यत्र माह-पंचयि पंचविधा जे सति पता ये आदि प्राप्ताः । णिखिलेण साफल्येन । णिजिष्यमांगा निश्चितमतयः । एचविहं पंचविधं च बिथेगं विवेक तेहु समाहि.परमुर्वेति । ते स्फुटं समाधि परमुपयांति। मूलारा-णिखिलेण साकल्येन । अर्थ-समाधि किनको प्राप्त होती है इसका उत्तर आचार्य महाराजने इस गाथामें दिया है-जो साधु पूर्णतया निश्चित मतिको प्राप्त हो गये है अर्थात शरीरत्याग करनेका जिन्होंने दृढ निश्चय किया है, जिन्होंने पांच प्रकारकी शुद्धिका और पांच प्रकारके विवेकका आश्रय किया है समाधिको प्राप्त होते हैं. उपाधिका यदि त्याग न किया हो तो समाधिकी-मनकी एकाग्रताकी प्राप्ति नहीं होती है. 3 ------ ३७८ का पपा पंचाधधा शुद्धिग्त्यिाह आलोयणाए सेज्जासंथारुचहीण भत्तपाणस्स ।। वेजावञ्चकराण य सुद्धी खलु पंचहा होइ ॥ १६६ ॥ शुद्धिरालोचना शय्या संस्तरोपधिगामिनी ॥ वैयावृत्यकराहारपानजाता च पंचधा ॥ १६८।। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । TAJ आचारः मूलाराधना ३७२ ARRAHOOR - विजयोदया-आलोयणाए आलोचनायाः शुचिः शय्यासंस्तरयोः या शुद्धिः, उपकरणशुशिः, भक्तपानशुद्धिः, वैयारयकरण शुचिरिति एंविधा | मायामृषारहितता आलोचनाशुचिः । मनोगतवकता माया | व्यालीकता चासौ मृषा । मायाकषायः स च परिग्रहः चत्तारि तह कसाया' इति वचनात् । मृषा कथं परिग्रहः इति चेत् उपधीयते अनेमे त्युपधिरिति शब्दव्युत्पत्ती उपधीयते उपादीयते कर्म अनेन व्यस्ली कनेत्युपधिरित्युच्यते । यत्र यस्यादरः कहती तत्सर्वमुपधिरवेति भावः । उगमोत्पादनैपणादोषरहितता ममेदं इत्यपरिग्राह्यता च बसतिसस्तरयोः सुजिस्तामुपगन्न उमाविबोपोपहनयोसतिसंस्तग्योम्यागः कृत पति भवत्युपधित्ययः । उपकरणादीनामपि उद्गमादिरहितता शुद्धिस्तस्य सत्य जनमादिदोपदुष्टानां असंयमसाधनामां ममद भावमूलानां परिग्रहाणं त्यागोऽस्त्येव । संयतयावृत्त्यक्रमशता वैधावत्यकारिशुद्धिः सत्यां तस्यां असंयता अफमज्ञाश्च न मम यावृस्यफरा इति स्वीक्रियमाणास्त्यक्ता भवति । Fगा द्विारिका - मूलारा-मायास्पारहितता अलोचनायाः शुद्धिः । उद्भादिदोषरहितत्वं ममेदमित्यपरियाह्यता च वसति संस्तरोपक्रमणादीनां । संयत्तत्य क्रमज्ञता च वयावृत्त्यकराणां । मायादित्यागश्चांतरंगसंगत्याग एव । अर्थ----आलोचनाकी शुद्धि, शय्या और संस्तरकी शुद्धि, उपकरणोंकी शुद्धि, भक्तपानशुद्धि, धैय्यावृत्यकरण शुद्धि ऐसी शुद्धि पांच प्रकारकी हूँ, आलोचना शुद्धि, माया और असत्यभाषणका त्याग करना यह आलोचनाशुद्धि है. मनमें कपट विचार रहना यह माया है. असत्य भाषणको मृषा कहते हैं. माया यह एक कपाय है और वह परिग्रह है. * चत्तारि तह कसाया । इस पचनसे मायामें कषायपना 'सिद्ध है. असत्य भाषणको परिग्रह कैसे समझना ? उत्तर-असत्य भाषण भी उपधि-परिग्रह है क्योंकि 'उपधीयते उपादीयते कर्म अनेन व्यलीकेनेत्युपधिरित्युच्यते' इस असत्य भाषणसे कर्मग्रहण होता है अतः इसको भी उपधि परिग्रहऐसा नाम अन्वर्थक है. कर्मग्रणको कारणभूत जिस पदार्थमें जिसका आदर है वह सर्व उसके लिये उपधि ही है. वसतिसंस्तर शुद्धि-उद्गम, उत्पादन, एषणा दोषोंसे रहित होकर यह मेरा है ऐसा भाव बसतिका में और संस्तरमें होना यह वसतिसंस्तर शुद्धि है, इस शुद्धिको जिसने धारण किया है उसने उद्धम उत्पादनादिदोष युक्त वसतिका और संस्तरका त्याग किया है ऐसा समझना चाहिये. इसलिये इसमें भी उपधित्याग सिद्ध हुआ है. पिछीकमहलु बगैर उपकरण भी उदमादिदोषरहित हो तो वे शुद्ध हैं. उन्मादि दोषसे अशुद्ध उपकरण असंयमके : Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन हो जाते हैं. उसमें ये मेरे है ऐसा भाव उत्पन्न होता है अतः वे परिग्रह है. उनका त्याग करना यह उपकरण मूलारामना शुद्धि है. आवासः ३८. याच्यकरणशुद्धि-साधुजनकी वैयावृयकी पद्धति जान लेना यह वैयावत्य करनेवालोंकी शुद्धि है, वह शुद्धि होनेसे असंयत लोक अक्रमज्ञ लोक ये मेरा वैयाकृत्य करनेवाले नहीं हैं ऐसा समझकर त्यागे जाते हैं. SAKARA अहवा दसणणाणचरित्तसुद्धी य विणयसुदी य ॥ आवासयसुद्धी वि य पंच वियप्पा हवदि सुडी ॥ १६७ ।। दर्शनशानचारित्रविनयावश्यकाश्रया ॥ अथवा पंचधा शुद्धिर्विधेया शुद्धघुदिना ॥ १६९।। मित्रयोदण अ सणगापाचरितसुद्धी य, विनयसुद्धी य, मापासयसनी वि य आवश्यक शुद्धिति पंच विकलपा इबा सुदी शुदिर्भवति । निःशंकितन्वादिगुणपरिणतिर्दर्शनशुद्धिः तस्यां सत्यां शंकाकांक्षाविचिकित्सादीनां अशुभपरिणामानां परिप्रहाणा त्यागो भवति । काले पठनमित्यादिका शानशुद्धिः, अस्यां सन्यां अकालपठनाद्याः किया शानावरणमूलाः परित्यक्ता भवति । पंचविंशतिभावनाश्चारित्रशुद्धिः सत्यां तस्यां अनिगृहीतमनःप्रचारादिशुभपरिणामोऽभ्यंतरपरिग्रहस्त्यक्तो भवति । एएफलानपेक्षिता विनयशुद्धिः । तस्यां सल्यामुपकरणादिलोमो निरस्तो भवति । मनसावधयोगनिवृत्तिः जिनगुणानुरागः यंद्यमानश्रुतादिगुणानुवृत्तिः, कृताएराधविषया निंदा, मनसा प्रत्याख्यान, शरीरासारानुपकारित्वभाषना, चेस्यावश्यकशुशिरस्यां सत्यां अशुभयोगो जिनगुणाननुरागः ध्रुतादिमाहात्म्येनादरः, अएराधाजुप्सा, अप्रत्याक्यानं, शरीरममता चल्यमी दोषाः परिग्रहनिराकृता भवन्ति । गमेव प्रकारांतरेणाह मूलारा:- देसण इत्यादि निःशंकित्तत्वादिगुणपरिणतिर्दर्शनशुद्धिस्तस्यां सत्यां शंकाचशुभपरिणामानां परिप्रहाणां त्यागः स्यात् । एवं शानचारित्रयोरपि । दृष्टफलानपेक्षता विनमशकिस्तस्यां सत्या उपकरणादिलाभालाभो निरस्तः स्यात् । सावायोगनिवृत्तिर्जिनगुणानुरागो, बंधमानश्रुतादिगुणानुवृत्तिः, कृतापराधषिषया निंदा, मनसा प्रत्याख्यानं, शरीरासारतानुपकारित्वभावना चेत्यावश्यकशुदिरस्यां सत्यामशुभयोगादयो भावदोषाः परिग्रहा निरस्ता भवन्ति । अर्थ-अथवा दर्शनशुद्धि, शानशुद्धि, चारित्रशुद्धि, विनयधुदि और आवश्यकशुद्धि ऐसी शंच प्रकारकी शुद्धि है। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना ३८१ दर्शनशुद्धि — निःशंकित वगैरह गुणोंकी आत्मामें परिणति होना यह दर्शनशुद्धि है. यह शुद्धि होने से शंका, कांक्षा, चिकित्सा वगेरह अशुभ परिणामरूपी परिग्रहांका त्याग होता है. ज्ञानशुद्धि -- योग्य कालमें अध्ययन करना, जिससे अध्ययन किया है ऐसे गुरुका और शाखका नाम न छिपाना इत्यादिरूप ज्ञानशुद्धि है. यह शुद्धि आत्मामें होनेसे अकालपठनादिक क्रिया जो कि ज्ञानावरण कर्माaasो कारण है त्यागी जाती है. चारित्रशुद्धि-- प्रत्येक व्रतकी पांच पांच भावनायें हैं. पांच व्रतोंकी पच्चीस भावनायें होती हैं इनका पालन करना यह चरित्रशुद्धि है. इन भावनाओंका त्याग होनेसे मन स्वच्छंदी होकर अशुभपरिणाम होते हैं. ये परिणाम अभ्यंतर परिग्रहरूप हैं. व्रतोंकी भावनाओंसे अभ्यंतर परिग्रहोंका त्याग होता है. विनयशुद्धि कीर्ति, आदर इत्यादि लौकिक फलोंकी इच्छा छोड़कर साधर्मिकजन, गुरुजन इत्यादिकोंका विनय करना यह चिनयशुद्धि है, इसके होनेसे उपकरणादि लोभका अभाव होता है, आवश्यक शुद्धि--- सावद्ययोगोंका त्याग, जिनगुणोंपर प्रेम, वंद्यमान आचार्यादि गुणोंका अनुसरण करना, किये हुए अपराधोंकी निंदा करना, मनसे अपराधोंका त्याग करना, शरीरकी असारता और अपकारीपनाका विचार करना यह सब आवश्यक शुद्धि है, यह शुद्धि होनेपर अशुभ योग, जिन गुणोंपर अप्रेम, आगम, आचार्यादि पूज्य पुरुषोंके गुणोंपर अभीति, अपराध करने पर भी मन में पश्चात्ताप न होना, अपराध का त्याग न करना, और शरीरपर ममता करना ये दोष परिग्रहका त्याग करनेसे नष्ट होते हैं. पंचविधविवेकख्यापनायोधता गाधा इंदियकसा उवधीण भत्तपाणस्स चावि देहस्स || एस विवेगो भणिदो पंचविधो दव्वभावगदो ॥ १६८ ॥ विवेको भक्तपानांगकषायाक्षोपधिश्रितः ॥ पंचधा साधुना कार्यो द्रव्यभावगतो द्विधा ॥ १७० ॥ आश्वासः ३ ३८१ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वा विजयोन्या-दिएकसाय इति । द्रियवियेकः, कपायवियका, भक्तपानपिका, उपधिधियेका, देहविवेकः इति विवेकः पंचप्रकारो निरूपितः पूर्वागमेषु । स पुन: पंचप्रकारोऽपि द्विविधः । द्रव्यकृतो भायत इति । रूपादिविषये चवीनामादरेण कोपेग र अपरत तं परमामि भगोपीति था । तथा तस्या निविरफचतर्ट पश्यामि. नितंबरोमराजिवा विलोक्रयामि, पृथुतर जेधनं स्पृशामि, कल गीतं सावधानं शृणोमि, मुखकमलपरिमलं जिघ्रामि।थियाधर समास्थादयामि इति पचनानुशारणं चा द्रव्यत इंडियविवेकः । भाषत इंद्रियविधेको माम जातेऽपि विषयविषषिसंघधे रुपादिगोचरस्य विज्ञानस्य भावेंद्रियामिधानस्य रागकोपाभ्यां विवेचनं, रागकोपसहचारिरूपादिविषयमानसशानापरिणतिर्वा | इब्यतः कषायविवेको नाम कायेन बात्रा चेति द्विविधः। भरूलतासकोचन, पाटलक्षणता, अधरायमईन, शमनिकटीकर, इत्यादिकायव्यापाराकरणे । इन्मि, ताउयामि, शुलमागेपयामि इत्यादिवचनाप्रयोगधा परपग्मिचादिनिमिसचिसकलकाभावो भावतः शोधविवेकः । तथा शनकपायविवकोऽपियाजायाभ्यां द्विविधः । गात्राणां स्तब्धताकरण, शिरस उनमनं, उच्चासनारोहणादिकं च यन्मानसूचनपर सस्य कायव्यापारस्याकरण । मत्तः कोपा थुनपारगः सुचरितः जुतपोधनश्चेति वचनामयोगश्च । एवमेवैतेभ्योऽई प्रकृष्ट इति मनसाईकारवर्जन भावतो मानकपायविकः । चावायाभ्यां मायाचित्रको द्विप्रकार। अन्यं त्रुवत इमान्यस्य यवन तस्य त्यागो मायोपदेशस्य वा, मायां न करोमि न कारयामि, नाभ्युपगच्छामि इति वा कथनं वाचा मायाविवेकः । अन्यत्कुर्वत इचाम्यस्थ कायेनाकरणं कायतो मायाविवेकः । लोभ कपाययिधेकोऽपि द्विविधः । यत्रामा लोभस्तदुदिया करपसारण, द्रव्यदशाचपाधिता, तदुपादातुकामस्य कायेग निषेधनं हस्तसंशया निवारण, शिरश्चाटनया वा पतस्य कायव्यापारस्य अकरणं फायन लोमविवेकः : शरीरेण वा दुव्यानुपादान एनन्मदीयं वस्तुग्नासाविक या अहमस्य स्वामीति वचनानुश्चारणं वा लोभविवेकः | नाई कस्यचिदीशो न च मम किंचिदिति वचनं वा । ममेदभावरूपमोहजपरिणामापरिणतिर्मायनो लोभविवेकः। विवेक विवेचयतिः-- मूलारा रूपादिषु चक्षुरादीनां रागेण द्वेपेश वा अप्रवर्तनमिदं पश्यामीत्यादिरूपेणान्तर्विकल्पेन पायापारेण वा द्रव्यत्त इंद्रियविवकः । भावतस्तु जातेप्यक्षायोगे रूपादिज्ञानस्य भावेंद्रियाभिधानस्य रागद्वेषाभ्यां विवेचनं तत्सहचारिरूपादिविषयमानसशानापरिणतिर्वा । द्रव्यतः कषायविवको द्वधा कायेन वाचा च । तत्र भुकुटबाधकरण कायिको, इन्मीत्याद्यनुच्चारणं च वाचिको द्रव्यतः कोधविवेकः । भावतस्तु परसरिभवादिनिमित्त चित्तकलंकाभावः । तत्र गात्रस्वन्धवाद्यकरण कायिकः । मत्तः कोऽन्यः 'श्रुतपारगामीत्याचभाषणं च पारिको द्रव्यतो मानषिकः । भाषतस्येतेभ्योऽहं प्रष्ट इति मनसाहंकारपर्जन । मायाविधेको बाकावराभ्यां द्विविधः । सपा-बुषत इवान्यस्य यद्वचनं सस्य सागो, मायोपवेशस्य वा मायां न करोमि न कारयाभि, नाभ्युपगच्छामि इति वा कथनं १८२ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषा मूलाराधना RiteRecene वाचिकः । अन्यत् कुर्वत इयान्यस्य कायनाकरणं कायिकः । द्रव्यतो लोभविवको यत्रास्य लोभस्तदुदिश्य कराप्रसार. णादिकः कायेन । ममेदमित्याचवपन वाचा । भावतस्तु ममेदभावरूपमोहजपरिणामापरिणतिः । वैयावत्यकरैः सहासंवासः, कायेन मा कृथ्वं वैयावृत्यं मया त्यक्ता यूयमिति वचनं वाचा तद्विवेकः।। पांच प्रकारके विवेकौंका वर्णन करनेवाली गाथा अर्थ---इंद्रियविवेक, कषायविवेक, भक्तपानविवेक, उपधिविवेक, देहविवेक ऐसे विवेकके पांच प्रकार पूर्वागममें कहे हैं। यह विवेक द्रव्यविवेक और भावविवेक ऐसा दो प्रकारका है. इंद्रियविवेक-रूपादि विषयों में नेत्रादिक इंद्रियोंकी आदरसे अथवा कोपसे प्रवृत्ति न होना. अर्थात् यह रूप में देखता हूं. शब्द मैं सुन रहाई, इस रीतीसे प्रवृत्ति न होना. मैं उसके कठिन कृचतट-स्तन देखता दूं, मैं उस स्त्रीके नितंबको तथा वक्षस्थलके उपरकी रोमपंक्ति देखता हूं. उसके विस्तृत जघनका स्पर्श करता हूं. उसका मधुर गायन सावधान होकर सुनता हूं. उसके मुखकमलका सुगंध नाकसे ग्रहण करता हूं. उसके अधरोष्ठका रस पीता हूं. ऐसे वचनोंका उचारण न करना यह द्रव्यतः इंद्रियविवेक है. भावइंद्रिय विवेक-स्पादि विषय और स्पर्शनादि इंद्रिय इनका संबंध होने पर भी जो रूपादिका ज्ञान होता है उसको उपयोगात्मक भावेंद्रिय कहते हैं. यह ज्ञान होकर भी रागद्वेषसे भित्र रहना इसको भावेंद्रिय विवेक कहते हैं. रागद्वेषसे युक्त ऐसी रूपादि विषयमें मानसिक ज्ञानकी परिणति न होना अर्थात् रूपादिकोंका ज्ञान होकर भी मन रूपादि विषयोंमें रागरूप अथवा द्वेपरूप परिणत न होना यह भी भावेंद्रिय विवेक हैं. द्रव्यतः कपाय विवेकके शरीरसे और वचनसे दो भेद होते हैं. भौहें संकुचित करना, नेत्र लाल होना, ओष्ठदंश करना, शस्त्र हाथमें लेना, इत्यादि शरीरकी प्रवृत्ति न होना कायचित्रक होता है. मैं मारूंगा, ठोकूगा, शूल पर चढाऊंगा इत्यादि बचनोंका प्रयोग न करना यह वचन विवेक है. दूसरोंका पराभव करना, वगैरह के द्वेपपूर्वक विचार मनमें न लाना यह भावक्रोधविवेक है, मानकपायविवक भी वचन और शरीरके निमित्तसे दो प्रकारका है. शरीरके अवयव ताठ करना, मस्तकको ऊंचा करना, उच्चासन पर चढना वगैरह कृत्य मानसूचक है. शरीरके द्वारा ऐसी क्रिया न करना. मेरसे FATHERDESTROYSTER4002010 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ३८४ अधिक शास्त्र प्रवीण कौन है ? मेरेसे अधिक चास्त्रिका पालन किससे होता है ? मैं ही अच्छा तपस्वी हूँ ऐसा मुखसे वचनप्रयोग न करना मैं इन सुनिओसे उत्कृष्ट हूं ऐसा मनके द्वारा अभिमानको छोडना यह भाव मान कपाय विवेक है. वचन और शरीरके निमित्तसे मायाविवेक दो प्रकारका है. एक विशिष्ट व्यक्तिके विषयमें बोलता हुआ भी मानो अन्यके विषयमें ही बोल रहा हूं ऐसा दिखाना यह वचनसे माया है ऐसी मायाका त्याग करना अथवा कपटका उपदेश न करना, किंवा मैं माया न करूंगा न कराउंगा, करनेवालोंको अनुमतिदान नहीं करूंगा इत्यादि वचनको वाचामायाविवेक कहते हैं. शरीरसे एक कार्य करता हुआ भी मैं अन्यही कर रहा हूं ऐसा दिखाना यह शरीरकी माया है. इस मायाका त्याग करना कायमायाविवेक हैं. लोभ कपाय विवेक- जिस पदार्थ में लोभ हैं उसके तरफ अपना हाथ पसारना, जहां वह पदार्थ है यह स्थान सुरक्षित रखना, यदि कोई मनुष्य उस वस्तु को लेनेकी इच्छा करता हुआ दीखे तो शरीरसे निषेध करना, हाथ की सहनानी से मना करना अथवा मस्तक को हिलाकर निषेध करना इत्यादिक शरीरक्रिया न करना यह कायलोभ विवेक है. शरीरसे द्रव्य को न उठाना यह भी कायलोभ विवेक है. यह मेरी वस्तु है, य ग्राम घर वगैरह पदार्थ मेरे हैं. मैं इनका स्वामी हूं ऐसा वचनोचार न करना यह भी चाचालोभविवेक है. मैं किसका स्वामी नहीं हूं. मेरी कुछ भी वस्तु नहीं ऐसा वचनोच्चार करना यह भी चाचा लोभ विवेक है. यह मेरा है ऐसी जो मोहसे उत्पन्न होनेवाली परिणति वह भावलोभ है परंतु इस परिणति को न होने देना यह भाव लोभविवेक है. अहवा सरीरसेज्जा संथारुवहणि मत्तपाणस्स ॥ वेज्जावञ्चकराण य होइ विवेगो तहा चैव ॥ १६९ ॥ सोsथवा पंचधा शय्यासंस्तरोपधिगोचरः ॥ वैयावृत्यकराहारपानविग्रह संश्रयः ॥ १७१ ॥ अश्वासः ३ ३८४ r Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना (श्वासः REST विजयोदया-अहया अश्वेति । पिचेका प्रकारांतरेणाषेद्यते । सरीरसेजहासंथाश्वहीणभत्तपाणस्स शरीरविवेकः । वसतिग्रस्तरविवेकाबुपकरणविवेका, भकगानचिषकः । वेजावञ्चकराण य वैयावृत्यकराणां च विवेको भवति । नहा चेव तथैव द्रव्यभाचाभ्यां इति यावत् । तत्र शरीरविवेकः शरीरेण निरूप्यते । संसारिणः शरीराद्विवैकः कथमिति चेत् । शरीरेण स्वशरीरेण स्थशारीरोपनवापरिहरणं । शरीरं उपद्रवन्तं नरं तिचं देवं वा न इस्तेन निवारयति । मा कथा ममोपद्रवमिति दंशमशकवृश्चिकभुजंगसारमेयादीन इस्लेन, पिच्छाद्यपकरणेन, दंडादिमिर्वा नापसारयनि । छत्रपिच्छकटकवावरणाविना घाने शरीरां करोति । तारपीडां मा कृथा इत्याद्यवचनं । मां पाटयेनि या, शरीरमिमियातनं चैतन्यन सुखायसवदनेन याऽविशिष्टमिति वचनं वाचा विवेकः । वसतिसंस्तरयोविवको नाम कायेन बसतावनासन मागच्युत्रितायो । संस्तरे वा प्राक्तने अशयनं अनासनं । शचा त्यजामि घसतिसंस्तरमिति यचनं । कायनोपकरणानामनादानं, अस्थापनं कचिदरक्षा व उपधिविवेकः । परित्यक्तानीमानि शानोपकरणादीनि इति वचनं याचा उपधिधियेकः । भक्तपानयोरनशनं वा कायेन भक्तपामविवेकः । एवंभूतं भक्तं पानं या में कामि इति वचनं बाचा भक्तरानविवेकः । षैयावृत्यकराः स्वशिष्याइयो ये ये तेषां कायेन विवेकः हैः सहासबासः । मा कृथा वैयावृत्त्यं इति वचनं, मन्या त्यक्ता युयमिति बचनं । सर्पच शरीराही अनुरागस्य ममेद भाथस्य था मनसा मकर भावविवेकः . तमेव पुनर्भग्यतरेणाह मूलारा--द्रव्यभावाभ्यामित्यर्थः । तत्र द्रव्यतस्तावत् । स्वशरीरेण स्वशरीरोपद्वापरिहरणं शरीरविवेकः । शरीरपीलां मम मा कृथा इति मां पालयेति वा अवचनं । शरीर मिदमस्यादनेतनमित्यादि व वा चिकः । एवं कायेन प्रागध्युपिताचा वसतावनासनं सम्तरे वा प्राक्तनेऽशयनमनासनं वा । वाचा त्यजामि संम्तरमिति वचनं न शय्यासंस्तर विवेकः । कायनोपकरणानामनादानमस्थापनं क्वचिदरक्षा च । वारा परित्यक्तानीमानि मयेति वचन घोपाधिकविवेकः । भक्तपानयोरनशनमपानं च कायेन भनपानविवेकः । एवंभूनं भवन पानं च न गृहामि इति वचनं वाचा तद्विवेकः । सर्व शरीराद अनुरागस्य ममेदं भावस्य वा मनरा अफरणं भावविवेकः । अर्थ-विवेकके दूसरे प्रकारमे भी पांच भेद हैं वे इस प्रकार-शरीरविवेक, वसतिसंस्तरविवेक, उपकरण, विवेक, भक्तपानविवेक और यावृत्यकर विवेक इन पांच भेदोंमें प्रत्येकके द्रव्य और भाव ऐसे दो दो भेद होते AMIT ह. शरीरविवेक-अपने शरीरको कुछ उपद्रव होने लगा तो वह अपने शरीरसे दूर न करना, शरीरको उपद्रव देनेवाले मनुष्य, तिथंच अथवा देवको अपने हाथसे दूर न करना, मेरको उपद्रव मत करो ऐसा कद्द कर डास ३८५ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मच्छर, विच्छ, सर्प, कुत्ते वगैरह प्राणिको वह हस्तसे दूर करता नहीं है. पिच्छिकादि उपकरणसे अथवा दंडादिकॉस हटाता नहीं है, छत्र, पिच्छिका, चटाई, प्रावरण बगैरहसे वह अपने शरीरकी रक्षा नहीं करता है. शरीरको तुम पीडा मत करो इत्यादिवचन वह कहता नहीं है. अथवा मेरा रक्षण करो ऐसा वचन वह कहता नहीं है. यह शरीर आत्मासे भिन्न है, अचेतन है, यह चैतन्यसे अथवा सुखदुःखानुभवनसे अविशिष्ट है अर्थात् रहित है यह वाचा विवेक है, यमतिसंस्तरविवक—जिस वसतिका पूर्व कालमें निवास किया था उसमें निवास न करना, पूर्व संस्तरमें-शय्यामें न सोना, अथवा न बैठना, मैं वसतिका और संस्तरका त्याग करूंगा ऐसा बोलना. उपकरण विवेक शरीरके द्वारा उपकरणोंको ग्रहण न करना, उनको स्थापन न करना, और उनका रक्षण न करना, यह उपधिविवेक है, मैंने ज्ञानोपकरणादिक उपकरणोंका त्याग किया है ऐसा वचन बोलना. यह बाचा उपधिविवेक है. भक्तपान विवक-आहार और पीनेके दाई क्षण नहीं करना भागीर द्वाग भत्तमान विषक है. इस तरहका आहार और पानी में ग्रहण न करूंगा, ऐसा वचन बोलना यह धाचा भक्तपानवियक है. बैयावृत्यकर विवेक-वैयावृत्य करनेवाले जो अपने शिष्यादिक है उनका शरीरसे त्याग करना अर्थात् उनके साथ सहवास छोड देना. तुम मेरी वैयावृत्य मत करो. मैने तुह्मारा त्याग किया है ऐसा बचनके द्वारा बोलनाः सर्व शरीरादिक पदार्थोपरसे प्रेमका त्याग करना अथवा य मेरे हैं ऐसा भाव छोड देना यह भावविवेक है. परिग्रहपरित्यागक्रमं उपदिशति सव्वत्थ दवपञ्जयममतिसंगविजडो पणिहिदप्पा ॥ णिप्पणयपेमरागो उवेज सम्वत्थ समभावं ॥ १७ ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधा ३८७ PACATOR समस्तव्यपर्यायममतासंगवर्जितः ॥ निःप्रेमस्नेहरागोस्ति सर्वत्र समदर्शनः ॥ १७२ ॥ इति उपधित्यागसूत्रम् ॥ विजयोदया-सव्यस्थ हत्यादिना-सर्वत्र देशे। पणिहिदप्या प्रणिहितात्मा प्रकर्पण निहितः निधिाः वस्तुमाथात्म्यशाने आत्मा येन स प्रतिनिहितात्मा । दब्बपञ्जयममत्तिसगविजडो द्रव्येषु जीवपुद्गलेप तत्पर्यापरूपेषु च ममतारूपो यः संगः परिग्रहस्तेन परिम्यक्तः । प्रणयः स्नेहा, प्रेम प्रीतिः, राग आसक्तिः क द्रव्यपर्यायपु जीवद्रव्ये पुत्रदारमित्रादी, नेपां नीरोगायधनयवादी पाये, आत्मनो वा देवन्ये, चक्रवर्तित्वेऽहमिदवे या, तथा शरीरे आहागादिक भोगसाधने, तदीयरूपरसगंधस्पर्शपर्यायेषु बा, पतेभ्यः परिणामेभ्यो निर्गतो णिप्पणयपेमराग इत्युच्यते । उबेग्ज प्रति पद्यत । समभावं समचिनतां द्रव्ये पर्याये या रामकोपावसरेण तत्स्वरूपग्रहणमात्रप्रवृत्तिीनता समरित्तता ॥ उचधी गदा ।। परिग्रह परित्यागक्रमभुपदिशति-- मूल्यरा-सव्यत्य सर्वत्र देशे। दब्ब इत्यादिद्रव्येषु जीव मुद्गलेषु। तत्पीयेषु च यो ममतारूपः संगस्तेन विजडो परित्यक्तः । पणिहिदप्पा प्रण निहितो निक्षिप्तो वस्तुयाथात्म्यज्ञाने आत्मा येन । णिप्पणयपेमरागो निर्गतहप्रीत्यासतिः । प्रकृतत्वाजीवद्रव्ये पुत्रादौ तत्पर्याय नीरोगत्यधनित्वादौ । आत्मनो या देवत्वावो । तथा शरीरे आहारादिके भोगसाधने सनुपरसादी वा । उवेज प्रतिपद्यत ॥ उपधित्यागः सूत्रतः । ८ । अंकतः ९॥ अब परिग्रहका त्याग करनेका क्रम दिखाते हैं.. अर्थ-सर्व देशमें जिसने अपने आत्माको वस्तूका सत्यस्वरूप जाननेमें एकाग्र किया है. अर्थात् जो जीवादिपदार्थाको जानने में तत्पर हैं. जिसने जीव पुद्गलादिक द्रव्य और उनके देव मनुष्यादि पर्याय और स्पर्श रसादि पर्याय इनमें ममताका त्याग किया है. अर्थात् जीव पुद्गलादि द्रव्योंके पर्यायोंमें जिसने रागद्वेषरूप परिग्रहका त्याग किया है. स्नेह, प्रीति और आसक्ति इनको जिसने अपने हृदयसे निकाला है. अर्थात् जीवद्रव्य जो पुत्र, स्त्री, मित्र इनके नीरोगता, धनीपना इत्यादि में जिसको स्नेह नहीं है, पीति नहीं है और आसक्ति नहीं है ऐसा साधु सर्व द्रव्य और पर्यायोंमें समचित्त होता है अथवा स्वतःके देवपना, चक्रवर्तिपना और अहमिंद्रपना इत्यादि पर्यायोंमें भी वह प्रेम, स्नेह और आसक्तिका त्याग करता है. तथा शरीरमें, आहारादिक भोगसाधनके ३८ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना पदायोंमें उनके रूप, रस, गंध, स्पर्शादि पर्यायोंमें भी जिसने प्रेम, स्नेह बौर आसक्ति करना ग्रेट किया है रेसा सत्पुरुष द्रव्योंमें और उनके पर्यायों पोषका स्या र अमायाय स्वीकार करता है. पदार्थों को जानने के समय रामरूप और द्वेषरूप परिणति छोडकर केवल पदाथोंको अनना ही समता है. उपाधि नामक प्रकरण समाम हुआ, ३८८ ChhatsARATARA परिग्रहपरित्यागादनंतरोऽधिकारः थितिनाम, पतझयानमातुकामः भितिशष्वस्यपर्थहय व्याचष्टे भावधितिईग्यचितिरिति, अप्रकृतं भितिशदार्थ निराकर्तुमिए दर्शयितुम् जा उवरि उपरि गुणपडिबत्ती सा भावदो सिदी होदि ।। दव्वसिदी णिस्सेणी सोवाणं आरुहंतस्स ।। १७६ ।। उपर्युपरि शुद्धषु गुणवासल्यते यया ॥ भावधितिरभाष्यमा विशद्धा जीववासना ।। १७३ ।। मंदिरादिषु तुंगेषु सुखेनारुह्यते यया ॥ द्रव्यनितिमता प्राज्ञैः सा सोपानादिलक्षणा ।। १७४ ।। विजयोदया-जा या । उपरि उरि उपर्युपरि गुणपत्रिवती गुणप्रतिपत्तिः । पानश्रद्धालसमानभावानां गुणानां प्रवृसाना उपर्युपरि गुणनात्तथाभूतानामेव प्रतिपत्सिर्या सा। भावदो भावेन । सिदी होदि भितिर्भवति । परिणाम सेयेति यावत् । अध का द्रव्यथितिः? अस्योसरमा-बव्वसिटी श्रीयते इति नितिः द्रव्यं च तत् श्रितिश्व सा व्यथितिः। यदाधीयते द्रव्यं निश्चयणीसोपानादिकं तदपि चिनिशदेनोच्यते । आरतस्स आरोहतः॥ अथैवं त्यक्तबहिरंगान्तरंगसंगेन मुमुक्षुणोपर्युपरि विशुद्धपरिणामसेका विधातव्येति गाथाषटकेनोपदेष्टुकामो भावधिनित्यधितिष्ठान्तस्कुटीकृतस्वरूपां निरूपयनिदमाह __मूलारा--टवरीत्यादि-मानश्रद्धानसमभावानां गुणानां प्रवृत्तानामुपर्युपरिगुणानां तथाभूतानामेव प्रतिपत्तिः परिणतिः । भावदो सिदी भावेन परिणामेन नितिः परिणामसेवेति यावत् । दयसिदी श्रीयत इति श्रितिः त्र्यं च तच्ट्रितिन सा द्रव्यभितिः । आरुहन्तस्स प्रासादमिष मोक्षमारोहतभटतः । गुणनान्तधाममानरमाइ-बदनाच्यते । आप SATURNOHolice - - PARAN Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवासः 'परिग्रहोंका त्याग करना इस अधिकारके अनंतर श्रिति नामक अधिकार है. इसका वर्णन करनेके प्रथम श्रिति शब्दके भावश्रिति और द्रव्य श्रिति ऐसे दो अर्थ करते हैं. श्रिति शब्दके अपकृत अर्थका निराकरण कर इष्टार्थ दिखाने के लिये भावश्रिति और द्रव्यश्रिति ऐसे दो प्रकार आचार्यने दिखाये हैं. अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और समानभाव अर्थात् चारित्र इन गुणोंकी गुणितरूप उत्तरोत्तर उन्नतावस्थाको प्राप्त करलेन। यह भाररूप भिाते है अथात् अपनेम रत्नत्रयका दिन प्रतिदिन उत्तरोत्तर विकाशही करते जाना उसको भावश्रिति कहना चाहिये. और कोई उच्चस्थानमें स्थित पदार्थ लेना चाहे तो निश्रेणी का अवलंबन लेकर एक एक सोपानपंक्ति क्रमसे जो चढना बह द्रव्यथिति है. अनयोः का या गृहीतेत्यवाह सल्लेहणं करेंतो सम्बं सुहसीलयं पयहिदूण ॥ भावसिदिमारुहित्ता विहरेज सरीरपिविण्णो ॥ १७२ ॥ द्रव्यथिति परित्यज्य भावश्रितिमधिश्रितः ॥ चारित्रे चेष्टता शुद्ध त्यक्तुकामः कलेवरम् ॥ १७॥ घिजयोदया-सल्लेणं सल्लेखना करतो कुर्वन् । सम्वं सुहसीलय सवा सुखभावना आसनशयनभोजनादिविषयां । पयहिदूण प्रकर्षण त्यक्त्या योगत्रयेणेति यावत् । भाषसिदिमारहित्ता श्रद्धानाविपरिणामसेयां प्रतिपय विहरेन्ज प्रवतेत । सरीरणिबिण्णो शरीरनिःस्पृहः । किमनेच शरीरेण, सुलभनासारण, अशुचिना, कतन, भारण रोगाणामाकरेण, जरामरणप्रतिहतेन तुःखविधायिनेति ॥ प्रशमसुखरासिकेन निर्वेदमुल्बणयितुं भावनितिमाश्रित्य प्रवर्तितव्यमित्यनुशास्ति ।। मूलारी-मुहसीलदं भोजनासनयनादिविषयों सुखभावना । पजहिवण प्रकर्षण योगत्रयेण त्यक्त्वा भावसि. दिमारुहिता प्रदानादिपरिणामसेषां प्रतिपय । विहरेज प्रवर्तत । सरीरणिविष्णो किमनेन शरीरेण सुलभेन, निःसारण, अशुचिना, कृतघ्नेन, भारेण, रोगाण्यामाकरण, जरामरणप्रनिहतेन, दुःखविधाविनेति देहस्पनिष्क्रान्तः। दो श्रितिमिस प्रकृत विषयमें कौनसी श्रिति ग्रहण की है इस प्रश्नका उत्तर आचार्य कहते हैं। ३८५ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना আঁখি ____ अर्थ - मलेखना करनेवाले साधुन सब मखभावको छोडना चाहिये अर्थात् आसन, शयन और भोजन बगेरह विषयाम मन, वचन आर शरीरस आसक्ति का त्याग करना चाहिये तथा श्रद्धानादिपरिणामों का आश्रय लेकर बिहार करना चाहिये, अथीत रत्नत्रयमें हमेशा प्रवृत्त होना चाहिंय. शरीरपर विरक्ति को बढ़ाना चाहिये. यह शरीर प्रत्येक जन्ममें मिलता है इसलिये सुलभ है, निसार है, रत्नादि अपवित्र पदार्थों से भरा हुआ है अतः अपवित्र है. मिष्ट पदार्थों से पुष्ट करनेपर भी यह आत्माको रोगादिसे कष्ट देता है. अतः कृतम है. भारस्वरूप है, नाना प्रकारके रोगोंने इसमें अड्डा जमाया है, जरा और मरण से पीडित है और दुःखदायक है ऐसे दोपपूर्ण शरीरसे विरक्त होकर रत्नत्रयमें साधु विहार करें, दवसिदि भावसिदि अणिोगवियाणया विजाणंता ॥ ण खु उद्गमणकज्जे हेटिल्लपदं पसंसति ॥ १७३ ॥ द्रव्यभावथितिज्ञानाः संत्युत्तरपदोवताः ।। न ह्यधोऽधः प्रशंसति पदमूर्य पियासवः ॥ १७६ ।। विजयोदया-दवसिदि भावसिदि अणिोगचियाणया विजागंता इत्यस्मिनसूत्रे पनघटना | उगमणकले हेडिउपदे ण खु पससति ऊर्ध्वगमने कार्य यधोधःपादनिक्षेप नैव प्रशंसन्ति । विजागंता विशेषण जानंतो । को दवसिदि भानसिदि च दमयभावधियोः स्वरूप उपादेयधितिशाना इति यावत् । न केवल धितिमात्रज्ञाः किंतु अणुओगयियाण या अनुयोगदान्दः सामान्पवचनोऽपि इह चरणानुयोगवृत्तिर्ग्रहीतस्तेनायमर्थः आत्रागंगशाः अथवा चतुर्विधानुयोगका ध्रुतमाहात्म्यनः न प्रशंसति । पतदुर्ग भवति-शुभपरिणामचना नतिशय धव प्रचतिंतव्यं, न जघन्यप्रवाह निपत्ति. तव्यं, यतोऽतिशयितथुनज्ञानलोकाना यतयो निदन्ति जघन्यपरिणामान । कुतो? मंदायमानशुभपरिणामः फ्रमण न बहलविशालफर्मतिमिरमपाकर्तुमर्हति नाशाभिमुखः प्रदीप रच अशुभपरिणामसंततभूल भवनि । तेन कर्मणां स्थितिरनुभवश्च प्रकर्षमुपैति ततो व्यवस्थिता सैच वीर्यसंसारिता । समीचीनसानमारतप्रेरितः शुभपरिणामानलः प्रकृष्यमाणो पिशोषितकर्मपादपरसस्तमुन्मूलयतीति ।। उर्वगत्यूर्वमधिष्ठितशुभपरिणामस्य वदतिशय एव प्रतिपत्तिस्तत्वहः श्लाघ्यत प्रत्यावेदयति । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SratiTATONE भावोस: मूलाराधना - मूलारा---अपिओगवियाणया पनुयोगज्ञाः । चियाणता विशेषण हेयोपादेयतालक्षणेन लक्षयन्त: 1 हिडिल्लपदं अधोधःपादनिक्षेपं जघन्यतापरिणामप्रवाहपतनं ध । मंदावमाशुभपरिणामो सशुभरिकामायनाकर्मी वयनुभावौ प्रकर्पयति । अर्थ-द्रव्यथिति और भावश्रितिको जानने वाले अनुयोगज्ञ आचार्य ऊपर जानेके लिये नीचे नीचेक स्थानमें पदनिक्षेप करना प्रशंसनीय समझते नहीं है. भावार्थ-- अणुयोगवियाणया' इस पदमें अनुयोग शब्द सामान्यचाचक है तो भी चरणानुयोगका वाचक समझना चाहिये, अतः 'अणुयोगविपाणया' इस पदका अर्थ आचारांगके जाननेवाले विद्वान् एमा समझना चाहिये. अथवा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगके ज्ञाता ऐमा भी अर्थ होता है. चार अनुयोग ज्ञाना श्रुतके माहात्म्य को जाननेवाले आचार्य ऊपर जानेके लिये नीचे नीचे पदनिक्षेप करते जाना प्रशंसनीय नहीं समझाने हैं, अभिप्राय यह है कि, शुभ परिणाम युक्त साधुओंको उस परिणामोंकी वृद्धि करनेकाही प्रयत्न करना चाहिय, उत्तरोत्तर अशुभ अथवा जघन्य परिणामों के प्रवाहमें नहीं बह जाना चाहिये. उत्कृष्ट श्रुतज्ञानरूपी नत्रोंको धारण करने वाले आचार्य जघन्य परिणामोंकी निंदा करते हैं. जिसके शुभ परिणाम उत्तरोत्तर मंद हो रहे हैं वह यति क्रमसे विपुल और बढ़ा कर्मरूपी अंधकार कैसा नष्ट करने में समर्थ होगा। प्रत्युत वह नाशके सम्मुख हुए दीपके समान कर्मरूप अंधकारको बढ़ाने में सहायकही होगा. मंद होनेवाले शुभपरिणाम अशुभ परिणामोंकी उत्पत्तिम कारण बनते हैं, ऐसे परिणामोंसे कर्मका स्थितिबंध और अनुभागबंध पुष्ट होता है. और दीर्घ संसार में भ्रमण करना पड़ता है. सम्यग्ज्ञानरूपी वायुसे प्रेरा गया शुभपरिणामरूप अग्नि जब बढ़ता जाता है तब वह कर्मरूपी वृक्षको रसहीन बनाकर उसको धराशायी कर देता है, अर्थात् काँका नाश करता है, ३९ धितेस्पायस्थानपरिद्वारामधानायोत्तरगाथा गणिणा सह संलाओ कजं पइ सेसएहि साहूहि ॥ मोणं से मिच्छजणे भज्ज साणीसु सजणे य॥ १७४ ॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाव MAHAGAKARANterackeretare ३९२ arete m गणिनैव सम जस्पः कार्यार्थ यतिभिः परः ।। कुदृष्टिभिः सम मौनं शांतैस्स्वैश्च विकल्प्यते ॥ १७ ॥ विजयोन्या-गणिणा सह सावधारणमिदं गणिनैव सहासंलावो प्रक्षप्रतिवयनप्रबंधः, नान्यःसह घिरभाषण कार्यः । आचार्येण सह संलापः शुभपरिणामस्य हेनुरित्यनुज्ञायते । तर तु प्रमादिनो यत्किवियुवन्तोऽशुभपरिणाम विध्युः । कसं पर कार्य खं प्रति । सेसगेहि साधूहि शेयैः साधुभिः संभाषणं कार्य, न प्रबंधरूपा कथा कार्य । मोणं मौनमेव । से तस्य शुभपरिणामणीमामढस्य । मिच्छजणे मिथ्याट्रिज ने । स्वार्थ यद्धपरिकरस्य कि तेनानुगकारिणा हितोपदेशादिना । मज भाज्यं विकरप्यं मौन । सरणीसु मिथ्याष्टिष्वप्यूपांतेपु । साणे यस्पजनेन । मिथ्यारी अस्थामवस्थायां मदीरा या त्या सामर्शनादिकपिम एकनीति यद्यस्ति सभाबना बृयाधर्म न चेम्मानमेव ॥ इदानी शुभमाश्रितापचयापचयनिमित्तवृत्तिनिवृतिप्रनिपस्यर्थ आह - मूलारा-गणिणा आचार्येणैव । सलामो प्रमोत्तर गन्धरूपा गंकथा कर्तव्या । शुभपरिणामकलिमिनचाग । कज पद्धि कार्य स्वमुद्दिश्य । शेषसाधुभिःमहमभाषणमात्र कायन प्रबंधरूपा कथा। ने हि प्रमादितया यत्किंचिद् वन्नो शुभपरिणाम विदभ्यः। से तस्य शुमपरिणामणीमाढस्य । मिफलाणे मिश्यादृष्टिलोके अर्थात् रे । मणीसु संक्षिपु शिक्षाटापोपदेशानां प्राहकेषु मिथ्यादृष्टिध्वपि उपशान्तेषु इत्यर्थः । सजणे स्वजन झातिलोके मियादृष्टौ । अस्यामवस्थायां मम वाक्यमाकर्ण्य सम्यक्त्वादिकमिमे गृहान्तीति संभावना यद्यस्ति तदा धर्म ब्रूयानो चेन्मौनमेव कुर्यादिति तात्पर्य । तथा चान्ये पठन्ति-- गाणिनैव सम जल्पः कार्यार्थ यतिभिः परैः।। कुष्टिभिः सम मौनं शांतैः स्वैश्च विकत्यते ।। भावश्रितिके अपाय स्थानोंका त्याग करना चाहिये ऐसा आचार्य उत्तर गाथा कहते हैं. . अर्थ-सल्लेखना धारण करनेवाले युनिओंको आचार्यके साथही भापण करना चाहिये अर्थात् प्रश्नोत्तर रूप भाषण करना चाहिये. अन्य मुनिओंके साथ बहुत कालंतक भाषण करना अकल्याण करनेवाला है. आचार्यके साथ किया हुआ भाषण शुभपरिणामका हेतु होता है. इतर प्रमादी मुनि कुछभी बोलकर सल्लेखना धारकके मनमें अशुभ परिणामोंकी उत्पत्ति कर देंगे. कुछ कार्यके लिये इतर साधुओंके साथ अल्प भाषण करना चाहिये. जो मिथ्या दृष्टि है उसके साथ बोलना ही निषिद्ध है. मौन धारण करना ही श्रेयस्कर है, सल्लेखनाधारक आत्महित करना ही मुख्य SVEERCHANA | ३९२ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास कार्य समझता है. मिध्यादृष्टि मनुष्योंको हितोपदेशादिक यदि वह करेगा तो उससे उसका कुछ फायदा नहीं है. बह शुभपरिणामोंपर चढ़ा हुआ है, मिथ्यात्विओको उपदेश देनसे उसके स्वार्थमें क्षति पोहोंचेगी. अतः उसको मिथ्यात्वीके साथ बोलना निषिद्ध है. जो मिथ्यादृष्टि तो है परंतु मंदकषायी है ऐसे पुरुषके साथ वह बोले अथवा नमी बोले और जो स्वजन है उनके साथ भी वह चोले अथवा न बोले. मिथ्यादृष्टि जन जब मंदकषायी होते हैं. तब मेरा वचन सुनकर सम्यग्दर्शन अणुव्रतादिक धारण करेंगे ऐसी यदि संभावना होगी तो उनके साथ बोलना काहए अन्यथा न बोलना हा श्रेयस्कर होगा. उपगतशुभपरिणामस्य प्रवृत्तिक्रममाचशे सिदिमारुहितु कारणपरिभुत्तं उवधिमणुवाधं सेज्जं ॥ परिकम्मादिउवहद बज्जित्ता विहरदि विदण्ह ॥ १७५ ॥ कार्याय स्वीकृतां शय्यां विमुग्धाचारपंडितः ।। परिकर्मवी वृत्ते वर्तते देहनिस्पृहः ।। १७८॥ विजयोदया-सिदिमारुहितु शुभपरिणामश्रेणिमारुह्य । कारणभुतं किंचित्कारणमुपदिश्य श्रुतग्रहणं, परेषां वा श्रुतोपदेश, आचार्यादिवयावृत्त्यादिक, वा परिभुत्तं व्यवाहतं । उवाध परिग्रहमौषधं अतिरितमानसंयमोपकरणानिया। अणुधि पत्परिग्रहं । अम्बत्रेषदर्थवृत्तिः अनुदरा कन्येति यथा । कोसावनुपधिरत आह-'सेज सेविजविजदिणा' इति व्युत्पत्ती वसतिरुच्यते, तेन सज्ज वसति । परिकम्मादि उवदं यतयोऽत्र वसंतीति प्रमार्जनमलेपनादिपरिकर्मणा उपद्दत अयोग्यं । बज्जित्ता वर्जयित्वा । विहरदि बाचरति । चिदण्डू क्रमशः ॥ उपगतशुभपरिणामस्य प्रवृत्तिकममाचष्टे मूलारा - सिदिमारुहितु शुभपरिणामश्रेणिमारुख । कारणपरिभुतं कारणेन श्रुतमहणशिष्योपदेशाचार्यवैयावृत्त्यादिप्रयोजनेन व्यवहृतं । उवधि परिप्रहमौषधं, अतिरिक्तपुस्तकादिकं वा । अणुषधि सेज षसतिलक्षणभीषत्परिमहं। परिकम्मादिउबदं यतय उपवसन्तीति क्रियमाणेन सम्मार्जनलेपनादिसंस्कारारंभेण अयोग्यं । विहरवि तपसरवि । विदण्डू || २९३ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ३९४ शुभपरिणामयुक्त सत्पुरुषका आचरण क्रम दिखाते हैं. अर्थ - शुभ परिणामरूप नसनीपर चढ़कर आचरण का क्रम जाननेवाले साधु शाख पदना, दसगको शास्त्रोपदेश देना, आचायोंका पैयाकृत्य करना इत्यादि कारणों के उद्देश्यसे जो परिग्रह संगृहीत किया था अथवा औषध व तदतिरिक्त ज्ञानोपकरण और संयमोपकरण संग्रहित किया था उसका त्यागकर विहार करे तथा जो ईषत्परिग्रह अर्थात् वसतिकाकाभी त्याग करे. इसमें यति निवास करंग इस हेतुसे झाटकर स्वच्छ करना लेपना बगैरह क्रियाओंसे जो दषित है उस वसतिकाको भी वह मुनि त्याग कर विहार करता है अर्थात् तपश्चरण करता है, नित्यनंतरं किं करोलीन्यप्रा. तो पन्छिमंमि काले वीरपुरिससबियं परमघोरं ।। भत्तं परिणतो उबेटि अभुजनविदा ।। १०६ ॥ दश्चर पश्चिम काल भक्तत्यागं सिपंधिषुः ।। धारीनवंचितं याद चतुरंगे प्रबनते ॥ १७९॥ इति श्रितिसूत्रम् ।। विजयोदया-तोतस्याः श्रितः । पछिमिकाले पश्चिमे काले । धीरपुरुससेवि वीरै पुरुषेराचरितं । परमघोरं अतिदुष्करं । भत्तं परिजाणनो आहारं परित्यक्नुकामः | उवदि उपति । किं अभुज्जदविहारं सम्यग्दर्शनादिएरिणामादि मुख्ये उघंत ॥ सीसी। एवंविधश्रित्यनतरं कि कगेतीत्यवाह मूलाग--तो तस्याः । परिजाणतो परित्यक्तुकामः । आहारं त्यजनित्यर्थः । उवेदि आश्रयनि । अन्भुजदRI विहारं रत्नत्रयाभिमुस्यनोयुक्तभाचरणं " नितिः । सूत्रप्तः ५ । अंक्रतः ६ ॥ श्रितीके अनंतर साधु कोनसी क्रिया करते हैं इसका वर्णन करते हैं. अर्थ-उस श्रितीके अनंतर अंतकालमें वीरपुरुषोंके द्वारा आचरण किया गया, अतिशय दुष्कर ऐसे आहार का त्याग करने की इच्छा करनेवाला मुनि सम्यग्दर्शनादिपरिणामामें उद्युक्त होता है. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ३०५ फारसावधानी निकर रखपाय:-- इत्तिरियं सव्वमणं विधिणा वित्तिरिय अणुदिसाए दु ।। जाहिदण संकिलेस भावेइ असंकिलेसेण || १७७ ।। समानुदिशं सर्व गणं संक्लेशर्जितः॥ कियंतं कालमात्मानं गणी भावयत तराम् ॥ १८०॥ विजयोदया--इसिरियं कियत्तः कालस्य । सम्यगण संयतानां, आर्यिकाणां, भावकाणां, इतरासां च समिति। चित्तिरिय दत्त्वा । कथ विधिणा विधिना । कथं सर्वस्य गणस्य मध्ये तं व्यवस्थाप्य स्वयं पहिः स्थित्या 'पष निरतिचाररत्नत्रयः आन्मान युग्मानपि समर्थः संसारसागरादुद्ध, अनुशातश्च मया सूरिस्थमिति तत पतदुपदेशानुसारण भवतिः प्रवर्तितव्यं इति । अणुदिसाए तु अनुपश्चादर्थे दिशिविधाने गुरोपशदिशति विधत्ते चरणक्रम यः सोभिधीयते अणुविसाशब्देन । जहिऊण त्यक्या । संकिलसं संक्लेशं परोपकारसंपावनायासं । माये भाषयति । मसंकिलसेण न विद्यते संक्लेशोऽस्मिसित्यसंक्लेशःशुभपरिणामस्तेन भावयति वासयति आस्मानं ॥ अथ कीहासावभ्युद्यतो बिहार इत्यत्र प्रभे पंचविंशत्या गाधाभिहत्तरय त । मूलारा-इत्तिरिय स्तोककालं | वित्तिरिय दत्वा । अणुदिसाएदु । जहिदुण संकिलेस भावेदि असंकिलेभेण । अनुगुरोः पश्चादिशति विधसे चरणकमभित्यनुदिक एटाचार्यस्तस्मै विधिना । सर्वस्य गणस्य मध्ये तं व्यवस्थाप्य स्वयं बहि:स्थित्या एप निरतिचाररत्नत्रयत्यादात्मानं युष्मांश्च संसारसागरादुदत्तुं समर्श:नुशातश्च मश ततः सूरिरयं इति मन्यमानरेतदुपदेशानुसारेण भवद्भिः प्रवर्तितम्यभिति समर्पणक्रमेण सर्वगण दत्तति संबंधः । वथा छोक्तं-- आहूय गर्ण विधिना दत्वा प्रतिसूर ये नियतकालम ।। संकिष्टां त्यक्त्वासावक्लिष्टा भावनां भजते ।। संकिलेस परोपकारकरणाया। भावेदि वासयत्यात्मानं सल्लेखनोद्यत इति शेषः । असंकिलेसण नास्ति सक्लेशो वक्ष्यमाणानादिविषयमायावित्यादिदनदुर्गतिनिमित्नात्मपरिणामो यस्मिस्नेन शुभपरिणामेन ।। जिसम सल्लेखनाकी इच्छा करनेवाला उद्युक्त होता है वह विहार कैसा है इसका आचार्य वर्णन करते हैं अर्थ-गुरुके पक्षात् जो मुनि चरित्रका क्रम मुनि और आर्थिकादिकोको कहता है उसको अनुदिश अर्थात एलाचार्य कहते हैं, कुछ कालके अनंतर मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका ऐसे चतुर्विध संघको बुलाकर Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्चात संघके मध्यमें उसको बिठाकर स्वयं संघके बाहर खड़े होकर यह एलाचार्य निरतिचाररत्नत्रय पालते हैं. निजका और तुम्हारा भी संसारसमुद्रसे उद्धार करने में समर्थ हैं. ये अब तुम्हारे आचार्य गुरु है ऐसी मेरी सम्मति है. इस लिये इनकी आज्ञाके अनुसार ही आपकी प्रवृत्ति होनी चाहिये इतना बोलकर चतुर्विध संघका भार एलाचार्थके मस्तकपर अर्पण करना चाहिये. तदनंतर दुसरोंके ऊपर उपकार करनेका आयास छोडना चाहिये और शुभपरिणामोसे अपने आत्माको संस्कृत करना चाहिये. SANSARASATARAPATERALA REASTER কতগ্রামৰিকাৰিবায়ানা जावंतु केइ संगा उदीरया होति रागदोसाणं ॥ ते वज्जितो जिणदि हु राग दोसं च णिस्संगो ॥ १७८ ।। कंदप्पदेवखिब्भिस अभिओगा आसुरी य सम्मोहा ॥ एदा हु संकिलिट्ठा पंचविहा भावणा भणिदा ॥ १७९ ॥ कांदी कैल्बिषी प्राज्ञैराभियोग्यासुरी सदा॥ साम्मोही पंचमी हेया संक्लिष्टा भाषना ध्रुवम् ॥ १८१ ॥ विजयोदया-कंदप्प इत्यादिना गतिकर्म चतुर्विध नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्य गतिदेवगतिरित्यत्र देवगतिनैकप्रकारा असुरदेवगतिनागदेवगत्यादिप्रपंचेन । कंदर्यदेवगतः, किल्मिषदेवगतेराभियोग्यदेवगतः, असुरदेवगतेः, सम्मोहदेवगतेश्च कारणभूताः आत्मपरिणामाः । कारणेन कार्योपचारोऽन्नमाणवत् । यथानं धै प्राणाः इति । माणकारणे प्राणोपचारः । कार्यगतेन व्यपदेशेन कंदपशब्देनोच्यते कंदर्पभावना । किल्बिषभावना, भभियोग्यभावना, भसुरभावना, सम्मोहभावमाति पंचप्रकारा भावना निरूपिताः सर्वविद्रिा अत्रेयं गाया मूले श्रूयते । मुलारा-पता टीकाकारो मेच्छति। त्यक्तव्यसंक्लेशभावनाचिकल्पानुदेष्टुमाइ- ' मूलारा--कंदप्पेत्यादि । अत्र कंदीदिवेवगतीनां कारण भूसा आत्मपरिणामविशेषाः कदादिशब्दैनिविदाः । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृराराधना आश्वामः कार्य कारणोपचायत । तेन कंदर्पभावना, किल्बिषभावना, अभियोग्यभावना, असुरभावना मम्मोहमाक्ना चति प्रामं । । अन्ये तु तद्धितादिमुखेन व्युत्पाद्य ताः पठन्ति चथा - कांदणे कैल्बिषी चैव भावना चाभियोगजा । दानवी नाभिसमोहा त्याज्या पंचतयी च सा ।। इत्थं पा-कांदी कैल्बिषी प्रावैराभियोग्यासुरी तथा । सांमोही पंचमी हेया संक्लिष्टा भावना ध्रुवम् ॥ संक्लेशको उत्पन्न करनेवाली भावनाओं के विकल्प कहते है-- अर्थ-जगतमें परिग्रहही रागद्वेषादिकाको उत्पन्न करते है इस लिये परिग्रहोंका न्यागकर निःस्पृह होकर | रागडेपोंको जीतना चाहिये. गतिकर्मके नरगति, तिर्यचगति देवगति और मनुष्यमति ऐसे चार भेद है. देवगतिके असुरदेवगति, नागदेव गति वगैरह अनेक प्रकार है. कंदपदेवगति, किल्विषदेवगति, अभियोगदेवगति, असुरदचगति और सम्मेह देवमति इनके प्रति कारणरूप जो संक्लेश परिणाम उनको भी कंदर्पभावना किल्बिषभावना ऐसे नाम हैं. अन्न कारण है और प्राण कार्य है इसलिए प्राणके कारण भूत अन्नमें कार्योपचारसे प्राण व्यवहार होता है बसे कि ल्बिपादि देवगतिकी प्राप्ति कर देने में जो संक्लेश परिणाम है, उनमें भी कार्योपचार करक कंदपभावना, किल्बिषभावना इत्यादि नामोंका व्यवहार सज्जन करते है, तत्र कंदर्पभावनानिरूपणायोसरगाथा कंदप्पकुक्कुआइय चलसीला णिचहासणकहो य ॥ विन्भावितो य परं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥ १८० ।। हास्यकांदपकौत्कुकयपरविस्मयकोविदः ।। कांदी भावनां दीनो भजते लोलमानसः ॥ १८२ ॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुलाराधना ३९८ विजयोदया---कंदप कुआइयन्चलसीलो रागोद्रेकात्मास सम्मिश्रो ऽशिष्टयाप्रयोगः कंदर्पः । रागातिशयतो हसतः परमुद्दिश्याशिएकायप्रयोगः करं । एवं भवतो मातरं करोमीति कंदर्पकौत्कुच्याभ्यां चलसील: शिवहासको य सदा हास्यकथाकथनोद्यतः । विभावितो य परं परं विसापयन् कुतुकं किंचिदुपये। कंदष्पं भावणं कुणदि दान करोति । रागोद्रेकजनितहासमयर्तितो वाग्योगः काययोगः परविस्मयकारी वा कंदर्पभावनेत्युच्यते । असकृत्प्रवर्तमानः । तंत्र कांद निर्दिशति - मूलारा - कंदपक कुआयसील कंदकुत्कुवातिद्वयशीलः । रागोद्रेकात्प्रहास मिश्रोऽशिष्टवाक प्रयोगः केन्द्रः | रागातिशयवतो इसन: परमुद्दिश्यैवं तब मातरं करोमि इति अशिष्ट कार्यं प्रकुत्कुचायितं । कौत्कुच्यमिति यावत अव्यक्तकंठस्वर करण मवशिध्दांगावयवचालन वेति केचित् । तद्वयं शीलयति पुनः पुनः प्रवर्तयति । णिचहासणको सदा हास्यकथाकथनोद्यतः | विभाति मंत्रद्रालादिकुहकप्रदर्शनेन विस्मयं नयन । कंदर्प भावनानिरूपण अर्थ- प्रीति की उत्कटता से हास्यसहित असभ्य चचन बोलना, भेदवचन बोलना वह कंदर्पवचन है. रागकी अधिकता से अतिशयरागवश होकर इसकर दुसरोंको उद्देश कर शरीरके असम्य अभिनयके साथ असभ्य वचनोच्चार करना यह कौत्कुच्य है. जैसे तेरी माताके साथ में बुरा कार्य करूंगा ऐसा वचन बोलना. इन दो प्रकारके वचनका जो वारंवार प्रयोग करते हैं वे चलशील समझना चाहिए जो मंत्र, इंद्रजालादि कौतुक दिखाकर लोगोंको आश्चर्य उत्पन्न करते हैं. जो हमेशा हास्य उत्पन्न हो ऐसी कथायें कहनेंम उयुक्त रहते हैं. वे मुनि कदर्पभावना करते हैं ऐसा समझना चाहिए. किल्विषभावनाख्यानायाचऐ णारस केलीणं धम्मस्साइरिय सव्वसाहूणं ॥ माझ्य अवण्णवादी खिम्भिसियं भावणं कुणइ ॥ १८१ ॥ सर्वज्ञशासनज्ञानधर्माचार्य तपस्विनाम् ॥ निंदापरायणो मायी केल्बिर्षी श्रयतेऽवमः ॥ १८३ ।। আब ३ ३९० Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा विजयोत्या-तामिभोगकोदुगभूकम्म-मंत्राभियोगक्रियां, कुम्हलोपदर्शनकियां, पालादीनां रक्षार्थ भूति कर्म च । पयुंजदे करोति यः । अभियोग भाषणं कुणा । अभियोग्या भावनां करोति । किं सर्व य मंत्राभियोगादी प्रवृत्ती नेत्याह । इहिरसमायहेतुं मताभियोगकोदुगाईकम्म जो पडजद सो अभियोगमावणे कुणा ॥ द्रव्यलाभम्य, मृष्टाशनस्य, सुखमय था इन मंत्राद्यभियोगकर्म प्रयुंके यः स एव अभियोग्यभावना करोति । नन यः स्वस्थ परस्य वा आयुरादिपरिक्षानार्थ मंत्राभियोगं कुर्वन् . धर्मप्रभावनार्थ कौतुकं उपदर्शयन, वैयावृत्य वा प्रवर्तकनीनि उद्यतः, शानदर्शन चारित्रपरिणामादरवर्तनाथ दुग्यतीति भाषः । आभियोग लनयनि मूलारा- मंत्राभियोग कुमार्यादिपात्रे भूतावेशकरण | कोदुग अकालवृष्ट्यादिकौतुइलोपदर्शनं, वशीकरणादिकं वा । भूदीकम्म बालादीनां रक्षार्थ भूतिकर्म भूतिमीडनकर्म वा 1 इठुरससादह व्यलाभमृष्टाहारसुखनिमित्तं । न पुनरायुरादिपरिशानधर्मप्रभावनावैयावृत्यार्थ मंत्रादिप्रयोगं कुर्वन रत्नत्रयादरवत्तया दुष्यतीति भावः ।। आभयोग्य भावना का वर्णन अर्थ-कुमारी बगरहमें भूतका आवेया उत्पन्न करना, अकालमें जलयुष्टि करके दिखाना ऐसे ही आश्रयं कारक प्रयोग करना जैस अमावास्या के दिन आकाश में लोगों को चंद्र दिखाना इत्यादि, किसी स्त्री या पुरुषको वश करना, उच्चाटन करना इत्यादि, बालकादिकाका रक्षण करने के लिये भूतिकर्म मंत्रप्रयोग करना अथवा भृतों की क्रीडा दिखाना ये सब क्रियायें यदि अपना ऐश्वर्य दिखानेके लिये, अथवा संपदा दिखानेके लिये, मिष्टाहारके लिये, किंवा इंद्रिय जनित सुखके लिये यदि मुनि करेगा तो उसकी यह अभि योग्य भाषना कही जायगी. इस भावना के प्रभाव से जीवका जन्मवाहन जाती के देवोंमें हो जाता है. यदि कोई मुनि निजकी अथवा दुसरों की आयु वगैरे जाननके लिये मंत्रप्रयोग करेगा, धर्मप्रभावनाके लिये यदि वह कौतुककारक अकाल वृष्टयादिक दिखावेगा अथवा इन मंत्रादिकोंसे मैं मुनिका वैयावृत्य करूंगा ऐसा अभिप्राय मनमें धारण कर यदि वह कौतुकादि करेगा तो दर्शन, ज्ञान चारित्र परिणामोम आदरसे प्रवास करनेवाला होनेसे दुषणीय नहीं है, १०० Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MI मूलाराश्ना RMERIOTISTER PORESTOREBRATRIKARAN HARSHAN ECONDANES चतुर्षों भायमा नन्दि... अणुबंधरोसविग्गहसंसचतवो णिमित्तपडिसेवी ॥ णिविवणिराणुतावी आसुरिअं भावणं कुणदि ॥ १८३ ॥ निष्कृपो निरनुक्रोशः प्रवृत्तक्रोधविग्रहः ।। निमित्तसेवको धत्ते भावनामासुरी यतिः॥ १८५।। विजयोदया-अगुपंधरोसचिम्गहसंसत्ततवो णिमिमपडिसेंधी रोषश्च विग्रहधरोपविग्रही अनुबंधेन रोपविग्रही अनुबंध रोषधिग्रही अनुबंधपधिग्रहाभ्यां मसत संबई अनुबंधरोपविग्रहसंसक्तं तपो यभ्य स तथोक्तः । निमिसाजीबीच यः स आसुरीभावनां करोति इति कचित्कथयति । अनुवदो भातरानुयायी रोषणे यस्य सोऽनुबंधरोपः। विप्रहेण कलहन संसक्तं तपणे यस्य सः विग्रहसंलक्ततपावादेन भण्यते । अनुबची रोषविग्रही अस्येत्यनुबद्धरोपविग्रहः। सम्यगतीबसंसक्तं संबर परिग्रहेण तपो यम्प स संसक्ततपोऽभिलापयाच्यः । णिफिचणिराणुतावी यः निदेयः पाणि, कृत्वापि परपीडो अनुतापरहिनधासुरी भावनां करोति । आसुरी व्याहरनि मूलारा- अण्वद्भरोसबिगहसंमत्सतवोणिमिलपडिसेवी गिक्रियाणिराणुताची आसुरियं । अनुयद्धरोषविग्रहाभ्यां नित्यप्रयुनोथकलहाभ्यां संयक्त संयुक्त तपो यस्य स तथाभूततपाः । अथवा अनुबद्धरोपो भवांतरानुयायी क्रोधः । विग्रहमयुक्तनपा: कलागुक्ततपाः । यदि वा अनुबद्धरोपविनश्ववासी संसक्तनपारचेति प्राझं । संसक्तं सम्यगतीव म परिमहा संवर्द्ध तपो यस्यति विप्रहः। गिमित्तपडिसेवी। ज्योतिषाचाजीबी। णिचिव निर्दयः । णिराणुतावी कृत्वापि परपीडां पचात्तापमकुर्बन । चतुर्थ भावना--आसुरी भावनाका वर्णन... अर्थ-जिसका कोप अन्य मवमें भी गमन करनेवाला है और कलह करना जिसका स्वभाव पन गया है वह मुनि रोष और कलहके साथ ही तप करता है ऐसे तपसे उसको असुरगतिकी प्राप्ति होती है. जिसका तप परिग्रहके साथ रहता है अर्थात् तप करता हुआ भी परिग्रहोंपर जिसका मोह रहता है, जो निर्दय स्त्रभावी है, प्राणीको दुःख देकर मी जिसके अन्तःकरणमें पश्चाताप उत्पन्न होता नहीं है ऐसा साधु असुरगतिमें उत्पन्न होता है. ज्योतिष, सामुद्रिक बगैरे कहकर जो मुनि आहारादिककी प्राप्ति कर लेता है वह असुरगतीको जाता है. S ४०१ MAISE Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूजाराधना P = { संमोहभावना निरूप्यते- उम्मग्गदेसणो मग्गदूसणो मग्गविष्पडिवणी य ॥ मोहेण य मोहितो संमोहं भावणं कुणइ ॥ १८४ ॥ उन्मार्गदेशको मार्गको मार्गनाशकः ॥ मोहन मोहल्लोक साम्मोहों तां प्रपद्यते ।। १८६ ।। विजयोदया--देणं मध्यादर्शनं श्रभिति बाथ उपदिशनि, आमाभासानागमस्तत्प्रणीनांश्च हित नाच । यो यासह कुर्वन्नपि न पापेन लिप्यते । ज्ञानं हि सर्व पापं दहति इति प्रतिपादयता हिंसादिभ्यो भयं निगकुर्वता हिंसाविषु जीवा प्रवर्तिता भवन्ति । स एकः उन्मार्गस्योपदेश । यशे प्राणिबधो न पापाय शाखयोटितत्वाद्दानादित । च पशवो हि यागार्थमेवादी सृष्टा याजका यजमानाः पशवश्च मंत्रमाहात्म्यात्वमै तेइति । वयमेकः उन्मादेशः मन्दू सेवा निर्जरायाश्च निरवशेषकर्मायया हेतुभूताः समीचीनानदर्शनपरिणाम मार्ग दति उच्यते । अन्याबाधसुखस्य परंपराकारणत्वा । तस्य मार्गस्य दूषणं नाम शानांचेच मोक्षः किं दर्शनचारिघाय ? चारिणमेवोपायः किं ज्ञानेनेति कथयन्मार्गस्य दुषको भवति । अथवा मार्गप्रत्यायनपरं श्रुतं मार्गस्तस्य दूषको यो अपव्याख्यानकारी प्रभाविष्यधिणी य मार्गे रक्षात्मके विमतिपक्षः एष न मुक्तेर्मार्ग इति यस्मद्विरुद्धाचरणः । मोहेण य अज्ञानच संशयविपर्यासरूपेण मुज्झन्तो मुहान्। सम्मोहेतु तीमफामरागेषु कुत्सितेषु देवेषु उपपद्यते । मांमोहीमाह मूलारा - उम्मम्गदेसणा मिध्यात्व संयमोपदेशः । मग्गणदूसणा मार्गस्य रत्नत्रयस्य दूषणा । ज्ञानादेव मोह किं दर्शनचारित्राय ? चारित्रमेव मोक्षः किं ज्ञानेनेत्यादि विभाषणं । अथवा मार्गप्रत्यायनपरं ध्रुवं मार्गस्वस्थ खूषणमप व्याख्यानमिति ब्राह्मम | काण दूसणेति पाठेऽपि इयं व्याख्या, उन्मार्ग देशना योगाद्यतिरपि तथोक्त एवं मार्गदूषणयोगोव्व अथवा उम्मग्गदेसगो मग्गसगो इतिपाठः । मग्गविष्पविद्धो रत्नन्नयविप्रतिपन्नः । एष न मुक्तेर्मार्ग इति तद्विरुद्धचरणः ॥ गोहेण संशय विपर्ययरूपेणाज्ञानेन । सम्मोह भावनाका निरूपण - अर्थ - जो मिथ्यादर्शन और अविरतिका उपदेश करता है. हरिहरादिक और उनसे बनाये हुए कुशास्त्र ये प्राणिको हितमार्ग दिखाते हैं ऐसा जो कहता है. तत्व पुरुष हिंसादिक कार्य करनेसे भी पापसे लिप्त आश्वासः ४०२ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाशघना आश्वासः नहीं होता है. उसको पापसे दुर्गतिकी प्राप्ति होती नहीं है. क्योंकि उसका ज्ञान समस्त पापको नष्ट करता है. इस गैतीका विवेचन करके जो हिसादि पापोंसे निर्भीक बना कर उसमें प्रवृत्त करता है वह सम्मोहभावना भाता है ऐसा समझना चाहिये. यह एक उन्मार्गका उपदेशक है. और भी उन्मार्ग उपदेशका विवेचन करते हैंशास्त्रमें आहारादिक दान पात्रको देना चाहिये एसा उपदेश है, वह दान जैसे पापका कारण नहीं है वैसे यज्ञ में ग्राणिको दिसा करनपर भी वह पापके लिये नहीं है. क्यों कि शास्त्रमें प्राणिओंका यज्ञ करने का विधान है. यशके लियाह पशु अामदेवने उत्पन्न किये हैं. यज्ञ करनेवाला, यज्ञ करानेवाला और पशु ये सब मंत्रोंके माहात्म्यसे स्वर्ग को जाते हैं. यह भी उन्मार्गोपदेश है. ऐसे उपदेशसे सम्मोही देवों में जन्म मिलता है, संवर, निर्जरा व संपू. ण कमाका नाश करने के लिये आत्माके सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और चारित्र शरण हैं. इनको आचार्य मार्ग कहते । हैं. इस मागस परंपरासे अच्याचाध-अर्थात् दुःस्व रहित अनंत सुख मिलता है. परंतु ऐसे सच्चे मार्गको जो दूषण लगाला है वह मार्गदपक है, रनत्रयात्मक मोक्षमार्ग जो भयोको दिखाता है वह श्रुतज्ञान मार्ग है. उस मार्गरूप श्रुतज्ञानमें जो दूपण लगाता है अथील उसकी बिरुद्ध घ्याख्या करता है. वह जीव सम्मोही देवामें उत्पन्न होता है. रन्जनयही मुक्तिका मार्ग है परंतु उसके विरुद्ध जो आचरण करता है तथा संशय, विपर्यय व अनध्यवसायात्मक जानन जो पदायक समय स्वरुपको पहचानता नहीं है. वह मोहित होकर जिनमें कामविकार और रागभावक्री नीग्रता एस कुन्भिन देशों में उत्पन्न होना है. RAHARASikssareANTERAS भावनामा फर्ट दर्शयति भयोपजननाय-- एदाहि भावणाहिं य निराधओ देवदुग्गदि लहइ ॥ तत्तो चुवो समाणो भमिहिदि भवसागरमणंतं ॥ १८५ ॥ रत्नत्रयं विराध्याभिभावनाभिर्दिवं गतः ॥ भीषणे भवकांतारे चिर थंभ्रम्यते च्युतः ॥ १८७ ॥ विजयोदया--पदादिभावणार्हि य पताभिः भावनाभिः । वेचदुग्गई लहदि वेचेषु दुष्टा या गतिस्तां गच्छति । विराधगो रजत्रयाच्युतः। तत्तो चुलो समाणो तस्या देवदुर्गतेश्च्युतः सन् । भमिहिदि भ्रमिष्यति भवसागरमंसातीतं । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना भाश्वास. ४०४ कदादिभाव नानां स्वरूप निहाय सर्वगोत्पादनाय तत्फलं दर्शयति मूलारा-विराधगो रबत्रयच्युत्तः । समाणो समानः सन् । भय उत्पन्न होबे इस वास्ते इन भावनाओंका फल दिखाते है अर्थ- इन भावनाओंसे मुनि रत्नत्रयसे भ्रष्ट होकर देयोंमे जो कुगति है उनको प्राप्त होते हैं. उन देषदुर्गतीसे भी च्युत होकर अनंत भवसागरमें वे भ्रमण करेंगे. तात्पर्य-क्रोदपी पंगैरह भावनाओंसे कुदेवपना और अनंत संसारमें भ्रमण प्राप्त होता है. एदाओ पंच बज्जिय इणमो छठीए विहरदे धीरो ॥ पंचतामेवा निगुत्तो णिसंगो सन्दसंगेसु ॥ १८६ ।। पंचेति भावनास्त्यक्त्वा संक्लिष्टः समितो यतिः॥ षष्ट्या प्रवर्तते गुप्तः संविग्नः संगवर्जितः ।। १८८॥ विजयोदया-पदाओ पंच बजिय पताः पंच भावनाः परित्यज्य । इणमो श्रयं यतिः धीरः । छडीए षष्ठया भावनया । पिहरदे प्रवर्तते । पष्ठयां भावनाय प्रवर्तितुं एवंभूतो पोग्यः इस्पाच-पंचसमियो समितिपंचकवृत्तिः । तिगुसो गुत्रियालंकृतः । णिस्तंगो संगरहितः। सम्बसंगेसु सर्वपरिग्रहेषु॥ ताः पंच त्यक्त्वा षष्ट्या या प्रवर्तते तामाचष्टेमूलारा-यमो अयं यतिः । ण्डीए, पष्ठ्या असंलिष्टभावनया । विहरदे प्रवर्तते । णिस्संगो आसक्तिमुक्तः । अर्थ-इन पांच भावनाओंका त्यागकर जो धीर मुनि पांच समिति और तीन गुप्तिओंका पालनकर मंपूर्ण परिग्रहोंग निःस्पृह रहते हैं वही छडी भावनाके आश्रयसे रत्नत्रयमें प्रवृत्त होते हैं. SAR PASRAMBAPAR का सा यष्टीभावना ? अत्रान तवभावणा य सुदसत्तभावणेगत्तभावणे चेव ॥ घिदिबलविभावणाविय असंकिलिष्ठावि पंचविहा ॥ १८ ॥ S Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास: १०५ INER असंक्लिष्टतपाशानसत्वैकत्वतिश्रिता ।। पंचधा भावना 'भाब्या भवभ्रमण भीरुणा ॥ १८९ ॥ विजयोदया-तयभाषणा तपसोऽभ्यासः । सुदभावणा ज्ञानस्य भावना । सत्तमावणा अभीग्यभायना । एगत्तमायणा एकत्वभावना । धिदिअलावभाविपावि य घृतिथलभावना चेति । असंकितिहावि पंचविधा असंक्लिश भावनाः पंचप्रकाराः । ननु च ताः पंचमात्यनास्तत्र किमुच्यते 'छट्टी य माचणा चेति' असंक्लि प्रभावनात्वसामान्यापेभया एकतामारोग्य पष्ठीयुनपते । विशेषरू पारेक्षया तपोभावनादिविवेकः । अत एव सूत्रकारोऽपि एकसां दर्शयति ' असंफिलिया वि पंचविहा' इति । असंष्टिभाषनाविकल्पगनुदिशतिमूलारा-सत्त अभीरत्वं । धिदिबलिदभावणा | धृतिः परमप्रसत्तिस्तस्या भावनाभ्यासः । छवी भावनाका वर्णन करते हैं अर्थ-तपका अभ्यास करना, ज्ञानका अभ्यास करना, निर्भयपनाका अभ्यास करना. मैं अकेलाही हूं ऐसा एकपनेकर अभ्यास करना और धृतिबल भावना एमी पांच असंक्लिष्ट भावनाये हैं. इस गाथामें पांच भावना ओंका उल्लेख किया है तथापि छठी मावनासे धीर मुनि रत्नत्रयमें विहार करते हैं ऐसा ऊपरकी माथामें कहा है यह विरुद्ध दीखता है. उत्तर - इन पांचो भावनाओंमें असैक्लिएपना है इस असंक्लिष्टत्व सामान्यकी अपेक्षासे इन पांचो भावना ओंमे एकपनाको आरोपित कर संक्लिष्ट पांच भावनाओं की अपेक्षासे यह भिन्न होनेसे इसको सामान्यतया छटी भावना ऐसा माथामें कहा है. विशेषताकी अपेक्षासे तपोभावना, श्रुतभावना वगैरे पांच भावनाये आचार्यने कही है. अतःविरोध नहीं है. तपोभावनासमाधेः कथमुपाय इस्यत्रायदे तवभावणाए पंचेंदियाणि दंताणि तस्स क्समेति ॥ इंदियजोगायरिओ समाधिकरणाणि सो कुणइ ॥ १८ ॥ दांसान्यक्षाणि गच्छन्ति तपोभावनया वशं ।।। विधानेनेन्द्रियाचार्यः समाधाने प्रवर्तते ।। १९० Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलागधना আস্থা विजयोदया-तबभाषणाए तपोभावनया 1 असरुवशनत्यागेन इव्यभाषरूपेण । पंचेंदियाणि पंचापि इंद्रियाणि । तस्स तपोभावनारतस्य । बसति वशमुपयाति । यतोऽस्मात् दंताणि दांतानि निगृहीतवर्षाणि । इंदिययोगायरिश्री इंद्रियाणां शिक्षाविधाय्याचार्योऽसी समाधिकरणानि रक्षत्रयसमाधानक्रियाः । सो सः कुणइ करोति । एतदुक्तं भवति । नवानि रंट्रिगान मापन कारखानपति शुधादिभिरूपद्रुतात्मा न वामलोचमासुरतक्रीड़ादी करोन्यादरमिति प्रतीतमेव । ननु चानशनादी प्रवृत्तस्याहारदर्शने तदाथियणे तदासेवायां चादरो नितांतं प्रवर्तते ततोऽयुक्तमुध्यते तपोभावनया दांतानींद्रियाणीति । इंद्रियविषयरागकोपपरिणामानां कर्मानचहेतुतया अहितत्वप्रकाशनपरिशानपुरःसरतपोभावनया विषयसुखपरित्यागात्मकेन अनशनादिना दान्तानि भवंति इंद्रियाणि । पुनः पुनः सेव्यमानं विषयसुखं राग जनयति । न भावनांतरान्तस्तिमिति मन्यते। तपोभावना कथं समाध्यंगमित्याह-- मूलारा · तवभावणाए असकृदशनत्यागेन । तानि निगृहीतदर्पाणि । तस्य तपोभानमारतस्य यतेः । बसमति all वर्श बान्ति । इंदियजोगाचरिओ इंद्रियशिक्षाविधायी आचार्यः । सगाधिकरणाणि रनवयममाधानार्धाः क्रियाः । बासनप्राणायामप्रन्याचारधारणाभ्यानलक्षणाः । सो तपोभावनादातवशी द्रियः । अथवा तपोभावनया साधोः पंचंद्रियाणि दातानि संति वशमा यान्ति । स प्रसिद्ध इंद्रिययोग्याचार्यो मनश्च समाधिकारणानि करोति ॥ तपोभावना समाधीका उपाय कैसी होती है इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते है अर्थ-वारंवार आहारका त्याग करनेसे तपोभावनाम तत्पर रहनेवाले साधुकी पांचो इंद्रियां वश हो जाती है. चार प्रकारका आहार छोडना यह द्रव्यतपभावना, है और वह आहार छोडनका जो मनःसंकल्प वह भावतपोभावना है. इस दो प्रकारकी तपोभावनासे इंद्रियोंका मद नष्ट होता है. तदनंतर ये आराध, कके वश होती है. इंद्रियोंको शिक्षा देनेवाला आचार्य अर्थात् साधु रत्नत्रयमें जिनसे स्थिरता होती हैं. ऐसी क्रिया करता है. भावार्थ यह है कि, जब तपश्चरणसे इंद्रियोंका दमन होता है तब मनमें काम विकार उत्पन्न नहीं होता है. क्षुधा, प्यास इत्यादिसे पीडित पुरुषके मनमें स्त्रीके साथ सुरतक्रीडा करना, आलिंगन देना बगैरह क्रियाओंमें आदर नहीं रहता है, यह वात सुप्रसिद्ध ही है. शंका-- टपवासादि तपोंमें प्रवृत्त हुए पुरुषको आहारके दर्शनसे और उसकी कथा सुननसे, उसको भक्षण करने की इच्छा उत्पन्न होती है. अतः तपोभावनासे इंद्रियोंका दमन होता है यह कहना अयोग्य है. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वास उत्तर--इंद्रियों के इष्टानिष्ट स्पादि विपयापर आत्मा रागी और देषी जब होता है तब उसके रागद्वेष परिणाम कर्मागमनके लिये हेतु बनते हैं. ये राग जीवका अहित करते हैं ऐसा सम्यग्ज्ञान जाचको बतलाता है. सम्यग्ज्ञानयुक्त तपोभावना जो कि विषयसुखाका परित्यागरूप और अनशानादिरूप है इंद्रियोंका दमन करती है . पुनः विषयसुखका सेवन करनेसे रागभाव उत्पन्न होता है परंतु तपोभावनासे जब आत्मा संस्कृत होता है | तब इंद्रियां विषासुलो चरम दोडता नहीं है. - तपोभाषनारहितस्य दोषमाचरे उत्तरमचंधन सान्तोपन्यासन इंदियसुहसाउलओ घोरपरीसहपराजियपरस्सो॥ अकदपरियम्म कीवो मुज्झदि आराहणाकाले ॥ १८९ ॥ इंद्रियार्थसुखासक्तः परीषहपराजितः ॥ जीवोऽकृतक्रियः क्लीयो मुद्यत्याराधनाविधी ।। १९१ ॥ विजयोक्या-ईदिश्वसुहसाउलओ इंद्रियमुनस्वावलंपटो। घोरपरीसहपराजिय परस्सो पापहः शोरः दुःसदः शुदादिभिः पराजितोऽभिभूतः सम यः पराङ्मुखतां गतो रखत्रयस्य । अकादपरियम्म कीवो अकृतं परिकर्म तपास धनाया येनारसी अकृतपरिकर्मा । कीयो दीनः । मुज्झइ मुध्यति विचित्ततामामोनि । आराहणाकाले आराधनायाः काले। सपोभावनाविहीनस्य गाथापंचकेन सहीतोपन्यासेन शेषमानष्ठे-- मूलारा-साउलओ स्वादलपटः । पराइय पराजितः । परझो परारमखो रत्नत्रयस्य । अकदपरियम्म न कुन परिकर्म आराधनायोग्यं तपो येन । कीवो लीयो दीन इत्यर्थः । मुज्झदि विपित्तता याति । __ मनोभावना जिसको नहीं है उस पुरुपमें दोष उत्पन्न होते हैं. इस विषयका खुलासा दृष्टान्त देकर आचार्य करते है. अर्थ-जो पुरुष अर्थात् मुनि इंद्रियमुखोंका आस्वादन करने में लंपट हुआ है, दु:सह भूख तहान वगैरह परीवहसि जो पीडित हुआ है. अतः जो रत्नत्रयसे पराङ्मुख हुआ है, जो आराधनाका रक्षण करने में एसे तपको छोड बैठा है वह मुनि दीन होकर आराधनाके कालमें मोहयुक्त होता है. समाधिमरण यह आराधनाका अन्तिम ५०७ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलारापना आधासः ४०८ - - लफ है, परंतु जिसने तपश्चरण किया नहीं, जो इंद्रियसुखमें निमग्न हुआ वह रत्नत्रयसे भ्रष्ट हो कर ममाधिमरणम च्युत होता है. यत्र हटान्तमाह जोग्गमकारिजतो अस्सो मुहलालिओ चिरं कालं || रणभूमीए वाहिज्जमाणओ जद ण कन्जयरो ॥ १९० ॥ लालितः सर्वदा सौख्यैरकारितपरिक्रियः ।। कार्यकारी यथा नाचो वायमानो रणांगणे ॥ १२॥ विजयोदया-जोग्गमकारिजंतो याक्चालनम्रमणलंधनाविका शिक्षा कार्यमाणः। मस्सो सभ्य1 मुहलालो सुरालितः । चिरं कालं रणभूमीर युद्धभूमौ । वाद्विजमाणगो पाहामानः । जहण करजकरो यथा कार्य न करोति तथा यतिरवि ॥ गुलारा--जोगं भायनभ्रमणलंघनादिकां शिक्षा | शे गाधात्रयं सुगमम् । इस विषयमें दृष्टान्त कहते हैं अर्थ-जैसे शब्दोंका अभिप्राय ध्यान रखना, चलाना, वेगसे घुमाना, कूदना वगैरह कृत्योंका अभ्यास जिससे कराया गया नहीं है, जिसको सुखसे पुष्ट किया है, ऐसे अश्वको बहुत काल व्यतीत होनेपर युद्धभूमीमें ले जानेपर यह कार्य नहीं करता है. शत्रूको जीतनेमें अपने स्वामीको सहायता देना दूर ही रही परंतु भयसे भाग जा कर मालिकका काम बिगाड देता है वैसे यति भीसुगमन्यात व्याख्यायते गावावयम-नवभाषणा। पुब्बमकारिदजोग्गो समाधिकामो तहा मरणकाले ॥ ण भवदि परीसहसहो बिसयसुहपरम्मुहो जीवो ॥ १९१ ।। जोग्गमकारिजंतो अस्सो दुहभाविदो चिरं कालं ॥ रणभूमीए वाहिज्जमाणओ कुणदि जह कजं ॥ १९२॥ ४०८ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वासः पुव्वं कारिदजोगो समाधिकामो तहा मरणकाले ॥ होदि हु परीसहसहो विसयसुहपरम्मुहो जीवो ॥ १९३ ॥ अकारिततपोयोग्यश्चिरं विषयमूछितः॥ न जीवो मृत्युकालेऽस्ति परीषहसहस्तथा ॥ १९३ ।। विधापितः क्रियां योग्यां सर्वदा दुःखवासितः ।। वायमानो यथा चाजी कार्यकारी रणक्षितौ ॥ १९४ ।। विधापितस्तपो योग्यं हृषीकार्थपरामुखः ।। जायते मृत्युकालेगी परीषहसहस्तथा ।। १०५॥ अर्थ-यदि पूर्व कालमें तपश्ररण नहीं किया होय तो मरणकालमें समाधिकी इच्छा करता हुआ भी परीपहोंको सहन नहीं करता है अतः बह विषयसुखोंमें आसक्त हो जाता है. जिससे भ्रमण करना, उलंघन करना वगैरह कार्योका अभ्यास कराया गया है तथा जिसको क्षुधा, तृषा, शीत, उष्पा इत्यादि दुःखोंका चिरकालतक अभ्यास कराया है, ऐसा अश्व रणभूमीमें ले जानेपर वह स्वामीके शत्रुको जीतनेका कार्य करता है. यतिने भी पूर्व कालमें यदि तप किया हो तो परीषदोंको सहन कर समाधिकी इच्छा करनेवाला होकर मरणकालमें विषयसुखमें वह मूर्छित-आसक्त नहीं होता है, श्रुतमाहात्म्य प्रकटयति सुदभावणाए गाणं दसणतवसंजमं च परिणबह ॥ तो उवओगपइण्णा सुहमन्त्रविदो समाणेइ ॥ १९४ ॥ चतुरंगपरीणामश्रुतभावनया परः निव्र्याक्षेपः प्रतिज्ञातं स्व निर्वाहयते ततः ॥ १९६ ॥ विजयोदया-सुदभाषणाए । भूयते इति श्रुतमित्यस्यां व्युत्पत्तौ शब्दश्रुतमुच्यते । तस्य भाषना नाम तदर्थ विषयज्ञानासकृत्प्रवृत्तिः । ननु राम्दश्रुतस्यासकृत्पठनं भुतभावना स्थात्, भानं ततोऽर्थान्तरं अत्रोच्यते-भुतकार्यशाने Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ४१० शुतशब्दो यतते इति न दोषो वा । गतीति गौरिति व्युत्पत्तावपि नावादी गोशब्दो वर्तते । किंतु रूढिवशात्सानादि मस्पेय | एघमिहापि श्रूयते इति व्युत्पादितोऽपि न सकले श्रोत्रोपलभ्ये वचनसंदर्भ प्रवर्तते, अपि तु स्वसमयरूढिषशाद्गपधरोपरचिते पच । तथैव श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्ताने एव वर्तते । तस्यास्य श्रुतमानस्य भाषनया 1 णा दसणनवसंजमंच परिपामा समीचीनज्ञानदर्शनतपःसंयमपरिणतिः प्रतिपद्यते। मानभाषनापरोसानपरिणतो भवतु कथमसी दर्शनादौ परिणामांतर प्रवृत्तो भवति ? नहि क्रोधपरिणतो मायायां प्रवृत्तो भवतीति चेष दोषः । यपत्रांतरीयक तस्मिन्सति तद्भवत्येव तदधिकरणे यथा कृतकत्वेऽनित्यत्वं । हान चांतरण न भवति सम्यग्दर्शनादयः । अत्रेदं योद्यअसंयतसम्यम्हटेरस्तिशानं तस्य तपासंयमौ किमुत त ? संयमसनवि कथमसंयतता तसाच ती सः। कथमिदं स्त्र? नायमस्य सुत्रस्याओं शानभावना सा भवत्येव सर्व पद इति, किंतु शानभाषनायो सत्यामेव भषति नासस्याम् । तपः संयमी कार्यत्वेन स्थिती चारित्रमोदक्षयोपशमापेक्षिणा कामेन प्रवय॑ते, न चावश्यं कारणानि कार्ययन्ति । धूममजनयतोऽ प्यदर्शनात् काष्ठायपेक्षस्य । तो ततः शानमायनातः । उपयोगपदिपणा सानदर्शनतपःसंयमपरिणामप्ररंधे प्रवर्तया म्यात्मानं इति या उपयोगमतिशत । मुहं भलेशेन । समाणेदि समापयत्ति । मषिदो भचलितः ॥ भुसभावनामाहास्य गाथाहयेनाह मूलारा—नमयोपण नानाणिप्रती पहायला इतरीमारम् । अच्चविदो अपलितः । समाणेदि समापयति । श्रृंवज्ञानभावनाका माहात्म्य प्रकट करते हैं___ अर्थ- श्रूयते इति श्रुतं' जो सुना जाता है उसको श्रुत कहते हैं, यदि यह श्रुत शब्दका अर्थ मानोगे | तो शब्दोंको श्रुत मानना चाहिये. इस श्रुतकी भावना करना अर्थात् शब्दका जो अर्थ तद्विषयक ज्ञानमें वारपार प्रवृत्ति करना श्रुतभावना है. अर्थात् शब्द सुनकर उसके अर्थका जो चारचार शान होना बह श्रुतभावना है. शंकाशब्दश्रुतको बार बार पढना वह श्रुतभावना है. ज्ञान तो इससे भिन्न है ? उत्तर-भुत जो शब्द उसका कार्यरूप जो ज्ञान उसमें भी श्रुतशब्दकी प्रवृत्ति है, शब्दको भी श्रुत कहते हैं और उससे होनेवाले कार्यरूप ज्ञान को भी भुत कहते हैं. अतः इसमें कुछ विरोध नहीं है. "गच्छतीति गाः " इस व्युत्पत्तीसे बना हुआ भी गो शब्द अश्वादिकका वाचक होता नहीं, परंतु रूदीसे सास्नादिमान जो गाय उसका ही वाचक होता है. से यहां भी "भूयते इति श्रुतं" इस प्रकारसे व्युत्पन्न किया गया शब्द कानसे सुनेगये समस्त शब्दों में प्रवृत्त होता नहीं हैं, परंतु स्वसिद्वान्त की स्वीकी अपेक्षासे गणधररचित शब्दश्रुतमें ही अतान्द की प्रवृत्ति समझनी चाहिये. श्रुतज्ञानावरण Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना भावासः | a कर्मका क्षयोपशम पाकर जो शान उत्पन्न होता है उसमें भी यहां श्रुत शब्द समझना चाहिये. इस श्रुतज्ञानकी भा- वनासे सम्यग्ज्ञान, दर्शन, तप, संयम इन गुणोंकी प्राप्ति होती है. शंका-जो मनुष्य ज्ञानभाषनामें तत्पर है वह ज्ञानमें परिणत होगा यह दर्शनादि परिणामोंमें कैसा परिणत होगा. क्रोधकषायसे परिणत हुआ अदमी भाया परिणत नहीं होता है. उत्तर-आपका यह कहना योग्य नहीं है. जो जिसके साथ अविनाभावी रहता है वह उसके सद्भावमें उसके आधारमें रहेगा ही. यथा जहां जहां कृत कत्व रहता है वहां वहां अनित्यत्व रहेगा ही. ज्ञानके विना सम्यग्दर्शनादिक होते नहीं है. शंका-असंयत सम्यग्दष्टी में जान है परंतु उसमें तप और संयम भी है क्या? यदि होंगे तो उसको असंयमी क हते हैं. अगशद समग और संचम सी रहते हैं. अर्थात् वानके साथ उनका संबंध नहीं है. उत्तर-ज्ञानभावना होनेपर तए संयमादिक होते ही है ऐसा इस सूत्रका अभिप्राय नहीं है. परंतु तपः संयमादिक यदि उत्पन्न होंगे तो बानभावना के रहते ही उत्पन्न होगें. अन्यथा नहीं. तप और संयम ये कार्यरूप हैं और वे चारित्र मोहनीय कर्मक क्षयोपशमकी अपेक्षा रखनेवाले जानके द्वारा प्रवृत्त किये जाते हैं. कारण अवश्य कार्यवान होते ही है ऐसा नियम नहीं है. काष्ठादिकी अपेक्षा रखनेवाला अग्नि धूमको उत्पन्न करेगाही ऐसा नियम नहीं है. इसलिये ज्ञानभावनासे में ज्ञान, दर्शन, तप संयम परिणामों में आत्माको प्रवृत्त करूंगा एसी जो उपयोग प्रतिज्ञा उमको वह मुनि एकाग्र होकर अचलित होकर अनायाससे संपूर्ण करता है. जदणाए जोग्गपरिभाविदरस जिणवयणमणुगदमणस्स ॥ सदिलो काढुंजे ण चयति परीसहा ताहे ।। १९५ ॥ स्वन्यस्तजिनवाक्यस्य रचितोचितकर्मणः॥ परीषहापदः शक्का न कर्तुं स्मृप्तिलोपनम् ॥१९७५ इति श्रुतम् ।। चिजयोदया--जदणाए यत्नेन । जोग्यपरिभाविधस्स युज्यते अनेन अनशनादिना निर्जराथै यतिरिति या सपः योगशचनात्रोच्यते । तेनायमर्थः । तपसा भाषितस्येति । जिणवयणमगधमणस्स जिनवचनानुगतचेतसः । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराषमा आश्वासः ११२ PARANARASTRAFATAFTAA सदिलो स्मृतिलोपं । रत्नत्रयपरिणामप्रबंधसंपादनोद्योगस्य स्मृतियों तथा विनाशं । काउंजे कहुँ । न चयति न शक्नुवंति । के ? परिस्सहा शुदायिवेवनाः । ताहे तक्ष । एतदुक्तमनया गायया अभ्यस्थमाने धुतज्ञानं निर्मल पटीयो भवति । पाटवाभ्यासबलेन च स्मृतिर खेदेन प्रवर्तते । स्मृतिमूलो हि योगो वाकायच्यापार इति । सुदं गदं । मूलारा-जदणाए यत्नेन प्रमादपरिहारेणलार्थः । जोग युज्यतेऽनेचानशनादिना निर्जरार्थ गतिरिति जोगो बाहां तपः । सदिलो स्मृतिलोपं । काउंजे कर्तुं । न शक्नुवन्ति । ताधे तदा मरणकाले ॥ अर्थ-अनशन अवमोदर्य इत्यादि तप मुनिराजके कर्मकी निर्जरा करते हैं अर्थात कर्मकी निर्जरा करनेके लिए मुनि अनशनादि तपसे जुड़ जाते हैं. इसलिए अनशनादि बाह्य तप को आचार्य योग कहते हैं. प्रमाद छोड कर प्रयत्नसे जो तपसे अपने आत्माको मुसंस्कृत बनाता है, जिसका मन जिनेश्वरके वचनोंमें एकाग्न हुआ है, ऐसा मुनि रत्नत्रय परिणामामें स्थिरता रखने में सतत उद्युक्त होता है अतः यदि क्षुदादि परीपहाँसे वह पीडित होगया तो भी उसकी स्मृतिका नाश होता नहीं हैं. अभिप्राय यह है कि, श्रुतत्रानका अभ्यास करनेसे वह निर्मल और ऊहापोहके सामर्थ्यसे युक्त हो जाता है. ऊहापोहकर अभ्यास बढ जानेसे जिनागममें स्मृति बिना खेदके प्रवृत्त होती है, वचनकी प्रवृत्ति, शरीरकी सब प्रवृत्तियां सपतिपर ही निर्भर रहती है. इस तरह ज्ञानके सामर्थ्य का वर्णन किया. R AM सत्यभावनाया गुणं स्ताति उत्तरगाथया-- देवेहिं भेसिदो वि हु कयावराधो ब भीमरूवहिं ॥ तो सत्तभावणाए वहइ भरं णिभओ सयलं ॥ १९६ ॥ बहुसो वि जुद्ध भाषणाए ण भडो हु मुज्झदि रणम्मि ॥ तह सत्त भावणाए ण मुज्झदि मुणी वि बोसग्गे ।। १९७ ।। भीष्यमाणोऽप्यहोरात्र भीमरूपैः सुरासुरैः॥ सत्यभाचनया साधु धुरि धारयतेऽखिलम् ।। १९८॥ ATARARIANTARA કર Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारा ४१३ 1.V विमुह्यत्युपसर्गे वो सत्त्वभावनया यतिः ॥ युद्धभावनया युद्धे भीषणेऽपि भटो यथा ॥ १९७ ॥ विजयोदया - देवेोई देवैखाखितोऽपि । सु स्फुटं । कृतापराधोऽतिभीमरूपैः 1 वा अथवा तो ततः । सत्यभावनया सोददुःखात् वह भरं विभओ सयले वहति भरं संयमस्य निर्भयः सकलं । मृतेर्भीमरूपदर्शनाथ भीतिरुपजायते भीतस्य प्रच्युतरत्नत्रयस्य तदतिदुखाएं । तदनवास्या न कर्म निमूर्लनं शक्यं कर्त्तुं । अनासादितमलयानि च कर्माणि विचित्रे यातयंत्यात्मानं । ततो भीतिरेवाने कानर्थमूलमिति निश्चित्य सा प्रागेव निरसनीया । तथाहि मुलारा-मीसिदो भयं नीतः । दिया दिया। राओ रात्री तो तया प्रसिद्धा पृथ्वीका विकादिभवण द्वारायातविचित्र दुःखपरामर्श कृतभयापसारणया । धुरं चारित्रभारं । गुली-मपष्टम् | सत्यभावना में जो गुण हैं उनकी स्तुति आचार्य करते हैं अर्थ---- वह मुनि देवोंसे त्रस्त किया गया, भयंकर व्याघ्रादिरूप धारण कर पीडित किया गया तो भी सत्यभावनाको हृदयमें रखकर दुःखोंको सहन कर और निर्भय होकर संयमका संपूर्ण भार धारण करता है. भरण होगा इस विचारसे और भीमरूप दर्शनसे मनमें भीति उत्पन्न होने पर रत्नत्रयका यदि त्याग किया तो पुनः उसकी प्राप्ति होना अतिशय दुर्लभ है. रत्नत्रयकी प्राप्ति न होनेसे कर्मका नाश करना अशक्य है. कमका नाश न होनेसे वे आत्माको नाना प्रकारसे पीडा देते हैं. अतः भीति ही अनेक अनर्थोंका मूल है ऐसा निश्चय करके वह सत्यभावना से प्रथम दूर करनी चाहिये. खणणुतावणवाणवीयणविच्छेत्तणाबरोदत्तं ॥ चिंतिय दुहं अहं मुज्झदि णो सत्तभाविदो दुक्खे ॥ १९८ ॥ बालमरणाणि साहू सुचिंतिदूणप्पणी अनंताणि || मरणे समुह मुझइ णो सत्तभावणाणिरदो ॥ १९९ ॥ आश्वास ४१३ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आँश्चा विजयोदया-पृथिषीकायिकः सन् खननदहनविलेखनकुट्टनमंजनलोठमपेषणचूर्णनादिभिर्वाधा परिमाप्तोऽसि । अपश्च शरीरत्वेनोपादाय अमरश्मिकरनिकरापातेन, बहनज्यालाकलापकलिततनुतया पर्वतदरीसमुजतदेशेभ्योऽतियेगेन शिलाघनवसुंधरामु पत्तनेन, माम्ललवणक्षारादिरससमवेतद्रव्यसम्मिश्रणेन, धगधगायमानेऽनौ प्रक्षेपणेन, तसतटशिलापातेन, पादकरतलामिघातेन, तरणोधतानां विशालघनोरःस्थलाबपीटनेन, अवलोकमानमहानागतरणम जनइसक्षोभणादिना च महर्ती वेदना अधिगतोऽस्मि । तथा समीरणं तनुतया परिगृध द्रुमगुल्मशिलोचयादीनां प्राणभृतां नितांतकठिनकायानां चाभिधातेन समीरणां. तराचमईनेन, ज्वलनस्पर्शनेन च दुःखासिकामनुभूसोऽस्मि । तथा परिगृहीतानिशरीरो विध्यापनेन पांसुभमसिकतादिप्रक्षेपणेन, मुशलमात्रजलधारापातेन, दंडकाष्ठादिभित्ताडनेन, लोप्वपापाणादिभिश्चूर्णनेन प्रभंजनेन विपदमाश्रितोऽस्मि । फलपशपायकुसुमादिकार्य स्वीकृत्य त्रोटनमक्षपामर्दनपेषणदहनादिभिस्तथा गुल्मलतापादपादिकं तनूकत्य छेदनेन, भेदनेनोरपाटनेन, रोहणेन, दहनेन च क्लेशभाजनतामुपयातोऽस्मि । तथा कुंथुपिपीलिकादित्रसो भूत्वा वेगप्रयायिरथचकाक्रमणेन, खरतुरमादिपरुषखुरसंताडनेन, जलप्रवाहमकपंणेन, दावानलेन, दुमपाराणादिपतनन, मनुजचरणावमईनेन, मलबतां भक्षणेन च चिरं लिष्टोऽस्मि । तथा खरकरभवलीवादिभाषमापद्य गुरुतरभारारोपणेनारोहणेन, बंधनेन, कर्कशतरकशाडमशलादिताउनेनाद्दारनिरोधनेन, शीतोष्णयातादिसंपतिन, कर्णच्छेदनेन, बहनेन, नासिकाधनेन, विदारणेन, परश्यादिभिर्निशितासिधारा प्रहारेण चिरमुपगुतोऽस्मि । तथा भन्न गावं, कृशतया व्याध्याभिमवेन चा पतितं इतस्ततः परावर्त्यमान, करूरतमध्यानटगालसारमेयादि मिर्भक्ष्यमाणं, काकगृध्रकंकादिभिः कवलीक्रियमाण, तरलतरतारकाक्षियुगलं, कखातुमासीत् । ततो यतो गुयतरभारोबहनजातकायतमणसमुद्भवकृमिलेन, काकादिभिश्वानारतमुपमृतोऽस्मि । तथा मनुजभचेऽपि करणवैकल्याहारियादसाभ्यव्याध्युपनिपातात् , प्रियालाभादप्रिययोगात्परप्रेन्यकरणादपर पराभपात् , द्रविणार्जनाशया दुष्करकर्मादानमूलषदकर्मोद्योगाच, विचित्रविषदमुपगतोऽस्मि । तथैवामरभवेऽपि दूरमपसर लघु प्रयादि, प्रमोः प्रस्थानवेला वर्तते । प्रयाणपटह ताइय, बजं धारय, हताश देचीजन पालय, तिष्ठ स्वामिनोऽभिलाषितेन वाहनरूपेण, कि विस्मृतोऽस्यनत्पपुण्यपण्यशनमस्रस्य दासेरता यती तिष्ठसि । पुरो न धावसीति देवमहत्तरपरुषतरभारतीशलाकानां ताउनेन शतमुखान्तःपुरादभ्रविभ्रमविलोकनोद्भूताभिलाषदहनजनितसंतापेन षण्मासाचास्थितेरायुः परिशानेन च महदुदपादि दुखं । एवं नरकभवेपि इन्थमनंतकालमनुभूतस्य मम को विषादो, दुःखोपनिपाते इति न च विषण्णं त्यजति दुःखानि, स्वकारणायत्तसंनिधानानि तानीति सत्वभावना ॥ यद्यशुभ. शरीरदर्शनानीतिः सापि नो युक्ता। तानि शरीराणि असन्मया गृहीतानि दृष्टानि च। का तत्र परिचितेभ्यो भीतिरिति चित्तस्थिरीक्रिया सत्यभावना। MC Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबासा मूलाराधना इस सवभावनाका महात्म्य दो गाथाओंसे आचार्य कहते है |-- अर्थ--सत्वभावनाका धारक मुनि मनमें इस प्रकारसे विचार करता है- जर पृथ्वी ही मेरा शरीर थी उस समय मेरेको खोदना, जलाना, हलके द्वारा विदीर्ण करना, कूटना, फोडना, पीसना, चूर्ण करना इत्यादि बाधा देकर लोग मुझे सताते थे. अर्थात पृथ्वीकायिकअवस्थामें मैंने दीर्घकालतक पचनके द्वारा अवर्णनीय ऐसे दुःख सहे हैं. जब मैंने जलको अपना शरीर बनाया तब सूर्यके प्रचंडकिरणोंसे, अग्निकी ज्वालाओंसे मेरा शरीर अतिशय उष्ण होकर मैं बहुत बेदनायें सही. पर्वतकी दरी वगैरे ऊंचे स्थानॉसे अतिवगेसे मेरा पतन नीचे कठिन शिलाओंपर होनेसे मैने दुःख सहन किया है. खट्टा, लवण, क्षारादि रसयुक्त पदार्थों का मेरे साथ मिश्रण करके जब धगधगायमान अग्निके उपर मेरेको संतप्त करते थे तब मेरेको असह्य दुःख होता था, वृक्षापरसे नीचे शिलाओपर गिरनेसे, पांव ओर हाथोंके आघातोंसे, तीरनेके लिये उद्युक्त हुए मनुष्यादि प्राणिओंके विशाल वक्षः स्थलकी ताहनासे, प्रथम देखकर अनंतर पानी में जिसने प्रवेश किया है ऐसे बड़े हाधीका तीरना, मज्जन करना और शुंटासे जलक्षोभ करना इत्यादि कारणोंसे मेरेको महान् दुःख हुआ था. जब जलावस्थाका त्यागकर मैने वायुरुप शरीर धारण किया तब वृक्ष, झुडुप, इत्यादिकसे धक्का पोहोचनेपर मैने दुःखोंका अनुभव किया है. जिनका शरीरं अतिशय कठिन है ऐसे माणिओंके आघातसे और मेरेसे भिन्न वायुसे टकरानेपर, मेरा शरीर चूर्ण-विचूर्ण होकर मैं बहुत दुःखोंका स्थान होगया था. अग्निज्वालाओंका जब मेरे शरीर से स्पर्श हुआ तब तो मेरे प्राणही निकल गये. जब वायुशरीरको छोडकर अग्निको शरीररूपसे ग्रहण किया, तो बहुत बार धूल, भस्म, बालू वगैरह मेरे ऊपर डालकर लोगोंने मेरेको बुझाया, मुशलके समान जल धाराये पढनेपर, दंद काष्टादिकोंसे ठोककर चूर्ण करनेसे मेरेको बहुत ही कष्टोंसे सामना करना पडा. मातीके डेले और पत्थरोंके आधातसे तथा वायुके जोरदार धकेसे मैं दुःस्वविह्वल हुआ था । जब अग्निका शरीर छोडकर मैं फल, पुष्प, पत्र, कोमल अंकुर इनको शरीररूपसे धारण किया तव तोडना, खाना, मर्दन करना, दांतोसे चबाना, अग्निपर मुंजना इत्यादि प्रकारांसे मेरेको जनताने दुःख दिया है. जब मैं झाड, लता, छोटे पेट इत्यादिक रूपसे जन्मा तच छेदन करना, भेदन करना, उखारना, तोडना एक जग और शृंटासे जल का त्यागकर मैने वायुरुष शतिशय कठिन है ऐसे ४१५ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ४१६ इसे उठाकर दूसरे स्थान में बोना, जलाना इत्यादिकोंसे जो दुःख भोगने पडे उनका वर्णन करना मेरी शक्ती बाहर हैं. जब मैंने कुथु, चींटी वगैरे प्राणिओंमें हींद्रिय, श्रींद्रिय चारक होकर जन्मग्रहण किया तब वेगसे जानेवाले रथके पहियोंके नीचे दबकर प्राणविसर्जन किये है. गधा, घोडा वगैरे प्राणिओंके कठिण खुरोंके ताडनसे पानीके प्रवाहके वेगसे, जंगलके अशीसे, वृक्ष पाषाणादिक पदार्थ अंगपर गिरने से, मनुष्यों के पैरोसे कुचल जानेसे, बलवान प्राणिओंका मक्ष्य होनेसे मेरेको दीर्घकाल तक दुःख भोगने पड़े है, तथा गधा, उंट, बैल, वगैरे पंचेंद्रिय प्राणिओंका जन्म जब धारण किया था तब मनुष्योंने मेरे ऊपर अधिक बोझा लादकर और स्वयं चढ़कर बहुत खेदित किया था. दोरी बांधना, अधिक कर्कश चाबूक, लाठी मुशल, इत्यादिकांसे आघात करना, आहार पानी न देना, शति, उष्ण, वायु इत्यादिककी बाधा होना इत्यादि कोंके द्वारा मेरको बहुत क्लेश हुआथा. कान छेदना, जलाना, नाक में नथनी डालना, विदारण करना, कुल्हाड़ी are शस्त्रोंसे तक्ष्णि तरवार प्रहार करना इत्यादिकोसें मनुष्योंने मेरेको अत्यंत दुख दियाथा. जिससे पांव गये है, ऋश होनेसे अथवा रोगपीडित होनेसे जो गिरपड़ा है, इतस्ततः पीडा सहन न होनेसे जो asaiने लगा है. अत्यंत क्रूर व्याम, कुने, स्याल वगैरह प्राणिओंका जो भक्ष्य हो रहा है. कौवे गीध बगुला इत्यादि पक्षी जिसकी नोच नोचकर खा रहे है. जिसको आंखे भयके मारे चल ही रही है, ऐसे समय में कोई भी मेरा रक्षण करनेवाला न था. अधिक बोझा लादनेसे मेरे पटपर जखम हो कर वह क्रिमिअसे भर गईथी उस समय कौवे वगैरे पक्षी आकर जमका मांस नोचकर खाते थे वह बडाही भीषण दुःखदायक प्रसंग था. कुछ पापका उपशम होनेसे मनुष्य होकर मैं जन्मा परंतु इंद्रियोंकी न्यूनता, दारिद्र्य, अमाध्य रोग इत्यादिकीसे में बहुत दुःखी था. प्रिय पदार्थ न मिलना, अप्रिय शत्रु, विप, कंटकादिकों का संयोग होना, दूसरोंकी नोकरी करना, शत्रुमे पराभव होना, इत्यादिक दुःखोंसे मैं बहुत ही व्याकुल हो उठता था, धन कमानेकी इच्छासे दुःखदायक कर्मास्रवके कारण ऐसे असि मषि वगैरह पदकमोंमें दिन रात प्रयत्न करता था तो भी नानाप्रकारकी विपत्ति आती ही थी. आश्वासः ३ ४५६ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAAR मूलाराधना | आश्वासः ४१७ कुछ शुभोदयसे देवगतीमें मेरा जन्म हुआ. परंतु वहाँ भी, "यहांसे दूर हटो, शीघ्र चले जाव, प्रभुका आनेका समय है, उनके प्रस्थानकी सूचना देनेवाला नगारा बजाओ. अरे यह ध्वज हाथ पकड़कर खड़ा हो"। "अरे दीन इन देवांगनाओंका रक्षण कर, स्वामी की अभिलाषा के अनुसार वाहनका रूप धारण कर. विपुल पुण्य रूपी धन जिसके पास है ऐसे इंद्रकान दास है क्या तु या भूतया' को साखसा हुआ है ? इंद्रक आगं क्यों भागता नहीं " ऐसे अधिकारी देवोंके कठोर वचन सुनकर वह बहुत खेदयुक्त होता है. इंद्रकी अप्सराओका हावभाव देखकर ऐसी देवांगनायें मेरेको कर मिलेंगी यह अभिलापा मनमें होकर मैने देवपर्यायमें भी यहत दुःखोंका अनुभवन किया है. इसी तरह अनंत काल दुःश्वानुभव करने में मेरा चला गया है अतः इस समय परीपह उपसर्गादि दुःख आपड़ने पर विषाद करनेसे कुछ भी फायदा नहीं है, खिन्न हुये पुरुषको क्या दुःख छोड देना है ? यह तो अपने कारणमे उत्पन्न होना है ऐसा विचार कर सत्वभावनासे दुःखोंका हमला सहन करना चाहिये. यदि अशुभ, जुगुप्सा उत्पन्न करनेवाले शरीरको देखकर भय उत्पन्न होता है ऐसा कहना भी युक्त नहीं है. क्यों कि खुद मैने अशुभ शरीर असंख्यात बार ग्रहण किये हैं. और देखे हैं. वे सब शरीर मेरे परिचयके हैं. पारीचितासे भय ही कैसा उत्पन्न होगा ऐसा विचार कर मनको स्थिर करना चाहिये. मनको स्थिर करना यही सत्वभावना है. जिसने बहुत बार युद्धका अभ्यास किया है. ऐसा वीरपुरुष युद्धमें मोहयुक्त नहीं होता है अर्थात धैर्य धारण करता है वैसे सत्वभावनाका आश्य लेकर मुनि भी उपसर्ग आनेपर मोहयुक्त होते नहीं प्रत्युत पे धैर्य धारण कर उपसर्ग सहन करते हैं. एयत्तभावणाए ण कामभोगे गणे सरीरे वा ॥ सज्जइ धेरग्गमणो फासेदि अणुत्तरं धम्मं ।। २०० ।। कामे भोगे गणे देहे विवृद्वैकत्वभाषनः ॥ करोति निःस्पृहीभूय साधुर्धर्ममनुत्तरम् ।। १०.८॥ ४१५ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना ४१८ विजयोदयापत्यभावना नाम जन्मजरामरणावृत्तिजनित दुःखानुभवने न दुःखं मदीयं संविभजति कश्चित् । दुःखसंविभजनगुणेन स्वजन इत्यनुरागः तद्करणेन च परजन इति च द्वेषो युज्यते । न चेदस्ति सुखं मय्या धातुमश्रमः इति न तत्सुखेनापि स्वजनपरजनविवेकः । तस्मादेक एवाहं न मे कचित्। नाप्यई कस्यचिदिति चिन्ता कार्या। तस्या गुणमाचऐ 1 भावणार एकत्वभावनया हेतुभूतया । न सजदि नासति करोति । क कामभोगे, गणे शिष्यादिवर्गे, शरीरे वा सुखे वा । कामं स्वच्छया भुज्यंने अनुभूयते इति कामभोगाः । सुखसाधनतया संकल्पितभक्त पानादयो बामलोचनादिवर्गश्च तत्र न संगं करोति । बाह्यद्रव्यसंसर्गजनिताः प्रीतिविशेषणः सुखशब्दवाच्यास्ते तृष्णामेवातिशयषतीं आनयंति खेतोव्याकुलकारिणों, न चेतः स्वास्थ्यं संपादयितुमीशा इति । न तु उपयोग्याः कामभोगाः, रत्नत्रय संपत्तिरेव जनस्योपयोगिनी, न तया भोगसंपदास्मार्क किंचिदस्ति कृत्यं । मदीयपरिणामावलंबिनी हि बंधमोक्षौ मम । ततः किं तेन गणेन । शरीरमव्य किंचित्करं । न कर्माणि किंचित्कुर्युः । श्राहां जीवाजीवात्मकं द्रव्यं रागकोपनिमित्तं ददमुपकारकमनुपकारकमिति वा संकल्प्यमानं नान्यथा । ततः संकल्पमीदृग्भूतं विहाय शुद्धात्मस्वरूपशानपरिणामप्रवेधः असहायात्मस्वरूपविषय इति एकत्वभावन यंत | सत्यामस्यां न कचित्संग करोति । भैरव वैराग्यमुपगतः । फासे स्पृशति । अणुत्तरं धम्मं अतिशयितं चारित्रं । गतेन संसारबीजस्य संगस्य निवृत्तिरशेषकर्मापाय हे तो चारित्रस्य च लाभों गुण एकत्व भावनाजन्यः इत्याख्यातं भवति । एकत्व भावना मोहमज्ञानरूपं अध्यपनयति । यथा जिनक स्पिको निरस्तमोहः संवृत्तः । मूलारा — एयत्तभावणाए । अहभेको न मे कञ्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचिदित्यादि देहादिपरद्रव्यविताभ्यासेन । कामभोगे इंद्रियसुखानुभवने । सज्जदि आदि करोति । फार्मेदि करोति । एतेन संसारिजीवस्य संगस्य निवृत्तिरक्षेपकर्म तरिवाभोगुणः एकभावनाजन्य इत्युक्तं भवति । अर्थ -- एकत्वभावन का आश्रय लेकर विरक्त हृदयसे मुनिराज कामभोग में, चतुर्विध संघ में, और शरीर में आसक्त न होकर उत्कृष्ट चारित्ररूप धारण करना है. जन्म: जरा मरण वगैरे दुःखोंका में अनंत कालसे उपभोग रहा हूं. परंतु मेरे दुःखका कोई भी विभाग करता नहीं, मैं अकेला ही जन्मादि दुःखोंका अनुभव लेरहा हूं. जो अपने दुःखोंका विभाग करता है वह स्वजन है ऐसा समझकर मनुष्य उसको स्वजन मानने लगता है. जो दुःखोंको हलके नहीं करता है. वह परजन ई ऐसा समझता है, परंतु मेरेमें सुम्ब उत्पन्न करनेवाले साता वेदनीय कर्मका उदय यदि नहीं हैं तो दुसरे मेरेको कदापि सुखी नहीं कर सकते हैं. यदि साता वेदन कर्मका उदय हो तो शत्रु दुःखदायक न होकर सुखदायकही होगा अतः ये स्वजन हैं और ये परजन हैं अश्वासः ३ ४१८ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारामना आवा ४१९ ऐसा विभाग करना व्यर्थ है. इस लिये मै एकही है मेरा कोईभी संबंधी नहीं है. मैं भी किसीका नहीं इं ऐसा विचार करना चाहिये, इस एकत्व भावनाका यह गुण है एकत्वभावनाका अभ्यास करनेसे मुनि कामभोगम, शिष्यादिवरुप गणमें, और मुखमें आसनि. नहीं करता है. स्वेच्छासे जिन पदार्थोंका उपभोग ले सकन है ऐस पदार्चाको कामभोग कहते हैं. जने आहारक और पनिक पदार्थ, स्त्री वगैरह पदार्थ इनमें ये सुखदायक है ऐसा संकल्प लोग करते हैं परंतु मुनि एकत्वभावनाका अभ्यास करता है अतः यह राग नहीं करता है. बाह्य द्रव्योंका संबंध होनेसे जो मनमें आल्हाद होता है. उसको सुख कहते हैं, परंतु ये बाह्य पदार्थ लोभको ही उत्तरोत्तर वृद्धिंगत करते हैं. लोभसे मन बहुत व्याकुल होना है. ये भोगके पदार्थ मनमें स्वास्थ्य उत्पन्न करने में असमर्थ है, इसलिये ये पदार्थ-कामभोग भोगने योग्य नहीं है. रत्नत्रय संपत्ति ही लोकके लिये उपयोगी है. इस भोगसंपत्तीसे हमारा कुछ भी प्रयोजन सिद्ध होता नहीं है. मेरे परिणामांसही मेरको शुभाशुभ कर्मबंध होता है. गण उसमें कारण नहीं है अत: उससे मेरा न कुछ विघडता है न सुधरता है. शरीर भी अकिंचित्कर है वह खुद कुछ भी कर नहीं सकता. कर्मके आश्रयसे वह कार्यकारी दीखता है, बाह्य जीव और अजीव पदार्थ ये उपकार करते हैं, तथा अनुपकार करते है ऐसा उनमें संकल्प होनसे रागदपके क्रमम निमित्त बनते हैं, अन्यथा नहीं. अतः यह संकल्पही हृदय से निकालना चाहिय. शुद्ध आत्माका स्वरूप जानने में सनत प्रयत्न करना चाहिये. मेस आत्मस्वरूप असहाय है ऐसा विचार करना चाहिये इसको एकत्व भावना कहत हैं. इस भावनाक माहात्म्यस मुनि किसी में भी आसक्त नहीं होते हैं. वैराग्य बढ़नेसे वे उत्कृष्ट चारित्रका आश्रय करते हैं. इस वैराग्यसे संसारको बीजभूत जो परिग्रह उसका संपूर्ण न्याग होता है. व संपूर्ण कर्मोका नाश करनेम हेतुभूत चारित्रकी प्राप्ति होती है. यह सब एकत्वभावनाका ही गुण है. यह एकलभावना अज्ञानरूप मोहको दूर करती है. इसके प्रभावसे जिनकल्पी मुनि मोहरहित हुये हैं.. SAJAN 9 भयणीए विधम्मिजंतीय एयत्तभावणाए जहा । जिणकाप्पिदो ण मूढो खबओ वि ण मुज्झइ तधेव ॥ २०१॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारायना ४२० FORNER स्वसुर्विधर्मतां दृष्टा जिनकल्पीय संयतः ॥ पकत्वभावनाभ्यासो न मुवति कदाचन ।। ११९ ॥ इति पकत्वं । विजयोदया- यथा जिनकलिएको जिनकल्पकं प्रपत्रो नागदत्तो नाम मुनिर्भगिन्यामयोग कारयंत्यमपि एकत्व भाषनया । ण मूढो मोहन गतः । तथैव नपकोऽपि न मुवतीमि गाथार्थः । गावभावना ॥ मूलारा-विधम्मितीर बिडव्यमानायां। जिष्णकप्पिश्रो जिनकल्पमापरणविशेष । प्रतिपनो नागदत्तो नाम मुनिः || अर्थ-जिनकल्प अवस्थाको प्राप्त हुवे नागदत्त नामक मुनि अयोग्य कार्य करानेरली अपनी रहिनपर मोहयुक्त नहीं हुये. क्षपक मुनि भी एकत्यभावनाके बलसे मोहयुक्त नहीं होते है ऐसा गाथार्थ है. एकत्वमावना समाप्त हुई, gician पंचमी प्रानवाटभावना नाचगान अकानपत्रा धृतिः संब यलं धृतियलं नस्य भावनाभ्यासः असकर कानग्त्रया चुनिः। तथा धृतियारभावनया दुरदपरीपहचभ्वा ।। युध्यतीति निगइति 1--- कमिणा परीसहचमू अन्भुइ जइ वि सोवसग्गावि || दुद्धरपहकरवेगा भयजणणी अप्पसत्ताणं । २०२॥ उपसर्गमहायोधा परीषहचमूं परां॥ कुर्वाणामल्पसत्वानां दुर्निचाररया 'भयम् ।। २००॥ विजयोदया-कसिष्णा कृत्स्ना । परीसरनाम पीपहलेना शुदादिद्वाविंशतिदुःखपृतनति यावत् । अन्भुर माभिमुख्येनोनिष्ठति । जइवि यागि सोक्सग्गा वि चतुर्विधोयलग सह वर्तमानाधि । दुद्धरणहरवेमा दुर्धरसंकटमा अपरलताण भयजणणी अस्पसत्यानां मयजननी। मूलारा-कसिणा सर्वा । एकोनविंशतिभयन्यूहरूपापि (पीष्टेः ) अन्मुढेवि अभिमुखमुत्तिष्ठते । दुद्धरपइकरवेगा अजय्यसमर्थभंजकप्रवृत्तिभवा । अथवा दुर्धरो दुःखदः म चासौ पंथाच दुष्करी वेगो यस्याः । पथकर संकट इति टीकायां । अप्पसत्ताणं अल्पसरवानां भीरूणां ।। ४२० Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा मृलाराधना १२१ पांचवी धृतिबलभावना है. दुःख आनेपर भी निर्भय रहना ही धैर्यका लक्षण है. इस धैर्यवलकी भावना करना अथात अभ्यास करना यह धृतिबलभावनाका स्वरूप है. इस भावनाके बलस मुनीश्वर दु:खद परीपहरूप सेनासे युद्ध करते है ऐसा वर्णन आचार्य करते हैं अर्थ-चार प्रकारके उपसौके साथ भूक, तहान, शीत उष्ण वगैरह चाबीस प्रकारके दुःखोंको उत्पन्न करनेवाली परीपहरूपी सेना, नुर्धर संकटरूपी वेगसे युक्त होकर जब मुनिओपर आक्रमण करती है तब अल्पशकिके धारक जीवोंको घहुन भय उत्पन्न होता है. धिविधणिबद्धकच्छो जोधेइ अणाइलो तमश्चाई ॥ धिदिभावणाए सूरो संपुण्णमणोरहो होई ।। २०३ ॥ धीरतासेनया धीरो विवेकशरजालया ॥ जायते योधयनाशु साधुः पूर्णमनोरथः ।। २०१।। जायते योधयात धृतिसूत्र दिभावणाण, भृतिभावनसाथ । सगुण्णमण विजयोदया-तं तो पृतना । जोधा बोधयति । कया सह ? धिदिभावणाण धृतिभावनया । कः ? चिदिर्धाणदयनककड़ो प्रन्या निनगं वक्षः । भूरो शुरः । अगादलो अनाकुटो विक्रमवान, । कलमाचरे सम्म । संतुषणमणोरहो होइ । संपूर्ण मनोग्यो भन्नति ॥ मूलारा--विविधणियजुकच्छो धृतिः परमप्रसत्तिः संवान्वर्थ यता . कक्षा परिवेष्टनं येन । जोधेदि योधयति । अणाइलो अनाकुलः । न ता परीपह चमू । अवधिदो अग्रायित: निर्भरोऽनोभो वा । घिदिभावणार निभावगया सह अथवा धृतिभावनया कर्तभूतया तां घातयति योधयनीति व्याख्यनम् । अर्थ-धैर्यरूपी ऊपरका परिधान करनेका वस्त्र जिसने दृढ बांधा है ऐसा पराक्रमी शूर मुनि कृतिभावनाको हृदयमें धारण कर सफल मनोरथ होता है. ४२१ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाषा ४२२ पुयाए भावणाए चिरकालं हि विहरेज्ज सुद्धाए । कारण अनमी, दाणाणणे चरिते य । २०४ ।। विधाय विधिना दृष्टिज्ञानचारित्रशोधनम् ।। चिरं विहरतां षष्ट्या यतिभावनयानया ॥ २०२॥ इति भाषमासूत्रम् । • विजयोदया-पत्याए भावपाए पलया पंचप्रकाग्या भावनया सह । चिरकाल बिहरज चिरं प्रवर्नेत । मुद्धा शुद्धया । काऊण कृत्या । अत्तसोधि आत्मशुद्धि । ईसणणणे चरित य रत्नत्रय निगतिचारो भूत्वा । एतस्यां पंचविधा असं क्लिष्टभावनायर्या श्रपकः प्रवर्ततामिति शिक्षा प्रयच्छतिःमृलारा-विहरेज्ज प्रवतते । अत्तसुद्धिं आत्मशुद्धिं । भावना । सूत्रतः १०१ अंकतः २५ ॥ अर्थ-इन पांच प्रकारको शद्ध भावनायें चिरकाल तक मनमें धारण कर मुनिराज अपने आत्माकी शुद्धि करत है और सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें निरतिचार प्रवृत्ति करते हैं. व्यावर्णितभावनानंतर मलेग्ननेन्यधिकार संबंधमानए एवं गात्रमाणो भिक्खू साहवर्ण उपकमइ ॥ णाणाबिहेण तबसा बज्झेणभंतरण तह। ।। २०५॥ साधुः सल्लेखनां कर्तुमित्थं भावितमानसः।। तपसा यतते सम्यक् वाद्येनाभ्यंतरेण च ।। २०३ ।। विजयोदया-एवं भावभाणो इनि गये उक्तेन प्रकारेण भावनापरः । भिक्खू सलाहणं सल्लेखनां तनूकरणं । इयक्रमाप्रारभते । केन जाणायिहेण नानाप्रकारपण । तवसा बझणभतरेण तद्दा बाह्याभ्यंतरेण तपसा च । अथैयं विधभावनापरस्य मुमुक्षोः सल्लेखनां गाथाषट्पष्टया व्याख्यातुकामः पूर्व तदुपक्रमोपायमुदिशति-- Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्व ४२३ मलारा-भायमाणो भावयमानः । अंसक्लिष्टभावना पुनः पुनः प्रवर्तयनित्यर्थः । उनकमदि प्रारभते । भावनाआंका वर्णन करने पर सट्टेखनाधिकारका संबंध दिखाते हैं. अर्थ-इस प्रकार पांच प्रकारकी असंक्लिष्ट भावनाओंका अभ्यास करनेवाले मुनि बाह्य अभ्यंतर बारा प्रकार के तपके द्वारा सल्लेखना को प्रारंभ करते हैं. - भदमहन्वा व्यापर्णयितुं अशक्या सहलेखनति भदमा-- - - SaANGARittarAAAAASARAMARus. सल्लेहणा य दुविहा अभंतरिया य बाहिरा चेव ॥ अभंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु मरीरे ॥ २०६ ॥ सल्लेग्वना द्विधा साधोरंतरानंतरेप्यते॥ तत्रांतरा कषायस्था द्वितीया कायगोचरा ॥ २०४ ॥ विजयोदया--सलेहणा य दुविहा सल्लेखना च द्विप्रकारा। मम्भनरिया य बाहिरा वेष अभ्यंतरा राहगा चेति । अभंतग कसायंसु अभ्यंतरा सलेखना क्रोधादिकपायविषया । बाहिरा होदि सरीरे । बाह्या भवति मल्लेखना शरीरविषया ॥ सदेखना द्वैविध्यनाभिधने.. सल्लखां गाथापंचशता प्रपंचयिष्यसामान्यतम्तदुपाय निर्दिशति-- मूलारा-पष्टम् । भेदके बिना सहखनाका वर्णन करना शक्य नहीं है इसलिये भेद बताते है.अर्थ-मल्लखना अभ्यंतर सल्लखना व बाह्य सल्लेखना एस दो भेद है, क्रोधादि कषायोंको कृश, कृश १२ ALMAALArun । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ४२४ है इसको अभ्यंतर सल्लेखना भी कहते हैं. और शरीर उत्तरोत्तर कृश करते जाना उसको शरीर सल्लेखना कहते हैं इसीको बाह्य सल्लेखना यह भी नाम है. तर, कला यह बासलेखनानिरूपणार्थः उत्तर प्रबंधः सव्वे रसे पदे णिज्जू हित्ता दु पतलुक्खेण || अणदरेणुवधाणेण सहिइ य अप्पयं कमसो ॥ २०७ ॥ विजयोश्या - सधे रसे सर्वान्मसान | प्रकर्ष नीताः प्रणीनाः तान् अतिशयवन इत्यर्थः । णिज्जूद्दिन्ता त्यक्त्वा । अण्णदरंवधाणेण । अन्यनरेणावग्रहेण । अध्यगं आत्मानं शरीरं । कमसो श्रमशः । सलिहदि तनूकरोति । मूलागी प्रकर्ष नीताः प्रणीताः वानतिशयवत इंद्रियबलवर्द्धनानित्यर्थः । ज्जूद्दित्ता त्यक्वा । पाहारेण । उभाग अवग्रहविशेषेण । सहितीकरोति । अपरी स्वारी | लेखनाका यहां विस्तृत वर्णन करते हैं--- अर्थ - इंद्रियों का बल बढानेवाले संपूर्ण रसोंका त्याग करके और विशिष्ट नियम ग्रहण करके प्राप्त हुए रूक्षभोजन के द्वारा अपना शरीर क्षपक क्रमशः क्षीण करता है. वार्थ तपो व्याचष्टे अणण अवमोयरियं चाओ य रसाण वृत्तिपरिसंखा ॥ कायकिलेसो सेज्जा य त्रिवित्ता बाहिरतवो सो ॥ २०८ ॥ अतिरवमोदर्य वृत्तिसंख्या रसोज्झनम् ॥ कायक्लेशो विविक्ता च शय्या षोढा पहिस्तपः ॥ २०५ ॥ विजयोदया -अणसणे अनशनं । उत्रमोदरियं अत्रमोद च । चागो य रसाणं त्यागो रसानां । बुत्तिपरिसंखा वृत्तिपरिसंख्यानं । कायकिलेसो कायक्लेशः । सेज्जा विचित्ता विधिशय्या । बाहिरतवो सो बाह्य तपस्तत् । आश्वासः इ ४२४ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना মাম্বা बाह्यस वनोपायभूतं वोढा याप्रतयो व्याख्यातुमाह मूलारा-ऊमोयरियं अधमोदर्य । बुत्तिपरिसखा वृत्तराहारस्य परिसंख्यानं । विचित्ता शुद्धा। प्रामुकविजनदेशविषयेत्यर्थः । सो तत् प्रसिद्धं सल्लेखनोपायभूतम् । अर्थ-अनशन, अनमोदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिणमख्या, कायकेश और विविक्तशय्या ऐसे बाबतपके छह भेद हैं. तत्र अनशनतपोभेदनिरूपणार्था गाथा अहाणसणं सब्बाणसणं दुविहं तु अणसणं भणियं ॥ बिहरनस्स य अडाणसणं इदरं च चरिमंते ॥ २०१॥ सार्वकालिकमन्यच द्वेधानशनमीरितम् ।। प्रथम मृत्युकालन्यदर्तमानस्य कथ्यते ।। २०६ । विजयोदया -- अद्भागलाणं अद्धाशब्दः कालसामान्यपचनोऽवत चतुदिपगमासातो गृहात । तय यदनशनं नदहानदान सर्वानसर्ने चेति । दुविधमणस तु शोऽवधारणार्थ द्विप्रकारमेवानशनं । सर्चशदः प्रकारका वर्तते । यथा सर्वमन्नं भुन । पश्चिन्यागात्तरकालो जीवितम्य यः सर्वकारः तस्मिन्ननाम अशनायानः मनिशनं । कदा तदुभयमित्यत्र कालविकमाह-विहरनस्स या प्राणप्रतिसेवनकादयोर्वर्तमानस्य अद्धानशनं । इतरं च इतरत् सर्घानशनं । चरित परिणामकालस्यान्ते। अनानारूयतपोभेद निरूपणार्थ गाथाद्वयमाह---- मूलारा--अद्धाणस अदाशब्दः कालसामान्यवयनोऽन्यत्रे, चतुर्धादिमासपर्यन्तो गृह्यते । तबाहारत्यायोऽद्धानशनं कालमख्य योपवास इत्यर्थः । मव्यग्णसणं | सर्वरिगन्संन्यासोत्तरकाले अनशन अशनत्यागः । विहरतस्स ग्रहणप्रतिसेवनकालयोर्वर्तमानस्य । चरियंते परिणामकालस्यांते मरणसमये इत्यर्थः । अर्थ-अद्धानशन और सनिशन ऐसे अनशन तपके दो भेद हैं. अद्धाशब्द अन्यत्र कालवाचक है परंतु यहां चतुर्थ, पाट, अष्टम ऐसे भेदोंको लेकर षण्मास पर्यंत जितने अनशन तपके भेद होते हैं उन सबको अद्धानशन | कहते हैं. धारणा पारणासहित उपवासको चतुर्थ कहते हैं अथवा उपवास यह भी संज्ञा है. दो उपासोंको पष्ठ कहते - - Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः हैं. तीन उपवासाको अष्टम कहते हैं, चार उपवासाको दशम कहते हैं. ऐसे ही आगे भी समझना. संन्यास लेनेपर याबज्जीव चारो आहारोंका त्याग करना यह सानशन है. ग्रहण और प्रतिसेवना कालमें अद्धानशन तप मुनि करते हैं और मरणसमयमें-संन्यास कालमें सर्वानशन तप करते हैं, दीक्षाग्रहण कर जबतक संन्यास ग्रहण किया नहीं तबतक ग्रहणकाल माना जाता है. तथा व्रतादिकोंमें अतिचार लगनेपर जो प्रायश्चित्तसे शुद्धि करनेके लिये कुछ दिन अनशनादि तप करना पड़ता हैं उसको प्रतिसेवना काल कहने हैं. अद्धानानविकल्प प्रतिपादयनि होइ चउत्थं छठ्ठमाइ छम्मासखवणपरियंती ॥ अद्धाणसणविभागो एसो इच्छाणुपुच्चीए ॥ २१० ।। एकद्वित्रिचतुःपंचषट्सप्ताष्टनवादयः ।। उपबासा जिनस्तत्र षण्मासावधयो मताः ॥ २०७ ।। यहुदीपाकरे ग्रामे प्रवेशो विनिवारितः ।। संयमा वर्द्धितः पूतः कुर्वतानशनं तपः ।। २०८ ।। विजयोदया-अहाणसणविमागो घोर इनि पनघटना । अद्धानशनचिभागो भवति । चत्य छमा छम्मासखमाणपियंतो चनुचवणारमादिगणमासक्षपणपर्यन्तः । इच्छाणुपुरवीर आन्मन्छाचतेने । अद्भानशनविकल्पं वरिःमूलारा-छम्मासखमग षण्मासोपवायाः । इच्छाणपुब्बीए पामेच्छाक्रमेण । अर्थ-चतुर्थ, पष्ट, अष्टम बगैरह उपवासों से छह महिनो तक के उपशसों को अद्धानशनतपके भेदोंमें परिगणित करना चाहिये. ये उपवास मुनिराज अपनी इच्छा के अनुसार करते हैं. १ आत्मेच्छाक्रमेण इति खपुस्तक पाठः । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा अवमोदरियं निरूपयितुकामः आहारपरिमाणं प्रायोवृत्त्या प्रवृत्तं दर्शयति बत्तीस किर कवला आहागे कुविखपूरणो होइ॥ पुरिसरस महिलियाए अट्टाबीसं हवे कबला ।। २११ ।। आहारस्तृप्तये पुंसां द्वात्रिंशत्कवला जिनैः ।। अष्टाविंशतिरादिष्टा योषितः प्रकृतिस्थितः ॥२०१॥ विजयोदया-पत्तीस किर कवला पुरुषस्य कुक्षिपूरणो भवत्याद्दारः। द्वात्रिंशकवलमात्रः । इच्छिमार स्त्रियाः कुक्षिपूरणो भवस्याहारः अशचिशतिकवलजातानि । ततो तस्मादातारात् । तसो । अवमोदर्य साधादयेन विवचराहारप्रमाण प्रायोवृत्त्या प्रवृत्तं प्रदर्शयति मूलारा-किर किल । उक्तं च ग्रासोऽआवि सहसतंदुलमितो द्वात्रिंशदेतेऽशनम् । पुसो वैरुमिकं स्त्रिया विचतुराम्तद्धानिरौचित्यतः । प्रासं यावधैकसिक्थमवमोदर्थ तपस्तच्चरे द्धर्मावश्यकयोगधातुसमतानिद्राजयाद्याप्तये ।। अवमोदर्य तपका निरूपण करनेके पूर्व आहारका प्रमाण बहुशः किस प्रकार रहता है यह दिखाते है अर्थ-पुरुपके आहारका प्रमाण बत्तीस ग्रास है. इतने ग्रामोंसे पुरुषका पेट पूर्ण भरता है. स्त्रियोंके आहा. रका प्रमाण अठाईस घास है. एगुत्तरसेटीए जाबय कबला चि होदि परिहीणा 11 ऊमोदरियतबो सो अडकवलमेव सिच्छं च ॥ २१२ ॥ सम्मादेकोत्तर श्रेण्या कयलः शिष्यते परः।। मुच्यते यत्र दिवमबमोदर्यमुच्यते ॥ २१०।। ४७ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना ४२८ निद्राजयः समाधानं स्वाध्यायः संयमः परः। हपीकनिर्जयः साधोरवमोदर्यतो गुणाः ॥ २११।। विजयोदया-गुत्तरसेढीप एककवलोत्तरघेण्या परिहीणो परिहीनः । ऊमोदरियनवो अचमोदर्यास्यं तपःकिया पाचदकसिक्वकंचा अवशिष्टं । आहारस्याल्पतोपत्त क्षणमिदं यन्यथा कथमेकसिक्थकमात्रभोजनोद्यतो भवेता नन नाहागेन्यूनः कथं ता इत्युच्यते इति । केचित्कशनि थानतापरिहारम्य नपसो हेतुत्यानप इत्युच्यते । अवमोयरियं ॥ मूलारा-तत्तो इत्यादि-तस्मात्पुखीभोजनादेकद्वयादिहानिक्रमेण याबदकपासपरिहीन आहारोऽवमोदये तप: स्यात् । पयसिच्छ आहारस्यापतोपलक्षणमिदं अन्यथा कथगेकामिक्थमात्रभोजनोद्यतो भवेत् । आयनतापरिहारस्य तपोहेतुत्वात् एतत्तप इत्युच्यते । एतद्गुणा यथा-- निद्राजयः समाधान स्वाध्यायः संयमः परः ।। दुकनिर्जयः साधौरवमोदर्यतो गुणाः 11 अर्थ-स्री और पुरुषोंका जो ग्रासका परिमाण अट्ठाईस और बत्तीस ग्रास कहा है उसमें एक प्रास अवशिष्ट रहने तक जो कम करते जाना वह सब अवमोदर्य तपही है. एक ग्रासमेंसे भी समान विभक्त किये हुथे अर्द्ध ग्रासतक भी इस तपके भेद होते हैं, और अर्द्धग्रासखे कम करते करते एक सिक्यथतक भेद होते हैं. एक कालसे लेकर एक सिक्थतक जो भेद बताये है वे अल्पाहारका केवल उपलक्षण है. क्योंकि केवल एक सिक्य खाने के लिये कोन उद्युक्त होगा. शंका-न्यून आहार करना यह तप कैसा समझा जायेगा. इसका उत्तर यह है कि अभिलापासे बहुत अन्न खानेका त्याग इस तपमें होता है अतः इसको तप कहते हैं. रसपरित्यागो निरूप्यते चत्तारि महावियडीओ होंति णवणीदमजमंसमहू ॥ कंखापसंगदप्राऽसंजमकारीओ एदाओ ॥ २१३ ॥ चतस्रो गृधनुतासक्तिदर्षासंयमकारिणीः॥ नवनीतमुरामांसमध्वाख्या विकृतीर्विदुः ॥ २१२ ।। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना माश्वासः विजयोरया-- सारिवियोश्री चतस्रो महाधिकृतयः । महत्यावेतसो विकृतेः कारणत्वात् महाधिकृतय इत्युच्यते । होति भवंति 1 णवणीदमजमंसमह नवनीतं, मचं, मांस, मधु च। कीदृश्यस्ता? कंसापसंगप्पासंजमकारीओ पदायो । कांक्षा गार्थ, प्रसंगः पुनापुनस्तत्र वृत्तिः, दर्पः इलेन्द्रियता. असंयमः रसविषयानुरागात्मकः इंद्रियासंयमः, रम अर्जतुपीडा प्राणासंयमः, पतान्दोगनिमाः कुर्वन्ति । ___रसपरित्याग गाथापंचकेनाविरूपासुर्नवनीनादित्यागोऽपि रापरित्यागाच्यं तप इति गाथादोन तमेव तावदन्वाचष्टे मूलारा---महावियडीओ महल्यानेतमो विकने: कारणत्वाम्महाविकृतयश्चित्तधिकारकारिरमा इत्यर्थः । अत्र नवनीतं कांक्षाकारि गाद्धकरं, मदां प्रसंग पुनः पुनः अगम्यगमनादिकं वा कसेतीति प्रसंगकारि। मांसमिद्रियदर्पकरं । मरमविषयानुगगत्मणागिद्रियायगरमज जनुषीदागकाशमयमं । करोतीलयमवर, पाचार्यपि वा मणिगीटा कागणी । वृतम् । कांक्षाकनवनीनमक्षमदमास प्रमंगाई। मा क्षौद्रमसंयमार्थमुदितं यद्यच चत्वार्यधि ।। सम्मलिसवर्णजनुनिचितान्युचर्मनोचिकिया- । हेतुत्वादपि यन्महावित यस्त्यध्यान्यतो धार्मिकैः ॥ रसपरित्याग तपका निरूपण करते हैं अर्थ-मक्खन, मदिरा, मांस और शहद ये चार पदार्थ महा विकृति अर्थात् अंतःकरणमें विकार उत्पन्न होनेके लिये कारण हैं, ये चार पदार्थ कांक्षा-वार बार अभिलाषा उत्पन्न करते हैं, इंद्रियोंको उन्मत्त करते हैं, असंयमको उत्पन्न करन हैं. इतने दोष इनके सेवनसे होते हैं. असंयमके दो भेद हैं. इंद्रियासंयम और प्राणासंयम. स्वादमें अनुराग उत्पन्न होना यह इंद्रियासंयम है. और मयादिकोंके रसमें उत्पन्न हुने माणिओंका भक्षण करते समय घात होना यह प्राणासंयम है. ४२९ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वा आणाभिकंखिणावजभीरुणा तवसमाधिकामेण ॥ तावो जावजीचं णिजूढाओ पुरा चेव ॥ २१ ॥ महाविकारकारिण्यो भव्यन भवभीमणा ॥ जिनाज्ञाकांक्षिणा त्याज्या यावज्जीव पुरैव ताः॥ २१३॥ विजयोदया-आणाभिरूखिणा अप्रैवं पघटना-ताओ ताः महाविकृतयः । जावज्जीवं जीविताचधिक । णिजटाओ परित्यक्ताः। पुरा व सल्लेखनाकालात्पूर्वमेव । केन परित्यक्ताः ? आणामिकविणा-इदमित्य त्वया कर्तव्यमिति कथन आशा । सर्वविदा आज्ञप्ता भव्याः परित्याज्या नवनीनादयः । नदासेचा असंयमः कर्मबंधहेतुरिति । अस्थामाशायां कांक्षावता आदरवता सर्वशाज्ञाऽसंपदनादव दुरंतसंसारमध्यपतनं ममासीद्भषिष्यति च तेन तदाज्ञादरः कार्य इत्यभ्युद्यनंन । अवजमीरुणा अवध पापं तेन । अयमर्थः पापभीरुणा। तवसमाधिकामेण तपस्येकाग्रताममिलता। अतो नवनीतत्यागोऽपि रसम्याग एव ।। मूलारा-आणाभिकखिणा नवनीतागुपयोगो द्रव्यभावहिंसाश्रयत्वात् कर्मबंधहेतुरिति नासौ कर्नव्य इति सर्वज्ञवचस्यादरयता | तबग़माधिकामेण तपत्यकामनामिना । णिजहाओ परित्यनाः । पुरा चेव सल्लेखनाकालात्पूर्वमेव । इसलिये अर्थ - श्रीजिनेश्वरने नवनीत, मद्य, मांस और मधु त्यागो एसी भव्योंको आज्ञा दी है, अतः आज्ञा पालनकी इच्छा रखनेवाले भन्य जीव सल्लेखना कालके पूर्व कालमेंही इनका त्याग करते हैं. इनका सेवन करनेसे संयम नष्ट होकर कमबंध करनेवाला असंयम उत्पन्न होता है. यदि मैं जिनेश्वरकी आज्ञाका आदर न करूं तो जैसा आजतक संसारमें मैने भ्रमण किया है ऐसा आयेभी मेरेको भ्रमण करना पडेगा, ऐसा विचार कर जिनेश्वरकी आत्राका आदर करना चाहिये, जिसको पापसे भय लगता है, जो तपमें एकाग्रताकी इच्छा करता है ऐसा मुनि इन पदार्थोंको त्यागे. नवनीतका त्याग करना भी रसत्याग नामक तप है. तु सलेखनाकाले ममैपा त्यागो रसत्यागो गृहीत इत्याचरे खीरदधिसप्रितेलं गुडाण पत्तेगदो व सन्वेसि ।। णिज्जूहूणमोगाहिम पणकुसणलोणमादीण ॥ २१५ ॥ arela Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १३१ गुउतैलदधिक्षीरसर्पिषां वर्जने सति ॥ . देशतः सर्वतो शेयं तपः साधो रसोजसनम् ॥ २१४ ।। विजयोदया-त्रीपदधिसप्पितेलगुडाण क्षीरस्य, धनः, घृतस्य, तैलस्य, गुडस्य, व णिज्जूहण त्यागः। कथं पत्तेगदी व प्रत्येक पकैकस्य सामागः हारनेमि सप्रेश वाधीनदीनां त्यागः । रसपरित्यागः । मोगाहिम पणकुसण लोणमादीणं अपूपाना, पत्रशाकानां, सूपस्य, लवणादीनां वा त्यागो रसपरित्यागः । इह सलेखनाकाले क्षीरादीनामेव त्यागो रसत्यागो गृहीतस्तमेवाचष्टे मूलारा--गगेगदो एकैकस्यैव । वात्रानुक्तसमुच्चये । नेन यथायोग्य योस्त्रयाणां चतुर्णा वेति प्राहा । णिज्जू । हणं त्यागः । ओगाहिमा घृतपूरादि । पण पूर्व पत्रशाकादि । कुदाण सूपः । सल्लेखना कालमें क्षीरादिकका त्याग करना रसत्याग है. आचार्य उसका वर्णन करते हैं -- अर्थ-दूध, दही, घी, तेल, गुड इन सब रसोंका त्याग करना अथवा एक एक रसका त्याग करना यह रसपरित्याग नामका तप है. अथवा पूप, पत्रशाक, दाल, नमक, बगरह पदार्थोका त्याग करना यह भी रसपरित्याग नामका तप है. अरसं च अण्णवेलाकदं च सुखोदणं च लक्खं च ॥ आयंबिलमायामांदणं च विगडांदणं चव ।। २१६ ॥ अशनं नीरसं शुद्ध शुष्कमस्वादु शीतलम् ॥ भुजते समभावेन साधो निर्जितेन्द्रियाः ।। २१५ ॥ बिजयोदया-अरसं च स्यादराईत । अण्णवेलाकरं च वेलांतरकृतं च शीतलमिति यावत् । सुद्धोदण च टुपख च शुझौदनं च केनचिदष्यमिथ । लुमनं च रूक्षं च स्निग्धताप्रतिपक्षभूनेन स्पर्शन विशिष्टमिति यावत् । आयबिल असंस्कृतसौवीरमिश्र आयामोदणं अप्रचुरजलं सिफ्धात्यमिति केचिन्ति । अवसावणसहितमित्यन्ये । विगडोदणं अतीच तीनपर्कः । उष्णोदकसम्मिश्नं इत्यपरे । मूलारा-अरस स्वादरहितं । अण्णवेलाकद भोजनवेलावा अन्यस्यां बेलायां साधितं शीतलमिति यावत् । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना । आश्वास ४३२ सुद्धोदणं केवलभक्तं । आयबिलं असंस्कृतकांजिकमिश्रभक्तं । आयामोड़ मंडौदनं स्तोपाजलासक्थायं वा। विगडोदण अवपक उप्णोदककूर वा। अर्थ-अरस अर्थात स्वादरहित पदार्थ, भोजन समयको छोडकर अन्यसमयमें पकाया हुआ अर्थात भोजनके समयमें जो ठंडा हुवा है ऐसा पदार्थ, जिसमें घी वगैरह नहीं मिलाये हैं ऐसा भात, जिसका रूक्ष स्पर्श है ऐसा अन्न, जैसे रोटी वगैरे रूखा पदार्थ. असंस्कृत कांजीस मिश्र ऐसा भात, आयामोदण-जिसमें थोडा पानी है और सिक्थ जादे है ऐसा भात, बहुत पका हुआ भात अथवा गरम जल जिसमें मिला हुआ है ऐसा भात खाना चाहिये. इच्छेवमादि विविहो णायब्बो हवदि रसपरिचाओ ।। एस तवो भजिदको विसेसदो सल्लिहंतण ॥ २१७ ।। ६ वर्ग याचनाहारा या विक्रतिकारिणः ।। ते सर्वे शक्तिसस्त्याज्या योगिना रसवर्जिना ॥ २१६।। संतोषो भावितः सम्यग् ब्रह्मचर्य प्रपालितम् ।। दर्शितं स्वस्य वैराग्यं कुर्वाणेन रसोज्सनम् ॥ २१७ ॥ विजयोदया-इशेवमाविधिविहो एवमादिविविधो नानाप्रकारे पादयो स्वर रसपरिशाओ ज्ञातव्यः सर्वे रसपरित्यागः । एस तयो भजिदब्यो पत्तद्रसपरित्यागाख्यं तपः । भजिदयो सव्यं । विसेसको विशेषेण । सलिईतेप कायसरग्वनां कुर्वता | चाओ रसाण । मूलारा-इयेयभादि भीरादिग्नागादिप्रकारपुरस्सरा: 1 विनेसदो अनशनादिभ्योऽतिशयन । मल्लिहंनेण कायसल्लेखनां कुर्वता। अर्थ--इत्यादि नानाप्रकारका रसपरित्याग जानना चाहिये. यह रसपरित्याग नामका नप शरीरसल्लेखना करनेवाले मुनिको विशेषरीतीसे करना चाहिये, अर्थात अनशनादि तपोंकी अपेक्षा यह तप अधिकतासे करना चाहिये. रसपरित्याग तपका स्वरूपवर्णन समाप्त हुआ. पाAATE STERTA Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +Pra-Paramewom मूलाराधना आवासः सपरिसंवाननिरूपणाय गाथाबनुष्यमुचरम गत्तापञ्चागदं उज्जुवीहि गोमुसियं च पेलवियं ॥ संबूकावटॅपि य पदंगवीधी य गोयरिया ॥ २१८ ।। गृहरति प्रामुका भिक्षां गत्वा प्रत्यगतो यतः ॥ शंकाव गोमूत्र एमालसायन । २१७॥ विजयोदया-गत्तापञ्चागर्द। यया वीच्या मतः पूर्व तयव प्रत्यागमनं कुर्वन्यवि लभने मिक्षा गृह्णाति नान्यथा, हिंध्या बीया गतो यदि लभते गृहाति लरथा । गोमूत्रिकाकारं भ्रमण या संपादयन् । पेलांग वंशलादि मिशिदिनं बमुयणदिनिक्षेपणार्थ पिधानसहितं यत्तद्वशतुरस्राकारं भ्रमपी । संघकानई पि शंकावर्त इब । पर्दगत्री. श्रीय मंगमाला पतंगवीधीत्युच्यत । साथचा भ्रमति तथा भ्रमण । गोयरिया। गोवा भिक्षायां भ्रमण । एचभनेन भ्रसंगान लम्चा मित्रां गृहामि नाम्यथेति कृतसंकल्पना वृत्तिपरिसंख्यानं । मूलारा-गत्तापञ्चागदं । यया वीयागतस्तयैव प्रत्यागच्छन्यदि भिक्षां लभते तदा गृहाति इति । उजुविही प्रख्या प्रांजलया वीभ्या मार्गेण यदि गतो लभते सदा गृण्डाति । गोमुत्तिय गोमुत्रिकाकार भिक्षार्थ भ्रमण। पेलविर्य पेट्टाबच्चतुरखं भ्रमणं । संचुकाबटुं शंखावर्तबदम्यतरमावर्त्य बहिर्धमतो भिक्षाग्रहणं । पतंगवीही पतंगमालावदितस्ततो भ्रमणं, एकस्मिन्मेष कटाश्रितगृहे गमनं वा । गोवरिया योग्यं यथाप्राप्ताहारग्रहणमित्यर्थः। वृतिपरिसंख्यान तपका निरूपण आचार्य चार माथाओंमे करते हैं अर्थ-जिस भागमे आहारके लिये गमन कर उसी मार्गमे लौटते समय यदि आहार मिलेगा तो मैं ग्रहण करूं ऐसी प्रतिज्ञा करना वह गतप्रत्यागन है, सरल रास्तेसे जाते समय यदि आहार मिलेगा तो आहारग्रहण करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा करना. यह ऋजुवीथी है. बैल मूनते जाता है उस समय जो आकार रस्तेपर उत्पन्न होता है वैसा मोडा खाते हुये भ्रमण करनेवाले मेरेको यदि आहार मिलेगा तो मैं ग्रहण करूं ऐसी प्रतिज्ञा करना इसको गोभूत्रिक कहते हैं. बासके टुकडे, लकडी इत्यादिसे बनाया हुआ, और जिसमें ढक्कन लगा हुआ है ऐसा वस्न सुबर्णादि रखनेका जो चार कोनोंका पदार्थ अर्थात् संदक-पेटीके समान चतुष्कोण भ्रमण करते हुए मेरेको यदि आहार मिलेगा ले ग्रहण करूं ऐसी प्रतिज्ञा करना इसको पेलविय कहते हैं. शंखके आयतों के समान ग्रामके अंदर भ्रमण Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना - ५३१ करके जब बाहर भ्रमण करूंगा ऐसे समयमें यदि भिक्षा मिलेगी तो स्वीकारूंगा ऐसी प्रतिज्ञा करना. यह शंबू कायत है. पक्षिओंकी पंक्ति जसे भ्रमण करती है वैसा भ्रमण करते हुए मरेको यदि भिक्षा मिलेगी तो आहार ग्रहण करूंगा इस प्रतिज्ञाको पतंगवीथी कहते हैं. अथवा जिस श्रावकके घर में आहार लेनका मनमें विचार किया है वहां जाना इसको भी पतंगबीथी कहते है. इस प्रकारसे आहारार्थ भ्रमण करनेसे यदि भिक्षा मिलंगी ते स्वीकारूंगा अन्यथा नहीं ऐसी मतिना करना यह वृत्तिपरिसंख्यान तप है. पाडयणियंसणभिक्खा परिमाणं दत्तिघासपरिमाणं ॥ पिंडेसणा य पाणेसणा य जागूय पुग्गलया ॥ २१९ ॥ पाटकावसथद्वारदातृदेयादिगोचरम् || संकर विविधं कृत्वा वृत्तिसंख्यापरो यतिः ॥ २९८ ।। छूना तृष्णालना हा चित्रसंकल्पपलया। कुर्वता वृत्तिसंख्यानं परेषां दुश्चरं तपः ॥ २१२ ।। चिजयोदयाः-पाडयणियसभिक्खापरिमाण इमं एच पाठक प्रविश्य लब्धां भिक्षा गृहामि नान्यं । पफमेच पाटकं पारकाद्वयम्वति। अस्य गृहस्य परिकरतया अवस्थितां भूमि अधिशामिन गृहमित्यभिग्रहः गियंसर्गामन्युच्यत इति द्विवन्ति । अपरे पाटस्य भूमिमेव प्रनिशामिन पाटगृहाणि ति सकल्पः पाडगणिगसणमित्युच्यते इति कथयति । मिक्षा. परिमाणं एका मित्रांद पव वा गुलामिनाधिकामिति । दत्तिवासानिमा एकैनवदीयमान द्वाभ्यामेदनि दानपियार म | मीसायामपि झिक्षायां दया व ग्रासाम्राकामि इति शपरिमाण । पिडेलणा पिउभूलनवादानं गृहालि। म सणारी व रुटतथा यमायने अशनं । जागय व्यामा पोन्गलियावा याम्यान्धव निभायणका कादीनि मायामि दति। __मुला- पाउदणि परिमाण । केगेव पाटकं ५ कामय वा प्रषिक मिश्रामण । निनाममा यदि वा अस्य गृहस्य परिकरखयावस्थितां भूमि प्रविशामि न गृह इत्येवंधण भिक्षाग्रहर्ष निवसनपरिमाणं । अन्ये पाटक भूमिगेय प्रविशाभि न पाटकगृहाणीति भिक्षासंकल्प पाटकनिवसनपरिमाणमाहुः । भिक्खापरिमाणं एकाबारपरिषेषित Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वास भिक्षाग्रहणं । दत्तिपासपरिमाण एकेनैव दायकेन द्वाभ्यां वा दीयमानस्य ग्रहणं दत्तिपरिमाण । आनीतायामपि भिक्षायां श्यत एव प्रासान् महीष्यामि इति घासपीरमाणं । पिंडेसणाओ पिंडभूतमेव अशनं गृहामि न पानमिति । पासणाओद्रवमेवाशन गृहामि न पिंडमिति | जागूय यवागू। पोग्गलिया धान्यान्येव निप्पाचणकादीनि भिक्षायामिति । खिच्चामिन्यन्यः। अर्थ- इसही पाटकमें प्रवेश कर मिली हुई भिक्षा में ग्रहण करूंगा दूसरे पाटकमें मैं आहारार्थ जाउंगा नहीं ऐसी प्रतिज्ञा करना, अथवा मैं एक पाटको अथवा दोन पाटकॉमें भिक्षा मिलनपर ग्रहण करगा अन्यथा नहीं गमी प्रतिज्ञा करना. इस घरके परिकरकी भूमी में यदि आहार मिलेगा तो मैं ग्रहण कर घरमें पवेश न करूंगा एमी प्रतिज्ञा करना. इसको नियंसण कहते हैं. पाटककी भूमिपर ही आहार मिलेगा तो मैं आहार स्वीकारूंगा परंतु पाटकके घरोंमें प्रवेश नहीं करूंगा ऐसा संकल्प करना इसको पाटकनिवसन परिमाण बहने हैं.एकदफ अथवा दो दफे जो अन्न पोसा है उतनाही में ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं यह भिक्षापरिमाण है. एक दाता अथवा दोन दाताान दिया हुधाअन्न ग्रहण करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा करना यह दातपरिमाण संकल्प है. दाताने देने के लिये भिक्षा लाने पर भी इतने ही ग्रास में स्वी कारूंगा इस तरह का संकल्प करना यह ग्रासपरिमाण संकल्प है. पिंडरूष जो अन्न है वही मैं ग्रहण करूंगा द्रवरूप पदार्थ ग्रहण न करूंगा ऐसा संकल्प करना यह पिंडषणासंकल्प है. द्रवरूप अनही मैं ग्रहण करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा करना. अर्पिडेपणासंकल्प कहते हैं, रबडी इत्यादि जो पतली भी नहीं और पिंडरूप भी नहीं है वह भक्षण करूं | ऐसा संकल्प करना. पावटे, चना, मसूर इत्यादि धान्यरूप अन्न ही मैं ग्रहण करूंगा ऐसा संकल्प करना ये सब वृनिपरिसंख्यान तएके भेद हैं. संसिठ्ठ फलिह परिखा पुष्फोवहिदं व सुद्धगोवहिदं ॥ लेबडमलेवडं पाणयं च णिस्मित्थगमसित्थं ॥ २२० ॥ विजयोन्या-मंसिष्टुं शाककुल्मागविर्भसएमेव । फन्दित ममतादवम्तिशा मध्यावस्थितीदनं । परिया ध्यंजनमध्यावस्थितानं । पुष्फोवहिदं च व्यंजनमध्ये पुष्पालरिब अवस्थिसिक्थं । सुद्धगोहिदं । शुद्धन नियावादिभिमिशेणानेन उवाहिद सं शाकव्यंजनाधिकलेवर्ड तोपकारि । अलेबई यच्च हसन सजति । पाजगं पान च कारक ? मगसित्य गियर्गहन पानं तत्साहन च । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SATA मूलाराधना आवास ४३६ । मूलारा--संसिठ्ठ व्यंजनसंमिश्र, फलिहा व्यंजनैकापावस्थितांदनं । परिखा व्यंजनमध्यस्थितकरं । पुप्फोहिदं पुष्पप्रकरबदजनमध्यप्रकीर्णसिक्थक । सुद्धगोवहिरं शुद्धेन निष्णवाद्यसंसृष्टतान्ननोरहितं संसृष्टं शाकव्य जनादिकं वा । यदि वा शुद्धन केवलेन केन जलेगोपहित कूरं । लेवई हस्तेलेपकारि घोलादिकं । अलेवई हस्तालेपकारि माश्रितादिकं । पान द्राक्षादिशोधित पानकं । तच नि:सिक्थं ससिक्यं वा । भोन्यतया कल्पयति । अर्थ-शाक और कुल्माष अर्थात कुलत्यादिक धान्योंसे मिश्रित अन्नको संमृष्ट कहते हैं. इस प्रकारका अन यदि मिले तो आहार करूंगा अन्यथा नहीं ऐसी प्रतिज्ञा करना. फलिह थाला मध्यमें भात रखकर उसके चारों तरफ भाजी रखना ऐसी रचनाको फलिह कहते हैं. इस तरहकी आकृतीका आहार यदि मिले तो ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं ऐसी प्रतिज्ञा करना. परिखा-मध्यमें अब रखकर आसमंतात व्यंजन रखना उसको परिख कहते हैं. इस प्रकार का अन्न यदि मिले तो आहार करूंगा अन्यथा नहीं ऐसी प्रतिज्ञा करना. पुप्फोपहिंद-व्यंजनों के बीचमें पुष्पोंके समान अनकी रचना करना उसको पुष्योपहित कहते हैं, ऐसी रचना किया हुआ आहार यदि मिले तो लेने की प्रतिज्ञा करना, जिसमें मठ इत्यादि धान्यका मिश्रण नहीं है परंतु जिसमें भाजी और व्यंजन--चटनी बगरे पदार्थ मिले हुये हैं उसको शुद्ध गोवहिद कहते हैं उसकी प्रतिज्ञा करना. लेब-हाथको चिपकने वाला अन लेनेकी प्रतिक्षा करना-अलवड-जो हाथको नहीं चिपकता है एमा आहार लेनकी प्रतिज्ञा करना. पान-सिक्थराहेत अथवा सिक्थसहित आहार लेनकी प्रतिक्षा करना, पत्तस्स दायगस्स य अवग्गहो बहुविहो ससत्तीए ॥ इञ्चेवमादिविधिणा णादचा बुत्तिपरिसंवा ॥ २२१॥ विजयोत्या वनस्म पर्वभूतेन भाजनेनेघानीतं गृहामि सीवर्णन, कंसपाघ्या, राजतन मृगमयेन वा । दाय. मस्स या नियत्र तत्रापि वालया, युवत्या,स्थविरया, निरलंकारया, ब्राह्मण्या, राजपुश्या इत्येवमादि अभिग्रहोऽवग्रहः । बहुविवो बहुविधः । ससत्तीए स्वशक्त्या । इवेवमादि एवंप्रकारा विधिहा रिविधा । णायब्वा शातष्याः। बुत्तिपरिसंख्या वृत्ति परिसंख्या। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मूलारा-अभिग्रहो अवग्रहः । स च पात्रस्य यथा । एवंभूनेनेव सौवर्णायन्यनमेन भाजनेनानीतं गृहामीति । FOआश्वास: दायकस्य यथा- स्त्रियानी गृहामि नत्रापि याला, युबत्या, वृदया, सालंकारया, मण्या, राजपुच्या वेत्येवमादिः । अर्थ-यदि मुवर्णपात्र, कासका पात्र, रूपेका पात्र अथवा मट्ठीकापात्र इसमे दाना आहार दे तो मैं ग्रहण करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा करना. दायक-यदि स्त्री अर्थात् बालिका, तरुणी, पृद्धा इनमेंसे किसी एक विवक्षित स्त्रीने आहार दिया तो ग्रहण करूंगा. अन्यथा नहीं ऐसी प्रतिज्ञा करना. यदि कोई स्त्री भूषणरहित होगी अथवा ब्राह्मणी या राजकन्या होगी तो यदि वह आहार देगी तो मैं ग्रहण करूगा ऐसी प्रतिज्ञा करना इत्यादि नाना प्रकारके नियम करना उसको वृत्तिपरिमख्यान नामका तप कहते है, कायलदानिरूपणायोत्तरप्रबंधः अणुसूरी पडिसूरी य उद्सूरी य तिरियसूरी य ॥ उभागेण य गमणं पडिआगमणं च गंतूणं ॥ २२२ ।। तिर्यगर्कमुपर्यकमन्धर्क प्रतिभास्करम् ॥ याति प्रामान्तरं गत्वा प्रत्यागच्छति वा यतिः ।। २२० । विजयोदया--णुमरी पूर्वस्या विशः पश्चिमाशागमन करूरातपे दिने । पडिपूरी अपरच्या दिशः आदित्याभिः मुगमनं । हमरीय गते सूर्ये गमनं । यिनीय तिर्यगवस्थिो दिनको हया गमनं । उभागमेण गमण वा. बाम्धनमामाद्नामान्तरं अनि भिक्षार्थ गमनं । पद्धियागमणे च गंपूर्ण प्रत्यागमनं च गावा स्थान । काय केशतपो गमनस्थानासनसनानटी वनादिशरीरकंशक्रमाभिधाननिष्ठन गाथापटकेगाव : मूलारा-- अनुसूरि अनुसूर्य, सूर्य पश्चात्कृत्य यानं । पडिमूरि सूर्याभिमुखं गमनं । मूरि उर्दु गते सूर्य गगनं । निरियमूरि सूर्य पात: कृत्वा गमनं । उम्भागमेण गमण उद्भगगेन गमनं उधमोण मामाहामांतरे जळून अविश्रम्य गमनं । पडित्यादि नामांतरं गत्वा पुनस्तत्रैवागमनम् । कायनशनिरूपणार्थ आगेका प्रबंध लिखते हैं ---- अर्घ-जिस दिन कडी धूप पडती है उस दिन पूर्व दिशासे पश्चिमदिशाके तरफ जाना, अनुसूरिगमन है पडिसूरी ४३७ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारामा ४३८ पश्चिम दिशा से पूर्व दिशाको जाना. अर्थात सूर्य के सम्मुख गमन करना. उद्धरि-सूर्य जब मस्तकपर चढ़ता है ऐसे समय में गमन करना. तिरियरि-सूर्यको निम् करके गमन करना, उन्भागमेण गमर्ग- स्वयं ठहरे हुए ग्राम से दुसरे गांवको विश्रांति न लेकर आहारके लिये गमन करना और जाकर स्वस्थानको आना यह सब गमनरूप कार्यक्रेश तप हैं. स्थानयोगनिरूपणा - साधारणं सवीचारं सणिरुद्धं तहेव बोस || समपादमेगपाई गिडोलीणं च ठाणाणि ॥ २२३ ॥ सावष्टमं तनृत्सर्ग संक्रममसंक्रमम् ॥ गृद्धीनमवस्थानं समपादैकपादकम् || २२१ ॥ विजयोश्या-साधारण प्रसृष्टस्तंभादिकमुपाश्रित्य स्थानं । सवीवारं ससंक्रमं पूर्वावस्थिताद्देशाद्द्वत्वापि स्थापितस्थानं | समिरा निश्चलमवस्थानं । तहुँच तथैष । घोस कायोत्सर्गः समपादौ समौ पादी कृत्वा स्थानं । एगपाद एक पादेन अवस्थानं । गिद्धोलणं गृद्धोद्गमननिय वा प्रसार्यावस्थानं । 1 गृलाग-साधारणं प्रसृष्टं स्तंभादिकमवष्टभ्य स्थानं उद्भस्यावस्थानं । सविचारं ससंक्रमं । पूर्वस्थानात् स्थानांतरे गखादिसादिपरिकटदेनावस्थानमित्यर्थः । सशिरुद्धं विश्वलं तत्रैवावस्थानं । वोस कायोत्सर्गः । समपार्य सम पादौ कुन्या स्थानं । एगपार्थं एकेनैव पादेनावस्थानं । गिद्धोटीनं गुम्यो गमनाय बाहू, सास्थानम् । स्थानयोगका निरूपण करते हैं अर्थ- स्वच्छ स्तंभ वा भीव इत्यादिकोंका आश्रय लेकर खडे होना यह साधारण कायक्लेश है, सविचारपूर्वस्थानसे स्थानान्तरको जाकर वहां एक पहर, एकदिवस वगैरह प्रमाणसे खड़े होना, स्वस्थानमें ही निश्चल खड़े रहना यह संनिरुद्ध है. वीस कायोत्सर्ग करना. समपाद-पांच भूमिपर समान रखकर खड़े होना एकपादएक पांवसेही खडे रहना. गिोली-गीघपक्षी जैमा आकाशमें उड़ते समय अपने पंख फैलाता हैं वैसा बाहु फैलाकर खड़े होना. h भाश्व ५३ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना ०१९ आसनयोगनिरूपणा समपलियंक णिसज्जा समपदगोदोहिया य उक्कुडिया || मगरमुह हृस्थिसुंडी गोणणिसेज्जइपलियंका ॥ २२४ ॥ पर्यकमपर्यीद्मगवासनम् ॥ आसनं हस्ति च गोदोहनकराननम् ॥ २२२ ॥ विजयोदयाखपटिक सिंजा सभ्य छोड़ने आसनभिवास इस्तिहाभिय अर्द्धपर्यकं । सम्पदं रमेनासनं । गोदोहिंगा गो. कर सुख कृत्या पायानं ही प्राय गोगगिसेक्स अद्धपलियेक गोतिपद्या गवामासनभित्र एवं स्थानयोगं निरूप्यासनयोगं निरूपयति मूलारा - संपलियंकणिसज्जा सम्यकपर्यास । समदं स्किपिंडसमकरणेनासनं । गोदोहिंगा गोदोहे आसनभित्र पार्किंगमुत्क्षिप्य नादाभ्यामासनम् । उडिया युवाभ्यां भूमिस्पृशतः समपादाभ्यास | सगरमुद्र मकरम्थ गुनभित्र कृत्वा पादासनं । हथिगुंडी हस्तिहस्तप्रसारणमिव एक पार्क संकोच्य तदुपरि द्वितीयं पादं प्रसार्यामनं एकं हस्तं प्रसार्येत्यपरे । गोणिसेज्जा जनाद्वयं संकोच्य गोरिवासनं । अपलियं अर्द्धपर्यकासनं गोनिषद्येव गधासनमापकमिति व्याचष्टे । -- 1 आसनयोगका वर्णन - अथ उत्तम पर्यकासन से बैठना उसको पर्यकनिषद्या कहते हैं. समपद - जंघा और कटिभागको समान करके बैठना. गोदोदिया -- गायको दोहनेके समय जैसा बैठते हैं उस पद्धतीसे बैठना उत्कुटिकासन - जमीनको स्पर्श न हो इस रीती से समान पार्वोपर बैठना वह उत्कुटिकासन है. मगर मुह - भगर के सुखसमान पावांकी आकृति कर बैठना. हरिसुंडी हाथी जैसे अपनी सुंडको पसारता है तद्वत् एक पांव पसारकर बैठना, एक हाथ पसारकर बैठने को भी यही नाम हैं. गोणिसेज्ज-गवासन और कासन ये सब बैठकर कायक्लेश तप करनेके प्रकार हैं. भव ३ ४३ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास: - वरािसणं च दंडा य उढ्साई य लगडसाई य ।। उत्ताणी मच्छिय एगपाससाई य मडयसाई य ॥ २२५ ॥ समस्फिग समस्फि कृत्य कुक्कुटकासनम् ।। बहुधेत्यासनं साधोः कायक्लेशविधायिनः ।। २२३ ॥ कोदंडलगडादंडशवशय्यापुरस्सरम् ।। कर्तव्या बहुधा शय्या शरीरक्लेशकारिणा ॥ २२४ ।। विजयोदया-चीरासर्ण जंघे विकष्टदेशे कुम्वासनं । दंडक्वायतं शरीरं कृत्वा शयन । स्थिया शयन च ऊर्ध्वशायीत्युच्यते । लगइसाई संकुचितगात्रस्य शयने । उताणो उत्तानं शयन | अघमस्साकशयन एकपार्श्वशयने च। मूलारा-वीरासणं ऊरुदयोपरि पादद्वयविन्यासः । जंघे विप्रकृष्टदेशे कृत्वासनमिति टोकाकून् । इतःशयन - भेदानाह-दंडायोड़माई दंडवदाननं शरीरं कृत्वा ने इत्येवं व्रत अन्य स दहायतशायी साधुस्वत्साहचार्यात्तच्छन्य नमगि तथोक्त दंडायतशयनमित्यर्थः । एवमशाग्यादीनामपि व्युत्पत्तिः कार्या, टीभूयशयनमूर्द्धशायी। लगड माई संनिग करस्य शयनं । अत्ताणेत्यादि--उनानस्य शयन सानायन । अवमस्तकायनमधोमुखानं । एकपक्षियने च । मध्यसाई मृतकस्व निश्चष्टं शायनम् । अर्थ--वीरामन-दो जंघाय दर अन्तर पर स्थापन कर बटना. देवायत शयन-दंडक समान शरीर दीप कर सोना. खडे होकर शमन करना. लगडसायी-अवयवोंका संकोच कर शयन करना. मुंह ऊपर कर सोना यह उत्तानशयन है. मस्तक नीचे करके सोना अक्मस्तकशयन है और एक बाजुस सोना वह एक पार्श्वशयन है. - - ४४ अम्भावगाससयर्ण अणिवणा अकंदुर्ग चेव ॥ तणफलयासिलाभूमी सेज्जा तह केसलोचे य ।। २२६ ॥ काष्टाश्मतृणभूशय्या दिवानिद्राविपर्ययः ।। दुर्धराभावकाशादियोगश्रितयधारणम् ॥ २२५ ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो बहिनिराधरणदेशे शयन सलाओं य केशलोचन आश्वासः मूलाराधना निष्ठीवनाकरण । ५४१ विजयोदया-अब्भाषणाससयर्ण बहिनिराघराणदेशे शयनं । अणिठ्ठिवणगं निष्ठीयनाकरणं । बकंवणगं च अकंडूयनं । तणफलगसिलाभूमीसज्जा तृणादिषु शय्या । तदा तथा । केसलोओय केशलोत्रश्च । मुलारा-अभावगाखसयर्ण बहिर्निराचरणदेश शयनं । इतः केशोतराण्याह-णिदिवणगं निष्ठीवनाकर। अकंडुवणगं । अकंड्रयन । अर्थ-बाह्य आवरणरहित जमीनपर शयन करना वह अभावकाश शयन है, अनिष्ठीवनक-नहीं थूकना, अकंडूयन-अंगमें खुजली उत्पन्न होनेपर भी नहीं खुजालना. तृण, काठका फलक, शिला इत्यादिकोंपर शयन करना तथा केशलोच करना. अब्भुष्ठणं च रादो अण्हाणमदंतधोवणं चेव ॥ कायकिलेसो एसो सीदुण्हादाबणादी य ॥ २२७ ॥ दंसधायनकतिस्नाननिष्ठीवनासनम् ।। यामिनीजागरी लोचः कायक्लेशोऽयमीरितः ॥ २२६ ।। सूत्रानुसारतः सायोः कायशं वितन्वतः ।। चिंतिताः संपदः सर्वाः संपद्यते करस्थिताः ।। २२.७ ।। विजयोदया--अभुर्ण म गदागवावशयनं जागरण भिल्यर्थः । अपहाण अनान । अदंतधोवर्ष चव देतानामशोधनं । कायकिलेसो कायक्लेशः । एसो एपः । सीदुण्डादाचणादी य । शीतातपनमुष्णातपनभित्यवमादिकं । मुलारा-अब्भुठ्ठाणं राबो रात्रावप्यशयनं । बोत्राथ्यर्थ भिन्नक्रमो योग्यः । सीदुण्हादावणादीणि शीतनातापन च समंतात्कायस्य क्लेशनं । आदिशब्देन वृष्टिक्लेशादि ।। अर्थ-रातमें जागरण करना, स्नान नहीं करना, दांत धोनेका त्याग करना. ये सब कायक्लंशके प्रकार है, शीतकालमें कायक्लेश करना और धूपमें शरीरको पेश करना. इत्यादिरूपसे कायक्लेश तप अनेक प्रकार का है. १११ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधन ४४२ विविक्तशयनासननिरूपणा जत्य ण सत्तिंग अस्थि दु सहरसरूवगंधफासेहिं ॥ सज्झायज्झाणवाघादो वा वसधी विवित्ता सा ॥ २२८ ॥ विविक्तवसतिः सास्ति यस्यां रूपरसादिभिः ॥ संपद्यते न संक्लेशो न ध्यानाध्ययने क्षतिः ॥ २२८ ॥ विजयोदया - जस्थ ण सोत्तिग यस्यां वसती न विद्यतेऽशुभपरिणामः । सहरसरूवगंधफासहि शब्दर सरूपगंधस्पर्शः करणभूतैः मनोरमनोर्चा सा विदिसा घसधी विविक्ता वसतिः । सज्झायज्झाणवाघाहो स्वाध्याय ध्यानयो घात या नास्ति सा विविक्ता भवति । विशिय्याख्यं तपो गाथापंचकेन व्याचक्षाणः प्रथमं विविक्तवसति सामान्यलक्षणमाह मूलारा - विसोत्तिगा अशुभपरिणामो रागद्वेषमोहात्मक संक्लेशरूपः । वाघादो विनाशः । विविक्तशयनासनदपका वर्णन करते हैं अर्थ - जिस वसतिकामें मनोहर और अमनोहर ऐसे स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्दोंसे अशुभ परिणाम नहीं होते हैं वह वसतिका रहनेके लिये योग्य है तथा जिसमें स्वाध्याय और ध्यान में विभ नहीं होता है वह वसतिका मुनिओं को रहने के लिये योग्य होती है. ऐसी वसतिकाको विविक्तवसतिका कहना चाहिये. विडाए अवियडाए समधिसमाए बहिं च अंतो वा ॥ इत्थिणउंसयपसुवज्जिदाए सीदाए उसिणाए ।। २२९ ॥ अंतर्बहियां शय्यां विकदां विषमां समाम् ॥ वनविकai सेव्यां रामाषंढ पशुज्झिताम् ॥ २२९ ॥ विजयोदा विडा उद्घाटितद्वारायां । अवियार अनुवादितद्वारायां वा । समविसमा समभूमिसमन्त्रि तायां विषमभूमिसमन्वितायां । यहि व बहिर्भागे वा । अतो वा अभ्यंतरं या इथियपसुबजिदा स्त्रीभिर्नपुंसक पशुभिश्च वर्जिसायां बसती सीक्षण शीतायां । उसिणार उष्णायां । ०००००० आश्र ४४ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना मूलरा-बियडाए उद्धादितदाराचा । अषियडाप अनुवादितद्वारायां समविसमाग. समभूमिकायो विषमभूमिकायां वा । बहिव्व बहिर्वा । प्रामनगरादेरिति शेषः ।। अर्थ-जिसके द्वार खुले हैं अथवा जिसके दरवाजे ढके हुये हैं. जो समभूमिसहित हैं, जो विषमभूमि सहित हैं जो थाइ भागम है अथवा अन्तभागमें है, जो स्त्री, पुरुष और नपुंसकवर्जित है, जो शीत और उष्ण है वह वसतिका विविक्त वसतिका है. उग्गमउप्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए दु । वसदि असंसत्ताए णिप्पाहुडियाए सेवाए ॥ २३० ॥ उद्गमोरादनावल्भादोषमुक्तामपत्रियां ॥ अविविक्तजनागम्यां गृहशय्याविजितां ॥ २३० ॥ विजयोदया-उम्गम पादणपसणाधिमुभाग, उद्गमोत्पादनपणादोषरहितायां । तमोगुमो दोपो निरूप्यते 1 वृक्ष कछन्दस्तदानयन, एकापाकः, भूमिखनन, पापाणसिकतादिभिःपूरण, धरायाः कुहनं, करमकरणं, कीलानां करणं, अग्निनायस्लापनं कृत्वा प्रताउन ऋकयः काठपाटन, वारसीभिस्तक्षणं, परशुभिश्नछेदन इत्येवमादिष्यापारण पण जीवनिकायानां बाधा कृत्वा स्पेन या उत्पादिता, अन्यच धा कारिमा यसतिराधाकर्मशब्देनोच्यते । यावन्तो दीनानाधरुपणा आगच्छन्ति लिगिनो वा तेयामियमित्युद्दिश्य कृता, पायंडिनामेवेति चा थमणानामेवेति, निर्ग्रन्धानामेवेति सा उद्देसिगा वसदिति भयले | आत्मार्थ गृहं कुर्वता अपवरकं संयतान भवन्विति कृतं अभोचम्भमित्युच्यते । आत्मनो गृहार्थमानीतैः काठाविभिः सह यहुभिः श्रमणार्थमानीयालोन मिश्रिता यत्र गृहे तत्पूतिकमित्युच्यते। पापंडिनां गृहस्थानां वा क्रियमाणे गृहे पश्चात्संयतानुहिश्य कावादिमिश्रणेन निष्पादिन येशम मिश्रम् । स्थार्थमेव ने संयतार्थमिति स्थापितं ठघिद इत्युच्यते । संग्रतः सच यायद्विदिनरागमिष्यति तत्प्रवेशदिने गृहसंस्कार सकलं करि प्यामःरति चेतसि कृत्वा यत्संस्कारितं चश्म नस्पाहुडिगमित्युच्यते । तदागमानुरोधन गृहसंस्कारकालापन्दासं कृत्वा वा संस्कारिता बसतिः प्रदीपकं वा तत्प्रादुष्कृत मित्युच्यते । यद्गृहं अंधकारबाहुले तत्र बहुलपकाशसंपादनाय यतीनां छिद्रीकृतकुड्यं, अपाकृतफलक, मुविन्यस्तमदीपक चा तत्पादुकारशंदन भष्यते । द्रव्यकीतं भावगीतं इति द्विविध क्रीत बेदम, सचितं गोवलीवादिकं इत्या संयनार्थकीतं. अचित्तं चा वृतगुजादिकं दया क्रीतं द्रव्याकीतं । विद्यार्मत्रादिदानेन वा क्रीतं भावगीतं । अल्पमृणं कृत्वा वृद्धिसहित अवृद्धिकं वा गृहीत संयतेभ्यः पामिच्छ उच्यते । मदीये वेश्मनि तिष्ठतु भवान् युष्मदीयं तावद्गृदं यतिभ्यः प्रयच्छति गृहीतं परियमित्युच्यते । कुख्याप कुटीरककटादिकं स्वार्थ निष्पन्नमेव यस्सयतार्थमानीतं तदभ्यविमुच्यते । तद्धि Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - मूलाराधना आबास SaasarameramanartexadivasiratarMag विधमाचरितमनाचरितमिति । दूरदेशाग्रामास्तरावानीतमनाचरितं इतरदाचरिनं । एकादिभिः, मन्पिढेन, वृत्या, फवाटेनोपलेन वा स्थगितं अपनीय दीयते यत्तदुनिं । निक्षेप्यादिमिराका इत आगच्छत युष्माकमियं वसतिरिति या दीयते द्वितीया तृतीया वा भूमिः सा मालारोहमित्युच्यते। राजामात्यादिभिर्भयमुपदय परकीयं यद्दीयते तदुच्यते अच्छे इति । अनिसृश्य पुनहिंविधं । गृहस्वामिना अनियुक्तेन या नीयते वसतिः यत्स्वामिनापि बालेन ग्वशातिना दीयने पो. भरमप्यनिमऐनि उच्यते । उद्गमदोपा निरूपिताः । उत्पादनदोवा निरुप्यन्ते-पंचविधानां धात्रीकर्षण अन्यतमनोत्यादिना वसतिः । काबिहार अपयति, भूप. यति. क्रीडयति, आशाति, स्वापयति वा । वसत्यमेवोत्पादिता बरतिर्धात्रीदोरदुपा ।प्रामान्तरानगरान्तगण देशादन्य देशतो या संबंधिनां वार्तामभिधायोत्पादिता दुतकोत्पादिता । अंग, स्वरो, व्यंजन, लक्षण, छिन्नं, भौमे, स्वमोऽन्तरिक्षमिति एवंभूतनिमित्तोपदेशेन लन्धः वसतिनिभिसदोषदुपा आत्मनो जाति, फुलं, ऐश्वयं वाभिधाय स्वमाहात्म्यप्रकटनेनो स्थादिता वसतिराजीवशम्देनोच्यते । भगचन्सर्वेषां आशारदानातिदानाच पुण्यं किम् महदुपजायते इति प्रणी न भवती न्युक्ते गृहिजनः प्रतिकूलवचनसमो वसति न प्रयच्छेदिति एवमिति तबनुकूलगुमचा थोत्पादिता सा वणिगवा शन्नोच्यते । अप्रविधया चिकित्सया लब्धा चिकित्सोत्पादिता । क्रोधोत्पादिना | गच्छनामागच्दतां च यतीनां भवदीयमेव गृहमाश्रयः इतीयं बाती दरादेवास्माभिः यतेति पूर्व स्तुत्वा या उन्धा | सनोत्तरकालंच गच्छन्प्रर्शमां करोनि पुनरपि वसति हास्य इति । एवं उत्पादिनासंस्तवदोषदुपाः । विद्यया, मंत्रेण, चूर्णप्रयोगेण या गृहिणं वशे स्थापयित्वा लब्धा । मूलकर्मणा चा भिन्नकम् पायोनिसन्धापना भूलकर्म । विरताना अनुरागजननं या । उत्पादनाण्योऽभिहिलो दोगः पोडशप्रकारः ॥ अथ पपणादोरान्दश माह किभियं योग्या वसतिति शंकिता । नदानीमच सिक्ता सत्यालिप्ता सती या छिद्रात जलप्रवाहण वा. जल भाजनलोटनन चा तदानीमेव लिप्ता वा म्रक्षितेत्युच्यते । सचित्तपृथिव्या, अपां, हरिताना, बीजानां प्रसानां उपरि स्थापित पीठफलकादिक अत्र शय्या कर्तव्येति या दीयते सा पिहिता । काटनेलकंटकमाचरणाघाकर्षणं कुर्वता पुरोगायिनोपदर्शिता चसनिः साहारणशब्देनोच्यते । मृतजाससूतकयुक्त गृहिजमेन, मत्तेन, व्याधितेन, नसकेन, पिशात्रगृहीतन, नया वादीयमाना वसतिरकदुष्टा । स्थायरैः पृथिव्यादिभिः, सैः पिपीलिकामत्कुणादिभिः सहितोम्मिश्रा अधिकवितस्तिमात्राया भूमेरधिकाया अपि भुवो ग्रहणं प्रमाणातिरेकदोषः। शीतवातातपायपद्रवसहिता वसतिरियमिति निदां कुर्वतो यमन धूमदोषः । निर्चाता, विशाला, नान्युष्णा शोभनेयमिति लगानुराग इंगाल इन्युच्येत । एवमेतैरुवमादिदोषैरनुपढ़ता घसतिः शुद्धा तस्या । अकिरियाय दुःप्रमार्जनादिसंस्काररहितायाः | असंसत्ताप जीवसंमवाहितायाः । णिपाहुडियाग शपयारहिनायाः गनाप बसती । अग्नहिी बस वसति । गतिषिविनाशय्यासनरतः। १ क पुस्तके मास्त्वयं पाठः। २ क्रोधं, मान, माया, लोभं चा प्रयुज्योत्पादिता क्रोधादिचतुष्टयदुष्टा ॥ इति मूलाराधनादर्पणटीकायां । ४२४ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्चाता मूलाराधना मूलारा-जग्गमेत्यादि उद्गमोत्पादनैपणादोषरहितायां । तबाहारौषधवसतिसंस्तरोपकरणादिकं यतये देयमुद्गच्छति उत्पद्यते चैतुः क्रियाविशेधैर्मागविरोधिभिस्ते उदमोदेशिकादयः पोडश । यैश्च भक्तादिकमुत्पाद्यते मार्गविरोधिभिस्ते धाच्यादयः पोडश साधोः क्रियाभदा उत्पादनाः । तथा चाचोचाम धर्मामृते भक्तागुद्गच्छत्यपध्ये वैये हत्पावते चले। दातृयत्योः क्रियाभेदा उद्मोत्पादनाः कमान् ॥ गते द्वात्रिंशदघ्याधाकर्माशत्वाद्दोषत्वेन व्यपदिश्यते । मक्ताद्यर्थ यतेः पहजीवनिकायबाधनं तत्कारणं वा भक्तादिकमेवाधाकर्मत्युच्यते । एषणादोषास्तु शकितादयो दश । ने च मूलाचारोक्ता यथा आधाकम्मुइसिय अझोवझे य पूदिभिसे य ।। ठविदे बलि पाहुडिरे पादुकारे व कीदे य॥ पामिच्छे परियट्रे अभिमुभिण्णमालमारोहे ॥ अच्छिन्ने अणिसट्टे उम्गमदोसा दु सोलासमे ।। धादी दूदणिामत्त आजी वाणवांग य तगिछ । कोही माग्यो मायी लोही व हवंति दश हे ॥ पूठबं पच्छासंथुइ विजामते य चुण्णज्ञोग य ॥ उपायणा य दोसो मोलसिमो मूलकम्मो व ॥ गफिदमरिखदक्खित्तपिहित संबवारणदायगुम्मिम्स ।। अपरिणदलितछोडिद एसपादोसा दु दस एदे ॥ तत्र वृक्षकछेदष्टकापाककईमकरणादिव्यापारण पण्णां जीवनिकायानां बाधां कृत्वा स्वनोत्पादिता अन्येन वा कारिता फ्रियमाया वानुमोदिता बसतिराधाकर्मशब्देनोच्यते ॥ १ यावन्तो दीनानाथकृपणा आगच्छन्ति लिंगिनो वा तेषागियमित्युद्दिश्य कृता, पापंडिनामेवेति वा श्रवणानामेव नियथानामेति सा वमतिमहशिका ॥१॥ २ आत्मार्थ गृहं कुर्वता अपवरक संग्रतानां भवत्विति कृतं अयोबज्यमित्युच्यते ।। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ४५६ ३ आत्मनो गृहार्थमानीतैः काष्ठादिभिः सह प्रमणार्थमानीतेनाल्पेन मिश्रता यत्र गृहे उत्पृतिक । ४ पापंडिना गृहस्थानां वा सम्बन्धित्वेन क्रियमाणे गुहे पश्चात्सयतानुद्दिश्य काष्ठादिमिश्रणेन निष्पादितं वेश्म मिश्र । ५ स्वार्थमेव कृत संयतार्थमिद इति स्थापितं ठविद। ६ यक्षनागमान्याकुलदेवताद्यर्थं कृतं गृहं तेभ्यश्च यथास्वं दत्तं, तहत्तावशिष्टं यतिभ्यो दीयमानं बलिरित्युच्यते । ७ संयता इयद्भिर्दिनैरागमिष्यन्ति, तत्प्रवेशदिने गृहसंस्कार सकलं करिष्याम इनि चेतसि कृत्वा यत्मस्कारितं वेश्म तत्वावधिदं । समारोथेन गृहसरकारकालापहास कृत्वा या संस्कारिता वसतिः ।। ८ यद्गृहं अंधकारबहुलं स्त्र प्रकाशसंपादनाय यवीनां छिद्रीकृतकुच्चमपाकृतफलकं विन्यस्तप्रदीपक वा नयादुष्कारप । ९ गवादिना वा मन्वितेन, गुडदिना वा अवितेत येण, विद्यमित्रादिवानन पा भाषन कीतं कीदगिन्युच्यने । अल्पमणं कृत्वा मवृद्धिकमबुद्धिकं वा संयनार्थ गहीनं पामिना । ११ गहे निउनु भवान् गृह यनिभ्यः प्रयच्छेति गृहीत परिय: ।। १२ । फुटीकटकादिक स्वार्थनिप्पन्नमेव संवताधमानानं तदभिहडं । तच्च दूरदेशा दानीतमाचरितं इत्तरदनाचरितम् । १३ इष्टकाभिर्मतिपदेन कृत्या कपादेन वा स्थगितमपाकृत्य यहीयते तदुद्रिनम् । १४ निःश्रेण्यादिभिरारुप इत आगच्छत युष्माकर्मियं वसतिरिति या दीयते द्वितीया तृतीया वा भूमिः स भालारोहं । १५ राजामात्यादिभिर्भयमुपदर्य परकीयं यहीयते तदच्छिज । १६ गृहस्वामिना अनियुक्तेन या दीयते या च स्वामिगापि वा बालेन परवशेन सोभयपि वसतिर निसृष्टा एवमुद्गमदोषाः । पोडश ॥ १ अधोत्पादनदोषाः । द्वारकाणां स्नपनेनालंकरणेन, क्रीडनेन, भोजनेन, म्वास्न वा धात्रीवकर्मणा संयनेनोत्पादिता वसतिः धात्रीदोषदुष्पा ।। १॥ २ मामांतरादेलेशं संदेश वाश वा संपाद्योत्पादिता दूतकर्मदुष्टा । ३ अंगादिनिमित्तोपदेशाच्या निमित्तटुष्टः । ४ स्वस्य जाति कुलमैश्वर्यमभिधाय माहात्म्यप्रकाशनेनोत्पादिता आजीवदुष्टा । ५ भगवन्सर्वेपामाहारदानाद्वससिदानाद्बा किं पुण्यं जायेत उत नेति पृष्टो यदि न जाचत इति श्रवीमि तदेष गृही रुष्टो वसतिं मे न प्रयच्छेदिति संप्रचार्य तदनुकूलकथनादुत्पादिता वणिषगदुष्टा । ६ वैवकर्मणा दुष्टा चिकित्सादृष्टा । ७ कोध, मान, मायो, लोमं था प्रयुज्योत्पादितां क्रोधादियतुष्टयदुष्टा ।। गच्छतामागच्छतां च यत्तीनां भवदीयमेव गृहमाश्रयः इन्वेषा वातो दूरादेवास्माभिः अतेति पूर्व स्तुत्वा या लब्धा सा पूर्वसंस्तवदुष्टा । बसनोत्तरकाले गान्पुनरपि वसतिं लप्स्ये इति यत्प्रशंसति सा पचासंस्तवदुष्टा । एवं पोशोत्पादना दोपाः ॥ एषणादोषा: शैकितादयो दश यथा-- १ किमिय योग्या वसतिन बेति Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना शंकिता । तदानीमेव सिक्का लिप्ता वा प्रक्षिता ॥ सचित्तवृथिव्यादेससानां वा उपरि पीठफळकादिकं स्थापयित्या अत्र शय्या कर्तव्येति या दीयते वसतिः सा निक्षिता ।। हरितकंटकसञ्चित्तगृत्तिकापिधान आकृष्य दीयमाना पिहिता । कामचेल कंटकावरणाशाकर्षणं कुर्वता पुरोयायिनोपदर्शिता वसतिः साहरणा ॥ मृतजातसंयुक्तेन, मसेन, नपुंसकेन, पिशाचगृद्दीन नग्नया वा दीयमाना यसतिः दायकदुष्टा। स्थावरैः पृथिव्यादिमिस्त्रसैश्च पिपीलिकामत्कुणादिभिः सहितोन्मिश्रा । अपरिणतादिदोषत्रयं बसतो न भवतीति न निरूप्यते । तलक्षणानि यथा तिलतंदुलउसणोदय चणोदयतुसोदयं अविद्धत्वं ।। अण्ण तहाविहं वा अपरिणदं णेच पेण्हेज्जो ।। गेश्यहरिदालेण व सेडी य मणोसिलामपितॄण ॥ सपबालोदणलवे ण व देयं करभायणे लितं ।। बहुपरिसाडणमुन्हिा आहारो परिगलन्त दिज्जतं ॥ @डिय मुंजण महवा छडिय दोसो हवे ओ ।। नयरोगापि रोज्याः । तद्वदधारादयोऽपि चत्वारः कल्प्याः । तल्लक्षणानि यया गृद्धया कारोऽनतो धूमो निंदयोष्णहिमादि च ।। मिथो विरुद्ध संयोज्य दोषः संयोजनाव्हयः ।। सव्यंजनाशनने द्वौ पाने कर्मशमुदरस्य । भृत्वाऽभूतस्तुरीयो मात्रा तदतिकमा प्रमाणमल: ।। एवं उदमादिदोरनु हतायां । नथा अकिरियाप समाजादिरहितायां | असंसना जीवोत्पत्तिरहि नानां । जिप्पा जुटियाए उपद्रवही जायां शम्यारहितायां वा । रोजा बसतो। अतो बहिर्वा यसती यतिविधिक्तशय्यासनस्थ इति शेपः ।। अर्थ-- जो वसतिका उद्गम दोष, उत्पादना दोष और एषणा दोषोंसे रहित है वह विविक्त वसतिका मुनिओंके लिये योग्य है ऐसा समझना चाहिये. अब यहां उद्गम दोषोंका वर्णन करते हैं-१ झाड तोडकर उसको लाना, ईटोंका समुदाय पकावना, जमीन खोदना, पाषाण, बालु, इत्यादिकोंसे खादा भरना, जमीन को कूटना, Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाखा मुलाराधना ४१८ कीचड करना, खंबे तयार करना, अग्निसे लोह तपाचना, करोंतसे लकही चीरना, पटासीसे छीलना, कुन्हाटीसे छेदन करना, इत्यादि क्रियाओंसे पदकायजीयाको बाधा देकर स्वयं वसतिका बनाई हो अथवा दूसरोंसे बनवाई हो । वह वसतिका अधःकर्म के दोपसे युक्त है. २ जिमने दीन, अनाथ अथवा कृषण आगे अपना मर्चधमक साधु आचेंगे किंचा जैन धर्मसे भिन्न एसे साधु अथरा निग्रंथमुनि आवेंग उन सबजनोंको यह वसति होगी इम उद्देशसे जो वसतिका बांधी जाती है वह उद्देशिक दोपसे दुष्ट है.' ३ जब गृहस्थ अपने लिये घर बंधवाता है तब यह कोठरी मयतोंके लिये होगी ऐसा मनमें विचार कर जो बंधवाई गई वह वसतिका अम्भोन्भव दोषसे दुष्ट है. । अपने घरकं लिय लाये गये बहुत काष्टादिकोंसे श्रमणोंक लिय लाये हुबे काष्टादिक मिश्रण कर बनवाई गई जो बमतिका वह पूतिक दोपसे दुष्ट है, ५ पास्त्रडि साधु अथवा गृहस्थोंके लिये पर बांधनेका कार्य शुरु हुआ था सदनंतर संयतोंके उद्देशसे काष्ठादिकोंका मिश्रण कर बनवाई जो वसतिका यह मिश्र दोषसे दृपित समझना चाहिये. ६ गृहस्थने अपने लिये ही प्रथम बनवाया था परंतु नंतर यह गृह संयतोंके लिये हो ऐसा संकल्प जि. समें हुआ है वह गृह स्थापित दोषसे दुष्ट है. ७ संयत अर्थात् मुनि वे इतने दिनोंके अनंतर ओवग अतः जिस दिनमें उनका आगमन होगा उस दिनमें सब घर झाडकर, लीपकर स्वच्छ करेंगे ऐसा मनमें संकल्प कर प्रवेशदिनमें वसतिका संस्कृत करना वह पाइडिंग नामका दोष है. पाहुडिग दोषके प्रथम बलिनामक दोषका मूलाराधना दर्पणमें ऐसा लक्षण लिखा है-यक्ष, नाग, माता, कुलदेवता इनके लिये घर निर्माण करके उनको देकर अवशिष्ट रहा हुआ स्थान मुनिको देना यह बलि नामका ४४८ मुनि प्रवेशके अनुसार संस्कारके कालमें हास कर अर्थाच उनके पूर्वमें संस्कारित जो वसतिका वह पादुकृत दोपसे क्षित समझना चाहिये, Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48060639 आभास मूलाराधना - ५४९ - जिस घरमें विपुल अंधकार हो तो यहाँ प्रकाशके लिये मितीमें छेद करना, जहां काष्टका फलक होगा तो वह निकालना, उसमें दीपककी योजना करना यह पादुकार दोष है. द्रव्यत्रीत और भावक्रीत ऐसे खरेदी किये हुए घरके दो भेद हैं. गाय, बैल वगैरह सचित्त पदार्थ देकर संयतोंके लिये खरीदा हुआ जो घर उसको सचित्त व्यक्रीत कहते है. घृत, गुड, खांड ऐसे अचित्त पदार्थ देकर खरीदा हुआ जो घर उसको अचित्तक्रीत कहते हैं. विद्या, मंत्रादि देकर खरीदे हुए घरको भावक्रीत कहते हैं. अल्पऋण करके और उसका सूद देकर अथवा न देकर संयनोंक लिय जो मकान लिया जाता है वह पामिछ दोपसे दृषित है. मेरे घर में आप ठहरो और आपका घर मुनिआनो रहने कलिये दो ऐसा कहकर उनस लिया जो घर वह परियट्ट दोपसे पित समझना चाहिये, अपने घरको भीतके लिये जो स्तंभादिक सामग्री तयार की थी वह संगतोंके लिये लाना वह अभिघट नामका दोप है. इस दोपके आचरित और अनाचरित ऐसे दो भेद हैं. जो सामग्री दूर देशसे अथवा अन्यनामस लायी होय तो उमको अनाचरिम कहते हैं और जो ऐसी नहीं होय तो वह आमन्ति समझना चाहिये. ईट, मट्टीके पिंड, कांटोंकी बाडी अथवा कवाट, पाषाणोंग डका हुआ जो धर खुला करके मुनिओंको रहे नके लिये देना वह उद्भिन्न दोष है. नसैनी बगरहसे पढ़कर आप यहां आइये आपके लिये यह वसतिका दी जाती है एसा कहकर संयतोंको दुसरा अथवा तीसरा मंजिला रहनेके लिये देना यह मालागेड नामका दोप है. राजा अथवा प्रधान इत्यादिकोंसे भय दिखाकर दूसरका गृहादिक यतिओंको रहनेके लिये देना वह अच्छेज्ज नामका दोष है. आनमृष्ट दोषके दो भेद हैं. जो दानकार्य में नियुक्त नहीं हुआ है ऐसे स्वामीसे जो वसतिका दी जाती है वह अनिसृष्ट दोषसे दृषित है. और जो वसतिका बालक और परवश ऐसे स्वामीसे दी जाती है वह भी उपयुक्त दोषप्ति समझनी चाहिए इस तरहसे उद्गमदोष निरूपण किए, ४४० Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आप SHA ४५० RAMABESTHA उत्पादन दोषका निरूपण जगतमें धाबीके पांच प्रकार हैं. कोई धात्री बालकको स्नान कराती है, कोई उसको आभूषण पहनाती है, कोई उसका मन क्रीडा से प्रसन्न रखती है. कोई उसको अन्न पानसे पुष्ट करती है, और कोई उसको सुलाची है. ऐसे धात्रीके पांच कार्योमेसे किसी भी कार्यका गृहस्थको उपदेश देकर उससे यति अपने को रहनकलिए बसतिका प्राप्त करते हैं अतः वह वसतिका धात्रीदोपसे दुष्ट है. अन्यग्राम, अन्यनगर, देश और अन्य देशके संबन्धी जनोंकी वार्ता श्रावकको निवेदन कर बसतिका प्राप्त करना यह दूतकम नामका दोष है. अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न, भौम, स्वप्न, और अन्तरिक्ष ऐसे निमित्तशास्रक आठ विषय हैं. इनका उपदेश कर श्रावकस बमतिकाकी माप्ति करना यह निमित्त नामका दोष है, अपनी जाति, कुल एश्वर्य बगैरह का वर्णन कर अपना माहात्म्य श्रावकको निवेदन कर वसतिकाकी प्राप्ति कर लना यह आजीवनामक दोप है. हे भगवन् सर्व लोगोंको आहार दान देनेसे और वसतिकाके दानसे क्या महान्पुण्यकी माप्ति न होगी ? एसा श्रावक का प्रश्न सुनकर यदि मैं पुण्यप्राप्ति नहीं होती है एसा कतो श्रावक रुष्ट होकर वसतिका नहीं देगा सा मनमें विचार कर उसके गुरुनाचन मोसार बसिसी किराग दोप है. आठ प्रकारकी चिकित्सा करके वसतिकाकी प्राप्ति करना यह चिकित्सा नामक दोप है. क्रोध, मान, भाया और लोभ दिखाकर जो वसतिकाकी प्राप्ति कर लेना वह क्रोधादि चतुष्टय दोष है. जाने वाले और आनेवाले मनिऑको आपका घर ही आश्रय स्थान है. यह वृत्तान्त हमने दूर देशमें भी सुना है ऐसी प्रथम स्तुति करके बसतिकाको प्राप्त करना यह पूर्वस्तुति नामका दोष है. निवास कर जानेके समय पुनः भी कभी रहने के लिए स्थान मिल इस हेतुसे स्तुति करना यह पश्चात्स्तुति नामका दोष है. विद्या, मंत्र अथवा चूर्ण प्रयोगसे गृहस्थको अपने वश कर वसतिकाकी प्राप्ति करलेना यह विद्यादि दोप है. भिन्न कन्या अर्थात भित्र जातीकी कन्याके साथ संबंध मिला देकर वसतिकाका प्राप्त करना अथया विरक्तोंको अनुरक्त करनेका उपाय कर उनसे वसतिका प्राप्त कर लेना यह मुलकर्म नामका दोष है. इस प्रकार उत्पादन नामक दोषके सोला भेद कहे हैं. n an RIPAa TAGRAT Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलारायना ૨ अब एषणा दोषके दश मंद दिखाते है--- यह वसतिका योग्य है अथवा नहीं है ऐसी जिस वसतिका विषयमें शंका उत्पन्न होगी वह शंकित दोपषित समझनी चाहिये. जो वसतिका तत्काल ही सींची गई है अथवा जिसकी तत्काल दो लीपा पोती की गई है. अथवा छिद्रसे निकलनेवाले जलप्रवाह से किंवा पानीका पात्र लुढकाकर जिसकी लीपापोती की गई है वह प्रक्षिता वसतिका समझनी चाहिये. सुचित जमीन के ऊपर, अथवा पानी, हरित वनस्पति, बीज वा त्रसजीव इन के ऊपर पीठ फलक वगैरे रखकर यहां आप शय्या करे ऐसा कहकर जो वसतिका दी जाती है वह निक्षिप्तदोष से युक्त है. इरिताय स्वति काटे, सविध कृत्तिका, वगैरेका अच्छादन हटाकर जो वसतिका दी जाती है वह पिहित दोषसे युक्त है. लकडी, चख, कांटे इनका आकर्षण करता हुआ अर्थात् इनको घसीटता हुआ आगे जानेवाला जो पुरुष उससे दिखाई गई जो वसतिका वह साधारण दोपसे युक्त होती हैं. जिसको मरणाशीच अथवा जननाशौच है, जो मत्त, रोगी, नपुंसक, पिशाचग्रस्त्र और नम है ऐसे दोष युक्त गृहस्थके द्वारा यदि वसतिका दी गई हो तो वह दायक दोषसे दूषित है. पृथिवीजल वगैरह स्थावर जीवोंसे और चींटी, मत्कुण वगैरह स जीवोंसे जो युक्त है वह वसतिका उन्मिश्र दोषसहित समझना चाहिये. मुनिओने जितंन विलस्त प्रमाण भूमि ग्रहण करना चाहिये उससे भी अधिक प्रमाण की भूमीका ग्रहण करना यह प्रमाणातिरेक दोष है. ठंड हवा और कड़ी धूप वगैरह उपद्रव इस बसावेकामें है ऐसी निंदा करते हुए बरातिकामें रहना यह धूम दोष है. यह वसतिका वाहन है, विशाल है, अधिक उष्ण है और अच्छी है ऐसा समझकर उसके ऊपर राग भाव करना यह इंगाल नामका दोष है. इस तरह उद्गम उत्पादन और एपणादि दोषोंसे रहित वसतिका पुनिओके आ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागवना क आश्वासः लिए योग्य है. जो वसतिका अच्छी तरहसे देख भाल न करके लीयी पोती है वह योग्य नहीं है. जो वसतिका जीवोत्पत्ति से रहित है वह योग्य है. जिससे कोई उपद्रव नहीं है अथवा जिसमें शय्या नहीं है. ऐसी वसतिकामें अन्दर बाहर जो मुनि रहता है बह विविक्त शय्यासन तपका धारक समझना चाहिये. अथ का विविक्ता वसतिरित्यवाह सुण्णघरगिरिगुहारुक्खमूलआगंतुगारदेवकुले ॥ अकदप्पब्भारारामघरादीणि य विचित्ताई॥ २३१ ॥ शुन्यवेदमशिलायेश्नतरुमूलगुहादयः॥ विविक्ता भाषिताः शय्याः स्वाध्यायध्ययनवर्घिकाः ।। २३१ ।। विजयोदया- श नि राहत, सुरत, अ म. व शिक्षा कवचिदन प्राम्भा' शान्दिनोच्यने । आरामगृहं कीडार्धमायाताना आपासाय कृतं । पता विभितसतयः । विविवसतिभेदानाह मूलारा-आगन्तुगार सार्थवाहादिगई। अकदप्पम्भार अकृचप्रारभार अकृत्रिमशिलाहमित्यर्थः । आरामघर आरामगृदं क्रीडार्थमायाताना आवासाय कृतं । विवित्ताई एता विविक्ता वसतय इत्यर्थः । विविक्त बसतिकाका क्या स्वरूप है इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते हैं अर्थ-शून्यघर, पर्वतकी गुहा, पक्षका मुल, देवमंदिर, व्यापारार्थ देश देशांतरों में फिरनेवाले व्यापारि रियोंको निवास करने के लिये बनाये हुये घर, शिक्षागृह, शिलाओंसे स्वयं बना हुआ घर, अकृत्रिम ग्रह, क्रीडा करने के लिये आनेवाले जनों के लिये बनाये हुए घर ये सब विधिक्तरससिकायें है. अत्र घसन दोगाभायमाच.. कलहो बोलो झंझा बामोहो संकरो ममात्तिं च ॥ ज्झाणाज्झयणविघादो णस्थि बिवित्ताए वसीए ॥ २३२ ॥ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना माश्वास: अयोग्यजनसंसर्गराटोकलकलादयः॥ आविविक्तास्थितेः संति समाधानानादेनः ।। २३२॥ प्रारभाराकृत्रिमारामदेवतादिगृहादिषु॥ जायते वसतः साधोः समाधानमखंडितम् ॥ २३३ ।। विजयोदया-फलहो बोलो ममेये वसतिस्तवेयं बलतिरिति कलहो न केनवित् अन्यजनरहितत्वात् । वोलो शब्दबहुलता । झंझा संक्लेशो। वामोहो बैंचियं । संकरो अयोग्यरसंयतः सह मिश्रणे । ममत्यं च ममेदभावश्च । स्थि नास्ति । जाणज्नयषिधादो ध्यानस्याध्ययनम्य च व्याघातः । उक्तः फलहादिन विद्यते ।क? विविज्ञाप वसधीए चिवि. तायां बसती । एकस्मिन्प्रमेये निरुद्धमानसंततिर्यानं । अनेकप्रमेयसंचारी स्वाध्यायः। विविक्तबसनौ बसतां दोपाभावमाह मूलारा--कलहो ममेयं वसतिसषेयमिति कलिः । रोला रोल: शब्दबटुलतेत्यर्थः । संसा संकेश झकटक इत्येके । वामोहो चित्त्यं । संकरो असंयतैः सह मिश्रण । अर्थ यह मेरी बसतिका है, यह तेरी वसतिका है एमा कलह करने का प्रसंग विविक्त वमतिकामें रहने चाले मुनि के उपर आता नहीं है. एकांत वसतिका मनको व्यग्र करनेवाले शब्द गुजनमें आते नहीं हैं, मंग परिणाम आर मनकी व्यग्रताभी वहां होती नही है. अयोग्य असंयत पुरुपाक साथ संबंध नहीं रहता है. विविक्त वसतिकाकं ऊपर ममत्व रहता नहीं है. ध्यान और अध्ययन में व्यत्यय आता नहीं. ध्यान और अध्ययन में यह फरक है.- एकही विषयमें ज्ञानकी परंपरा स्थिर होना वह ध्यान है और अनेक विषयों में संचार करनेवाली ज्ञानपरंपराको स्वाध्याय कहते हैं, ४५३ इय सल्लीणमुत्रगदो सुहप्पवत्तेहिं तित्थजोएहि ॥ पंचसमिदो तिगुत्तो आदछपरायणो होदि ।। २३३ ॥ एवमैकाग्यमापन्नो ध्यानः शुद्धप्रवृत्तिभिः ।। समितः पंचभिर्गतस्त्रिभिरस्ति हितोद्यतः॥ २३४ ॥ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाधि से आश्वास विजयोदया-इय एवं । सहीण एकात्मतां उचगदो उपगतः । केन ? जोगेहि योगैः तपोभिनिर्वा । सुहप्पवसहि मुखप्रवृत्तः सुखनाशेन प्रवृत्तः । पंचलमिदो समितिपंचकोपेनः । विगुत्तो कूताशुभमनोबाकाचनिगेधः । आद गररायणो होदि धाश्मप्रयोजनपरो भवति । गतेन कश्यते--निवितावसतिस्थायी यतिनिष्प्रतिवध्यानः शुभैस्तपोभिदा स्वास्थ्यमुपगतः नवरं निर्जन स्वप्रयोजनं संपादयति इति । विविनयमति स्थायी पारादिना पातम्यासन्यः यानिर्जी. करोनीनियनि--- मूलारा-श्य it anायित्वलक्षमता प्रकारेण । लीण गामना । सुणस्तहि अक्लेशन प्रवृत्तः । तस्थ बाह्य तपसि । सलीनमुपगत इति योज्यम् । जोगेहिं मनोवाधााना । तिगुत्तो कृताशुभमनोवाकायनिरोधः । आदट्टपरायणो आत्मप्रयोजनपरः मंचरनिर्जरानिष्टः इत्यर्थः ।। अर्थ- इस प्रकार एकांत वसतिकामें निवास कर वह माधु क्लेशक चिना मुखसे तप और ध्यान कर आत्मस्वरूपमें लीन होता है. योगमिति वगैरह पांच समितिओंका पालन करना है. मन वचन और शरिकी अशुभ प्रवृत्तियां रोक कर आत्मप्रयोजनमें तत्पर होता है. अभिप्राय यह है कि, एकांत सातकामें रहनेसे मुनिआके ध्यानमें और स्वाध्यायमें विघ्न उपस्थित होते नहीं है. तथा रागद्वेषादिक संक्लशपरिणामाकी उत्पत्ति होती नहीं. तपसे मुनि निजस्वरूपमें स्थिर होकर संबर और निर्जरारूपमें आत्माके प्रयोजनको पूर्ण रूपसे प्राप्त कर सकते हैं. अतः विविक्तशय्यासन तप करना मुनिओंका परम कर्तव्य है. .. . संवरपूर्विका निर्जरा स्तोतुमाह जो णिज्जरेदि कम्मं असंवुडो सुमहदावि कालेण ॥ ते संक्डो तवस्सी खवेदि अंतोमुहत्तेण ॥ २३४ ॥ तमिर्जरयते कर्म संधृतोऽन्तर्मुहर्ततः ।। षष्ठाष्ठमादिभिः साधुस्तपसा पदसंघृतः ।। २३५ ।। विजयोदया-जं णिजरेदि कम्म यत्कर्म निर्जरयन्ति तपसा चाहोन । कः ? असंवुडो असंवृतः अशुभयोगनिरो. धरहितः । सुमहदावि कालेण सुष्टु माहता कालेनापि । तं तत्कर्म सवेदि क्षपयति । अंतोमुटुत्तेण अतिस्वल्पेन कालेन । कः ? सबुतो संवृतः गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयपरिणतः । तवस्सी तपस्वी अनशनादिमान् । Forse Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना २१५ संवरपुरःसरी निर्जरा गाथाद्वयन स्तोतुमाह-- मूलारा-असंबुद्धो असंवृत्तो अशुभयोगनिरोधरहित इत्यर्थः । संवुडो गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीपहजयपरिणतः | तबस्सी अनशनादितपोनिष्टः । संवरपूर्चक निर्जराकी ग्रंथकार स्तुति करते हैं अर्थ-अशुभ मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको न रोक कर बायतपके द्वारा बहुतकालस जो मुनि जितन कर्मकी निर्जरा करता है, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षादिकामे तत्पर रहनेवाला माधु उतना कर्म अनशनादि तपाँके र अंगी बामुहि समिति इत्यादिकोंसे संघरपूर्वक विपुल कर्मकी निर्जरा होती है और केवल बाह्य तप गुप्ति समित्यादिकों के आबयसे रहित होकर बहुनकालसे भी उतनी निर्जरा नहीं कर सकता है. FOR एवमवलायमाणो भावमाणो तवेण एदेण || दोसे णिग्याडतो पग्गहिददरं परकमदि ॥ २३५ ॥ एवं भावयमानः संस्तपसा स्थिरमानसः ।। अप्रास्तं परीणाम नाशयंश्चष्टते नराम् ।। २३६ ।। विजयोदया-- एवमुक्तेन । कमेण एतग । नवण भावमाणो नपमा भाषयमात्मानमुद्यप्तः । अवलायमाणो अपलायमानः । कुतो दुर्धरात्तपसः । एवमवलोयमाणो इति चिन्पायः तपारमा -किल एवमेदण नयेण भावेमाणी इति पदसरंधः। परमेतेन तपसा भावयमानः अपलोयमाणो इब्यकर्म विनाशयन् इति तदयुक्तं । प्रायदार्थत्वात् । दोसे दृप्रयंति रत्नत्रयमिति दोषाः अशुभपरिणामाः तान घातयन् । पम्गहिददरं नितरां । परकमदि चेष्टते मुक्तिमागें। मूलारा-अवलायमाणो अपलायमानः दुर्धरात्तपसोऽयिभ्यदित्यर्थः । भावेमाणो भावयमानः । तयण देण दोसे णिग्यादेतो अशुभपरिणामान विनाशयन् । परगहिददरं नितरां परकमदि मोक्षमार्गे चेष्टते । अर्थ-इस रीतीस तपश्चरणसे आत्माको संस्कृत करनेवाला और दुधर तपसे जो भययुक्त नहीं हुआ है. ऐमा मुनि रत्नत्रयको दूषित करनेवाले अशुभपरिणामोंको नष्ट करता हुआ मोक्षमार्गमें महाप्रयत्नसे प्रवृत्त होता है. Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्राराधन ४५६ यतिना निर्जरार्थिना एवंभूतं तपोनुमेयं इति कथयति । सो नाम बाहिरतवो जेण मणो दुक्कडं ण उट्ठेदि ॥ जेन च राष्ढा जाय जेय जोगा ण हायति ॥ २३६ ॥ तत्तपोभिमतं याचं मनो येन न दुष्यति ॥ योगा येन न दीयते येन श्रद्धा प्रवर्तते ॥ २३७ ॥ विजयोदया सो णाम चाहियो तनाव वा नपः । किं ? जेण मणो उनि तपसा विवा मनोप्रति नोत्तिष्ठते । जेण य सहा जायदि येन किमान तपसा तपस्य ध्यंतरे श्रद्धा जायते । ण य जोगर प हाति येन च क्रियमाणेन पूर्वगृहीता योगा न हीयेते । तत्तथाभूतं तपोऽयमिति यावत् । यदिना निर्जरार्थिना एवं भूतं तपोऽनुप्रेयमिति कथयति मूलरा दुकाडंग उद्भेदि दुष्कृतं प्रति नोट सट्टा श्रद्धा तपस्याभ्यंतरे रुचिः | जोगा पूर्वगृहीवाशेषाः । निर्जराकी इच्छा रखनेवाले मुनिवर्यको जो तप करना योग्य है उसका वर्णन करते हैं अर्थ -- जिस तपके आचरणले मन दुष्कर्म के प्रति प्रवृत्त नहीं होता है तथा जिसके आचरण अभ्यंतर प्रायवित्तादि तपोमें श्रद्धा होती है. जिसके आचरण से पूर्वके धारण किये हुए व्रतविशेषोंका नाश नहीं होता है उसी तपका अनुष्ठान करना योग्य है. चाहिस्तवेण होदि हु सव्वा सुहसीलदा परिचत्ता ॥ सलिहिदं च सरीरं विदो अप्पा य संवेगे ॥ २३७ ॥ थालेन तपसा सर्वा निरस्ताः सुखवासनाः ॥ सम्यकूननूकृतो देहः स्वः संवेगऽधिरोपितः ॥ २३८ ॥ furererrysनुष्टाने गुणं कथयन्युत्तरेः सूत्रेः । वाहिरवे घालेन तपसा हेतुभूतेन । सव्वा गुह सीलदा परिचत्ता होदि मर्या सुखशीलता परित्यक्ता भवति । सुखभावना रागं जनयति । रागः स्वयं च कर्मधहो चानयति । श्रधः कर्मस्थितिहेतुः सत्रमश्रचिरस्ता भवति इति मन्यते । सलिदिदं च शरीरं भवति । शरीरं दुःखनिमित्तं 10000 भवड ४५६ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना 240 तत्त्वषतुकामस्य तनूकरणमुपायः तदनुष्ठितं भवतीति यावत् । विदो स्थापितः । आदा व स्वयं न संयेगे संसारभीगतायां । ननु संसारभीरुता हेतुस्तपसो न तपो हेतुस्तस्याः ततोऽयुक्तमभाणि सूत्रकारण चालेन तपसा संवेगे स्थापितः । लोके नायं संविप्रचित इति स्थाप्यते चाही तपसि वर्तमानस्ततो युक्तमुरूयते । तपोऽनुष्ठानगुणान् वाहिरत बेणेत्यादि जसं भत्रेणेत्यवसानं गाथाष्टके नाचष्टे - मूलारा - सुहसीलदा सुखभावना । सा हि रागं जनयति राग कोकेनाथ बिचित्त इति स्वाप्यते यतस्तत एवमुक्कं । न पुनबाधि तपः संसारभीरुताया हेतुः किं तर्हि सा बाह्यतपसः । अर्थ -- बाह्य तपसे संपूर्ण सुखस्वभावका त्याग होता है. अर्थात् बाह्य तप करनेसे आलस्य और सुख प्रियता नट होती है. हमेशा सुखकी भावना करने से मनमें रागभाव उत्पन्न होता है. रागभाव कर्मबंधके कारणभूत दोषोंको उत्पन्न करता है. बंध कर्मस्थितिका कारण है अतः बाथ तपसे सुखशीलताका ही नाश होता है, वाय नप शरीरलेखना होती है, शरीर दुःखका कारण है उसका त्याग करनेकी इच्छा करनेवालेको तप शरीर कृश करने में उपाय है. अर्थात् ब्राह्म तप करनेसे शरीरसल्लेखनाके उपाय की प्राप्ति होती है, बाह्य तपसे आत्मा संसारभीरुता नामक गुणमें स्थिर होता है. शंका- संसारभीरुना तपके लिए कारण है. ऐसा समझना योग्य नहीं है इसलिये माझ तपसे मुनिराज संवेगगुण में स्थिर किया जाता है. यह सूत्रकारका वचन अयोग्य है. उत्तर बाह्य तपश्चरण में तत्परता देखकर इस मुनिका चित्त संसारभयसे युक्त है ऐसा लोक समझते हैं, अतः संसारभीरुता का रण है और तप कार्य हैं. कार्यको देखकर कारणरूप को लोक जानते है. इस नियमका विचार करनेपर सूत्रका - रने संसारभय तपका कारण है ऐसा जो कहा है वह योग्य है ऐसा सिद्ध होता है. दंताणि इंदियाणि य समाधिजोगा य फासिदा होति ॥ अणिहिदवीरियओ जीवितहा य वोच्छिण्णा ॥ २३८ ॥ सतीन्द्रियाणि दान्तानि स्पृष्टा योगसमाधयः ॥ जीविताशा परिच्छिन्ना बलवीर्यमगोपितम् ॥ २३९ ।। | अश्वासः ३ ४५७ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलारापना आश्वासः ५५८ विजयोदया-दंताणि दांतानि इंद्रियाणि च । होति भवन्ति । अनशनाघमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानेन जिला दांता मयति इति । विविक्तशय्यासनेन इतराणि द्विपाण दांतानि भवति । मनोद्रियविषयरहितायां वसतावस्थानात्तानि निगृहीतानि भवन्ति । समाथिजोगा य फासिदा हॉति । रत्नत्रयसमाधानसंबंधाः स्पृश भवन्ति । भशनादिकं स्यजता विषयरागो निरस्तो भवति । विषयरागध्याकुलो हि रत्नत्रये न घटते। असति तस्मिन्व्याकुलोऽशुभपरिणामैकमुखोभवति इति मन्यते । अणिमूहिदधीरियदा भनिगूढवीर्यता च भवति । वीर्याचारे प्रवृत्तश्च भवति । जीविदतण्डा य या जीविते तृष्णा च म्युरिछातिं गता। न बिजीचिताशावान् यशनादिकं त्वषतुमीदते। जीविते सृष्णावान्यत्किचिस्कृत्वा असंयमादिकं प्राणानेव धारयितुमुचतो भवति न रखत्रये। मूलारा-वंताणि अनशनादिचतुष्टयेन हि प्राधान्येन जिला दांता भवति । विविक्तशय्यासमेन चेतराणि इंद्रियाणि याम्यति । मनोझेंद्रियविषयाणां तद्रागकोपिनां विविधवसतो असंभवात् । समाधिजोगा रलत्रयकामतासंबंधाः । फासिदा अनुष्ठिताः । अशनादित्यजनाद्विपयरागनिरोधेन भरिणामैकमुखलोपण्ने ! अणिगहिदवीडियदा । अनिगूहितवीर्यता वीर्याचारप्रवृत्तिश्च स्यादित्यर्थः । बोरिडाणा निरस्ता लक्ष्यते । न हि जीविताशावानशनादिकं त्यक्तुमीहते, किं तहि यत्किचित्कृत्वा प्राणानेव धतुं उत्सहते न रत्नत्रयम् । अर्थ-अनशन, अवमोदर्य और वृचिपरिसंख्या इन तीन तपोंके द्वारा जिव्हाका दमन होता है. विवि तशय्यासन तपके द्वारा पर्शनादि इंद्रियोंका दमन होता हैं. इंद्रियोंको प्रिय ऐसे विषयोंका अभाव जिसमें है ऐसी बसतिकामें निवास करनेसे स्पर्शनादिक इंद्रियो वश होती है. इन बाम तपश्चरणोंसे रत्नत्रयमें एकाग्रता प्राप्त होती है, आहारादिकका त्याग होनेसे विषयमेम नष्ट होता है, विषयों के प्रेमसे व्याकुल हुआ मनुष्य रत्नत्रयमें स्थिर होता नहीं है. रत्नत्रयका अभाव होनेपर बह व्याकुल पुरुष अशुभ परिणामाम ही लीन होता है. ऐसा समझना चाहिये. बाह्यतपसे मुनिराजको अपनी आरिमक शक्ति प्राप्ति होती है. अर्थात् चाश तप कर मुनिराज धीर्याचारमें प्रवृत्त होते हैं. बाह्यतपके प्रभावसे मुनिराजकी जीवितकी आशा नष्ट होती है. जिसका जीवितके ऊपर स्नेह है यह आहारादिकोंका त्याग करना पसद नहीं करता है. जीवितार्थी मनुष्य चाहे जो असंयमादिक करके प्राण धारण करनेके लिये उद्युक्त होता है, परंतु रत्नत्रयमें प्रवृत्त नहीं होता है, ४५८ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधार TATATANE दुक्खं च भाविदं होदि अप्पडिबद्धो य देहरससुक्खे । मुसमूरिया कसाया बिसएसु अणायरो होदि ॥ २३९ ॥ रसदेहसुबानास्था जायते दुःखभावना ।। प्रमईनं कषायाणामिंद्रियार्थेष्यनादरः ॥ २४ ॥ विजयोदया-दुःखं च भाषियं छोर पु च भाषितं भवति । दुभावना च कथमुपयोगिनी असंक्लेशेन दुससहने कर्मनिर्जरा जायते । क्रमेण च जायमाना निर्जरा निरवशेषस्य कर्मापायस्योपाय इत्येवमुपयोगिनी इति मन्यते। अपि चासकहावितःस्रो निश्चलो भवति इति । ध्याने सम्पडिबद्धो यहोर अप्रतिबद्धध भवति । देहरससोक्ने शरीररस सौख्ये । पतेषु त्रिषु प्रतिबद्धता समाधेर्थिनः स निरस्तो भवतीति भाषः । मुसुमूरिदा कसाया उम्मृदिताः कषायाः भवन्ति । कथं अनशनादिना कषायनिग्रहः कतो भवसि ? क्षमामार्दवार्जवसंतोषमाधनादिप्रतिपक्षभूता घिनाशयन्ति कषायाग्नेसियालयस् अयमभिप्रायः - शमायलाभ, स्वल्पलाम, मयोभनानां वा लामे फ्रोधकपाय उत्पद्यते। तथा प्रचुरलाभाद्रसद्भिक्षालाभाध लब्धिमानहमेवेति मानकषायः। अस्मदीय भिक्षागृहं यथान्ये न जानति तथा प्रविशामीति चिता मायाकषायः। अशने रसे प्राचुर्यविशिष्ट वासक्तिलाभकषायः । तथा बसत्यप्रवाने कोपः, तल्लामे च मानकषायः साम्पत् । अन्येऽप्यागरछंतीति न मम बसतेरस्त्यवकाशश्वाति वचनान्मायाफपायः। अहमस्य स्वामीति लोभः । इत्थं कपायनिमितवस्तुत्यागास कषायाणामषसरः इति । विसामु चिपयेषु स्पर्शनादिषु । अणावरो होइ अनादरो भवति औदासीन्य जायते । तदीदासीन्यात् तदादरनिमित्तं कर्मसंवरो भवतीति भावः । अशनस्य हिशुक्काविरूपेषु मृदुस्पर्श, सौगंधे, रसे या दरस्त्यक्तो भवति अशनं त्यजता ! तथा क्षीरादिकमपि त्यजता क्षीरादिरूपेषु। मूलारा- अमक्लेशन हि दुःखसहने शुभकर्म संघरनिर्जरे स्याता, कमेण मुक्तिश्च भाक्तिदुःखस्य च ध्याने निश्चलता स्यात् इति मन्यसे । अपडिबंधो देहे रसे सौख्ये यानासक्ति: स्यात्ततश्च समाधिविनो न स्यात् । मुसुमूरिदा दलिताः । श्यक्रोधासादयनिमित्तस्य अशनादिवस्तुनस्त्यागाद्वायतपसा करवादिलक्षणभावक्रोधादयो निरुभ्यंते तीदगुन्यो । यन्तुतस्तु अभाभिावनारकोधादिनिग्रहः स्यान । अयमभिप्रायोऽत्र आशनादरलाभे म्वल्पम्याशोभनस्य वा लाभे कोश्च उत्पश्यने । तथा प्रचुरम्य विचित्ररसस्य वा लामालब्धिमानहमति नानो जायते । मदिक्षागृहं यथान्ये न जानन्ति तथा प्रविशामि इति चिंतया माया समुद्भबति । अशनादौ विशिष्टे आसक्तेलोभः संभवतीति । तथा वसते र प्रदाने कोषस्तहाभे प्राम्यन्मानोऽन्येप्यागच्छन्तीति न मे वसतिरस्त्यषकाशो वा नेति वचनान्माया। अहमस्याः स्वामीति STATERISTOTRATHISARTANTRIBES Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलाराधना ४६० भावनाोभः । इत्थं कपायोदयनिभित्तवस्तुत्यागान्न कमायाणा गवसर इति । अगादरी औदासीन्यं । वतश्च तदादरनिमित्त कर्माचनिरोधः स्यादिति भावः । अशनं हि त्यजता ततरपवादस्त्यक्तो भवति ।। अर्थ - तपका आचरण करनेसे दुःखभावनाका अभ्यास होता है. अर्थात् संक्लेश परिणामोंके बिना दुःख सहन करनेसे कमोंकी निर्जरा होती है. क्रमसे होनेवाली यह कर्मनिर्जरा सपूर्ण कर्मका नाशरूप जो मोक्ष उसका उपाय होती है. अतः दुःखभावना परंपरा मोक्षप्राप्तिका कारण होनेसे उपयोगी है ऐसा साधुगण समझें. दुःखभावनाका वारंवार चिन्तन होनेसे साधुका चित्त धर्मध्यान में निवल होता है. बात में निम हुवे मुनिकी देह, श्रीरादि पदार्थ और सुख इन तीनोंमें आसक्ति नहीं रहेगी. यह आसक्ति रत्नत्रय में विघ्न करनेवाली होती है. अनशनादिक बाप सर्व क्रोधादि कषायों का निग्रह करता है. शंका- तपमें कषायनिग्रह करनेका सामर्थ्य कैसा ? क्षमा, मार्दव, आर्जव और संतोष इन भावनासे काय निग्रह होता है क्योंकि ये कपायोंके प्रतिपक्षी हैं. चातप प्रतिपक्षी नहीं है ? इस शंकाका उत्तर " इसका अभिप्राय यह है कि, अन्नादि पदार्थ न मिलनेसे अथवा स्वल्प मिलनेसे, किंवा अप्रिय मिलनेसे, क्रोध काय उत्पन्न होता है. यदि अनादि पदार्थ यथेष्ट मिले और वे रसयुक्त भी हो तो मेरेको ही ऐसे अच्छे मिष्ट पदार्थ मिलते हैं इतरोंको नहीं मिलते हैं ऐसा विचार मन में आनेसे मानकवाय उत्पन्न होता है. मेरा भिक्षा लेनेका स्थान अन्य साधुओं को ज्ञात नहीं होगा इस रीतीसे मैं वहां प्रवेश करूं ऐसा विचार मन में उत्पन्न होना यह मायाकपाय है, विपुल अन्न और उसके इसमें आसक्ति होना लोभकषाय है. वसतिका विषयमें भी क्रोधादि चारों कषाय उत्पन्न होते हैं, जैसे श्राचकने वसतिका नहीं देनेपर कोय उत्पन्न होता है. उसके मिलनेपर मानकषाय उत्पन्न होता है, जब दुसरे साधु आवेगे तो यह अवकाश नहीं है ऐसा वचनप्रयोग करता है जिससे मायाकare प्रगट होता है. इस काका मैं मालिक हूं यह संकल्प उत्पन्न होना लोभकषाय है. इस प्रकार कषायको उत्पन्न करनेवाली चीजोंका त्याग करनेसे कपायोंको मनमें स्थान नहीं मिलता है. अतः बाह्यतपसं कायनिग्रह होता है ऐसा आचार्यने कहा हूं. बाह्य तपसे पंचेंद्रिय के विषयोंमें अनादर होता है. अर्थात् उनमें उदासीनता होती है. इस उदासीनता से तप में आदर उत्पन्न होकर कर्मोंका संवर होता है. आहारके पदार्थ शुक्लादिरूप धारक, मृदुस्पर्शयुक्त, सुगंध आश्वासः ३ ४६० Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना सहित च रसविशिष्ट हो तो भी उसमेंसे आहार त्याग करनेवालेका आदर नष्ट होता है. क्षीरादिकका जिसने त्याग किया है उस मुनीका क्षीरादिकमें आदरभाव नष्ट होता है. DIHERE कदजोगदादमणं आहारणिरासदा अगिही य॥ लाभालामे समदा तितिक्त्रण बंभचेरस्स ।। २४० ॥ आहारवर्वता दांतिः समस्तत्यागयोग्यता ।। गोपनं ब्रह्ममर्यस्थ लाभालाभसमानता || २४१॥ विजयोदया-कदजोगदा सर्चत्यागमय पश्चाङ्गाविनः । योगश्च कृतो भवति त्रासान तपसा । आदमणं या- त्मनो दमने आहारे सुख च योऽनुरागस्तस्य प्रशमनात् । आहारणिगसदा आहारे नैराशो संपादितं प्रतिदिन आहारगताशापरित्यागाभ्यासात् । सर्वकालेऽपि सुकरा भवत्याहारतिराशतेति भावः । अगिही य अगृद्धिश्च अलंपटता च 1 छ? आहारे । न याद्वारे दिमाभलन्ध्या तं ग्यजति । लाभालाभ समया लाभालामयोः समता । लाभे च सत्याहारस्प हाकरणात् । अलामे च नथाकोपान । यः स्वयमच लन्धमगि त्यति स कथमित परेपामदाने दुर्मनीभवति । नितिपत्रणं बंभरस्स ब्रहाचर्य च सो भवति । रसवदाहारत्यागादभिनव ऽसति शुक्रसंचय अनशने व सचितप्रलय सतिन स्त्रीष्वनुरागो भवति इति भावः । तथा गलिताकाणां पुंसां वैमुख्य अंगनासु प्रतीतमेव ॥ मूलारा-कदजोगवा कृता योग्या परिफर्म सर्वाहारत्यागस्य पश्चाद्धाविनोऽभ्यासो येनासौ कृतयोग्यस्तस्य भावः कृतयोग्यता । कृतकरणीयता बाधेन तपसा स्यात् । आददमणं आत्मनो दमनं आहारे सुखे बानुरागप्रशमनार्पखंडनं । आहारणिरासदा प्रतिदिन आहाराशानिरासाभ्यासारसर्वस्वागकालेऽपि ताडासमुच्छेदः सुकर: स्यादिति भावः । अगिद्धी अलांपामाहारे । न थाहारे गृद्धिमांसध्या ते त्यजति । समदा आहारस्य लाभे हर्षस्याकरणादलामे च रोवस्य । यो हि स्वयमेव लब्धमपि त्यजति स कथाभिव परेषामदाने दुर्भनीभवति । दाने वा दृष्यति । तितिक्षणं दृष्याहारत्यागेनाभिनवस्य रेवसोऽसंचयनात् । अनशनेन च संचितस्व संहरणात् । स्त्रीधनुरागानुद्भवात् प्रतीतमेव च गलितरेतसा पुंसो स्त्रीषु वैगुख्यम् । अर्थ-मरण कालमें जो संपूर्ण आहारोंका त्याग करना पडता है उसका अभ्यास वाद्य उपके आचरण से होता है. इन तपोंसे आत्मदमन नामका गुण प्राप्त होता है. अर्थात् आहारमें और सुख में जो प्रेम उत्पन्न होता Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आभासा है उसका तपसे प्रशमन होता है अतः आत्माका दर्प अर्थात् मद नामका दोष नष्ट होता है. इस तपसे आहारकी इच्छा का त्याग करनेका अभ्यास वृद्धिंगत होता है. इस लिए आहारनिरासता नामक गुण प्राप्त होता है. और सर्व कालमें यह गुण आत्मा अपने में धारण करने में समर्थ होता है. तपसे आहार की लंपटता नष्ट होती है. जो आहारमं लपट है वह व्यक्ति आहारकी प्राप्ति होने पर उसको छोडना नहीं चाहता है. तपसे लाभ और अलाभमें समता प्राप्त होती है. दपस्त्रीको आहार मिलनेपर हर्ष होता नहीं और न मिलने पर वह कुपित भी होता नहीं. जो तपस्वी प्राप्त हुआ आहार स्वयं छोड़ देता है वह यदि उसको कोई आहार न दे तो क्यों खिम होगा ! तपसे मुनि ब्रह्मचर्यको सहन करते हैं. रसयुक्त आहारका त्याग करनेसे नवीन वीर्यका संचय नहीं होता है. और पुराना शुक्रसंचय नष्ट होता है. तब स्लीपर अनुरागभाव नहीं होता है. जिनका शुक्र नष्ट होगया है ऐसे मनुप्य स्त्रीसे पराङ्मुख होते हैं यह वस्तुस्थिति प्रसिद्ध है. णिद्दाजओ य दृढझाणदा विमुत्ती य दप्पणिग्यादो ॥ सज्झायजोगणिविग्घदा य सुदुक्खसमदा य ॥ २४१ ॥ निद्रागृद्धिमदस्नेहलोभमोहपराजयः॥ ध्यानस्वाध्याययोद्धिः सुखदुःखसमानता ॥ २४२ ।। विजयोदया--णिहाजओ य निदाजयश्च । प्रतिदिनमश्नतः रसवदाहारसेवापरस्य बहुभोजिनब निषाले सुख. स्पर्श निरुपद्वे च देशे शयानस्य निद्रा मद्दती जायते, यया परवशो निश्चेतन इव भवस्याभपरिणामप्रवाहे च पतति, न च रत्नत्रयेण घटयति, तस्या जयो 1 वढझाणदा ध्यानता च दुःखोपनिपाताचलति ध्यानादभावितदुःखो यतिः । इत. तपोभावनस्सु क्षुदाविपरीपदोपनिपातेऽपि सहते। विमुत्ती य विमुक्तिर्विशिष्टत्यामः मनशनादावुधतेन शरीरमेव त्य भवति सदेव दुस्स्यजं । दपपणिग्वादो असंयमकरणो यो दर्पस्तस्य निर्धातच तो भवति । सज्झायजोगणिबिग्धदा ययाचनानुपेक्षाम्नायधर्मोपदेशैयोंगः संबंधो यस्तस्य विनामावश्च । माहारार्थ भ्रमतः कथं स्वाध्यायः कियते ? पहभोजनव उत्सानः स्वपिति मासितुमप्यसमर्थः । रसबदाहारभोजीमाहारोमणा दह्यमान इतस्ततः परावर्तते । अविविकाया वसती वर्तमानः परेषां बचः शृण्वस्तः सह संभाषणं कुर्वधाधीते । विविक्तवेशस्थायी पुनर्निव्याकुलः स्वाध्याये घटते । सुहदुःखसमदा य सुखेन इष्पति दुःखेन तुष्यति इति रागदपायंतरेण सुखदुःखाननुभवः सुखदुम्बासमता । अराने ReactADARASTARATAASANTASTARAMATARRARAS 21 *ABARBIRATRA Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SISTAN 'मलाराधना बाधासा रसांश्च सुखसाधनभूतांस्त्यजता सुखे रागस्त्यको भवति । सुवादिवेदनोपनिपाते यसंफ्लेषात् दुःखे म च देषोऽस्या स्तीति । बाहिरतंवण होदि हु इत्यनेन पंचसूत्रीनिर्दिष्टानां प्रत्येकं संबंधः॥ मूलारा-णिजओ प्रतिदिनमातो रसबदाहारसेवापरस्य बहुमोजिनश्च निवासे निरुपवे सुस्वस्पर्शतल्पे निद्रा महती जायते | यवशाग्निश्चतन इष भवति, अशुभपरिणामप्रवाहे र पतति । न च रत्नत्रयाय कल्पते । तस्या जयोऽनशनादिना क्रियते । दृढज्याणदा तपमा भावितदुःखो हि परीपहनिपातेऽपि न ध्यानादू भ्रश्यति । विशिष्टा मुक्तिरनशनादावुद्यतन दुस्त्यजस्यापि वेदस्य त्यजनात् । दप्पणिग्धादो असंयमकरणे यो दर्पस्तस्य विनाशो । सज्झाय जोगणिविग्वदा । पाच मिनधविनाभारः बारा भो नयोजनासानापि शक्त्युपघातेन, रसबदाहारभोजनजन्यविदाहशादितस्ततः परावर्तनेन, जनसंकुले तच:प्रवणतत्संभाषणकरणाभ्यां च स्वाध्यायभंगसंभषात् । सुइदुःखसममा सुखसाधनाशनरसादिन्यजनात्सुखे रागानुदयात् क्षुदादिवेदनोदयेऽपि असलिशाहुःख च द्वेषानुयात् । अर्थ-याध तपसे अनि निद्राको जीत लेते हैं. जो प्रतिदिन भोजन करता है, रसयुक्त आहारका सेवन करने में तत्पर रहता है और बहुत भोजन करता है, जिसको वातरहित, मृदुस्पर्श युक्त, और निरुपद्रव ऐसे स्थानमें सोनेकी फिकिर होती है, ऐसा स्थान मिलनेपर दीर्घ कालतक खुरटे लेता है. प्रेतके समान निश्चल सो जाता है. अशुभ परिणाम भी उसके मनमें हुआ करते है और वह रत्नत्रयमें प्रवृत्त होता नहीं इस तपस ये सर्व दोष नए होकर निद्राजय नामका गुण प्राप्त होता है.. चपसे ध्यानमें दृढता आती है. दुःख सहन करनेका अभ्यास होनेसे मुनि दुःखोंके प्रसंग आने पर भी ध्यानसे भ्रष्ट नहीं होते हैं. इमेशा तपका अभ्यास करनेसे वह सामर्थ्य मुनिमें आजाता है जिसस वे भूख, सुपा बगैरह परीषद माप्त होने पर भी दुःखोंकी परवाह नहीं करते हैं. तप करनेसे मुनिओंको विमुक्ति अर्थात् विशिष्ट त्याग नामका गुण मास होता है. अनशनादिक तपश्चरणमें तत्पर मुनिओंसे शरीरका त्याग किया जाता है यह शरीरका त्याग करना ही बडा कठिन है. तपसे दर्पनाश नामक गुग प्राप्त होता है. असंयमको उत्पन्न करनेवाला मद इस उपसे नष्ट होता है. अनशनादि तपसे वाचना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश इन स्वाध्यायके भेदोका संबंध आता है और उसमें विघ्न उपस्थित होते नहीं है. आहार के लिये भ्रमण करने वाले मुनिको स्वाध्याय करना शक्य नहीं होता है, बहुत भोजन करनेपर वह ऊपर मुख कर सोवेगा. बह बैठ भी नहीं सकेगा. हमेशा रसयुक्त आहार Tawarestobongs Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलाराधना ४६४ करनेवाले मुनिको आहारकी उष्णतासे इधर उधर लोटना पडेगा. बहुजन जिसमें ठहरते हैं ऐसी वसतिका में रहनेवाला मुनि दूसरोंके वचन सुनकर उनके साथ भाषण करनेमें अपना समय बिता देगा. और अध्ययन नहीं करेगा. अन्तु जो कां वसति है वह मुकुलता रहित होनेसे स्वाध्यायमें तत्पर रहता है, बाह्य तपसे सुख और दुःखोंमें समता प्राप्त होती है. अर्थात् मुनि इसके प्रभाव से सुखमे आनन्द नहीं मानते हैं और दुःखमें दुःखित नहीं होते हैं. अर्थात् सुखमें रागभाव और दुःखमे द्वेषभाव उनको नहीं होता है- रागद्वेषोंके अभाव सुखदुःखका अनुभव आता नहीं है. यही सुखदुःखसमताका स्वरूप हैं. आहार और रसयुक्त घी, दूध वगैरे सुख साधक पदार्थोंका त्याग करनेवाले मुनि सुखमें प्रीति नहीं रखते हैं, क्षुदादिकोंसे दुःख की प्राप्ति होने पर भी संक्केश परिणाम उनके मनमें नहीं होते हैं अतः वे दुःखमें द्वेष नहीं रखते हैं. इस प्रकार पांच गाथाओंसे बाह्य तपके गुण आचार्यजीने कड़े हैं., आदा कुलं गणो पत्रयणं च सोभाविदं हवदि सव्वं ॥ अलसवर्णं च विजढं कर्म च विणिर्य होदि ॥ २४२ ॥ आत्मा भवचनं संघः कुलं भवति शोभनं ॥ मस्तं व्यक्तमालस्यं कल्मषं विनिवारिनम | २४३ ॥ बिजयोया - आदा कुलं गोपवणं च सव्वं सोभाविदं निपटना वापसा स्वयं मनो, गणं. स्वशिष्य संतानश्च शोभानुपतीतो भवति । तव गत्यं च । विजयकं भवति । दुर्घटनः समुयोगात् कम् चणि कर्म संसारमूलं विशेषेण न भवति । मूलारा - कुलं स्ववंशः । मजो स्वगुरुशिष्य संतानः सोद्दाविदं शोभामुपनीतं । बिडं स्वक्तं । विनिर्द्धतं ॥ अर्थ - अपना आत्मा अपना वंश, अपना गण अर्थात् अपने गुरुके शिष्योंकी परंपरा और जिनमत इन सबको बाह्य तपसे मुनि शोभा युक्त करते हैं. बाह्य तपसे अलगीपनाका त्याग होता है. दुर्धर तपश्चरण में प्रवृत्ति करनेसे संसारका मूलभूत कर्म भी पूर्णपनेसे नष्ट होता है. आश्वासः ४६४ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ४६५ बहुगाणं संवेगो जायदि सोमत्तणं च मिच्छाणं ॥ मग्गो यदीविदो भगवदो य आणाणुपालिया होदि ॥ २४३ ॥ मिथ्यादर्शनिनां सौम्यं संवेगो भूयसां सतां ॥ मुक्तेः प्रकाशितो मार्गो जिनाज्ञा परिपालिता ॥ २४४ ॥ विजयोदया - बहुगाणं बहूनां । संवेगो जायदि संसारभीरुता जायते यथा । सभद्धमेकं दृष्ट्वा नूनमत्र भयमस्ति चिमपि समिति जनः प्रवर्तते । एवं तपस्युद्यतमवलोक्य संसारभयादयमेवं क्लिश्यति तदस्माकमध्यनिवारितमे. वेति विभेति । भीतश्च प्रतिकियां प्रारभते । सोमत्तणं च मिच्खाणं मिथ्यादीनां सभ्यता सुमुखता वा जायते । दुर्द्धरमिदं पतीनां इति प्रसन्ना भवतीति । मग्गो यदीविशे मार्गश्च मुक्तेः प्रकाशितो भवति । यतीनां वाह्येन तपसा करणभूतेन चिना कर्मणां निर्जरा नास्तीति । भगवदो अणुपालिदा आणा भगवतः याज्ञा चानुपालिता भवति यतिना बाह्येन तपसा करणेन 1 मूलारा - तपस्युद्यतं दृष्ट्रा अयमेधं क्लिश्यति तदस्माकमध्यनिवारितमेवेति विभेति भीतच तत्प्रतिकर्तुमुत्सहते । समिक्षण सम्यिता दुर्धरनिव तपो यतीनामेति मिध्यादृशोऽपि प्रसन्ना भवन्ति इति तात्पर्य दीचित्रो । तपमैव कर्मणां निर्जरा भवति इति प्रकाशितः । अर्थ - तपश्चरण में तत्पर मुनिको देखकर बहुत मुनिजनों को संसारसे भय उत्पन्न होता है, "इस संसार में भय है इसलिये मैं भी तपमें तत्पर होऊंगा. ऐसा विचार कर वे भी उपमें तत्पर होते हैं. संसारके भवसे यह महा इतना तपः क्लेश भोग रहा है. और हमको भी यह संसारमय दुर्निवार है ऐसा मनमें संकल्प कर उसमे भय युक्त होता है. और भगवान् होकर उसकी प्रतिक्रिया करता है अर्थात् उपचरण में वह भी लीन होना है, गुनिराजों का उग्रतप देखकर मिध्यादृष्टि भी अपनी उग्रता छोडकरे सीम्य बनते हैं, यतिओंका यह तप बडा ही दुर्धर है ऐसा देखकर वे प्रसन्न होते हैं. तपके द्वारा मुक्तिके मार्गका प्रकाशन होता है. क्योंकि बाह्यतरणके बिना कर्म की निर्जरा नहीं होती है. बातपश्वरण करनेसे जिनेंद्र भगवानकी आज्ञा का पालन होता है. आश्वासः ३ २६५ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागवना आश्वा देहस्स लाघवं गेहलुहर्ण उवसमो तहा परमो ॥ जवणाहारो संतोसदा य जहसंभत्रेण गुणा ॥ २४ ॥ संतोषः संयमो देहलाघवं शमवर्द्धनम् ।। तपसः क्रियमाणस्य गुणाः सन्ति यथायथम् ॥ १४५६ विजयोदया-देहस्स लाघवं शरीरस्य लाघवगुणो वाद्येन तपसा मचति । लघुशरीरस्य आवश्यकप्रिया सुकरा भवन्ति । स्वाध्यायभ्याने चालेशसंपा। भवतः । णेहस्स एणं शरीरमेहविनाशनं स गुणः । शरीरस्नेहादेव जनोऽसंयमे प्रवर्तते । शरीरमेवानर्थ हेतुरिति तपोऽपि न करोति । तेनाहितः शरीरकोहो विनाशितो भवति । उयसमो तद्दा परमो तथा घोफएघोषशमो भवति रावादे कर मरलि वर्तमानस्य । किनमम रागेण उपत्यकारिणा । सति रागे हि नवकर्मयचो जायते। चिरंतनकर्मरसोपवणं च । सति चेत्थ मदीय क्शो निकलो मयेदिति मग प्रणिधानादुपशमः । जवणाहागेपरिमिताहारता इति केचिवाचक्षते । तप च गुणो नीरोगतादिक। तथा चामिताशिमा पाइगुणा भजते । अपरे शरीरस्थिति मात्रतुराहार: जवणाहारवादः शरीरधारयः इति स्थिताः। मूलारा-लापर्य स्वाध्यायादिक्रियासौकर्यकारि लघुत्वं । हलणं देह स्नेहाद्धि जनम्य असंयमे प्रवृत्तिः । देहबाधाहतुरिदमिति सपस्यपि न प्रवर्तते । नेनाहित्यादेहे नेहस्य विनाशनं । देहस्नेहाद्विरतस्य संयमो गुणः परमः । रागे हि नवाकर्मबंधश्चिरंतन मरसोपहणं च स्याद्रागानुपदचारी च द्वेषः । एवं च सत्ययं शो निष्फल इति मनःप्रणिधानातुत्कृष्टः । जवणादारो परिमिताहारता नाचारोग्यादिगुणः । शरीरस्थितिमात्रनेतराहागे बासौ। संतोसदा संतोषः। जहसंभवेण अनशनादीनां वाखापोभेदानां यो येन संभवति स तेन व्याख्येय इति भावः । अर्थ-तपश्चरणसे देह में लाघव गुण प्राप्त होता है. अर्थात शरीरमें तपस भारीपना नष्ट होता है जिससे आवश्यकादि क्रिया सुकर होती है, स्वाध्याय और ध्यान क्लसके बिना किये जाते है. तपक आचरणसे शरीरस्नेह नष्ट होता है. शरीरके स्नेहसे लोक असंयममें प्रवृत्त होते हैं. वह शरीर अनधका कारग है. इसके स्नेहमें लीन होकर तपको छोड बैठते है. मुनि दुष्कर तपमें प्रवृत्त होनेसे उनके रागादि दोयों का उपशम होता है. मुनि मनमें ऐसा विचार करते हैं- यह सग भात्र उपद्रव करनेवाला है. यह रागभाव आत्मामें नवीन कर्मका चंध उत्पन्न करता है. और पूर्वकर्मके रसमें वृद्धि करता है. यदि मैं रागभावको मनमें आश्रय दंगा तो मेरा तपश्चरण व्यर्थ होगा. ऐसा विचार करके रागभावको THE Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना शांत कर देते हैं. तपसे परिमिताहारतानामक गुण प्राप्त होता है. जवणाहार शब्दका परिमित आहार ऐसा अर्थ है ऐसा कोई आचार्य कहते हैं, परिमित आहार करनेसे नीरोगतादिक छह गुणोंकी प्राप्ति होती है. जितने आहारसे शरीर रह सके उतने आहारको जवणाहार कहना चाहिये ऐसा कोई आचार्य जवणाहार शब्दका अर्थ करते हैं. ४६७ पयमित्यादिनोपसंहरति एवं उग्गमउप्पादणेसणासुद्धभत्तपाणेण || मिदलहुयविरमलक्खेण य तक्मेदं कुपानि णिचं ॥ २५५ ॥ विजयोदया-पत्र मे तबो णिशं कुणदित्ति पदघटना । एवं व्यायर्णितरूपेण । पर्व पतस् वायं मपः कुदि करोति णिचं नित्यं । उम्गमडप्पादणेसपणासुभत्तपायोण उगमोत्पादनपणादोषरहितेन, अक्तेन पानेन च । कीटग्भूतेन ? मिदलगविरमन्मनेण परिमिनेन लघुना, यिम्सन, मरण पावभृनं जमामा शुक्वा नपा कुर्थाप्राहमिति भावः। इत्थं बाह्यतपसो गुणानाळ्यायोपसंहारमाह - मूलारा-एवं बाह्य | कुम दि शुद्धगादिपच गुणमेवाहा नुकत्या मुगाः तप: करोति नेतरमिति भावः ॥ ___ अर्थ-मुनिराज उद्गम उत्पादन और एषणा इन दोषोंका त्याग कर मित, लघु, रसरहित और रूक्ष ऐसा आहार और पानक पदार्थ लेकर यह बाह्य तप नित्य करते है, शुद्ध आहार लेकर तप करना चाहिये, अशुद्ध आहार नहीं लेना ऐसा इस माथाका अभिप्राय है. उल्लीणोल्लीणेहिं य अहवा एकंतबमाणेहिं ।। सालिहइ मुणी देहं आहारविधि पयणुगितो ॥ २४६ ॥ आहारमल्पयन्नेवं वृद्धो धृद्धेन संयतः।। तपसा संलिखत्वंगं वृद्धेनैकांतसोऽधवा ।। २४६ ॥ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ४६८ Mentation पिजयोदया-उल्लीणोलीणेहि य प्रबर्द्धमानेन हीयमानेन च तपसा चतुर्थपष्ठाईफमेणानशनतपोवृद्धिः । एकद्धि कालादिन्यूनतया अवमोदर्यवृद्धिः । एकस्य रखस्य वयोरयाणामित्यादिना क्रमेण रसपरित्यागवृधिः । पकपाटकं, गृहसप्तकं, गृहत्रयं या प्रविशामीति. भिक्षापासपरिमाणन्यूनताकरणेन वा वृत्तिपरिसंख्यानवृद्धिः 1 विषसे आतपनं हत्या रात्रौ प्रतिमावग्रहकरणमित्यादिना कायक्लेशवृद्धिः । एवं श्रमे महति संजाते क्रमेण अनशनादीनां न्यूनताकरणं । अहवा अथपा एयंतयङमाणेहि एकावेन वर्धमानः तपोभिः । सलिहद संलिखति । मुणी मुनिः । देहं । आहारविधि अशनादिविधि । पयर्गितो । अस्पीकुर्षम् ॥ प्रकारांतरेण सल्लेखनोपायमाह--- मूलारा- उल्लीणोड़ीणेहिं बर्द्धमानीयमाभरनशनादितपोभिरिति शेषः । नथाहि -चतुर्थपटाविक्रमेणानमानस्य दिः । ककवलादिन्यूनतवावभारत | एकश्चादिरसत्यागकनेग रसपरित्यागस्य । एफवाटक सप्त पंच त्रीणिवा गृहाणि प्रविश्य भिक्षां गृहामि । प्रासं चैकशिदित्यादिहानिक्रमेण गृहामि इन्यादिक्रमेण वृत्तिपरिसंख्यानस्य । दिवानापने कृत्या रात्रौ प्रतिगायोगावग्रहकरणमित्यादिविधिना कायक्लेशम्य । शून्य गृहमायसमीपगिरिगुहारण्यादिबसत्याप्रमाणन विविक्तशय्यासनस्य च बोद्धव्या । एवं ग महानि श्रमे जाने मनि अनननादीनां क्रमेण न्यूनीकरण हानिः । अहवा अथवा । गंतवहिडाव मानेरेव नदीवमानैः । आहारविधि विदिनययाहा। पदांगतो प्रत. नुकयन अल्पीकुर्वमित्यर्थः। अर्थ-क्रमसे अनशनादि तपको बढाते हुये यतिराज अपने देहको कृश कर शरीरसल्लखना करते हैं. उसका विवेचनक्रम इस प्रकार समझना चाहिये-एक उपवास, दो उपवास तीन उपवास इस प्रकारसे ये अनशन तप बढाते हैं, मुनिक आहारका प्रमाण बत्तीस ग्रासोका कहा है. उनमे एक ग्रास, दोन ग्रास, तीन ग्रास कमी कमी करके अनमोदय तपकी वृद्धि करते हैं. एकरसका त्याग, दो रसोंका, तीन रसोंका इत्यादि क्रमसे रसत्याग करते जाना यह रसपरित्याग तपकी वृद्धि है. एक गल्लीमें ही आज आहार ग्रहण करूंगा, सातघर, तीनघरमेंही प्रवेश कर आहार करूंगा, अथवा आहारके ग्रासोंका परिमाषण कर आहार ग्रहण करूंगा इत्यादि रूपसे वृत्तिपरिसंख्यान तपमें वृद्धि समझना. दिनमें आतापन योग कर रानी प्रतिमायोग धारण करनेका नियम करना. इत्यादि प्रकारसे कायक्लेश तपमें वृद्धि करना. इन तपोंकी बुद्ध करनेसे जब महान् श्रम होता है तब वे अनशनादि तपका प्रमाण ANTANMAmer.. KATONESTRTHISEDIA Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम कम करते हैं. अथवा सर्वथा चढते हुवे तपोंसे चे आहारका प्रमरण कम करते करते देहकी सल्लेखना करते हैं. । मूलाराधना प्रावासा प्रकारांतरेण सल्लेम्रनोपायमाच अणुपुवेणाहारं संवतो य सल्लिहइदेहं ॥ दिवसुग्गहिएण तवेण चात्रि सल्लेहणं कुणइ ॥ २४७ ॥ प्रमेण संलिग्वत्यंगमाहारं बर्वयन्यतिः ॥ प्रत्यहं वा गृहीतन नपसा विधिकोविदः॥ २७॥ विजयोदया-अणुपुवेग क्रमेण | आहार संबईतो य आहार न्यूनविन्या । सल्लिहइ देहं तनूकरोति। दिघसुग्गहिंगेण तरेण चाथि पकैकविन प्रतिगृहीतेन तपसा च, एकस्मिन्निनेऽनशन, पकस्मिन्दिने वृत्तिपरिसंख्यानं इति । सल्लेहण कुणइ सलेखनां करोति । मूलारा-अणुपुठवण क्रोग । संवर्द्धनो हासयित्वा दिवसग्गहिदेण । एकदिनं प्रतिगृहीतेन । एकस्मिन्दिनेऽनशन कस्मिन्वृत्तिपरिसंख्यानं इति । अथवा संवतो न्यूनयन क्रमेणाहार ऋशयनि शरीरं । प्रतिदिनगृहीतेन तपसा वा सन्लखां करोति इति व्याख्यगम । या हास्य भित्रकमा योजना । नोन.--- क्रमेण संलिखत्यंगं आहारं खर्वयन्यतिः ।। प्रत्वह चा गृहीतेन तपसा विधिकोंविदः ॥ अन्य प्रकारसे सल्लेखनाका उपाय कहते है अर्थ - क्रमसे आहार कमी करते करते क्षपक अपना देह कुश करता है. दररोज जिसका नियम किया है ऐसे तपश्चरणसे अर्थात् एक दिन अनशन, दुसरे दिन वृत्तिपरिसंख्यान इस क्रमसे क्षपक सल्लेखना करता है-- अपना देह कुश करता है. विविहाहिं एसणाहि य अअग्गहेहिं विविहेहिं उग्गेहि ॥ संजममविराहिती जहाबलं सल्लिहइ देहं ॥ २१८ ॥ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १७० आहारगोचरैरुन नाकारैरवग्रहः ।। मुमुक्षुः संलिम्वत्यंग संयमस्याचिराधकम् ॥ २४८ ॥ भिजयोदया-विविवाहि नानाप्रकारैः । पसणाहिं य भोजनः रसवर्जितैरन्यपः शुष्कराचाम्लैः । अबग्गाह मामा कारवाह.. रोल मा रायो संयम द्विप्रकारं अविनाशयन् । जहावलं स्वबलानतिवृत्या देई तनूकरोति। मूलारा-विविधाहिं अरसबिरसाल्पाकाचाग्लादिमिः । एसणाहिं आहारैः । अवग्गहेहिं नियः । आहारगोचरैः ।। अर्थ-नाना प्रकार रसवर्जित, अल्प. रूक्ष, एसे आचाम्ल भोजनोंमे अपने सामर्थ्यके अनुसार क्षपक मुनि देहको कृश करते है. नाना प्रकारके उग्र नियमोंकी प्रतिज्ञा लेकर इंद्रियसंयम और प्राणिसंयमकी वराधना नहीं करता हुआ स्वशक्तीके अनुसार क्षपक देइको धीषण करते हैं. । HAMIRP संदि आउगे सदि बले जाओ विविधाओ भिक्खुपडिमाओ॥ ताओ बि ण बाधते जहाबलं सल्लिहंतस्स ॥ २४९ ॥ या भिक्षुपतिमाश्चित्रा बले सति च जीविते ।। पीडयन्ति न ताः कायं संलिस्वन्तं यथावलम् ।। २४९ ।। विजयोदया-सदि बाउगे आयुपि सति । सदि पले सति बले। जागो याः । विविद्वामो विचिवाः । निवखु. पडिमाओ भिक्षुप्रतिमाः । ताओ बि ताश्च । ण याधते न पीडा जनयंति महती । कस्य ? जहावलं सलिईतरस यथावल तनूवर्चतः । प्रारब्धमहालेशस्य योगभंग संक्शश्व महान् जायते इति भाषः। मूलारा--" बाधते न पीडा जनयंनि । जहाचलं यथायलं बलं विना मलखनो कुर्वतः प्रारब्धमहाकले शस्य योगभंग: सक्लेशश्च महान जायते इति भावः । भिक्षु प्रतिमा इमाः। १ सदि आउगे इति गाथास अनंतरं माखिय टुय तिय ' इत्यादिरूपा गाथा मूलाराधनादपणे स. टोकाऽस्ति परमन्त्र सा गाथा तट्टी का च अपराजित सूरिया नोलिखिता। १७० Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मुलासचना आश्वास मासिय दुय तिय चट पंचमास छम्मास सत्तमासीय ॥ तिण्णे व सत्तराई दाईदिय राइपद्धिमाओ ।। गाथार्थः कभ्यते आत्मानं टिस्खन धृतिक्रायबलवान , महासत्वो, जितपरीपहः, उत्तासंहननः कोण पूरितधर्मशुक्लमानो । मुनिरात्माधिष्ठितदेशोत्कृष्टयुलमाहारस्य प्र गृण्वाति । ईशमाहार यदि माताध्यंतरे हो तो भोजनं करोमि नान्य. थेति । तस्य मासस्यांतिमेदिने प्रतिमायोगमास्ते । सा एका भिक्षुमतिमा । एवं पूः सदाराच्छत्तगुनोत्कृष्ठदुर्लभान्यान्याभ्य वहारस्यावग्रह, गुण्डाति । यावद्भित्रिचतुःपंचपट सप्रनामाः सर्वत्रांतिनदिनापतिमायोगाः । एताः सप्त मिशुपतिमाः । पुनः पूर्वाहाराच्छतगुणोत्कृष्टम्य दुर्लभस्य अन्याम्पाहारस्य सप्प सप दिनानि वारत्रयं व्रतं गृहाति । एतास्तिस्रो निक्षुप्रतिनाः । नतो गत्रिदिन प्रतिमायोगेन स्थित्वा पश्चाद्रात्रिरनिमायोग माने । एते द्वे गिनुपतिमे । पूर्वमवधिननःपर्यय शा. उमाभूदिये वापशा प्राप्नोति । एवं द्वादशामिनु निभायोगेन बिया पर पादाविनिमयोगमा । भते भिक्षुप्रतिमे भवतः ॥ अर्थ-यदि आयुष्य हो और देहमें सामथ्य हो तो जिन विचित्र भिक्षुप्रतिमाओंका शास्त्र में उल्लेख हैं, उनका भी यह क्षपक स्वीकार करके यथाशक्ति देह को क्षीण करता है. उन प्रतिमाओंसे इस धाकको पीडा नहीं होती है. जिसने अपने शक्तिका विचार न कर इन प्रतिमाओंको धारण किया है. उसक योगका भंग होता है और उसके मनमें महासंक्लेश परिणाम उत्पन होते है. अपने शरीरकी सल्लेखना करनेवाला, धैर्य रूपी बल और शरीरबल धारण करनेवाला, महा. सत्त्वसंपन्न, परीपहोंको जीतनेवाला, उचम संहननका घारक, क्रमो धर्मध्यान और शुक्लध्यानको पूर्ण करनेवाला मुनि स्वयं ठहरे हुए देशमें उत्कृष्ट और दुर्लभ आहारका प्रत ग्रहण करता है. अर्थात उत्कृट और दुर्लभ आहार यदि एक महिने के अंदर मेरेको मिलेगा तो में ग्रहण करूंगा अन्यथा नहीं रती प्रतिज्ञा करके उस महिनेके अंतिम दिनमें वह प्रतिमा योग धारण करता है. यह एक भिक्षु प्रतिमा है. पूर्वोक्त आहारसे शतगुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न भिन्न बाहारका वा वाक्षपक ग्रहण करता है. CHI यह व्रत वह क्षपक दो, तीन, चार पांच, छह और सात मास तक ग्राग करता इ. प्रत्येक माहेनेके अन्तिम दिनमें me Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासः मृताराधना प्रतिमायोग धारण करता है. ये सात भिक्षु प्रतिमायें है. पुनः सात सात दिनोंमें पूर्व आहररकी अपेक्षास शतगुणित उत्कृष्ट और दुलभ ऐसे भिन्न भिन्न आहार तीन दफे लेनेकी प्रतिज्ञा करता है. आहारकी प्राप्ति होने पर नीन दोन और एक ग्रास लेता है. ये तीन । मिक्ष प्रतिमायें है. तदनंतर रात्रि और दिनभर प्रतिमायोगसे खडा रहकर अनंतर प्रतिमायोगसे ध्यानस्थ रहता है, ये दो भिक्षु प्रतिमायें है. प्रथम अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानकी प्राप्ति होती है. अनंतर सूर्योदय होनेपर यह क्षपक केवलज्ञानको प्राप्त कर लेता है. इस रीतीसे चारा भिक्षुप्रतिमायें होती है, शरीरसल्लेखनाहेतुषु उपन्यस्तेषु के उत्कृश हत्यत्राह सल्लेहणा सरीरे तबोगुणविधी अणेगहा भणिवा ॥ आयलिलं मड़सी तभइ, कस्मयं निति ।। २५० ।। देहसल्लेखनाहेतुबहुधा वणितं तपः॥ घदन्ति परमानाम्लमाहता यत्र योगिनः ।। २५० ।। विजयोदया-सङ्गणा सरीरे शरीरसल्लेखनानिमित्तं शरीरे सलखना इन्युध्यते । तमोगुण तपःसंशितो गुण विकल्पः। अगहा मणिहा अनेकधा निरूपितः अतीतसूत्रः । तन्थ तत्र | महेसी महर्षयः । आययितु आत्राम्लाशनार च । उक्तस्रग उस्कृयमिति । ति घुवन्ति ।। शरीरसल्लेखनाहेतुपपन्योपु क रत्कृष्ट्र इत्याह-- __ भूलारा-सरलेला मायनानिमित्त कार्य कारणोपचारात् । राघोगुणविधी तपःसंज्ञितो गुणविकल्पः । भणिदो निरूपितोऽनीतसूत्रैः । आर्याबलं वश्वमाणलक्षणमाचाम्लं । महेसी महर्पकः । वेति त्रुधने । शरीरसल्लेरखनाक हेतु ऊपर कहे हैं उनमेसे कौनसे हेतु उत्कृष्ट है इसका विवरण अर्थ-शरीरसहलेखनाका निमित्त जो तप उसके अनेक विकल्प पूर्वोक्त गाथाआमें कहें हैं, उन विकल्पों में | आचाम्लभोजन करना यह उत्कृष्ट विकल्प है ऐसा महर्षिगण कहते हैं. १७२ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना ४७३ शरीरस लेखमोपायोत्कृष्टमाचाम्लाशनमित्युकं तरकीङगिति चोदिते आहमदसमदुबालसेहि भचेहिं अविकहिं ॥ मिदलहुगं आहारं करेदि आयंबिलं बहुसो || २५१ ॥ भारतं ॥ गृह्णाति मितमाहारमाचाम्लं बहुशः पुनः ॥ २५१ ॥ विजयोदया—छठ्ठठ्ठमदसमदुबालसेहि मत्तेहिं अदिविकहिं द्विचिचतुःपंच दिनोपवासैः उत्कृः। मिदलडुगं आहारं करेदि । परिमितं लध्याहारं करोति । आर्यचिलं आचाम्लं । बहुसो बहुशः । I मूलारा - छत्यादि — द्वित्रिचतुःपंच दिनोपवासैः | अदिविकहिं उत्कृष्टः । वियदिअहिं इति पाठे विशेपानिकः । मिदलढुगं । परिभिनं लघु गुणेन । आर्यबिलं कांजिकाहारं । इदमच तात्पर्य पापवारविलमि शः कांजिकाहारी करोनि कममाचक्षते । तथा खोकं -- पष्ठाप्रमादिभक्तैरतिशयवद्भिर्बली हि सुजानः ॥ मिमाहारविधि विधात्यानं बहुशः || अपि च- पष्ठाष्टमादिभिश्चिरूप सैरतंद्रितः || तथा ६० गृहति मिश्रमाहारमाचाम् बहुशः पुनः ॥ -समोऽथ पष्ठाष्टमर्कैस्तपोधस्ततो विप्रैर्दशः शमात्मकः ॥ तथा लघु द्वादशश्व सेवते मितं मुद्दा चाम्लमनाषिलो लघुः ॥ आचाम्लभोजन करना यह शरीरसल्लेखनाका उत्कृष्ट उपाय है ऐसा पूर्व गाथामें कहा हैं. अब उसका विधि बतलाते हैं --- अर्थ- दोन दिनका उपवास, तीन दिनका उपवास, चार दिनका उपवास, पांच दिनका उपवास ऐसे उत्कृष्ट उपवास होनेके अनंतर मित और हलका ऐसा कांजीभोजन ही क्षपक बहुशः करता है. माश्वास ३ ४७ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराना ४७४ भक्तपल्याण्यानस्यास्य वर्ण्यमानस्य क्रियत्काल इत्यत्रोत्तरं आह उकस्सएण भत्तपइण्णाकालो जिणेहिं णिदिट्टो । कालम्मि संपहुत्ते बारसवरिसाणि पुण्णाणि ॥ २५२ ।। कालो द्वादशवर्षाणि काले सति महीयसि ॥ भलत्यागस्य पूर्णानि प्रकृष्टः कथितो जिनः।। २५२॥ विजयोदया-उक्करसपण उत्कर्षेण । भक्तपदण्णाकालो भक्तप्रन्याख्यानकालः । जिणेहिं णिदिवो जिननिर्दिष्टः। कालमि काले । संपत्ते महति सति । पारसवारसाण संपूर्णद्वादशवपमाषाम् ॥ मति जीविसकाले संभाव्यमाने सति भक्तप्रत्याख्यानस्योत्कर्षण कियान काल इत्यत्राह-- मूलारा-कालंमि काले अर्थाजीवितस्व । संपहुत्ते महति मति । अन्य संभवन्त इति पठित्वा संभवति सतीत्यर्थ व्याचख्युः ।। जिसका वर्णन चल रहा है ऐसे भक्त प्रत्याख्यान विधीका काल कितना है इस प्रश्नका आचार्य उत्तर कहते हैं अर्थ- आयुष्य काल अधिक होनेपर भक्त प्रतिज्ञाका अर्थात् भक्तप्रत्याख्यानका उत्कृष्ट कालप्रमाण जिनेंद्र भगवानने बारा वर्ष प्रमाण कहा है. उक्तषु हादशवर्षषु एवं कर्तव्यमिति क्रम सम्पनाया दर्शयति जोगेहि बिचित्तेहिं दु खवेइ संवच्छराणि चत्तारे ॥ वियडी णिज्जूहित्ता चत्तारि पुणो बि सोसेदि ॥ २५३ ॥ विचिः संलिखित्यंगं योगर्षचतुष्टयम् ॥ समस्तरसमाक्षेण परं वर्षचतुष्टयम् ॥ २५३ ॥ विजयोदया-जोगेहि कायशः । विचित्तेहिं तु विचिरनियतैः । स्वधेदि भपयति । संघरहराणि चत्तारि। Prera Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा वर्षचतुष्टयं । यत्किचिद्भक्त्वा । विगडी णिज्जहित्ता रसादीक्षीरादीम्परित्यज्य | अत्तारियर्षचतुष्टयं । पुणो वि पुनरपि। सोसेधि तनूकरोति तनुम् । द्वादशसु वर्षेषु सडेखनाया इतिकर्तव्यताक्रम गाथादयेन दर्शयति मूलारा-जोगहि कायम्लेशैः । विचित्तेहि विचिरनिय रित्यर्थः । विगलि शीरादिरसान । णिज्जूहित्ता निःशेपेण त्यक्त्वा । सोसेदि झोपयति कृशीकरोति शरीरमिति शेपः । अन्ये भोसेदि इति पठित्वा नयतीन्यर्थ व्याचकः ।। इस बारा वर्षप्रमाण कालम मल्लखनाका कर्तव्यक्रम कैसा होता है उसका वर्णन आचार्य करते हैं-- अर्थ- अनेक प्रकारके कायक्लेशद्वारा वह क्षपक पहिले चार वर्ष व्यतीत करता है. अर्थात् पहिले चार वोंमें कायक्लेशका एक ही प्रकार नहीं रहता है. चार वर्ष समाप्त होनेपर आगेके चार वर्षों में वह क्षपक द्ध, दही, गुड, धी वगैरह रसोंका त्याग करके पुनः शरीरको कृश करता है, इस तरह आठ वर्ष व्यतीत होते हैं, आयंबिलाणिब्वियडीहिं दोणि आयंबिलेण एकं च ।। अहं णादिविगढहिं अदो अर्द्ध विग?हिं ॥ २५४ ॥ आचाम्लरसहानिभ्यां वर्षे द्वे नयते यतिः ।। आचाम्लेन विशुद्धन वर्षमेकं महामनाः ॥ २५४ ॥ पग्मासीमप्रकृष्टन प्रकृतेन समाधय ।। षण्मासी नयने धीरः कायक्लेशेन शुद्धधीः ।। २५५ ।। विजयोदया-भायंबिलणिबियडीहि आचारलेन मिर्चिकत्या च । दोषिण वर्षय क्षपयति । आयंबिलेण आचाम्लेनय 1 एकं च पर्क वर्ष । अखं अवशिष्टस्य यर्पस्य पण्मासान् । मादिचिगदि अत्यनुत्कृष्टस्तपोभिः कशयति । अदो असं चिकहिं अतः परं पण्मासान उत्पम्पोमिः। मूलारा-आगनिसगिविगहीहि आनाम्ल बांजिकाहारः । निकितिः रराच्यंजना दिवार्जितमव्यतिकीर्णोदमादिभो जनम | अद्धं द्वादशस्य वर्षस्य अर्थ पण्मासानित्यर्थः । नादिनिंगठेहि नान्युत्कृस्तपोभिः । कक्षायति शरीरमिनि शेष: विकतहि उत्सऐः। अर्थ-आचाम्ल अर्थात कांजीका भोजन करना और णिवियडी जिससे भोजनमें स्वाद उत्पन्न होता है Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PANASODE मूलाराधना IAS आश्व एसे साग, चटगी बगैरह पदार्थ को विकृति कहते हैं. इनसे रहित रसहीन भोजनको निर्विकृति भोजन कहते हैं, आचाम्ल भोजन और निर्विकृति भोजन कर क्षपक दो वर्ष विताता है, तदनंतर आचम्ल भोजन कर एक वर्ष व्यतीत करता है. अब अतिम एक वर्ष प्रथम छामासनका यह सध्यम नपोद्वारा शरीरको क्षीण करता है. और अन्तक छहो मासमें उत्कृष्ट तपास शरीरको कुश करना है. इस तरह अपने आयुके अन्तिम बारा वर्षांमें यह मल्लखना करता है, ब्यावर्णितेनैव कमेण बारात निरवियतं त्या- भत्त खत्तं कालं धातुं च पडुच्च तह तब कुज्जा ।। बादो पित्तो सिंभो व जहा खोभं ण उवयंति ॥ २५५ ।। द्रव्यं क्षेत्र सुधीः कालं धातु ज्ञात्वा तपस्यति । तथा क्षुभ्यति नो जातु वातपित्तकफा यथा ॥ २५६ ।। विजयोदया-भतं आहारं शाकाहुल, रसबहुलं, कुल्माषप्राय, निष्पायचणकादिमिधं, शाकव्यंजनादिरहितं वा। खतं अनूपजांगलसाधारणविकल्प। कालं धमशीतसाधारणभेदं । धातुमात्मनः शरीरप्रकृति च | पहुच आश्रित्य । तह तथा । तब कुजा तपः कुर्याजहा सोमं पा उश्यति । यथा क्षोभ नोपयोति । वादो पिप्सो सिमो चा वातपित्तलोमनिकं । यथोक्तेनैव क्रमेण चरितव्यमिति नियमो नाम्नीति ब्रवीति मूलारा-आहार शाकरसभूयिष्ठं कुल्माषकलायचणक निप्पावादिमिश्र शाकञ्यंजनादिरहितं वा । खतं | अनूपजांगलसाधारणविकल्पं । कालं शीतधर्मदृष्टिभेदं । पादुं स्वशरीरप्रकृति । पडुन आश्रित्य खोभं प्रकोपं । ऊपर दो गाथाओंमें जो आचारक्रम बताया है उसके मुआफिक ही आचरण करना चाहिए ऐसा नियम नहीं है. अन्य भी प्रकार है या आगेकी गाथामें लिखते है.... अर्थ- आहारके अनेक प्रकार है जैसे शाक जिसमें जादा है ऐसा एक आहार, घी, दूध, वगैरह जिसमें अधिक है ऐसा आहार, कुलथ्या नाम का धान्य जिसमें जादा है ऐसा आहार, निष्पाव, चना बगैरह से रहित केवल भात रोटी बगरह आहारके अनेक प्रकार हैं. जैसे आहारके अनेक प्रकार हैं वैसे क्षेत्र भी अनेक प्रकार का है. SITAROO Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाराधना आघासः ४७७ जिसमें बहुत जल सृष्टि होती है ऐसा क्षेत्र जिसको अनूप कहते हैं, जिसमें अल्प घृष्टि होती है और जिसमें नदी के पानीसे खेती होती है ऐसे क्षेत्रको जांगल कहते हैं, जिसमें अनूप और जांगलके लक्षण मिलते हैं ऐसे देशको साधारण क्षेत्र कहते है. कालके शीतकाल, वर्षाकाल और उष्णकाल ऐसे भेद होते हैं. धातु-अपनी शरीरप्रकृति, अर्थात् देश, काल, अपनी शरीरकी प्रकृति इनका विचार कर वात, पित्त और श्लेष्मका श्रोभ न होगा इम रीतीने तप करके क्षपकने शरीरसल्लेखना करनी चाहिये. शरीरसल्लेखनाकममभिधायाभ्यतरमलेखनाक्रममभिधान अभ्यंतरसम्बनया सह संबंध कथयति एवं सरीरसल्लेहणाविहिं बहुबिहा वि फासेंतो ॥ अझवसाणविसुद्धिं खणमवि स्ववओ ण मुंचेज ॥ २५६ ॥ इत्थं सलेखनामाग कुर्वाणेनाप्यनेकधा ।। नैव त्याज्यात्मसंशद्धिः क्षपण पटायसा ॥ २०७।। विजयोदया-पवमुक्तन क्रमेण । शरीरसलेहणाविहि नानाप्रकारं । फासतो वि स्पृशन्नपि । अउझबसाणविसुदि परिणामविशुद्धिं । पबगो खणमधि ण मुंचेन्ज शपकः क्षणमपि न त्यजेत् । एवं कायसल्लेखनाक्रममभिधाय कषायसल्लेखनामभिधातुकामस्तया सह तस्याः संबंध नित्यविधातव्यतयाभिवत्ते-- मूलारा—फासेन्तो स्पृशन्नपि । अपि शब्दो भिन्नक्रमो योज्यः । अझवताणविसुद्धिं शुद्धचिद्विवतपरिणति ॥ यहांतक शरीरसल्लेखनाका क्रम आचार्य महाराजने कहा है. अब अभ्यंतर सल्लेखना-कपायसल्लेखनाका संबंध करते हैं. प्रथम कपायसल्लखनाके साथ शरीरसल्लेखनाको दिखाते हैं अर्थ- क्रमसे नाना प्रकारकी शरीरसल्लेखना करता हुआ भी क्षपक मुनि अपने परिणामोंकी निर्मलताको एक क्षण भी न छोडे, तात्पर्य यह है कि, क्षपक शरीरसल्लेखनाके तरफ जितना ध्यान देता है उतना ही कषायसल्लेखनाके तरफ भी देवे. यदि परिणामों में मलिनता उत्पन्न होगी तो शरीरसल्लेखना करना व्यर्थ होगा. इसलिये परिणामकी विशुद्धि भी क्षपकको रखनी पड़ती है, ४७. Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आबास ४७८ अभ्यंतरशुद्ध्यभाये दोषं कथयति अज्झवसाणावसुए वज्जिदा जे तवं विगटुंपि ।। कुव्वति बहिल्लरसा ण हाइ सा केवला सुद्धी ।। २५७ ।। भावशुद्धया विनोत्कृष्टमपि ये कुर्वते तपः॥ पहिलेश्या न सा तेषां शुद्धिर्भवति केवला ॥ २५८ ।। विजयोदया-अजायसाणविसुद्धीप वज्जिया अध्यक्षसानविशुझ्या वर्जिताः । जे ये । तषं तपः। बिकपि उत्कृष्टमपि कुर्वन्ति । दहिल्लेस्सा बहिर्लेश्याः पूजासस्काराद्याहितचित्तवृत्तयः । ण होदि तेसिं केषला सुखी दोषोन्मि श्रका भवतीति शुद्धिरिति यावत् । अभ्यंतरशुद्धधभावे दोषमाह-- मृसारा-विकटुं पि उत्कृष्टभापे । वाहिल्लेसा पूजासत्कारामाहतचित्तवृत्तयः । केवला अशुभकर्मास्रवणरहिता 1 सुद्धा अशुभकर्मनिर्जरा ॥ अभ्यंतर शुद्धि न होनेसे दोष उत्पन्न होता है ऐसा कथन -- अर्थ--जिनके परिणामी निर्मलता नहीं है वे साधु यद्यपि उत्कृष्ट तप करते हैं तो भी पूजा, आदर, कीर्ति इनकी इच्छासे वे तप करते हैं ऐसा समझना चाहिये. इसलिये उनके परिणामाकी शुद्धि नहीं होती, अर्थात् उनके परिणामोंकी शुद्धि दोपसहित है ऐसा समझना. जब पूजा, आदर इत्यादिकी अभिलापा छोडकर मुनि उत्कृष्ट तप करते हैं तब उनके परिणामों में निर्मलता वृद्धिंगत होती है.. केवला शुद्धिः कस्य तहि भवतीत्याद अविगहुँ पि तव जो करेइ सुविसुद्धसुकलेस्साओ। अज्झबसाणविसुडो सो पावदि केवला सुर्हि ॥ २५८ ॥ विजयोदया-अधिकट्ट यि अनुत्कृष्टमरि तपो यः करोति । सुबिशुद्धशुल्लालेश्यासमन्वितः विशुद्धपरिणामः स | केवल शुद्धि प्राप्नोति इति गाथार्थः । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधार तर्हि केषला शुद्धिः कस्य स्यादित्यत्राहमूलारा-सो इत्यादि संघरसहभाविनी निर्जरां करोतीत्यर्थः ।। किस मुनिके परिणाम केवल शुद्ध होते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर अर्थ-विशुद्धशुक्ललेश्याका धारक जो मुनि वह उत्कृष्ट तप यद्यपि नहीं करेगा तो भी परिणामोंसे निर्मल होनेसे दोपरहित अर्थात् केवल शुद्धिको प्राप्त होता है. ऐसा इस गाथाका अभिप्राय है. प्रस्तुता द्वितीयां कपारसले वनामुक्त माध्यवसायविशुद्धया योजयति अन्झबसाणविसुट्टी कसायकलुसीकदरस णस्थित्ति ।। अज्झवसाणविसुदी कसायसल्लेहणा भणिदा ॥ २५९ ॥ करावालदिनास सावशुद्धिः कुतस्तनी ॥ यतस्ततो विधातव्या कषायाणां तनूकृतिः ।। २५९ ।। विजयोश्या-अज्यघसाणविमृद्धी परिणामविशुद्धिः । कसायकलुसीकदस्स कयायः कलुपीकृतस्य । णन्धि नास्ति यस्मात् इति नस्यात् । अस्पायनाणधिसुद्री परिणामविशुद्धिः । कलायमलेरणा मणिया कपायर लेबनेति गदिता। अध्यवसानविशुद्धया कपायसल्लेखना साभ्यसाधनभावन योजयति । मूलारा–अज्झमसाण इत्यादि-स्योदयनिमित्तयाह्यद्रव्यादिसानिध्यवशाधोदयैर्द्रव्यत्रोधादिभिः क्रूरत्वादिरूपं कालुष्वं नीतस्य मुनेरथ्यबसानविशुद्धिर्नास्तीति हेतोः।। प्रस्तुत कषायसल्लेखनाका परिणामविशुद्धिके साथ संबंध दिखाते हैं अर्थ-कपायोंसे जिस मुनिका मन कलुषित हुआ है वह परिणामोंकी बिशुद्धीसे दूर रहता है. और जिसके परिणामाम शुद्धता है वह कपायसल्लेखना कर सकता है इसलिये परिणामविशुद्धिको आचार्योंने कपायसल्लेरखना यह नाम दिया है. इन दोनों अविनाभाव है, जहां परिणामोंकी निर्मलता है वहां कपायमल्लेखना है. और जहां कषाय सल्लेखना है वहां परिणामोंकी निर्मलता है. ४७९ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृकाराश्ना ४८० शुभपरिणामप्रवाहसेन चतुष्कयासलेखना कृता भवति तनूकरणे उपायं प्रतिपक्षपरिणामचतुष्कं कथयति- यमिवाय सामान्येन चतुर्णामपि कषयाणां कोघं खमाए माणं च महत्रेणाज्जवं च मायं च ॥ संतोषेण य लोहं जिणदु ख चत्तारि वि कसाए ।। २६० || जेतव्यः क्षमया कोधी मानो मार्दवसंपदा ॥ आर्जवेन सदा माया लोभः संतोषयोगतः ॥ २६० ॥ विजयोदया को समायेत्यादिना कपायविनाशने उपायस्तदुत्पत्तिश्यागः । संवेगवैराग्यदद्यादमतत्वज्ञानसंस्कारादिशुभ परिणामावृतेन कषायसल्लेखना कृता भवति इत्यभिधाय कोधादीनां प्रत्येकं कृशीकरणोपायं प्रतिपक्षपरिणाममाचष्टे । मूलारा - जिणदि स्त्रनिमित्तवशादुद्यतः कोपादीन्क्षमादिभावना कूरत्वादिफलदानशक्तिरहितान् करोति ॥ शुभपरिणामोंके प्रवाहमें जो मुनि अवगाहन करता है उसको कषायसल्लेखना का लाभ होता है इस विषय का खुलासा किया. अब क्रोधादि चार कपायोंको क्षीण करनेके उपायभूत चार प्रतिपक्षरूप परिणामोंका वर्णन करते है अर्थ – हे क्षपक मुने ! तुम क्षमारूपी परिणामों से क्रोधको, मार्दवगुणसे मानकषायको आर्जव गुणके द्वारा मायाको और संतोषके महारेसे लोमकपायको इस तरह चार कपायोंको जीतो. उत्पद्यमानो हि कयों वृद्धिमुपैतीति कथपति कोहरस य माणस य मायालोभाण सो ण एदि वसं ॥ जो ताण कसायाणं उप्पत्ति नेव वज्जेइ ॥ २६१ ॥ चतुर्णां स कषायाणां न वशं याति शुद्धधीः ॥ उत्पत्तिस्त्यज्यते तेषां सर्वदा येन सत्वतः ॥ २६१ ॥ शाबास ४८० Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना पाय: ४८१ मा विजयोदया कोहरस य अत्रैवं पदधदना । जो तेर्सि करायाणमुप्पात चेव बजेति यस्तेषां करायाणामु त्पात पक्ष परिहरति । कोएस्स य माणस्स य मायालोमाग सोण दि चर्स क्रोधमानमायालीभानां स नोपैतिषश यस्तेषामुत्पत्तिमपेक्षते स सदशगः कथं कपायलखनां कुर्यादिति भावः॥ अशक्यत्यागम्यादिमामश्रीवशात्पयमानः कपायो वृद्धि मुपयाति इति तद्विनाशने उननक्षमादिप्रयोगग तटुसानियोग एवोपान पनि मूलारा-वसं उच्य कोचादिजन्यमान करत्वादिलक्ष गमावावादिनरिणतिलक्षणपारतंयम । उत्पन्न होनेवाले कपाय वृद्धिंगत होते है ऐसा कहते हैं अर्थ-जो मुनि उन कपायोंको उत्पन्न ही नहीं होने देता है वह मुनि क्रोध, मान, माया और लोमके वश नहीं होता है, परंतु जो उनके उत्पत्तिकी अभिलापा रखता है वह उनके वश हो जानेसे कषायसश्लेखना कसी कर सकेगा? कपायोत्पत्ति परिहर्नुमिच्छता किं कर्तव्यमित्यत आह.--- संवत्थु मोत्तम्बं जं पडि उप्पजदे कसायग्गि ॥ तं वत्थुमल्लिएज्जो जत्थोवसमो कसायाणं ॥ २६२ ॥ तदेयं सर्वदा यत्र कषायाग्निरुवीयते ॥ यत्र शाम्यत्यसी वस्तु तदादेयं पढीयसा ॥ २६२ ।। विजयोदया--तं चारों भोत्तव सहस्तु मोक्तव्यं । जे पहि उपजने अधिभित्तं उत्पद्यते। कलायगी कायाशिः। तं वायुगल्लिएज्जो तस्तूपाथयण कुर्यात् । जन्ध बत्रोपाश्रयणे । उयसमो कसायाण करायाणामुपशमो भवति । कषायोत्पत्तिपरिजिहीर्पणा किं कर्तव्यमित्यत्राह ---- मूलारा-जंधि यद्वस्तु निमित्तीकृस्य । अल्लियजो आश्रयेत् ॥ कपायोन्पत्ति न होनेके लिये क्या इलाज करना चाहिये इसका उत्तर-- अर्थ-जिसके निमित्तसे कपायरुपी अनि उत्पन्न होती है वह वस्तु छोडनी चाहिये, और जो वस्तु ४८१ Dha Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना মাখা कपायोंका उपशम करेगी वही वस्तु आश्रय करने योग्य है. जिस वस्तुका आश्रय करनेसे कषायोंका उपशम होगा उसी वस्तुका आश्रय करना चाहिये. ४८२ -- का जइ कहधि कसायग्गी समुट्ठिदो होज्ज विज्झवेदब्बो ॥ रागसप्पत्ती विज्झादि ह परिहरंतस्स ॥ २६३ ।। यद्यदति पायाग्निविध्यातव्यस्तदा लघुः ।। शाम्यन्ति खिला दोषाः शामिते तत्र तत्वतः ॥ २१३॥ विजयोदया--जा करवि फसायग्गी यदि कथंचित्कायाग्निः । समुष्टिदो होज्ज समुत्थितो भवेत् । विज्झधेयो विध्यापयितव्यारागद्दोसुप्यत्ती रागद्वेषयोरपति चिजहादिहु खुशाम्यत्येष। परिहरंतस्ल परिबरतः। करायाठि प्रशान्ति नीयते । तदोषापेक्षणन नीचजनसांगणाभियं ददति ! योनमाद्विम्पादकमेति । रज व चनुषो रागमानयति महासमीरण इच तर्नु पयति । सुरापानमिव यत्किचिनिगदयति । प्राविष्टग्रह व यत्किचन कारयति । समीचीनशानलोचनं महिनयति 1 वर्शनधनमुत्पाटयति । चारित्रसरः शोषयति । तर-पल्लवं भस्मयति । अशुभमकतिलता स्थिरयति । शुभकर्मफल घिर.सपति । प्रत्यनमनोमलं दौकपति । हृदयं कठिनयति । प्राणभृतो घातयति । भारतीमसत्या प्रवर्तयति । गुरूनपि गुणान्लंघयति । यशोधनं नाशयति । पराजपचादयति । महतोऽपि गुणानस्थ गयति । मंत्रीमुन्मूलयति । छतमप्युपकारं विस्मारयति । अपकारमध्यापयति । महन्ति नरकगर्ने पातयति । दुःखापर्ने निमः ज्जयतीत्यनेफानर्धावत्यभावनया। मूलारा--विमादि लु शाम्यत्येव । परिदरंतस्स तदोषभावनन्या कषायांस्त्यजतः । तद्भावना यथा-कथायो इवयं दद्दति, मुखं विरूपयति । चक्षुषो रागमानयति । तनु कंपयति । यत्किचन मापयति । यद्वा तहा कारयति । सम्यगज्ञान मलिनयति | दर्शनमुन्मूलयति । चारित्रं चूर्णयति । तपः क्षपयति । अशुभप्रकृतिलता स्थिरयति । शुभकर्मफल विरसयति । प्रत्यग्रमनोमल दोकयति । हृदयं कठिनयति । प्राणभृतो घातयचि । भारती वितथयति । गुरूनपि गुणान लंघयति । यशो नाशयति । परानपयादग्रति । महतोऽपि गुणान्स्थगवत्ति । मैत्रीमुत्तनति । कृतमप्युपकारं विस्मरयति अपकारमध्यापयति । दुःखार्णवे निमजवतीति ।। ____ अर्थ- यदि किसी प्रकारसे कषायाम्नि भभक कर उटेगी तो उसका उपशम करना चाहिये. जो Aler J Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलाराधना आधा कषायाग्निका परिहार करनेका प्रयत्न करता है उसके रामद्वे पोंकी उत्पत्ति नहीं होती है. कषायोंमें कौनसे दोष मरे | हैं इसका विचार कर उसका उपशमन करना चाहिये. दुर्जनोंकी संगतीके समान ये कपाय हृदयको जलाते हैं. अशुभ अंग और उपांगोंकी रचना करनेवाले नाम कर्मके समान कषाय मुखको कुरूप करते हैं. नेत्रमें गये धूलिके कण जैसे आंखको लाल बनाते हैं वैसे कपायसे भी वह लाल होती है. बड़े जोरसे बहनेवाले वायुके समान कषाय शरीरको कंपित करते है. सुरापानसे मनुष्य चाहे जो बडबडता है से कयायवश हुआ मनुष्य बडबडता है, पिशाचग्रस्त मनुष्य के समान कुछ भी कार्य करने लगता है. यह कपाय सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रको मलिन करता है. सम्यग्दर्शनरूपी वनको उपद्धस्त कर देता है. चारित्ररूपी सरोवरको सुखा देता है. यह कषाय तपरूपी कोमल कमलाको दन्ध करता है, अशुभकर्मप्रकृतिको दृढ करता है, शुभकर्मक फलोंको रसहीन करता है. निर्मल मनको मलिन करता है. हृदयको निर्दय बनाना है. प्राणिऑकी हिंसा कगता है, असत्य भाषणमें मनुष्यको प्रवृत्त करता है, बड बटे गुणों को भी लांघता है. कीर्तिरूपी धनको नष्ट करा देता है. दूसराकी निंदा करवाता है महापुरुषोंके गुणोंको ढक देता है. मैत्रीको तुवाता है, किये गये उपकारको भुला देता है. अपकारका पार सिखाता है. बहे भयंकर नरक सहमे प्राणीआको गिराता है. और दुःवरूपी भोवरोंमें डुबाता है. इस तरह यह कषाय अनेक अनोंको उत्पन्न करता है ऐसी भावना मनमें कर रागदेषोंकी उत्पत्तिको न होने देना चाहिये. रागद्वेषप्रशांत्युपायकथनाय गाथा--- जावंति केइ संगा उदीरया होंति रागदासाणं ॥ ते वजंतो जिणदि हु रागं दोसं च णिरसंगो ॥ २६४ ॥ रागद्वेषादिकं साधोः संगाभावे विनश्यति ॥ कारणाभावतः कार्य किं कुत्राप्यवतिष्ठते ॥ २६४ ॥ विजयोदया--जाति केर संगा यावन्तः केचन परिप्रहाः । उदीरमा होति रागदोसाणं उत्पादका भवन्ति रागद्वेषयोः ॥ ते बजतो तान्परिनहानिराकुर्वन् । जिणधि सुजयत्येव । राग दोसं च रागवषौ । निस्संगो नि-परिप्रहः । E Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारायना आवासः ४८४ रागद्वेषयोः प्रशमोपायमाहमूलाग-स्पष्टम । रागद्वेषोंका प्रशमन करनेका उपाय कहनेकलिये यह गाथा कहते हैं अर्थ-राग और षको उत्पन्न करनेवाले जो कोई परिग्रह है उनका त्याग करनेवाला मुनि निःसंग होकर उन रागद्वेषोंको जीतता ही है. अर्थात परिग्रहका त्याग कर निःसंग बनना यह रागद्वेषांको जीतनेका उपाय है. DADAau NAT एवमुदयमुपयाति कथायाग्निः सत्यमपकारं करोत्ये उपशांति नेतव्य इत्येतद्भाधात्रयोदाहरणेनोच्यते-... पडिचोदणासहणवायखुभिदपडिवयणइंधणाइको । चंडो ह कसायग्गी सहसा संपडिजले जाहि ॥२६५ ॥ बामासहिनामसारित: कोपपावकः ॥ उदति सहसा चडो भूरिप्रत्युत्तरेन्धनः ।। २६५ ।। विजयोट्या---एडियोरणा प्रनिचोदनायाः असहनमेव यानः तेनाभितः, प्रतिबचनेघनैरिदः करः कपश्याग्निः सहसा प्रज्वलति । एवं क्रोधादीनां निर्जरोपायमुपदिश्ये दानी क्रोदस्य स्वार्थ भ्रंशकरत्वप्रकाशनद्वारे तरकायाणामध्यपाय भूग्यिछना उपदेष्टुं तम्ययोदोरणा विजयात्रणाय .... नूलारा- पीपादि:--प्रबिपोरनारदनवानभितानिब पर्ने घनेडः । प्रतिचोदना शिव्यायाविहितप्रचुनिमित वारणार्थ गुरोः शिक्षादचने सति प्रतिकूलना, स्यानहनमनपणं गुरुगा, तदेव यस्तोन क्षुभितः मधुभिको गुरोर्मनलि कोपाभिः । तदनंतरं प्रति वचनं, पुनर्गुमला शिवपन मति प्रतिकूल वचनं तदवेचनं ने दो दीप्तः । अथवा प्रतिबोदना. गुरुणा शिष्यस्व शिक्षापणं, तस्यासहनमम शिष्यण, नदेव वानम्तेन भुभित; ततः प्रतिवचनं पुन: शिष्यम्ब गुरुणा शि आपणं तदेवधन तमेद्धो दीपः शिष्यस्य मनसि कोपानिः । चंडो रौंद्रः प्रत्याख्यानापरणोऽननानुबंधी का। संपजलेज्यहि संप्रज्वलेत् । तथा चोक्तम् ५८५ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाराधना બંધ वाक्यासहिष्णुतायाच्या प्रेरितः कोरपावकः । उदेति सहसा पंडो भूरिप्रत्युत्तरेन्धनः । एवं वा तदर्थो भाय्यः 1 प्रतिवचनेन जनितः प्रतिकूलाचरणपश्नसंचलितः । चंदः कषायदहनः सहसा त्यापः ॥ कपायानि उत्पन्न होकर जब अपकार करने लगता है तब आगे कहे हुए उपाय से उसका उपशमन करना चाहिये. इस विषयको आचार्य तीन गाथाओंसे प्रगट करते हैं अर्थ-शिष्यकी अयोग्य कार्यमें प्रवृत्ति रोकनेके लिये गुरु उपदेश करते हैं, परंतु जब शिष्य प्रतिकूल उत्तर देता है तब वह गुरुको सहन नहीं होता है. यह सहन न होना यही वायु है. इस वायु गुरुके मन में कोपरूपी अग्रिहोती है को उपदेश देते हैं. शिष्य पुनः प्रतिकूल वचन बोलता है. इस प्रतिकूलवचनरूपी इंधनसे गुरुकी क्रोधाग्रि उद्दीप्त होती है. ऐसा होनेसे अनंनानुबंधी अथवा अप्रत्याख्यान रूप कृपायानि प्रज्वलित होती हैं. तदनंतर वह जलिदो हु कसायग्गी चरितसारं उहेंज्ज कमिणं पि ॥ सम्मत्तं पि विराधय अणंतसंसारियं कुजा ॥ २६६ ॥ स दग्ध्वा ज्वलितः क्षिप्रं रत्नप्रितयकाननम् ॥ विधानि महातापं संसारांगार संचयैः || २६६ ।। विजयोदया-जलिदो हि कसायग्मी ज्वलितश्च कपाशाग्निः । चरितसारं चारित्राण्यं सारं दहत्येव । सम्यक्त्वं विनाश्यानतसारपरिभ्रमणे रतं कुर्यादेव । कोव संप्रज्वलित करापकारं करोति इत्याह- मूलारा करिणं पि कृत्स्नमपि । अनंतसारियं अनंतभवपरिवर्तनोद्यतं गुरु शिष्यं । भावास ३ ४८५ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ-चारित्ररूपी उत्कृष्ट वस्तुको जलाकर भस्म करती है. और सम्यक्त्वफा नाश कर आत्माको अनंत संसारी करती है. आश्वास १८६ तम्हा हु कसायग्गी पावं उपज्जमाणयं वेव ।। इच्छामिच्छादुक्कडवंदणसलिलेण विज्झाहि ॥ २६७ ।। जायमानः कषायाग्निः शमनीयो मनीषिणा ॥ इच्छामिथ्यातथाकारमणिपाताविवारिभिः ॥ २६७ ।। विजयोदया-तमा खु तस्मात्खलु कषायाग्निः पापमुत्पद्यमानमेव प्रशमयेत् । केन " इच्छामि भगवतः शिक्षा, मिश्या भवतु मम दुकृतं, नमस्तुभ्य " इत्येवभूतेन ससिलेन ॥ सहि स कथं संशमनीय इत्यत्राहः-- मूलारा इच्छेत्यादि-इच्छामि भवतां शिक्षामित्यभ्युपगमवचन । मिच्छादुक्कई मिथ्या विफलं भवतु मम दुष्कृतं, युष्मच्छिशावचनोलंघनलक्षणं दुराचरणमिति प्रार्थनावरनं । वंदण भगवतः प्रसीदत, नमस्तत्र भवद्भयो इत्यादिपूजावचनं, तत्ययसलिलेन विज्याहि विध्यापयेविध्यः । अर्थ-इसलिये यह कपायानि पापको अब उत्पन्न करेगी ऐसा समझकर उसके उत्पन्न होते ही अर्थात पापवर्धक कपाय उत्पन्न होते ही हे भगवन् ! मैं आपका उपदेश शिरोधार्य समझता हूं, मेरे पातक मिथ्या होवें मैं आपको बंदन करता हूं ऐसे वचनरूप सलिलसे शान्त करना चाहिये. तह चेव णोकसाया सल्लिहियव्वा परेणुवसमेण ॥ सण्णाओ गारवाणि य तह लेस्साओ य असुहाओ २६८ ॥ संलिख्य गौरवं संज्ञा नोकषाया महाभटाः ॥ समस्ता निंदिता लेझ्या समाधान यता सता ।। २६८ ॥ ४८६ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आमा १८७ विजयोत्या-तह वेब णोकसाया तथैव नोकषायाः तनूकर्तव्याः । परेणुषसमेण परेणोपशमेन । संझा, गारवाणि, अशुभाध लेश्याः, हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुरुषनपुसकवेदाः नोकषाया इत्युच्यते । माहारभयमैयुन परिग्रहाभिलाषाः संशाः । कटौ तीवाभिलायो, रसेषु, सुखच भारषशन उच्यते ॥ __ कपायधत्स्वाभ्रंशकरत्याविशेषान्नोकषायादीनामपि मुमुक्षोः सल्लेखनीयत्वमाख्याति ___ मूलारा-गोकसाया हास्यरत्यरतिशोकमय जुगुप्सास्त्रीवेदवेदनपुंसकवेदारुया नव । परेण उत्कृष्टेन । उसमेण उदयोन्मुख त्वनिग्रहलक्षणेन वैभाविकभायपृथग्भूनशुद्धस्यात्मभावनाप्रभवेन । साओ अनादिसंतत्या प्रवर्तमानाआहारभयमैथुनपरिग्रहाभिलापाः। असुहाओ फू लकपोतल-III अर्थ-पायके समान हासादि नवनोकपायोंका भी उपशमन करना चाहिये. अर्थात् नो कषाय भी कृश करने चाहिये, आहार, भय, परिग्रह और मधुन इनमें अमिलापा करना यह संज्ञाका लक्षण दे. कृष्ण, नील और कापोत थे तीन अशुभ लेझ्यायें हैं. हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नउ नोकपाय हैं. ऋद्धिमें तीव्र अभिलाप होना, रसोंमें तीन अभिलाप होना और सुखमें आसक्ति होना इनको मारव कहते हैं, ये नोकणय, संज्ञा, लेश्या और मारव उत्पन्न होते ही इनको उत्कृष्ट उपशमके द्वारा कुश करना चाहिये. -.- -.परिवाढिदोधाणो विगडसिराहारुपासुलिकडाहो । सल्लिहिदतणुसरीरो अज्झप्परदो हदि णिच्च ।। २६९ । वातावग्रहः साधुः प्रकटास्थिसिरादिकः ॥ सनूकृतसमस्तांगो भवत्यध्यात्मनिष्ठितः ॥ २६९ ।। विजयोदया-परिवह्निदोवधाणो परिवर्दिवावग्रहः अन्येषां पाठः परिवविवावधाणो परिवर्धिताषधानः। विथसिराहा पासुलिकडाहो प्रकटीभूना मइत्यः अल्पाच सिराः, पाश्र्वास्थिसंहतयः कटाक्षदेशाश्च यस्य । सल्लिहिदत. गुसरीरो सभ्यतनूतं शरीरं यस्य सः । अज्झम्परदो अध्यात्मध्यानं तन रतः। होइ भवति । णिच्चं नित्यं । कायक्लेशविशेषानुधानेन कृशतरीकृतशरीरोऽपि विशुदूपरिणामसंतत्या प्रवर्तभानो मुमुक्षुः संततं सद्धमान निष्ठितो भवति इति ऋषायसल्लेखनानुषिद्धकायसल्लेसनामाहास्यं गायाद्वयेनाह Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुलाराधना आश्वासा मूलारा-परिषट्टियोवहाणो समंताबहरहरुकर्षितमुपधानमवग्रहो येन । परिवट्टिदाबहाणो इत्यत्र पाठे परिवतिप्रमादपरिहार इत्यर्थः । वियव प्रकटीभूताः । पहारु स्नायुः। पामुलि पास्थिसंहतिः । कडाहो कटाक्षदेशः । नितंवसभीपदेश इत्यन्ये । सटिहिदतणुसरीरो सनुल लेखनारंभात्प्रागपि तपोविशेषैः कृशं यच्छरीरं सदेव तदा सम्यग्यशीकृतं यस्य येन वा ।। अर्थ-जिसने प्रतिदिन अनशनादि बाह्य तपोंके नियम घृद्धिंगत किये हैं; अथवा जिसने प्रतिदिन प्रमा। दका परिहार आंधकाधिकरूपसे बहाया है, बाह्य तप करनेसे छोटी और बडी सिरायें, शरीरकी दोनो पसवाडे की हड्डियां, और नत्रके अस्थि स्पष्ट दीख रही है. ऐसा वह क्षपक निर्दोष शरीरसल्लेखना करके अध्यात्मध्यानमें तत्पर होता है अर्थात् क्षपक शरीर सल्लेखनाके साथ कवाय सल्लेखना भी प्रमादका नित्य त्याग कर करता है. एवं कदपरियम्मो सनंतरबाहिरम्मि सल्लिहणा।। संसारमोक्खबुद्धी सव्वुवग्ल्लिं तवं कुणदि ॥ २७० ॥ पाहाभाभ्यंतरों कृत्वा योगी सल्लेखनामिति ॥ संसारयजनाकांक्षी प्रकृष्ट कुरुले तपः ॥ २७० ।। इति सहदवनासूत्रम् ॥ विजयोदया-पर्व कदाग्यिम्मो पषमुजन कमण छानपरिकस।सम्मंतरवाहिरम्मि सलिहणो अभ्यंतरसल्लेगानासद्वितायां वायरलेखनायां । संसारमोफखबुद्धी संसारत्यागे कृतयुद्धिः । सम्वुवरिलं तवं सर्वभ्यस्तपरेभ्यः उत्कृष्ट तपश्चर ति | सल्लेहणा सम्मत्ता। मूलारा - संसारमुक्खयुद्धी संसारत्यागतमतिः । सम्वुवरित सर्वेभ्यस्तपोभ्य उत्कृषं धर्मशुक्भ्यानलमगं । सल्लेखना सूत्रत: १६ अंकतः । ६६ ।। अर्थ-इसतरहसे शरीर सलखना और कषाय सरवनामें जिसने बाबतपका आचरण कर अभ्यास किया है संसारका न्याग करनेमें जिसने अपनी बुद्धि एकाग्र की है ऐसा वह क्षपक मर्वतपास उत्कृष्ट तप अर्थात उत्कृष्ट धर्मध्यान और उत्कृघ शुक्लध्यान करता है... ४८८ SHABAR Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ४८९ सलेखनानंतर कार्यमुपदिशति बोढुं गिलादि देहं पञ्ञोढव्वमिणमसुचिनारोति ॥ तो स्वभारभादो कदमरियम्मो गणमुवेदि || २७१ ॥ न शक्नोम्यशुचि याज्यमिदं बोतुं महत्क्षणि || विचिन्त्येति वपुत्यक्तुं गणं याति कृतकियः ॥ २७९ ॥ विजयोदया - बोढुं गिलादि देदं शरीरोइनहरहितः । पन्चोढव्वं इणमसुरमारोति परित्यागार्द्धमिव अशुचिमारमूर्त शरीरमिति कृतचित्तः । पश्चादुःखभारभी दो दुःखभाजनाच्छरीराङ्गीतः । कयपरिकम्मो कृतसमाधिमरणपरिकरः । म शिष्यवृंदे। उवेदि ढोकते । अन्येषाँ पा 'बोदुं गिलामि देहं ' इति ते व्याख्यानयंति-शरीरं बोढुं अकृतादरोऽस्मि । ग्रन्योन्यमिणम सुइभाशेति परित्याज्यमिदं अशुचिभारभूतं शरीरमिति कृतनिश्चयः । अब नित्यस्मृत्यर्थं नवलोकानिमान्पठेत् ६२ पायान समाधिमृजये बाह्यतपसा से लिखेद्रपुः ॥ १ ॥ उदयोपायमुत्पत्सामुदयं च तुदत्सदा ॥ sarasveerयाणां तपस्तप्येत तत्ववित् ॥ २ ॥ क्रूरश्यायात्मनां भावकोधादीनां प्रवर्तिनः ॥ व्यक्रोधादिपाकस्य हेतुं द्रव्यार्थिकं त्यजेत् ॥ ३ ॥ उत्पित्सून्कोपहारवादी भेदविज्ञानसज्जितैः ॥ जयेत्क्षमाद्यैः संकेळशका | रतच्छक्तिशातनैः ॥ ४ ॥ पायानात्मानो स्थायनोदीपोतान् || तदोषभावनैभिंगाद्गुषयेनियादिभिः ॥ ५ ॥ निश्चिकित्सस्य कोपाथा वर्धमानान्यथामयम् ॥ वृत्तं दृष्टं च संहृत्य द्रापयंति भवामयम् ॥ ६ ॥ 11918 ४८९ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ४९० छिया दिशमुत्राप्यपायावद्यभावनैः ॥ संज्ञाश्वतो दुर्लश्यस्तिस्त्रासंगतों गतः ॥ ७ ॥ भावयेच्छुचिद्रूपं स्वात्मानं नित्यमुद्यतः ॥ रागादशत्रूणामनुपस्यै क्षयाय च ॥ ८ ॥ निश्वयात्सं विद्वानंदाद्व्यरूपं तदरम्यहम् ॥ ब्रह्मेति संतताभ्यासात्कश्चित्तमश्नुते ॥ ९॥ इत्थं कृत्वात्मसंस्कारं कर्शितांगकषायकः ॥ शिवाशधरसंस्तुत्य सूरिपूतः स्वमुद्धरेत् ॥ १० ॥ लापरानुपपद गुलाराधनादर्पणे पदप्रभयार्थप्रकाशीकरणप्रवणे आत्मसंस्का रस लेखनाविधिवि धाको नाम तृतीय आवासः समाप्तः ॥ अथ चतुर्थ आश्वासः । सुभावितमनाः शमी स्वसदृशाय पाल्येऽर्पिते ॥ कृलक्षमणशासनः परगगप्रवेशोद्यतः . सुमार्ग्य गुरुमुत्तमं विवित्रिदाहस्तेन यो । विशोधयति सत्पथं स पदमाप्तुमेवेप्सितम् ॥ १ ॥ अथ खाननंतर करणीयाचार्यकपरित्यागक्रमोपदेशार्थ गाथाचकमाचष्टे - मूढारा—योदुमित्यादि । जवेदि उपैति ठोकते । कोऽसौ कवपरियमो कृतसमाधिमरणपरिकरो मुनिः । के ? गणं स्वशिष्यं । किंविशिष्टः सन् । दुःखभारभीदो दुःखभाजनाच्छरीरात्रस्तः । कुतो हेतोः १ ततः इति शब्द हेर्थे । यतो गिलादि ग्लायति क्षीणइर्षो भवति । कोऽसौ १ कृतपरिकर्मा । किं कर्तुं ? बोद्धुं ध। किं तत् । इणं इदं देहं । किंविशिष्टं पब्बोढव्वं परित्यागाई । कृतः असुइमारोति दोषधातुमलमूलत्वादपवित्र मौदारिकत्वाद्धारभूतम् यतः आश्वासः 8 ४९० Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराध भाधासः HER अथवा अशुचीनां भारः संघातः । अन्ये तु गिलामीति पठित्वा इत्यमर्थ कथयन्ति । गिलामि देई वोढुं अकृतादरोऽस्मि मोमि का : नः परित्या शनि शु. मे नेश्वयः । तो तत; सलेखनानंतर गणमुपैति ।। सल्लेखनाके अनंतर करनेके कार्यका उपदेश करते है अर्थ-यह देह अपवित्र पदार्थोंसे भरा हुआ है और भारभूत है ऐसा समझकर वह सल्लेखना करनेवाला मुनि शरीरको धारण करने में हर्षरहित होता है. दुःखका पात्र ऐसे शरीरसे भयभीत होकर समाधिमरणकी सामग्रीको अपनाता है. और अपने शिष्यों के पास जाता है. AARAMATA सल्लेहणं करेंतो जदि आयरिओ हवेज तो तेण ॥ ताए वि अवत्थाए चिंतेदव्वं गणस्स हियं ॥ २७२ ॥ अपि संन्यस्यता चिंत्यं हितं संघाय सूरिणा ॥ परोपकारिता सद्भिः पाणांतेऽपि न मुच्यते ।। २७२ ।। विजयोदया सालेहण करतो सल्लेखनां कर्तुमुखतः । जब यदि । मायरिभो बिज आचायों भवेत् । तो ततः । तेण तेन । ताप वि तस्यामपि । अवस्थाए अघस्थायां । चितेयव्य चितनीयं । गणस्स गणस्य । दियं हितं । सल्लेखनां कर्तुमुद्यतो विधा भवत्याचार्य इतरश्च । तत्र अनाचार्यः स्वचित्तविक्षेपकारणं परित्यजेत् । आचार्य: पुनः गणायापि हितं चिंतये दित्यनुशास्ति । मूलारा--ताणवि तस्यामपि देहत्यागोदोगलक्षणायाम् | अर्थ-सल्लेखना करने के लिए उद्यक्त हुभा चषक यदि आचार्य पदवी का धारक होगा तो उसने उग अवस्थामें भी-क्षपककी अवस्थामें भी अपने गणके हितकी चिंता करनी चाहिए. कालं संभाविता सव्वगणमणुदिसं च बाहरिय ॥ सोमतिहिकरणणक्वत्तविलग्गे मंगलोगासे ॥ २७३ ॥ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधा ४९२ विज्ञाय कालमा समस्तं गणमात्मना ॥ आलोच्य सदृशं भिक्षु समर्थ गणधारणे ।। २७३ ॥ विजशोदा - कालं संभाविता आत्यतः आयुःस्थिति वित्रार्य सधणं सर्वगणं अनुदिसं च बालवाच । चाहरिय घ्याहस्य | सोमतिद्विकरणपलिगे सीस्येदिने, करणे, नक्षभे, बिल। मंगला शुभे देशे। गणानुपालना स्वपदे अनुदिशः प्रतिष्ठाविधि गाधाद्वयेनाह - महारा---कालं संभाविना आत्मन आयुः स्थिति बिचायें । बाहरिय आकार्य मंगळोगा शुभे । अर्थ -- अपनी आयु अभी कितनी रही है इसका विचार कर नदनंतर अपने शिष्य समुदायको और अपने स्थानमें जिसकी स्थापना की है ऐसे बाल आचार्यको बुलाकर सौम्यतिथि, करण, नक्षत्र और लग्न के समय शुभप्रदेश— गच्छाशुपालनत्थं आहोइय अत्तगुणसमं भिक्खू || तो तम्म गणविसग्गं अप्पकहाए कुणदि घरी ॥ २७४ ॥ प्रदेशे पावनीभूसे वादनादिके दिने ॥ गणं निक्षिपते तंत्र स्वल्पां कृत्वा कथां सुधीः ॥ २७४ ॥ विजयोदयाच्छाकुपालपाश्थं गच्छानुपालनार्थे । आहोदय विद्यार्य । अन्तगुणसमें आत्मनो गुणैः समानं । भिष भिक्षु । तो ततः। सम्मि तस्मिन् । गणबिसगं गणत्यागं । अप्पकद्वार अल्पया कथया । कुणइ धीरो करोति धीरः । अन्ये तु वदंति अत्मनः कथयेति । मुलारा - आभोगिच चिचायें । अत्तगुणसमं आत्मगुणैः कृत्या समानं उच ज्ञानविज्ञानसंपन्नः स्वगुरोरभिसम्भतः ॥ facta धर्मशीलच यः सोऽईति गुरोः पदम् ॥ तो व्याहरणानंतरं । गणाविस गणत्यागं । अध्पकाए अल्पया कथया | अर्थ -- अपने गुणके समान जिसके गुण हैं ऐसा वह बालाचार्य गच्छका पालन करनेके लिये योग्य है ऐसा विचार कर उसपर अपने गणको विसर्जित करते हैं अर्थात् अपना पद छोडकर संपूर्ण गणको चालाचार्यकेलिये छोड ዳ ४९३ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूलारावना ४९.३ देते हैं, अर्थात् बालाचार्य ही यहांसे उस गणका आचार्य समझा जाता है, उस समय पूर्वाचार्य उसको थोडास उपदेश भी देते हैं, किमर्थमेवं प्रयतने सूरिः ? अन्योच्छित्तिणिमित्तं सव्वगुणसमोयरं तयं णचा || अणुजादि दिसं सो एस दिसा बोति बोधित्ता ॥ २७५ ॥ अचिच्छेदाय तीर्थस्य तं विज्ञाय गुणाकरं ॥ अनुजानाति संबोध्य दिगयं भवतामिति ॥ २७५ ॥ इति दिक्सूत्रम् । विजयोदयाच्चच्छित्तिणिमितं धर्मतीर्थस्य ज्ञानदर्शनचारित्रात्मकस्य व्युच्छित्तिर्मा भूदित्येवमर्थं । स गुणसमोरं सर्वगुणसमन्वितं । तगं तर्क णच्या शास्या अणुजादि अनुहां करोति । दिसं आचार्य । सो सः एयः । दिसा आचार्थः । योति युग्माकमिति । बोधिसा योधयित्वा ॥ दिसा समत्ता ॥ किमथ कथं चोत्तमाश्रचित पलाचार्य गणं समर्पयतीत्याह--- मूलारा — अतिणिनिनं घर्मतीस्य अविच्छेदर्थं । समोगरं समन्वितं । स्थानं वा तर्गतं । अजायादि पालयतु भवानिभं गणं इत्यनुमन्यते । अधीच्छति वा । दिसं एलाचार्य एस दिसा कोत्ति बोधित्ता एप आचार्यो युष्माकमिति बोधयित्वा सानुकंप प्रतिपाद्य शिष्यानिति शेषः । दिक् सूत्रतः १२ अंकः ५ ।। Į अर्थ – धर्मतीर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र स्वरूपी हैं. इसका नाश नहीं होवे, इस की परिपाटी अखंडरूपसे चलनी चाहिये इसलिये बालाचार्यको सर्व गुणोंसे परिपूर्ण समझकर यह तुम्हारा आचार्य है ऐसा गणको समझाते हैं, यदि पूर्वाचार्य अपने स्थान में अपनी योग्यताके धारक शिष्यकी योजना न कर ही समाधिमरणके लिये संघको छोड़कर चले जायेंगे तो संपूर्ण गणके रत्नत्रयधर्मका नाश होनेसे धर्मवीर्थका ही विन्देछेद होगा अतः मेरे स्थानपर मैंने इस योग्य शिष्यको स्थापा है और यह अबसे तुम्हारा आचार्य है ऐसा कह कर वे गी क्षमा मांगते हैं. इसका वर्णन इस प्रकार हैं. ( दिशा नामक प्रकरण समाप्त हुआ है. ) आवासः ४ ४९३ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आपासा RAMATARAARAratamarate क्षमामहणकर्म निरूपयति आमंतेऊण गणिं गच्छम्मि य तं गणिं ठवेदूण ॥ तिविहेण स्वमावदि हुस बालउदाउलं ॥ २७६ ॥ सकल गणमामन्य कृत्वा गणिनिवेशनं ।। स त्रिधा क्षमयत्येवं यालवृद्धाकुलं गणं । २७६ ।। विजयोदया-आमतेऊण गणि आमंत्र्य आचार्य । गच्छम्मि य गणे। तं गणि ठवेदृण आत्ममानुशात स्थापयित्वा, स्वयं पृथाभूत्वा । तिविधेण समावेदि खु सबालउडाउलं गच्छं मनोवाकाय हयति क्षमां स बालवृद्धः संकीर्ण गणं ॥ __ अथ समाधिसमार्थिनो मुमुक्षोः कृतात्मसंस्कारस्य सम्यग्वशीकृतकायकषायस्य प्रतिसरिसमर्पितशिष्यवृंदस्य | परगणं गन्तुमनसचिरसंघासदोषसंभाव्यमानांतःकालुप्यकलंकगणक्षमणाक्रम गाथात्रयगोपदिशति तत्रापि मरेर्गणक्षमणविधि गाथाद्वयेनाह भूलारा-तं गणपालनाय स्वयमनुज्ञातं । ठवेदूग गणमध्ये निवेश्य स्वयं च पृथम्मृत्वा । खमावेदि क्षम प्रायति स मृहदाचार्यः॥ अर्थ-उस नवीन आचार्यको आमंत्रणकर और उसको गणक चीचमें स्थापन कर और स्वयं अलग होकर बालमुनि, वृद्ध मुनि, इत्यादिकोंस पूर्ण ऐसे गणकी मन, वचन, कायसे क्षमा मांगते हैं. जं दीहकालसंवासदाए ममकारणेहरागेण ॥ कटुगपरुसं च भणिया तमहं सव्वं खमावेमि ॥ २७७ ॥ यदीर्घकालसंवासममत्वस्नेहरागतः ।। अप्रियं भणितं किंचित्तत्सर्व क्षमयामि वः ॥ २७७ ॥ विजयोदया- दीदकालसंचासदाए दीर्घकाल सह संयासेन यज्जातं ममत्यं, हो, द्वेषो, रागच तेन । जं यत् कडेगपकसं च भणिया कटुकं परुष वा वचः मणिताः। तं तत् युष्मान । सघं सर्वान् | समायेमि क्षमां ग्राइयामि । १ कबुग इत्यस्मादारभ्य भणिता इत्येतावत्पर्यता वाक्यपंक्तिः कपुस्तके नास्ति । ४९४ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास: मूलारा---ममकार ममेमे इति दुद्धिः । णेहरागेण स्नेहन प्रणयेन, रागोपायनिवारणामिलापः कल्याणप्रापणमनोरधन तेन । भाणा भाषिता यूर्य ! तं भो सब्वे तत्कटुकपरुषभाषणं युष्मान्सर्वान्क्षमयामि तज्जनितकालुष्यरहिता| करोमीत्यर्थः। अर्थ- मुनिगण! तुम्हारे साथ मेरा दीर्घ कालनक सहवास हुआ है इसलिय मैंने ममत्वसे, स्नेहसे, द्वेषसे आपको कटु और कठोर वाक्य कहें होंगे इसलिये आप सर्व मेरे ऊपर क्षमा करेंगे ऐसी आशा है. मेरे कटु कठोर भाषणसे आपके मनमें कलुषभाव उत्पन्न हुआ होगा तो उसको त्याग कर मेरे अपराध की आप क्षमा करो. गणेन संपाद्यक्रममाचष्टे वैदिय णिसुडिय पडिदो तादारं सब्बबच्छलं तादि । धम्मायरियं णिययं खामेदि गणो वि तिविहेण ॥ २७८ ।। प्रणम्य पतितः संघखातारं वत्सलं यतिम् ॥ धर्माचार्य निजं सर्व सम्यक् क्षमयति त्रिधा ॥२७८ ॥ इति क्षमणासूत्रम् । विजयोदया- वेदिय णिसुस्यि पडिदो अमिबंध संकुचितपतितः । तादारं संसारवुःखात्रातारं । सव्ववडलं सर्वेषां वत्सल । तादि यति । घम्मायरिये दशविधे उत्तमक्षमादिके धर्मे स्वयं प्रवृत्तं बन्ये प्रवर्तक । णिययं आत्मीयं । आत्भीयं । वामेदि गणो वि तिविहेण शमां प्रायति गणनिषिधेन । नमावणा समत्ता । गणेन कार्यमाणस्य क्रममाछ-- मूलारा-बंदिय णिमुडिय पडिदो बंदित्या संकुचितपनितः प्रणम्य भूतलन्यरतपंचांगोभृत इत्यर्थः । तादार गंसारवादक्षकं । तादि यति । णिययं निज ।। क्षमणा सूत्रतः ।। १३ ।। अंकत: ३ ॥ मणने भी आचार्य क्षमाके अनंतर कोनसा विधि करना चाहिये उसका वर्णन-- ___अर्थ-वंदना करके भूतलपर पंचागोंका जिन्होने स्थापन किया है अर्थात् प्रथम बंदना करके अनंतर पंचांग नमस्कार जिन्होंने किया है ऐसे वे गणके सर्व मुनिजन संसारदुःखसे रक्षण करनेवाले, सर्वके ऊपर प्रेम Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वासा रखनेवाले, उत्तमक्षमादिक दश प्रकारके धर्ममें स्वयं प्रवृत्त होकर गणको प्रवृत्त करनेवाल एसे अपने पूर्वाचायको मन बचन कायसे क्षमा मांगते है. शमणा प्रकरण समाप्त हुआ. अनुशासननिरूपणार्थ उत्तरप्रबंधः संवेगजिणियहासो सुत्तत्थविसारदा सुदरहस्सो ॥ आदहतियो वि हु चिंतेदि गणं जिणाणाए ॥ २७१ ।। स सुत्रार्थरहस्यज्ञः स्वार्थनिष्टोअप यत्नतः ॥ संविग्नश्चितयत्येवं गणं धीरो जिनाज्ञया ।। २७०॥ विजयोदश-संगजिगिदवासी संसारभीकतया करणभूतथा उत्पादितहाग्नः। परिग्रह स्मिस्त्यने अभ्यंतराश्च रागात्रयः निमित्तापायादपयांति । तदपगमात्तन्मूलस्थितीनि यमाणि प्रलयमुपयति । तेषु नाप्येष चतुर्गतिभ्रमण नयति इति विजितहषः सुतस्थविसाग्दो मुत्र जिनपणीत तदर्थ च विसारको निपुणः । सुदरहस्सो श्रुतप्रायश्चितग्रंथः। आरचितओ विए आन्मनयोजनाचतापरोऽपि । चितेदि गण जिप्पाणाप, जिनानामाझया गणचितां करोति। अब परगणं प्रस्थातुमुनातेन गुरुणा गणस्य संपाचमनुशासनं गायानामेकोतरशतेन निरूपयति तत्र तायदुपक्रममाह गलारा-वेगजाणिददासो संसारभीरुतया करणभूतयोपाहितो हासो हो येन । अस्मिन्बाहापरिपहे त्यक्ते नितिनापायावतरंगा रागादयो उपान्ति, तदप गमात्तन्मूलस्थितीनि कर्माणि नश्यन्ति, तेषु च नष्टेष्वेव चतुर्गतिभ्रमण यिनीति संजालप्रमोद इत्यर्थः सुदरासो अतप्रायश्चित्तग्रन्थः । चित्तेदि इति वारीच्यतानिरूपगेन अनुगृह्णाति ।। उपदेशका निरूपण करने के लिये उत्तरप्रबंध - अर्थ संसारसे भयमुक्त होकर परिग्रहविषयक हर्षका जिन्होनें त्याग किया है. जिनेश्वग्न कहे हुये सूत्रोंमें अर्थात आगममें और जीवादिक पदार्थों में जिन्होनें निपुणता प्राप्त कर ली है अर्थात् जिनागम और जीवादिकपदार्थोका जो ज्ञाता है, प्रायश्चित्त ग्रंथका जिन्होंने श्रवण किया है. ऐसे आचार्य आत्महितकी चिनामें तत्पर होते हुये भी जिनाज्ञाकी अनुमार चतुर्विध संघकी चिन्ता करते हैं. ये आचार्य संसारसे भययुक्त होकर परिग्रहोंक NAT.ANTHARATARinatanSmartAstotaMPEDA प m ARAKAMAKATRESHETAmAttact Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलारावना आश्वासः त्याग करते है. परिग्रहोंका त्याग होने रागादिक विकार दूर होते हैं. कारण निमित्त नष्ट होनेसे उससे होनेवाला कायं भी नष्ट होता है. रागादिकोंका नाश होनेपर उनसे जिनका स्थिनिबंध आम्मामें होता है ऐसे कर्म भी नष्ट होते हैं. काँका अभाव होनपर पार गनिमी में जीवका भ्रमण होना बंद पडता है. इसलिये संवेगयुक्त आचार्य परि ग्रहविषयक हर्षका त्याग करते हैं, ४९७ Amita णिन्द्रमहुरगंभीरं गाहुगपल्हादणिज्जपत्थं च ॥ अणुसिट्टि देइ तहिं गणादिवइणो गणस्स वि य ॥ २८ ॥ गंभीरा मधुरां स्निग्धां ग्राद्यामानंददायिनी ॥ अनुशिष्टिं ददात्येवं स गणस्य गणेशिनः ॥ २८ ॥ विजयोदया-णि मनहहितां । महु, माधुर्यसमाविai । गभीरं साराय तया गृहीतगांभीर्या । गायुगं ग्रा हिंको सुखाययोधां । पल्हादणिज्जपरळ च । चेताप्रल्हादविधायिनी । पत्थं पथ्यां हितां । अणुसिट्टि देह अनुशिर्षि ददाति । ताहि तस्मिन्पूर्वोने देशे काले च । गणाहिनहणो गणस्स यि य गणाधिपतये गणाय च।। कीटशीमनुशिष्टिं कम्मै स ददाति इत्यत्राह -- मूलारा—पिगमधुरगंभीर स्नेहलां, श्रोतृहृदयप्रियां, सारार्थवत्तया अस्पृष्टतलां च । गाइग ग्राहिकां घटित्यर्धनिश्चायनसमर्या । ग्राह्यामित्यन्ये पठन्ति । पल्हावाणिज्ज आनंदकरी । पत्थं मार्गानुगामिनी ॥ नहि तस्मिन्पूर्वोक्त सौम्य तिथ्यादियुक्तकाले शुभप्रदे च ॥ अर्थ---आचार्य गणत्याग करनेके पूर्व बालाचार्य और गणको जो उपदेश करते हैं उसका ग्रंथकार इस गाथासे वर्णन करनेका प्रारंभ करते हैं-आचार्यका उपदेश, स्नेहसाहित, मधुरतासे भरा हुआ, सारयुक्त अर्थसे भरा हुआ और गंभीर रहता है. उसका अभिप्राय सुखसे जाना जाता है. वह मनको आनंदित करनेवाला और हितकर होता है, आचार्य उत्तम तिथि नक्षत्रादि समयमें और उत्तम स्थानमें गण और बालाचार्य को अमंत्रण देकर आगे कहा हुआ उपदेश देते हैं. Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार ENDRA BHRADESH ववतओ बिहारो दमणणाणचरणसु कायवो ॥ कप्पाकप्पठिकाणं सवसिमणागदे मग्गे ॥ २८१ ।। रत्नत्रये विधालय बर्द्धमान प्रवर्तनम् ॥ कल्पाकल्पप्रवृत्तानां सर्वेषामागमिष्यति ।। २८२ ।। विजयोदया-गो विहारो फाययो वर्धमानविवारः कार्यः । क ? सव्येसि कप्पाकप्पडियाणं अणायदे मगगे सर्वेषां प्रवृत्तिनिवृत्तिस्थितानां मुक्तिमागें। प्रमत्तसंयताविगुणस्थानापेक्षया विचित्रो यतिधर्मः । दसणयदसामायिकादिविकल्पेन प्रवृतिधर्मपि विचित्ररूपः । तस्य सकलस्योपावानं सधैवामिायनेन । कोऽसौ मार्ग इत्याशंकायामाहसामान्येन सणणाणचरणेसु सम्यग्दर्शनशानचाणिषु चतुर्विकल्पगणोद्देशेनायमुपदेयाः । चतुर्विधगशमुहिश्योपदेशमाह मूलारा-विहारो अनुपानं । कप्पाकप्पठिदाणं योग्यायोग्यवस्तुप्रवृत्तिनिवृत्तिनिष्ठितानां । युष्माकं युष्माभिः कर्तव्य इत्यर्थः । अणागदे मग्गे आगामिनि रत्नत्रये मार्ग इति समान्यस्य दर्शनेत्यादिना विशेषितत्वात् ॥ तथा चोक्तम रत्नत्र्य विधातभ्य वर्धमान प्रवर्तनम् ॥ कल्पाकल्पप्रवृत्तानां सर्वेषामागमिष्यति अर्थ-प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग में रहनेवाले मुनि और गृहस्थोंके आगामि रत्नत्रय मागम हे मुनिगण! आप उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होने वाली प्रवृत्ति करो, तथा दर्शनाराधना. ज्ञानाराधना, और चारित्राराधनामें वृद्धिंगत होनेवाली प्रवृत्ति कगे. प्रमत्त संयत्त, अप्रमत्त संयतादि गुणस्थानों की अपेक्षासे यतिधर्मक भी अनेक प्रकार होते है. और दर्शन, व्रत, सामायिक बगरह विकल्पोंसे गृहस्थका प्रवृत्तिधर्म भी अनेक प्रकारका है, गाथा 'सब्वेसि 'ऐसा पद है इससे प्रवृत्ति निवृत्त्यात्मक और विकल्पसहित गृहस्थधर्म और मुनिधर्मका संग्रह होता है. ४९० १ बातगो इत्यत आरभ्य स्थिताना एतावत्सर्वता वाक्यपंक्तिः कपुस्तके नास्ति । . . - . . Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलराधना अश्विास ४९९ सूरये कथयति सखित्ता वि य पबहे जह वच्चइ वित्थरेण बढती ॥ उदधि तण वरणदी तह गुणसीलहिं वाहि ॥ २८२ ॥ संक्षिप्तेहादितोऽम्भोधि गछन्तीय महानदी ।। विस्तरन्ती विधानध्या गुणशालमवर्तना ।। २८२ ।। विजयोदया-संस्थित्ता बियपबहे संक्षिप्रापिच प्रवाश्यहायस्माविति प्रवाहः उत्पत्तिस्थाने तत्र संक्षि प्लापि सती परनवी। जहा था जति । चित्थर पृथुलतया। पती वर्तमाना। उदधिक्षण यावरसमुद्रातह गुणसीलेईि चाहि तथा शीलगुणस्त्वं वर्धस्व । गणाधिपमनुशासितुं द्वादशगाथाः कथयति मूलारा-सखित्ता बिय कृशापि । पबहे प्रवहणारंभे बजदि प्रजति । नदाध तेण। समुद्रं यावत् । वाहि बर्द्धव त्वं भो गणाधिपते ॥ बालाचायको आचार्यका उपदेश - अर्थ-उत्कृष्ट नदी जहांसे उत्पन्न होती है वहां छोटी रहती है परंतु वह आगे गमन करते करते विस्तृत होकर समुद्रको प्राप्त होती है. पैसे हे बालाचार्य आप भी मारंभमें अल्प प्रमाणसे शील, बत, धारण कर उत्तरोत्तर शील और गुणोंसे बढनेका प्रयत्न करो.. मज्जाररसिदसरिसोवमै तुम मा हु काहिसि विहारं ।। मा णासेहिसि दोण्णि वि अप्पाणं चेव गच्छं च ।। २८३ ॥ मा स्म काबिहार व माजाररसितोपमम ॥ मा नीनशो गणं स्वं च कदाचन कथंचन ।। २८३ ।। विजयोक्या-मज्जाररसिदसरिसोयम माओरस्य रसित रटन मार्जाररसितं तेन सह सायं उपमा परि ४९९ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ५०० कछेको यस्य विहारस्य तन्मार्जाररसितसदशोपमे विहारं चरण । मुमं भवान् । माहु काहिसि मा कापी । माारस्य रसित रत् कमेणापचीयते तदनत्रयभावनातिशयवती प्राक् कमेण मंदायमाना न कर्तव्येति यावत् । मा पासेहिसी दोषिण वि अत्ताणं चैव गच्छे च । आत्मनो गणस्य च मा विनाश कथाः । प्रथममेवातिदुर्धरचारित्रतपोभावनायां प्रवृत्तो भधान गणं च तथा प्रवर्त्यमानो नश्यति। मूलारा-मजाररसिदसरिसोवर्म मार्जाररसितेन चिदालबासितेन सहशा उपमा परिच्छेपो यस्य । यथा मार्जारमित प्राव महदप क्रमेण हीयमान भवति, तथा रलप्रयाभाषनात्य संपन्यते माफापीरित्यर्थः (7)| मेत्यादि। प्रथममेव अतिदुर्धरचारित्रतपोभावनायो गणं प्रवर्तयन् स्वयं प्रवृत्तः पश्चा दुश्वरया तत्र मंदायमानो मात्मानं गणं च नाशयिष्यसि इत्यर्थः । अर्थ-जैस भाजारका शब्द प्रथम वा और नंतर छोटा छोटा होता है वैसे प्रथम रत्नत्रयमावना अति शययुक्त कर अनंतर उसमें उसरोत्तर मंद मंदता धारण करना आपके लिये योग्य नहीं होगा. ऐसे आचरणसे आपका, संघका और दोनोंका भी नाश होगा. प्रथम ही अतिशय दुर्धर तप और चारित्रमें प्रवृत्ति कर गणका और अपना भी नाश कर लेना योग्य नहीं है. जो संघरं पिपलित णेच्छदि विश्झविदुमलसदोसेण ॥ किह सो सहिदव्वो परघरदाहं पसामेदं ॥ २८ ॥ बिध्यापयति यो वेइम नात्मीयमलसत्वतः परवेश्मशमे तत्र प्रतीतिः क्रियते कथम् ।। २८४ ।। विजयोन्या--जो समरे पि यः स्वगृहं दापि | दहामानमालस्थान बांति विध्यापयितुं कथमसी श्रद्धातव्यः परकीयगृदाई महामयितुं उद्योगं करोतीति । मया स्वयं यंदाचरणेनागि गणश्चरणे मंदायमानो रक्षिायते इति च मा मस्थास्त्वं यतः-- मूलारा-पलिदं दयमानं । पसामढुं प्रशमयितुमुयोगं करिष्यति । इत्युपस्कृत्य व्याख्येयम् । SE Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ-जो पुरुष आलसीपनसे अपने जलते हुये घरको शांत करनेका प्रयत्न नहीं करता है वह दुसरोंके 10 याश्वासा जलते हुये घरको शांत करनेका प्रयत्न करेगा यह कहना कैसा श्रद्धानके लायक माना जायमा? तस्माद्भवतैवं प्रवर्तितव्यमित्याचप्रे-- वज्जेहि चयणकप्पं सगपरपक्खे तहा विरोधं च ॥ वादं असमाहिकरं विसरिंगभूदे कसाए य ॥ २८५ ॥ मुंच च्यवनकल्पं त्वं विरोधं स्थान्यपक्षयोः॥ असमाधिकरं बावं कमायानग्निसन्निभान् ।। २८५ ॥ बिजयोदया---यज्जेहि बयणकए वर्जय अतितारप्रकारं शानदर्शनचारित्रविषयं । अवाचनाकाले अखाध्यायकाले बा पठनं । क्षेत्रशुद्धि, द्रव्यशुदि, भावादि वा विना निवः, ग्रंथार्थयोरशुखिः, अबटुमान इत्यादिको सानातिचारः। शंकाकांक्षाविचिकित्सान्याहिप्रशंसासंस्तथाः सम्यग्दर्शनातिचाराः । समितिभावनारहितता चारित्रातिचाराः । पते कयवनकल्पेनोच्यते । सगपरपषखे तहा बिरोहं च धर्मस्थेषु, मिथ्याष्टिषु च विरोधं वर्जयेत् । चेतःसमाधानविनावाकारण पाव वर्जनीयः। कवि प्रवृत्ती यात्मको अयः सायना परस्य वर भवति तदेवान्वेपते न तत्यसमाधानवान् । विसग्गिभूदे कसाये य । कषाया हि क्रोधादयः स्वस्य परस्य च मृत्यु उपानयंति रति षिषभूताः, हृदयं दहतीति दहनभूतास्तांश्च वर्जय। तथा चोक्त--त्रिलोकमल्लाः कुलशीलशत्रयो॥ मलानि तुर्माज्यतमानि चापि ते॥ यशोहरा हानिकरास्तपस्विनाम् । मयंति दौर्भाग्यकरा हि देहिनाम् ॥२॥ न केवलं ते परलोकलोपिनः, इमं च लोकं ऋशयन्ति दारुणाः॥ न धर्ममात्रस्य च चितघो, धनस्य कामस्य च ते विधातकाः ॥ २॥ मूलारा-चयणकप्पं च्यवन कल्पं सम्यक्त्यायतिचारप्रकारमित्यर्थः। सगपरपक्ने धर्मस्थेषु मिन्याष्टिषु च असमाहिका नेतःसमाधारानाशनं । विसरिंगभूदे कसाये य वादे हि प्रवृत्तो यथात्मनो जयः पराजयः परस्य वा भवति ५०१ तथान्येपते न तवसमाधानं । विसग्गिभूठे स्वस्य परस्य च मृत्युमुपानयंतीति विषतुल्यान, हृदयं दहन्तीति दहनसरशान् यतः। HARORK Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार इसलिये बालाचार्यकी प्रवृत्ति कैसी होनी चाहिये इसका वर्णन ग्रंथकार करते हैंयूलाराधना अर्थ-हे बालाचार्य ! ज्ञान, दर्शन और चारित्रमंबंधी अतिचारोंका न्याग करो. याचना काल और स्वाध्यायकालको छोड़कर अन्य काल में पठन करना, अथवा स्वाध्याय करते समय क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भाच शुद्धि के विना स्वाध्याय करना, ग्रंथको और पढानेवाले गुरुको छिपाना, ग्रंथ अशुद्ध पढना तथा अर्थका विवेचन अन्यथा करना, ज्ञान और ज्ञानवानोंका आदर न करना ये सम्यग्ज्ञानके अतिचार है. शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और संस्तव ये सम्यग्दर्शनके अतिचार है ( इनका खुलासा दर्शनविनयके प्रकरणमें आया है. समितीकी भावनाओंका अभाव होना यह चारिवातिचार है. इन सब अतिचारोंको च्यवनकल्प कहते हैं. इनका तुम त्याग करो स्वकपक्ष-जैनधर्मस्थ मुनिगण और परपक्ष मिथ्याष्टिजन इनमें रिकभावका समान कर, मन समाधानका नाश करनेवाले बादका भी त्याग करो. वादमें प्रवृत्त हुआ पुरुष अपना जय जिस उपाय से होगा और अन्यका पराजय जिससे होगा उसीको इंडता है. परन्तु वस्तुके · सत्यस्वरूपको पतलाकर समाधान करना नहीं चाहता है. हे पालाचार्य ! आप विष और अग्निके समान ऐसे क्रोधादिकषायाँका त्याग करो. ये कपाय अपनको और दुसरोंको मारते हैं इसलिए इनको विषसमान कहते हैं, अग्निके समान हृदय को जलाते है अतः इनको अग्नि कहते हैं. कषायके विषयमें पूर्षाचार्य ऐसा कहते है-- ये कषाय |लोक्यमें मल्लके समान है, कुल और शीलके शत्रु हैं. जिसको आत्मासे बड़े कष्टसे दूर कर सकते है ऐसे मलस्वरूप हैं, ये कषाय तपस्विओंका यश नष्ट करते है और तपका घात करते हैं. इन कपायोंसे प्राणिऑको दुर्भाग्य की प्राप्ति होती है. . . . . . . . . . . . इस कषायशत्रुस परलोकका ही नाश होता होता है ऐसा मत समझो. ये भयंकर कषाय इह लोकका भी REL नाश करते हैं. केवल ये कशय धर्ममात्र का ही घात कर रह जाते है ऐसा नहीं, इनसे काम और अर्थका, भी नाश होता है. णाणम्मि देसणम्मि य चरणम्मि य तीसु समयसारेसु ॥ ण चाएदि जो ठवेदूं गणमप्पाणं. गणधरो सो ॥ २८६ ॥ ५०२ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा मूलाराधना दर्शने चरणे ज्ञाने श्रुतसारेषु पस्त्रिषु ।। निधातुं गणमात्मानमसमर्श गणी न सः॥ २८६ ।। विजयोन्या-पाणम्मि य । रत्नत्रये गणमात्मानं च यो न स्थापयितुं समयों नशसौ गणधरः । प चापदि न । समर्थः । बहयो मम वशवर्तिनः सन्ति यतावता भरतो गणियों माभूदिति भावः। मूलारा-चाएदि शक्नोति । अर्थ--सिद्धांतके सारभूत ऐसे सम्बग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र में जो अपनको और गणको स्थापन करने में असमर्थ है वह मुनि गणधर पदके योग नहीं है. हुरमुनि मेरे इ सलियेगाधर आचार्य ई ऐसा गर्व तुम्हारे मनमें कभी भी उत्पन्न नहीं होना चाहिये. .. कीरकाहिं गणधरो भवतीति चेदेवभूत इत्याच - ' गाणम्मि दंसणम्मि य चरणम्मि य तीसु समयसारेसु ।। . चाएदि जो ठवेदु गणमप्पाणं गणधरो सो ॥ २८७ ॥ दर्शने घरणे जाने श्रुतसारेषु यस्त्रिषु ॥ निधातुं गणमात्मानं शक्तोऽसौ गदितो गणी ।। २८७ ।। विजयोन्या-सपार्था गाथा । . . . . अर्थ-सिद्धांतके सारभूत ऐसे सम्यग्दर्शन; ज्ञान और चारित्रमें जो अपने को और गणको स्थापन करनमें समर्थ है वही गणधर हो सकता है . : ... ... . . पिंडं उबाह सेज्ज अविसोहिय जो हु भुजमाणों हु । मूलठ्ठाणं पत्तो मूलोति ये समणपेल्लो सो. ।। २८८ ॥ ५०३ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ५०४ पिंडं उबहि सेज्जं उग्गमउप्पादणेसणादीहिं ॥ चारित्तरक्खणडुं सोधिंतो होदि सुचरितो ॥ २८९ ॥ यः पिंडमुपधिं शय्यां दूषणैरुद्मादिभिः ॥ गृहीत राहिल योगी संयतः स निगद्यते ॥ २८८ ॥ विजयोदया. पिंड आहारं, उचडि उपकरणं, सज्जं वसति । सोधितो शोधयन् । उग्गमप्यादणेसणादीहिं उद्गमोत्पादनेपणादिभिर्दोषैः । किमथै शोधयति ? चारित्ररक्षणार्थे उद्गमादिदोष परिहरति । सुसंयत इति लोके यशो मे भविष्यतीति वा स्वसमय प्रकाशनेन लाभो ममेस्थं भवतीति षा चैतस्यकृत्वेति भावः । पवंभूतः सुमरिनो भवतीति यतिः ॥ मूलारा -- उषधिं छिपकरणं । सोधितो शोधयन् उगमादिदोषरहिताः कुर्वन् । अर्थ- आहार, पिंछी, कमंडलु वगैरे उपकरण और वसतिका इनका शोधन किए बिना न करता हुआ जो मुनि इनका ग्रहण करता है वह मूलस्थान नामक दोष को प्राप्त होता है. अर्थात् वह मुनिषदसे भ्रष्ट होता है. परंतु जो आहार, उपकरण और पसविकाको उद्गम, उत्पादन और एषणादि दोषोंस रहित जानकर चारित्ररक्षण के लिये ग्रहण करता है वह सुचरित्र माना जाता है. एसा गणधर मेरा आयारत्थाण वणिया सुते | लोग सुहादा अपच्छंदो जहिच्छाए ॥ २९० ॥ . समये गणिमर्यादा तेषामाचारचारिणाम् || स्वच्छवेन प्रवर्तेत लोकसख्यानुसारिणा ॥ २८९ ॥ विजयोदया- एसा गणधर मेरा एषा गणधर मर्यादा सुसे परिणदा सूत्रे निरूपिता । केषां ! आयारत्थाणं आचारस्थानां । पंचत्रिये आचारे ये स्थितास्तेषां गणिनां व्यवस्था सुत्रे वर्णिता । लोगसुद्दाग्दणं लोकानुवर्तिनां सुखे सूनां च यथेच्छया असंतजनसंसर्गः सुखादर शाहले निषिद्धः तत्र ये बन्ले स्वच्छया ते अच्छे आत्मेच्छा पला न तेषां गणधरमर्यादा सूत्रे व्यावर्णिता । अथरा लोकसुखं नाम मृष्टाहार भोजनं यथाकामं मृदुशय्यासनं, मनोशे वेश्मनि घसने च तत्र रतानां विषयातुराणामित्यर्थः । आश्वासा ४ ५०४ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S मूलाराधना आश्वास मूलाय - गणधरमेरा आचार्यमर्यादा गणिव्यवस्था इत्यर्थः । आयारत्याणं आचारस्थानां गणिनामित्यर्थः। लोगसुहागुर दार्ग लोकानुबर्सिनो सुम्यसनां च । अथवा लोकसुखं नाम मुष्टाहारभोजन, यथाकानं मृदुशयनासन, सर्व रम्ये बमान बननं वत्र माना। लोगसुकीमियान लोकअतिथिटानिशानं । अपायो आत्मेन्टेव केवला न मूत्रोक्ता मगधरणादा। छाए यथेच्छया लोकसुण्यानुरतानामित्यनेन संभ्रषः । अर्थ-यह अच्छा संयत मुनि है, ऐमा मेरा जगत में यश फैले अथवा अपने मतका प्रकाशन करनसे मरेको लाभ होगा ऐसे भाव मनमें धारण न करके केवल चान्त्रि रक्षणार्थ ही निदाँप आहारादिकाको जो ग्रहण करता है यही सच्चरित्र मुनि समझना चाहिथे. ज्ञानाचारादिक पांच प्रकारके आचारों में जो स्थिर रहे हैं, अथान पांच आचारोंका जो निदोष पालन करते हैं, उन आचायोंकी जिनागममें उपर्युक्त मर्यादा कही है, परंतु जो लोकोंका अनुसरण करते हैं, और सुखकी इच्छा करते हैं उनका आचरण कुछ मर्यादास्वरूप माना नहीं जाता है. शास्त्रम असंयमीलोकोंके साथ संसर्ग और सुख में आदर करना ये यात मुनिओंके लिये निषिद्ध मानी है, परंतु इनमें जो अनुरक्त हैं व स्वेच्छासे प्रवर्तते हैं ऐसा समझना चाहिय. उनकी गणधरमर्गादा सूत्र में उल्लिखित नहीं है. अथवा लोकसुखका अर्थ यह भी होता है--यथेच्छ मिष्टाहारका भोजन करना, मृदुशम्यापर सोना, सुंदर घरमें निवास करना, एसे कार्यमें रत होना इसको लोक सुख कहते हैं, जो विषयासक्त मुनि हैं चे आचार्यत्वके योग्य नहीं है.. SORSANE सीदावेइ विहारं सुहसीलगुणेहिं जो अबुद्धीओ ॥ सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो ।। २९१ ॥ यः शिष्यानिवादतान् दोषाणामाश्रयाय दुष्ठराज तया विनिघुद्धि भूपतिरहितं हार सुग्नमुजिझतः ॥? हीनः संयमसारेण लिंगधारी स केवलम् ॥ २२० ।। विजयोदया--सीदावेदि मंद करोति । विहार चारित्रं रखवये प्रधान । सुहसीलगुपोर्हि सुखसमाधानाभ्यासैः । Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना ५०६ जो अबुद्धीभो यो युधिर द्वितः । सो गरि लिंगधारी स वृथाहंगी भयति, द्रव्यागं धारयति । संजयसारेण णिस्सारी संयमाख्येन इंदिप प्रापासयमविकरपेन सारेण निःसारः । एतदुक्तं भवति--- उदमादिदोपकुष्टसिदिमाहिणः संयमधुर्याटिंगधारणवयय कथयति मूलारा-सीदायदि तिथिळयति । विहारं चारित्रं । सुइसीलगुणेहिं यथेपिधादिप्रयोगसुखप्रवृत्तसमाधानाभ्यासैः । अथुद्धिगो बुद्धिरहितः । णवरि लिंगधारी घृयागी न यतिन गणधर इति भावः । णिस्सारो दरिद्रः ।। अर्थ यथेष्ट आहारादि सुखी में तल्लीन होकर जो अबुद्धि मुनि रत्नत्रयमें अपनी प्रवृत्ति शिथिल करता है वह द्रव्यलिंगधारी मुनि है ऐसा समझना चाहिये. इंद्रियसंयम और प्राणिसंयमसे वह निःसार है. इसका अमिप्राय यह है HINDISTANSARASTARA पिंडं उवधि सेग्जामविसोधिय जो खु मुंजमाणो हु॥ मूलठ्ठाणं पत्तो बालोतिय णो समणबालो ॥ २९२ ॥ विजयोदया–य उद्भमाविदोषोपहतमादार, उपकरणं, घसति घा गृजाति तस्य नेन्द्रियसंयमः, नैव प्राणसंयमः, ततोऽसौ केवलं नमन यतिन गणधर प्रति निगयते । अर्थ-उद्मादि दोषांसे युक्त आहार, उपकरण, वसतिका इनका जो साधु ग्रहण करता है. जिसको माणिसंयम और इंद्रिय संयम है ही नहीं वह साधु मूलस्थानको प्राप्त होता है. यह अज्ञानी है, वह केवल नन है, वह यति भी नहीं है और न गणधर ही है. कुलगामणयर-जं पयहिय तेसु कुणःइ दु ममति जो ॥ सो गरि लिंगधारी संजमसारेण जिरसारो॥५३ ।। ममत्वं कुरुते हित्वा यो राज्य नगरं कुलम् ।। तस्य संयमहीनस्य केवलं लिंगधारणम् ।। २९१ ॥ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा विजयोत्या-कुलगायतं कुलं, ग्राम, नारं. राज्यं च । पयद्विय परित्यज्य । हेसु कुणदि ममसिं जो प्रामादिपु पुन. यः करोति ममता । मदीय कुलं, असमदीयो ग्रामः, मगर, गव्यं चेति सोऽपि केवलं नमः । यो दि यत्र ममतां करोति रुस्य यदि शोमनं जातं तुष्यति अन्यथा द्वेष्ठि, संक्तियति वा । ततो रामद्वेषयोलभ च वर्तमानः असंयतो यवतीति भावः । लादिममकारकारिणोऽपि महारा--पथि चस्पा । यो नत्र auni गोति सोमनातुति अन्यथा डि, मविलयले या। गमा मानियो वायां वयं न पाविति भावः । अर्थ- जो मुनि बुल, गांव, नगर र राज्यको हाडकर उनमें पुरः भागारमा अर्थात यह मेरा कुल, यह मेरा ग्राम है, यह मेरा शहर है, मेरा राज्य है ऐसा संकल्प रखता है. वह पत्तनम है. संयमसे राहत है. जो जिस पदार्थमें ममता करता है वह उसका शुभ होनस हर्षित होता है और अशुभ होनेस द्वेष करता है अथवा संक्लेश परिणाम करता है. इसलिये जो रागभाव, पभाव और लाभमें लीन होता है वह असंयत होता है ऐसा समझना चाहिये. अपरिस्सावी सम्म समपासी होहि सव्वकब्जेसु ॥ संरक्ख सचखंपि ब सबालउढाउलं गच्छं ॥ २९४ ॥ त्वं कार्येष्यपरिस्रावी समयखिलेष्वपि । भूत्वा विधानतो रक्ष बालमृद्धकुलं गणम् ॥ २९२ ।। विजयोदया-अपरिस्सायी गुरुरयमिति शंकां विहाय निगदितानामपराधानां प्रकटन मा स्थाः । समपासी वेष होहि कसु कार्येषु सम्यह समनश्यप य भय । संरक्ख सचापि प परिपालय स्थं नेत्रं य । कि सपालमाउलं गच्छं सवालैपुजैराकीण गणं । एवं संयमशैथिल्ये दोपानुदाय्य गणिनं गणरक्षायां नियुक्त मूलारा-अपास्साबी आलोचितदोषाप्रकाशको भय । समपासी समदर्शी । सचक्लुंथि निजनेत्रमिव समालबुद्धाचलं बालसहित वृद्धराकीर्णम । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराना अर्थ- चायाचार्य : यह गुरु अपरिहावी है ऐसा समझकर शंकाको छोट कर यदि शिष्योंने अपने अपराध तुमको कोसी उनको तुम अगर मन करो. मात्र कायों में समानदी तुम होवो. और अपने नेत्रकं समान बाल और वृद्धामहित सर्व गणका रक्षण करो, आघात CATIONAL 4 णिवदिविहणं वेत्तं णिबढी बा जत्थ दुट्टओ होज || पन्यज्वा च ॥ लादि संजमघादो व तं जो ।। २९५ ॥ प्रत्रज्य संयमध्वंसि दृराजमपराजकम् ।। न क्षेत्रमात्मनीनेन सेवनीयं कदाचन ।। २९३ ॥ विजयोदया-नृपतिर्वा यक्षिानुष्ठो भवेत्तय क्षेत्र परित्यज । पवजा यलम्मवि जस्थ प्रत्रज्या धन लभ्यते यत्र । शिष्या न जायते तय । संजमघादी ष जत्थ संयमस्य चोपघातो यत्र क्षेत्रे ते वज्जो तत् त्यजेति 1 गणिशिक्षा ॥ गणिसिपना। साधूनामसेव्यं क्षेत्रमनुशास्ति । मूलारा---पव्वज्जा व ण लच्भदि । प्रव्रज्या वा न लभ्यते । यत्र शिपया न जायते तदपि क्षेत्र त्यज । अन्ये न न लयते दातुं कर्तुं नहीन थेनि व्यायाग्नि । अर्थ-जिन क्षेत्र में राजा नहीं हैं अथवा दुष्ट राजा है उस क्षेत्रका तुम त्याग करो. जहां प्रवज्या नहीं है अर्थात् शिष्य नहीं होगी अथवा जहां संयमका पात होगा उस क्षेत्रका तुम त्याग कगे, गणिशिक्षा अर्थान आचार्यको जिसमें उपदेश दिया है गला मणिशिशा नामक प्रकरण समान हुथा. - गणं शिक्षयत्युत्तर प्रबंधन कुणह अपमादमावासएसु संजमतवोवधाणेसु ॥ जिरसारे माणुस्से दुल्लहबोहिं वियाणिता ॥ २९६ ।। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाग 100 मायके कुधा जातु प्रसाद (वृत्त) वर्धके ॥ विज्ञाय दुर्लभां बोधि निःसारे मानुषे भवे ॥ २२४ ॥ विजयोदया- कृष्ण अमादमा येषु | अभ्यर्हितः संयम इति पूर्वनिपातः । भवति । असं व्यजनीति भावपक्रियाविद्युत्ती पिसारे मासे साररहिते मनुष्य बुद्धि । विजापिता झात्या | इतो गणं शिव- कुरुताश्वकेषु । सेजमा संयमस्य तपसश्राश्रविना न तपः शक्नोति कर्तुं मुक्तिमिति मानायिका प्रवर्तमानस्य संयो सत्यां कर्माणि तपतीति तयो भवति । नान्यथेति तपसोऽप्याश्रयः । अशुचिता मनुजानां असारं । तत्र दुर्लभ योधि दुर्लभां दीक्षाभिमुख मूलारा— कुणभ कुरुत यूत्रं भो यतयः अपनादं अवधानं । उपहाणं उपधानं अवग्रहविशेष: । विस्तारे अनिता अशुचिता वा साररहिने बोधि दुर्लभां दीक्षाभिमुख बुद्धिम् । अनि गण! मम प्रमादका त्याग करो क्योंकि आवश्य क्रिया संयम और तपका आश्रयस्थान है. संयम और तप इन दोनोमेंसे संयमको श्रेष्ठपना है इस लिये गाथामें संयम शब्द प्रथम और तप शब्द अनंतर है. संयमके बिना केवल तप मुक्तिदायक नहीं है. जब मुनि सामायिकादि आवश्यकों में प्रवृत्त होता है तब उसकी संयम प्राप्त होता है और असंयम का त्याग होता है, सावधक्रियाका त्याग होने पर तप कर्मीको संतृप्त करता है तभी उसकी तप यह संज्ञा प्राप्त होती है, अन्यथा नहीं, अतः आवश्यक क्रिया तपका भी आश्रय स्थान है, यह गनुजजन्म साररहित, अनित्य, अपवित्र है. ऐसे मनुष्यजन्म में दीक्षा ग्रहण करने के प्रति वृद्धि होना दुर्लभ है ऐसा जानकर पडावयकों में प्रमाद कभी भी तुम भत करो. समिदा पंचसु रामिदीसु सव्वदा जिणत्रयणमगमदीया || तिहिं गारवेहि रहिदा होह तिगुत्ता य दंडेसु ॥ २९७ ॥ संज्ञागीरवरौद्रार्त ध्यानकोपादिवर्जिताः ॥ समिताः पंचभिर्गुतास्त्रिभिर्भवत सर्वदा ।। २९५ ।। भाश्वासः ४ ५०९ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्व ५१० • विजयोदया-सम्यक्रप्रवृत्ताः होह भवत । पंचमु समिदीस पंचसु समिति । सम्पदा सर्वदा । जिणवयामशुगवमधीवा जिनचचनमनुगतबुद्धयः । तिहि गारवहि रहिया गारवत्रयरहिताः । तिगुत्ता य गुप्तित्रयसमन्विताः भयत । क्व दंडेसु अशुभमनोधाक्कायेषु । मूलारा-समिदा सम्यक् प्रवृत्ताः । तिदंडेसु अशुभमनोवाकायब्यापारेषु । अर्थ --हे मुनिगण ! तुम हमेशा पांच समितिओंमें तत्पर रहो. जिनेश्वरके वचन में अपनी बुद्धि लगाओ. अर्थात जिनपचनके विरुद्ध अपनी बुद्धिको मत दौडाओ, तीन गावसे रहित होकर तीन गुप्तिके धारक बनो. अशुभमन वचन और शरीरकी प्रवृत्तिका त्याग करो. सपणार कसाए बिय अढे रुई च परिहरह णिञ्च ।। दहाणि इंदियाणि य जुत्ता सव्वप्पणा जिणह ! २५८ ।। हृषीकदन्तिनो दुष्टाविषयारण्यगामिनः ।। जिनवाक्याशेमाशु वशे कुमत यत्नतः ॥ २९६ ।। विजयोदया-राणवायो संशा आहाशादिविषया: 1 फरसाण वित्रायानपि । आईमाईच आसरौद्रं च ध्यान । परिहारत निराकुरुत । णिश्च नित्य । दुाद दियाई धानी द्रियाणि च । जुत्तः शुसाशना नपसाव । व्यापणा जिण सर्वशक्त्या इंनियजयं कुरुत । मूलारा-जुना सानेन तपसा च ममादिना: । सयपगा रामना, सर्वसमायः । अर्थ सुनिगण ! आरारादि चारों-संजाप, बार स्याय, पानवाल और रांद्रयान इनका तुम सदा न्याग फरो. बान और तपसे दुष्ट इन्द्रियोंको अपने पूर्ण सामथ्यस जीतो. REALISA धण्णा ह ते मणस्सा जे ते विमयाउलम्मि लोयम्मि ॥ विहरति विगदसंगा गिराउला णाणचरणजुदा ॥ २९५ ।। - - Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - SATARA - आश्वर धन्यास्ते मानचा मन्ये ये लोके विषयाकुले । पलाशपना विचरति गत ग्रंथाश्चतुरग निराकुलाः ॥ १७॥ विषयोदया-धणा ने मणुमसा धम्मात धाः।के! जेवियाउला लोयम्मि ये सध्दादिमिराकाणे जगति । निगदसंग्रा निःसंगाः धचिदपि विदये स्पीदी । णिसउला निराकुलाःणांग वरणशुदा शनिन चारित्रण च युताः । मदारि भयुतानां मशंसा तावरजननसमर्धा मणस्थ । मूलारा-णिरावला निराकुलाः । अर्थ-स्पादिक पांच इंद्रियविषयोंसे भरे हुए इस जगत में ज्ञान और चारित्र में तत्पर होकर विषयों REA में अनासक्त रहकर निःसंग बनकर निर्याकुल होते हुए विहार करते हैं ये मनुष्य धन्य हैं. - CIRichers सुरसूसया गुरूणं चेदियमत्ता य विणयजुत्ता य । मज्झाए आउत्चा गुरुपवयणवच्छला होह ।। ३०० ।। बिनीता गुमठापाकारिणश्रेत्यभक्तयः ।। वत्सला भवत ध्याने स्वाध्यायोद्यतचेतसः ।। २९८ ।। विजयोदया-सुस्सुसगा गुरूर्ण सम्यग्दर्शनमानचारियैः गुणैर्गुरुतया गुरव इत्युच्यते आचार्योपाध्यायसाधयः। तेषां शुथूपाकारिणो भवत्त । शुश्रूषापरेण भाव्यं । लामादिकमनपेक्ष्य तेषां गुगेरनुरागः कुतो भवति । गुणानुरागाहर्शन. शुद्धिस्तदीयरत्नत्रयानुमननं च भवति । सुकरो छुपायः पुण्यार्जने अनुमननं नाम । चेदियभत्ता य चैत्यानि जिनसिद्धप्रति.. बिबानि कृश्रिमाकृत्रिमाणि तेषु भक्काः । यथा शत्रूणां मिया या प्रतिकृतिदर्शनाडेपो रागच जायते। यदि नराम उपकारो मुपकारोवान कृतस्तया प्रतिकृत्या तरुतापकारस्योपकारस्य वा अनुरूरपणे निमित्ततास्ति तद्वग्जिनसिद्धगुणाः अनंत शानदर्शनसम्यक्त्वधीतरागत्वादयस्तत्र यद्यपि न संति, तथापि तद्रणानुपरणं संपादयन्ति सादृश्यात्तश्च गुणानुस्मरण अनुरागात्मकं शानदर्शने सशिधापति । ते च संवर्गनिर्जर महत्यी संपादयतः । तस्माच्चन्यभक्तिमु प्योगिनी कुम्त । विगयजुदाय बिलयं नयति कर्मममिति विनयः। शानदर्शनतपधारित्रविनपा उपचारविनयश्चेति पंचप्रकारे दिनये युक्ता भयत ।। शास्त्रोक्तवाचनास्यास्यायकालयोरध्ययनं धुतस्य श्रुतं प्रयतश्च भक्तिपूर्य कृत्या, अषप्रई परिपध, बहुमान करवा, नियं निराकस्य, अर्थव्यंजनसदुभवशुदि संपाय एवं भायमान शुशाने संवर निर्जरां च करोति। अन्यधारानावरण. स्य कारणं भवेत् । MMAN Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क मृलाराधना आश्वास ५१२ शंकाकांक्षादिनिरासो दर्शनधिनयः । - सच प्रयत्नेन भयद्भिः संपाद्योऽन्यथा शंकादिपरिणामा मिथ्यात्वमामयति । दर्शनमोदनीयस्य यात्रा भयंति । ततो मिथ्यावर्शननिमित्तकर्मयशादनतसंसारपरिभ्रमणं दुःखभीकणां भवतां जायते। रूपरसगंधस्पर्शशम्देषु मनोकामनोकषु सनिहितेषु अनंतकालाभ्यासादागोऽग्रीतिश्च जायते। तथा कपायाश्च बाह्यमाभ्यंतरं च निमित्वमाश्रित्य प्रादुर्भवन्ति । से चोत्पद्यमानाचारित्रं विनाशयन्ति । फर्मादाननिमिसफ्रियोपरमो हि चारित्र। रागादयश्च कर्मादाननिमित्तक्रियास्तथा अशुमनोवाकायक्रियाश्च कर्मादाननिमित्ताः । तथा पदमीवनिकायपाधापरिहारमंतरेण गमने। मिथ्यात्वेऽसंयमे वा प्रब. तेकं वचनं साक्षात्यारंपर्येण या जीववाधाकरण । भोजने, समन्यवेक्षिताप्रमार्जितादाननिक्षेपी शरीरमलोत्सर्गो जीव. पीडाडतुरेताः कर्मपरिग्रहनिमित्ताः कियाः । आसां परिवर्जन चारित्रविनयः । व्याणिताशुमकियापरियजने विन। नारित्र नाम किमारंभघतां तस्मादधोद्योगं कुरुत ॥ अनशनादितशेजजितक्लेशसहन तपोधिनयः । सति सक्लेश महानायो भवेदल्या निर्जरा। उपचारविनयाद्विनीन इति पूज्यते बुधैरन्यथा अविनीत इति नियते। किं च उपचारविनयं मनोपा. कायचिकल्प यो न करोति, स गुरुन्मनसावजानाति, नाभ्युत्तिष्ठति, नानुगच्छति, नांजलिं करोति, न स्तौति, न त्रिशनि करोति, गुरोरप्रत आसनमारोहति, याति पुरस्तेषां, निवति, परुषं बदति, आक्रोशति वा स नीचैर्गोत्रं घनानि । तेन श्यपाकचांडालाविकुलेपु गहितेषु, सारमेयग्रामसूकरादिषु या जायते । नत्र रत्नत्रय गुरुभ्यो लमते । विनीतं हि शिक्षयन्ति गुरवः, प्रयत्नेन मानयंति च ततो विनयपरा भवत । भावनये दोषं बिनय च गुणे महांतमवबुध्य सझाप. आजुत्ता होह। शोभनं अध्ययनं स्याध्यायः । जीवादितत्वपरिशानं, तदुपायभूतथ था तस्मिन्स्वाध्याये आजुता आयुक्ता भवत 1 निहां हास्यं, कीडा, आलस्यं, स्टोकयात्रां च त्यक्त्वा || तथा चोर-"णि गा वहु मण्णेस्त्र हास र विवाजर ॥ जोग समणधामम्म गंजे अगलखो सदा " इति || गुरुपचयणयच्छल्ला होड गुरुप्रवचनवन्समा भवत ॥ मूलारा-- मत्मसगा पासपाः । गुरूगं आचार्योपाध्यायसर्वसाधूनां ।। आजुत्ता आसक्ताः निद्रादिक त्यत्वा भवत युवं । उक्तंच-णिदं ण बहु मणज्ज हासन्येदं विवज्ञाए । जोग्ग लमग धम्मस्स जुजे अणलमो सदा ।। अर्थ-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन गुणोंस जो बडे बन चुके हैं उनको गुरु कहते हैं. अर्थात् आचार्य, उपाध्याय, और साधु ये तीन परमेष्ठी गुरु कहे जाते हैं. हे मुनिगण! आप इन गुरुओंकी शुश्रूषा करो. लाभ कीर्ति, आदर इनकी अपेक्षा छोडकर हे मुनिगण आप शुश्रूषा करो. शुश्रूपासे गुणोंपर प्रेम होगा. गुणप्रेम करनेसे सम्यग्दर्शन निर्मल होता है. तथा गुरुओंकी शुश्रूषा करनेसे उनके रत्नत्रयके प्रति अपनी अनुमति है यह सिद्ध होता है अनुमतीसे परिश्रमके बिना ही पुण्यकी प्राप्ति होती है. हे मुनिगण आप अहन्त और सिद्धकी अकृत्रिम और ऋत्रिम प्रतिमाओंपर भक्ति करो. शत्रुओंकी अथवा ५१२ Soya Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलासवना माश्चासः मित्रोंकी प्रतिमा या फोटो दीख पढनेपर रेप और प्रेम उत्पन्न होता है. यद्यपि उस फोटोने उपकार अथवा अनएकार बुद्ध भी नहीं किया है परंतु वह शत्रुकृत अपकार और मित्रकृत उपकारका स्मरण होनेम कारण है. जिनश्वर और सिदोंके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, सम्यग्दर्शन, वीतरागतादिक गुणा यद्यपि अहत्पत्तिमा और सिद्धपतिमा में नहीं हैं तथापि उन गुणोंका स्मरण होनेमें ३ कारण होती हैं, क्योंकि अहंद और सिझोका उन प्रतिमाओमें सादृश्य है. यह गुणस्मरण अनुरागस्वरूप होनसे बान और श्रद्धान को उत्पन्न करता है और इनसे नवीन कोका अपरिमित संबर और पूर्वसे बंधे हुए कमौकी महानिर्जरा होती है. इसलिये आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होनेमें सहायक चैत्यभक्ति आप हमेशा करो. हे मुनिवृद! आप पांच प्रकारका विनय नित्य करो. 'विलयं नयति कर्ममलं इति विनयः' जो कमेमजा कमावतको विषय कहते हैं. इस विनयके ज्ञानविनय, दर्शनविनय चारित्रविनय तपो विनय और उपचारविनय एसे पांच भेद हैं. शास्त्रम वाचना और स्वाध्याय का जो काल कहा हुआ है उसी काल में श्रुतका अध्ययन करो, श्रुतज्ञानको बतानेकाले गुरुकी भक्ति करो, कुछ नियम ग्रहण कर आदरसे पढ़ो, गुरु और शास्त्रको छिपाकर स्वयं मैंने और मेरी बुद्धीसे सब श्रुतज्ञान धारण किया है ऐसा गवं मनमें धारण करना छोट दो. अर्थ शुद्धि, व्यंजनशुद्धि और उभयशुद्धिके साथ श्रुतज्ञानका अध्ययन करो. विनयपूर्वक अभ्यस्त हुआ श्रुतज्ञान कर्मोंका संवर और निजरा करता है. यदि विनय न होगा तो दोषसहित श्रुत्तज्ञान ज्ञानाचरण कर्मका निमित्त होता है, शंका, कांक्षा, विचिकित्सा इत्यादि दोषोंको जो हटाना वह दर्शन विनय है. इसकी आप प्राप्ति करने में प्रयत्न करो, नहीं तो शंकादिक परिणाम मिथ्यात्वको उत्पन्न करेंगे जिससे दर्शनमोहनीयके आसय आफर मिथ्यात्वी बनोगे. इस मिथ्या दर्शनके मिनसे बंधा हुआ कर्म वु:खभीरु ऐसे तुमको अनंत कालतक संसारमें भ्रमावेगा. इष्ट और अनिष्ट एमे स्पर्श रस, गंध, रूप और शब्दों में अनंतकालतक जीवका अभ्यास होनेसे उनमें गग और टेप उत्पन्न होने हैं. कपाय भी बाह्य कारण और अभ्यंतर कारणोंको पाकर उदयमें आ जाते हैं. उनके उदयन चारित्रका घात होता है. कर्मका जिन्होंमे ग्रहण होता है ऐसी मानसिक, कायिक और वात्रनिक क्रिया ओंका अभाव होनेसे चारित्र उत्पन्न होता है. राग, द्वेष, मोह वगैरह परिणामोंसे कर्म आत्मामें आता है, तथा मन, वचन और शरीरके अशुभ व्यापारोंसे आत्मामें नवीन कर्म आता है. पानी, हवा, अग्नि, पृथ्वी और वनस्पति ये पांच प्रकारके स्थावर जीव हैं. द्वीन्द्रियादिक जीवोंको त्रसजीव कहते हैं. इन छह काय जीवोंको बाधा हो इस Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वामः मूलाराधना ५१४ astetastatTRASISTER रीतीसे गमन करना, मिथ्यात्वमें और असंघममें जावाकी प्रवृति जिसस होगी एसा वचन बोलना, साक्षात् अथवा परम्परास जीवोंको बाधा देना, भोजन करना, कोईभी वस विना देये, बिना पोट, जमीनपरसे लेना और रखना, जमीनकी देखभाल किये बिना उसपर हगना. मृतना, बगर क्रिया करना. ये क्रियाय जीत्रपडिाका कारण है. इनका त्याग करनसे चारित्र विनय होता है. अगम क्रियाओंका त्याग करना यह चारित्रका लक्षण है. परंतु जो आरंभ क्रिया करते हैं वे चारित्र धारण नहीं कर सकते हैं. इस लिय हे मुनिचंद : आप चारित्रमें नित्य उद्योग अनशन, अवमोदर्य वगैरह तपास उत्पन्न होनेवाले परिश्रमोंको सहन करना यह तपोविनय है. सदि तप करत गमय आत्मामें संक्श परिणाम उत्पन्न होग नो कमौका महान आग्यच होगा और निर्जरा अल्प होगी उपचारविनय धारण करनेसे विद्वान लोक यह मान विनयशील है एमा समझकर पृषा करते हैं. यदि उपचार विनय निम न हो तो वह निदाका पात्र होना है. मानसिक उपचार विनय, चाचनिय पर विनय और कायिक उपचार विनय ऐम उपचार विनयक भेद है. इन विनयोंको जो मुनि धारण नहीं करना है. गुरुआकी मनम अबहलना करता है। गुरु आनेपर ऊठकर खडा होता नहीं वे जानेपर उनके पीछ जावा नहीं हात जोडता नहीं, उनकी स्तुति और विज्ञप्ति करता नहीं, गुरुक सम्मुख आसनपर चढकर बैठता है, उनके आगाम है. उनकी निंदा करता है और उनको कठोर दाद बोलना है, गालि देता है उसको नीचगोत्रका बंध होता है. इस कमके उदयसे वह मातग, चांडाल, धीवरादि निध नीच कुलोंमें जन्म लेता है. कुत्ता, सूकर, बगरह पशुआमें यह उत्पन्न होता है. जिंदा करनेवाले मुनिओं को गुरुस रत्ननयका लाभ होना नहीं. परंतु जो मुनि नम्रम्पभाना गुरु उसको प्रयन्नसे पढाते है और उसका आदर काते हैं. इसलिये हे मुनिगण ! आप बिनयम नित्य तत्पर रखी. अविनय दीपसे भरा हुआ हे और विनय में बई गुण निवास करते है ऐसा समझकर तुम स्वाध्यायमें अनुरक्त रहो. शोभन अध्ययनको स्वाध्याय कहते हैं. जीवादि तत्वोंका स्वरूप समझलेगा और उसका वर्णन करनेवाले पंचने पहना यह शोभन - उत्तम स्वाध्याय है. इसमें तुम हमेशा तत्पर रहो. सोना, हसना, खेलना, आलस्य, लोक व्यवहार इन बातोंको छोडकर तुम स्वाध्याय करो. पूर्वाचार्य इस विषयमें ऐसा करते हैं. 'मैं निद्रा को अच्छी नहीं मानता हूं. मैं हास्य और क्रीडा का त्याग करता हूं. मैं आलस्य छोडकर मुनिधमकी, योग्य क्रियाओंमें हमेशा ALLPA.. Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ५१५ उद्युक्त रहूं" हे मुनिद! तुम हमेशा त्रलोक्य में महान ऐसे सर्वज्ञ कथित आगम में प्रेम करो. ------- दुस्सहपरीसहहिं य गामवचीकंटएहि तिक्खेहिं || अभिभूदा विहु संता मा धम्मधुरं पमुच्चेह ॥ ३०१ ॥ मास्म घरं त्याक्षुरभिभूताः परीपदैः ॥ दुस्सहै| कंटकैस्तीक्ष्णग्रयिकवचोमयैः ॥ २५९ ॥ विजयोदया-दुस्सहपरीसदेर्ति य दुःसहै। परिषद्वेध | गामवचीमहि तिस्खेहिं अकोशवचनकंटकेस्ती | अभिभूदा चि य संता पराभूता अपि संतः । मा मधुरं मुच्चेह मा कृथा धर्मभारत्यागं । ननु च 'दुस्सहपरीसय अभिभृता मा धम्मधुरं मुखेड इत्यनेनैव आकोशपरीसह उपदिष्टं ? किमनेन गामबचीकेट ' स्यनेन ? | अयमभिप्रायः सूत्रकारस्य सोढवादिवेदनोऽपि न सहतेऽनिएं यचगोऽतिदुष्करमपि रात्सोव्यं इति दर्शनाय पृथगुपनम् । महारा- गाम्रवचीटो माम्याणामविविकजनानां वचनानि एवं कंटकाक्रोश चनैरित्यर्थः सोदक्षुदादिवेदनोऽपि हि नानिष्टं वचनं शक्नोति इति अनिदुःसहादाकोशवचनस्य प्रथगुपादानं अतिमहाको शवचनं भवद्भिः सोडव्यमित्युपदेशार्थं । अर्थ - दुःसह क्षुधादिक परीपहाँसे और ग्राम्यलोगोके तीक्ष्ण गालिबचनों से पीडित होते हुए भी दे गण ! आप धर्मभारका त्याग कदापि न करे. 'दुःसह परीपोंसे पीडित हो कर आप धर्मभार का त्याग न करो' वचनों हि आक्रोशपरिपह सहनका अन्तर्भाव होता है तो भी ग्राम्यतीक्ष्ण वचनाको सहन करनेका उपदेश क्यों किया है ? इस प्रश्नका उत्तर ऐसा है क्षुधादिवेदनायें सही भी जाती हैं परंतु अने वचन सहा जाया नहीं. अतिदुःसह अनिष्ट वचन भी मुनिगण को सहना चाहिये यह दिखानेका आचार्यका अभिप्राय था इसलिये 'गामी तिक्खहिं' ऐसा प्रथ वचन दिया है. आषासः ४ ५१५ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भावामः तपासूद्योगः सर्वप्रयत्लेन त्यकालस्यैर्भवद्भिः कर्तव्य इत्युपविशति-- तित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्ययधुवम्मि ॥ अणिगृहिदवलविरिओ तबोविधाणम्मि उज्जमदि ॥ ३०२॥ নিরিনিদলাপাহানি। अनिगुह्य उलं वीर्यमुद्यतःसने तपः ।। ३०० ।। विजयोक्या-निन्थयगे नीकरः नरनि मया येन भवाम्गनाय । कैयन नचिनेन गाधरेवलिंगनमनपनि श्रुत मण धरावा तीर्थमित्युच्यते । बदुनयकरणातीर्थकारः । अथवा 'निनु विदिशा ' इति प्यपत्ता नार्थशब्देन मागों रत्नयामकः उच्यते तत्करणातीर्थकरो भवति। चउणाणी मतिधतायधिमनःपयशानयान । समयहिदो सुरेधातुःप्रकारः पूजितः स्वर्गायतरणजन्माभिषेकपरिनिाक्रमणेषु । मिझिदयगध्रुम्मि नियोगमाधियां सिदागि। तथापि अणिमूहियबलविरिओ भनुपन्हुतबलवीर्यः । तवोत्रिहाणम्मि तपःसमानाने उजदि उयोगं करोति । तपस्युद्योगः सर्वप्रयत्नेन कर्तव्यः इत्युदेष्टुं गायाष्टाविंशति आचष्टे - मूलारा---मिज्मवययधुवम्मि अवश्यंभाबिन्यामपि सिद्धौं मयाम । आलस्य छोडकर सर्व प्रयत्नगे तपश्चरणमें तुम उद्योग करो ऐसा आचार्य उपदेश करते हैं. अर्थ-मनि, श्रुत्ति, अवधि और मनःपर्यय ऐन चार ज्ञानाक धारकः स्वगावतरण, जन्माभिषेक और दीक्षाकल्याणादिकोंमें चतुर्णिकाय देवासे जो पूजे गये हैं, जिनको नियममे मोक्षप्राप्ति होती है, ऐसे तीर्थकर भी अपना पल और वीर्य नहीं छिपात है और तपमें उद्युक्त होते ही हैं इसलिये तुमको भी तपमें उद्योग करना आवश्यक है, जिसका आश्रय लेकर भव्यजीव संसारसे तीरकर मुक्तिको प्राप्त होते हैं उसको तीर्थ कहते हैं, कितनेक भव्य जीव श्रुतसे अथवा गणधर की सहायतासे संसारसे उत्तीर्ण होते हैं, इसलिये श्रुत और गणधरको तीर्थ कहते है. श्रुत और गणधरको भी जो कारण हैं उनको नीर्थकर कहते हैं. अथवा 'तिमु तिदिति नित्थं' ऐसी भी तीर्थ दान्द्रकी व्युत्पत्ति है. सनत्रयात्मक मोक्षमार्गको नीर्थ कहने हैं, उसको जो प्रचलित करते हैं उनको तीर्थकर कहते हैं ऐसे तीर्थकर भी यदि नप करते हैं तो अन्य नि भी क्यों न करें ? । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना mon आश्वासा - - - -- किं पुण अवसेसाणं दुक्खक्खयकारणाय साहणं ॥ होइ | उज्जम्मिदब्बं सपञ्चवायम्मि लोयम्मि ॥ ३०३ ॥ मुमुक्षूणां किमन्येषां दुःस्वक्षपणकांक्षिणाम् ॥ न कर्तव्यं तपो घोरं प्रत्यवायाकुले जने ।। ३०१ ।। विजयोदया -किं पुष अवससाणं कि पुनर्न प्रयतितव्यं अवशिष्टः साधुभिः । दुक्षक्सयकारणाय दुःस्वविनाशन मिमित्तं । सापाये लोके आयुषः, शरीरस्य, बलस्य नीरोगतायाश्च धिनाशे अधिदितकाते सति, दावानलसमान मृत्याबायाति, लोकचनमिदं अमेष भस्मसात्कतु अद्य इत्यपि सुचिर निमिषमात्रेणापि मृत्युरेयान्न मासममासस्नुकलगयने संयमर ना प्रति वचनाधिषारकः स्थानावनायाति मृत्युस्ताय सपस्युयोगः कायः। न हि मृम्या देशनिगमोस्ति । स्थल पर प्रचारो यशा शकटादीनां । समीरणपथ एच ज्योतिषा, कालिद पव भीनमकगदीनां । कप्तमस्य पुनरस्व मृत्योः स्थल, जल, वियति च चिहतिः ! दहनस्य सुधारते. वा सुराधिपतेः, प्रभंजनम्य, शीतस्य या, हिमान्या वा अप्रवेशदेशाः सतिन तथा मृत्योः । पथापा निदानमान या धीनां पित्तानिलश्लपमरू । अपमृत्योः पुनरखिलमेर निदान । बासस्य, कफस्य, शीतोष्णमोहिमातपानां शक्यः प्रतीकारथिधिन पुनः संसारे मृत्योः। हिमोगवादीनां च कालो विदितोऽस्ति न तद्वदस्य । न वा हितमस्य फिनिशियते । यथा राहुबदनकुहरे प्रवेशो निशापतेः । असत्यपि मृत्युपनिपाने जीवतोऽयि कुरोगाशनिभ्यो महद्यं । यथा वियतो निपतत्पबुद्ध पराशनिः । आयुर्वलरूपादयश्च गुणास्ताचदेव यावश्नोपति रोगो देहं । यदललग्नस्थ फलस्य तापदपातो यावन्न श्वसनः । व्याधौ च बाध्यमाने देहे न सुखेन शक्यते श्रेयः कर्तु, यथा वेश्मनि दह्यमाने समन्तान प्रतीकारः | असत्नु वा रोगेषु रागशत्रुः सुहन्मुखः शत्रुरिव प्रवृद्धः यदा नरस्य चित्तं साधते न तदा समेऽधिकारः । पित्तोदयो घेद्यशुभप्रयोगः प्रशाम्यपि, रागोदयस्य प्रात्यहितस्य द्वन्तु प्रशमः सुदुर्लभः । यदैव व तस्य प्रशमोपलब्धिः पूक्तिकर्म प्रान्ती सदैव श्रेयमनी शक्ति पिनोपशान्ती कार्यचित्ते च मन्याधयो राग इत्येते प्रत्यवाया अगति, तांदचे. तसि कन्वा, गदा न न खेति सदोद्योगः कार्यः । मूलाराकि पुण पुनर्नान्यः साधुभिरुधमनीयमपि तु सपस्युद्यमः कर्तव्य एव । सपकचवायम्मि आयुःशरीरबलादिविनाशनातर्फितकालादिभाविना महिते । अर्थ-अन्य मुनिको भी संसारदुःखोका क्षय करनेके लिये क्या प्रयत्ल नहीं करना चाहिये ? अर्थात् उनको भी तपमें उद्योग करना अवश्य प्राप्त है. इस जगत में मनुष्यका आयु, शरीर, बल और आरोग्यका नाश कर ५१७ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा HT होगा यह समझमें नहीं आता है, मृत्यु दावानलके समान है. वह इस संपूर्ण जगवरूपी वनको कय दग्ध करेगा यह मूलाराधना हम नहीं समझ सकते हैं. मत्यु आज नहीं आयेगा, अशा एकपास, अर्ममार, दो महिना मागास, एक वर्ष तक आवेगा नहीं ऐसा खात्रीसे वचन नहीं कह सकते हैं. एक क्षणमें भी मृत्युका आगमन होगा. जस्तक मृत्यु आता नहीं तबतक तपश्चर्याका उद्योग करना चाहिये. मृत्यु अमुक स्थानमें रहता है ऐसा उसका प्रदेश निश्चित नहीं है, गाडी मोटर वगैरह स्थल परही गमन करते हैं. नक्षत्रसमूह आकाशमें ही भ्रमण करते हैं. मत्स्य, मगर वगैरह जलचर प्राणी पानीमें ही फिरते हैं. परंतु अत्यंत दुःख देनेवाला यह मृत्यु स्थलमें, जलमें, आकाशमें सर्वत्र भ्रमण करता है, अग्नि, चंद्र, सूर्य, इन्द्र, ठंडा अथवा उष्ण वायु, और बर्फ समदाय इनका जहां प्रवेश नहीं है ऐसे प्रदेश बहुत है. परंतु मृत्युका सर्वत्र अप्रतिहत संचार है. वात, पित्त और कफ ये रोग उत्पन्न होनेके कारण हैं परंतु अपमृत्युक लिय मय पदार्थ कारको सकते है. वात, पित्त, कफ, शीत. उष्ण, जलवृष्टि, रंडी, व इनका प्रतिकार करनेके पदार्थ है. परन्तु इस संरमें मृत्यु का प्रतिकार करनेवाला कोई भी पदार्थ नहीं है. शीतकाल, याकाल और ग्रीष्मकाल इनका समय लोगोंको ज्ञात होता है. परन्तु मृत्युका आगमनसमय किसी को भी मालुम नहा रहता है. जप राहके मुखम चन्द्रका प्रवेश होता है तब उससे छुडाने बाला हितकर पदार्थ कोई नहीं है उसी तरह मृत्यु जब जीवको पकडता है तब उसको उससे बचानेवाला कोई नहीं है. मृत्युके बिना भी अन्य पदार्थास प्राणिऑको भय उत्पन्न होता है, जैसे दुष्ट रोग, बज्रपात वगैरहसे भय उत्पन्न होता है. अशनिपात अचानक आकाशसे होता है. तद्वत् अचानक मृत्यु प्राणिको पकडता है. आयु, बल, रूप बगैरह तबतक देहमें स्थिर रहने हैं जबतक रोगसे यह ग्रसित नहीं होता. जबतक वायुका आगमन नहीं तबतक फल श्रुतमें स्थिर रह सकता है वह गिरता नहीं है, जब रोगसे शरीर पीडित होता है तब मुखमे आत्महित करना नहीं होता है. जैसे अग्नीसे घर चारों तरफसे जब घिर जाता है तब उपाय करना नितरां अशक्य है. शरीर में रोग नहीं हो तो भी जब मित्रके समान दखिनेवाला रागशत्रु इस मनुष्य के चिनको पीडित करता है तब यह मनुष्य समता धारण करने में असमर्थ होता है. वैद्यके अच्छे प्रयोगोंसे प्राणीका पित्तप्रकोप शांत होगा परंतु प्राणीका अहित करनेवाला रागभाव शांत होना पड़ा ही कठिन है. पित्त शांत होनेपर जैसा प्राणी स्वकार्यमें चित्त लगाता है, तथा पूर्वकर्म शांत होनेपर रागमाय शांत होकर आत्मकल्याण करनेमें मनुष्य समर्थ होता है. इस प्रकार इस जगतमें मृत्यु, राग Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PORA और रोग ये तप करने में व्यत्यय लाते हैं. ऐसा मनमें विचार कर जब ये देहमें नहीं होंगे तब तपमें उद्योग करना लाराधना चाहिये. आश्वासा ५. सत्तीए भत्तीए बिज्जावच्चुज्जदा सदा होह ।। आणाए णिज्जत्ति य सबाल उठाउले गच्छे ॥ ३.४ ॥ शक्तितो भक्तितः संघ वदलास्ते चतुधि । वैयावृत्यकराः शश्वजिनाज्ञामिर्जरार्थिनः॥ ३०२ ।। विजयोदया-सत्तीर भसीप शक्त्या भक्त्या स्त्र | पिज्जायन्युजवा वैयावृत्ये उद्यताः सदा होइ निस्य भवत । आणाप णिज्जरेतिय संवक्षानामाशा वयानुत्त्यं कर्तव्यमिति तदानया हेतुभूतया, यावृत्यं हि तपः तपसा निर्जरा भवतीति च । सबालउडाउले सह पालेर्वर्तमाना ये पृवास्तैराकीणे गणे॥ मूलारा---प्राणाए यावृत्त्ये कतेच्यमिति जिनानामाया हेतुभूतया । णिजरति वैयावृत्त्य निर्जराहेतभनत्वानिर्जरा इति कृत्वा ॥ अर्थ-बालमुनि और वृद्ध मुनिओसे व्याप्त एसे मुनि समुदायका यावृत्य करने में है मुनिवृदः तुम अपनी शक्तिसे और भत्तीस सदा उद्यत बनो. यावृत्य करना यह मुनिओंका कर्तव्य है एसी जिनदेवकी आज्ञा है एसा समझकर और यह वैयावृत्य तप है नथा निर्जराका कारण है ऐसा समझकर उसकं करने में तुम तत्पर रहो. वैय्यामृत्यं कर्तुमभ्युद्युक्तं प्रति इदमादर्शयति सेम्जागासाणसेग्जा उवधी पडिलेहणावग्गहिदे || आहारोसहवायणविचिन्वत्तणादीसु ।। ३.५ ।। उपधीनां निपद्यायाः शय्यायाः प्रतिग्दनम् ।। उपकारोऽनभैषज्यमलत्यागादिगोचरः ॥ ३०३ ।। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारापना आश्वास: ५२० विजयोदया--सज्जागासणिज्जा उपधी पहिलेहणा उघग्गहिदे । शय्यावकाशस्य, निषद्या स्थानस्य, उपक. रणानां च प्रतिलेखना, उपग्रह उपकारः । किंविषयः ? बाहारोसाइवायणविकिंवणुष्यत्सणादीसु योग्यस्य आहारस्य औषधस्य या दान स्वाध्यायस्योत्सारणं अशकरूप शरीरमलानरास उवत्तणे पावापान्तरस्योत्थापन । वैय्यावृत्त्यप्रयोगविधि गायाद्वयेनाह मूलारा-सेज्जोगास शयनस्यानं । पिसे। अपशस्थान : उनी कामानि । या प्रतिलेिकना । जबग हिधे उपग्रह उपकार इत्यर्थः । स चाहारादिविपयो पाहाः । आहारोसह योग्यस्थाबारम्यौपरस्य च दान । वायणा व्याल्यान । विचिणं अशकस्य कायमल शोधनम् । उत्तर्ण पात्पिाभन्निरोत्थानमः । चयापत्य करने के लिये उद्युक्त हुए मुनिओको वैयावृत्यका प्रयोगविधि बतलात है अर्थ--शयनस्थान, बैठनेका स्थान, उपकरण-पिंछी कमंडलु वगैरह इनका शोधन करना, आहार-योग्य निर्दोष आहार, निर्दोष औषध, देकर उपकार करना, स्वाध्याय करना अर्थात व्याख्यान करना, अशक्त मुनिका मला उठाना, उस मुनिको एक बाजुसे दूसरे बाजुपर उठाकर सुलाना बैठाना वगैरह कार्य करना यह सच वैयावत्यका विधि है. अद्धाण तेण सावयरायणदीरोधगासिने ऊमे !! बेज्जाबचं उत्तं संगहणारक्खणावेद ॥ ३०६ ॥ मार्गे चोरापगाराजदुर्भिक्ष्मरकादिषु ॥ वैयावृत्य विधातव्यं सरासंग्रहं सदा ॥ ३०४ ॥ बिजयोदगा-अद्धाण तेण सावरायणदीरोधगासिचे ऊम अध्वनां श्रमेण धांतानो पादादिमईनं । स्तनरुपया माणानां । तथा श्वापदैः, दुर्वा भूमिपाल, नवीरोधकः मार्या च तत्पद्रवनिरामः विद्यादिभिः । ऊमे दुर्मिश्न मुभिक्षेदशा. नयम । घेरजाघराने युतं येयावृत्यमुकम् । संगहसारक्वणोंवेदं संग्रहसंरक्षणाभ्यामुपेतः । मूलारा--अद्भाणं मार्गश्रमेण लानां पादादिगदनं । तेण चौरोपद्रवनिरासः । एवमुत्तरत्राप्युपस्कारः । करावा. गयग दीरोधकातिवे उपद्रव निराकार: · रोधक बंदीकारः । असिव गरके तदुपद्रवविनाशो विद्यादिभिः । ऊभे दुर्भिक्ष मुभिशंदशनयन | संग मा भेटत्यादि धेर्याधानपूर्वक सम्यगंगीकारः । मारकरखणं संरक्षण : ५२० Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूलाराधना ܐܬ݂ܳܬ݂ अर्थ- जो मुनि रास्ते के श्रम से थक गये उनकी पगचंपी करना, हस्तमर्दन, अंगमर्दन करना. जिन गुनिआ की चारसे उपद्रुब हुआ, दुष्ट पशुआंसे पीडा हुई हो, राजासे कष्ट पोहोंचा होगा, नदीके द्वारा कोई मुनि रुक गये भारी रोग से पीडित होगये तो उनका उपद्रव विद्यादिकोंसे नष्ट करना चाहिये. यदि कोई मुनि दुर्भिक्षपीडित हुए हो तो उनको सुभिक्ष देशमें लाकर उनकी पीडाका परिहार करना चाहिये. इन सब कार्योंको वैयावृत्य कहते हैं, ऐसे कार्य करने से पुनिओंका मंग्रह होता है. और आप डरो मन ऐसा बोलकर उनमें धैर्य उत्पन्न कर उनका अंगीकार करना चाहिये. कृयाकरणं निति अणिगृहिद बलवरिओ वेज्जावचं जिणोवदेसेण || जदि ण करेदि समत्यो संतो सो होदि गिद्धम्मो ॥ ३०७ ॥ समग्र वित्त यो वैयावृत्यं जिनाज्ञया ॥ तो निर्धर्मकः सकः ॥ ३०८ ॥ विजया अभिहितेत्यादिना निगूढची वैयावृत्यनिपदिक्रमेण न करोति । शक्तोऽपि सन स निर्धमभवति भवति इति मत्रार्थः । भैयावृत्त्या करणे दोषान्गाश्रायेनाह ... मूल:रा स्पष्टं । जो मुनि वैयावृत्य करता नहीं उसकी निंदा करते हैं अर्थ-जिसन अपना बल और वीर्य छिपाया नहीं है, और जो समर्थ है तो भी जिनेश्वरने कहे हुए क्रमसे जो वैयात्य करता नहीं है वह मुनि निर्धर्मा है अर्थात् असे भ्रष्ट हुआ है ऐसा समझना चाहिये. ऐसा इस सूत्रका अर्थ है. अवका १ ५२. Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आवार दोघांतराणि व्याच.... तित्थयराणाकोधो सुधम्मविराधणा अणायारो || अप्पापरोपवयणं च तण णिहिद हाँद ॥ ३०८ ॥ आज्ञाकोपी जिनंद्राणां श्रतधर्मविराधना ।। अमाचार: कृतस्तंन स्वपरागमवर्जनम् ॥२०॥ विजयोदया-तित्थयराणाकोधो तीर्थकराणामाशाकोपः । सुवधम्माधिराहणा शुतोपविष्टधर्मनाशनं । अणाचारो आचाराभाषः याश्याक्ये तपसि भतः । अपापरोपषयणं च तण णिज्जूद्विव होदि। आरमा साधुषर्गः प्रवचनं च स्यक्तं भवति । तपस्यमुद्योगादात्मा स्यक्तो भषति, आपघुपकाराकरणाचतिधर्गः, श्रुतोपविष्टस्याकरणादागमश्च त्यक्तः॥ मुलारा-कोवो भंगः कृतो भवतीति शेषः । सुदधम्मविराणा शुतोपदिष्टधर्मविनाशः । यावृत्याख्ये तपस्यप्रवृत्तेः । णिज्जूहिदं सपस्यनुद्योगादात्मा त्यक्तः । आपापकाराकरणातिवर्गः । श्रुनोपदिष्टस्याकरणादागमश्च । अन्य दोषांका भी वर्णन करते हैं -- अर्थ ..याधृत्य करना चाहिये ऐसी अर्हत्परमेश्वरकी आज्ञा है परंतु जो वैयावृत्य नहीं करता है उसने उनकी आज्ञाका भंग किया है ऐसा समझना चाहिये. वैयावृत्य न करनेसे शास्त्र में कहे हुए धर्मका नाश होता है. वैयावत्य नहीं करनेसे मुनि मुनिघमका आचार पाल नहीं सकेंग इसलिये धमबिनाश होगा. अनाचार होगा. क्योंकि, कोई भी बयावत्य नामक तपमें प्रवृत्त नहीं होंगे, वयावृत्य न करनेसे अपना, साधुवर्गका और आगमका त्याग होगा. तपश्चरणमें उक्त न होनेमे अन्माका त्याग हुबा, संकटमें उपकार न करनसे यतिओंका त्याग होता है. और शास्त्रोपदिष्ट वैयावृत्यका पालन न करनेस आगमका त्याग होता है. वयावृत्य न करनेस एमे महादोष उत्पन्न होते है. ५२ १ कपुस्तके - पयाग्रस्त्याख्ये तपसि ' इत आरभ्य अनेतनमाधाद्वयं तट्टीका प मोपलम्धा । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आप गुणान्यावृस्यकरणे कथयति गाधारयेन गुणपरिणामो सवा वच्छल्लं भत्तिपत्तलंभो य || संधाणं तवपूया अव्वोच्छित्ती समाधी य ॥ ३०९ ।। विजयोवया-गुणपरिणामो यतिगुणपरिणतिः । सट्टा था | वाल वात्सत्यं । भक्तीभक्तिः । एत्तलभो य पात्रस्य लाभः । संधाणं संधानं । तप तपः । अत्रुग्छिसीय तिन्थस्य अन्यच्छित्तिध तीर्थस्य । समाधी य समाधिश्च । वैयावृत्यकरणे इष्टादशगुणान्गाधाद्वयनोदिशति-- मूलास--गुणपरिणामा वैयावृत्यकरस्य वाश्यमानसाघुगुणेषु यामना । क्रियमाण यायन्यस्य ग साधन सम्यक्त्यादि गुभोपु प्रबंधन प्रवृत्तिः । पनलमी पावस्य लाभः । संधाणं कुनश्चमिछिन्ना दर्शनासाना आमनि पुनः संयोजन । चैयाकृत्य करनेसे उत्पन्न होनेवाले गुणों का वर्णन आचार्य दोन गाथाओंसे करते हैंअर्थ बैयावृत्य करनेसे इतने गुणाकी प्राप्ति होती है.--- १ गुणपरिणाम-मुनिगुणोंकी वैयावृत्य करनेवाले में परिणति होती है. उपसर्गादिसे जिसको पीडा हुई है एसे मुनिके गुण मरको प्राप्त हो ऐसी इच्छा वैयावत्य करनेवालके मन में उत्पन्न होना यह गुणपरिणति शब्दका अर्थ है २ श्रद्धा करना, ३ भक्ति ५ वात्सल्य ५ पात्रलंभ- पात्र की प्राप्ति होना ६, संधान किसी कारण से विच्छिन्न हुए सम्यग्दर्शनादिकाको आरमामें जोड देना, ७ तप ८ पूजा ९ तीर्थाव्यन्छित्ति तीर्थकी परंपरा सतत रहना अर्थात धर्मका नाश न होने देना. १० समाधि आणा संजमसाखिल्लदा य दाणं च अविदिगिंछा य ॥ वेज्जावश्चरस गुणा पभावणा कज्जपुष्णाणि ॥ ३१ ॥ गयम्-गुणपरिणामश्रद्धावात्सल्यभक्तिपात्रलाभसंधानतपःपूजातीर्थाविच्छित्तिसमाधिजिनाज्ञासयमसाहाय्यदानाविचीकत्साप्रभावनासंघकार्याणि वैयावृत्त्यगुणाः ॥ ३०७-३०८ ॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना RA विजयोदया-आणा संजमसाखिल्लना य आज्ञा संयमसाहाय्य च । दाणं च दानं च । सर्वोपदिश्वैयावृत्यकmatशा संपाविता| आशासंपादनमाज्ञासयमः । परस्य यावृस्यकृत उपकारः। रत्नषयस्य निरनिचारस्यबानं । संजममाबिलदाय संयम साहायमिति चार्थः । अयिनिागदा य अयिचिकित्सा म । यजामश्वस्स गुणा पंच्यात्त्यस्य गुणा: पमावा प्रभाव ना च । कपणाणि कार्यनिवानि च। मलाग -माबिलिदा सादाभ्यं । नाग जितिनाग्रलय पान || . मायागंयम, मानापमान नियमित प्रभावना काय निर्वाहण एम यादन्यक ठारह गुण है... : यज्ञन यावन्य करना यह मनित्राका कर्तव्य है सी आज्ञा दी है. उनकी आनाका संपादन करना चाहिये अशीत मुनिओक संयममें वैयावृत्य करके उपकार करना चाहिये, संयमसाखिल्लदा मयम में महापता करना. गुणपरिणामो इत्यतत्पदं व्याचऐ मोहग्गिणादिमहदा घोरमहावयणाए फुटतो ॥ डाझदि हु धगधगंतो ससुरासुरमाणुसो लोओ ॥ ३११ ।। दहाते सकलो लोको महता मोहबहिना । धरधगित्येष कुर्वाणो महाबेदनया स्फुटम् ॥ ३०५ ।। - विजयोन्या-मागिणा असामाहिना । अदिमहदा अतिमहता, सकन बस्नुधिपयनया महदशान नेग उज्झदि वहान शेरमजांयत्रणाप बोरया महल्या ववनया। कुतो विशीयमाणः । धगधगंतो धगधगायमानः । समय खुरमाणुसी लोगो देवासुरमानुपैः सह वर्नमामो लोकः ॥ गुणपरिणाम गायानुष्टयेन व्याचऐ मोहग्गिाणा गगवाह गम्यत्यादिप्रययलक्षणानमिना । अदि महदा मलबस्तुस्पियन या अनि विपुलन । फटन्ना विशीयमा: | गवगतो धगधगायनान, जाम्बल्यमानत्यर्थः । लोगो बाहि गरमप्राणिगणः । गुणपरिणाम इस गुणका स्पष्टीकरण करते हैअर्थ- यह जगत मोहरूपी अग्नीस अधीत अज्ञानरूपी अग्नीसे जल रहा है. इस अग्नीन संपूर्ण वस्तुय Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास २१ घरली है. इस के द्वारा सर जीव दग्ध हो रहा है. इससे होनेवाली घोर वेदनासे उनके अंग फुटने लगे हैं. और उनको बडा ही दाह हो रहा है. इस अग्नि में केवल मनुष्य और पशु ही दग्ध हो रहे हैं ऐसा नहीं समझना परंतु समस्त चतुर्णिकाय देव भी जल रहे हैं. तात्पर्य यह है कि जगतके समस्त जीत्र वस्तुओका यथार्थ स्वरूप जानने में असमर्थ है. उनमें गाड अजान मा है. दिम्मि पारि मुगिणा णाणजलोबग्गहेण विझविदे ।। डाहुम्मुक्का होति हु दमेण णिचंदणा चेय ।। ३१२ ॥ नत्र विध्यापित सद्यो भूयसा ज्ञानपाथसा || मन्ना यमपयोराशौ सुनायं तपोधनाः ।। ३१० ।। विजयोदया-म्मि पलस्मिम्लोके दह्यमाने । वरि पुनः मुगिणो णिवेदणानेच हति मुनर पर निशाना भवन्ति । कथं ? पाणिजलोवरगहण ज्ञानजलोपग्रहेण । विजयविदे नशे मोहाना। तुम्सुका दादोन्मुक्ताः। बमेण गगड़े पपशमन च । एतदुनं भवति---समीचीनमानजलप्रवाहोन्मूलितानानयनिग्रसरत्वं नाम बनीना गुण निवेदनाव नति। मूलारा – निमि कस्मिन्लोक दल माने । गरि पुगः । गजलोयग्रहेण अस्मदेहादिभेदज्ञानसलिलपराहेण त्रिवि विध्यायिने । मोहमहाधिगि शेपः । अन्ये तु पदमी यम्य मोहानावित्यथ माहुः । दमेण रागद्रेपप्रशमन । शिवदणा चेव मुनय एवं निदा मगन्नीत्यर्थः । एतदुक्तं भवनि- ममीचीन ज्ञान जलानमरत्वं, बिनदनत्व व नातीनां गुणा ज्ञानानंदमय इत्यथ । अर्थ-गह मय जगत् अझानाग्निमे जल रहा है परंतु मुनीश्वर ज्ञानमय जल प्रवाहमे मोहरूषी अग्नि को बुझाकर भ्रान्ति: संशय अनध्यवसायादि वेदनासे मुक्त हुए हैं. अर्थात उनको देह और आनमा भित्र भिन्न है ऐसा ज्ञान हुआ है, देहही म हूं यह भ्रान्ति उनके हृदयसे नष्ट हो गई है. मुनिओने जितेन्द्रियता और गगद्वेषका उपशम इन उपयोंसे 'अज्ञानजन्य वेदनाका नाश किया है. अभिप्राय यह है कि मुनि सम्यग्ज्ञानरूपी जलप्रवाहसे अज्ञानाग्नि समृल शांन कर वदना रहित हुए है. 4 ५२५ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा मूलाराधना aretets जिग्गहिदिदियदारा समाहिदा समिक्सयपेढुंगा। धण्णा णिराषयरखा तबसा विधुणंति कम्मरयं ॥ ३१३ ॥ निगृहीतेन्द्रियद्वारः सर्वचेष्टासमाहितः ।। धन्यैस्तपःसमीरेण धूयन्ते कर्मरेणवः ।। ३११ ।। विजयोदया-णिग्यहिदि दियदारा इंद्रियं द्विविध दुव्येन्द्रियं भावन्द्रियं इति । नत्र द्वन्यद्रिय पुदगलम्कंधा आत्मप्रदेशाश्व तदाधाराः । भावन्द्रियं ज्ञानावरणक्षयोपशम इंद्रियजनिनो रूमानुपयोगध । नहोमपोगेन्द्रिय गृहीतं तत्साहचर्याद्रागद्वेषायमनोश भनोझच विश्वये प्रवृती । इह पापकर्मनिमित्ततया रद्रियारशनोच्यते । नायमर्थःनिगृहीतंद्रिययिषपरागोषा इति 1 समाहिदा रत्नत्रये समपहितचित्ताः । समिदसम्बचेगा सम्यक्प्रवृत्तसहाः चषणा पुण्यवंतः गिराषपक्खा निश्चला इति केचिद्वदन्ति । अन्ये निरपेक्षाः सत्कारं लाम यानपेक्षमाणाः इति कथयति । तपसा विधुणंति कम्मरण तपसा कर्मरजोषिधूननं कुर्यन्ति । निगृहीतेन्द्रिय, रत्नत्रयैकाग्रता, निरषयचेशवत्ता, सत्कारादेनिरपेक्षता, तपसि वृत्तता, कर्मरजोयिधूननं च यतिगुणाः पतया गाथया सूचिताः। मुलारा - णिग्गहिदिदियदारा निगृहीतेन्द्रियविषयरागद्वेषाः । समाहिदा रत्नत्रये समाहितचिताः । समिदा सम्यक्प्रवृत्ता । चिट्ठा ईर्याभाषादिप्रवृत्तिः । णिरावयाला निश्चला सत्कारादिनिरपक्षा वा। अय जितेंद्रियत्वं, रग्नत्रयकामता, निरवायचेपत्वं, सत्कारादिनिरपेक्षता, तपसि वृत्तिमत्ता, कमरजोबिधूननं च यतिगुगाः चिनाः ।। अर्थ-ट्रव्येद्रिय और भावद्रिय ऐसे इंद्रियोंके दो भेद है. पहलम्कंधांकी इंद्रियाकार रचना होती है और आत्माके प्रदेश भी इंद्रियाकार बनते हैं उन दोनोंको भी द्रव्येन्द्रिय कहते हैं. आत्मप्रदेशांक आधार पर लस्कंध रहते हैं. ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमको भाबेंद्रिय कहते हैं. और रूप रस, गंधादिकोंको जाननेकेलिये आस्माकी प्रयत्ति होना इसको भी भावेंद्रिय कहना चाहिय. रूपादिकोंके प्रति उपयोग होना-उनको जानने में उद्यक्त होना इसको यहां इंद्रिय समझना चाहिये. अर्थात् उपयोगरूप भावेंद्रियको यहाँ इंद्रिय कहना चाहिये. क्योंकि उसके आश्रयसे जीवके राग द्वेष सुंदर और असुंदर स्पर्शादि विषयों में प्रवृत्त होने हैं. जगत में इष्टानिष्ट विषय में इंद्रियां प्रवन हो कर जीवको दाखित करती है. अतः मुनिगण इंद्रियोंके स्पादि विषयों में होनेवाले रागद्वेषोंको नष्टकर रत्नत्रयमें अपने मनको एकाग्र करते है. और अपनी सर्व प्रवृत्तियां-बोलना, चलना, वस्तु उठाना, आहार लेना वगैरह । क्रियायें प्राणिरक्षण के अभिप्रायसे करते हैं. वे अपने मनको निश्चल करते हैं. अथवा सत्कारकी, और लाभकी अपे SRI Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्व क्षा वे नहीं करते है. अतः वे निरपेक्ष स्वभाववान हैं. ऐसे मुनिराज धन्य है. ऐसे ही यतिनायक तपश्चरणसे कर्मरजको आत्मासे हटाते हैं. शालय नह है कि---तेन्द्रिय नत्रयमें एकाग्रता, ईयादिसमिनिओंका पालन करना, सत्कारादिक की इच्छा न रखना, तपमे तत्पर होना, कर्मनाश करना ये यतिओंक गुण इस गाथास आचार्यजीने सचित किय हैं. इय दढगुणपरिणामो वेज्जावच्चं करेदि साहुस्स। वेज्जाबच्चेण तदो गुणपरिणामो को होदि ॥ ३१४ ।। इत्थं गुणपरीणामो विद्यते यस्य निश्चितः॥ साधना भव्यबंधूनां वैयावृत्यं तनोति सः ॥३१२।। विजयोदया-य पयं वदगुणपरिणामो यत्तिगुणेषु व्यावर्णितेषु रदपरिपाामः । साधुस्स बेज्जावरचं करा साधोपावृत्त्यं करोति । जापरवेण पैयाखूत्येन 1 तदो तेन गुणपरिणामो कदो दोदि गुणपरिणामः रुतो भवति । पतदु भवति-अस्य यतेरेते गुणा, रमे नश्यति यदि नोपकारं कुर्यात् इति यवेतसि करोति स तेषु गुणेषु परिणतो भवति । यस्य चोपकारः कृतस्तस्य व गुणेषु परिणतिः कृता भवति । अतः स्वपरोपकारनिमि वैयापुस्य इति आल्यात ॥ मूलारा-दढगुणपरिणामो यतिगुणेषु व्यावर्णितेषु निश्चलानुरागसंस्कारः । तदो तेन तद्गुणग्रामसमग्रयतिगोचरेण । गुणे इत्यादि । एतदुक्तं भवति-अस्य यवेरेते गुणा नश्यन्ति यदि नोपकारं कुर्यामिति यश्चेतसि करोति स तेषु गुणेषु परिणतो भवति । तैर्वासितो भवतीत्यर्थः । यस्य चोपकारः कृतस्तस्य गुणेषु परिणतिस्वदप्रच्युतिः कृता भवति । अत; स्वपरोपकारनिमित्तं चयापत्यमित्याख्यातं । उक्तं च-स्वदुःखनिघृणारंभाः परदुःखेषु दु:खिताः ॥ निर्यवेक्षं परार्थघु बद्धकमा मुमुक्षवः॥ अर्थ-यावृत्य करनेस पतिओंके गुणोंमें वैयावृत्य करनेवालेके हृदयमें रद अनुराग उत्पन्न होता है, इस| लिये वैयागृत्यसे गुणपणिति होती है ऐसा आचार्य कहते हैं, अभिप्राय यह है कि, इस यतिराजमें जितेंद्रियता, रत्नत्रयमें एकाग्रता, वगैरह गुण है. यदि मैं इनकी शुश्रूषा न करूंगा तो इनके ये महनीय गुण नष्ट होंगे. ऐसा जो ISSISTANDAR Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास मन में विचार कर उनकी सेवा करता है वह मुनि उनके गुणों में अनुरक्त होकर वैसा गुणवान होजाता है. और जिसक ऊपर बवाचत्य से उपकार किया जाता है उसकी भी गुणोंमें परिणति होती है. अथात् वह अपने गुणोंसे च्युत नहीं होना. इसलिये यह वैयावत्य तप स्वोपकार और परोपकार के लिय कारण होता है ऐमा आचार्य कहते हैं. TRE परिणामो मत : म यत्रिगुणात मा जह जह गुणपरिणामो तह तह आरुहइ धम्मगुणमेदि ।। वढुदि जिणवरमग्गे णवणवसंवेगसढावि ॥ ३१५ ।। यथा यथा निशं साधार्वर्धते गणवासना ॥ .. जिनेशशासन श्रद्धा परोदेति तथा तथा ॥३१३|| विजयोदया-जह तद यथा यथा गुणपरिणामो ययति नहता भामहर धम्मगुणमेदितथा तथाऽरोहति चारित्रगुमथणीवर धते । जिणवरमग जिनदमाग । कि चईते ? नयनवसंवेमसहावि प्रत्यग्रसंसाराभीस्ताअशापि । र गुणशध्देन गुणनिभातः स्मात प्रत्यय उच्यते । तेनाथमर्थः--यथा यथा यतिगुणानां स्मरण तथा तथा चारित्रमुगानुपागेहति । विस्मृतयतिगुणो न तत्रभवतते । तयां गुणानां स्मरणात्तत्र इचिरूपजायते 1 गुणानुरागिणोहि भव्याः। संमा ग्मीनि: धज्ञान प्रयतमाना दृढयति यति रत्नत्रये । गज़या गाथाया :सुमिता थद्धा व्याख्याता । गुणानामनुस्मरणासत्र म.धिर्मवनि॥ श्रद्धा व्यावष्ट मूलारा-गुण परिणामी यह गुणशब्देन गुणनिर्भासः स्मातः प्रत्यय उच्यते । तेनायमर्थः । यथा यथा यति. पानां स्मरणं भवनि तथा तथा नरिनगग धिमारोहति । वर्धते च जिनवरमार्गेऽपूर्वा पूर्वसंसारभीकत्वानुषिद्धा श्रद्धा । उक्तं च - यथा यथानिशं साधावद्धत गुणयासना || जिनसशासन पनि नया नया ।। अर्थ-मुनि जस जैसे उनरोत्तर गुणोंमें परिणत अर्थात् दृढ होंगे बस २ चे चारित्रगुणों की नसनीपर आरोहण कर अपने निर्मल स्वरूपको प्राप्त होंगे, और जिनेश्वरक मार्गमें उत्तरोतर ताजी संसारभीरुताकी श्रद्धा बढे गी. इस गाथामें 'गुणपरिणामो' यह समस्त पद है इसमें गुण शब्द का अर्थ स्मरण ज्ञान ऐसा समझना चा। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आसाम अत: इसका स्पष्टार्थ इस मुजब है-जमे २ वनिगुणोंशा स्मरण होता है बमे २ यति चारित्रगुणोंपर आरोहण करने में. परंतु जिनको यतिका स्मरण नहीं होता है वे अपने में यतिगुण लानका श्यल नहीं करते हैं. यतिगुणों का स्मरण होनसे उनमें सचि पैदा होती है. भव्यजीवोंका गुणोंपर प्रेम रहता है अर्थात वे गुणोंपर प्रेम करत है. संसारभौतिक विपयम उत्पन्न हुई श्रद्धा यतिको रत्नत्रयमें दृढ़ करती है. इस गाथामें श्रद्धा नामक गुणका विवेचन किया है. ५९ माची प्रार्या वात्सल्यं नाम दर्शनम्य गुणो भवतीनाच सहाए बट्टियाए बस्छल्लं भावदो उवक्रमदि ॥ तो तिव्वधम्मराओ सव्वजगमुहावहो होइ ॥ ३१६ ॥ विना गुणपरीणानं यावत्यं करोति नो । ग्यतस्ततो मुमुक्षूणां वैयावृत्यं व्यक्ति सः ॥३१४।। प्रवृधर्मसंवेगः श्रद्धया वर्धमानया ॥ यतिः करोति वात्सल्य लोकद्वयसुखप्रदम् ॥३१५|| बिजयोदया-सट्टाप बदिदाए श्रद्धया वर्द्धितया। वच्छल भाववो उपकमवि वात्सल्यं भाषतः मनसा प्रारभते । तो ततः । तिब्धधम्मरानो धर्मे तीवो रागः । तीवधर्मरागो वा यतिरात्मनः सकलं सुखमारहति । वात्सल्य इत्येतन्याख्यातमनया गाथया। श्रद्धावृद्धौ च वात्सल्य भाम दनस्य गुणो भवतीत्याह-- मूलारा- भावदो मनमा । सव्वजगसुहावहो सर्वेषु जगत्सु यत्सुखमैंद्रियिकं अतींद्रियं वा तदावहत्याकनि यतिः । गुणोंका स्मरण होनेसे रुचिगुण उत्पन्न होता है और उसके बढनेसे वात्सल्य नामक सम्यग्दर्शन गुण उत्पन्न होता है. इसका वर्णन ग्रंथकार करते हैं - अर्थ-श्रद्भागुण बदनसे मुनि मनसे यतिओंपर वात्सल्य करते हैं, अर्थात उनका आदरसत्कार, मेवादिक कार्य यथोचित करते हैं. इस वात्सल्य भावस धर्ममें तीन प्रेम उत्पन्न होता है, जिसका धर्मपर तीत्र अनुराग 9929 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास उम्पन्न हुआ है उस मार्नको जगतके इंद्रियजन्यसुख और अतीन्द्रिय सुख प्राप्त होते हैं. इस गाथासे वात्सल्य गुणका वर्णन किया गया. वयाए यस्य भनि नाम यो गुणस्ने व्याच2-.. अरहतमिद्धभत्ती गुरुभत्ती सव्यसाहुभत्ती य ।। आसेविदा समग्गा विमला वरधम्मभत्ती य ५ ३१७ ॥ भक्तिरर्हत्सु सिद्धेषु धर्मसूरिघु साधुषु॥ वैयावृत्यकृतोत्कृष्टा पूजा भवति सेविता ॥३१३।। विजयोदया--अरईतसिद्धभती तबाईतो नामासिंफ्रान्ते तृतीये भवे दर्शनविशुद्ध्यातिपरिणामविशेषबद्धतीर्थकरचनामकर्मातिशयाः । स्ववितरणाविपर दुरयापपंचमहाकल्याणभागिनः । घातिकमप्रलयाधिगतसकलहत्यविकालगोचावरूपायभासनपटुनिरतिशयशालदर्शनमोहोन्मूलनोपजानवीतरागसम्ममाया चारित्रमोहोत्यारमन्नध्यवीतरागभावाः । वीयातगयकर्मप्रशयायिभूनानवीयोः ।परीतसंसारभन्यजनो रणवद्ध निशाः । अहानिहायंचम्मिानिहाय विशाः सिद्धा नाम मिथ्यावारिरिणामोपनीतकर्माएकबंधभिर्मुक्ताः जगन्यायाधाः। उपमानहानतम ! जान्यप माननिगरपाशाननमयः । पुनाकागः प्रामपरमागावयाः । यारहन्सि: योनिः । राजामायापीमापा सही नौतयोमकिः । सपनाहभती व ससानुभक्तिश्च । आसविथा आसबिता मत्रनि ! अहंदाधिययावृत्या मानेष भक्ति थाना भवति । खत्रयवनामुघकरणातदादरत पच नत्र भक्तिः। दयावृत्य भक्तिमापादयति अईदादिवियुक्तः । भक्ति गाथाद्वयन व्याचष्टे । मूलारा--गुरुभत्ती आचार्योपाध्यायभक्तिः । अहदा पदिष्टययावत्यकरगानीक्तः खलु कृता भवति । रत्नत्रयबता चोरकारकरणासवादरत एव धर्म भक्तिः । आमबिदा वैयावृत्यं कुर्वतासकृत्कृता । ब-इति यमके पर्व जग भवननियाई संगम निगिट एशिषागा जिनको मानि शय कायद्यामा कमका बहानामांवरriti: पांच मायामीकान चलोका काम पर जाना inा याय: . . नकी प्राप्ति की है, दर्शनमोहनीय कर्मका समूल नाश करनं जिनकी बीवराग मुभ्यस्त्वका लाभ हुआ है, चारि RAA Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ५३१ मोहका समूल नाश कर जिन्होने वीतरागमाय चारित्रको प्राप्त किया है, वीयन्तिराय कर्मके क्षयस अनंतवीर्यका लाभ जिनको हुआ है, आसन्न भव्यों का उद्धार करनेके लिये जिन्होंने प्रतिज्ञा धारण की है, आठ महाप्रातिहार्य और चौतिस विशेष अतिशयोंकी जिनको प्राप्ति हुई है वे अरहंत हैं. मिध्यात्व अविरति, प्रमाद कपाय और योग इन परिणामों से बद्ध हुए आठ कर्मोंका जिन्होंने नाश किया है, जो जरा और भरणसे परे हैं, जिनको किसी प्रकारकी राधा नहीं है, जिनका सुख अनुपम और अनंत है, जिनका ज्ञानरूपी शरीर अतिशय उज्ज्वल और आवरणरहित हैं. जो पुरुषाकार हैं, और परमात्मपदको धारण करते हैं, ये सिद्धपरमेष्टि हैं. वैयावृत्य से अर्हत् और सिद्धों के ऊपर भक्ति होती है. गुरुभक्ति-गुरुशब्दसे यहां आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठीका ग्रहण होता है. आचार्यभक्ति, उपाध्यायभक्ति और साधुभक्ति ये भक्ति करनेका अदादिकांस कहा हुआ वैयावृत्य करने से मिलता है. और वैयावृत्य करने से धर्मपर निर्मल भक्ति उत्पन्न होती है. रत्नत्रयधारक मुनिओ पर उपकार करनेसे, उनका आदर करनेसे ही उनके ऊपर भक्ति करने का श्रेय मिलता है. वैयावृत्य तप अद्देदादि पंच परमेष्ठि में भक्ति उत्पन्न करता है ऐसा इस गाथाका अभिप्राय हैं. इदानीं तस्या माहात्म्यं स्तौति -- संवेगजणियकरणा णिरसल्ला मंदरुव णिक्कंपा ॥ जस्स दढा जिणभत्ती तस्स भयं णत्थि संसारे ॥ ३१८ ॥ अद्भक्तिः परा यस्य विभीते भवतो न सः येनावगाहिता गंगा स किं नश्यति वहितः ॥ २९७ ॥ संसार भीरुतोत्पन्ना निःशल्या मंदराचला || जिभक्ता यस्य नास्ति तस्य भवाद्भयम् ॥ ३१८ ॥ विजयोदया संवेगजणिकरणा संसारभीरुतोत्पादा | कणादः सामान्यवचनोऽपि उत्पत्तिकियावृतिरब गृहीतः । णिरुखला मिथ्यात्सेन, माश्रया, निशनेन रहिता । मंद मंदर निचला । जस्म दहा जिभक्ती यस्य जिने भक्तिद्वाण तस्स भयमन्धि संखारे तस्य भयं नास्ति संसारात् । निशब्देनापाईदादयः सर्व पवोच्यते । कर्मकदेशानां च जयात् श्रभोऽपि कर्माण्यमभवति इति जिनशध्देनोच्यते । यामादिकमनुदिन वृस्तत्कथयति । आ ५३१ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः संवेगजणियकरणा हत्यनेन संसारभयनिराकरणोपायभूता जिनभक्तिरिति प्रात्या प्रवृत्तेति यावत् । वैनयिकमिथ्यादृष्टे सबंध भक्तिः प्रवर्तते इति तस्विरासाय गिरसल्ला इत्युच्यते । मंदरुच णिकंपात्यनेन सर्वकालवृत्तिताख्याता । सासादन सम्यग्रजीताज्यल्पकाला न संसारानिस्सारयतीति ।। जिनमक्तिमाहात्म्यमभिष्टौति भूलारा-मवेगजणिदकरण्या संसारभीरुतया न द्रव्यालामादिना कृतोत्पादाकरणशब्दो हात्रोत्पत्त्यर्थः । णिस्सला चियावयातिलानमायिक विचारः सर्वत्र भक्तिः प्रवर्तते इति तनिरासाय इदं । मंदरीब णिकपा सर्वकालवर्तिनी न सासादनसम्यग्दृष्टिवल्पकाला । दढा अभेदया। जिणभत्ती जिनशब्देनात्र पंचाप्य दादय उच्यन्ते । कर्मगामेकदेशेन साकल्येन र जयात् । तथा धमोऽपि संसारे संसारान् । जिनादिभक्त्या हि सुदेवत्वसुमानुषत्वलक्षणे सुखानु बंधिन्येव भवे भ्राम्यति । उक्त च । संसारभीरतोपना निःशल्या मंदरापला । जिनभक्तिर्टटा यस्य नास्ति तस्य भवाद्यम् ।। भक्तिके माहात्म्यका आचार्य कथन करते हैं अर्थ--संसार से भय उत्पन्न करनेवाली, माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित, मंदर । पर्वतके समान निश्चल एसी जिनमें जिसकी दृढ़ भक्ति है उस मुनिको संसारमे भय नहीं रहता है. यहां जिनशद मे पंच परमेष्ठिओंका ग्रहण होता है. जैस अर्हन्त और सिद्ध परमेष्ठिओंने घातिकर्मका नाश किया है वैसे आचार्य, उपाध्याय और साधुपरमेष्टिाने घातिकर्मोंका एकदेशसे नाश किया है इसलिये उनको भी जिन कहते हैं. धर्म भी कर्मोंका पराभव करता है अत: उसको भी जिन कह सकते हैं. द्रव्यलाभादिककी अपेक्षा न करके की हुई जिनमक्ति कर्मनाश करती है. यह मक्ति संसारभय दूर करनेवाली है. चैनयिक मिथ्यादृष्टीकी सर्वत्र भक्ति रहती है, उसका निरसन करनेके लिये जिनभक्ति को णिस्सल्ला' यह विशेषण दिया है. 'मंदरुव्वणिकंपा यह विशेषण सर्वकाल जिन भाक्त रहती है, सासादन सम्यग्राष्टिक समान वह अल्प कालिक नहीं है ऐसा अभिप्राय व्यक्त करता है. सासादन सम्पष्टिकी भक्ति अल्पकालही रहती है अतः उसमें संसार नाश करनेका मामध्ये नहीं है, ५३२ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना भाधासः वैयावृत्यस्य पात्रलाभगुणमाचष्टे पंचमहल्ययगुत्ती जिग्गहिदकसायवेदणो देतो ।। लब्भदि हु पत्तभूदो णाणासुदरयणणिधिभूदो ॥ ३१९ ॥ निःकपायो यतिर्दान्तः पात्रभूतो गुणाकरः ।। महाव्रतधरो धीरो लभते श्रुतसागरम् ।। ३१९ ॥ विजयोच्या-पंचमहान्चदगुत्तो पंचभिर्महायतैः कृतानचानिरोधः । णिहियकसायषेयणों निगृहीतकापायअदनः कषायस्तु तपायत्यात्मानमिति घेदना । दंतो दांतः शांतरागजदोषः । परिहानाद्वैराग्यभावनातः प्रशांतराग इति रुन्या दांत इत्युच्यते । लम्भव खु पत्तभूदो लभ्यते पात्रभूतः । णाणासुदयणनिधिभूदो नानाधृतरत्ननिधिभूतः ॥ पात्रलाभगुणमाहभूलाग-गुनी कताबानगवः । वेवणा उदयः । लन्मदि लग्यते वैयावृत्यान् । आपत्रातार हि सर्वोऽयाश्रयति । अर्थ--अहिंसादि पांच महावतोंसे बंद किया है कर्मका आगमन जिसने कषाय आत्माको संतप्त करते है. अर्थात् दुःखित करते हैं. अनः जिमने कमायसे उत्पन्न होनेवाली वेदनाको शांत करदिया है. रागभावसे उत्पन्न होनेवाले दोष जिसके शांत हुए हैं. अर्थात् ज्ञान और वैराग्यसे जिसका रागभाव शांत हुआ है. जो नानाप्रकारके झुनवानरूपी रत्नोंका निधि है ऐसा सत्पात्र मुनि वैयावृत्य करनेसे प्राप्त होता है. दसणणाणे तव संजमे य संधाणदा कदा होइ ।। तो तेण सिद्धिमग्गे ठबिदो अप्पा परो चेव ।। ३२० ॥ दर्शन ज्ञानचारित्रसंधानं क्रियते यतः रत्नत्रयात्मके मार्गे स्थाप्येते स्वपरी ततः ॥३२० ।। विजयोदया----दसणणाण दर्शनझानयोः नवसंजम य तपश्चाात्रियोश्च । संथाणा होदि कुतश्चित्रिमित्ता. द्विच्छिमाना दर्शनादीनां संधानं कृतं भवति वयावृत्त्येन । तो तस्मात् तेनैव चयापत्यकारिणा सिद्धिमग्गे रत्ननये । ठपिदो अघ्या परोवेव स्थापित आत्म। परश्च । अनया संघाममित्येतरसूत्रपदण्याख्यानम् ॥ 192PER Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना ५३२ कुतश्चिन्निमित्ताद्विच्छिन्नानां दर्शनादीनां संधान वैवावृत्तपेन क्रियते इत्यावेत्यति । मूलारा–ने यायकारका | अर्थ--किसी कारणाने यदिग्दर्शन और नारित्र नप और गंयम दाम दिया होना बनान्य के हरा पुन: जुड़ जाते हैं. इस लिए यावत्य करनेवाले व्यक्तीने अपने को और जिसका वैयावृत्य किया गया है उसको मोक्षमार्ग में रत्नत्रयम स्थापन किया है ऐसा समझना चाहिये. इस गाथास 'संधान' इस सूत्रका व्याख्यान हुआ है. -... -...-...---. तय इत्येतद्याख्यातुमाह--- वेज्जाचच्चकरो पुण अणुत्तरं तवसमाधिमारूढो ।। पफ्फोडितो विहरदि बहुभवबाधाकरं कम्मं ।। ३२१ ॥ वैयायत्यं तपोन्सस्थं कुर्वतानुत्तरं मदा || वेदनाश्चापदाधारा भियंते कर्मभूधराः ।। ३२१॥ विजयोदया-वेजावच्नकरो पुण ययावृत्त्याज्ये तपसि समाधिमेकाग्रतामुपाश्रितः । पक्कोडिनो विहरदि विधूनयन्विहरनि । बहुभवयाधाकर कम्मं बहुभवेषु वाधाः संपादयत्कर्म । वैयावृत्यकृत्यं तपोगुण ब्याचष्टेमूलाग-तवसमाधि तपसि वैद्यावृत्याये समाधिमेकाग्रताम् । अर्थ-यावृत्य करनेवाले मुनि यायन्य नामकं तपमें एकाग्र होकर अनेक माम बाधा उत्पन्न करन| बालं कर्मका नाश करते हुए उन्नत्रयमें बिहार करते है. जिणसिद्धसाहुधम्मा अणागदातीदवट्टमाणगदा ॥ तिविहेण सुध्दमादणा सव्वे अभिपूइया होति ।। ३२२ ॥ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amremainik ग्रेधा विशद्धचित्तेन कालत्रितयवर्तिनः सर्वतीर्थक्रनः सिद्धाः साधवः संनि पजिनाः ॥३२२।। विजयोवधा- जिनि दसवमा ती विकता, सिद्वाः, साधयो, रिश्य । अगदातीदवमाणमदा स निकामर्शिनः । सय निधियण जिदा हानि मा मनोवाशायः पूजिना भवन्ति । मुसाना अहवासः । तीर्थकाइय. स्वदानासंपादनात्यजिनाः, शिविध धर्म नपसोऽन्तमाबाद्वयावृस्यस्य च तदन्तर्गतत्वाद्वयावृत्त्वे पादरा नमवतश्च ध!: पूजिनो भवति ।। वे गावानरिया कालिक निनादीनां पूजा पायने हा युपदिनि । मुलारी-अभिपूजिदा जिनादयालदाजांसपाक्षात्पूजिता भति । दायर नामः नद्रवदिवायुयस्य च तदन्तर्गतत्वात दादरात प्रवृत्तश्च धर्मः पूजितो भवति । ___अर्थ-जो पुनि पैयावृत्य करता है उसने भूतकालीन, वर्तमान कालीन और भविपत्कालीन ती का , सिद्धपरमेष्ठी, साधु और धर्म इनका शुद्ध अन्तःकरणसे मनपचन कायते पूजन किया है एपा समझना चाहिये. यावृत्य करना चाहिच ऐसा तीर्थकरादिकाकी आज्ञा है उसका पालन करनेस तीयकरादिकांकी पूजा की ऐसा आभिप्राय है, उत्तम क्षमादि दशप्रकारके धममें तपका अन्तर्भाव है. और तपमें भी वैयावृत्त्यका अन्तर्भाव है. वैयावत्य में आदर और उसका आचरण करनेसे धर्म का भी पूजन किया ऐसा माना जाता है, -- वैयावृस्य दशविध आचार्योपाध्यायतपस्विशिक्षकलानगणकुलसंघसाघुमनोज्ञभेटेन । तत्राचार्यययावत्य. माहात्म्यकथनायाग्रप्टे आइरियधारणाए संघो सत्रो वि धारिओ होदि ॥ संघम्स धारणाए अब्बोच्छित्ती कया होई ॥ ३२३ ॥ सूरिधारणया संघः सों भवति धारितः ॥ न साधुभिर्विना संघो भूरुहैरिव काननम् ।। ३२३ ।। विजयोदया- थायरियधारणाय वाचार्यधारणातः, संघो सब्यो विधाग्दिो होदि सर्वः संघोऽवधारितो भवति । कथं ? आचार्यों हि रन्नत्रयं ग्राहयति । गृहीतरत्नत्रयोस्ले इति । अतिवारजातानप्यपनयति । तदुपदेश LARAS R AJAPAN Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्चासा लाराधना ५३६ बलेनेव गणसेहतिरूपनां धत्ते संघो नान्यथेति सबो धारतो भवति । संघधाराणाया गुणमाच । संघस्स धारणाए अबोच्छित्ती कदा होदि धर्मतीर्थस्याभ्युदयनिःश्रेयससुखसाधनस्य बब्युच्छिात्तिः कृता भवति । उपाध्यायादयः सर्व पत्र साधयति निरवशेषकर्मापायमिति साधुरादनोच्यते ॥ वैयावृत्यसाच्या धर्मतीर्थस्याब्युमिछत्तिं माथाद्वयेन ब्वाचिख्यासुराचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगणकुलसंघसाधुमनोझविषयमेदाइशविधेऽपि वैयावृत्ये धर्माचार्ययावत्यस्यैव करणीयतमत्वग्ररूपणार्थमिदमाह ... मूलारा-आयरियधारणाय पंचाचाराचरणचंचुराचार्यस्तस्य धारणा स्वकर्मसामर्थ्यभ्रंशनिमित्तव्यावर्तनेन म्वकर्ममामांपादन यायत्य करणं इति यायन संघो बहूनां परमार्थहितसाधनाभिमुख्यपरिणतिलक्षणभावप्रत्यासतिरूप: ममुदावः । म च प्रतिबंबकापायनास्तम्ब प्रवृत्तधर्मानुशानभेदाच्चतुर्विधः । थारिस । आचार्यों हि रत्नत्रयं मुमुक्षुन ग्राहयनि । गृहीतरत्नत्रयांस्तत्र यति । अतीचाराजातानन्यपनयति । तदुपदेशपालनेनैव गुगसंहतिरूपत्तों धत्त संघो नान्यथेत्याचार्यधारणाघो पारित: बोपन्ययावतो भवति । अयोपिछत्ती धर्मतीर्थस्य अभ्युदयनिःश्रेयससुखसाधनस्य संतत्त्या प्रवृत्तिः। वैयावृत्यके आचार्य वैयावृत्य, उपाध्याय वैयावृत्य इस प्रकार दश भेद है आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी शिक्षक, ग्लान, गण, कुल, संघ साधु, और मनोज्ञ ऐसे मुनिओंके दस भेद है. इन दसका वैयावत्य करना योग्य है इस लिये इनकी अपेक्षासे वैयावत्यके भी दस भेद होते हैं. उसमें आचार्य वैयावृत्यका माहात्म्य कहते हैं-- नावग्यतमस्य सायोर्धागणायां गणं कथयति - साधुस्स धारणाए वि होइ तह चेव धारिओ संघो। साधू चेव हि संघो ण हु संघो साहुबदिरित्तो ॥ ३२४ ॥ साधुधारणया संघः सर्वो भवति धारितः।। न साधुभिर्विमा संघो भूमहरिव काननम् ।। ३२४ ।। विजयोदया- साधुमसयागणार एकस्य सायोगायत्यकरणन धारणायां। होनि भवात 1 तह चव नश्चैव भानाबंधारणामः संवचारणात । धारिदो राधारिलो यति समायः ॥ धमकस्य धारणायां समुदायावयययोभदादि Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना १५३७ स्यार्श्वकायामाह - साधू चैव हि संघो साधत्र एव हि संघः । ण द्वि संघो साधुयदिरितो नैव संघो नामार्थान्तरभूतोऽस्ति साधुव्यतिरिक्तः । कथं चित्समुदायावयवयोरव्यतिरेक इति मन्यते गाथाइयेनानेन । अव्युच्छित्तिर्व्याख्याता । सिद्धि साधयतीति नान्युपाध्यायादयः साधवः, अतस्तेष्वन्यतरस्यापि वैयावृत्यकरणे गुणं दर्शयति-मूलारा - साधुरस उपाध्यायादीनामन्यतमस्य । तथ वेव आचार्यधारणातः संघधारणावतः । संबो यतिसमुदायः साधुविदिरित्तो समुदायावयवयोः कथंचिदव्यतिरेकात्साधय एव संघ इति व्यवहियते || उसमें वह कहते हैं अर्थ - वैयावृत्य कर आचार्यको रत्नत्रयमें स्थिर करनेसे सबको रत्नत्रयमें स्थिर किया सरिखा हो जाता हैं. क्योंकि, आचार्य महाराज शिष्योंको रत्नत्रय ग्रहण कराते हैं. जिन्होंने रत्नत्रयका स्वीकार किया है उनको उसमेंट करते हैं. अतिचार उत्पन्न होनेपर उनको दूर करते हैं. उनके उपदेशके माहात्म्यसे ही संघ अपने में गुणोंका समूह धारण कर सकता है. अन्यथा वह गुणों को नहीं धारण करेगा. इस लिये आचार्य को धारण करने से संघका भी धारण होता है. संघको धारण करनेसे अभ्युदय और मोक्षसुख देनेमें कारणभृत धर्म अव्याहत रूपसे प्रचलित होता है. उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष वगैरेह को साधु कहते हैं, क्योंकि ये संपूर्ण कर्मका नाश अर्थात् मोक्ष को साते हैं. उपाध्यायादिक साधुओंमेसे किसी एक साधुको रत्नत्रयमें धारण करनेमें कोनसा गुण है इसका उत्तर आचार्य कहते हैं- जैसे आचार्यका वैयावृत्य करनेसे संधका धारण होता है वैसे एक साधुको वैयावत्य कर रत्नत्रय में स्थिर करनेसे संका धारणा होता है. अर्थात् यतिओं का समुदाय रत्नत्रय में स्थिर होता है, एक साधुको रत्नमें स्थिर करनेसे समस्त यतिसमूह को कैंसा धारण कर सकते हैं ? क्योंकि समुदाय और अवयव परस्पर भिन है. इसका उत्तर ऐसा है - साधु हि संघ है. साधुओंसे संघ भिन्न पदार्थ नहीं है. क्योंकि समुदाय और अवयव परस्परसे कथंचित् अभिन्न हैं. इसप्रकार अव्युच्छित्ति गुणका दोन गाथाओंसे विवेचन किया है. ६८ आधा ४ ५३७ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ५३८ सिद्धिमुखे चेतस पकाग्रता समाधियुच्यते तदुपगूहन कृतं भवतीत्याच गुणपरिणामादीहिं अणुत्तरविहीहिं विहरमाणेण || जा सिद्धिसुहसमाधी सा वि य उवगृहिया होदि ॥ ३२५ ॥ एवं गुण परीणामप्रमुखैर्विविधैः परैः ॥ प्राप्यते वर्तमानेन समाधिः सिद्विशर्मणा ॥ ३२५ ॥ विजयोदय-गुणपरिणामादीहिं य गुणपरिणामः श्रक्षा, ग्राम्सल्यं भक्तिः पाभः संधानं तपः पूजा, तीर्थायुच्छित्तिः कियत्येतैः । अणुत्तरविधी प्रकृष्टेः कमैः । विहरमाणेण आचरता जा सिद्धिसुदसमाश्री सिद्धिकाता । सावि उद्यमूदिया दोर साध्यालिगिता भवति । कारणे ह्यादरा कार्य समाधानमेतरेण न प्रवर्तते । न हि साध्ये घटपति तदुपायभूतदेहादिकारणकलापे जनः प्रवर्तते । इह च गुणपरिणामादय उपायाः सिद्धिसुखस्य न च सिद्धिसुतैकाग्रता मंतरेण ते युज्येते इति भावः । वैयात्यसाध्यसिद्धिमुखसाधनगुणपरिणामादिनष काचरणपरेण मुमुक्षुणा सिद्धिसुखैक निष्टमनस्कतालक्षणः समाधिः प्राप्यत इत्यादर्शयति- मूलारा -- अणुत्तरविहीहिं उत्कृकः । अवगृहिदा आलिंगिता । सिद्धिसुखसमाविपरिणतो वैयावृत्यकरः स्वादित्यर्थः । उक्तं न एवं गुणपरीागप्रमुखर्वविधैः परैः ॥ प्राप्यते वर्तमानेन समाधिः सिद्धिशर्मणा | सिद्धिसुखमें चितकी एकाग्रता होना समाधि है. वैयावृत्य करनेसे उसका संरक्षण होता है इस विषयका वर्णन आचार्य करते हैं- अर्थ- गुणपरिणाम, श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति, पात्रलाभ, संघान, तप, पूजा और तीर्थाव्युच्छित्ति ऐसे नउ उत्कृष्ट क्रमोंसे आचरण करने वाले पुनिके द्वारा सिद्धिसुखमें एकाग्रता नामक गुणकी प्राप्ति की जाती है. अर्थात् वैयावृत्य करनेवाली व्यक्ति सिद्धिमुखकी एकाग्रतामें परिणत होती है. कारणोंमें जो आदर किया जाता है वह कार्य के विषय में एकताको करता है. अर्थात् कारणोंका संग्रह करनेसे उससे इष्ट कार्यकी सिद्धि होती है. परंतु यदि भाश्रामः ५ ५३८ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मन में घट बनानेका विचार न होगा तो उसको मनानेके लिये दंड, चक्र, मृत्तिकादि कारणसमुदाय की प्राप्ति में जन प्रवृत्त नहीं होते हैं. प्रकृत प्रकरणमें गुणपरिणामादिक सिद्विसुखकी प्राप्ति के उपाय हैं इस लिये वे सिद्धिमुखकी एकाग्रताको जोडे विना नहीं रहेंगे. आश्वासः अणुपालिदा य आणा संजमजोगा य पालिदा होति ॥ णिग्गहियाणि कसायिदियाणि साखिल्लदा य कदा ॥ ३२६ ॥ जिनाज्ञा पालिता सर्वा विजिल्य गुणहारिणः ॥ कृतं संयमसाहाय्यं कषायेन्द्रियवैरिणः ॥३२६ ॥ विजयोदया-अणुपालिदा य आणा अनुपालिता च आज्ञा भवति वैयावृत्य कुधना । कां ? तीर्थरुदादीनां । पतन आणा इत्यतासूत्रपद प्यान्यातं भवति । संजमजोगा य पालिदा हानि इत्यनेन संयमपदव्याख्या कुता संयमेन सह संबंधः आचार्यादीनां । पालिदा होति रक्षिता मति । व्याध्यापद्गताना रोगपरीवहानसहाशेन धारपितुमसमर्थानां । अथवा संयमो योगाइच तपांसि अनशनादितपोविशेषाः रक्षिता मवेति । स्वस्थ परेषां च करणानुमननाभ्यां स्वस्यापन्नि रासेन स्वस्थतोपजातसामयादीनां संचमसंपादनात् । परेप सदापता व्याचए-जमा इनि वाक्यंशपाध्याहारण सूत्रपदानि संबंधनीयानि । यस्माधिग्रहीतानि कवायेद्रियाणि तहोपोपदेश कुर्वता तस्मात्साखिल्लदा य कदा सहायता कृता ।। मूलास-संजमजोगा आचार्यादीनां संयमेन सह संघधः । अथवा स्वस्य परेषां च संयमो, योगश्वानशनादितपोविशपाः । स्वस्य हि पवैयावृत्यं कारयित्वा क्रियमाणं वानुमत्य स्वास्थ्य प्राप्तः परेषामप्यापभिरासेन स्ववत्संयमयोगरक्षा करोति । साखिलदा संयम साधर्यतं साहाय्यकं कृतं भवति । कषायेंद्रियदोषोपदर्शनलक्षणवैयावृत्यकारिणा । कथं ? यस्मानिगृहीतानि भवन्ति कषायेन्द्रियाणि नदोषोपदेशं कुर्षता ॥ अर्थ--जो मुनि वैयावृत्य करते हैं वे तीर्थकरादिकोंकी आज्ञा पालते हैं ऐसा समझना चाहिये. “ अणु पलिदा य आणा' इस वचनसे आज्ञा नामक सूत्रपदका व्याख्यान हुआ. ' मंजमजोगा य पालिदा होति ' इस वचनसे संयमपदका व्याख्यान हुआ. रोगादि आपत्तिओंसे ग्रसित होनसे जो रोगादि परीषहाँको बिना संक्लेशसे धारण करने में असमर्थ हैं ऐसे आचार्यादिकोंकी बयावृत्यके द्वारा शुश्रूषा करनेवाले मुनि उनको संगमसे संबद्ध कर देते हैं. अर्थात् बयावृत्य किया जानेसे आचार्यादिक असंयमी न बनकर संयममें ही स्थिर रखते हैं, अथवा शुश्रूपासे उनके SOTRA Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासः मूलाराधना संयम और अनशनादि तपोका रक्षण होता है, स्वतःका वैयावृत्य दुसरोंसें कराकर अथवा करनेगलोंको अनुमोदन देकर रोगादिकोंसे निवृत्त हुआ साधु दुसरोंकी आपत्तिआको दूर कर स्वतःके सदृश उनके संयम और योग की रक्षा करता है. ऐसा कार्य करनेसे संयमकी सिद्धि करनेवाले मुनिको साहाय्य किया जानेसे साखिल्लता नामक गुणकी सिद्धि होती है. बयावत्य करनेवाला मुनि इंद्रिय और कषायोंके दोष आपद्ग्रस्त मुनिओंको दिखाता है तब वे इंदिरा निगह और कपागनिग्रह करते हैं. इस लिये पैवारय करनेवालेने इस कार्यमें सहाय किया ऐसा माना जाता है, अदिसयदाणं दत्तं णिव्विदिगिच्छा य दरिसिदा होइ ॥ पवयणपभावणा वि य णिव्बूढं संघकजं च ॥ ३२७ ॥ दत्तं सातिशयं वानमचिकित्सा च दर्शिता ।। संघस्य कुर्वता कार्य वाक्यं भावयताहताम् ॥ ३२७ ।। विजयोदया-अदिसयदाण पत्त अतिशयदान दतं भवति । रत्नत्रयामात् । शिविधिगछा य दरिसिया होर सम्यग्दर्शनस्य गुणो निर्षिचिकित्सा नाम सा प्रकटिता भवति । द्रव्यविचिकित्सा निरस्ता शरीरमलानां निराकरणाय मुगुप्मा चिना । पषयणपभाषणावि य प्रवचनमागमस्तदुक्तार्थानुमननात् प्रषचनप्रभावना भवति । णिचूह संघकाज च सेधेन कर्तव्यं कार्य च निश्चयेन संपादित भवति । एतेन कस्जपुग्णाणि इत्येतद्वयाख्यातम् । रनवयदानमिथिंचिकित्स ताकदनप्रवचनप्रभावनासंघकार्यनिर्वहण लक्षणगुणचतुष्टयं वैयावृत्त्यफलं व्याख्यातुमिदमाह मूलारा--अदिसयदाणं लोकोत्तरदान, लोकोत्तमस्य रत्नत्रयस्य व्यापत्तिव्यपनोदनेन संपादनात । गिरिवदिगिछा द्रव्यविचिकित्सानिरासः, पुरीषादिवहमलापनयनात् । पबयणपहावणा आगमोक्तार्थानुष्वानासन्माहात्म्यप्रकाशनं, वैयावृत्त्यकृता फर्म स्यात् । णिध्बूढ निश्चयेन संपादित स्यात् ।। अर्थ-वैवावृत्य करके आपद्ग्रस्त मुनिओंको रत्नत्रय का दान दिया जग्नेसे अतिशयदान नामक गुण की सिद्धि होती है, वैयाकृत्य करनेसे निर्षिचिकित्सा गुणकी प्राप्ति होती है. यह निर्विचिकित्सा सम्यग्दर्शनका गुण है. जुगुप्साके विना रोगी मुनीके विष्ठामूत्रादि मल दूर करनेसे द्रव्यविचिकित्साका त्याग होता है, वैयावृत्य करनेसे Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा आगमकी प्रभावना होती है क्योंकि आगममें वैयावृत्य करनेका उपदेश किया है और वैयावत्यकारक उसको प्रमाण मानकर बैयावृत्य करता है. वैयावृत्य करनेसे संघको अपना कर्तव्यसंपादन करनेका श्रेय प्राप्त होता है. इस वचनसे ' कज्जपुण्यणि' इस पदकी व्याख्या होचुकी. वैयावृत्त्यस्य फलमाहात्म्य दर्शयति गुणपरिणामादीहिं य विज्जाबच्चुज्जदो समजेदि ॥ तित्यपरणामकम्मं तिलोयसंखोभयं पुण्णं ॥ ३२८ ॥ गवं गुणाकरीभूतं वैयावृत्यं करोति यः॥ लभते तीर्थकृनाम त्रैलोक्यक्षोभकारणम् ॥ ३२८ ॥ विजयोदया-गुणपरिणामादीहि य गुणपरिणामादिभिः कारणभूतैः। पुष्णं तित्थयरणामकम्म समजदि ।। पुष्यं तीर्थकरनामकर्म समर्जयति । कीपक ? सिलोयसंखोभयं त्रैलोक्यसंक्षोभकरणक्षम ।। वैयावृत्त्यस्य परम फलं तीर्थकरत्वनामकर्माख्यं परमपुण्यं दर्शयवि-- मूलारा-स्पष्टम् । वैयावृत्यके फलका माहात्म्य बताते हैं - अर्थ-वैयावृत्य करनेवाला मुनि गुणपरिणाम वगैरे गुणोंकी साहाय्यतासे त्रैलोक्यको क्षुग्ध करनेमें समर्थ ऐसा तीर्थकर नामकर्मका पुण्य बांध लेता है. - ----- -- एदे गुणा महल्ला वेज्जाबच्चुञ्जदस्स बहुया य ॥ अप्पट्टिदो हु जायदि सज्झायं चेव कुब्वंतो ।। ३५९ ॥ लभमानो गुणानेवं वैयावृत्यपरायणः॥ . . स्वस्थः संपद्यते साधुः स्वाध्यायोग्रतमानसः ॥ ३३९॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ५४२ विजयोदया-पवे गुणा महल्ला यते गुणा महान्तः । वेजावच्चुजदस्स चैयावृत्त्योद्यतस्य । बहुया य बहवः । अप्पष्ठियो हुआयवि आत्मप्रयोजनपर एय जायते । सज्झाय चेष कुव्यंतो स्वाध्यायमेव कुर्वन् ययावृत्यकरस्तु वं परं चो. दरतीति मन्यते। यावृत्यपरस्य जगत्पूज्यगुणवहुत्वनपान वपरोद्धरणपरत्वेन स्वार्थपरस्वाध्यायपराकष्टत्वं च प्रकाशयति मूलारा--महला महाम्ति महामि मिलायमणत्वान, नत्पृज्यलामाहाकालत्याच || बहुमा बावाडादशस्यात्वात् । अपट्रिदो हु आत्मप्रयोजनपर १५ भवनि स्यान्यायमेव केवलं कुर्वन । बैसावत्योदातम्नु म्यं पर चौद्धरतीनि कवल. स्वाध्यायपरात्तस्य विशेषः । स्वाध्यायकारिणोऽपि विपदुपनिपाते तन्मुख प्रेक्षियान् । तथा नतिमा--- सवैयावृत्यमातेने व्रतस्थेष्वामयाविषु ।। अनात्मतरको भूत्वा तपसो वृदयं हि तत् ।। आत्मनोऽर्थः प्रयोजनं आत्मार्थः । संजातोऽस्येति तारकादिवादित इति सिद्धमात्मार्थित इति ॥ अर्थ-जो मुनि केवल स्वाध्यायही करता है वह स्वतः ही कार्य करता है अर्थात् स्वतःकी ही आत्मोन्नति वह करता है. परंतु जो वैयावृत्य करता है वह स्वयंको और अन्यको भी उन्नत बनाता है. उपर्युक्त गुणपरिणाम वगैरह महान गुणों की उसको प्राप्ति होती है. इस लिये स्वाध्यायमें तत्पर रहने वालेसे वैयावृत्य करनेवाला श्रेष्ट गिना जाता है, स्वाध्याय करनेवालेपर यदि आपत्ति आबेगी तो उस समय उसको चैयावृत्य करने वालेका मुख देखना पडेगा. अर्थात मेरी यह विपत्ति दर करो ऐसा उसको कहना पडेगा. वज्जेह अप्पमत्ता अज्जासंसम्गमग्गिविससरिसं ॥ अज्जाणुचरो साधू लहदि अकित्तिं खु अचिरेण ! ३३० ।। त्याज्यार्यासंगतिर्गरवद्वान्हिज्वालेव नापिका ॥ दुनीतेरिव निंद्याया दुःकीति लभते ततः ॥ ३३० ॥ विजयोइया-मस्नेह पर्सयत अग्निना विषेण मरशः आर्याज़नसंसर्गः । प्रमादहितैर्भवद्भिस्ल्याज्य । जाणुगे आर्यानुचरः । साधू माधुर्लइदि अकिारी लभते अयशः प्रचिरेण अचिरेषा । वित्तमंतापकारितया अग्निसहशता। संयमजीचितविनाशनाविषसदृशता । पापस्य अयशसश्च प्रायेण भीरुलोकोऽपि साध्याचार मिथ्यादृष्टिरसंयतोऽपि कि PARAN Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PHPega मूलारामना बाधास: एनाचिदितवेदितव्यस्य । परिहार्यमशेष उग्रतः परिह यतिजनः पापमयशश्च न परिहरेत् । तथा च लोकः काये पातिनि का रक्षा यशो रक्ष्यमपाति यत् ॥ नर पतितकायोऽपि यशःकायेन धार्यते । आर्याससंगदोपान् गाथानवकनाइ मूलारा-आगिविससरिसं चितमतापापादनादमिना संयमजीबितविनाशनाद्विषेण च तुल्यमार्जकासंसर्ग यूयं त्यजत । अकीर्ति पापादकीर्तेश्च प्रायेण पृथरजनोऽपि निभति किं पुनर्विरितवेदितव्यस्त्याज्यमशेष त्युक्तुमुक्तो यत्तिजनः । अर्जिकानुवृत्तिश्च मिझोर चिरादयशस्करीति सुनर्ग परिहायेति तात्पर्यम । जथा र लोको वक्ति-काय पातिनि का रक्षा यशो रक्ष्यमपाति यत् । नरः पतितकामोऽपि यशःकायन धायते ॥ अर्थ-हे साधुगण! तुम प्रमाद छोडकर आर्यिकाका सहवास छोडो, क्योंकि आर्यिकाका सहवास अग्नि और विषके समान है. चित्तमें संताप उत्पन्न करता है इसलिये यह सहवास अग्नितुल्य है. और संयमरूपजीवितका हरण करता है इस वास्त यह विषतुल्य है. आर्यिकाका अनुसरण करनेवाला साधु निश्चयसे और शीघ्र ही अपकीर्तिका स्थान बनता है. प्रायः पाप और अकीती से डरनेवाले मिथ्या दृष्टि और असंयमी सामान्य लोक भी उत्तम आचरण करते हैं. परंतु मुनि तो योग्यायोग्य सब जानते ही हैं उनके लिये क्या कहना चाहिये, अर्थात् उन्होने तो अवश्य आर्यिकाका साथ छोडनाही चाहिय. जितने त्याज्य पदार्थ हैं उनको त्याग लिय मुनिजन उक्त होने हैं इस लिये उनको पाप और अयशका जरूर त्याग करना चाहिये, यशके विषयमें आचार्य एमा कहते हैं अर्थात् शरीर तो पडेगा ही उसकी हम कैसी रक्षा कर सकेंगे परंतु यशका संरक्षण करना हमारा परम कर्तव्य है, मनुष्य का शरीर छुटगया तो भी यशरूपी शरीरसं वह धारण किया जाता है. अर्थात् वह मरनेपर भी उसका यश जगतमें रहता है इसी लिये कीर्तिमान् मनुष्य हमेशा अमर रहता है ऐसा सज्जन कहते हैं. थेरस्स वि तबसिरस वि बहुस्सुदस्स वि पमाणभूदस्स ॥ अज्जासंसम्गीए जणजपणयं हवेज्जादि ॥ १३१ ॥ ५४३ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSS मूलाराधना आश्वासा ५४४ स्थविरस्य प्रमाणस्य शानज्ञस्य तपस्विनः।। आर्यिकासंगतेः साधोरपवादो दुरुत्तरः॥ ३३१ ॥ विजयोदया--थेरस स्थविरस्य । तसिस्स वि अनशन.दितपस्युचतस्थापि। बहुसुदस्स वि पहुश्रुतस्यापि । प्रमाणभूदम्स प्रमाणभूतस्य । अरजाससमरिण जणजपणथं वेज दि आर्यापरिचयाज्जनापपावो भवति । मूलारा-तवस्सिस्स अनशनादितपस्युदातस्य । जर्जपणयं लोकापवादः । अर्थ-मुनि वृद्ध, तपस्वी, अर्थात् उपवास, अवमोदय, रसपरित्याग वगैरे तप करनेवाला, बहुश्रुत और जनमान्य होने पर भी यदि वह आर्यिकाका सहवास करनेवाला होगा तो बह लोगोंकी निंदाका स्थान बनेगाही. आर्थिकाके साथ परिचय होनेस उसकी निंदा होना दुर्निवार है. किं पुण तरुणो अबहुस्सुदो य अणुाकतवचरिनो वा ॥ अज्जासंसग्गीए जणजपणयं ण पावेज ॥ १२॥ न किं युमोऽल्पविकास्य मंदं विदधतस्तपः।। कुर्वाणस्यापिकासंगं जायते जनजल्पनम् ।। ३३२॥ विजयोदया--किं पुण मा पावेज जणजपणय कि पुनर्न प्राप्ग जनापवाद वा ? प्राप्नोति नियोगतः। कन ? अज्जासंसगीए आर्यायोग्या । यः ? तरणो अबहुस्सुदो अणुकिहतवचरिसो पतरुणो यतिरबहुश्रुतोऽनुकृपतपश्चारित्रश्च ॥ मुलारा—अणुकिळु अनुत्कृष्टं । अज्जासंसगीर आर्याजनगोष्टया 11 . अर्थ-जो तरुण है, वहथतता जिसमें नहीं है अर्थात जिसमें हिताहितका विचार कम है, जो उत्कृष्ट चारित्रका धारक नहीं है ऐषा यति आर्यिकाके संसर्गसे जननिदाको प्राप्त न होगा क्या? अवश्य होगा. तात्पर्य यह ई कि, जब विवकपणा, महान नपस्वी और लोकमान्यतायुक्त ऐसा मुनि भी आर्यिकाके सहवाससे अपकीर्तिका पात्र बनता है तो इतर अल्पन्न मुनिक विषयमें क्या कहना चाहिये। ५४४ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराषना आश्वास ५४५ जदि वि सयं थिरबुद्धी तहा वि संसग्गिलडपसराए । अग्गिसमीचे व घदं विलेज चित्तं खु अजाए ॥ ३३॥ आर्यिकामानसं सद्यो यतिसंगे विनश्यति ॥ सपिचन्हेः समीपे हि काठिन्यं किं न मुंचति ॥ ३३३ ।। स्वयं सामाः स्थिरत्वेऽपि संसर्गप्राप्तधृष्टता ॥ शिम विभाबसोः संग सा लाव बिलीयते ॥ ३३४ ।। विजयोदया- दि यि मय बिधी गवापि स्वयं वितिहा वि नधापि। ससग्गिलपसराय संसगालब्धासगयाः । बजाग आर्यायाः। चिन विलेज चिनं दकिसिनगगिरीबदं आग्नसमीपथ घृतामिय। नकवलमायोजन एव पारदरणीयः किं भु गूलारा-थिरबुद्धी रिवायत्तो यत्तिः। संसनियतिना सह गोष्ठी तथा लब्धः प्रसरश्चिताहासो यया । विलेज बिलीयते ।। अर्थ-नि यद्यपि स्थिर वृद्धिका धारक होगा तो भी पुनिके सहबासमे जिसका चित्त चंचल हुआ हैएसी श्रायिकाका मन अनिके समीप घी जैसा पिघल जाता है वैमा पिघलेगा इस वास्ते मुनि और आर्थिका दोनों कोभी अन्योन्य परिचय छोटनाही योग्य है. सनथ इस्थिवग्गम्मि अप्पमत्तो सया अधीसत्थो । णित्थर दि बेभचेरं तविचरीदो ण णित्थरदि ॥ ३३४॥ अविश्वस्तोंगमावर्गे सर्वनाप्यप्रमादकः॥ ब्रह्मचर्य यतिः शक्तो रक्षितुं न परः पुनः ।। ३३५ ।। विजयोदया-सवय इशिव गम्मि सर्वस्पिशेब स्त्रीवर्गे बालाकन्यामध्यमास्थविरासुरूपाविरूपेति विचित्रमेहे। अपमनो अप्रमसः प्रमादरहितः । सदा अवीसन्थो विश्वासरहितः । णिस्थरत निस्तरति बमचेरे ब्रह्मचर्य । ताथ्यवरीदो नहिपभः प्रमनः विश्वासयांश । ण गिन्धरदिम निस्सरति ॥ A ५४५ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आश्वासा न केवल आर्या एव त्याज्या । कि तईि सर्योऽपि स्वीजन इत्यनुशास्ति-- मूलारा-सव्वस्थ बाला, कुमारी, युवतिमध्यमा, वृद्धा सुरूपा, कुरूपा इत्यादिविचिन्न दे । अवीसस्था विश्वासरहितः । णित्यरई मरणतं प्रापयति ।। अर्थ-वालिका, अविवाहित कन्या, तरुणी, मध्यम चयकी स्त्री, वृद्ध स्त्री, मुरूप स्त्री और कुरूप स्त्री एसे संपूर्ण स्त्रीमात्रमें मुनिको प्रमादरहित होना चाहिये. विश्वासरहित होना चाहिये, इस रीतीस प्रवृत्ति करनेवाला मनिही आजन्म अपना यमचर्यबत निर्दोष पालन कर सकेगा अन्यथा नहीं. जो मुनि प्रमादी और स्त्रीजनोंमें विश्वासयक्त है यह अपने ब्रह्मचर्यव्रतको नहीं निभा सकेगा. आयीनुवरणे दोषं प्रकटयति सव्यस्तो विधिमत्तो साह सव्यत्य हाइ अप्पवसी ।। सो चैव होदि अजाओ अणुचरंतो अणपबसो ॥ ३३५ ।। विमुक्तः सर्वतो जातः सर्वत्र स्वरशी यतिः ॥ आर्यिकानुचरीभूतो जायतेऽन्यवशः पुनः ॥ ३५॥ बिजयोदया--सव्वत्तो वि विमुसो साइ सम्वत्थ होइ अपघसो सर्चस्मादास्तुमंत्रादिकातिमुक्तः साधुः सर्वत्र भवति स्वयशः । सो बैव स एवात्मयशः । होर मवति । अणप्यवसो अनारमशः । किं कुर्वन ? अजाभो अणुचरंतो आर्या अनुचरन् । मूलारा--सब्ब नो वि सर्वस्मादास्तुक्षेत्रादिकान् । विमुत्तो व्यावृत्तचित्तः । अन्जाओ आर्यिकाः अचम्नी अनु. वर्तगानः | अर्थ--जो साधु घर, खेत, धनधान्यादि सर्व प्रकारके परिग्रहोंसे ममन्नहित हुआ है, वही मर्व वस्नु ओमसे अपने मनको अलग रखकर जितद्रिय होता है. परंतु जो मुनि आर्थिकाकं माथ पारंचय रखता है वह अपनेको आत्माके शुद्ध स्वरूपमें तत्पर नहीं कर सकेगा. अर्थात् जितेन्द्रि यता गुणको छोट घटेगा. इसीलिये आयिं काका परिचय मुनिओंके लिये निषिद्ध माना है. Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना, ५१७ खेलपडिदमप्पाणं ण तरदि जह मच्छिया विमोचेदुं ॥ अजाणुचरो ण तरदि तह अप्पाणं विमाचेदुं ॥ ३३६ ॥ आर्यिका वचने योगी वर्तमानो दुरुत्तरे || शक्तो मोचयितुं न स्वं श्लेष्ममेव मक्षिका ॥ ३३७ ॥ विजयोदय-लपडिदमप्पानं मपरीतमात्मानं ज ण तरह मच्छिया बिमांचंदु यथा न तरति मक्षिका विमोचयितुं । तह अज्जानुचरो ण तरह अध्यायं चिमोने तथा आर्यागे न शक्नोति आत्मानं विमोचयितुं ॥ मुलारा - खेल श्लेष्मा | ण वरदि न शक्नोति ॥ अर्थ- जैसे मनुष्यके कफमें अर्थात् कर्मे पनि होती है fare साथ परिचय किया हुआ मुनि भी उससे छुटकारा नहीं पाता है. अर्थात् उसका स्नेह छोड़ने में वह अस मर्थ होता है. साधुरस णत्थि लोए अज्जासरिसी खु बंधणे उवमा || चम्मेण सह अतो ण य सरिसो जोणिकसिलेसी ॥ ३३७ ॥ नार्या बंधेन बंधोऽन्यस्तुल्यो वृत्तच्छिदा यतेः ॥ वज्रलेपः स नो तुल्यो यो याति सह चर्मणा ।। ३३८ ।। ब्रह्मवतं मुमुक्षूणां श्रीसंसर्गेण निश्चितम् ॥ मंडूकः पक्षगेनैव भीषणेन विनाश्यते ॥ ३३९ ॥ चौराणामिव सांगत्यं पुंसा सर्वस्वरक्षिणा || योगिना योषितां त्याज्यं ब्रह्मचर्यमपालिना ॥ ३४० ॥ हत्यायसंगत्यजन सूत्रम् विजयोदया - साधुस गरिथ लोए बज्जासरिसी खु बंधणे उबमा । साधोर्नास्ति लोके आयासदृशी बंधने आश्वासः ४ ५४७ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागधना भानास उपमा । चम्मेणा सह अवतो चर्मणा सह अपगच्छन । यसरिसो जाणिगसिलसो नैव सरशः चर्मकारपः । न केवलं आयोजनो दृरत एवं परिहार्यः अपि तु अन्यदपि वस्तु || गुला२३.. - अजित्यादि-अवनो दुधगुपमा उपगेयं अस्यार्षिकया सदृशं । तर्हि चर्मयोजितवलेपरामवंधा मुनेगर्थिका भावष्यतीति शकमान प्रत्याए । थम्मेणेत्यादि अवतो अवगच्छन । जोणिगसिलेसो वनलेपः । उक्तं च नायर्या बंधन बंधोऽन्यस्तुल्यो वृत्तपिछदा यतेः ।। वनलेपः म नो तुल्यो यो गालि गाह धर्मणा । अर्थ--साधुके लिये आर्यिकाका सहचास ऐसा बंधन है कि उसका वर्णन करनेके लिये जगतमें दृश्यमान कोई भी बंधन उपमानरूप नहीं है. चमके माथ वज्रलेप भी उसके लिये उपमान नहीं है. किसी चीजके ऊपर बजलंपके माथ चर्मका मी बंधन किया तो भी वह वस्तु उस बंधनसे मुक्त होनेकी संभावाना होगी परंतु आर्यिकाका परिचय ऐसा बंधन है कि उससे वह छुटना असंभव है, अण्णं पि तहा इत्युं जं जं साधुस्स बंधणं कुणदि ॥ तं तं परिहरह तदो होहदि दढसजदा तुज्झ ॥ ३३८ ॥ यद्यदन्यदपि द्रव्यं किंचिदंधनकारणम् ॥ तत्तत्रिधा निराकृत्य जायध्वं दृढसंयमाः ॥ ३४१ विजयोदया--अगणं पिनहा वन्थु अन्यदपि तथाभूतं वस्तु | जं जे साधुस्स बंधणं कुणा यद्यत्साघोबंधने करोति अम्वतंत्रतां करोति । नं नं परिवहनमापरिहार उद्योगं कुरुत । ततः बस्तृत्यागान् । होइदि बढसंजदा तुझा भयना रहसंयनता गुणी भवन्य गति यावत् । वासाचतुनिमित्तो ह्यसंयमस्तस्याग त्यनो भवति ।। न केवलमार्याजन गय रतस्त्यान्योऽपितु मूलारा-तधा तथाभूतमाथिकासहसमित्यर्थः । बंधणं पारतंत्र्यं । तदो बंधनकारिवस्तुत्यागात् । होधि भविष्यथ । दढसंजदा बाद्यवस्तुनिमित्तो ह्यसंयमस्तत्त्यागे त्यस्तो भवति । तुझे यूयं || ५४८ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा ... भाकिनी से त्याला चाहिये ऐसा नहीं परंतु इतर वस्तु भी त्यागनी चाहिये अर्थ-जिस २ वस्तुमे माथु बंधा जाता है, परतंत्र होता है वह वह वस्तु हे साधुगण ! तुम छोडनेका । उद्योग कगे. ऐशी बंधनकारक वस्तु में छोडनसे तुम्हें दृदयमगुणकी प्राप्ति होगी. बाह्यवस्तुके सहवाससे असंयम उत्पन्न होता है, परंतु एमी यस्तु तुम छोट दोग तव असंयमका त्याग होगा. पासत्थादीपणयं णिचं वजह सञ्चधा तुम्हे ॥ हंदि हु मेलणदोसेण होइ पुरिसस्स तम्मयदा ॥ ३३९ ॥ पार्श्वस्थासम्नसंसक्तकुशीलमृगचारिणः ॥ मलिनीक्रियते शश्वत्कजलेनेव संगतम् ॥ ३४२ । कषायाकुलचित्तानां पार्श्वस्थानां दुरात्मनाम् ।। भुजंगानामिव त्याज्यः संगश्छिद्रगवेषिणाम् ॥ ३४३ ॥ विजयोदया--पासस्थादीषणयं पार्श्वस्थादिपंचकं पावस्थाः, अघसन्नः, संसक्तः, कुशीलो, मृगचरित्रः इति च । तान दृग्नो निराकुरुन । परित्यागदोषमा...मेलणदोसण तम्मन्यदा होर संसर्गदोषेण पार्श्व स्थादिमयता । तन्मयताप्रति पत्तिमख्यापनायाता गाथा ॥ अथ पार्श्वस्थादिसांगत्यत्या गाथात्रयेणाह मूलारा--पासस्थादीपणयं पावस्थावसनसंसक्तकुशीलमृगचरितानां पंचकं । ते हि प्रच्छनमिध्यादृष्टयः । तथा चोक्तम पासत्थोमन्नकुसीलालससत्तो य होइ सम्लंदो || एपंच वि समणा जिगवबगपरम्मुहा भणिया । हदि जानोदि । मायदा पाश्रयादिलाना । तल्लभगानि थकानुशिष्ठी वक्ष्यगे संभपनम्विमानि वृत्तेऽलमशेऽवसन्न:पार्थस्थो मलिनपरहशेष्टेऽनिष्टे । १po Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा संसक्तो मृगचरितः स्वकल्पिते प्रकटकुचरितन्तु कुशीलः ।। अर्थ-पार्श्वस्थ, अबसन्म, संसक्त, कुशील, मृगचारित्र ऐम पांच चारित्रभ्रट मुनिओंका आप दूरमे ही स्था कर, पर उनका मन करोगे तो उस संसर्गदोपसे आप भी उनके मयि हो जाओगे. ये पाचस्थादि मुनि प्रच्छन्न मिथ्यादृष्टि है. पार्श्वस्थादिसंसर्ग कर्तुं यांच्छन्नपि लज्ज तदो विहिंसं पारंभ णिब्विसंकदं चेव ॥ पियधम्मो वि कमेणारुहंतओ तम्मओ होइ ॥ १४ ॥ लज्जां जुगुप्सनं योगी प्रारम्भ निर्विशंकताम् । आरोहन्प्रियधर्मापि क्रमणेत्यस्ति तन्मयः ।। ७४४ ।। बिजयोवया--लज्जं लग्जर्जा उपारोद्दति । ततः पश्चाद्विहिसं असंयमजुगुप्सा फरोति । कथमहमवविध बतभंग करोमि । दुरंतसंसारपतनइंतुमिति । पश्चाचारिश्रमोहोव्यात्परवशः पारंभ प्रारभते । शतप्रारंभो यतिरारंभपरिग्रहादिषु निविसंकद चेव निर्षिशंकतामुपैति । पियधम्मोवि धर्मनियोऽपि । कमेणारहतगो क्रमेण प्रतिपद्यमानो लस्जादिकं तम्मको होदि पार्श्वस्थादिरूपो भवति ॥ तन्मयताप्रतिपत्तिकमाख्यानार्थमाह मूलारा-लक्षमित्यादि । धर्मप्रियोऽपि लज्जादीन क्रमेयारोहपावस्थादिरूपो भवति । तथा हि पार्वम्यादि. संसर्ग कर्तु वासनि लज्जामारोहति ततः पश्चादिहिसं असंयगजुगुप्ता प्रतिपक्ष । नगद गाय वगभग कगि दुरन. संसारपतनहेतुमिति । तनु चारित्रमोहोदयात्परवक्षनं प्रारभते । ततश्चारंभपरिभहारिक निर्विशंकनामपनि । तनय पादयस्था दिरूपो भवति || उनके संसर्ग करनेसे तन्मयता कैसी आती है इसका क्रम वर्णन आचार्य दिखाते हैंअर्थ--प्रथमतः पार्श्वस्थादिक मुनिओंके साथ संसर्ग रखनेमें लज्जा आ जाती है. अनंतर जुगुप्सा होती है ५५० Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना -आश्वास अर्थात् इस अमूल्य व्रतका नाश करनेमें मैं कैसा उद्युक्त होऊं, यह मेरा वतनाशकार्य दुःखदायक संसारमें पतनका कारण होगा. ऐसा विचार मनमें आनेते उन पार्श्वस्थादिकोंके विषय में उसको जुगुप्सा उत्पन्न होती है. नंतर चारित्र मोहकर्मका उदय होनेसे वह परवश होकर व्रतमं । कर लिये का होता है. यानंग कर यह मुनि आरंभ परिग्रहादिकोंमें निःशंक होता है, यद्यपि वह मुनि पार्श्वस्थादिकके सहवासके. पूर्वमें धर्मप्रिय था तो भी कमसे लज्जा, जुतुणा बगरह मायाँको प्राप्त होकर पार्श्वस्थादिरूप हो जाता है. यद्यपि वा शरीरग और वचन पाधम्थादिरूप नहीं है, ता भी मनम वैसा हो जाता है, पदापि वाकायाभ्यो न प्रयतते नथापि मानी पार्श्वस्थादिता प्रतिपात रत्यावर - सबिग्गरसवि संसग्गीए पीढ़ी तदो य वीसंभो ।। सदि वीसंभे य रदी होइ रदीए वि तम्मयदा ॥ ३४१ ।। तेषु संसर्गतः प्रीतिविनम्नः परमस्ततः ।। ततो रतिस्ततो व्यक्तं संविनोऽप्यस्ति तन्मयः।। ३४५ ।। विजयोन्या-सबिग्गस्स यि संसारभीरोरपि यतः संसगीण पाचस्थ दिससंगण । पांदी हीदि प्रीतिनानि । सदो य प्रीतेः सकाशात् । वीसंभो होदि विनमो भवति । सविधीसभे य रदी विभ पनि तिर्भवति । पार्श्वस्थादिषु रदीप वि तम्मपदा रत्या च तन्मयता॥ यद्यपि तत्संगत्या वाशाचाभ्यां न तदाचारे प्रयतते तथापि मानर्स पाश्र्यास्यादिरूपता प्रतिपद्यते इत्याचष्टगृलारा संसगीए पार्वस्थादिसंसर्गेण । बालभो विश्वासः । रदी पात्रस्थाविपु संसर्गण चिनविश्रान्तिः यही आशय आगे की गाथामें आचार्य कहते हैं - अर्थ संसारभययुक्त मुनि भी पावस्थादिकोंके सहवाससे प्रथम प्रीतियुक्त होता है, प्रतिके अनंतर उस विएवमें मनमें विश्वास होता है. अनंतर उन्होंमें चित्त विश्रांति लेता है अर्थात आसक्त होता है और तदनंतर यह संसार भीर मुनि भी पार्श्वस्थादिमय बनता है, Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागवना आश्वासा संसर्गवशाद गुणदोगी भवतोऽचननेप्यपीति मातेन बोधयनि जइ भाषिजइ गंधेण महिया मुरभिणा व इदरेण ।। किद्द जोएण ण होजो परगुणपरिभात्रिओ पुरिसो ॥ ३४२ ॥ नानाशभन गंधेन मृत्तिका यदि वास्यते ।। तदा नान्यगुपीरत्र कथ्यतां पुरुषः कथम् ।। ३३७ ।। विजयोदया-जदि यदि । भाविद भाव्यते चास्यते । गधेण गंधेन प्रष्टिया मृत्तिका । सुरहिणा व इयरेण सुगभिणा च इतर वा। वह जोगणा होजो कर्ण संबंधेन न भवेत् । परगणपरिभाष गो परिमो परेपगं पार्श्वस्थादीनां गणे: परिभावितः पुरुषः ॥ संसर्गवशागदोपावचेतनावपि स्यानां किं पुनश्चेतनेविति दृष्टान्तावष्टंभे नावष्टे -- मूलारा-मात्रेदि वायत्त । जोगण संबंधेन। परगुणपरिभाविदो परेषां शिष्टानां गुण: शुभाशुभमैंः ममन्ताद्वासितः ।। संसर्गस अचेतनपदार्थ में मी गुण और दोष उत्पन्न हो जाते हैं यही बात दृष्टांतसे स्पष्ट करते हैं अर्थ--यदि सुंगध अथवा दगंधक सहवाससे मत्तिकाभी सुगंध अथवा दुगध बनती है तो पावस्थादि. कोंका संयोग होने पर मुनि उनके गुणोंसे क्यों न तन्मय होगा? अर्थात् होगा ही. अथवा परपदार्थ यदि मुगुण होगा तो उनमे संयुक्त होने वाला पदार्थ भी मद् गुण संपन्न होगा और परपदार्थ यदि दुर्गुण अर्थात् दोपयुक्त होगा ना घर भी दापनि पूर्ण माटी. परगुणग्रहरामाद * जो जारिसीय मेत्ती केरइ सो होइ तारिलो चत्र || वासिज्जइ कछुरिया सा रिया वि कणयादिसंगेण 11 ५४३॥ * मूलाराधना दर्पण में यह गाधा तथा उसकी टीका नहीं है तथा अमितगति प्रणीत भोक भी नहीं है. Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ५५३ विजयोदया- दृष्टांतत्वेनोपन्यस्ता मृत्तिका टुरिका च । तथा चोक्तं सुरभिणा व स्वरेण जारिसीति च ॥ परगुणग्रहण यह पदार्थ का स्वभाव है ऐसा वर्णन अर्थ- ऊपर मट्टीका उदाहरण दिया है. इस श्लोकमें छुरीका उदाहरण आचार्य देते हैं. जैसे छुरी सुवर्णादिक की जिल्हई देनेमे सुवादि म्यापकी दरिखती है वैसे मनुष्य भी जिसकी मित्रता करेगा वैसा होगा अर्थात् | मनुष्य दुष्टके महवासस दुर और सज्जनसंगये मत्पुरुष होता है. mein दुजणसंसग्गीए पजहदि णियगं गुणं खु सुजणो वि ॥ सीयलभावं उदयं जह पजदि अग्गिजोएण ॥ ३४४ ॥ शिष्टोऽपि दुष्टसंगेन विजहाति निज गुणं ।। नीरं किं नाग्नियोगेन शीतलत्वं विमुंचति ।। ३४७॥ विजयादया-दुजर्ससम्गीर दुष्टजनसंसर्गेण । पाइदिणियगं गुर्ण खु सुजणो वि । चिजहाति स्वगुणं सुज. नोऽपि । सायम्माय जहा उदवं पत्रहदि दोस्वं भावं यथा जहान्युदकं । अग्गिजोपमा अग्निसंबंधेन | साधुः स्वगुषों जहात्यनलसंवद्ध जलमिति सहजगुणरयाग हटांतः ॥ बुनमायागं गाशाकेजो परेलु कामो दुर्जनसंगर्गासुजनभ्यापि सहजगुरुत्या दातन समर्थयतेमूल्दारा स्प५ अर्थ-सज्जन मनुष्य भी दुर्जनके संगसे अपना उज्ज्वल गुण छोड देता है. अग्नीके सहवासमे ठंडा भी जल अपना ठंडपना छोड कर क्या गरम नहीं होता? यह सहजगुणके त्यागका दृष्टांत है, अर्थात अग्निके सहवाससे शीतस्त्रमाव का जल भी अपना म्बभाव छोडकर गरम होता है. वैसे सज्जन अपने जन्मजात निर्मल गुणोंको छोडकर दुर्जनके सहवाससे दुष्ट बनता है, अशोभनगुणेन संसर्गात् नहा स्वयमप्यशोभनगुणों भवतीति कथयति सुजणो वि होइ लहओ दुजणसंमेलणाए दोसेण ॥ माला वि मोल्लगरुया होदि लहू मडयसंसिट्ठा ॥ ५१५ ।। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ५५४ लाघवं दुष्टसंत शिष्टोऽपि ॥ किं न रस्नमयी माला स्वल्पार्था शवसंगता ॥ ३४८ ॥ विजयोदया-खुजणो वि होर लटुओ सुजनोऽपि भवति लघुः 1 दुज्जणसंमेलनाप दोसेण दुर्जनगोष्टीदोषेण । मालाब मोलगरुया मालापि सुमनसां मध्येन लध्वी होइ भवति । महनसंसिद्धा मृतकस्य संसि ॥ निंद्यगुणसंगात्तगुणपरिणति प्रणिगदति- मुळारा स्पष्टुं ॥ रे गुण के सहवाससे मनुष्य बुरा अर्थान दष्ट होता है इसी अभिप्रायको दृष्टान्त स्पष्ट करते हैंअर्थ- दुर्जन के दोषों का संसर्ग होनेंस सज्जन भी नीच होता है. बहुत कीमनकी पुष्पमाला भी मेतक अर्थात् शव के संसर्ग कॉटीके कीमत की होती है. अदुष्टोऽपि दुष्ट हनि शक्यते यतिः पार्श्वस्यादिगोष्ट्या हत्येतद्दृष्टान्तेनादुज्जणसंग्गीए संकिज्जदि संजदो वि दोसेण ॥ पाणागारे दुद्धं पितओ भयो चैत्र || ३४६ ॥ संयोजनैर्दुष्टो दुष्टानामिह संगतः || क्षीरपा ब्राह्मणः शौण्डः शौण्डानामित्र शंक्यते ॥ ३५९ ॥ विजयोदया दुज्जणसंग्गीय इति स्पष्टार्थ गाथा || स्थादिसंखर्गादिदुष्टोऽपि यतिर्दुष्ट इन शक्यते इत्याचऐ- 1 मूलारा-पाणागारे उद्यानापानगोष्ठयां ? ( मद्यपानगोष्ठ्य इति भवेत् ) बंभो शिवभूतिनाम र यथा पार्श्वस्थ वगैरह कुमुनिओंके संसर्ग अदुष्ट भी यति लोकोंके द्वारा दुष्ट माना जाता है. इसको दृष्टान्तसे आचार्य स्पष्ट करते हैं. अर्थ - दुजनके संसर्गसे दोपरहित भी मुनि लोकोंके द्वारा दोपयुक्त गिना जाता हैं. मदिरागृहमें जाकर कोई ब्राह्मण दूध पीवे तो भी उसने मद्य पिया है वह मद्यपी हैं ऐसा लोक मानते हैं. भावालः ど ५५५ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास परदोसगहणलिच्छो परिवादरदो जणो खु उस्सूणं॥ दोसत्थाणं परिहरह तेण जणपणोगामं ।। ३४७ ।। परदोषपरीवादग्राही लोको यतोऽग्विलः । अपवादपदंदा मुंचध्वं सर्वदा ततः ।। ३५० ।। विजयोदया-परदोसगहणलिच्छो परदोषप्रणेच्छावान्। परिवादग्दो परोक्ष परदोषवचने रतः । जणो जनः । उस्सूर्ण खु नितरामेव । तेण दोसस्थाणं परिहरहतेन दोषस्थानपरिहारं फुरत । जण जपणोमास जनजल्पनाषकाशं ।। दोषावतारस्थानपरिहारमाह गृला. किलो इलावार ! परिवादरदो परोक्षे परदोषवचने रतः । हु वम्भान् उस्सर्ग अतीव । जणजपणोगास लोकापवादास्पदम् । अर्थ-लोक परदोष ग्रहण करने के लिये उत्सुक रहन है, परोक्ष दोष कहने में व आनंदित होते हैं. इस वास्ते हे मुनिगण! जहां आने जानेसे दोपयंसग होगा एसे स्थानोंका और चीजोंका आप न्याग कगे. क्योंकि ऐसी चीजें रखनंस लोफर्म अपकीर्ति होती है. दुर्जनगोष्टी अनर्थमावहत्यहलौकिकमित्येतत्कथयनि अदिसंजदो त्रि दुजणकरण दोसण पाउणइ दोसं ॥ जह घूगकए दोसे हंसो य हओ अपायो वि 11 १५८ ! दुर्जनन कृत दोषे दोपमाप्नोति सज्जनः ।। कादंयः कौशिकनेव योपिकणापदपणः ।। ३५५॥ दर्जनस्थापराधेन पीड्यंते सज्जना जने । अपराधपराचीनाः पृदाकरिव इंडमाः॥ ३५२ ॥ असंयतेन चारित्रं संयतस्यापि लुप्यसे ।। संगसेन समृद्धस्य सर्वस्वमिव दस्युना ॥ ३५३ ।। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना সামধে: विजयोदया-अविसंजदो मि इत्यनया-अतीव संयतोऽपि दुर्जनकृतेन दोषेण प्राप्नोति। दोस अनर्थ । यथोलूकरुतदोषनिमित्तं अपापोऽपि इंसो इतः ।। दुर्जनगोट्या एंड्लीकिकानीवहत्यमाह-- मूलारा–अपायो वि अपापोऽपि निर्देषोऽथि || वर्जनसहवाससे इहपरलोकमें अनर्थ होता है इसका दृष्टान्तपुरःसर स्पष्टीकरण करते है-- अर्थ- पहाट तपती भी दर्जनके दोपोंसे अनर्थमें पड़ते हैं, अर्थात दोष तो दुर्जन करता है परंतु फल मुज्जनको भोगना पड़ता है, जैसे उल्लूके दोपसे निष्पाप हंसपक्षी मारा गया. दुजनगोला दोरांताता दुजणसंसग्गीए त्रिभाविदो सुयणमझयारम्मि ॥ ण रगदि रमदि य दुजणमझे वेरग्गमवहाय ।। ३१९ ॥ दुष्टानां रमते मध्ये दुष्टसंगेन वासितः॥ विदरीकृतवैराग्यो न शिष्टानां कदाचन ।। ३५४ ।। विजयोदया-ज्जणसंगीप, विभाविदो दुर्सनगोप्या भावितः । सुमणमझयारम्मि सुजनमध्ये। परमदि न रमते । र मदिगदुज्जयामन रमते नमध्ये । बेरम्गमबहाय बैराग्यं परित्यज्य || दुर्जनगोष्टश दोषांतरमाह-- मूलारा-बेरगमवहाय संयमं त्यक्त्वा ।। दुर्जनसहवाससे और भी दोष होते हैं यह दिखाते है ---- अर्थ - दुजनके संसर्गसे दुष्ट बना हुआ मनुष्य सुजनों में रहना अर्थात उनकी संगति करना पसंत नहीं । करता है. परंतु वह पुरुष वैराग्यको छोडकर बुर्जनोंके समूह में बडे आनंदसे रहता है. 1 सुजनसमाभरणे गुणण्यापनायोत्तरसूत्राणि-- - Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः - ५५७ - - जहदि य णिययं दोस पि दुजणो सुयणवइयरगुणेण ।। जह मेरुमल्लियंतो काओ णिययञ्छवि जहदि ॥ ३५० ।। दष्टोऽपि मुंनते दोषं स्वकीय शिष्टसंगतः ॥ कि मेकमाश्रितः काका न धत्ते कनकच्छविम् ।। ३५५ ।। विजयोन्या- साहदि जहाति निजमपि दोषं दुर्जनः सुजनमिश्रगुणेन । यथा मेरुसमाश्रयणे काफो जहाति सहजामपि छायामशोभनां तद्वतां । संतोपि योषा नश्यति सुजनाश्रयेण ततस्ते समाश्रयणीया इति भावः ।। सुजनसमाश्रय गाथासप्तकेंन गुणान्याचक्षाणः सुजनाः समाश्रयणीया इत्युपदिशतिमूलारा--परिकर सांगत्वं । अल्लियतो आश्रयन् ।। सुजनोंका सहवास करनेस गुणोंकी प्राप्ति होती है इस विषयका वर्णन आचार्य अनेक गाथाओंसे करते हैं. अर्थ -- दुर्जन मनुष्य सज्जनाका सहवास करके उनके गुणोंमे युक्त होता है. और अपने पूर्व दोषोंको वह छोडता है. इसका उदाहरण यह है निराशाश्रय करनेवाला कौरा अपनी स्वाभाविक मालिन कातिका म्यागकर मरुपर्वतकी सुवर्णकांतिका आश्रय करता है. अभिप्राय यह है कि सुजनसंगस विद्यमान दोष भी नष्ट होते हैं, इसलिये उनका ही आश्रय करना योग्य है, खजनासमाधयणे अभ्युदयफलं. पूजालाम कथयति गाथा.... कुसुममगंधभवि जहा देवयसे सत्ति कीरदे सीसे ॥ तह सुयणमञ्झवासी वि टुज्जणो पूइओ होइ ॥ ३५१ ॥ पूजां सजनसंगन दर्जनोऽपि प्रपद्यते ।। देवापर विगंधापि क्रियते किं न मस्तके ।। ३५९॥ विजयोश्या सममित्यादिका । यथा सौगंध्यरहितमधि फसमं देवताशेरेति क्रियते शिरसि तथा साधुजन मध्यावासी दुर्जनोऽपि पूजितो भवति । साधुसंगनासाधुरपि पूजा प्राप्नोति इत्याह ५५७ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भावा मूलारा स्पष्टम् ॥ मुजनके आश्रयस अभ्युदयफल, पूजालाम होता है इसका विवेचन--- अर्थ-..निगम भी गुण रहयेहानाही शेषा है-प्रसाद है ऐसा समझकर लोक उसको अपने मस्तकपर धारण करते हैं. वैसे सज्जनोंमें रहनेवाला दर्जन भी लोकसे पूजा जाता है. ५५८ AAORKERSE-MAITRITAMARATRAMATA इब्यसंयमे बाकायनिमित्तात्रयनिरोधरूपे प्रवृत्तिगुणं कथयति--- संविग्गाणं माझे अप्पियधम्मो विकायरो वि णरो॥ उज्जमदि करणचरणे भावणभयमाणलजाहिं ॥ ३५२ ॥ कातरोऽनियधर्माऽपि व्यक्तं संविग्नमध्यगः । भीत्रपाभावनामानैश्चारित्रं यतते यतिः ।। ३५७ ।। विजयोदया--संधिगाणं मज्झे इत्यनया । संसारभीरूणांमध्ये वसम्नपि यद्यपि धर्ममियो न भवति । कातरवासुखे तथापि उद्युक्त पाएक्रियानिवृत्ती भावनया, मयेन, मानेन, लज्जया च ॥ संयतानां मध्ये निवसम्मप्रियधपि संयमे यनते हत्युपदिशतिमूलारा---चरणकरणे पापक्रियानिवृत्ती, भावण वासना, माण अभिमानः ।। वचन और शरीरकी प्रवृत्तिसे उत्पन्न होनेवाले आस्रवका निरोध होना यह द्रव्यसंयम है. सज्जनोंके आश्रयसे इस द्रव्यसंयममें प्रवृत्ति होती है यह अभिप्राय आचार्य स्पष्ट करते हैं अध--कोई मुनि संसारभीरु यतिओक साथ रहकर भी धर्मपर प्रेम नहीं करते हैं. और दुःखसे, परीपह और उपसर्गसे भय युक्त होते है, तो भी भावना, भय मान और लज्जाके वश होकर पापक्रियाओंका के त्याग करत हैं. तात्पर्य यह है कि, सज्जनोंका सहवास आवश्य फलप्रद होता है. संसारभीरोरपि यतेः सुजनसमाश्रयणेन गुणमभिदधाति.... संविग्गोवि य संविग्गदरो संवेगमज्झयारम्मि ॥ होइ जह गंधजुत्ती पयडिसुरभिदव्वसंजोए ॥ ३५३ ॥ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना माथा ५५९, I संविग्नः परमा कोर्टि साधुः संविनमध्यगः।। गंधयुक्तिरियायाति सुरभिद्रव्यकल्पिताम् ॥ ३५८॥ विजयोदया---- हादियोऽपि परवानगीनंजारीकर्जरोनिधारयनिवासी संविडातरो भपति । यथा गंधयुक्तिः कृतको गंधः प्रकृतिसुरभिद्रव्यसंसमें सुरभितरो भवति । सरसंगाद्गुणोत्कर्षपानिमाह-- मूला-गंधजुत्ति कृतको गंधः सुरभितरे। भवतीति शेपः । पय डिसुरभि स्वभावसुगंधि ॥ उक्त च-सविस्तः परमां फोटिं साधु: संविग्नमध्यगः ।। गंधयुक्तिरिवायाति सुरभिद्रव्यकल्पिता॥ संसारभीरु यतीको भी सुजनके संगस गुणप्राप्ति होती है यह कथन अर्थ--जो मुनि प्रथमसे ही संसारभीर है वह संसारभीरु मुनिओंके सहवास में रहनेसे पूर्वसे भी अधिक संसारभीरु होता है. स्वभावतः सुगंधयुक्त ऐसे कस्तुरी, चंदन बगैरह पदार्थोंके सहवाससे कृत्रिम गंध पूर्वसे भी अधिक सुगंधमय बनता है . बहव इत्येतायता चारिचक्षुद्रा न भवद्भिः समाश्रयणीयाः । एक इति पान सगुणः परिहार्य इत्येतदाच - पासत्थसदसहस्सादो वि सुसीलो घरं खु एक्को वि ॥ जं संसिदस्स सलिं दसणणाणचरणाणि वट्ठति ॥ ३५४ ॥ एकोऽपि संयतो योगी वरं पार्श्वस्थलक्षतः ।। संगमेन तदीयेन चतुरंग विवर्धते ॥ ३५९ ।। विजयोदयापासत्थसदसहस्सादो घि पार्श्वस्थग्रहणं चारित्रभुदोपलक्षणार्थ । चारिषक्षुद्राच्छतसहस्रापि पकोऽपि सुशीलो वरं । संयममाथितस्य शीलं, दर्शने, धान, चारित्रं च वर्द्धने, स भवद्भिराथयणीय इति भावार्थः। घड्व इत्ति चारित्रशुदा न भवद्भिराश्रयणीयाः एक इत्ति मुहाली न त्याज्य इत्युपदिशति-- मूलारा-जं संसिदस्स यमाभितस्य ।। ५५ See Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STATEST मूलाराधना आश्वास ५० हे मुंनिवृंद ! चारित्रहीन मुनि बहुत हैं ऐसा समझकर उनका आप आश्रय मत करो और सद्गुणी मुनि एकही है ऐसा समझकर उसको मत छोडो ऐसे अभिप्रायका कथन-- ___ अर्थ-यहां पार्श्वस्थ शब्दसे चारित्रहीन मुनिओंका ग्रहण समझना चाहिये अर्थात् चारित्रहीन मुनि लक्षावधि हो तो भी एक सुशील मुनि उनसे श्रेष्ठ समझना चाहिये. कारण सुशील मुनीश्वरके आश्रयसे शील, दर्शन, ज्ञान और चारित्र घहत है. ऐसे ही मुनिका आप आश्रय करी एसा गाथार्थ है. - - Ramin-HANKam - - संजदजणात्रमाणं पि बरं दुज्जणकदादु पूजादो ॥ सीढविणानं जण सग्गी कुणदि ण द इदरं || ३५५ ॥ घरं संयततः प्राप्ता निंदा संयमसाधनी ।। नवसंचनतः पूजा शीलसंयमनाशिनी ॥ ३६०॥ विजयोन्या-संयताः परिवन्ति मायसुचरितं ततः पार्श्वस्थादीनवाथयामि इति न चतः कार्यमित्याचसंजदजगावमा शिवरं संयतापमानमपि वरं । दुजणकबाटु पूजादो दुर्जमकृतायाः पूजायाः । कथं? दुजणसंसग्गी सीलविणासं कुणदि दुर्जनसंसर्गःशीलविनाश करोति । न दुइदाज तु इतरं संयत जनावमानं तु नेव शीलविनाशं करोति ॥ संयता मां भदायरा अवमानयंति तन: पावस्थादीनेवाश्रयाभीति न घेतः कार्यमित्याचष्टे -- मूलारा-पष्टम ॥ चारित्रहीन मेरको संयमी जन अपमानित करते हैं इस लिये पाश्चस्थादि मुनिओंका आश्रय मै करूंगा ARI एसी बुद्धि हे मुनिगण : आपको करना योग्य नहीं है. ऐसा अभिशय ग्रंथकार आगेकी गाथामें कहते है. अर्थ-मंयमी तपस्त्रिओने किया हुआ अपमान भी दुजेनके द्वारा की गई पूजासे बढकर अच्छा है ऐसा समझना चाहिये. क्योंकि दुर्जनोंका सहवास शीलका नाश करता है परंतु संयमी मुनिओंका सहवास शीलका नाश नहीं करता है. अतः सज्जनसहवासही श्रेयस्कर है. %Animarwasan Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधासा प्रस्तुतोपसंहारमाथा आसपबसेण एवं पुरिसा दोसं गुणं व पाति ॥ तमा पसत्थगुणमेव आसयं अल्लिएज्जाह ॥ ३५६ ।। गुणदोषी प्रजायते संसर्गवशतो यतः ॥ संसर्गः पावनः कार्यो विमुच्यापावनं ततः ॥ ३६१ ॥ विजयोदया-यामयवसण आथग्रवदोन । एवमुक्तन क्रमेण । पुरिसा होस गुणं च पावति । पुरुषा दोपं गुण वा प्राप्नुवन्ति । तम्हा पसन्धगुणमेव आसय अलिपज्जाद । तस्मात् प्रशस्तगुणमेव आश्रय आधयेत् ॥ प्रकृतमुपसंहरति--- मूलारा-आस यवसेण--आश्रयवशेन । अल्लिएज्जाइ आश्रयत यूयम् ॥ प्रस्तुत प्रकरणका उपसंहार अर्थ-मनुष्यको आश्रयके वश दोष और गुणोंकी प्राप्ति होती है. इस लिये हे मुने तुम उत्तम गुणपरिसेतीमादी अशीस गुणमुक्त मुनिओंकी संगति करो. पत्थं हियाणि8 पि भण्णमाणस्स सगणवासिस्स ॥ कडुगं व ओसहं तं महुविवायं हबइ तस्स ॥ ३५७ ।। वाच्या गण स्थितः पथ्यमनभीष्टमपि स्फुटम् ।। तत्तस्य कटुकं पाके भैषज्यमिव सौख्यदम् ॥ ३६२ ।। घिसयोदया-पत्थं हित्याणि पि भण्णमाणम्स सगणवासिस्म पध्य हित हृदयस्य अनिएमपि बदन आरमी यगणे वसतः । कटुग प ओसह ते महर यिवाय यह तस्स कट्रीषधमिपापि तम्मधुरविपार्क भवति । तस्य परस्य अनिएन थिनेन किमर प्रयोजन । किन्न पति स्ययमपि इति नोपेक्षितव्यं । परोपकारः कार्य पवेति कथयनि । तथाहि--तीधकृतः विनय जनसंबोधनार्थ एष तीर्थविहारं कुर्वन्ति । महत्ता नामैवं यत्-परोपकारबयपरिकरता ॥ तथा योनं BAJREKAR Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास शुदाः संति सहनशः स्वभरणव्यापारमामोद्यताः । स्वार्थी यस्य परार्ध एव स पुमानेका सतामणीः ।। दुपूरोवर पूरणाय पिवति सोतापति पाडयो। जीमूतस्तु निदाघसंभृतजगरसंसापपिच्छिराये ॥ स्वयूथ्यस्यानिष्टमपि पन्यं प्रायगित्यनुशास्तिमूलारा--पत्थमित्यादि-परविप्रियणोक्तन फिमस्माकमिति स्वाश्रमवासी नोपेक्ष्यः यतः क्षुद्राः सन्ति सहस्रशः स्थभरणन्यापामात्रोद्यताः ।। स्वार्थों यस्य परार्थ एन रख पुगानेकः सनामयणी: 11 दुरपूरोदरपुरणाय पिबति स्रोतःपत्ति वाडयो ।। जीमूतस्तु निदाघसंभृतजगत्संतापविक्रित्तये ।। अर्थ-हे मुनिगण ! तुम अपने गणमें रहने वाले मुनिके साथ हितकर बचन बोलो. यद्यपि वह हृदयको अप्रिय हो तो भी हरकत नहीं है. जैसे कटुक भी औषध परिणाममें मधुर, कल्याणकारक होता है वैसे तुम्हारा भापण उस युनिका कल्याण करेगा, दुमरेको अनिष्ट बोलनेसे हमारा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ? क्या दुसरा मनुष्य अपना हिन स्वयं नहीं जानता है ! ऐमा विचार करके दुसरों की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये. परोपकार करनेका कार्य करना ही चाचिय. देखो नीथकर परमदेव भव्य जनोंको उपदेश दनक लिगानीथविहार भगविहार करने हैं, परोपकारक कार्य कमर कमना यही बडप्पन है. किसी कविने गमा कहा "जगतमें अपना कार्य करने में ही तत्पर रहनेवाल मनुष्य हजारों की तादान में हैं, परंतु परोपकार ही जिसका स्वार्थ है ऐमा सत्पुरुषों में अग्रणी पुरुष एकाद ही है. वडवानल अपना दुभर पेट भरनकलिग समुद्रका हमेशा पान करता है क्योंकि वह क्षुद्र मनुष्य के समान स्वार्थी है, परंतु मघ ग्रीष्मकालकी उष्णतासे पीडित समस्त प्राणियोंका संताप मिटाने के लिये समुद्रका पान करता है. मेघ परोपकारी है और बडवानल स्वार्थी Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास इतरेणापि श्रयणयोरनिष्टमपि तद्नाय पति कथयति पत्थं हिदयाणिलृ पि भण्णमाणं णरेण घेत्तव्वं ।। पेल्लेदण नि छुटं बालम्स घदं च तं तु हिदं ॥ ३५८ ।। स्वांतानिष्टमपि ग्राहय पथ्यं बुद्धिमता वचः हठतः किं न बालस्य दीयमानं वृतं हिनम् ।। ३६३ ।। इनिर्जन गंगवर्जन ।। विजयोक्या-हदयस्यानिष्टमपि पत्य्यं नरेण बुद्धिमता नाय इति चतो निधाय । पेहेदूण घिदं अवएभ्यापि प्रवेशितं धृतं बालानां हितं भवति यथा सहविति यावत् ॥ हृदयानिष्टमपि शिष्टवाक्यं हितबुद्धया प्रायमित्युपदिशतिमूलरा-पेल्लेदूण बि अबष्टभ्यापि हठादपि । छुढं मुख्ने प्रवेशितं । तं तन् । खु स्फुट । अर्थ-शिष्यादि मुनिओने कर्यको अप्रिय भी गुरुओंका भाषण ग्रहण करना चाहिये, जैसे माना बालकको पकडकर उसके मुखमें घृत डालती है. उससे उसका हित होता है वैसे कणको अप्रिय भी गुरुका भापण हि घृतके समान हितकारक होता है ऐसा समझ कर स्वीकारना चाहिये. । अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा ॥ अप्पाणं थोवंतो तणलहुहो होदि हु जणम्मि ॥ ३५९ ।। मा छेदयन्तु स्वयशो मा कार्षः स्व प्रशंसनम् ॥ लघवः स्वं प्रशंसंतो जायन्ते हि तृणादपि ॥ ३६४ ॥ विजयोदया- अपपसंस परिहरह आत्मप्रशंसा त्यजत सदा। मा होह मा भवत । जसविधासया यशो विनाशकाः । सद्भिर्गुणैः प्रयासमपि यशो भक्तां नश्यति आन्मप्रशंसया । अपाणं थोचतो आम्मान स्तुवन । नगलदुओ होदि हुजणश्मि तणावलघुर्भवति मुजनमध्ये || आत्मप्रशंसा यशोविनाशिनीति तो राजतेत्यनुशास्तिमुलारा-कोयतो प्रशलयन् ॥ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः अर्थ-हे मुनिगण । तुम अपनी प्रशंसा करना हमेशाके लिये छोड़ दो, अपनी प्रशंसा आपही करनेसे सत्पुरुपोंके द्वारा वर्णन किया गया तुम्हारा यश नष्ट होगा. जो मनुष्य अपनी प्रशंसा करता है यह जगतमें तृणके समान हलका होता है. ५६५ संतो वि गुणा कत्थंतयस्स जस्संति कंजिए व सुरा || सो चेव हयदि दोसो जसो थोएदि अप्पाणं ॥ ३६० ॥ स्वस्तवन गुणा यांति कांजिकैनव सीधुनि ।। स दोषः परमस्तेषां कोपः संयमिनामिव ।। ३६५ ।। विजयदया-नती वि विद्यमाना अपि । कन्धनयमस ममले गुणा इति कथयतः । गुणा सम्मति गुणा नश्यति। जिगाव सूरा साँवारण सुरव । सोचव पर दोसो स एव भवति दोपः । सो थोपदि अपाणं यात्मानं मताति सः ॥ स्वयं स्वगुणकीननं दोषनाह मुलाराविकहतयरस एते मे गुणा इति कथयतः । ऋजिए. कांजिकेन । व यथा । कजिएणेति पाठ यथेत्यध्याहारः । श्रोएदि स्तौति ।। अर्थ-जैसे कांजी पीनेसे मदिराजन्य उन्माद नष्ट होता है वैसे अपनी प्रशंसा अपने मुहसे करनेवाले मनुष्यके गुण नष्ट होते हैं. इस वास्ते अपनी स्तुति करना यह दोष है. स्वगणमत बनाकरण यदि ते नश्यति तर्हि स्तोतयाः स्युर्ग तथा नश्यति इत्याचप्ठे-... संतो हि गुणा अकहितयस्त पुरिसस्स ण वि य णरसंति ॥ अकहितस्स वि जह गहबइणो जगविस्मुदो तेजो ॥ ३६१ ॥ अनुसोऽपि गुणो लोके विद्यमानः प्रकाशते ॥ प्रकटीक्रियते केन विवस्वानुदितो जने ॥ ३६६ ॥ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाश्वासः चिजयोदया-संतो विद्यमानाः। यकदितयस्स अभाषमाणस्य । पुरिसस्स पुरुषस्य । गुणा प विय जस्संति नैच नश्यति । यदि न स्वयं स्तौति स्वगुणान प्रख्यातिमुपयांतीत्येतच नेति वदति । अकाईसस वि अस्तुबतोऽपि गावाणो ग्रहपनेः आदित्यस्य । णो जगविस्तुदो तेजो न जगसि विश्रुतं तेजः॥ स्वगुणारत बने यदि ने मनरानि नलः स्तोमा: स्टून : करगिया!... मूलारा ...गहवतो आदित्यस्य अपने गुणोंकी स्तुति न करनेमे यदि उनका विनाश होगा तो उनके अविनाशाय उनका वर्णन करना योग्य होगा परंतु गुणवर्णन न करनेघर भी वे नष्ट नहीं होते हैं ऐसा कथन-- अर्थ--वर्णन न करने पर भी मनुष्यके गुणोंका नाश नहीं होता है यह बात अनुभव सिद्ध है, स्वगुणाकी स्तुति न करने पर भी वे प्रख्यात होते हैं. क्या सूर्यकी प्रशंसा न करने पर भी जगतमें पूर्वका तेज प्रसिद्ध नहीं होता है? आत्मन्यसता गुणानां उत्पादकं स्तवनमिति बचनं न गुज्यत इत्याह ण य जायंति असंता गुणा विकत्थंतयस्स पुरिसस्स ॥ धति हु महिलायतो व पंडवो पंडवो चेव ।। ३६२ ॥ कथ्यमाना गुणा वाचा नासंतः सन्ति देहिनः । पंडका न हि जायन्ते योषा वाक्यशतैरपि ॥ ३६७|| बिजयोदया- य जायंति असता गुणा नैवोत्पद्यन्ते असंतो गुणाः । विकत्यतयस्स स्तुपतः धिति नितरां महिलायतो व वामलोचनेत्र आननपि । पंगो पंडगो चेव पंढः पंढः पय भवति न युषतिः ।। आत्मन्यगरा गुणानामुत्पादकं स्तवनमिति युज्यत इत्याह-- मुलाया-महिलायनो नहिलाचरम | पंडयो पंदः ॥ गुण नहीं होनेपर भी स्नान करनेस व उत्पन्न होने हैं यह कहना भी अयोग्य है । अर्थ--जो पुरुष अपनी स्तुति करता है उसमें गुणोंकी उत्पत्ति नहीं होती है, जैस कोई पंद स्वीके ५६५ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना समान हावभाव करता हुआ भी स्त्री नहीं होता है. यह पंड ही रहेगा. वैसे गुण अपने में नहीं होंगे नो क्या स्तुति करनेसे उनकी उत्पत्ति हो जायेगा। স্বা सतं सगुणं कित्तिज्जतं सुजणो जणम्मि सोदूणं ॥ लज्जदि किह पुण सयमेव अप्पगुणाकेत्तणं कुज्जा ॥ ३६३ ।। विद्यमान गुणं स्वस्प कीयमानं निशम्य यः ।। महात्मा लज्जते चित्त भाषते स कथं स्वयम् ।। ३६८॥ विजयोदया-संत सगुण किसिजतं विद्यमानमपि स्वण कीन्यमान । सुजणो जम्मि सोदण साधुजनस्य मध्य नत्वा । लम्जर मीठामुपैति । किह पुण कथं पुनः । सबमेय अप्पगुणकित्तण कुरजा स्वयंभवात्मनो गुणकीर्तन कुर्यात् ॥ सुजनस्यात्मगुणस्तचनाभावं भावयतिमूलारा-सष्टम् । अर्थ-सत्पुरुषोंके समुदायमें कोई पुरुष किसी सत्पुरुपके विद्यमान भी गुणोंका वर्णन करने लगा तो वह सत्पुरुष लज्जासे अघोमुख करता है. फिर वह क्या अपने गुणोंका स्त्रयमेव वर्णन करेगा ? स्वगुणाकीर्तने गुणमाचष्टे-- अविकत्थतो अगुणो वि होइ सगुणो व सुजणमझम्मि ॥ सो चेव होदि हु गुणो ज अप्पाणण श्रोएइ ॥ ३६६ ॥ निर्गुणोऽपि सतां मध्ये सगुणोस्ति स्वमस्तुवन ।। न श्लाघते यदात्मानं गुणस्तस्य स एव हि ॥३१५।। विजयोदया--अविकत्यंतो अगुणो चि होड अकीर्तयन् स्वयमगुणोऽपि भवतिसगुगोव गुगवानिव । सुजगमरश स्मि सुजनमध्ये । परस्परच्याइतमिदं वचः 'भगुणस्स गुण ' इति पतस्थामाशंकायमाह-प्लो चय होदिगुगो स एव गुणो भवति । जे अध्याणं ण धोयदि यदात्मानं न स्तौति । समीचीनज्ञानदर्शनादिगुणाभावामिणः, आत्मप्रशंसा करण गुणेन गुणवानिति भाषार्थः ।। ५६६ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचार क यदि संति गुणास्तस्य निकषे संतिते स्वपम् ।। महि कस्तूरिकागंधः शपथेन विभाज्यते ॥ स्वगुणास्तपने गुणमाह-- मूलारा-अविकरतो अस्तुवन् । सगुणोब गुणवानिव । ण थोलेदि न स्तौति । सभीचीन ज्ञानादिगुणाभाषानिर्गुणः स्वस्तबनाकरणगुणेन गुणवानिति भावार्थः ।। अपने गुणोंका वर्णन न करनेमें ही फायदा है इसका विवेचन आचार्य करते हैं -- अर्थ-जिसमें गुण नहीं हैं ऐसा पुरुष सज्जनोंमें मौन धारण कर घटना है तब वह गुणी पुरुषकं ममान दीखता है. गुणरहित मनुष्य गुणयानके समान मानना यह परस्पर विरुद्ध है इस शंकाका उत्तर ऐसा है--अपनी प्रशंसा नहीं करना यही सद्गुण है इससे वह पुरुष गुणी कहा जाता है, यद्यपि उसमें सम्यग्ज्ञान, दर्शनादिगुणोंका अभाव होनेसे वह निर्गण है तो भी स्वप्रशंसा न करना यह गुण उसमें होनेसे गुणवान के समान वह पुरुष माना जाता है. यदि मनुष्य में गुण हो तो वे स्वयं प्रकाशित होते हैं. उनके वर्णन की कुछ भी आवश्यकता नहीं है. क्या करतरीका सुगंध सार्गध खाने व्यक्त होना है ? नहीं वह स्वयं प्रकट होता है. वैसे गुण मी म्बयं प्रकट होते हैं. - - वायाए जं कहणं गुणाण तं णासणं हरे तमि ।। होदि हु चरिदेण गुणाणकहणमुब्भासण तेसिं ।। ३६५ ।। गुणानां नाशनं वाचा क्रियमाणं निवेदनम् ।। प्रकाशनं पुनस्तेषां चेष्टयास्ति निवेदनम् ।। ३७० ।। विजयोदया-चायाए कहणं चाचा गुणानां यत्कथनं । तं णासण हये तेसि । तन्नाशनं भत्तेषां गुणानां । चरिददि गुणाण कहां चरितरेष गुणानां कथनं । तेसि मुभावर्ण हो गुणानां प्रकटनं भवति । एतदुक्तं भवति-- गुणाप्रकटयितुकामस्य यद्वाचा कथनं गुणेषात्मनः प्रवृत्तिरेव गुणप्रकाशनं रति । गुणानां यद्वाचा कथनं तत्तेयां नाशनं यत्तु गुणेष्वात्मनः प्रवृत्तिस्तत्तत्प्रकाशन इत्याद-- Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः मूग-शाम इहलोके सौख्यसौभाग्यादिहेतुत्वभ्रंशनेन निष्फलीकरण । परलोके च नीचैर्गोबनिमित्तत्वे. नानिष्टफलसंपादकल्यापादनाम । उम्भावर्ण प्रदानम् । अर्थ .. यचोंक द्वारा स्वगुणोंका वर्णन करना यह मानो उनका नाश ही करना है. अपने शुभ आचरणसे ही गुणोंका कथन हो जाता है. शुभ आचरणसे ही गुण मगट होते हैं. अपने गुणोंको प्रगट करनेकी जिसको इच्छा है वह सदाचारमें संपूर्ण प्रवृत्ति करे, ऐसी प्रवृत्तिया ही उसके गुणोंका प्रकाशन करेंगी. घायाए अकहंता सुजणो चरिदेहिं कहियगा होति ।। विहितगा य सगुणे परिसा लोगम्मि उवरीव ॥ १६६ । अजल्पतो गुणान्वाण्या अल्पंतश्चेष्टया पुनः ।। भवन्ति पुरुषाः पुंसां गुणिनामुपरि स्फुटम् ।। ३७१ ।। विजयोदया-बायाप, अकहिता पाचया अधयंतः । सुजणे साधुजनमध्ये । चरिदेहिं वि कड़ितगा य चरितैः प्रतिपादयन्तः । सगुणे आत्मीयान्गुणान् । पुरिसाणं पुरिसा लोगनिम उपरीव होति । पुरुषाणामुपरीच भवन्ति पुरुषा लोके ॥ धरितः स्वगुणप्रकाशनस्य माहात्म्याहमूलारा-पुणे साधुजनमध्ये | उसीव उपरीव । अर्थ---जो मुजनों में बचनोंके द्वारा अपने गणोंका वर्णन न कर कवल अपने चारित्रोंसे करते हैं वे पुरुष जगत सर्व पुरुषों में श्रेप्रपना पाते हैं.. ५६८ सगुणम्मि जणे सगुणो वि होइ लहुगो णरो विकस्थितो॥ सगुणो वा अकहितो वायाए होति अगुणेसु ॥ ३६७ ॥ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा मूलाराधना निर्गुणो गुणिनां मध्ये वाणः स्वगुणं नरः ।। सगुणोऽप्यस्ति वाक्येन निर्गुणानामिव युवत् ।। ३७२ ।। विजयोदया-सगमामिजणे गुणवति जने । सगुणो वि णरो गुणवानपि नरः । लहुगो होदि लघुर्भवति । का? संगणं गरी विकारतो म्वगुण गते चाचा निरूपयन । पिमित्र सगणो वा गुणानिय । यात्रा अकथेतो वचनेन अप्रकट पन् । अगुणस निगुणमध्य । निर्गुणानां मध्ये स्वगुन अयुब भित्र गुणिनां मध्य तं ध्रुवन गुणवानपि लघुर्भवति इत्युपदिशतिमूलारा--काहितओ वाचा निरूपयन । वा यथा । उक्तं च--- निर्गुणो गुणिनां मध्ये ब्रुवाणः स्वगुणं नरः ।। सगुणो ऽप्यस्ति वाक्येन निर्गुणानामिव वन ।। अर्थ---गुणवान मनुष्यों में गुणवान भी मनुष्य यदि अपने गुणोंका वर्णन करेगा तो वह लघु होता है. ा और वचनों द्वारा वह अगुणवान पुरुषों में स्वगुणवर्णन न करेगा तो वह गुणवान है ऐसा समझना चाहिये चरिएहिं कत्थमाणो सगुण सगुणेसु सोभदे सगुणो । वायाए वि कहिंतो अगुणो व जणाम्म अगुणम्मि ॥ ३६८ ।। सगुणो गुणिनां मध्ये शोभते चरितर्गणं ॥ त्रुवाणो वचनैः स्वस्य निर्गुणानामिबागुणः ॥ ३७३ ! विजयोदया-चरिणदि कत्थमाणो चरितैरेव प्रकटयन । किं सगुणं स्वगुणं । सगुणो सोभदे गुपाबान जनः शोभते । क सगुणेसु गुणवत्सु । किमिव वायाए चित्कर्थतो वचसा शुषन् । अगुणोध निर्गुण इव । अगुणम्मि निर्गुणमध्ये ।। निर्गको निगुणेषु वननधि सगुणा: सगुणेषु म्याय गुणांश्चरितः प्रकटयन शोभतेगूलारा-- अगणो व निगो या । उक्तं च.. सगणो गुणिनां मध्ये शोभते चरितणं । बुवाणो वचनैः स्वस्य निर्गुणानामिषागणः ।। का सगुणा बनना । तस्ति " Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास अर्थ-जो सदगुणी मनुष्य अपने शुभाचरणों द्वारा अपने सदगुणोंको सद्गणी मनुष्यों में वर्णन करता है वह शोभाको पाता है. परंतु अगुण मनुष्य निर्गुणी मनुष्योंमें यदि अपने गुण वचनोंके द्वारा कहेगा तो वह शोभा नहीं पाता है. ५७० सगणे व परगणे वा परपरिपवादं च मा करेज्जाह ॥ अच्चासादणविरदा होह सदा वजभीरू य ॥ ३६९ ॥ यूयमासादनां कृथ्वं मा जातु परमेष्टिनाम् ॥ दुरंता संमृतिर्जतार्जायतं कुर्वती हि मां ।। ३७४ ।। त्यजतासंयम बेधा मुक्तिलक्ष्मी जिघृक्षवः ॥ सा दूरीक्रियते तन व्याधिनच सुखासिका ।। ३५५ ।। मा ग्रहीषुः परीवावं स्वसंघपरसंघयोः || संसारो वर्धतेऽनेन सलिलेनेय पादपः ।। ३७६ ।। विजयोदया सगणे व परगुणे वा परपरिषावं च मा करेजा । आत्मीय गणे परगणे चा परापवाद मा कृथाः। मथासावाषिरदाय होह अत्यासादनतो विरता भवत । सदा यजभीरू य पापभीरवश्च भवत ॥ प्रकारांतरेण शिक्षा प्रयच्छतिमूलारा-परपरिवाद परापवाद। अर्थ-हे मुनिगण ! आपको अपने गणमें अथवा परगणा में अन्य मुनिऑकी निंदा करना कदापि योग्य नहीं है. परकी विराधनासे आप विरक्त होकर हमेशा पापोंसे विरक्त होना चाहिये. ५७० परनिंदया दोषमाचष्टे स्पष्टार्थी गाधा--- आयासवेरभयदुक्खसोयलहुगत्तणाणि य करेइ ॥ परणिंदा वि हु पावा दोहग्गकरी सुयणवेसा ॥ ३७० ॥ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना HOTATISRO आभास शोकद्वेषासुखायासबरदार्भाग्यभीतयः ॥ विशिष्टानिष्टया पुसां जन्यते परनिंदया । ३७७ ॥ परनिंदायां दोघानाह -- मूलारा-सुजणषेस्सा सुजनानां द्रुष्या ।। अर्थ-परनिंदासे आयास, वैर, भीति, दुःख, शोक वगैरे दोष उत्पन्न होते हैं. यह परनिंदा पाप और द्रोहको उत्पन्न करती है, परनिंदा करनेवाला मनुष्य सुजनको अप्रिय होता है, परनिंदा किमर्थं क्रियते गुणित्ये स्थापयितुमात्मानमिति चेत्, तसिराकरोति-... किच्चा परस्स जिंदं जो अप्पाणं ठवेदुमिच्छेज्ज ॥ सो इच्छदि आरोग्गं परम्मि कडुओसहे पीए ॥ ३७१ ॥ उत्थाएणिपुरस्माननिदां विभाग ।। अपरेणौषधे पीते स नीरोगत्वमिच्छति ॥ ३७८ ॥ पिजयोदया-किचा परम्स णि परनिदा कत्चा | जोधप्पाणं उमिज । य श्रीमान गणितार्या स्थापयितु मिच्छत् । सो इच्छदि स वांछति । किं भारोमा नीरोगता । परम्मि कहुगोसधे बाद कटुकांपधायिभ्यन्यस्मिन् ॥ गुणवत्वं स्थापयितुमात्मानं परनिंदा कुर्वतः प्रत्यवाय दर्शयति । मूलारा-स्पष्टम् । स्वतःका गुणिपना सिद्ध करने के लिये परनिंदा करते है. ऐसा कहना योग्य नहीं है--यह बात आचार्य दिखाते हैं-- अर्थ-जो परनिंदा करके अपनेको गुणी सिद्ध करना चाहता है. वह मनुष्य दुमरोंको कडवी औषधी पिलाकर स्वयं निरोगी होना चाहता है ऐसा मानना चाहिये. जो औषधी खा लेगा वहीं नीरोग होगा उसी तरह जो गुण प्राप्त कर लेगा बही गुणी होगा. परनिंदासे गुणी बननेका प्रयत्न करना यह उलटे रास्तपर चलकर स्वस्थानको पोहोंचनेका प्रयत्न करनेके समान है. ५७२ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना সাখা (७२ मयुरुषक्रम व्याय दछृण अण्णदोसं सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ ॥ रक्खइ य सयं दोसं व तयं जणजेपणभएण ॥ ३७२ ॥ योऽन्यस्य दोषमाशय चित्ते जिन्हेति सज्जनः ।। परापवादतो भीत: स्वदोषभिव रक्षति ॥ ३७९ ।। विजयोदया--दहूण अण्णदोस अन्यस्य दोष दृष्ट्रा सम्पुरिसो लज्जिओ सयं होदि सत्पुरुषः स्वयं लज्जा. मुपैति । पखास दोस व म्बदोषमिव न रश्नति । जगजपणभयेण जननिदाभयेन ॥ मत्पुरुषकम कथयनि । मूलारा-..र.क्रयदि छादयति । तयं तं अन्यदोगम । सत्पुरुषोंका कम कहते हैं अर्थ-सत्पुरुप दूसरोंका दोष देखकर उसको प्रगट नहीं करते हैं प्रत्युत लोकनिदाक भयमे उनके दोषों को अपने दीपोंके समान छिपाते हैं. दूसरोंका दोष देखकर सत्पुरुष लज्जिव होते है. अप्पो वि परस्स गुणो सप्पुरिसं पप्प बहुदरो होदि ॥ उदए ब नेल्लबिंदू किह सो जंपिहिदि परदोस ॥ ३७३ ।। स्वल्पोऽप्यन्यगुणो धन्य तैलर्थिदुरिचोदके ।। विवर्द्धने तमासान परदोषं न वक्ति सः॥ ३८० । बिजयोनया-भयो बि परस्स गुणो परस्य गुणः स्वल्पोऽपि । सप्पुरिसं पप्प सत्पुरुष प्राप्य । बहुदरो होइ अतिमहान् भवति । उदएव तेलबिंदू उदके तैलर्विदुरिव । किद्द सो जंपिहिदि परदोस कथमसौ इत्थंभूतः जल्पति परस्य दोषं ॥ मूलारा-सापुरिस पप्प सत्पुरुषं प्राप्य । Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ--अन्य मनुष्यका खल्प भी गुण सत्पुरुष ग्रहण कर उसको बा बनाते हैं. अर्थात अन्य जनोंका अल्प गुण भी दीख पडा तो ये बहुत खुश होकर उसकी बहुत प्रशंसा करते हैं, जैसे पानी में तेलका एक बिंदु यदि पर गया तो उसके आश्रयमे वह विस्तीर्ण होता है. जैसे सत्पुरुषसे प्रशंसित हुआ अन्य मनुष्यका गुण भी जगतमें फैलता है. अल्पगुणकी भी प्रशंसा करनवाल सत्पुरुर क्या परदोषोंका कथन करेंगे? कभी भी नहीं करेंगे. आश्वास ५७३ एसो मध्यसमासो तह जतह जहा हवेज्ज सुजणम्मि ॥ तुझं गुणेहिं जणिदा सच्चत्य वि बिस्सुदा कित्ती ॥ ३७४ ॥ ग्राह्यस्तथोपदेशोऽयं सर्वो युष्माकमंजसा ॥ यथा गुणकृता कीर्तिलोंके भ्राम्यति निर्मला ।। ३८१ ।। बिजयोदया-एप सर्वस्योपदेशस्य सक्षपः । तद जतह तथा यतध्वं । जहहरेष्ज़ सुजणम्मि यथा भवेत्सुजने। नाद गुनि जणिदा सम्बन्ध वि चिरकुदा कित्ती । माकं गुर्जनिता सर्वत्रापि विधुता कीर्तिः ।। मोपदेशसंग्रहमान मुला-सव्यसमामा सर्वस्य उपदेशस्य संक्षेपः। घेत्तबो ग्रहीतव्यः । सुजगम्मि सुजनमध्ये । उक्तं च-- ग्राहस्तथोपदेशोऽय सर्वो युष्माकर्मजसा । यथा गुणकना कीर्तिलोंके भ्राम्यति निर्मला ॥ अर्थ-हे मुनिगण इस संपूर्ण उपदेशका सार यह है कि, आप हमेशा इस प्रयत्नमें रहो कि जिससे आपकी कीर्ति मुजनोंमें प्रसार पावेगी. और तुम्हारे गुणोंसे सर्वत्र तुम्हारा जमत्प्रसिद्ध यश फैल सके. --- ---- शासी संपतानां कीर्तिरिति शंकायामुच्यते एम अखडियसीलो बहुस्सुदो य अपरोवताबी य ॥ चरणगुणसुछिदोत्तिय धण्णस्स खु घोसणा भमदि ।। १७५ ।। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ५७४ अनन्यतापकोखब्रह्मचर्यों वहथुतः ॥ शांतो दृढचरित्रोऽयमेषा धन्यस्य घोषणा ।। ३८२ ।। चिजयोदया-पस अखंडियसीलो एष अयं अवडितसमाधिः । बहुम्भुदो य बहुचतश्च । अपरोचताची य अपरोपतापकारी च । चरणगुणमुडियोसि य चारित्रगुणैः सुस्थितश्च इति । धषणस्स खु पुण्यवतः । प्रोसणा ममह यशो बिचरति । कासौ संथतानां कीर्तिरित्यत्राहमूलारा----घोसणा कीर्तिः । अर्थ-ये मुनिराज अखंडशीलके धारक है, इनकी ध्यानमें एकाग्रता अखंड रहती है, ये बहश्वत हैं. अनेक मतोंको ये जानते हैं, ये किसी भी प्राणीको दुःख देते नहीं हैं. और चारित्रके गुणोंमें ये स्थिर रहते हैं. इस प्रकार हे मुनिमण! तुझारा पुण्य-यश जगतमें विचरण करो. एवं गुरूपयेश शुत्या गणः - बाढचि भाणिदूणं एदं णो मंगलोति य गणो सो ॥ गुरुगुणपरिणदभावो आणदसु णिवाडेइ ॥ ३७६ ॥ . इदं नो मंगलं पाढमेवमुक्त्वा गणोऽप्यसौ ॥ तोप्यमाणो गुणैः सूरेरानंदाश्रु विमुंचसि ॥ ३८३ ॥ विजयोदया-बादशि माणिर्ण बादमित्युषाधा पर्वणो मंगलोसि पतद्भवतां वचनं अस्माकं मंगलं नितशं इत्युक्त्या । गुरुगुणपरिणबभायो गुरोर्गुणेषु परिणतचितः । आणदडे णिवाडे आनंदाश्रूणि निपातयति ।। एवं गुरूपवेशं श्रुत्वा गणः कृताभ्युपगमस्तं प्रति यथत्करोति तगाथाष्टकेनाषष्ट मूलारा-बादति माणिदूर्ण वादमित्युक्त्वा । एवं णो मंगलोत्तिय एतथुष्गदचोऽस्माकं मंगलमिति चोक्त्वा यवङ्गिरूपदिष्ट तत्तदभ्युपगतमस्माभिस्तदेशस्माकं मंगलमास्त्विति, से वस्य गुरोरने निगद्य तद्गुणमयचित्तो गण आनंदाअणि पातयप्ति इति संबंधः । उक्तं च . .... .. Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना पाढमिति निगम गणो मंगळमेतबद्धचोऽस्माकम् ।। गुरुगुणपरिणवभावः सोऽण्यानंदतस्त्यजति । अर्थ-हे प्रभो! आपका यह उपदेश हमको अतिशय मंगलकारक सुखदायक और पाप नाशक है ऐसा मुनिगण बोलते हैं और गुरुके गुणोंमें एकाग्रचित्त होकर नेत्रोंसे आनंदाथ गिराते हैं. आबासः ५७५ भगवं अगुग्गो मे जं तु सदेहोब्ब पालिदा अम्हे ॥ सारणवारणपडिचोदणाओ धण्णा हु पाति ॥ ३७७ ।। अयं नोऽनुग्रहो पूर्वी यत्स्वांगमिय पालिताः॥ सारणावारणादेशा लभ्यते पुण्यभागिभिः ।। ३८४ ॥ विजयोदया-भगवं अणुग्गडो मे भगवन्ननुग्रहोऽस्माकं तु सदेदोव्य पालिदा अम्हे यत्स्वशरीरमिव पालिता वयम् | सारणवारणापनियोयणाओ एवं कुरुत, माकुरत इति शिक्षा | धपणा दुपार्वति धन्याः प्राप्नुवन्ति । मूलारा--भाग सादरला . असा । सदेई व स्वदेहमिय । सारणवारणपडिचोयणाओ एवं कुरु मैय कुरु इत्यादिशिक्षा | अर्थ हे भगवन् ! आपने स्वदेहके समान हमारा पालन किया है. आपने हे मुनिगुण! तुम अमुक कार्य करो और अमुक कार्य मत करो ऐशी शिक्षा दी है. ऐसी शिक्षा भाग्यवंतको ही मिलती है. अन्योंको नहीं. अम्हे वि खमावेमो जं अण्णाणापमादरागेहिं ॥ पडिलोभिदा य आणा हिदोवदेस करिताणं ।। ३७८ ॥ क्षमयामो वयं तयद्रागाज्ञानप्रमादतः ।। आदेशं ददसामाज्ञा भवतां प्रतिकूलिता ॥ ३८५ ॥ विजयोदया-अम्हे वि समायमो वयमपि समां प्राहयामः । ज अपणाणापमादरागेईि 'अण्णा अज्ञानात् । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवास: . . पगादी प्रमादाद्रागण । पडिटोमिदा याणा भवता प्रतिकुलवृत्तयो जाता। हिंदोबदेस करताणं । आज्ञां हितोपदेश मूलाराधनाकुचनाम् । मूलारा-मात्र मोक्षमा पारयिष्यामो युष्मान् ।। अर्थ--हे प्रभो ' प्रमाद, रागभाव, अज्ञान इत्यादि विकारोंके आवेशमें आकर इमने आपकी आज्ञाका लोप किया होगा. आपके हितोपदेशके प्रतिकूल हमने प्रवृत्ति की होगी. इसलिये हे प्रभो ! हम आपके पास क्षमायाचना करते हैं. -... -. -. - सहिदय सकण्णयाओ कदा सचक्खू य लध्दसिद्धिपहा ॥ तुझा वियोगेण पुणो णदिसाओ भविस्सामो ॥ ३७९ ।। लब्धसिद्धिपथा जाताः सचित्तोत्रचक्षुषः ॥ युष्मद्वियोगतो भूयो 'भविष्यामस्तथाषिधाः ॥ ३८६ ॥ पिजयोदया-सहिदय सकपणयामओ सहृदया: सकर्णकाच जाताः । कदा सबखू य कृताः सलोचनाः । लद्धसिद्धिपहा लब्धसिद्धिमार्गाः । तुम वियोगेण पुणो भवत्यो वियोगेन पुनः । णविसामो नष्टविकाः । भविस्सामो भविष्यामः॥ गुलागा कमाणयाशो मकर्णकाच । कदा कृता: युष्माभिरिति शेषः । तुझ भवद्भ्यः। गदिसाया नष्टदिका मार्गदर्शनररहना इत्यथैः । अर्थ- प्रभो। आपने को हृदययुक्त किया है. अर्थात आपके उपदेशसे हम हिताहितका विवेक करनम समर्थ होगय है. हमको कमांकी प्राप्ति हुई है. अर्थात् आपन हमको शास्त्र पढाये हैं. और हमको आपने शास्र रूप लोचन प्रदान किये हैं. हमको आपने मोक्षमार्गमें भी लगा दिया है परंतु आपका वियोग होनेसे हम पुनरपि दिङ्मूढ़ हो जायेंगे. हाय ! ५७६ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचा सम्बजयजीबहिदए थेरे सव्यजगजीवणाथम्मि । पसंते य मरंत देसा किर सुण्णया होति ॥ १८ ॥ मजीदिने उन्हें सर्वलोकैकनायके। पारित श विपी या देशाः शन्या भवन्ति ते ॥ ३८॥ Frime समितिमाः नंग नि ।शानतपोवृद्ध । सन्चजगजीवश तमा झापानी माग । पयमी 4 यात प्रबासं मृति या प्रतिपयमांन । देसा किर सुष्णया इंांति देशाः किर गुन्या मयांग ॥ सव्वजयजीवहिदए थेरे सबजगजीवणाथम्मि ।। पत्ररांत य मरते होदि हु देसोंधयारोच्च ॥ ३८१ ॥ मीलगुणहिंदु बहुस्सदेहि अवरोवताबीहिं ।। पचनत य मारी देमा आंखडिया होति ।। ३८२ ॥ अनन्यतापभिः सर्वैर्गुणशीलपयोधिभिः ।। होना यहुश्रुतैर्देशाः सांधकास भवति ते ॥ ३८८ ।। सर्वरिब पैड्रैर्जन्यन्ते तत्वनिश्चयाः ।।। देहनाशे प्रवासे वा तेषामंधा भवंति ते ॥ ३८९ ।। बाक्यराप्यायिता लोका पैमैघा व वारिभिः॥ येभ्यस्त निर्गता वृद्धास्ते देशाः सन्ति खंडिताः ॥ ३९० ।। निदा --मागवि बहुम्सुदहि अबरोवतायीहिं. शीलालार्गुणाकयेथुनः अपरोपनामिभिः । 01 मनः + डिदा होति जनपदा अपबडिता भवति । गतार्थोसरा गाथा । 1- 12 नवकार मवनि . हिनाहिसशानशून्यो भवतीत्यर्थः ।। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मात्रामा ५७८ मुलारा-ओखंडिदा अवय हिताः बंचिता देवे विपर्यामितस्वार्थ टागा Tu || अर्थ- भगवन् | आप सर्व जगत्के जीवोंका हिव कानवाल... आप शानदार नमानुपा सर्व जगतकं जीवोंक स्वामी है. आप अन प्रवास करनेवाले हैं. अथरा संन्यासमराका स्वीकार करनेवाले है एस समय हमको सर्व देश शून्य दिखते हैं. तथा सर्व देश अंधकारमय दीखते हैं. हे प्रभो! आप शीलयुक्त, गुणयुक्त, और बहुश्रुत हैं. आप प्राणिओंको दुःख न देनेवाले हैं. परंतु अब आप प्रवास करनेवाले है अथवा सन्याममरण धारण करनेवाले हैं. ऐसे समयमें हमको सब देश खंडित दीखते हैं, सव्वस्स दायगाणं समसुहदुक्खाण णिप्यकंपाणं ।। दुक्खं खु विसहिदं जे चिरप्पवासो बरगुरूणं ॥ ३८३ ॥ शयकानामशेषस्य सूरिणामपकारिणाम् । समानसुग्वदुःखानां वियोगो दुःसहश्चिरम् ।। ३९१ ।। पवित्रविद्योयतदानपंडितैस्तनुभृतां तापविपादनोदिभिः ॥ गणाधिपैर्भाति विना न मेदिनी निरस्तपः सरसीव वारिभिः । ३९२ ॥ बुधैर्न शील रहिता नियिनी तपस्विदाने रहिता गृहस्थना ।। गुरूपदेश रहिता तपस्विता प्रशस्यने नित्यमुम्बप्रदाधिनी । ३०३ । मनीषित वस्तु समस्तमंगिनां मूरमाणामिव चनां मना॥ गुणगुमणां विरहो गरीयसा न शक्यते साडभपाम्नमाम ।। ५.४ .. इति अनुशिष्टिसनम् । विजयोन्या-सव्वस्स दायगाणं वागदर्शनचारितोदामोदतानां । समसुहदकावाण सम्यग्वयोः समाः नानां । शिवपाणं परीपदभ्यो निश्चलानां । तरूण महना गुरुणा । चियालो निकालप्रयासों वियोगः । दुस्वं त्रु विसहिदु जे सोदुमतीव दुष्करं॥ मूलारा--सव्वस्स ज्ञानादः । पिप्पकपाणं परीषदोपसंगैषु निःक्षोभाणां । दुवं खु दुःखशोक एन । । E Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ५७९ विसहिदु जे विसोतुं । विप्पवासो दूरदेशांतरगमनं मरणं वा । इति गुणानुशिष्टिः । सूत्रतः । ९४ । अंकतः १११ ॥ अर्थ -- जिनसे शिष्याको ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और तपकी प्राप्ति होती हैं. जो सुख और दुःखोंमें समान हैं अर्थात् रागद्वेषरहित हैं. परीषहोंसे जिनकी ध्यानैकाग्रता में बाधा आती नहीं है. ऐसे श्रेष्ठ आयकर चिरकालीन वियोग सहन करना अतिशय दुष्कर है, एवं परिसमाप्य अनुशासनाधिकारं परगणचयां निरूपयति---- एवं आउच्छित्ता सगणं अब्भुज्जदं परिहरतो || आराधणाणिमित्तं परगणगमणे मई कुणदि ॥ ३८४ ॥ आपृच्छति गणं सर्व चतुरंगमहोगमम् ॥ करोत्याराधनाकांक्षी गंतु परगणं प्रति ।। ३९५ ।। विजयोदय एवं च्छित्ता आपृच्छय । सगणं स्वगणं | अब्भुज पहिलो आराहणानिमित्तं आराधनानिमित्तं । परगागमणे महं कुह परागमने मति करोति । अथ तथाभावितश्रामण्यस्य सद्धेखनापरिणतम्यागणस्य मणिनः पुन सिद्धयर्थं परगणगमन क्रमं सप्तदशभिर्गाथाभिरुपदिशति सत्र वर्तमानः । रामप मूलारा- आपुच्छिसा आच्छय संवधित्यर्थः । अनुज अभ्युक्तं उद्यमाभिमुखं अवलमित्यर्थः । पाहतो प्रकर्षेण रत्नश्रये प्रवर्तमानः ॥ इस प्रकार अनुशासनाधिकारकी समाप्ति करके आचार्य परगणचर्या नामक अधिकारका निरूपण करते हैंअर्थ - इस प्रकार अपने गणको पूछकर अपने रत्नत्रय में अतिशय प्रयत्नसे प्रवृत्ति करनेवाले वे आचार्य आराधना के निमित्त परगण में गमन करनेकी इच्छा मनमें धारण करते हैं. किमर्थं परणप्रवेशं करोति इत्याशंकायां स्वगणावस्थाने दोषमात्र सगणे आणाकोवो फरुसं कलहपरिदावणाड़ी य ॥ णिन्भयसिणेह कालुगिणझाणविग्धो य असमाधी ॥ १८५ ॥ माश्वासः Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनाममा आश्वास आज्ञाकांपा गणेशस्य परुषः कलहोऽसुग्यं ॥ निर्भयम्नेहकामण्यध्यानविनासमाधयः ॥ ३९६ ।। विजयोदया - संगणे प्रायो आमायगण आज्ञाकोपः । फरुस कलहपरिवाषणादी य परुषवचन, कलहो, स्वादीनि च । भियसिहकारियाहाणविग्यो य निर्भयता, स्नेहः, कारुण्यं, ध्यानविनः । असमादी असमाधिश्च ।। किमर्थमाचास्नया मिर्जा परसंघप्रवेशं करोतीति पृच्छन्तं प्रति स्वगणवासिन आनाकोपादीब दोपा. नुष्टुमिपमाचष्ट मूलारा-आग्णाकोत्रो आज्ञाभंगः । परुस पम्पवचनं । परिणायणा दुखतिमादशादीति । कोलणिग कण्यम ।। पानार्य परगण यवश क्यों करते हैं? ऐमी शंका उपस्थित की जानेपर आचार्य स्वगणमें रहनेसे दोप उत्पन्न होना है या उत्तर दिया हैं--उन दोपोंका सविस्तर विवेचन इस प्रकार--- अर्थ- आराधनासिद्धिक लिये आचार्य यदि स्वसंघमें ही रहे तो आज्ञाकोप, कठोरवचन, कलह, दुःख, त्रिपाद, खंद वगैरह निर्भयता, म्नह. कारुण्य, ध्यानविघ्न और असमाधि ये दोष उत्पन्न होते हैं, उहाहकग थेरा कालहिया खुड्या खरा सेहा ।। आपाका गाणिनी करेग्ज तो होज्ज असमाही ॥ १८६ ॥ परापवादातयों जरतः शश्याः मरा युद्धपरानधीनाः॥ आशाति मंच गया स्वकीय कुर्वन्ति सूरसमाधिहेतुम् ।। ३२७ ।। रियादया - उदाटकग थग अयशसंपादकाः स्वचितः । कालहिगा कलदेकराः । खुडुगा क्षुल्लकाः । सरा सहा गराषा अगार्गशाः । आणाकोव गणिणो करेज आशाको सूरेः कुर्युः । तो होज्ज असमाही तस्मादामाकोपागवे. दसमाधिः ॥ म्वगणे अविरादिकतमसमाधिकरमानाकोपं दर्शयनि Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना मूलाश हराया:पादकाः । काला कालादिकाः फलकारा इत्यर्थः । खुइया श्रमणोपासका कानमिश्रा इत्यर्थः । करेज्ज कुर्युः । अर्थ --- गंध में बुद्ध मुनिं गदि अकीर्ति संपादक होथे, और क्षुल्लक अर्थात् क्षुल्लकावस्था धारण करनेवाले समय यदि कलह करनेके लिये उयुक्त होते. मार्गश शिष्य मुनि अर्थात् समाधिविधि न जाननेवाले शिष्यं मुनि यदि तीक्ष्ण वारके गये तो आचार्यकी आज्ञाका उल्लंघन करेंगे तब आज्ञाके उल्लंघनसे आचार्यकी असमाधि होगी जो परिणाम अशांना उत्पन्न होगी. इसलिय आचार्य समाधिमरण साधनके लिये परगण में प्रवेश करते हैं, परवासी अञ्चावारो गंणी हवदि तेसु || मन्थिय अस्माहाणं आणाकोवम्मि विकमि || ३८७ ॥ व्यापारहीनस्य ममत्वहानेः संतिष्ठमानस्य गणेऽन्यदीये ॥ नाजाविधाते विहितेऽपि सूरेरंसेरशेषैरसमाधिरस्ति ॥ ३९८ ॥ विजयोश्या परगणेऽपी सत्येव स्थविरादयस्तत्राप्यसमाधानं स्यादेवास्येति शंकां निरस्यति । परगणयासीय यः परगणे वसति गणी सो अन्नावारोऽव्यापारः तेषु शिक्षाव्यापाररहितः । तेन आशाकोपो न विद्यते माशा मंगो नास्तीत्यर्थः । णत्थि र असमात्राणं नास्ति व असमाधिः । आणाकोवम्मि षि ऋदम्मि आज्ञाभंगे कृतेऽपि ममानुप कारिणो वचनमिमे किमर्थं कुर्वन्ति इति चेतःप्रणिधानात् ॥ परमसंभवात श्राशाको पादस्य समाधिः स्यादेवेत्याशंकामपाकरोति मुअल्लावारो शिक्षाव्यापाररहितः | तेसु परमास्थविरादिषु । तेनाज्ञाकोपो नास्तीति शेषः । बिकसमानुपालन किन कुर्वीति चेतः प्रणिधानात् । पग भी वृद्धमुनि बुद्धक, अमार्गज्ञ मुनि रहते ही हैं अतः वहां भी आचार्यको असमाधि दोष उत्पन्न होगा ही इस शंकाका ग्रंथकार उत्तर देते हैं -- अर्थ - जय आचार्य परगण में जाकर रहते हैं तब उस गणस्थ मुनिओंको वे उपदेश, आशा करते नहीं. जिससे भावासा १ ५८१ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः उस गणके मुनिओंके द्वारा आज्ञाभंग करनेका प्रसंग आता ही नहीं, और याद उन्हान आचार्थ को आज्ञा नहीं भी मानी तो भी आचार्य इनके ऊपर तो मैंने कुछ भी उपकार किया नहीं अतः ये मेरा वचन क्या शिरोधार्य करेंगे ऐसा विचार कर अपने परिणामोंकी शान्तता नष्ट नहीं करते हैं इसलिय अगमावि नामक दोगकी उत्पत्ति परगणामें रहनेसे नहीं होती है. आज्ञाकोप नामक दोषका विवचन हु'प्रा. आशाकोपदो अभिधाय द्वितीय व्याव खुड्डे घेरे मेहे असंबुड़े दङ्ग कुणइ वा परुम ।। ममकारेण भणेज्जो भणिज्ज वा तेहिं परुसेण ॥ ३८८ ।। थालान्वृद्धाशक्षकान्दुष्टचेष्टान् दृष्ट्वा सूरिनिष्टुरं वत्ति वाक्यम् ।। किंचिंद्रागद्वेषमोहादियुक्तास्ते या करूयुःसंस्तरमामधायाः ।। ३..।। विजयोदया-हे यरे सेहे क्षुल्लकास्थविरानमार्गांश्च! असंबुद्ध थपवतान असंयता वा दाटसा घा परसं करोति या परुष । ममकारेण भणेजो ममत्वन वदेवा परुपं । मण्णिा वा ति पला । ।:: परुष यचः॥ परुर्ष त्र्याचरे मूलारा-असंयुडे असंवृतान् प्रमादाचरणानित्यर्थः । द इया। मां का नाम : इत्यर्थः । भणज्ज भण्यत । एसरेण प्रबंधन परिचयकृतघृष्टतावमात् ।। अब दुसरा दोष कहत हैं अर्थ-परुष नामक दोषका स्वरूप इस प्रकार है-क्षुल्लक गृहस्थ, बुद्धनि, और अमार्गन मुनि ये प्रमादसे असंयमपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं ऐसा देखकर उनको आचार्य परुषभाषण करेंगे. ये मेरे मंघमें रहकर एगा प्रमादयतः आचरण करते हैं ऐसा मन में विचार कर उनको कठोर भाषण करेंगे अथवा च वृद्धमान बगैर उनके साथ करार भाषण करेंगे. अपने संघमें ही रहनेसे वृद्धादि मुनिओंके साथ अधिक परिचय रहना है, जिसमें न आचार्य को आचार्य उनको कठोर भाषण करेंगे तब परुष नामक दोष उत्पन्न होगा. Jit enamental Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाराधना ५८३ कल पूर्वार्द्धन व्याचष्टे पडिचोदणासहणदाए होज्ज गणिणो वि तहि सह कहीं ॥ परिदावणादिदोसा य होज्ज गणिणो व तेसिं वा ॥ ३८९ ॥ वाक्याक्षमायामसमाधिकारी सूरेः समं तेः कलहो दुरन्तः ॥ दोषास्ततो दुःषादाः भवन्ति सर्वेष्वनिवारणीयाः । ४०० | विजयोत्रया-पडिचोदणासह गुरुशिक्षासनेन । होज कोरिदियो शुकादिभिः सह गणिनः । परिदावणादिशेसा होञ्च दुःखादिदोषा भुलकादीनां वा कलह ॥ कलादिदोषद्वयं व्याख्याति - मूलाग-पडिचोयणादाण गुरुशिक्षणासहिष्णु हो भवेयुः । कलह दोषका पूर्वार्द्ध में वर्णन करते हैं. अर्थ – स्वगण में रहनेसे आचार्य के शिक्षावचन सुनकर क्षुद्धकादिक मुनि क्रुद्ध होकर उनसे लड़ेंगे अथवा क्षुल्लकादिकोंसे आज्ञाभंग होनेसे आचार्यका कलद होना संभवनीय है. आज्ञाभंग होने से आचार्य के मन वेड संताप वगैरह विकार उत्पन्न होंगे अथवा ये आचार्य हमको हमेशा उपदेश देते रहते हैं आज्ञा करते हैं ऐसा विचार कर क्षुल्लकादिक दुःख, संताप, शोकादिकसे पीडित होंगे. परिदावणादीयइत्येतत्सूत्रपदं प्रकारांतरेणापि व्याचष्टे - कलहपरिदावणादी दोसे व अमाउले करतेसु ॥ गणिणो वेज्ज सगणे ममतिदोसेण असमाधी ॥ ३९० ॥ गणेन सार्क कलहादिदोषं कुर्वत्सु बालादिषु दुर्धरेषु ॥ गणाधिपस्य स्वगण वृत्ते ममत्वदोषादसमाधिरस्ति ।। ४०१ ।। विजयोदया कलपरियणात्री दोसे व कई परितापादि वा मधुकर मह = भग १८३ Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधना आथामा अलका गावात सगो ममशिदोसण असमाधी गणिनो भवेन्ममतादोपेण असमाधिः॥ कहादिदोषानेव प्रकारांतरेण वाचले ---- नलाग---अमा गणेन राह । आकुले महून । आकुलं वा । संशोभातकं करतेसु कुर्वसु क्षुलकादिषु । ममत्तिथोरो न केवलं निभायनेन ममत्वदोधेग या असमाधिर्भवेदित्ति संबंधः । परितापादिक दुःखाका अन्य प्रकारसे वर्णन अर्थ---अथवा अपने संयम शुल्लकादि मुनि कलह, शोक संतापादिक परस्परमें करते हुए देखकर आचाकी अपने मणपर ममता दाने नित्तकी एकाग्रता नष्ट हो जायगी. अर्थात उनके परिणाम अशांतिमय होंगे. ENTRIBASAHARASHTRA परितावणादि इत्यतत्मृत्राद अन्यथा त्याचष्टे रोगादकादीहिं य स गणे परिदावणादिपत्तेसु ॥ गाणिणो हवेज्ज दुक्खं असमाधी वा सिणेहो वा ॥ २९१ ॥ परीपोरतमैः स्वसंघ निरीक्ष्यमाणस्य निपीब्यमान ॥ गण स्वकीये परमोऽसमाधिः प्रवर्तते संघपतेरवार्यः ।। ४०२।। 1-साहिभियाध्यादिभिः । परिहायणादि पत्तेसु परितापनादि प्राप्लेषु। सगणे EFT : म: का । मानार्यस्य भवहार । असपाही वा सिणेहो पा असमाधि स्नेहो या। सामादिराजगन्ना माग-- मूलारा- मोगतकादोहि अल्पमहद्भिम व्याधिभिः । आदिशब्देन क्षुद्रोपद्रवादिभिः । सगगे स्वसंघ स्थितेषु शिप्यादिपु । दुव मनरतापः । अगमाही असमाधानाथ ! चतुर्थ्यर्थे प्रथमाविधानात् । सिणेहो मोहः । ममत्वकृतः केन्द इत्यर्थः । उक्तं च--- निजगगगतेपु रोगिषु परिदेवनदुःखपरिगतेषु पुरः । कारण्यकोष मोहा भवेयुरसमाधये सूरेः।। RAKASICARREARRANATAKATARA ५८४ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Terease का प्रकारान्तरसे भार संघमें फैल लाराधना भाश्वासः इसही दोपका प्रकारान्तरसे वर्णन - अर्थ-टोटे मोटे रोग वगेरह विकार संघमें फैल जानेपर अपना शिष्यवर्ग :ख संतापादिसे पीडित जा देखकर आचार्यको दःख होगा, परिणामीकी एकाग्रता नष्ट होगी, और उनमें स्नेह होगा, इसलिये समाधिमर गोयमी आचार्य इनके परिहार अन्य संघमें जाते हैं. होगी, और उ तण्डापिस महणिजसु वि सगणम्मिणिभओ संतो ॥ जाएज व सेएज्ज य अकप्पिदं किं पिवीसत्थो ।। ३९२॥ परीपहेपु विश्वस्तः स्वगणे निर्भयो भवन || ... .... पाकिंचनाकल्यं सेवते मापते स्फुटम् ।। ४०३ ।। 11- हादिन्न, मापस वि सिदिभु पापंदाधु सहनीय प्यपि । सगरम शिम्भो संतो बग| Him Pron य शप लापने वादेयते चा। अग्यि अयोग्य किंचित्प्रत्याख्यातमशन पानं था। बीमायोनिय स्नात्याराविरहितः । निर्भयारष्ट्र । मला- णिलो निति सन सूरिः | सापज याचत | अकप्पिय अकल्प्य अयोग्यं । किंपि प्रत्या ख्या पानमशनादिक वा । बीमत्यो विश्रतः । अकीर्तिभयलज्जारहितः ॥ अर्थ--समाधिमरणोयुक्त आचार्यने प्यास, भूख वगैरहका दुःख सहन करना चाहिये. परंतु वे अपने मंघमें रहनेपर निर्भय होकर आहार, जल: वगैरह पदार्थोंकी याचना करेंगे. अथवा स्वयं आहारादिकाका सेवन कोंग. 'अयोग्य अधीन जिनका त्याग किया है ऐसा भी आहार और पानके पदार्थ भय, लज्जा छोड़कर खाने लग जायेंगे इस लिय उनका अपने संघमें रहना आमममें निषिद्ध माना है. ५८५ - - Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ५८६ didatefitute सिणेह त्यस्प व्याख्या उड्डे सअंकघट्ठिय बाले अज्जाउ तह अणाहाओ ।। पासंतस्स सिणेहो वेज्ज अच्चंतियविओगे ॥ ३९३ ॥ बालाः स्वांकोचिता दृष्टा वृद्धधा विह्वलविग्रहाः॥ अनाथाश्चार्यिकाः स्नेहं जनयंति गुरोस्तदा ॥ ४०४॥ विजयोदया-उन्ने सबकहिय इत्यादि वृद्धान्यप्तीन्स्यांकमाईतयालान यतीस्तथा आर्यिकाः, अनाधाः पश्यतः स्नेहो भषेदात्योतिके वियोगे । स्नेहं ब्याहरति-- मूलारा-सयंकवादिदे बाल मोत्संगतिबालाम । बास्यात्प्रतिपालिता] । अगाहाओ अनाथाः । अकमीतअधिओए सर्वथा विरहे । पुन: संगमाभावान ।। स्नेह दोपका विवेचन-- अर्थ--घृद्ध मुनि, जिनका बाल्यावस्थासे पालन किया है ऐसे पालमुनि, अनाथ एसी आर्यिकार इनको देखनसे अब इनका मर साथ अत्यंत वियोग होगा ऐसा विचार यदि स्वगण में आचार्य रहेंगे तो आप बिना नहीं रहेगा जिससे उनके असमाधिमरणकी संभावना होगी. अतः म्बगणमें उनका रहना निपिद माना गया है, ५८ कोटुगिण इतपत हााचार - खुड्डा य बुड्डियाओ अज्जाओ बि य करज कोलुणियं ॥ तो होज जहाणविग्यो असमाधी बा गणधग्स्स ।। ३२४ ।। आर्थिकाः क्षुल्लिकाः क्षुल्लाः कारुण्यं कुर्वते यतः ।। ध्यानार्वन्नोऽसमाधिश्च जायते गणिनस्ततः ।। ४०५॥ विजयोदया-बुड्डा य खुडियाओ शुलका, आर्याः युरारटनं । ततो ध्यान विनोऽसमाधिर्धा गणधरस्य भवतीति ॥ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SATRE मश्विासः मूलाराधना कारुण्यं विवृणोतिमूलारा-कोलुमिग-सदन्यमारटनं । सकरुणभारटनम ॥ कोलुणिम दोषका विवेचन ... अर्थ--शुल्लक, ब्रह्मचारी वगैरह गृहस्थ, ब्रह्मचारिणी, आर्यिकाय आचार्यको गमाधि मग्णक लिय उद्यमी देखकर शोक करेंगे जिसको देखकर आचार्य ध्यान में विघ्न उपस्थित होगा और परिणामोंमें अशांति होगी. इमलिये आचार्यका स्वगणमें रहना निषिद्ध माना है. भत्ते वा पाणे वा सुस्सूसाए व सिस्सबग्गम्मि । कुव्वंतम्मि पमादं असमाधी होज गणदियो ।। ३५५ ।। गणिनः प्रेष्यशभूषाभक्तपानादिकल्पने ।। स्वाणयसमाधान शिध्य प्रमायति ।। ४.१ ।। विजयोक्या-भत्ते वा पाणे या भक्के पाने या शुश्रूषायां था प्रमाद शिष्यवर्ग पुर्यति गणपतरसमाधिभवति ।। ध्यानविनासमाधिदोष व्याचष्ट्र-- मूलारा- सुस्ससाए पर्युष्टौ संवाहनादिकायां । कुव्यताम्म कुर्वति सति । असगाही आत रोई वा ध्यान । यदि स समाधिनिर्विकल्पयोगः परमानन्दः स च सबिकल्पकयोगलक्षण ध्यानपूर्वकः । अतः दिप्यवर्गप्रमाददर्शनान ध्यानत्रिघातम्तनः बसमाध्यभावः इति पूर्वसत्रित दोषद्वयं व्याख्यातं प्रक्षिपत्तश्यम् ॥ अर्थ - आहारक पदार्थ, पानके जलादिक पदार्थ और शुभपा इम्तपादादि मर्दन वगैरह काम यदि शिष्यवर्ग प्रमादी चने अर्थात् इन कायोंमें यदि उन्होंने ध्यान नहीं दिया तो आचार्यक मनमें शांतिका अभाव होगा आर्तध्यान अथवा दुर्ध्यान उत्पन्न होगा. Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलापत्रमा भावार एवं दोसा गणिणो विसेसदो होति सगणवासिस्स || जिसका वि तारिमयस्स होंति पाएण ते दोसा।। ३९६ ॥ ने दोषाः सन्ति संघ स्वकीये सरेः साधोस्ताहशस्यापि यस्मात् ॥ तस्मात्यक्त्वा स्वं समाधानकांक्षी धीरः संघ स प्रयात्यन्यदीयम्॥४०७॥ विजयोदया-दे दोसा गणिणो विसेसदो होनि पते बोषा विशेफ्नो भवन्ति स्थगणे परमसः। भिक्षुरूप त्रि तारिसयरस मिक्षोरपिताम्म उपाध्याय स्य, प्रवर्तकस्य या भवन्ति प्रायेण ते दोषाः ।। प्रागुक्कान्दोपानाचार्यश्यानिक दर्शयन उपाथ्यावादेरपि वगणवासिनः प्रायोवृत्त्यां तान्प्रदर्शयति समास विमान।। नारिनवम्म नाम कात्म कणिसशग्य उपाध्यायम्य, प्रवर्तकस्य वेत्यर्थः । अनु मिन्सुर ६ का मामय यतनावशाम्य बनगवा लिन इचानटे ॥ अर्थ-- जो आचार्य स्वगायमें रहते हैं उनको ये दोप होंगे तथा जो आचार्यके समान उपाध्यायमुनि, तथा प्रवर्तक मनि है भी यदि वगणम ही रहेंगे तो उनको भी प्रायः इन दोषोंका संभव होगा. गणिणो धिमेलवकल्प था भवन्ति प्रायासिनः प्रायोपुरण ---- - एदे सब्वे दोसा ण होंति परगणणिवाप्तिणो गणिणो । तम्हा सगणं पयहिय वच्चदि सो परगणं समाधीए ॥ ३९७ ।। मनि दोषा न गणेऽन्यदीये सतिष्टमानस्य ममत्वीजं ॥ ममाधिनाया ममत्यहानेबिना निमित्तन तो निवृत्तिः (१)।०८।। विजयादया- सब दीख तिन सय दोषाने भवन्ति । परगणणियासिनो गणियो पर गायनियासिनो गंगाधरम् । नाम्पा नियन्य सजना समाय॥ गनापामा रन समाधिमा पारवान्माणस्य गम्यवानुवर्णयति.... गलास --- प जहिय मर्यात्मना स्यात्या । जो आचार्य अपना गण छोडकर परगणमें समाधि मरण के लिये प्रवेश करते हैं उनको इन दोपोका संबंध नहीं होगा है. इस लिये आचार्य समाधिसिध्यर्थ परगणका आश्रय लेते हैं. ५८८ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आभासः संते सगणे अझ रोचेदणागदो गणमिमोत्ति ।। मवादग्नीष्ट भत्तीए बढुद्द गणो से || ३९८ ॥ भाग बग पि गुणानुरागी मन्यम्मदीयं गणमागतोयम् ।। पति नपत्या विजया च शक्त्या प्रवर्तने तस्य गणः स्वकृत्ये ।। २०९ ।। विजयाच्या संमग समाप समरण अगदाणे जातरुचिरागसो गमिममिति सादरण शशक्त्या भक्त्या त्र गणो वर्तते ॥ परगणचर्या गुणान्गाथाश्रनेणाई --- मूलारा --संतो सल्यपि । रोचण्ण रूचिगोचरीकृत्य | गणमिमोत्ति गणमिममिति । से तस्योत्तमसाधनार्थोहालस्य । अथ -मामले कानबर मा भार पद प्रेम का ये प्राचार्य हमारं गणमें आये हैं ऐसा मनमें विचार कर परगणवायी मुनिसमुदाय पूर्ण आदर व भामर्थ्यसे उनकी सेवा करनेके लिये कटिबद्ध हो जाते हैं. अतः परगणप्रवेश करना ही योग्य है. eamruuuN mium गीदत्यो चरणत्थो पच्छेदूणागदस्स खवयस्स ॥ सत्यादरेण जुत्तो णिज्जवगो होदि आयरिओ ॥ ३९९ ! गृहीताधों गणी पार्यः पकस्यापसेदुषः । नियापनशास्त्राच्या जायते सर्वपत्नतः ॥ ४१५ ।। पिलवोदया-गयो चरणत्यो गृहीताधैः क्षानी चरणस्थः । पच्छेदूणागदस्स प्रार्थयित्यागतस्य । खबगरस क्षपकम्य । सल्यावरण जुत्तो सादगण युनाः । णिजबगो होह आयरिभो निर्यापको भवल्याचार्यः ।। मूलारा- परवेदमा प्राध्य । आगदस्स आश्रितस्य ।। ५८९ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ-मार्थना करके आये हुए आचार्य को अर्थात् क्षपकका समाधिमरण साध्य करानेवाला निर्यापकाचार्य आगे लिखे हुए लक्षणोंसे युक्त होना चाहिये. अर्थात यह गीतार्थ जीवादि पदार्थों का वेत्ता, ज्ञानी, चारित्रमें स्थिर, क्षपक के ऊपर पूर्ण आदर रखनेवाला होना चाहिय. संबिम्गवज्जभीरुस्स पादमूलम्मि तस्स बिहरंतो ।। जिणवयणसव्वसारस्स होदि आराधओ तादी || ४५० ॥ सविनस्याघभीतस्य पादमले व्यवस्थितः ।। अहेवागमसारस्य भवत्याराधको यतिः ।। ४११ ।। इति परगणचर्यासूत्रम् । विजयोदया-संविग्गवजभीयस्स संसारभीरो, पापकर्मभीरोश्च तस्य गुरोः पादमूले वर्तमानो जिनवचनसर्वसारस्य भवत्याराधकः । तादी यतिः । संते सगणे, गीवत्थो, संधिग्णवज्जीम इत्येतत्सूअत्रयेण परगणे चर्यायां गुणो व्याख्यातः ॥ परमणचर्या मूलारा-बिहरतो वर्तमानः । जिणेत्यादि जिनप्रवचनस्य सर्वस्य सारो अनिशचितं पं आराधना नस्या आराधको भवतीति संबंधः । तादी यतिः । परगणचर्या अंकत १५ सवतः ५७ ।। अर्थ-जो संसारसे भय युक्त है, जो पापकमभीरु है और जिसको जिनागमका राव सार मालुम हुआ है ऐसे आचार्य के चरणमृलमें वह यति समाधिमरणोद्यमी होकर आराधनाकी सिद्धि करता है. " संत सगण, गीदत्थी, संविग्गावज्जभीरु " इन तीन गाथाओंसे परगणमें चर्या करना गुणयुक्त है. ऐसा सिद्ध किया है. गणर्या नामक प्रकरण समाप्त हुवा. मार्गणानिरूपणार्थमुत्तरप्रयंधः पंचच्छसत्तजोयणसदाणि तत्तोऽहियाणि वा गंतुं ॥ णिज्जावगमण्णेसदि समाधिकामो अणुण्णादं ।। ४.१॥ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ५९१ पंच पद् सप्त वा गत्वा योजनानां शतानि सः ॥ निकासमा । विजयोदया- पंचच्छखतजोयवासाणि पंचपद् सप्तयोजनशतानि ततोऽभ्यधिकानि वा गन्दा अन्य निर्वा पर्क | शास्त्रेण अनुशा समाधिकामो यतिः || अथ पकस्य परगणप्रवेशोद्यतस्य समाध्यर्थं निर्धापकाचार्यजन्वेषमाणस्य कर्म सप्तदशभिर्गाथाभिर्निगदति - तत्र तावन्मार्गण क्षेत्रपरिमाणं निर्दिशति मुबारा -- अगुण्णादं शास्त्रेणानुमतम् । मार्गणा नामक प्रकरणका निरूपण करनेके लिये उत्तर प्रबंध -- अर्थ --- जिसको समाधिमरणकी इच्छा है ऐसा मुनि पास योजन, उसे योजन, सातसे योजन अथवा उससे भी अधिक योजनतक विहार कर शास्त्रोक्त निर्यापकका शोध करता है. स्पष्टार्थोसरगाथा- एकं व दो व तिष्णिय बारसवारसाणि वा अपरिदंतो ॥ जिणवयण मण्णादं गवेसदि समाधिकामो दु ॥ ४०२ ॥ एकद्वित्रीणि चत्वारि वर्षाणि द्वादशापि च || निर्यापकमनुज्ञातं स मार्गयति निःश्रमः ॥ ४१३ ।। मार्गणाकालपरिमाणं दर्शयति मूलारा तेणिव अत्र वारसवरिलागि इति निर्देशाच्चतुरादिसंख्यापरिग्रहो बोध्यः । अपरिसंतो अपरिि अनुद्विप इति यावत् ॥ अर्थ-समाधिमरणेच्छु नि एक वर्ष, दो वर्ष तीन वर्ष लेकर बारह वर्ष तक वदयुक्त न होता हुआ जिनागमसे निर्णीत निर्यापकाचार्यका अन्वेषण करता है. आश्वास ४ ५९१ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आथासा marimminurreamina निर्यापकान्वेषणार्थ गच्छतः कममुदाहरति गच्छेज्ज एगरादियपडिमा अज्झेणपुच्छणाकुसलो ॥ थंडिल्ला संभोगिय अप्पडिबडो य सव्वत्थ ॥ ४०३ ॥ एकरात्रतत्सर्गः प्रश्नस्वाध्यायपंडितः ॥ सर्वनवाप्रमीयंधः स्थाडिला साधुसंयुतः ॥ ४१४ ।। विजयोदया-गालेज गमाविलाडिमा अहण पुन्छणाकुसलो । गच्छेदेकरात्रिभवावग्रहे अध्ययने परप्राइने ब ऋटालः । नायिभवा मितिमा निरयते । अपवासयं कन्या चतुर्थी रात्री ग्रामनगरादेवहिदेशे श्मशाने या प्राङ्मुखः, उनलमुखत्याभिभुवो वा भून्या चतुरगुलमानपतरो नासिका निहिएिस्यक कायस्तिष्टेन् । सुष्टु प्रणिहि जमिनमर्जिनोगी यावत्स्य उदेति । स्वाध्यायं कृत्या गम्यूनिद्वयं गत्वा गोचरक्षेषश्वसति गया निष्ठति। पर विपको कामनामनगरपदामापीरुपयांचा मंगले हत्वा यानि एवं स्वाध्यायकुशलता । प्रश्नत्रुशलतोच्यंत-स्वसंग्रतानार्यिकाः धावांश, वालमध्यमवृद्धाश्च पूष्या रुतगवेषणो याति इति प्रश्नकुशलः । यत्र भिक्षा कला नत्र स्थंडिलान्वेषणं कुयोस कायशोधनाथ संभोगयोग्य, यति, संवाटकरवेस गृहीयात् । स्वयं वानस्य संघाटको भवेत् । एवं स्थंडिलान्वेषणं संभोगयोग्ययनिना सहवृत्तौ च यो यत्नपरः स्थंडिलसंभोगोयतिरित्युच्यते । अंतरालप्रामनगरादिसनिवेशस्थयतिगृहिसन्कारसम्यानमाधुभकभक्तादी सर्वत्र अपतिबद्धत्वात् अप्पडिवो य सम्बत्थ हम्युच्यते ॥ निर्वापाचारमार्गमाय गमन: गधा विधिमार लग-गदिमामलो एकाधिकप्रतिमाकुबलोपाय नकुशलः, प्रच्छन कुशलत्र । तिसरा यथा-या त्या चतुयी राशे मानिगरादिक वन उभशाने वा वाहमुख, उदहमुखयमुग्यो वा त्या नतरंगुलमात्रपदनिरा नारिकाप्रनिहितदृष्टिरत्यक्तकायसिन् । सुष्टु प्रीणहितचित्तश्चतुर्विधापस गंमही न पलेस पक्षे यावत्सूर्य उदेति । रोषा एकराविकी भिक्षुपतिमा । नत्र कुसलः । स्वाध्यायकशलम्तु यः स्वाध्याय कृत्या गोचरक्षेवयसति च गत्वा तिवति । यत्र विकष्टो मार्गस्तत्र सूत्रपौरुष्यामर्धपौरुष्यां वा भंगलं कृत्वा याति । प्रत्रकुशलस्तु यत्यसयतागार्यिकाधावांश बालमधवृद्धांभ पृष्ट्वा · कृतगयेपणो याति । यष्टिलसंभोगिजदो यत्र भिक्षा कता नप्रस्थ हिलं प्रासुकस्थानकायशोधनामाम्बेपते । समाचारात्मक संभोगः । योग्यं यति संघाटकस्वेन गृहीयान् । स्त्रयंत्रा तम्य संवाटको भवेत् । एवं स्थदिलान्धेपणे संभोगयोग्ययतिना सहवृत्ती च यो यस्य संघाटको भवन् । एवं Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावास - RATA गोगनपर दिनभोगियतिविम्युच्यने । अन्ये तु अंतित गंभोगिय ...... ... ... . ..आयनः विधी मानायकराधिकनिमः ।। स्थंडिलझायी यायाद....... ... ...... ifiमादुर मत्वः ॥ ॥ करात्रतनस्सगे .... . .. .::::: :" । महिवतो आक्तिरहिनः । सम्बन्ध सर्वनांतराल :: ... ... ... नकल हुने प्रावण का कार्यक्रम बताते हैं - और प्रबल ऐमा वा मुनि नियापकाचार्य का नियबहार : एकत्रिप्रतिमाकपाल का रूप कहते हैं--तीन उपवास करने के अ नरसी मारा मानना थान, पूर्व दिया, उत्तरदिशा अथवा चैत्य-जिनदारिम राम दोनो तरणो मे का प्रमाका नखकर नामका अग्रपर बह पति अपनी दृष्टि निबनकर han मम छोड रेजामन का त्यग करता हुआ मनको एकाग्र करना है, देवा महब्ब, हिमें और इसके द्वारा किया दुधा अगम नटन करना है. वह मुनि मयस आगे गमन करता भी भीनमत मिश्रकीकर बायामही योदय होने तक स्थिर रहता है. यह एक रामिप्रतिमासलो मति नाम र दोन कोश गमन करता है और जहा आहार मिलेगा ऐसे क्षेत्र, वसतिका ने आकर बरसा । पदि मार्ग व हा सापीरूरी अथवा अर्धपोरूपी के समय मंगल करके आगे रापर करता याय मि. प्रशासनिक पनि मागिका. श्रावक, बाल, मध्यम और वृदोंको पूलकर निर्यापकार का मामला परता. KE) HARI गई यहां जो स्थंडिलका अन्वेषग करता है. अर्थात शरीर शोभन में जिम जानुक स्मार्ट का सन्देशमा करना है, वह स्थंडिल शायी मुनि है. सभोगकशल--सहायता करवाय यतिसम्म किरा . किंवा योग्य यतिका आश्रय करनेवाला अथवा योग्य यतिको स्वयं अरने में ओ मबह वा नगन बाल माना जाता है, मार्गमें ग्राम, नगरादिकमें रहनेवाले यति और - - - Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मूलाराधना भाषाम गृहस्थोंके सत्कार, सन्मानमें जो मोह नहीं करता है, जो आतिथि और भत्तादिकों पर मोहयुक्त नहीं होता है ऐसे मुनिको अप्रतिघद्र कहते हैं, निर्यापकाचार्यका शोध करनके लिये निकले हुए मनिका स्वरूप इस प्रकार है. ५९४ आलोयणापरिणदो सम्म संपच्छिदो गुरुमगागं ॥ जदि अंतरा हु अमुहो हवेन्ज आगहओ होज ॥ ४.४ ।। यद्यपि प्रस्थितो मूले सरेरारालोचनापरः संपद्यते सरां मूकस्तथाप्याराधको मतः ॥ ४॥५॥ बिजयोदया-वालोषणापरिणदो रत्नश्यातिचारान्मनोवाकायविकल्पान्महीयान्गुरी निवेदयिष्यामीति हन. संकल्पः । सम्म आलोचनादोषाम्परित्यज्य संपत्धिदो यातुमुद्यतः । गुरुसगासं गुरुसमीपं । जदि अंतरा रघु यद्यन्तराल एव । अमुहो हवेज्ज पतितजिलो भवेत् । आराध होज आराधको भवति || सभ्यगालोचयिष्यामीति भनिधानपरो गुहस नुसं चलितो देवादतरराले गर्व अवचनीभनाइयायको :नन उपदिशति मूलारा-आलोयणापरिणदो रत्नत्रवातिचारान्मनोवाकायविकरूपानाम्नीयान्गुगनिदायनीति सम्म सम्यक् आलोचनादोष परित्यज्येत्यर्थः । संपत्श्रिदो यातुनुनादः । अमुष्टी निगराः । अर्थ-मन वचन और कायके द्वारा रत्नत्रयमें जो अतिचार लंग हैं य सब गुरूके पास जाकर म कहूंगा अर्थात् गुरुके समीप दोषाकी आलोचना करूंगा ऐसा मन में विचार कर जो साधु गुरुके पास जाने के लिये निकला परंतु यदि मार्गमें ही वह मुकावस्थाको प्राप्त हो जाये तो भी वह आराधक होता है-आगधक माना जाता है. आलोचणापरिणदो सम्मं संपच्छिओ गुरुग्यास ॥ जदि अंतरम्मि कालं करेज्ज आगहओ हाइ ।। ४.'' !। यद्यपि प्रस्थिमो मूले सूररालोचनापरः ।। विपद्यतेतरालऽपि तथाप्याराधकोऽस्ति सः।। ४१६॥ -: Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूसाराधना - rera..."unia विजयोदया-बालोचणापरिणतो वापराधकथनायद्वितचिनः । गुरसीएमागच्छन्द्रनो नाकार कुर्यात् । आराधगो होइ आराधको भवति ॥ आलोचणाएरिणदो सम्मं संपञ्छिदो गुरुसयासं ।। जदि आयरिओ अमुहो हवेज्ज आराहओ होइ ।। ४०६ ॥ आलोचनामवृत्तस्य गच्छतः सूरिसन्निधि । यद्यप्यस्त्यमुत्रः सारस्तथाप्याराधकास्ति सः ।। ४१७ ।। विजयोदया-तथा शालोचनापरिणतः गुर्यन्ति प्रति अपनी नवनि । यक्षाचायः धक्तमा जान। आलोचणापरिणदो सम्म मपन्छिदा गुरुसयाम ।। जदि आयरिओ कालं करेज आराहा होइ॥४.७॥ आलोचनामवृत्तस्य गच्छत्तः सूरिसन्निधि ।। यधपि म्रियते सूरिस्तधाप्याराधकोस्ति सः ॥ ४१८ ।। विजयोदया--भाचार्यः कालकरणऽप्याराधको भवति इति सूत्रार्थः ॥ तन्मृतोऽप्याराधकोऽस्तीत्यामूलारा--- स्पष्टाः ॥ अर्थ-- मैं अपने अपराधोंका स्वरूप गुरूके चरणसमीप जाकर कहूंगा एमा मनमें विचार कर निकला हुआ मुनि यदि मागमही मरण करे तो भी बह आराधक होता है, अर्थ-मैं अपने अपराध परगणक आचाय के पास कहूंगा इश आभित्रायम गमन करनेवाल आचाय यदि मार्गमे ही मूकावस्थाको प्राप्त होजावे तो भी वे आराधक होते हैं. अथात् यदि वे व्याघजजरित होकर बोलन में असमर्थ हो गये तो भी वे आराधक होते हैं. अर्थ----आलोचना करनेक उद्देशस गुरुके समीय निकले हुए आचार्य यदि मागमें स्वर्गवासी हो जाचे तो भी वे आराधक माने जाते हैं, a -au-. --"Siwakar ASHATAARAMADHAN ..hern-...' Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास .. ...: . . : " मना सननि गुरु एदिएं प्रायधिसमित्यारेकायामाच .... माण मं गतिव्वसदाओ ॥ ....... ... ... ..: - महिंदु मा नेणाराहओ भवदि ॥ ४०८ ॥ जना मापनः द गत्यसो यतः॥ मन म निराकाषु भवत्याराधकस्ततः । १९ ।। .:..:.::... यानि पनि मायागन्य मरताधिरिनि मत्वा शस्य. .. ... ..... ... ... ... ... ... चिताममाता दुःखदातला चावलोक्य, नथेन्द्रिय ......... ....... :: ... ..... गाडगीनामा मकाल रम्नत्रयाराधना श्रद्धा व . . . . . . . . . . .. . गानां पता नीता अक्षा यस्य रलत्रयायध...... ....: नाबानि सो नण अहो होदि स तेन आराधको भवति ।। Hit. I... विभिनयामधस्वं स्वादियाशंकायामाह -- I I, ""मो सामानल्य रत्नत्रयाशुद्रिकृत् । उबेग शरीरोद्रेयसुख चासारत्व माना नित्य रहा उत्कटमारगीतिकरस्नत्रयाराधनारथिः । संवेगादित्रयं गच्छति यः ........... . मामा अदा यस्यनि प्रथम सोधिहे गुद्धिनिमित्तम् । नयामकथा पायश्चितका आचरण नहीं किया है वह मुनि आराधक -- .::.:.: . ' : मना करना है वह मुनि मायारी समझना चाहिये. मायाशल्यके .: . ...... मा मनमें विचार कर शल्यका उद्धार करने का जिसने विचार किया है. iiii , अपवित्र, निःमार और दुःस्त्र देनेवाला है, इंद्रियसुख अनुप्तिजनक को . ..... को उप" रहिम युआ है और जिसकं मनमें रत्नत्रयविषयक श्रद्धा ....:: कलिय गुरुक पास जा रहा है एम निकी यदि मार्ग, वचन Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाधाडा मूलाराधना HAL शक्ति नष्ट हो गई अथवा वह यदि मार्गमें मृत्युवश हो गया तो बिना आलोचनाके भी रत्नत्रयाराधक माना जाता है, ----..-. . .---. -.-. निर्यापकसूर्यानेणार्थ गच्छतो गामाम आयारजीदकप्पगणदीवणा अत्तसोधिणिज्झझा ॥ अज्जवमहबलाघबतुठीपल्हादणं च गुणा ॥ ४०९ ॥ आचारजीदकल्पानां जायते गुणदीपना ।। गुणाः स्वशुद्धन्धसंक्शी मार्दवार्जवचतुष्टयम् ॥ ४२० ॥ विजयोदया-आयारजीदकप्पगुणदीवणा आचारस्थ जीदसंशितस्य कल्पस्य च गुणप्रकाशना । पतानि हि शाखाणि निरतिचाररत्नन यताभेष दर्शयन्ति । सदमेवान्येषकः प्रयतते । अससोधि आत्मनः द्धिः, णिज्ज्ञाझा क्लेशा. भावः। न हि संक्लेशयानित्थं दूरं प्रयातुमीइते । स्वदोषभकटनाम्माया त्यक्ता भवत्येच, तत एव माननिरासो माईव । शरीरपरित्यागाहितबुद्धितया लाच । नाऽस्मीति तुष्ट्रिभवति । प्रस्थितस्य प्रल्हावनं हृदयसुख च स्वपरोपकाराभ्यां गमितः कालः, इत उत्तरं मदीय एव कार्य मधाने उद्युक्तो भविष्यामि इति चिंतया ॥ निर्यापकसूर्यन्वेपणार्थ गच्यतो गुणानाचष्टे मूलारा-आचारस्य जीदस्य कल्पस्य च गुणप्रकाशमा एनानि हि शास्त्राणि रत्नत्रयतामेव दर्शयन्ति । तदर्थमेव चान्वेषकः प्रयतते |णिज्जमा संक्लेशाभावः । न हि संक्लेशवामित्थं दूरं प्रायतुमीहते। अज्जवं मायात्यागः । स्वदोषप्रकटनान्यथायोगात || महब माननिरासस्तत एत्र लापवं लोमनिर्जयः । शरीरल्यागाहितबुद्रित्वान् । तुही कृतार्थोऽस्मीति प्रीतिः । पल्दादर्ण खपरोपकाराभ्यां गमितः काल इत उत्तरं स्वकार्ये एत्रोद्युको भविष्यामीति चिंतयोद्भनं यत्सुखं । एतेष्टौ गुणा गुर्वन्वेषणार्य प्रस्थायिनो भदति ।। नियापकाचार्यका शोध करने के लिये बिहार करनेवाले आचार्य के गुणोंका वर्णन अर्थ-निर्यापकाचार्यका शोध करनेके लिये विहार करनेसे आचारशास्त्र, जीतशास्त्र और कल्पशास्त्र इनके । गुणोंका प्रकाशन होता है.थे शास्त्र निरतिचार रत्नत्रयका स्वरूप दिखाते हैं. और अन्वेषक मुनि रत्नत्रय निर्मल Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलारापना শাখা ५५८ करने के लिये अवश्य प्रयत्न करता है. आत्मशुद्धि अर्थात आत्माकी शुद्धि होती है, संतोशपरिणाम नष्ट होते है. अथवा विहार करना क्लेशदायक है ऐसा जो समझता है वह गुरूका अन्वेषण करनेके लिये क्यों कष्ट सहेगा. परंतु जिनको जिनको आराधनासिद्धि करनेकी इच्छा है चे कष्ट सह कर गुरूका अन्वेषण करते हैं. और इस कार्यमें वे कष्ट समझने नहीं. अज्जबगुण-गुरूका अन्वेषण करने के लिये विहार करनेसे आर्जव गुणकी सिद्धि होती है अर्थात् कपटका त्याग होता है. क्योंकि गुरूका शोध कर उसके आग अपने दोपोंको मायाका त्याग कर प्रगट करनस आर्जरगुणकी प्राप्ति होती है. दोष प्रगट करनेसे अभिमानका भी परिहार होकर मार्दव गुणका लाभ होता है, शरीरका परित्याग करनेकी बुद्धि होनेसे लावच गुणका लाभ होता है. मैं कृतार्थ हो चुका ऐसा विचार मनमें आता है इससे तुष्टि गुण भी व्यक्त हुआ, गुरुका शोथ करनेके लिये प्रयाण करते समय प्रल्हाद अर्थात् हृदयमें सुख उत्पन्न होता है. आजतक मैने स्वपरोपकार करनेमें काल व्यतीत किया अब मैं आगेका सर्व काल मेरे कार्यमें ही अर्थात् चार आराधनाओंकी सिद्धीमें हि व्यतीत करूंगा देसी पितासे उसके सदमे सुरू उत्पन्न होता दस्थ गर्वन्येषणार्थमायात रष्ट्चा तरणयासिनो सामाचार कम ब्याहरति - आएसे एज्जंतं अब्भुढ़िति सहसा हु दळूणं ॥ आणासंगबच्छछदाए चरणे य णादुजे ।। ४१० ॥ आलोक्य सहसा यान्तमभ्यत्तिष्ठन्ति संयता: आज्ञासंग्रहवात्सल्यप्रणामकृतयोऽस्त्रिलाः ॥ ५२१॥ विजयोदया - आरस प्राघूर्णफं । पतं आयांतं । दण दृष्ट्या । सहसा अदभुट्ठिति शीघ्रमभ्युत्थानं कुर्वन्ति यतयः । भाणासहवछल्लदाए. अभुको समणो सुत्तम्वविसारदो उन्नासेज्ज इति जिनामासंपादनाथ आगच्छत संग्नहीतं । यसलत्रयाच नमिचरणे यणाई र चरित्र समाचारक्रम नदीयं ज्ञातु च अभत्थान कुन्ति । कचिपाठा "चण य णाप " रति वरणावगमनार्थ तत्र ग्राह्यम् ।। गुन्वेिपणार्थमाचातं दृष्ट्वा तद्गणवासिभिः करणीयं समाचारक्रम गाथात्रयेण निरूपयतिमूलारा-आएसं प्राघूर्णकं । एज्जत आगच्छंत अब्भुटेंति अभ्युत्थान कुर्वति । वास्तव्या मुनयः । आणासंगह ५९ - Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाराधना अठ्या समणा मुत्तत्यविसारदा उवासेज्ज इति जिनाशासपदनार्थ संग्रहः । आगच्छतो मुनेः सांमुख्यन प्रतिपक्षण। चरणे य गाढुंजे तदीयचरित्रं समाचार क्रमं च ज्ञातुमिति टीका । अन्येतु चरणेवगामेदं चरणायनमनार्थ इति प्रतिपत्राः। उक्तं च-अभ्युत्तिष्टन्त्यध्वा दृष्ट्वागामुकं समायातं ।। पासवासाप्रणामहेतो; सुसंयमिनः ।। इस प्रकार गुरु का अन्वेषण करनेके लिये आये हुए उस मुनीको देखकर परगणवासी मुनि उसके साथ कैसा बर्ताव करते हैं इस विषयका विवेचन ग्रंथकार करते है. अर्थ-आतिथि मुनि आता हुआ देखकर परगणस्थ यति सहमा शीव्र खड़े हो जाते हैं. खडे होजानेसे जिनाज्ञाका पालन होता है. आगत मुनिका स्वीकार होता हैं और वात्सल्य गुण प्रगट होता है. सूत्रार्थनिपुण मुनिकी उपासना भी ऐसे कृत्य करनेस होती है. आगत मुनिका आचार भी इस उपायस जाना जाता है इत्यादिका रणार्थ आगत मुनिको देखकर शीघ्र खडे होजाना चाहिये. आगंतुगवच्छव्वा पडिलेहार्हि तु अण्णमण्णेहिं ॥ अण्णोण्णचरणकरणं जाणणहे, परिक्खंति ॥ ४११ ॥ वास्तव्यागंतुकाःसम्यक विविधैः प्रतिलेखनः॥ क्रियाचारित्रयोधाय परीक्षन्ते परस्परम् ॥ ४२२ ॥ विजयोदया-आगंतुगवच्छव्वा आगंतुको बास्तव्याश्च । पडिलेहादि तु दृष्ट्वा । अण्णमण्णेहिं अन्योन्यं । अण्णोषणकरणचरणं अम्भोम्यस्य चरणं करणं या । परिक्चन्ति परीक्षते । किमर्थं जाणणद्दे, शातुं । समितयो गुप्तयश्चरणशदेनीच्यंसे करणमित्यावश्यकानि गृहीतानि । आचार्याणामुपदेशभेदात्तामाचारोऽनेकपकारो दुरवरामः तं ज्ञातुं सहावस्थानयोग्यो न पायमिति ज्ञातुं वा ।। ___ मूलारा—वच्छचा वास्तव्या तपस्या यतयः। पहिलेकाहिं तु दृष्ट्वा । अण्णमण्णाहिं अन्योन्यं । अण्णम चरणकरणं अन्योन्यस्य चरणकरणं चरणं मुतिसमितयाः । करणं चावश्यकानि ॥ जाणणहेतुं वातुं, सूरीणामुपदेशभेदा सामाचारोऽनेकप्रकारो दुरवगम इति तं बातु । सद्दावस्थानयोग्यो न वायमिति वा ज्ञातुं । अन्ये तु प्रतिलेखनैरन्यान्य Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराना आनासा C. करणादिशामाथे परीभते इति प्रतिपन्नाः ।। तथा च नत्याउ:-आगंतुम्बास्तव्याः प्रतिलेखाभिः परस्पर यतयः ।। अन्योऽन्य चरण करणज्ञानानिमित्त परीश्रुते ॥ अपि च-वास्तन्वागंतुकाः सम्यग्विविधैः प्रतिलेखनैः ।। क्रियाचरित्रयोधाय परीक्षेत परस्परम् ।। अर्थ-आया हुआ मुनि और गणके वास्तव्य अर्थात दोनो मुनि अन्योन्यके आचरणका प्रकार परीक्षा पूर्वक देखते हैं. आये हुए मुनिकी समिति और गुप्तियां निर्दोष है या सदोष हैं इसका परीक्षण वास्तव्य मुनि करते है. आगंतुक मुनि भी उनके समिति गुप्तिओंकी परीक्षा करता है. सामायिकादिक छह आवश्यकॉकी भी वे मुनि अन्योन्य परीक्षा करते हैं. अथवा आचार्योंके उपदेशभेद से आचार अनेक प्रकारका है, उसका परिझान करनेके लिये वे अन्योन्यकी परीक्षा करते हैं. अथवा आगतमुनि अपने साथ रहनकी योग्यता रखता है या नहीं यह जाननेके लिये वे मुनि परीक्षा करते हैं. - क परीक्ष्यते इत्यवाह आवास बटाणादिसु पडिलेहणवयणगणाणिक्षेवे || सम्झाए य बिहारे भिक्खग्गहणे परिच्छति ॥ ४१२ ॥ आवश्यक आहे क्षेप स्वाध्याये प्रतिलखने ।। परीक्षन्ने वचोमागं विशाराहारयोरपि ।। १२३ ।। विजयोदया-आवासराणादिसु थवश्वध संघरमिरार्थिभिः कर्तब्धानि सामायिकादीनि आवदयकान्युभयंते तेषां स्थान स्थिति आवश्यकपरिणलिकाः। दुऊण जहाजा बारसावतमेव च । घस्सिर विसुद्धमिवादिका झिया आदिवानेन गृहीना । रोए आवश्यक.मधानादिषु । गरिलेणषयणगहणणिक्ये । प्रतिलेखने चक्षुग उपकरण वा, बचने, उपकरणानां ग्रा, निश्नगे, सहाए स्वाध्याये, विहारे जंघाधिकारे, भिस्वादणे भिनाग्रहणे च परिपत्रंति परीक्षेत । किमयं सामाविवादमावश्यकालि कति ? कपि वा यथाकाले करोति न चा? फि चा द्वन्धसामायिकादौ प्रअत उत भावसामाधिकारी द्रव्यसामायिकादिकं भवति सामायिकादिक पठतः, कायेन चोक्ता क्रियां कुर्षतः । सायघयोगप्रत्याण्यामे, तीर्थरुदगुणानुस्मरणे, आचार्योपाध्यायादीनां या गुणानुस्मृती, सातिवारनिहागाईयोर, Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वासः प्रत्याख्येयप्रत्याख्याने, शारीरममतानिरासे था. परिणतिर्भावसामायिकादिकं । तत्र प्रवृसो न वेति परीक्षा । चक्षुषा पूर्वमिदं । प्रतिलेखन योग्यं न वेति किं पश्यनि नशा उपकरणन भृदुना लघुना माजनं किं करोति न करोति वा । अथवा वरिन । प्रमार्जयति, भरपीइयति, दुरायनसायालयात प्रामा जगेन विरोधिनो जीयामिश्रयसि । आहाराभिमुखान, आहारमारिणो गृहीतांडककात, स्वनियामदारमान, नाममाञ्जयभिम वेति परीक्षा । यचने परीक्षा--पाय यचा, परनिंदायप्रसाद, आरंभरग्रियोः प्रवर्तकं, मिथ्यात्वसंपादकं, मिथ्याज्ञानकारि, व्यतीकं, गृहस्थानां वचो वा बदति न बनि । यतो यहादेयं यशा यन्त्र निक्षिपति तदुभयपमार्जनपूर्वकं किं गृहाति निक्षिपति वा नेति परीक्षा । काला विशुद्धि कृत्या पठति किवान, अथवा इमै ग्रंथं पठति, कथं वास्थार्थ व्याचष्टे । स्वनियासदेशाहरे इस्तमात्रादिपरिमाणे स्थंडिले, निर्जतथे निश्छिद्रे, समे अगिरोगे पनिजामनोविमरीरमलं त्यजति उतातो विपरीते इति विद्वारे परीक्षा । भिक्षामहणे परीक्षा नाम भ्रामयी यां कांचितिक्षा गृहाति लब्धामुत नवकोटिपरिशुद्धामिति । क क परीशंते इत्यवाह___ मूलारा – आवास यंटाणा दिसु आवश्यये.गु सामायिकादिपु, स्थान स्थितिरावश्यकपरिणतिकाल इत्यर्थः । आदिशब्देन दुःणदं जहाजादै बारमवत्तमेव य । चदुस्सिरं तिसुद्धमित्यादिकाः क्रिया गृहीताः । पडिलेहणा चक्षुःपिंडादिना प्राणिनिरूपणप्रमार्जनं । बिहारे गमने ॥ अर्थ-संगर और निजराकी इच्छा रखनेवाले मुनिके द्वारा किये जानेवाले. सामायिकादि कर्तव्योंको आवश्यक कहते हैं. अर्थात् सामायिफादि छह आवश्यकों का पालन आगत मुनि योग्य समयपर करता है या नहीं इसकी परीक्षा वास्तव्य मुनि करते हैं. दो नमस्कार, बारा आचर्त, प्रत्येक दिशाके तरफ एक नमस्कार ऐसे चार नमस्कार, मन, वचन और कायकी शुद्धिसे करना इत्यादिक क्रियाओं का पालन यह मुनि करता है या नहीं इसका यूक्ष्म । अबलोकन वे करते हैं, नेत्रोंसे उपकरणोंका शोधन करना, सोध करके उपकरण उठाना, रखना, बोलना, स्वाध्याय करना, विहार करना, आहार ग्रहण करना इत्यादि कार्यो में आगते मुनीकी परिक्षा ली जाती है. यह मुनि सामायिकादि कर्तव्य करता है क्या? योग्य कालमें करना है या नहीं ? केवल ,व्यमामायिसादिकोंमें यह प्रवृत्त होता है या भावसामायिकादिकोमें इंगकी प्रवृत्ति है ? यचनसे सामायिकादिकका पाठ घोलना और शरीरक सामायिकादिकोंकी क्रिया करना यह द्रव्यमामायिक समझना चाहिये. अशुभ योगका त्याग करना, तीर्थकरोंके गुणोंका स्मरण करना, आचार्य, उपाध्याय गैरह पूज्य मुनिओके गुणोंका स्मरण करना, अपने ब्रतमें लगे हुए अतिचा| रोंकी निंदा व गहीं करना, त्याज्य पदार्थाका त्याग करना, शरीरके उपरका स्नेह छोडना इत्यादिकों में जो तत्परता ६.१ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार मूलाराधना देखी जाती है वह सामायिकादिक आवश्यक है. इन भावसामायिकादिकोंमें इसकी परिणति है या नहीं यह वास्तव्य मुनि देखते हैं, यह स्थान प्रथम नेत्रसे देखकर स्वच्छ करता है या नहीं इसकी परीक्षा करते हैं. मृदु पिच्छिकासे जमीन, कमंडलु, शास्त्र वगैरे उपकरण स्वच्छ करता है या नहीं. धीरे धीरे संमार्जन करता है या त्वरित, जीवोंको उपकरणसें इटाता हुआ उनको पीहा करता है क्या ? उनको फेक देता है क्या ? अथवा विरोधी प्राणिओंको परस्पर मिश्रण करता है क्या ? जो आहारके लिये जा रहे हैं, जिन्होंने आहार ग्रहण किया है, जिन्होने अण्डे ग्रहण किये हैं, जो अपने निवास प्रदेशमें ठहरे हुए हैं, जो भूञ्छित होकर पदे हैं ऐसे प्राणिआको यह मुनि घोरेसे हटाता है या नहीं उसकी वास्तव्य मुनि परीक्षा करते हैं, आगत मुनि के वचन की भी परीक्षा करते है अर्थात आगतमुनि कठोर वचन, परनिंदा स्वप्रशंसा करता है क्या आरंभपरिग्रहों में प्रपच करनेवाला, मिथ्यात्वको उत्पन्न करनेवाला मिथ्याज्ञानको उत्पन्न करनेवाला, असत्य, और गृहस्थोंका वचन बोलता है या नहीं इसकी परीक्षा करते हैं, जो वस्तु जिस स्थानसे लेना है और जो वस्तु जिस स्थान पर रखना है उन वस्तुओंका प्रमार्जन करके ग्रहण निक्षेपण करता है या अन्यथा उसमें प्रति करता है इसका ये मुनि परीक्षण करते हैं. कालादिशद्धि का विचार कर स्वाध्याय करता है या नहीं ? अथवा इस ग्रंथका यह मुनि पठन कर किस रीतीसे अर्थ कहता है. इसकी भी परीक्षा करते हैं. बिहारपरीक्षाका स्वरूप इस प्रकार है-अपने निवासस्थानसे दूर हात वगैरे प्रमाणसे युक्त, प्राणिरहि त, छिद्ररहित, समतलयुक्त विरोधरहित, मार्गसे चलनेवाले लोक जिसको नहीं देख सके ऐसे स्थानमें यह मुनि शरीरमलका त्याग करता है ? अथवा विपरीत स्थानमें शरीरमलका विसर्जन करता है इसकी परीक्षा करते है. यह विहारपरीक्षा कही जाती है, भिक्षाग्रहणपरीक्षा-जो कुछ आहार मिलेगा वह ग्रहण करता है अथवा नवकोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करता है इसका भी वास्तव्य मुनि विचार करते हैं. ६० आगंतुको यतिगुरुमुपाश्रित्य सविनयं संघाटकदानेन भगवत्रनुमाहोऽसीति विज्ञापनों करोति । ततो गणधरेणापि समाचारहो दातव्यः संघाटक इति निगदति Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः इलाराधना आएसस्स तिरत्तं णियमा संघाडओ दु दादब्यो । सेज्जा संथारो वि य जइ वि असंभोइओ होइ ।। ४१३ ॥ देयः संघाटकोऽवश्यमागताय दिनत्रयम् ॥ असंस्तुतस्य यत्नेन शय्यासंस्तरकावपि ॥ ४२४ ॥ विजयोदया--भाएसस्स तिरतं माधुर्णकस्य त्रिरात्रं । णियमा संघाडओ तु वादव्यो निश्चयेन संघाटको दातस्य एव । सेजा संधारो वि य यसतिः संस्तरच दातव्यः । जदि वि असंभोइओ होइ । यद्यप्यपरीक्षितत्वात्सहानाच रणीयो भवति । तथापि संघाटको यातच्यो भवति । युक्ताबारश्चेत्संगृह्यते ॥ आगंतुकेन च प्रश्रयमुपाश्रित्य भगवन्संघाटकदानेनानुमाहोऽस्मीति विज्ञापितो गुरुस्तस्मै सामाचार# संघाटक दद्यात् इति झापयति मूलारा-दु दादवो दातव्य एष तुरेवार्थोन मिन्नक्रमः । असंभोइओ असंभोगिकः सामाचारिक इत्यर्थः युक्ताचारवेत्संगाध इति भावः ।। आगंतुक यति गुरूका आश्रयकर हे भगवन् ! सहाय देकर आप मेरे ऊपर अनुग्रह करो ऐसी विज्ञसि करता है तब आचारक्रमफे ज्ञावा उसको संघाटक अर्थात् सहायमदन करते हैं यही माव आगेके गाथामें आचार्य कहते है अर्थ--अतिथिरूप मुनिको नियमसे तीन दिन तक सहायप्रदान करना चाहिये, उसको वसतिका और संस्तर अर्थात् चटाई देना चाहिये. यद्यपि परीक्षा होनेतक उसके साथ आचारण करना योग्य नहीं है तथापि उसको सहाय देना चाहिए, और यदि उसका आचारण योग्य दीख पड़ा तो गणमें उसका संग्रह करना चाहिए. विनत्रयोत्तरकालं किं कार्य गुरुणेत्याशंकायर्या वदति तेण परं अवियाणिय ण होदि संघाडओ दु दादब्यो । सेज्जा संथारो वि य गणिणा अविजुत्तजोगिस्स ॥ ४१४ ॥ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्राम मूलाराधना ६०४ संघाटको न दातव्यो नियमेन ततःपरम् ॥ यतेयुक्तचरित्रस्य शय्यासंस्तरकावपि ।। ४२५ ॥ बिजयोदया-तण गणिणा तेन गणिना। परं दिनत्रयात् । अघियाणिय अविचार्य स्खदत्तसंघादं यतिवचनश्रवणोत्तरकालं । नु शब्द पत्रकारार्थे प्रवर्तते स च दादग्धो इत्येतस्मात्परतो द्रष्यः । न दातव्य पव संघाटकः । सेजा संथारो था यसतिः संस्तरो घा न दातव्यः । अबिजुत्तजोगिस्स युक्ताचारस्थापि न दातव्यः संघाटकादिः परीक्षामंतरेण किं दुस्प्रेस्यायः त्र्यहादूयं कि कार्यमित्याह मूलारा-तेंण गंतव्येन गणिना। परं दिनत्रयादूर्व । अविचारिय अविचार्य । संपाटकयतिना सार्द्ध अवतयित्वा (!) अविजुत्तजोगरस युक्ताचारस्यापि आगंतुकस्य संघाट कादिक युक्तयोगस्यापि परीक्षां बिना न . दातव्यमेव किं पुनरितरस्येत्यतिशयः । यदि परीक्षां क्षमते तदा संघाटकादिकं दातव्यमिति तात्पर्यः ॥ तीन दिनके अनन्तर गुरुके द्वारा कोनसा कार्य किया जाता है इसका विवेचन, करते हैं-- ___अर्थ-तीन दिनके अनंतर मुनिका वचन सुनकर अर्थात् यह आगंतुक मुनि अपने गणमें आश्रय देने योग्य नहीं है ऐसा वचन मुनकर आचार्य उस आगंनुक मुनिको सहायप्रदान नहीं करते हैं, तथा वसतिका और संस्तर भी उसको नहीं देते हैं, आगंतुक मुनिका आचरण योग्य है परंतु तीन दिन में उसकी परीक्षा नहीं हुई तो उसको भी आचार्य सहाय, असतिका और अस्नर नहीं देते हैं. भषिचार्य सेम सहायस्थाने को दोपो येवं यत्नः क्रियते प्रत्यारेकायो दोषमाचले उग्गमउप्पादणएसणासु सोधी ण विजदे तस्स ॥ अणगारमणालोइय दोसं संभुञ्जमाणस्त ।। ४१५ ।। गृह्णानस्य यतेः सूरेर निराकृतदूषणम् ।। उद्गमोत्पादनाहारदोष शुद्धिन जायते ॥ ४२६ ॥ विजयोदया-उम्गमजापादणपसणास उद्मोत्पादनेषणादोषपरिहारो न विद्यते तस्य गणिनः । अणगारं यति। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचामा ६०५ | अणालोक्य वोस मनालोनितदोष । समुज्जमाणास संगृक्तः । उन्नमाविदोषोपहतमाहारं पसति, उपकरण वा सेवते यः यति। तेन सह संघासात् संवासानुमति कुर्धेता नानुमतिस्त्यक्ता भवति इति ॥ अविचार्य तेन सहावस्थाने को दोषो नैवं यत्नः क्रियते इत्यारेकायों दोषमाच मूलारा-सोधी परिहारः । उद्भादिदोषाणां त्याग इत्यर्थः । तस्स गणिनः । अणगारं यति । समुज्जमाणस्स संगृह्णतः । उद्मादिदोषोपहतमाहार वसतिमुएकरण वा यः सेवते सेम सह संवासान् । संवासानुमतिं कुर्वता नानुमतिस्त्यक्ता गीति मन्यते । समाभ्यर्थ प्रश्रयेण गुरुमुपाश्रित्यागमनकारणं निवेदयति बिणयेणुषकमित्ता उपसंपज्जदि दिया व रादो षा॥ दीवेदि कारण पि.य विणयेण वहिप सेते ।। मूलारा-निणएण प्रपारमादिना । उयनमित्ता परगणमिवि शेषः । बसंपज्जदि उपाश्यति । निर्यापकामार्थमिति शेषः । रादो राम्रो । पीदि प्रकाशयति फारणे स्वागमनस्येति शेषः । अथमत्रार्थ:-उत्समार्थसाधनोचतः परगण गत्वा निर्यापकाचार्यमुपायति । ततश्च दिने रात्री वा अवसर प्रान्य तमुपाश्रितो बिनयेनागमकारणं जूते । एतां टीकाकारी नेच्छति अर्थ--जो मुनि दोषांकी आलोचना नहीं करता है. जो उद्गम, उत्पादना एपणा दोषोंसे युक्त आहारका, वसतिकाका, उपकरणका और संस्तरका सेवन करता है ऐसे मुनिके साथ जो आचार्य रहता है अथवा उसके साथ रहनेके लिये अन्य मुनिको अनुमति देता है. वह भी आगंतुक मुनिके समान दोषी समझना चाहिये. जो आगंतुक मुनि उद्गमादि दोषोंसे अशुद्ध हुआ है वह आलोचना भी नहीं करता है, अत एवं उसको संघसे अलग करनाही योग्य है. उसके दोषोंको विचार न कर उसके साथ रहनेसे.स्वयं भी आचार्य और संघ अशुद्ध होगा. PATATERATORS ६०५ उब्वादो त दिवसं विरसामित्ता गणिमुवष्ठादि ॥ उद्धरिदुमणोसल्लं विदिए तदिए व दिवसम्मिं ॥ ४१६ ।। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा स प्रथाम्य गणनायकं त्रिधा भाषते निशि दिवाथ संश्रितः ।। आगमस्य विनयेन कारणं सिद्धये न विनयं विना क्रिया ।। ४२७ ।। विश्रम्यासी शस्थमुद्धर्जुकामः श्रांतः स्थिस्वा वासरं तं द्वितीये ॥ तत्राचार्य डोकते वा तृतीयेन प्रारब्धं साधवो विस्मरन्ति । ४२८॥ इति मार्गणासूत्रम् ।। विजयोदया-उज्यादो श्रांतः स्थिन्वा । तं दिवस आगतदिनं । विस्सामिता विश्राम्य । गणिमुवादि आचार्य दौकते । उद्धरिदुमणोसल उदत मनाशल्यं अतिचारं । पिदिए तदिए य विधसम्मि द्वितीय तृतीये वा दिने मार्मणापुरस्सरा किया सर्वा मार्गणेस्थपन्यस्ता ॥ ततो द्वितीयेऽन्दि तृतीचे वा सासरतुं --. मूलारा-उवादो श्रांतः ।। दिवस आगमनदिन । उवठ्ठादि ढोकते । उद्धरिदुमणो हृदयानिष्कासयितुकामः सह रत्नन्नयातिचार । अत्र मार्गणानुषंगिण्यपि क्रिया मार्गणवेति उपन्यस्ता । मार्गणा सूत्रतः । १६ । अतः १७॥ अर्थ-मार्गश्रमसे खिम हुआ वह आगंतुक मुनि पहले दिन श्रमपरिहारार्थ विश्रान्ति लेता है. तदनंतर दूसरे दिन अथश तीसरे दिनमें मनमें सल्यके समान चुभनेवाले अतिचारोंका उद्धार करनेके लिये आचार्यके चरण सभीप वह प्राप्त होता है, मार्गणापुरःसर जो जो क्रिया की जाती है वे सब मार्गणा ही कही जाती है. 'कीरग्गुणः श्रिरनेनोपाश्रित इत्याचष्टे आयारवं च आधारवं च ववहारवं पकुल्वीय ॥ आयावायविदंसी तहेव उप्पीलगो चेव ॥ १७ ॥ आचारी सूरिराधारी व्यवहारी प्रकारकः॥ आयापायहगुस्पीडी सुखकार्यपरियः ।। ५२९ ।। विजयोध्या-आयारयं च आचारवान् । माधारवं च आधारपान् | अपहारपंच व्यवहारवान् । पकुवीय कर्ता । तहेव गायापायविंदसी आयापायदर्शनोचत: ! उप्पीलगो चेव । अवपीडकः॥ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना साथै समाभ्यर्य कृतपरिकर्मणा तेन मुमुक्षुणा कीम्गुणः सूरिरुपाश्रित इति पृष्टः सन् गाथानवत्या निर्यापका. पार्यगुणग्राम प्रपंचयिष्यन्नादौ तहणानष्ठावुरेष्टुं गाथाद्वयमाह मूलारा-आयारवं आचारवान् । पकुव्यो प्रकर्ता । आयापायविर्दसी आयापाययो रत्नत्रयस्य लाभच्छेदयोदर्शनोद्यतः उप्पीलगो अवपीडकः॥ जिस आचार्यका आगंतुक मुनि आश्रय करता है उसमें कोनसे गुण रहते हैं इसका विवेचनअर्थ-आचार्य आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, कर्ता, आयापायदर्शनोद्यत, और उत्पीलक होता है, SERIES अपरिस्साई णिवाबओ य णिज्जावओ पहिदकित्ती ॥ णिज्जवणगुणो वेदो एरिसओ होदि आयरिओ ॥ ४१८ ॥ एभिर्निर्यापकः सूरिर्गुणैरष्टभिरन्वितः ॥ दातुमाराधनामीशः पृथुकीर्तिरुपेयुष ॥ ४३० ॥ विजयोदया-अपरिस्साई अपरिनाबी । जिवापओ निर्धापषः । पहिदकित्ती प्रथितकीर्तिः । णिजयण गुणोतो निर्यापनगुणसमन्वितः। परिसभो होदि भापरिमोटरभवत्याचार्यः॥ मूलारा-जिज्जावगो-निर्यापकः । उक्तंच आचारी सरिराधारी व्यवहारी प्रकारकः ।। आयापायदिगुत्पीडी मुखकार्यपरिस्रवः ।। एमिनिर्यापक रिर्गुणैरष्टभिरन्वितः || दातुमाराधनामीशः पृथुकीर्तिरुपेयुषे ।। अर्थ-आचार्य अपरित्रावी, निर्धापक, प्रसिद्ध कीर्तिमान और निर्यापकके गुणोंसे पूर्ण होते हैं, इतने गुण आचार्यमें होते हैं. ६०७ Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलाराधना आघासा RECAMETara चारवसायारणारागागा था आयारं पंचविहं चरदि चरावेदि जो गिरदिचारं ॥ उपादिसदि य आयारं एसो. आयारवं णाम ॥ ४१९ ॥ आचारी स. मतः सूरिरतिचारनिराकृतं ।।। पर्यत चार्यते येन पंचाचारोऽनुमन्यते ॥ ४३१॥ विजयोदया-आयारं पंचमिट पंचप्रकार आचारं । चरद्धि विनातिचार चरति । परं वा निरतिचारे पंचविधे आचारे प्रवर्गवति । उपदिसदिय प्रत्यार उपदिशति व आचार। सो आधार णाम एक आनारवाशाम । एतदनं भवति--साम्रारांग स्वयं पेत्ति अंधतो तश्य, जय पंवविध आयार प्रवर्तते प्रबर्नयति च । पंचाचारवान इति । पंच विधे स्वाध्याये वृत्तिानाचारः । जीयाविनद्धानपरिणतिः दर्शनाबारः I हिसादिनिवृत्तिपरिणतिश्चारित्राचारः। चतुर्विधाहारत्यजनं, मनमोजन, पनेः परिसम्पानं, रसानां त्यागः, कायसंतापन विविक्ताघास इत्येवमाशिकस्तपःसशि त आचारः । स्वशत्यनिग्रहने तपनि वीर्याचारः । एते पंचविधा.आचार भूलारा--विहं पंचविष स्वाध्याय वृत्तिहानाचारः। जीपादितत्वश्रद्धानपरिणतिदर्शनाचारः । हिंसादि निवृत्तिपरिणतिश्चारित्राचारः । अनशनादितपश्वरणपरिशतिस्तप आचारस, तपप्ति स्वशत्यनिगृहनं वीर्याचारः । वीर्वादाचारस्य को भेद इति चेदुच्यते सदर्शनादीनां निर्मलीकरणे यत्नो विनयः । निर्मलीकृतेषु तेषु यथावीर्य यत्न आचारः । इत्यनयो दः । श्लोक:-- सह मधीवृत्ततपसां मुमुक्षोनिर्मलीकृतौ ॥ यत्नो विनय आचारो बीर्याछुद्धषु तेषु तु ॥ उवधिसदि । खपदिशति च । एते तैलधयति [१] ग्रंथसोऽयंतश्चाचारोगं येति पंचाचारोपदेशान्यथायोगात्॥ अर्थ-जो मुनि पांच प्रकारके आचार अतिचार रहित स्वयं पालता है. और इन पांच आचारोंम दुसरों. को भी प्रवृत्त करता है. जो आचारका शिष्योंको उपदेश करता है वह आचारवत्व गुणका धारक समझना चाहियेअभिप्राय यह है कि जो मुनि ग्रंथ और अर्थ से आचारांगको जानता हैं, स्वयं पांच प्रकारके आचारों में प्रवृत्त होकर अन्योंकी भी प्रवृत्त करता है वह पंचाचारवान् कहा जाता है. पांच प्रकारके स्वाध्यायोंमें प्रति करना यह नानाचार है. जीवादितत्वोपर श्रद्धा न रखना दर्शनाचार है. हिंसादि पांच पापोंसे निधृत्ति रूप परिणाम रहना चा ६०८ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः रित्राचार है. चार प्रकारके आहारोंका त्याग करना, अल्प भोजन करना, दाना, पात्र, त्याविका परिमाण करना, रसोंका त्याग करना, शरीरको आतापनादि योग और आसनादिकसे क्लेशयुक्त करना. एकांत स्थानमें रहना इन सब प्रवृत्तिओंको तप आचार कहते हैं. तपश्चरणमें अपनी शक्ति नहीं छिपाना यह वीर्याचार है. ऐसे आचारोंके पांच भेद हैं. ६८९ । प्रकारांतरेण आचारवत्त्य कथयति दशविहलिदिकप्पे वा हवेज्ज जो सुछिदो सयायरिओ || आयारत्रं खु एसो पत्रयणमादासु आउत्तो ॥ ४२० ॥ दशधा स्थितिकल्पे वा सुस्थितो गतदूषणे ।। आचारी कथ्यते युक्तः सूरिरागममातृभिः ।। ३३२॥ विजयोदया-शविदलिदिक वा दशबिर्धे स्थितिकल्पे धा। हयेज्ज जो सुटिदो सया भयेधः सुस्थितः सदा। बायरिओ आचार्यः । आयारवं खु आचारवान् । एसो पषः । पषयणमावासु आउत्तो प्रवचनमालकासु समितिषु गुप्तिषु चायुक्तः॥ आचारवत्वमेव भग्यतरणोपविशतिमूलारा--ठिदिकापे आपरणत्रिशेपे । पवयणमादासु प्रवचनमापु समितिगुप्षुि । आउत्तो कृतोद्योगः ।। अन्य प्रकारसे आचारबत्व गुणका निरूपण करते हैं-- अर्थ--जो दशप्रकारके स्थितिकल्पोंमें स्थिर है वह आचार्य आचारवत्वगुणका धारक समझना चाहिये। यह आचार्य नि गुसि और समितिओका जिनको प्रवचनमाता कहते हैं धारक होता है. अभिहितकल्पनिर्देशार्था गाथा आनेलकुदेसियसेज्जाहररायपिंडकिरियम्मे ॥ जेद्रपाडिकमण वि य मासं पज्जो सवणकप्पो || ४२१ ॥ ६०० Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ६१० अचलकत्वमुदिष्टशय्येशाहारवर्जन ।। राजपिंडविवर्जिवं कृतिकर्मप्रवर्तनम् || ३३३ ।। विजयोदया-आचेलपकुद्देसिब चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणे, तन सकलपरिग्रहत्याग आचेलमयमिन्युच्यते । दशबिधे धर्म त्यागो नाम धर्मः । त्यागश्च सर्वसंगविरतिरचेलतापि सैय । तेनाचेलो यतिस्त्यागास्ये धर्म प्रवृत्तो भवति । अकिंचनाख्य अपि धर्मे समुद्यसो भवति निष्परिग्रहः । परिग्रहार्था वारंमप्रवृत्तिनिपरिप्रद्यस्यासत्यारंभे कुतो:संयमः। तथा सत्येपि धर्म समवस्थितो भवति । परं परिग्रहनिमित्तं व्यलीकं वदति । असति चाहो क्षेत्राविक अभ्यंतरे च रागादिके परिग्रहे न निमित्तमस्त्यनुताभिधानम्य । ततो वन्नेयमचेल सत्यमेय ब्रवीति । दाघवं च अचेलस्प भवनि | अदनविरतिरपि संपूर्गा भवति । परिग्रहाभिलापे सति अदत्तादाने प्रवर्तने गान्यति । अपि च रागादिक व भावधिशुद्धिमयं ब्रह्मचर्यमपि विशुद्धतम मति । संगानिमित्तो हि क्रोधस्तदभावे चोत्तमा क्षमा व्यवतिष्ठते । सुरूपोऽहमान इन्धादिको दर्पस्त्यको भवति अवेलेनति 1 मार्दवमपि तत्र सन्निहितं । अजिमना बास्य स्फुटमामीयं भावमादायतोऽनेलस्मार्जवता भवति मायाया मूलस्य परिग्रहस्य त्यागात् । चेलादिपरिग्रहपरित्यापन यस्मात् विरागभायमुपगतः । शब्दादि विषयच्चासक्तो भवति 1 तती विमुक्तेश्व शीतोष्णशमशकादिपरिश्नमाः, मुरारोदीः सोढाश्योपसर्गाः निश्चलतामा भ्युपगच्छता । तपोऽपि धोरमनपितं भवति॥ पषमचलत्योपदेशेन वशधिधधर्माम्यानं हतं भवति संक्षेपण । अथवान्यथा प्रफम्यते अचेलनाप्रशंसा। संयमशुद्धिरको गुणः । स्वेदरजोमलायलिप्ते चेले तमोनिकास्तदाश्चयाश्च त्रसाः मुक्ष्माः स्थूलाश्च जीवा उत्पद्यते, ने थाध्यत चलग्राहिणा । ससंचरत्र नाषापयतीति चेतहिं हिंसा म्यान । निवेचन च नियंते संमनाः । नलवतः स्थान, शयन, निचाया, पाटने, छदन, बंधन, वेणूने, प्रक्षालन, घन, भानपक्षपणे जीयाना बारात महानत्यमः। अचेलस्पबिंधासंयमाभावान् सबमविशुद्धिः । ईप्रियविजया छिनीयः । सकुल बजे निधामंत्रादिपहिलो यथा पुमान प्रयत्लो भवति पत्रमिद्रियनियमने अन्नेलोऽपि प्रयतने । अन्यथा मीनिकालनायो धदिति मायानापश्च गुणोऽचलतायाः । स्सनभयादोमयादिरसेन लेप कुर्वनिगृहयित्वा कथंचिन्मायां करोति । उन्मार्गण वा स्तनय चना कतु पायात् । गुरुमवस्याद्यसाहतो या स्यात् । चेलादिमास्तीति मानं चोदइते । बलापहरणास्तेनेन सह कलह कुर्यात् । लामावा लोभः प्रवर्तते । इति घेतामाक्षिणाममी पोषाः । अचेलताय पुनरित्यभूतदोपाजुत्पत्तिः । ध्यानसाध्यायथोरविपता च । सुखीपूत्रकर्पटादिपरिमार्गणसीयमादिब्याक्षेपेण तयोपिनो भवति । निसंगस्य तथाभूत पापाभाषात । पापीपीए निर्षियता, साम्पायव्य ध्यानस्य च भावना। प्रयत्यागश्च गुणः । बायोमा KINNARAASH समापण नियममभ्यंतरमहानिराक्षोपायः मनुष चाम्य नियमेन शुलपति । - - - ६१० Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव मूलाराधना ६११ रक्तो भवति । दुष्यत्यमनोशे । बाह्यानुष्यालंयनौ दिरागद्वेषौ तावसति परिग्रहे न भवतः 1 किव शरीरे अनादरो गुणः दारीरगतादरयशेनव हि जनोऽसयमे परिप्रजेच वर्तते । अचेलेन तुलदादरस्त्यक्तः, वातातपादियाघासहनात् । स्ववशता च गुणः देशांतरगमनादी सहायाप्रतीक्षणात् । पिच्छमात्र गृहन्या दि. न्यासकलपरिक्षा पाय यातरति 1 सचलमतु सहायपरवशमानसश्च कथं संयम पालयेत् । चतोचिद्धिाफटनं च गुणोऽचलतार्या । कीगीनादिना प्रच्या पिसो मानिकपते । निश्चलल्य निर्विकारसेहतया स्पटा विरागता । निर्भयता च गुणः। ममेद फिमपहरंति चौरादयः, किं ताउयति, बनतीति घा भयमुपैति सचेलो, भयातुरो वा किं न कुर्यात् । सर्वत्र विधञ्चता च गुणः । निरपरिग्रहः म किंचनापि शकते । सचलस्तु प्रतिमार्गयायिनं अन्ये चारष्ट्वा न तत्र विश्वासं करोति । को वेत्यर्य, किं करोति 1 अप्रतिलेखनता च गुणः । चतुर्दशविध उपधि गृङ्तां बहुप्रतिलेखनता ने तथाचेलस्य । परिकर्मवर्जनं च गुणाः । उद्वेएनं, मोचनं, सीवनं, बंधनं, रंजनं इत्यादिकमने परिकर्म सचेलस्य | स्वस्य बसमावरणादेः स्वयं प्रक्षालनं सीधनं या कुत्सितं कर्म, विभूषा, मूछी च । लाघवं च गुणः । अचेलोऽस्पोपधिः स्थानासनगमनादिकासु क्रियास मायवदमतियशो लघुर्भवति नेतरः । तीर्थकराचरितत्वं च गुणः-सहननबलसमग्रा मुक्तिमार्गप्रख्यापनपरा जिनाः सर्व पयाचेला भूता भविष्यंतश । यथा मेवादिपर्वतगनाः प्रतिमास्तीर्थकरमार्गानुयायिनच गणधरा रति तेऽप्यचेलास्तछिप्याश्च तथैचेति सिद्धमचेल । चेलपरिवेष्टितांगो न जिनसरशः । गुस्सएनलंषभुजो निश्चलो जिनप्रतिरूपसां धत्ते । अतिगूढधलषीर्यता च गुणः । परीपहसहने शक्तोऽपि सचेलो न परीपहान्सहते । एवमेतदगुणावेक्षणादचेलता जिनोपदिष्टा। चेलपरिवेएितान आरमाने निथे यो वदेत्तस्य किमपरे पार्षडिनो न निथाः ? वयमेव न ते निप्रथा इति बाड्यात्रं नाद्रियते मध्यस्थैः। रथं घेखे दोषा अचेलतायां अपरिमिता गुणा इति रचेलता स्थितिकल्पत्येनोक्ता । अथैषं मन्यसे पूर्वागमेषु वनपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम् तथा ह्याचारप्रणिधी भणिनं-"प्रतिलिस्पात्रकंबलं भूषामिति । असत्सु पात्राविषु कथं प्रतिलेखनाधुर्य क्रियते"। आचारस्यापि द्वितीयाध्यायो लोकषिचयो नाम, तस्य पंचमे उद्देशे पयमुक्तं "पजिलइयां, पादपुंठणं, उमाई, कडासणं, अण्णदरं उपाधि पावेज" रति । तथा वथिसणाए "धुर्स नत्थ पसे हिरियणे सेग वस्थ वा धारेज्ज पडिलेहणनं विदिय, तत्थ पसे झुग्गिदे देसे दुधे बस्थाणि धारिन्ज पडिलेवाग नदिय। नत्य पसे परिस्सह अणविहासम्स तबो वत्थाणि धारेज्ज पडिलिहणं त्रस्थं"1 तथा पायेसणाए फश्चितं "हिरिमणे वा जुग्गिदे चावि अपग वा तस्सप कप्पदि वत्थादिक पाइचारित्ता इति" । पुनश्चोकं तत्रैव-"थालाबुपत्तं वा, दारुगपत वा मट्टिगपत्तं वा यणपाणं, अपनी अपयसरिदं तथा अप्पकारं पात्रलामे सनि पारगाहस्सामीति"। यसपात्रे यदि न प्राध्ये कथमतानि सूत्राणि नीयते । भावनाय चोतं-"चरिम चीयरधारितेन परमचेल नु जिणे" इति । तथा सूत्रकृतस्य पुंडरीके अध्याये कार्थतं 'ण कहेज्जो धम्मकह पत्थपत्तादिमिति, । । m Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराघना ६१२ निषेधेप्युक्तं - " कसिपाई पत्थरलाई जो भिक्खु पडिगाडिदि पञ्जदि मासिगं लगे " इति । एवं सूत्रनिर्दि चेले अचेलता कथं भिक्षूणां हीमानयोग्य शरीरावयत्रो दुश्चर्माभिलवमानवीजो वा परसहने वा अक्षमः स गृण्डाति । इत्यत्रोच्यते- आर्थिकाणामागमे अनुज्ञातं यत्रं कारणापेक्षया 1 पु तथा चोकमाचारांगे 'सुई में आस भगवदा एवम खाई । इह खलु संयमाभिमुखा दुबिहा रिक्षा जादा भवेति । तं जहा- यणादे णोखय्यभागदे वेब । तत्थ जे सम्मसमण्णागदे विरांसहत्थपाणिपादे सञ्चिदेियमण्णादे तस्व णं णो कम्पदि एगमथि बत्थं धारि एवं परिहिडे एव भग्नस्थ एगेण पडिलेइगेण इति" तथा चोकं कल्प- हरिहेतुकं व दुति देहे जुग्गन्गे धारज्ज सियं वत्ये परिसद्वाणं च विद्वासीति । द्वितीयमपि सूत्रं कारणमपेक्ष्य चत्रग्रहणमित्यस्य प्रसाधकं आचारे विद्यते--" यह पुण एवं जापेज्ज | उशतिकं ते हसंतेहि खुपडि पणे से अथ पडण्णमुवाचे पाविहायेज्ज" इति । हिमसमये शीतबाधासह परि बेलं तस्मिभिकामध्ये समायाते प्रतिष्ठापयेदिति । कारणापेक्ष्यं ग्रहणमायतं परिजीविदेोषवारा इयेत् अचलताघवनेन विरोधः । प्रश्नानादि संस्कारविरहात्परिजीर्णता पत्रस्य कथिता न तु डढस्प त्यागधनार्थे, पात्रप्रतिष्ठापना सूथेपोक्केति । संयमार्थ पात्रणं सिध्यति इति मन्यसे नेत्र असेलतर नाम परित्यागः पात्रं परिसद्ध इति तस्यापि त्यागः स एयेति । तस्मात्कारणापपकरणंगृह्यते कारणमवेक्ष्य तस्य प्रणविधिः गृहीतस्प परिहरणमवश्यं वक्तव्यमेव पाचार्याधिकारमपेक्ष्य सूत्रेषु बहु यदुकं तत्कारयमपेश्य निर्दिमिति ग्राह्यम् । यच्च भावनायामुक्त परिसं चीवरधारी तेण परमंचलगो जिणोत्ति कथं ? केचिदन्ति तस्मिन्नेय दिन त बीरजितस्य विलंबनकारिणा गृहीतमिति । अन्ये मासा कंटकशाखा1 तदुकं विप्रतिपत्तिलात् । दिभिरिनि' | साधिकेन वर्षे त डलकाह्मणेन गृहीतमिति केचित्कथयन्ति । केचिद्वातेन पतितमुपेक्षितं जिनेनेच्या परे वदन्ति । 'बिलंबनकारिणा जिनस्य स्कंधे तारोपितमिति । एवं विप्रतिपतिबाहुल्यान दृश्यते तखं सवेल लिंगप्रकट नाथे । यदि चेलग्रहणं जिनस्य कथं तद्विनाश इष्टः । सदा तारचितव्यम् । किंन्त्र यदि नश्यतीति ज्ञानं निरर्थकं तस्य ग्रह णं । यदि न ज्ञातमज्ञानमस्य प्राप्नोति । अपि च प्रज्ञापना वांछित चेत् " बेलको घम्मो पुरिमरिमाणं " इति बचो मिथ्या भवेत् । तथा नवस्थाने तेनापि विरोधः । कि यदुकं "यथाहमवेली तथा होउ पच्छिमो इदि होदिति जिनानामितरे वस्त्रत्यागकालः वीरजिनस्येव किं न पामपि भवेत् । वयं तु युक्तं वहतुं । सर्वत्यागं कृत्वा स्थिते जिने केनन्त्रित्रं वस्तुं निक्षितं उपसर्ग इति । निर्दिश्यते, यदि व इदं चालताप्रसाधनपरं शीतदंशमशक स्पर्शपरीप हसनवचनं पपसूत्रेषु । न हि सचेलं शीतादयो याधन्ते । इमानि च सूत्राणि अचेतां दर्शयन्ति । " परिचत्ते वत्सु प पुणो बेलमादिए । अचेered fro जि रुचधरे सदा ॥ संलगो सुखी भवदि । असुखी चावि अचेलगो | अहं तो सचेलो दोक्खामि इि आश्वासः 8 ६१२ Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ६१३ भिक्खू ण चिंतय ॥ भवेलगस्ट ला कसे विचितेरे अधिलिन अलाइसो ॥ ण मे णि वारणं अस्थि छाइये ताण बिज्जादे । अहं तावरिंग सेवामि इति मिलू ण चितद || बलमाण लूहस्स संजरस्त तय सिणो ॥ तणेस असमास् ते होदि विधि | गेण तान कप्पेण संयुगतिर्णसित इंसार जो संपसिद्ध किमगणत्रीकपेष्टि " रतान्युत्तराध्ययने-आंबेलको य जो धम्मो जो बायें पुणरुतरो सिदो बण पणि अ मपणा ॥ एगधस्मै पवचायं दुविधा सिंगकपणा उमरसि परिणम संसय मागदा;" इति वचनाच्चरमतीर्थस्यापि अचेलता सिद्धयति । पग्गस्स व मुंडल य मीहलोमणस् य । मेहुणात्रो विरतस्स किं विभूसा करिस्सदि । इति दशवेकालिका यामुक्तं । एवमात्रेलक्यं स्थितिकल्पः । श्रमणानुदिश्य कृतं भक्तादिकं उदेसिंगमित्युच्यते। तच्च पोडशविधं आधाकर्मादिविकल्पेन तत्परिहारो द्वितीयः स्थितिकल्पः । तथा चोक्तं कश्ये सोसविधमुद्दे जेदव्यति पुरिमन्त्ररिमाणं ॥ तिध्वराणं तिथे ठिदिकयो होदि विदियो है ॥ सेज्जाघरशब्देन यो भयं वसतिं यः करोति । कृतां या वस्ततिं परेण भन्नां पतितैकदेशां वा संस्करोति । यदि धान करोति न संस्कारयति केवलं प्रयच्छत्यत्रास्येति । एतेषां पिंडो नामाहारः, उपकरणं या प्रतिलेखनाविक शय्याधरपिंडस्तस्य परिहरणं तृतीयः स्थितिकल्पः । सति शय्याधरडिग्रहणे प्रच्छन्नमयं योजयेदाहारादिकं । श्रम फललोभायो वा आहारं दातुमक्षमो दरिद्रो लुब्धो वा न चासौ वसतिं प्रयच्छेत् । सति वसती आहारादाने वा लोको मां निदति स्थिता वसतायस्य यतयो न चानेन मंदभाग्येन तेषाआहारो दत्त इति । यतेः स्नेहश्च स्यादाहारं वसतिं च प्रयच्छति तस्मिन् वहुपकारितया । तत्पिंडाग्रहणे तु नोक्तदोषसंस्पर्शः । अनाहारः, उप राजपिंडाग्रहणं चतुर्थः स्थितिकल्पः । राजशब्देन इक्ष्वाकुमभूतिकुले जाताः । राजते प्रकृर्ति रंजयति इति या राजा राजसदृशो महर्द्धिको भण्यते । तस्य पिंडः तत्स्वामिको राजपिंडः । स त्रिविधो भवति । आहारः, अनाहार, उपधिरिति । तत्राद्वारविधो भवति अशनादिभेदेन । फलकपादः धिर्नाम प्रतिलेखन वस्त्र पात्रे वा । पर्यभूतस्य राजर्षिस्य ग्रहण को दोषः प्रति चेत् अत्रोच्यतेधा दोषा आत्मसमुत्था परसमुत्था: मनुज तिर्यक्कृत विकल्पेनेति । तिर्यक्कृता द्विविधा प्रामारशुभेदात् । ते द्विमकारा अपि द्विनेदा दुष्टा भद्राश्येति । इवा, गजा, गावो, महिषा, मेण्ड्राः, इषानदव ग्राम्याः दुष्टाः । दुष्टेभ्यः संयतोपघातः । भद्राः पलायमानाः स्वयं दुःखिताः पातेन अभिघातेन वा इतिनो मारयति वा घाघनोलचनादिपराः । प्राणिन आरण्यकास्तु व्यामक्रव्यादद्वीपिनो, वानरा वा राजगृहे बंधनमुक्ता यदि क्षुद्रास्तत आत्मविपसि गाe: ४ ६१३ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ६१४ भद्राश्चेत्पलायमानाः दास्यः इत्यादिकाः तैराकुलत्वात् दुःप्रवेशनं राजगृदं प्रविशतं मत्ताः प्रमत्ताः प्रमुदितादव वासादयः उपहसंति, आक्रोशयन्ति धारयंति या अवरुद्धायाः स्त्रिया मैथुनसंक्षया वध्यमानाः पुत्रार्थिभ्यो वा बलात्स्वगृह प्रवेशयन्ति भोगार्थे । विप्रकीर्णे रत्नसुवर्णादिकं परे गृहीत्वा अत्र संपता आयता इति दोयमध्यारोपयन्ति । राजा विश्वस्तः श्रमणेषु इति भ्रमणरूपं गृहीत्वागत्य दुष्टाः खल्लीकुर्वन्ति । ततो रुष्टा अधिवेकिनः दूषयति श्रमणान्मारयति वन्ति वा पते परवा दोषाः । आत्मसमुद्भवास्तूच्यते । राजकुले महारं न शोधयति अष्टमाहतं च गृणाति । विकृतिसेवनादिंगालदोषः, मंदभाग्यो वा रन्दवान रत्नादिकं गृण्डीयाद्वामलोचना वानुरूपाः समवलोक्यानुरक्तस्तासु भवेत् । तां विभूति, अंतःपुराणि पायांगना वा विलोक्य निदाने कुर्यात् । इति दोषसंभवो यत्र तत्र राजर्पिदग्रहणप्रतिषेधो न सर्वत्र प्रकल्प्यते । ग्लानायें राजपिंडोऽपि दुर्लभं द्रव्यं । आगाढकारणे वा श्रुतस्य व्यवच्छेदो माभूदिति । चरणस्थेनापि विनय गुरूणां महत्तराणां शुश्रूषा च कर्तव्येति पंचमः कृतिकर्मसंशितः स्थितिकल्पः । शातजी निकायस्य दातव्यानि नियमेन प्रतानि इति षष्ठः स्थितिकल्पः । अचेलतायां स्थितः उद्देशिक राजपिंडपरिहरणोद्यतः गुरुभक्तिविनीतो तारोपणाही भवति । उक्तं च आचेलकेय दिशे उदेसावी य परिहदि दोसे || गुरुमतिको विणीओ होदि दाणं खयर अरिहो ॥ स्वयमासीनेषु गुरुपु, अभिमुखं स्थिताभ्यो विरतिभ्यः, भावकथाधिकावर्गाय यतं प्रयच्छेत् स्वयं स्थितः सूरिः स्ववामदेश स्थिताय विरताय प्रतानि दयात् । उकं च इति मतदानक्रमोऽयं बिरही सावगष पिविहं उषिय तं च सुपडिमुख ॥ विरदं च ठिदी षामे ठवियं गणिदो उषादेज ॥ इति ज्ञात्वा श्रद्धाय पापेभ्यो विरमणं मतं वृत्तिकरणं छादनं संवरो विरतिरित्येकार्थाः पाऊण अम्भयेज्जय पाषाणं विरमणं वनं होर || वित्रिकरणं छादणं संवरो विरवित्ति एगट्टा | अति | आयपाश्चात्यतीर्थयो रात्रिभोजनविरमणपष्ठानि पंच महाननाति । तत्र प्राणिवियोगकरणं प्राणिनः प्रम योगात्माचधस्ततो विरतिरद्दिसामतं । व्यलीकमावणेन दुःखं प्रतिपद्यते जीवाः इति मत्या दयावतो यत्सत्याभिधानं द्वितीयं वतं । ममेवमिति संकल्पोपनीतद्रव्यवियोगे दुःखिता भवति इति तयया अदत्तस्यादानाद्विरमण तृतीयं मतम् । सर्षपूर्णायां नाल्यां तप्ताय सशलाकाप्रवेशनप्रद्योनिद्वारस्थानेक जीवपीडा साधनप्रवेशेनेति यद्वाधापरिहारार्थे ती रागा भा ६१ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vi मूलाराधना आश्च ६११ भिनिधेशः, फर्मबंधस्य महतो मूलं इति हात्वा प्रज्ञावतः मैथुनाद्विरमणं चतुर्थ प्रतम् । परिग्रहः बड़जीवनिकायपीडाया मूल मृच्छानिमित्तं चेति सकल ग्रंथत्यागो भवति इति पंचमं ब्रतम् । तेषामेव पंचानां व्रतानां पालनार्थ रात्रिभोजनविरमण षष्ट मतम् । सर्वजीवविषयमहिसामतं घदसपरिग्रहत्यागौ सर्षद्रव्यविषयो द्रव्यैकदेशविषयाणि शेषषतानि। उकंच पढमम्मि सबनीषा तदिये चरिमेय सब्बदवाई ।। सेसा महग्यदा स्खलु तदेकडेसम्मि दब्याणं || - पंचमहाअतधारिण्याश्विरप्रयजिताया अपि ज्येष्ठो भवति अधुना पार्जितः पुमान् । इत्येष सप्तमः स्थितिकल्पः पुरुषज्येष्ठत्वं । पुरुषत्वं नाम उपकार, रक्षां च कर्तु समर्थः । पुरुषप्रणीतश्च धर्मः इति तस्य ज्येष्ठता। ततः सर्वभिः संयताभिः विनयः कर्तव्यो विरतस्य । येन च खिया लष्श्यः परमार्थनीयाः, पारक्षापक्षियः, न तथा पुमांस इति च पुरुष स्थ ज्येष्ठत्वं । उकं च जेणिच्छी लघुसिंगा परप्पसमा य पच्छणिजा य ।। भीर पररपखणस्नेत्ति तेण परिसी भयदि जहो ॥ अचेलतादिकल्पस्थितस्य यद्यतिचारो भवेत् प्रतिक्रमणं कर्तव्यमित्येपोऽटमः स्थितिकल्पः । नामस्थापना. क्षत्रकारमाथि कोररहने प्रतिम । नहिणी भहिदारिगा इत्याययोग्यनामधारणं कृतयतस्तत्परिहरणं मामप्रतिक्रमणं । असंयतमिथ्यारष्टिजीवप्रतिबिंबपूजाविषु प्रवृत्तस्य तत्मीतकमा स्थापनापत्तिकमणं । सनिसमा चितं मिश्रमिति भिषिकरूपं द्रव्यं तस्य परिहरण द्रव्यमतिकमणं । प्रसस्थावरबलस्य स्वाध्यायध्यानविघ्नसंपावनपरस्य या परिहरणं क्षेत्रप्रतिक्रमणं । संध्यास्वाध्यायकालादिषु गमनागमनादिपरिहारः कालप्रतिकमण । मिथ्यात्वासंयमकपाययोगेभ्यो निवृभिभावप्रतिकरणं । प्रतिक्रमणहिता धर्मः आद्याश्चात्ययोर्जिनयोः जानापगधप्रतिक्रमण मध्यवर्तिमो जिना उपदिशान्ति । पाडिकसणं दिवसिगं रादिगनिरिभक्मचरिया ॥ पक्षिय चाउम्मास्यि संबच्छर उत्तम या अमी प्रतिक्रमणभेदा माद्यततीर्थकरप्रणीते पंचमे धम, रतरत्र चतुर्थ बमें प्रतिक्रामस्य कालनियम उक्तः यदायमातिन्चार प्राप्तस्तदा प्रतिक्रमणमध्यात्मिकं दर्शनं । उक्तं च खमयो एणेसणो वियदुरायादो य सव्वसुमणो वि॥ सुमण घि यदि प सदो जागरमाणो चि अपवो वि ॥ ठाणविभो मायरियं णावरजामिति मज्झिमजिणेसु ॥ ण पाटेकमण तेण दुणातिकमदि सो पत्र Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचामा ZafalAamarate सदादिमु वि पवित्ती श्रादिय अंतरिम सोपडिकमवि ॥ मजिसमगा मगणेति य अमज्मगाणं हये उभयं । हरियं गोयर सुमिणादि मब्बमाचरटु मा ध आचरतु ॥ पुरिम चरिमेसु सन्यो सच णियमा पधिकमदि । मध्यमत्तीर्यकरशिध्या युद्धयः, पकाग्रचित्ताः, अमोघलक्ष्यास्तस्मायवाचरितं तबाहया शुस्यति । इतरेतु चलचित्तान लक्षयंति स्वापराधास्तम सब भत्तिकम उपविष्ट जेनाम्या अधघोटकरणातन्यायेन। . ऋतुषु पद्सु एकैकमेच मासमेकत्र घसतिरन्यता विहरतिरत्यय नवमः स्थितिकल्पः । एकत्र चिरकालावस्थाने नित्यमुहमदाएं चन परिहा क्षमः । क्षत्रप्रतिबद्धता, भातगुरुता, अलसता, सीकुभार्यभावना, साताभक्षाग्राहिताच दोषाः। परजा लमणकप्यों नाम दशमः । वर्षापारस्य चतपमालेषु एकमेघावस्थान भ्रमणत्यागः । स्थावरजंगमजीयाकुला हि तदा क्षितिः । तदा भ्रमणे महानर्सयमः, वृष्टया शीतयातपातन यात्नचिराधना । पतेद्वाप्यादिषु स्थाणुकटकादिभिर्या प्रसन्नजलेन कर्दमेन वा बाध्यत इति विशत्यधिक दिवसशर्त एकत्रावस्थानमित्ययमुत्सर्गः। कारणापेक्षया तुहीनाधिक धावस्थानं, संयताना आपाशुद्धदशम्यां स्थितानां उपरिशच्च कार्तिकपणिमास्यास्त्रशदिवसायस्थाने । वृष्टिबहुलता, श्रुतग्रहण, शक्त्य' भावयेयावृत्त्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्य अयस्थानमेकरति उत्कृष्टः कालः1 मार्यो, दुर्मिक्षे, प्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमिते समुपस्थिते देशांतरं याप्ति । अवस्थान सति रत्नत्रय विराधना भविष्यतीति । पौर्णमास्यामाषाव्यामसिकांतायां प्रतिपदाविषु दिनेषु याति । यायच त्यका विंशतिदिवसा एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य एष दशमः स्थितिकपः । ___ कोऽसौ दशविधः स्थितिकल्प इत्याह मूलारा--आचेलक वनादिपरिग्रहामावो नमत्वमात्र वा । तच्च संयममुद्रींद्रियजयकषायाभावध्यानस्वाध्यायनिर्विघ्नतानियतावीतरागवेपताशरीरालादरम्यवश तोत्रिशुद्धिपापल्यनिर्भयस्वमर्थनविनब्धत्यप्रक्षालनोदेष्टनादिपरिकर्मर्जनविभूषामूर्च्छत्वलाघवतीर्थकराचरितत्यानिगूडबलबीर्यतायपरिमितगुणग्रामोपलंभात स्थितिकल्पत्वेनोपदिष्टम् । तद्गुणसमर्थन टीकादृष्टया किंचिदुच्यते यथा-चेले हि स्वेदादियोनिकप्राणिनां प्रक्षालनादिना बाधा स्यात् इति तस्यागे संयमशुद्धिः । लजनीयशरीरधिकारनिरोधनाथ प्रयत्नवादा बिजयः, चोरादिवंचनाद्यभावात्कपायाभावः, सूचीसूत्रकर्पदादिमार्गणासेवनाचमावास्याभ्यायध्याननिर्विघ्नता, | अभ्यंतरग्रंथस्य पेलादिपरिमहमूलस्य त्यागः, मनोशामनोज्ञवात्यागात् वीतरागद्वेषता, वातातपादिवाधासहनाच्छरोरेऽनादरः, देशांतरगमनादौ सहायानपेक्षणात्स्यवशता, कौपीनादिपच्छादना करणारयेतोविशुद्धिप्रकटन, चौरादिताडनादिभयाभावानिर्भयत्वं, अपहार्यस्य अर्थस्याभावात्सर्वत्र विश्रब्धता, पतुर्दशविधोपकरणपरिग्राहिणां सितपटानामिव बहुप्रनिलेखनत्यप्रक्षालनाविन्यासंगभारवाहित्वानि च न संतील्यादि । रक्त च THBE Kerate Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवासः ६१७ म्लाने झालनवः कुतः तजलाधारंभतः संयमो। नष्टे न्याकुलचित्तताय गहतामयन्यतः प्रार्थनम् । कौपीनेऽपि ते परीश्च झगिदि क्रोधः समुत्पयते ॥ तन्नित्यं शुीच रागढच्छमयसां वर्ष ककुम्मंडलम् ।। अपि च-विकारे विदुषां रेपो नाषिकारानुवर्तने । तन्नमत्वे निसगोत्थे को नाम द्वेचकल्मषः॥ नैकिचन्यमहिंसा व कुत संयमिना भवेत् ।। से मंगाग्र यदीइन्ते वल्कलाजिनवाससाम ॥ २ उद्देसिगेत्यादि---उदोशक श्रमणानुद्दिश्य कृतं भक्कादिक । उद्देशिकं च शव्याधरराज पिंडौ च उद्देशिक शम्याधरराजपिंडाः । पिंडशब्दगात्रोपलक्षणावसत्युपकरणादिप्राण । तेपामुरेशिकादीनां त्रयाणां परिहारायः स्थितिकल्पाः स्युः । परिहारशब्दभात्र लुमनिर्दिष्टो द्रष्टव्यः । तत्राधाकर्मादिकल्पेन पोहशविधोइशिफभक्तादित्यागाद्वितीयः स्थितिकल्पः । ३ शय्याधरशब्देन चात्र यो गृह्यन्ते वसतेः कारक:, संस्कारकोऽत्रास्स्वेति संपादकश्च तसिंडत्यागः सति हि वरिपरग्रहणे प्रच्छन्नमय योजयेदाहारादिकं धर्मफललोभादिति लोकप्रषादर्शका, यो वाहारं दातुमक्षमो दरिद्रो वा न चासौं वसति प्रयच्छेन् । सति सतिदाने लोको मां निंदति, स्थिता वसवावस्य यतयो न चानेन मंदभाग्यन तेषामाहारो दत्त इत्येषं वसत्यलाभः । आहार वसति च प्रयच्छति तस्मिन्धहपकारितया यते; स्नेहश्च स्थान इति दोषाः स्युः । अन्य पुनः शश्यागृहापंडत्याग इति पठित्वैवं व्याचक्षते । मार्गे पूजता यत्र गृहे रात्रौ सुप्यो तत्रैवान्यदिने भोजनपरिहारो वसतिसम्बन्धिदम्यनिमित्तपिंडस्य वा त्यागः इति तृतीयः ४ अथ राजशब्देन इक्ष्वाकुप्रभृतिकुले जातो, राजते प्रकृति रंजयतीति वा राज्ञा सदशी महद्धिको भव्यते । तत्स्वामिभक्तादिवर्जनं चतुर्थः स्थितिकल्यः । तदगृहप्रवेशे हि यते: स्वच्छदचित्रकुर्कुराहपघातस्तद्रूपालोकनादरतुरगादीनां बासस्तं प्रति गर्वितवासाधुपहासोऽवरुद्वामिः त्रीभिमैथुनसंज्ञया बाध्यमानाभिः, पुत्रार्थिनीभिर्वा पलात्तस्य स्यगृहे प्रवेशनमुपभोगार्थम् । विप्रकीर्णरत्नसुवर्णादिकस्यान्यैः स्वयं चोरितस्य संयत आयात इति वत्र तच्चोरिकाभ्यारोपण | राजास्य विश्वस्तो राज्य नाशयिष्यतीति क्रुद्धरमात्यादिभिधपधादिकं च स्वान् । तथा आहाराविद्धिः क्षीरादिविकृतिसेयानयरलादेोभाच्चोरणे, वरखीदर्शनादागोट्रेको, लोकोत्तरविभूविदर्शनाप तन्नि 3 LAsareAERS 4 ६१७ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वामः ६१८ Assisailomete r दानकरणं संभवेत् । पठहोपाभावेऽन्यत्र भोजनासमोन अतब्युच्छेवपरिहारार्थ राजापंडोऽपि न प्रतिषिभ्यते । ५ किदियम्मे हतिकर्म, पंच नमस्काराः, पहायश्यकानि, निपेधिका चेति त्रयोदश क्रियाः । गुरुविनयमहत्तरशुश्रपाकरणं वा । ६ वद मूलोत्तरगुणप्रतिपालनं । अवेलतायां हि स्थित वशिफारिपिंडत्यागोचतो गुरुभकिमान विनीतश्च व्रतारोपणयोग्यः स्यात् । वर च भाचेलक्क य ठिटो उऐसादी ग्र पशिद शेख ॥ गुरुभत्तिमं विणीयो होदि पदार्ण स भरिहा दु॥ ७ जे ज्येष्ठत्वं मातापिटगृहस्थोपाध्यायार्यिकादिभ्यो महाचमनुधानेन वा अप्रत्य । ८ पडिस्कभण एयोपथिक रात्रिदियापाक्षिकचातुर्मासिकांवत्सरिकोत्तमार्थभेदात्सप्तधा कृतदोषनिराकरणं ॥ ५ मार्स प्रिंशदोराबमेकत्र प्रामादौ निवासः । एका हिचिरावस्थाने उद्रमादिकोषपरिहाराक्षमत्व, क्षेत्रप्रतिषद्धता, हातगुरुतालसता, सौकुमार्य भावनाभावो, जातभिक्षाग्राहिता च दोषाः स्युरिति दीकायां । टिप्पनकै तु योगमहणावा योगावसाने च तस्मिस्थाने मासमात्र तिष्ठति इति मासं नाम नवमः कल्पः । उक्तं.च पसिधो लहुयत्वं न जणुषयारो ण देसविणाणं ।। जाणादीण अयुद्धी दोसो अविहारपक्वगि ॥ १० पज्जो-प्रायूटकाले मासचतुष्टयमेमन्त्रावस्थानं । स्थावरजंगमजीवाकला हि सदा सितिरिति सदा भ्रमण महानसंयमः । पृष्ठया शीतवातपातेन चात्मनिराधमा । पानो वा वाप्यादिषु । स्थाणुकंटकादिभिर्वा प्रच्छन्नेलेन कदे. मेन साधनगिसि विंशत्यधिक दिवसशतं एकत्राषस्थानमित्ययं उत्सर्गः । कारणापेअया तु हीनमधिकं वावस्थानं । संयवानामापाढशुक्लदशम्याः प्रभृति स्थितानागुपरिष्टाचच कार्तिक्रपाणिमास्यानिशदिवसावस्थानं । पृष्टिबहुलताया श्रुतग्रहणं, शक्त्यभावं वैयावृत्यकरण प्रयोजनमुहिश्यावस्थानं एकठोत्युत्कटः कालः । मार्यो, दुर्भिक्ष, प्रामजनपद चलने वा गपटनाशनगिने समुपस्थिन देशांन याति । अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भर्विध्वनि इति पौर्णमास्यामापहियामनि फनायो प्रनिपदादिपु दिनेषु यावत्याग शिवना एतपक्ष्य हीनता कालस्य । पदशयः स्थिनिकम्पो व्यायाननी1यां ।। टिप्पन तु द्वाभ्यां द्वाभ्यां मासाभ्यां निधिका द्रष्टव्यति । सवणकया यशानामाचरणभदः । नया काम Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलारापना भश्विास. अचेलकत्वमुद्रिष्टशय्यशाहरखने ।। राजपैडविपार्जित्वं कृतिकर्मप्रवर्तनम् ॥ अवरोहणाईस्वं म्येष्ठत्वं च प्रतिफमः॥ मामैकत्रस्थितिः पर्यास्थितिकल्पा वशेरिताः ।। दशकल्पोंका निर्देश--वर्णन करनेवाली गाथा अर्थ-आचेलक्य-चेल ब्दका अर्थ यस ऐसा होता है. परंतु यहा चेल शब्द संपूर्ण परिग्रहोंका उपलक्षण रूप है. अर्थात आचलक्यका अर्थ संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग एसा होता है. उत्तमक्षमादि दशधमों में से त्याग नामका एक धर्म है. त्यागका अर्थ सर्वपरिग्रहास विरक्त होना एमा होता है. अचेलना, याचलक्य इन शब्दोंका भी वही अर्थ होता है. इस लिपे चम्बरहित याने सर्वपरिग्रहका न्यागी निंग त्याग नामक धर्म में प्रवृत्त होता है. परिग्रहरहित यति त्यागधर्मक समान अकिंचन धर्म में भी प्रवृत्त होता है. लोक परिग्रहके लिये ही उद्योग, खेती, नौकरी वगैरह आरंभमें प्रसि करने हैं. परंतु मुनिन सर्व परिग्रहोंका त्याग किया है इस लिये उसको आरंभका अभाव हो चुका. आरंभका अभाव होनसे असंयम भी नष्ट होता है. और सत्य धर्ममें स्थिरता आती है. परिग्रहक लियेहि मनुष्य दूसरेसे असत्य भाषण पोलता है. खेत, गह, धनादि याद्यपरिग्रह और क्रोधमानादि अभ्यंतर परिग्रह जब नर होते है नब असत्य भाषण करनेका कारण ही नष्ट होता है, जब कमी निष्परिग्रही पुनि बोलेगा तो सत्यही चोलेगा. आचलक्यस लाघवगुण प्राप्त होता है. अचार्य महायतको पूर्णावस्था प्राप्त होती है. जब परिग्रहकी मन में अभिलाषा उत्पन्न होती है तब दूसरोंका न दिया हुआ धन मनुष्य ग्रहण करता है. परिग्रहांका त्याग जिसन किया है वह ऐसे अकार्य में प्रवृत्त होता ही नहीं, रागादिकोंका त्याग होनेसे परिणामोंमें निर्मलता आती है जिससे ब्रह्मचर्यफा निदोष रक्षण होता है. प्रार्य निर्मलतम होता है. फ्रोध उत्पन्न होनेके लिये परिग्रह ही कारण है, परिग्रहोंका त्याग करनेसे क्रोध नष्ट होता है और श्वमागुण प्रगट होता है. मैं सुंदर हूं, मैं धनाढ्य हूं इत्यादि रूपका अभिमान भी परिग्रहोंका त्याग होनेपर मनमें नहीं रहता है. मार्दव गुण भी आंचलक्यसे प्राप्त होता है. निष्कपटता भी प्राप्त होती है. कारण आचेलक्यको धारण करनेवाला मुनि मनमें जो विचार उत्पन्न हुआ होगा वह मुखसे कहता है. अतः उसको आर्जव गुणको लब्धि होती है, परिग्रहही माया ॥ अमावस्तु मुनिना अत्त होता TARANASIBaba SMARATBrampai १९ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भरवास ६२० कपटीपनाका मूल है, ऐसे परिग्रहका त्याग करनेसे वैराग्यभाव पड़ जाते हैं. तप सुनिराज शन्दादि पंचेंद्रियों के विषयों में आसक्त नहीं होते हैं. परिग्रहमे रहित होनेपर मुनि शीत, उष्ण, दंशमशकादि परिश्रम सहन करते हैं. देव दानवोने उपसर्ग यदि क्रिये तो भी सहन करते हैं. ऐसा दुःख सहन करनेका सामर्थ्य परिग्रहोंका त्याग करनेसे ही आत्मामें प्रगट होता है, परिग्रहोंके त्यागसे घोर तपका पालन भी होता है. एक अचेलत्वसे दश धोका पालन होता है ऐसा सिद्ध होना है. यह सेवेपसे विवेचन किया, अचेलताकी प्रशंसा अब दुगर प्रकार आचार्य करते हैं आचलक्यसे संयमशुद्धि होती है. यह पहिला गुण है, स्वेदजल और मलसे मलिन हुए वखम स्वंदसे लिक्षा, जू वगैरह सम्मान जन्तु उत्पन्न होते हैं. तथा वस्त्र के आश्रयसे दूसरे सूक्ष्म और स्थूल बस और | स्थावर जीव उत्पन्न होते हैं. वस्त्रग्रहण करनेसे ये प्राणी पीडे जाते हैं, जीवव्याप्त बस वैसा ही रखने पर भी हिंसा होती है. उसमेंस एक एक जीच अलग करना चाहे तो वे मरते हैं. वस्त्रधारी मनुष्यको खके होना, बैठना सोना, फाडना, हैद करना, बांधना, बेष्टन करना, धोना, मर्दन करना, धूपमें सुखाना इत्यादि कार्य करते समय चस्त्रगत जीवोंको बाधा पोहोचानसे महान असंयमकी माप्ति होती है, परंतु वस्त्रत्यागी मुनिको उपर्युक्त असंयमका स्पर्श भी होता नहीं है, उनका संयम निर्मल रहता है, वस्त्रत्याग करनेसे इंद्रियविजय नामक गुण प्राप्त होता है. साँसे व्याप्त वनमें विद्यामंत्रादिरहित मनुष्यको सावधानीसे रहना पड़ता है. इसी प्रकार इंद्रियोंका नियमन करनके कार्य में वस्त्ररहित मुनिओंको बहुत सावधानी रखनी पड़ती है. चे इंद्रियनियमन करने में सदा दक्ष रहते हैं. यदि वे असावध रहेंगे तो लज्जास्पद शरीरविकारकी उत्पत्ति होगी. निर्वस्त्रतासे कार्योंका अभाव होता है. जिसके पास वस्त्र है वह मनुष्य चोरके मयसे गोमयादिकके रससे वस्त्रको लिसकर उसको छिपाता है अर्थात् कपटप्रयोग करता है, अथवा रस्ता छोडकर उन्मार्गस चोरको फसानेके लिये जाता है. चोरको आता हुआ देखकर छोटे झुडुप, लताजाल इत्यादिकों में छिप कर रहता है. मेरे पास वखादिक हैं दूसरोंके पास वे नहीं है ऐसा मनमें विचारकर अभिमानी होता है. जबरदस्तीसे चोर हरण करनेक लिये उतारू होनेपर उसके साथ कलह करता है. वस्त्रका लाभ होनसे लोभकपाय उत्पन्न होता है. वन ग्रहण करनेसे ऐसे दोप उत्पन्न होते हैं. वस्त्र के त्यागमें इन दोपोंका सर्वथा अभाव है. वखत्यागी मुनिको ध्यान और म्याध्यायमें विप्नभय रहना नही. कारण HereTATTENTagsSARTARATHIBGABSTER Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राइन ६२१ वह परिग्रहरहित आसक्ति रहित होता है. बस्त्र समीप रखनेसे वह फटने पर उसको सीनेका विचार उत्पन्न होता है. सीनेके लिये सूची समीप रखनी पंडगी. कपड़ोंके तुकडे पास रखने पडेंगे. सूई, दोरा, कपडेके टुकडे इनका अन्वेपण करनेमें चित्त व्याकुल हो जावेण स्वापकों का ही नहीं, परंतु निगमुनीको ऐसी व्यग्रता नहीं रहने से उनके ध्यानस्वाध्याय निर्विघ्न होते हैं. वत्यागसे सूत्रस्वाध्याय व अर्थस्वाध्याय में निर्विशता प्राप्त होती है. स्वाध्याय और ध्यानका हमेशा अभ्यास होता है. इसलिये ग्रंथत्याग-परिग्रहत्याग यह गुण है, जैसे तंदु लके ऊपरका छिलका निकालने से वह निर्मल होता है वैसे नाझ वस्त्रादि परिग्रहका त्याग होनेसे अभ्यंतर क्रोधादि परित्याग होकर आत्मा निर्मल होता है. इसलिये बाह्य परिग्रहत्याग अभ्यंतर परिग्रह दूर करने का मूल कारण हॅ. छिलकेसे अलग किया हुआ तंडलधान्य अवश्य निर्मल होता है. परंतु छिलके से युक्त तण्डुलकी शुद्धि भजनीय है. इसी तरह निर्वख मुनि अवश्य निर्मल होते हैं. वस्त्ररहित मनुष्य में रागद्वेपरहितता नामक गुण रहता नहीं है. सस्त्र मनुष्यका मन सुंदर वस्त्र दीखनेपर अनुरक्त होता है. व अपने असुंदरवस्त्रका द्वेष करने लगता है. वाह्य पदार्थों के आश्रयसे रागद्वेष उत्पन्न होते हैं. परंतु परिग्रह पास न रखनेसे उनकी उत्पत्ति नहीं होती है. शरीरपर अनादर करना यह गुण हैं. शरीरपर प्रेम करनेसे ही मनुष्य असंयम व परिग्रह में प्रवृत्त होता है. निर्वस्त्र मुनि वात, का ताप, शीत वगैरह से उत्पन्न हुई पीडा सहन करते हैं. इस लिये वे शरीरपर निरादर रहते हैं यह सिद्ध होता है, निष्परिग्रहता से स्ववशतागुण प्राप्त होता है. देशांतरको जाते समय इस गुण के प्रभावासे किसी के सहायता की अपेक्षा नहीं रहती है. संपूर्ण परिग्रहका त्यागी वह मुनि विक्रमात्रका स्वीकार करता हुआ पक्षीके समान विहार करता है. परंतु वस्त्रधारी मनुष्य अन्य मनुष्यकी सहायताकी अपक्षा करता हुआ संयमका कैसा पालन कर सकता है. अर्थात् उनसे संगम पालन होता नहीं. वस्त्रत्यागस मनकी विशुद्धि प्रगट होती है, कौपीन, वस्त्र इत्यादिकसे गुह्य आच्छादन करनेवालेकी भावशुद्धि नहीं जानी जासकती है. परंतु जो बखरहित है उसका निर्विकार देह देखकर उसका वैराग्य स्पष्टतया स्पष्ट जान सकते हैं. इसलिये अचलतासे मनोविशुद्धि नामका गुण प्रकट होता है ऐसा समझना योग्यही है. इस अंचलतासे निर्भयता गुण प्राप्त होता है, जो वस्त्रसहित है उसको यह मेरा वज्र चौरादिक लोक हरण करेंगे, मरेको ठोकेंगे, वांगे, ऐसी भीति उत्पन्न होती है. भययुक्त मनुष्य क्या नहीं करेगा? अचेलतासे सर्व मनुष्यों में विश्वास आश्वास ४ ६२१ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना। अाश्वासा ६२२ उत्पन्न होता है. परिग्रहरहितको किसी में भी शंका उत्पन्न होती नहीं, परंतु सचेल मनुष्य अपनमाथ आनेवाले मनुष्यको अथवा किसी दुसरे मनुष्यको देखकर उसपर विश्वास नहीं करेगा. यह कौन है ? यह क्या करेगा एसी शंका उसके मनमें अवश्य उत्पन्न होगी. अप्रतिलेखना नामक गुणभी निष्परिग्रहतासे पास होता है. चौदा प्रकारके उपाधिओंको ग्रहण करनेवाले । श्वेताम्बर मुनिओंको बहुत संशोधन करना पड़ता है परंतु नग्नता धारण करनेवाले दिगंबर मुनिओंको इसकी आवश्यकता रहती नहीं. अचेलतामें परिकर्मवर्जन नामका गुण है. उष्टन करना, अलग अलग करना, सीना, बांधना, रंगाना इत्यादिक कार्य वस्त्रसहित मनुष्यको करने पड़ते हैं. परंतु निर्वस्त्र मनि इनसे रहित होते हैं. स्वतके पास बस प्रावरणादिक हो तो उसको धोना पडेगा: फटनेपर सीना पडेगा, ऐसे कस्सित कार्य करने पड़ते हैं. बस्त्र समीय होनेसे उससे अपनेको अलंकृत करनकी इच्छा होती है और उसमें मोह उत्पन्न होता है, अचेलतामें लाघव नामक गुण है. निर्वस्त्र मुनि खड़े होना, बैठना, गमन करना इत्यादिक कामे वायुक सगान अप्रतिबद्ध रहते है, अत: उनमें लाघव गुण रहता है. सबस्त्र मनुष्यमें यह गुण रहता नहीं. तीर्थकराचरित नामका गुणभी अचेलतामें रहता है. उत्तमसंहनन-वजर्षभनाराच संहनन, और विपुलशक्तिके धारक ऐसे तीर्थकर मुक्तिका मार्ग सर्व भव्याको प्रगट करते हैं. जितने तीर्थकर हो चुके और होनवाले हैं चे सब वस्त्ररहित होकरही तप करते हैं. मेरुपर्वत वगैरह स्थानपर जो जिनप्रतिमायें हैं वे और तीर्थकरोंके अनुयायि गणधरभी निर्वस्त्रही है. उनके सर्व शिष्यमी वस्त्रराहतही होते हैं अतः अचेलत्व यह मुनिऑका प्रथम 'स्थितिकल्प सिद्ध हुआ. जिसने आपना शरीर वस्त्रसे चेष्टित किया है वह जिनश्वरके समान शरीरपरसे मोहका त्यागकर और आपने दो भुज नचि लंबायमान करके निश्चल हो जिनेश्वरका स्वरूप धारण नहीं करते हैं. नमतामें अपना बल और वीर्य प्रगट करना यह गुण है. परंतु जो सवस्त्र है वह सामर्थ्ययुक्त होकर भी अर्थात् परीषद सहन करनेका सामर्थ्य होनेपर भी उनको नहीं सह सकता है। इतने गुणोंको देखकर श्रीजिनेश्वरने आगममें अधेलताका वर्णन किया है। । MARA । Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भापासा ६२३ जिसने वस्त्रधारण किया है वह 'मुनि यदि अपनको निग्रंथ समझेगा तो पाखंही साधुओंको भी हम क्यों नदारापना ननिय समझे? हम ही निग्रंथ है ऐसा उनका कहना केवल कहना ही है अर्थात् युक्तिशून्य है. मध्यस्थ EFIT लोक अर्थात् परीक्षक लोक उनका कहना मान्य नहीं करते हैं. इस प्रकार वस्त्रम अनेक दोष हैं. नम्रतामें दोष तो है ही नहीं परंतु गणमात्र अपरिमित है. इसीलिये आचार्य महाराजने अचेलता स्थितिकल्प का प्रथम निरूपण किया है. पूर्वागामें बस्त्रपात्रादिकोका ग्रहण करनका विधान मिलता है ऐसी जिनकी कल्पना है वे अपना पक्ष इस प्रकार स्थापन करना चाहते हैं. यदि वस्त्र पात्रादिकोंका विधान नहीं है तो उसकी प्रतिलेखना निश्चय से करनेका विधान क्यों लिखा है ? आचारप्रणिधि नामक ग्रंथम "प्रतिलिनेन्पात्रकंबलं ध्रुवं" इति । पात्र और कंबलको शोधना चाहिये अथात् वे निर्जन्तुक है या जन्तुसहित है यह देखना चाहिये. यदि जन्तुसहित हो तो वे जन्तु. पिच्छिकामे दूर करने चाहिये. . आचारांगके लोकविषय नामक दुसरे अध्यायके पांचचे उद्देशमें ऐसा वचन है- “पडिलेहणं, पादपुछण, उग्गह, कडासणं, अण्णादरं उवधि पावज्ज अर्थात पिछी, रजोहरण, कटासन चटाइ, फलक, पादपीठ वगैरह तथा और भी दुसरा परिग्रह ग्रहण कर सकते है ऐसा उल्लेख किया है. बद्धेसमा नामक प्रकरण में इस मुजब विधान है. तत्थ एसे हिरिमणे संग वस्थं वा घारेज्ज पडिलेणगं विदियं । तत्थ एसे जुम्गिदे देस दुवे वत्थाणि घारिज पडिलेणगं वदियं ।। तत्थ एसे परीसह अणधिहासस्स तगो वत्थाणि धारेज पडिलेहणं चउत्थं । इसका सारांश यह है-यह लज्जायुक्त मुनि एक वस्त्र धारण करें और प्रतिलेखनके लिए इसरा वस्त्र अपनेपास रक्खें. यह मुनि योग्य प्रदेश में दोन वस्त्र धारण करे और प्रतिलेखनकेलिए तिसरा वस्त्र धारण करे, यदि शीतादि परीपह सहन न हो तो तनि वस्त्र धारण करें, और प्रतिलेखनकेलिए चोथा वस्त्र धारण करें ___ तथा पादेसणा प्रकरणमें ऐसा कहा है 'हिरिमणे वा जुग्गिदे चापि अण्ण वा तस्स ग कप्पदि वस्थादगं पादचारिसए' अर्थात् लज्जायुक्त साधुको वस्त्रादिक रखने चाहिये, जिसके लिंगमें दोष हो तो वस्त्र धारण करना योग्य है. Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा मूलाराधना ६२४ पुनरपि उसी प्रकरणमें ऐसा उल्लेख है-अलायुपतं वा दारुगपचं वा, महिगपत्तं वा अप्पपाण, अप्प बीजं, अप्पसरिदं तथा अप्पकारं पत्तलामे सति पढिग्गहिस्सामि" अर्थात पात्र लाम होता हो तो मै तुंरीका पात्र अथवा लकडीका पात्र किंवा मट्टीका पात्र ग्रहण करूंगा. जिसमें जीव नहीं है, वीज नहीं है और जो बडा नहीं है ऐसा पात्र यदि मिलेगा तो मैं ग्रहण करूंगा. वस्त्रपात्र यदि ग्राह्य नहीं है एसा आगमनालखा होता तोहमत्रांका आगमोम उलख ही नहीं आता. भावनामें भी गमा कहा है-'घरमं चीवरधारि तेन पामचेलगे तु जिणे" अन्तिम तीर्थकरके शरीरपर वस्त्र था तो भी वे अचेलक जिन थे. सूत्र कृतांगके पुंडरीक नामक अध्याय में भी ऐसा कहा है 'ण कहेज्जो धम्मक वत्थपत्तादिहेदमिति । वस्त्र और पात्र प्राप्त करने के उद्देशसे धर्मोपदेश नहीं करना चाहिए. वस्त्रपायके विषयमें निषीध ग्रंथमें ऐसा प्रमाण है. 'कसिगाई वस्थकरलाई जो मिक्स् पडिग्गहिदि अप्पज्जदि मासिगं लहुगं' इति । सर्व प्रकारके वस्त्रकंबलोंको ग्रहण करनेसे मुनिको लधुमासिक नामक प्रायश्चित्त विधि करना पड़ता है. इस प्रकार सूत्रोंमें वस्त्र ग्रहणका विधान है, इसलिये अचेलताका-लग्नताका आपका विवेचन कैसा योग्य माना जायगा. इसपर आचार्य कहते हैं- आगममें आर्यिकाओंको वस्त्र धारण करने की आज्ञा है, और कारणकी अपेक्षासे भिक्षुओंको अर्थात् मुनिओं को वस्त्र धारण करनेकी आज्ञा है, जो साधु लज्जालु है, जिसके शरीरावयव अयोग्य है अर्थात् जिसके पुरुषलिंगपर चर्म नहीं है, जिसके अंड दी है, अथवा जो परीपइसहन करनेमें असमर्थ है वह वस्त्र ग्रहण करता है, आचरागमें इस विषयमें एसा कहा है-"सुदं मे आउस्ततो भगवदा एवमक्खादं । इह खलु संयमामि महा दुविहा इत्थी पुरिसा जादा हति । तं जहा-सन्यसमपागदे जो सबसमामागदे चेव । तरथ जे सबसमगागदे थिसंगस्थिपाणिपादे सबिदियसमण्णागदे तस्स ण णो कप्पदि एगमाप बत्थं धारिऊ, एवं परिहिउँ एवं अणस्थ एगेण पडिलेहगेण इति" आयुष्मान् भगवान बीरस्वामीने ऐसा कहा है-इस जगतमें संयमको धारण करनेवाले ६२४ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास स्त्री पुरुष दो प्रकारके हैं. संपूर्ण अवयवोंकी अवस्थाको प्राप्त हुए एम और असंपूर्ण ऐसे दो प्रकार है. जिनके गरी, हाथ और पाय मजबूत है, जिनके शरीरको अस्थिरचना मजबूत है. सर्व इंद्रियों में परिपूर्णता अर्थात निदों. पता है उनको एक भी वस्त्र धारण करना और पहरना अयोग्य है. मात्र उनको एक प्रतिलेखन अर्थन पिटिका धारण करना योग्य हैं. कल्प नामक ग्रंथमें एसा कहा है- हरिहतुकं व होइ देहदगुंछंति देहे जुम्गिदगे धारेज्ज मियं वत्थं परीसहाणं च ण विहासीति ।। जिसका देह जुगुप्सायुक्त है अर्थात् जिसका पुरुद्रिय चर्मरहित है, अंडकोप दीर्घ है, जो परीपह सहने में असमर्थ है वह मुनि जनसमुदायमें एक इवेत वस्त्र धारण करें. कारणकी अपेक्षासे वस्त्र ग्रहण करना चाहिए इस विषय की पुष्टि करनेवाला और भी सून आचारांगमें है, 'अह पुण एवं जाणेज्ज उपातिकते हेमंतहि सुयडिवणे से अथ पडिजुयामुषधि पदिहावज्ज इति ' इसका अभिप्राय यह है-थंडीके दिनों में जिसको जाहा सहन होता नहीं है ऐसे मुनिको वस्त्र प्रहमा करके आये दिक सनात निपर और ग्रीष्मसमय आनेपर जीर्ण वस्त्र छोड देना चाहिये, कारण की अपेक्षा से वस्त्र धारण करनेका विधान है. जीर्ण बस्त्र का त्याग करनेका विधान आगममें हैं इसलिये रवस्त्रका त्याग नहीं करना चाहिये ऐसा आगमसे सिद्ध होता है ऐसा यदि कहोगे | तो वह अयोग्य है. अचेलता यह मूल गुण है ऐसा आचार्यका वचन है अतः वस्त्रका त्याग करना ही चाहिये. प्रक्षालन वगैरह संस्कार न होनेम वस्त्रमें जीर्णता आती है. परंतु दृववस्त्रका त्याग करना चाहिये एसा कथन करने के लिय जणि शब्द का प्रया। किंगा है. पात्रका मी संयमार्थ ग्रहण करना चाहिय क्योंकि मुत्रा में उसका भी विधान है एसा कहना अनुचित है. अंचलता शब्दका अथ नवं परिग्रहोंका त्याम एसा होता है. पात्र भी परिग्रह है इसलिय उसका भी त्याग करना अवश्य सिद्ध होता है. अतः कारणकी अपेक्षासे वस्त्रपात्रका ग्रहण करना सिद्ध होना है. जो उपकरण कारणकी अपेक्षासे ग्रहण किया जाता है उसका त्याग भी अवश्य कहना चाहिये. इसलिये वस्त्र और पात्रका अर्थाधिकारकी अपेक्षासे सूत्रों में बहुत स्थानोंमें विधान आया है वह सब कारण की अपेक्षा से ही है ऐसा समझना चाहिय. भावनामें इस विषयमें ऐसा उल्लेख है . परिसं चीवरधारी तेण परमचेलगो जिणोत्ति ' अर्थात् महावीर PRESISTER Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृलाराधना आश्वास STARTS स्वामीने एक वर्ष तक वस्त्र धारण किया था. तदनंतर उन्होंने उसका त्याग किया था. गला भावना में उल्लख है. परंतु इसमें अनेक विवाद है. अर्थात् यह कहना निश्चययुक्त नहीं है. कोई इस विषय में ऐसा कहते हैं "जिस दिन महावीर स्वामीने दीक्षा धारण की उपी दिनमें महावीरस्वामी के शरीरपर जिसने सुगंध पदार्थीकी चची की थी उसने वह वस्त्र ग्रहण किया. छह महिने के बाद वह वस्त्र वृक्षके कांटोंसे और शाखाओंसे फट गया ऐसा कोई कहते हैं. एक वर्ष और कुछ दिन व्यतीत होने पर खडलक नामक ब्राह्मण ने यह ग्रहण किया था गेगा कोइ कहते हैं. इवासे जब वह वन जमीनपर गिर गया तब म्यामीने उसकी उपेक्षा की ऐसा कोई विद्वान कहते हैं. सुगंधी चर्चा करने वाले मनुष्यने भगवानके कंध पर वह वस्त्र रक्खा ऐसा कोई कहते हैं" इस तरह महावीर स्वामीका वस्त्र धारण अनिर्णीत है. सच्चेललिंगमें ऐसे अनेक संशय होनेसे उसमें कुछ तय नहीं दीखता है. यदि भगबानने वस्त्रग्रहण किया था तो उन्होंने उसका क्यों नाश होने दिया. उनको वह सदा धारण करना योग्य था. यदि यह वस्त्र मेरा नष्ट होगा ऐसा प्रभूको ज्ञान था तो उसका क्यों उन्होंने ग्रहण किया ? यदि उनको यह मालूम न था तो उनका अज्ञान प्रगट होता है. यदि भगवानने वस्त्र धारण कर वह भी मुनिका लिंग है ऐमा उचित किया है ऐसा कहोगे तो आचेलाको धम्मो पुरिमचरिमाणं' यह बचन मिथ्या होगा. अर्थात प्रथम तीर्थकर महावीर इन्होंने आचलक्य धर्मका उपदेश किया है, अर्थात् मुनिओंने संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग करना चाहिए यह मुनिधर्म है. एसा उन्होंने उपदेश किया है. यह उपदेश असत्य समझना होगा. उसी तरह नवस्थान ग्रन्थम' यथाइमचली तथा होउ पच्छिमो इदि होक्खदिति । श्री आदि भगवानका "मैं जैसा निर्वस्त्र हूं वैसा पश्चिम तीर्थकर भी निवस्त्र ही होग" यह वचन भी मिश्मा मानना पडेगा. जैसा महावीर स्वामीका वस्त्र त्यागकाल कहा है वैसा अन्य क्षेत्रीस तीर्थकरांका वस्त्रत्याग काल कपों न ही आपने दिखाया. यदि वस्त्र उनको भी होता तो ऐसा कहना युक्त होता है. सर्व परिग्रहाका त्याग कर जिनश्वर जब ध्यान करते हैं उस समय यदि किसीने वस्त्र उनको पहनाया तो वह उपसर्ग कहलावेगा, शीत उष्ण, दंशमशक, तृणस्पर्श वगैरह परीपह सहन करना चाहिए ऐसा वर्णन परि Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाराधन! ६२७ वह सूत्रों में किया है. यह वर्णन अचेलताकी ही सिद्धि करेगा. जो वस्त्र धारण करेगा उसको जाडेसे, दंशमशकादिसे दुःख होता नहीं. इनसे अलवा काही निर्णय होता है. परिचत्तंसु बत्थेषु इत्यादि गाथाओंका अभिप्राय-- सुनि मनमें विचार करते हैं जब मैंने वस्त्रका त्याग किया है तो मैं फिर उसकी नहीं ग्रहण करूंगा जिसने वस्त्रका त्याग किया है वह सदा जिनरूपका धारक माना जाता है, जिसने वस्त्र धारण किया है वह सुखी होता है और वस्त्ररहित दुःखी होता है. इसलिये मैं वस्त्र धारण करूंगा ऐसा विचार भिक्षु मनमें न लावे. निर्वस्त्र होनेसे मेरेको शीतसे दुःख होता है. इसलिये मैं धूपका सेवन करूंगा ऐसी भावना भिक्षुकको मनमें नहीं करनी चाहिये. और शीतादि परीषहोको वह सहन करे. मेरे पास शीतनिवारण करनेवाला चख नहीं है. इसलिये में अग्रिका सेवन करूंगा ऐसा विचार भिक्षुकको नहीं करना चाहिये. उत्तराध्ययनम ऐसा अभिप्राय लिखा है जो आय धर्म में बड़ी पार्श्वनाथस्वामीने कहा है, परंतु एक प्रवृत्त हुए सुनिओंमें दो तरह की -- सचेल धर्म और अनेल धर्म ऐसी दो मनमें संशय उत्पन्न हुआ है. इस वचनसे भी चरमतीर्थकर महावीर स्वामी दशबैकालिक ग्रंथ में ऐसा वचन है- GAJ धर्म में ही अर्थात् मुनिधर्म में ही कल्पनायें उत्पन्न हुई है. अतः मेरे धर्म में अचेलता सिद्ध होती है. के अभिप्राय - जो नग्न है, मुंड हॅ अर्थात् जो केशलोच करता है, जिसके नख केश दीर्घ है, जिसने मैथु नका त्याग किया है ऐसे साधुको अलंकार की क्या जरूरत है. इस प्रकार अवलक्य कल्पका वर्णन हुआ. उदेशिक स्थितिकल्पका वर्णन मुनके उद्देश से किया हुआ आहार, वसतिका बगैरहको उदेशिक कहते हैं. उसके आधाकमोदि विकल्प से सोला प्रकार हैं उसका त्याग करना यह द्वितीय स्थितिकल्प है. कल्पनामक ग्रंथ में इसका ऐसा वर्णन है- बापास ४ ६२ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ६२८ अर्थात ---श्री आदिनाथ तीर्थकर और श्री महावीरस्वामी इनके तीर्थमें सोलह प्रकारके उद्देश दोषोंका परिहार करके आहारादिक ग्रहण करना चाहिए ऐसा कहा है यह दूसरा स्थितिकल्प है. सजाधर कल्पका वर्णन-~ मेज्जाधर शब्दके तीन अर्थ है--जो वसतीकाको बनाता है वह बनाई हुई बसतिकाका संस्कार करनेबाला, अथवा गिरी हुई सखिकाको सुधारनेवाला. किंवा उसका एक भाग गिरगया हो तो उसको सुधारनेवाला वह एक, जो बनवाता नहीं है और संस्कार भी नहीं करता है परन्तु यहां आप निवास करो ऐसा कहता है वह, ऐसे तीनोंको शय्याधर कहते हैं. इनके आहारका, और इनके पिच्छिका, बगैरह उपकरणका त्याग करना यह तीसरा कल्प है. यदि इन शम्याधगंक यरमें मुनि आहार लेंगे तो धर्मफलके लोभमे ये शन्याधर मुनिओंको आहार दवे हैं ऐसी निंदा होगी. जो आहार देने में असमर्थ है, जो दरिद्री है, लोभी कृपण है वह मुनिओंको बसतिदान न देवे. उगले बारिका दान किमान गारा गुनिलो आश्रय दिया परंतु आहार नहीं दिया ऐसी लोग निंदा करते जो बसतिका और आहार भी देता है उसके ऊपर मुनिका स्नेह भी होना संभवनीय है. क्योंकि उसने मुनिपर बहुत उपकार किया है. अब उनके यहां मुनि आहार ग्रहण नहीं करते हैं. राजाके यहां आहार नहीं लेना यह चौथा स्थितिकस्य है. इक्ष्वाकुवंश, हरिवंश इत्यादि कुल में जो उत्पन्न हुआ है, जो प्रजाका पालन करना. उनको दुष्टोंसे रक्षण करना इत्यादि उपयोंसे अनुरंजन करता है उसको राजा कहते हैं. राजाके समान जो महानदीका धारक है उसको भी राजा कहते हैं, ऐसाँके यहां पिड ग्रहण करना वह राजपिट है. इसके तीन भेद है--आहार, अनाहार और उपधि, अन्न, पान, खाद्य और स्वायके पदार्थाको आहार कहते हैं. तृण, फलक, आसन वगैरह पदाथोंको अनाहार कहते हैं. पिंछी, वस्त्र, पात्र उनको उपधि कहते हैं. राजपिडका ग्रहण करने में क्या दोष है ? इस प्रश्नका उचर ऐसा है-आत्मसमुत्थ और परसमुत्थ एसे दोगांके दो भेद है. ये दोष मनुष्य और नियचोंके द्वारा होते हैं. तिथंचों के ग्राम्य और अरण्यवासी ऐसे दो भेद है. थे दोनो प्रकारकं तिर्यच दुष्ट और भद्र ऐसे दो प्रकार के हैं. घोडा, हाथी, भैंसा, मेंहा, कुना इनको ग्राम्य पशु कहते हैं. ये पशु राजाके घरमें प्रायः होते हैं. यदि ये दुष्ट स्वभावके होंगे तो उनसे मुनिओंको बाधा पोहोचती है. ६२८ Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ६२९ यदि वे भद्र हो अर्थात दुध खभावक न हो तो वे स्वयं मुनिओंको देखकर भय से भागकर दावित होते हैं । स्वयं गिर पड़ते हैं अथवा धक्का देकर मुनिऑको मारते हैं. इधर उधर कूदते हैं.. वाघ, सिंह बगैरह मांसभक्षी प्राणी, वानर वगैरह प्रागी राजा के घरमें बंधनसे यदि मुक्त होगये होंगे तो उनसे मुनिका बात होगा और वे यदि मद्र होंगे तो वे इधर उधर भागने पर भी मुनिको बाधा होन की संभावना है. मनुष्योंसे भी राजाके घरमें मुनिओंको दुःख भोगने पड़ते हैं, उनका वर्णन-. राजाके घर में तलवर. म्लत, दाम, दासी बगैरह लोक रहते हैं. इन लोगोंमे राजगृह व्याप्त होनेस वहां प्रवेश होने में कठिनता पड़ती है. यदि मुनिने राजाके घरमें प्रवेश किया तो वहां उनान दाग वगरह लोक उनका उपहास करते हैं. उनको निंद्य शब्द बोलते हैं. कोई उनको अंदर प्रवेश करने में मनाई करते हैं. कोई उनको उल्लंघते हैं, वहां अंतःपुरकी स्त्रियां यदि कामविकार से पीडित होगी अथवा पुत्रकी इच्छा उनको हो तो मुनिका जबरदस्तीसे उपभोगके लिय प्रवेश करवाती है. कोई व्यक्ति राजाके घरके सुवर्ण रत्नादिक चोर कर यहां मुनि आया था उसने चोरी की है ऐसा दोपारोपण करते हैं, यह राजा मुनिओंका भक्त है ऐसा समझकर दुष्ट लोक मुनि वेष धारण कर राजाके यहां प्रवेश करते हैं और वहां अनर्थ करते हैं, जिससे मुनिओको बाधा पोहोंचनेकी हुन संभावना रहती है. अर्थात् राजा रुष्ट होकर अविवेकी बनकर मुनिओंको दुःख देता है. अथवा अविवेकी दृष्ट लोक मुनिओंको दोष देते हैं उनको मारते हैं. ऐसे इतर व्यक्तिओंसे उत्पन्न हुए दोपोंका वर्णन किया है. अब राजाके घरमें प्रवेश करनेसे मुनि स्वयं कोनसे दोप करते हैं इसका वर्णन करते हैं राजगृहमें जाकर मुनि आहार शुद्ध है या नहीं इसका शोध नहीं करेगा देखभाल न कर लाया हुआ आहार ग्रहण करता है. विकार उत्पन्न करनेवाले पदार्थ सेवन करने से इंगाल नामक दोप उत्पन्न होता है, अथान मे पदार्थ भक्षण करने में लंपट होजाना है. दुर्दैनसे वहाँकी रत्नादिक अमूल्य बस्तु चुरानेके भाव उत्पन्न होबार उसको उठा लेगा. अपने योग्य स्त्रीको देखकर उसमें अनुरक्त होगा. राजाका वैभव, उसका अंतःपुर, वेश्या वमरहको देखकर निदान करेगा. ऐसे दोपोंका संभव जहां होगा ऐसे राजाके घरमें आहारका त्याग करना चाहिये. Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भरश्वान परंतु जहाँ ऐसे दोष होनेकी संभावना नहीं है वहां मुनिको आहार लेने के लिये मनाई नहीं है, गत्यंतर न हो अथवा श्रुतज्ञानका नाश होनेरा प्रसंग हो तो उसका रक्षण करने के लिये राजगृहमें आहार लेनेका निषेध नहीं है. ग्लान मुनि अर्थात् बीमार मुनिके लिये राजपिंह यह दुर्लभ द्रव्य है. बीमारी, ध्रुतज्ञानका रक्षण ऐसे प्रसंगमें राजाक यहां आहार लेना निषिद्ध नहीं है. ५चारिय संपत्र मनिका अपने गुरूका और अपनेसे बहे पनिओंका विनय करना शुश्रुषा करना यह कर्तव्य है, इसको कृतिकर्म नामक स्थितिकल्प कहते हैं. ६ अतारोपण योग्यता नामक छटा स्थितिकल्प हैजिसको जीवोंका स्वरूप मालुम हुआ है ऐसे मुनीको नियम से प्रत देना यह छहा स्थितिकल्प है. जिसने पूर्ण निग्रंथावस्था धारण की है उद्देशिकाहार और राजपिंडका त्याग किया है. जो गुरुभक्त और विनयी है वह बतारोपणके लिये योग्य है, व्रत देने का क्रम इस प्रकार है-जब गुरू बैठते हैं और आर्यिकायें सम्मुख होकर घटती है, ऐसे समयमें आवक और श्राविकाओंको त दिये जाने हैं. प्रत ग्रहण करनेवाला मुनि भी गुरुके बायें तरफ बैटना है. तब गुरु उसको वत्त देते हैं, ब्रोंका स्वरूप जानकर पापोंसे विरक्त होना वह वन है, वृतिकरण, छादन, संवर, विरति ये सब शब्द प्रतके वाचक है. यही अभिप्राय 'णाऊण' इस माथामें कहा है. पहिले तीर्थकर और अन्तिम तीर्थकर इन्होंने रात्रिभाजन त्याग और पंच महाबोंका उपदेश किया है. प्रमत्त योगसे पापी के प्राणोंका घात करना इसको हिंसा कहते हैं. इस हिंसासे विरक्त होना यह प्रथम अहिंसा महावत है, असत्य भाषणसे प्राणिऑको दुःख होता है ऐसा समझकर दयावान मुनि सत्य बोलते हैं. यह उनका सत्य महावत है. यह मेरा है ऐसा संकल्प जिसके ऊपर है ऐसी वस्तु लेने पर लोक उस वस्तुके विरहसे दुःखित होते है यह देखकर दयासे उनकी वस्तु लेनका त्याग करना यह तीसरा अचौर्य महावत है, सरसोंसे भरी हुई नलिका तपी दुई लोहशलाका घुसनेसे सब सरसों जलकर भस्म हो जाती है उसी तरह योनी में पुरुषंद्रियका प्रवेश होने से वहांके सर्व सूक्ष्म जीव नष्ट होते हैं. यह मैथुन रागभाव को उत्पन्न करता है, यह कमबंधका । ६३८ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आय मूलाराधना महान् कारण है. ऐसा समझकर दयावान् मनि उससे पूर्ण विरक्त होते हैं यह उनका चौथा ब्रह्मचर्य महावन है. .. परिग्रहम छहाँ प्रकारके जीवोंको चाधा पोहोंचती है. यह ममन्त्रपरिणामके लिय कारण है. इसलिय सर्व परिग्रहोंका त्याग करना यह परिग्रहत्याग नामक पांचवा महावत है. इन व्रतका पालन करनेकेलिए रात्रिभोजनका त्याग करना यह छठा प्रत हैं अहिंसामहाबत सर्व जीवोंको विषय करता है, अश्वीन सर्व जीवोंपर दया करना यह अहिंसा महाव्रतका विषय है, अचार्यमहाव्रत और परिग्रह त्याग महावत ये सर्व पदाथविषयक है, अर्थात् बाह्य धन धान्यादिक पदार्थोंका त्याग करनपर इन ब्रतोंकी प्राप्ति होती है, और बचे हुए व्रत अर्थात् सत्यमहाव्रत और ब्रह्मचर्यवत ये दो व्रत द्रव्योंका एकदेश विषय करत है. यही अभिप्राय परमम्मि सव्वजीवा इस गाथामें आचार्योने दिखाया है. ज्येष्ठ नामक सप्तम स्थितिकल्पका वर्णन-- जिसने पंच महामत धारण किये हैं. और जो मरत नर्ष की दीक्षित है ऐसी आपिकासे भी आज जिसने दीक्षा ली है ऐसा मुनि ज्येष्ठ माना जाता है. पुरुष संग्रह, उपकार और रक्षण करता है. जगतमें पुरुषने ही धर्मकी स्थापना की है. इसलिए उसको ज्येष्ठता मानी है. इसवास्ते सर्व आर्यिकाका मुनिका विनय करना यह कर्तव्य है, स्त्रिया पुरुषसे कनिष्ठ मानी गई हैं, वे अपना रक्षण स्वयं नहीं कर सकती. दूसरोंसे वे इच्छी जाती है. अर्थात पुरुष जब उसकी इच्छा करना है तब वे उसका प्रतीकार करनमें असमर्थ होती हैं. उनमें म्वभावतः भय रहता है, कमजोरी रहती है, पुरुष ऐसा नहीं है अतः वह ज्येष्ठ है. यही अभिप्राय 'जेणिच्छी हु लघुसिगा इस सूत्र में कहा है.. ८ अचलतादि कसपमें रहने हुए मनीको जो अतिचार लगते है उनके निवारणार्थ प्रतिक्रमण करना यह अष्टम स्थिति कल्प है. नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव ऐसे प्रतिक्रमणके छे भेद हैं. अर्थात् नाम प्रतिक्रमण, स्थापनाप्रतिक्रमण, द्रव्य प्रतिक्रमण इत्यादि छह भेद हैं. Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाराधना आश्वा जा भट्टिणी, भट्ठिदारिगा इत्यादि अयोग्य नामोच्चारण करनेपर उसका परिहार करना यह नाम प्रतिक्रमण है. असंयत, मिथ्यादृष्टि जीवोंके प्रतिबिंब अर्थात् प्रतिमाकी पूजा वगैरह करनेपर उससे परावृत होना यह स्थापना प्रतिक्रमण है. द्रव्य के सचित्त. अचिन और मिश्र ऐसे तीन भेद हैं इनका त्याग करना यह द्रव्यप्रतिक्रमण है. जहां बम स्थावर जीय बहुत है ऐसे क्षेत्रका त्याग करना अथवा जहां स्वाध्याय करनेमें, ध्यान करनेमें पाधायें उत्पन्न होती हैं ऐसे प्रदेशोंका त्याग करना बह क्षत्र प्रतिक्रमण है. मंध्याकालमें. स्वाध्यायकाल वगैरह कालोंमें आना जाना वगैरह क्रियाओंका त्याग करना यह काल प्रतिक्रमण है. मिथ्यात्य, असंयम, कषाय और योग इनसे निभूत होना यह भाव प्रतिक्रमण है. श्री आदि तीर्थकर और महावीर स्वामीन प्रतिक्रमण के साथ मुनिधर्मका उपदेश किया है. अर्थात प्रतिऋपण दररोज करना ही चाहिये ऐसा उन्होंने उपदेश दिया है, परंतु बीचके बावीस तीर्थकरोंने अपराध होनेपर अतिक्रमण करना चानिय का उपदेश दिया है. इस प्रतिक्रमण के देवसिक, सत्रिक, ईयोपथिक भिक्षाचर्या. पाक्षिक, चातुभार्मिक, सांरत्सरिक और उत्तरार्थ एन सात भेद हैं. श्रीआदितीर्थकर और महावीर तीर्थकरप्रणीग पानवे धर्ममें और अन्य तर्थिकर ग्रणीत चौथे धम प्रतिक्रमण के कालभेद बताये हैं. जब अतिचार लगते हैं तब प्रतिकमण करना चाहिये अर्थात् अपने आत्माका अवलोकन करना चाहिये. युनिको आहारमें, ईपिथम, सर्व प्रकारके स्वम, जागृतावस्था इत्यादि समयमें जो दोष उत्पन्न होते हैं उनका प्रतिक्रमण करना चाहिये. आदि भगवान् और महावीरके समयमें हुए मुनिओंको छोडकर बीचके बाबीस नीर्थकरके समयके मुनि जब अतिचार लगते थे तयही प्रतिक्रमण करते थे. अर्थान् आहार, पु स्वमा ईयापध इत्यादिक विपयमें जब दोष लगता था तब ही वे प्रतिक्रमण करते थे. अन्यसमय में नहीं. आहार, इर्यापथ अर्थात् वंदनादिकके लिये एक स्थानसे दूसरे स्थानको जाना दुःस्वप्न इत्यादिकके समयमें अपनी प्रवृत्ति सातिचार हो या निरतिचार हो दोनों समयमें भी आद्यन्त तीर्थकरकालीन मुनि प्रतिक्रमण करते हैं. अथात् दोष मा Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलारापना आश्वाम। लगनेपर वा न लगनपर प्रतिक्रमण करना ही चाहिये ऐसी आद्यत तीर्थंकरोंकी आज्ञा है. मध्यम तीर्थकरके शिष्योंकी धुद्धिपी उनका चार एकात्र रहता था. उनका अपने कार्य पर लक्ष्य दृद्ध बना रहता था, इसलिए जो कार्य वे करते थे उसकी गर्दा करते थे. परन्तु आयत तीर्थकरके शिष्य मोहयुक्त, चंचलचित्त होते थे अतः उनको अपराधोंका स्मरण नहीं रहता था इसवास्ते वे सबका प्रतिक्रमण करते हैं. इस विषयमें अंध घोडेका उदाहरण उपयुक्त है किमी गजाका घोडा अंधा होगया तत्र उसने वैधक पुत्रको औषध देने के लिए कहा.. वैद्यपुत्रको औषधि पालम नहीं थी. वैद्य नो अन्य गांवका चला गया था अतः उसके पुत्रने बाद के नेत्रपर सर्व औषधियोंका प्रयोग किया, उसमे घोडे के नेत्र अन्छे होगये. इसी तरह साधु भी एक प्रतिक्रमण दंडक यदि स्थिर चित्त न होगा. दसरमें यदि न हो तो तीसरे में स्थिर होगा इसलिये सर्व दंडकोंका उच्चारण करना उसके लिये योग्य है. इसमें कोई विरोध नहीं है. सब भी दंडक कर्मक्षय करने में समर्थ होते हैं. मासैकवासितानामक नौवे स्थितिकल्पका वर्णन संतादि छहो ऋतुओंममे एकेक ऋतु में एक मासपर्यंत एकत्र मुनि निवास करते हैं, और एक मास विहार करते हैं. यह नौवा स्थितिकल्प है. एकही स्थानमें बहु-चिरकाल रहनेसे उद्गमादि दोषोंका परिहार होता नहीं. वसतिकावर प्रेम उत्पन्न होता है. सुख में लंपटपना उत्पन्न होता है. आलस्य आता है, सुकुमारता की भावना उत्पष होती है, जिन श्रावकोंके यहां आहार पूर्व में हुआ था वहाही पुनरपि आहार लेना पड़ता है. ऐसे दोष उत्पन्न होते है. इसलिये मुनि एकही स्थानमें चिरकाल नक रहते नहीं है. ___पाद्य नामक स्थितिकल्पका वर्णन-- वर्षाकालके चार मासमें एकही स्थानमें रहना अश्रोत भ्रमणका त्याग करना यह पाध नामक दसवां स्थितिकल्प है. वर्षाकालमें जमीन स्थावर और वस जीवोंसे व्याप्त होती है, ऐसे समयमें मुनि यदि विहार करेंगे तो महा असंयम होगा. जलवृष्टिसे और थंड हवा बहनेसे आत्माविराधना होगी अर्यात् ऐसे समयमें विहार करनेसे मुनि अपने आचारस च्युत हो जायेंगे. वर्षाकालमें भूमि जलमय होनेसे कुवा, खड्डा इत्यादिकोंमे गिर जानेकी संभाबना होती है. खूट, कंटकादिक पानीसे ढक जानेसे विहार करते समय उनसे बाधा होनेकी संभावना होती है. ARTHA Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नूलाराधना कीचडमें फस जावेंगे इत्यादि दोषोंसे बचने के लिये मुनि एकसो वीस दिवस एक स्थानमें रहते हैं. यह उत्सर्ग भावासः नियम है. कारणवश इससे अधिक या कम दिवस भी एक स्थानमें ठहर सकते हैं. आषाढ शुक्ल दशर्मासे प्रारंभ 181 कर कार्तिक पौर्णिमासीके आगे भी और तास दिनतक एक स्थान में रह सकते हैं, अध्ययन, वृष्टीकी अधिकता, शक्तीका अभाव, यावत्य करना इत्यादि प्रयोजन हो तो अधिक दिन तक रह सकते है. यह ऊपर लिखा ही है. यदि मारी रोग, दुर्भिक्ष, ग्रामक लोकोंका अथवा देशके लोकोंका अपना स्थान छोडकर अन्य ग्रामादिकोंमें जाना, गच्छका नाश होने के निमित्त उपस्थित होना, इत्यादि कारण उपस्थित होने पर मुनि चातुर्मासमें भी अन्य स्थानको जाते हैं. नहीं जाने पर उनके रत्नत्रयका नाश होगा. इसलिये आषाढ पूर्णिमा च्यात होनेपर प्रतिपदा वगैरह तिथिमें अन्यत्र चले जाते हैं. इसलिये बीस दिन एफसों वीस दिनों में कम किये जाते है. इस तरह कालकी हीनता है. यह सब वर्णन दसवे स्थितिकल्पका समझना चाहिये. ये दसकल्प यत्याचार के भेद हैं. . . .A + + + + A + एदेस दससु णिचं समाहिदो णिच्चयजमीरू य॥ खवयरस विसुद्धं सो जधुत्तचरियं उपविधेदि ॥ १२२ ॥ खतप्ररोहणाईचं ज्येष्ठत्वं च प्रतिक्रमः ॥ मासकन स्थितिः पर्या स्थितिकल्पा दशरिताः ॥ ४३४ ॥ अवयभीरुको नित्यं दशस्वेषु यः स्थितः ॥ क्षपकस्य समर्थोऽसौ वक्तुं चर्यामदूषणाम् ।। ४३५ ।। विजयोदया-पदेसु ससु णिचं पलेषु दमास्थितिकल्पेषु नित्यं । समाहिदो समाहितः । णिश्चवमभीरू य नित्यं पापभीरुः । खबगस्त क्षपकस्स । विसुदं मधुसरिय यथोक्तां चर्याम सौ उपविधेदि स विदधाति । दशधा स्थितिकल्पयुक्तः क्षपकस्य किं करोतीत्याहमूलारा-उवत्रिधादि करोति ।। अर्थ-जो आचार्य इन दश प्रकारके कल्पोंमें सदा तत्पर रहते है. जो हमेशा पापकापासे भयभीत हैं 632 Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाराधना आश्थामा वे क्षपकको निर्दोप और आगमोक्त आचरण प्रदान करते हैं. अर्थात् क्षपकसे निर्दोष आचरण करवाते हैं. उसके आचरणों में दोप दिखाकर उसको शुद्धाचरणी बनाते है. ६३५ निर्यापकस्य सूरेराचारपत्वे अपकस्य गुण ध्याचऐ पंचविधे आचारे समुज्जदो सव्वसमिदचेट्ठाओ ।। . सो उज्जमेदि खवयं पंचविधे सुद्द आयारे ।। ४२३ ॥ उद्यतः पंचधाचार यः कर्तुं समितक्रियः ।। क्षपकः पंचधाचारे प्रेर्यते तेन सर्वदा ।। ४३६ ।। विजयोदया-पंचविधे आयारे समुज्जदो पंचप्रकारे आवारे समुद्यतः । समिदसम्यन्चेवाओ सम्यक् प्रवृत्ताः सर्वाश्च यस्य सः। सु उज्जमेदि सुष्ठ उद्योग कारयति । खवग क्षपक । क्व पंचविध आवार । पंचाचारोघतः क्षपर्क सत्र उपमयतीति आइमूलारा--समिदसध्वचिढाओ सम्यक्प्रवृत्तसकलगममादिकियः ।। निर्यापक आचार्य यदि आचारवान होंगे तो उनसे क्षपकको क्या लाभ होगा इस प्रश्नका उत्तर अर्थ-जो आचार्य दर्शनाचारादि पांच आचरों में तत्पर रहते हैं, अपनी सब चेष्टायें जो समितीओंके अनुसार ही करते हैं ये क्षपकको भी पांच आचारों में निदोपतया प्रवृत्त करते हैं. या आचारवान भवति तदाश्रयणे दोषमाह सेज्जोवधिसंथारं भत्तं पाणं च चयणकप्पगदो। उवकष्पिज्ज असुद्ध पडिचरए वा असंविग्गे ॥ ४२४ ॥ अशुद्धमुपधि शय्यां भर पानं च संस्तरम् ।। सहायानप्यसधिनान्विधत्ते च्यवनस्थितिः॥४३७॥ Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 मूलाराधना आश्वासः विजयोदया-सज्ज यसति । उयाध उपकरणं । संथारभसपाणं च संस्तर भक्तपानं च । भमुद्धं उद्गमादिदोपोपहतं । उवकपयेज्ज उपकल्पयेत् । कः चय पाकप्पगदो ज्ञानाचारादिकावीषच्च्यवनमुपगतः । पडिचरए वा प्रतिचारकान्या योजयेत्। अरबिसगे असंविग्नान् पचमसंयमें कृते महान्कर्मबंधो भविष्यति ततोऽस्माकं महती संसृतिरनेकापन्मूलेति 1 भयरहितान् । आचारहीनाश्रयण दोपं गायात्रवेणाह मूलारा । चणकापगदो ज्ञानदर्शनादिपु च्यवनमुपगतः । उवकापन्ज योजयेन् । असुद्ध उगमादिदोषोपहत । पडिचरा प्रतिचारफान । अविग्गे गबमसंवर्ग कृतेऽस्माकं महान्कर्मयंधो भविष्यत्ति इति दीर्घसंमृतिभयरहिताम् ॥ जो आचार्य आचारयान नहीं है ऐसे आचार्य का आश्रय करनेसे क्षपककी हानि होती है. इसका खुलासा अर्थ-जो ज्ञानाचारादिक पांच आचारोंसे थोडासा भ्रष्ट हुआ है ऐसा आचार्य क्षपकको वसतिका. पिछादिक उपकरण, नृणादिकीका संस्तर, आहारके पदार्थ, पीनेके पदार्थ उद्गमादि दोष सहित देगा. अर्थात बसनि गैरह पदार्थ दोषरहित है या नहीं इसका विचार वह न करेगा. अथवा आपककी शुश्रुषा करनेवाले मनि संसारभयसे युक्त है बा नहीं इसका विचार न कर वैराग्यरहिन मुनिआको क्षपककी शुश्रूषा करनेके कार्यमें नियुक्त करेगा. हम यदि असंयममें प्रवृत्ति करेंगे तो हमको महान् कर्मबंध होगा और वह हमको दीर्घकालतक संसारमें भ्रमाचेगा एसी भीति जिनके मनमें नहीं है उनको शुश्रुषा करने के लिये नियुक्त करनेसे क्षपकका आत्महित होना अशक्य ही समझना चाहिये. PARAMARAat-AARTARA HastAARAMMEReer kore ६३३ सल्लेहणं पयासेज्ज गंध मल्लं च समाजाणिज्जा !! . अप्पाउणं व कधं करिज्ज सइरं व जपिज्ज ॥ ४२५ ॥ सहननायाः कुरुते प्रकाशनां कथामयोग्यांक्षपकस्य भाषते ॥ स्वरं पुरस्तस्य करोति मंत्रणं गंधपसूनादिविधिं च मन्यते ॥ ४३८ ।। विजयोदया---सल्लेशण पगासेज्ज्ञ सलेम्सना प्रकाशयेत् लोकस्य । गंध मात्यं चानुजानीयात् । गंधमाल्यान IN Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास भूलाराधना यनमभ्युपगच्छेत् ! अप्पाउगं व कई कद्देज 1 अप्रायोग्यां या कथा कथयत् । क्षाकस्याशुभपरिणामविधायिनी । रूहरं वा स्वैरं वा जपेज्ज जपेत । आराधकस्पाग्नत इदं युक्तं न नेणामिलाये गदेशा मूलाग–महणं पयामेज्ज अपकम्न्य संन्यास विधि लोकस्याग्रे प्रकटयेत् । समगुजाणेज्ज गंधादिक सेवमान भयकमनुमन्येत । अप्पाउन अयोग्यं । को कां । सइई यथेष्टम् ।। अर्थ--आचाररहित आचार्य क्षपककी सल्लेखना लोकमें प्रगट कर देगा. अथवा लोगोंको सुगंधित पदार्थ और पुष्प लानेके लिए कहेगा. क्षपकके परिणामोंको बिघाडने वाली कथायें कहेगा अथवा क्षपकके आगे योग्यायोग्यका विचार न कर चाहे जो पकने लगेगा. अमिपाय यह है कि ऐसे आचार्यको क्षपकके कल्याणकी पर्वा नहीं रहती है. ण करेज सारणं वारणं च खवयस्स चयणकप्पगदो ॥ . उहज वा महा खबयरस वि किंचणारंभं ॥ १२६ ॥ साररत्नम्र प्रवर्तनं सारणं, दोषेभ्यो वारणं निवर्तन मिति यावत।। सारणां वारणां नास्य कुरुते च्यवनस्थितः ॥ क्षपकस्य महारंभ कंचिस्कारयते गणी ।। ४३१ ॥ मिजयोदया- करज्जन कुर्यात् । किं सारण रत्नत्र वृत्ति । वारणं च निषेधं न कुर्यात् । तेभ्यः प्रच्यवमाना । खरगरस क्षपकम्य । कः मणमण्यगदो पवनकलग्गतः 1 उग्ज वा महलं भारंभं कारयेहा महान्नं वाग्भे पट्टकशाला, पूजा, यिमाने घा । ग्यगस्त विक्षपफस्थापि किंचन ।। मुलारा-मार रलाये पचतनं । वारण सनत्रया:यन्यवमानस्य निषेधः । हेज फारयेन् । किंगारंभ कमपि एदृकशालापूजारथिकादिक भावदाम्यापार ।। अर्थ -भ्रद आचार्य क्षषक रत्नत्रयमें प्रवृत्त होगा ऐसा उपदेश नहीं करता है. तथा यदि वह रत्नत्रयसे न्युत होने लगा तो उसमें स्थिर भी नहीं करता है. बडा आरंभ करावेगा अर्थात् पट्टकशाला, पूजा, विमान इत्या ६३७ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना दि कार्य करने में लोगोंको प्रवृत्त करेगा. क्षपकके लिए भी ऐसा ही महारम्भका कार्य करेगा. इसलिए ऐसे आचार्य के सहवाससे क्षषकका हित होना शक्य नहीं है. आश्वासा ६३८ A आयारत्थो पुण से दोसे सव्वे त्रि ते विवज्जेदि ॥ तम्हा आयारत्थो णिज्जवओ होदि आयरिओ ॥ ४२७ ।। आपारम्पः पुनर्वाषान्यतः सर्वाधिमंचति ।। निर्यापकस्ततः सूरिराचारस्थोऽभिधीयते ॥ ४४० । इति आचारी बिजयाश्या-आयारत्था पुण आचारस्थः पुनः सूरि तान्सन्विर्जयति दोषान् । तया तस्मात् । गुणेषु प्रयत. मानो दोषेभ्यो व्यावृत्तश्च । आयारस्थो भायरिओ णिज्जवओहोवि आचारस्थ एवाचार्या निर्याएको भवति नायरः। व्याण्यातमाचारपत्वम् । आयारयं। निर्यापकत्वे सूरिमाचारवन्त नियमयविमूलारा स्पष्टम् ।। अर्थ-आचारवत्व गुणको धारण करनेवाले आचार्य ऊपर लिखे हुए दोषोंका त्याग करते हैं, इसलिए गुणोंमें प्रवृत्त होनेवाले दोषोंसे रहित ऐसे आचार्य निर्यापक होने लायक जानना चाहिए. जो आचार्य आचारोमें प्रवृत्त हैं वे हि निर्यापक समझना चाहिए. आचारवत्व गुणका वर्णन समाप्त हुआ. - - - - IENTITLE आधारवत्यव्याख्यानायोत्तरप्रयंधः चोद सदसणवपुत्री महामदी सायरोव्व गंभीरो ॥ कप्पववहारधारी होदि हु आधारवं णाम ॥ ४२८ ॥ धीरोग्विलांगपूर्वज्ञो यः कालव्यवहारवित ।। आधारी स महामज्ञो गंभीरो मंदरस्थिरः ।। ४४१ ।। कटदा - - - Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना बापासा FORatoresTRESERATARASARATORS विजयोदया-चोइसदसणवपुठवी चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी, नवपूर्वी चा । महामदी महामतिः । सायरोव्य गंभीरो सागर स्य गंभीर । भाधारणं णाम कप्पवषहारधारी चा कल्पव्यवहारशो चा आधारवान शानी । दुष्परिणामा पते मनोचाकायविफल्पाः, शुभा वा पुण्यात्रधभूताः। शुद्धा या शुभाशुभकर्मसंवरहेतचः, इति बोधयति । गुमशुद्धषु वा प्रवर्तयति श्रुतममारतमुपविशातोऽसौ दर्शनस्य, चारिप्रस्थ, ते सथ धाधारयत्वात् । शानमाघार स्तहानाधारवान् अवानाधारवान् । आधारवत्वमष्टादशभिर्गाथाभियाचिरव्यामुरादावाधारवन्नं लक्षयति-- मलारा-नारधारी ... आधारितामाखनुनत:योगः । आधारवं दर्शनहानचारित्रतपसामुत्पत्तिस्थितिवृद्धिरक्षाधिष्ठानत्वाधारोऽत्र ज्ञानं तद्वान मरिराधारपान । नित्यश्रुतोपदेशेन पापास्रवणकारणाशुभपरिणामेभ्यो व्यावर्त्य क्षपकस्य पुण्यास्रबे, शुभयोगत्रये, संघरनिर्जराकारणे वा शुद्धोपयोगे प्रवर्तक इत्यर्थः । . . आधारवत्व गुणका सविस्तर वर्णन -- अर्थ --जो चौदापूर्व, दसपूर्व अथवा नउ पूर्वोका जाता है, जिसमें समुद्रतुल्य गंभीरता गुण है. जो कल्प । म्यवहारका ज्ञाता है अर्थात् जो प्रायश्चिन शास्त्रका ज्ञाता है और उसमें बताये हुए प्रयोगोंका जिसने अनुसरण किया है, अर्थात् अपराधी मुनिओंको जिसने अनेकवार प्रायश्चिन देकर इस विपयमें विशेष ज्ञान प्राप्त कर लिया है एमे आचार्य आधारवत्व गुणके धारक माने जाते हैं. इस गुणके धारक आचार्य मनोवचन और शरीरके अशुभ परिणाम पापात्रबके कारण होते हैं, शुभ परिणामों से पुण्यकर्म आत्मामें उत्पन्न होता है और शुद्ध परिणामोसे शुभाशुभ कर्मोका संवर होता है ऐसा उपदेया कर शियोको शुभ और शुद्ध परिणामोंमें प्रवृत्त करते हैं. हमेशा श्रुनका उपदेश करते हैं. इनका ज्ञान दर्शन, चारित्र और तपको आधार होता है. इसलिए ये आधारवत्व गुणके धारक माने जाते है. RATA यस्तु मानवान भवति तदाश्रयणे पोषाध्याय णासेज आगीदत्यो चउरंगं तस्स लोगसारंगं ॥ गठम्मि य चउरंगे | उ सुलहं होइ चउरंग ॥ ४२९ ।। Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना माथा ६४० चतुरंगमगीताों नाशयेल्लोकपूजितम् ।। संमृती लप्स्यते भूयो नाशितं तच दुखतः ॥ ४४२॥ विजयोदया-णासज्ज अगीदत्यो नाशेयवगृहीतसूत्रार्थः । तस्स तस्य अपकला। चउरंग पत्यारि शानदर्श नचारित्रतपांसि अंगानि यस्य मोक्षमार्गस्य तं चतुरंग । लोके यासारं निर्वाणं तस्या उपकारक चतुरंग माम यदि नए तथापि तच्चतुरंग पुनर्लभ्यते इति शंकामिमां निरस्यति । मम्मि यचउरंगे नष्टे इह जन्मनि चतुरंगे मुक्तिमार्गे । म उ सुलह होदि चरंगं । नैव सुखेन लभ्यते तच्चतुरंग । विनाशितचतुरंगो मिथ्यात्वपरिणतः कुयोनिमुपगतः कथमिव लभते चतुरंग इत्यभिप्रायः अन्नाश्रयणे शोषमाह भूलारा-चउरंग चवारि दर्शनवनवास्त्रिापास्यमानि यस्य मोक्षमार्गस्य न । लोकमारंग लोके यत्सारं व्यवहारेणेंद्रादिपदं निश्चयेन निर्वाणं तस्यांग साधनं । यदि नाम न चतुरंग तथापि पुनर्लभ्यते इत्यवाह-नो इत्यादि विनाशितचतुरंगो मिथ्यात्वपरिणतः फुयोनिमुपगतः कथमिव लभते चतरंगमित्यभिणयः ॥ जो आचार्य ज्ञानी नहीं है उनके आश्रयसे दोपोत्पत्ति होती है. इस विषयका विवेचन अर्थ-जिसको सिद्धांतसूत्रोंका ज्ञान नहीं है वह आचार्य धपकके चतुरंगका नाश करता है. अर्थात् यदि क्षपकने अज्ञ आचार्य का समाधिमरण के लिये आश्रय किया तो उसके सम्यग्दर्शन, सम्यग्लान, चारित्र और तपका नाश होता है. यह चतुरंग मोक्षमार्ग का हेतु है. यह चतुरंग व्यवहारनयसे सारभूत अर्थात् श्रेष्ठ ऐसे इंद्रादि पदका कारण है. तथा निश्चयनयसे लोकत्रयमें श्रेष्ठ ऐसे मोक्षका कारण है. यह नष्ट होने पर पुनः प्राप्त होगा ऐसी शंका करना व्यर्थ है. क्योंकि जब यह नष्ट हो जावेगा तो वह मोक्षपद कैसे मिलेगा अर्थात् सम्यग्दर्शनादिकोका नाश होनेपर इस आत्माको मिथ्यात्व अनेक कृयोनिओंमें दीर्घ कालतक घुमाता है. अतः इस चतुरंगकी पुनः प्राप्ति होना अतिशय कठिण है. क्षपकस्य चतुरंग कथमगृहीतार्थो नाशयतीत्यारेकायामित्यमसी नाशयतीति दर्शयति संसारसायरम्मि य अगंतबहुतिव्वदुक्खसलिलम्मि ।। संसरमाणो दुक्खेण लहदि जीवो मणुस्सत्तं ॥ ४३० ।। Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना मापासः ६४१ - - - तह चेव देसकुलजाइरूवमारोग्गमाउगं बुद्धी ।। सधणं गहणं सट्ठा य संजमो दुल्लहो लोए ॥ ४३१ ॥ एवमबि दुल्लहपरंपरेण लध्दण संजम खवओ। ण लटिज सुनी संवेगकरी अबहुस्सुयसयासे ॥ ४३२ ।। सम्म सुदिमलहंतो दीहई मुत्तिमुवगमित्ता वि ॥ परिवडइ मरणकाले अकदाधारस्त पासम्मि ।। ४३३ ॥ सक्का बसी छेत्तुं तत्तो उक्कट्ठिओ पुणो दुक्खं ।। इय संजमस्स बि मणो विसएसुस्काव, दुक्खं । ४३३ ॥ आहारमओ जीवो आहारेण य विराधिदो संतो॥ अट्टहट्टो जीवो ण रमदि णाणे चरित्ते य ॥ ४३५ ॥ मुदिपाणयेण अणुसट्ठिभोयणेण य पुणो उवग्गहिदो ॥ तण्हाछुहाकिलंतो कि होदि झाणे अबक्खित्तो ॥ १३६ ।। पढमेण व दोवेण व वाहिज्जंतस्स तस्स खवयरस ॥ ण कुणदि उबदेसादिं समाधिकरणं अगीदत्त्थो ॥ ४३७ ॥ संसारसागरे घोरे दुःखमझकलाकुले ।। दुःस्वतोऽदाव्यमानेन प्राप्यते जन्म मानुषम् ।। ४४३ ॥ देशो जातिः कुलं रूपं कल्पता जीवितं मतिः । श्रवणं ग्रहणं श्रद्धा संगमो दुर्लभो भवेत् ॥ ४४४ ॥ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना सायामा यहदुर्लभसंतत्या साधुलब्ध्वापि संयमम् ।। लभने नाज्ञसांनिध्ये देशनां धृतिवर्द्धनीम् || १४५।। प्रपाल्यापि चिरं वृत्तम श्रुताधारसन्निधौ ।। अलब्धदेशनो मृत्युकाले प्रभ्रंशते सतः ।। ४४६ ।। दोषेभ्यो वार्यते दुखं संन्यस्तः क्रियते सुग्वम् ।। छियते सुखतो पंशः कृष्यते सुखतस्ततः॥ ४४७ ।। अपमन्नमयो जीवस्त्यापमानस्स्वसौ कदा ।। आर्तरौद्राकुलीभूतश्चतुरंगे न धर्तते ।। ४४८ ॥ शिक्षा शुतिपानामांसाधुरामामतः पुनः ।। क्षुधासृष्णाभिभूतोऽपि शुद्धध्याने प्रवर्तनं ।। ४४५॥ क्षुधया तृष्णया साधोपोधितस्य ददानि न॥ उपदेशमशास्त्रज्ञः समाधिजननक्षमम् ॥ ४५ ॥ विजयोदया--तस्स पढमेण शुधा । दोषण व पिपाया घा । याधिःतस्स बाध्यभानस्य तस्य । वयम्स क्षपकस्य । कुणनि उबदेसादि न करोत्यपदेशावि ! समाधिकरण समाधिः क्रियते येनोपवेशादिना तं । अगीदत्थो अगृहीतार्थः ।। पातदेय प्रबंधेत अभिधत्ते-- मृलारा--संसारसागरम्मि संसारो च्यादिपंचप्रकाररिवर्तनं । सागर इब तुमत र दुःखकरत्वात । सत्र नारकादिशरीराणां ग्रहणमोक्षाणाभ्यामलकत्तिद्रव्य संसारः । चतुरशरीति लक्षसी मतकादिनरकादिवतीले कालेऽनना जन्ममरणयोबृत्तिभविष्यति सांता भव्यानामनंता चाभयानां क्षेत्रसंसारः । उत्सपिंपचाः कस्याश्चिदवसर्पिच्या प्रथम द्वितीयादि समयेषु पर्यायेण जन्ममरणाभ्यां वृत्तिः कालसंसारः । दशवर्षसहस्रजघन्यायुःप्रभृतिसमयोत्तरवृद्धिक्रमसमापिसोत्कृष्टायु:स्थितिकपर्यायवृत्तिर्भवसंसारः । कषायाध्यषसायस्थानाविवर्तवृत्तिावसंसारः । बहुशारीरमानसागन्तु Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः स्वाभाविकभेदात्प्रभूतं संसरमाणो परिवर्तमानः । दुक्खण इत्यादि मनुजत्वनियतककर्मकारणपरिणामानां दुर्लभत्वान्मनुष्यक्षेत्रस्याल्पत्वाच दुर्लभत्वं मनुष्यत्वं । साथुमुखे परुपवचनगिव, सूर्यमंडले तम इव, पंडकोपे दयेव, लुच्थे सत्यवचनामय, मानिनि परगुणस्तवनामित्र, स्त्रियामार्जवमिब, खलेषु उपकारशतेत्र, आप्ताभासमतेपु वस्तुतत्त्वावबोध इव । अतिदुर्लभत्वे दश हानाः सूत्रेऽनुश्रयन्ने ॥ . चुलय पास धा जूवा रदणाणि मुमिण क् वा ।। . कुम्भ जुग परमाणु दस दिता गोयलंभ एते चुलीभोजनादिकथासंप्रदाया दशापि प्राकृतटीकादिषु विस्तरेणोक्ताः प्रतिपत्तायाः || लन्येऽपि कथं कथमपि मनुष्यत्वे तपोयोग्या देशादयो यथोत्तरं दुर्लभा इति ज्ञापयितुमाह मूलारा-तह व मनुअत्यमिव । दस तपोयोग्यो हि मगधादिजनपदः । जाई जातिः मानवंशः कुल भाद। नई सामानमः । भागीरोगत्वं । आगं दीर्घजीवित्वं । युद्धी इहपरलोकाम्वेषणपरा | सवर्ण हिताकर्णनं । गहणं सदरूपदिष्टार्थविज्ञानं । सहा सद्गुरूपदेश विज्ञावार्थरुचिः । संयमो धर्म प्रयतनं ।। नक्कनीत्या मनुष्यत्वादिदुर्लभपरंपरया लम्धसंयमोऽपि अल्पश्रुतसरिपाः संसारभयजननी दशनां नासादयतीत्युपदिशत्ति--- मूलाग - सुदि आगमवर्णनम् ।। चिरप्रतितसंयमोऽप्यल्पगुरुपार्थे नियमाणः संयमात्प्रच्यबते । मनोज्ञामनोज्ञविषयाणां सर्वत्र सदा सांनिध्यादागपमोहपरिणामकारणांतरंगचारित्रमोहाव्यकर्मोदयसद्भावाच्चेति दर्शयति मूलारासम्म प्रस्तुतकार्यानुगुणं । दीहद्धं चिरकालं । मात प्राणेंद्रियविषयासंयमत्याग । उबगमित्ता वि प्राप्यापि । परियदि संयमात्प्रच्यवते । चारित्र नाराधयतीत्यर्थः । अकदाधारस्स अबहुश्रुतस्य ।। संयतस्यापि मनो विषयेभ्यो व्यावतयितुं दुर्विदग्धगुरुणा न शक्यते इति दृष्टांतेन स्पष्टयति - मूलारा-सी अल्पवंशः । ततो गुल्मात । उनकदिदै अबक्रष्टुं । पुणा पश्चान । दुकावं दुष्करं । न शक्त्य र्य: उक्कट्रिएं उत्कष्टुं । गतदुतं भवति – रागद्वेषविजये यद्यपि प्रतिज्ञा कृपा नथागि कुनशरीरसल्लेखनस्य श्रुधादिपरीपहरुपद्रु सस्य मदधीर्यस्य श्रुतमानप्रणिधानमंतरण अल्पश्रुत सूरिपाः रागद्वेषप्रवृत्तितश्चारित्राराधकता न स्यात् ॥ TARATARARASHAR E Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास मूलारा-आहारमओ अन्ने निर्वृत्त इत्र प्राणानां तन्मूलत्यात् । आहारेण भोजनत्यागेन | किलामिदो ग्लानि गतः । बिराहिदो इति पारे भोजनेन बियोजिन इत्यर्थः । अदुहन्थो आर्तदुःखातुरः । अङ्गअट्रो इति पाटे आर्त द्विवेन आतरौंद्राभ्यां कत: पीडितः ।। उक्तं च अवमन्नमयो जीवस्त्याज्यमानोऽधसा कदा ।। आतरौद्राकुलीभूतऋतुरंगे प्रवर्तते ॥ बहुश्रुतसूरिणा पुनः शुतोपदेश शिक्षाविशेषाभ्यां निराकृततएबुभुक्षाकामः सचानकतानो भवतीत्युपदिशतिमूलारा-उवग्गाहदो कृतोपकारः । अवक्खितो अव्यानिमः ।। कथमगीतार्थेन गुरुणा नुदादिना वाध्यमानो न चिकित्स्यते इति तदाश्रयणं प्रत्याचप्ले गूलारा--पहमेण तृष्णापरीपहेण । दोब्त्रेण क्षुत्परीषहेण । उब्वाचितयस्स उत्कृष्ट पौड्यमानस्य उषदेमादि श्रुतरहस्यनिरूपणततधारणाचल्यादिप्रतीकार । समाधिकरणं धय॑शुक्लण्यानसाधनम् ।। क्षापकके चतुरंगका अज्ञ आचार्य कैसा नाश करता है? इस प्रश्नका उत्तर आचार्य इस प्रकार देते हैंसंसारसायरश्मि य इस गाथासे ४३७ नंबरकी पढमेण व दोषेण व इस गाथातकका अर्थ - हिंदी अर्थ---यह संसारसमुद्र अनंत और तीव्र दुःखरूपी पानीसे लबालब भरा है. ऐसे संसारसमुद्र में भ्रमण करनेवाले इस प्राणीको मनुष्यजन्म कष्टसे मिलता है. ___ मनुष्य जन्म मिलनपर भी उत्तम देश: कुल, जाति, रूप, आरोग्य, दीर्घायुष्य, बुद्धि, शाम्रश्रवण, ग्रहण श्रद्धा और संयम इनकी प्राप्ति होना उत्तरोतर दुर्लभ है. उत्तरोत्तर दुर्लभ वस्तुओंकी शक्ति होकर संयमकी भी प्रामि हो गई तो भी अल्पज्ञ आचार्यके समागम संमारमय उत्पन्न करनेवाला शास्त्रश्रयण प्राप्त नहीं होता है. योग्य कार्यमें प्रवृत्ति करनेवाली स्मृति प्रास होनेपर भी और चिरकालतक प्राणिसंयम और इंद्रियसंयमका पालन करनेपर भी अल्पज्ञ आचार्यकै आश्रयसे मरणकालमें क्षपक संयम छोड देता है, संयमसे भ्रष्ट होता है, संयमकी आराधना नहीं करता है, Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वासा यांमक समुदायसे एक छोटे बांसको छेद करके निकालना सुलभ है परंतु उसमेंसे उसको उखाडना जैस बहुत कठिन है वैसा ना को पंचन्हिमारे रियो सिकाकार बसायन करना बहुत कठिण है. रागदेपोंका नाश करनेकी यद्यपि प्रतिज्ञा कीथी तथापि शरीरसंल्लेखना जिसने की है, जो क्षुधादि परीपहोंसे पीडित है ऐसा अल्प शक्तीका धारक क्षपक श्रुतज्ञानमें एकाग्रता न होनेस अज्ञ आचार्य के समीप रागडेपोपर विजय नहीं पा सकता है. और चारित्राराधक नहीं होता है.. यह जीव आहारमय है, मानो अमसे ही उत्पन्न हुआ है, क्योंकि अन्न ही प्राणरक्षणका मूल कारण है. अनके त्यागसे यह आत्मा म्लान होता है, आतध्यानी होकर दु:खसे पीडित होता है, तब ज्ञान और चारित्रमें रममाण नहीं होता है. श्रुतोपदेश और शिक्षाविशेषरूपी भोजनसे जिसने क्षधा और प्यासका परिश्रम नष्ट किया है ऐसा वह क्षपक ध्यानमें एकाग्र होता है, अर्थात् बचतज्ञ आचार्यका आश्रय करनेसे क्षपकको श्रुतोपदेश और विशिष्ट उपदेश मिलनेस शुधापाका परिश्रम नए होता है और बान्मध्यानमें बह स्थिर होता है परंतु अल्पज्ञके आश्रयसे वह क्षुधादि परिपड़ोंका दुःख नहीं सहन कर सकनेम आर्तध्यानी बनता है. अगीतार्थ आचार्य क्षुधा और तपासे जय श्पक पीडित होता है तब उसको उपदेशादिक नहीं करता है, अतः ऐसे आचार्यके आश्रयसे क्षपकको समाधि मरणका लाभ होता नहीं. A सो तेण बिडझंतो पप्पं भावस्स भेदमप्पसुदो ॥ कलुण कोलुणियं वा जायणकिविणत्तणं कुणह ॥ १८ ॥ ताभ्यां प्रपीडिता बाढं भिन्नभावस्तनुश्रुतः रोदनं याचनं दैन्यं करुण विदधाति सः॥४५१॥ विजयोदया-सो नण अपकस्तेन प्रथमेन द्वितीयेन धा । पिंडसंतो विविधं दद्यमानः । पम्प भावस्स भरमापसुदो प्राप्य शुभपरिणामस्य भेद अस्पतः । कलुणं कोलुणियं च कु.गदि यथावतां करुणा दीनता च भवति तथा करोति । जायणं च कुणदि यांचां वा करोति । किविणत्तर्ण कुणदि दीनता या करोति ।। ६१५ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना भाश्चासः अकृततृष्णादिप्रतीकारोऽल्पशास्त्रज्ञः क्षपको विपरिणविं प्राप्य गईणीयक्रियाः करोतीति गाथात्रयेणाह -- मूलारा--तेण दष्यादिना । विडमंतो । विविधमुपद्यमाणः । पप्पा प्राप्य । भाषस्स भेदं शुभपरिणामस्य विनाशं । कलुर्ण रोदनं । कोलुणियं । परकरुणोत्पावन किरिणसं दैन्यम् । तथा...... अर्थ-वक्षपक भूखसे अकामाससे डिसहोकर शुभ परिणामोंको नष्ट कर देता है. वह अल्पक्ष क्षपक सुननेवालों को दया उत्पन्न करनेवाला रुदन करता है. याचना करने लगता है. और दीनता व्यक्त करता है. उकवेज्ज बसहसा वा पिएज्ज असमाहिपाणयं चावि ।। गछेज्ज व मिच्छत्तं मरेज्ज असमाधिमरणण || ४३९ ।। पूत्कुर्यादसमाधानपानं पिपति पीडितः मिथ्यात्वं क्षपको गच्छेद्विपचेतासमाधिना ॥१२॥ विजयोदया-उज्ज व सहसा कुर्याद्वा सहसा । पिएज्ज पिता । असमाधिपाणग चावि असमाधि. पानकमुच्यते यत्स्वयं स्थित्वा स्वहस्ताभ्यां काले प्रायोग्यपानं ततोऽन्यदस्थित्वा अकाले च यत्पानं तदसमाधिपानकमुच्यते । गच्छेज्ज व भिन्छन मिथ्यात्वं वा गच्छन् । कोऽयं धर्मः फिमनेन श्रमविधायिनेति निदापरेण चेतसा । मरेज्ज असमाधिमरणेण असमाधिना चापि मृतिमुपेयान् ॥ मूलारा-उकवेज्ज पूरकुर्थान् । असमाधिपाणमं यत्स्वयं स्थित्वा स्वहस्तायां काल प्रायोग्यपानं तत्समाधिपानकं ततोऽन्यदस्थित्वाकाले पानं सूत्रानंदितमित्यर्थः । गज्ज कष्टोऽयं धर्मः किमनेन श्रमविधायिनेति निदापरेण चेतसा मिथ्यात्वं प्रसिपञ्चेत । वथा-- अर्थ-वह क्षपक क्षुधादिकोंकी वेदनासे जोरसे चिल्लाने लगेगा. स्वयं खड़े होकर अपने दो हाथो में योग्य कालमें पानयोग्य पदार्थ पीना उसको समाधि पान कहते हैं, और बैठकर अपने हाथोंसे अकालमें पान करना | उसको असमाधिपान कहते हैं, अर्थात् क्षुधा तृषा पीडित होकर क्षपक सूत्रनिंदित आहार लेगा ऐसा यहां अभिप्राय | समझना चाहिये, अथवा संयमसे भ्रष्ट होकर मिथ्यात्वावस्थाको प्राप्त होगा. यह सल्लेखना धर्म अथवा मुनिधर्म बडा ६४६ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगाराधना कष्ट देनेवाला है. इससे आत्माको केवल श्रम ही होते हैं. ऐसे धर्मसे क्या प्रयोजन हैं ऐसी बह क्षपक निंदा करते करते मरण करेगा और असमाधिसे मरणको प्राप्त होगा. आश्वासा संधारपदोस वा गिभच्छिज्जतओ णिगच्छेज्जा ॥ कुव्वंते उडाहो णिच्चुभते विकिंते वा || ४४ ॥ हित्वा निर्भय॑मानोऽसौ संस्तरं गन्तुमिच्छसि ।। पूत्कुर्वत्ययशस्तत्र त्याज्यमाने व जायते ॥ ४५३ ।। बिजयोदया--संगापरसं या बुर से की शिकाभिगो णिगच्छेच रोदन पत्कार घा कुर्वन्तं यदि निर्भर्सयन्ति निर्यायात् । कुवते पूत्कुति सति क्षपके । उदाहो अयशो धर्मस्य भवति । णिकखुम्भंते यहिर्नेिः सरणे । विकिंते वा पृथक्करणे वा । उदाहो होदि धर्मयूषणो भवति । एवम गृहीतार्थः प्रतिकारानभिलो नाशयति क्षपकम् ॥ मूलारा-संथारपदोसं आचार्यप्रद्वेपं करोति कुणदीत्यबाहारान् । णितच्छेज्ज निःसरंदबहिः कुर्थतो उन हो पुत्कुर्वति सति क्षपके अयशोऽधर्मश्च भवति । णिभिमते बहिनिःसरणे । विकिसे पृथक्करणे | क्षपकस्म उडाहो मवतीति संबंधः । णिमच्छिजंसगो गिगच्छेज्ज कुष्यतो अदिमिति पाठ निर्भीमानको निर्गच्छत्कुर्वप्रकीर्तिमिति व्याख्येयम् णिमछुसो प्रवेश्यमानो विकिते हन्ति परं स्वं वेति च व्यारूयेयम् । अर्थ-वह क्षपक संस्तरकी निंदा करेगा अथवा आचार्यकी निंदा करेगा. यदि वह क्षपक, रोनेपर, जोरसे चिल्लानेपर यदि उसकी निंदा की तो वह संघमे भाग जावंगा, जिससे धर्म में अपयश होनेकी संभावना रहती है. एमे क्षपकको यदि संघस पृथक किया जावेगा तो धर्ममें दपण लगता है. इतने विवेचनमे अल्पज्ञ आचार्य क्षषक. का नाश कर देता है यह सिद्ध होता है. गृहीतार्थः पुनः किं करोतीति दाह-- गीदत्थो पुण खवयस्स कुणदि विधिणा समाधिकरणाणि ॥ कण्णाहुदीहिं उबढोहदो य पज्जलइ जमाणम्गी ।। १४१ ॥ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मावासा समाधानविधि तस्य विधत्ते शास्त्रपारगः ।। दीप्यते दीपितः कर्णाहुतिभिानपावकः॥ ४५४ ।। विजयोदया-गृहीतार्थः पुनः। स्वबगस्स ।क्षपकस्य श्रुणदि करोति । विधिणा कमेण | समाधिकरणारण समाधानक्रियाः । कपणाहुदी दिकर्णाहुतिमिः। उवढोदो उपगृहीतः । पज्जलदि प्रचलति । जमाणगि ध्यानानिः॥ गीतार्थः पुनः झपकै सान्त्सवितु यतते इत्याह मूलारा-समाधिकरणाणि सगाधानम्म साधनानि यथासं मासान्या यात्मिकानि च । कण्णादीहि कर्णजय व्यदन्यः । उपन्तो उगृह्यमाणो दीप्यमानः । सवार्थज्ञ आचार्य क्या करते हैं इस प्रश्नका उत्तर अर्थ-सूत्रार्थ आनार्य आगमानुसार क्षपककी समाधिमरणकी किया करते हैं और उसका ध्यानरूपी अग्नि मधुर उपदेशरूपी आहुति ऑमे वृद्धिंगत करते हैं. अर्थात् क्षयकको क्षुधादि वेदना जब पीडित करती है तब मधुर हितकर उपदेश देकर आचार्य उसको आते ध्यान न होने पाने ऐसा प्रयत्न करके धर्मध्यानमें लगाते है. खवयस्सिछासंपादणेण देहपडिकम्मकरणेण ॥ अण्णेहिं वा उवाएहिं सो समाहिं कुणइ तरस ॥ ४४२ ॥ क्षपकेच्छाविधानेन शरीरमतिकर्मणा। समाधि कुरुते सम्यगुपायैरपरैरपि ॥ ४५५ ।। विजयोदया-खययस्सिन्छासंघावपण समाधि कुणदि क्षपकस्येच्छांसपादनेन समाधि करोति । यदिन्छ. स्यसो नद्दत्वा समाधि रत्नत्रये समयधान तस्य करोति इति यावत् । देशपडिक्रम्मकरणेण शरीरवाधाप्रतिकारक्रियया । अण्णधि या उयापदि अभी सामवचनोपकरणदानचिरंतनक्षपकोपाख्यानादिभिरुपायैः समाधि करोति ।। गीतार्थो ग्यासमाधि विधा तश्वा दर्शयति-- मूलारा-इच्छा संपादण यदिच्छत्यसौ योग्य सहत्या रत्नत्रयसमाहितं करोतीत्यर्थः । वेदपडिकम्मकरणेण शारीरबाधाप्रतीकारक्रियया ॥ तथा .. . . Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ--सूत्रज्ञ आचार्य क्षपककी जो चाह है रमकी पर्णता कर उसकोला सिर करते हैं. उसके देहकी बाधाओंको मिटा देते हैं, मधुरभाषण, उपकरणदान और प्राचीन सल्लेखनाधारकोंकी कथा कहना इत्यादि उपायोंसे उसकी धर्मध्यानमें एकाग्रता करते है. आपास १२ प णिज्जूढं पि य पासिय मा भीही देइ होइ आसासो। संघेइ समाधि पि य वारेइ असंवुडगिरं च ॥ ४६३ ।। वैरगावृत्यकरैस्त्यक्तं मा भषीरिति भाषते ॥ निषिध्य संमृति तस्य समाधान करोति सः ॥१५६।। विजयोदया -णिज्जूट गिय पानिय निर्यापर्यतिभिः परित्यक्त राष्ट्वा किं भवता परीपहासचनेन चलचि. सेनामाको त्यत्तोऽस्पस्माभिरिति माभीहि बंद मा भैपीरित्यभयं ददाति । होदि भवति । संधतेच आसासो आयासः । संधी समाधिपि य रत्नत्रयकारयमबिग्छिन् । वारेदि असवुडगिरंच वारयत्य संवृतानां वचनं, नेयं वक्तव्यो भयाद्रियं महात्मा । कोहि नामारमिघ शरीरं आहारं दुस्त्यजं त्यक्तुं सम इति प्रोत्साहयन । मूलारा-जिजून निर्यापयतिभिः परित्यक्तं । पामिय दृष्ट्वा । मा भीही मा भैपीरित्यभयं ददाति सूरि: । होदि चासामो भवति पाधामः । दारकम्य नया गर भीतिदानात | संधेदि विच्छिन्नं पुनः मंधने । अमबुद्धगिरं अमवताना बधनं वारयति । नवं वक्तव्यो भवद्भिरवं महात्मा | को हि नामायमिब शरीरमाहारं च दुस्त्यज त्यक्तु शक्नुयात् । इति प्रोत्साहयत् ।। तथा--- अर्थ-शुश्रूषा करनेवालोन यद्यपि क्षपकका त्याग किया हो तो भी उसको देख करके हे क्षपक : तुम । परिषह सहन नहीं करते हो और तुम्हारा मन बहुत चंचल है, हमारा नुमसे कुछ प्रयोजन नहीं है ऐसा कहकर शुभूपा करने वालोंने तुम्हारा त्याग किया है. तो भी तुमको डरना नहीं चाहिये ऐसा बोलकर आचार्य उसको अभय करते हैं. उसको आश्वासन देने हैं, उसको रत्नत्रयमें स्थिर करते हैं. जो लोक कटु बोलकर क्षपकका उत्साह भंग करते हैं उनका आचार्य निवारण करने हैं. अर्थात् यह क्षपक महापुरुष है इसके प्रति एसा कटु भाषण करना योग्य नहीं ६३९ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराघना ६५० हैं. शरीर और आहार ये दो पदार्थ दुस्त्याज्य है परंतु इसने इनके ऊपरका मोह छोडा है. ऐसा भाषण कर वे क्षपकको स्वकार्यमें उत्साहित करते हैं. जादि फायद उचकम्पेदुं तहा उदिष्णाणं || जाणइ पडिकारं वादपित्तसिंभाण गदित्थी ॥ ४४४ ॥ जानाति प्रासुकं द्रव्यं गीतार्थी व्याधिनाशनम् ॥ मारुतपित्तानां विकृतानां च निग्रहम् ॥ ४५७ ।। विजयोदया - जाणदि य जानाति च फायदध्वं योग्यं द्रव्यं । उपेदुं विधातुं । तह उदिष्णाणं तथोर्णानां विनाशने समर्थ । जाणदि पडिगारं जानाति प्रतिकारं । वादपितसिंभाणं वातपित्तश्लेष्मणां । गीदत्थो गृहीतार्थः ॥ गूलारा - उदिष्णाणं कुपितानां वातादीनां उद्भूतानां क्षुदादीनां वा । अर्थ- सूत्रार्थज्ञ आचार्य प्रासुक पदार्थ कोनसे रहते हैं यह जानकर क्षपकको देते हैं. वात पित्तादिक क्षुच्ध होने पर अथवा क्षुधादिककी बेदना प्रगट होनेपर उनका नाश करनेका उपाय वे जानते हैं. अहव सुदिपाणयं से तहेव अणुासी भायणं देइ ॥ ताहालितो व होदि ज्झाणे अवक्खित्तो ॥ ४४५ ॥ श्रुतपानं यतस्तस्मै दत्ते शिक्षण भोजनम् ॥ क्षुष्णाकुलचित्तोऽपि ततो ध्याने प्रवर्तते ॥ ४५८ ।। गुणाः स्थितस्येति बहुप्रकारा गीतार्थमूले क्षपकस्य सन्ति ॥ संपयले काचन नो विपत्तिः संक्लेशजालं न च किंचनापि ||४५९ ।। इति आधारी ॥ आश्वास ४ ६५० Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास किरोद- दुधियाण अपक्ष भुतिपानं । से देदि तस्मै ददाति । अणुसिष्टिभोयर्ण देदि अनुशास नभोजनं चा तेन पानेन मोजनेन च । ताहाछुहाकिलितो वि क्षुधा तृपा वा बाध्यमानोऽपि । उहाणे अवक्वित्तो होदि भ्याने अज्याक्षिप्तचित्तो भवति । मुलारा-से तस्मै | किलिंतो पीव्यमामः । अचक्खित्तो अव्याक्षितः । अर्थ--अथवा आचार्य क्षपकको उस समय शास्त्रोपदेशरूपी पेय पदार्थ और शिक्षावचनरूषी आहार देकर उसकी भूख और प्यास शांत करते हैं. भूख और प्यास से पीडित होकर भी यह क्षपक उपयुक्त आहार से और पानी से संतुष्ट होकर आत्मध्यान में एकाग्रचित्त होजाता है. SISTION दोषांतरमाचरे-भगृहीतार्थसकाश यसतः सपकस्य -- - संसारसागरम्मि य गंते बहुतिव्वदुक्खसालिलम्मि ॥ संसरमाणो जीवो दुक्खेण लहइ मणुस्सत्तं । ४४६ विजयोदया-संसारसागरम्मि य संसारः सागर एव सस्मिन्संसारसागरे द्रव्यदेवकालभयभावपु परिवर्तमानः संसारः। तभ द्रव्यसंसारी नाम शरीरग्रहणमोक्षणाभ्याधुतिरसत् । तद्यथा-प्रथमार्या पृथिव्यां सप्तधनुपि त्रयो इस्ता पड़ेगुलाधिकाः प्रमाणं नारकाणां शरीरस्य। अधोऽधस्तदद्विगुणोन्यता यावत्वधनुःशतानि । परिकल्पपु शरीरपु एकैकं शरीरमनतवारं गृहीतमतीते काले भन्यानां तु भाचिनि काले भाध्यम तयार प्रहण ।। अभध्यानां तु भविष्यति काले प्यनंतानि तथाविधानि शरीराणि । एष द्रव्यसंसारः स्थूलतः ॥ क्षेत्रसंसार उच्यते--सीमंतकादीनि अप्रतिष्ठांतानि चतुरशीतिनरकशतसहचाणि । तत्रैकैफस्सिन् नरके अनंता जन्ममरणयोर्चसिरतीते काले । भविष्यति तु भाज्या भव्यान्प्रति । अभव्यानां तु भविष्यत्यप्यनंताः । __कालसंसार उच्यते - उत्सर्पिण्याः कस्याश्विप्रथमसमये प्रथमनरके उत्पन्नो, मृत्वान्यत्रोम्पन्नः, पुनः कदाचि दुत्पसम्पिया द्वितीयानिसमये उत्तान एवं तृतीयाविसमयेषु । पर्व उत्सर्पिणी समाति नीता। तथा अवसर्पिण्या अपि । पमितरेवपि नरकेषु । एवमुत्सर्पिण्ययसारिणीकालयोरनंतवृत्तिः । भवसंसार उच्यते - प्रथमायां पृथिव्यां वशवर्षसहस्रायुजर्जातः पुनः समयेनेकैकन अधिकानि दशवर्षसहस्राणि पर्व द्विसमयाद्यधिक प्रमंपा सागरोपमपर्यंतमायुः समाप्ति नीतम्। द्वितीयायां समयाधिकं सागरोपममादि शन्दा द्वितीयादिसमयाधिकक्रमण Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृतारापमा आश्वासा यावत्सागरत्रयसमाप्तिः । तृतीयायां समयाधिक पिसागरोपमादिकं कृत्वा द्वितीयाविसमयाधिकक्रमेण यावत्सागरोपमसप्तकपरिसमाप्तिः । चतुथ्यों समयाधिकसप्तसागरोपमावारभ्य द्वितीयाविसमथाधिकझमेपा थापाशसागरोपमपरिसमाप्तिः । पंचम्यां समयाधिकदशसागरोपममारभ्य द्वितीयादिसम्याधिक कमेण यावत्सप्तदशसागरोपमपरिसमाप्तिः । पप्ठ्या समयाधिकमनदशसागरोपमादारभ्य द्वितीयादिसमयाधिकक्रमेण यावद्वाविंशतिसागरोपमपरिसमाप्तिः । सप्तम्या समयाधिकहाविंशतिसागरोपमादारभ्य यावत्रयात्रिंशत्सागरोपमपरिसमाप्तिः । एषमतेवायुर्विकल्पेषु परावृत्तिः भवसंसार वत्र्यते। भावसंसारस्तु सर्वजनानुवाधिगम्य रति नेह प्रतन्यते । वर्षभूते संसारसागर अनंते । बहुतिब्बदुक्खसलिलम्मि शारीरं, आगंतुकं, मानसं, म्वाभाविकमिति विकल्पेन पहनि तीवाणि दुःखानि सलिलानि यस्मिन् तस्मिन् । संसरमाणो परिचर्तमानः । जीयो दुक्रवण कंऐन । समर लभते । किं मणुस्सत मनुष्यत्वं । मनुष्यक्षेत्रस्यास्पत्वात् सर्व. जगति तिरश्चामुत्पत्तर्मनुजतानिर्वर्तकानां कर्मणो कारणभूता ये परिणामास्तेषां दुर्लभत्याच । केसे परिणामा इत्यत्रोच्यते सर्व एव हि जीवपरिणामा मिथ्यात्वासयमकपायाश्यामिप्रकारा भवन्ति । तीमो मध्यमो मंद इति । कुतः कर्मनिमिसा दि मिथ्यावादयः कर्माणि च सीबमध्यममंदानुभवविशिष्टानि । तेन कारणभेदतः का परिणामान विश्वषा । तत्र हिसादयः परिपामा मध्यमारते मनुजा मनिनिर्तिकाः बालिकाराज्या, दारुणा, गोमत्रिकया, कर्दमागण बसमानाः यथासंख्येन कोधमानमायालोमशः परिणामाः। जीवधातं कृत्वा हा दुट कृतं, यथा दुःख मरणं यास्माकं अप्रियं तथा सर्षजीवानां । अहिंसा शोभना वयं नु असमर्था हिंसादिकं परिहर्नुमिति च परिणामः । मृत परदोपसूचक, परगुणानामसदनं वचनं वा सज्जनाचारः । साधूनामयोग्य वचने दुागारे च प्रवृत्तानां का नाम साधुतास्माकमिति परिणामः । तथा शस्त्रमहारादयनर्थः परखव्यापहरणं, द्रव्यविनाशो हि सकलकुटुअविनाशो । नेतरस् तस्माइष्टु कृतं परधनहरणमिति परिणामः परवागविल घनमस्माभिः कृतं सदतीवाशोभनं। यथास्महाराणां परैर्ग्रहणे दुःखमात्मसाक्षिकं तवणमिति परिणामः । यथा गंगाविमहानदीनां अनय. रतप्रवेशेऽपि न तृप्तिः सागरस्यैधं द्रविणेनापि जीवस्य संतोषो मास्तीति परिणामः । एवमादिपरिणामानां सुलभता अनुभवसिद्धया रस्थं दुर्लभमनुसत्वं साधुवदने परुपमिव पचः। धर्मरथिममंडले तम इष, चरकोप दयेष, लुम्धे सत्यघ. चनमिष | मानिनि परगुणस्तवनमिच, घामलोचनायामार्जवमिव, सलेपकारहतेष, आताभासमतेषु वस्तुतस्थाययोध इच। तह चेव मनुजावागिव । देसकुलस्वमारोगामागं बुजी देशः, फुल्दै, रूप, आरोग्य, आयुर्थशिश । सपणं गहण सदा यस. जमो श्रय, अहणं थला संयमगत द्वारा दुर्दमा लाफ। तत्र देवालभतोफयते । कर्मभूमिजा, भोगभूमिजा अन्तद्वापजाः सम्मूहिमाः इति चतुःप्रकारा मनुजाः । पंचभरताः, परापताः, पंच विदेहाः इति पंचदशकर्मभूमयः । पंच हैमयत. यः, पंच इग्विः पंच देवकुम्वा, पंच उत्तर करयः, पंच रम्यकाः, पंच हरण्यवतयः त्रिंशद्भोगभूमयः । रयणकालोदधिसमुयोरन्तरद्वीपाः । चकिरकंधायारप्रनवोच्चारभूमयः शुफसिंहाणकरेलष्मणदतमलानि चांगुलासंख्यातभाग Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना ६५३ मात्र शरीराणां सम्मूच्छिमानां जन्मस्थानानि । तत्र भोगभूमिमंतरद्वीपं च परिहृत्य कर्मभूमिपतिर्लभा । कर्मभूमिषु व वर्वरचितीकादिदेशपरिक शेषतः । लब्धेऽपि देशे चांडालादिकुलपरिहारेण तपो यो कुले जाती । जातिर्मातृवंशः । सुकुलं कथं दुर्लभं इन चेोच्यते । जाति, कुलं रूपं ज्ञानं तयो, यलं वा मध्य अगतित्वं । अन्येऽप्येतैर्गुणैरविकाः स्वयुपमनने पगनवाकरणं, गुणाधिकेषु नीववृत्तिः । परेण म्यापि अन्यदोषाकथनं, आत्मगुणस्वनं इत्येतेः परिणामैः उगो कर्म आपाद्यते । तेन कुलेषु पूज्येषु जायते । जंतुरयं पुनर्न तथा प्रवर्तते मतिः। किन्तद्विपरीतेषु परिणामेषु वर्तमानो मीत्रमेव यध्नाति असकृत्तेन पूज्यं कुलं दुर्लभं । उच आत्या मत्तो यः कुलाद्वापि रूपादैश्वर्या ज्ञानतो वाचला ॥ यावा यस्तो वा परेषु निशयुक्तः स्तौति वाग्मानमेव ॥ १ ॥ अन्यत्रज्ञानादरातिक्रमाणां कर्ता मानं योऽतिमात्रं विभर्ति || मी नाम कर्मैष वाल्यानात्युग्रं निदितं जन्मघा || २ || यस्तु मायाप्युत्तमायं कुलायेरन्यान्या मन्यमानो विशिष्टान् ॥ अन्यान्कांश्चिज्ञावजानाति धीराश्री वैत्या युज्यते वाधिषु ॥ ३ ॥ पृष्ठोऽन्येान्यब्रवीति नात्मानं वा स्त्रीति निर्मुकमानः ॥ उरो नाम कर्मे धीमान् बध्नाती जन्मवासे प्रजानाम् ॥ ४ ॥ इति ॥ नीरोगतापि दुर्लभा । असदसदेयकर्मबंधनात् । यंधाच्छेदान्ताडनान्मारणाहाहादोषावासक्षेधमेव बध्नाति । तथा चाभ्यधायि - अन्येषां यो दुःखमशो ऽनुकं त्यक्त्वा ती तीवसंशयुक्तः ॥ बंधस्ताडनैमीरणेध दाई रोधैवापि नित्यं करोति ॥ सौख्यं कांक्षत्रात्मनो दुष्टचित्तो नीचो नीच कर्म कुर्वन्सदेव ॥ पश्चात्तापं तापिना यः प्रयाति यस्नास्येोऽसातवेद्यं सदैवम् ॥ रोगाभिभवान्नष्टबुद्धिचेष्टः कथमेव द्वितोद्योगं कुर्यात् ॥ तथा वाभाणि- प्राप्नोत्युपात्तादिह जीवतोऽपि महाभयं रोग महाशनिभ्यः ॥ श्रथाशनिः खान्निपतत्यबुद्धो रोगस्तथागत्य निहन्ति देहं ॥ १ ॥ चलापी रूपगुणाश्च तावद्यावन्न रोगः समुपैति देहं ॥ आश्वासः 2 ६५३ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचास मूलाराधना ६५४ STORE materiATARA फलस्यै लग्नस्य हि जातु तन्तोस्तावप्न पातः सनो न यावत् ॥ तस्मिन्स्वदेई परियाघमामे धेयः प्रकन मुखन शक्यम् ॥ गृहे समंतामहिमहामाने शक्तःमकर्तुं पुरुषोध किचित् । सदा परमाणघातोपतस्तदीयप्रियतमजीवितषिनाशनात् प्रायणात्यायुरेष भवति । आयुषश्छेवने बहनि निमित्तानि । जलं, ज्वलनामारुता, सर्पा, वृमिका, रोगा उसट्टासनिश्वासनिरोधः, माहारालाभः, वेदनेत्येषमादीनि । ततो वीर्घमायुन सुलभ मनुजभवे । सामान्यवचनोऽप्यायुःशहा दीर्घ मनुजायुषि वर्तमानो गृहीतोऽन्यथायुर्मात्रस्य संसा. रिपाः सुलभस्यात् । लम्भेष्वपि वेशादिषु बुद्धिलेमा। परलोकान्वेषणपरा पुद्धिपत्र युनिशब्देनोच्यते न ज्ञानमात्रवाची । तन्द्रि सुलभ शानाधरणेनाबरुवबोधवीर्यस्य जलधरपटलावद्धमंडलस्य छायामांद्यमिव दिनपतेरविचेदकं भवति शानम् । किंचिन्मिथ्यात्योदयाद्विपर्यस्तमुदेति विज्ञानं । नैषात्मा नाम कश्चित्कर्ता शुभाशुभयोः कर्मणोः । नापि तत्फला. नुभवनिरता, नापि परलोका प्रायः कर्मवशरर्तिना कश्चिदिति । तथा प्रधाधि लोको नायं नापरो नापि चात्मा धर्माधर्मी पुण्यपाप न चापि ॥ स्वगों रएः केन केनाथवा ते घोरा मा नारकाणां निवासाः ॥2॥ बंधा को या कोऽथवा सोऽस्ति मोक्षो, मिथ्या सर्व यंत्रणेयं निरी ।। प्राप्ताः कामाः सवितव्या यथेष्टं त्यक्त्वा दूरगे कोऽभिलाषः ।। इति । तथा चोन्ये-बवार्षिका स्त्री विशतिवार्षिकः पुमान् तयोः परस्परं प्रेमपूर्वहावभावविभ्रमकटाकिलकिंचितादिभावपूर्वकः संयोग एष स्पर्गः नान्यः । खीमुद्रा मकरध्वजस्य जयिनी साधसंपा। एमां ये प्रषिहाय यति कुधियः स्वर्गापवर्गच्छया । तहोपैर्विनिहत्य ते द्रुततरं नग्नीकृता मंडिताः ।। कोचिवक्तपटीएताब जटिला: कापाटिकावागी । तथान्यरभिहितं-जलबुद्धज्जीवाः, परलोकिनोऽभावात्परताकाभावः इति च । सत्यापि वुद्धी समीची नशानलोचनवता, सकलपाणिभृगोचरपापरिष्वक्तचेतसा लाभसत्कारपुरस्कारादिनिरपेक्षेण, चतुर्गतिपरिभ्रमणप्रभव यातनासहनभवलोक्य माणभूतां परमामनुकंपामुपगतेन हा जनो घिचेतनः मिथ्यावर्शनाथशुभपारणामकदवकमिदम. स्माभिरशुभगतिनिर्वर्तनम मपहातव्यमित्यजानानस्तत्रैषासकरप्रवर्तमानो दुःवरत्नाकरमरारमुपविशत्यशरणो घराक: १ फलस्य शाखागतद्वंततन्तोः, इत्यपि पाठः क पुस्तके । १ तथा चान्ये' इदमारभ्य श्री मुद्रेति सोकावसानपर्यन्तो मन्थः ख पुस्तके नास्ति । ६५४ AtATAweta Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASSES भाश्वास मूलाराधना NORaater इति कृतसंकल्पेन यतिजनेन संसों दुर्लभः । कुतः दर्शनमोहोदयाउशानावरणोदयाच्चन यातगुणान्योति श्रद्धतेचा जनः । तत एव न दीको यतीन या सुगणाविषमतदुसर्पणापाद्यते। भारिजोदामादयतोऽतितरां प्राणिनस्नतो हिंसादिकं स्वयं करोति, कारयति अनुमोदते । दिसादिषु वर्तमानेष्वेच गति बध्नाति । न हिसादिपरिहारोयतेषु । विना गमिकतः संसर्गस्तासेचा वा । सा हि संसारोग्छेदवारी प्रशमकरी ज्ञाननियुधिकारी। कीर्तिकरी पुण्यकरी संसेचा साधुवर्गस्य ।। दर्शनमात्रमपि सतां संसारोच्छवने भवति थी । किं पुनराधिकारकता संसेवा साधुवर्गस्य ।। तत्सेचा यदि न स्यान्न स्थाद्शानागमो पिना शानात् ।। हितकर्मप्रतिपचिन स्पाच स्यायतो मोक्षः॥ साधुपलेयने यदि पारंपर्येण मोक्षमानयति । हानिः श्रमश्व नृणां को साधू-सेवमानानाम् ।। श्रेयाः कथं न यसयो विदुषा श्रेयोधिना मनुष्येण ॥ अक्षयमिह ये श्रेयो मुदाश्रितेभ्यः प्रयच्छन्ति । इति सततमपोखमानमोडाविहपरलोकहितैषिणा नरेण ।। जगदधिकतपोविभूतियुक्ता यतिवृषमा विनयेन सेवितव्याः ॥ यहच्छया जातेऽपि यतिसंसर्ग न गुणःन जितं शृणुयात् । यथा न वर्षस्य पात पर्व गुणो नरस्य अपितु भूचित्रीजयापः । तबच्छूयणं गुणो यतिसमीपगमनेम । तदेवं अवर्ण दुर्लभं कथयति । समीपमुपगतोऽपि निद्रायति । समीपस्थानां वचो यत्किचित् श्रृणोति, न रोचते, वा तद्धर्ममाहात्म्यप्रकाशनं मोहोदयात् । न जानाति वा मतिमांद्यादत पर तत्र नानुरागोऽस्य । अंतरेण चानुरागं कथं श्रोतुमुत्सद्देन् । तथा चाभाणि--- साधूनां शिवगतिमार्गदेशकानां संप्राप्तो निलयमपि प्रमाददोषत् ॥ आस्ते यो जनवचनानि तव धृण्वन् गत्वाली हृदमपि पंक पब मनः । सत्यपि श्रवणे ग्रहणं विज्ञान तनिरूपितस्यार्थस्य दुकरं । सौम्याजीरादिवस्तुतत्वस्य कदाचिदायथुन त्वात् । शानावरपाक्षयोपशमप्रकरभावान ज्ञाने धनत्वं तत्र श्रद्धाभा । सोऽयं जिनपणीतो धर्मः अहिंसालक्षणः, सत्याधिष्ठाना, परद्रव्यापहरणपरिवर्जनात्मका, नवविधब्रह्मचर्यग्रतः, परित्यक्ताशेषमूर्छः, बिनयमूला, समीचीनहानपुर समः, क्षमामाईवार्जवसंतोपगुगभूषा, नरफवसनीषनागलीभूतः, तिर्यगतिलतापुटारः, कठोराशनिर्तु:साचसशिनरागां, गोहमहामहीरुद्दोत्पाटने पटुमातरिश्वा अरावधानलशिखामुखप्रशमनमुख रो धनाधनः, प्रयर्षकः प्रापण्या, मरणहरिणषि. ६५५ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावासा मूलाराधना शासनचलाइचंडउरी, क्रूररोगोरगाणां बिनतासुतः, संपत्तुराएगाया हिमाचलः, सतुरगाधशोकपकस्य, पिता सुभगतायाः, पेश्वर्यरत्नानामाकरः, कुयोनिचनधिप्रनष्टानां पृथुलशिवपुरं, इति श्रद्धानं अतिदुर्लभ वर्शगमोहोदयात् । उपशमात् क्षयोपशमास, क्षयादा दर्शनमोहस्य जाते पिथद्वाने संयमो दूर्लभतरा प्रत्याश्यानाधरणोदयात् । उक्तं च-- दुयो भवति नरेण तत्त्वधर्मो कात्यापि प्रयतनमन कटमेव । तस्मात्या धृतिमुपलभ्य तत्त्वः, सद्धर्म क्षणमपि मा कथा प्रमाद । सत्यार्य सुकरतरोऽपि पापकार्यात् धर्मोऽभूत्क्षणमपि दुष्करो मनुष्यैः ।। आइचय फिर्मापन चात्र संति मूढाः स्याइतक्षुधमिह कर्मणो गुरुत्वं । काकिण्यामपि गायन्गुणं प्रदान्तं तदेतोः श्रममतुलं करोति यत्नात् ।। सत्वशः सुरमनुजदिमोक्षमूले सद्धर्मे दयमपि स्थिरीकरोति ॥ यत्पापे भृशमहिते करोति चेष्टामालस्यं परमहितेच याति धर्म ॥ युक्तं तपदिन तथा भवेत्पृथिव्या संसार मनु पुरुषः कथं लभत ॥ एवमपि परंपरेण दुर्लभपरंपरया । लण विलवापि । संयम संयम सबगो क्षपकः । किन लभेज सुदिन लभते श्रुति । संयेगकरी संसारभषजननी । अबहुस्सुसकास भबहुक्षुतस्य सूरेः पार्थे तस्मान्तवानाचार्य प्राश्रयणीयः इति प्रस्तुतेन संबंधः ॥ सम्म सुदिमनभतो समीचीनां शुतिमलभमानः । कदा मरणकाले । अपहुस्सुदसगार अबहुश्रुतस्य पा | दिग्बद्ध चिरं काटे। मुसिमुवभिनावि मुक्तिशदेनात्र प्राणेन्द्रियविषयासंयमस्यागः परिगृह्यते । तनायमर्थः । चिरप्रवतितसंयमोऽपीति परियडदि प्रन्यवते कुतः ? संयमान् । संयमहानिकथनेन चारिताराधनाया अभाव आख्यायते । संयभान्प्रच्चन कथमितिबेत्-मनोशानाममनोजानां च विषयाणां सर्वत्र व सदा च सांनिध्यात् अभ्रंतर कारणास्त्र कर्म गोऽपि रामपमोहपरिणामाः प्रादुर्भवन्तीति: दुर्निधारा इति वदन्ति । सकं वसी छेत्तुं अत्यवंशः शीत्युच्यते । गाढायसनता हि तन्न संभयति शक्यते बंशी च्छेत्तुं । तत्तो गुल्मात् उक्कट्टिषु अबक्रष्टुं । पुणा पश्चात् । दुका दुष्कर । इय एवं । संजदस्स वि संयतस्यापि मनः धिसएम रूपादितः । उजाहिदु अपक्रष्टुं दुख कुष्करं। रागद्ववेभ्यो व्यारतीयतु अशक्यं । एतदुक्तं भवति-रागोपविजय यदि नाम प्रतिज्ञा कृता तथापि कृतशरीरसलेखनस्य क्षुदादिपरोपहरुबद्तस्य मंदवीर्यमा न श्रुतमानप्रणिधानं तसचांतरण रागहषप्रवत्तेने चारित्राराधकला स्यात् । पदुशतः पुनः यथास्य रागवपी न जायते तथोपदिशति भोगनिवजनी शरीरनिवजनों कथामित्ध ६५६ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना স্থান ६ .८ पकानदात्र निग्यप्रतिष्ठा तिर्यक्ष देवेषु च मानुपेषु ।। कचिकदाचिन्नु कचिदेव सौम्यम्य संशाव शारीरिणां स्यात ॥ पनन जन्मस्वरनामयं शरीराणा दुःखमवाप्यन यत् ।। अनंतभागापि न तस्य हि स्थात् सधैं सुख सर्वशरीरसंस्थे । तत्रैक जीवः सुखभागमेकं भजेत्कियंतं जननार्णधेऽस्मिन् ॥ चचूर्यमाणः परतो बराको बनेऽतिभीतो हरिणो यर्थकः ॥ भवेष्यनंतेषु सुखे तथापि शारीरिणकन समाएनीये। कामसूती ययावत तात्फयद्भवेत्तस्य विमृश्यमाणे ॥ अत्यल्पमप्यस्य तदस्तु तावत्तपःखराशी पतितं तदीयं । स्यानसं स्वादुर या प्राण्यांबुवानां लवणार्णवांबु ।। व्यच्चाप्यदः सौम्यमितीप्यतेऽत्र पूर्वोत्थवुःखप्रतिकार पषः ॥ विना हि तुःसात्प्रथमप्रसूतात् न लक्ष्यते किंचन सौग्यमत्र। प्रतीयते घबु तूपाप्रशान्त्यै क्षुधाशनायाशनमध्यते च ॥ वश्मांचुवातातपधारणाय गुह्मप्रतिपादनमपरं च ॥ शीतापनुत्माधरणं च हष्ट्र शय्या र मिदाश्रममोदनाय ।। यानानि चापथमवारणार्थ स्नान थमस्वेदमलाएनुस् ॥ स्थानं श्रमस्यौषधमासमं च दुर्गधनाशाय च धसेवा ।। धैरुण्यनाशाय व भूषणानि कलाभियोगोऽरतिषाचनाय ॥ तसेच सर्व परिचित्यमान भोगाभिधानं सुरमानुपाणां । दुःखप्रतीकार निमित्तमेव भैषज्यसय रुगादिनस्थ ॥ पित्तप्रकोपेन यिदाह्यमाने द्रव्याणि शीतानि निपेचमाणः ।। मन्येत भोमा इति तानि योऽशः कुर्वीत सोऽधादिषु भोगसंज्ञाः ॥ यतश्च नैकान्तसुखपदानि द्रव्याणि तोयप्रभृतीनि लोके । अतश्च दुःखमतिकार बुद्धि तेषु प्रर्यान्न तु भोगसंशयं ॥ सुधाभिभूतस्य हि यत्सुखाय तवेष तृप्तस्य चिरायते ॥ उणार्दितः कांक्षति यानि येह तान्येव विद्वेषकराणि शीते। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः पूलाराधना ६"८ TARI किं च स्पचक्रविक्रमाक्रांतदेवमानयविद्याधरचना निकटोपनिविष्टाक्षयनवनिधीनो, समधिगतचतुर्दशरस्नानां, लांछनान, दांगभोगानुभवचतुराणां । तथा सुधाशनानामप्यनेकसमुद्रोपमजीपिना, अप्रच्यवयस्यायौवनानां सहजस्खे. छानुसारिनियाभरणमाल्यवसनसंपत्सौभाग्य स्कंधेन मनोनयनवल्लभरूपासूनोज्ज्वेलन बिलासपलाशेन, सौकुमार्याकुरेण । दिगंगनामुख्यासायमानसौरभेण चिद्रुमाधरपल्लवेन, निबिडीसस स्तनलमा भनोविदाक्षणालमेरणादलितन, ललितभुजशास्त्राप्रतानेन, स्फुरत्तपनीयमयरशनावेदिकापरीतकामनीरमरितविशालजघनसरोविभूषणेन, मुम्बग्नू पुरभ्रमरकत्सकलकलेन देवकन्यालतापनेन परिवृतानामपि परैोगैस्तृप्तिन किं पुनरितरमानवानां । अपि तीवतरपुंचे. दोदवानलजनितचतोविदाद्वानां मेघौषधं चामलोवनासंगमः तापप्रकर्यानुबंधस्यात् । रूपयोयनविलासचानुयसौभाग्यादीनां प्रकापकरूपेणावस्थितस्वादंगनासु ताः पश्यतोऽपि उत्कंठानुपरसमुपजायगाना विदाइमाबद्दति दुर्वह । तास्त्य करवा चमं यांति मूर्ति बाढीकते, परैलिमिचीपन्जियते । स्वयं चा दुर्विमोचतमपातकं यमपाशनामध्यमाणे विहाय ता चिकृतमुखो, निनिर्मवनयनो नितांतरोदनाच्छादितलोहितलोचनो जहाति । तारसं तनयोऽपि स्फटिकमाटवोबाधित. गुणग्राहिण्यः । तामास्थिररागाः संध्यासमयजलइलेखेष दुर्लभाव । स्त्रीचखगंधमाल्यादींश्च लब्धानप्पाहरन्ति बलिना इति मद्यं, न ब सर्पयन्ति । तदर्जनार्थ पदकर्मसु प्रयतितव्यं । तानि च संदिग्धफलानि बद्भुतरायासमूलानि दिसादिसावधक्रियापरतंत्राणि, दुर्गतिबंधनानि इस्येषमात्मिका मोगनिजनी । शरीरं पुनरिंदमशुधिमिधान, आत्मनो महान भार, न चापास्ति किंचित्सारभूतं । सनिहितामेकापाये व्याधिसस्थाना क्षेत्र, जराडाफिनीपितगृहं, किं च मान्ये कुले जातो विशालकीर्तिः गुणवानपि प्रावीणविभषो नीचं कर्म, पुरो धायनं, प्रेषणकरण, तदुच्छिष्टमोजने चाकरोति शरीर पोषणाय। उक्तंच नान्तर्गतोऽथ न बहिर्म च तस्य मध्ये सारोऽस्ति येन मनसा पारगम्यमानः ॥ तस्मिनसार जनकांक्षितकामसारैः कोऽन्यः करिष्यति मनः प्रतिबद्धसारः॥ पायुप्रकोपजनितेः कफपिस जैध रोमः सदा दुरित जैः प्रविगध्यमानः ।। देहोऽयमेवमसिदुःखनिमित्तभूतो नाशं प्रयाति बटुधेप्ति कुरुप्त धर्म ।। संघातजं प्रशिथिलास्थि तरूपमाडं स्नायुप्रयुद्धमामे प्रगतं शिराभिः । लिप्तं च मांसधिरोदकर्दमेन रोगाहित स्पृशति देहविशीर्णगई । इत्येवमादिका शरीरानयजनी। अल्पज्ञ आचार्यका आश्रय करनेसे और भी दोष उत्पन्न होते हैं-- अर्थ-यह संसार समुद्र के समान है. द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इनके द्वारा इसमें परिवर्तन होता है. टीकाकार क्रमसे पांच प्रकारक संसारोंका वर्णन करते हैं. द्रव्यसंसारका स्वरूप इस प्रकार है -- ६५८ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूनाराधना वारंवार शरीर ग्रहण करना व त्यागना इसको द्रव्यसंसार कहते हैं, पहिले नरकम सात धनुष्य, तीन हाथ और छह अंगुल प्रमाण नारकी जीवोंका शरीर होता हैं. दूसरे नरकसे सातये नरकपर्यंत नारकी जीवोंका शरीर दना दूना ऊंचा है. सातवे नरकमें नारकिओंका शरीरप्रमाण पांचसौ धनुप्यका होता है. इस तरह नारकी जीयोंके शरीरके प्रकार हैं. प्राणिऑने भूतकालमें एक एक शरीर भी अनंतबार धारण किया है. भव्य जीवोंने भूतकालमें अनंता शरीर धारण किय है, परंतु भविष्यकालमें वे अनंत शरीराको धारण करेंगे अथवा नहीं भी करेंगे. यदि थोडेहि दिनों में उनको मोक्ष प्राप्त होनेवाला होगा तो अनंत शरीर धारण नहीं करेंगे अन्यथा धारण करेंगे. अभन्यजीव भूतकालके समान भविष्यकालमें भी अनंतो शरीर धारण करेंगही. इस प्रकार स्थूलरीतिसे द्रन्यसंसारका वर्णन किया है क्षेत्र संसारका वर्णन-सीमंतक-नरक विलसे अप्रतिष्ठ नामक नरकविलतक चौरासी लाख नरकबिलोंकी संख्या है. इन एकेक नरकविलमें भी इस जीवने भूतकालमें अनंत जन्ममरण धारण किये हैं. भव्यजीवोंके भविष्यकालमें अनंत जन्ममरण होगे ही ऐसा नियम नहीं है. अभव्यों के भविष्यकालमें भी अनंत जन्ममरण हॉग ही. कालसंसारका वर्णन-किसी उत्सर्पिणीके प्रथम समयमें कोइ जीन प्रथमनरकमें उत्पन्न हुआ. आयुष्य समाप्त होनेपर अन्य स्थानमें उत्पन्न हुआ. पुनः कदाचित् किसी उत्सर्पिणीके दुमर समयमें प्रथम नरकमें उत्पन्न दुआ. इस प्रकारसे उत्सर्पिणीके तिसरा, चौथा, पांचवा वगैरे समयों में उसही नरकमें उत्पन्न हो होकर उत्सर्पिणीके संपूर्ण समय उसने पूर्ण किये. उत्सर्पिणीके समान अवसर्पिणीके समय क्रमसे उसही नरकमें जन्म लेकर उसने पूर्ण किये. प्रथमनरकमें जन्म लेले कर जैसे उसने उत्सर्पिणीके और अबमर्पिणीके सगय पूर्ण किये. उसी तरह उसने अन्य नरकों में भी जन्म लेकर इनके समय पूर्ण किये हैं. प्रत्येक नरको पुनः पुनः जन्म लेकर इस जीवने अनंत उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालको समाप्त किया है. भवसंसारका वर्णन-प्रथम नरकमें दस हजार वर्ष प्रमाण आयु धारण करके यह जीव नारकी हुआ. पुनः क्रमसे एक समय अधिक दस हजार वर्ष आयुका धारक हुआ. ऐस एक एक समय बढ़ता हुआ यह जीव प्रथम नरकमें एकसागरोपम आयुष्य पूर्ण करता है. दूसरे नरकमें एक एक समय अधिक के क्रमसे एक सागरोपम ६५९ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा वर्ष आयुष्य आदि लेकर तीन सागरोपम आयुध्यत्तक उसहो नरकम उत्पन्न होता है. तिसर नरक में एक समय अधिक तीन सागरोपम से प्रारंभकर दो तीन चार पांच इत्यादि समयोंसे बचता हुवा सात सागरोपम आयुष्यकी परिपूर्णता करता हुआ यह जीव बार बार तीसरे नरकमें ही उत्पन्न होता है. चौथे नरकमें समयाधिक सात सागर से लेकर द्वितीयादिक समयादिके क्रमसे दशसागरोपमकी समाप्ति होनेतक चतुर्थ नरकमें इस जीवने जन्म धारण किये हैं. पांच में नरकमें एक समयाधिक दशसागरोपमायुष्यका प्रारंभ करके द्वितीयादि समयाधिकके क्रमानुसार सतरा सागरोपमायाज्यकी समाप्ति होनेतक पांचवे नरकमें इस जीवने जन्म धारण किया था. छठे नरकमें समयाधिक सतरा सागरोपमायुप्यका प्रारंभ कर दुसरा, तिसरा वगैरे समय अधिक बढाता हुआ बावीस सागरोपमायुष्य तक असंख्यात जन्म जीयने धारण किये हैं. सान नरको समयाधिक याचीस सागरोपम आयुष्य से उत्पन्न होकर समयाधिक क्रमसे तेहतीस सागरीपमायध्यकी समाप्ति होनेतक इस जीवने असंख्यात जन्म धारण किये हैं. इस प्रकार आयुके विकल्पोंको धारण करते हुए इस जीवने मवसंसारमें भ्रमण किया है. .. भावसंसारका स्वरूप सर्वजन सुख से जान सकते हैं इसलिये यहां उसका वर्णन करनेकी आवश्यकता नहीं है. इस प्रकार इस संसारसमुद्र में जानाविध तीव दुःखस्पी पानी है शारीरिक, मानसिक, आगंतुक व स्त्राभाविक एम दुःखके अनेक भेद है. इस गंसारमें भ्रमण करने वाले इस जीवको कष्टस मनुष्यपना प्राप्त होता है, सर्व जगतमें मनुष्य उत्पन्न होनेका क्षेत्र अल्प है और वियच प्राणी सर्व जगतम उत्पन्न होते हैं. मनुश्यपना जिसमें उत्पन्न होता हैं एवं कर्मकी उत्पत्ति करनेवाले कारणभूत परिणामाकी प्राप्ति होना कठिन है इसलिये मनुण्यत्व दुर्लभ है. मनुष्यत्व प्रासिके परिणाम कोनसे हैं इस प्रश्नका उत्तर जीवोंके परिणाम मिथ्यात्व, असंयम और कक्षाय ऐसे तीन प्रकारके हैं. वे परिणाम भी तीत्र, मध्यम और मंद है. कारणों में अर्थात् कोंमें तीन, मध्यम और मंद स्वभाव रहता है अतः उनसे उत्पन्न होनेवाले परिणा मोमें भी तीव, मध्यम और मंदता आनी है. कारणों में भेद होनेसे कार्यरूप परिणामों में भी विचित्रता आती है. इन परिणामोमें जो मध्यम हिंसादि परिणाम हैं वे मनुष्यपना के उत्पादक है. वालुकामें खीची हुई Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आश्वास रेखाके समान क्रोध परिणाम, लकडीक समान मानपरिणाम, गोमूत्राकारके समान मायापरिणाम और कीच डके रंगसमान लोभपरिणाम ऐसे परिणामोंसे मनुष्यपनाकी प्राप्ति होती है. जीवघात करनेपर हा मेने दुष्ट कार्य किया है, जैसे दुःख वा मरण हगको अप्रिय है, संपूर्ण प्रापिओको भी वह अप्रिय है. जगतमें अहिंसा ही थेष्ट व कल्याण कारिणी है. परंतु हम हिमादिकांका त्याग करनमें असमर्थ हैं. अट परदोषोंको कहना, दुसरोंके सदगुण देखकर मनमें द्वेष करना, असत्यभाषग करना यह नजनोंका आचार है. माधुओंको अयोग्य ऐसे निंद्य भाषण और खोटे कामों में हम हमेशा प्र . इसलिये इममें गज्जनपना कैसा रहेगा ऐसा पश्चाताप करना. दुसरोंका धन हरण करना यह शवग्रहार करने से भी अधिक दुग्यदायक है. व्यका विनाश होने सर्व कुटुचका ही नाश होता है इसलिये मैने दूसरोका धन हरण किया यह अयोग्य कार्य किया है रेरो परिणाम होना. हमने रखी गैरह का हरण किया यह बहुत अयोग्य कार्य हमसे हुआ, हमारी स्त्रीका किसाने हरण करने पर जैसा हमको अतिशय कष्ट होता है वैमा उनको भी होता है यह अनुभवसे प्रसिद्ध है. ऐसे परिणाम होना, गंगादि नदिया हमेशा अपना अनंत जल लेकर समुद्र में प्रवेश करती हैं तथापि समुद्रकी तृप्ति होती ही नहीं. यह मनुष्यप्राणी भी धन मिलनेस तृप्त नहीं होता है. इस तरहके परिणाम दुर्लभ है. (सत्पुरुष के मुखमें कठोर वचन, सूर्यमंडलमें अंधकार, तीनक्रोधी मनुष्यमें दया, लोभी मनुष्यमें सत्यभापण, अभिमानी मनुष्य में परगणोंका स्तवन, स्त्रीमें मायारहितपना, दुष्टोंमें कुतन्त्रता, कपिल, बद्ध बगैरह आताभासोके मतमें बस्तुके सत्यस्वरूपका ज्ञान ये जैसे दुर्लभ हैं. वैसा मनुष्यत्वकी प्राप्ति होना दुर्लभ है.) देश, कुल, रूप: आरोग्य, दीर्घायु, बुद्धि, शास्त्रश्रवण, ग्रहण, श्रद्धा, और संयम ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं. यहां आचार्य उत्तम देश जन्म होना दुर्लभ है इस विषयका वर्णन करते हैंकर्मभूमिज, भोगभूमिज, अन्तीपज और संमम्छिम ऐसे मनुष्योंके चार भेद हैं. ढाई द्वीपोंमें पांचभरत क्षेत्र, पांच ऐरावत क्षत्र और पांच विदेह क्षेत्र ऐसी पंधरा कर्मभूमियां है. पांच हैमवत क्षेत्र, पांच हरित्र क्षेत्र, पांच देवकुरु, पांच उसर कुरु, पांच रम्यक क्षेत्र और पांच हरण्यवत क्षेत्र एसी तीस भांगभूमिया है. Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाचार ६६२ लवपासमुद्र और कालोदधि समुद्र के मध्यमें छानवें अन्तद्वीप हैं. चक्रवर्तीका सन्य, मूतनेके, और गनेके स्थान, वीर्य, नाकका मल, कफ, कानका मल, दांतोंका मल इनमें अगुलका असंख्यात भाग प्रमाण शरीरके धारक सम्मूच्र्छन मनुष्य उत्पन्न होते हैं. भोगभृमि और अन्त पोंका छोट कर्मभूमिमें उम्पत्ति होना दुर्लभ है. कर्मभूमिमें भी वर्वर, चिलातक. पारसीक बगैरे देशीको छोडकर अंगदेश, वंगदेश, मगध गरह देशों में उत्पत्ति होना दुर्लभ है. उत्तम देशोंकी प्राप्ति होने पर भी चांडाल, धीवर, चमार, होर वगरे नीच कुलोंको छोडकर तप करनेके लिये योग्य अर्थात् मुनिधर्म धारण के योग्य कुलमें, जातिमें, जन्म होना दुर्लभ है. माताके वंशको जाति कहते हैं. उत्तम कुलकी प्राप्ति होना क्यों कठिन है इसका विवेचन उत्तम जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, ज्ञान, तप, पल इनकी प्राप्ति होनेपर गर्व न करना अन्य लोक भी इन गुणोंसे मेरेसे भी आधिक है ऐसा समझकर गई रहित होना, दूसरोंकी अवज्ञा न करना, जो गुणोंसे श्रेष्ठ हैं उनके साथ नम्रताका व्यवहार करना, दूसरोंके पूछने पर भी अन्य दोषोंका कथन न करना, अपने गुणोंकी स्तुति न करना इत्यादि परिणामोंसे उच्च गोत्रकर्मका बंध होता है जिससे मनुष्य उच्च कुलमें उत्पन्न होता है. परंतु मुखघुद्धिका मनुष्य उपर्युक्त परिणामोंका स्वीकार नहीं करता है. जो विपरीत परिणाम हैं. उनमें वह प्रति करता है, जिससे उसको नीचगोत्रका बंध होता है. ऐसे विपरीत परिणाम होनेसे पूज्य-उच्चकुलकी प्राप्ति नहीं होती है. इसलिये उच्च कुल दुर्लभ है. अन्य ग्रंथों में इस प्रकार वर्णन है जो पुरुष जाति, कुल, रूप, ऐश्चयें, आज्ञा, शरीरवल अथवा तप इत्यादिकी प्राप्ति होनसे उन्मत्त होकर दुसरों की निंदा करते हैं अथवा अपनी प्रशंसा करते हैं. दुसरोंकी अवज्ञा, अनादर और अशुभ नामकर्मका चंध कर लेते हैं. जिससे इस संसारमें उनको निंद्य कुलादिकमें जन्म धारण कर प्रतिसमय निंदा, अपमान, वगैरह दुःख भोगने पड़ते हैं क्योंकि उसने पूर्वजन्ममें अत्यंत अभिमान धारण किया था. . परंतु जो पुरुप कुल, जाति वगैरहकी उतमता प्राप्त करके भी दूसरों को अपनेसे भी बुद्धीसे विशिष्ट समझता है, जो किसी का अपमान, अवज्ञा नहीं करता है, जो बुद्धिमान् को देखकर नम्र होता है, पूरन पर भी जो दूसरोंके दोषोंका वर्णन नहीं करता है. अपनमें गुण रहते हुए भी गर्वरहित होकर उनका कथन करता नहीं वह मुण्यपुरुष उकचगोत्र शुभनामकर्म इनका तीन बंधकर इस संसारमें सर्व लोकांका प्यारा बनता है. Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाखा मूलाराधना उच्च कुलादिक जैसे दुर्लभ है वैसी नीरोगता अर्थात् रोगरहितदेह प्राप्त होना भी दुर्लभ है. प्राणिओंको बांधना, ताडना, मारना, जलाना अस पानी न देना इत्यादि कार्यसे असातावेदनीय कर्मका वि बंध होता है. इस विमें प्रशंदलें हेमा विवेचन आया है जो मूर्ख मनुष्य दयाका त्यागकर तीन संक्लेश परिणामी होकर अन्य प्राणीको बांधना, तोडना, पीटना प्राण लेना, खानेके और पीनके पदाथों से वंचित रखना ऐसे ही कार्य हमेशा करता है. एल कायम ही अगनेको सुखी मानकर जो नीच पुरुष ऐसे ही कार्य हमेशा करता है. ऐसे कार्य करते समय जिमके मनमें पश्चात्ताप होता नहीं उसको निरंतर अमातावेद य कर्मका बंध होता है. जिससे उनका देह मशा रोगपीडित ही रहता है. तब उसकी बुद्धि व क्रियाए नष्ट होती है वह पुरुष अपने हितका उद्योग कुछ भी नहीं कर सकता है. इस विषयमें ग्रंथांतरमें एस उल्लेख मिलते हैं यह प्राणी अद्यपि जीता है तो भी रोगरूपी महायजसे उसको सदा भयकी प्राप्ति होती है. जैसे आकाशसे अकस्मात् वज्रपात होता है वैसे अकस्मात् रोग आकर मनुष्यको पकडना है जिससे उसका देह नष्ट होजाता है. जबतक देह रोगमे पीडित हुआ नहीं तबतक ही देहमें सामर्य, आध्य, सौंदर्य रहते हैं. जबतक हवाका धक्का फलको नहीं लगता है तबतक वह ढंटलसे संलग्न रहता है. वही दहमें रोगका अड्डा जम जानेपर उसके रूपादिक सब गुण वहांसे प्रयाण करते हैं जैसा अग्नि जब घरको चारो ओरम लगनेपर समर्थ पुरुष भी उममेसे अपनी अमृल्य वस्तुओंका रक्षण नहीं कर सकता है. वैसे रोगसे दह पाटिन होनेपर अपना हित सुखसे करने में यह जीव असमर्थ होता है. जो प्राणी हमेशा परजीवोंका घात करके उनके प्रियजीवित का नाश करता है वह प्रायः अल्पायुषी ही होता है. आयुष्यका नाश होनेके बहुत निमित्त हैं पानी, अग्नि, वायु, सर्प, बिच्छु, रोग, श्वासोच्छ्वास का रुक जाना. आहार न मिलना, और वेदना इत्यादिकोंसे आयुका क्षय होता है. इसवास्ते मनुष्यजन्म प्राप्त होनेपर भी दीर्घायुष्य की प्राप्ति होना मुलभ नहीं है. Tage Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ૬. यद्यपि आयु शब्द सामान्यका वाचक है तथापि यहां दीर्घायुष्यका वाचक माना है. अन्यथा आयुष्य मात्र तो संमारी जीवोंको सुलभ हैं ही. देश, कुल, जाति, नीरोगता वगैरह की माप्ति होनेपर भी बुद्धिका लाभ होना बडा कठिण है. बुद्धिका अर्थ यहांपर परलोक की प्राप्ति करा देनेवाली बुद्धि ऐसा है. अर्थात् परलोकमें इस आत्माकी हित करनेवाली बुद्धि दुर्लभ है. सामान्य ज्ञान प्राप्त होना कुछ कठिन नहीं है. जैसे मेघपटलसे आच्छादित होनेपर सूर्यका प्रकाश भृतलपर नहीं आता है, वैसे ज्ञानावरणीय कर्मके उदयसे आत्माकी ज्ञानशक्ति आच्छादित होती है. मिध्यात्व कर्मका उदय होनेसे ज्ञानमें विपरीतपना होता है. अर्थात् पदार्थका सथा स्वरूप जाननेमें असमर्थ होता है. उसका विपरीत स्वरूप समझ लेता है. आत्मा नामक कोई पदार्थ ही नहीं है. अतः यह शुभाशुभ कर्मका कर्ता हैं ऐसा मानना निर्मूल है. शुभाशुभ कर्म सुख और दुःखरूपी फल उत्पन्न होता है. और यह आत्मा उसका अनुभव लेनेमें लीन होता है. यह कहना या मानना निःसार है, आत्मा पाप या पुण्य कर्मके वश होकर परलोककी प्राप्ति कर लेता है यह वचन भी मिश्रया है. इस विषय में अन्यत्र ऐसा कहा है-परलोक नहीं है. आत्मा और पाप पुण्य नहीं है. धर्म और अधर्म नामकी चीज भी नहीं है. क्या किसीने स्वर्ग देखा है ? अथवा भयंकर दुःख देनेवाले नारकियों के निवासस्थल भी देखे हैं ? कर्म बंध, और मोक्ष क्या चीज है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है. बंध और मोक्ष न होने से तपश्चरणादिक करना व्यर्थ है. प्राप्त हुए सुंदर स्त्री वगैरह पुरुषोंका यथेच्छ सेवन करना चाहिए. क्योंकि प्रत्यक्ष को छोडकर अप्रत्यक्ष चीजों की अभिलाषा करना बुद्धिमानका कर्तव्य नहीं हैं. इस विषय में कोई विद्वान ऐसा कहते हैं- सोलह वर्ष की स्त्री और वीस वर्षका जवान पुरुष इनका हाव भावपूर्वक कटाक्षपात, हास्यमिश्रित भाषण और रतिक्रीडा यही स्वर्ग है इससे और स्वर्ग नामकी चीज ही नहीं हैं. यह श्री मकरध्वज की जयपताका है. इससे संपूर्ण पदार्थों की संपत्ति प्राप्त होती है. स्वर्ग और मोक्षकी इच्छासे जो दुर्बुद्धि लोक इस स्त्रीका त्याग कर बनमें प्रयाण करते हैं वे स्त्रीका त्याग करनेके अपराधसे दंडित कर दिये जाते हैं. कितनोंका मुंडन किया जाता है. कोइयोंको रक्तवस्त्र पहराया जाता है, कोई जटायुक्त और कोइ ४ ६६४ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRBT मूलाराधना आश्वास कापालिक किये जाते हैं. अर्थात् हाथ में कपालपात्र लेकर मिक्षार्थ भ्रमण करने लगते हैं. अर्थात् का त्याग कर जो वनमें जाते हैं उनकी ऐसी दुर्दशा होती हैं. और जो उसकी आज्ञा शिरोधार्य समझकर प्रवृत्ति रखते हैं. उनको यहां ही स्वर्ग और मोक्षका सुख मिलता है. और भी इस विषयमें कोई विद्वान् एसा कहते हैं पानीका बबूला जैसा श्रण के बाद पूर्ण नष्ट होता है. जीव भी देहका नाश होनेपर विनष्ट होते हैं. परलोकको प्रयाण करनेवाला आत्मारी नहीं है. दो साटोकळी सिद्धि कैसी होगी ? अर्थात् जीवनामक पदार्थ नहीं है. इस लिये परलोकका भी अभाव है. एसे और इसके सदृश और भी विचार युद्धी दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न होजाते हैं. जीयों में बुद्धि तो होती है. परंतु उसने कुमार्गका आश्रय लिया है. जीवोंको यथार्थ रत्नत्रयमार्ग दिखलाने वाले सदगुरुओंका संसर्ग मिलना बड़ा ही कठिण हो रहा है... यतिजन अर्थात् सद्गुरू यथार्थ ज्ञानरूपी नेत्रके धारक है. संपूर्ण माणिों में वे दया करते हैं. ये लाभ की, गकारपुरस्कार की अपेक्षा नहीं करते हैं. चतुर्गतिओंमें संसारीजन हजागे यातनायें भाग रहे हैं यह देखकर उनके अंतःकरणसे दयाका प्रवाह रहता है. " अहो ये अज्ञजन मिथ्यादर्शनादि अशुभ परिणामोंसे अशुभगतिको उत्पन्न करनेवाले कर्माका बंध कर रहे हैं इन कर्मोसे छूटनेका उपाय ये लोक जानते नहीं है. इससे ही ये दीन प्राणी अपार दुःखरूपी समुद्र में प्रवेश कर दुःख भोग रहे है " ऐसा विचार सद्गुरु मनमें करते हैं. ऐसे सद्गुरुका संसर्ग होना दुर्लभ है. दर्शनमोहनीय कर्म और ज्ञानाघरणीय कर्मका उदय होनेसे लोक यतीके गुणोंको जानते नहीं और उनके ऊपर श्रद्धान भी करने नहीं. इसी लिये उनके पास वे जाते नहीं. जबतक सत्गुणोंका स्वरूप नहीं जाना जाता है तबतक उसका स्वीकार करने की प्रवृत्ति लोकॉम नहीं दीखती है, चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे प्राणीकी हिंसा लोक स्वयं करते हैं, करवान है और अनुमोदन देते हैं. हिंसादिक कार्योको करनेवाले लोकों में प्रीति रखते हैं. जो हिमादि अकायोंको नहीं करने देते है उनमें लोक प्रेम करते नहीं. जब मनमें अहिंसादिक गुणयुक्तोंपर प्रेमही नहीं तो उनमें संसर्ग और उनकी सेवा कैसी होगी ? ANS.ORMATION Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पूनाराधना आवास - --- यह साधुसेवा संसारका नाश करती है, क्रोधादि अशुभपरिणामोंका उपशम करके ज्ञानको चढ़ाती है, साधुसेवासे पुण्य और यश बढते हैं. सत्पुरुषांका एक बार दर्शन भी हुआ तो यह भी संसारका नाश करनेमे कारण होता है. तो उनकी सेवा करनेकी योग्यता मिलनेपर यदि हमने उनकी सेवा की तो उससे हमारे संसारका नाश होने में क्या दर लगेगी? यदि सज्जनोंकी सेवा हम नहीं करेंगे तो हमको ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होगी. ज्ञानके पिना द्रमको हिरा करनेवाले देवपूजा, स्वाध्याय बगैरह काँका स्वरूप ज्ञात नहीं होता है, अतः मोक्षकी प्राप्ति होती नहों. साधुओंकी उपासना करनेसे यदि परम्परासे भी मोक्षकी प्राप्ति होती है तो साधुओंकी सेवा करनेवाले मनुष्योंकी क्या हानि और श्रम होगा -१ अर्थात् मोक्षप्राप्ति के समान जगतमें दूसरा अनुपम लाम है ही नहीं अतः मनुष्यने साधुओंकी सेवा श्रमकी परवा न कर करनी चाहिए. मोक्षप्राप्तिके इच्छुक विद्वान लोग अवश्य साधूका आश्रय करें, क्योंकि माधु पुरुष आश्रितजनाको आनन्दसे अक्षय मोक्ष अर्पण करते हैं, अभिमान और मोह दूरकर इह पर लोकमें हितको चाहनेवाले मनुष्य सतत मत्पुरुषको विनयले मेत्रा करें, क्योंकि, जगतमें सन्युरुप तपरूपी वैभवसे युक्त होने है. अर्थात महान पम्पोजनाकी सेवा अवश्य करना चाहिए, दैवयोगसे मुनि सहवास प्राप्त भी हुआ परन्तु उनसे हमने हितका उपदेश नहीं सुना तो उनके सहवास का फायदा हमने नहीं लिया ऐसा ही समझना चाहिए, यदि हमने खेतमें बीज नहीं बोया और वृष्टि हुई तो उस वृष्टि से कुछ फायदा नहीं है. वैसे सत्पुरुषका उपदेश हमने सुना नहीं तो उनका सहवास व्यर्थ ही हुआ ऐसा समझना चाहिए. यतीश्वरके समीप जाकर हम यदि उनका हितोपदेश सुनेंगे तो यतिसमागम सफल हुआ ऐसा समझना चाहिए. इसलिए हितोपदेश सुनना दर्लभ है ऐसा आचार्य कहते हैं. सत्पुरुषोंका उपदेश सुनने के लिए जाकर भी कोई वहां सोते है, अथवा अपने पास बैठे हुए मनुष्य के साथ बातालाप करते हैं अथवा उनका वचन सुनते हैं सत्पुरुषके उपदेशक तरफ उनका लक्ष्य नहीं जाता. प्रगट किये धर्मके माहात्म्यपर मोहनीय कर्मके उदयसे उनकी अरुचि हो जाती है. Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलारावना आश्वासः ६६७ EMANजाww tainmen अथवा मतिमंद होनेसे उनके उपदेशका रहस्य नहीं जाननेसे उनमें उसका प्रेम उत्पन्न नहीं होता है। - प्रेमके बिना जनमें सुननेकी उत्कंठा नहीं होती है. इस विषयमें आचार्य ऐसा करने है मोक्षप्राप्लेिके उपायका अर्थात् रत्नत्रयका उपदेश देनेवाले आचार्य के वसतिकामें जाकर भी जो प्रमादसे अन्य लोगोंकी बातें सुननेमें अपने चित्तको एकाग्र करता है वह मूर्ख मनुष्य सरोवरके पास जाकर भी कीच- | । हमें फंसे हुए मनुष्य के समान समझना चाहिये. यद्यापि सत्पुरुषके पचन सुनने पर भी उसका अभिप्राय ध्यान में रखना दुर्लभ है. क्योंकि जीवादि वस्तुओंका म्वरूप सूक्ष्म होनेसे और वह पूर्वकालमें कभी सुनने में नहीं आनेसे उसका अभिप्राय मनमें समझना कठिन है. यद्यपि ज्ञानाबरणीय कर्मका क्षयोपशम विशेष होनस बुद्धिजीवादियोंका स्थल जानेगी, धर्गका बम्प जागी तथापि जाने हुए जीवादिक स्वरूपमें और धर्मस्वरूपमें श्रद्धा उत्पन्न होना दुलंग ई. यह श्रीजिनेश्वरका धर्म हिंसात्मक है. यह सत्यके आधार पर है अर्थात् सत्यपना इसकी नीय है. पर. धन हरण न करना यह इसका स्वरूप है. नंउ प्रकारसे मचर्य द्वारा इसका संरक्षण किया जाता है, संपूर्ण परिनहाँपरसे ममत्व दूर करना यह इसका ध्येय है. विनय इसका मूल है. इस धर्मके आचरण मनुष्यको सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति होती है. क्षमा मृदुपना अर्थात् अभिमानका त्याग, निष्कपटपना, संतोष इत्यादि गुण इस धर्मके अलंकार हैं, यह नरकका मार्ग बंद करने के लिये वजार्गला के समान है. पशुगतिरूपीबेलीको काटनेके लिये यह जिनधर्म कुल्हाडीके समान है. दुःखरूपी पर्वतके शिखरोंको विध्वस्त करने के लिये यह धर्म कठोर वनके समान है. मोहरूपी महावृक्षको समुल उपाडनेके लिये यह धर्म जोरदार हवाके समान है. वृद्धावस्थारूप बनकी अग्नीकी ज्वालायें युझानेके लिये यह वर्षाकालीन बृष्टि करनेवाला मेघ है, मरणरूप हरिणका घात करनेक लिये यह धर्म वाघ तुल्य है, भयंकर रोगसपोंको यह गरुडके समान है. संपत्तिरूपी गंगानदीकी उत्पत्तिके लिये यह धर्म हिमपर्वत है. अगाध शोकरूपी कीचडको यह सेतू है. यह जैनधर्म सौदर्यका पिता है. ऐश्वयेरुप रत्नाकी अह खान है. कुयोनिवन में भ्रमण करनेवाले प्राणिऑको यह धर्म मुक्तिनगरको लेजानेवाला है. ऐसे जिनधर्मके ऊपर श्रद्धा होना अतिशय दुर्लभ है. - - - CARANE Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना ६६८ दर्शनमोहनीय कमके उदयसे लोक इससे मुंह मोडते हैं. दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम, भय अथवा क्षयोपशम जब होता है रात्र इस पर महितकारक धर्मपर प्राणी श्रद्धा करने लगते हैं. श्रद्धा न करनेपर भी संयम-चारित्रकी प्राप्ति होना अधिकही कठिन है क्योंकि प्रत्याख्यानावरणी कर्म जीवको चारित्रपालन करने में प्रतिबंध करता है. इस विषयमें पूर्वाचार्य ऐसा कहते हैं - मनुष्यको सत्यधर्मका स्वरूप अंडे कष्टसे मालुम होता है, बान होनेपर धर्ममें प्रवृत्ति करना उससे भी अधिक कटिन है. जीवादिक तच्चों का स्वरूप जिसने जाना है ऐसे मनुष्यको धर्मका स्वरूप जानकर उसमें स्थिर होना चाहिये और इस धर्मका आचरण करते समय प्रमादको छोड देना चाहिये. एक क्षयापर्यत भी उसका आश्रय नहीं करना चाहिये. . पापकार्य अरनेकी अपेक्षा धर्माचरण करना अधिक सुलभ है. परंतु एक क्षणपर्यंत भी धर्माचरण करना मनुष्यको कमिस इ.खता है. इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है. पापकर्मके तीव्र उदयसे मनुष्य मूढ होते हैं. एक तुच्छ कवडीको भी महत्वकी चीज समझकर यह मूह मानव उसकी प्राप्तिके लिय महान्परिश्रम करता हुआ देखा जाता है. परंतु तब मनुष्य देव और मनुष्यका ऐश्वर्य देनमें समर्थ मोक्षका मूल ऐसे सद्धर्म में अपना हृदय स्थिर करता है. मृह मनुष्य अहित कार्यमें ही प्रयत्न करता है. और परमहितकर धर्म हमेशा आलसी रहता है. यह योग्यही है. यदि मनुष्य एसी प्रनि न करेगा तो उसका संसारमें भ्रमण कैसा होगा? संयमकी-मुनिधर्मकी भी जो कि परंपरा दुर्लभ है प्राप्ति हुई तो भी अल्पज्ञ गुरुक समीप सीखना धारण करनेवाले मुनिको संसारमे भय उत्पन्न करनेवाला धर्मोपदेश मिलना कठिन है. इस लिये बहुश्रुतज आचायंका आश्रय करना ही योग्य है. ऐमा इतना विवचन करनेका अभिप्राय है. अल्पज्ञ आचार्यसे क्षपकको उत्तम-भवोद्धारक धर्मोपदेश नहीं मिलने से मरणकालमें वह संयममे भ्रष्ट होता है. तात्पर्य यह है कि दीर्घ कालतक प्राणिसंयम और इंद्रियसंयमका पालन क्षपकने किया था परंतु मरण समयमै उससे वह भ्रष्ट होनसे वह चारित्राराधानासे रहित हो जाता है. संयमसे भ्रष्ट वह क्यों होता है इस प्रश्नका Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ६६९ उत्तर यह है - मनोज और अमनोज्ञ पदार्थ सर्वत्र और हमेशा रहते हैं. और अन्तरंग कारण जो कर्म उसका उदय होनसे दुनिवार राग, द्वेष, और मोहकी उत्पत्ति होती है, जिससे वह चारित्र का त्याग कर बैठता है. जैसे बांसक समुदायमेंसे छोटा बांस कुल्हाडीसे काट सकते हैं परन्तु वह उखाडकर निकालना अतिशय कठिन है. वैसे संयमीका मन जन्न विषयों में आसक्त होता है तो उससे उसको निकालना दुःसाध्य होता है. अर्थात् मनमें उत्पन्न हुए राग द्वेप नष्ट करना कठिण कार्य है. इस विवेचनका यह अभिप्राय हैरागद्वेषोंका पराजय करने की क्षपकने प्रतिज्ञा की थी तथापि शरीरसोलखना करनेपर जब वह भूक प्यास वभरह परीपहोंसे पीडित होता है और उसको सहन करने का सामर्थ्य कम होता है तब अतज्ञानके पति मनकी एकाग्रता नष्ट होता है. श्रुतवान, एकाग्रता न होने से राग द्वेष उत्पन्न होते हैं और वह क्षपक चारित्राराधनासेच्युत होता है, - ऐसे समयम यदि बहुश्रुत आचार्यका मगम पास होगा तो वे रागदेवों की उत्पनि न होगी ऐसा उपदेश देते हैं. शरीर और भोगाम वैराग्य उत्पन्न होगा एसी कथायें उसको कहते हैं. और चारित्राराधनामें उसको स्थिर भोग और शरीर में बराम्य उत्पन्न करनेवाली कथा अर्थात उपदेश इस प्रकार है नरकमें नारकिओंको दुःखही दुःख है. सुखका लेश भी वहां नहीं है, तिर्यच प्राणी, देव और मनुष्य इनको किसी प्रदेश में किसी कालमें और किसी प्रकारसे थोडासा सुख मिलता है. नाना कुयोनिमें भ्रमण करनेवाले इस जीवने जो अपरिमित दुःख प्राप्त किया है वह इतना अधिक है कि आजतक अनेक शरीर धारण कर इसने जितना सुख प्राप्त किया है उससे वह अनंत गुणित है. अर्थात् जितना सुख इस जीवने आजतक भोगा है वह भोग हुए दःखका अनंतचा भाग भी होना कठिन है: इस जन्मसागरमें यह एक जीव सुखंक एक भागको कितने दिन भोगेगा. जैस बनम अतिशय भयाकुल हरिण दुःखोंसे व्याप्त होनेसे मुखका अति अल्पकाल में ही थोडासा अनुभव लेता है. जो सुख अनंतभवमें भ्रमण कर यह प्राणी प्राप्त करता है उसका एक भवमें यह प्राणी कितना हिस्सा प्राप्त कर लेगा यह विचारणीय है. जैसे मेघोंका पानी लवणसमुद्रके पानीसे मिलकर खारा बन जाता है, वैसे इस जीवका अत्यल्प सुख दुःखराशीमें मिलकर दु:खरूप ही होजाता है. THERE Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .पूलाराधना आचा इसी संमारमें जिसको लोक सुख यह नाम देने हैं, वास्तविक वह मुख हे ही नहीं. वह केवल पूर्वकाल में उत्पन्न हुए दुःखाको दूर करनका इलाज मात्र है. प्रथमतः जो दुःख उत्पन्न होता है उसके इलाजको ही सुख कहते हैं. यदि प्रथम दुःख नहीं हुआ तो सुख की कल्पना भी उत्पन्न नहीं होगी। तृष्णाका शमन करनेकेलिये मनुष्य पानी पीता हैं. और भूख की बेदना नष्ट करनेकालये भोजन करता है. जल, हवा और सूर्यसंतापका निवारण करनेके लिये लोक घरका, गुबका आच्छादन करनेके लिये वस्त्रका, और निद्राका श्रम दूर करनेकलिये शुध्याका आश्रय करते हुए देखे जाते हैं. का अमर करने के लिये घोडा, गाडी वगैरह उपाय है. और श्रमसे उत्पन्न हए स्वेदको हटानेका जलस्नान करना यह उपाय है. अथवा एकस्थान में स्वस्थ बैठना यह श्रम दूर करने का उपाय है. दुर्गधका नाश करने के लिये सुगंधि पदार्थोंका सेवन करना यह उपाय माना जाता है. शरीरका कुरूपता दूर करने के लिये अलंका. रोको धारण करना यह उपाय है. अरतिको हटाने के लिये कलाओंका अभ्यास करना यह सर्व प्रनिकाररूप होनसे इसको ही लोक मुख समझते है. जैसे रोगसे पीडित मनुष्य रोगजन्य दुःखका प्रतिकार करनेकालये औषध ग्रहण करता है. देवोंके और मनुष्योंके भोग जिनको चे सुख रूप समझते हैं वे सब दुःखका प्रतिकार करनेमें केवल निमित्तमात्र ही हैं. पित्तप्रकोपसे जिसके सर्व अंगमें दाह हो रहा है वह मनुष्य शीतपदार्थोंका सेवन करता है उनको यदि वह अज्ञानी भोग यह नाम देगा तो वह अनादिक पदा)को भी भोग नाम देगा. इस जगत में पानी बगरह पदार्थ सर्वथा सुख ही देते हैं ऐसी कल्पना करना भी भूलसे खाली नहीं है. इसलिये वे पदार्थ दुःखका प्रतीकार करनेवाले है इतना ही समझना चाहिय. उसमें भांगता करना योग्य नहीं हैं, जो अन्न भूखसे पीडित मनुष्यको सुखका कारण होता है वहीं वृशमनष्य को विषसमान हो जाना हैं. उ. तासे पीडित हुआ मनुष्य जिन चीजोंको चाहता है ये चीज शीतकाल में दुःखदायक होती है. इस जीयको चक्रवर्ती के सुखसे दृप्ति नहीं होती है. चक्रवर्ती अपने चक्ररत्नके प्रभावसे देव मनुष्य और विद्याधरोको जीतते हैं, उनके पास क्षयरहित नउ निधि रहते हैं. वे चौदह रत्नोंके स्वामी होकर दस प्रकार के भोगोंका अनुभव लेते हैं तो भी उनसे उनका मन तृप्त होता नहीं. देव भी देवांगनाओंसे प्राप्त होनेवाले विषयसुखसे तृप्त होते नहीं है. देवोंका आयुष्य अनेक सागरोका ६७० Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ॥ आश्वास: रहता है. वे आमरण तरुण ही होते हैं. वे हमेशा देवांगनारूपी लतासमूहसे घिरे रहते हैं तो भी उनको इनसे | उत्पन्न होनेवाले सुखसे तृप्त होती नहीं. देवांगनारूपी लतावनकी आचार्य इस प्रकार निरूपणा करते है स्वाभाविक अर्थात् जन्मसे ही साथ उत्पन्न हुये ऐसे दिव्य अलंकार, पुष्पमाला, दिव्यवस, दिव्य एश्वयं एतद्रप स्कंधसे यह देवीलतावन सुंदर दीखता है, मन और नेत्रोंसे आदाद देनेवाले सौंदर्यपुष्पोंस यह देवीलताबन पुष्पित है. इन लताओंको विलास रूपी मनोहरता आती है, सुकुमारतारूपी नवीन कोमल अंकुर इनकी शोभा बढ़ाते हैं. ये लतायें अपने शरीरके सुगंधसे टिगंगनाओंका मुख मगधित करती हैं. इनका ज्वरोष्ट्रपल्लच मुंगाके समान मनको लुब्ध बनाता है. ये लताये कठिन, उन्नत अर्थात पुष्ट और गोल एम स्तनरूपी फलोंसे कमनीय दीखती हैं मदनरूप दक्षिण वायुके झकोरोसे ये डुलती हैं, सुंदर बाहुरूपी सुंदर शाखाभोसे मनाहर दीखती है. चमकीले सुवर्ण के कमरपट्टारूपी तटमे युक्त, कामजलसे भरा हुआ, ऐम विशाल जधन रूपी सरोवरले ये सोहती है, शब्द करनेवाले न पुररूपी भ्रमरोंसे कलकल शब्द करने वाली ऐसी देवांगनारूप लताओंसे धिरे होते हुए भी देय तृप्त नहीं होते हैं. और भी अनेक भाग्य पदाथोंसे उनका मन तृप्त होता नहीं, यदि देवोंके मन इतनी सुखसामग्री मिलनेपर भी अतृप्त ही रहता है, तो मनुष्यका मन कैसा तृप्त होगा, तीव्रतर पुरुषवेदका जब उदय होता है तब वह अग्नीके समान मनुब्धके मनको जलाता है. ऐसे समय स्त्रीसंमोगरूपी औषधसे भी उस मनकी जलन शांत नहीं होती है. स्वीसंगोगमे कामानि अधिक ही पदीप्त होती है. रूप, तारुण्य, विलास, चतुरता, सौभाग्यादिकप्ते एकसे दूसरी अधिक, दूसरीसे तीसरी अधिक ऐसी उत्तरोत्तर अधिक २ मंदरी स्त्रियां नजरमें आ जानसे उनके संगमकी मनमें अभिलापा बढ़ती है जिससे कामवदना पुरुषको अधिक व्याकुल करती है. कोइ लिया अपने पतिका त्याग करती है, अथवा मर जाती हैं. अश्वा बलवान पुरुष उनको हर करल जाते हैं, अथवा स्वयं यमके पाससे जकटा हुआ इच्छा न होते हुए भी स्त्रीको छोडकर यममंदिरको जाता है. ॥ ६७१ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना मरने की अवस्थामें वह दीन पुरुष अपना मुख उघाडकर, नेत्रोंकी टकटकी लगाता हुआ, रोनेसे जिसके नेत्रों पर सूजन और लालपना आगया है ऐसा होता हुआ अपनी प्राणप्यारीको छोडकर चल बसता है. स्फटिकमणिऑकी माला जैसा समीपके पदार्थका गुण ग्रहण करती है वैसे त्रियों के शरीर समीपस्थ व्यक्तिके गुणोंफा ग्रहण करता है. संध्याकालीन मेघाकी पंक्ति लालरंग मनोहर दीखती है परन्तु उनका यह रंग शीघ्र ही नष्ट होता है. वैसे खियाका प्रेम उत्पन्न होकर शीवही विलयको प्राप्त होता है. अर्थात् आज एक पुरुष पर उनका स्नेह जम जाता है तो कल ये दूसरोंपर प्रेम करेगी. स्त्रीकी प्राप्ति होना भी दुर्लभ होता है. स्त्री, वस्त्र, गंध, माला वगरह पदार्थ मिलनेपर समर्थ लोक जबरदस्ती से हर लेते हैं. इससे मन मय उक्त होता है । के खर्य मेरे को प्राप्त हुए है परन्तु कोई इसको ले तो नहीं जायगा ऐसा भय मनमें उत्पन्न होता है, ऐसा भय होनेसे ये पदार्थ आत्माको सुखदायक होते नहीं. इनकी प्राप्ति के लिए खेती वगैरह छह कर्म करने पड़ते हैं. इन पदकर्मोसे संपत्तिरूपी फल प्राप्त होगा ही ऐसा नियम नहीं है और इनमें परिश्रम बहुत करना पड़ता है. इनमें हिंसादिक पापक्रिया करनी पड़ती है और ये कर्म अन्तम दुर्गति की प्राप्ति में कारण होते हैं ऐसा उपदेश देकर बहुश्रुतज्ञ आचार्य क्षपकको भोगोंसे विरक्त करते हैं. शरीरका भी वास्तविक स्वरूप दिखाकर आचार्य विरक्त करते है यह शरीर अपवित्रताका निधान है. अर्थात् इसके संपूर्ण अवयव अपवित्र पदार्थ से ही बने हैं. यह शरीर आत्माके ऊपर लदा हुवा मानो वाझाही है. इसमें एक भी पदार्थ सारयुक्त नहीं है. यह अनेक संकटों से घिरा रहता है. रोगरूपी धान्यकी उत्पत्तिका यह स्थान है अर्थात इसमें अनेक रोग उत्पन्न होते हैं. वृद्धावस्थारूपी पिशाचिनीका यह श्मशानगृह है. मान्यकुलमें पैदा हुआ, विशालकीर्तियुक्त, और मुणी ऐमा भी मनुष्य दरिद्री होनेपर इस शरीरका पोषण करने के लिये. नाच कर्म करता है, श्रीमानोंके आगे दौडता है. उनके संदेश एक स्थानसे दुसरोंको पोहोचाता है. और उनका उच्छिर भोजन खाता है. इस विषय में पूर्वाचार्य एसा कहते हैं इस शरीरके अंदर, बाहर और मध्य में भी कुछ भी सारभूत वस्तु नहीं है. जिसको मन स्वीकार करेगा अर्थात् जब हम देहके म्बरुपका मनमे विचार करते है तो उसमें कोई सारभून पदार्थ दीखना नहीं. इसवास्ते || सारज्ञ विद्वान् तुच्छजनोंने कामपूर्तिकं लिये पसंद किये हुए इस देह की इच्छा नहीं करते है. Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास: इस देहमें वायुका प्रकोप होनेसे कोइ रोग उत्पन्न होते हैं कोइ पित्त और कफके प्रकोपसे उत्पन होते हैं. रोगोंके उत्पत्तिका अभ्यंतर कारण पाप है और बहिरंग कारण वातादिकोंका प्रकोप होना यह है, इन रोगांसे यह देह पीडित होता है. दुःखौको कारणभूत यह देह नाशवंत है ऐसा समझकर हे आत्मन् अर्थात् हे क्षषकतूं अनेक प्रकारचे धर्मसाधन कर. यह देह रक्त और वीर्यके संयोगसे उत्पन्न होता है. शिथिल हडिओंसेहहिरूप खंबोंसे इस देहकी रचना हुई है. स्नायुओंसे यह सर्व तरफसे जकड़ा हुआ है. शिराओंसे वेष्टित है. मांस, रक्तरूपी पानी और कीचडस यह लिपा गया है. इस देहमें रोगोंने निवास किया है. ऐसे शरीरको कोन स्पर्श करेगा. इस तरह शररिनियंजनी कथा कह कर आचार्य क्षपकको चारित्र में स्थिर करते हैं. गदित्थपादमूले हाँति गुणा एवमादिया बहुगा ॥ ण य होइ संकिलेसो ण चात्रि उप्पग्जदि विवत्ती ॥ ४४७ ॥ विजयोदया--गीदत्थपादमूले गृहीतार्थस्य षड्भुतस्य पादमूले । होति बहुगा गुणा गीदाथो पुण अवगस्स छन्त्येषमातिसूत्रांचकमिर्दिनः । यहोर संकिलेसो नैय भयति संक्लेशा ण वा पि जप्पर विपत्ती म घोपचते विपत्नत्रयस्य । तस्मादाधारवाजाचार्यः उपाधयणीयः इत्युपसंहारराति आधारवं॥ यूलाग --विवत्ती रत्नत्रयविनाशः। आधारवान् ।। अर्थ-जो आचार्य सूत्रार्थ है उसके चरणके समीप जो क्षपक समाध्यर्थ रहेगा उसको उपयुक्त गुणोंकी प्राप्ति होती हैं. उसको संक्लश परिणाम नहीं होंगे और रत्नत्रयमें कुछ बाधा भी उपस्थित नहीं होगी. इस लिये आधारगुणयुक्त आचार्यका आश्रय लेनाही क्षपकके लिये योग्य है. इस प्रकार आधारयत्न गुणका वर्णन हुआ. व्यवहारवत्वनिरूपणायोत्सरगाथा पंचविहं ववहारं जो जाणइ तञ्चदो सवित्थारं ॥ बहुसो य दिकयपतृवणो ववहारवं होइ ॥ १३८ । जानाति व्यवहारं यः पंचभेदं सविस्तरम् ।। दत्तालोकितशुद्धिश्च व्यवहारी सभण्यते ।। ४६० ॥ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृलाराधना आश्वासः ६७४ विजयोदया-पंचविहं घबद्दारं पंचप्रकार प्रायश्चित्तं। जो जागदि नचदो सयित्वारं यो जानाति तत्वतः सविस्तरं । यसो य दिकदपठयणो बदुराइव परुत प्रस्थापनः । आचार्याणां प्रायश्चित्तदाने दृष्एं, स्वयं चान्वेप दत्तप्रायश्चित्तः । चबहारवं होदि व्यवहारयान् भवति । पूर्वाईन प्रायश्चितज्ञांतता दशिता, फर्मदर्शन कर्माभ्यासश्य प्रख्यापितः । अशास्त्रको यत्किंचिदायान्यात्मनोऽभिलषितं । न तेन, शुग यति, शास्त्रज्ञोऽव्यदएकमां, सुविषादमेति । ततो ज्ञान कर्मदर्शनं, कमाभ्यास इति त्रयो गुणाः यस्य स व्यवहारवानिरयुज्यते ॥ म्यवहारवत्त्वं गाथासप्तकेन वक्तुकाम: प्रथम प्रायश्चित्तज्ञानकर्मदर्शनकर्माभ्यासलक्षणगुणत्रयवन्तं व्यवहारवन्तं निर्दिशति-- मूलारा-बहारं प्रायश्चितं । विठ्ठकवपट्ठवणो दृष्टमाचार्यैः क्रियमाणमवधारितं । कृवमात्मना, स्वस्य परस्य वा प्रयुक्त प्रस्थापन प्रायश्चित्तदानं येन स दृष्टकृतप्रस्थापनः । अशास्त्रज्ञ हि यस्किचन प्रायश्चित्तं ददाति न च तेन पर: शुद्धयति । शालज्ञोऽन्यदृष्टकर्मा कर्मतु विधादमेति ।। अर्थ-पांच प्रकारके प्रायश्चित्तोंको जो उनके स्वरूपसहित सविस्तर जानते हैं. जिन्होंने प्रायश्चित्त देते. हुए अन्य आचार्योंको देखा है और स्वयं भी जिन्होने दिया है ऐसे आचार्यको व्यवहारवान् आचार्य कहते हैं, इस गाथाके पूर्वार्द्ध में आचार्यको प्रायश्चित्तवता कही है. और उत्तरार्धमें प्रायश्चित्त देते हुए देखना, प्रायश्चित्त देनेका अभ्यास करना इन गुणों का उल्लेख किया है. प्रायश्चित्तशास्त्रका ज्ञान यदि न हो तो जो मनमें आया सो प्रायश्चित्त देगा अतः आचार्य प्रायश्चित्तज्ञ ही होना चाहिए. चाहे जो प्रायश्चित्त देनेसे अपराधकी शुद्धि नहीं होती है. प्रायश्चित्तशास्त्रका जानकार होते हुए भी यदि प्रायश्चित्त देते हुए किसीको नहीं देखनेसे प्रायश्चित्त देते समय घबराहट पैदा होती है. इसलिए. प्रायश्चित्तका ज्ञान, प्रायश्चित्तदानदर्शन और प्रायश्चित्त देने का अभ्यास ये तीन गुण जिसमें है ऐसे आचार्य को व्यवहारवान आचार्य कहते हैं. ६७४ का पंचविधी व्यवहारः, को चा विस्तर प्रमाशंकायां तदुभयं निरूपयति-. आगमसुद आणाधारणा य जीदेहि हुति ववहारा॥ एदोस सविस्थारा परूवणा मुत्तणिदिठा ।। ४४९ ॥ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराषना। भाधामः ६५५ व्यवहारो मतो जीवश्रुतज्ञागमधारणा ॥ एतेषां मुत्रनिर्दिष्टा ज्ञेया विस्तरवर्णना ।। १६१ ॥ विययोदया-आगमसुद माणाधारणा य जीदेहि हुंति ववहारा आगमः, श्रुतं, आमा, धारणा जीद इति एयवहाराः पंच । एदास एतेषां भागमादीनांस परूषणा कीरशी? सविश्धारा विस्तारसहिता । सुसणिद्दिष्ठा सूत्रेपु चिरंत नेषु निर्दिष्टा । प्रायश्चित्तस्य सर्वजनानाम प्रतोऽकथनीयत्वाच्छास्त्रांतरे च निर्दिष्टत्यादिह नोच्यते । उक्तं च सयेण घि जिणचयणं सोडव्वं सहिदेण पुरिसेण ॥ छन् सुवस्स हु अन्थो ण होदि सवेण णादग्दो ॥ इति । पंचविधत्वं व्याचष्टे -- मूलारा--आगम एकावशांगो प्रायश्चितं । सुद चतुर्दशपूर्वोक्तं । आणा स्थानांतरीस्थतेम अन्याचार्यण स्थानांतस्वितेन अपाचणायला सारस्य ज्येष्ठशिष्यस्य हस्ते प्रेषितं । धारणा एकाकी जंघायलपरिबीणः संजातदोषस्तत्रब स्थितः पूर्वावधारित प्रायश्चित्त यत्करोति । जीदः वासप्ततिपुरुषजातस्वरूपमपेक्ष्य यदुक्तं सांप्रतिकाचार्य शास्रोत जीद इत्यन्ये । वित्थारा विस्तारात । विस्तरमाश्रित्य । परूवाणा निर्णय: । मुत्तणिचिठ्ठा सूत्रेषु चिरंतनेषु निरूपिता बोद्धच्या। अन तु नोक्ता मायश्चित्तस्य सर्वजनानामग्रतोऽकथनीयत्वात् ।। उक्तं च सम्वेण चि जिणवयण सोदञ्च सड्डिदेण पुरिसेण ।। छेदमुदत्स दु अत्यो ण होदि सम्वेण सोवबो । पांच प्रकारके व्यवहार कोनसे और उनका विस्तार कोनसा है इस प्रश्नका उत्तर आचार्य कहते हैं अर्थ--आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीद ऐसे प्रायश्चित्त के पांच भेद है. इनका सविस्तर वर्णन प्राचीन आचार्योंने सूत्रग्रंथों में सविस्तर किया है. प्रायश्चित्तका वर्णन सर्व लोगोंके सामने करना योग्य नहीं है. अन्य शास्त्रांतरमें इसका खुलासा किया है अतः यहां हम उसका निरूपण नहीं करते हैं. अन्यत्र प्रायश्चित्त के विषय में ऐसा उल्लेख मिलता है-- श्रद्धावान सर्व पुरूप जिनवचन सुन सकते हैं. परन्तु प्रायश्चित्तशास्त्रका अर्थ सर्व लोगोंको जानने का अधिकार नहीं है. ६ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ६७६ व्यवहारवासी परालोचितापराधस्य कथं प्रायश्वितं ददातीत्याशंकायां प्रायश्चित्तवानक्रमनिरूपणाय दव्यं खेत्तं कालं भावं करणपरिणाममुच्छाहं || संघदणं परियायं आगमपुरिसं च विष्णाय ॥ ४५० ॥ द्रव्यं क्षेत्रं परिज्ञाय कालं भाषकृतोद्यमम् ।। सम्यक्संहननमुत्साहं पर्यायं पुरुषं श्रुतम् ॥ ४६२ ॥ गाथाद्वरम् विजयोदया - दव्यं खेतं कालं भाव करणपरिणाममुच्छाहं ब्रव्यमित्यादीनां विशायेत्यनेन संबंधः । त त्रिविधं वित्तमन्त्रितं मिश्रमिति । पृथिवी, आपस्ते जो वायुः, प्रत्येककायः, अनंतकायाः, प्रसाश्चेति सचित्तद्रव्यमित्युच्यते ॥ तृणफलकादिकं जीवेरनुन्मिश्रं अनित्तं । संग्न के उपकरण मिश्र एवं त्रिविधा द्रव्यप्रतिसेवना । वर्षा कोयागमनं अर्धयोजनं या । गोविना प्रतिषिद्धक्षेत्र गमनं विरुजूराज्य गमनं द्विनाध्वगमनं ततो रक्षणीयागमनं । तस्याद्ध यदातितः । उन्मत वा गमनं । अंतःपुरप्रवेशः। अननुशान गृह भूमिगमनं त्यादिना श्रतिवा ॥ आवश्यककालादन्यस्मिन्काले आवश्यककरणे धर्षावग्रहातिक्रमः । इत्यादिका कालप्रतिसेवना । दर्पः प्रमादः, अनाभोगः भयं प्रदोषः इत्यादिषु परिणामेषु प्रवृत्तिर्भाव सेवा ॥ एवमपराधनिदानं ज्ञात्वा प्रायश्चित्तं प्रकृतेर्ब्रव्यादिकं शात्वा रस बडुले, धान्यहुल, शाकपलं यवागूशाकमात्रं वा पानकमेव वेत्याहारे द्रव्यपरिज्ञानं ॥ प्रायश्चित्तमाचरतः अनूपजांगल साधार क्षेत्रपरिज्ञानं । धर्मशीतसाधारणकालज्ञानं क्षमामार्थषार्जव संतोषकादिकं भावं । क्रोधादिकं वा करणपरिणामं । प्रायश्चित किया परिणामं । सहवासार्थं । क्रिमयं प्रायश्रिते प्रयुक्तः उत यशोथे, लाभार्थमुत कर्मनिर्जरार्थं इति ॥ उच्छाई उत्सादं । संघदणं शरीरबलं । परियायं प्रवज्याकाळ । आगमं । अयं श्रुतमस्य बहु वेति । पुरिसं जातादरो भयांतरंगमादिकं विकल्पं च या ॥१ प्रायश्चित्तदानक्रम गाथाद्वयेनाह - मूलारा दुव्वं सचित्तं पृथिवीकायिकादिकं । अचित्तं तुणफलकादिकं । मिश्र संतमुपकरणं । विविधा द्रव्यप्रतिसे बना || खेतं वर्षासु साधूनां को द्विकोशं वा गमनं पृष्टं । ततोऽधिकक्षेत्र गमनं क्षेत्रप्रतिसेवता । अथवा निषिक्षेत्रं विरुद्धराज्यछिद्रान्मार्गान्तः पुराननुज्ञासगृहभूमिद्रोण्यादिगमनं क्षेत्रप्रतिसेवना । कालं आवश्यक काल महा श्रतिक्रमः कालप्रतिसेवा । भावं दर्पप्रमादानाभोगभयाभिका भावप्रतिसेवा । एवं द्रव्यप्रतिसेवनादिद्वारेणापराधनिदानं विज्ञायेति संबंध करणपरिणामः । प्रायश्चितानुष्ठानपरिणतिं । किमयं सहसंवासार्थं प्रायश्चित्ते प्रवृत्तं उत यशोऽर्थं किंवा -- अश्वास ४ ६७६ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वासः ६७७ लाभार्थ उत कर्मनिर्जरार्थमिति विज्ञाय | उच्छाई प्रायश्चित्तं प्रत्युद्योगं । संघदणं शरीरबलं । परियाय प्रव्रज्याकाल परिमाणं । आगम अल्पं श्रुनमस्य बहु वति । पुरिस वैराग्यपरो न वेति च विज्ञाय । दुसगेने आलोचना कर कहे हुए अपराधोंका प्रायश्चित्त देनेका व्यवहारचान् आचार्यका क्रम दो गाथाओम आचार्य कहत अर्थ-द्रव्य सचित्तद्रव्य, अचित्त द्रन्य, और मिश्र द्रव्य एसे तीन भेद हैं. पृथिवी, पानी, अग्नि, हवा, प्रत्येक काय बनस्पति, अनंत काय बनम्पति और सजीव इन जीवोंको सचित्त द्रव्य कहते हैं. तृणका संस्तर, फलक वगैरे पदार्थ अचित्त द्रव्य है. जिसमें जीव उत्पन्न हुए है ऐसे उपकरणोंको मिश्र द्रव्य कहते हैं. ऐसे तीन प्रकारके द्रव्योंका सेवन करनेसे दोष लगते हैं, वर्षाकालमें आधा कोस, आधायोजन मार्ग मुनि जा सकते हैं परंतु उससे अधिक वे गमन कर तो वह मायश्चित्ताई होता है यह क्षेत्र प्रतिसेवा है, जहां जाना निषिद्ध माना है ऐसे स्थानमें जाना, विरुद्धराज्यमें जाना, जहां रम्ना टूट गया है ऐसे प्रदेशमें गमन करना, यह क्षेत्रमतिसेवना है. उन्मार्ग से जाना, अंत:पुरमें प्रवेश करना, जहां प्रवेश करने की परवानगी नहीं है ऐसे गृहके जमीनमें प्रवेश करना यह क्षेत्रप्रतिसेवना है. (ततो रक्षणीयागमनं, तस्मादों यदानिक्रान्त ) इन पदोंका अर्थ लगता नहीं. मामायिक प्रतिक्रमणादिक छह आवश्यकोंका जो काल नियत है उसको उल्लंघकर अन्यकालमें सामायिकादिक करना, वर्षाकालयोगका उल्लंघन करना यह कालप्रतिसवना है, दर्प, उन्मत्तता, अमावधानता, साइस, भय इत्यादिरूप परिणामों में प्रवृत्त होना भावप्रतिसेवना कहते हैं. इस प्रकार अपराधके कारण पदाधोंका स्वरूप जानकर प्रायश्चित्त देना चाहिये. प्रायश्चिन देनेवालोंको आहारके पदार्थोका भी ज्ञान होना आवश्यक है. कोई आहार रसबहुल रहता है. अर्थात् उसमें रस का प्राधान्य रहता है. कोई आहार धान्यप्रचुर रहता है. किसी आहारमें शाककी मुरुगना होती है और किर्या में लापसी और शाककी मुग्य्पता होती है. कोई आहार पेयपदार्थरूप गतला रहना है. ये आहारक पदार्थीका भी पायत्रित्तदानाको ज्ञान होना चाहिये. प्रायश्रित करनवालोंका और दनेवालोंको अनूप, जांगल और साधारण इन प्रदेशोंको ज्ञान होना चाहिये. जिस देश में पानीकी विपुलता है उसको अनूपदेश कहते हैं, बन पर्वतादिक जिसमें है और कम वृष्टि होती है उस Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना बाबासा ६७८ HER देशको जामल देश कहते हैं. दोनो देशोंके लक्षण जिसमें है उसको साधारण देश कहते हैं. उष्णकाल, शीतकाल और साधारणकाल इसका भी शान होना आवश्यक है, क्षमा, मार्दव, आजच, संतोषादि परिमाणों को भाव कहते हैं, क्रोधादिक विकारोंको भी परिणाम कहते हैं. नायश्चित्त क्रिया में परिणाम और सहवास इनका मो ज्ञान होना पाहिंय, यह मुनि मेरा यश हो ऐसा अभिप्राय धारण कर प्रायश्चित्त लेनमें प्रवृत्त हुआ है अथवा लाभके लिये किंवा कर्मानर्जराके लिंग प्रवृत्त हुआ है इत्यादि हेतु जानलेना भी आचार्य के लिये आवश्यक है. प्रायश्चित्त लेनवालका उत्साह, शरीरसामर्थ्य, दीक्षाकाल, आगमज्ञान, अर्थात् यह आगमका अल्पज्ञाता है अथवा बहुज्ञाता है इत्यादिक बातोंका ज्ञान कर लेना भी आवश्यक है. मोतूण रागदोसे ववहारं पठवेइ सो तस्स ॥ घवहारकरणकुसलो जिणबयणविसारदो धीरो ॥ ४५१ ॥ रागद्वेषावपाकृत्य व्यवहारविशारदः ।। व्यवहारी ददात्यस्मै प्रायश्चित्तं विधानतः ।। १६३ ।। विजयोदया-मोनूण त्यक्त्वा । रागनीसे राग द्वेपं च मध्यस्थः सथिति यावत् । घपहार पवेदि सो तस्स प्रायविसं दादाति स सूरिस्तस्मै । बयद्वारकरणकुसलो प्रायश्चित्तदान फुशलः जिणचयणविसारदो जिनप्रणीते आगमे निपुणः। धीरो धृतिमान् ॥ मूलारा-पठुवेदि ददाति ।। अर्थ-जिनप्रणीत आगममें निपुण, धर्यवान्, प्रायश्चित्त शास्त्रके ज्ञाता ऐसे आचार्य राग और द्वेषभावना छोडकर अर्थात् मध्यस्थ भाव धारण कर अपराधी मुनिको प्रायश्चित्त देते हैं. ६७८ अशात्वा प्रायश्चित्तथं यो ददाति तस्य दोषं संकीर्तयत्युत्तरगाथा ववहारमयाणतो ववहरणिज्जं च ववहरंतो सु ॥ उस्सीयदि भवपके अयसं कम्मं च आदियदि ॥ ४५२ ॥ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COISTER पलाराधना आश्वासः - - व्यवहारापरिच्छेदी व्यवहारं ददाति यः॥ अवाप्यासी यशो घोरं संसारमवगाहते ।। ४६४ ।। विजयोदया-घबहारं अयाणतो प्रायश्चित्तं प्रगनतश्च कर्पतयिान । पावरणिका - पहिरते अतिचारविनाशार्थिनेति व्यवहरणीयमालोचनादिकं प्रायश्चित्तं इति नवधा । अपहरंतो प्रयच्छन् । उस्सीयदि वसीदति । कभवपंके । भसंभादियवि भयशः तुंसाबार्योऽयं यस्चिन ददाति नापं पर शोधयति । संसारभीरुयतिजनं वृथैध वेश यति इति । कम्मं च प्रादियदि पध्नाति कर्म दर्शनमोहनीयाख्यं उन्मागापदेशात् सन्मार्गविनाशनाय । तस्माइलोन दद्यास्प्रायश्चित्तमिति सूत्रार्थः । आचार्याणामियं शिक्षा । घयमाचार्या यदस्माभिर्दस तदिद कुर्विति यत्किंचन न यक्तव्यम् । श्रुतरहस्याः प्रायश्चित्तदाने यतध्वमिति ॥ . शास्त्रमज्ञात्वा प्रायश्चित्तं ददतो दोषमाह-- मूलारा-अजार्णतो ग्रंथतोऽर्थतः कर्मतश्या विद्वान् । ववहरगिज व्यवन्हियते अतिचाराविनाशार्थिभिरनुष्ठीयते इति व्यवहरणीयमालोचनादिप्रायश्चित्तम् । ववहरंतो प्रयच्छन् । उस्सीयदि अवसीदति खिद्यते । अजर्स तुंडाचाघोऽचं यत्किचन ददाति नायं परं शोधयति संसारभीमं यतिजनं पृथा क्लेशयतीत्यकीर्तिः । कम्मं दर्शनमोहनीयाख्यं कर्म पनाति उन्मार्गोपदेशनात्सन्मार्गविनाशनाय । आवियदि स्वीकरोति ॥ प्रायश्चित्त के ग्रंथको जानकर प्रायश्चित्त देना यह अयोग्य है ऐसा वर्णन अर्थ--ग्रंथस, अर्थसे और कर्मसे प्रायश्चित्त का स्वरूप जिसको मालूम नहीं है वह मुनि यदि बालोचनादिक नउ प्रकारका प्रायश्चित्त देने लगेगा तो वह संसारके कीचडमें फसेगा अर्थात् संसारमें भ्रमण करेगा और जगतमें उसकी अकीनि फैलेगी. यह तुंडाचार्य है अर्थात् चाहे जो प्रायश्चित्त मुखस देता है. कोनसा प्रायश्चित्त किस अपराधके लिये देना चाहिये इसका तो इसको कुछ भी ज्ञान यदि नहीं है तो यह मुनि ओंको कैसा अपराधसे मुक्त करंगा. संसारभीरु मुनिओंको यह व्यर्थ ही केश देता है. एसी लोकमें उसकी अकीर्ति फैलेगी. मनम जो प्रायश्चित्त देनेका विचार आया सो दिया ऐसा करनेसे जिनाझाका उल्लंघन हो जाता है. उन्मार्गका उपदेश करनेसे व सन्मार्गका नाश करनेसे उसको दर्शनमोहनीय कर्मका बंध होता है. इसप्रकार अश मुनि प्रायश्चित्त देनेका प्रयत्न न करें ऐसा आचार्य के प्रति यह उपदेश है. अर्थात हम आचार्य है हमने जो प्रायश्चित्त दिया है वह तुम करो ऐसा नहीं कहना चा Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना हिए. जिन्होंने प्रायश्चित्तशास्त्रको जान लिया है ऐसे आचार्य प्रायश्चित्त देते समय सावधानी रखकर प्रायश्चित देवे जिससे अज्ञताका दोष नहीं लगेगा. ६८० जह ण करेदि तिगिच्छं वाधिस्स तिगिच्छओ अणिम्मादो ॥ ववहारमयाणतो ण सोधिकामो विसुज्छेह ॥ ४५३ ॥ व्यवहारावुधः शक्तो न विशोधयितुं परम् ।। किं चिकित्सामजानामा रोगमत चिकित्सति ।। ४६५ ॥ विजयादया-यदि नाम ममम मुनधनवशिष्यजनपरितृतवमानेणोपजातादंकारा मुखलोकेनारताः संति सूरयम्न भवद्भिः अदा न टोकनीगः इति शिक्षति-जा कंद्रि तिर्गिच्छिगो वैद्यो । अणिम्मादो अनिपुणः । नहा नयााधवहारमजाना प्राधिनमजान-परित । सोधिकामो रस्नत्रयशुमचामिलापः । ण सोधिदि वु न शोधयत्यय ।। य नाम मुखरा मूर्या बहुशिष्यपरिवृतत्वमात्रेण प्ररूडाईकारा मूर्खलोकेनाहताः सति सूरयस्ते भवद्भिः शुद्धयर्थ गोपाश्रयणीया ति शिक्षयत्ति मूलारा - तिगिंछ प्रतिकारं । विगिंछओ वैद्यः । आणिरसदो अनिष्णातः | अनिपुणः ।खु सोधेदि शोधयत्यय । अर्थ-जो आचार्य मुखर हैं अर्थात वाचाल हैं. मूर्ख य नवीन शिष्योंसे वेष्टित होनेसे जिनको अभिमान उत्पन्न हुआ है. मूर्ख लोगोंसे जो पूजनीय हो रहे हैं ऐसे आचार्यका आश्रय हे क्षपक ! तुम अपराधशुद्धीके लिए कदाचित् भी न करो ऐसी शिक्षा इस गाथामें दृष्टांतपूर्वक कही है वह इस प्रकार--जैसे अन्न वैद्य रोगका स्वरूप जानना नहीं है अतः वह अनिपुण होनेसे रोमकी चिकित्सा नहीं कर सकता है. चैसे जो जो आचार्य प्रायश्चित ग्रंथके जानकार नहीं है वे यद्यपि रत्नत्रयकी निर्मल करनेकी इच्छा रखते हुए भी उसको निर्मल नहीं कर सकते हैं. Polisi Solertidel तहा णिन्विसिदव्वं क्वहारबदो हु पादमूलम्मि ॥ तत्थ हु विजा चरण समाधिसोधी य णियमेण ॥ ४५८ ॥ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वास ६८१ ततः समीपे व्यवहारचेदिनः स्थितिर्विधया क्षपकेण धीमता ॥ सिसिक्षणा बोधिसमाधिपादपी मनीषितानेकफलप्रदायिनी ॥१६॥ इनि व्यवहारी। विजयोदया-तम्हा णिब्दिसिदचं तस्मात्स्थातव्यं । ववहारबदो सुव्यवहारवतः पब । पादमूलम्मि पादमूले । तत्थ ख तत्र व्यवहारवत्पावमूले । वित्रा विद्या शानं भवति ।चरणं समाधि सोधी य चारित्रं समाधिश्च बुद्धिश्व । णियमेण निश्चयेन भवति । घवहारपं॥ प्रकृतमुपरहिनि --- मूलारा—पिविसिठन अवश्यं म्यातयं । व्यवहारवान् ।। अर्थ-इसलिए क्षपकने प्रायश्चितन आचार्य के पासही निवास करना चाहिए, उनके पास रहनेमे ही ज्ञानप्राप्ति होती है, चारित्रप्राप्ति होती है और ध्यानसे एकाग्रता और आत्मशुद्धि निश्चयसे होती है. इस प्रकार आचार्यके व्यवहारत्व गुणका वर्णन किया है. पगुष्वी पतनाच जो णिक्खवणपवेसे सेज्जासंथारउवधिसंभोगे । ठाणणिसेज्जागासे अगदूण विकिंचणाहारे ॥ ४५५ ॥ प्रवेशे निर्गम स्थाने संस्तरोपधिशोधने । उद्वर्त्तने परावर्ने शय्यायामुपवेशने ॥ ४६७ ॥ विजयोदया-जो पिक्सवणपसे यो यः सूरिः क्षपकस्य वसतेनिखामणे प्रवेशे धा । सज्जासंथार उवधिसंभोग वसतेः, संस्तरस्य, उपकरणस्य शोधने । ठाणणिसज्जागासे स्थाने, निपद्यावकाशे, अगविकिंवणाहारे शव्यायां, शरीरमलाहरणे, भक्तपानढोकने च॥ प्रकारकत्वं गाथाचतुष्टयेन व्याचष्ट्र--- मूलारा-संभोग शोधने । णिमाजोगास अपवेशनावकाशे । अगट्टणविकिंचणाहारे शय्यायो शरीरमलापहरणे भक्तपातहीकने व ६८१ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वामः अब आचार्य के प्रकुर्वित्त्व नामक गुणका वर्णन करते हैं अर्थ-क्षपक जब वसतिकामें प्रवेश करता है अथवा बाहर जाता है उस समयमें, वसतिका, संस्तर, और उपकरण इनके शोधन करनेके समय में, खदे रहना, धैठना, मोना, शरीरमल दूर करना, आहारपानी लाना इत्यादि कार्य में जो आचार्य क्षपकके ऊपर अनुग्रह करता है उसको प्रकुर्वी कहते हैं. इत्यादिकार्यके करते समय आचार्य मनमें जुगुप्सा नहीं करते हैं, अन्भुजदचरियाए उवकारमणुसरं वि कुव्वंतो ॥ सव्वादरसचीए वट्टइ परमाए भत्तीए ॥ ४५६ ॥ उत्थापने मलत्यागे सर्वत्र विधिकोविदः॥ परिचाविधानाय शक्तितो भक्रुितो रतः ॥ ५६८ ।। विजयोदया - अभुज्जदचरियाय क्षपकस्य अभ्युद्यतचाया उपकार अनुग्रह इस्नावलंयनादिक । अणुत्तरं पकुव्वतो उत्कएं प्रकुर्चन् । स- पासीर सादरशकस्याभि-सीएमक्या परमाया । बट्टदि यतते । सप्रन्धका सूरिभवति इति संबंधः।। मूलारा-अभुज्जदचरियाए पंडितमरणोपक्रमे । सम्वादर सर्वप्रयत्नेन ॥ अर्थ- उपयुक्त कायम प्रकुनी मुपाके धारक आचार्य हाथ अवलंब दना नगरह द्वारा अपकके ऊपर अनुग्रह करने हैं. यह अनुग्रह भक्तिपूर्वक और उलष्टतास करते इय अप्पपरिस्सममगणित्ता खवयस्म सबडियरणे ।। बर्सेतो आयरिओ पकुब्बओ णाम सो होइ ॥ ४५७ ॥ आत्मश्रममनालोच्य क्षपकस्योपकारकः ।। प्रकारको मतः सूरिः स सर्वादरसंयुतः ॥ ४६९ ॥ R Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्नाशघना आश्वास ६८३ विजयोदया-इय एवं | अप्पपरिस्सम आत्मपरिधर्म। अगणित्ता अपरिगणय्य । खचयस्स आराधकस्य । सय्वपचिरणे सर्वशुश्रूषायां । यहूंतो वर्तमानः । आयरिओ आचार्यः । पगुम्यो णाम प्रकुर्वको नाम 1 होदि स भवति । पकुवीगदं । मूलारा-सव्वपटिचरणे सकलशुश्रूषायां । पकुबगो प्रकारकः ।। अर्थ- इस प्रकार क्षपककी सर्व प्रकारकी शुश्रुषा आचार्य करते हैं. उसमें बहुत परिश्रम पटने पर भी वे विन नहीं होते है. एस आचार्य को प्रकुर्वी आचार्य करते हैं इस प्राचार्य का स्वरूप कहा है, क्षपशिक्षापरा गाथा-- खवओ किलामिदंगो पडिचरयगुणेण णिव्वुदि लहइ ॥ तझा णिन्चिसिव्वं खवएण पकुव्ययसयासे ।। १५८ ॥ निपीज्यमानः क्षपका परीषहैः सुखासिकां याति सहायकौशलैः॥ यतस्ततस्तेन समाधिमिच्छता निषेवणीपा गुरवः प्रकारकाः ॥ ४७० ॥ इति प्रकारकः। बिजयोदया-खयगो क्षषक: किलामिदंगो ग्लानशारीरः। पडिचरयगुणेण शुधृपागुणेन, णिवुदि लहदि सुखं समते । सबमेण सपकेण । पकुरघयसपास बिनयकारिणः समीपे । पगुब्बीगर्ने । प्रकारकसमीपनिवासाय आपके शिक्षयतिमूलास-गिलामिदंगो ग्लानशरीरः। पहिचरियगुणेण प्रतिचारकोपचारेण । णिचुदि सुख ॥ प्रकारकः ॥ आगे क्षपकको उपदेश देते हैं अर्थ-रोगसे ग्रसित क्षपकमुनि आचार्यके द्वारा की गई शुश्रूषासं सुखी होता है, अवः क्षएकको शुश्रूषा करनेवाले आचायक पास ही रहना श्रेयस्कर है, प्रकुर्वी गुणका वर्णन समाप्त हुआ. - - Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ६८४ आयोपारादित्ये पायबंध. - खवयरस तीरपत्तरस त्रिगुरुगा होंति रागदासा हु ॥ लम्हा हादिहिंय खत्रयरस विसोत्तिया होइ ॥ ४५९ ।। अस्ति तीरं गतस्यापि रागद्वेषोदयः परः ॥ परिणाम संक्लिष्टः क्षुष्णादिपरीष है। ॥ ७१ ॥ विजयोदया सवगस्स क्षपकस्य । तीरपत्तरस वितीरं प्राप्तस्थापि । रागदोसा गुरुगा होंति रागद्वेषौ गुरु ती भवतः । सम्हाद्दादिर्हि यासादिभिः परीषदेव कारणभूतैः । सवगस्ल क्षपकस्य बिसोसिंगा र अशुभप रिणामो जायते ॥ यापायषदर्शित्वं पंचदशभिर्गायामः कथयितुकामः प्रथमं गाथाचतुष्टयेन तक्षणमाह मूलारा — गुरुगा दीयाः । बिसोसिगा अशुभ परिणतिः । आचार्य में आयोपाय दर्शन नाम का गुण होता है उसका निरूपण करनेके लिये आगेका प्रबंध -- अर्थ – पक मुनि मोक्षप्राप्ति होनेके निकट समय को प्राप्त हुआ हो अथवा मनुष्यपर्यायका का नाश होने के समको प्राश हुआ हो तो भी उसके अंतःकरण में तीत्र रागद्वेष उत्पन्न होने की संभावना होती है. क्यों कि उस समय में उसको क्षुदादि तीच परिपहोंस अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं. घोणा पूत्रं तप्पविक्खं पुणो वि आवणो ॥ खवओं ने तह आलोचेदुं लज्जेज्ज गारत्रिदो ॥ ४६० ॥ आलोचनां प्रतिज्ञाय पुनर्विप्रतिपद्यते ॥ लज्जते गौरवाकांक्षी सतां कर्तुमपास्तधीः ॥ ४७२ ॥ विजयोदयाथोपाइ पुवं प्रवज्यादिक्रमेण तहिनपर्यवसानं रान यातिचारं निवेदयामीति पूर्व प्रतिज्ञाय । विसं तस्यापराधत्यापनस्य प्रतिपक्षेण निवेदनं । आवण्णो आपन्नः प्राप्तः । खयगो तं तद्द आलोवेरं लज्जेज्ज गारविगो क्षपकस्तमपराधं तथा त्याचरितक्रमेण गदिनुं जिन्देति संभावनागुरुः ॥ आश्वास ४ ६८४ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दाराधना आश्वासः ६८५ मृलागरा-चोलाइट्टण अन्नदादारभ्याम नायकोग सनत्रयानिचार नियामीति प्रतिज्ञाय । पडित्रतस्य अपराधनिबदनात्य प्रविषमनिवदनं । आलोचयितुमुपक्रान्तं शेषम् । तध तथा आत्माचरितक्रमेण । गारविदो आत्मसंभावनापरः।। अर्थ-मुनिदीक्षाके कालमें आजतक जितने रत्नत्रयमें अतिचार लंग है वे सब गुरुके सन्निध में कहूंगा ऐसी क्षपकने प्रथम प्रतिज्ञा की थी परंतु लज्जा अथवा गर्व इत्यादि कारणोंसे अपने अतिचारोंकी आलोचना करने । में वह हिचकता है. । तो सो हीलणभीरू पूयाकामो ठवेणइत्तो य ॥ णिजहणभीरू वि य खबओ विनदो वि णालोचे ॥४६१|| ततः स्वस्थापनाकारी त्यागायज्ञानभीलुकः ।। क्षपको गुणदोषी नो पूजाकामो विवक्षति ।। ४७३ ।। विजयोदया-तो पदचात् । सो क्षपका हीलणभीरु हातमदीयापराधा मे मामय जानंति इति अपशाभीरुः । पूजाकामो य वंदनाभ्युत्थानं इत्यादिकायां पूजायामभिलाषयान् । सापराधं न पूजयंतीति । उवणइत्तो य आत्मानं सुनरितत्वे स्थापयितुकामश्च । णिज्जूदपाभीरु बिय मामिमे सापराधं त्यजप्तीति त्यागभीरुश्च । सवगो स्यापराध शरीरं च नयामीति प्रवृत्तोऽपि पालोचज्ज दोपं च कथयारोदोगमात्मीयं ॥ मूलारातो पहचान । दीदगमीरू ज्ञानगदपराधा इमे मामवज्ञास्यतीत्वज्ञाभीरुः | पूयाकामो बंदनाभ्युत्थानादिमकार साकांक्षः | भापरा न भूजयामि कविया । ठत्रे गश्तो आत्मान मधरिलतत्त्र स्थापयितुकामः । बंदुमिच्दो इति पाठः आत्मानं माहात्म्ये स्थापयितुमिच्छन्नित्यर्थः । णिज्णभीरू इमे सदोषं मां त्यक्ष्यतीति त्याग भीमः । मावगो विस्वास र पयामीनि प्रवृत्तोऽपि । ग बालोचे गुरोन अधयः । अर्थ-मेरे अपराध आचायाको ज्ञात होने पर वे मेरा तिरस्कार करेंगे एमी मनमें वह कल्पना कर बैठता है, अथवा मेरेको अन्य मुनि वंदन करे, आदर करे ऐसी उसको अभिलाषा रहती है. यदि मेरे दोप इनको अवगत होंगे तो ये मेरी बंदना और आदर नहीं करेंगे ऐसे अभिप्रायसे भी क्षपक अपने दोषोंका निवेदन MEEATED ६८५ THISC Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना Soआधामः नहीं करता है. मेरा आचरण निर्दोष है यह सिद्ध करना चाहता है इस हेतुसे भी वह दोपोंकी आलोचना करने को तैयार होता नहीं. यदि मैं अपने अपराध इनको कहूंगा तो ये मेरा त्यांग करेंगे ऐसी भी भावना क्षपक मनमें स्थान कर बैठती है. अतः वह यद्यपि अपने अपराध और शरीरका त्याग करनेके लिये उद्युक्त हुआ है तो भी गुरुको अपने दोष कहता नहीं, ६८६ तस्स अवायोपायविदंसी खवयस्स ओघपण्णवओ ॥ आलोधेरास अणुज्जगत्स देसइ गुणदासे ॥ ४६२ ।। आयापायविधिर्येन हेयोपादेयवेदिना विश्यते क्षपकस्पासावायापायदिगुच्यते ॥ ४७४ ।। आयो रस्नत्रयस्य वृद्धिः। अपायो रत्नत्रयविनाशः । ततो वक्रमतेस्तस्य सामान्यालोचनाकृते ॥ आयापापदिशाबाच्यो गुणदोषी गणेशिमा ।। ४७५ ।। विजयोदया-तस्त वषगस्स गुप्पदोस सेविति पदसंबंधः । तस्य अनालोचकस्य थालोधनायां गुणमितरत्र दोपं च दर्शयति । कः ? आयोपायविदंसी आपरेपापषिदर्शी सूरिः । अपायो रत्नत्रयस्यविनाशः उपायो लाभः । उपायशब्दोऽनर्थकः इति कृस्वा रत्नत्रयस्य माउ शुद्धिामः तदुभयदर्शी ओधपण्याबगो सामान्य प्ररूपयन यो न कथयति स्वापराधं तस्यायं दोष इति । भालोचेंतस्स वि अपि शरदोऽन्न लुप्तनिर्दिणे आलोचना कुर्वतोऽपि । अणुरागरस मायावतः ।। मूलारा---अपायो रत्नत्रयस्थ विनाशः । उपायो लामस्तो विशेषण दर्शयति । ओधपण्णवगो सामान्यं प्रहपयन् । यो न कथयति स्वापराधं तस्यायं दोषः इति प्रशापकः । आलोचेंतस्स आलोचना कुर्वतोऽपि । अणुजगस्स मायावसः । गुणदोसे आलोचनायां गुणान् अनालोपनायां च दोषः ।। अर्थ-जो धपक उपर्युक्त कारणोंसे दोषोंकी आलोचना करनेमें भययुक्त होता है. उसको आयोपाय दर्शन गुणके धारक आचार्य आलोचना करने में गुण और आलोचना न करनेसे हानि कैसी होती है इसका निरू ६८६ Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्चासा ६८७ पण करते हैं. अर्थात् रवि आए आलोचमा न करोगे तो आपके रत्नत्रयका नाश होगा और दोषोंफा निवेदन करनेसे आपको रलायकी प्राप्ति होगी आरै उसमें निर्मलतामी प्राप्त होगी इस प्रकार दोष और गुण बतानेवाले आचार्योको आयोपायविदशी आचार्य कहते है. जो क्षपक विशिष्ट अपराधोंको निवेदन न कर सामान्य अपराधोंका निवेदन करता है. और जो अपराध निवेदन करता हआ भी मन में मायामात्र रखता है उसके भी रत्नवयका नाश होता है और निष्कपटभावने अपन सर्व दोपोंकी आलोचना करता है उसको उन्नयनाति और विशद्धि की प्राप्ति होती है. माया अर्थात कपट दोपोंकी उत्पत्ति करती है और यथार्थ कथन अधीन दीक्षाकालसे आजतक उत्पन्न हुए दोपोंका सत्यकथन गुणोका जनक है इसलिये स्वदोषोंका आचार्य के समीप वर्णन करना चाहिये ऐसा आचार्य आगेकी गाथामें कहते हैंभाषायां दोपयाधात्म्यकथनं च गुण दर्शयति पत्र दोषमकटने कर्तव्यविचाट-- दुखण लहद्द जीवो संसारमहण्णवम्मि सामणे ।। तं संजमं खु अबुहो जासेइ लसलमरणेण || ४६३ ॥ तुम्ग्वतः संयम लब्ध्वा शरीरी भवसागरे ।। सशस्यमृत्युना सारं नाशयत्यपचंतनः ॥ ४७३ ॥ विजयोदया-दुक्खण लहाजीपो परेशान लभते जीयः । किं सामपणं धामण्यं चारित्रं संयम 1. संसार माध्यम्मि चतुर्गतिपरिभ्रमणमहार्णधे दुष्पापपारतया संसारो महार्णव य । खुशब्दःणासह इत्यतः परतो द्रपक्यः । तं संयम माशयत्येषाधुधः ससलमरण | पचपि शल्यममेकप्रकारे मिथ्यामायानिदानशल्यभेदेन तथापीह प्रकरणय शान्मायाशल्यं गृयते, मायाशल्यसहितेष मरपोमेस्पधः । ननु समाजतायाःप्रस्तुतत्वात् सामण्णं इत्यनेन तत् परित्यज्य कथमम्य दुपयस्तं 'तं संजममिति' । अस्यायमभिप्रायः श्रमणशब्दस्य व्ये प्रवृत्तिनिमिस यच्छामण्यं किं च तत्संयमः । तथापि सावधाफियापरो नार्य श्रमण इति लोको बदति। ततोऽयुक्तमेव भावशल्यभात्मन्यपस्थितामिव दोपमावहतीति दृष्टान्तमुखेन कथयति न केवलं प्रकारकः सन्सूरिः भपकस्य बायभुपचार तथा करोत्यपि धायापायविदर्शी सन्नाध्यात्मिकमपीत्थं दोषप्रकाशनयेति तामेव प्रबंधनाइ ६८७ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलासबना | आश्वास ६८८ मूलारा--सामणं श्रामण्यं यतिधर्म । ससल मायाशल्यसहितं प्रकरणवशात् ।। अर्थ- इस संसारका दुसरा किनारा प्राप्त होना कठिन है इस लिये आचार्य महाराज इसको समुद्रकी उपमा देते हैं. चतुर्गतिओमें भ्रमण करना यही संसार है. इसमें भ्रमण करनेवाले जीवोंको संयमकी प्राप्ति होना अतिशय कठिन है. परंतु दैवयोगसे ऐसे संयमकी प्राप्ति होनेपर भी मूर्ख मनुष्य शल्यसहित मरण प्राप्त कर संयमको नष्ट करता है. मायाशल्प, मिथ्यात्वशल्य और निदानशल्य एसे शल्यके तीन भेद हैं, तथापि यहां प्रकरणवश मायाशल्यका ग्रहण करना चाहिए, अधात् भूखंजन मायाशल्पर्स संघमका नाश कर मरण करते हैं. ऐमा यहां अभिप्राय समझना चाहिये. शंका-गाथाके द्वितीय चरणमें समानताका उल्लेख किया है परंतु तीसरे चरण में उसका ग्रहण न कर 'संयम' शब्दका ग्रहण किया है अतः प्रस्तुत समानताका त्याग कर अन्यका ग्रहण करना योग्य नहीं है। उत्तर---इसका अभिप्राय यह है कि श्रमण शब्द का अर्थ मुनि है मुनि इस अर्थ में श्रमण शब्दकी प्रवृत्ति होनेमें श्रामण्य शुब्द अर्थात् समानता शब्द कारण है. समानता अर्थात् श्रामण्य और संयम दोनो शब्द एकार्थ वाचक है इसीवास्ते संयमशब्दकाभी प्रयोग करना अनुचित नहीं है.' सावधक्रियापरो नायं श्रमणः' अर्थात् पापक्रिया करनेवाला मुनि नहीं कहा जाता है ऐमा लोक बोलते हैं. इसलिये आत्मामें भावशल्य रहना अथान कपटविचार रहना अयोग्य ही है. जह णाम दव्वसल्ले अशुदुदे वेदणुदिदो होदि ॥ तह भिक्खू वि ससल्लो तिब्बदुहट्टो भयोनिग्गो ॥ ४६९ ॥ द्रव्यशल्ये यथा दुःखं सर्वांगीणव्ययोदयः ॥ भावशल्ये तथा जन्तोर्विज्ञातव्यमनुते ॥ १७ ॥ विजयोदया--जह णाम यथा नाम । यसले शरकंटकादी अणुचुरे अनुवृते अनिराकृते । थेवणुदिदो होनि घेदनातॊ भवति | तह तथा भिक्खु वि मिचरपि। ससल्लो भाषशस्यवान् | तिम्ब दुहितो तीवदुःखितो भवति । भयोब्धिम्मो भयेन चलो भवति । एषमनुद्धतशत्यो गमिष्यामि कां गतिमिति भयमस्योपजायते । एवमर्थं इष्टान्तेनाविरोधयति । ६८८ ILA Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ६८२ मूलारा-णाम स्फुटम् । दबसलं शरीरकंटकादौ । अणुसुदे अनुवृते । घेणुद्धपो दुःस्वार्तः । ससलो मायाचापपान । भबिगो एवमनुनशल्यो गमिष्यामि का गतिभिति भयाकुलितचित्तः ।। यह भावशल्य दोषोंका उत्पन्न करता है. इसको ही दृष्टान्तसे आचार्य स्पष्ट करते है .. -सव्यशल्य धाग, कांटा वगैरह शरीरमें घुसने पर मनुष्य दुःखी होता है वैसे मिक्ष भी यदि मनम कपट मिथ्यात्र वगैरह भावशल्य धारण करेगा तो वह तीव दुःखसे पीडित होगा, और भयस चंचल होगा. यदि मैं शल्यका त्याग नहीं करूंगा तो कौनसी गति मेरेको प्राप्त होगी ऐसा विचार मनमें आकर इस भिक्षुको भय उत्पन्न होता है. कंटकसल्लेण जहा वेधाणी चम्मखीलणाली य॥ रपयजालगतामदीय पादो सडदि पच्छा 11 ४६५॥ करके नुते प्राप्तो प्रथा त्वकीलनालिकां ॥ प्रतिवल्मीकरन्ध्राणि प्राप्यांधि सटति स्फुटम् ॥ ४७८॥ विजयोदया-कंटकसालण जहा कंटकास्येन शल्येन कारणभूतेन यथा। वेधाणी चम्मचीलनाली य ब्यधन. चमकीलनालिकाश्च भवन्ति । रपइयजालगत्तागदो य कुथितवल्मीकच्छिद्राणि प्राप्तः स पादः पतति पश्चाद्यथा ॥ एतदेव दृष्टान्तमुखेन समर्थयितुं गाथाद्वयेनाह--- मूलारा वैधाणी व्यधापनी सुपिरमित्यर्थः । चम्मकोल मांसांकुरः । णाली नाडी । पञ्चास्तिस्रः प्रथम पादे भवन्ति । रप्पाइजालगत्तागदो कुथितवल्मीकच्छिद्राणि प्राप्तः ॥ दृष्टांतसे उपर्युक्त अभिप्रायका स्पष्टीकरण करते हैं. अर्थ--जैसे कांटा पाबमें घुसनेसे प्रथम छिद्र पडता है अनंतर उसमें अंकुरके समान मांस बढ़ता है तदनंतर यह कांटा नाडीतक सनसे पांवका मांस बिघड़ने लगता है. जिससे उसमें बहुत छिद्र पहने हैं. इस प्रकार से वह पांत्र निरुपयोगी होता है. Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा लासपना SAHEEREDANATAARENA - - - - -- AR - एवं तु भाबसल्लं लज्जागारवभएहि पडिबई ॥ अप्पं पि अणुद्धरियं वदसीलगुणे वि णासेइ ॥ ४६६ ॥ विविध दोषमापन्नः संयमोऽनुड्ते तथा ॥ भयगौरवलज्जाभिः भावशल्ये विनश्यति ॥ ७॥ विजयोदया-पवं नु पचमेव । भावसई परिणामशरल्यं । लज्जागारघभयहि पदिबद्धं स्वापराधनिगद्दनं लज्जातो भवति । भयेन अपराध कथिने कुणपति मुग्यस्यति या मा मामा प्रायश्चिनं प्रयच्छन्तीति । सुतगाः तपस्यायं संसंयत तिन प्रासा: सानियतीस गौरवण च प्रतिबद्धमायाशल्यं । अयं गि अल्पमपि शल्यं अशुद्धरियं अनु रतं । वदसीलगुणे बतानि शीलानि गुणांश्च विनाशयति ॥ मूलारा-पहिबद्धं अत्चगहित वन्मयाकृतं कथं प्रकाश्यते इति लज्जया प्रच्छावित सत्, अयं तपस्वी सुसंयत इति वा, मां महद्वा प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति इति भयेन वा प्रच्छादितं । अपि अल्पमपि ।। अर्थ-इसी प्रकार भावशल्य भी जीवको दुःखदायक है, भय, गर्व और लज्जासें जब अपराध छिपाते हैं तब भावाल्य उत्पन्न होता है. जैसे लज्जासे अपराध छिपाते हैं वैसे भयसे भी अपराध छिपाते हैं, अपराध कहने पर गुरु मेरा त्याग करेंगे अथवा बडा प्रायश्चित देंगे ऐसे भयसे अपराधोंका कथन करने में क्षपक अनाकानी करता है. मैं वहा तपस्वी हूं ऐसी मेरी जगतमें कीर्ति है वह अपराध कथनसे नष्ट होगी ऐसे गर्वयुक्त विचारसे अपराध निवेदन नहीं करता है. इस प्रकारसे मायाशल्य मनमें उत्पन्न होकर वह बत, शील, और गुणोंका नाश करता है. तो भट्टबोधिलाभो अणतकालं भवण्णए भीमे ।। जम्मणमरणावत्ते जोणिसहस्साउलो भमदि ॥४६७॥ प्रभ्रष्टयोधिलाभोऽतश्चिरकालं भवार्णये ॥ जन्ममृत्युजरायते जीयो भ्रमति भीषणे ।। ४८० ।। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधासः विजयोदया-तो पश्चात् । मट्टबोधिलाभो घिनएपीक्षाभिमुखबुद्धिलाभः । अर्णतकालं ममद अनंतकाले धाति । के मवणबे भवार्णये । भीमे भयंकरे । जम्मणमरणापते जन्ममरणावतं । जोणिसहस्साङले चतुरशीतियोनिसहराकुले ॥ ततः किं स्यादित्याहमूलारा-ममोहिलाहो नष्टदीक्षाभिमुखबुद्धिलाभः । अतकालं अर्द्धपुरलपरिवर्तमात्र । अर्थ-- इस भावशल्पसे दीक्षाभिमुख बुद्धिका लाभ नहीं होता है. अर्थात् मैने मुनेिदीक्षा व्यर्थ ली है ऐसा विचार क्षपकके मनमें आता है, भावशल्यसे यह जीव अनंतकालतक अर्थात् अर्धपुद्गलपारिवर्तन कालतक चोरासी लक्षयोनियुक्त, इस भयंकर भवसमुद्र में भ्रमण करता है. जिसमें जन्म मरणरूपी भोवर हैं, ' --: -- - तत्थ य कालमणतं घोरमहावेदणासु जोणीसु ॥ पञ्चतो पच्चंतो दुक्खसहस्साइ पप्पेदि ॥४६॥ तीवव्यधामु योनीषु पच्यमानः स संततं ।। तत्र दुःखसहस्राणि दीनो घेदयते चिरम् ॥ १८१ ।। विजजोदया-तत्थ य तत्रच भवार्णवे । अणंतकाल दुपवसहस्साए पयेदि इति पवघटना । अनंतकाल दुःखसहस्राणि अनुभवति । घोरमहावेवणासु जोणीसु पचतो धोरमहादेवनानु योनियु पच्यमानः ॥ भये प्राम्यन्कि करोतीत्याहमूलारा---पञ्चतो पच्चतो पुनः पुनरतिग्लप्यमानः ।। अर्थ-इस धार संसारसमुद्र में अनंत कालतक जिनमें भयंकर वेदनाएँ हैं एसी कुयोनिओंम पचते हुए इस क्षपकको सहस्रो दुःख भोगने पड़ते हैं. तं न खु खमं पमादा मुहुचमवि अत्थितुं ससल्लेण ॥ आयरियपादमूले उद्धरिदव्वं हववि सल्लं ॥ ४६९ ॥ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराना आश्वास मुहर्नमप्यतः स्थातुं सशल्येन न शक्यते । आचार्यपादयोले तदुद्धर्तव्यमंजसा.।। ४८२ ।। बिजयोवया-सं तस्मात् । मुहसमबि अस्थिदं ससेल्लण न स्वमो खु मुहूर्तमावपि आसितुं शल्यसहितेन रत्नत्रयेण सहन शका प्रमादयशाचतिः संसारभीमः । आयरियपादमूले उक्तगुणस्याचार्यस्य पादमूले । उखरिदवं ददि सहपारमगुरुतः भासि। परसगपसाहारना, -- मूलारा –ण स्वमं न युफ । पमाया प्रमादवशात् ।। अर्थ- इसालय थपकको प्रमादम एक मुहूर्त कालतक भी शल्यसहित रत्नत्रय धारण करना योग्य नहीं हैं, अतः संसारमयसे युक्त क्षपक आयोपायदर्शक आचार्धके पास भावशल्य का उद्धार करें. तम्हा जिणवयणराई जाइजरामरणदुक्खवित्तत्था । अञ्जवमहणसंपण्णा भयलज्जाउ मोत्तूण ।। ४७० ॥ जिनद्रवचनश्रद्धा जरामरणभीरवः ॥ निराकृत भगवीडाः संपन्नार्जयमार्दवाः॥४८३ ।। विजयोदया-तमा नसमात् । यियमई जिनागमे श्रद्धावतः । जाजरामरणदुषिसत्था जातिराम रणदुःखवित्रस्ताः । अजवमहवस आजधन मादवन युक्ताः । भयलज्जामो भये लज्जा वा । मोत्तण मुक्त्या | स्थितार्थमाह -- मुलारा--वित्तथा वित्रताः । अन्जव महवलंपण्णा आर्जवेन मार्दधेन च युक्ता निर्जितमायामाना इत्यर्थः ।। अर्थ-इसवास्ते जिनेश्वरके आगममें श्रद्धा रखनेवाले जन्म, युद्धापा, मरण के दुःखोंसे भययुक्त, निष्कप टता, विनय इन गुणोंसे परिपूर्ण ऐसे क्षपकको भय और लज्जा छोडकर अपराधकथन करना योग्य है. उप्पाडित्ता धीरा मूलमसेस पुणब्मवलयाए । संवेगजणियकगणा तरंति भवसायरमणतं॥ ४७१ ॥ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधासा मूलाराधना ६९३ पुनर्भवलतामूलभुत्पाव्य नितिन झुधाः ॥ संगोत्पनवैराग्यास्तरन्ति भवपारिधिम् ।। ४८४ ॥ विक्षयोदया-उपारिता उत्पाट्य । धीराः । कि मूल । कर्य मसेस मिरवशेष । कल्य मूल? पुणभवलगाए पुनर्भवलतायाः । किं तन्मूल ! शल्यं । संवेगजणियकरणा संसारमीस्तोत्पावितक्रियाः पतति तरंति । भयसा परम यानं भवसागरमनंतं ॥ गुलारा-मूलं शम् । करण किया ममाधिमरणमिति यावत || अर्थ-संसाररूपी चेलीका मानी मूल सा भावशन्य धीर क्षपक ममूल उखाड़कर फेक देते हैं. और संसारका भय मनमें धारण कर चारित्राचरणका अंगीकार करते हुए इस भयंकर संसारसमुद्रसे पार होते हैं. उक्तवस्तूपसंहारा गाधा ग्याइ छोरे काणे आलोभासे ॥ ण णियत्तइ सो तत्तो खवओ गुणे ण परिणमइ ॥ ४७२ ।। तपःप्रसुचने दार्प दोषाणां सुचने गुण ।। एवं दर्शयते सूरिरायापायमदर्शकः ।। ४८५ ।। नदानी क्षपको नूनं हेयादेयविमूढधीः ।। निवर्तते न दोपेभ्यो न गुणेषु प्रवर्तते ।। १८६ ॥ विजयोत्या-इय पर्व । जदि गुरू पा देसदि यदि गुरु दर्शयेत् क्षपकस्य । किं आलोवणाए गुणे स्वापराधक. धनस्य गुणान् । दोसे य बोपांच यदि न दर्शयेत् । बालोयणाप इति वाफ्यशेषः । सो स्वगो ाणियत्तदि। भसी क्ष. पको न निवर्तते । कुतः तत्तो पूर्वोक्तदोषान्मायाल्यात् । गुणे यण परिणमवि गुणे व निःशस्यत्वेन परिणमते ।। उक्तान्ययाकरणे दोषमाइमूलारा - दोसे योपान । सामध्यादनालोचनायाः । ततो मायाशल्यलनणाहोपात् । गुणे निःशल्यत्वे ।। उपक विषयका उपसंहार करन हैअर्थ-अपने अपराध कहनम रत्नत्रयविशुद्धि नामक गुण प्राप्त होता है और न करनेसे संमारभ्रमण Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामादिगा है हर बारसमका हार उत्पन्न होता है ऐसा यदि आचार्य न दिखावेंगे तो क्षपक मायाशल्यका त्याग न करेगा और निःशल्य होकर गुणोंमें तत्पर न होगा, मूलाराधना आश्वासा तझा खवएणाओपायविदसिस्स पायमूलम्भि ॥ अप्पा णिबिसिदव्यो धुवा हु आराहणा तत्थ ।। १७३ ॥ आयापायविशस्तु समीपे स्धेयं वृद्धिभता क्षपफेण । तत्राराघयते चतुरंगं नूनं विघ्रमशेषमपास्य ।। ४८७ ।। इति आयापापदिक् ।। विजयोदया तहमा तस्मात् आगोपायदार्शिनः पापमूले यस्माहोषामिषतते क्षपको गुणे च परिणमते तदुभ यार्थी च । तल्ला तस्मात् खबगेण बायोपायविदसिस्स गुणदोषदर्शिनः । पादमूले । अम्पा णिन्धिसियो आत्मा स्थापयि तव्यः । तत्र गुणमाचष्टे धुवा खुमाराहणा तत्थ निश्चिता रत्नत्रयाराधना तत्र । आयोरायः ॥ आयापायविदर्शिसूररात्मसमर्पणेऽवश्यंभाविनीमाराधनामभिधत्तमूलारा-णिविसिब्बो स्थापयितव्यः । धुवा निश्चिता ॥ आयोपायविदर्शी। अर्थ-इस लिये आयोपायदर्शक आचार्य के चरणोंके समीप क्षपकको रहना चाहिये वहां रहनेसे ही रत्नत्रयाराधना क्षपकको प्राप्त होती है, गुणोंकी प्राप्ति और दोषोंका नाश चाहनेवाले क्षपकको अवश्य आचार्य का आश्रय करना चाहिये. अवपीडकत्वं ध्यायातुफामः संवध्नाति पूर्वेण उपायदर्शित्वेन । आलोचणगुणदोसे कोई सम्म पि पाणविजेता || तिव्वहिं गारवादिहिं सम्म जालोचए खबए ॥ १७४ ॥ कश्चनाकथने दोषे दोषाणां कथन गुण ॥ वक्रात्मा कथ्यमानेऽपि नालोचयति तत्ववित् ॥ ४८८॥ ६९४ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना ६९५ I बिजयोइया-आलोचणगुणदोले आलोचनाया गुणदोषान् । कोई कश्चित् । सम्मेति पुण्णबिज्जतो सम्यग बोध्यमानोऽपि । खयगो णालोचय सम्मे क्षपकः सम्यक् न कथयेत् । केन हेतुना ? तिब्वेहिं गारवादिहि तीबेगरवादिभि: आदिशब्देन लज्जाभयक्लेशास गृह्यते द्वादशभिर्गाथाभिरुत्पत्वं प्रपंचयिष्यन्नायोपायवित्वेनास्य संबंधमभिधत्ते — मूलारा विपणविज्जं तो प्रज्ञायमानोऽपि बोध्यमानोऽपि इत्यर्थः । गारवादिहिं गारलज्जा भयक्लेशा सहयैः ॥ अवपीडकत्व यह भी आचार्य का गुण है. इस गुणका आयोपायदर्शित्व गुणके साथ संबंध दिखाते हैंअर्थ – आलोचना करनेसे गुण और न करनेसे दोपों की प्राप्ति होती है यह बात अच्छी तरहसे समझाने पर भी कोई क्षपक तीव्र अभिमान, लज्जा, भय, क्लेश सहन करनेकी इच्छा न होना इत्यादि कारणांस अपने दोष कहने में उद्युक्त नहीं होता है. तब नियपक आचार्य मधुरभाषण करके उसके लज्जादि विकार नष्ट करते हैं. एवमनालोचयतोऽपि भावः प्रशांति नेतथ्यो निर्यापिकेनेत्येतद्वयाचएंद्धिं मधुरं हिदयंगमं च पल्हादणिज्ज मेगंते ॥ तो पल्हावेदव्वो खबओ सो पण्णवंतेण ॥ ४७५ ॥ एकान्ते मधुरं स्निग्धं गंभीरं हृदयंगमम् ॥ स वाच्यः सूरिणा वाक्यं मजिलीकुर्वता मनः ॥ ४८९ ॥ विजयोदया - मिद्धं स्नेहवत् । मधुरं श्रुतिसुखं । हृिदयंगमं हृदयानुप्रवेशि । पल्वादणि सुखदं । एते एकांते । veteroat शिक्षयितव्यः । खबगो क्षपकः । सो सः । आत्मापराधं यो न कथयति । पण्णवंतेण प्रज्ञापयता सूरिणा । आयुष्मन् ! उपलब्धसन्मार्गरत्नत्रयनिरतिचारकरणे समाहितचित्त | अतिचारं निवेश्य लज्जां भयं गारवं च विहाय ॥ गुरुजनो हि मात्रा पित्रा च सदृशः, तेषां कथने का लज्जेति । स्त्रशेषभियन प्रख्यापयेति परेषां । यतिधर्मस्य वा अवर्णया प्रयत्नेन विनाशयितुमुद्यताः । किमयशः मध्यन्ति समीचीनदर्शनस्य मुक्तिमा प्रधानस्य मलं हि तयतिजने दूषणं । वतिचारष्टिमान्या इतं च रत्नत्रय कमलवनं न शोभते । परनिंदा मी चैत्रस्यास्त्रयः । स्वयं व निंद्यते बहुषु जन्मनिंदकः परस्य मनःसंताप दुस्सहे संपादयतो असकर्मबंधः स्वात् । साधुजनोऽपि निति स्वधर्मतनयं किमर्थमयं एवं अयशःपंकेन लिपतीति । पयमनेकानर्थाचद्दप रोगप्रकटनं कः सचेतनः करोतीति ॥ आवासः 8 ६९५ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHARE PATONE मुलाराधना आश्वास HALTSTATERARNaav एवमनालोनयोग्यस्य भावः प्रशान्ति नेतल्य इत्येतदाचष्टे-- मूलारा---गिर्ख म्नेदयुक्ती ममत्वगर्भमिल्यधः। मधुरं शुनिमुखं सम्मानपेशलमित्यर्थः । हिदयंगम हहयानुप्रवशि । पल्हादणि मुखदं । तो पश्चात् । पल्हावेदवो भावो से। संयोधनावष्टंभेन तस्य भावो मनः प्रल्हादयितव्यः प्रसात नेतत्यो निर्यापकाचार्येण । स्निग्धादिगुणं वाक्यं पातेण प्रज्ञापयता प्रतिपादयतेवि संबंधः । तथा हि-आयुष्मन् ! उपलब्धसन्मार्ग रत्नप्रधनमल्यकरणैकायांत:करण! लज्जा भय गौरवं च विहाय यथाजातमतिचार निवेदय | मातापितृकल्पस्य हि गुरूजनस्याने स्वापर, ताशयता कान न समजालेकानिकी हापगते । तथा च लोक:धनधान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च ।। आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सदा भवेत् ॥ इति ॥ न च मदालोचित दोषमेते प्रकाशयियंतीति भवता अस्माजनान भेतव्यं । धर्माचार्या हि धर्मधुराधौरेया यतीनां यतिधर्भस्य च बाध्यता निराकर्तुमद्यताः कथमिव समाध्यथै उपाश्रितेन भवादशा निवेदित दोषं स्वस्वदोषभिव प्रकटयन्ति । सधर्मदोषप्रकटनं हि मोक्षमार्गप्रधानस्य सम्यग्दर्शनस्य दूषण परनिंदया च नागॉत्रं कर्म अध्यते । बहुपु जम्मसु निंद्यश्च भवति, बध्नाति प निंदकः परस्य दुःसहमनःसंतापसंपादने दुर्विपाकमसद्वेष । निंद्यते प साधुजनेन स्वधर्ममाणिक्यं किमयमेवमयशःपुरीपेण लिंपतीति । तदेवमनेकानर्थमूलं परतोषोदावन के सुधीर्विदधीत । न च धर्माचार्यवयंमन्यतया त्वया देवात्प्रमादादा. यः कश्चित्सम्यक्त्वादीनामन्यतमेतिचारः मादुरभुत्स प्रच्छादायितुं युज्यात् ' रत्नत्रय हि निर्मलीकृतमेच परं महिमानभावति प्रापयति च सत्किमपि लोकोत्तर सनातन पदमिति ।। यही अभिप्राय आगेकी गाथा है, अर्थ-यदि क्षपक अपने अपराध नहीं कहे तो निर्यापिकाचार्य क्षपकको स्नेह युक्त, कर्णमधुर, हृदयमें प्रवेश करनेवाला, ऐसा भाषण एकांत में कहते हैं. उसकी पद्धति इस मुजव समझना-हे आयुप्मन् प्राप्त हुए रत्नत्रयमें दोप नहीं लगेंगे ऐसा तुम प्रयत्न करनेमें सदा एकाग्र चित्त रहते हो इसलिये भय, लज्जा, और गर्व छोडकर अपने दोष कहो. गुरुजन तो माता पिताके समान हैं उनके समक्ष अपने दोष कहनेमें लज्जा नहीं करनी चाहिये. वे गुरुजन तुझारे दोष स्वदोषके समान ही समझकर दुसरोंको नहीं कहते हैं. वे तो यतिधर्ममें कोई दोष लगावेगा दो दूर करनेके लिये हमेशा उक्त रहते हैं. अतः चे तुमारी अकीर्ति होनेकी इच्छा क्या मनमें Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाराधना ६९७ धारण करेंगे? यतिजनमें दोष लगानेसे सम्यग्दर्शन जो कि मोक्षमार्गमें प्रधान माना जाता है उसमें दोष उत्पन्न होता है. अतिचाररूपी बर्फ के आघात से रत्नत्रय रूपी कमलवन सुरझने लगता है, परनिंदा करनेसे नीचगोत्र कर्मका आम होता है. तब निंदक जन अनेक जन्ममें लोगों निंदित होते हैं. दुसरेके अंतःकरण को जो संताप उत्पन्न करते हैं उनको असातावेदनीय कर्मका बंध होता है, तुम अपने धर्मको पुत्रके समान समझो और उसको अयशरूपी कीचडसे मलिन न करो, ऐसा करनेसे तुम्हारी निंदा होगी. अनेक अनर्थों को उत्पन्न करनेवाले परदोषको कोन विद्वान प्रकट करेगा अर्थात् तुम अपने दोष हमारे सामने निःशंक होकर बोलो. हम तुझारे दोष किसीके सामने प्रकट नहीं करेंगे. द्धिं महुरं हृिदयंगमंच पल्हादणिऽजमेगंते || कोई तु पण्णविज्जंतओ वि णालोचए सम्मं ॥ ४७६ ॥ कथायामकथायां च दोषाणां गुणदोषयोः ॥ कायामपि नो कश्चिदालोचयति वक्रधीः ।। ४९० ।। विजयोदया एवं प्रज्ञापनायां सत्यामपि यो नालोचयति त्युत्तरसूत्रार्थः । एवं प्रज्ञायमानोऽपि कपिकः स्वयं सम्यग्नालोचयति रार्थमिदमाह - णिज्जगते । शिद्धं मधुरं ददयंगमं च कोइ त प्रष्णवेज्जतो वि य णालोचए सम्म || तु विचित्रत्वात्पुरुभूतीनामित्युत्तरसूत्रावता मूारा स्पष्टम् । - अर्थ – त्रिग्ध, कर्णमधुर, हृदय में प्रवेश करनेवाला ऐसा भाषण बोलनेपर भी कोई क्षपक अपने दोषोंकी आलोचना करता नहीं तब तो उम्मीदव्वा खवयस्सोप्पीलएण दोसा से ॥ वामे समुद्रमवि गदं सीहो जह सियालं ॥ ४७७ || माश्वासः ४ ६९७ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाश्वास ६९८ दोषमुद्वाल्यते तत्स्थमुपायोस्पीडनो यतिः।। मांसं कंठीरवेणेष शृगालः कुर्वता भयम् ॥ ४९१ ।। विजयोदया--तो पश्चात् । उप्पीलिवमा अधपीडयितव्याः 1 के ? दोसा दोगः । कस्य ? से तस्य । सबगस्य क्षपकस्य | केन उप्पीलपण अवपीकन सूरिणा | अपसरामत्सकाशात् । क्रिमस्माभिर्मचतः प्रयोजन? । यो हि स्वशरीरलग्नमलप्रक्षालनेच्छा सढीकते काचच्छायानुसारिसलिलं सरः । यो वा महारोगोग्गग्नस्तस्तदानयनाभिलाषवान् स घेद्य दीकते । एवं रत्नत्रयातिचारान्निराकर्तुममिलषता समाश्रयणीयो गुरुजनः । भवतश्च रत्नत्रयशुद्धिकरण नयादरः किमनया क्षपकत्वविवनया । न चतुर्विधाहारपरित्यागमात्रायससलखनयं । अपि तु कयायसल्लेखनायत्ता संवरी निर्जरा च, कषाया छभिनवकर्मादाने, बंधे, स्थितिविधाने चोद्यताः परिहाणीयाः । नेषु कशये मायातिनिकृपा लियग्योनिनिर्वर्तनप्रवीणा । तां स्यक्तुमसमर्धस्यापि प्रविणस्य भवतः संसारोमियग्भयावत । ततो निःसरणमतिदकर । वस्त्रमात्रपरित्यागेनैव निधताभिमानोइरानमध्यसत्ये, सत्येचं तिर्यंचोऽपि निग्रंथाः स्युः । चतुर्दशप्रकारस्याभ्यनरपरिग्रहस्य त्यागाद्भावनग्रंथ्यं समरतिष्ठते । तदेव हि मुक्तरूपायः । भावनग्रंश्यस्य उपाय इति दशविधवाह्य ग्रंथत्याग उपयोगी मुमुक्षोः । न हि जीप नायसविधानवापीन या अगतित्तिजीचपरिणामालंचनः । अति. चारवंति दर्शनादीनि न मुक्तरुपायः। 'सम्यग्दर्शनमानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति किन्न भवतः श्रुतिगोचरमापातं जैग वचः? समीचीनता हि दर्शनझामन्चारित्राणां निरतिचारता । सा च गुरूपदिएप्रायश्चित्ताचरण । गुग्वोऽपि कृतालोचनायैच प्रायश्चितं मयनच्छन्ति । ततो भवाम्वरभव्यः अभव्यो या । आरसंनभव्यत्वे खति किमय महामायावशक्यं भवति। नैत्र यतिजनवंदना लि । 'समणे बंदेज मघापी संजद मुसमाहिद' इति वचनात । जाक्तिमर गायोल भालामयोनिंदाप्रदसियोन समानचित्ततया समानो भवति । शानिन्चारनिवेदने मो नियंनिन प्रशंसतानि भवना नालोच्यते । तत्कथ समानोऽसि? कथं वा बंधः? सीहो जहा सियालं उदरमपि गर्द पि मंस घामेदि सिंहो यथा शृगालभुदरप्रविष्टमगि मांस मुबारयति तह मायाशल्यमन्तलीन निस्सारयत्यवीडकः ॥ सामयोगेण सम्यमालोचयति च अपके वंडभेदी प्रयोक्तव्यावित्युपदेष्टुं सदृष्टान्तमाचष्टे मुलाय-तो सामप्रयोगानंतर । उप्पीलेदम्बा उत्पीडयितव्याः । उदारणीया अंतर्निगूदास्तन्मुखेन नि:सारणीया इत्यर्थः । तथा हि अहो स्वापराधास्फुटवादिन अपसरास्मसकाशात् । भिपरिभरिव निधेिः किमस्माभिर्भवतः प्रयोजनं । रत्नत्रयातिचारानिराकर्तुमिच्छता हि गुरयः समाश्रयणीयाः । भवतय रत्नत्यशुद्धिकरणे नास्त्यादरः । तत्किमनया रूपकत्व विडम्बनयान हि चतुर्विधाहारपरिहारमात्रायत्ता सल्लेखनयमपि तु कषायसल्लेखनायचा । सत्संबरी ६.९८ ARATHI Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार मूलाराधना निर्जरा च । कपाया शभिनवकर्मादाने तास्थितिविधाने च समुद्यता गुनुक्षुभिरपक्षेप्याः । तेषु च माया भिद्यतमा तियग्योनिपरिवर्तनमन्त्रधनवान् । मायां च त्यतुमसमर्थोऽसि त्वं । प्रविष्टस्य च तिर्यम्भवावत संसारवारणारंभवतस्ते नि:सरण मातिदुष्कर। बसमात्रपरित्यागेनैव निर्मशताभिमानोदहनं च न स्याम्यं । एवं मनि दितियंचामि निथाः स्युः । चतुदशाभ्यान्तरग्रंथ मेथिनिर्मथनं हि भाषमध्यमनुशासति धभतीर्थप्रणेतारस्तदेव न गुक्तः सत्य जपाय: । दशविधवारमंथत्यागस्तु भाषनैश्यसिद्धयं गत्वे नवोपयोगी भुमक्षोः । न खलु जीवद्रलद्रव्यमानत्यास त्तिमात्रः कर्मबंधः । कि नई तनिमित्तकजीवपरिणामकारणकः । न चातिचारवन्ति सम्यक्त्वादीनि मुक्तरुपायः । सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति जैनं वचः किं न भवतः श्रुतिगोचरतामषातरत् । तत्र च समीचीनता दर्शनादीनां निरविचारवां व्याचक्षते । सा च गुरूपदिष्टप्रायश्चित्ताचरणेनैव संपाधा । गुरवश्च कृतालोचनायैव प्रायश्चित्तं प्रयच्छन्ति । ततो भवान्दुरभव्योऽभव्य एव पा, कथमन्यथैव महन्माबाशल्यं अन्तर्वइति । कथं पैक यविजनवदनामईसि । 'समर्ण बंदिज्ज मेधावी संजई सुसमाहिद' इति वचनान् । जीवितमरणयोलामालापतिप्रशंसपोश का सालो नुनारे । अतीचारालोचने मां निदति न प्रशंसंतीति भवता नालोच्यते तत्कथं समानोऽसि, कथं वा चंद्यः किं च मदोपं न कश्चिहोके जानानि कि त्वहमेचेको जानाभीति मा संस्थाः । यतोऽत्र यदा यो दोषो मूलोत्तरगुणादिगोचरी भवता कृतस्तमहं जानाम्यन्गेऽपि यत्तयश्चेति । वामेदीत्यादि । सिंहो यधा अगालमुदरप्रविष्टमपि मांस मुद्गालयत्येवं मायाशल्यं झपकस्यान्तलीन निःसारयत्युस्पीडक इति तात्पर्य । अर्थ--अवपीडगुणधारक आचार्य क्षपकके दोषोंको जबरी से बाहर निकालते है. जैसे सिंह सिया. लके पेटमें भी चला गया मांस वमन करवाता है तैसे तेजस्वी अबपीडक गुण धारक आचार्य क्षपकके दोष सब बाहर निकालते हैं. वे उसको इस तरह भाषण करते हैं-हे मुने ! तुम हमारे पास मत रहो यहांसे हट जाओ. हमसे क्या तुह्मारा प्रयोजन है ? जिसको अपने शरीरका मल धो डालनेकी इच्छा है वह पुरुष कांचक समान सुंदर स्वच्छ पानी जिसमें है ऐसे सरोवरमें जाता है. जो पुरुष महारोग से पीडित है वह उसका नाश करनकलिय वैद्यको शरण जाता है. वैसे जिसको अपने रत्नत्रयमें लगे हुए दोष दूर करनकी इच्छा है वह पुरुष गुरूओंका आश्रय करना है. परन्तु तुमको तो रत्नत्रयको निर्मल करनेकी इच्छा है ही नहीं अतः यह आपकका वेष व्यर्थ क्यों धारण किया है. चार प्रकारके आहारका त्याग करने मात्रसे सल्लेखना नहीं होती है, परन्तु कपायोंका त्याग करनेसे सल्लेखना .. Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना Gan होती है. इस ना ही सुंदर निर्जरा होते हैं. कवायोंसे नवीन कर्मका ग्रहण होता है, चंध होता है, और स्थिति होती है. अतः इनको आत्मासे हटाना चाहिये. सब कषायोंमें मावा बडी खराब है. यह प्राणिओंको तिर्यग्योनीकी प्राप्ति करा देती है. ' माया तैर्यग्योनस्य ऐसा तत्वार्थशास्त्र में उल्लेख हैं. यदि तुम इस मायाका त्याग न करेंगे तो इस भवसमुद्र में शियग्गतिक भोचरे में पढकर खूब भ्रमण करोगे. फिर बहांसे छूटना बडा ही कठिन हो जायगा. केवल मात्रका त्याग करनेसे तुम अपनेको निर्बंध सुनि समझ रहे हो परंतु याद रखो कि केवल के त्यागसे नियता की प्राप्ति नहीं होती है. क्योंकि पशु भी निर्वस्त्र अर्थात् नम्र रहते हैं. उनको भी निग्रंथ मानना पड़ेगा. मिध्यात्व क्रोधादिक बार कपाय, और हास्य, रति, अरति शोक भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक, ऐसे चोदा अभ्यंतर परिग्रहोंका त्याग करनेसे भावनियताकी प्राप्ति होती है. यही मोक्षलाभके लिये उपाय है. अभ्यंतर परिग्रहका त्याग बाह्य परिग्रहत्यागके लिये उपयोगी है. केवल जीव और पुलोंका सान्निध्य होनेसे कर्मबंध नहीं होता है. परंतु कर्मबंधन के लिये योग्य जीवपरिणामही उसके आधार हैं. अविचारयुक्त सम्यग्दर्शनादिक जीवको मोक्षकी प्राप्ति कर देने में समर्थ नहीं है. 'सम्यग्दनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात् रत्नत्रय की पूर्णता होना मुक्तिप्राप्तिका उपाय हैं. क्या यह जिनेश्वरका वचन तुमने नहीं सुना हैं ? ज्ञान दर्शन और चारित्रका उत्तम पालन करने से ही निरतिचारपना प्राप्त होता है. गुरुओंने कहे हुए प्रायश्चित्तका पालन करने से वह निरतिचारपना प्राप्त होता है. गुरु भी जिन्होंने अपने दोषोंकी आलोचना की है उनकोही प्रायचित्त देते हैं. तुम तो दूर भव्य अथवा अभव्य हो ऐसा हम समझते हैं. यदि तुम आसन्नभव्य होते तो तुमारेमें यह बड़ा मायाशल्य क्यों रहता ? तुम मुनिजनके लिये वंदनीय नहीं है. समणं बंदेज्ज मेधावी संजदं सुसमाहितं, अर्थात् जीवित और मरण, लाभ और अलाभ निंदा और प्रशंसामें जिसका मन समान रहता है। वही समान कहा जाता है. अतिचारका निरूपण करने पर मेरी निंदा करेंगे प्रशंसा न करेंगे ऐसा तुम मनमें विचार कर रहे हो इस लिये तुमको समान मानना व्यर्थ है. इस वास्ते तुम वंद्य नहीं है. ऐसा भाषण करके अबपीडक आचार्य क्षपकके सब मताद्यतिवार बाहर निकलवाते हैं. उसके हृदयमें जो मायाशल्य बैठा था उसको बाहर निकालवाते हैं. आश्रासा ७०० Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचाराधना आश्वासा इंगवरीडको भवतीत्यात्र उन्जरमा तंजरसी वच्चरमी पहिदांकतियायरिओ॥ सीहाणुओ य भणिओ जिणेहि उप्पीलगो णाम ॥ ४७८ ॥ कंठीरव इवाजस्वी तेजस्वी भानुमानिव ।। चक्रवर्तीच वर्चस्वी सृरिरुत्पडिकोऽकथि ।। ४०२ ॥ स ताई कीगुत्पीडको भवति इति प्रश्न सत्याह-- मूलारा-ओजस्ती बलवान । तेजस्मी प्रतापवान् यतः सर्वोऽपि विति परैः स्यैश्चाधृष्य इत्यर्थः । वच्चम्सी प्रभोत्तरदागकुशलः । सीहाणुगा सिंहसमानः अक्षोभ इत्यर्थः ।। अवपीडक आचार्यका लक्षण आचार्य कहते हैं अर्थ - उत्पीलक गुणधारक आचार्य ओजस्वी, बलवान् और तेजस्वी प्रतापवान् होते हैं, अर्थात् उनसे | स्यसंयके मुनि और परसंघके भी-भययुक्त होते हैं. अर्थात् सर्व मुनिओंपर वे अपना रोब जमानेवाले होते हैं. स्वसंघ और परसंघके मुनि उनकी आज्ञा नहीं उलंघते हैं. वे वचस्वी अर्थात् प्रश्नका उत्तर देनेमें कुशल होते हैं. उनकी कीर्ति चारो दिशाओं में रहती है ये सिंह समान अक्षोभ्य रहते हैं. वे किसीको डरते नहीं है, । विजयोदया-यो यद्धितकामस्स तं यलासन प्रवर्तयति । यथा हिता माता बालं घृतपाने । इत्येतदुचरसूत्रेणाच पिल्लेदण रडतं पिजहा बालस्स मुहं विदारिता ।। पन्जेद घदं माया तस्सेव हिद विचिंतंती ॥७९॥ गधावष्टभ्य हस्ताभ्यां विदार्ग बदनं घृत ॥ बाल पाययतं माता रटतं हितकारिणी॥ ४५३ ।। विजयोन्या-पिलदण मुह विदगीता बदं फांजदि यथा जननी बालहितचितोद्यता पूरकुन्तमपि बाद अवसभ्य मुखं विदार्य घृतं ययति । दान्तिकन योजयति ॥ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ७०२ यो यति मिठति स तं बलादपि तल प्रवर्तयति यथा माता बालं घृतपाने इति समर्थयितुं गाथायमाह - मूलारा-पेलेगुण हस्ताभ्यामवष्टभ्य । रडतपि पूरकुर्वन्तमपि । पायदि पाययत्ति ।। जो जिसका हित करना चाहता है वह उसको हितके कार्यमें बलात्कारसे प्रवृत्त करता है, जैसे हित करनेवाली माता अपने बालकको घृत पिलाने में प्रवृत होती हैं. यह अभिप्राय आगेके सूत्र में आचार्य कहते हैं. अर्थ-जैसे बालकको हित करनेवाली माता बालक रोता है तो भी उसको पकडकर और उसका मुख बलात्कारसे उपाहकर उसको प्रत पिलाती है. उत्पीडक आचार्य भी वैसी ही प्रवृत्ति करते हैं. यह बात आगेकी गाथामें आचार्य प्रकट करते हैं BESTStayerSTROHASTERSTATION तह आयरिओ बि अणुज्जयस्स खवयस्स दोसणीहरणं । कुणदि हिंद से पच्छा होहिदि कड ओसह वनि ॥ १८.० ।। अवपीय तधोत्पीडी हितारोपपरायणः ।। अनृजंक्षपकं सुरिदोष त्याजयतेऽखिलम् ।। ४९४॥ - विजयोदया तह तथा । आयरिओ आचार्योऽपि । अणुज्जयस्स खचगस्स अमृजोक्षपफस्य । दोसणीहरण कुणर मायाशल्यनिरासं करोति । कहुगोसधं वत्ति कटुकमौषधमिया से तस्य । पच्छाहिद होदि पश्चाद्धितं भवतीति ॥ दृष्टान्तं प्रदर्य दाष्टातिकेन योजनाहमूलारा-अणुज्जगरस अमृजोः । दोसणीहरणं । माग्नाशल्यनिरासं । कहुगोसह पनि कटुकौंपश्रमिवति ।। अर्थ- आचार्य भी मायाचार धारण करनेवाले क्षपकको जबरदस्ती सदोषोंकी आलोचना करने में बाध्य करते हैं तब वह दोष कहता है. कहु औषधि जैसे रोगीमनुष्य का मंचन करनेके नंतर कल्याण करती है जैसे दोपोंकी आलोचना करनेसे क्षपकका कल्याण होना है. अर्थात् आलोचनास भविष्यत्कालीन संसारपरिभ्रमणस वह मुक्त होता है. ७०२ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलारावना आयासः यो न निर्भसयति दोघं हष्ट्यापि प्रियमेष पक्ति स गुरुः योभन ति न भवद्भिर्मतव्यमित्युपदिशति जिब्भाए वि लिहंतो ण भद्दओ जत्थ सारणा पत्थि ॥ पाएण वि ताडितो स भद्दओ जत्थ सारणा अस्थि ।। ४८१ ।। भद्रः सारणया हीनो न लिहम्नपि जिया ।। ताइयन्नपि पादेन भद्रः सारणया युतः ।। ४१५ ॥ बिजयोदया-जिन्माण, वि लिईनो जिलया स्यादपि न भहगा नैव भद्रकः । जन्य सारणा गन्धि। यस्मिम्गी दोपनियारणा नास्ति। पाण्ण वितानो पादन ताडयपि स महगी समरिभदकः । सारमा जत्थ प्रन्धि सरप्पा गुरा यत्र विगन ॥ दोपं हापि त्वां न निर्भसयति अपि तु प्रियमेव ब्रवीति स गुरुः शोमन इति त्वया न मंतव्य इत्युपदिशतिमूलारा-निहन्तो स्यादयन् प्रियवचनादिभिः सुखयनपीत्यर्थः । सारणा दोपनिवारणा गुणप्रवर्तनं था। जो शिष्योंके दोष देखकर भी गिदी बोलता निरीना करता नहीं है वह जुरूकतम है ऐसा हे मुने ! तुम मनमें मत समझो. ऐसा आचार्य उपदेश करते है अर्थ-जो गुरु शिप्पोको दोषोंसे निवारण नहीं करते हैं वे जिव्हासे मधुर भाषण बोले तो भी वे शिप्योंका अकल्याणही करनेवाले मानना चाहिये. जो गुरु लातोंसे शिष्योंका समाचार लेता है परंतु जो दोषोंसे शिष्योंको अलिप्त रखता है वही गुरु हित करनेवाला समझना चाहिये. सारणकस्य सूरेभवताप्रकटनाय गाथा-. सुलहा लोए आदचितगा परहिदम्मि मुकधुरा ॥ आदछं व परळं चिंतता. दुल्लहा लोए । ४८२ ॥ परकार्यपराचीनाः सुलभाः स्वार्थकारिणः । आत्मार्थमिव कुर्वाणाः परार्थमपि दुर्लभाः॥ ४९६ ।। विजयोदया-सुलभा लोप आवचिंतमा सुलभाः प्रचुराः । लोप लोके । भादचितगा स्वकार्य तत्पराः । परहिदम्मि मुकधुरा परहिवकरणे अलसाः । आदढ़ व आत्मप्रयोजनमिव । पर चिंतता परप्रयोजनचिंतासमुखताः लोके दुर्लभाः। aree - - - Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावासा मूलाराधना मारकत्वसूरिदुलमत्वध्यापनार्थमाह - मूलारा-मुलभाः प्रचुराः । आठुचितया स्वकार्यचिंतनपराः। मुक्कधुरा अलसाः आदव स्वकार्यमिय ॥ दोषोंसे निवारण करनेवाले आचार्यकी भद्रता प्रकट करते हैं अर्थ- इस जगतमें अपने कार्यमें ही तत्पर रहनेवाले और परहित करनेके कार्यमें अलसी एसे ही लोक महत हैं अपने हितके समान परहितकी चिन्ता करनेवाले लोक अतिशय विरल हैं. आदछमेव चिंतेदुमुग्दिा जे परमवि लोगे ।। कडुय फरुसहिं साहेति ते हु अदिदुल्लहा लोए ॥ ४८३ ॥ ये स्वार्थ कर्तुमुधुक्ताः परार्थमपि कुर्वते ।। कटुक परुषवाक्यैस्ते तरां सन्ति दुर्लभाः ॥ ४९७ ॥ विजयोदया--भावमेव चितेषुमुदिा आत्मीयमेष प्रयोजनं चितयितुमत्थिताः।जेये। परमधि पर प्रयोजनमपि कड़गफरुसेहि कदकैः परः प्रवचनः । साधेति साधयन्ति लोके । अतिदुल्लहा अतीव दुर्लमाः ॥ अमागनिवारकाणामतिदुर्लभत्वमाह -.. गूलारा-उटिदा उद्युक्ताः । युगप सपेहिं कटुकपचनश्चेष्टितेच दोषाभितयितुं प्रयुक्तः । साति । ज्ञापयन्ति निम्पादयन्ति वा । अर्थ-जो पुरुप आत्महित करने के लिय कटिबद्ध होकर आत्महित के साथ कदु और कठोर बचन बोलकर पराहत भी साधते हैं व जगतमें आतिशय दुर्लभ समझने चाहिये. ७०४ सूरियदि नावपीडयेत् नासौ.क्षपको मायाशल्यानिवर्तेत । निर्मायत्वे निरतिबाररत्नत्रयेच गुण न प्रवतेत पति आचार्यसंपाद्यमुपकारं प्रकटीकरोति - खवयस्स जइ ा दोसे उग्गालेइ सुहमेव इदरे वा ।। ण णियत्तइ सो तत्तो खबओ ण गुणे य परिणमइ ।। ४८४ ।। Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ७०५ निवर्तनं न दोषेभ्यो न गुणेषु प्रवर्तनम् ॥ विधत्ते क्षपकः सर्वदोषमत्याजितो यतः ॥ ४९८ ॥ विजयोदया साथगस्स जर सुमेन इदरेघा दोसे ण उम्गालर क्षपकस्य सूक्ष्मान् स्थूलान्या दोषायदि मोहालयति । स खगी ततो नियत्ता स अपकस्तेभ्यः सूक्ष्मभ्यः स्थूलेो वा दोवेभ्यो न निवर्तेत नेत्र गु परिणमत निराकृतदा कथमागधकः स्थादाराधनार्थमायातोऽप्यसम्भवपीडके || उणीलनि गरे । सूरे रुपीडकत्वाभावे अपकम्यापकार माह--- मूलारा -- तत्ती स्थूलसूक्ष्मदोषेभ्यः । निर्मायत्वे निरतिचाररत्नत्रये च ॥ आचार्य यदि कठोर और कटु शब्द बोलकर क्षपकको व्यथित नहीं करेंगे तो वह मायाशल्यसे परावृत्त नहीं होगा. निष्कपटपना और निरतिचाररत्नत्रय पालन करना इन गुणोंमें उसकी प्रवृत्ति न होगी, परंतु क्षपकको आचार्य दोषोंसे परावच करते हैं; यह उनका महान् उपकार है. यही विषय आगेकी गाथामें प्रगट करते हैं अर्थ -- यदि आचार्य क्षपकके सूक्ष्म अथवा स्थूल दोष उसके हृदयसे बाहर निकालने का प्रयत्न नहीं करते तो वह क्षपक गुणोंमें कभी प्रवृत्त नहीं होता. दोषोंका नाशकर यदि वह गुणमें प्रवृत्त न होगा तो वह आराधक कैसा होगा ? इस वास्ते आचार्यमें अवपीडक गुण होना ही चाहिये, आचार्य इस गुणके धारक न हो तो आराधनार्थ आया हुआ क्षपक आराधक न होगा. ता गणिणा उप्पीलण खवयस्स सब्वदो साहु ॥ ते उग्गादन्या तस्सेव हिदं तहा चैव ॥ ४८५ ॥ नित्योत्पीडी पीडयित्वा समस्तांस्तस्माद्दोषांस्त्याजयेत्तं हितार्थी ॥ व्याधिध्वंस किं विधत्ते न वैद्यः तन्वन्याधां व्याधितस्येष्टकारी ॥। ४९९ ॥ कृति उत्पीडी | उपसंहारमाह मूळारा स्पष्टम् । उत्पी अर्थ - इस लिये उत्पीडक आचार्यको क्षपकका हित करनेके लिये उसके सब दोष निकालना योग्य है. व: 9 ७०५ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः - Meters - पघं अचपीउको व्याख्यायायसरमाप्तामपरिम्नायितां ध्याचऐ लोहेण पादमुदयं व जस्स आलोचिदा अदीचाग ।। ण परिस्सर्वति अण्णत्तो सो अप्परिस्सयो होदि ।। ४८६ ।। दोषो निवशितो यत्र तते तोयमिवायसि ।। न निर्याति महासारे स ज्ञातव्योऽपरिस्रवः ।। ५००॥ विजयोदया-लोहेण पीदमुवंग य पधमत्र पदसंबंधः । जस्स आलोदा दोसा ण परिस्सवंति अण्णात्तो यस्मै कथिता दोषा न परिम्नवन्त्यन्यतः । किमिय लोईण पीदमदगंध लोहेन संतसेन पीतमिवोदकं । सो सः । पर्वभूतोऽपरिस्सवो होदि अपरिम्राधी भवति । अपरिमावितां दशभिर्गाथामिकाकर्तुकामः पूर्व सल्लक्षणार्थमिदमाह मूलारा-लोहेण अधीन संतमेन । पीदं पीतमन्तीतं । ण परिसबंति । न प्रकदा भवन्ति । अघणतो अन्यत: अन्योति यावन । उक्तंच दोषो निबोशतो यत्र तप्त लोयभिवायसि ।। न गिति महासारे स ज्ञातव्याऽपरिमाय।। इस प्रकार अवपीडक गुणका वर्णन हुआ. अब अपरिस्राविता गुणका वर्णन करते हैं अर्थ-जैसे तपा हुआ लोहका मोला चारो तरफसे पानीका शोपण कर लेता है और वह शोषण किया गया पानी उससे बाहर निकलता नहीं वैसे क्षपकके दोष जो आचार्य सुनकर अपने मनमें ही रखते हैं अन्य जनों को इस क्षपकने ऐसे एस अपराध किये थे ऐसा नहीं कहते हैं वे आचार्य अपरिस्रावी गुणके धारक है ऐसा समझना चाहिये, दसणणाणदिचारे वदादिचारे तवादिचारे य ॥ देसच्चाए विविध सब्बच्चाए य आवष्णो ॥ २८७ ॥ अतिचारास्तपोवृत्तज्ञानसम्यक्त्वगोचराः॥ मनोवाकाययोगेन जायते त्रिविधा यतेः ॥ ५.१ ।। Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SSION लाराधना आश्वासा ७०७ - - - विजयोदया-ईसणणाणाविचारे य वदादिचारे अज्ञानस्यातिचारः शंकाकांक्षाधिचिकित्साम्यष्टिप्रशंसासंस्नयाः। शानस्य अतिचाराः अकाले पठनं, थुतस्य श्रुतधरस्य या पिनयाकरण अनुयोगादीनां प्रहणे तत्प्रायोग्यावग्रहण, उपाध्याय निद्ववः, व्यंजनानां न्यूनताकरणं, आधिक्यकरण । अर्थस्य अन्यथाकथने वा । लपसोऽनशनावरत्तिचारः । स्वयं न भुंक्त । अयं भोजयति, परस्य भोजनमनुजानाति मनसा वचसा कायेन च । स्वयं क्षुधा पीडित आहारमभिलपति । मनसा पारणां मम का प्रयच्छति, क या लस्वामीति चिंता अनशनातियार! । रसवदाहारमंतरेण परिधमो मम नारति इति वा । पटजीवनिकायवाधामा अन्यतमेन योगेन वृत्तिः। प्रचुरनिद्रतया संकभनमिदमनुष्ठितं मया, संतापकारी नाचरिष्यामि इति संकल्प अवमोदर्यानिचारः । मनसा बदुभोजनादरः। पर बहु भोजयामीति चिता। मुंश्व याच गवत म्तृतितरति वचन, भुक्तं मया यहि युनं सम्यकतमिति वा पचन, हम्माया प्रदर्शन कंठदशामुपस्पृश्य वृनिपरिसरम्या नस्यानिचागः। गृहसप्तकमेव प्रविशामि, प.कमन्न पाटकं दरिद्रगृढमक । पवनन दापंकन दायिकया या दनं ग्रहीयामीति या तिसकलाः । गृहसानकादिकादधिकप्रवेश पाटतिरप्रवेशश्च । परं भोजयामीत्यादिकः । कृतरसपरित्यागस्य रसातिसक्तिः, परस्य वा रेसवदाहारमोजन, रसववाहारभोजनानुमनने, वातिचारः। कायशस्यातपनस्यातिनार: उष्णादितस्य शीतलाइव्यसमागमच्छा,संतापापायो मम कथं स्यादिति चिंता, पूर्वानुभूतशीतलद्रव्यप्रदेशानां स्मरणं, कठोरातपस्य द्वेषः, शीतलादेशावरुतगात्रनमार्जनस्य आतपमवेशः। आतपसंतप्तशरीरस्य घा अप्रमृष्टमात्रस्य छायानुप्रवेशः इत्यादिकः । वृक्षस्य मूलमुक्षमतसनिस्तेमचन, बारीपाडापाड शरीरायलमजलकंणप्रमार्जन. हस्तेन पादेन वा शिलाफलकाविगतोकापनयम । मृत्तिकायां भूमौ शयनं । लिम्भन जलप्रवाहगमनदेशे षा अबस्थानम् । अवपांडे घर्गपातः कदा स्यादिति चिसा । वर्षति देखे कदास्योपरमः स्यादिति था । उनकटकादिधारण पर्यानिवारमाायेत्यादिकः। तथा अभावकाशस्थातिचारः । सदिसायां भूमी प्रससहितइरितसमुत्थितायां विवरवत्यां शयन । बरुतभूमिशरीरममा जनस्य हस्तपादसंकोचप्रसारण, पावान्तरसंचरण,डयनं वा । हिमसमीरणाभ्यां हृतस्य कदैतदुपरामो भवतीति चिंता. वंशदलादिमिरुपरिनिपतिताहिमापकर्षणं, अवश्यायघटना वा प्रचुरवातापातदेशोऽयमिति संक्लेशः । अग्निनायरणातीनां स्मरणामित्यादिकः । प्रायश्चित्सातिमारनिरूपणा-तत्रातिचाराः । आकंपिय थणुमाणियमित्यादिकाश्च । भूतातिचारेऽ स्य मनसा अजुगुप्सा । अज्ञानता, प्रमादात्मगुरुत्वादालस्थावं अशुभकर्मबंधननिमिस अनुष्ठितं, दुष्टं कृतमिति पघमानिकः प्रतिक्रमणातिचारः । उक्तोभयातियारसमवायस्तदुभयातिचारः | भावतोऽविर्यको विवेकातिचारः । व्यु: सर्गानिचारः । कुतो भवति शरीरममतायामनिवृत्तिः । अशुमध्यानपरिणतिः । कायोत्सर्गदोपाश्च वा अतिचारे उक्ताः । एवं छन्दस्यातिचारः न्युनो जातोऽहमिति संक्लेशा, भारतो रत्नत्रयानादानं मृलातिचार: सवा द्विप्रकार इत्याचदेशमाण चिषिधे देशातिचारं नानाप्रकारं मनोवाकायभेदात्कृतकारितानुमतधिकल्पाञ्च । सबच्चागे य सर्वातिचारे च आपनो आगन्नः || सभ्यत्वाद्यविचाराविचित्रानस्याचार्याणां विश्वस्तो भिक्षुरालोरयति वन परिस्रावी यदि सूरिः स्याचदा वहुन् योपान्प्राप्नोनि इति वक्तं नाथायमाद BRECIATIONATERTAINMENT - ७८५ - Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्राम ७०८ मूलारा-- देसच्चाए दर्शनादीनामेकदेशभंगे सति । षिविहे मनोवाक्कायैः प्रत्येकं कृतकारितानुमननैनानात्वं गतान् । गलबच्चाग सर्वात्मना दर्शनादीनां भंगे । आवणो दर्शनापतिधारान्विविधान्प्राप्तो भिक्षुः कथयति म्व रोपानि तास . अरे पुनरेवं संवन्ति । दर्शनादीनामतिचारे विविधे आवण्णे प्राप्ते सति । भिलः स्वदोषाकथयति । सत्र दर्शनातिचाराः शंकादयः प्रागुक्ताः । ज्ञानातिचारास्तु विनयविपर्ययरूपा अकालपठनादयः संशयविपर्ययो षा । अहिंसावित्रतानां बामनोगुप्तादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पंत्योदि तत्वार्थोक्त भावनाहानयः। तपस्पनशनादौ सापेक्षस्य तर्दशभजनमतिचारः । तत्रानशनस्य परं मनसा, वाचा, कायेन चा भोजयतो भुजानं या अनुमन्यमानस्य स्वयं वा क्षुत्क्षामतयाहारमभिलपतोऽतिचारः स्यात् । मनसा को मे पारणां प्रदास्यति, क घा लप्स्ये इति चिंता वा सुरसारमंतरेण परिश्रमो मम नापति इति वा । षड्जीवनिकायबाधायां अन्यतमेन योगेन गृत्तिा प्रचुरनिद्रतया संशो था| किमर्थमिदमनुपितं मया संतापफारि पुनरिदं नाचरिष्यामि इनि सक्लेशो वेति । २ अबमोदर्यस्यासिचारो मनसा बहुमोजमादरः । परं बहु भोजयामीति चिंता, भुंश्व यावद्वतस्तमिरिति वचनं । मुक्तं मया बहित्युक्त साधु कृतमिति वा बननं । हस्तसंचया वा प्रदर्शन कंठदेशमुपस्पृश्येति । ३ पृतिपरिसंख्यानस्यातिचारो गृहसनकमेव प्रविशामि इत्येवमादिसंकल्पं कृतवतः परं भोजयामीत्यभिप्रायण तदधिकप्रवेशादिकः॥ * रसपरित्यागस्य रसातिसक्तिः परस्य वा रसवदाहारभोजनादोजनानुमननं चेति । ५ विविक्तशय्यासनस्स पूर्वोक्तलक्षणहीनवमतौ शयनासनं यथोक्तलक्षणवसत्तावरनिर्वेत्यादिकः ॥ ६ कायक्लेशस्यातापनस्यातिचार रागादितस्य शीतलद्रव्यन्न मागमेच्छा, संतापापायो मम कथं स्वादिति चिंता, पूर्वानुभूतशीतलद्रव्यप्रदेशानां स्मरणं, कठोरातपरेषः, शीतलदेशादकृतगात्रप्रमार्जनस्यातपप्रवेशः । आतापसंतप्ताप्रमृगात्रस्य छायानुप्रवेश इत्यादिकः । वृक्षमूलाधिवासभ्य हस्तेन पादेन वा शरीरावलमजलकणप्रमार्जनं । तद्वच्छिलाफलकादिगतोदकापनयन, जलायां भूमौ शयनं, निम्नजलप्रवाहगमनदेशे का अबस्थान, अवहे वृष्टिः कदा स्यादिति चिंता, पृष्टौ वा कदैतदुपरमः स्यादिति वा, वृष्टिप्रतिबंधाय छत्रादिधारणं वेत्यादिः । अभावकाशस्य हिमवाताभ्यामुपहतस्य कदैतदुपशमः स्यादिति चिता, वंशदलादिभिरुपरिनिपतितहिमस्यापकर्षणमवश्यायघटना वा, प्रभूतत्रातातपदेशोऽयमिति संक्लेशोऽग्निप्रावरणादीनां स्मरणमित्यादिकः। ७८८ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना शाह प्रायश्चित्ते आलोपनातिचाराः ' आकपियमित्यादिना वक्ष्यते । प्रतिक्रमणातिचारः स्वकृवाविचारस्य मनसा अजुगुप्सा, अज्ञानतः प्रमादात्कर्भगुरुत्वादालस्याद्वा इदमशुभकर्मयधनिमित्तमनुष्टित दुष्ट कृतमित्येवमादि जुगुप्सा । अज्ञानतःकरणाभावः । उकोमयातिचारसमयाय उभयातिचारः । मघतोऽधिवेको विवेकातिचारः । व्युत्सर्गाविचारः ऋतवःशरीरममताया अनिवत्तिरशुभध्यानपरिणतिः कायोत्सर्गदोषाश्च । तपसः प्रागुक्ता एष । छेदस्यातिचारो न्यूनो जानोइमिति सक्लेशः । मूलातिचारभावतो रत्नत्रयानादान । एवं विनयादीनां अपि सामान्यलक्षणानुसारेण यथाशास्त्रमतिचाराक्षिायाः । अर्थ-सम्यग्दर्शन और ज्ञानमें अतिचार उत्पन्न हुए हों, व्रतमें अतिचार उत्पन्न हुए हो, देशरूप अतिचार उत्पन्न हुए हो अथवा सर्व प्रकारोंसे अतिचार उत्पन्न हुए हो ये सर्व अतिचार क्षपक आचार्य के पास विश्वासयुक्त होकर कहे. विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनके शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव ऐसे अतिचार है. इनका स्वरूप दर्शनविनयके प्रकरणमें लिखा है. ज्ञानके अतिचार-अकालमें अध्ययन करना, श्रुत और श्रुतधर अर्थात् जैनसिद्धान्तज्ञाता उनका अविनय करना, अनुयोगादिशास्त्रोंका अध्ययन करते समय उस अध्ययन के योग्य नियम धारण करने चाहिये. परंतु वे धारण न करना, जिस उपाध्यायसे शास्त्र पढ़ लिया हो उसका नाम छिपाना अर्थात् मैं किसीके पास नहीं पढ़ा हूं. स्वयं मरको शास्त्रज्ञान स्फुरित हो गया है ऐसा कहना. पढने ममय शन्द कम करना और जादा बढाना. अर्धका कथन शाखसे विरुद्ध कहना, ये ज्ञानके अतिचार हैं, तपके अतिचारोंका वर्णन-स्वयं भोजन नहीं करता है परंतु दुसरोंको भोजन कराता है. कोई भोजन कर रहा हो तो उसको अनुमति देता है. ये अतिचार मन से बचनसे और शरीरसे करना अर्थात् तुम भोजन करो ऐसा कहना, जो भोजन कर रहा है उसको तुम अच्छा करते हो ऐसा कहना ये वचनके द्वारा अतिचार हैं. इसी प्रकारसे शरीरसे और मन से भी अतिचार लगते हैं. सूख से पीडित होनेपर स्वयं मनमें आहारकी अभिलाषा करना, मेरेको पारणा कोन देगा, किसी घरमें मेरी पारणा होगी ऐसी चिंता करना यह अनशन तप में अतिचार है। ७०९ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १० रसयुक्त आहारके बिना यह मेरा परिश्रम दूर न होगा ऐसी चिंता करना पदकाय जीवोंको मन वचन और शरीर इन तीन योगों में से किसी एक योगसे बाधा देने के लिये प्रवृत्त होना. मेरेको बहोत निद्रा आती है. और यह अमोदर्य नामक तप मैंने व्यर्थ धारण किया है. यह संक्लेशदायक है. संताप उत्पन्न करनेवाला ऐसा वह तप फिर मैं कभी भी न करूंगा ऐसा संकल्प करना ये अवमोदर्य तपके अविचार हैं. बहुत भोजन करनकी भनमें इन्छा रखना, दूसरोंको बहुत भोजन करनेमें ग्रहण करूंगा ऐसा विचार रखना, तुम वृति होनेतक भोजन करो ऐसा कहना यदि वह भोजन कियाऐगा Til तुमने अच्छा किया ऐसा बोलना. अपने गले को हाथसे स्पर्शकर यहां तक तुमने भोजन किया है ना ? ऐसा ह चिन्ह से अपना अभिप्राय प्रकट करना. ये सब अमोदर्य तपके अतिचार है. अब वृत्तिपरिसंख्यान तपके अतिचार- मैं सात घरोंमें ही प्रवेश करूंगा, अथवा एक पाटक में प्रवेश करूंगा, किंवा दरिद्री के गृहमें ही आज प्रवेश करूंगा. इस प्रकारके दावासे अथवा इस प्रकार के स्त्रीसे यदि दान मिलेगा तो लेंगे ऐसा संकल्प कर सात घरसे अधिक घर में प्रवेश करना, दूसरोंको मैं भोजन कराऊंगा इस हेतू से मिन पाटक में प्रवेश करना, ये वृत्तिपरिसंख्या के अतिचार हैं. रसपरित्याग तपके अतिचार रसका त्याग करके भी उसमें अत्यासक्ति उत्पन्न होना, दुसरोंको रसयुक्त आहारका भोजन कराना और रसयुक्त भोजन करनेकी सम्मति देना. ये इस रूप के अतिचार हैं. कायक्लेशतके आतापनयोगका अतिचार- उष्ण से पीडित होनेपर थंड पदार्थोंके संयोगकी इच्छा रखना। यह संताप मेरा कैसा नष्ट होगा ऐसी चित्ता उत्पन्न होना, पूर्व में अनुभवन किये गए शीतल पदार्थोंके स्थानका स्मरण होना, कठोर धूपका द्वेष करना, शरीरको पिच्छीसे स्पर्श न करके ही धूपसे शरीरसंताप होनेपर छाया में प्रवेश करना, इत्यादिक अतिचार आतापनयोगके हैं. वृक्षगृल योगके अतिचार - इस योगको धारण करनेपर भी अपने हापसे, पावसे और शरीरसे जलकायिक जीवोंको दुःख देना, अर्थात् शरीरपर लगे हुए जलकण हाथ पोछना अथवा पाव शिलावर अथवा फलकपर संचित हुआ जल अलग करना, गीली मट्टीकी जमीनवर सोना, जहां जलमवाह बहता है ऐसे स्थानमें अथवा खोल प्रदेश में बैठना, वृष्टिप्रतिबंध होनेपर कप वृष्टि होगी ऐसी मनमें चिंता करना ॠष्टि होन आश्वासः प्र ७१० Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HERE मूलाराधना आश्वास: मनपर ... . .. लगी तो कर इसका उपशम होगा ऐसा संकल्प करना, अथवा वृष्टिका निवारण करनेके लिये छत्र, चटाई बगरह धारण करना. अभावकाशके अतिचार-सचित्त जमीनपर. ससाहित हरितवनस्पति जहां उत्पन्न हुई है ऐसे जमीनपर, छिद्रसहित जमीनपर शयन करना, जमीन और शरीरको पिच्छिकासे स्वच्छ किये बिना हाथ और पाय संकुचित करके अथवा फैला करके सोना, एक बाजूसे दुसरी बाजूपर सोना अर्थात् करवट बदलना, अपना अंग खुजलाना, हवा और थंडीसे पीढित होनपर इनका कर उपशम होगा ऐसा मनमें संकल्प करना, शरीरयर यदि बर्फ गिरा होगा वो बांसके टुकडस उसको हटाना, अथवा जलके तुमाराको मर्दन करना, इस प्रदशमें धूप और दवा बहुत हैं ऐसा विचार कर संकलश परिणामसे युक्त होना, अग्नि और आच्छादन वस्त्रोंका स्मरण करना ये सब अनावकाशक अविचार है. प्रायश्चित्त तक अतिचार-आकंपित, अनुमानित वगैरे दोप इस लपक अनिचार है. य अतिचार होनपर इसके विषय में मन में ग्लानि न करना, अज्ञानसे, प्रमादसे, तीव कर्म उदयने और आलस्यस मैंने यह अशुभकर्मका बंध करनेवाला कम किया है. मग यह दुष्ट कम किया है एसा उच्चारण करना प्रतिक्रमण के अतिचार है. आलोचना और प्रतिक्रमणके अतिचारोंको उभयतिचार कहते हैं. परिणामों के द्वारा विक न होना यह विवकका अतिचार है. शरीर परसे ममता हटाना व्युत्सर्ग तप है. परंतु ममत्व दूर नहीं करना यह व्युत्सर्ग तपका अतिचार है. अशुभध्यान में परिणमन होना और कायोत्सगके दोष ये नपके अतिचारमें कह गये हैं. छेदके अतिचार-मैं न्यून हो गया हूं एसा मनमें संक्लेश करना. रत्नत्रयको भावपूवर्क ग्रहण न करना यह मूलका अतिचार है. अतिचारके देशत्याग और सर्व त्याग एसे दो भेद हैं. मन, वचन, शरीर, कत, कारित और अनुमोदन ऐसे नऊ भेदोंमसे किसी एकके द्वारा सम्यग्दर्शनादिकाम दोष उत्पन्न होना ये देशत्यागातिचार है और सर्व प्रकार से अतिचार उत्पत्र होना यह सर्वत्यागातिचार है. क्षपकको इसमें अतिचार लग सकते हैं इसलिये वह गुरुके समक्ष इसमें आचोलना करे, पार. ७११ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना আম্মা आयरियाणं बीसत्थदाए भिक्खू कहेदि सगदोसे ।। कोई पुण णिहम्मो अण्णेलि कहेदि ते दोसे || ४८८ ॥ विश्वस्तो भापते सर्वानाचार्याणामसीन सः ॥ (?) आचार्यो भाषतेऽन्येभ्यस्ता स्तुवन स्विदधार्मिकः ।। ५०२॥ (?) विजयोदया-आइरियाण आचार्याणां । भिक्षुः । कदि कथयनि । पीसन्धवाए विश्वासन । किं ? सगदोसे स्थातिचारान् । कोई पुण कश्चिन्पुनराचार्य पाशः । गिद्धम्मो निशान्तो यहिभूतो जिनप्रणीतासात् । भणसि अम्येभ्यः । कहेमि ते दोस कथयक्ति आलोचितान्बोषान् । अनेन किलायमपराधः कृत इति। मूलारा-वीसत्वदाए विश्वासेन । कहदि अनेन किलायमपराधः कृत इति परेभ्यः प्रकाशयति । अर्थ-आचार्योंके आगे कोई क्षपक विश्वास रखकर ये आचार्य मेरे दाप अन्योंको नहीं करेंगे एसा विश्वास रखकर कहता है. परंतु कोई आचार्य जिनप्रणीत धर्ममे चाहिर होकर इसने अमुक दोप किया है एसा अन्यजनों को कहते हैं. अन्यजनोंको क्षपकके दोष कहनेवाले आचार्य जिनधर्मभ्रष्ट हो गये ऐसा समझना चाहिये, धपक तो विश्वासम कहता है और ये उसका भंडाफोड सर्व लोक समक्ष करते हैं. ऐमा करना जैनधर्ममें निषिद्ध माना है. तेण रहस्सं भिदंतएण साधू तदो य परिचत्तो॥ अप्पा गणो य संघो मिच्छत्ताराधणा चेव ॥ १८९॥ रहस्यभेदिना तेन त्यक्ताः कल्मषकारिणा ॥ साधुरात्मा गणः संघो मिध्यात्याराधना कृता ॥ ५०३ ।। विजयोदया-तण तेग । रहम्म भिनगा प्रच्छाद्यालोचितवोपप्रकाशनकारिणा । साह माधुः । नदी में परि चत्तो ततस्तु परित्यक्तः । स्वदोषणकाशने कृते मया लज्जावानयं दुःखितो भवति । आम्मान बा घातयत् । कुपितो वा रत्नत्रयं त्यजेत् । इति स्वचित्तेऽकुर्वता परित्यक्तो भवति । अप्पा परिचत्तो, गणो परिचत्तो, संघो परिचत्तो, इनि प्रत्ये काभिसंबंधः। मिच्छत्साराहणा चेष मिथ्यात्याराधना दोषो भवति । RASHTRA Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वास मूलारा-रहस्सं प्रच्छाधमालोचितदोषं । मिदंतरण प्रकाशयता । सगो स: आलोचितस्वदोषः । परिचत्तो स्वार्थभ्रंशकत्वेनापकृतः । एतत्संघालोज्यं । मिच्छताराधना मिथ्यात्यमुत्पादित स्यावात्मन इत्यर्थः । प्रकाशयति ।। अर्थ-क्षपकके आलोचित दोष आचार्यको प्रकट करना योग्य नहीं है परंतु यदि उसने प्रकट किये तो क्षपक साधुका उसने उसी समय त्याग किया ऐसा समझना चाहिये. मैं यदि इसके दोष प्रकट करूं तो यह लज्जावान् क्षपक अपने मन में दुखित होगा, यह अपना घात करमा, क्रोधी बनकर रत्नत्रयधर्मका त्याग भी कर देगा. ऐसा विचार मनमें लाकर क्षपकके दोष कहना उनके लिये योग्य नहीं था. दोष कहनेसे आरमत्याग, गणत्याग और संघत्याग आचार्यने किया और वे मिथ्याराधक बन गये ऐसा मानना चाहिये. इत्यं साधुः परित्यक्तो भवतीत्याचष्टे लज्जाए गारवेण व कोई दोसे परस्स कहिदोवि ॥ विप्परिणामिज्ज उधावेज्ज व गच्छाहि वाणिज्जा ॥ ४९. ।। रहस्यस्य कृते भेदे पृथग्भूयावतिष्ठते ॥ कोपता मुंचते वृत्तं मिथ्यात्वं वा पपद्यते ॥५०४॥ विजयोदयालज्जाप लज्जया । गारमेण व गुरुतया का । कोई कधित् । दोसे दोषान् । परस्स परस्मै । कहिदो विकथितोऽपि । विप्परिणामा पृथग्भवेत् । नायं मम गुरुः प्रियो यदि स्याकिं मदीयान्दोवाभिगइति । मदीया पहिश्वराः प्राणा गुरुरयमिति या संभावना साध नऐति चिंता विपरिणामः । उधावेज्ज या त्यजेवा रत्नत्रय दोपप्रकट. नेन कुपितः । गच्छज्ज वा गणांतरं प्राविशेत् ॥ कथं साधुः परित्यक्त इत्यत्राह मूलारा-गारवेण मानगुरुत्वेन | परस्स परस्य । विप्परिणामेज विपरीसं परिणमेत । पृथग्भवेत् नार्य मर्म गुरुः। मियो यदि स्याकि मदीयान्दोषाग्निगदेत् । मदीया पदिश्वराः प्राणा गुरुरयमिति संभावना साच नष्टेति चिंता हि विपरिणामः । अयमर्थः निर्यापकाचार्येण परस्मै गुले कथिते सति कश्चित्क्षपको लज्जया गारषेण वा विपरिणमेत । उधावेज व त्यजेद्वा रत्नत्रयमिति शेषः । गच्छाहि या णिज्जा गच्छादा निर्यायाम् । गणाद्वा निर्गच्छन् । गणांवरं प्रविशेदि. त्यर्थः । धावेज व गच्छेज्ज मिच्छत्तमिति पाठे त्यजेद्वा चारित्र गच्छेदा मिथ्यात्कमिवि व्याख्येयम् । तथा चोकं Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुलाराधना आश्वास . . रहस्यस्य कृते भेदे पृथग्भूयावतिपते ॥ - कोपतो मुंचते वृत्तं मिथ्यात्वं वा प्रपद्यते ॥ . . उन्होंने साधुका त्याग किया ऐसा समझना चाहिये. उसका स्पष्टीकरण अर्थ-आचार्य क्षपकके दोष अन्य मुनिआको कहने पर क्षपक लज्जासे अथवा गवसे ये गुरु मेरेको हितकर नहीं जंचते हैं. यदि ये हितकर होते तो मेरे दोष क्या अन्य जनारे समक्ष ये प्रगट करते ? मैं आजतक ये गुरु मरे बाह्य प्राण है ऐसा समझता था परंतु आज वह समझना निर्मूल है ऐमा अनुभव मेरेको आया है. दोपके कहनेसे गुरूके विषयमें क्षपकके उपयुक्त परिणाम बन जाते हैं. इतना होकर ही रहता नहीं. परंतु वह. क्षपक दोप प्रकट करनेसे कुपित होकर रत्नत्रयका त्याग करनेके लिये उद्युक्त होता है अथवा आचार्यका संघ छोडकर अन्य संघ में प्रवेश करता है. . आत्मपरित्याग ज्याचप्ले काई समाने कड़े रहो', भडो समापस्यि ।। . उदावेज व गन्छ भिंदज्ज बहेन पडिणीओ ॥ ४९१ ।। मारवत्यथवा तूरि साधुर्भानग्रहाकुलः॥ संसारफाननभ्रान्ति न मन्यते हि मानिमः ।।५०५ ।। विजयोत्या-कोई काश्चत् । रहस्सभेदे कदे रहस्यभेदे रते । परोसं गदो प्रवर्ग गतः । तमायरियं तमाचार्य । उदाज व मारयेत् : गच्छ मिग्रेज्ज गणभेदं कुर्यात् । किमनेन सूरिया वेदरहितेन, यथा ममापराध 'प्रकटितवान् पत्रं युष्मानपि निरपराधान्दूषयिष्यतीति ध्रुवन् । होज्ज पहिणीको प्रत्यनीको भवेत् ॥ कथ यात्मा परित्यक्त इत्याहू - मूलारा--पदोस प्रवेपं । उहायज मारयेत् । गच्छं मिदेज गच्छं भिवादाचायद्गिणस्य भेदं कुर्यात् । यथार्य विश्वस्तो ममालोचितदोषं प्रकटीकुर्यात्तथा युष्माकमपि प्रकटयिष्यतीति बन्नाचायंगणस्य बिघटनं कुर्यादित्यर्थः । । पाणीगो प्रत्यनीकः प्रतिकूल इत्यर्थः॥ - - Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास: आत्मपरित्याग दोषका स्वरूप कहते हैं-- अर्थ-आचार्य के बारा क्षपकके अपराध सर्वजन समक्ष प्रगट होजाने पर धपक्के मनमें यदि द्वेष बह गया तो वह आचार्यको मारेगा अथवा गच्छमें फूट उत्पन्न करेगा अर्थात् इस आचार्यने जैस मरे दोप प्रगट किये हैं बसे यह तुम्हारे दोष भी प्रगट करेगा, निरपराधी ऐसे तुमको यह क्षण लंगावेगा. यह आचार्य स्नेहरहित है इसको छोड दो ऐसा बोलकर वह सर्वसंघमें मदनाप उत्पन्न करना तथा आचार्यका शत्रु बन जावंगा, गणत्यागं कथयति ___जह धरिसिदो इमो तह अम्हं पि करिग्ज धरिसणमिमोत्ति ॥ . सव्वो वि गणो विप्परिणमेज छंडेज्ज वायरियं ॥ ४९२ ॥ . 'विश्वस्ती भाषते शिष्यः सूरेरग्रे स्वदषणम् ॥ 'परस्याय पुनर्वृते सपाचारपहिर्मयः ।। ५०६ ।। यथायं दृषितोऽनेन दूषयिष्यति नस्तथा ॥ इति ऋद्धी गणः सर्व पृथक्त्वं प्रतिपद्यते ॥ ५०७॥ बिजयोदया--जह धरिसिदो रमों पृथा दृपिसोऽयं । तह तथा । अह्म पि करेज्ज धरिसणमिमोक्ति अस्मान्दूपितान्कुर्यात् अयमिति । विपरिणमेज पृथग्मत् । छडेल बायरियं त्यजेद्वाचार्य त्यजतीति कथ्यत तेन गणस्त्यक्त इति पूर्वसूत्रितं । ततोऽनयोन संगतिरित्यत्रोच्यते । यत पय रिणा द्वेषप्रत्याख्यानपरेण त्यक्तोऽसौ तत एवं गणतं स्यजति ।। कथं गणः परित्यक्त इत्यत्राह - मूलारा-धरिसिदो दूषितः गुह्यप्रकाशनमापकृतः । छडज त्यजेत् । गणत्यागका वर्णन - जैसा आचार्यने इस क्षपकको दोष का करके दुषित किया है वैसा यह हमको भी दूषित करेगा ही ऐसा विचार कर गण भी आचार्य प्रतिकूल होकर उसका त्याग करेगा. अथवा उससे स्वयं अलग होगा. दोषका कथन करनेवाले आचार्यने गणका त्याग किया ऐसा पूर्व में कहा है और यहाँ गण आचार्य को छोड़ देता है ऐसा कहते Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GANEMAL मूलाराधना हैं अतः यह कथन असंगतसा दीखता है. उसर-दोका वर्णत करनेवाले भानाने यदि गणका त्याग किया तो वह भी आचार्यका त्याग करेगा ही. अतः इस कथनमें असंगतपना नहीं है. আম্বা संघस्त्यको भवतीत्येतयात्र तह चेव पबयण सबमेव विप्परिणयं भवे तस्स ॥ तो से दिसाबहारं करेज णिहणं चावि || ४९३ ॥ एतस्थाचार्यकं संघो विच्छिनत्ति चतुर्विधः॥ निर्धाटयति वा रुष्टो रोषतः क्रियते न किम् ॥५०८ ।। विजयोदया-तह चेव पपर्ण सबमेष तथैव प्रवचन संघः सर्व पर प्रोच्यते रत्नत्रयं यस्मिनिति शम्मव्युत्प ती संघवाची भवति प्रवचनशब्दः । विप्परिणद विरुद्धतया परिणतं प्रवृतं । ये तस्स भवेत्तस्य । तो ततः। से तस्य । दिसापहरणं करेज्ज कुर्यात् संघः । णिज्जूहण वापि करेज इति परसंबंधः। परित्यागं या कुर्यात् ।। कथं संघः परित्यक्त इत्यचाइ मूलारा--पषयर्ण प्रवचनशब्दोऽत्र संघवाची मोच्यतेऽस्मिन्रत्लत्रयमिति ध्युत्पतेः। विप्परिणद विरुद्धतया प्रवृतं । तो ततो विपरिणमनादेखो से तस्य रहस्यभेदकस्य । हिसापहरणं आचार्यपदभ्रंशनं । णिज्जूहणं निहाटन । दकंप एतस्यापार्यकं संघो विच्छिनत्ति पतुर्विधः ।। निधीटपति वा रुष्टो रोषतः क्रियते न किम् ।। संघका त्याग भी होता है ऐसा वर्णन अर्थ-जिसमें रत्नत्रयका प्रवचन-उपदेश किया जाता है ऐसे जनसमुदायका नाम संघ है. अर्थात मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इनको संघ कहते हैं. यह सब संघ दोष प्रगट करनेवाले आचार्य से विरुद्ध होकर उसका आचार्यपद हरण करेंगे. अथवा उसका त्याग करेंगे, Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुम्हारापना ७२७ मिथ्यात्वाराधनाप्रतिपादनार्था गाथा जदि धरिसणमेरितयं करेदि सिस्सस्स चेव आयरिओ ॥ धिद्धि अपुठ्ठधम्मो समणोति भणेज मिच्छजणो ॥ ४९४ ॥ आचार्यों यत्र शिष्यस्य विद्धाति विघा ॥ धिकतान्निधर्मकान्साधूनिति वक्ति जनोऽखिलः ।। ५०९।। विश्वासघातका एव दुष्टाः सन्ति दिगंपराः।। ईदृशीं कुर्वते निंदां मिथ्यात्वाकालता जनाः ।। ५१ ॥ विजयोदया-सर रिसणमरिसयं यदि दूषण एवंभूतं । करेदिकरोति । सिस्सस्स चव शिष्यस्यैच का आचार्यः । धिद्धि अपुष्ठधम्मो समगोत्ति भणिज्ज घिग्धिम् अपुष्टधर्मान् श्रमणान् । इति भणज्ज मिन्छजणे घदेन्मिथ्यारष्टिजनः ॥ मिच्यात्वाराधनाद्वारायात जनापवादमाह मुलारा--धरिसणं धर्षणं विडंबनां । घिद्धी धिम् धिम् । अपुठ्ठधम्मे अपुष्टधर्मणः निर्मकान् श्रमणान दिगंबरान् । तथा चोक्तम् - आचार्यो यत्र शिष्यस्य विदधाति विडंबनाम् । धिकतानिधर्मकान्साधूनिति बक्ति जनोअखिलः ।। दोष प्रगट करनेसे मिथ्यात्वकी आराधना होगी ऐसा वर्णन अर्थ--यदि आचार्य दोष प्रगट कर शिष्यको दूषित करेंगे तो मिथ्यात्वी लोक ये जैनमुनि अपने घमको पुष्ट नहीं बना सकते हैं, अपने हाथसे ये अपने धर्मका नाश करते हैं ऐसे वचन बोलकर धिक्कार करेंगे. इस लिये दोष प्रगट करना यह कार्य धर्मविध्वंसक है ऐसा समझना चाहिये. प्रस्तुतापरिनाधितोपसंहारगाथा प्रसिद्धार्था इच्चेवमादिदोसा ण होति गुरुणो रहस्सधारिस्स ॥ पुठेच अपुढे वा अपरिस्साइस्स धीररस ॥ ४९५ ॥ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना st4 पृष्टोऽपृष्ठोऽपि यो ब्रूते न रहस्यं कदाचन ॥ इत्यादयो न विद्यन्ते दोषास्तस्य गणेशिनः ।। ९११ ।। इति विमुच्य रहस्यविभेदकं भजन गुयनिग्रहक मंजसा ॥ हि विशुद्धावस्तवो हितमपो भजत्यहितं जनाः ॥ ५१२ ॥ इति अपरिस्रवः । विजपोरामादि दोसा इति । अपरिस्थं तु गवं ॥ मूळापुढे अनु वा अपरिश्ताइस किमनेनालोचितमिति परेण प्रकोष्ठे वा अपरिसाविणो गुह्यमकथयतः । श्रीरम: स्वरूपचेष्टाविना विकारमगछतः । अयणश्राभित्रायो यः शिष्योक्तं दोपं पृष्टोऽपृष्टो वा परस्मै न क्ति, नागितादिना प्रकाशयति स रहस्यधारी सुरिपरिवीति विख्यातिं विभ्राणस्तैस्तैद नागपि न स्पृशति इति । अपरिस्रावी ॥ अब यहां प्रस्तुत अपरिस्राविता गुणका उपसंहार करते हैंअर्थ - जी आचार्य अपरिस्रावि गुणके धारक हैं वे शिष्य के क्षपकके दोष सुनकर मनमें रख लेते हैं और उनको कोई पूछे वा मत पूछे ये कभी उसके दोष अन्यको कहते ही नहीं. दोष प्रगट करनेसे क्या हानि होती है इसका अपरिस्रावी आचार्य को पूर्ण ज्ञान रहता है. अतः वे कभी दोपप्रगटन नामका धर्मध्वंस करनेवाला कार्य नहीं करते हैं. विवो इत्येतत्सूत्रपद्व्याप्रानायो प्रबंध.. संधारभत्ताणे ' यस्य येनाभिसंबंधो दूरस्थस्यापि तस्य सः' इति कृत्वा - संथारमत्तपाणे अमणुण्णे वा चिरं व कीरते | पडिचरगपमादेण य हाणमसंबुडगिराहिं ॥ ४९६ ॥ शुश्रूषकप्रमादेन शय्यायामासनादिके ॥ संपले दीनवाक्येन शिष्यकाणामसंवृते || ५१३॥ भाश्वासा ४ ७१८ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना । भाषामा ७१९ meinamaram विजयोदया -इति क्रियाभिः पदसंबंधोऽत्र कार्यः । संस्तर भक्तपाने वा । अमगुगणे अमनोखे । कीरतो किय. माणे | कुविदो कुपितो भवक्षपका मेरंवा मर्यादा वा। संथारभत्तपाणे अमाणे वा कीरते कुविदो हवेज्ज खवगो मेरं या भेनुमिच्छज्ज । भेनुमिच्छत् । निरं च कीरते चिराडा संस्तर करणे भक्तपानानयने या । पडिचरगपमादेन वा निर्यापकानां यावृन्यकरणे या प्रमादस्तन वा कुपितो भवेत् । मर्यादा वा भात्मीयां भत्तुं इत् । सटाणमसंयुगिराहि अगृहीतार्थानां असं वृत्ताभिः परुषाभिर्वा कुपितो भवेत् ॥ निर्वापकत्वमेकादशभिर्गाथाभियांधिल्या सुरादा तननिभिसनिवालादुत्पन्ने क्षपकस्य चित्तसंता निर्यापकाचार्येण भूनेन सता तश्चित्तं निर्वापाणीयमिति गागात्रवेणाभिधत्ते-- लारा - अमणुग अमनो अनामचित्ते । चिर व चिरेण चा शोधभनियमाण इत्यर्थः । कीरते क्रियमाणे । पहिचरमपमाण वैयावृत्त्यकराणां सत्कारणानवधानेन । भेहाणे मागां । असंखुडागाह परमभिः प्रतिकूलाभिर्वाग्भिः । जिसका जिसके साथ संबंध है वह दूर भी होगा तो भी वह संबंधी पदार्थ उसका ही माना जायगा इस नीतिके अनुसार यहां क्षपकका वर्णन करते हैं--.' ' अर्थ-क्षपककी शुश्रषा करनेवाले परिचारक संस्ताकी रचना यदि अमनोज्ञ मनोहर-न करेंगे और खाने पीनेके पदार्थ अमनोहर होंगे तो वह क्रोधयुक्त होगा अथवा समाधिमरणके नियमोंका भंग करेगा. किंवा संस्तर करने में यदि देर लगेगी तो भी वह कुपित होगा. आहार और पेय पदार्थ लानेमें देरी लग जाय तो कुपित होगा. परिचारकगण शुश्रूषा करनेमें अलसी बन जाने पर उसको कोष उत्पन्न होगा. अथवा अपनी मर्यादा वह छोड देगा. जिनको सल्लेखनाविधि मालुम नहीं है ऐसे असंयमी जनके परुप-कठोर भाषणसे वह क्रोधयुक्त होगा तो उसको क्षमाधारण कर प्रसन्न करना चाहिये. HmE .. सीदुण्हळुहातण्हाकिलामिदो तिनवेदणाए. बा ॥. कुविदो वेज्ज खबओ मेरं वा भेन्तुमिच्छेन्ज ।। ४९७ ॥ घेदनायामसथायां क्षुत्तष्णोष्णहिमादिभिः ।। क्षपका कोपमासाथ मर्यादां विधिभित्सति ॥ ५१४॥ ७१९ - - - Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आया मूलाराधना hara B विजयोदय-सीदुहळु हातण्टा किलागिदो शीतेनोष्णेन क्षुधा पीडिता कुपितो भवेत् । तिव्यदयणाय वा तीमबेदनया वा फुपिनो मयांदोल्लंघनर्भयेत् ॥ मूलारा-किलामिडो पीडितः । मेरं मर्यादा प्रतिपत्रानुष्ठानम् ॥ अर्थ - शीत, उष्ण, भूख और प्यास इनसे पीडित होनेसे क्षपकको क्रोध उत्पन्न होता है. अथका की तीव्रवेदनासे भी विह्वल होकर क्रुद्ध होता है और मर्यादा तोडनेकी इच्छा करता है. उस समय आचार्य उसको शांतचित्त होकर प्रसत्र करते हैं. णिन्वबएण तदो से चित्तं खवयस्स णिव्ववेदव्वं ॥ अक्योभेण खमाए जुत्तेण पणठमाणेण || ४९८ ॥ निर्थापकया शांतन शमनीयः स सूरिणा ।। क्षमापरेण वीरेण कुर्वता चित्तनिर्ति ।। ५१५ ।। बिजयोदया--णिव्यवरण संतोषमुत्पादयता सूरिणा । तदो सतः। से खवयस्स चित्तं तस्य कुपितस्य मर्यादा भेलुमिच्छतो वा। चिलं णिस्वेदन्यं चित प्रशांति नेयं । अश्वोभेण चलनरहितेन व्यवस्थावता । खमार जुत्तेण क्षमया युक्तेन । पणठमाण प्रनष्टमानेन । न हिरोपी मानी वा सूरिः परखिसकलंक प्रशमयितुं रहते ततो निकषायेण माध्यमिति भावः ॥ मूलारा--णिबवगेण संप्तोपोत्पादकेन । सदो कोपपरिणतिमयादाभेवेच्छार्नतरं । णिव्ववेदठव प्रशमनीयं । अक्खोभेण चलनरहितेन उद्वेगमुक्तमत्यर्थः॥ इसही विषयको आगेकी गाथामें आचार्य स्पष्ट करते हैं अर्थ--संतोष उत्पन्न करनेवाले आचार्य तदनंतर कुपित अथवा मयांदा तोडनेको जो उतारू हुआ है ऐसे क्षपकका चित्त शांत करते हैं. आचार्य अपना चित्त क्षुब्ध नहीं होने देते हैं, वे स्वयं क्षमाधारण करते हैं. अभिमानका त्याग करते हैं. क्योंकि रोपवाले और अभिमानयुक्त आचार्य दुसस्का मन प्रसन्न करने में प्रयत्न नहीं करते हैं. इसलिये आचार्य में कषायका अभाव होना चाहिये. अर्थात् निष्कपाय आचार्य ही क्षपकका क्रुद्ध मन शांत कर सकते हैं ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये. . . Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागधना आश्वास: RSS पत्रंभूतो निवाश्यतीत्येतह-याचशे अंगसुदे य बहुविधे णो अंगसुदे य बहुविधविभत्ते ॥ रदणकरंडयभृदो खुण्णो अणिओगकरणम्मि ॥ ४९९ । बहुप्रकारपूचांगथुतरन्नकरंडकः ।। . सर्वानुयोगनिष्णातो वक्ता को महामतिः ॥ ५१६ ।। विजयोन्या-अंगदे य श्रुतं पुरुषः मुखचरणाधंगस्थानपत्याएंगशनगोच्यते । आचाराविकं द्वादशषिध तस्मिॉगश्रुते। बहुबिहे नानाप्रकार। आचार, सूत्रकृतं; स्थानं, समधाम व्याण्याप्रमपयंग इत्यादिभेदेन । यो अंगसुदे य. झगबाहो डा । बहुविघधिमत्ते सामायिक, बतुशितिस्तवो, बंदना, मंतिक्रमागं, वैनयिकं. कृतिकर्म, दशवैकालिकं, उसरा ध्ययन, कल्पग्यपहारः, कल्पं, महाकल्प, पुंडरीक, महापुंडरीकं इत्यादिना विचित्रभेदेन विभक्तो। यणकरंयभूदो रत्नकएण्डकभूतः खुराणो अणियोगकरणम्मि यदारप्रस्तुतं वस्तु तत्रतत्र सदाविकायनुयोगयोजनार्या कुशलः । अनेन शानमाहास्य सूनितं ! ....... ... ! ..इत्यंभूत: सूरिरव निवापयत्तीत्युत्तर नाह.- .... ...... . .. : - मूलारा-मंगसुदे अंगप्रविष्टप्रवचने । बहुविधे आचार सूत्रकृतमित्याद्विद्वारशविधे । णो. अंगमुद्दे अंगवा. एते । बहुविधविभत्ते सामायिक, चतुर्विशतिस्तव इत्यादिना चतुर्दशप्रकारविभक्ते। रयणकरंज्यभूदो रत्नकरस्कसशः। श्रुतरत्नानां रक्षलोपायवाद । खुण्णो सुन्तलः । अणियोगकरणम्मि यचद्वस्तु प्रस्तुतं तत्र तत्र सदादिकानुयोगयोजनायां । एसेन ज्ञानमाहात्म्यः सूरेःसूचितं ।। . . आमेकी गाणमें कहे हुए गुणांसे युक्त आचार्य क्षपकका मन प्रसन्न कर सकते हैं यह दिखाते हैं.... अर्थ-श्रुतंज्ञान पुरुषस्थानीय समझ करके आचारादिकों को मुख, पांव बगैरह अवयवों के समान समझने से श्रुतज्ञान में अंगकी कल्पना घटित हो जाती है. भुतज्ञानके आचारादिक बारा भेद है. जैसे आचार, सूत्रकृत, स्थान, समचाय व्याख्याप्रज्ञप्ति ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अंतकद्दश, अनुत्तरोपपादिक दश, प्रश्नव्याकरण, विषाक सूत्र, दृष्टिवाद. अंगवाद्य श्रुतमानके भी बहुत भेद है. जैसे सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना. प्रतिक्रमण, वैनयिक कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्प, महाकल्प, पुंडरीक, महापुंडरीक, इत्यादि अनेक भेद हैं. जैसे करंडमें रत्नोंको रखते हैं वैसे ये आचार्य इन आगमरस्नों को अपने हृदय में धारण करते हैं इसलिय ये रत्नोंके कृतिकर्म, हारअंगबाह्य तमाया, उपासकाध्ययन, नक आचारादिक व E ? Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृलाराचना ७२२ करंड के समान शोभते हैं. जो जो प्रस्तुत विषय है उसमें सत्, संख्या, क्षेत्र, इत्यादि अनुयोगोंकी योजना कर उसका विवेचन करनेमें इनकी बुद्धि कुशल रहती है. ताकता च मुणी विचित्तसुधारओ बिचित्तकहो || तह य अपायविदह् मणो महाभागो ॥ ९०० ॥ विजयोदयावता वक्ता । कत्ता व कर्ता च विनयवैयावृत्ययोः । विचिचार विचितं प्रथमायोगःकरणानुयोगधरणानुयोगों, दयालुयोग इत्यनेन विकल्पेन । विचिनको विविजायाः कथायाः निरुपणा अस्य स विचित्रकथः । न च विगतत्वात् किमनेन चिचितसुधारो' इत्यनेन ? नैष शेषः । पूर्वसूत्रे शुतकेयली निर्वापकत्वेनोक्तः । अनया तु असमस्त श्रुताचार्योऽपि एवंभूतो निर्वाणको भवतीति व्याख्यायते तेन न पुनरुक्तवा । तद्द य तथा न । आपायविदण्ड रत्नत्रयातिचारकः । महसंपण्णो स्वाभावित्र्या श्रद्धया समन्वितः । महाभागो स्वषशो महात्मा ॥ मूलारा -- बत्ता वक्ता प्रतिपादनकुशलः । कला कर्ता विनयवैयावृत्ययोः । विधित्तसुधारओ विशिष्टं प्रथमानुयोगादिभेदेन चित्रमाश्चर्यकारि श्रुतकेवलिनिय पकैरुक्तं अवधारयता | अथवा विचित्रं श्रुतं परसमयादिशास्त्रं । विचित कथो विचित्रया कथा निरूपकः । न ह्येतयोः पौनरुक्त्यं शक्यं पूर्वसूत्रे हि श्रुतकेबली निर्वार्षिक उक्तः, इह पुनर्युगानुरुपतरोऽपि । आवापायविदण्डू रत्नत्रयातिचारज्ञः । मदिसंपण्णो स्वाभाविकबुद्धिसंयुक्तः । महाभागो स्ववशो महापुण्यो वा । अर्थ-ये आचार्य वक्तृत्व गुणसे युक्त होते हैं. विनय और वैयावृत्य करते हैं. प्रथमानुयोग, करणानुयोग चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इस प्रकारके श्रुतज्ञानके धारक होते हैं. नाना प्रकारकी विचित्र कथायें कहने में प्रवीण रहते हैं. शंका - अंगमुदे व बहुविधे णो अंगसुदे य बहुविधविभत्ते ' इस गाथा में ही वे महाज्ञानी होते हैं ऐसा सूचित होता है, तो पुनः विचित्तसुधारगो' यह विशेषण क्यों ग्रंथकारने गाथामें दिया है ? उत्तर यह है--- पूर्व गाथामें श्रुतकेवली निर्वापकाचार्य होते हैं ऐसा कहा है और इस सूत्र से असमस्त श्रुतज्ञान जिनको है ऐसे आचार्य भी निर्वापक होते हैं ऐसा सूचित होता है. इसलिये यहां पुनरुक्त दोष नहीं हैं. यह निर्वाकाचार्य रत्नत्रय के अविचारोंके ज्ञाता होते हैं, स्वाभाविक बुद्धिमान होते हैं और जितेन्द्रिय महात्मा होते हैं. 1 इसका अश्वासः X ७२२ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासा ७२३ पगदे णिस्सेसं गाडगं च आहरणहेदुजुत्तं च ॥ अणुसासेदि सुविहिदो कुविदं सण्णिव्ववेमाणो ॥ ५०१ ।। कथानां कथने दक्षो ध्यादेयविशारदः ।। क्रुद्धं शास्ति यतिधीरः प्रकृतप्रतिपादकः ।। ५१७ ।। विनयोदया- अणुसासेन्दि अनुशास्ति । पगदे वक्तुं प्रारम्धे वस्तुनि || जिससंगाढंग समस्तमयबोधयतदनु शासनं करोति । आहरणद्देदजुतं च । प्रांतेन हेतुना च । युक्तं एतस्माइतोरिदमेवेतदिति युक्त्यानुशास्ति सुधिहितो यतिः । कुविद कुपितं । सपिणवमेमाणो सभ्यमशमयन् सम्यकमसानमुपनयन । मूलारा -- पगदे वक्तुं प्रारब्धे वस्तुनि । जिस्सेस समयमुपादेव च । गाहुगं मायं अथवा । णिस्सेस गाढणं समस्तावबोधकं । आहरणहेदजुत्तं दृष्टान्तेन लिंगेन चोपपन्नं एतस्मादेनोरिदगेचैतदिति युक्त्यानुशास्ति इत्यर्थः । कुविद कुद्धं श्लपक यति । रागिन्यगाणो सम्यकप्रशमयन ॥ अर्थ-- जिस वस्तुका विवेचन करने के लिये प्रारंभ किया होगा उस वस्तुके समस्त अंगोपागाका स्वरूप दृष्टांत और युक्ति देकर कहता है. इस हेतुसे इस वस्तुका एसा ही स्वरूप है इसके स्वरूपसिद्धि के लिये एसी गुक्ति है इत्यादि रूपसे जो कथन करता है वह यति कुपित क्षपकको अपनी मधुर वाणीसे प्रसन्न कर सकता है. - --- ---- णिई मधुर गम्भीरं मणप्पसादणकरं सवणकतं ॥ देइ कह णिव्ववगो लदीसमण्णाहरणहेडं ॥ ५०२ ।। गंभीरां मधुरां श्रव्यां शिष्यचित्तप्रसादिनीं ॥ सुत्रकारी ददात्यस्मै स्मृत्यानयनकारिणीम् ।।५१८॥ विजयोत्या-णिद्धं प्रियवच्चनबहुलतया स्निग्धं । मधुरं अनतिकटोराक्षरतया मधुरं । गंभीरं अर्थगाढ़तया। मणप्पसादकरण मनःप्रबहादविधायिनी । सबकतं श्रुतिसुखं । देदि कथै कथा कथयति । णिध्ववगो निर्वापकः । सदी समण्णाहरण हेतुं । स्मृतिसमानयनकारणे । पूर्वाभ्यस्तश्रुतार्थगोचरस्मरण रह स्मृतिरिति गृह्यते मतिषचनो वा । 'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनियोध इत्यनयातरम्' इति वचनात् । वेन बुद्धिसमानयनकारणमित्यर्थः रति केचित् । ७२ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधना आश्वासा ७२४ मूलारा-सवणकर्स श्रुतिसुखं । देदि कथयति । कथं कयां । सदीसमण्णाहरणहेदु स्मृतिसमत्याहरणा हेतु स्मृतेः पूर्वाभ्यस्तगीतार्थगोचरस्य स्मरणस्य मतेर्वा समानयनकारणम् ॥ ... अर्थ-आचार्य बहुत प्रिय वचन होनेसे स्निग्ध, कठोराक्षर न होनेसे मधुर, बहु अर्थयुक्त होनेसे गंभीर, मनको आनंदित करनेवाली, कर्णकरे सुख देनेवाली, ऐसी कथा कहते है, जिस कथाको सुनकर क्षपकको पूर्वकाल | में अभ्यस्त श्रुतंत्रानके विषयका स्मरण होगा ऐसी कथा वे कहते हैं." णिज्ज्ञायगो इत्येत्सूक्षपद व्या: ENEMA जह पक्खुभिदुम्मीए पाद रणभरिद समुद्दम्मि ॥ णिज्जबओ घारेदि हु'जिंदकरणों बुद्धिसंपण्णो ॥ ५०३ ॥ सुखकारी दधात्येनं मज्जत दुस्तरे भवे ॥ पूतरत्नभृतं पोतं कर्णधार इवार्णधे ॥ ५१९ ।। विजयोदया-जह पपखुभिदुम्मीए यथा प्रचलिततरंगे । समुहम्म समुद्र । पोर्द पोतं नार्य । रदणभरिद रत्नभेरितं णिज्जवगो निर्यापकः । धारे हि खुधारयति । जिनकरणो परिचितक्रियः । मुद्धिसंघण्णोबुद्धिसंपन्नः पुद्धिमान् । .. मूलारा-पखुहिदुम्भीगे क्षुभितोभिके । पोदं प्रवहणं । णिजबगो निर्यापकः कर्णधार इत्यर्थः । जिदकरणो . परिचितक्रियः ॥ णिज्जवगो इस सूत्रपदका स्पष्टीकरण करते हैं__अर्थ--जिसमें तरंग उछल रहे हैं ऐसे समुद्रमें नौका चलानेका जिसने खूब अभ्यास किया है ऐसा | बुद्धिमान नाविक रत्नोंसे भरी हुई नौकायो डूबनेसे रक्षण करता है. तह सजमगुणभरिद परिस्सहुम्मीहिं खुभिदमाइई ॥ णिज्जबओ धारेदि हु महुरेहिं हिदोवदेसेहिं ॥ ५० ॥ शीलसंयमरत्नाढ्यं यतिनावं भवार्णवे ।। निमज्जती महामाज्ञो निभर्ति सूरिनाविकः ॥ ५२० ॥ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधास: मूलाराधना ७२५ विज योदया-तह संजम गुणभरिद तथा संयमेन गुणेन भरित संपूर्ण । संयमम्य सभ्यो गुणेः प्रधानन्या स संयमशब्दस्य पूर्वनिपातः । परिस्सदुम्मीईि विपासादुनानि परोपनाते । ऊर्मय चानुकरणोद्स्यस्य ऊर्मियर. देश लमन्ते । परीपहोर्मिभिः खुभि चलिने । आइदं निर्वभूते यतिपोत ।। मिजयगो धारदि खुमिर्यापकसरिधारयति । मधुरेहि हिदोवदेसहि मधुरैर्हितोपदेशैः मूलारा--परीसहुम्मीहि परीषदा अमेय इवानुक्रमेणोद्गच्छन्तीति कृत्वा । खुहिदं चलितं । आविर्द्ध तिर्यग्भूतं भ्रमितं वा। . .. . . अर्थ--पैसे संयमगुणों से भरी हुई यह क्षपकनौका क्षुधा, प्यास, वगैरह तरंगोंसे क्षुब्ध होकर तिरछी होरही है. ऐसे समयमें निर्यापकाचार्य मधुर हितोपदेशके द्वारा उसको धारण करते हैं अथीत् उसका संरक्षण करते हैं. * धिदिधलकरमादहिंद महुरं कण्णाहुदि जदि ण देइ ॥ सिद्धिसुहमावहती चत्ता साराहणा होइ ।। ५०५ ॥ फर्णाहुतिं न चेहत्ते धृतिस्थामकरी गणी ॥... 'आराधनां सुखाहत्री जहाति क्षपकस्तदा ।। ५२१ ॥ विज्ञयोदया-धिदिवलकरं तिवलकारिणी स्मृते स्थैर्य धृतिस्तस्या अवष्टंभकारिणी । आवहिदं आत्म द्विता । मधुरं मधुरां । कण्णादि कर्णाहुति । जदिपा देदि यदि न दणात् । सिविखुमानयनकारिणी आराहणा पत्ता होदि त्यक्ता भयसि । ____ मूलारा--धिदिवलकर स्मृतिम्धेगावष्टंभकारिणः । कण्णाहुदि कर्णयोराइतिहीम इन संतपकत्वान। कर्णजपमित्यर्थः । आवहन्ती कुर्वती ॥ अर्थ-निर्यापकाचार्य की वाणी धर्य उत्पन्न करती है. आत्माके हितका वर्णन करती है. मधुर और कोल्हादक होती है. आचार्य यदि ऐसे वाणीका उपयोग न करेंगे तो मुक्तिसौख्यकी प्राप्ति करनेवाली आराधनाओंका क्षपक त्याग करेगा. Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना श्रावासः जो . . प्रस्तुनोपसंहारगाधा "इय णिव्वदओ खवयरस होइ णिज्जावओ सदायरिओ ।। होइ य कित्ती पधिदा एदेहिं गुणेहिं जुत्तस्स ।। ५.६ ॥ क्षपकस्य सुख कुर्वन्धो हितशिनाम् ॥ निर्यापकं महाप्राज्ञ तमाहुः सुखकारणम् ॥ ५२२ ॥ ददासि शर्म क्षपकस्य सूरिनिर्यापकः सर्वमपास्य दुःग्वम् ॥ यतस्ततोऽसी क्षपकेण सेव्यः सर्वे भजन्ते सुरवकारिणं हि ।। ५२३ ।। इति सुखकारी। बिजयोदया-त्य पर्व जिव्यपगो निर्वाषकः । नवगस्त क्षपकस्य । मिजावगो होवि निर्यापफो भवति । सवायरिओ सदाचार्यो: निर्यापकत्वगुणसमन्वितः क्षपकस्योपकारी भवतीत्युक्त्वा स्वार्थमपि तस्य सूरदर्शयति । होदि य किती पधिवा भवति च कीर्तिः प्रधिता। पतहिंगुदि शुसस्स आचारपत्त्यादिभिगुणयुक्तस्य ॥ प्रकृतमुपसंहरन्परार्थकरणद्वारेण निर्यापकस्य स्वार्थसिद्धि दर्शयति-- मूलारा--पहिदा प्रथिना प्रख्याता । पदेहिं आचरवस्वादिभिरष्टाभिः ॥ निर्यापकः ।। प्रस्तुत प्रकरणको उपसंहार गाथा----- अर्थ- इस प्रकारसे क्षपकका मन आरहादित करनेवाले आचार्य निर्यापक होसकते हैं अर्थात निर्वापकत्व गुणधारक आचार्य क्षपकका समाधिमरण साध सकते हैं. आचारववादि गुणोंका यहां तक वर्णन किया. इन गुणोंसे परिपूर्ण आचार्य की जगत में कीर्ति फैल जाती है. जैसे इन गुणोंसे आचार्य क्षपकके ऊपर उपकार करते हैं वैसे इन गुणोंसे उनका उज्ज्वल यश भी जगतमें वृद्धिंगत होता है. इय अगुणोदो कसिण आराधणं उवविधेदि । खवगो वि तं भयवदी उवगृहदि जादसंवेगो । ५०७ ११ शिवसुखमनुपममपरुजममलं व्रतवति शमवति हितक्रति सकलं ।। वितरति पतिपतिरिति गुणकलितः शमयमदममयमुनिजनमाहितः ५२४ ७२६ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rele मृदाराधना भाषांसा गुणैरमीभिः कलितोष्टभिर्जनः समेत्य (क) कीर्तिः शशिरश्मिनिर्मलाम् ।। आराधनासिद्विधरांगनासी ददाति सूरिः क्षपकाय निश्चितम् ॥ ५२५ ।। इति सुस्थितः विजयोदया-क्य एवं । अगुणोदेवो भाचारवानित्याधगुणोपेतः सूरिः । कसिणे करसनां । आराधणं आराधमां । उवविधेवि दौफयति । खबगो चिक्षपकोऽपि । तं तां भगवर्ती सकलयाधापनयनमाहात्म्ययती । उवगृहदि मालिगति । जादसंवेगो उत्पन्न संसारभीरुत्वः । सुटिदं सम्मत्तम् ॥ बथोकगुणसूरेः सकलाराधनासंपादकत्वं भवभीतस्य चक्षपकस्य तदालिंगनभुपरिशमाह मूलारा- उवविधेदि उपढौकयते । भयवदी सकलपाधापनयनमाहात्म्यवतीम् । उपमूहदि आलिंगति ॥ सुस्थितः । सूत्रवः ॥१७ | अंकतः ॥ अर्थ- इस प्रकार आठ गुणोंसे पूर्ण आचार्यका आश्रय करनेसे क्षपकको चार प्रकारकी आराधना प्राप्त होती है. और जिसको संसारभय उत्पन हुआ है ऐसा बह क्षपक भी संपूर्ण बाधाओंका नाश करनेवाली, अपूर्व माहात्म्ययुक्त भगवती वंद्य आराधनाको आलिंगन देता है. एवं सुहिद इत्यतयाख्योत्त, इत उत्तरं उत्रसंपा इत्येतद्व्याख्यायते एवं परिमग्गित्ता णिज्जवयगुणेहिं जुसमायरियं ।। उपसंपज्जइ विजाचरणसमग्गो तगो साह ॥ ५०८ ॥ निर्यापर्क गुणोपेतं मार्गयित्वातियत्नतः॥ उपसर्पत्यसौ सूरिझनचारित्रमार्गकः ।। ५२६ ॥ विजयोदया-पवं परिमम्गिता अन्विष्य । के भायरिय आचार्य । कोहम्मूतं ? णिज्जययगुणहि निर्यापकगुराचारवत्वादिभिः समन्वितं । उपसंपरजदिदीकले। का? तगो सः । साह, साधुः । कीटग्भूता ? विस्ताचरणसमत्था शानेन चारित्रेण समग्र संपूर्णः। अथैवं निर्यापकाचार्य सम्यकपरीक्ष्य तस्मै स्वं समर्पयत: क्षपकस्य गाथापट्केनेतिक्तव्यताक्रममुपदिशतिमूलारा-परिमम्गिता अन्विष्य । उवसंपन्जदि उपसर्पति आनयतीत्यर्थः । गो सः । उत्तमार्थोचतः ॥ ७१७ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACTOR आश्वासः भूलाराधना ___ अर्थ-इस प्रकार समग्र ज्ञान और चारित्रका धारक वह क्षपक आचारवत्वादि आठ गुणोंसे पूर्ण आचायंका शोधकर उनका आश्रय करता है. गुरुकुले भात्मनिसर्गः वसपानाम समाचारः । तत्कम निरूपयति-- तियरणसवावासयपडिपुण्णं तस्स किरिय किरियम्मं ।। विणएणमंजलिकदो वाइयवसभ इमं भणदि ॥ ५०९ ॥ कृतिकर्म विधागासौ परिपूर्ण त्रिशुद्धितः ॥ आचार्यवृषभं वक्ति मस्तकारोपितांजलिः ५२७ ।। विजयोदया--तियरणसध्यावासयपत्रिपुणं किरिय तस्स किरियम्मं । तस्य निर्यापकस्य सूरः कृतिकर्म वंदना तन्वा । कीरशं तिरियण सध्यामासग पद्धिपुग्णं मनोवाकामात्मसर्वावश्यकपतिपूर्णी सामायिक, चतुर्विंशतिस्तयो यंदना, प्रतिकमणं, मत्याल्यानं, कायोत्सर्गः इत्येते मनोबामायविकल्पेन त्रिविधाः पडावश्यकसंक्षिताः । मनसा सर्वसावध योगनिवृत्तिः, वचसा सब सावज्जजोग पन्ने क्वामि इति वचन । कायन' सावधकियाननुष्ठान, मनसा चतुर्विशति तीर्थकृतां गुणानुसरण लोगस्सुज्जीययरे' इत्येवमादीनां गुणांनी वचनं । ललाटविन्यस्तकरमुकुलता जिनेभ्यः कार्यन । वंदनीयगुणानुस्मरणं मनोवंदना । वाचा नगमाहात्म्पप्रकाशनपरघवनोचारणं । कायेन यंदना प्रदक्षिणीकरणं कृता नतिश्च । मनसा कतातिचाशनिवृतिः 'हा दुकृतमिति या मनःप्रतिकमणं । सूत्रोच्चार वाक्यप्रतिकमणं कायेन तर. नाचरणं कायप्रविफमण । अनखातिचारादीन करिप्पामि इति मनःप्रत्यारामानं । वसा.तमाचरिष्यामि इति उच्चारण । कायेन तन्नाचरिष्यामि इत्यगीकारः । मनाला शरीरे ममेदभावनिवृत्तिः मानसः कायोत्सर्मः । प्रलयभुजस्य, चतुरंगुलमात्र. प्रादातरस्य निचलावस्थान कायेन कायोत्सर्गः | कायापायनिरासमकत्या एकान्ते गुरावासीने प्रसन्नचेतसि शनैरागत्य शरीरं भूमि च प्रतिलेख्य अरे असमीपे आसित्वा कृतांजलिः अवकृतिकर्मवंदनामिछामोति आलोच्य अनुक्षात : शनैरुत्थाय मूर्धन्यस्तकर अबिलवितमनुहुतं समायिकं पठेत् । सूत्रानुगत, अविचलं, अधिकृत स्थितः कृतकायोत्सर्ग चतुर्विशतिस्तबमाभिधाय सूरिणानुरक्तमतः गुरुस्तवनं पठेत् इत्येषाकृतिकर्मवदना । चंदनोसरकालं विणएण विनयेन | अंजलिकदो मुकुलीकृतांजलि । वाइयवसभं आचार्यवृषभं । णं इन मणवि प्रवीति-इति ॥ . गुरुकुले आत्मभिंसर्ग उपसंपन्नाम- समाचारस्तम निरूपति-- ! मूलारा--तियरणसल्यापासयपरिपुषणं मनोवाकायकताचार्यक्रियापरिपूर्ण, 'आचार्थकिया मात्र सिद्धयोग्या MARA Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ७२९ चार्यशांतिमयः । इत्थमेव श्री चंद्रमुनिकृत निबंधे व्याख्यानात् । किदिकम्मं वेदनां । अंजलिकदो मुकुलीकृतांजलिः चायगवसद्दं वाचकवृपर्भ आचार्यप्रधानं । इयं इदं वक्ष्यमाणं वेत्ति अभीति | गुरुकुल में आपना आत्मसमर्पण करना यह उपसंपा शब्दका अभिप्राय है. अतः इस उपसंपा समाचारका क्रम आचार्य दिखाते हैं अर्थ- मन, वचन और शरीर के द्वारा सर्व सामायिकादि छह आवश्यक कर्म जिसमें पूर्णताको प्राप्त हुए हैं ऐसा कृतिकर्म कर अर्थात् वंदना करके विनयसे हाथ जोडकर श्रेष्ठ आचार्य को क्षपक आगे लिखे हुए सूत्रके अनुसार विज्ञप्ति करता है -- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रांतक्रमण, प्रत्याख्यान, और कार्यात्सगँ ये छह आवश्यक क्रियाएं मनोयोग, वचनयोग और काययोग की निर्मल करके करने चाहिये. अर्थात् मत्येक आवश्यक योग संघ तीन तीन भेद होते हैं. मनके द्वारा सर्व योगका त्याग करना, सर्व साधयोगोंका में त्याग करता हूं ऐसा घनसे उच्चार करना, शरीरसे सर्व सावध क्रियाओंका त्याग करना ऐसे सामायिक के तीन भेद होते हैं, मनसे चोवीस वीक के गुणों का स्मरण करना, बचनसे 'लोयस्सुज्जोययरे ' इत्यादि लोकोंमें कही हुई तीर्थकर स्तुति बोलना, ललाटपर हाथ जोडकर जिनेंद्र भगवान को नमस्कार करना ऐसे चतुर्विधति स्तुती तीन भेद होते हैं. वंदना करने योग्य गुरुक गुणांका स्मरण करना यह मनोवंदना है. पचनों द्वारा उनके गुणांका सहस्त्र प्रगट करना यह वचनवंदना है और प्रदक्षिणा करना, नमस्कार करना यह कायवंदना है. किये हुए अतिचाका मनसे त्याग करना यह मनःप्रतिक्रमण है हाय हाय मैने पापकार्य किया है ऐसा सनसे विचार करना यह मनःप्रतिक्रमण हैं, प्रतिक्रमण सूत्रों का उच्चार करना यह वाक्य प्रतिक्रमण है. शरीर के द्वारा दुष्कृत्यों का आचरण न करना यह कायकृत प्रतिक्रमण है. मनसे मैं अतिचारोंको भविष्यकाल नहीं करूंगा ऐसा विचार करना यह मनः प्रत्याख्यान है. वचनये अतिचार में भविष्य में नहीं करूंगा ऐसा बोलना अर्थात् भविष्यकालमें मैं अतिचार नहीं करूंगा ऐसा कहना यह वचनप्रत्याख्यान है, शरीरके द्वारा भविष्यकाल में अतिचार नहीं करना यह कायप्रत्याख्यान है. यह शरीर मेरा नहीं हैं ऐसा मनमें विचार करना अर्थात् शरीरपर मनसे प्रेम दूर करना यह मनः कायोत्सर्ग है. मैं शरीरका स्थाय आश्वासः ७२५ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मायाः ७३० करता हूं ऐसा वचनोच्चार करना यह बचनकृत कायोत्सर्ग है. बाहु नीचे छोडकर चार अंगुलमात्र अंतर दोनों पायों में रखकर निश्चल खडे होना यह शरीरके द्वारा कायोत्सर्ग है. (कायापायनिरासमकृत्वा इस पदका अर्थ ध्यानमें आता नहीं ) एकान्तस्थान में गुरु प्रसन्न चित्तसे बैठे हैं ऐसा देखकर उनके पास मंदरीतीसे आकर अपना शरीर और जमीन पिच्छिकासे साफ करना नाहिये. तदनंतर गुरूसे दर अथवा निकटन बैठकर अर्थात गुरूसे थोडे अंतर पर बैठकर हाथ जोडने चाहिये.' हे भगवन कृतिकर्मवंदना करनेकी मेरी इच्छा है। ऐसा कहकर आलोचना करनी चाहिये, उनकी अनुना मिलने पर सावकाश उठकर मस्तकपर हाथ जोडकर रखने चाहिये. और सामायिकका पाठ पढना चाहिये. पाठ पढते समय शीघ्रता और सावकाशपना छोडकर मध्यम प्रकारसे सामायिक्रपाठ पढना चाहिये. सूत्र के अनुसार दोषोंका त्याग कर निश्चल खटे होकर कायोत्सग करना चाहिये, तदनंतर चतुर्विशति स्तुतिपर गुरुवार सुमति पटही चाहिये. इसीको ऋतिकर्मवदना कहते हैं तुजोत्थ बारसंगसुदपारया सवणसंघणिज्जवया ॥ तुझं खु पादमूले सामण्णं उज्जवेज्जामि ॥ ५१० ॥ निर्यापर्क महासूरि स्मृत्याध्यानपरायणम् ।। क्षपको नाइनुते सौख्यं विवेकमिव शाश्वतम् ॥ ५२८ ॥ तीर्णश्रतपयोधीनां समाधानविधायिनाम् ।। युष्माकमीश पाति द्योतयिष्यामि संयमम् ॥ ५२९ ।। विजयोदया-तुक्षेत्थ यूयमय । बारसंगसुदपारगा शादश आचारादीनि अंगानि यस्य तत् द्वादशांग थुतं सागर व तस्य पारं गताः । समणसंघणिजबगर भ्राम्यति तपस्यंति इति श्रमणाः तेषां समुदायः श्रमणसंघः तस्थ निर्यापकाः । तुझं खु पावमूले युष्माकं पावमूले उज्जयेज्जामि उपोतयिष्यामि । सामणं श्रामण्यं ।। विनयपूर्वकं क्षपकः करणीयकं प्रतिजानीतेमूलारा-इत्थ अन्न देशे णिज्जवया समाधिसंघधारकाः, उज्जवेज्जामि संपूर्ण करोमि || Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूलाराधना भाश्वास बंदना अस निनयनाथ मोहनापनाको गारो कहे हुए सूत्रों के अनुसार बोलता है अर्थ- हे आचार्य ! आपने द्वादशांग श्रुतज्ञानरूपी समुद्रका दूसरा किनारा प्राप्त किया है. आप तपश्चरण करनेवाले मुनिको समाधिमरण की प्राप्ति करानेवाले हैं, आपके चरणोंका आश्रय लेकर मैं मेरा श्रामण्य-मुनिवत उज्ज्वल करना चाहता हूं. अर्थात मर यता आजतक जो दोष लगे हुए हैं उनका प्रायश्चित्त लंकर व्रतोंको उज्ज्वल करना चाहता हूं. आत्मेच्छां सूरये प्रकटयति पव्वज्जादी सर्व कादूणालोयणं सुपरिसुई । दसणणाणचरित्ते णिस्सल्लो विहरिदु इच्छे ॥ ५११ ॥ दीक्षाभूति निःशेष विधायालोचनामहम् || पिजिशीर्षामि निःशल्यश्चतुरंगे निराकुलः ।। ५३० ।। विजयोदया-पत्यजादी सच्चे दीक्षाग्रहणादिकां सां । कादृणालोयणं कृत्वालोचना सुपरिसुद्धं दोपहितां । दसणाणाणचरिते दर्शनमानचरित्रे णिस्तल्लो शल्परहितो भूत्वा । बिहरिनु घिद आचरितु । इच्छ इच्छामि ॥ आत्मेच्छां अपकः सूरेः प्रकाशयतिमूलारा-पञ्चजादी वीक्षाग्रहणात्मभृति णिस्सलो अतीचारप्रिषातो भूत्वा । विहरिर्दु आचरितुं । इच्छे इच्छामि। क्षपक अपनी इच्छा आचार्यको कहता है अर्थ--दीक्षाग्रहणकालसे आजतक जो जो व्रतादिकोंमें दोष उत्पन्न हुए हैं उनकी मैं आकंपित, अनुमानित वगैरे दशदोषोसे रहित आलोचना कर दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें निःशुल्य होकर प्रवृत्ति करने की इच्छा करता हूँ. एवं कदे णिसग्गे तेण सुविहिदेण वायओ भणइ ।। अणगार उत्तम साधेहि तुम अविग्घेण ॥ ५१२ ॥ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ७३२ एवं कृते स्वनिक्षेपे ततो ब्रूते गणेश्वरः ॥ निर्विघ्नमुत्तमार्थं त्वं साधयस्व महामते ॥ ५३१ ॥ जियोदय एवं कये जिसस्कृते पिकेण । बायभ भणा सूरिदति । अणयार स्वभावागारत्वादनगारः तस्य संबोधनं । उत्तम उत्तमं प्रयोजनं रत्नत्रयं द्रव्यं । साधेदि साधय । तुमं त्वं । अविग्घेण अविप्रेन | आचार्य आइ मूलारा - णिसग्गे आत्मभारत्यागे । उत्तम उत्कृष्टप्रयाजनं रत्नन्नयं । साधेहि साधय संपूर्गीकुरु । तुमं वं ॥ अर्थ:- इस प्रकार जब क्षपक अपना अभिप्राय आचार्यके पास जाकर व्यक्त करता है तब " हे मुने तुमने चा और अभ्यंतर परिग्रहोंका त्याग किया है. इसलिये अब तुम निर्विमतासे उत्तम प्रयोजन जो रत्नत्रय उसको सिद्ध करो. घणोसि तुमं सुविहिद एरिसओ जस्स णिच्छओ जाओ ! संसारदुक्खमहणीं घे आराहणपडायं ॥ ५९३ ॥ धन्यः स त्वं वंदनीयो बुधानां । साधो ! बुद्धिनिश्चिता चास्तमोह ! ॥ यस्यासन्नाराधनां सिद्धिदूती तीक्ष्णां जन्मारामशास्त्रीं ग्रहीतुम् ॥ ५३१ ॥ विजयोदया- घण्णोसि तुमं पुण्यवानसि भवान् । सुविदि तेण एरिसभो जस्स णिच्छभो जाभो । उपलक्षणपरं मनोहाहारग्रहणे ईदग्यस्य निश्चयो जातः । संसारदुक्मणी संसारे चतुर्गतिपरिभ्रमणे यानि दुःखानि तम्मर्द्दनो तां । [तुं प्रहीतुं । आहारणापडानं आराधनापताकां । रत्नत्रयाराधनया कर्माण्यपयान्ति । तदपगमातदुःखनिवृत्तिः इति भावः । उपसंपा सूरिराराधकं प्रोत्साहयति मूळारा – संसारदुक्खमधणी चतुर्गतिभ्रमण क्लेशविनाशनाद्यतां । रत्नत्रयाराधनया हि कर्माण्यपगच्छन्ति तदपगमा दुःखनिवृत्तिरिति भावः । अर्थ- हे क्षपक तुम बडे पुण्यवान हो, क्योंकि, चतुर्गतिओ में घुमानेवाले इस संसार में उत्पन्न होनेवाले आवास 2 ७32 Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा दुःखोका नाश करनेवाली आराधनापताका हाथमें ग्रहण करनेका तुमने निश्चय किया है. इस रत्नत्रयरूप आराधनासे कर्मोंका नाश होता है, काँका नाश होनेपर दुःखका अभाव होता है. अच्छाहि ताम सुविहिद वीसत्यो मा य होहि उब्बादो ॥ पडिचरएहिं समंता इणमट्ठ संपहारेमो ॥ ५१४ ।। महामते निष्ठ निराकुलः स्वं प्रयोजनं यावदिदं स्वदीयं ॥ समं सहायरवधारया मस्तत्त्वेन कृत्यं हि परीक्ष्य सद्भिः ॥ ५३३ ।। इति उत्सर्पणसूत्रम् । चिजयोन्या-अच्छाति ताव सुधिद्धिद आस्थ साययते । चीसत्यं विश्वस्तं । मा य होहि उज्यादो व्याकुलित. चित्तोमा व भूपष्टिचरगेहि समं प्रतिबारकैः सह । इणमत्थं र प्रयोजन । सपहारमो संप्रधारयामः । उपसंपा निरूपिता। सूरिः क्षपकमाश्वासयन्नाह मूलारा—अच्छाहि आस्व तिष्ठ | बीसत्यो विश्वस्तः । उठबादो व्याकुलितचित्तः । इणमटुं इई प्रयोजन तव । संपधारेमो पर्यालोचयामः ।। उपसंपत् ॥ सूत्रतः ॥ १८ ॥ अंकतः ॥ ६ ॥ अर्थ:-हे क्षपक ! अब तुम निःशंक होकर हमारे संघमें ठहरो. अपने मनमेंसे खिन्नताको दूर भगाओ. हम प्रतिचारकोंके साथ तुमार विषय में अवश्य विचार करेंगे. इस प्रकार उपसंपाधिकार समाप्त हुआ. इत उत्तरं पडिन्छा इति सूबपदव्याख्या तो तम्स उत्तमठे करणुच्छाह पडिच्छदि विदण्डू ॥ खीरोदणदव्वुग्गहदुगुंछणाए समाधीए ॥ ५१५॥ आचार्यः करणोत्साहं विज्ञातुं तं परीक्षते ।। जिघृक्षाविचिकित्साभ्यामुत्तमार्थे समाधये ।। ५३४ ॥ इति परीक्षणम् । ३३ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्चार ७३४ U-Anu.tartACATAZATABAZAARAKAmareneurs विजयोदया-तो पश्चात् । तस्स तस्य शपकस्य । उत्तमढे करणुच्छाई रत्नत्रयाराधनाफियोत्साहं । पडिटछवि परीक्षते । विदष्ट्र मार्गशः । खीरोमणदबुग्गबहुगुछणाप क्षीरोदनद्रव्यग्रहणं मनोशाहारत्रहणोपलक्षणं । जुगुपसापरेण समाधीप समाधिनाद्वारगर्त लोल्यमस्व किं विद्यते न वेति परीक्षते । इयमका परीक्षा । समाधिणिमित्तं पडिच्छा । अध मूरिः किमाहारेऽस्य लौस्यमस्ति न वेति समाभ्यर्थ परीक्षते इत्येकयर गायया सूचयति मूलारा-विदण्हू मार्गज्ञः। खीरोदणबुग्गहचुगंछणार क्षीरोदनद्रव्यं मनोज्ञाहारोपलक्षणं तस्य अवग्रहो महर्ण तन्त्र विचिकित्सा निंदा तया । अथवा उत्कृष्टो ग्रह उगह आसक्तिः मनोज्ञाहारासक्तिनिंदाभ्यामित्यर्थः । समाधीए समाधिनिमित्तं । उर्फ च तस्योत्तमार्थे परिणामवृद्धिपरीक्षणामूरिदारयोधः । ध्यादिसट्रव्यरसोपयोगे रत्या जुगुप्सा विधिना समाधी ॥ परीक्षा । सूत्रतः ।। १९ ।। अफतः ॥॥ इसके आगे पहिच्छा नामक सूत्रपदकी व्याख्या लिखते हैं अर्थ-मार्गन आचार्य यह क्षपक रत्नत्रयाराधनाकी क्रिया करने में उत्साही है या नहीं इसकी परीक्षा करते हैं. यह क्षएक समाधिमरणके लिये उद्युक्त हुआ है परंतु दूधभात वगैरह मनोहर मिष्ट आहारोंमें यह अभिलापवान है या उससे विरक्त है इसका भी आचार्य निर्णय करते हैं. यह समाधिके निमित्न परीक्षा है. खवयस्सुवसंपण्णरस तस्स आराधणा अविक्खेवं ।। दिव्वण णिमित्तेण य पडिलेहदि अप्पमत्तो सो ॥ ५१६ ॥ आराधनागतं क्षेमं क्षपकस्य समीयुषः ॥ दिव्येन निःप्रभावोसी निमित्तेन परीक्षते ॥ ५३५ ॥ विजयोदया-बगस्म क्षपकस्य उवसंपणम्स अत्मांनिकमुपाश्रिास्य । तस्य तप । भाराणा अविषखेचं भागबनाया अविक्षिप 1 परिन्नड़दि परीक्षा :? सो स सूरिनियोगः । नमो नमनः । फल दिनेगा देवनोद शन । णिमिसण निमित्तेन वा इययेका परीक्षा। अथ स्वपादमूलमुपाश्रितस्य सपकस्याराधनानिर्विघ्नता राज्यादिकच परीश्व स्वीकारं करोतीति प्रतिलेखो गाथायेनोपदिशति ७३४ SASTER Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्वास भूलाराधना मूलारा-आराहणा शयनेन साभनया अध्याक्षेपं निर्विघ्नता । दिव्येण देवतोपदेशेन, निमित्तण यो सरं वंजण लक्खणं च हिणं च भोम सिमिणतरिक्ख' इत्यष्टांगनिमितेन वा पहिलेहदि परीक्षते निरूपयति या । अर्थ-- हमारे संघका इस क्षपकने समाधिकलिये आश्रय लिया है. इसकी समाधि निर्विघ्न समाप्त होगी या नहीं इस विषयका मी आचार्य देवताके उपदेशसे अथवा शुभाशुभ निमित्तोंसे निर्णय करलेते हैं. यह भी एक परीक्षा है. रज्ज खेतं अधिवदिगणमप्पाणं च पडिलिहिताणं ॥ गुणसाधणो पडिच्छदि अप्पडिलेहाए बहुदोसा ॥ ५१७ ॥ तं गृहीते मार्गषेदी गण स्वं राज्य क्षेत्रं भूमिपालं निरूप्य ।। साधु सूरेगृहतो निःपरीक्षं चित्रा दोषा दुर्निवारा भवन्ति ॥ ५३३ ।। इति निरूपणम् । विजयोदया-रज्जने अधियदिगणमप्पाणं च राज्य, क्षेत्र. देशं प्रामनगरादिकं अधिपति गणमात्मानं च । पडिलिहित्ता परीक्ष्य । गुणसाधणो गुणाम्सम्यक्त्वादीन साधयति यः सूरिः स पडिच्छदि प्रतिगृताति । कं! क्षपकं । अन्यत्र गुणसाधणं इति पाठः गुणान्साधयितु उपर्त साधु प्रतिगृवाति । अप्पडिलेदाप उक्तायाः परीक्षाया अभावे । यहुदोसा घड्यो दोश भवंति के ते अति चेदुच्यते । निरस्ताहारतृषयो न घेति यदि न परीक्षितः, आहारे तूपणावानक्तदिनं तमेव चिंतयतीति कथमाराधकः स्यात् । क्षुत्पिपासापरीषदावर्यमासहनात्यूकुर्चन धर्मपणं कुर्यात् । आराधनाया व्याक्षेपो भवति न वेत्यपरीक्ष्य यदि तं न व्याजयति तस्यापिन कार्यसिद्धिः स्वयं च निंद्यते जनेन । राज्यक्षेत्रादीनां शुभाशुमपरीक्षा येन कृता सोऽशुभं चत्पश्यति तस्य राज्यादेश्च स राज्यक्षेत्रादिकं अन्य दुद्दिश्य तं गृहीत्वा याति । तथा च तस्यो पकारको भवति । अपरीक्षायां तु राज्यादिशे स च क्षपकः स्वयं च क्लिश्यति । गणस्य चोपद्वं यदि पश्यति, आत्मनो बान प्रारमते कार्य । अपरीक्षितकारी सूरिन तस्योपकारको न चात्मन इति दोषाः ॥ भाविसमाधिनिर्णयार्थ परीक्षान्तरमिदं - मूडारा-खेच देशमामनमरादिक । अहिवर्वि अधिपति राजानं । गणं सधं । अप्पाणं आत्मशरीरं । पडिलिइशाणं परीक्ष्य । गुणसाधओ सम्यक्त्यादिगुणसंपादकः सूरिः । गुणसाधणमिति पाठे गुणान्साधयितुमुवतं श्पर्क । पडि Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधना आश्वास BARA ARETTER कछादि प्रतिगृण्हाति । अपाहिलेहाए उक्तायाः परीक्षाया अभावे बहुदोसा बहवोऽसमाधिकरा दोषाः स्युः । तथा हि-- निरस्ताहातृष्णो न वेति यदि न परीक्षितः तदा आहारे नृणायात दिवं तमेव चिंतयति इति कथमाराधकः स्यात् । क्षुल्पिपासापरीयावष्टंभासहनात्पन्कुर्वन् धर्मदूषणं च कुर्यात । आराधनामा व्याक्षेपो भविष्यति न ये परीक्ष्य यदि में। त्याज अनि । नागिन कार्यसिद्धिः । स्वयं च जियत जोन । गन्यादीनां शुभाशुभमीक्षा यंन कुना माशुभ वन्य स्थति नदा अभं राज्यादिकभुद्दिश्य तं गृहीत्या गनि गधा च तस्योपकारमः: स्यात् । अमरीक्षायां तु गम्यादि । अपकः न चरिः क्लिश्यते गणम्य चोपद्रवं यदि पश्या स्वम्य वा तहा न पारमने कार्य । तदपलिनकारी सू। तस्यारकारफो नापि स्वस्त । प्रतिलेखा । त्रतः। 20 | अंकतः २॥ अर्थ-राज्य, गांव, शहर वह स्थान, राजा, गण और स्वयं इन सबकी परीक्षा कर समाधिके लिये क्षपकका स्वीकार करते हैं. यदि राज्यादिक क्षपककी समाधिसाधनके लिये अनुकूल हो दो सम्यक्त्वादि गुणोंको सिद्ध करनेवाले आचार्य सम्पकत्वादि गुणों को सिद्ध करने के लिये उद्युक्त हुए. क्षपकका स्वीकार करते हैं. यदि इनकी परीक्षा विना करे ही आपकका स्वीकार करनेपर बहुदोष उत्पन्न होते है. आचार्य प्रथम क्षपककी बद्ध आहारमें लंपट है या नहीं इस का परीक्षण करते हैं. यदि वह आहारलंपट होगा तो रातदिन आहारकाही चिंतन करेगा फिर वह आराधक कैसा होगा ? क्षुधा परीषह , प्यासका दुःख सहन करनेमें असमर्थ होकर जोर जोरसे चिल्लाएगा' और धर्मको दृषण देगा. क्षपकके आराधनामें विघ्न उत्पन्न हो गया न होगा इसका निर्णय यदि नहीं किया तो, क्षपका जिन्न । उपस्थित होनेपर त्याग करेगा जिससे उसकी कार्य सिद्धि होगी नहीं. और आचार्यकी भी निंदा होगी. इस क्षपकके समाधिकार्यसे राज्यादिकका शुभ होगा या अशुभ होगा इसका भी परीक्षण आचार्य । करते हैं. राज्यादिकका अशुभ होगा ऐमा दीखनेपर उस राज्यादिकका त्याग कर अन्य राज्यादिकका आश्रय आचार्य लेते हैं. तब अन्य राज्यको भी वह समाधिकाय हितकर होता है. यदि शुभा. शुभकी परीक्षा नहीं की तो गज्यभ्रंश हो जानेपर अपकको संक्रश होगा. और आनायको भी संक्लेश होगा. यदि गण और स्वतः को इससे उपद्रव होगा एग। ऐसा मालुम हुआ तो इस कार्यका प्रारंभ नहीं करते हैं. परीक्षा न कर प्रवृत्ति करनेसे क्षपककी व खुद आचायकी भी हानि होगी. PATI Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Recha मूलाराधना आश्वासः ७३७ DISEASTARAT परीक्षानंतर आधुमछा इत्येतसूत्रपदं व्याचए पडिचरए आपुन्छिय तेहिं णिसिहं पडिच्छदे खवयं ॥ तेसिमणापुच्छाए असमाधी होज तिण्हंपि ।। ५१८ ॥ आपृच्छय क्षपर्क सूरिहाति प्रतिचारकैः । अनुज्ञातमपृच्छायां त्रयाणां मनसः क्षतिः ॥ ५३७ ।। इति पृच्छा। विजयोदया-आपुच्छा । पडिचरए प्रतिचारकायतीन् । आपुन्छिय आपृच्छूय रलनयाराधने अस्मानय सहायान्कामयन् प्राघूर्णको यतिः । साधुसमाधिर्वयावृत्त्य करणं च तीर्थकरनामकर्मणो मूलमिनि भवद्भिरवगतमेव, ततो यदत किमस्माभिरयममुग्राहो न येति, परार्धवन्तः परार्थबद्धपरिकरा दिप्रायेण लौकिका अपि किमुत यतयः । सकलमासमभव्यलोक संसारकादुरुत्तरादगाधादुत्तारयितुमुद्यताः। 'अपहिय कायब्बं जा सकर परहियं च काययमिति' नवाग: पतदनोग.कि माल प्रज्य इति कथयति । तेहिं परिचारकैः । णिसिह मिसृष्टं अभ्युपगतं । पतिच्छदे प्रतिगृकाति । खषगं क्षपर्क । तेसिमणापुच्छाए परिवारकाणामपरिमझे तु । श्रसमाही होय. लिहपि सूरेः क्षाकस्य संघस्थान असमाधिः सक्लेशो भवेत् । अस्मामिरयमपरिगृहीत ति बिनये वैयाघृत्ये चा अनुद्योगादीनां अमन भक्ति कुर्वन्ति प्रति क्षपकस्य संक्लेशो भवति । गुरोरपि संश्लेशो भवत्ति, मथास्योपकारे प्रारब्धे सहायभायभिमे मोपयोति इति । परिवारकाणां च संपलेशो जनसाध्य कार्यमस्मान्गुरु नुमोदयति । न बलाबलमस्माकं परीक्षते इति ॥ अथ न मितिरसहायस्येति समाधिमरगे गुणवत्तमं सहकरिण मध्य क्षपकस्थात्मानं समर्पितषतः समाधिसिद्धि, तद्वैतृष्ण्य मुखेन दिन्यनिमित्तबलेन च सुनिमित्तबलेन च सुनिक म्यपरहितकरण बगो निर्यपकाचार्यस्तत्प्रतिग्रहणार्थ स्वगणमापूजयमेकया गया निरयितुनिदभार .... मूलाग--आगुनिलय आए । मानो यथा--- अयं प्राधूर्णकः साधुः समाधिमरणऽरमान्सहकारिणः फागयते ! माधसमाधिधैयात्त्यकरणं च वीर्थकरनामकर्मणः कारणमिदं भवद्भिः सुनिश्चितमय । ततो बुत किमस्माभि रय अनुग्राह्यो न वेति । परार्धबद्धपरिकरा हि प्रायेण लौकिका अपि, किमु यतयः । सकलमामनभव्यलोकं दुःखाब्धेकत्तारयितुमुघताः। अपहियं काय जइ सक्कर परहियं च कायब' इति बचनादेतदनुग्रहे उद्योगोऽवश्यकरणीय एवेति । णि सिर्ट निमृष्टमभ्युपगतं । असमाही संक्लेशः॥ तिहूं पिमरेः, अपकस्य, संघस्य च । तत्र मयास्योपकारे प्रारब्धे सहायभायमि में नोपयान्तीति सूरेः संक्लेशः । अस्माभिरयमपरिगृहीत इति विनये वैयावृत्ये वा परिचारकेवप्रवर्तमानेषु मम ७३७ Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना লাঘাষ न किं चित्कुर्वन्ति किमिहाहमायात इति अपकस्य संक्लेशः । बहुजनसाध्यमिदं कार्य न चास्मा गुरुग्नुमोद यति नापि बलाबलमस्माकं विचारयति इति परिचारका संक्लेशः ।। आकछात२१ अंकतः १ ॥ परीक्षाके अनंतर आपृच्छा नामक सूत्रपदका व्याख्यान करने है अर्थः-रत्नत्रयकी आराधना करनेक कायम सहायक चाहता हुआ यह क्षपक अपने संघमें आया है. साधुके तपश्चरणादिकोंमें आया हुआ विघ्न दूर करना और उसकी शुरुषा करना तीर्थकर नामकर्म बंध होने में कारण है यह बात आपको विदित ही है . इस लिये आये हुये इस अतिथिको हम अनुग्रह-साहाय्य करे वा न करे इस वि. गध पफी जो धम्मसिहानी सा कहो. जगतमें इतर लोक भी परोपकार करने में उद्यमी दीखते हैं. हम तो मुनि हैं. संपूर्ण असमभव्योंको संसाररूपी कीचडसे-जिससे निकसना परही कठिन है और जो अगाध है निकालने में हमको हमेशा उद्युक्त रहना चाहिये . 'आत्महित करना चाहिये और शक्य हो तो परहित भी करना चाहिये' इस बचनके अनुसार इस क्षपकके ऊपर अनुग्रह करना चाहिये क्या? ऐसा आचार्यक पूछने पर याद परिचारकाने अनुग्रह करने में सम्मति दी तो आचार्य क्षपकको अंगिकारते हैं यदि परिचारकोंको बिना पूछे ही धपकका आचार्यने स्वीकार किया तो आचार्य, भपक और परिचारक तनिॉको भी असमाधि होगी अर्थात् संकुशपरिणाम होगा. हमने तो इसका स्वीकार किया नहीं है ऐसा समझकर परिचारक क्षपकका विनय करना, शुश्रुपा करना वगैरे कार्य उद्यमी न होनेसे मेरी ये लोक भक्ति नहीं करते है ऐसा मनमें विचार कर क्षपक संशयुक्त होगा. मैने उपकार करनेकी इच्छासे इसको संघमें रख लिया है परंतु परिचारक इस कार्य में सहायक नहीं होते हैं इस विचारसे गुरूके मनमेंभी संवेश होगा. समाधिमरण सिद्धि करना यह कार्य बहुत जनकी सहायतासे होनेवाला है परंतु गुरुने हमको चिनापूले ही इस पकका स्वीकार किया है. हमारे सामर्थ्य असामथ्र्यका उन्होने विचारही नहीं किया है ऐसे विचारसे परिचारक संश्लिष्ट होते है. पविटणा इत्येतासूरपदं ध्याचष्ट एगो संथारगदो जजइ सरीरं जिणोबदोमेण ।। एगो सल्लिहदि मुणी उम्गेहिं तवोविहाणहिं ॥ ५१९ ।। Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना भावासा एकः संस्तरकस्थोऽनो यजतेगं जिनाज्ञया ॥ दुःकरैः संल्लिखत्यन्यस्तपोभिर्विविधैर्यतिः ।। ५३८ ।। विजयोदया-मो संथारगदो पकः संस्तरमारूढः । जजा सरीरं यनले शरीरं: जियोबदेसेण जिनानामुपदेशेन। पगो सल्लिति मुणीपको मुनिस्तनूकरोति शरीरं । उमोहि तयोविहाणहि उप्रेस्तपोधिधानः । ___ अथ सत्यपि संघसाम्मत्ये सूरिणा अनुग्राह्यत्वेन एक एव समाधिमरणोयतः प्रतिग्रायोऽनेकप्रतिग्रहणे मन:समाधानानुसंधाभानुपपत्ते रिति प्रतिमाखनियभार्थ प्रतीच्छा गाथात्रयेण सूचयति मूळास-जजदि यजते तपोडानी इगि शेपः संन्यस्यतीत्यर्थः । एगो अन्यो द्वितीय इत्यर्थः । एतेनैतदुक्तं भवति । एकः संन्यासपरः प्रतिमाह्यो, द्वितीय सल्लेखनोद्यतः ।। पहिच्छणा इस सूत्रका विवेचन करते हैं अर्थ :- एक क्षपक जिनेश्वरक उपदेशानुसार संस्तरपर चढकर शरीरका त्याग करता है अर्थात् समाधिमरणका साधन करता है. और एक मुनि उग्र अनशनादि तपोंके द्वारा शरीरको शुष्क करता है. तदिओ णाणुण्णादो जजमाणस्स हु हवेज्ज वाघादो ॥ पडिदेसु दोसु तीसु य समाधिकरणाणि हायन्ति ।। ५२० ॥ यजमानक्षतेजैनेस्तृतीयो नानुमन्यते ।। द्विनेषु श्रितपात्रेषु समाघिीयते तराम् ।। ५३९ ।। विजयोथ्या-तदिमी पाणुषणादो तृतीयो यतिमांनुशातः तीर्थकृद्भिः एकेन निर्यापकनानुग्राह्यत्वेन । कुतो यस्मात् । जजमाणस्स खु हवेश वाघादो यजमानस्य भवेय व्याघात इति । कुतो व्याघात इत्याह । पडिदेसु दोसु तीसु य संस्तरे पतितयोईयोत्रिषु च क्षपकेषु समाधिकरणानि चित्तसमाधानक्रिया विनयधैयावृत्यायो हीयते यस्माद्यजमानस्य व्याघातः। यस्मादेक एव यजमानो भवति ।। कृतीयप्रतिमहणे दोषमाह मूलारा-गाणुग्णादो नानुमवस्तीर्थकृतिस्तृतीय एकैनाचार्येणानुग्राह्यत्वेन । कुत इत्याह-जजमाणस्य तपोऽग्नों देह जुड़त : । षाघादो समाधिविश्नः । पविदेसु दोसुलीसु य संस्तरे पतित योद्वयोनिषु वा सत्सु । समाधिकरणानि चित्तसमाधानक्रियाविनयवैयावृत्यादयः । हायंति हीयते ।। Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना ७४. अर्थ-तृतीय यति आचार्यके द्वारा अनुग्राह्य होता है ऐसा तीर्थकराने आगममें नहीं कहा है. अर्थात् आचार्य ऊपरकी गाथाके अनुसार दो मुनिओके ऊपर अनुग्रह करसकते है. दो या तीन मुनि यदि समाधिमरणकेलिये संस्तरका आश्रय करेंगे तो उनके अन्तःकरणको धर्ममें स्थिर रखनका कार्य, विनय, वैयावृत्यादिक कार्य, यथायोग्य नहीं हो सकेंगे. जिससे उनके मनको संक्लेश होगा. अतः एकही क्षषक संस्तरारूद हो सकता है. तम्हा पडिचरयाणं सम्मदमेयं पडिच्छदे खवयं ॥ भणदि य तं आयरिओ खवयं गच्छरस मज्झम्मि ॥ ५२१ ॥ एकमेव विधिना यतिं ततः स्वीकरोति स्वसहायसम्मतम् ।। गृयते हि कबलः स एव यः पंडितेन यदने प्रशस्यते ॥ ५४॥ इति एकसंग्रहः ।। मध्ये गणस्य सस्य क्षपकं भाषते हितम् ।। इत्थं कारयितुं शुद्धां विधिनालोचनां गणी ।। ५४१ ।। विजयोदया-तम्हा तस्मान् । एक । पच्छिदे अनुजानाति । खवगं क्षपके रकं । पडिचरयाण सम्मद प्रतिचारकाणांए । भारिप भणति च । तं शापकं । कः ? आयरिश्री आचार्यः । क? गच्छस्स मज्झम्मि गणम्य मध्ये। क्षपफस्य शिक्षा किमर्थं गणोऽपि मागशो यथा स्यात् । पच्छिणेगस्स ।। उपसंहारमाह --- मूलारा--भणदि शिक्षामितिशेषः । मम्मि गणोऽपि मार्गको यथा स्यादित्येवमर्थ गणमध्ये शिक्षयति ॥ एकप्रतीच्छा ।। सूत्रतः ।। २२ ।। अंकतः ॥ ३ ॥ अर्थ- इसलिये आचार्य परिचारक मुनिओंके संमत्यनुसार एक क्षषक मुनिका स्वीकार करते हैं, और मणके मध्यमें उसको आगे की गाथाओमें कहे मुजब उपदेश करते हैं. गणके बीच में आचार्य क्षपकको उपदेश देनेका कारण यह है कि, गणको भी समाधिका अर्थात् रत्नत्रयका स्वरूप मालूम हो. अर्थात समाधिभरणका अगीकार करते समय कैसी प्रवृत्ति करनी चाहिये इसका स्वरूप मालूम होने के लिये मणके बीच क्षपकको उपदेश देते हैं. Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना श्वासः ७४१ - - पवमसी क्षपकं घदतीति कथयति फासेहि तं चरित्वं सब्वं सुहसीलयं पयहिदूण ।। सव्व परीसहच, अधियासंतो धिदिबलेण ॥ ५२२ ॥ समस्तं स्पृश चारित्रं निरस्थ सुखशीलताम् ॥ परीषहचमूं घोरां सहमानो निराकुलः ॥ ५४२ ॥ विजयोदया-फासेहि प्रतिपद्यस्व । तं भवान् । किं ? चरितं चारित्रं । सवं सुहसीलद सर्वो सुखशीलता । पजाहिदूण त्यक्त्वा । सुखशीलतया हि चारि मंदं भवति । पिंजस्योपकरणस्य वसंतेश्वाशोधमात् । मनोशाहारलपटोन भिक्षा शोधयति । नाप्युपकरण । सुखशील उद्रमादिदोषं न परिहरति मनोज्ञोपकरणबशामिलापत्चात् । फ्लेशासहो यस्य कस्यचितसताधास्ते ॥ .. अथालोचना गाथाचत्वारिंशत्या याचनाणस्तत्रात्मपादमूलमुपाश्रितमाराधक परिचारक संपतिपरया प्रतिगृहा तदालोचना प्रोतुकामः सूरिस्तमादाविधमालोचयितुं प्रोत्साहयनाथात्रयमामिथ्यादित्यनुशास्ति मूलारा-फासेहि प्रतिपद्यस्व । तं त्वं । सुहसीलदं सुखभावनया हि चारित्रं मंदायते । पिंडस्योपकरणस्य वसतेश्वाशोधयन् । मनोझाहारलपटः खल न भिक्षा शोधयति । मनोशोपकरणभिलाषुकस्तु नोद्गमादिदोष परिहरति । क्लेशासहो यस्य कस्यानित्सज्जितार्था यसतावास्ते । अधिवासतो सहमानः । क्षपकको आचार्यका उपदेश:-- अर्थ - हे क्षपक तुम अपना सुखस्वभाव छोडकर संपूर्ण चारित्रको धारण करो. इस मुखस्वभावसे चारिख । मंद होता है. सुखस्वभावी मुनि आहार, उपकरण और वसतिका इनकी शुद्धि नहीं करता है. मनोज्ञ आहारमें लंपटी बनकर उद्गमादिदोषोंका त्याग करता नहीं, अच्छे उपकरणों में प्रेगयुक्त होकर उसके दोषोंका परिहार नहीं करता है क्लेश सहने में असमर्थ होकर जिस किसी वसतिकामें रहता है. इस लिये तुम सुखस्वभावका त्याग करो, अपने धैर्यक सामर्थ्यसे सर्व परीषहोंकी सेनाको जीतकर चारित्रका तुम रक्षण करो. NTEREST ७४१ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः इंद्रियजयं कषायजयं च कुर्षिस्युपदिशति सद्दे रूवे गंधे रसे य फासे य णिज्जिणाहि तुमं ।। सवे कसाएसु य णिम्गहपरमा सदा होह ॥ ५२३ ॥ रूपगंधरसस्पर्शशब्दानां मा स्म पूर्वशः॥ कषायाणां विधेहि त्वं शत्रूणामिव निग्रहम् ।। ५४३ ॥ विजयोदया--सदे रूवे गंधे इत्यम्या । ननु शम्वादको विषयास्तेषां जयो नाम कः? तषियो हिरागो चंधहेतुत्वात् नरप्रतिपक्षभाषनया जेतव्यत्येनोपदेशव्यः । अयोग्यते-सोपस्कारत्यारसूत्राणां सद्दे, ब्वे, गधे, रसे य फासे य राग नुमं जिणादि इति पदसंबंधः। अथवा शब्दावीनां विषयाणां यशन स्थित इति कृत्वा जेता भण्यते यथा पुरुषो जितो उनयेत्युच्यते या पुरुपयशानुयतिनी न भवति । सच्चेसु कसापसु य सर्वेषु कमायेषु वा क्रोधादिषु। णिग्णहपरमो निग्रहः प्रधानः क्षमादिभावनया सदा भव॥ इंद्रियजय कपायनिग्रहं च फुर्वित्युपदिशति-- मूलारा--णिज्जिगाहिं नि:शेषेण जय त्वं शब्दादिविषय रागमिति शेषः । अथवा शब्दादीन्विषयाभिजय तशो मा भूरित्यर्थः । विगहपरमो निग्रहप्रधानः || इन्द्रियोंको और कषायों को तुम जीतो ऐसा उपदेश - अर्थ--शद्ध, रस,गंध, और स्पर्श ये पांच इंद्रियोंके विषय हैं उनको कैसा जीत सकते हैं ! शब्दादिकोंमें उत्पन्न होनेवाले रागभावको जीतना चाहिये क्योंकि यह कर्मबंधका कारण है. रागभावको उसके विरुद्ध भावनासे जीतना चाहिये ऐसा यहाँ उपदेश करना योग्य था परंतु आचार्य शब्दादिकोंको जीतने के लिये क्षपकको उपदेश दे रहे हैं यह योग्य जचना नहीं... उत्तर--सूत्र सोपस्कार रहते हैं. अर्थात् उसमें प्रकरणवश और कुछ शब्द जोडकर संबंध ठीक मिलाना पड़ता है. 'सद्दे रूवे गंधे रसे य फास य रागं तुम जिणाहि, एसा पद संबंध करना चाहिय. अर्थात यहां ऐसा अर्थ समझना चाहिये-हे क्षपक तुम शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श ऐसा पंचेंद्रियांक विषयों में जो गगभाव उत्पन्न होता है उसको. जीतकर संपूर्ण क्रोधादिक कषायोंका क्षमा, मार्दव, आजब, और शौचभावनासे निग्रह करो. - - ७१२ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना Iowa आधाम: ७१३ M शब्दादिक विपयोंके आधीन जो नहीं रहता है वह शब्दादिकोंका जेता कहाजाता है. जैसे जो स्त्री पुरूपके वश नहीं रहती है उसको इसने पुरुषको जीता है ऐसा लोक कहते हैं. अर्थात् शब्दादिक कषायोंके स्वाधीन हे क्षपक ! तुम कदापि न रहोगे तो तुम इन्द्रियजयी कहलायोगे ऐसा इस गाथाका अभिप्राय है. एवं कृतेवियकषायजयेन मया पश्चातिककर्तव्यमित्यत्रोसरमाचरे-- हंतूण कसाए इंदियाणि सव्वं च गारवं हंता ।। तो मलिदरागदोसो करेहि आलोयणासुद्धिं ॥ ५२४ ॥ रागद्वेषकषायाक्षसंज्ञाभिगौरवादिकम् ॥ विहायालोचनां शुद्धां त्वं विधेहि विशुद्धधीः ।।५४४ ॥ विजयोदया-हंतूण हत्वा । कसाए कपायान् । दियाणि इंद्रियाणि च हन्या । सर्वच गार हता सर्व न गारवं हत्वा ऋद्धिरससानभेदात्त्रिविकरूपं । तो पश्चात् । मलिदरागदोसो मृवितरागद्वषः । करेहि कुरु । भालोयणामुद्धि टोसपास. i ग चनस्य हेतू रति परित्याज्याविति कथिती ।। रागान पश्यति नगे मोवान् । पा. द्गुणाय गृहीते ॥ तस्मादागद्वेषी न्युदस्य कार्याणि कार्याणि ॥ भिद्रियजयं कृत्वा पश्वारिक कुर्यामहमित्यत्राह -- मूलारा- इता हत्वा । मलिद मर्विती । आलोवणासुद्धिं आलोचनाख्यां शुद्धिं । गगद्वेषावसत्यवचनम्य हेतू इति परित्याज्यौ । उक्तं च-रागान पश्यतीति किमिति परस्मै स्वच्ययाकल्प निवेदयति । निधो भवता मुमुक्षुगा न कागो यतः ॥ इंद्रियजय और कायजय करनेके अनंतर मेरा क्या क्या कर्तव्य है इस प्रश्नका उत्तर देते हैं अर्थ -क्रोधादिकषाय और स्पर्शनादिक इंद्रियोंको जीत कर ऋद्धिगारव, रसमारब और सातगारव ऐसे तीन गारबोंको हे क्षपक तुम जीतो. तदनंतर सगोषोंका मर्दन कर आलोचनारूप शुद्धि करो. रागभाव और द्वेषभाव असत्य वचनके कारण है इसलिये उनका त्याग करना चाहिये. रागभावसे मनुष्य दोषको देखता नहीं और द्वेपसे सद्गुणों को ग्रहण नहीं करता है. इसलिये रागद्वेषोंका त्याग कर कार्य करने चाहिये. PARIS Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना आश्वासः निरतिचारं मदीये रत्नत्रयं ततः किं गुरोनिचेदयामीत्यायो छत्तीसगुणसमण्णागदेण वि अवस्समेव कायव्वा ।। परसक्खिया विसोधी सुठुवि बबहारकुसलेण ।। ५२५ ।। सषत्रिंशद्गुणनापि व्यवहारपटीयसा ।। कोपा महाशुदिरयदयं परसाक्षिका ॥ ५४५ ॥ विजयोदया--छत्तीसगुणसमगमगंदण घि गद त्रिशरणसमन्धितनापि । अवस्समेव होह कायव्या अवश्यमेव भवति कर्तव्या । का विमोही विशुद्धिः मुत्युपायातिचाराणामपाकृतिः ॥ आयारघमादीया अठगुणा दसविधो य ठिदिकप्पो । बारस तव छायासय छत्तीसगुणा मुणेयव्वा ॥ ५२६ ॥ अष्टाचारादयो ज्ञेयाःस्थितिकल्पा गुणावश ।। तपो द्वादशधा वादावश्यकं षट्पडाहतम् ॥ ५४६ ।। सुविषबहार कुसलेण सुष्ठ अपि प्रायश्चित्तकुशलनापि । अनी मानाचाराः दर्शनाचाराचाटी, नपो द्वादशयिध, पंच समितयः, तिस्रो गुप्रयश्च पत्रिशद्गुणाः ॥ मूलारा-छत्तीसगुणसमण्णायदेण वि षत्रिंशतागुणैः समन्वागतेन किं पुनरन्येनेत्यतिशयाथें अविः । षट्शिद्गुणा यथा-अष्टौ झाना चारा अष्टौ दर्शनाचाराश्च, तपो द्वादशव, पंच समितयस्तिस्रो गुप्रयश्चेति संस्कृतटीकायां । प्राकृत टीकायां तु अष्टाविंशतिमूलगुणाः । आचारवत्वादयश्चाष्टौ इति पत्रिंशत् । यदि वा दश आलोचना गुणा, दश प्रायश्चित्तगुणा, यश स्थितिकल्पाः, पडजीतगुणाश्चेति पद्भिशाम् । पूर्व सति सूत्रेऽनुश्रयमाणेयं गाथा पक्षिय लक्ष्यते ।। परसक्खिया आचााविसमस्या । विसोही सम्यक्त्वायतिचाराणामराकृतिः । मुहुवि पवहारकुसलेण अतीव प्रायश्चित्तनिपुणेमापि ।। मेरे व्रत निरतिचार है इसलिये गुरुको मैं क्या निवेदन करूं? इस प्रश्नका प्राचार्य उत्तर देते हैं अर्थ -- छत्तीस गुणोंके धारक व्यवहारकुशल, अर्थात् प्रायश्चित्त दानमें कुशल ऐसे आचार्याकोभी अन्य आचार्योके साक्षीसे आलोचना करनी चाहिय. अन्यथा उनके रत्नत्रयमें लगेहुये दोष नष्ट नहीं होते हैं, Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना ७५५ आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारा तप, पांच समिति और तीन गुप्ति ऐसे आचार्यके छत्तीस गुण हैं. अथवा आचारवच्चादिक आठ गुण, अचेलक्यादिक स्थितिकल्पके दस गुण, वारा प्रकारके तप तथा छह आवश्यक ऐसे आचार्य के छत्तीस गुण हैं. सच्चे व तिष्णसंगा तित्थयरा केवली अनंतजिणा ॥ विसोधिदिसंति ते वि य सदा गुरुसया मे ॥ ५२७ ॥ सबै तीर्थकृतो नंतजिनाः केवलिनो यतः ॥ अस्थस्य महाशुद्धिं वदन्ति गुरुसन्निधौ ॥ ५४७ ॥ विजयोदया सर्वेषां तीर्थकृतामयमाशा-गुरोर्निवेद्यात्मापराधं तदुक्तं प्रायश्चित्तं कृत्वा शुद्धिः कार्येति । सम्देवि तित्थयरा सर्वेऽपि तीर्थंकराः । तिष्णसंगा तीर्णलंगा उल्लंघितपरिग्रहागाधपंकाः । सब्बे वि केवली सर्वेऽपि केवलिनः । परिमाप्त स्वर्गावतरणादिकल्याणत्रयाः । केवलज्ञानावरणश्यावृधिगतविश्वज्ञानाः केवलिनः । अनंतजिणा अनंतसंसारकारकत्वाचारित्रसर्वधातिमिष्यात्वं द्वादशकपायाश्च मनंतं तज्जयादनंतजिना आचार्योपाध्याय साधयः । तेऽपि सर्वे सदा गुरुसकामे सोधिदिति सदा गुरुसमीपे रत्नत्रयशुद्धिं दर्शयन्ति । कस्य ? दुमत्थस्स उमस्थस्य संबंधिनीमिति केचिदस्ति । रत्नत्रयपरिणामात्मको रत्नविशुद्धया भवतीति उद्मस्थस्य विशुद्धिरित्युक्तवानयं । चैतमा सर्वतीर्थकुदाक्षया छदास्थास्यति गुरुसाक्षिकायाः शुद्धः प्रदर्शिकाया: सद्भावादिति दर्शयन्नाहगुलारा - तिसंगा तीर्णोऽतितः सगो यैस्ते यथा इत्यर्थः । यतजिया अनंतसंसारकारणत्वादि कर्मा जितवंत एकदेशेनाचार्योपाध्यायसात्र चोत्र विलुप्तनिर्दिष्टो द्रष्टव्यः । तीर्थकराणामेव वा विशेषणमिदं । तेद्दि संसारकारणत्वादि जितवंतस्तस्करणकर्मनिर्मूलकत्वात् । अर्थ- सर्व तीर्थकरोंकी ऐसी आज्ञा है कि, गुरुको अपने अपराध कहकर उन्होंने दिया हुआ प्रायवित्त लेकर आत्मशुद्धि करनी चाहिये. सर्व तीर्थकर परिग्रहरूप अगाध कीचडको उध कर मुक्त होगये हैं. सर्व कंवलज्ञानी पुरुष स्वर्ग से इस भूतलपर जन्म लेकर तीन कल्याणोंके धारक हुए हैं. केवलज्ञानावरण कर्मके क्षयमे संपूर्ण विश्वका ज्ञान उनको हुआ था. चारित्रमोहनीय कर्म, मिध्यात्व और अप्रत्याख्यानादि वारा कपाय इनको अनंत संज्ञा है. इनके ऊपर जिन्होंने जय प्राप्त कर लिया ऐसे आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं का यहां अनंत जिन आथान ४ ७४५ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराना आश्थामः ७४६ यह मंज्ञा दी है. ये सर्व महामुनिगण गुरुके समीपही छचस्थकी रत्नत्रयशुद्धि प्रायश्रित्तसे होती है ऐसा कहते हैं, रत्नत्रयमें निर्मलता उत्पन्न होनेसे यह आत्मा रत्नत्रयमय होता है. इस लिये छद्मस्थाने प्रायश्चित्त धारण कर विशुद्ध होना चाहिये. यो न येत्यतिवारजातमलनिराकरणक्रम सोऽम्यस्म कथास्तु स्वग्न यत्ति स कस्मादसौ परस्मै कथयतितदुक्तं वाचरतीत्यार जह सुकुसलो बि वेज्जो अण्णस्स कहेदि आदुरो रोगं ॥ वेज्जस्स तरस सोच्चा सो वि य पडिकम्ममारभइ ॥ ५२८ ॥ कुशलोऽपि यथा वैद्यः स्वं निगचातुरो गदम् ॥ वैद्यस्य परतो ज्ञात्वा विदधाति परिक्रियाम् ॥ ५४८॥ विजयोदया-जह सुकुसलो वि बेज्जो यथा सुष्टु कुशलोऽपि वैद्यः । व्याधिनिरासे आदुरो भातुरः। अण्णास्स कदेव अन्यस्मै कथयति । रोग व्याधि । एवंभूतो मम व्याधिः, चिकित्सा कुर्विति । बेअस्स तस्स सोया तस्य वैद्यस्य श्रुत्वा वचनं । सो विय सोपि च अनारो वैद्यः । पडिक्कममारभदि प्रतिक्रियामारभते ॥ उक्तमेवार्थ दृष्टोत्तोपन्यासपुरस्सरं वयितुं गाथाद्वयमाह मूलारा-सुकुसलो वि व्याधीनां निदाने, लिंगे, चिकित्सायां पुनर्भवनिरोधे च सुतरां प्रवीणोऽपि । तस्स तस्य स्त्रव्याधि । कथं अविषयीकृतस्य । सोच्वा श्रुत्वा वाक्यमिति शेषः । सो रोगातों वैद्यः । यि य अपि च । आरभते पेत्यर्थः । पडिकम्म प्रतीकारं। जो मुनि अतिचारसे उत्पन्न हुए मलका निवारण करनका क्रम जानता नहीं है उसने दूसरोंको अपने अपराध कहना योग्य है परंतु जो अपराधोंका प्रायश्चित्त स्वयं जानता है उसको अपने दोष दुसरेको कहनेकी जरूरत नहीं है. वह क्यों दूसराको स्वापराध कहता है और क्यों उनका दिया हुआ प्रायश्चित आचरता है इस प्रश्नका उत्तर अर्थ--- जैसा अच्छा विद्वान भी वैध स्वयं बीमार पडनेपर अपने रोगका स्वरूप दुसरे बैद्यको कहता है. अर्थात मेरे रोगका स्वरूप ऐसा है और इसके ऊपर अप औषध योजना करा. रोगीचैद्यका यह भाषण सुनकर नीरोग वैद्य उसकी चिकित्सा कर औषध योजना करता है. కందిరం ७१६ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ७४७ एवं जाणतण वि पायच्छित्वावधिमप्पणी सव्वं ॥ कादच्वादपरविसोधणाए परसक्खिगा सोधी ॥ ५२९ ॥ जानतापि तथा दोषं स्वमुक्त्वा परके गुरौ ।। परिज्ञाय विधातव्या महाशद्विः पटीयसा ।। ५४९ ॥ विजयोवया-पषं जाणतेण विविजानतापि।कि पायनिछत्तविधि प्रायश्चित्तम । अपणो त्मनः । परो उत्कृष्टा विशोधना यथा स्यादित्येवमयं स्वसाक्षिका परसाक्षिका च विशुकिस्कृति मन्यते । प्राय इत्युच्यते लोकश्चिर्स तस्य मनो भवेत् ।। चित्तशुद्धिकरं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मन ।। रति वचनात् ! शुद्धिरतिचाराणां फतेति परे मानयंति । निरतिचाररत्नत्रयोऽयमिति । परेमच्या पतदुपदेशनास्माभिः प्रचर्तितव्यमिति दीकन्ते । अम्बचा तगुणातिशयामवगमनान्न तदनुयापिनो भवति ततः कथमनेन परानुग्रह कृतः स्यात् । कर्तव्यः स्वपरानुग्रहः । तथा चोक-अप्पहिय कादग्ध जर समर परहिद च कायव्वं ॥ इति । तथापि श्रेयोधिना दिजिनाशासनवत्सलेन कर्तव्य पर नियमेन हितोपदेशः' इति वैध इव । अथवा आत्मनः परस्य विशोधनार्थ परसाक्षिकं । मम शुरिष्ट्या परोऽप्ययमेव क्रम इति परसाक्षिकायां गुखी प्रयतते । अन्यथा सर्वे स्वसाक्षिकामेव कुर्युः । तथा च न शुख पति । गतानुगतिको हिप्रायेण लोकः ॥ मूलारा-आदपरबिसोधणार आत्मना परा उत्कृष्टा विशोधना सम्यक्त्वायतिचारमलक्षालना सदर्थ स्वसाक्षिका परसाक्षिका पोत्कृष्टा शुद्धिः स्यादिति हि मन्यते । प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् ।। तषिसम्राहक कर्म प्रायश्चित्तमिचीरितम् ।। इति वचनात् । अथव' आत्मानं परं च विशोधयितु परसाक्षिका विशुद्धिः कर्तव्येति व्याख्येयं । स्वसाक्षिकामेव हि शुद्धिं कुर्वन्तमाचार्य सत्कल्पं वा मुनि रष्टा परोऽपि तथैव प्रवर्तते । गतानुगतिकत्वात्प्रायेण लोकस्य । तथा च तेऽपि तथा शुध्यति स्वसाक्षिकमात्रया ।।। अर्थ- इस प्रकार प्रायश्चित्त का ज्ञान जिनको है ऐसे मुनिराजने भी अपनी विशुद्धि होनेकेलिये आत्मसाक्षीसे और परसाक्षी से प्रापचित्त लेना चाहिय. प्राय शद्वका अर्थ लोक है. और चित्तका अर्थ मन है. अर्थात् चित्तको निर्मल करनेका जो कार्य है उसको प्रायश्चित्त कहते हैं, प्रायश्चित्त लेनेपर इसने आत्मशुद्धि की है ऐसा लोक समझते हैं. ७४७ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वा ७४८ taterAANATATARATARARATARATreteTridetarnatacassalong गुरुके उपदेशके अनुमार हमको प्रवृत्ति करनी चाहिये ऐसा समझकर सुजलोक उसके पास जाते हैं. यदि गुरुके विशिष्ट गुणोंका पौरज्ञान न हो तो उसके अनुयायी कैसे होंगे, और गुरुभी परानुग्रह कैसा कर सकेगा. इसवास्ते गुरूको स्वपरानुग्रह करना चाहिय. क्यों कि 'आत्महित करना चाहिये और शक्य हो तो परहितभी करना चाहिये, इस उक्ति में यद्यपि आत्महितकी मुख्यता दिखाई है तोभी 'श्रयोर्थिना हि जिनशासनवत्सलन कर्तव्य एच नियेमन हितोपदेशः' अर्थात जिसको मोक्षकी इच्छा है, जो जिनधर्म पर प्रेम रखता है उसको हितोपदेश करना अवश्य कर्तव्य है. जैसे वैद्य रोगीको ओषध देकर उसको नीरोग करता है. उसका नीरोग करना जैसा कर्तव्य है वैसा गुरुओंका परहितके लिये उपदेश देना कर्तव्य है. .. अथवा अपनी और दुसरोंकी आत्मशुद्धि करनेके लिये परसाक्षिक ही आत्मशुद्धि करनी योग्य है. क्यों कि मेरी शुद्धि देखकर दूसरेमी आत्मशुद्धिका क्रम ऐसा ही है ऐसा समझकर परसाक्षिक शुद्धि करनेके लिये प्रयत्न करेंगे अन्यथा सर्व लोक स्वसाक्षिसेही शुद्धि करेंगे. ऐसे करनेसे वे शुद्ध नहीं होंगे, लोकप्रायः मतानुतिक होते है. यस्मात्परसाक्षिका शुद्धिः प्रधाना- . तम्हा पव्यज्जादी दंसणणाणचरणादिचारो जो ॥ तं सव्वं आलोचेहि गिरवसेसं पणिहिदप्पा ॥ ५३० ॥ सतः सम्यक्त्वचारित्रज्ञानदूषणमादितः।। एकाग्रमानसः सर्व स्वमालोचय यत्नतः ॥ ५५० ॥ विजयोदया-तम्हा तस्मानप्रवज्यादिकं । देसणणाणचरणादिचारो जो दर्शनशानचरणातिबारो यः । ते सञ्चसर्य प्रतिचारं आलोचे हि कथय । पणिहिदप्या प्रपिहितचित्तो भूत्वा । निरपसेर्स सर्वमित्यनेनेवायगतत्वात् निरवशे पमिन्यात किमर्थ इति चेत । शानदर्शनचत्रिविषाणामतिमाराणा कतिपयानां मामयेऽगि सशस्य प्रसिर रतीति निरचापग्रह प्रत्यक नातिचारान् ग्रहीतमुपभ्यस्तमिप्ति तन दोगः ॥ मूलारा -- पव्यजादी दीक्षा ग्रहण दिनात्प्रभृति । शिरयसेसं सूक्ष्मस्थूलभेदप्रभेद महितम् । परसाक्षिक शुद्धि ही मुख्य है अतः तूं आलोचना कर ऐसा अभिप्राय आगकी गाथा कहती हैअर्थ- इस लिये दीक्षाकालसे आजतक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनमें जो जो अतिचार Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MORE महाराभरा मावासः - लगे होंगे उन सबका और दर्शनादिकके प्रत्यक अतिचारोंका हे क्षपक !तू एकाग्र चित्त कर कथन कर. । शंका ... गाथामें 'सर्व, शब्द है उससेही सर्व अतिचारोंका कथन करनेका आशय स्पष्ट होजाता है. 'निरवशेष, यह गाथामें दुसरा शब्द है वह व्यर्थ दिखता है. उत्तर-ज्ञानादिकॉमें किसी एकके सर्व अतिचार इस अर्थमेंमी सर्व शब्दकी प्रवृत्ति देखी जाती है, इस लिय' निरवशेष' शब्द ज्ञानदर्शनादिकोंके प्रत्येक अतिचारोंका ग्रहण करनेके लिये माथामें आचार्य महाराजने जोड दिया है ऐसा समझना. कथं निरवशेषालोचना कृता भवतीत्यारकायामाह काइयवाइयमाणसियसेवणा दुप्पओगसभूया ॥ जई अस्थि अदाचार आलोचेहि गिरसे। ५३१ ॥ विद्यते यतीचारोमनोधाकायसंभवः ।। आलोचय तदा सर्व निःशल्यीभूतमानसः ॥ ५५१ ।। विजयोदया-काइयवाह्यमाणसियसवणा कायेन, पाचा, मनसा च प्रवृत्ति प्रतिसेवना । दुप्पभोगसंभूया दुप्रयोगसंभूतां । तं नां । आलोहि कथय । जिससे निःशेषजह अत्यि अदीचारो यद्यस्स्थतिचारः। मूलारा--काइन इत्यादि कायिक कार्य भवं । पाइय वाचि भवं । माणसिय मनसि भवं यत्सेवनं पिंडादेपयोगस्तस्य दुष्प्रयोगो अशुभानुष्टानगुत्सूत्राचरणं इत्यस्तस्मात्संभूद संजातः । सेवणमित्यत्र पादपूरणेऽनुस्वारः । संभूदमित्यत्रार्थत्याल्टिंगव्यत्यय तथा चोक्तं कायिकवाचिकमानस सेवादुष्प्रयोगसंभत्तो - यद्यस्ति तेऽतिचारो निरवयर्ष निगद तं गुरखे ॥ भगवतो निकटे निःशेषमालोचय यास्ति तेऽतिचारः। कायादिना पिडादीनुत्सुत्रमुपयुंजानस्य योऽतिचारः संपन्नस्तं प्रकाशयेति तात्पर्यार्थः।। निरवशेष आलोचना कैसी की जाती है ? इस शंकाका उत्तर ७४९ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ-अशुभपरिणाम उत्पन्न होनेसे शरीरसे, पचनसे और मनसे जो जो दोष तेरे द्वारा किये गये हैं उनका गुरूके पास तु संपूर्ण कथन कर. आवासः ७५० अमुगंमि इदो काले देसे अमुगत्थ अमुगभावेण ॥ जं जह णिसेविदं तं जेण य सह सव्वमालोचे ॥ ५३२ ।। कालेऽमुकत्र देशे पा जातो भावनयानया ॥ दोषो ममेति विज्ञाय स्वमालोच्य सर्वथा ।। ५५२॥ विजयोदया-चरणं कमाचरणं । यो अस्मादिनादतिकांते 1 अमुगम्मि काले अमुकस्मिन्काले । देशे अमु. मिन्देशे। अमुगभावेण अमुकभावेन अनेन भायेन । जंयत् । जधा मिसेविवं यथा निषेवितं । जेण य स येन च सद्द । तं सम्पमालोचे तत्सर्व कचयेद्देशकालभेदात् । परिणामभेदात, सहायभेदात् च दोषाणां गुरुलघुभाषः। गुरुलघुभावानुसारेण पालधु वा दी। कदया कालेदेशपरिणामसहायभेदाद्दोषाणां गुरुलघुभावः स्वात्तदनुसारि र प्रायश्चित्तभिति यो यदा यत्र येन यथा जातोऽतिबारसं तथैवालोचयेदुत्कष्टशुद्धिकाम इत्यालोचनाविभ्यनुशासनार्थमाह-- मलारा --अमुगम्गि अमुकास्मन् । विप्रकृष्टमत्यर्छ । इदो इतोऽगात्सभीपप्रत्यक्षादिना प्राक् । काले शीतोशवलक्षणे। पूर्वाब्दादिरूपे वा । देसे भूम्यैकदेशे, जांगलादी पुरवनादौ वा । अमुगभावेण अमुकेन क्रोधादीनामन्यतमेन परिणामेन । अमुकेन सहानेनेत्युपस्कारः जिसेविदं निषिद्धमनुष्ठितं । ते त्वया । तं सम्यक्त्वाचविचारं । समालोचे संपूर्णमालोचय । उक्त-- कालेऽमुकत्र देशे या जातो भावनयानया ॥ दोषो ममेति विज्ञाय त्वमालोचन सर्वथा ।। अर्थ-अमुक कालमें, अमुक देशम, अमुक परिणामसे जो दोष जैसा किया होगा और जिसके साथ किया होगा उसका संपूर्णतया कथन करना चाहिये. देशकालभेदसे, परिणामभेदसे और साहायभेदसे दो Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनाराधना आभासः बदापन और छोटापन उत्पन्न होता है. और उसके अनुसार ही छोटा अथवा बडा प्रायश्चित दिया जाता है. अथवा परिणामों में तीव्रता वा मंदता होगी तो उसके अनुसार छोटा या बटा प्रायश्चित्त आचार्य देते हैं. शिक्षयत्यालोचनाक्रम सूरि: आलोयणा हु दुविहा ओघेण य होदि पदविभागीय ॥ ओघेण मूलपत्सम्स पयविभागी य इदररस ॥ ५३३ ॥ आलोचना द्विधा साधोरौधी पदविभागिका ।। मथमा मृलयातस्य परस्य गदिता परा ।। ५५३ ।। विजयोदया-आलोयणा खुदुविदा होदि द्विप्रकारवालोचना भवति । ओयेण पदविभागीय सामान्येन विशेषेपा ची पचो हि सामान्य विशेष चावलान्य प्रवर्तते । कस्य सामान्येन आलोचना कस्य वा विशेषेणेत्यत पाहओघेण मूलपत्तस्स सामान्पालोचना मूलाग्यं प्रायश्चित्तं प्राप्तस्थ । पबिभागी विशेषालोचना । दरस्स मूलमप्राप्तस्य । वसा सामान्यविशेषालंबनत्वेन प्रवृत्तिदर्शनादोषी पादायभागी चेति द्विविधवालोचनेति नियम्य तत्स्वामिनी सिदिशाते। मूलारा-ओघेण सामान्येन एकचारेण या सामान्य लोचनेत्यर्थः । पादाभागी पादानां सम्यक्त्वाद्यपराधाचा विभागे देशकालादिभेदे भया पादविभागी विशेषालोचनेत्यर्थः । मूलं मूलाख्यं प्रायश्चित्तं ॥ आचार्य आलोचनाका क्रम दिखाते हैं--- अर्थ--आलोचनाके दोही प्रकार हैं, एक ओघालोचना और दूसरी पदविभागी आलोचना. अथात सामान्यालोचना और विशपालोचना ऐसे इनके औरभी दो नाम है. वनन सामान्य और विशेष इन दो धर्माका आश्रय लेकर प्रवृत्त होता है, अतः आलोचनाके उपयुक्त दो भेद हैं, सामान्यालोचना और विशेषालो वनाका स्वरूप इस प्रकार है-जो मूल नामक प्रायश्चित्तकेलिय योग्य है अधात जिसकी पूर्व दीक्षा महापराधसे नष्ट हो गई है उसको पुनः दीक्षा देना यह मूल प्रायश्चिनका अर्थ है. इस प्रायश्चित्तके लिये योग्य मुनि दाषाकी सामान्यालोचना करता है. और जो प्रायश्चित्तको छोड कर के बाकीफे प्रायश्चित्तके योग्य है वह पदविभागी आलोचना करे. Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा मूलाराधना सामान्यालोचनास्वरूपं कथयनि ओघेणालोचेदि है अपरिमिदनराधसबघादी चा ।। बाजीपाए इषं सामगणमहं तु तुच्छोति ॥ ५३६ ।। आचिन भायमल्दोपा वासघातकः ।। इतः प्रभृति वांछामि त्वत्तोऽहं संयम गुरो।।। ५५५ ।। गिजयोदया-भोघणालोदि हु सामान्येन कथयति । कोऽपरिमिव्यराधो सवधादो या बहको अपराधा यस्य मिश्या प्रतभंगो था । परसाक्षिका शुद्धीमायाशल्यं निरस्तं भवति । मानकमायो निर्मूलितो भवति । गुरुजन पूजितो भाति । मनामनंया खुर्गप्रख्यापनाच कृता भवति । अज्जोपाए अद्योपाये अद्यप्रभृतिः । इच्छं सामया इछानि श्रामण्य । अहं तु तुच्छोक्ति अह स्वल्पको रत्नत्रयेणेति इयं सामाभ्यालोचना । सामान्यालोचनास्वरूपं च बकुमाह मूलारा - अपरिमिदवराध बहुदोषः । सवाघादी सर्वेषां सम्यक्त्वत्रतादीनां घातो विनाशोऽस्यास्तीति । अज्जोपाये अनामभृति । इकला इच्छामि प्रतिपदाहम । खु यस्मात् । तुच्छो अहे स्वल्पको रत्नत्रयेण । ति इत्येषमालोचयतीति योयम् ।। सामान्य आलोचनाका स्वरूप कहते हैं अर्थ--जिसने अपरिमित अपराध किये हैं अथवा जिसके रत्नत्रयका-सर्व व्रताका नाश हुआ है वह मुनि सामान्यरीतीसे अपराधका निवेदन करता है. जो मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ अथवा जिसके व्रत नष्ट हुए हो वह सामान्यालोचना करता है. परसाक्षिसे शुद्धि कर लेनेसे मायाशल्यका, नाश होता है. मानकायका निर्मूलन होता है. प्रायश्चित्त लेनेस गुरूजनोंका आदर होता है. अर्थात् उनकी आज्ञाका पालन होता है. उनके आधीन रहकर व्रताचरण करनेसे मार्गक्री प्रसिद्धि होती है. आजसे मैं पुनः मुनि होनेकी इच्छा करता हूं. मैं तुच्छ हूँ अर्थात् मैं रत्नत्रयसे आप लोगोंमे छोटा हूं ऐसा कहना सामान्यालोचना है, शिशपालोचनामा एव्यजादी सव्वं कमेण जे जत्थ जेण भात्रेण ॥ पडित विद तहा तं आलोचिंतो पदविभागी ॥ ५३५ ॥ ७५२ - - T Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वास: KuratArARATARA अपराधोऽस्ति यः कश्चिज्जातो यत्र यथा यदा ॥ धृते पदविभागीं तां सूरी तत्र तथा तवा ।। ५५५ ॥ विजयोदया-पयजादी सत्यं प्रयस्यादिकं सर्व । कमेण जे जन्थ जेण भावेण क्रमेण यात्र कालत्रये या देश येन भायेन प्रतिमवितं । नहा तं नया नत् । गालोचिनो निरूपयनिति । यदि पदविभागी विशेषालोचना भवति शल्यानिराकरणे दो शल्यापाये च गुणं इमांतेन दर्शयति । पादाविभागीं लक्षयति--- मूलारा-जत्थ यस्मिन्देशे काले च । पडिसेविदं संव्यवहृतं । आलोयसो पदविभागीमालोचयम्माधु: पादविभागी विशेषालोचना स्याद्भक्तृवचनयोहे तुहेतुमद्भावेनाभेदोपचारात् ।। विशेष आलोचनाका वर्णन अर्थ-तीन कालमें, मिटर, जिस परिजम जो दोनोपका है उस दोषकी मैं आलोचना करता हूं ऐसा कहकर जो दोष क्रमसे आचार्यके आगे क्षपक कहता है उसकी बह पदविभागी आलोचना है, जह कंटएण विदो सवंगे वेदणुदुदो होदि ॥ तमि दु' समुछिदे सो णिस्सल्लो णिबुदो होदि ॥ ५३६ । कंटकेन यथा विद्ध सर्यागब्यापिवेदना॥ जायते निवृतस्तस्मिन्नुङ्क्ते शल्यवर्जितः ॥५५६॥ विजयोदया--जह कंटरण विद्रो यथा कंटकेन विद्यः । सव्यंगे सर्पस्मिन् शरीरे । वेदणुपुको होइ वेदनयोपद्रुतो भवति । तस्यि समुठ्ठिदे तस्मिन्कटके उद्धृते । सो दुःखितः । णिस्सल्लो निःशल्यो शल्येन रहितः । णिज्युदो निर्वृतो। 6. होवि भवतीति सुखी भवतीति यावत् ॥ शल्यानुद्धरणोद्भरणयोदगिगुणी हातमुखेन स्पष्ट्रयितुं गाथाद्वयमाहमूलारा - वदणुबुदो पीडीपटुतः । अनुदो सुखी । शल्यका निराकरण न करनेमें दोष और शल्यके नष्ट होने से गुण प्राप्त होता है यह दृष्टांतसे स्पष्ट आप शता १५ तस सट करते हैं-- %EO ७५३ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः अर्थ-- जैसे जिसको काटा चुभ गया है वह दाखसे विह्वल होता है, उसके सर्व शरीर में वेदना होती है, परंतु जब कांटा शरीरसे निकाल जाता है तब वह मनुष्य सुखी होता है. दान्तिकयोजना-- एवमगुडुददोसो माइलो तेण दुक्खिदो होइ ॥ सो चेव वंददोसो सुविसुद्धो णिवुदो होइ ।। ५३७ ॥ दुःश्वव्याकुतिस्वान्तसापा शायन शाल्यात निःशल्यो जायते यः स लभते निवृति पराम्॥५५७।। विजयोदया-पवं कंटकेन षिद्ध इस अणुददोसो अनुतदोषः । माइलो मायावान् । स्वापराधाकथनानुद्र' तदोषेण 1 दुखिदो होदि । छुखितो भवति । सो पेय पदयोसो स एव वातदोषः । मुविसुद्धोणिबुदो होदि । निर्वृतः भवति ॥ मूलारा-गायिलो मायायुक्तः । तेण सम्यक्त्वादिदोषेण अनुद्धतेन । दुखिदो इहपरलोके न दुःस्वार्तः । बंतदोसो परस्मै कथितापराधः । सुषिसुद्धो कृतस्वपरसाक्षिकशुद्धिकत्वात् । दार्शन्तिकमें योजना___अर्थ--- वैसे जिसने दोषरूपी कंटकको अपने मनसे निकाला नहीं है ऐसा मायावि मुनि अपने अपराधोंका कथन न करना एतत्स्वरूप दोषसे दुःखी होता है. परंतु जब सर्व दोषोंका कथन करता है तब मायाशल्य नष्ट होनेसे काटा निकल जाने के समान आत्मामें प्रसन्नता उत्पन्न होती है. मिच्छादसणसल्लं मायासलं णिदाणसल्लं च ॥ अहवा सल्लं दुविहं दव्वे भावे य बोधव्यं ॥ ५३८ ॥ मायानिदानमिथ्यात्वभेदन त्रिविध मतम् ।। अथवा द्विविध शल्प द्रव्यभावात्मकं मतम् ॥५५८॥ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आश्वास विजयोध्या-मिच्छादसणसलं मिथ्यादर्शनशल्यं । भायासलं माशशल्यं । णिदाणसलं निदानशल्यं च। अधा सलं दुविइं अथवा शल्यं द्विप्रकारं । दब्वे मवि य दध्यशल्यं भावशल्यमिति । बोचव्वं दोब्यम् ।। शल्यभेदनिर्णयार्थमा-- मूलास-मिच्छादसण सल्लं मिथ्यावर्शन , शल्यभिष शरीरांत:प्रविष्टकांडादिवत् बाधानुबंधनिबंधनत्वान् । एवमुत्तरयोरप्युपमार्थी वाच्यः । णिहाणसल्लं सम्यक्त्वत्रतादिमाहात्म्याद्राज्यादिक में भूयादिति संकल्पः । दचे द्रव्याश्रयं । अर्थ--मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य और निदानशल्य ऐसे शल्यके तीन दोष हैं, अथवा द्रव्यशल्य और भावशल्प ऐसे शल्यके दो भेद समझने चाहिये, तिविहं तु भावसल्लं दसणणाणे चरित्तजोगे य ।। सचित्ते य अचिचे य मिस्सगे वा विदन्यम्मि ॥ ५३९ ॥ भावशल्यं त्रिशा तत्र ज्ञानादित्रयगोचरम् ॥ द्रव्यशल्यमपि त्रेधा सचित्ताचित्तमिश्रकम् ।। ५५९॥ विजयोदया-तिविहं तु त्रिविधं यय 1 भावसलं परिणामशल्यं । वसणणाण चरित्तजोगे य दर्शने, मानेचारिप्रयोगे वा । दर्शनस्य शल्यं शंकादि । कानस्य शवयं अकाले पठन अविनयादिकं च । चारित्रस्य शल्यं समिति, गुप्तयोरजादरः । योगस्य तपसः प्रागुक्तानशनातिचारजातं । असंयमपरिणमनं वा । तपसश्चारित्रे अन्तर्भावधिवक्षया तिविमित्युक्तम् । दध्यम्मि मल शिविहीदव्ये शल्यं त्रिविधं । सबिसे अचिसे मिस्सगे य सचित्तद्रव्यशल्यं दासादि । अचित्तद्रव्यशल्य सुवर्णादि । मिस्सग या चिमिचद्रव्यशल्यं प्रामादि पतन्त्रिविध दृश्यशल्यमित्युच्यते । चारित्राचारस्य शल्यस्य कारणत्वात् ॥ उभयमपि शल्यं प्रविवक्षुराह मूलारा-भावसह सम्यक्त्वाचतिचारलक्षणपरिणामशल्यं दंसणे इत्यादि । दर्शनस्य शस्य शंकादिकं । ज्ञानस्याकालपउनादिक । चारित्रस्य समितिगुप्त्यनादरः । योगस्य तपसः भागुक्तानशनाद्यलिचारजातमसंयमपरिणमन या । तपसश्चारित्रेऽन्तर्भावविवक्षया तिबिमित्युक्तं । सचित्तद्रव्यशल्वं दासादि । अचित्ते अचित्तद्रव्यशल्यं सुवर्णादि । मिस्सगे मिश्रद्रव्यशल्यं ग्रामादि । ७५५ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा ७५६ अर्थ-भावशल्यके तीन भेद है. दर्शन, ज्ञान, चारित्र और योग इनमें ये भावशल्य उत्पन्न होते हैं. १ शका, काक्षादिक सम्यग्दर्शनके शल्य है. २ अकालमें पदना और अविनयादिक करना ज्ञानके शल्य हैं. ३ समिति और गुप्तिओमें अनादर रहना चारित्रशल्य हैं. ५ योग-तप-अनशनादि नपोंके अतिचारोंका पूर्वमें वर्णन आया है. असंयममें प्रवृत्ति होना योगशल्य है. तपश्चरणका चारित्रमें अन्तर्भाव करनेकी विवक्षासे भावशल्यके तीन भेद कहे है द्रव्याल्य भी तीन प्रकारका है, सचित्तशल्प, अचित्तशल्य और मिश्रशल्य. दासादिक सचिन द्रव्य शल्य है. सुवर्ण वगैरह पदार्थ अचिर शत्य है, और प्रामादिक मिश्रशल्य है ये सब चारित्राचारके शल्यके कारण है. भावशल्यानुद्धरणे दोगमाह एगमवि भावसल्लं अणुद्धरित्ताण जो कुणइ कालं ॥ लज्जाए गारवेण य ण सो हु आराधओ होदि ॥ ५४०।। अनुद्धते प्रमादेन भावशल्ये शरीरिणः ।। लभंते दारुणं दुःखं द्रव्यशल्यमिवानिशम् ।। ५६० ॥ भावशल्यमनुद्धत्य ये नियन्ते विमोहिनः ।। भयप्रभादलज्जाभिः कस्याप्याराधका न ते ॥ ५६१ ॥ दुःसहा वेदनकत्र द्रव्यशल्ये भावशल्ये पुनः सास्ति अन्तोजन्मनि जन्मनि ॥ ५६२॥ बिजयोदया--पगमवि एकमपि भाषानां रत्नत्रयाणां शश्यं । यतिवारं । अणुवरित्ताण अनुत्य । जो कुणदि कालं यः करोति मरणं । कस्मानोद्धरति । लज्जार लज्जया! गारषेण य गारवेण वा। सो ण स्टुआराधगो होदि । स माराधको नैव भवति 1 निरतिचारता हितेषां यतीनां माराधना ॥ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृताराधना आश्वासः ७५७ एकगपि भावशल्ययनुजा नियमागम्य दोगमाह मूलारा-मावसलं भावानां सम्यक्त्वादोनों शल्यमतिवारं । अणु रित्ता, अनुन्मूल्य गुरुक्तप्रायश्चित्तेनानिराकृत्येत्यर्थः । गारवेग य च शब्दाद्भवेन च । भावशल्यका उद्धार न करनमें दोप दिखाते हैं अर्थ-जो क्षषक लज्जासे गारवसे रत्नत्रयमें लगे हुए अतिचारोंको दर नहीं करता हुआ मरण करता है. वह आराधक नहीं होता है. जाते अपराधे तदानीमेव कधित न कालक्षपः कार्य इति शिक्षयति कल्ले परे व परदो काहं दसणचरित्तसोधित्ति ॥ इस संकरासदीगा गयं पि कालं ण याणति ॥ ५४१ ॥ चारित्रं शोधयिष्यामि काले श्वः......वहम् ॥ शेमुषीमिति कुर्वाणा गतं कालं न जानते ।। ५६३ ।। विजयोदया-कले श्वाप्रभृतिके काले । करिष्यामि दसणचरितसोचित्ति दर्शनशानवारित्रादिमिति । हर संकप्पमदीगा एवं कृतसंकल्पमतयः गर्दपि कालं ण जाणंति । गतमतिक्रांतमपि आयुःकालं नैव जाति । ततः सशल्यं मरणं तेषां भवति । अत पाको उम्पपणगुप्तगणा मापा अणुपुत्रसी मिहतध्वा । इति व्याधयः, कर्माणि, शत्रवदनोपेक्षितानि परमूलानि पुनने सुग्वेन बिनाश्यते । अथवा अतिचारकालं गतं चिरातिकान्तं नैव जानंति । ये हि अतिचाराः प्रतिदिन जातास्तरां कालं, संध्यां गतिदिन इत्यादि पवादालोचनाकाले गुरुगा पास्तावन्न वक्तुं जानन्ति विम्युनत्वाचिगनीतम्य । अभागनं वनीचारकालं नस्यातिचारस्य अपिशब्देन क्षेत्रभावी यातिचारस्य हेतु न जानंति न गर्गन्त । मामान्यवारयपि न जाननि । इट स्मृतिशानागोचर इनि कांबिद्यारूपानं ॥ सम्यक्त्वादेमपनो दोपस्तत्क्षणादेव संशोध्य इनि शिक्षार्थमाह - मूलारा--कल्ले श्वः । परे एकदिनांतरितागामि दिने । काहं करिष्याम्यई । इय संकप्पम दीया एवं चिंतागतचुद्धयः गयंपीत्यादि अतिकोतमायायुः कालं न बुध्यने । ततः सशल्यास्ते नियन्ते । अत एवोक्त उप्पणा उत्पन्नमाया अणु अपुष सो मिहंतव्वा । अथवा गर्ने चिरातिकांत काल संध्यारात्रिदिनादिकं अतिचारसमयं । अपि शब्दातमेवभाव च Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वामा ७५८ न जानति ग स्मरंत्यालोचनाकाले गुरुगा पृष्टाः संत इति व्याख्येयम् । अन्ये तु गर्न प्राप्तमतीचारं न स्मरंति नरकाल. अत्रमावाश्चेनि याचक्षत || __आराधनामें-रत्नत्रयमें अपराध-अतिचार होनेपर उसी क्षपामें उनका गुरुके चरण समीप कथन करना चाहिये, कालक्षेप करना योग्य नहीं है, ऐसा उपदेश आचार्य कहते है अर्थ- कल परसों अथवा तरसों मैं दर्शन, झान और चारित्रकी शुद्धि करूंगा ऐसा जिन्होंने अपने मनमें संकल्प किया है ऐसे मुनि अपना आयुष्य कितना नष्ट हुआ यह जानते नहीं है. अर्थात् उनका शल्यसहित मरण होता है. इसी वास्ते मायाशल्य मनमें जब उत्पन्न होता है उसी समय उसको हृदयसे निकालना चाहिये, ऐसा आचार्य कहते है. रोग, शत्रु और कर्म इनकी उपेक्षा करनेसे ये दृढमूल होते हैं. पुन: उनका नाश सुखसे कर नहीं सकते. अथवा जो अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत होचुके हैं उनका स्मरण होता नहीं है. जो अतिचार हुए हैं उनके संपादन रात्रि इत्यादिक रूप कालेका स्मरण गुरूके पूछने पर शिष्योंको होना नहीं है. वे अमुक कालमें मेरे द्वारा यह अतिचार हुआ ऐसा कह नहीं सकते, क्योंकि अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो गये हैं. जैसे कालका स्मरण होता नहीं है जैसे क्षेत्र, भाव और अतिचार के कारण इनकाभी स्मरण होता नहीं, वे अतिचार स्मृतिज्ञानके अगोचर होते हैं. अर्थात् हमसे कोनसे अतिचार हुए पहभी उनके ध्यानमें नहीं रहता है. ऐसा कोई आचार्य इस गाथाका व्याख्यान करते हैं, सशस्यमरणे को दोष इत्याशंकायामाचले रागद्दोसाभिहदा ससल्लमरणं मरंति जे मूढा ॥ ते दुवसल्लबहुले भमति संसारकांतार ।। ५४२ ॥ रागद्वेषादिभिर्भमा ये नियन्ते सशस्यका॥ दुःखशल्याकुले भीमे भवारण्ये भ्रमन्ति ले ॥५६४ ॥ विजयोदया-रागोसामिना रागद्वेषाभ्यामभिहताः । ससल्लमरण मरति मियते । जे मूढा ये मूढास्ते संसारकांतारे भमंति ते संसाराटा भ्रमति । कीरशि? दुक्खसल्लबहुले दुःखानि शल्टा बत् दुद्धरत्वाच्छल्य इत्युच्यते। दुस्खाल्यसंकुले। ७५८ Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ७५९ सशल्यमरणे दोषमाह - मूलारा -- दुक्ख सल्लबहुले दुःखानि शल्यानीव दुरुद्धरत्यात्तानि प्रचुराणि यत्र कांतारे कंटकाव्याम् || अतिचारकी शुद्धि किये बिना मरण करनेमें क्या दोष हैं ? इस शंकाका आचार्य उत्तर देते हैं अर्थ - राग और द्वेषसे जो क्षपक पराजित होकर दोषोंकी आलोचना किये बिनाही मरण करते हैं. दुःख रूपी शल्योंसे भरे हुए इस संसार में भ्रमण करते हैं, जैसे शरीर में घुसा हुआ शल्य दुर्धर होता है जैसा राग द्वेष संयुक्त होकर जीव भी दुर्धर दुःखको हम भव में भोगते हैं. अतिचारोंकी आलोचना न करने का यह फल है. शक्योद्धरणे गुणं व्याचषे तिविह पि भावसल्लं समुद्धरिताण जो कुणदि कालं ॥ पव्वज्जादी सच्यं स होइ आराधओ मरणे ॥ ५४३ ॥ उद्देश्य कुर्वते कालं भावशल्यं त्रिघापि ये ॥ आराधनां पते ते कल्याणवितारिणी ॥ ५६५ ।। विजयोत्रया-तिहिषि विविधमपि । भावसलं भावशल्यं । समुद्भरिताण समुद्धृत्य जो कुणदि कालं या करलं करोति । कीटग्भूतं ? पञ्चशादी ज्यादिकं । सच्यं सर्वे । म दोदि स भवति । आराधओ आराधको दर्शनादीनां । मरणे भवप्रच्यये ॥ उद्धृतशल्यस्य मरणे गुणं गृणाति- मूलारा -- समुद्धरिक्षाण समुध्वत्य ॥ जो शल्यका उद्धार करता है उसको आराधना सिद्ध होती हैं ऐसा कथन - अर्थ - तीन प्रकारके भावशल्योंका स्वरूप ऊपर कहा है. इन शल्योंको हृदयसे निकालकर - अतिचारांकी आलोचना करके प्रायश्चित द्वारा जो अपने आत्माको निर्मल बनाकर मरण करते हैं उनकी आराधनाओंकी सिद्धि होती है, आमरण उन्होने दीक्षा लेकर व्रतादिकों का पालन किया था वह सब आराधनाओंकी प्राप्तिसे सफल होता हैं. आवास ४ ७५९ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना ७६० जे गारवेहि रहिदा णिस्सल्ला दसणे चरिचे य॥ बिहरति मुत्संगा खवंति ते सव्वदुक्खाणि ॥ ५१४ ॥ सम्यक्त्ववृत्तनिःशल्या दरोत्सारितगौरवाः ।। विहरति विसंगा ये कर्म सर्व धुनंति से॥५६६ ॥ विज्ञयोदया-जे गारहि रहिदा ये गैरवैविरहिताः । णिस्मल्ला सणे चरित्त य निःशस्याः संतो दर्शने चरिंध न । हिरति प्रवत मुनगा गिरस्तम्बर । सघदुतागि खति ते सपाणि दुःखानि झापन्ति । नि:शस्यतया रत्नत्रय प्रयनेमानानां गुणमाह - मूलारा-मुत्तसंगा निरस्तमूर्छाः ॥ अथ-मादिगारव, रसगारव और मानगारख ऐसे तीन मारवोंसे रहित होकर सम्बग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र में जो निरतिचार होकर प्रवनि करते हैं, संपूर्ण परिग्रहके त्यागी होनेसे वे सर्व दुःखोंका नाश करते हैं. तं एवं जाणतो महंतयं लाभयं सुविहिदाणं । दसणचरितमुदो पिस्सल्लो विहर तो धीर ॥ ५४५ ॥ इति ज्ञात्वा महालाभं निःशसमीभूतचतसा। शुद्धादर्शनचरित्रो विहरस्वापशल्पकः ।। ६६७ ।। विजयोन्या-तं भवान् । एकमुक्तप्रकारे जाणतो जानन् । महंतगं महानं लाभ सुविहिदाणं सुसंस्तानां दंसाणचरितसुद्धो दर्शने चारित्रे च शुद्धि तयोः शुद्धि शानदर्शनशुद्धिमंतरेण न भवतीति त्रयागां शुद्धिमता । गिस्तल्लो. शल्यरहितः सन । विद्दर नर । तो तस्माजीर धैर्योपेत ।। रत्नत्रयनिर्मलीकरणे स्वार्थातिशयलाभप्रकाशनेन प्ररोचनामुत्पाद्य तत्र क्षपकं प्रेरयन्नाह-- भूलारा-- निनवचनं प्रसिद्ध । एवं एतेनास्पदुक्तेन विधिमा । सुविहिदाण निरतिचाररत्नत्रयाणां । दसणचरितमुद्धि एनश्शुद्धि विना न भवति रत्नत्रयशुद्धिः । शिस्मल्लो दोभानणात्प्रभृति को यो निष्क्रान्तः । विहर आचर। तं त्वं । प्रागनुचितं रत्नत्रयं शोधयित्वा इन उरारं शुद्ध त्वमनुतिष्ठेत्यर्थः ॥ Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराषना अश्विास ७६१ अर्थ-अतिचाररहित होकर रनवयमें प्रवृत्ति करनेसे उत्तम मुनिओंको महान लाभ होता है अर्थात उनके सर्व दुःखोंका क्षय होता है ऐसा जानकर ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी शुद्धि कर तथा निःशल्य होकर हे क्षपक ! तुम घीरतासे इनमें प्रवृत्ति करो. तम्हा सतूलमूलं अविछूटमविप्पुदं अणुब्विग्गो ॥ णिम्मोहियमणिगूढं सम्म आलोचए सव्वं ॥ ५४६ ॥ सम्यगालोचयेत्सर्वमनुद्विग्नमविस्मृतम् ।। आनिर्गढमानमोहं निर्मूलमपगौरवम् ।। ५६८।। विजयोदया-तम्हा तस्मात् यस्मात्सल्यमरणे दोषः। निःशल्यमरणे च सकलनिवृत्तिः दुःखकारणानां कर्म णामभावः । तम्हा तस्मात् । सम्मं सव्वमालोचे सम्यक सर्वमतिचारं कथयत् । दुःखनिवृत्यर्थ इति । कथमालोचयेदि त्याशंकायामालोचनाविशेषणमा सहरमूलं तूलमृलाभ्यां सहितं । सव्वं निग्यशेषं । अवि अविस्मृतं । भविष्युदं अद्भुतं । अणुविरगो निर्मयः । णिम्मोहिद गोहरदिनं । अणिगूद अनिगूढ ॥ कथं नि:शल्या भवमिति प्रश्ने सत्याह मुहाग- नि:शल्येतरसर नगुणदीप गादत्र । समूलनूलं दीक्षादिवसादारभ्यायवाचन पवृत्तम निचार जाने । क्रममुचनाभि । अन्ये सतलगलं इति पठित्या समरनावयवयुक्तमित्यर्थमाहुः । अविथूल अनधिकं । अविपुदं अब. रित। अणुबिग्गी निर्भयः सन् । णिम्मोहिदं अविस्मृत । अणिगूढ अनपलपिसं । आलोचए आलोचय, प्रकाशय स्वम् ।। अर्थ--सशल्य मरणसे भयवन में दुःख सहन करना पड़ता है. और निःशल्यमरणसे सर्व कर्मीका क्षय होता है, जिससे मुक्तिसुखकी प्राप्ति होती है. इसलिये दुःखकी निवृत्ति करने के लिये संपूर्ण अतिचार कहने चाहिये. स्मरण कर, शांतरीतीसे, निर्भय और मोहरहित होकर दोपोंको न छिपाकर कहना चाहिये, दीक्षाग्रहण कालसे आजतक जितनदोष हुए डांगे उन सबको कहना चाहिये. उसमेमे एकभी छिपाना नहीं चाहिय जह बालो जपतो कजमकजं व उज्जु भणइ ॥ तह आलोचेदव्वं मायामोसं च मोत्तूणे ॥ ५७ ॥ ७६१ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारावना भाषामा भयमानमृषामायामुक्तेन प्रांजलात्मना ।। गेगा भागात पाल्पानरनि धीमता ।। ५६९ ।। विजयोदया-जह बालो अंर्पतो यथा बालो जल्पन् । कज्जमकर्ज य कार्यमकाय वा। भणदि भणति । उजुग कामा कमेण । तह तथा । आलोचद्ध्यं वक्तव्योऽपराधः । मायामोसंच मोर्ण मनोगा चमतां, वचनगतां, मृपा च मुक्त्या ।। आलोचनोश्यतस्य तद्विधिमभिधत्ते-- मृलारा-उज्जग प्रांजलं। आलोचेदव्वं प्रकाश्य । मायां मनोजकता । मोसं वाग्वकताम् ।। अर्थ-जैसा बालक कार्य हो अथवा अकार्य हो सरल अंतःकरणासे अपने पिताको कहता है. इसीतरह क्षपककोभी अपने अतिचार मनका कपट छोडकर और वचनकी असत्यता दूर कर कहने चाहिये. उपसंहरति प्रस्तुतम् दसणणाणचरित्ते कादूणालोचणं सुपरिसृद्धं ॥ णिस्सल्लो कदसुद्धी कमेण सल्लेहणं कुणम ॥ ५४८ ॥ सम्यक्स्वज्ञानवृत्तषु विधायालोचनां यते ॥ कुरू सलेखनां सम्यकूकमेणापास्तकल्मषः ।। ५७० ॥ विजयोदया-दसणणाणचरित दर्शनक्षानचरित्रविषयां । आलोयण कादृण अपराधमभिकाय । सुपरिमृद्ध णिसल्लो माथाशल्यरहितः । कयसुद्धी कृतगुरुनिरूपितप्रायश्चित्तः । कमेण संलहणं कुणतु कामेण सल्लेखनां कुरु ॥ आलोच्य मया किंकृत्यमित्याह--- मूलारा-सुपरिसुद्धं सर्वथा त्यक्तमायं । कदलुद्धी कृतगुरुदानायश्रितः । सल्लेहा कुणमु सामना शरीर. स्वागाय योग्यता मुत्पादयत्यर्थः । प्रस्तुत विषयका उपसंहार करते हैं--- अर्थ--सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इनमें हुए अपराधोंका निवेदन मायाशत्यका पूर्ण त्याग करके | करना चाहिये, गुरूओंने दिया हुआ प्रायश्चित्त धारण करके शुद्ध होना चाहिये. तदनंतर क्रमसे सल्लेखना करनी चाहिये ७६२ . PAPATARArava Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराघना ७६३ तो सो एवं भणिओ अब्भुज्जदमरणणिच्छिदमदीओ ॥ सव्वंगजादहासो पीदीए पुलइदसरीरो ॥ ९४९ ॥ इत्युक्तं सूरिणत्कृष्ट चिकीर्षुः क्षपको मृर्ति ॥ जात सर्वांगरोमांचः प्रमोदभरविव्हलः ॥ ५७ ॥ बिजयादा एवं शिक्षितोऽसी क्षपकः । तो तनः । सो आराधकः । एवं भणिदो एवं शिक्षितः सुमि अन्भुजभरणनिचिदमदीगो अभ्युद्यते भरणे निश्चितबुद्धिः । सब्वंगजा हामी सूत्रांगजातः । पीदार पुलगिसरीरो प्रीया पुलकितशरीरः ॥ एवं शिक्षितः क्षपकः किं करोतीत्यत्र गाथाद्वयमाह - मूलारा तो ततः शिक्षानंतरं कायोत्सर्ग करोतीति संबंध: । अभुज्जद उत्साहवान् । हासो हर्षः । अर्थ - यहांतक गुरुने क्षपकको आलोचनाके विषय में उपदेश किया. यह सब उपदेश सुनकर मरणकेलिये जिसने निश्चय किया है ऐसा क्षपक मुनि अत्यंत हर्षित होता हैं और उसके शरीरपर आनंदसे रोमांच आते हैं. पाचीणोदीचिमुह चेदियहुत्तो व कुणदि एगंते ॥ आलोयणपत्तीयं काउरसग्गं अणाबाधे || ५५० ।। चैत्यस्य सम्मुखः प्राच्यामुदीच्यां वा दिशः स्थितः ॥ कायोत्सर्गस्थितो धीरो भूत्वा काग्रेऽपि निस्पृहः || ५७२ || विजयोदयाप्रमुख उदमुखः । चेदियत्तो व चैत्याभिमुखो वा भूत्या । कुर्णादि उस्सां करोति कायोत्सर्गे । कीटग्भूतं ? आलोयणपतीगं आलोचनाप्रत्ययं । आलोचनानिमित्तं । कायोत्स स्थित्वा तेषा यतः पर्यन्ते कथयितुं तस्मात्कायोत्सर्ग आलोचनाहेतुः । क तं करोति ? एगंले एकांते जनरहितदेशे । अणाबाधे मार्गे बहुजनमध्ये एकमुखेन भवति चित्तं । मार्गे स्थितः परकार्थव्याघातकृद्भषति इति मत्या | एकान्ते अमार्गे च कायोत्सर्गदेश आध्यानः ॥ मूलारा पाचोदीचिमुझे पूर्वाभिमुख उत्तराभिमुखो वा । चेहबहुतो वा चैत्याभिमुखो वा । आलोयणपत्तीयं आलोचनाप्रत्ययं । कायोत्सर्गस्थो दोषान्रतीति कायोत्सर्गं आलोचना | कासगं सामायिकदंड कस्तवयोगपूर्वक वृद्धिभक्त बोपविश्य घुसिद्धभक्ति करोतीति प्राकृटीकारनाथ: । अणावाचे क्लेशसंक्लेशकारणरहिते || माश्वासः 9 1021 Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना ७६४ अर्थ - पूर्वदिशा अथवा उत्तर दिशाकं तरफ मुख करके किंवा जिनप्रतिमाके सम्मुख अपना मुख करके आलोचना के लिये प्रथम क्षपक कायोत्सर्ग करना है. कायोत्सर्ग कर कहने के लिये दोपोंका स्मरण किया जाता है. अतः कायोत्सर्ग आलोचनाका कारण है. यह कायोत्सर्ग विधि क्षपक एकान्त में और अमार्गमें करता है. अर्थात् जहाँ जन नहीं है ऐसे स्थान में और जो आने जानेका मार्ग नहीं है ऐसे स्थान में क्षपक कायोत्सर्ग करता है. बहुजनमें कायोत्सर्ग करनेसे मन एकाग्र होता नहीं और मार्गमें कायोत्सर्ग करनेसे दूसरोंके कार्य में अडचन उपस्थित होती है, इसलिये एकान्तमें और अमार्ग में कायोत्सर्ग करना चाहिये ऐसा विधि कहा है. कायोत्सर्गे किमर्थं करोति आलोचयितुकामः इत्याशंकरया कार्यात्सर्गस्य उपयोगमा-एवं खु वोसरिता देहे वि उवेदि निम्ममत्तं सो ॥ निम्ममदा णिस्तंगो रिसल्लो जाइ एयतं ॥ ५५१ ॥ मुक्तशल्य ममत्वोऽसावकत्वं प्रतिपद्यते ॥ शल्यमुत्पादयिष्यामि पादमुले गणेशिनः ॥ ५७३ ॥ विजयोदया एवं इत्यादिना। गवमित्यनंतर सूत्र निर्विक्रमेण । प्राङ्मुख उदङ्मुखश्चैत्याभिमुखो या एकांते मार्गे | वोसरिता त्यक्त्वा किं ? न हि त्याज्यमंतरेण त्यागो युज्यते । देहमिति चेत् देहे वि उवेदि णिश्ममत्तं सो इति न घटते निर्ममतैव ननु त्यागः । भिन्नयोः पूर्वापरकालविषययोः क्रिययोर्यत्र एकः कर्ता तत्र पूर्वकालक्रियावचनात् क्या विधीयते । अत्रोच्यते वचसा त्यागः वोसरिता इत्यनेन उच्यते। मनसा ममायंन भवति देढ इति त्याग पश्चात्तन्यते । तेन यः करणभेदात्यागो भिद्यते । मिम्ममा पिसंगो निर्ममतया निस्संगो निष्परिग्रहः । णिस्सलो निःपरिग्रहत्यादेव निःशल्यः । एकसं जादि भावनां प्रतिपद्यते ॥ कायोत्सर्गस्यालोचनाप्रत्ययस्व समर्थनाय गाथाद्वयमाह - मूलारा एवं पाचीगो इत्याद्युक्तविधिना ! खु यस्मात् । बोसरिता कार्य व्युत्सृजामीति वचनेन त्यक्त्या । निम्मतं अयं देो मम भवतीति मनसा त्यज तं । णिम्ममदा णिस्सगो निर्भमतया निःसंगो बाह्य व्यतरपरिग्रहरहितो अत एव निःशल्यः । आलोचनापरिणतोऽहमिदानीं संपन इति न मे सम्यक्त्वादिषु दोषः कश्चिदप्यस्तीति दोषकारावे व ४ ७६४ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्चासः मलाराधना शनिर्मुकः । एयन एकत्नं अहमेकोऽमहायो नित्यो वा । देहोऽयं मत्तोऽन्यो दुःखहेतुत्वाच ममानुपकारी निरतिचाररत्नत्रयमेघाहमतो देहनाशेन मे न किंचिनश्यति मम शुद्धचिदुपस्येयमशुद्धिरिति मायां च न स्पृशेयमिति एकत्वभावनामयो भयतोत्यथः अर्थ-पूर्व गाथामें कहे हुए अभिप्रायके अनुसार पूर्व, उत्तर अथवा चैत्येक तरफ मुख करके मैं शरीरका त्याग करताईऐसा प्रथम वचनोचार करके तदनंतर 'यह देह मेरा है, ऐसी भावनाका मनसे त्याग करना चाहिये. इस वास्ते शरीरत्यागके वचनकृत और मनःकृत ऐसे दो भेद होते हैं. देहके उपर ममत्वरहित होनेसे वह क्षपक निष्परिग्रह है. और निष्परिग्रह होनेसेही वह निःशल्य भी है. अतः कायोत्सर्गके समय में अकेलाही हूं यह शरीर मेरा नहीं ऐसी एकत्वभावना उसको उत्पन्न होती है. तो एयत्तमुबगदो सरेदि सव्वे कदे सगे दोसे ॥ आयरियादमूट उप्पाडिस्सामि सल्लति ॥ ५५२ ॥ इत्यकत्वगतः कृत्स्नं दोषं स्मरति यत्नतः ।। इत्थं समाजलीभूय सर्व संस्मृत्य दूषणं ॥ ५७४ ।। विजयोदया-पगसमुवगदो पकत्यभावनामुपगतः । निरतिचारशानदर्शनचारित्राण्यवाहं । शरीरमिदमन्यदनु पकारि मम दुःस्त्रनिमित्तत्याम् । तद्विनाशे मम किं चिनश्यति । कशयितव्योऽयमरातिरिति मन्यमानः प्रायश्चित्तापरणे न. खिद्यते । मायां च कर्मोदयनिमित्त हार्नु ईहतो मम शुद्धरुपस्येयमशुद्धिरिति । तो ततः । सरेदि स्मरति । सध्ये सपा । कदे कृतानां । संग म्पकानां । दोस दोषाणां । किमर्थ स्मरति । आपरियपातमूले आचार्यपादमूले । उपा. डिम्यामि पाटयिप्यामि । सहनि दर्शनातिचामिनि ।। मूदाग-दो तन् । कायोसीनिकगो क्रमप्रवृत्तं । कदे कृतान । किमर्थ तान्भरतीत्याह-आयरियपादमले त्यादि ॥ अर्थ-जब क्षपक एकत्यभावनामय होता है तब मैं अतिचाररहित ज्ञान, दर्शन और चारित्रमय है, यह शरीर मेरेसे भिन्न है, यह उपकारन करने वाला और दुःख केलिये कारण है. उसके नाशसे मेरा कुछ बिगडता नहीं है, Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा यह शत्रु है इस लिये इसको कुश करना चाहिये. ऐसे विचार उसके हृदय में उत्पन्न होते हैं, ऐसे विचार उत्पन्न होनेसे वह क्षपक प्रायश्चित्तका आचरण करते समय खिन्न होता नहीं. कर्मके उदयसे उत्पन्न हुई मायाको वह त्याग देता है यह माया मेरे शुद्ध स्वरूपमें अशुद्धता उत्पन्न करनेवाली है ऐसा मनमें समझता है. और आचार्यके चरणसन्निध दर्शनादिकके अतिचारोंका नाश करूंगा ऐसा विचार कर पूर्वमें किये हुए सर्व दोपोंको स्मरता है. मान्दा विनरोति पानामा इय उजुभावमुपगदो सव्वे दोसे सरित्तु तिक्खुत्तो ॥ लेस्साहिं विसुझंतो उवेदि सल्लं समुदरिदु ॥ ५५३ ।। एति शल्यं निराकर्तुं सर्व संस्मृत्य दूषणम् ॥ आलोचनादिकं कर्तुं युज्यते शुद्धचेतसः।। ५७५ ।। विजयोदया-उजुभाय उचगदो इय एवं ऋजुभा उपगतः । सच्चे दोस सर्वेषां दोघाणां । तिपखुत्तो सरिनु निःस्मृत्वा । लेस्साहि विसुज्छतो लेश्याभिविशुद्धीभीवशुद्धयन् । उयदिः द्वौफने मात्राय: सर्व शल्प । समुग्दुि सम्यगुद्धनं ॥ स्मरणानंतर किं करोतीत्यत्राहमूलारा-सरिसु स्मृत्वा । तिक्खुत्तो बीन्वारान् । आचार्यमुपसर्पति ।। दोपोंका स्मरण कर अनंवर कोनसा कार्य क्षपक करता है। इस प्रश्नका उत्सर-- अर्थ---इस तरहसे सरलपना धारण कर तथा सब दोषोंका त्रिवार स्मरण करके लेश्याओंसे विशुद्ध होताहुआ अतिचारोंका उद्धार करने के लिये आचार्य के पास क्षपक जाता है। werest आलोयणादिया पुण होइ पसत्ये य सुद्धभावस्म || पुचण्हे अवरण्हे ब सोमतिहिरक्खबलाए ॥ ५५४ ॥ आलोचनादिकं तस्य संभवेच्छदभावतः ।। अपराहेऽथ पूर्वाण्हे शुभलग्रादिके दिने ॥ ५७६ ॥ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ७६७ विजयोदया-आलोचनादिको आलोचनप्रतिक्रमणादिकाः क्रियाः । अथवा आलोयणं आलोचना । दिया विबसे । पुण पश्चात् । दोह भवति । व प्रशस्त क्षेत्र । मनेन क्षेत्रशुद्धिरुक्ता । विसुद्धभावस्त विशुद्धिपरिणामस्य भाविनेन कथिता | पुरुषच्छे पूर्वष । अपरण् य अपराडे या सोमतिहिरनवेला सौम्ये दिने, नक्षत्रे, वेलायां च । आलोचनादिक्रिया क्षेत्रादिशुद्वावेव कार्येत्यनुशास्ति - मूलारा —— आलोयणाविया आलोचनप्रतिक्रमणादिक्रियाः । अन्ये दिया दिया न रात्रौ इति व्याख्यांत । तच्च नियमार्थमेव । पुष इत्यनेनैव रात्रिनिषेधस्य सामर्थ्यात् । पत्थे शुभे देशे । अर्थ – विशुद्ध परिणामवाले इस क्षपककी आलोचना, प्रतिक्रमणादिक क्रियाएं दिनमें और प्रशस्त स्थान में अर्थात् शुद्ध स्थान में होती है दिवसके पूर्व भाग में अथवा उत्तर भागमें सौम्यतिथि, शुभनक्षत्र, जिस दिनमें रहते हैं उस दिन में होती हैं. आलोचना करने के लिये परिणामोंकी विशुद्धता के साथ क्षेत्रशुद्धि, शुभदिन, शुभतिथि और मनक्षत्र इनकी भी आवश्यकता रहती है ऐसा इस गाथासे व्यक्त होता है. पवमादिषु प्रशस्तेषु देशेषु आलोचनां न प्रतीच्छेत् इति आचार्यशिक्षा परवचनं पित्तकंटलं विज्जुहृदं सुक्खरुक्कड़द । सुण्णघररुहदेउलपत्थररासिट्टियापुंजं ॥ ५५५ ॥ निःपन्नः कटुकः शुष्कपादपः कंटकाचितः ॥ विच्छायः पतितः शीर्णो दवदग्धस्तद्धितः ॥ ५७७ ॥ विजयोइया-पि सकंटथिल्लं निष्पत्रं कंटकाकुलं । विज्जुददं अदामिनाहृतं । सुखरुपकड शुष्कवृक्ष, कदुकरसं दग्धं । सुग्घररुदरेल शून्यं गृहं रुद्रदेवकुलं, पाणणराशि, इप्रका | आलोचनाद्ययोग्य क्षेत्रं गायात्रयेणोपदिशति मूलारा - णिपन्त निष्पत्रं उद्वृक्षयुक्तं स्थानं । एवं कंटइले इत्याद्यपि व्याख्येयं । बिज्जुइदं अशनिपातोपद्रुतं । कटुकटुकर । दानादिप्लुष्टं । इहियापुंज इष्टकानिचये । अप्रशस्त देशमें आलोचना करना योग्य नहीं है ऐसा आचार्यका शिक्षापर वचन दिखाते हैंअर्थ- जो क्षेत्र पतोंसे रहित है, कांटोंसे भरा हुआ है, बिजली गिरनेसे जहां जमीन फट गई है, जहां ४ ७६७ Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना ७६८ शुष्क वृक्ष है, जिसमें कटुसके वृक्ष भरे हैं, जो जल गया है. ऐसे स्थानोंमें दोषोंकी आलोचना करना योग्य नहीं. शून्य घर, रुद्रका मंदिर, पत्थरोंका ढेर और ईटोंका ढेर है ऐसा स्थानमी आलोचनाके लिये अयोग्य हैं. तणपत्तकारि असुर सुसाणं च भग्गपडिदं वा ॥ रुद्राणं सुद्दाणं अधिउत्ताणं च द्वाणाणि ॥ ५५६ ॥ क्षुद्राणामपसत्वानां देवतानां निकेतनम् || तृण पापाणऋष्यास्थिपत्रपांस्वादिसंचयाः ॥ १७८ ॥ शून्यवेश्मर जो भस्मवर्चः प्रभृतिदूषिता ॥ रुद्रदेवकुलं त्याज्यं निंद्यमन्यदपीदृशम् ।। ५७९ ।। विजयोद्रया - aणपसकछार असुसुखाणं च तृणवत्पत्रवत्काष्ठवत् यत्स्थानं । अशुचिसुसा वा अशुचिमशानं वा । भन्नानि पतितानि वा भाजनानि गृहाणि वा यस्मिन् स्थाने पतितं । अधिउताणं व उणाणि देवतानां स्थानानि । कीडशीनां ? रुहाणं रौद्राणां । त्राणां स्वरूपकानां ॥ मूलारा -- छारियं भस्मधूल्यादियुक्तं । अनुचि अमेध्यादियुक्तं । सुसा प्रमशानं । भग्गपडिदं भनपतित भाजनगृहादियुक्तं । रुद्राणं रौद्राणां चामुंडादीनां । खुदा क्षुद्राणां स्वरूपकानां । अस्वलानामित्यर्थः । अधिउत्तानं देवतानां अन्ये अधिउत्ताणं इति लोकेन आत्मात्मस्थाने स्थापितध्यंतरदेवानामित्ये माडुः । अर्थ – जिसस्थानमें तृण, सूके पान, और काठके पुंज है. जहां भस्म पढा है, ऐसे स्थानभी आलोचना के लिये वर्ज्य है. अपवित्र श्मशान, तथा फुटे हुए पात्र, अथवा गिरा हुआ घर जहां है वह स्थान भी वर्ज्य है. रुद्रदेवतायें और क्षुद्रदेवतायें इनकेभी स्थान वर्ज्य समझने चाहिये. अण्णं व एवमादी य अप्पसत्थं हवेज्ज ज ठाणं || आलोचणं ण पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्वत्थं ॥ ५५७ ॥ आश्वासः ม ७६८ Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगाराधना आश्वासः ७६१ चिकारपिषतां शुद्धां साधुमालोचनां स्फुटम् ।। सुरीणां सर्वथा स्थानमसमाधानकारणम् ।। ५८० ।। विजयोदया--प्रगणं व अन्यहा स्थानं जमादिक । थप्पसत्यं अप्रशस्तं । हबेज्ज भवन् । जेठार्ण ग्रस्थानं । तम्य तस्मिन्याने । आलोयणंण पदिदि आलोचनां न प्रतीच्छति । गणी गणधरः । किमर्थ । से तस्य क्षपकस्य । अवि. घय अविघ्नाथ । एतेष्यालोचनाय तस्यां प्रारब्धकार्यसिदिन भवतीति मत्वा । मूलारा-पडिकल दि शगोति । अधिग्वयं आरब्धकार्य निर्विघ्नसिद्धयर्थ । अर्थ- ऊपरके स्थान जैसे वर्ण्य है वसे अन्यभी जो अयोग्य स्थान हैं उसमेंभी क्षपककी आलोचना आचार्य सुनते नहीं. ऐसे स्थानों में आलोचना करनसे क्षपकी कार्यसिद्धि नहीं होगी ऐन मालसामी कालेचना आचार्य ग्रहण नहीं करते हैं, कतई आलोननां प्रतीतीन्यवाह अरहंतसिहसागरपदमसरं खीर पुष्फफलभरियं । उज्जाणभवणतोरणपासादं णागजस्वधरं ।। ५५८ ।। जिनेंद्रयश्नागादिमंदिरं चारुतोरणम् ॥ सरः स्वच्छपयःपूर्ण पद्मिनीषंडमंडितम् ।। ५८१ ।। पादपैसन्नतः सेव्यं सर्वसत्वोपकारिभिः ।। आरामे मंदिरे नः सज्जनैरिव भूषिते ।। ५८२ ।। समुद्रनिम्नगादीनां तीरमक्षमनोहरम् ॥ सच्छायं सरसं वृक्षं पवित्रफलपल्लवम् ।। ५८३ ।। विजयोत्या--अरइंतसिद्धसागरपउमस अईद्भिः सिदैव साहचर्यास्थानं अईसिदशब्दास्यामिह गृहीतं । अहसिद्धप्रतिमासाहचर्याद्वा । सागरानिलशी स्थानं सामधासागरादिशदेनोच्यते । खीरपुफ्फफलभरिदं झीरपुष्प फलभरिततरुसामीप्यात् स्थानं क्षीरपुष्पफलमरितमित्युच्यते । उजाणभवणतोरणपासाद उद्यानभवनं, तोरणं, प्रासादः । णागजक्वधरं । नागानां यक्षाणां च गृई। Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावनां ७५० क तहिं सूरिः क्षपकरयालोचनां प्रतीच्छति इति पृच्छायां गाथायमाह - मूलारा - अरहंत अप्रावित्रीसहित प्रतिभास्थानं । सिद्ध प्रातिहार्बरद्दितप्रतिमास्थानं | सागर समुद्र समीपप्रदेशः । पत्रमसर पद्माकरजलाश समीपं खीरपुष्कफलभरिदं क्षीरवृक्षैवंटभूताशोकादिभिः पुष्पितैः फलितेष वृक्षैराकीर्णो यो देश स्वत्प्रत्यासन्नस्थानं उज्जाणभवगृहं सपदि ॥ किस प्रदेश में क्षपककी आलोचनाका आचार्य स्वीकार करते हैं? इस प्रश्नका उत्तर अर्थ - - अर्हन्तका मंदिर, सिद्धोंका मंदिर, अर्हत् और सिद्धांकी जहां प्रतिमा है ऐसे पर्वतादिक. समुद्रके समीपका प्रदेश, जहां क्षीरवृक्ष हैं, जहां पुष्प और फलोंसे लदे हुए वृक्ष हैं ऐसे स्थान, उद्यान, तोरणद्वारसहित मकान, नागदेवताका मंदिर, यक्षमंदिर ये सब स्थान क्षपककी आलोचना सुननेके योग्य हैं. अणं च एवमादिय सुपसत्थं हवइ जे ठाणं ॥ आलोयणं पडिच्छदि तत्थ गणी से अविग्घत्थं ॥ ५५९ ॥ शस्तमन्यदपि स्थानमुपेत्य गणनायकः || आलोचनामसंक्लेशां क्षपकस्य प्रतीच्छति ॥ ५८४ ॥ मूलारा स्पष् अर्थ - और भी अन्य प्रशस्त स्थान आलोचनाके लिये योग्य हैं. ऐसे प्रशस्त स्थानों में क्षपकका कार्य निर्विघ्न सिद्ध हो इस हेतु आचार्य बैठ कर आलोचना सुनते हैं. सूरिग्वंस्थित्वा मालोचनां प्रतिगृातीति कथयति पाचोदीचिमुह आयदणमुहो व सुहणिसण्णो हु ॥ आलोयणं पडिच्छदिएको एकस्स विरहम्मि || ५६० || जिनाश्रया विशः प्राच्या कौर्या वा स सन्मुखं ॥ शृणोत्यालोचनां सूरिरेकस्यैको निषण्णवान् ॥ ५८५ ।। अवासः ४ ७७० Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास विजयोदया-पाचीणोदीचिमुद्दो अायदणमुद्दो व मायमुखः, उदङ्मुखः । आयतनशप्दः स्थानसामान्यवचनोऽपि जिनमतिमा स्थानवाच्यन्त्र गृहीतस्तेन जिनायतनाभिमुखो घा । सुहणिसणणो हु सुखनासीनः । आलोयणं आलोचना । पडिन्छदि शृणोति । एकी एक एव सरिरकस्यैवालोचनां । विरहम्मि पकान्ते । तिमिरापसारणपरस्य धर्मरश्मे कदयविगिति उदयार्थी तद्वदम्मकार्याभ्युदयो यथा स्यादिति लोकः प्राहगुमो भवति । सूरेस्तु कोऽभिप्रायो येन प्रा. मुखो भवति । प्रारब्धपरानुग्रहणकार्यसि रंग तद्दिगभिमुखता तिथिवारादिवदिति । उदमुखता तु स्वयंप्रभादितीर्थकृतो विवेहस्थान चेतसि हत्या तवभिमुखतया कार्यसिद्धिरिति । चैत्याभिमुखताऽपि शमपरिणामसया कार्यसिद्धरंग। निव्यांकुलमासीनस्थ यत् श्रवणं तदालोचयितुः सम्माननं । यथा कथंचिच्वण मयि अनादरो गुरोरिति नोक्सादः परस्य स्यात् । एफ एय पृणुयाम्मरिलरजापरोपहुना मध्ये नास्मदोषं प्रकरयितुमीहते 1 विसखेवश्चास्य भवति, तथा कथयतः एकस्वालोचनां शृणुयात् । दुरवधारवायुगपदनकेषवनसंवर्भस्य । तदोषनिग्रहं नायं बराका प्रतीच्छति । त्यनेनेच गतवाहिरहम्मि इति वचनं मिरर्थकं । यद्यस्येपिसत्र म्युर्म एकेमय श्रुतं स्यात् । न लज्जत्ययमस्य अपराघश्चास्य अभावमा खेति नान्यस्य सकाशे शृणुयात् इति । एतत्सूच्यते विरहम्मि एकान्ते आचार्यशिक्षेति ॥ सुप्रशस्तस्थाने कीटग्भूत्वा सूरिरालोचना प्रतिगृहातीत्यत्राह-- मूलारा--आयदणमुहो आपत्तनशब्दः स्थानसामान्यवचनोऽपि इह जिनप्रतिमास्थानार्थो गृहीतः । तेन जिना यतनाभिमुख इति व्याख्येयं । सुहाणिसण्णो निाकुलमासीनेनालोचनायाः श्रवणमालोचयितुः सम्माननमन्यथा मय्यनादरो गुरोरित्येष नोत्सहेत । एको बहूनां हि मध्ये लज्जापरो न स्वदोष बत्तमीहते चित्तवेदशास्य स्यात् । एकरस दुरबधारत्वायुगपदनेकालोचकपचनसंदर्भस्य । तु शब्दोवधारणार्थोऽत्र योज्य: । विरहम्मि एकान्ते ! प्रच्छनोऽवमतो बाड लोचितार्थ मा भैसीदित्येवमर्थमिदम् । उक्तं च--- पूर्वोदीच्योर्जिनाचीम्या येनासोनो निराकुलः ॥ शृणोत्यालोचनामक एकस्यैव रहो गतः ।। आचार्य इस प्रकार बैठकर आलोचना सुनते हैं इस बातको स्पष्ट करते हैं... अर्थ- पूर्वाभिमुख, उत्तरदिशाभिमुख अथवा जिनमंदिराभिमुख होकर सुखसे बैठकर आचार्थ आलोचना सुनते हैं. एकान्तस्थान में एकही आचार्य एकक्षपककीही आलोचना सुनता है. अंधकारका नाश करनेवाले सूर्यका पूर्वदिशामें उदय होता है अतः पूर्व दिशा प्रशस्त है. सूर्यके उदयके समान हमारे कार्य में भी दिन प्रतिदिन उमति होवे ऐसी इच्छा करने वाले लोक पूर्वदिशाके तरफ अपना मुख करके अपना इष्ट कार्य करते हैं. क्षपकके ऊपर अनुग्रह । Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाना २ करने का कार्य मैंने हाथमें लिया है. उसकी मिद्धिके लिये यह दिशा कारणभूत हैं ऐसा समझकर ने पूर्वाभिमुख बैठते हैं. विदेहक्षेत्र में स्वप्रमादि तीर्थकर होगये हैं. विदेहक्षेत्र उत्तरदिशाकं तरफ हैं. अतः उन नीर्थंकरोंको हृदयमें धारण कर उस दिशाके तरफ आचार्य अपना मुख कार्यसिद्धिके लिये करते हैं. चैत्यके तरफ मुख करने से परिणाम शुभ होंगे जो कि कार्यसिद्धिके निमित्त है इस विचार से वे चैत्याभिमुख बैठते हैं. निर्व्याकुल बैठकर गुरु आलोचना सुनते हैं. इस प्रकारसे सुननेसे आलोचना करनेवालेका सम्मान होता है. इधर उधर लक्ष देकर सुननेसे गुरुका मेरे संबंध में अनादरभाव है ऐसी आलोचककी समझ होगी जिसमें दोष कहने में उसका उत्साह नष्ट होगा. एक ही आचार्य एकके दोष सुने, यदि बहुत गुरु सुननेके लिये बैठेंगे तो आलोचना करनेवाला श्रपक लज्जित होकर अपने दोष कहनेके लिये तयार होने पर भी उसके मन में खेद उत्पन्न होगा. अतः एक ही आचार्य एककी ही आलोचना सुने. एक कालमें एक आचार्य अनेक क्षपकों की आलोचना सुनने की इच्छा न करें. क्यों कि अनेकांका वचन ध्यान में रखना थडा कठिन कार्य है. इसलिये उनके दोष सुनकर योग्य प्रायश्चित्त नहीं दे सकेगा. इतने विवेचन से हि एकान्त में गुरुके बिना अन्य कोई नहीं होगा ऐसे समय में आलोचना सुननी चाहिये और करनी चाहिये ऐसा सिद्ध होता है. अतः 'विरहम्मि' यह पद व्यर्थ है. इसका उत्तर ऐसा है यदि वहां अन्य भी होंगे तो आलोचकके दोष बाहर फुटनेका संभव है. एक गुरु यदि होंगे तो उस स्थान में पच्छन्नरतिीसे दुसरे का प्रवेश होना योग्य नहीं है. यह सूचित करनेके लिये आचार्य ने 'विरहम' ऐसा पद दिया है. शिष्यस्य आलोचनाक्रममाच काऊ व किरयम्मं पडिलेहणमंजलीकरणसुद्धो || आदि सुविहिदो सव्त्रे दोसे पमोत्तू ।। ५६१ ॥ कृत्वा त्रिशुद्धिं प्रतिलिख्य सूरिं प्रणम्य मूर्धस्थितपाणिपद्मः ॥ आलोचनामेष करोति मुक्त्वा दोषानशेषानपत्यदोषः ।। ५८६ ।। इति आलोचना. आश्वास ७७९ Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - - - Pos मूगारापना आवास विजयोदया-काऊण यम्भ कृतिकर्मी सत्या. पडिलहणजेलीकरणसुद्धो प्रतिलेखनासहितः प्रांजलीकरपाशुद्धः । आलोएदि कथयति | सुत्रिहिदो सुचारित्रः । सव्वदोसे पूर्वदोषान् । पमोत्तूण त्यक्त्वा । आलोचना ॥ गबमाचारजालीयनामाइसका शिक्षवित्रा शिघ्यस्गालोचनाकममुपदिशति - मलार'-..विश्यमा पदनां । प्रभभारा । मा चावनियोगभनिभ्यो दलिया। श्रीचंद्राचा वस्तु सिद्धनामिनिभक्तिभिरला गया। परिजनी दक्षिगया पिढेन सह ललादतरपयुक्तकरदः। करणसुद्धो मनोवाक्कापशुद्धियुक्तः । आलोचना सूत्रतः २३ । अंकन: १० ॥ शिष्यक आलोचनाका क्रम कहते हैं। अर्थ-प्रथम वंदना करके हाथमे पिचिठका लेकर अजलि करना चाहिये, आलोचनाके जो दोष आगममें कहे हैं उनका त्याग कर सर्व दोपोंका आचार्य महाराजके पास कथन करना चाहिंय. सिद्धभक्ति व योगभाक्ति पढकर वंदना करनी चाहिये एसे वृद्ध आनार्य कहते हैं. परंतु श्रीचंद्राचार्य सिद्धभक्ति, चारित्रभक्ति तथा शांतिभक्ति पडकर वंदना करनी चाहिये ऐसा कहते हैं. आलोचनाक्रम निरूप्प गुदोसा इत्येनद्वयाख्यानायोत्तरप्रबंधः आकंपिय अणुमाणिय जं दिट्ट बादरं च सुहुमं च ॥ छष्ण सदाउलयं बहुजण अव्वत्त तस्सेवी ।। ५६२ ॥ अनुकंप्यानुमान्य हि यदृष्टं स्थूलमन्यथा ॥ छत्रं शब्दाकुलं भूरि सूर्यव्यक्तं च तत्सम || ५८७ ।। विजयोदया - आकंपिय अनुकंपामात्मनि संपाय आलोचना । अणुमाजिय गुरोरमिप्रायमुपायेन ज्ञात्वालोचना । जं दिलं यद् दृशं दोपज्ञात परैस्नयालोचना: वादरं च यत्स्थूलमतिचारजातं तस्यालोचना । सुर्मं च यत्सूक्ष्ममतिचारजातं तम्पालोचना । इण अहणालोचना ! सदाउलयं शम्दा भाकुला यस्पो आलोचनायां सा शब्दाकुलर । यहुजनगदः सामान्यविषयोऽपीत गुरुकनबाहुल्ये पर्नते । गुरोरालोचनायाः प्रस्तुतत्वादहनां गुरूणां आलोचना क्रियते सा पहुजनशदनोच्यत । अध्यत्ता थव्यत्तस्य क्रियमाणा आलोचना । तस्सेवी तानात्मवरितान्दोवान्यः सेवते स तत्सवी तस्य पालोचना । द सूत्र अस्य व्याख्यानायोत्तरप्रबंधः।। ७७३ Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागवना आश्वासा अथैवमालोचनाक्रगं निरूप्यालोयनागुणदोपनिरूपणार्धं सप्तप्रिं गायाः कथयनि -तत्रादी तावदापदि हो । दोषान्दश दिशति तद्विपर्य यरूपत्वादुगानाम्--- मूलारा-आकपिय अनुकंपामात्मनि संपाद्यालोचना । सुदुमं सूक्ष्मस्य दोपस्यालोचना । दि; यष्ट दोषजार्स परैस्तस्यालोचना । बादरं यत्स्थूलमतिचारजातं तस्यालोचना । छ प्रच्छन्नं पृष्टा आलोपना ॥ आलोचनाका क्रम यहां तक आचार्य महाराजने कहा है. आगे 'गुण दोसा, इस प्रकरणका सविस्तर वर्णन करते हैं अर्थ--अपने विषयमें गुरूके मनमें दया उत्पन्न कर आलोचना करना यह आर्कपित दोष है. अनुमानित-गुरुके अभिप्राय उपायसे जानकर आलोचना करना. यदृष्ट---जो अपराध दूसरोंने देखे हैं उनकी ही आलोचना करना. चादर-स्थूल अतिचारकि समूहकाही कथन करना. छोटे अपराध छिपाना. सूक्ष्मसूक्ष्म अतिचार कहकर बडे दोष छिपाना. छम न देखे हुए दोषोंकी आलोचना करना. शब्दाकुलित-जिस आलोचनामें शब्द आकुलित है ऐसी आलोचना का नाम शब्दाकुलितालोचना है. अर्थात् पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक आलोचनाके समय रहुत यविगण मिलकर आलोचना करते हैं, तब उनके ध्वनिओम अपना ध्वनि भी मिलाकर दोषोंकी आलोचना करना. बहुजन---बहुजन शब्द सामान्य जनका वाचक होने पर भी प्रस्तुत प्रकरणमें गुरुजनोंके समुदायमें रूद्ध हुआ है. बहुन गुरु मिलकर जो आलोचना करते हैं उसको बहुजनालोचना कहते हैं. अन्यक्त दोष- जो अज्ञानी है ऐसे मुनिको अपने दोप कहना. तत्संबी-जो दोष स्वतः किये है ऐस ही दोष जिसके द्वारा होनुके है अर्थात जिसने अपने दोषाके समान दोष किये है उसको अपने अपराध कहना. ऐसे आलोचनांक दस दोप है. इन दोषोंका आचार्य विस्तारस वर्णन करते हैं. आकपिय इत्येतत्सूधपदं ड्याचरे.... मत्तेण व पाणेण व उवकरणेण किरियकम्मकरणेण ।। अणुकंपेऊण गणिं करेइ आलोयणं कोइ ॥ ५६३ ॥ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः सूरि भक्तन पानेन मदानेनोपकारिणा ॥ विनयेनानुकम्प्य स्वं दोषं यदति कथन || ५८८ ।। विजयोदया-भत्तण व पाणेण व स्वयं भिक्षालम्धिसमन्वितत्वान्प्रवर्तको भूत्वा आचार्यस्य पालन उद्मादिदोषरहितेन भक्तन वा पानेन चा यावृत्यं कृत्वा, उपकरणेण कमंडलुपिन्छादिना । फिदिकम्मकरणन कृतिकर्मचंदनया वा। थाकंपेण अनुकंपामुत्पाद्य । गणि प्राचार्य । कोदालोयणं फार कधिम्यापमर्थ कथयति । आकपिय इत्येतत्सूत्रपई गाधापंचकेन व्याचक्षाण: पू] Airf गाथायना: मूला-आप मा स्थान मिळालदिनसमन्धितत्वात्मवत को गत्वा निगमसिंपादन- धंदन या या गणि-- मात्मनि सकरुणं कृत्वा । प्रथमतः आकंपित दोषका स्वरूप कहते है-- अर्थ - स्वतः भिक्षालब्धिसे युक्त होनेसे आचार्य की प्रासुक और उद्गमादिदोषोंसे रहित आहारपानी के द्वारा वैयावृत्य करना, पिली कमलु वगैरे उपकरण देना, कृतिकर्म वंदना करना इत्यादि प्रकारसे गुरूके मन में दया उत्पन्न करके कोई अपने अपगध कहता है, तस्थालोचयतो मनोव्यापार दर्शयप्ति -- आलोइदं असेसं होहिदि काहिदि अणुग्गहमिमोत्ति । इय आलोचंतस्स हु पढमो आलोयणादोसो ॥ ५६४ ॥ आलोचितं मया सर्व भविष्यत्पेष मे गुणं ॥ करिष्यतीति मन्तव्यं पूर्व आलोचनामलः ॥ ५८९ ॥ विजयोदया --आलोहदं असेसं होहिदि निरवशेष लोचित भविष्यति । काहिदि करियति । अणु-गह मो. त्ति: अनुग्रह अयमिति । भक्तादिवानेन कृतोपकारस्य मम तुझो गुरुन महत्मायश्चित्तं प्रयच्छति । अपि तु स्वल्पमेव । नतो महापायधिसदानभयास्थूलं सक्ष्मं वानिचारं सत्र कथयामीति । इय पर्व आलोनेतस्प यु एवं मनास कचा आलोचयतः । पढमो प्रथमः पालोयणा दोसो आलोचनादोपः । कोऽसो अधिनयो महम यत्किचिलवा गुरवस्तुप्परित लघुमान यश्चित्तदायिनो भविष्यतीति स्वबुद्धया असद्दोपाध्यारोपणान्मानसोधिनयः । अन्य तु ययक्ति आलोचना च दोप आलोचनादोषः । अशुभाभिसंधिपुरःसरा आलोचना दुपात्मालोचनादोर इति यावत् ।। DEMAN :- MS Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार मनागपना | नाम्यालोचयतो गनोग्यापार दर्शयनि-- मूलारा--होहिदि अशे अस्यावजितचित्तस्य गुरोर भविष्यति स्थूल सूक्ष्म पातिचारजासं मया । । गझसो वृहत्प्रायश्रितं मे दास्यति कि नाई ? काहिदि अणुग्गमिमोति करिष्यत्ययमुपकारमिति | आलोचिंतस्स हु पढमो आकंपनामकः । दोषत्वं चास्य गुरोरविनयप्रवर्तनात् । यत्किचिल्लम्मा गुरवस्तुष्पा लघुप्रायश्चित्तदायिनो भविष्यति इति स्व बुया अमरोषाध्यारोपणानि मानसो विनयः । आलोचना करते समय उसकी मनःप्रवृत्ति कैसी रहती है इसका वर्णन - अर्थ - आहारादिकों के दान तुष्ट किये गुरु मेरेको महान् प्रायश्चित्त न देंगे. छोटासा प्रायश्चित्त देंगेअतः स्थुल सक्षम सब दोष में गुरुको कहूंगा. इस विचारसे कोई यति अपने दोष कहते हैं. और इस प्रकार सर्व दोपोंकी आलोचना होगी ऐसा मनमें समझते हैं. यह आलोचनाका प्रथम दोष है. इस दोपमें अविनय घुसा हुआ है. उसका विवेचन इस प्रकार-- जो कुछ भी मिलनसे गुरु संतुष्ट होकर छोटासा प्रायश्चित देंगे ऐसा अपने मनमें विचार कर उनपर असदोषका आरोपण करना यह मानसिक अविनय है. अर्थात गुरु लोभी होनेसे उपकरणादि पदार्थ मिलनेसे खुष होजाते हैं ऐसे दोषका आरोपण करना. अशुभपरिणामसहित यह आलोचना की जाती है इस वास्ते यह आलोचना सदोष है ऐसा कोई आचार्य इस आलोचनाके विषयमें कहते हैं केण विमं पुरिमो पिएज्ज जह कोइ जीविदच्छीओ ॥ मणतो हिंदमहि तधिमा सल्लुरणसोधी ।। ५६५ ।। कथित् कीत्या विषं भुक्त नरो मत्वाहित हितं ॥ जीवितार्थी यथा मूर्खस्तथेयं शुद्धिरिष्यते ।। ५९० ॥ विजयोदया-केदुण विसं पुरिमो इत्यादिना । जह कोद पारसो जीविदच्छी विसं फेदूण पिवेज इतिसंबंधः । यथा कात्पुरुषो जीवितार्थी विष कीत्वा पिति । अद्दिदं अदितं कृत्वा । विषपानं हि मण्णतो हितमिति मन्य मानः । तधिमा तथा इयं सल्लुद्धरणशोधी मायाशल्योद्धरणशुद्धिः । सामान्यवचनोऽपि शल्यशदोऽना मायाशल्ये वृत्तः । Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Medalsar मूलाराधना आश्वास ASTERTAle ७७७ S तस्य उद्धरण नाम स्वकृतापराधकथनं । मालोचनाशयोचरणमेव शुद्धिरुध्यते । शानदर्शनचारित्रतपसां नैर्मत्यहेतुत्वा. त्, जीवितार्थिनः हितबुद्धया गृहीता अहिता । शीतविषपान उपमानं तद्वतीयमालोचना, भक्तपानादिवानन संबनया था कीचा गुळं म्यघुया क्रियमाणान शुद्धिं संपादयति विषपानमिम जीषितं विक्रयणलब्धं पानं तुष्टता उपभानोपमेययोः माधारणो यस्तथान्युपमानमुपमेयं नयोश्च साधारण धर्ममाश्रित्य सर्वत्रापमानोपमेयता । चंद्रमुखी कन्या इत्यादी मंद उपमान. जगम मुख नता सर्व जामनगमता नसाधारणी धर्मः ।। शांतनुखेन गुवनुकपनापुर्व कालोचनाया दुष्टतामाचष्टे - मुन्टारा-केदूग क्रीत्वा । जीविक्षाधीभो जीविता: । अहिदे प्राणापहारित्वादपकारक । तधिमा तथा इयं । भक्ताापचार पूविका । सल्लुद्धरणसोधी शलास्य भायाख्यस्योद्धरणं स्वकृत्तापराधकथनं आलोचना । तदेव सोधी शुद्धा रत्नभये नगल्यहेतुत्वान् । धनेन क्रीस्था पीतं विषं जीवितमिव भक्तादिना गुरुमनुकंच कृतालोचना शुद्धिं न करोतीति दृष्टान्तार्थः । इयमालोचना विषबदुष्टेति तात्पर्यम् । अर्थ-जीने की इच्छा करनेवाला कोई पुरुष अहितकर विषको खरीद कर हितकर समझकर. पीता है. उमर ममान ही यह मायाशल्य उद्धार करनेवाली शुद्धि समझनी चाहिये. आलोचनाके दोष मनसे नष्ट करना है। शुद्र हैं. अथान् अपने किये हुए अपराध निष्कपट भावसे गुरुके समीप कहना ही शल्योद्धरण शुद्धि है। इस शुद्धिस ही ज्ञान, दर्शन और नारित्र निर्मल होते हैं. परंतु यह आलोचना जीवितार्थी मनुष्यने हितकर समझकर किये हुये विषपानके समान है. विषपान उपमान है. और यह आलोचना उपभव है. आहारादि पदार्थ गुरुको देकर अथवा बंदना करके गुरुको मानो खरीद लिया है एसी मनमें कल्पना कर यह आलोचना की जाती है अतः यह दुष्ट है. इस उपमान और उपमेयमें साधारणधर्म दुष्टता है. उपमान और उपमेय और साधारण धर्मका आश्रय लेकर उपमान उपमेयता दिखाई जानी है. जैसे चंद्रमुखी कन्या इस उदाहरण में चंद्र उपमान, मुख उपमेय और गोलाई, सर्वजनचित्ताकर्षकता यह साधारणधर्म है. वैसे यहां भी विषपान उपमान, आलोचना उपमेय और दोनोंमें दुष्टता यह साधारणधर्म है. यद्यपि इस गाथामें मल्लुद्धरणसोधी इस समस्तपदमें सल्ल शब्द सामान्यवाचक है परंतु इस प्रकरणमें मायाशल्पक अर्थ में वह रूढ हुआ है. PRE ওওও Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवामः उपमानांतरणापि उपमयं भारलेचना प्रथयाति ॥ वण्णरसगंधजुसं किंपाकफलं जहा दुहविवागं ॥ पच्छा णिलगनहुन तधिमा ६ मुद्धामोधी । १६६ ।। मधुगलोचनषादी विषाक सविता मनी। तीनं करोति किपाकफलभुक्तिरियासम्यम् ॥ ११ ॥ विजयोरयान्वष्णरस इत्यादिना । किंपाकफलं वाणरसमजुत्तं जद्दा दुइविचागं । किपाकास्श्वस्य तरोः फलं । वर्णाविन्यस्य तो फलम्याभाववचनसिद्धेवर्गादिवियुवचनामनिदायितवर्णादिपरिग्रह सूचयति 1 तेना यमर्थ:-नयनप्रियरूप, मधुग्मयत, ग्रागामुगाद सेवितमिति धारणशेषः । दरविणा दासविपाक । पनाला अनभयोत्तरकालं । णिच्यकडगं निश्चयेन कटुक । तापमान था सन्दरणसोधी आलोचनाधिः पिफलोरमा उपमान, उपमय आलोचना, दुग्धविणकला साधारणो धर्मः । सस्या सब दुर्विषाकतां दृष्टौतमलेनायटे-- मुलारा - वण्णल्यादि नयनायवर्ग मधुररलं घाणनुखदगं येणार्थः । गुदा बार्ग दुःपत्रिपाक गरको कारणत्वात् । पच्छा अनुभवोत्तरकालं । णिच्यकडुगं निश्चयेन परमार्थन कदुकं दुधिषाकत्वात् । धिमा तधेयं दुःखविपाकादुर्गतिदुःखहेतुत्वात् ।। दुसरे उपमानके द्वारा भी उपभेषरूप आलोचनाका वर्णन करते हैं--- . अर्थ-किपाकफलका रूप वढा सुंदर रहता है. रस, मधुर होता है, गंध नाकको मोहित करता है. परंतु उसका सेवन करनेसे परिणाम कालमें दुःख उत्पना होता है. अर्थात् उसके भक्षणसे जीवको प्राणत्याग करना पडता है. यह आलोचनाकी शुद्धि भी किंपाकफलके समान है. यहां सिंपाशफल उपमान, आलोचना उपमय और परिणाम में दुःख दायकपना यह माधारण धर्म समझना चाहिये, TE किभिरागकंबलस्स व सोधी जदुरागक्त्यसोधात्र ।। अवि सा हवेज्ज किह इण तधिमा सल्लुहरणसोधी ॥ ५६७ ॥ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মূস্টান आश्वास रक्तस्य कृमिरागेण शुद्धिाक्षारसन वा ॥ घनस्य जायते जातु नैषा शुद्धिः पुनर्भुवम् ॥ ५९२ ।। इति अनुकम्पावोषः॥ विजयोदया-किमिरागकंबलस्स व कृमिभुक्ताहारवर्णतंतुभिरून कंबलः कृमिरागकंबलः । तस्स सोधी विशुद्धिरित्र पीतनीलरक्तादीनां अभ्यतमवर्णस्य शुक्लतेथ । जदुरागच्छसोधीव जनुवर्णयपशुशिरिष वा यथासी कनशेन मर्तमानापि न भवत्येमियमपीति सधर्मता। अहवा अथवा । अपि सा ऋमिरागकत्रशुद्विजन्तुगगयल शक्ति र्या हवेज भवेत् । इण इय सल्लुद्धरण शुद्धिर्न भवत्येव ।। गुरूपचारपूर्वकालोचनया रत्नाबशुद्धे१करता निदर्शनमा माया गुलारा- किमिरायचलाम कृमिमुक्ताहारवर्णन तुधिरूत : कंबलः कृमिागकपलस्तस्यति संस्कृतटीकायां व्याख्यानं | टिप्पनके तु कृमिरात्यक्तरक्ताहाररंजितर्ततुनिष्पादितकंबलस्थेति (१) प्राकृतटीकायो पुनरिदमुक्त-उत्तरापथे चर्मरंगम्लेच्छविषये म्लेच्छा जलौकाभिभानुपरुधिरं गृहीत्वा भडकेषु स्थापयन्ति । नतस्तेन रुधिरेण कतिपयदिवमोत्पन्न विपनकमिकेगोर्णासूत्रं रंजयित्वा कंपलं वयंति । सोऽयं कृमिरागकंबल इत्युच्यते । स चानीव रुधिरवर्गा भवति, नस्य हि वन्हिना ४ायस्यापि स कृमिरागो नापगच्छनीति | सोण शुक्लतापादनं । अदुगगवच्छ मोची मिरेशलाभारनट मायखशुद्धिः । अबि अपिः संभावने । विहद कथंचित् । आवासेन । इमा मनधरण सोधी इयं गुरू पचार पार्वका लागनया रत्नत्रयशुद्धिः। अर्थ · कृमिओंने भक्षण किये आहारसे उत्पन्न हुए जो वर्णयुक्त तंतु उससे बना हुआ कंबल समृद्ध अर्थात् अपना नील पीतादिक रंग छोडकर शुक्ल - सफेत होता नहीं वैसा यह आलोचना भी निर्मल नहीं मानी जाती है. अथवा लाखके रंगसे रंगा हुआ बस पहुत धोनेपर भी अपना लालरंग छोडकर सफेत नहीं होता है वैसी यह आलोचना भी मायायुक्त होनेसे शुद्ध नहीं मानी जाती है. अथवा कृमिरागयुक्त कंबल धोनेपर कदाचित निर्मल होगा. लाखके रंगसे रंगा दुआ कंबल धोनेपर निर्मल अनेगा परंतु यह आलोचना कभी भी शुद्ध न होगी. इस प्रकार अनुकंपित्त दोषका वर्णन हुआ, ७९ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार Frieमलोमतोमपाणी पिए । धीगरिमांचलाई पबदादि अदिधम्मिओ व सवाई ।। घा ते भगवना कुवंति नवं विक जे॥ ५६८ ॥ धीरैराधारित धन्याः कुर्वते दुअरं तपः ।। दुवाम्भसो भवाम्भोधस्तरात्तारकं परम् ।। ५१३ ।। विजयोदया-धीरपुरिसचिण्णा धीर । पुरुषैराचरितानि । एवदति प्रपदति ॥ आविधम्मिगोव अतीव धार्मिक इव । सयाई सर्वाणि । धया धन्याः पुण्ययंतः । ते भगवंतः माहात्म्परतः। जे थे। कुश्वति कुर्वन्ति । तवं तपः। विकह उत्करा नि बदति ॥ अपमानिय इति विसीयगालोग्ना दीपं गाथापटकन व्याचक्षाणः पूर्व तलक्षणं गाथापंचनाह मलारा-दिवाई आ बरितानि । यदि प्रकर्षेण कथयत्यालोचनाकारी । घण्णा इत्यादीति संबंधः । अदिधारमगो २ अतीव धार्मिक इव । गयवंता माहात्म्यत: विकिट्ठे । उत्कृष्ट । अनुमानित दोपका वर्णन अर्थ- आलोचना करनेवाला मुनि मानो अपनी आतिशय धार्मिकता दिखाता हुआ इस प्रकारकी स्तुति करता है-हे भगवान् ! धीर पुरुषसे किया हुआ सर्व प्रकारका तप जो मुनि करते हैं वे अतिशय धन्य हैं, पुण्यवान है और महात्मा हैं. थामापहारपागन्धदाप सुहसीलदाए देहेसु ॥ बददि णिहीणो हु अहं ज ण समत्थो अणसणस्स ॥ ५६९ ॥ कलमापदारपास्थमुखशीलतया तपः ॥ न प्रकृष्टमलं कतुं वदत्येवमधार्मिकः ॥ ५९४ ।। बिनयोदया-थामापहारपासस्थादप वलनिगृहनेन पार्श्वस्थतया च । सुहसीलदार च सुखशीलतया च । तदो ततः। सो खः । वददि कथयति । णिहीणो जयन्यः । अहं अहकं । जं यस्मात् । समथो असमर्थोऽशक्तः । अणसणस्स अनशनस्य। SARAM ७८० SC/ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूकाराधना ७८१ मूलारा-थामापहार बलनिगूहुनेन । पासत्थदाय पार्श्वस्यवया । वददि जिहीणो इत्यादिकं कथयति । णि हो अह जं ण समत्यो । गिद्दीयो जघन्यः । अयं अहं । जं यस्मात् । अर्थ -- अपना बल छिपाकर और स्वयं पार्श्वस्थमुनि होनेसे और सुखमें आसक्त होनेसे वह मुनि गुरुकी इस प्रकार प्रार्थना करता है. ' में जधन्य है, असमर्थ हूं इसलिये मेरेको उपवास करनेका सामर्थ्य नहीं हैं. जागह थ मज्जा श्रामं अंगाणं दुब्बलदा अणारोगं ॥ व समत्योमि अहं तवं विकलं पि काजे ॥ ५७० ॥ पार्श्वस्थत्वमनारोग्यं दौर्बल्यं वह्निमंदता ॥ भगवंस्तव विज्ञाता मदीयाः सकलाः स्फुटम् ।। ५९५ ।। विजयोदया - जाणह य अस्मलं युष्माभिरवसितमेव । अंगाणं दुब्बलता उदराशिदौर्बल्यं | आध्यारोगं रोमचतां च | अहं तवं विक कार्ड व समथोमियत उत्कर्तुं नैव समर्थोऽस्मि || मूलाग्र - जाणध जानीथ सूर्य । म थामं मम बलं । ग्रहणीदोवल्लियं उदरामिदौर्वस्यमित्यर्थः । अणागवतां । काजे कते समय सिरामि । उक्तं च- अमिनारोग्यं च मे ज्ञातमेव वः ।। यथा च न समर्थमुत्कृष्टं चरितुं तपः || अर्थ - हे प्रभो! आप मेरा सामर्थ्य कितना है यह तो जानते ही हैं. मेरा उदराभि अतिशय दुर्बल है. मेरे अंगके अवयव कुश है इसलिये में उत्कृष्ट तप करनेमें असमर्थ हूं. मेरा शरीर हमेशा रोगी रहता है. आलोचेम य सव्वं जइ मे पच्छा अणुग्राहं कुण ॥ तुझ सिए इन् सोधी जह णिच्छरेजामि ।। ५७१ ॥ आलोचयामि निःशेषं कुरुषे यद्यनुग्रहम् । त्वदीयेन प्रसादेन विशुद्धिर्मम जायताम् || ६९६ ॥ भाश्वासः 2 ७८१ Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगाराधना आधामः ७८२ विजयोदया-आलोचमि य सब्जे सर्वतिचारजातं आलोचयामि । दि पच्छा अगुग्गह. ऋणह मर यदि पश्चादनुपःकियने भयादि । तुम सिरीघ । भवता थिया । इच्छं इच्छामि । सोयी सुदि हिनामि निम्नाय. प्याम्यात्मानं ॥ मूलारा--पच्छा आलोचनानंतरं । अगुग्गई कृपा । तुम्हाभरी भपता प्रसा। इन्हें इच्छागि । सोधीय शुद्धि । णिच्छरेज्जामि निस्तारयाम्यात्मानं । अन्यस्तु णिच्छरेज्जामि निस्तारितुमिच्छामीत्याह || अर्थ--यदि मेरे ऊपर आप अनुग्रह करेंगे अर्थात मेरेको आप यदि थोडासा प्रायश्चित्त देंगे तो मैं अपने संपूर्ण अतिचारोंका कथन करूंगा और अपनी कृपासे मैं शुद्धियुक्त होकर अपराधाम मुक्त होउंगा. HAPP Animal अणुमाणदृण गुरुं एवं आलोचणं तदो पच्छा ॥ कुणइ ससल्लो सो से विदिओ आलोया योनी || '१७२ ॥ कुर्वाणस्वानुमान्यति सूरिमालोचनां यतेः ।। 'भवत्यालोचनादोषो द्वितीयः शल्यगोपकः ।। ५९७ ।। विजयोदया-पवं अनाणेदन पर्व अनुमानेन ज्ञात्वा । गुरुः प्रार्थिः करिम्पति स्वल्पप्रायश्चित्तानन ममा. नई इति । पच्छा शालोयण कुणा पश्चादालोचना करोति । ससशस्यसहितं । सो सः । स तस्य । चिदियो द्वितीय बालोयणावोसो आलोचनायोरः । भूलारा-- अणुमादूण अनुमानव शान्वा । अर्थ---- गुरु मेरको थाडासा प्रायश्चित्त देकर मेरे ऊपर अनुग्रह करेग मा अनुमान करके मायाभावम जो मुनि पश्चात् आलोचना करता है. यह अनुमानित नामक आलोचनाका दूसरा दाप है. गुणकारिओत्ति भुंजइ जहा सुहत्थी अपच्छमाहारं ।। पन्छा विधायकडुगं तधिमा सल्लद्धरणसोधी ॥ ५७३ ॥ SATTA Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ artRADESH आश्वास: मूलाराधना सेव्यमानो यथाहारो विपाके दुःखदायकः।। अपथ्यः पथ्यशेमुष्या तधेयं शुद्धिरीरिता ॥ ५९८ ॥ इति अनुमान्यदोषः । विजयोदया-गुणाकारिओलि भुजा गुणमुपयारं करोति इति भूत । नुहन्थी यथा मुखार्थी । अपमा हारं । कीरम्भूतं पच्छा चिवागकग भोजनोत्तरकाट विककक मिश्रिा तथा रमाः । मन्टु मरणामोधी शाम्योदरणनदी अपथ्यमाहार स्वबुद्धया गुणकारीति संकररुप यदि नाम भुक्तं तथापि विषाक कटुक दवारी । वं गुवभिप्रायानुमानन प्रवृत्तो हितश्या गृहीवाश्यालोचना अनर्थाच हेति । न हि संकरपयशाहजनोऽम्पधामायः । नापथ्यस्याहारस्य पथ्यसास्ति संकल्पमात्रेण । अणुमाणिय ।। मूलारा-गुणकारगोति गुणभुपकार करोति इति । पच्छा भोजनोत्तरकालं । तधिमा अपथ्यं पश्यभिनि संकल्प्य भुक्तमिव । गुर्यभिप्रायानुमानेन प्रवृत्तहितबुद्धया गृहीताप्यालोचना परिणामेऽनवहा । न हि संकल्पयशानुरसुनोऽन्यथाभावः । अर्थ – जैसा सुखकी चाहना करनेवाला कोई पुरुष भोजन के अनंतर जिसका परिणाम दुःखदायक होगा ऐसा आहार खाता है. परंतु उससे सुख न होकर दुःख ही उत्पन्न होता है वैसी यह आलोचना शुद्धि है. अपथ्य आहार भेरेका हितकर होगा ऐसी बुद्धिक आरा मनमें संकल्प कर यदि कोई पुरुष भक्षण करेगा तोभी वह परिणाममें कहीं फल देगा. वैसे गुरूके अभिप्रायका अनुमान करके अर्थात गुरु मरेको अल्प मायश्चित्त देंगे इस बुद्धिसे की गई हतकर भी आलोचना अनर्थ करनेवाली हानी है, संकल्पसे वस्तुका परिणमन भिन्न नहीं होगा. संकल्पमात्रसे अपथ्य आहार पथ्यकर नहीं होता है. इस प्रकार अनुमानित दोषका चणन होचुका, जं होदि अण्णदिटुं तं आलोचेदि गुरुसयासम्मि || अद्दिद्वं गृहतो माथिल्लो होदि णाययो ।। ५७२ ॥ परैः सूचयते इष्टमष्टं या निगूहति ॥ महादरवफला तन मायावही पराप्यते ।। ५५५॥ विजयोदया- जपणदिई होनि यदस्य भवति अपराध जातं । आलोचदि कथयति । गुरुसयासमि गुम ७८३ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aili अदि । शुटनो प्रसाद पनगापिलो पादयो हादि । मायावानिति जाजम्यो भवति ॥ दिगिशिनीयमालोचनायो मायात्रा विवृण्वन् द्वाभ्यां मयित्वा एक पाक्षिपति - मुलग-अण्णादि पार । गूगो प्रहादबन । अर्थ जो अपराध अन्य जनोंने दग्य हैं उतनेही गुरूके पास जाकर कोई मुनि कहता है, और अन्यसे न देखे गये अपराधोंको लिपाता है वह मायावी है ऐसा समझना चाहिए, - - दिट व अदिष्टं वा जदि ण कहेइ परमेण विणएण ॥ आयरियपायमूले तदिओ आलोयणादोसो ॥ ५७५ ।। यदि ष्टम च नालोचयति दूषणं ॥ तदात्यालोचनादोषस्तृनीयो दोषवर्धकः ॥ ६०० ।। विजयोदया --दिव अदि बा परेर्ट प्रमदृष्टं वापराधं । परमेण विणएण जदि ण कहेह प्रकृष्टेन विनयेन यदि न । कधयेत् । क. आयरियपादमूले आचार्यपादमूले । तविओ आलोयणादोसो तृतीय आलोचनादोषः ॥ मूलारा-दिई पैररिति शेषः । अर्ध-- दूसरोंके द्वारा देखे गय हो अथवा न देखे गये दो संपूर्ण अपराधोंका कथन गुरुके पास जाकर अतिशय विनयम कहना नाहिये पातु नो पनि ऐसा नहीं करता है वह मुनि आलोचनाके तीसरे दोष से लिप्स होता है ऐसा समझना चाहिये. - --- -- जह चालुयार बडो पूरदि उक्कीरमाओ चेव ।। तह कम्मादाणकरी इमा हु सल्लुद्धरणसुही ।। ।। ५७६ ॥ दोपशुद्धिरपचेतसा पुनः कल्मषैरिति कृता निधीयते ॥ यालुकासु रमिताऽवटः पुनर्वालुकाभिरभितो हि पूर्यते ।। ६०१ ॥ इति दृष्टम् । Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SE मूलाराधना विजयोदया-जह वालुयाए यथा वालुकाभिः परवि पूर्वते । अबढ़ो वालुकामध्यकृतो गर्तः । उकीरमाणगो चय उकीर्यमाणोऽपि सन । नाकम्मादागकरी या कर्मग्रहणकारिणी । मा सक्लुद्धरणसोधी इयमालोमनाया शामिः । मायालयनिगकरणार्थमालोचनाया अनोपया माययात्मानं प्रलादयति । यथा वालुकाविलेपो गर्तसम्कागीतकमरा यति गतीशि | दि यहवालोचनाकारी, मायाशा नगलायमालोचनायां प्रवृत्तोऽन्यथा मायाऽन्मानं प्रच्छादयति वालुकाविशेपो गतसंस्काराय क्रियमाणो वालुकया गई पूरयति र्शत दर्शमितमिदमाह मूलारा--अक्ढो अरटो गतः । प्रक्रमाद्वालुकामध्य एव कृतः । पूरदि पूर्यते । उक्कीरमाणगो व उत्कीर्यमाणोऽपि उतिच्यमानोऽपि । कम्मादाणकरी अपूर्वकर्मानाविणी॥ अर्थ-जैसे वालुकाके मैदानमें कोई मनुष्य खाहा खोदने लग जाय तो वह खोदनेके समय ही नालुकाओंसे फिर भग्जाता है. वैसी यह आलोचना शुद्धि है. अर्थात् मायाशस्य मनसे निकालनेके हेतुसे यह आलोचनागेन. हुमागंड अम्गायः पनको आच्छादित करने का प्रयत्न कर रहा है ऐसा समझना. जं दिहं इस नामक आलोचनादोषका वर्णन दुआ. बादरमालोचेंतो जत्तो जत्तो वदाओ पडिभग्गी ॥ सुहुमं पच्छादेतो जिणवयणपरंमुहो होइ ॥ ५७७ ।। स्थूल व्रतातिचारं यः सुक्ष्म प्रच्छाच जल्पति ॥ पुरतो गणनाथस्य सोऽद्विाक्पयहिर्भवः ।। ६०२॥ निजयोदगा-यादगमालोचेंतो । अचे पदसंबंधः, जसो जत्तो बदामो पडिभगो सम्माग्रस्माद्भशाप्रतिभाः । # याद आलोनती स्थूल कथान । सुमं पत्रकार की पुश्मनोपं प्रत्याश्यम् । जिया वयापरंमुहोहोर जिनवमनपरराव-म्गयो परति ॥ पादरमिति चतुर्थमालोचनादो गाथा: व्याचक्षाणो द्वाभ्यां लक्षयतिमूलारा--बदार बलात् । पडिभगो भ्रः । अर्थ-जिन जिन व्रतोंमें अतिचार लगे होंगे उन उन ब्रतोंमें स्थूल स्थूल अतिचारोंकी तो आलोचना Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना करके यूक्ष्म अविचारों को छिपानेवाला मुनि जिनद्रभगवानके वचनास परामुख हुआ है एसा समझना चाहिये. आश्राम .७८६ सहमं व चादरं वा जई ण कहज्ज विणण मुगुणं ॥ आलोचणाए दोसो एसो हु चउत्यो होदि ।। ५७८ ।। नदोष गुरोरग्रे स्थूलं सुक्ष्म च भाषते ।। विनयेन सवा दोषश्चतुर्थः कथनाश्रयः ॥ ६०३ ॥ . विजयोदया-स्थूलस्य सूक्ष्मस्य वातिचारजातस्य चालोचना चतुर्थो दोपः इति सुमं य इत्यस्यार्थः ।। मूलारा-स्पष्टं। अर्थ-स्थूल और सूक्ष्म अतिचार के समुदायका विनयसे गुरुके चरणमें वर्णन न करना यह चतुर्थ दोप है. जह कंसियभिंगारो अंतो णीलमइलो बहिं चावो ।। अंती ससल्लदोसा तधिमा सल्लुहरणसोधी ।। ५७९ ।। बाह्याकारणातिशुद्धोऽपि साधुनातःशुद्धिं याति मायादिशल्यः ।।। भुंगारोवा कांसिकः शोध्यमानो याद्ये शुद्धि कश्मलांतः मयाति ॥६०४॥ विजयोदया-चादरं ॥ ४ ॥ जह कंसियभिंगारो यथा कास्वरचितो भंगारः । अंतो अभ्यंतरे। णीलमइलो नीलः सम्मलिनः । बहि योफ्यो बहिःशुहः । अंतो ससालदोसा अंतः सशल्यदोषा इसमालोचना शुशिः। बादरालोचनाया दुष्टत्वं सदृष्टांतमाचष्टे .. . मूसारा-फेसियभंगागे कॉम्बयभंगार: | णीलभालो का सम्पादिनः । परि पोयो वलिः शुधः । दागा मालाश पदागनुका ।।। . अर्थ-जसा कांस्यधातुका बना हुआ कमंडलु अंदर तो नील और मलिन होना और बाहर रखनमा दीखता है. वैसे इस आलोचनामें अंतरंग माया बसी हुई है अतः यह आलोसना दोपयुक्त समझनी चाहिये. इस रीतीसे बादर दोषकी आलोचना का वर्णन है. . , ... Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास चकमणे यहाणे णिसेज्जउवट्टणे य सयणे य ॥ उल्लामाससरक्खे य गम्भिणी बालवत्थाए ॥ ५८० ॥ - आसने शयने स्थाने संस्तरे गमने तथा । "आर्द्रगानपरामर्श गर्भिण्या बालवत्सया ॥६०५ ॥ परिविष्टेऽभवदोषो यः सूक्ष्मः स निगटाते ।। स्थूलं प्रनाथ नासौ जिनवाकपपरामरः ॥ १०॥ विजयादगा-चकमा अरदयाययन पशादियादितचिसो मजागीयामरायन गयान । टांग गिग उज उवण य सयणे य प्रमार्जनमकृत्वा स्थानं, निपया, पारपाचकृता । उल्लामाससक्ख आदायां गात्राधिकं स्पृष्टं । सरयच य सन्नित्तधूलिसहिते स्थितं सुप्तमासित वाग्मिणी गभिपया । बालबस्थाग, वालवन्सया दीयमानं गृहीते इति । सुरममिति पंचम आलोचनादोषमाचले मूलारा-कमणे इत्यादि अत्र अपना ध्याख्येयः । अपाहि- जयश्यायाचित्रमाणे व्याकुलचित्तो गतोऽहमिति सुक्ष्म दोष वक्ति। ठाणे जिसेज्ज रदृषणे प्रतिलेखनमकृत्वा स्थानगुपवेशचं शयनं वा मया कृतमिति ब्रूते । करणे काले पहायर मचा न कतमिति बदति । जल्लामास आश्पर्शः जलादि नागात्रादिकं मया स्पृष्टमिति कथयति । सरक्खे साचत्तधूलिस्थाने मयास्थित, धूलियुक्तपादेन मया जले प्रविधं, जलापादाभ्यां रजोऽनष्टधभित्यादिकमालोचपति । गम्भिणी अष्टमादिमासगर्भधारिण्या मम परिविष्टमिति बृते । वालअच्छाए मासाभ्यंतरप्रसूतया मम परिविष्टं सर्वतं स्तनलग्नबालं त्यक्त्वा बिया मेऽन्न दत्तमिति निगदति। अर्थ-चक्रमण--जहां ओस बहुत गिरी थी ऐसे मार्ग से. इर्यासमितीमें चित्तकी एकाग्रता न कर मैने गमन किया था. पिच्छिकासे जमीन साफ न करके मैं जमीन पर बैठा था, सोया था. और खड़ा हुआ था. योग्य कालमें मैने छहो आवश्यक कि ये नहीं थे. पानीसे गीले शरीर आदिक पदाथको मंने स्पर्श किया था. सचित्त धूलिपर मैं चैटा था. खडा हुआ था और सोया था. धूलिसे भरे हुए पावाल जलमें मेने प्रवेश किया था. आठ महिन नड महिने जिसको हुए है एसे गर्मवतीने मरेको आहार दिया था. बसत होकर जिसको एक महिना भी पूरा नहीं P हुआ था उसे स्त्रीने मरको आहार दिया था. रोता हुआ अथवा स्तनपान करता हुआ बालक छोडकर स्त्रीने मर ७८७ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को आहर दिया था इत्यादि सूक्ष्म दोपाको जो कहता है उसकी आलोचना शुद्ध नहीं है. आश्वास मृगारावना ७८८ इय जो दोसं लहुगं समालोचेदि गृहदे थूलं ॥ भयमयमायाहिदओ जिणवयणपरंमुहो होदि ।। ५८१ ॥ स्थूलं सूक्ष्मं च घेदोष भाषते न गुरोः पुरः ॥ मायाग्रीडामदाविष्टः सदा दोषोऽस्ति पंचमः ॥६.७॥ विजयोदया- इय एवं । जो यः। दोस अतिचारं । कीडग्भूतं ? लहुर्ग स्वल्पं । आलोचेदि कथयति। विणिगृहदि विनियां : किंमपूर मामयमायादो भयममायासहितचित्तः । महतो दोशन्यवि प्रवीमि महत्मायfinitiत मामिति था। वृथा निरातचारचारप्रसर्वसमानभंगासहा स्थूलान शक्रोति षफ्तं। कधिप्रकृत्यैव मायावी सोऽपि न निगदति । जिणखयणपरंमुदो होदि । जिनवचनपराजमुसो भवति । ___ मूलारा-भयममायाहिदओ भयं, मदो, माया वा इदये चित्ते यस्यासौ बहुप्रायश्चित्तं मयेन सधर्मत्यजनभयेन वा सूक्ष्म व कोषं षक्ति, स्थूल प्रच्छादयति । यूवानिति चारचारित्रोऽस्मीति गर्वान स्थूलान्यक्ति । मायावी तु प्रकृत्यैवचकत्याच तान्वक्ति । उक्तंच--- भासने शयेन स्थाने संस्तरे गमनेशन || आर्द्रगावपरामर्शगभिण्या घालवत्सया ॥ परिनिटे भवदीयो यः सूक्ष्मः स निगद्यते ।। स्थूल प्रलादा यनासौ जिनवाक्यपराङ्मुखः ।। अर्थ--इस प्रकार जो छोटे छोटे दोष कहकर बडे दोष छिपाता है. वह मुनि भय, मद, और कपट इन दोषोंसे भरा दुआ जिनवचनसे परामुड्मय होता है. बडे दोष यदि मैं कहूगा तो आचार्य महाप्रायश्चित्त देंगे. अथवा मेरा त्याग करेंगे ऐसे भयसे कोई बडे दोष नहीं कहता है. मैं निरनिचार चारित्र हूं ऐसा समझकर स्थूल दोपोंको मर्वयुक्त होकर कोई मुनि कहता नहीं. कोइ मुनि स्वभावसे ही कपटी रहता है अतः वह भी बड़े दोष कहता नहीं इस वास्ते ये मुनि जिनक्लनसे पराङमुख हैं. ७८८ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 . मूलाराधना आश्वासः 0 सुहुम व बादरं वा जइ ण कहेज विणएण स गुरूणं ॥ आलायणाय दोसो पंचमओ गुरुसयासे से ॥ ५८२ । विजयोदया-मायाशल्पायागस्य जिगवचनोपदर्शितस्य अकरपात् मसिद्धार्था । मूलारा-गुरुसमासे गुरुसमीपे वर्तमानस्य 11 अर्थ-सूक्ष्म अथवा स्थल दोष यदि गुरुफी विनय से न कहेगा तो वह जिनोपदेशका उल्लंघन करत भालोचनाके पांचवे दोपसे दषित होता है. सामना उत्तर गाथा-- रसपीदयं व कडयं अहवा कवडुक्कडं जहा कड़यं ॥ . अहवा जदुपूरिदयं तधिमा सख्लुद्धरणसोधी ॥ ५८३ ।। रसेन पीतं जतुना प्रपूर्ण कुटं विषाके कटकं गृहीतं ॥.. यथा तथेत्य विहितं विधत्ते, विशोषनं तापमपारम्पम् ।। ६०८ ॥ . इति सूक्ष्मदोषः . . विजयोदया- रसपीवर्ग व कायं रसोपलगाम्मनाएपहिः पीतवर्णकटकामेष । मधषा कयहत्तरं तनुसुवणपत्राच्छादितमिब वा । अन्तर्निस्सारं । प्रथया जदुपूरिदगं अन्तरिम सरकटकामियः। पीतता रसोपलिप्तस्य तथा तथाल्पा शुद्धिरिति प्रथमो दृशन्तः । गुमतरपापप्रच्छादनमात्रताप्रकाशनाय द्वितीयो दृष्टान्तः । गुरुतरमयःप्रभृति निस्सारं वस्तु बाहो तु सुवर्णशकलेन प्रच्छादितं यथा तथा स्वम्यानपराधारकायति । पापभीस्ताप्रकर्षावयं मुनिरित्य संयतः कथं महत्यतिचारे प्रवर्तत इति प्रत्ययजनजाय अंतःसाररहितता तृतीयेनोच्यते । सुडमं । दृष्टांतत्रयेण सूक्ष्म पोषालोचनां जगुमने-- गूलाग-रमपीगं सुनकरमरमितं । नेन शुढेरणलं दर्शितं । कवकर्ड सुवर्णपत्रप्रस्छादित । एतेन गुरुतर पापाच्छादनं दार्शनं । जदपूरिदगं लाभाभूनमध्यं प्रतगनिनिःसारतोदाहता साधोः।। अर्थ-सोनेका मुलामा दिया हुआ लोहेका कडा जैसा ऊपर से मनोहर दीखता है. अथवा ऊपरसे सोने के पतले पत्रसे मढा हुआ लोहेका कहा जैसे ऊपरसे ही सुंदर दिखता है परंतु अंदर निःसारता ही रहती है. किंवा द्वितीयो की Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCHO मूलाराधना आधार जिसके अंदर लाल भरी है एमे सोनेके कडे के समान यह आलोचना शुद्धि है. जैसे प्रथम दृष्यान्नमें सुत्रणका ऊपर ही मुलामा है परंतु अंदर निःसारपना है वैसी यह आलोचना उपरमे तो अल्पशुद्ध दीखती है परंतु अंदर अशुद्धि भरी हुई है. जैसे सोनेके पत्रेसे मरा हुआ लोहा अंदर छिपा हुआ रहता है. बैंस ग्रह आलोगनाशुद्धि बडे घटे पाप छिपानेवाली और ऊपरसे छोटे पापोंका कथन करनेवाली है. यह मुनि पापभीर है यह बडे पापॉमें कैसे प्रवृत्त होगा ऐसा मानो विश्वास उन्न्न करने के लिये यह यूक्ष्म दोषोंका कथन करसंघाली आलोचना है. यह तीसरलास में भरा हुआ कडेके दृष्टान्तसे व्यक्त होता है. इस प्रकार सूक्ष्म दोपकी आलोचनाका वर्णन दुआ. जदि मूलगणे उत्तरगुणे य कामह !ि दो । पढमे विदिए तदिए चउत्थए पंचमे च बदे ॥ ५८४ ॥ आय वन द्वितीय वा दोषः संपात गदि ॥ सूर ! कस्यापि कंध्यस्थ विशुद्धति तदा कथम् ॥ ६०॥ विजयोदया- यदि मूलगुण उत्तरगुणे च कस्यचिद्विरते मूलगण, चारित्र, तपसि या अनशनादानुत्तरगुणे अतिचारो भवेत् । अहिंसादिके यते । दण्गमिनि पाएं अगलीपादोपं गारपस्केन व्याकर्तुकामः एवं माथात्रयेण माह गूठारा-मूलगुरो चामि तापि वा । अहिमादिने । पं.सार ६ मनिःगानाः ।गा अगरः । प्राचिन । उवा मालोचनया, ननयम, स्थानानादिना । । । ... मा । करोति । मचायमपराधः कृतस्तस्य कि प्रायश्चित्त इति न पनि । परम ।। अर्थ-यदि किसी मुनिको मूलगुणमें अर्थात पांच महावतामें और उत्तरगुणोंमें-- तपश्चरणमें अनशमादिक बारा तपोंमें अतिचार लगेमा तो - - को तरस दिज्जइ तबो केण उवाएण या हवदि सुडो ।। इय पच्छण्ण पुग्छदि पायच्छित्तं करिस्सत्ति ॥ ५८५ ॥ PARAMA Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनाराफ्ना आबासा विजयोदया- को तस्स विज्जा तवो किं तस्मै दीयते तपः ? । ऋण दवारण द्वादि वा मुद्धो केनोपायेन वा शुहो भवतीति । पच्छपणे प्रच्छन्नं । पुन्छदि पृच्छति । आत्मानमुद्दिश्य मयायमएमयः कृतस्तस्य किं प्रायश्चित्तं रति न पृच्छति । किमर्थमेवं प्रगछन तृरुति । शाश्या पायश्चित्ते करिस्पति करिया अर्थ --उसको कोनसा तप दिया जाता है, अथवा किस उपायम उसकी शुद्धि होती है एसा प्रच्छन रूपसे पूछता है. अर्थात् मैन ऐसा २ अपराध किया है और उसका क्या प्रायश्चित हैं ? ऐसा न पछका प्रन्छन पूछता है. प्रच्छन्न पूछकर तदनंतर मैं उस प्रायश्चित्तका आचरण करूंगा ऐसा हेतु उसके मन में रहता है. - इय पच्छण्णं पुच्छिय साधू जो कुणइ अप्पणो सुद्धिं ॥ तो सो जिणेहिं बुत्तो छटो आलोयणा दोसो ॥ ५८६ ।। इत्यन्यव्याजतश्छन्नं पृच्छयते चेत्स्वाद्धये ॥ तदानीं जायते दोषः षष्ठः संसारबर्द्धकः ।। ६१० ॥ विजयोदया- हय पर्ष । पच्छषां पुच्म्यि पृष्ट्वा । जो सामाधुः । अषणों सोधि कुगादि आन्मनः शुणिं करोति । सो छटो आलोयणा दोसो वुत्तो जिहि । षष्ठोऽसावालो बनादापातम्प भवतीति जिनका।। अर्थ--ऐसा गुप्त रीतीस पूछकर जो साधु अपनी शुद्धि कर लता है. वह आलोचनाका हा दोप है । ऐसा जिनेश्वरने कहा है. --- e धादो हवेज्ज अण्णो जदि अग्णम्मि जिमिदम्मि संतम्मि ॥ तो परववदेसकदा सोधी अणं विसोधिज।। ५८७ ।। भोजने च कृतेऽन्येन तृप्तिरन्यम्य जायते ॥ अपरस्य तदा शुद्धिर्विहिना परभर्मणा ।। ६११ ।। आत्मशुद्धिं विधत्तं यः प्रपृच्छय परभर्मणा ।। अपरेणाषधे पीते स्वस्यारोग्यं करोति सः ।। ६१२॥ % Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः 4641 मनागमनाम रिजयोदया - धादो वेन्ज अपणो गुप्ता नवेदन्यः । जदि अण्णामि जिमिम्मि संतस्मि । यवन्यस्मिन्भुक्तवति सति । तो ततः । परबबदेसकदा सोधी परव्यपदेशकृता शुद्धिः । अण्ण विसोधेज्ज अन्य विशोधयेत् ।। छन्नदोगदुष्टालोचनाया नैष्फल्यं दृष्टांतन स्फुटयतिमूलारा-धादो तृप्तः । जिमिदम्मि मुक्तवति । संतम्मि सति | परवरदेसकदा अन्यमुरिश्यकृता । अर्थ-उपयुक्त दोषका दृष्टांत इस प्रकार है - यदि किसी अन्य मनुष्यके भोजन करनेपर उससे अन्य मनुष्यका पेट भरेगा तो दुसरेके नामसे किया हुआ प्रायश्चित्त दूसरेको विशुद्ध करेगा ऐसा मानना पढगा. कष्टात्तम गाथा - तवसंजमम्मि अण्णण कदे जदि सुग्गदि लहदि अण्णो । तो परववदसकदा सोधी सोधिज्ज अण्णपि ।। ५८८ ॥ संयम चन्कृतगन विमुक्ति लमते परः ।। परण्याजकता शुद्धिस्तदा शोधयते परम् ।। ६१३ ॥ तदेव हदयति - मूलारा-सुग्गदि सद्गतिम् ॥ अर्थ-तप और संयम भी अन्य व्यक्तीने किये जानेपर यदि अन्यही व्यक्तीको सुगतिकी प्रत होगा तो इसा के नाम किया हुआ प्रायश्चि भी दुसरको दोषसे मुक्त करेगा ऐसा मानना पड़गा. Ur.AmitteutAARATRAPAN मयतण्हादो उदयं इच्छइ चंदपरिवेसणा कूरं ।। जो सो इच्छइ सोधी अकहंतो अप्पणो दोसे ।।.५८९ ।।, .. गुरोनिजं दोषमभाषमाणो दोषस्य यः कांक्षति शुद्धिमज्ञः ॥ मन्ये स तोयं मृगतष्णिकातो जिघृक्षतेनं शशिषिबतो वा।। ६१४॥ इति छन्नं दूषणम् ॥ ७९२ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूकारावना आवासः - nimarinavia विजयोदया-मयतमहादो इत्यत्र पनघटनेयं । जो अपणो दोसे थकतो मोधी इच्छद सो मयत महादो उदय ह. चदपनि सो कर इच्छर य । य आगनो दोवाननभिधाय गुरूणां द्धिमिच्छति स मृगहरणान उदकं यांति, चंद्रपरिवारानमिच्छति । निकलासाधम्यादयं हटान्तवार्धान्तिकभावः। छन । नम्न देव समर्थयते मूलारा--मिगतिणहानी मृगतृष्णात. । उदगं उसकं । चंदपरिवेसणे चंद्रपरिवेषात् चंद्रावबादित्यर्थः । कूरं भक्त श्रीचंद्रटिप्पन त्वेवगुक्तं । अत्र कथयार्यविपत्चिर्यथा -- चंद्रनामा खूपकारः परिवारहितो राजा निःसारितोऽन्यः कृतः । परिवारेण च राज्ञा सह भोजनं परिहतं । एनमेकदा ममावाते तस्मिन राजनि भोक्तुमुपविष्टे गगने चंद्रस्य परिवेषमालोक्योर लोरा चंद्रस्य परिवषो जान इति । पत्रकछुवा परिवारः सूपकारस्य राजकुले प्रवंशो जात इति मत्वा भोक्तुं गतवान्न च कूरं प्रांतवान् इति । गुरोरग्रेऽप्रकाशयन् ।। .......... ...... . .: .. अर्थ-जो मुनि अपन दोषोंका विवचन न करके उनसे मुक्त होना चाहेगा वह मृगतृष्णासे पानी प्राप्त करने की कोशिश करता है अथवा चद्रक परिवेशमे अन्न प्राप्त करने की इच्छा धरता है ऐसा समझना चाहिये. नसंरचः नागमे प्रगटनगन्या प्राचिन कानाव्य मा इन दो दृष्टान्तोंस मिद्ध होता है. शांत और दाष्टान्तिक इन दोनाम निकलतादी समा-ता इस गाथामें दिग्याई है. क्रिी गजान चंद्रनामक रसोइया को अपने घर निकाल दिया. और उसके स्थानमें दुमरे रमाइयाको नियुक्त किया. नव गजाक साथ परिवारने जीमना छोट दिया, एक दिन राजा भोजन के लिए आया उस समय आकाशम चंद्रको परिवपयुक्त दखकर चंद्रका परिवश-प्रबंश हुआ एसा लोगान कहा तब मुनकर परिवार भोजनके लिये आया परंतु उसको भोजन नहीं मिला. एसी कथा यहां समझनी चाहिये. यह कथा श्रीचंद्राचार्य के ट्रिप्पनकमें कहीं है. ---- - पनिखयचाउम्मासियमंत्रच्छरिएमु सोधिकालेस ।। बहुजणसद्दाउलए कहेदि दोसे जहिच्छाए ॥ ५९० ॥ शब्दाकुले चतुर्मासपक्षवर्षफियादिने । यथेच्छ पुरतः सूरंरालोचयति योऽधमः ।। ३१५ ।। . -.-- n E Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना श्रावास - ७२० विजयोदया- पक्षियचा उम्मामिय पक्षायतिचा शुदिकालषु । न नामहारदा पटुजनदायसंकंटे । धिच्छाणास काथमि यंधळ्या दोघानात्माियान्कथयति ।। सहानुलगगिति सामं आलोचनादो गाथात्रयगाह-- मूलारा--जहिच्छाए यथेच्छा । अर्थ--- पाक्षिक दोषोंकी आलोचना, चार्मासिक दोषोंकी आलोचना और वार्षिक दोपोंकी आलोचना सब यतिसमुदाय मिलकर जब पास है। अपने दोस्च्छासे कहना यह बहुजननामका दोप है. इय अव्वत्तं जइ सावतो दोसे कहेइ सगुरूणे ॥ आलोचणाए दोसो सत्तमओ सो गुरुमयाने ॥ ५९१ ।। अव्यक्तं वदतः स्वस्य दोघान्सक्लिष्टचतसः ।। आलोचनागती दोषः सप्तमः कथिता जिनः ॥ ६१६ । विजयोदया-जदि इय अञ्चनं सावेतो दोसे कहेइ सगुरूर्ण यद्यवमध्यक्तं धायगन्दोषान्कथयति स्वगुरुभ्यः । सतमगो आलोयणादोसो । सप्तम आलोचनादोषः गुरुसयासे गुरुसमीपे प्रवृत्ती भवति । मूलारा-सावेतो भावयन । अर्थ यदि अम्पष्ट नीम गुरुको मुनागा द्या अपने दोग नि कहगा तो गुरुके चरणसन्निध उसने मातवा. शब्दारलित दोष किया हैसा समझना. अरहघडीसग्मिी अहवा चुनछद्रोचमा होई॥ भिघटसरिछा वा इमा ह सामानाचा ।। ५१.२ ।। अरगर्तनणियसमा भिन्नघटापमा ।।। चुदरज्जुनिभामेनां शुद्धिं शुद्धिविदो विदुः ।। ६१७ ।। इति शब्दाकुलो दोषः ।। Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kolestion मुबाराधना মাঘীন ७९५ | विजयोदया--अरहयडीसरिसी अरगर्त घटीसरशी पूर्णान्य गृणा । पबमपराधमधनं स्वमुमेन प्रवृत्तमय अप्रवृत्तमेव गुरुणा अश्रुतत्वात् । अहवा चुदच्छुदोषमा होइ अथवा मेथनमपालिका दव, सा यथा मुतापि बनानि एवमियं याहमुखकुदरमुक्तापि मायाशल्यसदितेति मध्नाति । भिन्न वडासचिनला या भिन्नघटसरशी या यथा भित्रको घटो घटकार्य जलधारण जलाद्यानयन वा कर्तुमसमर्थ पवमियमालोचना न नि संपादयनीति साधर्म्य ॥ सदाउलयं ॥ शब्दाकुलदोपदुष्टालोचनावयय इप्टांतन समर्थयते मूलारा- अरह घड़ीसको यथा अरगर्तधरिकाः पुर्या अपूना वापराधकथन म्बनबन यानम यकनमेय गुरुणाऽश्रुतत्यान् । चुदच्छुदोबमा मंथनचर्मपालिकातुल्या । सा पयागुताधि धनानि । एमियं दोबाटोचना मुख कुहरभुता५ भाषायुक्तति नाति । जिनयहवार सुपिर दसद्दशी । यथा भिमो घटो जलधारणादिकार्य कर्तुं न शक्नोति तथेयं निर्जरामिति साधर्म्यम् || अर्थ-जैसे अग्गर्त घटीयंत्रमें लगे हुए घरे जलसे भरे हुए भी अपूर्ण हो जाते हैं अर्थात वे हमेशा जलसे भरते हैं और पुनः रिक्त होते हैं वैसे अपराधोंका अपने मुखसे कथन किया तो भी कथन नहीं किये सरिखा हो जाता है. क्योंकि बहुतोंके शब्दोंमें उसके शन्द गुरु सुन नहीं सकते हैं. अथवा काष्ठको छिद्र पाडनेवाला वर्मा नामक शख धुमाते समय दोरीसे मुक्त होकर भी बंधा रहता है. एक. पाश्चसे उसकी दोरी दिली हो जाती है परंतु दुसरी बाजु उसकी उसी समय दोरीस दृढ बंधी जाती है. वैसे यह महसे अपरार्धाका वणन बाहर पडता है. तो भी अंतरंग माया शल्यसे सहित होनेसे कमपंच काही कारण होता है. अथवा यह आलोचना फूट पडक समान है. फूटा घडा जल लाने में और जल धारण करने में असमर्थ है. वैमी यह आलोचना कर्मनिर्जरा करनेमें असमर्थ होती है. आयरियपादमूले हु उवगदो बंदिऊण तिविण ॥ कोई आलोचेज्ज हु सव्वे दोसे जहावने ॥ ५९३ ।। भरिभरिकभरानभ्रः सूरिपादावजदाराम ।। प्रणम्य मापने कनिहापं सर्व विधानतः ।। ६१८ ॥ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वा . .. विजयोदया -आयरियामले उनमयो अाचार्या मूलमुपगतः । लिविधेग विदुण मनोवाहायशुद्धया वंमृलमानानां हया। कोई करि-यम् । मालाएक कथा । सच दोस जहावरी सर्वान्दोषास्थलान्सूक्ष्मांश्च यथावृत्तान्मनो बानाधक्रियारूपान ऊनकारितानुमनदान । बहुजनमित्यष्टममालोचनादापनामा पराया याचष्टमुलाग-जधावत यासान् । मेन भगोत्राक्कायकृतकारितानुमतान्यतभेन प्रकारेण प्रवृत्तान् ।। अर्थ- कोइ मुनि आचार्यक मनिष जाकर उनके चरणोंको मन, वचन और शरीर इनको शुद्धकर नमस्कार करता है. तदनंतर मन, वचन, शगामे कृत, कारित और अनुमोदन के साथ स्थल अथवा सूक्ष्म जो जो दोष हुये थे उनका संपूर्ण कथन करना है. .. तो दसणचरणाधारएहि सुत्तत्थमुव्वहंतहि ॥ पत्रयणकुमलहि जहारिहं तवो तेहिं से दिण्णो ॥ ५९४ ॥ तस्य सूत्रार्थदक्षेण रत्नश्रितपशालिना ।। व्यवहारविदा द प्रायश्चित्तं यथोचितम् ।। १५ ॥ विजयोदया-तो पदचात् आलोचनोत्तरकालं । दसणचरणाधारणहिं समीचीनदर्शनचारित्रधारणोद्यौः । सुत्तत्थमुव्बहनहि मूत्रार्थमुदहद्भिः । पचयणकुसलाह सूत्रार्थमुहद्भिरित्यनेनेव गतत्वारिकमानेन 'प्रवनयकुशलः ' इति । अयमभिप्रायः-प्रायश्चित्त ग्रंथ युतिः प्रवचनशब्दः नेग प्रायाचिकुशलैरित्यर्थः । अन्यशारमशो न ददाति न चेत्यायश्चिसशति प्राचन्यकथना पृथगुणाभ । केटि नैः । तस्मै । जवाविद नयी दिनों अपराधानुरूपनपो दस । तपोग्रहा प्रायाचित्तोपत क्षणार्शनेन प्रायदिवस दर्स इत्यर्थः ।। गलाग . आलोचनोनरमा | पवन यहिं प्राविसमतुः । अन्यशास्त्रज्ञोऽपि प्रायमिजाजानोग मान्य कचनार्थ अन्य पृनुदान दो पाया । जधानि अगावानुस। नहि तः मिर्मचाई। 6. तसी। अर्थ-जब मुनि आलोचना समाप्त करता है तब सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रके धारक, सूबाथको अपने हृदय में धारण करनेवाले, और प्रवचन में कुशल एम आचार्य आलोचना करनेवाले को यथायोग्य पायचित्त - = Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलागना आधामा देते हैं. शंका मूत्रार्थके धारक इस शब्दका अर्थ प्रवचनमें निपुण ऐसा होता है तो पबयणकुसलो यह शब्द गाथामें व्यर्थ है. उत्तर- यहां प्रवचन शब्दस प्रायश्चित ग्रंथ यह अर्थ आचार्य को अभिमत है. सूत्रशब्दसे प्रायश्चित्त शास्र के निगमशागामझना मानिय. अन्य शास्त्रों का ज्ञाता होकर यदि प्रायश्चित्त शास्त्रका ज्ञाता न हो तो वह प्रायश्चिन नहीं दे सकता यह अभिप्राय यहां मुख्य है. उसकी सिद्धी के लिये यहां पतयणकुसलो' यह पद आचार्य महाराजन गाथाम जोड़ दिया है. णवमम्मि य जं पुव्वे भणिदं कप्पे तहेब ववहारो ।। अंगेसु सेसएसु य पइण्णए चावि तं दिणं ॥ ५९५ ॥ तोर्स असहहतो आइरियाणं पुणो वि अण्णाणं ॥ जइ पुग्छइ सो आलोयणाए दोसो हु अठ्ठमओ ॥ ५९६ ॥ पकल्पदयवहारांगपूर्वादिश्रुतभाषितम् ।। तदालोच्य विधानेन दत्तं सूत्रपटीयसा।। ६२० ॥ अश्रद्राय वचम्नम्प स यथा पृच्छते परं आचार्यः कधिनी दोपस्तदालोचनगोचरः।। ६२ ।। विजयोदया--तास न । आधरियाणं आचार्याणां वचनं । असइडतो अश्रदधानः । पुणो घि जदि पुनरपि यदि प्रदत्यन्धानसी । अमगो पारलोयणादोसो सोऽएम: आलोचनादोषः। अत्रेयं गाचा सूत्रेऽनुभूयत । मूलारा-एतां श्रीविजयो नेच्छति । मूलारा- स्पष्टम । अर्थ-नौवा पूर्व प्रत्यारूपान नामका है उसमें प्रायश्चित्तका निरूपण है. अंगबाधश्रुतमें कल्पनामक प्रकरण में प्रायश्चित्तका विचार किया है. वाकीके अंगों और प्रकीर्णकोंमें जो प्रायश्चित्त का निरूपण है उसके अनुसार आचार्य प्रायश्चित्त दते है. Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मृगाराधना आवास ७५८ परंतु उनके दिये हाए प्रायश्चित्तमें अश्रद्धान करके यह आलोचव. मुनि यदि अन्योंको पूछेगा 'अथान आचार्य महाराजने दिया हआ गयरिनन योग्य है या अयोग्य है हेगा पडेगा तो यह आलोचनाका वजन गुच्छा नामक आठवा दोष होगा. पगुणो वणो ससल्लं जध पच्छा आदुरं ण तावेदि ।। बहुवेदणाहिं बहुसो तधिमा सल्लुद्धरणसोधी ।। ५९७ ॥ दोषावतीर्णोऽपि ददाति पीडां परम कारण विशाध्यमानः ।। व्रणी हि शुष्कोऽपि करोति बाचा प्रचाल्यमानः किमुताविपहाः ॥६२ ।। इति भूरिमूरिदोषः । विजयोदया-पगुणो वणो प्रगुण वर्ण । उपचिर्त । समलं शल्पसहितं । पच्छा पश्चान । मादुर व्याधिन । किमु न तानि । किमु न तापयति ताश्यस्येय । बहुवेदणाहिं बडीभिगाभिः । यदुनो बदशः तधिमा तथा संसास्त. रणसोधी आलोचनाशुद्धिः । मायामृगपरित्यागन कृता अतिशोभना सत्ता गुरुदत्तप्रायश्चित्तापि यदानशनपसन्धित त्यामवाहा । बहुजण ॥ बहुजनदोषदुष्टालोचनाया दुःखावहत्वं दृष्टान्तेन स्पष्टयति मूलारा-पउणो तपरि रूढः। ससलो अंत:कंडादियुक्तः । ण तावेदि न कदार्थ यति । बहुसो बहुवारान । तधिमा तथेयं मायामपापरित्यागेन कृतेति संहतदोषापि गुरुदासप्रायश्विताश्रद्धानशल्यानुविद्वत्वेन दुःखावहत्वात् ॥ अर्थ-जिसमें कांटा रहा है ऐमा प्रणा बढ़ जाता है तब वह अनेक प्रकारकी चेदनायें उत्पन्न कर जीवको जैसा बहुत दुख देता है, वैसी यह आलोचना भी जीवको बहुत दुःखदायक है. यह आलोचना माया और असत्य भाषणसे रहित है, इसलिये यद्यपि अतिशय अच्छी मानी जाती है नथापि गुरुश्रोने दिय प्रायश्चिन पर थदान न होनेसे दुःखदायक है. इस प्रकार बडुजन नामक दोपका वर्णन हुभा. आगमदो जो बालो परियाएण व हवेज जो बालो ।। तस्स सगं दुचरियं आलोचेदूण बालमदी ॥ ५९८ ।। ७९८ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूगाराधना आश्वासा ७२० आगमेन चरित्रेण पालो भवति यो यतिः ।। तस्यालोचयतो दोषं स्वं दोषो नवमो मतः ।। ६२३ ।। विजयोत्या-आगमदो बालो आगमेन शानेन या बालः । परियारण व हवेज्ज बाटो चारित्रयालो वा यो भवेत् । यः स तस्स तस्मै । सग दुरिद आत्मीयमतिचार। आलोचेण यादमदी उपत्वा वालवुद्धिः॥ अथ नवममव्यक्तास्यमालोचनायोर्ष गाथागयेण व्याच रात्रैन द्वाभ्यां गायाभ्यां लश्यत्येक पाक्षिपति--- मूलारा-आगमदो श्रुत्तज्ञानेन । पालो लघुः । परियारण चारित्रेण । जो गुरुः । तस्स तस्मै । आलोचेदला निवेद्य । बालमदी स्तोकचुतिः । ___ अर्थ-जो मुनि आगमसे पाल है अर्थात जिसको आगमका ज्ञान नहीं है तथा जो चारित्रवाल है अर्थात् चारित्र भी जिसका श्रेष्ठ नहीं है उसको बाल कहते हैं एसे मुनिके पास जाकर कोई अल्पज्ञानी मुनि अपन दोषों की आलोचना करता है, आलोचिद असेसं सव्वं एद मएत्ति जाणादि । बालस्सालोचतो णवमो आलोचणा दोसो ।। ५.९९ ॥ निवदितं मया सर्व नासी जानानि दपणम् ।। विश्रापयति में शुद्धि प्राणिधागति मानसे ।। ६२४ ।। विजयोदया- मालोचिवं कधितं । असेसं सचं निरवशेषं सर्व । मनोवाक्कायकृतोऽतिचारः सर्वशब्देनउभ्यते । कृत्तकारितानुमतविकल्पा भशेषा इत्याण्यायते । भत्ति जागादि मयेति जानाति । बालस्सालोतो,मानबालाय चारित्रबालायचा कथयति णयमो आलोयणादोसो नषम आलोचनादोषः ॥ मूलारा-असेसे कृतकारितानुमतबिकल्प । सव्यं मनोवाक्काय कृतं पण । बालस्स बानबालाय चारिताथालाय या गुरवे । वमो यालो बाला यालोचयन्मया सर्वमालोचितमिति यज्ज्ञानीते सोऽज्यक्तो नामालोचना दोपो भवतीति सम्बंधः। अर्थ-और मैंने इसके पास संपूर्ण अपराधों की आलोचना की है मन, वचन, कायसे और कृत, कारित ७२५ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव मनाराधना अनुमोदनसे किये हुए अपराधोंकी मन आलोचना की है ऐसे जो समझता है उसकी यह आलोचना करना नौ दोषसे दुष्ट है. जानवालको और चारित्रवालको अपने अपराध कहना यह नौवा अव्यक्त नामक दोष है, POST ऋडहिरणं जह णिच्छएण दुज्जणकदा जहा मत्ती॥ पच्छा होदि अपत्थं तधिमा सल्लद्धरणसोधी ।। ६०० ।। इदमालोचनं दत्ते पश्चात्तापं दुरुत्तरं ।। दुष्टानामिव सांगत्यं कूटं स्वर्णमिवाधवा ।। १२५ ।। दति अन्यक्तदोषः । बिजोवा - अच्चन । कागं जा पच्दका अपत्या पिच्छाण होदिनि पाटना । यथा कृटहिरण्य धनमिति गटी पहचादपथ्यं निश्चयनो अचान अभिमनपग्रहाण अनुपावत्यात् । पचमपि इयमपि चालम्य क्रियमाणालोनना अनुपप्रायश्विजमाती अनुपापरवात मदमी । सानदालः परार्थयोग्यप्रायदिन तं दातुं न शमः । दुज्जणकदा य सजा को अपना कार्यः । दुजन कृता मैत्री स्थान पथ्य, दुःखं प्राच्छनीति पचं चारित्रयालस्य संयमोमययिक लाम्य तापि मागदिचनालाममूला अनेकानर्धापति भावः ॥ मलारा-- कूडहिरण कूटकं सुवर्ण । पछा पश्चात् । उत्तरकाले। अपच्छं खकारणं । यथा कूटहिरण्य धनमिति गृहीतं पश्चादपरभ्यं निश्चयतो भवति । अभिमतदव्यग्रहणे अनुपायत्यात । एषमियमपि बालगुरोरये क्रियमाणा लोचना अनुरूपप्रायश्चित्तमानावनुपायत्वादपध्या | न हि ज्ञानबालः परस्मै योग्य प्रायश्चित्तं दातुं क्षमते। यथा कार्यदुर्जने कृता मैत्री पश्चाग्मित चयतोऽपन्यं भवल्वेवं धारिश्रयालगुरोरमे कृताऽलोचना प्रायश्विनालाभमूलानेकानर्यावहेति भावः ।। अर्थ-जैसे कृत्रिम मुवर्ण धन समझकर ग्रहण किया परंतु कार्यकाल में उसका उपयोग नहीं होता है. अर्थात् बाजार में इच्छित वस्तु लेनेके लिए उसको बेचनेका विचार किया तो कोइ भी उसको स्वीकारेगा नहीं जिससे इच्छित वस्तु मिलना अशक्य होता है. वैसे बालमुनिके पास जाकर आलोचना करने पर भी दोषानुरूप प्रायश्चित्त नहीं मिलेगा. जिससे कमानजंग होना असंभव है. जो झानबाल है वह योग्य प्रायश्चित्त नहीं दे सकता है. दुर्जन के साथ यदि मैत्री की तो वह जसी प्रसंग पडनेपर दुःखदायक ही होती है. प्राणिसंयम अथवा इंद्रिय SROAD - Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महारराधना संयम जो पूर्णतया पालन नहीं करता है उसके पास दोषोंकी आलोचना करनेसे उसके अनुरूप प्रायश्चित्त नहीं मिलता है और वह आलोचना अनेक अनर्थ को उत्पन्न करनेवाली होती है. आश्वामः पासत्यो पासत्यास अणुगदो दुक्कई परिकहेइ॥ एसो विमझसरिसो सम्वत्थवि दोससंचइओ।। ६.१ ।। पाश्वस्थानां निजं दोषं पार्श्वस्थो भाषते कुधीः॥ निचिती निचितोपरषोऽपि सरशो मया ॥ ६२६ ।। विजयोदया-पासस्थो पासत्थस्स पार्श्वस्थः पार्श्वस्थमनुगतः । दुक परिकदि दुष्कृतं परिकथयति । सो घि पयोऽपि । मजझसरिसो मत्सरशः। सव्यस्थ वि सर्वेष्यपि यतेषु दोससंचासो दोषसंचयोचतः। तरसेवाति दशममालोचनादोर्ष गाथापंचकेन श्याचष्टे । तत्र तिमभिस्तस्य लक्षणं द्वाभ्यां च क्षेपमाह-- मूलारा--पासत्थो उपलक्षणापास्यावसनकुशीलसंसक्तमृगचरितानामेकतमः । अणुगदो विनीतः सन् । तुकलं दुश्चरितं स्वं । सम्वत्थ वि सर्वेष्वपि तेषु । दोससचयिगो दोषसचयनोद्यतः । अर्थ-पार्श्वस्थ मुनि पार्श्वस्थ मानके पास जाकर उसको अपने दोष कहता है. क्योंकि यह मुनि भी सर्व बता मेरे समान दोषों से भरा हुआ है ऐसा वह समझता है. जाणादि मज्झ एसो सुहसीलन्तं च सम्बदोसे य ॥ तो एस मे ण दाहिदि पायग्छित्तं महल्लित्ति ॥ ६०२ ॥ जानीते मे यतः सर्वा सर्वदा सुखशीलताम् ॥ मायश्चित्तं ततो नेप महरास्यति निश्चितम् ॥ ६२७॥ विजयादया-सो मजा सुहसीलपले जाणादि एप मम दुःखासहत्त्वं वेति। सव्वदोसे य जानाति सर्वदोषांश्व । नो नमानस मे न दाहिरिग मे न दाम्यतिन : महारं पायचितंति महत्मायश्चित्तमिति मत्या कथयतीति संबंध मूलारा गुहसील दु:खा राहत्वं । वहति महदिति परिकथयतीति संबंध: । ८. Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ૮૨ अर्थ -- यह मुनि सुखिया स्वभावको और बतोंके अविचारोंको जानता है, इसका और मेरा आचरण समान हैं, इसलिये यह मेरेको बडा प्रायश्चित न देगा ऐसा विचार कर वह पार्श्वस्थ मुनि गुरूको अपने अविचार कहता नहीं और समानशीलको अपने दोष बताता है. आलोचिदं असेसं सव्वं एवं मएन्ति जाणादि ॥ सो वयणपडिकुद्धो दसमो आलोचणा दोसो | ६०३ ॥ उत्तरा गाथा एतस्य कथनं शुद्धिः सुखतों मे भविष्यति ॥ अयमालोचनादोषो दशमो गदितो जिनैः ।। ६२८ ॥ विजयोदय- स्पष्टार्था । मूलारामपति अयमिति मिश्रक्रमः तेन जानातीति च मत्वा परिकथयतीति संबंध: । सो प्रागुक्तलक्षणः वयणपद्धि आगम निषिद्धः ॥ अर्थ – यह पार्श्वस्थ मुनि कहे हुए संपूर्ण अतिचारोंका स्वरूप जानता है ऐसा समझकर भ्रष्टोंसे प्रायचित्त लेना यह आगमनिषिद्ध दशवा तत्सेवी नामका दोष है. जह कोइ लोहिari वत्थं धोवेज्ज लोहिदेणेव । पाय तं होदि विसुद्धं तधिमा सल्लुदरणसोधी ॥ ६-४ ॥ उक्त दोषः सवपस्य सदोषेण न नाइयते ॥ रक्तरतं कुतो वस्त्रं रक्तेनैव विशोध्यते ॥ ६२० ।। विजयोदया "जए कोर लोहितायं करोति कियासामान्यवातेनायमर्थः यथा कश्चि दिन धोवेज मक्षालयेत् । लोटिच लोहितेनेव में पविति विशु । धिमा सल्लुद्धरणसोधी आलोचनाशुद्धिः दोषं न गिरस्वति । तद्विलक्षणं वस्तु तथा निर्मलजले पंक वखस्य न तु लोहितन ि शुर 夕 Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आमासः ८०३ Aamera वस्त्रं शोधयति तथाभूतमेय लोहित । एवमतीचाराशुधिः अशुभरत्नत्रयोद्देशप्रधृप्तेः अशुद्धयालोचनया ननिराक्रियते इति साधर्म्यनियोजना॥ मूलारा- लोहिदकदं रुधिरेणालिम । करोतेः क्रियासामान्यबाचियेन लेपनऽपि वृत्त्यविरोधित्वान् । ननिमा स्वयं टुष्टेनान्यस्य दुनिराकर्तुमशक्यत्वादिनि सामर्थ्यम् । अर्थ-- जैसे कोई मनुष्य रक्तसे भरा हुआ वस्न रक्तस ही धोने लगजाय तो वह कभी विशुद्ध नी । अशुद्धही रहेगा वैसा यह आलोचना दोष है. अर्थात् यह दोप अतिचारोंस आत्माको विशुद्ध नहीं बना सकेगा. रक्तसे उलटा पदार्थ पानी है. वह स्वयं स्वच्छ है अतः रक्तस भरे चखुको यह स्वच्छ करता है. अथवा वस्त्रको लगा हुआ कीचड धो डालता है. परंतु रक्त रक्तसे लिस हुए वस्त्रको कभी भी शुद्ध नहीं कर सकेगा. उसी तरह अशुद्ध रत्नत्रयवाला पाश्वस्थ मुनि अशुद्ध रत्नत्रयवाले मुनिक अतिचारोंका निराकरण करनेमें समर्थ होता नहीं. -. --...-.. -- पवयणणिण्हवयाणं जह दुक्कडपावयं करेंताणं ।। सिद्धिगमणमइदूरं तधिमा सल्लुहरणसोधी ।। ६.५ ॥ जिनेशवाक्यप्रतिकूलचिता यथा विमुक्तिं दवयंति पूताम् ।। तथा विशुद्धिं धियो घदंतो दोषाकुलानां निजदषणानि ।। ६३० ।। इति तत्समः 11 विजयोदया-पवयणणिययाणं जिनप्रणीतषचननिमयकारिणां । तुक्कडगावगं करताणं दुरुकरपापकारिणां । जह सिसिगमणमावूरं यथा सिगमनमतिदुष्करं । तस्सेवी मां ॥ मूलारा-पवयणहिण्डोदाणं आगमापन्होतणां। अदिरं अतिविश्ल अभव्यापेक्षया अनंतकालेनाप्यसभवि। ___ अर्थ - जो नि जिनेश्वरके कह हुए आगमके वचनाका लोष करने हैं और दुष्कर पाप करते हैं उनको मोक्ष की प्राप्ति जैसी अनंतकाल व्यतीत होनपर भी होती नहीं वस जो यान्वसहित आलोचना करते हैं उनको मोक्षप्राप्ति अत्यंत दूर है. Punaries Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ८.५ सो दस वि तदी दोसे भयमायामोसमाणलज्जाओ ।। णिज्जूहिह्य संमुद्दो करेदि आलोयणं विधिणा ॥ ६०६ ।। हित्वा दोघान्दशापीति त्यक्तमायामदादिकः ।। स विनीतमनाः सूरेरालोचयति पत्नतः ॥ ६३१ ।। विदया-खोपकर आलोचनया दुपा शुद्धेरभावात् । दोसे णिज्जूहिय दोपांत्यया । दस विदशापित भयमायामोसमाणलजाओ भयमाया मनोगतां मृषा वचनगा, मान लजां च त्यक्त्वा संशुद्धो सम्यक्शुद्धः । विधिना आलोय करे दि । विधिना आलोचना करोति ॥ एबमालोचनाथा दश दोषान्ल्याख्याग तत्त्यागं प्रकृते योजयत्राह मूलारा--सो निर्यापकाचार्यपदमूलोपावितः क्षपंकः । तदो दुष्टालोचनाशुधसामर्थ्यात् माया मनोवचनां मोसं वायंचगां, । णिज्जूहिय दोषान भयादींश्च त्यक्त्वा ॥ ___ अर्थ--इस लिये क्षपकमुनि आलोचनाके दस दोषोंका भी त्याग कर आलोचना करे. क्यों कि दृपित आलोचना आत्माको शुद्ध करने में असमर्थ है. भय, माया कपट, असत्य भाषण, गर्व, और लज्जा इनका भी त्याग कर शास्त्रोक्त विधीसे आलोचना करना क्षपकका कर्तव्य है. कोऽसायालोचनाबिधिरित्याशंक्यात गचलबालयगिहिभासमूगदद्रसरं च मोत्तूण ॥ आलोचदि विणीतो सम्म गुरुणो अहिमुहत्थो ॥ ६०७ ।। गृहस्थवचनं मुक्वामीनं च करनर्तनम् ॥ सम्यक्सुस्पष्टया वाचा वक्ति दोषान्गुरोःपुरः ॥ ६३२ ॥ विजयोदया--हचलवलियगिहिासमूगदद्दुरसरं च इस्तनर्स नं, रुक्षेप, चलने मात्रस्य, वलित, गृहिवनन, मूकदा संशाकरणं, घरस्वरं च मुक्त्या आलोचेदि कथयति । विणीदो कृतांजलिपुटोऽधनतशिरस्कः। अदद अद्भुतं । अचि. वित रगमं । गुरुणो महिमुहत्या गुरोरमियः ।। ८० Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धराना ८०५ दिगामोहनं । मूग मूकवत्संज्ञाकरणं । ददुरसरं वर्षरस्वरं, दरं वा । विणोदो कृतांजलिपुटोऽवनतशिरस्को हस्तमात्रत्यत्तगुरुभूमिदेशश्च | अहिमुहस्यो गुरोर्यामपाश्रश्रयेण अभि गवासेनेनोपविष्टः । उक्तं च मूकसंगल स्तनर्तनं । गृदिणां वचनं चैव तथा शब्दे च परं ॥ १ ॥ विमुक्रयाभिमुखं शिवा गुरु गुणवारि ॥ स्वापराधं समाचमितिः ॥ २ ॥ अर्थ -- हाथोंका अभिनय करना, मोहोंको ऊपर उठाना, शरीर हिलाना, शरीरको मूडना, गृहस्थ के समान उद्धत भाषण करना, गुंगेके समान संज्ञा करना, घर्घर स्वरसे बोलना, इत्यादि दोषोंका त्याग कर आलोचना करनी चाहिये. अर्थात् नम्रता पूर्वक हाथ जोडना, मस्तक नम्र करना, अति शीघ्र अथवा अतिविलंबका त्याग कर गुरुकें तरफ अपना मुह करके आलोचना करनी चाहिये. एक हाथ के अंतर पर गवासन से बैठकर आलो चना करनी चाहिए. पुढवागणपणे यबीयपतेयणतका य ॥ विगतिगचदुपचिदियसत्तारंभे अणेयविहे || ६०८ ॥ एकद्वित्रिचतुःपंचहृषीकांगिविराधने ॥ असूतवचस्तमैथुन ग्रंथसेवने ।। ६३३ ॥ विजयोदयापुढविदगागमिव य पृथिव्यादीनेच वीजपलेयतका य बीजे प्रत्येकका वनस्पती विगतिगन्यदुसत्तारं द्वित्रिचतुःप्रयसत्यविषये चारं अमेधित्रे अनेकप्रकारे । पृथिव्यामृषिकलशर्करासिकता लवणाभ्रकमित्यादिकायाः स्वपनं विलेखन, बहने, कुट्टनं इत्यादिकवारम्भः । उदककरकावश्याय तुकारादीनां अभेदानां पानं, स्नानमवगाहनं, तरणं हस्तेन पादेन, गात्रेण वा मर्दनं इत्यादिकं । अग्नेर्ज्याल, प्रदीप, उल्मुकं इत्यादिकस्य तेजसः उपर्युदकस्य पश्पत्यस्य मूलिकायाः सिकताया या प्रवर्ण पात्राण काष्ठादिभिर्द्धननं इत्यादिकं । मंदी पायी वाति व्यजनेन तालंतेन गुण, बेलाइना या समीरणोत्थापनादिकः याते वाभिगमनं बीजानां प्रत्येक जनतावानां च वृक्षवल्लीगुमा फलादीनां वहनं छेदनं मर्दनं भंजनं भक्षणमित्यादिकः । इन्द्रियादीनां पर छेद, ताडने बंधनं नन्दिके ॥ आठ गाथाचतुष्टयेनालोचनाबिपिविपथी कर्तुमाह भाश्वास ४ ८०५ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S मूलाराधना RO সাস্থা मूलारा-पुनधि पूयित्रीकायिकाः । अगणि तेज:कायिकाः पत्रपणे वात कायिकाः। पी पीजभूना त्रनम्पनिगायिकाः । एवं पसेयं प्रयोगाः । गतकाये अनंतकायिकाः साधारगाः विवादि विविधतुःपद्रियमत्वातामारंभ विराधने । एतत्पृथिव्यादिभिरपि योज्यं । अणेयविधे अनेकप्रकारे । तथा हि-पृधिग्या मुतिकोपलशर्करासिकतालवणवकादिकायाः खननबिलेखनदहनकुटनभंजनादिक आरंभः । उदककरकाय नायतुपारादीनामभेदानां पानस्नानायगाइन तरणहस्तादिमर्दनादिकः । अमिज्वालाप्रदीपोल्मुकादिकस्य तेजस: उपर्युदकपाषाणमत्तिकासिकतादिप्रक्षेपणपाषाण काष्ठादिहननादिकः। झंझामंडलिकादिवातस्य कपाटछ वादिना प्रतिबंधः । व्यजनादिना वा तस्य करण वातेवाभिगमनमित्यादिको वायुभेदानां । वृक्षवल्लीलतागुल्म तृणपुष्पफलादीनां दहनछेदनताडन धरोधनादिकः । आओ..-नी, बल. गति हवा, बीज, अनंतकायिक वनस्पति, प्रत्यककाय वनस्पति, द्वींद्रिय, वांद्रिय, चतुरिद्रिय, पंचेंद्रिय इन प्राणिओंका वध पदि मेरेसे हुआ होगा तो में उस की आलोचना करता हूं. पृथिवीके अनेक प्रकार हैं. जैसे-मृत्तिका, पाषाण, शर्करा, बालुका, नमक, अभ्रक वगैरह पृथ्वीके भेद हैं. इत्यादिरूप पृथ्वीको खोदना, हलसे चिदारण करना, जलाना, फोडना, मोडना इत्यादिरूप से मैंने उनका नाश किया होगा. पानीके भी बहत भेद है जैसे-पानी, बर्फ, ओस, हिमाबिदु वगैरह पानीके भेद हैं. इनका पान करना, म्नान करना, उसमें कूदकर स्नान करना, तीरना, हाथ, पाव, और शरीरसे मर्दन करना इत्यादिरूपसे मैंने उनका नाश किया है. अनिके ज्वाला, दीपक, उन्मुक इत्यादि भेद है. इनके ऊपर मने पाषाण, मृत्तिका अथवा वाटका फककर इनका नाश किया होगा, पाषाण और लकड़ी से उसको पीटा होगा. इत्यादिरूप आरंभ मन किया होगा. वायुके झंझावात, मंडलिक ऐस भेद हैं. जलवृष्टि सहित जो वायु बहती है उसको झंझावात कहते हैं, जो वर्तुलाकार भ्रमण करती है उसको मंडलिक वायु कहते है. इस प्रकार वहनेवाले वायु को मैने पंखेसे, सूपसे और वनसे रोका होगा, उसको उत्पन्न किया होगा, बातके सम्मुख गमन किया होगा. वनस्पती-बीज, अनंतकायिक, प्रत्येककायिक वृक्ष, वल्ली, छोटे छोटे पेडोंका समूह, लता, तण, पुष्प, फल Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना タロン वगैरह वनस्पति के भेद हैं. इनको मैंने जलाया है, तोडा है, छेदन किया है, मर्दन मोडना खाना वगैरहसे इनका मैंने आरंभ किया हैं, द्रिय, त्रीद्रिय, चतुरिंद्रीय, पंचेंद्रिय इन प्राणिओंका मैने छेदन किया है. उनको बांधा है. रोका है और ताडन किया है इत्यादि रूप आरंभ ने किये हैं. पंडोवधि सेवाए गिमित्तणिज्जवाकुसे लिंगे ॥ तेणिक्कराइभत्ते मेहूणपरिग्गहे मोसे || ६०९ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रतपसां प्रतिकूलने || उपाहारदूषणानां निषेवणे ।। ६३४ || विजयोदय पिंडोवधिसज्जा पिंडे, उपकरणे बसतो न उद्मोत्पादनेपणादानातिवासं । गिद्दिमत्तणिज्वाकु लिंगो । गृहस्थान भाजनेषु कुंभकरकशरावादिषु कस्यचिनिक्षेपण मैत्री दादानं नारिनिचारः । दुः तिले ज्यत्वाच्छोधयितुमशक्यत्वाच्च पीठिकायामासां खवायां मंचे वा भासनं निषद्यच्यते। पीठिकादिष्यनेकच्छिद्रा कुला दुःप्रेक्ष्याः प्राणिनो दृष्टादच नाकर्तुं शक्यते । ततोऽहिंसावतानिचारः 1 तथा चोक्तं - पीठिकासंदपक मंचया सालये तथा । अणावरिदमज्जाणं आसिहुं सहदे दिया। गंभीरवासियों प्राणा दुग्बेषखा दुब्बिर्कित्रणा || सम्हा दुप्पडि ले च वज्ज पदमव ॥ उपवेशनं अथवा गोचरविष्टस्य गृहेषु निषेधा कस्तत्र दोष इति चेत् ब्रह्मवर्यस्य विनाशः खीभिः सह संवा सात् । असकृतदीयकुचलवाधरादिसमवलोकनोजमार्थिनां च विघ्नः । कथमिय यतिसमीपे भुजिक्रियां संपाद यामः शुचि वेदं चत्कथमस्यामासंद्यां तु तावदमी इति क्रुध्यन्ति वा गृहस्थाः। किमर्थमयमत्र दाराणां मध्ये निषण्णो यति भुं न यातीति । स्नानमुद्धर्तनं गात्रप्रक्षालनं च चाकुलमित्युच्यते । स्वानेन उष्णोदकेन शीतजलेम सीधीरकादिना बा free fरस्थाः इतरेऽपि स्वल्पकायाः कुंथुपिपीलिकादयो वा इति । तथा चोकं - सुमा संतिपाणा खुपाले म बिलेस अ । सिन्दाति यतो भिक्खू विकट्टेणोपपीडर ॥ ण सिन्हातो तन्हा ते सीमण्णोदमेण च । जावजीवं वदं घोरं खण्डरणमधिदिं ॥ दोघादिना उद्वर्तनं च नाचरेति । लिंगविकाशनक्रिया तु तात्स्थ्यालिंगरादेनोच्यते । सेणिकारादिभत्ते आवास " ८०७ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आवास। ८०८ Saamana अदनानं गत्रिभोजनं न । श्रदत्वादाने ने नाम्यागिनः प्राणापहार पत्र कृतो भवति । बहिश्चराः प्राणा धनानि प्राण हागनयन्ती : गत्रा च भोजनं अनेकामामूलं । रात्री भ्रमं पड़ जीवनिकायबाधा । अयोग्यस्य प्रत्याBा । दातक्षालया। कानादिनियमनशम्प, दाधिकागमननाथ तस्यामनश्चात्र. धागदशम्य अपरीक्षा । महापरिगद बेव मैयुग परिवहश्चैव । मोस मृषा च ॥ मुलारा-पिंटोवधिसज्जा आहारे उपकरणे वसती चोद्गमादिरतिचारः । गिहि मत्ता गृहिणाममत्रेषु भाजनेपु कुंभकरकशरावादिषु कस्यचिज्जलभस्मादिद्रव्यस्य निक्षेपणं तैर्वा कस्यचिदादानं चारित्रातिचारः तेषां दुष्प्रतिलेखत्वान् शोधयितुमशक्यत्वाच्च ।णिसंग्ज निषद्या पीठिकायां असंघां पटायां मंचके वा आसनमित्यर्थः । तेषु हि अनेकछिद्राकुलेपु प्राणिनो दुनिरीक्या या वा नापनेतुं शक्परन् । ततोऽदिसानताहिचारा | अथा गोचरप्रविष्टस्प गृहेषु प्रवेशन. निपया ।तत्र दि ब्रह्मचर्यस्य विनाशः, नीभिः सह संवासात् । भोजनार्थिनां मुजिक्रियांतरायकरणादुद्वेगः क्रोधादिसंक्लेशः स्वात् । पाकुसे स्नानमुद्र- गात्र पक्षालनं च पाकुप्तमित्यभिधीयते तेहि भूमिरधादिस्थाः स्वदेहस्थाश्च प्राणिनी विनश्यति । लिग लिंगविकासविहिया नासत्यालिंगशब्देनो कयते । तेणिका पौर्य । रादिभने रानिमोजने तद्धयोकासंयममूलं पजीवनिकायवधात् । तत्कारिणां चायोग्यस्य प्रत्याख्यातस्य च भोजनं दातुः पात्रादिस्थापन प्रदेशदायका गमनगागम्यावस्थानदेशानां बाइपरीक्षा। अर्थ-पिंड-आहार, उपकरण और वसतिका इनका स्वीकार करते समय मेरेसे उद्गम, उत्पादन एषणा वगैरह दोष उत्पन्न हुए होंगे. गृहस्थोंके भाजन अर्थान् कुम, घडा, करक कमंडलु, शराब वगैरे पात्रों से किसी पात्रमें कोई पदार्थ रक्खे होंगे. अथवा किसीको दिये होंगे ये सब चारित्रातिचार है. क्यों कि ये पदार्थ अंदरसे स्वच्छ करना कठिन है. छोटी चौकी, बत्रासन, खाट, पलंग इनके ऊपर चैठना इसको निपद्या कहते हैं. चाकी वगैरह पदाथामें अनेक छिद्र रहा है और उसमें जो प्राणी रहते हैं वे दीखते भी नहीं, यदि दीस भी तो उनको निकाल नहीं सकते, इसलिए ऐस चौकी वगैरह पदार्थोंपर बैठनेसे अहिंसात्रतमें अतिचार उत्पन होते हैं. यही अभिधाय अन्य ग्रंथाम भी कहा है __अथवा आहारके लिये श्रावकके घर जाकर वहां बैठाना गह भी अयोग्य है. खियोंके साथ सहवास होनेसे ब्रह्मचर्यका नाश होता है. पारंबार जियाके रखन, अधरोष्ठ वगैरह अवयव देखने से कामज्वर उत्पन्न होता | ८०८ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना माश्वास है. जो भोजन करना चाहते हैं उनको भी चिन्न उपस्थित होता है. मुनि के साबध आहार लेनेमें उनको संकोच | होता है. अथवा उनको उद्वेग क्रोधादिक विकार उत्पन्न होते हैं. यह आसन अपवित्र है तो भी ये इसपर कैसे चैठते हैं ऐसा विचार मनमें उत्पन्न होनसे वे कोपयुक्त होते हैं. ये यति त्रियों के बीच में क्यों बैठने है यहां से क्यों अपने स्थानपर जाते नहीं. म्नान करना, उबटन लगारा, शरीरक अवयव धोना इन क्रियाओं को 'वाकुस' कहते हैं. ठंडे पानीसे अथवा उष्ण पानीमे, नेवमें अंजन लगाना, शरीरपर उबटन लगाना इन क्रियाओस शरीरपर रहनेवाले प्राणी मर जाते हैं तथा चिल में रहने वाले प्राणी, जमीन के छोटे छोटे छिद्रों में रहने वाले चाँटी वगैरे कृमि नष्ट होते हैं, इसलिये स्नान मुनिओंको निषिद्ध माना है. मुनिओंको आमरण यह घोर बन पालना चाहिये. आगमांतर में भी यही अभिप्राय लिखा है. लोध्र वगैरह सुगधी पदार्थीका उबटन शरीरपर मुनि नहीं लगाते है. लिंग विकासनक्रियाको लिंग कहते हैं. इसका मुनित्याग करते हैं, न दिया हुआ पदार्थ लेना और रात्रि मोजन इनका मुनिओं को त्याग रहता है. न दी हुई वस्तु लेना मानो उस वस्तुके मालिकका प्राण ही लेना है. धन प्राणीओंका बाह्य माण है, जो दुसर्गेका धन हरण करते है राजा उसको दंडित करता है. रात्री भोजन करना अनेक असंयमों का मूल कारण है. रात्रमें भ्रमण करने से स्थावर और त्रस जीवों को बाधा पोहोंचती हैं. रात्री भोजन करन में अयोग्य पदार्थ, और त्यागा हुआ पदार्थ का भी सेवन होता है. रात्रकालमें दाताकी परीक्षा नहीं हो सकती है. रात्री अपने हस्तपुटसे भाजन करत समय जा अब नीचे जहां गिरता है वह भूप्रदेश, जहां अन्नकी स्थाली रखते हैं वह प्रदेश और दायक जहाँस आकर आहार देता है वह प्रदेश, आहार देते समय वह जहां खडा होता है वह प्रदेश और स्वयं मुनि जहां खडे हुए हैं बह प्रदेश ये जीवोंसे रहित हैं या सहित हैं इनका निर्णय रातम नहीं होता है. इस बास्ते रात्री आहार लेना योग्य नहीं है. मैथुन करना, परिग्रह रखना, शूट बोलना इनका मुनि त्याग करते हैं, जाणं दलणतबीरिय य मणवयणकायजोगेहि || कदकारिंदणुमाद आदपरपओगकंग्ण य ॥ ६१. ॥ Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना आधा ८१. विजयोदया-जाणे शाने । दसणतववीरिए श्रद्धायां तपसि वीयं च योऽतिचारः । मणवयणकाय जागेहि मनोयाक्कायक्रियाभिः । मनसा सम्यग्ज्ञानस्वायज्ञा, किमनेन ज्ञानेन, मपचारित्रमेव फलदाग्यनुयामिति । सम्पयामासा मिथ्याशानमिदमति दूषणं । मनमा याचा कायन वा स्यामचिम्काशने, मुखययन नैनवाति सिरपनन पर । शंकाकांक्षादि दर्शनेऽतिचारः। तपस्यसंयमः। वीर्य स्वशातिगृहने । ल नानीवारः सर्वस्वित्रप्रकार इति कथयति । पाद हरिदे बाबोस क विता मञ्च - आदपरयोगकरणे य आम्म नैव वृतः कारितोऽनुमतश्च, परप्रयोगक्रिया हतः कारितोऽनुमत्तो वा ॥ __. मूलारा-जाणे इत्यादि । सम्यग्ज्ञानस्य किमनेन तपश्चारित्रमेवाभिगन फलदायनुप्रेयमिति मनसावज्ञा, मियाज्ञानमिदमिति बाचा, कायेन च मुखत्रैवानारूचिप्रकाशनं । शिर:कंपनीतदेवमिति वातिचारः । दर्शनादीनां च प्रागुरता एव । आइपरपओगकरणे आमना परण वा कृतः कारितोऽनुमान ।। अर्थ- ज्ञान, दर्शन. तुप और वीर्य इनमें मन, वचन और शरीर और नत, कारित, अनुमोदन अतिचार उत्पन्न हुए हों तो उनकी आलोचना करता है. मनके द्वारा सम्यन्ज्ञानकी अवज्ञा करना, सम्यग्ज्ञानकी क्या जरूरत हैं, तप और चारित्रही फलदायक है. उनका ही आश्रय करना चाहिये. अथवा सम्यग्ज्ञानको यह मिथ्याज्ञान है ऐसा दुपण लगाना, मनसे, बचनसे और शरीरसे सम्यग्ज्ञान के विषय में अरचि प्रगट करना. मुंह मोडकर अथवा मस्तक हिलाकर यह सम्यग्ज्ञान नहीं है ऐमा प्रगट करना शंकाः कांक्षा वगैरह सम्यग्दर्शनके अतिचार हैं.. तपश्चरण करते समय असंयमरूप प्रवृत्ति करना, तुपका अतिचार है. अपनी शक्ति छिपाना वीर्यका अतिचार है. ये अतिचार कुत, कारित और अनुमोदित ऐसे तीन प्रकारक है. स्वयं करना, स्वयं कराना और अनुमोदन देना अथवा परपयोग क्रियास भी करना, कसना, और अनुमोदन देना ऐसे तीन प्रकार हैं. SA अहाण रोहगे जणवए य रादो दिवा सिंवे ऊमे ॥ दप्पादिसमावण्णे उद्धरदि कर्म अभिदतो ॥ ६११ ॥ दुर्भिक्ष मरके मार्गे चरिचौरादिरोधने । योऽपराधो भवत्कश्चिन्मनोवाकायकर्माभिः ।। ६३५ ॥ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास सर्वदोषक्षयाकांक्षी संसारश्रमभीलुकः ।। आलोचयति तं सर्व क्रमतः पुरतो गुरोः ५६३६ ॥ विजयोत्या-अद्धाण रोहगे जणषदे यस्यायस्थिते जनपदे यावन्तो मार्गास्तेषां रोधके परचफे जाते यदि निस्सतुं न लभते संक्लिष्टा भिक्षा र्या तत्र अयोग्यस्य सेवा कृता भात्मना तमपि कथयति | रादो दिवा रात्रौ अयमप्तिः चारो जातो दिबसे इति घा कथनं । मार्या उपद्रुते संघ विघया मंत्रेण वा तनिषेधनायाभयमतिचारो जात इति बा। दुर्मिक्षे या महति अवमोदर्यमग्नेन यदात्मना सेवितं मन्ये याऽयोग्यभिक्षाप्रदणे रत्थं प्रवर्तिता इति चा कथनं । दप्पादिसमाषणे दर्यादिभिः समापनः ॥ मूलारा--अद्धाण रोधगे जणवये । जनपये देशे। यावतोऽध्वानो मार्गास्तेषां परचके रोधके परनों प्रवृत्ते निःसर्तुमलभमानस्य साधोर्या पारखश्येन संश्लिष्टा भिक्षाचर्या संजाता अयोग्यसेवा वा आत्मना कृता तामप्युद्धरतीति संबंध पो दिया ने दिवा वगोहोरो नासले मार्यामुपद्रवे संघस्य विद्यामंत्रादिना तत्प्रतिकारे योऽतिचारः । ऊमे दुर्भिक्षे अयोग्यसेवनादिना योऽतिचारोऽन्यो वा तारा । दप्पादिसमावण्ये दादिभिः सांमुख्येन आवरणो प्रातस्तं सर्व उद्भूरति गुरोरने कथयति । किं कुर्वन् ? कर्म अभिट्तो देशक्रम कालक्रम चानतिकामन् ॥ अर्थ-देशमें बाहर जानेके अथवा प्रवेश करनेके जिनने मार्ग हैं वे शत्रुसैन्यके द्वारा रोके जानेपर वहांस निकलना अशक्य हो जाता है, उस समय भिक्षा मिलना कठिन हो जानंसे परिणामों में संक्लेश पैदा होता है. कदाचित ऐसे समयपर अयोग्य पदार्थका सेवन होता है. आलोचनाके समयमें इन सब बातोंका क्षपकको खुलासा करना योग्य है, अमुक अतिचार रात में हुआ था अमुक अतिचार दिन में हुआ था यह भी कथन करना चाहिये. मारी रोगसे संघ पीडित होने पर विद्या और मंत्रके द्वारा उसका निराकारण करते समय जो अतिचार दुआ होगा यह भी कहना चाहिये, यदि महादुष्कालके समगम अत्रमोदर्य तपमें अतिचार लगा हो अथवा अयोग्य भक्षण किया डो वह भी निवेदन करना चाहिये. इतर मुनिओंने भी दुष्कालमें अयोग्य सेवन किया होगा तो वह कहना चाहिये. दर्प, प्रमाद अगरहसे जो अतिचार होते हैं उनका भी ऋथन करना चाहिगे. दम्पपमादआणाभोगआपगा आदर य तिलिणिदा ।। संकिदसहसाकारे य भयपदोसे य मीमंसं ॥ ६१२ ।। Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाचा अण्णाणणेहगारच अणप्पवसअलस उपधि सुमिणते ॥ पलिकुंचणं ससोधी करेंति वीसंतवे भेदे 1 4१३ ॥ विजयोदया - इति दादिः । अथ दरोडनेकप्रकारः । क्रीडासंघर्षः, व्यायामकुदक, रसायनसेचा, हास्य, गीतशृंगारवचन, प्लवनामस्याको दर्पः | प्रमादः पंचविधः । बिकथा, कपाया, दियविषयासक्तता, निद्रा, प्रणयश्वेति । अथवा प्रमादो नाम संक्लिपहस्तकम, कुशीलानुवृत्तिः, बाधशास्त्रशिक्षण, काम्यकरणं, समिति प्वनुपयुक्तता। छेदनं भेदन, पेषणमभिघातो, व्यधने, ग्रननं, बंधनं, स्काटन, प्रक्षालनं, रंजन, एन, प्रथनं, गरण, समुदायकरणं, लेपन, क्षेषणं अालेखनामित्यादिकं संक्लिदस्तकम, सीघुसपलक्षण निमित, ज्योतिर्थानं, छंदः, अर्थशास्त्रं. चैछ, सौकिकवैदिकसमयाथ चाहाशास्त्राणि । उपयुक्तोऽपि सम्यगतीचारं न वेत्ति सोऽनाभोगकृतः, व्याक्षिप्तनेतसा या कृतः । नदीपूरः, अग्न्युत्धापन, महावस्तापातः, वर्षाभियातः, परनकरोध इत्यादिका मापाता रोगातः, शोकानों, वेदनात इन्यात विविध रसासक्तता मसरता चति विप्रकारता तित्तिणदा दवाया। सचिनं किमनिलमिति शकिते दच्य भजन भेदन भक्षणादिभितिस्थापकर. वसंतदा माददोषोपहनिरासत नवति शंकायामप्युपादाने । अशुभ मनमो वाचो ना झमिति धनिः महगेन्युमगने ॥ पाताशं वसती यालमृगन्यावादयाना वा प्रविशन्ति इति भयेन द्वारस्थगन जातोऽतिचारस्तीवस्याय परिणाम प्रदोष इत्युच्यने उदकरावयादिसमानतया प्रत्येक चतुर्विकलाश्चत्वारः कषायाः । आत्मनः परस्य वा वललाघवादिपरीक्षा मीमांसा तत्र जातोऽतिचारः। प्रसारितकराकुंचितम् । आकुंचितकरप्रसारणं । धनुषाधारोपणं । उपलाम्क्षेपर्ण, राधनं, वृतिकंटकाचुलंघन, पशुसर्यादीना मंत्रपरीक्षणार्थ धार, औषधधीर्यपरीक्षणार्धमंजनस्य, चूर्णस्य या प्रयोगः, व्यसंयोजन या त्रसानामे केन्द्रियाणां च समूछना परीक्षा । आशानामाचरणं हवा स्वयमपि तथा चरति तत्र दोगानभितः। अश्वयाऽशानिनोपनीत मुहमादिदोगोपहने उपकरणादिक सेवते इति अझानात्प्रवृत्तोऽतीचारः । शरीरे, उप. करो, यसनी. अटे, ग्रामे, नगरे, देशे. 'बंधुषु, पालम्पुवा ममेदभावः स्नेहस्तेन भवर्तित याचारः । मम शरीगमिदं शीती वानो याचयनि. पटादिभिरंतर्धानं. असिसन्या, ग्रीष्मात पनोदनाथ प्रावरणप्रदर्ण वा, उद्वर्तन, बा। उपकरण विनइयतीति नेनस्वकार्याकरणं यथा पिछविनाशनयादममार्जन इत्यादिकं । प्रक्षणं, तैलादिना कमंडल्वादीनां प्रक्षालनं वा, वसतितृणादिमक्षणभ्य भंजनादेर्वा ममतया निवारा, बहना यतीनां प्रवेशन मनीयं कुल न सहते इति भाषणं, प्रवेशे कोपः, बाहनां न दातव्यमिति निवेधनं, कुलस्यैव वैया प्रत्यकरणं । निमित्ताग्रुपदेशश्च तत्र ममतया ग्रामे नगरे देशे या अवस्थाना निधनं । यतीनां संबंधिना जुन सुखमात्मनो दुगन दुःसमित्याविरतिचार पावस्थानां वंदना, उपकरणाशिवानं या तल्लंघनासमर्थता गुरुता विम्यागासहता, ऋद्धिगौरवं, परिवारे कृतादरः। परकीयमारमसात्करोति प्रिय वचनेन उपकरणदानेन । अभिमतरसात्यागोऽनभिमतानादरवनितरां रसगौरवं । निकामभोजने, निकामशपनादौ या आसक्तिः सातगीरवं । ८१२ Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना आश्वासः बनामवशतया प्रबर्तितातिवारः । उन्मादेन, पितेन पिशाबादेशेन या परवशता अथवा शातिभिः परिगृहीतभ्य बलात्कारण गंधमाल्यादिसेवा प्रत्याख्यातमोजन, मुखवासतांत्रूलादिमश्क्षणं वा स्त्रीभिर्नपुंसकैवी यलादवलकरणं । चतुर्यु स्वाध्याय आवश्यकेषु वा आलस्यं । उवधिशब्देन मायोच्यते प्रच्छन्नमनाचारे वृत्तिः । ज्ञात्वा दातकुलं पूर्वमन्येभ्यः प्रवेशः । कार्यापदेशेन यथा घरे न जानंति तथा वा । मढकं भुक्त्वा विरसमशनं भुक्तमिति कथने । ग्लानस्याचार्यादेर्वा वैयावृत्यं करिप्यामि इनि किंचिरहीत्या स्वयं तस्य सेवनम् । स्वप्ने पाऽयोग्यसेवा सुमिणमित्युच्यते । द्रव्यक्षेत्रकालभरवाश्रयेण प्रवनम्याति चार न्यायथा कथनं गलिकुंचनदादेनोफयते । कथं ? सचित्तसेवा कृत्या अधिस सेवितमिति । अचिनं से यिाचा सविस सतिमिति वदति । तथा स्वावधान कृतमध्यनि कृतमिति, सुभिक्ष कृतं दुर्भिक्ष कृतमित्ति, दिवसे तं गची कृतमिति, अकवायतया गंपादितं भवकोयादिना संपादितमिति । यथावत्कृतालोचनो यनियर्यायमूगि प्रायशिसं प्रयच्छति नायत्स्वयमवेद मम प्रायाननं इति स्वयं गृणाति समय शोधक। एवं मया स्वाद्विरनुप्रिति निवदनं । एवमतादिभिः समापनोऽतिचा उजरदि कथयति । कर्म स्वरुतातियारक्रमं । आमदनी अनिराफर्यन् ।। ददियो विशतिरति चारफारणविकल्पा यथागर्म निर्दिश्यन्ते । तथाहि मूलारा--१ तत्र दर्पोऽनेक प्रकारः । क्रीडासंघर्षों व्यायामः, कुहक, रसायनसेषा, हास्य गीतश्रृंगारो, धापन, प्लवन मित्यादिकः । प्रमादः पंचधा विश्रा, कपाया इंद्रियविषयासक्तता, निद्रा, प्रणय इति। अथवा संक्लिष्टहस्तकर्म, कुशीलानुवृत्तिः, सामुद्रिक निमित्तभ्योतिपद्यकछंदोऽर्थशामावैदिकलैरिककसमयमंत्रवादादिवास्यशाल शिक्षा, काव्यकरणं, समितिष्व, नुपयुक्तता. छेदनं, भेदगं, पेपणमभिधानो. उययनं, खनन, यंधनं, सीवन, प्रक्षालन, रंजन, वेष्टनं, अधनं, पूरणं, समुदायकरण, लेपनं, क्षपर्ण, आलेखन इत्यादिकोऽनेकप्रकार: भमादः । अनाभोग उपयुक्तस्यापि अतिचारणां सम्यगनवबोधः । आपगा आपगापुरबन्भत्स्थानां महायातापानवाणिधारपरचककरोधाधुएसर्गः । आतुरत्वं रोगशोकवेदनोभेदात्रेथा । तित्तिजिंदा द्वेधा रसामक्तता मुखरता चेति । ७ पिटाइपयोगिद्रव्ये किमिदं सचित्तमुताचिसमिति संदेहे सत्यपि तर्जनभेदनतक्षणादिकरणं । पिंडादेर्वा किमत्रोद्मादिदोषोपहातिरास्ति न वेति शंकायामप्युपादानं। ८ सहसाकारोऽशुभस्य मनसो वाचो वा झटिति प्रवृत्तिः ।। ९ भयं एकांतायो वसती स्तेनव्यालादिरत्र प्रवेक्ष्यतीति द्वारस्थगनम् । १० प्रदोषस्तीत्रसंज्वलनकषायपरिणामः ॥११ मीमांसा स्वस्य परम्व वा बललाघवादिपरीक्षा । अथवा प्रसारितस्य करस्याकुंचनं, आकुंचितस्य वा प्रसारणं, धनुषाधारोपणं, उपलामुक्षेपणविशेषणधावनं, वृतिकंटकाद्युप्लंघन, पशुसर्यादीनां मंत्रापरीक्षणावधारणं, ओपधीचीर्यपरीक्षणायमजनस्य वा प्रयोगः ।, व्यसयोजनया सानामेकेंद्रियाणां वा सम्मानपरीक्षा ।। ११ अज्ञानां आपरणपर्शनातवाचरण, अज्ञानिना उपनी तस्व उद्गमादिदोषदुष्टस्य उपकरणादेः सेवन वा ।। १३ 438 Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास ८१४ स्नो देहोरधिवसनिकलनामनगरदेशबंधुपाश्रम्वेषु ममत्वपरिणामः । तेन गई शरीरं शीतादिना चायन इनि का (नामिसेवनप्रावरणमहणम्रक्षणोद्वर्तनायुपचारोऽतिचारः । तथा ममोपकर विनश्यति इति पिछविनाशभयादप्रगार्जनम्। कमंडल्वादीनां प्रक्षालन, तैलादिना वा म्रक्षण, वसतेस्तृणाद्यपसारणं भजनसदिनिवारणं बा। बहूनां यतीनां प्रशनं मदीयं कुलं न सहते इति भाषणं वा । प्रवेशे पार्श्वस्थादीनां वंचनोपकरणादिदानं वा । तदुधनासमर्थना वा ।। १५ गारवं ऋद्धिरससातासक्तिः तेन परियारे लोभात्परकीयस्प प्रियवचनादीनां आत्मसात्करण वा, गंधमाल्यतांनूलादिसेवन, अनिष्ट रसत्यागेष्टरसाद, यथष्टभोजनशयनादितत्परत्वं च । १५ अनात्मवशत्वं-उन्मादपित्तप्रकोपपिशाचावेशादिना पारतंत्र्य, ज्ञातिबलात्कारेण वा गंधमाल्यतांबूलादिसेवन, प्रत्यायातमोजन, रात्रिभोजनं वा । स्वीभिर्नपुंसक बलान्मैथुनमवतनं वा | १६ आलस्य स्वाध्यायावश्यकेश्वनुत्साहः । १७ उपधियानयोग, प्रच्छन्नमनाचारे प्रवृत्तिः, प्रदातृ झावा अन्येभ्यः पूर्व तन्त्र प्रवेशः कार्यापदेशेन यथा परे न जानन्ति तथा । भट्रक भुक्त्वा विरसगशनं भुन इति कथन । ग्लानस्याचार्यादेयावत्यं करिष्यामीति किंचिद्गृहीत्वा स्वयं तस्य सेवा । १८ स्वप्नांतः सुप्तस्थायोग्यसेवन । १९ पलिकुंचनं द्रव्यादिविपर्ययेणातिचारकथनम् । यथा सचित्तं सेवित्वा अपित्तं सेवितमिति बक्ति । स्वावस्थाने कृतं मार्ग कृतमिति । सुभिक्षे कृतं दुर्भिक्षे कृतमिति । विवा कृतं रात्रौं कृतमिति वा । तीनक्रोधादिकृतं मदंक्रोधादिकृतमिति वा । २. स्वयंशुद्धिः-अकृतालोचनेन यतिना यावत्सूरिः प्रायश्चित्तं ददाति तावदिदं मे प्रायश्चित्तं इति स्वयमेव तद्गृहीत्वा एवं मया स्वाद्धिरनुग्मितेति निवेदनम् । उक्त न. एकद्विात्रि चतुःपनापीकांगिविराधन ।। असूनृतवचःस्तेय मैथुप्रयसेवने ॥ दर्शनज्ञानचारित्रतपसा प्रतिकूल ॥ उद्मोत्पादनाहारदक्षणानां निषेवणे ॥ दुर्भिक्षे मरके मार्गे वैरिचौरनिरोधने । योऽपराधोऽभवत्कश्चिन्मनोवाकायकर्मभिः ।। सर्वदोषक्षयाकांक्षी संसारश्रमभीलुकः ।। आलोययति सर्व क्रमतः पुरतो गुरोः || Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वामः अर्थ--दपके अनेक प्रकार हैं. क्रीडा स्पर्धा, व्यायाम, कपट, रसायनसेवा, हास्य, गीत और श्रृंगारमूलाराधना वचन, दौडना और कृदना ये दर्पके प्रकार है. प्रमादके पांच प्रकार हैं-विकथा, कलाय, इंद्रियोंके विषयों में आसान, निद्रा और स्नेह. अथवा संक्लिष्ट हस्तकम, कुशीलानुवृत्ति, बाह्यशास्त्र, कान्यकरण, और ममिति में उपयोग -देना नेमका है छदन करना, भेदन करना, पीधना, आघात करना, चुभना, खोदना, वांधना, फाहना, धोना, रंगाना वेष्टन करना, गूंथना, पूर्ण करना, एकत्र करना, लेपन करना, फेकना, चित्र बनाना इत्यादि कार्यको संक्लिष्ट हस्त कर्म कहते हैं. - स्त्री पुरुपके लक्षणों का वर्णन करने वाले शास्त्रको निमित्त शास्त्र कहते हैं. ज्योतिर्ज्ञान, छंदःशास्त्र, अर्थशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, लौकिकशास्त्र, मंत्रवाद इत्यादि शाखाको बाह्यशास्त्र कहते हैं. उपयोग देकर भी जिससे अतिचारोंका सम्यग्ज्ञान नहीं होता है उसको अनाभोगकृत अतिचार JI कहते हैं. अथवा मन दूसरे तरफसे लगनेपर जो अतिचार होता है वह भी अनाभोग कृत है. . नदीपूर, अग्नि लगना, महायायु बहना, दृष्टि होना, शत्रुके सैन्यसे घिरजाना, इत्यादिकः कारणों से होनेवाले अतिचारोंको आपात अतिचार कहते हैं. रोगसे पीडित होना, शोकसे दुःखित होना, वेदनासे व्यथित होना, ऐसे आर्तताके तीन प्रकार है इस से होनेवाले अतिचारोंको आततातिचार कहते है. रसमें आसक्त होना और बहुत बडबड करना इस कार्यको तित्तिणदा अतिचार कहते हैं. शंकित-पिच्छिका वगैरे उपयोगी द्रव्यों में ये सचित्त है या अचित हैं ऐसी शंका उत्पन्न होनपर भी मोडना, फोडना, भक्षण करना, आहार और उपकरण और बसतिका ये पदार्थ उद्गनादिदोष रहित है अथवा नहीं है एसी शंका आनेपर भी उनको स्वीकारना यह शंकितातिचार है. सहसा-अशुभवचनमें और अशुभ विचारोंमें वचनकी और मनकी तत्काल अविचारपूर्वक प्रवृत्ति होना इसको सहमातिचार कहना चाहिये. भयातिचार-एकान्त स्थानमें वसतिका होनेसे सर्प, दुष्ट पशु, चाय वगैरह प्राणी प्रवेश करेंगे इस भयसे वसतिकाके द्वार बंद करना. Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलार बना। __प्रदाप · संज्वलन कपायों का नीय परिणमन होना अर्थात् उनका तीब्र उदय होना. पानीक ऊपरकी लकीर, अलि के ऊपरकी हकीर, जमीनक ऊपरकी लकीर, और पत्थर पर उकारी हुई लकार हन के समान क्रोधक चार प्रकार है. इस प्रकारसे गान, गाय, लोभक भी दृष्टांत शास्त्रांतर से समझ लेना चाहिये. इनम होनेवाले अनिचारों को पदोपानिचार कहत है. मीमांसा-अपना बल और दुसरका बल इसमें कम और ज्यादा किसका है इसकी परीक्षा करना इससे होनेवाले अतिचारको मीमांसातिचार कहते हैं. फेले हुए हाथको समेट लेना.कुचिः सन भएको होस समाकर सज्ज करना, पत्थर फेकना, माटीका डेला फेंकना, बाधा देना, मर्यादा-बाडको उलंघना, कंटकादिकोंको लांधकर गमन करना पशु, सर्प गरह प्राणिओंको मंत्र की परीक्षा करने के लये पकडना, और सामर्थ्यकी परीक्षा करने के लिये अंजन और चूर्णको प्रयोग करना. द्रव्योंको मयोग कर बस और एकेंद्रियों की उत्पत्ति होती है या नहीं इसकी परीक्षा करना इन कृत्यों को परीक्षा कहते हैं. ऐसे कृत्य करनमे व्रतोंमें दोप उत्पन्न होते हैं. अज्ञानातिचार-अज्ञ जीवोंका आचरण देखकर स्वयं भी चैसा आचरण करना, उसमें क्या दोप है इसका ज्ञान न होना, अथवा अज्ञानीके लाय, उद्गमादि दोषोंसे सहित ऐसे उपकरणादिकों का सेवन करना ऐसे अमानसे अतिचार उत्पन्न होते है. __ शरीर, उपकरण, वसतिका, कुल, गांव, नगर देश, पंधु और पाश्वस्थान इनमें ये मेरे हैं एसा भाव उत्पन्न होना इसको स्नह कहते हैं. इससे उत्पन्न हुए दोषोंको स्नेहातिचार कहते हैं. यह ठंडी हवा मेरे शरीरको पीहा देनी है ऐसा विचारकर चटाईमे उसको ढकना, अग्नीका सेवन करना, ग्रीष्म ऋतुका ताप मिटानेके लिये वनग्रहण करना, बटन लगाना. साफ करना. तेलादिकांसे कर्मडलु वगैरह पदार्थ स्वच्छ करना, धोना. उपकरण नाट होमा इस भयन उसको अपने उपयोग न लाना, जैम पिच्छिका झड जापगी दम भयम उपग जमीन, शीर, पुस्तकादिक साफ न करना. इत्यादिक अनिनाराको उपचारातिचार यह संज्ञा है. वसतिका का तण काई पशु खाता होगा तो उसका निवारण करना, वसानका मन होती हो नो उसका निवारण करना, बहोतसे यति मेरी वसतिका में नहीं ठहर सकते है ऐसा भाषण करना बहुत मुनि प्रवेश करने Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्थामा ८१७ लगे तो उनपर क्रुद्ध होना, बहुत यतिओं को वसत्तिका मत दो ऐसा कहना, वसतिका की सेवा करना अथवा अपने कुलके मुनिओं की सेवा करना, निभित्तादिकों का उपदेश देना, ममत्वसे ग्राममें, नगरमें अथवा देश में रह. नेका निषेध न करना, अपने संबंधि यतिओं के सुखसे अपने को सुखी समझना और उनको दुःख होने अपने को बुखी समझना, पार्थस्थादि मुनिऑकी वंदना करना, उनको उपकरणादिक देना, उनका उल्लंघन करने में सामध्ये न रखना. इत्यादि कृत्योंसे जो दोप होत है उनकी आलोचना करनी चाहिये. सद्धिका त्याग करने में असमर्थ होना, ऋद्धि में गौरव समझना, परिवार में आदर रखना, पियभाषण करके और उपकरण, देकर परकीय वस्तु अपने वश करना इसको ऋद्धिगौरव कहते हैं. इष्टरसका त्याग न करना, अनिष्ट रसमें अनादर रखना, इसको सरगौरव कहते हैं. अतिशय गोजन करना, अतिशय सोना इसको मातगौरव कहत हैं. इन दोषाकी आलोचना करनी चाहिये. परके वश होनेसे जो अतिचार होते हैं उनका विवेचन इस प्रकार है-उन्माद, पित्त, पिशाच हत्यादि कारणासे परवा होनेसे अतिचार होते हैं. अथवा ज्ञानिक लोकोंसे पकडनेपर बलात्कारसे इत्र, पुष्प वगैरहका सेवन किया जाना, त्यागे हुए पदार्थीका भक्षण करना, रात्रिभोजन करना, मुखको सुगंधित करनेवाला पदार्थ, तांबुल बगरह भक्षण करना, स्त्री अथवा नपुंसकोंके द्वारा बलात्कारसे ब्रह्मचर्यका विनाश होना, एसे कार्य परवशतासे हानय अतिचार लगते हैं. पृच्छना. अनुप्रक्षा वगैरह चार प्रकारके स्वाध्याय और अवश्यक क्रियाओंमें अनादर आलय करना. इनकी आलोचना करना पकका कतव्य है. अबधि शब्दका अर्थ माया होता है. गुप्त रीतीसे अनाचारमें प्रवृत्ति करना, दाताके घरका बोध करके अन्य मुनि जानेके पूर्व में बहा आहारार्ध प्रवेश करना, अथवा किसी कार्यके निमित्तसे दुसरे नहीं जानसके इस प्रकारसे प्रवेश करना, मिष्ट पदार्थ खानको मिलने पर मेरेका विरस अन्न खानेको मिला ऐसा कहना. रोगी मुनिका किंवा आचार्यका यावृत्य करनेके लिये श्रावकारी कुछ चीज मांगकर उसका स्वयं उपयोग करना. ऐसे दोपाकी आलोचना करनी चाहिये. स्वममें अयोग्य पदार्थका सेवन होना उसको 'सुमिण' कहते हैं. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाषके आश्रयस जो विचार हुए हो उनका अन्यथा कथन करना उसको 'पलिकुंचन' कहते हैं, जैसे सचित्त पदा Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आथाम ८१८ र्यका सेवन करके अचित्तका सेवन किया ऐसा कहना. अचित्तका सेवन कर मरिचका सेवन किया ऐसा कहना. वसतिका कोई कृत्य किया हो तो मैंने वह कार्य रास्ते में किया ऐसा कहना मुभिक्षमें किया हुआ कृत्य दुर्भिक्षमें कियाथा ऐसा बोलना. दिनमें कोई कृत्य करनेपरभी मैने रातमें अमुक कार्य किया था ऐसा बोलना. अकषायभावसे किये हुए कृत्यको तीत्र परिणामसे किया था ऐसा घोलना. इन दोषांकी आलोचना करनी चाहिये, आचार्य के पास आलोचना करने पर आचार्य प्रायश्चित्त देने के पूर्व ही स्वयं यह प्रायश्चित्त मैने लिया है ऐसा कहकर स्वयं पानांश्चन लता है उसको स्वयं शोधक कहते है. स्वयं मैंने ऐसी शुद्धि की है ऐसा कथन करना, इस रीती दर्शदिके द्वारा अतिचार होते हैं वे सब कहने चाहिये. और अपने किये हुए अतिचा के क्रमका उल्लंघन नहीं करना चाहिये. FATAadesSATERISTMAAYBOSOHAraceteranee +IArramARAranMARAHA ." इय पयविभागियाए व ओघियाए व सल्लमुद्धरिय ।। सव्वगुणसोधिखी गुरूवएसं समायरइ ॥ ६१४ ॥ स सामान्यविशेषाभ्यामाभिधाय स्वपणम् ॥ विधत्ते गुरुणा दत्तां विशुद्धिं शुद्धमानसः ।। ६३७ ।। विजयोदया--इय पर्व । पदविभागियाप च विशेषालोचनया या। अधिकार व मामान्यालोचनया ।। सलं मायाशल्यं । उद्धरिय उद्धन्य । नवगुणसोधिनी सर्येचा गुणानां शेरशालाचतानां निमभिलपन । पर वपसं गुरुणोपदिएं प्रायानं समादि सम्बगाले । रोपं देन्यमा नया एबमालोच्य पंचनासोचाविधिभिवायोपसंहरात मूलारा-- गुग्यसं गुरूपनि प्रायश्चित्तं । समादि र दि स.ग्यपरोप: स्यगना हासि । रामा चरदीति वा पाठः । तत्र रोषादित्यांगनानुनिष्ठतीत्यर्थः । अर्थ-विशेषालोचना करके अथवा सामान्यालोचना करके मायाशस्यको हृदयसे निकालकर दर्शन, ज्ञानचारित्र और तपश्चरणों में शुद्धिकी अभिलाषा रखता हुआ गुरुके द्वारा कहा हुआ प्रायश्चित्त रोप, दीनता और अश्रड्रानका त्यागकर क्षपक ग्रहण करता है. Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८१९ आलोचना के दोषों का यहां तक वर्णन किया. अब गुरूके आगे आलोचना करते समय स्वतः की निंदा करनी चाहिये. परिहार्यालोचनादोषानुक्त्वा गुरुसकाशे आलोचनानिंदना गुप्यनीतिकदावी व मणुसो आलोयणदिओ गुरुरायासे || होदि अचिरेण लहुओ उरुहियभारोव भारवहो ॥ ६१५ ॥ मनुष्यः कृतपापोऽपि कृतालोचननिंदनः || संपद्यते लघुः सद्यो विभासे मावानिः ॥ ६३८ ॥ विजयोदया - पावो वि मस्सो कृतपापोऽपि मनुष्यः समर्जिताशुभकर्म संचयोऽपि रथः | अथवा पस्याशुभकर्मणः कारणभूताऽसंयमादिरिह पापशब्देनोच्यते, तेनायमर्थः कदपावोऽवि कृतासंगमादि डा। आलोय दिओ कुतालोचनः कृतनिश्विक गुरुसया से गुरुसमीपे । होदि भवति । अचिरेण बहुओ लघुतमः । उदयिमारोग्य भवतारितभार इव भारवहो भारस्य घोडा ॥ एवं दोषानुक्त्या गुणान्वक्तमालोचनानिंदामाहात्म्य म्राद्द--- मूलारा - आलोयदिओ तालोचनः कृतनिंदना । उहुगो दोषशुद्धः । एतेन गुणा निरूपिता दोषविपर्य यरूपत्वात्तेषां । उरुदिभारोष्य अवतारितभार इव । निंदाका माहत्म्य आचार्य कहते हैं अथ - अशुभकर्मका संचय जिसने किया है ऐसा भी मनुष्य यदि गुरु के समीप आलोचना और अपनी निंदा करेगा तो बहोत बोझा मस्तकपर से उतर जानेपर भारवाही मनुष्य जैसा सुखी होता है वैसा शीघ्र सुखी होता है. अथवा पापके अशुभकर्मके कारणभूत असंयमादिक को भी पाप कहते हैं. इसलिये यहाँ दुसरा अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये - जिसने असंयमाचरण किया है वह भी मनुष्य गुरुकं समीप जाकर दीपांकी आलोचना और निंदा करेगा तो भारवाही मनुष्य भार उत्तरनेसे जैसा सुखी होता है वैसा मुखी होता है. आश्वासः ४ ܐ ܐ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Parenese मूलाराधना आश्वास भावशुद्धार्थी आलोचना असल्या भावशुद्धौ को या दोष इत्याह सुबहुस्सुदा वि संना जे मूढा सीलसंजमगुणेसु ॥ ण उति भावमुद्धिं ते दुक्वणिहेलणा होति ॥ ६१६ ॥ भावशुद्धिं न कुर्वन्ति भवन्तोऽपि यहुश्रुताः ॥ चतुरंग विमुढा ग दुःग्नपीडया भवन्ति ते ।। ६३५ ।। विजयादया-सुग्रहमचा वि संवा राष्ट्र बनुश्रुता अपि सन्तः । जे मूढा ये मूढाः । सीलसंजमगुणेसु शीले क्षमारिके धर्म, संयमे, यंतषु गुणेषु मानदर्शनतपास च । मावसुदि परिणामेन शुद्धि । ण उधेति नोपयांतित दुक्खणि हेलणा दुनिष्णीच्या | हानि भवति । भावशुवधभावे दोषमा--- मृलग-मंता संतः । मुद्धा मुग्धाः । ग्रीलं उत्तमक्षगादि गुणाः ज्ञानदर्शनवपांसि : प वेंति नोपयांति ।। भावयदि मात्र शाद । दुरननिमेणा तुनिषीया बोलणा इति पाटे दुःग्यगृहाः इत्यर्थः । परिणामों की निर्मलता करने के लिय आलोचना की जाती है यदि भावद्रिकी प्राप्ति न हो तो उससे क्या नुकसान होता है यह दिखात है.-- अर्थ-जो मुनि महाविद्वान होकर भी क्षभादिकधर्म, संयम, ब्रत, ज्ञान, दर्शन और में यदि भावाद्वियुक्त नहीं होते हैं वे इस संसारमें नाना दुःखोंसे पीडित होते हैं. .-- -- - - कृतायामालोचनायां गुरुणा किं कर्तव्यमित्यत आह आलोयणं सुणित्ता तिरखुत्तो भिक्खुणो उवायेण ॥ जदि उज्जुगोत्ति णिजइ जहाकदं पठ्ठवेदव्यं ॥ ६१७ ।। विकृत्वालांचनां शुद्धां भिक्षोविज्ञाय नत्यतः ।। स मध्यस्थी रहस्यज्ञो दत्ते शुदि यथोचिताम् ॥ ६४०।। विजयोदया - आलोयणं आलोचना । सुणिचा श्रुत्वा । तिपखुत्ता त्रिः पृष्ट्वा ! भिषाणो भिक्षोः। उबायेण OMERATORS ८२० Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदारावना ८२१ उपायेन । जदि उज्जुगोत्तिय यदि ऋजुरयमिति वचनेन अाचरणेन वा ज्ञायते प्रायेण ऋजुता यथा अनुजोर्भावशुजाभावाच व्यवहारिणः प्रायश्चित्तं प्रयच्छति सूरयः । भावशुद्धिमंतरेण पापानपायात् रत्नत्रयस्य निरतिचारत्वा भावात् ॥ कृतायागालोचना गुरुणा किं कर्तव्यमित्यत आह श्रुतं मूलारा तिक्खुतं श्रीन्वायन । उवाएण मनः अहाथ | अथवा कीशोऽपराधस्ते विस्मृत मनेति वा । अनुमति ऋजुरयमिति । गज्जदि सायने वचनेन आचरथेन वा । जयधाकृतं नाि पापं त न आलोचना करनेके अनंत्तर गुरुको क्या करना योग्य है इस प्रश्नका उत्तर अर्थ- संपूर्ण आलोचना सुनकर गुरु क्षपकको तीन वार उपायसे पूछते हैं अर्थात् तुमने कोनसे अपराध किये हैं ध्यान में नहीं रहे हैं पुनः कहो ऐसा तीन बार पूछते हैं. यदि यह अपक सरल परिणामका है ऐसा गुरुके अनुभव आजाय अर्थात् क्षपकके आचरणये और उसके वचनसे गुरु उसका निष्कपटपना अथवा कपटीपना जान लेते हैं. यदि यह क्षपक कपटी है ऐसा दीख पड़ेगा तो वे उसको प्रायश्चित नहीं देते हैं. परिणामकी निर्मलता न होनेसे पापका नाश होता नहीं. और रत्नत्रय में निरतिचारपना आता नहीं. ऋणी इतरा या आलोचना कीशी यस्यां सत्यां प्रायश्चित्तं दीयते न दीयते इत्यत्र आह आदुरसले मोसे मालागरराय कज्ज तिक्खुत्तो ॥ आलोयणाए बकाए उज्जुगाए य आहरणे ६१८ ॥ राजकार्यातुरासत्य सशल्यानामिव त्रिधा ॥ दोषाणां पृच्छना कार्या सूरिणागमवेदिना ॥ ६४२ ॥ विजया दुरसले आतुरो व्याधितः स वैधेन ते । किं भुक्तं ? किमाचरित कीटशी वा रोगस्य वृत्तिरिति । राज्यमपि शरीरनंत्रिः परीश्यते। शुद्धता व्रणस्य जाता न वेति । राजकज्जं निकखुत्तो राजाआशा कार्य किमेवं करिष्यामीति त्रिः पृयते आलोय राजकज्जं निखुसी राक्षा आक्ष कार्य किमेवं करिष्यामीति त्रिः पुन्यं यार का बकायाः । जुगार यादव। आहरणेताः यदि वारत्रयमध्येकरूपेण बक्ति ततो राज्य अन्यथा अन्यदाच यति ग्राक्षं ॥ BITATA: ४ ८२१ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आयाम हयाधितः शल्यं मोपो मालाकारो राजकार्य चैतानि पंच यथा त्रिपच्छयन्ते नया आलोचना मनी यका चति ज्ञातुं विपणन्या । बदि वारत्रयमध्येकरूपेण वनि तदा यी पाश्चिमादी अन्दाना पायन दाना योग्येत्युपदेष्टुनाह - मूलार--- मगदुरेत्यादि । तिमवुत्तो नीनारान । गागामालोचनायामातुरादय: पंच आहरण दृष्टान्ता भवन्ति इति संबंधः । तत्रातुरः श्रिः पृच्छयते बैंछन कि भुक्तं कीदृशी च रोगप्रवृत्तिरिति । तथा शल्यं त्रिः प्रत्यंत अन्न से कटकादिरिनि । तथा मोप द्रव्यापहार फिर चोर-गतिमिति विना किचन । नथा मालाकारोऽवित्र गुह यते । कियन्मुल्या तब पुष्पमालेति । तथा राज्ञा आज्ञापितं कार्य वियते किमेवं करिष्यामीति । एव मालोचनापि त्रिः परीक्ष्यसे कीडशोऽपराधस्ते पुनः कथयति । सरल आलोचना अथवा वक्र आलोचना कैसी समझना ! जिसके ऊपर प्रायश्चित्त देना न देना अवलं. वित है । इस प्रश्नपर आचार्य उत्तर देते हैं. अर्थ-रोगीको वैद्य तीन बार पूछते हैं:-तुमने क्या खाया है ? तुम कैसी प्रति करते थे? और तुमारे रोगका क्या हाल है। शरीरमें यदि शस्त्र अथवा कांटेका अग्रभाग घुसनेपर यहां ही काटा घुस गया है ना? अब व्रण अच्छा हुवा है ना? ऐसा तीन चार पूंछते हैं. किसीके यहां चोरी होगई हो तो तुझारा चोर क्या क्या माल लूटकर ले गये हैं ऐसे तीन बार पूंछते हैं. मालाकारको भी तुह्मारी इस पुष्पमालाकी क्या कीमत है ? इस प्रकार तीन पार पूछते है. राजकायेके लिए भी ऐसा ही तीन बार पूछते हैं अर्थात यह कार्य में कर क्या? 1) उसी प्रकार आलोचना वक्रतास या सरलपनासे की गई है इसको जानने के लिये तुमारे अपराध कैसे हैं पुनः कहो ऐसा तीन बार भी उसने एकरूपसे ही अपराधोंका कथन किया तो समझना चाहिये कि इसकी आलोचना सरला है यदि वह भिन्न भिन्न प्रकारसे कहेगा तो इसकी आलोचनामें मायाचार है ऐसा समझना चाहिये. २२ पडिसेवणातिचारे जदि णो जंपदि जधाकम सव्वे ॥ ण करोति तदो सुईि आगमववहारिणो तस्स ॥ ६१९ ॥ Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८२३ दोषान्न प्रांजलीभूय भाषते यथशेषतः ॥ न कुर्वन्ति तदा शुद्धिं प्रायश्चित्तविचक्षणाः ।। ६४२ ।। विजयोदया - डिसेणातिचारे प्रतिसेवनानिमित्तानती वाराम् । तत्र सेवा चतुविधा उपक्षेत्रका भावि कल्पेन द्रव्यसेवा त्रिःप्रकाश सत्रित्तमचि मिश्रमिति द्रव्यस्य त्रिविधत्वात् । चित्तं ज्ञानं तथा च प्रयोगः- वित्तमाजगतले जमिति यद्वा निशब्देनाभिधानं मह चिंतनात्मना वर्तते इति सवितं जीवशरीरत्वेनावस्थितं पुत्रलद्रव्यं न विद्यते चित्तं आत्मा तदवि मिश्रा सचित्तावित्तपुखसंहतिः । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः जीवपरिगृहीताः सनिभशब्देनोच्यते । अचिनं जीवन परित्यक्तं शरीरं तयोरुपादानं क्षेत्रादिप्रतिसेवना योज्या जदि णो संपदि न कथयेयदि । जहाक वथाक्रमं । स सर्वान् स्थूलान्सू श्रमश्यातिवान् | या करंति न कुर्वन्ति । तदो ततः । तस्स सोधि तस्य शुद्धि | आगमवद्दारिणो आगमानुसारेण व्यपहरतः ॥ एत्थ दु उज्जुगभावा ववहरिद्रव्त्रा भवति ते पुरिसा ॥ संका परिहरिदा सो से पहाहि जहि त्रिसुद्धा || ६२० || इति वचनात् सर्वमविचार निषेश्यत एव ऋजुता, तस्यैव प्रायश्चित्तदानं । यथावदोषानालोचने प्रायश्चित्तप्रयोगाभावं भावयति - मूलारा – पडिलेषणादिचारे द्रव्यादिचतुष्टयविराधनानिमित्तानतिचारान् । या उंटेन कथयति ।। अर्थ - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके शाश्रयसे उत्पन्न हुए दोषों को प्रतिसेवना कहते हैं. इस सेवनाके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विकल्पोंसे चार भेद हैं. द्रव्यसेवाके तीन प्रकार है. सचित्त द्रव्यसेवा, अचित द्रव्यसेवा, और मिश्रद्रव्यसेवा. चित्त शब्दका अर्थ ज्ञान है. 'चित्तमात्र जगतत्वं ' अर्थात् ज्ञानमात्र जगत्का तत्व है. यहां ज्ञान आत्मासे कथंचिद अभिन्न हैं. अथवा आत्मामें रहनेसे आत्मा को भी ज्ञान कहते हैं. इस आ माके साथ जो पुद्गल पदार्थ रहता है उसको सचिन कहते हैं, अर्थात् जीवका शरीर बनकर जो पुगल रहता है। उसको सचित कहते हैं, जिस पुइलमें आत्मा रहता नहीं है उसको अचित्त कहते हैं. सचिन और अचित्त पुगके एकरूप हुए समुदायको सचिचाचित्त पुगल कहते हैं. अधिके द्वारा स्वीकारे हुए पृथ्वी, हवा, पानी, अभि वनस्पतिको सचित्र कहते हैं. जीवके छोटे हुए शररिको अचित्त कहते हैं, क्षेत्रादिनिमित्तसे वो जो अपराध होते आधार ८२३ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधनाः देव हैं वे यदि क्षपक क्रमसे न कहेगा तो अर्थात् सूक्ष्म और स्थूल अपराधोंका कथन नहीं करेगा तो प्रायश्चित्त शा स्रके जाता आचार्य उसको प्रायश्रित नहीं देते हैं. इस विश्व आगम में ऐसा कहा है जो अमावसे आलोचना करते हैं ऐसे गुरु प्रायश्चित देने योग्य हैं. और जिनके विषय में शंका उत्पन्न हुई हो उनकी प्राधिन आचार्य नहीं देते हैं. इससे यह सिद्ध हुआ कि सर्व अतिचार निवेदन करनेवाले में ही ऋजुता रहती हैं. उसको ही प्रायश्चित देना योग्य है. 2 पडिसेवणादिचारे जदि आजपदि जहाक्रमं सव्वे ॥ कुति तो सोधि आगमववहारिणो तस्स ।। ६२१ ॥ निःशेोि नशन कुन व्यवहारविशारदाः ॥ ६४३ ।। गाथा । यथावदोषादो प्रतियोगान मूलारा--पष्टम् अर्थ -यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से हुए संपूर्ण दोष क्षपक अनुक्रमसे कहूंगा तो प्रायविदानकुशल आचार्य उसको प्रायश्चित देते हैं. दामियाना के कर्तव्यमय समं चिम्म छेदसुहाग राणी से !! तो आगाज करेदि सुते अत्थे य ।। ६२२ ॥ सम्यगालोच नेन सूत्रं मीमांसते गणी ॥ अनालोचे न कुर्वन्ति महान्तः कांचन क्रियाम् ॥ ६४४ ॥ कथयति आश्वास १ ८२४ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूगाराधना आश्वासा ८२५ ज्ञात्वा वक्रानवका वा सूरिरालोचनां यते ॥ विदधाति प्रतीकार शुद्धिरास्ति कुतोऽन्यथा ॥ ६४५।। विजयोदया-ख्यगेण सम्म आलोचिम्मि क्षपकेन सम्यगालोचिते । देवसुदजा, गगणी सो छेदसूगम सूमिः सः। तो पचाल । भागममीगंस भागविचार करेदि करोति । कथं ? सुत्ते य अत्थे य सूत्रे च अर्थे न । मूत्रं अस्य चायमर्थ इति अपराधस्थंभूतस्य इदं प्रायश्चित्तमनेन सरेण भेद निर्विइति माग्निरूपयति ।। यशिना निर्दोषभालोनित मूरिः किरोनीयवाह-- गूलामा–दद मुजाण गगणी प्रायश्रिरासूत्र आचार्यः । आगममीमस । प्रायश्चित्तशास्त्रविचारणा । सुते य अस्य य इदं नूवमस्य वायार्थ इति विचारप्रतीत्यर्थः । पतिके द्वारा निर्दोष आलोचना किय जानेपर आचार्य का क्या कतव्य है इस शंका का उत्तर कहते हैं .. अर्थ-- क्षपकमुनि जत्र निर्दोष आलोचना करते हैं प्रायश्चित्तसूत्रके ज्ञाता आचार्य तब आगम से अपराधोंकी परीक्षा करते हैं. अर्थात् यह प्रायश्चित्तको बतानेवाला सूत्र है, इसका यह अर्थ है, इस अपराधको यह प्रायश्चित्त देना योग्य है, इस सत्र के द्वारा यह प्रायधिस बतलाया है. इत्यादिरूपस आचार्य प्रथम प्रायश्चित्त का विचार करते हैं. परिणामश्च निरूपमितन्यमनदीयः किमर्थबित आह-- पडिसेवादो हाणी अट्ठी धा होइ पावकम्मस्स ।। परिणाम द जीबम्म सत्य तिव्वा व मंदा वा ।। ६२३ ॥ जानस्य प्रतिसंचानो हानिवृद्धिश्च देहिनाम् ।। पापस्य परिणामन तवा मंदा च जायते ॥ ६४६ ॥ विजयोदया--गडिसेवादो जानस पात्रामाम्मम परिणामेण हाणी यही बा होदि। कीरशी? तिव्यापमंदा बाइति पदवटना प्रतिसेचनातो जातस्य पापकर्मणः परिणादसेन पाश्चात्येन करणेन शानिर्चा वृद्धिा भवति । तीया हानिस्तीमा वृद्धिः । मंदा वा हानिर्मदा या युविः ।। यथा प्रायधिन निरूपयता पूरणा अनिपारसहभादी तदुत्तरकालभाध्यषि क्षपकस्य परिणानो निरूदनयी यमः . . Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NO मृलाराधना आष ८२६ महारा- पढिसेवादो असंयमादिसेवनाजातस्यापि पापस्य पात्रात्या अभाशुभपरिणामेन तीधा मंदा वा वृद्रिरिव हानिसबालोचनाकाले स्यादिति संबंधः । सामान्यनापि कृतहानिवृद्धितीनमंदत्रस्यापन मेतेन प्रतिपतव्यम्। तथा चोक्तम् जातस्य प्रतिसेवातो हानिर्वशिश्च देविदाम् । पापस्य परिणामेन नीत्रा मंदा च जायते || आचार्य क्षपकके परिणामका भी विचार करत है. उसका विचार करने की क्या आवश्यकता है इसका उत्तर कहते हैं अर्थ-असंयमादिकमे जी पापकम हुआ था उसकी आलोचना करने के अनंतर यदि शुभ परिणाम तीन ए होंगे तो पापकी तीन हानि होगी, यदि शुभपरिणाम मंद हुए हानी पापा मंद हानि होगी जननीन असयभस वा नंद असयमसे पूर्वकालमें तीन पापवृद्धि अथवा मंद पापाद्ध दुई थी वैसे आलोचनाके अनंतर शुभपरिणामकी तीव्रता या मंदतास तीत्र या मंद पापकी हानि होती है, - - - तदुभयं व्याख्याय गाथाद्वयमुत्तरम् - साबज्जर्स किलिछो गालेइ गुणे णवं च आदियदि ॥ पुवकद व दहें सो दुग्गदिभवबंधणं कुणदि ।। ६२१ ॥ स्थिरत्वं नयते पूर्व संसारासुखकारणम् ।। एतेषां चिनुते पापं संक्लिष्टः क्षिपेत गुणम् ।। ६४७ ।। विजयोदया-सावजसंकिलिहो सावधसक्लेशो द्विप्रकारः । सह अधन पापेन वर्तत रति मावद्य एका । अन्यस्तु सक्ने शश्चित्तबाधा । नतु सावद्यः । ज्ञाने घिमलं किं मम न जायने, संपूर्ण वारि शरीरं या किमर्थमिदमतिदुरले तपोयोगासमिति पचमादिकस्तनिरासाय साबर विशेषणं साबद्यसंक्लिा : । गालेदि गुणे गालयति गुणान दर्शन शानचारित्राणि । णवं च आदियदि आदते च अभिनय । पुवका चदई कुणदि पार्जितं च दीकरोति । कायपरिणामनिमित्तत्वात् स्थितिबंधस्य । दुग्गदिमयकारणं दुर्गतयः नारकत्यादयः विधिनवदनासहसंकुलातास भयं वई यति, यत्कर्माशुभं तदादत्ते स्थिरयति ।। HONE Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूचाराधना आश्चम ८२७ तदुभयं व्याख्यातुं गाथाद्वयमाह मलारा--सायजसंकिलिछो सपाषरुक्लेशाविष्टः । वानं मम पिंगलं कि नोत्पद्यते, चारित्रं वा संपूर्ण, शरीरं रा किमिदं ममाविलं तपोयोगाक्षमीमत्यादिचियावामात्रात्मक लाशयबरध्दार्थ सावनाविशरणम् । गुण स्वम्यक्त्वादीन् । ददं विरं । दुग्गदिमयबंधणं दुर्गतिपु नारकत्वतियककुमानुषत्वकुदेवत्वभव भ्रमणेषु भयं दुःखात्रा सो । बध्यसे जीवन संवद्धं क्रियते येन तत्पापकर्म । उक्तं च स्विरत्वं नयते पूर्व संसारासुखकारणम् । ... नवं संचिनुवे पापं संक्लिष्टः क्षिपते गुणम् ।। परिणाम और पाप बंधका वर्णन अर्थ-- सावध संक्लेश दो प्रकारका है. पापसे युक्त संक्लेश, और केवल संक्लश. मेरेको निर्मलज्ञानको माप्ति क्यों नहीं होती है ? संपूर्ण चारित्र क्यों नहीं प्राप्त होता है ? मेरा यह शरीर क्यों इतना दुर्बल है, क्यों उससे तप और योगका कष्ट नहीं सहा जाता है ? इस प्रकारके विचार को संक्लेश नाम है इस संक्लेशको भिन्न दिखानेके लिये सावध यह विशेषण संक्लेशके पीछे दिया है. जिससे फक्त मनको पीडा होती हैं ऐस पापयुक्त संक्लेश परिणामोंसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन गुणोंका नाश होता है, नवीन पापबंध होता है और पूर्व पापकर्मों में वृद्धि होती है. क्यों कि कषायपरिणामोंसे स्थितिबंध होता है. हजारों विचित्र वेदनायें जिसमें होती है ऐसी नारकादिक अवस्थाओंका सावध संक्लिष्ट परिणाम कारण है. जो नवीन अशुभकर्म आता है वह इस पापयुक्त परिणामोंसे आस्मामें स्थिर हो जाता है. पडिसेवित्ता कोई एच्छत्तात्रेण उज्झमाणमणो ॥ संवेगजणिदकरणो देसं घाएज्ज सर्व वा ॥ ६२५ ॥ कृत्वापि कल्मषं कश्चित्पश्चात्तापकृशानुना ।। दयमानयना देशं सर्व वा हन्ति निश्चितम् ॥ ६१८॥ विजयोदया-पडिसेबित्ता कोई कश्चित्कृतासंयमाधिसेयनोऽपि । पन्छयायेण उज्झमाणमपो पश्चतापेन दह सर्व वा हस्ति निश्चितम् ।। ६४ लामो पालापन वः । Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराना STAR आका मानचित्तः। संवेगजणिदकरणो संसारभीरताजनिनसंगमनक्रियः । वसं सव्यं वा घादेज्ज आत्माभिनवसंचितकर्मपुरलरबंधैकदेशनिर्जरा वा स्वीकरोति, कमरतं वा न घातयेत् । यदि मध्यमो मंदो या परिणामो बेर्श घालयति । अथ तीनः समस्तं रति भावः ।। ___ मूलारा-करणं संयमकिपा । दस आत्माभिन संचितकर्मपुलस्कंकदर्श घादज्ज पातयेत् । यदि मध्यमो वा परिणामस्वदा देश हन्त्यथ तीत्रस्तदा समस्त मिति भावः । उक्तासमंद शोको ।। जातस्य प्रतिसेवालस्तीना मंदा च रेफसः । हानिःमता स्वभावेन स्यादृद्धिश्चासता तथा ।। संक्लिटो दृढयन्पूर्व वनात्यहः कपन् गुणान् । हत्यंशतोऽखिल पा तत् संविनोऽनुशयात्तपन ।। अर्थ-पूर्वकालमें किसी क्षपकने असंयमका सेवन किया था परंतु पश्चात् उसका अन्तःकरण पश्चात्तापसे दग्ध दुआ. तब वह समारसे भयभीत होकर मंयमानरणमें तत्पर हुआ. इस मंयमाचरण के प्रभावमे नवीन संचित किये हुये पापकर्मके स्कंधसे एकदेशकी निजंग होती है. अथवा यदि तीव संघमाचरण हो तो उससे संपूर्णका भी पान होता है, अभिप्राय यह है कि संयमाचरणक परिणाम मंद अथवा मध्यम प्रकारके हो तो कर्मके एकदेशकी निर्जरा होती है और यदि तीव्र हो तो सम्पूर्ण कर्मका धात होता है. - -. . -'- तो णछ। सुत्तविदू णालियधमगो व तस्स परिणाम ।। जावदिए। विसुज्झदि तावदियं देदि जिदकरणो ॥ ६२६ ॥ मालिकाधमादजज्ञात्या प्रमाणं कुरुते सुधीः॥ ततः शुध्यति यावत्या तावी स परिक्रियाम् ॥ ६४९॥ विजयोदया - तो तस्मात् । चा शाश्वा । सुत्सवितु प्रायश्चित्तसूमनः सुरिः। किं ? तरस परिणाम कृतापराधम्य परिणाम । कथं परिणामो शायते इति चेत् सहवासेन तीवोधस्तीयमान इत्यादिकं सुझातमेव । तत्कार्यो पटभात , लमेव वा परिपूरच्या, कीरग्मयतः परिणामोऽतिचारसमकाले वृत्त । इति । किमिव ? णालिगधमगोव्य नाटिकया योधमति सुवर्णकारः सोऽग्नेर्वलाल विदित्वा धमनं करोति, एवं मूरिपि अस्य कर्म तनुतरं महति विदित्वा Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागना आश्वास उाचदिगेण याचता प्रायश्चित्तेन । शिमुशदि विशुद्धयति । तावदिग ताव परिमाण प्रायश्चित्तं अल्प महदा देदि ददाति । जिद कारणों परिनितम्यादिवत्तदान किया। उक्तार्थ प्रकृने योजयन्नाद मूलारा-णरूचा ज्ञात्वा । सहबासेन तत्कार्योपलंभातरचनाहा निश्चित्य । मुत्तचिदू छेद्रसूत्रज्ञः । णालिगधम्मगो व सुवर्णकार इव । जाबदिगेण चावता । अल्पेन महता वा प्रायश्चित्तेन वहिना च । बिसुज्झवि विशुद्धधति निर्मलीभवति मुनिः कांचनं च । जिदकरणो परिचितप्रायश्चित्तदानाक्रेयः।। अर्थ-प्रायश्चित्त शास्त्रज्ञ आचार्य जिसने अपराध किये थे ऐसे क्षपके परिणाम जानकर जितने प्रायश्चिनसे. वह शुद्ध होगा उतना प्रायश्चित्त उसको देते है. जैसे सुवर्णकार अनिके सामथ्र्य असामर्थ्यको देखकर तदनु रुप कम या अधिक हवासे उसको प्रज्वलित करता है बैंसे प्रायश्चित्त देनेके कार्यका जिनको पूर्ण परिचय हुआ है ऐसे आचार्य इसका अपराध छोटा है या बढा है. इसके क्रोधादि परिणाम तीव्र थे या मंद थे इस विपयका विचार कर अनुरूप प्रायश्चित देते है. दुसरेके परिणाम कैसे जाने जा सकते हैं इस प्रश्नका उत्तर- सहवाससे परिणाग जाने जा सकते हैं अथवा उसके कार्य देखनेपर उसके तीव्र या मंद क्रोधादिकका स्वरूप मालुम होता है. अथवा जब तुमने अतिचार किये थे तब तुमारे परिणाम कैसे थे ऐसा उसको पूछकर भी परिणायोका निर्णय किया जा सकता है. eHIORNO 218 आउज्बेदसमत्ती तिमिछिदे मदिविसारदो वेज्जो ॥ रोगादकाभिहदं जह णिरुजं आदुरं कुणइ ।। ६२७ ॥ उल्लाघीकुरुते वैद्यो वैद्यशास्त्रविशारदः ।। यधातुरं कृताभ्यासो रोगातकादिपीडितम् ॥ ६५० ।। विजयो -आउग्वेदसमत्ती नितिसमस्तायुर्वेदः । तिगिछिदे चिकित्सायां । मविविसारदो युद्धपा निपुणः । चाजो नद्यः । रोगातकामिहदं महता अल्पन वा बाधिनः पीडित । आदुरं व्याधितं । जहयथा। णिराज कुणदि विशुद्ध करोति। ८२९ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भावास . ३० संधार्थकनिपुणो वैद्यो गिणनिवाचार्य: अपर्क मंगारमय करतीनि गाथार्थनार मूलारा----आउब्वेदसमची नितिसनस्तवेद्यकशाखः । तिगाछद विकसिसे । रोगासंकामिहद अपन महता का व्याधिना पीडितं । जिम नीरज निरामयं ॥ अर्थ-जिरते समस्त प्रमागर्नेदशासक दास साप्त कर लिया है, जो रोगपरीक्षण करनेमें निपुण है ऐसा वैद्य छोटे अथवा बडे रोगोंसे पीडित मनुष्यको औषधि देकर जैस नीरोग करता है उसी प्रकार एवं पवयणसारसुयपारगो सो चरित्तसोधीए । पायच्छित्तविदण्हू कुणइ विसुद्धं तयं खवयं ॥ ६२८ ।। गणाधिपः कृताभ्यासो व्यवहारविचक्षणः ।। क्षपकं म्रलिनीभूतं निर्मलीकुरुते तथा ।। ६५१॥ विजयोदगा - पर्ष पधयपसारसुपपारगो प्रवचने यत्सारभूनं धृतं तस्य पारगतः । पायच्छित्तविदण्ट्र मायशित्तक्रमशः 1 चरित्तसोधीए चारित्रशुद्धया। तयं खचयं तक क्षणकं । विसुद्ध कुणदि विशुद्धं करोति । मूलारा-पचयणसारसुदधारगो प्रवचनस्य जिनागमस्य सारभूनं श्रुतं प्रायश्चितसूत्र तत्समस्त जानन ।। अर्थ--आगममें जो सारभूत श्रुतज्ञान है उसमें प्रवीण, प्रायश्रिन शास्त्र के ज्ञाना आचार्य क्षपकको प्रायI श्चित्त देकर उसका चारित्र निर्मल बनाते हैं. स्थविरे व्यावर्णितगुणे भमत्यन्योऽपि भवति निर्यापक इति शंकायां कथयति - एदारिसंमि थेरे असदि गणत्थे तहा उबज्झाए ॥ होदि पयत्ती थेरो गणधरवसहो य जदणाए ।। ६२९ ॥ गणस्थिते ऽसतीदक्षे स्थविरेऽध्यापके तथा ॥ अस्ति प्रवर्तको वृद्धो बालाचायाश्च यत्नतः ।। ६५२ ।। विजयोदया - एदारिसमि ब्यावर्णित पुणे । थरे स्थविरे विद्यमाने । गण गणस्थ । तदा तथा । उयन्माए Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माराधना आघाम: उपाध्याये वाऽसति । होदि भवति । णिज्जवभो निर्यापकः । पवनी प्रवतकः । वेरो स्थविरश्चिरप्रजितो मार्गशो। गणधरवसहो य बालाचार्यो वा । जनणाप यत्नेन वर्तमानः ।यमालोचनार्या मुगदोपनिरूपणा समाता ॥ यथोक्तगुणे गणाधिपेऽध्यापके या निर्धापकेऽसनि अन्योऽपि निर्यापकः म्यादिस्यनुशास्ति मूलारा --धेरे वृद्धाचार्थे । पबत्ती अल्पश्रुतः सम्लनयनादाचरितज्ञः प्रवर्तकः । थेरो चिरप्रतिनी मागतः गार । गगनबन हो गया नायः नियोपको भयनीति संवैधः । जागा प्रसारित वनेन प्रवरीमानः || आचायके आधारयत्वादि गुणोंका पूर्व में वर्णन कर चुके हैं. इन गुणों के धारक आचार्य यदि प्राप्त न हो तो अन्य मुनि भी क्षपकक समाधिमरण साधने के लिये निमोपणपटना मारण हो सकता है क्या इस शंकाका उत्तर . अर्थ—पूर्वोक्तगुणोंके धारक संघपति आचार्य न हो तथा इन गुगोंके धारक उपाध्याय भी याद न हो तो प्रवर्तक मुनि अथवा अनुभवी वृद्ध मुनि वा वालाचार्य यन्नसे बनामें प्रवृत्ति करते हुए पकका समाधिमरण साधने के लिय नियापकाचार्य हो सकते हैं. जो ज्ञानसे अल्प है परंतु सर्व संघकी मयोदा योग्य रहगी एम आच'चरणका ज्ञान जिसको है उसको प्रवर्तक कहते हैं और जिसको दीक्षा लकर बहुत दिन हुए है ऐसे अनुभवी बद्ध मुनिको साधु कहते हैं. । सो कदसामाचारी सोज्झं कटुं विधिणा गुरु तयासे || विहरदि सुबिसुद्धप्पा अन्भुजदचरणगुणकखी । ६३० ॥ स चारित्रगुणाकांक्षी कृत्वा शद्धि विधानमः ।। गुरोरंत समाचारी विशुद्ध चते नराम् ॥ ६२३ ।। विजयोदया- सो कदसामाचारी सक्षपकः कृतसमाचारः। मोदी शुद्धि । काद छत्वा। विधिणाविधिना । गुरुसयासे गुरुसमीपे । बिहरदि प्रवर्तते । सुविसुद्धप्पा सुष्टु विशुडान्मा ।धन्भुजदचरणगुणकंखी अभ्युशवचारित्रगुणकांक्षासमन्वितः ॥ कृतगुरुदत्तप्रायश्चित्तस्य क्षपकत्त्य देहत्यागोचितकालाप्राप्तावतराचरणं गाथाश्येयोपदिशति-- मूलारा--कदसामाचारी कृतसामाचारः । सोझ कटुं शुद्धिं कृत्वा । Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atalasaTOS मुलासश्ना आवास अर्थ---जिसका आचार निदोष है ऐसा वह क्षेपक प्रायश्चित लेकर शासकथित विधीके अनुसार गुरुसमीप रहकर आपनेको निर्मल चारित्रयक बनाना हुआ रत्नत्रयमें प्रवृत्ति करता है तथा समाधिमरणके लिए जिम विशिष्ट आचरणका म्बीकार किया है उसमें उसकी हन्छा करता है. ८३२ s Starasex एवं वासारते का विविध तबोकम्म। संथारं पडिवजदि हेमंते सुहविहारंम्मि || ६३१ ।। वर्षासु विविध स्पृष्टा तपःकर्म विधानतः ॥ सुरववृत्ती स हेमन्त संस्तरं प्रतिपणतं ।। ६५४ ।। विजयोदया-पयं वासारत्ते वर्णकाले। फासदृण स्पृष्ट्वा । विषिधं नानाप्रकारं । तवोकम्म तपाकरें। संथारं, गंगनां पढियदि प्रतिपद्यते । देति शीतकाल मुदाबहारमिस मुखबिहारे अनशन समुतम्य मदानपरिश्रम न । भवतिन काल इति सुस्वविहारीमन्युच्यते । - वासारते वकार । कासे दूग अनुदाय । सुइविहारम्मि मुखो गान्परिश्रमाप्रादुर्भावालिट्रो गिगगगनाननं यत्र। अर्थ--इस प्रकारसे बांकालम नाना प्रकारके तप कर वह क्षपक जिस में अनशनादि करने पर भी महान् कष्टका अनुभव नहीं आता है एसे हेमंतकाल में संस्तरका आश्रय करता है. सब्बपरियाझ्यस्सय पडिक्कमित्तु गुरुणो णिओगेण ॥ सव्वं समारुहित्ता गुणसंभारं पविहरिजा ॥ ६३२ ॥ निस्पर्शवन्निश्चतुरंगदाप गुरूपदेशेन विशुद्धचेताः ॥ प्रवर्तते शुद्धगुणाधिरूढः संसारकांतारविलयनाय ।। ६५५ ॥ इति गुणदोषी। विजयोदया- सव्यपरियारयगस्तय सांस्य शानदर्शनचारित्रपर्यायस्य अतिचारान् । पडिकमिनु प्रतिनिवृत्तो Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगाराधना आश्वासः भून्या । गुरुणिओगेण गुरूपदेशेन । गुणसंभार गुणानां समूह । सव्वं कृत्स्नं । समारुहिता सम्यगारुह्य । पविहरिज्ज प्रयतंन । आलोचनागुणवोपाः ॥ मूलारा--सब्बपरियाइगस्य समान दर्शनचारित्रपर्यायस्यातिचारान् । पडिकमित्त प्रतिनिवृत्तो भूत्वा । णिओगण उपदेशेन || आलोचनागुणदोषाः । मूत्ररा: २४ । अंकतः ॥६॥ अत्रेदमुक्तायांनुमोदनाय वृत्तमाध्ययम् ।। सविद्यानिवृत्तिरूपमुपगुर्वादाय सामायिकं ।। यच्छेदै विधिषरतादिभिरुपस्थाप्यायदत्येत्यपि ॥ वृत्तं घाय उतांतरे कथमपि मलेदेऽप्युपस्थापय-- त्येवेति छनणुधुरी गमिह नौम्ययुगीनेषु तम् ।। इति गुरुहनशयोऽजन रोधिगुरत्नत्रयल सानुभावव्यक्तसामाग्यसपत् ॥ विवर बिंबिधीनगमामायरागमिम भुषधा प्रायपुण्यावराय । इत्याशाधरानुस्मृतग्रंथसदमें मूलाराधनादर्पणे पनप्रमेयार्थप्रकाशीकरणप्रवणे क्षपक रत्नत्रयाशुद्रिषिधानीको नाम चतुर्थ आश्वासः ॥ ४ ॥ पंचम आश्वासः। योग्यायां वसती गणाधिपगिग योग्यं श्रितः संसरम ।। शुभपादनसंयनैः पति तो भोज्ने विचित्रेऽपि तैः।। संपाये विगनस्पृहोऽपिन परित्यकांयुषयांशतः || भाग मंत्रममा विधान यतत संहर्तुमहोऽनिशम् ॥ --- ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपके संपूर्ण अतिचारोंग निवृत होकर अर्थात् ज्ञानादिकोंका निदीप पालन पार गुरुके उपदेश से सर्व गुणांक समुदायको हृदय में धारण कर रत्नत्रयमें क्षषक प्रवृत्ति करता है, ८33 Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः महाराधना 130 कीरशी वसतियाग्या का या नेत्येतद्वयान उत्तरे. पण ग्रंथेन तथा योग्य निरूपयति गंधवणट्टजट्टरसचक्कजंतम्गिकम्मफरसे य ॥ गबिगाहा पाउहिलवण्डरायभग्गे य ॥ ६३३ ॥ गाथका वादका नर्तकाश्चाक्रिकाः शालिका मालिकाः कालिका वांशिकाः ॥ काठिका लौहिका मास्सिकाः पानिकाः कांडिका दांरिकारचार्मिकाकिंठपकाः विजयोदया--गंधयणटजट्टस्मचकतग्गिफम्मफरुस ५ नापकाना, नर्तकाना, पानामामा - शा. लायां । तिलमदनकुमकारशालायां च, रजकपाटहिकडीदनटगृहाणां समीप । राजमार्गस्य यासमीपभूताया बसती ॥ अथवं स्वभ्यस्तसमाधिसाधनस्याप्याराधकस्यायोग्यघसती निवसतः समाधिव्याघाती भवतीति योग्यवसति तनिवासाय निरूपयिष्यन् गाथासप्रकेन द्वितयीमपि वसतिं सूत्रयति-तत्रादौ वावगाथाद्वयमयोग्यशच्या लक्षवितुमाह मूलारा---गंधय गंधर्व गीतं । णट्ट नृत्यं । जट्ट इस्ती । अस्स अश्वः । चर्म चक्र कुंभकारोपकरणं । जंत यंत्रं तिलनुपीलनोपायः । फरूसे शांखिकमणिकारादिकः । जत्तिक । कोलिकः । रंजय रजकः । पाडहिय पाटहिक: तीरिकः । होन: वपचः । पाड नटः वंशागारोहणतकः । रायमग्गे महावल, राजमार्गा वा ॥ कोनसी वसतिका योग्य है और कोनसी नहीं है इसका विवेचन ग्रंथकार करते हैं. प्रथमतः अयोग्य वसतीका वर्णन करते हैं-- अर्थ-- गंधर्वशाला-गायनशाला,मृत्यशाला, गजशाला, अश्वशाला, तलीका घर, कुम्हारका घर,वोबीका घर, बाजे बजानेवालेका घर, डोंबका घर, बांसके ऊपर चढकर नृत्य करेनचालेका घर इनके समीप जो वसतिका होगी यह मुनिक लिये योग्य नहीं है, जो वसतिका राजमार्गके समपि है वह भी मुनियासके लिये योग्य नहीं है. ८३८ चारणकोट्टगकल्लालकरकचे पुरफदयसमीऐ य ॥ एवंविधवसधीए होज्ज समाधीए बाघादो ॥ ६३४ ॥ चारणा वारणा बाजिनो मेषका, मद्यपाः पंटकाः सार्थिकाः सबकाः॥ ग्राविकाः कोपालाः कुलाला भटाः पण्यनारजना द्यूतकाय विदाः ॥ ६५७।। Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलरावना आबा ८३५ संति यस्याः सीप निकृष्ठक्रिया । सा नाया निषेच्या कदाचिदषधैः ।। पालगानिसमाधानरत्नं सदा नुसारकानारामदयाम् ॥६५ विजयोन्या-चारणकोहगकालकर कच्चे चारणकोटकादमी, रजकशालायां रभवणिमाला । मुष. वाटस्य वा जलाशयस्य वा समीपभूताय । एवंचिश्वसधीप ईदृश्श्या वसतौ वसतः । होज्ज वाबादो भवति व्यावासः । कस्य ? समाधीए समायश्चितकाम्न्यस्य । इंद्रियविषया भनोज्ञान शब्दानां रूपादनांय सोनसानामबहुलत्वाच्च ध्यानयिनो भवतीति प्रतिषिभ्यते ब्यावर्णिता वसतिः। मूलारा- चारण भवननाचार्यगायकादयः । कोट्टय अष्टकाः । बर्द्धकिशिलाकुटौदूखलिकादयः । कमाल कल्प पालः । करकरे कचं करपत्रं 1 पुप्फ पुष्पवाटिका मालाकारश्च । य उदक वापीकूपादिजलाशयश्च । समाधीए वाधादो चित्तेकाग्रताया विनाशो भवति मनोजेन्द्रियार्थानां संनिधानाच्हन्याहुल्याच्च । अत्र गंधर्वादिपदैः साहचर्यादिना गायकादयो गृधन्ते। तेन गायकादिशालासमीपयर्तिम्यां वसती समाधिकामैन स्थातव्यमिति तारपर्याथः । ___उक्च-गाधका बादका नर्तकाश्वाक्रिकाः शालिका मालिकाः कोलिका शिकाः ॥ काठिका लौहिका मारिसकाः पात्रिकाः । कालिका वांडिकाथामिकाच्छिपकाः॥चारणा धारणा वाजिनो मेपका । मद्यपाः पंडकाः साधिकाः सेवकाः ॥ प्राविकाः कोपालाः कुलाला भटाः । पण्यनारीजना घृतकारा बिटाः ॥ संति यस्याः समीपे निकृष्ट क्रियाः सा न शय्या निषेच्या कदाचिबुधैः । पालयादिः समाधानरत्नं सदा सतसंसारकांतारविच्छेदकं ॥ अर्थ-भांद, व स्तुतिपाठक, जहां रहते हैं ऐसे स्थानके समीप जो वसतिका होगी वह भी मुनिनिवासके लिये अयोग्य है. जहां शिलावट लोक रहते हैं, जहां बढई, पाथरवट लोक रहते हैं, और जहां मद्य बेचनेवाले लोक रहते हैं ऐसे स्थानके समीप बसतिका मुनिका रहना योग्य नहीं है, जहा धोत्री लोक कपड़े धोते है उस स्थानके समीप वसतिका करना योग्य नहीं है, जहां काठ करोतसे विदारते हैं उस स्थानके समीप बसनिका होना योग्य नहीं है. यमीचा और जलाशयके समीप बसतिका रहना योग्य नहीं है. ऐसी वसतिकाऑम रहनेसे चित्तकी एकाग्रताका नाश होता है. इंद्रियों के मनोहर विषय, और शब्दादिक विषय, समीप होनेसे ध्यानमें विघ्न होता है. इसलिये ऐसी वसतिकायें मुनिओं के लिये वर्ण्य मानी है. Yogeeta Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आम कतर्दि फार्थ नित्यस्योत्तरमाच पंचेंदियप्पयारो मणसंखोभकरणो जहिं पत्थि ॥ चिदि तहिं तिगुत्तो उझाणेण सुहप्पवत्तेण ॥ ६३५ ॥ पंचाक्षयसरी यस वियतन कदाचन ।। धिगुमा धमनी वस्या शुभध्यानावतियने ।। ६५० ।। विमोदया-विषाया। पंचानामिद्रियाणा स्वविषयाभिमुयनावपत् प्रकृऐ गमन । जहिं यस्यों भरती नास्ति। कीरनिद्रियाचा मप.स.वं. मगर क्षाभकारी। ताहितरयां वसती चिट्ठदि तिमृति । तिगुत्तो ऋतमनीषाकायसंरक्षक झागाध्यानेन सह पनत्तण सखावृत्तन। कताई कथंभूतः सन् क्षपकस्तिनतीत्यत्राह मूलारा-पयारो प्रचारः स्वस्वस्पियाभिमुख्यनादरात्प्रकृष्टं गमनं ग्रहणाय प्रवृत्तिः । चिट्टदि तिवनि । सुहप्पवतेण सुखेनानायासेन प्रवर्तमानेन । क्षपक मुनि कहां और कसेर ने है इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं--- अर्थ- जना रहने से मुनियों की मिना अपने अपने विषयों के तरफ न दौडगी. जहां रहनेने मनकी कावा नष्ट न होगी एसे स्थान अर्थात एसी वसतिकामें त्रिगुनिधारक मुनि निवास करते हैं, जिसमें रहनस ध्यान में निवित्रता होगी वह यसतिका मुगिनिवास के लिये योग्य है.. मनःसंक्षोभदंतुः पंचानामिष्ट्रियाणां प्रचारो यस्यां बसतो नास्ति तस्यां सर्यस्यां तिष्ठति न येत्याचऐ-- उग्गमउम्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए हु॥ . बसइ असंसताए णिप्पाहुडियाए सेवाए ॥ ६३६॥ उद्गमादिमलापोदा समकाशा गतक्रिया ।। संस्कार करणायांच्या संम्मुर्छनविजिता ॥ ६६० ।। विजयोदया उगम इप्पादणपसमावि मुद्धाप उद्मोत्पावनैषणादोषरहितायां । अफिरिसाए हु आत्मना उप Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माराधना आश्वास लेपनमार्जनकियारहिसायां । यदि वति पर पारण : प्रोपगंतुकाध अर्जितायां । णिप्पाहुडिगाए संस्काररहित नायां । सजाए सती॥ न च यस्यां मननोभकरः पंचेंद्रिगप्रचारो नास्ति तस्यां सर्वस्यामेव स्थेयं किं तर्हि तथाभूतायाम युद्धमादिदोपरहितत्वादविशिष्टायामेवेत्यनुशास्ति मूलारा- अकिरियाण आत्मानमुद्दिश्य सम्मार्जनलेपनादिक्रियारहितावां । असंसत्ताप तत्रस्थैरागंतुकैच सत्त्वैर्वर्जितायां वा । णिपाहुडिगाए सापटवरहितायां । निःसंस्कारायामित्यन्ये । जिसमें मन क्षुब्ध होता नहीं है, जिसमें रहनेसे पंचेंद्रिय अपने विषयके प्रति दौड लगाते नहीं हैं ऐसा सर्व ही स्थान मुनिओंके लिये योग्य है क्या ? इस प्रश्नका उत्तर अर्थ:-जो वसतिका उद्गम, उत्पादन और एपणा दोषोंसे रहित है. जो वसतिका मुनि के उद्देश्यसे लिपी पोनी गई नहीं है ऐसी वसतिका क्षपक रहत है. जिसमें जंतुओंका वाम नहीं है अथवा बाहरसे आकर जहां प्राणि वास नहीं करते हैं, जो संस्कारहिन है एसी वसनिकाम मुनि रहते हैं. Panam निदापा का वसतीशभवितव्या इत्या वसति व्यायर्णयति दो तिणि विसालाओ घेत्तबावो विलालाओ। सुहाणिक्खवणपवेसणघणाओ अवियडअणंधयाराओ ।। ६३७॥ . मिथ्यारष्टिजनागम्या गृहिशय्याविवर्जिताः ॥ वित्रा वसतयो ग्रायाः सेव्या विश्वस्ततामसा: ।। ६६१॥ घिजयोदया-सुक्षणिक्खयणपवेसणघ्रणाश्रो अफ्रेिशमबेश निर्गमना अपि । अधियडमणधयाराओ अविवृतद्धारा अनंदकागच जघन्यतोनाले ग्राहो । राका क्षपको यसति, अपस्यो अन्य यतयो वाहा जनाइय धर्मश्रवणार्थमा यानाः। विशनद्वारजया झीनवानामिरेशावनस्थितनोद दुख स्याल । शरीरमलस्वागोऽपि कथमप्रमाने कियन अंधकारमाहुले असंयमः स्यात् । सम्पनियामप्रवेशायां आत्मबिराधना असंयमविराधनाचा पुनर्वत्तति तश्यितां च व्यावयति-- मूलारा --- सुष्णिक्खवणपसणधणाओ सुम्बनिर्गमाः सुखप्रवेशा निविडाश्च । दुःखनिर्गमप्रवेशायामात्मनो बाल. Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्चा वृद्धजनानां च विराबना स्यात् । अनियिायां भएकस्य त्वगस्थिमानतनोः शीतातपादिदुःख दुःसहं स्यात् । अवियह अविकटा संघृतद्वारा विवृतद्वारायामनंतरोक्तश्च दोषो विण्मत्रोत्सर्गदुष्करत्वं च । अर्णयाराओ अंधकाररहिताः । अंधकारबहुलायां अर्सयमः स्यात् । दो तिणिवि द्वे तिस्रो या । ता यदि द्वे संपद्यते तदैकस्यां क्षपकस्तिष्ठेत् अन्यस्यामन्ये यतो धर्मश्रवणार्थमागतो मव्यलोकश्च । यदि तिम्रस्तदा क्षपकः, संघो धर्मदेशना च पृथक् पृथक् प्रवर्तते ॥ घेत्तव्वाओ पाहाः ॥ कोनसी निर्दोष वसतिकाओंका आश्रय लेना चाहिये इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते हैं अर्थ-जिनमें सुखसे प्रवेश कर सकते हैं और बाहर आसकते हैं, जिनका द्वार ढका हुआ है, जिनमें विपुल प्रकाश है, ऐसी बढी दो चसतिकायें क्षपकके वास्ते जघन्यतया होनी चाहिये. एक वसतिकामें क्षपक रहता है और दूसर्गमें अन्य मुनि और धर्मश्चत्रणासाये मेमोश रदते. गति तीन वसतिकायें होंगी तो एकमें क्षपक दुसरीमें संघके मुनि और तीसरीमें धर्मोपदेश ऐसी पृथक् पद्धति समझना चाहिये. वसतिकाका द्वार ढका नहीं होगा नो शीत वातादिकोंका प्रवेश होनेसे केवल चर्म और अस्थि ही जिसके अवशेष रहे हैं ऐसे क्षपकको दुःसह दुख होगा. अतः वसतिकाका द्वार ढका हुवा ही होना योग्य है. द्वार ढका नहीं होगा तो ऐसी वसतिकामें शरीरमलत्याग क्षपक कसे कर सकेगा? यदि वसतिकामें बहन अंधार होगा तो वहां रहने से असंयम की । प्राप्ति होगी. जिस वसतिकासे बाहर जानेमें और अंदर आनमें यदि कठिनता होगी तो आत्मविराधना और संयमविराधना ये दोष उत्पन्न होंगे. अन्यचाचष्टे घणकुड्डे सकबाडे गामबहिं वालवुढगणजोग्गे ॥ उज्जाणघरे गिरिकंदरे गुहाए व सुण्णहरे ॥ ६५.८ ।। निषिहाः संवृतद्वाराः सुप्रबेशधिनिष्कमाः ॥ सकवाटा लसत्कुञ्या बालसाचितताः ॥ १६२।। विज्ञयोदया-घणकुठे नाव । समयां कपाटराखिने । गामहि रामबाह्य देशी बालबुद्धगण जोग्गजालाना वृद्धानां गणस्य चतुर्विधस्प यो उद्यानरहे । गुद्दाप गुहायो । बा मुष्णाबरे पटना । संथारी होदिति क्रियापदाधिसंयधः॥ Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचामः मूलारा- घणकुद्दे दृढनिजि भित्तिक । गामहि प्रामाहहिशे । रालबुट्टगण जोगगे बालानां युद्धानां गणस्य चतुर्थिधस्य च इचिते। गिरिकंदरे पर्वतदया। गुहाए देवखात बिले ।। और भी योग्य वसतिकाका वर्णन अर्थ-जिसके किवाह और भित्ति मजबूत हैं एसी बसतिकार्य गावके बाहर होनी चाहिये, जहाँ बाल, वृद्ध और चार प्रकारका गण आ जा सकते हैं ऐसे फासले पर वसतिकायें होनी चाहिये. उद्यानगृह, गुहा, और लीपरासिकाचे योग्य माने गये हैं ऐसे स्थान में क्षयकका संस्तर करना योग्य है. आगंतुघरादीम वि कडएहिं य चिलिमिलीहिं कायव्यो । खवयस्सोच्छागारो धम्मसवणमंडवादी य ।। ६३९ ।। उद्यानमंदिरे हृये गुहायां शून्यवेश्मनि । आगंतुकनिवासे वा स्थितिः कृत्या समाधये ।। ६६३ ॥ क्षपकाध्युषिते धिष्पये धर्मश्रवणमंडपः ।। जनानंदकरः श्रेयः कर्तव्यः कटकादिभिः ॥ ६६४ ॥ इति शय्या । विजयोदया--आगंतुघरादीसु विभागंतुकैः स्कंधावारायानः साथिकः कृतेषु गृहादिषु संथारो होदित्ति वक्ष्य माणेन संबंधः । उक्तानां वसतीनामलामे कडपाहि कटः । खत्रगस्पाका अपस्थितये प्रच्छादन कार्य । धम्मसवपमं:वावी य धर्मश्रवणमंडपादिकं च अनेन बहुतरासंयमनिमितवसतित्यागः, संयमसाधनवसतिविकल्पश्च कथितः । सज्जा ।। मूलारा--आगंतुधरादीसु आगंतुमिः स्कंधावारावतः मार्षिक: फतेपु गृहेषु । आदिशकदेन अन्येष्वपि पर्य विधेपु श्रमणयोग्येषु धनकुड्यादिगुगोपेतोयानगृहादिपु पंचसूक्तंषु अपत्य संस्तरः फलव्य इति संबंधः। उकाला बसतीनां अलाभे यस्कर्तव्यं सदाइ कडादि इत्यादि कशदल मानादन। चिलिमिलीहिं पटलिकाभिः । उपहागारो अवस्थितये गृहं । अन्ये उच्छागारो इति पठित्वा प्रच्छन्नश्वेशमित्याहुः । न केवलमेष एव कर्तव्यो, यारता धर्मश्रवण मंडपादि च कर्तव्य कटादिभिरिति संवैधः । एतेन बहुतरासंयमनिमित्तवसतित्यागः संयमसाधनवसतिविकल्पश्च कभितः । बसतिः सूत्रत:२५| अंकत || Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भARA ---- - IN. TARIKA --"..:: m erimitivitamima अर्थ-एक गांवम सर गांवको व्यापार करन के लिय जानवाले व्यापारी लोगोंक लिये निमीण किये घर बगेर स्थानाम मोक्षपक लिय गलर की याचना करते हैं और भी जो मुनि के लिय योग्य स्थान में उसमें संस्तरकी रचना कर सकते हैं. उरफ गतिकाओं की पाप्ति नहीं होगी तो चांसके दल बट्ट और आच्छादन बनवाकर वसतिगरि पाना चाहेगा. वनिकाके सिवाय धमोपदेशके लिये सभामंडपादिक भी बनवाने चाहिय. इतने विवेचन का अभिप्राय यह है कि जिस में अवयम अधिक उत्पन्न होगा ऐसी वमतिकाओंका त्याग करना चाहिय. संयमसाधक बसतिकाआके विकल्पका वर्णन भी इससे सिद्ध होता है. इस प्रकार वसतिकाका वर्णन हुआ. एवंभूनायां यसती संस्तर इत्थम्भून इत्याए पुढवीसिलामओ वा फलयमओ तणमओ य संथारो । होदि समाधिणिमित्तं उत्तरसिर अहव पुबसिरो ।। ६४० ।। उत्तराशाशिराः क्षोणीशिलाकाष्ठतृणात्मकः ।। संस्तरी विधिना कार्यः पूर्वाशामस्तकोऽधवा ।। ६६५ ।। विजयोश्या-पुढवीसंथारो भवति । सिलामओ वा शिलामयो वा । फलकमो फलकायोवावा तणमओ बा समायोचा। ममाधिणिमित्त समाश्यर्थ । उत्तरसिरमथ पुव्यसिर पूर्वोत्तमांग रत्तोतमांगो पा संस्तत कार्यः । प्राची दिषभ्युदयिक पशस्ता । अथवोत्तरादिक स्वयंप्रमाधुत्तरदिग्गततीर्थकाभर युदशेन । अब प्रागुक्तलनणायां योग्यवसती भाराधकस्य समाध्यंगत्या संस्तर गाथासप्त केन निरूपविध्यन्नूर्य तदाअनुरो वक्तुमिदमाह मूलारा-उत्तरसिरे इत्यादि उत्तरा हि दिक् स्वयंप्रभाधुत्तरदिगततीर्थ करमरपुरेशेन शुभकार्य चागमे प्रशम्ता । लोके पुनः आभ्युदयिकेषु कार्य पूर्वा दिक प्रशस्यते सूर्याश्रयत्वात् । अत उतरशिरा: पूर्वशिरा वा पकाय समाश्यर्थ पृथिव्यादिमयः संस्तरः कर्तव्य इति तात्पर्यम् ।। इस प्रकारकी वसतिकामें संस्तर कैसा होना चाहिये इसका वर्णनअर्थ-संस्तरके पृथिवी संस्तर, शिलामयसंस्तर, फलकमयसंस्तर और तृणमय संस्तर ऐसे चार भेद मा Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृगाराधना है. समाधिके निमित्त इन संस्तरों की आवश्यकता रहती है. इन संस्तरोंके मस्तरका भाग पूर्व दिशा अथवा उत्तर दिशाके तरफ होना चाहिये, पूर्व दिशा अभ्युदयिक कार्यों में प्रशस्त मानी जाती है और उत्तर दिशा विदेह क्षेत्र ग्यसंप्रमादितीर्थकर उत्पन्न हुए हैं उनकी भक्तोंके उद्देश्यले प्रशस्त मानी गयी है. आधाड SEANINGre भूमिसंस्तरनिरूपणाय गाथा - अघसे समे असुसिरे अहिसुयअविले य अप्पपाणे य ।। असिणि घणगुत्ते उजोवे भूमिसंथारो ॥ ६४१ ॥ निािरायसुत्यस्पर्शः प्रासुको निर्षिलो घनः ।। संस्तरः क्रियते क्षोणीप्रमाणरचितः समः || ६६६ ।। विजयोत्या - अघसे अमृती । समै अनिनोत्रना। असुसिरे असुषिरा अपिला । अहिसुया उद्देहिकारहिता अभपाण नितुका । अपिणि नाना । गुने पना गुप्ता । उजोये उघोतवती भूमिः । भूभियथारो भूमिसंम्वरः । मृठी भूमियाध्यते करचरणपर्दनेन । असमानेन तदात्मनो वाधा मुपित बिले प्रविश निर्गतास्तत्रत्याः पीजयन्ने भावनाकायिकानां पीडा । अनुद्योते अपश्यतः कथमसंयमपरिहारः । अन्ये तु सप्तम्यता व्याचक्षते । अमृद्वयां अनिम्नोत्रतायाममपिरायोति नंदयुक्तं । आधेयस्य संस्तरस्य अन्यथाभावात् । अपि च पुडबी सिलामओ वा इति वचनेन पृथिवीरूपतया संत र स्योके। भूमि संस्तरीकर्तुं लक्षयति मूलारा--अधसे अमृदी। सभे अनिम्नोग्नता । असुसिरे अच्छिद्रा । अहिसुय उदेशिकारहिता । अप्पपाणे निर्जतुगा । अपमाणे नपशरीरप्रमाणा|| असिगिदे । अनाना । पणा बना दृद्धा ।। गुले अप्रकटा। जोवे उद्योतक्ती। भूमि भूमिः | अइयत्वादिददागुगोपेता क्षिनिः स्तरो भवेत् " अनार्थवादम थमार्थे सप्तमीलिंगप्रत्ययश्च । उक्तं च || नितेतुका घना गुप्ता समामृती निर्मला । अनाद्री स्वममाणा च सोद्योता संस्तरो धरा ।। मृद्री हि भूमिर्गावकरचरणय देनेन बाध्यते । असमानामात्मनो बाधा | सछिद्रायां छिद्रप्रविष्टास्तवस्था वा निर्गताः पाणिरः पीयन्ते । सद्देहिकासंभवयोन्यायां संन्यासकालोमूतोरेहिकाभिः क्षपको दंदश्यते । सप्राणिकाया । मा १०६ PATRO Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना आर ८४२ प्राणिसंयमविराधना स्वप्रमाणाधिकायो व्यर्थः प्रतिलेखनादिव्यासंगः । प्रमाणहीनायां गात्रसकोचदुःखं । आयां अकायिकर्जपीडा । अदायां अंगभारेण नमन्त्यां तद्गतजंनुबाधा, शयितुः क च । प्रकटायो मिण्याष्टिजनानुगः । अनुगोताया दृष्टिपत्तियंशाहशकोऽयमपरिहारः || भूमिसंस्तरका निरूपण करनेवाली गाधा अर्थ-जो जमीन मृद नहीं है वह संस्तरके लिये योग्य है. जमीन मृद होगी तो चह हाथ और पायोंके मईनसे बाधित होगी. बह जमीन अमुपिर होनी चाहिये. सुषिर -छिद्र होंगे, बिल, होंगे तो उसमेंसे निकले हुए और प्रविष्ट हुने सतीवों के माधोगी. वसमा होनी चाहिये, वह ऊंनी नीची होनसे क्षपकको सोनमें बाधा उत्पन्न होगी. यदि वह गीली होगी तो जलकायिक जीवोंको बाधा पईचगी, इसलिये वह मूखीही होनी चाहिये. कृमिटिकादिकसे रहित. प्राणिरहित, प्रकाशयुक्त, आपकके देप्रमाणके अनुसार और गुप्त, सुरक्षित होनी नाहिये. यदि प्रकाशरहित हो तो असंयमका परिहार हो नहीं सकेगा, प्राणिस युक्त होगी तो प्राणिसंयमका रक्षण क्षपक नहीं कर सकेगा. भिकीटक सहित होगी तो कीटादिक जंतु क्षपकके दहको काट खायेंगे. वह शरीरप्रमाणसे अधिक होनेपर प्रतिलेखनादिकका व्यासंग अधिक करना पडेगा. प्रमाणसे हीन होगी तो शरीरसंकोच करना पड़ेगा. यदि दृढ न होगी तो क्षपकके अथवा शोधन करनेवाले के शरीर से दब जाने पर उसमें रहनेवाले जंतुओंको वाधा पोहोचेगी. यदि गुप्त न हो तो मिथ्या दृष्टि लोफोंका संसर्ग होगा. अतः मदत्त्वादिदोषारो वर्जित पृथिवी-जमीन संस्तररूप होगी. अन्यथा नहीं. "जवान विद्धत्यो य अफुडिदो णिकंपो सब्बदो असंसत्तो । समपट्टो उज्जोये सिलामओ होदि संथारो ।। ६४२ ।। विश्वनो स्फुटितोकपः समपृष्ठी विजंतुकः ।। उशेत मरणः कार्यः संस्तरोस्ति शिलामयः 11 २६.७॥ विजायोदया-विद्धस्थो य विध्यस्तः । दाहारफुट्टनादर्षणाद्वा । अफुग्दिो अस्फुटिनः । पिाऊंगो निश्चतः । | सचदो समंतात् । असंसनो जीवरहितः । पापाणमत्कुधादिरहिन रति यावत् । समपटो समपृष्ठः। उज्जोग उद्योत । सिलामओ होदि संधारो शिलामयो भवति संस्तरः ॥ S Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना शिलासंस्तरमाह मूलारा-विद्धत्यो विध्वस्तो दाइकुट्टनघर्षणादिभिः प्रासुकीभूतः । अप्फुडिदो अस्फुटितः । णिर्फपो निश्चलः । पाषाणमत्कुणादिरहितः । समपट्टो समतलः | उज्जोए सप्रकाशप्रदेश बर्तमानः । शिलासंस्तरका विवेचन-- अर्थ - शिलामय संस्तर विध्वस्त अर्थात् अग्निज्वालासे दग्ध, टाकीके द्वारा उकीरा गया अथवा घिसा हुआ होना चाहिये. क्योंकि अग्न्यादिके द्वारा वह प्रामुक हो जाता है. यह शिलामय संस्तर टूटा फूटा न हो, निश्चल हो, सर्वतः जीवोंसे रहित, मत्कुणादि जीवोंसे रहित, समतल, और प्रकाशयुक्त होना चाहिगे. भूमिसमरुंदलहुओ अकुडिल एगंगि अप्पपाणो य ॥ अच्छिद्दो य अफुडिदो लण्हो बि य फलयसंथारो | ६४३ ॥ लघुभूमिसमो रुंद्रो निःशब्दः स्वममाणकः ।। एकांगः संस्तरोऽछिद्रः श्लक्ष्णाः काष्ठमयों मतः।। ६६८॥ विजयोदया--भूमिसमम्बलगो भूम्यक्लमः, महान् , लघुः, । अडिल पगंगि अप्पपाणो य अचलः, एकशरीरः, निर्जन्तुकः। अछिदो य अच्छिद्रः। अफुद्धिदो मस्फुटितः । लण्दो मसृणः । फलंगसंथारो फलकसंस्तरः॥ फलफसंस्तरं ध्याचष्टे मूलारा-भूमिसम समततो भूमिलग्नः । रुंद विस्तीर्णः । लहुओ उवर्तुं नेतुमानेतुं वा सुशकः । अकुक्कुचोकंग अकुकुचो निःशब्द एकांग एकफळकः । अप्पमाणो पुरुषप्रमाणः । लण्हो मसृणः ।। फलकमय संस्तरका वर्णन अर्थ---चारों तरफसे जो भूमिसे संलम हुआ है, रुंद, और हलका, उठानेमें रखने में अनायासकारक, सरल, अखंड. निर्जन्तुक, स्निग्ध, मृदु, अफूट ऐसा फलक संस्तर के लिये योग्य है. ८१ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मररायमा गिसंघीय अमोही जिब्रहदो समधिकारसणिज्जत । सहपडिलहो गउओतणसंधारी हवे चग्मिो !! ६१४ ॥ कृपस्तुणमयोऽसंधिः संस्तरी निरूपद्रवः ।। निःसम्मूरपच्छिद्रां मृदुः सुपतिलेग्नः ! ६६९ ।। विजयोदया-णिस्संधीय ग्रंथिरहितः । अपोल्लो अकिछद्रः । णिस्वहदो निरुपदतः अचूर्णिनः । समाधिवास्य. गिजतु । मृदुस्पर्श निर्जन्तुकच । सुपरिन्हो रखेन प्रतिलेखनीयः सुखेन शोव इति यावत् । मज्गो मृतुः । तणसं. धाशे हवे चरिमो तृसंस्तरो भवेदम्यः ॥ तृण संरतरं व्याच . मूलारा . णिसंधी निर्माण मिरपितः । निरंतरसमायतनगो वा । अपोको अंतच्छिद्ररहितमाः । गिरुध। अणिवतणः । समधिवास समनिवास्यः सम्यगधिवतुं शक्यः रन जूझबनायोग्यत्यान् । मउओ मृदुः ।। तृष्णसंस्तरका वर्णन अर्थ-टुणसंस्तर गांठ रहित तृणसे बना हुआ, छिद्ररहित, न तुटे हुए तृणसे रचा गया, जिसपर सोनेसे अथवा बैठनेसे अंगमें खुजली उत्पन्न न होगी ऐसे तृणसे बना हुआ, मृदुस्पर्शवाला, जंतुरहित, जो सुखसे शोधा जाता है ऐसा होना चाहिये. जुत्तो पमाणरइओ उभयकालपडिलेहणासुद्धो । विधिविहिदो संथागे आरोहब्बो तिगुत्तेण ।। ६४५ ॥ मसारचिनो योग्यः कालद्वितयशोधनः ।। आरोहब्यत्रिजुन संस्तरोऽयं समाधये ॥ ६७० ।। विजयोदया-जुको गुको योग्यः । घमासरहदो प्रमागसमन्वितः । नाल्यो नातिमहान् । उभवकालपदिल. भासदो स्नूदियास्त मनकालय प्रतिग्नान पुनः । विधिविहिदो संवा शास्त्रनिर्विकामकृतस्तरः । आगेट्यो आगरयः । कर तिनुतेण त्रिगुक्षेन हतारभमनोगामायनिधन। Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [1 48% चतुर्विधस्यापि संस्तरस्य गुणव्यावगमुखेन आरोहत्यमाह ती योग्य नायिकाला विधि शाकमः ॥ अर्थ-चारों प्रकारके में होने चाहिये. योग्य प्रजापत, बहुत छोटा अथवा बहुत बडा जो नहीं हैं. सूर्योदयकाल में और सूयांसकालमें शोध करने जो शुद्ध होता है. शात्रोक्त जिसकी रचना हुई है, ऐस संस्तरपर मन, वचन और कायको शुद्धकर क्षपकको आरोहण करना चाहिये. णिसिदित्ता अप्पाणं सव्वगुणसमणिदंमि णिज्जवए || संथारम्मि सिणो विहरदि सल्लेहणाविधिणा ॥ ६४६ ॥ निर्यापके समर्प्य स्वं समस्त गुणशालिनि ॥ प्रवर्तन विधानेन क्षपकः संस्तरे स्थितः ॥ २७९ ॥ तृणक्षोणिपाषाणकाष्ट रास्ते स्थितः संस्तरं धर्ममार्गप्रवीणः ॥ धुनी समस्तानि कर्माणि योगी रणे यत्रवर्गों बलानीव धीरः ॥ ६७२॥ इति संस्तरः ॥ बिजयोदया - णिसिनित्ता स्थापयित्वा त्यक्त्या अध्याणं आत्मानं सव्वगुणसमणिदस्मि सर्वगुणसमन्विते निजघ निर्वाणके संधारम्मि संस्तरे । सिणो निषण्णो । विहरदि चेष्टते। सलेदणा विदिणा संलेखना द्विप्रकारा वालाभ्यंतराचेति । द्रव्यसल्लेखना भावसल्लेखना च । श्राहारं परिहाय शरीरसलेखनां करोति । सम्यग्दर्शनादिभावनया मित्यादिपरिणामास्तनूकरोति । एवं वसतिस्वारी निरूपितौ ॥ कि हत्यारा किं करोतीत्याह- लारा निसिदित्ता समय, संवदिया आहारपरिहापनेन शरीरं सम्यक्त्वादिभावनया मिध्यात्या तनूकरोतीत्यर्थः । संस्तः सूचः २३ अर्कैः ७ ॥ अर्थ- क्षपक संपूर्ण गुणों से पूर्ण ऐसे निर्यापकाचार्य पर अपना सर्व भार सोपकर अर्थात् उसको की शरण मानकर संस्वरपर आरोहण करता है और नाका विधिपूर्वक आवरण करने की शुरुआत करता है. सोखना के दो प्रकार हैं. बाह्य सल्लेखना और अभ्यंतर सल्लेखना अथवा द्रव्यसल्लेखना और भावस भावा ५ ८४५ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RS मृठारावना लेखना. आहारका त्याग करनसे शरीर सल्लंखना होती है. सम्यग्दर्शनादिकी भावनासे मिथ्यात्वादिपरिणामों को क्षीण करना करायमल्लेखना है. इस प्रकार वसति और संस्तरका विवेचन समाप्त दुआ. आर ८४६ । पियधम्मा ढधम्मा संवेगावाजभीरुणो धीरा || छंदण्ड पञ्चइया पच्चरवाणम्भि य त्रिदण्हू ॥ ६४७ ॥ स्थेयांसः प्रियधर्माणः संविग्नाः पापभीरवः ।। रुयाताइछंदानुगमनाः कल्पाकल्पविचक्षणाः॥६७३॥ विजयोदया-पियधम्मा प्रियो धर्मों येषां ते भवंति प्रियधर्माणः । बढधम्मा धर्मे स्थिराः, संघिग्गा संविनाः संसारमीरवः । यजमीरुणो पापभीरयो धीरा धृतिमंतः। छ। अमिप्रायन। पकवाना प्रत्ययिताः । पञ्चश्वाणम्मि य विदः । प्रत्यास्थानकाशा धर्मश्चारितेन प्रियवारिया यतः । ततश्वारिने क्षपकमपि वर्तयितुमुत्सहन्ते तत्साइस्पतां च कत् । यद्यपि चारिऽनुरागतः सम्पहरितया तथापि चारित्रमोहोत्याद्ववारिया भवन्ति इति विशेषणमुपादसे दहचारित्ता इति । अरढचारित्राहिम अलयम परिहरेयुः। स्पादसंधौ परिहरन्ति पापभीरयो यम्मात् । संविना विचिवव्यसननिधानभूनचतुर्गतिभ्रमणन ययाकुटाः । धीरा इत्यनेन परीपहमदा इत्याख्यायते । परीगई: पगजिनी न संगम पालयतीति मन्यते । क्षपकेन अनुक्तमपि तदंगितनावगदप्रयोजना वैवावृत्ये बर्तने । नानाभिप्रायशा इति दर्शयितुं छंदण्ड इत्युक्त । प्रत्ययितच्या गुरुभिर्नामी असंयम कुवति क्षपके बैगम्वृत्त्योद्यता रति साकारनिराकारप्रत्याख्यानकमत्राः॥ अथ तथा कृतपरिकरस्याराधकस्य यथोक्तलक्षयायां बसने विधिविहितं संस्तरमारूतस्य अष्टाचत्वारिंशतं समाधिसहाशानियोतुं चत्वारिंशत्तं गाथाः सूवयन्नादौ तल्लक्षणल्यापनार्थ गायाद्वयमाह मूलारा--धीरा पीपहसदाः । छंदण्ड अभिप्रायविद । पञ्चइदा अनेकवारा पूरितप्रत्ययाः । धर्मो हि चारित्रं सतः स्वयमप्रिय चारित्राः क्षपकमपि पारिवे वर्तयितुं सहायतां च का नोत्महन्त इति पियधमाण इत्युच्यते । सम्यग्दृष्टितया चारित्रानुरागिणोऽपि चारित्रमोडोदयादस्थित्यारित्राः संतः कथं झपकाव चारित्रममाधानाय प्रयतंत इति दृढधर्माण इत्युच्यते । पारविभ्यतो नासंयम त्यजेयुरित्यवचमीरव गुच्यत । योक्तगुणा अध्यनुबाह्याभिप्रायमिगितादिभिः रजानंतो न तदनुमहाय क्षमन्ते इति इंदशा इत्युच्यते । तादृशोप्यदृष्ट पूर्वक्षपकोपचाराः साकारनिराकारप्रत्याख्यानका Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराधना आचामा मानभिन्नाश्च न गुभिस्तत्परिकर्मण्यधिक्रियन्ते इति प्रत्ययिताः प्रत्याख्यानक्रमक्षाश्वेत्युच्यते । एवमुत्तरसूत्रेऽपि पदसाफल्यं चित्यम् । परिचारकोंका लक्षण दो गाथाओंसे आचार्य कहते हैं अर्थ--जिनका धर्मपर गाद प्रेम है और जो स्वयं धर्म में स्थिर है. संसारसे और पापसे जो हमेशा भययुक्त हैं. धैर्यवान और क्षपकके अभिप्रायको जाननेवाले, प्रत्याख्यानके ज्ञाता ऐसे परिचारक क्षपककी शुधपा करने योग्य माने गये हैं. धर्म अर्थान चारित्र. जो यति स्वयं चारित्रपर प्रेम करते हैं वे क्षपकको भी उसके पालने में उत्साहित करेंगे और उसको मदत करेंगे. सम्यग्दृष्टि होनेसे चारित्र में वे केवल प्रेम ही करते हैं और चारित्रमो. इनीय कर्मके उदयसे उनका नारित्र शिथिल होगा एसी शंकाका निरसन करने के लिये 'दिढधम्मा' यह विशेषण है, अर्थात परिचारक जो चारित्रपर प्रेम करते है वैसे वे उसमें दृड भी रहते हैं, जिनका चारित्र रद होता नहीं घे असंयमा रमाग करनेमें असमय होता है, परिचारक गरी सबसे भययुक्त है अतः वे असंयमका त्याग करते हैं. नाना प्रकार के दुःखोंका निधानभूत ऐसे चतुतिके भ्रमण से वे व्याकुल होगये है इसलिये वे संसारभीक बने हैं. परिपहों को वे सहन करते हैं. जो परीषहोंमे पराजित होते हैं चे संयम पालनेमें असमर्थ देखे जाते हैं. जो क्षपत के बिना कहे भी मनके अभिप्राय जानते हैं वे ही वैयावृत्य कर सकते हैं. परंतु जिनमें अभिमाय जाननेका सामर्थ्य नहीं है वे चैयावृत्य नहीं कर सकेंगे ऐसा अभिप्राय 'छंदण्ड' इस पदसे प्राचार्य ने व्यक्त किया है. जिनको साकार और निराकार प्रत्याख्यान का क्रम ज्ञात नहीं है और जिन्होंने पूर्व में कभा क्षपरका यावृत्त्य किया नहीं है ऐसे मुनि अभिप्राय जाननेवाले हो तो भी उनको आचार्य परिचारकके कार्य में नियुक्त नहीं करते हैं. इसलिये परिचारक प्रत्ययित अर्थात् अनेकवार क्षपक की सेवा जिन्होंने की है अर्थात् जो अनुभवी है ऐसे होने चाहिये. AA .कप्पाकप्पे कुसला समाधिकरणुज्जदा सुदरहस्सा ॥ गीदत्था भययंता अडदालीसं तु णिज्जवया ॥ ६१८ ॥ प्रत्पाख्यानविदो धीराः समाधानमियोद्यताः ।। पटूताडिताष्टसंख्याना ग्राखा निर्यापकाः पराः ।। ६७४ ॥ ८५७ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाका 682 विजयोदया करपाक कुतला योग्यमिदमयोग्यमिति भक्तपानपरीक्षायां कुशलाः । समाधिकज्जन्दा समाधानकरणोद्यताः सुदरेहस्सा श्रुतप्रायश्चित्तंथाः । गौवत्था गृहीताः । भगवंते भगवंतः स्वप कारणमाहवन्तः । अउदाळीस तु अष्टचत्वारिंशत्संख्या विजयगा निर्माणका यतयः ॥ भूलारा करपाकप्पे योग्यायोग्य भक्तपानादिपरीक्षायां । भयवंता स्वपरोद्वरणमात्यः । अर्थ- ये आहारपानादिक पदार्थ योग्य हैं इनका ज्ञान परिचारकों को होना आवश्यक है यदि वे इस ज्ञानसे वंचित हो तो पकको असंयमें भी प्रवृत्त करने लग जायेंगे, आयोग्य आहार में भी प्रवृत्त करेंगे. क्षपकका चिन समाधान करनेवाले, प्रायश्चित्त ग्रथको जाननेवाले. आगमन, स्वयं और परका उद्धार करनेमें कुशल अर्थात् स्वपरोपकार करके उद्धार करते हैं ऐसी जिनकी जग में कीर्ति फैली है. ऐसे परिचारक यति अडतालीम होते हैं निर्यापका ममुपकारं कुर्वन्तीति कथनायोत्तरमबंध: - आमासणपरिमाणचकमणारायण जिसीदणे ठाणे ॥ उव्वत्तणपरियचणवसारणा उंटणादीसु ॥ ६४९ ॥ आमर्शनपरामर्शगमस्थानशयादिषु ॥ उपराचसकुंचनादिषु ।। ६७५ ।। विजयोदया- आगासन परिमाण चैकमण सयणणितीयणे ठाणे क्षपकस्य शरीरैकदेशस्य स्पर्शने आम दीनं, समस्तधीरस्य हस्तेन स्पर्शनं परिमदर्शनं । संक्रमणमितस्ततो नमनं । णिसी ठाणे निषद्यास्थानमित्येतेषु । उचलणपरियणसाने पाचरणे । हस्तपादादिप्रसारण आकुंचनमित्यादिषु ॥ निर्माषकाः क्षपकस्येमनिगशुपकारं कुर्वतीत्युत्तर प्रबंधन कथयिष्यनादौ तेषां देहपरिचर्यायां धतुरो नियोक्तुं गाथान्यमाह - मूलारा-आमासण शरीरैकदेशस्पर्शनं । परिमाण सर्व गावस्पर्शनं । चेकमण इतस्ततो परिचरणं ॥ अपके ऊपर उनके द्वारा किये जानेवाले उपकारका आचार्य वर्णन करते हैं. अर्थ - air एक देशका स्पर्शन करना उसको आमर्शन कहते हैं. अर्थात हाथ या पांव वगैरे अवबाधा दूर करनेके लिये हाथसे दावना, पगचंपी करना, संपूर्ण अंगके स्पर्शनको परिमर्शन कहते हैं. अर्थात् - भा Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FREE मूलाराधना PARAMATRADATTARAARAMANATARITALIKARANASTOTHARTHATA संपूर्ण अंग अपने हाथसे खुब दापना जिससे धपककी देहवाधा मिटेगी. क्षपकको हाथका आश्रय देकर इधर उधर पलले सार कारागारमा इसको कक्रमण कहते है. उसको संस्तरपर सुलाना, हाथ देकर बैठाना, खडा करना, उसको एकबगलसे दुसरे अगलयर सुलाना, हाथ पांव पसारना, संकुचित करना इत्यादिक उपकार परिचारक मुनि करते हैं. संजदकमण खक्यस्स देहकिरियासु णिच्चमाउचा ।। चदुरो समाधिकामा ओलग्गता पडिचरंति ।। ५५०॥ देहकर्मसु चेष्टते क्षपकस्य समाधिदाः ॥ चत्वारो यतयो भक्त्या परिचर्यापरायणाः ॥ ६७६ ।। विजयोव्या-संजदकमेण प्रयत्नेनैव । खवगस्स क्षपकस्य । देहकिरियासु शरीरक्रियामु व्यावणितासु । णि प्रतिदिनं। आजुत्ता मायुक्ताःचदुरो चरथारो यतयः । समाधिकामाः क्षेपकस्य समाधिकरणम मिलरन्तः। मोलमंता 'उपासनां कुर्धन्त।। पशिचरति प्रतिचारका भवन्ति । 'घसारि जणा धम्म कहति विकथायो पग्जिसा 'इति पदसंबंध नवारो धर्म कथयन्ति विकथाः परित्यज्य || मूलारा--संजदकमेण मुनिमार्गेण । जाटत्ता मनोवाक्कायैः समाहिताः । समाधिकामा क्षपकस्य समाधिमिकछन्तः । ओलागता पर्युष्टिं कुर्वन्ति । परिचरति प्रतिचारका भवन्ति ।। अर्थ-बहमन उपकार करते समय परिचारक सावधानी रखते हैं. अर्थात असंयमकी उत्पत्ति न होगी और क्षपकको समाधान होगा एसा प्रयत्न करते हैं. उपर्युक्त कार्य करनेकेलिये हमेशा चार परिचारक मुनिओंकी निर्यापकाचार्य योजना करते है. कास्ता विकथा भवन्ति । " ... .. ... भत्तित्थिराजजणवदकंदप्पस्थणडणट्टियकहाओ ॥ - बज्जिसा विकहाओ अज्झप्पविराधणकरीओ॥ ६५१ ।। स्त्रीराजमन्मथाहारद्रव्यदेशादिगोचराः॥ विमुच्य चिकथाः सर्वाः समाधानानिवनीः ।। ६७७ ।। NTRA १०७ Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८५० HERON BHEE विजयोदया-भसिस्थिरायणपदकंदप्पत्याटिमकहाभो । म भज्यते सेव्यते इति मक्तं चतुर्विधाहारः। भक्तस्य, सीणां, रामा, अनपडामा रामोद्रेकारमहाससम्मिश्रोऽशिष्टतापमयोगः कंदर्प तस्य अर्धस्य, नटानां, नर्तिकानां च या कथास्ताः । अजमम्पविराधणकरीमो । अत्मानमधिमर्तते इत्याभ्यात्मिकं । आरमनस्तस्वनिधयनिरूपणं ध्यान तस्य पिराधणकरीओ विराधनाकारिणी।। पत्वारो बिकयास्त्यक्त्वा धर्म कश्यतीत्येतद्राधात्रयेणाह-- मूलारा-भत्तिस्थि भक्तकयां स्त्रीकां च । कंदापत्य कामकथा धनकथां च । णडणहिय नदनातकाकयां । विकथाओ मार्गविरुखकथा: । अमाप शुभध्यानं ।। चार मुनि विकथाओंका त्याग कर धर्मकथाका वर्णन करते है ऐसा आमे संबंध स्पष्ट करेंगे. प्रथम विकथाओंका स्वरूप कहते हैं-- अर्थ- चार प्रकारके आहारका वर्णन करना भक्तकथा है. त्रिओंका वर्णन करना स्त्रीकथा है, राजाओंकी कथा कहना राजकथा है और अनेक देशोंका वर्णन करना देशकथा है. कामविकारसे उन्मत्त होकर हास्यमिश्र असभ्य वचन बोलना उसको कंदर्प कहते हैं. बांसके ऊपर खलनेवाले और नृत्य करनेवालोंका वर्णन करना ये सब कुकथायें है. ये आत्मा स्वस्वरूपके चिंतनमें बाधा उत्पन्न करती हैं. इस लिये इनका त्यागकर क्षपकको चार मुनि हमेशा धर्मका उपदेश देते हैं. कर्य ताई कथयति अखलिदममिडिदमब्वाइष्ठमणुच्चमविलंबिदममदं ॥ कंतममिच्छामेलिदमणत्थहीण अपुणरुत्तं ॥ ६५२ ।। अनाकुलमनुद्विग्नमव्याक्षेपमनुद्धतं । अनर्थहीनमश्लिष्टमाषिचलितमद्रुतम् ।। ६७८॥ घिजयोदया-अम्मलिद अस्खलितं अन्यथा शब्दोधारण शन्दस्खलना, विपरीतार्थनिरूपणा अर्थस्खलना । अभिडिदं अनाडित | असमुग्धं । अव्यादई अन्याइत अप्रतिहत प्रत्यक्षादिना । अणुरूनं नातिमश्चनिसमेतं । शचिलं. चितं नातिशनः | अमंदं नात्यल्पशेष फन्तं श्रोत्रमनोहरं । अनिद्रामलिद मिथ्यात्वनानुन्मिध । अणथतीण अभिधेयशून्यं यत्र भवति । अपुणरुत्त उक्तस्य अधिशेषेण भूयोऽभिधाने पुनरुक्तं यथा तत्पीनरुतं न भवति । - sense Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ te मूलाराधना ८५१ मुळा- पापा । अन्यथा शब्दाचारापिप गायकवारहिन। जाcिt ।।दाप्रत्यभराक्षमाणाविरदं। अच नात्युध्यनि । अविरचितं । पुणरचं उक्तस्वार्थमा आशंपेग योनिमा... हितम् । मुनि धर्मोपदेश किस प्रकार कहते है-- अर्थ-- मुनि जब धर्मोपदेश देते हैं तब उनके मुखसे जिस अभिप्राय के शब्द निकलने चाहिये ये ही निकलते हैं. विपरीत अर्थका कभी भी वर्णन नहीं करते हैं. एकही शब्द वे दो तीन दफे नहीं बोलते हैं. संशय उत्पन्न करने वाला भाषण वर्ण्य करके प्रत्यक्षपरोक्षादि प्रमाणसे आविरुद्ध वचन मुखसे निकालते हैं. उच्चस्वर और मंदस्वर का त्याग कर मध्यमस्वरसे वे भाषण करते हैं. अतिशय सावकाश और अतिशीघ्रताको छोटकर मध्यम पद्धतिका अवलंबकर बोलते हैं, उनका भाषण, कर्णमनोहर, मिथ्यात्वस आमिश्रित, निरर्थकतारहित रहता है. जो अर्थ एक दफे कहा है, उसको ही पुनः कहना पुनरुक्तदोष कहा जाता है इस दोषस रहित उन मुनिगणका भाषण रहता है. STARTrolla - - णिद्धं मधुरं हिदयंगमं च पल्हादणिज्ज पत्थं च ॥ चत्तारि जणा धम्म कहति णिच्च विचित्तकहा ।। ६५३ ॥ प्रल्हादजनकं पथ्यं मधुरं हृदयंगमं ॥ धर्म वदन्ति चत्वारो हृद्यचित्रकथोयताः ॥ १७ ॥ विजयोदया-णि प्रियं । मधुर दलिन पदारगर । रामशंग बांधायागशि । पदादाज व सुखद १ च कर ति काचति । पिच्चं यनुपरस । विचित्तकहा मानाचा शटाः । मूलारा-णि प्रियं मधुरं ललितवापरयनं विचिचकया नानाफामालः । अर्थ-पिंय, मुंदरशब्दरचनायुक्त, कान और हदय रसव कर घाला सुनकर, हितप्रद ऐसा मापदेश अनेक कथाक साथ चे चार पास्चारक मुचि कहते है. CBTET Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना । aaidrase कीरशी क्षपकस्य कथा भणितन्या रस्यानऐ-- खवयस्म कहेदव्वा दु सा कहा जे सुणित्तु सो खवओ॥ जहिदचिसोत्तिगभावं गछदि संबेगणिवेगं ॥ ६५४ ॥ क्षपकस्य कथा कथ्या सा यां श्रुत्वा विमुचते ।। सवधा विपरीणामं याति संबगनिर्विदौ ॥ ६८० ।। विजयोण्या-खधगस्स झपकस्य । सा कहा सा कथा । कहेदव्या कथयितव्या । सो खनगो असी झएकः। जे या कथा :सुणितु श्रुग्या । जहिदपिसोत्तिगमावो त्यक्ताशुभपरिणामः | गादि संवेगणिध्येग संसारभीरतां शरीरभोगनिवेदं च प्रतिपद्यते। एवं समां प्रति धर्मोपदेशविधिमभिधाय क्षपर्क प्रति कथाविशेषकथनं नियमयतिमूलारा-सुणितु श्रुत्वा । अनि त्यक्त्वा । विसोन्तियभावं दुरध्यवसायं ।। क्षपकको कोनसी कथा कहना योग्य है ? इस प्रश्नका उत्तर अर्थ-क्षपकको वह कथा सुनानी चाहिये कि जिसके सुननेस उसके अन्तःकरणों उत्पन्न हुए अशुभ परिणाम विनष्ट होकर वह संसारभीत और देहमोगसे विरक्त हो जायेगा, Heletest आक्खेवणी य संवेगणी य णिब्वेयणी य खवयरस ॥ पावोग्गा होति कहा ण कहा विक्खेवणी जोग्गा ।। ६५५ ।। भवत्याक्षेपानगनिवजानकाः कथाः ॥ क्षपकस्योचितास्तिस्रो विक्षेपजनिका तु नो॥ ६८१ ।। विजयोन्या-आक्षेषणी, विक्षेपणी, संजनी नियंजनी चेति चतस्रः कथाः । तासां मध्ये का योम्या ? का बायोग्यत्यत्रोत्तरं ब्रवीति । आक्रोयणी य इति आक्षेपणी, संवेमनी, निर्वेजनी च कथा क्षकस्य श्रोतुं, आस्थातु च योन्या । षिक्षेपणी तु कथा त योग्या इति सूत्रार्थः । मूलारा--विक्षेपणीयर्जनमाक्षेपण्यादिकथात्रयं क्षपकस्य मान्यतयोपदिशति ।। Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना 'મૈં अर्थ- आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निवेजनी ऐसे कथा के चार भेद हैं, इन कथाओंमें आक्षेपण, संवेजनी और निर्वेजनी कथायें क्षपकको सुनाना योग्य हैं. विक्षेपणी कथाका निरूपण करना हितकर न होगा. तासां कथानां स्वरूपनिदेशायोत्तरं गाथाद्वयं- भाक्वणी कहा सा विज्जाचरणमुवदिरसदे जत्थ ॥ समयपर समयमा कथा दु विक्खेवणी णाम ।। ६५६ ॥ कथा साक्षेपणी ते या विद्याचरणादिकम् ॥ विक्षेपणी कथा बक्ति परात्मसमयौ पुनः ॥ ६८२ ।। विजयोड्या - आपखेचणी कहा सा सा आक्षेपणी कथा भण्यते । जत्थ यस्यां कथायां । विज्जाचरणमुषविस्सदे शानं चारित्रं चोपदिश्यते । पर्वभूतानि मत्यादीनि ज्ञानानि सामार्थिकादीनि या चारित्राण्येयंस्वरूपाणि इति । ससमयप रमाकादु विक्खेवणी णाम । या कथा स्वसमयं परसमये वाश्रित्य प्रवृत्ता सा विक्षेपणी भण्यते । सर्वथा नित्यं सर्वथा क्षणिके एकमेवानेक्रमेष वा सदेव, विज्ञानमात्रं वा शून्यमेवेत्यादिक परमयं पूर्वपक्षीकृत्य प्रत्यक्षानु मानेन आगमेन च विरोधं प्रददर्श कथंचित्रित्यं कथंचिदनित्यं कथंचिये, कथंचिदनेकं इत्यादिस्वसमयनिरूपणाच विक्षपणी || किलक्षणास्ताः कथा इत्यत्र गाथाद्वयमाद मूलारा - विज्जामित्यादि ज्ञानं । चरण सामायिकादिचारित्रं । ससमय रसमयगा सर्वथा नित्यमेत्र सर्वथा क्षणिकमेवेत्यादिपरमतं पूर्वपक्षीकृत्य प्रत्यक्षादिना च प्रतिक्षिप्य कथंचित्रित्यं कथंचित्क्षणिकं इत्यादि स्वमतं प्रतीत्यवष्टमेन व्यवस्थापयतीत्यर्थः । इन कथाओंका स्वरूप आचार्य दो गाथाओंसे कहते हैं - अर्थ - जिसमें सम्यग्ज्ञान और चारित्रका निरूपण किया जाता है उस कथाको आक्षेपण कहते हैं. अर्थात् मति त अवधि वगैरह पांच प्रकारके सम्यग्ज्ञानका स्वरूप, और सामायिक छेदोपस्थापना वगैरह पांच प्रकारके चारित्रका स्वरूप जिसमें कहा गया है उसको आक्षेपणी कथा कहते हैं. जिस कथामें जैनमतके सिद्धांतों का और परमतका निरूपण है उसको विक्षेपणी कथा कहते हैं. इसका विशेष विवेचन – वस्तु सर्वथा नित्य ही है, भवावः ५ ८५३ Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्चम सर्वथा अनियहरेसर्वथा एकाको सबा अन सत्रया सहप ही है, सर्वथा विज्ञानरूप ही है, सर्वथा शन्य ही है. इत्यादि मना सिद्धांतों को पूर्वपक्षमें स्थापित कर उत्तरपक्षीय सिद्धांत प्रत्यक्षः अनुमान और आगगने विरुद्ध है ऐसा सिद्ध करके धम्तुका स्वरूप कथंचित् अनित्य, कथंचित् एक, कथंचित् अनेक, इत्यादिरूपसे जनमतंक द्वारा सिद्ध करना यह विक्षेपणी कथाका वस्तुस्वरूप है. संवेयणी पुण कहा णाणचरितं तवीरिय इदिगदा ॥ णिव्वेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवोधे य ॥ ६५७ ॥ संवेजनी कथा ब्रूते ज्ञानचारित्रवैभवा ॥ निवेदनी कथा वक्ति भोगांगादेरसारताम् ॥ ६८३ ॥ विजयोदया-संघयणी पुण कहा संवेजनी पुनः कथा । णायचरित्ततवपीरिय दिगदा शानचारित्रतपोभावना जनितशक्तिसंपत्रिकपणपरा । णिम्पेजणी पुण कथा गिजनी पुनः कथा सा । सरीरभोगे भवोघेय शरीरे, भोगे, भवसंतती च पराङ्मुखताकारिणी शरीराण्याचीनि, रसादिसप्तधातुमयत्वात् । शुक्रशोणितबीजत्यात, अशुच्याहारपरिवर्द्धितत्वात् अशुचिस्थाननिर्गतत्यास् च न केवलमशुच्यसारमपि । अनित्यफायस्वभाषाः प्राणभृतः इति शरीस्तत्वाश्रयणात् । तथा भोगा दुर्लभाः स्त्रीवखगंधमाल्यभोजनादयो लब्धा अपि कथंचिन्न तृप्ति जनयन्ति । अलामे तेषां, लब्धानां वा विनाश शोको महानुदेति । देवमनुजभवाचपि दुर्लभौ, दुःखबहुलौ अलसुखौ इति निरूपणात् । तथा। मूलारा-गाणेत्यादि-मानचारित्रतपोभावनाजनितशाक्तसंपनिरूपणपस । भवोये भवसंतती शरीरादियाय अशुचित्वादितत्त्वनिरूपणेन परामुखताकारिणी निर्वेदनीति व्यासयेत्रम। अर्थ-ज्ञान, चारित्र, तप इनका अभ्यास करनेसे आत्मामें कैसी २ अलौकिक शक्तियां प्रगट होती हैं इनका खुलासेवार वर्णन करनेवाली कथाको संवेजनी कथा कहते हैं. शरीर, भोग और जन्म परंपरा में विरक्ति उत्पन्न करनेवाली कथाका निवजनी कथा ऐसा नाम है. इसका खुलासा-शरीर अपवित्र है क्योंकि यह रस, रक्त, मांस, शुक्र वगैरह सप्त धातुओंसे बना है. रक्त और बीर्य इसके उपादान कारण हैं. अपवित्र आहारसे इसकी वृद्धि हुई है, अर्थात् मातान खाया हुशा और सालारससे अपवित्र उत्रिए बना बाहार गर्भावस्था में जीवके शरीमें प्रविष्ट होता है तब यह शरीर बढ़ता है, अशुचिस्थानसे-योनीसे यह निकला है इस लिये भी अपवित्र है. न केवल यह * Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूआरधना आश्वास ८५५ अपमित्र ही है परत निःसार भी है. इस शरीरके आश्रयसे आत्माको भी अनित्यता प्राप्त हुई. अर्थात इस आत्माको वार चार जन्म मरण धारण करना पड़ा है. वस्त्र, स्त्री, गंध, पुष्पमाला, भोजन बगैरह भोगपदार्थ दुर्लभ है. इनकी प्राप्ति होनेपर आत्मा तृप्त होता नहीं. इनका लाभ नहीं होनसे अथवा लाम होने पर भी यदि ये शीघ्र नष्ट हो गये तो महान् दुःख उत्पन्न होता है. देवजन्मकी प्राप्ति होना व मनुष्यजन्म मिलना दोनों दुर्लभ है. ये बहुत दुःखोंसे भरे है. इनमें अल्प सुख की प्राप्ति होती है. इस प्रकारका वर्णन जिसमें किया जाता है यह कथा निर्बजनी कथा कहाती है. 5699RTENSAHESEARSARAMATPATAMANSAR विक्खवणी अणुरदस्स आउगं जदि हवेज पक्खीणं ॥ होज्ज असमाधिभरण अप्पागमियस्स खवगस्स ।। ५५८ ।। विक्षेपणीरतस्यास्य जीवितं यदि गति ।। लपानीमसमाधानफला सा तस्य जापते ॥ ६८४॥ विजयोदया-विक्षपण्या परसमयानरूपणा अनुरक्तस्थ भाउग भायुकं । जवि षेज्ज यविभवेत् । पक्खीणं प्रक्षीण होगजमवेत्भसमाधिमरणं ! मप्पागमिगस्स अगस्स अल्पभुतस्य सपकस्य यदेव पूर्वपक्षीकृतं दृषणाभिधानाय तेवय सस्पमिस्यव्यवसायावसमीचीनसामर्शनस्प रलमपैकाम्यं नास्तीति मम्यते । विक्षेपण्यामासक्तस्यायुप्रक्षयेऽल्पभुतस्यासमाश्मिरणमाह-- मूछारा--अप्पागमियरस अल्पश्रुतस्य ।।। अर्थ-विक्षेपणी कथामें जो की स्वमतका प्रतिपादन कर परमतका खंडन करती है. यदि क्षपक अनु. रक्त हुआ है और ऐसी अवस्थामें यदि उसका आयुष्प विलीन होगा तो उसको असमाधि मरण होगा. आपक अल्पश्रुत धारक हो तो पूर्वपक्षमें जो परमतका स्वरूप उदरपक्षसे दूषित करने के लिये कहा है वहीं वस्तुका सत्यस्वरूप है ऐसी श्रद्धान करेगा जिससे उसको रत्नत्रयागधना न होगी. Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आश्वास बहुश्रुतस्य त पयोगिनी यिन्लेषणीतीमा शंका निरस्थति - . .. आगममाहप्पगओ विकहा विक्खेंवणी अपाउग्गा ॥ अब्भुज्जदम्मि मरणे तस्स वि एवं अणायदणं ॥ ६५९ ॥ कथ्या बहुश्रुतस्यापि नासने मरणे सति ।। ......अनाचार न कुर्वन्ति महांतो हि कदाचन ।। ६८५।। चिजयोदया-बागममाइपगढ़ो चि बहुश्रुतस्यापि । विश्लेषणी विक्षेपणी अपाउग्गा अप्रायोग्या । अम्भु SIL उजमि मरण रत्नत्रयाराधनपरे मरणे तस्स विश्रत स्वापि एवं एतत् । अणायमणं अनायतनं मनाधारः॥ '' 'अनरूपश्रुतस्य विक्षेपणी कथोपयोगिनी भविष्यतीत्याशंका निरस्यति- ।। मूलारा-अंग्भुजम्मि रलत्याराधनपरे । लस्स वि अल्पश्रुतस्य पुनः सुतरामपकारिकेत्ययमर्थः । अमायण अनाधारः असमाधिमरणप्रणयनात् ॥ जो बहुश्रुत है उसके लिये विक्षेपणी कथा उपयोगिनी होगी इस शंकाका निरसन करते हैं अर्थ- यदि क्षपक यागमनानी होगा तो भी यह विक्षेपणी कथा रत्नत्रयाराधना जिसमें की जाती है ऐसे समाधिमरणके समयमें उसको अयोग्यही मानी है. क्यों कि यह विक्षेपणी कथा समाधिमरण के लिये सहायक नहीं है. आधारभूत नहीं है. अब्भुजदंमि मरणे संथारत्थस्स चरमवेलाए तिविहं पि कहंति कहं तिदंडपरिमोडया तम्हा ।। ६१.॥ विश्लेपिणीं विमुच्यातः समाधानाविधायिन: 11 कथयन्ति कथास्तिस्रो निमिदंडविगोरबा।। ५८६ ॥ विजयोन्या-बाभुजदमि मरणे निकटभूते मरणे । कस्य संथारस्थस्स चरिमषेलाए । संस्तरस्थस्य मंतकाले । तिविहं विकइंति कथं संवेजनी, निधैजनी आक्षेपणी च कथां कथयन्ति । तिदंडपरिमोत्या अशुभमनोवाकाया दंडशब्देनोच्यते । तद्नेवनकारिणः सूरयः। तम्हा तस्मात् । अमायतनत्वादिपिण्याः ।। Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यूलारावना ८५७ एकतोपसंहारमाह- मुहारा - चरिमवेलाए प्रत्यासन्नमरणक्षणे । सिदंडपरिमोठ्या अशुभमनोवाक्कायनिर्मूलकाः साधवः ॥ अर्थ - संस्तर में पडे हुए क्षपकका मरणकाल जब निकट आचुका है तो ऐसे समय में अर्थात् अन्तसमय में अशुभ मनोविचार, अशुभ शरीर प्रवृत्ति और अनुभवचन इनका त्याग करनेवाले गणधरादि मुनि संबैजनी, निवेजनी और आक्षेपणी ऐसी तीन कथाओंकाही वर्णन करते हैं. विक्षेपणी कथा समाधिमरणके लिये आधाररूप नहीं है. इसलिये उसका निरूपण करते नहीं. जुत्तस्स तबधुराए अब्भुज्जदमरणवेणुसी संमि ॥ तह ते कहेंति धीरा जह सो आराहओ होदि ॥ ६६१ || तपोभावनियुक्तस्य मृत्यासज्जतयेति तम् ॥ से वदति तथा तस्य भवत्याराधको यथा ।। ६८७ ।। विजयोदया - जुसस्स युतस्य तबधुराप तपोभारेण भम्भुज्जदमरणवेणुसीसम्म सभीपीभूतमरणवंशस्य शिरसि स्थितस्य क्षपकस्य । ते धीराः। तह तथा । कदेति कथयन्ति । जघ सो आराधमो होदि यथासामाराको भवति रम्नग्रस्य ॥ ते चत्वारो धर्मकथानियुक्ता यतयस्तथा कथयन्ति तथा रत्नयमाराधयत्येवेत्यभापयन्नात १०८ मूलरा - अब्भुज्जदेत्यादि । सभीपीभूतमरणवंशस्य शिरसि क्षपकस्य || अर्थ - तपका भार जिसने धारण किया है. निकट प्राप्त हुए समाधिमरणरूपी बांसके अग्रभागपर जो ठहरा है ऐसे क्षपकको चार मुनि ऐसाही उपदेश देते हैं कि जिसको सुनकर वह रत्नत्रयका आराधक होगा. चचारि जणा भतं उबकप्पैति अगिलाए पाओग्गं ॥ छंद्रियमवगददोसं अमाइणो लडिसंपण्णा || ६६२ ॥ तस्यानयंति चत्वारो योग्यमाहारमश्रमाः ॥ निर्माना लब्धसंपन्नास्तदिष्टं गतदूषणं ॥ ६८८ ।। आश्वासः 9 ८५७ Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृहाराधना ८.८ विजयोदयात्तारि जणा चत्वारो यतयः । भसे अशनं । पाउमा प्रायोग्यं उगमादिदोषानुपहतं वप्पति आत्यंति। अगिला ग्लानिमंतरेण । कियन्तं कालमानयाम इति संशं बिना । उदियं क्षपकेण इ अशनं गानं वा । अमिशांति कर पाक्षममित्येतावता सेनेष्टं न तु लील्यात् । अथगददोसं वातपित्तमामजनकं । क आन यंति अमाइणी मायारहिताः अयोग्यमिति से नानयन्ति पिणा मोहान्तमक्षयोपशमाद्विनिमन्त्रिताः। अलब्धि देशी गोणमिति कल्पयेत् ॥ चत्वारस्तदर्थ समुचितमशनं उपनयन्तीत्यनुशास्ति मूलारा - उबकम्पैति आनयंति । आगलाए ग्लानिं बिना कियंतं कालं आनयाम इति संक्लेशं बिना । छेदिय भक्तपानं त्याला दुःखमसमाधिकरं निराकरोतीत्येतावतैव क्षपकेणेष्टं । अवगददोसं वातपित्तश्लेष्मणामजनकं प्रशमकं च उमादिरहितं वा । अमाइणो अयोग्य योग्यमिदमिति प्रतारणरहिताः । लाभांतराय भयोपशमाद्रिभालब्धिसमन्विताः । तयैव क्षपकस्यासं क्लेशनान ॥ अर्थ - चार मुनि ग्लानिका त्यागकर उद्गमादिदोपरहित आहार के पदार्थ क्षपक के लिये लाते हैं. कितने दिनतक हमको लाना पडेगा ऐसा विचार वे मनमें नहीं करते हैं. अपक जी पदार्थ चाहता है उनको वे लाते हैं, क्षपक भी जिनमें भूख और प्यास शांत होगी ऐसे ही पदाथ चाहता है लौल्यसे आहारकी इच्छा वह नहीं करता है. क्षपकके वात, पित्त, और श्लेष्मको न बढानेवाले पदार्थ ही परिचारक मुनि लाते हैं. परिवारक मुनिओंक हृदयमें मायाभाव नहीं रहता है. अतः वे अयोग्य आहारको योग्य बताते नहीं. मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्मका क्षयोपशम जिनको प्राप्त हुआ है ऐसे ही परिचारक आहार लाने के कार्य में आचार्यके द्वारा योजे जाते हैं, जिनको भिक्षालब्धि नहीं है ऐसे मुनि इस कार्यमें नियुक्त करनेसे क्षपकको क्लेश होगा. चत्तारि जणा पाणयमुत्रकप्पंति अगिलाए पाओग्गं ॥ छेदियमवगददोसं अमाइणो द्धिसंपण्णा ॥ ६६३ ॥ विजयोदयाचारिणा इति स्पष्टार्थ गाथा--सूरिणा अनुशानी निवेदितात्मानौ द्वौ द्वौ पृथक पृथ क्यानं चानयतः ॥ चत्वारः क्षपकाय पानमानयन्तीत्याह- आश्वास ८५८ Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाभासा मूलागधना मूलारा- स्पष्टम् ।। अर्थ-चार मुनि आचार्य द्वारा नियुक्त होकर क्षपकके लिये योग्य पीनेके पदार्थ लाते हैं. ( बाकी संपूर्ण अभिप्राय ऊपरकी गाथाके समान ही समझना चाहिये.) चत्वारि जणा रक्रवन्ति दवियमुवकप्पियं तयं तेहिं ॥ अगिलाए अप्पमत्ता रववयस्स समाधिमिच्छति ॥ ६६४ ॥ पानं नयन्ति चत्वारो द्रव्यं तदुपकल्पितं ।। अममता समाधानीमच्छनास्मस्य षिश्रमाः ।। ६८९ ॥ पिजयोदया-सैरानीतं मतं पानं चा चस्यारो रक्षन्ति प्रमादरहिताः प्रसा यथा न पविशन्ति, यथा बापरे न पातयन्ति । चत्वारस्तवक्तपानं तरां रक्षन्तीस्याह-- मूलारा-रक्खंति यथा वसावयो न पतंति परे वा न पातयंति इत्यर्थः । दवियं द्रव्यं । उनकप्पियं आनीतं । सय भक्तपानं वा। अर्थ- उपर्युक्त मुनिओके द्वारा लाये हुए आहारके और पानके पदार्थोंका चार मुनि प्रमाद छोडकर रक्षण करते हैं. उन पदार्थों में त्रस जीवोंका प्रवेश न होगा और कोई गिरा न सकेंगे ऐसी संभाल वे करते है. क्यों कि आपकका जिस प्रकारसे चित्त रत्नत्रयमें एकाग्र रहेगा वैसा ही वे प्रयत्न करते हैं. ) काइयमादी सव्वं चत्तारि पदिहवन्ति रवषयस्स ॥ पडिलेहति य उवधोकाले सेज्जुबघिसंथारं ।। ६६५ ।। मलं क्षपन्ति चत्वारो वर्चःप्रस्रवणादिकम् ।। शय्यासंस्तरको कालद्वये प्रतिलिस्खनित च ॥ ६९० ।। विजयोदया-काहगमावी सन पुरीषप्रभृतिर्फ सलं सक्षपकस्य चत्वारः । पविष्ठवंति प्रतिष्ठापयति । पडिलेइंति य प्रतिलिसंति च । उबधो काले उदयास्तमनकालषेलयो। सन्जुवधिसंथारं वसतिमुपकरणं, संस्तरं च ॥ BUSION Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARATHAMEER मुबारावना आवा ८६० चत्वारस्तम्मलापनोद तय्यादिप्रतिलेखनं च कुर्वन्तीत्याह मूलारा-काश्यमादि विमूत्रश्लेष्मलादिमले। पविठवेंति यहिः क्षिपंति । पडिलेइंति शोधयन्ति । उपधो काले प्रातः सायं च ॥ अर्थ-चार मुनि क्षपकका मलमूत्र निकालनेका कार्य करते है. तथा सूर्यके उदयकालम और अस्तकालके समयमें वे वसतिका, उपकरण और संस्तर इनको शुद्ध करते हैं, स्वच्छ करते हैं, खवगस्स घरवारं सारक्खंति जणा चत्तारि ।। चत्तारि समोसरणदुबार रक्खन्ति जदणाए ॥ ६६६ ॥ क्षपकावसथद्वारं चत्वारः पान्ति यत्नतः॥ धर्मश्रुतिगृहद्वारं चत्वारः पालयन्ति ते॥६९१ ।। विजयोदया-खवगम्स क्षपकस्य । घरबार गृहद्वारं । सारक्खंति पालयन्ति। जदणार यातनाबसारित्वारः। असयतान् शिक्षकांश्च निमुद्वारं पालयन्ति । चत्तारि बत्वारः । समोसरणदुवार समयसरणद्वार। जदणाए यत्नेन आरक्षति पालयन्ति । चत्वारस्तद्गृहद्वारं चत्वारा धर्मश्नवणमष्टपद्वार रक्षतीत्याह मूलारा--सारक्वंति पालयति । असंयतान शिक्षकांश निषेई द्वारपालायते। जवणाए यत्नेन । समोसरणदुवारं धर्मश्रुतिगृहद्वारं ॥ अर्थ- चार परिचारक मुनि क्षपककी वसतिकाके दरवाजेका प्रयत्नसे रक्षण करते हैं. अर्थात असंयत और शिक्षकोंको वे अंदर आनेको मना करते हैं. और चार मुनि समोसरण के द्वारका प्रयत्नसे रक्षण करते हैं. धर्मोपदेश देनेके मंडपके द्वारपर चार मुनि रक्षण के लिये नैठते हैं. ८६० जिदणिहा तलिच्छा गदी जम्मति तह य चत्तारि ॥ चत्तारि गवसंति खु खेत्ते देसप्पवत्तीओ ॥ ६६७ ।। Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HODeo SENTARA मूलाराधना आमासा AMIRRiatinumernam AAPARANTUCAthA निशि जाग्रति चत्वारो जितनिद्रा महोचमाः ॥ वाता मार्गन्ति चत्वारो यत्नादेशादिगोचराम ॥ ६९२ ।। विजयाश्या-जितणिहा जितनिद्राः । नलिच्छा निद्वाजयलिसवः। रादौ रात्री। जगति जागरं कुर्वन्ति । तह य नत्र क्षाकसकाशे । चमार चत्वारः। गंपसनि नु परीक्षा कुर्वन्तिाय ते क्षेत्र स्थापित । देश ष सोओ देशव्य क्षमवाना। चत्वारः क्षपकस भी रात्री जाग्रति चत्वारश्च स्वादुषितक्षेत्रे देशादिक्षेमाक्षेमवार्दा मृगयते इत्याह-- मूलारा-तणिठ्ठा अपकतत्पराः । देसापवत्तीओ देशराज्यादिगोचराः शुभाशुभवार्ताः । अर्थ-निद्राको जीतनेकी इच्छा रखनेवाले चार मुनि क्षपके पास जागरण करते रहने हैं. और जहां क्षपक और संप रहा है उस देशकी शुभाशुभ वार्ताका निरीक्षण करनेवाले चार मुनि आचार्योंके द्वारा नियुक्त किये जाते हैं. चाहिं असदवडियं कहंति चउरो चदुविधकहाओ ॥ ससमयपरसमयविदू परिसाए सा समांसदाए धु ।। ६६८ ॥ बहिर्षदन्ति चत्वारः स्वपरागमकोषिदाः ।। अनंतःशब्दपातं ते जनानां निखिलाः कथाः ॥ ६९३ ॥ विजयोदया-शाहि बहिः क्षपकावासान् । असदपलिंग यावत् दूर स्थितानां शब्दो न श्रूयते 1 तत्र स्थिःवा । चउरो चत्वारः पर्यायेण कथाथो चर्षिधाः कथा पूर्व व्यावर्णिताः। कीरम्भूतास्ते कयका प्रत मार-ससमयपरस म ययिदू स्वपरपक्षसिद्धांतमाः । परिसाए परिपंदे । समोसदाए द्राक् समागताये। चत्वारश्च चतस्रोऽपि कथाः कथयन्ति क्षपककर्णापसितशब्दमित्याइ-- मूलारा-वाहि यहि क्ष पकाचासाद्दूरे । असहयष्टियं यथा श्पको न शृणोति । पदुविध आक्षेपणीप्रमुखाः । परिमाप परिपदि । समोसवाए सनुपविष्टायां । आगवायामित्यन्ये ॥ अर्थ-क्षपककी वसतिके बाहर क्षपक न सुन सके इतने अंतरपर स्वधर्म और अन्य के सिद्धांतोंका Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८६२ रहस्य जाननेवाले चार मुनि सभामंडपमें आये हुए श्रोताओंको एकके अनंतर दूसरा इस पद्धतीसे आक्षेपण्यादिकथाओं का वर्णन करते हैं. वादी चचारि जणा सीहाणुग तह अयसत्यविदू ॥ धम्मकल्याण रक्खा विहति परिसाए ।। ६६९ ॥ चत्वारो वादिनोऽक्षोभ्याः सर्वशास्त्रविशारदाः ॥ धर्मदेशनरक्षार्थं विश्चरन्ति समन्ततः । ६९४ ॥ विजयोदयावादी वादिनः । चारिजणा चत्वारः सीदाणुग सिंहसमानाः । अग सत्यविद अनेकशाखशाः धम्मक याण धर्म कथयतां । राहेदुं रक्षार्थ । बिइरंति । इतस्ततो यान्ति । परिसाए परिषदि । चत्वारो वादिनो धर्मकथापराणां प्रवाद्याशेपनिराकरणाय सभायामितस्ततो विचरतीत्याह- मूलारा - महाणुभाषा सिंहवत्परैरधृष्याः । अर्थ - अनेक शास्त्रों के ज्ञाता, सिंहसमान ऐसे बाद करनेवाले चार मुनि धर्मकथा करनेवालोंका रक्षण करनेके लिये सभामें इधर उधर भ्रमण करते हैं, एवं महाणुभावा पग्गहिदार समाधिजदणाए || तं णिज्जयंति खवयं अडयालीसं हिं णिज्जवया ॥ ६७० ॥ एवमेकाग्रतस्काः कर्मनिर्जरणांयताः ॥ निर्माणका महाभागाः सर्वे निर्वापयन्ति तं ॥ ३९५ ॥ विजयोदया एवं महाणुभावा, एवं माहात्म्यवंतः । मग्गहिदार प्रकृया समाधिजद्गार समाची क्षपकस्य प्रयत्नवृत्या । तं विजयंति सवयं तं निर्वापयन्ति क्षपकं । अडवाली हि अष्टचत्वारिंशत्यमाणाः । विजयगा निर्यापकाः ॥ प्रस्तुतमुपसंहरति गुलारा - महाणुभाषा महामाहात्म्याः । एमाहिदाए प्रकृष्टया स्वीकृतया वा । समाजिदा समाधौ यत्नवस्या | विज्जति संसारार्णवान्नर्थातुं प्रयोजयति ॥ भावा ५ ८६२ Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आशमः अर्थ-इस प्रकार ये माहात्म्यवान असतालीत भुमि उत्कृष्ट प्रयनेस क्षपककी समाधेि में एकाग्र करते है. और संसारसमुद्रसे प्रयाण करनेवाले उस क्षपकको समाधिक कायमें अर्थात् रत्नत्रयमें प्रयुक्त करते हैं, व्याणितगुणा पव निर्यापका इति न राय, किंतु भालेरावतयोपिवित्रकालस्य परावृतः कालानुसारंगद प्राणिनी गणाः मवनंते तेन यदा यथाभूताः शोभनगुणाः संभवंति तदा तथाभूता यतयो निर्यापकत्वेन ग्राहा इति वायति - जो जारिसओ कालो भरदेग्यदेसु होइ चासेसु ॥ से तारिसया तदिया चोहालीस पि णिज्जवया ॥६७१ ॥ कालानुसारतो ग्राण्याश्चत्वारिंशचतुर्युलाः ॥ भरतरावतक्षेत्रभाचिनो मुनिपुंगवाः ॥ २६ ॥ विजयादया- जो जारिसओ कालो इत्यादिना यो मादक डान्दो ! बरंदाबंदर वाससु भरत रावतपु जनपदषु । पंचभरलाः पंचगवतास्त निर्यापकास्तारिसगा नाहाभूताः कालानुगुणा इति यावत् । तदया तस्मिन्काल ग्राह्या इत्यर्थः । सर्वत्र सर्वदा यथोक्तगुणगणना एष लियोपकाः स्युरिति न प्राय । कालानुसारेण प्राणिनां गुणप्रकृतेः भरतैरात्रतक्षेत्रेषु विचित्रकालपरावृत्तिरतम्तत्र यदा यथाभूता यावंतश्च स्फुरद्रुणा पतयः संभवंति तदा तथाभूतास्तावतश्चेति निर्यापकत्वेन व्यवस्थाप्या इति दर्शयितुमाइ --- मलारा-भरदेरवदेसु पंचसु भरतेषु पंचसु ऐरावतेपु । वासेसु क्षेत्रेषु । तइया तदा तस्मिन्काले कालानुगुणा निर्यापका ग्रामा इत्यर्थः।। जिनका गुणवर्णन ऊपर किया है ऐसे ही सुनि निर्यापक होते हैं ऐसा न समझना चाहिये. परंतु भरत और ऐरावत कालमें विचित्र कालका परावर्तन हुआ करता है इसलिये कालानुसार प्राणिक्के गुणोंमें भी जघन्यमध्यमता और उत्कृष्टता आती है. जिससमय जैसे शोभन गुणोंका संभव रहता है उस समय बसे गुणधारक मनि नियापक परिचारक समझ कर ग्रहण करना चाहिये. __ अर्थ - भरतक्षेत्रमें और एरावतक्षेत्रमें समस्तदेशामें जो जैसा काल प्रवर्तता है उसके अनुसार निर्यापक समझना चाहिये. अर्थात् मध्यमकालके प्रारंभमें चव्वेचालीस निर्यापक होते हैं, Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलाराधना श्रावास एवं चदुरो चटुरो परिहाधवगा य जदणाए । कालम्मि संफिलिटुंमि जाव चत्तारि साधेति ।। ६७२ ।। णिजात्रया य दोणि वि होंति जहण्णेण कालसंसयणा ।। एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया चि जिणसुत्ते ।। ६७३ 11 हेयाः क्रमेण चत्वारश्त्वारस्तावदंजसा॥ यावासमति चत्वारः काले संकेशसंकुले ।। ६९७॥ कालानुसारिणी ग्राचौ द्वौ जघन्यन योगिनौ। भरतरायतक्षेत्रभवी निर्यापको यती॥ ६९८ ।। विजयोदया - रूपाथोंत्तरगाथाद्वयमिति न व्यास्यापते ॥ कालानुसारेणात्र निर्यापकाणां संख्यादानिक्रम दर्शयत्ति----- मूलारा-परिहाबदबगा हानि नेतच्याः। जदणाए वेशकालानुसारेण गुणेषु यत्नेन । संकिलिमि संबलेशबहुले ॥ अर्थ -इस प्रकार देशकालानुमार गुणोंको यत्नसे देखकर इस संक्लेश परिणायुक्तकालमें पार चार निर्याएक कम कम करना चाहिये. तर नक कम करना जब वे चार रहेंगे. अर्थात् क्षपकके समाधिमरण माघनके लिय कवल देश, काल, गुणकी अपेक्षामे यदि चार ही निर्यापक हो तो भी समाधिमरणरूपकार्यकी समाप्ति होनी है. अनिय संक्लिष्ट कालमें दो निर्यापक भी अपकके इस कार्यको साध सकते है. परंतु जिनागममें एक निर्यापकका किसी भी कालमें उल्लेख नहीं किया है. जघन्यतो टी निर्यापकी इति किमर्थमुच्यते । एको जघन्यतो निर्यापकः कस्मानोपन्यस्त इत्याशंकायां पकस्मिनियारक दोषमाचशे एगो जइ णिज्जवओ अप्पा चत्तो परोपबयणं च ॥ वसणमसमाधिमरणं उड्डाहो दुग्गदी चाचि ।। ६७४ ।। ८६ A Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामना ८६५ आत्मा त्यक्तः परं शास्त्रं एको निर्यापको यदि ॥ असमाधैर्मृतिर्व्यक्तयमसौ दुर्गतिः परा ॥ ६९९ ॥ विजयोदयाएको यदि निर्यापकः अप्पा चतो आत्मा त्यतो भवति निर्यापण, परः क्षपकस्त्यक्तो भवति । पवयणं न्त्र प्रवचनं च त्यक्तं भवति । यसणं व्यसनं दुःखं भवति । श्रसमाधिमरणं समाधानमेतरेण रश्मत्रये भृतिः स्यात् । उड्डाहो धर्मदूषणा भवति । नगदी चावि दुर्गातिश्च भवति ॥ सर्वजधन्यां निर्यापकसंख्यां नियमयति मूलारा- दुबे । एकस्मिपिके दोषागार - मूला अप्पा तो निर्यापण आत्मा त्यक्तः । परो क्षपकः । वसणं दुःखं भवति । धर्म | जघन्यवासे एक निर्यापकका आगम में क्यों उल्लेख नहीं है. दो निर्यापकों का क्यों उल्लेख किया हैं ऐसी शंका होनेपर आचार्य एक निर्यापक होने में उत्पन्न होनेवाले दोषों का वर्णन करते हैं. अर्थ -- यदि एकही निर्यापक होय तो उसमें आत्मत्याग, क्षपकका त्याग और प्रवचनका भी त्याग होता है. एक निर्यापकसे दुःख उत्पन्न होता है और रत्नत्रयमें एकाग्रताके बिना मरण हो जाता है. धर्मदूषण और दुर्गती भी होती है. १०९ एवं निपकेणात्मा त्यक्तो भवति एवं पकइत्येतत्कथयतिखत्रगपडिजग्गणाए भिक्खग्गहणादिम कुणमाणेण || अप्पा चतो तच्चिवरीदो खवगो हवदि चत्तो ॥ ६७९ ॥ भिक्षाद्यविधानेन श्रपकप्रतिकर्मणा ॥ अनारतं प्रसक्तेन स्वस्त्थतोऽन्यो विपर्ययः ॥ ७०० ॥ विजया - खयगपडिजगणार क्षपकप्रतिज्ञागरणया क्षयकप्रतियत्नेन । खयमपडिजगणार इत्यनया गाथया अपघटन भकुणमाणेण भिक्षाग्रहणं निद्रां कायमलत्यागं या कूर्यना निर्यापणा पति माषात् कायमलानो वाऽनिराकरणात निर्यापकस्य पीडा । आश्वास ८६५ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास तषियरीदो यदि नियाको भिक्षा भ्रमति निद्रातिशयशरीरमनिरासार्थ याति, खवगो चसो भवति क्षपका मूलाराधना स्यको भवति ॥ ८६६ । कथं आत्मा त्यक्तः कथं वा अपक इत्यत्राह-- मूलारा-पडिजमाणाए कार्थकरणे । भिक्खयणादि मिक्षामहर्ष कायमलत्यागं घ । अकुणमाणेण अकुर्वता PL निर्यापण । चत्तो अशनामहणानिद्रानिवारणाद्विपमूत्राद्यनुत्सर्जनाच्च महती पीडा प्रापितः । तबिवरीदे भिक्षाभ्रमणनिद्राकरणकाय शुद्धवर्धगगने । चत्तो त्यक्तः आपकस्तत्समाधानानुसंधानापलापात् ।। एक नियांपक से आत्माका और भूपकका भी त्याग होता है इसका विवचन - अर्थ क्षपर्क कार्य हि यदि नियापक तत्पर रहेगा वो आहारग्रहण करना, शयन करना, और शरीसमलका त्याग करना इन कार्योका त्याग करनेसे नियापकको आत्मत्यान करना पड़ेगा, अर्थात आहारका प्रहम् न करनेस, निद्राका अभाव होनेसे, और शरीरमलका विसर्जन करनेसे निर्यायकको बढी वेदना होगी जिससे उसका देह पडेगा. यदि निर्यापक भिक्षा ग्रहणादि कार्य में ही लग जायेगा अर्थात वह भिक्षाके लिये यदि भ्रमण करेगा, खुच सोचंगा, और शौचके लिए. जावंगा तो क्षपकका त्याग होगा. %3 खवयरस अप्पणो वा चाप चत्तोह होइ जइधम्मो ।। णाणरस य वुन्हे दो पबयणचाओ को होदि ।। ६७६ ।। स्वस्यापरस्य वा त्यागे यातिधो निराकृतः ॥ ततःप्रवचनत्यागो ज्ञानबिच्छेदको मतः ७०१ ।। विजयोदय-रूवगरस अप्पणो या चपक्षपकस्यात्मनो चा त्यागे । चत्तो घु होदि जइधम्मोत्यको भवति यतिधर्मः । यतेधमों यावृपयकरणं स परित्यको सपति क्षपकमपहाय गमने 1 अगमने तु आवश्यकानि यतिधर्मेषु प्रधानानि वक्ताभिवंति शक्तिकरुयात् । नणरस य दो शानस्यापि व्युच्छेदो भपति, निर्यापकेन सह मृतिमुपयाति । तदो तस्मात्पचयणच.गो होदि प्रवचनत्यागो मयति । प्रवचनहाय्देनायम उच्यते । प्राशा हि केचिदेव भवती ति चेदेकका निर्यापका अनशनातिनातिखिन्ना मृसिमुपेयुः कः शाखाण्युपदिशेत् कश्च धारयेवेति भवचनत्यागः ॥ स्वपरत्यागे प्रवचनत्यागमाह-- ८६६ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वामा मूलाराधना ८६७ मलारा. - जाविधम्मो यत्तेधर्मो वैयावृत्यकरणं पडावश्यक च रयत शक्तिवैकल्यात् । पापस्स य वोच्छेदो ज्ञानस्यापि न्युच्छेदः स्यानिर्यापकमरणात् । पक्यणचाओ सदो नतो ज्ञानव्युच्छेदात् प्रवचनस्यागमस्य त्यागो विसर्जन भवति भोजनाव्यकरणेनातिक्लिष्टस्य निर्यापकस्य मरणात् । प्रज्ञा शिकचिव म्युः ।। अर्थ-क्षकका अथवा अपना त्याग होनेपर पतिधर्मका दी त्याग हुआ. वैयावृय करना पतिका धर्म है. आत्मत्याग अथवा क्षयकका त्याग होनसे यतिधर्म भी नष्ट होता है, क्षपकको छोडकर यदि निर्यापक जावेगा अथवा नहीं जायेगा तो यति धर्ममें जो सामायिकादिक अवश्य कर्तव्य है उनका त्याग होगा. शक्ति कम होनेसे ज्ञानका भी नाश होगा. निर्मापक और धपक दोनो भी मरेंगे तो आगमका त्याग होगा. प्रायः विद्वान एकाद ही होता है. इस बास्ते अहारादिकके कष्टसे खिन्न होकर निर्यायक मरणको प्राप्त होगा तो कोन शाखाका उपदेश करेगा और कोन शास्त्रको धारण करेगा? इसलिये एकही निर्धापक होनेसे प्रवचनत्याग होता है. यह सिद्ध हुआ. 9%85BTER व्यसनं व्याचले चायम्मि कीरमाणे वसणं खवयरस अप्पणो चावि॥ खवयरस अप्पणो वा चायम्मि हवज असमाधि ॥ ६७७ ॥ क्षपकस्यात्मनो वास्ति स्यागतो व्यसनं परम् ।। भवेत्ततोऽसमाधान क्षपकस्यात्मनोऽपि वा ॥ ७०२॥ विजयोदया-चायग्मि कीरमाणे त्याग क्रियमाण । वसण स्वचगरस क्षपकस्य दुःखं भवति, प्रतिकाराभावात् । अपणो बसणं नियतकरय या व्यसनं भवति अचानाविन्यागात असमाधिमरणं व्याचऐ-चागम्मि त्याग सति । स्थगस्स चसमाधि क्षपकस्य असमाधिमरा भवति ।त्तिसमाधं कुर्वतः समीप अभावात् । अप्पणो या निर्याएकस्य वा । हज्ज मवेत् । असमाधिः अशानादित्यागजनित दुःसव्याकुलस्य । स्वपरत्यागे दु.खमाया-- मूलारा- खवयरस क्षपकरय दुःख स्यात्प्रतीकाराभावात् । अपणो अशनारित्यागात् । असमाधी अपकस्य असमाधिः । समाधिकराचार्यसंनिधानामाचावाचार्यस्य था अशनादित्यागजनितदुःखसंक्लेशावेशात् ।। ८६. Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना ८६८ व्यसन अर्थात् दुःखका वर्णन करते हैं अर्थ-निर्यापकने क्षपकको छोड देनेपर क्षपकको दुःख होता है. उस दु:खकर क्षपक कुछ भी प्रतिकार नहीं कर सकता है. और आहारादिकका त्याग होनेसे निर्यापकको दुःख होता है. क्षपकका त्याग करने पर उसके अंतःकरणको रत्नत्रयमें एकाग्र करनेवाला कोई न होनेसे उसका असमाधिमरण होता है. और यदि क्षपकके पास इमेश निर्यापक रहनेसे उसको आहारादिकोंका त्याग करना पडेगा जिससे निर्यापककी भी रत्नत्रयमें एकाग्रता होना असंभव होगी. सेवेज्ज बा अकप्पं कुब्जा वा जायणाइ उड्डाहं ।। लण्हाछुधादिभग्गी खवओ सुण्णम्मि णिज्जवए ॥ ६७८॥ क्षुधादिपीडितः शन्ये सेवते याचते यतः ॥ क्षपकः किंचनाकल्प दुमोचमयशस्तनः ॥ ७०३।। विजयोदशा-सेवेज्ज वा अप्पं अयोग्यसेंधा कुर्शन् । अस्थितभोजनादिकं पावार्तेन्यसति । कुज्जा या कुर्याद्वा । जायणाइ उडाई मिथ्यादृष्टीनां गत्वा याचते क्षुधा वा तुघा वा अभिभूतोऽहं अशन पान बा देहीति । मुण्यम्मिणिज्जयमे असति निर्यापके ॥ निर्यापकाभावेऽकीर्ति वक्ति मूलारा-अकप्पं अयोग्यमस्थितिमोजनादिक । जायणादि. याचनामनपामाविकानं मिध्यादृष्टीन्प्रति । आदिशब्देन तलायेशादिकं । भग्गो पीडितः । सुग्णम्मि अविद्यमाने । अर्थ- यदि एक निर्यापक आहारादि के वास्ते बाहर गया तो इधर क्षपक अयोग्य सेवन करेगा अर्थात् बैठकर भोजन करना वगैरह कार्य करेगा. किंवा मिच्या दृष्टिके पास जाकर याचना करेगा. मैं भृखसे पीडित हुआ है अथवा प्याससे कष्टी हो रहा हूं मेरे को खोनेके लिये या पीने के लिये दो ऐसी याचना करेगा. Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वा मूलाराधना दुग्गदि एतश्याय असमाधिणा व कालं करिज्ज सो सुण्णगम्मि णिज्जवगे । गच्छेज्ज तवो खवओ दुग्गदिमसमाधिकरणेण ॥ ६७९ ॥ यतोऽसमाधिना मृत्यु यांति निर्यापकं विना ॥ क्षपको दुर्गति भीमां दुःखयां लभते ततः ॥ ७०४ ॥ विजयोदया-असमाधिणा घ अपति निर्यापके समीपस्थे समाधिमंतरेण कालं कुर्यात् । ततस्तेन असमाधिः भरणेन । खवयो दुग्गदि गज क्षपको दुर्गति यायाट अशुभतात. असति निर्यापफे दुर्गतिगमनमाहमूलारा स्पष्टम् दुर्गतिका वर्णन -- अर्थ-निर्यापक समीप न होनेपर क्षपकका असमाधिसे भरण होगा और ऐसे मरणसे अर्थात् अशुभ ध्यानपूर्वक मरनेसे क्षपकको दुर्गति होगी. सल्लेहणं सुणित्ता जुत्ताचारेण णिज्जवेजंतं ॥ सब्जेहिं वि गंतव्वं जदीहिं इदरत्थ भयणिज्जं ॥ १८ ॥ 'चतुर्विधस्य संघस्य कश्चन प्रेषयेत्ततः ।। संन्याससूचकाचार्यों निर्यापकगणेशिना ॥ ७०५॥ श्रुत्वा सहलेखनां सर्वैरागंतव्यं तपोधनैः॥ कारितां शुद्धवृत्तेन भजनीयमतोऽन्यथा ॥७०६ ।। विजयोदया-सल्लेहण सल्लेख । सुपिता श्रुत्वा । जुचाचारेण युवाचारण सूरिणा णिज्जषेज्जंस प्रवर्त्यमामां! सधैरपि गतष्यं यतिभिरितरत्र निर्यापके सूरी मंदचारित्रे भाज्यं । यांतिन या यतयः । सम्यगाचार्येण प्रवर्त्यमाने झपकस्य समाधिमरणोपक्रमे श्रुते सति सर्वयसीना सदुपसर्पण अन्यथा विकल्प Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मास मूलारा-जुत्ताचारेण सुविहिताधारेण सूरिणा। णिज्जवेज्जनं । प्रवत्यमानं । वरस्थ मंदचारित्रे सूरौ निर्यापके सति । भयाणिज्न गंतव्यं न वेत्यर्थः ---- अर्थ-निरतिचार रत्नत्रयका पालन करनेवाले निर्यापकाचार्य के द्वारा क्षपकका] सल्लेखनामरण होने वाला है यह सुनकर सर्व मुनिओंको क्षपकके पास जाना योग्य है. परंतु निर्यापकाचार्य मंदचारित्रका धारक होगा तो यति चाहे तो जा सकते हैं. अन्यथा नहीं. सल्लेहणाए मूल जो बच्चइ तिव्वभत्तिरायेण ॥ भोतूण य देखाई तो पाव चम्टा । एगम्मि भवग्गहण समाधिमरणेण जो मदो जीबो ॥ ण हु सो हिंडदि बहुसो सत्तभवे पमोतृण ॥ ६८२ ॥ सोदूण उत्तमरस साघणं तिव्वभत्तिसंजुत्तो॥ जदि णोवयादि का उत्तमहमरणम्मि से भती ॥ ६८३ ॥ एति सल्लेखनामूलं भक्तिलो यो महामनाः ।। स नित्यमइनुते स्थान भुक्त्वा भोगपरंपराः ॥ ७०७ ॥ एकत्र जन्मनि प्राणी म्रियते यः समाधिना ॥ अकल्मषः स निर्वाणं सप्तष्टिलभते भवैः ॥ ७०८ ॥ यो नैति परया भक्त्या श्रुत्वोत्तमार्थसाधनम् ।। उत्तमार्थमती तस्य जंताभक्तिः कुतस्तनी ।। ७०५ ॥ विजयोदया. सोदण थुत्वा उत्तमार्थसाधनं । नीववक्तिसंयुक्तो यदि न गछत् । नव तस्य उसमार्थपरम अत्रेभे गाये सूत्रऽनुश्रूयते-- मूलारा-एते श्री विजयाचार्यों नेकछति । भक्तिः ॥ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SETTERONETICS मूनाराधना आधाहा समाधिमरणोपरममाकांनुपसर्पदो दोषमाइमूलारा--स्पष्टम। अर्थ--जो यति तीन भक्तिरागसे सल्लेखनाके स्थानकी बंदना करनेको जाते हैं. उनको मरणोत्तर देवगतिका सौख्य मिलता है अनंतर उनको मोक्षकी प्राप्ति होती है, जो यति एकभव में समाधिमरणसे मरण करता है वह अनेक भन धारण कर समारमें भ्रमण नहीं करेगा. उसको सात आठ भव धारण करनेके अनंतर अवश्य मोक्षकी प्राप्ति होगी. अर्थ--समाधिमरणका साधन कोई मुनि कर रहा है ऐसा मालूम होनेपर अन्य अन्य संघके मुनि वडे आदर भावसे उसके दर्शन के लिये जाव. यदि कोई नहीं जायगा तो उसकी उत्तमार्थमरणमें भक्ति नहीं है ऐसा सझना शाहिक - - उत्तमार्थमरणमत्यभाव दोरमाचष्टे - जत्थ पुण उत्तमचमरणम्मि भत्ती ण विजदे तस्स ॥ किह उत्तमट्टमरणं संपज्जदि मरणकालम्मि ॥ ६८४ ॥ उत्तमार्थमा यस्य भक्तिर्नास्ति ठारीरिणः ।। उसमालिस्तस्य मूनी संपद्यत कुतः ।। ७१०।। विजयोदया- जस्स धुश च पुनः उशमार्थमरण भनिन नियत तस्य मरणकाल कथमुत्तमार्थप्ररणं सायन इति दोपः सूचितः॥ उत्तमार्थमरणे भक्त्यभाचे पोषमाइ--- मूलारा - स्पष्टम् । उत्तमार्थ मरणमें भक्ति न होनेसे क्या दोष होता है इनका वर्णन-- अर्थ-जिसकी उत्समार्थमरण में-समाधिमाण में भक्ति नहीं है उसको मरणकालमें उत्तमार्थमरणकी प्राप्ति कैसी होगी अर्थात् वह आादिक अशुमध्यानसे मरणको प्राप्त होगा. ऐसा अभिप्राय इस गाथासे सूचित होता है, - - Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना सहबदीणं पास अल्लियदु असंवुडाण दाव्वं ॥ तेर्सि असंवुडगिराहिं होज खवयस्स असमाधी ॥ ६८५।। तस्यासंघृतवाक्यानां न पायें देयमासतुं ॥ वचनैरसमाधानं तदीयैर्जायते यतः ॥ ७११॥ घिजयोदया- असंधुदाण पास सहवदीण अल्लियत् ण पादचं असंतान क्षपकसमीपं द्वौकनं न दातव्य । याघदेशस्थानां तो बचन न यत । कस्मादसंवृतजमसमीपागमन निविष्यंत इत्याच-नेसि असंबडगिरादि होज्ज व्ययम्स असमाधी । तेशममवृताभिर्वाग्मिवेक्षपकस्य असमाभिः । क्षीणो हि जनो पिचिकतलया कुष्यति संकुशमुपयाति या। उत्तमाथेसायकस्व गमीप वाचालानां गमनं निषेदुमाइ-. मूलारा-सवदी शब्मपतीनां शतिनां च कलकरकारिणामित्यर्थः । पास समीपं अर्थात्क्षपकस्य । अल्लिइदु आश्रयितुं । असंखुडाप वाग्गुमिसमिति विकलानां । असंबुडगिराहिं उत्सूत्राभिर्वाग्भिः । असमाधी चित्तविक्षेपः । श्रीगो हि जनो यत्किंच्छित्वा कुप्यति सजिलश्क्ते वा। अर्थ-जो वाग्गुप्ति अथवा भाषासमितीके पालक नहीं है. जो आगमसे विरुद्ध भाषण बोलत हैं अथवा जो जादा कलकल करते हैं ऐसे लोकोंको क्षपकके पाप्त नहीं जाने देना चाहिये. क्यों कि उनका निरर्गल आगम विरुद्ध भाषण सुनकर क्षपकका चिच रत्नत्रयमें स्थिर न होगा और क्षीण हुआ वह क्षपक कोपयुक्त संक्लंश परि. पणामयुक्त हो जावेगा अतः आगमविरुद्ध जादा याद करनेवालं को क्षपकके पास जादा निषिद्ध किया है. जहां तक शब्द सुनने में आवेगा वहाँ तक उनका गमन निषिद्ध समझना चाहिये. भत्तादीण भत्ती गीदत्थेहिं वि ण तत्थ कादवा ।। आलोयणा बि हु पसस्थमेव कादविया तत्थ ॥ ६८६ ॥ गीताधैरपि ना कृत्या स्त्रीसक्ता दिका कथा । आलोचनादिकं कार्य तत्रातिमधुराक्षरम् ।। ७१२ ॥ - Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८७३ विजयोदयान्तादीपं तती भक्त्याविकथा । गृहीतार्थैरपि यतिभिस्तत्र क्षपकसकाशे न कर्तव्येति । आलोयणा विखु आलोचनागोचरायतिचारविषया । तत्थ क्षपकसमीपे । पसत्थमेव काव्या यथासो न शृणोति तथा कार्या । बहुषु युक्ताचारेषु सूरिषु सत्सु ॥ गीतार्थानां क्षपकांते व्यवहार्थमाह मुळारा-तंत्ती कथा | आलोय गोचराद्यविचारगोचरा । पसत्यमेव यथासो न श्रृणोति तथा कथा कार्येत्यर्थः ।। अर्थ -- आगमार्थको जाननेवाले मुनिओको क्षपकके पास भोजनकथा, वगैरे कथाओं का वर्णन करना योग्य नहीं हैं. योग्य आचारोंको जाननेवाले आचार्योंके पासही सूक्ष्म अतिचारविषयक आलोचना करना हो तो वह भी प्रशस्त ही करनी चाहिये. अर्थात् वह क्षपक सुन न सके ऐसी आलोचना करनी चाहिये. नुज्ञातस्य समीपे ॥ शस्ति -- पञ्चक्खाणपडिक्क मणुवदेसणियोगतिविहवसरणे ॥ पणापुच्छा उवसंपण्णो पमाण से || ६८७ ॥ प्रत्याख्यानोपदेशादी सर्वत्रापि प्रयोजने || पण विधातव्यः प्रमाणं लूरिराश्रितः ॥ ७१६ ।। विजयोदयाप्रत्याख्यानं प्रतिक्रमणात्रि से तस्य सकाशे कर्तव्यमिति यावत् । यदि शक्तोऽलौ न चेत्तदबहुपि युक्तवचारेषु सत्सु सूरिषु क्षपण प्रत्याख्यानादिकं प्रथममुपाश्रितस्यैव सूरेः समीपे कर्तव्यमित्यनु मूलारा --- णिओग आज्ञादानं । तिषिहयोसरणे त्रिविधाकारस्याये पट्टत्रणा प्रायश्चित्तं आपुच्छा प्रभः । संपण्णो निर्यापकत्वेनाश्रितः । प्रमाणं प्रमाणमविसंबाधो भवति । यथाशक्तस्तदा तदनुज्ञया तादृगन्योऽपि प्रमाणमिति निर्णयः । ११० युक्ताचार के ज्ञाता अनेक आचार्य हो तो भी जिसके पास क्षपकने प्रथम आलोचना की है उसके ही सन्नि प्रत्याख्वानादिक करने चाहिये ऐसा वर्णन- आश्वास! ५ ८७३ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- मूलाराधना आश्वान -- अर्थ-क्षपकमुनि प्रस्याख्यान, प्रतिक्रमण गरेह आवश्यक कर्तव्य प्रथम आचार्यके पास ही करे, आज्ञा अहणा करना, उपदश सुनना, तीन प्रकारके आहारका त्याग करना, ( जल छोडकर) प्रायश्चित्त ग्रहण करना, प्रश्न करना, इत्यादिक कायों में प्रथमाचा ही उसके लिये प्रमाण है. यदि प्रथमाचार्य उपदशा देना, बगरह पानाम अशक्त हो तो उनके आज्ञानुसार दुमर आनायके पास क्षपक प्रतिक्रमणादिक कर्तव्य कर सकता है. - - तेल्लकसायादीहिं य बहुसो गंडूसया दु घेत्तव्वा ।। जिम्भाक्रष्णाण बलं होहिदि तुंडं च से विसदं ॥ ६८८ [] तेन सैलादिना कार्या गंडपाः संत्यनेकशः ।। जिल्हाचदनकदिनर्मल्यं जायते ततः ॥ ७१५ ॥ भवन्ति येषां गुणिनः सहाया वित्रं विना ते ददते समाधि ।। समाधिदानाचतमानसैस्ते याद्या प्रयत्नेन ततो गणेन्द्राः ।। ७१६ ।। इति निर्यापकाः। विजयोत्या-तेलकसायादीहिंय तेलेन कषायादिभिश्च। यहुसोचाशो। गंड्सना गंडूषा घेत्तया ग्राह्याः। तत्र गुणं चदति-जिम्भाकण्णाण बलं जिवायाः कर्णयोश शक्तिलं घबने श्रपणे च । होदिदिभविष्यति । तुंच से विसद होविचि पदसंबंधः। स्वैश अपि क्षपकस्य भविष्यति। निर्यापकव्यावर्णना समाप्ता। वाचवणपाटबमुखवैशधार्थ यथादोषं तैलादिगंदृपधारणं गुरुनियोगेन क्षपकस्य विधेयतयोपदिशति मूलारा---गहसया गंडपाः। घेत्तव्षा प्रायाः क्षपकेण । बलं । वचने श्रवणे च शक्तिः । तुई मुख । निर्यापकः सूत्रतः २५ अंकतः ॥ ४ ॥ अर्थ-तेल और कपासले द्रव्योंके क्षपकको बहुतवार कुरले करने चाहिये, कुरले करनेसे जीभ और कानों में सामर्थ्य प्राप्त होता है. अर्थात् कषायद्रव्यके कुरले करनेसे जीभके उपरका मल निकल जानसे यह स्वच्छ होती है. बोलने में समर्थता प्राप्त होती है, कर्णम तेल डालनेसे श्रवणशक्ति चकती है. निर्यापकवर्णन समाप्त हुआ. ८७४ +2PD Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८७५ पिज्जावयपगाणा इत्येतद्वदति paपयासम किश्वा जड़ कीरद्द तस्स तिविवोसरणं ॥ भत्तम उस्सुगो होज्ज सो खवओ ॥ ६८९ ॥ अप्रकाश्य विधाहारं त्याज्यते क्षपको यदि ॥ तदोत्सुकः स कुत्रापि विशिष्टे जायतेऽशने ॥ ७१७ ॥ विजयोदया दव्यमासमकिया द्रव्यस्याहारस्य प्रकाशन के प्रति टोकन अकृत्वा । जर कीर यदि किसे । तरस तस्य क्षपकस्य । तिविषोसरणं विविधाद्वारत्यागः । कलिधि कमिदमत्तविसेसम्म भक्तविशेषे उ दोज्ज सो खयओ उत्सुको भवेत्स झपकः । आहारीसुष्यं चित्तं व्याकुलयति ॥ अभिधर्मत्वादिगुणग्रामसमग्रनिय पिकपतिगण पारंचर्यमाणस्य रूपकस्य त्रिविधाहारं परिजिहीपरिहारविशेपौत्सुक्य निवृत्यर्थे विचित्राहारदर्शनलक्षणां चरमाहार प्रकाशनां गाथासप्तकेन व्यावर्णयिष्यन्पूर्व सयुक्तिकं तत्प्रयोगवि धिगाथाद्वयेनाह- मूलारा - दवपयासं द्रव्यस्य नानाविधाहारस्य प्रकाशं तं प्रति डाँकनं । उस्सुगो उत्सुकः सोत्कंठमभिलाषुकोऽ नादितत्या प्रवर्तमानस्यादाहारसंशायाः || अ आहारप्रकाशन प्रकरणका आचार्य वर्णन करते हैं अर्थ - क्षपकको आहार न दिखाकर ही यदि उससे तीन प्रकारके आहारोंका त्याग कराया जायेगा तो वह किसी आहाराविशेषमें उत्सुक होगा. अर्थात् अमुक आहार मरेको चाहिये ऐसी इच्छा उसके मनमें प्रादुर्भूत होगी जिससे उसका मन दुःखित होगा. यह आहारसंज्ञा जीवमें अनादिकालसे संलग्न हुई है. इसबास्ते उसको आहार दिखाकर उपदेश देकर उससे विरक्त करना चाहिये. तह्मा तिविहं बोसरिहिदिति उक्कस्तयाणि दव्वाणि || सोसित्ता संविरलिय चरिमाहारं पायासेज्ज || ६९० ॥ आश्वास 44 ८७५ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः पानि कोइ नाही मी अत्तसिलिं कि मेति ॥ बेरम्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होदि ।। ६९१ ॥ ततः कस्या मनोज्ञानामाहाराणां प्रकाशना । सर्वथा कारपिण्यानि विविधाहारमोचनम् ।। ७१८॥ कश्चिदृष्ट्वा तदेतेन तीरं प्राप्तस्य किं मम ।। इति वैराग्यमापन्नः संवेगमषगाहते ॥ ७१९ ॥ विजयोदया-पासित राष्ट्रवा आहारमुपदर्शितं । कोर कश्चित् । तादी यतिः । तीरं पसस्स तीरं प्राप्तस्य । इमेहि अमीभिमनोराहारः। कि मेति किं ममेति । घरगमणुप्पत्तो भोगवैराग्यमनुप्राप्त उपगतः। संधेगपरायणो होनि संसारभयास्याये प्रधानो भवति ।। मृलारा-दोस रिहिसि प्रत्यारल्याम्बनीति । मोसिसा सर्वतोमस्येप्रत्वात्तत्समीपमानीय । संविलिय भाजभेपु विग्लंबिरल चम्चा । माबिरम्य इति पाठ सम्म घिरचय्येत्यर्थः । पबासज्ज दर्शयमूरि: । गतो टीकाकारो नेच्छनि ॥ कश्वित्तानि दृक्षा पर वैराय भाप्तो पत्रमयपधानी भवतीलनुशास्ति मूलारा--पासितु उपयर्शितमाहारं दृष्ट्वा । वादी मुनिः । तीरं मरणार्स । इमेहि एतैरुत्काभोव्यैः। किं मेत्ति कि | प्रयोजनं ममेति । वेरग्गं भोगवैराग्यं । मनोज्ञविषयसेवा हि पौनःपुन्येन प्रवर्त्यमाना तत्राभिलाषमनुबध्नाति सतश्च कर्मबंधस्ततो भूयोऽपि भीमभवप्रवेश इति । अर्थ-इसलिये अच्छे अच्छे आहारके पदार्थ बर्तनों में पृथक पृथक् परोसकर उस क्षपकके समाप लाने चाहिये. और उसको दिखाना चाहिये. एमे उस्कृष्ट आहारको देखकर कोई क्षपक मुनि मैं तो अब इस भवक दुसरे किनारे को प्राप्त हुआ हूं, इन मनोहर आहाराकी मेरको कुछ आवश्यकता नहीं है ऐसा मनमें समझकर भोगसे विरक्त होना है. और संसारसे भययुक्त होकर आहारका त्याग करनेमें ही उद्युक्त होता है. आसा दित्ता कोई तीरं पत्तस्सिमेहिं कि मेचि ॥ वेरम्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होदि ॥ ६९२ ।। Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८७७ देसं भोच्चा हा हा तीरं पत्तरिसमेहिं किं मेति ॥ वेरेग्गमणुपपत्तो संबेगपरायणो होदि ॥ ६९३ ॥ सव्वं भोच्या धिडी तीरं पचस्तिमेहिं किं मेति ॥ बेपत्तो संवेगपरायण होइ ॥ ६९४ ॥ आस्वाद्य कालेन तीरं प्राप्तस्य किं मम ॥ इति वैराग्यमापन्नः संवेगमवगाहते ॥ ७२० ।। अशित्वा कमिदंशेन तीरंप्राप्तस्यकिं मम ॥ इति वैराग्यमrraः संवेगमवगाहते ॥ ७२१ ॥ भित्वा सर्वमेतेन तीरं प्राप्तस्य किं मम ॥ इति वैराग्यमापन्नः संवगमवगाहते ॥ ७२२ ॥ विजयोदया- मनोविषयसेवा हि पौनःपुन्येन प्रवर्तमाना अभिलावं जनयति जंतोः । स चानुरागः कर्मलादाने हेतुः ततो भोगं भवभोधनं भवभूतामिति स्पष्टार्थ गाथाश्रयोत्तरं । प्रकाशना समाप्ता पयासणा || कोपि स्वोकं मुखे प्रक्षिप्य विरक्त: सभ्संविग्नः स्यादित्याह--- मूलारा स्पष्टं । कोऽपि आहारपदेशं वभित्वा तथा स्यादित्याह - मूलारा -- हाहा | मुकाम विविधाहाराः पीताश्च विविधास्तनाः | मातरो विविधा दृष्टाः पितरच भवाये || इति शोकविदाविष्टः ॥ फोसिमाहारं भुक्त्वा विविग्भमित्यात्मानं निदित्या तथा स्यादित्याह - गूलाय-- स्पष्टम् । अर्थ- कोई क्षपक मुनि नाना प्रकारके मनोज आहार की प्राप्ति होनेपर इनसे मेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ऐसा विचार करके उनका सेवन नहीं करता है. मैं तो अब मरणके अन्तिम समयको प्राप्त हो चुका हूं आश्वास ८७७ Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास अतः इससे मेरा कुछ प्रयोजन सिद्ध होगा नहीं इस विचारसे वैराग्यको प्राप्त होकर संवेगतत्पर होता है, कोई क्षपक उस आहारों में से थोहा आहार उठाकर अपने मुंहमें डाल कर ददनतर हाप ! अब तो मैं अन्तिम समयको प्राप्त हुआ हूं इस बाहारसे मेरा क्या मतलब है ऐसा विचार कर विरक्त और संसारभीत होता है, कोई क्षपक संपूर्ण आहारका भक्षण कर उससे विरक्त होता है. हाय मरको धिक्कार हो. मैं अन्तिम समयको प्राप्त हुआई, ऐसे विचारसे विरक और भयभीत होता है, मनोज्ञ विषयोंका सेवन करते रहनस वारंवार अभिलाषा बढती हो जाती है. यह अभिलाषा विषयापर अनुराग उत्पन्न करती है. अनुगगसे कर्मबंधन होता है और यह कर्मबंध संसारसमुद्रमें प्राणीको पटक देता है, इस प्रकारके विचारस क्षपक आहारका त्याग करता है. प्रकाशन प्रकरण समाप्त हुआ. - हाणी इति सूश्पद ब्याचष्टे कोई तमादयित्ता मगुण्णरसवेदणाए संविहो ॥ त चेवणुबंधेज्ज हु सब्ब देसं च गिद्दीए ॥ ६९५ ॥ वल्भित्या सुंदराहारं रसास्वादनलालसः ॥ कश्चित्तमनुबध्नाति सर्व देशं च गृद्धितः ॥ ७२३ ।। इति प्रकाशनम् । विजयोदया-कोई कश्चिद्यतिः । ते पशि जमाहारं । आदयिता भुक्त्वा । मगुगणरसंरक्षणाए मनोहरसानुभयनेन । संविशो मूच्छितः । तं चेवणुबंधेज हु तमेवास्वादित मनोज्ञाहारमनु बन्जीयात् । दर्शितप्येकं वा गिद्धोए गृदया। कश्चिद्धीसत्वस्त दर्शितभाहारं सर्व भक्त्वा तासानुभवाविष्टस्तमेव सर्व तदेकदेश वा सुधा नित्यमभिलषेदि. त्याह-- मूलारा--आदइना-मुक्या । वेदणाए अनुभवन संविदो सम्मूछितः ।। एतां श्री विजयाचार्य उत्तरसूत्रे व्यायः । प्रकाशना । सूत्रत: २८ । अंकता ७ ।। हानि नामक प्रकरणका विवेचन NATAS Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमाराधना आखासा अर्थ-कोई क्षपक दिखाया हुआ आहार भक्षण कर उसके स्वादिष्ट रसमें लुब्ध होकर उस संपूर्ण आहास्को वारंवार भक्षण करने की इच्छा रखता है. अथवा उसमेंसे किसी एक पदार्थ को वारंवार खानेकी अभिलापा करता है. ला तत्थ अवाओवायं देसेदि बिसेमदो उवदिसतो ।। उद्धरिदु मणोसलं सुहुमं सणिवत्रमाणो ॥ ६९६ ।। कुरुते देशना सरिरायापायविशारदः ॥ निराकर्तुं मनःशल्यं सूक्ष्म निर्यापयन्नमुम् ॥ ७२४ ।। बिजयोदया- तत्थ तत्राहारासको जातायां । अवाभोपायं इंदियलयमस्यापायं, असंयमस्य च दौकने । दसेदि वर्शयति । विसेसदो विशेषेण । उदिसतो उपदिशन् । उदरिदुं उद्धतं । मोसलं मनःशस्थ । सुदुमं सूक्ष्मं । सण्णिायघमाणो सम्यक् प्रशमयन् ।। अथैवं मनोज्ञाहाररसगृद्धषनुबंधात्मकशल्योद्धरणपूर्षिका अपफस्य हानि गाथाचतुष्टयेन ब्याचक्षाणः पूर्व तारक शल्यातस्य तस्य निर्वापकायायेण प्रयोक्तव्यं प्रतिविधानमभिधत्ते-- मूल रा--तत्य तस्यां मनोनाहाररसासक्ती अपकस्य जावायां ! अपायोपाये अपायमिद्रिय संयमविनाश, उपापंच तसंयमढीका । बिसरायो उसदिसतो 'नाजितेन्द्रियस्य कापि कामिद्विरस्तीति'।"अंधादर नहानधो विपयांची कमेश्रणः । चक्षुपांपो न जानाति विपयांशी न केनथिन्,” || इस्येवं प्रायेण विशेषणोपदेशं कुर्वन् । उदरिदु उद्धत उत्पादयितुं । रणोला चित्तगत भोजनगृद्धिलक्षणं घोरदुःखकारण । सुहम सूक्षा गुणापि तदैयोपलधगीयत्वात् । संणियमागो सम्यक श्रीगयन्शनोत्पादनेन शीतयन्नित्यर्थः ॥ अर्थ--जय आहार में क्षपककी आसक्ति हो जाती है तब अभिलापा रूपी सूक्ष्म मनाशल्यको निकालनके लिये आचार्य शांततास उसको विशेष रीनीसे उपदेश करते हैं, उपदेशमें बे आहारकी गृद्धीसे इंद्रियसंयम की हानि होती है और असंयमकी वृद्धि होती है ऐसा विशेषरीतीसे कहते हैं. जिसने इंद्रियोंको ताव में नहीं रखा है वह कछ भी कार्य सिद्ध नहीं कर सकता है, विषयांध मनुष्य अधसे भी अन्धा है, आखोंसे अंधा पुरुष केवल पदार्थों को PaneeseTE S Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना देख नहीं पाता परंतु विवेकसे वह रहित नहीं है. परन्तु विषयांध हेय, उपादेय, कुछ भी जानता नहीं. इस प्रकार का उपदेश करके उसकी आहारकी अभिलाषा हृदयसे निकालते हैं. सोच्चा सल्लमणत्थं जहरदि अमेममापमाण ॥ वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो खवओ ।। ३९७ ॥ काश्रिवुद्धरते शल्य क्षिप्रमाकर्ण्य देशनाम् ।। करोति संभनित्रस्तः सूरीणां वचसा न किम । '७२५।। विजयोदया-सोया थत्वा नराम्राथा । सशस्य, उद्धरदि उत्पादयति । असेस अशष । पनादेण प्रमाई चिना । वरन्गमयुपतो गन्धमनुप्रातः । संवगपरायणः संवगपरः । क्षपकः शल्योद्धरणपरो भवति ॥ गुरूपदेशमाकर्ण्य झटिति प्रतिबुद्धः स क्षपको यद्विधत्ते सदभिधत्तेमूलारा--स्पष्टम् । अर्थ--इस प्रकार वैराग्य बढानेवाला उपदेश सुनकर क्षपक प्रमाद छोड़ देता है. और संपूर्ण अभिलाषा रूपी शल्यको हृदयसे निकालकर फेक देता है. वैराग्य युक्त होकर संसारसे भययुक्त होता है, अणुसजमाणए पुण समाधिकामरस सव्वमुबहरिय ।। एकेकं हावेतो ठवेदि पोराणमाहारे ॥ ६९८ ॥ समाधानीयतो गृधनोः संत्याज्य सकल गणी ।। एक हापयन्मेवं प्रकृते वधते शनैः॥ ७२६ ।। विजयोदया--अगुसजमाणप. पुण कृतेऽप्याहाराभिलाषस्य बोषोपदर्शने | अणुसज्जमाणमे आवारे अनुरागव तिक्षपके । समाधिकामस्स समाधिमरणमिच्छतः । सम्वमुवाहरिय सर्वमाहारमुपसंमृत्य । कथं एक हावेतो एक आहारं हापयन् सूरिः। उपेदि स्थापयति । शपर्क । पोराणमाहारे प्राक्तने आहारे ।। तदनुधिनं समाधिमरणार्थिनं एकैकहापनेन सर्व गृद्धिकरमाहारं साजयित्वा मूरिः आपकं प्रकृताहारे स्थापयतीनि उपदिशति-- APATES .. . .. .. Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८८१ मूलारा - अणुसज्ज माणगे दर्शितेप्याहारगृद्धिदोषे पुनराहारे रागमति क्षपके । समाधिामरस समाधिमरपार्थिनः क्षपकस्य संबंधिनं । सर्वमाहारमेकैकं छापयन्सूरिस्त्याजयित्वा । पोराणमाहारे प्राक्तने भोजने स्थापयति स्थिति करोतीति संबंधः || अर्थ – निर्यापकाचार्य के द्वारा आहारभिलाषा के दोष बतानेपर भी क्षपक उस आहारमें यदि प्रेमयुक्त ही रहा तो समाधिमरणकी इच्छा रखनेवाले उस क्षपकके संपूर्ण आहारोंमेंसे एक एक आहारको घटाते हैं. अर्थात् क्षपकसे एकेक आहारका क्रमसे त्याग कराते हैं. अणुपुत्रेण विदो संण सव्यमाहारं ॥ पाणयपरिक्रमेण तु पच्छा भावेदि अप्पा || ६९९ ।। क्रमेण वैराग्यविधौ नियुक्तो निरस्य सर्व क्षपकस्ततोऽन्नं ॥ आराधनाध्यानविधानदक्षैः स पानकै भावयते श्रुतोक्तों ॥ ७२७ ॥ इति हानिः । विजयोदयादचिदो स्थापितः सूरिणा प्राक्तनाहारे क्षपकः पचारिक करोत्यत आह- सव्यमाहार, अशनं स्वायं, मेण संव उपरिकमेण दु पानकास्येन परिकरेण । अप्पा आत्मानं यति हानिया ि तथा प्राक्तनाद्वारे स्थापिततीयाह- मूलारा---अणुपुब्वैण अनुक्रमेण । संग त्यक्त्या । सव्वं पानकर्ज त्रिविधमाहारं । पाणयपरिक्रमेण दु पानकाख्येन परिकरेणैच । पच्छा पश्चिमका भावेदि चतुर्विधाहारत्यागयोग्यं स्वं करोति क्षपकः ॥ इानिः सूत्रतः २० अंकतः ४० ॥ अर्थ -- आचार्य उपर्युक्त क्रमसे मिष्टाहारका त्याग कराकर क्षपककको साधे भोजन में स्थिर करते हैं. तब वह क्षपक भात वगैरे अशन और अपूप वगैरे खाद्य पदार्थोंको क्रमसे कम करता हुआ पानकाहार करनेमें अपनेको उद्युक्त करता है. इस प्रकार हानिनामक प्रकरण समाप्त हुआ आश्वास ८८१ Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अाथ मूलाराधना -com ८८२ n कतिप्रकारं गानफमित्यारेकायामाचरे सत्थं बहलं लवडमलेण्डं च ससिस्थयनसित्थं ।। छविह पाणयमेयं पाणयपरिकम्मपाओग्गं ।। ७००। लेपालपघनस्वच्छसिक्थासिक्थविकल्पतः॥ पानकर्मोचितं पानं पोहेदं कथितं जिनैः ॥ ७२८ ।। विजयोदया-सस्थ स्परछ ग पान उणोदय सोधी । नितिमीफाफारसप्रभृतिर्फ न अन्यल। दध्याविक देवडं लपमहित । बलबई अलपसदित यन्त्र हस्तानलं चिन्तिपनि । ससित्वगं सिक्वहित, अभिग सिक्थरहित । छद्धा पोटापाणगभेदं पतन्यामकमेका परिकामपामो पानकास्यतिकर्मपायोग्यं । __ अवं कृताहारपरिहारगोनोगम्य अपकस्य सत्प्रवासगानविधान गाथादशकनोपदेवन्पूर्व तयोग्यानुपानकिकरपानिर्दिशति मूलाग--सर्छ स्वच्छ गोदकादिकं । बहलं काजिकद्राक्षापान कातितिदीकाफिलरमादिक । लाई हम्नतललेपि दाधचोलादिक । अलेवर्ड मंडमथितादिक । ससिगं प्यादिकं । असिन्छ मुद्रसूपादिक । उद्धा पोटा। पानकके कितने प्रकार हैं इस प्रश्नका उत्तर -- अर्थ स्वच्छ यह एक पानकका प्रकार है. गरम पानी, वगैरहको स्वछ कहत हैं. वहल-कांजी, द्राक्षारस, इमलीका गार, वगैरह गार पानक. लेबर जो द्वाथको चिपकता है एसा पतला पदार्थ दही वगैरह, अलेवड-हाथको न चिपकनवाला गांड ताक वगैरह, सिक्यसहित-जिसमें भास के सिक्थ रहते है ऐसा पानक अर्थात मांड सिक्थग. भातके सिवथ जिसमें नहीं हैं ऐसा मांड आँसक्थग एसा छह प्रकारका पानक आगम में कहा है. आय चिलण सिंभं स्वीयदि पित्तं च उत्सम जादि । वादस्स रक्खण8 एत्थ पयत्तं खु कादव्यं ॥ ७.१ ।। आचाम्लेन क्षयं याति श्लेष्मा पित्तं प्रशाम्यति ॥ परं समीररक्षार्थ प्रयत्नोऽस्य विधीयताम् ॥ ७२९॥ Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H आश्वास मूलाराधना ८८३ विजयोदया-भायंबिलेण आवाग्लेन । सिंभं स्वीयदि एलेष्मा अयमुपयाति । पित्तं च पितं च । उवसमं जादि उपशममुपयाति । यादस्स यातस्य 1 र.पत्रण, रक्षणार्थ । एत्य अत्र । पयत्त ख काय प्रयत्नः कर्तव्यः ।। कफपित्सवात्तप्रतिकारोपायमाह--- मूलारा--सिंभो नीयदि उलेमा क्षयम्पयति । रक्षण प्रबोपनिवासणा ! UPथ अन्यामचमत्यूके क्षपके । पयनं प्रकृष्टो यत्नः । येन पात: कुपिराः प्रशाम्यति न वा न दुनिया आयुषंदानुसारणोपक्रमः कम्य एवान्नाधीनस्वास्पित्तधातुमलादीनाम् ।। ___ अर्थ --आचाम्लसे कफ का क्षय होता है. पित्तका उपशम होता है और वातका रक्षण होता है अर्थात् उसकामी प्रकोप होता नहीं इसलिये आचाम्लमें प्रयत्न करना चाहिय. अर्थात् इतर पानकोंकी अपेक्षासे आचाम्ल पानक क्षपककी प्रकृति को अनुकूल होता है इसलिये क्षपक विशेषतासे इसको उपयोगमें लावे. ARITTENTREPRESENTENTRESTERSTANT पामभावनोत्तरकालभाषिन व्यापारं दर्शयति तो पाणएण परिभाविदरस उदरमलसोधणिच्छाए मधरं पज्जेदवो मंडं व विरेयणं खबओ ॥ ७०२॥ ततोऽसौभाषितः पान ठरस्य विशद्धये ।। मलस्य मधुरं मंदं पायनीयो विरेचनम् ॥ ७३०॥ विजयोदया-तो पश्चात् । पाणगेण पानेन । परिभाविदो भावितः क्षणकः । मधुरं पन्जयो मधुरं पाययि. तव्यः । किमर्थ ? उवरमलसोणिच्ए उदरगतमलनिरासाय ॥ पानकसंस्कारोतरमुपक गाथाद्वयेनाइमूलारा---पडोक्यो पाययितव्यः ।। पानभावनोत्तर क्या क्रिया करनी चाहिये इसका वर्णन अर्थ-पानक पदार्थका सेवन करनवाले क्षपकको पेटके मलकी शुद्धि करने के लिये मांडके ममान मधुर रेचक औषध देना चाहिये. Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आश्च आणाहबत्तियादीहि वा वि कादच्चमुदरसोधणयं ।। बेदणमुप्पादेज हु करिसं अत्यंतयं उदरे ॥ ७०३ ॥ अनुवासादिभिस्तस्य शोध्यो वा जाठरो मलः ॥ अनिरस्तो गतः पीडां महतीं विदधाति सः ॥ ७३१ ॥ विजयोव्या-आणाहबत्तियादीहि अनुवासनादिभिः कादब्य कर्तव्यं । उदरसोधणयं उदरस्थमलमुदरशन्दनोच्यते तस्य निराक्रिया उदगमलशोधना । किमर्थमेव प्रयासेन महसा मलं निराप्रियत इत्यत्राचष्टे । वेदणमुपादेज्ज घु घेदनामुत्पादयेदेव । उहरे करिस्सग पुरीपं अत्यंतगं स्थितं ॥ मूलारा--आणाह अनुवासन । वाजिकस्विनबिस्नपत्राापनाहो वा | वत्ति पर्तिः। सैंधवादिमयी गुदपणेया आदिशब्देन यापनवस्त्यादिग्रहण । करित्रं पुरीयं । अत्यंतय तिष्यत् ॥ अर्थ ---कांजीसे भिगे हुए बिल्ल पपादिकोंसे उदरको सेकना चाहिये तथा सेंधानमक बगैरह पदार्थोकी वर्तिका बनाकर गुदद्वारमें उसका प्रवेश करना चाहिये ऐसा करनेसे सत्र उदरका मल निकलता है. ऐसा प्रयास क्यों करते हो इस प्रश्नका उत्तर ऐसा है कि, यदि उदरमें मल संचित होनेपर उसको न निकाला जाय तो वह वेदना उत्पन्न करता है, पर्ष कृतोदरशोधनस्य क्षपकस्य योग्य व्यापार निर्यापकसूरिसंपाद्यमादर्शयति जावजीव सव्वाहारं तिविहं च वोसरिहिदिति ॥ णिज्जवओ आयरिओ संघरस णिवेदणं कुजा ॥ ७०४ ॥ आराधकस्त्रिधाहारं यावज्जीव विमोक्षति ॥ निवेधमिनि संघस्य निर्यापकगणेशिना ।। ७३२ ।। विजयोदया-जायज्जी जीवितावधिकं । साहारं सर्वाहारं विविध अमान, स्थान, स्वाधं च । वोखरिहि दित्ति त्यजतीति । णिजयगा आयरिओ निर्यागकः मूरिः। संघस्स णिवेदर्ण कुजा संघ निवेदयेत् ॥ एवं विशोधितोदरस्य अधकम्य योग्य सूरियोज्यकममुपदिशति-- मुलारा--तिबिह अशनं, खाद्य, स्वाद्यं च । वोसरिहिदिति त्यस्यति क्षपक इति । rerence P Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना नाबार यामा आन्तः क्षमावलांस्त्रधा निस इस प्रकार क्षपकका उदर शोधनेपर क्षपकके द्वारा कोनसी क्रिया निर्यापक सरि कराते हैं इसका विवेचन अर्थ- यह क्षपक अब अशन, खाद्य और स्वाय, ऐसे तीन प्रकारके आहारोंका आमरण त्याग करता है ऐसा निर्यापक आचार्य संपूर्ण संघको विदित करते है. खामेदि तुम खबओत्ति कुंचओ तस्स चेव खवगस्स ।। दावदेव्यो णेदूण सव्वसंघस्स वसधीसु ॥ ७.५॥ क्षपको वोऽखिलास्त्रेधा निःशल्पीभूतमानसः॥ क्षान्तः क्षमयते भक्ताः ! क्षमागुणविचक्षणः ॥ ७३३ ।। मिल्योदयामादिगा काहयति । मुझ युष्मान् । खयगोत्ति क्षपक इति । तस्ल नेब सखगस्स तस्यैव क्षपकस्य । कुँचगो प्रतिलखनं । वादग्यो दर्शयितथ्य खूण नीस्वा । सवसंघस्स यसदीप सर्वसंघस्य वसतीषु। सूरिणा संघस्य निवेदनविधिमाह मूलारा-खामेदि मां भाइयति । तुम्ह युष्मान् । कुषगो प्रतिलेखनं । दावेदब्धो क्षमयसि युष्मानक्षपक इति भापमाणेन ब्रह्मचार्यादिना सर्वसंबवसतिषु नीत्वा तत्प्रतिलेखन मूरिणा दर्शयितव्यमित्यर्थः ।। अर्थ--यह पक आप सब लोगोंको क्षमा ग्रहण करनेकी प्रार्थना करता है इस अभिप्रायका भाषण सर्व संघमें जाकर आचार्य ब्रह्मचारीके हाथमें क्षपककी पिच्छी देकर कहते हैं. और वह पिच्छिका सबको दिखाते हैं. अर्थात् क्षपक सर्व मुनिओक पास जा नहीं सकता है इसलिये उसकी पिच्छिका सबको दिखाकर चपक आप लोगोंसे क्षमा चाहता है ऐसा आचार्य कहते हैं, तेन संघेन शातक्षपकाभिप्रायेण कर्तव्यनित्यायले-- आराधणपत्तीय खवयस्स वणिरुवसग्गपतीय ॥ काओसग्गो संघण होइ सब्वेण कादन्वो ॥ ७०६ ॥ आराधनास्य निर्विघ्ना सम्यक संपद्यतामिति ॥ स याति सकलः संघस्तनूत्सर्गमसंभ्रमम् ।। ७३४ ॥ ८८५ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाश्च विजयोदया-बाराधमपत्ती रत्नत्रयाराधना क्षपकस्य यथा स्यादित्येवमर्थ । खवगस्स णिरुषसग्गएत्तीय क्षपकस्योपसर्गा मा भूचनेवमर्थ च । कामोसग्गो कायोत्सर्गः। संघण सब्वेण सर्वण संघन। होदि फायब्वोभवति कर्तव्यः॥ एवं क्षमितेन संबेन किं कर्तव्यमित्यत्राह-- मुछारा---आराधणपत्तीयं रत्नत्रयाराधना क्षपकस्य यथा स्यादित्येवमर्थ । णिरुवसागपत्तीय क्षपकन्योपसर्ग मा भूवनेयमर्थ च । क्षपक्रका अभिप्राय ज्ञात होनेपर संघका उस समयका कर्तव्य कहते हैं --- अर्थ -क्षपकको रत्नत्रयाराधना प्राप्त होवे और उसको ममाधिमरण की प्राप्ति निर्विघ्न उपसर्ग रहिन होनेके लिये सर्व संघको उस समय कायोत्सर्ग करना चाहिये. खवयं पञ्चक्खावेदि तदो सब्वं च चदुविधाहारं ॥ संघसमवायमज्झे सागारं गुरुणिओगेण ॥ ७०७ ॥ तं चतुर्विधमाहारमाचार्यों विधिकोविदः॥ मध्ये सर्वस्य संघस्य स प्रत्याख्यानयत्ततः॥ ७३५ ।। विजयोदया- खवर्ग क्षपकं । पश्चखावेदि प्रत्याख्यान कारयति । निर्यापकः सुरिः । तदो पश्चात् । सव्वं सर्व चदुविधाहारं चतुर्विधाहारं । संघसमवायमरी संघसमहायमध्ये । सागार साकार गुरुनियोगेन । इतर गुर्वनुभया। ततः सूमि किं करोतीत्यत्राह-- मूलारा--परदखानेदि प्रत्याख्यानं कारयति । सागारं सबि । अग्रगाथान्याख्यानापों । गुरुणिोषण गुज्ञिया ॥ अर्थ--तदनंतर संपर्क समुदायमें सविकल्पक प्रत्याख्यान अर्थात् चार प्रकारके आहारोंका निर्यापकाचार्य रुपकको त्याग कराते हैं और इतर प्रत्याख्यान भी गुरूके आज्ञास वह श्वपक करता है. utaratatATARNterstarARAMATRamanaPAL अहया समाधिहेदु कायब्वो पाणयस्स आहारो ॥ तो पाणयपि पच्छा बोसरिदव्वं जहाकाले ॥ ७०८ ।। Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूरा आधाष्ठ THAKARANE त्रिविधं वा परित्याज्यं पानं देयं समाधये ।। अवसाने पुनः पान त्याजनीगं पटीयसा ।। ७३० ।। विजयोदया - अहवा अथवा । समाथिहर्दु सनाधिदियतकाम्यं । तदध कादब्बो कर्नव्यः पाणगम्म याहारो पानक.म्य विकल्पः । तो पश्चात् । पापागंपि पानामपि । कोसरिदय न्यकव्य । जहाकाले यथाकाल नितरां शक्तिहानिकाल । पूर्धमाथा चतुर्विधाहारन्यागः कार्य इति, योऽतिशयर परीवहयाधाक्षमास्तं प्रत्युक्त अनया नु योन तथा भवति तं प्रति विधिधाहारत्याग इसि विश्यते।। एवं परिवहसहिष्क्षपकापेक्षया गुरुनियोगेन पानविकल्पविधिमाह-- मूलारा--समाधिहे चिन्तसंक्लेशानिरासार्धं । आगारो आकारो बिकल्पः । जहाकाले नितरां शतिहानिकाले ।। अर्थ--अथवा क्षएकके विसकी एकाग्रता होनके लिय पानकको छोडकर अशन, खाद्य और स्वाद्य ऐसे तीन प्रकारके आहारोंका त्याग कराना चाहिये. और जब क्षयककी शक्ति अतिशय कम होती है तब पानकका भी | त्याग करना चाहिये, जो परीपह सहन करनमें खूब समर्थ हैं उसको चार प्रकारके आहारोंका त्याग कगना चाहिये. परंतु जो उपसर्ग सहन करने में असमर्थ है उसके लिये तीन प्रकारके आहारोंका त्याग रताया है. कीहक्पाने तस्य योग्यमित्यत्र जं पाणयपरियम्मम्मि पाणयं छविंह समक्खादं ॥ तं से ताहे कप्पदि तिविहाहारस वोसरणे ।। ७०९ यन्निर्दिष्टं पानकर्माधिकारे दातुं शक्तं तत्समाधानरत्नम् ॥ पोटा पानं युज्यते तस्य पातुं त्रेधाहारत्यागकाले पवित्रम् ।। ७३७ ॥ इति प्रस्थारूयानम् । विजयादया - जपायरियार चाय पान विपरिध मानक । माईनसायानं । सरळ चालनित्यादिकं । सं तत्पान से सामना कर दिया जवान। विनियादारस्य अशनल स्वावग्य. वायस्थ च त्यांग ॥ पञ्चमबाण । कीटपानं तस्य तदा योग्यमित्यवाह .... Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुकाधना marati मूलपरा-तं पड्विधमपि । यथास्त्र । ने तस्य । ताहे नदा । प्रत्याख्यानं सूप्रतः । १० । अतः।१०।। कोगना पानक उसको योग्य का उत्तर अर्थ- पानक परिक्रमे प्रकम्पादक मंद बनलाये . तीन प्रकारके आहारका त्याग कराने घर वह पानक उसको उस समय देना योग्य है. पचवाय प्रकरण समाप्त हुआ. E तो आयरियउबझापसिरससाधम्मिगे कुलगणे य ।। जो होजकलाओ से तमहं तिविहेण खामेति ॥ ७१० ॥ आचार्यऽध्यापक शिष्ये संधे साधर्मिके कुले ।। योऽपराचा भवेत्त्रेधा सर्व क्षमयते स तं ।। ७३८ ।। विज्योदया- तो प्रत्याश्यानोचरकाले मायरियउयज्झायसिस्ससामिप आचार्य, उपाध्याये.शिष्ये, सध. मिणि, कुलगणे व कुले गा च । जो होज्ज कसाबो यो संवत्कापायः क्रोधो, मानो, लाभो वा । ते सव्वं गिरधरलेस तं सर्व निरवशेष । तिबिंदण निविधेन । स्वामदिक्षपति निराकरोति। अथैवं प्रतिपन्नभक्तप्रत्याख्यानस्याराधकस्य समाधिमरणसिध्यर्थं चतुर्विधसंघक्षमापणविधि गावाचतुष्टयेन ड्याचष्टेमुलारा--कुलं दीक्षागुरुपूर्वत्रिपुरुपसतानः । साओ क्रोधादीनामन्यतमः । खामेदि क्षमयति || अर्थ-प्रत्याख्यानके अनंतर आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक मुनि, कुलमुनि, और गणमुनि इनके विपयमें जो हृदयमें कषाय होगा अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ होगा उस सर्व कषायको भपक मन, वचन, काया विशुद्ध कर हृदयसे निकाल देता है. अब्भहियजादहासो मत्थम्मि कदंजली कदपणामो ।। खामेइ सब्बसंघ संवेगं संजणेमाणो ॥ ७११॥ मूर्धन्यस्तकरांभोजो रोमांचांचितविग्रहः ॥ त्रिधा क्षमयते सर्व सवेगं जनयन्नसौ ॥ ७३९ ।। Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वासः ८९१ अप्रमत्ता गुणाधाराः कुर्वन्तः कर्मनिर्जराम् ॥ अमारतं प्रवर्तते व्यावृत्ती परिचारकाः ।। ७४३ ।। विजयोदया-वति वर्तन्ते | अपरिवंता अपरिधान्ताः । दिवा य सदो य दिने रात्रौ च । सव्यपरिकम्मे सर्वपरिचरणे | पद्धिचरगा निर्यापकाः गणहरया गणान् धर्मस्थान् घारयन्तीति गणधराः । कम्मरयं कर्माख्यं रजः । णिज्जरेमाणा निर्जरयन्तः ॥ अथवं कृतक्षमणस्य क्षपकस्य सर्वत्र समाहितमनसो थटुमकोटिसंचिताशुभकर्भनिर्जरालक्षणं क्षमणं गाथापंचकेन म्याचक्षाणः पूर्व तदर्धसंग्रहगाधामुपन्यस्यति मूलारा--स्वाभिय क्षमयित्वा सर्वसंघ । वेरगो निविष्यः । अणुवरं उत्कृष्टम् । पफाडितो निर्जरबन् । बिहरदि प्रवर्तते ॥ तथा प्रयतमानस्य सन्यासिनो नियोपका बयाधुत्त्य सुतरी यतते इत्या मूलारा-अपरिदता अपरिप्रांताः । गुणधरया गुणान्स्वपरस्थान्धारयन्तः । कम्मरयं कर्म दुष्कृतं रज इव शरीरस्य सौरूप्यादिगुणानामिवात्मनः संज्ञानादीनां प्रतिबंधकत्वात्कच्छूद्रुप्रभृतीनामिव दुर्गतिविपदा संपादकत्वाच । णिज्जरेमाणा क्षपकस्यात्मनश्चैकदेशन क्षपणा प्रापयन्तः । अर्थ-यह संघ गुणोंका समूह है. यह कर्मोंका नाश करके प्राणिओंको मुक्तिसुख देनेवाला है. दर्शन, ज्ञान और चारित्रको इकहा करनेवाला है. अतः इसको संघ यह अन्वर्थक नाम प्राप्त हुआ है, अर्थ- इस प्रकारसे सर्व संघको क्षमा करानेवाला, उत्कृष्ट वैराग्यकी सीमाको प्राप्त हुआ, तपमें एकाग्रताको प्राप्त हुआ ऐसा यह क्षपक अनेक भवमें दुःख देनेवाले कर्मका नाश करता हुआ रत्नत्रयमें विहार करता है. अर्थ-गणको धर्ममें स्थिर करनेवाले आचार्य और परिचारक मुनि दिवस और रातमें सर्व कार्यों में तत्पर होकर क्षपककी शुश्रूषा करते हैं, जिससे उनकी कर्मनिर्जरा होती है. यह कर्म रजके समान है. - -- -- - जं बहमसंखेज्जाहिं रयं भवसदसहस्सकोडीहिं ॥ सम्मत्तुप्पत्तीए खवेइ तं एयसमयेण ॥ ७१७ ॥ ८५१ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८९२ Best यज्जन्मलक्षकोटीभिरसंख्यामी रजोऽजितम् ।। तत्सम्यग्दर्शनोत्पादे क्षणेनैकेन हन्यते ।। ७४४ ।। विजयोदया--जं यत् । यद्ध रयं बद रजः कर्म । यथा रजइच्छादयति परस्य गुण शरीरादेः कच्छूदद्रप्रभृतिक दोपमावइति । तद्वद्रोधादिगुणमवच्छादयति । संपादयति च विचित्रा विपदः तेन रजश्व रज इत्युच्यते । भवसदसहस्स कोडीहिं भवशतसहस्रकोटिभिः । तद्रजः खत्ति क्षपयंति। केन? सम्मत्तुप्पत्तीप. श्रद्धानोत्पत्त्या। एगसमपेण पकेनैव समयेन । तथा चोक्त- सम्पटिश्रावकविरतानंतवियोजकदर्शनमोक्षपदोगडाकोपशासमोसभाकक्षीणमोहजिनाः कमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा इति । सरकालोवीर्णस्य सन्यासिगस्तदुपासिनो च श्रद्धानस्य माहात्म्यमभिष्टौति-- मूलारा-रयं पापं । ख वें ति गालयति । क्षपकतत्परिचारका आविशेषेणैव वा भन्यजीवा सम्यक्त्वभूमिमनु प्रामाः । एयसमयेण अल्पकालेन ॥ अर्थ-रज-धूलि शरीरको आच्छादित कर विरूप बनाती है और खरूज, ददू वगैरह रोगको उत्पन्न करती है. वैसा यह कर्मरज आत्माके ज्ञानदर्शनादि गुणोंको आच्छादित कर उसको दुर्गतिमें लोटता है अतएव इस बद्ध हुए कर्मरजकी आचार्य और परिचारक मुनि क्षपकश्शुपा कर निर्जीर्ण करते हैं, जब सम्यग्दर्शन जीवको प्राप्त होता है तब कोट्यवधि भवमें संचित हुए कर्मको भी एक समयमें निर्जीर्ण करते हैं, क्षपककी शुश्रूषा करनेसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है. जिससे एक समय में असंख्येय गुणी निर्जरा होती है. तथा जो भव्य क्षपपके दर्शनार्थ आते हैं उनको भी सम्यग्दर्शनका लाभ होनेसे उनके कर्मकी निर्जरा होती है. तत्वार्थाधिगम महाशाखौ ' सम्यग्दृष्टि श्रावक इत्यादि ' मूत्रमें सम्यग्दृष्ट्यादि श्रावकाको प्रतिसमय असंरूपेय गुणित कर्म निर्जरा होती हैं ऐसा लिखा है, एयसमएण विधुणादि उबउजुत्तो बहुभवज्जियं कम्मे ॥ अण्णयरम्म य जोग्गे पच्चक्खाणे विसेसेण ॥ ७१८ ॥ धुनीते क्षणतः कर्म संचितं बहुभिर्भवैः ॥ व्यावृत्तोऽन्यतमे योगे प्रत्याख्याने विशेषतः ॥ ७४५॥ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भावास ८९३ विजयोदया-पगसमयण विधुणादि अस्पेन कालेन निघुनाति । उवउत्सो परिणतः । क अण्णारम्मि य यस्मिन्कमिस्तपसि । कि? यदुभयज्जियं कम्म अनेकभषसंचित कम्म कर्म । पञ्चपखाणे उपजुचो बिसेसेण विधुणादि याषज्जीपं चतुर्विधाहारत्यागे परिणतः विशेषेण कर्माणि निरस्यति ॥ तप्तपोविधानादिपरिणामस्य महिमानं गाथाद्वयेन व्याषर्णयति---- मूलारा-ध्वजुत्तो परिणतः। अगदम्मि य जोगे यत्र कचिदपि तपसि । पञ्चक्खाणे यावज्जीवं चतुर्विधाहारत्यागे । विससेण अतिशयन ।। अर्थ-जिस किसी तपमें जब यह आत्मा एकाग्रताको पास होता है तब वह अल्पकालमें ही अनेक भवमें संपादित कर्मका नाश करता है. और जो जीव यावज्जीव चार प्रकारके आहारोंका त्याग करता है वह विशेष रीतीसे फोका नाश करता है. एवं पडिकमणाए काउसग्गे य विणयसज्झाए । अणुपेहात.स जुत्तो संथारगो धुणनि कम्मं , १९ ॥ प्रतिक्रान्तौ तनूत्सर्गे स्वाध्याये विनये रतः ॥ अनुप्रेक्षासु फर्मेति धुनीते संस्तरास्थितः ॥ ७४६ ।। विजयोदया - एवं उक्तन कमेण । पडिक्कमणये प्रतिक्रमणे काउस्सगे य । कायोत्सर्गे च । विणयसज्माप बिनयस्वाध्याययोः । अपेछासु य जुत्तो अनुप्रेक्षालु च युकः । संथारगदो संस्तरारुरः । कम्मं धुणदि कर्म क्षपयति । स्यषणं गई । मूलारा--जुत्तो समाहितः । धुणदि संम्तरारूढः सम्पत्यादियुक्तः पाप निरस्यति । विशेषेणेत्यनुपर्तनासत्परिचारकादयोऽपि इति व्याख्येयम् । क्षपणा सवतः ३२ । अंकत: ५॥ तारा सन्याससपार्चिषि रुचिरबरे भाव यंगवीनव्यालीदाः प्रान्यजन्मार्जितकलिसमिधो यायजूक: स जुन्छन् । सान्द्रानंदामृताशाधरविबुधमहाभत्र्यसंभोगिसेव्यः । स्फूर्जत्सर्वज्ञमूर्तिः पिबतु मुहुरिमा सूरिशिक्षा सुधावन् । Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८९४ इत्याशाधरानुस्मृतमंथसंदर्भे मूलारावनादर्पणे पदप्रमेयार्थ प्रकाशीकरणप्रवणे उत्तमार्थमहोद्योगो नाम पंचम वासः " अर्थ - - उक्त क्रमसे संस्तरारूड जो क्षपक प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग, विनय स्वाध्याय, अनुप्रेक्षा. इनमें एकाग्र होकर कर्मका क्षय करता है. खवण सूत्रका विवेचन समाप्त हुआ. इत उत्तरं अनुशासनं प्रयस्यते इति निगदति - णिज्जवया आयरिया संथारत्थस्स दिति अणुसिहिं ॥ संवेगं णिव्वेगं जणंतयं कण्णजावं से || ७२० ॥ अनशननिरते तनुभृति सकलं भवभयजनकं विगलति कलिलं ॥ अनुहिमकिरणे हृदयति तरणौ कमलविकसने धनमिव तमः ॥ ७४७ ॥ क्षमणम् । निर्यापको गणी शिक्षां संस्तरस्थाय यच्छति ॥ कुर्वन्संवेगनिवेदौ कर्णे जपमधानिशम् || ७४८ || अनुशिष्टिं न चेद्दत्ते क्षपकाय गणाग्रणीः ॥ त्यजेदाराधनादेव तदानीं सिद्धिसंफलीम् ॥ ७४९ ॥ विजयोदया - णिज्जवगा आहरिया निर्यापकाः सूरयः । अणुसिंहिं दिति श्रुतखानानुसारेण शिक्षां प्रयच्छति । संधारत्थस्स संस्तरस्थस्य । संवेग संसारभीरुतां । णिब्वेगं वैराग्यं च जगतगं उत्पादयन्तं । कण्णजाये कर्णापं । से तस्मै क्षपकाय || श्रीमूलाराधनादर्पणे षष्टोऽध्यायः । अथ वीरजिनं नत्या श्रीतिर्यापक सूरिणा । संपाचा क्षपकस्यानुशिष्टः स्पष्टीकरिष्यते ॥ १ ॥ मिध्यात्वं नितरां निरस्य सुभजन्सम्यक्त्वमाराध्य सद् - भक्तिर्भावनमस्कृतावभिरतो ज्ञानोपयोगं सदा ॥ --------- आश्वा ८९४ Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आभासः फुधपंचमहानतावनपरः खर्गकपायेन्द्रिय माम संस्तरमावसत्युभयथा धन्यस्तपस्युश्चतः ॥ २ ॥ अथैवं प्रतिपन्नसन्न्यासस्योत्तमार्थसाधनोचवस्य मुमुक्षोभिक्षोर्निर्यापकाचार्येण संपाद्या शिक्षां गायानां सप्तसतस्थधिकाटशत्या व्यावयिध्यन्नुपक्षेपमाह - मुलारा--णि वे संसारशरीरभोगवैराग्यं । कण्ण जायं कर्णसभीपोचार्यमाणषचनमी क्षपकाय अनुशिष्ट्रि वक्ष्यमाणमंथप्रतिपायो दवाति । कर्णजपं च कर्णजाहोच्चार्यमाणपंचनमस्कारादिपरमाक्षररूपं ददातीति । मत्यत्र शब्दस्य लुप्तनिर्दिष्टस्याश्रयणात् ॥ तदुक्तम् निर्यापको गणी शिक्षा संस्तरस्थाय यच्छति ॥ कुर्वन्संवेगनिवेदो कर्णेजपपरोऽनिशम् ॥ अर्थ-निर्यापक आचार्य संस्तरस्थ-नास्ता गमायो झुनझाको अनुसार उपदेश देते हैं और संवेग । और निवेग उत्पन्न करने वाला कर्णजाप देते हैं. कोऽसौ कर्णजापो यं ते प्रयच्छन्तीपत्राचष्टे णिरसल्लो कदसुद्धी विजावच्चकरवसधिसंथारं ॥ उवधि च सोधइत्ता सल्लेहण भो कुण इदाणि ॥ ७२१ ॥ शोधयित्वोपधिं शय्या वैयावत्यकरानपि॥ निःशल्पीभूय सर्वत्र साधो ! सल्लेग्वनां कुरु ॥ ७५० ॥ विजयोदया-णिस्तल्लो मिथ्यादर्शनं, माया, निदानं इति श्रीणि शल्यानि तेभ्यो निःशान्तः । तत्त्वश्रद्धानेन, ऋजुतया, मोगनिस्पृहतथा वा कदसुद्धी ताशुविनिर्मलता रत्नत्रये येन स कृतशुद्धिः । विज्जावच्चकरवसघिसंथारं विविधा आपत् विपत् इत्युच्यते । व्याधय, उपसर्गाः, परीषदा, असंयमो, मिथ्याशानं इत्यादिभेदेन सस्यामापदि यत्पत्ति विधान नयावृत तस्करोति यात्मनः स वैयावृधकरतं । वसतिसंथारं यसतिसंस्तरं । उपधि पिछादिकं च । सोधयित्ता विशोथ्य | संलहणे सल्लेखनां । कुण कुरु । इदाणि इदानीं । कि? संपमासंयमविकक्षाः असंयम त्रिधा मनो Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ८९६ याज्ञायैः परिहरन्ति न येति परीक्ष्य अयोग्य यात्यकराणां स्वागः | योग्यानां चानुमा पूर्वपराशेसतेः संस्तरयो पकरणानां च शुद्धिं कुरुतेति आज्ञापयता मच्छुद्धिः कृता भवति ॥ तात्कालिकीं गुरुसंपाद्यासनुशिष्टि मपचविष्यन्सामान्यविशेषाभ्यां गाथात्रयेण तामुद्दिशति । वत्र सामान्यत स्वागत् महारा--सोमइत्ता वैयावृत्यकरादिचतुष्कं संशोध्य सुपरीक्ष्यायोग्यानां त्यागो योग्यानां चानुझा वैया वृक्यको शोधना । शय्यादिश्रयस्य च विधिविखनम् । सहेंद्रण सवना निष्यत्वादिगणस्य सम्यक्त्वादिभाव नया निराकरणं । भोः नृपकराज | इन्द्राणि संप्रति प्रत्यासन्ने मरणक्षणे । सुतरां प्रयत्नविधानार्थमिदमुच्यते । अर्थ - मिथ्यादर्शन, माया, और निदान ऐसे तीन शल्य है, तत्वश्रदानसे मिथ्यादर्शनका, सरलपनानिष्कपटना, निष्कपटतासे मायाशल्यका और भोगांनेःस्पृहतासे निदानशल्यका नाशकर जिसने रत्नत्रय निर्मलता प्राप्त कर ली है ऐसे हे क्षपक मुने! तू जो वैयावृत्य करनेवाले, वसतिका, उपधि और संस्तरकी शुद्धि करके इस समय सल्लेखना करो. व्याधि-रोग, उपसर्ग, असंयम, मिथ्याज्ञान और परीषहोंको विपति कहते हैं. ऐसी विपत्ति आनेपर जो उसका प्रतिकार करना उसको वैयावृत्य कहते हैं. इस वैयावृत्य करनेवाले परिचारकोंको वैयावृत्य कर कहते हैं. वैयावृत्य करनेवाले मुनि संयम असंयमके ज्ञाता है या नहीं इसका विचार क्षपकको करना चाहिये. यदि वे अयोग्य हो तो उनका त्याग करना चाहिये. वे असंयम का मन, वचन और शरीरसे त्याग करते हैं या नहीं इसकी परीक्षा करके अयोग्य हो तो त्याग करना चाहिये, और योग्य परिचारकोंको वैयावृत्य करनेके लिये आज्ञा देनी चाहिये. दिनके पूर्वकालमें और अपरान्हकालमें वसति, संस्तर और उपकरणोंकी तुम दररोज शुद्धि करो ऐसी परिचारकाको आज्ञा देनी चाहिये. ऐसी आज्ञा देनेसे उसने उनकी शुद्धि की ऐसा सिद्ध होता है. मिच्छत्तरत य वमणं सम्मन्ते भावणा परा भन्ती ॥ भावणमोक्काररदिं णाणुवजुत्ता सदा कुणसु ॥ ७२२ ॥ मिथ्यात्वमनं दृष्टिभावनां भक्तिमुत्तमाम् ॥ रति भावनमस्कारे ज्ञानाभ्यासे कुरूद्यमम् ।। ७५१ ॥ भाश्व ६ ८९ Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना ८९७ विजयोच्या मिस्स व वमण मिध्यात्वस्य वमनं । सम्मले भावणा तत्वश्रद्धाने असकृतिः । परा उत्कृष्ण भक्तिः । भावणमोक्काररवी नमस्कारो द्विविधः द्रव्यनमस्कारो भावनमस्कारः । नमस्तस्मै इत्यादि शब्दोच्चारणं, सांगावनतिः कृतांजलिता चयनमस्कारः ॥ नमस्कर्तव्यानां गुणानुरागो भावनमस्कारस्तत्र रतिः ॥ णाणुवयोगं श्रुतज्ञानोपयोगं च सदा कुणसु कुर्विति ॥ सूत्रमिदं ॥ तामेवानुशिष्ट विशेषेणोदिशति मूलारा - यमणं त्यागं । भाषणा असकृद्वृत्तिं । भक्ती भक्ति | मक्रमादईदादिष्वेष भावणमोकाररदी नमस्करणीयादादिगुणानुरागलक्षणे भाषणामे आसाकं । णाणुवओगं श्रुतज्ञानपरिणतिं ॥ अर्थ - हे क्षपक ! तू सदा मिध्यावका वमन कर, अर्थात् मिथ्यात्वका त्याग कर और सम्यग्दर्शन में हमेशा प्रवृत्ति कर. अर्हदादि परमेष्ठिओं में उत्कृष्ट भक्ति कर. भावनमस्कार में आसक्त होकर हमेशा ज्ञानोपयोग में तत्पर हो. यह गाथार्थ हुआ. गाथा मावनमस्कार शब्द है. नमस्कारके भावनमस्कार और द्रव्यनमस्कार ऐसे दो भेद हैं. 'नम स्तस्मै जिनाय ' ' श्रीजिनेश्वरको नमस्कार हो ' ऐसा मुखसे कहना, मस्तक नम्र करना, हाथ जोडना यह द्रव्यनमस्कार है, जिनको नमस्कार करना योग्य हैं ऐसे व्यक्तिओं के गुणोंपर अनुराग करना यह मायनमस्कार है. इस भावनमस्कारमें उद्युक्त रहनेके लिये आचार्यने इस गाथामें क्षपककी प्रेरणा की है. तथा ज्ञानोपयोग में अर्थात् श्रुतज्ञानमें परिणति कर ऐसा क्षपकको कहते हैं. पंचमहव्वयरखा कोहचउक्करस णिग्गहं परमं ॥ दुइतिंदियविजयं दुविहतवे उज्जमं कुमह ॥ ७२३ || मुने! महावनं रक्ष कुरु कोपादिनिग्रहम् ॥ पीकनिर्जयं द्वेषा तपोमार्गे कुरुश्रमम् ॥ ७५२ ।। विजयोदया — पंचमदायरा पंचानां महावतानां रक्षां । कोइचउकस्स रोवचतुष्कस्य । णिग्राहं निग्रहं । परमं प्रकृष्टं दुतिदियविजयं दुहतेन्द्रियविजयं । दुविध द्विप्रकारे तपसि । उज्जमं उद्योगं । कुणसु कुरु ॥ भावार ६ ૮૦ Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वा6: मूलाराधना तथा-- गुलाग-कोपच काम क्रोधमानमायालोमाना । दुरंजिदिन विजये। गम्यग्दामिनानां नमीन विज्ञान जयः वशीकरणमा अर्थ--हे मुने ! सूपंच महाव्रतोंका रक्षण कर, क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कपायोंका नाश कर. दुःखस जिनका दमन कर सकते हैं ऐस आंख, कान वगैरह इंग्रियाको विशेष प्रकारसे न जीत ले. वाद्य और अभ्यंतर तुपोंमें तूं तत्पर रह. ries HEA मिस्स स्स य यमणं व्याच ---- संसारमूलहे, मिच्छत् सव्वधा विवजेहि ॥ बुद्धिं गुणण्णिदं पि हु मिच्छत्तं मोहिदं कुणदि ॥ ७२४ ॥ भवद्रुममहामूल मिथ्यात्यं मुंच सर्वथा। मोद्यते सगुणां थुद्धिं मोनेव मुने ! लम् ॥ ७५३ ॥ विजयोदया-मनार मला हेच सारस्य मनट कार : मिजानं । समक्षा मनोनयनाथः । चिनी हि वय । युगुणमिदं गि हदि । गुणगिदपि गुणान्वितागधि । मिरर्स मिथ्यान्य गोहि मुग्धा : करोति । अथ विचार्यत : कथं प्रथमता मिथ्यावस्य? न होई संभाच्यने । अनयमादिभ्यो निश्याय प्रथमगुपजामगिति कुतः ? यथा मियात्यं स्वनिर्मिनिधानावति. पाचममय गायोमीनि का समय वमना? धनद ध धर्मानमोः प्रथम भवति । श्याचा रिमोहावीमास्येतदपि असत् । तदा कर्माष्टक भावात् । पयं सामान्यतः सूत्रकारः 'मिथ्यादर्श नाविरलिप्रमा३५.पाययोगा बं धा ' ति वचने मिश्यात्वं चंबनुषु पूर्वमुपन्यरतं पंथपुरःसरश्च संसारः, संसारमुलाअनाथ्यात्वं बुद्धि आर्थयाधापयरिदगुणसमन्वितामपि मिथ्या विपकीन करोति इत्याद । अन्ये तु नदति । बुन्द्री गुणया पिखु शुथपाश्रवणाधारणावयो युगेर्गुणास्त हेतुमपीति ॥ मिथ्यात्वव मनविधिसूत्रं व्याकत दश गाथाः सूत्रयन्सगिना तत्त्याग विधेयतयोपदिश्वापायभूयिष्ठतया समर्थयते ।। मूलारा- संसार मूलहेदु संसारकारणकर्मबंधवानवारण । गुगपिणई पि गुणान्वित्तामपि । शुश्रूपाश्रवण ८९. Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: मृगागधना ग्रहणधारणविज्ञानोहापोहतत्त्वामिनिवेशलक्षणागुणयुक्तामपि । मोहि मुग्धा विपर्यास ग्रहावेशेन यथाव दस्तुपरिच्छेदपरिभ्रष्टाम् । अत्रेयं गाथासूत्रे न श्रूयते । मूलारा-- एतां विजयाचार्यों नेच्छति । 'मिथ्यात्वका वमन करो' इस वात्रयका विशेप स्पष्टीकरण करते है अर्थ संसार का मूलकारण मिश्यात्व ही है, अर्थात् मिथ्याश्रद्धान ही संसारका मूल है. इस मिथ्या स्यका हे क्षपक ! तू मन, बचन और कायसे सर्वथा त्याग कर, यह निथ्यात्व गुणों से युक्त ऐसी बुद्धीको भी मुग्ध करता है. यहाँ शंका-मिथ्यात्वको रात कमों में प्रथम आप कहते हैं वह योग्य नहीं है. जैसे मिथ्यास्य अपने कारणांसे उत्पन्न होता है वैती असंयमादिकों की भी उत्पनि अपने कामोंस होती है अनः मिथ्यात्वका कारण दर्शनमोहनीय कर्म प्रथम उपन होवा है अनंतर चारित्र मोहार्दिकोशी उत्पत्ति होती है ऐमा भी बहना असन् है, क्योंकि हमेशा आस्मामें आटो कमों का गदार है। उत्तर--सामान्यतः मूत्रकारने मिथ्यात्वाविरतिपमादकपाययोमा बंबालवः' इस मत्रमें मिथ्यात्व को प्रथम स्थान दिया है. अर्थात बंधके कारणों में मिथ्यास्त्रका प्रथम उरख है. संसार बंधपूर्वक है. और संसार का मूल कारण मिथ्याइर्शन है, यह मिथ्यात्व बुद्धीको विपरीत करता है. यहां कितनेक आचार्थ ऐसा कहते हैं-शुश्रुषा-सुननेकी इच्छा शाखश्रवण करना, श्रवणकर उसको हृदयमें धारण करना, कालांतरमें भी धारण किया हुआ नहीं भूलना इत्यादिक युद्धीके गुण हैं. मिथ्यात्य इनको भी विपरीत बनाता है. अर्थात् बुद्धि और उसके शुश्रूषादिकके कारण मी मिथ्यात्वके सहवाससे विपरीत होते हैं. अपवस्तुनि तङ्गपावभासिता कथं विधानस्येत्याशफायां विपर्यस्तमपि ज्ञानमुदेसि तनिमित्तसमाचादित्यायट-- परिहर त मिच्छत्तं सम्मत्ताराहणाए दढचित्तो।। होदि णमोकारम्मि य णाणे पदभावणासु धिया ॥ ७२५॥ Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्चा मयतण्हियाओ उदयत्ति मया मण्णंति जह सतण्हयगा।। सन्भूदंति असन्भूदं तध मणति मोहेण ।। ७२६ ॥ पिय सम्यक्त्वपीयूषं मिथ्यात्वाविषमुत्सृज ॥ निधेहि भक्तितश्चित्ते नमस्कारमनारतम् ।। ७५४ ॥ मिथ्यात्वमोहिताः सत्यमसत्यं जानते जनाः ।। कुरंगा इव तृष्णार्ताः सलिलं मृगतृष्णकाम् ॥ ७५० ।। विजयोदया-मयसमिया भुगतष्णिकाशन आदिल्यरवमयो भौमेनोप्मणा संपृक्ता उच्यन्ते । ता अजलभूता: 1 मया मपर्णति उदर्गति । मृमा मन्यत उदकमिति । यथा सतण्डमा ताणायंतनोयनाः । तर पनन ! मृगा इच नरा अपि । असम्भूद सम्भूति मगर्णति मोहेण अत्तस्यौप सत्वमित्यवगमछन्ति दर्शनमोहन हेतुना। स्वनिमितसनिधानाज्ञानस्य विपर्यासः स्यादिति दृष्टान्नेन समर्थयते मुलारा-मयतणिहया गृगतृष्णाशब्देन भौमेनोप्मणा संपृक्ताः सूर्यरश्मय उपर्यते । उदयत्ति उदकमिति । सन्मदेवि सद्भनमिति । मोहेष दर्शनमोहेन ॥ अर्थ-हे क्षपक मुने : तू ऐसे मिथ्यात्त्रका त्यागकर और सम्यक्त्वकी आराधनामें अपनको स्थिर कर पंच परमेष्ठिऑके नमस्कारसे, ज्ञानाराधनामें और बताभ्यासमें तू दृढ हो. जो वस्तु जिस स्त्ररूपका धारक नहीं है ज्ञान उसको अन्यरूपसे कैसा जानेगा ? इस शंकापर आचार्य उत्तर देते हैं--- ज्ञान विपरीतभी होता है क्योंकि उसको विपरीत करनेके कारण मिलते हैं. इसका स्पष्टीकरण अर्थ-मर्यके प्रचंड किरणोंसे जब जमीन अत्यंत गरम हो जाती है. तच उसकी उष्णता सूर्यके किरगोसे मिश्र होकर पानी के समान दीखती हैं. प्याससे जिनकी आखें संतप्त हो रही है ऐसे हारणोंको उस सगय सूर्यके किरणों में जलका आभास होने लगता है. वैसा मिथ्यात्व कर्मके उदयसे इस जीवको असत्यपदार्थ भी सत्य भासने लगता है. अतत्वको मिथ्यात्वग्रस्त जीव तवरूप समझता है. Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वास मिथ्यात्वजन्यमोहमाहात्म्यप्रख्यापनाया मिच्छत्तमोहणादो धत्तूरयमोहणं बरं होदि । बढेदि जम्ममरणं दसणमोहो दु ण दु इदरं ।। ७२७ ॥ मिथ्यात्वमोहतो तोवर कमकमोहनम ।। दत्ते मृत्युसहस्राणि प्रथमं न पर पुनः ।। ७५६ ॥ विजयोदया-मिच्छ तमोरणादो मिथ्यात्वजन्यान्मोहात् । धतूरयमोहणं उन्मसरससेधाजनितमोहन बरं होदि शोभनं भयति । कथं ? वटेदि वर्धयति । जम्ममरणं जन्ममरणं च विचिधासु योनिषु । किं दसणमोहोदर्शनमोहजन्यः कलंकः । ण दुरवर जम्ममरणं घडेदि नैव धत्तुरकमोहन जन्ममरणपरंपरा आनयति कतिपयदिनभाविभोहसंपादनोचतं अनंतकालषतिपरीत्यजननक्षम मोद्दनं अतिशयेन निकमिति भावः । ततो जन्मरणप्रवाहभीरुणा भवता त्याज्य मिथ्यात्वं इति । मिथ्यात्वजन्यमोहमहिमानमावर्शयति---- मूलारा--बहेदि वर्धयति ।। मिथ्यात्वसे उत्पन्न हुए मोहके माहात्म्यका आचार्य कथन करते हैं अर्थ-मिच्यादर्शनसे जो मोह परिणाम उत्पन्न होता है उससे धत्तुरका सेवन करनम उत्पन्न हुआ मोह अर्थात् उन्मनपना अच्छा है ऐसा हम समझने हैं, क्यों कि दर्शनमोड़नीबसे उत्पन्न हुआ मोह अनेक योनी आम जन्म गरणोंकी याद करता है. परन्तु बदर खानम उत्पमा पागलपना जन्ममरणको नहीं बढाता है. तथा वह थोड दिनपर्यंतही जीवमें रह सकता है. इसलिये अनंतकालनक पदार्थों का विपरीत स्वरूप दिखानवाला दर्शन मोहजन्य मोहपरिणाम अत्यंत निकृष्ट है ऐसा समझाना चाहिये. जन्म मरण के प्रवाहसे डरनेवाले हे क्षपक न एस दुष्ट मिथ्यात्वका त्याग कर. ननु प्रांगव परित्यक्तं मिथ्यात्वं तकथं इदानी तत्यागोपदेश इत्यत्राशिकायामाह जीवो अणादिकालं पयत्तमिच्छत्तभाविदो संतो । ा रमिज्ज हु सम्मत्वे एत्य पयत्तं खु कादच्वं ॥ ७२८ ॥ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना २०२ अनादिकालमिध्यात्वभावितो न प्रवर्तते ॥ सम्यक्त्वेऽयं मनस्तेन प्रयत्नोन विधीयते ॥ ७५७ ।। विजयोदय-जीवो भणादिकालं पयप्तमिच्छत्तनाविशे संतो जीवो ऽनादिकालप्रवृत मिध्यात्वभावितः सन् । ण रमिज्ज र नैव रमेस । सम्मले सम्पत्थ अत्र सम्यक् पयक्षं प्रप्रत्नः । कादव्यं खु कर्तव्य एव । अनंकाले परिभाषितं मिथ्यात्वं दुरुयजं तदेव दुःखयाज्यं । यथोचिरपरिचित छिद्रं निवार्यमाणोऽपि वलात्प्रविशति इति कर्तव्यं सम्ययत्ये दाढये ॥ मूलारा -- एत्थ अत्र सम्यक् । कादव्वं कर्तव्य एव प्रयत्नः । निवार्यमाणोऽपि जीवचिरभावितं मयालमनुयात्युरगएव छिद्रमिति ॥ अर्थ- अनादिकालसे जीव में मिथ्यात्व चला आया है इससे यह जीव सम्यक्त्वमें रममाण होता नहीं. इस मिथ्याकाही स्वाद इसको अनादिकालने आजतक आ रहा था इस लिये यह जीव सम्यक्त्वमें नहीं रमेगा, इस वा सम्यक् प्रयत्न करनेके लिये जीवको पारवार मध्यावकात्याग करनेका आचार्य उपदेश करते हैं. अनंतकालने मिध्यात्वका अभ्यास होनेसे उसका त्याग करना बडाही कठिन है. जैसे अपने चिरपरिचेत बिलमें निवारण करने पर भी प्रवेश करता है वैसे इस जीव को भी बारबार मिथ्यात्व का त्याग करनेके लिये और सम्यक्त्व दृढता लानेके लिये वारंवार मिथ्यात्वत्यागका उपदेश करना अयोग्य नहीं है. अग्गिचिस किण्हसप्पादियाणि दोसं ण तं करेज्जण्डू 11 जं कुणदि महादोसं तिब्वं जीवस्स मिच्छतं ॥ ७२९ ॥ विजयोदया - अग्गविससिप्पादिणि अनिर्बियं कृष्णन उत्यादीनि । दोश ण तं करेाड दोपं तं न कुर्युः । जं कुणदि यं करोति । महाबोस महांते शेषं । जीवस्त जीवस्य निती कि ? मिच्छसिध्यान्यं अश्रद्धानं ॥ अग्न्यादिभ्यो मिथ्यास्त्रस्य विशिष्टां दुष्टतामाचष्टे -- मूलारा करेज्जण्डू कुर्युः । तदेव स्पष्यति अर्थ - आग, विष और काला सर्प वगैरह पदार्थोंसे भी उतनी हानि होती नहीं. जितनी बड़ी हानि ती मिथ्यात्व जीवांकी होती है. अर्थात् तस्य में अश्रद्धान करनेसे संसार में भ्रमण करना पडता है. भाश्वासः ९०१ Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुकारापना आभास अग्गिबिसकिण्हसप्पादियाणि दोसं करंति एयभवे ॥ मिच्छत्तं पुण दोसं करेदि भवकोडिकोडीसु ॥ ७३.॥ विषाग्निकृष्णसायाः कुर्वन्त्येकत्र जन्मनि ।। मिथ्यात्वमावहद्दोष भवानां कोटिकोटिषु ।। ७५८ ।। विजयोवा--सम्न्याधिभिः क्रियमाणस्य अस्पतां मित्राणोन संपायर इससस्नुपरवाया । ज. म्यादीन्येकमयदुःखदानि मिथ्यात्वं पुनदो करोति भवानो कोटीकोटी ॥ मूलारा--स्पष्टम् ।। अर्थ-अग्नि: विप और काला सर्प वगैरह पदार्थोसे जीवकी हानि एक ही भवमें हो सकती हैं परंतु मिथ्यात्वसे अनेक कोटिकोटिभवों में हानि होती है. AAP मिछत्तसल्लविद्धा तिव्बाओ बेदणाओ बेदति ॥ विसलित्तकंडविडा जह पुरिमा णिप्पडीयारा ।। ७११॥ विडो मिथ्यात्वशल्येन हीनां प्राप्नोति वेदना ॥ कांडेनव विषाक्तन कामन निःप्रतिक्रियः ।। ७५९ ।। विजयोदया-मिच्छत्तसविता मिथ्यावारुपेन शाहयन बिदाः । तिव्याश्रो वेदगाभो तीमा घेदनाः । वेदति अनुभवन्ति । विसलिसकंचिद्धा विलिन शरेया विद्धाः । जयथा । पुरिसा पुरुषाः । णिप्पडीयारा निष्प्रतीकाराः॥ मिथ्यात्वतमपकारं दर्शयति--- मलारा-- वेदन्ति अनुभवति | जिपदीवारा प्रतीकाररहिताः । अचिकित्स्याः संत इत्यर्थः ।। अर्थ--विपलिय माण बरीर में घुसनेपर उसका चिप सर्व शरीरमें पसरकर मनुष्प प्राणरहित होता है. अर्थात् उस पुरुषपर कुछ इलाज हो नहीं सकता, बैमा मिथ्यात्वशल्यमे विद्ध हुए मनुष्य तीव्र वेदनाओंका अनुभव लेते है. जरवाजा Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अच्छोणि संघांसरिणो मिच्छन्तणिकाचणेण पडिदाई || कालगदो विय संतो जादो सो दीहसंसारे || ७३२ ॥ मिश्रयास्वोत्कर्षनः संघ श्रीसंज्ञस्य विलोचने । गलिते प्राप्तकालेोपि यातोऽसौ दीर्घसंसृतिम् ॥ ७६० ॥ विजयोदया अच्छीणि अक्षिणी । संघ लिरिणो संघ श्रीसंशितस्य मिच्छणिकाच पेण मिध्यात्यप्रकर्षेण । पडदाणि पतिजन्मनि । कालगदी विय संतो मृत्यादि । जाओ सो जातोऽसी । वह संसारे दीर्घसंसारे ॥ तदेवोपाख्यानेन यति I मूलारा - संघसिरिणो संघ श्रीसंशितस्यामात्यम्य मिच्छत्तणिकावणेण मिध्यात्व प्रकर्षेण | कागदो मृतः ॥ अर्थ- संघश्री नामक प्रधान की आखें तीत्र मिध्यात्व से नष्ट हुई और मरणके अनंतर वह दीर्घ संसारी हुआ. कर्तव्येति । कडुगम्मि अणिव्वलिदम्मि दुद्धिए कडुगमेव जह खीरं ॥ होदि णिहिदं तु णिव्वलियम्म य मधुरं सुगंधं च ॥ ७३१ || eghsoryनि क्षीरं यथा नश्यत्यशोधिते ॥ शोधिते जायते हृद्यं मधुरं पुष्टिकारणम् ॥ ७६१ ।। यदि नाम उपगतमिध्यात्वोऽस्मि तथापि दुर्धरं चारित्रमनुष्ठितं मया तदस्माभिस्तरणे समर्थमित्याशा न विजयोदया कडुगम्मि दुदिप कटुकालाव्यां । अणिव्यलिम अशुद्धाय विडिदे खीरं निक्षितं क्षीरं । जहा कड़गमेत्र होदि यथा फट्टकरसमेव भवति । एवकारेण माधुर्यव्यावृत्तिः क्रियते । विश्वलिदम्मि य शुद्धायामलायां । निविदं निक्षितं क्षीरं जद मधुरं दोष सुगंधं । यथा मधुरं भवति सुरभि ॥ मिथ्यात्वाविष्टोऽपि दुश्चरतपञ्चारित्राद्याचरणादस्माभिस्तरिष्यामीत्याशां निरसितुं दृष्टांतपुरःसरं गाया नोत्तरमाह मूलारा - अणिम्मलिदम्मि अशोधिते । दुद्धिएणे तुंबके । भावास ६ ९०४ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागधना आश्वास यद्यपि मैं मिथ्यात्वयुक्त है तो भी मैने दुर्धर चारित्र का पालन किया है इसलिये यह दीर्घ संसारसे मेरा रक्षण करेगा ऐसी आशा नहीं करनी चाहिये. ऐसा आशय दिखाते हैं अर्थ-गीरसहित कटुक तूंबीमें डाला हुआ दूध कडु होजाता है, अर्थात् उसका मधुरपना सब नष्ट होता है. परंतु शुद्ध अर्थात् गीररहित तूंबीमें रक्खा हुआ दूध कडु होता नहीं. वह मधुर और सुगंधित रहता है. तह मिच्छत्तकडुगिदे जीवे तवणाणचरणबिरियाणि ॥ णासात बतमिच्छत्ताम्म य सफलाणि जायंति ।। ७३४ ॥ नपोज्ञानचरित्राणि समिथ्यात्वे तथांगिनि ।। नश्यति बांतमिथ्यात्वे जायन्ते फलवन्ति च ।। ७६२ ।। विविधदषणकारि कुदर्शनं लघु विमुच्य कुमित्रमिवात्तमाः ॥ सकलधर्मविधायि मुदर्शनं सुविभजति सुमित्रमिवाशनम् ।। ७६३ ।। इति मिथ्यान्वापोहनम् ॥ विजयोदया- तह तथा । मिकहतकांगदे मिथ्यात्येन कदृछते जीये । तवणाणचरणविरियाणि नो, शान,चारित्र: वीर्यमित्येतानि णासंति नश्यन्ति । सम्यक्स्वरूपविनाशात् । समीचीन, तपो,शान, घरणं, बीयनिगृहनं च मुफ्त्युपायो न तपःप्रभूतिमात्र । सा च सम्यश्रद्धावलेनैव नान्यथा । वंतमिच्छम्मि निरस्तमिथ्यात्वे जीधे सफलानि फलसमन्वितानि तपःप्रभृतीनि । जायन्ति जायन्ते । किं तपसः फलं? अभ्युदयसुखं, निःश्रेयससुखं वा। मिच्छत्तस्स य बमणं इत्ये. तव्याख्यातं । मिच्छत्त। मूलारा--णासंति नश्यन्ति । सम्यकस्वरूपविनाशात् ॥ वंतमिच्छत्तम्मि निरस्तमिथ्यात्वजीवे । सफलाणि अभ्युदग्गनिःश्रेयससुखकराणि | इति मिथ्यात्वत्रमनम् ।। ___ अर्थ-वैसे मिथ्यात्वसे विपरीत रुचि अर्थात् विपरीत श्रद्धानी बने हुये इस जीवमें तप, ज्ञान, चारित्र और वीर्य ये गुण नष्ट होते हैं. अर्थात मिथ्यात्वरहित तप, ज्ञान, चारित्र और बीर्य ये मुक्ती के उपाय है परंतु एकेक तपादिक मुक्तीके उपाय नहीं. जब सम्बग्दर्शनकी प्राप्ति होती है तब तपादिकमें सम्यकपना आता है. इसके अभावसे तपादिकोंमें सम्यक्पना आ नहीं सकता. मिथ्यात्वका त्याग जिसने किया है ऐसे जीवमें-सम्य Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृतारावना आश्राम: ग्दृष्टि में तपादिक सद्गुण सफल होते है इस तपश्चरणसे इहलोकका मुख और इंद्रपदका प्राप्ति होती है और मोक्षसुखका भी लाभ होता है. 'मिच्छत्तस्स प वमणं' इस गाथासूत्रका यहां तक विवेचन किया. २०६ सम्मत्तं भावणा इत्येतस्याचऐ मा कासि ते पमादं सम्मत्ते मव्वदुक्खणासयरे ॥ सम्मत्तं खु पदिठा णाणचरणधीरियतवाणं ।। ७३५ ।। मा स्म कार्षीः प्रमादं त्वं सम्यक्त्वे भद्रवर्धके ।। तपाज्ञामचरित्राणां सस्यानामिव पुष्करं ॥ ७६४ ॥ विजयोदया--मा कासि मा काः । तं भवान् । पमा प्रमाद । सम्मेत्त सम्पन्चे। सम्बदुःखणामणगे सर्वदुःस्त्रनिर्मलनोद्यते । कथं सम्यकत्वं सर्वदुःख नाशकारि ? ननु हानादीन्यधि सर्वदुःखनि वृत्तिनिमित्तानि इत्यत आह-- सम्मत्तं खुश्रद्धानमेव तत्त्वस्य । पविठ्ठा आधारःणाणचरणवीरियतवाणं वानस्य, चरणस्य, बीर्याचारस्य, तपसश्च । ननु सर्य पय परिणामः परिणामिद्रव्याधारोन परस्परमधिकरणतां याति ततः कथमुच्यते सम्यक्त्वमाधार इति । यथा परिणामिदग्न्यमंतरेण ज्ञानातीनाममयस्थितिरेचं समीचीनता तेषां न दर्शनं विनेति दनियाधारता ॥ सम्यक्त्व भावनां गाथाएकेन हयाचक्षण: अपकं तदवधानपरायणं कर्तुमाह. मूलारा-मा कासि मा कापी । तं वं | पमाद अनवधानम् । पदिदा प्रतिष्ठा आश्य: ।शानादीनां जीवव्य विनावस्थितिरिव सम्यक्त्वं बिना समीचीनता न स्यादिति तस्य तदाधारतोयते ॥ ' सम्मत्तभावणा' इस पदका स्पष्टीकरण करते हैं । अर्थ - यह सम्पग्दर्शन संपूर्ण दुःखों का नाश करता है. इसलिये इसमें हे क्षपक तुम प्रमादी मत बनो. शंका-सम्यग्दर्शनसे सर्व दुःखाँका नाश कैसे होता है ? उत्तर -- यह सम्यग्दर्शन अर्थात् जीवादितत्वोंका श्रद्धान ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तपका आधार है, इसलिये यह संपूर्ण दुःखों का नाश करता है ऐसा समझना चाहिये. शंका-परिणाम परिणामिद्रव्यके आधारसे रहते हैं इस वास्ते वे अन्योन्य आधार होते नहीं. अतः सम्यक्त्व परिणाम ज्ञानादि परिणामोंका आधार है ऐसा आप क्यों कहते हैं. उत्तर-जैसे परिणमनशील द्रव्यके बिना-आत्मा Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D मृबाराधना के विना ज्ञानादिक रहते नहीं पैसे ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तप को सम्यक पना-सम्यग्दर्शनके विना प्राप्त होता नहीं इस लिये सम्यदर्शनको आधार माना है. आश्वास: गरस्स जह दुवारं मुहस्त चक्खू तमस्स जह मूल || तह जाण सुसम्मत्तं णाणचरणवीरियतवार्ण ।। ७२६ ।। सारं द्वारं पुरस्पेव बकस्येव विलोचनम् ।। मूलं महीरुहस्येव संज्ञानादेः सुदर्शनम् ।। ७६५ ।। बलानि नायकनेव शरीराणीव जंतुना। ज्ञानादीनि प्रवतेत सम्यक्त्वेन चिना कुतः॥ ७६६ ।। विजयोदया-गरस्स जह दुवार नगरस्य द्वारमिव नगरप्रवेशनोपायो यथा द्वार । तदा तथा सम्मत्तं सम्य कत्वं द्वारं । णागचरणवीरियतवाणं शानादीनां । एवं दिशानादीन्यनुपविष्टो भवति जीवो यदि परिणतो भवेत्सम्यक्त्वे तदंतरेण सम्यग्ज्ञानाद्यनुप्रयेशस्थासंभयात् । न हि सातिशयमवध्यादि, यथाख्यातं चारित्रं, चतरनिर्जरानिमित्त बा तपः प्रतिलभते जंतुः सम्यक्स्पं बिना । मुबस्स चक्खू जहा मुखस्य चक्षुर्यचा शोभाविधायि तथा हानादीनां सम्पत्य विधत्ते थडानं । तरुस्त मूल यथा तरोर्मूलं यथा स्थितिनिर्वधने, तथा सम्यक्त्वं ज्ञानादिस्थितिनिमित्तं । शानादीनि प्रति सम्यक्त्यस्य प्रवेशशोभावहत्व स्थिति निमित्तत्वानि वर्शयति मूलारा-दुवार द्वारण पौरजनो नगरमिव सम्यक्त्वेन ज्ञानादिषु प्रविशति जीयः। न सौ सातिशयमचच्यादिज्ञानं यथाख्यातचारिय बहुनरनिरानिमित्त वा प्रतिलभते जन्तुः सम्यक्त्वं बिना ।।। अर्थ--जैस द्वार नगरमें प्रवेश करनेका उपाय 3. वैसे सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्र, बीर्य और तपका आ त्मामें प्रवेश होनेके लिये द्वारके समान है. अर्थात् जब आत्मामें सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है तब उसमें ज्ञानादिकोंका भी प्रवेश होता है. सम्यक्त्वके बिना सम्यग्नान, तप, चारित्रादिकोंकी प्राप्ति होती ही नहीं. सम्यम्दशनकी प्राप्ति न होनेसे जीवको विशिष्ट अवध्यादिक ज्ञान, यथारूपातचारित्र, कर्मकी अतिशय निर्जरा करनेवाला तप प्राप्त होते ही नहीं. मुखको आखोंसे जैसा सौंदर्य प्राप्त होता है तथा ज्ञानादिकोंमें सम्यग्दर्शनसे सम्यक्पना प्राप्त होता है. जैसे शाहको मूलसे दृढता आती है वैसे ज्ञानादिकोंमें स्थिरता और दृढता सम्पग्दर्शनसे प्राप्त होती है. Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wearera मूलाराधना भाषासः भावाणुरागपमाणुरागमज्जाणुरागरत्तो वा ।। धम्माणुरागरत्तो य होहि जिणसासणे णिचं ॥ ७३७ ॥ दसणभटो भटो दसणभट्स्स पत्थि णिव्वाणं ॥ सिज्झन्ति चरियभट्टा देसणभट्टा ण सिझंति ।। ७३८ ॥ दंसणभट्टो भट्टो ण हु भट्टो होइ चरणभट्टो हु ॥ दसणममुयत्तरस छ परिबडणं णस्थि संसारे ॥ ७३९ ॥ भ्रष्टोऽस्ति दर्शनभ्रष्टो ग्रतभ्रष्टोऽपि नो पुनः ।। पतनं यस्ति संसारे न दर्शनमसुंधतः ॥ ७६७ ॥ ये धर्मभावमज्जाश्मिरागानुरंजिताः ॥ मैने सति मते तेषां न किंधिस्तु दुर्लभम् ।। ७६८॥ विजयोन्या-सणभट्टो महो दर्शनाटो भ्रष्टतमः | घरणभट्ठो विचारित्रभष्टोऽपि दर्शनावभ्रएः । ण हुन च । भट्टो होदिसि वाक्यशेयं पश्वा संबंधः । न तु तथा अष्टो भवति चारिषभएः यथा वर्शमाएः । दसणं श्रद्धानं | अमुयत्तस्स अन्यजतः । चारित्राद्रप्रस्थापि परिवठणं संसार पाधि खु परिपतन संसारे नास्त्येव । असंयमनिमितार्जितपापसहतेरस्त्येष संसारः । किमुच्यते परिपतनं नास्तीति? अयमभिप्राय:-परि समंतात्सर्षासु गतिषु चतरपु संबरणं जास्तीति । स्वल्पत्वासंसारः सन्नपि नास्तीति व्यवाहियते । तथा हि स्वल्पद्राणोऽधन इत्युच्यते । दर्शनाप्रभ्रएस्य अर्धपुगलपरिवर्तनं भवत्यतिमहत्संसारमिति निकटतमो दर्शनभ्रएः ॥ * ___ अर्थ--कितनेक लोक भावानुरागी रहते हैं जैसे जिनदत्त श्रेष्ठी. अर्थात् जो जिनश्वरने वस्तुस्वरूप कहा है। वह सत्य ही है ऐसा यका श्रद्धान करनेवाला मनुष्य तत्वका स्वरूप मालूम नहीं भी हो तो भी जिनेश्वरका कहा हुआ तत्वस्वरूप कमी मूठा होता ही नहीं ऐसी श्रद्धा करता है इसको भावानुराग कहते है. प्रेमयुक्त अनुरागका दृष्टान्त _*दसणभट्टो भट्टो इस गाथासे लेकर अहिंसा, सत्य, अचौर्य महायत इतने विषयोका वर्णन करनेवाली गाथाओंकी मूलाराधना पंजिका कारंजाकी मूलप्रतीमें नहीं है. बीचके पत्र ही नष्ट होगये हैं. अत: यहांसे हमने विजयोदया ही जोड दी है. lasterATRAPAR ९०८ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना HIRORA मणिचूल है. इसने अपने मित्रको-सगरचक्रवतीको बार बार समझाकर भोगादिकोंसे विरक्त किया था. जिसके ऊपर प्रेम है उसको बारबार समझाकर सन्मार्गमें लगाना यह प्रेमानुराग कहाता है. मज्जानुराग यह पांवों में था अर्थात वे जन्मसे लेकर आपसमें अतिशय स्नेहयुक्त थे, वैसे हे क्षपक तूं धर्मानुरागसे जैनधर्ममें स्थिर रहकर उसको कदापि मत छोड. अर्थ--जो पुरुष सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हुआ है वह भ्रष्टही समझना चाहिये. दर्शनभष्ट जीवको मोक्षकी प्राप्ति होती नही. चारित्रभ्रष्ट जीव मुक्तिको प्राप्ति कर सकते हैं परंतु दर्शनभ्रष्ट जीवको मुक्तिलाभ होता नहीं. अर्थ--जो जीव दर्शनसे भ्रष्ट हुआ है उसको भ्रष्टतम कहना चाहिये. चारित्रभ्रष्ट जीव दर्शनसे भ्रष्ट नहीं माना जाता है. अर्थात् चारित्रभ्रष्ट जीवसे दर्शनभ्रष्ट जीव अतिशय भ्रष्ट है. जो चारित्रसे भ्रष्ट हुआ है, परंतु सम्बाद से पुल ही बुला है उसको सिमपानकी श्रीति नहीं है. शंका-असंयमसे उत्पन्न हुए पापके भारसे जीवको संसारमें भ्रमण करना पड़ता ही है अतः चारित्रभ्रष्ट जीवका संसारपतन नहीं है ऐसा आप क्यों कहते हो ? इस प्रश्नका उत्तर-चारित्रभ्रष्ट जीव चारो गतिओंमें भ्रमण करता नहीं. उसका संसार अल्प रहता है अत: उसको संसार नहीं है ऐसा कहा जाता है. जैसे किसीके पास थोडासा धन है तो भी वह धनी कहलाता नहीं, परंतु दर्शनभष्ट मनुष्यको अर्ध पुद्गलपरिवर्तन कालतक संसारमें भ्रमण करना पडता है इसलिये वह अत्यन्त निकृष्ट है. पककस्थ सम्यग्दर्शनस्य माहात्म्यं कथयनि सुद्धे सम्मत्ते अविरदो वि अज्जेदि तित्थयरणामं ॥ जादी दु सेणिगो आगसि अरुहो अबिरदो वि ॥ ४० ॥ श्रेणिको ब्रतहीनोऽपि निर्मलीकृतदर्शनः ।। आहंत्यपदमासाद्य सिद्धिसौध गमिष्यति ॥ ७६९ ॥ विजयोदया-सुर्वे शुद्धे । सम्मत्त सम्यक्त्वे । शंकाचतिचाराभावात् । अविरदो चि अप्रत्याख्यानावरण कोधमानमायालोभानामुदयात हिंसादिनित्तिपरिणामरहितोऽपि । तित्थयरणामकम्मं तीर्थकरत्वस्य कारणं कर्म अर्ज यति । विनयसंपन्नताविरपि तीर्थकरनामकमगो हेतुरेव नतः कोऽतिशयो दर्शनस्य इति चेत् दर्शने सस्येव तेषां तीर्थ H Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः करनामकर्मणः कारणता । नान्यस्येति मन्यते । जादो खुजातः खलु । सेणिगो श्रेणिकः । आगमेसि भविष्यति काले । थर हो अईन् । अविरदो वि असंयतोऽपि सन् । ननु श्शेषिको भविष्यत्याईन् न त्यहस्यं तस्यातीतं तेन कथमुच्यते जात इति । भविष्यदर्दपं न निष्पन्नं इति युक्तमुच्यते जात इति । अकेला भी सम्यग्दर्शन माहात्म्ययुक्त होता है ऐसा विवंचन आचार्य करते हैं अर्थ- शंका, कांक्षा बगरह अतिचारोंसे रहित अविरन सम्यग्दृष्टीको भी तीर्थकरनाम कर्मका वध होता है. अप्रत्याख्यानावरणी कोध, मान, माया और लोभ इनका उदय होनेसे परिणामों में हिंसादिकोंसे विरक्तता उत्पन्न न होने पर भी केवल निरतिचार सम्यग्दर्शन धारण करनेवाले मनुष्यको तीर्थकर कर्मका बंध होता है, शंका-विनयसंपन्नता वगैरह अन्य कारणोंसे भी तीर्थकरत्वको प्राप्ति होती है. सम्यग्दशनमें ही ऐसी क्या विशिटता है ? उत्तर-सम्यग्दर्शन होनेपर ही बिनयसंपन्नतादिक तीर्थकर कर्म बंधके कारण होते हैं अन्यथा उनमें कार• णता नहीं हैं. केवल सभ्यग्दर्शनके साहायतासे ही श्रेणिक राजा भविष्यत्कालमें अरहंत हुआ है. शंका-श्रेणिक भूपाल भविष्यकालमें अईन होनेवाला है उसका अहंदावस्था प्राप्त होचुकी है ऐसा नहीं है. अतः वह अहंत होगया ऐसा क्यों कहते है ? उत्तर-भविष्य कालीन अर्हतपन अभी निष्पन नहीं हुआ है इसलिये वह होगया ऐसा कहना योग्य है. कल्लाणपरंपरयं लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्ता ।। सम्महंसणरयणं णग्यदि ससुरासुरो लोओ ॥ ७४१ ।। अच्छिन्ना लभ्यते येन कल्याणानां परंपरा मूल्यं सम्यक्त्वरत्नस्य न लोक तस्य वियते ।। ५७० ।। विजयोन्या-राणपरंपरयं कल्याणपरंपरां । रंद्रत्वं, सकलचकबनतां, अहमिहत्वं तीर्थकसमित्याधिक लभंते जीवाः । बिसुद्धसम्मत्ता विशुद्धसभ्यश्वाः । सम्मईसणारयणं सम्यग्दागरत्नं । णग्यदि ससुरासुरो लोबो सकलो लोको मूल्यतया दीयमानोऽपि न लभते सम्यक्त्वरत्नमित्यर्थः ॥ अर्थ-इस निर्मल सम्यग्दर्शनसे इंद्रपदवी, चक्रवर्तीपना, अहमिंद्रावस्था और तीर्थकरपद एसी कल्याण परंपरा उत्तरोत्तर जीवको मिलती है. यह सम्यक्त्व रत्न इतना मूल्यवान है कि देव और असुरासहित यह संपूर्ण Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाररचना ९११ लोक भी प्रदान किया तो भी उसकी कीमतकी भरपायी होती नहीं है. अर्थात् संपूर्ण त्रैलेाक्य देनेपर भी सम्यक्त्वरत्न मिलता नहीं. सम्मत्तस्स य लभे तेलोक्करस य हवेज जो लंभो ॥ सम्भहंसणलंभो वरं खु तेलोकलंभादो || ७४२ ।। द्रूण वि तेलोक्कं परिवडदि है परिमिद्रेण कालेन || लवूण य सम्मतं अक्खयसोक्खं वदि मोक्खं ॥ ७४३ ।। सम्यक्त्वस्य च यो लाभस्त्रैलोकस्य च यस्तयोः ॥ सम्यक्त्वस्य मतो लाभः प्रकृष्टः सारवेदिभिः ॥ ७७१ ॥ त्रैलोक्यमुपलभ्यापि ततः पतति निश्चितम् ॥ अक्षय लभते लक्ष्मीमुपलभ्य सुदर्शनम् ॥ ७७२ ॥ ददाति सौख्यं विधुनोनि दुःखं भवं लुनीते नयते विमुक्तिं ॥ निहन्ति निंदां कुरुते सपर्या सम्यक्त्वरत्नं विभाति किं न ॥ ७७३ ॥ सम्यक्त्वं । भाइयेाख्यानं ॥ सम्पनं ॥ विजयोदया स्पष्टार्थतया न व्याख्यायते साधयम् । अर्थ -- एक सम्यग्दर्शनका लाभ और दूसरा त्रैलोक्यका लाभ इन दो लाभों में सम्यग्दर्शनका लाभही श्रेष्ठ है. त्रैलोक्या लाभ होनेपर भी वह थोडे कालके अनंतर नष्ट होता है. परंतु सम्यग्दर्शनका लाभ जीवको अविनाशी सुख देनेवाले मोक्षकी प्राप्ति करा देता है, अतः सम्यग्दर्शनका लाभ त्रैलोक्यलाभ से भी श्रेष्ठ है. सम्य कत्वका वर्णन समाप्त हुआ. परामती इत्येतद्वाख्यानाय प्रबंध उत्तरः अरहंतसिद्धचेदियपत्रयणआयरिय सव्व साहू ॥ तिब्वं करेहि भत्ती भिव्विदिगिच्छेण भावेण ॥ ७४४ || मावास: ६ ८११ Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः लाराधना ७.२ भक्तिमहन्स सिद्धेषु चैत्योवाचार्यसाधुषु ॥ विधेहि परमा साधो ! निश्चयस्थितमानसः ॥ ७७४ ॥ विजयोन्या- अरइंतसिदचेदियपवयणआयरियसबसाइसु अईत्सिद्धेषु तन्प्रतिबिवेषु, प्रवचने, प्राचार्येषु सर्वसाधुषु च । तिय्यं भत्ति फरेहि तीयां भाक्तिं कुर्विति । गिविदिगिछेण विचिकिम्सारहितेग । भावेन परिणामेन ॥ पराभत्ती इस पदका आचार्य स्पष्टीकरण करते हैं अर्थ- अरहंत, सिद्ध, और उनकी प्रतिमायें, आगम, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इनके ऊपर हे क्षपक? तुम मलिनपरिणामोंका त्याग कर तीय भक्ति करो. .. 15 जिनभक्तिमाहात्म्यं कथयंति - संमजकिरण गिराहा मंदरोग्य णिक्कंपा ॥ जस्स दृढा जिणभत्ती तस्स भवं णस्थि संसारे ॥ ७३५।। विजयोदया- संवेगजणिकरण संसारभीनया उन्मादितात्मालामा । णिस्ताला मिथ्यात्वेन, मायया, निदा. नेन, च गहता । मंदरोच णिकन्या मंदर इय निश्चला । जस्स दबा जिगभसी यस्य दृढा जिनभक्तिः । तस्म संसार भयं णस्थि तस्थ संसारनिमित्तं भयं नास्ति। जिनभक्तिका माहात्म्य दिखाते हैं-- अर्थ- संसारभयसे उत्पन्न हुई, मिथ्यात्व, माया और निदानसे रहित, मेरु पर्वतके समान निश्चल ऐसी जिनभक्ति जिसके अंतःकरणमें हैं उस पुरुषको संसारमें किसी से भी भय उत्पन्न नहीं होगा. अर्थात् जिनभक्ति के प्रभाषसे उसका संसार नष्ट होकर उसको शीघ्र मुक्तिलाम होता है. एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गई णिवारेण ॥ पुण्णाणि य पूरेदुं आसिद्धि परंपरसुहाणं ॥ ७४६ ॥ तह सिद्धचेदिए पवयणे य आइरियसव्वसाधूसु ॥ भची होदि समत्था संसारुच्छेदणे तिन्वा ॥ ७१७ ॥ ९१२ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलगिधना आश्वास ०१३ विजा वि भत्तिवंतस्स सिद्धिमुचयादि होदि सफला य । किह पु णिव्बुदिबीजं सिझहिदि अभत्तिमंतस्स ॥ ७१८. ॥ जिनंद्रभक्तिरकापि निषे९ दुर्गति क्षमा । आसिद्धिलब्धि नो दातुं सारा सौख्यपरंपराम् ।। ७७५ ॥ सिद्धचैत्यश्रुताचार्य सर्वसाधुगता परा॥ विच्छिनति भवं भक्तिः कुठारीव महीरुहम् ।। ७७६ ।। नेह सिध्या विद्यापि FEE हिमा किं पुनानपतयाज भक्तिहीनस्य सिध्यति ।। ७७७ ।। विजयोदया-विर विद्यापि । भत्तियंतम्म भातमतः सिद्भिावनादि सिसिमुपयाति । होदिसकला य फलवती च भवति । किध घुण कथं पुनः । णित्रुदियो निर्वतेगी मन्नत्रय || सिसहिदि सेत्स्यति || अमत्तिमंतस्स भानिरहितस्य ॥ क? अहंदादिषु । अर्थ -अकेली जिन भक्ति ही दुर्गतिका नाय कान में समर्थ है. इसमें विपुल पुण्यकी प्राप्ति होती है और मोक्षप्राप्ति होने तक इससे इंद्रपद, चक्रवर्तीपद, अहमिंद्रपद और तीथकरपदके सुखों की प्राप्ति होती है. सिद्धपरमेष्टि, और उनकी प्रतिमा, आगम, आचार्य, सर्वसाधु, इनमें की हुई तीव्र भक्ति संसार का नाश करनमें समर्थ होती है. जो भक्तिमान है उसको इष्ट पदार्थीकी दात्री विद्या सिद्ध होती है. अधीत उससे इष्ट पदार्थ भक्तिमानको मिलते हैं, जो भक्तिहीन है अर्थात् जो अदादिकोंमें भक्ति नहीं करेगा उसको मुक्तिका पीज जो रत्नत्रय बह कसे प्राप्त हो सकेगा। तसिं आराधणणायगाण ण करिज जो परो भर्ति ।। धति पि संजमंतो सालि सो ऊसरे ववदि ॥ ७१९ ॥ 'भक्तिमाराधनेशानां योऽकुर्वाणस्तपस्यति॥ स पपत्यूषरे शालीननालोच्य समं ध्रुवम् ।। ७७८ ॥ Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार मूलाराधना २११ घिजयोव्या-तर्सि याराघणणायगाणं अईदादीनां आराधनाया नायकानां । ण करिज्ज जो पारो भात यो नरो भारी न करोति । स धाति पि संजमतो नितरी संयमे उद्यतोऽपि शालीनूपरे देशे चपति । ऊपरे शालिवपनं अफलं यथा फरोत्येवं दुश्वरं संयमं चरत्ययं अईदाविषु भाक्तिरहितो मिथ्यापि समिति भावः ॥ अर्थ-- सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओं के नायक ऐसे अईदादिपरमेडिओंमें जो पुरुष भक्ति नहीं करता है. वह चारित्रमें खुप तत्पर रहनेपर भी क्षार मृत्तिकाम शालिबीज बोनेवाले मनुष्य के समान है. जैसे शालिबीज क्षारजमीनमें बोनसे कुछ फायदा नहीं है वैसे मिथ्यादानसहित होकर खुच नपश्चरण करनेसे मी मुक्तिफल की प्राप्ति होनी नहीं. बीएण विणा सस्सं इच्छदि सो बासमभएण विणा ॥ आराधणमिच्छन्तो आराधणभत्तिभकरंतो ।। ७५० ॥ ते बर्जिन विना सस्यं वारिदेन बिना जलम् । कांक्षन्ति ये विना मक्ति कांक्षात्याराथनां नराः ॥ ७७१॥ वियोन्या- बीजेगा धिणा सम्लं शस्यमिति नीजन विना । शसमम्भारण चिणा वृष्टि अनष विता। कारणेन विना कार्यमिकस्तांति यायन् | आराधनां रत्नत्ररमिक इच्छति । अकुर्वनाराधनाभक्ति तुभून अर्थ-आराधनारूप भक्तिम करके ही जा रत्नत्रयसिद्विरूप फल चाहता हे यह पुरुष बीजके विना । धान्यप्राप्तिकी इच्छा रखता है. अथवा मेघ के विनाही जलवृष्टि की इच्छा करता है ऐसा समझना चाहिए. विधिणा कदस्त सस्सरस जहा णिप्पादयं हबदि वासं ॥ तह अरहादिगभत्ती णाणचरणदंसणतदाणं ॥ ७५१ ॥ विधिनोप्तस्य सस्यस्य वृष्टिनिष्पादिका यथा ।। तथैवाराधनाभक्तिश्चतुरंगस्य जायते ।। ७८० ।। विजयोदया-विधिणा कदस्स विधीयते जन्यते कार्यमनेनेति कारणसंदोहो विधिः । तेन कारणकलापन कृत 'स्योसस्य । सरसस्स शत्यस्य । वासं जहणिपादयं यदि वर्ष यथा फलनिष्पास करोति । तह तथैव । भाराहगभत्ती Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मलाराधना भाराहयभत्ती आराधकेषु आईदादिषु भत्ती भक्तिः । णाणचरणदसणतयाणं शानस्य, दर्शनस्थ, चारित्रस्य, तपसच निष्पादिका भवति । अर्म-धान्य उत्पन्न करनेके संपूर्ण कायाँका आश्रय कर जमीन में वीज बोनेके अनंतर जलवृष्टि होनस फल निष्पचि हो . से अईदादि पूज्य पुस्लीवर मात करनस शान, दर्शन, चारित्र, और तपरूपी फल उत्पत्र होता है. भक्तिमाहारम्य फळातिशयोपदर्शनेन कथयितुकामोऽधाक्यानमुपक्षिपति गाधायाम् ( वंदणभत्तीमितेण मिहिलाहिओ य पउमरहो ॥ देविंदपाडिहेरं पत्तो जादो गणधरो य ॥ ७५२ ॥ ) वंदनाभक्तिमात्रेण पनको मिथिलाधिपः ।। देवेंद्रपूजितो भूत्वा बभूव गणनायकः ।। ७८१ ।। रोगमारिचीरवैरिभूपभूतपूर्वकाणि ।। भक्तिराश दुःखदा निहन्ति सविताऽखिलानि ।। ७८२ ॥ इति भक्तिः । विजयोदया-वंदणभसीमित्तण वंदनानुरागमात्रेण चैव। मिहिलाहियो य पउमरहो मिथिलानगराधिपतिः पभरथो नाम । देविंदपाडिहरं पत्तो देवेंद्रफतां पूजा प्रापवान् । जादो गणधरो य गणधरन जातः । भत्ती ।। विशिष्ट फलका प्रदर्शन करके भक्तिका माहात्म्य कहने की इच्छा आचार्य उदाहरण देते हैं--- । अर्थ-वंदना करनेकी तीन भक्तीसे मिथिला देशका राजा पधरथ देवेंद्रसे पूजातिशयको प्राप्त हुआ | और यह वासुपूज्य तीर्थकर का गणधर हुआ. भक्ती का वर्णन हुआ.; आराधणापुरस्सरमणपणहिदओ विसुद्धलेरसाओ ॥ संसारस खयकरं मा मोचीओ णमोकार ।। ७५३ ॥ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागघरा ܕ ܕ ܕ आराधनापुरोयानं मा स्मैकाग्रमना मुत्र ॥ शुद्धलेश्या नमस्कारं संसारक्षयकारकम् ॥ ७८२ ॥ विजयोदया-- आराधणापुरस्सरं णमोकारे मा मोन्त्रीओ आरावनायास नमस्कार मा मुंच कीडग्भूतं संसारस्म खयकरं संसारस्य पंचमित्रपरिवर्तनस्य जयकरं । अणादिदो अनन्यहृदयः अनन्यगतचित्तः सन् । विसुद्ध लेस्सा दिया परिषतः । तत्र नमस्कारः नामस्थापना ष्यभावविकल्पेन चतुर्द्धा व्यवस्थितः । तत्र नाम नमस्कारों यस्य कस्यचिमस्कार प्रति का संज्ञा स् नामधेयं यथा स्यादिति नियुज्यमानं परं सर्व सर्वत्र प्रवर्तते । नमस्करणव्यामृतो जीवस्तस्थ स्वांजलिपुटस्य यथाभूते नाकारेणास्थापित मूर्ति स्थापना नमस्कारः । नमः स्कारप्राभृतं नामास्ति ग्रंथः यत्र नयप्रमाणादिनिपादिमुखेन नमस्कारो निरूप्यते तं यो वेति न च सांप्रतं तसि । उपयुक्तोऽन्यगतचित्तत्वात् स नमस्कारयाथात्म्यग्राहि श्रुतज्ञानस्य कारणत्वादागमद्रव्य नमस्कार इत्युच्यते । नो आगमद्रव्यनमस्कार स्त्रिविधः, शायकशरीरभावितयतिरिक्तभेदात् । नमकारप्राभृतशस्य यच्छरीरं त्रिकालगोचरं तदप्यंतरण श्रुतज्ञानं नोपजायते इति शरीरमपि कारणं तत्रापि नमस्कारशब्दशे वर्तते । तद्भूतशरीरं त्रिविकल्पं व्युत व्यायितं त्यक्तमिति । आयु निःशेषगलनादात्मनदन्युतं एकं चेतनस्योपसर्गाद्वा व्यातिशब्देनोच्यते । आयु भवमवेत्य भ्रात्मनैव यत्यकं तत्यशब्देनोच्यते । त्रिविकल्पं प्रत्याख्यानं, प्रायोपगमनं, इंगिनी मरणं इति । तेष्वन्यतमेन त्यतं विधिना कायकपायस लेखनापुरःसरं प्रवज्यातः प्रभृति निर्यापक गुरुसमाश्रयणदिवसमंत्यं कृत्वा मध्ये प्रवृत्तान् ज्ञानदर्शनचारित्राणां अतिचारानालोच्य तदभिमतप्रायश्वित्तानुसारिणः वध्यभावसलेखनामुपगतस्य विविधाद्वारप्रत्याख्यानादिक्रमेण रत्नत्रयाराधनं भक्तप्रत्याख्यानं । इंगिनी मरणप्रायोपगमने वक्ष्यमाणलक्षणे तैः परित्यक्तं त्यक्तमुच्यते । यमेव तत्सति जीये नमस्कारोपयोगं प्रति जीववदेव कारणमासीनमस्कारोपयोगस्य तदेवेयमिति तत्रापि नमस्कारशस्त्रः प्रवर्तते । नमस्कारोपयोगरूपेण यो भविष्यति स भाषीति मन्यते । स्थापना अईदादीनां आगमनमस्कारज्ञानं भागमभावनमस्कारः । नमस्क्रियमाणाइदा विगुणानुरागयतः मुकुलीकृत करकमलस्य, प्रणामो नो भागमभावनमस्कार इह गृह्यते । निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानैरनुयोगद्वारे निरूप्यते । अदादिगुणानुरागयतः आत्मनो वाकायक्रियास्तमनशिरोवनतिरूपो नमस्कारः । सम्यग्द श्रागमभाषनमस्कारस्य स्वामीति I मतिधुत ज्ञानावरणक्षयोपशमः, दर्शन मोहोपशमः क्षयः, क्षयोपशम वाद्यं साधनं, अभ्यंतर आत्मा प्रत्यासन्नमध्यः । आत्मि वर्तते नमस्कारः । अंशमुहूर्त स्थितिकः । अईदादिनमस्कार्य मेदेन पंचविधः | मर्दवादीनां प्रत्येकमनेक विकल्पत्वात् नमस्कारोऽपि तावद्धा भियते । अर्थ – यह भावनमस्कार आराधना पुरःसर हृदयमें धारण कर. इससे पांच परिवर्तनश्य संसारका नाश होता है. हे क्षपक! तू एकाग्र हृदयसे और विशुद्ध परिणामसे इसका स्वीकार कर. इसका कभी भी त्याग न करना चाहिये. आश्रामः ६ ९१६ Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना ९१७ इस नमस्कार के नामनमस्कार स्थापनानमस्कार, द्रव्यनमस्कार और भावनमस्कार ऐसे चार भेद हैं. नामनमस्कार - जिस किसीका 'नमस्कार' ऐसा नाम रखना यह इस पदार्थका नाम हो इस हेतुसे जो जो पद प्रयोग किया जाता है उसको नामनमस्कार कहते हैं. स्थापना नमस्कार - नमस्कार करनेमें तत्पर होकर हाथ जोडकर मस्तकपर जिसने स्थापन किये हैं ऐसे जीवी जैसी आकृति होती हैं वैसी आकारयुक्त जो मूर्ति स्थापी जाती है उसको स्थापनानमस्कार कहते हैं. द्रव्यनमस्कार — नमस्कारप्रभृत नामका ग्रंथ है. जिसमें नय प्रमाण और निक्षेप वगैरइके द्वारा नमस्कारका निरूपण किया है इस ग्रंथका जिसको ज्ञान है परंतु इसमें निरूपण किये गये अर्थ में सांप्रतकालमें जिसका योग नहीं है. अर्थात् में जिसका अन्य पदार्थके तरफ चित्त गया है वह पुरुष ' द्रव्यनमस्कार शब्द वाच्य है. वह पुरुष नमस्कारका यथार्थ स्वरूप प्रतिपादन करनेवाले श्रुतानका कारण होनेसे उसको आगम द्रव्यनमस्कार कहते हैं. नो आगम द्रव्यनमस्कार के ज्ञायक शरीर, भाषि और तद्वयतिरिक्त, ऐसे भेद है. नमस्कार प्राभृतके ज्ञाताका जो त्रिकालमोचर शरीर उसमें भी नमस्कार शब्द का प्रयोग करते हैं. क्योंकि शरीरके बिना नमस्कार शास्त्रका ज्ञान जीवको होता नहीं. इस लिये शरीर भी ज्ञानका कारण है. उसमें भी नमस्कार पदका प्रयोग करते हैं. त्रिकालमोचर शरीर में जो भूतशरीर नामक भेद है उसके च्युत, व्याषित और व्यक्त ऐसे तीन भेद हैं. आयुष्य पूर्ण गलने पर जो शरीर आत्मासे छूट जाता है उसको च्युत शरीर कहते हैं. उपसर्ग होनेपर जो शरीर छूट जाता है वह व्यावित कहा जाता है. आयुष्यका अभाव हुआ है ऐसा समझकर आत्मा के द्वारा जो शरीर त्यागा जाता है उसको त्यक्त कहते हैं. इसके तीन भेद हैं, भक्तप्रत्याख्यान, प्रायोपगमन और इंगिनीमरण इन तीनो भेदों में से किसीका भी आश्रय कर योग्य विधीसे शरीरका त्याग होता है उसको त्यक्त कहते हैं. भक्तप्रत्यास्थान -- मुनिदीक्षा लेनेके अनंतर दीक्षा कालसे कपाय सल्लेखना और शरीर सल्लेखना करके निर्यापकाचार्यका आश्रय करनेके कालपर्यंत बीच कालमें ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें जो जो अतिचार हुए हैं उनकी आलोचना करके गुरुके दिये हुये प्रायश्चित्त का स्वीकार करना चाहिये. तदनंतर द्रव्य सल्लेखना और भावलेखनाका आश्रय करके तीन प्रकारके आहारोंका त्याग कर रत्नत्रयकी आराधना करना इसको भक्तप्रत्या आश्वरसर ६ ९१७ Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना वासः ०१८ ख्यान कहते हैं. इंगिनीमरण और प्रायोपगमन मरण ऐसे दो भेदोंका लक्षण आचार्य आगे कहेंगे. इन मरणों के द्वारा शरीरका त्याग करना उसको भी त्यक्त कहते हैं. जीव जब था तब वह जैसा नमस्काररूप उपयोगको कारण था वैसा यह भी शरीर नमस्कारके प्रति उपयोग लगानका कारण या जतापही यह शरीर है ऐसा ज्ञान शरीरको देखनेसे होता है इसलिये भूतशरीर में भी नमस्कारका प्रयोग कर सकते हैं. जिसमें भविष्यकालमें नमस्कारके प्रति उपयोग होगा वह भावि कहाताहै. नमस्कार विषयक ज्ञानके तरफ जिसका उपयोग लगा है उसको आगम भावनमस्कार कहते हैं. जिनको नमस्कार करना योग्य है ऐसे अहंदादिक परमेष्ठिओं के गुणों में अनुरक्त होकर अपने दो हाथ जिसने कमलकलिकाकार किये हैं तथा जो नमस्कार कर रहा है उसको नो आगम भावनमस्कार कहते हैं... इस नमस्कारका निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान झने अनुयोगों के द्वारा वर्णन करते हैं अहंदादिकी गुणों में अनुरागी होकर जो आरमा वचनसे स्तुति करता है और मस्तक नम्र करता है उसकी । इस अवस्थाको नमस्कार स्वामी-सम्यग्दृष्टि इस नो आगम भार नमस्कारका स्वामी है. इस नमस्कारके ये साधन है.- मति श्रुतज्ञावरण कर्मका क्षयोपशम, दर्शन मोहका उपशम क्षय और क्षयोपशम ये बाह्य साधन है आत्मा अन्तरंग साधन है, अर्थात् प्रत्यासम्मभव्य अन्तरंग साधन है. आधिकरण--आत्मामें यह नमस्कार रहता है. अतः वह आधार है. इसकी स्थिति अन्तमुहतकी है. अईदादि पंचपरमेष्ठिओंके अपेक्षासे इसके पांच प्रकार है, अथवा अहंदादिकों में अनेक विकल्प हैं इस लिये भी नमस्कारके अनेक भेद होते हैं. अर्हन्तके सामान्य केवलि अहेत, गणधर केवलि अईत, तीर्थकर केवलि अईत ऐसे भेद हैं, सिद्धोंके भी गति सिद्ध तीर्थसिद्ध, क्षेत्रसिद्ध, लिंग सिद्ध ऐसे अनेक भेद हैं इनकी अपेक्षासे नमस्कारके भी अनेक भेद होते हैं. -..- .- - ..मणमा गुणपरिणामो बाचा गुणभासणं च पंचपहं॥ कारण संपणामो एस पयस्थो णमोक्कारी ॥ ७५९ ॥ बिजयोदया- नमस्कारसूत्रेण ' णमो लोर सयसाधूणं ' इत्यत्र लोकप्रहणं सर्वप्रहूर्ण प्रत्यकमभिसंघ ९१८ Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ९१९ ध्यते । णमो लोए सब्बेसि अरहंताणं, णमो लोए सव्वेसि सिद्धाणं, णमो लोएस आइरियाणं, णमो लोप सव्चसि उवज्झायाणं " इति । अरहंताणमित्यादि बहुवचननिर्देशादेव सर्वेषामदादीनां ग्रहणं सिद्धमतो न कर्तव्यं सर्वशन्दोपिभरतेषु तेषु विदेदेषु ये अतः सिद्धा, बायार्या, उपाध्यायाः साधयश्चातीता वर्तमाना, भविष्यंतच तेषां ग्रहणार्थं सर्वशब्द उपासः सादरविशेष स्थापनार्थ प्रत्येकं नमः शब्दोपादानं । अर्थ - नमस्कार इस पदका अर्थ इस प्रकार है. मनके द्वारा अर्द्धदादिकोंके गुणोंका स्मरण करना, वचनके द्वारा अर्हदादि पंच परमेष्टिओके गुणों का वर्णन करना, शरीर पंच परमेष्टिके चरणोंको नमस्कार करना यह नमस्कार शब्दका अर्थ है. मी अरहंताणं इत्यादि नमस्कार सूत्रमें ' गमो लोए सव्व साहूणं ऐसा अन्तिम वाक्य हैं. इसमें लोक शब्द और सर्व शब्द इन दो शब्दोंका संबंध प्रत्येकके साथ करना चाहिये. अर्थात् णमो लोए सव्वेसि अरहंताणं, णमो लोए सव्वेसिं सिद्धाणं, णमो लोए सव्येसि आइरियाणं, णमो लोए सब्धेसि उवज्झायाणं । शंका-अरहंताणं, सिद्धाणं वगैरह में बहु वचनका प्रयोग होनेसे ही सर्व अईदादिकों का ग्रहण होता है। अतः सर्व शब्दकी जरूरत नही हैं. उत्तर - ढाई द्वीपमें पांच भरत पांच ऐरावत और पांच विदेहों में जितने अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं, हो गये हैं. और होंगें उनका ग्रहण करनेके लिये यहां सर्व शब्दका प्रयोग किया है. और आदर विशेषता दिखाने के लिये प्रत्येक के आगे नमः शब्दका प्रयोग किया हैं. अरहंतणमोकारो एको वि हविज्ज जो मरणकाले ॥ सो जिणवयणे दिट्ठो संसारुच्छेदणसमत्थो || ७५.५ || एकोप्यनमस्कारो मृत्युकाले निषेवितः ॥ विध्वंसयति संसारं भास्वानिव नमश्चयम् ॥ ७८४ ॥ विजयोदया - अरनणमोकारो बतां नमस्कारः । वो मरणकाले भवेज्जएको वि। यो मरणकाले भवेदे कोऽपि । सो सः । जिवणे विशे जिनवयन टष्टः । संसारुच्छेवणसमस्थो संसारोच्छेदनसमर्थः ॥ आश्वरसः ६ ९९९ Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युदाराधना ८.२० अर्थ- मरण समय में अरहंतोंको एक भी यदि नमस्कार किया तो वह भी संसारका नाश करने में समर्थ ऐसा जिनागममें कहा है. संसारमुच्छिदेति यद्यपि न स्पाक्षमस्कार इत्याशंकायामाह - जो भावणमोकारेण विणा सम्मत्तणाणचरणतवा ॥ ते होंति समत्था संसारुच्छेद का || ७५६ संसारं विना शाक्तं नमस्कारेण सृवितुं ॥ चतुरंगगुणोपेतं नायकेनेव चिद्विषम् । ७८५ ।। विजयोदया जो भावणमोषकारेण विणा यो भाषनमस्कारेण विना सम्यक्त्वं ज्ञानं चारित्रं, तपश्च । खु दशब्द एवकारार्थः । ते संसदका साथ होति । न हि ते संसारोच्छेदनं कर्तुं समर्था भवंति ॥ 35 सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप संसारका नाश करते हैं इस लिये नमस्कार की क्या आवश्कता है ? इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते हैं- अर्थ --- भावनमस्कार के विना सम्यक्त्वा ज्ञान, चारित्र और तप संसारका नाश करने में समर्थ नहीं होते हैं. ननु सम्यवशायाति यथेयं सम्यग्द शेनशानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति सूत्रेण विमभ्यते । नमस्कारमात्रमेव कर्मणां विनाशने उपाय इत्येकमुक्तिमार्गकथनादित्याशंकायामाद दुरंगाए सेणाए णायगो जह पवत्तओ होदि ॥ तह भावणमोकारो मरणे तवणाणचरणाणं ॥ ७५७ ॥ विद्विषो नायकेनेव चतुरंग बलीयसा ॥ संसारस्य विघाताय नमस्कारंण योज्यते || ७८६ ॥ विजयोदया दुरंगाए सेणाए जायगो चतुरंगायाः सेनाया नायको । जह पवप्सगो होज्ज यथा प्रवर्तको भवति । तह भावणमोकारो तथा भाषनमस्कारः । मरणे मरणगोचरः । तवणाणचरणाणं तपोशानवरणानां क्षायिक आश्वासः ६ ९२० Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ९२१ सम्यक्त्वशानदर्शनची गुणात्मका महन्त इत्येवं श्रद्धानात्मको भावनमस्कारः सम्यग्दर्शनात्मकत्वात् । समीचीनं तपो ज्ञानं, चारित्रं च प्रवर्तयति । न ह्याप्तगुणश्रद्धानं विना शब्दभूतस्य प्रामाण्यमयं व्यवस्थापयितुमीशः । वक्तृप्रामाण्याद्विना नवचनायाः न होन्द्रियविज्ञानमयथार्थमिदमेत यथार्थमिति वा विवेक्तुं शक्यते अस्मदादिना । अर्थयाथात्म्य दिनो वीतरागद्वेषस्य च यतो वचस्ततो यथार्थमेव विज्ञानं जनयति, गायथार्थमिति समीचीनवानस्य सम्य ज्ञानपुरस्सरतया चरणं तपश्च समीचीनं सत्कर्मापनोदे निमित्तं नान्यथेति प्रवर्तकता भावनमस्कारस्य ततः प्रभावत्वाद्भावनमस्कारः संसारोच्छेदकारीति व्यपदिश्यते ॥ यदि आप भावनमस्कारसे ही संसारनाश होता है ऐसा कहते हो तो 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ' इस सूत्र के साथ विरोध उत्पन्न होगा. क्यों कि नमस्कार ही केवल कमका नाश करनेमें उपाय है। ऐसा आपका अभिप्राय है. सम्यग्दर्शनादिक तीनो मिलकर मोक्षका उपाय है और आपके मतसे केवल नमस्कार ही मोक्षोपाय है. इस शंकाका आचार्य उत्तर देते हैं--- अर्थ -- गज, रथ, अश्व और पायदळ इस प्रकार चार सेनाओंका जैसे सेनापति प्रवर्तक माना जाता है. वैसे यह भावनमस्कार भी मरणसमय में तप, ज्ञान, चारित्रका प्रवर्तक है. शायिक सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनंतवीर्य ये अर्हतके गुण हैं ऐसी श्रद्धा करना यही भावनमस्कार हैं. यह नमस्कार सम्यग्दर्शनात्मक ही है, इससे ही मुनिराज के ज्ञान, तप, और चारित्र, कर्मनिर्जरा करना, संबर करना इन कार्योंमें मवृत्त होते हैं. आप्तगुणांवर यदि श्रद्धा न होगी तो यह भावनमस्कार शब्दश्रुतका प्रामाण्य सिद्ध करनेमें समर्थ न होगा. वक्ता में यदि प्रमाणता न होगी तो उसके बचन प्रमाणभूत कैसे माने जायेंगे. इंद्रियज्ञान से यह यथार्थ है और यह अयथार्थ है इसका निर्णय कर नहीं सकता, जिनके रागद्वेष नष्ट होगये हैं और जो पदार्थोंका सच्चा स्वरूप जानते हैं उनका वचन अर्थात् आगम प्रमाणभूत मानना चाहिये उसको अप्रमाण समझना योग्य नहीं हैं. सम्यग्दर्शनसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह सम्यग्ज्ञान है. उसी तरह चारित्र और तप भी जब उत्कृष्ट निर्दोष होते हैं तब कर्मनाश करनेमें निमित्त हो जाते हैं अन्यथा नहीं. इसलिए भावनमस्कार इनका प्रवर्तक है ऐसा सम झना चाहिए. यह भावनमस्कार प्रभावसपत्र होनेसे संसारका उच्छेद करता है ऐसा मानना अयोग्य नहीं है १६६ आश्वासः ६ ९२१ Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: मूलाराधना आराधणापडायं गेण्हंतस्स हु करो णमोकारो ॥ मल्लस्स जयपडायं जह हत्थो घेनुकामस्स ॥ ७५८ ॥ नमस्कारेण गृह्णाति देवीमाराधनां यतिः ।। पताकामिव हस्तेन मल्लो निश्चितमानसः ॥ ७८७॥ विजयोदया-भाराधनापताका ग्रहीतुकामस्य मल्लस्य भावनमस्कार पच करोजयपताका प्रहीतुकामस्य हस्त श्वेत्युत्तरगाथार्थः॥ ___ अर्थ-जो क्षपक आराधनारूप पताका ग्रहण करता है उसका भाषनमस्कार ही हाथ है. जैसे जयपताकाको मल्ल पुरुष अपने हाथसे ग्रहण करता है. अण्णाणी विय गोवो आराधित्ता मदो णमोकार ।। चंपाए सेहिकुले जादो पत्तो य सामपणं ॥ ७५९ ।। अज्ञानोऽपि मृतो गोपो नमस्कारपरायणः ॥ चम्पावेष्ठिकले भूत्वा प्रपेदे संयम परम् ।। ७८८ ॥ समस्तानि दुःखानि विच्छिद्य सघः।। सुखानि प्रभूतानि साराणि दत्वा ॥ मुवा सेव्यमानं विधानेन मोक्षे । विवाधानि दत्ते नमस्कारमित्रम् ॥७८९।। इति नमस्कारः। विजयोदया-मईवगुणज्ञानरहितोऽपि गोपो द्रव्यनमस्कारमाराध्य मृतश्चंपापुर प्रेष्ठिकुल जातः । धामण्यं च प्राप्तवान् इति च द्रव्यनमस्कारोऽध्ययं विपुलं फलं प्रयदातीति भावः । नमस्कारो ध्याख्यातः । णमोकारं॥ अर्थ-सुभग नामक पालाको अईतके ज्ञानादि गुणोंका स्वरूप मालूम नहीं था. उसने मरण समयमें अईतको द्रव्यनमस्कार किया था. मरणके अनंतर वह चंपापुरनगरमें वृषभदत्तश्रेष्ठीका पुत्र हुआ. श्रमण अवस्थाको प्राप्त होकर मुक्त हुआ. द्रश्यनमस्कार भी ऐसा विपुल फल अर्पण करता है, नमस्कारका विवेचन हुआ. Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलारावा णाणोयओगरहिदेण ण सक्को चिचणिग्गहो काउं ।। गाणं अकुसमृदं मत्तम हु चित्तहत्यिस्म ॥ ७६० ॥ न शक्यते वशीकर्तुं बिना ज्ञानेन मानसं ॥ अंकुशेन विना कुत्र क्रियते कुंजरो वशे ॥ ७९० ॥ विजयोदया-णाणुयभोग इत्येततयाख्यानायोत्तरः प्रबंधः--गाणोवोगरहिदेण शानपरिणामरहितन पुंसा । सको चित्तणिग्गहो कार्ड चित्तनिग्रहः कर्तमशक्यः। कस्मात् ज्ञानमंतरेण न शयश्चित्तनिग्रहः कर्तुमित्यारकायां-शाने निमहकरणे साधकतम ततस्तदंतरेण न भवति चित्तनिग्रह इत्यावशे। गाणं अंकुसभूदमत्तस्स हुचित्तइस्थिस्स शानमंकुशभूतं मत्तस्य चिहस्तिनः। इदमत्र चोद्यते-इह चित्तशब्देन किमुच्यते ! अन्यत्र सचित्तशीतसंवृतइत्यादी चिसं चैतन्य - मिति गृहीतं ददापि यदि तदेव तस्य निग्रहो नाम का ? अश्रोच्यते-चिपर्ययज्ञानतया अशुमध्यानलेश्यातया या परिणतिः प्राणभृतो यस्य तस्य निरोधो यथार्थज्ञानपरिणामेन कियते । परिणामो हि परिपाामिनं निरुणद्धि, परिणामोऽस्मद्विरुद्धस्त्वथा नादात्तश्यः इति । यथा मत्ती हस्तीन कचिवयवतिष्ठते बंधनमईनादिकं बिना तदभिसहस्त्यपि यत्र कुत्र चनाशुभाष रिणाम प्रयतते इति || अर्थ-ज्ञानपरिणामसे रहित पुरुष अपने चित्तका निग्रह करनमें समर्थ नहीं होता है. अर्थात ज्ञान मनको जीतनेमें साधकतम है उसके बिना मन अन्य उपायसे नहीं जीता जा सकता है. अस मत्तहाथीको अंकुश वश करता है वैसे उन्मत्त हुए इस चितरूप हार्थाको वश करनेके लिये वह ज्ञान अंकुशके समान है. प्रश्न-यहाँ चित्तशब्दसे क्या अभिप्राय समझना चाहिये. 'साचत्तशीतसंवृत' इत्यादि सूत्र में चित्तशब्दका अर्घ चैतन्य ऐसा माना है. क्या यहां भी यही अर्थ मानते हो? तो- 'चैतन्यनिग्रह करना' इसका क्या अभिप्राय समझना चाहिये.. उत्तर--जो विपरीत झानरूप अथवा अशुमध्यानरूप वा अशुभलेश्यारूप परिणति जीवकी होती है उसका निरोधही आत्माके यथार्थ ज्ञानरूपपरिणतीसे युक्त होता है.परिणाम परिणामीका विरोध करता है जैसे हमारे विरुद्ध तुम अपने परिणाम धारण करना योग्य नहीं है. जैसे मचहत्ती बंधन मर्दनादिकके बिना कहां परभी स्थिर रहता नहीं है. वैसा यह मनरूप हाथी भी जिस किसी अशुभ परिणामोंमें प्रवृत्त होता है. Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HOMENAME मूलाराधना भाचा ५२४ विजा जहा पिसायं सुड पउत्ता करेदि पुरिसवसं ॥ णाणं हिदयपिसायं सुर पउत्ता करेदि पुरिसवसं॥ ७६१ ॥ स्वभ्यस्तं कुमत ज्ञानं मानानर्थपरं मनः ॥ पुरुषस्थ वशे विद्या पिशाचमिव दुर्ग्रहम् ।। ७९१ ॥ कि गोमया-ज्य पत्ता जहा पिसाय पुरिसयसं करेदि । विद्या सुष्टु प्रयुक्ता सम्यगाराधिता यथा पिशाचं पुरुषस्थ वश्यं करोति । तहणाणं मुहुरजुस यस करेदि हिदयपिसायं च । तथा शानं सुष्टु प्रयुक्तं वशं करोति । किं ? हृदयपिशाचं । चितं पिशाचवदयोग्यकारितया झानं समीचीनं असकृन्धवर्तमानं शुभे शुद्धे या परिणामे प्रवर्तयति चेतनामिति यावत् ॥ अर्थ--पूर्ण विधीसे विद्याकी आराधना करने पर पिशाच चश हो जाता है वैसे ज्ञानके तरफ पूर्ण उपयोग देनेस यह हृदयरूपी पिशाच पुरुषके स्वाधीन होता है. यह हृदय पिशाचके तुल्य अयोग्य कार्य करता है परंतु ज्ञानोपयोगसे पुरुष इस हृदयको शुभ अथवा शुद्ध परिणामोंमें प्रवर्ता सकते है. जैस सम्यग्दृष्टि जीव विद्याराधन करके पिशाचको वश कर उससे धर्मप्रभावना के कार्य कराता है वैसे इस मनको भी हे क्षपक तू ज्ञानासधना कर शुद्ध परिणामों में तत्पर कर, Trender BESTE उनसमइ किण्हसप्पो जह मंतेण विधिणा पउत्तेण ॥ तह हिदयकिण्हसप्पो सुवजुतण णाणेण ॥ ७६२ ।। ज्ञानेन शम्यते दुष्टं नित्याभ्यस्तेन मानसम् ।। मंत्रेण शम्यते किं न सुप्रयुक्तेन पन्नगः॥ ७९२ ।। विजयोदया - उपसपदि किसहसप्पो उपशाम्यति कृष्णसर्पः । जह यथा । मनेण पजुत्तेण स्वाहाकारांता विद्या इति स्वाहाकारो मंत्रशनोच्यते मंप्रेण सुष्टु प्रयुक्तेन । तह तथैष । हिदकिमहसप्पो उवसमयि हदयकृष्णसर उपशाभ्यति । सुयशुरोण जाणेगा सुष्टु प्रवृत्तेन धानपरिपामेन | अशुभनिमबहेतुतासानस्य आघया नरथयोक्ता । द्वितीयया वित्तस्य स्ववशकारित्वं शानभावनयोकं । अनया तु अशुभपरिणामप्रशांतिकारिता मानभावनया निरूप्यते ॥ ९२४ Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आवास: ९२५ अर्थ-योग्य विधीसे साध्य किया हुआ मंत्र प्रयोग करनेपर कृष्णसर्पको वश करता है, अर्थात् मंत्रके प्रभावसे क्रोधसे फुत्कार करनेवाला सर्प शांत होकर मांत्रिकके वश होता है, वैसे यह हृदय रूपी कृष्ण सर्प भी उत्तम प्रकारसे प्रयुक्त किये ज्ञानपरिणामके द्वारा पेश किया जाता है. पहिली गाथासे ज्ञान अशुभ परिणामोंको निग्रह करनेमें कारण है यह दिखाया है. दुसर्ग गाथाक द्वारा चित्त स्ववश करनेका उपाय दिखाया है. अर्थात् बानभावसे चित्त वश होता है ऐसा कहा है, और प्रस्तुत गाथासे ज्ञानभावना-ज्ञानाभ्यास अशुभ परिणामोंकी प्रशांति करता है यह बताया है. STHAN आरण्णवो वि मत्तो हत्थी णियमिजदे वरत्ताए ॥ जह तह णियमिजदि सो जाणवरचाए मणहत्थी ॥ ७६३॥ नियम्यते मनोहस्ती मत्तो ज्ञानवरत्रया ॥ हस्ती वारण्यकः सद्यो भयदायी वरत्रया ।। ७९३ ॥ विजयोन्या-आरगणचो वि मत्तो हत्थी अरण्यचारी मत्तो इस्ती। नियमिज घरसाप नियभ्यते निरुप्यते वरप्रेण यथा । तथा मणहत्थी मनोहस्ती नियम्यते । णावरत्ताप सानयरत्रेण । प्राणिनामहितकारितया, दुर्निवारनया च मनो हस्तीवेति मनोहस्तीति भयंत । ज्ञानमशुभमवाहं निरुणद्धि । इत्यनयोच्यते । अर्थ-अरण्यमें खच्छंदपनासे बिहार करनेवाला मत्त हाथी जैसे भजपूत शृंखलासे बांधा जाता है वैसे यह मन प्राणिओंका अहित करता है और दुर्निधार है अतः यह हाथी के समान होनेसे इसको हाथी कह सकते हैं. यह मनरूपी हाथी ज्ञानरूपी श्रृंखलासे बांधा जाता है, अर्थात झान अशुभसंकल्पोंके समूहको रोकता है, मनमें ज्ञानके प्रभाव से अशुभ संकल्प उत्पन्न नहीं होते हैं. ९२५ ज्ञानयरषया नियमितस्य मनोव्यापार निरूपयत्युत्तरमाथा जह मक्कडओ खणमवि मज्झत्थो अस्थि, ण सकेइ ॥ तह खणमवि मज्झत्यो बिसएहिं विणा ण होइ मणी ।। ७६४ ॥ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ९२६ मध्यस्थों न कपिः शक्यः क्षणमायासितुं यथा ॥ मनस्तथा भवेनैव मध्यस्थं विषयैर्विना ॥ ७९४ ।। विजयोत्रया मक्कड खणमवि मत्थो अत्थिदुं ण जहा सक्केति मर्कटकः क्षणमपि मध्यस्थो निर्विकारः सन् स्थातुं न शक्नोति । तहा मणो विसरहिं विया मज्झत्थो खणमवि ण होदि तथा मनो विषयैः शब्दादिनिमित्ता रागादय इह विषयशब्दवाच्या विषयकार्यस्वात् । ततोऽयमर्थः, भत्र रागद्वेषौ विना मध्यस्थं मनो न भवति । ज्ञानभावनायामसत्यां रागद्वेपयोगी व्यार अर्थ मनसी मध्यस्थं करोतीत्याख्यायते । यस्मान्मनसोऽमाध्यस्थ्यमस्ति संनिहितमनोज्ञामनो विषय रागेपसहचारितया - ज्ञानरूपी श्रृंखलासे न बंधे हुए मनकी चेष्टाओं का वर्णन -- अर्थ - वानर एकक्षण पर्यन्त भी स्थिर अर्थात् निर्विकार एकस्थानमें रहता नहीं. मन भी विषयों के विना स्थिर नहीं रहता है. हमेशा विषयों में विचरता है. अर्थात् हमेशा शब्द रस, स्पर्श चगैरे विषयोंका निमित्त पाकर यह रागद्वेषोंसे युक्त हुआ ही करता है. विषयोंसे निवृत्त होकर माध्यस्थ भावमें यह रममाण होता नहीं, सतत ज्ञानका अभ्यास न होनेसे इसकी रागद्वेषमें परिणति हो रही है. परंतु ज्ञानका अभ्यास करनेसे माध्यस्थभाव मनमें उत्पन्न होता है, मनोज्ञ इष्ट विषय और अमनोज्ञ अनिष्ट विषय के सहवाससे मनमें क्रम से रागद्वेष उत्पन्न होते हैं, तब माध्यस्थ भावका लोप होता है. ता सो उहण मणमक्कडओ जिणोवरसेण ॥ रामदेवत्र यिदं तो सो दो ण काहिदि से ॥ ७६५ ॥ सदा रमयितयोऽसौ जिनवाक्यवने ततः ॥ रागद्वेषादिकं दोषं करिष्यति तती न सः ॥ ७९५ ॥ विजयोश्याता तस्मात् । सो मणकओ मनोमर्कटः । उक्हणो इतस्तत उल्लंधनपरः । रामेव्यणियद सर्वकाळे रमयितव्यः क जिणोषसम्म जिमागमे। तो ततो जिनागमरतेः । सो मनोमर्कटः । दोस रागद्वेषादिण काहिदि न करिष्यति । से तस्य ज्ञानाभ्यासकारिणः ॥ अर्थ -- तब यह मनोमर्कट इतस्ततः कूदने लगता है. इस मनोमर्कटको जिनागमके अभ्यास में दिनरात तत्पर करना चाहिये, जिससे यह रागद्वेषादिक विकारको छोड देगा. आश्वासः ६ ९२६ Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवास: मूलाराधना ९२७ यस्मारक्षानाम्यासे सति मनोमर्कटको दोषं गशुभपरिणाम न करोति तमा णाणुवओगो खवयस्स विसेसदो सदा भणिदो ॥ जह विंधणोबओगो चंदयज्झं करंतस्स ।। ७६६ ॥ ज्ञानाभ्यासस्ततो युक्तः क्षपकस्य विशेषतः ।। विवेध्यंकोजस्तस्य पदकामधन गया । ७९६ ।। विजयोदया-तला णाणुषमोगो तस्माज्ञानपरिणामः । यास्स बिसेसदो सदा भाणदो भपकस्य विशेषतः सवा निरूपितः। जय सिंधणीवोगो यथा व्यधनाभ्यासो विशेषतो मणितः । कस्य ? चंदयवेमं करंतस्स चंद्रकषेधं कुर्यतः। ज्ञानाभ्याससे पह मनोमर्कट अशुभ परिणाम नहीं करेगा ऐसा कथन अर्थ --चंद्रक यंत्रका बेघ करने की इच्छा रखनेवाला वीर पुरुष जैसे हमेशा लक्ष्यवेध करने का अभ्यास करता है. वैसा मनोमर्कट वश करनेके लिये हमेशा क्षपक को ज्ञानाभ्यासकी आवश्यकता है, णाणपदीओ पज्जलइ जस्स हियए बिसुद्धलेस्सस्स ॥ जिणदिठमोक्खमग्गे पणासणभयं ण तस्सत्थि ॥ ७६७ ॥ शुद्धलेश्यस्य यस्यान्ते दीप्यते ज्ञानदीपिका ॥ तस्प नाशभयं नास्ति मोक्षमार्गे जिनोविते ।। ७९७ ॥ विजयोचा-गाणपदीभो ध्यानप्रदीपः । पज्जल प्रज्वलति । यस्य विशुद्धलेश्वस्य हवये । तस्य संसारापर्ते पतिरवा दिनष्टोऽस्मीति विनाशभयं नास्ति । जिदिमोक्खमग्गे जिनहरे श्रुते रत्नत्रवृत्तिरपि मोक्षमार्गशब्द ह श्रुतवृत्ति हाः॥ अर्थ--विशुद्ध परिणामयुक्त ऐसे जिसे क्षपको हृदयमें ज्ञानरूपी दीपक सतत प्रकाशमान रहता है उसको जिनेश्वरने कहे हुए आगम में नए होनेका भय नहीं रहेगा. अर्थात् सतत ज्ञानाभ्यास करनेसे जीवा दिक पदार्थीका जैनशास्त्रमें जो नयोंके आधारसे अनेक अपेक्षाओं को लेकर स्वरूपवर्णन किया है उसका खूप खुलासा होगा. परंतु जिसको ज्ञानाभ्यास नहीं है उसको जिनागमका रहस्य मालूम न होगा. Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आश्वासः शानप्रकाशमाहात्म्यं कथयति जाणुज्जोवो जोवो णाणुज्जोवस्स णस्थि पडिघादो ॥ दीवेइ खेत्तमप्पं सूरो णाणं जगमसेसं ॥ ७६८ ॥ ज्ञानोयोतो महोचोतो व्याघातो नास्य विद्यते ।। क्षेत्रं द्योतयते सूर्यः स्वल्पं सर्वमसौ पुनः ।। ७९८ ॥ विजयोदया - णाणुज्जोवो शानोद्योत पत्र द्योतोऽतिशयितः । कस्तस्यातिशय इत्यत आइ--णाणुज्जोरस्स गस्थि पडिवादो ज्ञानोद्यतस्य नास्ति प्रतिघानः । वीवेदि प्रकाशयति । खत्तमपं स्वल्पं क्षेत्र कः? सूरो आदित्यः । णाणं जगमसेस शानं जगदशेष । दीवेदि प्रकाशयति । समस्तव्याज्ञिानप्रदन्यः प्रकाशो नास्तीत्यर्थः ॥ ज्ञानप्रकाशका महत्व आचार्य कहते हैं अर्थ-ज्ञानरूपी जो प्रकाश है वही उत्कृष्ट प्रकाश है. इसमें यह विशेषता है कि यह किसीके द्वारा नष्ट कर नहीं सकते हैं. हवा वगैरह पदार्थ दीपकका नाश करते हैं परंतु ज्ञानदीपका नाश करनेवाला जगमें कोइ भी पदार्थ नहीं है. सूर्यका प्रकाश बहुत तीव्र है परंतु यह भी अल्पक्षेत्रको ही प्रकाशित करता है. परंतु यह शानप्रदीप समस्त जगतको प्रकाशित करता है. समस्तको व्यापकर जाननेवाले ज्ञानके समान दूसरा प्रकाश जगमें नहीं है, णाणं पयासओ सो वओ तवो संजमो य गुत्तियरो ॥ तिण्हपि सभाओगे मोक्खो जिणसासणे दिलो ॥ ७६९ ॥ शानं प्रकाशक वृत्तं गोपर्क साधकं तपः ॥ प्रपाणां कथिता योगे मितिर्जिनशासने ॥ ७९९ ।। विजयोदया-णाणं पगासग ज्ञान प्रकाशयति । संसार संसारकारण, मुक्ति मुक्तिकारण च ॥ सो वो तबो निर्जरानिमित्तं तपः । संजमो य गुत्तियरो संयमश्च गुप्तिकरः । तिण्इपि त्रयाणामपि समायोगे सयोगे मोक्यो मोक्षः। जिणसासणे विटो। जिनशासने दृष्टः । अर्थ-ज्ञान संसार और मुक्तिके कारणोंको प्रकाशित करता है. बत, निर्जराके कारणरूप तप, गुप्तिको ९२८ Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनाराधना उत्पन्न करनेवाला संयम और इन तीनोंका संयोगरूप मोक्ष जिनका स्वरूप जैनागममें कहा है ज्ञान उन सबको जानता है. भाचाह: ९२० णाणं करणविहूर्ण लिंगग्गहणं च देसणविह्वर्ण ।। संजमहीणो य तबो जो कुणदि णिरत्थयं कुणदि ॥ ४७० ॥ णाशुज्जोएण विणा जो इच्छदि मोक्खमग्गमुवगंतुं ॥ गंत कडिल्लमिच्छदि अंधलओ अंधयारम्मि ॥ ७७१ ।। करणेन विना जानं संयमेन बिना तपः॥ सम्यक्त्वेन विना लिंग क्रियमाणमनर्थकम् ।। ८०० ॥ ज्ञानोद्योतं विना योऽत्र मोक्षमार्गे प्रयास्यति ।। प्रयास्यति बने दुर्गे सोऽन्धोऽन्धतमसे सति ।। ८०१॥ विजयोदया- णागुनोरण विणा शानोद्योनेज घिना | जो इच्छवि यो चांदति । मोवमरगमुषगंतु चारित्र नगदम्य इह मोक्षमार्ग दम्युच्यते नावि तपश्चोपदा । न् कडिालमिटिगं दुर्गमिडनि । कः ? धनश्रो अधः । अंधमार्गमा धमनासि । यथा वृक्षगगुरुमादिनिधिने प्रदेश गान अनिदुरकर अप्रकाश सनि । नन्तिसादिपरिहागे जीवनिकायाकुले. दुष्कर इति मन्यते॥ अर्थ- चारित्रहीन ज्ञान, सम्यग्दर्शनरहित मुनिदीक्षा धारण करना, संयमरहित तप करना, ऐसे कार्य व्यर्थ है, अर्थात् इससे मोक्षकी प्राप्ति होती नहीं. अर्थात् चारित्रसहित ज्ञान और प्राणिमयम और इंद्रियसंयम सहित तप करना चाहिये, सम्यग्दर्शनसहित मुनिदीक्षा धारण करनी चाहिये तब मोक्षकी प्राप्ति होती है.. अर्थ-- ज्ञानरूपी प्रकाश अर्थात ज्ञानदीपकको त्याग कर मोक्षका उपायभूत ऐमा चारित्र और तपकी प्राप्ति करने की जो इच्छा करता है वह अंधकारमें वृक्ष तृणादिकोंस व्याप्त ऐगे दुर्गमप्रदेशम प्रवेश करने वाले । अंधमनुष्य के समान समझना चाहिय. जैस जीयोंग भरे हुए प्रदेशाम हिंसादिकोंका परिहार करना कठिन है बसे । शानक विना मोक्षमार्गकी प्राप्ति कर लेना कठिन है, Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना ९३० जइदा खंडसिलोगेण जमो मरणा दु फेडिदो राया ॥ पतोय सामण्णं किं पुण जिणउससुतेण || ७७२ ॥ संगम लोकन/निवार्य मरणं यमः ॥ यदि नीतस्तदा किं न जिनसूत्रेण साध्यते ॥ ८०२ ॥ विजयोदया -- जइदा खंडसिलोगेण यदि तावत्खंडन लोकस्य । जमो राया भरणादो फेडिदो यमराजा मरणा दपसारितः । पप्तो य सुसामण्णं प्राप्तब्ध शोभनं श्रामण्यं । किं पुण जिणउत्तसुते । किं पुनर्जिनोकसूत्रेण प्राध्यफले भावर्य । वाच्यमत्रायानकं च तदुक्तं भवा- अनघेन जीवितार्थिना यत्किं चिदुक्तं वचनं श्रुत्वा हास्यपरेण राचा भाव्यमानं वद्यापत्सारणे निमित्तं विदयवेदिनां वचो भाध्यमानं किमभिलषितं न प्रापयति । अर्थ-यम नामक राजा लोकके खंडका स्वाध्याय करने से मरणकी आपत्तीसे मुक्त हुआ और उत्कृष्ट नास्त्रिको भी प्राप्त हुआ. स्वयं बनाये लोकखंडसे भी वह आपत्तीथे मुक्त होकर उज्ज्वल चारित्रको प्राप्त हुआ तो जिनके अध्ययन से उत्कृष्ट फल अर्थात् मोक्ष क्यों न मिलेगा. ( इस यमराजाकी कथा आराधनाकथाकोष में देखो ) जैसे एक राजाने भीख मांगनेवाले एक अज्ञ अंधेका बचन सुनकर इसीसे कंठस्थ किया. उस वचन से उसके ऊपर आई हुई आपत्ति टली. एक अंधेका वचन भी आपत्ती दूर होने में निमित्त होगया तो विश्वके समस्त पदार्थ जाननेवाले जिन भगवान के वचनोंका अभ्यास करनेसे क्या अभिलपित पूर्ण न होगा ? अवश्य पूर्ण होगा. स्वरूपस्यापि तस्य भावना मरणकाले महाफलं दातीत्येवं तत्कथयतिसुप्पो सूलदह पंचणमोक्कारमेत्त सुदणाणे || उवजुती कालगढ़ो देवो जावो महडीओ || ७७३ ॥ सूपse शूलस्था जातो देवो महर्द्धिकः ॥ नमस्कारश्रुताभ्यासं कुर्वाणो भक्तितो मृतः ॥ ८०३ ॥ विजयोदया- सुप्पो खूलो सूप नाम चौरः शूलमारूढः । पंत्रण मोक्कारमेत सुदणाणे उवजुतो आश्वारः ६ ९.३० Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाधा मूलाराधना ९३१ काठगदो पंचनमस्कार एष भुतकाने उपयुक्तः सन् कालगतः । महदिगो देयो जावो महाको देवो जातः । स्वल्पश्रुतका अभ्यास भी मरणकालमें महाफल देनेवाला होता है इस का विवेचन-- अर्थ-शूलपर चढाया दुआ रतशूर्प नामक चोर पंचनमस्कार मात्र श्रुतज्ञानमें चित्तकी एकाग्रता करके मरण को प्राप्त हुआ और स्वर्ग में महाऋद्धिशाली देव हुआ. PARAGRATANATREATRAKATARATMARATHITATEMBEtamatarBATAYB9480 ण य तम्मि देसयाले सब्बो बारसविधो सुदक्खंधो । सत्तो अणुचिंतेदुं बलिणा वि समत्वचिचेण ॥ ७७४ ॥ मृत्युकाले श्रुतस्कंधः समस्तो द्वादशांगकः ॥ बलिना शक्तिचित्तेन यतो ध्यातुं न शक्यते ॥ ८०४ ।। विजयो-सम्बो बारसाबधो यि सुदपलंधो तम्मि देसयाले ण य सको अणुचितेतुं बलिणा वि समत्थनितेण सों द्वादशविधोऽपि श्रुतस्कंधस्तस्मिन्मरण देशे काले च नैव शक्योऽनुस्मतुं नितरामपि समर्थचित्तेन । यहुश्रुतस्यापि न ध्यानालंयनं समस्तं कि तु किंचिदेव सूत्रं । तथा युतं 'पकाग्रचितानिरोघो ज्यानमिति' __ अर्थ- मरणकालमें सर्व-वारा प्रकारका शुनस्कंधका चिंतन करना बलवान और समर्थ मनकं पुरुप द्वारा भी शस्य नहीं है. बहुश्रुत विद्वान मुनि भी संपूर्ण श्रुतज्ञान को आपने ध्यानका विषय नहीं बना सकते हैं. अर्थात किसी भी कालमें और किसी भी क्षेत्र में संपूर्ण श्रुतज्ञान ध्यानका विषय होता नहीं फिर मरण समय में संपूर्ण श्रुतज्ञान ध्यानका कैसा विषय हो सकेगा ? श्रुतज्ञानका कोइ एक सूत्र ध्यान में विचारा जा सकता है. इसी वास्ते ध्यानका लक्षण ' एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानं ' ऐसा कहा है. BASANTANTREAMIMARANASPAL एक्कम्मि वि जम्मि पढे संवेग वीदरायमग्गम्मि ।। गच्छदि परो अभिक्खं तं मरणते ण मोत्तव्वं ॥ ७७५ ॥ एकत्रापि पवे यन संवर्ग जिनभाषिते ॥ संपतो भजते तन्न स्यजनीयं ततस्तदा ॥ ८०५॥ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलागधना आश्वासः जिनपतिवचनं भवभयमथनं शशिकरधवलं कृतयुधकमलं ।। तमिति हृदये हलमलनिधये वितरति कुशलं विदलति कलिलम् ८०६ इति ज्ञानम्. विजयोक्ष्या-तण पकम्मि वि भिम पद गरिनकमिसनगि बंद युक्तः। संवेग गच्छदि रत्नत्रयं श्रद्धामुपैति । अभिलं पुनः पुनः । तं तपनं मरने शीनगनियोगकाल । मोत्तव्यं न मोक्तव्य । णाणुचओग इत्येतद्धशाख्यातं । णाणं गई। अर्थ-- जिस एक पदका चितन करनम आत्मामें रत्नत्रयपर श्रद्धा उत्पन्न होगी वह पद बार बार चिंता जाना चाहिये. शरीरका घियोग होने तक उसका त्याग हे क्षपक ! तुम मत करो,'णाणुवओगा इस' पद का विवेचन हुआ. पंचमहव्यवर क्या रत्येतद्वयाचिभ्यासुराधमायनं पालये ति कथयति परिहर छज्जीवणिकायबधं मणवयणकायजोएहिं ॥ जावज्जीवं कदकारिदाणुमोदेहिं उबजुत्तो ॥ ७७६ ॥ यावज्जीवं विमुचस्व यते । पजीवहिंसनम् ॥ शरीरवयनस्वांतः कृतकारितमोदितः ।। ८०७ ।। विजयोदया-परिहर छज्जीवणिकायवई पण्ण जीवनिकायानां षधं । मा कृथा मनोधाक्काययोमैः प्रत्येक कृतकारितानुमतधिकरुपैः । कालममाणमाह-जावजीयं यावज्जीपं | सर्वजीवविषयसर्वप्रकारहिंसापरिहाररूपत्वात् । सर्वस्मिन्नेव भवपर्यायकाले प्रसस्वाददिसा बसस्य महत्ता निषेदिता । छज्जीवणिकाय इत्यव व्यक्तयो जीवनिकायानां परिगृहीताः । मणययणकायोमेहि कदकारिदा गुमोदहि इत्यनेन हिसाधिकरणः संगृहीताः । जायज्जीपमित्यनेन निरवशेषमनुजजीवितकालपवणं | उपजुत्तो समिदीसु इति शेष उपयुक्त समितियु समाहितचिनः। रख वा सावज्ज किरियापरिहारे रति शेषः। सावधकियापरिद्वारमणिहितचिनः। पांच महावतोंका रक्षण करना चाहिये इस पदका आचार्य व्याख्यान करना चाहते हैं. प्रथम हे धपक तू अहिंसा महाव्रतका रक्षण कर ऐसा उसको कहते है ९३२ Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a ner .iromain...... ..... -"-- - आश्वात मूलाराधना अर्थ-हे क्षपक तू ईयादिसमितिओं में एकाग्र चित्त होकर अर्थात संपूर्ण पापक्रियाओंका त्याग करके आमरण मन, वचन, और काययोगसे तथा कृत, कारित और अनुमति ऐसे नउ प्रकारसे छह प्रकारके जीवसमुदायोंका वध करना छोड दे. ऐसी प्रवृत्ति करनेसे तेरा अहिंसा महाव्रत पूर्ण निर्दोप पाला जायगा. सर्व जीवोंकी हिंसा प्राश हुए इस मनुष्यपर्याय में सब प्रकार त्यागी जाती है इस लिइसको आमा नहावत कहते हैं. 'छज्जीव णिकाय' इस पदसे जगत में जीवोंके समुदाय अर्थात प्रकार कितने हैं यह दिखाया है. ब " मणवयणकायजोगेहि, कदकारिदाणुमोदेहि "इन पदोंसे हिंसाके प्रकारका कथन किया है, अर्थात हिंसा नऊ प्रकारस होती है. 'जावज्जी' इस पदसे संपूर्ण मनुष्यायुष्यका ग्रहण किया है, जह ते ण पियं दुक्खं तहेव तेसिपि जाण जीवाणं ॥ एवं णच्चा अप्पोवमिवो जीवस होदि सदा ॥ ७७७॥ यथा न ते प्रिय दुःग्य सर्वेषां देहिनां तथा ।। इति ज्ञात्वा सदा रक्ष नान्स्वस्वमिव यत्नतः॥ ८०८॥ विजयोदया-जह ते ण पियं दुःखं यथा तवन प्रियं दुक्खे । तधेब तेसि पिजीवाणं दुःख न पियत्ति तथैष तेषामपि जीवानां न दु:ख मिन मिति । जाण जानीहि । पच्चा पपं सात्या । थप्पोषमिवो आत्मोपमानः । सदा होहि जीवेषु। परदुःस्थानियो भयेति यावत् ॥ अर्थ-हे क्षपक ! जैस तुगको दुख प्रिय नहीं है वैसे अन्य जीवों को भी दुःख प्रिय नहीं हैं. ऐसा समझ कर सर्व जीवों में तू आत्मोपम हो अर्थात परदुःख देनेसे निवृत्त हो. तण्डाहादिपग्दिात्रिदो नि जीवाण घादण किच्चा ॥ पडियारं काढुंजे भा तं चिंतसु लभसु सदि ॥ ७७८ ।। क्षुधा तृष्णाभिभूतोऽपि विधाय प्राणिपीडनम् ।। मा कार्षीरपकारं त्वं वपुर्वचनमानसैः ।। ८०९ ।। Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासः २३४ विजयोदया-तण्टाछुदादिपरिवायदो वितृषा, क्षुधा, रोगेण शीतेन, आनपेन बाधितोऽपि सन् ! जीवाण घावर्ण किश्मा जीयानामुपधातनं कृत्वा । पडिमार कार्बुजे तुडादीनां प्रतिकारं कर्तुं । तं मा बितेति मा कार्यश्चित्तं । लभसु सुदि लभस्व स्मृति । पियामि हिमशीतलं जलं कर्पूरक्षोस्यासितं । अगाध या सरः सुरभितरोत्पलरजोरगुठितं प्रविश्य माघसिंधुर व निमजनोगमज्जने करोमि । ललाटे, शिरसि, धुले चोरःस्थल करकप्रकगनिपातो यदि म्याइदं भवेत् । कल्हारसिकताधिकपल्लवशयनाम्लिामचा जीवामिनि बा । आननिमा दिवानिश तप । अपसारिततीक्षाकरकरनिकुरुंयमिति व्यजनतान्तसमुपनीनशीतमारुतपातेन प्रयमशेपमपाकुपतु भवन्तः । हिमानी पततु । यति मातरियान इति वा । भ्राष्ट्रपक्कानपूपान्सुरभिघृप्तान मक्षयामीति । सम्यफ कथितं. क्षीरं शर्करामिश्रं सुखो पियामीति च । धगधगावमानं खाविमग्निं कुरुत शीतन स्फुटन्ति ममोगानि इत्येवमाविका प्रतिक्रिया मनसि न कार्येत्यर्थः । असद्वंद्योदयः स नो महानिति निपतति, को नु तस्य प्रतीकारः? तपशमकालभाविन पव बाह्यद्रव्यसंपाद्याः प्रतीकारा इति मनो निधेहि ॥ अर्थ-प्यास, भूख, रोग, शीत, उष्ण, इत्यादिकसे तुमको पीडा होने पर भी तुम जीवोंका घातकर प्यास वगैरहको मिटाने का प्रयत्न करनेका विचार कभी मनमें मत लाओ. ऐसे दुःखके समय आगमके बचोंका स्मरण करो और आगे कहा हुआ विचार मनमें मत लाओ. कापूरका चूर्ण डालकर सुगंधित किया हुआ, वर्फके समान शीतल जल मैं पीऊं, अथवा सुगंधित कमलरजोसे व्याप्त ऐसे अगाध सरोवरमें मत्त हाथी के समान प्रवेश कर निमज्जन करके स्नान करू; ललाट, मस्तक, विशाल छाती इनके ऊपर ओलेका समुदाय पडेगा तो बहुत ही आल्हाद होगा, कमल, शीत वालुका, कोमल कोपल, इनका किया हुआ बिछाना यदि मेरेको सोनेके लिये मिलेगा तो मे जीऊंगा अन्यथा मेरे प्राण चले जायेंगे ऐसा विचार मनमें नहीं करना चाहिये. रातमें और दिनमें प्यास मेरेको सताती है इसवास्ते सूर्यके तीक्ष्ण किरणों को यहाँसे दूर करो. परवा वगैरहके द्वारा ठंडी हवा करो और मेरा संपूर्ण श्रम आप दूर करो. बर्फ वृष्टि होवो, वायु बहने दो. ऐसा विचार नहीं करना चाहिये. कढाईमें तले हुए, सुगंधित घृतसे गीले हुए अपूप मैं भक्षण करूंगा, अच्छी तरहसे पका हुआ, खांडमिश्रित सुखोष्ण ध में पिऊंगा ऐसा विचार नहीं करे. धगधग करता हुआ खरका अग्नि जल्दी तयार करो. मेरे सर्व अंग थंडीसे फूट रहे हैं इस प्रकार के इलाजके विचार क्षपकको मनमें करना योग्य नहीं है. मेरे ऊपर असाता वेदनीय कर्मका बहा रोष हुआ है उसको क्या इलाज है, जब उसका उपशम होनेका समय आवेगा तब बाह्य पदार्थोंके द्वारा इलाज हो सकते हैं ऐसा मनमें विचार करना चाहिये. नहीं करनारको सोने पहास BRATE Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काराधना आश्वास ९३५ रदिअरदिहरिसभयउस्सुगत्तदीणतणादिजुत्तो वि ॥ भोगपरिभरोगहेदं मा हि विचितेहि जीवबई || १७६१९ ॥ हर्षोत्सुकत्वदीनत्यरत्यरत्यादिसंयुतः॥ त्वं भोगपारंभोगार्थ मा कार्षी वयाधनम् ।। ८१ ।। विजयोदया- रदिअरदिहरिसभयउस्सुगनदीमत्ताणाविजुत्तोऽपि । शब्दादिविषया मोती रतिः । अमनोविषयसमिधाने या चिमुखता सा भरतिः । हास्यकर्मोदयनिमित्तः परिणामो हः । भय, उत्सुकता, दीनतेत्येवमादिभियुक्तोऽपि । भोगपरिमोगहेतु भोगोपभोगार्थ वा जीवषधं मा कृथा मनसि । अर्थ-स्पर्शादि विषयोंपर प्रेम होना बह रति है. अनिष्ट पदाथा समयोग होने पर जो विमुग्यता होती है उमको अति कहते हैं. हास्य कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए परिणामोंको हप कहत है. मय, उत्सुकता, दीनपना इत्या दिक परिणाम आत्मामें उत्पन्न होने परभी भोगोपभोगके लिये हे क्षपक नूं जीवध करनेका विचार मन मत कर, PERATORS महकरिसमग्जियमहं व संजमो थोबथोवसंगलिय ।। तेलोक्कसव्वसारं णो वा पूरेहि मा जहसु ॥ ७८० ।। माक्षिकं मक्षिकाभिर्वा स्तोकस्तोकेन संचितं ॥ मा नीनशो जगत्सारं संयम न पूरयः ॥ ८११ ।। विजयोदया-माकरिसमनियम व मधुकरीभिः समर्जित मधिय । संजम बारित्रं । थोवधोषसंगलि स्तोकस्तोकेनोपचितं । तेलोकसट्वसारं त्रैलोक्यम्य सर्वसारं विष्टपत्रये यदतिशयरत् स्थान, मान, ऐश्वर्ष सुख वा तस्य कारणत्यात् भैलोक्यसर्वसारं । मा जासु मा स्याक्षीः॥ अर्थ-मधुमावखया जैसा थोडा थोहा मधु संचित करती है वैसा थोडा थोडा करके संचित किया हुआ यह संयम तू मत छोड़ क्योंकि त्रैलोक्यमें जो अतिशय उत्कृष्ट स्थान, मान, ऐश्वर्य और सुख है उसकी इससे प्राप्ति होती है, अतः ऐसे महान् संयम का हे क्षषक ' तू त्याग मत कर, Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमागरना आश्वास दुक्खग लभदि माणुस्सजादिमदिसवणदसणचरित्रं ॥ दुक्खस्जियसामना का जहाँ तणे व अनजतो ॥ ७८१ ॥ नृत्वं जातिः कुलं रूपमिपिं जीवितं पलम् ।। श्रवणं ग्रहणं योधिः संसार संति दुर्लभाः ॥ ८१२ ।। विजयोदया-तुक्षेण लभवि माणुस्सजादिमदिसवणदसणचरितं दुःखन लमते मनुष्यजन्मजंतुः । सूत्रे यापि मणुस्सजादिशब्दः सामाम्यवाक्युपात्तस्तथापि विशेषमयसापयति इति ग्राहो । मनुजा हि चतुःप्रकारा कर्मभूमिसमुन्थाप भोगभूमिभवाम्लधा। अंतरद्वीपजाश्चैव नया सम्सटिमा इति । असिर्मपिः पिःशिर्ष याणिज्य व्यवहारिता ॥ रति यत्र प्रवर्ततं नणामाजीवयोनयः ।। प्रप.व्यसंप यच नाफमपरा नराः मुरसंगति या सिप्रियांति इतशत्रधः। पताः फर्म भयो शेया पूर्षाका दश पंच च ।। यत्र संभूय पर्याप्ति यांतिते कर्मभूमिजाः॥ मचोधराहारपात्राभरणमात्पदैः ।। गृहदीपम्योतिशस्यैस्तरुभिस्तत्र जीषिकाः॥ पुरमामादयो पत्र न निवेशा न चाधिपः । न कुलं कर्म शिल्पानि न वर्णाश्रमसंस्थितिः ॥ यत्र नार्यो नराश्चैव मैथुनीभूय नीरुजः।। रमंते पूर्षपुण्यानां प्राप्नुवन्ति परं फलं ।। यत्र प्रकृतिभनत्वात् दिवं यांति मृता थपि॥ ता भोगभूमयधोक्तास्तत्र स्यु गभूमिजाः ।। अमापका पकोरुका लागूलिकषिपाणिनः || आदर्शमुखहस्त्यश्वविपुदुल्कमुखा अपि ॥ बयकर्णगजकर्णाः कर्णप्राधरणास्तथा ॥ इत्येषमादयो श्रेया अंतरद्वीपजा नराः॥ Almaal Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PARERANA मूलाराधना भावाम: ९३७ समुद्रद्वीपमध्यस्थाः कंदमूलफलाशिनः॥ बेदयते मनुष्यायुस्ते मृगोपमचेष्टिताः ॥ कर्मभूमिषुचकामहलभृद्धरिमभुजा स्कंधाधारसमूहेषु प्रयोञ्चारभूमिधु ।। शुक्रसिंघापाकलेप्मकर्णदतमलेषु च अत्यंताशुचिदेशेषु सनसम्मुन्छनेन थे। भूत्वांगुन्द्रस्यासस्येयभागमात्रशरीरकाः ।। आशु नश्यम्त्यपर्याप्तात स्युः सम्मुईना नरा: 11 पतेपु कर्मभूमिजमानयानां पत्र रत्नपय परिणामयोग्यता नेतरेगां इति तदेव मनुजजन्म गृश्यते । सम्धेऽपि तस्मिन् शानावरणोदयादिसाहितपरीक्षायां समर्था बुद्धिन सुलमा । तया विना लम्धमपि मनुजजम्म विफलमेय दृष्टिरहितमिवायतं लोचन, दक्षिणसंपर्य विना कुलीनत्वमिव, सुभगतामतरेण रूपमिव, यथार्थतारहित षचममिव, सत्यामावि मती यदि नाप्तानां वचः श्रुणुयात् सापि विफलैय सरोजरहिता सरसीप । इहापि श्रषण आप्तवचनगोचरमेय गृहीत, श्रषणमपि श्रद्धानरहित सुलममेष । यथा यन प्रतिदित तथैवेति श्रद्धानै दुर्लभ दर्शनमोहोदयात् । सत्यपि श्रद्धाने नारित्रमोहोदयात् ज्ञातेऽभिरुचिते मार्ग प्रवृत्सिदुर्लभा । एवं दुरयजिजवसामणं दुःस्वार्जितधामण्यं । मा जहसु मा त्याक्षी । लणं व अगणतो तुमिय अगणयन् अर्थ-इस प्राणीको दुःस्त्रम मनुष्य जन्मकी प्राप्ति होती है. उत्तम जाति, बुद्धि, मुनिपना, सम्यग्दर्शन, चारित्र में अवस्थायें उत्तरोनर दुर्लभ होनस महाकष्टमे प्राप्त होती हैं. गाथामें यद्यपि मनुष्यत्व, जाति ये शब्द सामान्यवाची है तो भी उनसे विशिष्ट मनुष्यत्व, उच्च जाति ऐसा अथे ग्रहण करना चाहिये. मनुष्यके चार प्रकार है. उनका वर्णन कर्मभृमिज. भोगभूमिज, अन्तीपज और समूर्छिम ऐसे मनुष्यके चार भेद है. जहां असि-शस्त्र धारण करना, मपि-बही खाता लिखना, कृषि-खेती करना, पशुपालन करना, शिल्पकाम करना अर्धाद हस्तकौशल्य के काम करना, वाणिज्य-व्यापार करना और व्यवहारिता-न्यायदानका कार्य करना. ऐसे छह कार्योंसे जहां उपजीविका करनी पडती है, जहां संयमका पालन कर मनुष्य तप करने में तत्पर होते हैं और जहां मनुष्याको पुण्यसे म्वर्ग प्राप्ति होती है और कर्मका नाश करनेसे मोक्षकी मामि होती हैं ऐसे स्थानको कर्मभूमि कहते हैं. ये कर्मभूमि अढाइद्वीपमें पंधरा है. अर्थात् पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच विदेह. Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवामः मूलाराधना जहां मांग, तूर्याग, वखांग, भोजनांग, पात्रांग, आभरणांग, माल्यांग गृहांग, दीपांग, और ज्योतिरंग ऐसे दश प्रकारके कल्पवृक्ष रहते हैं. और इससे मनुष्याकी उपजीविका चलती है ऐसे स्थानको भोगभूमि कहते हैं. भोगभूमिमें नगर, कुल, असिमष्यादि क्रिया, शिल्प, वर्णाश्रमकी पद्धति ये नहीं होती हैं. यहां मनुष्य और स्त्री पूर्वपुण्यसे पतिपत्नी होकर रममाण होते हैं, वे सदानीरोगही रहते हैं और सुख भोगते हैं, यहां के लोक स्वभावमे ही मृद परिणामी अर्थात मंद कषायी होते हैं. इसलिये मरणोत्तर उनको स्वर्गकी प्राप्ति होती है. भोगभूमिमें रहनेवाले मनुष्याको भोमभूमिज कहते हैं, अन्तरद्वीपज मनुष्योंका वर्णन--ये मनुष्य, अमापक गूंगे, एक टांगवाले, पूंछवाले, सींगको धारण करनेवाले, ऐसे अनेक प्रकारके रहते हैं. यहांके कोई मनुष्य दर्पणके समान मुखयाले, हाथी, घोडा, इनके मुख समान मुखवाले, बिजली और उल्का सनास सुरवात हसे है. फिी २ मनुष्योंके कान हाथी और घोडोंके कान सरीखे रहते हैं. कितने मनुष्योंके कान इतने बड़े होते हैं कि वे उसको ओह सकते हैं. इन सब मनुष्योंको अन्तद्वीपज मनुष्य कहते हैं. ये मनुष्य लवणोद और कालोद समुद्र के चीचमें ९६ अन्तद्वीप है उनमें रहते हैं. उनका आचरण पशुके समान रहता है. वे मनुष्यायुका अनुभव लेते हैं. कर्मभूमीमें चक्रवर्ती, बलभद्र वगैरह बडे राजाओंके मेन्यों में, मलमत्रोंका जहां क्षेपण करत है ऐसे स्थानोपर, बीय, नाकका मल, कफ, कान और दांतोंका मल और अत्यंत अपवित्र प्रदेश इनमें जो तत्काल उत्पन्न होते हैं. जिनका शरीर अंगुलका असंख्यात भाग मात्र रहता है. और जो जन्म लेनेके बाद शीघ्र नष्ट होते हैं और जो लमध्यपर्याप्तक होते हैं उनको सम्मूर्छन मनुष्य कहते हैं. इन मनुष्योंमें जो कर्मभूमिज मनुष्य हैं उनका ही रत्नत्रयपरिणाम की योग्यता हैं. इतरोंको नहीं हैं. इस बास्ते मनुज शबसे इनका ही ग्रहण समझना चाहिय. रत्नत्रयकी योग्यताको धारण करनेवाला मनुष्यजन्म मिलने पर भी ज्ञानावरणकमके उदयसे हिताहित की परीक्षा करनेवाली बुद्धि प्राप्त होना सुलभ नहीं है, एसी बुद्धि यदि प्राप्त नहीं हुई तो यह मनुष्यजन्म प्राप्त होकर भी निष्फल ही हुआ समझना चाहिये. नेत्र बढे होकर भी उनसे पदार्थ दीखत नहीं है, अच्छे कुलमें जन्म होनेपर मी पदि सौदर्य प्राप्त नहीं हुआ, बोलने की शक्ति प्राप्त होकर भी यदि असत्य बोलनेके तरफ ही प्रवृत्ति होने SHRESTANTaar Pela (30 Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचा मूलाराना २३९ लगी, तो नेत्र, उच्चकुल, सुभगता और वचनशक्ति सब प्राप्त होना विफल है. वैसे उत्तम बुद्धि प्राप्त होनेपर भी यदि मनुष्य आप्तका वचन नही सुनेगा तो वह बुद्धि भी कुछ कामकी नहीं है ऐसा समझना चाहिये जैसे कमलरहित सरोवर सुंदर नहीं दीखता है वैसी आमवचन न सुननेवाली बुद्धि भी शोभाहीन ही है ऐसा समझना चाहिये. यहाँ श्रवण शब्द कुछ भी सुनना इस सामान्य अर्थ का वाचक नहीं है. परंतु आतके वचन सुनना यही श्रवण शब्दका अर्थ है. श्रवण भी श्रद्धान रहित सुलभ है. जैसे जिनेश्वरने कहा है वैसाही श्रद्धानगुणयुक्त श्रवण जगतमें दुर्लभ है, दर्शनमोहका उदय होनेसे यह श्रद्धान जीवको प्राप्त होना कठिन है. पदार्थ का स्वरूप जान लेनपर भी और श्रद्धा करनेपर भी चारित्रमोहकर्मका उदय होनेपर रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गमें प्रवृत्ति करना बडा ही कठिन है. इसलिये हे क्षपक तुमको यह दुर्लभ श्रामण्य-मुनिपनामी प्राप्त हुआ है अतः इसको तृणके समान जानकर मत त्यामो. जीवघातयोपमाहात्म्यं गायावयेन कथयति तेलोकजीविदादो वरेहि एकदरमत्ति देवेहिं । भाणदो को तलोक वरिज संजीविदं मुच्चा ५७८२॥ देवैरेकं वृणीष्व त्वं त्रैलोक्य विनव्ययोः ॥ इत्युक्तो जीवितं मुक्या लोक्य घृणुतंत्र कः 11 ८१३ ।। विजयोध्या- त्रैलोक्यजीवितयोरेर्क गहाणेति देवधोदितः कत्रलोक्य वृणीत । जीवस्य जीवितं त्यकवा, जीवनमेव प्रशीतुं वांछति । यस्मादेवं त्रैलोक्यस्य मूल्यं जीवितं सर्वप्राणिनस्तम्माज्जीवित्तमातो जीवस्य जीवादन्यत्रावृत्ते जीवस्यह वचनमनार्थकमिति चेत्र, उत्सरेण संबंधात् । जीपस्य इंतुस्रलोक्ययातसमो महान्दोषो मयतीति यावत् ।। जीवघातसे उत्पन्न हुए दोष का महत्त्व आचार्य दो गाथाओंसे दिखाते है अर्थ-ग्रलोक्य और जीवित इन दोनोंमसे तुम कोई एक ग्रहण कर सकते हो ऐसा देवोंके द्वारा कहाजानेपर मनुष्य जीवन को ही लेगा. क्योंकि यह जीवन त्रैलोक्यकी कीमतका है, अर्थात संपूर्ण जीवोंका जीवन त्रैलोक्यके बराबरीका है. इस वास्ते जीवका घात करना त्रिलोकका घात करनेके समान है. दापर्य-जीवघात करना यह महान् दोष है. STOTRA २३० Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना पाश्चाम: जं एवं तलोकं पाम्वदि सब्यस्स जीविदं तह्मा ॥ जीविदधादो जीवस्स होदि लोकघादसमो । ७८३ ।। त्रैलोक्येन यता मुल्यं जीवितव्यस्य जायते ॥ जीवजीवितघालोस्तबलोक्यहननोपमः ॥ ८१४ ।। प्रहण दुईभसंतापा मग साधकम् ॥ एकाग्रमानसो रक्ष निधानमिच सर्वदा ।। ८१५ ॥ अर्थ-संपूर्ण जीवोंका जीवित क्योंकि त्रैलोक्यके कीमतकी बराबरीका है अतः जीवक जीवितका धात ऋग्ना त्रैलोक्यघातके समान है. अहिंसातमहत्ता निवेदयति णस्थि अणूदो अप्पं आयासादो अणूणयं णस्थि ।। जह तह जाण महलं ण क्यमहिंसासमं अस्थि ।। ७८४ ।। अल्पं यथाणुतो नास्ति महदाकाशतो यथा ॥ अहिंसात्रततो नास्ति तथा परमुरुबतम् ॥ ८१६ ॥ विजयोदया-त्यि अणूलो मापं नारयणोरष सम्यत्किचिद्रव्यं । आयासादो गणूणयं स्थि । आकाशाया अन्यन्मनास्ति यथा तथान्यतं अहिंसातो महम्नास्ति । - अर्थ-इस जगतमें अणु से छोटी दुसरी वस्तु नहीं है और आकाशसे भी बडी कोई चीज नहीं है. इसी प्रकार आहिंसा व्रतसे दूसरा कोई बड़ा व्रत नहीं है, जह पव्वदेसु मेरू उच्याओ होइ सब्बलोयम्मि । तह जाणसु उव्वायं सीलेसु वदेसु य अहिंसा ॥ ७८५ ॥ सम Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वासः मूलाराधना ९४१ पर्वतेषु यथा मेमश्चक्रवर्ती गधा नषु ॥ जीवरक्षाबतं सारं सर्वस्मिन्नपि ते तथा ।। ८१७ ।। विजयोदया-जह पब्यदेसु सर्पमिक पर्वतेभ्यो मध्य पश्चतानाजीलेषु च उन्नततमेति जानीहि । प्रताना, शीलानां, गुणानां च अधिष्ठानमाई सेति वदति ॥ अर्थ-जसे सर्व जगतमें समस्त पर्वतोमें मेरुपर्वत बडा है वैसे यह अहिंसा बत संपूर्ण शील और समस्त व्रतोंमें बहा है. FASTARATAR सव्वो वि जहायासे लोगो भूमीए सव्वदीउदधी ॥ तह जाण अहिंसाए वदगुणसीलाणि तिठति ॥ ७८६ ॥ यथाऽकाशे स्थितो लोको धरण्यांद्वीपसागराः ॥ सर्वव्रतानि तिष्ठन्ति जीवत्राणवते तथा ॥ ८१८॥ विजयोदया-यथा सर्वलोक ऊोधस्तियग्विकल्पः आकाशाधिकरणः । भूमौ च स्थिताः सर्षे दीपा उवधयश्च । तथैव जाण जानीहि । पतगुगशीलाम्यहिसायां तिष्ठन्ति इति ॥ यह अहिंसा व्रत, गुण और शील सबों को आधार है ऐसा कथन __ अर्थ--उज़लोक, अधोलोक और मध्य लोक ऐसे लोकक तीन भेद हैं परंतु यह लोक भी आकाशमें है. अर्थात् त्रैलोक्यका आधार आकाश है. इस भनलमें सर्व द्वीप और समुद्र आधेय होकर रहे हैं, वैसे व्रत गुण, और शील ये सब अहिंसाके आश्रयसे रहत हैं. कुव्वतस्स वि जन्त तुंबेण विणा ण ठंति जह अग्या ॥ अरएहिं विणा य जहा पठं गेमी दु चक्करस ॥ ७८७ ॥ यथा तिष्ठति चक्रस्थ न तुंन विमारकाः ॥ गतविना न तिष्ठन्ति यथा चक्रस्य नेमयः ।। ८१९ ॥ ५४१ Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मूलाराधना भाषा: 24NDHICE विजयोक्या-कुश्वनस्स वि जसं यत्नं कुर्वतोऽपि । पिंडीमतरेण यथा न तिष्ठन्त्यराणि । अरर्षिना नेम्यवस्थानं चक्रस्य यथा नास्ति। तह जाण अहिंसाए विणा ण सीलाणि टंति सब्बाणि ॥ तिरसेव रक्खण; सीलाणि बढ़ीव सस्सस्स ॥ ७८८ ॥ तथा शीलानि तिष्ठन्ति न बिना जीवरक्षया ॥ तस्याः शीलानि रक्षार्थ सस्यादीनां यथा वृतिः ॥ ८२० । विजयोदया-तह आण उथैष जानीहि । महिसां विना सर्वाणि शालानि न तिष्ठनि । अहिंसाया गव रक्षार्थ शीलानि वृत्तिरिव सस्पस्य । अर्थ-कितनाभी प्रयत्न करो तुंबीके विना चक्रके आरे नहीं रह सकते हैं, वैस अहिंसाके विना सर्व शीलोंका पालन करनेका कितना भी प्रयत्न करो उनका पालन नही किया जायगा. अर्थात अहिंसाके बिना शीलकी स्थिति नही है, जैसे धान्यके रक्षणार्थ बाद लगाते हैं तथा अहिंसाके रक्षार्थही शीलवत हैं. कितना भी प्रयत्न करो आरे न होंगे तो नेमीकी स्थिति नही होती है वैसे अहिंसाके विना शील नहीं टिक सकते हैं. -- . . - - अहिंसावतमंतरणतरषां नष्फस्यमाचऐ-- सील बदं गुणो वा णाणं णिरसंगदा सहचाओ ॥ जीवे हिंसंतस्स ह सव्वे वि जिरत्थया होति ॥ ७८२ ।। व्रत शालं तपो दान मैग्रन्ध्यं नियमा गुणः ।। सर्वे निरर्थकाः सन्ति कुर्वतो जीवहिंसनम् ।। ८२१ ।। विजयोदया-शीलादीनि हि संपरनिर्जरा चोदिश्यानुष्ठीयते । हिंसायां नु सत्यां न स्तः फलभूते संवरनिर्जरे मुक्त्युपायभूते इति निष्फलता मन्यते । अहिंसाके बिना इन व्रतोंको निष्फलता प्राप्त होती है ऐसा कथनअर्थ-शील, उत, गुण, ज्ञान, निष्परिग्रहता, और विपसुखका त्याग ये सर्व आचार जीवहिंसा Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना करनेवाले के विफल हो जाते हैं. शीलादिक आचार कमकी निर्जरा, और संवरके उद्देश्यसे किये जाते हैं परंतु हिंसा | करनेसे मुक्तीके उपायभूत संवर और निर्जरा व्यर्थ होते हैं. माश्वास ९१३ सव्वेसिमासमा हिंदयं मम्मी व सदसत्यागं ।। सव्वेसि वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा हु ॥ ७९० ॥ आश्रमाणां मती गर्भः शास्त्राणां हृदयं परम् ।। पिंड नियमशीलानां समतानामहिंसनम् ॥ ८२२ ।। विजयोदया-सवेसिमासमाण सर्वेभामाश्चमाण हदयं । शास्त्रागां गर्भः। सर्वेगं अताना गुणानां च पिंडभूतः सारो भवत्याहिंसा ॥ - अर्थ-- यह अहिंसा मर्व आश्रमाका हृदय है, सर्वशास्त्रोंका गर्भ है, और सर्व व्रतोंका निचोटा हुआ जम्हा असञ्चवयणादिएहिं दुक्खं परस्स होदित्ति ॥ तप्परिहारो तला सव्वे वि गुणा अहिंसाए ।। ७९१ ॥ असूनृतादिभिर्युःख जीवानां जायते यतः ।। परिहारस्ततस्तेषां अहिंसाया गुणोऽखिलः ।। ८२३ ।। विजयोवया-जमा असमनवयणादिगेहि यस्मादसत्यवचनेन, अदत्तादानेन, मैथुनेन, परिग्रहण च परस्य दुःस्व भवति । तस्मात्तेषां असत्यवचनादीनां परिहार इति सर्वेपि अदिसाया गुणाः ॥ अर्थ ---असत्य बोलनेसे, न दी हुई वस्तु लेनेसे, मैथुनसे और परिग्रहसे परको दुःख उत्पन्न होता है. परंतु अहिंसाके पालनेसे इन सब दोषोंका त्याग होता है. अतः सत्यवचनादिक अहिंसाके ही गुण हैं ऐसा समझना चाहिये. Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधना आश्वास २२४ %ESMAD गोवंभणित्थिवधमेत्तिणियति जदि हरे परमधम्मो ॥ परमो धम्मो किह सो ण होइ जा सव्वभूददया ॥ ७९२ ॥ । गोस्त्रीब्राहमणबालानां धर्मो यद्यस्त्यहिंसनम् ॥ . न तदा परमो धर्मः सर्वजीवदया कथम् ।। ८२४ ॥ विजयोदया-- मोबमणिवियोनगिर्यात गवां, बामणानां, खोलो ब यधमात्रनिवृत्तियदि भवेदुत्कृष्टो धर्मः परमो धर्मः कथं न भवति या सर्व जीवदया । अर्थ-गोहत्या, ब्रामणहत्या, स्त्रीवध इनसे निवृत्त होना यदि, उत्कृष्ट धर्म समझा जाता है तो सर्व जीवापर दया करना यह उत्कृष्ट धर्म क्यों नहीं माना जायगा. हिंसानिवृति उपायन कारयंति कृतापकास बार भारतमीहते जनः । तस्परेषामसज्यामान्तरे पितपुत्रादिभावमुपागताना अंग ! मारणमयुक्तं इनि पदति-- सब्वे विय संबंधा पत्ता सब्वेण सबजीहिं ।। तो भारतो जीवी संबंधी चेत्र मारइ ।। ७९३ ॥ सवैः सर्वे समं प्राप्ताः संबंधा जंतुभिर्यतः॥ संबंधिनो निहन्यते ततस्तानिन्नता ध्रुवम् ।। ८२५ ।। विजयोदया-सधे पिय सऽपि च । सेबंधा संबंधाः प्राप्ताः । सम्वेण सर्वेण जोवेन । सबजीदि सर्पजीवः । तो तस्मात् । जीषो मारणोधतः संबंधित एवं घातयति ।। __उपायसे हिंसाका निषेध लोक करते हैं. अपने बंधुओंने अपराध किये होंगे तो भी उनको मारते नहीं. तो अनेक पूर्व जन्मोंमें जो पिता, पुत्र इत्यादिक संबंध को प्राप्त हुए होंगे ऐसे प्राणिओंको मारना क्या योग्य है ? नहीं इसका सष्टीकरण अर्थ--सर्व जीवोंका सर्व जीवोंके साथ पिता, पुत्र, माता इत्यादि रूप संबंध अनेक भवोंमें हुआ है. इसलिय मारनेके लिये उद्युक्त दुआ मनुष्य अपने संबंधी को ही मारता है ऐसा समझना चाहिये. जगतमें संबंधिओंका घात करना आतिशय निध माना जाता है. Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ९४५ त संबंधिननं लोके अतिर्निदितं । जीवही अप्पबहो जीवदया होड़ अप्पणी हु दया ॥ बिसकंटओव्य हिंसा परिहरियव्वा तदो होदि ॥ ७९४ ॥ आत्मघातोऽङ्गिनां घातो दया तस्यात्मनो दया ॥ fasis इव त्याज्या हिंसातो दुःखभीरणा ॥ ८२६ ॥ विजयोदय-जीववो अप्यवहो जीवानां घात आत्मघात एवं जीवानां क्रियमाणा दया आत्मन एव कृता भवति । सहदेवजीवननोचतः स्वयमनेकेषु जन्मसु माते । कृतैकजीवदयोऽपि स्वयमनेकेषु जन्म पर रक्ष्यते । इति विपलिटकवत् परिहादिला दुम्की अर्थ- प्राणिओका नाश करना यह अपना ही नाश करना है और पाणिपर दया करना ही अपने ऊपर दया करना है जो एकजन्म में प्राणीका घात करता है वह अनेक जन्मोंमें मारा जाता है और जिसने एकवार भी प्राणी के उपर दया की है वह अनेक जन्मोंमें इतर प्राणिसे रक्षा जाना है. ऐसा विचार कर चिपसे लिप्त हुए कंटक जैसे लोक दूर होते हैं वैसे दुःखभीरु मनुष्यको इस हिंसासे दूर रहना चाहिये. सायमिव जन्मनि दर्शयति- मारसीलो कुणदि हु जीवाणं रक्खसुत्र उब्बेगं ॥ संबंधियो वि ण य विस्तंभ मारितए जंति ॥ ७९५ ॥ उद्वेगं कुरुते हिंस्री जीवानां राक्षसो यथा ॥ तस्य विश्वासं जातु कुर्वते ॥ ८२७ ॥ सं विजयोदया- मारणसीलो हु मारणशीलः परइननोद्यतः । राक्षस इत्र जीवानामुद्वेगं करोति । संचिनोऽपि नव उपयांत तस्मिन्धके ॥ इसी जन्म में हिंसासे हानि होती हैं इसका विवेचन करते हैं अर्थ - जो मनुष्य दुसरोंको मारनेमें उद्युक्त होता है वह राक्षसके समान प्राणिको भय उत्पन्न करता है. उसके संबंधि मनुष्य भी उसके ऊपर विश्वास नहीं रखते हैं. आश्वार ९४५ Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नूलाराधना ९४६ वधबंधरोधचणहरणजादणाओं य वेरमिह चेत्र ॥ निव्विसयमभोजितं जीवे मारतंगो लमदि ॥ ७९६ ॥ वह अवरो यातनां देशघाटनम् ॥ हिंसो बरेमभोग्यत्वं लब्ध्वा गच्छति दुर्गतिम् ॥। ८२८ ।। विजयोदया - वर्ध मारणं, बंधे बंधनं, रोधे उत्कोटकादिकं रोधनं धनइरणं, रिक्थोद्दालन | यातनाच कदर्थनानि । बैरं विपयादादजं भोज्यतां रोषाद्राह्मणादिहननात् । भारतको दंता । लभदि लभते ॥ अर्थ---जो त्राह्मणादिकाँका वध करता है वह मारना, बांधना, रोकना, धन हरण करना, और अनेक प्रकारसे पीडा देना, वैर करना, देशसे निकालना, जातिसे च्युत करना, इत्यादिक दुःखाको प्राप्त होता हैं. कुडो परं चधित्ता सपि कालेन मारइज्जते ॥ हृदधादयाण णत्थि विसेसो मुत्तूण ते कालं ॥ ७९७ ॥ यतो रुष्टः परं हत्वा कालेन श्रियते स्वयम् ॥ हतोस्ततो नास्ति विशेषतं क्षणं विना ॥ ८२९ ।। विजयोदया - कुपरं बधित्ता क्रुद्धः सन्परं अन्यं वधित्वा । स्वयमपि गच्छता कालेन म्रियते । इतघातकयोर्नास्ति विशेषः । मुश्रूण तं कालं मुक्त्वा तं कालं । पूर्वमसी मृतः पश्चात्स्वयमिति ॥ अर्थ - - क्रुद्ध होकर जो मनुष्य दुसरीको मारता है वह भी कुछ काल बीतने के अनंतर मरणको प्राप्त होता है. इस वास्ते हत और घातक में कुछ फरक नहीं है. हां फक्त कालका ही अंतर रहता है. अप्पाउगरोगिदया विरुदाबिगलदा अवलदा य ॥ दुम्मेरगंधदाय से होइ परलोए ।। ७९८ ॥ अल्पायुर्दुर्बलो रोगी विरूपो चिकलेन्द्रियः ॥ दुष्टगंधरसस्पर्शो जायतेऽमुत्र हिंसकः ॥ ८३० ॥ श्रास ६४६ Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना ९४७ विजयोदयापाउगरोगिवयाविरुषा विगला अघलदाय अल्पजीवित रोगिता विरूपता, विकलेद्रियता दुता । दुम्मेधषण्णरसंगंधदा य दुर्मेधता, दुर्षणता, दूर सदुर्गंधता च से तस्य । होदि भवति । परलोम जन्मान्तरे । अर्थ - हिंसा करनेवाला मनुष्य परजन्ममें अल्पायुषी, रोगी, कुरूप, विकलेंद्रिय अर्थात् अंघ, बहिरा, गूंगा, दुर्बल, मूर्ख, अशुभवर्ण, रस गंधवाला होता है. मारेदि एमवि जो जीवं सो बहुसु जम्मकोडीसु ॥ अवसो मारिज्जतो मरदि विधाणेहि बहुएहिं ॥ ७९९ ॥ एकोऽपि हन्यते येन शरीरी भवकोटिषु || म्रियते मार्यमाणोऽङ्गी विधानैर्विविधरसौ ॥ ८३१ ॥ विजयोश्या-मारदि इति । समधि एकमपि । जो जीयं यो जीवं । सो सः । वसु जभ्यकोडी बहीपु जन्मकोदिए । अत्रसो मरदि मारिजतो भयशो मायमाणो त्रियं । विश्राहि बहुमेहिं बहुभिः प्रकारैर्मार्यमाणः || अर्थ- जो मनुष्य एक प्राणीको भी मारता है वह अनेक कोट्यवधि जन्मोंमें अवश अर्थात् परतंत्र हो कर नाना प्रकारसे मारा जाकर मरणको प्राप्त होता हैं. जावइयाई दुक्खाई होति लोयम्मि चदुर्गादिगदाई ॥ सव्वाणि ताणि हिंसाफलाणि जीवस्स जाणाहि ॥ ८०० ॥ दुर्ग यानि दुःखानि दुःसहानि शरीरिणाम् ।। हिंसाफलानि सर्वाणि कथ्यन्ते तानि सूरिभिः || ८३२ ॥ विजयोदया जावदियाचं यावन्ति । दुखाई दुःखानि । फुंति भवंति ! चंदुग्गरिगदाहं गतिचतुष्टय गतानि । सभ्वाणि ताणि हिंसाफलाणि सर्वाणि तानि हिंसाफलानि । जीवस्स जाणाहि जीवस्येति जानीहि ॥ समझना चाहिये. अर्थ — इस जगत में चार गतिओंमें जो जो दुःख जीवको प्राप्त होते हैं वे सर्व हिंसाके ही फल हैं ऐसा आश्वासः ६ ९४७ Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वा का हिसा नाम यस्या इमे दोश निरूप्यते इत्याचष्टे हिंसादो अविरमणं वहपरिणामो य होइ हिंसा हु ॥ तम्हा पमत्तजोगे पाणव्वक्रोवओ णिचं ॥ ८.१॥ हिंसातोऽविरतिहिंसा यदि घा वचिंतनम् ।। यताप्रमत्ततायोगस्ततःप्राणवियोजकः ॥ ८३३ ।। विजयोन्या-हिसावो अविरमण हिंसातोऽविरति सेति संबंघनीयं । प्राणान् प्राणिनो व्यपरोपयामीति संकल्पकरण हिंसा इत्यर्थः । बधपरिणामो पा इन्मीति एवं परिणामो षा हिंसा । तमा तस्मात् । पमत्तयोगो प्रमत्तता संबंधः । पाणथ्वधरोषो प्राणानएनयति । णि नित्यं । विकथा, कषाय इत्येषमादयः पंचदशपरिणामा आत्मनो भावः। प्राणानां परस्य च व्यभाव माणानां वियोजका इति हिंसेत्युच्यते । तथा चोक्तम् रत्तो वा दुठो था मूढो वा जं पयुंजदि पओगं ॥ हिंसा वि तत्थ जायदि तमा सो हिंसगो होइ ।। ८०२ ।। विजयोदया-- रक्तो विष्टो मूहो या सन्धयोग धारभते तस्मिन्हिसा जायते । न प्राणिनः प्राणानां वियोजनमात्रेण आत्मनि रागादीनामनुत्पादकः सोऽभिधीयते अहिंसक इति । यस्मादागायुत्पत्तिरेव हिंसा । न हि जीवांतरगत. दशतया अभ्यतमप्राणयियोगापेक्षा हिंसा, तदभावकता वा अहिंसा, किंतु भान्मेव हिंसा आत्मा य अहिंसा । प्रमादपरिणत आत्मैव हिंसा अप्रमत्त एव म अहिंसा । उक्तं च अन्ता चेव अहिंसा अत्ता हिंसत्ति णिच्छओ समये ॥ जो होदि अप्पमत्तो अहिंसगो हिंसगो इदरो ॥ ८०३ ॥ जीवपरिणामायत्तो पंधो जीवो मुतिमुपेतु नोप्याद्वा । तथा वाभाणि अझवसिदो य बद्धो सत्तो दु मरेज्ज णो मरिज्जेत्थ ।। एसो बंधसमासी जीवाणं णिच्छयणयस्स || ८०४॥ जीवास्तदीयानि शरीराणि शरीरग्रहणस्थानयोनिसंजितं (?) घराधगो वेति तत्संभवकालं तत्पीडापरिहारकारसकृत्तपःक्रियायां लोभसरकारायनपेक्ष्य प्रवृत्तो भवत्यहिसका । उक्तंच ९४८ Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mara . लाराधना आश्वासः णाणी कम्मस्स खयत्थमुडिदो णोद्विदो य हिंसाए । अददि असढो हि यत्थं अप्पमत्तो अवधगो सो ॥८.५।। शुभयरिंगभसमन्वितस्यायामनः स्थशरीरनिमित्तान्यप्राणिप्राणवियोगमात्रेण बंधः स्यान कस्यचिन्मुक्ति स्यात् । योगिनामपि वायुकायिकवधनिमिसयंधलङ्कापात् । अभाणि च जदि सुद्धस्स य बंधी होहिदि बाहिरगवत्थुजोगेण ।। णत्थि दु अहिंसगो णाम होदि वायादिवघहेदु ॥ ८०६ ॥ तस्मानिश्वयनयाश्रयेण पाण्यंतरप्राणवियोगापेक्षा हिंसा जिसके दोष आप कहते हैं उस हिंसाका क्या स्वरूप है । इस प्रश्नका उत्तर अर्थ-हिंसासे विरक्त न होना अथवा हिंसा करनेके परिणाम होना अर्थात मैं प्राणिके प्राणोंका घात करूंगा ऐसा विचार रखना हिंसा है. प्रमत्तयोग प्राणों का नाश करता है. विकथा, कषाय वगैरे पंधरा प्रकारके परिणामों को प्रमाद कहते हैं, इस प्रमादसे युक्त हुए प्राणीको प्रमत्त कहते हैं. ऐसे प्रमत्तका जो योग अर्थात् मनत्रचन और शरीरका व्यापार उसको प्रमत्तयोग कहते हैं. इस प्रमत्तयोगसे अपने भावप्राणोंका और दूसरों के द्रव्य प्राण, और भाव प्राणोंका नाश होता है, इसलिये अमच योगको हिंसा कहते हैं. अन्य आगमग्रंथमें हिंमाके विपघमें ऐसा लिखा है - रागी, द्रुपी अथवा मूह बनकर आत्मा जो कार्य करता है उसमें हिंसा होनी है. प्राणीक प्राणोंका वियोग तो हुआ परंतु रागादिक विकारोंसे आत्मा यदि उस समय मलिन नहीं हुआ है तो उससे हिंसा नहीं हुई है ऐसा समझना चाहिये. वह अहिंसक ही रहा ऐसा समझना चाहिये. अन्य जीवके प्राणोंका वियोग होनेसेही हिमा होती है ऐसा नहीं अथवा उनके प्राणोंका नाश न होनेस अहिंमा होती है ऐसा भी नहीं समझना चाहिये, परंतु आत्माही हिंसा है और यही आहिसा है ऐसा मानना चाहिये. अर्थात प्रमाद परिणतआत्मा ही स्वयं हिंसा है और अप्रमत्त आत्माही अहिंसा है. आगममें भी ऐसा कहा है आत्मा ही हिंसा है और आत्माही अहिंसा है ऐसा जिनागममें निश्चय किया है. अप्रमत्त अर्थात् प्रमाद रहित आत्मा को अहिंसक कहते हैं, और प्रमादसहित आत्माको हिंसक कहते हैं. जीवके परिणामोंके अधीन बंध Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ९५० होता है, जीव मरण करो अथवा न करे परिणामके वश हुआ आत्मा कर्मसे चद्ध होता है ऐसा निश्चय नयसे जीवके बंधका संक्षेप से स्वरूप कहा है. जीव, उसके शरीर, शरीरकी उत्पत्ति जिसमें होती है ऐसी योनि इनके स्वरूप जान कर और उसके उत्पत्तिका काल जानकर पीडाका परिहार करनेवाला और लाभ, सत्कारादिकी अपेक्षा न करके तप करनेवाला जीवनजारा में आगम में विवेचन है ज्ञानी पुरुष कर्मक्षय करनेके लिये उद्युक्त होते हैं वे हिंसा के लिये उद्युक्त नहीं होते हैं. उनके मनमें श भाव - माया नहीं रहतीं हैं और वे अप्रमत रहते हैं इसलिये वे अवधक-अहिंसक माने गये हैं, जिसके शुभ परिणाम हैं ऐसे आत्माकं शरीरसे यदि अन्य प्राणि के प्राणका वियोग हुआ और बियोग होने मात्र से यदि बंध होगा तो किसी को भी मोक्षकी प्राप्ति न होगी, क्योंकि योगिओंको भी वायुकायिक जीवों के बधके निमित्तसे कर्मबंध होता है ऐसा मानना पड़ेगा. इस विषय में शास्त्रमें ऐसा लिखा है यदि रागद्वेषरहित आत्माको भी बाह्यवस्तुके संबंधसे बंध होगा तो जगतमें कोई भी अहिंसक नहीं है ऐसा मानना पड़ेगा अर्थात् शुद्ध मुनिको भी वायुकायिक जीवके वधके लिये हेतु समझना होगा. इसलिये निश्चयनयके आश्रयसे दूसरे प्राणीके प्राणका वियोग होनेपर भी अहिंसा में बाधा आती नहीं है ऐसा समझना चाहिये. गतिक्रियावान्प्ररूपयति - पादोसिय अधिकरणिय कायिय परिदावणादिवादाए ॥ एदे पंचपओगा किरियाओ होंति हिंसाओ || ८०७ ॥ पिकी कायिकी प्राणघातिकी पारितापिकी ॥ क्रियाधिकरणी चेति पंच हिंसाप्रसाधिकाः || ८३४ ॥ विजयोदया- पावोसियाधिकरणिय कायिय परिदावणादिवादार पादोसिय शब्देनेदारवित्तहरणादिनिमित्तः कोपः प्रद्वेष इत्युच्यते । प्रद्वेष पच प्राद्वेषिको यथा विनय एव चैनयिकमिति । हिंसाया उपकरणमधिकरणमित्युच्यत । हिंसोपकरणावानक्रिया अधिकरणिकी क्रिया । दुष्टस्य सतः कायेन वा चलनक्रिया कायिकी । परिताषो दुःखं दुःखो भावासः ६ ९५० Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना ९५१ त्पत्तिनिमित्ता क्रिया पारिताविकी क्रिया। आयुरेिद्रियाणानां वियोगकारिणी प्राणातिपातिकी क्रिया । पदे पंच प. ओगा ते पंच प्रयोगाः । हिंसा किरियाओ हिंसासंबंधिन्यः क्रियाः ॥ हिंसासंबंधि क्रियाओंका वर्णन अर्थ —- द्वेषसे क्रिया करना, अर्थात् ६ ख धनादिक पदार्थका किसके द्वारा हरण किया जानेसे जो क्रोध उत्पन्न होता है उसको प्रद्वेष कहते हैं. हिंसाके उपकरणोंको ग्रहण करना, अधिकरण क्रिया कहते हैं. दुष्ट होकर शरीरके द्वारा चलन होना कायिकी क्रिया है. परिताप-दुःख-दुःखोत्पत्ति के लिये जो क्रिया की जाती है उसको पारितापिकी क्रिया कहते हैं, आयु, इंद्रिय, वल और प्राण इनका यात करनेवाली क्रियाको प्राणा तिपातिकी क्रिया कहते हैं. ऐसे पांच प्रकारके प्रयोगोंको हिंसा क्रिया कहते हैं. ---- तिहिं चदुहिं पंचहि था, कमेण हिंसा समप्पदि हु ताहिं ॥ धो विसया सरिसो जइ सरिमो काइयपदोसो || ७०८ ॥ हिंसा त्रिभिश्चतुर्भिच पंचभिः साधयन्ति ताः ॥ किया यंधः समानेन द्वेषिकी कायिकी क्रिये ॥। ८३५ ।। विजयोदया-तिहिं चदुहिं पंचा या श्रिभिमनोवाक्कायैः, चतुर्भिः क्रोधमानमायालो भैः, पंचभिः स्पर्शनादिभिरिन्द्रियैयाँ कमेण हिंसा समयदि खु कमेण हिंसा समानिमुपैति । ताभिर्मनसा मद्वेषो वचसा दिशेऽस्मीति वचनं यारद्वेषः, कायेन मुखवैवर्ण्यादिकरणं कायद्वेषः । मनसा हिंसोपकरणावानं, वाचा शस्त्रं उपगृामीति हस्तादिताडनं इति. अधिकरणमपि विविधं । मनसा उत्तिष्ठामीति चिंता, वचसा उत्तिष्ठामि इति दंतुं ताडयितुमिति उक्तिः । कायेन चलन कायिकी । मनसा दुःखमुत्पादयामीति चिंता दुःख भवतः करोमि इति उक्तिवाचा पारितिापैकी क्रिया, हस्तादिताडनेन दुःखोत्पादनं कायेन पारितापिकी क्रिया । प्राणान्वियोजयामीति चिंता मनसा प्राणातिपातः, इम्मीति वचः वाक्प्राणातिपातः । काव्यापारः कायिकप्राणातिपातः क्रोधनिमित्त कलिंचिदपीति, माननिमिता, मायानिभिसा, लोभनिमित्ता क्रोधादिना शस्त्रप्रणं क्रोधादिनिमित्तः कायपरिस्पंद कोधादिनिमिता परपरितापकरणं, प्राणातिपातो वा क्रोधादिना भवति । स्पर्शनादीन्द्रियनिमितो वा द्वेष, इंद्रियसुखार्थ वा फलपल्लय सूनाविछेदन निमित्त साधनोपादानं तत्सुस्वार्थमेव विषयप्रत्यासत्तिमभिप्रेत्यायतः कायपरिस्वेदः । परस्य वा गाढालिंगननखक्षतादिना संतापकरणं, मांसाच वा प्राणिप्राणवियोजनमिति । किमेताभिहिंसाभिः संपाद्यः कर्मबंधः समान उस न्यूनाधिकमावणे बंधस्येत्याशंकायामाचष्टे भावास ६ ९५१ Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RESS मूलाराधना आश्वास ९५२ बंधोऽपि कर्मबंधोऽपि सिया सरिसो स्यात्सहशः। कर्थ ? जवि सारसो यदि सखशः। कायिकपदोसो कायिकी क्रिया प्रखे. पश्च यदि समः स्यात्करणसामाग्यात्कार्यस्यापि बंधस्य सारथ, अभ्यथा न सहशता । तीमध्यमवरूपाः परिणामा तीय, मध्य, मंदं च पंधमापादयन्ति । इति भावः ॥ अर्थ-मन, वचन और शरीर ऐसे तीन योग क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कपाय और स्पर्शनादिक पांच इंद्रियां इनके द्वारा क्रमसे हिंसा समाप्त होती है, मनसे द्वेष करना, मैं द्वेषयुक्त हुआ हूं ऐसा बचनसे कहना यह वाग्देष है. शरीरके द्वारा द्वेप करना अर्थात मुख लाल होना, भोहे चक्र होना वगैरह कायद्रूप है. मनके द्वारा हिंगाके उपकरण लेना, मैं शस्त्रग्रहण करता हूं ऐसा बोलना, हाथ पांच इन्यादिकसे ठोकना. ऐसे अधिकरणके तीन भेद है, मनसे उठने का विचार करना, वचनसे मैं ठोकूँगा. नाडन करूंगा ऐसा बोलना, शरीरस हिलना फिरना, यह सब कायिकी क्रिया है. में दुःग्य उत्पन्न करूंगा एमा मनसे विचार करना, म तुमकी दाग्दिन करूंगा एसे वचनसे बोलना, हस्तादिकांपे ताडन करना यह कायकी क्रिपा है. प्राणोंसे में प्राणीको अलग करूंगा ऐसा विचार करना, मैं मारूमा ऐमा मृबसे बोलना बाक्माणातिपात है. शरीरसे मारनकी क्रिया करना कामिकमाणातिपान है, थे पांच क्रियाये कोई पुरूप क्रोधस, कोई मानममायासे और लोभसे करते हैं. क्रोधादिकर-शस्त्र ग्रहण करना क्रोधादि निमित्त कायपरिस्पंद कहा जाता है. क्रोधादिकमे दूसरों को संताप उत्पन्न करना, कोधादिकसे प्राणवध करना, स्पर्शनादि इंद्रियोंके निमित्तसे भी द्वेष उत्पन्न होता है. इंद्रियसु. खके लिये फल, कोमल कोंपल, पुष्प वगरहका छेदन करनका साधन ग्रहण करना, इंद्रियसुखके लिये ही विषयका सानिध्य पाकर शरीरकी बहुत हालचाल करना, दूसरोंको गाढ आलिंगन देना, नखोंसे क्षत करना, मांसादिकोंके लिये प्राणिऑको पाणसे वियुक्त करना ये सब हिंसा क्रियायें है. इस हिंसाक्रियासे उत्पन्न होनेवाला कर्मबंध समान होता है अथवा कम जादा होता है. इस शंका का उत्तर आचार्य ऐसा देते हैं कर्म बंध कथंचित् समान होता है. अर्थात् शरीरके द्वारा होनेवाली क्रिया और प्रद्वेष यदि समान होगा तो उससे कर्मसंघ भी समान होगा अन्यथा नहीं. कारणों में सामान्यता यदि होगी तो कार्य में अर्थात् कर्मबंध में Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आश्वासः ९५३ भी समानता होगी. और यदि कारणोंमें विशेषता होगी तो कार्यमें-बंध विशेषता होगी ही. तीव्र, मंद, और मध्यम रूप परिणाम उत्पन्न होनेपर तीव, मंद मध्यम प्रकारका बंध होगा ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये। अधिकरण नाति वीस पल तिण्णि मोदय पण्णरह पला तहेव चत्तारि | बारह पलिया पंच दु तसि पि समो हवे बंधो ॥ ८०९ ॥ जीवगदमजीवगदं समासदो होदि दुबिहमधिकरणं ॥ अत्तरसयभेदं पढमं विदियं चदुभेदं ॥ ८१० ॥ जीवाजीवविकल्पेन तत्राधिकरणं द्विधा ।। ज्ञातमष्टोत्तरं पूर्व द्वित्तीयं च चतुर्विधम् ।। ८३६ ॥ विजयोदया-जीवगदमजीयगर्द इति जीवगत इति जीवपर्याय उच्यते | नहि जीवद्रव्यत्षमात्र पेव हिसायां उपकरणं मवति । किंतु जीवस्य पर्यायः आस्रषस्य । हिंसादेर्जीवपरिणामो युक्तोऽभ्यंतरकरणं । अजीवगतः पर्याय: तुध्यार्थे हि अजीवद्रव्यत्वाख्यः सदा सविहितकार्यः स्यात्काबाचित्कतां कथमिव संपादयति 1 पर्यायस्तु स्वकारण सानिध्यात्कदाचिदेवेति । यदा स्वयं सन्निहितसहकारिकारणास्तदैव स्वकार्य कुर्षन्ति ।माम्यदेति युक्ता कादाचिकता कार्यस्येति भावः । समासदो दुविधमधिकरणं सेभपतो विधिधमधिकरणं । अत्तरसयभेदं अष्टोसरशतभेदं । पदम जीवगतमधिकरणं । विदियं द्वितीयं अजीघयतमधिकरण सम्भवं चतुर्षिकरूपं ॥ अधिकरण भेदोंका निरूपण करते हैं अर्थ--प्रादोषिक वगैरह हिंसाके पांच भेद ऊपर कहे हैं. प्रत्येकके क्रोध, मान, माया और लोभके आश्र | यसे पांच पांच भेद होते हैं. अर्थात् क्रोधादिकके आश्रयसे प्रारोषादिकके वीस भेद होते हैं. इन्द्रियोंकी अपेक्षाम इन प्रादोषिकादि पांच क्रियाओंके पंचवीस भेद होते हैं. और मन वचन, और शरीर की अपेक्षासे इन क्रियाओंके | पंधरा भेद होते हैं. इन सबोंका कर्मबंध समान होता है. अर्थ-अधिकरणके जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण ऐसे संक्षेपसे दो भेद हैं. जीवाधिकरण के एकसो STATE Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आयाम: आठ भेद हैं और अजीवराधिकरणके चार भेद है. जीवाधिकरण अर्थात केवल जीव द्रव्य आस्रवका आधार नहीं होता है. किंतु पर्यायसहित जीबद्रव्य आस्रवका आधार होता है. जीवके परिणाम हिंसादिकोंके लिय कारण होते है और ये परिणाम अभ्यंतर कारण है. अजीवका पर्यायभी आस्रवका आधार है. यदि द्रव्य ही आसबका आधार माना जावेगा तो द्रव्य तो हमेशा ही रहता है अतः उसका आस्रवरूप कार्य हमेशाही रहेगा, उसमें अनित्यता नहीं रहंगी. पर्याय अपने २ जाण मिलने १ महोते. ई. पपायों की सहकार कारणोंका साहाय्य मिलता है तब वे आसवात्मक कार्य करते हैं अन्यथा करते नहीं. इस लिये कार्यमें फादाचित्कता अर्थात अनित्यता आती है, - प्रथमस्य भेदानिरूपयति संरंभसमारंभारंभं जोगेहिं तह कसाएहिं ॥ कदकारिदाणुमोदेहिं तहा गुणिले पढमभेदा ॥ ८११ ॥ . विधिना योगकोपादिसंरंभादिकृतादयः॥ भिदा भवंति पूर्वस्य गुण्यमानाः परस्परम् ॥ ८३७ ।। विजयोदया-संरभसमारंभारंभयोगेहि तह कसापदि प्राणप्यारोपणादा प्रमादयतः प्रयत्नः संरमः । सा. भ्याया हिंमाफियस्याः साधनानां समाहारः समारंभः। संचिताहिंसाधपकरणस्य आद्यः प्रनाम आरंभः । योगशदन मनोवाकायच्यापाराच्यते ते संरंभसमारंभारंभयोगः । तथा कमारहिवाषायैः कदकारिदायधुलोद हारारिता: मोदितः । नहा गुणिदा तथा गुणिताः । पढमभेदा जीबाधिकरणभेदाः । प्रयत्नपूर्वकत्वाशेतमावतो यशरारम्यादी सरंभस्य वचनं । अनुपायसाध्यसिदिन भवति प्रयत्नवलोऽपित साधनसमा प्रयत्नादनतमिति समारंभो युक्तः । साध्य पुनः उपसाधनसंहती सत्यां प्रनमते धियामिति मारमा पश्चादुपन्धतः । स्वातंत्र्यविशिएन आरमना यत् क्रियत प्रकियते तत् स । परस्य प्रयोगमपेक्ष्य सिन्तिमुपयाति यत्तत्कारिन । स्वयं न करोति न च कारयति, किं स्वभ्युपैति यत्तदनुमननं चम्युपगमस्तत्र सरंभस्तावदुच्यते क्रोधनिमितं स्वतंत्रस्य हिंसाविषयः प्रयत्नावेश कोधकृतकायसरंभः । मानकसकायसरंभः, मायाकृतकायसरंमा, लोमकृतकापसरंभः । शोधकारितकायसंरंभा, मानकारितकायसरंभः मायाकारित कायसंरंभा, लोभकारितकायसंरंभः शोधानुमतकायसरंभः, मानानुमतकायसंरंमा, मायानुमतकायसरंभा, लोभानुमत. कायसंरंभः । इति द्वादशचा सरंभः । बोधकृतकापसमारंभः, मानकतकायसमारंभा, मायाहतकायसमारंभः, लोभरतकायसमारंमाकोधकारितकायसमारंभः, मानकारितकायसमारंभः । मायाकारितकायसमारंभा, लोभकारितकायसमारंभः ETaperHRESTH ATAASTAIT8683 Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्चाम: मुलारामना ९९५ ST क्रोधानुमतकस्यसमारंभः, मानानुमतकायसमारंभः, मायानुमतकायसमारंभः, लोभानुमतकायसमारंभः इति द्वादशधा. समारंभः । क्रोधकृतकायारंभा, मानकृतकायारंभा, मायाएतकायारंभा, लोमकतकायारंभः । क्रोधकारितकायारेम: मानकारितकायारंभः, मायाकारितकायारंभा, लोमकारितकायारंभः । क्रोधानुमतकायारंभः, मानानुमतकायारंभः, मायानुमतकायारंभः । लोभानुमतकाथारंभः । इति द्वादशधा आरंभः । एवं पते संविदिताः कायारंभाः पदप्रिंशत् ! एन सपिडिताः जीवाधिकरणास्रवमेदा अष्टोत्तरशतसंख्या भवन्ति । अब प्रथम जीवराधिकरणके भेद कहते हैं. अर्थ-हिंसा, चोरी बगैरह पापकार्योंमें प्रमादी होकर प्रयत्न करना सरंभ कहाता है. हिंसादिक कार्य करनेके लिये शखादिकोश मंटर करना समपारी बनाता है. और संचित किये शस्त्रादिकासे हिंसादिकार्य करना, शुरु करना उसको आरंभ बोलते है. योग शब्दसे मनायोग, वचन और काययोगका ग्रहण करना चाहिय. संरंभ, समारंभ आरंभ, मनोयोग, वचन योग, और काय योग. कृत, कारित और अनुमोदन और कषाय इनके द्वारा हिंसादिक पाप प्रवृत्तियोंको गुणित करनेपर प्रथम जीवाधिकरणके भेद होते हैं. चैतन्यवान् आत्मा प्रयत्नपूर्वक व्यापार करता है अतः प्रथम संरंम कहा है. उपायके बिना साध्य सिद्धि नहीं होती है इस लिये प्रयत्नके अनंतर उपायोंका-साधनौका संग्रह करना इसको समारंभ कहते हैं. अतः संरंभके अनंतर समारंभ कहा गया है. कार्यकी शुरुआत साधनोका संग्रह होनेके अनंतर होती है. इस लिये आरंभका उसके अनंतर उल्लेख किया है. स्वातंत्र्य विशिष्ट आत्मा जो कार्य करता है वह कृत है, दूसरेके प्रयोगकी अपेक्षासे जो सिद्ध होता है उसको कारित कहते हैं. जो कार्य स्वयं करता ही नहीं और दूसरोंसे कराता नहीं परंतु स्वयं करने वालेको सम्मति देता है उसको अनुमोदन कहते हैं. क्रोधसे स्वयं हिंसाकार्य में प्रयत्न करना उसको क्रोधकृतकाय संरंभ कहते हैं. मान, माया और लोभसे स्वयं हिंसा कार्यमें शरीरके द्वारा जो प्रयत्न करना उसके मानकृत कायसंरंभ: मायाकृत काय संरंभ, और लोभ. कृत काय संरभ ऐसे चार भेद हुए, क्रोध, मान, माया और लोभक वश होकर हिंसा कार्यमें दूसरोंको शरीरके द्वारा जो प्रवृत्त करना उमको क्रमसे क्रोधकारित कायसरंभ, मानकारित कायसंरभ, मायाकारित कायसरंभ और लोभकारितकाय संरंभ से चार भेद होते हैं. - Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वासः - - क्रोधादिक चारोंसे हिंसादि कार्यों में स्वयं प्रवृत्त हुए मनुष्योंको शरीरके द्वारा जो अनुमति देना उसके भी चार मंद है. यथा क्रोधानुमतकायसंरंभ, मानानुमतकायसंग्भ, मायानुमतकायसरंभ और लोभानुमतकायसंरंभ ऐसे चार भेद है. मत्र मिलकर सरंभके बारा भेद हुए. समारंभ भी बाग भेद होते है, उनका क्रम-क्रोधकृत कापसमारंभ, मानकृत काय समारंभ मायाकृत कायमारंभ और लाभ कृत काय समारंभ, क्रोध कारितकायसमारंभ, मानकारितकाय समारंभ मायाकारितकायसमासंभ, और लोभ कारित काय समारंभ, शोधानुमत काय समारंभ. मानानुमन काय समारंभ. मायानुमतकायसमारमं और लोभानुमत, कायसमारंभ. आरंभ के भी संरभ और समारंभ के समान यारा भेद होत हैं यथा-फांधकृतकायारंभ, मानकृत कायारंभ, मायाकूच कायारंभ और लाभकत कायारंभ. क्रोधकारित कायारंभ, भानकारितकारारंभ, मायाकारित कायारंभ, लोभाकरित कायारंभ मायानुमत कायारंभ और लोभानुममत कायारंभ मानानुमतकायारंभ, मायानुमत कायारंभ और लोभानुमत कायारंभ इस प्रकार आरंभके भी पारा भेद होते हैं इस प्रकार कायके आरंभतक छत्तीस भेद होते हैं. इसी प्रकार वचनके छत्तीस और मनके छत्तीस मिलकर एकसो आठ भेद जीवाधिकरणके होते हैं. अजीवाधिकरणस्य चतुरो भेदानाचष्टे-- संरंभो संकप्पो परिदाबकदो हवे समारंभो ॥ आरंभो उइबओ सव्वबयाणं विसुद्धाणं ।। ८१२ ॥ णिवखेवो णिव्वति तहा य संजोयणा णिसग्गो य ॥ कमसो चदु दुग टुग तिय भेदा होति हु विदीयस्स ॥ ८१३ ।। सरंभोऽकथि संकल्पः समारंभो विसापकः ॥ शुद्धबुद्धिभिरारंभः प्राणानां व्यपरोपकः ॥ ८३८ ९५१ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना निवर्तना सनिक्षेपा संयोगः सनिसर्गकः 11 द्विचतुर्वित्रिभेदाः स्युर्वितीयस्य यथाक्रमम् ॥ ८३९ ॥ विजयोदया--णिक्षो णिश्यन्ति सहा य संजोयणा णिसगो य निक्षेपचतुःप्रकारः । निर्वर्तना शिप्रकारा! संयोजना द्विभकारा । निसर्गनिविध इति संबध्यते ॥ अधे--हिंसादिक कार्योंका विचार करना संकल्प है. प्राणिओंको संताप उत्पन्न करना समारंभ है और आरभ सर्व निर्मल ब्रोंका नाश करनेवाला है... अर्थ-निक्षेप, निति, योजना और निसर्ग ऐसे अजीचाधिकरणके चार प्रकार हैं. निक्षेपके चार भेद, निर्वर्तनाके नार भेद, संयोगके दो भेद और निसर्गके तीन भेद है. निक्षेपस्य चतुरो विकल्पानाबले सहसाणाभोगिय दुप्पमज्जिद अपञ्चवेक स्वणिक्खेवो ॥ देहो व दुम्पउत्तो तहोवकरणं न णिव्वत्ति ॥ ८१४ ॥ निर्वर्तनापधिदेहो दुःप्रबुतोऽभिधीयते निक्षेपः सहसाइष्टदुष्टापत्यवेक्षणी ॥ ८४० ।। विजयोदया- सहसाणाभोगियदुप्पमज्जिद अध्याचवेषणिक्यो महानिक्षेपाधिकरणं, अनामोगनिधपाधि करणं, दुःप्रमृनिक्षेपाधिकरणं, अप्रत्यवेशितनिक्षपाधिकरणे चेति । निक्षिप्यते इति निक्षेपः | उपकरण पुस्तकादि। शरीरं, शरीरमलानि घा सहसा शीर्ष निक्षिप्यमाणानि भयात् । कुतश्वित्कार्यातरकरणप्रयुक्तेन वा त्वरितेन पदजीयनि कायबाधाधिकरणतां प्रतिपयंसे । असत्यापि त्वरायां जीवाःसन्ति न सतीति निरुपणामतरेण निक्षिप्यमाणं तत्रोपकरणाविक अनामोगिनिक्षपाधिकरणमुच्यते । दुधमुपकरणादि निक्षिप्य माण तुममृनिक्षाधिकरण स्थाप्यमानाधिकरण वा दुअमृधनिक्षपाधिकरण । ममार्शनोसरकाले जीवाःसन्ति न सस्तीति अप्रत्यवेक्षितं यनिक्षिप्यते तदनन्यवेक्षितं निक्षेपाधिकरणं । निर्वर्तनाभेदमाच-दहो य दुपपजुसो दुःप्रयुक्तं शरीरं हिंसोपकरणतया नियते इति निर्वर्तनाधिकरणं भवति । उपकरणानि च सनिछद्राणि यानि जीवबाधानिमित्तानि नियन्ते तान्यपि निर्वर्तनाधिकरण । यस्मिन्सीधीराविभाजने प्रविशनि नियन्ते । निक्षेपके चार भेदोका वर्णन-- RASTARATAARERARTHATARAMETANTSTAR038NSTAGetener Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ९५८ अर्थ -- सहसा निक्षेपाधिकरण अनाभोग निक्षेपाधिकरण, दुःप्रमृष्ट निक्षेपाधिकरण और अमत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण ऐसे निक्षेपाधिकरणके चार भेद हैं. सहसा निक्षेपाधिकरण -- पिंछी, कमंडलु वगैरह उपकरण, पुस्तकादिक शरीर और शरीरका मल इनको भयसे सहसा जलदी फेक देना, रखना किसी कार्यमें तत्पर होनेसे अथवा त्वरासे पिंछी कमंडल्वादिक पदार्थ जब जमीन पर रक्खे जाते हैं तब पदकाय जीवोंको बाधा देनेमें आधाररूप होते हैं. अर्थात् इन पदार्थोंसे जीव को बाधा पहुंचती है. स्वरा नहीं होनेपर भी जीव हैं या नहीं हैं इसका विचार न करके, देख भाल किये विनाही उपकरणादिक जमीनपर रखना, फेकना उसको अनाभोग निक्षेशाधिकरण कहते हैं. उपकरणादिक वस्तु बिना साफसूफ किये हीं जमीनपर रख देना अथवा जिसपर उपकरणादिक रखने जाते हैं उसको अर्थात् चौकी जमीन वगैरहको अच्छी तरह से साफ बफ न करना इनको दुष्प्रमुष्टनिक्षेपाधि करण कहते है. साफसूफ करने पर जीव हैं अथवा नहीं है यह देखें fear उपकरणादिक रखना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेपाधिकरण है. अब निर्वर्तनाधिकरण के भेद कहते हैं— शरीरको असावधानतापूर्वक प्रवृत्ति करना दुःप्रयुक्त कहा जाता है ऐसा दुःप्रयुक्त शरीर हिंसाका उपकरण बन जाता है इस वास्ते इसको देह निर्वर्तनाधिकरण कहते हैं. जीव बाधाको कारण ऐसे छिद्रसहित उपकरण वनाना इसको भी निर्वर्तनाधिकरण कहते हैं जैसे कांजी वगैरह रक्खे हुए पात्रमें जन्तु प्रवेश कर मर जाते हैं, संजोयणमुत्रकरणाणं च तहा पाणभोयणाणं च ॥ दुणिसिठ्ठा मणचिकाया भेदा णिसम्गस्स ॥ ८१५ ॥ आहारोपधिभेदेन द्विधा संयोजनं मतम् ॥ दुःस्पृष्टाः स्वान्तवाक्काया निसर्गस्त्रिविधो मतः ॥ ८४१ ॥ विजयोध्या -- संजोजणमुखकरणानं उपकरणानां पिच्छादीनां अन्योन्येन संयोजना शीतस्पर्शस्य पुस्तकस्य कमंडल्यादेव भातपादितेन पिच्छेन प्रमार्जनं इत्यादिकं सहा तथा । पाणमोजणाणं च पानभोजनयोश्व पानेन पानं, आश्वास: ६ ९५८ Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । लाराधना आश्वास DOORS भोजनं भोजनेन, भोजनं पाननेत्येवमादिक संयोजनं यस्य सम्पूछन संभवति सा हिंसाधिकरणत्यनाशेपाता न सा । तुणिसिश मणवचिकाया तुष्टुप्रवृत्ता मनोवाक्षाय मेवा निसशदनाच्यते ॥ अर्थ-पिछी, कमंडलु वगैरह उपकरणोंका संयोग करना जैस ठंडस्पर्शराले पुस्तकका धूपसे संतम कमंडलु और पिच्छीके साथ संयोग करना अथवा धूपसे तपी हुई पिन्छीसे कमंडलु पुस्तकको स्वच्छ करना वर्गरहको उपकरण संयोजन कहते हैं. जिनरा सम्मूच्छन जीवकी उत्पत्ति होगी ऐसे पयपदार्थ दुसरे पेयपदार्थ के साथ संयुक्त करना. अथवा भोज्य पदाथके साथ संयुक्त करना, भोज्य पदाथके साथ अथवा पेयपदार्थको संयुक्त करना, जिनसे जीवोंकी हिंसा होती ऐसा ही पेय और भोज्य पदार्थोंका संयोग निषिद्ध हैं इससे अन्य संयोग निषिद्ध नहीं है. मन वचन और शरोरके द्वारा दुष्ट प्रवृत्ति करना उसको निसर्ग कहते हैं. अहिसारक्षणोपायमानष्ट जं जीवणिकायबहेण विणा इंदियकयं सुहं त्थिा तम्हि सुहे णिस्मंगो लम्हा सो रक्खदि अहिंसा ॥ ८१६ ॥ नास्तीन्द्रियसुर्व किंचिज्जीवहिंसां विना यतः ।। निरपेक्षस्ततस्तस्मिन्नहिंसां पाति पावनीम् ।। ८२५ ।। विजयोदया--जं जीवणिकायषण यस्माज्जीरनिकायघात विना । इंबियमुदं इंद्रियसुख नास्ति । स्त्रीवस्त्रगंधमाल्यादिसेवा विचित्रा जीवनिकायपीडाकारिणी आरंभेण महतोपार्जनीमत्वात् । तस्मिनिद्रियसुखे । णिस्संगो यस्स पान्याहसां नेट्रियसुखार्थी । तस्मादिद्रियसुखादर मा कृथा इत्युपदिशति मूरिः। अहिंसाके रक्षणका उपाय आचार्य बताते हैं--- अर्थ-जीवोंका वध किये बिना इंद्रियसुम्बकी प्राप्ति होती ही नहीं. स्त्रीसंभोग करना, वसधारण करना, पुष्पमाला गले में धारण करना इनसे इंद्रियसुख उत्पन्न होना है परंतु खीगंभोगादि कायम जीवहिंसा अवश्य होती है. सी बगरह पदार्थोकी प्राप्ति करनेमें महान् आरंभ करना पड़ता है. इसबास्ते इंद्रिय सुखसे अहिंसाका रक्षण होना नहीं. हे क्षपक ! तू इस इंद्रियसुखमें स्नेह मत कर जो इंद्रिय सुख में इच्छा नहीं करता है वही अहसा का TH करता है। - 1.X.SAKAT - - Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारामा आश्वासः जीको शायदहुलो संतो जीवाण घायणं कुणइ ॥ सो जीववह परिहरदु सया जो णिज्जियकसाओ ॥ ८१७ ।। कषायकलुषो यस्माज्जीवानां कुरुते वधम् ।। निःकषायो यतिस्तस्मादहिंसारक्षणक्षमः ।। ८२६ ।। बिजयोदया-हिंसा कषायैः प्रव/ते, ततोऽहिसामिच्छता पते परिहर्तध्या इत्युत्तरसूत्रार्थम् । हिंसा कषायसे उत्पन्न होती है हिंसाको चाहने वालोंको अपायोंका त्याग करना चाहिये ऐसा आगेके गाथामें लिखते हैं. अर्थ—जीव जय कपायके वश होता है तब वह जीवोंका मारता है, परंतु जिसने कषाय जीते हैं वही जीववधका परिहार करता है. अर्थात् आहिंसाका वही पालन करता है. प्रमाद अर्थात् कषाय हिंसामें जीवको प्रवृत्त | करने हैं इसलिये आहंसात्रतको चाहनेवाले उसको दूरसे ही त्यागे.. आदाणे णिक्खेवे बोसरणे ठाणगमणसयणेसु ॥ सव्वत्थ अप्पमच्चो दयावरो होटु हु अहिंसो ॥ ८१८ ॥ काएसु णिरारंभे फासुगमोजिम्मि णाणहिदयम्मि । मणबयणकायगुत्तिम्मि होइ सयला अहिंसा हु ॥ ८१९ ॥ शयनासननिक्षेपग्रहचंक्रमणादिषु॥ सर्वत्राप्यममत्तस्थ जीवन्त्राणं व्रतं यतेः ॥ ८२७ ।। विवेकनियताचारप्रासुकाहारसेविनि ॥ मनोवाक्कायगुप्तेऽस्ति दयात्रतमन्त्रंडितम् ।। ८२८ ।। विजयोश्या--प्रमादो हिसायाः प्रवर्तकः स परित्यज्योऽहिसावतार्थिना रति गाथार्थः ।। विजयोक्या-परित्यक्तारभस्य प्रासुकमोजिनो मानभावनावहिते मनसि गुप्तिप्रयोपेते संपूर्णा भवत्यहिंसा इति सूत्रार्थः॥ Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना आई... इस उठा लेगा, रखना, छोडना, खहे होना, बैठना, शयन करना इत्यादि समस्त कार्य करते समय जिन्होंने मादका त्याग किया है ऐसे श्रेष्ठ दयाके धारक साधुजनोंस अहिंसा पूर्णतासे पाली जाती है. अर्थ-जिसने आरंभका त्याग किया है, जो प्रासुक आहार लेता है. ज्ञानाभ्यास करने में जिसने अपने IPL चित्तको स्थिर किया है, तीन गुमिओंका धारक ऐसे मुनिराजमें यह आईसा पूर्णताको प्राप्त होती है. आरंभे जीववहो अप्पासुगसेवणे य अगुमोदो ॥ आरंभादीसु मणो गारदीए विणा चरइ ।। ८२० ॥ आरंभबिधे जन्तुरमासुकनिषेत्रणे ।। प्रवर्नत नुमाये च शम्दम्जामरति विना ।। ८२९ ।। विजयोदया-पृशिव्यादिविषयो व्यापार आरंभः । तस्मिन्सति तदाश्रयप्राण्युपद्रव इति जीवनधो भवति । उद्गमादिदोषोपहृतस्य थाहारस्य भोजन जीयनिकायधधानुमोदो भवति । शानरतिमंतरेण आरंभे कषाये च मनःप्रवर्तते । ___ अर्थ--पृथिवी, जल, इत्यादिकके आश्रयसे आरम होता है. अर्थात् जमीन खोदना, पानी सींचना. वृक्ष तोहना इत्यादि क्रियाओंको आरंभ कहते हैं. ऐसा आरंभ करनेसे उनके आश्रयसे रहनेवाले जीवोंका घात होता है. उद्गमादिदोपमाहित आहार लेनर, जीवनिकायके के लिये सम्मति दी है ऐसा समझा जाता है, और ज्ञानाभ्यास में यदि प्रेम न हो तो मन आरंभ और कषायमें प्रवृत्त होता है. तम्हा इहपरलोए दुक्खाणि सदा अणिच्छमाणेण ॥ उवओगो कायव्वो जीवदयाए सदा मुणिणो ॥ ८२१ ।। मुनिनानिच्छता लोके दुःखानि धृतये सदा॥ उपयोगो विधातव्यो जीवत्राणवते परः ।। ८३० ।। विजयोत्याः---नमा साम् । आरंभो भवता त्याज्यः, मासुकभोजनं भोज्य, शाने अरवि अपाकार्या इति क्षपशिक्षा । आईसा जीवदया तस्याः फलमुपवर्शयति-तला इत्यमया उभषलोकगतदुःसपरिहारमिच्छता दयाभाषना का इति कथयति । Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवास मूलाराधना अर्थ-इस वास्ते हे क्षपक! यदि तुम इहपर लोकमें दुःखको नहीं चाहते हो तो हमेशा जीचदरा करने में अपने चिचको स्थिर करो. प्रामुक भोजन ग्रहण करने में यदि अरति उत्पन्न हुई हो तो उसको दूर करो. क्षपकस्य स्वल्पकालवयपि अहिंसावतं करोत्यात्मनो महान्तमुपकारमित्याख्यानं कथयति पाणी चि पाडिहरं पत्तो छूढो वि सुसुमारहदे ।। एगण एकदिघसक्कदेण हिंसावदगुणेण ॥ ८२२ ॥ अप्येकाहपकेन प्रकृष्टः पातः पाणः प्रातिहार्य मुरेभ्यः ।। गनव प्राणिरक्षात्रतेन क्षिमः ऋरोऽनेकनकौघमध्ये ॥ ३१ ।। परांसपर्या ददती निरत्यये निबंशयन्ती बुधयाचित पदे ॥ करीन्य हिंसा जननीव पालिता मुखानि सर्वाणि रजांसि धुवती । ३ ।। इति अहिंसा विजयोदयाः-पाणी धि चंडालोऽपि पाडिहेरं माविहार्य पत्तो प्राप्तः । सुसुमारद शिशुमाराकुले न्हदे निशिसोऽपि । एक्केण हिंसायदगुणेण पकेनैव अहिसानताल्येन गुणेन । अप्पकालकदेन अल्पकालरुसेन ॥ आईसा ।। स्वल्पकालतक पाला जाने पर भी यह आहंसावत प्राणीपर महान् उपकार करता है-- अर्थ-शिशुमार हृदमें फेके गये चांडालने अल्पकाल तकही अहिंसा प्रतका पालन किया था परंतु वह इस व्रतके माहात्म्यसे देवोंके द्वारा पूजा गया. इस प्रकार आहिंसा व्रतका वर्णन पूर्ण हुआ. द्वितीयत्रतनिरूपणाय उत्तरप्रबंधः परिहर असंतवयणं सब्ब पि चदुन्विधं पयत्तेण ॥ धत्तं पि संजमितो भासादोसेण लिप्पदि हु ॥ ८२३ ॥ मुंचासत्यं वचः साधो! चतुर्भेदमपि विधा॥ संयमं विदधामोऽपि भावादोषेण याध्यते ।। ८३३ ॥ Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना विजयोदया–परिहर परित्यज । असंतययणं असद् अशोभनं वचनं । यत्कर्मनिबंधनं यचस्तदशोभन । 12आश्वासः नथा चोक्तं-'असदभिधानमनृतं 'ननु वचनमात्मपरिणामो न भवति । द्रव्यांना हि तत्पुद्गलाख्यं, आत्मपरिणामो हि. त्यायो यो वेधस्य पंधस्थितर्वा निमित्तभूतो मिध्यात्वमसंयमः कमायो योग इत्येयंप्रकार | तस्मादसटूचनपरिहारोपदेशोऽनुपयोगी कस्मात्कृत इति अत्रोच्यते-असंयमो हि त्रिपकारः कृतः कारितोऽनुमतश्च । इपमस्मिन्नसंयमे प्रवर्तयामि अनेन वचनन प्रवृसं वानुजानामि । इत्यभिसंधिमतरण वास्य वचनस्याप्रवृत्तेस्तद्वन्ननकारणभूतोऽभिसंधिरामपरिणामो भवति कर्मनिमित्तमिति परिहार्यस्तस्य परिद्वारे तत्कार्य चयनमपि परिहतं भवति । न वसति कारण कार्यप्रतिपत्तिरित्यसदचनपरिहारोऽनेनन क्रमेणोपन्यस्त इति स्वयमसहचनैकदेशपरिहारेऽप्यपहृतमसद्वचनं भवति इत्याशंका परिहरति सब्यमिति च दुविधमिति तदीयमेवोपन्यासः। पयत्तेणेति । रात्र अप्रमत्ततामुपविशति । धत्तं पि संजमतो नितरामपि संयममाचरनपि । भासावोसेण भागावचनं तन्निमित्तत्वाद्वाग्योमाग्य यात्मपरिणामो भाषाशब्देनोच्यते। भाषादुपः भाषादोषः । वाग्योगेन तुष्टेन निमित्तेन जातं यत्कर्म तेम। लिप्पनि लिप्यत एव संयध्यत एष मात्मा । एतेन कर्मबंधनिमिः सतादोपकथनेन असद्धचनपरिहारे बायें करोति क्षपकस्य । दुसरे सत्यमहाव्रतका निरूपण करने के लिये आचार्य प्रारंभ करते हैं. अर्थ-असत्य भाषण का हे क्षपक! तू त्याग कर क्यों कि वह बंधन का कारण है. तत्वार्धाधिगममें • असदभिधानमनृतम्' इस सूत्र में यही अभिप्राय कहा है. शंका-बचन अर्थात् बोलना यह आत्मपरिणाम नहीं है. बह पुद्गल नामक द्रव्यका परिणमन है. जो आत्मपरिणाम बंध अथवा बंधस्थितिका निमित्त है वही त्याज्य है. मिथ्यात्व, असयम, कषाय, योग ये आत्मपरिणाम कर्मबंधके कारण होनस त्याज्य है. इस लिये असत्य वचनका परिहार करना, त्याग करना कुछ उपयोगी नहीं है. अतः उसका त्याग करनेका उपदेश क्यों किया? उत्तर-असंयमके कृत कारित और अनुमत ऐसे तीन प्रकार हैं. इस मनुष्यको इस असंयममें मैं प्रवृत्त करूंगा अथवा वचन के द्वारा स्वयं असंयममें प्रवृत्त हुए इस मनुष्यको मैं अनुमोदन देऊंगा. इस प्रकारके संकस्पके बिना वचनकी प्रवृत्ति होती नहीं. इसवास्ते ऐसे बचनका कारण आत्मपरिणाम है. यह आत्मपरिणाम कर्मबंध होने में कारण है अतः त्याज्य है. इसके त्यागसे इसका कार्यभूत बचन भी त्यागा जाता है. यदि कारण न हो तो कार्यका ज्ञान कैसे हो सकेगा. इस लिये असत्य वचनका त्याग इस क्रमसे आचार्यने दिखाया है. असत्य वचनके-आचार्यने चार भेद किये हैं. इन सब भेदोंका त्याग हे क्षएक! तूं प्रयत्नसे कर. क्योंकि या संयमका आचरण करता हुआ मी मुनि मापादोषसे उत्पन्न हुए कर्मसे लिप्त होता है. अर्थात् दुष्ट वचन योगसे जो । Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्चार कर्मास्त्रव आता है उससे वह लिप्त होता है, दुष्ट वचन कर्मबंधका निमित्त होता है इसलिये हे क्षपक तूं उसका त्याग कर. मतिमातं चातुर्विध्यमाचशे पढमं असंतवयणं संभूदत्थस्स होदि पडिसेहो ॥ स्थि णरस्स अकाले मच्चुत्ति जधेवमादीयं ॥ ८२४ ॥ प्रथमं तदुचोऽमा यत सतः निरोभना। अकाले मरणं नास्ति नराणामिति यद्वचः ।। ८३४ ॥ घिजयोदया-पढमं असंतषयर्ण चतुर्यु आद्यमसद्वचनं संभूदत्थस्स होदि पडिसेहो सतोऽर्थस्थ प्रतिषेधः । सतां सतो न वनर्म असद्धचमित्येकोऽर्थः । तस्योदाहरणमाइ-त्धि परस्स अकाल मच्चुत्ति पथमादिकं नास्त्यकाळ मनुष्य स्मृतिरिति पवमादिकं यचनं । आयुषः स्थितिकालः काल इत्युच्यते । तस्मान्कालदम्यः कालोऽकालः । तस्मिन्न काले । ननु च भोगभूमिनराणामनपवर्यमायुरतः अकाले मरणं नास्त्येष अतो युक्तमुच्यते जन्धि परम्स अकाले मकम्युक्ति । नरशम्दस्य सामान्य बाचिम्चात्सर्वनराविषयः अकालमरणाभाषोऽयुक्तः केपुचिकर्मभूमिजेषु तस्य सतो निषेधादिस्याभिमायः। अर्थ-चार असत्य वचनोंमें पहिला असत्य वचन इस प्रकार समझना चाहिये-अस्तित्वरूप पदार्थका निश्व करना यह प्रथम असत्य वचनका भेद है. जैसे मनुष्यको अकालमें मृत्यु नहीं है, आयुप्यके स्थिति कालको यहाँ काल कहना चाहिये. इस कालसे जो अन्य काल उसको अकाल कहते हैं. शंका-मनुष्यको अकालमें मृत्यु नहीं है यह कहना सत्यही है क्योंकि भोगभूमिके मनुष्योंका आयुष्य विप शखादिसे कम होता ही नहीं अतः उनको अकालमें मरण नहीं है यह कहना योग्यही है. उसर-नर शब्द सामान्यवाची होनेसे संपूर्ण मनुष्योंका वाचक है. इस लिये अकाल मरण नहीं है ऐसा कहना अयोग्य ही है. कितने कर्मभुमीके मनुष्यों में अकाल मृत्यु है उसका यहाँ निषेध किया है. अतः अकालमें मनुष्योंको मरण नहीं है यह कहना सत्पदार्थका-विद्यमान पदार्थका निषेध करनेवाला होनेसे अवश्य असत्यही है. १६४ PAARE Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास 6TREET - अहवा सयबुद्धीए पडिसेधो खेत्तकालभावहिं ॥ अविचारिय णस्थि इह घडोत्ति जह एवमादीयं ॥ ८२५ ॥ कोलीति गद्भुते द्रव्यादीनां चतुष्टयम् ॥ अपोलोच्य यत्मोक्तमभूतोद्भावक जिमैः ।। ८३६ ।। विजयोन्याः-अथवा विद्यादवुद्धार पडिसधे शकालभावहिं अविनारिय भावमिति शेषः । म्वद्भया क्षेत्र काठमायभायमविचार्यमाण अत्र नास्ति इदानी न विद्यते । शक्लकृष्णरुपो न वेत्यनिरूप्य घटस्य भाव इथं अनन प्रकारण परिध घडो जा एवमादीणं नास्ति घट इत्येवमादिकं । पतो घटस्य अविशेषेण असंतवचनं असाचनभित्युदाहग्गाम्तरमिदं । अर्थ--अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन अपेक्षाओंसे विचार न कर यहां घड़ा नहीं है. इत्यादि रूप वचन अपनी बुद्धीसे कह देना. अभिप्राय यह है कि किसी अपेक्षासे घटकी सत्ता होने पर भी घट सर्वथा नहीं है ऐसा कहना यह भी असत्य वचन ही है. जैस काला घर नहीं है परंतु घरमें यदि श्वेतघट है तो घट है ही नहीं एसा कहना कैसा योग्य होगा? क्षेत्रकी अपेक्षास एक क्षेत्रमें घट न होगा. तो दूसरे क्षेत्रमें उसका सद्भाव होगा. परंतु स्वक्षेच परक्षेत्रका विचार न करके एकदम घट है ही नहीं ऐसा कहना असत्य ही है. वह अपने स्वरूपमें रहता है परंतु स्वस्त्ररूपकी अपेक्षासे भी नही है ऐसा कहना. यह असत्य है. मृतकालकी अपेक्षासे कोई घट न होनेपर वर्तमान कालकी अपेक्षासे भी उसकी सत्ता नहीं मानना यह कालकी अपेक्षासे निषध करना है इत्यादिक पहिले असत्य के उदाहरण हैं. जं असभूदुष्भावणमेदं विदियं असंतवयणं तु ॥ अस्थि सुराणमकाले मच्चुत्ति जहेवमादीयं ॥ ८२६ ।। द्वितीयं तद्वचोऽसत्यमभूतोदावन मतम् ॥ अस्त्यकाले सुराणां च मृत्युरित्येवमादि यत् ।। ८३६ ।। Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भावाम: विजयोदया-जं असमृनुम्भावणमेदं विदियं असंतवणं तु । यदसदुब्रायन द्वितीयं असदचस्तस्योदाहरणमुत्तरं । अधि सुराणमकाले मच्चुत्ति जयमावीयं । सुराणामकाले मृन्युरस्तीत्येवमादिकं या असदेव अकालमरणमनेनोच्यते इत्यसद्वचनम् ॥ अर्थ-जो नहीं है उसको है कहना यह असत्य वचनका दूसरा भेद है जैसे 'देवोंको अकाल मृत्यु नहीं हैं ऐसा आगम कहता है परंतु देवों को अकाल मृत्यु है ऐसा कहना. इत्यादि रूप असत्यका दूसरा प्रकार है. अहवा जं उम्भावेदि असंतं खेत्तकालभावहिं ॥ अविधारिय अस्थि इह पड़ोति जह श्वमादीयं ॥ ८२७ ।। विजयोदया-अथवाजं उम्भाषेदि यद्वचनं उद्भावयति । असंतं घटं । कथमसतं? खेसकालभावहिं क्षेत्रांतर संयंधित्वेन संत रहस्य घट कालांतरसंपंधेन असीते अनामते या असंतं भावानरसंबंधिवेन रुष्णावादिना संत । अविधारिय अधिन्चार्य इत्थं सत् इत्थमसत् इनि अस्ति घट इत्येवमदिकंसर्यवास्नियमसापयतीनि असहयने ।। अर्थ--अथवा द्रव्य क्षेत्रकालांतरसे घट न होने पर भी बिना विचारक सर्व द्रव्यक्षेत्रकालापक्षया घट है ऐसा कहना यह दूसरा उदाहरण है. जैस एक कोटरीमें घट है परंतु दूसरे कोठरीमें न होनपर भी दूसरे कोठरी में है ऐसा कहना. सफेत घट है परंतु कालाभी है ऐसा कहना. पर रूपसे घट नही रहता है परंतु उसके घरूपम भी वह है. ऐसा कहना, वर्तमानकालमेंही घट की सत्ता होनपरभी भूतकालमें भी था ऐसा कहना यह सब अमन्य के दूसरे मकारके उदाहरण है। तदियं असंतवयणं संतं जे कुणदि अण्णजादीगं ॥ अविचारित्ता गोणं अरसोत्ति जहेवमादीयं ॥ ८२८ ।। तृतीयं तद्वचाऽसत्यं यदनालोच्य भाषते ।। पदार्थमन्यजासीयं गौ जीत्येवमादिकम् ।। ८३७ ॥ विजयोदया-तदिय असंतवयणं तृतीयमसवचनं । संत जे कुणदि अण्णजादीगं सत्करोति अन्यजातीयं । अषिचारित्ता गोणं अस्सोत्ति जडेयमावीमा । अश्वमित्येवमादिकं । सतो बलीपईत्वात् अश्वत्वं असत्तस्य पचनं। 15 Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ–एक जातीके सत्पदार्थ को आग जागीका सुपरहना असाधका तीसरा मंद है. जैसे बैल है इसका विचार न कर यहां घोडा है ऐसा कहना. यह कहना विपरीत सत् पदार्थका प्रतिपादन करनेसे असत्य है. आश्वास चतुर्थमसतचनमाचले जंबा गरहिवयणं जे वा सावजसंजदं बयणं ॥ जंवा अप्पियवयणं, असत्तवयणं चउत्थं च ॥ ८२९ ।। सावचं गढितं वाक्यमप्रियं च मनीषिभिः ॥ त्रिप्रकारमिति प्रोक्तं तुरीयकमसूनृतम् ।। ८३८ ।। विजयोदया-जेवा गरहिवयर्ण यद्वा गर्दित बचनं । जे चा सावजसंजुदं वषणं । यद्वा साचद्यसंयुतं वचनं । जेश अप्पियययण यहा अप्रिययननं । तत् चउत्थं चतुर्थ वषर्ण असंतषयणं असवचन ॥ असत्यका चौथा प्रकार कहने है अर्थ-जो निधवचन बोलना, जो पापयुक्त बचन पोलना और जो अप्रियवचन बोलना बह सब चौथे प्रकारका असत्य वचन है. तेषु वचनेषु गतिवचनमाच ककरसवयणं णिगुरवयणं पेसुण्णहासबयणं च ॥ जं किंचि विप्पलावं गरहिवयर्ण समारपेण ॥ ८५० ॥ कर्कर्श निष्ठुर हास्यं पम्पं पिशुनं वचः ॥ ईयाएरमसंबंध गाहन सकलं मतम् । ८३० ॥ विस्योदया-सवय कर्कशवचनं नाम मगरमिति फेचिद्वदन्त्यन्ये असत्यमिति । णिहरवयनिक रखचनं । पंसुण्णहासवयर्ण व परवोषसूचनापरं वचनं । पैशूपवचनं द्वासावई वचनं । ज किंचि बिपलायं यन्किविमल Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलापता १६८ Noorsa अर्थ-कर्केशवचन- गर्वयुक्त भाषण को कर्कशवचन कहना चाहिये ऐसा कोई आचार्य कहते हैं. कोई शक वचनको कर्कश्वचन कहते हैं. निष्ठुर भाषण दूसरोंके दोष दिलानेवाला वचन उपहासका वचन जो कुछ भी घट करना अभी बाचा बाक चाहेजसा बोलना गर्हित वचन ही है. वचनं निरूपयति जतो पाणबधादी, दोसा जायेति सावज्जवयणं च ॥ अविचारिता येणं घेणत्ति जहेवमादीयं ॥ ८१ ॥ प्राणिघातादयो दोषाः प्रवर्तते यतोऽखिलाः ॥ सावतो ज्ञेयं पविघारंभपर्णकम् ॥ ८४ ॥ बिजयोश्या-जत्तो पाणवधात्री दोला जयंतीति यस्माद्वचनातोः प्राणयधात्यो दोषा जायते । साववणं तं साधं वचनं तत् पृथिवीं खन । सहिनी पीतोदकांपना प्रत्य प्रसूनानि उचिनु इत्येवमादिकानि अविवा रित्ता अविचार्य किमेवं वक्तुं युक्तं ममेति । अथवा दोयोऽनेन वचसा नयति अपरीदय चोर चोरोयमिति कथनं । अर्थ - जिस भाषण से प्राणिहिंसा वगैरह दोष उत्पन्न होते हैं ऐसा भाषण बोलना उसकी सावद्य वचन कहते जैसे इस जमीनको खोदो, इस भैसने पानी पिया है अब इसको पानी से धो डालो- पुष्प तोडो. इत्यादिक वचनों को सावध भाषण कहते हैं. मेरा बोलना योग्य है या नहीं इसका विचार न करके अथवा ऐसे भाषण सदोष हैं या निर्दोष हैं कुछ विचार न करके परीक्षाके विनाही कह देना यह सब सावध वचन है. जैसे चोरको यह चोर है ऐसा कहना परु कडुयं वयणं वेरं कलहं व जं भयं कुणइ ॥ उत्तासणंच हीणमप्पियत्रणं समासेण || ८३२ ।। हासभय लोहको हप्पोसादीहिं तु मे पयतेण ॥ एवं असंतवणं परिहरिदव्वं विसेसेण ॥ ८१३ || आश्वा ६ ९६८ Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः अवज्ञाकारमं वैरकलहत्रासवर्द्धकम् ।। अअव्यं कदकं जेयमप्रियं वचनं बधैः ।। ८५१ ॥ रागद्वेषमदमोधलोभमोहादिसंभवं ।। चितर्थ वचनं हेयं संयतेन विशेषतः || १२॥ विजयोदया-हासमय-हास्थन, मयन, लोभेन. धिन. प्रोपंगत्येवमादिना कारणेन । पवं असनवयणं एतदमोचन स्वया पत्तण प्रयन्नेन । परिहग्विध्वं परिहर्तव्यं । विस विशेषण || अर्थ-मर्मच्छेद करनेवाले भाषणको परुष कहते हैं जैसे तूं अनेक दोषोंसे दुष्ट हैं. मनको उद्विग्न करने वाली भाषाको कटु भाषा कहते है जैसे तू निंध जातीमें पैदा हुआ है, ने धर्म रहित पाणी है. इत्यादि. वैर उत्पन्न करनेवाला भाषण जैसे गधा है, तरको कुछ भी ज्ञान नहीं हं. तर समान मूर्ख इस संसारमें दसरा कोई नहीं है. इत्यादि. जिससे कलह हो जाता है वह कलहकारि वचन कहते हैं. मनको त्रास पोहोचंगा क्लेश होगा वह वचन उपासनकर है. दसरोंकी अवज्ञा करनेवाले शब्द बोलना वह हीलन वचन है. जैसे तुमको धिक्कार हो. इस तरह अप्रिय बचनका संक्षेपसे वर्णन किया. हास्य, भीति, लोभ, क्रोध, द्वेष इत्यादि कारणांस जो असत्य भाषण किया जाता है हे क्षपक ! उसका तूं प्रयत्नसे विशेष त्याग कर. एवमसद्रियावं परिहार्यमुपविष्य सस्पषचनलक्षणभुक्तासचनलक्षणतया वर्शयति तविबरीदं सब्बं कज्जे काले मिदं सक्सिए य ॥ भत्तादिकहारहियं भणाहि त चेव सुयणाहि ।। ८३४ ॥ विपरीत ततः सत्यं काले कार्य मितं हितम्। निर्भक्तादिकथं हि तदेव वचन शृणु ॥ ८४३ ॥ चिजयोदया-तस्बियरी असाचन विपरीतं । सन्म सन्य भणाहि भण । कजे कार्य शानाचारित्राति शिक्षालक्षयो । असंगमपरिहारे पास्य वा सन्मार्गस्थापनारूपे काले । आवश्यकादीन कालादन्यः काल इत्यकालवादमोच्यते । अथवा कालशब्देन प्रस्ताय उच्यते । मिदं परिमितं वचनं । सचिसण य भवतो ज्ञानस्य विषये प्रवृत्तं वचनं । भणाहि भण । मनादिकथार हिदं भणाहि त नेध य सुपाहि भक्तचोरस्त्रीराजमथाविरहितं । तं चेव य तथाभूतमेव १६६ 7 . Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना श्रावास वचनं सुणादि थुणु । अयमयोग्यं न प्रवीति एतावता सत्यवतं पालितमिति आशा न कार्या । परेणोच्यमानमसवचनं शृपवतो मनोऽशुभतया च कर्मबंधो महानिति भावः । असत्य भाषणका त्याग करने के लिये ऊपर आचार्य ने उपदेशकिया अब मत्यवचनका स्वरूप कहते है.. 4. अलल्य भान तिने प्रकार पर कह है उनके विरुद्ध जो जो भाषण है वह २ ह पकतुम बोलो. ज्ञान, चारित्रादिकों का उपदेश देनेवाला, असंयमसे पराथन करनेवाला, अन्य साधुजनोंको समय स्थिर करनेत्राला एमा भाषण हे क्षपका तुम चोलो. सामागिक, प्रतिक्रमण, वंदना स्तुति वगैरह आवश्यकों के कालके सिवाय अन्य समयको यहां काल समझना चाहिये अर्थात योग्य काल प्रसंगको जानकर प्रगट होनेवाला ऐस भाषणको यहां सत्यभाषण कहते हैं. ऐसा सत्य माषण हे क्षपक ! तू मितही वोल. वह भाषण भक्तकथा, राजकथा चोर कथा वगैरह विकथाओंसे वर्जित होना चाहिये. ऐसा भाषण तू बोल और अन्यका भी विकथावर्जित भाषण सुन. यह वक्ता अयोग्य बोलता नहीं है एतावता इसने सत्यग्रत पाला है ऐसा तूं मत समझ. वूसरेका असद्भाषण सुननेपरभी मन में अशुभ संकल्प उत्पन होकर महानकर्मबंध होता है ऐसा जानकर दूसरोंका असत्य भाषण हे वषक! तू मत सुन. सत्यच्चनगुणं हृदरनिर्वाण ख्यापयति गायोत्तरा स्पष्टर जलचंदणससिमुत्ताचदमणी तह णरस्स णिव्वाणं ॥ ण करंति कुणइजह अत्यन्जुयं हिदमधुरमिययणं ।। ८३५॥ नरस्य चंदन चंद्रचंद्रकातमणिर्जलम् ।। न तथा कुरुते सौख्यं वचनं मध यथा ॥ ८५५ . सत्यवचन में हृदयको मुख देनेका गुण है इसका विवचन अर्थ-पानी, चंदन, चंद्र, मोती, और चंद्रकांतमणि य पदार्थ लोगोंको उतना आनंद उत्पन्न करनेम असमर्थ हैं जितना आनंद अर्थयुक्त हितकर और मधुर भाषण उत्पन्न करता है. अर्थात् पानी, चंदन और चंद्रादिकास भी सत्यवचन जीवोंको अधिक आनंद देता है. Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना ९७१ न सत्यमित्येतापतो पचनं वक्तव्यं, सत्यमेष सदेव वक्तव्यमेव नेति प्रवीति अण्णस्स अप्पणो वा विधम्मिए बिद्दवंतए कज्जे ॥ जं अ पुच्छिज्जतो अण्णेहि य पुच्छिओ जंप ॥ ८३६ ॥ स्वकीये परकीय बा धर्मकृत्ये विनश्यति ।! स्वमपृष्टो वदान्यन्न पृष्ट एवं सदा वद ॥ ८४५ ॥ विजयोदया-अस्य अपणो वापि अन्यस्य आत्मनो वा धार्मिककार्य विनश्यति सति अप्ठोऽपि वृष्टि। अनतिपातिनि कार्ये पृष्ट एच बद नापृष्ठः ॥ जो सत्य है वह बोलना चाहिए ऐसा नहीं परंतु सत्य होकर जो प्राणिओंका कल्याण करता है वह भाषण बोलना चाहिए यही अभिप्राय आगेकी गाथामें कहा है अर्थ-दूसरोंका अथवा अपना धार्मिक कार्य नष्ट होने का प्रसंग आनेपर बिना पूछे हि बोलना चाहिये. यदि कार्य विनाशका प्रसंग न हो तो जब कोई पूछगा तब बोला, नहीं पछेगा तो बोलना नहीं. समनं वदंति रिसओ रिमीहिं विहिदाउ सव्व विज्जाओ। मिच्छस्स वि सिझंति य विजाओ मच्चवादिस्स || ८३७॥ गदांत ऋषयः सत्यं यद्विया निखिलाः कृताः ॥ तन्म्ले स्यापि सिध्यन्ति सर्वदा सत्यवादिनः ।। ८४६ ॥ विजयोदया-सच्चे घवंति रिसओ सत्यं वदंति यतयः । रिसीहिं विहिदामो यतिभिर्विहिताः सर्वविद्याः । मिच्छरसचि म्लेच्छस्यपि सिमंति सिध्यन्ति । विग्जाओ विद्याः । सव्वयादिस्स सत्यवादिनः ॥ अर्थ-ऋषिगण सत्यभाषण करते हैं. ऋषियोंने सर्व विद्यायें उत्पन्न की है. जो सत्यवादी है ऐसे म्लेच्छ को भी विद्यायें सिद्ध होती हैं. Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ण डहदि अग्गी सच्चेण परं जलं च तं ण बुडइ ॥ सच्चबलियं खु पुरिस ण वदि तिक्खा गिरिणदी बि ।। ८५८॥ दयते न हुताशेन न निमज्जति वारिणि ॥ धन्यः सत्ययलोपेतो नरो नद्यापि नोयते ।। ८४७ ॥ विजयोग्या-ण उहदि अभी गरं न दहत्यग्निः सत्येन नरं । जलंचता युधि जलं च तन निमज्जयति।। सवलियं सत्यमेव बलं तद्यस्यास्ति तं न यहति नाकर्षयति । तिक्सा गिरिनदीयि तीमधेगा गिरिनपि ॥ अर्थ-सत्यवादी को अग्नि जलाती नहीं. पानी उसको बोने में असमर्थ होता है. सत्यभाषण ही जि. सका सामर्थ्य है ऐसे मनुष्य को बडे वेगसे पर्वतपरसे कूदनेवाली नदी भी नहीं यहा सकती है. सच्चेण देवदावो णवति पुरिसरस ठंति य वसम्मि ।। सच्चेण य गहगहिदं मोएड करेंति रक्खं च ॥ ८३९ ॥ वझ्या भवंति सत्येन देवताः प्रणमन्ति च ।। विमोचयन्ति सत्येन ग्रहतः पांति च स्फुटम् ॥ ८५८ ॥ विजयोदया-सयेगा देवदाओणमति सत्येन देवता नमभ्यंनि । पुरिसस्स टसि य वसम्मि पुरपम्य च वशे तिति । गह गहिद मण मोएर पिशाच ग्रहणं मोचयनि सत्येग । कति सशंण रक्यं च कुर्वन्ति सत्येन ग्रहादिरक्षा। अर्थ सत्यके प्रभावसे देवतायें सत्यवादी को बंदन करती हैं. और उसके वश होती होती है. सत्यके प्रभावसे पिशाच भाग जाता है. और सत्यके प्रभावसे देवताये रक्षण करती है. अर्थात सत्यवादीपर आये हुये संकट दूर करती है, ९८२ माया व होइ विस्सस्सणिज्ज पुज्जो गुरुत्व लोगरस ॥ पुरिसो हु सच्चत्रादी होदि हु सणियल्लओव्व पिओ ।। ८४ ।। Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ me आश्वास मूलाराधना नरो मातेव विश्वास्यः पूज्यो गुरुरिवाखिले ।। सत्यवादी प्रियो नित्य स्वबंधुरिष जायते ।। ८१९ ॥ विजयोदया-मादाय होदि यिस्सस्सणिज्जमातेव भवति विश्वसनीयः । पुज्जो गुरुम्य लोगरस पूज्यो गुरुचल्लोकस्य । कः समवापी पुरिसो सत्यवादा पुरुषः । पिनो को साणपोय प्रयो वा परिव ॥ अर्थ-सत्यवादी के ऊपर लोक माताके समान विमास रखते हैं. सत्यवादी लोक गुरूके समान पूज्य समझे जाते हैं. सत्यवादी मनुष्य स्वजनके समान लोकोंको प्रिय होता है. सच्चं अवगददोसं वुत्तूण जणस्त मज्झयारम्मि ।। पीदि पावदि परमं जसं च जगबिस्सुदं लहइ ।। ८४१ ॥ भाषमाणा नरः सत्यं लभते प्रीलिमुत्तमाम् ॥ घुधानंदकरी कीर्ति शशांककरसुंदराम् ।। ८५० ।। विजयोदया-सच्च बुनूण सत्यवचनमुक्त्वा ! कोहग्भूतं? अगददोस दोषरहितं । व? जणस्त महायारम्मि अरमध्य । पीदिपावनि परमां प्रीति हाम्रोनि परां । जसं लभवि यशश्च लमते । जविस्मुर्द जगति पिश्रुतं । __अर्थ-दोपरहित सत्यभापण लोक समुदायमें बोलनेमे मनुष्य उत्कृष्ट आदरको प्राप्त होना है. और गनम उसका यश प्रषिद्ध होता है, ९७३ सच्चम्मि तबो सच्चम्मि संजमो तह वसे सया वि गुणा ।। सञ्चं णिबंधणं हि य गुणाणमुदधीव मच्छाणं ॥ ८४२ ॥ गुणानामालयः सत्यं मत्स्यानामिव नीरधिः॥ प्रमाणमस्ति सस्येन वर्जितोऽपि गुणः परैः ।। ८५१ ॥ घिजयोपया सच्चम्मि तपो सफचम्मि संजमी सत्याधारौ तपासंयमो, शेषाच गुणाःसच्चणिग्रंधणं गुणाणं सन्यं गुणानां निबंधनं । सच्चं मन्द्राण उदधीव सत्यं मत्स्यानामुधिरिष ।। Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना अर्थ-सत्यके आश्रयसे तप और संयमकी वृद्धि होती है. इस सत्यका आधार पाकर ही सर्वगुण अपनी वृद्धि कर सकते हैं. समुद्र जैसे मच्छोंका आश्रयस्थान है वैसे संपूर्ण गुणोंको सत्य आश्रय स्थान है, आश्वासः सच्चेण जगे होदि पमाणं अपणो गुणो जदि वि से णत्थि ।। अदिसंजदो य मोसे ण होदि पुरिसेसु तणलहुओ ।। ८४३ ।। संपद्यते गुणाः सत्ये संयमो नियमापः।। संयतोऽपि मृषावादी जायते तृणतो लघुः ।। ८५१ ॥ विलयोदया-सच्चेण जगे होदि सत्येन जगति भयति । पमाण प्रमाणं । यद्य यन्यो गुणो नास्ति । अतीव संयतोऽपि सतां मध्ये तृणवल्लघुर्भवति मृपावचनननि गावार्थः ॥ अर्थ-पुरुषमें सत्यक सिवाय अन्य गुण न होनेपर भी सन्यगुणस ही यह प्रमाण माना जाता है. महान संयमी मुनि भी सत्पुरुष के समदायमें असरघ वचन बोलनेसे उपपके ममान तुच्छ होजाता है. होदु सिहंडी व जडी मुंडो वा णग्गओ व चीवरधरी ।। जदि भणदि अलियवयणं विलंबणा तस्स सा सव्वा ।। ८४४॥ मुंडो जटी शिखी नमश्चीघरी जायतां नरः ।। विशंपनाखिला सास्य वितथं यदि भाषते ।। ८५३ ॥ विजयोदया-होदु सिइंडी भवतु नाम शिखायान् । जडी मुंडो या। नग्नश्चीवरघरो या पलीकं चदनि तस्य सा सर्चा विसपना || अर्थ-मनुष्य शिखा रखनेवाला हो, जटा धारण करनेवाला. हो, मुंडन करनेवाला नम अथवाचीवरधारी, हो. यदि वह असत्य बोलता है तो यह सर्व उसकी विटेवनाही समझनी चाहिये. जह परमण्णस्स विसं विणासयं जह व जोव्वणस्स जरा ॥ तह जाण अहिंसादी गुणाण य विणासयमसच्चं ॥ ८४५ ॥ Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 काराना ९७५ कालकूटं यथान्नस्य यौवनस्य यथा जरा ॥ गुणानां विद्धि सर्वेषां नाशकं वितथं तथा ।। ८५४ ॥ विजयोदया -जह परमण्णस्स यथा परमान्नस्य विनाशकं वि यथा या जरा योधनस्य, तथा जानीहि अहिंसादिगुणानां विनाशकं असलं ॥ अर्थ---जैसे उत्कृष्ट अमृतोपम अनको विष नष्ट कर देता है. वृद्धावस्था तारुण्यको नष्ट करती है वैसे यह असत्य भाषण अहिंसादि गुणोंको नष्ट करती है. मादाए विय बेसो पुरिसो अलिएण होइ इक्केण ॥ किं पुण अवसेसाणं ण होइ अलिएण सतुव्व ॥ ८४६ ॥ स्वमातुरप्य विश्वास्यो मृषाभाषणलालसः ॥ शेषाणां किमु लोकानां न शत्रुरिव जायते ॥ ८५५ ।। शत्रुरिय || बिजया - मादार वि य मातुरष्यविश्वास्यो भवत्यलीकेन एकेन पुरुषः । शेषाणां पुनर्न किं भवेदीकेन अर्थ--ठ बोलनेवाले मनुष्यपर माता भी विश्वास नहीं रखती है. फिर इस एक असत्य भाषण दीपसे अन्य लोक उसको शत्रुसमान क्यों नहीं गिनेंग अलियं स किं पि भणिदं घादं कुणदि बहुगाण सव्वाण | अदिसंकिदो ययमवि होदि अलिय भासणो पुरिसो || ८४७ ॥ एकेनासत्यवाक्येन सत्यं ह्नपि हन्यते ॥ सर्वत्र जायते नित्यं शंकितोऽसत्यभाषकः ॥ ८५६ ॥ बिजयोरया - अलियं स किंपि भणियं सदप्युक्त अलीकं सत्यानि बहूनि नाशयति । अलीकवादी पुरुषः स्वयमपि शंकितो भवति नितरां ॥ गा: ६ ९७५ Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलारापना कर्णावतभी दोलायमपर भाषण अनेक चार वाले हुए सत्यभाषणोंका संहार करता है. असत्यवादी पुरुष स्वयं भी मनमें डरता है. शंकायुक्त रहता है. मेरा असत्यभाषण यदि प्रकट होगा तो मेरा नाश होगा ऐसी भीति उसके मनमें उत्पन्न होती है, अप्पच्चओ अकित्ती भंभारदिकलहवेरभयसागा ॥ बधबंधभेदणाणा सब्वे मोसम्मि सण्णिहिदा ।। ८४८॥ अप्रत्ययो भयं वैरमकीर्तिमरणं कलिः ॥ विषादो मत्सरः शोकः सर्वेऽसत्यस्य बांधवाः ।। ८५७ ।। आगासरसनाछेदसर्वस्वहरणादयः ।। इहासत्येन लभ्यते परत्र नरकावनिः ॥ ८५८ ।। विजयोद-भपओ अप्रत्ययः । अकीर्तिः, सक्लेशः, अरतिः, फलहो, वैरं, भयं, शोकः, वधो, बधः, मनभेदः, धन नासयमी दोषाः सनिहिता पवचने । अर्थ- अविश्वास, अर्काति, सक्लेशपरिणाम, तिरस्कार, कला य, शोक, वध, बंध, स्वजनमें फूट, और धनका नाश ऐसे पाप सत्यभाषणसे उत्पन्न होते हैं... पापरसागमदार असच्चवयण भणति हु जिर्णिदा ॥ हिदएण अपावो वि हु मोसेण गदो बसू णिरयं ॥ ८४९ ॥ कलिलस्यास्रघद्वारं वितथं कथितं जिनः ।। निष्पारो हि वसुस्तेन श्रितेन नरकंगतः ॥ ८५ ॥ विजयोन्या-पापस्यागमद्वारमिति घनत्यसत्यं जिनंद्राः । हृदय अरापोऽपि मृषामात्रेण अमर्गतो नरफ इत्याख्यानकं वाच्यं । अर्थ-जिनेंद्र भगवान असत्य मापण पाप कर्मके आसब दरवाजेके समान है ऐसा कहते है अर्थाद Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आखासः असत्य भाषण पापानवका कारण है. इदयमें पापरहित बसु राजा असत्यभाषणसे नरकमें चला गया. परलोगम्मि वि दोस्सा ते चेव हवंति अलियवादिस्स ॥ मोसादीए दोसे जत्तेण वि परिहरंतरस ॥ ८५० ॥ असत्यवादिनो दोषाः परत्रापि भवन्ति ते ।। मुंचतोऽपि प्रयत्नेन मृषाभाषादिषणम् ॥ ८६०।। बिजयोदया-परलोगम्मि चि डोसा परभवेऽपि दोषास्त एव अप्रत्ययादय एव मवयलीकवादिनः। यत्नेनापि परिदरतः । किं ? मोसादिगे दोसे मृषादिकाम्दोपान । मृषा आदियघां स्ते यातापरियहाणां ते मपातयः । अतगणसं. परितरतः । कि ? मोसादिगामापारिहरतोऽपीत्यर्थः दोष परलोकमें भी प्राप्त हो अर्थ-असत्य बोलनेवाले पुरुषको अविश्वास वगैरे दोष परलोकमें भी माप्त होते हैं. असत्य भाषण चोरी मेधन, परिग्रह वगैरह पापोंका त्याग करनेपर भी, परलोकमें इन दोपोंका यह पुरुष कर्ता है ऐसा माना जाता है. पम्जन्ममें बड़े प्रयत्नसे इनका त्याग करने पर भी इन दोपोंका उसके ऊपर आरोप आता है. भवतु नाम अप्रत्ययत्वादिका मृषावादस्य दोषाः कर्कशवचनादिना परभवे इस चाय के दोया रस्त्राचष्ट इहलोइय परलोइय दोसा जे होंति अलियवयणस्त ॥ कक्कसवदणादीण वि दोसा ते चेव णादव्वा ॥ ८५१ ।। ये सन्ति बचनेऽलीके दोषा दुःखविधायिनः 11 त एव कथिता जैनैः सकलाः कर्कशादिकाः ।। ८६१ ।। विजयोन्या-दहलोगिग दोसा अस्मि अगानि परत्र च ये दोषा भवति अटीकयादिनः । कर्कशवचनादीनामपि त पव दोपा इति वातव्याः ॥ असत्यवचन बोलनेस अविश्वास वगैरह दोष उत्पन्न होते हैं परंतु कर्कशवचनादिकसे परमवमें अथवा इस भवमें कोनसे दोष उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर--- ranAPADARANAMATA ९७७ Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आश्वास: मूलाराधना अर्थ-असत्य बोलनेसे इहपर लोकमें जो दोष उत्पन्न होते हैं वे ही दोष कर्कशवचनादिकसे भी उत्पन्न होते हैं ऐसा समझना चाहिये। -- ९७८ - उपसंहारगाथा एदेसि दोसाणं मुक्को होदि अलिआदिवविदोसे ॥ परिहरमाणो साधू तन्विवरीदे य लभदि गुणे ॥ ८५२ ।। असत्यमोचिनो दोषा मुंधति सकला इमे ।। तद्विपक्षा गुणाः सर्वे लभ्यन्ते बुधपूजिताः ॥ ८६२॥ भवभयविचयनवितधविमोची निरुपमसुखकराजिनमतराची॥ परमं दवयति कलिलमशेषं घशथति मुनिनुतवचनविशेषम् ॥ १६॥ इति सत्यम् ।। विजयोदया-पतंभ्या दोनभ्यो मुक्तो भवनि व्यळीकादियचने योपान्यः परिहाति साधुः । लभनि नचिन रीदे तेनापि दोषप्रतिपक्षभूतान्यत्ययितावादिगुणान् । प्रन्ययः, कीर्तिः, असंकंदा, रतिः, कलहाभावः, निर्भयनादिकश्च । सच॥ उपसंहार गाथा अर्थ-असत्य भाषण, कशादिभाषणोंके दोषाका जो त्याग करता है वह पुरुष इन दोषाक प्रतिपक्षरूपी गुणोंकी प्राप्ति कर लेता है. अर्थात् जगमें विश्वास, कीर्ति, असंक्लश, कलहका अभाव, निर्भयता वगरह गुणोंका उसको लाभ होता है. सत्यमहाबतका वर्णन हुआ. -- - --- - ५७८ व्याख्याथ सत्यवतं सृतीयवतं निगदति- . मा कुण तुमं बुद्धिं बहुमप्पं वा परादियं घेत्तु ॥ दंतंतरसोधणयं कलिंदम पि अविदिण्णं ॥ ८५३ ॥ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PereremergRNATAKATA आश्वास मूलाराधना ९७९ बह्वल्पं च परद्रव्यमदत्तं मा ग्रहीस्त्रिधा॥ प्रतस्य ध्वंसने शक्तं देतानामपि शोधनम् ।। ८६४ ।। विजयोदया-मा कुणसु तुम बुर्विमा कृथारत्वं बुद्धि । कीदशी परादिप घेतुं परकीयं वस्तु ग्रहीतुं । परकीयवस्तुचिशेषणमाच-बहुमप्पं वा महदल्प वा । अल्पद्रव्यपरिमाणमभिदधाति-दंतंतरसोधणगं करिदमेत्तपि दंतान्तरशुद्धिकारि तृणशलाकामाघमपि । अविदिणं अदत्तं ॥ अचौर्यव्रतका वर्णन अर्थ-हे क्षपक ! तुम दुसरोंके द्वारा नहीं दी गई छोटी गा मोटी वस्तु कदापि मत ग्रहण करो. जिसमे दांतोंमेसें मल निकाला जाता है ऐसी तणशलाकामी ग्रहण करना योग्य नहीं है. जह मक्कडओ धादो वि फलं दण लोहिंदं तस्स ॥ दूरत्थस्स वि डेवदि चित्तूण वि जइ वि छंडेदि !! ८५४ ॥ दूरस्थितं फलं रक्तं यथा सप्तोऽपि मर्कटः॥ ग्रहीतुं धाषते पृष्ट्वा भयो यपि मोक्ष्यति ।। ८६५ ।। विजयोदया-जा मकडमो यथा मर्कटो वानरः । धादो वि तृतोऽपि । दळूण फलं दृष्ट्यापि फले । लोहिद रक्तं । सस्स दूरत्थस्स वि डेयडि दूरस्थमपि फलमुदिश्योलंघनं करोति । जदि वि घिन्तूण ठंडेदि यरि गृहीत्वा त्यजति। अर्थ-जैसे मकट-वानर तृप्त होकरभी लालरंगका फल देखकर दरसे ग्रहण करने के लिये दौडकर आता है. यद्यपि वह ग्रहण कर उसको छोड देगा तोभी प्रथम लोमयुक्त होकर उसे ग्रहण करता है. दार्शन्ति के योजयति एवं जं जं पस्सदि दव्वं अहिलसदि पाविद् तं तं ॥ सव्वजगेण वि जीवो लोभाइछो न तिप्रेदि ।। ८५५ ॥ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास: ६८. तथा निरीक्षते द्रव्यं यद्यत्तत्तज्जिघृक्षति ॥ जीवस्त्रिलोकलामेऽपि लोभग्रस्तो न तृप्यति ॥ ८६६ ॥ विजयोदया---एवं जं जं पस्सदि गवं यत्पश्यति व्यं । तं तं पाबिहिलसदि । तत्तव्यं प्राप्तुमभिलपति । सचजण वि सणापि जगता । लोभाइट्टो जीवो ण तिम्पेदि जीवो लोभारिष्टो न तृप्त्यति ॥ दार्शन्तिकमें ऊपरका आशय संघटित करते हैं अर्थ-वैसे लोभी मनुष्य जो जो वस्तु देखता है वह वह प्राप्त कर लेने की इच्छा करता है. लोभवश हुआ मनुष्य सर्व त्रैलोक्यकी प्राप्ति होनेपरमी तृप्त होता नहीं. DO जह मारुवो पबहइ खणण बित्थरड अब्भयं च जहा ॥ जीवस्स तहा लोभो मंदो वि खणेण वित्थरइ ॥ ८५६ ॥ यथा विवद्धते वातः क्षणेन मथते यथा ॥ प्रथते क्षणतो लोभस्तथा मंदोऽपि देहिनः 11 ८६७ ।। विजयोक्या-जह मायभो पघट्ट यथा मारतः प्रबर्द्धते। खणेण क्षणेन वित्थरदि विस्तीणों भवति । अभयं च जहा यथा चाळ । जीवस्स जीवस्य । तह तथा लोभो मंवोऽपि भणेनैव विस्तीर्णतामुपयाति । अर्थ--जैसे मंद वायु एक क्षणके अनंतर बदकर विस्तीर्ण होता है. अथवा जैसे आकाशमें मेघ प्रथम थोडे रहते हैं और अनंतर बढ़ते बढ़ते सर्व आकाश व्याप्त कर देते हैं एवं जीवका लोभ प्रथम मंद होता है नंतर क्षणसे विस्तीण होता है. बाध्यसन्निधिमपेक्ष्य लोभकर्मण उदयो जायते तस्य लोभः संवर्द्धते तदवृद्धौ नायं दोष इति व्याच लोभे य बढिदे पुण कज्जाकजं णगे ण चिंतेदि ॥ तो अप्पणो त्रि मरणं अगणितो चोरियं कुणइ ॥ ८५७ ॥ प्रवृद्धे च ततो लोभे कृत्याकृत्यविचारकः ॥ स्वस्य मृत्युमजानानः साहसं कुरुते परं ।। ८५८॥ Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ान ९८५ विजयोदया-- लोभे य यदेि पुण लोभे च वृद्धिमुपगते पुनः । कजाकज्जं धारो प्रिषि कार्ये अकार्य च न मनसा निरूपयति । इदं कर्तुं युकं न वेति । तो ततः युक्तायुक्त विचारणाभावात् । अप्पणो मरणमपि अगणिता आत्मनो मृत्युमध्य गणय्य | चोरियं चौर्य करोति । बंदीग्रहणं, तालोद्वादनसंप्रयेशादिकं च । भयं मृत्योः कष्टतरमवस्थितमपि न गणयति नरवीर्य प्रवृत इति भावः ॥ पदार्थोंका सान्निध्य प्राप्त करके जब लोभ कर्मका उदय होता है तब लोभ वृद्धिंगत होता है. लोभ बढने आगे लिखे हुए दोपकी वृद्धि होती है--- अर्थ - लोभ की वृद्धि होनेपर मनुष्य करने योग्य अथवा न करने योग्य कार्यका मनसे विचार ही नही करता है अथवा अकार्य भी उसको योग्य जचता है. युक्तायुक्त विचार के नष्ट होनेसे जिससे मरण प्राप्त होगा ऐसा भी साहसकर्म करनेके लिये उद्युक्त होता है. चोरी करता है. चोरी करनेसे कारागृह में दुःख भोगता हैं. श्रीमंत वरका ताला खोलकर अंदर प्रवेश करता है. मृत्युका कष्टतर भय उपस्थित होनेपरभी लोभाविष्ट मनुष्य कुछ पर्चा नहीं करता है. न केवलमात्मन एवोपद्रवकारि चौर्य अपि तु परेषामपि महतीमानयति विपदमिति कथयति - सब्धो उबहिदबुद्धी पुरिसो अत्थे हिदे यसो वि ॥ सत्तिप्पहारविद्धो व होदि हियमंमि अदिदुहिदो ॥ ८५८ ॥ सर्वोच्य हृते द्रव्ये पुरुषो गतचेतनः ॥ शक्तिविद्ध व स्वान्ते सदा दुःखायते तराम् ॥ ८६९ ॥ विजयोदया सम्यो उहबुद्धी सर्वो जनः उपहितबुद्धिः स्थापित खितः । अथे वस्तुनि एवं स्थिति । आदिदेय सच्चो चि सर्वोऽपि जनो बधे हते । अतिदुद्दिदो भतीव दुःखितो भवति । किमिव सतिप्पहारषिद्धो दिये शक्त्याख्येन शकोण हृदये वित्त इव । चोरी करने से चोरकोही उपद्रव होता है ऐसा नहीं. अन्य लोगोंके ऊपर भी उससे बड़ी विपत्ति आनी है. अर्थ - सर्व लोकोंकी बुद्धि धनमें आसक्त रहती है. इसलिये ऐसे धनका चोरकेद्वारा हरण होनेपर उनको मरणतुल्य दुःख होता है. हृदयपर शक्तिनामक शखकी वोट लगनेपर जैसा दुःख होता है वैसा धनहरण होनेसे दुःख होता है. माश्वासः ६ ९८१ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वाहा .९८२ अथम्मि हिदे पुरिसो उम्मत्तो विगयचेयणो होदि ॥ मरदि व हक्कारकिदो अत्थो जीवं खु पुरिसस्स ॥ ८५९ ॥ द्रविणे अहिलीभूय म्रियतेऽथ हृते नरः ।। हाकारमुखरः क्षिमं नृणामों हि जीवितम् ॥ ८७७ ।। विजयोदया--अस्थम्म हिदे अथें हते परेणात्मीये । पुरिसो पुरुषः। उम्मत्तो विगदचयपो होदि उन्मत्तो विचेतनो भवति । चेतनाविशेषे ज्ञानपीये चेतनाशदो घर्तते नएज्ञानो भवतीति यावत् । अन्यथा चैसम्यस्य विनाशाभाचात् ।। मरदि व म्रियत या ॥ अरथे हकारकिदो अर्धे हारवं कुर्वन् । यस्थो जीवं खु पुरिसस्स पुरुषस्य जीचितमर्थः॥ अर्थ-दूसरेके द्वारा अपना धन लूटा जानेपर मनुष्य उन्मत्त अर्थात् पागल बनता है, झानरहित होता है, मेरा धन मेरा धन ऐसा बारबार कहता हुआ प्राणोंका भी त्याग करता है. इसलिये 'धन मनुष्यका प्राण है' ऐसी जो लोकोक्ति जगमें प्रचलित हुई है उसमें सत्यता है. - अडईगिरिदरिसागरजुडागि अति अस्थलोभादो ॥ पियबंध चेवि जीवं पि णरा पयहंति धणहेदं !! ८६ ॥ विशंति पर्वतेऽम्भोधौ युद्धदुर्गवचनादिषु ॥ त्यति द्रव्यलोभेन जीवितं बांधवानपि ।। ८७ ॥ घिजयोदया-अजुईगिरिदरिसागर अरबों, दरी, गिरि, सागर, युद्धं प्रविशन्ति अर्थलोभात् । प्रियाबंधन जीवितं च नरा जहति धननिमित्तं । सर्वेभ्यो धनं प्रियतमं यतस्तदार्थनः सर्वं त्यजन्ति इति भायार्थी माथायाः। अर्थ--वनके लोभसे मनुष्य जंगल, पर्वत, समद्र और युद्ध में प्रवेश करते है. घनके निमिचसे अपने प्रियवधुओका और प्राणोंका भी त्याग करते हैं. प्रिय बांधव और प्राणोंमे भी धन मनुष्यको अत्यंत प्रिय है क्यों कि इसके लिये धनार्थी सबोंका त्याग करते हैं. अत्थे संतम्मि सुहं जीवदि सकलतपुत्सबंधी ।। अत्थं हरमाणेण य हिंदं हवदि जीविदं तेसि ॥ ८६१ ॥ २८२ Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आधा विद्यमाने धने लोका जीवन्ति सहपंधुमिः ॥ तस्मिन्नपहृते तेषां सर्वेषां जीवितं हृतम् ।। ८७२ ॥ विजयोदया-प्रत्य संतरिम सुई अर्थे सति सुखं । जीवदि सकलसपुत्ससंबंधी जीवति सह कलर्भायाभिः, पुर्बधुभिश्च । अर्थ हरता तेषां कलादीनां जीवितमेव कृतं भवति । ... ... अर्थ-चोरके हृदयमें दया, लज्जा, दम, रियास रेगु निकालही करत है. चोरको धनके लिये कुछ भी अकर्तव्य नहीं है. अर्थात् अयंत निंद्य, और क्रूर कार्यभी वह धनके लिये करता है, --- -- -- - चोरस्स पत्थि हियए दया च लम्जा दमो व विस्सासो ।। चोररस अत्थहेर्दु णत्थि य कादव्वयं किं पि ८६२ ।। न विश्वासो दया लज्जा सन्ति चौरस्य मानसे ॥ माकृत्यं धनलुब्धस्य तस्य किंचन विद्यत ।। ८७३ ।। विजयोदया-चोरस्स पत्थि हियप चौरस्त नास्ति हदये । दया, लज्जा, दमो, विश्वासो वा । चौरस्य नास्ति अकर्तव्य किचित् । अार्थिन इति भावार्थः। अर्थ-धनसे इंद्रियसुखकी प्राप्ति होती है. धनसे मनुष्य पत्नी, पुत्र और संबंधी जनोंके साथ जी सकता है. और यदि उसका धन चोरने हरण किया तो उसने उसका और उसके परनी पुत्रादिकोंका जीवित हरण किया ऐसा समझना चाहिये. लोगम्मि अस्थि पक्खो अवरईतस्स अण्णमवराधं ॥ णीयल्लया बि पक्खे ण होति चोरिक सीलस्स || ८६३ ॥ अपराधे कृतेऽप्यन्न पक्षे लोकोऽपि जायते ॥ घंधवोऽपि न चारस्य पक्षे सन्ति कदाचन ॥ ८७१ ।। विजयोदया-लोयम्मि अत्थि पक्खो लोकेऽस्ति पक्षोऽयमपराधं हिंसादिकं कुर्वतो बंधयोऽपि न पक्षतां H प्रतिपद्यते ये चौर्यकारिणः ॥ Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मागाधना आश्वासः अर्थ--हिंसादिक अन्य अपराध करने वालोंक पक्षमें लोक रहते हैं. परंतु बंधुभी चोरी करने वालोंके पक्षमे रहना नहीं चाहते हैं. अण्णं अवरज्झतस्त दिति णियये घरम्मि आवास ॥ माया वि य ओगास ॥ देइ चोरिक्सीलस्स ॥ ८६४ ॥ वितति जनाः स्थानं दोषेऽन्यत्र कते सति ॥ स्तेये पुनने मातापि पुरुपातकवायिनि ।। ८७५ ॥ विजयोदया-अण्ण अवरजातस्स अन्य अपराधं कुर्वतः बदति स्वाषासे अवकाशं । माताप्यवकाशं न ददाति धुरायां प्रवृत्तस्य ॥ अर्थ- अन्य अपराध करने वालोंको लोक अपने घरमें आश्रय देते हैं परंतु लोक तो क्या चोरी करनेवाले मनुष्यको उसकी माता भी आश्रय देती नहीं. परवहरणमेदं आसबदारं खु ति पाबस्स ॥ सोगरियवाहपरदारयेहिं चोरो हु पापदरो ॥ ७६५ ॥ द्रव्यापहरणं द्वारं पापस्य परभिष्यते ।। सर्वेभ्यः पापकारिभ्यः पापीयांस्तस्करी मतः ८७६ ।। विजयोदया-गरदथ्वहरणमेद परदव्यापहरणमेतत् पापस्यानवद्वार बुधति । शौकरिकात, म्याधात्, परदाररतिप्रियान्न चौरः पापीयान ॥ अर्थ-परदन्य हरण करना यह पाप आनेका द्वार है. मुअर का घात करनवाला, मृगादिकाको पकरनेवाला और परस्त्री गमन करनेवाला इनसे भी चोर अधिक पापी गिना आना जाता है. सयणं मित्त आसयमल्लीणं पि य महल्लए दोसे ॥ पाडेदि चोरियाए अयसे दुक्खम्मि य महल्ले ॥ ८६६ ।। ९८४ Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .--. - मूलाराधना आश्वासः आश्रयं स्वजनं मित्रं दराचारो मलिम्लचः ॥ सर्च पासयते दोपे दुष्षमे दुर्यशस्यपि ।। ८७७ ॥ विजयोदया--सया मित्तं बंधून्मित्रापि आश्रयभूतं समीपस्थं च महति दोघे बंधवधधनापरणादिके पातपति चौर्य । महस्ययशसि दसे च निपातयति । अर्थ-चोरके जा स्वजन, मित्र, और आश्रयस रहनवालं अन्य लागांको भी यह चारी बढे संकटमें गिरा देती है. अर्थात् चोरके साथ उसके स्वजन मित्रादिकाकाभी लोक बांधते हैं, उनके अवयव तोडते हैं, उनका धन छीन लेते है. बही अपकीर्ति और दुःखमें गिराते है. बंधवधजादणाओ छायाघादपरिभवक्वयं सोयं ।। पावदि चोरो सयमवि मरणं सब्वस्सहरणं बा ॥८६७ ॥ यचं बंधं भर्य रोधं सर्वस्वहरणं, मृतिम् ।। विषादं यातना लोके तस्करो लभते स्वयम् ॥ ८७८ ।। विजयोक्या-धंधवधजावणाभो बंध, धध, यातनान, हायाघात, परिभयं, भयं, शोक प्रामोति । स्वयमपि बोरो मरणं सर्वस्वहरणं या ॥ अर्थ-अवयव तोहना, बांधना, अनेक प्रकारसे पीडा देना, पराभव करना इत्यादिक प्रकारोंसे लोक चोरोंको तकलीफ देते हैं. शोक, सर्वस्वहरण और मरण इन दुःखोंको चोर प्राप्त होता है. णिचं दिया य रत्तिं च संकमाणो ण णिहमुवलभदि ॥ ते तओ समता उब्बिग्गमओ य मिच्छतो ॥ ८६८ ॥ शंकमानमनर निद्रा तस्करी जातु नाश्ते ॥ कुरंग इव वित्रस्तो वीक्षले सकला दिशः ॥ ८७९ ॥ विजयोदया-णि दिया व रति च संझमागो नित्यं दिवारात्रि शंकामानः न निद्रामुपलमते चौरः । समंता. प्रेक्षत उद्विग्नहरिण इव ।। Ganpam Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराषता अर्थ-चोरके मनमें दिनरात भय रहता है. उसको भयके मारे निद्रा भी आती नहीं. वह हमेशा चारों तरफ भययुक्त हरिणके समान देखता रहता है. आवार संदरकंदपि सई सुच्चा परिवेवमाणसव्वंगो ॥ सहसा समुच्छिदभओ उब्बिग्गो धावदि खलंतो ॥ ८६९ ॥ आकर्ण्य मूषिकस्यापि शब्दं शंकितमानसः ।। धावते सर्चतः सद्यः स्वलन्स्वमरणाकुलः ।। ८८५ ।। विजयोदया-उंदर कदपि सई मूषकचलनकृतमपि शब्दं श्रुत्वा प्रस्फुरत्सर्यगाधः | सहसोत्यभयोद्विग्नो धावति 1 स्खलम्पये परे। अर्थ-भागते हुए मृषकका अर्थात् चूहेका ध्वनि सुनकर चोर भीतीसे थरथर कांपने लगता है और डरकर दौडने लगता है. दौरते समय गयडीसे गिरजाता है. धतिं पि संजमंतो घेत्तूण किलिंदमेचमविदिपणं ।। होदि हु तणं व लहुओ अप्पच्चइओ य चोरो ब्व ।। ८७० ॥ अदत्ते तुणमात्रेऽपि गृहीने संयतोऽपि ना॥ अप्रत्ययो यथा स्तनस्तृणतो जायते लघुः ।। ८८१ ।। विजयोदया-धर्ति पि संजमतो नितरामपि संयम कुर्वन् । अदत्तं तृणमात्रमपि गृहीत्या तृप्यवल्लघुर्भवति, अप्रत्ययितश्वीर सच || अर्थ-महान् संयम धारण करके भी साधु न दिया हुआ तृणमात्र भी ग्रहण करके चोरके समान अविवासी बन जाता है और तिनके के समान हलका हो जाना है. परलोगम्मि य चोरो करेदि गिरयम्मि अप्पणो बसदि ।। तिवाओ वेदणाओ अणुभवहिदि तत्थ सुचिरंपि ॥ ८७१ ।। Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वा मलाराधना ९८७ विधाय पुरुषः स्तेयं नारकी वसतिं गतः।। सहते वेदनास्तत्र चिरकालं सुदासहाः ।। ८८२।। विजयोदया-परलोगम्मि य चोरो करेदि परलोके चौरः करोत्यात्मनो नरके वसति । कीहरभूतो यत्र नरकेषु मुचिरं दीर्घकालं पच्यमानः तीवषेवना अनुभवति । अर्थ-चोरीके पापसे मरकर चोर नरकमें जाता है, उत्पम होता है. और दीर्घ कालतक पचता हुआ तीन वेदनाओंका अनुभव करता है. तिरियगदीए वि तहा चोरो पाउणदि तिब्बदुक्खाणि ॥ पाएण णीयजोणीसु चेव संसरइ सुनिरपि ॥ ८७२ ।। लभते दारुणं दुःख स्तनम्तियंग्गतायपि । प्राप्नोति प्रायशः पापो योनी नीचाममा चिरम् ।। ८८३ ।। विजयोदया-तिम्यिगदी ति दहा तिर्यग्गनायपि चौरः नाप्नोति तीवाणि दुःखानि । प्रायेण नीचयोगियय संसरनि सुचिरमपि ॥ अर्थ-चार पापकर्मसे पशुगति में जन्म लेकर तीव दुःखोंका दीर्घ कालतक अनुभव लता हुआ भ्रमण करता है और प्रायः नीच पशुओमे--अथात कुत्ता, सुवर, गधा इत्यादिकाम तथा विकलत्रयादिक योनिमें भ्रमण करता है, माणुसभवे बि अस्था हिदा व अहिदा व तरस णस्संति ॥ ण य से धणमुवचीयदि सयं च ओलदि धणादो ।। ८७३ ॥ नत्वेऽहता हूता चार्थाः पलायंतेऽखिलाः स्वयम् ॥ न चीयंते प्रयत्नेऽपि स्वयं यास्यति वा ततः ।। ८८१ ।। विजयोक्या-माणुसभये वि मनुष्यमयेऽपि तस्य अर्धा तश्यन्ति हता था अष्टता था। न चोपयाति संचय धनं, तस्य उपचितेऽपि धने स्वयं तलादपयाति धनात् ॥ Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ९.८८ अर्थ - मनुष्यमवमें भी वह चोर जन्म लेनेपर उसका धन पूर्व पापकर्मके उदयसे हरा जाता है. अथवा वह दरिद्री हो जाता है. कितना भी प्रयत्न करनेसे उसके पास धनसंचित होताही नहीं अथवा धन संचित होनेपरभी वह स्वयं उससे दूर चला जाता है. अर्थात् अन्तराय कर्मके उपार्जनसे वह घनका उपभोग ले नहीं सकता. परदव्वहरणबुद्धी सिरिभूदी णयरमज्झयारम्मि | होवूण हृदो पदो पत्तो सो दीहसंसारं ॥ ८७ ॥ श्रीभूतिर्महती प्राप्य पुरमध्ये विडम्बनाम् || परद्रव्रतो दीनः प्रदीर्घ विजयोदया - पदव्वहरणबुद्धी परद्रव्यहरबुद्धिः सिग्भूिदी श्रीभूतिर्नगरमध्ये ताडितः महतश्च भूत्वा . दीर्घसंसारं प्रातः ॥ अर्थ - परद्रव्यहरण में जिसकी बुद्धि प्रवीण थी ऐसा श्रीभूति नामका ब्राह्मण जो कि राजाका पुरोहित था वह नगर में पीटा गया और मारा गया. इस चोरी के दोष से उसने दर्घि कालतक संसार में भ्रमण किया. दत्तादानदोषानुपद इस योग्यं गृहाणेति व्याचष्टे एवं सवे दोसा होति परदव्वहरणविरदरस || तविवरीदा य गुणा होंति सदा दत्तभोइस्स || ८७५ ॥ देविंदरायगहवइदेवदसाहम्मि उग्गहुं तम्हा || उग्गहविहिणादिष्णं गेहसु सामण्णासाह्णये ॥ ८७६ ॥ एते दोषा न जायते परद्रव्यविवर्जने ॥ तद्विपक्षा गुणाः सन्ति सुंदरा वत्तभोजिनः ॥ ८८६ ॥ इंद्र राजगृहस्वामिदेवता समधर्मिभिः ॥ बितीर्ण विधिना प्राचं रत्नन्त्रितयवर्धकम् ॥ ८८७ ॥ आश्वासः ६ ९८८ Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वास विमुंचते यः परवित्तमअसा निरक्ष्यिमाणं सदृशं मृदा सदा ॥ अनन्यसाधारणभूमिभूषितः स यानि निर्वाणमपास्तकल्मषः ॥ ८८८ ।। इति अस्तेयम् ।। विजयोव्या-देविदा जादा देतेंद्राणायां गृहातीन, राष्ट्रकूटानां, देवतानो, सधर्मणा व परिप्रई। उपमहविहिणा अधप्रविधिना । दिण्णं दत्तं । गिण्हमु गृहाण । सामण्णसाइणय धामण्यसाधर्म ज्ञानसंयमस्य पा साधनं । अदर्स ॥ ___आचार्यने अदचादानके-चोरीके दोष दिखाये अब योग्य दी हुई वस्तूका तू ग्रहण कर ऐसा आपकको उपदेश करते हैं. अर्थ-उपर्युक्त दोष चोरीका जिसने त्याग किया हैं ऐसे महापुरुष में नहीं रहते हैं. परंतु उस महापुरुपमें उपर्युक्त दोपोंके विरुद्ध गुण उत्पन्न होते हैं. दिया हुआ पदार्थका उपभोग लेनवाल उस महा पुरुप में अच्छे अच्छे गुण प्रकट होते है. देवेंद्र, राजा, गृहस्थ, राजाधिकारी, देवता और साधर्मिक साधु इन्होंने योग्य विधीसे दिया हुआ, मुनिपनाकी सिद्धि करनेवाला, जिससे ज्ञानकी सिद्धि होगी और संयमकी वृद्धि होगी एसा पदार्थ हे क्षषक तूं ग्रहण कर. आचार्य महावतका वर्णन पूर्ण हुआ. की सिद्धि होगा आप संयम का पादतोंने योग्य विधीस दिया हुआ चतुर्थं व्रतं निरूपयनि रक्वाहि बंभचेरं अध्यभे सविधं तु धज्जिता ॥ पिनचं पिअप्पमत्तो पंचविधे इतिथवरग्गे ॥ ८७७ ॥ अब्रह्म दशधा त्यक्त्वा रामावैराग्यपंचके ।। निवेश्य मानसं पाहि ब्रह्मचर्यमनारतम् ।। ८८९ ॥ विजयोदया-रक्वाहि यभंवरे पालय ब्रह्मचर्य । अब्रह्म दशप्रकारमपि वर्जयिन्या नियमाप्रमत्तः पंवविध स्त्रीवैराग्ये ॥ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना " आश्वास ९९८ अर्थ-हे क्षपक : तू दस प्रकारके अब्रमोंका त्याग कर, ब्रह्मचर्यका आचरण कर. हमेशा ब्रह्मचर्यके पालन में सावधान रहना चाहिये. और पांच प्रकारके स्त्रीवैराग्यमें हे क्षपक! तुम तत्पर रहो. वय पालयेत्युक्तं नदेव न झायते इत्यारेकायां तयाची जीवो चंभा जीवम्मि चैव चरिया हविज जा जदिणो । तं जाण बंभचेरं विमुक्कपरदेहतित्तिस्स ॥ ८७८ ॥ निरस्तांगांगरागस्य स्वदेहेऽपि विरागिणः ।। जीच ब्रह्मणि या चर्या बग्मचर्य तदीयते ।। ८५० ।। विजयोदया-जीवो बंभा ब्रह्मशब्दन जीवो भण्यते । शानदर्शनादिरूपण बईते इति पा। यात्रलोकाकाशं वर्धते लोकपूरणास्यायां रियाया इति वा । जीवम्मि नेव बहायव चर्या । जीवस्वरूपम्नतपर्यायान्मक पये निरूपयतो वृत्तियो । तं जाण जानीहि । वमयरिय ब्रह्मचर्य | विमुत्तपरदहतित्तिस्स विमुक्तपरवेहव्यापारस्य ।। मूलारा या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धेश्चर्या पारद्रव्यमुचः प्रवृत्तिः । तद्ब्रह्मचर्य प्रतसार्वभौमं ये पांति ते यांति पर प्रमोदम ॥ ब्रह्मचर्यका रक्षण कर ऐसा आपने कहा परन्तु ब्रह्मचर्य का स्वरूप क्या है ? ऐसी शंकाका उत्तर आचार्य देते हैं.. अर्थ ब्रह्मचर्य इस सामासिक शब्दमें जो ब्रह्म शब्द है उसका अर्थ जीव ऐसा होता है, अथवा बृह धातूका अर्थ वृद्धिगत होना यडना ऐसा है. इस बृह धातूसे ब्रह्म शब्द सिद्ध होता है. ज्ञान और दर्शन रूपसे जो वृद्धिंगत होता है उसको ब्रम कहते है. जीव इन गुणोंसे सृद्धिंगत होता है इस वास्ते इसको बम कहते हैं. अथवा लोकपूरण समुद्धातमें यह आत्मा संपूर्ण लोकाकाशमें अपने प्रदेश पसार कर बढता है इस लिये जीवको ब्रम कह सकते हैं. इस जीवका स्वरूप अनंत पयोयात्मक है ऐसा समझकर उसके स्वरूपमें जो रमामण होने की क्रिया उसको ब्रह्मचर्य कहते हैं. इतरोंके शररिमें प्रवृत्ति करना अर्थात् उसके देहको आलिंगन करना वगैरे क्रियाओंसे जो विरक्त हुआ है वह मुनि अपने आत्माके स्वरूपका-उसके ज्ञान, दर्शन चारित्र वगैर शुद्ध गुणोंका विचार कर उसमें ही तृप्त होता है इसलिये ऐसे मुनिका ब्रह्मचर्य विशुद्ध होता है. ९५० Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायाम मूलाराधना ९९६ मनसा वचसा शरीरेण परशरीरगोबरब्यापारातिशयं त्यक्तवतः पराविधानात्यागात् दशविधं ब्रह्मचर्य भवतीति वक्तुकामो ब्रह्मभेदमाचष्टे-- इजित्रिस्याभिरालो बहिनियलोणियरससेवा ॥ संसत्तदवसेवा तदिदियालोयणं चेव ॥ ८७९ ॥ विजयोव्यादस्थिविसयामिलासो स्त्रीसधिनो ये इंद्रियाणां विषयास्तासां रूपं, तदीयोऽधररसः तासां वकामचो गंधा, तासां कल गीतं, हासो, मधुर बना, सृस्पर्शश्च तत्र अभिलाषः । आत्मा स्वरूपपरिधानपरिपतिलक्षणं ब्रह्मचर्य वहतीति आत्मा ब्रह्म ततोऽन्यो पामलोचनाशरीरगतो रूपादिपर्यायः सोऽष भण्यतेऽग्रहाशमेव तत्र चर्या नामाभिलाषपरिणतिः । यस्थिविमोक्यो मेहनविकारानिवारण । पणिदरससवा घृण्या. हाररससेवना । संसत्तदवसेवा खीभिः संसक्तानां संवदानां शय्यादीना सेवा तदंगस्पर्शवदेव कामिनां तनुशाप्तव्यस्पर्शोऽपि प्रीति जनयति । तदिदियालोयण चेष तास घरांगावलोकन च ॥ किं तद्दाविधं ब्रह्म यत्परित्यागाचद्विलक्षणं दशप्रकारं ब्रह्मचर्य भवतीति जिज्ञासायामब्रह्मभेदान्दश गाथायेन निर्दिशति मृदारा इस्थिविसयामिलासो स्त्रीणां संबंधिनी ये विषया इंद्रियाणां गोचराः खियाः सुन्दरं रूपं, तधररस स्तत्सुरभिमुखश्वसितादिगंधस्तत्कलगीतहसितमधुरमन्मनवचनतत्कुचादिस्पर्शश्चैषु अभिलायो ग्रहीतुमौत्सुक्यं । बस्विविमोक्खो लिंगविकारकरण । पणिदरससेवा वृष्यद्रव्यरसोपयोगः । संसत्तदवसेवा स्त्रीसेवितशय्यावस्त्रागुपभोगः कामिनीतनुम्पर्शवकामिनां तत्संयुक्तद्रव्यस्पर्शोऽपि हि प्रातिमुत्पादयति । तदिदियालोयणं स्त्रीवरांगनिरीक्षण ॥ मनसे, वचनसे और शरीरसे परशरीरके साथ जिसने प्रवृत्ति करना छोट दिया है ऐसा मुनि दश प्रकारके अब्रह्मका त्याग करता है. तब वह दश प्रकारके ब्रह्मचर्योका पालन कर सकता है. ग्रंधकार अनझके दस प्रकारॉका वर्णन करता है अर्थ-स्त्रीसंबंधी जो इंद्रियों का विषय हैं उनकी अभिलाषा करना अर्थात् उनका सौंदर्य, उनका अधर रस, उनके मुखका गंध, उनका मनोहर गायन, हंसना और मधुर भाषण, तथा उनके शरीरका मृदुस्पर्श इनकी अभिलाषा करना. यह अनाम है. आत्माके शुद्ध स्वरूपको जानकर उसमें परिणति करना अर्थात् प्रशस करना ब्रह्मचर्य है. इस ब्रह्मचर्य को धारण करनेवाले आत्माको प्रम कहते हैं. इस ब्रझसे विरुद्ध जो खीके शरीरके रूपादि । Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ९९२ पर्याय उनको अब्रह्म कहते हैं एसे अब्रममें चर्या करना अर्थात् अभिलापा करना यह अग्रमचर्य है. मश्विासः २ बत्थिाय मोक्यो-अपने इंद्रियमें विकार होना, अर्थात् अपने लिंगमें विकार होना यह स्थिर और II हह होना. ५ वृष्यरससेवा-जिससे शरीरमें चल बढेगा, वीर्यवृद्धि होगी, ऐसा आहार और एसे रसोंका सेवन करना. संसक्तद्रव्यसेवा-वियोंके शय्या वगैरह पदार्थोंका सेवन करना-उपभोग लेना. स्त्रीके शरीरका स्पर्श जैसे कामियोंको प्रीति उत्पन्न करता है वैसे उनके शम्यादिक पदार्थों का स्पर्श भी कामिओंको हर्प उत्पन्न करता है. ५ तारिदिगालोचन---परियाक सुंदर अंगोका अवलोकन करना. सकारो संकारो अदीदसुमरणमणागदमिलासे ।। इबिसयसेवा वि य अब्बभं दसविहं एदै ॥ ८८० ॥ गद्य-स्त्रीरुपायभिलाषअस्तिमोक्षणवृष्याहारसेवनतत्संसक्तद्रव्यानुरागतद्वरांगनिरीक्षणसत्कारसंस्कारादरतातीतरतस्मरणानागताभिलषणेष्ट विषयनिषेवणस्वरूपं दशविधमन्ब्रह्म मतव्यम् ॥ ८९१ ॥ विजयोदया सकारो सत्कारः सन्मानना । सत्र तनुरागप्रतितः संकारो संस्कारःतासां वनमाल्यादिभिः । अदीदसुमरपां अतीतकालवृत्तिरतिक्रीडास्मरणं । बाणागदभिलासा भविष्यति काले एवं ताभिः कीड़ो करिष्यामि इति स्पमिलाषः । यिसयसेवा वि याविषयसबापि च । अधर्भ दसविध पदं भामा दशप्रकारमाहीतत् । अक्षीणरागस्य पदब्योपयोगादागवती भवतः । तेन सवस्योश्योगः, परद्रपालयन, शानश्रद्धानमिति वीतरागतादिषु चरण ब्रह्मचर्य ततोऽस्यदिदं वशविधमनम्हेति निरूपितं ।।। मूलारा-सकारो पूजा । सम्माणो परांबराभरणाधुपचारः। अदीवसुमरण अतीतकालधृत्तसंभोगस्मरणं । अणागदभिलासो भविष्यति काले ताभिः सईवं क्रीविच्यामीत्येवमादिमनोरथः। छुषिसयसेवा मनोवांछितसौधोधानायुपयोगः । तथा चाबोचाम धर्मामृते मा रूपादिरस पिपास सुरशा मा बस्तिमोक्षं कृथाः ।। दृष्यं श्रीशयनादिकं च भज मा मा दा परांगे शं॥ Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आमास ९९३ मा श्री सत्कृह मात्र संखक रसं वृत्तं स्मर स्मार्य मा ॥ वय॑न्मेकछ जुषस्व मेष्टविषयान् द्विपंचधा ब्रह्मणे ।। दशविधमप्यना मुमुक्षुणात्यतापकारत्वात्याज्यमित्युपदेष्टुं तहोपानाह अर्थ-सत्कार-स्त्रियोंका सत्कार करना सम्माणो-उनके देहपर प्रेम रखकर वस्त्र, माला वगैरह पदार्थोंसे उनका सत्कार करना. उनको अलंकारादिक पदार्थ अर्पण करना. अतीतसरण-भूतकालमें किये हुए रतिक्रीडाओंका स्मरण करना. अनागामिलाप-भविष्यकालमें उनके साथ ऐसी २ रतिक्रीया करूगा ऐसी अभिलाषा मनमें करना, इष्टविषयसेषा --मनोवांछित सीध, उद्यान वगैरहका उपयोग करना. जिसके रामभाव मबल हैं ऐसे पुरुष के परद्रव्योंके सेवन से रागद्वेष प्रबल होते हैं. ज्ञान, श्रद्धान, और वीतरागता इत्यादिकोंमें प्रवृत्ति करना अमचर्य है. इससे विरुद्ध अबझके दशप्रकार कहे है. एवं विसग्गिभूदं अब्बभं दसविहंपि णादव्वं ।। आवाडे मधुरम्भिब होदि विवागे य कडुयदरं ॥ ८८१ ।। आपासे मधुरं रम्यमबह्म दशधाप्यदः ॥ विपाके का हेयं किंपाकमिष सर्वदा ।। ८१२॥ विजयोत्या एवं विसग्गिभूर्व विषाग्निना सशं श्तवब्रह्म यशप्रकारं हातभ्य । भापाते मधुरमिष भवति विपाके तु कटुकतमं । मूलाराधना--विसम्पिभूर्द त्रिपबदभियत संतापमोहीमरणाविकरणात् । आषादे आपाते सेवोपक्रमे । विवागे बिपाके विरमणक्षणे । कडुगदरं अत्यंतदुस्त्यजत्वादतिकष्टम् ॥ अर्थ—यह दश प्रकारका अब्रह्म विए और अनिके समान है एसा समझना चाहिए. यह अब्रह्म प्रारम्भ में बहा मिष्ट मालुम होता है परन्तु अन्त में अत्यंत कडवा है. Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधार RATARA । स्त्रीविषयो रागोऽब्रह्म स च तत्प्रतिपक्षभूतवैराग्येन नाशयितुं शक्यत इति मत्या वैराग्योपायकथनाया बरे कामकदा इस्थिकदा दोसा असुचित्तबुद्रुसेवा य ॥ संसग्गीदोसा वि य करंति इत्थीसु वेरग ॥ ८८२ ॥ दोषाः कामस्य नारीणामाशीचं वसंगतिः ॥ संगदोषाश्च कुर्वति स्त्रीवैराग्यं तपस्विनः ॥ ८५३ ॥ विजयोदया-कामकदा स्थिकदा कामकृताः स्त्रीकृताच दोषाः । अशुचित्व, वृदसेषा, संसर्गदोपाव कुर्वन्ति स्त्रीषु वैराग्यं ॥ स्त्रीविषयरागलभणमब्रह्म श्रीवैराग्यात्मकतत्प्रतिपक्षभावनाषष्टभानिष्ठापयितुं शक्यते इति स्त्रीवैराग्योपायपंचकमुप्तरत्र प्रबंधन प्रपंचयितुमादौ तदुदिशति मूलारा०-कामकया फंदर्पण निर्मिताः । दोसा अपराधाः । पुंसोऽवकारा इत्यर्थः । असुचिन अमेध्यत्वं देहस्य । बुट्टसेघा झीलघुद्धानामुपासना । संसम्मीदोसा स्वीसांगत्यकृतापकाराः । एते पंचतये भाग्यमानाः स्त्रीषु वैराग्यं जनयन्ति । मोक: कामांगनांनासंगदोपाशीचानि भावयन ॥ कृतावसंगतिः श्रीपु विरक्तो प्रल बृहया ॥ एवमुपक्षेपगाधाः पद् ॥ स्त्रीविषयके रागभावको अब्रान कहते हैं यह इसके प्रतिपक्षभूत वैराग्यसे नष्ट होता है. ऐसा समझकर वैराग्यके उपायोंका आचार्य कथन करते है. (अर्थ-कामदोप, स्वीकृत दोप, शरीरको अपश्त्रिता, पदोंकी मेवा, और संसगदोष इन पांच कारपासें खियामें वैराग्य उत्पन्न होता है.) कामकतदोपनिरूपमा उत्तरण प्रयोग कियो जात्रइया किर दोसा इहपरलोए दुहावहा होति ।। सन् वि आवहदि ते मेहुणसण्णा मणुस्सस्स ॥ ८८३ ॥ १०४ Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्राम: ९९५ दृश्यते भुवने दोषा यावन्तो दुःखदायिनः ॥ पुरुषस्य क्रियन्ते ते सर्व मैधनसंज्ञया ।। ८९४ ।। घिजयोदया-जादिया किर दोसा इत्यादिना यार्थतः किल उन्मस्य । दुढाबद्दा दुःलावहा भत्रति दोग हिंसादयस्तासर्वारपि आवहति मैथुनसंज्ञा मनुष्य स्य । कामदोपान्गाथापंचपंचादातोत्तरबंधन व्याचिच्यायुगदी तल्लामान्यसंयमाथागाहमूलारा-दोसा हिंसादयः । आवहाद करोति । मेहुणसण्णा योन्यादौ रंतुमिच्छा काम इति यावत्र : कामकृत दोषोंका वर्णन आचार्य विस्तारसे कत है अर्थ--- इहलोको और परलोक में जितने दुःख देनेवाले हियादिक दोष उत्पन्न होता है य गय काम संत्रास अथीत मथुन की इच्छाम उत्पन्न होने हैं. Pawar मचाया । कामादुरोल ध्याय सोयदि विलपदि परितप्पदीय कामादुरो विसीयदि य ॥ रतिदिया य गिदंण लहदि पज्झादि विमणो य ॥ ८८४ ॥ ध्यायनि शोचति सीदति रोदिति, वल्गति भ्राम्यति नत्यति गायति । क्लाम्यति माधति रुक्ष्यति तुष्यति, जल्पति कामयशो विमना यहु ॥५५॥ स्थियते विद्यते तप्यते मुद्यते, याचते सेवते मोदते धावते॥ मुंचते गौरवं गाहते लापर्व, किं न मयों विधत मनोजातुरः॥ ८९६ ॥ विजयोक्या सोयदि विलपदि शोचते, बिलपति । परितप्यते । कामातुरो विसीयवि य कामातुरो विपीदति च न विनं निहां न लभते । पसादि घिमगरको भवति ।। कामात इदमिदं करोतीति प्रबंधेनाभिधत्ते मूलारा०-सोयदि शोक याप्ति । विलवदि बिलापं करोति । विसीददि विसूरयति । पजमादि प्रबंधन स्मर तीष्टनियं, विस्मरति या धर्मादिकम् । अर्थ-कामसे पीडित मनुष्य शोक करता है, रोता है, पश्चात्ताप करता है और खिम्न होता है. उसको NEWS Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार सेना रखीका ही तद करता है. और कल्याणकारक धर्मको दिनमें और रातमें माता आतीनही भूल जाता है. স্মৃমি: मृलाराधना 4 सयणे अणे य सयणासणे य गामे घरे व रपणे वा ।। कामपिसायग्गहिदो ण रमदि य तह भोयणादीसु ॥ ८८५॥ आसने शयने स्थाने नगरे भवने वने ॥ स्वजनन्यजने कामी रमते भास्तचेतनः ।। ८९७॥ विजयोदया-सयणे जणे य रखजने, परसने, शयों, भासने, ग्रामे, गृहे, अरण्ये, भोजनाधिक्रियासु च न रमते कामपिशाच गृहीतः ॥ मूलारा०- सगणे स्वजने । जणे परजने ॥ अर्थ-कामातुर मनुष्य, अपने संबंधी जनोंमें, अथवा परकीय लोगों में, तिष्ठता हुआ हमेशा खिन्नही रहता है. गाममें, घरमें, अरण्य में, और भोजनादि क्रियाओंमें भी उसका मन खुश नहीं रहता है. उसको हमेशा कामरूपी पिंद्याच सताता रहता है. मा कामादुरस्म गच्छदि खणो बि संवच्छरो ब पुरिसरस ॥ सीदति य अंगाई होदि अ उत्कंठिओ पुरिसो ॥ ८८६ ।। न राम्रो न दिवा शेते न भुक्तं न सुम्बायते ।। दष्टः कामभुजंगेन न जानाति हिताहित ।। ८९८ ।। कामाकलितचित्तस्य मष्टों वत्सरायते ॥ सर्वदोत्कंठमानस्य भवनं काननायते ॥ ८९९ ॥ विजयोदया-कामातुरस्स गछवि खणो वि कामव्याधितस्य गम्छति क्षपोऽपि । सश्सर इष अंगानि च सीदति । भवस्युत्कंठितश्च पुरुषः ।। ९९६ Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाचासः मूलारावना ९९७ मूलारा-उठियो इष्टकामिनी प्रत्युत्युकः । अर्थ-जो मनुष्य कामपीडित हुआ है उसको एक क्षण भी वषके समान भासने लगता है. उसके संपूर्ण अंग का होते है. और वह किसीकी मार्गप्रतीक्षा कर रहा है ऐसा दिखता है. अथात् उत्कंठितसा दीखता है. अर्थात प्रियसीकी उत्कंठासे वह व्याकुल होता है. । tand पाणिदलधारदगंडो बहुसो चिंतेदि किं पि वीणमुहो । सीदे वि णिवाइजइ वेबदि य अकारणे अंग ॥ ८८७ ॥ हस्तन्यस्तकपोलोऽसौ दीनो ध्यायति संततम् ।। प्रस्थिपति तुषारेऽपि कंपते कारण विना ।। ९०० ।। विजयोदया-पाणिवलयरिदगडो पाणितलधृतर्ग, बहुसो चिंतेवि बहुशधितां करोति। किमपि दीनमुखः ॥ शीतेऽपि खिचते । बेपत्ते च अंगं कारणमम्यवंतरेण । मूलारा-पाणिदलधरिदगंडो इस्तवलन्यस्तफपोलः । णिवाइजदि प्रस्विति ।। अर्थ-कामरूपी रोगसे पीडित हुआ मनुष्य अपना गाल हाथके ऊपर रखकर दीनमुखसे अतिशय चिंतायुक्त होता है. इस चिंतासे ठंडीके दिन में भी उसके सर्व अवयव खदासे गीले होते है. और उसके अवयव बिना कारणके थर थर कांपने लगते हैं. भीति अथवा ठंडी ग्रह अवयव कंपके लिए कारण हैं. परंतु इनके चिना भी इसके अवयच कंपने लगते हैं. कामुम्मत्तो संतो अंतो डन्झदि य कामचिंताए । पीदो व कलकलो सो रदग्गिजाले जलतम्मि ॥ ८८८ ॥ अरत्यग्निशिखाजालैज्वलनिरनिवारितः॥ सोन्तर्विदस्यते पीतैस्तौस्तानद्रवैरिव ।। ९०१ ॥ विजयोदया-कामुम्मत्तो कामोन्मत्तःकामर्धितया चिरं दह्यते। पीततानव इव। अरस्पन्दीलासु ज्वलतीषु। ९९७ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना मूलारा-संतो सन् । कललये अग्नितामतामादित्रवे । अरत्यग्निजाले पीताग्नितप्तताम्रद्रय इवान्तवलति सति कामचिंताभिर्विशिष्टः सन् काममहाविष्टः पुरुषः परितप्यते । इति पदघटना । उक्तं च कामोन्मत्तो भवश्चिचे चिंताभिर्दह्यते नरः॥ अरत्यग्नौ ज्वलत्युच्चैस्त ताम्रद्रयो यथा ।। मूलारा-बयणपहिचत्तिकुसलत्तणं बचनप्रतिपत्तिवाक्पाटवं । कुशलत्वमर्थनैपुणं बचनप्रतिपत्तौ वागुपन्यासे प्रावीण्यं वा । सत्थपहदा शास्त्रक्षुण्णा । तिक्खा तीक्ष्णा ।। अर्थ-कामवेदनासे मनुष्य उन्मत्त होकर चिंतामे हम्भ होता है. जैसे शमी तपाहुआ तांबेका मोला जलता है वैसा यह कामीपुरुष कामचिंतासे अरतिरूप अग्रामें हमेशा जलता है. SANSKRIT कामादुरो णरो पुण कामिजते जणे हु अलहंतो ॥ धत्तदि मरिंदुं बहुधा मरु पवादादिकरणेहिं ॥ ८८९ ॥ मंदायते मतिर्याति सद्यो बचनकौशलं ॥ मदनेन ज्वरेणेव बाधितस्य वितापिना ।। ९०२ ॥ काम्यमानं जनं कामी यदा न लभते कुधीः ॥ मुमूर्षति तदोद्विग्नो नगप्रपतनादिभिः ॥ ९०३ ॥ विजयोदया-फामादुरो कामानुरी नरः । स्वाभिलरित अने अलमान चष्टत यहुधा मर्तु । पर्वतोदधिनिपातन तरशाखावलंबनन, अग्निप्रवेशानिना वा || मुलारा-घत्तदि चेष्टते । गोपति वा । मरुष्पवादाविकरणेहि गिरिप्रपाताशुपायैः । उक्त च काम्यमानं जनं कामी यदा न लभते कुधीः ॥ मुमूर्षति तदोद्विग्नो जगप्रपतनादिभिः ।। . अर्थ-कामातुर मनुष्य को अपना मिय मनुष्य न मिलनेस अर्थात उसको इष्ट स्त्री की प्राप्ति न होनेसे Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना वह पर्वतपरसे गिरकर मरने की इच्छा करता है. समुद्र में प्रवेश कर प्राण देना चाहता है. झारकी शाखामें फांसी लगाकर मरना चाहता है और अग्निप्रवेशादिक से प्राणत्याग करनेकी इच्छा करता है. आश्विासः - ९५९ संकप्पंडयजादेण रागदोसचलजमलजीहेण । ' विसयबिलवासिणा रदिमुहेण चिंतादिरासेण ।। ८९. ।। संकल्पांहकजालेन विषयच्छिद्रधासिना ॥ रागद्वषद्विजिलेन वृद्धचिलामहाक्रुधा ।। ५०१ ।। विजयोदया-संकप्डयजावेण संकल्पांजप्रसूतेन । रागवेपन्नलयमलजिह्वेन । विषयचिलवासिना रतिमुखेन चितातिरोषेण ॥ गलारा-संकाप इष्टांगनादर्शनाचा प्रत्युत्कंठागर्भाव्यवसायः । जमलं यं । वितादिरोसेण इष्टांगनागुणसमर्थन तहोपपरिहरणार्थविचारात्मचिंतनातिकोधन ।। अर्थ-यह कामरूपी सर्व संकल्प रूपी अंडसे उत्पन्न होता राग और द्वेष ऐमी दो जिहा उसको है. यह विपयरूपी बिलमें रहता है. विषयासक्ति ही इसका मुख है, और यह चिंतारूप रोपसे युक्त है. कामभुजगेण दट्टा लज्जाणिम्मोगदप्पदाढेण ॥ णासंति णरा अवसा अणेयदुक्खावहबिसेण ।। ८५१॥ दृष्टकामभुजगेन लज्जानिर्मोकमोचिना ।। वर्पदंष्ट्राकरालेन रतिवक्त्रेण नश्यति ॥ ९०५ ॥ विजयोदया-कामभुजगेण कामसर्पण । लज्जास्वनिमोचनकारिणा, दर्पदंरण दश अनेकदुःस्वावदधिषण नरा नश्यन्ति । मूलारा-सज्जाणिम्भोग लजैव निर्मोकः कंचुको यस्य मोच्यत्वान् । लजानिर्मोकमोचिनेत्यर्थः । अणेगदुक्सपगषिसेण अनेकदुःस्वात्मकविषेण ॥ Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना अर्थ-यह कामरूपी सर्प लज्जारूप कांचलीका त्याग करता है. उन्मत्ततारूप दादसे यह महाभयंकर || दीखता है. ऐसा यह सर्प जप दंश करता है तब अनेक दुःखरूपी विष मनुष्य व्याप्त होकर नष्ट होते हैं. आचाम: . ६ Dotos आसरविण अवरुद्धस्स वि वेसा इवति स ॥ सक्षेति पुगोभेमा काममुबंगामस्वस्त ।। ८९९ ॥ आशीविषेण दष्टस्य सगाः शरीरिणः ॥ । वष्टस्य स्मरसपण जायतेश सिंहलः ॥ ९०६ ॥ विजयोदया-आमीदिलमा: आशीविदेश मनाया इपस्यापि मष वेगा भवन्ति । कामभुजंगेन दष्टस्य दशवगा भवन्ति । मूलारा--आमीविसेण सर्माप्रपया। अवरकरूप वरूप । बेगा विषोका।। समन ॥ बसथा "पूढे एकदा केले जुष्टं इससीसमास्यसक् ॥ वापता नेववकादौ सर्पन्तीव च कीटकाः ॥ द्वितीये ग्रन्थयो बेगे तृतीये मुर्द्धगौरव ॥ हमोधो देशविष्लेदश्चतुर्थे छीवन कमिः ।। संधिविश्लेषण तंद्रा पंचमे पर्षभेदनम् काही हिधमा च पाहेपीला गावगौरवम् ॥ अच्छोडविषाकोडतीसार: प्राध्य सुकं तु सप्तमे ।। धाकलीमंघः सविता नियनम् ॥ अर्थ-जिसको सर्प दंश करता है उस ममुष्यको मार विषवेग उत्पन्न होते हैं. अर्थात सर्पके विषसे उस मनुष्यको सात अवस्थायें क्रमसे प्राप्त होती हैं. परंतु कामरूपी सर्पके दंशसे मनुष्यको दस अवस्थाओंको भोगना पडता है. Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना १००१ ताम्वशापि वेगान्कमेण वर्शयति-. पढमे सोयदि वेगे,दई त इच्छदे विदियवेगे ॥ .. हिस्ससदि तदियवेगे. आरोहदि जरो चउत्थम्मि || ८९३ ॥ शोचति प्रथमे धेगे द्वितीये ता दिक्षते ।। तृतीये मिगसिचळगायत ।। || विजयोदया-पढमे सोयदि येने प्रथमे वेगे शोचति । द्वितीये धेगे स तं द्रष्टमिच्छति । निःश्वसिति च तृतीये यंगे । आरोहति ज्वरश्चतुर्थे वेगे ।। के ते दावेगा इत्यत्र गाथात्रयमाड्-- मूलारा-पष्टम् । उन दश वेगोंका वर्णन कमसे आचार्य करते हैं अर्थ—कामयेगकी पहिली अवस्थामें वह कामी पुरुष शोकयुक्त होता है. दुसरी अवस्थाम इष्ट स्त्रको दग्बनेकी इच्छा करता है. तीसरे वेगमें दीर्घ श्रासांच्यास करना है. चौथे वेगमें उसको ज्वर चढता है. PAAAAAPurseAns TOSRASPARAMATTATRAPATAR-R RB डझदि पंचमकेंगे अंगं छठे ण रोचदे भत्तं ।। मुचिछज्जदि सत्तमए उम्मत्तो होइ अहमए ॥ ८९४ ॥ दाते पंचमे गात्रं भकं पठेन रोचते ॥ प्रयाति सप्तमे मूर्छामुन्मत्तो जायतेऽष्टमे ।। ९०८ ॥ विजयोदया-उमवि पंचमवेगे पंचमवेगे वद्यते । भक्तारुचिः पठधेगे | सप्तमगे मूहर्षति । उन्मसो भवत्यष्टमे ॥ मूलारा-पष्टम् । .... अर्थ-पांचवे वेगमें उसके अंगमें दाह उत्पन्न होता है. छठे वेगमें उसको अनादिकोंमें अरुचि उत्पम | होती है. सातवे वेगमें यह मूञ्छित होता है. आठवे वेगमें उसको उन्मतावस्था प्राप्त होती है. १२६ Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मायामा १००३ पवमे ण किंचि जगदि दसमे पाणेहिं मुच्चदि सदधो ॥ संकप्पवसेण पुणो वेगा तिव्वा व मंवा वा ॥ ८९५ ।। न वोत्त नबमे किंचिदशमे मुच्यतेऽसुभिः।। संकल्पतस्ततो वेगास्तीबा मंदा भवंति वा ।।९०९॥ विजयोदया-नवमे नात्मानं वेत्ति । दशमे धेगे प्राणचिमुच्यते । मवान्धस्य संकल्पयशेन पुनस्तीमा मैदा वा भवन्ति गाः। मूलारा-मबंधो कामांधः ॥ अर्थ नववे वेगमें वह अपने को भी जानता नहीं है और दशमें वेगमें वह प्राण छोड देता है. ये दशबंग संकल्पकी जैसी तीव्रता अथवा मंदता होगी वैसे तीव्र या मंद होते हैं. - अट्टामूले जोण्हे सूरो विमले णहम्मि मज्झण्हे 11 ण डहदि तह जह पुरिसं डहदि विकतउ कामी ॥ ८९६ ॥ ज्येष्ठ सूरः सिते पक्षे मध्याह विमलेम्बरे ॥ नरं दहति मो तद्वद्र्धमानो यथा स्मरः॥ ५१०।। विजयोदया-जेवामूले ज्येष्टमासे शुक्लपक्ष विमले नभसि मध्याके रविः स न दद्दति तथा यथा पुरुष यहति प्रचईमानः कामः || मूलारा-जेठे ज्येष्ठमासे | मूले मुलनक्षत्रे । जोण्हे शुक्लपक्षे । णहम्मि आकाशे ॥ अर्थ-ज्येष्ठमासके शुक्ल पक्षमें निरभ्र आकाशमें मध्याससमय में सूर्य भी उतना पुरुषको संतप्त नहीं करता है जितना यह काम संतप्त करता है. अर्थात् ज्येष्ठमासके सूर्यतापसे भी इस कामका ताप प्रचंड और असह्य है. सुरगी डहदि दिवा रतिं च दिया य डहइ कामगी॥ सूरस्म अस्थि उच्छागारो कामग्गिणो णत्थि ॥ ८९७ ॥ Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाम मनारापना। १००३ दिवसे प्लोषते सूर्यो मनोघासी दिवा निशम् ॥ अस्ति प्रच्छादनं सूर्य मनोवासिनि नो पुनः ॥ ९१५ ॥ बिजयोदया-सूरग्मी डहदि दिया सूर्यामिति विया, नक्तं विधा दक्षति कामाप्तिः । सूर्यस्याच्छादनकारी उत्रादिकमस्ति न कामानेः ॥ मूलारा-उच्छाकारो आच्छादनकारि छत्रादिकं ।। अर्थ-सूर्यरूपी अग्रीका ताप लोकोंको दिन में ही संतप्त करता है. परतुं यह कामामि रातमें और दिनमभी चोबीस घंटे जीवाको सताता है. सूर्यसंताप सत्रादिकसे दूर कर सकते हैं परंतु इस कामापीको लोक शांत नहीं कर सकते हैं. STOTRAVEL विज्झायदि सुरगी जलादिएहिं ण तहा हु कामग्गी ।। सूरगी डहइ तयं अम्भतरबाहिरं इदरो ॥ ८९८ ॥ वन्हिर्षिध्याप्यते नीरैर्मन्मथो न कदाचन ॥ प्रश्लोषते पहिहिहिरन्तश्च मन्मथः ॥ ९१२ ।। विजयोदया–विज्जायनि सूरगी विध्याति सूर्यजनितस्तारो जलादिमिर्न तया जलादिभिः कामाग्निः प्रशाम्यति । सूर्यस्योष्णत्वं त्वचं दहति । कामाग्निरंतर्बहिश्व दहति । मूलारा--सूरमगी सूर्यजनितस्तापः | तयं त्वचम् ।। अर्थ- सूर्यरूपी अग्रीका संताप जलादिक शीतोपचारसे दूर कर सकते हैं. परंतु कामाग्निको बुझाने के लिये कोई उपाय नहीं है. सूर्यकी उष्णता स्वचाको जलाती हैं परंतु कामाग्नि इस शरीरको और आत्माकोभी जलाती हैं. १००३ जादिकुलं संवास धम्माणि य बंधवम्मि अगणित्ता ।। कुणदि अकजं पुरिसो मेहुणसण्यापसमूढो ॥ ८९९ ॥ Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा बंधुं जाति कुलं धर्म संवासं मदनातुरः ।। अवमन्य नरः सर्व कुरुते कर्म निंदितम् ।। ५१३ ।। विजयोदया-जादिकुलं मातृपितृवंश । संघास सहयसनं । धर्म बांधवानपि अवगम्य पुरुयोऽकार्य करोति मथुनसंज्ञा मूढः मूलारा-संवास सहयसनो जनान मित्रादीन ॥ अर्थ-कामेछासे जब मनुष्य व्याकुल होता है तब आपकी जाति और कुलका विचार नहीं करता है. अपने साथीदारोंका अपने धर्मबंधओंको भी बचन मानता नहीं है अर्थात वह निलज्ज होता है. और अकार्य कर बैठता है. कामपियरगहिदो हिदमहिदं बा | अप्पणो मुणदि ।। होइ पिसायरगहिदो वसदा पुरिसो अणप्पवसो ।। ९०० ॥ पिशायमेव कामेन व्याकलीकृतमानसः ॥ हिताहितं न जानाति निर्षिषेकीकृतोऽधमः ॥ ९१४ ॥ विजयोवया-कामपिसायग्गहिदी कामपिशाचगृडीत- हितमहितं वा न सि, पिशावेन गृहीतः पुरुष इब सवा अनावशो भवति ।। मूलारा-स्पटम् ॥ अर्थ-पिशाचग्रस्त मनुष्य जैसा आपेमें नहीं रहता है वैसा कामपिशाचके वश हुआ मनुष्य हिताहित जानवा नहीं. वह बुद्धिभ्रष्ट होता है. णीचो व णरो बहुगं पि कदं कुलपुत्तओ वि ण गणेदि । कामुम्मन्तो लज्जालुओ वि तह होदि णिल्लज्जो ॥ ९०१ ॥ नोपकार कुलीनोऽपि कृतघ्न इव मन्यते ॥ लजालुरपि निलेजो जायते मदनातुरः ॥ ९१५ ॥ २००४ Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आश्वास १००५ विजयोदया-णीचो व गरो मीन एव नरः छतमपि यमुपकारं न गणयति । कुलपुत्रोऽपि सन्कामोन्मत्तो लज्जावानपि पूर्व रिपतलग्जो भवति । - मूल- -- . गोदो मधुलोन इव । अत्तयो टीना ।। अर्थ-नीच मनुष्य सज्जनोने किये हुए उपकारको भूल जाता है वैसे कामपीडित मनुष्य प्रथम लज्जाबान होता है परन्तु अन्त में वह लज्जाको तिलांजलि देता है. काभी सुसंजदाण वि रूसदि चोरो व जग्गमाणाणं ॥ पिच्छदि कामग्धत्थो हिदं भयंते व सत्त व ॥ ९०२ ॥ स्तनो या जागरूकेभ्यः संयतेभ्यः प्रकुप्यति॥ हितोपदेशिनं कामी द्विषन्तमिव पश्यति ।। ९१६ ॥ विजयोदया-कामी सुसंजदाप बि कामी सुसंयतानामपि हच्यति । जाग्रता चोर व कामप्रस्तः, प्रेक्षते हितं प्रतिगादयतः शत्रुरिय ॥ मुलारा- कम्मग्यस्थो कामप्रस्तः ।। अर्थ-कामी मनुष्य संयमी मनुष्योंपर रुष्ट होता है जैसा चोर जागरण करनेवाले पुरुष पर रुष्ट है. जो मनुष्य उसको हितका उपदेश करते हैं उसको कामीपुरुष शत्रुके समान गिनता है. आयरियउबझाए कुलगणसंधस्स होदि पडिणीओ ॥ कामकलिणा हु वत्थो धम्मियभावं. पयहिदणं || ९०३ ॥ सूर्योपाध्यायसंघानां जायते प्रतिकूलिकः ॥ धार्मिकत्वं परित्यज्य प्रेर्यमाणो मनोभुवा ।। ९१७ ॥ विजयोदया–अगरियउवझायग आचार्याणां अध्यापकानां, कुलस्य गुरुशिष्यवर्गस्य, गुरुधर्मभ्रातृशिष्याणां वा। चातुर्वर्ण्यस्य या संयस्य च भवति प्रतिकुल कामकलिना ग्रस्तः धार्मिकत्वं विहाय ॥ १६. Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना २००६ यूराण अध्याय गुरुमं भ्रातृशिष्यो वा । गण स्वशिष्यवृदं । संघ चातुर्वर्ण्यम्। परिणीओ प्रतिकूलः । कलि दोषः || अर्थ — कामदोष से व्याप्त हुआ पुरुष आचार्य, उपाध्याय, गुरु और शिष्यवर्ग और अपने सहाध्यायी, चातुर्वर्ण्य और संघ प्रतिकूल होता है. काम त्यो पुरिसो, तिलोयसारं जहदि सुदलाभं ॥ तेलोकपूइदं पि य मापं जहदि विसयंधो ॥ ९०४ ॥ रम्यं त्यजति विषयांघः ॥ माहात्म्यं भुवनस्यतिं श्रुतलाभं च सुचति ॥ संतृणावया सारं मोहाच्छादितचेतनः ॥ ९१८ ॥ विजयोदय-कामग्यत्यो कामग्रस्तः । त्रैलोक्यसर्वसारमपि घुसलामं जहाति । वैलोक्येन पुंसित माहा मूलारा— स्पष्टम् । अर्थ — कामग्रस्त मनुष्य त्रैलोक्यमें सर्वोत्कृष्ट और साररूप ऐसे बुतज्ञानके लाभको छोड़ता है. त्रैलोक्यसे पूजनीय ऐसा भी अपना माहात्म्य वह कामग्रस्त होकर खो बैठता है. तह बिसयामि सघत्थो, तणं व तवचरणदंसणं जहर | विसयामिसगिरस हु, गत्थि अकायव्वयं किंचि ॥ ९०५ ॥ जीर्ण तृणमिय मुख्यं चतुरंग विमुचतः ॥ नाकृत्यं विद्यते किंश्विजिघृक्षोर्विषयामिषम् ॥ ९६९ ॥ विजयोदयात चिसामित्थो विषयामिपलंपटः तृणमिष तपश्चरण दर्शन व जहाति । विश्यामि पलंपटस्य नास्त्यका किंचियः ॥ मूढांरा-- आमिस आहारः । चत्यो पदः ॥ अवासः १००६ Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः கோகாகாகாகாக்கலாகாக்க காககககககபாபாகாதாதாகாகாகாகாகாவாகாது अर्थ-विषयरूपी आहारमें लंपट होकर कामी पुरुष रत्नत्रयको तिनकेके समान त्याग देता है तप छोडता है. उसके लिए अकार्य कुछ भी नहीं है. अरहतलिद्ध आयरिय उवज्झाय सधवग्गाणं ।। कुणदि अवण्णं णिच्च कामुम्मन्तो विगयवेसो ॥ ९०६ ॥ गृहात्यायमा मेसिनः ।। अकृत्यं कुर्बतस्तस्य मर्यादा कामिनः कुतः ॥ ९२० ।। विजयोडवा-अरहतसिद्धआयरिय अर्हता. सिद्धानां, आचार्याणां, उपाध्यायाना, सर्वेषां गतीनां पाथर्णवाद। करोति नित्य विकृतवेषः ॥ मूलारा--अब अकीसि । विपदबेसो विकृतवेषः । विनष्टयनिरूप इत्यर्थः॥ अर्थ-कामी पुरुष अरइंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय और सवें मुनिओंकी सदा निंदा करता है. अर्यात उनमें दोष न होनेपर भी दोषारोपण करता है. और यदि स्वयं वह पति होगा तो यतिफ्ना छोडकर अन्य वेष धारण कर यथेशचरण करता है. -RTHTTP : अयसमणत्थं दुःखं इहलोए दुग्गदा य परलोए ॥ संसारं पि अणतं ण मुणदि विसयामिसे गिडी ।। ९.७ ॥ स दुःस्वमयशोऽनर्थ कल्मषं द्रविणश्यम् ।। संसारसागर नंते भ्रमणं च न मन्यते ॥ ९२१ ॥ विजयोदया-अयसमणधं अयशःअमर्थ । दुःखं चेहपरलोक दुष्टो गति, संसारमप्यनंनं भाचिनं न यत्ति घिषयामिषे मृवः॥ मूलारा-पाष्टम् ॥ अर्थ-विषयरूपी आहारमें आसक्त होकर वह कामी अयश, “अनर्थ, दुःख, इह परलोकमें अशुभगति. 7. ७ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ! १००८ और अनंत संसारकी वृद्धि इन बातोंको वह जानताही नहीं अर्थात् मैं विषयलंपटी बनने से मेरी बुरी हालत बनेगी. मेरेको संसारमें अनंतकालतक दुर्गति धारण कर अपकीर्ति के साथ भ्रमण करना पडेगा इन बातोंका वह विचार ही नहीं करता है. णीच पि विसयहेतुं संवाद उच्चो वि विसयलुद्धमदी || बहुगं पिय अवमाणं विसयंधो सहइ माणीवि ॥ ९०८ ॥ उवोऽपि सेवते नीचं विषयाभिषकांक्षया ॥ स्मरातः सहते वज्ञां मानवानपि मानवः ॥ ९२२ ॥। विजयोदय - णी पि बिसयहेतुं ज्ञानकुलादिभिरतीय न्यूनमपि सेवते कुलीनो बुद्धिमानपि विषय लुध्धमतिः । परिभवं महांतमपि धनिभिः क्रियमाणं सहते विषयांधः ॥ मूलारा – अवमाणं धनिभिः क्रियमाणं पराभवं । माणी वि मानवानपि । अर्थ -- विषयसेवनके लिए वह उच्चकुलीन और बुद्धिमान होकर भी विषयमें लुब्ध होकर ज्ञान, जाति और कुलादिसे हीन ऐसे नीच पुरुषोंकी सेवा करता है तथा उसका माना स्वभाव होते हुए भी वह विषयां नसे किये गये अनेक अपमानोंको और धनिजोसे किये गये अपमानों को सहता है. पि कुदि कम्मं कुलपुत्तदुगुछियं विगदमाणो || वातिओ विकम्मं अकासि जह लांघियाहेदुं ॥ ९०९ ॥ कुलीनो निंदितं कर्म कुरुते विषयाशया ॥ जिवृक्षुकों वृत्तं चारित्रं त्यक्तवान्न किं ॥ ९२३ ॥ विजयोदयाप कुणदि नीचमपि करोति कर्म उभिएभोजनादिकं कुलीननिदितं विनाभिमानः । वारतिगो नाम यतिरतिगर्हितं कर्म कृतवान् यथा कुलीनः स्त्रीनिमित्तं ॥ मूल्यराणी भोजनादिकं । वारतओ वारत्रको नाम यतिः । अकासि अकार्षीन् कृतवान् । विवाहेतुं नर्तकीनिमित्तम । " आवारा ६ २००८ Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलन आश्वास अर्थ-कलीन जिसकी निंदा करते हैं ऐसा कर्म-कृत्य वह विषयी पुरुष अभिमानको तिलांजली देकर करने लगता है. उच्छिष्टभाजनादिक कार्य नीच कार्य है. ऐसे कार्य वह करता है. कुलीन ऐसा वारत्रिक नामक यतिने नाचनेवाली स्त्रीके निमित्त निंद्यकर्म किये थे. यह उदाहरण है, सूरो तिक्खो मुक्खो वि, होइ बसिओ जणस्स सधणस्स | विसयामिसम्मि गिद्धो माण रोसं च मोत्तूणं ।। ९१० ।। कामी शरोऽपि तीक्ष्णोऽपि मुख्योपि भवति स्फुटम् ।। विगर्चः श्रीमतो वश्यो वैद्यस्य गवानिव ।। ९२४ ।। विजयोदया-सुरो तिफ्नो मुक्खो कि होइ सूरस्तीक्ष्णो मुस्योऽपि धनिनो जनस्य घशवर्ती भवति । विषयाभिलाषे लुब्धः वः अभिमान रोपं मुफ्वा ॥ मूलारा-तिक्खो असहनः । मुक्खो मुख्यः, प्रधानः, बसिगो वशवर्ती ॥ अर्थ-विषयाभिलाषी होकर शूर, निपुण और मुख्य ऐसा भी पुरुष विषयवश होकर मान और रोषको छोडकर धनिक जैसे नचाते हैं वैसा नाचता है. माणी वि असरिसरतवि चडुयम्म कुणदि णिच्चमविलज्जो ॥ मादापिदरे दासं वायाए परस्स कामेंतो ।। ९११ ।। विधत्त घाटु नीचस्य कुलीनो मानवानपि ।। मातरं पितरं वाचा दासं कुर्वन्नपत्रपः ॥ ९२५ ॥ विजयोदया-माणी वि असरिसस्म विमानी असशस्यापि । चाटुं करोति । वाचा आत्मीयां माता पितरं वा दायमापादयति । तवाहं दामो गृह मन्त्रामीति बदम्परं कामयमानः॥ लाग---अमरिभास बिनीचस्यापि । बटुकम्म चादकारपूर्वक कम पाहमर्दनादिक । अविलजी निर्लजः ना । कामेता कामयमानः कुवन इत्यर्थः । मम गाता नब दासी मम पिता तम दास इति कथयन । उक्त च Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः मानी च करोति सदा चटुकर्मा लचितोऽप्यसहशस्य ।। मातापिनरी दालम्य कथयति लोकम्य कानांधः ॥ इमां गाथां टीकाकारो नेच्छनि ।। अथ-मानी मनुष्य भी हीन जानीय लोगोंकीभी विषयलंपट होकर वशामत करता है. उनक पर दामना शरीर मदन करना वगैरह कार्य करना है. और निलंज्ज होकर मैं दास बनकर तरी सवा करुंगा एमा कहता है. मेरी माता और पितामी तुमारे दास चनेंगे एसा कहता है. बयणपडिवत्तिकुसलत्तणे पिणासइ पारस्स कामिस्स ॥ सत्थप्पहब्ब तिक्खा वि मदी मंदा तहा हबदि ॥ ९१२ ॥ विजयोदयान्वयणपडियत्तकुसलत्तणं पि चने प्रतिपत्तौ च कुशलतापि बिनश्यति कामिनो नरस्य । शास्त्रमहता शास्खे घटिता अतितीपणापि मतिः कुंठिता भवति ।। अर्थ-कामी मनुष्यका बचन-चातुर्य और उसकी बुद्धीकी चतुरता नष्ट होती है. शास्त्रों का निरूपण करने बाली अतिशय चातुर्ययुक्त भी उसकी बुद्धि मंद हो जाती है. होदि सचक्खू वि अचरखुव बधिरो वा वि होइ सुणमाणो । दुकरेगुपसत्तो वणहत्थी चेव संमूटो ॥ ९१३ ॥ न पश्यति सनेनापि सश्रोत्रोऽपि शृणोति न । कामातः प्रमवाकांक्षी देनीव हसचेतनः ।। ५२६ ॥ विजयोदया-होदि समयसूचि अचक्लव चक्षुष्मानपि अचक्षुरिध भवति । परं समीपस्थमपि यतो न I पश्यति । यहिरो वा वि दोदि बधिर इच श्यति । सुणमायो शायनापि अव्यक्त.श्रवणात् । दुकगणुपसत्ता तुष्करिणीप्रसक्तः । यावत्थी व वनहस्तीव । संमूदः । मूलारा-अचक्खुब अंध इब समीपस्थमपि यतो न पश्यति । सुणमाणो ण्यन्नपि । बधिर इच भवत्यव्यक्त श्रवणान् । वनइत्थी रेव बनगज इव ।। Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i । PHOTIPORNTr भावासा मूलाराधना १०११ अर्थ-वह कामी मनुष्य नेत्रयुक्त होकर भी अंधेके समान होता है. अपने पासकी भी वस्तुको वह देखता नहीं. सुनकर भी बहिरेके समान अनसुनी कर देता है. जैसे वनका उन्मच हाथी दुष्ट हाथिनीके वश होकर मूह बन कर कुछ सुनता नहीं कुछ देखता नही चैसी ही कामी पुरुषको स्थिति होती है, वे हितकी बातें सुनना नहीं चाहते हैं. और हितकर जिनमृर्ति, मुनि वगरोंको दर्शन करना नहीं चाहते है. EDnna सलिलणिबुढोब्ब णरो बुझंतो विगयचेयणो होदि । दक्खी बि होइ मंदो, बिसयपिसाओवहदचित्तो ।। ५१४ ॥ सलिलेनेव कामन सद्या जाव्यविधायिना ॥ दलो पि जायते मंदो नीयमानः समततः ॥१२७ ।। विजयोदया- सलिलो बुग्यतो पानीब्य सलिलनिमग्नः प्रचाहणोहामानों नरो यथा । विगयनयणो विपत. नेतन्यो भवति । नवखा शिक्षा क्षोदि सचार्य प्राणोऽपि जो भनाति । यिसयपिसामोन्याश्चिती गिगापिकालोपनधिसः विनया समाजमोत्रिभानुरक्षाम्पिशाबा गतिविषयाः पिशाचा इत्युक्ताः ।। मसार:-सनी पराग मानः । कामकारकीरः । विनयविनामोबदवित्ती पिय। सपा विभाग इन चनाविनपतुत्वात पदनामाः । अर्थ-जिसे पानीको प्रवाह ड्या हुआ और बहता जा रहा है ऐसा मनुप्य बतनारहित अर्थात मदिन होता है. बस पांचों इन्द्रियों के विषयरूपी पिशाचस वन हुआ मनुष्य यदि कार्य कुशल हो तो भी यह मंद बुद्धि होता है, अर्थात् रूपादि पदाथाई । उसकी बुद्धि दांडती है अतः इतर कार्यों में वह मंदसा होता है. बारसवासाणि वि संबसित्तु कामादुरो ण णाप्तीय ॥ पादंगुइमसंतं गणियाए गोरसंदीवो ॥ ९१५॥ पर्पद्वादशकं वेश्यां निषेव्यापि स्मरातुरः॥ नाज्ञासीहोरसंदविःपदांगुष्ठमशोभनम् ॥ ९२८॥ २०११ AND Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना बावाद विजयोवयर-बारसषासाणि दादशवर्षमात्र सहोषित्वापि कामादुरोपि । कामातुरोपि। मप्रासयागोरसंधीपः । किं ? गणिकायाः पापांगुष्ठमसन्तं ॥ मूलारा-संयसिसु सश्वासं फत्वा । ण णासीय न शातवान् । असंतं अषिणमानं अशोभनं वा शीर्णमित्यर्थः । गणियाए वेश्यायाः कायसुंदरीनाम्न्याः । गोरसदीयो मुनिनामेदं ॥ अर्थ-गोरसंदीव नामक अनि बारा वर्पतक एक कायसुंदरी नामक गणिकाके सहवासमें रहा था परंतु उस मणिकाके पावको अंगुठा नहीं था यह बात उसको मालूमही नही थी. RAANATARAMATARA १०१२ सीदं उण्हं तण्हं खुहं च दुस्सेज भत्त पंथसम ॥ सुकुमारो वि य कामी सहइ भारमवि गरुयं ॥ ९१६ ॥ सीनमुरणं सार श ला पनि असार ।। दुःशयां सहते कामी बहने भारमुल्यणम् ॥ १२५ ॥ विजयोदया-नीद उगई तण्ठं शीर्त, गणं, ताणां 1 शुधा दुःशयनं. दुगहारं कृतं, अध्वगमनश्रमं च सहते। का। समारोपि गुरुमपि भावहति ॥ गुलारा-दुस्सेज भक्त दुःशयनं दुहारं च । पंथ समं मार्गगमनखदप ॥ अर्थ-ठंडी, ऊन, प्यास, भूख, खराव शय्या, खराब आहार, और मार्गश्रम इन सबको कामी मनुष्य सहता है. वह मुकुमार होनेपर भी बहा भार धारण करता है.. गायदि पाच्चदि धावदि कसइ ववदि लवदि तह मलेइ णरो ।। तुण्णइ उण्णइ जाचइ कुलम्मि जादो वि विसयवसो ॥ ९१७ ॥ क्षुप्यते कृष्यते लूयते पूयते प्राप्यते पायते सीप्यते पिश्यते । जियते भिद्यते क्रीयते दीर्यते रव्यम्यते रज्यते सज्यते कामिना ।। ९३० ॥ बिजयोदया-गायदि पादि-गायति, नृत्यति, धावति, ऋषति, धपति, लुनाति, मईयति, सीव्यति, पट्टयमादिवयनं करोति । याचते कुलप्रसूतोऽपि सम्बिषयमुपगत भात्मानं मास् च पोषयितुं ।। Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S H . .. . मूलारावना भाभास मूलारा---किसदि कृपति क्षेत्रं वाहयतीत्यर्थः । लयदि लुनाति, मलेदि मर्दयति । तुण्णेदि तुण्णयति । विणदि वयति ।। अर्थ-विषयवश उच्चकुलीन मनुष्य गाता है, नाचता है. दौड़ता है, वीज बोता है, जमीन नांगरता है. महन करता है, कपंड सीता है, कपडे बुनता है, अपना और पत्नीका पोषण करने के लिये उपयुक्त कार्य करता है. सेवदि मिनादि खदि गोपडिमिमजावियं हयं हथि ।। वबहरदि कुणदि सिप्पं सिणेहपासेण वढबद्धो ।। ९१८ ॥ गोमहिषीहयरासभरक्षी काष्ठतृणोदकगोमयवाही ।। प्रेषणकंडणमार्जनकारी कामनरेन्द्रस्यास्ति मनुष्यः ॥ ९३१ ।। आयुधैर्विविधैः कीर्णा रणक्षोणी विगाहते ॥ लेखनं कुरुते दीनः पुस्तकानामनारतम् ॥ ९३२ ॥ संयुकां कर्षति नाणी गर्भिणीमिव योषितम् ॥ अधीत्य बहुशःशास्त्रं कुरुते शिशपाठनम् ।। ९३३ ।। शिल्पानि यहुभेदानि तनुत परतुष्टये ।। वित्त वचनां चित्रा वाणिज्यकरणोयतः ॥ ३४ ।। अवमन्य भवाम्भोधौ पतन बहुवीचिके ।। । किं किं करोति नो कर्म मयों मदनलंधितः ।। ९३५ ।। विजयोदया-सेवदि णियादि-सवति सस्यांतर्गतं तृणादिकमव । निजति, रक्षति गां, महिषी, अजाः, आधिक, ह, हस्तिनो वा । वाणिज्यं करोति । समस्तनैपुण्यं अतीव तत्कादिकं करोति कामिनीगतस्नेहभावेन रहयतः ॥ मूलारा-सेवदि गियादि सेवते नीचादिक । अधवा सेवदि राजादिसेवां करोति । णियादि निदयति सस्यांतगंत तृणादिकमुत्पाटयतीत्यर्थः । अजाविगं छागमे । बबाहरदि याणिज्यं करोति। सिप्पं शिल्प करकौशलं काष्ठचित्रादिकर्म । Leval Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आयासः अर्थ—खीके स्नेहपाशसे जखडा हुआ वह कामी मनुष्य नीच मनुष्यकी अथवा राजाकी सेवा करता है. धान्यके बीच में उत्पन्न हुआ तृण निकालता है. गाय, भैस, बकरा, हाथी, घोडा वगैरह प्राणिओंका रक्षण करता है. व्यापार करता है, हस्तकौशल्यके कार्य करता हैं. अर्थात् नानाप्रकारके काठके चित्रादिक बनाता है. - - बेढेइ विसबहेदु कलस्त पासेहिं दयिमोपहिं । कोसेण कोम्मियारुव दुम्मदी णिच्च अप्पाणं ॥ ५१९ ॥ दमांचः कागिनीपारी कामी वेष्टयते धीः ।। लालापारिवात्मानं कांगकारामः स्वयम् ॥ २६॥ विजयोदया-वढे विसयाटुं ययति विषयहेनुनिमित्तं । आत्मानं कलत्रपामांचयिनुभशक्यः कोशेन कोशकारकीट च दुर्मतिः॥ मूलाग–बेनि धेभ्यति मध्नाति । दुरिमोहिं मोचयितुमहावयः । कोसेण सालाततुजालेन । अर्थ-विषयसुख भोगनेकी इच्छासे जिसका छुटना अशक्य है ऐसे स्त्रीके स्नेहपाशसे कामी मनुष्य अपनेको चेष्टित करता है, जैस रेशमको उत्पन्न करने वाला कीडा अपने मुख से निकले हुए तंतुओंसे अपनको वेष्टित करता है. | - ATTA सगो दोसो मोहो कसायपेमुण्ण संकिलेसो य ।। ईसा हिंसा मोसा सूया तेणिक कलहो य ॥ ९२० ॥ रागो द्वेषो मवोऽस्या पैशून्यं कलहो रतिः ॥ बचना पराभूतिर्दोषाः सन्ति स्मरातुरे ॥ ५३७ ।। विजयोदया-रागो दोसो रागो द्वेषः, अशानं, कवायाः, परदोषसंस्तवनं, संक्लेशा, या, हिंसा, मृग, परगुणासंहनं, स्तैन्यं कलहश्च ॥ मूलारा-मोहो अज्ञान । पेसुण्णं परवोषसूचनं । मोसं असत्यं । असूया परगुणासहनं । तेणिक चौर्य ।। Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराषना १०१५ पण परिभवणियडिपारवादरिपुरोगसोगघणणासो ॥ विसयाउलम्मि सुलहा, सच्चे दुक्खावहा दोसा ॥ ९२९ ॥ विजयोदया - जंपणपरिभय जल्पनं परिमयः । यंवना परोक्षेऽपवादः । शत्रुः, रोमशोकी, धननाश इत्यादयः । बिसाउलम्मि सुलहा विषयाकुले सुलभाः सर्वेऽपि दुःखावड़ा दोषाः || मूलाश - पण दोषोद्धोषणं । नियडि निष्कृतिः वंचना । परिवाद परोक्ष अपवादः । विसयाउलम्भि विषया कुले पुति ॥ अर्थ -- जो विषयसे दुःखित है ऐसे मनुष्यमें रागद्वेष, मोह, अज्ञान, कपाय, परदोषोंका कथन करना, परिणाम, इपी, स्पर्द्धा, हिंसा असत्यभाषण, अन्योंके गुण सहन न करना, चोरी और कलह ऐसे दोप उत्पन्न होते हैं. बडबडना, पराभव, फसाना: परोक्षमें निंदाकरना, रोग, शोक, धननात वगैरह दोष उत्पन्न होते हैं प्रायः ये सूत्र दोष कामी मनुष्य में सुलभतया उत्पन्न होते हैं न केवलमा पत्र मिकरोति कामीति वदति-अवि य यहो जीवाणं मेहुणसेवाए होइ बहुगाणं ॥ तिलणालीए तत्ता, सलायवेसो य जोणीए || ९२२ || तिलनायामिव श्रियं सप्तलोहप्रवेशनं ॥ तिलानां देहिनां पीडा योग्यां लिंगप्रवेशने ॥ ९३८ ॥ विजयोदय अधिय हो जीवाणं । अपि च वहनां जीवानां श्रधो भवति । मैथुनसेवया । जोणी योग्यां । तिलैः पूर्णायां नायिकाय नमःशलाकाप्रवेश छ । दारा - अपि य अपि च । न केवलं मैधुन भजन्नात्मानमेत्र वैस्तैर्दोवैः कदर्थयति किं तर्हि योनिजंतू नपि बहून् हिनस्ति इत्यधिकमुच्यते इत्यर्थः । तत्ताय संपवेसे व तहाकायां प्रवेश्यमानायां विलपूर्णनालिकायां मिलानां वाधा यथेति संबंधः ॥ उक्तं च लिनायामिव श्रियं तप्त लोहप्रवेशने ॥ तिलानां देहिनां पीटा योग्यां लिंगप्रवेशनात् ॥ भाश्वास: १०१५ Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुकाराधना भावाम: कामी पुरुष स्वयंही इतने दोपसे पीडित होता है ऐसा नहीं परंतु दुसरोंफोभी उपद्रव करता है अर्थ-मैथुन सेवन करनेसे यह अनेकजीवोंका पध करता है. जैसे तिलकी फल्ली में अग्निसे तपी हुई सलाई प्रविष्ट होनेसे सब तिल जलकर खाक होते हैं वैसे मैथुन सेवन करते समय योनीमें उत्पन्न हुए जीवोंका नाश होता है. २०१६ Siate CATAMOLAPADAme कामुम्मत्तो महिलं गम्मागम्मं पुणो अविण्णाय ।। सुलहं दुलहं इच्छियमणिच्छियं चावि पत्थेदि ॥ ९२३ ।। इजहारीमनिल्या स्त्री दुर्यलां दुर्लभां कुधीः ॥ अज्ञात्वा याचत कामी सर्वाचारयहिर्मयः ।। ०.३९ ॥ विजयोदया-कामुम्मत्ता कामाम्मनो । लिगाः शरीरमात्मनश्च गम्यं भोग्य उतस्थिवगम्यमभोग्यमिति अविसाय इद मन्थमशुचि इति ब्रवीति । सुलभा दुर्लभा श्रात्मन्यमिन्दापयती निरभिलायां च प्रार्थयते ॥ मूलारा-गम्मागर्म खिचा:शरीरमात्मनश्न गम्यं भोग्य तस्विदगम्य अभोग्यं इत्यविज्ञाय यथास्वमनिरूप्य, मलभां दुर्लभामात्मनीच्छावतीमनिच्छावती वा कामोन्मत्तः खियं प्रार्थयते इति टीकाकारः । अन्ये तु सम्मागम्ममित्यपि महिलाविशेषणमाहुः । तथा च तद्ग्रन्थ:-- ___ कामोन्मत्तो गम्यामगम्यरूपां च दुर्लभां सुलभा ।। अज्ञात्वा प्रार्थयते भोक्तुं सेच्छामथानिच्छाम् ॥ अर्थ-कामविकारसे उन्मत्त हुआ मनुष्य खीका शरीर और अपना शरीर भोग्य है या अभाग्य है इसका कुछभी विचार नहीं करता है. यह शरीर पवित्र है या अपवित्र है इसका भी वह विचार नहीं करता है. यह खी दुर्लभ हैं या सुलभ है, यह स्त्री मेरी अभिलापा करती है या नहीं इसका बिना विचार करके ही उसकी वह प्रार्थना करने लगता है SATTA १०१६ दृण परकलत्तं किहिदा पत्थेइ णिग्विणो जीवो । ण य तत्थ किं पि सुक्खं पावदि पावं च अज्जेदि ॥ ९२४ ॥ Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृता रावना आवास: परकीयां स्त्रियं इण्टा किं कांक्षति विमूढधीः ॥ न हि तां लभते जातु पापमर्जयते परम ।। ५४० ।। विजयोदया-दण परकलत्तं परेषां कलत्रं हटा। कथं वा तत्प्रार्थयते जीयो निरस्तलज्जो ममेयं भवतीति । पतमा प्रार्थनामात्रादधिगतायो दुःस्व प्रामोति । पापं नियोगेनार्जयति । परदारान्प्रार्थयमानं जुगुप्सतेमलारा-किदधा कथं तावत् । णिनियो निर्लजः । तत्थ प्रार्थनामात्रप्राप्रे परकलने । च अदि उपार्जयत्येव ।। अर्थ—परतीको देखकर यह मनुष्य निर्लज्ज होकर कमी प्रार्थना करता है. यही मेरी होगी ऐसा गमझकर क्यों प्रार्थना करता है? प्रार्थना करने से तथा वह प्राम होने परभी दुःखही प्राप्त होगा और नियमसे पापोपार्जन होमा. आहट्टिदूण चिरमवि परस्स महिलं लमित्तु दुक्खेण ॥ . उप्पित्थमाविसत्थं अणिन्दं तारिस चेव ॥ ९२५ ।। अभिलष्य चिरं लम्ध्वा परनारी कथंचन ॥ अनिर्षसमषिश्वस्त सेवने ताहगेष सः ॥ ९४१ ।। विजयोदया-आहिण चिरमधि चिरकालमभिलष्यापि । परस्स महिलं परस्य महिला परस्य खियं । दुक्खेण लभितु क्लेशेन लभ्या । उपिपस्थं व्याकुलधविश्वस्तमनिर्वृतं चरणं रति क्रियाविशेषत्वेन नेयं। तारिसो भेष यथा तवैवामाप्तेः पूर्वमहप्तादयः पश्चावपि तथैवाससवन्दयत्वासादृशान्युरुयते ॥ परखीस विनमनुशोचति मलारा-आहिदूण अभिलष्य । विगं सोवास । उपिच्छविति पाढेऽपि स एवार्थः। अवीसत्थं अविश्वा|| समाकुलं वा । अणिब्बुदं असंतुष्टं । सेवमान इत्यध्याहारार्थक्रियायास्त्रीण्यपि विशेषगानि । तारिसो चेव पूर्वपदविवृतचित्त एवं भवति । उक्तं घ-- अभिव्य चिरं लब्धां परनारी कथं न च ।। अनिर्वत्तमविश्वस्त सेवने ताहगेव मः ।। Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १०१८ अर्थ- चिरकाल परस्त्रीकी मनमें अभिलाषा करने पर भी कदाचित् उसकी प्राप्ति होती भी नहीं. अथवा कष्टसे मिलभी गई तोभी उसका भोग लेते समय मन में भय उत्पन्न होता है मनमें अविश्वास उत्पन्न होता है. जिससे सुख की प्राप्ति होती नहीं- अर्थात् मिलनेके पूर्व जैसा वह अतृप्त था वैसा मिलनेपर भी भयादि विकार उत्पन्न होने से अतृप्तही रहता है. कहावे तधवारे संपतो जत्थ तत्थ वा देसे ॥ किं पावदि रइसुक्खं भीदो तुरिदो व उल्लावो ॥ ९२६ ॥ यत्र तत्र प्रदेश तामंधकारे कथंचन । अवाप्य स्वरितो भीतो रतिसौख्यं किमभुते ॥ ९४२ ॥ विजयोदया— कथमपि तमंधकारे केनचित्कारेण परबंधनां शास्था | अंधकारं संप्राप्तः । तां यत्र तत्र वा देश, शून्यगृहे शून्यायतने, अटव्यां च किं प्राप्तोसि ? रतिसौख्यं । प्रकाशे स्याभिलषितानवयवांस्तस्याः पश्यतो मृदुति शयनतले बिगतमनोव्याकुलस्य सुखं भवति । नान्यथेति भावः । किं प्राप्नोति रतिसुखं भीतः सन् राजपुरुषेभ्यस्तस्य । या संबंधिभ्यः । पश्यंति मां परे वनंति मां परपत्नीति या संभाषणं अपि तया त्वरितं किं पुना रतम् ॥ परस्त्रीसेवायां तमेव सुखाभावमुल्लिखति मूलारा - तं परमहिलां । जत्थतत्थ शून्यगृहादौ । भीदो नत्पतिराजपुरुषादिभ्यस्त्रस्तः । तुरिदो उत्ताचकः । विवो विगत संभाषणः । प्रकासे तन्मनोज्ञावयवान्पश्यतो मृदुशयनतले तदालिंगनादि कुर्वत निर्भयनिराकुला बचनहसनादिकमनुभवत सभोगसुखं भवतीति भावः ॥ अर्थ – दुसरा को फसाकर किसी तरह अंधकारमें उसकी प्राप्ति भी हो गई तो शून्य घरमें शून्य देवालमें अथवा जंगलमें उसके साथ रममाण होनेसे क्या रतिसांख्य मिलेगा अर्थात् उसके मनमें यदि इसका पति हम दोनों को देखेगा, अथवा राजाधिकारियोंक नजर में हम आजायेंगे किंवा परस्त्रीके कोई संबंधी यदि हमको देखेंगे तो वे हमको बांचेंगे. मारेंगे ऐसे विचारसे उसके साथ उसको भाषण करने के लिये भी निर्व्याकुलता नहीं रहती हैं तो उसके साथ रविमुखकी प्राप्ति कैसी होगी? शतिसुख की प्राप्ति होने पर भी वह सुखी नहीं होता है. प्रकाश में व्याकुलतारहित मृदुशय्यापर परस्त्रीके सर्व अवयव देखनेसे उसके साथ क्रीडा करनेसे सुख होगा अन्यथा नहीं. अत आखाम ६ १०१८ Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागाधना परस्त्रीके सेवन में सुख नहीं. उसके विचारसे अशुभ कर्मके आस्रव आते हैं जिससे आत्माको कुगम दारुण दुःख भोगने पड़ते हैं. परमहिलं सर्वतो वेरे वधबंधकलहधणनासं ।। पावदि रायबलादो तिस्से णीयल्लयादो चा! ९२७ ।। सर्वस्वहरण रोधं वधं यंध भयं कलिम् । तज्ज्ञानिपार्थिवादिभ्यो लमते शरदारिकः ।। ९४५ ।। विजयोव्या-परमहिलं सेवंतो परस्त्रियं सेवमानः, बरं, , बंध, कलह, धननाशं च प्राप्नोति राजमूलात् तस्याः वजनावर || परस्त्रीभाजोऽपायानाइमूलारा--तिम्से तस्याः । अर्थ-परस्त्रीका सेवन करने वालाको राजासे अथवा परस्त्रीके संबंधिओंसे वैर, रथ, बंध, कलह, धननाश वगैरह आपत्ति प्राप्त हो जाती है, जदि दा जणेइ मेहुणसेवा पावं सम्मि दारम्मि । अदितिव्वं कह पाबं ण हुज्ज परदारसेविस्स ॥ ९२८ ॥ अनर्थकारणं पुंसां कलने स्वेपि मैथुने ।। करोति कल्मषं घोरं परकीये न किं पुनः ।। ९४४ ।। विजयोदया-जदिता जण यदि तावन्जनयति मैथुनकर्मसया कि पापं खभायर्यायां । अतितीवं पापं कथं न भवेत् परवारसेविस्स परस्त्रीसेधिनः । अदत्तादानमहति द्वा यतो दोषी ॥ परवारसेविनस्तीव्रत्तरपापधंधमाहमूला:--अदितिव्यं अदत्तादानाबमासेवनदोषद्वयावेशादत्र तीयतरत्वमिति भावः। Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनाराधना आश्वास अर्थ-अपनी पत्नी भी यदि मैथुनसेवन करनेसे पाप उत्पन्न होता है. तो परस्त्रीके साथ मैथन सेवन करनेसे परस्त्रीसेवी मनुष्यको तनि पापकर्मका क्यों बंध न होमा. परस्त्रीसेवन करनमें चोरी, ब्रह्मचर्यविनाश ऐसे दो दोष उत्पन्न होते हैं. परस्त्री न दी हुई वस्तु है. मादा धूदा भज्जा भगिणीसु परेण विप्पयम्मि कदे ॥ जह दुवखमप्पणो होइ साता अपारस दिगर । यथाभिद्रूयमाणासु स्वसमातृसुतादिषु ॥ हरवं संपषते खस्य परस्पापि तस न किम् ।।९४५ ॥ विजयोदया-मादा धूवा मातरि हितरि भगिन्यां परेण विधिये कृते कर्मणि पथा :समात्मनो भवति । तथा तस्यापि नरस्य कुत्रं भवति । सन्मात्राविविषये असयवहारे सति ॥ स्वस्थेव परस्यामि परेण मात्राविषु दुराचारकरणे दुःखं भवतीत्येवंविधविचाररहितः पारदारिकोऽसपाहातितीत्रपार्य संचिनोतीत्येतद्गाधान्येनाइ मूलारा-धूदा पुत्री। अर्थ-माता, लड़की, अपनी पत्नी, और अपनी बहिन, इनके साथ किसीने कुछ दुराचार किया तो से अपनेको दःख होता है वैसे अन्य पुरुषकी माता, पत्नी बहिन और लडकीयोंके साथ असदयवहार करनेसे उसकाभी दुःख होता है ऐसा समझना चाहिये. . एवं परजणदुक्खे हिरवेक्खो दुक्खबीयमज्जेदि । णीयं गोद इच्छीणउंसवेदं च अदितिव्वं ॥ १०॥ इत्यमर्जयते पापं परपीडाकृतोद्यमः ॥ श्रीनपुंसकवेचनीनगोत्रं दमतरम १४६ ।। विजयोदया-एवं परजणदु:ख एवमन्य जनवुःख निरपेक्षः परदाररतिप्रियो दुःखबीजं संचिनोति । कि? असद्धेद्य कर्म, नीचैर्गोत्रं, स्त्रीब, नपुंसकत्वं च ॥ . १. SHREE Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना ५०२१ मूलारा - णिरवेक्त्रो निर्विचारः परदाररतिप्रिय इत्यर्थः ॥ दुक्खघीयं असद्वेगं । णीचागदं नीचैर्गोत्रम् ॥ अर्थ — जो दूसरोंके दुःखकी पर्वा नहीं करता है उसको दुःखका बीज ऐसा असातावेदनीय कर्मका बंध होता है और नीचगोत्र, स्त्रीपना, नपुंसकपना ऐसी अवस्थाओंकी प्राप्ति होती है जमणिच्छंती महिले अवसं परिभुंजदे जहिच्छाए ॥ तह य किलिस्सड़ जं सो तं से परदारगमणफलं ॥ ९३९ ॥ भुज्यते यदनिच्छंती किश्यमानांगनाचशा ।। तदेतस्याः पुरानन्याः परदाररतेः फलम् ॥ ९४७ ॥ भीमखयभुज्यमाना यन्तिश्य ति विजयोदया—-जमणिच्छी तत्तस्या जन्मान्तरात्ररितपरदारगमनफलं ॥ प्रातनपरदाररत्युपार्जितस्त्रीत्वो जीवः स्त्रीपर्यायमापनः परपुरुषेण बलादुपभुज्यमानः फ्रेशमुपैतीत्याहमूलारा-जं यत् । अणिच्छंती मोतारमकामयमाना । परिभुजदे परपुरुषेण बलात्परिभुज्यमाना सा स्त्री हिश्यते । तं से तत्तस्य जन्मांतरं परदारमुतिफलमिति संबंधः ॥ उतं - भुज्यते यदनिच्छंती डिश्यमानांगनाशा ॥ तदेतस्याः पुरातन्थाः परदाररतेः फलम् ॥ अन्ये जमणिच्छत महिलां असं परि मुंजवे जहिच्छारा ॥ तह वि किलिस्सदि सो इति पठित्वा एवं व्याचक्षते - यदनिच्छंतीमवश महिलां परिभुक्ते यथेच्छया यक्ष तथा परिभुंजानोऽसौ निर्वृतिं न प्राप्नोति तत्तस्य क्लेशप्रतिरूपं परस्त्रीमुक्तिफलमिति । तथा चोक्तम्-यदयमकामयमानां कामयते योषित वलादवशाम् ॥ क्लेशमुपैति तथासौ तदस्य परदारगमनफलम् || अर्थ - पुरुषकी इच्छा न करनेवाली परंतु पुरुष के द्वारा जो बलात्कार किया गया उससे संक्लेशपरिणा मोसे युक्त होती है. वह उसका पूर्वजन्ममें परस्त्रीभोगका फल हैं ऐसा समझना चाहिये. अर्थत् जिसने पूर्व जन्म में जबरदस्ती भावासः ६ १०२१ Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परखीका उपमोग लिया था वह पुरुप इस जन्ममें स्त्रीपर्यायको प्राप्त होता है तब वहमी बलात्कारसे मोगा जाता है. -मूलारापना आश्वास १०२२ महिलावेसविलंबी जं णीचं कुणइ कम्मयं पुरिसो ॥ तह विण पूरह इच्छा तं से परदारगमणफलं॥ ९१२॥ योषावेषधरः कर्म कुर्वाणो न यदश्नुते ।। कांक्षितं शर्म तत्तस्य परदाररतेः फलम् ।। ५४८ ॥ विजयोदया-महिलासचिलंची स्त्रीवेषविलंबनएरः पुरुषो यतीचं कर्म करोति । तथापि न पूर्यते इच्छा तत्तस्य पंढत्वं परवारगमनफलम् ॥ जन्मांतरपरखीमुक्त्युमानितनपुंसकवेयी जायो अपुंसकपर्यायमापन्नः स्त्रोवेवं धारयन् यत्र तत्र कामक्रीडां कुबनपि न सृष्यतीत्युपदिशति-- मूलारा-महिलावेसविलंबी स्त्रीवेषधारी । कम्मर्य कामक्रीडा । तं से तत्षंढत्वं तस्य स्त्रीवेपधारिणः ।। अर्थ-वीवेष धारणा करनेवाला पुरुष अर्थात् नपुंसक नीच कर्म करता रहता है तो भी उसकी इच्छा पूर्ण होती नहीं. यह उसका नपुंसकपना पूर्व जन्ममें परखीसंभोग करनेका फल है. अर्थात परस्त्रीसंभोग करनेवाले पुरुष अन्य जन्ममें नपुंसक होते हैं. भज्जा भगिणी मादा सुदा य बहुएसु भवसयसहस्सेसु ।। अयसायासकरीओ होति विसीला य पिच्चं से ।। ९१३ ॥ जननी भगिनी भार्या देहजा बहुजन्ममु॥ आयासाकीर्तिकारिण्यस्तस्य संनि विशीलिकाः ।। १५ ।। विजयोदया-मज्जा भगिणी माता भार्या भगिनी माता सुता च चहुषु भवसहस्रेषु धयशः आयास कुर्वन्त्यो भवन्ति नित्यं विशीलास्तस्य । पारदारिकस्य बहुषु भवेषु भार्यादयो विशीलाः संपद्यन्ते इत्याह sna Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वास: मूलारा-पष्टम् ॥ - अर्थ-परखी सेवन जिसने पूर्व जन्ममें किया था उसकी पत्नी, बहिन, माता और लडकी लक्षावधि जन्मामें अपकीर्ति करनेवाली, दुःख देनेवाली और हमेशा व्यभिचारिणी हो जाती है. १०२३ होइ सयं पि विसीलो पुरिसो अदिदुब्भगो परभवेसु ॥ पावइ वधबंधादि कलह णिच्च अदोसो वि ॥ ९३६ ॥ विशीलो दुर्भगोमुत्र जायत पारदारिकः ।। निदोषोऽप्यनुते यंध संक्शं कलहं वधम् ॥ ५५० ।। विजयोदया-ठोवि स पि भवति स्वयमपि विशीलः, पुरूपी धर्मगच प्रामीति नित्यं च वधधं आना सकलहं च दोषोऽपि। परस्त्रीभाजो विशीलभावादिलाभमाह-- मूलारा स्पष्टम् ।। . अर्थ- वह परदारसेवी पुरुष भी विशील-शीलवत रहित होता है और करूप होता है. निदोष होनेपर भी वध, बंध कलह इत्यादि दुःखोंको वह प्राप्त होता है. : R ASATARATAFATAR इहलोए वि महल्लं दोसं कामरस वसगदो पत्तो ।। कालगो विय पच्छा कडारपिंगो गदो गिरयं ।। ९३५ ॥ महान्तं दोषमासाद्य भवेऽप्र स्मरमोहितः ॥ मृत्वा कहारपिंगोऽगाच्छ्वनं दुःसहवेदनम ।। ९५१ ।। विजयोदया-इहलोए वि महल कहार पंगो इहलोकेऽपि महान्तं दोषं प्रातः कामवशंगतः । कालं त्या पश्चान्नरकेषु प्रविष्टः | चाच्यमत्रापानकम् ॥ उक्तमेवार्थमाख्यानेन यापयन्नाह - OM १८०३ Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमागता मूलारा-म्पाटम ॥ H: आश्वासः अर्थ-इस लोकमे भी करारपिंग नामक राजपुत्र कामवश होकर महान् दोपसे दूषित हुआ. और मर- II मोत्तर नरकमें उत्पन्न हुआ. ( आराधना कथा कोषमें इसकी कथा प्रसिद्ध है.) एदे सम्वे दोसा ण होति पुरिसस्स बंभचारिस्स ॥ तबिवरीया य गुणा हवंति बहुगा विरागिस्स ॥ ९३६ ।। भवंति सकला दोषा नैवामी ब्रह्मचारिणः ।। संपचंते गुणाचित्रास्तद्विपक्षा विरागिणः ॥ ९५२ ॥ 'बिजयोदया-ये सव्वे एते सबै योषा न भवन्ति ब्रह्मवारियः पुंसः । तद्विपरीताश्च गुणा भवन्ति बडयो विरागस्य॥ एवं कामदोषान्प्रदय तदभावं प्रकृते भाषयतिमूलारा स्पष्ठम् ।। उपर्युक्त सर्व दोष ब्रह्मचारी पुरुषको स्पर्श नही करते हैं. फामसेवनसे विरक्त ऐसे ब्रह्मचारीमें काम || दोषसे विरुद्ध बहुत गुण निवास करते हैं. अर्थ-जिसका रागभाव नष्ट हो चुका है ऐसा ब्रह्मवारी मुक्तजीव के समान प्रेक्षक होकर दीत्र कामाग्नीस दग्ध होने वाले इस सर्व जगको देखता है. कामाम्नीके कष्टसे ब्रह्मचारी मुक्त होता है. और चीतराग होता है. अर्थात् काम विकारस दूर रहना यही सच्चे मुख की प्राप्तिका उपाय है. कामकृत दोणका वर्णन समाप्त हुआ. - - * कामग्गिणा धगधगतण य डझंतयं जगं सव्वं ॥ पिच्छइ पिन्छअभूदो सीदीभूदो विगदरागो ॥ ९३७ ॥ कामावना कुषफलानि निषेवमाणा रम्ये नियविषये ललनानदीनाम ।। विश्रम्य चारुवदनाम्बु निपीयमानाः सौख्यन मारकपुरी प्रविशंति नीचाः ॥९५३॥ - PREET Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः नरो विरागो बुधवृदवंदितो जिनेंद्रवद्वस्तसमस्तकल्मषः ॥ विदयमानं ज्वलता दिवानिशं स्मराग्निना लोकमवेक्षतेऽखिलम् ॥ ९५४॥ इति कामदोषाः ॥ विजयोदया-कामग्गिय कामाग्रिना। धगधगायमानेन वश्यमामेन । दयमानं जगत्सर्व प्रेक्षते प्रेक्षकभूतः स्वयं विरतीभूतः । कः? वीतरागः ॥ ब्रह्मचारिणः मुखातिशयमाह-- भूलाग-पच्छगभूदो प्रेक्षक इव । देव न नस्कष्टाविष्ठ इति भावः । सीदीभूदो मिर्वतो मुक्तात्मवन ।। इति कामदोषाः ॥ इत्यिकथा इत्येतद्याख्यानायोत्तरः प्रबंधः ॥ कामकदा । महिलाकुलसंवासं पदि सुदं मादरं च पिदरं च ॥ विसबंधा अगणंता दुक्खसमुद्दम्मि पाडेइ ॥ ९३८ ।। जननी जनक कांतं तनयं सहवासिन ।। पातयति नितंबिन्यः कामार्ता दुःखसागरे ।। ९५५ ।। विजयोदया--महिला एखसमुद्रे पातयति विषयांचा अगणयन्ती। कि? कुल सहवासिनः पति, सुत, मानरं च। एवं कामदोषान्प्रबंधन व्याख्यायेदानी स्त्रीदोषाध्याचिख्यासुर्गाथाः पंचषष्टिमाहमूलारा--संयासं सहवासिनं । विसर्यधा कामार्ता । पाडेदि पत्यादीन धिपति ।। अर्थ-विषयांध दुई सी कुल, सहवासी, पति, पुत्र, माता और पिता इनका आदर नहीं करती है और सबको दुःखसमुद्र में डुबा देती है. - माणुण्णयस्स पुरिसामस्स णीचो वि आरुहदि मीसं 11 महिलाणिस्सेणीए णिरसेणीए व्व दीहदुमं ॥ ५३९ ।। १. ५ - Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनासंग आवा स्वनिःश्रेण्योन्नतस्यापि दुरारोहस्य लीलया ।। मस्तक नरवृक्षस्य नीचोऽप्यारोहति दुतम ॥ ९५६ ॥ बिजयोदया-माणुण्ण यस्स मानोन्नतत्य पुसमस्य शिर आरोहति नीचपुरुषोऽपि महिन्टानिःण्या दीर्घमिव दुमं॥ मूलाग--दिग्बदुम पुच्चभम् ॥ अर्थ-स्त्री रूपी नसेनीके आश्रयसे नचि पुरुष अभिमानसे उन्नत ऐसे पुरुषरूपी वृक्षके मस्तकपर चढ़ बठता है जैसे नसेनीके द्वारा ऊंचे वृक्षपर लोक चहते हैं. अभिप्राय यह हैं. नीच पुरुषका आश्रय कर अपने पतिका अभिमान मट्टी में मिला देती है. उसके कीर्तिक क्षय कर देती है. पव्वदमित्ता माणा पुंसाणं होंति कुलबलधणेहिं ॥ बलिरहिं वि अक्खोहा गिरीव लोगप्पयासा य ॥ १४ ॥ मान्या गे संलि मानामक्षोभ्या चलिनामपि ।। सर्वत्र जगति स्याता महांतो मंदग इव ।। ९५७ ।। विजयोदया--पध्यवामित्ता माणा भवन्ति मानानि पुरुषाणां कुलचलधनैः । बलिभिः अक्षोभ्याणि गिरिवलोक प्रकाशभूतानि च। - मूलारा--मरणा अहंकारसः। यलिएहि वि बलवद्भिरपि । अक्लोमा चालवितुमशक्याः । गिरीघ लोगपगासा जगति न्याता मेरवो यथा । अत्र पर्वतसामान्यार्थाऽपि गिरिशब्दो गिरींद्रवृत्तिर्गृह्यते ताबिशेषणयोगान् । उक्तं च पर्वतसदशा माना कुलबलविभवैर्भवन्नि पुरुषाणाम् ।। गिरिंगजवत्प्रकाशा ये चाक्षोभ्या महहिरधि ॥ अर्ध-उच्च कुल . बल-सामर्थ्य, और धनसे पुरुपोंका मान पर्वत तुल्य बडा होना है. उनके मानका ध्वंस करनके लिय बलिष्ठ पुरुष भी असमर्थ होते हैं. और जगतमे उनका मान पर्वतके समान मवत्र प्रसिद्ध होता है ते तारिसया माणा ओमच्छिज्जंति दुठमहिलाहिं ॥ जह अंकुसेण णिस्साइज्जइ हत्थी अदिबलो वि ॥ ९४१॥ Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभास मूलाराधना १८२७ शठस्ते खीजनस्तीक्ष्णैर्नाम्यन्ते क्षणमात्रतः ।। नितांतकुटिलीभूतैरंकुशैरिच दंतिनः ॥ ९५८ ॥ विजयोन्या-ते तारिसगा माणा तानि तथाभूतानि मानानि अचमथ्यन्ते दुष्टस्त्रीभिः । यथा अंकुशेन निगद्या कार्यते इस्ती अतिबलोऽपि ॥ मूलारा-ओमकिछज्जति विनाश्यते । णिसियाविज्जदि उपवेश्यते । अर्थ--ऐसे पुरुषोंकाभी महामान दुष्ट खियोंके द्वारा ध्वस्त नष्ट किया जाना है. अर्थात अपने हीनाचार से ब अपने पतीका अमिमान धृलमें मिलाती है. जैसे हाथी बढाभी हो तोमी छोटा अंकुश उमको बलात्काम्मे जमीनपर बिठा सकता है. आमीय महाजुदाई इस्थिहेर्दु जणम्मि बहुगाणि ॥ भयजणणाणि जणाणं भारहामायणादीणि || ९४२ ॥ आसन्रामायणादीनि स्त्रीभ्यो युद्धान्यनेकशः॥ मलिनाभ्योऽब्दमालाभ्यः सलिलानीव विष्टपे॥ ९५९ ।। विजयोदया-आसीय महाजुद्वाणि आसन्महायुद्धानि जगति स्त्रीनिमित्तानि बहूनि भय जननानि जनानी भारतरामायणादीनि । मूलारा-आसन वृत्तानि । अर्थ-इस जगतमें इस स्त्रीके लियेही भयानक रामायण, महाभारतके समान मनुष्योंका महा क्षय करने वाले अनेक चडे युद्ध हुए हैं, महिलासु णत्थि वीसंभपणयपरिचयकदण्णदा हो ॥ लहुमेव परगयमणाओ ताओ सकुलंपि य जहंति ॥ ९४३ ॥ विधेमसंस्तबस्नेहा जातु संतिन योषितः॥ . त्यजन्ति वा परासक्ताः कुलं तृणमिव द्रुतम् ।। ९६० ॥ Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास विजयोन्या-महिलासु सीपुन संति विभप्रणयाः, परिचयः, लगना, संदश्व | सहसा परगतचित्तारताः मनरावनाकु लं जहांन । माग-- प्रसादः । दणदा कृतज्ञता । सकुन् स्वकुलं कुलीने या! १०२८ अर्थ--त्रियों में विश्वास, प्रसाद, परिचय, कृतजना अर्थान किये उपकागेका स्मरण रखना-कृतस न जनना, और स्नह ये गुण नहीं रहते हैं. चे जब परपुरुषासक्त हो जाती हैं तब अपने हिन करनेवाल पतिकाभी छोड़ दनी है. अपनी कुलीनताको छोरती हैं. नीचोंका हाथ पकडती हैं. पुरिसस्स दु वीसंमें करेदि महिला बट्टुप्पयारेहिं ।। महिला वीसभेदु बहुप्पयारेहि धि ण सक्का ॥ ९४४ ॥ विसंभयन्ति ता मत्य प्रकारैर्विविधलघु ।। विसंभः शक्यते कर्तुमेतासां न कथंचन ।। ९६१ ।। विजयोदया-पुरिसस्स दु बीसंभं पुरुषस्य विस्रमं जनयंति खियो बहुभिः प्रकारयुक्तीविनंभ नतुं न शक्ताः पुमांसः॥ मूलारा-वीसंभ विश्रासं नेतुं ॥ अर्थ-अनेक कपट प्रयोगास वे धुरुपके मन में विश्वास उत्पन्न करती हैं अर्थात अपने हावभाव, मधुर भापण. अगरहसे अपने में अनुरक्त करती हैं, परंतु पुरुष उसको अपनेमें अनुरक्त नहीं कर सकता है -- अदिलहुयगे बि दोसे कदम्मि सुकदस्सहस्समगणंती ॥ पइ अप्पाणं च कुलं धणं च णासंति महिलाओ ॥ ९४५॥ स्वल्पेऽपि विहित दोषे कृतदोषसहस्रशः ॥ उपकारमयज्ञाय स्वं निम्नन्ति पति कुलम् ॥ ९६२ ।। समान Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना भाषामा विजयोन्या-अदिलहुयगे वि दोसे स्वल्पेपि दोषे कृते सुरुतशतमप्यगणय्य पति, भात्मानं, कुलं, धनं च नाशयति युवतयः ॥ मूलारा-अदिव अतीव । सुगदसदं उपकारशत । अर्थ-पतिके द्वारा छोटासा भी अपराध हुआ तो उसके हजारो उपकारभी वह भूल जाती है और उसका, कुलका, और धनका और अपनाभी नाश कर डालती है. आसीविसो व्व कुविदा ताजो रेभ णिसाचाओ। रठ्ठो चंडो रायाव ताओ कुवंति कुलघाद ॥ ९४६ ।। आशीविषा इव त्याज्या दरतो नीतिहेतवः ।। दुष्टा नृपा इब क्रुद्धास्ताः कुर्वन्ति कुलक्षयम् ॥ ५६३ ।। विजयोदया-आसीविसो ब्ब अशीविष इव कुपितस्ता दूरेण दौकितुं न शक्याः | रुएवंडो राजध ताः कुर्वन्ति कुलग्यतं ॥ मूलारा-दूरेण त्याज्या इति शेषः शिहुदपावाओ प्रच्छन्नपातकाः । दूरेणादागिद् सक्का दूरादपि नाश्या इत्यर्थः । अर्थ---भयंकर सर्पका जैसे दूर से ही त्याग करना हितकर है वैसे दुष्ट खियोंका दूरसे ही त्याग करना कल्याण करक होता है. जसे क्रुद्ध राजा अपराधीके कुलका समूळ नाश करता है वैसे दुष्ट खियां भी अपने पाके बलका पूर्ण नाश करनी है. -A ED अकदम्मि बि अबराधे ताओ वीसच्चमिच्छमाणीओ ।। कुब्वति वहं पदिणो सुदस्स ससुरस्स पिदुणो वा ।। ९४७ ॥ अकृतप्यपराधे ता नीचाः स्वच्छंदवृत्तयः ।। निघ्नंति निघृणा:पुत्रं श्वशुरं पितरं पतिम् ॥ ९६५ ।। विजयोदया-भकदम्मि वि अकृतेऽपि । अवगथे अपराधे । तामो ताः । चौसम्छमिच्छमाणीश्रो स्वेच्छा Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I मूलाराधना आश्वासः प्रवृत्तिमभिलमन्त्यः । पदिगो वधं कुब्यति पत्युर्वधं कुर्वन्ति, सुदस्स श्रुतस्य, ससुरस्स श्वशुरस्यापि । पिदुणो या पितुर्ग वर्ध कुर्वन्ति ।। मूलारा-वीसत्यं स्वरसावर्ति ॥ अर्थ--स्वच्छंद प्रवृत्ति करनेवाली खिया निरपराधी पतिका, अच्छे ज्ञानका; अपने ससुरका और पिता । काभी घात करती है. जो जो अपने स्वच्छंद प्रवृतांमें बाधक होगा ऐसा समझती है उनका २ वे घात करती हैं. Honerota सकार उवकारं गुणं व सुहलालणं च हो वा ॥ मधुरचयणं च महिला परगदहिदया ण चिंतेइ ॥ ९४८ ॥ उपकारं गुणं स्नेहं सत्कार सुखलालनम् ॥ न मन्यते परासक्ता मधुरं वचनं स्त्रियः ।। ५६५ ॥ विजयोन्या-सकारं सत्कारं सन्मानं । उक्यारं उपकार, गुण कुलरूपयौवनादिकं गुणं च पत्यु । सुहलालणं मुखेन पोषणं च । हो पा सेहं च । मदुरवरणं च मधुरवचनं च । महिला युवतिः । परगदहिदया परपुरुषानु रक्तषिता । चितेर न चिंतयति ॥ ___ मूलारा-गुणं फुलरूपयौवनादिकं पत्युः । मुहलालणं सुखेन पोषण । अर्थ-आदरसत्कार, उपकार, गुण, कुल, तारुण्य और सौंदर्य इत्यादि गुणोंसे पतियुक्त होनेपर भी-यदि Sil खी जव परपुरुषपर अनुरक्त होजाती है नव पतिके इतने गुणोंका कुछभी विचार नहीं करती है. पतीने बड़े प्यार में उसका पोपण किया, उसने स्नेह दिखलाया और मधुर वचन भी बोले तो भी इन पानोका वह कुलभी विचारकर ती नहीं है, RA साकेदपुराधिवदी देवरदी रज्जमुक्खपन्भट्टो ॥ पंगुलहेतुं छूडो णदीए रक्षाए देवीए ॥ ९४९ ॥ Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास: साकेताधिपतिर्देवरतिः प्रच्याव्य राज्यतः॥ देव्या मदीनहदे क्षिप्तो रक्तया पंगुरक्तया ।। ५६६ ।। विजयोदया-साफेवपुराधिवदी साकेतपुरस्य स्वामी । देवरदी देवरतिसंशितः । रजसोक्सप भट्टो राज्येन सौस्पेन च नितरां भ्रष्टः | पंगुलहेदं पंगुलनिमित्त गंधर्चप्रवीणेन पंगुना सह जीविनुमभिलपन्त्या । यो विक्षिप्तः । गदीप नद्या । रत्ताप देवीप रक्तानामधेयया देव्या ।। मूला:--साद अगेध्या । रनिक्षः : रहे गांधर्वप्राणन पंगुना सह जीवितुमिच्छन्न्या । बूढो प्रभिनः । रनाए रसासंज्ञया ।। अर्थ-साकेत नगरका देवरनी नामक राजा था. उसको रत्ता नामकी अत्यंत प्रिय रानी थी. रानीक स्नेहसे उसने राज्यका और सुखकाभी त्याग कर दिया. तथापि गानविद्या प्रचीपा ऐसे एक पंगुके ऊपर वह प्रेम करने लगी. उसके साथ रहनकी इच्छासे उसने अपने पतिको नदीमें ढकेल दिया. कर नदीमें ढकेल वाण ऐसे एक पनी थी. रानीक ईसालुयाए गोववदीए गामकूडधूदिया सीसं । छिण्णं पहदो तध भल्लएण पासम्मि सीहवलो ।। ९५० ।। गोपयत्या ऋधा छित्वा ग्रामकूटसुप्ताशिरः ।। राजा सिंहबलः कुक्षी शक्त्येापरया हतः ॥९६७ ॥ विजयोदया-ईसालुयाप इयत्या । गोबयदीए गोपवतीनामधेयया । गामफूटधूदिया प्रामकूटस्य दुहितुः । सील छिपणे शिरदिन्नं । पदो प्रहतस्तथा । भलएण शफ्त्या । पासमिम पार्श्वदेशे सीगलो सिंहयलसंशितः।। मूलारा--ईसालुगाए, ईययस्या । गोवत्रदीप गोपवतसिंज्ञया । गामकुडधूदियासोर प्रामकूटदुहितुः शीर्ष । भल्लएण शक्त्वा । कुंतविशेषेणेसपरः । पासम्मि पार्श्वदेशे । सीहवलो सिंबलो नाम ।। अर्थ-सिंहबल नामक मनुष्य को गोपचती नामक दुष्ट इभ्यालु ली थी. उसने अपने सौनका मस्तक तोडकर अपने पतिकोभी भालेसे मार डाला, Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागवता 35 दादा आलविशे भवितः ॥ बीरमदीए सुलगद चोरदोडिगए वाणियओ | पदो दत्तो य तह हिण्णो ओडोति आलविदो ॥ ९५९ ॥ वीरस्थिस्तेन विना निजः ॥ ओम पापयेत्युदितं मृषा ॥ ५६८ ॥ मुहा—यहूदी लम्बरदाधरया | वाणियो यता तथा । दियो होति गोपुच्छेदोऽनेन कृतः इति च । मार दी दसनामा ब्रिणो उति अनेन छिन्नो मम इति आलविदो आतं प्राचिनः ॥ अर्थ -- शूलपर चढ़ाये हुए चोरके द्वारा जिसका ओष्ठ खंडित किया गया था ऐसी वीरमति नामकी स्त्रीने दत्तनामक मेरे पतीने मेरा ओष्ठ छिन कि में ऐसा बार और उसके द्वारा अपने पतीका उस दुष्टाने घात करवाया. वग्धविंसचोरअग्गी जलमत्तगयकण्हसप्पसत्तू ॥ सो वीसं गच्छदि । वीसंमदि जो महिलियासु ॥ ९५२ ॥ या विषे जले सर्पे शत्री स्तेनेऽनले गजे ॥ स विश्वसिति नारीणां यो विश्वसिति दुर्मनाः ॥ ९६९ ॥ विजयोदया - बग्घविसन्चोर अग्गी जलम लगय किण्ड सप्पस ध्याघ्रे, वित्रे, चोरे, अनौ, जले, मत्तगजे, कृष्णस, शत्रौ न । सो विस्संभं गच्छदि स विश्रमं गच्छति । त्रिस्तंभदि जो महिलियासु विस्रं यः करोति वनितासु । मूलारावीसंभदि विश्वसिति । अर्थ- जो पुरुष स्त्रियोंपर विश्वास करता है वह वाघ, विष, चोर, आग, जलप्रवाह, मदवाला हाथी. कृष्णमर्प और यात्रु इनके ऊपर विश्वास करता है ऐसा समझना चाहिये. बाबास १०३२ Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मूलाराधना आश्वास: १०३३ S TRATORS 2 | बग्घादीया एदे दोसा ण परस्स तं करिज्जण्हू ॥ जं कुणइ महादोसं दुट्टा महिला मणुस्सस्स ॥ ९५३ ॥ व्याधादयो महादोषं कदाचित्तं न कुर्वते॥ लोकद्वयविघातिन्यो यं खियो बक्रमानसाः।। ९७० ॥ विजयोदया-व्यामादिषु विनंभगमनात्यापीयो यिभगमनं वनितास्पिति कथयत्युत्तरगाथा । वादीया व्याघधिपादयः पूर्वसत्रनिर्विशः । दोसे दोपं । नरस्त नरस्य । तं ण करिजाइन कुर्युः । जं कुणदि महादोस यं करोति महांनं दोपं । दुट्टा महिला दुष्टर वनिता । मणुस्सस्स मनुष्यस्य ।। मूलारा-करिजण्टु कुर्युः ।। अर्थ-व्याघ्रादिकों में विश्वास करने से जितना नुकसान मनुष्यका होता है उससे भी अत्यधिक नुकसान दृष्ट महिलाओंसे होता है. अर्थात् मादिओंमें विश्वासमा पनि अच्छा माना जायगा परंतु दुष्ट स्त्रीपर विश्वास करनेसे सर्वथैव अपना घात करलेना है. पाउसकालणदीबोव्व ताओ णिचंपि कलुसहिदयाओ ॥ धणहरणकदमदीओ चोरोब सकजगुरुयाओ ।। ९५४॥ सकश्मलाशया समाः पावृषेण्या इवापगाः॥ स्तेनवत्स्वार्थतमिष्ठाः सर्वेखहरणोद्यताः ॥ ५७१।। विजयोश्या-पाउसफालणवीधोख प्रावृद्कालस्य नय इय। हाओ ताः । णि पि नित्यमपि । कलुसहिन्याओ करलुपदयाः । स्त्रीषु हत्यशम्देन चित्तमुच्यते । नदीच्यभ्यंतर । रागेण, देषेण, मोहेन, ईयया, मसूपया, मायया या कलपीकतमेय चित्तं ताला । चोरोब चोरबा सकज्जगुरगामो खकार्ये गुय: । घणहरणकदमवीओ धनापहरणे कृतबुद्धयः । चौरा अपि कश्चमस्माभिरिदमेसदीयमात्मसास्कृतं भवतीति कृतबुद्धयः । ता अपि मधुरपबनेन रतिक्रीडानुकूलतया वा पुरुषस्य द्रव्यमाहर्तुमुद्यताः॥ मूलारा—कलुसहिदयाओ रागद्वेषमोहेासूबामायाविष्टचित्ता आबिलमभ्वाश्च । सकजगुरुगाओ स्वकार्य गुर्व्यः । अर्थ--वर्षाकालकी नदीका मध्यप्रदेश मलिन पानी से भरा रहता है. और खियोंका चित्तभी राग, द्वेष, मोह, इया, असूया. कपट इत्यादिक दुष्टभावोंसे मलिन होता है. चोर जैसा मनमें इन लोगोंका धन किस उपायसे TRINAS50MAHARA SAMPARANAA+AAAT TATASHARE १३० Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ग्रहण किया जावेगा ऐसा विचार करत भी लिया जी पारण सरंच निपुणती. अर्थात वे मधुरवचन चोलकर, रतिक्रीडामें अनुकूलता दिखाकर पुरुषका द्रव्य हरण करने में उद्युक्त रहती हैं. अपने कार्यमें हमेशा तत्पर रहती है. - रोगो दारिदं वा जरा व ण उवेइ जार परिसस्स ॥ ताब पिओ होदि णरो कुलपुत्तीए बि महिलाए ॥ ९५५ ॥ दारि विससा व्याधि यावामोति मानवः॥ जायतेसावदेवास्याः कुलपुत्र्या अपि प्रियः ।। ९७२॥ विजयोन्या-रोगो वारिई वा व्याधिदारिश्च चा जरा या । ण उपेदिन ढोकते यावत्पुरुष । ताप पिलो होनि जरो तापत्तियो भवति नरः। कुलपुतीर विकुलपुज्या भपि । महिलाए कांतायरः । कुळपुषीषु धाम्यः किमस्ति साभ्यो हि प्रायेण कुलपुथः पतिमेध यति मन्यमानाः प्रियं सजतीति ।। मूलाराण उवेदि नायाति । अर्थ-रोग, दारिध, अथवा वृद्धावस्था जस्तक पुरुषको प्राप्त होती नहीं तबतक खीको अपमा पति प्रिय होता है. जब उसका शरीर रोगसे पीड़ित होता है, वृद्धावस्था उसके शरीरको जर्जर करती है तब वह स्त्रीको | अप्रिय होता है. साधारण स्त्रियोंको हो दारियादि अवस्था में यह अप्रिय मालूम होता है ऐसा नहीं. किंतु जो पति को देयतुल्य समझती हैं ऐसी कुलीन स्त्रिया भी पतीको अप्रिय समझ कर त्याग करती हैं. जुण्णो व दरिदो वा रोगी सो चेत्र होइ से वेसो || णिप्पीलिओव्व उच्छृ मालाब मिलाय गदगंधा ॥ ९५६ । प्रसूनमिव निर्ग, द्वेष्यो भवति निर्धनः । मलानमालेच वर्षिष्ठो रोगीक्षरिव नीरसः ।। २७३ ॥ . विजयोदया-जुष्णो वृद्धो वा । दरिहो दरिद्रः । रोगिदो व्याधित्तः । सो चेव स एष युवत्वे धनित्वे नीरोगस्य घायः मियः स एव होदि भवति । से तस्या।। वेसो देष्यः । णिप्पीलिदोव्व निष्पीडित इव उच्छू इक्षुः। Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EXAM मूलाराधना आधामा मालाब मिलाय गवगंधा मालेव म्लाना नपुगंधा। अपहतरस इक्षुः शोभारहितनिगंधमाला च यथाऽप्रिया। योधर्म, धर्म, भक्तिभ पुंसोऽतिशयकतवपरये मैवासाषिच्यते स्त्रीमिः॥ मूलारा—सो घेष स एव । यो युवस्वे धनित्वे नीरोगत्वे च सति प्रियः । से तस्याः । वेस्सो द्वेष्यः । उकडू इनुः । मिलादगदगंधा म्लाना नष्टगंधा च ॥ अर्थ-पुरुष तरुण, श्रीमान और नीरोगी जबतक रहता है तबतक वह खीको प्रिय लगता है परंतु वही जब पृद्ध, दरिद्री और रोगी बनता है तब वो उसका द्वेष करती है. जैसे रसहीन ईख मनुष्य त्याग देते हैं अथवा शोभारांहेत निगधम्लानपुष्पांकी माला जैसी लोक त्यागते हैं बस धनहीन, युद्ध और रोगी पतिकी स्त्री इच्छा नहीं करती है. तारुण्य, धन और सामर्थ्य ये चाते पुरुपमें विशेषता उत्पन्न करती हैं. जिसमें ये बातें पायी जाती हैं वह स्त्रीको प्रिय होता है. इनका नाश होनेसे वह उनको अप्रिय लगता है. महिला पुरिसमवण्णाए चेव वंचेइ णियडिकवडेहि ॥ महिला पुण पुरिसकदं जाणइ कण्डं अवण्णाए ॥ ९५७ ॥ वंचयन्ति नराचार्यः समस्तानपि हेलया ! जाति वचनं पौलं तदीयं न नराः पुनः ॥९७४ ॥ विजयोदया–महिला पुरिसमवण्णार यनिता पुरुषमनादरेष यंचयति । निकृत्या कपटतया च सीभिः कृता निकृति वंचना शठतां च न जानति पुमांसः । महिला पुण शमलोचना पुनः जाणदि जानाति । किं कपटशतं पुरिसकद पुरुषेण कृतं । अषणाए अधमया भौवासीन्येनैव भक्लेशेनेति यावत् ॥ मूलारा- अषण्णाए थेष अवजय अशेनैवेत्यर्थः । णियहिकपडेहि मृषामितजल्पितझपयकोपकथाभिः स्त्रीभिः कृतो निकृति वंचना कपदं प शठतां नरा न जानंति इति भावः ॥ अर्थ-श्री पुरुषको आयास के पिनर फसाती है. अर्थाद शूटा हास्य, असत्य माषण, शपथ, असत्य कोप, और मधुर भाषण इत्यादिकोंसे वे पुरुषको अनायाससे फसाती है. स्वीका किया हुआ कपरप्रयोग पुरुष नहीं जान सकते हैं. परंतु स्त्री पुरुषके कपट तत्काल जान लेती है. Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलायधना आश्वासः १६३६ नरो हावं मन्यते नियोऽहमेतम्या इति न चासो प्रिय इत्याच . जह जह भण्णेइ णगे तह तह परिभवइ तं णरं महिला ॥ जह जह कामेइ गरो तह तह पुरिसं बिमाणेइ ।। ९५८ ॥ यथा यथा स्त्री पुरुषेण मन्यते तथा तथा सा कुरुते पराभवं॥ यथा यथा कामवशन मन्यते तथा तथा सा कुरुते विटंबनाम् ।। ५७५ ॥ विजयोदया-जह जह मण्णे जरो यथा यथा मामयति नरः तथा तथा परिभवति तं नरं सुषतिः । जह जह कामेदि णरो यथा यथा कामयते मनुष्यस्तथा तथा पुरिसं विमाणेदि तथा तथा पुरुषं विमानयति ॥ मूलारा-विमाणेदि अवकाहसं करोति ।। मै इस स्त्रीका पिय हूं ऐसा पुरुष समझता है परंतु वास्तविक वह उसका प्रिय नहीं हैं इस विषयका विवचन अर्ध-जैसे जैसे पुरुष खीका आदर करता है वैसे २ वह उसका अनादर करती है, तथा जैसे २ पुरुष उसकी इच्छा करता है वैसे २ वह उसका तिरस्कार करने लगती है. मत्तो गउव्व णिच्चं पि ताउ मदविभलाउ महिलाओ॥ दासेव सगे पुरिसे कि पि य ण गणेति महिलाओ ॥ ९५९ ॥ भवति सर्वदा योषा मत्तास्तंबेरमा इव ॥ स्वं दासमिव मन्यते पुरुष मूढमानसाः॥ ९७६ ।। शीलसंयमतपोधहि वास्ता नरांसरनिविष्ठमानसाः || चिंतयन्ति पुरुषस्य सर्वदा दुःम्वमुग्रमपकारिणो यथा ॥ ९७७ ।। विजयोदया-मत्तो गओव्व मत्तगज व । णिचं नित्यं । ताओ मदविभलाओ मदेन विज्ञला युवतयः । दासे व संग परिस दासे वा स्वपुरुषे वा । किंचिपि फिनिदपि विशेषजातं । ण गर्णति नैव गणपति कुलीनो ममान्यो भर्ता स्वामी। दाम्याः मोऽयं जघन्यः अहमभ्य स्वामिनीति विधेकं करोति ॥ मूलारा-किचिदन्यतरं । अयं दासीपुत्रोऽयं च कुलीनो मान्यो मम स्वामीति न विवेचयंति मदांधाः प्रमदाः किं तु मम दास्याः पुत्रोऽयं निकृष्टोऽहमस्य स्वामिनी महामान्येति हायन्ति । उक्तं च--- BRU १०३६ FEBRAN Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SRO मूलाराधना भावा: १०३७ Maste . .. . मैत्तो गजपनियता नित्यमतिषिहलाः । । दासे वा स्वपतौ वापि विवक नैव कुर्वते ।। दासेष सगे पुरिसे इति पाठे अयं कुलीनः स्वामीत्यादि विषेषण जातं । वास इव स्वपुरुषे न गणयति दासवत्तं मन्यते इत्यर्थः । उक्तंच. ___ भवत्यः सर्वदा योपा मत्ताः स्तंबेरमा इव ॥ खं दासनिव मन्यते पुरुष मूढमानसाः।। अर्थ जैसा मत्त हाथी मदसे विह्वल होता है वैसी गर्विष्ठस्त्रिया भी गर्वसे अपने पतिको और दासको नौकरको समानभावसे देखती है, अर्थात् नौकरके समान अपने पतिको वे मानती है. पति में नोकरसे कुछ विशे पता है ऐसा वे जानती नहीं. मेरा पति मेरा स्वामी है और कुलीन है और यह दास दासीका पुत्र है. यह हीनजातिका है मैं उसकी स्वामिनी हूँ ऐसा विवेक उनके अतःकरणमें उत्पन्न होता नहीं. अणिहुदपरगदहिदया तावो बग्धीब दुइहिदयाओ ॥ . पुरिसस्स ताव सत्तूब सदा पावं विचितंति ॥ ९६.॥ कुर्वन्ति दारुण पीडामामिषाशनलालसाः॥ अपराधं विनाप्येताः पुंसां व्यामा इचाधमाः ॥ ९७८ ।। विजयोदया-अणिहुदपरगदहिदया ताओ अनिभृतं परगतं हृदयमासामिति अनिभृतपरगतादया भवन्ति । अनियरितपरासक्तचित्ततावोषाः । बग्घीय एहदयमासां भकृतेऽप्यपकारे यथा व्याप्री परमारयितुमेव कृतचित्तेति दुमप्तवया पधमिमा अपि । पुरिसस्त ताप पुरुषस्य तावत् । सनष सदा पावं विचितंति । शत्रुरिव सदा पापमेय अशुभमेष चेतसि कुर्वन्ति । यथा यो रिपुः कश्चित्कस्यचित्सर्वदा धनमस्य विनश्यतु, विपदोऽस्य भवनिस्वति चिसं करोति तथैव ता अपि ॥ मूलारा-अणिहुदपरगदहिंदवाओ अनिवारितपापासक्तचित्ता । अन्ये अनिभृतमति चंचलमाहूरसंघृतमित्यपरे । दुहित्याओ अकृतेऽप्यपराधे मारणोचत्तचित्ताः । पावं अशुभं । धनमस्य रिनश्यतु विपदोऽस्य भवन्त्यित्यादि । Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आमासा अर्थ-स्त्रिया परपुरुषमें आसक्त हुए अपने हृदयको परावृत्त नहीं करती है, व्याघ्री जैसी अपकार न करने पर भी मनुष्यको मार डालती है वैसे दुष्ट बिया निरपराधी पतिको भी मारती है. जैसे शत्रु अपने प्रति पक्षीका अशुभ होनेका ही चिंतन करता है. वैसे ये दुष्ट स्त्रिया भी अपने पतिका अशुभ कप होगा इसका ही विचार करनी हैं, शत्रु प्रतिपक्षका धन नष्ट होनेका चिंतन करता है विपत्तिओंका विचार करता है वैसे हि बुष्ट विचार ये दुष्ट स्त्रिया अपने मनमें करती है. T संझाव णरेसु सदा ताओ हुति खणमेत्तरागाओं ।। बादोष महिलियाण हिदयं अदिचंचलं णिच्चं ॥ ९६१ ॥ शंपेव चंपामारी संध्येच क्षणरागिणी ।। छिद्रार्थिनां भुजगीव शर्वरीव तमोमयी ॥ ९७९ ॥ चिजयोदया-संसाव गरेसु सदा तामओ हॉति संध्या व नरेषु सदा ता भवति । खणमित्तरागात्रो अल्प कालरागाः । अस्थिररामता नाम दोपः प्रकटितः । यथा संध्याया रक्तता चिनाशिनी । महिलियाण हिदयं अदिचंचल णि । खीणां हुश्यं अतिचंचल नित्यं । किमिव बादो घ वात रब । मूलारा-रागाओ रामः प्रीति नावर्णश्च ॥ अर्थ-संध्याकालका लालरंग क्षणमात्र टिकता है अनंतर वह जैसा नष्ट होता है वैसी स्त्रियोंकी प्रीति क्षणमात्र रहती है अर्थात अल्पकाल प्रेम करना यह दोष त्रिओंमें रहता है. स्त्रियोंका हृदय हमेशा वायुके समान अतिशय चंचल रहता है. जावइयाई तणाई वीचीओ वालिगात्र रोमाई ॥ लोए हवेज तत्तो महिलाचिंताई बहुगाई ॥ ९६२ ॥ सिकतातृणकल्लोलरोमाणि भुषनत्रये ।। यापन्ति सन्ति सावन्ति मानसानि मृगीरशाम् ॥ ९८० ॥ Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना आश्वास विजयोवया-जायच्याई राति मृणानि, बीचया, वालुकाः, रोमाणि च जगति तत्तो युवतीनां चिंता बन्छ। मूलारा- तप्तो तेभ्योऽपि । अर्थ-जगतमें जितना तृण है, जितनी समुद्रकी और नदीकी लहरें है, जितना बालुकासमुदाय और | प्राणिओंका केशसमूह है उनसे भी अधिक तरुणा स्त्रियों के मनमें विचारसमुदाय उत्पन्न होता है. आगास भूमि उदधी जल मेरू वाउणो बि परिमाणं ॥ मादु सका ण पुणो सका इत्थीण चित्ताई ॥ ९६१ ।। मगभूमिनभोऽम्मोधिसलिलामभास्वताम् । शक्यते परिमा का स्त्रीचित्तानां न सर्वथा ।। ९८१ ॥ विजयोदया-आगासभूमि आकाशस्य मूमेरुधेर्जलस्य, मेरोर्वायोक्ष परिमाणमस्ति । स्त्रीणां चितं पुनर्मातुं न शक्यमति ॥ मूलारा- आगासेत्यादि । आकाशादीनां परिमाणमस्ति । अत एव ते मातुमियत्तयावधारितुं शक्याः, 'न पुनः स्त्रीचितानि परिमाणाभावात् । निरंसरं नानाप्रकारविकल्पजायाकुलत्वासेषां ॥ उक्तं च . नगभूमिनभोऽम्मोधिसलिलझनभरवताम् ॥ शक्यते परमा कर्तुं स्त्रीचित्तानां न सर्वधा । अर्ध--आकाश, जमीन, समुद्र, पानी, मेरु और वायु इन पदार्थोका कुछ परिमाण है परंतु स्त्रीके चितका अर्थात् उनके मनमें निरंतर उत्पन्न होनेवाले संकल्प विकल्पोंका परिमाण जानलेना अशक्य हैं. चिट्ठति जहा ण चिरं विजुञ्जलबुब्बुदो व उक्का वा ।। तह ण चिरं महिलाए एके पुरिसे हवे पीदी ॥ ९६४ ॥ यथा समीरणोल्काभोवुयुदाश्चिररोचिषः ॥ एकत्र नावतिष्ठते तथैताश्चलवृत्तयः॥ ५८२ ॥ Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृमाराधना आचाह ..-20 विजयोदया-जहाण चिरं चिति यथा न चिरं तिष्ठंति विद्युतः । जलबुदबुदा उल्काश्च तथा घनितानां न । कस्मिश्चित्पुरुष प्रीतिश्चिरं तिष्ठति ॥ नलारा- चिटुंति तिष्टति । जलयुमुदो जसबुबुदः । उका उल्का । कम्हिषि कस्मिन्नपि ॥ - सी. पीला , और उल्कापात य पदार्थ शीघ्र नष्ट होते है. वैसे सिआकी किसी पुरुषपर प्रीति दीर्य कालतक नहीं रहती है. मा परमाणू बि कहंचिवि आगच्छेज्ज गण मणुस्सस्स ॥ ण य सका घेत्तु जे चित्तं महिलाए अदिसण्हं ।। ९६५ ।। ग्रहीतुं शक्यते जातु परमाणुरपि ध्रुवम् ।। न सूक्ष्म योषितां स्यान्तं दुष्टानामिव चंचलम् ।। ९८३ ।। विजयोदया-परमाणुरपि कथंचिश्मनुष्यस्य ग्रहणमागच्छेत् । बनितानां वित्तं पुनः प्रहीतुं न शक्यमति मूलारा- आगच्छेज गहणं आगच्छेत्महणं । प्राझो भवेदित्यर्थः । ण य सका घेर्मु जे प्रहीतुं न शक्यं ॥ अर्थ-परमाणु को भी मनुष्य किसी उपाय के द्वारा ग्रहण करेगा. परंतु सियों का अत्यंत सूक्ष्म चित्त | उसके द्वारा ग्रहण किया नहीं जाता है. । सूक्ष्म । कुविदो व किण्हसप्पो दुलो सीहो गओ मदगलो वा ॥ सक्का हज्ज घेत्तुं ण य चित्तं दुट्ठमहिलाए ॥ ९६६ ॥ क्रुद्धःकंठीरवःसर्पःस्वीकत जातु शक्यते । न चित्तं दुष्ठवृत्तीनामनासामति भीषणम् ॥ २८१ ॥ घिजयोदया-कुधिदो व कुपितः । कृष्णसर्पः । दुटः सिंहो, मदमसो वा प्रहीतुं शक्यते । न तु प्रद्दीतुं शक्यते । दुएवनितावितम॥ Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भावासः मूलारा-मद गलो मत्तः ।। अर्थ--आतशय क्रुद्ध हुआ काला सर्फ, दुष्ट सिंह और उन्मत्त हाथी को मी मनुष्य पकडने में समर्थ हैं. परंतु दुष्ट स्त्रीका मन पकडने में के समर्थ नहीं हैं. सक्कं हविज दुई विजुज्जोएण रूवमच्छिम्मि ॥ ण य महिलाए चित्तं सक्का अविचंचलं णाद् ॥ ९६७ ।। रूपं सतमसौ द्रष्टुं विद्योतेन पार्यते ॥ वेतशलस्वभावानां योषाणां न कथंचन ॥ ९८५॥ विजयोत्पा-साकं दवेज्ज विद्युयोतेन भमिथं रूपं द्रष्टुं शक्य न.पुनर्पुतिचिसमतिस्त्राएल अवमतुं शक्त्रम्। मूलारा-अछिलि नेत्रे स्थितं । नेत्ररूपमित्यर्थः । अच्छीहि इति पाठ अक्षिभिर्यस्थः कस्यचिगुपं विद्युत्प्रकाशेन द्रष्टुं शक्यमिति. व्याप्येयम् ॥ अर्थ-विजलीके अत्यल्प प्रकाशसे भी नेत्रका रूप देखना शक्य है परंतु अतिशय चंचल ऐसा तरुण खीका मन जान लेना अति कठिन है. अगुवत्तणाए गुणवत्तणेहिं चित्तं हरति पुरिसस्स ।। मादा व जाव ताओ रत्तं पुरिसं ण याणति ॥ ९६८ ॥ अलिएहिं हसियवयणेहिं अलियरुयणेहिं अलियसवहेहिं ॥ पुरिसस्स चलं चित्तं हरंति कवडाओ महिलाओ ।। ९६९ ॥ महिला पुरिसं वयणेहिं हरदि पहणदि य पावहिदएण ॥ वयणे अमयं चिढदि हियए य विसं महिलियाए ॥ ९७० ।। १०४ Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना माधासः १०४२ लोकानमा शपथलिचतसः ॥ १. हांति मानसं रामा नराणामनुवर्तनः ।। तावद्यावन्न जाति रक्तं कुटिलचेतसः ॥ ९८६ ।। हसित रोदनैर्वाक्यैः शपथैर्विविधैः शठाः ।। अलीकैर्मानसं पुंसां गृहन्ति कुटिलाशयाः ॥ ९८७ ।। हरति पुरुष चाचा चेतसा प्रहरंति ताः ।। वाचि निष्ठति पीयूषं विर्ष चतसि योषिताम् ।। ९८८ ।। विजयोदया-महिला पुरिसं वयणेहि बनिता पुरुषं वचनई रति । इति च पापेन हदयेन । वाक्ये मधु तिष्ठति । हृदये विर्ष युवतीनाम् । मुलारा-अणुवत्तणाए छंदानुवन्या । गुणवयणेहि गुणकीर्तनैः । हरन्ति गृहन्ति । अनुरंजयन्ति । मादा वा माता यथा बालस्य ।। मूलारा-अलिएहिं असत्यः । एते हे. अपि गाथे टीकाकारो नेति ॥ मूलारा- वाचार वमि ॥ अर्थ-पुरुषके छेदका अनुसरण करके, और उसके गुणोंका वर्णन करके वे पुरुषका मन हरण करती हैं. जब तक पुरुष अपनेमें अनुरक्त हुआ नहीं तब तक वे उसकी गुणप्रशंसा, उसके छंदानुकूल प्रवृत्ति करती हैं. स्त्रिया मिथ्या हास्यवचन, मिथ्या रोना, मिथ्या सोगंद खाना इत्यादि कपटयुक्तिओंसे पुरुषका मन हरण करती है. स्त्री पुरुषका चिप्स मधुर बचनस चोरती है और पापयुक्त हृदयसे उसका घात करती है. स्त्रियों के बचनामें मधु रहता है और हृदयमें विष रहता है. तो जाणिऊण र पुरिसं चम्मद्विमंसपरिसेसे ।। उद्याहंति वधतिय बडिसामिसलगामच्छ व ॥ ९७१ ॥ उदए पवेजहि सिला अग्गी ण डहिज्ज सीयलो होज्ज । ण य महिलाण कदाई. उज्जयभावो णरेसु हवे ॥ ९७२ ।। Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १०४३ पाषाणोऽपि तरेतोये न दहेदपि पावकः ॥ न चित्तं पुरुषे स्त्रीणां प्रांजलं जातु जायते ॥ ९८९ ॥ विजयोदया - उदप पवेज्ज खु उदके तरेवपि शिला, अग्निरपि न दहेत् शीतलो घा भवेत् । नैष यनितानां कदाचिरेषु ऋजु भवति मनः ॥ मूलारा- उदोर्हति निष्काशयति । एतां टीकाकारो नेच्छति || लारा- उदये जले | पवेज्ज सु तरदभि + कदाद कदाचित् । उज्जुगभावो प्रांजलपरिणामः ॥ अर्थ -- अपनेपर आसक्त हुआ पुरुष धर्म, हड्डी और मांस ही शेप जिसका बचा हुआ है ऐसा देखकर मलको लगे हुए मरस्य के समान उसको मार देती है अथवा उसको अपने घर से निकाल देती हैं. पुरुषके पास धन नहीं रहता है तब स्त्रिया उसको अपने देती है या उसको मार डालती है, कदाचिव पानी में शिला तरने लगेगी. अग्नी अपना दाहक स्वभाव छोडकर ठंडी होगी तोभी त्रिओका मन कभीभी कपर छोडकर सरलता नहीं धारण करेगा. उज्जुयभावम्मि असन्तयस्मि किध होदि तासु वीसंभो || विरभम्म असंत का होज्ज रदी महिलिया ॥ ९७३ ॥ प्रांजलत्वं विना स्त्रीषु विभां जायते कथम् विश्रमेण बिना तासु जायते कीदृशी रतिः ॥ ९९० ॥ विजयोदया – उज्जुगभावमि ऋजुमाचे असति कथं भवति तासु विसंभः । असति बिसंमे का वनितासु रतिः ॥ मूलाग- स्पष्टम् ॥ अर्थ - स्त्रिओंगे सरलपना नहीं रहता है. अतः वे पुरुषोंपर विश्वास रखती नहीं. विश्वासके अभाव में उनका प्रेम भी स्थिर नहीं रहता. गच्छ समुइस बि पारं पुरिसो तरितु ओघवलो ॥ मायाजलम्भि महिलोदधिपारं ण य सक्कदे गंतुं ॥ ९७४ ॥ आश्वासः ६ १०४३ Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः २०४४ बाहुभ्यां जलधेः पारं तीर्खा याति परं भुवम् ॥ न मायाजलधे स्त्रीणां बहुविभ्रमधारिणः ॥ ९९१ ॥ विजयोदया-गरिछज्ज गच्छेत् समुनस्य अपि पर पारं ती| महाबलः । मामाजलपनितोदधिपारं नैष गर्नु शक्नोति ॥ मुलारा--तरितु तीळ । ओधथलो महाबलः । बाहुबल इत्यन्ये ॥ अर्थ-सामर्थ्यवान् मनुष्य समुद्रका दूसरा किनारा प्राप्त कर सकता है, परंतु कपटरूपी जल जिसमें है ऐसा स्त्रीरूपी समुद्रको तीरकर दूसरा किनारा पुरुषके द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है. रदणाउला सवरधाव गुहा गाहाउला च रम्मणदी । मधुरा रमणिज्जावि य सढा य महिला सदोसा य !! ९७५ ।। सव्याघेव गुहा रत्नदुभेदैविराजते ।। रमणीया सदोषा च जायते महिला सवा ॥ ९९२ ।। विजयोवया-रदणाउला रखसंकीर्णा सव्याघ्रा गुहेव रम्या नदी ग्राहाकुलेच मधुरा रम्या शठा सदोषा च | यनिता। मूलारा--- रयणाउला रत्नाकीयो । वा यथा । गाहाउला मकरादिसंकुला रम्मणदी रमणीयापगा ।। अर्थ-पर्वतकी रत्नपूर्ण गुहा सुंदर दीखती है परंतु उसके अंदर व्याघ्रका निवास होनेसे बह भयानक भी है. नदीका स्वरूप ऊपरसे रमणीय दीखाता है, परंतु अंदर मकरादि क्रूर अंतुओंका निवास होनेसे वह मयावह है. वैसे सी भी मधुर और सुंदर होने परभी कपटमय और दोषोंसे भरी हुई होनेस अहित करने वाली ही है. वि पि सम्भाव पडिवजदि णियडिमेव उदि॥ मोधाणुलुक्कमिच्छी करेदि पुरिसरस कुलजावि ॥ ९७६ ॥ नष्ठमपि सद्धार्थ चक्रधीः प्रतिपयते। गोधान्तद्धि विधत्ते सा पुरषे कुलपुश्यपि ॥ ९९३ ॥ Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भावास विजयोदया--विपि एमपि न प्रतिपद्यते सहा निकृतिमेषोपन्यस्यति ॥ मूलारा- द्विवपि परेणाटोकितमपि । सम्भावं दोपरूपं । उद्देदि उपन्यस्यति । अयमर्थः परेण दृष्टमपि दोपं सत्यं न प्रतिपदाते स्त्री, अस्त्ययं दोष इति न मन्यते किंतु नास्स्वयं न कृतो मयेति वचनामेवावष्टभ्नाति । अत्रैपार्थ नष्टांतारा-गोधागुलकं गोधाया इव प्राई पुरुषविषये कुलपुत्रिकापि करोति । यथा गोधा स्वावष्टब्धां भुमि चसाकारणार त्याचमाना न त्यजनि नथा योपिदपि म्वगृहीतं पर्वन मुंचनि । यत्नशनेनापि त्याध्यमाना । अन्ये तु गांधाणुलुक्क गोधान्तर्धानमाहुः । यथा गोधा पुरुपं दृष्ट्वा तत आत्मानं गोपायति । तथा योषिपि यथेप मां न पश्यति तथा करोमीति । अथवा गोधाया अन्न करोति प्राहेण गोवामपि तिरस्करोतीत्यर्थः । तथा चोक्तम् न दृष्टमपि सदा वक्रधीः प्रतिपद्यते ।। जोधातरि विमा पुनो मार ॥ ____ अथवैवं व्याख्येय-परेण क्रियमाणं शोभनमपि अर्थमात्मना दृष्टमपि न प्रत्येति श्री, कि तर्हि तमशोभनं बकतया प्रत्येति । तथा पुरुषस्य संबंधिस्वेनात्मानं गोपायति । तथा चोक्तम् - प्रत्यति न सदाय दृष्ट्वापि हि पटनाटकं तनुते ॥ गोधांगुर्ति योषा विदधाति नरस्य कुलजापि अर्थ-दूसरे मनुष्यने स्त्रीका कुछ दोप देखा हो तोभी वह मेरेमें यह दोष है अथवा मैंने यह दोष किया है ऐसा कभी नहीं कहेगी. कपटसे उस दोषका आच्छादन ही करेगी, जैसा गोह नामक प्राणी किसी स्थानका आश्रय लेकर उसकी इतना चिपक जाता है कि उससे कोईभी अलग नहीं करसकते हैं, वैसे दुष्ट स्त्री अपराध करके भी मैने यह अपराध किया है ऐसा कभीभी स्वीकार न करेगी. पुरिसं वधमुबणेदित्ति होदि बहुगा णिरुत्तिवादम्मि । दोसे संधार्दिदि य होदि य इत्थी मणुस्सस्स ॥ ९७७ ॥ दोषाच्छादनतः सा स्त्री वधूर्वधविधानतः ।। प्रमदा गदिता प्राज्ञैः प्रमादबहुलत्वतः ॥ ९९४ ।। Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १०४६ विजयोsया-- पुरिसं वधमुचदित्ति पुरुपं बधमुपनयतीति चधूरिति निरुच्यते । मनुष्यस्य दोषान्संहतान्करो तीति स्त्रीति निगद्यते ॥ स्त्रीवाचकशब्दनिरुक्तिद्वारेण तदोपानाह मूलारा - पुरिममित्यादि । णिरुत्तिवादम्मि व्याकरणं । दोर्स संघाडेत्ति दोपान्संघातीकरोति । पुरुषं वमुपनयतीति वधूरिति व्यपदिश्यते योषित। तथा मनुष्यस्य दोपान्संहतीकरोति इति स्त्रीति च ॥ ' अर्थ - स्त्री पुरुषको मारती हैं इस वास्ते उसको 'बघु कहते हैं. पुरुषमें यह दोषोंका समुदाय संचित करती हैं इस वास्ते इसको 'स्त्री' यह नाम है. तिरुच्यते ॥ तारिसओ पास्थि अरी गरएस जण्णेति उम्द पारी पुरिमं सदा पमत्तं कुणदित्तिय उच्चदे पमदा ॥ ९७८ ॥ नारिर्यतः परीस्त्यस्यास्ततो नारी निगद्यते ॥ यतो विलीयते दृष्ट्वा पुरुषं विलया ततः ॥ ९९५ ॥ विजयोदय-तारिसभ ताडगन्यो नरस्य नारिरस्तीति गारीस्युच्यते । पुरुषं सदा प्रमतं करोतीति प्रमदेति मूलारा — तादृगन्थो नरम्य नारिरसीति नारी पद पुरुषं प्रमत्तं करोतीति श्रमदा || ( अर्थ - मनुष्य को इसके समान दुसरा शत्रु नहीं है अतः इसको 'नारी' कहते हैं. यह पुरुषको प्रमत्त अर्थात् उन्मत्त बनाती है इस लिये इसको 'प्रमदा' कहते हैं. गलए लायदि पुरिसस, अपत्यं जेण तेण विलया सा ॥ जोजेदि पारं दुक्खेण तेण जुवदी य जोसा य ॥ ९७९ ॥ अबलत्ति होदि ज से ण दढं हिदयम्मि धिदिबलं अस्थि ॥ कुम्मरणोपायं जं जणयदि तो उच्चदि हि कुमारी ॥ ९८० ॥ आबाउ: १०४६ Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना माधासा आलं जणेदि पुरिसस्स महल्लं जेण तेण महिला सा॥ एवं महिलाणामाणि होति अभागि सवा २८।। णिलओ कलीए अलियस्त आलओ अविणयस्स आवासो ॥ आयमस्सावमधी महिला मूलं च कलहस्स ॥ ९८२ ।। कुत्सिता नुर्यतो मारी कुमारी गदिता नतः ॥ बिभेति धर्मकर्मभ्यो यतो भीमस्ततो मता ॥ ९९६ ।। यतो लाति महादोषं महिलाभिहिता ततः॥ अबला मण्यते तेन न येनास्ति बलं हृदि ।। ९९७ ।। जुषते मीनितः पापं पनो योषा ततो मता ।। यतो ललति दुर्वृत्त ललमा भणिता ततः ।। ५१८ ॥ मामान्यपि दुरर्थानि जायते योषितामिति ॥ समस्तं जायत प्रायो निंदितं पापचेतसाम् ॥ ५९९ ।। मत्सराविनयायासक्रोधशोकायशोभियाम् ।। सर्वासा कारणं रामा विषाणामिव सर्पिणी ।। १००० ।। विजयोक्या-णिलो कलीए कलेनिलयः । व्यलीफस्यालयः । अचिनयस्याका । मायासस्थावकाशः । कलहस्य मूलं युवतिः । मूलारा--पुरुषस्य गलेऽनर्थ लागयतीति, पुरुषं वा इदा बिलीयते इति रिलया कथ्यते । जोजदीत्यादि नई दुःखेन योजयतीति युवतिर्योषा च ॥ मूलारा--अचलत्ति नास्ति हृदये धृतिबलमस्या इति अबला । कुमारी कुस्मितं मरणोपायं जनयति इति कुमारी॥ मूलारा-महिला पुरुषस्य महान्तं आलं जनयति इति महिला । एतनाथात्रयं श्रीविषयाचार्यों नेच्छति ।। मूलारा-कलीए रागद्वेषयोः । आगरो आकरः । आवसधो भाषासः ।। १०४७ Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आधार अर्थ पुरुपके गले में यह अनर्थों को बांधनी है अथवा पुरुषको देखकर उसमें यह लीन होजाती है अतः इसको 'विलया करते हैं. यह खी पुरुपको दुःखसे संयुक्त करती है अतः ‘युति ' और 'योषा' एसे दो नाम इसके हैं, इसके हृदयमें धैर्यरूपी बल हद रहता नहीं अतः इसको अबला कहते हैं. कुत्सित ऐसा मरण का उपाय उत्पन्न करती है इस लिये इसको कुमारी कहते हैं. यह पुरुषके ऊपर दोषारोपण करती है उस लिये इस को महिला कहते हैं. एसे स्त्रियोंके जितने नाम हैं वे सर्व अशुभ ही है. स्त्रिया गमद्वेषका निवासस्थान है. असत्य भाषणका घर हैं, अविनयका स्थान हैं और युःखोंका कारण हैं. और कलहका मूल हैं. ) . सोगरस मरी वेररस खणी णिवहो कि होइ कोहस्त ॥ णिचओ णियडीण आसवो य महिला अकित्तीए ॥ ९८३ ।। कुलजातियशोधर्मशरीरार्थशमादयः ॥ नाइयंते योषया सर्वे वात्यया तोयदा इच ।। १००१ ॥ विजयोदया-सोगरत सरी शोकस्य नही । बैग्स्थावनिः । निवहः कोपस्य । नित्रयो निकृतीनां । अकीत. राश्रयो युवतिः॥ मुला-मरी नदी, खणी वानिः, निवहो संघातः । णिवओ राशिः || अर्थ-वी शोककी नदी है. पैर की भूमि-अर्थात उस्पति स्थान है. स्त्री कोपका समुदाय रूप है. कपटाका ममूह है और अकीर्तिका आधार है. 00 - --- - णासो अत्थरस खओ देहम य दुगदीपमग्गों य ।। आवाहो य अणत्यस्स हीह पहवी य दोसाण ॥ ९८३ ॥ पावकः सुखवासणी अधिसिो दुःखपापसाए । प्रध्ययो प्रसरस्नानामनर्थानां निकेतनम् ॥ १००२ ॥ AREADER १०१८ Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधन आवाए विजयोदया-पासी अन्थम्स अर्थस्य नाशः देवस्य क्षयः । दुर्गर्मार्गः। अनर्थस्य कुल्या । दोषाणां प्रभवः।। मूलारा--आवाहो गयादीनां जलपानम्थानं कुल्येत्यपरः । पत्राहो प्रवेशः ॥ अर्थ-स्त्री धननाशका कारण है. देहमें क्षयरोग उत्पन्न करती है. दुर्गतिका माग है और अनर्थाका नित्राम है और दोर्षोंकी उत्पत्तिम्धान है. earni mw .. महिला विग्घो धम्मम्स होदि परिहो य मोक्खमग्गस ।। दुक्खाण य उप्पत्ती महिला सुक्खाण य विवत्ती ।। ९८५ ॥ अखत्यानां गृहं पाषा नाचमानां यधुंधरा ।। कटारी धर्मवृक्षाणां सिन्द्रिसोधपदार्गला !॥ १.०३ ॥ दोषणाबालयो मा मीनानाभिन नादिनी ।। गणानां नाशिका नाश नानाविन जायते ।। १००४ ।। मिपान - जमा सिम्मीकिना बिनानिमाम्य । परियोमोसमागम्य । पानांचोग - सामाना । मृदाग--पति पति। 'अरेत्यर्थः । विवगी चिंगा: ।। अर्थ-सी धर्माचरण में विप्न समान है. मोशमागम यह अगलाके समान प्रतिबंधक है. दःखोंकी उत्प. विधान है और मुखों का नाश करनवाली है.. mammar-e-..-.. Amir..- ... ... ... पालो व वंधिदै ज छेनु महिला असीच पुरिमास ॥ सिलं द विधि९ जे पंकोब निमजिटुं महिला ॥ ९८६ ।। पंधने महिला पाशः बगः पुंसां निकर्तने ॥ छदने निशितः कुतः पंकोमाधो निमज्जने ।। १०.५ ।। विजफोदयापासोब वंचिद् जे पाश इव पंधित । सुगमा गाथा अमादरो व्याख्याने ।। Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासः मुलारा-पंधि£ जे बर्छ । विधिदुं जे छेत्तुं । पको पणको नाम कर्दमभेदः । णिमजिर्ट अडित ॥ ___ अर्थ-स्त्री पुरुषको बंधनेकेलिये पाशके समान है. पुरुषको तोदने के लिये कुन्हा के समान है और विद्ध करने के लिये प्राण के समान है. और दुपाने के लिये कीचडके समान है. २०५० सूलो इव भित्तु जे होइ पबोढुं तहा गिरिणदी बा ॥ पुरिसस्स खुप्पहूँ कद्दमोव मध्क्षुब्ब मरिहुँ जे ।। ९८७ ॥ अग्नीवि य डहिदु जे मदोव पुरिसस्स मुभिदु महिला ॥ महिला णिकत्तिदु करकचोब कंडूव पउलेदु ॥ ९८८ ॥ पाइदं परसू वा होदि तहा मुग्गरो ब ताडेदु । अवहणणं पि य चुण्णेदुं जे महिला मणुस्सस्स ।। ९८९ ॥ चंदो हबिज्ज उण्हो सीदो सूरो वि धड्डुमागासे । ण य होज्ज अदोसा भदिया वि कुलबालिया महिला ।। ९९० ॥ एए अण्पोय बहुदोसे महिलाकदे वि चिंतयदो ॥ महिलाहिंतो विचित्तं उविवयदि विसग्गिसरसीहिं ।। ९९१ ॥ वग्घादीण दोसे गच्चा परिहरदि ते जहा पुरिसो ॥ तह महिलाणं दोसे दुई महिलाओ परिहरइ ॥ ९९२ ॥ महिलाण जे दोसा ते पुरिसाणं पि हुंति णीचाणं ॥ तत्तो अहियदरा बा तेसिं बलसत्तिजुत्ताणं ॥ ९९३ ।। Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवासः - - - - - - जह सीलरक्खयाण पुरिसाणं किंदिदाओ महिलाओ ॥ तह सीलरक्खयाणं महिलाणं जिंदिदा पुरिसा ॥ ९९४ ॥ किं पुण गुणसहिदाओ इच्छीओ अस्थि वित्थडजसाओ ।। जरलोगदेवदाओ देवेहिं वि वंदणिज्जाओ ॥ ९९५ ॥ तित्थयरचक्रधरघासुदेवबलदेवगणधरवराणं ॥ जणणीओ महिलाओ सुरणावरेहि महियाओ ।। २९६ ॥ एगपदिव्बइकण्णावयाणि धारिति कितिमाहलाओ। बेधव्यतिवदुक्खं आजीवं णिति काओ वि ।। ९९७ ।। सीलवदीवो सुच्चति महीयले पचपाडिहेराओ । सावाणुग्गहसमत्थाओ वि य काओव महिलाओ. ॥ ९९८ ॥ उग्घेण ण बूढाओ जलतघोरग्गिण ण दवाओ ।। सप्पेहिं सावज्जेहिं वि हरिदा खद्धा ण काओ वि ९९९ ॥ सत्वगुणसमग्गाणं साहुणं पुरिसपवरसीहाणं ॥ चरमाण जणणित्तं पत्ताओ हवंति काओ वि ॥ १...।। मोहोदयेण जीवो सव्वो दुस्सीलमइलिदो होदि । सो पुण सम्बो महिला पुरिसाणं होइ सामण्णा ॥१००१ ।। तह्मा सा पल्लवणा पउरा महिलाण होदि अधिकिच्चा ॥ सीलबदीओ भणिये दोसे किह णाम पार्वति ।। १०.२ ।। इथिगदा Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलारामना 27974: merence । नराणां भेदने शलं बहने नगवाहिनी ॥ मारणे दारुणी मृत्युमलिनीकरणे मधी ॥ १.०६ ।। अनला दहने पुसां मुद्रश्चूर्णने परः।। ज्वलंती पचने कडूः करपनविपाटने ॥ १०.७ ॥ उष्णशंद्रो रविः शीतो जायते गगनं धनम् ।। नादोपा प्रायशो रामा कुलश्यपि जातु चित् ॥ :००८ ॥ सर्पिणीव कुटिला बिभीषणा वैरिणीय बहुदोषकारिणी ॥ मंडलाव मलिना नितंचिनी चाटुकम वितनांति यच्छतम् ॥ १०.५ ॥ नारीभ्यः पश्यतो दोषानेतामन्यांश्च सर्वधा । चित्तमुद्विजते पुंसो राक्षसीभ्य इव स्फुटम् ॥ १.१० ॥ योषास्स्यजति विद्वांसो दोषान्झात्वेति दूरत : ध्याधीरिव कृपाहीनाः परामिषपरायणाः ॥ १.११ ।। दोषा ये संति नारीणां नराणां से विशेषतः॥ द्रष्टव्या दुष्टशीलानां प्रकृष्टयलतेजसाम् ॥ १०१२ ॥ व्याघ्रा इव परित्याज्या नरा दूरं कुचेतसः ।। रामाभिः शुद्धशीला जी रक्षतीभिर्निजं व्रतम् ॥ १०१३ ।। यथा नरा विमुचत बनिता ब्रह्मचारिणः ॥ त्याज्यास्ताभिर्नरा ब्रह्मचारिणीभिस्तथा सदा ॥ १०१४ ॥ न रामा निखिलाः संति दोषवन्त्यः कदाचन || देवता इव दृश्यंने बंदिता बहवः स्त्रियः ।। १.१५ ।। मातरस्तीर्थकर्तृणां भुवनोयोतकारिणां ॥ जायते पनिता धन्याः शक्रपंद्यक्रमाबुजाः ॥१.१६॥ १०५२ - Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना शलाकापुस्पास्तामिन्यते भुखमाञ्चिताः। धात्रीभिरिव शुद्धाभिर्मणयः पुरुसेजसः॥१.१७॥ । पुरत्नानि न जायते शुद्धशीलाः खियो विना ॥ विना नीरदमालाभिः पानीयानां क संभवः ॥१.१८ ॥ आजन्म विधवाः काश्चिद्रह्मचर्यमखंडितम् ।। धरंति दुर्धरं धन्या ज्वलहीपमियोज्ज्वलम् ॥ १०१५॥ कल्याभिरार्यिकाभिश्च चीयते दुश्चरं तपः॥ विच्छिन्द्य शमशरण मन्मथप्रतिवन्धकम् ॥ १०२० ।। ध्रियते शुद्धशालाभिर्यावज्जीवमषितम् ।। पतिबनतं स्त्रीभिः पराभिः पूजितं सताम् ॥ १०२१ ।। देवेभ्यः प्रातिहार्याणि प्राप्ता विख्यातकीर्तयः ।। योषाः शीलप्रसादेन श्रूयते षहवो भुवि ॥१॥२२॥ शीलबत्यो विलोक्यंते ता धन्या बुधयंदिताः ॥ समर्थाः शीतलीकर्तुं या ज्वलंतं हुताशनम् ॥ १०२३ ॥ सर्वशास्त्रसमुद्राणां बंदितानां जगत्त्रये ॥ सवित्र्यः सन्ति शीलाच्या साधनां चरमागिनाम् ।। १०२४ ।। निमज्ज्यते न पानीय यंते न नदीजलै: 11 सस्पो ब्यालेनं भक्ष्यन्ते न ववन्त हुताशनैः ॥ १०२५ ॥ भोहोदयेन जायते स्त्रीपुंसामशुभाशुमाः ।। परिणामा इति ज्ञात्वा मोहो नियो न जन्तवः ।। १०२६ ॥ साधारणेऽत्र सर्वेषां जीवानामनिवारिते ॥ दुष्टाः सन्ति परीणामास्ततः कार्योऽस्य निग्रहः ।। १०२७ ॥ Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशवना १०५४ लाच्या भवति नार्योऽपि शुद्धशीला महीयसा ॥ स्त्री पुमानिति कुर्वन्ति शेमुषीं मंदमेधसः || १०२८ ॥ सामान्येन ततो नेह निंदिताः सन्ति योषितः ॥ शुद्धशीला न गच्छेति दूषणं हि कदाचन । १०२९ ॥ शुद्धशीलकलितासु जायते नांगनासु चरितं मलीमसं । आस्पदं हि विदधाति सामसे हंसरश्मिषु कदाचनापि किं । १०३० ॥ इति स्त्री दोषाः ॥ इयि गदा || मूलारी - सूलो विय शूलमिव । पवोढुं प्रवादयितुं संसारार्णवे पातयितुं । मच्चुव मृत्युरिव ॥ 1 मूलारा -- अगणिवि य अमिरिख हिदु जे दग्धुं । मदोष मचादिजनितचिनविकार इव । मन्दुिं मूढीभ वितुं । निकिचि खंडवितुं । केरकचोव करपत्रमिव कंडू कंडुः । वेदनिका । पउले स्वेदयितुम । पक्तुमिति श्रावन । मूलारा - पाडे वारयितुं परसू कुठारः । अवहणं लोहकारस्य वनः ।। मूलारा - घट स्वयं, कठिनं भद्दिया भद्रिका | अक्रूरा | मूलारा— महिलाहिंतो स्त्रीभ्यः । उब्बियदि जिते ॥ मुलारा स्पष्टम् । एवं स्त्रीषु दोषान्प्रदर्श्य नीचपुरुषेष्वपि तेषां ताभ्योऽधिकतराणां वा सद्भावं भावयति ।। मूळारा -- बल अनादिजनितसामर्थ्यं । सन्ति शक्तिः वीर्यमचिन्यप्रभावमित्यर्थः । ताभ्यां सहितानां स्त्रीभ्योऽधिकतरमित्यत्रापि लिंगादिपरिणामेनानुवर्त्यम् ॥ शीलरिरक्षिषया पुंभिर्दुष्टाः स्त्रिय इव लीभिरपि दुष्टपुमांसो जुगुप्स्या इति दर्शयति गूलारा --- जिंदिदा निंया त्याज्या इत्यर्थः । सीलरकियाणं चिचरितं रक्षितानां ॥ ननु च सीलरकियाण मित्येत दोषै कमयत्व प्रतिपादनपरेण पूर्वोक्तप्रबंधेन स्त्रीणां विरुध्यते तत्किमिदानी काबिच्छीलवत्योऽपि स्त्रियः संभवेयुरिति पर्यनुयुंजानं प्रति सविस्मयं श्रीमतल्लिकानां गुणभामसद्भावख्यापनार्थमाह भावासा १०५४ Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना TAARE भावासा १०५५ __ मूलारा-किं पुण्य किं पुनर्वक्तव्यम् ।। यद्यपि जातिमात्रेण संसारशरीरभोगनिर्विणर्मोक्षसुखकरसिकैः संयमिमिस्तथापि काश्चिद्गुणातिशयशालिन्यस्तेषामपि स्तुतिपदं भवन्तीति विस्मयद्योतनार्थमेतत् । यतः गुणेत्यादि । वित्थडजसाओ विस्तीर्ण कीर्तयः॥ विशेपेणाह मूलाग—गणधरवराणं तीर्थकरामशिष्याणां वृपभसेनपुरस्सरेन्द्रभूतिपर्यंतगणधरप्रधानानां । सुरणरपबरेहि सौधर्मेन्द्रादिदेवेन्द्रभरतचकवादिनरेन्द्रः॥ श्रीविशेषाणां शीलपालनातिशयमुन्मुद्रयति-- मूलारा-एगपदिब्बद एकपतिम्रतं देवामिगुरुसाक्षिकपाणिग्रहणप्रतिपन्ने भर्तरि प्रवृत्ति । कण्णावद कन्याव्रतं कौमारब्रह्मचारित्रं । कितिमालाओ यशोभूषणाः । कित्तिमहिलाओ इति पाठे कीर्तियुक्ताःत्रिय इत्यर्थः ।। वैधव्यतिबदुक्वं रंडात्यदुःसहमहावुःस्य । जीवंतं जीवितपर्यन्तं ति नयन्ति प्रापयन्ति । काबो काचिन् । तथा काश्चिच्छीलबल्लादभिव्यक्तशापानुमशक्तयोऽपि लोके भूयते इत्याह--- मूलारा-सुरुचंति अश्ते । पत्तपादिहेराओ देवतादिभ्यः प्रतिलञ्चयापत्प्रतिकारसत्काराः । साबागुग्गहसम्म स्थाओ आक्रोशोपकारसमर्थाः । कायो वि काश्चिस्सीतादयः॥ काश्विच शीलालप्रतिबद्धतत्तद्धोरव्यापत्तयोऽपि यंते इत्याहमूलारा-ओघेण महानदी जलप्रवाईण । ण बूढाओ न नीताः । कायो वि काश्चन शीलवत्यः सुलोचनादयः। तद्भवमोक्षगामिपुरलप्रसूत्वेन सत्यापितनिजसुचरितनिर्वाहाः काश्विचर्यते इत्युपदिशतिमूलारा-परिमाणं चरमदेहाना । जणणि सवित्रीभावं । काषो वि सुनंदादयः। किंच सर्वेऽपि जीवाः प्रकृत्यैव शुद्धचुवस्वभावाः शीलभालिन्यं तु मोहोदयैकनिमित्तमेषां स प सर्वेषां संसारिणां प्रायेण साधारण इति मोह एव निंदनीयो न जंतब इत्ति शिक्षयगाथाहयेन प्रस्तुतमुपसंहरति मूलारा स्पष्टम् । मूलारा--सा भागुक्ता । वणवणा दोषप्रख्यापना 1 पवरा महिला प्रवराः स्त्रियः अधिकृत्य न भवतीवि संबंध: कुत इत्याह-भणिदा प्रतिपादितान्। किध णाम कयमहो न कथमित्यर्थः । स्त्रीदोषः । Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAIRTEAM आश्वास मृलासपना १०५६ H अर्थ-स्त्री पुरुषको शूलके समान भेद करती है. जसे पर्वत परसे नीचे गिरनेबाली नदी पदार्थको अडे जो अपने साथ बहाती हुई समुन्द्र में ले जाती है वैसे खी भी पुरुषको भवसमुद्र में फेक देनी है. जैसे पोल हिना ने भी भी अपने जीवन मसान है. लोप पवमो मारना श्रीपिका, शशि जमान स्त्री पुरुषको जलाती है, मास दिनम पिसार पन्न अकाल की भी समय निकामी.. करात जसा काटीको भाडता है बसे पानी भलु . हया दुभागण और साम्य न्यबहामनीती . सुजलास जैस सब अंगर कंड खुजली उत्पन्न होती है बैंग इराकं सहवाससे शांति नहीं मिलती है. यह पाशुक समान फाडती है व सुगरके समान दुराचरणसे पुरुष के हृदयपर आधात उत्पन्न करती है. पुरुपके चूर्ण करने के लिये स्त्री लोहके धन समान है. चंद्र कदाचित् शीतलताको त्यागकर उष्ण बनेगा, कार्य भी थहा होगा. आकाश भी लोइपिंडके समान घन होगा. परंतु कुलीन बंशको भी स्त्री कल्याणकारिणी और सरल स्वभावकी धारक नहीं होगी, ऊपर कहे हुए दोपोंके साथ और और भी अनेक दोष स्त्रियों में हैं. उनका यदि पुरुष विचार करेगा तो व! स्त्रिया उसको विप और अनिके समान भयानक दीखेंगी और उनसे उनका चित्त लौटेगाही. व्याघ्र, सर्प वगैरे कुर प्राणीओंके दोष जानकर जैसे मनुष्य उनसे दूर रहता है वैसे स्त्रियोंमें दोष है ऐसा जानकर पुरुषको उनका त्याग करना उचित है. त्रियों में जो दोष है वे ही दोष नीच पुरुषों में भी रहते हैं. इतनाही नहीं स्त्रियों से भी उनकी अन्नादिकों से उत्पन्न हुई शक्ति अधिक रहनेसे उनमें अधिक दोष रहते हैं. शीलका रक्षण करनेवाले पुरुषको स्त्री जैसे निंदनीय अर्थात् त्याग करने योग्य है वैसे शीलका रक्षण करने वाली स्त्रियोंको भी पुरुष निंदनीय अर्थात त्याज्य है. संसार, शरीर और भोगमे विक मुनिओंके द्वारा स्त्रिया निंदनीय मानी गई है तथापि जगामें कोई स्त्रिया गुणातिशयम शोभायुक्त होनसे मुनिओंके द्वारा भी स्तुति योग्य हुई है. उनका यश जगतमें फैला है. एमी स्त्रिया गनुप्यालीको देवताक समान पूज्य हुई है. देव उनको नमस्कार करते हैं. नीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र और गणधरादिकाको प्रसयनवाली स्त्रिया देव, और मनुष्योंमे जो प्रधान ब्यक्ति हैं उनसे बंदनीय होगई है, कितनेक स्त्रिया एक पतिव्रत धारण करती है, कितने amwand Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |आश्वास १०५७ स्त्रिया आजन्म अविवाहित रहकर निर्मल ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती हैं. कितनेक स्त्रिया वैधव्यका ती दुःख आजन्म धारण करती हैं. शीलवत धारण करनेसे कितनेक स्त्रियों में शाप देना और अनुग्रह करनेकी भी शक्ति प्राप्त हुई थी ऐसा शास्त्रों में वर्णन है. देवताओंके द्वारा ऐसी स्त्रियोंका अनेक प्रकारसे माहात्म्य भी दिखाया गया है. ऐसी महाशीलवती खियाको जलप्रवाह भी महानेको असमर्थ है. अग्नि भी इनको नही जला सकती है. यह शीतल होती है. ऐसी स्त्रिओंको सर्प ज्यघ्रादिक प्रा खा नहीं सकते हैं. अथवा मुहमें लेकर अन्यस्थानमें नही फेक देते हैं. संपूर्ण गुणोंसे परिपूर्ण, श्रेष्ठ पुरुपमेंभी श्रेष्ठ, तद्भव मोश्वगामी ऐसे पुरुषोंको कितनेफ शीलवती सिमोने जन्म दिया है. मोहोदयसे जीव कुशल धनते हैं. मलिन स्वभावके धारक बनते हैं. यह महोदय सर्व खियोंमें और पुरुषों में समान रीतासे है. जो पीछे स्त्रियोके दोपोंका विस्तारसे वर्णन किया है वह श्रेष्ठ शीलवती सिगोंके साथ संबंध नहीं रखता है अर्थात् वह सब पर कुफील सिया राय ना पाहिए. पाकिः शीलवती स्त्रिया गुणोंका पुंजस्यरूपही है. उनको दोष कैसे छू सकते हैं. स्त्रीकृत दोषोन यहाटक वर्णन किया । सीगतान्योपानमिवाय अशुचिनिरूपणार्थ उसरमबंधा देहस्स बीयणिप्पत्तिवेत्तआहारजम्मवुडीओ ॥ अवयवणिग्गमासुई पिच्छसु वाधी य अधुयत्तं ।। १०.१।। ।। देहरूप पीजनिष्पत्तिक्षेत्रोधोजन्मवृद्धयः ।। . अंसाच निर्गमोऽशाचं ज्ञेयं न्याधिरनित्यना।। १०३१॥ विजयोदया-हस्य चीज इत्यादिकः । देहस्य पीज, निष्पत्तिः, क्षेत्र, आहारः, जन्म, वृद्धिः, अधययः, निर्यमः, अशुचिः, व्याधिरध्रुवसेत्येताम्पश्येति सरिधीति क्षपकं ॥ एवं स्त्रीदोधान्याख्यायेदानी वेदांशुचित्वं साप्तषष्टया व्याचष्टे। तत्रा शरीरस्य शीजं, निष्पत्तिः, क्षेत्रमाहारो, जन्म, वृद्धिरवयवनिर्गमाशुचित्वमसारत्वप्रेक्षण, व्याघयोऽभुषत्वं चेप्ति द्वादश प्रबंधन व्यापकीर्षुः क्षपक प्रत्युदिशति १०५७ Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुबाराधना आभासः १०५८ मूलारा-देहस्स प्रकरणान्मनुजानामिति द्रष्टव्यं । णिपत्ति निष्पक्षमानता । जन्म प्रसवः । युट्ठी जन्मक्षणोतरकालभाव्युपचयः । निगम कर्णाचंगेभ्यो निर्गच्छन्तीति निर्गमाः कर्णमलावयः । पेच्छसु अहो महासत्व, कर्मक्षपणो सात, मुमुक्षो । ब्रह्मचर्यप्रससिद्धयर्थ देवस्य चीजादीनि प्रेक्षस्य ।। अपवित्रताका वर्णन करने के लिए अब उत्तर प्रबंध है- . अर्थ--देहका चीज, उत्पत्ति, क्षेत्र, आहार, जन्म, वृद्धि, अवयुव, निर्गम, अशुचि, व्याधि और नश्वरता इतने प्रकारोंको हे क्षपक तुम देखा ऐसा आचार्य क्षपकको कहते हैं. १ देहके बीज, उत्पत्ति वगैरह विषयोंका विवे. चन यहांसे आचार्य करेंगे। SHAREF । RESents देस्य बीजमितयाण्यांनायोत्तरंगाया .... ............. ... ..देहस्त सुक्कसोणिय असुई परिणामिकारणं जमा ! ! ... ... . .: देहो- वि होइ असुई अमेझघदपूरवो व तदो॥ १.०४॥ ......... ....... वेहस्याशचिनिजं यतो लोहितरतसी॥. . . . ..... सतोऽसावशुचियो यथा गूथाज्यपूरकर १७५२ ॥... . ....: विजयोदयान्देहस्य बीजं मनुजामा शुकशोणितं । अशुचि शुक्र पुंसः, शोणितं च वनितायाः परिणामि कारणं । जमा यस्मात् । परिणामिकारण शरीरत्वेन तदुभयं परिणमति:प्तस्मात्परिणामिकारणं । देवोषि असुइ. शरीरमपि अशुचि तत एव । अमेझघटपूरमोघ अमेध्यघृतपूरक इव । यवशुचिपरिणामि कारणं तदधुचि यधामेध्यघृतपूरक अशुचिपरिणामकारणं च शरीरं इति स्वार्थः ॥ .. देहयीजं गाथात्रयेण व्याचक्षाणः प्रथम मानुषयपुषो अशुच्युपादानकारणकत्वेन अशुचित्वमुपपादयति मुलारा-सुखसोणिदं शुक्र गर्भयोग्य पुंसो रेतः शोणितं च शुक्रशोणितं । ममाहारद्वंद्वस्य महतप्रधानत्यात किंचिगर्भप्ररोहणयोम्यं तायिकमयस्थांतरमापन्नं शुकार्तवमित्यर्थः । तथा चोक्त अष्टांगहदये शुद्धे शुक्रातचे सत्वः स्वकर्मक्लेशचोदितः। गर्भः संपद्यते युकिवादग्निरिवारणी ।। २०५८ Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधना आभासः परिणामिनामीणमते विशि परिवारकारच जनक परिणामिकारणं उपादानकारणं । तल्लक्षणं यथा-- त्यतात्यकात्मरूप यत्पौर्वापर्येण पर्तते ॥ कालत्रवेऽपि तद्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् ।। अमेघदपुण्णगोव अमेध्यघृतपूरक इष । तथा चोक्तम् शुक्रशोणितमंगस्य यदुपादानकारणं ।। .. अशुच्यंग ततो यबदमेध्ययतपूरकः ।। प्रयोगः--यदशुचि परिणामिकारण तदशुचि, यथाऽमेध्यंघृतपूरकः । अशुचिपरिणामिकारणं च शरीरं तस्मादशुचि। देहके बीजका दो गाथाओंसे वर्णन-- अर्थ-जिससे देहकी उत्पत्ति होती है ऐसा यह वीर्य और रक्त अपवित्र है. अतः इनसे उत्पन्न होनेवाला देह पवित्र कैसे हो सकता है ? रक्त और वीर्यसे ही शरीरका परिणमन होता है अतः शरीर अपवित्र है. विष्ठासे धने हुए घृतपूरके समान शरीर अपवित्र है. अपवित्र पदार्थोंका परिणमन जिसके कारण है वह पदार्थ अपवित्र होता है. जैसा अपवित्र विष्ठाका घृतपूरक अपवित्र होता है वैसा शरीर भी अपवित्र कारणोंका ही परिणमन होनेसे अपवित्र है, ऐसा इस गाथाका अभिप्राय है दई विहिंसणीयं अमेज्झामिव संकुदो पुणो होज्ज ॥ ओजिग्घिदुमालबुं परिभोत्तुं चावि तं बीयं ॥ १००५ ॥ द्रष्टुं घृणायते देहो वक़राशिरिव स्फुटम् ॥ स्पष्टनालिगितुं भोक्तुं लडीजो भुज्यते कथम् ॥१०३३॥ विजयोदया-बलु पि य द्रष्टुमपि । विहिसणीय जुगुप्सनीयं । अमेझमिय अमेध्यमिष । संफुदो पुणो होज मोडिग्घिg कुतः पुनर्भवेदामातुं । माल माकिगितुं । परिभोक्तुं याषि परिभोक्तुं चापि पीज तत् शुकशोणिताच बीजं । तत्परिणामत्याच्छरीरमपि तदेव बोअमिदं शरीरमिति भत्या वीजमिति उक्तं । १०५२ FACE SHOTOS Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १०६० शरीरस्याविशुक्रातवमयत्वेनाशुचित्वादत्यतीपेक्षणीयत्वमनुशास्तिमूलारा-अमेझभिव गूथमिव । विहिंसणिज्ज जुगुप्सनीय । उजिघि आमातु ॥ आलटुं आलिगितुं छोप्तुं वा । परिमोतु उपभोक्तुं तं बीज शरीरमित्यर्थः । तमछुमशोणिताख्यं बीजं तत्परिणामत्वाच्छरीरं इत्यर्थः । अथवा तब्बीजमिति पाठः । तत्र तच्छुकशोणितं बीजमस्येति तद्वी शरीरमित्यर्थः । अत्रेदमैदपर्यम्--यतः शरीरं द्रष्टुमपि पुरीपमिव घृणा क्रियते ततः कुतः पुनराधाणादियोग्यं भवेत् । तथा चोक्तम् द्रष्टुं घृणायने देहो व!राशिरिच स्फुटम् ।। स्पष्टुमालिगितुं भोक्तुं नहीजो युज्यते कथम् ॥ अर्थ-यह शुक्र और रक्त देखने के लिये भी अयोग्य है. विष्ठा जैसी देखने योग्य नहीं है. इसलिये इनका आलिंगन करना, उपभोग लेना कैसा योग्य समझा जायगा ? जब शुक्र शोणित अर्थात् रक्त वीर्यकी ऐसी अपवित्र अनुपभोग्य अवस्था है तब उनसे बना इश्रा शरीर भी आलिंगनयोग्य और भोगने योग्य नहीं है ऐसा समझना चाहिये. परिणामिकारणशुरुया तत्परिणामरूप कार्य शुद्धं भवति । शरीरं न संपत्ति कथयति समिदकदो घदपुषणो सुझदि सुहत्तणेण समिदस्स" असुचिम्मि तम्मि बीए,कह देहो सो हवे सुद्धो ॥ १००६ ॥ कणिकाशुद्धितः शुद्धः कणिकातपूरकः।। वर्षोषीजः कथं हो विशुजूचतिकवाचन ।। १०३० । इति बीजम् । बिजयोध्या-समिक्षकदो धपुण्णो सुज्झवि कणिकाकतं घुतपूर्णकं सुजसदि शुस्यति । सुनसणे मुशतया। समिदस्स कणिकाद्रव्यस्य । सुचिम्मि तम्मि बीप अचिबीजे तस्मिंम्स्यिते । का वेहो सो ये सुजो बेहः परिणामः कथं शुद्धयति ॥ धीय ॥ परिणामिकारणशुद्धया सत्परिणामात्मकस्वात्कार्यमपि शुद्ध भावशुद्ध कणिकाधूतपूरचा पुनर्मनुष्यशरीरं तद्धिपर्ययादित्यावेदयति-- १०६० Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना मूलारा- समिदकदो इत्यादि-समिया कणिकाद्रव्येण तो निर्दृतः । पीए उत्पन इत्याच्याहारः । कार्यरूपसे परिणत होनेवाले कारणमें यदि शुद्धता हो तो उससे उत्पम होनेवाला कार्य भी शुद्धतायुक्त दीखता है. शरीर शुद्ध नहीं है क्योंकि उसका कारण अशुद्ध है इस विषय का विवेचन अर्थ-गेहूंके आटेसे बनाया हुआ घृतपूरक पवित्र है क्योंकि, गेहका आटा पवित्र है. वैसे वीर्य और रत्त ये पदार्थ पवित्र नहीं है भनः इनसे उन्पना होनेन ला पदार्थ अर्थात शरीर पर कैसा माना जायगा अर्थात् वह अशुद्ध ही है. शरीरनिष्पत्तित्रामनिरूपणार्थ उत्तरप्रबंधः । कललगद दसरतं अच्छदि कलुसीकदं च दसरत् ॥ थिरभूदं दसरतं अच्छवि गम्मम्मि तं बीयं ॥ १.०७ ॥ ) दशाहं कलिलीभूतं वशाहं कलुषीकृतं ॥ दशाहं च स्थिरीभूतं यीजं गर्भेऽवतिष्ठते ।। १.३५ ।। विजयोदया-कललगद कललत्वं नाम पर्यायः तं गतं प्रासं बीजं दश विनमा । अछदि वास्ते । कलुसीकर्द च कलुषीकृतं च । वश रावमा अतिष्ठते । थिरभूर्द सरस स्थिरभूतं यावदशदिनमात्रं । अच्छदि आस्ते । गामम्मि गर्म तं बीजं तद्वी॥ नृवेहनिम्पत्तिकम गाथापंचकेन श्याचष्टे मूलारा-कललगदेति । फललगदं विलीनताम्ररजतद्रव्यकल्पकललत्वपर्यायं प्राप्तं । इसरतं दशाहोरात्रान् । कलुसीक मिभितं । थिरभूदं दृद्वीभूतं । गम्भम्मि गर्भाशये। . अर्थ-माताके उदरमें वीर्यका प्रधेश होनेपर यहां दश दिनतक पार्यकी कलल नामकी अवस्था होती हैतदनंतर दस दिन पर्यन्त वह कलुष होता है. इसके अनंतर वह दस दिनतक स्थिरपनाको प्राप्त होता है. अभिप्राय यह है कि, मले हुए ताम्र और चांदीका रस परस्पर मिलानेसे जो अवस्था उन दोनोंकी होती है वही अवस्था माताके रक्तसे संयोग होनेपर वीर्यकी होती है, उसको कललावस्था कहते हैं. तदनंतर वह काला होता है उसके इस १०६१ Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अरस्थाका नाम 'कलुष' है. इसके अंनतर वह स्थिर होता है. ऐसी तीन अवस्थायें क्रमसे वीर्यको प्रथम मासमें मास होती है. आखास तत्तो मासं बुब्बुदभूदं अच्छदि पुणो वि घणभूदें। जायदि मासेण तदो मंसप्पेसी य मासेण ॥ १.०८ ॥ मासेन पुषुदीभूतं तन्मासेन धनीकृतम् ।। मांसपेशीच मासेन जायते गर्भपंजरे ॥ १०३६॥ विजयोत्या-तत्तो स्थिरभाघोसरकालं | मासे खुद भूतं अच्छदि मासमात्र बुद् खुद व आस्ते । पुणो वि पूनम नमू.जायमान जायते मासेन ततोऽपि घनभावानुस्तरकालं।मासपा मासेन । मंसप्पेसीय मांसपेशी भवति ॥ मूलारा-तत्तो इति-स्थिरभावोत्तरकालं । बुब्बुदभुदं बुन्दुद इब । घणभूदं कठिपत्वं प्रा। मंसपेसी हुंडसंस्थानो मांस पिंडः ॥ अर्थ-प्रथममासके अनंतर दूसरे मासमें बीर्यको बबुलकी अवस्था-बुबुदावस्था प्राप्त हो जाती है. पुनः एक मासतक वह घडू बन जाता है. इसके अनंतर चतुर्थ मासमें उसको मांसपेशीकी आकृति प्राप्त होती है. मासण पंच पुलगा तचो हुति हु गुणो वि मासेण ॥ अंगाणि उबंगाणि य णरस्स जायति गम्भम्मि ॥ १.०९ ॥ मासन पुलकाः पंच भासनांगानि षष्ठके। उपांगानि पजायंते गर्भवासनिवासिनः॥१.३७।। विजयोदया-मासेण पंच पुलगा मासेन पंच पुलका भवन्ति । पुणो थि मासेण पुनरुत्तरेण मासेन । अंगाणि उर्षगाणि य अंगान्युपांगानि च । शरस्स जायति गम्भम्मि मरस्य जायन्ते गर्ने । मासेण-पुख्या पुलकाः । नलकबाहुशिरोदेशेष्यकुराः । अंगाणि दोनलको, नियो, दो वाहू, उरः पृष्टं, शिरश्चेत्यष्टौ । वर्षमाणि उपांगानि अंगान्युपगवाः कर्णनासागंडोष्ठनेत्रांगुळिप्रभृत्यवयवाः । उक्तन-- १०६२ Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास HARSHA णलया बाहू य तहा णियंत्र पुट्ठी उरो य सीसोय ॥ . अव दु अंगाई देहे सेसा उबंगाई॥ ----पांपबे मासन उस मांसपेशीको पांच पुलक अर्थात् पांच अंकुर उत्पन्न होते हैं. इनसे नीचके दो अंकुरोंसे दो पैर, उपरके तीन अंकुरोमम बीचके अंकुरम मस्तक और पावके दो अंकुरोंसे हार्थोकी उत्पत्ति होती है. इन अवयवोंकी यह अंकुर पूर्वावस्था है. तदनंतर छठे मासमें हाथ, पाय और मस्तककी रचना होती है और उपांग - आँख, कान, नेत्र इत्यादिक अंगोंकी रचना होती हैं. इसप्रकार मर्भस्थ बालकक अवयवों की रचना है. मासम्मि सत्तसे तस्स होदि चम्मणहरोमणिप्पत्ती ॥ फंदणमट्ठममासे शवमे दसमे य णिग्गमणं ॥. १०१०॥ धर्मरोमाणि जागते मासे तस्यात्र सम्प्लमे ॥ .. ..पंवोष्टमे विनिर्माण नषमें वशमे ततः ।। २०३८ ।। विजयोव्या-मासम्मि सत्तमे सप्तमे मासे । तस्स तस्य गर्भस्थस्य । चम्मणहरोमणिप्पत्ती चर्मनरवरोमनिष्पतिभवति । फंदणमकममासे स्पंदनमीपश्चलम भएम मासे । जयमे वसमे य णिमामण नषमे वशमे चोदरा निर्गमनं भवति ॥ मुलारा-मासम्मि इति दणं, संचलन नियामणं मातृ रुद्राभिःसरणं प्रसुतिरित्यर्थः ।........ ... . इसके अनंतर अर्थ-सांतवे- महिनमें उम् गर्भक अवयों पर चर्म और रोमकी उत्पत्ति होती है, और हाय और पैर के नख उत्पन्न होते हैं. आठमें मासमें उस मर्भ में चलन वलन होने लगता है. नववा और दसवा इन दो महिना में गर्भस चालक बाहर आता है अर्थात उसका जन्म होता है.'' T ha! NAHI, Motiy सब्बासु अबस्थासु वि कललादीयाणि ताणि सव्वाणि ।। असुईणि अमिज्झाणि य विहिंसिणिज्जाणि णिञ्चपि ॥ १.११ ॥ १०६३ Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वास ' यतोऽशुनीनि सर्वाणि कललादीनि कारणम् ॥ . वशियत्ततो दही जुगुप्स्यो महतां सदा ॥ १०३९ ॥ . इति निष्पत्तिः।। विजयोदया-सव्वासु अवस्थासु बि स स्वध्ययस्थासु शुभशोषितयोः। कललावियाणि कललमदमित्यादिकानि । सब्वाणि बसुरणि सर्वाणि अशुचीनि । अमेझाणिव अमेध्यमिव । विहिंसणिज्जाणि जुगुप्सनीयानि । णिचं पि नित्यमपि॥ सध्यासुः इति अस्थासु प्रतिसमयभाविनी शुक्रामविषपरिणामिषु अमेन्माणि व गूथानि यथा | मि. रूपत्तिः ॥: -मर्थ-त्रक.और वीर्य की प्रथम माससे आरंम कर इस मास तक जो वो अवस्थायें होती है वह सर्वही अपवित्न ही हैं. जैसे विष्ठा नित्य जुगुप्सा करने सबक ही है. निष्पत्ति नामक प्रकार का वर्णन हुआ, गर्भवस्था शुभं कथयस्युत्तरगायया । पिप्पति - आमासयम्मि पचासयस उवार अमेज्झमज्झम्मि ।। वस्थिपडलपच्छष्णो अच्छइ गम्भे हुणवमासं ! १०१२ ।। सिष्ठस्यामाशयस्थाध ऊर्ध्व पकाशयस्य सः॥ जरायुर्वेष्टितो मासामयात्रामेध्यमध्यगः ॥ १०१० ॥ बिजयोदया-आमासयम्मि भामाशय माममुच्यते भुकमशनमुदाग्निना सरकं तस्य आशयः स्थान सस्मिन् । पकासयस्स उघरि जाठरण अग्निना पक्क आद्दार पकं तस्य याशयः स्थान । सत उपरि । अमेझमझमिम अमध्ययोः पकापकयोमध्ये । गम्भो अत्यदि आस्ते गर्भः । कीटक वत्थिपडलपच्छष्णो विततं मांसशोणितं जालसंस्थानीयं वरिथपडलशब्दनोच्यते तन रतिच्छन्नः । कियत कालमारते ? णघमास उपलक्षण नवमासग्रहण दशमासमात्रमप्यवस्थानात् । नृदेह निम्पत्तिक्षेत्र गाथात्रयेण निरूपयिष्यन्गर्भवस्थामक्रममशोभनं तस्याभिधत्ते. मूलारा--- आमासयम्मि - उदराज्यपकभुक्तानस्थाने | पक्कासयस जठराग्निएकभुक्ताहारस्थानस्य । अमेज्झमज्झम्मि अमेध्ययोः पकापकयोमध्ये । बत्थिपडलपच्छपणी पस्तिपटलं जालस्थानीय विततमांसशोणितं तेन प्रच्छादितः । १०६४ Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास गम्भो हु अग्र पाठे आमाशयावधः पक्वाशयाचोर्द्ध नवदशमासान जरायुप्रच्छादितो गर्भ आस्ते इति सूत्राधैः ॥ गम्भा- | शायम्मि इति पाहे नगे नरदेवो वा गर्भ तितीति व्याख्येयं । पवमासे उपलक्षणादशापि ।। गर्भ में चालक किस स्थान में रहता है इसका वियेनन अर्थ--आमाशय और पक्वाशय इन दोनों के बीचमें जालेक समान मांस और रक्तसे लपेटा हुआ वह गर्भ नद महिने तक रहता है. ग्वाया हुआ अन्न उदराग्निये जिस स्थानमें थोडासा पचाया जाता है वह स्थान आमा शय कहा जाता है. और जिस स्थानमें पूर्ण पकाया जाता है वह स्थान पक्काशय है. ये दोनो स्थान अपवित्र है. पक्काशगक ऊपर और अपक्काशयके नीचे अर्थात दोनोंके बीच में गर्भका स्थान रहता है. गाथामें विमास' यह शब्द उपलक्षणवाची है. इससे दस मासका भी ग्रहण होता है. अर्थात् कोई गर्भ दसमासतक भी माताके उदरमें रहता है. अशुचिस्थाने अवस्थितः स्वल्पकालं यदि जुगुप्स्यते चिराधमियतः कथमयं न अगुप्सनीय रस्मायष्ट अमिता असमझे मासवि समस्वभत्ति होदि हु विहिंसणिज्जो जदि वि हु णीयल्लओ होज ॥ १.१३ ।। मासमेकं स्थितोऽध्यक्ष वर्षामध्ये जुगुप्स्यते॥ निजोऽपि न कथं गर्भ वांत नववश स्थितः ॥१.४१॥ इति क्षेत्रं ॥ विजयोदया-वमिदा अमेज्झमजमे यांतस अमेध्यस्य मध्ये । मासपि मासमाधपि समक्खमस्थिदो स्वप्रत्यक्षतया स्थितः पुरुषः । खुशब्द पयकारार्थः स च क्रियापदात्परो प्यः । विहिंसणिऊजो इत्यतः परतः । विहिंसजीओ होदि इति जुगुप्सनीय पत्र भवति नाजुगुप्स्य इति यावत् । जदि वि हुणीयलयो होज यद्यपि बंधुभवम् ॥ . स्वल्पकालं यशमेश्यमध्यमध्युषितो बंधुरपि जुगुप्स्यते तत्कथमयं देह श्चिरं तत्र स्थितो न जुगुप्म्य इति गाथाद्वयेनाह मूलारा-अमिया इति-अमिया अमेझमज्झस्मि तस्य अमेध्यस्य च मध्ये । ससमक्खं आत्मप्रत्यक्षं । दि वि यद्यपि । शिवलओ बंधुः ॥ Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः अपवित्रस्थानमें स्वल्प कालतक रहा हुआ मनुष्य भी जुगुप्सा योग्य माना जाता है तो चिरकाल यहां रहा हुआ क्यों जुगुप्सा योग्य नहीं माना जायगा? इस प्रश्नका उत्तर अर्थ--वान्ति और विष्ठांक बीचमें अपना कोई संबंधी मनुष्य एक मासतकभी रहा हुआ अपने प्रत्यक्ष हुआ तो हम उसकी ग्लानि करते ही है. यद्यपि यह हमारा स्वजन भी हो तो भी उसकी ग्लानि हमारे मनम होगी ही. HTRATE किह पुण णवदसमासे उसिदो वमिगा अमेझमज्झम्नि । होज्जम विहिंसणिज्जो जदि वि हु णीयल्लओ होज्ज १०१४॥ विजयोदया-किड पुण कथं पुनः । न होज्ज्ञ विसिणिज्जो न भवेज्जुगुप्सनीयः । जबदसमास उसिदो नवमासं दशमासं वावस्थितः । वमिगा अमेज्सममम्मि मात्रा उपयुक्त आहारो वमिगाशब्देनोच्यते 1 शेषः सुगमः ।। खि गर्द ॥ मूलारा.....किध-उसियो स्थितः । मिग़ा जनन्योपयुक्त आहारः । क्षेत्रम् ॥ . . अर्थ-तो जिसने गर्भ में नउ दस महिनेतक निवास किया है और माताका भक्षण किया हुआ आहार खाकर जो वृद्धिको प्राप्त हुआ है वह क्यों न ग्लानिका पात्र बनेगा ? अर्थात् वह अवश्य घृणाका पात्र है. RASTRA येनाहारणासायुपचितशरीरो जातस्तमाच - दंतेहिं चव्विदं वीलणं च सिमेण मेलिद संतं ।। मायाहारियमण्णं जुत्तं पित्तेण कडुएण || १०१५ ।। पिच्छिलं चर्वित दन्ममिश्रितं संप्मणा च यत् ।। अनं मात्रशितं युतं पित्तन कटुकात्मना । १.४२ ।। विजयोदया-दंतेहि चन्विदं दंतेश्चूर्णितं । बीलणं पिच्छिल । कथं, सिमेण मेलिदं श्लेष्मणा मिश्रित सत् । मावाहारिदमणं मात्रा भुक्तमझ । कडपण पित्तेण जुत्तं कटुकेन पित्तेन जुलै ॥ येनाहारेणोपचितशरीरो नरः संपन्नस्तं गाथापंचकेन व्याचष्टे-- RSSETal Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १०६७ मूलारा --- दंतेहिं इति षीणं पिच्छिलं मिलि संतं मिश्रितं सत् । भादाइरिदं मातृभुक्तम् । जिस आहारसे उसका शरीर पुष्ट होता है उसका वर्णन आचार्य करते हैं. - अर्थ — दांतों से चबाया गया, कफसे गीला होकर मिश्रित हुआ ऐसा माताने खाया हुआ अक्ष उदरमें पिसके मिश्रणसे कडवा होता है. वमिगं अमेझसरिसं बादविओजिदरसं खलं गन्भे ॥ आहारेदि समता उवीरें थिष्पंतगं णिच्च ॥ १०१६ ॥ समीरेण कृतम् ॥ ऊर्ध्व कटुकमाति विगलंतमसौ रसम् ॥ १०४३ ॥ विजयोदया - वमिगं यांतं । अमिसरिसं अमेध्येन सदृशं : वाइथियोजिदरसं खलं वातेन पृथतं रसं खलभाग आहारेदि णिचं नित्यं गर्भस्पो भुंक्ते । समंता समंतात्। उवरिं उपरि थिष्यंतमं चिगलद्विदुकं तेनान्नर समाहरतीति ज्ञायते ॥ मूलारा - बभियं इति — बमियं अन्तरच्छर्दिर्त । वादविजोजिंदरसक्खलं वायुष्टथस्कृतरसखळभागं । आहरदि भुंक्त गर्भस्थो मनुष्यः । सभतो सततः । सर्वागैरित्यर्थः ॥ श्रियंत विलद्विदुकं । एतेनान्नरसमाहरतीति ज्ञायते । उक्तं च अंधसो मातृस्य ष्ममिश्रस्य पिच्छिलं ॥ चूर्णितस्य भृशं तैः पित्तसंगमुपेयुषः || अमेध्यसदृशं वांतं समीरेण प्रधक्कृतं ॥ ऊर्ध्व कटुकमाति विगतमसौ रसं ॥ अर्थ - वांति और विशके समान, बातसे जिसका रसभाग और खलभाग अलग किया गया है ऐसे आहारका ऊपरसे और चारो तरफसे एक एक बिंदु जब गिरने लगता है तब वह गर्भस्थ जीव उसको नित्य ग्रहण करता है. अगलक शरीरमें नाभि उत्पन्न नहीं होती है तब तक यह जीव चारों तरफसे मातृमुक्त आहार शरीरके द्वारा ग्रहण करता है. भावासा ६ १०६७ Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ marwarimaani आश्वास तो सन्तमम्मि मासे उप्पलणालसरिसी हवइ णाही ॥ तत्तो पाए बमियं तं आहारेदि णाहीए ।। १०१७ ।। तनास्ति सप्तने मासे नाभीयुत्पलनालबत् ।। ततो नाश्या तगा वान्तं तदादत्ते स गर्भगः॥१.४४ ।। विजयोदया-तेषां मासानां रत्तं सत्तमम्मि मास रक्त सप्तममासे । उप्पलणालसरिसो नाही दवइ उत्पलनालसरशीनाभिर्भवति तनो नाभिनिष्पत्युसरकाले । धमिग सं आहारेवि णाभीए षांतमाहारयति नाभ्या ।। मूलारा-तो सत्तम इति-तत्तो पाए ततः प्रभृतिः ॥ अर्थ-सातवे महिनेमें शरीरमें कमलके डंठलके समान दी नाल पैदा होता है. तबसे यह जीव माताका खाया हुआ आहार दीर्धनालसे ग्रहण करने लगता है. वमियं व अमेज्ज्ञ वा आहारिदवं स किं पि ससमक्वं ॥ होदि हु विहिंसणिजो जदि वि य णीयल्लओ होज ॥ १.१८॥ अमेध्य भक्षयनेक मासं हष्टी जुगुप्स्यते॥ निजोपि न कथं गर्भ मासान्नवदशानसौ ॥ १०४५ ।। इत्यंधः॥ विजयोदया-यमिग व अमिझ वा तिमध्यं या । आदारिद वा भुक्ताम् । स किं पि सवपि एकवारं । ससमक्खं खप्रत्यक्षे । होदि खु चिहिसणिज्ज भवति जुगुप्सनीयो । यदि वियणीयल्लिओ होऊज । यद्यपि बंधर्भवेत् ॥ मूलारा--बमियतिनि-आहारिदवं भुकवान् । स किपि एकवारमपि । अर्थ--कोई मनुष्य अपने सामने बांति और विष्ठाको यदि खागया तो उसको देखकर मनमें स्लानि पैदा होती है. यदि वह मनुष्य अपना संबंधी मी हो तो भी ग्लानि उत्पन्न हुए बिना नहीं रहेगी. किह पुण णबदसमासे आहारेदूण तं णरो बमियं ।। होज्जण विहिंसणिज्जो जदि वि. य. णीयल्लओ होज्ज ॥ १०१९ ॥ १०६८ AndersotARALA Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ----- भावास मूलाराधना -- 2.. विजयोदया-पोसन गाथा 1 आहारगद सम्म ॥ आदारो निरूपितः ॥ मुलास-किहेनि-आहारेदूण भुक्त्वा || आहारः ॥ ५॥ अर्थ-पुनः जो नउ दस महिने नक बांति खाकर द्भिगत हुआ है वह अपना संबंधी भी हो तो भी । वह जाकिः पारसग या आदर का प्रकरण समाप्त हुआ. जन्मनिरूपणायोत्तम गाथा असृचिं अपेच्छणिज्ज दुग्गंध मुतसोणियदुवार ॥ वोत्तुं पि लज्जणिज्ज पोट्टमुहं जम्भभूमी से ।। १०२० ॥ शोणितप्रसषद्वारं दुर्गंध जठराननं ।। अवाच्यजन्मभूतस्य लज्जनीयमशीचकम् ॥१०४६ ।। विजयोदया-असुचि अनुत्रि । अपेच्छाणिज्ज अप्रेक्षणीयं । मुग्गंध दुर्गधं । मुत्तसोणियदुवारं मूत्रस्य शोणितस्य च सारं । घोर्नु पि दरणिर्ज पश्तुमपि स्त्रनासा सज्जनीयं । पोहमुह उवरमुख परांगं । जन्मभूमी से जन्मभूमिस्तस्य । मलारा-असुचिमिति-अपेख्नवणीय अद्रष्टव्यं । यो पि कथयितुमपि प्रसिद्धनाम्दा । पोट्टमुह उदरमुख योनिरित्यर्थः । से तस्य नरस्य नरदेहस्य वा । अर्थ--प्राणी की जन्मभूमि जिसको उदरका मुख कहते हैं यह अपवित्र है, देखने लायक नहीं है, वह दुर्गधयुक्त और मुत्र तथा रक्त बहनका द्वार है. उसका नाम लेकर वर्णन करनेसे लज्जा उत्पन्न होती है. जदि दाव विहिंसिज्जइ वत्थीए मुहं परस्स आल ॥ कह सो बिहिसणिज्जो ण होज्ञ सल्लीढपोट्टमुहो ॥ १०२१ ॥ परी पस्तिमुम्बम्पी महद्भिनिद्यते यदि ॥ उदरद्वारसंस्पशी विनियो न तदा कथम् ।। १७ इति जन्म। Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना १०७० - विजयोश्या—जदि दाव विहिंसज्जदि यदि तावज्जुगुप्यते । चत्थी मुहं वस्तिमुखं । परस्त आल द्रष्टुं । किध सो विसिणिज्जो न दोज्ञ कथमसौ न जुगुप्सनीयो भवेत् । सल्ली स्यादितयरांगः ॥ मूलारा---जदिदा इति । बथीए मुहं बस्तिमुखं, अपानं योनि वा आठ प्रष्टुं वृत्तः | सीट समास्वा दितं ॥ जन्म || अर्थ-- ऐसे अपवित्र योनीको देखनेवाला मनुष्य ग्लानिका वियय होता है तो जो इस अवयवका श्र स्वाद लेता है वह क्यों न ग्लानिका विषय न होगा ? जन्मवृद्धिं निरूपयति- बालो विहिंसणिज्जाणि कुणदि तह चेव लज्ञ्जणिज्जाणि || झामे कज्जाक किंचिविं अयातो ॥। १०२२ ॥ परस्य निधाने लज्जनीयानि कर्माणि कुरुते शिशुः ॥ कृत्याकृत्यमजानानो सेव्यासेव्यं च मूढधीः ॥ १०४८ ॥ विजयोदया - पालो विद्दिसणिजाणि कुणदि बालो जुगुप्सनीयानि कर्माणि कुरुते । तथा चेव लखणिजाणि तथा चैत्र लज्जनीयानि । भेज्झामेज्यं शुच्यशुचि । कजाकजं किं विधि अगाणंतो कार्याकार्य विजानन् ॥ मूलारा – बालो इनि कुदि कर्माणि इति शेषः । किंचिव किंचिदपि । जन्म वृद्धिका विवेचन करते हैं अर्थ - यह बालक ग्लानि उत्पन्न करनेवाले कार्य करता है तथा जिससे लज्जित होना पडेगा ऐसे भी कार्य करता है. यह कार्य उत्तम है अथवा यह कार्य अयोग्य हैं इसका उसको थोडासा भी ज्ञान नहीं रहता है. 7 अष्णस्स अप्पणो वा सिंहाणयखेलमुत्तपुरिसाणि || चम्मविसापूयादीणिय तुंडे सगे छुभदि ॥। १०२३ ॥ स धर्मपुमांसास्थिवर्षोमूत्रककादिकं ॥ स्वस्यापरस्य वा व क्षिपते विगतन्त्रपः || १०४९ ॥ आभासः ६ ܘ ܗ ܘ ܐ Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 मलाराधना आश्वास विजयोदया-अण्णस्स अप्पणो वा अन्यस्यात्मनो वा । सिंघाणगं श्लेष्माण। मूत्र, पुरी, चम्मठियसापूयाणि. या चर्म अस्थि वसा पूयादिकं वा । सगे तुडे चुमनि आत्मीये मुखे क्षिपति ॥ मूलारा-अण्णस्स इति-सिंघाणय श्लेष्मा । खेल थुक्कं । पुरिस पुरियं । तुंडे मुखे । अर्थ-दूसरेका अथवा अपना श्लेष्मा-कफ, मूत, विष्ठा, चर्म, हड्डी, बसा, पीष, अपने मुखमें डालता । है. इस कार्य को करते समय उसको ग्लानि नहीं आती है. जं किं चि खादि जं किं चि कुणदि जं किं चि जंपदि अलज्जो । जं किं चि जत्थ तत्थ व वोसरदि अयाणगो बालो ॥ १०२४॥ पत्किचित्कुरुते चूते बालः स्वायत्यलज्जितः ॥ हवते विगतज्ञानः प्रदेशे यत्र तत्र वा ॥ १०५० ।। विजयोदया--ॐ किं चि खादि. यत्किंचिदत्ति, यस्किचित्करोनि । यत्कित्रि उजल्पत्यलज्जः । जंक वि जत्थ तत्य यि यकिंचिद्यत्र तत्र वा शुवावशुची वा देशे । योसरदि व्युत्सृजति । अजाणगो बालो असो वालः ॥ मूलारा-- इति—जं विचि यत्किचिद्भक्ष्यमभक्ष्य था । जरथ तत्थ यत्र तत्र शुनावशुचौ वा प्रदेश । घोसरदि गुंचति मूबपुरीपादिकं ।। अर्थ-जो कुछ भी पदार्थ बालक खाता है. मनमें जो आया यह कार्य करता है. मूहमें जो आरा वह बोलता है. जगह पवित्र हो अथवा अपवित्र हों वहां अज्ञ वालक मलमूत्रका विसर्जन करता है. बालत्तणे कदं सब्यमेव जदि णाम संभरिज्ज तदो ॥ अप्पाणम्मि वि गच्छे णिब्वेद किं पुण परंमि ॥ १०२५ ॥ पाले यदि कृतं कोऽपि कृत्यं संस्मरति स्वयम् ।। तदात्मन्यपि निर्वेदं यात्यन्यत्र न किं पुनः ॥ १०५१॥ विजयोदया-बालसणे कई बालत्वे कृतं । सर्वमेव यदि स्मरेत्ततः आत्मन्यपि गच्छेनिर्वेदं किं पुनरम्यस्मिन् । नुडि ॥ Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाम: मनमना नलाग--वरलत्तणे इनि--भभरेज म्मरेत् । अपाणम्मिवि आमन्यपि । गढ़े गल्छन । णिवेद वैराग्य । परहिम्पीशरीगदी ।। द्भिः ॥ अर्थ--मनुष्य वालपन में जो जो कृत्य करता है उसकी यदि उस को स्मृति होगी तो वह अपनी भी म्लानि करेगा किर अन्य के विषयमै अर्थात् स्त्रीके शरीर वगैरह में उसको ग्लानि होगी इस विषय में कहना ही - - SRITAMALPATIALASEAAddbAARADARAMARADASE कुणिमकुडी कुणिमेहि य भरिदा कुणिमं च सवदि सव्यस्तो ।। ताणं व अमेज्झमयं अमेझभरिद सरीरमिणं । १.२६ ॥ अमेध्यस्थ पुरी गानाशनारे अमेध्य सवते छिद्रं अमेध्यमिच भाजनम् ।। १०५२ ॥ इति वृद्धिः ।। विजयोदया-कुणिमकुडी कुथिता कुडी, फुर्णिमेहि भरिदा फुथितमरिता । कुणिमं या सवदि सम्धसो कुधित सर्वतः सपति समंतात् । ताण व अमेझमय तामिव अमेझमय अमेध्यमिव 1 अमेज्यभरिद अमेध्यपूर्ण । परीरमिम शरीरमिदं ॥ अवयवान्नाथाभिचतुर्दशभिर्व्याचक्षाणः प्रथममवयविनं लिर्दिशति मूलारा-कुणिमेति धुणिमकुडी कुणिग कुथित दुर्गध नन्मयगृहं । इम इदं मानवीय । एनां गाथा श्रीविजयाचार्य: पाचात्यमत्र पठति ।। अर्थ यह शरीर दुर्गध है, दुर्गध वस्तुऑम भरा है. इसम दुर्गध म्बद मुत्रादि पदार्थ निकलते रहते हैं. यह शरीर विष्टासे भरी हुई वृणकी बनी झोषीक समान दुर्गंध है. पृद्धिक्रम निरूप्य शरीरावयवानाच अट्ठीणि हुँति तिण्णि हु सदाणि भरिदाणि कुणिममजाए ॥ सब्वम्मि चेव देहे संधीणि हवंति तावदिया ॥ १०२७ !! - Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १०७३ शतानि श्रीणि संत्यस्थनां मज्जापूर्णानि विग्रहे ॥ संघीनामपि तावन्ति सन्ति सर्वत्र मानुषे ।। १०५४ ॥ विजयोदया- अट्टणि हुनि तिरिण दु सदाणि त्रिशतान्यस्थीनि । भरिदाणि कुणिममज्जार पूर्णानि कुतिन मज्जासंज्ञितेन सत्यम्मि क्षेत्र देहतिसर्वमिव देहे शरीर । संघीणि इर्वति तावदिगा । संधिप्रमाणमपि त्रिशतमेव ॥ मृदेहावयवेत्तावधारणार्थमुत्तरबंध माह- मूलारा -- अट्टणि इति तावदिया विशनप्रमाणा: । / वृद्धिके क्रमका निरूपण कर शरीर के अवयवोंका विवेचन करते हैं--- अर्थ — इस मनुष्य के देहमें तीनो अस्थि हैं. वे दुर्गंध मज्जा नामक धातुसे भरी हुई हैं. और तीन से श्री संधि है. १३५ ( "हारूण णवसदाई सिरासदाणि य हवंति सत्तेव ॥ देहम्मि मंसपेसीण हुंति पचेत्र य सदाणि ॥ १०२८ ॥ मांसपेशीशिर स्नायुशतान्यंगे यथाक्रमम् ॥ पंच सप्त नव प्राज्ञाः सर्वदापि प्रचक्षते ॥ १०५५ ॥ विजयोदया- हारुण पायसदारं स्नायूनां नवशतानि सिरासवाणि य भवति ससेष सिराणां सप्तशतानि । देहम्मि मंसपेसीण इयंति पंधे य सहानि पंचशतानि शरीरे मांसपेश्यः ॥ मृत्यारा - हारूण तिहारूण स्नायूनां । छिरा शिराः ॥" अर्थ – देहमें उसे स्नायु हैं तथा सातसें सिरा हैं और इस शरीर में पांचसे मांसकी पेशिया हैं. ' चत्वारि सिराजालाणि हुंति सोल्स य कंडराणि तहा ॥ छच्चेव सिराकुच्चा देहे दो मंसरज्ज् य ।। १०२९ ॥ शिराजालानि चत्वारि कंडराणि च षोडश ॥ शिरामूलानि षट् चैव मांसरज्जुद्वयं तथा ।। १०५६ ।। माश्वा १०७३ Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १८७४ विजयोदयाचारि सिराजाबाणि चत्वारि शिराजालानि शिरासंधाताः । सोलस य कंडराणि तहा। षोडश कंडर संशितानि । तया छचेच सिराकुचा पडेच शिरामूलानि । देशे दो मंसरज्जू य शरीरे मांसरज्जूश्यं ॥ मूलारा -- चत्तारि इति सिराजालागि शिरासंघाताः । कंडराओ रक्तपूर्ण महाशिराः । कंडराणि तहा इत्यपि पठन्ति । शिराकुखा शिरामूलानि । सरज्जू पृष्ठोदराश्रिते । अर्थ – शिराओंके चार जाल हैं. सोलह कंडरा है. छह सिराओंके मूल हैं. और देहमें दो मांसरज्जु हैं. स्वाधा सत्त तथाओ कालेज्जयाणि सत्तेव होंति देहम्मि || देहम्मि रोमकोडीण होंति सीदी सदसहस्सा ॥ १०३० ॥ कायकानि सप्तांगे त्वथः सप्त निवेदिताः ॥ सर्वत्र कोटिलक्षाणामशीती रोमगोचरा ।। १०५७ ।। विजयोदयासत तथाओ सह त्वचः । कालेजगाणि सत्तेव दौति देहम्मि सय कालेयकानि देहे । देवम्मि रोमकोडी हाँसि सौदी सदसहस्सा शरीरे रोमकोटीमां अशीतिशतसहस्त्राणि ॥ मूलारा - सन्त तयाओ इति । तया त्वचः । कालेजयाणि कालेयकानि मांसखंडानि । असीदि अशीति । सदसहस्सा लक्षाणि ॥ : अर्थ - इस शरीर में सात त्वचा हैं. और सात कालेयक है. और अस्सीलाख कोटि रोम हैं. कामयासयत्थाय अंतगुंजाओ सोलस हवंति ॥ कुणिमस्त आसया सत्त हुंति देहे मनुस्सस्स || १०३१ ॥ } आमपकाशयस्थानं पोटशैवांत्रययः ॥ कुथितस्याश्रयाः रूत शरीरं सन्ति मानुषे ।। १०५८ । विजयोदयापकामयासयत्था पकाशये आमाशये अवस्थिताः । अंतगुंजाओ क्षेत्रययः 1 सोलस हवंति षोडशैघ भवन्ति । कुणिमस्त आसया कुथितस्य आश्रयाः सप्त भवन्ति देद्दे मनुजस्य ॥ आश्वासः ६ १०७४ Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्चम १०७५ मूलारा-पामगासयत्था इति-पकामगासयत्था पकाशये आमाशये च स्थिताः । अंतगुंजाओ अंत्रयष्टयः1 कुणिमस्स कुथितस्य । आसया आश्रयाः।। । अर्थ- पक्वाशय और आमाशयमें सोलह आतें रहती है. मनुष्यक देहमें दुर्गध मलके सात आशय हैं. ' • थूणाओ तिण्णि देहम्मि होंति सत्तुत्तरं च मम्मसदं ॥ णव होंति वणमुहाई णिच्च कुणिमं सवंताई ॥ १०३२ ॥ नव संति व्रणास्यानि मुच्यमानानि कश्मलम् ।। तिम्रः स्थूणाशतं देहे मर्मणां सप्तसंयतं ।। १:५९ ॥ विजयोदया-धूणायो तिणि देहम्मि होति स्थूणास्तिस्रो भवन्ति । वहे सत्तुत्तरं च मम्मसद मर्मणां शतं समाधिकं । णब होति वणमुहाई व्रणमुखानि नव भवति । णिश कुणिम नित्यं कुथितं नवन्ति । मूलारा-चूणाओ इति । थूणाओ वातपित्तश्लष्माणः । मम्मसद मर्मशतं । सबताई यति सवति सति ।। अर्थ- इस देहमें तीन स्थूणा हैं. और एकसो सान मर्मस्थान है. और नउवणमुख हैं जिससे नित्य दुर्गंध स्रवता है. देहम्मि मच्छुर्लिंगं अंजलिमित्तं सयप्पमाणेण ॥ अंजलिमित्तो भेदो उनोवि य तत्तिओ चेव ॥ १०३३॥ शुक्रमस्तिष्कमेदांसि प्रत्येक सूरयो विदुः॥ स्वकीयांजलिमानानि मनुष्याणां कलेवरे ॥१.६०॥ विजयोदया-चेहम्मि शारीरे । मच्चालिग मस्तिष्क अंजलिमित्तो सगपएमाणेण खांजलिप्रमाणं परिच्छिन्न । मेदोऽध्यंजलिप्रमाणं । ओजोषि तत्सिगो प्रेथ । शुक्रमपि तायम्माश्रमेव ॥ मूलारा-देहम्मि इति । मच्छुलिंग मस्तिष्क दहियलीत्यर्थः । सगा स्वकीयं। ओजो शुक्र । तत्तिगोतावन्मात्र तक्तं प-शुक्रमस्तिष्कमेदांसि प्रत्येक सूरयो विदुः । स्वकीयांजलिमानानि मनुप्याणां कलेवरे ॥ ७५ Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3SEX मूलागतना आर - १०७६ । ! अर्थ- इस दहमें मस्तिष्क एक अंजलिप्रमाण है. अर्थात् वह अपने अंजलिप्रमाण जानना. मेद और ओज' अर्थात् शुक्र ये दोनों भी स्वांजलि प्रमाण समझने चाहिये. ) तिणि य वसंजलीओ छच्चेव य अंजलीओ पित्तस्स || सिंभो पित्तसमाणो लोहिदमदाढगं होदि ॥ १०३४ ॥ षडंजलिमितं पित्तं वसांजालनयममा ।।। श्लेष्मा पित्तसमो रक्तम ढकमितं मतम् ।। १०६१॥ बिसयोदया-तिविण य वसंजलीयो तिम्रो यसांजलयः । छरचेयाय अंजलीयो पित्तस्स वडजलयः पित्तस्य । सिंमो पित्ससमाणो लेष्मा पित्तप्रमाणः । लोहिदमसादगं होदि लोहितोऽप्यर्धाटकं भवति ॥ मूलारा--तिणि इति-बसंजलीओ वसाया अंजलयः । अद्धाहगं द्वात्रिंशत्पलमात्र । । अर्थ-वसा नामक धातु देहमें तीन अंजलिप्रमाण रहती है, पित्तका प्रमाण छह अजुलि है. श्लेष्म अर्थात कफका भी इतना ही प्रमाण है. रुधिरका प्रमाण आधा आढक है. मुत्तं आढयमे उच्चारस्स य हवंति उप्पच्छा ।। वीसं महाणि दंता बत्तीसं होति पगदीए || १०३५॥ षदमस्थपमितं बचों मूत्रमादकप्रमम् ।। मम्बानां विंशतिर्दन्ता द्वात्रिंशत्प्रक्रता भताः ।। १०६२ ॥ विजयोदया-मुसं आढयमेतं मूत्र आढकमात्र । उच्चारस्स यति छएच्छा पदप्रस्थप्रमाण उच्चारः । वीस पहाणि विशतिसंख्या नखानां । दंता बसीस होति द्वात्रिंशद्रयन्ति वताः । पगदीए प्रकृस्या || मूलार'-मुत्तं इति । उच्चारस्स पुरीपस्य । छापच्छा षट्प्रस्थाः प्रस्थः पोडशपलानि । पगदीए प्रकृत्या अन्तपिकमिदं ॥ Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाशचना आया अर्थ-मूत्र एक आडक प्रमाण है और उच्चार-विष्टा यह छह प्रस्थ प्रमाण है. नख बीस रहते हैं और दांत बत्तीस होते है. स्वभावतः शरीरमें इन अवयवोंका प्रमाण कहा हे. किमिणो व वणो भरिदं सरीरं किमिकुलहिं बहुगेहि ॥ सव्वं दहें अफदिदूण वादा ठिदा पंच ॥ १०३६ ॥ कायः कृमिकुलाकीर्णः कृमिणो या व्रणोऽखिलः ॥ तं सर्व सर्वतो व्याप्य स्थिताः पंच चरण्यवः ॥ १०६३ ।। यिजयोदया---किमिणो व वणो संजातक्रिमित्रणवत् । बहुगेहि किमिकुलेहिं भरिद सरीरमिति संबंधः । बहुमिः क्रिमीणां कुलभरितं । सच्वं वेहं अफैदिकूण पाता लिंदा पंच समस्तं शरीरं व्याप्य पंच वायवः स्थिताः ॥ मूलारा--किमिणो इति-क्रिमिणो बगोव्य संजातक्रिमित्रण इव । अदिदूण व्याप्य । पंच प्राणोदानम्यानममानापानाः ।। अर्थ-व्रण जैसा क्रिमियोंसे भरा रहता है. वैसा यह देह भी सर्वत्र क्रिमिऑसे भरा है. इस देहको व्यापकर पांच वायु रहते हैं. एवं सब्वे देहम्मि अवयत्रा कुणिमपुरगला चेव ॥ एक पि णस्थि अंगं पूर्व सुचियं च ज होज्ज | १०३७ ।। इत्यंगञ्चयवाः सन्ति सर्वे कुथितपुङ्गलाः ।। नैकोऽप्यवयवस्तत्र पवित्रो विद्यते शुचिः १०६४ ॥ पिजयोदया–पयं उक्तेन प्रकारेण । देहम्मि सम्वे अपयवा शरीराधाराः सर्व अवययाः । कुणिमपुरंगला चेव अमपुद्गला एच 1 एकं रिन्थि अंग एकोऽपि नास्त्यत्रयवः । जे पूर्व सुचियं च होज्ज । योऽयययः पूतः शुचिर्या भवेत्। मूलारा-एवं इति-कुणिमपोग्गलाः कुथिताः पुद्रला येषां ते । पूर्व पवित्र 1 सुचि शुद्ध मनोज वा। टीप-१ वायत्रः। Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १०७८ अर्थ - ऊपर कहे प्रकारसे इस देहके सर्व अवयव अशुभ पुद्गलोंसे बने हैं. इसमें एक भी ऐसा अवयव नहीं दीखेगा जो अवयव पवित्र और शुचि हैं. परिसव्यचम्मं पंडुरग मुयंतवणरसियं ॥ सुत्र वि दइदं महिले दपि णशे ण इच्छेज्ज || १०३८ ॥ दरनिःशेषचर्माण पांडुरंग गलद्रसां || fees नो कोऽपि वल्लभामपि वल्लभः ॥ १०६५ ।। विजयोदया - परिसव्यचम्मं परितो दग्धसत्वरूपटलं पंडरगर्न पांडुरगात्रं पांहरतनुं । सुयंनवणरसि गिल । ठुवि ददं मद्दिले प्रियतमामपि विनतां । दहुंपि सेन्टुमपि नरोन वांछति । मूलारा- परिदड इति सवंतवणरमियं मन्त्रणरसो यस्यानां सवदूगरसिकां । सुविद अविभामपि ॥ अर्थ- जिसकी देहकी त्वचा अग्नीसे जल जानेसे सफेद दीख रही है. जिससे रस सदा झरता है. ऐसी स्त्री यदि पूर्व में अतिशय प्रिय थी तो भी उसकी ऊपर लिखे प्रकार ग्लानि उत्पन्न करने वाली अवस्था देखकर मनुष्य उसको देखने को भी चाहता नहीं. जदि होज्ज मच्छियापत्तसरसियाए तथाए णो धगिदं ॥ को नाम कुणिमभरियं सरीरमालडुमिच्छेज्ज || १०३९ ॥ अभविष्यन्न चेद्रात्रं पिहितं सूक्ष्मया त्वचा ॥ को नामेदं तदास्मक्ष्यन्मक्षिका पत्रतुल्यया ।। १०६६ ।। इत्यंशाः ॥ विजयोदया जदि होज्ज तयार ण थमिदं यदि त्वचा न स्थगितं भवेत् । कीदृश्या मच्छिगाप ससरिसियाए मक्षिका पत्रवदिति । तदा को नाम इच्छेन कुणिमसरिव सरीरं को नाम वांछेत् । किं कुथितपूर्ण शरीरं आल स्प्रष्टुं ॥ अवयवाः ॥ आश्वासः ६ १०७८ Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १०७९ मूळारा-जदि इति-मच्छियापत्त सरिसियाए मनिकापक्ष्मतुल्यया । आउ स्पष्टुं आलिंगितुं वा । अवयवाः || अर्थ- मक्खीके पंख के समान पतली त्वचासे यह शरीर यदि नहीं ढका होता तो दुर्गंध से भरे हुए इस शरीरको स्पर्श करनेकी किसको इच्छा होती ? अर्थात् कोई भी इसको छूना नहीं चाहता कण्णेसु कण्णगृधो जायदि अच्छी चिकणसूणि । साधोसिंघाणयं च णासापुडे तहा ॥। १०४० ॥ कर्णयोः कर्णोऽस्ति तथाक्ष्णोर्मलमश्रु च ॥ मित्राणकावो निंया नासिकापुटयोर्मलाः ॥। १०६७ ।। विजयोदया करणे कर्णयोः कल्पणगृधो कर्णमूथः । जायदि जायते । अरु दिव । णासाधो नासिकामल सिंघाण व सिंघाणकं व णाखासु नासापुटोः । महारा- कण्णेसु इति कण्णे कर्णविवरयोः । कृष्णगृधो कर्णोद्भवो मलः । चिक दूषिका। जामागूनो नासिको वो मटः । सिंघाणयं नासा स्रावी श्रेष्मा || णोः चिकणि मलम अर्थ- कानमें कर्णगूथ अर्थात् कर्णमल पैदा होता है. आखांमें नेत्रमल होता है, और आंसु उत्पन्न होते हैं. नाकर्मे घट्टमल और पतला मल उत्पन्न होता है. खेलो वित्तो सिंभो वमिया जिन्भामलो य दंतमलो ॥ लाला जायदि तुंडम्मि मुत्तपुरिसं च सुक्कमिदरत्थे ॥ १४१ ॥ लालानिष्ठीवन श्लेष्मपुरोगा विविधा मलाः ॥ जायंते सर्वदा व वंलकीदाकुलत्रणे ॥ १०६८ ।। ये मेहगुवयोः सन्ति वर्षोमूत्रादयो मलाः ॥ न वक्तुमपि शक्यते वीक्षितुं ते कथं पुनः ।। १०६९ ।। आश्वासः 두 १०७९ Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना १०८० स्पष्टार्थोत्तरगाथा-..:. सेदो जादि सिलेसो व चिक्कणो सव्वरोमकूबेसु ॥ जायेति जूवलिक्खा छप्पार्दयाओ य सेदेण ॥ १०४२ ॥ चिक्कणो रोमकूपेषु स्वेदः सर्वेषु सर्वतः॥ युकाः षट्पविका लिना जायते सर्वदा हतः ॥ १०७० ॥ विजयोदया-सेदो जादि खदो जायते ।सिलेसो प चिकणो चमकारलमयश्चिमकणः । सबलोमाबेसु सर्चलोमकृपेषु जायंति जायते । जूका यूकाः । लिक्खा लिशाध । टुप्पार्दगाओ य चर्मयुकाश्च । सेवेण हेतुना खदेन हेतुमा गतायता प्रबंधेन शरीरावयवा व्याख्याताः॥ एवं देहस्वाय यवान्प्रबंधन व्याख्यायेदानी ननिगमच्याख्यानाय गाथाचतुश्यमाहमूल-खेलो इति-उदरस्थ मेहनयोनिगुदयोः । मूलारा--संदो इति । सेदो प्रम्वेदः । जादि प्रादुर्भवति । सिलेसो वा बनलेप इब । श्रेष्मेव था। छापदिआओ पट्मादिकाचर्मयूकाः ॥ अर्थ-नाकका मल, थूक, पित्त, कफ, वमन, जिव्हाका मल, दन्तमल और लाला ये मल मुखमें उत्पन्न । होते हैं, मूत्र, विष्ठा और वीर्य थे उदर में होतें हैं. अर्थ -शरीरके संपूर्ण रोमरंध्रोंसे 'पम्हारके यहाँक सचिकण पदार्थ के समान स्वेद निकलता है. इस स्वंदसे यूका, लिक्षा तथा चर्मयका उत्पन्न होती हैं. यहांतक शरीरके अवयवोंका वर्णन किया है. जिगमणं । निर्गमनव्याख्यामायाचटे विठ्ठापुण्णो भिष्णो व घडो कुणिम समंतदो गलइ ॥ पूदिंगालो किमिणोव वणो पूर्दि च बादि सदा ॥ १०४३ ॥ गार्मुचति वासि विग्रहो निम्विलैरपि ।। गूथपूर्णो घटो गूथं छिद्रितो विवरैरिव ॥ १.७१ ॥ Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारामा मावास ms-....-ren Kamarurinamain ramm- गुऔरणगी। मीणां निश्चिीधीमलः ।। सारासारमष्टानां मानसं हियते कथम् ॥ १०७२ ॥ लज्जनीयतिबीभत्से मूढधी रमते कथम् ।। यानी किन प्रवद्रक्त निंये कृमिरिच वर्ण ।। १०७३ ।। अंगारस्यव कायस्य बहिरंतश्च श्यते ।। नैकाप्यवयवः शुद्ध सर्वथा मलिनात्मनः ॥ १.७५ ।। इति निर्गमः। विजयोदया-वायुमणो विधाभिः पूगी । भिगणी व यो भिन्नघट इन्न । कुणिम कुचित। समतदो समतान् । गलदि प्रगति । टंगालावणो गलन्यूनि निचिनक्रिमिवणवत् । पूदि च वादि सदा दुरभिवाति सदा । विरगमण सम्मतं ॥ एवं प्रलंगमलनाचित्रमाख्याय देहस्य सामस्त्येन दुगंधोदावित्वं चाह मूलारा-बिद्रापुणो इति-गलदि अवनि देहः । पूदिंगालो दुर्गधोद्गारी । किमिणो क्रिमिनिचितः । वादि मुंचति देहः । एतां गायों केचिबुत्तरत्र पठन्ति । निर्गम: अर्थ-विष्टासे पूर्ण घडा जैसा चारो तरफसे दुर्गधको स्रवता है, अथवा क्रिमिओंसे भरा हुआ ब्रपा . मुड़कर जैसा गलने लगता है वैसा इस देहसे भी हमेशा दुगंध मलमूत्रादिक पदार्थोंका स्राव होता रहता है. .. इंगालो धोवते ण सुज्झदि जह महापयत्तेण ॥ सव्वेहि समुद्देहिम्मि सुज्झवि देहो ण धुव्वतो ॥ १०४४ ।। सिण्हाणुभंगुब्बटणेहिं मुहृदंतअच्छिधुवणेहिं ।। णिश्चपि धोवमाणो बादि सदा पूदिय देहो ॥ १०४५ ॥ कायो जलैः पयोधीनां धान्यमानोऽग्विलैरपि ।। स्वभावमलिनो जातु मांगार इव शुध्यति ।। १५७५ ।। ww- " " १६ Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृलाराधन। आश्वा अभ्यंगोद्वर्तनस्तानमुखदंताक्षिधावनैः ॥ शश्वद्विगोध्यमानोऽपि दुर्गधं वाति विग्रहः ॥ १०७६ ॥ विजयोदया-सिहागुम्भंगुष्पट्टणेहि य स्नानेन, अभ्यगेन, उतनेन । मुदतअछिधुवणे िमुखस्य दंता नामक्षणोश्च प्रक्षालनेन । णिच्चपि धुश्चमाणो नित्यमपि क्रियामाणशौखः । वाति सदा पूदिंग देदो । दुरभिगंधतां न त्यजति देहः॥ एवं निर्गम व्याख्याय देहस्थाशुचित्वं गाथाचतुष्टयेन व्याचष्टेमूलारा-दंगालो इति-इंगालो अंगारः । धोव्वंतो धान्यमानः, शोध्यमानः ।। सिण्डाणेति-सिण्हाणभंगुब्यटणेहि स्नानाभ्यगोवर्सनैः । धुवणे हि प्रक्षालनैः । पूदिगं दुरभिगंधे ।। अर्थ-जैसे कोला प्रयत्नपूर्वक धोनेपर भी स्वच्छ अर्थात् सफेत रंगका नहीं होता है वह काला ही रहता है. वैसा यह देह संपूर्ण समुद्र के पानीसे जो सामने पर भी विधानपदी शेप रिकही रहता है. इस शरीरको स्नान, अभ्यंग स्नान, उबटन भी स्वच्छ नहीं कर सकते हैं. मुंह, दांत और आखें बार बार घोने पर भी अशुद्ध ही बने रहते हैं। यह देह हमेशा दुर्गेधताको चाहर छोड़ता ही रहता है. पाहाणधादुअंजणपुढवितयाछल्लिवल्लिमूलेहिं ॥ मुहकेसवासतंबोलगंधमळेहिं धूबेहिं ।। १०४६ ॥ मृत्तिकांजनपापागधातुत्वङ्मूलवल्लिाभिः ।। केशास्थवासतांबूलधूपपुष्पदलादिभिः ।। १०.७७ ।। विजयोदया-पाहापाधाअंजणपुढवितयाछल्लिबालिमूलहिं । पापाणशद्वेन रत्नान्युच्यते । धातुर्जले ! अंजण अंजनं सौवीरं च । पुढची मृत्तिका । तया त्वक । मुखबासः । मुखे वास्यते मुखं गंधता नीयते येनासो मुखबासः ! केशाः सुगभितां नीयंने येनासा केशवामः, रतैः पापागादिमिः ॥ मनोवं असंताप्रतिविवेयदौनध्य: कायस्तस्कर्थ लोकः सेव्यते इत्यत्र गाथाद्वयमाद मलारा--पासागे इति-पामाण रत्नानि । धादु हेमादिकं जलं वा । अंजण सौवीरकन्जलादि । पुढवि स्यदिकादि । तवा मध्यस्थक । छल्लि वाशयकलं । मुहफेसवासा वास्यते सुरभीक्रियते मुख केशाश्च येनासी । गंध कस्तूरिकादि । मल्लं पुष्पमाला । Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना লীঘাষ १०८३ अर्थ-पापाण शब्दसे रत्न यह अर्थ लेना चाहिये. धातुका अर्थ जल ऐसा होता है. अथवा सुवर्णादिकको धातु कहते हैं. अंजन, मृत्तिका स्वचा, मुख सुगंधित करने वाले पदार्थ, केशको मुगंधित करने वाले पदार्थ, अर्थात् रत्न, सुवर्णादि धातु, अंजन, मृत्तिका, बनस्पतिओंकी छाल, मुख और के.शोको सुगंधित करनेवाले पदार्थ, तांबूल, पुष्पमाला, इत्र, इन पदार्थोंसे अभिभूददुध्विगंध परिभुजदि मोहिएहिं परदेहं ।। परिभुजदि पइयम संजुत्तं जह कडगभंडण ॥ १०४७ ॥ प्रच्छाद्य निदितं गंधं भुज्यतेऽन्यकलेवरम् ॥ हिंग्वादिभिरित्र दन्यः शितं बिघृणात्मभिः ॥ १०७८ ॥ मिजयोत्या-अभिभूचि गंधो निरस्ताशुभगंधः । परदेह सेजुत्तं परस्य देहः संयुक्तः । मोद्दिदहि मूरैः । परि. भुज्यते । परिभुजदि यगं मांस यथा युक्तं संस्कृतं । कहुगभंडेण मरिचेहिग्वादिभिश्च || मुळारा--अभिभूयेति-अभिभूय निरस्य । दुठियगंध दुस्सहविरुद्धगंध । उपलक्षणाद्वीभत्सभावं च । रमणीयतामापादोत्यर्थः । अभिभूददुव्विगंधो इति षा पाठः । कहुगर्भगेहि मरिचहिंग्वादिभिः । अशुचित्वं ॥ ____ अर्थ इन पदार्थोसे जिसका दुर्गध दूर किया है ऐसा परकीय देह मोहित लोगों द्वारा भोगा जाता है. जैसा अपवित्र, दुगंध मांसको हिंग, जीरा, मिरच वगैरे पदार्थासे छोक देकर जैसे मांसलुब्ध लोक खाते है वैसे परकीय देहका कामी लोक उपभोग लेते हैं. अब्भंगादीहि विणा सभावदो चेव जदि सरीरमिमं ।। सोभेज्ज मोरदेहव्व होज्ज तो णाम से सोभा ॥ १०४८ ॥ मयूर देहबदेहो ययभार अभविष्यत्तदा शोभा तस्मिनीक्षणतोषिणी॥१०७५ ।। विजयोदया-अभंगादाहिं बिणा सुगंधतैलेन म्रक्षण, उद्धर्तन, मानमालेपनमित्यादिभिर्धिना । सभावदो चव । Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाधनक १८७ यदि सोभे इसे शरीर स्वमात ए यदि शोभत इवं वीरं । मोरदेव महत् । होज तो णाम से सोभा संत कुटं देहस्य शोभा एकचत्वं धन्य देहस्यासवाक्षणार्थ गाथाचतुष्टयमाचइति इमं मानुषं । गाम || मारा अर्थ- सुगंध तेल लगाकर स्नान करना. उबटन लगाना, स्नान करना, लेप करना इत्यादिकां की अपेक्षा केविनाही मयूर देहके समान यह देह स्वभावतः सुंदर होता तो ही मनुष्यदेव सुंदर है ऐसा कह सकते परंतु बाह्य पदार्थकं बिना सुंदरता आती नहीं है. जदि दा विहिंसदि परो आलडं पाडदमप्पणो खेलं ॥ कदा लिपिबेज बुभगे महिलामुहजायकुणिमजलं ॥ १०४९ ॥ आत्मनः पतितो खेलो यदि स्पष्टुं घृणायते ॥ ता रामासुखां भी हि पीयते कथितं कथम् ॥। १०८० ॥ विजयोदया--जदिदा विहिंसदि परो आलं पण खलं यदि तापझसे जुगुप्सते स्पष्टुमात्मनोऽपि कासं । कदापि बुधो कथमिदानीं पिवेदुधः महिलामुद्दजदिकुणिमजलं युवतिमुखसमुद्भवमशुचिजले ॥ -जदिदा इति दाणि इदानीं । पिवेज्ज पिवेत् । कुणिमजलं अशुभः । लालाभिव्यः ॥ मूलारा अर्थ --- मनुष्य यदि अपने भी थूकको स्पर्श करनेमें ग्लानि उत्पन्न करता है अर्थात् अपना थूक कफ को हाथसे स्पर्श करना भी चाहता नहीं तो यह बुद्धिमान मनुष्य स्त्रीके मुहमें उत्पन्न हुआ अपवित्र जल कैसे पीता है. कुछ मालुम नहीं पडता ? मझे व कोइ सारो सरीरगो पत्थि ॥ एरंडगी व देहो णिरसारो सबहिं वेव ॥ १०५० ॥ वीक्ष्यमाणे मनुष्याणां बहिरंतञ्च वीक्ष्यते || एरंड दंड देहो न सारोऽय कदाचन । १०८१ ॥ अवाड: १०८४ Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मावास: १०८५ विजयोदया—अंतो पति व मज्झे अंतर्बहिर्मध्ये । को बि सारो सरीरगो अस्थि । शरीरे के सारभूतं न किंचिदस्ति । एरंडको वा णिस्तारो सहि चेघ साररहिन समेत त्रैष । मूलारा-अंतो बहिं च इति-मज्झे अंतराले । सारो सेव्यं रूपं । सब्बंहि सर्वत्र । अर्थ--अंतमें, बाहर और मध्यमें भी इस देहमें कुछ भी सार वस्तु नहीं मिलेंगी जैसे एरंडकी लकही सर्व तरहसे सारहीन होती है वैसे इस देह में सारका नाम भी नहीं मिलेगा. ( चमरीबालं खग्गिविसाणं गयदंतसप्पमाणिगादी ।। दिवो सारो ण य अधि कोई सारो मणुस्स देहम्मि ॥ १०५१ ।। । यमरीणां कचं क्षीरं गवां शृङ्गाणि खजिना ॥ भुजंगानां मणिः पिच्छं बर्हिणां करिणां रदः ॥ १८२ ।। बिजयोदया-चमरीवालं चमरीरोमाणि । खम्गिविसाणं गिनां मृगागा विषाणं । गजानां ताः । सर्माण ग्वादिकं च । सारभूतं । प य अन्थि कोह सागे गणुस्संदहम्मि नास्ति किचिन्सार मनुष्य देहे ॥ लगलं मुन्तं दुई गोणीए रोयणा य गोणस्त ॥ . सुचिया दिछा ण य अस्थि किंचि सुचि मणुयदेहस्स ॥ १.५२ ॥ । कस्तूरिका कुरगाणामित्थं सारो विलोक्यते ।। शारीरे न पुनर्नृणां कोऽपि कापि कदाचन ॥ १०८३ ।। विजयोदया-असुह॥ मूलारा-चगरी प्रति-बमरीवाला अरण्यावीपुच्छकेमाः । खग्गिविसाणं गडकझंग । मणिगादी आदिशब्देन मयूरबर्हमृगकस्तृरिकादिकं । अत्र संस्कृतटीकाकारः कण्णेनु कणगूधो इत्यादिगाथात्रयं पूर्वमूत्रे पठित्वा । विठ्ठापुण्णो इत्यादि गाथानवकं निगमब्याख्यानमापनि । अशुचीति च बीजानिभिरष्टाभिरपि समयनात । एवं च सति द्वादशसूत्री तेन नेष्टा ज्ञायते । अस्माभिस्तु प्राकृतदीकाकारादिमतेनैष व्यास्यायते । अन्ये त्वसारत्वप्रेक्षणमाशौचान्तर्गमयन्ति | तथा च तत्पाठः-शेयानि बीजनिष्पत्तिक्षेत्रांधोजन्मद्धिभिः । - - १०८५ - - -- Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASTRO Steheastmere गृलाराधना आश्वासः Sers महाशनिर्गमाशौचब्याध्याघ्रौव्याणि विग्रह ।। असारत्वप्रेक्षण || .. अर्थ--चमरी नामक गौके केस, गंडेका सींग, हाधीके दांत, सर्पके मस्तकका मणि आदि शब्दसे मोरका पंख, कस्तुरी वगैरह पदार्थोंमें सार अर्थात् उत्कृष्टता-पवित्रता देखी गई है परंतु इस मनुष्यदेहमें कुछ सार नहीं दीखता है. अर्थ-चकरेका मृत, गायका दूध और गाय और बैलकी गोरोचना ये पदार्थ मवित्र है. परंतु मनुष्य देहमें कुछ भी पवित्र चीज अबलोकनेमें नहीं आयेगी. अशुचि प्रकरण समाप्त हुआ. व्याधि इत्येतच्याच प्रबंधनोत्तरंण वाइयपित्तियसिभियरोगा तण्डा छहा समादी य॥ पिच्चं तवंति देहं अहहिदजलं वजह अग्गी ॥ १०५३ ।। कुधितसद्मनि वा कुचितैःकृले कृमिकुलैर्विविधैरभितो भृते ।। शुनि नणां सकलाशुचिमंदिरे भवति किंचन नात्र कलेवरे ॥ १०८४॥ इति अशौच ।। विजयोदया-घाइयापत्तियसिभियरोगा दोषत्रवप्रभचा व्याधयः । तृष्णाक्षुधाश्रम इत्यादयश्च । वह नित्य सपंति उचलितोऽग्निर्जलमिव चुल्ल्युपरिस्थितभाजनगतं ॥ देहव्याधिनिरूपणार्थ गाथात्रयमाह मुलारा-वादिय इति-वादिय पित्तिय सेंभिय वातादिभिः पृथङ् मित्रैः समस्तैश्च जनिता बरादयो च्याधयः। समादीय श्रमादयश्च । तति तापयति । अहिदजलं चुहल्युपरिस्थापितभाजनगतं तोयं ॥ अर्थ--बातजन्य रोग, पित्तके रोग और कफसे होनेवाले रोग, प्यास भूक, और श्रम इत्यादिकोंसे अपिके द्वारा जैसा जल तप जाता है वैसा यह देह संतस होता है. जदि रोगा एक्कस्मि चेव अपिछम्मि होति छपणउदी ॥ सव्वम्मि दाई देहे होदव्वं कदिहिं रोगेहि ॥ १०५४ ।। Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना आश्वासः यदि षण्णवति रोगाः संभवति विलोचने ।। कियंतस्ते तदा नृणां सर्वप्रापि कलेबरे ॥ १०८५ ।। कोठ्यः पंचाष्टषष्ठीच लक्षाः सह सहस्रकः॥ नवभिनवतिः पंचशत्याशीनिश्चतुर्यता ।। १०८६ ॥ विजयोदया-अदि रोगी एकाम्म चेव शामिछम्मि यदि तावदोगा एकास्मिक्षेच नये पण्णवतिसंग्या भवन्ति । सवम्मि दाई सहे समस्ते इदानी शरीरे । होदब्वं कविहि रोहिं । कतिमियाधिभिर्मवितव्यम् । वाधिगई। मलारा--जदि दा इति-कृष्णदी पण्णवतिः । दाई इदानीं। पंचेव य कोडीओ भवंति तह असटिलक्खाई। णय उर्दि च सहस्सा पंचसा होति चुलसीदी ॥ अर्थ-यदि एक आंखमें रोग छानवे उत्पन्न होते हैं तो सम्पूर्ण देहमें कितने व्याधि हगि, अर्थात संपूर्ण देहमें असंख्यात होंगे. व्याधिका प्रकरण समाप्त. : अध्रुवतामुत्तरया गाथया व्याचशे पीणस्थाणिंदुबदणा जा पुव्वं णयणदइदिया आसे ॥ सा चेव होदि संकुडिदंगी विरसा य परिजुण्णा ॥ १०५५ ॥ पीनस्तनीन्दुवमा या तारुण्ये हरले मनः ।। अनिष्टा जायते जीर्णा सेक्षुयष्टिरिवारसा ॥ १५८७ ।। विजयोन्या-पीणस्थणिदुवदणा पीनस्तनभागासंपूर्ण चंद्रानना । जा पुष्य या पूर्व । जयणयिदिया नयमवल्लभा जाता । साचेच होदि संकुडिदगी सैव भवति संकुटितननु । विरसा कामरसरद्विता । परिजुण्णा परितो जीपी जरत्कुटीय ॥ अध्रुवत्वख्यापनार्थ गाथाः पंचदश आह मूलारा-पीणस्थणेति-पीणत्थणवयणगी पीनस्तनभागसंपूर्णचंद्रानना । जयणदरदिया नेत्रप्रिया । आसी जाता। विरसा कामरसरहिता । Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः __ अर्थ--जिसके स्तन पुष्ट थे और मुखचंद्र के साथ स्पर्धा करता था, जो पूर्वमें नेत्राको अतिशय आनंद दायिनी थी, वही स्त्री संकुचित शरीवाली अर्थात रसहीन, और जीर्ण झोपडीके समान चारो तरफस जीर्ण । होती है. । .. जा सबसुदरंगी सविलासा पढमजोबणे कंता ॥ - सा चेत्र भदा संती होंदि हु विरसा य बीभन्छा ॥ १०५६ ।। ...या योवने प्रिया कांता सर्वावयव सुंदरी ॥ "दुगंधा कुधिता सास्ति यीभत्सा विरसा मृता ।। १०८८ ।। विजयोदया-जा सम्बसंदरगी यस्याः सवाणि अंगानि सुखशाणि । सपिलासा बिलाससहिता । पढमजोचणा प्रथमपौवना । कता कता | सोचव मदा संती सव मृता सनी । होहि ह विरसा भवति विरसा । श्रीमच्छा जुगुप्सनीया ॥ खलारा-जा.सक्वेति--मदासती मता ससी । बीभच्छा जुगुप्सनीया । अर्थ--जिसके सर्व अवयव सुंदर, विलाससहित, और प्रथम तारुण्यस युक्त थे वही स्त्री मरनेपर विरस और ग्लानि करने योग्य होती हैं, 'अधीन शरीरकी सुंदरता दृढ़ता बगरे गुण अस्थिर हैं ऐसा इन दो गाथाओंसे आचार्यने दिखाया है। शरीरसंपदो भ्रषता व्याख्याता गावाचयेन 1 बंपरपोः संयोगस्याधुवा व्याचरे मरदि सयं वा पुव्वं सा वा पुदेवं मदिज्ज से कंता ।। जीवतस्स व सा जीवंती हरिज्ज बलिएहि ॥ १०५७ ॥ नियतं वल्लभा पूर्व स्वयं वा नियने पुरा ।। जीवंती जीवतो बान्यहियते बलिभिबलात् ।। १०८९ ।। विजयोदया-मरदि सयं वा पुथ्वं नियते स्वयं का पूर्व पुमान् । सा बा पूर्व म्रियेत । से तस्य पुनः कान्ता । जीवनस्स जीवनो वा सा जीयन्ती व्हियते यलिगेहि वलिभिरपरैः । इत्थं संयोगस्य यहुधाऽनित्यता ॥ - १८८८ - -. .. . - -..-.- - Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलामधन आश्वासः एवं सरीरसंपदध्वत्वं याम्याय दंपन्योः सयोगावन्वं व्याचष्टेमलारा-मरदि इनि-मगद सयं नियने म्वयं पुमान। अर्थ--पति, पत्नीक प्रथम आयु नष्ट होनेसे मरना है अथवा उसकी स्त्री मर जाती है. अथवा पति जीता रहतहि बलवान लोग स्वीको हरण कर ले जाते हैं. सा या हवे विरत्ता महिला अण्णेण सह पलाएज्ज ॥ अपलायती व तगी करिज्ज से वेमणस्साणि || १०५८ ॥ विरज्य स्वयं तस्याः सा वा अस्य धिरज्यते । परण वा समायाति तिष्ठती वा विरुध्यते ॥ १०९० ।। विभयोदया साया हो घिरता सा भवेद्विरका पुरुष तथापि तयोः संगतिः। महिला अण्णेण वा सह 18 पलायज सा विरक्ता युवतिरम्येन पा सह पलायनं कुर्यात् । अपलायन्ती अपलाय माना था ।लगी सा। करेज से घमणसाणि कुर्यात्तच्चेतोदुःखामि । मूलारा-सा वा इनि-पलायज गच्छेत् । तगी सा । चेमणरसाणि चितदुक्खानि ।। . अर्थ-अथवा वह स्त्री अपने पतीसे असंतुष्ट होकर अन्य पुरुषके साथ भाग जाया. अथवा विरक्त होकर वे दोनो एक साथ रहेंगे तथापि वह स्त्री पतिके मन को दुःख देती रहेगी. अर्थात प्रतिकूल विचार, आचार और भाषण में बह पतिको दु:ख देनेवाली होगी. MANTRA शरीरम्याधयनामाच रूबाणि कटकम्मादियाणि चिटृति सार।तस्स ॥ धणिदं पि साग्वन्तस्म ठादि ण चिरं सरीरमिदं ॥१०५९।। चिरं तिष्ठति संस्कारे काष्ट ग्रावादिरूपकम् ॥ कलेवर मनुष्याणां म संस्कारे महत्यापि ॥ १०२१ ॥ १०८९ Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रापना भाया चिजयोदया-रुवाणि कडकम्मादियापित काष्ठे उत्कीर्णानि रूपाणि स्त्रीणां पुंसां मन्येषां च माविशब्देन शिलादंतादिपरिमहाश्चरं चिट्ठत्ति सारवेत्तस्स चिरं तिष्ठति संस्कुर्वतः । धणि पिसारवेतस्स नितरामपि संस्कुर्चतः । ठादि ण चिरं शरीरमिमं न तिष्ठति चिरं शामिरमिर्द ॥ देहाध्रुवत्वमाहमूलारा-रूवाई इति-सारवेतस संम्वतः । शरीरकी अनित्यताका विवेचन __ अर्थ-लकडी, पत्थर, हस्तिदंत इत्यादिकोंसे बनाये हुए स्त्रीपुरुषोंके चित्र और अन्य प्राणिओंके चित्र संस्कार करनेस बहुत काल तक रहते हैं परंतु इस देहपर व्यायाम, अनादिकाके द्वारा कितना भी संस्कार करो चिरकालतक ठहरता नहीं. म केवलं शरीरमेष भनित्यमपि स्वन्यदपि इति व्याचष्टे ( मेघहिमफेणउक्कासंझाजलबुब्बुदो व मणुगाणं ॥ इंदियजोव्वणमदिरूवतेयबलबीरियमणिचं ॥ १०६० ॥1 यौबनेंद्रियलावण्यतेजोरूपघलादयः ।। गुणाः क्षपणेन नइयंति शारदा श्ष नीरवाः ॥ १०९२ ।। विजयोदया--मेघहिमफेणउकासंझाजलखुश्वुदोष मेघपद्धिमवस्फेनबदुल्कापासंध्याघजलबुदवाय । मणुयाण मनुजाना । इंदियजोधणमदिकवतेजबलवारियमणिच्च । नियाणि, यौवन, मतिः, रूप, तेजो, बलं, वीय, चानिन्यं ॥ न परं शरीरभेवानित्यं अपि तु अपरमपीत्याह मूलारा--मेघहि-स्पएम् । - अर्थ-मेघ, बर्फ. पानीका फेन, उल्का, संध्याकाल और पानीका बबूला इन के समान मनुष्योंकी इंद्रियां, तारुण्य, बुद्धि, रूप, तेज, बल, वीर्य ये भी अनित्य हैं. जब मनुष्यपर्याय ही अनित्य है तो उस पर्या यमें प्राप्त होनेवाली उपयुक्त चीजे कैसी स्थिर हो सकती है. । Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारापना आश्वास सटिति शरीरसंपल्यावर्तते प्रत्याख्यान वर्शपति साईं पडिलाहेदुं गदस्स सुरयस्स अगमहिसीए ॥ णटुं सदीर अंगं फोनि अहः मुहणा।। १.६१।। गतस्याहारदानार्थ सरतस्य तपस्विनः॥ क्षणान किं महादेव्या नष्टः कुष्ठेन विग्रहः ।। १०५३ ॥ पिंजरोदया-साधु पडिलाइटुं गदस्स साधोगहारवानार्थ गतम्य । सुरयस्य सुरतनामधेयस्य राज्ञः । आग. महिसीए अग्रमहिप्याः सदीए सत्याः शोभनाथाः । अंगं गई शरीरं नई । कोटेण कुछेन । जहा मुहत्तेण यथा मुहर्नेन ।। गरिति शरीरसंपद्यावतते इत्याख्यानकेन दर्शयति मुलाग-- साधु इति- साधु पडिलाभेदु संयमिनं भोजयितुं । गुरदस्स सुरतनाम्नी राज्ञः । अग्गमहिसीए पदमहादेयाः । मदीए सोमनायाः ।। अर्थ-सुरत राजाकी पानी बहुत ही सुदर थी. एक गमयम सजा मुनीश्वरको आहार देनेके लिये गया था उस समय इधर रानीका शरीर अंतर्मुहत में कोह रोगसे व्याप्त होगया. अभिप्राय यह है कि जो रानीका शर्रार अन्तमुहूर्त के वो बडा ही सुंदर और राजाको अत्यंत प्रिय था वही अन्तईहत के अनन्तर ही अत्यन्त विरूप हो गया. अतः शरीर परिवर्तनशील है यह बात इस उदाहरणसे स्पष्ट होती है. वझो य णिज्जमाणो जह पियई सुरं च खादि तंबोलं ॥ कालेग य णिज्जेता बिसए सेवंति तह मूढा ॥ १०६२ ॥ हंतुमने कृतो मूढो दुर्निवारण मृत्युना ॥ सेवते विषयं वध्यः पाणेनेष सुरादिकम् ।। १०९४ ॥ विजयोदया-बहो य जीयमाणो हन्तुं नीयमानः । जह पिया यथा सुगं पियति । खादितंयोलं तांबूलं भक्षयति । तथा कालेण य णिजंना मृत्युनानीयमाना मूढाः । घिसए सेति विषयाननुभवन्ति ॥ मुलारा-बज्यो इति-चौर्यापपराधेन बधाई: पुमान् । पयिन्नमाणो इंतु नीयमानः श्वपचेन । कालेण परिज्जतो मृत्युना नीयमानः । Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः उक्तं च-हेतुमने कृतो मुढो दुर्निवारण मृत्युना । सेवते विषयं बच्यः पाणेनेच सुरादिकं ।। अर्थ-वध करनेके लिये जिसको ले जा रहे है ऐसा कोई मुढ मनुष्य जैसे मदिरा पीकर तांबूल मक्षण करता है जैसे कालके द्वारा मारने के लिये ले जानेवाले मनुष्य भी मूह हो कर विपयोंका सेवन करते हैं. । वरघपरहो लग्गो बले य जहा मासामकिशाहिदो । पडिदमधुबिंदुभक्खणरदिओ मूलम्मि छिज्जते ॥ १०६३ ॥ व्याघ्रणाये कृतो हत बिले साऽजगरे गतः ।। लिनमाने दृढं लग्नो मुले विविधमूषिकः ॥ १०९५ ।। अपश्यन्नग्रतो मृत्युं यथा कश्चन मूढीः ।।। पतन्मधुकणास्वादे विश्ले परमां रसिम् ।। १०९६ ।। विजयोदया-वग्धपद्धो व्याघ्रणाशितनः । लग्गो लग्नः । मूलम्मि लतायाः मूले ससर्पति बिन पतिनः । पनिमाविदुभवणादिलो समस्कस्थानपति न मधुविदाम्बाद नरतिकः । मूलम्मि लिजंत । मूले छिद्यमाने भूपिका-1 भिगथा॥ दृष्टांतोपन्यासपुर:सरं विपयविनश्वरत्वं गाथात्रयेण भावयति मुलाग़-बग्येति-बग्घपरद्धो व्याघ्रग प्रारब्धोऽभिद्रुनो हंतुमने कृत इनि यावत् । मूलम्मि ममर्पकपभिनितटप्ररूइवल्लीबुध्ने । पडिदमधुभिदुननगरदिओ कथमपि मुखपतितमाझिकल बास्वादनप्रीतिकः । विजेते छिद्यमाने मषिक:। ( अर्थ-मारनेके लिय जिसके पछि व्याघ्र लगा है, ऐसा कोई पथिक, जिसमें सर्प है ऐसे कयेकी भीतके तटपर ऊगी हुई वेलाक बुधाको पकरकर लटकने लगा. उस समय मधके छत्तेसे मधुर्विदु उसके ओष्ठके अग्रभागपर गिरने लगे तब वह व्याघ्र का दुःख भूल कर मधुपिंदुसे उत्पन्न होनेवाले स्वादमेंही आसक्त होगया. परंतु वह इस वलीका मूल चूहों के द्वारा काटा जा रहा है और मैं उसके काटनेपर कुएम पइंगा यह सब चाते वह पथिक जैसे भूल गया बसी ही संसारी मनुष्य की हालत है. - - १०९२ पर Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १८९३ तह वे मच्चुवधपरो बहुदुक्ख सप्पत्र हुलम्म | संसारबिले पडिदो आसामूलम्मि संलग्गो ॥ १-६४ ॥ मृत्युच्याघ्रेक्षितो दुःखसर्पे जन्मविले गतः ॥ लूयमानस्तथा मूढो बहुभिर्विघ्नमूषकैः ।। १०९७ ॥ विजयोदया—तह चैव तथैव मच्रो मृत्युावेणाभिद्रुतः । संसारविले पडिदो संसार एवं बिलः तस्मिन्पतितः । कीदृग्भूते यदुःखसकुलं आशामूले। संलग्गो सभ्यग्लशः॥ मूलाग-पेति- आसागुरादिकांना मुलमिवालंबन भूतत्वात् । इसीका आगे दो गाथाओं से वर्णन करते हैं अर्थ---इस मनुष्य के पीछे मृत्युरूपी व्याघ्र लगा है. यह मनुष्य अनेक दुःख रूपी सर्प जिसमें निवास करते हैं ऐसे संसाररूपी बिलमें गिरा है. परंतु इसने आशारूपी वेली की जब हाथमें पकड़ रक्खी हैं. बहुविग्धमूसएहिं आशामूलम्मि तम्मि छिज्जते ॥ N लेहदि विभयचिज्जो अप्पसुहं बिसयमधुबिंदु ॥ १०६५ ॥ आशामूले दृढं लग्नो विषयास्वादने रतिम् ॥ महतीं कुरुते नाशमपश्यन्नग्रतः स्थितः ॥ १०९८ ।। इति अभीव्यम् ॥ विजयोदया - पिग्यमूसंगहिं य बहुभिर्विप्रमूषकैः आशामूलम्मि तम्मि हिज्जेते | आशाक्ये मूले तमिच्छिमांगे। लेहदि खाइति । विभयविज्जो निर्भयो निर्लज्ज । अभ्यसु विसयमधुविंदु अल्पखं विषयमधु बिंदु अल्पसुखनिमिचत्यादल्पसुखमित्युच्यते विषयमधुदितुं विषयशब्देन रूपादय इत्युच्यते । तेषु पुरो वर्तमानस्य पुलस्कंध वर्तमानाः कतिपयाः पर्याया अतिस्वल्पात एव मधुबिंदवः ॥ अधुधन्तं ॥ मूलारा-बहुविग्धेदि बिसयमधुबिंदु विषयश्चक्षुरादिना गृह्यमाणो रूपायर्थो मध्विव स्वल्पसुखनिमित्तत्वात् । तस्य विदुस्तत्क्षणभज्यमानपुरोऽवस्थित मुनिविपर्याय: । तथा चावोचाम सिद्ध के. भवसी ६ १०९३ Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना! भाषा सुधागर्व खर्वन्त्यभिमुखहषीकप्रणयिनः ॥ क्षणं ये तेऽप्यूई विषमपवदंत्ययविषयाः ॥ त एवाविर्भय प्रतिचितधनायाः खलु तिरो भवन्त्यधास्तेभ्योऽयह किमु कर्षन्ति विपदः ।। अर्थ- आशारूपी चेलीको जड नाना विनरूपी चूहोंके द्वारा काटी जा रही है इस बातको वह जानता ही नहीं. परंतु विषयसुखरूपी अल्प मधुके काका आस्वादन करनेमें ही वह लवलीन होरहा है. नत्र वगैरह इंद्रियोंक द्वारा जिनका ग्रहण होता है ऐसे रूप, रस, गंध स्पर्शादिकोंको विषय कहते हैं. ये विषय मधुके समान अल्प सुख उत्पन्न करनेमें निमित्त है. अतः इनको मधु कहते हैं. इनका बिंदु अर्थात् इन रूपादि पदार्थोके जो थोडेसे पुद्गलस्कर भोग में आते हैं उसको बिंदु कहते हैं. इस प्रकार अधुवतत्वका वर्णन हुआ.. • बालो अमेज्झलितो अमेझमझम्मि चेव 'जह रमदि । तह रमदिरो मुढो महिलामझ सयममेझो ॥१.६६ ।। रामावोंमध्यवर्ती मनुष्यः कीदत्येपोमध्यरूपः शिशुर्वा । वॉलिपोऽमध्यमध्यं प्रवृत्तो कीरक्सारं निंदनीयस्वभावं ॥ १.५" ॥ विजयोदया-यालो अमेज्मलितो कालोऽ अमध्येन लिप्तः । अमज्झमज्झम्मि त्रय अमेध्यमध्ये एव । जह ग्मद राधा रमते प्रीतिमुपैति । सधा रमदि णरो मूढो तशा रमते मूढः । महिलामेझे योषिदेव अनेकाशुचिपूर्णशरीरनया अमेध्यशंखनोच्यते । सयममंझो स्वयममध्यभूतः ॥ मकलाभिमतेंद्रियार्थनायके स्वीनानि बिपये यथावत्स्वरूपानुवादपरत्वेन जुगुम्मामुद्भावयन्स्वांगवत्तदंगान्मुमु क्षुमुपरमयितुं नाथाद्वय माह गूलास -बालो इति--रमादि प्रीतिमुपैति । महिलामेज्य महिला अमेध्यमिव समस्ताशुचिप्राग्भारशरीरत्वात् ।। अर्थ-विष्टासे लिप्स हुआ बालक जैसे विष्ठामें ही क्रीडा करता है उसमें सुख मानता है, वैसे अनेक अपवित्र पदार्थ जिसके शरीरमें भरे हुये हैं ऐसी खीरूपी विष्ठामें यह कामी अपवित्र पुरुष क्रीडा करता है. Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महाराधना - आधास - कुणिमरसकुणिमगंध सेविंता महिलियाए कुणिमकुडी | जं होंति सोचहत्ता एवं हासावहा तेसि ॥ १०६७ ॥ अमेध्यनिर्माणममध्यपूर्ण निषेचमाणैर्वनिताशरीरम् ।। यैर्मन्यते स्वं शुचिरस्तयोधैर्हास्यास्पदं कस्य न ते भवंति ॥ १५०० ।। विजयोदया-कणिमरसकुणिमगंधं अशुचिरसमशुधिगंध । सथिता सेवमानाः । महिलियाप, महिलाया युवत्याः । कुणिमकुर्हि अशुचिशरीरकुटिं। जे होदि सोयचंता । एदं हासाव एतच्छौचत्वं हास्यावहं । तेसि तेषां ।। मूलरा—कुणिमेति-कुणिमकुडि अशुचिशरीरकुटी । सोचइत्ता शौचे चित्त येणं ते शौचचिताः शुचित्वमनसः आत्मानं शुधि भन्यमानाः । इत्यर्थः । अर्थ-जिससे अशुचि रस बहता है, जिसका गंधभी अपवित्र हैं ऐसी स्त्रीरूपी झोपडीको सेवन करनेवाले कामी पुरुष अपनेको पवित्र मानते हैं यह उनका विचार हास्यास्पद है. एवं एदे अच्छे देहे चिंततयस्स पुरिसस्स ।। परदेहं परिभोत्तुं इच्छा कह होज्ज सघिणस्स ॥ १०६८ ॥ बीजादयो येन शरीरधर्माश्चित्ते क्रियन्ते बुधनिंदनीयाः ।। निषेच्यते मेथ्यमयी न नारी कदाचनामध्यकुटीव तेन ।। ११०१॥ विजयोदया–पर्व पदे अच्छे पर्वमतानर्थान् ।देहे शारीरविश्यान । चितंतया चिनयतः । पुरिसस्स पुरुषस्य । परदेई परस्य शरीरं परिभोत्तुं परिभोक्तुं । इच्छा किह होन इच्छा कथं भवत् । सनिणरस घृणावतः । लज्जावतः। देषीजादिभावनानुभावविभावनाय गाथाद्वयमा... मूलरा-एदे बीजादीन् । सघिणस्स लज्जावतः । उक्तं च-- बीजादयो येन शरीरधर्माश्चित्ते क्रियते बुधनिंदनीयाः ।। निषेव्यते मेध्यमथी न नारी कदाचनामेध्यकुटीव तेन ।। अर्थ-इस प्रकार इस देहसे उत्पन्न होनेवाले अनेक विषयोंका जो पुरुष मनमें विचार करता है. उसको Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाना १०९६ परदेहका उपभोग लेते समय क्यों न लज्जा उत्पन्न होगी? अर्थात ऐसे अपवित्र देहका उपभोग लेनम वह विचारी मनुष्य परावृत्त होगाड़ी एदे अत्थे सम्मं दोर्स पिच्छंतओ णरो सघिणो ॥ ससरीरे वि विरजाइ किं पुण अष्णस्स देहम्मि ॥ १०६९ ॥ निरीक्षते यो यथुषः स्वभावं वर्चोनिवासस्य विनश्वरस्य ॥ "देहे स्वकीयेऽपि विरज्यतेऽसौ दोषास्पदायाः किन्तु नांगनाथाः ॥ ११२ ॥ इति अशौचम् ॥ विजयोदय- अत्थे देहस्स पीजणियसिस इत्येतत्सूत्रनिर्दिष्टानेतानर्थान् । देहे शरीरे पिर्किछतमो सम्यक् निरूपयन् । ससरीरे वि विरज्य बात्मनोऽपि शरीरे विरज्जति विश्कतानुदेति । किं पुणे अण्णस्स बेsम्मि किं पुनरन्यशरीरे विरक्तर्ता नोपेयात् ॥ अशुचि ॥ अशुचि व्याख्यातं ॥ मूलारा - एवे अत्थे इति - पिच्छंदओ निरूपयन् । अध्रुवत्वं ॥ अशुचित्वं ॥ ६७ ॥ अर्थ - देहका बीज, निष्पत्ति वगैरह प्रकरणों का वर्णन किया गया है. इनके स्वरूपका इस देहमें जिसने सम्यक प्रकार से विचार किया है वह पुरुष अपने शरीरसे ही विरक्त होगा फिर अन्य के देहकं विषयमें उसको क्यों न वैराग्य उत्पन्न होगा। अशुचित्वका वर्णन समाप्त वृद्धसेवानिरूपणाय उत्तर या इत्यादिकः । शीला भवति न केवलन वयसा इत्या मेरा वा तरुणा वा बुद्धा मीलेहिं होति बुद्धीहि ॥ मेरा वा तरुणा वा तरुणा सीलेहिं तरुणेहिं ॥ १०७० || वृद्धवृद्धा नराः शीलस्तस्तम्भा यतः ॥ जायंते तरुणा वृद्धास्ततः शीलं बुधैः स्तुतम् ॥ ११०३ ॥ • विजयोदयाथेरा वा तरुणा या स्वत्रिरास्तरुणाश्च । बुड्ढा होति वृद्धा भवंति सीलेद्दि होति तरुणेहि बुि शीलैः प्रवृजे । क्षमा, मार्दयं, ऋजुत्वं संतोपं इत्यादिकं शीलशदेनोच्यते । थेरा वा तरुणा वा स्थविरास्तरणाश्व | तरुणा आश्वासः ६ १.९६ Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाधिन आश्वास पव । सीलेहि तरुणेहि तरुणैः शीलैः । एनेन शीलवृद्धा इह वृद्धशन गृहीताः । पते सेवा वृद्धसंवेति कधितं भवति । नुदगुणानां संघानः स्वयमपि गुणोत्कर्षमुपंतीति मन्यते ॥ एवं कामदोषस्त्रीदोषाशुचित्वानि त्रीणि श्रीधैग यानिमित्तानि व्याख्याय सांप्रतं वृद्धसेवा पंचदशभिगाथाभिर्याचनाणो वृद्धम्वरूपनिरूपणार्थ गाथाद्वयमाह गूलारा-थेरा वनि-सीले हि श्रमादिभिः । बुहहिं वृद्धि गतेः । न पयसा वृद्धेन । तरुणेहि कामादिभिः प्रापेण तासायेन सह वृत्तित्त्वात्तेषां । यत्पठन्ति लोका: अवश्य यौवनस्थेन कीबेनापि हि जंतुना। विकारः खलु कर्तव्यो नाविकाराय यौवनम् ॥ सुप्रसिद्धी च वृद्धगुणदोषपुरुषसेवनागुणदोषोत्कयो । ...अब वृद्धसेवाका वर्णन विस्तारसे करते हैं केवल यय अधिक होनेसे मनुष्य शीलवृद्ध होता नहीं इसका वर्णन अर्थ-वृद्ध हो अथवा तरुण हो यदि उनका शील बढ़ गया हो अर्थात् क्षमा, मार्दव, आर्जव, शांच बगैरह आत्मधर्म बढ गये तो उनको शीलवृद्ध कहना चाहिये और जिनके ये धर्म नहीं बन पाये उनको चाहे वयसे वृद्ध भी हो तो भी तरुण ही कहना चाहिये. अभिप्राय यह है कि शीलघुद्धोंको ही यहां वृद्ध कहना चाहिये और उनकी सेवाकाही नाम युद्धसेवा है. जिनके क्षमादिक गुण वृद्धिंगत हुए हैं उनकी सेवा करनेसे अपने भी गुण चढ़ते हैं. - अपि नेट यत्यादीनामपि संसों गुणवान्यतन्तेऽपि नपसव मंदीभूतकामरतिदर्पक्रीडा इति वदति जह जह बयपरिणामो तह तह णस्सदि णरस्स बलरूवं ॥ मंदा य हबदि कामरदिदापकीडा य लोभी य ॥ १०७१ ॥ यथा यथा वयोहानिः पुरुषस्य तथा तथा ॥ मंदा: कामरतिक्रीडादर्परूपपलादयः॥११०४ ॥ Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाराधना आभाम SATATEZAMAST विजयोदया-जह जह वयपरिणामो अतिक्रामति यथा यथा पयःपरिणामो युवत्वमध्यमत्वसंनितः। रस्स परिणामो प्राणिनः परिणामः । तध तध से तथा तथा तस्य मंदा इचंति मंना भवति । कामरदिदपकीडा काभ्यन्त इति कामा विषयास्तत्र रतिपः, कीडा, लोभः लोमथ मंदविषयस्यादिरिणामन नृरेन सर संघासात् । स्वयमेशापि मंदकामादिपरिणामो भवतीति मायः॥ यद्यपि तपसैय कामरनि:पक्रीडा लोभा न्यग्भावयितुं शक्यास्तथापि बयःपरियतिरपि तदनुकूलकारणना प्रनिपद्यते इति वयोवृद्धसंसर्गस्व अपि गुणवत्वस्वापनार्थमाहमूलारा-जय जषेति-पपरिणामो युवत्वमध्यत्वसंशितः । मंदा न्यग्भूता। फामरदी विषयप्रीतिः उक्तं च यथा यथा वयोहानिः पुरुषस्य तथा तथा ।। मंदा: कामरतिक्रीडादर्परूपयलादयः ।। - :.: लोकोऽसपी: प्रथमे वयसि यः शांतः स शांत इति मे मतिः । . धातुषु क्षीयमाणेषु शमः कस्य न जायते ।। मंदकामरत्यादिपरिणामेन वृद्धेन सह संवासाम् स्वयमेव च ताक्परिणामो भवतीति मन्यसे । कुलीनान्यत्येतदुच्यते कशीलानामन्यथापि भायात् । यत्पति वयसः परिणामेऽपि कुशीलस्य कुतः शमः ।। सुपकमपि माधुर्य नोपयातीद्वारुणं ॥ यति, त्यागीजन इनका भी संसर्ग करना सद्गुणमासिका उपाय है क्योंकि यतिगणोंने तपके द्वारा विषयप्रीति कम की है. इसी अभिप्रायको स्पष्ट करते है.---- अर्थ--जैसी जैसी मनुष्य की आयु अधिक होती जाति हैं वैसा २ उसका विपयोंमें प्रेम कम होता जाता है मद, क्रीडा, और लोभ ये दुर्विकार कम होते हैं. नरुणावस्थामें इन दुविकारोंका अदमनीय वेग रहना है, मध्यमवय होनेपर इनके वेग में मंदता आती है. जिनके ये उपयुक्त विकार मंद हये हैं ऐम बद्धोकी मंगति करनेस य कामादिविकार मंद हो जाते हैं. १०९८ Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महारापना आश्वास खोभेदि पत्थरो जह दहे पडतो पसण्णमवि पं ।। खोमेइ तहा मोहं पसण्णमवि तरुणसंसग्गी ॥ १०७२॥ शांतोऽपि क्षोभ्यते मोहो युवसंगेन देहिनः ॥ कर्दमः पनता क्षिप्रं मस्तरणव वारिणः ।। ११.५ ॥ बिजयोदया-खोमेदिक्षोभवति । पत्थरी शिला महती। यथा । दहे बहये पडती पतन् । पसण्णमयि के प्रतिमपि पंक ! नोभेदि चालनि । तथा मोह । पसरचि प्रशानमपि । वरुणसंसग्गी तरुणगोर ॥ तरुणगोष्ठीमयवदनिमूलाग..-याभिदि एनि....भिर मीरा । पाइन । म का अर्थ --जैसा बड़ा पत्थर सरोवरम पडनसे उसका निर्मल पानी उछलकर मलिन बनता है या वरूप संसग मनक विचारों में मालनता उत्पन्न करके उनको गंदें बनाता है. यदि कोई मनुष्य शांतिपरिणामका धारक है. तो भी उसको तरुणसंसर्ग त्यागना ही योग्य है अन्यथा उसके शांत विचारभी तरुण संसर्गसं विघडेंग. armermane -- R कलुसीकदपि उदयं अच्छं जह होइ कदयजोएण ।। कलुसो वि तहा मोहो उवसमदि हु वुढ़सेवाए ॥ १.७३ ।। उदीर्णोऽयंगिनो मोहो वृद्धसंगेन निश्चिलम् ॥ पंकः कलकयोगन सलिलस्येव शाम्यति ।। १५०६॥ विजयोत्रया-कलुसीकर्दपि उदगं कलुपीकतमप्युधकं । कद्गजोएण कतकफलसंबंधेन । अमछं खच्छे । अध होदि यथा भवति । कलुसोऽपि कलुषितोऽपि । मोदो मोहः । उपसमदि उपशाम्यति । इसेयाप पृयसेयया ॥ वृद्धसेवायाः कामौत्कट्यविलुटकत्वं वक्तिमुलारा-कलुसीकनपि इति कदकजोपण कसकफलसंबंधेन । कलसो उत्कटः ।। अर्थ-जैसा मलिन पानी भी कतकफलके संयोगसे स्वच्छ होता है वैसा कलुप मोह भी शीलवृद्धोंके संसर्गसे शांत होता है, - Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CARATHAARAranasDAct.at मुलाराधना अधि लीणो वि मट्टियाए उदीरदि जलासयेण जह गधो ॥ लीणो उदीरदि गरे मोहो तरुणासयेण तहा ॥ १०७४ ।। शांतोप्युदीयते मोहः पुंसस्तरुणसंगतः ॥ लीनः किं मृत्तिकागंधो नोदेति जलयोगतः ॥ १६५७ ।। विजयोक्या-लीणो विलीनोऽपि। मनियार मृतिकाया। गंधो गंधः । जघा जलासयेण जलाश्रयेण । उदीर दि उवयमुपैति । लीणो षि मोहो परेलीमोऽपि नरे मोहः । उदीरदि उदयमुपनीयते । तरूणासरण सरणाश्रयण तथा । मोहोदयभावाभावयोस्तरुणसंसर्गभावाभावानुविधायित्वं दृष्टान्तेन स्पष्टयितु गाथाद्वयमाहमूलारा--लीणो वि इनि-लीणो अनुभूनः 1 जलासएण नीरसंसर्गेण ।। अर्थ - जैसा मट्टीम गंध रहता है परंतु जलके आश्रयसे वह प्रगट होता है यमा नरुण के आश्रगम गुप्त भी मोह उमड पडता है. संतो वि मट्टियाए गंधो लीणो हयदि जलेण विणा ॥ जह तह गुठीए विणा गरस्स लीणो हवदि मोहो ॥ १.७५ ।। रहितो युवसंगत्या मोष्टः सम्मपि लीयते ।। जीवस्य जलसंगत्या पुष्पगंध इव स्फुट । ११८८ ॥ विजयोदया--सन्तो वि सनधि मृत्तिकाया गंधः । जलेन बिना लीनो भवति यथा तथा गोष्टयर बिना मोहो नरस्य लीनो भवति । मूलारा-भतो वि इति–हीणो हवइ नोदेतीत्यर्थः ॥ अर्ध-मट्टीका गंध मट्टी में रहता हुआ भी जलके संसर्गके बिना प्रगट होता नहीं है. वैसा संसर्ग के बिना मनुष्यका मोह प्रगट नही होता है. ११०० Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STU : नलाराधना तरुणो बि युट्टसीलो होदि णरो बुढ्ढसंसिओ अचिरा ॥ लज्जासंकामाणाबमाणभयधम्मबुढीहीं ॥ १०७६ ।। युवापि चन्द्धशीलोस्ति नरो हि वृद्धसंगतः।। मानापमान भीशंकाधर्मबुद्धिजपादिभिः ।। ११०५ ॥ विजयोदया-तरुणो घि तरुणोऽपि । वृजशीलो भयनि । वृक्षं सथितोऽचिरात् । लज्जया, शंकया, मानेन, HOT अपमानभयेन धर्मयुसया ॥ वृद्धसेवामाहात्म्यमाहमूलारा--तरुणो वि इति—माण संयतोहमिति अभिमानः । अवमाणभयं महत्वखण्डनभीतिः। अर्थ--वृद्धोंके संसर्गसे तरुण मनुष्य भी शीघही शीलगुणोंकी वृद्धि होनेसे शीलवृद्ध बनता है. लज्जासे, भी से, अभिमानसे, अपमानके डरसे और धर्मवुद्धीसे तरुण मनुष्य भी वृद्ध बनता है. । - बुढ्दो वि तरुणसीलो होइ गरो तरुणसंसिओ अचिरा ।। वीसंभणिविसको समोहणिज्जो य पयडीए । १०७७॥ वृद्धस्तरुणशीलोऽस्ति नरस्तमणसंगतः ॥ विश्रंभनिर्विशंकत्वमोहप्रक्रतियोगतः ॥ ११.० ॥ विजयोत्या-बुट्टो घि वृद्धोऽपि तरुणशीलो भवति नरुणासंश्रितः क्षिप्रं । विस्संभणिचिसको विमेन निशिका समोहणिज्जो य सह मोहभीयेन वर्तमानः । पपडीप प्रकन्या । तरणाप्रत्येण दोषमाह-- मूलरा--उट्टो वि झति-वीसंभणिनिल संको त्रिया विश्वासन दुर्गतिदुःखादिभवहितः ! नमोहणिज्जो सका मो चतः । पयडीए प्राकृत्या ।। अर्थ-तरुणों की संगतिसे वृद्ध, मनुष्य भी स्वभावतः कामविकारसे युक्त होकर स्त्रियोंके ऊपर विश्वास करने लगता है और दुर्गतीके भयसे रहित होता है.. F ११०१ EMORRENTER Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ११०२ सुंडय संसग्गीए जह पादुं सुंडओ मिलसदि सुरं ॥ विसर तह पयडीए संमोहो तरुणगोठ्ठीए ॥ १०७८ || इंद्रियार्थ रतिर्जीवो युवगोष्ट्या विमूढधीः ॥ शौण्डगोष्टा यथा शौण्डः सुरां कांनति सर्वदा ॥ ११११ ॥ विजयोदया-मुंडय सम्गीय यथा शौडमोठ्या जह पाहुं सुरमभिलसदि यथा पातुं सुराममिलपति तथा पडी संमोहो तथा प्रकृत्या संमोहः । तरुण गोड़ीय विषममितिगोट्या विश्यानभिलपति || मूलारा - सुंडय इति-डयस गोळ्या | पापा ॥ अर्थ — जैसे मद्यपीके सहवाससे मयका प्राशन न करने वाले मनुष्य को भी उसके पानकी अभिलापा उत्पन्न होती है वैसे तरुणों के संगसे वृद्ध मनुष्य भी विषयोंकी अभिलाषा करता है. " तरुणेहिं सह बसंतो चलिंदिओ चलमणो य वीसत्थो ॥' अचिरेण सइरचारी पावदि महिलाकदं दो विश्रवश्च पलाक्षो यः स्वैरी तरुणसंगतः ॥ महिलाविषयं दोषं स शीघ्रं लभते नरः ॥ ९११२ ॥ विजयोदया - तरुणेर्हितः सह वसन नलेन्द्रियचलचिला सुछु विश्वस्तः अचिरेण स्वैरचारी। पादि प्रमोति । महिलाकद दोसं वनिताविषयं दोषं ॥ ॥ १०७९ ॥ मुळारा - तरुणेहिं इति सहचारी स्थैरचारी | महिलागदं स्त्रीविषयं ॥ अर्थ-तरुणों के संसर्गसे वृद्ध मनुष्यकी इंद्रियां रूपादिविषयोंमें उत्सुक होती हैं. मन चंचल बनता है और स्त्रियोंमें विश्वास रखकर वह स्वच्छंदी होना है. त्रियों के सहवाससे वह दोषी बनता है -- पुरिसरस अप्पसत्थो भावो तिहिं कारणेहिं संभव || वियरम्मि अधयारे कुसीलसेवाए ससमक्खं ।। १०८० ॥ आश्वास ६ ११०२ Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आश्वासः . ध्वांतकांतकुशीलेहवर्शनैः करणैनिभिः॥ कुत्सितो जायते भाषः स्त्रीपुंसानामसंशयम् ॥ १११३॥ विजयोदया-पुरिखस्स पुरुषस्य अप्रशस्तो भावनिमिः कारणः संभवति । एकाते, अंधकारे, कुसीलसेवादर्शनेन च प्रत्यक्षम् ॥ मलारा---पुरिसम्स उपलक्षणास्त्रियाश्च । अप्पमत्यो कामाभिलागयुक्तः । बियरम्मि खिया सहकान्ते पुंसः, पुंसा च स्त्रियाः । कुसीलसेवाए ससमक्खं आत्मप्रत्यक्ष स्वीपुंसयोः कामसेवायां सत्यां तदवलोकने सति इत्यर्थः । । उक्तं च- वान्लैकान्तकुशीलदर्शनैः कारणैत्रिभिः । कुत्सितो जायते भावः स्त्रीपुंसानामसंशयम् ॥ अर्थ-पुरुषमें तीन कारणांसें अप्रशस्त विचार उत्पन्न होते हैं, अर्थात् एकांत स्थान में, अंधकारमें और अपने समक्ष कोइ स्त्रीपुरुष काम सेवन में, अंधकारमें और अपने समक्ष कोई स्त्रीपुरुष काम सेवन करते हुए देखकर कामाभिलापरूप अप्रशस्त विचार उत्पन्न होते हैं. Catecome पासिय सुच्चा व सुरं पिज्जतं सुंडओ भिलसदि जहा ॥ बिसए य तह समोहा पासिय सोच्चा व भिलसंति ॥ १०८॥ निसर्गमोहितस्वान्तो दृष्ट्वा श्रुत्वाभिलष्यति ॥ विषयं सेवितुं जीवो मदिरामिव मद्यपः ॥ १११४ ॥ - विजयादया-पासिय सुच्या च सुरं सुरां पीयमान दृष्ट्या चा श्रुत्वा था शौंडोऽभिलपति । यथा तथा समोहा विषयानमिलति रष्ट्या धुत्वा या॥ मूलारा-पासिय रष्ट्वा । सोच्चा श्रुत्या । पिज्जती पीयमानं ॥ अर्थ-मादिरापान करते हुए पुरुष को देखकर अथवा मदिराका वर्णन सुनकर जैसे मद्यपी मनुष्य मद्य पीनेकी इच्छा करता है तथा मोहयुक्त मनुष्य भी विषयों का सेवन करनेवालोंको देखकर या सुनकर विषयभोगनेकी इच्छा मनमें करता है. ११०३ Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूलारावना ११०४ दूषकब्ध ॥ जादो खु चारुदत्तो गोहीदोसेण तह विणीदो वि ॥ गणियासत्तो मज्जासत्तो कुलदूसओ य तहा || १०८२ ॥ चारुदत्त विनीतोऽपि जातः संमर्गदोषतः || सुरासक्तः कुलवूषणकारकः ।। १११५ ।। विजयोदय- जादो खु चारुदत्तो विनीतोऽपि चातो गोष्टीदोषेण गणिकासको जातः मद्यावसकः कुल मूलारा - विणी सुचरितः । अर्थ -- ज्ञानी भी चारुदत्त कुसंसर्ग गणिकामें वेश्या में आसक्त हुआ तदनंतर उसने मद्यमें आसक्ति कर अपन कुलको दूषित किया. क्षीरा कियते ॥ ( तरुणस्स विबेरगं पण्हाविज्जदि णरस्स बुहिं || पहाविज्जइ पाडच्छीत्र हु वच्छस्स फरुसेण ।। १०८३ || ) तरुणस्थापि वैराग्यं शीलवृद्धेन जायते ॥ क्रियते प्रस्तुतीश वत्सस्पर्शन गौर्न किम् ।। १११६ ॥ पिजयोदया--तरुणस्स वि तरुणस्यापि वैराग्यं जयते ज्ञानस्तप। वत्सस्य स्पर्शेन यथा गीः प्रस्तुतः शीलवृद्धेभ्यो यूगोऽपिं वैराग्योत्पत्तिमाह- मूलारा - पण्डाविज्जदि जन्यते । पण्हाविज्जादि दुग्धक्षरणं कार्यते । पाइन्छीष विशुष्कापि दुग्धरहितस्तनापि गौः । परिसेण स्पर्शेन || अर्थ---जैसे बछडेके स्पर्शसे गौके स्तनोंमें दुग्ध उत्पन्न होता है वैसे ज्ञानवृद्ध, वयोवृद्ध और तपोवृद्धोंके सहवाससे तरुणके मनमें भी वैराग्य उत्पन्न होता है.) आश्वासः ६ ११०४ Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराघना ११.५ परिहरइ तरुणगोडी विसं व बुढाउले य आयदणे ॥ जो बस कुणइ गुरुणिदेस सो णिच्छरइ वंभं || १०८४ ॥ यः करोति गुरुभाषितं मुदा संश्रये वसति वृद्धसंकुले ॥ मुंचते तरुणलोकसंगतिं ब्रह्मचर्यममलं स रक्षति ॥ १११७ ॥ रजो धुनीते हृदयं पुनीते तनोति सत्वं विधुनोति कोपम् ॥ मानेन पूतं विनयं नयंति किं वृद्धसेवा न करोत्य भीष्टम् ॥ १११८ ॥ इति वृद्धसंगतिः ॥ विजयोदया --- परिहरइ तरुणमोठ्ठी परिहरति तरुणैः सह गोष्टी विषमिष यः, वृद्धैराकीर्णे चायतने यो यसति । करोति च गुर्खाशां स निस्तरति ब्रह्मचर्यमिति संक्षेपोपदेशः ॥ वृद्धसेषा गता ॥ ब्रह्मचर्य निर्वाहोपायमाए..- मूलारा - विसंवा विषमिव । दुडाउले शीलवृद्धसंकुले | आयदणे स्थाने । गुरुणिदेस गुरोराज्ञां । णिच्छर निर्वाहयति । भ्रं ब्रह्मचर्यं । वृद्धसेवा ॥ अर्थ- जो मनुष्य तरुणका संग विषतुल्य समझकर छोड़ता है, वृद्ध जहां रहते हैं ऐसे स्थानों में रहता हैं. और जो गुरुओं की आज्ञानुसार प्रवृत्ति करता है वही मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है. वृद्धसेवाका प्रकरण समाप्त हुआ. स्त्रीसंसर्गकृतदोवेक्षणं स्वमनला संम्मीदोसायि य इत्यस्य सूत्रपदस्यार्थः साध्याहारतया सुवाणामधि चिता इति वाक्यशेष ܙܕ आलोयण हिदयं पचलदि परिभस्स अप्पसारस्स ॥ पेच्तस्स बहुसो इच्छीण श्रणजहणवणाणि | १०८५ ॥ मानस स्वल्प सत्वस्य स्त्रीसंसर्गे विनश्यति ॥ जनस्तनाणि पश्यतो बहु चल्यते ॥ १११९ ॥ T आश्वा ६ १९०५ Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आश्वास ६ विजयोन्या--भालोगोण आलोकनेन विदय हवयं प्रचलति । अल्पधृतिकस्य पुंसः प्रेक्षमाणस्य बहुशो युवतीनों पनपयोधर पृथुजयनानि । स्त्रीसंसर्गीकृतदोषावेक्षण नाम पंचमं स्त्रीशग्यकार गाथाद्वाचं शताब्याचक्षाण; प्रधगं योपिदालोकनलअणसंसर्गस्य दुर्निवारवाहोपपरंपरामुद्भावयति । मूलारा--आलोयणण निरीक्षणेन प्रकरणानारीणां । पचलवि प्रकर्षण अभ्यति । अपसारस्स अस्पधृतिकस्य । पेपछत्तमस्स चितयतः । उक्तं च. सुप्रिपातो भवेत्पूर्व व्यामुह्यति नतो मनः || प्रणिधत्ते जनः पश्चात्तत्कथागुणकीर्तने । बहुमो वारंवारं ॥ खीसंसर्ग करनेसे कोनसे दोप उत्पन्न होते हैं इसका विवेचन अर्थ-जिसमें गुण अल्प है ऐसे-पुरुषका हृदय स्त्रीको देखकर चंचल होता है. अर्थात् उसका मुख, स्तन, बहा नितंचभाग ये अवयच देखने से अल्प धैर्यवाला पुरुष मोहित होवा है. मा kahastramitvNERATUTTATE लज्ज तदो विहिंसं परिचयमध णिध्विसंकिदं चेव ॥ लज्जालुओ कमेपारहंतओ होदि धीसत्थो ॥ १०८६ ॥ निरस्यति ततो लज्जां संस्तवं कुरुते ततः ॥ तसो भवति निःशकस्ततो विश्वसिति भुवम् ॥ ११२॥ विजयोदर रन्सज तदो विसि ततो हरयचलनोत्तरकालं मरजां विनाशयति । विनष्टलज्जः परिचयमुपैति । ताभिर्शनसमीपगम महसनादिकं करोतीति यावत् पश्चानिर्षिाको मयत्तीति मामनया साह स्थितं पश्यति इति या शंका तामपाकरोति । लजावानपिजर कमेण अभिहिता अवस्था अपारोहन, विश्वस्तो भवति ॥ मूलारा--वदो हक्यप्रचलनोत्तरकालं । विहिस थिसिन् घिनाशयन् । परिचर्य दर्शनसमीपगमनहसनादिकं । मिल्यिसकिद मामनया सहा स्थितं पश्यंतीवि शंकाधिगमं । परिचर्य निर्विशंकाच कमेणारोहन विश्वस्त चितेन सीपुकृतसुखसाधनवप्रत्यय: स्यात् ।। ११०६ Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचा १२.७ Real अर्थ-मन चंचल होनेके अनंतर उसकी लज्जा नष्ट होती है. लज्जा नष्ट होनेपर उनके साथ उसका | परिचय शेत: है अर्थाद यह उनको स्पिर जयनात देखता है. उनके पास जाता है, उनके साथ इसी मजाक करता है.. तदनंतर उसका मय भी नष्ट होता है. मैं इस वीके साथ रहता हूं मेरी लोक निंदा करेंगे यह भय उसके मनसे दूर चला जाता है. तात्पर्य-लज्जावान् भी मनुष्य ऐसी अवस्था आको प्राप्त होकर स्त्रियोंमे विश्वस्त होता है. अर्थात् खी यह सुख का साधन है ऐसा वह समझता है. वीसत्वदाए पुरिसो वीसभं महिलियासु उवयादि ॥ वीसंभादो पणयो पणयादो रदि हवदि पच्छा ।। १०८७ ॥ विश्वासे सति विभो विश्रंभः प्रणये सति ।। रामामु परमा पुंसः प्रणय जायते रतिः ॥ ११२१ ॥ विजयोदया-धीसत्वदार विश्वरूतया मनसः विश्रंभमुपयाति युवतिषु । विशंभात्प्रणयः प्रणपाद निर्भवति ॥ मूलारा-वीसस्थाए, अमनसा विश्वास न । बीसमें आतत्वेन व्यवहार विश्वासेगात्र प्रवृत्तिनिवृत्ती विस्तंभशब्देनोच्यले । तथा चोक्तं विश्वस्तेन च चित्तस्य विश्राम स्त्री गच्रति ।। विरंभात्प्रणयोऽस्त्येव प्रणयाच्च गतिस्ततः । अर्थ-मुखमाधनकी कल्पनासे वह नियाम विश्वास करता है. इस विश्वासरी मेमकी उत्पत्ति होती है. । अर्थात् यह स्त्री हमारी आप्त है एसा अभिप्राय उसमें उत्पन्न होता है. जिसमें प्रेमका उदय होता है. इसके अनंतर दोनोंमें आसक्ति पैदा होती है. उल्लावसमुल्लावहिं चा वि अल्लियणपेच्छणेहिं तहा । महिलासु सइरचारिस्स मणो अचिरेण खुब्भदि हु॥ १०८८॥ नारीणां दर्शनोद्देशभाषणप्रतिभाषपौः ॥ आकृष्यते मनो नृणामयस्कांतरिवायसम् ॥ ११२२ ॥ Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वा ११०८ विजयोदया--उल्लावसमुह्मायहि संभाषणतिवचनैः, होकनेन, मक्षपोन, तथा वनिताभिः स्वच्छाचारी तस्य शीघ्रं मनचलति ॥ . मूलारा.....जल्लावसमुहावे हि संभाषणंप्रतिवचनेः । अल्लियपंछणे हि आश्रयणेन भणितकरणेन च सहरचारिस स्वेच्छाचारिणः॥ अर्थ--सियोंके साथ संभाषण और प्रत्युत्तरसे, उनके पास आना जाना करनेसे, उनको देखनेसे. स्वेच्छाचारी बने हुए पुरुषका मन चंचल बनता हैं. ठिदिगदिविलासविन्भमसहासचेठिदकडक्खदिट्ठीहि ।। लीलाजुदिरदिसम्मेलणोक्यारेहिं इत्थीणं ॥ १०८९ ॥ हासोपहासलीलामिगुप्तगात्रप्रकाशनैः ॥ विलासर्विभ्रमैाँच वैः सह गमागमैः॥ ११२३॥ विजयोदया-ठिदिदि-स्त्रीणां स्थिस्या, गत्या विभ्रमेण, नर्तनाभिप्रायेण, निगृहनेन, कटाक्षावलोकन शोभया , शुत्या, क्रीडया, सहगमनानाबिना उपचारेण च ॥ मटारा-ठिदि स्थानक । गदि चलनं । विलास नयनविकारः । विभम युगांतविकारः । लासः ममणनस्य चेद्रिद अंगप्रकटनं । लीला शोभा मधुरांगविचेष्टितैः प्रियानुकरण वा । सुतिस्तेजः । सम्मेलण एकवावस्थान । ज्यवारेहि महगमनाशनायुपचारैः ।। अर्थ... खियोंका खड़ा होना, उनका गमन करना, अवलोकन करना, मोह वक्र करना, मधुर नृत्य. म्सनादिकांको दिखाना, अभिमाय छिपाना, कटाक्ष फेकना, सुंदर रीनीसे अंगोंको हिलाना, प्रिय करके दानसार प्रवृत्ति रखना, शोभा, कांति, क्रीडा, साथ गमन करना, साथ बैठना, इत्यादिक उपचारोंसे पुरुषका मन चंचल होता है. हासोबहासकीडारहस्सवीसत्थजपिएहि तहा ।। लज्जामजादीणं मेरं पुरिसो अविक्रमदि ॥ १०९०॥ १० Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास मन्मनैः कोमलैाक्यैहप्रैर्विसंभभाषणैः ।। गतिस्थितियतिक्रीडानमविञ्चोकमोहनः॥१.२४ ॥ विजयोदया-हासोपहासकीडा हासेन प्रतिहासेन च, क्रीडया, पकांते विश्वस्तजल्पितेन च लजमर्यादयोः सीमातिकम करोति नरः॥ -- हासो । उहा रजसपिदेहि एकांतविश्रासेन संजस्पैः । लज्जामज्जा दाण लज्जामर्यादयोः । मर्यादात्र स्थितिरित्थभावनियम इति यायन् । मेरं सीमा । __ अर्थ--स्त्रीके हास्यपर स्वयं हंसना उसके साथ खेलना, एकान्तमें विश्वासयुक्त होकर बोलना, लज्जाका त्याग करना और स्त्रियोंके साथ पुरुषोंका जो सभ्य व्यवहार होता है जिसको मर्यादा कहते हैं उसको तोडना ऐसे कार्योंसे पुरुष सीमातिक्रम करते हैं. ठाणगदिपेच्छिदुल्लावादी सव्यसिमेव इच्छीण ॥ सबिलाला चेव सदा पुरिसस्स मणोहरा हुँति ।। १०९१ ॥ वकावलोकनैः स्त्रीणां वैराग्यं न्हियते नृणाम् ।। शरीरस्पर्शिभिः क्रुद्धः पनगरिव जीवितम् ।। ११२५॥ विजयोदया-ठाणगदि स्थान, गतिः, प्रेक्षितमुल्लापमपीत्यादयः सर्वासामेव स्त्रीणां सबिलासाः पुरुषस्य मनः सदापहरन्ति । मूलारा-होत्ति सर्वासां स्त्रीणां स्थानादयः सविलासा भवन्त्येष ॥ अर्थ-स्त्रियोंका खडा होना, सलील गमन, कटाक्ष फेककर देखना, मधुर भाषण करना इत्यादि सभी बातें बिलासयुक्त-हावभावयुक्त होनेसे पुरुषोंका मन हरण करनेवाली होती हैं. संसग्गीए पुरिसरस अप्पसारस्स लद्धपसरस्स । अग्गिसमीचे लक्खेव मणो लहुमेव वियलाइ ।। १०९२ ॥ Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराधना आश्वास पोषितां नर्तनं गानं विकारो विनयो नयः॥ द्रावयन्ति मनो नृणां मदन पावका इव ॥ ११२६ ।। विजयोदया-संसग्गीए सहगमनेन, ममनेन, भासनेन च पुरुषस्य अल्पसारस्य लब्धप्रसरस्य मनो दधी. भवति । अमिनिकास्थिता लाक्षेष। मूलारा-संमागीय वीसंगत्या सहवासालिकया ! प्रसार हीटरमस्य । प्रामस्वेच्छाजल्पनादिप्रवृत्तेः । विलादि बिलीयते । द्रवीभवति ।। अर्थसहगमन करना, एकासनपर बैठना, इन कार्योंसे अल्पधैर्यवाले और स्वच्छंदसे बोलना, हंसना, बगैरह क्रिया करनेवाले पुरुषका मन अनीके समीप जैसी लाख पिघल जाती है वैसा पिघल जाता है. संसरगीसम्मूढो मेहुणसहिदो मणो हु दुम्मेरो ॥ पुवावरमगणतो लंधेज्ज सुसीलपायारं ॥ १०९३ ! महिला मन्मथावासविलासील्लासितानना ॥ स्मृता पि हरते चित्तं वीक्षिता कुरते न किं ॥ ११२७ ॥ निर्मर्यादं मनः संगात्संमूढं सुरतोत्सुकम् ॥ पूर्वापरमनाहत्य शीलशालं विलंघते ॥ ११२८ ।। विजयोदयासंसन्गीसम्मूढो स्त्रीसंसर्गसंमूढः मनो मिथुनकर्मपरिणतं निर्मयाद पूर्वापरमगणयबुल्लंश्येन्द्री लपाकार। मूलारा-मेहुणसहिदो सुरतोत्सुक । अत्र पूर्वोत्तरयोश्वार्षत्वात्पुलिंगनिर्देशः । णिम्मेरो निर्मादं । पुव्वाबरं कारणकार्यभावं ॥ अगणतो अपर्यालोचयन् । उठेवदि उलंघयति । वालेज्ज सुसीलेति पाठेऽपि स एवार्थः ।। अर्थ-स्त्रीसहवाससे मनुष्यका मन मोहित होता है तब उसमें मैथुनसंत्रा अर्थात मैथुन करनेकी तीन इच्छा होती है, उस समय वह कार्यकारणका विचार करता नहीं. वह शीलवटका उल्लंघन करनेके लिये उतारु हो जाता है. Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना भावाम: इदियकसयसण्णागारवगुरुया सभाषदो सव्वे ॥ संसग्गिलद्धपनरस्स ते उदीरंति अचिरेण || १०९४ ।। कपायन्द्रियसंज्ञाभिर्गारवर्गुकाःसदा ।। सर्व स्वभावतः संगादुद्भवन्त्यचिरेण ते ॥ ११२९ ॥ बिजयोदया-इंदियकसायसणागारवगुगका इंद्रियः, कषायः, संज्ञाभिराहारभयमैथुनपरिग्रहषिपयाभिः कदिरससातगीरबैश्च गुरुकाः । सभाबत एव सर्वे प्राणभृतः संसर्गलचपसरस्थ अतीव अशुभपरिणामा अचिरायोपद्यन्ते । मूलारा-सव्ये सर्व प्राणिनः । इंद्रियादिभिश्चतुर्भिः स्वभावतो गुरुका महांतः संति । हे इंद्रियादयोऽशुभ परिणामचतुष्टयं । उदीरेंति उदीर्यन्ते स्त्री संगतिलब्धप्रसरस्स शीघ्रं समुद्भबतीत्यर्थः ।। अर्थ--प्रायः प्राणिों में स्वभावसे ही इंद्रिया, कपाय, संज्ञा और गारव उत्कट रहते हैं. नियोंका संसर्ग होनेसे पुरुष स्वच्छंदी बनता है तब इंद्रियादिक उच्छृखल हो जाते हैं. जिससे शीघही अत्यंत' अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं. संज्ञाके आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा. और परिग्रहसंज्ञा ऐसे चार भेद हैं. "आहारकी उत्कट अभिलाषा होना, भीति उत्पन्न होना, मैथुनकी तीय इच्छा रहना और परिग्रहों में अभिलाष उत्पन होना ऐसा चार संज्ञाओंका क्रमशः अर्थ है. ऋद्धिगारव, रसमारय और सातगारख ऐसे गारवके तीन भेद हैं. इनका वर्णन पीछे गया है. मादं सुदं च भगिणीमेगते अल्लियंतगस्स मणो ।। युब्भइ गररस सहसा किं पुण सेसासु महिलासु ॥ १०२५ ॥ मातृस्वरसुताः पुंस एकाले श्रयतो मनः॥ शीघ्र शोमं बजत्येव किं पुनः शेषयोषितः ।। ११३० ॥ जोया Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५१२ मूलारा - अतिगरस आश्रयतः अर्थ ----माता, अपनी लडकी और बहिन इनकाभी एकान्तमें आश्रय पाकर मनुष्यका मन क्षुब्ध होता है. फिर दुसरी महिलाओं के विषय में कहना ही क्या ? उत्तर- जुष्णं परोन्चलमइलं रोगिय बीभस्स दंसणविरूवं ॥ मेडिगं पच्छेदिमणो तिरियं च खु णरस्स || १०९६ ॥ निःसारां मलिनां जीणी विरूपां रोरिदुर्दशम् ॥ तिरश्रीं वा समीत नमनो मैथुनं प्रति ॥ ११३१ ॥ विजयोदयाण जीर्णेतरां । पोचलमलां निःसारमलिनां । रोगदवीमस्वणविरूवं व्याधितां therealati विरूपामपि स्त्रियं । मेहुणपडिगं मैथुनकर्मनिमित्तं पच्छेदि प्रार्थयते । मणो मनः । तिरियं खु तिरक्षी वा दृष्ट्या हि तीवकामावेशात् तिर्यक्ष्वपि नराणां प्रवृत्तिः ॥ । रहस्येच्या श्रीयमाणास्तरुण्यादिरमणीया एव रमच्यो मनःक्षोभाय पुंसः प्रभविष्यतीत्याशंकायामादमूलारा----जुण्णं अतिवृद्धां । पोच्चडमइले निःसारां, मलिनां च रोगिद व्याधितां । बीमच्छदंसणा बीभत्सा लोचनां । मेहुणपडियं मैथुनं प्रति सुरतार्थमित्यर्थः । तिरियं खु तिरखीं वा । तिरश्रीमपि वा । उक्तं च-रोगवतीमतिजीणों बीभत्सां दुर्बलां विरूप व ॥ अपि च तिरश्चीमबलाभिच्छति मदनज्वरी भोक्तुम् ॥ अर्थ — जो स्त्री वृद्ध है, निःसार है, मलिन है, रोगी है, जिसकी आंख चीभत्स भयानक है, जो कुरूप है। ऐसी स्त्रीकीभी यह मन मैथुन करनेके लिये प्रार्थना करता है. इतनाही नहीं तिर्यच स्त्रीकोभी चाहता है. तीनक्रामके आवेशमें आकर मनुष्यकी पशुके साथभी मैथुन करनेकी प्रवृत्ति हो जाती हैं. प्रकारांतरेणापि स्त्रीसंसर्गमादर्शयति दिवाणुभूदसुदविसयाणं अभिलाससुमरणं सव्वं || एसा वि होइ महिलासंसग्गी इत्थिविरहम्मि || १०९७ ॥ आश्वास ६ १११२ Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाव १११३ दृष्ट श्रुतानुभूतानां विषयाणां रुचिस्मृतिः ।। नारीसंसर्ग एषोऽपि विरहेऽप्यस्ति योषितः ।। ११३२।। विजयोत्या-दिहाणुभन सचिलयाणं सानो अनुभूदागा तानां च विषयाणां अभिलाससुमरणं मभिलापस्मरण । सव्यं पसी वि होदि महिलासंसम्गी पषोऽपि भवति युवतिसंसर्गः । इत्थीविरहे वीविरहे। खिया सहवासादिमा विनापि त्रीसंसर्गमादर्शयति--- मूलारा-एसा वि यदिदं दृष्टानां, अनुभूतानां, या विषयाणां अमिलपणं स्मरण वा तत्सर्वमियं अपरा स्त्री मसगौं भण्यते। इस्थिविरहे वि योषितो व्यवधानेऽपि सति ।। उफन-घटतानुभूतान्विषयानभिलप्यतश्र संम्मरतः ॥ प्रमदाचिरहेऽपि मुनेभवाने प्रमनायो दोषः ॥ प्रकारांतरसेभी स्त्रीसंसर्गका निरूपण करते है अर्थ-वीके विग्हमें भी देखे हुए, सुने हुए, अनुभब जिनका लिया है ऐसे पदार्थकी अभिलाषा करना बारबार उनका स्मरण करना यह भी संसर्गका एक भिन्न प्रकार है. धेरो बहुस्सुदो पच्चई पमाणं गणी तवस्सित्ति ॥' अचिरेण लभदि दोसं महिलाबग्गम्मि वीसत्थो ।। १०९८ ॥ वृद्धो गणी तपस्वी न चिश्वास्यो गुणवानपि ॥ अचिराल्लभते दोषं विश्वस्तः प्रमदाजने ॥ ११३३ ॥ विजयोदया--थेरो स्थविरः, बहुश्रुतः, प्रत्ययितः, प्रमाणभूतः गणधरः, तपस्वीत्येवं प्रकारः1 अचिरेण चिरकालमंतरेण । लभदि दोसे अयशो लभते । महिलावग्गम्मि युवतियगें । बीसत्थो विश्वस्तः॥ वृद्धत्वादिधर्मणामपि श्रीषिश्वासो दोपाय स्यादित्याह मूलारा-पच्चाई प्रत्यायित्तो विश्वास्य इति यावत् । पमाणं प्रमाणभूतः । तस्सित्ति तपस्थीत्येवंप्रकारोऽपि किं पुनस्तारुण्यादिदुर्यशस्करधर्मभागितीति शब्देन प्रकाश्यते । अर्थ-वृद्धमुनि, बहुश्रुतमुनि-अनेक मतोंको जाननेवाले मुनि, प्रमाणभूत मुनि आचार्यपदधारक मुनि बहुत Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराधना कालके दीक्षित भी महिलापा विजयोनेसे दोपयुत्त माने जाते हैं. अपयशके पात्र होते हैं. आवास १११५ aaaaxnacscinemama a किं पुण तरुणा अबहुस्सूदा य सइरा य विगदबेसा य । महिलासंसमगीए णट्ठा अचिरेण होहति ।। १.९९ ।। किं पुनर्विकृताकल्पाः स्वैरिणः शेषसाधयः ।। नारीसंसर्गसो नष्टा न सति स्वल्पकालतः ।। ११३४ ।। विजयोदया-कि पुण सरणा सयौबनाः, अबधुताः, स्वैरचारिणः, धिकृतवेषाच युवतिसंसर्गेण झटिति नण न भवन्ति ? किं पुनर्भवन्त्येवेति याचन् । तदेव सविस्मययक्रमणित्या भणति----- मूलारा-सइरा खैराः स्वच्छंदचारिणः । बिगदवसा विकृतयपाः । देशकुलपयोवर्णविद्याचरणाद्यनुचितनेपन्याः स्वानुरुपाचारच्युताः । अर्थ-जा तरुण है, अस्पन्न है, स्वराचारी है, जो देश, कुल. बय, वर्ण विद्या, आचार इत्यादिकों को ET प्रतिकूल ऐसा वेष धारण करते हैं. ऐसे मनुष्य स्त्रीसमर्मस क्यों न शीघ नष्ट होंग अर्थात् होंगे ही. अर्थात् बे लोक स्त्री संसर्गमें अकीर्तिमान होंगे इसमें क्या आश्चर्य है. ma । साडो हु जइणिगाए संसग्गीए टु चरणपब्मट्टो ।। गाणियासंबग्गीए य कुववारी तहा हो ॥ ११००॥ जनिकासंगतो नष्टश्चरणाच्छकटी यतिः ।। वेश्यायाः सह संसर्गानष्टः कूपवरस्तथा ॥ १.३५ ।। दिगोदया-गो दुसगडागागधेयः । जणिगार समागीण जाणिगासंज्ञाया: संसर्गेण । चरणपभट्ठो चारित्राझष्टः । गणिकासंसगीप गांगकागोष्ठया कूवरो वि कूपारनामकः | तहाणटो तथा चारित्रानष्टः।। स्त्रीसमें पूर्वेषामपि संयमभ्रशं गाशवन पर्शयति--- १११४ - Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वा: मूलारा-सगडो शकटो नान मुनिः ।। जइणियाए जैनिकानाम्न्या ब्राह्मण्याः॥ अर्थ-शकट नामके मुनि जैनिका नामक वेश्याके संसर्गसे चारित्रसे च्युत होगये, तथा कुपार नामक मुनिभी वेश्याके सहवासमै चारित्रनष्ट हो गये हैं, TAMOND - - रुट्ठो परासरो सच्चईयरायरिसि देवपुत्तो य॥ महिलारूवालोई णहा संतत्तदिठ्ठीए ।॥ ११०१॥ रुद्रः पाराशरो नमो महिलारक्तया शा॥ देवर्षिः सात्यकिदेवपुत्रश्च क्षणमात्रतः।। ११३६॥ विजयोदया-गद्दो परासरी रुद्रा, पराशरः, सात्यकिः, राजर्षिर्देषपुत्रश्च युवतिरूपावलोकितसंसक्तया दृपया नष्टाः॥ मूलारा-सचई सात्यकिन म । रायरिसी राजर्षिनामा, । महिलारुवालाई स्त्रीरूपालोकिनः । संसत्तविट्ठीए सम्मुखमासक्तया दृशा। अर्थ---रुद्र, पराशरमुनि, सात्यकीमुनि, राजर्षि नामक मुनि और देवपुत्र नामक मुनि खिओंका रूप देखनमें आसक्त हुई दृष्टीसे नष्ट भ्रष्ट हो गये. जो महिलासंसग्गी विसंव दङ्ण परिहरइ णिच्चं ॥ णिस्थरइ बंभचेर जावजीवं अकंपो सो ॥ ११०२॥ भुजंगीनामिव स्त्रीणां सवा संगं जहाति यः॥ तस्य यत्रतं पूर्व स्थिरीभवति योगिनः ॥ ११३७ ॥ विजयोदया-जो महिलायाः स्त्रीणां संसर्ग षिमिय इष्ट्या नित्यं परिहरति । असौ ब्रह्मचर्य उद्दति यायजीव निश्चल श्रीगोष्टीपरिहारगुणमाहमूलारा-अकंपो निश्चलः । १११ Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ-जो पुरुष स्त्रीका संसर्ग विषके समान समझकर उसका नित्य त्याग करता है वहीं महात्मा यात्रज्जीव ब्रह्मचर्यमें रह रह सकता है. आप मम्मि इथिवग्गम्मि अपमत्तो सदा अन्बीभत्थो । बर्म निच्छरदि बदं चरित्तमूट चरणमा ! ११०३ !! अविश्वस्तोऽप्रमत्तो यः स्त्रीवर्गे सकले सदा ॥ यावज्जीवमसौ पानि ब्रह्मचर्यमरितम् ।। ११३८ ।। विजयोदया सबम्मि सर्वस्त्रीवर्गे । अप्रमत्तः सदा अविश्वस्तः, ब्रह्मवतमुदहति चारित्रस्य मूलं सारं च ॥ मूलारा-पष्टम । - अर्थ-संपूर्ण स्वीयर्मम जो पुरुष-मुनि सावध रहता है. अविश्वस्त रहता है वही ब्रह्मचर्य का पालन करता है. यह ब्रह्मचर्य चारित्रका मूल और सार है. कि मे जंपदि किं मे पस्सदि अण्णो कह च वटामि। इदि जो सदाणुपेक्खइ सो दढबंभवदी होदि ॥ ११.४ ।। अहं वर्ते कथं किं मे जनः पश्यति भाषते ॥ चिंता यस्येशी नित्यं दुब्रह्मवतोऽस्ति सः॥ ११३९ ।। विजयोदया-कि मे जापदि कि जल्पति मांजनोऽन्यः । किं पश्यति, कीटशी या मम वृत्तिरिति यः सदानुप्रेक्षत असौ रदवह्मचर्यचनो भवनि ॥ ब्रह्मवतदायर्योपायमाह - मलाग-- अणुपेखदि अनुनिनयनि । अर्थ-लोक मेरे विषय में क्या बोलत है, लोक मेरे तरफ किम निगाहस देखते हैं. और मेरी प्रवृत्ति कमी है ऐसा जो प्रतिदिन बारधार विचार करता है वही दृढ नचारी बन सकता है. Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा मूलाराधना १११७ मज्झण्हतियखसूरं ब इच्छिरूवं ण पासदि चिरं जो ॥ खिप्पं पडिसंहरदि य मणं खु सो णिच्छरदि बंभं ॥ ११०५ ॥ न पश्यन्धंगनारूप ग्रीष्मार्कमिव यश्विरम ॥ क्षियं संहरते दृष्टिं तस्य नमवतं स्थिरम् ॥ ११५० ।। विजयोदया-मझण्हतिक्ससूर व मध्यान्हे स्थितं तीक्ष्णमादित्यमित्र स्त्रीणां कर्ष विरं यो न पश्यति । क्षिप्रमुपसंहरति दृष्टिं यःस निस्तरति ग्रहाचर्य । मूलारा--खिप्पं शीघ्र । पचिसंहरवि निवर्तयति ॥ अर्थ—मध्यान्हको प्राप्त हुए तीक्ष्ण सूर्यके समान जो स्त्रीका रूप देरतक नहीं देखता है अर्थात् स्त्रीके रूपसे अपनी दृष्टि को जल्दी हटाता है वही ब्रह्मचर्यका रक्षण कर सकता है. SHODHARA - एवं जो महिलाए सद्दे हवे तहेव संफासे ।। ण चिरं सज्जदि हु मणं णिच्छरदि स संततं बंभ ॥ ११०६ ॥ गंधे रूपे रसे स्पर्शे शब्दे स्त्रीणां न सज्जति ॥ जातु यस्य मनस्तस्य ब्रह्मचर्यमस्वाडितम् ॥ ११४१ ।। द्विपमिव हरिकांता मक्ष मीनं बकीव । भुजगमिव मयरी माषिक बा बिडाली ॥ गिलति निकटवृत्ति संयतं निईया स्त्री। निकटमिति नदीय सर्वदा वर्जनीयं ।। ११५२ ।। प्रथयति भवमार्ग मुक्तिमार्ग वृणक्ति । दवयति शुभवद्धिं पापद्धिं विधत्ते ।। जनयति जनजस्प शोकवृक्ष लुनीत । वितरति किमु कष्टं संगति गनानाम् ॥११४३ इनि स्त्रीसंसर्गदोषाः ।। यिजयोदया-पर्व जो महिला पर्व यो युवतिशदे, रुप, संस्पर्श व चिरं मनो न संधत्तेऽसौ ब्रह्म निस्तरति । ससम्गी॥ मूलारा-सन्जदि संधत्ते । बीसंसर्गदोयाः ।। amin Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना अर्थ-इस प्रकार जो स्त्रीका गंध, शब्द, रूप, रस, स्पर्श, इनमें अपने मनको लगाता नहीं वही ब्रह्मचर्य का पालन निरविचार करता है. आश्वासः इहपरलोए जदि दे मेहुणविस्सुत्तिया हवे अण्ह ।। तो होहि तमुववुत्तो पंचविधे इस्थिवेरग्गे ॥ ११०७ ॥ यदि ते जायते धुद्धिलॊकद्वितयमैधुने ।। उद्योगः पंचधा कायः स्त्रीवैराग्ये तदा त्वया ॥ ११४४ ।। विजयोदया–हपरटोए रहपरलोके च गरि पैदानिशा र भामेत् : पंचति स्त्रीवैराग्य स्वमुपयुक्तो भव । तदुपयोगाविनश्यत्यसाघशुभपरिणाम इति सूरेरुपदेशः ॥ एवं वैराग्योपायपंचकं प्रपंच्य तदुपयोगविषय निर्दिशन्क्षपक तत्र प्रयुंक्त मूलारा-मेहुणविस्मोतिया मेधुनाशुभतमपरिणामः । हये जण्हु भवेत् । इहलोकविषयपरलोकविषय वा मैथुनं सेवितुमाकांक्षा यदि तव स्यादिति संबंधः । तं त्वम् ।। अब-इहलोकमें और परलोकमें यदि मैथुन करनेका परिणाम हृदय में उत्पन्न होगा तो पांच प्रकारके स्त्रीवैराग्य में हे क्षपक तूं हमेशा उद्युक्त हो जिससे तेरा मैथुन परिणाम जो कि अशुम है नष्ट होगा. ऐसा आचार्य का क्षपकको उपदेश है. उदयम्मि जायवडिय उदएण ण लिप्पदे जहा पउमं ॥ तह विसरहिं ण लिप्पदि साहू विसएसु उसिओ वि ॥ ११०८ ॥ लिप्यते वर्तमानोऽपि विषयेषु न नैतिः ॥ पद्मजातं जले वृद्ध जातुं किं लिप्यत जलैः ।। ११४॥ विजयोदया-उदयम्मि जायचद्विय उदके जातं परिवृतं च यथा पड़ा उदकन न लिप्यत । तथा न लिप्यते विश्वैः साधुर्विषयेषु वर्तमानोऽपि ॥ २१ Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः स्त्रीवैराग्यभावनापरस्य माहाल्यमाहमूलारा-उसिदो वि वर्तमानोऽपि । अर्थ-जलमें उत्पन्न होकर वहां ही वृद्धिंगन हुआ एमा कमल जैसे पानीस अलिस ही रहता है. वैसे साधु विषयमें रहकर भी-उन विपयोंमे रहकर भी उन विषयोस अलिप्त रहते है. तात्पर्य यह है कि, वे पंच प्रकारके वैराग्य कारणोंका बारचार विचार करफ अपने हृदयक सिंहासन पर चैराग्यको दृह बिठाते हैं. जिससे चे विषयोंसे अलिप्त रह सकते हैं. उग्गाहितस्सदा) अन्छेरमणोलणं जह जलेण ॥ तह विसयजलमणोछणभन्छेर विसयजलहिम्भि ॥ ११०९ ।। विषविष्टपस्थस्य चित्तमस्पर्शन यतेः ।। सागरं गाहमानस्य सलिलैरिय जायते ॥ ११४६ ।। विजयोदया-ओग्गा तिम्सुधि अवगाहमानस्योदधि आध, पथा जलेनास्पर्शनं । तथा विषयजलेनाई. चित्तता आशय विषयजलधिमध्यमध्यासीनस्य । विषयपरिकग्निस्य विषयरनभिग्नंगे विस्मन भात्रयति-- मूलारा- उम्पादितम्प पूवमानस्य | अच्छे आश्च अग्गोलग अनार्दीकरण । अस्पर्शनम् । विसयजलधिम्मि विग्योदधिमध्यमध्यासीनस्य स्त्रीथराज्यभावनापरस्य साधाविषयजलानार्दीकरण माचर्यमित्यर्थः । अर्थ-जैसे कोई पुरुष समुद्र में अबगाहन करके भी यदि जलस्पर्शसे अलिप्त रहेगा तो वह आश्चर्यकारक बात समझनी चाहिये. वैसे विषयसमुद्र के बीच में अवगाहन करके भी विषयजलसे चित्त अलिप्त रहना आश्चर्यकारक है. मायागहणे बहुदोससावए अलियदुमगणे भीमे ।। असुइतपिल्ले साहू ण विष्षणसंति इत्थिवणे ॥ १११०॥ Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ११२० न दोषश्वापत्रे भीमे वंचनागहने यतिः ॥ नश्यति स्त्रीsarकपादपेऽशुचितातृणे ॥ ११४७ ॥ विजयोदया मायागणे यथा गहनं परेषां दुःप्रवेशं एवं मायापि परैर्दुरधिगमेति मायापि गहनमित्युच्यते । मला बहवो दोषा बहुदोषाः असूया, पिशुनता, चपलता, भीरुता, नितरां प्रमत्तता येत्येवमादयस्त श्वापदा यस्मिन् । अलिंगदुमगणे यथा दुम महाननेकशाखोपशाखाकुलध नालीकता द्रुमगणो यस्मिन् । भीमे भयंकरे । अशुचितणिले अशुचितृणकुले । यतयो न विप्रणयन्ति स्त्रीवने ॥ योषिदव्यामविभ्राम्यतः साधून्प्रकाशयति मूलारा----मायागढ़गे मायैव परमदुर्गमत्वाद्नं लतादिगुल्मजालं यत्र । बहुदोसमाचदे बहवो दोषाश्वासूयाचापलभीत्वप्रमत्तन्वादयः । ते श्रापदा व्यामादयो यन्त्रानिवारितपरस्त अलगणे अलीक्रमसत्यं वच स्तदेव द्रुमगणा यत्र अनेकशाखोपशाखाकुलान । अशुचिनगिले अशुचीनि देहांगोपांगानि तान्येव तृणानि निरंतर प्रसृतत्वात् तैर्युक्ताः । ण विप्पणाति न विभ्राम्यन्ति । दिङ्मूढा न भवन्तीत्यर्थः । ८ अर्थ - यह स्त्रीधन मायासे गहन हुआ है अर्थात् जैसे गहन वनमें प्रवेश करना कठिन है वैसा इस मायाका स्वरूप जाननामी बडा कठिण है अतः माया भी गहन कहलाती है. इस स्त्रीवन में यह माया गहन है. जैसे बन सिंहव्याघ्रादि क्रूर प्राणिसे व्यास रहता है वैसे स्त्रीवन भी अनेक दोषरूप श्वापदोंसे व्याप्त हुआ है. इस स्त्रीवन में असूया - दूसरोंके गुण सहन न होना, चुगली करना, चंचलपना, डरपोकपना, और अत्यंत उन्मत्तता इत्यादि दोपरूप क्रूर प्राणी इस स्त्रीवनमें विचरते हैं. जैसे वृक्ष बडा होता है. उसको शाखा उपशाखाए रहती हैं. वैसे स्त्रीवन में असत्य भाषणरूप वृक्ष अपनी अनेक शाखा उपशाखाओंसे पद गये हैं. यह स्त्रीवन भयंकर है. इसमें अपवित्रतारूपी तृण ऊगता है. परंतु ऐसे स्त्रीवन में जितेन्द्रिय तपस्वीगण दिवमूढ नहीं बनते हैं । ) सिंगारतरंगाए विलासवेगाए जोब्वणजलाए ॥ विहसियफेणार मुणी णारिणईए ण बुझति ॥ ११११ ॥ बाबा ६ ११२ Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना भूरिशृंगारकल्लोला यौवनाम्बुर्वधूनदी। म विलासास्पदा हासफेना वहति संयतम् ॥ ११४८ ॥ विजयोदया-सिंगारतरंगाप, अंगारतरंगया, विलासधेपया, यौवनजलया, बिहसितफेनया, नारीनया मुनि - মাস্বাম हाते ॥ मुनेः स्त्रीसरिडलेयत्वमाहमूलारा--सिंगार सागसंस्कारः। ण बुझंति नोयन्ते । . . अर्थ- स्त्री नदीक तुल्य है. नदीमें तरंग, बेग, पानी, फेस. इतनी बातें रहती हैं. इस स्त्रीरूपी नदीमें श्रृंगाररूपी तरंग हमेशा उछलते रहते हैं. विलासरूपी वेगसे यह बहती है. तारुण्यरूपी जलसे भरी हुई है और मंदहास्यरूपी फनसे यह व्याप्त हो रही है. एसी स्त्रीरूपी नदी जितेन्द्रिय मुनिओंको नहीं बहा सकती है. ते अदिसूरा जे ते विलाससलिलमदिचवलरदिवेग ।। जोवणणईसु तिण्णा ण य गहिया इच्छिगाहेहिं ॥ १११२ ॥ विलाससलिलोत्तीर्णा येस्तीवा यौचनापगा। अग्रस्ताः प्रमदाग्राहस्ते धन्या मुनिपुंगवाः॥ ११४२ ।। विजयोदया-ले अदिसूा ते अतिशूगः 1 ये विलासससिला मतिमपलरतिवेगा, यौवननदीमुत्तीर्णाः, न व गृहीता युवतिग्राहैः ।। गोविन्याइयाधाविरहेण तारुण्यतरंगिणीमतिक्रान्तान्मशंसति - मूलारा-पष्टम--- अर्थ - यह यौवनरूप नदी विलासरूपी पानीसे और अतिशय चंचल रतिरूपवेगमे युक्त है. इस नदीमें तरुण स्त्रीरूपी मगर रहते हैं. परंतु जिन निराजोंको स्त्रीरूप मगरने नहीं पकड़ा है वे मुनिराज इस जगतमें धन्य हैं. ऐसे मुनिराज ही अतिशूर समझने चाहिए. Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना महिलावाविमुक्का बिलासपुंक्खा कडवखदिहिसरा ॥ जण्ण विधतीह सदा विसयवणे सो हबइ धण्णो ॥ १११३ ॥ धन्यं स्त्रीच्यावनिर्मुक्ताः कटाक्षेक्षणसायकाः॥ विध्यंति विषयारण्ये वर्तमान न योगिमम् ॥ ११५० ॥ विजयोदया-महिलायाइषिमुक्का युवतिव्याधषिमुक्काः। बिलासपृषत्कार, कटाक्षरटिशराः । यं न प्रति सदा विषयच ने चरतं मयति स धन्यः ॥ कामिनीकटाक्षनिरीक्षणाक्षोभ्यमाणमनस्कमभिटौतिमूला-वाह व्याधः । ण विधंति न विध्यति । अर्थ-स्त्रीरूपी पारर्धाक द्वारा छोड गए कटाक्षरूपी बाण विषयवनमें भ्रमण करनेवाले जिस महान्माका घाती है: जगत में पक्षक पात्र हैं. Power विध्योगतिवखदेतो विलासखंधो कडकदिष्टिणहो । परिहरदि जोव्वणवणो जमिस्थिवग्यो तगो घण्णो || १११४ ।। म बियोकरदोऽभ्यति विलासनग्रो मुनिम् ॥ कटाक्षानोऽगनाम्यानम्नाकायारण्यवर्तिनम् ॥ १५५१ ॥ विजयोन्या--विवोगगतिकस्यानो चिलासबथो विभ्रमनीयमदतो विलासस्कंधः फटाक्ष पिनत्रः परिहानि योयनवने में गुमतिय्याघ्रः सधभ्यः । योपानभिगम्यम भिनंदतिमूलाग-वियोग भूयुगांतविकारः । विलाम नेत्र विकारः । कटकबदिट्टी अपांगनिरीक्षणं । तगो सः । अर्थ-जो हावभावरूपी तीक्ष्ण दाढाओंसे युक्त है. विलासरूपी बाह जिसके हैं, कटाक्षरूप नखों को धारण करनेवाला यह तरुणीरूपी व्याघ्र तारुण्यचनमें विचरनवाले जिन माहात्माओंको पकडता नहीं वे महात्मा ११२३ Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना ११२३ लोकाडो कामग्गी विसयरुक्खपज लिओ ॥ जोवणत जिल्लचारी जण डहइ सो हवइ घण्णो ॥ १११५ ॥ त्रिलोकदाही विषयोद्धजाः । नाश्यतॄण्याज्वलितः स्मराग्निः ॥ न प्लोषतं यं स्मृतिधूमजालः । स वंदनीयो विदुषा महात्मा ॥ ११५२ ।। विजयोदयातल्लोकाहिणोलोक्याटवदनः । कामाग्निर्विषयवृक्षे प्रज्वलितं श्रवनतृण संचरणचतुरं यत्र दहत्यसी धन्यः ॥ कामदादा शंसति मूलारा — पिल्ल तृणं । तृष्या वा तथ चराभीक्ष्णमिति । अन्ये यौनतृण्याचारिणं यं न दहतीति प्रतिपन्नाः द्वितीयार्थे प्रथमाभिधानात् । तं त्रैलोक्य काननोद्दाही कामामिलितस्तराम ॥ यौवनोदचतुष्यास्थं धन्यं दद्दति तो नरं ॥ अर्थ -- यह काम विषयरूपी वृक्षोंका आश्रय लेकर प्रज्ज्वलित हुआ है. त्रैलोक्यरूपी बनको यह कामाग्नि जलानेके लिये उद्युक्त हुआ है. परंतु तारुण्यरूपी तृणवर संचार करनेवाले जिन महात्माओं को यह जलाने में असमर्थ हैं वे माहत्मा धन्य हैं विसयसमुद्द जोन्वणसलिलं हसियगइपेक्खिदुम्मीयं ॥ घण्णा समुत्तरंति हु महिलामयरेहिं अच्छिक्का ॥ १११६ ॥ विपुलौवननीरमनाकुलो विपधानीरनिविं रतिर्वाचिकम् ॥ इद चमकरेरकदर्भितस्तरति धन्यनमः परदुस्तरम् ।। ४१५३ ।। इति चतुर्थ व्रतम् | विजयोदश-विसयस विषयसमुद्र वनसलिलं हसनगमनप्रेक्षणतरंग निचितं । धन्याः सम्युत्तरति युवतिमक रैरस्पृष्टाः ॥ चतुर्थ व्रतं व्याख्यातं ॥ चतुस्थं ॥ आश्वास ६ १९२३ Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । । main rarmadARRESO E ... - कसनीयतामन रंग ! - आयुष्याः । नाचमानम ॥ विषयमानी जग पद मिगीका भाम. गान, कटाश का मना यहा मनांगजामा बसपा मगम ग्रामर पवनमदयनर का । व स्तुतीक पाय अर्थात धन्य है. साथ ब्रह्मचर्यमहावतका वर्णन पूर्ण हुआ. पंचममहाममिपणायोचम्प्रबंध: अम्भतरबाहिरए सब्वे गंथे तुमं विवजहि ॥ कदकारिदाणुमोदेहिं कायमणक्यणजोगेहिं ।। १११७ ॥ बाह्यमाभ्यंतरं संगं कृतकारितमोचनैः। चिमचस्व सदा साधो ! मनोवाकायकर्मभिः ॥५४॥ विजयोदया-अम्भतरवाहिग अपयनराम्बायाश्च । सध्ध गंथे सघान्ग्रंथान् । तुम चिवमादि वर्गय भवान । करकारिदाणमादेहि रुत काशिनुम.मनैः । कावमाययाजोगहि कायम मनसा वाचाया। एवं ब्रह्मचर्यत्रतं यावर्षमाप्रा अपरिग्रहास्यं पंचम महानतं गाधापंचपल्या प्रचंधेज व्यायर्णपितकामः पयां नैन्यं प्रनि अपक प्रयोजयति-- मुलग- अभंत वाहिया अभालगन्याह्यांत्र । गंधे परिग्रहान । तुम अब पांचव परिग्रहपरित्याग महावतका आचार्य विस्तारसे निरूपण करत है अर्थ-द्रवपक! तुम संपूर्ण अनरंग और दिग्ग परिग्रहीका मन, वचन, और शरीरस तथा कृत, कारित और अनुमोदन अर्थात नऊ प्रकार त्याग कंगे - - ११६४ inananda- नत्रामनामनिरपान नवा -- मिछत्तवेदरामा तहेब हामादिया य छदोसा ॥ चत्वारि तह कमाया चउस अभंतरा गंथा ॥ १११८ ॥ % D Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना मिथ्यात्वषेदहास्थाविक्रोधमभृतयोऽन्तराः ॥ आश्वाम एकत्रिषट्चतुःसंख्याः संगाः संति चतुर्दश ।। १.५५ ॥ विजयोदया-मिच्छत्तवेदरागा घस्तुयाथात्म्याश्रमाने मिथ्यात्वं, बेदशब्देन स्लीपुनपुंसकवेदाख्यानां कर्मणां ग्रहणं । तजनिताः स्यादीनां अन्योन्यचिपगरगाः खियः पुंसु रागः । पुंसो युबतिषु, नपुंसकस्योभयत्र । हस्सादिगा य छहोसा हास्य, रतिरतिः शोको, भयं जुगुप्सेति । एने पवदोषाः । चत्तारि त कसाया खोइस अम्भतरा गंधा। त्वारस्तथा करायाश्चतुर्दशैते अनंतराः परिग्रहाः ॥ कियतोऽभ्यंतरग्रंथा भवन्तीत्यत्राह मलारा-वैः वीनसक्रवदारूयः कर्गशिर्जनिता रागाः । स्यादीनामन्योन्यविषयाः प्रीतयः : वियाः पुंस गगो, AI शुनमज्ञोदोषः, एमः श्री ! नपुंसकम्योगरत्र च । हासादिया हास्यादिकाः । हास्य निरगतिः, आको, भयं. जुगुप्सेनि पद । नासादिगा य उद्दोपा इति प्राधिका पाठ. I माया का अशोना सा । अंतरंग परिग्रहोंका वर्णन अर्थ-जीवादि पदार्थों के सत्य स्वरूपपर श्रद्धान न करना मिथ्याव है, स्त्रीवेद, पुरुषवंद और नपुंसक वद एम बंदकर्मके तीन भेद हैं, स्त्रीवद कर्मका उदय होनेसे जीवको पुरुपमें अभिलाषा होती है. पुरुपवेद का उदय होनस स्त्री अभिलाषा होनी है. व नपुंसक वदसे स्त्री और पुरुष दोनोम अभिलापा होती है. हास्य, रति. अरति. शोक, भय, जुगुप्सा. ऐसे छह दोष है, क्रोध, मान, माया और लोभ ऐस चार कषाय हैं. मब मिलकर अंतरंग परिग्रहके चौदह भेद होते है. वाहिरसंगा खेत्तं वत्थं धणधण्णकुप्पमंडाणि ॥ दुपयचउप्पय जाणाणि चेव सयणासणे य तहा ॥ १११९ ॥ क्षेत्रं वास्तु धन धान्यं द्विपदं भ चतुष्पदम् ।। घानं शय्यासनं त्रुप्यं मांडसंगा पहिर्दश १.६ ।। विजयोदया-शाहिसंगा नहापरिग्रहाः धर्म कार्याधिकारी नारन नह। धग धादि । धरण शन्य जीयादि । कुष्य कुटये वस्त्रं । मडमांडशन द्विगुपरिचाधिक मुच्या दुरदशदम दासदासीभृत्यवादि । बइपय गजग्गादयश्चतुष्पदाः । जागाणि शियिकाधिमानादिकं यानं । सयणासणे शयनानि आसनानि च। Elemer Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भावा ११२६ यायग्रंथाः कनि सन्तीत्याह-- मलारा--दत्तं कर्षणाधिकरणं । पत्थु वास्तु गई ! भगा धनं सामसदाधि - साहादि। कुरुप कुप्यं यसकंबलादिकं । भंड भांडं हिंगुमरीचादिकं । दुपद द्विपद वासीदासादिभृत्यवर्गादि । चप्पद चतुरुपदं गजनुरगादि । जाणाणि यानं शिविकामरविमानादि । सयणासणाणि शय्याविष्रादि । एते दश ॥ अर्थ- बाह्य परिग्रहके दस प्रकार हैं. उनका खुलासा:- खत्त-अर्थात् क्षेत्र जहां धान्य उत्पन्न होता है, बत्थ-वास्तु घर. धण-सुवर्णादि धातु. धान्य-चावल, गेहू, चना वगैरह- कुप्य यस्त. भांड-हिंग, मीरच वगैरह. दुपद-दास, दासी, नोकर वगैरह. 'चउप्पय-हाथी, घोडा, बैल इत्यादि. जाण-यान-पालखी, विमान इत्यादि. शयन-बिछाना. आसन-पलंग वगैरह. ये दस प्रकारके बाह्य परिग्रह है.. बाह्यमलमनिराफस्याभ्यंतरकर्ममलं शानदर्शनसम्यकवचारित्रवीर्याव्याधाधयानामात्मगुणानां छादने व्यापृतं म निराकर्तुं शक्यते इत्येतद्दष्टांतमुखेनाच - जह कुंडओ ण सक्रो सोधेदुं तंदुलस्स सतुसस्स ॥ तह जीवस्स ण सक्का मोहमलं संगसत्तस्स || ११२० ।। नाभ्यंतरः ससंगस्य साधोः शोधयितुं मलः ॥ शक्यते सतुषस्येव नंदुलस्य कदाचन । ११५७ ।। घिजयोदया-जह कुंडओण सभा तुषसहितस्य नंदुलम्यान्त मलं | वाह तुषे नपनीते यथा शोधयितुमशक्यं । तथा वामपरिग्रहमलसंसतम्याभ्यंतरकर्ममलं अशक्यं शोधयितुमिति गाथार्थः । सपरिग्रहस्य करमान्न कर्मविमोक्षी? जीवाजीवद्रव्ये बाशापरिग्रहशदनोच्यते ॥ तो च सर्वदा सर्वत्र सन्निहिताविति यंधक पवायमात्मा स्वादिति पर्व च मुफ्त्यभाव रति चोदिते, न तशः सेवेधहेतुरपि तु लोभादयः परिणामाः । लोभादिपरिणामहतुकं बाह्यद्रव्यग्रहणं ॥ ननु च मिथ्यात्यादयोऽन्तरंगसंगा एवं जीयस्य कर्मबंधने हेतवस्तकिमर्थ बहिरंगसंगपरित्यागोऽयमुपदिश्यत इति पर्यनुयुजानं प्रत्याह-- मूलारा-कोंडओ अन्तर्मलः । कुकुस इति यावत् । ण सको न शक्यते । सोधेदु निराकतु । संगसत्तस्स बायपरियाहसक्तस्य । बाह्यद्रव्यमणस्य लोभादिपरिणामहेतुकत्वालोमादिपरिणामस्य पापरापरकर्मणधनिबंधनत्यान केना ११२६ Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना आभास १६२७ प्युपायेन समंधस्यात्मनः कर्मोग्छेदः कर्तुं शक्यते इति भावः ।। बाह्य मल जबतक दूर न किया जावेगा तबतक ज्ञान: दर्शन, सम्यक्त्य, चारित्र, वीर्य और अध्यायाधत्व । बगैर आत्मगुणोंको ढकनेवाला अंतरंगमल दूर करना अशक्य है. इसका दृष्टांत द्वारा स्पष्टीकरण करते हैं ___ अर्थ--उपरता दर ना निकाल दिला गाव जमल नट नहहोना है. वैम बाह्मपरिग्रह रूप मल जिसके आन्माम उत्पन्न हुआ है एसे आस्माका कर्ममल नए हाना शक्य नहीं है. ऐसा इस गाथाका अभिप्राय है, प्रश्न-परिग्रहसहित जीवको मोक्षकी प्राप्ति क्यों होती नहीं जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य य बाह्य परिग्रह है. और ये दो दय्य मशा रहत ही है. इसलिये यह आस्मा सर्वकाल कमबंधसे बद्ध ही रहेगा. और सर्वकाल बद्ध होनम उसको मुक्ति का अभाव ही होगा. उत्तर-जीव और अजीबका संबंध रहना परिग्रह नहीं कहलाता है, परंतु लोभादिक परिणाम कर्मका संबंध होने में निमित्त होत हैं. जब आत्मा लोभादिपरिणामों से युक्त होता है तब बाब परिग्रहका ग्रहण होता है. इमलिये जो मनुष्य बाह्य परिग्रहको ग्रहण करता है वह मनमें लोभादिक परिणामोंके विना ग्रहण नहीं करता है. अर्थात लोभादिक विकार जब आत्मामें उत्पन्न होते हैं तब आत्मा गद्य परिग्रहका स्वीकार करता है. - अतो पो चामुपारत्तेऽभ्यंतरपरिणाममंत्तरेण नयादत्ते इति वदति रागो लोभो मोहो सण्णाओ गारवागि य उदिण्णा ॥ तो तइया घेत्तुं जे गंथे बुद्धी णगे कुणइ ॥ ११२१ ॥ उदीयते यदा लोभो रागः संज्ञा च गारवं ।।। शरीरी कुरुते बुद्धिं तदादातुं परिग्रहम् ।। ११५८ ।। विजयोदया-भागो ग्लोमो मोहो समदं भात्रो रामः, द्रध्यगमुगासक्तिलौभः, परिग्रहेच्छा मोहो । ममेद भावः संज्ञा । किंचित् मम भवति शोमन मिति इच्छानुगतं ज्ञानं । नीवोऽभिलापो यः परिग्रहगतः स गौरवशद्धनोच्यते। एते यदोदिताः परिणामास्तदा प्रेथान्यायान् ग्रहीतुं मनः करोति नान्यथा । तस्माद्यो बाह्य गृहाति परिग्रहं स नियोगतो लोभायशुभपरिणामथानेवति कर्मणां बंधको भवति । ततस्त्याज्याः परिग्रहाः ॥ ११२७ Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवना आश्रास ११२८ team-/ .Lessuna A+A+ CAMATTATRAPALTASBIRe- Aa+PARAMPARANORAKPBM मतदयाह भाग--ानी गरमः । सानाकरमानन्यगता क्तिः । मगज्ञा पकरणदशनजामा रग्रामिपिन कमी भने अनिच्छानुन नथा ज्ञानमित्यर्थः । गरबा: परिप्रदनाम्नीनाभिापाः । उदिष्णागि दिनानि । त तान आयानित्यर्थः । इन लोसरागी नया संहागौवे व्यक्तिवां गते ॥ वदा तदा बहिथान्यदीतुं कुरुते सति ।। ___ तस्मायो बाझं गृहाति परिमई स नियोगतो लोभाद्यशुभपरिणामवानेवति कर्मणां बंधको भयति । ततस्याज्या एव रायाः परिग्रहाः । कर्मबंधनिबंधनभूच्छानिमित्तत्यान् । तथा पोक्तम मुलक्षणकर पासुघटा व्याप्तिः परिप्रइत्यस्य ।। संप्रयो मूवान्विनापि फिल शेष संगेभ्यः । ययेयं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरंगः ।। भवति नितरां यतोऽसौ थत्ते मुर्छानिमित्वम् । एवमतिव्याप्तिः स्यात्परिमहस्येति चेवेनैषम् ।। यस्मादकथायाणां कर्मप्रहणे न मास्ति ॥ इसी अभिप्रायका आगेकी माथा खुलासा करती है अर्थ-रागभाव, लोभ, और मोह जब मनमें उत्पन्न होते हैं तब इस आत्मामें बाझ परिग्रह ग्रहण करनंगी बुद्धि, उत्पन्न होती है. अन्यथा नहीं. यह मेरा है ऐसा भाव मनमें उत्पन्न होना उसको राग कहते हैं. पदार्थों के गुणों में असक्ति होना ही लोभ कहलाता है. परिग्रहमें इच्छा उत्पन्न होना मोह कहा जाता है. ये पदार्थ मेरे हैं और अच्छा है ऐसा अभिप्राय रहना संज्ञा है. परिग्रहोंमें तीन अभिलाष उत्पन्न होना गौरव कहलाता है. ये परिणाम जब आत्मामें उत्पन्न होते हैं व यह आत्मा परिग्रहमें अपना मन लगाता है. उपर्युक्त परिणाम जब आरमामें उत्पन्न नहीं होते हैं तब परिग्रहका ग्रहण करनम वह उद्युक्त नहीं होता है. इसलिए जो बाह्य परिग्रह ग्रहण करता है वह नियमसे लोभादिक अशुभ परिणामोंसे घिरा हुआ है ऐसा समझना चाहिय, अत: उसको कर्मबंध - - Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलारापना होता है. जिसका मन कर्मबंधसे भयभीत है वह परिग्रहका त्याग करे ? यह परिग्रहका त्याग मनमें आया तब किया अन्यथा नहीं किया ऐसी स्येनहाचारप्रवृत्ति योग्य नहीं है. निश्चयमे परिरहका त्याग करना चाहिये. आचाम "२० mantra पहिल्यागी न वमपिकाचचितोऽपि निवपन फगव्यायपदिल्या - लादिसब्बसंगच्याओ पढमो हु होदि टिक्किप्पो ॥ इहपरलोइयदोस सत्रे आवहदि संगो ह ॥ ११२२ ॥ ग्रंथी लोकद्धये दोपं विदधाति यतेस्तनः । स्थितिकल्पो मतः पूर्व चेलादिग्रथमोचनः ॥ ११५९ ॥ विऊयोदया-बलादिसम्धसंगचागो नि दशविधा हि स्थितिका निरूपिता अचलखादयः । तत्र आधलक्य नाम चलमात्र त्यागो न भयति । किंतु चेलादिमवसंगत्यागः प्रथमः स्थितिकल्पो दशानामाघः । इहपरलोगिगदोस ऐहिकामुप्मिकांश्च दोपानायति परिग्रहो, यस्मात्तस्माजन्मवगतदोपहरणादरचता सकलः परि.अहम्त्यायः । इति भावः ॥ सप बामपरिग्रहत्यागो न स्वमनीषिकाचचितोऽपि तु निश्चयेन कर्तव्यत्तयोपदिष्ट इत्याचष्टे -- मूलारा-पढमो प्रागुतानामाचेलक्यादिस्थितिकल्पाना यशानामाद्यः । हि नियमेन । इहपरलोदयदोस ऐहिकानामुष्मिकांश्च दोषानपकारकधर्मान् । हु यस्मात् । तस्माजन्मदवगतदोषपरिहारे आदरवना मकरः परिग्रहस्त्याज्य इनि भावः ॥ आगममें परिग्रहका त्याग करनका उपदेश किया है वह इस प्रकार अर्थ-आचलक्क, उद्देसिग वगैरह दश प्रकारका स्थितिकल्प पूर्व में कहा है. आचेलक्य नामक कल्पमें वस्त्रकाही त्याग करने का उपदेश दिया है ऐसा नहीं किंतु वस्त्रादि सवे परिग्रहका त्याग अचेलक्य शब्दका अर्थ है. 'आचलक्य कल्प' दम कल्पों में प्रथम गिना है. पग्निहस इहलोकसंबंधी और परलोकसंबंधी दोष उत्पन्न होत है. परिग्रहसे यह मेरा है. यह भेग है एसा संकल्प जिस चीज में होता है उसका संरक्षण करना, संस्कार करना इत्यादिक कार्य करने पड़ते है. रक्षणादिक करते समय हिंसा होती है. उसके लिये झूठ बोलता है. चोरीभी करता है. मेथुनकार्यमें प्रवृत्ति करता है. इस परिग्रहसे अशुभ परिणाम होते हैं. नरकादि दुर्गतिका बंध होता है. और Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाश्चात उसका फल नरकादिगतिओं में विविध दुःखरूप प्राप्त होता है, इ[लोक और परलोकके दोषोंका परिहार हो ऐसी अभिलापा जिनके मन में उत्पन्न हुई है वे मंपूर्ण परिग्रहोंका त्याग करे. ऐसा इस विवेचनका अभिप्राय है. धुतं चेलपरित्यागमेव मूति आत्रेलासमिनि न इतरल्यागभित्याशंकायामाच देसामासियसुत्तं आचेलकति तं खु ठिदिकप्पे ॥ लुलोत्य आदिसद्दो जह तालपलंबसुत्तम्मि || ११२३ ।। उद्देशामर्शक सूत्रमाचेलक्यमिति स्थितम् ॥ स्लुप्तोऽधवादिशब्दोऽन तालपालम्बसूत्रवत् ॥११६० ।। विजयोदया-वेसामासिंगसुसं परिग्रहकदेशामर्शकारिसूत्र बाचेलकति आचेलषयमिति । तं खु तत् । ठिविकप्पे स्थितिकरूपे पाच्य प्रवृसं सूत्रं नियोमतो मुमुक्षूणां यत्कर्तध्यतया स्थित तस्थितमुच्यते स्थितिकल्पः । स्थितप्रकारः । एतदुक्तं भवति-चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षपा, सेन सकल ग्रंथत्याग आवेलपयशम्यस्यार्थ इति । तालपलंयंपाकापदिति सूत्रे तालशयो न तविशेषचचमः किंतु बनस्पत्येकदेशस्तपिशेष उपलक्षणाय वनस्पतीनां गृहीतं । तथा चोक कल्पे-- हरितनणोसहिगुच्छा गुम्मा घल्लीलदा य रकप्ता य॥ पचं यणपकदीमो तालोहसेण आदिहा । इति । तालेदि दळेदित्तिव तलेख जावेत्ति उस्सिदो यत्ति ॥ तालाविणो तरुलिययणकठीण यदि पााम प्रलंयं द्विविध मूलप्रलं, अग्रप्रलंचंच कंदमूलफलायं, भम्यनुप्रवेशिकंवमलप्रलयं, अंकुरप्रचालफलपत्राणि अनप्रलंयानि | नालस्य प्रलंग तालमलं वनस्पत कुरादिकं च लभ्यत इति यथा सुधार्थस्तथेहापीति मम्यते । अधया सुप्तोथ आदिशदो ट्रनाथ सभे आदिशध्दः । अचलादिम्बमिति प्रासे । यथा तालपलंत्रमुनम्मि यथा नालप्रलंबसूत्र । नालादीनि शब्दप्रयोगमाया नाटपरंवामिन्युक्तं । नथाचीन गिजांतदिति निश्चय नय सरकारेण देशमर्शकगूत्रं हाननं । आदिशब्दलोपोऽध हालालेवसूर्य न तु देशाप्रर्शक भवन नि || ननु च आचेठक्कुटमिय इत्यादि सूत्रे वस्त्रमावत्याग एक ज्ञायते तत्वान्न पुगरिनरस्त्यागस्तरकथ मुच्यते " चेलादि सव्वसंगच्चाओ पहमो हु होदि ठिदिकापो' इत्यत्रा --- मूलारा--देसामासिय इत्यादिस्थितिकरूपे वाच्ये तत्प्रथमतयोपादिष्टमाचेलक्यमिति सूत्रं वेशामर्शक । बाह्य ११३.. ना Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचाम: मलाराधना परिप्रदेकदेशस्य नेलस्य परामर्श याापरिप्रहाणामुपलक्षणाथ उपास। यथा तालपलबंण कप्पदित्ति सूत्रे तालशब्दो बनरपवेशस्य पालयस्य परामर्शको बमस्तानां उपलक्षणाय गृहीतः । तथा चोक्तं कस्पेहरिदतणोसधिगुच्छागुम्मा बल्ली लदा य रुक्सा य ॥ एवं वणवीओ तालादेसेण आविठ्ठा । तालेदि दले दित्तिय सलेब जादोत्ति उसिदो वत्ति ।। तालादिणो तरुत्तिय वणफदोणं यदि णाम ।। तालस्प प्रलंब तालप्रलंबं । पलंग च द्विविधं मूलप्रलय, अम्रप्रलं च । तत्र मुठप्रलये भूम्यनुप्रयशि कंद मटांकुरादिकं । ततो अन्यत्र प्रलयं अंकुरप्रवालपपुष्पफलादिक । वनस्पतिकदादिकम नुभोक्तुं निप्रथानाभायर्याणां च न युज्यते इति । यथा । तालपटबं ण कप्पदिति इत्यत्र सुत्रेऽर्थस्तथा सकलोऽपि याह्मः परिग्रहो गुगुक्षणां ग्रहीतुं न युध्यते इत्याचेलकति मनऽर्थ इति नात्पर्य । अधचा लुत्तोत्थ आदिसरो लुमोऽत्रादिशब्दः । अत्र आचेलक्कति मूत्रं माल प्रलंय सूत्रबदादिशब्दो लुप्रो त्रोद्भूयः । यथा तालादीति शब्दप्रयोगमकृत्वा तालपरबभिन्युक्तं । तथा आचेलादिकन्यमिति हाब्दप्रयोगमफत्वा आवेलक्यमियुक्त इत्याशयः । अन्ये स्वयं प्रतिपन्नाः देशो भूच्छालक्षागस अंतरंग यदि रंगभेदभन्नस्य परिग्रहस्यैकदेशो याह्यः परिग्रहः तत्परामर्शकमाचलक्यमिति मूी कर्तव्यनयावधारितं । शेषं समानं । तया चोक्त तद्देशामर्शक सूत्रमाचलक्यामिनि स्थितम ।। टुमोऽथवादिशब्दोऽत्र तालप्रलंबसूत्रवत ॥ आचेलक्य शब्दका अर्थ वस्खमात्रका त्याग ही है ऐसा आगमका आभिप्राय है इतर परिग्रहका त्याग करना चाहिए एसा आगम कहता नहीं है. इस शंकाका उत्तर आचार्य कहते हैं अर्थ-दस प्रकारके स्थिति कल्पों में से आचलक्य नामक पहिला स्थितिकल्प है. आचेलक्य शब्द परिग्रहके एक देशका विचार दिखानेवाला सूत्र है. मुनिओंके स्थिति का कर्तव्य कर्मका प्रतिपादन करनेवाला यह सूत्र है. इसलिए इसको स्थितिकल्प कहते हैं. आचलक्य अर्थात् नम्रता धारण करना मुनिका कर्तव्य ही है इसलिए इसको स्थितिकल्प कहते हैं. इसका अभिप्राय यह है- चल शब्द परिग्रहका उपलक्षण है. अतः चेल शब्दका अर्थ वस्त्र ही न समझकर उसके साथ अन्य परिग्रहों का भी ग्रहण करना चाहिये अर्थात् आचलक्य शब्दका अर्थ वस्त्रका त्याम इतनाही नही है किंतु वस्त्रत्यागके साथ अन्य संपूर्ण परिग्रहका त्याग माना जाता है. इसके लिये Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना স্বাস্থ্য || आचार्थने तालपलंबका उदाहरण दिया है. तालपलंब इस सामासिक शब्दमें जो ताल शब्द है उसका अर्थ ताहका वृक्ष इतनाही लोक नहीं समझते हैं किंतु बनस्पतिका एकदेशरूप जो ताटका वृक्ष वह वनस्पतिओंका उपलक्षण रूप समझकर उससे सम्पूर्ण वनस्पतिओंका ग्रहण करते हैं. ___कल्पनामक ग्रंथमें इस विषय में ऐसा कहा है 'हरिद तणोसधि' इति .... " हरित, नृपा, फलकी पक्कदशा होने तकही टिकनेवाली वनस्पतिको औषधि कहते हैं. गुच्छ, गुल्म-छोटे छोटे पोधे, वेली, कोमल वृक्ष, वगैरह बनस्पतिओं का ताल शब्दसे संग्रह होता इमलिये ताल शब्दसे संपूर्ण वनस्पतिका जैसा संग्रह माना जाता है पैसा 'आचलक्य' याबदस संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग यह अर्थ उपलक्षणसे ग्रहण किया जाता है. 'तालप्रलंघ' इस शब्दमें जो प्रलंब शब्द कहते है उसका स्पष्टीकरण ऐसा है- प्रलंबके मूलप्रलंब. अग्रप्रलंब ऐसे दो भेद हैं. कंद मूल और अंकुर जो भृमीमें प्रविष्ट हुये हैं उनको मूलप्रलंब कहते हैं. अंकुर, कोमल पत्ते, फल, और कटार पने इनको अग्रालंब कहते हैं. अर्थात् तालप्रलब इस शब्द का अर्थ उपलक्षण वनस्पति ओंके अंकुरादिक ऐसा होता है. सालमलंब शन्दसे जम संपूर्ण वनस्पतिआंके अंकुगदिकका ग्रहण हो जाना है वैसे प्रस्तुत विषय भी आचेलस्य शब्दका गंपूर्ण परिग्रह-त्याग यह अर्थ अभीष्ट है. अथवा यहां आदि शब्दका लोप हुआ हे एगा समझना चाहिये. अधीन अचल शब्दक आगक आदि नन्दका लोप हुआ है. 'अंचलादित्य के ख्वज में अल शब्दका प्रयोग कर आदि शब्दका लोप किया गया है. नालपलंब इस सत्र में तालादि ऐसा शब्दप्रयोग न करके तालपलंब ऐसा कहा हैं. सिद्धांतके आधारसे आचलक्य सूत्र का आचार्यन देशामर्शक सूत्र कहा है परंतु यहाँ आदि शब्द लुम हुआ है ऐसा जब मानते हैं. तब यह सूत्र देशामर्शक नहीं है ऐसा समझना चाहिये, MAN ११३२ ण य होदि संजदो बत्थमित्तचागेण सेससंगेहि ॥ तह्मा आचेलक चाओ सबोस होइ संगाणं ॥ ११२४ ॥ Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास पृलाराधना ११३३ Amew o manamonam चलमात्रपरित्यागी शेषसंगी म संगतः ॥ यतो मतमचलत्वं सर्व ग्रंथोज्झनं ततः ॥ ११६ ॥ विजयोदया- यहोदि संजदो नन संयतो भवति इति । बत्रमाश्रयागन शेषपरिनटसमन्विनः । यत्रादयः शेषः इत्युच्यते । आचलमित्यत्र चलत्यागमात्रमेव यदि निर्दिष्ट स्यायनादम्याग्यि, गृहन मयनः स न भवति एस्मामस्मादाचलक्यं नाम सर्वसंगपारस्यागोऽन मनव्यः इति युतिरूपन्यस्ना इलाम परिग्रहोपलक्षणतायां । किन महायतोपंदशपवृत्तानि च सूत्राणि ज्ञापकानि । सर्वमंगपरित्याग आचलकमित्य निर्दिश स्यम्य ॥ वेल शब्दम्य सकलबाहापरिग्रहीपलक्षणतायां बुन्किनुपम्यस्यनि गुलारा-सेसमंगे। वनवजगरिग्रहै: ममन्विती मुनुवयनमात्रन्यागन गंको मेव भवनि । ममम्तनोनो हि संयन इन्युच्यते स कथं वनमा त्यजन् नत्वनो च्यपदिश्यते । नम्माहाचलक्यं सदसगपरित्यागः । आचलक्येत्यत्र मूत्र निर्षिष्ठ इत्यस्याथम्य ।। अर्थ--वस्त्रमात्रका त्याग करने पर भी यदि अन्य परिग्रहों में पुरुष युक्त है तो उसका संयत मुनि नहीं कहना चाहिये. अर्थात वनके साथ संपूर्ण परिग्रहत्याग जिसने किया वही मुनि माना जाता है इसलिय आचलक्यका" अर्थ संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग ऐसा ही होता है. आचलक्य शब्दका वस्त्रत्याग इतनाही अर्थ माना जाय तो बस छोडकर अन्य सब परिग्रहोंका स्वीकार करनेवाला व्यक्ति मुनि माना जायगा-इसलिये संपूर्ण परिग्रहोंका स्याग ही आचलक्य शब्दका अर्थ है ऐसा उपलक्षणसे समझना चाहिये. महात्रतोंका उपदेश देनेवाले सूत्रोंस भी 'आचलक्य' शब्दका अर्थ सर्वसंगत्याग है ऐसा सिद्ध होता है. यदि वस्त्रका ही त्याग किया और बाकी परिग्रहाँका त्याग नहीं किया तो अहिंसादि व्रतसमुदाय मुनिऑमें नहीं रह सकेगा. कथं यदि चेलमाप्रमेव स्याउ म्यानेतर अहिमादिनतानिन इन्यवानष्ट उत्तरगाथायां संगणिमित्तं माग्इ अलियवयणं च भणइ तेणिक् ॥ भजदि अपरिमिदमिच्छं सेबदि मेहुणमवि व जीत्रो ॥ ११२५ ॥ परिग्रहार्थ प्राणहन्ति देहिनो बदल्यसत्यं विदधाति मोषणं ।। निषेवते स्त्री श्रयते परिग्रहं न लुब्धबुद्धिः पुरुषः करोति किम् ।। ११६२ ॥ - Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः ११३४ विजयोदया-संगणिमित्तं मारेदि परिग्रहनिमित्तं प्राणिनो हिमस्ति पदमप्रवृत्तः। अथ द्रव्यं परकीयं ग्रहीतु जाससंदिगरिस, मनपरक करीत स्तन्य, भजत अपरिमितामिच्छां, मैथुने च प्रवर्तते । सत्येवमहिंसादिवतानि न स्युः । परिग्रहस्य च त्यागे तिष्ट्रति निश्चलायाईसादीनि । कथं यदि चेलमात्रमेव त्याज्यं स्यामान्यत्तवा अहिंसादिवतानि न स्युरिति ॥ एतयाख्यातुमाह मूलारा-मारंदि हिनस्ति प्राणिनः पट्कर्मसु प्रवृत्तेः । परद्रव्यं वा ग्रहीतुकामस्त हिनस्ति । अपरिमिन्दं अपरिमितामिच्छो । निरवधितृष्णामित्यर्थः । एवंध सति कधम हिंसारिव्रतानि स्युः । समप्रथपरित्यागमुतानि निक्षलानि तिष्टत्येच क्षोभनिमित्ताभावान् ॥ यही अभिप्राय आगेकी गाथामें आचार्य कहत है अर्थ परिग्रहके निमित्तसे यह जीव आसि, मषि, कृषि आदि छह कर्म करता है जिससे जीवोंकी हिंसा होती है. दूसरेका धन हरण करने की इच्छासे उसका घात करता है. असत्य भाषण बोलता है. चोरी करता है. मनमें अमर्याद इच्छा धारण करता है. तथा मैथुन में प्रवृत्त होता है. परिग्रह के वश होनेसे ऐसे पापोंको यह जीव करता है तब उसके हिमादिक वन कैसे हो सकते है. जब परिग्रहीका त्याग होता है तब ही अहिंसादिक व्रत निश्चल हो जाते हैं. अपि चाशुभपरिणामसंवरणमंतरण प्रत्यग्रकर्मोपचयः कथं निवार्यते । प्रत्ययकापचयन कर्मणां संवानंतकाला. संसतिरित्यनञ्चतास करवा परिग्रहणमाबिनोऽभान्परिणामानाच सण्णागारवंपसुण्णकलहफरुसाणि णिहुरविवादा ।। संगणिमित्तं ईसासूयासल्लाणि जायंति ॥ ११२६ ॥ संज्ञागौरवपैशुन्यविवादकलहादयः ।। दोषा ग्रंधेन जन्यते दुर्नयेनेच सर्वदा ॥ ११६३ ।। विजयोदया-सण्णागारवपेमुग्ण परिप्रहसंक्षा तत्सन्निधौरवं च जायसे सपरिग्राहस्य। पिधनयति सूचयति परदोषानिति पिशुनस्तस्य कर्म पैशुन्य । परिग्रहवानारमनैव स्वधनपरिपालनेच्छुः परस्य दोषान्प्रकाश्य तदीयं धनं ११३४ Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ११३५ हारयति, कलहं वा करोति । धनायें परुषं वचो बदति विवाद वा कुर्यात्, ईष्यास्याशल्यानि च जायते । अयमेतमै प्रयच्छति इति संकल्प ईर्ष्या । परस्य धनवत्तासहनमसूबा ॥ परिमाणोऽनवसंसृतिविश्रम शुभ परिणामभप्रवृत्तिमनर्थपरंपरं च व्याकर्तुमुत्तरप्रबंधमाह - मूलारामण्णा परिचा गारव द्विगौरवं । सपरिग्रहम्य च जायेते । पेण परदोषसूचनं । प्रथमहावि श्री हि स्वनरक्षार्थी परस्य होतान्प्रकाश्य वनं नृपादिना धारयति कलहं वा करोवि धनार्थ वा वचो वक्ति, निष्ट विवाद वा करोति । ईसा ईर्ष्या । अयमेतस्मै प्रचच्छति न मझनिति संकल्पं असूया परसंपत्तासहनम् । यदि अशुभ परिणामका संवर न होगा अर्थात् अशुभ परिणाम यदी नहीं रोके जायेंगे तो नवीन कर्मोंका आगमन नहीं रुक सकता है. नवीन कमका आगमन होनसे फिर संसार अनंतकालतक रहेगा ही. परिग्रहके सद्धामें अशुभ परिणाम होते हैं और संसार दीर्घकालका होता है ऐसा विवेचन आग गाथामै आचार्य करते हैं अर्थ- परिग्रहसंज्ञा का उदय होनेसे आत्मा में परिग्रह के प्रति अभिलाषा उत्पन्न होती है. तदनंतर मैं बड़ा ऐश्वर्यशाली हूं ऐसा अभिमान उत्पन्न होता है. परिग्रहसे मनमें दुष्टपना उत्पन्न होता है. अपने धनका संरक्षण करने में वह सावध रहता है. और दूसरेके असावधानतादिक दोष देखकर उसका धन दूसरोंसे हरण कराता है. कलह करता है- धनके लिये कठोर भाषण करता है. तथा विवाद करता है. इस परिग्रहसे ईर्ष्या, असूया और कपट ये दोष उत्पन्न होते हैं. यह पुरुष इसको धन देता है मेरेको धन नहीं देता है ऐसा भाव उसके मन में उत्पन्न होता है. यह ईर्ष्या दोष है. दूसरोंका धनिकपना सहन न होना असूया दोष है. परवन हरण करनेके लिये उसको ठगना मायाशल्य कहते हैं. कोधो माणो माया लोभो हास रइ अरदि भयसोगा || संगणिमित्तं जायइ दुर्गुच्छ तह रादिमत्तं च ॥ ११२७ ॥ क्रोध लोभ भयं मायां विद्वेषमरतिं रतिम् ॥ द्रविणार्थी निशाभुक्तिं विदधाति विचेतनः ॥ १९६४ ॥ विजयोश्या - तदा कोधी माणो क्रोधः परिग्रहस्तस्य परिणामोऽदाने जायते । धन्योऽहमिति गर्वितो भवति । आश्वासः ६ ११३५ Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROMASTERamera मलारना आश्वासः ११३६ SAAR परो धन रष्ट्या गृहानाति मनिगूहनकरणमाया च भवति । पाणिलाभे कापोपण बालति । तलया कापणमहनादिकमिति लोभस्य हेतुर्दपलायः । निर्देविण लोको हेससीलि हासस्यापि कारणे । द्रव्यमात्मीयं पश्यतः तनानुरागो रतिः । तहिनाशे रतिः । तदन्ये दरंति इति भयं । शोको पा । जुगुप्सते या विरुप । परिप्रहपरिपादनाथ सावपि भुले। मदीयं भोजन परे दृष्टूपाधिनो भति इति मन्यमानः मूलारा-क्रोधो अंथे परेण गृपमागे जायते । माणो धनाढ्योऽहमिति गर्वः । माया परो धन दृष्टं गुहाति अति तभिगृहनकरणायन । लोभो काकण्यादिलामे कापिणादि के काभतीति । द्रव्यलाभालोमः प्रवर्तते । हस्स हास्य धनिनो निर्धनं दृष्टवा हसतः स्यात् । रदि स्वधनं पश्यतस्तत्रानुरागः । अरदि धनविनाशे कश्चिदपि चित्तस्यानवस्थान । भय धनमन्य हरन्तीति भीतिः । सोगा शोको धनबिच्छेथे मनस्तापः । दुगुछ विरूपके परिग्रहे जुगुप्मा । धनार्थत्याद गुणिनामपि राजादिछंदानुवृत्या निवनं । रादिमत मदीयं भोजन दिया परे हरंतीति तद्रनाथ नक्तमुक्तिः । स्वाम्याविछंदा नुत्या पादून सौ मुतिः । अर्थ- परिग्रहवान मनुष्यको धन देते समय क्रोध आता है. परिग्रह पास होनेसे मैं धन्य हूं एसा अभिमात्र उत्पन्न होता है. मेरा धन देखकर अन्य पुरुष हरण करेगा इस विचारसे उसको छिपाता है. यह माया दोप है. काकणिका का लाभ होनेपर काषापाणका लाभ होनेको इच्छा करता है. वह भी मिलनेपर हजारो कार्षापणकी पाप्ति मर को कब होगी ऐमा विचार उसके मन में उत्पन्न होता है. अतः द्रव्य का लाभ हाना लोभका हेतु है. जो दरिद्री है उसको देखकर लाक हमन है. अनः यह धन हास्यका तु है अपने धनकी वारंवार दंग्यकर परिग्रहवान उमति -यामति करता है. उसका विनाया होनपर बह दुःखी होता है. मेराधन नुसर हरण करंग एगी भावना उत्पना होकर भय उत्पन्न होता है अथवा शोक भी उन्पा होता है. परिग्रहका रक्षण कानेके लिए वह रात में भी भोजन करता है. क्योंकि मैं यदि दिनमें भोजन करूंगा तो याचक लोग मांगंग एसी उसकी समझ रहती है. -- maa गंथो भयं जगणं सहोदरा एयरत्थजा जेते ।। अण्णोणं मारेढुं अत्थणिमित्तं मदिमकासी ॥ ११२८ ॥ Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वास me । ग्रंथो महाभयं नृणामेकरथ्ये सहोदरी ॥ ग्रंधार्थ हिंसि बुट्टियलो-काष्टा परस्परम् ।। ११३५ ।। विजयोदया-गंयो मरं चरणां: गनुभपलशस्थ कर्मणः उववादुपत्रानः परिणाम आत्मनो मर्यन बास्तु' शनादिको गोथः तथाभूतस्ततः किमुक्याने ग्रंथो भयमिनि. भयहेतुत्वादयमिति सदोषः । महोदरा पको प्रसवा अपि संतः पयरत्यजा प्रकरथ्यनगरे जाताः । यस्मात् । ते अपयोग माग्टुं अन्योन्य जन्तुं । अन्धणिमिस वसुनिमिर्श मदिमकामी युधि कृतर्पतः। मंथस्य भयहेतुत्यम ग्ल्यानेन रुदापयति-- मूलारा-भयं भयहेतुः । सहोदरा एकोणप्रभवा अपि सन्तः । एयरस्थया एकरचे नगरे जाताः । जे यस्मात् ते प्रसिद्धाः । मदिमकासी मसिमकार्षः । चित्तं कृतवन्त इत्यर्थः । अत्रान्ये द्वित्त्वमिच्छन्ति अर्थ-परिग्रहसे मनुष्यमै भय विकार उत्पन्न होता है, शंका-भयनामक कर्मके उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होता है उसको भय कहते हैं. वास्तु क्षेत्रादिक परिग्रह भयरूप नहीं हैं. इस लिये परिग्रहको आप भय उत्तर-भयके लिये परिग्रह कारण है इस वास्ते उसको हम भय कहते हैं. एक माताके उदरम उत्पन्न हुए भाई भी एकरथ्या नामक ग्राममें अन्योन्यको मारनके लिये उद्यत हुये थे यह विचार करके बुद्धिमान लोक परिग्रहमें अभिलाषा नहीं रखते हैं, अत्थणिमित्तमदिभयं जादं चोराणमेक्कमेक्केहिं ।। मज्जे मंसे य विसं संजोइय मारिया जं ते॥ ११२९ ।। नस्कराणां भयं जातमन्योन्यदक्षिणाधिनाम् ।। भयो मांस विषं घोरं यतः संयोज्य मारिताः ॥ ११०६ ।। विजयोदया-अत्यणिमित्त अदिम जाद अतीव मयं जातं । चोरण रक्कमेकाद। चौराणामन्योम्यैः सह । मज्जे मंसे य विसं संजोदय मधे मांसेच विर्य संयोज्य मारिदा जे ते यस्माते मारिताः ॥ आख्यानांतरेण तदेवाह - Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १२३८ मूलारा एकमेकेहि अन्योन्यैः कर्तृभिमीरिताः । अन्योन्यतोऽतिभयं जातमित्यन्ये । संजोइय संयोज्य || अर्थ -- इस धनके निमित्तसे चार चोरोंको महाभय उत्पन्न हुआ था. अर्थात् इन्होंने मद्य मांस में परस्परोको मालुम न पडेगा इस प्रकारसे विष मिलाया था जिससे मध मांसका भक्षण करके वे लोग मरणको प्राप्त हुए. संगो महाभयं जं विडिदो सावगेण संतेण ॥ पुत्ते व अत्थे हिदम्मि णिहिदिल्लए साहूं ॥ ११३० ॥ संगो महाभयं यस्माच्छ्रावत्रेण कदर्धितः ॥ विहितेऽपहृते द्रच्ये तनूजने तपोधनः । ११६७ ।। विजयोश्या - संगो महाभयं परिग्रहो महद्भयं यस्मात् विद्वडिदो बाधितः । सावगेण संतेण श्रावण सता । पुत्रेण चैव पुत्रेणेव । जिहिदिगे अत्थे दिहि साहुं निक्षिप्तेऽर्थे ते साधु ॥ पुनरव्याख्यानमाह्— मुलारा - विहेडिदो कदर्थितः । पुत्रेण धावकस्यैव गिलिगे गर्तानिभिते ॥ अर्थ - एक श्रावक के पुत्रने अपने पिताका जमीन में गाड़ा हुआ धन हरण कर अन्य स्थानमें रखा थাजब उसको अपना गाडा हुआ वन नहीं प्राप्त हुआ तब उसके मनमें मेरा धन सुनिने लिया होगा ऐसा संशय उत्पा हुआ. क्योंकि मुनिको उसने चातुर्मास में अपने घरमें ही रहने के लिये आवास दियाथा. जब मुनि चातुर्मास समाप्त होनेपर विहार करने लगे तब इस श्रावकने अनेक प्रकारकी कवायें कहकर बाधा दी है. ये कथायें श्रेणिक पुराण में हैं. दूओ मण विग्घो लोओ हत्थी य तह स रायसूयं || पहियणरो वि य राया सुवणयाररस अक्खाणं ।। ११३१ ।। वरणउलो विज्जो वसा तावस तदेव वृणं ॥ रक्ख सिवण्णीडुंडुदुह मंदज्ज मुणिस्स अक्खाणं ॥ ११३२ ।। आश्वासः ४१३८ Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलागधना आवासः सीदुण्हादबादं वरिसं तण्हा छुहासमं पंथें ॥ दुसरोज दुज्झत्तं सहइ वहइ भारमवि गुरुयं ॥ ११३३ ॥ गावइ णच्चइ घावइ कसइ बबइ लवदि तह मलेइ गरी ॥ तुण्णदि विणादि जायदि कुलम्मि जादो विगंथत्थी ॥ ११३४ ॥ यर्थ यात क्षुधं सुरक्षा नापं शीतं अमं कम ॥ दर्भुक्त सहतेऽर्थार्थी भार वहति पुष्कलं ॥ ११६८ ॥ कषति दी यति सीव्यति विद्यते बपति पश्यति प्रस्पति याचन ।। धमति धावति बल्गति सवने सदनि ताम्यति मृत्यति गायते ॥ ११६९॥ पठति जल्पति लंगति लंपने हरति रुप्यति नश्यसि लिख्यति ।। रजति कस्यति दहति सिंचति मुहामि यंदते ॥ १.७० । श्वसिति रोदिति मायति लज्जते हसति तृष्यति दुप्यति त्यति । तुदति गृध्यति रज्यति सज्जते द्रविणलधापनाः कुरुते न किम् ॥ १९६१ विजयदया-गाननि गायति. नृत्यति, वात्रभिकाति, धपति, काणदातर कोति, गहनं करोनि. माव्यति, वयति. गावो कल जातीनिहा नोऽर्धाय यदुन र निकादिक यागेनि नाम ... मूलागीमानयवाई शीतनपान । प्राय सहते प्रति संबंधः । एला संस्कृत टीकाकारो नेच्छति । मूलारा--कसदि कृपति । जायदि याचते __ अर्थ-दुत, ब्राह्मण, व्याघ, लोक, हाथी, गजपुत्र. पथिक, राजा, और सोनार इनकी कथायें तथावानर, नौला, चैद्य, त्रैल, तपस्थी. नवन, सर्प ऐसी सोला कथाओंका वर्णन श्रेणिक, पुराणमें आया है. श्रावकने मुनिराजको आठ कथा धन उन्होनेही ग्रहण किया है ऐसे अभिप्रायसे कही थी. अनंतर मुनिराजनेभी तेरा धन मैने नहीं ग्रहण किया है इस अभिमायको पुष्ट करने के लिये कही थी. इसके अनंतर श्रावक पुत्रने पिताका धनकलश लाकर दिया तब उसका संदेह दूर हो गया. यह मनुष्य परिग्रहार्थ गाता, है, नाचता है, इधर उधर दौडता है, स्वेत हाल E momme वेसा वेळ तपस्वी नवन सर्व रेसी सोला काजीका वर्णन यणिकः पराणी आप जानन शनि । Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागधना गावाना से नांगरता है, उसमें बीज बोता है, धान्य पकनेपर, उसको काटता है, मलता है इतने कार्य परिग्रहका संग्रह करने के लिये करता है, इस परिग्रहके निमित्त ही मनुष्य कपडे सीता हैं, युनता है, और याचना करता है, कुलीन I होकर भी ऐसे ऐसे कार्य करता है. सेबई णियादि ग्बखइ गोमहिसमजावियं हयं हत्थि ॥ ववहरदि कुणदि सिप्पं अहो य रत्ती य गयणिहो । ११५५ ॥ आउवासस्स उर देइ रणमुहम्भि गथलोभायो । मगरादिभीमसावरवलं अधिगच्छदि समुहं ११३६ ॥ क्रीणाति बया व गोमहिप्यादि रक्षति ।। अर्थाधी लोहकाहास्थिस्वर्णकर्म करोति ना ॥ २ ॥ रुधिरकर्दमदुर्गममाहवं निशितशस्त्रविदारितकुंजरं ॥ हरिपुरस्सरजंतुविभीषणं भ्रमति वित्तमना गहनं वनम् ॥1 ॥ विपलवीचिधिगाडनभस्सलं मारपूर्षकवायरसंकुलम् । जलनिधि द्रविणार्जमलालसो विशति जीवितनिस्पृहमानसः ॥ ११७८ ।। बिजयोव्या-याजधवासस्स उर देव आयुधधर्मस्य उरो ददाति ! रणमुद्दे रणमुखे। गंथलोहारी र भान् मकरादिमीमध्वापद बटुलं प्रविशति समुत्रं । मूलारा-शिबादि चिंति निविणइ इति लोके । यबहरधि क्रयविक्रयादिकं करोति । सिपं लेपालिलविज्ञान । एतां श्रीविजयो नेच्छति । मूलारा--आउधवासस्स आयुधवर्षस्थ । झत्रपातम्येत्यर्थः । सायद वापसः । अतिऋरत्यर पाएनाकगदयोऽप्येवमुक्ताः । अदिगमछादि प्रविशति । अर्थ- यह मनुष्य माणी सेवा करता है, गौ. महिप. चकरी, भेडे, हाथी, घोडा वगैरह प्राणि ओंका रक्षण मापन Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुकारापना आश्वाम करता है. व्यापार करता है, शिल्पकार्य करता है. परिग्रहों की प्राप्ति हो इस लिये निद्राका भी त्याग कर इन' कार्यों में रात दिन तत्पर होता है. परिग्रहके लोभसे यह मनुष्य संग्राममें-युद्धमें शस्त्रोंकी दृष्टि अपने छातीपर होने देता है. अर्थात युद्ध में हजारो पाणोंकी वर्षा होनेसे उत्पन्न हुये अघातोंको सह लेता है. जिसमें मगर-क्रूर जलजंतु विचरते हैं ऐसे भयानक समुद्र में भी यह प्रवेश करता है। जदि सो तत्थ मरिज्जो गंथो भोगा य कस्स ते होज्ज ॥ महिलाविहिंसणिज्जो लूसिददेहो व सो होज्ज ॥ ११३७ ।। निधनमृच्छति तन्त्र यदेकको भवति कस्य तदा धनमर्जितम् ॥ विविधविघ्नविनाशितविग्रहो जनतयाखिलयापि जुगुप्सते ॥ ११७५ ।। लुनीते धुनीते पुनीने कृणीते न दत्ते न भुक्तेन शेते न बित्ते ।। सदाचारवृत्तेर्षहिनचित्तो धनार्थी विधेयं विधत्ते निकृष्टम् ।। ११७६ ॥ विजयोदया-जदि सो तत्थ मरिजो यद्यसौ रामुख्ने मृतिमियात् । ग्रंथा भोगाश्च ने तावत्कस्य भषेयुः । बनिताभिनिधः पिनष्टकरचरणाद्यवयधो भवेषयपि न मुमः । __ मूलारा-तस्थ रणमुखादौ । ग्था अर्धाः । महिलाविहिसणिजो स्वीणा निंद्यः । मिददेहो खडखंडीकृतशरीर. गन । यदपि न भृतस्तथापि दुर्भगो भवेदिति भानः ।। अर्थ- यदि यह प्राणी रणमें कालके गालमें चला गया तो सब परिग्रह और भोग पदार्थ किसके होंगे? । यदि युद्धमें वह नहीं मरा और हाथ, पाय वगैरह अंग टूटनेपर ऐसे मनुष्य की उसकी स्त्रिया निंदा करती हैं. गंथणिमित्तमदीदिय गुहाओ भीमाओ तह य अडवीओ। गंथणिमित्तं कम्म कुणइ अकादब्वयपि जरो ॥ ११३८ ॥ गिरिकदरदुर्गाणि भीषणानि विगाहते ।। अकृत्यमपि वित्ता कुरुते कर्म मृढधीः ॥ ११७७ ।। Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RA मूलाराधना आश्वास विजयोदया-गणिमित्तमदीविय मंथनिमित्तं प्रविशति गुहां । तथा भीमाश्चाटवीः । अंधनिमितं कर्म अकर्तव्यमपि करोति नरः। मूलारा-अदीदि प्रविशति । अर्थ-इस परिग्रहमें लुब्ध होकर उसके लिये भगकर गुवाओंमें प्रवेश करता है. इस परिग्रहके लिये अकतव्य भी कर पैठता है. सूरो सिक्खो मुक्खो त्रि होइ वसिओ जास्स सधणरस ॥ माणी वि सहइ गथणिमित्तं बहयं पि अबमाणं ॥ ११३९।। जायते धमिनो वश्यः कुलीनोऽपि महानपि ।। • अपमानं धनाकांक्षी सहते मानवानपि ॥ ११७८ ।। विजयोदया-सूरो तिक्त्रो मुक्यो वि शूरस्तीक्ष्णो मूर्मच चशपती भवति जनस्य सधनस्य । अभिमानवानपि सहते ग्रंथनिमित्तं अपि परिभवं। मूलारा-तिखो असहनः । मुक्खो मुख्यः । पसिओ वशवर्ती। अवमाणं परिभव ॥ अर्थ- शूर, तीक्ष्ण, और मूर्ख सब मनुष्य धनवानके वश हो जाते हैं. अभिमानी मनुष्य भी इस धनके I लिये घोर अपमान दुःख सहता है. गंथणिमित्तं घोरं परितावं पाविदूण कंपिल्ले ।। ललक संपत्तो णिरयं पिण्णागगंधो खु ॥ ११४० ॥ कांपिल्पनगरेऽर्धार्थ परिताप दुरुत्तरं ।। प्राप्य पिण्याकगंधो ऽगाललर्क नरकं कुधीः ॥ ११७९ ॥ विजयोदया--अस्थणिमित्तं वसुनिमितं महत् चुःखे प्राप्य । कोपिलेय कंपिल्लनगरे । लल्लकं ललकनामधेयं संप्रातो मरकं पिण्याकगंधसंशः ॥ पुनराख्यानमाह-- ११४२ Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P मूलाराधना CHH आवास: मूलारा-कंपिल्ले कांपिल्यनगरे । लल्लक लाम : तमामायां पारभूमी ततीयपस्तारं । उक्तं च-. हिमवदलललकास्त्रया पठ्यामपींद्रकाः | पिण्णागगंधो पिण्याकगंधसंज्ञः । अर्थ-- इस धनके निमित्त पिण्याकगंध नामक मनुष्य नरक-लल्लफ नरक चिलमें जन्म लेकर तीव्रतम दुःख भोगने लगा. एवं चेटुंतस्स वि संसहदो चेव गंथलाहो दु॥ ण य संचीयदि गंथो सुइरेणवि मंदभागस्त || १९४१ ॥ कुर्वतोऽपि परांचेष्टामर्थलाभो न निश्चितं ॥ संघीयते विपुण्यस्य नार्थो लब्धोपि जातुचित् ।। ११८० ॥ बिजयोरया--पर्व चेढुंतस्स चिप चे एमानस्यापि संशयित एवं ग्रंथदामः । न च संचयमुपयानि ग्रंथः ।। मुचिरेणापि मंदभाग्यस्य । तत्ताकर्मपरस्यापि पुण्याल्पत्वे धनालाभमाइमूलारा-संसइदो अनिश्चितः ।। अर्थ- ऊपर कहा हुआ प्रयत्न करने पर भी परिग्रहलाभ अर्थात् धनप्राप्ति होगी ही ऐसा निश्चय नहीं। है. जिसका भाग्य फटा है उसको दीर्घ कालसे प्रयत्न करने पर भी धनप्राप्ति होती नहीं है. - जदि वि कहंचि वि गंथा संचीएजण्ह तह वि से णस्थि । तिची गंथेहिं सदा लोभो लाभेण वढदि खु ॥ ११४२ ॥ नार्थे संचीयमानेऽपि पुरुषो जातु सृप्पति ॥ अपथ्येन यथा व्याधिोभो लाभेन बईते ॥ ११८१॥ विजयोदया-जवि वि यधपि कथंचित्केनचित् प्रकारेण प्रथाः संचयमुपेयुः । तथापि तस्य दाप्तिास्ति ग्रंथैः । सवालोमो लाभेन वरते ॥ .. ११४ Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजाराधना १९४४ अर्थोपचये तृप्त्यभावमाह- महारा— कथंचि केनापि प्रकारेण । संवीएजण्ड संचयमुपेयुः । लाभातु धनप्राप्तेः ॥ अर्थ — यद्यपि किसी प्रकारसे किसी उपायसे परिग्रहका संग्रह हुआ तथापि यह आत्मा उसके प्राप्तिसे तृप्त होता नहीं. क्योंकि सदा लाभ होनेपर परिग्रहोंसे लोभ बढताही रहता है. लब्धेऽपि ॥ जब इंधणेहिं अग्गी लवणसमुद्दो नदीसहस्सेहि ॥ तह जीवस्स ण तित्ती अस्थि तिलोगे वि लडम्मि ॥ ११४३ ॥ नदीजलैरिवाम्भोविधिनैरिव पावकः ॥ लोकाभिरपि प्राने जीवो जातु तृप्यति ।। १९८२ ।। विजयोदया - जय इंधणेहिं इंधनधानि यथा वा समुद्रो न तथा परिग्रहेर्न तृप्यति जीवलोक्ये मूलारा सष्टम् । अर्थ-जैसे लकडीओसे अग्रिकी तृप्ति होती नहीं. हजारो नदिओंके जल मिलने पर भी लवणसमुद्रकी प्यास नहीं बुनती है. वैसे त्रैलोक्य की प्राप्ति होनेपर भी इस परिग्रहोंके द्वारा जीव तृप्त होता नहीं है. पडहत्यरसण तित्ती आसी य महाघणस्स लुद्धस्स ! संगेसु मुच्छिदमदी जादो सो दीहसंसारी || १९४४ ॥ महाधनसमृद्धोऽपि पदहस्ताभिधो वणिक | जातस्तृप्तिमनासाथ लुब्धधीदर्घ संसृतिः ।। ११८३ ।। विजयोदया-- परस्स पटहस्तनामधेयस्य वणिजः न मिरालीत्तथा महाधन्यस्य लुग्धस्य । परिप्र मूच्छितमतिरसी जातो दीर्घसंसारः ॥ अथ लाभेनादौ सत्यां दोषमाख्यानेन स्फुटयति- आभार ११४४ Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FATE मनाराधना भावामा मूलारा-फडाहत्थस्स स्फटहस्तनाम्नो वणिजः । आसी जातः॥ अर्थ-पटहस्त नामक वैश्य नहा धनिक और अतीव लोभी था. इस परिग्रहसे उसकी तृप्ति दुई नहीं. इन परिग्रहोंमें लुब्ध होकर ही उसने प्राण छोडे और दीर्घ संसारी हुआ. तित्तीए असतीए हाहाभूदस्स घण्णचित्तरस ॥ किं तत्थ होज्ज सुक्ख सदा वि पंपाए गहिदस्स ॥ ११४५॥ हाहाभूतस्य जीवस्य किं सुत्रं तृप्तितो विना ।।। आशमा समयमानस्य पिशाच्येव निरंतरम् ।। १.८५ ।। विजयोदया-तित्तीय असतीर तृप्तावसत्यां । हाहाभूवस्य लेपटचित्तस्य किं तत्र सुस्वं भवत् । आशया गृहीतस्य ॥ तृप्तावसत्वामिहय दुःखमाहमूलारा-हाहाभूदस्य संतोषरहितस्य लंपटमनसः । तस्य अंधे लम्धेऽपि । पंपाए आशया ।। अर्थ-यदि परिग्रहॉकी प्राप्ति होनेसे मी मनुष्य तृप्त नहीं हुआ और उसमें ही लुन्ध दुआ तो आषाका दास बना हुआ वह मनुष्य क्या मुखी होगा नहीं कभी भी मुखी नही होगा. हम्भदि मारिज्जदि वा बज्झदि संभदि य अणवराधे वि ॥ आमिसहे, घण्णो खज्जदि पक्खीहिं जह पक्खी ॥ ११४६ ।। हन्यते ताब्यते बध्यते मध्यते मानवो वित्तयुक्तोऽपराधं विना ।। पक्षिभिः किन पक्षी गृहीतामिषः बायते लंच्यते दोषहीनः परी १९८५ विजयोदया-हम्मादि माइन्यते । मारिजयि मार्यते, यते सध्यने बानपराधोऽपि । अभिपनिमित्तं लंपटः खाद्यते यथा पक्षिमिः पक्षी गृहीताहारः॥ मूलाग-- हुम्मदि ताकाते । घणो लुब्धः । पकधी गृहीताहार: पक्षी । यथा मांसार्थ परेः पक्षिभिः खाद्यते तथा धनाथ परधनी ताडनादिकं प्राप्यते इति संबंधः।। ११४५ Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना ११४६ अर्थ - जिसके मुहमें मांस हैं ऐसा पक्षी मांसाभिलाषी इतर पक्षिओंके द्वारा खाया जाता है. वैसे परिग्रहवान् धनाढ्य मनुष्य इतर परिग्रहको चाहनेवाले लोगों के द्वारा पीटा जाता हैं मारा जाता है, उसको किसी कोटडी में बंद कर देते हैं. किसीका अपराध नहीं करनेपर भी उसको लोक परिग्रहाभिलाषी बनकर दुःख देते हैं मलपन् ॥ मादुपिदुपुत्तदारेसु बि पुरिसो ण उवयाइ वीसंभं ॥ गंधणिमित्तं जग्गगइ कंक्खतो सव्चरन्तीए ॥। ११४७ ॥ प्रियासी पितृदेहजादी सदापि विश्वासमनादधानः ॥ न त्रायमाणः सकलां त्रियामां प्रयाति निद्रां धनलुब्धबुद्धिः ।। ११८६ ॥ विजयोदया- मादुपिपुलमा रेसु षि विश्वसनीयेष्यपि मात्रादिषु विश्रमं नोपयाति । जागर्ति सर्व रात्रीः मूलारा - स्पष्टम् । अर्थ -- यह मनुष्य परिग्रहों का अभिलाषी होकर सर्व रात्रि में बडबडता हुआ जागता है. माता, पिता, लड़का, पत्नी इन विश्वसनीय लोगों पर भी विश्वास नहीं रखता है. विजयोदयास मशः सदा भवति ॥ मूलाराम सिंगो परवशः || सव्वंपिं संकमाणो गामे-णयरे घरे व रण्णे वा ॥ आधारमणपरो अणप्पवसिओ सदा होइ ॥ ११२८ ॥ अरण्ये नगरे ग्रामे गृहे सर्वत्र शंकितः ॥ आधारान्वेषणाकांक्षी स्वबशो जायते कदा ॥। ११८७ ।। पि संक्रमणों सर्वमपि शेकमा ग्राभे, नगरे, गृहे, अरण्ये या आधारान्वेषणा साधुमसाधुम्बा संक्रमागो धनापहारवत्येन कल्पयन आधाररक्षायुक्तस्थानं । अणपत्र आश्वास 두 ११४३ Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना ११४७ अर्थ -- सर्व मनुष्यों पर उसका विश्वास नहीं रहता है. इसलिए वह परिग्रहवान मनुष्य गांव में, शहरमें घर में, अरण्य में, अपने परिग्रहका जहां रक्षण होगा ऐसा स्थान ढूंढनेकी फिक्रमें रहता है. वह अपनी आत्माको वश करनेमें असमर्थ होता है थपडियाए लुडो बीराचरियं विचिन्त्तमावसधं ॥ णेच्छदि बहुजणमज्झे वसदि य सामारिगावसए । १९४९ ॥ धीरेरास्वरितं स्थानं विविक्तं धनलालसः ॥ विहाय भूरिलोकानां मध्ये गेहीव तिष्ठति ।। ११८८ ॥ विजयोदयापाद्वालु ग्रंथनिमि तुम्धोषि धीरेवचिरितं विविकास नेति । बहुजनमध्ये वसति । गृहस्थानां वेश्मनि ॥ अंधविशेधः साधुः । मूला-पडिया यंत्रनिनित्तं धनं रक्षितुमित्यर्थः । यदि वा गंथपालु वीराचरिदं महामुनिवैशिवं । आवसधं वसतिं । सागरिगावस गृहस्थाश्रये । अर्थ - वह कृपण मनुष्य परिग्रहमें लुब्ध होकर धीर पुरुष जहांपर रहते हैं ऐसे एकांत स्थानमें रहना पसंद नहीं करता है- वह जहां बहुत लोक रहते हैं ऐसे गृहस्थोंक घरमें रहता है. सोण किंचिस सग्गथी होइ उठ्ठिदो सहसा || सव्वत्तो पिच्छंतो परिमसदि पलादि मुज्झदि य ॥ ११५० ॥ शब्द कंचिदसौ श्रुत्वा सहसोत्थाय धावति ॥ सर्वतः प्रेक्षते द्रव्यं परामृशति मुह्यति ॥ ११८९ ॥ विजयोदया- सोडून किंचि सहं श्रुत्वा कंचन शङ्खं परिग्रहवान्लहसोत्थितः सर्वा दिशः प्रेक्षमाणः परामृशति स्वं द्रव्यं, पलायते, मुह्यति वा ॥ मूलारा -- सोदूण किंचि सा शब्द सम्बतो सर्वा दिशः परिमसारे परामृशति । स्वं धनं ॥ अर्थ --- परिग्रहवान् मनुष्यके कुछ शब्द सुन लेनेपर भयसे चकित होता है, उठकर खडा होता है. चारो आश्वास: ६ ११४७ Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 पन्नारामना दिशाओंका अवलोकन करता है. अपने व्यको ईदता है. भातिसे भाग जाता है अथवा मार्छित होकर गिर पडता है. आप्पामा । तेणभएणारोहइ तरुं गिरि उप्पहेण च पलादि ॥ पविसदि य हदं दुग्गं जीवाण वह करेमाणी ॥ ११५१ ।। आरोहति नगं वृक्षमुत्पथेन पलायते ।। निस्तनुमतो भीतो इदं विशति तुस्तरम् ॥ ११९० ।। विजयोन्या-शेणभएण स्तेनभयेन आरोहदि भारोहति त गिरि वा । व्ययो भवति। प्रविशति पा हदं । दुर्ग या स्थानं जीवानां प्रासनं कुर्वन । मूलारा--तेणभएण चोरभीत्या । हुदं हदं नदं । करेमाणो कुर्वन् ।। अर्थ-मेरा परिग्रह चोर लेगा इस हरके मारे वह झाडपर अथवा पर्वतपर चढ़कर छिपकर बैठता है, अथवा मार्ग छोडकर अमार्गसे दौड़ने लगता है. सरोवरमें प्रवेश करता है. अथवा जांचोंका घात करता हुआ दुर्गम स्थानमें प्रवेश करता है. तह वि य चोरा चारभडा वा गच्छं हरेज्ज अवसरस ॥ गेण्हिज्ज दाइया वा रायाणो वा विलुपिज्ज ॥ ११५२ ।। अवशम्य नरस्यार्थो हठतो बलिभिः परैः ॥ दायादेस्तस्कर पैस्वायमाणोऽपि खव्यते ।। ११११॥ विजयोदया-तथापि पलायनघावनादिकं कुर्वतो द्रव्यं हरति चोग वा चारभटा पा । परवशस्य दायादा वा गृहन्ति राजानो वा पिलुपंति ॥ मूलारा-सध वि पलायनं कुर्वतोऽपि । चारभडा सुभटपुरुषाः । दाइबा दायादाः । विलुपेज्ज उद्दालयेयुः ।। अर्थ-भागनेवाला अथवा दौडनंबाला उस मनुष्यके पीछे चोर जाकर उसको पकरते हैं. उससे धन छीन TRENAPANEmes Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिश्वासा मूलाराधना ना लेते हैं. पराधीन होनेपर नातीदार लोक, उसका धन लेते हैं. अथवा राजा उसका धन हर लेता है. संगणिमित्तं कुद्धो कलह रोलं करिज्ज घेरं वा ॥ पहणेज्ज व मारेज्ज व मारेजेज्ज व य हम्मेज्जा ॥ ११५३॥ कलिं कलकलं वैरं कुरुते नाथते परं॥ नियते मार्यते लोकैहस्यते चार्थलंपटः ।। ११५२ ।। विजयोदया-संगणिमिसं कुद्धो रुटः परिग्रहनिमित्त कलई वैरं वा करोति इंति, ताडपति, । परं स्वयं प्राणाधियोजयति वा। परेण वा ताज्यते मार्यते परेण ॥ मूलारा- पहलेज तारयेत्परं । मारेनो मारयेत्परं । मारेग्जेज्ज मार्यते परैः । हम्मेज्ज ताश्यते परैः।। अर्थ-परिग्रहके निमित्नसे क्रोधी हुआ यह मनुष्य दूसरोंके साथ तंटा करता है. बैर करता है. दूसरोंको मारता है, पीटता है. दूसरोंके प्राण लेता है, अथवा दूसरोंके द्वारा यह मारा जाता है, पीटा जाता है. अहया होइ विणासो गंथस्स जलग्गिमूसायादीहिं।। णठे गथे य पुणो तित्वं पुरिसो लहदि दुक्खं ॥ ११५४ ॥ कृशानुमषिकांभोभिः संचितोऽथों विनाश्यते ।। सत्र नष्टे पुनर्वाद दाते शोकवहिना ॥ ११९३ ।। विजयोदया-अथवा होज पिणासो अथवा ग्रंथम्य विनाशो भवेत्। अग्निजलमूषकाविभिः नऐ पुनांथे तीम दुःख लमते मनुष्यः॥ मूलारा- स्पष्टम् अर्थ--अथवा उसके परिग्रहका नाश अग्नि, जल, चूहे वगैरहसे होता है. परिग्रह नष्ट होनेपर फिर वह पुरुष दुःखी होता है. "UE Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावा मूलाराधना ११५. सोयइ विलबइ कंदइ पढे गंथम्मि होइ वीसण्णो ॥ पज्झादि णिवाइज्जद्द तर उकंठिो होइ । १५५ ॥ श्वसिति रोदिति सीदति वेपते गतवति द्रविण ग्रहिलोपमः ।। करनिविष्टकपोलतलोधमो मनसि शोचति पूत्कुरुतेभितः ।। ११९४ ।। विजयोदया-सोयदि विलयनि शोचति, विलपति, दति नऐ परिग्रहे विषण्णव भवति । चिंता करोति । पिषत्यंतस्संतापाजलादिक, पते उत्कंठितो भवति ।। मूलारा- विसष्णो विषण्णो विचेतनो वा। पज्झादि चिंता करोतिः णिशाहजदि पियत्यन्तःसंतापाञ्जलादिकं । अस्त्रेवेनापूर्यत इत्यन्यः॥ अर्थ-परिग्रहका नाश होनेपर शोक करता है, जोरसे रोने लगता है. लोगोंके हृदयमें दया उत्पन होगी ऐसा रोता है. मनमें खिन्न होता है, चिंता करने लगता है. हृदयमें बहुत जलन पैदा होनेसे पानी पिता है, उसके अवयव कांपने लगते हैं और वह उत्कंठित होता है. डण्झदि अंतो पुरिसो अप्पिए गद्रे सगम्मि गंधम्मि ।। बायावि य अविवप्पइ बुद्धी विय होइ से मूढा ।। ११५६ ॥ अंतरे द्रव्यशोकेन पावकेनेव ताप्यते ॥ बुन्धिर्मदायते याद मुखत्युत्कंठते तराम् ॥ ११९५ ॥ चिजयोदया-उज्झदि दयते अतः पुरुष आत्मीये नऐ परिप्रहे । पागपि नश्यति बुद्धिरपि मंदा भवति ॥ मुलारा- अक्खिप्पदि नश्यति स्खलति वा ।। अर्थ-परिग्रहका नाश होनेसे मनुष्य मनमें जला करता है उसका वचन भी नष्ट होता है. अर्थात् उसका बोलना भी बंद पडता है उसकी बुद्धि भी मंद होती है. Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वामः उम्मतो होइ णरो ण गंथे गहोवसिहो वा ।। मूलाराधना घदि मरुप्पवादादिएहिं बहुधा णरो मरिंदु ॥ ११५७ ॥ उन्मत्तो यधिरो मुको द्रढग नष्टे प्रजायने । चष्टते पुरुषो मतु गिरिप्रपतनादिभिः ।। १:५६ ॥ विजयोदया-उम्मत्तो होइ गारो उम्मनो भवति नमः । नए परिग्रहे ग्रहगृहीत व चरते मरनतारादिभिर्मतु ॥ मूलारा-गहोव सिहो वा भूताविष्ट इव । चत्तदि चेष्टते । मरुपवादादिपहिं भृगुपातादिभिः ।। अर्थ--परिग्रहका नाश होनेपर यह जीय उन्मत्त होता है. पिशाच ग्रस्त मनुष्यके समान चेष्टा करता है. II और पर्वत, अग्नि, पानी इत्यादिकसे भरनेकी इच्छा करता है. चलादीया संगा संसजति विविहेहिं जंतूहिं ।। आग वि जंतू हवेति गंथेसु सपिणहिदा ॥ ११५८ ।। चेलादयोऽखिला ग्रंथाः संसजति समततः ॥ सति समिहिलाश्चिवास्तस्विन्नागतुकास्तथा ॥ ११५७ ।। विजयोदया–चेलादिगा बेलादिसंगालपावरपरयः परिग्रहाः । संसम्मति सम्मूछनामुपयंति । घिघिहिं जंतूहि नानाप्रकारैजंतुभिः । आगंतुगा वि आगंतुफान जैसवः । गंथेसु सणिदिवा भवंति प्रथेषु सनिहिता भवन्ति । यूकापिपीलिका मकुणादयः । धान्येषु कीटकापसापूादिषु रसजीवाः । तेषामादाने ॥ मूलारा--सिर्जति समच्छन्ति । बनायासे यू कामकुमादिभिः 'धान्यानि कीद कादिभिः । गुढापूपादीनि च रसज प्राणिभिः । अर्थ-ओढनके बस नाव णादिक परिग्रहों में नाना प्रकारके सम्मूमलन जीव उत्पन्न होते हैं. ज. चिंटी, मत्कुण वगैरह आगंतुक प्राणी भी आकर परिग्रहोंमें ठहरत हैं. धान्यमें कीडे उत्पन्न होते हैं, गुडके बनाये अपूपादिक खाद्य पदाथोंमें रसस सूक्ष्म जंतु उत्पन्न होते हैं. इस प्रकार परिग्रह जंतुओका उम्पत्ति स्थान होता है. Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलासचना ११५२ ११५९ ॥ आदाणे णिकखेवे सरेमणे चात्रि तेलि गंथाणं ॥ उक्कणे वेककसणे फालणपप्फोडणे चैव ॥ विजयोदया दाने, निक्षेपे, संस्करणे, बहिर्नयने, बंधन, मोचने से मूलारा— सरेमणे संस्करणे उतरणे बहिर्नयने । मोचने अर्थ - पदार्थ ग्रहण करना, जमीन पर रखना, जसको सोभना सहर जाना, बांधना, खोलना, फोडना, झटकना इत्यादि क्रिया करते समय प्राणिओंको बाधा पोहोचती है. का धान पाटने विनय ॥ पाटने फोडणेऽवधूनने ॥ छेदणबंधणवेढणआदावणघोच्त्रणादिकिरिया || संघट्टणपरावणहणणादी होदि जीवाणं ।। ११६० ॥ बंधने छोटने छेदने भेदने पाटने घूमने चालने शोषणे ॥ वेष्टने क्षालने स्वीकृती क्षेपणेऽर्थस्य पीड़ा परा जायते देहिनाम् ॥ ११९८ ॥ विजयोदया-छेद छेदने, बंधने, बेष्टन, शोषणे प्रक्षालने । सम्मर्दने परितापनमानादेकं भवति जीवानां ॥ मूलारा - आदावण शोषणे घोव्वणादि प्रक्षालनक्रयविक्रयादिकं संघट्टण सम्म । परिक्षायण पीडनं उदावण मारणं ॥ अर्थ-छेदन करना यांना वेष्टन करना, सुखाना, धोना इत्यादिक कार्य करते समय जो मर्दन संतापन और घात उत्पन्न होता है. जदि वि विधिचदि जंतू दोसा ते चेव हुति से लग्गा ॥ होदि य विविणे विहु तज्जोणिविओजणा निययं ॥ ११६१ ॥ तेभ्यो निरसने तेषां ध्रुवा योनिवियोजना | दोष संतापमरणादयः ।। ११९९ ॥ विजयोदय-जदि चि विचिदि यद्यपि निराक्रियते जीवास्त एव संघट्टाइयो दोषा भवंति । भवति पृथकरणे तेषां तद्योनिवियोजना निश्चयेन | आश्वासः - ११५२ Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारांपना माश्वासः मूलारा-जदिवि यद्यपि । विचिदि स्फेटयति । ते वेव संघटनादयः । से समंधस्य यतेः । लग्या अनुषक्ताः । तज्जोणि विजोयणा तेषां जन्तुनामुत्पत्तिस्थानबियोगः ॥ अर्थ-यधपि जीयों को अलग करने पर भी संघर्षणादिक दोष परिग्रहवानके होते ही हैं. जब जीवोंको पृथक किया जाता है तव उनको अपने उत्पत्तिस्थानका वियोग होता है. १९५३ TA धमचिसपरिप्रहगतदोषमभिधाय सवित्तपरिप्रहदोषमार सच्चित्ता पुण गंथा वधंति जीवे सयं च दुक्खंति ॥ पावं च तण्णिमित परिगिण्हंतस्स से होई ॥ ११६२ ।। सचित्ता अगिनो नन्ति स्वयं संसक्तमानसाः ॥ . ग्रहीतर्जायते पापं ततिमिराममंशायम् ।। १२०८ ॥ विजयोदया-सचित्ता पुण गंधा वति जीचे परिग्रहाः दासीदासगोमहिण्यादयो प्रति । जीवान्स्वयं च दुःखिता भवति । कमपि नियुज्यमानाः कृष्यामिके पार्य च स्यपरिगृहीतजीवकृतासयमनिमित्तं तस्य भवति । एवमचिनग्रंथगतान्दोषान्प्रकाश्व सचितग्रंथगनान्दोपानाह--- मूलारा-दुक्यति कुष्यादिकर्मगि भियुज्यमाना दुःखिता भवन्ति । तगिमित्तं परिगृहीतजीवकृतासंयमतदुःग्योत्पादनहेतुकं । अर्थ-जो सचित्त परिग्रह है अर्थात् दास दासी, गो महिय बगैरे सजीव परिग्रह हैं वे जीवोंका घात करते हैं. और खनी वगैरह कमोंमें नियुक्त करनेयर दुःखी होते हैं. जिनका परिग्रहबानने स्वीकार किया है ऐसे दास दास्यादिक असंयमरूप प्रयुनिकर जो पाप उत्पन्न करते हैं उसका संबंध परिग्रहवान के साथ होता है. अर्थात् स्वामी की प्रेरणासे वे असंयमरूप कार्य करनेसे स्वामी पापसे बद्ध होता है. इंदियमयं सरीरं गथं गेण्हदि य देहसुक्खत्थं ॥ इंदियसुहाभिलासो गंथग्रहणेण तो सिद्धो ॥ ११६३ ॥ Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधना आश्वासः ११५१ देहस्याक्षमयत्वेन देहसौख्याय गृहतः ।। अक्षसाल्पामिलापोऽस्ति सकलस्य परिग्रहः ॥ १२०१॥ विजयोन्या-द्रियासुस्वाभिलाषः कर्मबंधनिमित्तो मुमुक्षुणा त्याज्यः । स परिग्रहग्रहो बलादापततीप्ति ध्याचईदिययं सरीरं स्पर्शनादिपंचेन्द्रियाधारस्वात् । परिग्रहं चचेलमावरणादिकं इंद्रियमुखार्थमेव गृण्वाति । वातातपायनभिमतस्पर्शनिषेधार्थ आत्मशरीरे वस्त्रालंकारादिभिरलंकृते पराभिलाषमुत्याध तदंगासंगजनितप्रीत्यर्थतया अभिमतमापादयति । सेवनाचर्थ च तत् इंद्रियसुखामिलापो ग्रंथ गुरुतः सिध्यति । स्वाध्यायध्यानाख्ययोस्तपसो विघ्नकारी परिग्रहस्तदुभयं चतरेण न संघरनिर्जरे ।। इंद्रियसुखाभिलापः कर्मयंधन निबंधनत्यान्मुमुक्षुभिस्त्याज्य एव । स च परिग्रह्मणेन बलासिध्यति इनि न्याचष्टे-. मूलारा-इंद्रियमयं स्पर्श नादीन्द्रियाधारत्वात् । गधे घेलपावरणादिकान् । देहमोक्वत्थं बातातपाद्यनिषेधादिना शरीरस्व स्वास्थ्यमुत्वादायितुं सिद्धो निश्चितः ।। अर्थ-इंद्रियसुखाम अभिलाषा करनेसे कर्मबंध होता है अतः मुमुक्षु इंद्रियसुत्रकी अभिलाषा नहीं करते है. जिन्होंने परिग्रहाँका स्वीकार किया है उनको नियमसे कर्मबंध होता है. इस विषयका स्पष्टीकरण-शरीर पंचेंद्रियों का आधार है अतः उसको इंद्रियमय कहते हैं. जीव स्पर्शनादि इंद्रियसुखके लिए क्वादिपरिग्रहका स्वीकार करता है. हवा, धूप वगैरहका अनिष्ट स्पर्श शरीरको न होवे इस हेतुसे वस्त्रादिकोंका जीव स्वीकार करता है. जय जीव अपना शरीर बखादिक्रोंसे अलंकृत करता है तब अपनेमें दूसरों की अभिलाषा उत्पन्न करके उसके शरीरके सहवासकी प्रीति उत्पन्न करके अपना इष्ट साध्य करता है. दसरेके शरीरसुखकी प्राप्ति करनेके लिए अपने शरीरको अलंकारादिसे सजाता है. अतः ग्रंथ-परिग्रह धारण करनेका मूल कारण इंद्रियसुखकी अभिलाषा है यह सिद्ध होता है. इस परिग्रहसे स्वाध्याय और ध्यानकी सिद्धि होती नहीं. स्वाध्याय और ध्यान के बिना कर्मके संघर और निर्जराके अभावमें संपूर्ण कर्मोंका नाश कैसा होगा. ? तयोरभावे कुतो निरचशेषकर्मापायो भवतीति कथयति गंथरस गहणरक्खणसारवणाणि णियदं करेमाणो। विक्खित्तमणो उझाणं उवेदि कह मुक्कसज्झाओ॥ ११६४ ॥ १९५४ Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वासः ११५५ रक्षणस्थापनादीनि कुर्वाणोऽयस्य सर्वदा॥ निरस्ताध्ययनो ध्यान व्याक्षिप्तः कुरुते कथम् ॥ १२०२॥ विजयोव्या-नाथस्स गणरक्षण परिग्रहादानं, तक्षणं, तसंस्कारे च नित्यं कुर्वन् । व्याक्षिप्तचितः कर्य शुमध्यानं कुर्यात् विमुक्तस्वाध्यायः । एतदुक्तं भवति-व्याक्षिप्तचित्तस्य न खध्यायः असति तस्मिन्वस्तुयाथात्म्यांविदुषः ध्येयैकनिष्टं ध्यान कमिव वर्तते । परिपहात्वाभ्यायध्यानविघातस्ततश्च संघरनिर्जराधिरहात्कुतो मोक्षो भयेदित्यनुशास्ति--- मूलारा-विविखतमणो व्याकुलचित्तः । मुक्कसज्माओ त्यक्तश्रुतभावनाकः । प्रथमहणादिना चित्तस्य विक्षेपे सति स्वाध्यायासंभवात् । वस्तुयाथात्म्यमानतः कथमिव ध्येयैकनिष्ठ ध्यानमुपतिष्टत इति भावः ।। यही अभिप्राय आगेकी गाथामें आचार्य कहते हैं अर्थ- परिग्रहका स्वीकार करना, रक्षण करना, उनमें संस्कार करना ही कार्य में जिसका निन लमा है ऐसे मनुष्यकी धर्मध्यानमें प्रवृत्ति नहीं होती है. इस परिग्रहके जाल में पड़े हुए मनुष्य स्वाध्याय भी नहीं कर सकते हैं. चित्तकी एकाग्रता होनेपर स्वाध्याय सिद्ध होता है. परंतु चित्तका लय परिग्रह में ही होनेस स्वाध्यायसे मनुष्य विमुख होता है. स्वाध्यायसे वस्तुओका यथार्थ स्वरुप जब मालूम होता है तब चित्तकी एकाग्रतासे धर्म ध्यानकी सिद्धि होती है. स्वाध्यायविमरख और परिग्रहासक्त लोकॉको यथार्थ वस्तुस्वरूप मालूम न पडनेसे शुभ ध्यानकी सिद्धि होती नहीं है. परभवन्याप्य दोषं परिग्रजमुखायातमुपदर्शयनि गंथेसु घडिदहिदओ होइ दरिदो भवेसु बहुगेसु ॥ होदि कुणतो णिच्च कम्मं आहारहेदुम्भि ॥ ११६५ ॥ अर्थप्रसक्तचित्तोऽस्ति निःस्वो बहुषु जन्मसु ।। ग्रासार्थमपि कर्माणि निंयानि कुरुते सदा ॥ १२०१ ॥ विजयोदया-गयेसु घडिवहिवओ ग्रंथासक्तचित्तः बहुषु भवेषु दरिद्रो भवति । आहारमात्रमुदिश्य नीचकर्मकारी भविष्यति । शिविकोबदन, उपानदेवम, पुरीषमूत्रायपनयनं त्यादिकं भीखं कर्म । Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाधिना संगव्यासंगमुखोपस्थितं भवान्तरप्राप्यं दोषमाख्यातिमूलारा--धदिदहिदओ आसक्तचित्तः । णीचं कामं शिविकोद्वनादिकं कुर्वन्वर्ततेऽपि । आहारहेतुं आहारमात्र आश्वासः मुद्दिश्य ॥ परिग्रहसे उत्पन्न हुआ दोष अनेक भवमें जीवके साथ रहकर दुःख उत्पन्न करता है इस अभिप्रायका वर्णन अर्थ-जिसका मन परिग्रहासक्त हुआ है ऐसा मनुष्य अनेक भवोंमें दरिद्री होता है. आहारकी अभिलाषा करके महनीय कार करके लिए भी उतार होता है. अर्थात् पालखी उठाकर अन्य स्थानमें ले जाना, श्रीमान पुरुषों के जूते उठाना, विष्ठा, मूत वगैरह अपवित्र पदार्थ निकालना इत्यादिक नीच कार्य करता है. विविहाओ जायणाओ पावदि परभवगदो वि धणहेदु || . लुडो पंपागहिदो हाहाभूदो किलिरसदि य ॥ १९६६ ॥ लभते यातनावित्रा ग्रंथहेतून्भवान्तरे ॥ संलिइयत्याशया ग्रस्तो हाहाभूतोऽयस्लुब्धधीः॥ १२०४॥ बिजयोपया-षिविहामो जायणाभो पाउदि विविधा यातनाः प्राप्स्यति । परभवगतोपि धननिमित्तं लुब्धः आशया प्रकृष्टया गृहीतो हा मम क्लेशशतं कुर्वतोपि मम धनं न मयति, जातं वा नष्टमिति कृतहाहाकारः क्लिश्यति । मूलारा-हाहा---मम क्लेशशतं कुर्वतोऽपि धनं न संपनते । संपन या विनश्यति इति कृतहाहाकारः ।। अर्थ--परिग्रहासक्त मनुष्य अन्य जन्ममें भी धनके लिए अनेक आपत्तिओंको प्राप्त होता है. उसकी आशा अत्यंत पढ़ती ही जाती है. सेफदो प्रयत्न करने पर भी मेरे धनकी वृद्धि होती नहीं अथवा धनकी वृद्धि होकर भी वह नष्ट होता है ऐसे विचार कर वह महान् दुःखी होता है. ११५६ एदेसि दोसाणं मुंचइ गंथजहणेण सव्वेसि ॥ तविक्रीया य गुणा लभदि य गंथस्स जणेण ॥ ११६७ ॥ Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मावासा अमीभिरखिलौषग्रंथस्यागी विमुच्यते ॥ भूरिभिस्तद्विपक्षश्च निलयीक्रियते गुणैः ॥ १२०५ 11 विजयोदया-पदेसि दोसाणं मुंचा पूर्वोक्तान्एरिप्रहग्रहणगतान्दोषान्योषांस्यजेदिति दोषप्रतिपक्षभूताम्गुणानपि लमते॥ प्रयत्यागिनो दोषविच्छेवं गुणप्रविलभ चोपविशतिमूलारा-मुंचदि पूर्वोक्तान्दोघांस्त्यजति । द्वितीयार्थेऽत्र षष्ठी ।। अर्थ-परिग्रहका त्याग से पू र्वजोका स्याबहो जाता है. और इन दोषोंके प्रतिपक्षी औदार्य, निस्पृहता वगैरह गुणोंकी प्राप्ति होती है. राम्॥ गंथच्चाओ इंदियणिवारणे अंकुसो व हत्थिरस ॥ णयरस्स खाइया विय इंदियगुची असंगतं ॥ ११३८ ॥ अंकुशो गतसंगत्वं विषयेभनिवारणम् ॥ इंद्रियाणां परा गुप्तिःपुरीणामिव स्वातिका ॥ १२०६ ।। विजयोदया-थवाओ ग्रंथत्यागः इंद्रियनिवारणे इत्यामंद्रियशब्द उपयोगेंद्रियविषयः सप्तमी निमि. तलक्षणा । नेनायमर्थः-इंद्रियशानस्य रागद्वेषमूलस्य निवारणे निमित्तभूतोऽकुश व हस्तिनो निवारणे उत्पथयानात् । नगरस्स खादिगा घि य नगरस्य सातिका इव । असंगतं निश्परिग्रहता। हदियगुत्ती इंद्रियगुप्तिारद्रियरक्षा रामोत्पत्ति निमित्तेदियशानरक्षा ।। नषेधस्येन्द्रियजयोपायत्वमाह मुलारा-इंदियणिवारणे इंद्रियज्ञानस्य रागद्वेषमूलस्य निरोधने निमिसभूतः । समस्या निमित्तार्थे विधानान् । अंकुसो व उत्पथगमन निबारणे इति शेषः । खादिगा वि स खातिका यथा निवारणोपायः। इदियगुत्ति रागद्वेषोत्पत्तिनिमितेंद्रियज्ञाननिवारणोपायः॥ अर्थ-जैसे कुमार्गमें प्रधृत्त हुए हाथीको अंकुश निवारण कर योग्य मार्गपर लाता है. खंदक अर्थात खाईसे जैसे नगरका रक्षण होता है वैसे परिग्रहका त्याग करनेसे रागद्वेष. जिसके मूल कारण है ऐसे इंद्रिय ज्ञानकी TAMANNEReso Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना भावास निवृत्ति होती है अर्थात् परिग्रहका त्याग करनेसे रागद्वेष नष्ट होते हैं। जिससे इंद्रियां अयोग्य कार्यमें प्रवृत्त । होती नहीं सप्पबहुलम्मि रणे अमंतविजोसहो जहा पुरिसी ॥ होई दढमप्पमत्तो तह णिग्गंथो वि सिएस ॥ ११६९ ॥ विषयेभ्यो दुरंतेभ्यस्त्रस्यति ग्रंथवर्जितः ।। अल्पमंत्रीषधो मर्त्यः सर्पेभ्य इव सर्वदा ।। १२०७ ॥ विजयोदया-सप्पबालम्मि सर्पबहुले रपणे अरण्य | अमतविज्झोसदो मंत्रेण, विघया औषधेन च रहितः पुमान् । दढमप्यमत्तो होदि नितरां अप्रमत्तो भवति । तथा निमेथोऽपि क्षायिकाद्वानकेवलज्ञानयथाश्यातचारित्रमंत्र. पिधौषधिरहितो चिपयारण्ये रागादिसर्पयाले सावधानोऽपि भवेत् ।। निःमंगत्वस्याप्रमत्तवाहेतुत्वगाह - मूलारा--- अरण्य । घिसएसु इंद्रियापु रागवेपलक्षणअनादरहितः । बाह्यद्रव्यं हि मासा स्वीकृतं रागदेपावृत्ति करिध्यतो गोहनी यमैग: महफारिकारणमिति नत्यागे ना म्यान । तदभावे च नापूर्वकर्मयंध इति नै यमेव प्रथमो मोक्षोपाय इति भावः ॥ अर्थ-जिसको सर्पविष दूर करनेकी विद्या, मंत्र और औषधिका ज्ञान नहीं है ऐसा मनुष्य जिसमें साका बहुत प्रचार है ऐसे अरण्यमें कारणवश प्राप्त होनपर बहुत सावधान रहकर सपोसे अपना बचाव करता है. वैसे क्षायिक सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, यथाख्यातचारिप, एतत्स्वरूपी मंत्र, विद्या और औषधिरहित निग्रंथ मुनि रागद्वेषादि साँसे भरे हुए पंचेंद्रिय विपयरूपी अरण्यमें सावधान रहते हैं. अभिमाय यह है कि, परिग्रहका त्याग करनेसे रागद्वेष नष्ट होते हैं और विषयाभिलापाका अभाव होता है. ११५८ रागो हवे मण्णे विसए दोसो य होइ अमणुण्णे ॥ गंयच्चाएण पुणो रागहोसा हवे चत्वा ।। ११७. ॥ HATA Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना शश्वास रागो मनोहरे ग्रंथे द्रुषश्चास्त्पमनोहरे ।। रागद्वेषपरित्यागो बरवाम प्रजायने ।। २८८ ।। चिजयोदयारागहषयोः कर्मणां मूलयोनिमित्तं परिग्रहः, परिग्रहत्यागे रागद्वेषौ पव त्यक्तौ भवनः । बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृत रागद्वेषयोचींजे, तमिलसति सहकारिकारणे न च कर्ममावाद्रागद्वेषत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिडे दंडाद्यनंतरकारणधैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते ॥ एतदेवाहमूलारा-मणुणे इथे मनसा स्वीकृते सति ॥ अर्थ-इष्ट विपर्योंमें रागभाव उत्पन्न होता है और अनिष्ट विषयों में देष उत्पन्न होता है. परंतु परिग्रह का त्याग करनेसे सग और द्वेष दोनों भी नष्ट होते हैं. रागद्वेष कर्मबंध होने मूल कारण हैं. रागद्वेषसे ही कर्मबंध होता है. परंतु परिग्रहका त्याग करनेसे रागद्वेषणका त्याग होता है. मनमें विचार कर जब जीव वाह्य द्रव्यका अर्थात् बाह्य परिग्रहका स्वीकार करता है तब रागद्वेष उत्पन्न होते हैं. यदि सहकारिकारण न होगा तो केवल कर्ममात्र से रागद्वेष उत्पन्न होते नहीं. यद्यपि मृरिपडसे घट उत्पन्न होता है तथापि दंडादिक कारण नहीं होंगे तो घटकी उत्पत्ति नहीं होती है, कर्मणां निर्जरणोपायः परीषहसहनं । तथा चोक्तं पूर्वोपात्तर्मनिराधे परिपोटरयाः पीपहाः सोढर भवन्ति ग्रंथचेलपाधरणाविक त्यजतेति व्याच सीदण्हदसमसयादियाण दिण्णो परीसहाण उरो सीदादिणिवारणए गंथे णिययं जहतेण ॥ ११७१ ॥ शीतादयोऽखिलाः सम्यग्विषयते परीषहाः ॥ शीतादिवारकं संगं योगिना त्यजता सदा ।। १२०५ ।। विजयोदया-सीदुण्हदसमसयादियाण ननु च सुःखोपनिपाते संलशरद्वितता परीषहजयः । न तु शीतो. ष्णादयो नहि ते आत्मपरिणामाः अनात्मपरिणामाश्च बंधसंवरनिर्जरादीनामुपायो न भवन्ति । योऽनात्मपरिणामो नासौ निर्जराहेतुः यथा पुद्गलगतरूपादयः । अनारमपरिणामाश्च शीतादयः क्षुत्पिपासादयो दुःखहेतवः । ननु दुःखे तत् Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ११६० किमुच्यते स्पिपासादयः परीषदा रति नैष दोषः । नुवादिजन्यदुःखविण्यत्वात शुषाविशद्वानां । तेन भुत्पिपासाशीतोष्ण देशमशफनाम्यादीनां परीपहवाचो युक्तिनविरुभ्यते। सीढण्हदसमसयादियाण शीतोष्णशमशकानीनां। परिस्सहाणं उरो दिभणा परीपहाणा उरो दर्त। केन सीदादिणिवारणगे शीतादीनां निषेधकान् । गंथे णियदे जइतेण ग्रंथानियतं त्यजता ।। चेलादिग्रन्थं त्यजता दुःकृननिर्जरणोपायः परीषहसहन कृतं स्यादित्याह मृलारा--परीसहाण सीनादिजन्यदुःग्यानां । उरो हदयं । शीतादिदुःखाइवे नि:संकोश मनः कृतमित्यर्थः । णिवार गए निवारकान् ।। परिषह सहन करनेसे कर्म की निर्जरा होती है । पूर्वचभमें जीवने जो कर्मसंचय किया है उसकी निर्जरा करने के लिए परिषद सहन करना चाहिए ऐसा आगममें कहा है. ग्रंथ का अर्थात वनप्रावरणादिकोंका त्याग करने नाले मुनि परिवह सहन करते हैं इसका विधेचन--- अर्थ- अमेपर भी होश गरिमानननदी पशिमय है. परंतु शीत, उष्ण, भूख, ग्यास बगैरहको परीषह जय नहीं कहते हैं क्यों कि वे आत्मपरिणाम नहीं है, वे बंध, संवर, निर्जरा और मोक्षके उपाय होते नहीं. जो जो आत्मपरिणाम नहीं है वे निर्जराके हेतु नहीं है जैसे पुद्गल के रूपादिक गुण. शीत उष्णता वगैरह आत्माके परिणाम नहीं, क्षुधा, प्यास वगैरहभी आत्माके परिणाम नहीं है वे सब दुःखके कारण हैं. वे स्वयं दुःख नहीं है इसवास्ते उनको परिषह कहना योग्य नहीं है. उत्तर-आपका कहना योग्य है. क्षुदादिकोंसे उत्पन्न होनेवाला दुःख क्षुदादिशब्दों का विषय है. इस वास्ते क्षुधा, पिपासा. शीत, उष्ण, देशमशक, नाग्न्य इत्यादिकोंको परीषह कहना अनुचित नहीं है. इस गाथाका अभिप्राय यह है कि, शीत उष्ण इत्यादिकों को मिटाने वाला वस्त्रादि परिग्रह जिसने नियमसे छोड़ दिया है उसने शीत, उष्ण, दंशमशक बगैरह परीषहोंको छाती आमे करके शूर पुरुषके समान जीत लिया है ऐसा समझना चाहिये। देखें भादरः सर्वस्य हिंसादेःसंयमस्य मूलं परित्यक्तो भवति परिप्रहं त्यजतेत्याच जम्हा णिगंथो सो वादादवसीददंसमसयाणे ।। सहदि य विविधा बाधा तेण सदेहे अणादरदा ।। ११७२ ।। ११६० Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मृमाराधना शीलवातातपादीनि कष्टानि सहते यतः । क्रियतेऽनादरो देहे निःसंगेन ततः परं ।। १२१० ।। विजयोदया-जम्हा यस्मात् । णिग्गयो सो निरपरिग्रहोऽसी । बादावषसीवदंसमसया विषिधां बाधा पातातपशीतदंशमशकानां विविधं दुग्य सहदि विपनि सहते । तेण सहनेन । संदेहे खदेडे अणादरदा आदराभावः। शरीरे, अकृताइरस जहास्यशेष हिंसादिक, तपसि च स्वशक्त्यनिगृहनेन प्रपतते । हिंसादिसकलासंयममूलं शरीरादरः संग त्वजता त्यक्तः स्यादित्याह--- मूलारा-स्पष्टम् ।। जिसन परिग्रहोंका त्याग किया है उसने देहका ममत्वही छोड़ दिया है ऐसा समझना चाहिये. क्योंकि । देहममत्व ही सर्व हिंसादिक असंयमका मूल कारण है. इस विषयका विवेचन अर्थ-यह परिग्रहत्यागी बात, धूप, शीत, देशमशकादिपरिषहोंसे होनेवाले विविध दुःख सहता है इसलिंग यह परिणी अनादरमान है यह मान निति होती है. जब शरीरसे ममत्वभाष दर होता है तब हिंसादिक सर्व पापांका त्याग होता है. और नपश्चरणमें अपनी शक्तिक अनुसार प्रवृत्ति होती है. संगपरिमग्गणादी हिस्संगे णत्थि सव्वत्रिक्खेवा ॥ ज्झाणज्झेणाणि तओ तस्स अविग्घेण वच्चंति ॥ ११७३ ।। ध्याक्षेपोऽस्ति यतस्तस्य न ग्रंथान्वेषणादिषु ॥ ध्यानाध्ययनयोर्विनो निःसंगस्य ततोऽस्ति नो॥ १२११ ॥ विजयोदया-संगपरिमगणादी परिप्रहाम्चेषणादि परिग्रहस्य स्वाभिलषितस्य अस्तित्वगवेषणे क्लेशनमस्तीति । तथा तत्स्वामिनां कोऽस्य स्वामी? वंचनकासी भयविष्यते इति पुनांचा लाभे संतोषो, बलाभे दीनमनस्कता,तदानयन तरसंस्करण, तद्रमणं इत्यादिकं आदिशन गृहाते। निःसंगे संगरहिते णस्थि सषविषशेषा । न संति सर्षे व्याक्षेपाः । झाणजमेणाणि भ्यानं अध्ययनं च । तदो.व्याक्षेपाभावात् चेतसि । तस्स अपरिग्रहस्य । अविग्घेणं अति विनमंतरेण वर्तते । सर्वेषु तपस्सु प्रधानयोानस्वाध्याययोरुपायो अपरिग्रहता इत्याण्यातमनया गाथया ।। सर्वतपसामुत्तंसयोः स्वाभ्यायध्यानयोन:संग्यहेतुकत्वे युक्तिमाह-- Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BAHAN मूलाराधना आश्वासः मूलारा-संगपरिमम्गणादी परिहान्धेषणमादिशब्देन च तत्स्वामिबोधतत्स्थानावस्थानगवेषणतत्प्रार्थमतहाभपरितोषतदलाभदैन्यतदानयनसंस्करणरक्षणादीनि । विखेया ब्याक्षेपाश्चित्तव्यासंगाः । अबिग्घेण बच्चति निरंतराय प्रवर्तते ॥ अर्थ-- जो परिग्रहोंसे विरक्त हुआ है. उसको परिग्रहोंको ढूंढने की चिंता नहीं रहती है. जिस परिग्रहको लोक चाहते है उसको इंदनेका प्रयत्न करते हैं. किसके पास मेरी अभिलषित वस्तु मिलगी? क्या तेरे पास मेरी इए वस्तु है ऐसा प्रश्न करते हैं. उस वस्तुका स्वामी कहाँ रहता है इसकी खोज करते हैं. उसके पास जाकर याचना करते हैं. इष्ट वस्तु मिलने पर मन आनंदित होता है. परंतु नहीं मिलनेपर दीनता उत्पन्न होती है. अभीष्ट चीजको लाकर उसको सुंदर बनाकर रक्षण करते हैं. परंतु जो निष्परिग्रही हुएई ऐसे मनुष्य इन सर्व झंझटोंसे दूर होकर सुखी होते हैं. निष्परिग्रही मनुष्यों का मन अव्याकुल रहता है जिससे उनके ध्यानाध्ययन कार्य निर्वित सिद्ध होते हैं. सर्व तपामें ध्यान स्वाध्याय ये प्रधान हैं. यह निष्परिग्रहता उनकी माप्ति का उपाय हैं ऐसा अभिप्राय इस गाथास व्यक होता है. गंथच्चाएण पुणो भावविसुद्धी वि दीबिदा होई ॥ ण हु संगघडिदबुद्धी संगे जहिंदुं कुणदि बुद्धी ॥ ११७४ ।। दर्शितास्ति मनःशुद्रिः संगत्यागेन तात्विकी॥ संगासक्तमना जातु संगत्याग करोति किम् ।। १२१२ ।। विजयोदया-संगच्चापण पुणो संगत्यागेन पुनः । भाव विमुखी वि दीविदा होदि परिणामस्य विशुचिपिता दर्शिता भवति। ण हुसंगडिदबुद्धी नैव परिग्रहटिनबुद्धिः । संगे जहिदु कुणदि बुद्धी परिग्रहांस्त्यक्तुं करोति दुई । भायधिशुद्धेरपि सम्यं लिंगमित्याहमूलारा-दीचिढ़ा दर्शिता ॥ अर्थ-परिग्रहोंका त्याग करनेसे परिणाम निर्मल होते है और प्रतिदिन परिणामोंकी निर्मलता बढती ही । रखती है. परिग्रहोंने जिसका मन लुन्ध हुआ है वह मनुष्य परिग्रहोंका त्याग करने में असमर्थ हो जाता है. Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना [आश्वासा याच प्रकांता सल्लेखना कषायविषया सा च परिग्रहत्यागमूलेति कथयति णिरसंगो चेव सदा कसायसल्लेहणं कुणदि भिक्खू ॥ संग उदीरति कसाए अग्गीव कहाणि || ११७५ ।। निःसंगे जायते व्यक्तं कषायाणां तनूकृतिः।। कषायो दीप्यते संगैरिंधनैरिच पावकः॥१२१३॥ विजयोदया-णिस्संगो चेव निष्परिग्रहश्चैव सदा कषायपरिणामांस्तनूकरोति न सपरिग्रहः । कथं इति कदाच-संगा खु उदीरति परिग्रहा उदीरयन्ति । फसाए कषायान् । अग्गीव अग्निरिच कहाणि काप्यानि ।। किं च प्रकांतकवायसलेखनापि संगत्यागमूला येत्यनुशास्तिमूलाग्र—उदीरेंति उद्माययति । अग्गीय अग्निं यथा ।। परिग्रहका त्याग करनेसे ही यति कषायसल्लेखना कर सकते हैं. अर्थ--जो परिग्रहका त्यागा है वही अपने कपाय परिणाम क्षीण कर सकता है. परिग्रहवान् के कषाय कभी क्षीण होते ही नहीं. जैसे इन्धनोंकी प्राप्ति होनेसे अग्नि बढेगी ही कभी वह उपशांत न होगी वैसे परिग्रहोंसे कषाय उत्पन्न होते हैं नष्ट होते नहीं. सव्वस्थ होइ लहुगो रूबं विस्सासियं हदि तस्स ॥ गुरुगो हि संगमत्तो संकिजइ चावि सम्वत्थ ॥ ११७६ ।। लघुः सर्वत्र निःसंगो रूपं विश्वासकारणम् || गुरुः सर्वत्र सग्रंथः शंकनीयश्च जायते ॥ १२१४ ॥ विजयोव्यासब्वत्थ होर सर्वत्र भवति । गमने आगमने च लघुगो लघुः । रूर्व सासिगं रूपं विश्वासकारि च भवति । तस्स निगंधम्य । यखप्रावरणाविकाच्छादितशस्त्रोऽसाकमुपद्रवं करोति धनं वा खेन चीयरादिना प्रच्छाध नयतीति शंका कुर्वन्ति परिग्रहं रष्ट्या । निःसंगस्य लघुत्वविश्वास्यस्व वक्ति-- मूलारा-सव्वत्थ गमनागमनादौ । लहुगो अभारिको भवति नि:संगः । वेसासियं विश्वासकारि ।। Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासः अर्थ-जिसने परिग्रहोंका त्याग किया है वह सर्वत्र लघु होता है अर्थात् चिंतारहित होता है. उसके स्वरूपको देखकरही लोग उसके ऊपर विश्वास करते हैं. परंतु जिसके पास वस्त्र प्रावरणादिक हैं उसके ऊपर लोक विश्वास नहीं करते हैं. इसने अपने पास शस्त्र छिपाकर रक्खा होगा ऐसा समझते हैं. तथा यह हमारा धन बसमें छिपाकर ले जायगा ऐसी शंका उनके मनमें उत्पन्न होती. अभिप्राय यह है कि परिग्रह अविश्वासका कारण है. सव्वस्थ अध्यवानिया मिरसमो मिओ य सम्वत्थ ॥ होदि य णिप्परियम्मो णिप्पडिकम्मो य सम्वत्थ ॥११७७ ॥ प्रतिबंधप्रतीकारप्रतिकर्मभयादयः ॥ निग्रंथस्य न जायते दोषाः संसारहेतवः ॥ १२१५ ।। विजयो-सम्वत्थ अप्पवसिगो सर्वत्र प्राम, नगरे, अरण्ये व आत्मवशकः । णिस्संगो निष्परिग्रहः । सव्वस्थ य णिमओ सर्वत्र निर्भया होदिय णिप्परिकम्मो भवति च निर्मापार रुप्यादिक्रियाघारंभरहितः । णिप्पडिकम्मा य इदं पूर्वकृत इदं परत्रावशिष्ट कार्यमित्येतच्चास्य न विंधते ।। नि:संगस्य स्वातंत्र्यनिर्भषश्वानारंभत्वनिश्चितत्वंगुणसंपत्तिमार-- मूलारा--णिपरियम्मो परिकर्मभ्यः कृष्यादिव्यापारेभ्यो निष्कांवः । णिप्पडियम्मो इदं पूर्व कृतं, इई इवानी करोमीवं च पुरस्तात्करिष्यामि इत्येवमादिक आत्मनि चिंतासंस्कारोऽत्र प्रतिकर्म तस्मानिष्कान्तो निष्प्रतिकर्मा । अन्ये तु णिप्पडियम्मो यतिः । णिपडियम्मो निर्व्यापार इति व्याख्यान्ति ॥ अर्थ-निष्परिग्रही मनुष्य गांवमें, नगरमें, अरण्यमें, सर्व स्थानाम अपने स्वाधीनही रहता है. उसको कहां भी भय नहीं है. उसको खेती, उद्योग, धंदा करने की चिंता नहीं रहती है. यह कार्य आज मैने समाप्त किया . अब यह अवशिष्ट कार्य कल या परसों करूंगा ऐसी चिंता उसको नहीं रहती है, सुखार्थिनी महत्सुखं भवति संगपरित्यागनेति पति मारकंतो पुरिसो भारं ऊरहिय णिव्वुदो होइ ॥ जह तह पयहिय गंथे णिसंगो णिबुदो होइ ।। ११७८ ॥ ११६४ Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाश्वास मूलागधना महाश्रमकरे भारे रभसागारवानिव ॥ निरस्ते सकले ग्रंथ नितो जायते यतिः ॥ १२१६ ॥ विजयोदया-भारकतो पुरिसो भागक्रांतः पुरुषः । भारं ऊरुडिय भारमवताय । णित्रुदो होदि मुखी भयति । यथा तथा णिस्संगो णिव्युदो होदि निपरिग्रहः मुखी भवति । गंथे पयहिय ग्रंथाम्परित्यज्य । बाधाभाचलक्षण हि सुखं सर्वमेव । तथाहि-शनादिना क्षुधादायपगते जातं स्वास्थ्यमेव सुस्वमिति लोको मन्यते । संगत्यागात्सुखित्वमाह-- . मूलारा-कुरुहिंब अपवार्य । णिन्दो सुरखी। सर्वमपि हि सांसारिक सुखें बाधाभावलक्षणमेव । भोजनादिना अदाधापनोदाजाते स्वास्थ्ये लोकस्य सुखव्यवहारोपलंभात् । पजहिय परित्यज्य प्रथानिःसंगःसन् ॥ जिसको सुखकी इच्छा है उसको परिग्रहका त्याग करनेसे महासुख प्राप्त होता है ऐसा आचार्य कहते हैं अर्थ-जिसने अपने मस्तकपर बोझा धारण किया है उसको वह बोझा उतरनेपर सुख होता है. वैसे ग्रंथका-परिप्रदोका त्याग करनेसे मनुष्य सुखी होता है. बाचाका अमाप होना ही सुरजेते खारेसे भूख मिटती है तब जो स्वास्थ्य प्राप्त होता है लोक उसकोही सुख कहते हैं, यस्मादेपं परिग्रहवारणेऽतियहयो अम्मद्वयभाषिनो धोपाय तझा सव्वे संगे अणांगए वनुमाणए तीदे ।। त सम्बत्थ णिवारहि करणंकारावणुण्णाहिं ॥ ११७९ ॥ भवंतो भाचिनो भूता ये भवन्ति परिग्रहाः ॥ जहाहि सर्वधा तास्वं कृतकारितमोदितः ॥ १२१७ ॥ विजयोदया-तमा तस्मात् । सव्वे संगे सपिरिग्रहान् । अपागवे अनागतान् । चट्टमाणगे तीदे वर्तमानानती. तांश्च भवान् । सम्वत्थ णियारेहि सर्वधा निवारय । करणकारायणुण्णाहिं कृतकारिताभ्यामनुमोदनेन । कथं अतीतो भावी वा परिग्रहो बंधकारणे येन निधार्यते। अयमभिप्रायः अतीतस्वस्थामिसंबंधऽपि वस्तुनि ममेदं वस्त्वासीदिति तदनु स्मरणानुरागादिना अशुभपरिणामेन बंधी भवतीति मा कृथास्तदनुस्मरण अनुराग वा । एवं भविष्यति इत्थंभूतं मम द्रविण इति ॥ . यस्मादेवं परिमहमहणेऽतिबहवो जन्मद्वयभाविनो दोषा भवेयु:-- १९६५ Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SRTANTara 'पुकाराधना आश्राम । मूलारा--अणागर्द भविष्यतीत्थंभूतं मम वांछित वस्त्विति, भाविन्यपि वस्तुनि स्वस्वामिसंबंधानुरागेणाशुभपरिणामेन पारवंधो भवतीति भाषिनो प्रथानिवारय त्वमिति क्षपकं नियुक्त । दीदे अतीतान तत्तादम्बस्तु ममासीदित्यवीतषसुन्यपि स्वस्वामिसंबंधानुस्मरणानुरागादिरप्यशुभपरिणामः पापबंधाय प्रभवतीत्यतीतपरिग्रह निवारणनियोगः । कारावणुण्णादि काराव कारापः कारापण, अणुण्णा अनुज्ञा, अनुभतिः॥ परिग्रहत्याग करनेसे सुख मिलता है और परिग्रह ग्रहण करनेसे इस भवमें और परभवमें दोष उत्पन्न होते हैं अर्थ-इसलिये हे क्षषक भविष्यकालीन, वर्तमानकाल संबंधी और भूतकाल संबंधी संपूर्ण परिग्रहोंका तूं त्याग कर. तशा कृत, कारित और अनुमोदनासे इनका तूं त्याग कर. शंका-जो परिग्रह बीत चुका और जो आगे प्राप्त होनेवाला है यह वैधका कारण कैसे हो सकता है। इस वास्त उसका निावाण करने की क्या आवश्यकता है? उत्तर-जो परिग्रह नष्ट हो चुकनेसे उसमें से स्वस्वामिसंबंध नष्ट हुआ है तोभी यह परिग्रह वस्तु मेरी थी ऐसा स्मरण होकर उसमें ममत्व होता है, जिससे अशुभ परिणाम उत्पन्न होकर बंध होता है. इसी प्रकार भविष्यत्कालीन परिग्रहमेंभी ममत्व होता है. भविष्यकालमें मेरेको अमुक चीज मिलेगी ऐसे संकल्प मनमें उत्पन होकर शुभाशुभ परिणामोंसे कर्मबंध होता है. इसलिए त्रिकालसंबंधी संपूर्ण परिग्रहका तूं त्याग कर ऐसा क्षपकको आचार्य उपदेश करते हैं. जावंति केइ संगा विराधया तिविहकालसंभूदा ।।। तेहिं तिविहेण विरदो विमुत्तसंगो जह सरीरं ॥ ११८० ॥ यावन्तः केचन ग्रंथाः संभवन्ति विराधकाः ।। निवृत्तः सर्वथा तेभ्यः शरीरं मुंच निःस्पृहः ॥ १२१८ ॥ विजयोदया-जावंति केइ संगा यावन्तः केचन परिग्रहाः । पिराधमा विनाशकाः । कस्य ? रत्नत्रयस्य । ११६६ Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना শাখা? तिविधकालसंभूदा कालत्रयप्रवृत्चार । तेदि तिधिधण विरको विमुत्तसंगो तेभ्यो मनोबाकायरितः सन् विमुक्तसंगः। जह सरीरं स्यज शरीरं । ग्रंथा रत्नत्रयविनाशका इत्यशेषाप्रथानिरस्य निःसंगः समंग त्यजेति झपकमादिशतिमुलारा-विराधया रत्नत्रयविनाशकाः । जह त्यज त्वं ॥ अर्थ-जो त्रिकालसंबंधी परिग्रह रत्नत्रयके विनाशक हैं उनसे हे रुपक मन, वचन और कायसे किरक्त होकर अर्थात् निष्परिग्रह होकर इस शरीरका त्याग कर. 661GAR DATAARAKATATATARATRAINIATARAIGALAXRASHRAIsraekeBSTRIBNEPest . एवं कदकरणिज्जो निकालतिविहण चच सध्वत्थ ॥ आसं तण्हं संग छिंद ममत्तिं च मुच्छ च ॥ ११८१ ॥ इत्थं कृतक्रियो मुच विषयं सार्वकालिकम् ।। तृष्णामाशां त्रिधा संग ममत्वं त्यज सर्वदा ॥ १२१५ विजयोदया-पर्य कवकरणिज्जो एवं कृतकरणीयः । यत्कर्तव्यमाराधनां वांछता आहारशरीरत्यागादिक । स एवंभूतः। तिकाले वि कालत्रयेऽपि । तिविधेण त्रिविधेन | सव्वत्थ सर्वत्र सर्पविषयां सुखसाधनगोचरं । आस आशां। तपहुं सूकामां । संग परिप्रहभूतां । छिंद ममासि ममेदमिति संकल्पं छिद्धि । मुच्छ मूछ- मोहमिति यावत् ॥ इत्थं कृताराधनासिद्धगंगभूतसल्लेखनाहारशरीरत्यागादिकर्तव्यः सन्ननादिविभम संस्कारवशादिषयसुरखए प्रादुर्भवदाशादिपंच निर्मूलवेति शिक्षासर्वस्वमाह - मूलारा-सव्वस्थ सर्वेषु मनोज्ञस्पर्शनादिविषयेषु । आस आशा | चिरमेते ईशा विषया ममोदितोदिता भूयासुरित्याशंसा । तण्हं तृष्णां । इमे मनागपि मत्तो मा विच्छित इति तीव्र प्रबंधप्रवृत्त्यभिलाषं । संगं तन्मयीभाव । छिंद ठिद्धि त्वं । ममत्ति ममेमे भोग्या अहमेषां भोक्तति संकल्प । मुच्छं मच्छी मूहता निश्चतनसां । अन्ये पुनरित्वमर्थ कथयति-सर्वच शरीरादावाशी । दृढ़तरे शरीरमद्यापि मे भविष्यतीत्याविबुद्धिं । तथा तृष्णां सर्योपायेन रक्षणापेशं । तथा संगमासक्ति । तथा ममतां ममेदमिति प्रतिबंध । तथा मू मत्रैर तिष्ठामीति आसक्तिवृद्धि । भोः झपकराज ! निवारयेति ।। अर्थ–आराधना की सिद्धीके अंगभूत कर्तव्य जिसने किये हैं अर्थात् शरीरसल्लेखना जिसने की है ऐसे ११६७ Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारामना भावास हे भूपक मने! - नीनों कालमें मनवचन कायसे सर्व परिग्रहोंकी आशा और तृष्णाका त्याग कर. संग, ममत्व और मृच्छका त्याग कर. चिरकालतक मेरेको सुख देनेवाले विषय उत्तरोत्तर अधिक प्रमाणसे मिले ऐसी इच्छा रखना उसको आशा कहते हैं. तृष्णा-ये सुखदायक पदार्थ कमी भी मेरेसे अलग न होचे ऐसी तीव अभिलाषाको तृष्णा कहते हैं, संग-परिग्रहोंमें अतिशय तन्मय होना. ममत्व-ये पदार्थ मेरे भोग्य हैं मैं इन का मोक्ता हूं ऐसा मनमें | संकल्प करना. और मुर्छा अर्थात् मोहयुक्त बनना. हे क्षपक तूं आशा, तृष्णा, संग, मृच्छी वगैरह अशुभ भायोंको छोड़ दे. परिप्रहस्य त्यागजम्पसुखातिशयमिह जन्मनि प्राप्यं निर्दिशत्युत्तरगाथा सवग्गंथविमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य ॥ जं पावइ पीयिमुहं ण चक्कवट्टी वि तं लहइ ॥ ११८२ ॥ समस्त ग्रंथनिमुत्ता प्रसन्नो निताशयः॥ यत्प्रीतिसुग्चमाप्नोति तत्कुतश्चक्रवर्तिनः ।। १२२० ॥ विजयोदया-सत्वगंधविमुको परित्यक्ताशेषवायाभ्यंतरग्रंथः । मीदीभूदो शीतीनः । पसनचित्तो य प्रसन्नचित्तः सन् । जे पायदि पीदिनुहं यत्पामोति भीत्यात्मक सुखं । वात्रट्टी विलयदि चक्रवर्त्यपि न समेत ॥ वाह्याभ्यंतरपरिग्रहत्यागसमुद्भवं सुग्वातिशयमिह जन्मनि प्रापमुपदिशति-- भलारा-सीदीभूदो यंथेवितिकर्तव्यतापितापासुटत्वासंतापनिवर्तनान,त्यं प्रापः । पीगिनुहं आनंदामकं सौस्यम ॥ परिग्रहका त्याग करनेसे जो सुखातिशय इस जन्म में प्राप्त होता है उसका आगेकी गाथामें उल्लेख करते है अर्थ-जिसने पायाभ्यंतर परिग्रहोंका त्याग किया है वह शीतीभूत होता है अर्थात् परिग्रह रहनेपर उसकी रक्षा करनकी चिंता उत्पन्न होती है. व्याकुलता बढनेपर मन संतप्त होता है. परिग्रहका त्याग करने से संतापका नाश होता है. जिससे मुनिराज शीतावस्थाको नाम होत हैं. उनका अन्तःकरण प्रसन्न होता है, अतः ऐसी अवस्थामें जो सुख उनको प्राप्त होता है वैसा चक्रवर्तीको भी प्राप्त नहीं होता है. HTTARAHARAMATTA Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः चक्रवातसुखस्य सत्यतायाः कारणमाच रागविवागसतण्णादिगिहि अवतित्ति चक्कवट्टिसुहं ।। णिसंगणिव्युइसुहस्स कहं अघह अणंतभागं पि ॥ ११८३ ।। गृध्याकांक्षाकारणं सेवन गचक्री सौख्यं रागपाक वितृप्ति ।। सौख्यस्येदं नास्तसंगस्य तुल्यं स्वस्थोश्वस्थैः सौख्यमाप्नोति कुत्र॥१२२१ दुरदानि पश्यति सामगि पुश्यति कर्माणि युट्यन्ति चित्राणि संगे । ऽगृहीत यतः संयतस्यापि हेयस्ततः सर्वदासी पटिछेन पुंसा ॥ १२२२ ।। । इति पंचम व्रतम् ॥ पिजयोदया-रागविचारासतण्डारगिद्धि अवतित्ति चक्रवटिसुई। रागो विपाकः फलमस्येति रागषिपाकरूप विषयसुखमासंध्यमाम रंजयति विषयेयिति रागो विपाकः फलं सुखस्येत्युच्यते । सह तृष्णया वर्तते इति सतृष्ण, भतिशयेन गायकांक्षां जनयति इति अतिगृद्धि। न विद्यते दृप्तिरस्मिनित्यषितृप्ति यदेवंभूतं चक्रवर्तिसुख । णिस्संगणिबुदिसुखस्स नि:संगस्य यभितिसुखें तस्थानातभागमपि न प्रामोति ॥ फुलवकिसुखं निःसंगसुखादयकृष्यत इत्यारेको निराकरोति ।। मूला--रामयिवाग विषयसुखमासेव्यमानं विषये पुरुष रंजयतीति रागो विपाकाफलमस्येति रागविपार्फ चक्रिसुखं । सतण्डा प्रागुक्तलक्षणतृष्णानुबंधि । अदिगिद्धी अतिशयेन गृद्धिराकांक्षा लोपट्यमस्मिन्निति अतिगृद्धि । अषिनित्ति नास्ति विशेषेण पुनराकांक्षा निवृत्तिलक्षणेन तृभिः सौहित्य, पुनर्नानुभवामि कदाचिदपीत्यर्वविधपरिणतिरूपं यत्र सवितृप्ति । यत इत्थंभूतं चक्रवर्तिसुखमत एतद्विलक्षण निःसंगस्य यतेयेन्निवृत्तौ संगत्यागे निद्वन्द्वतायां मुखं मुक्तात्मनामेव शर्म तस्य भार्गपि अनंतोशमपि । कथमग्वेज्ज अग्र्धन प्राप्नुयातदिति संबंधः ॥ आकिंचन्यम ॥ निष्परिग्रहतासे होनेवाले सुखस चक्रवर्तीका सुख अल्प है. यह बताते है अर्थ-विषयसुखका उपभोग लेने से वह इंदिय-विषयोंमें आसक्ति करता है. इस वास्ते चक्रवर्तिका सुख गगभाव को उत्पन्न करने वाला है यह तृष्णाको घटाता है, इस सुखमें अतिशय लंपटताप्राप्ति होती है. पार बार भोगनेपर भी वृति उत्पन्न होती ही नहीं. इसलिए परिग्रहका त्याग करनेपर रागद्वेषरहित यतीश्वरको जो सुख Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना प्राप्त होता है चक्रवर्तीका सुख उसके अनंत भागकी भी परोपरी नहीं कर सकता है. इस तरह पांचों महा व्रताका वर्णन हुआ. मायाम १९७० महायतसंशा अन्वर्था अहिंसादीनामिति दर्शयतिपंचमहउवयं ।। (साति जं महत्थं आयरिदाइं च जं महल्लेहिं ॥ जं च महल्लाइं सयं महव्वदाई हचे ताई ॥ ११८४ ॥ ) साधयन्ति महार्थ यन्महद्भिः सेवितानि यत् ॥ महान्ति यत्स्ययं सन्तो महाव्रतान्यतो विदुः।। १२२३ ॥ विजयोदवा-साधेति जं महत्थं साधयति यस्मान्महाप्रयोजन असंयमनिमित्तप्रत्यनकर्मकदंषकनिवारणं महारयोजनं संपादपतीति महानतानि । आयरिदार च ज महल्ले यस्सावाचरितानि महतिः तस्मान्महावतानि इति नितिः । जंच यस्मान्महम्लोणि स्वयं महाति सतो महावतानि स्थूलसूक्ष्मभेवसकलादिसाविरूपतया या महान्ति । . एचहिंसादीनि प्रतानि पंचापि प्रपंच्य सांप्रतं तद्रक्षारात्रिभोजननिवृत्यादिलक्षणं गथा पचोत्तरशतेन याचिभ्यासुः प्रथम तेषां महावतसंज्ञाया अन्यर्थता समर्थयते-- मूलारा-साधेम्ति संपादयन्ति । महत्धं असंयमनिमित्तप्रत्यमकर्मकदवकनिधारणलक्षणं महाप्रयोजनं । महदहिं तीर्थकसदिभिः । महलागि स्थूलसूक्ष्म विकल्पसकलहिंसादिविरतिरूपतया महांसि विपुलानि । हवे भवति । ताई आईसादीनि हिसादिविरतिरूपाणि शुद्धचिट्ठपाणि नो आगमभावत्रतापेक्षया चारित्रमोहस्य क्षयोपशमादुपमाक्षयात्रा प्रवृप्ता जीवस्य हिंसादिपरिणामध्यावृतशे यावजीवन हिनस्मि, नानृतं वदामि, नादत्तमाददे, न मैथुनं करोमि, न परिग्रह गृलामीत्येवभूताः परिणतय इति यावत् ॥ . अहिंसादिक व्रतों की महानत संज्ञा अन्वर्थक है ऐसा आचार्य कहते हैं ( अर्थ-अहिंसादिकों को महावत संज्ञा अन्वर्थक है. असंयम उत्पन्न होनेवाले नवीन कमसमूह का 1 निवारण करना यह महाकार्य इन अहिंसादिकों से होता है अतः इनको महावत कहते है. महापुरुषाने इनका Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधस आचरण किया था इस लिए भी इनको महाव्रत कहते हैं. अथवा ये स्वयं महान् हैं अर्थात् स्थूल और सूक्ष्म दोनो प्रकारके पंच पातकोंका त्याग ही इनका स्वरूप है इसलिए भी इनको महावत कहते हैं. , भाश्वास तेसि चेव वदाणं रक्खटुं रादिभोयणणियत्ती अप्पवयणमादाओ भावणाओ य सव्वाओ || ११८५ ।। रक्षणाय मला तेषां निवृत्ती रात्रिभुक्तितः ॥ राद्धांतमातरवाष्टौ सर्वाश्चापि च भावनाः ।। १२२४॥ विजयोदया-तेसिं चेव बदाणं नेपामेवाहिंसादिवतानां। रक्वत्थं रक्षणार्थ । रादिभोयणणियत्ती रात्रि भोजमानिवृत्तिः । रावी यदि भिक्षार्थ पर्यटति प्रसास्थावगंश्च द्वन्यादरालोकत्वात् । न च दायकागमनमार्ग, तस्याना. वस्थानदेश, आत्मनो वा उच्छिएस्य वा निपातदेश, दीयमानं वाहार योग्य न वेनि निरूपयितुमर्थ कथं समर्थः ? दिवापि दुरिहारान जानाति स सूक्ष्मानयं कथं परिहरेत् कच्छकादिकं दाथिकाया: भाजनं वा कर्थ शोधयति । पदविभागिका वा पपणासमित्यालोचनां सम्यगपरीक्षितषियों कुर्वतः कथं सत्यवतमयतिष्ठते । सुप्तन स्वामिभूतनादसमप्याहार गृङ्गतोऽदसादाने मयान् । कचिद्भाजने दिवय स्थापित, आत्मवास मुंजानस्यापरिग्रहनतलोप: स्यात् रात्रिभोजनात्तु च्यावृत्तः सकलानि प्रतान्यबतिष्ट्रने संपूर्णानि । भट्टप्पवयणमादाभो अटी प्रवचनमातृकाश्च सइतपरिपालना एवं पंच समितयः तिम्रो गुप्तयश्व प्रवचनमासूकाः । रत्नत्रय प्रवचनं तस्य मातर इवेमाः । क उपमार्थः? यथा माता पुत्राणां अपायपरिपालनोद्यता, प, पिसमितयोऽपि प्रतानि पालयन्ति । भावणाओ य सव्वाओ भावनाश्च सर्वाः वीर्यातरायक्षयोपशमचारिशमोहोपशमक्षयोपशमक्षिणात्मना भाच्यतेऽसत्प्रवन्यते इति भावनाः । अथ किमिदं प्रतं नाम? यावज्जीवन हिनसि, नानृतं वदामि, नादसमानदे, न मिथुनकर्म करोमि, न परिग्रहमाददे । इत्येचंभूत आन्मपरिणाम उत्पनः कथंचित्तथैव भवतिष्ठत उत विनश्यति था? । अवस्थानमनुभवविरुद्धं । जीचादिपरिशाने तस्य धशाने वा प्रवृचस्य इत्थमुपयोमामायाल । अथ यिनश्यति ? परिणामान्तरोत्पसौ अलति का रक्षा ? सतो धपायपरिहारो रक्षा ततः किमुच्यते बतानां रक्षायै रात्रिभोजनविरतिरिति । यदा नहिनस्मीत्युपयोगो न सदा मानृतं घवामीत्येवमादयः संति परिणामाः । किं पुनः परिणामांतर वाच्यम् । अत्रोच्यते नामाविधिकरपेन चतुर्विधानि प्रतानि । तत्र मामवतं कस्यचिद्रतमिति कृता संशा । हिंसादिनिवृतिपरिणामयत आत्मनः शरीरस्य बंधं प्रत्येकत्वात् नाकारः सामायिक परिणतस्य सद्भावस्थापनातं । भापत्रतत्वंग्राहमानपरिणतिरात्मा भागमव्ययतं । यतक्षस्य शरीरं त्रिकालगोचरं, शायकशरीरवतं । चारित्रमोहस्य क्षयारक्षयोपशमाद्धा यस्मिन्नास्मनि भविष्यति बिरतिपरिणामाः स भाधिवतं । उपशमे क्षयोपशमे शवस्थितः चारित्रमोहो नो आगमद्रव्यन्यतिरिक्त Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास कर्म प्रतं । न बिनस्मीत्यादिको शानोपयोगो भण्यते आगमभाववतमिति । नो आगमभाचपतं नाम चारित्रमोहोपशमात् क्षयोपशमात् क्षयाता प्रवृत्तो हिंसाविपरिणामाभाचः अहिंसावित्रतं । प्राणिनां वियोजने प्राणानां, असदभिधाने, अदत्ता हामे, मिथुनकर्मविशेष; मूकीयाँ थाऽपरिणतिरिति यावत् । तथा चोक्तं 'हिसासूसस्तेयाब्रह्मपरिप्रवेभ्यो विरतितमिति' हिंसाधयः क्रियाविशेषा आत्ममः परिणामास्तेभ्यो आस्मनो व्यावृत्तिहिंसाविषपरिणतितमिति सूत्रार्थः । हिसाविष्यावृत्तत्वं नाम यरूप जीवस्य प्रतसंशिसं तत्परिपाल्यते रात्रिभोजननिवृत्या प्रवचनमतकाभिश्च । यसिन्वाऽसति सहिनश्यति सति घन यिनश्यति तत्तत्यालति यथा दुर्गा राजानं । सस्यां रात्रिभोजननिवृत्ती प्रवचनमातृकासुभाषनासु वा सतीषु ईिसाविष्यावृसत्यं मयति । म ताखसतीषु इति युक्तमुक्तं सूत्रकारेण । कस्कस्तद्रक्षणार्थमुपाय इत्या-- मूलारा-रक्सट्ठ अपायपरिहारलक्षणं रक्षणनिमित्तं । पवयणमादाओ प्रवचनमातरः । प्रवचनस्य रत्नत्रयस्य मातर इव पुत्राणां मातर इव सम्यग्दर्शनादीनां अपायनिधारणपरायणास्तिस्रो गुमयः, पंचसमितयश्च । अथवा प्रचचनात्य मुनेचारित्रमात्रस्योत्पादनरक्षणविशोधनविधानात्तास्तथा व्यपदिश्यते । तथा पायोचाम धर्मामृते-वृत्तं ।। अहिंसा पंचात्मनतमथ यांग जनयितु । सुवृत्तं बातु ता विमलयितुमंबा: श्रुतविदाः ।। विदुम्तिम्रो गुतीरपि च ममिनी: पंच नदिमाः । श्रयन्विष्टायाप्टौ प्रवचनसावित्रीब्रतपरः ।। १॥ भावणाओ वीर्यान्तराय चारित्रमोहनयोपशमाद्यपेक्षणात्मना भान्यतेऽसत्प्रवर्त्यन्त इति भावना असकृत्प्रवृत्तयः । अभ्याससंस्कारा इति यावत् । सब्बाओ निःशल्यताभावनासंग्रहार्थमिदं । यस्मिन्नश्यति यद्विनश्यति सति च तिष्ठति तत्तत्परिपालयति । यथा दुर्गा राजानं । तिप्रति च सति रात्रिभोजननिवृत्यादिपरिणामजाते जीवम्य हिमादिल्यावृत्तं नाम नोआगमभावनतापरनामधेय स्वरूप न असतीति तत्परिपालयन्ति रात्रिभोजननिवृत्त्यादयः शुद्धचित्परिणतय इति निर्णयः । ननु च जीवाश हिनस्मि, इत्यादि परिणामो प्रतमित्युच्यते । स किमुत्पन्नः सम्विनश्यत्युत तथैवाबवत्तिप्ठते । न लावदतिष्ठते अनुभवविरोधाजीवादितत्त्वज्ञाने तच्छूछाने बाप्रवृत्तस्यात्मनस्तथोपयोगपतीतेः । अथ विनश्यति परिणामान्नरोत्पत्तायसावितीध्यते तहि, तस्यासतो मृतपुत्रवत्का रक्षा। सतो पायपरिहारो रक्षा । ततस्तेसि चेवेत्यादि सूत्रं युक्तिवियुक्तमिव पश्यामः । अनोच्यते-यावजीविकहिंसादिययावृत्तिरूपपरिणतस्य अवस्थातुरात्मनः कथंचिचथैशवस्थानस्य विवक्षितत्वानोक्तदोषोऽवकाशं लभते इति ॥ १९७२ Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना ११७३ अर्थ-इन अहिंसादि व्रतोंके रक्षणार्थ रात्रिभोजन त्यागका उपदेश आचार्योंने किया है. यदि रात्रि में frers लिए मुनिपर्यटन करेंगे तो बस और स्थावर जीवोंका वध होगा. क्योंकि वे रातमें नहीं दीखते हैं. आहार देने बालेका आगमन भार्ग आहारके पदार्थ रखने का स्थान, स्वयं जहां आहार के लिए खडे हुए हैं वह प्रदेश जहां उच्छिष्ट अन्नता है वह स्थान दिया जाने वाला आहार से यह योग्य है अथवा अयोग्य हैं इन का निरीक्षण रातमें करना शक्य नहीं है. दिनमें भी जीवोंका परिहार करना अशक्य है. फिर रात्री में उनका कैसा परिहार हो सकेगा. पत्री वगैरह अन्न परोसने के साधन और अन्न रखनेके पात्र रातमें मोधना अशक्य है. जिसके विषयोंका सम्यक निरीक्षण हुआ ही नहीं ऐसी पदविभागिका आलोचना अथवा एषणा समिति आलोचना करनेवाले मुनीके सत्यप्रतका कैसे रक्षण होगा. दानका स्वामी सोया होगा तो उसने नही दिया हुआ आहार ग्रहण करने से अचौर्य व्रत नहीं टिक सकता है. किसी पात्रमें दिनमें स्थापन किया हुआ आहार वस तिकामें ले जाकर भोजन करनेसे अपरिग्रहवतका रक्षण कैसे होगा रात्रिभोजनका त्याग करनेसे सर्व व्रत पूर्ण होते हैं. इन व्रतोंके रक्षणार्थ ही आठ प्रवचन माताओंका और सर्व भावनाओंका रक्षण करना चाहिये. तीन गुप्ति और पांच समितिओंको प्रवचनमाता कहते हैं. रत्नत्रयको प्रवचन कहते हैं. इस रत्नत्रयकी ये गुप्ति और समिति माता के समान है. जैसी मात्रा पुत्रका अपाय से रक्षण करती है वैसे गुप्ति और सुमिति व्रतों का रक्षण करती हैं. सर्व भावना भी व्रतका रक्षण करती है. र्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम, चारित्रमोहका उपशम अथवा क्षयोपशम इनसे युक्त ऐसे आत्मा के द्वारा जो बारबार पाली जाती है उनको भावना कहते हैं. • किसको कहते हैं ? उत्तर - आमरण मैं हिंसा नहीं करूंगा, झूठ भाषण नहीं करूंगा, दुसरेने नहीं दी हुई वस्तु मैं ग्रहण नहीं करूंगा, मैथुन सेवन नहीं करूंगा और परिग्रहका स्वीकार नहीं करूंगा इस प्रकारका जो आत्मामें परिणाम उत्पन्न होता है. उसको प्रत कहते हैं. शंका- यह आत्माका परिणाम कथंचित् वैसा ही रहता है आत्मामें स्थिर रहता है ऐसा कहोगे तो यह कहना अनुभवविरुद्ध है. स्वरूप जाननेमें उद्युक्त होता है अथवा श्रद्धान करनेमें अपने चित्तको अथवा नष्ट होता है ? यदि यह परिणाम क्यों कि जब आत्मा जीवादि पदार्थोंका लगाता है तब उपर्युक्त परिणाम आत्मामें आश्वास ६ ११७३ Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ११७४ नहीं रहता है- यदि यह व्रतरूप परिणाम दूसरे परिणाम उत्पन्न होनेपर नष्ट होता है ऐसा कहोगे तो वह असद्रूप ठहरा असर कर सकते हैं कोई पदार्थं स होनेपर ही उसमें अपाय और परिहार हो सकते हैं. अतः व्रतोंके रक्षणार्थ रात्रिभोजन त्यागका वर्णन करना व्यर्थ है. जब मै प्राणीका बात नहीं करूंगा ऐसा परिणाम आत्मामें उत्पन्न होता है तब मैं असत्य नहीं बोलूंगा वगैरह परिणाम उत्पन्न नहीं हो सकते हैं, तब अन्य परिणामोंके विषयोंमें क्या कहना चाहिए. उपर्युक्त शंकाका उत्तर आचार्य इस प्रकार देते हैं नामादिक विकल्पोंसे व्रतके चार प्रकार होते हैं. किसीका व्रत ऐसा नाम रखना यह नामवत कहलाता है. स्थापना व्रत - हिंसा, असत्य, चोरी इत्यादि पापोंसे निवृत्तिरूप परिणाम जिसमें उत्पन्न हुए हैं ऐसा आत्मा और शरीर दोनो भी बंधकी अपेक्षासे एकरूप हुए हैं. अतः सामायिकमें परिणत हुए जीवके आकार में Waist स्थापना करके उसको स्थापना व्रत कह सकते हैं. आगम द्रव्यवत -- भविष्यकाल में आत्मामें व्रतके स्वरूपको ग्रहण करनेवाला अर्थात् जाननेवाला ज्ञानपरिणाम व्रतके स्वरूप जाननेमें अनुपयुक्त हैं. ऐसे ज्ञानपरिणत आत्माको आगम द्रव्यवत कहते हैं. ज्ञायकशरीरव्रत - व्रतज्ञ आत्माका त्रिकालगोचर जो शरीर उसको ज्ञायकशरीरमत कहते हैं, चारित्र मोह कर्मके क्षय, अवक्षयोपशम जिस आत्मामें विरक्तिरूप परिणाम उत्पन्न होगा वह आत्मा भावत कहलाता है. उपशम में अथवा क्षयोपशममें जो चारित्र मोहकर्म रहा है उसको नो आगम द्रव्य व्यतिरिक्तकर्म व्रत कहते हैं. मैं हिंसा नहीं करूंगा: शूट नहीं बोलूंगा इत्यादिरूप जो ज्ञानोपयोग उसको आगमभावनत कहते हैं. चारित्र मोहनीय कर्मका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होनेपर जो हिंसादि परिणामोंका अभाव होता है उसको अहिंसादि व्रत कहते हैं. इसको नो आगमभाववत कहते हैं. प्राणिओंके प्राणोंका वियोग करनेमें प्रवृत्ति नहीं करना यह अहिंसाग्रत है. झूठ बोलनेमें, नहीं दी हुई वस्तु ग्रहण करने में, मैथुन में, और ममत्त्वमें आत्माकी परिणति नहीं होना इनको क्रमसे सत्यव्रत, अचौर्य व्रत, भाश्वास: ६ ११७४ Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 आश्वासः मृताराधना SsehareRATAsiaRaTAR ब्रह्मवृत और परिग्रहत्यागवत कहते हैं. श्री उमास्वामी आचार्य 'हिंसान्तस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विनित' ऐसा व्रतका कथन करनेवाला मन्त्र कहते हैं. ये हिंसादिक क्रियाविशेष आत्माक परिणाम है उनसे परायन होना अथीत हिंसादिकॉमें परिणति न होना ही व्रत है गला उपयुक्त मूत्रका अभिप्राय है. हिंसादिकोंसे परावृत्त होना इस प्रकारका जो आत्माका परिणाम है उसका रात्रिभोजन त्याग द्वारा, प्रवचन माताके द्वारा रक्षण होता है अर्थात् रात्रिभोजर त्याग और समिति गुप्ति ये अहिंसादि व्रताका रक्षण करते हैं. प्रवचन माना और रात्रिभोजन त्यागके अभावमें व्रत नष्ट होते हैं और इनक सद्भावमें ब्रताका रक्षण होता है. जिसके अभाव में जिसका नाश होता है और जिसके सङ्कायमें जो नष्ट नहीं होता है तो समझना चाहिए कि वह उसका रक्षण करता है, जैसे दुगके अभावमें राजाका नाश होता है और उसके सद्भावमें रक्षण होता है. वैसे रात्रिभोजन त्याग, प्रवचनमाता व भावना इनके सद्भावमें हिंसादिकोंसे आत्मा परावृत्त होता है. और इनके अभावमें परावृत्त नहीं होता है इसलिए इनको आचायेने खतरक्षणार्थ माना है वह योग्य ही है. तेसिं पंचण्हं पि य अहयाणमावज्जणं व संका वा ॥ आदविवन्ती य हवे रादीमचप्पसंगम्मि ॥ ११८६ ॥ . हिंसादीनां मुनेः प्राप्तिः पंचानां सह शंकया ॥ विपत्तिर्जायते स्वस्थ रात्रिभुक्तस्तथा स्फुटम् ।। १२२५ ।। विजयोदया-तसि पंचण्हं पि य अहयाणमावजणं तेषां पंचानां हिंसादीनां प्राप्तिः । संका पा शंका या मम हिंसादयः संवृत्ता न वेति । हये भवेत् । रादीमत्तष्यसंगम्मि रानावाहाराप्रसंगे सति न केवलं हिंसादिषु परिणतिः । पिवत्तीय हविजा आत्मनश्च यतेः स्वम्यापि विपद्भघन् । स्थाणुसर्पकंटकादिभिः॥ रात्रिभोजने मुनेदर्दोषानाह मूलारा-अण्ड्याणं हिंसादीनां । आवजण प्राप्तिः । संका मम हिसादयः किं संवृत्ता न वेति शंका । आदधिवत्ती आत्मविपत् । रात्री भिक्षार्थ पर्यटतो यतेः सर्वकटकादिभिरुपसर्गश्च भवेत । पसंगम्मि प्रवृत्तौ सस्याम | उक्त च--- प्राप्तिः शंका च पंचानां हिंसादीनां यतेर्भवेत् ।। रात्रिभोजनसद्भाचे स्वविपत्तिश्च जायते ॥ Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास अन्ये तु अणहयाणं प्रतानां । आवजणं सर्वथाविनाश इति व्याख्योति । तथा चोक्तम्-- सेशं पंचानामपि महाप्रतानां विनाशने शंका ।। आत्मविपत्तिश्च भवेद्विभारीभक्तसंगेन ।। रात्रिभोजमप्रवृत्तौ हिंसादयः कथमिति चेदुध्यते । रात्रौ भिक्षार्थ पर्यटन्भाणिननसानस्थावरांश्च हिनस्ति । तेषां तमस्यदृश्यत्वात् ।। न च दायकागमनमार्ग, तस्य स्वस्य च अवस्थानदेश, भोजनभाजनाविस्थापनस्थानं, उच्छिद्रस्य वा निपातदेश, दीयमानं चाहार, योग्यमयोग्यं चेति निरूपयितुं पारयति ध्यांतप्रतिबदष्टित्वान ॥ प्रदीपेऽपि प्रबोधित ऽतिसधमत्रसानां निरूपणा न स्यात् । पतंगादिघातप्रसंगश्च स्यादिति रात्री भंजानः कथमहिंसनतमनुपालयेत् । सश रात्री । भुक्त्वा पदविभागिकामेषणासमित्यालोचना सम्यगपरीक्षितविषयां कुर्वतः । कथमिव सत्यप्रतमयतिवेत् । तथा सुतस्य स्वामिभूतस्याहारमन्येन दत्तं रात्रौ तयुद्धया गृहृतोऽदत्तादानमपि कथं न स्यात् । तथा विद्विष्टगोत्रियो वैरिणो श निःशंकिता रात्रौ मार्गादौ प्रधचये नाशयन्ति । कामांबा: स्वैरिण्यो वा हठादभिसारयन्त्यः । तथा दिवानीतं निजयसती स्वपात्रे स्थापितं आहार रात्री मुंजानः सपथः किमिति न स्यात् । ततो महाप्रतसंपूर्णतामिछरात्रिभोजनविरमण षष्टमणुव्रतमनुतिष्ठवेष । अणुप्रतत्यं चास्य दिवा भोजनस्यापि करणातू । यदाहु:--रहे अणुव्वदे राइभोयगादो देरमणमिनि । तथा चाबोचाम धर्मामूते ॥ पंचतानि महाफलानि महता मान्यानि विध्वग्विरस्थात्मानीति महाति नक्तमशनोज्झाणुव्रतामाणि ये ॥ प्राणित्राणमुखप्रवृत्त्युपरमानुकान्तिपूर्णीभवत्साम्याः शुद्धदृशो तानि सकलीकुर्वन्ति निवान्ति ते ॥ स्वामिनिर्देशद्वारेग गुप्तीः समिसीच लक्षयति-- अण्हयदारोपरमणदरस्स गुत्तीओ होन्ति तिण्णेव ।। चेट्ठिदुकामस्स पुणो समिदीओ पंच दिट्ठाओ ॥ ११८६ ॥ मूलारा-अण्हयदारोपरमणदरस्स आमचद्वार निरोधासरूस्य। चेटिंदुकामम्म गमनवचनादिकं कर्तुं प्रवृत्तम्य । सक्तं च-- सर्वति गुप्तयस्तिखो योगनिमहलक्षणाः ॥ Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना REET आश्वास सम्यकप्रवृत्तयः पंच सता समितयो मताः । एतां श्री विजयो नेच्छति ॥ अर्थ-रात्रि में आहारप्रसंग होनेपर हिंसादिक पांच पापोंकी उत्पत्ति होती है. अथवा शंका उत्पन्न होती है. अर्थात् रात्रिभोजन करनेसे हिंसादिक पाप उत्पन्न होते हैं या नहीं ऐसा संशय उत्पन्न होता है. रात्रिभोजन करनेसे हिंसादिक पाप ही उत्पन्न होते है ऐसा नहीं किंतु इससे यताका नाश भी होता है. रुंठ, सर्प, कंटक इत्यादिकसे यतिका पात भी होगा. यति यदि रात्रिमें आहार करने के लिए श्रावकके घर जायेंगे तो सादिकोंसे उनके प्राण नष्ट होनेकी संभावना है. प्रबचनमातृकाव्याख्यानायोत्तरप्रयंधस्तत्र मनोगुम्ति घाग्गुप्ति ध्यानयातुमायातोसरगाथा जा रागादिनिधतामणस्स जाणाहि ते मणोगति ॥ अलियादिणियत्ती वा मोणं वा होइ बचिगुत्ती ॥ ११८७ ॥ मनसोबोषविश्लेषो मनोगुसिरितीप्यते ॥ . वाग्गुसिश्चाप्यलीकार्निवृत्तिर्मानमेव च ।। १२२६॥ विजयोदया-जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणातिं मणोगुन्तिया रामाषाभ्यां निवृत्तिर्मनसस्ता जानी हि मनोगुप्ति । अत्रेदं परीक्ष्यते । मनसो गुप्तिरिति यदुच्यते किं प्रवृत्तस्य ममसो गुतिरथाप्रवृत्तस्य ? प्रवृसं ने शुभं मग सस्य का रक्षा । अप्रवृस तथापि असता का रक्षा? सतोऽप्यपायपरिहारोपयुक्ततेत्युख्यते किं च मनःशदेन किमुच्यते द्रव्यमन उत भाषमनः। द्रव्यवर्गणामनश्चेत् तस्य कोऽपायो नाम यस्य परिहारो रक्षा स्यात् ? किं च द्रध्यांतरेण तेन रक्षिनेनास्य जीवस्य फलं य आत्मनः परिणामोऽशुभमाषहति । ततोऽयुक्ता रक्षात्मनः । अथ नो इंद्रियमतिझानावरणक्षयोपशमसंजातं झामं मम इति गृह्यते तस्य अपायः कः? यदि विनाशःसन परिहर्तुं शक्यते यतोऽनुभवसिझो विनाशः । अन्यथा एकस्सिव शाने प्रवृत्तिरात्मनः स्यात् । ज्ञानानीद वीचय इयानारतमुएधते न बास्ति तदविनाशोपायः । अपि च इंद्रियमतिरपि रागादिव्यावृत्तिरिच किमुच्यते रागादिपियसी मणस्स इति ॥ अत्र प्रतिविधीयते नो इंद्रियमतिरिह मनःशद्धनोच्यते । सा रागादिपरिणामैः सह पककालं आत्मनि प्रवर्तते । न हि विषयावग्रहादिकानमंतरेणास्ति रागद्वेषयोः प्रवृत्तिः, अनुभवसियास्ति नापरा युक्तिः अनुगम्यते । वस्तुतत्वानुयायिना मानसेन मानेन समं रामद्धेपो न पतेते इत्यैतदप्यात्मसाक्षिकमेय । तेन मनसस्तत्त्वावग्राहियो रागादिभिरसह १७७ Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वामा HARSHAB चारिता या सा मनोगुठिः । मनोग्रहणं ज्ञानोपलक्षणं तेन सो योधो निरसारागद्वेषकलको मनोगुप्तिरन्यथा इंद्रियमत ते, अवधी, मनःपर्यये बा परिणममानस्य न मनोगुप्तिः स्यात् । इयते च । अथवा मनाशवेन मनुते य आत्मा स ५व भण्यते तस्य रागादिभ्यो या निवृतिः रागद्वेषरूपेण या अपरिणतिः सा मनोगुप्तिरित्युच्यते । अथेचं वृषे सम्यम्योगनिग्रहो गुप्तिः प्रफल्टमनपेक्ष्य योगस्य धार्य परिणामस्य निप्रदो रागादिकार्यकरणनिरोधो मनोप्तिः । अलिगादिणियत्ती या मोर्ण वा होर वचि गती विपरीतार्थप्रतिपत्तिहतत्वात्परताखोत्पत्तिनिमित्तत्वाचाधर्माद्या व्यावृत्तिः सायामाप्तिः। ननु च याचा पुलवाम् विपरीतार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वादिभ्यो व्यावृत्तिदेतुर्षाचो धमों न चारग संपरणे हेतुरमात्मपरिणामस्वात् । शद्वादिवत् । एवं तर्हि व्यलीकात्परुपादात्मप्रशंसापरात् परनिंदा वृत्तात्यरोपद्रप्रनिमित्ताच घचसो व्यावृत्तिरात्मनस्तधाभूतस्य वचसोऽप्रवर्तिका बाग्गुतिः । यां वाचं प्रवर्तयन् अशुभं कर्म स्वीकरोत्यात्मा तस्या पाच इह प्रवर्ण वाग्गु प्तिस्तेन याग्विशेषस्थानुत्पादकता वाचः परिहारी बागुप्तिः । मौनं पा सकलाया पाचो या परिहतिः सा वाग्गुप्तिः । अयोग्यवचनेऽप्रवृत्तिः प्रेक्षापूर्वकारितया योग्यं तु वक्ति वा नचा | भाषासमितिस्तु योग्यवचसा करीता ततो महान्भेदो गुप्तिसमित्योः । मौनं वाग्गुप्तिरत्र स्फुटतरोचनोभेदः । योग्यमय एचसः प्रवर्तकता । वाचः कस्याचित्तवनुत्पादकतेति॥ मनोगुप्ति वाम्गुप्तिं च लक्षयति मलारा-मणरस नो इंद्रियज्ञानलक्षणस्य मनसस्तत्त्वावमाहिणो । जा रागादिणियती रागद्वेषादिभिरात्मपरिणामैरसहपरिता सा मनोगुनिः । मनमि हि पक्षुरादिकरण रूपादिविषयान्भोग्याभोग्यरूपतया गृहति सत्यात्मनो रागद्वेषी प्रवर्तेसे । उपेक्षणीयरूपत्या तु तेस्तान्स्वीकुर्वाणे नवप्रवृत्तिरेव तथा प्रतीतेः ॥ तदर्यानिनिहन्मुहति देष्टि रयते ॥ ततो अद्धो भ्रमत्येवं मोहव्यूहगतः पुमान् ।। अविद्याभ्याससंस्कारैरवशे क्षिप्यते मनः ।। तदेव ज्ञान संस्कारः स्वतस्तत्वेऽवतिष्ठते ।। इत्याचागमसद्भावाच । मनोनहां ज्ञानोपलक्षगं । देन सा बोची। निरन्तरागादिकलंको मनोगुप्तः स्यादन्यथा इंद्रियमती, पुनेऽवधौ मनः पर्वय वा परिणममानस्य न मनोगुतिः स्यात् । अथवा मनुते विचारयति हेयमुपादेयं च तत्तं योऽबिमात्र भरः शोनोच्यते । तस्य रागादिरूपेण अपरिणति मनोगुमिरिति प्रात्यम् । एवं च मनि मन्त्रग्योगनिग्रहो गुमिरियम न विरुद्धयेत । दृष्टफलगनश्य हि योगस्य वीर्यपरिणामस्य निवहो रागादिकार्यकरणनिरोधों जीवस्य नायतरं तव्यतिरेकात् । latterER Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधामः मृलामधना १९७९ पुमालविवाइयोदयेण मणषयण कायजुस्सस्स ॥ जीवस्स जाहु सत्ती कम्मागमकारण जोगो ।। इति वचनाच योगशब्देनात्र वीर्यमुफयते । अलिगादिणियति विपरीतार्थप्रतिपत्तिहेतुत्वात्परदुःखोत्पत्तिनिमित्तवाचाधर्माचा कापी व्यायतिः सा पन्ना तथाविधवाभत्तिनिमित्तवीर्यरूपेणापरिणतिरात्मन इत्यर्थः । मोणं सकलवाक्प्रवृसिनिमित्तवीर्यनिरोधो जीवस्य । अयोग्यवनो न वदत्येव, प्रेक्षापूर्वकारितया योग्य तु वक्ति न वेति प्रथमा वाम्गुप्तिषासमितिस्तु योग्यवचसः कतृतन्यनयो विशेषः सक्यः । मौनपक्षे तु शंकानवकाश एव ।। प्रवचनमाताओंका व्याख्यान आचार्य सविस्तर करते हैं. प्रथमतः मनोगुप्ति और वाम्गुप्तिका लक्षण अर्थ-रागद्वेषसे मन परावृत्त होना यह मनोगुप्तिका लक्षण है, असत्य भापणादिकसे निवृत्त होना अथवा मौन धारणा करना यह वचनगुप्तिका लक्षण है. शंका--प्रवृत्त हुये मनकी गुप्ति होती है अथवा रागद्वेष में अप्रवृत्त मनकी गुप्ति होती है ? यदि मन शुभ कार्य में प्रवृत्त हुआ है नो उसका रक्षण करनेकी क्या आवश्यकता है. और यदि किसी कार्यमें वह प्रवृत्त ही नहीं हैं और यह यदि असद्प है तो उसके रक्षणकी जरूरत ही क्या है । जो चीज स्वयं मद्रप होगी तो उसमें अपाय होने की संभावना रहती है अतः उसको अपायसे बचाना योग्य होगा. असनका न नाश होता है और न रक्षण होता है. . और भी हम आपको पूछते हैं कि, मन शब्दका आप क्या अर्थ करते है. मन शब्दका द्रव्यमन ऐसा अर्थ होता है या भावमन ऐसा अर्थ आप मानते हैं? द्रव्य वर्गणासे बना हुआ जो उसको ही हम मन कहते हैं ऐसा यदि कहोगे तो उसका अपाय स्या चीज है जिससे तुम उसको पचना चाहते हैं अथवा अन्य पदार्थ के द्वारा उसका रक्षण करनेसे भी कोनसी फलनिष्पत्ति होगी? क्या आत्माके परिणाम अशुभ फल उत्पन्न करेंगे ' अर्थात द्रन्पांतरके सहायसे आत्मामें अशुभ परिणाम उत्पन्न नहीं होते हैं. इसवास्ते आत्माका अपायसे रक्षण करना व्यर्थ है. नो इंद्रियमतिज्ञानावरण कर्मफे क्षयोपशमसे जो मतिज्ञान उत्पन्न होता है उसको मन कहते हैं ऐसा यदि १७२ Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना माश्चा: ११८० आप कहते हैं तो उस मनका अपाय क्या चीज है ? नाश होना ही अपाय है ऐसा कहोगे तो इस नाशका परिहार करना शक्य ही नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तुका नाशपर्याय होता ही है. यदि मनका नाश नहीं होता है ऐसा मानोगे तो आत्माकी एक ही ज्ञान में हमेशा प्रवृत्ति रहेगी. परंतु समुद्र में जैसे हमेशा अनेक लहरें उत्पन्न होती हैं वैसे आत्मामें हमेशा अनेक धान उत्पन होते हैं. उनका अविनाश होने का अर्थात वे स्थिर रहनेका जमतमें कोई उपाय नहीं है. इंद्रियसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान रागादिकोंसे युक्त ही रहता है. अत एव रागादिकोंसे व्यायत्त होना यह मनोगुप्तिका लक्षण है ऐसा समझना अयोग्य है. उपर्युत शंकाका आचार्य उत्तर देते हैं:-- नो इंद्रियमतिको हम मन कहते हैं अर्थाद नो इंद्रियावरण कर्मका क्षयोपशम होनेसे जो जो ज्ञान मनमें उत्पन्न होते हैं उसको हम मन कहते हैं. यह नो इंद्रियमसि रामादि परिणामोंके साथ एक कालमें आत्मामें रहती हैं. विषयोंमें जब अवग्रह, इहादिवान होते हैं तब रागोषकी भी साथ मयुत्ति होती है. यह सबको अनुभवमें आता है. इसकी सिद्धि करनेके लिये अन्य युक्तिकी आवश्यकता नहीं है. परंतु जब वस्तुके यथार्थ स्वरूपका मन विचार करना है तब मानसिक ज्ञान के साथ रागद्वेष नहीं रहते हैं. यह भी अनुभव सिद्ध है. जब मन वस्तुके यथार्थ स्वरूपको जानते समय रागद्वेषसे रहित होता है तब मनोगुप्ति आत्मा में है ऐसा समझा जाता है. अर्थात् जो जो ज्ञान रागद्वेपसे रहित होगा वह वह मनोगुप्ति ही है. ऐसा समझना अयोग्य न होगा. मनोगुप्ति इस शब्दमें मन शब्द उपलक्षणात्मक है. अर्थात् रागद्वेषरूपी कलंकस रहित सर्व प्रकारक ज्ञानाको मनोगुप्ति कह सकते हैं. अन्यथा इंद्रियज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, और मनःपर्ययज्ञान में परिणत और राग द्वेषरहित आत्माको मनोगुप्तिका अभाव है ऐसा मानना पडेगा. परंतु उपर्युक्त रागद्वेपरहित ज्ञानपरिणत आत्मामें भी मनोगुप्ति है आगममें ऐसा माना है. अथवा ' मनुते य आत्मा स एव मनो भण्यते' अर्थात् जो आत्मा विचार करता है उनको मन कहना चाहिये. ऐसा आत्मा जब रागद्वेष परिणामसे परिणत होता नहीं तब उसको मनोगुप्ति कहनेमें हर्ज नहीं है, अथवा - सम्यग्योगनिग्रहो मुप्तिः ' यह गुप्तिका लक्षण है. दृष्ट फल-कीर्ति, आदर इत्यादिक दृष्टफलकी अपेक्षाके बिना वीर्यपरिणामरूप जो योग उसका निरोध करना अर्थात् रामादि कार्योको योग कारण है. उसका निरोध करनेसे मनोमुप्ति होती है. तात्पर्य यह है कि मनोयोगसे जीवमें रागदेषादिक परिणाम उत्पन्न होते हैं. EMEEN Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ११८१ कीर्ति, लोकादर, स्वर्गदिसुख वगैरहकी इच्छा धारण न करते हुए मनोयोगको केवल आत्मकल्याणकी भावनासे रोकना अर्थात् रागद्वेषादि कार्योंकी मनोयोग से उत्पत्ति न होने देना इसको भी मनोगुप्ति कहते हैं. वाम्गुप्तीका स्वरूप – 'अलियादिवचोगुत्ती मोणं वा होइ वचिगुत्ती ' जो विपरीत अर्थका ज्ञान करमें हेतु होगा, जो दूसरोंको दुःख उत्पन्न करनेमें निमित्त होगा. जिससे अधर्म वृद्धि होगी ऐसे भाषणसे परावृत होना यह वचनगुप्ति है. शंका- वचन पुगलमय हैं और वे विपरीतार्थका ज्ञान कराने में हेतु है. किसी पदार्थसे आत्माको हटा ... में वचन समर्थ हैं. परंतु कर्मका संवर करनेमें शब्द अर्थात् वचन समर्थ नहीं है. क्यों कि वे आत्माका परिणाम अर्थात् धर्म नही है. शब्दादिक आत्मघम नही हैं. म्यूलीक -असत्य, कठोर, आत्मप्रशंसायुक्त परनिंदा करनेवाला, जिससे परप्राणिओको उपद्रव होत है ऐसे भाषण से आत्मा परावृत्त होना यह वाग्गुप्ति है अर्थात् वाग्गुप्ति उपर्युक्त भाषणों में आत्माको प्रवृत्त नहीं करती है. जिस भाषण में प्रवृधि करनेवाला आत्मा अशुभ कर्मको स्वीकार करता है ऐसे भाषण से परावृत होना वागुप्ति है. अर्थात् विशिष्ट धश्वनका आत्मा त्याग करता है उसीको दाग्गुप्ति कहना चाहिये. अथवा संपूर्ण प्रकारके वचनों का त्याग करना अर्थात् मौन धारण करना इसको भी जाग्गुप्ति कहते हैं. जो आत्मा अयोग्य वचन में प्रवृत्ति नहीं करता है परंतु विचारपूर्वक योग्य भाषण बोलता है अथवा नहीं भी यह उसकी वाग्गुप्ति है परंतु योग्य भाषण बोलना यह भाषा समिति है इस प्रकार गुप्ति और समिति में अंतर है. मौन धारण करना यह वारगुप्ति है. योग्य भाषण में प्रवृत्ति करना समिति है और गुप्तिमें किसी भाषाको अर्थात् वचनको उत्पन्न न करना यह गुप्ति है ऐसा इन दोनों में स्पष्ट भेद है. काय करियाणियची काउस्सग्गो सरीरगे गुप्ती ॥ हिंसादिणियत्ती वा सरीरगुती हवदि दिठ्ठा ॥ काय क्रियानिवृत्तिर्वा देहनिर्ममतापि वा ॥ हिंसादिभ्यो निवृत्तिर्वा वपुषो गुप्तिरिष्यते ॥ १२२८ ॥ ११८८ ॥ अश्वास १९८५ Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Depar डरावना आश्वासः विजयोदया-कायकिरियाणियत्ती कायस्थीवारिकावेः शरीरस्य या क्रिया सस्या निवृत्तिः सरीरंगे गुत्ती शरीरविषया गुप्तिः कायगुप्तिरिति यावत् । आसनस्थानशयनादीनां मियाश्चात् सा चात्मनः प्रवर्तकत्वात् कथमात्मना कार्या क्रियान्यो व्यावृत्तिः । अथ मतं, कायस्य पर्यावः क्रिया, कायाच्चार्थातरमात्मा ततो द्रब्यान्तरपर्यायात् द्रव्यांतर तत्परिणामशू तथाऽपरितं व्यावृत्तं भवतीति फायक्रियानिवृत्तिगत्मनो भण्यते । सर्वेषामेवात्मनाभित्थं कायगुप्तिः स्यात् न चेति । अत्रोप्यों-कायस्य संधिनी क्रिया कायशय्देनोग्यते । तस्याः कारणभूतात्मनः क्रिया पाक्रिया तस्या लिसिः 1 काउस्सगो कायोत्सर्गः शरीरस्थाशुचितामसारतामाििमत्तता चावत्य तद्गतममतापरिहारः काय गुप्तिः । अन्यथा शरीरमायुः शखलायबद्ध त्यक्तुं न शक्यते इत्यसंभवः कायोत्सर्गस्प । धातूनाम नेकार्थत्वात् गुप्तिर्निवृत्तिवचनं इहेति सूत्रकाराभिषाकोऽन्यथा 'कायकिरियाणिवत्ती सरीरगे गुत्ती' रति कथं बयात् । कायोत्सर्गग्रहणे निवलता भण्यते । यब कायफिरिपाणिपत्ती इति न वक्तव्यं, कायोत्सर्गः कायगुप्तिरित्येतदेव वाच्यं इति चेत् न कायविषय ममेदभावरहिमत्वमपेक्ष्य कायोत्सर्गस्य प्रवृत्तेः । धावनगमनलंबनाविक्रियासु प्रसस्यापि कायगुप्तिः स्थान वेष्यते । अथ कायक्रियानिवृसिरित्येतावदुच्यते मूर्खापरिगतस्यापि अपरिस्पंदता विद्यते इति कायगुप्तिः स्यात् । तत उभयोपादानं व्यभिचारनिवृसये । फर्मावाननिमितसकलकायक्रियानिवृत्तिः कायगोचरममतात्यागपरा चा कायगुप्तिरिति सूधार्थः । हिंसाविणियसी चा सरीरगुती हववि विठ्ठा हिंसाविनिवृसी शरीराप्तिरिति रष्टा जिनागमे, माणिप्राणवियोजन, धानत्तावान, मिथुनकर्म शरीरेण, परिग्रहावानमित्यादिका या विशिश किया सेठ कायशादेनोग्यते । कायिकोपकतेगुपितावरितः कायगुप्तिरिति व्यागयातं सूरिणा ॥ ___ कायगुमि द्विधा लक्षयति मुलारा-मायकिरियाणियत्ती कायस्य औरिकादिशरीरस्य संबंधिनी क्रिया परिणामः । उपकरणप्रहणनिक्षेपण गमनादिकर्मलक्षणा कायक्रिया । अत्र पुनः सत्कारणभूता जीवस्य किया तच्छाम्देन गृहाते काये कारणोपचारात । तेन कायकियायां कारणभूतायाः कियायाः सकाशादात्मनो निवृत्तिावृत्तिः कायक्रियानिवृत्तिरात्मनः कायपरिसंदनि मत्तस्वपरिरपंदाप्रवर्तकनेत्यर्थः ।। काउस्तग्गो शारीरस्याशुचितामसारतामपग्निमित्ततां च भावयतस्तद्तममत्वपरिहारः । कर्मादाननिमित्तसकलकायक्रियानिवृत्तिः । कायगोचरममतात्यागपुरोगा कायगुप्रिरित्युभयं तन्ननणं । यदि हि कायक्रियानिवृत्तिरित्येबोच्यते तदा मुर्छावस्थायां कायपरिस्पंदाभावात्कायगुनिरनिष्टानुपज्येश । अश्व कायोत्सर्ग: कायगुप्तिरित्येवोच्येत तदापि कायविषयममेदभावरहितस्य गमनादि कियाप्रवृत्तस्यापि कायगुप्तिरनिष्टा प्रसध्यत इति व्यभिचारनिवृत्त्यर्थमुभयोपादान ॥ सरीरगे १९८२ Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मलमापना शरीरविषया । हिंसादिणियत्ती प्राणिशाणठयपरोपणादत्तग्रहणगिथुनकर्मविशेषकरणोपकरणादिपरिमहमहणादिकायक्रिया । व्यावृत्तिः ।। सरीरगुत्ति शरीरमा सकिया नन शरीराच्छरीरक्रियायागुलिनिवृत्तिः शरीराविरिति स्थिनम् ॥ अर्थ-औदारिकादि शरीर की जो क्रिया होती रहती है उससे निवृत्त होना गृह कायगुप्तिका लक्षण है. अथवा हिंसा, चोरी बगेरह पापक्रियासे परास होना इसको भी कायगुधि कहते हैं. शंका--बैठना, खडे रहना, शयन करना वगाहको क्रिया कहते हैं. ये क्रिया आत्माके द्वारा होती हैं अतः आत्मा इन क्रियाओंका प्रवर्तक होनेसे वह इन क्रियाओंसे कैसे परावृत्त हो सकता है ? अब इसके ऊपर यदि आप ऐसा कद्दागे आसनादिक क्रिया शरीरकी पर्याय है. आत्मा तो शरीरसे अन्य भिन्न वस्तु है. अर्थात् शरीरकी क्रियासे आत्मामें कुछ परिणति होती नहीं इसबास्ते शरीरकी क्रियाका आत्मामें त्याग होनस आत्मा शरीक्रियाने परावृत्त है ही अतः कायक्रियासे आत्मा निवृत्त होने से आत्माकी कायराप्ति है एमा कह सकते हैं. परंतु यह ! आपका कहना अनुचित है. परा कायमुनिका साप माकोरे पण भारपाया कायाप्ति मानना पडेगी. उत्तर-शरीरसंघधिनी जो क्रिया होती है उसको ' काय' कहना चाहिये. इस क्रियाको कारणमृत जो आत्माकी क्रिया होती है उसका कायक्रिया कहना चाहिय. एमी क्रियास निदात्त हाना यह कायगुप्ति है. कायोत्सर्गको भी कायगुप्ति कहते है शरीर अपवित्र है, असार है. आपत्तिका कारण है ऐसा विचार कर उस ममताका त्याग करना भी कायगुप्ति है अर्थात् शरीरपरसे ममत्वभावको हटाना भी कायगुप्ति है. शरीरका त्याग करना इसको कायगुप्ति नहीं कहना चाहिये. क्यों कि शरीर आयुकी शृंखलासे जकडा है उसका त्याग करना शक्य नहीं है. अतः इसकी अपेक्षासे कायगुप्ति मानेंगे तो कायोत्सर्गका अभावही होगा. धातूके अनेक अर्थ होते हैं इसलिये यहां गुप्ति शब्दका निवृत्ति एसा अर्थ लेना चाहिये ऐसा सूत्रकारका अभिप्राय है. अन्यथा 'कायकिरियाणिषची सरीरंगे गुती' एसा वचन सूत्रकार कभी न कहते. ___ कायोत्सर्ग ग्रहण में जो शरीर की निश्चलता होती है उसको कायगुप्ति कहते हैं एसा यदि कहोगे तो 'कायकिरियाणिवत्ती शरीरंगे गुती ' ऐसा कहना व्यर्थ है. 'कायोत्सर्गः कायगुतिः' इतनाही गुप्तीका लक्षण कहना योग्य था ऐसी शंका करना भी योग्य नहीं है. क्योंकि शरीर विषयक ममत्व रहितपनाको अपेक्षासे कायोसर्गकी प्रवृत्ति होती है. यदि इतनाही अर्थ कायगुप्तिका माना जायगा तो भागना, एकस्थानसे अन्य स्थानके 38 * ११८ Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागधा ११८४ प्रति जाना. कूदना वगैरह क्रियाओं में प्रवृत हुए प्राणिको भी काय गुप्ति है ऐसा मानना पडेगा परन्तु ऐसा माना नहीं जाता हैं. यदि ' कामक्रियानिवृतिः ' अर्थात् शरीरकी क्रियाका त्याग करना कायगुप्ति हैं इतनाही लक्षण मानोगे तो मूर्हित होकर जो मनुष्य पड़ा है उसको भी काय मुक्ति है ऐसा मानना पडेगा. इस वास्ते व्यभिचार निवृति के लिए कायोत्सर्ग को कायगुप्ति मानना चाहिए और शरीर की क्रियानिवृत्ती को भी कायगुप्ति कहना चाहिए. इस विवेचना अभिप्राय इस प्रकार समझना चाहिए - कर्मग्रहण जिनसे होता है ऐसी संपूर्ण शरीर क्रियाओंका त्याग करना इसको कायगुप्ति कहते हैं तथा शरीरविषयक ममताका त्याग करना इसको भी कायगुप्ति कहते हैं. ऐसा इस गाथासूत्रका अभिप्राय हैं. हिसाविकका त्याग करना भी काय गुप्ति है ऐसा जिनागममें कहा है प्राणिओं के प्राणोंका वध करना, न दी हुई चीज लेना अर्थात् चोरी करना, मैथुन क्रिया करना, शरीरसे परिग्रहोंका ग्रहण करना, इत्यादिक जो विशिष्ट क्रियायें उनका यहां काय शुद्धसे संग्रह करना चाहिये. कायिक क्रियाओंसे आत्माका संरक्षण करना कायगुप्ति है ऐसा आचार्यमहाराजने व्याख्यान किया है. छेत्तस्स वदी यररस खाइया अहव होइ पायारो ॥ तह पावरस गिरोहों ताओ गुत्तीओ साहुस्स || १९८९ ॥ पुरस्य खातिका क्षेत्रस्य च यथा वृतिः ॥ तथा पापस्य संरोधे साधूनां गुप्तयो मत्ताः ॥ १२२९ ॥ विजयोदया—छेतस्स घड़ी क्षेत्रस वृतिः । नगरस्य खातिका अथवा प्राकारो भवति नगरस्य तथा पाचस्स निरोधो पापस्य निरोधोऽपायः । तानो सुतीओ ता गुप्तयः साधोः ॥ गुप्तीनां पापनिरोधोपायतां द्रढयति मूळारा --- पावस्स गिरोधो यथा क्षेत्रादेर्मृगचोराद्यपायहेतुनिरोधे नृत्यादय उपायास्तथा पापनिवारणे मुने वय इत्यर्थः । आश्वासः ६ ११८४ Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १९८५ अर्थ - रेवतका संरक्षण उसके आसमंतात् जो बाद लगाई जाती है वह करती है. नगरका संरक्षण खाई व. तट करते हैं तथा ये तीन गुप्तियां साधुका पापसे रक्षण करती है. पापका निरोध करनेमें अर्थात् संबर करने में ये उपाय हैं. तह्मा तिविण तुमं मणवचिकायप्पओगजोगम्मि || होहि सुसमाहिदमंदी निरंतरं ज्याणसज्झाए | ११९० ॥ तस्मान्मनोत्रचः कायप्रयोगेषु समाहितः ॥ भय त्वं सर्वदा जातस्वाध्यायध्यान संगतिः ।। १२३० ॥ विजयोदयात विविधेण मणवनिकायपभोगजोगम्मि मनोवाक्कायविपथप्रकृष्टे योगे। तुम वं । सुसमा द्विदमी होहिं सुदुसमाहितमभित्र । कथं ? निरंतरं ज्झाणसज्झार निरंतरप्रवृत्त ध्यानस्वाध्यायः ध्यानस्वाध्यायायंतरेण यो नारिति स्वः ॥ एवं तिस्रोऽपि गुप्तः प्ररूय तत्र अपर्क सुसमाहितं कर्तुं क्षेममुपायमाह--- गुलारा---तम्दा यस्माद्गुप्तयः पापनिरोधोपायास्तस्मात्रिविधेऽपि मनोवाक्कायविषये प्रकृष्टे योगे व्यापारे सुसमाहितमतिर्भय त्वं । कथंभूतः सन ? निरंतर ज्झाणसार संततं ध्याने स्वाध्याये या प्रवर्तमानः सन् । ध्यानस्वाध्यायाभ्यां विना गुप्तयो नावतिष्ठन्ते इति भावः । उक्तं च तस्मान्मनो वचः कायप्रयोगे सुसमाहितः । भव त्वं सर्वदा जातत्वाध्यायभ्यानसंगतिः ॥ अर्थ- ये तीनो गुप्तियां पापका संचर करनेमें कारण हैं इसलिये मन, वचन और शरीरकी प्रवृत्तिओं में हे क्षपक ! तुमको हमेशा सावधान रहना चाहिये. और हमेशा न्यान और स्वाध्याय में तत्पर रहना चाहिये. ध्यान और स्वाध्यायमें तत्पर रहनेसे गुप्तिओं का संरक्षण होता है जो ध्यान और स्वाध्यायमें अपनेको तत्पर नहीं करता है उस क्षपककी गुप्तियाँ स्थिर नहीं रह सकेगी आश्वास ६ ११८५ Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराचना ११८६ समितिव्याख्यानायो तर प्रबंधस्तत्रेर्यासमिति निरूपणायोत्तरा गाथामजदुपओगालबणमुडीहं इरियदो मुणिणो ॥ सुत्ताणुवीचि भगिदा इरियासमिदी पत्रयणम्मि ॥ ११९१ ॥ महतोपयोगानामालयस्य च शुद्धिभिः ॥ गच्छतः सुखमार्गेण भतेर्यासमितिर्यतेः ॥ ९२३१ ।। विजयोदया - मग्मुज्जो दुषओगाणी मार्गशुद्धि, उद्योतयुजिरुपयोगशुद्धिश्रालंबनशुद्धिरिति चतन्नः शुद्धयस्ताभिः करणभूताभिः परियको छतः। सुशिलो सुनेः सुताशुवीचि सूत्रानुसारेण भणिदा कथिता । इरियासमिती यासमितिः। पचयणम्मि प्रवचने । तत्र मार्गस्य शुद्धिन अप्रचुरपिपीलिकादिवसता, बीजांकुरणहरित पलाशकर्दमादिरहितता ॥ स्फुटतरता व्यापिता च उद्योतशुद्धिः । निशाकरनक्षचादीनामस्फुटः प्रकाशः अव्यापी प्रकाशः पादोद्वार निक्षेपदेश जीवपरिहरणावहितचेतस्ता उपयोग शुद्धिः । गुरुतीर्धयतिवंदनादिकम पूर्वशास्त्रार्थ ग्रहणं, संगतयोग्य क्षेत्रमार्गणं, वैयावृत्यकरणं, अनियतावासवास्थ्य संपादने श्रमपराजयं नानादेशभापाशिक्षणे विनेयञ्जनप्रतियोधनं चेति प्रयोजनापेक्षया आलंबनशुद्धिः । किं तत् सुत्रानुसारिगमनं असतं, नानिविलंबित, पुरो युगमात्र दर्शनप्रवृत्ति, अविचरणन्यासं भवविस्मयावंतरेण सलीलमनत्युत्क्षेपं परिहृतलंघन धावनप्रविलंबित भुजं निर्धिकारं, अचपलमसंभ्रान्तमनूवतिर्यक्प्रेषणं इस्तमाजपरिहृततरुणटणपर्व, अकृतपशुपक्षिमृगोद्वेजनं विरुद्धयोनिसंक्रमणजातबाधाव्युदासाथ कृतात्प्रतिलेखनं, भप्रतिसारितप्रतिमार्गय यि संघट्टनं । दुधेनुबलीवई सारमेयादिपरिद्वति चतुरं परिहसतुषमश्रीभस्मा इगोमय तृणनिचयजलोपलफलकं दूरीकृतचोरीकलह, अनारूढसंक्रमं निरूपयतो यतेरीयसमितिः ॥ समितीकरियादी ईयसमिति निर्दिशति--- मूलारा-मन्गुओदुप्रयोगालंबणसुद्धीहिं मार्गोद्योतोपयोगालंगशुद्धिभिश्रतसृभिः करणभूताभिः । इरियदो गच्छतः । सुन्नाणुवीचि सूत्रस्यानुसारेण । नत्र मार्गस्य शुद्धिः पिपीलिकारित्रताल्पत्वं, बीजांकुरणतिपत्र जलकमादिरहितत्वं स्फुटत रत्वं व्यापित्वं च । उशेतशुद्धिः स्पप्रसृतत्वं रविकर प्रकाशस्य | उपयोग शुद्धि: - पादोद्धार निक्षेप देशवर्तिप्राणिपरिहरण प्रणिधानपरायणत्वं । आलंयनशुद्धिरुतीर्थचेत्ययति वंदनादिकमपूर्वशास्त्रार्थग्रहणं, संयमयोग्यक्षेत्रमार्गणा वैयावृत्यकरणं, अ नियताासस्वास्थ्यसंपादनं श्रमजयो, नानादेश भाषा शिक्षण, विनेय जनप्रतिबोधन मेवमादिमार्गाविरोधिप्रयोजनापेक्षा । सूत्रानुवीचिगमनं तु नातिद्रुतविलंबितं पुरो युगमात्रदर्शनप्रवृत्तिकं अंदूरचरणन्यास, निर्भयविस्मयम सलीलमनत्युर, अव ११८६ Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ११८७ परिहृतघनधावनाविक्रियं प्रविलंबितभुजं निर्विकारमचपलं, असंभ्रान्तं, अनूव्वतिर्यक्प्रेक्षणं, हस्तमात्र परिहृत तरुणपल्लवं अकृत पशुपक्षिमृगोद्वेजनं, बिरुद्धयोनिसंक्रमभाषि जीव बाधापरिहारायासकृत्प्रतिलेखनं, वर्जितसम्मुखागच्छज्जनसंघहां, दुष्टधेनुवृषभसारमेयादिपरिहारचतुरं परितबुसतुपमसी भस्मागोग यतृणानिचय जलोपलफलकं दूरीकृतचोरीकल अनास्डरीक मेति ॥ समितिका व्याख्यान आचार्य करते हैं. प्रथमतः ईयसमितीका निरूपण करते हैंअर्थ---मार्गशुद्धि, उद्योतशुद्धि, उपयोगशुद्धि, और आलंबन ऐसी धार शुद्धिओं का आश्रय करके गमन करनेवाले मुनिकी सूत्रानुसार ईयसमिति पाली जाती है ऐसा आगममें कहा है. मार्गी शुचींटी अंकुर, शृष्ण हरे हरे पत्र, और कीचड वगैरइसे रहित जो मार्ग है वह शुद्धमार्ग माना जाता है, उद्यशुद्धि- प्रकाश में अर्थात् प्रकाश में अधिक स्पष्टपना, और व्यापकता होना उद्योत शुद्धि है. चंद्र और नक्षत्रों का प्रकाश अस्पष्ट रहता है. प्रदीपक वगैरहका प्रकाश अध्यापक अर्थात् थोडीसी जगह घेरता है. उपयोग शुद्धि-पाँव उठाकर जिस स्थानपर रखना हो उस स्थानपर जीव जंतु है या नहीं इसका विचार कर पांच रखना चाहिए यह उपयोग शुद्धि है. आलंबन शुद्धि-गुरुवंदना, तीर्थवंदना, चैत्यवंदना और यतिबंदनादिकोंका कारण, तथा अपूर्व शास्त्रार्थ का ग्रहण, संयमकि योग्य क्षेत्रको ढूंढना, वैयावृत्य करना. अनियत स्थान में रहना, स्वास्थ्यका संपादन करना, श्रमको दूर करना, अनेक देशोंकी भाषाओंका अध्ययन करना, भव्याँको उपदेश देना इत्यादि कार्यों की अपेक्षासे एक स्थानसे दूसरे स्थानपर जाना इसको आलंबन शुद्धि कहते हैं. आचार - शास्त्रमें वर्णन किंच प्रकार से गमन करना चाहिये. अर्थात वेगसे गमन नहीं करना, अतिशय मंद भी गमन नहीं करना चाहिये, आगे चार हाथ जमीन देखकर गमन करना चाहिये दूर अंतर पर पांच नहीं रखने चाहिये. भीति और विस्मय का त्यागकर चलना चाहिये. इधर उधर न देखकर गमन करना चाहिये. कूदना, भागना ये क्रिया छोडकर और बाहु नीचे छोडकर जाना चाहिये. निर्विकार, चपलता रहित, ऊपर तथा इधर उधर न देखकर जाना चाहिये. तृण, पल्लवादिकसे एक हाथ दूर रहकर गमन करना चाहिये. पशु, पक्षी और मृगको आश्वास ६ ११८७ Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासः तकलीफन होगी इस प्रकारसे गमन करना चाहिये. विरुद्ध उत्पत्ति स्थानों में प्रवेश करते समय वहांक सजीवों को अपने शरीरसे बाधा न हो इसलिये बार बार प्रतिलखनसे अर्थात् पिछिकासे शरीर स्वच्छ करना चाहिये. मार्गमें चलते समय अपने शरीरको इतरोंका धक्का न लगे इस तरहसे चलना चाहिये. दुष्ट गौ, बैल, कुत्ता, इत्यादि पाणिओंका परिहार करके गमन करना चाहिये. धान्यका भूमा, शालीधान्यक छिलके कज्जल, भस्म, गीला गोबर, तणका ढेर, पानी, पत्थर, फलक इनका परिहार करके गमन करना चाहिये. चोर, कलह इत्यादिकसे दूर रहकर गमन करना योग्य है. जाते समय अपने पावोंसे कोई चीजका अथवा प्राणीका आपसमें प्रवेश न हो इस प्रकारसे गमन करना यह मुनि गतिमिति है. . मावासमितिनिरूपणार्थोसरमाथा सच्चं असचमोसं अलियादीदोसबजमणवजं ॥ बदमाणसंणुवीची भासासमिदी हवदि सूद्धा ॥ ११९२ ॥ व्यालीकादिविनिर्मुक्तं सत्यासत्यमृषादूपम् ॥ वदतः सूत्रमार्गेण भाषासमितिरिष्यते ।। १२३२ ।। विजयोदया-चतुर्विधा पाक्-सत्या, मृषा, सत्यसाहिता मृषा, असत्यमृषा नेति । सतां हिता सत्या । न स. स्थानच मृषा या सा असच्चमोसर । द्विप्रकार वाचमित्थंभूतां । अलिगादिदोसवज्ज व्यलीकता अमावा, पारुष्य, पैशुन्यमित्यादिदोषरहितं । भणपज्जे पापासषो न भवति इत्यनयचं । यदमाणस व्याहरतः। अणुवीबी सूत्रानुसारेण भासासमिदी सुद्धा हयदि भायसमितिः घुसा भवति । भाषासमिति व्याकरोतिमूलारा-सर्च सत्यं । जनपदादिभदादशविध । व्रतसत्यादर्भमत्याच कोऽस्य भेद इति चेत् ब्रूमः । श्लोकः अगत्यविरतौ सत्यं सत्स्वमत्स्यपि यन्मतम् ।। वाक्तमित्यां भितं तट्रि धर्म सत्स्येव बलपि ॥ १ ॥ असच्चमोस असल्यमृषा । न सत्य नाप्यसत्यमित्यर्थः । अलिगादीदोसवजं । असत्यता, असत्यासत्यता, पारुण्य, पैशुन्यमित्यादिदोषरहितं । अणवज हिंसादिपापानबरहित । अणुवीचि सूत्रानुसारेण ।। TAGRAMBHARA ११ Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलागधना आश्वास अर्थ-चचनके चार प्रकार हैं. सत्यवचन, मृषावचन-असत्यवचन, सत्यासत्यवचन और असत्यासत्य वचन, सत्पुरुषोंका हित करनेवाला वचन सत्यवचन है. जो सत्य ही नहीं और असत्य ही नहीं ऐसे वचनको असत्यमृग अर्थात् असत्यासत्य वचन कहते हैं. साधु अर्थात् यतिगण उपर्युक्त दो प्रकारक भाषण बोलते हैं. इन दो प्रकारोंके वचनों में असत्यपना, कमर्थपना, कठोरता, निंदा वगैरे दोपोंका अभाव रहता है. ऐसे वचनोंसे पाप कर्मका आगमन होता नहीं. मुनिगण सूत्रानुसार निदोष भाषण करते है. इसको भापासमिति कहते है. सत्यवचनभेद निरूपयति जणवदासंगदिलवणा गरे को गडुन्ननादारे ॥ संभावणवबहारे भावेणोपम्मसच्चेण ॥ ११९३ ॥ वेशसम्मतिनिक्षेपनामरूपपतीतिता ।।। संभाषनोपमाने च व्यवहारे भाव इत्यपि ॥ १२३३ ।। विजयोत्या-जणबदसमदि नानाजनपदप्रसिद्धा सुसंफेतानुविधायिनी वाणी जनपत्रसत्यं । गच्छति इति गौः, गजेतीति गज स्पेषमाविका अवयवार्थानुगमामायेऽपि विषभितार्थप्रतिनिमित्तभूता। सम्मविशन संस्थानाभ्युपगम उच्यते । गजेन्द्रो नरेन्द्र इत्यादिकाः शद्वाः शुभलक्षणयोगात् केयांचित् स्वतो लक्षणत्यादीश्वरत्वेनाभ्युपगममाश्रित्य कचिजे मानवे चा प्रयुज्यमानाः सम्मतिसत्यशद्रेनोच्यते। महनिंद्रः स्कंदः इत्येवमादयः सद्भावासद्भावस्थापनाविषया स्थापनासत्यं । अरिहमनं, रजोहननं, ईवनं इत्येवमादीनां क्रियाणां तत्रामावाद्वयलीकता नाशंकनीया आकारमाने परमार्थत्वात्सर्वभावानां । तस्य च स्थापनार्या वस्वास्तित्वान्युद्धिपरिग्रहेण या सद्भावात् । इंद्रादि संक्षा स्वप्रवृति निमितजातिगुणभियाद्रव्यनिरपेक्षा ताब्दाभिधयसंबंधपरिणतिमात्रेण वस्तुनः प्रवृप्ता नामसत्यं । रूपग्रहणं उपलक्षण प्रवृत्तिनिमित्तानां नीलमुत्पलं, धघलो हि मुगलान्छन इत्येवमादिक रूपसत्यं । सबंध्यंतरापेक्षाभिधांगं च वस्तुस्थरूपालंयने दीपों स्व इत्येवमादिकं प्रतीभ्यसत्यं । वस्तुनि तथाऽप्रवृनपि नशाभूतकार्ययोग्यतादर्शनात् संभावनया वृत्तं संभावनासत्यं । अपि नोम्या समुद्रं नरेत । शिरसा पर्वतं भिद्यात् इन्यादि । वर्तमानकाले स परिणामो याप नास्ति तथाप्यतीतानागतपरिणामान्प्रति इदमय द्रव्यमिति कृत्या प्रवृत्तानि वासि भोवनं पच, कटं कुर्धित्येवमादीनि व्यवाहरसत्यं । अहिंसालक्षणो मायः पास्यते येन वचसा तद्भावस निरीक्ष्य स्वप्रयतावारो भवेत्येवमाविक । पल्योपमसागरोपमादिकमुपमा सत्यम् ॥ किं तजनपदाविभेदादशधा सल्यमित्याह- . Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rated मूलाराधना आश्चार १५९. मूलारा-जयपदेत्यादि-जनपदसत्यं नानादेशप्रसिद्धवचनं । यथा कूरो, चारो, ओदनमिति । सम्मतिसत्यं यथा राजा नरोऽपि देवो भण्यते । तद्भार्या देवीति सस्तथाभ्युपगमात् । अथवा गजेन्द्रो नरेन्द्र इत्यादिकाः शब्दाः शुभलक्षणयोगास्केपांचित स्वतो लक्षणानां ईश्वरन्येनायुपगममाविस कनिदो रानवे वा प्रयुज्यमानाः सम्मतिसत्यशनोच्यन्ते । स्थापनासत्यं यथा पाषाणप्रतिमादिग्वियं चकेश्वरी, अयमहन, इति तदिदमिति बुद्धिपरिमहेण सद्भारान् । नामसत्यं इंद्रादिसंज्ञा । स्वभवृत्तिनिमित्त जातिगुणक्रियाद्रव्यनिरपेक्षा तच्छन्दाभिधेयत्वपरिगतिमात्रेण वस्तुनः प्रश्रुत्ता यथा मनुष्यमावेऽपि अयमिंद्रोऽवमीश्वर इत्यादि । रूपसत्य मानारूपत्वेपि कस्यचिपस्य प्रकर्षमपेक्ष्य प्रयुज्यमानं वचनं यथा नीलमुत्पलं, श्वेता बलाक्षेति ॥ प्रतीत्यसत्यं संबंध्यंतरापेक्षाभिव्यंग्यवस्तुस्वरूपालेयनं दीर्घा न्ह्स्व इत्येवमादि । लघ्वंगुली, बृहदंगुली इत्यादि । संभवनासत्यं यथा वस्तुनि तथा प्रवृत्तेऽपि तथाभूतकार्ययोग्यतादर्शनात्प्रवृत्तं यथा-अपि दोभ्या समुद्रं तरेहेवदत्तः । चारित्रसारे पुनरस्य स्थाने संयोजनासत्यं दृश्यते यथा-धूपचूर्णत्रासनानुलेपनप्रकर्षादिषु पद्ममकरहंससर्वतो. भद्रौंचव्यूहाविषु वा चेतनेतरद्रव्याणां यथाभागविधानसभिवेशाविर्भावकं याचस्तत्संयोजनासत्यम् । भाविभूतपरिणामापेक्षया प्रवृत्तं यथा सिद्धेऽप्योदने लोकव्यवहारानुसरणात्तंडुलाम्पचेति वाच्ये ओदन पवेत्यादिवचनं ॥ भावसत्यं छद्गस्थज्ञानस्य द्रव्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयत्तस्य संयत्तासंयसस्य वा स्वगुणपरिपालनार्थ प्रासुकमिदमप्रासुकमिदमित्यादिवचनं । निरीझव, प्रक्ताचारी भवेत्येवमादिकं वा । अहिंसालक्षणाभावपालनांगत्वात् । औपम्यसत्यं यथा चंद्रमुखी कन्या, समुद्रवत्तहागमित्यादि । सत्य वचनके भेद कहते है (अर्थ-जनपदसत्य, सम्मतिसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीतिसत्य, संभावनासत्य, व्यवहारसत्य, भावसत्य और उपमासत्य ऐसे सत्यके दस भेद हैं. इनके विशेष स्वरूपका विवेचन-) १ जपनदसत्य-अनेक देशांमें प्रसिद्ध संकेतका अनुकरण करनेवाला जो वचन उसको जनपदसत्य कहते हैं. जैसे 'गच्छत्तीति गौः' मर्जतीति गजः' अर्थात् जो जाता है उसको गौ कहते हैं अर्थात् वैलको गौ कहना चाहिए. भी शब्दका संकेत बैल नामक पदार्थमें है. जो गर्जना करता है उसको गज अर्थात् हाथी कहना चाहिए. गजशब्दका संकेत हाथी में प्रसिद्ध है. यद्यपि यहां निरुतीमें प्रतिपादित अर्थका बस्तुमें अनुसरण नहीं दीखता है तथापि ये शब्द विवक्षित पदार्थोंमें प्रवृत्ति कराने में निमित्त होते हैं. Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराश्ना आश्वास ११९१ २ सम्मतिसत्य-सम्मति शब्दसे आकृतिका ग्रहण होता है. गजेंद्र, नरेंद्र इत्यादिक शब्द शुभ लक्षणके घोतक हैं, कोई पदार्थ स्वतः शुभ लक्षणसंपन्म दीखते हैं अतः उसमें स्वतः ईश्वरपना-संपनपना दृष्टिगोचर होता है. उसके ईश्वरपनाका आधार लेकर अन्य गज-हाणी अथवा मनुष्य में उसका प्रयोग करते हैं ऐसे शब्दको सम्मति सत्य कहते हैं. जैसे गजकी विशालता देखकर उसको गजेंद्र कहना. किसी मनुष्यमें राजाके समान संपन्नता देखकर उसको सम लोक नरेंद्र कहते हैं. राजा, राव, राणा वगैरह शब्द सम्मतिसत्य है. स्थापना सत्य-अईन्, इंद्र और स्कंद वगैरह शब्द सद्भाब असद्भाव स्थापनाके विषय है. इनको स्थापना सत्य कहते हैं, अरिहनन मोहनीयकर्मका नाश होना, रजोहनन ज्ञानावरण और दर्शनावरणका नाश होना इत्यादिक क्रिया अन्तिमें रहती हैं अतः उसमें असत्यपनाका संशय लेना योग्य नहीं है. अर्हन्तके समान प्रतिमाका :आकार रहता है अतः अहेन्तकी उसमें स्थापना करने हैं. ऐसा आकार रसकर मूल पदार्थोकी उसमें शााना कर हैं. या वादा कर उसने यह वह वस्तु है एसी बुद्धि उत्पन्न होती ही है. यह स्थापना सत्य समझना चाहिए, नाम सत्य-जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया इनकी अपेक्षाके बिना ही शब्दका पदार्थ के साथ संबंध कर देना वह नाम सत्य है, जैसे जीवनक्रिया अचेतन पदार्थ में न रहत हुए भी उसको जीव कहना. किसी पदार्थका इंद्र वगैरह नाम रखते समय इंद्रकी देवत्व जाति, परमश्वर्य संपन्नता वगैरह गुणोंका विचार न करके व्यवहार के लिए इंद्र ऐसा नाम रखनाः . रूपसत्य-रूपशब्द प्रवृत्ति निमित्तका उपलक्षण है. जैसे कमलमें नीलगुणका प्रकर्ष देखकर उसको नीलकमल कहना. चंद्रमें सफेदपनाकी अधिकता देखकर उसको धवल कहना इत्यादिक उदाहरण रूपसत्यके समझ लेने चाहिये. ' प्रतीतिसत्य-किसी अन्य संबंधी पदार्थकी अपेक्षासे वस्तुस्वरूपका निर्णय करके वैसा कहना जैसा दीर्घ बस्तुको देखकर दुसरी वस्तु हस्ख कहना वगैरह. संभावना सत्य-वस्तुका रैसी प्रवृत्ति नहीं होते हुये भी वैसी प्रयत्ति करनेकी उस पदार्थमें योग्यता हैं यह जान कर वैसी कल्पना करना जैसे यह अदमी अपनी दो भुजाओंसे समुद्रको तीर सकेगा ऐसा कहना यह Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वासः ११९२ यह संभावना सत्य है. यह मनुष्य मस्तकसे पर्वतका भेद न करेगा धगैरह इस सत्यके उदाहरण हैं. न्यवहारसत्य-वर्तमानकालमें पदार्थका वह परिणाम नहीं है तथापि भूतकालमें वह परिणमन था अथवा भविष्यरकालमें वह उत्पम होगा तथापि बद्दी यह पदार्थ है ऐसा समझकर जो वचनप्रवृत्त होते हैं उनको व्यवहार सत्य कहते हैं. जैसे भात पकाओ, चटाइ पनाओ इत्यादि. ___भावसत्य-अहिंसालक्षणात्मक परिणामका जिस वचनसे रक्षण होता है उसको भावसत्य कहते हैं. जैसे जीवोंको देखकर यत्नपारपूर्वक प्रति कसे ऐसा उपदेश देना. उपमासत्य-जैसे पत्योपम है, सागरोपम है यह उपमा सत्य है। मृषादियचनप्रयलक्षण कधन्यन्ति तविवरीदं मोसं तं उभयं जत्थ सच्चमोस तं ॥ तश्विरीया भामा असच्चमोसा हवे दिष्ठा ॥ ११९४ ॥ विजयोदयातबिवरीदं सत्यधिपरीतं । मोसं मृष्ण 'असदभिधानममृतं' इति वचनात् । मिथ्याशानमिथ्यादशेनयोरसयमस्य श निमित्त वचनमसदभिधानं अप्रशस्तं तत्सत्यविपरीतं । तं उभयं तत्सत्यमनूतं च उभय जत्थ यस्मिन् वाक्ये । तं तद्वाक्यं । सच्चमोस सत्यमृत्युच्यते । तबिचरीका भासा सत्यादनृताम्मिश्रा व पृथम्भूता भासा भाया वचन असच्चमोसा असत्यमषति । हये भवेत् । दिठ्ठा दृष्टा पूर्वायमेषु । पकांतेन न सुन्या नापि मुगा नोभयमिधा किंतु जात्यंतर यथा यस्तु नैकांतन नित्यं नापि अनित्यं नापि सर्वथा एकांतयोः समुच्चयः किंतु कर्यनिद्रपाधिन्यामिन्यात्मकं । पर्वमियं भारती॥ असत्यादिवचनत्रयलमणार्थमाह मूलारा--तसिवनी मोस मिथ्याज्ञानासंयमादिनिमित्तत्वात्सत्यविपरीतमृषा । तं उभयं सत्यमृषाद्वयं । जत्य यस्मिन्बहने । सच्चमोस सत्यानृवं यथा सर्व दर्त, सर्व श्रुतं, सर्व भुक्तं । अथवा धृतशर्कराभि गोक्षीरं शोभनं स्यादिति ज्यरितेन पृष्ठे सति शोभनमिति वचस्तस्य माधुर्यादिप्रशस्यगुणापेक्षया सत्यत्वावरवृद्धिनिमित्तत्वापेक्षया च मृधात्वान । तचिवरीदा सत्यादसत्यान्मिाच्च पृथप्भूता असचमोसा एकान्तेन ने सत्या, नापि मृषा, नोभयमिश्रिता किंतु जात्यतरं । यथा वस्तु नैकान्तेन मिल्यं, नाप्यनित्यं नापि सर्वथैकान्तयोः समुनयः किंतु कथंचिद्रुपामित्यानित्यात्मकमेव । नवधा वैया। Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना असत्यादि तीन वचनोंका लक्षण कहते हैं अर्थ--उपर्युक्त सत्य भाषणके विरुद्ध जो भापण उसको असत्य भाषण कहते हैं. असदभिधानमनृतं' ११९३ प्रमादसे प्राणिओंको पीडा होगी ऐसा भाषण बोलना वह असत्यभाषण है ऐसा सूत्रकार कहते हैं, अथवा जिस भाषणासे मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और असंयमकी उत्पत्ति होगी वह भी असत्य भाषा है. जो भाषण अप्रशस्त है अर्थात सज्जनांने जिसको प्रशंसा की नहीं वह असत्य भाषण समझना चाहिय. जिस भाषणमें सत्यपना और असत्यपना दोनो हैं उसको सत्यमृषा मापपा कहते हैं. सत्य, असत्य और मिश्र भाषणोंसे जो भिन्न है अर्थात् जिसमें सत्यतामी नहीं और असत्यताभी नहीं वह भाषण असत्यमृषा है. जिसका सत्य भी नहीं कह सकते जो असत्यभी नहीं मानी जाती है ऐसी और जिसको मिश्रमी नहीं कहा जाता है एमी भापाको अमात्यमृपा कहना चाहिये जंग वस्तु सर्वथा नित्य नहीं है, सर्वथा अनित्य नहीं है व सर्वथा नित्यानित्यात्मकभी नहीं है, परंतु उस नित्यानित्यत्व धर्मों का समुच्चय है अर्थात् कथंचिन्नित्यानित्यात्मक है. उसी तरह अमत्यमृपा भाषण समझना चाहिय, सत्य और मृया इन दोनोंका मिश्रणभृत जो भापा उसको सत्यमृषा कहते हैं उसका उदाहरण ऐसा हैघी और खांडसे मिश्रित गायका दूध शोभन है क्या? ऐसा पूछने पर वह शोभन है ऐसा कहना दूधको माधुर्यादि गुणोंकी अपेक्षास सत्य कह सकते हैं और ज्वर बहाने का कारण होगा इसकी अपेक्षासे वह असत्य है, सा नघनकारा तस्याश्च भेदा इयंत इति गाथायनाचष्टे-- आमंतणि आणवणी जायणि संपुच्छणी य पण्णचणी॥ पच्चरखाणी भासा भासा इन्छाणुलोमा य ॥ ११९५ ।। आज्ञापनी संबोधनी प्रच्छनी प्रत्याख्यानी याचनी प्रज्ञापनाच्छानुलोमा सांशयिकी निरक्षरा चेति नवधा सत्यमृषाभाषा मंतम्या ।। १२३४ ॥ विजयोदया-आमंतणी यया वाचा परोऽभिमुखीषियने सा आमंत्रणी । ह देवदत्त इत्यादि अगृहीतसंकतान ND भिमुखीकरोति तेन न मुषा गृहीतागृहीतसंकेतयोः प्रतीतिनिमिसनिमित्तं चेति यात्मकता । स्वाध्यायं करत, बिरमतासंयमात् इत्यादिका अनुशासनवाणी ची। चोदितायाः क्रियायाः करणमकरणं यापेक्ष्य नैकान्तेन सन्या न ARoadmeteka - - P Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मुषच वा । जायणी ज्ञानोपकरणं पिच्छादिक या भवन्तिव्य त्यादिका याचनी । दातुरपेक्षया पूर्वयदुभयरूपा। निरोध वदनास्ति भयतां न वति प्रभयाक् संपुळणी यद्यस्ति सत्या न चरितग । वदनाभाषाभावमपेक्ष्य प्रवृत्तरुभयरूपता । पपावणी नाम धर्मकथा । सा बइनिर्दिय प्रवृत्ता कश्चिन्मनास करणमितरैरकरणं सापेक्ष्य करणत्याद्विरूपा । पशवाणी नाम केनचिद्गुरुमननुज्ञाप्य इदं क्षीरादिकं इयंत कालं मया प्रत्याख्यातं इत्युक्तं कार्यातरमुद्दिश्य तरकुवित्युदित गुरुणा प्रत्याख्यानावधिकालो न पुर्ण इति मैकांततः सत्यता गुरुवचनात्मवृत्तो न दोषायति न मृकांतः। इच्छानुलोमा य ज्वरितेन पूएं घृतशर्करामिदं क्षीरेन शोभनमिति । यदि परो चूयात् शोभनमिति। माधुर्यादिपक्षस्य गुणसद्भाघ ज्यरवृद्धिनिमिसतां चापेक्ष्य न शोभनमिति बचो न मृर्षकांततो मापि सत्यमेषेति प्रथात्मकता ॥ के ते उभयभाषाभेदा नवेति पृष्टस्तान्गाथाद्वयेनाचष्टे-- मूलारा--आमतणि संबोधिनी हे देवदत्त इत्यादिका । आणवणी आज्ञापनी इई कुर्वित्यादिका । जायणी याचणी यथा त्वा किंचिदह वाचिस्ये । सपुच्छणी संप्रच्छनी यथा त्वां किंचित्पृच्छामि । पागणी प्रज्ञापनी यथा तब किंचित्कथाविध्यामि । पचक्याणी प्रत्याख्यापनी यथा त्वां किंचियाजयिष्यामि । इच्छाणुलोमा छंदानुकूला वाक् यथा शालिसालधीहयो भवन्तीति गुरुणोक्ते पघमेतविति शिघ्ययाक ॥ ...असत्यमषा भाषण के नऊ प्रकार हैं उनके नाम इस प्रकार है अर्थ-जिस भाषासे दुसरोंको अभिमुख किया जाता है उसको आमंत्रणी-संबोधिनी भाषा कहते हैं. जैसे 'हे देवदच यहां आओ' देवदत्त शद्धका संकेत जिसने ग्रहण किया है उसकी अपेक्षासे यह वचन सत्य है जिसने संकेत ग्रहण नहीं किया उसकी अपेक्षासे असत्य भी है. आणवणी-आज्ञापनी भाषा जैसे स्वाध्याय करो, असंयमसे विरक्त हो जाओ. ऐसी आज्ञा दी हुई क्रिया करनेसे सत्यना और न करनेसे असत्यता इस भाषामें है. इस लिय इसको एकान्त रीतीसे सत्यभी नहीं कहते और असत्यभी नहीं कह सकते हैं. याचनी-मानके उपकरण शास्त्र और संयमके उपकरण पिच्छादिक मेरेको दो ऐसा कहना यह याचनी माषा है. दाताने उपयुक्त पदार्थ दिये तो यह भाषा सत्य है और न देनेकी अपेक्षासे असत्य है. अतः यह सर्वथा सत्यभी नहीं है और सर्वथा असत्यमी नहीं है. प्रश्न पूछना उसको प्रश्नभाषा कहते हैं जैसे तुमको निरोधमें-कारागृहमें वेदना-दुःख हैं या नहीं वगैरह. Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना| १९९५ A | यदि वेदना होती हो तो सत्य समझना न हो तो असत्य समझना. वेदनाका सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा इसको सत्यासत्य कहते हैं. सामावणी-धर्मोपदेश करना इसको पन्जापनी भाषा कहते हैं. यह भाषा अनेक लोगोंको उद्देश्य कर कही जाती है, कोई मनःपूर्वक सुनते हैं और कोई सुनते नहीं. इसकी अपेक्षा इसको असत्यम्पा कहते हैं, पञ्चक्रवाणी-किसीने गुरूका अपने तरफ लक्ष न खीचकरके कहा कि मैंने इतने कालतक क्षीरादिक पदाथोंका त्याग किया है ऐसा कहा. कार्यातरको उद्दश करके वह करो एसा गुरूने कहा- प्रत्याख्यानकी मर्यादाका काल पूर्ण नहीं हुआ नब तक वह एकांतसत्य नहीं है. गुरूके वचनानुसार प्रवृत्तं हुआ है इस यास्ते असत्य भी नहीं है. इच्छानुलोमा-ज्वस्तिमनुष्यने पूछा घी और शकर मिला हुआ दूध अच्छा नहीं है यदि दूसरा कहंगा कि वह अच्छा है. तो मधुरतादिक गुणोंका उसमें सद्भाव देखकर वह शोभन है ऐसा कहना योग्य है. परन्तु ज्वर सृद्धिको वह निमित्त होता है इस अपेक्षासे यह शोभन नहीं है अतः सर्वथा असत्य और सत्य नहीं है इसलिए इस वचन में उभयारमकता है. समयवयणी य तहा असञ्चमोसा य अठमी भासा ।। णवमी अणक्खरगदा असच्चमोसा हरदिया ॥ ११९६ ॥ विजयोइया संसपथयणी किमयं स्थाणुरुत पुरुष इत्याविका इयोरकस्य सद्भापमितरस्याभावं सापेक्ष्य द्विरूपता । अणवस्वरगदा अंगुलिस्फोटाविध्वनिः कलाकृतसंकेतपुरुषापेक्षया प्रतीतिनिमित्ततामनिमिसतां च प्रतिपयते इत्युभयरूण ।। मूलाराधना—संसयवयणी किमचं स्थाणुरुत पुरुष इत्यादि संदिग्धराक । अणक्खरगदा अक्षरहीना यथा अंगुलिस्फोटादिदाब्दाः कृतसंकेतस्येवार्थप्रतिपत्तिनिमित्तवान् । सिद्धांतरत्नमालायां पुनरित्थमाम्नातम् याचनी ज्ञापनी गृछानयनी संशयन्यपि || आह्वानीच्छानुकूला बाक प्रत्याख्यान्यवनक्षरा || असत्यमोषभाषेति नवधा घोधिना जिनः ।। Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आश्वास ध्यक्ताव्यक्तमति ज्ञानं बाः ओतुश्च यनयन् ।। स्वामहं याचयिष्यामि झापयिष्यानि किंचन ।। प्रष्टुमिच्छामि किंचिस्वामानेन्यमि च किंचन ।। वालः किमेप वक्तीशि त मैदेधि मन्मनः ।। आयाम्येहि भो भिक्षो ! करोम्यामां तव प्रमो! ॥ किंचियां सजयिष्यामि हुंकरोत्पत्र गौः कुतः ॥ याचन्यादिषु दृष्टांता इत्यमेते प्रदर्शिताः ।। अर्थ संशय वचन या असत्यमृषाका आठया प्रकार है. जैसे यह एंठ है अथवा मनुष्य है इत्यादि इसमें दोनोंमसे एककी सत्यता है और इतरका अभाव है इस वास्ते उभयपना इसमें है. अनक्षर वचन-चुटकी बजाना, अंगुली से इपारा करना जिसको चुटकी बजानेका संकेत मालूम है उस की अपेक्षा से उसको वह प्रतीतिका निमित्त है और संकत मालूम नहीं है उसको अप्रतीति का निमित्त होती है इस तरह उभयात्मकता इसमें है. उगमउप्पायणएसणाहिं पिंडमुवधि सेजं च ॥ सोधितस्स य मुणिणो विसुज्झए एसणासमिदी ॥ ११९७ ।। आहारभुपधि शय्यामुद्गमोत्पादनादिभिः ॥ . विमुक्तं गृह्णतः साधोषणा समितिर्मता ।। १२३५ ।। विजयोदया-उगमउम्पान एसणाहि उद्गमोत्पादनपणादोषरहितं भक्तमुपकरण वसति च गृहत पपणास. मितिर्भवतीति सूत्रार्थः । नशवकालिकढीकायां श्रीविजयावयायां प्रपंचिता उमादिदोषा पति ने प्रतम्यन्ते ।। एपणासमिति निर्दिशति-- मूलारा-सोधेतरम त्याजयतः । इद्रमादिवोरत्यत्तं पिंडादिक गृहत इनार्थः ।। विमुझदे निर्मला भवति ।। अर्थ-उद्गमदोप, उत्पादनदोष आर एपणादोष इन दोषोंसे रहित जो मुनि उपकरण, आहार और - Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना ११९७ वसतिका का स्वीकार करते हैं. वे मुनि एषणासमितीको निरतीचार पालते हैं ऐसा समझना चाहिये. श्रीविजयोदया नामकी दशबैकालिक टीकामें उमादि दोषोंका सविस्तर विवेचन अपराजित सूरीने किया है अत एव यहां उसका निरूपण करना वे नहीं चाहते हैं. आदाननिक्षेपणनिरूपणार्थ गाथा सहसाणा भोगिददुप्पमज्जिय अपच्चवेसणा दोसो परिमाणम्स हते समिदी आदाणणिक्खेवो ॥ ११९८ ॥ सहसादृष्टदुर्दृष्टामत्यवेक्षण माचिनः ॥ भवत्यादाननिक्षेप समितितवर्तिनः ॥ १२३६ ।। विजयोदया - सहसणाभोगिद आलोकनप्रमार्जनमकृत्वा आदानं निक्षेप इत्येको भंगः । अनालोक्य प्रमार्जनं कृत्या आदामं निक्षेपो येति द्वितीयो भंगः आलोक्य दुःप्रमृष्ट इति तृतीयः । आलोकितं प्रमुं च न पुनरालोकितं च शुद्धं चेति चतुर्थी भेगः । एतद्दोषचतुष्टयं परिहरतो भवति आदाननिक्षेपण समितिः । आदाननिक्षेपसमिति लक्षयति मूलारा - आलोकाप्रमार्जनेऽकृत्या पुस्तकादेरादानं, निक्षेप वा कुवैत एकः सहसायो दोष: । अनालोक्य प्रमार्जनं कृत्वा पुस्तकादेरादानं निक्षेप वा कुर्वतोऽनाभोगिताख्यो द्वितीयो दोषः । आलोक्ग्रामम्यकप्रतिलभ्य तद्गृहतोतिवादीयो दुष्प्रमृष्टसंज्ञो दोषः । आलोकित प्रसृष्टं च न पुनः शुद्धमशुद्ध चेति निरूपितमित्यादान निक्षेपकरणाच तुर्थीप्रणाल्यो दोष एतांस्त्यजत आदाननिक्षेपसमितिः स्यात् ॥ आदान निक्षेपका आचार्य निरूपण करते हैं. ➖➖ अर्थ - बिना देखे और बिना भूमि स्वच्छ किये पदार्थ उठा लेना, यह पहिला मंग हुआ. बिना देखे भूमि स्वच्छ करके पदार्थ जमीनपर रखना अथवा उठा लेना यह द्वितीय भंग है, देखकरके भूमि स्वच्छ किये बिना पदार्थ उठा लेना अथवा रखना यह तीसरा अंग है. देखना और थोडासा साद लेना यह चौथा भंग है इन चार दोयोंका त्याग कर पदार्थोंको उठा लेना और रखना शादान निक्षेपण समिति है अर्थात् जमीनको अच्छी तरहसे आय ६ ११९ Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाचना ११९८ देखकर और स्वच्छ कर उसपरसे पदार्थ उठा लेना अथवा उसपर पदार्थ रखना यह आदान निक्षेपण समिति है. एदेण चैव परिद्वावणसामंदीवि वष्णिया होदि ॥ बोसरणिज्जं दव्वं थांडेले बोसरितस्स ॥ ११९९ ॥ अनेनैव प्रकारेण प्रतिष्ठापनका मता ।। समितिस्त्यजतस्त्याज्यं प्रदेशे स्थंडिले यतः ।। १२३७ ॥ विजयोदया -- पण चैव आदाननिक्षेपविषययत्नकथनेन । पािवणसमिदीवि वणिदा होदि प्रतिष्टापनसमितिर्वर्धिता भवति । बोसराणज्जं परित्यक्तव्यं मूत्रपुरीषादिकं मलं । थंडिले वोसतिस स्थंडिले निर्जन्तुके, निरिच्छद्रे समे युतः ॥ प्रतिष्ठापन समिति व्याचष्टे मूलारा-- दैण आदानविक्षेपविषययत्नकथनेन । बोसरणिजं अवश्योत्सृज्यं । दवं विण्मूत्रलसिंवाणकलईलुचितकेशादिकं । दिले निर्जन्तुकनिच्छिद्र समत्वादिविशिष्टे प्रदेशे । तथा चावोचाम धर्मामृते-निर्जन्ती कुराले विविक्रविपुले लोकोपरोधोझिते ॥ प्लुष्टे दृष्ट उतोपरक्षितितले विष्ठादिकानुत्सृजन् || श्रमणेन नतमभितो हष्टे विभज्य विधा || सुपृष्टेऽप्यहस्तन समिताबुत्सर्ग उत्तिष्ठते ॥ अर्थ - आदाननिक्षेपण समितिका निर्दोष पालन करनेके कथनसेही प्रतिष्ठापन समितिका भी वर्णन हुआ. त्यागने योग्य सूत्र पुरीषादिक मलका त्याग निर्जन्तुक और निश्च्छिद्र जमीन में करनेवाले सुनि प्रतिष्ठापन समिति का पालन करते हैं. दाहिं सदा जुत्तो समिदीहिं जगम्मि विहरमाणो हु || हिंसादीहिं ण लिप्पड़ जीवणिकायाउले साहू | १२०० ॥ अम ११९ Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुलाराधना आश्चा आभिः समितिभियोगी लोक षजीवसंकुले ॥ दोष साविभिनव लिप्यंत विहरन्नपि ॥ १२३८ ।। विजयोदया-पदाहि एताभिः । सदा जुत्तो सदा युक्तः । जगम्मि घिहरमाणो दु जगति विवरनपि । कीरशो! जीवणिकायाउले षड्जीवनिकायाकीर्ण । हिंसादीदि हिमादिभिः। लिप्पदि न लिप्यते साधुः । आविप्राइंशन परितापन, संघट्टनं, अंगन्यूनताकरणादिपरिग्रहः । समितिषु प्रवर्तमानः प्रमादरद्वितः प्रमत्सयोगाप्राणव्यपरोपर्ण हिंसरयुच्यते । हिंसादिसहितामि कर्माणि हिंसादिशब्देनोच्यते । कार्य कारणशष्यप्रवृत्तिः प्रतीततरत्वात् । यद्यपि पिवर्जननिमित्तगुणा. चितं तत्र प्रवर्तमानमपि तेन न लिप्यते यथा स्नेतगुणान्वितं नामरसपत्रं काचनीलनीरवर्तमानमपि नांधुना लिप्यते । निरंतरनिचितजीवनिकायाकुलेऽपि जगत्ति संचरनपि मुमिन लिप्यते अप्रमत्ततया गवृत्तः पंचसु समितिविति॥ समितिसंततसमाहितस्य हिंसाविद्वारायातपातकबंधामा भावयति मूलारा-हिंसादीहिं प्राणातिपातपरिवापनसंघटनांगन्यूनताकरणादिषड्जीवोपघातावृतादिजनितपातकैः । ण लिप्पदि न बध्यते ॥ अर्थ-इन पांच समितिओंका पालन करनेवाला मुनि जीवसमुदायसे भरे हुए जगत में हिंसादिक पातकोंसे अलिप्त रहता है. आदिशादसे परितापन, अर्थात् तकलीफ देना, संघट्टन जीवोंको परस्परमें मिलाना, उनके अंग कम करना, इत्यादि दोषोंसे समिति धारक यति लिन नहीं होता है. जो समितिओको पालता है. वह प्रमादरहित होता है. ममादसे प्राणांका घात करनाही हिंसा है. हिंसादि सहित कमाको हिंसादि कहते हैं अर्थात् हिसादिक कारण हैं और उसस होनेवाली क्रियायें कार्य है. यहाँ कायम कारणका उपचार करके हिंसादिकक कार्यकोमी हिंसा कह सकते हैं. त्यागगुणयुक्त यति विपर्योस भरे हुए इस जगतमें रहकरभी विषयों में आसक्त होते नहीं है. अतः वे पापसे लिप्त नहीं होत है. जैस स्नेह गुणसे युक्त कमलपत्र वैडूयक समान नीलजल में रहकर भी उसस लिम होता नहीं. निरंतर प्राणिसे भरे हुए इस लोकमें मुनि विहार करते हैं तो भी चे प्रमादरहित होकर पांच समितिओंमें प्रवृत्त होते हैं अतः पापास लिप्त होते ही नहीं. श पउमणिपतं व जहा उदयेण ण लिप्पदि सिणेहगुणजुत्तं ।। तह समिदीहिं ण लिप्पइ साधू काएसु इरियंतो ॥ १२.१ ॥ .. Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना समितो लिप्यते नाचीवमध्ये चरन्नपि ॥ स्निग्धं कमलिनीपत्रं सलिलैरिव वाःस्थितम् ॥ १२३९।। विजयोदया-एउमणिपत्तं इत्यनया गाथया-एमपत्रं यथा नोदकेन विलिप्यते स्नेहगुणसमन्धित । तथा कार्यसु शरीरेषु माणभृतां प्रतिमानोऽपि न लिप्यते साधुः समितिभिहेतुभूताभिः । । उक्तार्थसमनार्थ युक्तिमुपन्यस्यति-- __ मूलारा-सभिदीहि समितिभिर्विशिष्टः । ण लिप्पदि हिंसादिभिर्न बध्यते । कापसु षड् जीवदेहेषु । इरियंदो प्रवर्तमानः । अत्र कायशब्देन प्राणिशरीरपीडनापाचमानकर्मत्वपरिणतिकास्तद्योन्यपुद्गलाः सकललोकव्यापिनो गृछते । तथैव दृप्रांते साध्यव्यामसाधनस्य दर्शयितुं दास्यत्वात् । तथा च प्रयोगः--यद्यद्धि वर्जनसमर्थगुणान्वितं तत्तत्र प्रवर्तमानमपि तेन न लिप्यते । यथा जलबिवनश्रमस्नेहनगुणान्वितं पद्मिनीरत्रं जलान्तःप्रवर्यपि जलेन । प्राणिशरीरपीढनापायमानकर्मवत्परिणतिकत योग्यपुद्गलविवर्जनसमर्थसमिति गुणान्वितश्व साधुस्तस्माल्लोकच्यापिषु तेषु अन्तः प्रवर्तमानोऽपि न लिप्यते ॥ अर्थ --- स्नहगुणसे युक्त कमलका पत्र जलस लिन होता नहीं है तद्वत् प्राणिक शरीरोंमें विहार करने वाला यतिराज समितिओंसे युक्त होनेसे पापसे लिप होता नहीं. सरबाले वि पड़ते जह दढकवचो ण बिज्झदि सरेहि ॥ तह समिदीहिं ण लिप्पइ साधू कारसु इरियंतो ॥ १२०२ ॥ बध्यते समितो नाधैः कायमध्ये भ्रममपि ।। सन्नद्धो बिध्यते कुत्र शरवर्षे रणांगणे ।। १२४० ।। घिजयोदया-सरबासे बि पड़ते शरवर्षेऽपि पसति सति च रणांगणे यथा हतकवचो न शरमिंघते, लचा समितिभितुभूताभिने लिप्यते हिंसादिना कायेषु पर्तमानो मुनिः ॥ तमेवार्थमुदाहरणांतरेण द्रढयति मृटारा-सरवासे वाणवृष्टौ वर्षग्रहणेन असकृत्यात्तै लमयति ॥ दढकवयो अभेद्यसनाहः । अत्रापि प्रयोग: पूर्ववत्कल्पनीयः॥ Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १२०१ अर्थ - रणांगण में बायोकी दृष्टि होनेपर भी जिसने दृढ कतर धारण किया हूँ ऐसा शूरपुरुष भिन नहीं होता है अर्थात वह शरवृष्टिमें संचार करता हुआ भी अक्षतही रहता है वैसे समितिरूपी कवच धारण करनेवाले मुनरूपी योद्धा भी हिंसादि वाणोंसे अक्षत ही रहते हैं. जीवनिकाय में बिहार करते हुए भी वे पापोंसे अलिप्त ही रहते हैं. जत्थेव चरइचालो परिहारहू वि चरइ तत्थेव || बज्झदि पुण सो बालो परिहारण्हू त्रि मुच्चइ सो ॥ १२०३ ॥ बालमरति यत्रैव तत्रैष परिहारवित् ।। ते कल्मषेबल इतरो मुच्यते पुनः ।। १२४२ ।। विजयोदया-- जत्थेष चरह मालो यत्रैव क्षेत्रे चरति जीपपरिहारकमानभिः । परिहारण्णू व जीवाधा रामशोऽपि तत्रैव चरति । तथापि बज्झदि सो पुण पालो षभ्यते पुनरसी ज्ञानबालधारिवालम्बासी परिवारण्ड परिदारशः । मुमुज्यते कर्मपात् ॥ समानदेशं चारिणोरप्याशियोः पापघावधौ दर्शयति--- मूलारा -- जत्थेव यत्रेव क्षेत्रे । चरदि गमनादिक्रियासु प्रवर्तते । गाली वधपरिहारकमानभिज्ञः । यज्झवि पापैर्बध्यते । मुजदि पापलेपान्मुच्यते पापैर्न लिय वेत्यर्थः ।। अर्थ-जीवी बाधाका परिहार करनेका क्रम जिसको ज्ञात नहीं हुआ है ऐसा अझ जीव जिस जगह में रहता है उसी जगहमें जीवबाधाका परिहार करनेवाले मुनिमी रहते हैं. परंतु अज्ञ जीव कर्मसे बद्ध होता है अर्थात् ज्ञानसे बाल और चारित्रसे बाल ऐसा अज्ञ कर्मबद्ध होता है परंतु ज्ञानी और चारित्रवान् जीव कर्मबद्ध होता नहीं है. १५.१ उक्तमर्थमुपसंहरायुत्तरगाथया - तथा चेट्टिदुकामो जया तझ्या भवाहिं तं समिदो || समिदो हु अण्णणं णादियदि खवेदि पौराणं ॥ १२०४ ॥ , te ६ १२०१ Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वा १२०२ यवा सदा ततश्चेष्टां चिकीर्षः समितो भव ॥ पराणं लिप्यते कर्म नाप्नोति समितो नवम् ॥ १२४३ ॥ विजयोदयायमारसमितिषु प्रवर्तमानो न यध्यते, पापेन मुच्यते । असमितस्तु महता ययते कर्मसमूहेन तस्मात् । तम्हा चेहिकामो गमनभाषणाचाभिलाषी । जाग गया यदानदान भनार विदो मयादि मतिपरो भवेति निर्यापकमरिराह क्षपर्क । सामदो खु समितः सम्यकप्रवृत्तः ईयादिषु । अण्णमण कर्म अन्यत् अन्यत् । प्रत्ययं । पादियदि नवाबत्ते । खवेदि पोराण प्राक्तनं च कर्म क्षपति निरयति ॥ एषमीर्यादिसमितीव्याख्यायोपसंहस्तासु क्षपक नियोकुमनुशास्ति मुलारा–यस्मादसभितः पापैर्वध्यते समिवस्तु पापैरपि मुच्यते तस्माद्धेतोः । चेटिदुकामो निरचद्यप्रयोजनार्थतया गमनाविषु प्रवर्तितुमिच्छन् । प्रयिगा तहगा यदा तदा सर्वदेत्यर्थः । भवाहि त भोः क्षपकराज 1 भव त्वं । समिदो ईर्यादिषु अतिनिरूपितक्रमेण प्रवृत्तः । अण्णमणं अपरमपरं पाएं | कम्ममष्णमिति पाठे कर्मान्यदित्यर्थः । णादियदि नैयाइते । उक्तं च--- यदा सदा ततश्चेष्टा चिकीर्षुः समितो भवः ।। समितो न नर्थ कर्म लाति क्षपयवीतरत् ॥ इदमत्रोक्तार्थसंग्रहवृत्तमवमाधम् । पापेनान्यवघेऽपि पामणुशोऽप्युद्नेय नो लिप्यते ॥ ययुक्तो यवनादतः परवधाभावेऽप्यसै बध्यते ॥ यद्योगादधिर संयमपदं भांति व्रतानि तया न्यप्युझांति च गुप्रयः समितयस्ता नित्यमित्याः सताम् ।। उपरके अर्थकाही आचार्य आगेकी गाथामें उपसंहार करते हैं. अर्थ-समितिओंमें प्रवृत्ति करनेवाले मुनि पापसे बद्ध होते नहीं थे उससे मुक्त होते हैं. जो समितिरहित प्रवृत्ति करते हैं वे कर्मसमुदायसे बंध जाते है. इस लिये आना, जाना, भाषण करना इत्यादि कार्य करनेके अभिलापीओको चाहिये कि वे समितिओम तत्पर रहे. इसलिये हे क्षपक! तुम समितिमें तत्पर रहो. जो समितिओम तत्पर रहते हैं उन्हें नवीन २ कर्मका चंध नहीं होता है और उनका पूर्ववद्ध कर्म झड जाता है. Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाधना एदाओ अठ्ठपक्यणमादाओ णाणदसणचरितं ॥ रक्खंति मना मुणियो गादा उन पदो ॥ १६०५ ॥ राद्धांतमातरोऽष्टौताः पांति रत्नत्रयं यतेः ।। जनन्यो यत्नतो नित्यं तनुजस्येव जीवितम् ।। १२४ ॥ विजयोदया-पदामो अट्ठएघयणमादायो पता अष्टप्रवचनमातृकाः । पयदामो प्रयता। णाणसणवरित रक्वंति समिचीमशानदर्शनद्यारित्राणि पालन्याक्ति सदा मुनेः । मादा पुरी व अधा जननी पुत्रं यथा | प्रयता माता पुत्र पालयत्यपायस्थानेभ्यः ॥ इदानी गुप्तिसमितीनां प्रवचनमातत्वं दृष्टान्तेन स्पष्टयतिभूलारा--रक्खंनि अपायमुत्सारयन्ति । पयदाओ सम्यकावर्तिताः प्रयत्नपराश्च । अर्थ-ये अष्ट प्रवचनमातायें प्रयत्नपूर्वक सम्यग्दर्शन. सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र इनका पालन करती हैं. पुत्रका हित करनमें सावधान माता अपायोंसे जैसे उसको बचाती हूँ वैम य गुप्ति और समिनियां रत्नत्रयका रक्षण करती हैं उसमें दोष उत्पन्न न होने दती है. मतभावनानिरूपणायोत्तर प्रबंधः । प्रयोदशाविधं वारिनं अखंडमाराधयतधारिचाराधना । तन प्रतानस्थैर्य संपादयितुं भावना एकैकस्य पंच पंचाभिहितास्तत्रेमा अहिंसावतभावना इति थोधयति । एमणणिक्खेवादाणिरियासमिदी तहा मणोगुत्ती॥ आलोयभोयणं वि य अहिंसाए भावणा होति ॥ १२०६ ॥ मनोगुफ्त्येषणादाननिक्षेपेक्षिताशिताः ॥ महाव्रते मता जैनैरादिमाः पंचभावनाः ॥ १२४५॥ विजयोपया-पसणपिषधादाणिरियासमिती । पसणसमिदी पषणासमितिरावाननिक्षेपणासमितिः, र्यास. मितिस्तथा मनोगुप्तिः भालो मोजणं व बालोकभोजनं च । अहिंसाय बहिसायतस्य । भाषणा मायमाः। होति भवंति। एपणासमितिर्मिरूप्यते भिक्षकाला, युभुक्षाकालोऽधप्रहकालति कालत्रयंकातव्ये । ग्रागनगरादिषु यता कालेन आहारनिष्पत्ति' भवति, अमीषु मासेषु, अस्य वा कुलस्य बाटस्य यायं भोजनकाल इच्छाया:प्रमाणादिना भिक्षाकालोऽवगम्तव्यः। क्षुध Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाचा १९०१ मम तीया मंदा घेति स्थशरीरव्यवस्थाच परीक्षणीया । अयमषप्रहः पूर्व गृहीतः । एवंभूत आहारो मया न भोक्तव्यः इति अद्यायमवग्रहो ममेति मीमांसा कार्या । तदनंतरं पुरतो युगांतरमात्रभूभागावलोकनरतः अद्रत, अघिलंवितं, असंभ्रान्तं मजेत् । प्रलंबबाहुरविचरणयासो मिक्षिकार ईषवयनतोत्तमांगः । अकमेनानुबकेम असहरिप्तबहुलेन वमना रददा तु घरान, करमान, बलीवान , राजांस्तुरगाम्मद्विषान्सारमेयाकलहकारिणो का मनुष्यान्दरता परिहरेत् । पक्षिणो मृगाचाहारकालोद्यता पायथा न बिभ्यति,यथा चा स्वमाहारं मुक्त्वा नबजन्ति तथा यायात । मृदुना प्रतिलेखनन कृतप्रमार्जनो गच्छेचदि निरंतरसुसमाहितफलादिकं बाप्रतो भवेत् मागातरमस्ति । मिन्नवर्णों वा भूमि प्रविशस्तद्वर्णभूभाग एवं अंमप्रमार्जनं कुर्यात् । तुषगोमयभस्मधुसपलालनिचर्य, दलोपलफलादिकं च परिहरेत् । निंद्यमानो न ध्ये स, पूज्यमानो विनुष्का । नमौतनस्यबहुल, तिरताकं या गूदं प्रविशेत् । तथा मत्तानां गृहं न प्रविशत् । सुरापण्यांगनालोकगर्हित कुलं वा, यज्ञशाला, दानशासां विषाहगृहं, पार्थमाणानि, रक्ष्यमाणानि; अन्यमुक्कानि च गृहाणि परिहरेत् । दरिदकुलानि उत्क्रमादयकुलानि न प्रधिशेत् । ज्येष्ठाल्पमध्यानि सममेवाटेत् द्वारमर्गलं कपाटं वा नोद्धाटयेत् । बालवत्सं, पलकं, गुनो वा मोलंघयेत् । पुष्पैः फलैजैर्वाचकीर्णा भूमि बजेयत । तदानीमेव लिप्तां । भिक्षाचरेषु परेषु लाभार्थिषु स्थितेषु तद्रेईन प्रविशेत् । तथा कुटुंगिषु व्यप्रविषण्णवी नमुनेषु च सत्सु नो तिष्ठेत् । भिक्षामार्गणभूमिमति. कम्य न गच्छेत् । यांचामव्यक्तखन वा स्वागमनिवेदनार्थ न कुर्यात् । विपुदिव स्वां तर्नु चपर्शयेत् कोऽमलभिक्षा दास्यतीति अभिसार्ध न कुर्यात् । रहस्य गृहं, बनाई, कनलीलसागुरुमगृहं, नाट्यगांधशालाम्च अभिनंघमानोऽपि न प्रषिशेत। यहुजनप्रचारे प्राणिरहिते अशुन्यपरोपरोधवर्जिते,अनिर्गमनप्रवेशमार्गे गृहिभिरनुशातस्तिष्टेत । समे विच्छिदे भूमागे चतुरंगुलपानान्तरो निश्वलः कु.जयस्तंभादिकमनवलाम्य तिष्टेत् । छिद्रद्वारं काटे,प्राकारं वा न पश्येत् चोर इव | दातुरागमनमार्गे अवस्थानदेश, कहुच्छकभाजनादिकं च शोधयेत् । स्तनं प्रयच्छन्त्या. गर्भिण्या या दीयमानं न गृकीयात् । रोगिणा, अतिवृद्धेन, बालनोन्मत्तेन, पिशाचेन, मुग्धेनांधेन, मूकेन, दुर्बलेन, भीतेन शंकितेन, अत्यासभेन, अदुरेण, लजाध्यावृतमुख्या, आवृतमुख्या, उपानदुपरिन्यस्तपादेन वा दीयमानं न गृहीयात् । खेद्धेन भिनन वा करकछुकेन दीयमानं वा । मांस, मधु, नयनीतं, फल अदारितं, मूल, पत्रं, सांकुरं, कंदं च वर्जयेत् । तत्स्पृष्टानि सिज्ञान्यपि विपनरूपरसगंधानि, कुधितानि, पुष्पितानि, पुराणानि, जंतुसंस्पृष्टानि च न दद्यान्न खादेत्, न स्पृशेच्च । उद्मोत्पादनैषणादोषदुएं नाभ्यवहरेत् 1 नवकोटिपरिशुद्धाहारग्रहणमेषणासमितिः ॥ यतिक्षिप्यते यत्र यदादीयते यतस्ततुभयं प्रतिलेखनायोग्य न बेशि विलोक्य पश्चात्कृतमार्जन पुनरवलोक्य निक्षिपदग्रकीयाया । एषा आदाननिक्षेपणसमितिः । ईयर्यासमितिनिकपितय तथा मनोगुप्तिश्च । स्फुटतरप्रकाशावलोकितस्य भोजनमित्याहिंसावतभाषनाः पंच।। सांप्रतंत्रतानां स्थैर्या भावनाः पंचशो व्याचक्षाणः पूर्वमाहिसावतभावना: पंच ज्याचष्टेमूलारा-आलोगभोयणं स्फुटतरप्रकाशेऽवलोकितस्य चतुर्षिधस्याप्याहारस्य बल्भन । Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना भास्थासा ___अब व्रतोंकी भावनाओंका आचार्य वर्णन करते हैं. चारित्रके गुप्ति समिति और अहिंसादिक व्रत ऐसे ते। प्रकार हैं. भावनाओंसे व्रतोंमें स्थिरता उत्पन्न होती हैं. एकेक व्रतकी पांच २ भावनायें आचार्योने कही है. प्रथमतः अहिंसा व्रतकी भावनाओंका आचार्य वर्णन करते हैं-- एषणासमिति, आदाननिक्षेपणासमिति, ईर्यासमिति, मनोगुप्ति और आलोकित पानभोजन ऐसी पांच अहिंसात्रतकी भावनाए हैं. अब एपणा समितीका वर्णन-मिक्षाकाल, वृभुक्षाकाल और अक्ग्रहकाल ऐसे तीन काल हैं. गांव, शहर बगैरह स्थानोंमें इतना काल व्यतीत होनेपर आहार तयार होता है, अमुक महिनेमें, अमुक कुलका, अमुक गल्लीका अमुक भोजन काल हे यह भोजनकालका वर्णन है. बुभुक्षाकाल-आज मेरेको भूख तीब लगी है या मंद लगी है. मरे शरीरकी तबियत कैसी है इसका विचार करना यह बुभुक्षाकालका स्वरूप है. . अमुक नियम मैने कल ग्रहण किया था. इस तरहका आहार मैनें भक्षण न करनेका नियम लिया था, आज मेरा यह नियम है इस प्रकार विचार करना इसको अवग्रहकाल कहते हैं. . - इतना विचार होनेपर आहार के लिय जब मुनि निकलते हैं तब आगे' चार हाथ प्रमाण जमीनका निरीक्षण कर जलदी, अति सावकाश और गडबडी ऐसे दोपोंका त्यागकर गमन करना चाहिये, जाते समय अपने हाथ नीचे छोडकर चलना चाहिये. दूर अन्तरपर पांव रखते हुए नही जाना चाहिये. निर्विकार होकर और अपना मस्तक थोडासा नीच करके जाना चाहिये. जिसमें कीचड नही है, पानी फैला दुआ नहीं है, जो उस और हरितकाय जंतुओंसे रहित है ऐसे मार्गसे प्रयाण करना चाहिये. मार्गमें गदहा, ऊंट, बैल, हाथी. घोडा, भैसा, कुत्ता और कलह करने वाले लोक इनका दूरसेही त्याम करे अर्थात् इनके समीपस गमन नहीं करना चाहिये. आहार करनेवाले पशु पक्षी ऑको अपनेसे भीति उत्पम न हो और वे अपना खाना छोडकर न भागे इस तरहसे मुनिको आहारार्थ जाना चाहिये. रास्ते में जमीनसे समान्तर फलक पत्थर वगेरे चीज होगी, अथवा दूसरे मार्गमें प्रवेश करना पडे, अथवा भिन्न वर्णकी जमीनपरसे चलना हो तो जहाँसे भिन्नवर्णका प्रारंभ हुआ है वहां खड़े होकर प्रथम अपने सर्व अंग परसे पिच्छिका फिरानी चाहिये. धानके छिलके गोबर, भस्मका ढेर, भूसा, वृक्षके पत्ते, पत्थर फलकादिकोंका परिहार करके गमन करना चाहिये. Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वास किसाने निंदा की तो क्रोधित न होना चाहिये और किसीने आदर किया तो आनांदत न होना चाहिये अर्थात् तोप और रोषका त्याग करके जाना चाहिये. जहाँ गीत नृत्य हो रहा है, जहां पताकाओंकी पंक्ति सजाइ जारही है. ऐसे घरमें प्रवेश न करे. मत्त पुरुषांक घरमें प्रवेश न करे, मदिरागृह अर्थात् मदिरा पीनेवालोंका स्थान, वेश्याका गृह, लोकनिंद्य कुलोंका त्याग करना चाहिये. यज्ञशाला, दानशाला. विवाहगृह, जहां प्रवेश करनेकी मनाई है, जो पहरेदारोंसे युक्त है, जिसको अन्य भिक्षुकोंसे छोडा है ऐसे ग्रहोंका त्याग करना चाहिये. अतिशय दरिद्री लोगोंके गृह, आचार विरुद्ध चलनेवाले, श्रीमंत लोगोंके गृहका त्याग करे बडे, छोटे, और मध्यम ऐसे घरों में प्रवेश करना चाहिए. यदि द्वार बंद होगा, अर्गलासे बंद होगा तो उसको उघारना नहीं चाहिये. छोटा बछड़ा, बकरा, और कुत्ता इनको लांघ कर नहीं जाना चाहिए. जो जमीन, घुप्प फल और बीजोंसे व्याप्त हुई है उसपरसे जाना निषिद्ध है. हाल ही जो लीपी गई है, जहां अन्य भिक्षुक आहार लाभके लिए खड़े हुए है ऐसे घरमें प्रवेश करना निषिद्ध है। जहांके मनुष्य, किसी कार्य में तत्पर दीखते हो, खिन्न दीख रहे हो उनका मुख दीनतायुक्त दीरम रहा हो तो वहां ठहरना निपिद्ध है. जहां अन्य भिक्षु ठहरते हैं तथा जहां भिक्षा ग्रहण करते हैं उस भूमीको उल्लंब कर आमे गमन नहीं करना चाहिये. याचना करना, अथवा अपना आगमन सूचित करने के लिये अस्पष्ट शब्द बोलना निषिद्ध है. बिजलीके समान अपना शरीर दिखाना चाहिये. मेरेको कोन श्रावक निर्दोष भिक्षा देगा ऐसा संकल्प नहीं करे. एकांतगृह, उद्यानगृह. कदलीओंसे बना हुआ गृह, लतागृह, छोटे २ वृक्षोंसे आच्छादिन गृह, नाट्य, शाला, गंधर्वशाला, इन स्थानों में प्रातग्रह करनेपर भी प्रवेश करना निषिद्ध है. जिसमें बहुत जनोंका प्रचार नहीं हैं. जो प्राणिरहित है अपवित्रता और परोपरोधरहित-अर्थात् वूसरोंका जहां प्रतिबंध नहीं है ऐसे घरमें जाने आनेका मार्ग छोडकर गृहस्थाने प्रार्थना करनेपर खड़े होना चाहिये. समान. छिद्ररहित ऐसे जमीनपर अपने दोन पायों में चार अंगुल अंतर रहेगा इस तरह निवल खड़े रहना चाहिये. भीत, खांब वगैरहका आश्रय न लेकर स्थिर खडे रहना चाहिये. Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः चोरके समान, छिद्र, दरवाजा, किवाह, तट वगैरहका अवलोकन न करे, दाताका आनेका रस्ता, उसका खडे रहनेका स्थान, पळी और जिसमें अब रखा है ऐसे पात्र इनकी शुद्धताके तरफ विशेष लक्ष्य | देना चाहिए. जो अपने बालकको स्तनपान करा रही है और जो गर्भिणी है ऐसी स्त्रियोंका दिया हुआ आहार न लेना चाहिए. रोगी, अतिशयना, नालक, उन्गार, घ. गूग, शाल, भरत शंकायुक्त, अतिशय नजदीक जो खड़ा हुआ है, जो दर खडा हुआ है, एस पुरुषस आहार नहीं लेना चाहिए. लज्जास जिसने अपना मुंह फेर लिया है, जिसने अपना मुंह ढक लिया है, जिसने जाडा अथवा चप्पलपर पांव रखा है, जो उंच जगह पर खड़ा हुआ है. ऐसे मनुष्यका दिया हुआ आहार नहीं लेना चाहिए. टूटी हुई अथवा खंडयुक्त हुई ऐसे पटी के द्वारा दिया हुआ नहीं लेना चाहिए. मांस, मद्य, मक्खन, नही विदारा हुआ फल, मूल, पत्र, अंकुर और कंदका त्याग करना चाहिए. इन पदार्थीका स्पर्श जिसको दुआ है वह अन्न भी त्यागना चाहिए. जिनका रूप, रस, गंध, स्पर्श, चलित हुआ है, जो कुथित हुआ है अर्थात खराब हुआ है, जिसको जंतुओंने स्पर्श किया है ऐसा अन न देना चाहिये, न खाना चाहिये और उसको स्पर्श भी नहीं करना चाहिए. उद्गम, उत्पादन, एषणा दोषोंसे दूषित आहार नहीं खाना चाहिए. नऊ कोटीसे परिशुद्ध आहार ग्रहण करना एषणासमिति है. जो चीज जहां रखना हो, और जो चीज जहांसे उठाना हो वे दोनो पिछीसे स्वच्छ करना योग्य है या नही है. इसका विचार कर नंतर उनको स्वच्छ करना चाहिय. और बह चीज रखनी चाहिये या उठानी चाहिये. इसको आदाननिक्षेपण समिति कहते हैं. ईयासमितिका और मनोगुप्तिका वर्णन पूर्वमें किया है. अधिक स्पष्ट प्रकाशमें देखकर भोजन करना अर्थात् सूर्य प्रकाश में भोजन करना ऐसी अहिंसावतकी पांच भावनायें हैं. द्वितीयव्रतभावना उच्यते कोधभयलोभहस्सपदिण्णा अणुवीचिभासणं चेव ।। विदियरस भावणाओ बदस्त पंचेव ता होति ॥ १२०७ ॥ १२०७ Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारामा आश्वासः १२०८ हास्पलोभभयकोधप्रत्याख्यानानि योगिनः ।। सूत्रानुसारिवाक्यं च द्वितीये पंच भावनाः ॥ १२४६ ॥ विजयोदया-शोधभयलोभहास्यानां प्रत्याण्यानानि चतनः । आणुवीयिभासणं चेय सूत्रानुसारेण च भापणं । सत्या, मृषा, सस्यमषा, असत्यमृपा तेति इनसो वानः । नत्र त्या असल्यामपा वा व्यपहरणीया नेतरद्रयं । क्रोधादीनामसत्यवचनकारणानां प्रन्यायाने असद्वाक्परिहता भवति-नाम्यथा । अनृतविरतिभावना: पंच सूचयति मूलारा-परिपणा त्यागः । फोधादीमा प्रत्याख्याने एवासत्यासत्यानृतवचसी त्यतुं शक्येते तेषां तत्कारणत्वादिति तत्प्रतिहाश्चतस्रो भावनाः भणिताः। वूसरे प्रतकी सत्यवतकी भावना कहते है अर्थ-क्रोध, भय, हास्य और लोभ का त्याग करना ये चार भावनाये और मूत्रानुसार भाषण करना ऐसी सत्यव्रतकी पांच भावनाये हैं सत्यवचन, असत्यवचन सत्यमृषा और असत्यम्या ऐसे वचनके चार प्रकार है. उसमेंसे सत्यवचन और असत्यवचन ऐसे दो वचन व्यवहार योग्य माने है. बाकीके दो व्यवहार योग्य नहीं है. क्रोध, भय, लोभ और हास्य असत्यभाषणके कारण हैं. उनका त्याग करनेसे असत्यवचनोंका परिहार होता है। अन्यथा नहीं. तृतीयप्रतभायना उच्यते अणणुण्णादग्गहणं असंगबुद्दी अणुण्णबित्ता वि ॥ . एदावंतियउग्गहजायणमध उग्गहाणुस्स ॥ १२०८॥ असम्मताग्रहः साधोः सम्मतासक्तबुद्धिता॥ दीयमानस्य योग्यस्य गृहोतिरूपकारिणः ॥ १२४७ ॥ विजयोदया-अणगुण्णादग्गहणं तस्य स्वामिभिरननुज्ञातस्य अग्रहणं । शानोपकरणादः असंगवुद्धी अणुष्पा वित्ता वि परानुका संपाद्य गृहीतेऽपि असतबुद्धिता । पदातिय उम्गहजायण पतत्परिमाणमिदं भयता दातव्यमिति प्रयोजनमाअपरिग्रहः यायद्याचितो यावद्वामि इति न युद्धिः कार्या । उग्गहाणुस्स गाह्मवस्तुशानस्य इनं ज्ञानसंयमयोरम्यतरस्य साधनमंतरेण झानं चारित्रं या मम ने सिध्यतीति तस्य प्रदर्ण नानुपयोगिनो यात्रतच ते । १२०८ Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १२०९ अस्तेयत्रतभावनाः पंच गाथाद्वयेन निगदत्तिमूलारा-- अगगुष्णादारगहणं अननुज्ञाता । बसतिशयनासन पुस्तकास्तत्स्वामिभिरननुज्ञाताः । असंगबुद्धी अगुणवत्ता असंगबुद्धिरननुज्ञाप्यपि वत्स्वामिनं इच्छा कारश्रित्वा गृहीतेऽपि ज्ञानादिसाधनांगेऽना कचित्तता । पटनाथं परेषां पुस्तकादिकं वागत्या द्गृहीतं तन्त्रालोभगमनमित्यर्थः । नेपा द्वितीया । सदावत्तिय उग्गजायणं एतावदिति वावयानं एतत्परिमाणनि में दिव्यमिस्त्रियोजन साधनमात्रस्य अवग्रहस्य परिग्रहस्य पुस्तकार्याचनं । वाखितो दाता यावद्दाति तावद्गृहामीनि बुद्धरकरणमिति भावः सेवा तृतीया । कस्यैना इत्याह-उमाद्दणस्स अवगृह्यते धर्मागतया परिगृह्यते इत्ययमो ऽयमा ग्रहणयोग्यं वस्तु पुस्तकादिकं । अव जानातीत्यत्रयज्ञस्तस्यामावस्येत्यर्थः तीसरे व्रतकी भावनाओंका वर्णन ---- अर्थ -- ज्ञानोपकरणादिक अर्थात् शात्र, पिंछी. कमंडलादिक पदार्थ जिसके हैं उसकी परवानगी यदि 'न होगी तो उनका ग्रहण नहीं करना चाहिए. उनकी अनुज्ञासे शास्त्रादिकको ग्रहण करने पर भी उनमें आसक्ति न रखना, इतना आप मेरेको दीजिए क्योंकि मेरा इतनेसे ही प्रयोजन सिद्ध होगा ऐसा मनमें विचार कर उतनी ही वस्तु मांगना चाहिए. जितनी वस्तु दाता देगा उतनी सब में ग्रहण करूंगा ऐसी भावना अचौर्यत धारक को करना योग्य नहीं है. जिस वस्तु से ज्ञान और चारित्र की सिद्धि होगी जिसके बिना ज्ञान और चारित्रको प्राप्ति न होगी ऐसी वस्तु लेना यतिको योग्य है. अनुपयोगी वस्तुकी याचना करना योग्य नहीं है. वज्जण मणष्णुणादगिहप्पबेसस्स गोयरादीसु ॥ उग्गहजायण मणुवीचिए तहा भावजा तहए । १२०९ ॥ अप्रवेशोऽननुज्ञाने योग्यांचाविधानतः ॥ तृतीय भावनाः पंच प्राज्ञैः प्रोक्ता महाव्रते । १२५८ ।। विजयोदयावज्जण मागित्वंसस्स गृहस्वामिभिरननुपातस्य गृहप्रवेशयजनं भाषना । गोवरादीसु गोरादिषु बम प्रविश, अत्र वा तिष्ठेति योऽननुज्ञातो देशस्तस्य अप्रवेशनं । उग्गहजाश्रण अणुवीचि अवग्रहयाचना सूत्रानुसारेण तृतीये भावनाः ॥ १५२ आश्वासः १२०२ Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना অাম্বার। १२१० मूलारा–बज्जणमणगुण्णाद गिपबेसरस यर्जनमननुज्ञातगृहप्रवेशस्य । गृहस्वामिभिरिद गृह प्रविशात्र तिg इत्येवमनुहातगृहप्रवेशस्य गृहस्वामिभिरिदं गृहं प्रयिशात्र तिप्रत्येवमननुज्ञाते प्रदेशे प्रवेशस्य वर्जनं । के तदित्या गोयरादीसु गोचरे भ्रमेयं बसत्यानावस्थानग्यनाटिकर्मणि च । मैना ची ! अल्लारपश्चिात अवमायाचनमनुवीच्या । समीपं गत्वैवं भवद्भिर्मे दातव्यमिति सम्रानुसारेण योग्यम्य परिग्रहस्य प्रार्थना । एतेनेतदपि संगृहीन शून्यागारविमोचिताबासपरोपरोधाकरणभैन शुद्धिसधादिसंवादाः पंचेति मैषा पंचमी । तधा तथा पंचेत्यर्थः ।। अर्थ-गृहके स्वामीन यदि घरमें प्रवेश करनेकी मनाई की होगी तो उसके घरमें प्रवेश करना यतिको निपिद्ध है. अर्थात् इस घरके प्रदेश में आप प्रवेश कर सकत है इस रीतीये यदि परवानगी न हो तो वहां प्रवेश करना अनुचित होगा. आगमस अविरुद्ध ज्ञानसंयमोपवरणकी याचना करनी चाहिये. इसप्रकार अचायत्रतकी भावनायें हैं. - - 'महिलालोयणपुव्वरदिसरणं संसत्तवसहिविकहाहि ॥ पणिदरसेहिं य विरदी भावणा पंच बभस्स ।। १२१० ॥ महिलालोकनालापो चिरंतनरतस्मृति ।। वासं संसक्तवस्तृनां पलिष्ठाहारसेवनम् ।। १२४९ ॥ योगिनो मुच्यमानस्य विरागीभूतचेतसः ।। तुरीपे भावनाः पंच संपते महात्रते ।। १२५० ॥ विजयोन्या-महिलालोअणपुचरविसरणसंसलवसविधिकहाहिं । स्त्रीणामालोकनं, पूर्वरतिस्मरणं, स्वीभिः राकु.लाया वसतिः शृंगारकथा इत्येतहिरतयः । पणिदरसेहि य धिरडी पलदर्पकरेभ्यो पिरतिश्चेति पंच मतभाषनाः॥ ब्रह्मचर्यभावनाः पंचाह मूलारा-पुठवर दिसरण प्राक्सेवितमैथुनस्मरणं । संसत्त्वसधि स्त्रीभिराकुला बसदिः । असंयत्तजनयुक्तवसतिरित्यन्यः । विकथा श्रृंगारकथा । पणिहरसहि बलदर्पकरेभ्यो रसेभ्यः । अर्थ-स्त्रिओके अंग देखना, पूर्वानुभूत संभोगादिकका स्मरण करना, स्त्रियां जहां रहती है यहां रहना TRETARTele Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भृगारकथा करना इन चार वातास विरक्त रहना ये चार ब्रह्मवतकी भावनायें हैं. जिससे चल और उन्म 1 सता अर्थात् कामाविकार होगा ऐसे पदाथोंका त्याग करना चाहिये. ये ब्रह्मचर्य की पांच भावनायें हैं. आश्वासः १६ अपडिग्गहस्स मुणिणो सहफरिसरसयरूवर्गधेसु ॥ रागहोसादीणं परिहारो भावणा हुति ।। १२११ ॥ यतेः स्पर्श रसे गंधे वर्णे शब्दे शुभाशुभे॥ रागद्वेषपरित्यागो भावनाः पंच पंचमे ॥ १२५१ ।। विजयोन्या-अपरिग्महस्स मुापीणो परिप्रवरहितस्य मुनेः । सहफरिसरसयरूपगंधेसु शदस्पर्शरसरूपगंधेषु । मनोशेषु ! रागद्दोसावीण रागद्वेषयोः परिहारो विषयभेदातांचप्रकारभावना पंचभम्य ।। मनोज्ञेशरपद्रियार्थपरिहार्यभेदात्पचपरिमहजनभावनाः प्राहमूलाग-अपरिगाहस नर्मनन्यस्य । दोसादीणं आदिशब्देन मोहस्यामि प्रहणं ।। अर्थ-परिग्रहरहित मुनि मनोज्ञ और अमनाज्ञ एसे स्पर्श: रस, गंध, वर्ण और शब्द इनमें राग द्वेष HAI करते है. अर्थात स्पर्शादि पांच इष्टानिष्ट विपगोंमें रागद्वेष नहीं करना ये पांच परिग्रह त्यागत्रत की पांच भावनाये है. भावनामाहात्म्यं कथयति ण करेदि भावणाभाविदो खु पीडं वदाण सन्चोसि ।। साधू पालुत्तो समुहदो व किमिदाणि वेदतो ॥ १२१२ ॥ भावना भावयन्नेताः संयतो बलपीडनम् ।। विदधाति न सप्तोऽपि जागरूका कथं पुनः ।। १२५२ ।। विजयोदया- करेदि खन करोस्येव । का भाषणाभाविदो भाषनाभिर्भाषितः। पीई पीडायदाणं मतानां । सव्वासि सर्वेषां । साधू साधुः । पासुत्तो प्रकर्षण निवामुपगतः । समुहदोष समुद्धातं गतो था । किमिवाणि पेदितो। चेतयमानः॥ Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः भावनामाहात्म्यमाहमूलारा-पील पीडां । विराधना । पासुत्तो निर्भरनिद्राक्रांत: । समुहदो मूर्छितः । चंदतो चेतयमानः । अर्थ-इन व्रतोंकी भावनाओंका अभ्यास करनेसे यति इन भावनाओंसे संस्कृत होता है. तब वह गाढ सोता हुआ भी अथवा मूर्षित हुआ भी अपने नतोंको अतिचार युक्त नहीं करता है. तो जाग्रत अर्थात् सावधान रहनेवाला वह मुनि अपने व्रतोंको कैसे दक्षित होने देगा? अर्थात् दिनरात व्रतोंकी भावनाओंका अभ्यास करनेसे उसके त हमेशा निरतीचार रहकर उत्तरोत्तर उन्नतावस्था की प्राप्ति कर लेते हैं, एदाहिं भावणाहिं हु तम्हा भावेहि अप्पमत्तो तं ॥ अन्छिहाणि अखंडाणि ते भविसंति हु वदाणि || १२१३ ॥ त्वमतः समितीः पंच भावयस्वैकमानसः ॥ महावतान्यवदामि निद्रिाणि भवति ।।१२५३॥ भावनाः समितिगुप्त यो यतर्वर्धयन्ति फलद महाव्रतम् ।। शर्मकारि रजसां निरासकाश्चारुसस्थमिव कालवृष्टयः ॥ १२५४ ।। इति महाव्रतवृष्टिः ।। विजयोदया-पदाहिं एताभिः । भाषणाहि भावनाभिः । तम्हा तस्मात् । भावेहि भाषय । अप्पमसो से अप्रमत्तस्त्वं । अनिउद्दावि अछिद्राणि । नैरंतयण प्रवृत्तानि | अखडानि संपूर्णानि तब भविष्यति मतानि । एवं प्रकाशितस्वरूपमाहात्म्यासु भावनासु संन्यासिनं प्रयुक्त मूलारा-मात्रेहि संस्कुरु स्वमात्मानं । अपिछदागि नैरतर्ये प्रवृत्तानि । निर्वाषाणि वा । अखंडाणि संपूर्णानि । ते तव । सप्ताहम्भावनानिष्ठस्य ॥ अर्थ-इस वास्ते हे क्षपक ! तुम अप्रमत्त अर्थात् निदोष आचरणयुक्त होकर इन भावनाओंका अभ्यास करो. तुम जब भावनामय होंगे तब तुमारे संपूर्ण ब्रत निरंतर टिक सकेंगे और पूर्णावस्थाको पास कर लेंगे. अतः हे क्षपक ! तुम अपनेको भावनाओंसे सुसंस्कृत बनाओ. मनाओंस सुसंस्कार अत निरंतर बाप आचरणयुक्ती Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना १२१३ बतपरिणामोपधातनिमिसानि शल्यानि ततस्तद्वर्जन कार्यमित्याच - णिस्सल्लरसेव पुणो महम्वदाई हवंति सव्वाई ॥ बदभुवहम्मदि तीहिं दु णिदाणमिच्छत्तमायाहिं ॥ १२१५ ॥ महानतानि जायंते निःशल्यस्य तपस्विनः ।। निदानवचनामिथ्यादर्शनहन्यते व्रतम् ॥ १२५५ ॥ बिजयोदया-णिस्सलुस्सेव शल्यरहितस्वैष शृणाति हिनस्तीति शल्यं । शरफटकादि शरीरादिप्रवेशि तेन तुल्यं यत्पाणिनो बाधानिमित्तं, अंतर्निविष्ट परिणामजातं तन्छल्यमिह गृहीतं । महत्वदाई महानतानि भवंति 1 शल्य कस्यचिदेव प्रतस्योपघातकं, यथा एषणासमिन्याचो अहिंसाप्रतम्यत्याशंका निरस्थति सर्वगन्नो। नन च महत्त्वेन यत. मवशेष्यं । मिथ्यात्वादिशल्यं अणुब्रतान्यपि अन्त्यय । सन्यं प्रस्तुतत्वान्महावतानामित्यमुक्त। अत्र चो-हिसादिभ्यो निरनिपरिणाममात्राणि अतानि । शल्ये मिथ्यात्वादिके सति किं न भति? येनैवमुच्यते निःशल्पस्यैव महानतानि भयंति ? पतत्प्रतिविधानायाहू-बदमुबहम्माद व्रतमुपदन्यते । तीहिंदु तिसृभिः । णिदाणमिच्छसमायाहि निदानमिथ्या स्वमायाभिः । अल्पान्तरत्वाम्मायाशयस्य पूर्वनिपात इति चेन-मिथ्यात्वं व्रतषिघातं प्रकर्षेण करोतीति प्रधानं ततो मिथ्यात्वं मायाचति बिपने मंडे मिथ्यात्वमस्य पूर्वनिपातः पवानिदानशन बंसः तस्याल्पान्तरस्यापूर्वनिपातः । सभ्यम्चारित्रमिद मोक्षमार्गन्धेन प्रस्तुतं, तकच नासतो सम्यग्दर्शनशामयोर्भवति । सति मिथ्यात्वे विरोधिनिन ते स्तः । समीचीनमानमर्शनचारित्ररत्नत्रयस्याम्मुखः । अनंतहानादिकामान्यत्र चित्तप्रणिधान परमेतत्फलं स्यादिति निदानं । तच सम्यग्दर्शनादिपरंपरया व्रतोपयातकारि । मनसा स्वातिवारनिगृहनलक्षणा माया व प्रतमुपहन्तीति मन्यते ॥ अतानि रिरक्षिषुणा मुमुक्षुणा प्रतोपघातनिमित्तांतर्निविष्टपरिणामलक्षणानि त्रीण्यपि शल्यानि बज्यांनीति शिक्षार्थमाह--- मूलारा-सव्वाई यथा एषणासमित्यभावः अहिंसावतस्वैवं शल्य कस्यचिदेव प्रतस्योपहनन भविष्यतीत्याशंका निरासार्थमिद, अणुव्रतग्रहणार्धे या। चंदं स्वनिमित्ताजातं ग्रहदाणुतं । तीहिं दु तिमृभिरपि । तथाहि-सम्यक्चारित्रमिहमोक्षमार्गत्वेन प्रस्तुतं तच सम्बग्दर्शनशानयोः सतोरेव भावान् । तच स्वविरोधिनि मिथ्यात्वे सति न स्यादिति मिश्यात्वेन व्रतमुपहन्यते । तथा रत्नत्रयान्मुक्तरनंतशानादेोऽन्यत्र इभेतस्मान्मे गूयादिति चित्तपाणिधान निदानमिध्यते । तब सम्यग्दर्शगमनिचरत्तन्मूलं पतमुपहन्तोव । तथा मायात्र गनसा स्यातिचारनिगूहनलक्षणा गृह्यतेऽतः साप व्रतोपघातिनीति मन्यते ॥ १२१३ Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भाश्चामा शल्य व्रतपरिणामोंको घातते हैं अतः उनका त्याग करना चाहिये ऐसा क्षयकको कहते हैं. अर्थ--शल्यरहित यतीके संपूर्ण महाव्रतोंका संरक्षण होता है. परंतु जिन्होंने शल्याको आश्रय दिया है उनके व्रत माया, मिथ्यात और निदान एनो नाम, विशेषार्थ--जो प्राणीके शरीरमें मवेश कर उसका बात करता है उसको शल्य कहते हैं. अर्थात बाण, कंटक वगैरह शरीरादिकसे प्रवेश कर उसको पीडित करते हैं इसलिये उनका शल्य कहते हैं जैसे प्राणिको दुःख देने में कारणीभूत ऐसे अंतरंग परिणामोंको वे भी बाणादिकके समान दुःख देनेवाले होने से शल्य कहते हैं. शंका---एपणासमितीका अभाव होनेसे संपूर्ण व्रतोंका नाश नहीं होता है परंतु फक्त आहंसावत का ही घात होता है वैसे इन शल्योंसे सर्व व्रताका घात नहीं होता है. उत्तर-गाथामें 'सर्व' शब्द है इससे सर्व ताका नाश होता है ऐसा सूचित होता है. शंका-शयोंसे महायतके समान अणुव्रतों का भी नाश होता है परंतु ग्रंथकारने महाव्रतोंका नाश होता है ऐसा क्यों कहा है. उत्तर--अशुव्रतोंका और महानताकाभी शल्यास नाश होता है परंतु यहाँ महावतोंका विवेचन करना ग्रंथकारको अभीष्ट है अतः महायतोंका शल्य घात करते हैं ऐसा ग्रंथकारने कहा है. शंका-हिंसादिक पासे विरक्त होना यह अतोंका लक्षण है तो मिथ्यात्वादिक गुल्य जीवमें रहने पर भी प्रत अर्थात् विरक्तिपरिणाम रह सकते हैं. अतः शल्यरहित पुरुषकेही महावत होते हैं ऐसा कहना योग्य नहीं है. 18 उत्तर-व्रतोंका शल्यसे घात होता है. वे शल्प तीन प्रकारके माया मिथ्यात्व और निदान ऐसे हैं. यहां सम्यचारित्रको मोक्षमार्ग कहा है. परंतु बिना सम्यग्दर्शन और सभ्यग्नानक चरित्रको मोक्षमार्गता आती नहीं है... मिथ्यात्वपरिणाम आत्मामें रहनेसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होते ही नहीं. क्योंकि मिथ्यत्व इनका बिरोधी है. वह इनको उत्पन्न होने नहीं देता है. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र इनको रत्नत्रय कहते हैं. । रत्नत्रयकी पूर्णताको मोक्ष कहते हैं. अनंतज्ञानादिक अनंतचतुष्टयकी प्राप्ति करने में चित्तको न लगाकर अन्यवाताम अपने मनको एकाग्र करना जैसे इस तपसे मेरेको इंद्रादि पदवीकी प्रानि होनी चाहिये ऐसी अभिलाषा करना निदान शल्य है. यह शल्य सम्यग्दर्शन का नाश करता है और परंपरया व्रताका भी बात करता है. मनके द्वारा Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूनावना भावास अतिचार छिपानेका भाव रहना मायाशस्य है. अर्थात् ये तीन शल्य तोका-चारित्रपरिणामका घात करते है ऐसा सिद्ध हुआ. तत्थं णिदाणं तिविहं होइ पसत्थापतत्थभोगकदं ! तिविध पि तं णिदाणं परिपथो सिद्धिमग्गस्स ॥ १२१५ ।। निषेत सिद्धिलाभस्थ विभवककम्प्रषम् ।। निदान त्रिविधं शस्तमशस्तं भोगकारणम् ।। १२५६ ।। विजयोदया-तव्य नेषु शल्येषु णिदाणं निदानारूपं शल्यं । तियि विधि । होदि भवनि | सत्यमपसाच. भोगफदं प्रशस्तमिदानमप्रशस्तनिदान, भोगनिदानं चेति । निविध मिलिदान त्रिप्रकारमपि निदान परिपथो विघ्नः । सिद्धिमम्मम्स रत्नत्रयस्य ।। निदानस्य विध्य रत्नत्रयप्रतिबंधकत्वं चानिधत्तेमलारा-भोगकई भोगा इष्टेन्द्रियार्थाः कृता येन तोगकृतं । भोगकारणमित्यथः । पडिपंथो विनः ॥ अर्थ--तीनशल्योमेसे निदान नामक शल्यक तीन भेद हैं, प्रशस्त निदान, अप्रशस्तनिदान और भोगत निदान ये तीनो भी निदान रत्नत्रयके विरोधी हैं. प्रशत्तनिदाननिरूपणार्थोत्तरगाथा संजमहेदं पुरिसत्तसत्तबलचिरियसंघदणबुद्धी ॥ सावअबंधुकुलादीणि णिदाणं होदि हु पसत्थं ॥ १२१६ ।। नृत्वं सत्वं पलं वीर्य संहतिं पाचन कुलं॥ वृत्ताय याचमानस्य निदान शस्तमुच्यते ॥ १२५७ ।। विजयोदया--संजमशेषु संयमनिमित्त पुरिसससत्तथलविरियसंघक्षणबुद्धी पुरुषत्वमुत्साहः. बलं शरीरगतं धाख्य, वीर्य धीयांतरापक्षयोपशमः परिणामः अस्थिधविश्या वऋषभनागचसंहननादिः । एतानि पुरुषत्वादीनि संयमसाधनानि मम स्युरिति चित्तप्रणिधान प्रशस्तनिदानं सायपर्व धुकुलादिनिदान अरिष्ट्रकुले, पंधुकुले वा उत्पत्ति मार्थना प्रशस्तनिदान । Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलागधना आश्वासः प्रशस्त निदानं वक्ति मूलारा-सत्त उत्साहः । बलं देहवाद । सायअर्थधुकुलादि अस्ट्रिकुलं, बंकुलं, सुजात्यादिकं च । पुंस्वादीनि संघमायनिच्छत; निपान ,दिति राजधः . अर्थ-पुरुषत्व अर्थात् उत्साह. शारीरिकबल, वीर्यातरायकर्मका क्षयोपशम होनेसे उत्पन्न होनेवाला दृद्ध परिणाम, अस्थिबंधन अर्थात् क्जयुषभनाराचादिकसंहनन, ये सत्र संयमसाधक सामग्री मेरेको प्राप्त हो ऐसी मनकी एकाग्रता होती है उसको प्रशस्तनिदान कहते हैं, धनिककुलमें, बंधुओंके कुलम उत्पन्न होनेका निदान करना प्रशस्त निदान है. अप्रशस्तनिवानमाचणे माणेण जाइकलरूबमादि आइरियगणधरजिणतं ॥ सोमम्गाणादेयं पत्थंतो अप्पसत्थं तु ॥ १२१७ ।। अहंद्गणधराचार्यमुभगादेयतादिकं ।। प्रोक्तं प्रार्थयते शास्तं मानन भववधकाम ।। १२ । विजयोट्या-मायण माकन तुना जाति जुलरूवमादि जानिर्मातृवंशः, कुल चितवंशः, जातिकुलरूपमात्रस्य सुलभाचारप्रशस्तजात्याड़िपनिग्रहः । भारियनगरजिनल आचार्य, गणधरत्वं । जिनत्यं. मोभम्गाणविजं सौ. भाग्य. आय. सदिय च । धेच्छलो प्रार्थयतः। अप्रशस्तन निदानशनकषायविन्यात् ।। अमझातन्निदानमाह मूदाग-गाणे अभिमानवशेन । आदिकुलस्वमार प्रशमं मातापितृकुलं । नौरूप्यं दी बारह माय । अम्माबम्ब मुलभत्यात । लोभग्गागादे सौभाग्यमाज्ञामादेयवान मनां वा। पछेतो प्रार्थचनः । अप्पसत्य मानकषायदूधिनत्यान् ।। अर्थ-आभिमानके वश होकर उत्तम सानुवंश, उत्तम पितृवंश, अर्थात प्रशस्त जाति और प्रशस्त कुल, रूप इसकी आभिलाषा करना: आचार्य पदवी, गणधर पद. तीर्थकरपद, सौभाग्य, आज्ञा और सुंदरपना इनकी प्रार्थना करना यह सब अप्रशस्त निदान है। क्यों कि मानकायले दषित होकर उपर्युक्त अवस्थाकी आभिलाषा की जाती है. १२९६ - . - -. Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना গাধা १२१७ कुडो वि अप्पसत्थं मरणे पच्छेइ परवधादीयं ।। जह उम्गसेणघादे कदं णिदाणं वसिडेण ।। १२१८ ॥ अशस्तं याचसे शुद्धो मरणेऽन्यवधं कुधीः॥ अयाचंताग्रसेनस्य वसिष्ठो हननं यथा ॥ १२५९ ॥ विजयोदया-कुजो थि परुशोऽपि । अप्पसत्यं पश्यधादिकं । मरणे मरणकाले पच्छेदि भार्थयते । जघा यथ उम्गलेणघाये उनसेनमरणे 1 कवं णिवा घसिष्टेण पसिन यतिना ।। क्रोधावपि तदप्रशस्त स्थापित्याइमूलारा-वसिटेण वसिष्ठेन यसिना ॥ अर्थ-क्रुद्ध होकर मरणसमयमें शत्रुवधादिककी इच्छा करना यह भी अप्रशस्त निदान है. वसिष्ठ नामक पुनीने उग्रसेन राजाका वध करगेत मिदान किया गा जिसने ३६ तर उग्रसेन साका कंस नामक पुत्र हुआ था. अपने पिताको कारागारमें बंद कर यह राज्यपर आरुद हुआ. ( आराधना कपाकोषमें इसकी कथा है. भोगभिवाननिरूपणा दविगमाणुसभोगो णारिस्सरसिठिसत्थवाहतं ।। केसवचकधरतं पच्छंतो होदि भोगकदं ॥ १२१५ ॥ स्वर्गभोगिनरनाथकामिनीः श्रेष्टिचक्रिवलसार्थवाहिनां ।। भोगभूतिमधियो निदानकं कांक्षतो भवति भोगकारणम् ।। १२६० ।। बिशयोदया-दविगमाणुसभोगे देथेषु मनुजेषु च भन्मोगान् । पच्छतो अभिलपति भोगकर्द भोगतं निदान । पारिस्सरसिडिसत्यवाहत्तं नारीत्य, ईश्वरत्वं, श्रेष्ठिस्य, सार्थवाहत्यं च । केसषचक्रधरतं वासुदेवाय सकलचक बर्तित्वं च पांछति भोगार्थ । भोगनिदानं च भवति ॥ भोगनिदानमाह - मूलारा-मारीस्सर नारीत्वमीश्वरवंप । पच्छतो यांछति सति । देवमयंभोगान्भोगार्थमेव व स्त्रीवादीनि ॥ १२१७ १५३ । Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १२१८ अर्थ — देवो में और मनुष्यों में प्राप्त होनेवाले भोगोंकी अभिलाषा करना यह भोगकृत निदान है, श्रीपना, धनिकपना, श्रेष्ठिपद, सार्थवाहपना अर्थात् सब व्यापारिओंका स्वामित्व, केशवपद-नारायणपदवी, सकलचक्रadve इनकी भोगोंके लिये अभिलाषा करना यह भोगनिदान है. संजमसिहरारूढो घोरतवपरमो तिगुत्तो वि || पगरिज जइ विदाणं सोविय इ दीहसंसारं ॥ १२२० || वृद्धसंयमतः पराक्रमः शुद्धगुतिकरणोऽपि ना ततः ॥ याति जन्मजलधिं सुदुस्तरं कापरस्य गणना कुचेतसः ।। १२६१ ।। विजयोदया -- संजय सिहरारू संयमः शिखरमिव दुरारोहत्वाचलत्वाद्वा । एतदुक्तं भवति । प्रकृष्टसंश्रीरतपरमो धोरे तपसि पराक्रम साहो यस्य सोऽपि दुर्धरतपोऽनुष्ठाय्यपि । तिगुत्तो वि गुप्तिषयसमन्वि जज शिक्षणं निदानं यदि कुर्यात् । चंद्र वर्धयति संसारमात्मनः । किमपरस्मिनिदानकारिणि वाच्यम् ॥ जिनेंद्र प्रायस्यापि निदानकरणे संसारदीचं कारणमाह मूलारा - संजम सिहारूढो संयमः शिखरमिव दुरारोहस्वाद चलस्वाद्वा । तदारूतः संयमकाष्ठानिष्ठ इत्यर्थः । घोरत परक्कमो दुष्करे सपस्युत्साहो यस्याली ॥ अर्थ- जैसे पर्वतका शिखर निश्चल और चढकर ऊपर जानेके लिये कठिन है वैसे उत्कृष्ट संयम भी धारण करना कठिन है. ऐसा उत्कृष्ट संगम जिसने धारण किया है, घोर तपमें जो उत्साहयुक्त है अर्थात् जो दुबेर तपश्चरण करने में तत्पर रहता है जो तीन गुमिओंका धारक है ऐसा भी मुनि निदान करेगा तो वह भी संसारको पावेगा अर्थात् उसको भी संसार में दीर्घकाल तक भ्रमण करना पडेगा. तो अन्य निदान करनेवाले क्षुद्र मनुष्यको संसार में घूमना पडेगाही. यमो ऽपि। तोऽपि जो अपसुक्खदुं कुणइ णिदाणमविगणियपरमसुहं ॥ सो कागणी विक्रेइ मणि बहुकोडियमोल्लं । १२२१ || आश्र १२ Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्चा १२१९ PROMOTE निदान योऽल्पसौख्याय विधस्ते सौख्यनिस्पृहः ।। काकिण्या समार्ण दत्तं शंके कल्याणकारणम् ॥ १२६२।। घिजयोदया-जो अप्पसुक्खा हेतुं योऽल्पमुस्खनिमित्तं निदाने करोति परमे मुक्तिसुखे मनावरं कृत्वा । स काकण्या विक्रीपीते मणि बहुकोटितशतमौल्यम् ॥ संसारसुखाय निदानयंत निदति - मूलारा--स्पष्टम् ।। अर्थ-जो मनुष्य उत्कृष्ट मोक्षके सुखमें अनादर करके अल्प सुखके लिए निदान करता है वह अनेक NET कोटि रूपयोंकी कीमतवाला मणि कोही मिलने की इच्छासे बेचता है ऐसा समझ लेना चाहिए, ( सो भिंदा लोहत्थं णावं भिंदइ मणि च सुत्तत्थं ।। छारकदे गोसीरं डहदि णिदाणं खु जो कुणदि ।। १२२२ ॥ स सूत्राय मणि भिन्ते माय लोहाय भस्मने ।। कुधीदहति गोशीर्ष निदानं विदधाति यः॥ १२६३ ।। विजयोदया-सोभिद न भिनत्ति कीटोहार्थं ना अनेकयस्तुभृतां । भिनत्ति रत्नं च सत्रार्थ । गोशीप चंदनं दहति भस्मार्थ यो निदानं करोति स्वल्पार्थ । सारविनाशसाधयाभवमाच-सूपयानोपरि कथा यो निदानकारी, तेन नीप्रभृतिकं विनाशितं । अर्थास्यानकानि वान्यानि ॥ मूलारा-- गोसीरं बरचंदनं । अत्र स्मरविनाशनसाधादर्भो वेद्यः । अर्थ-जो मनुष्य निदान करता है वह मनुष्य लोहके कीलके लिए नौकाका भेदन करता है, दोरीके लिए रत्नहारको तोड़ता है, भस्मके लिए गोशीर्ष चंदनको जलाता है ऐसा समझना चाहिए. अर्थात् तुच्छ संसार सुखकी प्राप्तिके लिए निदान करना अयोग्य है. उत्कृष्ट संयमका उससे नाश होता है. रसोइयाकी कथामें उपयुक्त बातोंका उल्लेख है. 1 कोढी संतो लडूण डहाइ उच्छु रमायणं एसो ।। सो सामण्णं गासेह भोगहेदु णिदाणेण ।। १२२३ ॥ Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखाराधना आश्वास १२२० सापार्थ प्लोषते कुष्ठी स लब्ध्वेखं रसायनम् ॥ श्रामण्यं नाश्यते तेन भोगार्थ सिद्धिसाधकम् ।। १२६४ ॥ विजयोदया-कुष्ठी सन् रसायनभूतमिर्धा लम्ध्या वडति यः समानतां नाशयति सर्वदुःखव्याधिविनाशनोद्यतां भोगार्थनिदानेन । मुलगा-कोढी संतो कुष्ठी सन् । रसायणं कुटविनाशनरसायनभूनं ॥ अर्थ-जैसे कोइ कुष्ठरोगी मनुष्य कुष्ठरोगका नाशक रसायन तुल्य ईख को पाकर उसको जलाता है वैसे | निदान करनेवाला मनुष्य सर्वदुःखरूपी रोगका नाश करनेवाले संयमका भोगकृत निदानसे नाश करता है. पुरिसत्तादिणिदाणं पि मोक्खकामा मुणी ण इच्छंति ॥ जं पुरिसत्ताइमओ भावो भवमओ य संसारो ॥ १२९४ ॥ नरत्वादिनिदानं च न कशिप्ति मुमुक्षवः ॥ नरत्यादिमयं तस्मारसंसारस्तम्मयो यतः॥ १२६५ ॥ विजयोदया–पुरिसत्तादिणिदाणं पुरुषत्वादिनिवानपि मोक्षाभिलाषिणो मुनयो न पाउंति । यस्मात्पुरुषस्वाविरूपो भवपर्यायः । भवात्मकच संसारः भवपर्यायपरिवर्तस्वरूपत्वात् ॥ प्रशस्तनिदानस्यापि मुमुक्षणामकरणीयत्वमाहमूलारा-मावो देहप्राणपर्यायः। अर्थ-पुरुषत्व, बल, वीर्य वगैरहका निदान भी मुमुक्षु मुनि करते नहीं. क्योंकि पुरुषत्वादिपर्याय भी भव ही है और भय संसाररूप है. ढक्सक्खयकम्मक्खयसमाधिमरणं च बोधिलाभो या एयं पत्थेयव्वं ण पच्छणीयं तओ अण्णं ॥ ११२५ ॥ समाधिमरणं बोधिर्दुःखकर्मक्षयस्ततः॥ मार्थनायो महाप्राज्ञैः परं नातः कदाचन ॥ १२६६ ॥ Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूळाराधना १२२१ विजयोदया दुक्काम दुःखानां शारीराणां, आंगतुकानां स्वाभाविकानां च क्षयो भवतु । तथा कर्मणां तत्कारणभूतानां रत्नत्रय संपादनपुरःसरं भरणं, दीक्षाभिमुखो बोधिलाभका पतस्प्रार्थनीयं ताम्यत् ॥ तर्हि अतायनुष्ठायिना कि प्रार्थ्यमित्याह--- मूलारा — बोधिलामो रत्नत्रयप्राप्तिः । अत्र यथापूर्व हेतुहेतुमद्भाव भाव्यः || अर्थ - - मेरे शारीरिक दु:खों का, आगंतुक - अकस्मात् उत्पन्न होनेवाले दुःखोंका, और स्वाभाविक दुःखोका जन्मजरामरणादि दुःखों का नाश हो तथा इन दुःखोंको उत्पन्न करनेवाले असातावेदनीयादि कर्मोंका भी नाश हो. मेरेको समाधिमरणत्री अर्थात् रत्नत्रयप्राप्ति पूर्वक मरणकी प्राप्ति हो. दीक्षाधारण करनेमें प्रवृत्त करने वाली रत्नत्रय प्राप्ति हो इन बातोंकी प्रार्थना करनी चाहिये. अन्य वस्तुकी प्रार्थना करना योग्य नहीं हैं. पुरिसत्तादीणि पुणों संजमलाभो य होइ परलोए ॥ आराधयस्स णियमा तदत्थमकदे णिदाणे वि ॥ १२२६ ॥ नरत्वसंयमप्राप्ती परत्र भवतः स्वयम् ॥ निदानसंतरेणापि दगायाराधनांगिनः ।। १२६७ ।। विजयोदयापुरिसन्ताद्रीणि पुरुषावादिकं संयमलाभ भविष्यति परजन्मनि कस्य? कृतररत्नत्रयाराधनस्य निश्वयेन तदर्थम कृतेऽपि निद्राने ॥ आराधकस्य निदानं विनापि प्रेत्यपुरुपत्वादिभावमवश्यंभावि संभावति— मूलारा – अकदे अकृतेऽपि ॥ अर्थ -- जिसने रत्नत्रयकी आराधना की है उसको निदान न करनेपर भी अन्यजन्ममें अर्थात् आगे जन्ममें निश्वयसे पुरुषत्वादिककी और संयमकी प्राप्ति होती है. माणरस भंजणत्थं चिंतेदव्वो सरीरणिव्वेदो ॥ दोसा माणस तहा तहेब संसारणिवेदो । १२२७ ॥ आश्वास ६ १२२० Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलाराधना १२२२ भवशरीराने वेदमान दोषविश्चिंतनम् || कर्तव्यं मानभंगाय संसारान्तं पियासता ॥। १२६८ ॥ विजयोदया-माणस्स भंजणत्थं मानभंजनायें ध्यातव्यः शरीरनिर्वेदः । तथा दोषाश्ध मानस्य । तथैष संसारनिर्वेदध ध्यातव्य इति क्षपकं निर्यापकसूरिः शिक्षयति । शरीरस्य अशुचित्वादिस्वभावचितगतः । किमेतेन शरी रेणेति शरीरे अनादरः शरीरनिर्वेदः । स कथं मानस्य भंजने निमित्तं । स हि शरीरानुरागमेवावइति । तत्प्रतिपक्षत्वात् । अत्रोच्यते मानशब्दः सामान्यवचनोऽपि रूपाभिमानविषयो गृहीतः । स च शरीरनिर्वेदेन भज्यते । मानस्य दोपा नीच कुलेत्पत्तिमम्प्रगुणालाभः सर्वविद्वेष्यता, रत्नत्रयाद्यलाभ इत्यादिकाः । संसारस्य द्रव्य क्षेत्रकालभावभयपरिवर्तन रूपस्य पराङ्मुखता संसारनिवैदः । तत्रोपयुक्तस्य अहंकारनिमित्तानां विनाशात् विनिधानां च गुणानां बहूनां असकृत्प्रवृत्तिः अनेक प्राणिलभ्यत्यात् । सुप्राप्येभ्यो गुणेभ्योऽतिशयितानां गुणानामन्यैरुपलेभनात् ॥ अप्रशस्त निदानांग मानभंगोपायान्पर्क शिक्षयति मूलारा - परीरणियेो बीभत्स पूतिक्षयितापकत्वात्तत्रानादरः । किमनेन शरीरेणाशुण्यादिस्व भाषेनेत्यवमाननमित्यर्थः । तदुपयुक्तो हि देशतिसीरूप्येय क्रियमाणमात्मोत्कर्ष संभावनां विनाशयतीतिरूपाभिमानभंजनाय तद्रावतीपदेशः | दोन पापकारः । ते च नीमकुलेत्यान्यगुणाप्राप्तिः सर्वविद्वेष्यता, रत्नवयाचलाभाचेत्यादिकाः ॥ संसारणिब्बेद द्रव्यक्षेत्रकालभाव भवपरिवर्तनरूपस्य संसारस्य पराङ्मुखता । वनुपयुक्तस्थ खल्वहंकारकारणानां नियगुणानामनेक प्राणिसुलभ नोपलंभात् । खप्राप्यमान्यगुणेभ्योऽविशयितानां ज्ञानतपः प्रमुखगुजार्ना महापुरुषगोचराणां असकृप्रवृत्तिदर्शनाच लेबनो मानो विनश्यति ॥ अर्थ-मानका मर्दन करनेके लिये शररिनिर्वेदका चिंतन करना चाहिये अर्थात शरीरसे मन विरक्तियुक्त होगा ऐसा विचार करना चाहिये. तथा माननाशार्थं अभिमानके दोषांका भी विचार जरूर करना योग्य है। ऐसा आचार्य क्षपकको उपदेश देते हैं. शरीरके अपवित्रत्वादि स्वभावांका चिंतन करनेसे ऐसे शरीरसे मेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा ऐसा समझकर आत्मा उससे विरक्त होता है. प्रश्न- शरीरवैराग्य माननाशके लिए कैसे कारण होता है ? क्योंकि, वह मानसे उलटा है. वह तो शरीरपर प्रीति उत्पन्न करनेके लिए कारण होगा ? उत्तर- मान शब्द यद्यपि सामान्यका वाचक है परंतु यहां रूपाभिमान में रूद्र समझना चाहिए. यह रूपाभिमान शरीर निर्वेद से नष्ट होता है, आश्वासः ६ १२२२ Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृदावना १२२३ मानके दोष इस प्रकार हैं-मान जीवको नीच कुलमें उत्पन्न करता है, मानसे गुणों की प्राप्ति नहीं होती है. मानी पुरुषका सर्व जन द्वेष करते हैं, उसको रत्नत्रयादिक का लाभ नहीं होता है. इत्यादिक दोष मान कषायमें है. द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन ऐसे पांच परिवर्तन स्वरूप संसारसे पराङमुख होनेका विचार हमेशा करना चाहिए. इस विचारसे भी मानका घात होता है. जब आत्मा संसारसे परामुख होता है तब अहंकार के साधन का ना होता है की गुपकी प्राप्ति होती हैं. मेरे को जो ज्ञान तप वगैरह गुण प्राप्त हुए हैं वे अन्य पुरुषों को भी प्राप्त होते हैं अतः गर्व करना योग्य नहीं है ऐसा विचार करनेसे मानका नाश होता है. कुलाभिमानीतरासोपायमाचरें णीचो वि होइ उच्च उच्च णीचत्तणं पुण उवेइ ॥ जीवाणं खुकुलाई पधियस्त व चिस्समंताणं ॥ १९६८ ।। उधं भवे कुलं नीचो नीचमुच्चः प्रपद्यते ॥ कुलानि सन्ति जीवानां पांधानामिव विश्रमः ।। १२६९ ।। ! विजयोदयाचा वि होदि स्थानमानैश्वर्याविभितिरोभूतो नीच इत्युच्यते। सोषि होदि भवति । उच्चो तैरेवोन्नतः । स उच्यो अतिशयित स्थानमा नादिकोऽपि नीवत्तणं न्यूनतां । पुन उचेदि पुनः उपेति । जीवानां जीवानां खलु । कुलाई कुलानि कीभूतानां ! विस्समराणं विश्रमतां बहूनां कुलानि कुबटन कुलानित्यता दर्शिता | अनियतकुलस्य कः कुलगयेः । पथिकस्सव पथिकस्य यथा विश्रमस्थानं न नियतमस्ति तद्वदेवास्येति भावः ॥ कुलाभिमाननिरासोपायमाह - मूलारा - णीयो स्थानमानैश्वर्वादिभिस्तिरोभूतः । उचो अतिशथितस्थानानादिकः । कुलाई गोत्राणि स्थानानि च । विस्समंताणं विश्राम्यतां स्थितिकुर्वतां कुलानि जीवानां संपद्यते । यथा पथिकस्य न विश्रामस्थानं नियतमस्ति तथा कुलं जीवस्येति भाषः । अमियत कुलस्य कः कुलगर्भ इति माननिर्जयः । विस्वनत्थाणमिति कचित्पाठः । उक्तं च आश्वासः ૬ १२२३ Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BUA मूलाराधना आश्वास १२२४ उचं भवे कुलं नीचो नीचमुचः प्रपद्यते ।। कुलानि संति जीवानां पांधानामिव विश्रमाः ॥ कुलाभिमानका नाश करनेका उपाय कहते हैं अर्थ-स्थान, मान, ऐश्चर्यादि न होनेसे मनुष्य नीच कहलाता है. ऐसा नीच मनुष्य इनकी प्राप्ति । होने पर लोकोंके द्वारा उच्च माना जाता है. जिसके स्थान, मान, ऐश्वर्यादिक बढ गये हैं वह मानव कालान्तरसे । इस मानके दोषसे हीनताको प्राप्त होता है. जैसे प्रयास करनेवाला मनुष्य एक जगहमें ही विश्रांति नहीं लेता है। भिन्नभिन्न स्थानोंका वह आश्रय लेता है वैसे यह जीव भी एक ही कुलमें नहीं रहता है. भिम मित्र कुलोंमें उसको जन्म लेना पडता है. कभी उच्च कुलमें यह जन्म धारण करता है कमी नीचकुलमें उत्पन्न होता है अतः कुलका गवे करना योग्य नहीं है. किं च गर्थो हात्मनो घृद्धिं परस्य वा हानि युरूयो संक्षेपते तस्य युक्तोऽइंकारः न चास्य वृद्धिहानी स्त इति कथयति उच्चासु वणीचासु व जोणीसू ण तस्स अस्थि जीवरस ॥ वढी वा हाणी वा सव्वत्थ वि तित्तिओ चेव ॥ १२२९ ॥ हानिधद्धी प्रजायेते नोचोच्चासुन योनिषु ।। सर्वनोत्पद्यमानस्य जीवस्य सममानता ॥ १२७०॥ विजयोदया- उच्चासुवणीचासु व यत्र स्थित आत्मा शरीरं निष्पादयति तद्योनिशद्वनोच्यते । न तस्य उच्चता नीचता या ततः किमुच्यते उच्चासु प णीचासु व इति 1 अयोच्यते-पोनिशद्वेन कुलमेघानोच्यते । नेनायमर्थः । मान्ये कुले गहिते वा उत्पन्नस्य न तस्य जीवस्य वृद्धिा निर्वा सर्वत्र सत्प्रमाण पत्र ज्ञानादिगुणातिशयादेव उत्कृष्टता । निवितगुणः कुलीनोपि न पूज्यते तरामन्यैः । अमान्येपि कुले संभूतो यदि गुणी स्यात् । उक्तं च संसारवासे भ्रमतो हि जंतोन चात्र किंचित्कुलमस्ति नित्यं ॥ स पच नीचोत्तममध्य जातः स्वकर्मवश्यः समुपैति तास्ताः ।। नृपश्च दासः चपनश्च विप्रो दरिद्रवंशव समृद्धवंशः ॥ चोराग्निवावाहितयाचिता च संजायते कर्मवशात्स एन ।। १२२४ Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आश्वास १२२५ को याधिकारः सुफुलेषु नृणां का.या चिहिसान्यकुलप्रसूती॥ कार्योऽधिकारो ननु धर्म पंथ कार्या विहिसापि च दुष्फतेषु॥ किंच सर्वोऽपि पृथग्जनः स्वस्योत्कर्ष परस्य चापकर्ष मन्यमानो गर्वमुपैति । न चारयात्मन उचनीचकुलमाप्रिनिमित्ते वृद्धिहानी तस्तत्कोऽस्योचकुलत्वेऽहंकार इति शिक्षयति मूलारा-जोणीसु कुलेषु । शरीरनिष्पादनस्थानानामुश्चत्त्वनीचत्वासंभवात् । अन्न योनिशब्देन कुलमेबोच्यते। तत्तिबोचेच असंख्यातप्रदेशप्रचयात्मक एव 1 मान्यकुले प्रसूतो भैकेनापि प्रदेशेन वर्द्धते, नापि निचे जातो हीयत इति भावः । ततो ज्ञानादिगुणातिशययोगादेव पूज्यते न कुलोकचत्वयोगात्तत्क; कुलीनत्वगर्व इति गर्वखयोपायशिक्षणं । गर्व करनेसे आत्मकी वृद्धि होती है और न करनेसे उसकी हानि होती हो तो गर्व करना योग्य होगा. परंतु आत्मा कम जादा होता हुआ नहीं दीखता है. इस विषयका विवेचन-- अर्थ--जहां आत्मा रहकर शरीर उत्पन्न करता है अर्थात् धारण करता है ऐसे आधारको योनि कहते हैं. आधाररूप योनि उच्चमी नहीं है और नीच भी नहीं है. इसलिये 'उच्चासु व गांचासु व' ऐसा कहना अनुचित है. उत्तर--योनिशब्दका अर्थ उत्पत्तिस्थान ऐसा नहीं है. प्रस्तुत प्रकरणमें योनिशब्दका कुल ऐसा अर्थ लना चाहिए. इसलिए यहां ऐसा अर्थ समझना योग्य होगा-मान्यकुलम अथवा निंद्य कुलमें उत्पन्न होने पर भी जीवकी द्धि वा हानि नहीं होती है. सर्वत्र वह असंख्यात प्रदेशात्मक ही रहता है. ज्ञानादिगुणोंके अतिशय से ही उत्कृष्टता प्राप्त होती है. जिसके गुण निंद्य है वह कुलीन होनेपरभी अन्य पुरुषोंके द्वाग नहीं पूजा जाता है. हीन कुलमें उत्पन्न होने परभी यदि वह गुणी होगा तो पूजा जाता है. अन्य ग्रंथमें इस विषय में ऐसा कहा है-- "इस संसारमें भ्रमण करनेवाले प्राणीका कोईभी कुल नित्य नहीं है. अपने किये हुए कर्मके वश होकर यह संसारी आत्मा नीच कुल, उच्च कुल और मध्य कुलमें जन्म लेता है. और नीच, उच्च, मध्यम अवस्थाको प्राप्त होता है, इस संसारमें राजा भी दुर्दैवयोगसे दास होता है. श्वपच मी-मातंगमी अन्य जन्ममें ब्राह्मण बन जाता है. दरिद्री वंश भी धनसंपन्न होता है. कर्मके वश होकर इस जीवको चोर, अग्नि, सर्प इत्यादिकोंसे दुःख प्राप्त होता है. मनुष्यको उच्च कुलकी प्राप्ति होनेपर गर्व नहीं करना चाहिये और नीच कुलमें उत्पन्न हुए प्राणिऑकी जुगुप्सा १२२ १५४ Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं करनी चाहिये. अर्थात उनका तिरस्कार करना योग्य नहीं हैं. मनुष्यको धर्ममें अधिकार करना योग्य है. अर्थात् धर्माचरण करना उसका कर्तव्य है और पापकार्यसे उसको पराकमुख होना योग्य है" *RNATOTARA मूलाराधना आश्वासा कालमणतं णीचागोदो होदूण लहइ सगिमुच्चं ॥ जोणीमिदससलागं ताओ वि गदा अतंगाओ ॥ १२३०॥ लाभ लाभमनताश्च नीचामुच्चां प्रपद्यते ॥ सथाप्युच्चा अपि प्राप्ता अनंता योनयो भवे ।। १९७१।। विजयोदया कालमर्णतं गीचागोदो होदूण अनंतकालं नीत्रैर्गोत्रो भूत्वा । लभदि सगिमुच जोणि 1 लभते सकदुगांत्रं । कीरशी दरसलाम इतर शलाका ! रतरा नीचाँनयः । गदा अर्णताओ आनंता प्राप्ता केन जीवेन । यद्यप्ययमात्मा संसारे पर्यटननंतशो नीचा योनी चो लब्ध्वा कथमप्यंतरांतरोगां योनिमेकैकशो लभते तथाप्य' नंतनीचयोनिलाभांतरालवर्तिन्य, उच्चा चोनयोऽप्यनंतर एवानेनानादिकालेन लब्धा इत्युपदिशति मूलारा–णीचागोदो नीचत्रः । सागै सकृत् । उच्च जोणि उच्चैर्गोत्रं । इतरा नीचर्योनयः । शलाका अंतरा न्तरवर्तिन्यो यस्या उच्चैयर्योनेस्तां । ताओ वि ता अश्यन्तर लेऽन्तराले लब्ध्वा अप्युर्योनयो गदा प्राप्ताः । उक्तं च-- लाभ लाभमनंताभ नीचामुषां प्रपद्यते ।। तथाप्युषा अपि प्राप्ता अनंता चोनयो भवेत् ॥ तत्कोऽस्य देवायत्ते मान्यकुले प्रसूतस्य मदः । को वा निगे फुले जातस्य विपादः कर्तव्य इत्युपेक्षष श्रेयसीति शिक्षासर्वस्वं ॥ अर्थ-यह जीव अनंतकालतक नीच गोत्रकर्मके उदयसे उच्च कुलमें जन्म लेता है. इस जीवन अनंतपार नीच कुलमें जन्म लिया है. १२२६ बहुसो वि लडविजडे को उच्चतम्मि विभओ णाम ॥ बहुसो वि लद्धविजडे णीचते चावि किं दुक्ख ॥ १२३१ ॥ Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मृलागधना १२२७ उच्चत्वे बहुशः कोऽत्र लब्ध्वा त्यक्तेऽस्ति विस्मयः॥ नीचस्व वास्ति किं दुःखं लब्ध्वा त्यक्त सहस्रशः ॥ १२७१ ॥ विजयोदय–पयं बहुसो धि बहुशोऽपि लद्धविजडे लब्धपरित्यक्ते च । उस्चत्तम्मि मान्यकुलप्रसूतत्वे । को णाम विमओ को नाम रिसायः कदाचिदलब्धपूर्वमिदामिवानीमेव समिति भवेधः। बहुसोचि यशोऽपि । लविजडे लम्घपरित्य के । पीचसे चाचि नीनै गोधरासाने अपि हिदि किमि दुःय । एतदंबाहमूलारा-लद्धविजडे प्रामे परित्यक्ते च । विभओ कदाचिदलब्धपूर्वमिदं इदानीमेव लव्यमिति गर्वः स्यात् ।। अर्थ-इस जीवने बहुतबार उच्च कुलमें भी जन्म लेकर त्याग किया है. उसमें दुःख मानना भी व्यर्थ है. यदि उच्चकुलकी प्राप्ति पूर्व कालमें कभी भी नहीं हुई थी और अबही हुई हो तो गर्व करना योग्य था- नीच गोत्र के उदयसे नीचकुलमें भी अनेक वार जन्म हुआ है उसका खेद माननकी आवश्यकता नहीं है. परंतु जिससे उच्च कुलमें जन्म प्राप्त होगा ऐसा धर्माचरण करना चाहिये. oti उच्चत्तणम्मि पीदी संकप्पबसेण होइ जीवस्स ॥ णीचत्तणे ण दुक्खं तह होइ कसायबहुलरस ॥ १२३२ ।। उचस्व जायते मीनिः संकल्पवशतोऽगिनः॥ नीचत्वेऽपि महाद्वं कषायवशवर्तिनः ॥ १२७३ ॥ विजयोदया-उच्चत्तणम्मि मान्यकुलत्वे । पीदी प्रीतिः 1 संकल्पवसण संकल्पवशेन होदि जीवस्स भवति जीचस्य प्रशस्ते कुले जातोऽमिति मनोनिधानात् । प्रीतो भवत्यत्यर्थ जनः नेत्थंभूतं संकल्पमतरेण सामान्यकुलत्चे सत्यपि प्रीतिर्भवति । नीयकुलत्वमेव च न दुःखस्य निमित्तं अपि च नीचत्तणे य नीचंर्गोत्रत्वे च दुःख तथा होदि तथा भवति । प्रीतिरिय परनिमित्तकं भवति । कस्य ? कषायबलस्य कसायशद्धः सामान्यवचनोऽपि मानकपाये चर्तते । तेनायमर्थः। प्रचुरमानकषायो जनयति दुःखमस्य न नीचैर्गोत्रत्वं ॥ नघोचनीचकुलत्ये सुखदुःखे पुरुतः । किंतु मानाध्मातस्य तदालंबनः संकल्प एवेत्यनुशास्ति मूलारा-संकप्पषसेण उत्तम मे कुलं इति मनःप्रणिधानसामध्न । तथ प्रीतिरिव । संकल्पवशेनैव । कसा.. यबहुलस्स मानोत्कटस्य प्रचुरो मानोऽस्य' जनयति दुःखं न नीमैर्गोत्रस्वमेवेति भारः॥ S १२७ Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १२९८ 'अर्थ-जीव उच्चकुलकी प्राप्ति होनेसे प्रीतियुक्त होता है उसका कारण उच्चकुल हैं ऐसा नहीं समझना चाहिये. मैं उच्चकुलमें उत्पन्न हुआ ऐसा विचार उत्पन्न होनेसे जीव अतिशय खुश होता है. यदि ऐसा संकल्प मनमें न होगा तो मान्य कुलकी प्राप्ति होनेपर भी वह पीनियुक्त नहीं होता है. उसी तरह नीच कुल भी दुःखका कारण नहीं है, किंतु संकल्पही दुःखका कारण होता है. कषाय जिसमें प्रचुर है उस जीवको उससे दुःख होता है नीचगोत्र उसका कारण नहीं है. गाथामें कपाय शब्द सामान्यतया प्रयुक्त किया है परंतु यहां वह शब्द प्रकरण वश मानकषायका पानक समझना चाहिये. अर्थात् मानकषायसे ही जीवको दुःख होता है. नीचगोत्रत्व उसका कारण नहीं है. पव प्रीतिपरिक्षापी सकरपायापतिसरा ... उच्चत्तण व जो णीचर्स पिच्छेज्ज भावदो तस्स ॥ उच्चवणे व णीचत्तणे वि पीदी ण किं होज्ज ।। १२३३ ।। उच्चत्वमिय नीयत्वं चेतसा यो निरीक्षते ॥ उच्चत्य इव नीचत्वे किमसौन सुखायते ॥ १२७४ ॥ विजयोषया-उबसणं व उसगाँव मिष जो णीचत पेच्छदि यो भौगों प्रेक्षते । इदं चंडालस्यं चरमिति भावशदोऽनेकार्थयाच्यपि इडचिसषाची। यत् येन लब्धं तत्तस्य शोभनं । अलभ्येन शोभनेगापिकिं तेनेति मनसिकरोति यदा तदा तय प्रीतिरस्य जायते इति वदति-उच्चसणे विमान्य कुलव इन नीचत्तणेऽवि भीगोप्रवेऽपि । पीदी किं ण होज्ज । प्रीतिः किं न भवेत् । भवत्येवेति यावत् ॥ संकल्पायत्तौ प्रीतिपरितापौ इति स्पष्टयितुं गाथाद्वयमाचष्टे मूलारा---भावदो चित्तेन । इदं चांडालत्वं वरमित्याविरूपेण भावयेदित्यर्थः । पीवी योन लम् तसस्य शोभनं अलभ्येन शोभनेनापि किं तेनेति यो यदा संकल्प करोति सस्य तदा तत्र प्रीतिर्भवत्येव तथानुभवान। अर्थ-जो मनुष्य उच्चगोत्रके समान नीच गोषको भी देखता है अर्थात् चांडालपनाभी अच्छा है ऐसा जो मानता है उसको उच्चत्वके समान नीचत्वमेंभी प्रीति क्यों न होगी अर्थात् वह नीचत्वको भी अच्छा ही १२२८ Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १२२९ समझेगा. जिसने जो प्राप्त किया है उसको वह अच्छा समझता है. जो चीज अलभ्य है वह अच्छी होनेपरभी मेरा उससे कुछ प्रयोजन नहीं है ऐसा समझकर प्राप्त चीजही अच्छी है ऐसा वह मन में समझता है. तात्पर्य यह है कि मोहके वश होकर जीव नीचपनाकोभी अच्छा समझते हैं. णीचत्तणं व जो उच्चत्तं पेच्छेन्ज भावदो तस्स ॥ णीचत्तणेव उच्चत्तणे वि दुक्खं ण किं होज ।। १२३४ ॥ यो नीचत्वमिवोच्चत्वं विकल्पयति मानसे ॥ तस्योच्चत्वेन किं दुःखं नीचत्वमिव जायते ॥ १२७५ ॥ विजयोदया-पतविपरीतार्थोसरा गाथा । स्पष्टतया वस्तुस्थिति नापेक्षते । संकल्यायसाप्रीतित्यनुभवसिद्ध' मिलस्य जगरा इति पदसिमानुसम्वैर्गोत्रलेसी न सुखदुःखयोर्भाधाभाषौ च भवतः संकल्पात् ॥ मूलारा-पष्टम् __ अर्थ जो जीव नीचपनाके समान उच्चपनाको देखता है उसको उच्यतामभी नीचत्वके समान दु:खही अनुभवमें आता है. अभिप्राय यह है कि, संकल्पसे उत्पम हुई प्रीति अथरा दुःखसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप नहीं जाना जाता है. यह अनुभवसिद्ध सत्य है. संकल्पसे उच्च गोत्रमें भी प्रीति अप्रीति उत्पन्न होती है. संकल्पसे नीचत्वमें भी प्रीति और अप्रीति उत्पन्न होती है. तह्मा ण उच्चणीचत्तणाई पीदि करेंति दुःखं वा ॥ संकप्पो से पीदी करेदि दुक्खं च जीवस्स || १२३५ ।। ततो नोचत्वनीचत्वं कारणं प्रीतिदुःखयोः ॥ परमुच्चस्वनीचस्वसंकल्पः कारणं तयोः ॥ १२७६ ।। विजयोध्या-तह्मा मस्मात् । उच्चनीचत्तणाणि मान्यामान्यकुलवानि । न करेंति दुक्स वा न कुरुतः प्रीति दुःखं या । सति संकल्प भावादसति अभावाच ।। १२२९ Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECT मृलारावना आधामः ६ उपसंहारमाहमलारा-स्पग्रम ।। अर्थ- इस लिये मान्यकुल और अमान्यकुल वास्तविक विचार करनेपर सुख और दुःखके विधाता नहीं हैं. संकल्पही जीवको प्रीति और अप्रीति उत्पन्न करता है अर्थात् संकल्पके साथ ग्रीति और अप्रीतिका अन्वय व्यतिरेक है. जप संकल्प उत्पन्न होता है तब ही सुख दुःखोंकी उत्पत्ति होती है. और जब संकल्प मनमें नहीं होता है तब सुख दुःखोंकी उत्पत्ति नहीं होती है इसलिये संकल्प ही सुख और दुःख उत्पन्न करता है ऐसा समझना चाहिये. मानकषायसाध्योऽयं दोष पति कथयति सूरिः । कुणदि य माणो णीचागोदं पुरिस भवेसु बहएसु ॥ पत्ता हु णीचजोणी बहुसो माणेण लच्छिमदी ॥ १२३६ ॥ मीचगोत्रं नरं मानो विधत्ते पहुजन्मसु ॥ प्राप्ता लक्ष्मीमतिर्नीचा योनीर्मानेन भूरिशः ।। १२७७ ।। विजयोक्या-कुणदि य करोति । माणो अहंकारः। णीयागो पुरिस नीचाँश्रमस्येति नीचो पुरिसं भास्मानं । भषेसु जन्मसु । यमुगषु बहुषु । पत्ता प्राप्ता । णीचजोणी खुनीचैगाँधमेव । का? लछिमदी लक्ष्मीमती । केन निमित्तेन ? माणेपण मुरूपा गौचनानुकूला कुलीना येति गर्येण ॥ मानदोषमस्थानकेन स्थापयतिमहारा-माणेण सुरूपा, मुयौवना, कुलीना कन्याहवेत्वहंकारेण ॥ मानकषायसे जीपको नीचगोत्रकी प्राप्ति होती है ऐसा उदाहरण के द्वारा आचार्य कहते हैं. अर्थ--मान कषायसे मनुष्य प्राणी अनेक जन्मोमें नीच गोत्रयुक्त होता है अर्थात् नीचकुलमें जन्मता IR है. मैं रूपवती सुंदरी हूं. तरूणीहूं और कुलीन हूं ऐसा तीव्र मानकषाय लक्ष्मीमतीको हुआ था जिससे उसको अनेक जन्मोंमें नीचकुलमें उत्पन्न होना पड़ा था. NEPende -- - - Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलामपना आश्वासः पूयावमाणरूवविरुवं सुभगत्तदुब्भगत्तं च ॥ आणाणाणा य तहा विधिणा तेणे व पडिसेज्ज ॥ १२३७॥ सुभगस्थमसौभाग्यं स्वरूपत्वं विरूपता ॥ आज्ञामाज्ञादरो निंदा चित्ते कृत्या न धीमता ।। १२७: ।। विजयोदया-पूयायमाणयविरूष, पूजा, थवमानं परिभवः । रूपशब्दः सामान्य वचनोऽपि शोभनरूपविष यतया इह विरूपशनसंशिधाने प्रयुज्यमानोऽनिशयिते रूप प्रवर्तते । तन सौप्य रूप्यं चत्यर्थः । सुभगत्तनुभगतंच सौभाग्यं दौर्भाग्य च सर्वेषां प्रियत्वं वेयरवं चेति याचन् । आणाणाणा य तहा आदेशाप्रनिम्रातः अनाज्ञा च तथा विधिना माननिषेधप्रकारेणेव । पडिसेज प्रनिषेध्याः । अभिधेयवशालिंगवचनप्रवृत्तिरिति लिम्यंतरेण पूजादिशब्दोपनीतेन प्रतियेध्यशनस्याभिसंबंधः । परिभयं प्रामोऽपि कदाचित्पूज्यते । एवं प्रामास्वनंतेषु जास्तत्र कोऽनुरोगो म्य । दुःसं या परिभव प्राप्ती । पूज्यमानोऽपि बहुषु पुनः परिभवानवाप्स्यति । न चात्मनः पूजायां काचिदवृद्धिः। परिभव वा हानिः मंक पवशावात्मनो जायते प्रीतिपीरताप न केवल पूजागारमवाभ्यामसि । उत्तं च यः स्तूयत शुचिगुणो मधुगाभिः । सानघते च परवचनावचित्रः ॥ हा चित्रता कधमाय भयसंकटस्थः पामोत्यनकविधिकर्मफलोपयोग । भूत्वा मनुष्यपतयः पुनरव दासा होना भवंति शुचयोऽशुचयश्च भूयः । कात्या च ये युवतिभिर्षिषमानुरूपा ष्या भवंन्यसुभगत्वमुपस्य भूयः॥ उपः कचित्प्रवररत्नविभूषणो यः सरश्यत विकरूपुण्यतया दरिद्रः॥ भृयश्च मित्रबहुगंधुजनोपगूढः सलक्ष्यते व्यसनभारभूदेक एच ॥ उचनीचकुलवत्पूज्यापमानादयोऽपि तस्वीः । प्रत्याख्येया इत्याख्याति - मूलारा-अवमाण परिभवः । न्यायेन तेणेय । कालमणमित्यादिप्रबंधोक्तन । पडिसेवा प्रसिध्याः । तथाहि प्राप्तपरिभवोऽपि कदापित्पूज्यते पुनर्बहुशः परिभषः । एवं प्राप्ता नंतपु पूजाः । न चैवमप्युचनीचकुलबजीवस्य वृद्धि हानी स्यातां तत्कास्य पूजायां प्रीतिः । परिभवे चाप्रीतिः। संकल्पशाच्चास्य प्रीतिपरितापौ स्यातां न केवल पूजावमानाभ्यां । एवमन्येष्वपि शुभाशुभधर्मेषु व्यतिप्रंगनिषेधः कलयः॥ अर्थ-मानकषायका त्याग जैसे करना योग्य है वैसे उसके साथ पूजा-लोकॉसे आदरसत्कार प्राप्त होना अचमान-परामष अनादर प्राप्त होना, रूप-सौंदर्य, विरूप-कुरूपता, सुभगता-सौभाग्य, दुर्भाग्य,आशा सर्वत्र अखंडित रहना, और उसका लोकोंसे पालन न होना, इत्यादिकोंसे गर्न या दुःख होता है परंतु बहमी त्यागना योग्य है. TECERemeter Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १२३२ इनके विषय में ऐसा विचार करना चाहिये- मेरा कभी पराभव - अनादर- अपमानभी हुआ है तथा कभी पूजाभी हुई है. इस प्रकार इस संसार में अनंतबार मैं पूजाभी गया था. न पूजाएँ अनुराग करना चाहिये और न अनादर होनेके प्रसंग में खुद खिन्न होना चाहिये जैसे मेरी बारबार पूजा हुई थी वैसा बारबार अनादर भी हुआ था. पूजाके समय न मेरा आत्मा कुछ बढा था और न अपमान के समय कुछ घटा था. दोनो प्रसंग में वह असंख्यात प्रदेशी ही रहा था अर्थात् पूजा और अपमान के समय जब आत्माकी घट बढ नहीं होती हैं तो आनंद खेद मानना अज्ञानता काही द्योतक समझना चाहिये. संकल्प वश होकर आत्मा मीतियुक्त और संतापयुक्त होता है, उसको पूजा और अपूजा कारण नहीं है. अन्यत्र इस विषय में ऐसा कहा है- जो पुरुष निर्मल गुणोंका धारक होने से मधुर वचनों से स्तुतिका पात्र बना था वही मनुष्य नानाप्रकारके कठोर बचनोंसे निंदा के वचनोंसे अपमानित भी हुआ था. यह आर्य हैं. संसारके संकटोंसे यह घिरा हुआ यह पुरुष आत्मा किये हुए नाना कमौके फलका उपभोग लेता हुआ संसार में घूमता रहता है. कभी जीवोंको नृपत्व प्राप्त होना है तो कभी ये दास बनते हैं. कभी वे हीनकुली होते हैं कभी उच्च कुली- पुनरांपे होनकुली होत हैं. जो पुरुष शरीरकी कांती मदनतुल्य और त्रिओं को अतिशय प्रिय थे वे ही जब असुभगत्व प्राप्त होनेपर उनके द्वारा निरस्करणीय अवस्थाको भी प्राप्त हुये थे पुण्योदयसे जो पुरुष उत्कृष्ट रत्नोंसे अलंकृत थे पापका उदय अनंपर वे दरिद्र हुए ऐसामी देखने आया है. जो पुरुष अनेक संकटोंस घिरा हुआ देखा गया था वहीं कालान्तर से मित्र और बहुत प्रियजनोंक द्वारा आलिंगित हुआ है ऐसाभी देखने में आता है अतः उपर्युक्त आदर अनादर वगैरे बातोंमें आनंद और खेद मानना योग्य नहीं है ऐसा विचार कर अभिमानका त्याग करना चाहिये. इच्चेवमादि अवित्रितयदो माणो ह्वेज्ज पुरिसस्स || एसम्म अत्थे पसदो णो होइ माणो हु ॥ ११३८ । जइदा उच्चत्तादिणिदाणं संसारवणं होदि ॥ कह दीहं ण करिस्सदि संसारं परवधणिदाणं ॥ १२३९ ॥ आश्वासः ६ १२३२ Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आवास १२३३ एतेषां चिंतनान्मामो बधते सर्वदाग्निवत् ।। संसारबद्धकः सद्यो हीयते तत्वचिंतन ॥ १२७५ ।। उरुचत्वादिनिदानेऽपि संसारं लभते यदि ॥ सदा बधनिदानगी भत्रभााति का कथा ।। १२८० ॥ विजयोदया-जइदा यदि साम्यत् । उच्चसादिणिदाग उच्चंगाचता, पुरुप, स्थिरशरीरता, भदरिद्र कुलप्रसूतियधुतल्यवमानिक मुक्तः परंपरया कारणमपि चित्ते क्रियमाणमपि संसारबट्टण होदि संसारवृद्धि करोति । किध ण करिस्सदि कथं न करिष्यति । दीहलेसारं दीर्घसंसार रमणिदाणं पायो कि उच्चत्वनीचत्वादितथाविधचितनाचिंतनभवो मानसद्भावाभादौ इत्यनुशास्तिमूलारा--पस्सदो चिसयतः । एतां श्रीविजयो मेरछति ।। परवधनिदान सुतरां द्वापयति संसारमित्याचष्टे--- मूलारा---उमरखपुरुषत्वादिकं मुक्तः परंपरया कारणमपि तन्मे भूयादित्याशास्यमानं ।। अर्थ-जो पुरुष उपयुक्त वाताफों विचार नहीं करते है वे गर्वसे मानकषायसे युक्त होकर दुःख पाते हैं. परंतु जो इनका विचार करते हैं अर्थात् मानसे होनेवाली हानिओंका विचार करते हैं वे मानसे दूर रहकर सुखी I होजाते हैं. उच्चारमें जन्म होना, पुरुषत्व, द्ध शरीरपना, श्रीमंत कुलमें जन्म होना इत्यादिक बाते यद्यपि मोक्ष प्राप्तीम परंपरासे कारण हैं तो भी इनकी प्राप्ति मेरे को हो ऐसी अभिलाषा करनेसे संसार वृद्धि के लिये कारण हो जाती हैं. तो दूसरे का वध करनेका निदान-अभिलाषा क्यों संसारवर्धक न होगा. आचार्षगणधरत्याविप्रार्थना कथमशोभना रत्नत्रयामिशयलाभप्राधिना हि सत्याशंकायामुन्यो आयरियत्तादिणिदाणे वि कदे णस्थि तरस तम्मि भवे ।। धणिदं पि संजमंतस्स सिझणं माणदोसेण ॥ १२४०॥ निदानेऽपि कुलादीनि जायते नात्र जन्मनि ।। संयम विदधानस्य मानिनो यातना परा ॥ १२८१ ।। Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना আগ্ধা विजयोदया-भायरियत्तादिणिदाणे वि को भाचार्यत्यादिनिदामेऽपि कृते । णस्थि तस्स नास्ति तस्य । ताम्म भवे तस्मिन्मवे निदान करणमचे । धणि पि संजमंतस्स नितरामपि संयम कुर्धतः। कि नास्ति सिमण सेधन मुक्तिः । केन ? माणदोसण मानकषायदोरेण । समाचार्यत्वादिमार्थनां करोति । प्रष्ठो भविष्यामीति संकल्पन, ततोऽप्ययुता ॥ आचार्यस्वादिप्रार्थना कथं दूष्या त्नत्रयातिशयलाभप्रार्थनापरत्वादिति शंकायमाह-- मूलारा- तम्हि भवे निदानकरणजन्मनि । सिझणं सेधनं सिद्धिः । यद्यपि अस्ति तद्भने आचार्यत्वादिकं तथापि मास्ति मुक्तिरिति भावः । माणदोसेण आचायादिर्भ वन्यज्यो भविष्यामि इति संकल्पापराधेन ॥ आचार्यपदवी, गणधरपदवी इत्यादिककी अभिलाषा करना अयोग्य नहीं है क्यों कि रत्नत्रयका माहात्म्य माप्त होने के लिये उनकी अभिलाषा की जाति है. इस शंकाका उत्सर आचार्य कहते हैं अर्थ-आचार्यस्य, गणधरपदची इत्यादिका निदान करने परभी इनपदाकी प्राप्ति इसी जन्ममें होती भी नहीं. बहुत उज्ज्वल संयम होनेपर भी इन पदोंकी उसी जन्ममें प्राप्ति नहीं होती है. कदाचित आचार्यत्यादिककी उसी भवमें प्रामि भी हो गई तो भी उस संयमी को मुक्तिपदकी प्राप्ति मानकषाय दोषसे नहीं होती है. मैं आचार्य होकर पूज्य होऊं इस अभिप्रायसे प्रवृत्ति होती है अतः उसमें अहंकार प्रकट दीखता है. भोगछोपचिंतायो सत्यां निदान तथा न भवति इति कथयत्ति-- भोगा चिंतेदव्या किंपाकफलोवमा कडविरागा ॥ महरा व मुंजमाणा माझे बहुदुक्खभयपउरा || १२४१ ।। मधुराः सेवमाना हि विपाके दुखदायिनः ।। चिंतनीयाः सदा भोगाः किंपाकफलसंनिभाः ॥ १९८९ ॥ विजयोदया-मोगा चितरवा भोगाश्चिन्त्याः। किंगायफलोचमा किपाकफलसदृशाः । कविपागा कटु अनिष्ट विषाकः फलं पामिति कटुविपाकरः । मधुराव मधुरा एव । भुंजमाणा भुज्यमानाः । मज्झे मध्ये । बहुदु. पखमयपउरा विचित्रदुःखभयाः॥ भोगनिदानाभावाय भोगदोषभावनामाह १२३. Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनरावना आचास मुला-मधुरा व मधुरा इव । मो मध्ये भुजिक्रियायाः । बहुदुक्खभयपउरा भोगसेवया पापं बनतःकानिकानि दुःखानि मे न भविष्यति इति विचित्रदुःखत्रासाकुलाः॥ भोगोंके दोषोंका विचार करनेसे भोगनिदान उत्पन्न नहीं होता है इस विषयका विवेचन अर्थ--भोग किंपाकफलके समान अवसान कटुविपाक है अर्थात् किंपाकफल खाते समय मधुर लगता है परंतु उसका कटु परिणाम होता है अर्थात् अन्तमें उससे प्राणीको अत्यंत दुःख होकर मरणकी प्राप्ति होती है. भोग भी सेवन करते समय मधुर --- आनंददायी मालूम होते हैं परंतु अन्तमें तीन अशुभ कर्मबंधक कारण बनकर चतुर्गतीमें अतिशय दुःखदायक होते है. - - भोगनिदानदोष कथयन्ति भोगणिदाणेण य सामण्णं भोगत्थमेव होइ कदं ॥ साहोलंबो जह अत्थिदो विणेको वि भोगत्थं ॥ १२४२ ॥ भोगार्थमेव चारित्रं निदान सति जायते ।। कर्म कर्मकरस्पब द्रविणार्थविचारणे ॥ १२८३ ।। विजयोन्या--भोगणिदाणण य भोगनिदानन था। सामण श्रामण्यं । भोगन्धमय होइ फदं मोगार्थमेव कृतं न । कर्मक्षयार्थ भवति । भोगनित्राने सति गरायव्याकुलितचित्तस्य प्रत्यकर्मग्रवाहस्वीकृती उद्यतस्य का संयतसा ॥ भोगनिदाने दोष भापतेमूलारा-मोगत्यमेव न कर्मक्षयार्थ । मोगरागाकुलचित्तत्त्वे प्रत्यग्रपापकर्मप्रवाहस्वीकरणाभियोगात् । मूलारामाग साहोलंबो शाखायामवलंबी यस्यासी फलाशुपयोगार्थी यथा वृक्षशाखालास्थितः कश्चित्स्वेष्टस्यानगमनं विनयति तथा श्रमणोऽपीति भावः । अन्यस्त्वाह-- भोगार्थमेय पारिनं निदाने सति जायते ।। कर्म कर्मकरस्येर द्रषिणार्थ विचारणे ॥ भोगनिदानके दोष कहते हैं- . १२३५ Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १२३६ अर्थ- नियत धारण कर जिसने भोगप्राप्तिका निदान किया समझना चाहिये कि भोगके लिये ही उसने मुनित्रत धारण किये हैं न किं कर्मक्षय के लिये. भोगनिदान करनेसे भोगाभिलाषासे - भोगाकी उत्कंठासे चित्त व्याकुल होता है फोन काका स्वीकार करने के लिये युक्त होता है. जिससे संतपनेका अभाव होता हैं. जैसे कोई अपने इष्ट स्थानपर जारहा था मार्ग में किसी वृक्षका फल खानकी उसको इच्छा हुई तब वह वृक्षकी शाखाको फलके आशासे पकडकर खडा हुआ. इस कार्य में लगनेसे स्वष्ट स्थानको जानेमें उसने विघ्न ही पैदा किया ऐसा समझना चाहिये. इसी तरह यदि निदान करेगा तो उसने कर्मक्षयरूपकार्यमें स्वयं विघ्न उपस्थित किया है ऐसा समझना चाहिये. अथवा निदान करनेवाला मुनि भोगार्थ ही चारित्र धारण करता है. जैसे नोकर केवल द्रव्यके लिये स्वामीकी सेवा करता है. आवडणत्थं जह ओसरणं मेसरस होइ मेसादो || सणिदाणबंभरं अन्यंभत्थं तहा होड़ || १९४३ ॥ भवत्यब्रह्मचर्यार्थ सनिदानं तपो यतः ॥ अवसारो विघातार्थं मेषस्येवास्ति मेषतः ॥ १२८४ ॥ विजयोदयाभावत्थं अभिघातार्थं । जह यथा भोसरणं अपराधः । मेसस्स हो मेस्य भवति । मेसादो मेषः । सणिवणारं सनिदानस्य प्रह्मचर्य । अन्वंभस्थं मैथुनार्थे । तहा होदि तथा भवति ॥ भोगाकांक्षा ब्रह्मचर्यं पालयतो भूयो मैथुनार्थमेव तद्भवति न प्रशमसुखार्थ इति दृष्टान्तेन स्पष्टयति- मुहारा -- आवडत्थं अभिघातार्थै । ओसरणं अपसरणं । सणिदाण भोगा मे भूयासुरिति निदानयतो यतेः ॥ अर्थ --- एक बकरे से दूसरा बकरा जैसे अघात करनेके लिये पीछे हटता है उसी तरह निदानयुक्त मुनिका तमैथुनके लिये हैं ऐसा समझना चाहिये. अर्थात् भोगप्राप्ति की आशासे ही सनिदान सुनि व्रताचरण करता है. कर्मक्षय के लिये वह व्रत पालन करता है ऐसा मानना अयोग्य होगा. जह वाणिया य पणियं लाभत्थं विक्किणंति लोभेण ॥ भोगाण पणिदभूदो सणिदाणो होइ तह धम्मो ॥ १२४४ ॥ आश्वास ६. RA Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वा विक्रीणाति तपोनर्घ भोगेन सनिपानकः॥ माणिक्यमिय काचेन सारासाराविचारकः ।। १२८५ ॥ विजयोदया-जह याणिया यथा । चणिजः। एणिय पण्यं । लामत्थं लाभाथ। चिकिणति विकीणति । लोभण लोभन | भोगाण भोगानां । पणिदो पण्यभूतः । सणिदाणो सनिदानः । तदा धम्मो होवि तथा धर्मो भवति । भोगाकांक्षया चारित्रं भोगविक्रेय भवेदित्याहमूलारा---पणिय पण्यं विक्रेयद्रव्यं । भोगाण पषिदभूदो भोगविक्रेयता प्रामः ।। अर्थ-लमे लापानी दोगवश होकर लाभके लिये आपना माल बेच डालता है वैसे निदान करनेवाला मुनि भोगक लिये धर्मरूपी माल बेच डालता है, ऐसा समझ लेना चाहिये. भोगनिदानवतः श्रामण्यं मणिति सपरिग्गहस्स अब्बभचारिणो अबिरदस्स से मणसा।। कारण सीलबहणं होदि हु णडसमणरूवं व ॥ १२४५ ॥ ससंगस्यानिवृत्तस्य चित्तेनाब्रह्मचारिणः ॥ कायेन शीलवाहित्वं व्यर्थ नदयतेरिव ॥१२८६ ॥ विजयोदया-सपरिम्गहस्स सपरिग्रहस्य भोगनिवानवतो वेदजनितो रागोऽभ्यतरः परिग्रह इति सपरिग्रह इति । तस्य अचंभचारिणो मनसा मैथुनकर्मणि प्रवृत्तस्य । अधिरदस्स अव्यासस्य मैथुनात् । मनसा चित्तन । से तस्य कायेन खुशरीरेणेवा सीलबहण ब्रह्मवतयानं । होदि भवति । इसमणकत्र व नाना श्ररणरूपमिव । कायेन मावधामण्यरहित यथा अफलमेवमिदमपि इति भावः ॥ भोगनिदानवतः श्रामण्यं प्रणिन्दति मूलारा--सपरिग्गहस्स वेदजनितरागेण अभ्यंतरपरिमयुक्तस्य । अब्बभचारिणो भावमैथुनप्रवृत्तस्य । अधिरदस्स मनसा स्त्रीसेवनानिवृत्तस्य । से भोगनिदानवतो मुनेः । सीलवर्ण प्रावतधारणं । हु एवार्थको यो नैवेत्यर्थः । पडसवणरूले व नटानां यतिवषधारणमिव । यथा कायेन नथतिरूपं धार्यमाणं भारधामण्यरहितत्वा निष्फल तथेदमपीति भावः ।। १२३ Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १२३८ भोगका निदान करनेवाले मुनिका सुनिपना निंदनेलायक है ऐसा आचार्य कहते हैं. अर्थ - भोगका निदान जिसने किया है वह मुनि अंतरंग में रागभावसे युक्त है. अर्थात् उसके मनमें मैथुनकी अभिलाश है इसलिये यह परिग्रह सहित ही है ऐसा समझना चाहिये. उसका मन मैथुन कर्ममें प्रवृत होनेसे वह मैथुन कर्मसे परावृत नहीं है ऐसा समझना चाहिये. वह शरीरसे ही शीलवतको धारण करनेवाले नटके समान भाव से सुनिपनासे च्युत हुआ है. ऐसा मुनिपना व्यर्थ है ऐसा अभिप्राय समझना. रोगं कंखेज्ज जहा पडियारसुहस्त कारणे कोई | तह अण्णेसदि दुक्खं सणिदाणो भोगतण्हाए || १२४६ ॥ आकांक्षति महादुःखं निदानी भोगतृष्णया || रोगित्वं प्रतिकाराय कुबुद्धिरिव कश्चन ॥ १२८७ ॥ विजयोदया--रोग कंग्रेज्ज व्याधिमभिपति । जहा कोड तथा कचित्। किमर्थ ? पडियारसुस कारण औषधिमनार्थं । तह तथा अविरदस्त अभ्यावृत्तस्य । अण्णेसदि अभ्पत दुक्खं दुः सनिदानः । भोगण्डा भोगतृष्णाया || कः सविदा भोगनिदानविधायिनमुपहसति — मूलारा - पडिगार सुहस्स कारणे औषधसेवाजन्यसुखप्राप्त्यर्थं अण्जेलदि प्रार्थयते । H अर्थ — जैसे कोई मनुष्य औषधसेवनका सुख प्राप्त करनेकी अभिलाषासे देहमें रोगोत्पत्तीकी इच्छा करता है. वैसे निदान करनेवाला मुनि भांगकी लालसा से दुःखोंको चाहता है ऐसा समझना चाहिये. वंदे आसणत्थं बहेज्ज गरुगं सिले जहा कोइ ॥ तह भोगत्थं होदि हु संजमवहणं णिदाणेण । १२४७ ॥ भोगार्थं बहते साधुर्निदानित्वेन संयमम् ॥ स्कंधेनेव कुधीर्गुर्वीमासनाय महाशिलाम् ॥ १२८८ ।। आश्वास १२३८ Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलाराधना १२३६ विजयोदया संदेश स्कंधेन । जहा कोई यथा कश्चित् । गरुगं सिलं गुर्वी शिलां । यहेज वहति । किमर्थ ? आसणत्थं आसनार्थ । अस्या उपरि सुनासे इति मत्वा स यथा गुरुशिलोन नापेक्षते, स्वल्पं तस्या उपर्यासनसुखम स्वया । तह भोगत्थं सु तथा भोगार्थमेव । होदि भवति । संजमवणं दहं संयमधरणं । निद्रागंण निदानेन सह मूलारा--आसणत्थं अस्या उपरि सुनोपवेक्ष्यामीति मत्वा । हु भोगार्धमेव | गिदाणेण अमेन दुर्धरसंयमेन भोगा भूयासुरिति प्रार्थनया सह । अत्र बहुदुःखेन स्वरूपसुखसाधनमित्युपद्दालः || अर्थ - इस शिलापर मैं सुखसे बैटुंगा इस अभिप्रायसे जैसे कोई मूर्ख मनुष्य अपने कंधेपर बडी शिला धारण करता है. अर्थात् शिलाका भार अपने कंधे पर सदैव बहता है उससे होनेवाले कष्टकी वह परवाह नहीं करता है वैसे भोगका निदान करनेवाला मुनि जो महान् संयम धारण करता है वह भोग के लिये ही समझना चाहिये, शिलापर बैठने से अल्पसुख होगा परंतु हमेशा शिलाको कंधे पर रखना कष्टदायक है वैसे अल्पसुख के लिये महान् संयम धारण करना शिलाके समान दुःखदायक है. ग्राह्यवस्तुजनितादित्रिय सुखास निमित्तस्तुषिताशे यज्जायते दुःखं तदधिकतमं अतः स्वल्प सुखनिमित्त को नाम सतत दुःखभर्तुः खाच्छौ पतेदिति दर्शयति भोगोवभोगमोक्खं जं ञं दुक्खं च भोगणासम्मि ॥ एदे भोगणा से जाते दुक्खं पडिविनि । १२४८ ॥ यत्सुखं भोगजं जंतोर्यदः खं भोगनाशजम् ॥ भोगनाशोत्थितं दुःखं सुखाधिकनमं मतम् ॥ १२८९ ॥ विजयोदया-भोगोचभोगसोक्खं सृष्टाशतांलाकि वस्त्रालंकारादिभिश्च । जनितं यत्सुखं । भोगणासम्म सुखसाधनस्य वस्तुनो विनाशे च जं जं दुक्खं च पयद्दुःखं जायते । पदेसु एतयोः सुखदुःखयोः भोगनाशे सुखसाधनानां विनाशे च । दुषखं पडिविलि अधिकतममिति यावत् ॥ भृष्टाशनयरांगनादिनिमित्तकसुखासनिमित्त वस्तु विनाशजन्यं दुःखमधिकतरमतः स्वल्पसुखार्थे कः सुधीर्दुःखाद्विभ्यद्दुःखाच्धीपतेरिति दर्शयति- आश्वासः ६ १२३० Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आय मूलाराधना १२४० मूलारा-मोगणासम्मि भोगांगविनाशे । पडिविसिठ्ठ अधिकतर। बाह्य वस्तु के संयोगसे जो सुख प्राप्त होता है उससे उस वस्तुका वियोग होनसे प्रात होनेवाला दुःख अधिक है. इसलिये स्वल्पसुखके लिये कोन दुःखसे भयभीत सचेतन प्राणी-विद्वान मनुष्य दुःखसमुद्र में गिरना चाहेगा. इस अभिप्रायका आचार्य उल्लेख करते हैं___ अर्थ--मधुर अन्न तांबूलादिक पदार्थोका भोग कहते हैं. स्त्री, वस्त्र, अलंकारादिकाको उपभोग कहते हैं. इन भोगोपभोगोंमे जो सुख आत्माको प्राप्त होता है. तथा भोगसाधनात्मक इन पदाथाँका वियोग होनेसे जो दुःख उत्पन्न होता है. इन दोनों मेंसे दुःख ही अधिक समझना चाहिये. अधीन सुख साधनोंका नाश होनेसे मनुष्य को अधिक दुःख होता है. देहे छुहादिमहिदे चले य सत्तस्स होज्ज कह सोक्खं ।। दुक्रवस्स य पडियारो रहस्सणं चव सोक्सं ख ॥ २२९९ ।। क्षुधादिपीडिते देहे समासक्तः कथं सुखी ॥ दुरवस्यास्ति प्रतीकारो न्हवीकारोऽथवा सुखम् ॥ १२९० ॥ विजयोदया-देहे शरीरे मनुजानां । छुहादिमदिरे झुधा, पिपसया, शीतोष्णेन, व्याधिभिश्च मथिते । चले मनित्ये च | सचस्स मासकस्या किं सुखं दोज किमत्र सुखं भवेत् । तुकास्पय पडिगारो दुःखस्य प्रतीकार! रहस्सणं वेय हस्खकरणं पय सोप सौण्यं । खुशदः पादपूरणः दुःखप्रतीकारोत्पत्ती वा दुःखस्य सुखमित्यनेनाण्यातम् ।। किंचित्कंथचिलब्धेष्यपि इन्छानुरूपभोगेषु क्षुदादियाथाकदर्धितेऽनित्ये विनाशिनि च मानुषदेहे जाभदादरस्त कथं सुखस्य गधोऽपि सत्यः स्यादिति व्यवस्थापयति--- मालारा--धादिमधिदे बुभुक्षादिकर्थिते । चले अनित्ये । सत्तस्स आसक्तस्य मनुतस्य । पडियारो निराकरणं । रहस्सणं हासनं ॥ ___ अर्थ-- यह देह भूख, प्यास, शीत. उष्ण और रोगास पीडित होता है तथा अनित्य भी है ऐसे देहम Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसक्त होनेसे इस आत्माको कितना सुख प्राप्त होगा अत्यल्प सुखकी प्राप्ति होगी. दुःख निवारण होना अथवा । दु:ख कमी होना ही मुख है ऐसा संसारमें माना जाता है. दुःख के प्रतीकारको ही लोक सुख समझते हैं. आश्व मूलाराधना मुनमंतरेणापि अस्ति दुःख, सुखं पुनरेंद्रियंक न जायते दुःखं विना ततः सुखार्थी दुःसमेव प्रागात्मनोऽभिल पति न च युःखाभिलाषःप्राशस्य युक्त इति कथयति सोक्खं अणपेक्खित्ता बाधदि दुक्खमणुगंपि जह पुरिसं ॥ तह अणपेक्खिय दुक्ख पत्थि सह णाम लोगम्मि ॥ १२५० ।। अनपेक्ष्य यथा सौख्यं न दुःखं पाधते नरम् ॥ अनपेक्ष्य तथा दुःखं न सुखं विद्यते जने ॥ १२९० ॥ विजयोदधा-सोपण सौख्यं । अपाकिसता अनपेय । साधाति दुखम्मामुग पि मा दुःखमण्यपि । जह पुरिसं यथा पुरा । तह तथा सणवेक्खिय अनपेक्ष्य दुषवं बुःख 1 लोगम्मि पत्थि मुहं लोके नास्ति सुख नामद्रियिक। क्षुत्पिपासाभ्यां पीडिता पवाशनं पानं वान्धेते।कठोरातपतप्त पब शीतं, शीतसंकुचिततनुरेव प्राधरणादिकं, बातातपाम्बु. भिखोपदरुतो भवनमभिलपति । स्थानासनोपजातश्रम पक्ष शय्या कामयते । पादगमनजातखवष्यपोहनारीव शिक्षिकादिक, बैरूत्यनिराकृतये पष वस्त्राणि भूषणानिच, दीमध्यनाशनायैव तुरष्ककालागुर्षादिकं, खदगमनायैष रमण्य इति सर्व दु:खप्रतीकारमेय ॥ त्रिविधवेदोदयजनिप्तः प्राणिनां लिंगषयवर्तिना परस्पराभिलापः। स तेषां परस्परशरीरसंसर्गे सत्यपि नविनश्यति । अभिलारनिमित्तानां कर्मणां सद्भावात् । न हिकार्यमविकलकारणसनिधीन भवति कामो हि सेव्यमानो वेदत्रय प्रत्यग्रमाकर्षति । सतोऽप्यनुभषमुपबृहयते । कारणसंपत्किार्यसंपातः । नित्यमपि निरंतराभिलायदहनदद्यमानचेतसोन कदाचिनितिरस्ति । अपनीते तु घेदत्रये कारणाभावात् कार्याभाव इति ॥ निरवशेषवेदापगमे स्वास्थ्य पदस्य तदेव सुखमिति मन्यमानो दृष्टांतं दर्शयति सुखं विनाप्यस्ति दुःखं सुखं पुनरैन्द्रियिक छात्रं विना न भवति ततः सुखार्थी दुःखमेव प्रागात्मनोऽभिलपति न च दुःखामिलापः प्रासयुक्त इति वक्ति मूलारा-अणुर्गपि स्तोकमपि । अणवेक्खिय अनपेक्ष्य । दुःखे सत्येष सुखं जायते । शुवादिपीरितस्यैव भोजनारान्वेषकत्वदर्शनादिति भावः । वियिकसुखदुःखे स्वधिपक्षापेक्ष इत्यन्ये । तथा पोक्तम् अनपेक्ष्य यथा सौख्यं न दुःखं बाधते परम् ।। - अनपेक्ष्य तथा दुःख न सुख विद्यते जने ॥ Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधा १२४२ दुःख सुखके बिनाभी होता है परंतु ऐंद्रियिक सुख दुःखके विना उत्पन्न नहीं होता है. इस लिये सुखकी अभिलाषा करनेवाला प्राणी प्रथम दुःखकी अभिलाषा करता है ऐसा सिद्ध हुआ. परंतु दुःख की इच्छा करना बुद्धिमानके लिये योग्य नहीं है ऐसा अभिप्राय आगेकी गाथा में दिखाते हैं-- अर्थ-सुखकी अपेक्षा न करता हुआ थोडासाभी दुःख मनुष्यको दुःखित बनाता है. परंतु सुख दुःखके विना-उसकी अपेक्षा न करले गरूको हाली कामें जसपर्ण होता है अर्थात् जितना ऐंद्रियिक सुख हैं वह सब दुःखसे भरा हुआ है. और दुःखका प्रतीकार मात्र है. लोक प्रतिकारको ही सुख समझ रहे हैं. जब भूख और प्यास मनुष्यको सताती हैं तब वह अभ और पानीका अन्वेषण करता है. अर्थात् अन्न पानी सेवन कर अपनेको | सुखी समझता है, सूर्यक कटार किरणोंसे दुःखी होता है तब शीत पदार्थको चाहता है. जाडेसे जब शरीर सिकुहने लगता है तष वस्त्रादिकको चाहता है. हचा, आतप, और यानीसे जब पीडा होने लगती है तब उसको हटाने के लिए घरमें प्रवेश कर सुखी होता है. खडे होनेस और बैठनेसे तकलीफ मालूम पडनेपर शय्याको चाहता है. पावोंको प्रवाससे थकावट उत्पन्न होनेएर पालकी वगैरह वाहनोंको चाहता है. कुरूपता दूर करने के लिए वस्त्रालंकार, शरीरकी दुर्गंधता मिटानेके अर्थ कालागुरु आदिक सुगंध पदार्थकी स्पृहा उसको होती है . खेद पूर करने के लिए स्त्रीको चाहता है. ये सब दुःखके प्रतीकार ही हैं. स्त्रीवेद, पुंयेद और नपुंसकवेद इनके उदयसे तीनो लिंगोंके प्राणिओंको परस्परामिलाषा उत्पन्न होती है, परंतु वह अभिलाषा अन्योन्यके शरीरसंसर्ग होनेपर भी नहीं मिटती है. क्योंकि अभिलाषको उत्पष करनेवाले कर्म हमेशा आत्मामें मौजूद है. वे चार बार अन्यान्याभिलाषा उत्पथ करते रहते हैं. जब तक अखंड कारण मिलते ही रहेंगे तबतक कार्यकी उत्पत्ति होगी. जब बामसेवन मनुष्य करता है तय नवीन २ तीन चेदोंकी उत्पत्ति होसी जाती है. पूर्वानुमवमें वृद्धिही होती है. कारण के संपर्कसे कार्य में नित्यता आती है. मनुष्य निरंतर इच्छारूपी अनिसे दग्ध होता है अतः उसका संतोषकी प्राप्ति नहीं होती है. जब तीन वेद नष्ट होते हैं तब परपराभिलाषाका कारण ही नष्ट आ तब वह भी नष्ट होती है. संपूर्ण घेद नष्ट होने पर जो स्वास्थ्यलाभ होता है उसको ही सुख समझना चाहिए, १२४३ Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १२४३ RATARARASHRAM जह कोडिल्लो अगि तप्पंतो व उवममं लभदि । तह भोगे मुंजतो खणं पि णो उवसमं लभदि ॥ १२५१ ॥ सेवमानो यथा वहिं न कुष्ठी लभते शमम् ।। भुजानो न तथा भोगं संतोषं प्रतिपचते ॥१२९१ ॥ विजयोदया-जह कोशिलो यथा कुष्ठेनोपतः । अग्गि ततो अमिना दस्यमानमूर्तिरपि । च उयसम लभदि मैध व्याधरुपशमं लभते । नग्निरूपशामकः कष्ठस्थापित चईकः। यद्यस्य वृद्धिनिमित्तं न तत्सदुपशमयति । यथा कुष्टं नोपशमयसि वलिः । वर्धयति नाभिमार्ग अवलादिसंगमः | साह तथा भोगे झुंजतो भोगानुभयनोचतः। स्वर्ण पि जो प्रषसम लदि । क्षणभाषमपि नोपशम लभते मोगामिलावशेगस्थ । भोगैस्तृष्णाभिवर्धनेन परितापानुबंध बोधयति-- मूलारा-अरिंग तपतो अग्नि सेवमानः । उबसम शांति कुषस्य । चन्हितापस्य तर्धकत्वात् । उवसमें भोगाभिलापरागशांति । सनिमित्तवंदाज्यकर्मणः प्रियांगनाधुपयोगेन प्रतिक्षणमाधीवमानोदीरणश्रवणत्वात् ।। ऐसे सुखको ही सख माननवाल आचार्य दृष्टान्त प्रतिपादन करते है अर्थ-जंभे कुष्ठी मनुष्य अग्निम शरीर तपनेपर भी उपशमको प्राप्त नहीं होता है. अर्थात् अग्नि सेवन से कुछ उपशांत नहीं होता है. उलटा बढ़ने लगता है, जो जिसके बढ़नेम निमित्त होता है वह उसका उपशमन नहीं कर सकता है. जैस अग्नि कुष्ठको शांत नहीं कर सकता है. बस स्त्री वगैरह पदार्थों का सहवास भी अभिलाषाका उमशम नहीं करता है किंतु वह उसको बहाता ही है. भोगोंका उपभोग लेनेमें उद्युक्त हुआ पुरुषका अभिलाषारूपी रोग क्षणपर्यत भी शान्त नहीं होता है. प्रतिदिन वह बढ़ता ही है. कच्छु कंडुयमाणो सुहाभिमाणं करेदि जह दुक्खे ॥ दुक्खे सुहाभिमाणं मेहुण आदीहिं कुणदि तहा ।। १२५२ ॥ मैथुनं सेवमानोऽही सौख्यं दुःखेऽपि मन्यते ॥ शितः कंडूयमानी पा करछ कररुहै। कुधीः ॥ १२९२॥ १२४३ BARI Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश विजयोदया-कम कर,। कंडुयमाणो न समर्वयन् । सुहामिमाण करे सुखामिमान करोति । जह दुक्खे यथा दुःखे । तद मेहुण आदीहि तथा मैथनादिषुःगरी रभसालिंगने, अधरदशने, उरस्ताउने नरनिशितैरंगच्छेदने कचा. कर्षणे । उक्तंच नमः प्रेत स्वाविष्टः स्वनानिय शानिय ॥ भ्यासायासपरिथांतः स कामी रमत किल ॥ १ ॥ इति ॥ अनुभवसिद्धू विषयसुखं कथं प्रतिषिध्यते इत्याशंका दृष्टांतपंचकावष्टंभेन निराक गाथाद्वयमाचष्टे-- मुलारा--कंडुयमाणो नरुल्लिखन । मेहुण आदिम्मि रभसालिंगनाधरदशमोरस्ताडनकचाकर्षणतीक्ष्णनखकछेदनादिजन्ये ॥ अर्थ-कन्छु रोगको नखोंसे खुजानेवाला मनुष्य खुजाते समय अपनको सुखी समझता है. वैसे यह जीवभी मैथुनादि दुःखोंसे भी अपनेको सुखी समझता है. गाढ आलिंगन करनेमें, अघरचुंबनमें, वक्षस्थल मर्दनमें, नखोंसे अंगमें व्रण करने में और केशाकर्षणमें अपनेको सुखी समझता है. इस विषय में अन्यग्रंथमें ऐसा कहा है-वह कामी मनुष्य पिशाचके समान नग्न होकर, शब्द करनेवाला, और आयाससे थककर मैथुन सेवन करता है. RATAMATARATALAnaimametARAARAARANAYAMARATHeenARARinuter घोसादकी य जह किमि खंतो मधुरित्ति मण्णदि वराओ ॥ तह दुक्खं वेदंतो मण्णइ सुक्ख जणो कामी ॥ १२५३ ।। सेषमानो नरोनारी दुःखदा मुस्खयां कुधीः ।। मन्यते मधुरां वहीं कृमिघोषातकीमिव ॥ १२९३ ।। विजयोश्या-मोसादकी घोषातकी । किमि कृमिः । खंतो भक्षयन् । जहा मधुरिति यथा मधुरमिति मम्यते घराकः । स तथैष । दुक्ख बेवंतो दुसमनुभवन् । मण्णदि सोक्वं जणो कामी मन्यते कामिजनः सुखं ॥ मूलारा-घोसातकी घोषातकी । खतो भश्यन् अर्थ--घोषातकी नामका कहूआ फल भक्षण करनेवाला कृमि उसको मीठा ही समझता है. वैसे दुखका अनुभव करनेवाला कामी पुरुष दुःखको ही सुख मानता है. Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 मूलाधना १२.५ TAIMARATAR सुडु वि मग्गिज्जंतो कत्थ वि कयलीए णस्थि जह सारो ॥ तह अस्थि सुहं भागत भोगिस अप्प पि ॥ १२५४ ॥ संपचते सुखं भोगे सेव्यमाने न किंचन ॥ सारो नोऽन्विष्यमाणोऽपिरंभास्तमे विलोक्यते ॥ १२९४ ।। विजयोदयापुछु धि सुष्टु अपि मम्गिज्जतो मृग्यमाणोऽपि सारः कदल्या कचिदपि मूले मध्येऽन्ते वा यथा | नास्ति तथा मोगवषिष्यमाणं सुख न षिचते ॥ इंद्रियर्नोग्यतया गृपमाणेषु विषयेषु निःसुखत्वैकान्तमनुशास्ति-- मूलारा-कथइ कचिन् । मूले मध्येऽन्से वा। अर्थ-मूक्ष्म विचार करने पर भी केलके वृक्षमें प्रारंभ में, मध्यभागमें और अन्त में भी कुछ भी सार दीखता नहीं हैं वैसे भोगोंमे विचार करनेपर भी कुछ सुख नहीं है. D 8 188EETARIANRAINERARETARATARNATURATION .MAARADAR BHOMEMORRHOISTARAMOKAMACARRIANTAR ण लहदि जह लेहंतो सुक्खल्लयमठियं रसं मुणहो। से सगतालुगरुहिरं लेहंतो मण्णए सुक्खं ॥ १२५५ ॥ विश्वस्ता यैः प्रतार्यन्ते विमुच्यते निषेधकाः ।। प्रवर्द्धकाः प्रपीड्यंते कस्तैमोगैः समो रिपुः ।। १२९५॥ निषेव्यमाणो बनिताकलेवर स्वदेहवदेन सुखायते जनः ॥ श्वा व्यश्ववानो रसमस्थि नीरसं स्वतालुरक्त मनुते सुखं यथा ।। १२९६ ।। विजयोदया- लहदि जध सुणगो सुक्खल्लगे अष्ट्रिय लेईतो रस । श्वा शुष्फमस्थि लिहन सन् यथा रस न लभते । सगतालुगहिर लहतो सो सोक्ख मण्णदे तीक्ष्णास्थिछिमस्वतालुगलितरधिमास्वादयन्सुखाभिमानं करोति । जह तह यथा तथा । पुरिसोण किंचि मुख लभा । पुरुषो न किंचित्सुखं लभते ॥ मूलारा-लेहतो आस्वादयन् । सुक्खेष्ठग शुष्क । अट्ठिग अस्थि । सगतालुगहिरं । तीक्ष्णास्थिच्छिमस्वतालुगलितलोहित । Anantariminateneruri Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारापना आश्वास अर्थ-जैसे कुत्ता रक्तहीन सूखी हट्टी चाटने लगता है. परंतु उसमें रस नहीं होता है. हर्शको चूसते समय उसीके तालुका रक्त निकलने पर वह उसमें सुख समझता है. वैसे कामी पुरुष भी विषयोंमें सुख समझता है, अर्थात् स्त्रीसहवासमें उसका स्वयं वीर्यपतन होता है. और उसमेंही वह सुख समझता है. १२४६ महिलादिभोगस्त्री ' लहदि किंचिवि सुई तथा पुरिसो॥ सो मण्णदे वराओ सगकायपरिम्सभं सुक्खं ॥ १२५६ ॥ नग्नो बाल इचास्वस्थः स्वनन्नव्यक्तजल्पनः । श्वासाकलो जनो नार्या कीशी प्रयत रतिम् ॥ १२५७ ।। आरटंती भराकान्ता दीनामुष्ट्रीमिवाकुलाम् ।। किं सुखं लभते मूतः सेवमानो नितंरिनीम् ॥ १२९८ ।। विभीमरूपाः कुदिलस्वमाया भोगा भुजंगा इव रंध्रसंस्थाः।। ये स्मर्यमाणा जनयन्ति दुःख ते सेविताः कस्य भवन्ति शान्त्यै ॥१२९९। प्रवर्य सौख्यं चितरन्ति दुःख विश्वासमुस्पाय पवंचयति ।। ये पीउपन्त परिचर्यमाणास्ते सन्ति भोगाः परमा द्विषन्तः ॥ १३०० ॥ विजयोदया-महिलाविमोगसेवी स्यादिभोगसेवनोधतः । तथा सो ण किंचि घि सुई लहदि तथा पुरुषो न किंचिदपि सुखं लभते एव । सो परागो सगकाएपरिस्समें सोक्वं मण्णने स बराकः स्वकायधमं सौख्यं मन्यते । अनुभवसिई सुखं कथं नास्तीति शक्यते वक्तुं इत्याशंक्य असत्यपि सुखे सुखशानं जगतो भयति विपर्यस्तं सुखकारणस्पेति पंवति । मूलारा-पष्टम् ॥ अर्थ--स्त्री वगैरहको भोगनेवाला यह कामी पुरुष किंचितभी सुख नहीं प्राप्त करता है. यह दीन पुरुष अपने शरीरपरिश्रममें ही सुखकी कल्पना करता है. स्वीसहवासमें सुखकी प्राप्ति होती है यह बात अनुभव सिद्ध है जसको आप सुखाभाव कैसे कहते हो ? Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना इस शंकाका उत्तर ऐसा है-सुखके अभावमें भी जगत को सुखकी भ्रांति होरही है. यह उसका विपर्यस्त ज्ञान है. आश्वासः १२४७ Aad दीसइ जलं मयतहिया हु जहू बणमयस्स तिसिदस्स ।। भोगा सहं ब दीसंति तह य रामेण तिसियरस ।। १२५७ ॥ . कामिभिभॊगसथायामसत्यं दृश्यते सुखम् ।। कुरंगैर्मृगतृष्णायां पानीयं तृषितरिव ।। ३०१ ॥ . विजयोदयादीसा वणमयस्स निसिदस्स जहा जलं मयतपिया धन मृगेण हरिणादिना तुषामिभूने जलकांक्षायता जलमिव दृश्यते मृगतृरिणका न मा मगेग जलतयोपलव्धेत जलं भवति । तथा रागेण निसिदस्स भोगा सुदंब दीसंनि रागतृषितेन भीमाः सुखमिव दृश्यते ॥ मूलारा-वणमचम्म बनमगेण हरिणादिना अत्र तृतीयायाः पीवगायः। भोगा कामिन्यादिनिभीसाः, इंद्रिचप्रतीतकः। इसी विषयका स्पष्टीकरण अर्थ-जैसे जंगलमें विचरनेवाले हरिणों को तृषास पीडित होनपर मृगतृध्यिका जलके समान दीखती है. HEEL परंतु वह वास्तविक जलरूप नहीं है बैसे रागभावसे व्याकुल हुए इस जीवको भोगपदार्थ सुखमय दीखते हैं परंतु वे वास्तविक सुखरूप नहीं है. वग्यो सुखेज्ज मदयं अवगासेऊण जद मसाणम्मि ॥ तह कुणिमदेहसंफंसणेण अबुहा सुखायंति ॥ १२५८ ।। कुथितस्त्रीतनुस्पर्श नष्टबुद्धिः सुखायते ॥ अवगुख शयं व्याघ्रः श्मशाने किंन तृप्यति ॥ १३०२॥ विजयोदया-बग्यो सुखेज श्मशाने व्याम्रो मृतकमषनास्य तुप्यति यथा तथा कुपितदेवसंस्पर्शनेमावुधा जा सुखाधिगमहर्षनिर्भरांगा भवन्ति । . . SATARATARAreasokareewat १२४७ Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १२४८ मूलारा - सुखे तृप्यति प्रीणितो भवति ॥ सवयं मृत अवगासेदूण आलिंग्यं उपरि पटिया था। सुसा णम्मि श्मशाने । कुणिमदेइसफासणेण कुथितयुवतिकलेवर स्पर्शनेन । सुखार्थति सुखाधिगमहर्षनिर्भरा भवंति ॥ अर्थ - श्मशान में व्यात्र प्रेतका भक्षण कर तृप्त होता है वैसे मूर्ख लोक दुर्गव शरीर के स्पर्शसे मेरेको सुख प्राप्त हो रहा है ऐसा कर अतिशय टर्षित होते हैं भपतु नाम सुख भोगस्तथापि तदत्यस्पमिति निवेदयति तह अप्पं भोगसुहं जह धावंतस्स अठितवेगरस ॥ गिम्हे उन्हातत्तस्स होज्ज छायाहं अप्पं ॥ १२५९ ॥ मध्यंदिनार्कत तस्य यावच्छायाव्यतिक्रमे ॥ वेगतो वावतः सौख्यं तावद्भोगनिषेवणे ।। १३०३ ।। विजयोदया तथा अप्यं भोगसुदं धावंतस्त्र अतिवेगस्स निथे उन्हातत्तस्स जहा छायासु अयं तह अपं भोगसुहं । धातोऽस्थितवेगस्य ग्रीष्मे उष्माभिवनस्य यथा मार्गस्थैकतरुच्छायासुखमय भोगसुखं तथा ॥ एवं दुःखे मूढात्मनां सुखाभिमानं समर्थ्य सांप्रतं परानुरोधेन भवतु नाम भोगसुखं तथा तदत्यल्पमित्यभ्युपगम सिद्धांतेन दर्शयति- मूलारा - अदिवेगस्स अधिनिजवस्य का अथवा उण्हातत्ततस्स मध्याहार्करमितप्तस्य । छायासुद्द मार्गस्थैकतरच्छायाप्राप्त्या शर्म ॥ उक्तं च- मध्यंदिनस्य यावच्छायाव्यतिक्रमे || वेगतो घावतः सौख्यं ताबद्धोगनिषेषणे || भोग पदार्थ सुख है ऐसा यद्यपि मान लिया तथापि यह सुख अत्यल्प है ऐसा दिखाते हैं--- अर्थ - ग्रीष्मकाल में सूर्यकी धूपसे जिसको कष्ट होरहा है और जो भागता जारहा है ऐसे पथिकको रास्तेमें वृक्षकी छायासे अल्प सुख मिलता है वैसे इस जीवको प्राप्त हुए भोगपदार्थोंसे अल्पसा सुख मिलता है । आवास ६ १२४ Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वा १२४९ अह्वा अप्पं आसाससुहं सरिदाए उप्पियंतस्स ॥ भूमिच्छिकंगुहस्स उन्भमाणस्स होदि सोत्तेण ।। १२६० ॥ स्रोतसा नीयमानस्य यावदाशासुखं भवेत् ।। पादांगुष्ठे क्षितिस्पर्श ताबद्भोगसुखं स्फुटम् ॥ १३०४ ॥ विजयोदया-अहवर अथवा । अप अल्पं । आसाससुई आश्वास पष सुखं । सरिवाए नयां । उम्पियंतस्स मिमग्मतः। भूमिकिक गुस्स भूमिस्पृशंगुष्ठस्य । सोसपा उम्भमाणस्स स्रोतसा प्रषामोद्यमानस्य । मल्प भावाससुख तहदिद्रिय सुगममात्यल्पमित्यतिमातेन संबंधः॥ मूलारा-यथा चा बक्ष्यमाणमत्यल्पं तथा भोगसुखमिति संबंधः॥ आसाससुई आश्वास एव सुखं । लब्धा मयास्थाथ सटं प्राध्यामि इत्याशया निर्वृतिरित्यर्थः । सरिदाए नयां । उपियंतस्स निमज्ज्यागच्छतः । भुमिच्छिकंगुहस्स भूमिः स्पृष्टांगुष्ठेन येन तस्य । योज्झमायस्स उलमानस्य । सोसेण प्रयाहेण ॥ अक्तं च-- स्रोतसा नीयमानस्य यावदाशासुखं मवेत् ।। पादांगुष्ठक्षितिस्पर्श तावद्भोगसुखं स्फुटम् ॥ अर्थ-अथवा नदीमें जलके प्रवाहसे जो बहता जारहा है ऐसे मनुष्यके पांवके अंगुठेका थोडासा स्पर्श जमीनपर होनपर मैं अप अधूगा नहीं एसा भास होफर थोडासा उसको आवासनमुख प्राप्त होता है पैसे इस अविको ससारमें इंद्रियांसे अल्पसुख प्राप्त होता है ऐसा पूर्व गाथाके साथ संबंध समझना चाहिए. इंदियसुखानि यद्यलब्धपूर्वाणि युक्तो विस्मयस्तष तानि सर्वाणि अनंतबारपरिभुक्तानि, तेषु भुक्तेषु परित्यक्तंषु । नयुको विस्मय इति अनावरं जनयति तेषु हरिः जाति केह भोगा पत्ता सत्वे अर्णतखुत्ता ते ॥ को णाम तत्थ भोगेसु विभओ लडविजडेसु ।। १२६१ ॥ . येऽनंतशोऽग्निना भुक्ता भोगाः सर्वे त्रिकालगाः ॥ को नाम सेषु भोगेषु मुस्कत्यधु विस्मयः ॥ १३०५ ॥ १२४ Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधना आश्वास १२५० - PRASRAKASHANTERATARAdateRAAMAATAKARMERes विजयोदया-जाति केह भोगा यायन्तः केचन भोगाः । सन्धे पत्ता अणतनुसा ते । सर्वे माता अनंतवार तय 1 को णाम तत्थ भोगेस को नाम तेषु भोगषु विस्मथः लब्धपूजितपुः ॥ इंद्रियसुतेषनादरोत्पादनार्थमाह - मूलारा--अतखुप्ता अनंत बारान् । विभओ विस्मयः आश्चर्य । लविजडेसु प्राप्तत्यक्तेषु ।। इंद्रियसुख यदि पूर्वकालमें कभी मिला ही नहीं और अब ही प्राप्त हुआ होगा तो विस्मय-हर्ष मानना योग्य है परंतु सर्व इंद्रिययुखोंका इस जीवने अनंत चार उपभोग लिया है और उनका त्याग किया है. अतः उनमें आचर्यचकित होना योग्य नहीं है, इस प्रकार इंद्रियमुवमें आचार्य अनादर उत्पम करत है अर्थ-जितने भोग हैं ये सर्व अनंतवार जीवको प्राप्त हुए हैं इस लिए प्राप्त करके त्याग किए गए इन भागों में आश्चर्य ही क्या है ? मोग कुछ अलब्धपूर्व नहीं है अतः इनके प्राप्तिसे आश्चर्ययुक्त होना योग्य नहीं है. मोगहष्णा निदरं दहति भवन्तं, सेव्यमानाः पुन गास्तामेव तृष्णा चढ़यंति ततो भोगेच्छां शिथिल्लो मवेनि बदति जङ् जह भुंजइ भोगे तह तह भोगेसु बढ्दे नण्हा ॥ अम्गीव इंधणाई तण्हं दीविति से भोगा ॥ १२६२ ॥ यथा यथा निषेव्यन्ने भोगास्तृष्णा तथा तथा ॥ भोगा हि वर्धयन्त तामिधमानीव पावकम् । १३.६॥ विजयोदया-जाद जह मुंजदि भोग यथा यथा भोगाम्भुक्तेः । तह तह तथा तथा । भोगस पल देतण्हा भागषु चयते तथा अभिभावमा । यथा धिणाई इंधनानि । दीधितिवीपति । सहा तथा। तवं तृष्णदीपयन्ति । से तस्य भोक्तुभागाः । तथा चोक्त-तृष्णापिः परिदद्वनि न शांतिराला ॥ इष्टन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव ॥ भोगतृष्णाश्चिदाहशांतवे सेव्यमाना भोगास्तदभिवृद्धयर्थ एवं भयंत्यतस्तच्छांतये भोगेच्छामेव शिथिलयेति शिक्षार्थमाह ॥ मूलारा-अग्गीव अग्निमिव ॥ यह भोगतृष्णा हे क्षपक ! तेरेको निरंतर जला रही है. यदि भोगपदार्थों का तूं सेवन करेगा तो उसी Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगभना १२५१ तृष्णाको ये बढायेंगे. इसलिए तू इस भोगेच्छाको शिथिल कर ऐसा निर्यापकाचार्य क्षपकको उपदेश करते हैंअर्थ- जैसे जैसे मनुष्य भोगका भोगते हैं वैसी २ उनकी भोगतृष्णा बढ़ती है. जैसे लकडीओसे अग्नि बढ़ता है वैसे भोगोंसे तृष्णा रहती हैं. श्री सनभद्र आचार्य तृष्णा और भोगके विषयमें ऐसा कहते हैं. ये तुष्णाग्नि की ज्वालायें प्राणिको जलाती हैं परंतु उनकी इंद्रियोंके इष्ट पदाथोंसे शांति नहीं होती है उलटी तृष्णाज्वालाकी वृद्धि ही होती हैं. जीवस्स पत्थि तित्ती चिरं पि भोएहिं भुंजमाणेहिं ॥ तित्तीए विणा चित्तं उब्बूरं उब्बुदं होइ ॥ १२६३ ॥ भुज्यमानैश्चरं भोगैस्तृप्तिर्नास्ति शरीरिणाम् ॥ उत्पूरमुद्धतं चित्रं बिना तृप्त्या जायते ॥। १३०७ ।। विजयोदया - जीवरस जीवस्य । नास्ति तृप्तिचिरकालमाप भोगान भवतः । पश्यामत्रयं काल भोगभूमिषु । शित्सागरोपमकाल अपरेषु तृप्त्या च विना वित्तं । उब्यूरं उत् उत्पूरं उधृतं भवतीति सूत्रार्थः ॥ सुविरमपि सेस्टर्न भवति सिस्य सुतरामोत्सुक्यं भवतीति भोगापराधमुपदिशति - मूलारा — उब्बूर उत्पूरं, अत्यर्थमित्यर्थः । उदुवं उध्दुतं उत्कंठितमित्यर्थः ॥ अर्थ – चिरकालपर्यंत भोगोंका अनुभव लेनेपर भी जीवको तृप्ति होती ही नहीं, भोगभूमी में इस जीवने तीन पल्योपमकालतक भोगोंका अनुभव किया है. अमरलोकमें तेहतीस सागरोपम कालतक देवभो गोका सुख भोगा है तो भी तृप्तीके बिना इस जीवका चित्त हमेशा उत्कंठित रहता है जह इंधणेहिं अग्गी जह व समुद्दो नदीसहस्सेहिं ॥ तह जीवा ण हु सक्का तिप्पेडुं कामभोगेहिं ॥ १२६४ ॥ नदीजतैरिषां भोधिर्विभावसुरियेधनैः ॥ त्र्यमानैरयं भोगैर्न जीवो जातु तृप्यति ।। १३०८ । आश्व १२ Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १२५२ विजयोदया-अबांधणे यथेंधमेरनि तृप्यति । यथा वा समुद्रो नदीसहनैः । तथा जीवो न शक्यो भोगैस्तर्पयितुं ॥ भोगानामतर्पकत्वं सदृष्टान्तमाच - मूलारा-तिप्पेढुं नर्पयितुं ॥ अर्थ-जसे इंधनास अग्नि तप्त नहीं होता है, जैस हजारो नदीओसे समुद्र नम होता नहीं वैसे जीव भोगोंसे संतुष्ट होता नहीं है, Teralcreak देविदचक्कवट्टी य वासुदेवा य भोगभूमीया ॥ भोगेहिं ण तिप्पति हु तिप्पदि भोगेसु किह अण्णो ॥ १२६५ ।। भोगेषु भोगिगीर्वापायलकेशवचक्रिणः॥ न तृप्तिं ये तु गति सत्र तप्यति किं परे ।। १३०५ विजयोदया-दविंद देवानामधिपतयः, चमकना बासुदेवा अर्धचक्रवर्तिनः । भोगभूमिजाच भोगैर्न तृप्यन्ति। कथमन्यो अनस्तृप्तिमुपयाद्भोगैः ! सुलभामितभोगसाधनाश्विर जीविनः स्वतंत्रावामी । अन्ये तु भवशा जठरभरणमात्र. मपि कर्तुं अशक्ताः, स्वल्पायुषः, पराधीनवृत्तयश्च तृप्यतीति का कथा ॥ सुलमाभिमतभोगसाधनाचिरजीविनः स्वतंत्राश्च देवेंद्रादयोऽपि इंद्रियसुग्न तृप्यन्ति किं पुनरितर इति सकीतुकोत्प्रासं शिक्षयति मूलारा-पष्टम् ॥ अर्थ-देवेन्द्र, चक्रवर्ती, अर्ब चक्रवर्ती अर्थात् नारायण, प्रतिनारायण, और भोगभूमिज ये मोगोंसे तन्न होते नहीं है. तो अन्यपुरुष उनसे कैसे तृप्त होंगे! देवेन्द्रादिकोंको मोमपदार्थ मुलम हैं, वे दीर्घायुषी है, और स्वतंत्र हैं, इनसे भिम जीव-हम तुम पेट भरने में भी असमर्थ हैं. स्वल्पायुषी है, और पराधीन है इस लिये इम तुम कैसे नम हो सकते हैं. १२५२ Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्चात संपत्तिविक्त्तीसु य अज्जणरक्खणपरिग्गहादीसु ॥ भोगत्थं होदि जरो उदयचित्तो य घण्णो य ।। १२६६ ॥ व्याकुलीभवति पाणी ग्रहण रक्षणेऽर्जने ॥ माशे संपदि तत्तस्य भोगायोत्कंठितश्चलः ॥ १३१२ ॥ विजयोदया-संपत्सिवियत्तीय संपरसु विपत्सु च । अज्जणरक्षणपरिगगहानीस द्रव्यस्य लष्यस्यार्जने, पंजीफरणे, राशीतस्य रक्षणेपि । हस्ते विप्रकीर्णस्य ग्रहणे । आदिशयेन तद्वधयकरणे चा । भोगत्थं मनुभनार्थे। मर्जनादिषु प्रवृतः । उदुदचित्तो य घपणी य रोहोदि चलचित्त उत्कंठायांश्च भवति नरः। द्रव्यसंपदि जातायां रामाच्चलचितं भवति । इविणादिधिमाशे कर्थ जीयामि । पुनद्रव्यार्जनं करोमीति । भोगसाधनस्य धनस्य संपत्तावुपार्जनादिषु चलचित्तता तद्विपत्तौ च पुनस्तत्प्राप्त्युत्कलिकाकुलता च स्यादिवि भोगकृतं द्वन्ददुःखावतं योश्यति __ मूलारा-परिग्गहादीसु परहस्ते विप्रकीर्णश्य द्रविणस्य स्वीकरणे स्वायत्तस्त्र व्ययकरणे च । उम्दुदचिनो द्रव्य संपदि जातायां रागाच्चलचित्तः । घण्णो द्रव्यविनाशे द्रव्याभिकांक्षी कथं पुनर्धनं लप्स्ये इत्युत्कंठावान् ।। अर्थ-संपचिकी माप्ति होनेपर उसका रक्षण करना, बहाना, दूसरोंको दी हुई संपत्तीको वापिस लेना, उसका व्यय करना, और मोगमें लाना इत्यादि कार्यों में मनुष्यका मन चंचल और उत्कंठित होता है. द्रव्यसंपत्ति प्राप्त होनेपर मनुष्य का मन रागभावम चंचल होता है. धनादिकोंका नाश होनेपर 'अब मैं कैसा जीऊंगा, अब पुनः द्रव्यार्जन करूंगा ऐसा विचार उत्पन्न होता है, उध्दुयमणस्स ण सुहं सुहेण य विणा कुदो हवदि पीदी ॥ पीदीए विणा ण रदी उदुयचित्तस्स घण्णस्स ।। १२६७ ॥ व्याकुलस्य सुखं नास्ति कुतः प्रीतिविना सुखम् ।। कुतो रतिबिना प्रीतिमुत्कंठां वहतः परम् ॥१३११ ॥ विजयोदया-उदुश्मणस्स व्याकुलचिसस्य ण सुहन सुख भवति । मुहेण य विणा कुवोहयदि पीदी। सुखेन Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्व बिना कुतो भवति प्रीतिस्तृप्तिः। पीबीए विणा मील्या घिना | ण रवी न रतिः । उादुदचिचस्स ज्याकुलचेतसः [ घण्णस्स उत्कंटाडाकिन्या गृहीतस्य । मूलारा-पीदी तृप्तिः !! अर्थ-जिसका मन व्याकुल हुआ है उसको सुख होती नहीं है. सुखके बिना भीति उत्पन नहीं होती है, | और बिना प्रातिके रति उत्पन्न नही होती है. जिसके मन में उत्कंठा उत्पन्न हुई है उसको व्याकुलता सताती है. १२५२ जो पुण इच्छदि रमिदं अज्झप्पामुहम्मि णिन्बुदिकरम्मि ॥ कणदि रदि उवसतो अझप्पसमा हणस्थि रदी । १९६८ ॥ निरस्तदारादिविपक्षसंगती रिरंसुरध्यात्मसुखे निरंतरम् ॥ रति विधनां निवशभकारणे सया समा नास्ति जगत्त्रये रतिः॥१३१२ । विजयोन्या-जो पुण इनदि मिई यः पुना रमिररदि । सो कुदिरदि स करोतु रति । क ? अयप्पसुखम्मि अध्यात्मसुखे । णिवुविकरम्मि नितिकरे ! उपसंतो उपशांतरागकोपः । पतठक्तं भवति । मनोज्ञापनोझविषयसन्निधाने संकण्हेतुको चौ रागद्वेषी ती परित्यजा निवृत्तिवृतिको अध्यात्ममुखे रति करोतु । अज्झप्पसमा अन्मस्वरूपविष. या रतिरध्यात्मशद्वेनोच्यते । नया सदशी रतिः । निथ खु न विद्यत पर । यसान् भांगरतिरध्यात्मनो रत्या न सरशी ।। भगवन्याचं तह निरंतररत्यार्थिना पुरुषेण कि विधीयतामिति पृच्छत परमार्थतथ्योपदेशसर्वस्वदानेनानुगृण्ईति ॥ मूलारा -- इच्छदि रमिदु नित्यं रतिमभिलति इत्यर्थः । अझप्पसुइम्मि शुद्धरवात्मानुभूत्यानंदे । पिन्बुदिअरम्मि तृप्तिकरे । कुणदु रदि आसक्ति । उवसंतो मनोझामनोज्ञविषयसंनिधावात्मसंकल्पहेतुको रागद्वेषौ निवर्त्य स्वात्मदर्शनोद्यतः सन । अज्झप्पसमा आत्मस्वरूपविश्यरतिसहसी । रदी प्रीतिः काचिदपि जगप्रयसारभोगानुभूतिरतिषु मध्ये ।। उक्तं च यदन चक्रिणा सौख्यं यच स्वर्गे दिवौकसां ॥ कलयापि र तनुल्यं सुखस्य परमात्मनाम् ॥ अपि च । आत्मानुष्ठाननिश्वस्य व्यवहारवादिःस्थितेः । जायते परमानंदः कश्चिद्योगेन योगिनः ॥ Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूदायधना आश्वास अर्थ-जो मनुष्य रममाण होने की इच्छा करता है, राग और कोप जिसके शांत हुए है वह पुरुष अध्यात्म | सुखमें जो कि आनंददायक है उसमें रममाण होवे. अर्थात अपनी आत्मानुभव में हमेशा तत्पर रहे. इष्टानिष्ट विषयकी प्राप्ति होनेपर मनमें संकल्प होता है. और इस संकल्पसे गगद्वेषकी उत्पत्ति होती है. रागद्वषोंका त्याग कर द्रप्ति उत्पन्न करनेवाले आत्मानुभवरूप सुखमें प्रीति करे, क्योंकि अध्यात्मरतिके समान भोगरति है नहीं. कधम् । अप्पायचा अज्झपरदी भोगरमणं परायत्तं ।। भोगरदीए चइदो होदि ण अझप्परमणेण ॥ १२६९ ।। स्वस्थाध्यात्मरतिजन्तोनैव भोगरतिः पुनः ।। भोगरत्यास्ति निर्मुक्तो परया न कदाचन ॥ १३ ॥ विजयोदया-अम्पायत्ता स्थापसा | अज्मपरदी मारमस्वरूपविषया रतिः । परद्रव्यामपेक्षणात् । भोमरमणं मोगरतिः परायत्तं परायत्ता परद्रव्यालंबनत्वात् । सेषां च कथंचिदेव साधियं करिवेष कस्यचिदेवेति । पतन स्वायत्ततया परायणतया या साम्यमाण्यात प्रकारांतरेणापि वैषम्य दर्शयति भोगरवीर चावो होदि मोगरत्या युती भवति, न प्रच्युतो भवति । भज्यप्परमण सध्यात्मरत्या कथमध्यात्मरतिभोगरति तिरस्करोतीत्याइ--- मूलारा-अपायत्ता परद्रव्यनिरपेक्षत्वात् । अझप्परदी आत्मस्वरूपविषया रतिः । परायतं बहिन्यालबनत्वान् । चइदो त्यक्तः । भोगरनिनिमित्तपरल्याणां वचित्कदाचित्कथंचित्सान्निध्यात् । णेत्यादि । अध्यात्मरत्वालंबनस्य स्वद्रव्यस्य सवत्र सर्वदा सर्वधा सन्निहितत्वात् । अध्यात्मरति क्यों श्रेष्ठ है इसका उत्तर अर्थ---स्वात्मानुभयमें रति करने के लिए अन्य द्रव्यकी अपेक्षा नहीं रहती है, भोगरतिमें अन्य पदाथोंका आश्रय लेना पडता है. अन्य पदाधाकी किसीको प्राप्ति होती है और किसीको नहीं भी होती है. अतः इन-दो रतिऑमें साम्य नहीं है. भोगरतीसे आत्मा च्युत होनेपर भी अध्यात्मरतिसे वह भ्रष्ट नहीं होता है. अतः इस हेतुसे भी अध्यात्मरति. भोगरतिस-श्रेष्ठ है. १२५५. Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्च. मूलाराधना १२५६ गाथा भनेकविप्रसहिता बिनाशिनी व भोगरतिः, अध्यात्मरतेस्तु भाषिताया न नाशो नापि विप इति कथषत्युत्तर भोगरदीए "तो मित्रदो गिधा य होति मानिगागः ॥ अझप्परदीए सुभाविदाए णासो ण विग्घो वा ॥ १२७० ।। नाशो भोगरतेरस्ति प्रत्यूहाश्च सहस्रशः ॥ नाशोऽध्यात्मरतेनोस्ति न प्रत्यूहाः कुतम्चन ॥ १३१४ ॥ विजयोदया-भोगरवीप भोगरत्याः । णियदोणासो नियतो विनाशः। विधा य इंति विना भवन्ति । अदिबहुगा अतीच बहवः । अझप्परदीप, अध्यात्मरतेः सुभाविदाए सुष्टु भावितायाः। णासो नाशो न विद्यते । विग्या या पिना पान सति । नियस नश्वरतयाऽनश्वरतया, अषिघ्नतया, निर्षियतया च तयोःपश्यमिति भावः ।। प्रकारांतरेणाऽपि तद्वैसादृश्यं दर्शयति मुलारा--णियदो अवश्यंभावी । विम्यो अतरायः ॥ अंतरान्तरा तद्विधातनिमित्तावश्यकरणीयच्यासंगानुप्रवेशान् ॥ सुभाविवाए स्वभ्यस्तायाः । मिग्यो एकोऽयंतरायः सुभाषिताध्यात्मरतेः कृतकृत्यतया ज्याक्षेपासंभयात् ॥ भोगरति अनेक विघ्नोंसे भरी हुई है परंतु अध्यात्मरतिका अभ्यास करनेसे उसका न नाश होता है न उसमें कोई विघ्न भी उपस्थित होता है. इसका विवेचन--- अर्थ-भोगरतका सेवन करनेसे नियमसे आत्माका नाश होता है तथा इस रती में अनेक विन भी उपस्थित होते हैं. अध्यात्मरतीका उत्कृष्ट अभ्यास करनेपर आत्माका नाश भी नहीं होता है और विन भी नहीं आते हैं. अध्यात्मरति अनश्वर है अर्थात् नित्य है. और भोगरति नश्वर अर्थात् अनित्य है. भोगरति विघ्नोंसे युक्त होती है परंतु अध्यात्मरति निर्विघ्न है ऐसी इन दोनोंमें महान विषमता है. इंद्रियसुखं शत्रुतया संकल्पनीय तथा च तत्रायरो जन्तोनिवृतेः अतीधिय मुखत्यमेष वीतरागत्वहेसुके संवरे इति मत्या सूरिधूलामणिराह "दुक्खं उप्पादिता पुरिसा पुरिसस्स होदि जदि सत्तू ॥ अदिदुक्खं कदमाणा भोगा सत्तू किह ण हुती ।। १९७१ ॥ Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १२५७ कुर्वन्तो देहिनां दुवं जायंने यदि शत्रवः ।। तदानीं न कथं मोगा लोकद्वितपदुःखदाः ॥ १३१५ ।। विजयोदया-दुक्खं उप्पादिना दुःखमुत्पाय। जदि सत्तू होति शत्रयो भवति । पुरिसा पुरिसस्स पुरुशः । पुरुषस्य । अदिदुक्खं कुणमाया भोगा अतीय तुः कुर्यन्तो मोगा इंद्रियसुखानि । किध सत्तू ण हुंति कथं शपयो ने भवन्ति भवन्स्येयेति । कथं भोगानां दुःखहेतुता एवं मन्यते ! हद्रियसुख नाम स्त्रीवरगंधमालादिपरद्रव्यसंनिधानजन्यं । तच्च स्यादिकं दुर्लभतम निद्रविणस्य, तेन तदर्थे छप्यादिकर्मणि प्रयतितव्यं ततो महानग्यासः । देव भवानुगामि तुवनिमित्तं च कर्म हिंसादिषु प्रयतैमानोऽर्जयति । तदिवं तुरंते संसारभोधौ निमजयति । तत्रच निमग्नेन काबुलमग ॥ द्रियसुखानामतिदुःखकरत्वप्रदर्शनेन शत्रुत्थं व्यवस्थापयंस्तत्रानादरं कारयति मुलारा-अविदुत्पलं इंद्रियसुखार्थ कमनीयकामिन्यादिकं सनिधापयति । तत्सन्निधापनं च धनसाध्यमेवेति धनार्थ कृयादिकं करोति । तच कुर्वनिरंतरं आत्मानमायासयति, हिंसादिकं च प्रवर्तयति । तथा च महापापबंधस्तेन च दुरंततुःखविधतः । संसारावर्त इति इंद्रियसुखमेव दुर्निवारदारुणदुःखकारणतः शत्रुत्वेन मुमुक्षुणा तावयितव्यमिति क्षपकस्य शिक्षासर्वरन विधानार्थमेव यत्नः कृतः सूरिशिरोरलेन ।। इंद्रियसुख शत्रुसमान समझना चाहिये. इंद्रियसुखमें आदर करनेसे तृप्ति होती नहीं है. अतीन्द्रिय सुख ही वीतरागपना और संघरका कारण है ऐसा आचार्य चूडामणि कहते हैं अर्थ-दुःख उत्पन्न करनेसे यदि पुरुष पुरुषके शत्रु होते हैं. तो अतिशय दुःख देनेवाले इंद्रियसुख क्यों न शत्रु माने जायेंगे ! इंद्रियमुख दुःखदायक कैसा इस प्रश्नका उत्तर-खी, वस्त्र, गंध, पुष्पमाला वगैरह पदाथोंके सानिध्यसे इंद्रियमुख उत्पन्न होते हैं. परंतु स्त्री वगैरह पदार्थोकी प्राप्ति होना दरिद्री मनुष्यको अतिशय दुर्लभ है. दरिद्री मनुष्यको उनकी प्राप्तीके लिये कृषि बगरहै कामें प्रयत्न करना पड़ता है. जिससे महान् परिश्रम होता है. हिंसादिकार्योंमें बह दरिद्री मनुष्य स्त्री . वगैरहके लिए प्रवृत्त होता है जिससे संसार बढानेवाला और दुःखका कारण ऐसा कर्मबंध उसको होता है. यह कर्म दुःखदायक और जिसका अंत अतिकष्टसे प्राप्त होगा ऐसे संसारसमुद्र में जीवको डनाता है. संसारमें निमग्न हुए इस जीवको कौनसा दुःख प्राप्त नहीं होता। अर्थात सर्व प्रकारके दुःख इस जीवको भोगने पड़ते हैं. | १२५७ Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वा मूलाराधना १२५८ शत्रुतया भोगा इति कथयति इधई परलोगे वा सत्तू मित्तत्तणं पुणमुवेति ॥ इधई परलोगे वा सदाइ दुःखावहा भोगा ॥ १२७२ ॥ शत्रवो यान्ति मित्रत्वमिह वामन्त्र वा भवे ॥ मित्रत्वं प्रतिपद्यन्ते भोगा लोकद्वयेपि मो॥ १३१६ ॥ विजयोदया-(ध आस्मय जम्मान । परलोमे या ५५जन्मनि वा । सत्तू शत्रवः । मित्तत्तणं मित्रता । पुण. मुवेति पुनढोकन्ते । शत्रवः शत्रुतामपि जयुः । कार्यवशात् , उपकारातिशयसंपादनान्मित्रता था यान्ति च । याचा न स्फुटसरा । हष तथा परलोके वा सयदा तुक्खाघड़ा भोगा सर्वदा दुःखाबहा भोगाः । ततः शत्रुत्तमा इति भावनीयं ।। भोगानां शत्रुतमत्वभाषनार्थमाह मूलारा--इधई अस्मिन्नेब जन्मनि । अन्यस्त्वेवं व्याख्यात् । इध इहमवे। ई कि इह लोके परलोके इत्यर्थः । पुण उवेन्ति कार्यवशारछत्रयो भूत्वा पुनर्मित्रत्वं यान्ति || अर्थ-इसी जन्ममें अथवा अन्म जन्म में अपने शत्रु शत्रुत्व का त्याग कर मित्र हो सकते हैं. कार्यके वश होकर शत्रु अपना बैर छोटकर मित्र होते हैं. अथवा उनके ऊपर बहुत उपकार करनेसे भी वे अपना शत्रुत्व छोड देते हैं. परंतु इस जन्ममें अथवा जन्मातरम भी भोग हमेशा दुःखदायी ही है. इसलिए उनसे जगतमें कोई भी महान् शत्रु नहीं हैं, एगम्मि चेव देहे करेज्ज दुक्खं ण वा करेज अरी ॥ भोगा से पुण दुक्खं करंति भवकोडिकोडीसु ॥ १२७३ ॥ वैरिणो देहिनां दुःव यच्छन्त्यका जन्मनि ।। संततं दुस्सहं दुःख भोगा जन्मनि जन्मनि ॥ १३१७ ।। विजयोन्या-पगम्मि चेव देहे । करेज टुक्यं ण वा करेज्ज अरी एकस्मिक्षेब देहे कुयोदुःखं न वा शत्रुः । भोगा पुण भोगाः पुनः। से तस्य । दुःख करति दुवर्य कुति। भयकोडिकोजीसु अनंतेषु भवेषु । एवं भोगदोपानवेत्यात्र निदान त्वथा न कार्य इत्युपदिए सूरिणा ॥ Page #1277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना | १२५९ मूलाराधना--करेज्ज कुर्यात् । भवकोडिकोडीसु ॥ अनंतेषु भवेषु ॥ अर्थ-इस भव में जो शरि प्राप्त हुआ है उसको शत्रु दुःख देगा या नहीं भी. क्यों कि हम भी उसके साथ लहकर हमारे शरीरका रक्षण कर सकते है. अतः वह नियमसे हमारे शरीरको पारित नहीं कर सकेगा. परंतु भोग अन्तभवों में इस शरीरधारक आत्माको दुःख दे रहे हैं. भोगोंके ऐसे दोषोंका स्वरूप जानकर हे क्षपक! तूं भोगनिदान मत कर ऐसा आचार्य ने उपदेश दिया है. - मधुमेव पिच्छदि जहा तडिओलंबो ण पिच्छदि पपादं ।। तह सणिदाणो भोगे पिच्छदि ण हु दीहसंसारं ।। १२७४ ।। निदानी प्रेक्षते भोगान्न संसारमनारतम् ॥ मध्येव प्रेक्षते पातं तटस्थायी न दुस्सहम् ।। १३१८ ।। विजयोगा--मधुमेर जिदि मध्येच पश्यति तथा तरेऽवलवमानः । ण पिछदि न प्रक्षते । पपादं प्रपातमास्मनः । तह तथा । सणिवाणो निदानसहितः । मोमे पिच्छदि भोगाप्रेक्षते । पहुपेच्छादि दाहसंसार। नैव प्रेक्षते दीर्घसंसार। भोगनिदानवती भोगजन्यापायपरंपराननेक्षित्र दृष्टान्तेन भाषपतिमूलारा-मधुमेघ मुखे पतन्तं क्षौद्रबिन्दुमिव । तडिओलंबो कुपभित्त्येकदेशेऽवलम्बमानः । पयादं प्रपतनं ।। अर्थ-कूपके भित्तकि एक भागपर खडा हुआ मनुष्य मधुके छलेसे गिरते हुए मधुपिंदुओका आस्वाद लेने में ही मस्त रहता है परंतु कुएम गिरनेका भय मनमें नहीं लाता है वैसे निदान करनेवाला मनुष्य भोगाके पदार्थका आस्वादन लेनेमें निमम रहता है परंतु इससे मेरेको संसारमें दीर्घकालतक भ्रमण करना पडेगा "ऐसा विचार मनमें लाता नहीं है. जालस्स जहा अंते रमंति मच्छा भयं अयाणंता ॥ तह संगादिसु जीवा रमंति संसारमगणंता ॥ १२७५ ॥ Page #1278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RTERe मूलाधना आश्वार ६ भोगमध्ये प्रदीव्यन्ति जन्मदुःखमनारतम् ॥ अपश्यंतो मृतित्रास जालमध्ये झषा इव ॥ १३१९ ।। विजयोदया-जालस्स झालस्य । अंते मध्ये | जहा मच्छा रमंति यथा मत्स्या रमंते । मयमयाणता भयमनचबुध्यमानाः । तह संगादिसु तथा परिनहाविपु सीया रमेति जीवा रमते । संसारमपर्णता संसारमगणयंतः ।। कमिन्यादिभोगेषु निर्भबक्रीडा प्राणिनां दृष्टान्तेन स्पष्टयति मूलारा--अन्ते मध्ये । मयं मृत्युभीति । संसारमगणतो संसाराव बिभ्यत इत्यर्थः॥ ___ अर्थ-धीवरके जालमें मयका जिनको परिज्ञान नहीं है ऐसी मछलियां जैसी खेलती कूदती है, वैसे संसारी जीव संसारभयसे रहित होकर स्त्री वगैरह परिग्रहमें रममाण होरहे हैं. ; ___ कुयोमिपतनमूलानींद्रियसुखामि नियोगतः प्रकृष्टयोपरागयोनिमित्तस्वात् । तासु कुत्सितासु योनिषु उत्पच दुःखामि विचित्राणि अनुभवतः देवादिभवेषु वृत्ता भोगा वस्त्रालंकारभोजनादयो दुःखं निराकर्तु न क्षमा इति वदति माशाहदेन दुक्खेण देवमाणुसभोगे लहूण चावि परिवडिदो ॥ णियदिमदीदि कुजोणी जीवो सघरं पउत्थो वा ॥ १२७६ ॥ प्राप्यापि करतो जीवो देवमानयसंपदम् ।। प्रवासीव निजं स्थानं कुयोनि याति निश्चितं ।। १३२० ।। विजयोदया-दुपस्वेण लक्ष्ण फ्लेशन लाया । देवमाणुसभोगे दैवाम्मानुषांश्च भोगान् । परियडिनो परिपतितः प्रच्युतस्ततो भोगाजीवः । कुजेणी णिययमदीदि मुसितां योनि नियतमुपैति 1 किमिव ! सघर स्वगृई, पउत्यो चा प्रवासीष ॥ दुश्वरतपश्चरणपूर्वनिदानेन देवादिभोगान्प्राप्य भुंजानस्य मोहद्रडिममूलप्रकृष्ठरागबेपपरिणामसंगृहीतदुष्कृतचक्रस्य नियोगेन कुयोनिषत्पतिर्भवति । तत्र च दुःखान्यनुभवतस्तत्ताहकामिन्यादिभोगा न मनागपि परित्रां कुर्वन्तीति गाथाद्वयेनोपदिशति-- मूलारा--दुक्खेण संचमवलेश पूर्वकनिदानेन । परिवढिदो परिभ्युतः। अदीदि पैति । पच्छो वा प्रवासी यथा। १२६० Page #1279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधना आश्व १२६१ इन इंद्रियसुखोंका उपभोग लेनेसे आत्मामें तीन रागद्वेष उत्पन्न होते हैं और इनसे आत्मा योनिमें पडकर नाना प्रकारके दुःखोका अनुभव लेता है. यद्यपि देवादिगति में वस्त्र, अलंकार, भोजनादिक भोग मिलते हैं तथापि वे इस आत्माके दुःखोंका नाश नहीं कर सकते हैं. इसी विषयका आचार्य दो गाथाओंमें वर्णन करते हैं अर्थ-संयमके क्लेशसे निदान वश होकर देवांके और मनुष्योंके भोगोंकी प्राप्ति कर लेनेपर यह आत्मा प्रवासी जैसा अपने घरके प्रति गमन करता है वैसा कुत्सित योनिमें निश्चयसे उत्पन्न होता है. जीवस्स कुजोणिगदस्स तस्स दुक्खाणि वेदयंतस्स ॥ किं ते करति भोगा मदोष वेज्जो मरंतस्म ॥ १२७७ ॥ किं करिष्यति ते भोगा योनि यातस्य कृत्सितां ।। किंकर्षन्ति मृता दैगा नियमाणाहितः । ११२१ ।। विजयोवया--जीवस्स फुजोणिगवस्स फुयोनिगतस्थ जीयमा । तुरस्त्राणि घेवयंसस्स दुःखानि वेवयमानस्य । किते कति भोगा किं ते कुन्ति भोमाः स्त्रीवस्त्रादयः । नय किंचिदपि दुखलषमपनेतुं क्षमाः मदोष पेज्जो बैठो मृतो यथा । मरंतस्स नियमाणस्य न किंचिरक क्षमः ॥ . मूलारा-मदो मृतः । मरंतस्स प्रियमाणस्य रोगिणः ।। अर्थ- कुयोनिओंमें जीव जब दुःखानुभव लेता है तब स्त्री वस्त्रादिक पदार्थ उसका थोडासा दुःख भी हरण करने में समर्थ नहीं है, क्या मरा हुआ वद्य मरनेवालेका रोगदुःख मिटा सकता है । जह सुत्तबद्धसउणो दूरंपि गदो पुणो व एदि तहि ॥ तह संसारमदीदि हु दूरपि गदो जिंदाणगदो ॥ १२७८ ।। संसार पुनरागान्ति निदानन नियंत्रिता:।। दरं यातोपि पक्षीच रश्मिना मिजमास्पदम् ॥ १२२२॥ विजयोन्या-जा सुत्तबद्धसउणो यथा सूत्रेण दीर्धेषा बदः पक्षी । दूरपि गवो दूरमपि गतः । पुणो एदि ताहिं १२६ Page #1280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना । पुनरप्येति समेव वेशं । तह संसारमदीदि खु संसारशब्दात्परः खु शब्दो दृष्टव्यः, तेनायमर्थः-संसारभेषाधिगच्छतीति । दूर पि गदो महद्धिक स्वादिस्थानमुपगतः, णिदाणगदो निदान परभवे सुखातिशये मनःप्रणिधानं गतः ।। निदानिनः संमारावन समर्थयते -- मूलारा-सुत्त अद्भसणो दोर्पसूत्रनियंत्रितः पक्षी ! नहिं स्वस्थानमेब । हु संसार मेवाधिगच्छत्तीत्यर्थः । दूर । महर्बिकस्वर्गादिस्थानं । शिवाणगदो परभवसुखादिशायिमन:प्रणिधानं प्रातः || अर्थ-दोगसे बंधा हुआ पक्षी दूर जाकर भी पुनः अपने पूर्व स्थानपर आता है वैसा यह जीव भी निदानके प्रभावसे महाऋद्धिसंपन्न स्वर्गादि स्थानमें जाकर पुनः संसारमें भ्रमण करता है. SIR कश्चिद्धःकारागृह यता कालेन तय द्रविण दास्यामि भवतीयमेव सावत्प्रयच्छति गृहीत्वा इव्यं रोधकेभ्यः प्रदाय स्वगृहे सुख घसमपि पुनर्यथा तैरुत्तमणैर्धार्यते तथैव निदानकारी कृतेन पुण्येन परिप्राप्तस्थर्योऽपि पुनरधः पततीति निगवति दाऊण जहा अत्यं रोधणमुक्को सुई घरे बसइ । पत्ते सभए य पुणो रंभइ तह चेव धारणिओ ॥ १२७९ ॥ अधमर्णो निजे गेहे रोधमुक्तो सुखं वसेत् ॥ दत्वार्थ समये प्राप्त यथा भूयो निरुध्यते ॥ १३२३ ॥ विजयोदया-दाऊण दत्वा, अर्थ अर्थ, यह यथा, रोधणमुक्को रोधेन मुक्तः, मुहं धरे वसदि षु सुखेन गृहे यसति । एने समये य प्राप्त चावधिकाल, पुणो रंभा पश्चाच्च संभ्यने, सथा चेय पूर्ववदेघ, धारणिनी अधमर्णः॥ निदानेन विर्य प्राप्य पुनरधमयोनिषु पततीति निदर्शनपुरासरं गाथाद्वयेनोपदिशति मूलारा-अत्थं कलांतरस्कंधकादिद्रव्यं । रोधगमुक्को चरणकाद्विच्युतः । समय इयता कालेन पुनदास्यामि इति प्रतिपन्नावधिकाले । रंभदि धरणके प्रियते । तधा चेव पूर्ववदेव । धरणिगो अधमर्णः ॥ कारागृहमें कैद किया हुआ कोई मनुष्य इतने दिनके अनंतर मैं तुलारा द्रव्य देऊंगा इस समय तुम अपना धन मेरको दो ऐसा कहकर उनसे धन लेकर यह कैदमें रखनेवालाको देकर उनसे अपनी मुक्तता कर लेता | है. घरमें जाकर वह सुखस रहता है. परंतु पुनः चे कर्जा देनेवाले धनिक आकर उसको पकहते है. वैसी । १२६२ Page #1281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मुलाराधना ही निदान करनेवालेकी परिस्थिति होती है. अर्थात निदानकारी मनुष्य किए इए पुण्यसे स्वर्गप्राप्ति कर लेनेपर भी पुनः अधोगतिमें चला जाता है. इसी अभिप्रायको स्पष्ट करते हैं अर्थ-कर्ज लेनेवाला पुरुष धन देकर कैदसे मुक्त होता है और घरमें आकर सुखसे रहने लगता है. परंतु जब पुनः साडुकारको धन चुकानेका काल प्राप्त होता है तब पुनः वह कर्जा लेनेवाला पुरुष कैदमें डाल जाता है. वैसे । दाधान्तिके योजयति तह सामण्णं किच्चा किलेसमुक्कं सुहं वसइ सग्गे ॥ संसारमेव गच्छद तत्तो य चुदो णिदाणकदो || १२८० ॥ संभूदो वि जिंदा देवसुक्ख च चक्कहरसुक्खं ॥ पन्तो तसो य चुदो उधबण्णो णिस्यवासस्मि || १२८१ ॥ इदानीं चरणं कृत्वा सुख भुक्त्यावतिष्ठते ।। त्रिदिवे समये प्राप्त तथा याति पुनर्भवम् ।। १३२५ ।। देवश्चकी सुरवं भुक्त्वा संभूतो हि निदानतः॥ निरंतरं महायुःखं प्राप्तश्च प्रतिवासितम् ॥ १३२५ ।। विजयोत्या-संभूदो वि पिणेण निदानेन संभूतः कश्चित् , देवमुक्त्रं देषसुख , चक्रधरसोक्वं चक्रधरसौख्यं , पत्तो प्राप्तः । तसो य चुदो तस्मात्सुखालाच्युतः , गिरयषासम्मि निरपघासे ।। मूलारा-णिदाणकदो एतत्तपोनुभावेन देवलोको मे भूयादिति निदानं कृतं येनासी ।। भोगनिदानदोषमर्थाच्याननाख्याति मुलारा--समूदो संभूतनामकः कुटुम्बिकपुत्रः । देवसोवं सौधर्मकल्पवासिसुरसुखं । चाधरसोक्खं ब्रह्मदसाख्यद्वादशचक्रवर्तिशर्म ॥ Page #1282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वा १२६२ अर्थ--निदानयुक्त तप करके कोई पुरुष स्वर्गमें सुख भोगता हुआ काल व्यतीत करता है. परंतु वहांका आयुष्य समाप्त होनेके अनंतर वह पुरुष स्वगर्म च्युत होकर संसारमें भ्रमण करता है. ( अर्थ-संभृत नामक कोई किसानका लडका निदान युक्त तप करके सौधर्म स्वर्गक सुखका उपभोग लेकर यहां भरत क्षेत्रमें प्रमदन नामक अन्तिम चारहा चक्रवर्ति हुआ. चक्रवर्तीके सौख्य भोगकर चक्रवर्ति पदसे भ्रष्ट होकर नरकगता में सातवे नरकमें उत्पन्न हुआ.) गच्चा जरंतमयमत्ताणमतिपय विस्यायं । भोगसुहे तो तम्हा विरदो मोक्खे मदिं कुज्जा ॥ १२८२ ॥ अतर्पकमाविश्राम भोगसौख्यं विनम्वरम् ।। दरतं सर्वथा त्यक्त्वा मुक्तिसौख्ये मतिं कुरु ।। १३२६ ।। विजयोदया–णा शान्वा, दुरवसानःसफलमिति यावत्, अनुवं अनियं, अत्ताणं अत्राण, अनिप्पंग अतर्पक, अविस्साय असकृदनृत्त, भोगसुत्र भोज्यंते व्यं ते इति मोगाः स्यादयः, नेर्जनितं सुग्न, नो पश्चात , तम्हा पश्चात् भोगसुखात . तादिदोषात घिरदो व्यावृतः, मोक्से मोटे निरवशेषकमीपाये। मंदि कुज्जा मनि कुर्यात्, अनुष्ठी यमानेन नारिषेण तपसा या कर्मक्षयोऽस्तीति मतिं कुर्यात् , न निदाने कुर्यादित्यर्थः॥ एवं भोगनिदाने दोषाप्रपंच्य भोगसुखदोषानुवादपुरःसरं तपसा कर्मक्षयोऽस्तीति भावनीवत्वेनोपदिशति--- मूलारा—णका ज्ञात्वा । दुरंत दुरवतानं । दुःखफलमिति यावम् । अत्ताणं अाअर्क, रक्षितुमशक्यमिनि वा। अतिप्पर्य अतृप्तिकरं । अविस्समें असकृतं । अनादिसमारेऽनेकवाराम्भुक्तत्वात । तो पश्चान् । मदि अनुष्ठीयमानेन तपः संयमादिना कर्मक्षयोऽस्तीति बुद्धिं न निदान || अर्थ--यह भोगसुख अन्तरहित ऐसे दुःखरूप फलको देता है, अनित्य हैं, इससे जीवका संरक्षण नहीं होता है अर्थात् कुगतिमें जानेवाले जीवको यह भोगसुख उससे संरक्षण नहीं करता है. इस भोगमुखसे जीव तृप्त नहीं होता है. यह सुख जीवको बार बार माप्त होता है. एवं दोपविशिष्ट इस भोगसुखका जब ज्ञान होता है तब यह आत्मा संपूर्ण कर्मका नाश करनेवाले मोक्षसुखमैं अपनी बुद्धिको लगाता है. अतः हे धपक आचरणमें लाये हुए रत्नत्रयसे और तपसे कर्मक्षय होता है ऐसा समझकर तुं निदानका त्याग कर, Page #1283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RALAsteam मूलासपना आश्वा निदानदाघ पिस्तरत उपवय अनिदानत्ये गुणं व्याच - अणिदाणो य मुणिवरो दंसणणाणचरणं विसोधेदि ।। सो सुन्नमाणघरग तल नजम्मक्खयं कुणइ ॥ १२८३ !! विशोध्य दर्शनशानचारित्रितयं यतिः ॥ निर्निदानो विशुद्धात्मा कर्मणां कुरुते क्षयम् ॥ १३२६ ।। विजयोन्या-अणिवाणो य मुगिवरो अनिदानो यतिवृषमा, दसणणाणचरणं रत्नत्रयं विसोधदि विशोघयति, निदानाभावादनतिचार सम्यग्दर्शनं शुद्ध भवति, सस्मिशिमलं शानं, विशुखकानपुरोग चारित्रं विशुदं भवति, तपसा कम्मकाय कुणदि तपसा कर्माणि निरवशेषाणि वियोजयत्यान्मनः || एवं निदानदोषान्विस्तरेण व्याख्याय संप्रत्यनिदानत्वे गुणं व्याचष्टेमूलारा--विसोधेदि निदानाभावाद्वि निरविचारे सति सम्यक्त्थे, जातायां ज्ञानविशुद्धौ, चारित्रं विशुद्ध संपञ्चेत।। निदानक दोषोंका सविस्तर विवेचन हुआ. निदान नहीं करने में क्या गुण है इनका विवेचन अर्थ-जिन्होंने निदान नहीं किया है ऐसे मुनिराज अपना रत्नत्रय निरतिचार करते हैं. निदानके अभाव से सम्यग्दर्शन निर्मल होता है. निर्मल सम्यग्दर्शन ज्ञानको निर्मल बनाता है. विशुद्ध ज्ञानके साथ पाला गया चारित्र भी निर्मल होजाता है. इस तरहसे निर्मल रत्नत्रयधारक साधु तपश्चरणके द्वारा संपूर्ण कमाको अपने आरमासे अलग करता है. इच्चेबमेदमविचितयदो होज्ज हु णिदाणकरणमदी । एन्वेष परसतो त हु होदि णिदाणकरणमदी ।। १२८४ ॥ पोषानिति सुधीथुद्ध्वा निदानं विवधाति मो जानानो दारुणं मृत्यु को हिमक्षयते विषम् ॥ १३२७ ।। लुपति पातकलोपि चरित्रं सिद्धिसुखं विधुनोति पवित्रम् ॥ देहवतांमुरुदोषनिधानं किं कुशलो न शृणाति निदानम् ।। ११२८॥ Page #1284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास S विजयोदया--दोषमेदमधिचिंतयदो इत्येवमेतद्वस्तुजातं अधिचिंतयतः। होज्ज हु मधेदेष,णिदाणकरणसदी निदानकरणे मतिधुद्धिः, इधे परसंतो इत्येवमेतत्पश्यम् , न खु नैष , होदि भवति णिवाणकरणमदी निदानकरणमतिः ॥ णिदाण ॥ एवंविधभावनातनपाना सानयोः फले ब्रवीतिमूलारा-इकचेवमेवं इति प्राक्प्रबंधेनोक्तं । वस्तु । एवमेव इत्यमित्थं । अविचितयनो अध्ययतोऽध्ययिस्था। अर्थ- उपर्युक्त पाताका जो पुरुष विचार नहीं करता है उसकी घुद्धि निदान करने के तर्फ लगती है. परंतु जो इन बातोंका विचार करता है वह निदान नहीं करता है. निदान करनेसे रत्नत्रयमें निर्मलता आती है और तपके द्वारा कर्मका क्षय होनेसे मोक्षकी प्रालि होती है एसा विचार करनेवाला मुनि निदानका त्याग करता है. परंतु भोगी, जिसकी बुद्धि लुब्ध हो गई है वह मनि रत्नत्रयकी निर्मलताके तर्फ ध्यान नहीं देता है अतः वह निःशल्य नहीं होनेसे संसारमें भ्रमण करता है. TOSTEACHERSITESTARTAMATA मायासल्लस्सालोयणाधियारम्मि वष्णिदा दोसा ।। मिच्छत्तसल्लदोसा य पञ्चमववणिया सवे ॥ १२८५॥ आलोचनाधिकारस्य मायाशल्यस्य दृषणं ॥ उक्तं मिथ्यात्वशल्यस्य मिथ्यात्षवमनस्तये ॥१३२९ ।। विजयोदया-मायाससस्स मायाशल्यस्य , आलोयणाधिकारम्मि आलोचनाधिकारे पण्यिादा दोसा वर्णिता दोषाः, मिपछत्तसलवासा मिश्यावशल्यदोषाश्च । सव्ये सवे. पञ्चमवषयिदा पर्वमेव व्यावर्णिताः, भरल्यत्रबगतदाषा भवतो व्यावर्णिता इत्यनेन मूरिरेतकथयति आयुद्धदोषण शल्यत्रय रघया त्याज्यामिति ॥ मायानिध्यारघशल्यदोपा प्रयुक्ताक्षपक्रमनुस्मारयति-- मूलारा-पुवं मिथ्यात्वयमनवनाधिकारे । अर्थ-आलोचनाके अधिकारमें मायाशल्यंक दोषांका वर्णन ग्रंथकारने किया है. मिथ्यात्वशल्यके दोपोंका भी पूर्व में वर्णन हो चुका है. हे क्षपक तुझको इन तीनों शल्योंके दोषोंका परिज्ञान हुआ है अतः तू इन तीनों शल्योंका त्याग कर. १२६ Page #1285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आश्वास १२६७ मायाशभ्यएरिस्यामाप्राप्तदोषमाख्यानेन दर्शयति पभबोधिलामा मायासल्लेण आसि पूदिमुही । दाप्ती सागरदत्तस्स पुप्फदता हु बिरदा वि ॥ १२८६ ॥ मायाशल्यन ही बोधेः प्रभ्रष्टा कुथितानना ।। दासी सागरदत्तस्य पुष्पदंतार्जिकामधे ।। १३३० ।। विजयोदया-भट्ठनोधिलामा बिनधो दीक्षाभिमुखबुद्धिलामो यस्याः सा प्रायोधिलाभा । आसी आसीत् । का? पूदिमुडी पृतिमुखीसविता । सागरन्सस्स दासी सागरदत्तवैश्यस्य दासी । केन? मायासलेण माया शल्येन । पुष्पदंता हु विरदा चि माय मसले पभपोधिलाभा आसी इति पदसंबंधःपुग्पदेताण्या संयता च मायया प्रभएवोधिलामा आसीत् । मायाशल्यं । मायाशल्यफलमथान्यानेन कथयात मूलारा–बोधि दीक्षाभिमुन्धुद्भिः । आसि संजाना। पूदिमुही पूतिमुखीत्यन्वर्थनाम्नी । विरदा बि आर्यिकापि सती ।। मायाशल्यका त्याग न करनेसे जिसका नुकसान हुआ था ऐसी व्यक्तिका दृष्टांत आचार्य कहते हैं अर्घ-पुष्पदंता नामकी आर्यिका मायाशल्यसे दीक्षाके विचारसे रहित दुई अर्थाद मैंने दीक्षा आत्मकल्याणके लिये धारण की है ऐसी भावना मायाशल्पसे उसकी नष्ट हुई और वह मरकर सामरदत्तके यहां पूतिमुखी नामको दासी हुई. इस तरह मापाशल्यका वर्णन हुआ. मिच्छत्तसङदोसा पियधम्मो साधुवच्छलो संतो ॥ बहुदुग्वे संसारे सुचिरं पडिहिंडिओ मरिची ॥ १२८७ ।। विद्धो मिथ्यात्यशल्येन धार्मको वत्सलाशयः॥ मरीचिरप्रमझीमे चिरं संसारकानने ॥ १५३१ ।। १२६ Page #1286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना १२६८ निदानमायाविपरीतपर्शनैर्विदायतेंडगी निशितैः शरैरिव ।। विबुध्य दोषानिति शुद्धबुद्धयस्त्रिधापि शल्यं दषयन्ति यत्नतः 1१३३२॥ इति शल्यम् ॥ विजयोदया-मिच्छत्तसालदोसा मिथ्यात्वशल्यदोषात् ! पियधम्मो साधुवरछलो संतो प्रियधर्मः साधूनां वत्सलोऽपि सन् मरीचिः। बहुतुक्ने संसार सुचिर परिहिडिओ संसारे सुचिर प्रांता, कीडशे ? बहुदुःखे । मिथ्याशल्यं ॥ मिथ्यात्वशल्यापकारगर्घाख्यानेन आर-- मूलारा-मरिची मरीचि कुमारः । पंचमहाव्रतरा ॥ अर्थ-जिसका धर्मपर प्रेम था और जिसमें साधुओंके प्रतिवात्सल्य था ऐसे मरीचिनामक मुनिने मिथ्यात्व शल्य दोषसे चिरकालतक अनेक पुःखोंसे व्याप्त संसारमें भ्रमण किया. इस प्रकार मिथ्यात्वशल्यका वर्णन हुआ. एवं मिर्यापकेण सूरिणा संस्तूयमानः साधुघर्गो निर्माणपुरं प्रविशतीति दर्शयति उत्तरप्रबंधेन इय पव्वज्जामंडिं समिदियहल्लं तिगुत्तिदिढचक्कं ॥ रादियभोयणउई सम्मत्तखं सणाणधुरं ॥ १२८८ ॥ प्रवज्यागनिका गुप्तिचक्रो ज्ञानमहाधुरं ॥ समित्यक्षाणमाका क्षपको दर्शनादिकम् ॥ १३३३ ।। विजयोदया-नय सारधिज्जतो साधुषम्गसत्यो साधुषणियगो संसारमहाविं तरदिति पदघटना व्यावर्णितामेण संस्क्रियमाणः साधुबंदसार्थः संसारमहारवीं तरति । पब्धज्जाभडिमारुद्दिय पच्छितो प्रवज्याभडिमारुह्य प्र. स्थिता, समिदिवा समिति बलीवहीं, तिगुतिदिदचक्का त्रिगुतिरक्चाका, सम्मसक्खं सम्यक्चाक्षा, सणाणधुरं समी चीनशानबूंचती ॥ सांप्रत सामान्यविशेषाभ्यामिद्रियकपायनिय व्याचिरव्यासुः पूर्व सामान्येन तदोषान्वक्तुं गाथात्रिधष्टया प्रक्रमते । तद्विषयविशेषसिध्यर्थं च तावत्प्रचंधेन व्याख्यातमय सुखस्मृत्यर्थमुपसंगृह्य गाथाद्वयनोपमाल कारसुभगमभिधत्त मूलारा---पवनामंडि प्रत्रज्या दीक्षा सा भडिरिव गडिका यथेति यावत् । बहुवायभारक्षमत्वान् । रादिअभोयाणउड्डि राज्यभोजन द्रव्यतो भावतश्च रात्रिभोजननिवृत्तिद्वयं दीर्घदंडिकाद्वयं यस्याः सा राज्यभोजनाद्वि सांतविषेरनित्यत्वामात्र कप ॥ Page #1287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ( निर्यापक आचार्य के द्वारा स्तुति किए हुए साधु मोक्षनगरीमें प्रवेश करते हैं इस विषयका विवेचन आगे आचार्य करते हैं अर्थ-जो उपदेशका क्रम यहांतक आचार्य महाराजने बताया है उससे जब साधुममूहरूपी सार्थ स्कृत किया जाना है नव बह मंसाररूपी महान जंगलके दूसरे किनारेपर सुखसे जा सकता है अन्यथा नहीं. जिसको समितीरूपी बैल जोडे हैं, मनांगुप्ति. वचनगुप्ति और कायगुप्तिरूपी पहिये जिसके हैं सम्यक्त्वरूपी आंख और सम्यग्ज्ञान जिसकी धुरा है, और द्रव्यरात्रिभोजन साक्षात रातमें आहार लेना और मावरात्रिभोजन-रात्रों भाजनकी मनमें अभिलाषा करना इन दोनोका त्याग ही जिसके दीये दंड है ऐसी दीक्षारूपी गाडीपर सवार होकर साधरूपी व्यापारिओंका समुदाय संसाररूपी महाजंगलके दूसरे किनारको सुखसे जाता है, ) वदर्भडभरिदमारुहिदसाधुसत्येण पत्थिदो समयं ।। पिव्वाणभंडहेदु सिद्धपुरी साधुवाणियओ ॥ १२८९ ॥ प्रस्थितः साधुसार्थेन प्रतभाडभृता सह ।। सिद्धिसौख्यमहाभांडं ग्रहीतुं सिद्धिपत्तनम् ॥ १३३४ ।। विजयोदया-बदमंडभरिदे बतमांडपूर्ण । साधुसत्येण पत्थिदो साधुसार्थेन सह प्रस्थितः । किप्रति ? सिरिपुरं । निस्वाणभंडj निषीणद्रच्यनिमित्तं साधुषाणियगो क्षपकसाधुवणिक् ॥ मूलारा-भंड क्रयणकं । समयं सह । णिश्वाण सिद्धिसुखं 1 साधुवाणियो क्षपकयतिबणिक् ॥ अर्थ-साधुरूप व्यापारिओंके साथ इस अपकरूप व्यापारीने दीक्षारूपी-व्रतरूप माल भर दिया है और वह इसको बेचकर मोक्षरूपी भालकी खरीदी करने के लिये सिद्धिपुरको रवाना हो रहा है. 1 आयरियसत्यवाहेण णिज्जउत्तेण सारविज्जतो ॥ सो साहुवग्गसत्थो संसारमहाडबिं तरइ ॥ १२९० ।। Page #1288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना सार्थः संस्क्रियमाणोऽसौ भीमा जन्ममहाटबीम् ॥ आचार्यसार्थवाहेन महोद्योगेन लंधते ॥१३३५ ।। बिजयोदया-आयरियसत्थवाहेण आचार्यसार्थवाहेन । णिच्यते॥ सर्वदानपयिना सारपिज्जतो सस्कियमाणः। तयाभूतक्षपकस्य यति विशिष्टस्य यति वृदस्य संसारलंघनोपायमाह -- मूलारा--णिश्वजुत्तेण सततसमाहितेन । सारविजतो संस्कियमाणः । पुनः पुनरसायहेतुज्यावर्तनोपाये नियुज्यमान इत्यर्थः । सो तत्ताहगाराधकसाधुविशिष्टः । सस्थो वाणिज्योगतः । वणिकसंघातः तरदि अतिक्रामति ।। अर्थ-आचार्यरूपी व्यापारिओंके नायकके द्वारा जो कि सर्वदा सावधान रहता है संस्कारयुक्त हवा यह साधुरूप व्यापारिओंका समुदाय संसाररूपी जंगलको तीरकर मोक्षपुरको मुखसे जाता है. तो माणाधित रवाहित साधुसत्थमाउ ॥ इदियचोरोहितो कसायबहुसावदेहितो ॥ १२९१ ॥ तं भावनामहाभांडं त्रायते भवकानने । कषायव्यालतः सूरिरिद्रियस्तेनतस्तथा ॥ १३३६ ।। विजयोक्याम्तो ततः। भाषणावियंत रक्चवि भावनादिभिः प्रयरनं रक्षति | साधुसत्यं ते साधुसार्थ तं। माउस आयुक्तं आस्मना । कुतो रक्षति इत्याशकायां उसरं-दियचोरोहितो द्रियचौरभ्यः, कसायबङसाषवाहितो कपाय बहुश्वापदेभ्यश्च ॥ मोक्षपथप्रस्थायिनो यतिवृदस्याचार्यकार्य मिद्रियकषायसंपाधापायपरित्राणमाह मूलारा-तो सः सार्थवाहायमानो धर्माचार्यः । भावणादिजुत्त भावना रात्रिभोजननिवृत्यष्टप्रवचनमाकाभिर्युक्तं महाव्रतेषु प्रयत्नपरं । जुत्तमिति कचित्पाठः । आजुत्तो सर्वत्रोद्यतः । आजुसमिति कचित्पाठः । पोरेहिं तो पोरेभ्यः । स्वाध्यायध्यानप्रवर्तनेन प्रमादाद्वयावर्तयत्रिंद्रियमत्यनुयायिरागद्वेषक्रियमाणसंयमबाधारहितं यतिवर्ग सूरिः करोतीति भाषः ॥ Page #1289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ–रात्रिभोजनत्याग, पंच महावत, गुप्ति समिती इनमें प्रयत्न करना एतत्स्वरूप भावनाओंसे आचार्य साधुरूप सार्थको इंद्रियचोरोंसे और कषायरूप हिंस्र प्राणिओंसे रक्षण करते हैं. विसयाडवीए मऽझे ओहीणो जो पमाददोसेण ॥ इंदियचोरा तो से चरित्तभंडं बिलुपंति ॥ १२९२ ॥ प्रमावधशतो यातो भ्रष्टो विषयकानने ॥ तदीयं बनसर्वस्य लुप्यतेऽक्षमलिम्लुचैः ॥ १३३७ ॥ विसयोदया-विसयाडपीए सझे स्पर्शरसरूपगंधशम्दादिविषया अटवीच ते दुरतिक्रामणीयाः । तस्या विषयाटाया ये जोडीयो पसा , रमाको नामवावास्येन दोषेण । दियचोरा इंद्रियाख्याश्चोराः । सेतस्य साधुवणिजः । चरिसभर चरित्रमांड । विलुपंति अपहरति । समितिमनोसामनोविषयजा इंद्रियमत्यनुयायिनो रागद्वे. पाश्चारित्रं विनाशयंति प्रमादिनः । आचार्यस्तु ध्याने स्वाध्याये प्रवर्तयन् भमाइमपसारयतीति नेद्रियचौरर्वध्यते इति भावः। विकथायन्यतमप्रमादेन यतिधर्मादपमृतस्य मुमुक्षोरिद्रियकवायसाध्यं संयमधनस्य रत्नत्रयमात्रम्य वा क्षति गाथाद्वयेन लक्षयति .. ____ मूलारा-जो साधुवणिक । ओडीगो अपमृतः । सार्थाद्वहिप्पतित इत्यर्थः । तो सापसरणादननरभेव विलुपंति रागद्वेषहस्तैः।। अर्थ-प्रमादक वश होकर जो साधु स्पर्श, रूप, गंध, रस और शब्द इत्यादि इंद्रियविषयरूपी अटवी में प्रविष्ट हुआ है उसका चारित्ररूपी भांडवल इंद्रियरूपी चोर हर लेते हैं, जब साधु प्रमादी होते हैं तब समीपके इष्ट और अनिष्ट पदार्थ देखकर उनके मनमें रागद्वेष उत्पन्न होते हैं, जिससे उनका चारित्र नष्ट होता है. आचार्य प्रमादके वशीभूत मुनिओंको ध्यान और स्वाध्याय प्रवृत्त करके उनका प्रमाद दूर करते हैं तब वे शंद्रियचोर उनको बाधा नहीं देते हैं ऐसा इस माथाका भाव है. अहवा तल्लिच्छाई कूराई कसायसावदाई त । खज्जति असंजमदाढाई किलेसादिदंसेहिं । १२९३ ।। HEAtara Page #1290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १२७२ तमसंयमदंष्ट्राभिः संक्लेशदशनैः शितैः ॥ कषायश्वापदाः क्षिप्रं दूरक्षा भक्षयन्ति च ।। १३३८ ।। विजयोदया -- अडवा अथवा तलिच्छाई अपसृतजनलिप्सावंतः । कूरा क्रूराः कायादा कषाययाला मृगाः । तं अपसृतं । सज्जेति भक्षयेयुः । अजमदाढाहि संयमनंष्ट्रासिः किलसादिवसहि क्लेशाविदंशैश्ा । इंद्रियाणां पायाणां वा वंशे निपतत्यसति निर्यापके सूराविति भावः ॥ मूलारा- अच्छाई अपतिः । सर्वे युतजनप्रसनपरा इत्यर्थः । कूरा निर्दयाः । कसायसाबदाईक्रोधादिव्यामृगाः । खन्जे भक्षयेयुः । संकिलसादिसेहि संकुशा रागद्वेषमोद्दाः | आदिशब्देन परिषदादिकेशाः त एव दशा दशना वृत्तास्तैश्च । अर्थ--अथवा विषयारण्य में प्रवेश किये हुए अर्थात् मुनिसार्थसे भ्रष्ट हुए मुनिको चाहनेवाले, पकड़ने की इच्छा करनेवाले क्रूर कषायरूपी हिंस्र प्राणी असंयमरूपी दादाओं से परीषह, रागद्वेष मोह वगैरेह दांतोसे मक्षण करते हैं. जब प्रमाद वश हुए मुनिओंको सुधारनेवाले आचार्यका अभाव रहता है तब मुनिओं की क्या परिस्थिति होती है इसका इस गाथामें उल्लेख किया है. तयोरिंद्रियकपाययोः प्रवृतिरनेकशेषमूलेति कथयतिओसण्णसेवणाओ पडिसेबंतो असंजदो होइ ॥ सिद्धिपपच्छिदाओ ओहीणो साधुत्थादो || १३९४ ॥ इंदिय सायगुरुगणेण सुहसीलभाविदो समणो ॥ करणासो भविता सेवदि ओसण्णसेवाओ ॥ १२९५ ॥ यः साधुः सार्थतो भ्रष्टः सिद्धिमार्गानुयायिनः ॥ सोऽवसनक्रियाः साधुः सेवमानोऽस्त्यसंयतः ॥ १३३९ ॥ कषायाक्षगुरुत्वेन तपस्वी सुखभावनः ॥ अवसनक्रियो भूत्वा सेवते करणालसः ॥ १३४० || [ इति अवसन्नः ] आश्वासः ६ १२७२ Page #1291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १२७३ विजयोदया-हंद्रियकसाय गुरुपत्तणण तीद्रियकषाय परिणामतया । मुहसीलभाविदो समणो सुसमाधिभाषितः श्रमणः। करणालसो प्रयोदशनिक सुनिया अजसः सनिता साना । सवनि सेवते । ओसण्णसेवाओ अब सनसेयाः । भ्रष्टचारित्राणां क्रियासु प्रवससे इति यावत् ॥ ओसगणो ॥ इंद्रियकषायपरतंत्रतया साधुसंघाटकबहिश्वरमवसन्नादिरूपेण संयमभ्रंश च्याविख्यासुरादाववसन्न गाथायेनाह मुलाय--ओसण्णसेवणाओ भ्रष्टचारित्राणां क्रियाः । पडिसेतो मार्गप्रातिलोम्येन भजन ॥ भ्रष्टक्रियाचरणकारणं भणसि मूलारा-गरुगतगेण तीव्रपरिणामेन । सुहसीलभाविवो शमैकाप्रतावासितः । करणालसो आवश्यककायइंशस्त्राध्यायध्यानेषु, त्रयोदशसु क्रियासु या शिथिलः । अवसन्नः ॥ इंद्रियकार्यों में प्रकृति करनेसे अनेक दोष उत्पन्न होते हैं ऐसा कहते हैं. अर्थ-भ्रटचारित्र मुनिओंकी क्रिया रत्नत्रयमार्गके विरुद्ध होकर जब मुनि करते हैं तब वे मोक्षमार्गसे भ्रष्ट होते हैं। और साधुवर्गसे अलग रहते हैं. अर्थान संघका त्यागकर स्वच्छंद होते हैं. तीन कपाययुक्त होकर मुनि इंद्रियोंके विषयों में आसक्त होते है. इस आसक्तिसे वे मुखशील होकर समिति, गुप्ति और महावत ऐसे तेरह प्रकारके चारित्रमें आला होजाते हैं और भ्रष्ट मुनिओक आचरणमें प्रवृत्ति करते हैं. काम केई गहिदा इंदियचोरेहिं कसायसाबदेहि वा ॥ पंथं छंडिय णिज्जंति साधुसत्थरस पासम्मि ॥ १९९६ ॥ हृषीकतस्करीमैः कषायश्वापदैरपि ।। विमोच्य नीयते मार्गे साधुः सार्थस्य पार्श्वतः ।। १३४१ ।। विजयोषया-कई गरिदा वियचोरोति केचिद्गीता इंद्रियचौरः । कसायसाघदेहिं तहा तथा कपायश्वापदेच गृहीताः । साधुसत्यस्स पंथं इंडिय साधुसार्थस्य पंचानं त्यक्त्वा । पासम्मि णिज्जति पाय यांति ।। पाश्वस्थ गाथापंचकेनाहमुळारा-छविय त्याजयित्वा । पासाओ पावे रत्नत्रयाभास इत्यर्थः । Page #1292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आम १२७१ अर्थ-कितनेक मुनि इंद्रियरूपी पोर और कपायरूप हिंस्र प्राणिओंसे जब पकडे जाते हैं तब साधुरूप ज्यापारिओंका त्याग कर पार्श्वस्थ मुनिके पास जाते है. तो साधुसत्यपंथं मंडिय धासम्मि णिज्जमाणा ते || गारवगहणकुडिल्ले पडिदा पाति दुक्खाणि || १९९७ ।। साधुः सार्थं परित्यज्य नीयमानो महाभयम् ।। सहते दारुणं दुःख प्राप्तो गौरवकाननम् ।। १३४२ ॥ विजयोदया-तो साधुसस्थपंथं साधसार्थस्थ पंथानांडिय त्यक्त्वा । पासम्मि पार्थे । गिज्जमाणाते नीयमानास्ते | गारय चिरऋद्धिरसासातगौर वसंछन्ने गहने । पडिदा पतिताः । पायेति प्राप्नुपन्ति | दुक्खाणि दुःखानि ।। Ji.- भारपिडिल्ले रिद्धिरससातगौरवनिबिलकंटकवान ।। अर्थ- मुनि साधुसार्थका मार्ग छोडकर पार्श्वस्य मुनिके पास जब जाते हैं तब ऋद्धिगर्व, रसगर्व और सातगर्व इनसे व्याप्त जंगलमें पडकर दुःख भोगते हैं. सल्लविसकंटएहिं विद्या पडिदा पडंति दुक्खेसु ।। विसकंटयविद्धा या पडिदा अडबीए एगागी ॥ १२९८ ॥ शल्यःकंटकैर्षिताः पतिता दुःखमासते ॥ एकाकिनोऽटची याता विद्धा वा विषकंटकैः ॥ १३४३ ।। विजयोदया-सल्लविसकटएहिं विद्या मिथ्यात्यभायानिदानशल्यकंटकैर्चा विद्धाः । पडिदा पतिताः । युक्वेसु पति दुःख पतति । विसकंटय विद्धा या अडची पगामी पड़िया व विषकंटकेन विद्धा अटभ्यामेकाकिनः पतिता यथा दुःषु पतंति तथैवेति दान्तिकयोजना ॥ मूलारा--बिद्धा दूषिताः । पडिदा चारित्राद्धष्टाः । एमागी असहायाः ।। अर्थ-जैसे विषरूप कंटकसे विद्ध हुए पुरुष जंगलमें अकेलेहि पड़कर दुःख भोगते हैं वैसे मिथ्यात्व, Page #1293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ARBTATratarea माया और निदानरूप विपकेटकोंसे विद्ध होकर विषयरूप जंगलमें अकेले पडकर अतिशय दुःख भोगते हैं. आवार १२७५ पंथे छंडिय सो जादि साधुसत्थस्त चेव पासाओ ॥ जो पडिसेवदि पासस्थसेवणाओ हु णिहम्मो ।। १९९९ ।। साधुः सार्धपधं त्यक्त्वा स पावे याति संयतः॥ पार्श्वस्थानां क्रियां याति यश्चारित्रषिवर्जितः ।। १३४४ ॥ विजयोदया--साधुसाथमा पेथानं त्यक्त्या कस्स पायें याति यस्यामी दोषा व्यावर्णिताः । गौरवगहन पातः सल्यविषकंटकषेधादयश्चेत्याशफायामाह-पंथं इंडिय साधुसन्थस्स शादि परित्यज्य साधुसार्थस्य पंथानमसी याति । पासम्मि पार्वे 1 जो पडिसेवदि यः प्रतिसंवते, पासस्थसेवणाओ दु पार्श्वस्थसवनाः, गिद्धम्मो धर्मश्चारित्रं तस्मावपगतः, धर्मादपगतः सम्पार्श्वस्यादिचाणीयासु क्रियासु प्रक्तते ॥ मूलारा--"छवि हत्या । जिम्मा चारित्रानिर्गतः ।। अर्थ-साधुसार्थका माग छोडकर जिस मुनिका आश्रय लेते हैं वह मुनि चारित्रका त्यागी होता है. और पार्श्वस्थ मनिओंकी क्रियाओंका आचरण करता है. संघ कथं निर्धनता तस्पत्याशक्य वदंति - इंदियकसायगुरुयत्तणेण चरणं तणं व परसतो ।। णिहम्मो हु सवित्ता सेवदि पासत्थसेवाओ ॥ १३०० ॥ कषायाक्षगुरुत्वेन पश्यन्वृत्तं तृणं यथा ।। भूत्वा मिर्द्धर्मको याति पार्श्वस्थानां सदा क्रियाः ।। १३४५ ॥(पार्थस्थः) पिजयोवधा दियकसायगुरुमनणेण इंद्रियकषायविषयगौरैयाच्च रागद्वेषपरिणामयोः क्रोधादिपरिणामानां च तीवस्वात् । चरणं चारित्रं, तणं यतणमिय, परसंतो पश्यन् रागादयोऽप्यशुभपरिणामास्तत्वहानस्य मतिर्षधकास्तेन सकनुषं हानचारित्रं निस्सारमिव पश्यति, तत यख तत्राकृतावरः चारित्रादपैतीति निर्मतास्य । ततः पाश्वस्थसेवासु प्रयतते। पासरथो। Page #1294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना १२७६ निर्धर्मताहेतुमाहमूलारा-पस्संतो रागद्वेषाद्यशुभपरिणामप्रतिबद्धतत्त्वज्ञानतया चारित्रानावरं कुर्वन्त्रित्यर्थः । पार्थस्थः ।। पार्श्वस्थ मुनि धर्मरहित क्यों रहता है ? इस प्रश्नका उत्सर-- अर्थ-पाश्वस्थ मुनि इंद्रिय, कषाय और पचेंद्रियांक विषयोंसे पराभूत होकर चारित्रको तृणके समान समझता है. उसके रागद्वेष और क्रोधादि परिणाम तीव्र होजाते हैं. रागद्वेषादिक अशुभ परिणाम पाश्वस्थ निके तत्वज्ञानका नाश कर डालते हैं. इसलिए यह पुनि अपने मलिन ज्ञानसे चारित्रको तुच्छ समझता है. और ऐसी समझ होनेरे नहीला भ्रष्ट हो जाला है. मेरे काश्विभ्रष्ट मुनिको पाश्वस्थ कहते हैं. जो मनि सन्मागमें प्रवननेवाले मुनिका त्याग करते हैं व पार्श्वस्थ मुनिका आश्रय लकर बस बनते हैं. - इंदियचोरपरहा कसायलावदभएण बा केई ॥ उम्मग्गेण पलायति साधुसत्थस्स दूरेण ॥ १३०१ ॥ अक्षचौरहताः केचित्कघायच्यालभीतितः ॥ उन्मार्गेण पलायंत साधुसार्थस्य दूरतः ॥ १३४६ ॥ विजयोदया-दियचोरपरद्धा दियचोरकृतोपद्वाः । फसायसाबमभपण वा कई कवायव्यालमृग भयेन या केचित् उम्मगेपण उन्मार्ग पलायति पलायन कुचंति | साधु सस्थस्स चूरोण साधुसार्थस्य दुरात् ॥ कुशीलं गाथासप्लकेन दर्शयतिमूलारा-परद्धा कृतोपद्रषाः । दूरेण दूरात् । निर्लज्मो वुराचारावष्टभात् ।। अर्थ-कितनेक मुनि इंद्रियचोरोंसे पीड़ित होते हैं और कपाथरूप श्वापदासे ग्रहण किए जाते हैं तब साधुसार्थका त्याग कर उन्मार्गसे पलायन करते हैं। १२७६ तो ते कुसीलपडिसेवणावणे उप्पधेण धावंता ॥ सण्णाणदीसु पडिदा किलेसम्रक्षेण बुढेति ॥ १३०२ ॥ Page #1295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वान ततोऽपथेन धावन्तः कुशीलानां क्रियावने ॥ पुकाराधना केशस्रोतोभिरुद्यो याताः संज्ञामहानदीः॥ १३४७ ।। विजयोदया-तो ततः साधुसादगदपस्ताः , कुसीलपडिसेयणायणे कुशीलप्रतिसबनावने , उप्पण धावता उन्मार्गण पलायन्तः । सपणापदीसु संज्ञानदीपु । पखिदा पतिताः । फिलससोनेण क्लेशस्रोतसा | बुदस्ति ते बुडंति ॥ मूलारा-ते साधुसार्थाइरापमृताः 11 मण्णा आहारभयमैथुनपरियवांछां । युज्झन्ति उद्यते 11 अर्थ-साधसास दर पलायन जिन्होंने किया है ऐसे वे मुनि कुशील प्रतिसेवना-कुशील नामक भ्रष्ट II मुनिक सदोष आचरणरूष बनमें उन्मार्गस भागते हुए आहार. भय, मधुन और परिग्रहकी वांछारूप नदीमें पड़कर दुःखरूप प्रवाहमें डूबते हैं. सण्णाणदीसु ऊढ़ा बुड्डा थाहं कपि अलहंता ॥ तो ते संसारोदधिमदंति बदक्खभीसम्मि || १३० ।। संज्ञानदीषु से मना क्वचिदप्यनवस्थिताः ।। पश्चाजन्मोदधिं यांति दुःखभीमसषाकुलम् ।। १३४८ ।। विजयोदया सगणाणदीसु ऊढा संज्ञानदीभिराकष्टाः संतो निर्भग्नाः । तो पश्चाम् । संसारोदधिमति संसार सागरं प्रविशति । बहुदुक्खभीसम्मि यछुदुःखभीमं ॥ मूलारा--ऊदा आकृष्टाः । बुद्धा मनाः । थाह अवस्थानं । कहिं पि कचिदपि सम्यक्स्त्रादीनामन्यतमेऽपि । तो पश्चात् । अदंति प्रविशन्ति। शसं झषा मत्स्थाः ॥ अर्थ-चार संज्ञारूपी नदीमें जब मुनि यते हैं तब वे कहांभी स्थिरताको प्राप्त होते नहीं अर्थात् संज्ञारूपी नदीमें बहते रहते थे मुनि अतिशय दुःखोंसे भयंकर संसारसमुद्र में प्रवेश करते हैं. आसागिरिदुग्गाणि य अदिगम्म तिदंडकखडसिलासु ॥ ऊलोडिदपम्भहा खुप्पंति अणंतियं कालं ॥ १३.४ ।। Page #1296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्व १२७८ दुराशागिरिदुर्गाणि गत्वा दंडशिलोत्करे ।। भ्रष्टा सन्सश्चिरं कालं गमयति महाव्यथाः ॥ १३४५ ॥ विजयोदया-आलागिरि दुन्गाणिय आशागिरिदुगाश्च | अदिगम्म अतिक्रम्य : तिडककडसिलासु त्रिदंडककेशशिलासु । उन्लंटिय पम्भट्टा अवलुटिताः संतः प्रभ्राः खुपपनि गमयति । अर्णनियं कालं अनंत कालं॥ मूलारा-अदिगम्म अतिकम्य । प्रविशत्यन्यः। कक्खड निष्ठुराः। ऊलोडिदपभठ्ठा पूर्वमेव लुठिताः परिवृत्ताः। पश्चत्प्रनष्टाः पतिताः । लठित्वा पतिता इत्यन्ये । उत्तरगुणेभ्यः प्रच्युत्य मूलगुणेभ्यः सम्यक्त्वाश प्रन्युना इत्यर्थः । खसिय गमयति च अन्ये खुष्पति इति पठित्वा गमयंतीत्यर्थमातुः । उक्तंच दुराशागिरिदुर्गाणि गत्वा दंडशीलोत्करे ॥ भ्रष्टाः सन्तश्विरं कालं गमयंति महाव्ययाः ।। अर्थ-आशारूपी पर्वतके दुर्गम स्थानको उल्लंघकर तीन दडरूप निष्ठुर शिलापर गिरते हैं. अर्थात मन वचन और शरीरकी असत्प्रवृत्तिमें तत्पर होते हैं. इस प्रकार चारित्रसे भाट होकर अनंतकाल व्यतीत करते हैं. बहुपावकम्मकरणाडवीसु महदीसु बिप्पणट्ठा वा ॥ अहिट्ठणिव्वुदिपधा भमंति सुचिरपि तत्थेव ॥ १३०५। पापकर्ममहाटव्यां विप्रनष्टाः कदाचन ॥ सुबमार्गमपश्यन्तस्तत्रैबायान्ति ते पुनः ।। १३५० ।। विजयोन्या-बहुपावकम्मकरणाड्यीसु बहुविधायशुभकर्माण्यवारव्यः । तासु मद्ददीसु दीर्थासु । विप्पणा विप्रनपाः । अदिणिबुदिपधा अरनिवृत्तिमार्गाः । भगति भ्रमैति । सुचिरपि सुधिरमपि । तस्येव तच ।। मूलारा-करणं निर्वर्तनं । विपणवा विभ्रान्ताः । भ्रमन्ति आवर्तन्ते ।। अर्थ-जानप्रकारके पापरूप अरण्यमें जो दिङ्मूढ हुए हैं और जिनको मुक्तिमार्गका दर्शन नहीं दुआ है ऐसे वे भ्रट मुनि उसी पापरूप अरण्य में चिरकाल भ्रमण करते है. - - - -- Page #1297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १२७२ दूरेण साधुसत्थं छंडिय सो उप्पधेण खुपलादि ॥ सेवदि कुसीलपडि सेवणाओ जो सुत्तदिठ्ठाओ || १३०६ ॥ साधुसार्थ स दूरेण व्यक्त्वोन्मार्गेण नश्यति ॥ किया यांति कुशलानां या सूत्र प्रतिदर्शिताः ।। १२५१ ।। बिजयोवा-रेण साधुत्थं दूरात्साधुषार्थे । डिय त्यक्त्वा । सो सपदि उन्मार्गेण पलायते । सेवदि कुसीलाओ सेवते कुशलप्रतिभवनाः । जीवः सुताओ सूपनिर्दिशः ॥ कुशीलकियासेवनापकारमाह्— युलारा-- स्पष्टम् || अर्थ---भ्रष्ट मुनि दुरसे ही साधुसार्थका त्यागकर उन्मार्गसे पलायन करता है. तथा आगममें कहे हुए कुशीलनामक भ्रष्ट मुनीके दोषोंका आचरण करता है इंदिय कसाय गुरुगतणेण चरणं तणं व परसंतो ॥ घिसो भवित्ता सेवदि हु कुसीलसेवाओ | १३०७ ॥ कषायाक्षगुरुत्वेन वृत्तं पश्यंस्तृणं यथा ॥ सेवते हवको भूत्वा कुशीलविषयाः क्रियाः ।। १३५२ ॥ (इति कुशीलः ) विजयोदया - इंदियकसाय गुरुपत्ता इंद्रियकषायपरिणामानां गुहत्येन चरणं तणं व पस्तो चरणं गुणमिव पश्यन् । चिसो भविता अच्छीको भूत्वा सेवदि सेवते कुशीलसेघाः ॥ कुसीला ॥ कुशीलक्रिया सेवानिमित्तमाद मूलारा - द्विंसो निर्लनः निर्धर्मः इत्यन्ये ॥ कुशील || अर्थ — इंद्रिय के विषयोंमें और कषायके तीव्र परिणामोंमें तत्पर हुए ये भ्रष्टमुनि चारित्रको तृणसमान समझकर निर्लज्ज होकर कुशीलका सेवन करते हैं. कुशीलमुनि वर्णन समाप्त. आवार ६ १२७९ Page #1298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . मूलाराधना १२८० सिद्धिपुरमुवल्लीणा त्रि केइ इंदियकसायचोहि ॥ पबिलुत्ततरणभंडा उवहदमाणा णित्रद्वृति ॥ १३०८ ॥ केचिसिद्धिपुरासन्नाः कषायेन्द्रियतस्करैः ।। मुक्तमाना निवर्तते लुप्तचारित्रसंपदः॥ १३५३ ।। बिजयोदया-सिद्धिपुरमुघल्लीणा घि सिद्धिपुरमुपलीना अपि । कई केचित् । हायकमायचोरेहि रहियकपायचोरै।। पविलुत्तचरणभंडा अपमृतवारिप्रमोडाः । उम्रयमाणा उपसामिमानाः । नियहूति निर्वतन्ते । यथाछंदं गाथापंचकेना-- मूलारा-उवलीणा निकटीतषतः । उयहदमाणा खंडितसयमाभिमानाः । णियत्तंति मिध्यात्यमापतन्तीत्यर्थः ।। अर्थ-मोक्षनगरके समीप जाफरभी कितनेक मानि इंद्रिय और कषायरूपी चोरोंसे जिनका चारित्ररूपी । भांडवल लूटा गया है और संयमका अभिमान जिनका नष्ट हुआ है ऐसे होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं. तो ते सीलदरिहा दुक्खमणतं सदा वि पावंति । बहुपरियणो दरिदो पावदि तिव्वं जधा दुक्ख ॥ १३०९ ॥ ततः सीलदरिद्रास्त लभसे दुःखमुल्यणम् ॥ बहुभेदपरीवारा निर्द्वना इव सर्वदा ॥ १३५४ ॥ विजयोदया-तो पश्चात् । ते सीलदरिदा ते शीलदरिद्राः । दुक्लं दुःख । अप्पंत अंतातीतं । सदा वि पार्वति सदा प्राप्नुवन्ति । बहुपरियणो बहुपरिजनो । दरिहो वरिदः । पावदि दुरव तिब्ध प्राप्नोति दुःख तीनं यथा ॥ गुलारा--बहुपरियणो प्रचुरपोष्यवर्गः ।। अर्थ-जिसका परिवार बहुत है ऐसा दरिद्री मनुष्य जैसे अतिशय तीव दुःखको प्राप्त होता है वैसे वे शीलदरिद्री मुनि हमेशा तीघ्र दुःखको प्राप्त होने हैं. Page #1299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलपराधना आश्वासः १२८१ सो होदि साधुसत्थादु णिग्गदी जो भवे जधाछंदो ॥ उस्सुत्चमणुवदिटुं च जधिच्छाए विकप्पंतो ॥ १३१० ॥ स सिद्धियायिनः साधुनिर्गतः साधुमार्गतः ॥ स्वच्छंदस्वेच्छमुत्सूत्रं चरित्रं यः प्रकल्पते ॥ १.२५५ ॥ विजयोदया-सो होदि स भवति । साधुसन्धाटमदा सायसायानिवृत्तः । जो ये जवाछंदो यो भवति स्वेच्छावृतिः । उत्तं सत्सूत्रं । अणुवदिष्ट अनुपदिएच स्थविरैः । जदिच्छार विकतो यथेच्छाया विकल्पयन् । यथाछंदीभाचे दोघानाह मूलाग--जधाउंदो स्वेच्छावृत्तिः ॥ उम्सुतं उीमितप्रवचनं । अणुवदि, अनानातं स्थविरैः । विकापतो इदमि. स्थमेव घदते न तथेति विकल्पयन ।। अर्थ-जो मुनि साधुसार्थका त्यागकर स्वतंत्र हुआ है. जो खेच्छाचारी बनकर आगमविरुद्ध और पूर्वाचार्योन नहीं कहे हुए आचारोंकी कल्पना करता है, वह स्वच्छंद नामक भ्रष्टमुनि समझना चाहिये. जो होदि जधागेदो हु तस्स धणिदपि संजर्मितस्स ॥ णत्थि दुचरणं चरणं खु होदि सम्मत्तसहचारी 11 १३११ ॥ यजायते यथाउंदो नितरामपि कुर्वतः ।। वृत्तं न विद्यते तस्य सम्यक्त्वसहचारितः ॥ १३५६ ॥ विजयोदया-जो होदि जधाछंदो यो भवति स्वेच्छावृत्तिः । तस्स घपिपि संजर्मितस तस्य निसरामषि संयमे प्रबर्तमानस्य । णस्थि नास्त्येव । अरणं चारित्रं । चरण खु हादि सम्मत्तसहचारी मम्यक्षसहचार्येय यतकारि । स्वकछववृतेस्तु यत्किचिरपरिकल्पयतः सूत्रमननुसरतः नैध सभ्य वर्शनमस्ति । तवंतरेण सभ्यचारिमं नेष तत्र भवति । मूसारा-सम्मत्तसहवारी सम्यक्त्वसहभाग्येय ।। स्वेच्छावृत्तः सुसूत्रमननुसरतः सम्यक्त्वाभावात् कुतस्त्वं सम्यक्चारित्रमिति भावः ॥ १२८१ Page #1300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागवना आश्वासः अर्थ-यथेच्छ प्रवृत्ति करनेवाले उस मान गनिने यद्यपि यो संगम मालकिला होगा तथापि उसका संयम चारित्र नहीं कहा जाता है. क्योंकि उसको सम्यग्दर्शन नहीं है: 'सम्यग्दर्शनके साथ संयमको ही सम्पचारित्र कहते हैं. स्वच्छंदवृत्ति मुनि अपने ममोनुकूल तश्वकल्पना करता है, आमाविरुद्ध कल्पना करनेसे वह सम्यग्दरष्टि नहीं है. सम्यग्दर्शन के बिना उसको चारित्रकी प्राप्ति कैसे होगी? इंदियकसायगुरुगक्षणेण सुत्तं पमाणमकरतो ।। परिमाणेदि जिणुते अत्थे सच्छंददो चेव ॥ १३१२ ॥ जिनेंद्रभाषितं सध्यं कषायाक्षगुरुकृतः ॥ प्रमाणीकुरुते वाक्यं यथा दो न दुर्मनाः ॥ ३५७ ॥ (इति स्वच्छदः) विजयदया हदियकसायगुरुगसणेण कषायाक्ष रुकृतत्वेन सुत्रमप्रमाणयन् , परिमाणेनि अन्याशा गृहानि जिणुले अन्धे जिरोक्तामर्थान् , सच्छंददो चेब स्वेच्छानिमायेणैव ॥ जधान ॥ गलारा-परिमाणदि अन्यथा ग्रहाति चितयतीत्यन्यः । अत् जीयादिपदार्थान् । सकछंददो चेत्र स्वाभिप्रायेणेत्र यथाछंदः ॥ अर्थ-इंद्रिय और कषायोंमें अत्पंत आधीन होनस यह भ्रष्ट मुनि जिनप्रणीत सिद्धांतको प्रमाण नहीं मानता है और स्वच्छंदचारी बनकर सिद्धांतका स्वरूप अन्यथा समझता है और अन्यथा विचारमें लाता है. इदियकसायदोसेहिं अधधा सामण्णजोगपरितंतो ।। जो उन्बायदि सो होदि णियत्तो साधुमस्थादो ॥ १३१३ ॥ कषायोन्द्रियदोषेण वृत्तात् सामान्ययोगतः॥ यः प्रभ्रष्टः परिधानतः स भ्रष्टः साघुसार्थतः॥ १३५८ ।। Page #1301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलागवना १२८३ विजयोदया-इंषियकसायदोसेहि रट्रियकवायदोषैः । अधवा सामपणजोगपरितंतो अथवा सामान्ययोगेन दांतः । जो उब्बायदि यश्चारित्रामध्ययते । सोहोदि स भवति । णियत्तो साधुसस्थादो निवृत्तः साधुसार्धात् । संसर्व गाधाहयेनाहमूलारा--परिदत्तो निर्विणः । श्रांतो बा । उच्चायदि चारित्राच्च्यते । विलंबते इत्यन्ये ।। अर्थ-...इंद्रिय और कषायोंके दोषसे अथवा सामान्य ध्यानादिकसे विरक्त होकर जो साधु चारित्रसे भ्रष्ट होता है वह साधुसार्थसे अलग होता है. इंदियकमायबसिया केई ठाणाणि ताणि सन्याणि ॥ पाविज्जते दोसेहिं तेहिं सव्यरोहिं संससा ॥ १३१४ ।। स्थानानि तानि सर्वाणि कषायाक्षगुरूकृताः॥ . . संसक्ताः सकलैदोषैः केचिनच्छन्ति दुधियः ॥ १३५९ ॥ विजयोदया-ददियकसापयसिमा हदियकापशगाः । केई केचित् । ठाणाणि ताणि सम्वाणि तान्यशुभस्थानपरिणामानि । पापिज्जति प्राप्यते । दोसहि तेहि सोहि संससा दोस्तैः सथैः संखकाः । संसथा। मूलारा-ठाणाणि परिणामान । ताणि मिथ्यावासयमादीनि ॥ पाविजते नीयते । तेहि त मसिद्ध रागादिभिः॥ संसत्तिः ॥ अर्थ-इंद्रियविषय और कषायके वशीभूत कितनेक भ्रष्ट मुनि सर्व दोषोंसे युक्त होकर सर्व अशुभ स्थानकी प्राप्ति करानवाले परिणामोंका- अशुभ परिणामोंको प्राप्त होते हैं. इय एदे पंचविधा जिणेहि सत्रणा दृगुंच्छिदा सुत्ते ॥ इंदियकसायगुरुयत्तणेण णिच्चंपि पडिकुद्धा !! १३१९ ॥ इत्येत साधचः पंच निंदिता जिनशासने ।। प्रत्पनीकक्रियारंभाः कषायाक्षगुरुकृताः ॥ १३६० ।। विजयोदया–पासत्यत्तिगदं । १२८२ Page #1302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना अश्वासः अयसनातीनां सामान्यदोषमाइमलारा---दुगुछिदा निंदिताः। पडिकुवा प्रतिपक्षभूता मंदा बा ॥ अर्थ-ये पांच तरहके भ्रष्ट मुनिओंकी जिनेश्वरोंने आगममें निंदा की है. ये पांच प्रकारके मुनि इंद्रिय । ऑr कषायके गुरुत्वमे जिनसिद्धांतानुसार आचरण करनेवाले मुनिओंके प्रतिपक्षी हैं. १२८४ दुट्ठा चवला अदिदुज्जया य णिच्चं पि समणुबद्धा य ॥ दुक्रवावहा य भीमा जीवाणं इंदियकसाया ॥ १३१६ ॥ दुरंताश्चंचला दुष्टा वृत्तसर्वस्वहारिणः ॥ वर्जयाः सन्ति जीवानां कषायेन्द्रियतस्कराः।। १३६१ ।। छिद्रापेक्षाः सेव्यमाना विभीमा नो पार्श्वस्थाः कस्य कुर्वन्ति तुःखम् ।। क्रोधाविष्टा पसगा वा द्विजिहाः विज्ञायेत्थं तुरतो वर्जनीयाः ॥ १३६२ ॥ तृणतुल्यमयेत्य विशिष्फलं परिमुच्य चरित्रमपास्तमलम् ।। बहुदोषकषायहषीकशा निवसन्ति चिरं कुगताबवशाः ॥ १३६३ ॥ [इति संसक्तः] विजयोदया-दुट्टा दुशा आत्मोपद्रवकारित्वात् । चपला अनयस्थितत्वात् । अमिदुज्जया अतीय दुर्जयाः अनुपलब्धचारित्रमोहक्षयोपशमप्रकर्षण जीवेन दुःोन अमिधूयते इति । णिपि नित्यमपि । समगुक्ताय सम्यमनुबाम्धारित्रमोहोदयस्य स्वकारणस्य सदा सद्भावात् । नित्याश्च कथं चपला । नित्यशब्दो ध्रौव्य न प्रयुक्तः किन्वभीक्ष्णे मुहुर्मुहुरनुयद्धार इत्यर्थः । चपलता तु परिणामानां अनवस्थिसत्य अतो न विरोधः । दुःखावहाय वःस्रावहाध | जीवाण जीवानां अभिमतमोमालामे प्राप्तस्य वाऽपाये मदत दुःस्वमित्यनुभवसिद्धमेव सर्वप्राणभृतां । कपायास्तु क्रोधादयः कषायति हदयं । अथवा दुःखकारणासदेवानां निमित्तत्वात् दुःखाबहाः! इंद्रियकापाययशगो जीवान् हिनस्ति । दुसकरणेन यात्रवत्वसवी इति । यत पव दुःखापहा अत पव भीमाः । इंदियकसाथा दिकपात्रपरिणामाः। एवमयसमादिरूपण इंद्रियकपायाणामयायविद्यकर्दनकरत्वमुपदर्य सांगतं तदौरात्म्यमाह-- भूलारा-दुछा उपद्रवकारित्नान । चवला अनवस्थितत्वात् । अदिदुसया चारित्रमोहक्षयोपशमप्रकर्षाप्रामी Page #1303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १२८५ अभिभवितुमशक्यत्वात् । समशुद्धा सम्यगनुवक्ताः । चारित्रमोहोदयस्य स्वकारणस्य मुहुर्मुहुः प्रवर्तनात् । दुक्खावहा य योगस्याप्राप्तौ प्रातस्य चापाये चक्षुरादिमुखेन दुःखस्यानुभवसिद्धत्वात् । क्रोधादिकृतहृदयतापकत्वात् । दुःखकारणास द्वेद्यार्जननिमित्तत्वाद्वा द्वयेऽपि दुःखकराः । भीगा भयंकराः । दुःग्यात्वादेव वा ॥१ अर्थ - ये इंद्रिय और कषाय जीवोंको अनिशय उपद्रव करते हैं. और चंचल है. इनको जीतना अतिशय कठिन है. जबतक चारित्र मोहनीय कर्मका क्षयोपशम नहीं बढा हुआ है तबतक इनको जीतना अशक्य है. जबतक चारित्रमोहरूप कारणका सद्भाव है तबतक इन कषाय और इंद्रियोंका संबंध रहता ही हैं. इंद्रिय और कषाय नित्य हैं अर्थात् बारबार इनका आत्मा से संबंध होता है अतः इनको नित्य कहते हैं. इंद्रिय और काय परिणामका एक स्वरूप नहीं रहता है. कभी क्रोध परिणाम, कभी मानपरिणाम, कभी लोभ परिणाम ऐसा परिवर्तन होता ही रहता है इसलिये इनको चंचल भी कहते हैं. ये इंद्रिय और कपाय जीवोंको दुःख देते हैं. जीवोंको दृष्ट भोगोंका होते व प्राय होनेसे महान् दुःख उत्पन्न होता है. यह यात अनुभव सिद्ध है. कषाय-- क्रोधादिक हृदयका घात करते हैं. इंद्रिय और रूपायोंके आधीन होकर प्राणी जीवोंका घात करते हैं. traint घात असातावेदनीय कर्मके आसव आते हैं. ये इंद्रिय और कषाय दुःखदायक है इसलिए भयानक हैं. तरुतेपि पितो वत्थो जह वादि पूदियं गंधं ॥ तो वि इंदियकसायगंधं बदि कोई ॥ १३१७ ॥ लोsपि कषायाक्षं निषेवते । मारवं वस्तः प्रतिवानि पित्रन्नपि ॥ ३६४ ॥ विजयोश्या-तुष्कतैलमपि पितो पवन बन्यो वस्तः अञ्जनः। जह वादि पूदियं गंध पुतिगंधे यक्षा वानिया था व जहाति । संश्रियमानोऽपि सुरक्षिणाध्येण तथ दिषदों व सभा दीक्षिनोऽपि परित्यक्तासंयोऽपि । दिय सायगंधं वहदि । इंद्रियावदुप्रति इति यावत् । दीक्षाचा इंद्रियविजयाश्रमत्वमाह- मूलारा-मरते तुरुष्कतैलं सेस्हारस सुगंधितैलमित्यन्ये । धभओ छागः । पूवयं गंधे दुर्गंध प्राकनमेव । दिक्खिदो कृतव्रत स्वीकार संस्कारः । इंदियकसायगंधं चक्षुरादिक्रोधादिवासनां || आश्वासः ६ १२८५ Page #1304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुल्टाराधना १२८६ अर्थ — चकरेको तुरुष्कतैल पिलानेपर भी उसके शरीर से दुर्गंध ही निकलता है अर्थात् वह अपने प्राकृतिक गंधका त्याग नहीं करता है. तुरुष्कतैल अतिशय सुगंध रहता है परंतु चकरेके प्राकृतिक गंधमें उससे कुछ भी फरक नहीं होता है. वैसे अष्ट साधु संयम सहित होनेपर भी इंद्रिय कषायरूपी दुर्गंधका त्याग नहीं करता है. भुजतो व सुभोयणमिच्छांदे जध सूयरो समलमेव ॥ त दिक्खिद वि इंदियकसायमलिणी हवदि कोइ ॥ १३१८ ॥ मुक्त्वापि कथन ग्रंथं कषायाक्षं न मुंचति ॥ हित्वापि कंचुकं सर्पों विजहाति विषं नहि ।। १३६५ ।। दीक्षितोप्यधमः कचित्कषायाक्षं चिकीर्षति ।। शूकरः शोभने रत्नैर्नल तोप कांति १३६६ ॥ विजयोदय-भुजतो विसुभाषणं भुजानोऽपि शोभनमाहार सुसरो जय मंत्र का स ममेवाभिपति चिरंतनाभ्यासात् । तह तथा । दिलिदो वि दीक्षिवोऽपि कृतपरिहसंस्कारोऽपि । कोइ कश्चित् । इंदियक सामणि यदि इंद्रिय कथायाख्याशुभपरिणामोपनतो भवति भयो जनः स्युपायतया परित्यकेंद्रिय पायोऽपि गार्हस्थ्यपरित्यागकाले पुनरपि तत्रापततीति ॥ गुरुपदेशादधिगतदुःखनिच् मूलारा --- समलं पुरीषं ॥ अर्थ- जैसे सूकर उत्तम आहारका भोजन करता हुआ भी विष्ठा का ही अभिलाष मनमें धारण करता है क्योंकि उसको दीर्घकालसे विष्ठाभक्षणका अभ्यास रहता है वैसे जिसने दीक्षा धारण की है अर्थात् व्रतका स्वीकार जिसने दीर्घ कालसे किया है ऐसा भी कोई मुनि इंद्रिय और कपाय रूप अशुभ परिणामोंसे परिणत होता है. गुरूका उपदेश सुनकर दुःख नाश करनेके उपायका ज्ञान होनेपर इंद्रिय और कषायों का त्याग करता है. गृहस्थावस्थाका त्याग करनेपर पुनः वह मुनि उसीमें पडता है. अनेकांतोपन्यासेन दर्शयसि सुरिरुचरबंधन आश्वा ६ १९८६ Page #1305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलानाधा আগ্ৰাম १२८७ थाहभएण पलादो जूई दठूण वागुरापडिदं ॥ मयमेव मओ वागुरमदीदि जह जूहतहाए ।। १३१९ ॥ बिहाय हारेणो युधं व्याधभीतः पलायितः ।। स्वयं मया पानि चागुरो यूथतृष्णया ।। १३६४ ।। विजयोववा-याहमण व्याधमयेन । पलादो मगो कृतपलायनो मृगः । बागुराडद जूई दट्टण दागुरापतित स्वयुधं दृष्ट्वा । लयमेष घागुरमदीदि मनो स्वयमेव वागुरी प्राविशति मृगः, जल यथा, कुतः, जूहप्तण्डाए यूथतृष्णाया, पर्व को विगिहवास मुधा इत्यगन्या गाधया संबंधःकार्यः॥ भव्योऽपि जनो गुरूपदेशाधिगतदुःखमिवृत्युगयतया परित्यक्तेंद्रियकरायो जिनदी प्रतिपद्यापि चिसभ्यस्तकपायेंद्रियदोषावेशवशात्पुनरपि गृहषासदोषानेवापततीत्येतद्दष्टांतपट्कनुभगं गाथासप्रफेन स्फुटय लि मुलारा--पलाओ कृतपलायनः । मओ मृगः । अदीदि प्रविशति ।। ____ अर्ध-पारधीके मयसे भागा हुआ हरिण जालमें अपना मृगसमूह पटा हुआ देखकर स्वयं भी जालमें प्रवेश करता है. मृगसमूहमें उसका प्रेम रहता है. प्रेमवश होकर वह स्वयं बंधन में पड़ता है. वैसे कोई गृहस्थावस्थाका त्याग कर पुनरपि उसका स्वीकार करता है. पंजरमुको सउणो सुइरं आरामए सुविहरतो . • सयमेव पुणो पंजरमदीदि जब पीडतहाए ।। १३२० ॥ . आरामे विचरन्स्थेच्छ पतची पंजरच्युतः ॥ यथा पासि पुनर्मूढः पंजरं नीतष्णया ॥ १३०८ ॥ विजयोदया-जरमुको सउणो पंजरान्मुक्तः पक्षी । सुदरं आरामए सुविहरतो आरामेषु स्वेच्छषा विहरन । सयमेष स्वयंमव । पुणो पुनः । पंजरमदीदि पंजरमुपैति, जद्द नीइताहाप यथा नोडतया || मूलारा-सइरं स्वेच्छया । पीडतण्हाए स्वावासलाभेन ॥ अर्थ-पिंजरसे मुक्त हुधा यक्षी उद्यानमें-बगीचम दीर्घ काल स्वेच्छास घूम कर जैसे अपने घरकी अभि लापासे पुनरपि पिंजेरमें आता है, वैसे यह मुनि भी गृहस्थावस्थाका त्याग कर पुनः उसका स्वीकार करता है. Page #1306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आश्वासः मूलाराधना १२८८ . कलभो गएण पंकादुद्धरिदो दुत्तरादु बलिएण ॥ सबमेव पुणो के जलतहाए जह अदीदि ॥ १३२१ ।। उत्तारितः करींद्रेण पंकतः कलभो यथा ॥ स्वयमेव पुनः पंकं प्रयाति जलतृष्णया ॥ १३६९. ।। विजयोत्या-कालभो गजपोतः महति कामे पतितः । गण पंकारियो गजेन गोण पंफादुद्धमो । तुत गतु दुस्तरात् पंकार । बलिष्यतिशययता गजेन, समयेय पुणो पंजह अदीदि. स्वयंमत्र कदमो यथा पंकमुपैति । जलतहाए जलतृष्णया ॥ मुलाग–कलमो बालगजः । उद्धरिदो उधृतः । मुत्त राहु उस्तरा ॥ अर्थ--हाथीका बच्चा बढे कीचड में फसा था उसको शक्तिवान हाथीने बाहर निकाला परंतु पानीकी प्यासस वह फिरभी कीचडमें फसता है वैसे कोड मुनि फिर गृहस्थ होते हैं. - - अग्गिपरिक्खित्तादो सउणो रुखाद उप्पडित्ताणं ।। सयमेव तं दुम सो णीडणिमित्तं जध अदीदि । १३२२ ।। उडीय शाखिनः पक्षी सर्वनो निवेष्टितात् ।। तत्रय नीडलोभन यथा याति पुनः स्वयम् ।। १३७० ।। विजयोदया- रुपवादो सउणो उम्पहिसाण मादुत्पत्य शकुनिः। कीचम्भूनान् ? अग्मिपरिक्वितादो अमिना समंता पितात् , सयमेव तं दुमं अह अहीदि स्वयमेयासी पक्षी अग्निपरिक्षिप्तममधिगरछनि, पीडणिमित स्थाबासनिमितं ॥ मूलारा-अगिपरिक्षिप्तादो यतिवलयितात् । उम्पडिसाणं उडीय ॥ अर्थ-अग्रिसे धिर हुए का त्यागकर एनरपि अपने घरकी अभिलाषासे जैस पक्षी उसी वृक्षके तरफ जाता है बस कोड मुनि फिर गृहस्थावस्था धारण करते हैं. १२८८ मा ... -. - . ..-- - --.. . ... . ... - R e lam Page #1307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना आश्वासः १२८२ लंधिज्जतो अहिणा पासुत्तो कोइ जग्गमाणेण ॥ उठविदो त घेत्तुं इच्छदि जध कोदुगहलेण ।। १३२३ ।। लंध्यमानोऽहिना सुप्तो जाग्रतोत्थापितो यथा ॥ कौतुकेन तमादातु कश्चिदिच्छति मूदधीः ॥ १३७१ ।। विजयोदया-लेधितो अहिणा लेयमानोऽहिना, कोर पासुसो कश्चित्प्रसुप्तः, जग्गमाणेण उट्ठविदो जाग्रता उत्थापितः। उह ने रोतुमिच्छति यथा सग्रहीतुमिच्छति, कोढगहण कौतूहलेन ॥ मलाग-पामुत्तो निर्भरनिद्राकान्तः || अर्थ-जिसके ऊपरसे सर्प जारहा है ऐसे सोये हुए किसी मनुष्यको किसीने जगाया पर जगकर उठे हुए उस मनुष्यने उसी सपको कौतुकसे पंकहना चाहा वैसे कोई गृहस्थावस्था संसारका कारण है ऐसा समझकर उसो त्यागकर फिरभी उसीको स्वीकारता सयमेव वतमसणं जिल्लज्जो णिग्धिणो सयं चेव । लोलो किविणो भुंजदि सुणो जध असणतण्हाए ॥ १३२४ ॥ स्वयमेचाशनं यांतं निर्मज्जो निघणाशयः ॥ सारमयो यथासासि कृपणोऽशनतृष्णया ॥ १३७२ ॥ विजयोक्यान्सयमेव तमसणं स्वयमेष यांतमशनं सुणहो णिलज्जो णिग्घ्रिणो श्वा निलाजः मिर्पणः 1 जहा यथा । सयसेच मुंजलि स्वयमेय भुक्ते । लोलो अशक्तः। किविणो कृपणः असपातण्डार अशमतपणया। मुलारा-यंत छर्दिम् । किविणो कृपणः ।।। अर्थ-जैसे निर्लज्ज और जुगुप्सारहित कुत्ता स्वयं किया हुआ वमन स्वयं ही अबकी इच्छासे भक्षण करता है. कृपण और अनमें आसक्त कुत्ता स्वयंका रमन किया हुआ अन्न स्वयं खाने लगता है. एवं केई गिहवासदोसमुक्का वि दिक्खिदा संता ।। इंदियकसायदोसे हि पुणो ते चेब गिफ्हति ॥ ११२५ ॥ १२८९ Page #1308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्र १२९० गृहवासं तथा त्यक्त्वा कश्चिदोषशताकुलं । कषायेन्द्रिपदोषातों याति तं भोगतष्णया ।। १३७३ ।। विजयोदया-वं केई पर्व केचित् । गिहिशसदोसमुक्का गृष्ट्वासेभ्यो ये दोषास्तेभ्यो मुक्ता दिक्षिदा वि संसा दीक्षिता मपि संतः । इंदिएकसारदोसे इंद्रियकवायदोषाम् । ते चेव तांश्चैव गृहवासगतान् । गिण्डति गृहन्ति ।। कीरगृहवासो न दुष्ट रति भण्यते । ममेदं भायाधिष्ठानः अनु परत मायालोभोत्पादनप्रवीण जीवनोपायप्रवृत्तः । कपाया. णामाकरः परेप पीडानुग्रहयोरायपरिकरः । पृथिव्य तेजोथायुवनस्पतियनारतवृत्तव्यावृत्तव्याशरो, मनोवाकार्य: सवित्तचित्तानेकाणुस्थूल द्रविणणब मनोपजातायासः यत्र स्थितो जनोऽसारे सारतो. अनित्ये नित्यता, अशरणे शरणा, अशुचौ शुचिता, दु.ख सुस्मिता, अहिते दिलसां, असंश्रये संश्रयणीयां, शत्रुभूते च मित्रता व मन्यमानः परितः परिधावति । समयसशकोऽपि पदमधिगच्छति । दुरुत्तरकाललोपंजरोदरगसो इगिरिव, चागुरापतितमृगकुलमिष, भन्यायकदमोन्मो जरकुंजर इ५ हप्ताशः, पाशवशो बिग इष, चारकावरुद्धस्तस्कर हब, व्याधमध्यमध्यासी नोऽरुपकलो मृग इय, नईतिकोपयामतसंकटः कूटपाशाषकुटी जपचर इच, । यत्रापस्थितो जमः कामबहलनम: परहमानियते । मग महानागैर पता, चिताजाकिनी मिः कबीमियते, शोककैरनुगम्यते, कोपरायकेन भस्मसात् क्रियते, दुराशालतिकाभिविष्यते, प्रियायप्रयोगाशनिमिर निशं शकलीक्रियते, प्रार्थितालाभारशस्तूणीरतां नीयते, मायास्यविकिया नानादिबस, पाकाटेककुठार्षिदाते, अशोमलेन लिप्यते, मोहमहावनमारोन हम्यते, पापपासवबोधः पात्यते, भयायाशलाकाभिस्तुचते, भायास्वादसै तिघासरं मीयतेईर्ष्यामच्या धिरुपता परिमाप्यते परिप्रहरखते । यस्तोऽयममिमुनो भवति । असूयाजायाया मियहां याति, मानदाचाधिपतितां अनुभवति, विशालधवलचारित्रातगमयसायामुग्रं न लभते, संसारचारकादारमान मापनयति, कर्मनिर्मूलनाय न प्रभवति, मरण विषपायन हानि, मोहधकाoR कोटयति, विचित्रयोनिमुखसंचरणं न निषेधति । तत इत्थंभूताम्गृहयास दोषारय काया मोऽपिवीक्षिता दिस.सायदोस हि द्रियकषायदोषान् । हि शब्दः समुच्चयार्थः । तेनैवमभिसंबध्यते पुणो हि पुनरपि ते चैव तानेघ । गिण्ई ति गवन्ति ॥ मूलारा-दियकसायदोसे इंद्रिय रिष्टानिष्टाविषयमहणे सयुदण: क्रोधादिहास्यादिद्रव्य कषायनोकषायैनिता दोपा रागद्वेपमोहादयस्तै: कारणभूनेः। ते चैव तामेव गृहदोषान् । एषा प्राकृतष्टीकाकारमतेन व्याख्या । तथा चोराम् एवं केचिद्गृहद्वन्द्र चिमुका अपि दीक्षिताः ।। कघायेंद्रियदोयेण तदेवाददते पुनः ।। अपि च-गृहवास तथा व्यवधा कश्चिदोषशताकुलं ॥ कपायेंद्रियदोपातॊ याति तं भोगनृष्णया ॥ Page #1309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूलारापना आभास श्रीविजयाचार्यरतु-गृहवासारखवा दीक्षिता अपि संतः । केचिद्रिययोषागृहवासगतानेव पुनरपि गृहन्तीति व्याख्यात् । हिशब्दस्य समुण्यार्थरय मिसक्रमणस्य पुणो इत्यत्रोऽनंतरमभिसंबंधात् । तथा चोक्तं विदग्ध प्रीतिवर्धन्याम--- एवं केचिद्गृहवासदोषमुक्ताश्च दीक्षिताः संतः ।। इंद्रियकवायदोषान्पुनरपि तानेव गृहन्ति || गृहवासदोषास्तु ममेदभावप्रहायशो, दुराशापिशाचीपारवयं समस्तपापललोभमहोरगातुरत्वं, जीवनोपायकृष्यादिकार्यद्वंद्वनैरतर्यप्रवृत्वायाससंहस्रसंकुल क्लिष्टता, घजीवनिकायमाणातिपातद्वारप्रविशनिवारब्रह्महत्याप्रसंधान्यतगहकिलंककश्मलत्वं, दुर्यशःपुरीयोपलेपनिमित्तत्वं, विपदावर्तसहस्रशंकातंकदौमनस्य, परपीडानुग्रहकरणपरिफर बंधसमिसदुरहंकारराक्षसक्षिप्तचेतनत्वं, स्थूले तर सचित्तचित्तद्रव्योपार्जनमहणरक्षणवर्धनव्ययकरणान्यासंगसहस्त्रजायमानमनोवाकायदौरवरध्यमसाराशुचिनवरशरणसंभयणीयाहितदुःखानात्मसु सारादिबुद्धिनिबंधाः । कंदपसर्पगरलघूर्णिसत्वं, चित्ताशाकिनीविकारभूयिष्ठत्वं, परितापनिष्ठत्वं, प्रियविप्रयोगाश निनिपातविशरास्ता, शोकानवालाकरालता, अनिष्टसंयोगदुरतविषादास्पदव, कोपपावभस्मसारकरणावं, प्रार्थिताप्राप्सिद्देतिशवजर्जरत्व, मायास्यपि रिकानिर्भरपरिरंभता, भयायःशलाकाप्रतोदनं, मात्सर्येप्यास्तेयपैशुन्यदैन्यानृतारतेयविषयलांपट्याविषकीटकोपसृष्टता, कुयोनिसहस्रमुखप्रवेशकर्मठपापबंधनियधनत्वं इत्यादयः केयलिभिः श्रुतकेयलिभिर्या कथमपि कलयितुं शक्या नु शक्या वेति ॥ . अर्थ-उपर्युक्त रष्टांतसे यह सिद्ध होता है कि कोई गृहस्थावस्थाके दोषोंसे मुक्त होकर और दीक्षा लेकर भी दिय और कषायोंके दोषोंको पुनः ग्रहण करते हैं. इस गृहस्थपनाको क्यों दुष्ट कहते हैं। इस प्रश्नका उत्सर__यह गृहवास ममत्वका आधिष्ठान अर्थात् मूल कारण है. हमेशा माया और लोम को उत्पन्न करनेवाले ऐसे जीवनोपाय इसमें जीवको करने पड़ते हैं. यह ग्रहवास कषायोंकी खान है. यह जीवोंपर पीडा और अनुग्रह भी करता है. अर्थात् गृहस्थावस्थामें रहने पर किसीको पीहा करनेका और किसी पर अनुग्रह करनेका हमेशा प्रसंग आता है. पृथवी, जल, अग्नि, हवा और वनस्पति इन स्थावरोंका इसमें हमेशा घात करना पडता है. मन वचन और शररिके द्वारा सचित्त अचित्त अनेक स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ तथा द्रव्य प्राप्त करनेके लिये इस गृहवासमें १२९१ Page #1310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना विजयोदया-प्रसियार्या ॥ मुलाय-कलिणा कलाइन ॥ अर्थ-जो साधु दीक्षित होकर मी पुनः इंद्रिय और कषायरूप कलहका स्वीकार करता है वह कलह से रहित होकर भी फिर कलहका स्वीकार करता है ऐसा समझना चाहिए. आथ १२९४ S उत्तरगाथा सो णिच्छदि मोत्तुं जे हत्थगयं उम्मुयं सपज्जलियं ॥ सो अकमर्दिकण्डसप्पं छादं बाधं च परिमसदि ॥ १३२८ ।। विधाय ज्वलितं हस्ते मुरं स भुक्षते॥ . आक्रामति स कृष्णाहिं व्याघ्र स्पृशति सक्षुधं ॥ १३७६ ॥ विजयोदया-सोणिच्छदि स नेच्छति । मोनु मोक्तुं । कि हत्यगय हस्तस्थितं इस्तगतं था । उम्मुई संपरजलिये उन्मुकं सुष्टु प्रज्वलितं । सो कण्डसप्पमकमदि स कृष्णसर्पमतिकाम्पत्ति । छाद वग्यं च परिमसदि क्षुधोपद्रुतं व्यानं च स्पृशति । मूलारा-मोन्तुं जे त्यक्तुं । वम्मुगं अर्धप्रज्वलितकाष्ठं। अक्कमदिलंघयति छादं क्षुत्पीडितं । परिमंसदि सृशवि|| अर्थ-जो साधु दीक्षित होकर पुनरपि इंद्रिय और कषायरूप परिणामोंको स्वीकारता है वह हाथमें जलवे दुए अनिको नहीं त्यागना चाहता है अथवा काले सर्पको लांघकर जाना चाहता है किंवा भूखसे पीडित व्याघ्र को स्पर्श करना चाहता है ऐसा समझना चाहिये. SHIPARAMATAsararararendraser सो कंठोल्लगिदसिलो दहमस्थाहं अदीदि अण्णाणी ॥ जो दिक्खिदो वि इंदिय कसायवसिगो हवे साधू ॥ १३२९ ॥ कंठालग्नशिलोऽगाधं सोऽज्ञानो गाहते हवम् ।। अवलो वापि यो दीक्षां कषायाकं प्रपद्यते ।। १३७७ ।। GretariaARATRAPataaraararamster Page #1311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • मूलाराधना आश्वास १२९५ विजयोदया-सा कंठोल्लगिदसिलो स कंठावलंधितशिलः दिमाया दरमगाधं । अदीदि प्रविशति । अ. पणाणी अशः । जो विस्मिनो बिय यो दीक्षिनापि इंदियकमायबसिगो इंदिकवायवशवर्ती सारयादमेदव्यवहारः ।। मूलारा-कंठोलगिदसिलो गलावलंचितपद् ।। अर्थ-जो अज्ञानी साधु दक्षिा लेकर इंद्रिय और कषायके पश होता है वह कंठमें शिला बांधकर . अगाध सरोवरमें प्रवेश करना चाहता है, गाथामें इंद्रिय और कषायके वश हुआ साधु और गले में शिला जिसने बांधी है ऐसा पुरुष इनमें सादृश्य होनेसे आवायने अभेदका व्यवहार कर एक ही व्यक्तीको दो विशेषणोंसे युक्त किया है परंतु एक दृष्टांत और दुसरा दाटीत है. इंदियगहोवनिछो उवलिटो ण दु गहेण उवसिट्ठो ।। कदि गहो एगभने दोस इतनो भवसरे ।। १३३० ॥ गृहीतोऽक्षग्रहाघातो नापरो ग्रहपीडितः ।। अक्षयः स सदा दोपं विदधाति कदाग्रहः ॥ १३५८ ॥ विजयोदया-विषयहोवसिटी इंद्रियग्रहगृहीतः । उचमिट्टो गृहीतः। प्य तु गहेण उवसिहो नव ग्रहेणोपसष्टः। कुतः ? यस्मात् । कुणदि गहो प्यभवे दोसं एकस्मिक्षेत्र मंत्र अहो बुद्धिव्यामोहलक्षगं दो करोति । इदरो भयसदेसु वाईयकषायग्रहो मवशतेषु दोपं करोति ॥ मुद्धारा-उवासियो प्रहाविष्टः । दोस बुद्धिव्यामोह ॥ अर्थ-जो इंद्रियरूप ग्रहसे पीडित हुआ है उसको ही ग्रहपीडित कहना चाहिये. जो ग्रहसे पीड़ित है वह वास्तविक पीडित नहीं है. क्यों कि ग्रह तो एक भवमें ही पीडा देता है अर्थात् बुद्धिमें मोह उत्पन्न करता है परंतु इंद्रिय और कषाय रूपी ग्रह इस जीवको सैंकहो भवों में दुःख देता है अतः उसको ही ग्रह कहना चाहिये. होदि कसाउम्मत्तो उम्मत्तो तध ण पित्तउम्मत्तो ॥ ण कुणदि पित्तुम्मत्तो पावं इदरो जधुम्मत्तो ॥ १३६१ ॥ १२५५ RAAT Page #1312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास कषायमत्त उन्मत्तः पित्तोन्मत्तोऽपिनो पुनः ॥ प्रमत्तं कुरुते पापं द्वितीयो न तथा स्फुटम् ।। १३७९ ॥ विजयोदया-होदि कसाउम्मत्तो अवयं पवघटना । उम्मत्तो होदि जन्मत्तो भवति यथा । कः ? फसाय उम्मतो कषायोन्मसः । तथा उम्पत्तो होदित्ति पदघटना तथा उन्मत्तो न भवति । कः पित्तउम्मत्तो पित्तोम्मत। पतेन पित्तरुतायुन्मादार कपायकृतस्योन्मादस्य जयन्यता ख्याता । कथे? न कुणी पिनुम्मत्तो पापं न करोति पितो. प्रत्तः । पाप दरो जधुम्मत्तो कायान्मत्तों यथा पापं करोति, तधाभूतं न फराति । गतः पकेकोषिऽपि क्रोधादिः हिसादिषु प्रवर्तयति । कर्मणां स्थितिबंध दीर्शकरोति । विवेकशानमेव तिरस्करोति घिसोन्मादः ततोऽनयोमहदंतरं इति भाव मूलारा...रम्मतो उन्मदात्तः । तध ण तथा न । पित्तोन्मत्तो भवत्युन्मनो यथा कषायोन्मत्त इत्ति संबंधः ॥ अर्थ-जो कषायसे उन्मत्त हुआ है उसको ही वास्तविक उन्मत कहना चाहिये. परंतु जो पित्तसे उन्मत्त हुआ है वह वास्तविक उन्मत्त नहीं है. पित्तसे जो उन्माद उत्पन्न होता है उससे भी कषायोन्माद अतिशय तीव्र है. और दुःखदायक है. पिचोन्मत्त मनुष्य पाप नहीं करता है परंतु कषायोन्मत्तमनुष्य पाप करता है. अर्थात् पित्तोन्मत्त मनुष्यसे कषायोन्मत्त मनुष्य महान् अन्याय करता है. एकेकभी क्रोधादिक कषाय हिंसादिक पापों में जीवको प्रवृत्त करता हैं. कर्मका स्थितिबंध उत्तरोत्तर दीर्घ करता है. परंतु पित्तोन्माद फक्त विवेक ज्ञानको ही नष्ट करता है उससे हिंसादिक पाप और कर्मकी दीप स्थिति नहीं होती है. अतः इन दोनोंमें महान् अंतर है. इंदियकसायमइओ गरं पिसायं करंति हु पिसाया ॥ पाबकरणवेलंबं पेञ्छणयकर मुयणमझे ॥ १३३२ ॥ कषायाचपिशाचन पिशाचीक्रियते जनः ॥ जनानां प्रेक्षणीभूतस्तीवपापकियोद्यतः ।। १५८० ॥ पिजयोदया-इदियकसायमालो इंद्रियकरायमयः पिशाचः । णरं पिसायं फरेवि नरं पिशाचं करोति । कीररभूतं पिशाचं करोति ? सुजणमो पेच्छणयकरं सुजनमध्ये प्रेक्षणिककारण | पावकरणलं हिंसादिपापकिया'विलंबनां प्रक्षणीयत्वेन संपादयन्त पिशाचं करोतीति यावत् ॥ BretenegranAmARA Page #1313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAT मुलाराधना आवासः १२९७ मूलारा-पावकरणवेलचं पापकरणमेव विडंबना यस्य तं । पेकछणयकर प्रेक्षणकारिणं हिंसादिपापक्रियाविडयनां प्रेक्षणीयकत्वेन संपादयत पिशाचं करोतीत्यर्थः । उक्तं च-- कथायामपिशाचेन पिशाचीक्रियते नरः॥ सम्मध्ये प्रेक्षणीभूतः कुर्वन्यापबिडमनाम् ॥ अर्थ--इंद्रिय और कषाय रूपी पिशाच मनुष्यको सुजनोंको देखनेलायक हिंसादि पापक्रिया करनेवाला पिशाच बनाता है. जुलजस्स जारामिछचगास गिवणं व यु पुरिसस्स ॥ ण य दिक्खिदेण इंदियकसायवसिएण जेदुजे ॥ १५१३ ॥ संयतस्य कुलीनस्य योगिनो मरणं वरम ।। लोकवयसुखध्वंसिन कषायाक्षपोषणम् ।। १३८१ ।। विजयोदया कुलजस्स पुरिसस्स जस्समिछत्तगस्त कुलप्रसूतस्य पुंसः यशोऽभिप्लाषिणः । णिवणं बरं मृतिः शोभना । ण दु वरं जीविजे व वरं जीवन । विक्खिडेण दियकसायबसिपण दीक्षितस्यैनियकवायघशर्तिनः। जीवमं न शोमनमित्यर्थः ॥ मूलारा-णिधगं मरणं । जीवि, जे जीवितुं । अर्थ--उत्तम कुल में उत्पन्न हुआ तथा यशकी अभिलाषा करनेवाला ऐसे पुरुष का मरना भी अच्छा ही मानना चाहिये. परंतु दीक्षा लेकर पुनः इंद्रिय और कषाय के वश होकर जीना अच्छा नहीं हैं. अभिप्राय यह है. कि, इंद्रिय और कपाय के आधीन होकर जीना यापासबके लिये कारण है अतः ऐसा जीना खराब है. परम्॥ जध सण्णहो पग्गहिदचावकंडो रधी पलायंतो ॥ णिदिज्जदि तध इंदियकसायवसिगो वि पन्धज्जिदो ॥ १३३४ ॥ निंद्यते संयतः सर्वैः कायाक्षवशंगतः ॥ सन्नद्धो घृतकोदडो मश्यन्निव रणांगणे ॥ १३८२ ।। १२९७ Page #1314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलागधना आश्वान १२९८ विजयोदया-यथारधी पलार्यतो णिदिजदि यथा रथी पलायाद्यते । कीहक् ? सपाजो पम्गहिदचावडो सश्रतः प्रगृहीतचापकांडः। तथा नियकसरायवसिगो यि पश्यज्जिदो तथा द्रियकपायघशवपि प्रयजिनो निंद्यते ॥ सुमारा-सी मामः । अर्थ-जैसे-युद्ध के लिये तयारी जिसने की है अर्थात कवच पहन कर और हाथमैं धनुष्य और बाण लेकर लदने के लिये जो रथम आरूर दुआ है ऐसा रथी बीर रणको देखकर यदि दरक मारे युद्धस भागने लगेगा तो जगतमें उसकी निदा हुए बिना नहीं रहेगी. वैसे दीक्षित होनेपर इंद्रियकवायवश हुआ पुरुष जगतमें निंदाका पात्र होता है. जध भिक्खं हिंडतो मउडादि अलंकिदो गहिदसत्थो । गिदिज्जह तब इंदियकसायवसिगो वि पव्वज्जिदो ॥ १३३५ ॥ कषायाक्षवशस्थायी दृष्यते कैन संपतः ।। याचमानो पधा मिक्षा भूषितो मुकुटादिभिः॥ १३८३ ॥ घिजयोट्या-जध भिक हिंस्तो मुकुटारिभिरलंयसो गृहीतशतो भिभमन् निचते । मिंधते इंद्रियकपाययशवों प्रमजितः ॥ मूलारा गहिदसत्थो धृतात्रः। अर्थ-जैसे मुकूट, अंगद वगैरह आभूषण पहना हुआ, हाथमें शस्त्र को धारण करनेवाला मनुष्य यदि भीख मांगता हुआ देखा गया तो उसकी लोक निंदा करते हैं वैसे दीक्षा लेकर इंद्रियवश और कषायवश होना यह ऊपरेक वृष्टांत के समान निंदनीय है, इंदियकसायवसिंगो मंडो जग्गो य जो मलिणगत्तो । सो चित्तकम्मसमणोच नमणरूवो अपमणो हु ।। १३३६ ।। सर्वागीणमलालीढो ननो मुंडो महातपाः॥ जायते सकषायाक्षश्चित्रश्रमणसषिभः १२८४ ।। Awran १२९६ SHASTRARAN Page #1315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास यिजयोदया-इंदिर कसायसिंगो कमियकपाययशीकृतः, मुंगे मनश्च यो मलिनगात्रः सन् । सो समणरुषों मसमणो स श्रमपरूपो म भ्रमणः । सो चिसकम्मसषणी प स चित्रकर्मभ्रमण ष । परमाधमणसरशरूपोऽपि यथा चित्रश्चमणो मधमणस्तवमशुभपरिणाममण: ॥ मूलारा-चित्तकम्मसमणोव्य चित्रलिखितयतिरिव । समणरूवो परमार्थयतिसशरूपोऽपि । अर्थ-जो इंद्रिय और कपायके वश हुआ है, मुंडमस्तक, और मलिन शरीर है वह मुनि होनेपर भी मुनि नहीं माना जाता है. चद्द चित्रीलखित मुनिके समान है ऐसा मानना चाहिए. जैसे चित्र लिखित मुनि वास्तविक मुनि नहीं है वैसे इंद्रियवश कषायवश मुनि पाप परिणामोंसे मलिन होनेसे अशुभ कर्मके बंधक माने गये है इसलिए उनको मन नहीं समझना चाहिए. शान नरस्य दोषानपहरति इंद्रियकवाय जयमुनेन यथा सत्यवतः प्रहरममावरणं च शत्रु नाशयतीत्युत्तरगाथार्थः, इंद्रिय कषायाजये ज्ञान दोषापारिवारुचं यसियन लो न साहरणं च खश्गचकारिक शजयत्वमतिशय नासाक्ष्यति ॥ णाणं दोसे णासिदि णरस्स इंदियकसायविजयेण ।। आउहरणं पहरणं जह णासेदि अरिं ससत्तस्स || १३३७ ॥ ज्ञानदोषषिनाशाय कषायेंद्रियनिर्जयः॥ शस्त्रं शत्रुविधाताय जायते सत्वसंभषे ॥ १३८५ ।। विजयोदया-णार्ण कान दोस घोपान् । णासिदि नाशयति । पारस्स नरस्य हरियकसायविजयेन । जह यथा । माउहरणं पहरा मायुषो हरणं प्रहरण शरं । सत्येन वर्तते ति ससस्यस्तस्य । अरिं रिपुं । णासेदि नापायति ।। मूलारा-आवरण समाहः । सससस्स सत्वयुक्तस्य । इंद्रियां और कषायोंको जीतनेसे ज्ञान मनुष्यके दोषोंका नाश करता है, जैसे धैर्ययुक्त मनुष्यका शस्त्र और कवच शत्रूका नाश करता है ऐसा आगकी माथाका भाव है, इंद्रिय और कषायोंको यदि न जीता जायगा वो ज्ञान दोषोंका नाश नहीं कर सकेगा, जैसे धैर्यहीन मनुष्यके शस्त्र और कवच शत्रुको नहीं जीत सकते है. अर्थ-ईद्रिय और कषायोंपर विजय प्राप्त करके ज्ञान पुरुषके दोपणका नाश करता है. जैसे धर्यवान मनुप्यका आयुध शत्रुका आयुष्य नष्ट कर देता है. १२९० Page #1316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आभासः गाणंपि कुणदि दोमे णरस्स इंदियकसायदोसेण ।। आहारो वि हु पाणो णरस्स विससंजुदो हरदि ॥ १३३८ ।। दोषाय जायते ज्ञानं कषायेंद्रियषितम् ।। आहारी हरते किं न जीवितं चिषमिश्रितम् ॥ १३८६ ।। विजयोदया-जाणवि कुणदि दोसे परस्स शान दोवानपि करोति नरस्य । दियकसायदोसेण द्रियकरायपरिणामदोषेण ! उपकार्यपि अनुपकारितामुवति परसंसर्गेण । यथा प्राणघारणानिमितोऽप्याहारो विषमिश्रः पाणाविनाशयति । मूलारा-दोसे अपकारान् ।। अर्थ-इंद्रिय क.पायरूपी परिणाम दोपोंसे पुरुषका जान भी दोषों को उत्पन्न करता है, यद्यपि ज्ञान उपकार करनेवाली चीज है परंतु दूसरेके अर्थात् सदोषके संसर्गसे दोष उत्पन्न करता है. जैसे अभसे प्राण पारण होता है परंतु यह विषसंयुक्त होकर प्राणोंका नाश कर देता है. जाणं करेदि पुरिसरस गुणे इंदियकसायविजयेण || बलरूबवण्णमाऊ करेहि जुत्तो जधाहारो ॥ १३३९ ॥ विदधाति गुणं ज्ञानं कषायेंद्रियवर्जितम् ॥ वपुपोंग्यं करोत्यन्नं बलवर्णादिसुंदरम् ॥ १३८७ ॥ विजयोदया--जाणं करेदि शानं करोति। पुरिस रस गुणे पुरुषस्य गुणान् । कथं ? इंदियकसायविजपण इंद्रिय कपायविजयेन बलच पण रुपमाऊ करेविलं.रूपं, तेजः, आयुश करोति । जुत्तो जधाहारो युरुः शोभनो यथाहारः ।। थियेणामिश्रितः । मूलारा-वण तेजः। जुत्तो विहितः ।। अर्थ-इंद्रियां और कपायोंको जीतकर ज्ञान मनुष्य गुण पैदा करता है. जिसमें विष मिश्रण नहीं हुआ है ऐसा उत्तम आहार पल, वीर्य, रूप, पराक्रम और आयुको बढाता है. தாமாககககககக்கான १३० Page #1317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभास: मूलाराधना णाणं पि गुणे णासेदि णरम्स इंदियकसायदोसेण ।। अप्पवधाए सत्थं होदि हु कापुरिसहत्थगयं ॥ १३४० ॥ कषायेंद्रियदोषेण ज्ञानं नाशयते गुणं ॥ शस्त्रमात्मविनाशाय किन्न भीरकरास्थितम् ॥ १३८८ ।। विजयोक्या-मानमपि गुणानाशापति मरभ्य इंद्रियकषायपरिणामोसण । आत्मवधाय भति शन कापुरुषहस्तगतं इति । मूलारा- अप्पषधाप स्वघातार्थ ॥ अर्थ-इंद्रिय और कषायोंके दोषैसे मनुष्यका ज्ञान गुणोंका ध्वंस करता है. धैर्यहीन पुरुषके साथमें रहनेवाली तरदार उसका ही नाश करती है. उत्सर गाधार्थः॥ सबहुरसुदो वि अवमाणिज्जदि इंदियकसायदोसेण ।। परमाउधहत्थंपि हु मदयं गिद्धा परिभवति ॥ १३४१ ।। कषायेंद्रियदोषातः शास्त्रज्ञोऽप्यवमन्यते ।। किं प्रेतः शत्रहस्तोऽपि न खगैः परिभूयते ॥ १३८९ ॥ विजयोदया--सुबहुस्सुडोवि गुष्ट बटुश्रुतोऽप्यवमन्यते इंद्रियकवायदोषेण । गृहीतास्त्रमपि नरं मृतं गृहाः परिभवन्ति यथा ॥ मूलारा- अबमाणिजदि अवज्ञाहेतुःक्रियते ॥ अर्थ-- इंद्रिय कषायोंके दोषोंसे बहुश्रुत विद्वानका भी लोक अपमान करते हैं. जिसके हाथमें श्रन है ET ऐसे मरे हुए मनुष्यका गीध पराभव करते हैं. इंदियकसायबसिगो बहुस्सुदो वि चरणे उज्जमदि । पक्खीव छिण्णपक्खो ण उप्पडदि इच्छमाणो वि ॥ १३४२ ॥ १३.१ Page #1318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधार १३०२ वृत्त नाक्षकषायातः श्रुतशोऽपि प्रवर्तते ।। उडीयते कुतः पक्षी लूनपक्षः कदाचन ।। १३९० ॥ विजयोत्या-दियकसायसिपो द्रिय कषायवशगः बहुश्रुतोऽपि चारित्रे नोद्यमै करोति । यथा छिनपक्षः I पक्षी नोत्पतति इच्छन्नपि ॥ मूलारा-इच्छमाणो वि उत्पतितुमिच्छन्नपि ।। अर्थ--इंद्रिय और कषायोंके वश हुआ पुरुष विद्वान होकर भी चारित्रमें उद्यम नहीं कर सकता है. जिसके पक्ष टूट गये है ऐसा पक्षी उडनेकी इच्छा करता हुवा भी नहीं उड सकता है, णस्सदि संगपि बहुगं पि णाणमिंदिराकसायसम्मिस्स ॥ विससम्मिसिददुटुं णस्सदि जध सकराकढिदं ।। १३४३ ।। मारून माह ज्ञान र द्रियदूषितम् ।। समार्फरमपि क्षीरं सषिषं मंक्षु नश्यति ॥ १३९१ ।। विजयोक्या-वस्सवि समपि बहुगपि णाण नश्यति स्वयं बपि शान दियकपायसन्मिध । शर्कराषितं दुग्ध विपमिश्रमिष । माधुर्यात्सातिशयता दुग्धस्य शर्कराकथितपाद्वेन कथ्यते ॥ मूलारा-- पासपि विनश्यति । सुदं शुमास्यं । सकराकदिदं अचिमधुरमित्यर्थः ।। अर्थ-इंद्रिय और कषाय विकारोंस मिश्र दुआ बडुतसा भी शान नष्ट होता है. विपमिश्रित मी मीठा कवाया हुवा दूध नष्ट होता है अर्थात उसका स्वभाव नष्ट होता है. इदियकसायदोसमलिणं जाणं ण वट्टदि हिदे से ॥ वट्टदि अण्णस्स हिदे खरेण जह चंदणं ऊढं ॥ १३४४ ।। प्रानं परोपकाराय कषायेंद्रियदुषितम् ॥ किमूतमुपकाराय रासभस्थ हि चंदनम् ।। १३५२।। १३.३ Page #1319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचासः विजयोदया-शानं यदी तस्मै उपकारितया मिदमणि समोपकारि पनि प्रतिपयमलिनै परोपकारि तु भपत्ति खरणोद्धं चंदनादिकमिति सार्थः ॥ मूलारा- हिदे उपकारे | से तस्य ज्ञानवतः ।। उपकारितया प्रसिद्धमपि नोपकाराय भवतीत्यर्थः । अर्थ-इंद्रिय और कपार्योसे ज्ञान मलिन होता है तब वह अपने स्वामीका हित करने में असमर्थ होता है परंतु उस ज्ञानस दूसरों का हित होता है. गधा चंदनका बोझा धारण करता है परंतु उससे उसका भी हित होता नहीं. जो उस चंदन का उपभोग लेते हैं उनकाही उससे हित होता है. उसी तरह इंद्रियकवायसे जिसका ज्ञान मलिन हुआ है ऐसा आत्मा गधकेसमान स्वज्ञानसे अपना हित नहीं कर सकता है. ज्ञान प्रकाशकत्वमपि अहाति इंदियकसायणिग्गहणिमीलिदस्स हु पयासदि ण णाणं । रतिं चक्खुणिमीलस्स जधा दीवो सुपज्जलिदो ॥ १३४५ ॥ कयायाक्षगृहीतस्य न विज्ञानं प्रकाशते । निमीलितेक्षणस्येव दीपः प्रज्वलितो निशि ॥ १३९३ ।। विजयोदया-इंद्रियकरायपरिणामवाविति निगदति । इंद्रिय करसायणिग्गहणिमीलिदस्स इंद्रियकवायनिग्रह निमीलिनस्यान्मनो शानं न प्रकाशकं । रत्तिच गवाविव | चकबुणिमिलिदस्त निमोलिनवभुपः पुंसः । जद्द दीयो सुपज्जलिदो यथा सुप्रज्वलितः प्रदीपः ॥ __ मृलारा- णिमोलिदस्स अनुपयुक्तस्य । इंद्रियकषायाभिभूतस्येत्यधैः । पयासदि ण वस्तुप्रकाशक न भवति । रति रात्रौ । चणिमीलिदस्स पिहितनेत्रस्य । ज्ञानका पदार्थको प्रकाशित करना अर्थात् जानना यह धर्म है परंतु वह भी कपायवश होनेपर नष्ट होता है ऐसा कहते हैं. अर्थ-इंद्रिय और कषायवश होकर आत्मा हीनावस्थाको पोहोंचता है तब उसका ज्ञान पदार्थ स्वरूपको मकाशित करनेमें असमर्थ होता है. जैसे रातमें कोई आदमी आपने भीचकर सोया हुआ है ऐसी परिस्थितिमें उसके Page #1320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- - --- --- - -- लाराधना आश्वासः पास जलता हुआ भी दीपक क्या पदार्थोको दिखानेमें उस पुरुषको सहायक होता है ? इसी प्रकार कपायवश होनेपर आत्माको उसके ज्ञानसे पदार्थों को जाननेमें सहायता नहीं मिलती है. इदियकसायमइलो बाहिरकरणणिहुदेण वेसेण ॥ आवहदि को वि विसए सउणो वीदंसगेणेव ॥ १३४६ ॥ पहिनिभृतयेषेण गृहीते विषयान्सदा ॥ अंतरामलिनः कंको मीनानिव वराशयः ॥ १३९४ ।। विजयोध्या--दायकसायमइलो इंद्रिययायपरिणाममलिनः वाहिरकरणणि देण वेसण । चाहाया गमनादिकाराः प्रियाया नितन वपेण । कोई विसा आवहदि । कश्चिद्विपमानावइति आत्मनो भोगाय ॥ मलारा- बाहिरकर गणिहदेण। गमनागमनादिक्रियामवृतेन । येसेण आकारेण । आवहदि सेयते। भवण पक्षिणः । त्रीसगेणेव बीतकनव । गृहधृतशिभितपक्षिणो यथा व्याध इति शेषः । अन्यस्तु सउणो बीसंगणेव इति पठित्वा पक्षी पंकवा यथेति प्रतिपन्नः । तथा च तद्मथ: पायाझो कुटीश्चित्ते बहिनिभृत्तवेषयान ॥ आदत विषयांबवा निभृतः शकुनो यथा ॥ अर्थ---इंद्रिय और कषायवश होकर जिसका आत्मा मलिन दुआ है ऐसा पुरुष बाध आना जाना वगरह क्रियाओंसे अपना मुलस्वरूप-मालिनस्वरूप छिपाकर विषयोंका सेवन करता है परंतु मन में यह निःशंक नहीं रहता है अर्थात् मेरा मलिन स्वरूप कदाचित् लोक जानेंगे ऐसा भय हमेशा उसको व्यथित करता है. जैसे पारधी किसी पक्षीको पकडकर उसको शिक्षण देकर उसका पूर्वस्वरूप छिपाता है वैसे कषायमलित आरपा अपना मलिन स्वरूप छिपाकर बाह्य क्रियाओसे अपनी शुद्धता दिखानेका प्रयत्न करता है परंतु वह मन में हमेशा शंकित ही रहता है. ३ap घोड़गलिंडसमाणस्स तस्स अभंतरम्मि कुधिदस्स !! बाहिरकरणं किं से काहिदि बगणिहुदकरणस्स ॥ १३४७ ॥ Page #1321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १३०५ घोटकोच्चारतुल्यस्य किमन्तः कृधितात्मनः ॥ दुष्टस्य बकचेष्टस्य करिष्यति बहिः क्रिया ।। १३९५ ॥ विजयोदया-स्रोइंगलिंडसम्राणस्स घोटकलिंडसमामस्य यथा बहिर्मस्णता न तद्ववन्तर्महणता । तद्धकस्य. चिदा चरणं समीचीनं नाभ्यंतराः परिणामाः शुखाः । स पचमुच्यते । बाहिरकरणं किं काहिदि बाह्यक्रिया अनशना. विका किं करिष्यति । अभंतरम्मि कुधिदस्स अंसः कुषितस्स 1द्रियकवायसंशाऽशुभपरिणामेन नष्टाभ्यंतरतपोवृते. रिति यावत् । यगणिष्टुरकरणस्स कनिभृतक्रियस्य । मलारा- घोडयलिंडसमाणस्स यथा घोटकलिंडं बर्भिसृणं मध्ये परुषं तथा यहिः सुवृत्तोऽन्तरशुद्धत्त इत्यर्थः । कुधिदस्स इंद्रियकपायज्ञादूपितम्य । बाहिरकरणं अनशनादितपश्चरणं । किं से काहिदि कि तस्य करिष्यति । वाणिहुदकरणस्स बकवन्मूचेयस्य । अर्थ-घोडे की लीद अंडर गधियुक्त रहती है परंतु बाहरसे यह स्निग्धकातिसे युक्त होती है. अंदरभी वह वैसी नहीं होती, उपर्युक्त दृष्टान्तक ममान किसी पुरुषला-मुनिशाचरण ऊपरसे अच्छा-निर्दोष दीख पडता है, परंतु उसके अंदरके विचार कषायस मलिन अर्थात् गंदे रहते हैं. यह बाधाचरण उपवास, अवमोदर्यादिक तप उसकी कुछ उन्नति नहीं करता है. क्योंकि इंद्रियकषायरूप अंतरंग मलिन परिणामोंसे उसका अभ्यंतर तप नष्ट हुआ है. जैसे बगुला ऊपरसे स्वच्छ और ध्यान धारण करता हुआ. दीखता है परंतु अंतरंगमें मत्स्य मारमेके गंदे विचारोंसे युक्तही होता है. SACS बाह्य तपः करणीयतयोपदिध तत्स्वफलं संपादयत्येष किमुच्यते यायक्रिया किं करोतीत्याशंकायां सरिराच बाहिरकरणविसुद्धी अम्भतरकरणसोधणस्थाए । ण हु कुंडयस्स सोधी सक्का सतुसस्स काहुँ जे ॥ १३४८ ॥ मता पहिः क्रियाशुद्धिरतमलविशुद्धये ।। बहिर्मलमयेनेष तंदुलोऽन्तर्विशोध्यते ॥ १३९६ ।। विजयोदयाचाहिरकरणविमुखी बाह्यक्रियाविशुद्धिः 1 अभंतरकरणसोधणरथाए अभ्यंतरक्रियाणां विनया... वीनां शुद्धये, अभ्यंतरतपसा लज्येष बहुतरकर्मनिर्जराक्षमाणां परिपूजये धूयंते बाह्यान्याशनादितांसि । ततोऽन्यतया Page #1322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास बाह्यान्युपविधानि । यदि यवथै तत्वधानं इति प्रधानताभ्यंतरतपसः। तच शुभशुपरिणामात्मकं । तेन विनान निर्जरायै बाह्यमलं । उक्तं च-बारा तपः परमदुश्वरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिहणाथै इति। ण खु कुंडयस्ससोधी सका काई जे नेवारतर्मलस्य शुद्धिः शक्या कर्नु । कस्य ? ससस्स सतुषस्य धान्यस्य । न चैवं बाधं सपो नानुष्यमित्यबसेयं यतःमूलारा- अभतरेत्यादि अभ्यंतरक्रियाणां बिनयादीनां शुद्धधध अभ्यंतरतपसा लघ्व्व बहुतरकर्मनिजरणक्षमाणा परिवृदये यायतपांसि क्रियते । इति न व्यर्थतया तान्युपदिष्टानि । यद्धि यदर्थ तत्र तत्प्रधानमिति, तत्प्रधानताभ्यंतरक्षएस इति तात्पर्य ॥ कोटयस अन्तर्मलस्य । सुद्धी स्फोदनं सतुसस्स सतुषस्य घान्यस्य । मायनर नरम: दाहिये ऐसा आगममें कहा है. और वह अपना फल जीवको देता ही है परंतु आप तो उसको निष्फल बता रहे हैं अतः यह आपका कहना विरुद्धसा मालूम होता है । इस प्रश्नका आचार्य उत्तर PERH अर्थ-बाह्य क्रियाओंकी अनशनादि तपोंकी निर्मलता अंतरंग विनयादि तपाको निर्मल करनेके लिये होती है अर्थात अभ्यंतर तप थोडे कालमें बहुत कोंकी निर्जरा करनेका सामर्थ्य रखते हैं. और बाह्य तप इनतपोंका सामथ्र्य बढ़ाता है. अतः पाय तपाको 'बाह्य यह नाम सार्थक है. अभ्यंतर तपके लिये बाह्य तप है अतः अभ्यंतर तप प्रधान है. यह अभ्यंतर तप शुभ और शुद्ध परिणामोंसे युक्त रहता है. इसके बिना बाबतप कर्म निर्जरा करने में असमर्थ है. श्रीसमन्तभद्र आचार्य हे प्रभो आप अतिशय काठिन ऐसा बाह्य तप अन्तरंग तपकी वृद्धीके लिय करते थे' ऐसी जिनेश्वर की स्तुति करते हैं. इससे अभ्यंतर तप प्रधान है. और बाह्य तपसे अभ्यंतर तपमें विशुद्धता प्राप्त होती है यह सिद्ध होता है. बाह्य तप निष्फल अर्थात् व्यर्थ है एसा समझना योग्य नहीं है, जो धान्य सतप है अर्थात् ऊपरकं छिलकेसे युक्त है उसका अन्तर्मल नष्ट नहीं होता है. जब छिलका नष्ट होता है तब धान्यका अन्तर्मलभी नष्ट होता है. अतः अन्तरंग तपकी विशुद्धताके लिये बाय तप भी करना चाहिये ऐसा आचार्यका मत इस गाथासे स्पष्ट होता है. अभंतरसोधीए सुई णियमेण बाहिरं करणं ॥ अभंतरदोसेण हु कुणदि णरो बाहिरं दोसं ॥ १३४९ ॥ १३०६ Page #1323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना 29 आश्वासः अन्तःशुद्धौ बहिःशुद्धिनिश्चिता जायते यतः ॥ बाह्यं हि कुरुते दोपमन्तर्दोषं विना कुतः ॥ १३९७ ।। चिजयोदया-अभंतरसोधीए अभ्यंतरशुद्ध्या । सुद्धं णियमेण बाहिरं करणं शुझं निश्चयेन यायं करणं । अम्भसोसेश ख गंता गरि मनोज तिवारमादिना । कुणादि गरो बाहिर दोस करोति मरो बाह्यान्दो पान्याकायाश्रयान् ॥ मूलारा- सुद्धं निर्दोपं भवति । याहिरकरणं वाक्कायक्रिया बाहिरं वाक्कायाश्रयं । अर्थ-अभ्यंतर शुद्धिपर नियमसे बाह्य शुद्धि अवलंबित है. अंतरंग यदि अशुद्ध है तो मनुष्य वचन । और शरीरके आश्रयसे दोष करता है. इंद्रिय और काय परिणाम ये अन्तरंग दोष है इनसे आत्मा जब मलिन होता है तब बचन और शरीरसे भी दोष होता है और यदि अन्तरंग परिणाम निर्मल है तो रचनवृत्ति और शरीर प्रवृत्ति भी निश्वयसे शुद्ध होती है. लिंगं च होदि अभंतरस्स सोधीए बाहिरा सोधी । भिउडीकरणं लिंगं जह अंतो जादकोधस्स ॥ १९५०॥ पहिः शुद्धिर्यतो लिंगमन्ताशुद्धःप्रजायते ।। मांतः कोपविमुक्तेन भरकृतिः क्रियते यहिः ॥ १३९८ यत्र प्रयान्ति स्थितिजन्मवृद्धीस्तयते यैईवयं कषायैः ॥ काष्ठं हुताशैरिव तीयतापैस्ते कस्य कुर्वन्ति न दुःखमुग्रम् ॥ १३९९ ॥ यैः पोष्यने दुःखदानप्रवीणास्तेषां पीडां ये ददन्त दुरन्ताम् ।। भीमाकारा व्याघयो वा प्ररूढाः सत्यक्षाथीः कस्य ते न क्षयाय ||१४०।। इति सामान्याक्षकषायदोषाः ॥ घिजजोदया–लिमे च होदि चिरं च भवति । अम्भतरस्स परिणामसोधीए अभ्यतरस्य परिणामस्य शुद्धः । बाहिरा सोधीबार शुधिरनशनादितपोषिषया 1 भिउजीकरणं लिंग भृकुटीकरण लिंग । जह यथा । अंतो जादकोधस्स १३०७ Page #1324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास अंतर्जातस्य कोपस्य लिंग लिंगभावः । बाह्यानामभ्यतराणां चैव भवति यदि परस्पराधिनाभाषिता स्यादग्निधूमयोरिव । प्रसिद्धच लिंगलिगिभायः कार्येण बाहोन कारणस्याभ्यंतरस्येति भावार्थः ।। मूलारा- लिंग गमकं । धूम एव वन्हे। कार्याख्यं सायनमित्यर्थः । अम्भतरस्स अन्तःपरिणामस्य | पाहिरा अनानादितपोषिपया । सामान्येन्द्रियकपायदोषाः ॥ अर्थ-अभ्यंतर परिणाम शुद्धीका अनशनादि बाह्य तप लिंग है, चिह्न है. जैसे किसी मनुष्यके मनमें क्रोध जब उत्पन्न होता है तब उसकी भोहें ऊपर चढ़ती है और ज्यादह वक्र होती हैं. अर्थात् चढी हुई भोहें देखकर लोक इस मनुष्य के मनम क्रोधका विकार उत्पन्न हुआ है ऐसा अनुमान करते हैं. इस प्रकार बाह्य और अभ्यंतर परिणामोंमें लिंगलिंगभाव है. अर्थात् बाघ लिंग है अंतरंग लिंगी है. अभ्यंतर और बाह्य इनमें जब आपसमें धूम और अनिके समान अधिनाभाव उहता है तर लिंगठिगिमात्र गाया जाता है और बाह्य कार्यरूप और अभ्यंतर कारणरूप होनेसे अविनाभाव इनमें होता है ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये. ते चेव इंदियाणं दोसा सवे हवति णादन्या ।। कामस्स य भोगाण य जे दोसा पुव्वणिविष्ठा ।। १३५१ ॥ ये रामाकामभोगानां प्रपंचेन निरूपिताः ।। अक्षाणामपि ते योषा द्रष्टव्याःसकलाः स्फुटम् ।। १४०१॥ विजयोदया- येव बियाणे दोसा न पद्रियाणां सर्वेषां दोपा भवन्ति इति ज्ञातव्याः । के? ये दोसा पुष्प णिदिष्टये दोषाः पूर्वनिर्दिष्टाः । कामरस य भोगाण य कामस्य भेगानां च संबंधितया निर्दिष्टा दोषाः ॥ इदानी विशेषण इंद्रियदोषान्गायानधन व्याचिख्यासुः पूर्व सामान्येन तदभिधानाय गाथाद्वयमाहमुलारा स्पष्टम् ॥ अर्थ- काम और भोगसबंधी जो दोष पूर्व कहे हैं वे ही सर्व दोष इंद्रियोंफे विषयमें भी समझने चाहिए. महुलितं असिधारं तिकवं लेहिज्ज जध णरो कोई ॥ तध विसयसुहं सेवदि दुहावह इहहि परलोगे ॥ १३५२ ।। Page #1325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १३०९ मधुलिसामसेर्धारां तीक्ष्णां लेढि स मूढधीः ॥ इंद्रियार्थ सुखं भुंक्ते यो लोकद्वयदुःखदं । १४०२ ।। विजयोदया - मधुलित्तं मधुना लिप्तां । असिघारं असेधरां । तिक्खं तीक्ष्णां । जह णरो कोई लेहिज्ज यथा तरः कचिदास्वादयति जिया । तह बिसयहं सेवाद तथा विषयसुखं सेवते । दुडाबह ह य परलो दुःखावहमंत्र जन्मनि परत्र च स्वल्पसुखतया बहुदुःखतया च साम्यं पान्तदालिकयोः ॥ विषयसेवायां लोकयदुःखभूयिष्ठायां स्वल्पसुखपट्यस्य प्रयोजकत्वं दृष्टान्तेन समर्थयते 1 मूलारा— लेहेज जिह्वया स्वादयेत् । अर्थ - जैसे कोई पुरुष मधसे लिप्त तरवारकी तीक्ष्ण धारा जिह्वासे चाटता है वैसे सर्व प्राणी इहलोक में और परलोक दुःखदायक विषयों का सेवन करते हैं. तरवारकी मधुलिप्त तीक्ष्ण धारा चाटने से थोडासा सुख मिलता है परंतु बहुत दुःख होता है, कैसे विषय भी और दुःख देते हैं अतः दृष्टांत और दार्शन्तिकका साम्य है. मत्वाच पकै केन्द्रिय विषय यशषार्तभिर्मृगादिभिरुपद्रवो छातः किं पुनरशेपैद्रिय विषयलंपटजनः प्राप्येऽनर्थे वाच्यमिति ( सण मओ रुवेण पत्रंगो वणगओ विफरिसेण ॥ मच्छो रसेण भमरो गंधेण य पाविदो दोसं || १६५३ || ) रूपशब्द रसस्पर्शगंधासक्ता यथाक्रमम् ॥ पतंग मृगमीने भभ्रमराः प्रलयं गताः ॥ १४०३ ।। विजयोदया सण यो शट्रेन मृगः वाष्पच्छेच सरस सुरभिणाग्रग्रासेन, मृदुपवनानीतशैत्यस्फटिक संकाशपानीयपानेन च पुष्टमूर्तिरंतःकरणमिव लघुतरमथाणो इरिणो व्याधकलगीतश्रवणेन सुखाकाणतलोचनः, दुयमष्टासमान निशितविशाल विशिखावलीभिश्रतनुर्जयति प्रियतमान्प्राणान् । बणगजो वि फरिण घनमजध विलासिनीमय दुष्प्रवेशासु, संसृतिरिध महतीषु मरण्यानीषु विपद व दुरतिक्रमणीयासु सल्लकीतरुणतरुशाखाहारः, रम्यगिरिनदीविपुलहने, स्पेच्छापानतरुणा निमज्जनो मज्जनैरुपगतप्रीतिः, अनुकूलानेककारिणीक चकेनानु आश्वासः १२०९ Page #1326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाराधना १३१० गम्यमानो वासिताविशालजयनस्पर्शनोपनीत प्रीतिदकलो विवेतनो रागलविमिरपटला गुंतलोचनो महति गर्ने निपतितः परं व्यसनमवगाहते। मच्छो मत्स्यः युवजनमनः सरोनपायि विलासिनीविटोचनविभ्रमविलंबनोद्यतः स्वल्पाहाररसलोलुप विषवमाश्ववशः प्रशति । विचित्रसुरभिप्रसूनप्रकररजोऽकूरागो भ्रमरः । चिपपाकुसुमगंधनापस प्रियतमप्राणो भवति । एवमेते दोषान्प्रापिताः ॥ इंद्रिय विशेषदोषान्याधा सप्तकेन व्याचिख्यासुरेकैकस्यापीन्द्रियविषयस्थ सेवायां मरणांतचिपदः संपर्यंते किं पुनः पंचानामिति गाथाद्वयेन दृष्ट्रांतस्फुटमाचष्टे - मूलारा -- पाविदो प्रापितः । दोसे मरणाव सानदुःखानि ॥ " एकेक इंद्रियोंके वश होकर भृंग वगैरे प्राणिओंको दुःख प्राप्त हुआ है. परंतु मनुष्य प्राणीको पंचेंद्रिय विषयपटता से क्यों न दुःख प्राप्त होगा ? अर्थात् इन पंचेंद्रिय विषयोंसे अवश्य अनेक अनर्थ प्राप्त होते हैं. इसी विषयका विवेचन अर्थ --- शब्द सुनकर हरिण मरण कष्टको प्राप्त होते हैं. हरिण जंगलमें केवल मुखके वाष्पसे भी टूट सके ऐसा कोमल तृण खाकर और मृदु वायुके शैत्य स्पर्शसे ठंडे पानीका स्थान जानकर वहांका स्फटिक तुल्य निर्मल पानी पीकर पृष्ट होता है. अंतःकरणके समान वेगसे दौडनेवाला यह हरिण जब व्याधका गायन सुनता है तब सुखसे आखें मीचकर खडा हो जाता है. दुष्ट यमके दाढाके समान तीक्ष्ण और विशाल वाणपंक्ति से शरीर भिन्न होने पर वह अपने अत्यंत प्रिय प्राणोंको छोड़ देता है. हस्ती स्पर्शनेंद्रिय वश होकर अतिशय दुःखको प्राप्त होता है. विलासिनी खीके हृदयंके समान प्रवेश करने में अशक्य, संसारके समान विस्तृत विपत्तीके समान दुर्लभ्य ऐसे अरण्यों में सल्लकी के वृक्षोंके कोमल पोंका और शाखाओं का आहार बनहाथी करता है. सुंदर पर्वतोंपरसे बहनेवाली नदियोंके अगाध न्हदमें स्वच्छंदसे पानी पीना, स्वेच्छासे मज्जन करना इन बातों से वह प्रसन्न होता है- अनुकूल अनेक हथिनीओंके साथ विहार करता है. तरुण हथिनीके विशालजघनका स्पर्शन करनेसे वह उन्मत्त होकर अचेतनसा होता है. रागरूप गाढांधकारसे उसके नेत्र सुंद जाते तब वह महान में गिरकर अतिशय संकट को प्राप्त होता है. मत्स्य भी रसनेंद्रिय वश होकर प्राणोंको छोड़ बैठता है. सुंदर स्त्रियोंके विशाल लोचनके विभ्रमका आश्वास ६ १३१० Page #1327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आमासा १३.११ अनुकरण करनेवाला मत्स्य स्वल्प आधारके रसमें लोलुप होकर शीघ्र ही प्राणों का नाश करनेवाली विपत्तीको प्राप्त होता है. नाना प्रकारके सुगंधित पुष्प समुदायके परागसे व्याप्त हुआ भ्रमर विषवृक्षक पुष्प का सुगंध सूंघकर अपने प्रिय को ममाता है. पतंग नामक पक्षी दीपकको सवर्ण कलिका समझकर उसपर ग्रहण करनेके लिए झपटता है और अपन माण छोड़ देता है. इस प्रकारसे पतियंच प्राणी दु:खको प्राप्त होते है, तिरचा दुःख प्रतिपाद्य विषयगगजनितं मनुजगती दर्शयति । इदि पंचहि पंच हदा सहरसफरिसगंधरूवेहिं ।। इको कह ण हम्मदि जो सेवदि पंच पंचेहि ॥ १३५४ ॥ सरजए गंधमित्तो घाणिंदियवसगदी विणीदाए । विमपुप्फगंधमग्घाय मदो णिरयं च संपत्तो ।। १५५९ ॥ रूपशब्दरसस्पर्शगंधानां यदि हन्यते ॥ एकैकेन तदा कस्प सौख्यं पंच निषविणाम् ॥ १४०४ ॥ मरवां गंधमित्राख्यो घाणेंद्रियवशं गतः॥ विषप्रसूनमााय विपद्य नरकं गतः॥ १४०५॥ विजयरोदया-साजूए सरय्यां नयां । गंधमित्तो गंधमियो नाम भूपालः । मदो मृतः । घिणीवाप विनीतापुरी पतिः । यानिदियषसगदो प्राणेंद्रियवशंगतः। विसगंधपुप्फमग्घाय विषचूर्णवासितपुष्पमाघ्राय । मदो मृतः । णिरये च संपत्तो नरकं च संप्राप्तः । तीवविषयरामाज्जातेन क्रमभारेण । मूलाग-पंच विषयान् । एता श्री विजयो नेच्छति ॥ एवं तिरचा प्रत्येक तीविषयरागहेतुकं दु:ख प्रदर्य मनुष्याणां प्रसिद्धा त्यांनः पंचभिः प्रदर्शयिष्यनादौ गंधासक्तितीव्रताहतमनर्थजातं कथयति Page #1328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १३१.. मूलारा-सरऊए सरयूसहितायां नयां । गंधमित्तो गंधमित्रो नाम राजा । विणीदार अयोध्यायाः स्वामी । विसपुष्कगंध ज्येष्ठभानुप्रयुक्तरौद्रविधरजोवासितसुरभिसमकुसुमगंधं । अग्याय सिधित्वा । संपत्तो गतस्तीविषयरागाजितदुष्कृतपाकोद्रेकेण ॥ (तिर्यचोंके दुःखका वर्णन कर अब मनुष्य गतिमें विषयरागसे उत्पन्न हुये दुःखका वर्णन करते है-- अर्थ-इस प्रकार शब्द, रस, स्पर्श, मंध और रूप ऐसे पांच विषयोंसे हरिण, मत्स्य, भ्रमर, और पतंग ऐसे तियेच प्राणोंसे रहित होगये हैं. परंतु जो पांचोहि विषयोंका सेवन करता है ऐसा मनुष्य क्यों न प्राण मुक्त हो जायेगा। अर्थ--विनीता नगरी में गधमिन नामक राजा घ्राणेंद्रियके वश होकर विपगंध पुष्प को संपकर मर गया और नरकमें उत्पन हुआ. तीव्र विषयरागसे कर्मबंध होकर यह राजा नरकमें उत्पन्न हुआ. ) पाइलिपुत्ते पंचालगीदसहेण मुच्छिदा सती ॥ पासादादो पडिदा गठ्ठा गंधव्वदत्सा वि ।। ११५६ ॥ मूर्षिछता पाटलीपुत्रे अव्यपंचालगीतितः ।। मृता गंधर्वदत्तापि प्रासादात्पतिता सती ।। १४०६ ॥ विजयोदया-पाटलिपुत्रे पांचालस्य गीतशब्देन मूर्छिता सती प्रासादात्पतिता नश गंधर्वदत्ता नामधेया गणिका । मुलारा---पांचाल गायनोपाध्यायनामेदं । गंधर्वदत्ता गणिकानामेदम् ॥ अर्थ-पाटलिपुत्रनगरमें पांचालनामक गायनाचार्यका गाना सुनकर गंधर्व दत्ता नामक वेश्या मृञ्छित होगई और प्रासादसे गिरकर भरगई.) १३१२ माणुसमंसपसतो कंपिल्लवदी तथैव भीमो वि ॥ रज्जम्भट्टो णहो मदो य पच्छा गदो णिरयं ॥ १३५७ ॥ Page #1329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEARISH माराधना आचासः मर्त्यमांसरसासक्तः कांपिल्यनगराधिपः ॥ राज्यभ्रष्टो मृतः प्राप्तो भीमः श्वभ्रमुरुयधाम् ॥ १४०७ ॥ विजयोदया-मानुषमासप्रसक्तः कांपिल्यपुराधिपो भीमो राज्यभ्रो नो मृतः पश्चाबरकमुषयातः ॥ मूलारा-कपिलवदी कापिल्यपुराधिपतिः॥ ( अर्थ---कांपिल्यनगरका राजा भीम मांसभक्षण करने में लुब्ध हुआ था इस मांसासक्तिदोषसे वह राज्यभ्रष्ट होकर मृत्युको प्राप्त हुआ और नरकमें उत्पन्न हुआ.. चोरो वि तह सुवेगो महिलारूवम्मि रत्तदिठ्ठीओ। बिद्धो सरेण अच्छीसु मदो णिरयं च संपत्तो ॥ १३९८ ॥ रुपमास्करोधीनो रामारूपविषधीः ॥ पाणविद्वेक्षणो मृत्वा प्रपेदे नारकी पुरीम् ।। ११०८॥ विजयोक्या-बोरो पिता सुषेगी सुवेगनामधेयौरोपियुषतिरूपाष्टरष्टिः शरैर्षियः क्षणेन मृतो नरकमुपगतः।। मूलारा-सुवेगो सुबेगसंमः । अच्छीसु नेत्रयोः ॥ अर्थ--सुवेग नामका चोर त्रियोंके रूपावलोकनमें मुग्ध होकर बाणोंसे विद्ध होकर तत्काल मरणको प्राप्त हुआ और नरकमें उत्पन्न हुआ. फासिदिएण गोवे सत्ता महदिपिया वि णासके ॥ मारेदूण सपुत्तं धूयाए मारिदा पच्छा ॥ १५५९ ॥ गोपासक्ता सुतं हस्वा नासिक्यनगरे मृता ॥ पापा गृहपतेर्भार्या दुहित्रा मारिता सती ।। १४०९॥ दुःखदाननिपुणा निषेथितास्पर्शरूपरसगंधनिस्वनाः॥ दुर्जना इव विमोह्य मानवं योजयति कुपथे प्रधीयसि ।। १४१०॥ १३११ Page #1330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लासपना आश्वास अग्मिनेव षयं पश्यते सुखते नु विषयर्विशक्तितः ॥ तत्कथं विषयवैरिणो जनाः पोषयन्ति भुजगानिवाधमान् ॥ १४११ ।। इति इंद्रियविशषदोषाः। विजयोदया-फासिदिएण स्पशनन्द्रिया हेतुना । गांचे सत्ता गात्मीये गोपाले आसक्ता । गियदिपिया राष्ट्रकूटमार्याणासके नासिक्ये नगरे । मारे दृष्ण सपुतं स्वपुत्र इत्वा । धूदाप दुहित्रा । पच्छा पश्चात् । मारिदा मृति नीता ॥ इविया ॥ मूलारा-गोवे गोपाले । गहयदिपिया राष्ट्रकूट भार्या । मासिके मासिक्यनगरे । मारेदृण हत्वा तिष्ठन्ती ।। सामान्य विशेषाभ्यामिद्रियोषाः ।। ( अर्थ-नासिक्य नगर में अपने पाले हुये ग्यालेपर आसक्त हुई एक ग्रामकूटकी भार्याने अपने पुत्रका वध किया तदनंतर अपनी लडकी के द्वारा मारी बानेपर मरकर नरकमें उत्पन्न हुई. इंद्रियोंका वर्णन हुआ. ) एवामिवियदोषानुपदर्य कोपदोधप्रकटनार्थ प्ररम्यते-- रोसाइटो णीलो हृदपपभो अरदिअग्गिसंसत्तो ॥ सीदे वि णिवाइज्जदि वेवदि य गहोवसिहो वा ॥ १३६० ॥ अरत्यधिःकरालेन श्यामलीकृत विग्रहं॥ मस्विचति तुपारेऽपि तापितः कोपबहिना ॥ १११२ ॥ विजयोदया-रोसायिही रोषाविष्टः 1 नीलयों भवति इदपभो विनदीतिः । अरदिग्गिसंततो परत्यनिसंतप्तः । सीदे वि णिवाइज्जद शीतपि कृषितो भति । यदि बेपते च । गहोसिहोय प्रदेणोपसृष्टाय ॥ इतः कषायविशेषदो गन्गाथाचतुर्विंशतोपदर्शयिध्यपूर्व कोपदोपान्पंचदशगाथाभिः कथयति मूलारा--रोसाइट्टो कोपग्रस्तः। नीलो यामळवणः । हपभो विनष्टदीप्तिः । णिवाइजदि तृषितो भवति । प्रस्विद्यतीत्यन्यः । वेवदि कंपते ॥ .. अब इंद्रियदोषोंका वर्णनकर अप कोपके दोषोंको प्रगट करनेके लिये शुरुआत करते हैंअर्थ-जब मनुष्य क्रोधसे संतप्त होता है तब नीलवर्ण अनता है. अर्थात् क्रोधोदय होने के पूर्व मुखका जो १३१४ Page #1331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः वर्ण दीखता था उससे भिम मलिन ऐसा वर्ण होता है. उसकी कांति चष्ट होती है. अरति-तिरस्काररूप अग्रीसे यह जलने लगता है. जाडेके समयमें भी उसको प्यास लगती है. और पिशाचपीडित मनुष्पके समान वह कंपता है, भिउडीतिवलियवयणो उग्गदणिस्चलसरचलक्खक्खी ॥ कोवेण रक्खप्तो का जराण भीमो परो भवदि ॥ १३६१ ।। अभाष्या भाषते भाषामकृतां कुरुते क्रियाम् ॥ कोपब्याकलितो जीवो ग्रहास इय कम्पते ॥ १४१३ ॥ त्रिवलीकालतालीको रक्तस्तब्धीकृतेक्षणः ।। वंतदष्टाधरो दुष्टो जायते राक्षसोएमः ।। १४१४ ।। विजयोदया-भिउडीतिघलियययणो भृकुटीनियलिसवदनो । उम्गदपिश्चलमुरत्तटुसत्थो उवनिश्चलसरकरूप होमेण दोघेण हनुमा । मनसो राक्षस इव । पारापा भीमो पारो होदि। नराणां भीमो भयाबहोभवति नरः ॥ मूलारा-तिबलिद ललाटवलित्रययुक्तं । उग्गद निर्गत । लुक्सक्खो रूक्षचक्षुः । भीमो भयावहः॥ अर्थ-क्रोधसे भोहें चढ़ती हैं और ललार तीन बलिऑसे युक्त होता है, क्रोधसे आंखे बद्दी वही होती हैं, निश्चल होती हैं और लालसुर्ख होती है. तब मनुष्य मानो राक्षसके समान भयानक दीख पडता है. ma जह कोइ तत्तलोह गहाय रुट्ठो परं हणामिति ॥ पुन्बदरं सो डझदि डहिज्ज व ण वा परो पुरिसो ॥ १३६२ ।। आददानो यथा लोहं परदाहाय कोपतः ॥ स्वयं प्रदाते पूर्य परवाहे विकल्पनम् ॥ १४१५ ॥ विजयोदया-जह कोर यथा कभित्तत्तलोइंगहाय सप्तलो पहीत्वा । किमर्थ रहो परं हणामिसि रुपः परं इम्मीति । पुन्चदरं सो उज्झदि पूर्वतरं स पष दयते तेन तन लोशन गृहीतेम । उजिमजस परो ण या पुरिसो यछते पर। पुरुषो न या दयते ॥ मूलारानहाय गृहीत्वा वर्तमानः || १३१५ Page #1332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना अर्थ-जैसे कोई ऋद्ध मनुष्य दूसरोंका पात करनेके हेतुसे अग्निसे तापा हुआ लोहा हाथमें लेता है गुमशाहीवी इध राप अमितत लोह पिंडसे दग्ध होगा या नहीं भी. आश्वास तध रोसेण सयं पुवमेव डज्झदि हु कलकलेणेव ॥ अण्णस्स पुणो दुक्खं करिज्ज रुठो ण य करिज्जा ॥ १३६३ ॥ विदधानस्तथा कोपं परधाताय मूढधीः ।। स्वयं निहन्यते पूर्वमन्यातो विकल्प्यते ॥ १४१६ ।। विजयोदया-तध रोसेण तथा रोषेप स्वयं पूर्व वखते द्रवीकृत लोहसंस्थानीयेन । अन्यस्य पुनर्दुःखं कुर्यान वारुष्ट मूलारा---- कल फलेणेव ताम्रद्रवेण यथा ।। अर्थ-- तप्त लोहेके समान कोधी मनुष्य प्रथम स्वयं संतप्त होता है तदनंतर वह अन्य पुरुषको दुःखित कर सकेगा अथवा नहीं भी. नियमपूर्वक दुःखित करना इसके हाथ नहीं है. जिसके ऊपर हम रोष करते है उसके शुभ कर्मका उदय होगा तो हम उसका बाल भी बांका नहीं कर सकते हैं. पासेदूर्ण कसायं अग्गी वासदि सयं जधा पच्छा ।। णासेदूण तध णरं णिरासवो णस्सदे कोधो ।। १३६४ ॥ कोधो सत्तुगुणकरो णीयाणं अप्पणो य मण्णुकरो ।। परिभवको सवासे रोसे गासेदि परमवसं ।। १५६५ ॥ आधारं पुरुषं हत्वा पापः कोपः पलायते॥ . प्रदा जनकं काष्टं वन्हिः किं नोपशाम्पति ।। १४१७॥ शपकाराद्रोषो यः स्वबंधूनां च शोककृत् ॥ स्थानं कुलं बलं मोध हत्या नाशयते नरम् ॥ १४१८ ॥ RAPAR भ Page #1333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना आधार SRO विजयोदया-रोसो सत्तुगुणकरो रोषः शत्रोयो मुणो धर्मोऽपकारित्वं नाम सं करोति । अथवा राणा गुणमुपकारं करोति रोषः । यसोऽम्य हि रोपवनेन दह्यमानं तं दृष्ट्या ते तुध्यति । कथमस्य रोषमुस्पावयाम इत्येषमारतास्ते सवापीतिणीयाणं अपणो वा निजामामात्मनश्व यांधवानां शोक करोति । परिभवकरो सवासे स्वनिवासस्थाने परिभवति । से. मामिसंगमयशं नाशयति । मूलारा -- सगासयं आत्माधारं । एतां श्रीविजयो नेञ्छति ॥ मुलारा-सन्तुगुणाकारो शत्रोर्यागुणोऽपकाराख्यस्तं करोति ॥ अथवा शत्रूणां गुणमुपकार करोति । ते हि नरं कोपाग्निना दस्खमान कोधकृतं मतिभ्रंश वा हवा तुष्यन्ति ॥ पीयाणं बांधवानां । मण्णुरो शोकजनकः । सवासे स्वनिवासस्थाने परिभवमानयतीत्यर्थः ।। अर्थ-जैसे अग्नि अपनी आधारभूत लकडीको प्रथम जलाकर पश्चात् स्वयंभी नष्ट होती है वैसे क्रोधभी अपने आधारस्तंभ पुरुषका प्रथम नाश करके अनंतर स्वयं शांत होती है. अर्थ-शत्रूमें अपकार करना यह गुण है वही गुण क्रोधमें भी है अर्थात् क्रोध जीवपर अपकार ही करता है. अथवा क्रोध शपर उपकार करता है क्योंकि जब मनुष्य क्रुद्ध होता है तब उसके शत्रुओंको आनंद उत्पन्न होता है और इसको हमेशा क्रोध किस प्रकारसे उत्पन्न किया जा सकेगा उसका ही विचार कर चे अपने प्रतिपक्षको क्रोधयुक्त करते हैं. क्रोधसे मनुष्य अपने बांधवोंको भी कष्ट पोहोंचाता है उनको शोकयुक्त करता है. क्रोध अपने घरमें अपमानको लाता है और अपने आश्रयस्थानका नाश करता है. ण गुणे पेच्छादि अवददि गुणे जंपदि अपिदव्वं च ।। रोसेण रुदहिदओ णारगसीलो णरो होदि । १३६६ ।। गुणागुणो न जानाति वचा जल्पति निष्टुरं ।। नरो रौद्रमना रुष्टो जायते नारकोपमः ॥ १४१९॥ विजयोच्या- गुणे पेदि गुणं न पश्यति यस्मै कुप्यति । अवदति निंदति । गुणे गुणानपि सदीयान् । जंपदि अजंपिदव्वं च यदत्यपाच्यमपि । रोखण कहहिदो रोपेण रौद्रचित्तः । पाारगसीलो णरो वदि नारकशीलो भवति नरः॥ १२१५ Page #1334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वा १३१८ मूलारा-गुणो गुणान् । तस्मै कुप्यति । तदीयान । अश्वददि निंदति । अपिव्वं च अवाच्यमपि । रुदहिदओ क्रूरचित्तः ।। अर्थ-जब मनुष्य जिसके ऊपर क्रोध करता है तब उस व्यक्तीके गुणोंका महत्व वह भूल जाता है. उसके गुणोंकी निंदा करता है. जो शब्द मुहसे निकालना अयोग्य माना जाता है ऐसे शब्दोंका उच्चार वह बेशक करता है. अर्थात् क्रोधके आवेशमें आकर मनुष्य गाली देता है. असभ्य शब्द बोलता है. क्रोधसे मन कर बनता है. अत एव क्रोधसे मनुष्योंका नारकियोंकासा स्वभाव बनना है. जध करिसयरस धणं वरिसेण समज्जिदं खलं पत्तं ॥ उहदि फुलिंगो दित्तो तध कोहग्गी समणसारं ।। १३६७ || धान्यं कृषीवलस्येव पारका क्लेशतोऽर्जितम् ।। श्रामण्यं प्लोषत रोषःक्षणेन तिनोऽखिलं। १४२०॥ . यिजयोव्या--जह करिसगस्स यथा कर्षकस्य धान्यं वर्षेण समर्जित सलप्राप्त दहति विस्फुलिंगो दीप्तस्तथा क्रोधाग्निदइति घमणस्य सारं पुण्यपयं ॥ मूलारा--करिसयस्स कर्षकस्य । खलं खलज । फुलिंगो अग्निकणः । समसारं यतिधनं । तपः पुण्यं वा ।। ( अर्थ-एक वर्षतक परिश्रम कर उपजाया और खलेमें संचित किया हुआ किसानका घान्य एक छोटेसे अग्निके स्फुलिंगसे नष्ट झेजाता है वैसे क्रोधरूपी अग्नि मुनिके अमूल्य पुण्य नामक वस्तूका नाश कर टालता है. जध उग्गविसो उरगो दब्भतणंकुरहदो पकुप्पंतो॥ अचिरेण होदि अविसो तध होदि जदी वि णिस्सारो ॥ १३६८ ॥ यथैवोपविषः सर्पः क्रुद्धो दर्भतृणाहतः ।। निर्विषो जायते शीघ्रं निःसारोऽस्ति तथा यतिः ॥ १५२१ ।। विजयोदया-जह उग्गविसो उरगो यथोपविष उरगो वर्मणांकुरहतः तस्कृष्टरोषधशमुएनयन् स्पृष्टं सृणादिकं भक्षयित्वा झटिति मिर्विषो भवति । तथा यतिरपि निस्सारो भवत्यचिरेण रत्नत्रयविनाशात् ।। Page #1335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास १३१९ मूलारा-उरमो सर्पः। दभतणंकुरइदो दर्भसूचीविद्धः । पकुष्पतो प्रकर्षेण कुप्यन् । अषिसो पृष्ट दर्भाविक भक्षयित्वा झटित्युदीर्ण गरलो भवति । गिरमागे क्रोधविषयमपकृत्य नटरनत्रयः स्यात् ।। उक्तं च कुपितो गहे माणोऽयं निःसारो जायते यतिः ।। दर्माकुरमिव स्तम्भं दुष्टषुद्धिर्भुजंगमः॥ अर्थ-जैसे उपविषका धारक सर्प दर्भ तृणकरसे व्यथित होकर अतिशय क्रुद्ध होता है. और उस तृण को क्रोधसे खा डालता है तत्र निर्चिप होता है बस यति भी क्रोधसे रत्नत्रयका नाश करता है जिससे वह नि:सार होता है, पुरिमो मकडसरिमो होदि सरूवो वि रोसहदरूबो । होदि य रोसणिमित्तं जम्मसहासेसु य दुरूवो ॥ १३६९ ॥ सुरूपोऽपि नरो राष्टो जायते मर्कटोपमः ॥ कोपोपार्जिसपापश्च विरूपो जन्मकोरिषु ॥ १५२२ ।। विजयोन्या-पुरिसो मकरसरिसो पुरुषो मर्कटसदृशो भवति । सुरूपोऽपि सरोषोऽपढ़तरूपः । इह जन्मनि दोपानुपदर्य पारमयिकराच-होनि भवति । जन्मसहस्रपु दुरुप एतद्भवतात्कोपात् ।। मूलारा- रोसणिमि एकजन्मकृतेन रोषण हेतुना ॥ अर्थ---पुरुष सुंदर होनेपर भी जब वह क्रोश्युक्त होता है तब उसका रूप नष्ट होता है. वह मर्कट सरीखा दीखता है. इतनाही नहीं रोषसे वह अनेकजन्मोंमें अर्थात हजारो जन्मोमें कुरूपही होता है. एक भवमें कोप करनेसे अनेक जन्मों में कुरूपता प्राप्त होती है. - सुकु वि पिओ मुहत्तेण होदि वेसो जणस्स कोधेण ।। पाधवी वि जसो पस्सदि कुद्धस्स अकजकरणेण ॥ १७ ॥ १३१९. Page #1336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचासा द्वेष्यो जनः प्रकोपेन जायते बल्लभोऽपि सन् ।। अकृत्यकारिणस्तस्य नश्यति.मथितं यशः ॥ १४२३ ॥ विजयोदया-सुधि नितरामपि । जनस्य प्रियो मुइतमात्रेणैव द्वेप्यो भयति रोषेण प्रथितमपि यशो नश्यति । कसा ? कुशस अकजकरणेन अवस्य अकार्यकरपणेन ॥ मूलारा- वेसो द्वेष्यः ॥ पधिदोवि प्रख्यातमपि । विश्रुतमपि वा। अर्थ-क्रोध करनेसे अतिशयप्रिय मनुष्य भी अप्रिय बनता है. अर्थात् क्रोध करनेसे क्रोधी मनुष्यका | सब द्वेष करते हैं. क्रुद्ध होकर मनुष्य अयोग्य कार्य करता है जिससे उसका प्रसिद्ध यशभी नष्ट होता है. णीयलगो वि कुटो कुणदि अणीयल्ल एव सत्तू वा ॥ मारेदि तेहिं मारजदि वा मारेदि अप्पाणं ।। १६७१ ॥ कुरितः कुरुत मूढो बांधवानाप बापा ॥ परं मारयते तैवा मार्यते म्रियते स्वयम् ।। १४२५ ।। पिजयोदया–णीयल्लगो विरुडो बंधुरपि बंधूकरोति शत्रुवत् । इति संधवान् । मायते पा स्वयं तैरात्मानं या हन्यात् ॥ मूलारा–णीयलगे वि बंधूनपि । अप्णिअलगया अधूनिव । सत्य शत्रूनिव । मारेदि हंति बंधूनपि । तेहिं बंधुभिः अपाणं वा आत्मानं ॥ अर्थ-निकट संबंधी मनुष्य भी क्रोधसे अपने बंधुओंको शत्रुतुल्य समझता है, उनको मारता है अथवा उनसे स्वयं मारा जाता है. पुज्जो वि गरो अबमाणिज्जदि कोवेण तक्खणे चेव । जगविस्सुदं वि णस्सदि माहप्पं कोहवसियस्स ॥ १३७२ ।। कषितः पूजनीयोऽपि मंडलो वापमन्यते ।। समस्तं लोकविख्यातं माहात्म्यं च पलायते।। १५२५ ।। Page #1337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृतारापना आश्वासः विजयोदया-पुजो वि पूज्योऽपि नरो अथमन्यते रोपेण । तत्क्षपा एच जमति विश्रुतमपि माहात्म्यं नश्यति रोषिणः॥ मूलारा- स्पष्टम् ॥ अर्थ-रोप करनेवाला मनुष्य पूजनीय होनेपरमी तत्काल अपमानित होता है, उसका प्रसिद्ध माहात्म्य मी गेषसे नष्ट होता है. १३२१ RAMBRITAMBAR हिंसं अलियं चोज्जं आचरदि जणम्स रोसदोसेण ॥ तो ते सच्चे हिंसालियचोज्जसमुद्भवा दोसा ॥ १३७३ ।। कृत्वा हिंसानृतस्तेयकर्माणि कुपितो यथा ।। सर्व हिंसानतस्तेयदोषमामोति निश्चितम् ।। १४२६ ॥ योदया. कालिकोई सानो बाचरति जनसा रोपदोपेण । तस्मात्तस्य हिंसादिप्रभवा दोमा भये भदिप्यन्ति । मूलारा- चोज चौर्य । जणस्स लोकस्य संबंधि । हिंसादिकं करोतीति संबंधः ।। अर्थ-क्रोधयुक्त मनुष्य लागाकी हिंसा करता है. असत्य बोलता है. चोरी करता है अतएव अनेक जन्मोमें उसकी भी हिंसा होती है, उसके विषय में असत्य बोला जाता है, लोक उसका धन चुराकर ले जाते हैं. ऐसे अनेक भवमें क्रोधसे दुःख भोगने पड़ेंगे. वारबदीय असेसा दवा दीवायणेण रोसेण ।। बद्धं च ण पावं दुगदिभयबंधणं घोरं ।। १३७४ ।। दीपायनेन निःशेषा दग्धा द्वारावती रुपा ।। पापं च दारुणं दग्धं तेन दुर्गतिभीतिदम् ॥ १४२७ ।। इति कोपः। १३२१ Page #1338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलागधना आश्वास्थ १३२२ विजयोत्याचारवती द्वारपती निशेषा बाधा रुष्टेन द्वीपायनेन । घोरं च पापं पचं दुर्गतिमयप्रवृत्तिनिमिर्त । कोधुप्ति गर्ने । क्रोधदोषानाख्यानेनामूलारा- वारपदी द्वाराबती । दुग्गादेभयबंधणं नरकादिभयवृद्धिकरं || फ्रोथदोषाः ॥ अर्थ-द्वीपायन मुनीने क्रोधवश होकर संपूर्ण द्वारका नगरी दग्ध की थी इससे उसको दुर्गतिके भय उत्पन्न करनेवाला घोरपाप बंध हुआ. ऋोधका वर्णन समाप्त हुआ. मानदोषकाटनार्थः प्रबंध उत्तर कुलरूबाणावलसुद्लाभिस्सरयत्थमदितबादीहिं ॥ अप्पाणमुण्णमेंतो नीचागोदं कुणदि कम्मं ॥ १३७५ ।। जातिरूपकुलैश्वर्यविज्ञानाज्ञातपोषलैः॥ कुर्वाणोऽहंकृति नीचं गोत्रं बध्नाति मानषः ।। १४२८ ।। विजयोत्या-कुलरूवाणा फुलेन रूपेण आनना, बलेन, श्रुतेन लाभेन, ऐञ्चर्येण तपसाऽन्यैश्य आत्मानमुत्कपयनीन गोत्रं कर्भ बध्नाति ।। मानदोषानगाथासप्तफेनाहमूलारा-रूवाणा रूपमाझा च । छामिक्सरयरथ लाभैश्वर्यमर्यश्च । उण्यमतो उत्कर्षयन् । कुणदि वनाति ॥ मानदोपका वर्णन विस्तारसे आचार्य करते हैं.---- अर्थ--कुल, रूप, आज्ञा, शरीरबल, शास्त्रज्ञान, लाभ, ऐश्वर्य, तप और अन्यपदार्थोरो अपनेको ऊंचा समझनेवाला मनुष्य नचिगोत्रका धंध कर लेता है. दण अप्पणादो हीणे मुक्खाउ विति माणकलिं ॥ दळूण अपणादो अधिए माण ण यति बुधा ॥ १३७६ ॥ Page #1339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः काराधना १३२३ दृष्टात्मनः परं हीनं भूखों मानं करोति ना॥ शुष्टात्मनोऽधिकं पाशो मा मुंघति सर्वथा ।। १४२९ ॥ विजयोत्या पण अप्पणादो आत्मनो हीनान सप्ट्या मूखो मामलि उदहन्ति । बुधाः पुनरात्मनोऽधि. कान्धिलोक्य मानं निरस्पम्ति। मूलारा--अश्पणादो आत्मनः सकाशान् । हीणे फुलादिभिरप्रकृष्टाम् । कलिं पापं । अधिए कुलादिभिरुकधान बुद्ध्यावलोक्य । ण यति न याति त्यजतीत्यर्थः ॥ - अर्थ-अपनेसे कुलादिकसे हीन लोकोंको देखकर कितनेक मूर्ख मनुष्य अभिमानयुक्त होकर पाप उपार्जन करते हैं. तथा अपनेसे भी कुलादिकसे बडे लोकोंको देखकर मानरहित होजाते हैं. माणी विस्सो सम्बस्स होदि कलहभयधेरदुक्खाणि ॥ पावदि माणी णियद इहपरलोए य अवमाणं ।। १३७७ ॥ द्वषं कलिं भयं वैरं यद वरंब यशःक्षतिम् ॥ पूजाभ्रंश पराभूति मानी लोकद्धये स्तुतः ॥ १४ ॥ विजयोदया-माणी विस्सो सम्बस्स मानी सर्वस्य द्वेच्यो भयत्ति । कलई, भयं, वैर, जन्मांतरानुमं दुःखं च प्रामनि । नियोगत इह पर चावमानं ॥ मूलारा-स्पष्टम् ।। अर्थ-मानी मनुष्यका सर लोक द्वेष करते हैं. वह कलह, वैर, भय, और अनेक जन्मोंमें दुःखोको प्राप्त होता है. नियमसे इहलोक और परलोकमें उसका अपमान भी होता है, १३२१ सव्वे वि कोहदोसा माणकसायरस होदि णादब्धा । माणेण चेव मेधुणहिंसालियचोजमाचरदि ।। १३७८ ॥ Page #1340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ११२५ सर्वेऽपि कोपिनो वोषा मानिनः सन्ति निश्चितम् ।। मानी हिंसानृतस्तेयमैथुनानि निषेवते ॥ १५३१ ॥ विजयोदया-सव्ये विक्रोधदोसा क्रोधस्य वर्णिता दोषाः । न गुणे पिच्छदि इत्येवमादिसूत्रेण ते सर्वे मान कपागस्यापि शातम्या : माने मेधुने चौर्ये हिंसायामसस्याभिधाने म प्रयतते ॥ मूलाग-क्रोधदोसा ण गुणो पेच्छदि इत्येवमादिसूत्रोक्ताः ॥ अर्थ-क्रोध करनेसे जो दोष प्राप्त होते हैं वेही मानसे प्राप्त होते हैं. मानवश होकर मनुष्य मैथुन, चोरी असत्यभाषण और हिंसा वगैरह पाप करता है. को पेच्छदि लल्याभिधाने वाले गुणे पिच्छति । सयणस्स जणरस पिओ जरो अमाणी सदा हवदि लोए ॥ गाणं जसं च अत्यं लभदि सकज्जं च माहेदि ॥ १३७९ ॥ निर्मानो लम पूजां दु:ख गवमपास्वति ॥ कीर्ति साधयते सुद्धामास्पदं भवति श्रियाम् ।। १४३२ ॥ विजयोदया-सयणस्स मानरहितः खजनस्य परजनस्य व सदा प्रियो जनो भवति । लोय लोके । माणशान। | असं यशः, अत्थं द्रविणं लभते स्वं कार्यमम्यदपि साधयति ॥ मनमर्दिगुणप्रकाशनमुखेन मानिनो दोषस्तिद्वैपरीत्येन लक्षयितुं गाथाद्वयमाइमूलारा-सजणस्स बंधुलोकस्य । जणस्स सामान्यलोकस्य ।। अर्थ-निरभिमानी मनुष्य स्वजन और परजनोंको प्रिय होता है. जगतमें सदा उसको ज्ञान, यश और धनकी प्राप्ति होती है. निरभिमानितासे बह अपने इतर कार्य भी साधलेता है. ण य परिहायदि कोई अत्थे मउगत्तणे पउत्तम्मि ।। इह य परत्त य लब्भदि विणएण हु सव्वकल्याणं ॥ १३८० ॥ Page #1341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास मार्दयं कुर्वतो जन्तोः कचनार्थो न हीयते । संपद्यते परं सघः कल्याणानां परंपरा ॥ १४३३ ॥ विजयोक्या-गय परिहादि माईवे प्रयुक्ते नैव कधिवों हीयते । येनायमरीमभयास् मानं कुर्यात् । मादधे तु मयुक्त रह जन्मासरे च लभ्यते विनयेनैव सर्वकल्याणं ॥ मूलारा--मउअत्तणे मार्दवे ॥ अर्थ-मार्दव भाव धारण करनेसे मनुष्यका कुछ नुकसान नहीं होता है. अतः अभिमान धारण करना व्यर्थ है. इस जन्ममें और पर जन्म में विनयधारण करनेसे मनुष्यका सर्वथा कल्याण होता है. RECEM सर्द्रि साहस्सीओ पुत्ता सगरस्स रायसीहस्स ॥ अदिबलबेगा संता गट्ठा माणस्स दोसेण ॥ १५८१ ॥ मानेन सद्यः सगरस्य पुत्रा महायलाः षष्ठिसहससंख्याः ।। हढेन भिन्नाः कुलिशन तुंगा धराधरेंद्रा इव भूरिसस्वाः ॥ १४३४ ।। इति मानः ।। विजयोदया-सहि साहसीओ सगरस्य राजसिंहस्य नक्रिणः रष्टिसहनसंख्या। पुषा महाबलाः बिना मानदारण । माणत्तिगई ॥ अर्थाख्यानेन मानदोषं द्रढयतिमूलारा-रायसीइस्स चक्रिणः । उक्तं च मानेन सद्यः सगरस्य पुत्रा महाबलाः षटिसहरसंख्याः ॥ ढेन भिन्नाः कुलिशेन सुंगा धराधरेन्द्रा इत्र भूरिसत्वाः ।। मानदोषाः॥ अर्थ-राजसिंह सगर चक्रवर्ती को साठ हजार पुत्र थे वे महा बलवान् थे परंतु मानके वश होकर वे सब नष्ट होगये. (आराधना कथाकोषादिकोंमें इनकी कथा है. STERTIYA Page #1342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना অাখা मायादोषनिरुपणायोत्तरगाथा-- जघ कोडिसमिद्धो वि ससल्लो ण लभादि सरीराणवाणं ॥ मायासळेण तहा ण णित्वदि तव समिद्धो वि॥ १३८२ ॥ विदधानोऽपि चारित्रं मायाशल्येन शल्यितः॥ म धृति लभते कुत्र शल्येनेव धनर्दिकः ॥ १४३५॥ विजयोदया--ज़ध कोडिसमिझो बि यथा कोटिसमृद्धोऽपि शरीरानुप्रविधशल्यो न शरीरसुखं लभते । नथा मायाशल्येन न निति लभते तपासमुखोऽपि ॥ मायादोषान्गाथासप्तकेनाह-- मुलारा--कोडिसमिद्धो कोटीश्वरः ।। मायादोषका निरूपण करनेकी लिये उत्तर गाथा अर्थ-जैसे कोई मनुष्य कोटिधनका स्वामी होनेपर भी उसके पारीरमें प्रविष्ट हुआ चाण उसको I व्यथित करेगा ही. बस मुनिराज तप से समृद्ध होनेपर भी माया शल्यसे उनको सुबिलाभ नहीं होगा. होदि य वेस्सो अप्पच्चइदो तध अवमदो य सुजणस्स ।। होदि अचिरेण सत्तू णीयाणवि णियडिदोसेण ॥ १३८३ ॥ द्वेषमप्रत्ययं निंदां पराभूतिभगौरवम् ।। सर्वन लभते मायी लोकदयविरोधकः ।।।४३६ ॥ विजयोदया-होदि य वेस्सो वेग्यो भवत्यमत्ययितः तथा सुजनस्यावमतः । यांधवोपि शत्रुचिरेण भवति मायावोपेण || मुलारा-अपनाइदो अविश्वास्यः । णीयाणषि बंधूनामपि । णियति माया ।। अर्थ-मायावी मनुष्यका सब लोक देष करते है. उसके ऊपर कोई विश्वास रखता नही. उसको अपमानका दुःख सहना पडता है. सुजन उसको मान देते नहीं है. मायाची मनुष्य अपने संबंधी जनोंका भी शत्रु बनता है. Commararers Page #1343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १३२७ पाबड़ दोसं मायाए महल लहु मगावराधेवि ।। सच्चाण सहस्साण वि माया एका वि णासेदि ॥ १३८४ ॥ अरतिजीयते मायी बंधूनामपि दारुणः ॥ महान्तमश्नुते दोषमपराधनिराकृतः ।। १४३७ ।। एका सत्यसहस्राणि माया नाशयते कृता । मुहर्नेन तुषाणीव नित्यविगविधायिनी ।। १४३८ ।। विजयोदया-पावनि दोम प्रायोनि दो महान अल्पापराधोऽपि मायया । एकापि माया सन्यसहस्राणि नाशयति । महादोषप्रापण सत्यसायनाशनं च मायादोषी ॥ मूलारा-लहुसगावराधे वि । अल्पेयात्मना कृते दोषे सति ।। अर्थ-मायावी मनुष्यने अल्पसा अपराध किया हो तो भी वह महान् दोषी माना जाता है. एक माया इजारो सत्य वचनोंका नाश करती है, अतः महादोषका आरापण करना और हजारों सत्याका कुचलना ऐसे दो पडे दोष मायामें रहते हैं. मायाए मित्तभेदे कदम्मि इधलोगिगच्छपरिहाणी ।। णासदि मायादोसा विसजुददुदंत्र सामण्णं ॥ १३८५ ॥ मित्रभेदे कृत सद्यः कार्य नश्यति पायया ॥ विषमिश्रमिव क्षीरं सपा नश्यति व्रतम् ॥ १४३५ ।। विजजोदया-माया मायया । मित्तभेने मैच्या विनाशे कृते । लोगिगमछा रिहाणी ऐवलोकिकार्यविनाशः । णासदि सामण नश्यति श्रामण्यं ॥ मायादोसा माया दोषातोः । चिसजुददुदव विषयुत दुग्धमिव । मित्र कार्यविनाशः श्रामपयहानिश्च मायाजनितदोषौ ॥ मूलारा--मिनभेदे मित्रबिनाशे । सुहृदि शाबुदासीने वाकृते सतीत्यर्थः । इह लोगिगत्थपरिहाणी ऐहिकस्वकार्यकृतिः ॥ अर्थ - इस कएटस मैत्रीका नाश होता है. मैत्रीके नाशसे इहलौकिक धर्मार्थादि कायोंका नाश होता है. १२२८ Page #1344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १गतनाम आशा यह कपट मुनिपनाका नाश करता है, जैसे विपमिश्रित दुग्ध भक्षण करनेसे मनुष्यका नाश होता है. माया मित्रकार्य विनाश और श्रामण्यहानि नामके दोप है. माया करेदि णीचागोदं इच्छी णqसयं तिरियं ।। मायादोसेण य भवसएसु डंमिज्जदे बहुसो ॥ १३८६ ।। झणखत्वतरश्चनीचगोत्रपराभवाः ॥ मायादोषेषा लभ्यते पुंसा जन्मनि जन्मनि ।। १४४०॥ विजयोदया-मावा करेदि णीचागोद माया करोति नीचो कर्म नीचर्या गोत्रमस्य जन्मांतरे | इस्थी पासयंतिरिय स्त्रीवदं, नपुंसकवेद, तिर्यस्यति च नामकर्म करोति । अथवा स्त्रीत्वं, नपुंसकत्वं, तिर्यक्त्वं था। मायादोसण। मावासंजिन दो भवसनु जन्म शोभिज्जवि धरूयते । बहुसो बहुशः॥ मूलारा-हंभिज पंच्यते । येन तेनापि इह लोके वंचितेन वा ।। उ च.-- राहत्यतैरफायनीचगोत्रपराभवाः॥ मायादोषेण लभ्यते पुसा जम्मनि जन्मनि ।। अर्थ-मायासे नीच गोत्रकी प्राप्ति होती है. अर्थात् परजन्ममें नीच कुलमें जन्म होता है. इस मायासे स्त्रीपना, नपुंसकपना और तिर्यगतिकी प्राप्ति जीवको होती है. जो जीत्र माया करता है वह सैकडो भवमें अन्य लोगोंसे अनेक उपायों द्वारा बंचित होता है. कोहो माणो लोहो य जत्थ माया वि तत्थ सण्णिहिदा ॥ कोहमदलोहदोसा सव्वे मायाए ते होति ।। १३८७ ॥ यः क्रोधमानलोभानामाविर्भावास्ति भायिनः ।। संपयन्सेऽखिला दोषास्ततस्तेषामसंयमम् ।। १४४१॥ विजयोदया-कोधो माणो क्रोधमानलोभास्तत्र जीव सम्मिहिता यत्र स्थिता माया । क्रोधमानलोभजन्या दोषाः सऽपि मायावती भवन्ति ॥ मूलारा-सण्णिहिदा स्थिता । अत एव मायाविनः क्रोधादिदोषाः सर्वेऽपि स्युः । मायाए मायाविनि जीवे ।। १३२८ Page #1345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागधना अर्ध-जहाँ माया रहती है वहां क्रोध, मान और लोभ भी साथ ही रहते हैं. अर्थात् क्रोध, मान और ॥॥ लोभसे जो दोष उत्पन्न होते हैं वे सब मायावानको भी होते हैं. आश्वामा १३२९ Moderate 8 सस्सो य भरधगामस्स सत्तसंबच्छराणि णिस्सेसो ॥ दवो भणदोसेण कुंभकारण रुठेण ॥ १३८८ ॥ समवर्षाणि निम्शेषं कुम्भकारेण कोपिना ।। भस्मितं भरतग्रामशस्य प्राप्तेन वंचनां ॥ १४४२ ।। धर्मपावपनिकर्तनास्त्री जन्मसागरनिपातनकी ॥ दावशोकभपवैरसहाया निंदितं किम करोति न माया ॥ १४५३ ।। इति माया ॥ विजयोवया-सरसो सस्य । भरधगामस्स भरतनामधेयनामस्य सससंबन्छराणि वर्षसप्तक । णिस्लेसो हो निरवशेषं दग्धं । भणदोसण मायादोषेण हेतुना । रुडेण कुंभकारेण रुऐन कुंभकारेण ॥ मायातिगहा ॥ मायामोषमाख्यानेन द्रढयति-- गलारा-सरसो बलजापुंजीकृतं धान्यं । भरधगामस्स भरतनाम्नो मामस्य ।' मायादोपाः ॥ अर्थ- भरतनामक ग्राम सात वर्षतकका समस्त धान्य कुंभकरने मायादोषसे रुष्ट होकर भस्म कर दिया. मायावर्णन समासलोभदोमनाच लोभेणासाघत्ती पाबइ दोसे बहुं कुणदि पावं ॥ जीए अप्पाणं वा लोभेण णरो ण विगणेदि ॥ १३८९ ॥ लोभतो लभते दोघं पातकं कुरुते परम् ॥ जानीते परमात्मानं नीचमुच्चन नष्टधीः ॥ १४४३ ॥ Page #1346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १३३० . विजयोपया--भालोमेदतुजवसाघगणो ममेवभविष्यतीत्याशया प्रससः। पायदि दोसे मामोति दोषान् । बहुं कुणदि पायं पापंप बहु करोत्याशावान् । णीप बांधवान् । अप्पाणं या भारमानं वा। लोभेण लोभन । रोग चिमणेदि न विगणपति मनुजः। बांधषामपि बाघते स्वशरीरश्रमं च नरपेक्षते इति यावत् । लोभदोषान्यायापंचकेनाह-- पुलारा—आसाघण्णो इपमिदं भविष्यतीत्याशया प्रस्तः । दोसा बहुपापकर गादीन् । णीप बांधवान । ण विगदि बांधवानपि बायले स्वशरीरस्य श्रमं च नापक्षते इति भायः॥ लोभके दोषोंका वर्णन अर्थ-लोभसे मनुष्य आशाग्रस्त होता है अर्थात मेरेको यह मिलेगा वह मिलेगा ऐसा मनोरथ उत्पन्न करनेवाली आशा वृद्धिंगत होती है. यह लोभ दोषोंका संचय है. लोभवश होकर पुरुष बहुत पाप करते हैं. लोभमे अपने बंधुओंको भी वह उपेक्षा करता है. और लोभसे अपने शरीरको कष्ट पोहोंचाता है. बस्तुनः सारासारत या न कधिस कर्म धातिशया येन केनचिद्रव्येण जनिता मी कर्मधे तिमि आत्मा शुभपरिणामनिमित्तत्वादिति मत्वा सूरिंगच ऐ लोभो तणे वि जादो जणेदि पावमिदरस्थ किं वच्चै ॥ लगिदमउडादिसँगस्त वि हु ण पावं अलोहस्स ॥ १३९० ॥ लोभस्तृणेऽपि पापार्थमितरत्र किमुच्यते ॥ मुकुटादिधरस्थापि निर्लोभस्य न पातकम् ॥ १५४५ ॥ विजयोदया-लोभो तणे यि जादो लोभस्राणेऽपि जातो । जणेदि पापं जमयति पापं । इदत्य इतरत्र सारपति वस्तुनि । किं च किं वाच्यं ॥ लगिदमगुडानिसंगस्स बि शरीरविलनामुकुटादिपरिमाहयापिन पापं भवति । अलोइरस लोरकषायवर्जितस्य मुकुटादे। सारद्रव्यस्यापि प्रत्यासचिन चंधायेति मन्यते ॥ यत्र कुत्रचित्प्रवृत्तो लोभ पक्ष पापबंधायालमित्युपदिशति मूलारा--इदरस्थ सारवस्तुनि । वचं वक्तव्यं । लगिदमगुवादिसंगस्स वि स्वशरीरालपकिरीटादिपरिमहस्यापि । अलोहस्स तद्भवमूर्छारहितस्य || १३३० । Page #1347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासः महाराषना SE यस्तु सार और असार दोनो तरहकी होती है, परंतु उससे कुछ कर्मबंध विशपता उत्पन्न नहीं होती. किंतु उस वस्तु के संगसे उत्पन्न होनेवाली मूर्छा अर्थात ममता कर्मबंधका निमित्त है. और यही ममत, आत्मामें शुभाशुभ परिणामोंको निमित्त होती है. इसी अभिप्रायको आचार्य विशद करते हैं अर्थ-तृणमें भी लोम उत्पन्न होनेसे वह पापबंध उत्पन्न करता है. तब इतर सारयुक्त वस्तुओं में उसकी उत्पत्ति होनेपर पापबंध अवश्य होगाही. परंतु मन यदि निर्लोभी है तो शरीरपर मुकुटादि परिग्रह होने पर भी उस को पापबंध नहीं होता है. लोभकायका अभाव जब होता है. तब किसीने जबरदस्तीसे मुकुटादि पहनाये तो भी वह परिग्रह उसको पापकर्मसे बद्ध नहीं कर सकता है. ऐसा इस माथाका अभिप्राय है. तलोकेण वि चित्तस्स णिव्युदी णस्थि लोमघत्थरस ।। संतुट्ठो हु अलोभो लमदि दरिदो वि णिवाणं ॥ १३९१ ॥ मुखं त्रैलोक्यलाभेऽपि नासंतुष्टस्य जायते ।। संतुष्टो लभते सौख्यं दरिद्रोपि निरंतरम् ।। १४५६ ॥ - विजयोदया--सेकोकण वि त्रैलोक्यनापि चित्तस्स णिचुदी पथि चित्तस्य नितिनास्ति । लोभत्थरस लोभमस्तस्य । संतुट्ठो संतुएः धेन के नचिकस्तुना शरीर स्थिति हेतुभूतेन । अलोभो हव्यगतमूरि हितः । लमदि लभते । दरिहो पि दरिद्रोऽपि । णित्याणं निर्वाणं । संतोषायतचित्ता नितिन द्रव्यायत्ता, सत्यपि द्रव्ये महति असंतुष्टस्य दृश्ये महति दुःखासिका। मूलारा--तलोकेण विलोक्येनापि लब्धेन । णिव्वुदी तृतिः । संतुट्ठो येन केनचिद्वस्तुना शरीरस्थितिहेतुभूतेन धृति प्रातः । अलोमो द्रव्यगतमूर्छारहितः । णित्याएं सुखं । संतोषायत्ता चित्तनिवृतिर्न ट्रन्यायत्ता, द्रव्ये हि महत्यपि सत्यसंतुष्टस्य महादुःखासिका स्यात् ।। अर्थ--लोभग्रस्त मनुष्यको त्रैलोक्यकी प्राप्ति होनेपर भी संनोप नहीं होता है. जो जो शरीरको सुख देनेवाली वस्तु प्राप्त होगी उससे उसका लोभ वदताही जाता है. जिससे शरीर स्थिर रहेगा ऐसी किसी भी वस्तुसे जो मनुष्य संतुष्ट है ममता रहित है वह चाहे दरिद्री हो तो भी उसीको समाधानवृत्ति प्राप्त होती है. संतोषके स्वाधीन १३३१ Page #1348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १३३२ हो सभाधानत्ति रहता है. द्रश्यक अधीन वह नही रहना चाहती. बहुत द्रव्य होनेपर भी असंतुष्ट व्यक्तीक हदयमें बहा दुःख होता है. सब्वे वि गंथदोसा लोभकसायस्स हुति णादब्वा । लोमेण चेव मेहुणहिंसालियचोज्जमाचरदि ॥ १३९२ ॥ जायते सकला दोषा लोभिनो ग्रंथतापिनः ॥ लोभी हिंसान्तस्तेयमैथुनपु प्रवर्तते ।।।४४७॥ विजयोदया-सम्बे विगंथदोसा सर्वेऽपि परिग्रहस्य ये दोषणाः पूर्वमाख्यानास्ते सर्वेऽपि | लोमफसायस्स लोभापायवतः लोभः कपायोऽस्यास्तीति लोमकवाय इति गृहीतत्वात् । अथवा लोभसंचितस्य कषायस्य दोषा इति संबंधनीयं । लोभेण चेव लोमेन च । मैथुने, हिसां, अलीक, चौर्य या चरति । ततः सावधक्रियायाः सर्वस्या आदिमान लोमः। किं च-- मूलारा-गंथदोसा परिग्रहापराधाः प्रागुक्ताः ।। अर्थ--परिग्रहके दोषोंका विस्तारसे पूर्व प्रकरणमें वर्णन हो चुका है. वे सर्व दोष लोभ कपाययुक्त मनुष्यके होते हैं. अथवा लोभसे उपर्युक्त दोष उत्पन्न होते हैं. इस लोभसेही मथुन, हिंसा, असत्यवचन, और चोरी इन पापोंको जीव करता है. जितनी पापक्रियायें हैं उनको लाम हेतु है. रामस्स जामदग्गिरस वजं घिसृण कचविरिओ बि ।। णिधण पत्तो सकुलो ससाहणो लोभदोसेण ।। १३९३ ॥ . रामस्य जामदग्न्यस्य गृहीत्वा लुब्धमानसः ॥ कार्तवीर्यो नृपः प्राप्तः सकुलः सबलः क्षयम् ॥ १४१८ ।। लोभेन लोभः परिवर्धमानो दिवानिशं वहिरिवन्धनेन ।। निषेव्यमाणो मलिनत्थकारीन कस्य तापं करते महान्तं ।। १५४९ ॥ इति लोभः । इति कषायविशेषदोषाः ॥ १३३२ Page #1349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा लाराधना विमोगा---एपस्यमय । जामदग्गिस्स जामदग्न्यस्य । बज मंज। धिसूपा गृहीत्वा । कत्तषिरिमो वि कार्तषीयोऽपि । णिधण पत्तो निघन प्राप्तः । सकुलो सबंधुवर्गः । ससाहणो सबलः । लोभदोसण लोभदोषेण | लोमः ॥ लोभदोषमहत्त्वमथाख्यानेन म्यनक्ति-- मूलारा--जामदगिरस जमदग्निसूनोः । परशुरामस्येत्यर्थः । वज व्रज कामनुमित्यर्थः । समाहगो चतुरंगयलेन सा ॥ उक्त च-- रामस्य जामदग्न्यस्य गां हत्वा लुन्धमानसः ।। कार्तवीर्यों नृपः प्राप्तः सकुलः सबलः क्ष्यम् ॥ लोभदोपाः । कषायविशेषदोषाः || अर्थ-जमदग्नि राम अर्थात् परशुरामका सर्व गौका समूह कार्तवीर्य राजाने लोभवश होकर ग्रहण किया | था. इस लोभदोपसे वह अपने बंधुवर्ग और सर्व सैन्यके साथ परशुरामके द्वारा मारा गया. लोम वर्णन समाप्त. ण हितं कुणिज्ज सत्तू अग्गी बग्छो व किण्डसप्पो वा ॥ जं कुणइ महादोस णिन्वुदिविग्घ कसायरिवू ॥ १३९४ ॥ शत्रुसोनलन्यानाः कवाचितन्न कुर्षते ।। करोति महापोषं कषायारिः शरीरिणाम् ।। १४५०।। विजयोदया-स्पष्टा ॥ कपायसामान्यदोषसंप्रहगाथामाहमूलारा-पष्टम् ।। अर्थ-शत्र, अग्नि, बाघ, और कृष्ण सर्प इनसे भी वह महादोष उत्पन्न नहीं होता है, जो कवायशत्रु ||R उत्पन्न करता है. लोभापाय मोक्षप्राप्तीमें महाविघ्न उपस्थित करता है. १३३३ Page #1350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ reetARAN मूलाराधना आवार १३३४ उत्तरगाथा इंदिपकसारदुशरता पाउँशि पोसविसमेसु । दुःखाबहेसु पुरिसे पसढिलणिव्वेदखलिया हु ॥ १३९५ ॥ कषायेन्द्रियदुष्टाश्वदोषदुर्गेषु पात्यते ॥ त्यक्तनिषेदस्खलिनैः पुरुषो बलवानपि ॥ ११५१ ॥ विजयोदया-दियकलायदुईतस्ता इंद्रियकवायदुताश्याः । पार्डेति पातयति । दोसविसमेसु पापविषम स्थानेषु । दुक्खाबहेसु दुःखावहेषु । पुरिसे पुरुषान् । पसढिलणिवेवस्खलिभाओ प्रशिथिलनिवेदखलिनाः ॥ सांप्रतमिद्रियक्रवायाणां जीवस्य परमार्थकाष्टाधिरूढमापकारकत्वं मन्यमानस्तदनुवर्तने बहून दोपांस्तव्यावर्तने प प्रचुरगुणान्प्रदर्शयन्सामान्येन तनिर्जयमष्टादशभिरनुवर्णयति तत्र तावदुभयनि य गाथाचतुष्टयेनाचष्टे-- मूलारा-दुरंतस्स दुष्टयोटकाः । दोसविसमेसु पापविपमस्थानेषु । पुरिसे जीवान् । पसिढिलनिवेदखलिणिदा श्थवैराग्यकविकान ॥ अर्थ-इंद्रिय और क्रोधादिक कषायरूपी दुर्दमनीय घोडे जप उनकी वैराग्यरूपी लगाम ढिली होजाती है तब मनुष्यको अथवा प्राणिओंको पापरूपी विषमस्थानोंमें अर्थात् पापरूपी दुःखदायक गट्टोंमें गिराये बिना रहते नहीं. गिराते ही है. इंदियकसायदुइंतस्सा णिव्वेदखलिणिदा संता ।। झाणकसाए भीदा ण दोसविसमेस पाडेति ॥ १३९६ ॥ कषायेन्द्रियदुष्टाश्वेदनिर्वेदयंत्रितैः॥ दोषदुर्गेषु पात्यंते न सयानकशाबशैः ॥ १४५२ ॥ विजयोदया-वियफसायदुइतस्सा इंद्रियकवायदुन्ततुरंगाः धैराग्यखलीननियमिताः संतः ध्यानकशासुभीता न दोषविषमेषु पातयन्ति । १२३४ Page #1351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना व्यतिरेकेणाहमुलारा - खलिणिदा नियंत्रिताः । माणकसाए सयामधर्मयष्टेः । भीदा प्रस्ताः ।। अर्थ-परंतु जब इंद्रियकरायरूपी इष्ट घाड घराण्यरूपी लगामस खीच जाते है और ध्यानरूपी चाबुक से वे ताडित किये जाते हैं तब पापरूपी दुःखदायक गड्ढों में मनुष्यको वे नहीं पटकते हैं. आश्वासः इंदियकसायपण्णगठ्ठा बहुवेदणुहिदा पुरिसा ॥ पन्भदृशाणसुक्खा संजमजीवं पविजहंति ॥ १३९७ ॥ विचित्रवेदनादष्टाः कषायाक्षभुजंगमैः॥ नष्टध्यानसुखाः यो मुचंते वृत्तजीवितम् ॥११५३ ॥ विजयोदया-द्रियकषायपत्रमदष्टाः, बहुरेदनावएन्धाः पुमांसः मभ्रएध्यानसुखाः संयमजीर्ष परित्यति ।। मूलारा बहुवेदणुहिन्द। भूरिव्यथार्दिताः ॥ अर्थ-इंद्रिय और कपायरूपी सोसे इसे गये पुरुष तीन विष चेदनासे पारित होकर उत्तम ध्यानरूपी सुखसे च्युत होते हैं. और संयमरूपी प्राणोंका त्याग करते हैं. PRATIMATERNATION झाणागदेहि इंदियकसायभुजगा विरागमंतेहिं । णियमिजंता संजमजीव साहुस्स ण हरति ॥ १३९८ ॥ सध्यानमंत्रवैराग्यभेष निर्विषीकृताः ।। न साधोस्त क्षमा हर्तुं दीर्घ संयमजीवितम् ॥ १५५४ ॥ विजयोदया-ध्यानागरिदियकवायभुजगा वैराग्यमंत्रनियम्यमाणाः साधोः संयमजीवितं न हरन्ति ॥ मूलारा-ज्झाणागदेहि सद्भधान सिद्धौषधैः ॥ अर्थ-ध्यानरूपी औषध और वैराग्यरूपी मंत्र इनके द्वारा जब इंद्रियकपायरूपी विषयुक्त सर्प नियमित किये जाते हैं तब वे मुनिके संयमरूपी प्राणोंका नाश करनेमें समर्थ नहीं होते हैं। Page #1352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "लाराधना आश्वासः सुमरणपुंखा चिंतागा विसयविसलित्तरइधारा ॥ मणधणुमुक्का इंदियकंडा विधति पुरिसमयं ॥ ११९९ ॥ हर्षीकमार्गणास्तीक्ष्णाचिसापुरवाः स्मृतिस्यदाः ।। नरं मनोधनुर्मुक्ता विध्यति सुवहारिणः ॥ १४५५ ॥ विजयोन्या-सुमरणपुंग्या स्मरणपुंखा, चिताधेगा विषयविषण लिप्ता रतिधारा येषां ते मनोधन का रनियवाणाः पुरुषमृग घातयन्ति | इंद्रियनिर्जय गाथाद्वयेनाइ मूलारा--बिसयविसलित्तरविधारा विषयविषण लिप्ता रतिधारा येवो अश विषयशन भोग्यबुदया गृहमाणानां रूपादीनां निर्भासा विवक्षिताः । इंद्रियशब्देन चक्षुरागुपयोगाः । विधेति विध्यन्ति । मए मृगान् ।। अर्थ-स्मरण रूपी पुंख अर्थात् पंख जिनके लगे हैं, चिंता रूप वगसे युक्त, विपयरूपी विपसे लिप्त हुए, रतिधारासे संयुक्त, एसे इंद्रियरूप बाण मनरूप धनुष्यसे घटकर मनुष्य मृगका घात करते हैं. यहां नेत्रादिक इंद्रियों का विषयोंके तरफ जो उपयोग लगना उसको ही इंद्रिय कहना चाहिये. भोग्यबुद्धीस ग्रहण किये रूपरसगंधादिलोंका जो ज्ञान होता है उसको विषय कहते हैं. नाम्याणान्पुरुषगहननोचतास्यतय एव धारयन्तीति कथयति धिदिखेडएहि इंदियकंडे ज्झाणवरसत्तिसंजुत्ता ।। फेडंति समणजोहा सुणाणदिठ्ठीहिं दद्रूण ॥ १४०० ॥ हृषीकमार्गणास्तीक्ष्णा साधुभिर्धतिम्वेटकैः ।। ध्यानसायकमादाय खण्डयन्ते ज्ञानदृष्टिभिः ।। १५१६ ॥ विजयोदया-धिनिखक्षपाहिं पृप्तिखेरै दियशरान्धारयन्ति ध्यानसत्यसमन्विताः। समणजोहा श्रमणयोधाः सभ्यरज्ञानरष्ट्या दृष्ट्वा || मूलारा---धिविखेडएहि संतोषफलकैः । फेडति वारयति ।। Page #1353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना इंद्रियबाण जब आत्माका घात करनेके लिये उद्युक्त होते हैं तब यति उनका इस प्रकार निवारण करते हैं. अर्थ--ध्यानरूपी बलसे युक्त होकर मुनिराज सम्यग्ज्ञानरूपी आखोंसे देख लेते हैं नंतर धैर्यरूपी डाल हाथमें लेकर इंद्रियरूपी चाणोंका निवारण करते हैं. | आश्वासः १३३७ गंथाडवीचरते कसायविसकंटया पमायमुहा ॥ विधति विसयतिक्खा अधिदिदढोवाणहं पुरिसं ॥ १४०१ ॥ प्रमादवदनाः साधु चरंतं संगकानने ॥ धृत्युपानद्विनिर्मुक्त विध्यन्तीन्द्रियकपटकाः ॥ १४५७ ।। विजयोदया-थाडवीचरंतं परिग्रहयने चरन्त । कगयविपकंटकाः प्रमादमुखा विध्यन्ति विषयैस्तीक्षणा धृतिहढोशनद्रहिन पुरुष । कामविलय गाथानात ..... मुलारा---विसथतिक्खा विषयः क्रोधाद्यालगनभूने बस्तुभिस्तीक्ष्णाः । अधिदिढोवाणहं धृतिप्राणहितारहितं ।। अर्थ—परिग्रहवनमें भ्रमण करनेवाला पुरुष यदि संतोषरूपी दृढ़ जूता नहीं पहनेगा तो कणयरूपी विषयुक्त कांटे विषयोंसे तीक्ष्ण होकर प्रमादरूपी मुहके द्वारा पुरुष को चुभेगेही. संयतमा पुनर वंपरिकरस्य कषायधिषकंटकाः किंचिदपि न कुर्वन्ति इत्याचष्टे सूरिः आवद्धधिदिदढोकाणहरस उवओगदिठिजुत्तस्स ॥. ण करिति किंचि दुक्खं कसायविसकंटया मुणिणो ॥ १४०२ ॥ आबद्धधृत्युपानकमुपयोगविलोचनम् ॥ कषायकण्टकाः साधुन विध्यन्ति मनागपि ॥१४५८॥ विजयोक्या-पावधिदिददोवाणहस्स भाषनधृतिरोपानरकस्य भानोपयोगसहितरीने स्वस्पमपि दुः न कुर्यन्ति कषायबिषर्कटकाः॥ १६८ Page #1354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना १३३८ मूलारा-आइडा परिद्विता । जबयोगविद्विसत्तस्स मेवानोपयोगेन यतव्यापारसहितस्य । परंतु मुनिराज कपायकंटकोंसे दुःख न होगा ऐसी सामग्रीसे युक्त होते हैं अतः उनको दुःख नहीं होता है. इसीके विवेचनार्थ माथा-- अर्थ-जिसने संतोषरूपी मजबूत जूता पहना है, और भेदज्ञानोपयोग रूप आंखोंसे जो देखता है ऐसे मुनिराजको कषायविषयकंटक तिलमात्रमी दुख देने में समर्थ नहीं होने हैं. उहणा अदिचवला अणिग्गहिदकसायमच्छडा पावा ॥ गंथफललोलहिदया णासंति हु संजमारामं ॥ १४०३ ॥ कषायमर्कटा लोलाः परिग्रहफलैषिणः ।। लुपन्ति संयमारामं योगिनो निग्रहं चिना ॥ १४५९॥ विजयोदपा-उहणा असंयता अतिचपला अनिगृहीताः कषायमर्फटाः, परिग्रहफलासक्तहृदया नाशयन्ति संयमाराम । मूलारा--अहणा उद्यूत्ताः । अणिग्गहिवा अकृतनिमहाः संतः।। अर्थ-जो असंयमको उत्पन्न करते हैं, अतिशय चपल हैं, जिनका निग्रह नहीं किया है ऐसे कषायमर्कट परिग्रहरूप फलोंपर लुब्ध होकर संयमरूपी बगीचोंको उद्ध्वस्त करते हैं. णिच्चं पि अमज्झत्थे तिकालविसयाणुसरणपरिहत्थे ॥ संजमरज्जूहिं जदी बंधति कसायमकडए ॥ १४०४ ।। त्रिकालदोषदा नित्यं चंचला मुनिपुंगवैः॥ कषायमर्कटा गाई वध्यन्ते वृत्तराजुभिः ॥ १४६ ॥ विजयोदया-णि पि नित्यमपि ममाध्यस्थान, त्रिकालविषयदोषानुसरणपटून् , कषायमक म्यतयः संयमरज्जूभिनन्ति । Page #1355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना मूलारा-अमज्झस्थे पंचलान । परिहत्थे पटून् । अर्थ-हमेशा चंचल, और तीनो कालोमिभी दोष उत्पन्न करनेमें निपुण ऐसे कषायरूपी मर्कटोंको यतिराज संयमरूप दोरीसे गांधत्ते हैं. जिससे वे कुछभी अपाय नहीं उत्पन्न करेंगे. धिदिवम्मिएहि उबसमसरेहिं साधूहि णाणसत्थेहिं ॥ इंदियकसायसत्तू सक्का जुत्तेहिं जेदुजे ॥ १४०५ ॥ महोपशमसत्वाव्यज्ञानातिवर्मितः॥ साधुयोधैर्विजीयन्ते कषायेन्द्रियषिविषः ॥ १.११॥ विजयोदया-धिदिम्मिपहिं तिसनः, उपशमशरैः साधुभिहानारुपयुक्तैरिद्रियकवायशत्रयो डेतुं बाक्याः ॥ पुनरुभयनिर्जय गाथाचतुष्टयेन व्याचष्टेमूलारा-धिदिवम्मिदेहिं संतोषसभबैः । णाणसत्तेहिं ज्ञानसत्वैः । जुत्तेहिं उपयुक्तः ॥ अर्थ-संतोपरूपी कवच पेहेनकर हायमें जिन्होंने उपशमरूप पाण लिये हैं ऐसे साधु, भेदज्ञानरूपी शस्त्रोंसे इंद्रियकरायरूपी शयको जीत लेते हैं. इंदियकसायचोरा सुभावणासकलाहिं वझंति ॥ ता ते ण विकुब्बंति चोरा जह संकलाबद्धा ॥ १४०६ ।। कषायाक्षद्विपो बद्धा भावनाभिस्तपस्विना॥ शृंखलाभिरिव स्तेना न दोषं जातु कुर्वते ॥ १४६२ ॥ विजयोदया--दियकसायचोरा इंद्रियकरायचौराः शुभध्यानभावशृंखलाभिर्वध्यते । बंधस्थास्ते न विकार कुर्वन्ति शृंखलाधरचोरा इव ॥ मूलारा-ण विकुवंति विरूपकं न कुर्वति ॥ १३३९ Page #1356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आवासः अर्थ-जैसे शंखलासे जकडे हुए चोर स्वस्थानमें स्थिर बैठते हैं उनसे कुछ उपद्रव नहीं होता है वैसे इंद्रियरुणयरूपी चोर शुभभावनारूपी शृंखलाओंसे जच जखडकर चधेि जाते हैं तब वे रागादिक विकारको उत्पत्र | करनेमें असमर्थ हो जाते हैं, इंदियकसायबग्घा संजमणरघादणे अदिपसत्ता ॥ बेरग्गलोहदढपंजरेहिं सक्का हु णियमेदुं ॥ १४०७ ॥ कषायाक्षमहाव्याघ्राः संयमघाणभक्षिणः ।। अधिरोप्य नियम्यन्ते वैराग्यहनपजरे ॥१४६३ ।। विजयोदया-इंदियकसायवग्धा इंदियकपायव्याघ्राः संयमनरभक्षणे अत्यासता वैराग्यलोहढपंजरे नियन्तुं शक्या, शक्या षशे नेतुं ॥ मूलारा-अविपसत्ता अतीवासक्ताः । अर्थ-इंद्रियकवायरूपी व्याघ्र संयमरूप मनुष्यको भक्षण करने में अस्यासक्त होते हैं, इसलिय उनको वैराग्यरूप लोहेंके पिंजरे में बांधकर वश किया जा सकता है, विण्यवरताबापायाभमत विमभिःवरवाषना . इंदियकसायहत्थी वयवारिमदीणिदा उवायेण ॥ विणयवरत्ताबद्धा सक्का अवसा घसे कादं ॥ १४०८ ॥ नीता व्रतमहावारिं कषायाक्षमतंगजाः॥ वशा सत्यवशाः सन्तो बद्धा विनयरश्मिभिः॥ १४६४ ॥ विजयोदया-रदियकसायहस्थी इंद्रियकषायहस्तिमः प्रतधारीमुपनीताः विनयवरायद्धा अवशा अपि शक्या वशे नेतुं। मूलारा-बदवारि व्रतबंधनगर्तम् । अदिणीदा प्रवेशिताः । उचाएग विशिष्टयतिहस्तिनिदर्शनेन ॥ अर्थ-इंद्रियकपायरूपी हाथीआको प्रतरूप बंधनस्थानमें ले जाकर, विनयरूपी रज्जुसे बांधना चाहिये जिससे चे अवश होनेपर भी वश हो जाते हैं. ३४. OPil Page #1357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १३४१ इंदिकसा यहत्थी वो सीलफलियमिच्छता ॥ धीरेर्हि रुंभिदव्वा विदिजमलारुप्पहारेहिं । १४०९ ॥ कषायाक्षगजाः शीलपरिखालंघनैषिणः || धर्तव्याः सहसा धीरैर्वृतिकर्णप्रतोदनैः ।। १४६५ ।। विजयोदया - इंद्रियपायहस्तिनः शीलपरिवालंघनैषिणो रोद्धव्या धीरैर्धृतिकर्णतोदप्रहरेः ॥ मूलारा — बोलेदु संघयितुं । फलि अलां । जमलार आरायुगलं || अर्थ — इंद्रिकशयरूपी हाथी जब शीलरूपी अगलाको उल्लंघने की अभिलाषा धारण करते हैं. तब धीर पुरुष उनको संतोषरूपी कर्णप्रहारों से वश करते हैं इंदियकसायहत्थी दुरसीलवर्णं जदा अहिलसेज्ञ ॥ णांकुसेण तया का कार्ड | १४१० ॥ कषायाक्षद्विपा मत्ता दुःशीलवनकांक्षिणः || ज्ञानांकृशैर्विधीयन्ते तरसा वशवर्तिनः ।। १४६६ ।। , विजयोदयायिक साहस्थी इंद्रिय काय स्तितः दुःशीलबनं प्रवेष्टुं यदाभिलपति तदा अवशा अपि बसे कर्तुं शक्यते शानां कुशेन ॥ मूलारा - अहिलसेज प्रवेष्टुमिच्छेयुः । अर्थ - इंद्रिय कायरूपी हाथी जब दुःशीलरूप वनमें प्रवेश करने की इच्छा करता है तब भेदज्ञानरूप अंकुश अवश होने पर भी वश हो जाता है. जदि विसयगंधहत्थी अदिणिज्जदि रामदोसमयमत्ता ॥ विष्णाणण जोहरस बसे णाणंकुसेण विणा ॥ १४११ ॥ आवासः ૬ १३४१ Page #1358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्च ध्यानयोधावशीभूता रागद्वेषमदाकुलाः ॥ ज्ञानाकुशं विना यांति तदा विषयकाननम् ॥ १४६७ ॥ विजयोदया--जदि विसवगंधहत्थी यद्यपि विषयगंधहस्तिनः स्वयं प्रथाट यो प्रविशति रागद्वषमत्ता न तिष्ठेयुविज्ञानध्यानयोधस्य यश मानांकुशेन बिना ॥ मूलारा-वि एव । सयं स्वयं स्वयमेव | स्वामिस्थानीयजीवप्रयोग विनैव । थवणं ग्रंथः संगः स चात्र कामिनीसौधाद्यालंबनोदीपनकारणलक्षणो गृह्यते । पन्मो जातिनामिविपकवाणा प्रचारविषयत्वात् । अदिणिमादि प्रविशति । इंद्रियकपायहस्तिन इति वक्ष्यमाणेन संबंधः । चतुज ज्झाणजोहस्सवास वास इत्यत्र अकारपोषः, तेन भ्यानयोधस्यायशे ति युवा॑नयोधवशे न स्युरित्यर्थः । णाणकुसेण विणा रागद्वेषमदांधाः संतो ध्यानयोधयुक्त च्यानांकुशमविक्रम्य अंधश्ने स्वामिस्थानीयजीवप्रयोगं बिना पंचेंद्रियकषायहस्तिनो यदि प्रविशंप्तीति संबंधः। अर्थ-यबपि विषयरूपी मन हाथी स्क्यं प्रेरकके विना परिग्रहरूपी जंगलमें प्रवेश करते हैं. और वे राग देषसे मत्त हो गये हैं तो भी वे ज्ञानरूपी अंकुशके विना विज्ञान और ध्यानरूप योधाके वश होते नहीं हैं. विसयविरमणलोला बाला इंदियकसायहत्थी ते ।। पसमे रामेदव्वा तो ते दोसं ण काहिति ॥ १४१३ ।। सदा शमवने रम्ये कषायाक्षमहागजाः।। रम्पमाणा न कुर्वन्ति दोष साधोमनागपि ॥ १४६८ ॥ इति सामान्यकपायनिर्जयः । विजयोदया-विसयवणरमणलोला विषययनरमणलोलाः वाला इंद्रियकायहस्तिनः ते रतिमुपनेयाः प्रशमेन ततले दोषं न कुर्वन्ति । कथंभूताः संत इत्यत्राह--- मूलारा-विसथवणरमणलोला विषयाः कामिन्यादिगनाः काम्यरूपादयः । बनानि शल्यक्यादिकाननानि विपया वनानीष भोग्यत्वात् । पूर्व वनशब्देन विघ्याटवी इह च तदन्तर्गन्तशल्यक्याविवर्न गृयते । पसमे आत्मदेहांतरहाना १३४ Page #1359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = - = -. ........ मारापना आभासः विर्भूतस्वाभाविकवैराग्ये । अत्र पुरोधाने इत्युपमानस्याक्षेपः । काहिंति करिष्यति । एषा श्रीविजयाचार्यमतेन व्याख्या । वा चोक्तम् परिव पांसि रामपभोद्धताः । ध्यानयोधषशा नैव संति मानांकुशं बिना ॥ विषयारण्यसाकांक्षास्ते कषायामहस्तिनः ।। चतः शमरति नेया येन दोपं न कुर्वते ।। अन्यस्त्वेवमाह ध्यानयोधावशीभूता रागद्वेषमदाकुलाः ॥ शानांकुशं विना यांति यदा विषयकाननम् ॥ तदा शमवने रम्ये कपायाक्षमहागजाः ॥ रम्यमाणा न कुर्वति दोष साधोमनागपि ॥ अन्ये पुनरेतद्गाथाद्वयं पृथक् संबध्नन्ति तत्पाठस्त्ययम्--अत्र विषयशब्देन तद्योगादिद्रिय व्याख्यान्ति । अदिणिजदि इत्यस्यातिक्रम्य याति इत्यर्वमाहुः । अपि शब्दं च नियमार्थे । तथा च तद्भथ:-- रागद्वेषमदांधः करणकरीन्द्रो विशन्विषयषिभ्यम् ।। ध्यानसुभटस्य पश्यो ज्ञानांकुशितो भवेभियतम ।। द्वितीयगाथायां तु चवला स्थाने चाला इति पढ़ति । तत्रापि तैरुक्तम् इंद्रियकषायकलमा विषयबने क्रीडनैकरसरसिकाः ।। उपशमलने प्रवेश्यास्ततो न दोष करिष्यति ।। इति सामान्याक्षकषायनिर्जयः॥ अर्थ-विषय वनमें क्रीडा करने में आसक्त और अझ ऐसे इंद्रिय कपायरूप हाथीको चैराग्यमें तत्पर करना चाहिये ऐसा करनेसे वे दोष नहीं करेंगे. PTERNARTNERAL १३४३ Page #1360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाराधना १३४४ सरूवे गंधे रसे य फासे सुभेय असुभे य ॥ तुम्हारा रहर ईद || १४९३ ॥ शब्दे वर्णे रसे गंधे स्पर्शे साधुः शुभाशुभं ॥ रागद्वेषपरित्यागी हृषीकविजयी मतः ॥ १४६९ ।। विजयोदयासंह रुमे गंधे रखे शुभाशुभेषु शद्वादिषु रागद्वे च निराकुरु इंद्रियजयेनेत्युत्तर सूत्रस्यार्थः ॥ सांप सामान्येन इंद्रियजयं गाथापंचकेन व्याचक्षाणः प्रथमं तज्जयेन समाह्मशब्दादिविषय रागद्वेषपरित्यागे क्षपकं नियुक्ते - शाद्धेतोः ॥ मूलारा - तम्हा करणगृह्यमाणशब्दादिविषयाभिव्यज्यमान रागद्वेषवशोचितज्ञानांकुशस्वेन सद्धधानानुप्रवेशविनाअर्थ- हे क्षपक! तूं शुभाशुभ शब्द, रस, गंध, और रूप इनमें राग द्वेषका निराकरण कर अर्थात् इंद्रियों को जीत कर शुभाशुभ शब्दादिक विषयोंमें उत्पन्न होनेवाल राग द्वेषका तू नाश कर. जह जीरसं पि कडुयं ओसहं जीविदत्थिओ पिबदि || कडुयं पि इंदियजयं णिव्वुइहे तह भजेज्ज || १४१४ ॥ हृषीकविजयः सद्भिः कटुकोऽपि निषेव्यते !! भैषज्यमिव वांछद्भिर्नित्यसौरूपं यथांजसा ।। १४७० ।। विजयोदया - अह पीरसं पि यथा खादुरहितं कटुकमध्योपधं जीवितार्थ पियति । तथा इंद्रियजयं भजते कटुकमपि निर्वृतिहेतुम् ॥ किमर्थमत्यर्यदुःखावद्दश्वात्सर्वजनानामनभिमतर्मिद्रियजयं शास्त्रे नियोगेनोपदिश्यतेइत्यनाश्वसंदृतावष्टंभेन मूलारा -- नीरसं स्वादरहितं । कडुपि पीडकमपि । भजेज्ज सेवेथास्त्वं 11 अर्थ – जैसे रोगी पुरुष स्वादरहित व कटु ऐसा भी औषध जीनेके लिये पीता है. वैसे मोक्ष प्राप्तिके लिए age भी इंद्रियजय करनेके लिये हे क्षपक ! तूं हमेशा तत्पर रहना चाहिये. प्रकृते व्यवस्थापयति आश्वास ६ १३४४ Page #1361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHAN लागवना आश्वासः इंद्रियजये क उपाय इत्याशंकायां इंद्रियकवावधिषयाणां शुभाशुभत्वे अनवस्थितः । ये शुभास्त एवेवानी अशुभाः । अशुभाये ते एष शुभाः। ये तु अशुभतया दोषा इदानी हरि से शुभा इति गृहीता न त्वशुमा जातात एवामीइति कथं नानुरागस्तत्र ये चाऽशुभास्तेपु कर्थ वेषः शुभता प्रतिपस्यमानेषु इति निवेदयति जे आसि सुभा एम्हि असुभा ते चेव पुग्गला जादा ॥ जे आसि तदा असुभा ते चेव सुभा इमा इण्डिं ॥ १४१५ ॥ पुद्गला ये शुभाः पूर्वानुमाः सन्ति ते पुर। अशुभाः पूर्वमासन्ये सांप्रत सन्ति ते शुभाः॥१५७१ ॥ विजयोदया-जे आसि शुमा पम्हि ये. पुद्गलाः शुभा वासभिवानी त ययाशुभा जाताः । ये चासंस्तदा अशुभा ते चैव शुभा इदानी इति न तो रागःषौ युक्तौति शिक्षयति ।। यवमिदिवजयः सूत्रे विधेयवया नियुक्तस्ताई कस्तत्रोपायो नीरूपायाः साध्यसिद्धेरयोगात् इत्यनुयुजानमनुशास्ति मूलारा-आसि पूर्वकाले भूताः । सुभा इष्टकामिन्याविरूपसामापद्य मोग्यबुद्धिमादधानाः शोभना इति गृहीताः। अमुभा शुभरपरीत्येन गृहीताः । तदा प्राक्तनमुक्त्युपक्रमकाले असुभा अनिष्टस्ठ्यादिरूपतामापद्याभोरयमतिमातन्तोऽशोभना इति गृहीताः । असुभा शुमव्यत्यासेन प्रतिपत्राः। तदा तेष्वनयस्थितशुभाशुभरूपेषु कस्तत्वविदो रागद्वेषावतार प्रचार इति शिक्षारहस्यम् ॥ इंद्रियोंको जीतनेमें कोनसा उपाय है ऐसी शंका होनेपर उत्तर देते हैं. इंद्रिय और कषायोंके विषयमें शुभाशुभपना निश्चितरूपसे नहीं कहा जाता है. जो विषय शुभ थे वे वर्तमान समयमें अगम बनते हैं. और जो अशुभ थे ये शुभ भी होते हैं. अशुभ होनेसे जिनका यह जीव द्वेष करता था वे ही अब शुभ बननेपर उनमें यह जीव अनुरक्त होता है. और जो अब अशुभ हैं वे कालांतरमें शुभ होनेवाले हैं इसलिए उन से द्वेष करना भी योग्य नहीं. तात्पर्य यह है कि, जो अशुभ हैं ये शुभ बनेंगे तथा जो शुभ हैं वे अशुभ बनेंगे अतः इस जीवका रागद्वेष युक्त होना योग्य नहीं है. यही आभप्राय आगेकी गाथामें स्पष्ट करते हैं अर्थ--जो पुटूल गुभ थे वे ही अब अशुभ होगये हैं तथा जो पुल अशुभ थे दे अब शुभरूप हुए हैं अतः इन के ऊपर रागद्वेप करना योग्य नहीं है. १३४५ Page #1362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १३४६ सवे वियते भुत्ता चत्ता वि य तह आणंतखुत्तो मे ॥ सव्वे प्रत्थ को भञ्झ विभओ भुतविजडेसु ॥ १४१६ ॥ मुक्तोज्झिताः कृताः सर्वे पूर्व ते नन्तशोऽङ्गिना ॥ को मे हर्षो विषादो वा द्रव्ये प्राप्ते शुभाशुभं । १४७२ ।। विजजोदया—सधेवि य ते भुप्ता सर्वेऽपि च ते पुलाः शुभाशुभ्ररूपा अनुभूतास्त्यक्ता अनंतधारं मया arry कयषु को बिसयो ममेति त्वया चिंता कार्या ॥ यवा च तथा भाव्यमानेष्वपि पुढलेव नाद्यविद्यावासना भर्वमासंजयति तदा भवतैवं भावनीयमिति सन्यासिनमुद्रोचयत्ति - स मूलारा - भोग्यबुद्धावभिनिविश्य सानुरागं सेव्यमानः । मे भया । एत्थ एतेषु भोगतया गृहीत्वा सेव्यमानेषु पुद्रलद्रव्येषु । विन्भओ अमुकपूर्वबुद्धया गृहीत्वार्यावतारः ॥ अर्थ उपर्युक्त सर्व शुभाशुभ पुद्गल मैने अनंतवार भोगे हैं और अनंदवार उनका त्याग भी किया हैअतः मोगकर त्यागे गये इन पदार्थोंमें विस्मित होना मेरे लिए अयोग्य है. ऐसा विचार हे क्षपक ! तू हमेशा कर. 1 यदि सुखसाधनतया तेष्वनुरागो, यदि दुःखसाधनतया रोषः सेव सुखदुःखसाधनता शुभाशुभादीनां रूपाण नैवास्ति संकल्पमतरेणात्मनः इति वदति रूवं सुभं च अभं किंचि वि दुक्खं सुहं च ण य कुणदि ॥ संकष्पविसेसेण हु सुहं च दुःखं च होइ जए || १४१७ ॥ रूपे शुभाशुभे न स्तः साधनं सुखदुःखयोः ॥ सङ्कल्पयतः सर्व कारणं जायते तयोः ॥ १४७३ ॥ विजयोदया - रूयं सुमं च रूपं शुभमशुभं वा किंचिद्दुःखं सुखं च मैच करोति । संकल्पवशेनैव सुखं या दुःखे भवति जगति ॥ किं च कामिन्यादिनि इंद्रियमाझे द्रव्ये यदि सुखसाधनतया तवानुरागो दुःखसाधनतया वा प्रद्वेषः संपयेत . वाई तस्यैषा सुखदुःखसाधनता संकल्पपरतंत्रात्मन इति चित्यमित्युपदिशति--- आश्वासः १३४६ Page #1363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वाप्स: मूलाराधना १३१७ ६ . मुलारा-सवं रूपं तयोग्यादिद्रियमा कामिन्यारिपुदलद्रव्यं । संकप्पषिसेसेण शुभाशुभाकारोलेखिमानसाध्यवसायपारवश्येनैव । जग बहिरात्मप्राणिगणे । सामान्य द्रियनिर्जयः । ये पुद्गल पदार्थ सुखके साधक हैं अतः इनमें मेरा अनुराग है और अन्य पुद्गल दुःखके साधन होनेसे उन से मैं द्वेष करता हूं ऐसा कहना भी योग्य नहीं है. शुभाशुभ रूप पुद्गल न दुःखके न सुखके साधन हैं. परन्तु तेरा संकल्प ही सुख और दुःखका साधन है ऐसा आचार्य कहते हैं . अर्थ--शुभ रूप अथवा अशुभ रूप सुखका अथवा दुःखका उत्पादक नहीं है. परंतु हे आस्मन् ! संकल्प से ही सुख और दुःख होता है. इह य परत्त य लोए दोसे बहुगे य आवहइ चक्खू ।। इदि अप्पणो गणित्ता णिज्जेदवो वदि चक्खू ॥ १४१८॥ विदधाति यतश्चक्षुर्महादोषमनिर्जितम् ।। निजैतन्यं ततः सद्भिः सर्वथा तदतंद्रितैः ॥ १४७४ ।। . विजयोदया-दह य परत्त व जन्मद्वयेऽपि बहुदोषानावद्दति चक्षुरिस्यात्मनाचगणय्य निर्जेतव्यं चक्षुः॥ ___ अधुना लोकद्वयबहुदोघे बहुत्वभावनायेंन्द्रियविशेषनिर्जय गाथाद्वयेन व्यावर्णयिष्यन्नादावलिदुर्जयतमत्वाचक्षुषो निर्जये नियुक्त मूलारा-णिजेदव्यो श्रोत्रादिभ्योऽतिशयेन निमासम् ॥ अर्थ-इहलोकमें और परलोकमें चक्षुरिद्रिय अनेक दोषोंको उत्पम करता है ऐसा जानकर चक्षुरिन्द्रिय पर विजय प्राप्त करलेना चाहिये. एवं सम्मं सहरसगंधफासे वियारयित्ताणं || सेसाणि इंदियाणि विणिज्जेदवाणि बुद्धिमदा ॥ १४१९ ॥ शब्दगंधरसस्पर्शगोचरापयपि यत्नतः ॥ जेतव्यानि एपीकाणि योगिना शमभागिना ॥१५७५ ॥ Page #1364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमासा मूलाराधना १३४८ वर्जयाननिर्लिपमामिः पंच यो विजयतेऽक्षविद्विषः ॥ तस्य सन्ति सकलाः करस्थिताः संपदो मुखननाधपूजिताः ॥ १४७६ ।। . .... इति इंद्रियनिर्जयः ।। विजयोदया-एवं सम्मं उभरसम्मंगोचरानेकदोषाषहत्त्वं विधार्य स्वबुयथा शेषाध्यपींद्रियाणि पावरसगंध. स्पर्शविषयाणि निर्जेतव्यानि युद्धिमता । सहरसगंधफासे इति पैषयिकी सप्तमी। मूलारा-एवं लोकद्वयगतानेकदोषावहत्वेन । सहरसगंधफासे शब्दरसगंधस्पर्शविधयाणि ॥ इंद्रियविशेष निर्जयः। . ... .. अर्थ- इसी प्रकार स्पर्शनेंद्रिय, रसनेंद्रिय, घ्राणेन्द्रिय वगैरह इन्द्रियां भी इहपर लोकमें अनेक दोषोंको उत्पत्र नाली है शानिवार र उनको भी धुद्धिमान पुरुष जीतनेका प्रयत्न करें. अर्थात् इन इंद्रियोंके शब्द रसादिक विषयों में रागद्वेषका संकल्प करना छोडकर समभावना रखनी चाहिये, फोधजयोपायमाच जदिदा सबति असंतेण परो त जत्थि मेत्ति खमिदव्वं ॥ अणुकंपा या कज्जा पावइ पाव वरावोति ॥ १४२०॥ दत्ते शापं विना दोष नायं मेंऽस्तीति सद्यते ॥ कृपा कृत्यत्ययं पापं वराकः कथमर्जति ॥१४७७ ।। विजयोदया-जदिवा सयदि असंतेण गदि सापदसता दोपेण शपति परः स दोषो न ममास्तीति क्षमा कार्या। असहोपस्थापनेनास्य मम कि नई इति । अथवानुकंपां आकोशके कुर्याद्वराकोऽसदभिधानेन समार्जयति पापभारं अनेक दुःखाबई। मनीयैदारस्य किंचिन्नायाति दोषजातं । गुणी किमी किंचिद्भवति १ प्राणिनां प्रतिनियता गुणदोषास्सत्तमेष प्रति सुखदुःखयोजनास्ततो मुधामेन कर्मबंधः संपाद्यते इति । इदानीं कषायविशेषनिर्जय गाथामामेकानविंशत्या ज्याचाक्षाणः पूर्ष झमालझणं प्रतिपक्षादिभावनास्वभाव क्रोधनिजयोपाय गाघासहफेनाइ- ३... यलास--सपदि माक्रोशति | असतेण अविद्यमानदोषेण अहेतुना । तं पत्थि मेत्ति खमिवयं स शापनिमित्त - १६४८ Page #1365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधना आश्वासा १३४९ SHASTRATOR तया परेणावधारिलो दोषरे समः नास्तिीति क्षमा कार्यो । असदोषख्यापनेनास्य मम किं नष्टमिति । अणुकंप. अनुकंपा । अयं बराकोऽसजल्पनेन भूरिदुःखाबई दुरुकृतभार अर्जेति, नहि मदीयैर्दोषैरस्य किंचिशेषजातमायाति गुणैर्वा गुण जातं । ततो मुधानेन पाप बध्यते इति क्षमामयी चिंता आक्रोशके कुर्यात् । एवंभूते हि क्षान्स्यनुकंपाभावने सधः कोपमपसारवतः ।। अर्थ-मैंने इसका अपराध किया नहीं तो भी यह पुरुष मरेपर क्रोध कर रहा है गालि दे रहा है. मैं तो निरपराधी हूं एसा विचार कर उसके ऊपर क्षमा करनी चाहिये. इसने मेरे असद्दोषका कथन किया तो मेरी इसमें कुछ भी हानि नहीं है. अथवा क्रोध करनेपर दया करनी चाहिये, क्योंकि यह दीन पुरुष असत्य दोषोंका कथन कर पापोपार्जन कर रहा है. यह पाप उसको अनेक दुःखोंको देनेवाला होगा. मेरे दोषोंसे न इसमें दोष उत्पन्न होते हैं और न मेरे गुणोंस इस में गुण पैदा हो जाते है. प्राणिक गुण दोष उनके साथ ही संबद्ध रहते हैं अतः सुख वःखका संबंध ही नियत प्राणिओंसे ही रहता है अतः दीन व्यर्थ ही कमबंध कर रहा है ऐसा विचार कर असहोप कहने वालेपर दयाभाव रखना चाहिए. चिंता करुणात्मिका रोष परुषमपसारयति ( जदि वा-सवेज्ज संतेण परो तह वि पुरिसेण खमिव्वं ।। सो अस्थि मज्झ दोसो ण अलीय तेण भणिदत्ति ॥ १४२१ ॥ सत्येऽपि सर्वतो वोपे सहनीय मनीषिणा ।। विद्यते मम वोषणेऽयं न मिथ्यानेन जल्पितम् ॥ १४७८ ॥ विजयोदया-जदि या सबेज्ज यदि षा शपेच्च सता दोयेण तथापि क्षमा कार्या । सोऽनेन कथ्यमानो दोपो । ममास्ति न व्य लीकं तेनोकमिति संकल्पयता 1.न हि संतो दोषाः परे सेढुवन्ति विनश्यति ॥ मूलारा-जदिदा सबेन इत्यादि । लोको हि प्रायेणासतोऽपिवोपाल्पति । किं पुनः सतस्तकोऽस्य दोषो न कश्चिन्मभेवाचं प्राचनदुर्दैवानुभावो येनाइमेवविध दोष : जानमपि न त्यक्तुं शक्नुयामिति तत्त्वज्ञानभावनामयी क्षमा कुर्यादिति तात्पर्य ॥ १३४९ Page #1366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वास १३५० न करुणात्मक विचार कठोर रोषको दूर करता है अर्थ-यदि मेरेमें दोष है और इसने मेरे सत्य दोषोंका कथन किया है तो भी इसके ऊपर क्षमा करना मेरा कर्तव्य है. इसने जो दोष कहा है वह मेरा है ही. इसने असत्य तो कहा ही नहीं ऐसा विचार कर क्षमा करनी चाहिए. विद्यमान दोषोंको कोई कहे तो क्या वे नष्ट होजाते हैं ! ) गो गा समुस्का मति मोतिसरा मां सहते इति प्रसियमेष लोके इति कथयति सत्तो वि ण चेव हदो हदो वि ण य मारिदो ति य खमेज्ज ॥ मारिज्जतो विसहेज्ज चेव धम्मो ण णोत्ति ॥ १४२२ ॥ ) शप्तोऽस्मि न हतोऽनेन निहतोऽस्मि न मारितः ।। मरणेऽपि न मे धर्मो नश्यतीति विषयते ॥ १४७९ ।। विजयोदया-सत्तो व शप्त एवास न हतः इत्यहनन गुणं पृथु खेतसि संस्थाप्य किमोन शपनेन मे भष्टमिति क्षम्तव्यं । पमितरत्रापि योज्यं । हत एष न मृत्यु प्रापितः । मार्यमाणोऽपि सहेत विपत्रिमूर्लनक्षमोऽभिलषितमुखसंपापमोचतो धर्मो न विनाशित इति। यो यदीयं महांत उपकारं विसे करोति स तदीयमल्पमपराधं सहते इति लोकप्रसिद्धेनैव मार्गण क्रोधान्यायति-- मूलारा-सत्तोम्हि चेष शप्त एवास्मि । ण हदो न कशादिभिस्ताडितः । एवमहननं महोतं गुणे चेतसि संस्थाप्य किमनेनास्य शपनेन मम नष्टम् । यावन्न ताडयतीति षा आक्रोधरि क्षमा कुर्यात् । एवमुत्तरत्रापि योज्यम । धम्मो समस्तविपदपसारणप्रवणः सकलमुखसंपादनोदातो वृषो ममानेन न नाशित इति ॥ ( जो जिसके ऊपर महान उपचार करता है वह उसका अल्प अपराध सहता है. यह लोकोक्ति जगतमें प्रसिद्ध ही है. इसीका विवेचर अर्थ-इसने मेरे को मालीही दी है. इसने मेरे को पीटा तो नहीं है. अर्थात न मारना यह इसमें महान् गुण है इसने गालि दी है परंतु गालि देने से मेरा तो कुछ भी नुकसान नहीं हुआ अतः इसके ऊपर क्षमा करना ही मेरे लिए उचित है. ऐसा विचार कर क्षमा करनी चाहिए. इसने मेरे को फक्त तादन ही किया है. मेरा वध तो १३५ Page #1367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १३५१ नहीं किया है. वच करने पर भी क्षमा करनी चाहिए. मेरा धर्म संकटको दूर करनेवाला और इच्छित सुख देने वाला है वह धर्म इसने नहीं किया है करना योग्य है. मेरे किया है ऐसा मानकर क्षमा ही 7 उपायांतरमपि रोप विजये निरूपयति रोसेण महाधम्मो णासिज्ज तणं च अग्गिणा सव्वो ॥ पावं च करिज्ज मा बहुगंपि परेण खमिदव्वं ॥ १४२३ ॥ क्रोधो नाशयते धर्म विभावसुरिवेन्धनम् ॥ पापं च कुरुते घोरमिति मत्वा विषयते ॥ १४८० ॥ विजयोदया - रोसेण महाधम्मो दुर्जनो दुर्लभतरो धर्मोऽनुयायी रोषेण मदीयो नश्यति । असिना तृणामच । तथा चाम्बधायि अनामका जनितस्त्यधमानवातैः । संघुक्षितः परुषचास्यविस्फुलिंगः । सिशिलोऽपि भृशमुत्थितवैरधूमः ॥ tara धर्मवनं नराणां ॥ इति ॥ पाप का कुर्यान्ममार्य कोपस्तदनेकं दुःखवीजमिति विषे वा क्षमा कार्या ॥ उपायतिरमपि रोषविजयेजवीति- मूलाराम मम दुर्शाती दुर्लभो दुश्वरोऽनुगामी मे धर्मो निःशेषोऽपि रोषेण नश्यतीति भावयेत् । तथा चोक्तम्-~ अज्ञानकाष्टजनितस्त्व मानवातैः संक्षितः परुषागुरुविस्फुलिंगः || हिंसाशिखो भृशसमुत्थितषैरधूमः । maharstroes धर्मवनं नराणाम् || आश्वासः ६ १३५१ Page #1368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RTIME BA A मूलाराधना आश्वास १३५२ । *-- A - मोहं मम रोधो भूरियापं कुर्यात समातेकभवदुःखबीज इति चिंतया क्षमा कार्या । अथवा पार्य करेज माई पापं मा कुयो महारोषेणेति नियोज्यम् ॥ ( और भी उपाय कहते हैं अर्थ-जैसे अग्निसे सर्व दण नष्ट होता है जलकर स्वाल होता है ये अतिशय दर्लभ, परभवमें साथ MIL आनेवाला, बड़े कष्टसे प्राप्त किया गया सद्धर्म कोधसे नष्ट होता है. पूर्षाचार्य इस विषय में ऐसा कहसे हैं यह क्रोधरूप अग्नि अज्ञान रूपी इंधनसे उत्पन्न होता है, अपमानवायुस भभक ऊठता है, कठोर वचनरूपी स्फुलिंगसे युक्त है। हिंसा रूपी ज्वालासे युक्त है और अतिशय प्रगट पेसा वैरही इसका धूम है ऐसा यह क्रोधाग्नि मनुष्यके धर्म रूपी बगीचका क्षणाद नाग करता है. मै यदि कोष करूंगा तो मेरेसे पाप होगा. पाप अनेक दुःखोंका बीज है. इस प्रकारका विचार कर मनमें, क्षमा, करना चाहिंग.) उपायांतरमपि यदति पुलवकदमझपावं पत्तं परदुःखकरणजादं मे ॥ रिणमोक्खो मे जादो मे अज्जत्ति य होदि खमिदव्वं ॥ १४९४ ॥ परदुःखक्रियोत्पन्नमुदीर्ण कल्मषं मम ।। ऋणमोक्षोऽधुमा प्राप्तो विज्ञायेति विषयते ।। १५८१ ।। विजयोदया-पुच्चकदमझपाय पापागमद्वारमजानता अमेगापि-प्रमादिना पूर्व कृतं यत्कर्म पाएं परेषां दुःखका रणं नदध निवर्तितं । कणमोक्षोऽथ मम जात इति चिंतयताऽपसारयितव्यो रोषः । मूलारा--पुरुबकः पापासबकारणं जानताऽजानतापि वा प्रमादचता सता यत्रोपार्जितं तदिदं पापमद्योदिनममेति संबंधः ॥ ऋणमोक्खो ऋणमोचनं । अजत्ति अधेति । उक्त घ परदुःखक्रियोत्पन्नमुद्रीण कल्मषं मम ॥ - ऋणमोझोऽधुना प्राप्तो विज्ञायेति विषयते ॥ १३५२ Page #1369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १३५३ और भी उपाय बतलाते हैं. -- अर्थ -- मैंने पूर्व जन्म में दूसरोंको दुःख देकर पापबंध कर लिया था. पाप आनेका कारण नहीं जानते हुए इस प्रमादी मनुष्यने मेरा पाप अप उदयावस्थामें लाया है. अतः मैं इस ऋणसे आज मुक्त हो रहा हूँ ऐसा विचार कर दुःख देनेवालों पर क्षमा धारण करनी चाहिये. अर्थात् कोपको अपने मनसे हटाना चाहिये. पुयंकाले गाइ सि एवं ॥ को धारणीओ धणियस्स दितओ दुक्खिओ होज्ज || १४२५ ॥ अनुभुक्तं स्वयं यावत्काले न्यायेन तत्समम् ॥ अधमर्णस्य किं दुःखमुत्तमर्णाय यच्छतः ॥ १४८२ ।। विजयोदयापुत्रं यमुषमुत्तं पूर्व स्वयमेव भुक्तं, अवधिकाले प्राप्ते । गायेण नीत्या । इत्र्यं अधमर्ण उत्तमर्णाय को दुःखं करोति ॥ पूर्वजन्मनि परेदीरितं तद्विराधनोपार्जितं पापमनुभवतो मे किं दु:खं स्यादधमणीय पूर्वमृणीकृत्य स्वयं मुक्तं द्रव्यं तावन्नावमेव यथा व्यवहारसवधिकाले प्राप्त दल इत्येवापकर्तरि दीयमानस्य कोपस्य निग्रहार्थमुपायांतरगुपदिशति- मूकारा जारण धर्माचारेण । धारणिओ ऋणिकः ॥ अर्थ - जैसे साहुकारसे द्रव्य लाकर उसका उपभोग लिया परंतु उसका धन मर्यादा काल आनेपर भी लौटाया नहीं. परंतु अब धन लौटाने का समय यदि प्राप्त हुवा है तो अवश्य साहुकारको उसका धन वापिस देना चाहिये. उसका धन उसको देने में कोन दुःख करेगा. वैसे इस मनुष्यको पूर्व जन्ममें दुःख देकर पापोपार्जन किया था. अब यह मेरेको दुःख दे रहा है यह योग्य ही हैं. इसने दिया हुवा दुःख मैं यदि शांत भावसे सहन करूंगा तो मेरा पापकर्म सब नष्ट हो जायगा. मैं इस पाप ऋणसे रहित होकर सुखी होउंगा ऐसा विचार कर रोष नहीं करना चाहिये. १७० आश्वास ६ १३५३ Page #1370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १३५४ इह य परत य लोए दोसे बहुए य आवहदि कोधो ॥ इदि अप्पणी गणित्ता परिहरिदव्वो हवइ कोधो ॥ १४२६ ॥ निषेवितः कोपरिपूर्यतोऽङ्गिनां ददासि दुःखान्युभयत्र जन्मनि ॥ निकर्तनीयः शमवधारया तपोवियोधैः स ततोऽन्यदुर्जयः ॥ १४८३ ॥ इति क्रोधनिर्जयः । विजयोदया - स्पष्टा ॥ मूलारा - स्पष्टम् । क्रोधनिर्जयः || अर्थ — इस लोक और परलोकमें यह क्रोध अनेक दोषको उत्पन्न करता है ऐसा विचार कर क्रोधका परिहार - त्याग करना चाहिये. उत्तरा गाथा को धजयोपाय भूतापरिणामानुपवर्य मानप्रतिपक्षपरिणामं निरूपयति को एत्थ मज्झमाणो बहुसो णीवत्तणं पि पत्तरस ॥ उच्चते य अणिच्चे उवहिदे चावि णीचते ॥ १४२७ ॥ नीत्वे मम किं दुःखमुच्चत्वे को ऽग्र विस्मयः ॥ ataratच्चत्वयोर्नास्ति नित्यत्वं हि कदाचन || १४८४ ॥ विजयोदया को एत्थ मज्झमाणो कोऽसकृत्प्राप्ते ऽज्ञानादेक रत्न प्रयतत्त्वे गर्यो मम बहुशो मानकुलरूपतपो द्रविणप्रभुत्वरुततां प्राप्तस्य प्रसुन्नतत्वे अनवस्थायिनि सति उपस्थिते चोत्तरकालनीचये ॥ मानजयोपायं गाथाचतुष्केणोपदिशति--- मूळारा - एत्थ अत्र वर्तमाने ज्ञानादेरुनाथ | अणिच्चे उच्चत्वे च दैववशात्प्राप्तेऽनवस्थायिनि सति । कि मम बहुषारानीचत्वमपि प्राप्तस्यापि अस्मिन्नुच्चन्ये प्राप्ते गर्भ इति मार्दवं भावयेत् इति भावः || उक्तं च नीचरने मम किं दुःखमुपत्ये कोऽत्र विस्मयः । नीचत्वोच्चत्वयोर्नास्ति नित्यत्वं हि कदाचन ॥ आश्व १३५ Page #1371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EMENT मूलाराधना आधा १३५५ मानके प्रतिपक्ष भृत परिणामोंका वर्षान करते है अर्थ-मैं इस संसार में अनंतवार नीचावस्थामें उत्पन्न हुआ हूं. उच्चत्व और नीचस्व ये दो अवस्थायें नित्य नहीं हैं. कुछ काल रहकर नष्ट होती है. ज्ञान, कुल, रूप, संपत्ति, प्रभुत्व ये अनेकवार इस जीवको प्राप्त हुए हैं. ये प्राप्त होकर भी पुनरपि नष्ट हो चुके हैं. और पुनः नीचत्त्व प्राप्त हुआ है. अतः अभिमान करना फिजूल है. अधिगेसु बहस संतेसु ममादो एत्थ को महं भाणो || को विभओ वि बहुसो पचे पुबम्मि उच्चत्ते ॥ १४२८ ॥ - परषु विद्यमानपु किं दुग्नमधिकघु मे ॥ योनिहीनेष्यहकारः संसारे परिवतिनि ॥ १४८५ ।। विजयोदया-स्पष्टा॥ मूलारा--ममादो मत्सकाशान् । विभओ हर्षः ।। अर्थ-कुल, रूप, संपत्ति इत्यादिक बातोंमें मरसेभी अधिक श्रेष्ठ लोक जगतमें हैं अतः इसमें मेरा अभिमान करना व्यर्थ है. तथा ऐसा उच्चत्य मेरेको पूर्वकाल में अनेक वार प्राप्त हुआ था इसलिए इसमें आश्चर्य चकित होना भी मेरे लिए अयोग्य है. उत्तरगाथा जो अवमाणणकरणं दोस परिहर णिच्चमाउस्तो॥ सो णाम होदि माणी ण दु गुणचचेण माणेण ॥ १४२९ ॥ समानी कुरुते दोषमपमानकर न यः॥ न कुवाणः पुनमोनमपमानविवद्धेकम् ॥ ११८६ ॥ विजयोदया-जो अबमाणणकरणं योऽवमामकरणं दोष परिहरति नित्यमुपयुक्तः स मानी भवति । न तु भवति मानी गुणरिक्तन मानेन । MSReateratoraseas ३५ Page #1372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्था अलौकिकमानित्वोपदर्शनद्वारेणाहंकारनिराकरणं कारयितुमाह मूलारा-अवमाणणकरणं परिभबकरं स्वस्य परस्व बा । दोस कुलतपोविद्यादिभिरारमोत्कर्षसंभाषनं परप्रधपणं पा । आजत्तो सर्वत्र समाहितः । सो णाम' स एव मानी भवति । तन्माहात्म्यस्य केनापि खंडयितुमशक्यत्वात् । गुणरित्रण स्वपरपराभरकारमानाख्यदोषदोपनियपरिहरणलक्षणगुणपरिहीनेन । माणेण स्तब्धत्वमात्रेण | तम्माहात्म्यखंडनस्व येन केनापि कर्तुं शक्यत्वात् ।। उक्तं च-- से मानी कुरुते दोषमपमानकर न यः॥ न कुर्वाणः पुननिमपमानवित्रर्थकम ॥ अर्थ-जो पुरुष अपमानका कारण ऐसे दोषका त्याग करता है और हमेशा दोपरहिन प्रवृत्ति रखता है उसको ही मानी समझना योग्य है. गुणरहित होनेपर भी मान करनेसे कोई मानी नहीं माना जासकता है. PSt इह य परत्तय लोए दोसे बहुगे य आवहदि माणो ॥ इदि अप्पणो गणित्ता माणरस विणिग्गहं कुज्जा ॥ १४३० ॥ द्वितयलोकभयंकरमुत्तमो विविधदुःखशिलाततदुर्गमम् ।। प्रबलमार्दववायिघाततो मयति माननगं शतखंडनम् ॥ १४८७ ।। इति माननिर्जयः ।। विजयोव्या-रह य परसय जन्मलो दोपबहनापति मानमिति विगणय्य माननिग्रहं कुर्यात्साधुजनः॥ मूलारा---पष्टम । माननिर्जयः।। अर्थ--इस जन्ममें और परजन्ममें यह मानकषाय बहुत दोपोंको उत्पन्न करता है. ऐसा जानकर RI सत्पुरुप मानका निग्रह करते हैं. अर्थात् मानका त्याग करते हैं. मायाप्रतिपक्षपरिणामस्वरूपं निगदति-- अदिगूहिदा वि दोसा जणेण कालंतरेण णज्जति ॥ मायाए पउत्ताए को इत्थ गुणो हबदि लद्धो ॥ १४३१ ॥ १३५ Page #1373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः दोषो निगुथमानोऽपि स्पष्टतां राति कालतः ॥ निरिह जलवचन चिरं व्यवतिष्ठत ॥ १४८८ ॥ विजयोदया-अदिगृहिदा नि दोसा अतीव संघृता अपि दोपा जनेन शायते कालांतरे. मायया प्रयुक्तया को गुणो लन्ध इति चिंतया निति ॥ मायाजयोपायं गायापंच के नाह-- मूलारा--अदिगृहिदा सुष्टु गोपिताः । लद्धो येन पंचना प्रयुज्यते इत्यार्जवमावनया मायां निर्जयेदिति तात्पर्यम्॥ मायाका प्रतिपक्षी परिणामका स्वरूप आचार्य कहते हैं अर्थ-दोषोंको अतिशय छिपाने पर भी कालांतरसे कुछ काल व्यतीत होनेके बाद वे दोष लोकोंको मालूम पडते ही है, इसलिए मायाका प्रयोग करने पर भी क्या फायदा होता है । ध्यान में नहीं आता. - पडिभोगम्मि असंते णियडिसहस्से हिं गृहमाणस ॥ चदग्गहोच्च दोसो खणेण सो पायडो होइ ॥ १४३९ ॥ जणपायडो विदोसो दोसोत्ति ण घेप्पए सभागरस ॥ जह समलत्तिण धिप्पदि समलं पिजए तलायजलं ॥ १४३३॥ प्रकटोऽपि जनैर्दोषः सभाग्यस्य न गृश्यते ।। समलं मलिन केन गृह्यते सारसं जलम् ॥ १४८९ ॥ नीचेन छायमानोऽपि स्पष्टतामेति निर्मलः॥ राहणा पिहितश्चद्रो भूयः किं न प्रकाशते ।। १५९० ।। विजयोदया-जणपायडो वि दोसो लोकप्रकटोऽपि दोषो दोष इति न गृहाते भाग्यवतः । यथा समलमिति सदर्श । पतदुक्तं भवति पुण्यवतोऽपि मायया न किंचित्साध्य | प्रकटेऽपि दोष यतोऽसी जगति मान्यः । दोषविनिगूदन हि मान्यताविनाशभयाविति भावः ॥ किं च कृतदोषाविर्भावतिरोभावो भाग्यानुदयोदयाधीनी न पुरुषाकारायत्तो तकिमय राक्षसीवापायप्राया माया प्रतायते इति शिक्षयति - १३५७ - Page #1374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचासा मूलारा--पष्ठिभोरस्मि पुण्ये । राहो, सोममहणं । एतां श्रीविजयो नेच्छति ।। मलाराधनाक .. अ हाहासाममहण । एता धावि "भाग्यशालिनों दोपमपि दोष इत्यगृहीत्वा लोको माननां करोति इति पुण्यवतो मायया न किंचित्साभ्य तयाप्यसौ प्रयुज्यमाना मान्यतामेव विनाशयेत् इति शिक्षयनि मूलारा-स्पष्टम् ॥ अर्थ-उत्कृष्ट भाग्य यदि न होगा तो हजारो कपट करके दोषोंको छिपाने पर भी वे प्रगट होते ही हैं. जैसे चंद्रको राहग्रास लेता है यह रात छिपती नहीं सर्व जनप्रसिद्ध होती है, जैसे दोष छिपानेका कितना भी प्रयत्न करो परंतु यदि तुम पुण्यवान न होंगे तो तुझारे दोष लोगोंको मालूम होंगे ही. अर्थ-जो भाग्यवान मनुष्य हे उसका दोष सई जनौको प्रत्यक्ष होनेपर भी लोक उसको दोष मानते नहीं है. जिस तालाबका पानी मलिन होनेपर भी उसके मलिनपनाके तर्फ जप लक्ष्य नहीं देते हैं. इससे यहाँ यह अभिप्राय समझना चाहिए- पुण्यवान् केपट करनेकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है. क्योंकि दोप प्रगट होनेपर भी श्रीमान मान्य होते ही है. मान्यताका नाश होगा इस भयसे दोषोंको छिपाते हैं परंतु जब मान्यताका नाश होनेका मय ही नहीं है तो कपट करने की क्या आवश्यकता है. अप माणं करोत्यार्थ तथापि साथिकेहि पति डंभसएहिं बहुगेहिं सुपउत्तेहिं अपडिभोगस्स ॥ हत्थं ण एदि अत्थो अण्णादो सपडिभोगादो ॥ १४३०॥ दमेऽर्थः क्रियमाणऽपि विपुण्यस्य न जायते॥ आयाति स्वयमेवासी सुकृते विहित सति ॥ १४९१ ॥ विजयोत्या-उभसदेहि ययुगाई दंभशत बहुभिः सुप्रयुक्तैरपि अपुण्यस्य हस्तं नायात्यर्थः । अन्यस्मात्पुण्यात् ।। विपुण्यस्य मायाप्रयोगो धनमाधनापापि न स्यादिति बोधयनि-- मूलारा--अपडिभोगरस अपुण्यस्य । अण्णायो अन्यस्माद्वंचनाविषयीयवात् । सपडिभोगादो सपुण्यात् ।। धनके लिये माया करते हैं यह कहना भी व्यर्थ है ऐसा कहते हैं १३५८ Page #1375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ et:-- अपान treest प्रकारावना आधासा अर्थ-सफडो कपट प्रयोग करने पर भी और बेमालूम कपट प्रयोग करने पर भी पुण्यवान मनुष्यसे मिम मनुष्पको अर्थात् पापी मनुष्यको धन प्राप्त नहीं होता है. तात्पर्प-कपट करनेसे धन प्राप्ति होती नहीं रह पुण्यसे ही मिलता है. इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवहइ माया ॥ इदि अप्पणो गणित्ता परिहरिदब्वा हवइ माया ॥ १४३१॥ वितरति विपुला मिनिधरित्री बहुविधमसुखं दुरितसवित्री ॥ इयमिति निहता विपुलमनस्क ऋजुगुणपविना विमलयशस्कैः।। १४९२ ।। इति मापानिर्जयः ।। विजयोदया-नाय परत य इहपरलोकयोबहन्दोपानापति माया । इति आत्मनि निरूप्य परिहर्तव्य भवति माया। मूलारा--स्पष्टम् । मायानिर्जयः ।। अर्थ-इइपरभवमें माया अनेक दोष उत्पन्न होते हैं एसा जानकर मायाका त्याग करना चाहिये. लोभे कए वि अत्थो ण होइ पुरिसस्न अपडिभोगस्स ॥ अकएवि हवदि लोभे अत्थो पडिभोगवंतस्स ॥ १५३५ ॥ संपचते सपुण्यस्य खयमेत्यान्पतो धनम् ॥ हस्तप्राप्तमपि क्षिप्रं विपुण्यस्य पलायते ॥ १४९३ ॥ विजयोदया-लोभे कई लोमे कतेप्यों न भवति पुरुषस्य अपुण्यस्प । अफतेऽपि लोभे पुण्यवतः । ततः मर्यासक्तिरर्थलामे ममन निमित्तमपितु पुण्यामिस्यनया खिशया लोभो शिराकार्य।। लोभजयोपार्य गाथात्रयेणाह मूलारा-पडिभोगवंतास पुण्यवतः । अर्थासक्तिनार्थलाभानिमित्तमपि तु पुराकृतं पुण्यमित्यनया तिया शौचमनुबनिन् लोभ निराकर्यादितिभावः ।। पापा Page #1376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाराधना आश्वास १३६० अर्थ-लोभ करनेपरभी पुण्यरहित मनुष्यको द्रव्य मिलता नहीं है. और लोभ न करनेपर भी पुण्यवान को धनकी प्राप्ती होती है इसलिये धनप्राप्ति होती है इसलिये धनप्राप्ति होनेमें धनासाक्त कारण नहीं है परंतु पुण्य ही कारण है ऐसा विचार कर लोभ का त्याग करना चाहिये. अपि च अर्थप्राप्तये जनः प्रयतते अर्थाः पुनासकृत्प्राप्तास्त्यक्ताश्च तेषु को विस्मय इति ममाप्रणिधानं कुरु लोभाविजयायेति वदति-- सब्बे वि जए अत्था परिगहिदा ते अणतनुत्तो मे ॥ अत्थेसु इत्थ को मज्झ विभओ गहिदविजडे सु ॥ १९३७ ।। संसारष्टाध्यमानेन प्राप्ताः सर्वे सहस्रशः॥ विस्मयो लब्धमुक्तषु कस्तेषु मम सप्रितम् ।। १४९५ ।। ___विजयोदया-सचे विजय अत्था सर्वेऽपि जगत्यर्धाः परिगृहीता मयानंतवार ममाथैखमीषु को विस्मयो गृहीत स्यक्तेषु॥ उपायांतरमाहमूलारा-स्पष्टम् । लोमनिर्जयः ॥ धन प्राप्त्यर्थ लोक यत्न करते हैं धन तो अनेक बार मिल गया था और नष्ट भी हुआ था इसलिये धनमें आश्चर्य करना फिजल है लोभ विजयके लिये ही हे क्षयक मनको स्थिर कर एमा आचार्य उपदेश करते हैं अर्थ- इस त्रैलोक्यमें मैने अनंतबार धन प्राप्त किया है. अतः अनंतबार ग्रहण कर त्यागे हुए इस धन के विषयमें आश्चर्य चकित होना फिजूल है. इह य परत्तय लोए दोसे बहुए य आवहइ लोभो ।। इदि अप्पणो गणित्ता णिज्जेदव्वो हवदि लोभो ॥ १४३८ ॥ लोकद्वये दुःखफलानि दत्ते गार्धक्यतोयेन चिवर्द्धितोऽयम् ।। संतोष शस्त्रेण निकर्तनीयः स लोभवृक्षो बहुल क्षणेन ॥ १४९५ ।। Page #1377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १३६६ कषायचौरानतिदुःखकारिणः पविवचारित्रधनापहारिणः ।। शृणाति यावरिमार्गणैः करस्थितास्तस्य मनीषिताः श्रियः । १४९६।। इति लोभनिर्जयः || विजयोदया - इंद्रिय कसायतिगदं । भूला - स्वम् || लोभ निर्जयः || अर्थ -- इहपरलोक में यह लोभ अनेक दोषोंको उत्पन्न करता है ऐसा समझकर लोभकपायपर विजय प्राप्त करना चाहिये, इंद्रिय और कपायों का वर्णन समाप्त हुआ पवमंद्रिय कषायपरिणामनिरोधोराय भूतान्परिणामानुपदिश्य निद्राजयक्रमं निरूपयति सूरिः-जिद्द जिणाहि णिच् द्दिा हु गरं अचेयणं कुणइ ॥ बज्जिहु पासुतो खवओ सव्वेसु दोसेसु || १४३९ ॥ निद्रां जय नरं निद्रा विदधाति विवेशनम् ॥ सुप्तः प्रवर्तते योगी दोषेषु सकलेष्वपि । १४९७ ॥ विजयोदया-जिरं जिणादि निद्रां जय । व्यजिता सा किमपकारं करोति इत्याशंक्य आह-विड़ा हु परं अ कुद निद्रा नरं अचेतनं करोति । चैतन्यरहितावस्थाभाषात्किमुच्यते अचेतनं करोतीति । श्रोते विवेकज्ञानरहितत्वमेवात्राचेतनशनोच्यते । यत एव योग्यायोग्यविषेशानरहित अत एव षट्टिज्ज हु वर्तते एव । पासुतो प्रकर्षण सुप्तः । स्वगो क्षपकः । सब्बे दोसेसु हिंसामैथुन परिप्रहादिकेषु ॥ एव सिंद्रियकपायजयान्संवरतूनुपविश्य तत्प्रकरणानुरोधात्प्रकं निद्राजयोपायं भोवार्य गाथादकेनोपदिशति मूलाग - जिणाहि जब त्वं । अचेवगं युक्तायुक्तविविमुक्तं सु हिंसादिषु ॥ इंद्रिय पाय परिणामोंका निरोध करनेमें उपायभूत परिणामों का यहनिक आचार्यने विवेचन किया अब निद्राजयका क्रम कहते हैं - अर्थ- हे क्षपक तू निद्राको जीत ले, निद्राको न जीतने से क्या हानि होती है इस शंकाका उत्तर ऐसा है-निद्रा मनुष्यको अचेतन करती है. आत्मामें चैतन्यरहित अवस्था का अभाव ही हैं अतः निद्रा आवेतन करती है. ऐसा क्यों १७९ आश्वासः १३६६ Page #1378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना कहा है ? उत्तर--वियक ज्ञानका अभाव निद्राके समय होता है. अतः निद्रा मनुष्य को अचेतन करती है ऐसा कहा है. योन्यायोग्यविवेक ज्ञान न होने से आरमा अचेतन होता है, ऐसा कह सकते है. गाढ निद्रित हुआ मनुष्य हिंसा, मैथुन, परिग्रहादिक दोषों में प्रवृत्त होता है. निद्रा कर्मोदयवशायप्ति कयं मयापाकर्तच्या इत्यत्राह-- जाद अधिवाधेिज तुम णिहा तो ते करहि सज्झायं ॥ सहुमत्थे वा चिंतेहि सुणव संवेगणिवेगं ॥ ११४० ॥ यदा प्रयाधत निद्रा स्वाध्यायं त्वं तदाश्रय ।। अर्थानणीयसो भ्यायन्कुरु संगनिर्विवी ।। १४५८ ॥ शिसोदया--.दिाि िदम र रापात भयं निद्रा। जसमा कुरु स्वाध्यायं । चूहमांश्च वा चितहि सूक्ष्मानान् चितय । सुणच मवेणिवेग णुप्य मवेजना निर्वजनी या का। दर्शनावरणोदयोद्रेका विशंती निद्रा कथं मया निशेहूं शक्येत्यत्राह- . मूलारा- तुम त्वं । सुण ब शृणु वा । संवेगणिन्वेदं संबैजनी निर्वेजनी वा कथाम् ॥ निद्रा कर्मक उदय से भाती है अत: वह मरेस की हटाई जा सकेगी इस प्रश्नका उत्तर आचार्य देते हैं अर्थ-यदि निद्रा तुझका सतावंगी तो तू स्वाध्याय कर, सूक्ष्म पदाथोंका विचार कर, संवैजनी और निजमी कथाओंका भी बण कर ये निद्रा जीतनके उपाय हैं. प्रकरतरं निद्राषिजय हेर्नु निगदति- . पीदी भए य सोगे य तहा णिहा ण होइ मणुयाणं ॥ एदाण तुम तिषिणवि जागरणथं णिसेवेोहि ॥ १४४१ ॥ निद्रा प्रीती भये शोके यतः पुसो न जायते । निर्जयाय ततस्तस्यास्स्वाभियं त्रितयं भज || १४९९ ।। १३६२ Page #1379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · मूलागधना १३६३ विजयोदय: त्वं निद्राधिजितये || सोमयेोतिषाणां न भवति । तेन प्रीत्यादिसेवां कुरु मूलारा -- प्रीत्यादिचये सति नोदेति || निद्राविजयके लिए दूसरा उपाय. अर्थ- प्रीति, भय और शोक इनमेंसे कोई भी विकार होनेपर निद्रा नहीं आती है. इसलिए निद्रा विजया तूं प्रीत्यादिका सेवन कर. प्रीतिभयशोकानां अशुभ परिणामत्वात्कमपिनिर्मिता । निद्राया वा अविशिष्टत्वात् कथं या संबंरार्थिनो निरूप्यते प्रीत्यादिकं इत्याशंकाय संघर हेतुभूततया तयपदेशं प्रति नियतविषयमुपदर्शयति-भयमागच्छ संसारादो पीदिं च उत्तमम्मि ॥ सोगं च पुरादुच्चरिदादो णिहाविजयहेतुं || १४४२ ॥ ज्ञानाधाराधने प्रीतिं भयं संसारदुःखतः ॥ पाएं पूर्वार्जिते शोकं निद्रां जेतुं सदा कुरु || १५०० ॥ चिमथो - भयमागच्छ भयं प्रतिपद्यस्य । संसारा संसारात पंचविपरिवर्तन रूपात् । प्रीति रत्नत्रयागधनायां । शोकं उद्दिपूर्वकृता । निद्रां विभुं मयादितवत्परिवर्तन शारीर मागंतुक गानसिक स्वाभाविक च दुःखं विचित्रमनुभूतं तत्पुनरप्यायास्यति इति मनः प्राणिधद्धि | कलामा पासष्ठतिमुन्मूलयितुं, अभ्युसनखुनानि च प्रापयितुं, असारशरीरभारमपनेतुं, अनंताम्रत्रो घदर्शन साम्राज्यश्रियमक, कर्मधिपटिय क्षमामिमां अनंतेषु भवेषु अनयासपूर्वी रत्नत्रयाराधनां कर्तुं उद्यनोऽस्मीति प्रीतिभवनीया । हिंसा नुनस्तेयाब्रह्मपरिषदेपु विशुभ मनोवाक्काययोगेषु य विचित्रक्रमजनमूलेषु चतुर्थिवधपर्याय निमित्तेषु अनारतं मंदभाग्यः प्रवृत्तोऽस्मि हिताहितविचारणाविमुग्धबुद्धितया सन्मार्गस्योपदेष्णामनुपलमा घरमानावरोधोदयात्तदुदीरितार्था नवयोधात् । अवगमे सत्यन्यश्रद्धायाः, चारित्रमोहोदयात्सम्मा दुःखांभोधी निमग्नोऽस्मीत्युद्विग्नचिततया च निद्रा प्रयाति || संबरार्थ निद्रां जिगीषता किं विषयं प्रीत्यादित्रयं विधेयमित्याह- मूलारा प्रतिपद्यस्य नरकादिगतिषु असकृत्परिवर्तमानेन शारीर मागंतुकं मानसं स्वाभाविकं च दुःखं मयानुभूवं तत्पुनरपीदमायातीति चेतः प्रणिधेद्दीत्यर्थः ॥ आश्वासः १२६३ Page #1380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराया १३६४ उत्तमम्मि रत्नत्रयाराधनायां सर्वा विपदो निराकर्तुमभ्युदय निःश्रेयससंपदः संपादयितुं कर्मविषवृक्षमुन्मूलयितुं, अनंतज्ञानादिश्वतुष्टयश्रियमाष्ट्र असारशरीरभारमपसारयितुं च समर्थतमामिमामासंसारमप्राप्तचरी रत्नत्रयाराधनां विधातुमुद्यतोऽस्मि, धन्योऽस्मि, कृतकृत्योऽस्मि, पुण्याई ममेदमद्येति प्रीति भाषयेदित्यर्थः । पुरा दुधरिदादो पूर्वाचरिते दुराचारे । मनादिकाल मिध्यात्वा संयम कषायाऽशुभयोगपरावर्तेषु चतुर्विश्वबंधनिबंधन तथा विविध चतुर्गतिदुःखप्रबंधवि धातृषु मंदभाग्यः कथमहं प्रवृत्तः १ हिताहितमीमांसामूढतया सन्मार्गोपदेशकं गुरुं लब्ध्वापि प्रवलज्ञानावरणोदयवशात् वदुपदिष्टार्थत स्वस्यानयधोधेऽपि दुर्मधमिध्यात्वविपाकेनाश्रद्धानेऽपि वर्षारचारित्रमोहोद्रेकेण श्रेयोमार्गाप्रवृत्तेश्च कथमहं दुरंत संसारपारावार दुःखावर्त्तसहस्रेषु मुदुर्मुहुर्विवृत्तोऽस्मीत्युद्विमहृदयो भवेदित्यर्थः । प्रीति, भय और शोक ये अशुभ परिणाम है अतः अशुभ कर्मका आगमन होने में ये हेतु हैं. निद्रा के समान वे भी त्याज्य है तो भी संवरार्थी के लिए इन भयादिकोंका निरूपण आचार्य क्यों करते हैं ? इस शंकाका परिहार करनेके लिए प्रीत्यादिकके विषयोंका भी खुलासा करते हैं अर्थ :- हे क्षपक तू पंच प्रकारकं परिवर्तन रूप संसारसे भययुक्त हो, रत्नत्रयकी आराधना करने में व् प्रेम युक्त हो और पूर्वकृतपाप के विषय में मनमें शोक कर. ऐसा करनेसे तू निद्रापर विजय पा सकेगा. नरकादि गतिओम अनेक वार उत्पन्न होकर अनेक प्रकारके शारीरिक, आगंतुक, मानसिक दुःखों का तू अनुभव लिया है. ये दुःख फिर भी मेरेको प्राप्त होंगे ऐसा विचार कर भययुक्त हो. और अपना मन ध्यान में एकान कर. यह रत्नत्रयाराधना सर्व संकट समुदायका नाश करती है. अभ्युदय और मोक्षसुख देती हैं. असार शरीरका भार इस रत्नत्रयाराधनाये दूर होता है. इससे जीनको अनंत दर्शन और अनंतज्ञानकी मानि होती है. यह कर्मरूप विषवृक्षको उखाने में समर्थ है. इसकी अनंत भवोंमें कभी भी प्राप्ति नहीं हुई थी. मैं आज इसको प्राप्त करने में उयुक्त हुआ हूं. ऐसा विचार करके रत्नत्रयाराधनामें प्रीतिकी भावना भानी चाहिये हिंसा, असत्य भाषण, चोरी, मैथुन सेवन और ब्रह्मचर्य ये पांच कुकार्य विचित्रकर्मकी उत्पत्ति करनेमें हेतु हैं. मिथ्यात्व कषाय, और अशुभ मनोवचन और काय इनसे नाना प्रकार के कर्मोंका जीवमें आगमन होता है. उपयुक्त कारणोंसे प्रकृति, स्थिति वगैरह चार प्रकारके कर्म बंधकी उत्पत्ति होती है. मंदभाग्यवान मैं ऐसे का में हमेशा प्रवृत्त हुआ था. हिताहितविचार करनेवाली बुद्धिकी मेरेमें कमी थी. सन्मार्गका उपदेशक न मिलनेसे, आश्वासः ६ १३६४ Page #1381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मरापरता तथा ज्ञानावरण कर्मका उदय होनेसे मेरेको हितबान आजतक नहीं हुआ था. अथवा उपदेशक मिलनेपर भी उसके उपदेशका अभिप्रायही मैं नहीं जान सका. कभी शान होनेपर भी मैने उस उपदेशपर विश्वास नहीं किया. वि. श्वास करनेपर भी चारित्रमोहकर्मक वश होकर नारित्र नहीं पाला. इसी कारण मैं संसारसमुद्र में हवा हूं इस प्रकारके शोकविचारसे निद्रा न होती है. wraunsamnerearram माMADAN जागरणत्थं इच्चेवमादिकं कुण कम सदा उत्तो ॥ झाणेण विणा बंझो कालो हु तुमे ण कायन्वो ॥ १४४३ ॥ सदैवमुपयुक्तन निद्रां निर्जयता त्वया ॥ न ध्यानेन विना स्थेयं पवित्रेण कदाचन ।। १५०१ ॥ विजयोदया-जागरणार्थ निगानिरासाय पषमादिकं कुरु कम सदोपयुक्तं । ध्यानेन विना यः कालोन | वर्तब्यस्त्वया। मूलारा-जागरणस्थं निद्रानिरासार्थ । बंझो निष्फलः । तत्तदुपायसिौषधप्रयोगनिद्रामहान्चाधि जितवतापि त्वया सचानशून्येन क्षणमपि न स्थातव्यम् । तस्यैव कर्मसंषरणनिर्जरणकर्मणि धुरीणत्वात इति भावः ।। अर्थ-निद्रका नाश करने के लिय इस प्रकारका उपयुक्त कम तूं कर. और ध्यानके विना एक कालकला भी तुझको नष्ट करना योग्य नहीं है. संसाराडविणित्थरणमिच्छदो अणपणीय दोमाहि ॥ सो, ण खमो अहिमणपणीय सोदु व संघरम्मि ॥ १४४४ ॥ . न दोषामनपाकृत्य स्वप्तुं जन्मनि युज्यते ।। अनर्थकारिणो रौद्रान्पन्नगानिव मंदिरे ॥ १५०२ ।। विजयोदया संसाराषिणिकरण मिच्छदो संसाराविनिस्तरणमिछमनपाकृत्य दोषान् न हि स्वन्तुं क्षमः। अहि अनपनीय स्वसुमिम गृहे ॥ Page #1382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकाराधना १३६६ यावदोषा न निराकृतास्तावत्तवास्मिञ्जन्मनि स्वापः कर्तुं न युज्यते इति वक्रभणित्या निद्राविजयाय सञ्जयति ॥ मुलारा -- इच्छादो इच्छन् । वांछवो वा । अन्ये णिच्छिदो इति पठित्वा निचययुक्तो मुनिरित्यर्थमाहुः । अणवणी स्वस्मादनिःसार्थं । दोसाहिं रागादिसर्प सो वमपि न युक्तं तवेति योज्यम् || अहं सर्प ॥ उक्तं च ॥ ד न दोषाननपाकृत्य स्वप्सुं जन्मनि युज्यते ॥ अनर्थकारिणो रौद्रान्पन्नगानिव मंदिरे ॥ अर्थ --- संसाररूप जंगल से निकलने की इच्छासे दोषों को बिना दूर किये ही सोना योग्य नहीं हैं. क्या सर्पको घरमेंसे बाहर निकाले बिनाही घरमें सोना योग्य हैं ९ को पान जिन्गो लोगे मरणादिअग्गिपज्ञ्जलिदे || पज्जलिदम्मि व णाणी धरम्मि सोढुं अभिलसिज्ज || १४४५ ॥ संसारे युज्यते स्वतु कस्य दोषैः प्रदीपित महाताप करैर्गेहे पावकैरिव भीषणे । १५०३ ।। विजयोदया को नाम विरुव्वेगो लोगे मरणादि अग्गिपज्जलिदे जातिजरामरणव्याधयः, शोकामयानि, मार्चितालाभो, अभिमतवियोग इत्यादिनाग्निना प्रज्वलिते । णाणी सोदुमभिलसेज्ज ज्ञानी स्वप्तुमभिपेत् । पञ्जदिदम्मि घरम्मि व प्रज्वलिते गुड इव ॥ मंग्यंतरेण निद्रां निराकारयति - मूलारा--- अणुविग्गो उद्वेगरद्दितः || मरणादि मृत्युव्याधिजराजन्मभयमान मंगशोकादि । णाणी तस्वज्ञः । अर्थ - इस जगत में कोन निरुद्वेग है अर्थात् किसको मय है नही ? सभी मनुष्योंको जन्म, वृद्धावस्था, मरण, रोग, शोक, इच्छित वस्तुओंकी प्राप्ति न होना, इष्ट वस्तुओंका वियोग होना एतत्स्वरूप अग्नी से सब पीडित हो रहे हैं. ऐसा विचार कर शानी सोने की इच्छा करेगा क्या ? कोनसा ज्ञानी मनुष्य अग्निसे घर प्रज्वलित होने पर सोनेकी इच्छा करेगा ? आश्वा ६ ११६६ Page #1383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुताराधना आश्वास को णाम णिरुव्वेगो सुविज दोसेसु अणुवसंतेषु ॥ गहिदाउहाण बयाण मञ्झयारेव सत्तूणं !! १४४६ ।। को दोषेष्यप्रशातिषु निरुद्वेगोस्ति पंडितः।।। द्विषत्स्यिद समीपषु विविधानर्थकारिषु ॥ १५०४।। विजयोदया--को पाम पिल्वेगो को नाम नियमः स्यपेद्रागादिषु संसारप्रवर्द्धनेषु वोपेषु अनुषशांतनु । गृहीतायुधानां शत्रूणां बहना मध्ये इव ॥ मूलारा-मायारे मध्ये।। अर्थ-जैसे जिन्होने हामि धारण किये हैं ऐसे शत्रुओंके बीच में निर्भय होकर कोन स्थिर रह सकता है। वैसे संसारको बानेवाले रागदिक दोष शांत नहीं होनेपर कौन ज्ञानी पुरुष निर्भयतासे सोवेगा. अर्थात रागादिक विकार शत्रुके समान इस जीवको कष्ट दे रहे हैं एसे प्रसंगमें निद्राधीन होना क्या योग्य माना जायगा? णिहा तमस्स सरिसी अण्णो णस्थि हु तमो मणुस्साणं ।। इदि णच्चा जिणसु तुमं णिद्दा उझाणस्स विग्घयरी ॥ १४४७ ।। नास्ति निद्रातमस्तुल्यं परं लोके यतस्तमः॥ सर्वव्यापारविध्वंसि जयेदं सर्वदा ततः ।। १५०५ ।। विजयोदया-णिदा निद्रा तमस्सहशमन्यत्तमो नास्ति मनुजाना इति शास्वा निद्रा ध्यानस्य विनकारिणी जयेति ॥ मूलारा-धि तिमिरांतरस्य सद्भयानप्रतिबंधाक्षमस्यात् ।। उक्त प नास्ति निद्रातमस्तुल्यं परं डोके यतस्तमः ।। सर्वव्यापारविध्वंसि जयेदं सर्वदा ततः ॥ अर्थ-निद्रारूप अंधकारके समान जगतम अन्य अंधकार है ही नहीं ऐसा समझकर ध्यान में वित्त ढाल- . नेपाली इस निद्राको सुम जीतो. .. Page #1384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलारापना आश्वासः १३ कुण वाणिद्दामोक्ख णिवामोक्खरस भूणिवेलाए । जह वा होइ समाही खवणकिलिंतस्स तह कुणह ॥ १४॥८॥ निद्राविमोक्षकाले स्व निद्रां मुंवाधवा यते॥ यथा वा कान्तदेहस्य समाधान तथा कुरु ॥ १५०६ ॥ विजयोदया-कुण पाणिहामोक्षं कुरुवा निद्रामोक्ष निवामोक्षस्य कथितायां लायां रास्तृतीये याम रति यावत् । यथा वा समाधियति मषत उपचासपरिश्रौतस्य तथा वा निद्रामोक्ष कुरु ॥ णिसिगवं ॥ एवं निद्रानिरासमुत्सर्गेणोपविश्य तदपधारमाह- . मूलारा-मणिदवेलाए रात्रिरतीयहरे। रवमणकिलितस्स उपवासस्वाध्यायादिना ग्लानि गतस्य । उक्त प निद्राविमोक्षकाले त्वं निद्रो मुंचायषा यते || यथा वा लांतदेहस्य समाधान तथा कुरु ।। अर्थ-निद्राका त्याग करनेक समय में अर्थात रात्रीके तिसर प्रहरम हे क्षपक नू निद्राका त्याग कर. अथवा उपवाससे थक हुए तुझको जिस प्रकारसे समाधान रहगा वैसा निद्राका त्याग कर, निद्राका प्रकरण समाप्त उक्कायोगसंहारं वक्ष्यमाणं वाधिकार दर्शयन्युन गाथा एस उवाबो कम्मासत्रदागिरोहणो हये सन्यो । पोगणयस्त कम्मरस पुणो तवसा खओ होइ ॥ १४४२ ॥ कर्मासवनिरोधेऽयमुपायः कथितस्तव ॥ कल्मषस्य पुराणस्य तपसा निर्जरा पुनः ।। १५०७ ॥ उदीयमानेन महोयमेन क्षत्रेण ? निद्रा तमसा सवित्री ।। प्रशस्तकर्मव्यवधानशक्ता विजीयते भानुमतेव रात्रिः ।। १५.८।। इति निद्रानिर्जयः। HP Page #1385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १३६८. विजयोदया-पस उद्याओ कर्मणामात्रवद्वारनिरोधें उमाओ उपायोऽयं सर्वोऽभिहितः । पौराणस्य कर्मणस्तपसा यो भवति । संवरपूर्विका निर्जरा मुक्तये भवति न संवरहीनेति पूर्व संवरोपन्यासः ॥ एवं मंत्रपूर्वेत्र निर्जरा निर्वाणाय प्रभवतीति वाच्यसा जल्या पासयनि- निनिमित्त वपास गाथासप्रि मूलारा एक मित्तस्स य मणमित्यादिसूत्रसमुदाय निर्दिष्टः ॥ उपर्युक्त अर्थका उपसंहार अथवा आगे कहा हुआ अधिकार उत्तर गाथासे कहते हैं अर्थ -- जितना कर्तव्य पूर्व में कहा है वह सर्व कर्मागमनका निरोध करनेका उपाय है तथा इस कर्तव्यका पालन करनेसे पूर्ववद्ध कर्मका क्षय भी होता है. तपसे पूर्व कर्मका क्षय होता है. संवरसहित निर्जरा कर्मका नाश कर मोक्ष प्राप्तिका भी कारण होती है. संवरहीन निर्जरा मोक्षका कारण नहीं है यह दिखाने के लिये आचार्यने प्रथम संवरका गाथामें उल्लेख किया है. अभंतर बाहिरगे तवम्मि सर्त्ति सगं अग्रहंतो ॥ उज्जम सुहे देहे अपडिवो अगलतो तं ॥ १४५० ॥ यत्तस्वाभ्यंतरे बाह्ये स्वां शक्तिमनिगृहयन् ॥ तपस्य नलसः स त्वं देहसौख्यपराङ्मुखः । १५०९ ।। विजयोदया - मर्मतरा हिरणे अभ्यंतरे बाधे च तपस्युद्योगं कुरु स्वां शक्ति गूहमानः । सुखे शरी श्रानासक्तिः बनालस्यः । न हि शरीरे सुने घर बादरवांस्तत्प्रतिपक्षभूते तपसि प्रयतते । न चालसः प्रवर्तते तपसि । प्रत्यूहभावेन स्थितं सुत्रे शरीरे प्रतिबद्धत्वमलसत्वमावेदितमनेन ॥ सतत् परिहरन स्वशक्त्या त्वमुद्यच्छेत्यनुशास्ति -- मूला-अप न चालसः । अर्थ --- हे क्षपक ! तू अभ्यंतर तप और बाह्य तपमें अपनी शक्ति न छिपाता हुआ उद्यम - प्रयत्न कर. सुखमें और शरीर में तू आसक्ति मत कर. आलस्यको जिसने छोडा है वह शरीर में और सुखमें आसक्त न होकर १७२ सुखे दे बानासक्तः । न हि शरीरे सुखे वा आदरवांस्तत्प्रतिपक्षभूते तपसि प्रयत आश्वासः ६ १३६९ Page #1386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १३७० 13 मुख और शरीर के प्रतिपक्षभूत तपमें सदा उद्योग करता है. आलसी मनुष्य तपके विरुद्ध शरीर और सुखमें आसक्त होकर तगका त्याग करता है. अतः तू शरीर और सुखमें आसक्ति न करता हुआ तपमें उद्योग कर. मुहमीलाए अचपेण देहपडिबदाए य ॥ जो सत्ती संतीए ण करिज्ज तवं स सन्तिसमं ॥ १४५१ आलस्यसुखशीलत्वे शरीरप्रतिबंधने ॥ विदधाति तपो भक्त्या स्वशक्तिसदृशं न यः ।। १५१० ॥ विजयोदया- सुहसीलदार सुखासक्ततया, मलसतया, देहप्रतिबद्धतया वा यः शक्ती सत्यामपि तपोन करोति शक्तिसमं ॥ यथोक्तमनाचरतो दोषानुत्तरप्रबंधेनाह— मूलारा - सत्तिसमं यावच्छतिः ।। अर्थ — सुखस्वभावसे, आलस्य से, और देहवी मीतीसे जो सामर्थ्य होनेपर भी शक्तयनुसार तप नहीं करता है तस्स पण भावो सुद्धो तेण पउता तदो हवदि माया ॥ णय होइ धम्मसढा तिब्बा सुदेहविवखा ॥ १४५२ ॥ तस्य शुद्धो न भावोऽस्ति माया तेन प्रकाशिता ॥ शरीरसौख्यसक्तस्य धर्मश्रद्धा न विद्यते ।। १५११ ।। विजयोदया तस्स ण भायो तस्य परिणामो न शुद्धस्तस्मातेन शक्तिसमे तपस्थवर्तमानेन माया प्रयुक्ता भवति । यतस्ततो न भावः शुद्धः धर्मे तीम्रा च श्रद्धा न भवति । केन : सुइदेदपिका सुखे देहे व प्रेक्षया तत्र आसक्तया देतुभूतया । मूलाश — जो यस्मात्तेन शक्तिसमे तपसि अप्रवर्तमानेन स्वशक्तिप्रच्छादिना माया प्रयुज्यते यस्माच्च सुख आश्वासः १३७० Page #1387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासः देहयोरासक्त्या तस्य धर्मे श्रद्धा तीला नारिस, यस्मात्तस्य भरतमोऽनरागः श्रद्धा नास्तीति संबंधः ॥ तदो इति पाठे तपः कतुं शक्तिर्मम नास्तीति प्रकाशनया तपोऽकरणावित्यर्थः ।। अर्थ-उसका परिणाम निर्मल नहीं है ऐसा समझना चाहिये. शक्तयनुसार तपमें प्रवृत्त न होनेसे वह मायावी है ऐसा सिद्ध होता है. मायासे भाक्में परिणाममें शुद्धता नहीं रहती है और धर्ममें तीव्र श्रद्धा उत्पन्न नहीं होनी है. मुखमें और देश में बुद्धि संलग्न होती है इससेभी परिणाममें निर्मलता नहीं रहती है और धर्ममें तीव्रश्रद्धा नहीं उत्पन्न होती है. अप्पा य वंचिओ तेण होइ विरियं च गृहियं भवदि ॥ सुहसीलदाए जीवो बंधदि हु असादवेदणियं ॥ १४५३ ।। वीर्य निगूयते येन नेनात्मा बंच्यते स्वयम् ॥ सुखलितया तेन कर्मासातं च बध्यते ॥ १५१२ ॥ विजयोरया-अपाय वंचियो भामा वंचितस्तेन | शायनुरूपे तपस्यनभ्युद्यतेन शक्तिश्च प्रच्छादिता भवति मुखासक्ततया जीवो बनान्यसानदनीय चानकमत्रेषु दुःखायः ॥ मूलारा -- स्पटम ।। अर्थ-शक्त्यनुरूप तपमें जो प्रवृत्ति नहीं करता है उसने अपने आत्माको फसाया है और अपनी शक्ति भी टिपा दी है ऐसा मानना चाहिये. सुवासक्त होनेसे जीवको असाता वेदनीयका अनेक भवमें तीन दुःख देनवाला तीन बंध होता है. स . -- ---- ---- विरियतरायमलसत्तणेण बंधदि चरित्तमोहं च ॥ देहपडिबद्धदाए साधू सपरिग्गहो होइ ॥ १४५४ ॥ . वीर्यान्तरायचारित्रमोहावर्जयसेऽलसः॥ शरीरमतिबंधेन जायते सपरिग्रहः ॥१५१३॥ Page #1388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आश्वास १३७२ घिजयोक्या-विरियतरार्य वीर्यातरायमलसतया वभाति चारित्रमोहनीयं च । शरीरातल्या साधुः सपा रिग्रहो भवति॥ मूलारा--पष्टम ॥ अर्थ-अलसी होनेसे वीर्यासराय कर्मका बंध होता है. और चारित्र मोहनीय कर्म का भी मंध होता है. शरारमें आसक्ति होनेसे साधु परिग्रह का त्याग नहीं कर सकता है. यह परिग्रह धारक होता है. मायादोसा मायाए हुंति सव्वे वि पुव्वणिहिहा ॥ धम्मम्मि णिप्पिवासस्स होइ सो दुल्लहो धम्मो ॥ १४५५ ।। मायादोषाः पुरोदिष्टाः समस्ताः सन्ति मायया ।। धर्मपि नि:प्रियाशस्थ धाँऽस्य सुलभः कथम् ।। १५१४ ॥ विजयोदया-मायादोसा मायादोषाः सर्वेऽपि पूर्वनिर्विशः। मायायो तपसि स्वशक्तिनिगहनलक्षणायां भयंति कि.धम्मम्मि धमें तपोलक्षणे । णिपिवासस्स अनादरस्य जन्मतिर लभो भयति धर्मः ॥ मूलारा-माया सपसि स्वाक्तिनिगहनेन । णिपिवासस्स णिराहरस्य । दुल हो जन्मांतरदुर्लभं तपः॥ अर्थ-तपमें अपनी शक्ति छिपाना ही माया है. माया करने से होनेवाले दोषीका पूर्वमे वर्णन कर चुके हैं जो तप धर्ममें अनादर करता है उसको अन्य जन्ममें धर्म दुर्लभ होता है. दोपांतरपि निवदति- - पुवुन्ततबगुणपणं चुक्को जं तेग बंचिओ होइ ।। विरियणिगृही बंधदि मायं विरियंतरायं च ॥ १४५६ ॥ अकृणस्तपः सर्वचितोऽस्ति तपोगुणैः ॥ मायावीर्यान्तरायौ च सीवी पध्नाति कर्मणी ॥ १५१५ ।। विजयोक्या-पुश्बुस तवगुणाणं पूर्वोक्तसंदरनिरा चेत्येवमादिभिस्तपःसाध्यैरुपकारः । थुक्को म्युसः । जं यस्मात् । सेा तेनं तपःसाध्योपकारप्रत्युतापन ! वंचिदो होदि वंचितो भवति । विरियणिग्रही पंधवि मायं संघरणपरो मायाकर्म, वीयांतरायंचयनाति । छिपाना होगा पिपिवासस्स लभो भवति स्वशक्तिनिगह BarePARS Page #1389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः भलागवना ३७३ मूलारा--"युको झयुतः ।। तेण तपसा साध्यसंवरनिराशुपकारच्युतत्वेन ।। और भी दोपोंका वर्णन करते हैं-- अर्थ-पूर्वमें तपश्चरणके संघर और निर्जरा का वर्णन किलो पालादी कर सके। कर्म का संबर और निर्जरा नहीं होगी. अर्थात मंबर और निजगस वह पुरुष हमेशा वंचित रहेगा. जो अपनी शक्ति छिपाता है उसको मायाकषाय का और वीर्यातराय कर्मका बंध होता है. तवमकरितस्सेदे दोसा अण्णे य होति संतस्स || होति य गुणा अणेया सत्तीए तवे करेंतस्स ॥ १४५७ ॥ अकुर्वतस्तपोऽन्यपि पोषाः सन्ति तपस्थिनः ॥ कोणस्य पुनः शस्या जायन्ते विविधा गुणाः॥१५१६ ॥ विजयोदया-तषमकरेंतस्ल तपस्यनुतस्येमे दोषा अन्ये च भयंतीति सातव्याः । भवति यानेकगुणाः शक्त्या -तपसि यतमामस्य । मूलारा स्पष्टम् ॥ अर्थ-तपश्चरणमें उद्युक्त न होनवाले पुरुषको ये दोष वो होते ही है परंतु अन्य भी दोष उत्पन्न होत हैं. जो व्यक्ति तपश्चरण में प्रत्यनुसार प्रवास होते हैं उन में अनेक गुणोंकी उत्पत्ति होती है. - -- तपोगुणपण्यापनायोत्तरप्रबंध:-- इह य परत य लोए अदिसयपूयाओ लहइ सुतवेण ॥ आवज्जिञ्जीत तहा देवा वि संइंदिया तवसा ॥ १४५८ ।। लोकवये पराः पूजाः प्राप्यन्तं कुर्वता तपः ।। आवज्यन्तेऽरिचला देवाः पुरंदरपुरतसरा ॥ १५१७॥ विजयोन्या-हजन्मनि परब च तपसा सम्यक् कृतन अतिशयपूजा लभ्यते । यावज्यते च तपसा देवाः सन्द्रकाः ॥ - - - Page #1390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १३.७४ तपोमाहात्म्यमाइ मूलारा-पूजादि आदिशब्देन अध्यापतिशयक्रिीयादि ।। आवजिजति प्रणाम कार्यते। अन्ये आकंपि. इति पठित्वा अनोभमुपयांतीत्यर्थमाहुः । सइंदिया सेन्द्राः॥ तपगुणका निरूपण करने के लिए उत्तर प्रबंध-- अर्थ-इह लोकमें और परलोकमें निरतिचार तप करने से आत्मामें अतिशय-ऋद्धि प्राप्त होती है और सर्वत्र महादर भी होता है. तप के माहात्म्यसे इंद्रादिक देव भी नम्र होते हैं. . अप्पो वि तवो बहुगं कल्लाण फलइ सुप्पओगकदो ॥ जह अणं बडबीअं फलइ वडमणेयपारोहं ॥ १४५९ ॥ तपः फलति कल्याण कृतमल्पमपि स्फुटम् ।। बहुशाग्योपशाखाख्यं वटवीजे यथा बटम् ॥ १५१८ ।। विजयोदया-प्रपयोधिती अल्पमपि तपः महाकल्याणं फलति सुसंयमनिष्पन्नं । सुष्टु प्रयुज्यते प्रवत्यंत नेनेति च विग्रहे मग्रमः सुप्रयोगशब्दनोच्यते । यथा शल्पमपि वटबीज फलति वटमनकारोई अल्पमपि पृथुलं फलदायितपः इत्येतदाख्यातमनया मूलारा-सुष्पओगकदो यथाशक्ति संयमेनाचरितम् । निदानासंयमरहितमिति वा । फलदि जनयति । अणेयपारोह अनेकप्रराहेम् ।। अर्थ-अल्प तपश्चरणसे भी महा कल्याण होता है. संयम की भी उत्तम-निर्दोष सिद्धि होती है. जैसे सूक्ष्म वटचीज अनेक शाखाओंसे युक्त महान वटवृक्षको जन्म देता है. वैसे अल्प तप भी विपुल फल-स्वादिक सुखको उत्पन्न करता है. १३७४ सुष्टु कदाण वि सरसादीणं विग्धा हवंति अदिबहुगा ।। सुख कदस्त तवस्स पुण पत्थि कोइ विजए विग्यो ॥ १४६०॥ Page #1391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना आश्वासः विधिनोप्तस्य सस्यस्य विनाः सन्ति सहस्रशः॥ तपसो विहितस्यास्ति प्रत्यूहो न मनागपि ॥ २५१९ ॥ विजयोदया-सु कदाण वि सम्यक् कृतानामपि शस्यादीनां अतीव विष्ठा भवति । तपसः पुनः सम्यक् कृत जगति न कशिद विप्नः फलदान । निर्चितफलदायित्यं तपसो माहात्म्यं कथितं अनया ॥ मूलारा--सस्सादीण धनधान्यादिनाम् ॥ स्वफलं ददतो व्याघातः ।। अर्थ-खती बहुत परिश्रम करने पर भी उसका फल मिलने तक बहुत विघ्न उत्पन्न होते है परंतु निरतिचार तप पालनेपर कोई भी विघ्न उत्पन्न होता नहीं. अर्थात विघ्नके बिना ही तपश्चरणसे स्वर्गादि फल मिलता है. तप में निर्विघ्न फल देना गुण है ऐसा इस गाथासे सिद्ध होता है. जणणभरणादिरोगादुरस्त सुतवो बरोस, होदि॥ रोगादुरस्स अदिविरियमोसधं सुप्पउत्तं वा ।। १४६१ ॥ मृत्युजन्मजरातस्य तपः सुखविधायकम् ।। महारोगातुरस्यव भैषज्यं वीर्यसंयुतम् ॥ १५२० ॥ विजयोदया-जाणमरणादिरोगादुरस्स जन्ममरणाद्यापीडितस्य सुतपो घरीषधं भवति । रोगपीडितस्य सुप्र. युक्तमतिवीर्य मौषधमिव । जननमरणादीनां विनाशकत्वं सत्कारणकर्मविनाशादनाख्यायते ॥ मूलारा--बरोसधं जननमरणादिरोगकारणकर्मापहारकत्वात् ।। अर्थ-जन्म, मरण वगैरह रोगोंसे पीडित इस प्राणीसे उतम तप उत्कृष्ट औषधके समान हितकर है. जैसे रोगसे पीडित मनुष्यका रोग उत्तम औषधीके सेवनसे नष्ट होता है वैसे तपसे जन्ममरणादि रोगोंका नाश होता है, तपसे जन्ममरणके कारणभूत कर्मका नाश होता है अतः कारणका नाश होनेसें कार्यकाभी नाश होगाही. संसारमहाडाहेण डझमाणस्स होइ सीयधरं ॥ सुतबोदाहेण जहा सीयघरं डझमाणस्स ॥ १४६२ ॥ Page #1392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासः संसारस्याविषधन ग्रीस्येवमास्थता तापेन नप्यमानस्य तरो धारागृहायते ।। १५२१ ।। _ विजयोदगा-संसारमहाडाण संसारमहादान वह्यमानस्य तपो भयप्ति जलगृहं । यथा दयमानस्य सूर्याशु. मिर्धारागृहं । संसारिकतुःखनिर्मूलनकारिता तपसोऽनेन सुच्यते ॥ मूलारा--सीधरं धारागृहम् । तीप्रभीष्मार्करश्मिकृततापस्येव संसारमहादुःखस्य निर्मूलकत्वात् ॥ अर्थ-जैसे सूर्य के प्रबंट किरणोसे संतस मनुष्य का शरीरदाह धारागृहसे नष्ट होता है वैसे संसारके महादाहसे दग्ध होनेवाले भव्योंके लिये तप जलगृहके समान शांति देनेवाला है. तपमें संसारिक दुःख निर्मुलन करना यह गुण है ऐसा यह गाथा कहती है, .. जीयल्लओ व सतबेण होइ लोगस्स सुप्पिओ पुरिसो ॥ भायाव होइ विस्ससणिज्जो मुतवेण लोगस्स ॥ १४६३ ॥ चिदधानस्तो भक्त्या निरालस्यो विधानतः ॥ देशांतरमपि प्राप्तः स बंधुरिव गृह्यते ।। १५२२ ॥ विजयोदया-पायल्लओ व बंधुरिव लोकस्य नितरां प्रियो भवति पुरुषः। शोमनेन तपसा सर्यजगप्रियता करोति तपस्यनेन यास्यातं भवति । मादाय होइ चिस्ससणिज्जो मात्र विश्वसनीयो भवति लोकस्य । सर्वजगदिश्वास्यत्वं तपःसंपाद्यमनन कथ्यते ॥ मृलाग-- स्पष्टम ॥ अर्थ- उत्तम तप करनेस तपस्वी मुनि-पुरुष बंधुके समान सर्व लोगोंको अतिशय प्रिय होता है. उत्तम तप सर्व जगयियता प्रा होती है ऐसा इस गाथासे सिद्ध होता है. माताके समान तप करनेवाला सर्व लोगोंको विश्वसनीय होता है, तपका सर्व जगद्विश्वसनीयता गुण इस गाथासे कहा गया है. कल्लाणिढिसुहाई जावदियाइं हवे सुरणराणं ॥ जं परमणिबुदिसुहं व ताणि सुतवेण लब्भति ॥ १५६४ ॥ - Page #1393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १३७० मातेवास्ति सुविश्वास्यः पूज्यो गुरुरिवाखिलैः ।। महानिधिरिद ग्रायः सर्वत्रैव तपोधनः ॥ १५२३ ॥ लभ्यते नरवानां सर्वाः कल्याणसंपदः ।। परमं सिद्रिसौख्यं च कुर्वता निर्मलं नपः १५२५ विजयोदया-कलपणिहिसुदाई कल्याणानि स्वर्गावतरणादीनि । कसयो विभूतयश्चकालांछनाना अईचक्रवर्तिनी सुगानि च यानि देवानां मनुष्याणां च, या परमनिर्षतिसुत्रे तानि शोमनेन तपमा लभ्यते । ग़दाग--कहाण मर्गावतरणादीनि । इटि चत्रवादिविभून यः ।। ....... अथे- मचंयकर माना गर्भमें आना, मेरु पर्वतपर इंद्र के द्वारा अभिषेक किया जाना इत्यादिक कल्याणिकोंकी प्राप्ति तपसे हानी है. अनक प्रद्धि संपत्ति, सकल चक्रवर्ति और अर्द्धचक्रवर्तिके सुख भी इसस जीबको मिलते हैं. और मनुष्योंके जो मुख हैं वे मिलते हैं. और मुक्तिसुख भी इससे मिलता है. कामदुहा वरघेणू णरस्स चिंतामणिन्च होइ तओ॥ तिलओब्ब परस्स तओ माणस्स बिहूसणं सुतओ ।। १४६५ ।। चिन्तामणिस्तपः पुंसोधेनुः कामदुधा तपः ॥ तिलकोस्ति तपो मध्यस्तपो मानविभूषणम् ॥ १५२५ ॥ बिजयोक्या-कामा कामदुधा परधेनु, चितामाणिश्च सपः यदमिलपितं तत्पदानात् । तिलकारख्यालंकारो नरस्य शोभनं तपः,मानस्य विभूषणं च | तपसा हि सर्येण जगता माश्यस्य मानः शोमते इति । मूलारा-माणस विभूमणे । तपमा हि सर्वजगन्मान्येन मानः शोभते ।। अर्थ-तप इन्द्रित पदार्थ दता है अतः यह कामधेनु और चितामाण स्नके समान माना गया है. | तिलक नामक अलंकार से जैसे मनुष्य मुंदर दीखता है वैमा सुंदर तप मानका अलंकार है, तपम मनुष्य जगन्मान्य होता है अतः उसका मान शोभने लगता है. A १७३ PICS Page #1394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ imegATARATE मूलाराधना आवासः होह सुतत्रो य दीओ अण्णाणतमंधयारचारिरस 14 सम्बावत्थासु तओ वढुदि य पिदा व परिसस्स || १.६६ ॥ अज्ञानतिमिरोक दि जायत दीपकस्तपः ।। पितय सर्वावस्थासु करोति नहितं तपः ॥ १५२६ ॥ अघिजसोदया-होर रहनको यो सम्यकता प्रदीपो भवनि अमानतमलि महान संचरतः । एमन जगतां: नाक्य समी विनाशयति तपः नि चितं ॥ सर्वावस्थामुहिने तपो धर्तते पिता पंसः ॥ मूलारा-अण्णाणतमा प्रकृष्ठमज्ञानं । नदि तपसा विनाश्यते नत्कारणफर्मक्षपणात् ।। अर्थ-अज्ञानरूप अंधकारमें संचार करनवाले इस जगतको उत्तम तप दीपकके समान है, अर्थात अज्ञान नामका अंधकार तपसे नष्ट होता है एसा मूचित हुआ. संपूर्ण अवस्था में तप पिता के समान हितकर विसयमहापंका उलगडाए संकमो तबो होइ । होइ य णावा तरिदं तबो कसायातिचवलणदि ॥ १११७१ विभीमविषयांभोधेस्तपो निस्तारण प्लवः तप उसारक शेयं विभीमविषयावटात् ।। १५२७॥ पिझयोरया-विसयमवापंकाउलगाए विषयो महापंकाकुलगर्ने र दुस्तरस्यात् । तस्मिन् संकमो भवति । तदुसरणे हेतुर्भवति तपः । तपो नौमधयितुं कापायानिवपलमवीं । मूलारा-गहार गर्ने अवटे । लघुनद्या मित्यन्मः । संकमो सेतुबंधः । अदिचयलणदि महानदी। अर्थ-ये पंचेंद्रियोंके विषय जिसमें अतिशय कीचड है ऐसे गड्ढोंके समान है. कीचड युक्त गहोम | फसा हुआ आदमी उसमें से निकलकर बाहर आना अतिशय कठिन कार्य है. बैंम ही ये इंद्रियविषय भी हैं परंतु तपके सामयम इन विषयल्प गट्ठोंसे मनुष्य निकल सकता है. कपायस्पी अनिचपल नदी को उल्लंघनमें नए I नौकाकं समान है. Page #1395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः फलिहो व दुग्गदीणं अणेयदुक्खावहाण होइ तवो ॥ आमिसतण्हाछेदणसमत्थमुदकं व होइ तवो ॥ १४६८ ॥ द्रियाधिमहातृष्णाच्छेदक तालिल तपः॥ दुर्गतीनामगम्यानां निषेधे परिचस्तपः ॥ १५२८ ॥ घिजयोदया-फलिहो व दुग्णदीया दुर्गतीनां परिघ स्व । कोदशा दुर्गतीनां ? अनेकदुःखावहाना । किं च | विषयतृष्णारेठदनसमर्थ च तपः उदकमिव तृष्णाच्छेदने । मूलारा-फलिहो अर्गाला । आमिसत्ताहा विषयगृद्धिः । आहारगृद्धिरित्यन्यपक्षे तण्हा पिपासा ।। अर्थ-अनेक दुःखोंको उत्पन्न करनेवाली दुर्गतिओंको तप अर्गलाके समान है. अर्थात तप करनेवाल मनुष्यको दुर्गतिका बंध होता नहीं है. पानीसे जैसी प्यास उपशांत होती है वैसी तपसे तृष्णा-लोभ नष्ट होती है. सा ॥ मणदेहदुक्खवित्तासिदाण सरणं गदी य होइ तवो ॥ होइ य तबो सुतित्थं सन्यासुहदोसमलहरणं ॥ १४६९ ॥ मनाकायासुग्वव्याघनस्तानां शरणं तपः ॥ कल्मषाणामशेषाणां तीर्थ प्रक्षालने तपः॥ १५२९ ।। विजयोश्या-मणदेइदुक्यविसासिदाण मानसाना शरीराणां दुःखाना ये वित्रस्तास्तेषां शरणं गति तपः 1 . भवति च तपस्तीर्थ सर्षाशुभदोषमलनिरासकारि ॥ मूलारा-विसासदाण वित्रस्वानाम् ।। सरण त्राणं | गदी आश्रयणीय । सुतित्थं नधादिस्नानस्यानम् । असुइदोस पापकर्मासवकारिणो रागादयः ॥ अर्थ--मानसिक और शारीरिक दुःखोंसे ओ दुःखित हैं उनको तपही रक्षक है और उपाय है. यह तप सर्व अशुभ परिणामरूप मलको दूर करने में तीर्थ के समान है. १३७९ Page #1396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराचना १३८० संसारबिसमदुग्गे तो पणटुस्स देसओ होदि ॥ होइ तवो पच्छयणं भवतारम्मि दिग्घम्मि || १४७० ॥ तपः संसारकांतारे नष्टानां देशकं यतः ॥ दीर्घे भवपथे जन्तोस्तपः संचलकायते ॥ १५३० ।। विजयोदया – संसारविसमदुगे संसारो विषमदुर्ग च दुरुप्त रणीयत्वात् । तस्मिम्प्रणष्टस्य दिङ्मूढस्य । तषो सगो होर तप उपदेष्टा भवति । संसारविषम दुर्गमुत्तारयतीति । होदि तो पच्छरणं भवति तपः पथ्यदनं भवकांतारम्भि भवाद विश्वम्मि दीर्घे ॥ मूलारा - विसमदुग्गे दुरुत्तरारण्ये | पणदृस्स दिक्मूहस्य | देसओ मार्गवेशकः । पच्छदणं पयदनं शेवलं । कतारे दुर्गममार्गे ॥ अर्थ -- जैसे महारण्य में प्रवेश किया हुआ मनुष्य दिपूढ होता है, उससे निकलना कठिन होता है, वैसा यह संसारभी महावन के सत्तर है. यह तप उसको उपदेशक है अर्थात् संसारवनसे वह तप प्राणीको निकालता है. यह तप इस दीर्घसंसारवनमें मार्ग में भक्षण करने योग्य कलेवाके समान है, रक्खा भए सुतवो अभुदयाणं च आगरो सुतवो ॥ सिजी होइ तो अक्खयसोक्खस्स मोक्खस्स ॥ १४७ ॥ श्रेयसामाकरो ज्ञेयं भयेभ्यो रक्षकं तपः ॥ सोपानमारुरुक्षूणामयाधं सिद्धिमंदिरम् ।। १५३१ ।। विजयोदया - रक्खा भवसु सुतोभयेषु रक्षा तपः। अभ्युदयानां वाकः सुतपः । मोक्षस्य अक्षयसुखस्य निश्रयणी भवति तपः ॥ मुलारा स्पष्टम् ॥ अर्थ - यह तप भयमें जीवका रक्षण करता है. यह सुतप अभ्युदय का आकर है अर्थात् स्वर्गादिसुखोंका उत्पत्तिस्थान है और अक्षय सुख जिसमें है ऐसे मोक्षके लिये यह तप नसेनीके समान है. आश्वास ६ ૧૮ Page #1397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारापना आश्वास १३८१ तं णत्थि ज ण लम्भइ तवसा सम्म कएण पुरिसस्स ॥ अग्गीव तणं जलिओ कम्मतणं उहदि य तबग्गी ॥ १४७२ ॥ - तनास्ति भुवने वस्तु शपसा यन लभ्यते।। तपसा वाले कर्म बहिनेव तृणोत्करः।। १५३२ ॥ विजयोदया-तगणस्थि तसास्ति यन्न लभ्यते तपसा सम्यकतेन ।तशेऽग्निः कर्मसृणं दहति तृणमिवाग्निः प्रज्वलितः॥ मुलारा-पुरिसस्स पुरुषेण । अथवा पुरुषस्य कर्मतृणमिति संबंधः ॥ अर्थ-निर्दोष तपसे जो प्राप्त न होगा ऐसा पदार्थ जगतमें है नहीं. अर्थात तपसे पुरुषको सर्व उत्तम पदार्थोकी प्राप्ति होती हैं जैसे प्रज्वलित अग्नि तृणको जलाती है वैसे तपरूप अग्नि कर्मरूप तणको जलाती है, - सम्मं कदस्स अपरिस्सवरस ण फलं तवस्स वण्णेदं ॥ कोई अस्थि समत्थो जस्स वि जिम्भामयसहस्सं ॥ १४७३ ॥ चिंतितं यच्छतो वस्तु सर्व चितामणरिव ।। तपसः शक्यते वक्तुं न माहात्म्यं कथंचन ॥ १५३३ ।। विजयोदया-सम्म कदस्स सम्यक कृतस्य गिराधस्य तपसः फल वर्णयितुं न कश्चित्समर्थोऽस्ति जिहाशतसहस्त्रं यद्यप्यस्ति ।। मूलारा--सम्मं कदस्स निराम्रवस्व । अपरिस्सवस्स अखंडितस्य ।। अर्थ-उत्तम प्रकारसे किया गया और फर्मानव रहित तपका फल वर्णन करने में जिसको हजार जिहा है ऐसा भी कोई शेषादि देव समर्थ नहीं है. एवं णादूण तवं महागुणं संजमम्मि ठिच्चाणं ॥ तवसा भावेदव्या अप्पा णिच्च पि जुत्तेण ॥ १४७४ ॥ Page #1398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना আম্বা इति विलोक्य तपःफलभुत्तमं विमलवृत्तनिवेशितमानसः ॥ तपसि पूसमतियतने यतिः कुतपसः स फले विगतादरः ।। १५३४ ।। विजयोदया–पर्य णाण एवं पात्या नपो महोपकारि संयम स्थित्वा तपसा भावयितथ्य आत्मा नित्यपि उपयुक्तेन ॥ उपसंहारमाहमूलारा-ठिचाण स्थित्वा । जुत्तेण उपयुक्केन ॥ अर्थ---इस प्रकार तप महा उपकारक है ऐसा जानकर संयममें स्थिर होकर हमेशा उपयुक्त सपके द्वारा आत्माका अभ्यास करना चाहिए। जह गहिदवेयणो वि य अदयाकज्जे णिउज्जदे मिच्चो । तह चेव दमेयम्वो देहो मुणिणा तवगुणेसु ॥ १४७५ ॥ तपःक्रियायामनिशं स्वविग्रहो नियोजनीयो यतिना हितैषिणा ।। नियोज्यते किं न गृहीतवेतनो मनीषिते कर्मणि न स्वचेटकः ॥ १५३५॥ विजयोदया-अह गहिदवेयणो घिय यथा गृहीतवेतनोऽपि न दयाकार्ये नियुज्यते भृतकः । तथैव दमितव्यो देहो मुनिना तपोगुणेषु । उत्तर पूर्ण ॥ मूलारा--गाहिदवेदणो गृहीतं बेतन कर्ममूल्यं येन | अदयाए निर्दथे । भदगो भृतकः कर्मकरः । दमेदग्यो छेश्यः । तबगुणेसु तपोभेदेष्वनशनादिषु । तपस्युगमः ।। अर्थ-जिसको वेतन दिया है ऐसे नोकरको हमेशा कार्यमें नियुक्त करना चाहिए उसके ऊपर दया नहीं करना चाहिए. वैसे यह देह मुनिके द्वारा तपोगुणमें हमेशा लगाना चाहिय. १३० इच्चेव समणधम्मो कहिदो मे दसविहो सगुणदोसे ।। एत्थ तुममप्पमत्तो होहि समण्णागदसदीओ ॥ १४७६ ॥ Page #1399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMAYA आश्चार लागवना १२८३ गुणैरशेयः कलिते मनोरमैनिरस्तदोषे कथिते तपोधनैः ।। सदात्र धर्मे शिवसौख्यकारणे प्रमादमुक्तः क्रियतां महादरः॥ १५३६ ।। इति तपसाक्रमः। विजयोदया-इच्चेव समणधम्मो इत्येवं धमणधर्मः दशविधः सगुणदोषः कथितो मया । पत्थ तुमसप्पमतो होहि अत्र दधिधे धर्मे घमप्रमत्सो भनः । समागतस्मृतिका इति गणिना स्थशिक्षापरिसमाप्तिरादर्शिता ।। अधुना सूरिः स्वशिक्षासमाप्तिमादर्शयन्नुपदिष्टार्थसारणटिमनि सन्यासिन प्रगुणयति-- मूलारा-इचेग इत्येषः । मे गया । दसविधो उनमक्षमादीनां । यथास्थान पूर्वनिरूपणान् । तुम वं। समागदढसदीओ समागतस्मृत्तिकः मम्मुखप्रबन्लम्मरणः । समण्णागदसढीओ इति पार समागतम्मलिक इत्यर्थ अर्थ-इस प्रकार मैंने दस प्रकारके धर्म का उसके गुण और दोषोंसहित वर्णन किया. इस दशविध धर्ममें हे क्षपक ! तू हमेशा प्रमादरहित प्रवृत्ति कर. जिसको स्मृति है ऐस क्षपफको इस प्रकार उपदेश देकर उपदेशकी आचार्यने समाप्ति की है. तो खवगवयणकमलं गणिरविणो तेहिं वयणरस्तीहिं ॥ चित्तप्पसायविमलं पफुल्लिदं पीदिमयरंदै ५ १४७७ ॥ क्षपकाननराजधि ततो भाति विकाशितम् ॥ हतमोहतमस्कांडः सूरिवाक्यमरीचिभिः ॥ १५३७ ।। विजयोदया-तो खवगधयणकमळं ततः शिक्षानंतर तस्य क्षएकस्य बनकमलं प्रफुल्लितं सूरिधर्मरश्मेस्तैर्वचनरश्मिभिः चित्तप्रसादविमल प्रीतिमकरवं ॥ अथ द्वादशगाथाभिश्चूलिकामाचष्टे तत्रादौ निर्यापकाचार्यसदुपवेशसंपादित क्षपकस्य सभायाध धर्मरसास्वादनातिशयं गाथाद्वयेन व्यक्तानुभाषेन ग्रंथकृत्कथयति... मूलारा-तो शिक्षानंतर तेहिं श्रुतारधारितः। रस्सीहि रश्मिभिः । विमलं विवर्णरहितं । पफुल्लिदं विकसितं ।। Page #1400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराषना १३८९ स्थानतस्वलति नाकपर्वतः पुष्करं वसुमतिं प्रपद्यते ॥ स्वरसानुपगम्यं न प्रभो ! जातु यामि विकृर्ति मनागपि । १५४८ ॥ ater वपुषा वचसा भगवअनुशासनमेतदनन्यमतिः ॥ तवं यो विदधाति सदा विधिना शिवतातिमुपैति स मुक्तमः ॥१५४९ ॥ कार्यकक इति अनुशार न करन विजयोश्या-झणा चलिज स्मात्स्यानाथलिप्यति मेरुः । भूमिः परावृतमस्तिका भविष्यति । नाहं विकृति गमिष्यामि सतां पाप्रसादेन ॥ नूला चलेन चलिष्यति । ओमच्छया अधोमस्तका गफ गमिष्यामि । विगदि विकृति विराधनामित्यर्थः । चूलिका १२ अपकाः । सूत्रः ३३ ॥ अर्थ- स्थानसे पर्वतभी हिल जायेगा. अथवा समस्त पृथ्वी भी ओंधी हो जायगी तो भी मैं आपके चरणानुग्रहसे विकारी नहीं होऊंगा ॥ मृत्यंगमुखभवं तमिच्छदशाष्टमनुशिष्टमृतं श्रद्धा श्रियामनुसमत्ववने किलांनो ॥ हृदयस्य पकपुंगवश्वकोशः || इत्याशाधरानुस्मृतमंथसंदर्भ मूलाराधनादर्पणे पदप्रमेयार्थ प्रकाशीकरणप्रवणे पछ आश्वासः ॥ सप्तम आश्वासः । गुरुणा नीत्वा स्मृतिं वर्मितः । सम्यक्साम्यमधिष्ठितः पुरु पित्रन्नशर्मामृतम् ॥ श्याशुद्धिमित्तश्चतुर्विधमहासंघामिकां पदं । यः प्रमोति महान्तमईति महं देहोऽपि तस्यात् ॥ १ ॥ आश्वास ف १३८९ Page #1401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूलारावना आश्वासः अर्थ-आचार्यरूप सूर्यके उपदेशरूप किरणोंस क्षपकका मुखकमल प्रफुल्लित होता है. चिन समतासे निर्मल होकर उसमेंसे प्रीतिरूपी मकरंद बहने लगता है. क्यणकमलेहिं गणिअभिमुहिं सांबस्थिदस्थिपत्तेहि ॥ सोभदि ससभा सूरोदयम्मि फुलं व गलिणित्रणं ।। १४७८ ॥ संरांति प्रभावेण तत्सदो मुखपंकजैः॥ सरोवरमिवाकीर्ण पविकसित रयः ॥ १५३८ ॥ • घिजयोदया-बयणकमलेहिं बदनकमलैः। यतीनां गणिनोऽभिमुने विस्तृताक्षिपत्रैः सा सभा शोभा वहति स्म । सूर्योदये पुषितनलिनवनमिय ॥ मूलारा-सोभदि शोभते स्म । सोहदि य इति पाठे तत्कालापेक्षया वर्तमानता । उक्त प गुरु येन मुखोमोजे विस्मृताक्षिदलैःसता ॥ शोभति स्मोदयं मानोः कुखं पद्मवनं यथा ।। अर्थ-आचार्यके समक्षमें जिनके नेत्रकी पापनी विस्मित हुई है पेसे यतिओंके मुखकमलोंसे बह मुनि समा सूर्योदयमें प्रफुल्लित कमलवनके समान शोमा धारण करती है. गणिउवएसामयपाणएण पल्हादिदम्मि चित्तम्मि ॥ जाओ य जिवुदो सो पादूणय पाणयं तिसिओ ।। १४७२ ।। प्राप्योपदेशपीयूष क्षपकोऽजनि निर्वृतः ॥ समस्तश्रमविध्वंसि तृषार्त इव पानकम् ॥ १५३५ ॥ विजयोदया-गणि उपएसामयपाणएण गणिनः उपदेशामृतपानकेन प्रल्हादिते चित्ते जातोसी सुष्टु निर्वृतः तृषितः पान पीत्वेष ॥ गुरुपदेशकृत्तां क्षपकस्य निति दृष्टांतेन स्पष्टयतिमूलारा-अमदपाणएण अमृतपानकेन । || १३८४ - Page #1402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास अर्थ-जैसे पानकका माशन कर प्यासा हुआ मनुष्य आनंदित होता है वैसे नियापकाचर्यके उपदेशामृत पानकको पीकर अंतःकरण प्रसन्न होनेसे यह अपफ खूब संतुष्ट होगया. तो सो खवओ तं अणुसढि सोऊण जादसंवेगो ॥ उद्वित्ता आयरियं वंदइ विणएण पणद्गो ॥ १४८०॥ सोऽम अकर्ष शुट वा सविनमानमः ॥ उत्थाय बंदत भूरि स नवीकृतविग्रहः ॥ १५४० ॥ विजयोदया-तो सो स्रयगो ततोऽसी झपकः तदनुशासनं श्रुत्वा जातसंवेग उत्थाय आचार्य चंदते विनयेन प्रणताकः॥ नदनुशिष्टिश्रवणोत्पन्नधर्मतत्फलदर्शनानुरागेण अपकेण विधेयां निर्यापकाचार्यसपर्याचयां दर्शयति-- मूलारा--तं तां अर्थ-आचार्यका उपदेश सुनकर जिसको धर्ममें अतिशय श्रद्धा हुई है ऐसा वह क्षपक नम्र होकर, ऊठकर आचार्यके चरणोंको विनयस चंदन करता है. भंते सम्म गाणं सिरसा य पडिग्छिदं मए एवं ॥ जं जह उत्तं तं तह काहेत्ति य सो तदो भणइ ॥ १४८१ ।। तवेमा देशनां कृत्वा शंषामिव शिरस्यहम् ।। यतिमाचरिष्यामि पराजितपरीषहः ॥ १५४१ ।। दिययोदया-भंचे सम्म णाणं भगवन् सम्यज्ञानं पंडिरसा मया परिगृहीतं । यद्यथोक्तं भवद्भिस्तथा करिष्यामि इति वदति ॥ वंदनानंतरफरणीय क्षपकस्य गुरेरमे शासनस्वीकारपुरःसरं तदर्थानुष्ठान प्राप्तिकाक्रममाइ मुलारा--भते भगवन् ! अणं आज्ञो । एवं इयं । काहेति करिष्यामीति ।। १७४ Page #1403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाराधना आश्वास अर्थ- हे भगवन् ! आपने जो सम्यग्ज्ञानका उपदेश मेरेको दिया है.उसे मैं मस्तक नम्र कर ग्रहण करता | ई. आपने जो जैसा कहा है येसी ही मैं प्रवृत्ति करूंगा. १३८६ ... . अप्पा णिच्छदि जहा परमा तुठी य हवदि जह तुज्झ ॥ जह तुझ य संघस्स य सफलो हु परिस्समो होइ ॥ १४८२ ।। यथा मे निस्तरत्यात्मा तुष्टिरस्ति यथा तव ।। संघस्थ सर्वस्य पचा नवास्ति सफलः श्रमः ।। १५४२ ।। विजयोदया–अध्याणिन्छर दि जहा अहं यथा निस्तीणों भवामि. संसारात् । यथा युष्मार्क एम्मा तुष्टिर्भवति । भयतां संघस्य चास्मानुग्रहे प्रवृत्तानां श्रमस्य फलं भवति ।। मूलारा-अप्पा णित्थरदि अयं संसारार्णवानिस्तीर्णी भवामीयर्थः । तुभ युष्माकम् ॥ अर्थ--इस संसारसे मैं जिससे उत्तीर्ण होउगा, जिससे आपको संतोष उत्पन्न होगा, भरे उपर अनुग्रह करने में उद्युक्त हुए आपका और संघका परिश्रम जिससे सफल होगा ऐसे उपायका मैं अबलम्ब करूंगा. - - Hind - - - जह अप्पणो गणस्य य संघस्स य बिस्सुदा हवधि कित्ती॥ संघरस पसायेण य तहहं आराहइस्साभि ।। १९८३ ॥ यधात्मनो गणस्यापि कीर्तिरस्ति प्रथीयसी ॥ अहमाराधयिष्यामि तथा संघप्रसादतः ॥ १५४३ ॥ विजयोदया-जद्द अप्पणो गणस्स यथा मम गणस्य, संघस्य च कीर्तिर्विश्रुता भवति तथाहमाराधयिष्यामि संघस्य प्रसावन । मूलारा--- अपणो ममेत्यर्थः ।। :: अर्थ-मेरी गणकी, और संघकी जिस उपायसे कीर्ति प्रसिद्ध होगी, गणकी कृपासे मैं उस उपायका आश्रय कर रत्नत्रयाराधन करूंगा. १९८६ Page #1404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १३८७ धीरपुरिसेहिं जं आयरियं जं च ण तरंति कापुरिसा ॥ मणसा वि विचितेदं तमहं आराहणं काहं ॥ १४८४ ।। पाराधिता महाधीरेधीरैर्मनसापि नो॥ अस्तायां साधयिष्यामि दयीमाराधनामहम् ।। १५४४ ।। विजयोदया-धीरपुरिसेहिं धीरैः पुरुषैर्या भावरिता, यां व शक्नुवन्ति कापुरुश मनसापि न चिंतयितुं तार शीमाराधनामहं करिष्यामि ॥ मूलारा-प तरन्ति न शक्नुवंति । काहं करिष्यामि !! अर्थ-जिसका वीरपुरुषोंनेही आचरण किया है, धैर्यहीन पुरुष जिसको धारण करनेमें बिलकुल असमर्थ हैं ऐसी आराधानाका हे प्रभो ! मैं पालन करूंगा. एवं उचएसाभिदमासादाइत्त को णाम ॥ बीहेज्ज छहादीणं मरणस्स वि कायरो नि णरो ॥ १४८५॥ तवोपदेशापीयूषं पीत्वा को नाम पावनम् ॥ . विभेतीह क्षुदादिभ्यः कातरोपि नरः प्रभो १५४५ ।। विजयोदयावं तुझं एवं भवतामुपदेशामृतमास्वाद्य को नाम बिभेनि कासरोऽपि नरः क्षुधादीन मृत्योर्वा ।। मूलारा--असादइनु आस्वाध । अत्र महाघोरपरीषहेभ्यो मरणाद्वा न भीतिः करिष्यत इति प्रतिज्ञा गम्यते ।। अर्थ-उपयुक्त आपके उपदेशामृतका आस्वाद लेकर कोनसा भययुक्त पुरुषभी क्षुधादिकसे और मरणसे डरेगा ? अर्थात् भययुक्त पुरुष भी आपका उपदेश सुनकर निर्भय होता है और मृत्युसे भी निडर होकर आराधनाओंका आराधन करता है. किं जंपिण्ण बहुणा देवा वि सइंदिया महं विग्धं ॥ तुम्हं पादोवम्गहगुणण कार्दु ण तरिहंति ॥ १४८६ ॥ Page #1405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराचना पलालेरिव निःसारेबहुभिर्भाषितः किम् ॥ प्रत्यूहकरणे शक्तो न मे शक्रोऽपि निश्चितम् ॥ १५५६ ॥ विजयोदया-जिपिपण बहुणा किंबहुना जमिपतन देवा अपि शतमखममुखा मम घिनं कर्तुं असमर्थाः भवत्पादोपग्रहणगुणेन ॥ आराधनानियहणासौमनकाष्ठामातिष्ठते-- मुलास--सइंदिया शतमुखप्रमुखाः । पादायग्गाहणेज पादप्रसादानुग्रहण । ण तरिहंति न समर्था भविष्यति ॥ अर्थ--अधिक बोलनेसे क्या मतलसहित क्षेत्रासापळे नागरहोपा लिग करने में असमर्थ होते हैं. - - किं पुण छुहा व लण्हा परिस्समो वादियादि रोगो वा ॥ काहिति झाणविग्धं इंदियविसया कसाया वा ॥ १४८७ ।। ध्यानविघ्नं करिष्यति किं क्षुदादिपरीषहाः ।। कषायाक्षाद्वषो था मे त्वत्प्रसादमुपेयुषः ।। १५४७॥ विजयोदया-कि पुण किं पुनः कुर्वन्ति ध्यानस्य विनं क्षुधा या, तृपा घा, परिश्रमो या, धातिकादिरोगोधा, पा द्रियाणां विषयाः, कषाया था। मूलारा--वादियादि वाहिकपैतिकश्लष्मकाधि । काहिंति मनागपि न करिष्यसि इत्यर्थः ॥ अर्थ- क्षुधा, प्यास, पारिश्रम, वातादिकसे होनेवाले रामे, इंद्रियोंके विषय और कषाय ये सब मेरे ध्यानमें विघ्न कैसे कर सकेंगे. इंद्रादिक देव भी मेरी आराधनामें पाधा लानेमें असमर्थ हैं फिर ये क्षुद्र उपद्रव मेरा क्या नुकसान कर सकते हैं? १३८८ ठाणा चलेज मेरू भूमी ओमच्छिया भविस्सिहिदि ॥ प्रा य हं गच्छमि विगदि तुझं पायप्पसाएण ॥ ११८८ ।। Page #1406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुकाराधना १३८९ स्थानचलति नाकपर्वतः करं वसुमर्ति प्रपद्यते ॥ स्वत्प्रसादमुपगम्यं न प्रभो ! जातु यामि विकृतिं मनागपि ॥। १५४८ ॥ areer agar aani भगवअनुशासन मे तदनन्यमतिः ॥ तवं यों विदधाति सदा विधिना शिवतातिमुपैति स मुक्तमलः ॥। १५४९|| इंति अमुशिष्टः ॥ विजयोदया - णा चलित्र स्वस्मात्स्थानाश्चलिप्यति मेला | भूमिः परावृनमस्तिका भविष्यति । नाई विकृति गमिष्यामि भवतां पादन ॥ मूलाग———चलेन चलिष्यति । ओगटियो। गत दिन Le p मियः । नृलिका १२ क्षपाः । सूत्रः ३३ । अर्थ- स्थान से पर्वतभी हिल जायेगा, अथवा समस्त पृथ्वी भी ओधी हो जायगी तो भी मैं आपके चरणानुग्रहसे विकारी नहीं होऊंगा. इत्थं गणेंद्रमुखचंद्रभयं तमिच्छ शाधमनुशिष्टमृतं प्रव ॥ श्रायामनुमत्यवने किलोनी || हृप्यन्वपकपुंगव पुंश्वकोशः ॥ इत्याशारामृत संदर्भ मूलाराधनादर्पणे पत्रप्रमेयार्थप्रकाशीकरणवणे पश्वासः ॥ 1449 सप्तम आश्वासः । कोयधेषु गुरुणा नीत्वा स्मृतिं वर्मितः । सम्यक्ाम्यमधिष्ठितः पुरु पित्रन्सद्ध्यानशर्मा सृतम् ॥ श्वाशुद्धिमिचतुर्विधमहासंघाभिकं पदं । यः प्राप्नोति महान्तमईति महं देहोऽपि तस्याघवन् ॥ १ ॥ 'बि' राधना आश्वास १३८९ Page #1407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास JAN अथ यथोपदिष्ट स्वशक्त्यनिगृहनग संस्तास्थरम साधोग्नुनिष्टतः प्राक्तनदुषविपाकवशादुपम्भिते कचित्यमाधि मृलाराधना विघ्ननिबंधने निर्यापकाचार्यणावश्यकरणीय सारणाक्रम कथयितुं गाथाविदात्योपक्रमते नत्रादौ प्रागुक्तमेवाधमनुम्मरयितुं उपन्यस्यनि-- एवं खबओ संथाग्गओ खबइ बिग्यि अगृहंतो ॥ ददि गणी वि सदा में तह अणुसहि अपरिदतो ॥ १४८९ ॥ यावर्शक :-INसी सुविशार जी महान निर्जरां कुरूने गुर्वी कुर्वाणः क्षपकस्तपः ॥ बत निर्यापकः शिक्षामनिविष्णः प्रियंवदः ।। २५५ ।। समाप्तमनुशासनम् ॥ मूलारा-चं यथोक्तशलक्षणक्षमणधर्माचरणकमेण । खयदि अपयति च बहुतरमेकदेशेनाशुभं कर्म प्रागुपार्जित अभिनय निकंधानः । नधा पूर्वोक्तनैष विधिना । अपरिर्वतो अनिर्षिण्णः । उक्त च निर्जगं कुरुते गुयी कुर्वाणः अपकस्तपः ।। दत्ते निर्यापकः शिश्नामनिर्विष्णः प्रियंवदः ॥ पता श्रीषिजयो मेन्छति अर्थ-इस प्रकार दश प्रकारके धर्मका आचरण करनमे अपक पूर्वबद्ध कमका एक देशा अथवा बहुभाग का क्षपण-क्षय करता है. और निर्यापकाचायभी न थककर उस सदा उपदेश देते रहते है. सारणेत्येतत्सूधपदव्याख्यानमुत्तरम ॥ अकडुगमतित्तयमणं विलंब अकमायमलवणं मधुरं ।। अबिरस मचिगंध अच्छमणुण्डं अणदिसीदं ॥१९९० ।। कटुतितकषायाम्ललवणस्वादुभीरसैः ।। पान मध्यमयुक्तं तस्मै क्षीणाय दीयते ॥ १५५१ ॥ विजयोदया-अकडगं अकडक, अतिक्तं, अनाम्ल, अकगायं, अलवणं, भमधुरं, रविरसं, भदुरभिगंध, स्वच्छमनुष्णशीतं । १३९० Page #1408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलागधना १३६.१ तत्कालप्रयोज्यं पानकं गाथायेनातुरमारयति- मूलारा—अकडुगं अशेषदर्थे म । तेन कटुतिक्ताम्लक पायलवणमधुरोष्य गुणानामौत्यमेव निषेध्यमनति शीतमिति निर्देशन ज्ञापित्तत्वान् । अविरलं अविगतरसं । मध्यमकटुकादिरसयुक्तं इत्यर्थः । अवगंध सुगंधि । उक्त द कटुतिक्तकषायाम्ललवणरषांदुभी रसैः ॥ पानकं मध्यमैर्युक्त तस्तै श्रीभाव दीयते ॥ अर्थ -- जो आहार कटुक, तिक्त, आम्ल, कसायला नमकीन, मधुर, विरस, दुगंध, अस्वच्छ, उष्ण और शीत नहीं है ऐसा आहार क्षत्रको देना चाहिये. अर्थात् मध्यम रसीका आहार देना चाहिए. पाणगमसिंभलं परिपूर्य खीणस्स तरस दादव्वं ॥ जह वा पच्छे खत्रयस्त तरस तह होइ दायव्वं ॥ १४९९ ॥ विजयोदया -- पाणगमसिमलं पान कमलेष्यकारि, परिपूर्त की गाय क्षपकाय दातव्यं । यथाभूतं था क्षपकस्य तस्य पथ्यं तथा भूतं दातव्यम् ॥ मूलारा - अभिलं यत्कर्फे न करोति । परिपू गालितं । पच्छे समाभ्यविरोधि || अर्थ- जो पेय पदार्थ क्षीण क्षपकको दिया जाता है वह कफको उत्पन्न करनेवाला न होना चाहिये. और वह स्वच्छ पवित्र होना चाहिये. क्षपकको जो देनेसे पथ-हितकर होगा ऐसा ही पानक देने योग्य है. संथारत्थो खचओ जझ्या स्वीयो हवेज्ज तो तइया || वोरिव पुण्वविधिणेव सोपानगाहारो ॥। १४९२ ॥ यदासौ नितरां क्षीर्णस्तदपि त्याज्यते तदा ॥ पटीयांसो न कुर्वन्ति निरर्थकं नियोजनम् ।। १५५२ ।। आश्वास 19 १३९१ Page #1409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा मागधना विजयोदया-संवारत्थो संस्तरस्थः क्षपको यदा क्षीणो भवेत्तदा व्युत्सृष्योऽनकविकल्पः पूर्वविधिनैव ।। अतीक्ष्णस्य यथोक्तपानकत्यजनविधिमनुस्मरयति --- गूलारा- अतिमीण इत्यर्थः । तो तथाविधानकदानात् । पोसरिदन्यो त्याजयितव्यः । पुम्वविधिणेव हानिसूजानक्रमणव ।। अर्थ संस्तरपर सोया हुआ क्षपक जब क्षीण होगा तच पानकके विकल्पका भी · हानि ' नामक सूत्रके • अनुसार त्याग करना चाहिये. एवं संथारगदस्स तस्स कम्मोदएण खवयरस ॥ . अंगे कच्छइ उछिज्ज वेयंणा उझाणविग्घयरी ॥ १९९३ ॥ इत्थं शुश्रुषमाणस्य संस्तरस्थस्य वेदना । पूर्वकर्मानुभावन काय काप्यस्य जायते ॥ १५५३ ।। विजयोदया-एवं संधारगदस्स एवं संस्तरगतस्प क्षपकस्य कर्मादयेन कचिदुदनोपजायते ध्वानविनकारिणी। इत्थं शुश्रुषमाणस्यापि' दुष्कृतोदयवशात्कस्यचिदंगे वेदनोत्पश्ते इत्याहमुलारा-कत्यह कचित्कुत्यादौ । वेदण्या शूलादिपीडा ।।। अर्थ-संस्तरपर आरूढ हुए क्षपकके शरीरमें कर्मक उदयसे ध्यान में विघ्न उत्पन्न करनेवाली वेदना उत्पन्न होती है अर्थाद पेंट बगरह शरीरके किसी अवयव में शुलादि पीटा कर्मादयसे उत्पन्न होती है. ------ ------- -------- बहुगुणसहस्सभरिया जदि णाबा जम्मसायरे भीमे ॥ भिज्जदि हु रयणभरिया णावा व समुहमज्झम्मि ॥ १४२४ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रतपोरत्न भृतस्ततः ॥ संसारसागरे घोरे यतिपोतो निमज्जति ॥ १५५४ ॥ १९२ Page #1410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृलागवना रत्नत्रयपूणो नौरिष समुनमध्ये ॥ आश्वास तदनोदयात्सद्ध धानविनाशेन दुर्थ्यानावेशात्साधुचिराध्य रत्नत्रयं मृतो घोरे संसारसागरे निमजतीति पर्शयति-- मूलाग-दिणावा रागिनोंः । पोत इव यत्नतः प्रणेयन्यादाश्रिताना नारकत्वाच । भिजदि देववशाद्विघटते । यनिभाचं नौमात्र मुंचनीयर्थः । अर्थ-यह यतिरूप नीका हजारो गुणोंस भरी हुई है कदाचित मयंकर संसारसमुद्र में डूब जायगी. तात्पर्य व्रत, शील, समिति मुनिः रत्नत्रय इत्यादि गुणोंस भरी दुई क्षपकरूपी नौका रोगवेदनासे डूबनेका प्रसंग आनेपर उस बचाना चाहिय. गुणभरिदं जदि णावं दहण भवोदधिम्मि भिज्जंतं ॥ कुणमाणो हु उवेक्खं को अण्णो हुज णिद्धम्मो ॥ १४९५ ।। निमज्जतं भवाम्भोधौ यो रष्ट्रा तमुपक्षत ।। अधार्मिको निराचारो नापरी विद्यते ततः ॥ १५५५ ।। विजयोदया-गुणभरिब जवि गावं गुणैः पूर्णा यतिना भवसमुद्रमध्ये भिधमान हष्ट्वा यः करोत्युपेक्षा तस्मात्कोऽन्यो मवेधर्मनिक्रांतः॥ आराधकस्य समाधिविनाकारणमप्रतिकुर्वाण प्रणिति-- मूलारा-कुणमाणादो कुर्वाणान । उबेख दुर्दैवोदयजन्यमानशूलादिपीडाप्रतीकाराभावं ॥ अर्थ-गुणोंसे परिपूर्ण यनिनौका यदि भवसमुद्रमै फूटती दुई देखकर जो उसकी उपेक्षा करता है उससे जगतमें अन्य अधार्गिक कोन होगा? वेज्जाबच्चस्स गुणा जे पुव्वं विच्छरेण अक्खादा ॥ तेसि फिडिओ सो होइ जो उवेक्खेज्ज त खवयं ॥ १४९६ ॥ १३९३ Page #1411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना। आश्वास । वैयाघृत्यगुणाः पूर्व कथिमा ये मपंचतः ॥ नेपक्षापरी नीचस्त्यज्यते निखिलैरपि ॥ १५५६ ॥ विजयोन्या-वेज्जायचरस गुणा वैयावृत्यम्य गुणा ये व विस्तरेण व्याख्यानानन्यः प्रच्युतो भयति उपेक्षते क्षप॥ आराधकबाधामप्रति कुर्वतः स्वार्थभ्रशोऽपि स्थादित्याहमूलारा--पुब गानुशिष्ये गुणपरिणामो इत्यादिना । तेलि फिटिदो तेभ्यश्च्यतः ॥ अर्थ-- रायके का निस्तारसे पूर्व में वर्णन किया है, जो क्षपककी उपेक्षा करता है वह उन गुणोंसे भष्ट होता है. अर्थात् सपककी उपेक्षा करनेसे क्षपक संसारसपद्मे हुयेगा और उपेक्षकके भी गुण नष्ट होंग उसके वात्सल्यादि गुणोंका नाश होगा. तो तरस तिगिछा जाणएण खवयस्स सव्वसत्तीए । विज्जादेसेण बसे पडिकमै होइ कायचं ॥ १४९७ ।। वैयावृत्य ततः कार्य चिकित्सां जानता स्वयम् ।। वैयोपदेशप्तश्चास्य शक्तितो भक्तितः सदा ।। १५५७ ॥ विजयोत्या-सो तस्स तसस्सस्य क्षपकस्य चिकित्सा जानता सर्वशक्त्या प्रतिकर्म कर्तव्यं वैचस्प चोपदेशेन । एवं क्षपकोपेक्षणे क्षतिप्रदर्शनाद्वैयावृत्ते निर्यापनाचार्य नियुक्ते-- मूलारा--मो प्रणिधानस्वार्थभंशादेतोः । तस्स तिगिंछाजाणारय तस्य संबंथिनी चिकित्सा स्वयं धैयोपदेशेन या जानता निर्यापकाचार्येण सपठिकम्मं तस्त्र प्रवीकार: कार्य इति संबंधः ॥ अर्थक्षपकके रोगका निदान जाननेवाले यनीने वैद्यके उपदेशानुसार अपनी सर्व शक्तीमे उसके रोगका परिहार करना चाहिये. णाऊण विकारं वेदणाए तिस्से करेज पडियारं ॥ फासुगदव्वेहि करेज बायकफपित्तपडिघादं ।। १४९८ ।। Page #1412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १३९५ विज्ञाय विकृर्ति तस्य वेदनायाः प्रतिक्रिया ॥ औषधेः पानकैः कार्या वातपित्तकफापहैः ॥ १५५८ ॥ विजयोदया-जादू विकारं ज्ञात्वर विकारं तस्या वेदनायाः ततः प्रतिकारं कुर्यात् । योग्यैर्द्वन्यैवति कफ पित्तप्रतिघातं ॥ मृहारा - विया दोपवैषम्यं । तिस्से तस्याः । पडियारं शान्तिम् ॥ अर्थ - वातादिकसे उत्पन्न हुए विकार को आनकर योग्य पदार्थोंसे वेदनाका प्रतिकार करना चाहिये. जिससे वातादिक विकार नष्ट होंगे. बच्छीहिं अवदवणतावणेहिं आलेक्सीदकिरियाहिं ॥ अभंगणपरिमण आदीहिं तिगिंछदे खवयं ॥ १४९९ ॥ अभ्यंगस्वेदनालेपवस्तिकर्मागमर्द्दनैः ॥ परिचय परेणापि कृत्यास्य परिकर्मणा । १५५९ ॥ विजयोश्याच्छीहि वस्तिकर्मभिः, अववणताहि ऊष्मकरणतापन, आलेपनेन, शीतक्रियया, अभ्यंग परिमनादिभिश्च चिकित्सते क्षपकं ॥ मूलारा बच्छीहिं बस्तिकर्मभिः । बत्ती हि इति पाठे वर्तिभिरित्यर्थः । उबवण उपनाहैः । तावणेहिं स्वेदनैः सीदकिरिवाहि प्राकजलसेवनादिभिः । परिमण अंगमर्दनः । तिगिफटदे अपगतवेदनं करोति ॥ अर्थ- बस्तिकर्म ( इनिमा करना) अग्निसे सेकना, शरीरमें उष्णता उत्पन्न करना, औषधीका लेप करना, शीतपना उत्पन्न करना, सर्व अंगका मर्दन करना, इत्यादिके द्वारा क्षपककी वेदनाका उपशम करना चाहिये. एवं पि कीरमाणो परियम्मे वेदणा उवसमो सो ॥ खवयरस पावकम्मोदएण तिब्बो ण हु ण होज्ज ॥। १५०० ॥ कस्यचिक्रियमाणेऽपि बहुधा परिकर्मणि ॥ पापकमविये तीव्रे न प्रशाम्यति वेदना ॥ १५६० ॥ aas आश्वासः ७ १३९५ Page #1413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना विजयोन्या-पत्रं पि कीरमाणे प्रतीकार अपकम्य वनोपशमः नीवेण पापकर्मोदयेन नापि भवेदपि, नहि बहिं ईव्यमाहाभ्यनेन कर्माणि स्व च्छन्ति नदि कामयात ये समकोनापरस्येति प्रतीतमेतद् ॥ अभिमुम्पपापविषाचे प्रतीकारवैयर्थमाइ---- मूलाग–तिब्वेण घोरेण । उक्तं च-- ___कस्यचिकियमाणेऽपि बहुधा परिकर्मणि ।। पापकर्मोदये तीने न प्रशाम्यति वेदना ।। अन्ये पावकम्मोत्येण तिब्बा व सा होज इति पठित्वा पापकर्मोनये सनि बेदनोपशमो न भवेत् , चीत्रा या वेदना भवेदिति प्रतिपन्नाः ॥ अर्थ-इस प्रकार इलाज करनेपरभी, तीत्र कर्मका उदय होनेसे बाह्य उपचारांसे वेदनाका उपशम होता नहीं. बाह्य द्रव्योंसे किसी की वेदनाका उपशम होता है और किसीकी नहीं भी अतः कर्मोदयकी विचित्रता सिद्ध होती है. अहवा तण्हादिपरीसहेहि खवओ हविज्ज अभिभूदो॥ उनसग्गेहिंव खवओ अचेदणो होज्ज अभिभूदो ।। १५०१ ॥ क्षपको जायते तीयरुपसर्गपरीषदः ॥ अभिभूतः परायत्तो विहलीभूतचेतनः ॥ १५६१ ॥ विजयोदया-अर.या तण्डादिपर्शसहति अथवा तादिभिः परीवहरभिभूतो भवेत्क्षपका, उपसगैामिभूतो निशेतनः स्यात ॥ निमित्तान्तरमपि ममाधिविन्नम्याभिधनेमूलारा--अचंदणो विधान्तो मूढो वा ।। अर्थ-अथवा भूक, प्यास इत्यादि परिषहोंसे पीडित होकर क्षपक निवेतन होगा अर्थात मूठित होगा अथवा भ्रान्त होगा. तथा उपसगसे भी पीडित होनेपर मछित होता है. .--. . - mah Page #1414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना तो वेदणावसट्टो वाउलिदो वा परीसहादीहि ॥ खवओ अणप्पवसिओ सो विप्पलवेज जं किं पि ॥ १५०२॥ व्याकुलो वेदनाग्रस्तः परीषदकरालितः ।। प्रलपत्यनियदानि बाक्यानि स बिचतनः ।। १५६२ ।। विजयोदया-जतो बेदनावशाली व्याकुलिनः परोपहीपसः सपकोऽसावना-मवशो निनलपेद्यदि किंचित् ॥ विभ्रान्तत्वे विकारानाह मूलारा-तो विभ्रान्नाचसनत्वात्पश्चात् । इंगणावसट्टो वदनावशेनातुरः सन । बाउलिदो व्याकुलीकृतः । विष्णलज विविध अनर्थक जल्पत जे किंचि अनिय ॥ ___ अर्थ-वेदनाकी असह्यतासे दुःखी होकर, परीषह और उपसर्गसे व्याकुल होकर क्षपक आपमें नहीं रहेगा अर्थात् उसके चित्तकी एकाग्रता भंग होगी जिससे वह पूर्वापर संबंध विरहित बडबड करेगा. उभासेज्ज व गुणसेढीदो उदरणबुद्धिओ खबओ ॥ छई दोछ पढम बसिया कुंटिलिदपदमिळतो ॥ १५०३ ॥ अयोग्यमशनं पानं रात्रिभुक्तिं स कांक्षति ॥ चारित्रत्यजनाकांक्षी जायसे वेदनाकुलः ॥ १५६३॥ विजयोदया-उभासमा यदेवायोग्य, संयमगुणधेणितः कृतावतरणबुद्धिः, छर्छ रात्रिभोजनं, दोच पाण, दिवसे पढम व अशनं वा । सिया कदाचित् । कुंटिलिदपदमिकछतो स्खलनपद इन्छन् । मूलारा—उभासेज अयोग्यं वदेत् । गुणसेढीदो संयमगुगारोहणात । उदरणबुद्धीओ अवतरणे कृत्तमतिः । छटुं रात्रिभोजनं । दोज पानं । पढम भोजनं । सिया कदाचित् । अकाले भोजनं पानं वत्यर्थः । कुटिलिदपदं स्खलनपदं । हीनस्थानमित्यन्यः ।। उक्तं च-- बदेहानुचितं साधुः संगयत्य जनोन्मुखः ।। अकाले भोजनं पानं बा बांछन्वलितं पदम् ॥ १३९७ Page #1415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराचना आश्वास अर्थ-अयोग्य भाषण बोलेगा, संयमगुणसे उतरनेकी बुद्धि करेगा. अर्थात संयम छोडनेका विचार उसके मन में उत्पन होगा. रात्रिभोजन करना, अथवा सत्रौ पानी पीना, दिन में प्रथम-भोजन करना, एतद्विषयक विचार उसके मनमें उत्पन्न होंगे. इस प्रकारसे बह संयमसे स्खलित होनेकी इच्छा करेगा. तह मुझंतो खबगो सारेदब्बो य सो तबो गणिणा ॥ जह सं. विलस्स। पच्चागदवेदणो होज ॥ १५०४ ॥ तथेति मोहमापन मारणीयो गणशिना ।। यथास्ति इवलेश्याकः स प्रत्यागनचतनः ॥ १५६४ ।। विजयोदया--तह मुज्झतो सचमी मोहमुपाच्छन् शपकस्तथा सामयित्तच्याऽसी गणिना कथे? एथा पिद्धलेश्यो भवति प्रत्यागतचेतनश्च ॥ . वेदनादिना विभ्रम्य विकुर्वाणे क्षपणे किं कार्यमित्यत्राह मूलारा--तध मुशंतो खचओ विमलपनादिप्रकारेण व्यक्तविभ्रमो भवन् । सारेदब्यो स्मरयितव्यः सर्वः। तगो सः । आसनमृत्युरित्यर्थः । पञ्चागदवेदो व्याधुटितयथार्थबुद्धिः सन् ॥ अर्थ-इस प्रकार मोहको प्राप्त हुए क्षपकको आचार्य पूर्वाधरणका स्मरण दिलाते है. जिस उपायसे वह निर्मल लेण्याका धारक होगा और चैतन्यकी प्राप्ति करेगा ऐसा ही उपाय वे करते हैं. सारणोपाय धयति--- कोसि तुमं किं णामो कत्थ वससि को व संपही कालो ॥ किं कुणसि तुम कह वा अत्थसि किं णामगो वाहं ।। १५०५॥ कस्त्वं किं नाम ते काल: सांप्रतं काक वर्तसे ॥ कोऽहं किं मम नामेति तं पृच्छति गणी यतिम् ।। १५६५ ॥ विजयोदया-कोऽसि तुमे कस्त्वं किनामधयः ? कत्थ वससि क वससि को व संपदीकालो को चेदानी कालः१ किमयं दिवा रात्रिी ? किं कुणसि तुम किं करोषि भयान ? कथं वा अत्यसि कथं वा तिष्ठसि! किं णामगो याई मई घा कि नामधेयः! १३९८ Page #1416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा १३२९ कयमेष सारथितन्य इत्यत्राहमूलारा--संपदि काले । इदानीकालः किमयं विषा रात्रिर्वा ।। सारणोपाय कहते हैं अर्थ-हे मुने! तुम कोन हो! तुझारा नाम क्या है ? तुम कहां रहते हो? अब कोनसा काल है अर्थात् | अम दिवस है या रात्री है ! तुम क्या कार्य करते हो और कैसे रहते हो? मेरा नाम क्या है? HEREPRENER एवं आउच्छित्ता परिक्खहेर्दू गणी तयं खवयं ॥ सारद बस्छल्लयाए तासगरी करिव १५०६ ॥ इत्थं क्षपकमापृचव्य चित्तं जिज्ञासता सता !! बत्सलत्वेन कर्तव्या सारणा तस्य सरिणा ॥ १५६६ ॥' विजयोदया- आइच्छित्ता एवमनुपरत पारयति गली नं क्षय । किं मन्ननो निश्वननति परीक्षितु. फामः बन्सलसया यद्यस्ति बतना कवन करिप्पामीन मल्या । किमर्थ मेघ सार्यते इत्यत्राह मूलारा-अब्बोच्छिणणं अनुपरनं । आपुच्छित्ता इति प्राधिकः पाठः । परिक्षाहेटुं किमयं सचेतन उन निअतन इति परीक्षणार्थ । सारेदि स्मृति प्रापयति । वच्छलदाए वात्सल्येन । कवचं करिस्मति यद्यस्ति चेतनास्य तदा कर करिष्यामीति मत्वा ।। अर्थ--यह क्षपक सचेतन है अथवा अचेतन है अर्थात् यह सावधान है किंवा असावध है इसका परीक्षण करने के लिये बड़े प्रेमसे उपर्युक्त प्रश्न वारवार उसकी पूलते हैं. यदि इसमें चेतना होगी अर्थात् यह सावध होगा तो मेरे पूछे हुए पन्नोंका उत्तर देगा. और सावध ई ऐसा सिद्ध होनेपर इसको हम कवच करेंगे ऐसा हेतु मनमें धारण कर आचार्य उपयुक्त प्रश्न क्षपकको करते हैं. जो पुण एवं ण करिज्ज सारणं तस्स वियलचक्खुस्स ॥ सो तेण होइ णिइंधसेण खवओ परिचत्तोः॥ १५.७ ॥ Page #1417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मुद्यतः क्षपकस्येत्थ यः करोति न सारपाम् ॥ लाराधना तेनासौ वर्जितो नूनं जिनधर्म इबोज्ज्वलः॥ १५६७ ॥ १४०० विजयोत्या-जो पुण एवं ण करिव यः पुनरेवं न कुर्यात सारण। स्खलितचिसवृत्तः स क्षपकस्तेन परित्यक्तो भवति सूरिणा तथा तदपसारणे दोषमाहमूलारा-विप्पलक्रवरस स्खलितचित्तवृत्तेः । णिधसेण निर्दयेन ॥ अर्थ-जो निर्यापकाचार्य ऐसे प्रश्न नहीं पछेगा और जिसकी चित्तयति भ्रष्ट हो है ऐसे क्षपकको REET स्मरण दिलाकर रत्नत्रयमें स्थिर न करेगा तो उस निर्दय निर्यापकाचार्यने क्षपकका त्याग किया है ऐसा माना जावेगा। एवं सारिज्जतो कोई कम्मुवसमेण लभदि सदि । तह य ण लभिज्ज सर्दि कोई कम्मे उदिष्णम्मि ॥ १९०८ ॥ तस्पेति सार्यमाणस्य कस्यचिज्जायते स्मृतिः॥ . तीवकर्मोदये नान्यः स्मरण प्रतिपद्यते ॥ १.६८ ॥ संततसारणवारणकारी कामकपायहषीकनिवारी " धर्मवतो विवधीत समाधि सर्वमपास्य गणी तरसाधिम् ।। १५६५ ।। इति सारणं वित्रयोदया-पर्व सारिजनो एवं मायमाणः कश्चित् चारित्रमोहोपशमन या स्मृति यो योग्यविषयां लभते। अयुक्तयं मम इच्छा शकाले मोक्तुं पातु वा प्रत्याख्याने कथं कालेऽपि प्रार्थयामीति न लमंत स्मृति कश्चित्कर्मण्युदणे नो इंद्रियमतिशानावरणे | सारपणा तथा सारणायामपि लघुकर्मण एव स्मृतिः स्थानान्यस्येत्याह-- मूलारा--कोई कश्विनोइंद्रियमतिज्ञानावरणक्षयोपशमविशेष प्राप्तः । कम्नुन समेण चारित्रमोहोपशमेन 1 असद्वेद्योपशमेन वा । सदि अयुक्तेयमिच्छा मम काले भोक्तुं पातुं । पा प्रत्याख्यातं वा क फालेऽपि प्रार्थयामीति योग्यायो ११०० Page #1418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागखना १४०१ विषयांत व सार्वमाणोऽपि । कम्मे नोइंद्रियमतिज्ञानावरणे । उदिष्णम्मि तीव्रवेदनादिवशाद्दुर्निवारमुदेति ॥ सारणा सूत्रतः ३४ अंकतः २० अर्थ - इस प्रकार अयोग्य इच्छासे परावृत्त करनेपर भी कोई क्षपक पापकर्मके उपशमसे योग्य विषयके स्मरण को प्राप्त होता है. अर्थात् में अकालमें भोजन करनेकी और पेय पदार्थ पीनेकी इच्छा की थी. जिसका मैंने त्याग किया है उसका योग्य कालमें भी सेवन करना अनुचित है. ऐसा स्मरण उसको होकर वह अयोग्य आचरण परावृत्त होता है. परंतु जिसका पापकर्म उदयमें आता है और नो इंद्रियमतिज्ञानावरण कर्म उदयमें आता है वह स्मरणशून्य होता है. यह सारणा नामक प्रकरण समाप्त दुआ. सदिमल तरस वि कादव्वं पडिकम्ममहियं गणिणा || उबदेसो विसया से अणुलोमो होदि कायव्वो ॥ १५०९ ॥ प्रतिकर्म विधातव्यं तस्य स्मृतिमगच्छतः ॥ उपदेशोऽपि कर्तव्यः स्मरणारोपणक्षमः ।। १५७० ।। विजयोदया सहिमलमंतस्स वि स्मृतिमलभमानस्यापि गणिनाऽस्थितं कर्तव्यं । प्रतिकारः, उपदेशोऽपि अनुकूलः सदा तस्य कर्तव्यः ॥ पथ तथाकृतसारणस्याराधकस्य वचनं गाथानां चतुःसप्तत्यधिकेन शतेन व्याचिख्यासुस्तदुपक्रमाय प्रथमं पड्गाथाः कथयति- मूलारा— अद्विदं निरंतरं । अणुलोमो स्मरणारोपणप्रवणः । दर्शनानुयायीत्यपरः ॥ अर्थ- जो स्मृतिको प्राप्त होता नहीं है उसको भी निरंतर उपाय करना चाहिये उसको सावध करनेके उपाय करने चाहिये. वैसे उसको अनुकूल उपदेश भी हमेशा करना चाहिये. ९७६ यतोऽपि य कम्मोदयण कोई परीसहपरद्धो ॥ उम्भासेज्ज वडक्कावेज व भिदेज्ज व पदिण्णं ॥ १५१० ॥ आश्वासः ७ १४०१ Page #1419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १४०२ परीषहातुरः कचिज्जानानोऽपि न बुध्यते ॥ अतः प्रकुरुते दीनो मर्यादां च विभित्सति ॥ १५७१ ॥ विजयापितमासोऽपि कर्मोदयेन कांबेत्परपपराजितो यत्किचिद्वदेत् आरटेल मियाना प्रयाख्यातां । जानतोऽपि दुःखरकुलतथानुचितमाचरतः कटुकवचनादिकं न प्रयोज्यमित्युपदिशति — मूलारा - परद्ध पराजितः । उक्तावेज्ज आरटेत् । पदिष्णं प्रत्याख्यानप्रतिज्ञां ॥ अर्थ — कोई क्षपक सावध होकर कमोंदयसे परीषहाँसे व्याकुल होकर जो भी कुछ बोलेंगा अनुचित भाषण करेगा अथवा जो जो आहारके और पानके पदार्थ त्यागनेका प्रतिज्ञा की थी वह उसका भंग भी करेगा. हु सो कडु फरुमं व भाणिदव्वो ण खीसिद्व्यय ॥ णय वित्तादन्यो ण य वट्टदि हीलणं कायुं ॥ १५११ ॥ न बिभीष्यः स नो वाच्यो वचनं कटुकादिकम् । न स्याज्यः सूरिणा तस्य कर्तव्यासादना न च ।। १६७२ ॥ विजयोदया-पाडु सो कडगं स एवं कुर्वन्क्षपकः न कर्तव्यः कटुकं परुषं वा न भर्त्सनीयं न च त्रास नेतच्यः, न च युक्तः परिभयः कर्तुं तस्य ॥ मूलारा—ण खीसिब्बो न निर्भत्स्यैः । नोपवसनीय इत्यन्यः । न रोषयितव्य इत्यपरः । ण य यदि नापि युक्तं भवति । हीलणं अनावरः ॥ अर्थ--- प्रतिज्ञा भंग करनेपर भी नियपिकाचार्य उसे कडचे और कठोर शब्द न बोले उसकी भर्त्सना न करे, उसको भय न दिखावें. अथवा उसका अपमान न करे. overः को शेषो जायते इत्यध्यते फसवणादिगे हिंदु माणी विष्फुरिसिदो तो संतो ॥ उद्यानमवमणं कुजा असमाधिकरणं च ॥ १५१२ ॥ आश्वास ७ १४-२ Page #1420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागधना आश्वासः १४०३ विराधितो भवन्मानो वचनैः कटुकादिभिः । मिक्षयसपापापा जिहासति । १९७३ ।। विजयोदया-परुषथयणाविगेहि परुषषचनादिमिमानी पिराधितः सन् ॥ बारपारुष्यादिप्रयोगे दोषानाह--- मूलारा-विष्फुरिसिदो चिराधितः । उदाणं गुणश्रेणितः पतनं । दुध्यां वा । अवक्कमणे सम्यक्त्वत्यागं । कठोरादिक वचन चोलनेसे कोनसा दोष उत्पन्न होता है। इस प्रश्नका उत्तर-- अर्थ-परुपवचनादिकोंसे यदि उसकी भत्सना की जावेगी तो वह संयमबसे भ्रष्ट होगा, अथवा दुनि को प्राप्त होगा, किंवा सम्यक्त्वका त्याग कर मिथ्यात्वी बनेगा. तस्स पदिण्णामेरं भित्तुं इच्छंतयस्स णिज्जवओ !! सम्बादरेण कवयं परीसहणिवारणं कुज्जा ॥ १५१३ ॥ निर्यापन मर्यादां तस्य प्रक्षु मुमुक्षतः॥ कर्तव्यः कवची गाढः परीषहनिवारणः ॥ १५ ॥ विजयोदया-तस्स पदिणामर नस्य स्वप्रतिक्षाज्यवस्था मर्नु वांछतो निर्यापफसरिः कवचं कुर्यान्निवारणक्षने । तस्य प्रतिज्ञालंघनोन्मुखत्वे प्रतिविधानमनुदानि.. मूलारा-मेरे व्यवस्थाम् ॥ अर्थ-जब क्षपक प्रतिज्ञाभंग करनके लिये उद्युक्त होगा तब निर्यापकाचार्य क्षपकको प्रतिज्ञा भंगसे निवृत्त करनेकलिय कवच करें, १४०३ णिदं मधुरं पल्हादणिज्ज हिदयंगमं अतुरिदं वा ॥ तो सीहावेदत्वो सो खवओ पण्णवतेण ॥ १५१४॥ Page #1421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुलाराधना आश्वासः १४०१ गंभीरं मधुरं स्निग्धमादेयं हृदयंगमम् ॥ सूरिणा शिक्षणीयोऽसौ प्रज्ञापनपटीयसा ।। १५७५ ॥ विजयोदया-गिद्ध स्नेहसहित, मधुरं श्रोत्रप्रिय, हदयसुखविधानि, हत्यप्रवेशि, अस्वरितं असौ शिक्षयितव्यः झपका प्रज्ञापयता॥ मूलारा-तो सीहावेदव्यो शिक्षयितव्यः । पण्णावतेण स्निग्धाविगुणयुक्तं वचनं वदता गणिना ।। अर्थ-निर्यापकाचार्य क्षपकको प्रेमसहित, कर्णप्रिय, हृदयको सुख देनेवाला, हृदयमें प्रवेश करनेवाला. ऐसा उपदेश करे, रोगादंके सुविहिद त्रिउलं वा वेदणं धिदिवलेण !! तमदीणमसंमूढो जिण पञ्चूहे चरित्तस्त ॥ १५१५ ।। संतोषयलतस्तीवास्ता रोगान्तकवेदनाः ।। अकातरो जघामूडो वृत्तविघ्नं च सर्वथा ॥ १५७६ ।। बिजयोदया-रोगांतक महतोल्पांच व्याधीन् । विपुला वा वेदनां घृतिबलन जय त्यमदीनोऽमुढइन्च प्रत्युहाम चारित्रस्य । वीतरागकोपता हि चारिवं । तयाधिप्रतीकारार्धेपु आदरवतो वेदनासु च द्वेषयतो नश्यति । ततश्चारित्रविघ्नास्यया जेतच्या इति भावः ॥ दु:खनिवारणी शिक्षा कब चापरनाम्नीभितः प्रबंधेनाभिधसे---- मूलारा-गोगातके अल्पान्मद्दतश्च व्याधीन । पच्चूहे विघ्नान । वीतरागकोपता हि चारित्रं तद्वयाध्यादिप्रतीकारार्थ बस्तुपु आदरबतो व्याध्यादिषु वेपवतच नश्यति ।। अर्थ-ई अपक! न दीनता को छोड़ कर मोहका त्याग कर अल्प और बडे दोनों प्रकार के व्याधिओं को तथा वेदनाको धैर्यके बलसे जीतले. चारित्रके जो शत्रु हैं उनको भी तू जीतले. राम और कोपसे अपने आत्माको अलग रखनाही चारित्र है. रोगका नाश करनेवाले पदार्थों में जो आदर करता है और वेदनाओमें जो देप रखता है उसका चारित्र नष्ट होता है. अतः चारित्रके विघातक पदाथोंको जीतना योग्य हैं. Page #1422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा मूलाराधना सव्वे उवसग्गे परिसहे य तिविहेण णिज्जिणहि तुमं ।। णिज्जिणिय सम्ममेदे होहिस आराहओ मरणे ॥ १५१६ ॥ त्वं पराजित्य निःशेपानुपसर्गपरीषहान् || समाधानपरो भद्र मृत्याचाराधको भव ।। १५७७॥ विजयोदया-सवे वि य उवसग्गे सञ्चाश्योपसगीन परीपांश्च मनोवाक्वायर्जय । उपसर्गपरीयजयदुःखामीम्ता मनसा जयः । भीतोऽयमिनि उयया न दुःस्त्रानि हरन्ति । सन्निहितद्रव्यादिसहकारिकारणमसद्धेद्यमुदयागतं अनिवायवीय बलं प्रयन्त्य ति धृतिबलेन भावना मनसा जयः ! धांसोस्मि वेदनादुम्सहात्मतां पश्यन मदीयामिमा अतिकष्टामवस्था । दग्धोऽस्मि ताडितोऽस्मि इत्येवमादिदीनपचनानुशारणं । वासदनुभूतार्थी परीपहाः सुदावया, उपसर्गाश्च पूर्व । पत्कुर्वन्तमपि नामी मुनन्ति । केवलं प्रतिदिन परको गल्तीति न-मममार्गालका प क्षमा इति उदार बचनता वचनेन जगः । यदीनेक्षणमुख रागवता अबलता च कायेन जयः । णिजिणिय सम्ममेमे निर्जित्यैवं सम्बगेतानुपसर्मपरीषहाम्मरणे मरणकाले । माराधी होदिसि रनमयपरिणतो भाविग्यसि । उपसर्गपरीषहव्याकुलितचेतसो नैवाराधकना ॥ मूलाग---तिविधेग द्रव्यादियोगवशादापत्रोदयमबार्यवीर्यमसद्वामिमानुपसर्गपरीपहाम्प्रतत्यकेन (1) निवार्येत । नदिवानी वन दुःखीकता, न खलु भीतोऽयमिति कृपया दुःखानि त्यजतीतीशी धृतिबलभावना मनसा तन्निर्जयः श्रांतोऽस्मि दुःसहा में वेदना । पश्यत मंदीयामिमामतिकष्टामवस्था । हा देव ! देवदग्धोऽस्मीत्यादि दीनबचनानुश्चारणं । परीषहाश्च सर्वेण शरीरिणा आसंसारमनुभूताः असदुपसर्गाश्च । न चामी पूकुर्वन्तमपि मुंचंति केवलं निःसत्वोऽयं कापुरुषो रारटीति निंद्यते न वैते सन्मार्गाच्च्यात्रयितु मां अमते इत्यादिधीरोदात्तवचनोचारणं च वाचा तत्पराजयः।। __ अधीनेक्षणत्वं प्रहसितमुखत्याचवस्थानं कायेन तद्विजयः ।। एदे एतान् ।। अर्थ-दे क्षयक! तूं मन वचन और शरीरसे सर्व उपसर्ग और परीपहोंको जीतले. जब इनको तू पूर्ण जीतने में समर्थ होगा तरही मरणसमयमें तूं रत्नत्रयासधक होगा. अन्यथा नहीं. विशेषार्थ-उपसर्ग और परीषहोंके दुःखोंसे भयभीत न होना यही मनसे उपसर्ग और परीपहोंको जीतना माना जाता है. यह पुरुष भययुक्त है ऐसा समझकर उपसर्ग और परीपह तकलीफ उत्पन्न करनेका कार्य दयासे छोडते हैं. ऐसा नहीं समझना चाहिये. समीपके द्रव्यादि पदार्थ ये असाता चंदनीय कर्मका उदय आने में सहकारि कारण है जब Page #1423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराचना), आश्वासा SHREATRE वेद य कर्म उदयम आता है और उसका अनिवार्य सामथ्र्य है तब वह अपना फल दकर ही नष्ट होमा एमा धय धारण कर विचार करना यह मनके द्वारा उपसर्ग परीघहों का जय समझना चाहिये. म थक गया दूं. ये दुःख दुःसह है. मैं आंतशय कटतम अवस्था को प्राप्त हुआ है, मेरे शरीरमें आग लगी है, मैं पीटा जा रहा हूं इत्यादिक दीनवा व्यक्त करनेवाले शब्द मुंहसे न निकालना यह बचनसे जय समझना चाहिय. क्षुधादिक परीषदोंका अनंत बार अनुभव ले चुका हूं. अनेक बार घोर उपसर्ग भी मेरेको प्राप्त हुए थे. डोरसे रोनेपरमी व उपसभादेक दुःख मेरको क्या छोड देंगे? यह पुरुष धैर्यरहित है, यह दीन है, बारबार रोता है, चिल्लाता है ऐसी लोक मेरी निंदा करेंगे. वे उपसर्गादिक दुःख मेरेको सन्मार्गसे भ्रष्ट करने में असमर्थ है ऐसे उदार वचन कहना यह भी वचनजय समझना चाहिये. परीषहादिकोंसे दुःख होने परभी मुखमें दीनता न दिखाना, आखों में दीनता न धारण करना, मुख न सूखना, शरिमें निश्चलता रहना, यह शरीरसे जय समझना चाहिये. इस प्रकार उपसर्ग और परीपहोंको दृढतासे जीत कर मरणसमयमें हे क्षपक! तू रत्नत्रयाराधक हो. be - - - मंभर सुविहिय जं ते मज्झाम्म चदुम्विहस्स संघस्स ॥ बूढा महापदिण्णा अहयं आराहइस्मामि ॥ १५१७ ।। अहमाराधयिष्यामि प्रतिज्ञा या त्वया कृता ॥ मध्य संघस्य सर्वस्य तां स्मरस्यधुना न किम् ॥ १५७८ ।। विजयोन्या-समर स्मृति निधेहि । सुधिहिद सुचारित्र । फि स्मरामि इति चेत् तं सो प्रतिक्षां कृतवानसि । मजास्मि मध्ये । कस्य ? चदुविधस्स चतुर्विधस्य संघस्य । बूढा धृता । महापविणा महती प्रतिज्ञा । अहर्य महाराघ इस्सामि आराधयिष्यामि इति ॥ मूलारा- ते यत्वया । बूढा कृता ।। अर्थ--हे निदोषचारित्र धारक क्षपक, तू चार प्रकारके संघमें अर्थात् उनके समक्ष बढी प्रतिज्ञा धारण की है अर्थात मैं रत्नत्रयकी आराधना करूंगा ऐसी महाप्रतिज्ञा धारण की है उसका स्मरण कर. १४.६ Page #1424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १४०७ को नाम भडो कुलजो माणी थोलाइदूण जणमज्झे ॥ जुझे पलाइ आवडिदमेतओ चेव अरिभीदो ॥ १५१८ ॥ जनमध्ये भुजास्कालं विधाय बलगविंतः ॥ कः कुलीनो रणे मानी शत्रुत्रस्तः पलायते ॥ विजयोदया को ग्राम मडो कः पलायते युद्धे भटः शूरः कुलजो मानी धोलादण भूजास्फालनं कृत्वा । जनमध्ये । एवं युद्धे शत्रुपराजयं करिष्यामीति उदयुष्य आवडिदमेसओ अभिमुखायातशत्रुरेव अरिभीतः । कः पलायनं करोति ॥ १५७९ ।। इतः अपर्क लोकप्रसिद्धदृष्टांत हत्या प्रबंधन प्रोत्साहयति- गुलारा-मानी यश संपादनाहंकारी पोलाइदूण आत्मानं स्तुत्वा भुजास्फालने कृत्वा । एवं शत्रुपराजयं करिष्यामि इत्युद्धोष्यति यावत् । आवडिदमत्तओ व मिलितमान एवारिणा सह अथवा अभिमुखायातमाघादेवारेरिति योज्यम् ॥ अर्थ - " मैं शत्रुको अवश्य पराजित करूंगा " ऐसी प्रतिज्ञा जिसने भुजास्फालन करके सर्व जनसमक्ष की है ऐसा कोन स्वाभिमानी कुलीन शूर पुरुष शत्रु समीप आनेपर डरकर पलायन करेगा. दान्तिके योजयति- थोलाइण पुव्वं माणी संतो परीसहादीहिं || आवडिदमिराओ चैव को विसण्णो हवे साहू ॥ १५१९ ॥ कः कृत्वा स्वस्तयं मानी संघमध्ये तपोधनाः ॥ परीषहरिपुत्रस्तः क्लिश्यस्थापातमात्रतः ॥ १५८० ॥ विजयोदया- धोलपूर्ण पुष्यं भुजास्फालनं कृत्वा पूर्व । परीसहा आवाजयत्सगो बेव परीषद्वारा तिभिरभिमुपय को विसण्णो हवे साध माणी संतो को विषण्णो भवेत्साधुः मामी सन् ॥ एवं दृष्टां दर्शितमर्थं दार्शन्तिके योजयति - मूलारा - आषत्विदमेतओ परीषहारिभिर्मिलितमात्रकः । विसो दुःखितः । आश्वास ७ १४०७ Page #1425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाशवना १४०८ अर्थ- सर्व संघके समक्ष परीपह और उपसर्ग आनेपर भी मैं प्रत्याख्यात आहारादिक पदार्थों को स्वीकार न करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा लेकर परषिहादिक आतेही कोनसा साधु दुःखी होकर स्वप्रतिज्ञाका त्याग करेगा ? अर्थात् अपनी प्रतिज्ञामें परीपहार्दिक आनेपर भी दृढता धारण कर उसको नम्र न करेगा आवडिया पडिकूला पुरओ चेव कर्मति रणभूमिं 11 अवि य मरिज्ज रणे ते ण य पसरमरीण बठ्ठेति ॥ १५२० ॥ प्रविशति रणं पूर्व शत्रुमर्दनलालसाः || - यच्छन्ति नासुनाशेऽपि शत्रूणां प्रसरं पुनः ॥ १५८१ ॥ विजया - आदिदा पत्रिकूला अभिमुखायाताः शत्रयः पुरखो सेव कर्मति रणभूमिं पुरस्तादेषोपसर्पति रणभूमि अधि य मरिन रणे यद्यपि रणे नियन्ते । ण य पसरमरीण बन्ति मैव प्रसरमरीणां वर्धयन्ति ॥ मूला --- आवडिव पडिकूला आपतिता अभिमुखा जाताः प्रतिकूलाः शत्रवो येषां सुभटानां ते पुरदो चेष पूर्वमेव शत्रुभिराक्रांतमेवेति भावः । क्रति आक्रामति । रणभूमिं युद्धाय कल्पितां भुवं । मरेज्ज म्रियेरन् । पसरं उत्साहं | यति वर्धयति । अर्थ -- हल्ला करनेवाले शत्रु युद्धभूमीमें आगे आगे ही पैर बढाते हैं कदाचित् युद्धमें शत्रु प्रहारसे मरणको स्वीकार करेंगे परंतु अपने प्रतिपक्षीका उत्साह बढेगा ऐसा कार्य वे कदापि नहीं करेंगे अर्थात् रणभूमीसे पलायन नहीं करेंगे. तह आवडिदप्पडि कूलदार साहू विमाणिणो सूग || अतिव्यवेणाओ संति ण य विगडिमुवयांति ॥ १५२१ ।। मानिनो योगिनो धीराः परीषहनिपूदिनः || सहन्ते वेदना घोराः प्रपद्यन्ते न विक्रियाम् ।। १५८२ ।। विजयोदया - तद् आवद्द पडिकूलदार तथा भापत्प्रतिकूलतया । साधयो मानिनः शूराः । अदितिव्यवेषणाओ अतीष सीमवेदनाः । सहति सहते । ण य विगडिमुवति नैष विकृतिमुपयति ॥ आश्वासः ی १४०८ Page #1426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास मुलारा--आवविदाप्पडिकूलदाए आपतिशा दुर्दैवयशादुपस्थिताः प्रतिकूला उपसर्गपरीपहा येषां से आपतितप्रतिकूलास्तेषां भाव आपतितप्रतिकूलता तस्यां सत्यां । उपसर्गपरीपहेघु उपस्थितेषु सस्विति यावत् । अन्ये तु आषा पडिकूलत्ताए इति पठित्वा आपत्प्रतिकूलस येत्यर्थमा विगदि रताधिराधन ।। अर्थ-वैसे पूर्वकृत अशुभ कर्मके उदयसे परीवहादिक अति तीत्र दुःख देनेपर भी अर्थात् उनसे अतितीव्र वेदना होनेपर मी साभिमानी साधुगण सब सहलेते हैं परंतु वे रिकार को प्राप्त होकर रत्नत्रयाराधनाका त्याग नहीं करते हैं. थोलाइयरत कुलजस्म माणिणो रणमुहे बरं मरणं ।। ण य लज्जणवं काउं जावजीर्य सुजणमझे ॥ १५२२ ॥ रणारंभ वरं मृत्यु जास्फालनकारिणः।। पावजीचं कुलीनस्य न पुनर्जनजल्पनम् ॥ १५८३ ।। वित्रयोदया-धोलाइयरस कृतभुजाकालनस्य । माणिणो मानिनः । रणमुहे वर मरणं युद्धमुख शोभनं मरणं । ण य वर्ग नैय शोभनं । ल करणयं कार्दु जावजीयं च सुजणम सुजनमध्ये यावज्जीव निंदाकरणं ॥ मूलाग-थोलाइदस्स कृतभुजास्फालनस्य । वरं शोभनं । लज्जणय लज्जाफारकं । धर्मपलायनमित्यर्थः ।। अर्थ--जिसने सुजास्फाट कर शत्रुको जीतने की प्रतिज्ञा की है ऐसे कुलीन स्वाभिमानी मनुष्यका रण में | मर जाना भी भला है. परंतु सज्जनोंमें जिससे निंदा होगी ऐसा कार्य अर्थात् रणसे भागना, शत्रुको पीठ दिखाना कभी भी भला नहीं है. क्यों कि ऐसे कार्यमे आजन्म निंदा होती है. समणस्स माणिणो संजदरस णिहणगमणं पि होइ बरं ।। ण य लज्जणयं कादं कायरदादीणकिविणतं ॥ १५२३ ॥ संयतस्य वरं मृत्युमानिनोऽसकताडिनः॥ मदीनत्वविषण्णत्वे परीषहरिपूतये ॥ १५८४ ।। १४०९ Page #1427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलाराधना आश्वास १४१० विजयोश्या-समणस्स समानस्य श्रयणस्य था । माणिणो मानिमः, संजदस्स संयतसा णिधणगमणं पि होदि बरं निधनगमनमपि भवति घरं । ण य लज्जणमे काटु नैष लग्जनीयकरणं शोभनं । कातरता न घरं। वीणकिविणतं वीनत्वं कृपण त्वं च न बर।। मूलारा-णिधणगमणं मरणापसिः । कादरदा चिपभीरुता । दीणकिविणतं दीनवं, वैवर्ण्य, कृपणत्वं किमपि कर्तुं न शक्नोमि इति वचनं ॥ अर्थ-रागद्वप रहित, अपनी प्रतिज्ञापर अटल रहनेवाले ऐसे मुनिका मग्ण होना भी भला है. जिससे लज्जित होना पड़ेगा एमा कार्य-रत्नत्रयाराधनाये च्युत होना-कभीभी योग्य नहीं है. चित्तमें भय उत्पन्न होना, मुख भयस सम्बना, मैं असमर्थ है. प्रतिज्ञा धारण करनमें समर्थ नहीं हूँ इत्यादिवचन बोलना निंद्य है. एयरस अपणो को जीविदहेदुं करिज जंपणयं । पुत्तपउत्तादीणं रणे पलादो सजणलछ । १५२४ ॥ वर मृत्युः कुलीनस्य पुत्रपौत्रादिसंनतेः ॥ न युद्ध नश्यतारिभ्यः कतु स्वकुललांछनम् ॥१५८५ ॥ विजयोन्या-एयरस अप्पणो एकस्यात्मनः । जीघिदहदु जीवितनिमित्तं 1 को करिज्ज अंपणग कः कुर्यादपबादं । पुत्तपत्तादीर्ण पुत्रपौत्रादीनां । रणे पलाटो रणापलायमानः । मजणलछ स्वजनाछन । मूलारा-जंपणयं अपवाद । पउत्तादीणं पौत्रप्रपौत्रादीनां । पलतो पलायमानः। अन्यः पलादो इति पठित्वा पलाय्येत्यर्थमाह । सुणगलंछ ललाटे कुकुरवाइसमान ॥ अर्थ-अकले अपने जीवितके लिये कोन मानी पुरुष अपवादका-निदाका कार्य करेगा. ऐसे अकार्य से अर्थात् रणसे भागने के कार्यस पुत्र पौत्रादिक तक अकीर्ति रहा करती है. अर्थात् पुत्र पौत्रादिक भी अपने पूर्वजोंकी अकीर्तिसे दुःखी होत हैं. उनको लज्जित होना पड़ता है. तह अप्पणी कुलस्स य संघस्स य मा हु जीवदत्थं तं ॥ कुणसु जणे जपणयं किविणं कुल्वे सगणलंछ ॥ १५२५ ॥ ४१. RASA Page #1428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সাশ্বার मूलाराधना मा कार्बजाषितार्थ त्वं देन्यं स्वकुललांछनम् ।। कुलस्य स्वस्प संघस्थ भा गास्त्वं वेदनावशम्।। १५८६ ॥ बिजयोदया-तह तथा बिपणो जीविदध भवतो जीवितार्थ | कुलस्स संघस्स य मा कुणसु जणे दूसगय कुलस्य संघस्य च दूषणं जने मा काः । किविण कुब्वं कृपणत्वं कुर्वन् । सगणलछ स्वगणलांछन । मूलारा--किवणं कुब्वं कृपणत्यं कुर्धन् । परीपहादिविनिपाते हीनसत्यतां विदधत् । अर्थ-वैसे हे क्षपक! तुम अपने जीवितके लिये अपने कुल और संघको दूषण उत्पन होगा ऐसा कार्य मत करो अर्थात तुम अपनी प्रतिज्ञाम द रहो. मरेसे प्रतिज्ञाका पालन नहीं होता है एसा दीनवचन कहोगे तो तुमारे संपूर्ण गणको लज्जित होना पड़ेगा, गाढप्पहारम्ताविदा वि सुरा रणे अरिसमक्खं ॥ ण महं मंजंति सयं मरंति भिउडीए सह चेव । १५२६ ।। नियंते समरे वीराः पहाराकुलिता अपि ।। कुर्वन्ति भ्रकुटीभंग न पुनरिणां पुरः ।। ५८७ ।। विजयोदया-गाढप्पहारसंताबिदा वि गाटनहारसनापिता अपि शूरा रणे युद्धे । सगं मुह अरिसमकर ण भजति स्वमुखमंग या पुरतो न कुर्वन्ति । भरति प्रियो । मिगुधीर मय भ्रकुम्वा सह च ॥ मूलारा--भजति दक्रयति । सर्थ म्बं मुखं । भिडिमुहा भृकुटयो भुपु येषां ते भृकुवा सहैव नियंने इत्यर्थः ।। ____ अर्थ-शूर पुरुप रणमे गाढ शखप्रहार होनेसे शत्रु के समक्ष मुग्व फिराकर भागते नहीं है. वे अपनी भोहै टेढी करके मरण का ही अंगीकार करते है. सुइ वि आवइपत्ता ण कायरत्तं करिति सप्पुरिसा ॥ कत्तो पुण दीणतं किविणतं वा वि काहिति ॥ १.२७ ।। कातरत्वं न कुर्वन्ति परीषहकरालिताः । किं पुनदीनतादीनि करिष्यन्ति महाधियः ॥१५८८ ।। Page #1429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराचना १२१२ विजयोदया- सुंदर वि आवहपत्ता निरमापत्रं प्राप्ता अपि । सम्पुरिसा ण कायरतं करेति सत्पुरुषा न narai कुर्वन्ति । कसो पुण काहिति कुतः पुनः करिष्यन्ति दीणत्तं किविणत्तं चापि दीनतां कृपणतां च ॥ मूलारा - सुवि आदि पत्ता नितरां आपदं प्राप्ता अपि ॥ अर्थ -- अतिशय विपत्ति प्राप्त होने पर भी सत्पुरुष डरते नहीं हैं तो वे असमर्थता और दीनता क्यों दिखायेंगे P कोई अग्मिदिगदा समंतओ अग्गिणा वि उज्झता ॥ जलगदा व परा अत्यंति अचेदणा चेव || १५२८ ॥ अग्निमध्यगताः केचिद्यमानाः समंततः ॥ अवेदना वितिष्ठन्ते जलमध्ये गता इव ॥। १५८९ ॥ विजयोदया कोई अत्यंति अवेदणा चेव केचिदास ते अचेतना छ । अग्गिमदिमदा मान्ने प्रविष्टाः । समंतदो अग्गणापि इज्ता समंतात अझिना मपि ( जलमज्झगदा व गरा जलमध्यगता नरा इव । अचेतना इव ॥ मूलारा— अग्गिमदिगदा अमिं प्रविष्टाः || अर्थ-कितनेक पुरुष अधिक बीचमें पढनेपर और चारों तरफसे अभि लगने पर भी अर्थात् उसके दाहदग्ध होनेपर भी मानो जल में प्रवेश किये पुरुष के समान अथवा अचेतन पदार्थके समान स्थिर रहते हैं. सं तत्थ वि साहुकारं सगअंगुलिचालणेण कुब्वंति ॥ केई कति धीरा उ अग्गिमज्झमि ।। १५२९ ॥ साधुकार परे त कुर्वन्त्यंगु लिनर्तनैः ॥ आनंदितजनस्वान्ता उत्कृष्टिं कुर्वते परे ॥ १५९० ।। विजयोदया - तत्थ वि तत्राप्यशिमध्ये साहुकार सगअंगुलिचालणेण कुत्र्येति साधुकारं स्वांगुलचालनया कुर्व । केई अग्झिगदा धीरा केचिदग्निमध्यगता धीराः । उक्तिट्ठि करंति उत्कोशनं कुर्वन्ति ॥ आश्वास १४१२ Page #1430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मुन्नागना मूलारा-तध वि य यद्यपि अग्निमध्यगतास्तथापि । साधुक्कारं भद्रकं भवतीदं यदशुभ कर्म क्षयं यातीति प्रशंसा । सगभंगुलिचालणेण स्वांगुलिनर्तनेन । नखाछोटिकयेलन्यः । केई पतदुभयत्र योज्यं । वकिटिं उक्रोशनं । विशिष्टशब्दकलकलमित्यर्थः । अर्थ--.. जग्नीमें भी अपनी अंगुलियों हिलाकर कई बीर पुरुष अच्छा ही हुआ ऐसा सूचित करते हैं. इस उपसर्गसे मेरा कर्म क्षयको प्राप्त होगा. यह अग्नि मेरे कमको नष्ट करती है. इसका हमारे ऊपर बडा उपकार हो रहा है. ऐसा अंगुलियां हिलाकर सूचित करते हैं. कोई धीर पुरुष आनंदसे विशिष्ट शब्द करते हैं. FREE जदिदा तह अण्णाणी संसारपवणाए लेस्साए तिव्वाए वेदणाए सुहसाउलया करिति धिदि ॥ १५३० ॥ वेदनायामसखायां कुर्वन्यज्ञानिनो धृतिम् ॥ लेश्यया भवव िन्या सुखास्वादपरा यदि ।। १५९१ ॥ विजयोदया-अधिवा यदि तावत् । तद्द तथा घाणाणीधिदि करिति तथा अशानिनो धृति कुर्वन्ति । संसारपचनजाए लेस्साए संसारप्रवर्द्धनकारिण्या लेश्यया । तिब्वार घेदणाए तीवायां वेदनाय सत्यां । सुहसाउलगा सुखास्वादन लेपटाः ॥ मूलारा-तब तेन साधुकारकरणादिप्रकारेण । संसारपडणाए संसारप्रवर्धनकारिण्या । सुइसाला सुखास्वाइनलंपटाः। अर्थ--संसारको बढानेवाली लेश्यासे युक्त होकर भी उपसर्गसे तीव्र वेदना होनेपर भी यदि सुखास्वाद करने में लंपट अज्ञानी पुरुप धैर्य धारण कर दुःख सहन करते हैं तो किं पुण जदिणा संसारसम्वदुक्खक्खयं करतेण ॥ बहातव्वदुक्खरसजाणएण ण घिदा हवाद कुष्जा ।। १५३१ ॥ तदा धृति न कुर्वन्ति किं भवच्छेदनोचताः ॥ ज्ञातसंसारनै सार्या वेदनायर्या तपोधनाः ॥ १५९२ ॥ Page #1431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आभासा विजयोदया-किं पुण जदिणाण करिजा हदि बिदि किं पुनर्न कार्या भवति धृतिः यतिना। कीदृशा? संसारसम्पदुक्खक्खयं करतेण संसारसर्वदुःखक्षयं कुर्वता । बहुतिब्वदुषस्वरसजाणगेण बाहनां चतुर्गतिमतानां दुःलानां रसं जानता। मूलारा--रसजाणासनेदिनः । ३ दिना! अर्थ-संपूर्ण दुःखोंका रस जाननेवाले यति क्यों न धर्य धारण करे. अर्थात जब कोई अज्ञानी भी जीव धैर्य धारण कर दुःख सहते हैं तो चैराग्यशील यतिओंका दुःख सहन करना कर्तव्य ही ठहरा दुःखसे भययुक्त होना उनके लिए नितरां अयोग्य है. असिवे दुभिक्खे वा कतारे बा भएव आगाढे ॥ रोगों व अभिभूदा कुलजा माणं ण विजहंति ।। १५१२ ॥ दुर्भिक्षे मरके कक्षभये रोगे दुरुत्तरे।। मान कापि विमुचंति कुलीना जातु नापदि ॥ १५९३ ॥ विजयोदया-असिषे मार्ग। दुम्भिक्षे था दुर्भिक्षे घा। कंतारे अटव्यां पा। गाढे भये च । उपर्युपरि निपतितभये पा । रोगेहि घ अभिभूदा व्याधिमिर्वा अभिभूताः पाविजइंति कुलजा माण न बिजइति कुलप्रसूता मान । मूलारा-असिवे मार्यो । आगाढे उपर्युपरि निपतति सति । अनिवार्येण । अर्थ-मारी, दुर्भिक्ष, गहन अरण्य, पुनः पुनः भय प्राप्त होना, रोगोंसे पीडित होना इत्यादि प्रसंगपर कुलवान् मनुष्य अभिमान छोडते नहीं है. ण पियति मुरं ग य खेति गोमयं ण य पलंडुमादीय ॥ ण य कुम्वति विकम्मं तहेव अण्णपि लज्जणय ॥ १५३३ ।। सेवते मघगोमांसपलांडादि न मानिनः ॥ कर्मान्यदपि कृच्छ्रेऽपि लज्जनीयं न कुर्वते ॥ १५९१ ॥ १४१४ Page #1432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृलाराधना ६४१५ विजयोदया - पण पिबंति सुरं न पिति सुरां । ण खेति न च मयेति गोमांसं । ण य पलंडमादीयं न पलांड प्रभृतिकं भक्षयति । ण य कुव्वंति विक्रम्मं नैव कुर्वन्ति कुत्सिते कर्म परोच्छिष्टभोजनादिकं न कुर्वन्ति । तद्देव अण्णंपि जयं तथैव नान्यदपि उज्जनीयं कुर्वेति ॥ ति नच भक्षयति मानिनः । गोमांसमित्यर्थः । पांडुमाड़ीयं लशुनगंजनप्रभृतिकं । बिकम्मं कुत्सितं कर्म परोटिभोजनादिकं ॥ मुलारा अर्थ - कुलीन मनुष्य कभी मदिरापान नहीं करते हैं. गोमांस भक्षण नहीं करते हैं. प्याज, लहसन, वगैरह कंदोंका भक्षण नहीं करते हैं तथा वे दूसरोंका उच्छिष्टान्न भक्षणादिक कर्म नहीं करते हैं, वैसा अन्य भी लज्जा उत्पन्न करनेवाले कर्म वे करते नहीं. तो किं पुण कुलगणसंधजलमाणिणो लोयपूजिदा साधू ॥ माजिदकातिविषमं सुजये || १९३४ ॥ कुलसंघयशस्कामाः किं कर्म जगदर्शिताः ॥ मानं विमुच्य कुर्वन्ति लज्जनीयं तपोधनाः ॥ १५९५ ।। विजयोदया- किं पुण साहू वि कम्म काहिति कि पुनः साधवः कुत्सितं कर्म करिष्यति । कुलगुणसंघस्स जसमाथिको कुलस्य संघस्य व यशः संपावनाहंकारवंतः। लोगपूजिदा साधू लाके कृतपूजाः । माणं विजहिय मान त्या जणलज्जयं साधु जनेन विलज्जनीयं कर्म ॥ मुलारा - जसमाथिको यशः संपादनाईकारवंत || अर्थ - कुल, गण, संघ इनकी यशोवृद्धि चाहनेवाले साधुगण क्या कुत्सित कर्म कभी करेंगे ? कभी भी नहीं करेंगे. सत्पुरुषोंके द्वारा निथ ऐसा कर्म लोकवंद्य साधु मानका त्याग कर करेंगे क्या ? कभी भी नहीं करेंगे. जो गच्छज्ज विसादं महलमप्पं व आवर्दि पत्तो || तं पुरिसकादरं विति धीरपुरिसा हु संदुति ।। १५३५ ॥ आश्वास ७ १४१५ Page #1433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १४१६ aai विपत्तिमुख वा यः प्रयातो विषीदति ॥ नरा वदन्ति तं षंढं धीराः पुरुषकातरम् ।। १५९६ ॥ विजयोश्या - जो गच्छिज्ज विसायं यो गच्छेद्रियाएं । मद्दलं अप्पं व आवई पत्तो महतवा आपत्रं प्राप्तः ॥ तं पुरस्कातरं पुरुषेषु कातरं । धीरपुरिसा संतुति विंति धीराः सुपुरुषाः पंढ इति बुवन्ति ॥ आदि विषीदतोsवाएं दर्शयति मूलारा-- विषादं विषादं | आदि आपदं । पुरिसकादरं पुरुषेषु कातरं । ढोति नपुंसकमिति ब्रुषंति ॥ अर्थ - जो छोटी या चडी आपत्ति आनेपर खिन्न होता है धीर पुरुष उसको कातर - डरपोक मनुष्य ऐसा कहते हैं तथा उसको षंढ कहते हैं. deva freeकंपा अक्खोमा सागरुव्व गंभीरा ॥ विदितो सम्पुरिसा हुति महल्लावईए त्रि || १९३६ ॥ समुद्रा इव गंभीरा निःकम्पाः पर्वता इव ॥ विपद्यपि महिष्ठायां न क्षुभ्यन्ति महाधियः ॥ १५९७ ॥ विजयोदया मेरुमिष्पकंपा मेरुरिव निश्चलाः । अक्लोमा अगाः । सागरोच्व सागर व धिदिवंतो सरिसा धृतिमतः संतोषतः सत्पुरुषाः मलाई विमत्यामापदि अपि ॥ सत्पुरुषसद्वृत्तख्यापनेन विपदि धैर्यमवलम्बयति— यूलारा-- महावदीए वि महत्या मध्यापदि । अक्षोभ्या होभयितुमशक्याः । अचात्यचित्ता भवतीति संबंधः । उक्तं च समुद्रा इव गंभीरा निष्कंपाः पर्वता इव ॥ विपद्यपि महिठायां न क्षुभ्यति महाधियः || अर्थ-चडी आपति आनेपर भी धैर्ययुक्त, संतुष्ट सत्पुरुष मेरुके समान निश्चल रहते हैं. और समुद्रके समान क्षोभरहित होते आश्वा ७ १४१६ Page #1434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १४१७ केई सिंग आदाविदभरा अपडिकम्मा || गिरिपभारमभिगदा बहुसावदसंकडं भीमं ॥ १५३७ ।। स्वारोपित भराः केचित्रिःसंगा निःप्रतिक्रियाः ॥ गिरिमारभार मापनाविश्रश्वापदसंकटम् ॥ १५९८ ॥ विजयोरया केई उसम साधैति इति यक्ष्यमाणेन संबंधः । केचिदुत्तमं वस्तु रत्नत्रयं साधयन्ति । का ? सिंगा निष्परिग्रहाः । यादारोदिभरा आत्मारोपितभराः । अपडिकम्मा निष्प्रतीकारा। गिरिपम्भारम भगदा प्रारभारमभिमताः । कीदृशं ? बादकडे बहुस्यामृगाकुलं । भीमं भयावहं ॥ महासत्वानां महोपसर्गेऽपि रत्नत्रयसाधननिर्वाह गाथाद्वयेन प्रकाशयति- मूलारा - आदविदभरा आत्मन्यारोपितकरणीयभारा: । अपडिकम्मा अप्रतीकाराः । गिरिपन्भारं पर्वतगुहां । अदिगदा प्रविष्टाः अर्थ -- कितनेक सत्पुरुप संपूर्ण परिग्रहोंका त्याग कर तथा संपूर्ण कार्य अपने ऊपर लेकर आपत्तिको दूर करनेके लिए कुछ भी मयत्न नहीं करते हैं और जहां बहुत हिंस्रजी निवास करते हैं ऐसे पर्वतों की गुहामें जाकर उत्तम वस्तुकी प्राप्ति कर लेते हैं. अर्थात् रत्नत्रयको साथ लेते हैं. विधिणियबद्धकच्छा अणुत्तरविहारिणो सुदसहाया ॥ साहिति उत्तम सावदाढंतरगदे वि ॥ १५३८ ॥ १७८ राद्धान्तसचिषाः सन्तः सन्तुष्टाः शुद्धवृत्तयः ॥ साधयन्ति स्थिताः खार्थं व्यालदन्तान्तरेष्वपि ।। १५९९ ॥ विजयोदया - विदिधणियका पृष्या नितरां कक्ष्याः | अणुत्तर विहारिणो प्रकृष्टचारिषाः । सुदसहायाः श्रुतज्ञानसहायाः । सार्धिति उत्तम साधयत्युत्तमार्थ रत्नत्रयं । सावददानरगदा वि श्वापददंष्ट्रामध्यगता अपि ॥ मूलारा - बद्धकच्छा स्वीकृतबलाः कृतप्रतिज्ञा या । अणुत्तरविहारियो उत्कृष्टवारियाः ॥ अर्थ- जिन्होंने अलौकिक धैर्य धारण किया है, जिनका चारित्र उत्कृष्ट है, तिलमात्र भी जिसमें दोष नहीं आश्वासः ७ १४१७ Page #1435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाराधना आश्चा || है एसे चारित्रके धारक, श्रुतज्ञानकी मदत जिनको मिली है ऐसे मुनिराज र प्राणिओंके दादमें चले जाने पर भी रत्नत्रयकी सिद्धि कर ही लेते हैं. - भल्लक्किए तिरत्तं खजनो घोरवेदणट्टोऽवि ॥ आराधण पवण्णी झाणेणावतिसकुमालो ॥ १५३९ ।। धीरोऽवन्तिकुमारोगात्रिरात्र शुद्धमानसः ॥ शृगाल्या खाद्यमानोऽपि देवोमाराधना प्रति ॥ १६..॥ विजयोदया-मल्लकिप तिरत्तं स्यातो गालन सिंखषु रात्रिषु भक्ष्यमाणः । धोरवेदणट्टो वि घोरवदनाबाधितोऽपि । आराधर्म पचण्णो ज्झाणेण शुभध्यानेनाराधनां प्रपक्षः। का? अचतिसुकमालो अवंतिम कुमारः ॥ उपसर्गसहानामाख्यानान्यपन्यस्यनि-.. महारा-भलक्कीए शृगाल्या। तिरत्र त्रिराय। वेदणटो वेदमातः । अवनि उज्जयिन्यो । मुकुमालो सुकुमारस्वामी। अर्थ-शृगालीके द्वारा तीन राबतक जो खाये गये, जिनके प्रत्यंगाम नीत्र वदनाय हो रही थी, ऐसे भी अवंति सुकुमार मुनि शुभध्यानसं रत्नत्रयाराधनाको प्राप्त हो गये. ( इनकी कथा तथा आगके उदाहरणोंकी कथायें आराधना कथाकोपोंमें हैं) मोग्गिलगिरिम्मि य सुकोसलो वि सिद्धत्थदइय भयवंतो || वग्धीण वि खज्जतो पडिवण्णो उत्तमं अठं ॥ १५४०. ।। शिपायाराधनां देवीं मुद्गलाद्री सुकोशलः ॥ भक्ष्यमाणो मुनियाग्या सैद्धाधिरविषण्णधीः ।। १६०१ ॥ विजयोदया-मुगलगिरी सुकोशलोऽपि सिद्धार्थस्य पुत्रो भगवान् व्यान्या जननीचर्या मक्षितः सन् प्रतिपन्नश्च उपमाथ। मूलारा-मोम्गिलगिरिम्मि मुद्गलास्यगिरौ । सिद्धत्थदइदगो सिद्धार्थस्य यसमापुत्रत्वात् । वि खजंतो खाद्यमानोऽपि अर्थ-मुगल नामक पर्वत पर सिद्धार्थ राजाके पुत्र सुकोशल नामके मुनिराज को पूर्व जन्ममें माता १४१ Page #1436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः थी एसी व्याघ्रीने भक्षण किया, तो भी उन्होंने शुभध्यानसे रत्नत्रयकी प्राप्ति की अर्थात् इस तियेच कृत उपसर्गसे वे रत्नत्रयसे भष्ट नहीं हुए. १११९ भूमीए समं कीलाकोट्टिददेहो वि अल्लचर्म व । भयवं.पि गयकुमारो पडिवण्णो उत्तम अहं ॥ १५४१ ।। धरण्यामाचर्मेव किल कीलितविग्रहः ।। मापङ्गजकुमारोऽपि स्वार्थ निर्मलमानसः ॥ १६०२॥ विजयोवया-भूमीए समं भूमौ समं । कीलाकोविदेहो कीलोत्कृतवहः । अलचम्म प धाईचर्मवत् । भयवपि भगवान् गजकुमारोऽपिः । उत्समार्थ प्रतिपक्षाः ॥ मुलारा-कोलाकोविद कीलैः प्रसार्य कीलितः ।। - अर्थ--गाले चमडके सभाम कीले ठोककर जिनको जमीनके साथ एक कर दिया है ऐसे भगवान गजकुमार मुनीने उसमार्थ को रत्नत्रयको साध लिया अर्थात् रत्नत्रय प्राप्तिके द्वारा ये मुक्त होगये. कच्छुजरखासमोसो भत्तेच्छदुच्छिकुच्छिदुक्खाणि ।। अधियासयाणि सम्म सणकुमारेण वाससयं ॥ १५४९ ।। कासशोषामचिश्च्छर्दिकच्छुप्रभृतिवेदनाः ॥ सोढाः सनत्कुमारण यतिना शरदां शतम् ॥ १६०३ ॥ विजयोदया-कच्छजरबाससोसो कन्ट्रचरकास पार भत्तेच्छदुच्छिकृच्छिदुक्खाणि ती जठराग्निःक्षिकुक्षि तुःस्त्रं च । अधियासयाणि असंक्लेशेन घृतानि सणकुमारेण सनत्कुमारेण । वाससदं वर्षशतं ॥ मूलारा-कच्छू कंडूः । जर ज्वरः । भत्तेनछदुच्छिकुच्छिदुक्खाणि तीब्रजठराग्रिनेत्रोदरबाधाः । अन्ये अभतच्छदि इति पठित्वा अभक्दमरुचिः । छदि छरितार्थमाहुः । अनियमिदा सोढानि | सम्म निःसंक्लेझो । वाससदं वर्षशतम् ।। Page #1437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागचना आश्वासः अर्थ---कन्छु, ज्वर, खासी, श्वास, भस्मक व्याधि, आंखके रोग, इत्यादिक रोगांसे होनेवाली पीडा सनत्कुमार मुर्नाने जो कि गृहस्थावस्थामै चक्रवर्ती थे सो वर्ष तक संश परिणामके बिना धारण की परंतु रत्नत्रयका त्याग नहीं किया. णाबाए णिव्वुडाए गंगामज्झे अमुज्झमाणमदी॥ आराधणं पवण्णो कालगओ एणियापुत्तो ॥ १५४३॥ गंगायां नावि मनायां एणिकातनयो यतिः॥ अमुहमानसः स्वार्थ साधयामास शाश्वतम् ॥ १६.४ ॥ विळयोदया-जापाए णिचुडाए नाषि निमनायांच। गंगामज्झे गंगाया मध्ये अमुज्जमाणमदी अमुबमानमतिः। आराधणं पक्षणो आराधनां प्रतिपनः । कालगयो सन 1 कालं गतः। एणियापुत्सो एणिकपुत्रनामधेयो यतिः॥ मूलारा--कालगवं भरण प्राप्तः । एणियापुतो एणिकापुत्राख्यो मुनिः ५ अर्थ-एणिकापुत्र नामके यतिराज नाबमें आरोहण कर गंगाके दूसरे किनारे पर जारहे थे तब वह नाव गंगामें डूब मई परंतु मुनिराजकी बुद्धि में जरासाभी मोह उत्पत्र नहीं हुआ और वे आराधनाप्राप्ति कर मर गये. ओमोदरिए धोराए भहबाहू असंकिलिट्ठमदी । घोराए तिगिच्छाए पडिवणो उत्तमं ठाणं ।। १५४४ ॥ अवमोदर्यमंत्रेण भद्रबाहुमहामनाः ।। बुभुक्षाराक्षसी जित्वा स्वीचकारार्धमुत्तमम् ॥ १६०५ ।। विजयोदया-ओमोदरिक घोराप पोरणाबमोदयण तपसा समन्वितः । महराइभसंकिलिमदी भद्रबाहुरसं. क्लिष्टचित्तः । घोराप तिर्गिच्छार घोरया क्षुधा बाधितोऽपि पडिवण्णो उत्तमं ठाणं प्रतिपन्न उत्तमाय ।। मूलारा-ऊमोदरिए अवमोदर्वेण तपोविशेषेण विशिष्टः । तिगिछाए. बुभुक्षया । अर्थ-धोर अवमोदर्य तप करनेवाले भद्रबाहु युनि तीव्र भूखसे पीडित होनेपर मी संकेश परिणाम के वश नहीं हुए और उन्होने रत्नत्रय को प्राप्त कर लिया. liMET Page #1438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाराधना १४२१ कोसंबीललियघडा बूढा इपूरएण जलमज्झे आराधणं पण्णा पावोवादा अमूढमदी || १५४५ ॥ चंपा मासखमणं करितु गंगातडम्मि तहाए | घोरा धम्मघोसो पडिवण्णो उत्तमं ठाणं || १५४६ ॥ मासोपवाससंपनचं पायां सृज्वरार्दितः ॥ धर्म पुनः प्रामः स्वार्थ गंगातीरे ॥। १६०६ ॥ विजयोदय-चंपा नेपानगर्यो। मासखवणं करितु मासोपवासं कृत्वा । गंगातम्मि गंगायास्तटे । तच्छाए घोराय तृष्णया तीयया वाधितोऽपि । धम्मघोसो धर्मघोषः । उत्तमार्थ प्रतिपन्नः । मूलारा--कोसंबी कौशांच्यां नगर्यो । ललिदुपडा ललिताः सुखवर्द्धिता: इंद्रदत्तादयो द्वात्रिंशदिभ्याः श्रावकाः तेषां घटाः समुदायाः । णदिपूरगेण यमुनाप्रवाहेण । पाओबगदा प्रायोपगमनमरणं प्राप्ताः । एवं श्रीविजयो नेच्छति ॥ मूलारा -- मामत्रमणं मासोपवासं । करिंतु कृत्वा ॥ अर्थ -- कौशांबी नगरी में ललित घट नामके सुनिओंका समुदाय नदीके प्रवाहसे बह गया तो भी संक्लेश परिणामके वश वह नहीं हुआ नात्पर्य- सुखसे जिनके दिन व्यतीत होगये थे ऐसे इंद्रदत्तादिक बत्तीस श्रीमंत वैश्यपुत्र थे. उन्होंने दीक्षा लेकर यमुना नदी के तटपर तप किया, एक दिन वे सब यमुनानदी के प्रवाहसे वह गये परंतु रत्नत्रय में स्थिर रहकर उन्होंने प्रायोपगमन मरण प्राप्त कर लिया. चंपानगरी में एक महिनाके उपवास करके गंगानदीके किनारेपर तीव्र प्यास से पीडित होनेपर भी धर्म घोष मुनिराजने असंक्लिष्ट परिणामोंसे उत्तमार्थ प्राप्त कर लिया. सीदेण पुव्ववइरियदेषेण त्रिकुच्चिएण घोरेण ॥ संततो सिरिदत्तो पडिवण्णो उत्तमं अहं ।। १५४७ ॥ आश्वासः ७ १४२१ Page #1439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः पूर्वकारातिदेवेन कृतः शीतोष्णमारुतैः॥ श्रीदत्तः पीयमानोऽपि जग्राहाराधनां सुधीः ॥ १६०७ ॥ विजयोदयान्सीदेण शीतेन । संततो सनप्तः। पुचवारियदेवेण विकुब्धिपण पूर्वजन्मशत्रुणा देवेनोन्पादिनन सिरिवत्तः श्रीदत्तः । उत्तमार्थमुपगतः ।। मूलारा--विउविदेण उत्पादितेन । संतत्सो पीडितः । भिरिदिष्णो श्रीदत्तः ।। अर्थ—पूर्व जन्मका कैरी किसी देवने शीतजल वृष्टि, व शीत हवा उत्पन्न कर श्रीदत्तनामक मुनको घोर दुःख दिया था तो भी इस मुनीश्वरने उत्तमार्थ प्राप्त कर ही लिया. उहं वाद उण्हं सिलादलं आदवं च अदिउण्हं॥ सहिदूण उसहसेणो पडिवण्णो उत्तमं अई ।। १५४८॥ मारुतं गृष्मकं तापं वहितप्तं शिलातलम् ॥ सोडा वृषभसेनोपि स्वार्थ प्रापदनाकुलः ॥ १६.८ ।। विजयोव्या-उण्हं बाद उज्या वात, उण्ई सिलाइल उष्णं शिकातलं । आवयं च भविउण्डं माताएं घायुर्ण सहिदूण प्रसय वृषभसेन उत्समार्थ प्रतिपन्नः ।। मूलारा-सिलादलं शिलातलं । आदवं आत५ । उसभसेणो वृषभसेनः॥ अर्थ-अतिशय उष्य घायु, अनीसे गरम किया दुआ पर्वतका शिलातल और सूर्यसंताप इन तापत्रयसे पीडित होनेपर भी चूपमदत्तने यह सब सह लिया तथा उत्तमार्थ को वश किया. रोहेडयम्मि सत्तीए हओ कोंचेण अग्गिदइदो बि । तं वेयणमधियासिय पडिवण्णो उत्तम अट्ठ ॥ १५४९॥ अग्निराजसुतः शक्त्या विद्धः क्रौंचेन संयतः ।। रोहेडकपुरे सोड्वा देवीमाराधनां श्रितः ॥ १६०९ ॥ ११२२ Page #1440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कागधना १४२३ विजयोदयाथेडयम्मि रोहेडगे नगरे ससीप भो शक्त्या हतः । कचिण कोचनामधेयेन । अग्गिदह दोषि अग्निराजसुतोऽपि । तं वेदणमधियासिय तां वेदनां प्रसहा उत्तमार्थ प्रतिप्रश्नः ॥ मूलारा - रोहेडयम्मि रोहेटकनानि नगरे। सतीए शक्त्या शस्त्रविशेषेण । कौचेण कौंचनाम्ना राखा । अग्गि दइयो अग्निराजनाम्नो राज्ञः पुत्रः कार्तिकेयशः । अधियासिय अध्यास्यं प्रसोत्यर्थः । कोट नगरमे फीव राजाने अग्निराजांका पुत्र कार्तिकेय मुनिको शक्ति नामक शस्त्रसे मारा था तच मुनिराजने उस दुःखको सह कर रत्नत्रयकी प्राप्ति की काईदि अभयघोसो वि चंडवेगेण छिण्णसगो ॥ तं वयणमधियामिय पडिवो उत्तमं अहं ॥ १५५० ॥ कांकणां चंडवेगेन छिन्ननिःशेषविग्रहः ॥ farararasisप पीडामाराधनां गतः ॥ १६१० ॥ विजयोदया–काइदियोसोम कांयां नगर्यो अभयघोषोऽपि खंडवगण खिष्णसन्बंनो चंडवेगेन छिन्नसर्वागः ॥ मूलारा कार्यदि कार्कां नगयी। अभयघोसो अभयघोषः || चंडवेगेण चंड वेगनाम्ना राजपुत्रेण || अर्थ - काकंदी नामक नगर में चंडवेग नामक दुष्ट राजपुत्रने अभयघोष मुनि के सर्व अंगों को छेद डाला था तो भी वह तीव्र वेदना उन्होंने सह कर उत्तमार्थकी प्राप्ति कर ली. सेहिं य मसएहिं य खज्जतो वेदणं परं घोरं ॥ विज्जुच्चरोऽधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥ १५५१ ॥ ave मशकैः खाद्यमानो महामनाः ॥ विद्युच्चोरमुनिःस्वार्थ सोढदुःसहवेदनः ।। १६११ विजयोदया - मेहिं य दशमेशकै भक्ष्यमाणः विद्युच्चरचोरस्तां वेदनां श्रवगणय्य आराधनां प्रपन्नः ॥ मूलारा - विज्जुषरो विद्युश्वरः ॥ : आश्वास ९४२३ Page #1441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलाराधना १४२४ अर्थ — दंश और मशकों मक्षण किया गया विद्युच्चरनामक मुनि तीव्र वेदनाओंको सहकर रत्नत्रयारा धनाको प्राप्त हुआ. हणिपुरगुरुदत्तो सम्मलिथाली व दोणिमंतम्मि || उज्झतो अधियासिय पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥ १५५२ ॥ वास्तव्यो हास्तिने धीरो द्रोणीमतिमहीधरे ॥ गुरुदत्तो यतिः स्वार्थ जग्राहानलवेष्टितः || १६१२ ॥ विजयोदयादरियापुर गुरुदत्तो हास्तिनापुरवास्तभ्यो गुरुदत्तः । संबलियालीय हरितसंकोश निरामा [?] पूर्णभाजनं सपत्रविहितमिदं अधेमुख संस्थाप्य उपरिभाजनस्य अग्निप्रक्षेपः संयलीत्युच्यते ॥ तद्वच्छिरसि निशितानिः । दोणितम द्रोणीमत्पर्वते दह्यमानः प्रपन्नः उत्तमार्थ ॥ मूलारा--इणिपुरगुरुदतो हास्तिनं पुरं यस्यासौ हास्तिनपुरी हास्तिनागपुरस्वामी सचासौ गुरुदत्त स मुनिः सन् । संबलिथालीए शिवपूरितममच्छादितमधोमुखभाजनं सर्वत्राप्रिसंवेष्टितं संलिस्थाळीत्युच्यते ॥ दोतम्सि द्रोणिमति पर्वते । अधियासिय नहाइवेदनां सहित्वा ॥ अर्थ- हस्तिना नगरके गुरुदच नामक मुनि द्रोणिमति पर्वतपर तप करते थे. कोई दुष्टने संभली थाली के समान उनके मस्तकपर अग्नि रखकर जलाया था. उसकी घोर वेदना सहकर वे रत्नत्रयको प्राप्त होगये. मी के भाजनमें वालकी फली भरकर चारों तरफ आंकके पत्ते भरना चाहिये अनंतर उस भाजनका मुंह नीचे करके उसके चारो तरफ आग्न लगा देना चाहिये इसको ही संभलीबाली कहते हैं. गाढप्पहारविद्धो पूइंगलियाहिं चालणीव कदो || त विय चिलादपुत्त पडिवण्णो उत्तमं अहं ॥ १५५३ ॥ गाढमहाविद्धोऽपि कीटिकाभिरनाकुलः ॥ स्वार्थ चिलान पुत्रोऽगाच्चालनीकृतविग्रहः ॥ १६१३ ॥ विजयोदया - गाढप्पहारविद्धो नितरामायुधैर्विद्धः । पूरंगलियाहिं कृष्णैः स्थूलोतमगैः पिपीलिकाभिः । चाणीव कशे चानीय कृतश्चिलातपुत्रस्तथाद्युत्तमार्थमुपगतः ॥ ---- वस ७ १४२४ Page #1442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः मूलारा-गाढापहारविद्रो नितरामायुधैर्विद्धः । पूइंगिलियाईहिं स्थूलमस्तककृष्णकीटिकाभिः । चिलादपुत्तो चिला तपुत्रो मुनिः॥ अर्थ-तीच शसुमहार होनेसे जो जखमी दुये थे और जिनका मस्तक बदा है ऐसी काली काली चींटीओने खाकर जिनका शरीर चालनीके समान छिद्रमय किया था एस चिलातावनामक मुनि उत्समार्थ को प्राप्त हो गये. दंडो जउणावंकण लिला कंडेहिं परिगो नि तं बयणमधियासिय. पडिवण्णो उत्तम अहं॥ १५ ॥ यमुनावक्रनिक्षिप्तःशरपूरितविग्रहः॥ अध्यास्य वनांचंडः स्वार्थ शिश्राय धीरधीः ॥ १६१४ ॥ विजयोदयावंडो दंडनामको यतिः । अमुणायकेण यमुनावकसंक्षितन । तिक्सकडेहि तीक्ष्णः शरैः पूरितागोऽपि रस्मत्रय समाराधयति स्म। मूलारा--धण्यो धन्यो नाम मुनिः । वंडो इत्यन्ये । जमुणावंकेण यमुनावक्रनाम्ना राझा ॥ अर्थ-दंड नामक मुनिराजके ऊपर यमुनायक नामक दृष्टमनुष्यने बाणोंकी वृष्टि करके उनका सर्व शरीर प्रणयुक्त कर दिया तो भी उस मुनिराजन रत्नत्रयकी आराधना की ही. अभिणंदणादिया पंचसया णग्ररम्मि कुंभकारकडे । आराधणं पवण्याा पीलिज्जता वि यंतेण ॥ १५५५ ।। यंत्रण पीज्यमानांगाः प्राप्ताः पंचशतपमाः ॥ कुंभकारकटे स्वार्थमभिनंदनपूर्वगाः ॥ १६१५॥ विजयोन्या-अभिणदणादिगा अभिनंदनप्रभृतयः पंचशतसंख्याः. कुंभकारकटे नगरे यण पीज्यमाना अन्याराधनं प्राप्ताः | मूलारा-कुंभकारकडे कुंभकारकटसंशे ।। . १४२५ Page #1443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " पूलाराधना आमासः अर्थ --- अभिनंदनादिक पांचसो मुनिओको कुंभकारकट नामक नगरमें यंत्रों में पेलकर मारा था तो भी उन्होंने आराधनाका त्याग किया ही नहीं. गोठे पाओवगदो सुबंधुणा गोच्चरे पलिवदम्मि । डह्मतो चाणको पडियण्णो उत्तम अठं ।। १५५६ ।। वसदीए पलिविदाए रिठ्ठामध्चेण उसहसेणो वि ॥ . अराधणं पायो सह पनि गुणाल । २५.७ ।। . कुलालेऽरिष्टसंज्ञन दग्धायां बसतो गणी ।। साधं वृषभसेनोऽगादत्तमा तपोधनैः ॥ १६१६ ॥ विजयोदयान्ससदीप पक्लिविदाप वसती दम्मायो । रिट्टामात्यनामधेयन वृपमसेनः सह मुनिपरिषदा प्रतिपन्न आराधनाम् ॥ मूलारा-गोटे गोकुले । पाओबगदी प्रायोगमनं श्रितः । सुपंधुगा सुबंधुनाम्ना मंत्रिणा । गोच्चरे करीपे । पलिविदम्मि प्रदीपिते । एतां श्री विजयो नेच्छति ॥ मूलारा-रिट्ठामशेण रिनाम्ना मंत्रिणा । परिसाए परिपदा । स्वशिष्यसमाजेनेत्यर्थः । कुणालम्मि कुणालपुरे ॥ अर्थ - गोठेमें चाणक्य नामक मुनिने प्रायोपवेशन धारण किया था. सुबंधुनामक राजमंत्री उसका बैरी था. उसने गोमय-कंडोंकी राशिमें चाणक्य मुनिको आग्नि लगाकर जलाया. तो भी उन्होंने रत्नत्रयाराधनाका त्याग नहीं किया. और उसम अर्थ को वे प्राप्त हुए. अर्थ- कुणालनगरकी एक वसतिकामें आग लंगाकर रिष्ट नामक राजमंत्रीने अनेक शिष्योंके साथ वृषमसेन नामक मुनिराजको जलाया तो भी संपूर्ण शिष्योंके साथ मुनिराजने आराधना को धारण किया. १४२६ जदिदा एवं एदे अणगारा तिव्ववेदणट्टा वि ।। एयागी पडियम्मा पडिवण्णा उत्तम अठं ॥ १५५८ ॥ Page #1444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः भूलाराधना अमी तपोधनाः माता स्वार्धमेकाकिनो यदि ॥ अध्यास्प वेबमास्तमाः निःप्रतीकारविग्रहाः । १६१७॥ विजयोदया-शदिवा पर्व यदि तावदेवमेते यतयस्तीबवेवनापीडिता अपि एकाकिनोऽप्रतीकारा उत्तमार्थ प्रतिपन्नाः ॥ मूलाय-एगागी एकाफिनोऽसहायाः ॥ अर्थ- यदि ये उपयुक्त दृष्टोतरूप निओने तीन वेदनाओंस पीडित होकर भी अकेले ही ती वेदनाका कुछभी इलाज नहीं किया. और उत्तमार्थ की अर्थात रत्ननगराधना की प्रापि की. किं पुण अणयारसहायगेण कीरंतयम्मि पडिकम्मे ॥ संघे ओलागते आराधेदुं ण सकेज ॥ १५५९ ॥ चतुर्यिधेन संधन विनीसेन निषितः ।। तदारायसे न त्वं देवीमाराधनां कथम् ॥ १६१८ ।। विजयोदया–कि पूण मणगार सहायगेण किं पुनर्ग शक्यते आराधयितुं मनगारसहायन भयता क्रियमाणे प्रति कारे संघे चोपालमां कुर्चति समि ॥ मूलारा-ओलयांतो पपासना कुर्वति सति । ण संकेज न शक्येत त्वया ॥ अर्थ-हे क्षपक तुम तो अनक मनिओंकी सहायतासे युक्त हो और तुलारी तीव्र वेदनाका इलाजभी हो रहा है. संघ अनेक मुनि भी तुझारी शुश्रूषा करते हैं. अतः तुम आराधना देवीकी भक्ति क्यों नहीं करते हो? जिणवयणममिदभूदं महुरं कण्णाहुदि सूर्णतेण ॥ सका हु संघमज्जे साहे, उत्तम अह ॥ १५६० ॥ कर्णाजलिपुटः पीत्वा जिनेंद्रय चनामृतम् ॥ संघमध्य स्थितः शक्तः स्वार्थ साधयितुं मुम्बम् ।। १६१९ ।। Page #1445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मलाराधना आश्वास बिजयोदया-जिणबयणं जिनानां पचनं, 1 अमृतभूतं, मधुरं कर्णाहुति शृण्धता स्थया संघमध्ये शक्यमाराधपिर्नु मूलारा-कण्णाहुदि कर्णयोराहुतिरिव । तयोरग्निरिव पाटवकारित्वात् । सका शक्या त्वया ॥ अर्थ-जिनेश्वरका वचन. अमृतके समान मीठा है, फर्णको प्रिय है इसका तुमको उपदेश प्रतिदिन | मिलता है अतः इस संघमें तुमको रत्नत्रयाराधना करना अशक्य नहीं है. १४२८ णिरयतिरिक्खगदीसु य माणुसदेवत्तणे य संतेण ॥ लं एवं इह दलावं तं चितेति नजिज्ञो१५६१ ॥ श्वनतिर्यग्नरस्वर्गसुखदुःखानि सर्वथा । त्वं चिंतय महाबुद्धं भवलम्धान्यनेकशः ।। १६२० ॥ विजयोदया-णिरयतिरिखतपनीस. य नरकतिर्यग्मनिपुत्र । माणुसदेव तणे व संतेण मानुषत्व देवन्धयोश्च सता यत्मा इद सुरणानंतर दुःख तं अर्चितेहि तश्चिसस्तदनुचितय ॥ एवं प्राक्तनमहासत्वमुमुक्षुवर्गदुःसहपरीप होपसर्गसहनप्रदर्शनप्रर्वघेनाराधकस्य धृतिबलभावनामहोभ्य सांप्ररामनादिकालानुभूतचातुर्गतिकदुःखसुखानुचितनयलेन तत्सहनं प्रथेनोपदिशति मूलारा--संतेण सता भवता । तच्चिनो तट्टतमनाः ।। अर्थ नरकगति. तिथंचगति, मनुष्यगति और देवगतिओंमें हे क्षपक ! तुमने जो दुःख सहन किया है उसका भी तो तुम कुछ विचार करो. . १४२८ णिरएसु वेदणाओ अणोक्माओ असादबहुलाओ । कायणिमित्तं पत्तो अणतखुत्तो बहुविधावो ॥ १.६२ ॥ नरके वेवनावित्रा दुःखहासातवापिनीः । बेहासक्ततया माप्ताभिरं यास्ता विचिसय ॥ १६२१ ।। Page #1446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागवना आवास विजयोदया-णिरपसु. नरकेषु । पदेणाओ वेदना भगोषमायो अनुपमाः। हारश्या वेदनाया जगत्यन्यस्था अभावात् । असादाबुलाओ, ससबोधकर्मबहुलाः । कारणबलस्खेम कार्यानुपरतिराग्याता । काणिमिश पत्तो शरीरनिमिसासंयमार्जितकर्मेनिमिसत्यान्मूलकारणं निर्दिष्ट कायनिमित्तमिति । अणंतसो अर्थतवारं । सं भवान् बहुविधामो १५२९ बहुधाः॥ तो नरकदुःस्वानुपिंतने वाथानामेकानविंशत्या आपके व्यापारयति मूलारा-अणोत्रमाओ अनुपमास्तादृश्याः पीडायात्रिषु लोकेअपि अन्यस्या अभावाम् । असादयतुल ओ असदेचकर्मोदयमर्थन निरंतर प्रवर्तमांना इत्यर्थः । प्राणिमित्तं शरीररक्षानिमित्तासंयमार्जितकर्मनिमित्तत्वात्तासी मूलकारणसापनार्थ इदं । पश्तो प्रातस्त्वं जीवं इति वा । बहुविधाओ उष्णशीतनरकादिकारणनानास्वादनेकप्रकाराः ॥ अर्थ--नरकमें तुमने ऐसी तीव्रवेदनाओंका अनुभव लिया है कि जगतमें अन्यत्र कहीं भी ऐसी वेदनायें नहीं है. : असाता बेदनीय कर्मका बहुत काल तक तीन उदय होनेसे नरकमें सतत दुःख भोगना पड़ता है. हे क्षपका शरीरके निमित अर्थात् शरीरके मोहमें पड़कर तू असंयमी हुआ था, इससे तेरे को दीर्घकालीन असाताकर्मका बंध हुआ था. अनंत भवों में इस कर्मके उदयसे तूंन दुःख भोगा है. उष्णनरकेषु उष्णमहत्तासूचनाधोंत्तरा गाथा जदि कोइ मेरुमचं लोहण्डं पक्खविग्ज णिरयम्मि ॥ उण्हे भमिमपत्तो णिमिसेण विलेज्ज सो तत्थ ॥ १५६१ ॥ क्षिप्तः श्वभ्रावनी क्षिप्रं मेकमात्रोऽपि सर्वथा ॥ उष्णामुर्चीमनासाद्य लोहपिंडो चिलीयसे ।। १६२२ ।। विजयोदया–णिरयम्मि उगह लोहगढ़ मेरुमत्तं जदि कोह पक्खिवेज्ज उष्णनरके लोपिंड मेरुसमानं यदि कश्चियो दानघो षा प्रक्षिपेत् । सो तत्थ भूमिमपत्तो उघ विलेज्ज लोहपिंडो भूमिमप्राप्त एष सुघतामुपयाति । उहण उन्णेन नरकबिलानां ॥ मारकाणामुमदुःखनिमित्त मुष्णत्त्वमहत्वमुपपरिकल्पनया ल्यापयति मूलारा-कोई कश्चिदेवो दानवो वा । लोडेड लोइपिंड 1 उण्हे उषणे प्रकृत्या । आर्षत्वादुष्ण मिति बा। भूमिमपतो भूतलममाप्यवेत्यर्थः । णिमिसेण निमेषमात्रकालेन । विलेज द्रवीभवत् ।। १४२९ Page #1447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाराधना १४३० अर्थ- उष्ण नरक में यदि देव अथवा गक्षम मेरुमाण लोहका गोला फेक देगा तो वह चिलकी तलभूमीको प्राप्त होनेके पूर्वमेी विलकी उष्णतासे पिघलकर पानी होता है. तह व य तद्देहो पज्जलिदो सीयणिरयपक्खित्तो ॥ सीदे भूमिपत्तो णिमिसेण सडिज्ज लोहुण्डं ॥ १५६४ ॥ क्षिप्तस्तत्राग्मिना तसो मेरुमात्रः सहस्रवा ॥ शीतामवनिमप्राप्य लोहापेंडो विशीर्यते ॥ १६२३ ॥ विजयोदय तह चैव तथैव । तदेदो मेरुमात्रदेदः लोहुंडो लोडपिंडः । पञ्चलिदो प्रज्वलितः । सीदणिरयम्मि After | पातो पक्षिप्तो भूमिमप्राप्त एवं सीदेण सडिज शीतेन विशीर्यते ॥ तच्छीततीव्रतां नीति मूलारा -- तटहोच्चि मेहमान एव । पज्जलिदो ज्वलनसंतप्तः । सीदो शीतं । सज्ज खंडखंडी भवेत् ॥ अर्थ-यदि वही लोहका गोला उष्णतासे पिघला हुआ शीत नरक बिलमें फेक दिया जायगा तो वहां की शीत भूमीका स्पर्श होनेके पूर्व में ही थंडीसे उसके टुकडे टुकडे हो जायेंगे. शीतोष्णजनितवेदनातिशयमुद्दिश्य शारीग्वेदन (मात्र ऐ--- होदि य णरये तिव्वा सभावदो चेव वेदणा देहे ॥ चुणीकदस्स वा मुच्छिदस्स खारेण सित्तस्स ॥ १५६५ ॥ ताशी वेदना व घोरदुःखे निसर्गजा ॥ याशी चूर्णितस्यास्ति क्षिप्तक्षारस्य चेतनः ।। १६२४ ।। विजयोदया - होदिय पश्ये तिब्या भवति च नरके तीये वेदनाः । देवे शरीरे । सभाषदो चैव स्वभावत एव । गुणीकस्सेष चूर्णीकृतस्यैष खारेण सित्तस्स क्षारेण सिकस्य । ममुच्छ्विस्स अमूर्च्छितस्य । यादृशी वेदना तादृश्येव शरीरे वेदनेति पावत् ॥ आश्वास १४३० Page #1448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरकेषु परमोष्णशीतप्रभवां तीव्र वेदनां निवेद्य नैसर्गिकी शरीरपीडामुपमानबलेन व्यनक्तिमूलारा-वृष्णीकदस्स मुद्रादिना क्षुण्णस्य मानुषस्य यथा । अमुच्छिदस्स मृच्छीमप्राप्तस्य चेतयमानस्येत्यर्थः । आधासः मूलाराधना SHRSara तादशी वेदना श्वन घोरे दुःखे निसर्गजा ।। यादशी चूर्णितस्यास्ति क्षितक्षारस्य चेततः ।। शीतोष्ण वेदनाका वर्णन हुआ. अब शारीरिक बेदनाका वर्णन करते हैं अर्थ-मुद्रादिकोसे जिसको चूर्ण किया है, जिसके ऊपर क्षार जलका सिंचन किया है ऐसे अभूच्छित मनुष्य के शरीरमें जैसी वेदना होती है वैसी बेदना नरको जीवको म्यमावतः ही होती है. णिरयकडयम्मि पत्तो जे दुक्खं लोहकंटएहिं तुमं॥ णेरइएहि य तत्तो पडिओ जं पाविओ दुक्खें ॥ १५६६ ॥ यच्छ्वभावसथे भीमे प्राप्नोहःखमनेकधा ।। निशितः कंटकैलो दस्तुद्यमानः समंततः ॥ १६२५ ।। विजयोदया-णिरयकार्याम्म नरकपिल समूहे नरकस्कंधाधारे पति केचि वदन्ति । अन्ये तु निरयगत इति । पसोज दुक्तं यदुःख प्राप्तः । लोहफंटाहि निशिनतरलोरकंटकैः तुनमानस्थ। इतो नरकेषु विचित्राणि तीबदुःग्यांनराणि बहुशः प्राप्तपूर्वाणि परीषहोपसर्गदुःखतीप्रतापविस्मारणाय संन्यासिन बोधयति-- मूलारा-णिरयकड्याम्म रत्नप्रभादिभूमिबिलसमूहे अन्ये कटकशब्देन स्कंधाबारमाहुरपरे गर्नम् । दुक्ख तं अणुचितेहि हिस्सेसमिति गत्वा संबंध: कार्यः । लोकंटयेहिं निशिततरलोहकदकैस्तुद्यमानत्वं । तत्तो तस्माल्लोहकटकनिचितभूमिभागानिष्क्रान्स: सन । एषा केघांचिदाचार्याणा मतेन व्याख्या ॥ उक्त च नरककटे व मालो यदुःख लोहकट कैस्तीक्ष्णैः ॥ यनारकैस्ततोऽपि च निष्क्रान्तः प्रापितो घोरम् ॥ Page #1449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १४३२ 35. अन्येषां स्वयं पाठये मन्यते घोराय संतो पडिशे विक्खेहिं तुहंतो " पूर्वार्द्ध तु समानम् तदुआयसैः कंटकैः प्राप्तो यदुखं नरकावनी ॥ नारकस्तुद्यमानः सन्पतितो निशितैर्भवान् ।। faतिशय तीक्ष्ण लोहके कंटकोंसे जो दुःख तुमने प्राप्त किया है उसका इस समय तुम चिंतन करो. अर्थात् वह मुक्त दुःखसे अनंत गुण बडा था ऐसा समझकर सांप्रतका दुःख तुम शांति भावसे सहन करो. . .जे. कूडसामलीए दुक्खं पत्तोसि जं च सुलम्मि ॥ : असिपत्तवणम्मिय जं जं च कथं गिद्धकंकेहिं ॥ १५६७ ॥ .. यच्छूले कूटशाल्मल्यामसिपत्रवने गतः ॥ सर्वतो भक्ष्यमाणोऽयं कंककाकादिपक्षिभिः ।। १६६६ ।। विजयोदय -- कूटसामली से प्राप्तोऽसि विक्रियाजनितनिशातशाल्मलीभिः । ऊर्ध्वमुखैरधोमुखेष तीक्ष्णटकैराकीर्णकूटशाल्मलीरारोहन तारकमयात् । जं च सूलम्मिं यंत्र दुखमवाप्तोसि शूलाग्रमोतः । असिपत्तवणमि असय पत्र पत्राणि यस्मिन्त्रा तदसित्रचनं । उष्णार्दितानां कुर्वतां नारकाणां असिपत्रवनेऽनेकासुरविक्रियाविनि मिविचित्रायुधपत्राणि वनानि। जे च कयं यच्च कृतं । गिद्धको गृद्धैः कं वज्रमयैस्तुंः तरललोचनैस्तुदेति । तीक्ष्णीकृत पक्षै: महति नित्यं । नरमेधरणांकुशैयन्ति ॥ मला - कूडसाली धोमुखकंटकाकी क्रियाकृते शाल्मली से नारकै धृष्यमाणःसन् । तद्भयाद्वामारोहन् । शूलम्मि शूलामेध्येते प्रोतःसन् । असिपत्तवर्णाभि उष्णानां पुत्कर्षतां नारकाणां कृते सेडिडासुरैर्निर्मिते खङ्गसमानपत्रद्रुमसमुद्दे । च शब्दाविश्रायुधपत्रधनेषु । गिद्ध केहि गृनैः ककैश्च । ते हि वज्रमयतुं प्राणि] तुरंति ॥ तीक्ष्णीकृत कचप प्रहरति, नितांत खरपरुषञ्चरणांश्च ताडयति ॥ अर्थ - नरक में, विक्रिया के सामने कूट शाल्मली नामक वृक्ष असुर देव बनाते हैं. इस वृक्षको नविसे लेकर चोटी तक कांटे रहते हैं. कोई काटोंका मुह ऊपर रहता है और कितनोंका मुह नीचे होता है. नारककि मयसे दीन नारकी उस वृक्षपर चढ़ते हैं तब कोई नारकी जीव उनको ऊपर खीचते हैं और कोई नीचे खीधते हैं. ऐसे आश्वास ७ १४३२ Page #1450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मुलाराधना कार्यसे उन दीन नारकिआका देह विदीर्ण होकर उनको घोर वेदना होती है. शूलपर चहानेसे जो दुःख होता है. उसका तूं स्मरण कर. नरकमें असरदेव विक्रियासे नाना प्रकारके इलाके समान जिनके पत्र हैं ऐसे बन उत्तम करते हैं. उष्णतासे पादित होकर रोसो हुए मारकी और उसम विधामफालये जाते हैं परंतु वे शस्त्रमय पत्र पडकर उनके अवयय टते हैं जिससे उनको घोर वेदना होती है. गीधपधी, और बक पक्षीभी अपने बजके समान संहसे और तीक्ष्ण चरण रूपी अंकुशोंसे नारकिओंको दुख उत्पन्न करते हैं. १४३३ सामसवलेहिं दोसं वइतरणीए य पाविओ ज मि । पत्तो कयंबवालयमइगम्ममसायमदितिन्वं ।। १५६८ असुरवैतरण्यां च पापितो निघृणाशयः॥ कंदववालुकापुंजं गाढमाना यदा सृतः (?) १६२७ विजयोदया-सामसथलेहि श्यामशबलसंशितैग्मुरैः । दोस दोष दंडानां । वइतरणीए य पावित्रो जं सि । वैतरण्या नद्यां प्रापितो पदसि | तृभिभूतानां जलं मृगयतां दिनु रिन्यत्तहीनलोचनानां शुष्कतालुगलानां चैतरणी नदीमुपदर्शयति । रंगत्तरंगाकुलां, अमाधनीलनीरमरितन्हा, विषयसेवेव दुरन्ततृष्णानुबंधनोचता, संसृतिरिव दुरुत्तरां, आशेष विशालां, कर्मपुद्रलस्कंधसंहतिरिघ विचित्रविपरिघायिनी, तदर्शनादरादयोपजातोत्कंठा लम्धजीवितास इति मन्यामाना इततरगतयस्तामवगाईते । तवयमावनानंतरमेव कृतांजलयः पियंति ताम्रपसन्निभं सर्दभः । परुषपचनमिष हृदयदाइविधायि, हा विपलब्धाः स्मेति करुणं रसतां शिपति परुषतमसमीरणप्रेरणोत्थिततरंगासिधारा निकृन्तम्ति करचरणानि च । तेनातिक्षारणोम्योन, कालकूटविषायमानेन जलेन, अणांतरप्रवेशिना वखमाना सटित हितकरचरणास्तटमेष रटम्तः समारोहस्ति । तेषां च प्रीवास्तु श्यामशधला महतीः शीला वमर्शवलाप्रोता बघ्नति दुर्विमोचा। बवाच तस्यामेव पातयंति । पातितासत्र छतोन्मजननिमनमानामुत्समागानि असुरविक्रियानिर्मितमहामकरकरमहारेण जर्जरीभूय निपतति । नभ तदभारुढाम्गच्छतस्तांस्तम्भूय निश्चल बति। तानपरिस्पंदमवस्थितान्लक्षीकृत्य विध्यंतीति निशाराशरशतसहस्रः। पत्तो कलंयवालुगमदिगम्म प्राप्य कदमप्रसूनाकारा चालुकाचितदुःप्रवेशाः, धनबस्वालंकृतदिरांगारकणप्रफरोपमनाः परिप्राध्य तत्र बलात्संवार्यमाणः यत्प्राप्तवानसि दुःख दकिंवतय॥ मूलारा-सामसबलेईि श्यामशयलसंज्ञकासुरकुमारः । वोसं वंडर्न पादरणीए य वैतरण्यां च । ज सि यदुःखमसि त्वं प्रापितः । ते हि नारकाणां तुडभिभूतानां जलमन्वेषमाणानां। दिनु निक्षितदीनचक्षुषा । शुष्कतालुमुलानां । नरकनहीं १८० RANSISTARAMITTES Page #1451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १४३४ REASEAN । रंगत्तरंगमालाकुलगंभीरनीलनीरपूरितङ्गदा । विषयसुखसेवामिष दुरंततपानुबंधनोद्यतां । संमृतिमिव दुरुत्तरामाशामिवाति विशालो । कर्मपुद्गल संहतिमिव विचित्रविपत्करी दर्शयति । तद्दर्शनाच ते दूरादेव समुद्भूतोत्कंठा लब्धजीविता:संजाता:स्म इति मन्यमानाः । द्रुततरगतयस्तामवगाहन्ते । तदनंतरमेव कृतांजलयः पयः पिबन्ति तापताम्रोयमिवात्यंतसर्वांगीणदाहविधायि । ततश्च तेषां हा विप्रलब्धाःस्म इति करुण रसता शिरांसि करचरणं च परुषतमसमीरणप्रेरणोच्छ्रिततरंगातिनिशितासिधारा निकृन्तन्ति ।। सेन च भूशोष्णक्षारयारिणा कालकूट विषदोपहारिणा, प्रणांतरप्रवेशिना, दसमाना सदिति पुनर्घटितशिरःकरचरणास्तटमघरदत्तस्ते चटंति । ततश्च तेऽसुरकुमारास्तान्पशंखलाबद्भदुर्विमोचमहाशिलाकूटकंघरस्तस्यामेव पातयन्ति । सम्रपतनिमसानोमजलाना दिस असुरममितमहामकरकरप्रहारेण जर्जरीभूय निपतन्ति । सतश्च ते तटमारूढाःपुनःसंयोजित शिरसां तेषां ताः शिलाः पुननिश्चलं बध्नति । करदालुगं कदंचसुकुमारपालिका वज्रदलालंकृता प्रदीपयदिरोगारनकाशा । अदिगम्म प्राप्य । तत्रागात्यासुरैःसंचार्यमागो यच दुःखं प्राप्तस्रात्सासि (?) प्रतिमनस्यवधारयेति अपकशिश्ना पादनं ।। . अर्थ--श्यामशबल नामके असुर देवों के द्वारा बतरणी नदीम नारकिओंको जो मुःख दिया जाता है उसका क्षपक तू स्मरण कर. जिनको तीब प्यास लगी है, जो पानीको ढूंढ रहे हैं. चारों दिशाओम दीन नेत्र लगाकर जो देख रहे हैं, जिनकी तालु प्याससे सुख गई है, ऐम नारकिओंको वे असुरदेव वैतरणी नदी दिखाते हैं. यह नदी अनेक तरंगोंसे उछलती हैं, इसमें अगाध पानीसे अनेकसरोवर भरे हुए रहने है. विषयका सेवन जैसे तृष्णाको बढाता है वैसी यह दु:खदायक नदी प्यास को बढ़ानी हैं, संसारसे निकलना जैसे कठिन है वैसे वैतरणी नदी में प्रवेश करनेसे उसमसे बाहर निकलना नितांत कठिन है. यह नदी आशाके समान विशाल है. कर्म के मुदल जैसी अनेक तरहकी आपत्तिओंको उत्पन्न करते हैं वैसी यह नदी भी नारकिआको अनेक प्रकारके दुःख देती है. इस नदी का दर्शन होते ही नारकिआको इसमें प्रवेश करनेकी उत्कंठा उत्पन्न होती है. अब हमारे सब दुःख नष्ट होंगे और हम सुखसे जीयेंग ऐसा समझकर वे उसमें जलदी प्रवेश करते हैं, उसमें प्रवेश करते ही वे अपनी अंजलिओस तांचके यके समान लाल रंगका पानी पीना शुरू करते हैं. परंतु जैसे कठोर भाषण हृदय को संवत करता है वैसा बह जल मनको अतिशय दुःख उत्पन्न करता है. तब हाय हाय हम बिलकुल फस गये हैं ऐसा करुण बचन बोलते हैं. अतिशय कठोर बापूसे उछले हुए जलतरंगरूप तरमारियोंसे a १४३१ TANTRadhaarATA Page #1452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना नारकियोंके मस्तक, हाथ, पाय छूट जाते हैं. अतिशय क्षार और उष्ण जल कालकूट विषके समान जच व्रणोंमें प्रवेश करता है तब उनको अत्यंत दाहदुःख होने लगता है. जब उनके हाथ और पैर जुड जाते हैं तब वे नदीके तटपर चढते हैं उस समय श्यामशबल नामके असुर बजकी शखलासे बंधे हए बडे २ पत्थर उनके गलेमें बांधकर पुनः पैंतरणाम उनको ढकेल देते हैं. पड़ने पर वे उस नदीमें डूबकर पुनः उपर आते हैं और पुनः डुब जाते हैं. असुरोंक द्वारा उत्पम किये मगर नामक प्राणीओंके हाथका आघात होने से उनका मस्तक पृट जाता है और वे पुनः नमें न जाते हैं.. पुनः जब ये तटपर आते हैं तब उनको असुरदेव झाडको निश्चल बांधते हैं और तीक्ष्ण लक्षावधि बागासे विद्ध करते हैं. मदनंतर वे नारकी जिसमें वज्रके टुकडे मिल हुये हैं, और जो खदिर की अग्नी के समान लालरंगकी हैं ऐसी अग्नितप्त वालुकामें उन नारकिओंको बलात्कारसे इधर उधर घुमाते हैं. ऐसे समय जो दुःख उनको होता है हे क्षपका उसका तुम विचार करो. जणीलमंडवे तत्तलोहपडिमाउले तुमे पत्तं ॥ जं पाइओसि स्वारं कडुयं तत्तं कलयलं च ॥ १५६९ ॥ तसायाप्रतिमााणे यत्प्राप्तो लोहमंडपे । आपसं पाय्यमानोऽपि प्रतप्तं कललं कटु ॥ १६२८ ।। विजयोदया-जं पतं तं चिंतहि यत्प्राप्तं दुःख तश्चितय । पीलमडवे फासलोहटिते मंडपे । नसलोपडि माउले तप्तलोहमतिमाकुले। बलात्कारसपायमानस्तमलोप्रतिमायुक्त्यालिगितो यद्दाख प्राप्तवानसि तन्मनसि निधेहि। जं पारदोऽसि खारं यत्पायितोऽसि क्षारं । कडगं कटुकं । 'तत्तं तप्तं ॥ मूलारा-जं गीलयंडपे काललोय दित्तमंजपे । तत्तलोहपडिमा कुले अमिलोह वर्णतानले गययुवातिसंपाते । तुम त्वया । पतं प्राप्त । बलात्कारसंपाद्यमानतप्तलोहप्रतिमायुवत्यालिंगनादिदुःखें । पजियो सि पायितोऽसि । कलयर्स ताम्रशीदाकतिलसर्जरसगुग्गुल सिक्यकलवणजतुवालेपाः काययित्वा मिलिताः कलकल इत्युच्यते ॥ १४३ Page #1453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागपना आश्वासः अर्थ--काले लोहसे बनाये मंडप में बहुतसी तपाये लोहकी प्रतिमायें रहती हैं. तुमको उनसे बलात्कारसे आलिंगन करवाते हैं। तब जो दुःख तुमको उत्पन्न होता था उसको तुम ध्यानमें लाओ तथा धार, अग्नितत और कडुआ रस तुमको पिलाते थे उसका भी तुम स्मरण करो. जं खाविओसि अवसो लोहंगारे य पाजलते तं ।। कंडुसु जंशिरको जसिवलीए सलिओ सि । ५५७७ ॥ दुःस्पश्यं खाद्यमानो यल्लोहभंगारसंचयम् ॥ पच्यमानः कंदकासु मंडका इव रंधितः ।। १६२५ ॥ विजयोदया-जं खाधियोसि यत्स्वादितोऽसि अयशोऽवशः । बलाधवविद्यारिताननः | लोहगारे य पज्जलंते तं लोहांगाराम्प्रज्वलतः त्वं । कंडसुज सि रहो कंदुकासु यम्मकाघ पकः ॥ मूलारा-खाविदो खादितः । अबसो बालाचत्रविदारितमुखतः । लोइंगारे लोहमयांगाराम् । तं वंदसु मंडक पचनासु स्वेदनिकासु । रखो मंडक इव पकः । कयल्लीए कवल्या फटाहिकायामित्यर्थः॥ अर्थ-उस नरक हे क्षपक तुमको बलात्कारसे यंत्र के द्वारा मुख फाटकर लोडेके जलते अंगार खिलाये थे. और तुमको मांडेके समान कढाईमें तलाया था. उसका तुम विचार करो. कुट्टाकुट्टि चुग्णाचुर्णिण मुग्गरमुसुंदिहत्थेहि ॥ जं वि सखंडो खंडिं कओ तुम जणसमूहेण ॥ १५७१ ।। चर्णितः कुहिताश्छिन्नो यन्मुद्गरमुसडिभिः । बहुशः खंडितो लोकैर्यच्छभ्रस्थौरतस्ततः ॥ १६३० ॥ ___विजयोदया-कुटाकुट्टि बड्डशो यत्कृतिश्चूर्णितः मुहरमुसंडिहस्तः, यर जनसमूहेन भवान् असकृत्वरितस्तदंतःकरणे कुरु॥ अनुवृत्तिक्रिया भाषा सन्नतिः सुनाशीलता॥ Page #1454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना १४३७ या कृपा दमो दानं प्रसादो मार्दवं क्षमा ॥ १ ॥ इत्येवमाद्याः सुगुणा प्रशस्ता ये शरीरिणां ॥ तेषु ते दुर्लभा नित्यं कांतारेष्विव मानुषाः ॥ २ ॥ शत्रुर्मित्र उदासीन इत्यन्यत्र विना जनः ॥ शत्रुरेव हि सर्वोऽय जनः सर्वस्य नारकः ॥ ३ ॥ sure गदाभिर्मुशलैः शूलैः प्राशैः पापाणपट्टिशैः ॥ ४ ॥ मुष्टिभिर्यष्टिमिष्टेः शकुभिः शतिभिः शरैः ॥ असिभिः क्षुरिकाभिश्च कुतः सतोमरैः ॥ ५ ॥ तथा प्रकारैरन्यैव निशितैर्नैकसंस्थितैः || भूस्वभावात्स्वयं जातैवैकियेरपि चायुधैः ॥ ६ ॥ नारकास्त तेऽन्योन्यं रोपवेगेन पूरिताः ॥ पूर्व राज्य नुस्मृत्य वैभंगहान संभवात् ॥ ७ ॥ ति दिति भिवंति याति च तुदेति च ॥ विश्यंति चापैर्मध्नंति प्रहरन्ति हरन्ति च ॥ ८ ॥ श्वश्टगालयृकव्याघ्रगृद्धरूपाणि चापरे ॥ विकृत्य विषयं पापा बांधतेऽत्र परस्परं ॥ ९ ॥ का शैलशिलारूपैर्निपतंति च केषु चित् ॥ ततस्तान्प्रतीच्छति ते च शूलाप्रसंस्थिताः ॥ १० ॥ -मज्जयेति जलीभूय वायुभय नुवंति ॥ दहति दद्दनीभूय न वयंति परस्परं ॥ ११ ॥ तिष्ठ दासेष इन्मि त्वां त्वं कुतस्त्यः पलायसे ॥ fare महामोह मृत्युस्त्वां समुपस्थितः ॥ १२ ॥ छिंदि भिद्धि तदाकर्षद्धिधि विधानतः ॥ धनं दानाशु दद्द च्छादय मारय ॥ १३ ॥ अयं पातयाप्येवं तु पिंडी प्रदीपय ॥ विशसेति संरभ्य तं मुचेति गिरोऽशुभाः ॥१४॥ मूलारा कुट्टाकुटि अतीव कुद्धः कृतः । चुष्णाचुर्पिण अतीत्र चूर्णकृतः । सोभार लोहटकितया । मुमुंडं व आश्वासः १४३७ Page #1455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना मुष्टिः । मुद्राहस्तैनारकर्यदस्यत कुट्टितो, यच्च मुसुंदिस्त मुतरां चूर्णितस्त्वं तकियेति संषेधः ।। जं चासि यचासि । खंडाखटि कदो खंड खंडं कृतः । जय नारका: Maxim आश्वासा अर्थ-नरको मुद्दा, भूशुद्धी बगैरह आयुधाद्वारा तुम अनेक नारकियों द्वारा चूर्ण किये गये थे, और अनेक नारकिओने तेरे अनेक बार एकडे भी किये थे. उन नुःखोका तू स्मरण कर.. १-२ अनुकूल क्रिया करना, और बोलना, नम्र स्वभाव, सुख स्वभाव, लज्जा, दया, प्रसन्नता, दान, देना, इंद्रिय दमन करना, विनय, क्षमा इत्यादिक जो उत्तम गुण मनुष्योंमें होते हैं वे जंगलमें जैसे मनुष्य दुर्लभ होते हैं वैसे नारकियोंमे बुर्लभ होते हैं. ३-८ इस जगतमें शत्रु, मित्र और उदासीन ऐस तीन भेद है परंतु नरकमें मित्र और उदासीन ये भेद है ही नहीं किंतु सचही नारकी जीव आपसमें शत्रुपना ही धारण करते हैं. गण, चक्र, नाराष, कराँत, नख, गदा मुशल, शूल. पाश, पाषाण, पटिश, मृठ, लाठी, मट्टीके देले, कील, शंकुनामक आयुध, याणविशेष, तरवार, छुरी भाला, दंद तोमर इत्यादि अनेक आयुधोंसे नारकी जीव क्रोधसे संतप्त होकर परस्परमें लहा करते है. नरक भूमीका भी ऐसा स्वभाव है कि उपयुक्त शस्त्र स्वयं उत्पन्न होते है. नारकी भी अपनी विक्रियासे ऐसे शस्त्र उत्पथ करते हैं. विभंगज्ञानसे भी पूर्व रोका स्मरण कर वे नारकी अन्योन्य को मारते हैं, छेदते हैं भिन्न करते हैं. भक्षण करते हैं. दु:ख देते है. णणोंसे जखमी करते है. प्रहार करते है. ९-१० कोई कोई दृष्ट पापी नारकी कुत्ता, सियाल, मेडिया, चाप, गीध इत्पादि माणिओंका रूप धारण कर आपसमें लडते है कोई.२ | नारकी लकडी. और पर्वत बनकर अन्य नारकियोंको ऊपर गिर पड़ते हैं. अर्थात् शूलके अग्रभागपर चडाय हुए नारकियोके शरीरपर वे गिर पड़ते हैं। कितनेक नारकी जीव पानी होफर लाते हैं. वायु होकर उडाते है.अग्नि होकर जलाते हैं परंतु परस्परपर वे दया नहीं करते हैं १२-१५ अरे दास तूं यहां ठहर में तेरको मारूगा, तूं कहाँ भाग जाता है, महामोहसे तूं छिपना चाहता है परंतु मैं तेरे लिये मृत्यु होकर आया हूं. ये नारकी छेदन कर, IAS भदन कर, पीहा कर, खचि, रोक, जलाव, बांध, घूर्णकर, हकल, मार, प्राणले इत्यादि अशुभ मापण आपसमें पोलते हैं. १४३८ Page #1456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास: जनेनेशा मारण प्रापितयां बुर्वि निरूपयति जं आवहादो उप्पाडिदाणि अच्छीणि णिरयवासम्मि ।। अवसस्स उक्खया जं संतुलमूलायते जिम्मा ॥ १५६४ ॥ ki gar उत्पाव्य यहुशी ने जिला संछिच मूलतः॥ यत्रीतो नारकैदुःख सुःखदानविशारदः ॥ १६३१ ।। विजयोदया-बाघकृयो उपयादिशणि शिरःपृष्ठवेशाकुरपाटिते । अच्छीणि लोयने । णियथासे पनरकयासे च । अषसस्स अयशस्य । जयन । सतुलमूलायत जिम्मा निरपशेषाने जिला मूलारा-अवबुदो अपनः । फकटिकानः श्रीवापश्चिमभागादित्यर्थः अन्यस्तु तसं तृतीया मन्यते । उक्त्ययादा उरवाता । उत्पाटिता।। नारकी जीव और भी जो दुःख देत हैं आचार्य उनका वर्णन करते है अर्थ-हे क्षपक माकमें मस्तक पश्चिमभागमे नेरी आंख निकाली गई थी और पगधीन हुए नगे। | जिहा भी मूलभागसे नारकिआने उखाडी थी इसका भी मनमें विचार कर. - - कुंभीपाएस तुम उकदिओ जं चिरं पिब सोलं॥ जै सुटिउच्च णिस्यम्मि पउलिदो पावकम्मोहिं ।। १५७३ ॥ कुंभीपाक महाताप कथितो यस्समनतः ।। अंगारप्रकरैः पको यच्छूलपोतमांसवत् ॥ १६३२ ॥ घिजयोदया-कुंभीपापसु तुम कभीपाकेपु स्यं । उकहिदो उत्कथितः । जं सहिउन्ध शूलपोतमांस्यत् । | णिग्यम्मि नरके । पोलियो भंगारप्रकरे पकः । पाधकम्मेहि पापकर्मभिः ॥ मूलारा-कुमीपागेसु फुभ्य 'इष्ट्रिफाः । पाकाः पचनाधिकरणानि । कुंभ्यश्चताः पाकाचते कुंभीपाकास्तेषु । सोल्लं धृतमिश्रिततैलं, यजलेप इत्यन्यः ।। सुविनय शलाकामोतर्मासं । पठलियो अंगारप्रकारपकः । पाषकम्मे हिं नारकैः । अर्थ-क्षपक नरफमें अनेकवार तुम कुंभीपाकमें पकाये गये थे. तथा पुष्ट नारकीओंके द्वारा शूलमासके Page #1457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना समान तीव्र अग्नीमें भूने भी गयेथे. इन बातोंका भी स्मरण करो. माथासा १४४० जं भज्जिदोसि भज्जिदगंपि व जंगालओसि रसय व ॥ जकप्पिस पल्लरय व चुण्ण व चुण्णकदो ॥ १५७४ ।। शाकवगुज्यमानो पत् गाल्यमानो रसेन्द्रवत् ।। चूर्णवच्खूण्येवानो यस्लूरमिष कर्सितः ।। १६३३ ॥ विजयोदया- भज्जिदोसि यद्धृष्टो भजिपि भजिमनामधेयशाकवत् । जे गालिमोसि रसगोम्प गद्गालितोऽसि रसपत् । अं कपिदोसि यकृतितः। छिन्नो सि यत् सिनः । बजटरयं पिप बल्लूरबत् । चुर्णष चूर्णवम् चुण्णको घूर्णीकृतः ॥ मूलारा-भग्जिदो भृष्टः । भन्जिदगंपि व भग्जिदगनामवेयझाकवत् ॥ पचनीयमिवत्यन्यः ॥ रसयंब गुरुरस इव । कपिदो अवयवेषु छिन्नः । वल्लूरियं व मांसखण्डमिष । वल्लूर पि वसि पाठे शुष्कमांसभिवेत्यर्थः । चुग्णिकदो चूर्णीकृतः। अर्थ-हे क्षपक तुम नरकमें भज्जिद नामक साग के समान अग्नीपर पकाये गये थे. तथा गुड के रस के समान तुम माले गये थे. शुष्क मांसके समान तुमार टुकडे २ किये गये थे. और चूर्ण के समान चूर्ण किया गया था. चक्केहिं करकचेहि य ज सि णिकन्तो विकत्तिओ जं च ॥ परसूहि फाडिओ ताडिओ य ज त मुसंडीहिं ॥ १५७५ ॥ वारितः ऋकचदिन्नः खड्गैर्विद्धः शरादिभिः॥ यत्पादितः परश्वायैस्ताडितो मुद्रादिभिः ॥ १६३५ 11 विजयोरया--धकेहि करकचेहि पर कश्च । सिणिकतो यति मिहत्ता विकचिदो विविध रुतः। परसूहि फालिदो परशुभिः पाटितः । ताविदो तारितः। यत् त्वं मुसंडी भुपुंडीभिः ।। Page #1458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः मूलारा--णिकत्तो नियत्न छिमश्चकैः । बिकत्तिदो विविध खितः ऋकचैः। परमूहि परशुभिः । कालिदो फाटितः । ते स्वम्॥ अर्थ-चक्रसे हे क्षपक तेरा छेदन किया गया था और करोतसे अनेक प्रकारसे तू पीरा गया था. कुन्हाडीसे तू फाडा गया था. तथा भृशुंडी नामक शखके द्वारा अर्थात मुद्रासे तू पीटा गया था. पासेहिं जं च गाढं बढ़ो भिषणो य ज सि दुघणेहिं । जं खारकहमे खुप्पिओ सि ओमच्छिओ अबसो॥ १५७६ ॥ पार्षदोऽभितो भिन्नो द्रघौरव शो धनः ॥ दुर्गमेऽधोमुखीभूतो यत्क्षिप्तः क्षारकर्दमे ॥ १६३५ ॥ विजयोदयापासहिं पाशः । यत् । गाई बद्धो दृद्ध पद्धः । भिष्णोय भिन्नश्च । जं सि यदसि धणेहि धनैः1 जे यत् । नारकद्दमे शारकर्दम । खुप्पिदोसि निखातोऽसि । ओमच्छिमोसि अधोमस्नकः अयसो परवशः मूलारा--दुघणेहिं लोहकारधनैः । खारकदमे धारपंके । खुपिदो निखातः । ओमच्छिओ अ गेमस्तकः ।। अर्थ-पाशसे नारकिओने तेरेको दृढ बांधा था. और तेरे मस्तक पर पनके प्रहार ये थे. परवश होनसे क्षारके कीचडमें नीचे मस्तक और ऊपर पाय करके तुमको गाड भी दिया था. जं छोडिओसि जे मोडिओसि फाडि भोसि मलिदोसि ॥ जं लोडिदोसि सिंघाडएसु तिक्खम वेएण ॥ १५७७ ॥ यदापत्रः परायत्तो नारकैः करकर्मभिः ।। सोहगाटके सीपणे लोव्यमानोऽतिवेगतः ॥ १६३६ ।। विजयोदया-यनमः, पातितः, मर्दितः, लोटितश्च तीक्ष्णेषु शयाटके वेगेन ॥ मूलारा--छोखिदो निस्पलीकृतः। आकृष्ट इत्यत्यः । मोडिदो नमथित्वा भन्नः । पाहिदो पातितः । मेलिदो । पाउदा त । मालदा १४४१ Page #1459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ___ अर्थ-नारकिओने तेरा जमीनपर पटककर मदन किया था, तीन अग्र जिनके हैं ऐसे लोहेके कंटकोपर तू बडे वेगसे घसीटा गया था तथा नमाकर उन्होने तुझको मोटा था. १४१२ विच्छिपणगोबंगो खार सिञ्चितु बीजिदो जं सि ॥ सत्तीहिं विमुकीहिं य अदयाए खुचिओ जं सि ॥ १५७८ ॥ - तष्ट्वा लोकेऽखिलं गात्रं क्षुरप्रैर्निशितैश्चिरम् ॥ बीजितः क्षारपानीयैः सिक्त्वा सिक्त्वा निरंतरम् ॥ १६३७ ।। विजयोदया-विच्छिन्नंमोबंगो विच्छिन्नांगोपांगः1 खारं मिचिनु क्षार सिफ्त्या । बीजिदोज सि यद्वीजितः । सत्तीहि शक्तिभिः । विमुकीहि य अयोमयर कावंडः । अदयाए दयामंतरेण | बुचिदो परावर्तितः॥ मूहारा--विच्छिण्णगोवंगी विविध खलितानि हस्तादीन्यंगुल्यादीनि च यस्य । खारं झारेण । सिकिचन सिकस्वा । सुतिकनेहि अति निशाताभिः । श्रीविजयाचार्यस्तु विमुष इति पटिन्या अयोमयकंटकाप्रैदरित्यर्थमकथयत । चिदो भिषणः । परावर्तित इत्यन्यः ।। अर्थ- तुमारे भिन्न भिन्न अवययोंपर क्षार चूर्ण का जल साँचकर नारकी उसके ऊपर हवा कर देते थे. तदनंतर शक्ति नामक शस्त्रसे और लोहके कांटे जिनको लगे हैं ऐसी लाटिओसे निर्दय होकर खीचकर लोटते थे. पगलंतरुधिरधारी पलंबचम्मो पभिन्नपोट्टसिरो । पउलिदहिदओ जं फुडिदत्यो पडिचूरियंगो य ॥ १५७९ ॥ शक्तिभिः सूचिभिः खड्गैयश्च्छिनाखिलविग्रहः ।। विगलद्रतधाराभिः कर्दमीकृतभूतलः।। १६१८॥ विजयोदया-पगलंतरूधिरधारो प्रगलधिरधारः । पलंघचम्मो प्रलंघरवक् । पमित्रपोसिरो प्रभित्रोदर शिराः । पालिवाहिदो प्रतप्तवयः। यत् । फुडिमाछो स्फुटितलोचनः । पहिरिवंगो य परिचूर्णितांगः । मूलारा-पोट्ट उदरं । पलिदाहिदओ प्रत्तप्तचित्तः । फुडिदस्थो स्फोटितनेत्रः ।। ११४२ REMETARAPATANATARATE Page #1460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वास अर्थ---जिसके शरीर मेंसे रक्तको धारा बह रही है, शरीरका चमडा नीचे लटक रहा है, जिसका पेट और मस्तक फूट गया है, जिसका हृदय तप्त हुआ है. अखि फूट गई है, तथा सब शरीर चूर्ण हुआ है ऐसा तू नरकमें अनेक बार दुःख भोगता था उसका चिंतन कर. १०४३ जं चडयंडतकरचरणंगो पत्तो सि वेदणं तिव्वं ॥ णिरए अणंतखुत्तो त अणुचिंतेहि णिस्सेसं ॥१५८० ।। यत्स्फटल्लोचनो दग्धो ज्वलिते वज्रपावके । यच्छिन्नहस्तपादादिश्चिमानास्थिसंचयः ॥ १६३९ ॥ शोषणे पेषणे कर्षणे धर्षणे लोटने मोरन कहने पाटने ।। त्रासने तारणे मईन चूणेने छदने भदने सादने यच्छ्रितः ॥ १६४०॥ दुःकृतकर्मविपाकवशोत्थं कालमपारमनतमसह्यम् ।। सोदमिदं हदये कुरु सर्व कातरतां विजहीहि सुबुद्धे ! ॥ १६४१ । इति श्वभ्रगतिः ॥ बिजयोदया-जयत् । चउत करणरणंगो पमानकरचरणांगः । पमो सि वेधणं तिब्ध प्राप्तोऽसि चननां तीवां । णिरए नरके । अणंतपारं अनंतवार तस् अणुचितेहि अनुक्रमेण चितय । णिस्संस निरवशेष || नरकगतिदु:ख वर्णितम् ॥ मूलरा--चयत प्रकंपमानं । अगुचितहि अनुक्रमेण चिंतय त्वं ॥ इति नरकगतिदुःखानुचितनं ॥ अर्थ-हे क्षपक. नरकमें जिसके हाथ पाच बेदनासे कंप रहे हैं ऐसे तूने अनंत वार जो दुःख भोगा है उसका अनुक्रमसे पूर्वस्मरण कर. नरक गति के दुःखका वर्णन समाप्त हुआ. कालमपारमा यच्छितः वाहवये तिरियगदि अणुपन्सो भीममहावेदणाउलमपारं ॥ जम्मणमरणरहर्ट अणंतखुचो परिगदो जं॥ १५८१ ।। १४४३ Page #1461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलारावना आश्वासः १४१५ जन्ममृत्युजराकीणां घोरां तिर्यग्गतिं गतः॥ किंतीनां बहुशो लब्धां म्मरसि स्वं न वेदनाम् ॥ १६५२ ॥ पंचया स्थावरा जीचा विमुढीभूतचेतनाः ॥ लभते यानि दुःग्यानि कः शक्तस्तानि भाषितुम् ।। १६४३ ।। चिजयोदया-तिरियमनि अगुपचो तिर्यग्गतिमनुप्रामः । भीममहावेगाउलमपारं । भीममहायेदनाकुलमपारं जम्मणमरणरह जन्ममरणघटीयंत्र । अर्णतखुत्तो अनंतवार । परिगदो परिप्राप्तोऽसि । यत् चिंतेहि तं इति वक्ष्यमाणेन संबंघः । लिचोहि नानाविधाः पृथिव्यतेजोवायुयनस्पतित्रसदन ॥ यात्मानुभूतान्यपि न स्मरति दुःस्वानि केचिनि नराः प्रमत्ताः॥ रष्टवताभ्यन्य समुधानि ते विसारंतीति न घिस्मयोऽत्र ॥१॥ प्रमादलोपार्थमनो मरेभ्यो सातोऽपि सोऽर्थः परिकथ्य एष। संस्मार्यमाणे प्रमति यस्मिन्गुणान बोषाच समुद्भवति ॥२॥ शीते निवातं सलिलादि चोष्ण क्षम भये संभ्रयितुं समर्थाः ।। ये अंगमास्तेन तु सास्ति शालरेफैद्रियाणा बत जीवकार्मा ॥३॥ सर्वोपसर्गानिह मोक्षकामा यथा विरागा मुनयः सहते ॥ सर्वोपसर्गामषशा घराका यद्रिया येच सदा सहते ॥४॥ जापंधमूका पधिराध बाला रथ्यासु रक्षाशरणमहीणाः ।। प्रमर्चमाना गजवाजियानैर्येक्षा नियंते वियशा बराकाः॥५॥ तथा प्रकारो विकलेंद्रियाणां प्रवर्तते नारकःखतुस्यः॥ मृत्युः समंतात् सततं सुघोरो प्रामवरपयेपुच निशरण्याः ॥६॥ गोऽजाविकाचः परिमर्यमामा यामाविचक परिविष्यमाणाः॥ अन्योन्यषमः परिमृण्यमाणाः दुख च मागुं च हि ते लभते ॥ ७ ।। छिन्नः शिरोभिश्वरङ्गश भग्न रुजात वावयवस्तनूनां । चिरं स्फुरंतः प्रतिकारहीनाः कृच्छ्रेण केचिज हति स्वमायुः ॥ ८॥ निमज्यमाना उवविठुनापि निश्वासवातैरपि चोद्यमानाः। प्रचोचमाना लघुनोष्मणापि नश्यति ये तेषु भवेत्कथा का॥९॥ सरः प्रविश्वेद यथा नरः सन्तुम्मन चैध निमान त्र ॥ कीटाग्रसको बहुमोऽपि कुदिनन्य कार्य स्वयशो क्यथः॥ १०॥ १४४ Page #1462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना RECORARARATHI मविश्व जन्मोदधिमाध्यमेव शरीरिणस्ते बहु जन्ममृत्यून् । अन्त मेहले पिसमाप्नुवन्ति पेषीयमानाः कददुःखतोयम् ॥ ११ ॥ सूक्ष्म शरीरैरपि ते महान्ति तुःखानि निस्यं सममाप्नुवन्ति ।। स्थूलेषु मेदेषु समीहितेषु दुःखोदयो देहिमणैव दृष्टः ।। १२ । घेषो न माता न पिता न धुर्न चापि मित्रम गुरुर्न नाथः।। न भेषज नाभिजमोन मध्यं न ज्ञानमस्त्यष कुतःमुख स्यात्।।१३।। मात्रा वियोगेऽपि सती तावत् दुःखाम्खु तर्नु न जनो लभेत। मात्रा वियोगस्तु भवता येषां स्थाने कथं ते म दिदुसराशेः ॥१५॥ मा भैष्ट मा भूसब दुमजाल मा विष्ट मा वेति घराककाणां ॥ आश्वासको चाप्यनुकंपिता वा तेषां जनः कोऽस्ति यथा नराणां । तैस्तैः प्रकारैः सतत समेताच्छबद्दधाना अघि मृत्युमुझं । करोति बा को ग्रहणं निरीक्ष्य विमुच्य संबंधिवो मनुष्यान् ॥१६॥ अम्पोम्पतो मयंजनाब पापात् क्षुघावितश्चापि महाभयानि ।। पंचेद्रिया यानि समाप्नुवंति बुःखानि तेषामिह कोपमा स्यात् ॥१७॥ स्तनंधयानवानपि भक्षयति श्रितास्तिरश्चोऽपि न निकृपाकाः 11 निहत्य खादत्तु पराभरेषुतिर्यक्षु कि विस्मयनीयमस्ति ॥१८॥ अन्योन्यवातार्थमनुप्रयाति इंतु नमभ्यः रुपणोऽनुयाति ॥ त कश्चिदन्यः सहसा निहंता ही धिक्यतो भीमतरं किमन्यत्। अन्योन्यरंभिक्षणनष्टनिद्रा अन्योन्यमाहत्य जिजीविषन्तः । स्थस्था न येऽन्योन्यभधास्वपंति किते भवेयुः सुखिनः कदाचित् २० घने मगास्तोयतृणमपुधाः मुगीसहाया रातिमानुबन्ति ।। व्याधादिभिर्ययमाप्नुवन्ति निरनसः कारणमंत्र कर्म ॥ २१ ॥ वियोजिसा आत्मसुतैश्च बालमन्यो मृगश्चत्ममनोऽनुकूलः ॥ विशस्तुदीमाक्षिभिरीक्ष्यमाणाः सुदारुणं मारणामानुचन्ति ॥२२|| स्वभावपापाः कुकवीरिताभिः प्रोत्साहिता दुःश्रुतिभिः पुनध। मायभ्यतो दुर्गतितो यथेष्ट जन्तोलभ्यदंतध हिताश्रमम्ते १२३ बने ममेभ्यः पिशिताशनेभ्यो प्रामेषु नृभ्यश्च तथाविधेभ्यः ते विभ्यते चियाश्वसंतो यरच्या विभ्रति जीषितानि २४ २०१५ Page #1463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलाराधना १४४६ यदकुशादिप्रहतैर्भजाम्ध कशाविवविश्व या ताशाः गावश्य तोत्रादिवधैः परेषां कुर्यन्ति कर्ममरणादकामाः २५ मत्या युतानामलमे तदेष विरागभावप्रमचे निमित्तम् तारग्विधानां बहवो हि कोटयः कथं प्रकुर्वन्त्यामितेतरस्य २६ वामानाचावेगैर्मद्दाजलोधेश्य समूयमानाः मृगाः खगाः सर्वसरीसृपाश्च सार्धं नियंते बहवो पतान्ये २७ इदानीं तिर्यग्गतिदुःखानुचिंतने गाथासप्तकेन क्षपकं व्यापारयति - मुलारा - अनुपत्तो नरकगतः पश्चात् अपारं अतीरं चिरानुयंधिवात् । रहं घटीयंत्र । परिगदो जं । यद्दुःखं । चिंतेहि तं सव्यमिति वक्ष्यमाणेन संबंधः । 1 अर्थ - भयंकर वेदनाओंसे व्याकुल, पाररहित ऐसे तिर्यचगतीको प्राप्त हुआ तू अनंतवार जन्ममरणरूप यंत्र को प्राप्त हुआ था. उसका भी तू विचार कर, स्मरण कर. तियेचोके पृथिवी, वायु, जल, अभि वनस्पति और बस ऐसे अनेक भेद हैं. १-२ कितनेक उन्मत्त मनुष्य पूर्वानुभूत दुःख भी यदि भूल जाते हैं तो देखे हुए सुने हुए अन्य लोगां के दुःख वे भूल जाते हैं इसमें क्या आश्चर्य है. अपना प्रमाद नष्ट होनेके लिये मनुष्योंको स्वयं के ज्ञात हुए भी अपरा कहनेही चाहिये. अपने दोषोंका स्मरण रखना और दूसरोंको कहना गुणोत्पत्तिके लिये कारण होता है. दोपस्मरण करनेसे और कहनेसे गुणांकी वृद्धि होती हैं. ३ मनुष्य ठंडी से बाधा होनेपर निर्वातस्थलका आश्रय करते हैं. उष्णतासे पीडित होने पर ठंडा जल पीते हैं भय उत्पन्न होनेपर निर्भय स्थानका आश्रय लेते हैं. द्वीन्द्रियादि जीव भी उपर्युक्त बाधाओं से अपना रक्षण करने में समर्थ हैं. परंतु एकेन्द्रिय जीवोंमें वह सामर्थ्य नहीं हैं. ४ जैसे वैराग्ययुक्त मोक्षेच्छु मुनिगण सर्वप्रकारके उपसर्ग सहते हैं वैसे वृक्षादिक एकेंद्रिय जीव पराधीन और दीन होनेसे हमेशा सर्व प्रकारके उपसर्ग सह लेते हैं. ५-९ जैसे जन्मांध, गूंगे, बहिरे लोक और बालक उनका कोई रक्षक न होनेसे दीन और परतंत्र होकर हाथी घोडे, पान वाहनादिकसे मर्दित होते हुए मरते हैं. वैसे इंद्रिय, त्रींद्रिय और चतुरिंद्रिय जीव भी उपर्युक्त प्रकारसे आश्वास 67 १४४६ Page #1464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वास १७४७ SCREEN मरते हैं उनको नारकिओंके तुल्य दुःख भोगना पड़ता है. ये जीव गांवमें अथवा अरण्यमें भी रहे परंतु सर्वत्र भयंकर मृत्यु हाथ धोकर उनके पीछे दौडना ही है. गाय, बकरा, मेंढा, वगैरे प्राणिोके हाथ पाओसे वे कुचले जाते हैं. स्थादिकोंके पहियोंसे उनका नाश होता है. वे स्वयंभी अपने देहसे अन्योन्यको पीडा देकर मरते हैं. कित्येक सोच के परसा सूखे हैं, पाय टूट जाते हैं तथा शरीर के सव अवयव रोगसे पीड़ित हो जाते हैं तब आधिक दुःखी होकर महाकप्टसे प्राण त्याग करते हैं. दीद्रियादिक कोई जंतु इतने छोटे होते हैं कि वे एक पानीके बंदमें भी डब जाते हैं. निश्वासकी हवास भी उड जाते हैं. थोडीसी उष्णतासे भी उनको दु:ख होता है. ऐसे प्राणिओंको यदि उपर्युक्त दुःखाँकी प्राप्ति होगी तो कहना ही क्या ? १०-५६ क्रीडामें चतुर, तरुण, एसा कोई मनुष्य जसे सरोवरमें प्रवेश करके वारंवार उन्मज्जन निमज्जन करता है अनेक प्रकारसे क्रीडा करता है. स्वाधीन होकर और अन्य कार्योको छोडकर जलक्रीडामें ही तत्पर होता है वैसे सर्व प्राणी भी जन्मसमुद्रके मध्यमें प्रवेश कर एक अन्तर्महर्नमें भी अनेक जन्मसमुद्रके मध्य में प्रवेशकर एक अन्तर्महमें भी अनेक जन्म मरणोको माप्त करते हैं. इस संसारसमुद्र में उनको दुःखरूपी कडबा पानी वारंवार पीना पडता है. १२ उनके सूक्ष्म शरीर होनेपर भी उनको हमेशा तीव्र दुःख भोगने पड़ते हैं. जब उनको स्थूल शरीर प्रास होता है तब उनके दुःखादिक इतर स्थूलत्रस प्राणिआके समान ही देखे जाते हैं. ५३ इन द्वीन्द्रियादिक प्राणिको माता, पिता, बंधु, गुरु, स्वामी. मित्र, कोई भी हितकर्ता नहीं रहते हैं. बीमार होनेपर न इनके कोई संबंधी भी है जो कि उनको अन्न खानेको देंगे इन जीवोंको ज्ञान भी नहीं रहता है तो सुखकी प्राप्ति इनको कैसी हो सकेगी. १४-१५ माता का वियोग होनेपर भी दुःखरूपी समुद्र मनुष्य तीर नहीं सकता तो जिनको माता ही नहीं है वे अत्यंत दुःखके स्थान क्यों नहीं पतंग, अर तूं भीति छोड़ दे, तेरेको कुछ दुःख नहीं होगा ऐसा आश्वासन मनुष्योंको मिलता है. इस प्रकार इन दीन प्राणिऑको कोई भी आश्वासन दनेवाला नजर नहीं आता है. और उनके ऊपर कोई दया भी करनेवाला दीखता नहीं १६ उपर्युक्त प्रकारोंसे वे पशु चारों तरफसे उम्र मृत्युको धारण करते हैं. अर्थात् वे अनेक प्रकारसे मरण १४४७ Page #1465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १४४८ के वश हो जाते हैं. जिनको पशुगतिके संबंध का ज्ञान हुआ है ऐसे मनुष्यों को छोड़कर अन्य कोई भी व्यक्ति उनका रक्षण करनेका प्रयत्न नहीं करती है. १७ कोई पंचेंद्रिय पशु आपसमें लड भिड़कर दुःखी होते हैं. कितनोंको तो मनुष्य दुःख देते हैं. कितने पशु पापोदयसे और क्षुधा तृषादिकसे पीडित होकर दुःखी होते हैं. नानाप्रकार के भय उनके उत्पन्न होते हैंउनके दुःखोंको उपमा ही नहीं है ? १८ कोई तियंच प्राणी इतने निदेय होते हैं कि वे अपने को भी खाते हैं, तो वे अन्य प्राणिओंको खाते होंगे इसमें अवयवह क्या है. १९ ये पशु आपसको मारने के लिए टूट पडते हैं, कोई निर्देय प्राणी, उन दोनों को मारने के लिए दोडता है. कोई अकस्मात् आकर उनको मार देता है. २० ये सच पशु अन्योन्यको मारनेका योग्य मोका देखते रहते हैं. और अन्योन्यको खाकर जीने की अभिलाषा करते है. अन्य प्राणी गेरेको मारेंगे ऐसा मय सभीके मनमें होनेसे उनको निद्रा आती नहीं इस विवेचनसे आपको मालूम होगा कि क्या ये प्राणी सुखी हैं ? २१ वन हरिण पानी पीकर और तृण भक्षणकर पुष्ट होते हैं और हरिणीओंके साथ रहकर सानंददिन बिताते हैं. ये किसीका कुछ नुकसान तो करते ही नहीं परंतु व्याधाधिक दुष्ट मनुष्य से इनको हमेशा भय उत्पन्न होता है इसमें पूर्वकृत पापकर्म ही कारण हैं. २२ हरिण अपने वालक और हरिणीसे वियुक्त होते हैं. और हरिणी भी अपने बालक और अपने इष्ट हरिणोंसे वियुक्त होकर दीननेत्रोंसे चारो दिशाओंको देखती हैं. इस रीतीसे दुःखित होकर भयंकर मृत्युके गाल में पोहोंचते हैं. २१ कितनेक मनुष्य स्वभावतः पापी होते हैं. कुकची शिकार वगैरहका महत्त्व बताकर और दुष्ट शाखोक प्रमाण दिखाकर पशुओंको मारने में प्रवृत्त करते हैं तब वे भी दुर्गतिसे भयरहित होकर प्राणिओंको यथेष्ट मारते हैं और उनको खाते हैं. २४ हरिणादिक पशुओंको वन में हिंस्र पशुओंसे भय रहता है और ग्राम में भी वे आवे तो दुष्ट लोकोंसे आश्वास 1 १४४८ Page #1466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः २४४९ उनको भय उत्पन्न होता है. अतः उनको कहां भी निर्भयता का अनुभव आता ही नहीं. विचारे किसी प्रकारसे अपने दिन व्यतीत करते है. २५ हाथी वगैरह प्राणिओंको अंकुशादिकके आघातोंसे दुःख भोगना पडता है. छडी वगैरहका आघात घोडे सहन करते हैं. बैल भैस वगैरह पशु चाबुक वगैरदका प्रहार सहन करते हैं. और आमरण मनुष्योंके वश होकर उनको कार्य करन पडते है. २६ जो मनुष्य बुद्धिमान है वे इन दुःखों का विचार कर विरक्त होते हैं ऐसे मनुष्य इतर प्राणिओंको दुःख देनका कार्य नहीं कर सकते है. २७ बहुतसे प्राणी दयानिके वश होकर मरते हैं, कोई जलप्रवाहमें बहते वहते इहलोककी यात्रा पूर्ण करते हैं. कोई हरिण, पक्षी, सर्प, और तज्जातीय पहुत प्राणी इसी प्रकार मृत्युवश होते हैं, ताणतासणबंधणवाहणलंछणविहेडणं दमणं ॥ कष्णच्छेदणणासावेहणिलं छणं चेव ॥ १५८२ ।। सवा परवशीभूताश्चतुर्धा प्रसकाायिकाः ॥ दुःख पहुचि, वीना लभन्ते चिरमुल्यणम् ।। १६४४ ॥ ताइन वाहने बंधने त्रासने नासिकातोदने कर्णयोः कर्तने ॥ लांछने दाहने दोहने हंडने पीडने मईने हिंसने शातने ॥ १६४५ ॥ षिजयोदया-तरहणातासण ताडनवासनबंधनलांछनयाहनविडनकर्णछेवननसिकावेधनयीजचिनाशनानि ॥ मूलारा ताडण यष्टयादिभिरापातः । तासक त्रासनं भयापादनं । बंधण · इष्टगतिनिरोधाय रज्ज्वादिभियंत्रण बाहण भाराकांत्या देशांतरनयनं । लंछण शंखपद्माधाकारेण दाहं । विहेडणं कदर्थनं । दमणं कर्मप्रयोगाय हमच्छिमामहणं । दंडन वा। जिलचर्य वृषणनिष्कर्षणम् । अर्थ-लाठी वगैरहसे पीटना, भय दिखाना, दोरी वगैरहसे बांधना, बोशा लादकर देशांतरम ले जाना, १५४९ Page #1467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना RA शंखपमादिक आकारसे उनके अवयवपर दाह करना, तकलीफ देना, कान नाक छेदना, अंडका नाश करना इत्यादिक टुःख तिर्यपातिमें भोगने पड़ते है. आश्वासः ११५० छेदणभेदण्डहणं णिपीलणं गालणं छहातोहा॥ भक्खणमद्दणमलणं दिकत्तणं सीदउण्हं च ॥ १५८६ ।। सलिलमारुतशीतमहातपभ्रमण भक्षणपाननिरोधनैः ।। दमननोदनगालमभंजन जलवियोजन भोजनवर्जने ॥ १६४६ ॥ विजयोदया-दनमेननदहननिपीडनगालनानि शुसड्याधामक्षणमर्दनमसनविकर्तनानि । शीतमु च । मूलारा-डाहणं अभिघातादिना शूनानां दा | णिधीलण नासीत्रणपीसनं । गालणं रोगादा रक्तनि:सारण । मलणं कणिकापन्मलनं । विकतणं कर्णादीनां विविधं कर्तनं : अर्थ-अवयवाका छेदन, भेदन करना, कुछ अवयवोपर यूजन चढने पर उसको जलाना, नाही में त्रण होनेपर उसका मर्दन करना, रक्त निकालना, कणिकाके समान मर्दन करना, भृक और प्याससे दुःख होना, कान नाक घगरह अवयवोंको अनेक प्रकारसे कतरना इत्यादि तिर्थच गतिमें दुःख हैं. M - - जं अत्ताणो णिप्पडियम्मो बहुवेदणुहिओ पडिओ।। बहएहि मदो दिवसहि चडप्पडतो अणाहो तं ।। १५८४ || अघाण-पतितः क्षोण्यां निःप्रतीकारविग्रहः।। दुःसहां वेदना सोदवा बहुभिर्वासरैर्मृतः ॥ १६४७ ।। विजयोदया- अत्तायो यदनाणी णिपटियम्मो निष्प्रतीकारः । अहुदणाहो यदनार्दितः । पडिदो पत्तितः। बमुगाई मदो दिवसहि बहुभिर्मेनो दिवसः। चाडपरंतो स्फुरद्देहः । अणाहो अनाथः । तं त्वं ।। मूलारा–अत्ताणो अशरणाणिप्पडियम्मो निष्प्रतीकारः । वेदणुद्रिदो वेदनार्दितः। पड़यडंतो स्फुरदेहः । अणाहो अनाथः । तं त्वम् 11 १४५० Page #1468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना ११५१ अर्थ--इस पशुगतिमें, अरधित, उपायरहित, बहुततीव घेदनाओंसे दुखित, होकर हे आपक! तूं जमीनपर अनेक बार पड़ा था. तथा बहुत दिनतक अपने सर्व अषयच वेदनासे हिलाता हुआ अनाथ ऐसे तूने प्राण छोडे थे उसका तू स्मरण कर, रोगा विविहा बाधाओ तह व जिच्च भयं च सवत in तिव्याओ वेदणाओ धाडणपादाभिधादाओ ॥ १५८५ ।। क्षुत्तष्णान्याधिसंहारविह्वलीभुतमानसः ।। यदःम्यं बहुशः प्राप्तस्तत्सर्व हदगे कुरु ।। १६४८ ॥ विजयोन्या-रोगा विविका माधयो नानाप्रकाराः । वाधाओ वाधाव । तथा णिशं भयं च सब्बतो निल्यं भयं च सर्वनः । तिच्याओ घेवणासोतीमा बेदना धाटगपादभिधाताश्च ॥ मूलारा-सम्वत्तो सर्वतः । वदणाओ विडिका शूलादयः ॥ धाइणं घाटगं । पादाभिषादा चरणेन ताडनं । घादाभिघाया इति पाठे अभियातः पीडामा। अर्थ-इस पशगतिमें नाना प्रकारके रोग, अनेक तरहकी बदनायें, तथा निस्य चारो तरफसे भय भी प्रात होता है. अनेक-प्रकारके पायसे रगहना, ठोकना इत्यादि दु:खों की प्राप्ति पंशु गतिमे तुझको प्राप्त हुई थी. सुविहिय अदीदकाले अणंतकायं तुमे अदिगदेण ॥ जम्मणमरणमणतं अणतखत्ता समणुभूदं ॥ १५८६ ॥ विजयोदया सुविहिद सुचारित्र ! अधीवकाले अतीतकाल । अणंतकाय नुमे अविगयेण अर्मतकार्य स्पया प्रविष्टेन । जम्मामरणमणतं जम्भमरणं चानंतं । अति खुत्तो बतबार क्षिप्तः । सम्यगनुभूतं । मूलारा-अणंतकार्य साधारणशरीरं । तुमे त्यया । अविगदेण प्रविष्टेन । अर्थ-हे उत्तम चारित्रके धारक क्षपक ! अतीतकालमें अर्थात् बीते हुए कालमें अनंत शरीरोंको धारण करके अनंत जन्ममरणोका अनतबार अनुभव लिया है. १४५१ Page #1469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाराधना १४५२ इच्मादिदुक्खं अणतखुत्तो तिरिक्खजोणीए !! जं पत्तोसि अदीदे काले चिंतेहि तं सव्वं ॥ १९८७ ॥ तिर्यग्गति तीव्रविधिश्रवेदनां गतो जराजन्मविपर्ययाकुलम् ॥ दुःखासिकां यां गतवाननारतं चिंचितयेस्तामपहाय दीनताम् ॥। १६४९ ।। इति तिर्यग्गतिः । विजयोदया श्वमादिदुखं इत्येवमादिदुःखं । अनंतखुतो अनंतधारं । तिरिषखजोणीए तिर्यग्योनी । जं यत् । पत्तोऽसि प्राप्तोऽसि । अदीदकाले अतीतकाले । खितेहि तं सम्यं तत्सर्व चिंतय ॥ तिरियगडी ॥ मूलारा स्पष्टम् ॥ तिर्यगतिदुःखानुचितनम् ॥ अर्थ - इस प्रकार तिथेति अनंतवार तो दुःख तुझको भोगना पडाया उस सर्व दुःखका हे क्षपक ! तू वारंवार मनमें विचार कर इस प्रकार तिर्यग्गतिका दुःखवर्णन पूर्ण हुआ. देव माणुसतो जं ते जाएण सकयकम्भत्रमा ॥ दुक्खाणि किलेसा वय अनंतखुत्तो समणभूदं ॥ १५८८ ॥ मानुषी गनिमापय पानि दुःखान्यनेकशः ॥ त्वमवाप्तचिरं कालं तानि स्मर महानते ! ।। १६५० ॥ विजयोदया देवत्तमाणुस से देवस्यमानुषत्वयोः । जादेण जातेन । सकपकामवसा स्वकृतकर्मवशात् । खाणि किलेसापि य दुःखानि क्लेशा । अनंतखुत्तो अनंतचारं समनुभूताः ॥ देवश्वमनुष्यत्व योश्विरानुभूतानि दुःखान्यनुचितयितुमुपचिपति मूलारा-जादेण गतेन सकद स्वकृतं । दुक्खाणि अंतःपीडाः । किलेसा शरीरकष्टानि ॥ अर्थ – हे क्षपक! तूने कुछ पुण्य कर्म का उदय होनेसे देव और मनुष्य गतिमें भी जन्म धारण किया था. इन गतिओं में भी तुम्हे अनंतबार दुःख और क्लेश सहन करने पडे थे. आश्वास ७ १४५२ Page #1470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वास १४५३ मूलारा पियविप्पओगदुक्ख अप्पियसबासजाददुखं च ।। जे वेमणस्सदुक्खं जं दुक्खं पच्छिदालाभे ।। १५८९ ॥ प्रियस्य विगम दुःखमप्रियस्य समागमे ।। अलाभे याच्यमानस्य संपनं मानसं स्मर ॥ १६५ ॥ विजयोदया-पियषिप्पओगवुपखं मियायप्रयोगजातं दुक्छ । गियसवासजावदुक्ख च अप्रियैः सहधासन जातं च दुःखें । ये नामभवणेऽपि शिरशूलो जायते. येषां दर्शनादर्शने धृमायते । जं वेमणस्सदुक्खं पद्वैमनस्यदुःख पच्छिदालामे प्रार्थितालामे यद्यं ॥ मानुषगतिदुःखानुचितने क्षपर्क प्रयोक्त गाथा नव दिशभादौ दुःसहतरत्वाम्मानसनुःखानि गाथात्रयेणानुस्मरयति मूलारा--पिथविपओगदुख यन्नामनवणेऽपि सर्वांगीणरोमांचाभिव्यज्यगानो मनस्याहादो जायते । यदर्शने च चक्षुषी पीयूषसिक्त इव स चेतसे प्रिय इत्युझ्यते । प्रियेण विप्रयोगाविचटनं । तम्माजात दुःख सुख वेद्योतस्तापः ।। अप्पियसंबासो यन्नामश्रायणेऽपि शिरःशून्टमूदेति यद्विलोकने च लोचने धूमायेने सोऽप्रिय इत्याख्यायते || अप्रियेश संवासः सहावस्थानं संयोग इति यावत् ।। जं ते माणसदुक्ख यत्वया प्रियविप्रयोगदुःग्यादि विकल्पं मानसं दुःखं मानुष भावसंप्राप्तं तत्सर्वमेव चित्तयेति वक्ष्यमागेन संपथः । पकिछदालाभो प्राध्यमानस्य वस्तु मोऽमानी जातः ॥ उक्त च प्रियस्य विगमे दुग्वमप्रियस्य समागमे ।। __ अलाभे याच्यमानव संपन्नं मानसं स्मर ॥ अर्थ--प्रिय पुत्र, पत्नी बगेहका त्रियोग होनमे तथा अनिय शत्रु, विष, कंटकादिकोंका संयोग होनेसे | तुझको बहुत दुःख प्राप्त हुआ था. अप्रिय पदार्थीका नाम सुनते ही तुझको मस्तकशूल उत्पन्न होता था और अप्रिय शत्रुओका दर्शन होनेसे ही आखें लाल हो जाती थी. तथा याचना करनपर इच्छित वस्तुका जब लाभ न होता था तब तुझको मनमें बहुत कष्ट भोगना पडता था. परभिच्चदाए जंते असम्भवयणेहिं कडुगफरुसेहिं ॥ णिभत्तणावमाणणतज्जणदुक्खाई पत्ताई ॥ १५९० ॥ १०५३ Page #1471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास कर्कशे निष्ठुरे निःश्रवे भाषणे तर्जने भर्सने ताडणे पीड़ने ॥ अंकने दमने मुंडने सेवने बाधने वर्तने मईने छेदने ॥ १६५२ ॥ दासह किंकरीभृतः करणे निंयकर्मणः॥ यदचापश्चिरं दुःवं तनिवेशय मानसे ॥ १६५३ ॥ विजयोदया-परभिष्यवाए परभृत्यतया । असम्भवयणेहि अशिएवचनैः । कहगफरसीह कटुकैः परश्च । णिभस्थणाषमाणणताजण तुषखाई पत्तारं निर्भसमापमानम जनस्सानि प्राप्तामि॥ मूलारा--परेत्यादि परस्य राजादे त्यतायां प्रेष्यतायां सत्यां अशिष्टचपनाविजनित मानसं दुःखं तरक्षया संप्रामं तचिंतय॥ उस च दुःसह किंकरीभूतः कर नियकर्मणः ।। यदवापश्चिरं दुःखं तन्निवेशय मानसे ॥ णिमच्छणा धिकारतिरस्कारौ । अवमाणणा बहूनां मध्ये अवज्ञाकरणं । तज्जणा तर्जनीमुक्षिप्य ज्ञास्यते यत्ते करिष्यामीति क्रोधावेशान्निप्रहप्रदर्शन ।। अर्थ--श्रीमान लोक राजादिकाकी सेवा करते समय उनके असभ्य शब्द, कटु, और कठोर शब्द सुनकर तेरेको तीन मनोदुःख प्राप्त होता था. निर्भत्सेना, अपमान, इत्यादिक का दुःख अनेकवार तुझको प्राप्त हुआ था. दीणत्तरोसचिंतासोगामरिसिग्गिपउलिदमणो जे ॥ पत्तो घोरं दुक्ख माणुसजोणीए संतेण ।। १५९१ ।। भीशोकमानमात्सर्यरागद्वेषमदादिभिः ।। तप्यमानो गतो दुःख पावकैरिव चिंतय ॥ १६५४ ।। विजयोक्या-दीणसरोस-चिंतादीनत्वरोषचिंताशोकामग्निमिः संतप्तमना यत् । पत्तो घोरं दुक्ख प्राप्त घोरं तु: । माणुसजोणीप संतेण मनुष्ययोनी सत्यां भवता । मूलारा-पलिदमणो दीनत्वादिभिरभिररिव संसतं मनो येन यत्र या । तन्मानसं :ख यत्रया मानुषयोनी भवता प्राप्त तचिन्तय | उकै च १४५४ Page #1472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराधना आश्वासा भीलोकमानमसलेषणारिरिः । तप्यमानो गतो दुःख पावकैरिव स्तिय ॥ अर्थ-दीनपना, क्रोध, चिता, शोक, असहनशीलता, एतद्रप अग्निओस पीडित होकर हे क्षपका तुझको घोर दुःखोंका अनुभव मिल चुका है. ११५१ दंडणमुंडणताडणधरिसणपरिमोसमेकिलेसा य॥ घणहरणदारधरिसणधरदाहजलादिधणनासं ॥ १५९२।। स्तेनाग्निजलदायादपार्थिवैर्धनविप्लवे ।। कशादंडादिभिर्घाते हस्तपादादिमईने ।। १६५५ ।। विजयोदया-डण मुंडपाउन मुडमतारणदूषणपरिमोषणसंक्लेशाः परधनापहरणदारदुषणानि गृहदारजलादिभिर्वविणनाशात् ।। उभयदुःखानुस्मरणाय गाथाषट्कमाह-- मूलारा-दंपण अपरावे सनि राजादिभिर्धनापहरणं । परिसणा सानपदूषणारोपण । परिमोसे परद्रव्यहरण दारधरिसणं भार्याविधर्षणं जलादियणणासो जलागम्यादिभिर्धनविनाशः ।। अर्थ- मनुष्य गतिमें अपराध होनेपर राजादिकसे धनापहार होता है. यह दंडनदुःख है. कुछ अपराध होनेपर मस्तकके सब केश निकलवाना यह मुंडण दुःख है. तादण दुःख-अपराध होनेपर फटके लगाना. घर्षण दाख आक्षेपसहित दोषारोपण करनेसे मनमें दुःख उत्पन्न होता है. अपराध होनसे राजा धन लुटवाता है तब जो दुःख होता है उसको परिमोष दुःख कहते हैं. चोर द्रव्य हरण करते हैं तब जो दुःख उत्पन्न होता है उसको धन हरण दुःख कहते हैं. भार्याको कोई पुष्ट जबरदस्तीसे हरण करनेपर उत्पन्न हुए दुःखको दारहरण दुःख कहते है. घर जलनेस, धन नष्ट होनेसे इत्यादिक कारणोंसे मानसिक दुःख उत्पन्न होते है. दंडकसालठिसदाणि डंगुराकंटमद्दणं धोरं । कुंभीपाको मच्छयपलीवणं भत्तवुच्छेदो !! १५९३ ॥ ५५५ Page #1473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारावना बाबास १४५६ मूनि प्रज्वालने बहेभक्तपानादिरोधने । शृंखलै रज्जुभिः काहस्तपादादिषंधने ॥१६५६ ॥ विजयोदया-दंडकसालसिदाणि दंडकशाष्टिशतस्ताडनानि दंडाविकार्यवाइंडशब्बेनोच्यते । गुरा मुष्टि महाराः। फंटमहणं कंटकानामुपरि प्रक्षिप्य मईने घोरं । कुंभीपाकः । मच्छगपलीवणं मस्तके अग्निप्रज्यलनं । भत्तपुच्छेवो आहारनिरोधः॥ मृलारा—कमा चर्मग्रष्टिः । अत्र दंडादिशी, दंडादिकार्यत्वात्ताडनान्युच्यते । ढंगुरा मुष्टिप्रहारः । दोषपटह वादनानि था । कंटयमरणं कंटकोपरि प्रक्षिप्य मर्दनं । कुंभीपागो उष्टिकायां प्रक्षिप्य पचनं । पलेवलं अग्निप्रज्वलनम् । भत्तवोच्छेदो आहारनिरोधः ॥ अर्थ --लाठी, चाबुक और तसे ठोकना, मुठिओंसे शरीरपर प्रहार करना, काटोपर सुलाकर खूप मर्दन करना, कुंभीमें पकाना, मस्तकपर अग्नि जलाना, आहार पानी नहीं देना इत्यादिकोंसे मनुष्य गतिमें दुःख होता था. दमणं च हस्थिपादस्म णिगलअंदूवरत्तरहिं ॥ बंध गमाकोडणयं ओलंक्णणिहणणं चेव ॥ १५९४ ॥ परामधे तिरस्कार वृक्षशाखावलंबने । व्याघसर्पविषारातिरोगादिभ्यो विपर्यये ।। १६५७ ।। विजयोक्या-दमण च हरिश्चपावसम्म हस्तिपादेन. मदन । गिगलअपर तरज्जूईि निगलेन, अंकाभिः, घर प्राभिः, रज्जूभिश्च बंधनं । आकोडणय हस्ती पृष्ठतो नीत्या बंधने । ओलंबणे श्रीवायवपाशस्य तरुशानासु लंबन । णिहपार्ण गर्ने निक्षिप्य पूरण ॥ मुलाराधना-दाणं च इत्यिपादस्त गजचरणतलप्रक्षेपः । अथवा दान संहन हस्तिपादेनैव । अन्ये वमणं इति पाठित्वोन्मर्दनमित्यर्थमाहुः । कंडु श्रृंखला हुडि इत्यन्यः। अन्ये अंदु इति पाठित्वा चर्मबंधनमित्यर्थमाहुः ॥ आकोडणं हस्तौ पृष्ठतो नीत्वा यधनं । नक्कलम्बणं ग्रीवाबपाशस्य तरुशाखायामवलंबनं ।। जिहणणं गर्ने निक्षिप्य पूरणं ॥ १९५६ Page #1474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आश्वासः अर्थ-हाके पावोंसे कुचलाना, चेडी, संखल. चर्मकी वादी और दोरी इनसे बांधना, हाथ पीठके तरफ बांधना, कंठको पाशबद्ध कर शाखापर लटकाना, गले में फेककर ऊपर मट्टी डालकर बंद कर देना इत्यादि दुःख भोग थे. १४५७ करणोसीसणासाछेदणदंताण भंजणं चेव ।। उप्पाडणं च अच्छीण तहा जिब्भायणीहरणं ।। १५९५॥ जिह्वाकर्णोष्ठनासाक्षिपाणिपादाविकर्तने । शीतवासातपोवन्याभक्षादिकर्थने ॥ १६५८ ॥ विजयोथा-कपणांसोसणासाठवण कर्णयोरोष्टः, शिरसो, नासिकायाश्च छेदः । ताण भंजणं चेच वताना भंजमं । उप्पाडण म अच्छीण भक्ष्णीमत्पारनं, तथा जिम्भाव. णीहरण जिलानिहरणं ॥ मूलारा--हरणं निष्काशनं । अर्थ-कर्णकछद करना, होठोंको छेदना, नाकको काटना, मस्तक तोडना, दांत गिराना, आंख निकालना, फोहना, जीभ निकालना अर्थात् मुंहमसे जीभ बाहर खीचना इत्यादि दुःख प्राप्त हुए थे. Kera अग्गिविससत्तुसम्पादिवालसत्थाभिधाद्घादेहिं ।। सीदुण्हरोगदसमसएहि तण्णा हादीटिं ॥ १५९६ ।। विजयोदया-अगिविससमप्पादियान्टसस्थाभिमादधादहि, अप्रविपस्य, शां. सदर्यालमृगाणा, शस्त्र महारच घातः । सीडहरोगदंसमसहिं शीतोगन, शमशः, तण्णादुद्दावीहि हदक्षुधादिभिः । मूलारा-सप्पादि सर्पवृश्चिककुक्कुरगोमहिषादयः । पाल व्याघ्रसिहादयः ।। अर्थ-अग्नि, विष, शत्रु, सर्प, क्रूर माणी, और शस्त्रप्रहार इनसे भी अनंत पार दुःख प्राप्त हुआ था. शीतसे, उष्णसे, रोगोंसे, देशमशकोसे अनंत वार दुःख प्राप्त हुए थे. २०५७ ૨૮૩ Page #1475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VOD लाराधना A4 आश्वासः १४५८ जं दुक्ख संपत्तो अणंतखुत्तो मणे सरीरे य ॥ माशुसभवे वि तं सब्वमेव चिलेहितं धीर ! १५९७ ॥ शारीरं मानसं दुखं साधो प्राप्तमनेकशः॥ यवःसहं स्वथा नृत्ये तस्वं चिन्तय यत्ततः ।। १६५९ ॥ गहितं दारितकर्म निर्मितं मानषी गतिमप्रेयषा स्वया ।। दुःसहं चिरमवाप्तमांजेत किं न चितयसि तत्वतोऽसुखम् ।। १६६० ॥ इत्ति नृगतिः। विजयोदया-जे दुक्नं संपत्तो यस्य प्रातः । अणूतनुत्तो असंतवारं । मणे सरीरे य मनसि शरीरे च । मानसं शारीच दुःस्व प्राप्तः। माणुसमचे यि मनुष्यभोवऽपि तं सब्वमेव चिसहि तात्सर्वमेव चिंतय । तं धीर त्वं धीर! ॥ मूलारा--स्पष्टम् । मनुरुगनिदुःखानुचितनम् ॥ अर्थ-हे क्षपक ! इस मनुष्यगतिमें भी अनंतबार जो मानसिक और शारीरिक दुःख तेरको प्राप्त हुआ था हे धीर! तू उसका बार २ चितन कर, - - सारीरादो दुक्खादु होइ देवेसु माणसं तिन्वं ॥ दुक्खं दुस्सहमवसरस परेण अभिजुज्जमाणस्स ॥ १५९८ ॥ देवत्वे मानसं तुःखं घोरं कायिकलोगिनः॥ पराधीनस्य वायत्वं नीयमानस्य जायते ॥ १६६१ ॥ विजयोदया सारीरादो दुक्खा शारीरानात् । होदि भवति । देयेसु माणुसं प्तिम्यं देवेषु मानसं तीमं । दुःस्सहं सोदुमशक्यं । अवसस्स अषशस्य । परेण अभिजुञ्जमाणस्स अन्येन अभियुज्पमानस्य पावनता नीयमानस्या देवगति दुःखमाराधकमनुस्मारयितुं गाथाचतुष्टयमाभयनादौ तदुःखतीव्रतरत्वं सहेतुकमुपदिशति--- मूलारा--परेण स्वस्वामिभूतेन देवेत । अभिन्नुजस हजार जीयमानाय । तापवावापानापवतारेश मानसं दुःखं त्वया मा. सुरगती मंसरसा प्रयतस्तदेवानीमारियोति विक्षिा व्यापः ॥ १४५८ Page #1476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १४५९ अर्थ- देवगतिमें शारीरिक दुःखकी अपेक्षा मानसिक दुःख अतितीव्र है. जब अधिक पुण्यवाला अधिकारी देव हीन पुण्यके धारक देवको वाहनकर्म में नियुक्त करता है वर्ष उसको महान मानसिक कष्ट अनुभवमें आता है. देवो माणी संतो असिय देवे महट्टिए अण्णे || जं दुक्खं संपतो घोरं भग्गेण मार्गेण ।। १५९९ ॥ गुवी दृष्ट्वामरो मानो महासुरश्रेयम् ॥ तथा स श्रयते दुःखं मानभंगेन मानसम् ।। १६६२ ।। विजयोदया देव माणी सेतो देवो मानी सन् । पासिय देवे देवान् इष्ट्वा । महद्दिव महर्द्धिकान् । अण्णे अन्यान् । जं दुक्खं संपत्तो यद्घोरं दुःखं प्राप्तः भोण गाणेण मन मानेन ॥ सुरगतावेव प्रकारांवरावताराणि मानसदुखान्यनुस्मारयितुं गाथाश्रयमाहमूलारा-माणी स्वोत्कर्ष संभावनाभिनिवेशेन स्तभ्यमानः । पासिव दृष्ट्वा महिडिग महती निजद्वैरधिका गुर्णी ऋद्धिरणिमादिगुणसंपद् परिवारादिविभूतिश्व येषां तान् । संपतो मानी देवः ससांमुख्येन प्रातस्त्वं यदुखं तच्चितयेति संबंधः । तं सत्यमेव चितेहि तं धीरेत्यनुवृत्तिकृतस्य समन्ययस्य विवचितत्वात् । एवमुत्तरत्रापि योज्यम् ॥ अर्थ -- मानी देव अन्य महाऋद्धिशाली देवोंको देखकर जिस घोर दुःख को प्राप्त होता है वह मनुष्य गतिके दुःखोकी अपेक्षासे अनंत गुणित है. ऋद्धिशाली दवों को देखकर उसका गर्व शतशः चूर्ण होनेंस व महा कष्टी होता है. दिव्ये भोगे अच्छरसाओं अवसस्स सग्गवासं च ॥ पजहंतगरस जे ते दुक्खं जावं चयणकाले || १६०० ॥ सुंदरा स्त्रिविचासि सुंदरीचतो विबुध भोगसंपदः || ध्यायतो भवति दुखल्वणं गर्भवासवसतिं च निंदितां ॥ १६६३ ॥ जियोदय भोगे विव्याम्भोगान् । अच्छरसाओ देवकन्यकाः । सभ्गवासे च स्वर्गवासं च गुस्स परित्यजतः । अवसस्त परवशस्य से ते दुस जादे यत्तव दुःखं जातं । चयणकाले यवनकाले | पजदंत आश्वासः 19 १४५९ Page #1477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलाराधना च्यवनसमयसमुत्थं दुःखमनुस्मारयतिमुलारा--अवसस्स गत्यंतरनिर्वतककर्मपरतंत्रस्य । अर्थ-जर मृत्यु के पाश गलेमें आ पडते हैं तब दिव्य भोग, देवांगना, और स्वर्गवास का त्याग करते समय जो तुझको दुःख हुआ था. हे क्षषक तू उसे स्मरण कर. १४६० जं गम्भवासकुणिमं कुणिमाहार छुहादिदुक्खं च॥ चितंतगस्स यं सुचि सुहिदयस्त दुक्खं चयणकाले ॥ १६.१ ॥ पूर्वमवाजितदातजातं । उत्पन्नं त्रिदशत्वमशस्तम् ॥ दुःखमसह्यमपारमवाप्तम् । चिंतय भद्र विमुच्य विषादम् ॥ १६६१ ॥ इति देवगतिः ॥ विजयोत्या-जं गम्भवासकुणिम यगर्भधासकुचितं । कुणिमाहारं कुथिताहारं । क्षुधादिषुःखं च । चितंतगस्स चिंतयनः । सुचिसुहिवयस्ल शुधः सुस्वितस्य । जं एक्लं वयपाकाले यः चयणकाले स्वर्गाच्ययनकाले । मूलाग-कुणिमं कुथितं । अशुचि शुक्रातवादि । सुचिसहिदयस्स देवत्वे शुचे:सुखितस्य सतः । वृतम् हुस्कल्पद्रुम कंपभूषणमणिविमांद्यभूषामलसम्लान्यावरणापरागविभवच्छायाप्रमालावताम् । रूढप्रौढशुरार्चिषां दिविषद षण्मासशेषायुषाम् ॥ तदादुख प्रश्यते प्रमित्विव सुन श्वऽपि यश्रेष्यते ।। देवगति दुखानुचिंतनम् ॥ अर्थ-आयुष्यकी समाप्ति समय में अब यहांसे आयकर मेरेको माताके दुर्गंध गर्भमै रहना पडेगा, दुर्गध पदार्थोंका गर्भावस्थामें आहार लेना पडेगा और क्षुधा, प्यास वगैरह दुःखोंसें मेरे को पीडा होगी. मैं इस देवपर्यायमें सुखी और पवित्र हूं परंतु अब क्या करूं यह आगामी परिस्थिति कैसे टल सकती है ऐसा विचार आनेपर जो बुःख तुमको प्राप्त हुआ था उसका हे क्षपक तू मनमें विचार कर. १४६ Page #1478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १४६० एवं एवं सव्वं दुक्खं चदुगदिगदं च जं पत्तो ॥ ततो अनंतभागो होज्ज पण वा दुक्खमिमग ते || १६०२ ॥ दुर्गती या प्राप्तमेवं दुःखमनेकशः ॥ न तस्यानंतभावोऽपि भद्र ! दुःखमिदं स्फुटम् ॥ ४६६५ ॥ विजयोश्या- एवं एदं सव्वं तत्समुदुगविदं दुःखं चतुर्गतिगतं । जं पत्तो यत्प्राप्तवान् । ततो तर : अभागो अनंतभागः । होज ण वा भवेद्वा न वा । तुखमते दुःखमि भये मनुजजन्मनि ॥ एवं चतुर्गतिदुःखानि स्मारयित्वा प्रकृते योजयति — मूलारा-- होज्ज व ण व भवेद्वा नवा । इम इदानीतनं ॥ वर्ष- इस पर इचतु सो जो हुआ था. उसका विचार करनेसे ऐसा मालुम होता है कि जो सांप्रतकालीन दुःख है वह पूर्व दुःखोंका अनंतांश होगा या नहीं भी होगा. अर्थात् यह दुःख अत्यंत इससे भगा कर तू अपने शुद्ध स्वरूप होना अयोग्य है. संखेज्जमसंखेज्जं कालं ताई अविस्तमंतेण ॥ दुखाई सोढाई किं पुण अदिअप्पकालमिमं ॥ १६०३ ॥ संख्यातमप्य संख्यातं कालमध्यास्य तादृशम् || अल्पकालाभिषं दुःखं सहमानस्य का व्यथा ।। १६६६ ।। विजयोदया - संखिकामसंखि काल संख्यातमसंख्या या कालं तारं दुखाई सोढाई तानि दुःखानि सोहानि। अणि विश्रामरहितेन । किं पुण किं पुनः सत्यते । अविकालमिमं अत्यल्पकालमि वः ॥ एवं परिभाषतः पूर्वभूतः खाकालिका म्यस्यापत्यं सम कालतोऽपि ततस्तस्यात्पत्वं त्रवीतिमूलारा- संस्व संख्यातं दशवर्षसहस्रादिसर्व जघन्य स्थितेरपेक्षया । असंज्जं एक सागरोपमायुत्कृष्टस्थित्य पेक्षया । अत्रिस्समंतेण विश्रामरहितेन ॥ अर्थ---हे क्षपक नरकादिकुगतिओं में तुझको संख्यात वा असंख्यात कालतक निरंतर दुःख भोगना पडा आश्वासः ७ १४६१ Page #1479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा गुला-सुदि आक्षेपणी, संवेलनी, निर्वेदनी चेति त्रिषिधकर्मकथाश्रवणं । उपगहिदेण आहितवलेन त्वया। तपय वेदनासइजाय से यस्वेति विधिरत्र पर्ययस्यति । उक्तं च---- श्रुतिपानकशिक्षाशुभध्यानौषधैर्यते ।। वेदनानुगृहीवेन सोढुं तीवापि शक्यते ॥ अर्थ- क्षपक इस संसारमें अनंतबार तुमको इतनी तीव्र प्यास लगती थी की उसको प्रशमन करनेक लिये सर्व समुद्रोंका जलभी असमर्थ था. अर्थ-हे क्षपक ! भूख भी अनंतवार इतनी तीत्र लगीथी की उसको मिटानेके लिये सर्व जगतके पुद्गल भी अक्षम रहे. अर्थ--ऐसी तीवभूख और प्यास यदि तुमने परतंत्र होकर मह ली थी तो अबकी नदना धर्म समझकर तुम स्वववश होकर क्यों न सहन कर सकोग. अवश्य सहन कर सकोगे ही. अर्थ--संवजनी, निजनी और आक्षेपणी इन तीन धर्म कथाओंका श्रवण करना ही मानो अमृत है. इस अमृतका प्राशन करके तथा नियोपकाचार्यका उपदेश रूपी भोजन भक्षण कर तुझारा आत्मवल सहेगा शुभध्यानरूपी औषधीका भी सेवन कर तुम इस वंदनाका अन्त कर सकते हो ................भीदो व अभीदो वाणिप्पडियम्मो व सपडियम्मो वा ॥ मुच्चइण वेदणाए जीवो कम्मे उदिण्णम्मि ।। १६०९ ।। पीडानामुपकारस्य सोपकारस्य घोदिता नाभीतस्य न भीतस्य जतोनश्यति कर्मणि ॥ १६७३ ।। घिजयोक्ष्या-भीवो व अमीदो वा भीतोऽभीतो याणिप्पष्टियम्मो सप्पश्यिम्मो वा निष्पतिकारः सप्रतिकारो वा । मुखदि ण घेवणाप जीयो म मुच्यते घेवनाया जीषः। उदिण्णग्मि कम्मे कर्मण्यसदेचे उदाणे । असद्वेयोदयसांमुख्ये वेदनाधिमोक्षाभाषमाइ-- मूलारा--कम्मे असचाख्ये ॥ . INS .१४६४ Page #1480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ- मनुष्य डरपोक हो अथवा धर्यवान दो वह प्रतिकार करे अथवा न करे जब असातावेदनीय कर्मकी तीव उदीरणा होती है तब वेदना होगी ही. उसको दूर करनेका सामर्थ्य किसी भी उपायोंमें नहीं है. आश्वास लागभना: १४६५ पुरिसस्स पावकम्मोदएण ण करति वेदणोवसमं ॥ सुट्ट पउत्साणि वि ओसधाणि अश्विीरियाणी वि ॥ १६१० ॥ औषधानि सवीर्याणि प्रयत्नान्यपि यत्नतः॥ पापकर्मोदये पुंसम्यमयंति न वनाम् ॥ १६७४ ।। विजयोदया-पुरिसस्स पायकम्मोदयम्मि पुरुषस्य पापकर्मोदये न करेंति न कुर्वरित ॥ वेदणोयसमं बेदनो। पशमं । सुरछु पडसाणि वि सुप्छु प्रयुक्काम्यपि । ओसधाणि अदिधीरियाणि भीषधानि अतिषीयायपि॥ पापोद्रके प्रबलानामपि प्रत्तीकारामा अकिंचित्करत्वमाहमूलारा-आदिवीरियाणी वि वीर्यातिशययुक्तान्यपि ।। अर्थ-पापकर्मके उदयसे अतिशय सामर्थ्य युक्त उत्तम औषध भी वेदनाका उपशम करने में असमर्थ होते हैं. ये औषध निपुणतासे रोगीको देनेपर भी ये रोग दर करने में असमर्थ होते हैं. रायादिकुडुंचीणं अदयाए असंजमं करताणं ।। धण्णतरी बिकादंण समत्थो वेदणोवसमं ॥ १६११ ॥ असंयमप्रवृत्तानां पार्थिवादिकुटुंपिनाम् ॥ पीडा धन्वन्तरिःशक्तो निराकर्तुं न कर्मजाम् ॥ १६७५ ॥ विजयोदया-रायपदिकांग्रीयं राजादीनां अनेक ध्यसंपपरिचारकसंपत प्रख्यातानां । अश्याए असंजम कानाम् दयानंतरणासयमं कुर्वनां । धनी चि धन्वंतगिरपि कर्तुं असमर्थः । वेदणीवसमं बेबनाया उपशम ॥ यद्यसंपत्ता धन्वंतरे ग्रहणेन सुचिता ॥ पापपक्तिवाधार्या द्रव्यादिसंपद्वैफल्यमाह मूलारा-कुटुंबीणं एतेन द्रव्यसंपत्परिचारकसपश्च सूचिता ॥ अदयाए. निर्दयत्तेन । असंयम पड्जीवनिकाययाधा । धणंतरी वि धन्वंतरिरपि । वैद्यसंपत्सूचनार्थमिदम् ॥ - Page #1481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधासः १४६६ अर्थ-राजा वगैरह लोक अतिशय धनवान होते हैं. उनकी शुश्रूषा करनेके लिये अनेक मनुष्य सदा तत्पर रहते हैं. रोग दूर करने में वे असंयमकी परवाह नहीं करते हैं. धन्वंतरीके समान चतुर वैव उनके रोगका निदान कर औषधि देते हैं. परंतु चे भी वेदनाका उपशम करने में असमर्थ होते हैं. तात्पर्य यह है कि, उदय आनेपर रोगकी चेदना उत्तम औषसि भी शांत नहीं होती हैं. किं पुण जीवणिकाये दर्यतया जादणेण लोहि ॥ फासुगदव्वेहिं करेंति साहुणो दणोवसमं ॥ १६१२ ॥ घयालोःसर्वजीवानामौषधेन न्यथाशमम् !! प्रार्थनाप्टेन किं साधोः प्रासुकेन करिष्यति ।। १६७६ ॥ विजयोदया-किं पुष किं पुनः। जीवणिकाए जीघनिकायान् । दयंतगादयमानाः। जादणेण लद्धा याचया लब्धैः। फासुगदब्वेहि प्रासुकद्ररी । करेन कःच । सादुणो वेदमोचसम साधोर्वेदनोपशमं ॥ परिचारकसंपदभावो दश्यते जीवणिकाप दयंतगा इत्यनेन यथा व्याधायशमो भवति तथा कुत्राने परिवारका मी पुनयतया परसायनिकाय बाधापरिहाणेद्यनाः खयमविलाशमीरची याचनन दहि हन्यनेन त्यसंपदभाव आ गयायते ।। विपर्यये पावपक्रिमबेदनावाः सुतरां दुर्जयत्वमाह - मूलारा-दयंतगा दयावंतः। एतेन परिचारकसंपदभावो दश्यते || अन्येहि परिचारका यथाकथंचिद्वपाधि रुपशाम्यति तथा कुर्वते । यतयः पुनः स्वयमाविरोधेन तं प्रति व्याधिविध्वंसनार्थमयोग्यद्रव्यसेवां निराकरोति अर्थ-मुनिराज वा छह प्रकारके जीवोंपर नित्य दया करते हैं वे याचनासे लाये हुए प्रामुक औषधोंसे क्षपक साधुकी अथवा संगी साधुकी रोगवेदना कैसी मिटा सकते हैं ? उनके पास द्रन्य नहीं रहता है और सजाके समान शुश्रूषा करनेवाले वैद्यादिक परिचारक भी नहीं रहते हैं, राजाको बेदनाका उपशम जिस प्रकारसे होगा वह उपाय परिचारक करते हैं उसमें असंयमका ध्यान ही चे नहीं रखते हैं. मुनि तो छह प्रकारके जीवोंको बाधा नहीं हो इसके तरफ ध्यान देने है. यदि वे नहीं ध्यान देंगे तो उनके संयमका नाश होगा. संयमके रक्षणके साथ रोगपरिहार यदि होगा तो वे आपका सबन करते हैं. यदि संयमरक्षण न होगा तो वे ओषध ग्रहण नहीं करते हैं. पुर | ११६६ Page #1482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास . १लागधना मोक्खाभिलासिणो संजदरस णिधणगमणं पि होदि वरं ॥ ण य वेदणाणिमित्त अप्पासुगसेवर्णकादं ॥ १६१३ ॥ संयतस्य वरं साधोरणं मोक्षकांक्षिणः ॥ वेवनोपशमं कर्तुं नापासुकनिषेवणम् ।। ६७७ ॥ विजयोदया-मोक्वाभिलासिणो निरवशेषकर्मापायाभिलाषिणः। संजवस्स प्राणसंयमवतः ।णिधगमणं पि होदि पर मरणमपि वरं । य नैव वरं । वेदणाणिमित वेदनोपशमाथें । अप्पासुगसेषणं कार्य भयोग्यद्रव्यसेवन कतम् ॥ मूलारा--बेदणाणिमित्तं वेदनोपशमनार्थम् ॥ अर्थ-संपूर्ण कर्मक विनाशकी अभिलाषा करनेवाले मुनि मरणको भी अच्छा समझते हैं. परंतु वेदना के उपशमके लिए अयोग्य व्यका सेवन नहीं करते है. अर्थात् संयम पालकर योग्य प्रासुक औषध मिलेगा तो लेते है अन्यथा न णिघणगमो एयभबे णासो ण पुणो पुरिछजम्मेसु ॥ जाणं असंजमो पुण कुइ भवसएम बहुगेसू ।। १६१४ ।। एकत्र निधनं नाशो न तु भाषिपु जन्मसु असंयमः पुननांश दत्त रहुपु जन्मम् ।। १७७८ ।। विजयोट्या-पियनगमो प्रयभव निधनगननक भये । णासो ण पुणो न पुननांशः । पुरिल्ल जम्मसु भाविषु जन्मसु । संजमो पुण असंगमः पुनः । भवसएर जन्मशतेषु । वापनु बहुपु । गाल कुणह माशं करोति । वेदनाहि न संयतमनुयाति रत्नत्रयमावनोद्यसं । सावि मसाले मंद करोति । भसंयमा पुन असद्ध प्रकृयानुभवं करोति : जकंचदुःमाशोकतापादनवधपरिदेवनान्यात्मपोभयभ्याम्धनद्धेहास्येति ।। वेदनामरणादलयमेन तत्प्रतिकारो:त्यर्धमपश्य इत्या --- मूलारा-णासो अभाव: पुरिल अमेतनेषु ।। अर्थ-मरणरूप नाश एक भवमें ही होगा परंतु वह नाश नहीं हैं. क्योंकि उससे आत्माका अहित होता नहीं है. परंतु असंयमाचरणसे भाचि सैकडो जन्मोका नाश होता है. जो मुनि रत्नत्रय भावनामें तत्पर रहते हैं १४६७ Page #1483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलाराधना आधार वेदना उनको नहीं अनुसरती है. प्रत्युत बह मंद होती हैं. क्योंकि यह भावना असातावेदनीय कर्म का रस मंद करती है. असंयमसे असातावेदनीय कर्मका अनुभव तीव्र बनता है. आचार्य उमास्वामी महाराजने ' दुःखशोकतापानंदनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसदेद्यस्य ' इस सूत्रमें असाता वेदनीय कर्मके कारणोंका-दुःख शोक बगैरर कारों का जान लिया है. ण करेंति णिन्वुई इच्छया वि देवा सइंदिया सब्बे ॥ परिसस्स पावकम्मे अणवक्रमगे उदिण्णम्मि!! १६१५ ॥ कक्षितोऽपि न जीवस्य पापकर्मीदये क्षमाः ।। वदेनोपशमं कर्तुं त्रिदशाः सपुरंदराः ॥ १६७९ ।। विजयोदया- करति णिवुन कुर्वन्ति निवृतिं । पुरिसस्स पुरुषस्य । सईदिया देवा सम्बे इच्छया वि सद्रकाः सर्वे देवा इच्छतोऽपि । पावकम्मे पापकर्मणि । अणुक्कमगे अनुक्रम के दिण्यास्मि उदयमुपगते ॥ न च कालेन पच्यमाने दुनियारे असोधकर्मणीदादयोऽपि पुरुष सुखयितुं प्रभवतीत्युपदिशतिमूलारा—इच्छगा बि वेदनां निराकर्तुमिच्छतोऽपि । अणवक्रमगे निष्पतिकारे । उक्तं च-- न कुर्वति सुराः सर्वे प्रसन्ना अपि नियंतिम् ।। पापकर्मोदये पुंसः सत्येव निरुपक्रमे ।। अपि च ॥ काभतोऽपि न जीवस्य पापकर्मोदये क्षमाः ।। घेदनोपशम कतु त्रिदशाः सपुरंदराः ॥ अर्थ-जब पाप कर्मका उदय घुरुपको क्रमसे आता है तब सत्र देव मिलकर भी उस पुरुषको सुखी बना नहीं सकते हैं. सुखी बनाने की तीन इच्छा होनेपरमी वे उसको सुख देने में असमर्थ होते हैं. किह पुण अण्णो काहिदि उदिण्णकम्मरस णिव्युदि पुरिसो ॥ हत्थीहिं अतीरं तं भतुं भंजिहिदि किह ससओ ॥ १६१६ १४६८ . . . - - - - - ." Page #1484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना उदीर्णकर्मणः पीडां शमयिष्यति किं परः।। अभनो दंतिना वृक्षःशशकेन न भज्यते ॥१६८० ॥ कर्माण्युवीर्यमाणानि स्वकीय समये सति ।। प्रतिषेर्दू न शक्यन्ते नक्षत्राणीव केनचित् ॥ १६८१ ॥ विसयोदया-किद्द पुण कथं पुनः । अण्णो काहिदि पुरिसो अन्यः करिष्यति पुरुषः । उदिण्णाकम्मस्स उदयागतासद्वद्यकर्मणः । णिचुर्वि निति । इत्थीहिं अतीरंत इस्तिभिर्महाबल। कर्तुमशक्य यजनं । किध ससगो भंजीहि कथं स्वल्पमाणो भक्ष्यति शशकः दिव्यशक्तेदनाप्रतिचिकीर्षाहितस्य निरुपक्रमपापकर्मविपाकिमवेदनानिराकरणे सुतरी सामर्थ्याभाव दृष्टांतेन ढयति ___ मूलारा-अण्णो पिठ्यशक्त्या वेदनापतीकारेच्छयावहितः । काहिदि करिष्यति । उदिण्णकम्मरस उदयागत दुर्निवारासद्वेद्यकर्मकस्य जीवस्य । अनीरमं अशक्यं । भतुं भक्तुं । भजि हिदि भक्ष्यति । ससओ शशकः। अनुकंपायामल्से वा कः । महाबलबहुभिर्गयों भेतुं न शक्यते स कथं वराकेगाल्पयलेनैकेन शशेन भज्यते इत्यर्थः । उक्त च फर्माण्यवीर्यमाणानि स्वकीये समये सति ।। प्रतिपद्धन शक्यते नक्षत्राणीव केनचित । अर्थ-जब देव भी इच्छा होनेपर भी पुरुषके दःखको नष्ट कर सुखी करने में असमर्थ हैं तो अन्य पुरुष । कर्मकी उदीरणा होनेपर कैसा सुखी करने में समर्थ होंगे. महासामर्थ्यसंपन्न हाथी भी जिस वृक्षको तोड़ने में असमर्थ है उसको अल्प शक्तीका धारक खरगोश फैसे तोट सकेगा. ते अप्पणो वि देवा कम्मोदयपच्चयं मरणदुक्ख ॥ वारदुं ण समत्था धणिदं पि विकुब्वमाणा वि ॥ १६१७ ॥ ये शकाः पतनं शक्का न धारयितुमास्मनः ।। ते परित्रां करिष्यंति परस्य पत्ततःकथम् ।। १६८२ ॥ Page #1485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासः १४७० विजयोदया--त देवा धप्पणो चि कम्मोदयपश्चयं मरणानुक्सं ते देवाः सेंद्रकाः कर्मादय प्रत्ययं विश्वाम। मरणदु:आत्मनोऽपि ।बारेढुं पा समत्मा निवारयितुं न समर्थाः । धणिदधि विकुन्यमाणा नितरां चिनियाँ कुर्वन्तोऽपि ॥ - इंद्रादीनां स्वपरमृत्युदुःखनिराकरणाशक्तिमैकांतिकीमुपदिशति मूलारा-ते सेन्द्राः । कम्मोदयपभयं दुनियारासद्वेद्यादिकर्मविपाकहेतुकं । मरणदुःख मृत्यु परातिशयद्विदनिप्रेष्यकर्महठयोगादिप्रभवगनस्तापं च । अथवा मरणसमानं दुःस्त्र मरणदुःखं दुर्निचाराविषहान्तर्मनस्तापमित्यर्थः । विडम्बमाणा दिव्यशक्त्यनुभावाद्विविधां च त्रियां पलायनात्मगोपनादिकां कुर्वतः । उक्तं च ये शक्ताः पतनं शक्रा न धारयितुमात्मनः॥ ते परित्रां करिष्यति परस्य पततः कथं ॥ ___ अर्थ-देवभी कर्मके उदयसे होनेवाले अपने मरणके दुःखौंको स्वयंमी दूर नहीं कर सकते हैं. प्रयत्न करके भी वे अपना मरण दःख दूर नहीं कर सकते हैं, उज्झति जत्थ इत्थी महाबलपरक्कमा महाकाया ॥ सुत्ने तम्मि वहंते समया ऊढेल्लया चेव ।। १६१८ ॥ तरसा येन नीयते कुंजरा मदमंथराः ॥ शशकानामसाराणां तत्र स्रोतसि का स्थितिः ॥ १६८३ ॥ विजयोवया-उजनियरिसन स्रोतसि हस्तितः उहांत महारलपराक्रमा महाकायाः । तस्मिन् स्रोतसि वहत्ति शशका गता यव ॥ उक्तार्थसमर्थनार्थमाह मूलारा----वुअति उद्यन्ते । स्वयमेव वहन्तो यांतीत्यर्थः । अथवा स्रोतसः स्वातंत्र्यविवक्षया जत्थेत्यत्र कर्तरि तृतीया उक्तं च तरसा येन नीयते कुंजरा मदमंधराः ॥ शशकानामसाराणां वत्र स्रोतसि का स्थितिः ।। बलं आहारादि सामय । परमो नैसर्गिक वीर्य । बूढलया घेव महतो गता पह। अनायासनयनमश्र व्यंग ॥ ११७. Page #1486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधरा अर्थ-जिस नदीके प्रवाहमें महान् शरीरके धारक-जिनका शारीरिक बल और परक्रम महान् है ऐसे मत्त हाथी भी इझ जाते हैं तो उसमें स्वरगोश कैसे स्थिर रह सकेंगे. अर्थात् वे तो अवश्य हवेग ही. आश्वासः १४७१ किह गुण अण्णो मुञ्चहिदि सगेण उदयागदेण कम्मेण ।। तेलोकेण मि कम्मं अवारणिज्ज खु समुवेदं ॥ १६१९ ॥ त्रिदशा न पात्यंते विक्रियायलशालिनः ॥ नायासी विद्यते तस्य कर्मणोऽन्यनिपातने ॥ १६८४ ॥ विजयोदशा-किह पुण अषणो मुहिदि पार्थ पुनरन्यो मोक्ष्यते, खेन कर्मणा उदयागतेन । प्रैलोक्येनापि कर्मानिवार्यमेव समुपगते ॥ मूलारा.----पुण वाक्यालंकारे । अपणो त्रैलाक्यांतरवर्ती कश्चिदेकः कर्मोदरप्रतिबंधव्यलोकाहंकारविहथितः । मुगहिदि मोश्यते । स्वफलं नानुभाविपत इत्यर्थः । समुवे सम्मुख मुदयमागतं । अर्थ-देव भी कर्मके उदयवश होकर मरण दुःस्वस अलग नहीं रह सकते हैं तो अन्य प्राणी इस दुःखसे कैसी अपनी मुक्तता कर सकेंगे. सर्व त्रैलोक्यने भी यदि उदयमें आये हुए कर्म को रोकनेका मयत्न किया तो भी वह उनसे नहीं रुका जायगा अर्थात बलवान् कर्म अनिवार्य है. SCHEMONOM कह ठाइ सुरूपत्तं वारण पडतयम्मि मेरुम्मि ॥ देवे बिय बिहडयदो कम्मरस तुमम्मि का सण्णा ॥ १६२० ।। कर्मणा पत्नीन्द्रे तु परस्य के व्यवस्थितिः ॥ मेरी पतति वातेन शुष्कपत्रं न तिष्ठति ॥ १६८५ ॥ विजयोदया-कह ठाइ सुक्कपनं कथं तिष्ठत् शुष्कपत्र । वातन पतति मेरी। अणिमाचगुणसंपन्नान्दयानपि कुस्लीकुर्वतः कर्मणो भवत्यल्पवले का संशा ॥ रहातमुपन्यस्य कर्मणोऽशक्यमतीकारतां दर्शयन्क्षपकं तदुपेक्षायां सडमवस्थापयति Page #1487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वास १४७२ मूलारा-पढनयम्मि पतति सति । देवे अणिमाद्यष्टगुणैश्वर्यसंपन्नान्सुरान् । विहडयदो अभिभवतः । तुमम्मि त्वयि | आसनमृत्यौ मनुष्यमात्रे | का सम्णा को विचारः । इच्छमानेनेदमस यमुपनीयमा प्रतियष्टुं शक्यते नेत्थमिति चचात्मिका युक्तिगिति यावत् । अथवा ॥ ___ अर्थ-जिस वायुसे मेरु पर्वत भी स्थिर रह नहीं सकता है क्या उसस शुष्क पत्र स्थिर रहेगा? कर्मोदय अणिमादिक आठ गुणोंके धारक देखाको दुःखी बनाता है. इतर प्राणिवर्ग तो उनसे अत्यल्प शक्तिके धारक है क्या उनको यह कर्म दुःख दिये बिना रहेगा? . कम्माई बलियाई बलिओ कम्मादु णथि कोह जगे ॥ सब्बबलाई कम्मं मलेदि हत्थीव णलिणिवर्ण ॥ १२१॥ बलीयेभ्यः समस्तेभ्यो घस्लीयः कर्म निश्चितम् ।। तषस्लीयासि मृद्गति कमलानीय कुंजरः ।। १६८६ ॥ बिजयोश्या-कम्मा कर्माणि बलवति, कर्मभ्यो रलवानास्ति जगति । कस्माद्यस्मात्सर्षाणि पधुविद्याद्रव्यशरीरपरिवारबलानि मईयति इस्तीय नलिनयने ।। फर्मथलस्य सर्वबलोपमईफत्वमाह--- मूलारा-सव्वबलाई बंधुविद्याद्रव्यशरीरपरिवारादिअलानि । मलेदि मर्दयति ।। अर्थ-जगत्में कर्म ही अतिशय बलवान है,उससे दुसरा कोई भी बलवान् नहीं है.जैसे हाथी कमलवनका नाश करता है वैसे यह बलवान् कर्म भी सर्व बंधु. विद्या, द्रव्य, शरीर, परिवार, सामर्थ्य इत्यादिकोंका नाश करता है इच्चे कम्मुदओ अवारणिज्जोत्ति सुकृ णाऊण ॥ मा दुक्खायसु मणसा कम्मम्मि सगे उदिण्णम्मि ॥ १६२२ ॥ कर्मोदयमिति ज्ञात्वा दुर्निवारं सुरैरपि । मा कार्षी नसे वखनदीणे सति कर्मणि ।। १६८७ ।। १५७२ Page #1488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना विजयोदया-हवं कम्मुदमो इतिशद्रः प्रशांतपरिसमाप्ति सूचयति । पर्व हरयुक्तपरामर्श । कम्मुदओ कमंदियः । अवारणिज्जोनि अनिवार्थ इति । सुट्टयाउण सम्यग्ज्ञात्वा । मा टुक्खायलु मणसामा कापी खं मनसा । कम्मम्मि सगे उदिण्णाम्म कर्मणि उदीर्ने । प्रकृतं नप मंऋत्य अापक्रमनसि निवेशयति मुलास----इये इतिः समातौ । एवमुक्तपरामर्श । उक्तप्रकारेण समाप्तं कर्मादयसामध्यवर्णनमित्यर्थः । मा दुक्खायसु मा दुःखायस्व मा दुःपन्नं वेदयस्व दुःखितमात्मानं मा संस्था इत्यर्थः । परमानंदमयो यात्मेति भावः ! मणसा । तदुःखमपि न दुःख यत्र म संष्ठिश्यते मनः । इति भावः । अर्थ-इस प्रकारसे कर्मका उदय दुर्निवार है ऐसा समझकर स्वकीय कर्मका उदय होनेपर हे क्षपक ।। तूं मनमें दुःखित मत हो पडिकूविदे वि सपणे रडिदे दुक्खादिदे किलिठे वा । ण य वेदणीयसामदि णेव विसेसो हवदि तिरसे ॥ १६२३ ॥ विषावे रोदने शोके संक्लेशे बिहिने सति ॥ न पडिोपशमं याति न विशेष प्रपद्यते ।। १६८८ ॥ चिजयोदया-पडिविदे परिदेवने कृते शोके । विषादे रटने, दुःखे, सक्लेशे पान वेदनोपशाम्यति । नापि काचिदातशयो भवति वेदनायाः। । नप परिदेषनादिना दुःखस्योपशमोऽपकणे वा कश्चिद् भवति फेवलमात्मनः क्लीयता प्रकाश्यते इति शिक्षयति मूलारा--पथिकूविद आर्तविलापिनि पुरुषे आर्तविलपने वा कृते । एवमुत्तरत्रापि व्याख्येयं । विसणे शोके कृत्ते । रडिद रोदने कृत । दुखाइदे दुःखे कृते । किलितु स्वस्य परस्य चोपतापे कृते । विसेसो अतिशयः स प प्रकरणादिप्रकर्षः । उक्तं च विषादे रोदने शोके संक्लेशे विहिते सति ।। न पीहोपशमं याति न विशेष प्रपद्यते ॥ १४७३ Page #1489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाराधना १४७४ अर्थ - शोक, विषाद, दुःख, संक्लेशपरिणाम करनेपर तथा रुदन करनेसे भी दुःखों का शमन नहीं होता है. अथवा उसमें कुछ विशेषता भी नहीं होती है. अण्णोवि को विण गुणोत्थ संकिलेसेण होइ खवयस्स ॥ अहं सुसंकिलेसो ज्झाणं तिरिया उगाणमित्तं ॥ १६२४ ॥ नान्योsपि लभ्यते कोऽपि संक्लेशकरणे गुणः ॥ केवलं ते कर्म तिर्यग्गतिनिबंधनम् ।। १६८९ ।। जियो को बिया गुणोत्य अन्योन्यत्र गुणो न कश्चिच्छोकादिना संक्लेशेन । प्रेक्षापूर्वकारिणो हिसार यस्य साध्यं फलं अस्ति । संशेन न किंचित्फले अपि मुमुक्षोः, अपि तु संक्लेशपरिणामो ह्या ध्यान ममनोविप्रयोगाख्यं तच तिर्यगापो निमिनं । ततो भवदीयः मक्लेशो दुरुतरे तिर्यगावर्ते निपातयतीति भयोपदर्शनं तं ॥ परिदेवनादिदुर्थ्यामादुपरांतरग' पे मुमुक्षोर्न भवत्यपि महाननुपकारः स्यादित्यावेदयति - मूलारा - अष्णो दि प्रवृत्तदुःखं पिशमापकर्षविलक्षणतः पुण्यबंधसाधुकारादिकः । गुणो उपकारः । अत्थ अत्र असद्वेग्रोदयाद। पतिते सतिं दुःखे । संकिले सेण परिकूजितादिना । खवयस्स अशुभकर्मक्षपणोद्यतस्य । अहं वेदनास्मृतिसमस्वाद्दाराख्यमार्तध्यानं । तिरिआउगणितं तिर्यगायुष्क कर्मबंध निबंधनं । ततोऽस्मादस्पदुःखादुद्विजमानं भवतं दुरुत्तरे तिर्यदुःखार्ते संक्लेशः पातयतीति भयं उपदर्शनार्थमिदं । अर्थ - शोकादिक संक्लेश परिणाम उत्पन्न करनेसे कुछ भी फायदा नहीं होता है. जिससे फायदा होता है बुद्धिमान लोक बही कार्य करते हैं. संक्लेय परिणामोंसे मुमुक्षुओंको कुछ भी फल प्राप्त होता नहीं उनसे तो उलटा अमनोज्ञ विप्र नामक आर्तध्यान उत्पन्न होता है. अर्थात् विप, कंटक, शत्रु आदिक प्रतिकूल - अनिष्ट पदार्थों की प्राप्ति होनेपर वे पदार्थ मेरेसे कम अलग होंगे ऐसा बार बार चिंतन होना ही अमनोज्ञ विप्रयोग नामक आर्तध्यान है. इसकी उत्पत्ति संक्लेश परिणामोंसे होती है, यह ध्यान तिर्यचायुका बंध होने में कारण है. अतः हे क्षपक यदि तु इस अल्प दुःखसे भययुक्त होगा तो उत्पन्न हुए संक्लेश परिणाम तुझे दुर्निवार तिर्यग्गतिमें गिरा देंगे. अतः तू संक्लेशपरिणामों को छोड दे. ------- आश्वासः 5. १४७४ Page #1490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभास पलाराधना காது பாபாபாகாதாதாம் संक्लेशस्य नैरी क्यप्रकटनार्थोत्तरा गाथा हदशकास मुहीहि हो तह कडिया तुसा होति ॥ सिगदाओ पीलिदाओ धुसिलिदमुदयं च होइ जहा ॥ १६२५ ॥ इतं मुष्टिभिराकारा चिहितं तुषखंडनम् ॥ सलिलं मथितं तेन संक्लेशो येन सेवितः॥ १६५० ॥ विजयोवरमा हदमागासं तं मुधिभिराकाशं ताडितं । तुषकंचन तंडलाय । सिकतापीड़नं तिलयं तैलार्थ । जलमंघम च घृतार्श: यथापार्थक तथानर्थकः सनशो वेदनाकुलस्य । मेदनायाः अनिराकरणत्वानरर्थक्यसाम्यादभेदोपन्यासो रशन्तदाएं न्तिकयोः॥ बेदनाफु लस्य संचलेश्वैय्यर्थ्यसमर्थनार्थ चतुरो दृष्टांतानाचष्टे मूलारा-इदं अपकारकाभिभवाय ताडितं । कडिदा तंबुलार्थ कुट्टिताः । पीलिदाओ तिलयंत्रे निक्षिप्य तैलार्थ चूर्णितः । घुसिलि दमुदयं मधितमुदकं घृतार्थ । तेन येन वेदनाशात्यर्थ संक्लेशः कृत इति संबंधः । तं तत । यतः संक्लेहानेदनोपसमादिः पुण्यबंधादिर्धा प्रत्युत तिर्यगायुबंधः स्यात् । उक्त च--- हतं मुष्टिभिराकाशं विहित तुपकंडनं ॥ सलिलं मथिनं तेन संक्लेशो येन सेवितः ।। अर्थ-जैसे आकाशको मुडिओसे मारना, तंडुलोंके लिये भूसा कूटना, तैलके लिये चालु को यंत्रसे पीसना और धीके लिये जलका मंथन करना जैसा व्यर्थ है बैंसा दुःखनिराकरणके लिये संकेशपरिणाम उत्पन्न करना व्यर्थ है, क्यों कि वेदनाकुल मनुष्योंके वेदनाओंका परिहार करने में सक्लेश परिणाम असमर्थ हैं. यहां दृष्टांत आकाशादिकको कूटना और दान्ति संक्शपरिणाम इन दोनों में साम्य दिखाया है. निरर्थकतारूप धर्म दोनो में होनेन साम्य स्पष्ट है. । पुव्व सयमुवभुत्तं काले णाएण तेत्तियं दध्वं ।। को धारणीओ धणिदस्स देतओ दुक्खिओ होम्ज ॥ १६२५ ॥ RECER Page #1491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १४७६ पूर्व भुक्तं स्वयं द्रव्यं काले न्यायेन तत्स्वयं ॥ अस्य किं दुःखमुत्तमर्णाय यच्छतः ॥ १६२१ ।। विजयोदयापुष्षं सयभुवभुतं पूर्वं स्वयमुपभुक्तं काले पायेण न्यायेन तेलिगं दव्यं तावद्व्यं । को त्रिभो होज धाराणगी को दुःखितो भवेदधर्मणः धण्णिम्मि उत्तमर्णे हरंते स्वं द्वयं हरति ॥ स्वयमादाय भुक्तं यावद्रव्यं तावदेव काले धनिकाय प्रयच्छतो धारणिकस्येष स्वयमर्जितपूर्वस्य पापस्य फलमनुभवतस्तत्त्वज्ञस्य किं दुःखं स्यादिति ज्ञात्वा पूर्वकर्मोदयकृते तद्दुःख सहनमृण मोक्षमिव पश्यन्मास्म दुःखवशेो भूरिति स्मरयितुं प्रागुक्तमेव गाथात्रयमन्वाख्याति--- मूलारा -- स्पष्टम् ॥ अर्थ - जैसे कोई पुरुष योग्य कालमें स्वयं धनिक से धन लेकर उसका उपभोग करता है परंतु जब वह घनिल उससे गोग्लीत होनेपर भून लेता है तब वह पुरुष क्या खिन्न होता है? क्योंकि वह जानता है कि मैनें कर्जरूपसे लिया हुआ धन धनिकको लौटा देना मेरा कर्तव्य है तह चैव सय पुवं कदरस कम्मरस पाककालक्ष्मि ॥ णायाम को नाम दुखिओ होज्ज जाणंता || १६२७ ॥ कृतस्य कर्मणः पूर्वं स्वयं पाकमुपेयुषः ।। विकारं युध्यमानस्य कस्य दुःखायते मनः ।। १६९२ ॥ विजयोदा तह ष तथा चैव । सर्व पृथ्धं कदस्स कम्मस्स आत्मना पूर्व कृतस्य कर्मणः । पाककालम्मि फलदानका न्यायेनागते । को नाम दुषित्रदो होज जाणंतों को नाम दुःखितो भवेज्ज्ञातः ॥ मूलारा स्पष्टम् ॥ अर्थ – उसी प्रकार जो जीवने पूर्वजन्ममें कर्म किये हैं उनका फलदानका काल आवश्य प्राप्त होता ही है. उसके प्राप्त होनेपर कोन ज्ञाता पुरुष दुःखी होगा ? अभिप्राय यह है कि, कर्म जब फल देने लगेगा उस समय उसका शान्त परिणामोंसे अनुभव करना चाहिये. आश्वासः १.४७६ Page #1492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १४७७ इय पुत्रक इण मज महं कम्माण गति णाऊ ॥ रिणमुक्खणं च दुक्खं पेच्छसु मा दुक्खिओ होज्ज || १६२८ ॥ पूर्व कर्मागतासानं सहस्वं त्वं महामते ! ॥ ऋणमोक्षमिव ज्ञात्वा मा भूर्मनसि दुःखितः ॥ १६९३ ॥ विजयोदयापुथ्वकदं य एवंभूत दुक्ख पुत्रकं पूर्वकर्मणा कृतं । इदं दुःखं । अज अय । महं कम्माशुगन्ति मम कर्मणामिति । प्राय शत्या रिणमुखणं ऋणमोक्षः दुखं पिसु दुःखं प्रेश्व | मा दुखियो होज दुःखितो मा भूः ॥ मूलारा -- इर्ण अनुभूयमानः खाभिव्यक्तपाकं महं मम ॥ उक्तं च पूर्व कर्मागतासातं सहस्व त्वं महामते । ॥ ऋणमोक्ष इति ज्ञात्वा मा भूर्मनसि दुःखितः ॥ अर्थ- जो दुःख मैं इस समय भोग रहा हूं वह पूर्वकृत कर्म के अनुसार ही है. मैने पूर्व जन्ममें कुकर्म नहीं किये होते तो इस जन्म में उनका फलभोग मेरेको कैसे प्राप्त हो जाता ? यह तो मैं ऋणमोक्ष कर रहा हूं ऐसा चिंतन हे क्षपक तूं हृदयमें कर और दुःखी मत हो. पुष्वकदम कम्मं फलिदं दोसेण इत्थ अण्णस्स || इदि अप्पणी पओगं णच्चा मा दुक्खिदो होज्ज | ११२९ ॥ स्वयं पुराकृतं कर्म ममाग फलितं स्फुटम् || दोषो नैधात्र कस्यापि मत्वा दुःखासिकां त्यज ॥। १६९४ ।। विजयोदयापुय्यद मज्झ कम पूर्वकृतं मदीयं कर्म फलिये फलितं । दोसो पण एत्थ अण्णस्स दोषो नैवान्यस्य दति । यणो पग सच्चा ज्ञात्वा मा दुविदो होज मा कृथा दुः पुनस्तदेव भावयति — मूलारा - अपणो पओ स्वयं भोक्तव्यं स्वयं कृतत्वात् ॥ आश्वास 19 १४७ Page #1493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्व १४७८ अर्थ-मैने किया हुआ पूर्वकर्म अब मुझको दुःख दे रहा है. इसमें अन्य किसीका भी कमूर नहीं है. जब मैंने स्वयं कर्म किया था तो अब उसका फल मेरेको ही भोगना पडेगा ऐसा विचार करके हे क्षपक तू कष्टी मत हो. जदिदा अभूदपुव्वं अण्णसिं दुक्खमप्पणो चेव ॥ जाद हविज्ज तो णाम होज्ज दुक्खाइ, जुतं ।। १६३० ।। अभूतपुर्वमन्येषामात्मनो यदि जायते ।। तदा दुःग्यासिका कतुं मानस युज्यते तव ।। १६९५ ।। विजयोदया जदिदा यदि नायन् । दु:खमन्येा अभूतपूर्व । अप्पणी चेष जाद हविज प्रात्मन एव जातं भवेत् । तो णाम होज्ज दुक्खारदुं जुत्तं । ततो नाम दुःखं कर्तुं युक्तं ॥ किं च सर्वसंसारिसाधारणं पापविपकिम तव दुःखमनुभवत: का दु:खासिकेति शिक्षयतिमूलारा--अपणो चेव तथैव । दुक्खाइदं दुःख कतु । उक्तं च-- • अनिष्टयोगप्रियविप्रयोगौ साधारणौ सर्वशरीरभाजा ॥ इत्यात्मघुया विगणय्य धीमान खेदयत्यात्ममनो विषादैः । अर्थ-यदि हमने पूर्वजन्ममें तो दुःख देने वाला कार्य नहीं किया था और यदि इस समय हमको दुःख भोगना पड़ रहा है तो अवश्य दुःख करना अथवा संक्लेशपरिणाम करना योग्य है, सव्वेसित सामण्णं अवस्सदादब्वयं कर काले ॥ णाएण य को दाऊण गरो दुक्खादि विलवदि वा ॥ १६३१ ॥ अवश्यमेव दातव्यं काले न्यायेन यच्छतः ॥ सर्वसाधारण पंचकुच कस्य मनीषिणः ॥ १६५६ ॥ विजयोन्या-सम्वेसि साम सर्वेषां भव्यानां धामण्यं । काले कर्मविनाशनकाले । अचस्स दायब्वयं अवश्य | दातव्यं । यस्मात्तस्मात् । करं करशष्ट्याच्यं दाऊण दत्त्वा । णाएण य न्यायेन च को जरो क्वदि विलवदिवा को नरो तुवं करोति चिलपति वा। ६ दुःख कस्पा काले कर्मविनाजिरी नुपखदि दिल १७७ Page #1494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागवना आश्चार युक्त्यन्तरेण गाथाद्वयमाह-- मूलारा----फर सिद्धार्थ । दुक्खादि दुःखं करोति । विलयदि परिदेवनं करोति ।। अर्थ-सर्व भव्योंको मुनियत कर्मविनाश करने के समयमें अवश्य देना योग्य है. क्यों कि राजाको कर देनेस क्या कोई मनुष्य दुःख करेगा' विलाप-शेक करेगा? जैसा कर देना न्याय प्राप्त है वैसे मुनिव्रत धारण करना अथवा दूसरोंको देना अवश्य कार्य है. सव्वेसि सामग काभूकसानादिकामाल । इण मज मेत्ति जच्चा लभसु सदि तं धिदि कुणसु ॥ १६३२॥ सर्वसाधारणं दुःख निवारमुपागतम् ।। सहमानो मुने माभूदुःखितस्त्वं भज स्मृतिम् ॥ १६९७ ॥ विजयोदया-सन्चास सर्वेषां विनेयाना । सामण्णं करभूद अवस्स भाषिकस्मफलं अवश्यमाविकर्मफलं । पामजमदि इदं श्रामण्यं अद्य करभूनं ममेति । पाश्चा ज्ञात्वा । लभसु सदि स्मृति प्रतिपचस्व ॥ तं तत् घिदि कुणसु धृति कुरु॥ मुलारा---सदि स्मृति । पक्रमादाहारप्रत्याख्यानविषयो । धिदि कुणसु भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गलाः। उच्छिष्टव्यिय तेष्वा मम विज्ञस्य का स्पृहा ।। समभवमइमिंद्रोऽनंतशोऽनंतवारान ।। पुनरपि च निगोदानंतशोन्तर्विवृत्तः ।। किमिह फलममुक्तं तद्यवद्यापि भोक्ष्ये । सकलफलविपत्ते: कारणं देव! देयाः ।। इत्येवमाविसंतोषभाषनावष्टंभावेदनादनाप्रतिकारार्थितयाप्यौषधाशनाधभिलाषं मा कार्षारित्यर्थः ।। अर्थ--यह मुनिम्रत कर्म का फल है, यह करदानके समान है. ऐसा समझकर सर्व मध्योंको अवश्य Page #1495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाराधना धारण करना चाहिये. यह मेरा मुनिव्रत कर के समान है ऐसा समझकर पूर्वमें जो आहारका स्याग किया था उसका स्मरण करो और धैर्य धारण करो, आश्वास अरहंतसिद्धकेवलि अविउत्ता सव्यसंघसक्खिस्स ॥ पञ्चानापस का जगायो बरं मरणं ॥ १६३३ ॥ साक्षीकृत्य गृहीतस्य पंचापि परमेष्ठिनः संयतस्य वरं मृत्युः प्रत्याख्यानस्य भंगतः ॥ १६९८ ॥ विजयोदया-भरहंत सिद्धकेलि अबिउत्ता सञ्चसंघसविस्म । आईतः, सिज्ञान , केवलिमा, तपस्था देवता सर्व य संघ साक्षित्वेनोपानराब कृतस्य । पचक्खाणस्स मंजणादो प्रत्याख्यानम्य विनाशनात्। घर शोभनं मरणं प्राणपरित्यागः । गबमधि बोध्यमानो दुबारमोहोदयात्प्रत्याख्यानं यदावमुन्नति तदा नदंगमहादोपप्रदर्शनेन प्रत्यवस्थाप्यो गुरुणे त्युपदेष्टुमार - गुलारा- अधिउत्ता तत्स्थानवामिदेवताः । अहंदादयः साक्षिणो यत्र तत्तत्साथि तस्य । पाक्खागरस कदस्स मंजणादो प्रत्याख्याताहार सेवनादित्यर्थः । अर्थ--अरहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सामान्य केवली, दीक्षास्थानस्थित देवता और सर्व संध इनके साक्षीस जो आहार के त्यागका व्रत धारण किया था उसका त्याग करना योग्य नहीं है. उससे तो मरनाही अच्छा है. कथं मरणादशोभनता प्रत्यख्यानभंगमयेत्याशंकायामाचले प्रबंधमुत्तरं प्रत्याख्यानभंजमे दुष्टतां निषेदयितुम् आसादिदा तओ होति तेण ते अप्पमाणकरणेण ॥ राया विव सक्खिकदो विसंव संतेण कज्जम्मि ॥ १६३४ ॥ अप्रमाणयता तेन न्यक्कृताः परमेष्ठिनः ॥ कार्याधिवर्तमानेन साक्षीकृतम्पा इव 11 १६९९ ॥ १४८. Page #1496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्लाराम आश्वासः १४८१ विजयोदया-आसादिदा परिभूताः । नदो ततः पश्चात् । प्रत्याख्यानप्रदणोत्तरकाल । तेन प्रत्याख्यानभंग. कारिण।। ते अहदान्यः। अध्यमाणकरणेन अप्रमाणकरोन तत्साक्षिकं कर्म प्रतिज्ञातं विनाशयता ते अप्रमाणीकता भवन्ति । अप्रमाणकरणे च ते परिभूता भवन्ति । राजा बिय सक्खिकदो राजेष साक्षीकृतः । कज्जम्मि विसंवदंतेण कार्य विसंवदता । एतदुक्तं भवति राजसाक्षिक प्रतिज्ञातं कर्म वान्यथा कुर्यता राजा यथा परिभूतो भवति एषमईवालय इति । इतः प्रत्यास्यानभंगदुष्टता प्रबंधनाचशे मूलारा---'भासादिदा अयज्ञाहताः फताः । तदो प्रत्याख्यानमहणोत्तरकालं। तेण प्रत्याख्यानभंगकारिणा । आपमाणकरणेण तरसानिकप्रतिशातानुष्ठाननिष्ठापनातिसंवादनेन । यश्च वं विमलभते स तं परिभवतीति प्रतीतमेष । राया वि य नृप इब । विसंघदत्तण व्यभिचरता राजसानिकं प्रतिज्ञातकर्माकुर्वता राजा यथा परिभूतो भवत्येषमईदादयोऽपि इत्यर्थः।। प्रत्याख्यानका भंग करना मरणसे भी कैसा घुरा है इस प्रश्नका उत्तर आचार्य सविस्तर देते हैं. प्रथमतः प्रत्याख्यान का नाश करना क्यों युग है। इसका खुलासा करते हैं- अर्थ-प्रत्यास्थान ग्रहण कर जिसने उसका त्याग किया है उसने तो अरहतादिकको को साक्षीभूत समझकर उसने प्रत्याख्यान लिया था यदि उसने प्रत्याख्यानको नष्ट किया तो अहंतादिकों को उसने अप्रमाण माना था ऐसा समझना चाहिये, उनको अप्रमाण माननेसे उसने उनका तिरस्कार-अनादर किया ऐसा भाव सिद्ध होता है. जैसे किमी मनुष्य ने किसी कार्य में राजाको प्रमाणभूत मानकर प्रतिज्ञा की थी परंतु उसने उस कार्यकी प्रतिज्ञाका यदि भंग कर दिया तो उसने राजाको अप्रमाणभूत समझकर उसका अपमान किया एसा लोक समझते हैं. इसी प्रकार प्रत्याख्यान लेकर उसको तोडनराले पुरुषने अईदादिकों को अप्रमाणभूत माना है उसने उनका तिरस्कार किया है एसा समझना चाहिय. BSITE - जइ दे कदा पमाणं अरहंतादी हवेज खवएण ।। तस्सक्खिदं कये सो पच्चक्वाणं ण भंजिज्ज ।। १६३५ ।। प्रमाणीकुरुते भक्तो यो योगी परमष्टिनः ॥ तरसाक्षिकमसी जातु प्रत्याख्यानं न मुंचति ।। १७०० । १६ Page #1497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना। २४८२ विजयोक्या-अर दे कमा पमाण यदि ते माप्रमाणं । अरहतादी भईहादयः । भवेज्ज भवेयुः । सपएण क्षपके । सरलकिन कई परममा तत्साक्षिकं कृतं प्रत्याख्यानं । सोण भेजिज्ज क्षपको न नाचायेत् ॥ व्यातिरेक दर्शयतिमूलास--पमाणं अतिक्रमणाविषयः । इबेज भवयुः ॥ अर्थ-यदि उसने अर्थात् क्षपकने अहंदादिकोंको प्रमाणभूत-कल्याण करनेवाले समझा है तो उनके प्रत्यक्षमें किया हुआ प्रत्याख्यान नष्ट करना अपकके लिए कैसा उचित हो सकता है ? अर्थात् अहंदादिकोंको सामीभृत समझकर किया हुआ प्रत्याख्यान तोड देने में मिथ्यात्यकी प्राप्ति होती है. जो कि अनंत संसारम भ्रमण कंगन में हेतु है. सविस्वकदरायहीलणमाबहा रस्स जह महादोसं ।। तह जिणवरादिआसादणा वि दोसं महं कुणदि ।। १६३६ ॥ साक्षीकृत्य पराभूनाः कुर्वते परमेष्टिनः ॥ पुनःसथो महादोष भूमिपाला इव स्फुटम् ।। १७०१ ।। बिजम्मीदया-सम्पिकादराग्रहीलाक्षीका राजपरिभवः । आवहदि रस्स जद महादोस भानयति पथा नरम्य महासंदीप । नद जिणवदि प्रासादणा राधा अईदाप्रासादनापि। दोसे महं कदियो महान्तं करोति ॥ जिनादासाद नादोपमहत्र ममर्थयते-- मुलारा-हीलणं परिभवः । मह महातम ।। अर्थ-किसी कार्य में राजाको साक्षी समझकर हमने यदि वह कार्य नहीं किया अर्थात् प्रतिज्ञाका नाश किया तो हमने राजाका परिभर किया ऐसा समझना चाहिये प्रतिज्ञा भंग करनेवालोंको राजा दंडित करता है। बह उसको महान् अपराधी सभाकर दंडका घोर दुःख देता है. उसी प्रकार जिनेश्वरादिके सामने प्रतिज्ञात प्रत्याख्यान का भंग करनेपर जिनेश्वरादिकोंका हमने घोर अविनय किया है ऐसा समझना चाहिये. यह अचिनय महान् दोषोंको उत्पन्न करता है, १४८२ Page #1498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १४८३ तं महान्तं दोपं कथयति तित्थयरपवयणसुदे आइरिए गणहरे महदीए || एदे आसादतो पावs पारंचियं ठाणं || १६३७ ॥ संघतीर्थंकराचार्यश्रुताधिकम हर्दिकान् ॥ पराभवति योगी च स परांचिकमंचति ।। १७०२ ।। विजयोदय: – तिथयश्पणसुत्रे तीर्थकरान, रत्नत्रयं आगमे, । आयरिए आचार्यान । गणहर गणधरान् । महतीय महर्द्धिकान् । पदे पतान् असादेतो असावयन् । पावनि प्राप्नोति । पारंचियं ठाणं पारंचियमामधेयं प्रायश्चित्तस्थानं ॥ वशेष महत्वं तत्प्रतीकारगुरुच्त्वप्रापणदर्शनेन व्यवस्थापयति- मूलाश--पचयण रत्नत्रयं पारंचियं ठाणं पारंविकं नाम प्रायश्चित्तं ॥ उसी महान् दोषोंका आचार्य कथन अत है. अर्थ - तीर्थकर, रत्नत्रय आगम, आचार्य, गणधर और महार्द्धक मुनिराज इनकी आसादना करनेवाला पाचिक नामक प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है. अर्थात् पारंचिक प्रायश्वित लेने पर ही उसकी शुद्धि होती हैं. सक्खीकयरायासादण हु दोसं करे हुएभबे || भकोडी य दो जिणादि आसादणं कुणइ || १६३८ ॥ तिरस्कृता नृपाः संतः साक्षित्वेऽस्य शरीरिणः । एकच ददते दुःखं जिनेंद्रा भवकोटिपु ॥ १७.३ ।। विजयोदया-साक्षीकृतराजावमान जाताद्दोपादर्द्धदात्रचमानजनितक्षेत्रो महानिति दर्शयति । स्पष्टा गाथा || राजावमाननजादोषाज्जिनाद्यथमानजदोषस्य महत्तां व्यक्ति -- मूलारा - दोखं दुःखं, तत्कारणं च । अर्थ – साक्षीभूत राजाकी आसादना करनेसे एक भवमें ही माणीको हानि भोगनी पड़ती है अर्थात् राजा एकही भवमें उसको दंड या शिक्षा देगा परंतु जिनेश्वरादिकोंकी आसादना करनेसे इस जीवको कोट्यवध आश्वासः १४८३ Page #1499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारायना भयोंमें दुःख भोगना पडता है. राजाकी आसादनाकी अपेक्षा अईदादिकोंकी आसादना महान् दुःख देती है ऐसा अभिप्राय समझना चाहिए. आश्वासः मोक्खाभिलासिणो संजदरस णिश्रणगमणं पिहोड बरं ॥ पच्चखाणं भेजंतस्स ण वरमरहदादिसक्खिकदा ।। १६३९ ।। णिधणगमणमेयभवे णासो ण पुणो पुरिल्लजम्मेसु ।। णासं वयभंगो पुण कुणइ भवसएमु बहुएसु ॥ १६६० ।। ण तहा दोसं पावइ पच्चक्खाणमकरित्तु कालगदो ।। जह भजणा हुपावदि परचक्खाणं महादाने ।। १६४१ ॥ मोक्षाभिलाषिणः साधोमरणं शरणं वरम् ॥ प्रत्याख्यानस्य न त्यागो जिनसिद्धाविसाक्षिणाः ॥ १७०४ ॥ एकत्र कुरुते दोषं मरणं न भांतरे ।। व्रत भंग पुनजालो भयानां कोटिकोदिषु ।। १७.५ ।। प्रत्याख्यानमनादाय म्रियमाणस्य देहिनः ।। न तथा जायते दोषः प्रस्याख्यास्यजने यथा ।। १७०६ ।। विजयोन्या-सहा दोस पायदिन तथा दो नामोति । पच्चफ्यागमकरिम प्रत्याख्यानमहत्या | कालगदो मृतः । जह भंजतो पायपि यथा प्रत्याक्यानभंगा-महादो प्राप्नोति ॥ मुमुक्षुयतेः संन्यासविनाशं गाथायुग्मेन पुनर्मुगुण्सतेमूलारा--भत्तुं भक्तुम् । मूलारा-स्पष्टम् ॥ पते श्रीविजयाक्यो नेति। अकृतसंन्यासाद्भक्तसंन्यासस्य मस्ये सतरा कोषमार-- १४८४ Page #1500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १४८५ मूलारा --- अकरितु अकृत्वा । पश्चक्खाणं प्रत्यख्यानस्येति पयन्तं । जघ मंजतो पावदि इति पाठे द्वितीयांत मायम। अत्रोक्तं च प्रत्याख्यानमकृत्येय मृचस्तम्भैष दोपवान || प्रत्याख्यानं यथा भंजन महान्तं दोषमाप्नुयात् ॥ अर्थ- मोक्षाका करनेवाले मुनिका मरण होना भी अच्छा ही है परन्तु अदादिकोंको साक्षी कर लिए हुए प्रत्याख्यानका भंग करना कभी भी योग्य नहीं होगा. मरण होनेसे एक भक्का ही नाश होगा अर्थात् आगे जन्ममें पुनः प्राणी अपनी उन्नति कर सकेगा परंतु व्रतभंग करनेसे ऐसी प्राणी की हानि होती है कि आगे के कोट्यवधि भवोंमें भी वह अपनी उन्नति करनेमें असमर्थ ही हो जाता है. अर्थ --- प्रत्याख्यान किए बिना ही जिसने प्राण छोडे हैं वह उस दोषको प्राप्त नहीं होता है जिसको कि प्रत्याख्यान करके छोडने वाला प्राप्त होता है, अर्थात् आहारका त्याग करने की प्रतिज्ञा किए बिना ही जिसने मरण किया होगा उसके मनमें व्रतभंग करने लायक भाव नहीं रहते हैं इसलिए वह महान दोपको प्राप्त होता नहीं परंतु आहारत्यागकी प्रतिज्ञा ले चुकने पर फिर जो अपनी प्रतिज्ञा तोडता है उसके हृदयमें संक्लेशपरिणाम तीव्रता उत्पन्न होते हैं अत एव वह महान् दोषी होता है. प्रन्याख्यानाहारखेचा हि प्रन्यागयानसंगः समाहारः प्रायमानो हिंसादिदोषानखिलानानयतीति निगदति-आहारत्थं हिंसइ भइ असच्चं करेइ तेणकं ॥ रूसइ लुब्भइ मायां करेइ परिगेहदि य संगे ॥ १६४२ ॥ हिनस्ति देहिनोनार्थ भाषते वितथं वनः ॥ परम्य हरेते द्रव्यं स्वीकरोति परिग्रहम् ॥ १७०७ ॥ विजयोदया - धारस्थं हिंसा आहारार्थ पजीवनिकायान्निति । असत्यं भवति, स्तन्यं करोति । रुष्यत्यलाभे, लुभ्यति मे मार्या करोति परिगृहाति संगान् । यवाहारोऽईदादिसाक्षिकं प्रत्याख्यातः स प्रार्थ्यमानोऽहिंसा नशेषान्दो पाननुजयति इति वक्तुमुत्तरत्रबंधमाह आश्वासः の १४८५ Page #1501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलागधना आश्वास मूलारा-हिंसदि षड्जीवनिकायान्दिनस्ति । हस्सदि भोजनतदंगप्रतिबंधकाय कुप्यति । लन्भदि प्रहं विधते धनादावाहारासादने । संगे गृहगृहिण्यादीम् ।। छोडे हुए आहारका सेवन करनेसे प्रत्याख्यानभंग होता है. प्रत्याख्यानको छोड़कर जो आहारकी अभि लापा करता है वह हिंसादि संपूर्ण दोषोंको उत्पन्न करता है इस अभिप्रायको प्रगट करते हैं ___ अर्थ-यह जीव आहारके लिये छहकाय जीवोंको मारता है. असत्य वचन बोलता है. चोरी करता है. आहारका लाभ न होनपर रुष्ट होता है. और होनेपर जादा लोम बहाता है. आहारके वास्ते मनुष्य कपट करता है. तथा परिग्रहाँको वाता है. होइ पारो णिल्लज्जो पयहइ तवणाणदसणचरितं | आमिसकलिणा ठइओ छायं मइलेइ य कुलस्स ।। १६४३ ।। रत्नत्रयं जगत्सारमाहारार्थ विमुंचति ॥ निस्त्रपो भुवनख्यातं मलिनीकुरुते कुलम् ।। १७०८॥ विजयोन्या-होह जरो जिल्लज्जो निर्लज्जो भवति नरः । आहाराथ परयाञ्चाकरणात् । प्रजाति च तपो, शान, वर्शनं चारित्रं च । आभिषाख्थेन कलिनावष्टन्धः छायां कुलस्य मलिनयति परोच्छिष्टभोजनादिना ॥ मूलारा -णिलज्जो आहारार्थ परयांचादिकरणात् । आमिसकलिदो आहारसंज्ञाल्येन कलिना पापकर्मणा । ठइदो व्याप्तः । अन्ये कलिदो आसक्तः । ठइदो बुभुक्षित इति व्याचक्षते । छायं शोभा माहात्म्यं वा ।। अर्थ-आहारके लिये मनुष्य याचना करता है. जिससे उसकी निर्लज्जता प्रकट होजाती है, आहारक लिये बह तप, ज्ञान, दर्शन और चारित्रको तिलांजलि देता है. आहार संज्ञारूपी पापक यश होकर अपने कुलको मलिन करता है. णादि बुद्धी जिन्भावसस्स मंदा वि होदि तिक्खा वि ॥ जोणिगसिलेसलग्गो व होइ पुरिसो अणप्पवसो ।। १६४४ ॥ Page #1502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROOTBREA भूलागधना आश्वासः जिहन्द्रियवशस्याशु बुद्धिस्तीक्ष्णापि नश्यति ।। संपते परायत्तो योनिगश्लेषलग्नवत् ॥ १७.५।। विजयोदया-गादि युद्धी बुझिनश्यति । आहारलपटतया युक्तायुक्तपिकाकरणात् कस्य । जिहाशस्य तीक्ष्णा पिसती पूर्व युद्धिः कंठा भवति । रसरागमलोपप्लुता अर्थयाधात्यं न पच्यतीति पारसीकपलेशलझलिंग श्य भवति पुरुषोऽमात्मवशः॥ मूलारा-शासदि आहारलंपटतया युक्तायुक्तविवेकाकरणात । मंदा रसरागमलोपटवात्कुंठा । अर्थयायात्म्यं न पश्यसीत्यर्थः । जोणिसिलेसलग्गो घनलेपारलग्न इव । अर्थ-जो मनुष्य जिवाके वश होता है. उसकी धुद्धि नष्ट होती है, अर्थात् वह आहार लुब्ध होकर युक्तायुक्त का विचार मनमें से निकाल देता है. जिहाके वशीभूत हुए मनुष्य की बुद्धि प्रथम यद्यपि तीक्ष्ण होगी तो आगे वह मलिन होती है. रसोंमें लुब्ध होकर पदार्थाका यथार्थ निश्चय करने में वह असमर्थ होती है. आहारलोजुलुप मनुष्य वज्रके बंधनसे मानो बंधा हुआ बिलकुल अस्वतंत्र होना है. E धीरत्तणमाहप्पं कदण्णदं बिणयधम्मसम्मावो ॥ पयहइ कुणड अणत्थं गललगो मच्छओ चव १६४५ ॥ धर्मधर्यक्रतज्ञत्वमाहात्म्यानि निरस्यति ॥ महान्तं कुरुतऽनर्थ गललग्ना यथा ऋषः ।। १७१० ॥ विजयोदया-धीरसं धीरत्व, माहात्म्य, कृनशता, विनयं, धर्मश्रद्धां च प्रजवाशि 1 करोत्यनर्धश्रद्धां च । प्रजछाति करोत्यनर्थमात्मनः । गलावलममरस्य इव ।। मूलारा-कदादा कृतज्ञता। अणथं मरणांत दुःखमात्मनः। गललको बखिशासक्तः । मरहगो व मत्स्य एव ॥ अर्थ—आहारके वश होकर मनुष्य धैर्य, महत्ता, कृतज्ञता. विनय, धर्मश्रद्धा, इन गुणोंको छोड़ देता है. गलमें लगी हुई मछली जसे अपने प्राणोंको छोड़ देती है वैसे आहारलुब्ध पुरुष भी अपने प्राणोंको छोड़ देते हैं. Page #1503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आभास आहारत्थं पुरिसो माणी कुलजावि पहियकित्ती वि ॥ मुंति अभोजाए कुणइ कम्मं अकिञ्चं खु ॥ १६४६ ।। कुलीनो धार्मिको मानी ख्यातकीर्तिर्विचक्षणः ॥ अमात्यं वल्मत वस्तु विरुद्धां कुमते क्रियाम् ॥ १७११ ।। विजयोदया-थाहाराणं आहारा भुजत अभोज्यानि पुरुषो । मानी कुलीनः, प्रार्थनकीतिरपि अकरणीय करोति ॥ मूलाग-पाणी मानिनोऽपि । अकि च करणायोग्यमपि ।।। अर्थ- आहारक वदा होकर पुरुष अभक्ष्यमक्षण भी करता है. मानी, कुलीन, कीर्तिमान भी पुरुप आहार लुब्ध होकर अकार्य करते हैं. INGREETTESESEGIONAHARASTARA आहारत्थं मजारिसुसुमारी अही मणुस्सी वि ।। दुभिक्खादिसु खायंति पुत्तभंडाणि दइयाणि ॥ १६४७ ।। इहपरलोइयदुक्खाणि आवहंते परस्स जे दोसा ॥ ते दोसे कुणइ णरो सम्बे आहारगिहीर ! १६४८ ॥ दुर्भिक्षादिषु मार्जारीशिंशुमाराहिमानवाः।। वल्लभान्यप्यपत्यानि भक्षयन्ति शुभुक्षिताः ॥ १.१२ ॥ ये जन्मद्वितये दोषाचनानर्थकारिणः ।। ते जायतेऽखिला जन्ताराहारासतचेतसः ॥ १७१३ ॥ बिजयोदया-स्परम् ॥ अभक्ष्यतमभक्षणं क्षुधातीनां लक्ष्यति मुलारा-अही सीः स्त्रीत्वादभक्ष्यतमाः। मगुस्सा मानुषी: सजातीयत्वात्स्त्रीत्वाच्चाभक्ष्यत्तमाः। दुभिक्खादिसु दुर्भिक्षदुर्गापरोधादिषु । पुत्तभंडाणि सुपुत्रान् ।। T AARAARAATसर Page #1504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः आहारगृहे सर्वापराधकारणत्व माहमूलारा–णरस्स आत्मनः। अर्थ--माजारी, शिंशुमारी, सर्पिणी, और खी भी दुष्कालादिक प्रसंगमें अपने प्रिय बालकोंको भी खा जाते हैं. 'जिन दोषोंसे इहलोक और परलोकमें दुःखोंकी प्राप्ति होती है मनुष्य आहार लुन्ध होकर उन सर्व दोपको कर दालता है. १४८९ र उत्तरगाथा यम् आहारलोलुपतया स्वयंभृरमणसमुद्र तिमितिमिगिलादयो मस्स्या महाकाया योजनसहनायामाः परमास विवृतबदनाः स्वपन्ति । निद्राविमोक्षानन्तरं पिहिताननाः स्वजठरप्रविष्टमत्स्यादनाहारीकृत्य अवधिष्ठाननामधेयं नरकं प्रविशति । लत्कयल ग्रमलाहागः शालिसिपथमात्रतनुत्वाच्च शालिसिक्थसंशकाः यदीशममार्फ शरीर भवत् । किं निःसतुपकोऽपि जन्तुर्लभते ? सर्षाभक्षयामीति कृतमनाप्रणिधानास्ते तमे बावधिस्थानं प्रविशति । इति कथयति गाथ्या अवधिट्ठाणं गिरयं मच्छा आहारहेदु गच्छति ॥ तत्थेवाहारभिलासेण गदो सालिसिच्छो वि॥ १६१९ ॥ अहार संज्ञपा श्वभ्रं महान्तं सप्तमं परम् ।। गच्छन्ति तिमयो यातः शालिसिक्योपि नष्टधीः ॥ १७१४ ॥ विजयोन्या-अवधिकृष्णमित्यादिका गाथा ॥ चक्रधरो बि सुभूमो फलरसगिट्टीए वंचिओ संतो॥ णटो समुहमज्झे सपरिजणो तो गओ णिरयं ।। १६५० ॥ चतुरंगषलोपेतः सुभूमः फललालसः॥ नष्टोऽमोधी निजैः सार्धं ततोऽपि नरकं गतः।। १.१५॥ विजयोषया-बाथरो पि सुभूमो नाम पहलांछनः फलरसगृहया वंचित समुद्रमध्ये विष्टः सपरिजनः । पचास नरकं गतः । Page #1505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाराधना आचासः 18 मत्स्यमुभौमदृष्टांताभ्यां आहारगृद्धिदोषानिदर्शयितुं गाभायमाह-- मूलारा--अवधिद्वाण सप्तमनरकभूमी अवधिस्थानाख्यं प्रस्ता। पाहारगतिजनितपासक हेलुनिमित्तं यत्र गमने । सालिसिथो शालिसिक्थकमानगात्रत्याकछालिसिषथो नाम क्षुद्रमत्स्यः । तत्कथानकं यथा-स्वयंभूरमणसमुद्रवास्तव्या योजनसहस्रायामा योजनपंचाशन्माप्रपृष्ठविभाः , सार्बयो अनशतद्वोचलाया महामत्स्या आहारलोटुपत्वेन पण्मासान्मुझे प्रसार्य तिष्टंति । ततो मुख पिधायांतः प्रविष्टेतरमत्स्यादीभक्षयित्वा बद्धोमपामानोऽयधिस्थानं ब्रजति । तत्कर्णचासिनस्तत्कर्णमलादाराश्च तद्दष्टांतरालनिर्गच्छतो मत्स्यादीन अवलोक्य इमे अवशानिनो यन्मुख पिधातुं न जानंति यदीदमस्माकं शरीरं भवेनिःसर्तुमकोऽपि न लभेतेति कृवोत्कृष्टरौद्रध्याना: झालिसिक्यका अपि तत्सहवासिनो भवति ।। मुखरा-चक्कघरो अष्टमः । वंचिदो प्रतारितः। णित्यं सनम ॥ स्वयंभृरमण समुद्र में तिमि तिमिगिलादिक महामत्स्य रहते हैं. उनका शरीर बहुतही बटा रहता है. उनकी शरीरकी लंबाई हजार योजनकी कही है. वे मत्स्य छह मासतक अपना मुंह उघाडकर नींद लेते है. नींद खुलने के बाद आहारमै लुब्ध होकर अपना मुंह बंद करते हैं. तब उनके मुहमें जो मत्स्यादिक प्राणी आत है उनको वे निगल जाते हैं. ये मत्स्य आयुष्य समाप्तिक अनंतर अवधि स्थान नामक नरकमें प्रबंया करते हैं. इन मत्स्यांक कानमें शालिसिक्थ नामक मत्स्य रहते हैं व उनके कानका मल खा कर जीवन निर्वाह करते हैं. उनका शरीर तंडुलक सीथके प्रमाणका रहता है अतएव उनको शालिमिक्थक ऐसा अन्वर्थक नाम है. वे अपने मनम यदि हमारा शरीर इन महामत्स्योंकि समान बदा होता तो हमारे महसे एक भी पाणी निकल नहीं सकता. हम संपूर्ण प्राणिओंको खा जाते ऐसा विचार सतत करते हैं. इस विचारसे उत्पन हुए पापोंसें वे भी उसी नरकम प्रवेश करते हैं. यही अभिप्राय आगेकी गाथासे आचार्य कहते है अर्थ-आहारकी अभिलाषासे मत्स्य अवधि स्थान नामक सातये नरकमें ममन करते हैं. इस आहारामिलापसे ही शालिसिक्वक मत्स्य भी उसी नरकमें उत्पष हशा. ( इसकी कथा आराधना कथाकोषमें दखो) अर्थ-फलोंके रसका आस्वादन करने में आसक्त होकर सुभूम चक्रवर्ती भी अपने परिवार सहित समुद्रमें पडकर मर गया और नरकमें उत्पन्न हुआ. RONSTAB FBIHAR १४९ OPEN Page #1506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासः बलाराधना आहारत्थं काऊण पावकम्माणि तं परिगओ सि ॥ संसारमणादीयं दुक्खसहस्साणि पावतो॥ १६५१ ॥ आहार संशया कृत्वा पापं दुरुत्तरम् ।। चिरकाल भवाम्भोधी प्राप्तो दुग्यमनारतम् ।। १७१६ ॥ विजयोदया-आहारार्थ पापानि कर्माणि कृत्वा संसारमनादिकं प्रविष्टी भवाम्दुखिसहस्राणि वेदयमानः ॥ एषमाहारदोपाम्प्रकाश्य क्षपके अवतारयति--- मूलारा--परिंगदो भ्रान्तः ।। अर्थ-हे क्षपक इस आहारके वश होकर तुने अनेक पापकर्म कर अनादि संसारमें भ्रमण किया था. हे क्षपक ! अनादि कालपर्यंत तूने आहार वश होकरही हजारो दुःख सह लिये थे. पुणरवि तहेब तं संसारं किं भमिदुमिच्छसि अणतं ।। जं णाम ण वोच्छिज्जइ अजवि आहारसपणा ते ॥ १५१२ ॥ कि स्वमिच्छसि भूयोऽपि भ्रमितुं भवकानने ॥ दुमदामशमाकांक्षा येनाद्यापि न मुंबसि ।। १७१७ ।। विजयोदया-पुणरवि पुनरपि । तथैव संसारमनेतमरितु किमिच्छसि ? यसाधाप्याहार तृष्णा नगर्यात ॥ मूलारा-ण बोछिरजदि न निराक्रियते । ते त्वया । उक्त च कि त्वमिच्छसि भयोऽपि भ्रमितुं भवकानने ॥ दुःखदासशनाकांक्षा येनाधापि न मुंबसे ।। अर्थ-हे क्षपक तेरी आहाराभिलापा अद्यापि शांत नहीं हुई है अतः तूं अभी भी पूर्ववत् अनंत संसारमें भ्रमण करना चाहता है क्या ? १४२ PATRA Page #1507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलारामना आश्वास जीवस्स णत्थि तित्ती चिरंपि भुजंतयस्स आहारं ॥ तित्तीए विणा चित्तं उच्चूर उन्हुदै होइ ॥ १६५३ ॥ आहार वसभमानाऽपि चिरंजीबो न तप्यति ॥ उठवृत्तं सर्वदा चित जायत तृप्तितो विना ।। १७१८ ।। विशेश्या-जीवसर पनि हिली जय नामित तृमिः चिरमध्याही भुजानम्य । तृपया च विना विर्स नितरामुपले भवति । Hasir... मृलारा-धूरं अत्यंत । उदं आकुलं ॥ अर्थ---हे क्षपक ! चिरकालपर्यंत आहार ग्रहण करके भी यह जीव तृम नहीं हुआ है और नप्तिके बिना यह चित्त अत्यंत आकुल रहता है. जह इंधणेहिं अग्गी जह य समुद्दो णदीसहस्सेहिं । आहारण ण सको तह तिप्पेदु इमो जीवो || १६५४ ॥ इंधनेनेव सप्तार्षिः सलिलेनेव बारिधिः ॥ अंधसा गृह्यमाणेन जीवो जातुन तृप्यति ।। १७१९ ॥ विजयोध्या-जह रंधणरि मागी यथेन्धनरशिदीसहौलवधिस्तर्पयितुमशक्यस्सथाहारेण जीयः॥ मूलारा--स्पष्टम् ॥ अर्थ-जैसे इंधनोसे अग्नि तृप्त नहीं होता. जैसे हजारो नदीओसे समुद्र उप्त नहीं होता है तथा यह जीव भी आहारसे कभी भी तृप्त नहीं होता है, देविंदचकबट्टी य वासुदेवा य भोगभूमा य ।। आहारेण ण तिता तिप्पदि कह भोयणे अण्णो ।। १६५५ ॥ Page #1508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लारावना आबासः भोगिनश्चाक्रणो रामा पासुदेषाः पुरंदराः॥ नाहरिस्तृप्तिमायातास्तृप्यंत्यत्र परे कथम् ।। १७२० ।। विजयोदया-देविंदचकबट्टी य देवेचा लाभास्तरायक्षयोपशमप्रकर्षात् भात्मीयतनुतेजोनिमित्तेन आहारण, चकवर्तिनोऽपि षष्ट्यधिकत्रिशतसूएकार्यषमात्रेणेकदिनाहारेण संस्करणोद्यतैः ढोकितेन तथा चावर्तिनोऽपि । भोगभूमिजा भोजनांगकरपतरूप्रभवेन न हमाः कथमन्यो जनस्सृष्यति ॥ मूलारा-देविदेत्यादि मुरेद्रा लाभान्तरायभयोपशमप्रकर्षादात्मीयतनुतेजोनिमित्तेनाहारेण न नृपाः । नाप्युभयंऽपि चक्रिणः पाट्यधिकत्रिशतमूपकारैः वर्षमात्रेणैकदिनमाहारसंस्करणोदाने हाकितेन, नापि भोगभूमिजातभोजनांग. कल्पतरूप्रभवन ॥ अर्थ-देवेंद्रों को लाभांतरय कर्मका तीन क्षयोपशम रहता है इस लिये उन शरीरमें कोनि स्थिर करने वाला जो आहार उसकी प्राप्ति होती है उससे वे तृप्त नहीं होते हैं. मफल चक्रवर्ती और त्रिखंड चक्रवर्तीक घरमें तीनसो साट रसोइया ये सब मिदनार दररोजजा दिनका र न्यार करते हैं उसका भोग लेकर चक्रवर्तीऑकी भी तृप्ति नहीं होती है. भोगभूमि जीव भी भोजनांग नामक कल्पवृक्षसे दिव्य आहार की प्राप्ति करके संतुष्ट नहीं होते हैं. उपर्युक्त देवेंद्र, चक्रवर्ति और भोगभूमिज जीव लाभान्तराय कर्मके श्योपशमसे युक्त होते हूँ इनको स्वेच्छित आहारके पदार्थ मिलते हैं तो भी वे तृप्त नहीं होते हैं तो अन्य तुझसरीखे.जन कैसे तृप्त होते हैं? उध्दुदमणस्स ण रदी विणा रदीए कुदो हवदि पीदी ॥ पीदीए विणा ण सुहं उदुदचित्तस्स घण्णस्त ॥ १६५६ ॥ रत्याकलितचित्तस्य प्रीतिनास्ति रतिं विना॥ पीति विना कुता सौख्यं सर्वेवा गृद्धचेतसः ॥ १५२१ ॥ विजयोन्या-उछुदमणस्स तो मद्रमतो भद्रमस्मानेवमिति परिष्लबमानेचतसो न रतिः, कच तया धिमा प्रीतिः। प्रीत्या च पिना सुखचलचित्तस्य तसबाहारलपटस्य ।। मुलारा-उद्दुदुमणस्त इदमितो भद्रमस्माच्चेदमिति परिप्लवमानचेतसः । चण्णम्म तत्तदाहारलंपटम्य ।। अर्थ-यह आहार स्वादु है यह आहार मीठा है इससे मैं सुखी होता हूं ऐसे विचारसे मनुष्यका मन Page #1509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ POST इलाराधना हमेशा चंचल होता है. इसलिये रतिको प्राप्त होता नहीं. विना कि प्रीतिकी उत्पत्ति कैसी हो सकती है? और पीतीके विना आहार लंपट पुरुषको सुख नहीं होगा. आश्वासः सव्वाहार विधाणेहिं तुमे ते सव्वपुग्गला बहुसो । आहारिदा अदीदे काले तित्तिं च सि ण पत्तो ॥ १६५७ ॥ पद्धला विविधोपायैः सकला भक्षितास्त्वया ।। अतीतेऽनंतशः काले न च सृप्तिं मनः श्रितम् ॥ १७२२ ॥ विजयोदया-सच्याहरणविधाम मसानपानमाविकोपा सरे प्रल, यआहारिसा अतीते | काले कृप्ति वन व प्रासो भवान् ।। मलारा-विधाणेहि अशनादिविकल्पः। अर्थ--इक्षपक! आजतक जितना भूतकाल व्यतीत हुआ है उतने कालमें अन्न, पान, खाद्य और लेह्य ऐसे चार प्रकारके आहार तूने बहुबार भक्षण किये है तो भी तू तृप्त नहीं हुआ है, 86RBSEAN NERISHNA किं पुण कंठप्पाणो आहारेदूण अज्जमाहारं ॥ लभिहिसि तित्ति पाऊणुदधिं हिमलेहणेणेव ॥ १६५८ ॥ भोज्यं कंठगतप्राणैर्भुक्त्या प्रार्थनयाहृतं ॥ किमिदानी पुनस्तृप्ति सुबद्ध ! त्वं गमिष्यसि ? ॥ १५२३ ॥ न तृप्तिर्यस्य संपन्ना पीते जलनिर्जले ।। अवश्यायकत्रैिः पीतैः किमु स तृप्यति ॥ १७२४ ।। विजयो-कि पुण किं पुनः कंठमाणोप्याहारं गृहीत्या प्रीति लप्स्यसे । पीत्योदधिन तृतो यथा हिमलहनन ॥ मूलारा-कंठप्पाणो कंठगवप्राणः । लभिहिसि प्राप्स्यसि त्वं । हिमलेहणेणे व अवश्यायस्य जिहयास्वादनेन यथा न तुप्यति पीखोवधि न तृप्तः संस्तया त्वमप्यध प्रयुक्तेनाहारेण न तय॑सीत्यर्थः । १४२४ Page #1510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ-जैम कोई मनुष्य समुद्रको पीकर भी तृप्त नहीं हुआ तो वह क्या एकाद हिमबिंदुका आस्वादन करनेसे तृप्त होगा? वैसे हे क्षपक तू आजतक आहार भक्षण कर तप्त नहीं हुआ है. आज तेरे कंटमें प्राण आये है तो आज आहार ग्रहण कर तू नृप्ति की प्राप्ति कर लेगा क्या? विचार कर और आहारच्छा छाड द. आश्वासः Asafone - को एत्थ विभओं दे बहुसो आहारभुत्तपुठचम्मि ॥ जुज्जेज्ज हु अभिलासो अभुतपुयाम्मि आहारे ॥ १६५९ ॥ भुक्तपूर्वे यते ! कोऽस्मिनाहारे तव विस्मयः ॥ अपूर्वे युज्यते कर्तुमभिलाषो हि वस्तुनि ॥ १७६५ ।। विजयोदया-को एत्य विभो कोऽत्र विस्मयः । आहार बहुसो भुत्नपुञ्चे युज्यते आहारार्थे अमिलापो भुक्तपूर्वे.. मूलारा-आहारा आहारे । जुजेज्ज युक्तो भवेत् । अर्थ-जो आहार पूर्वकालमें अनेकवार भक्षण किया था उसमें फिर अभिलाष तेरे मनमें उत्पन्न हुई है. इसमें आश्चर्य करना फिजूल है जिसका भक्षण किया नहीं था उसमें भी अभिलाषा जीवको उत्पन्न होती है. आबादमेत्तसोक्खो आहारण हु सुखं बहुं अस्थि ॥ दुःखं चैवत्थ बहुं आहटुंतस्स गिद्दीए ।। १६६० ॥ आपानसुरबदे भोज्ये न सुख बहु विद्यते ॥ गृद्धितो जायते भूरि दु:ग्वमवाभिलाष्यतः ।। १७२६ ॥ विजयोदया-आवाद मित्तसोक्तो जिलाप्रपातमानसुख आहार । न सुखमय बदस्ति । दुःखमेवान बलु अमिलषत आहारगुज-या ॥ मुलारा- आबादमेत्तसोक्सो जिहामेलापकमावसुखः । आइतस्स अभिलपतः । अर्जयनो वा ।। . . अर्थ-जब जिह्वाके उपर आहार आता है तभी मुख होता है. वह भी सुख अत्यल्प है. परंतु अतिशय Page #1511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः अमिलापाम आहार ग्रहण करनेम सुखकी अपेक्षास दुःखही जादा है. अथवा आहारकी प्रानि करने के लिये अधिक कष्ट करने पड़ते हैं अतएव आहारमें सुम्ब कम हैं और दुव अधिक है. सुखस्याहप्तायाः कारणमाच जिब्भामूलं बोलेइ वेगदो बरहओव्व आहारो ।। तत्थेव रसं जाणइ ण य परदो ण वि य से परदो ॥ १६६१ ॥ अतिक्रामति वाजीव जिहामूलं स वेगतः ॥ तत्रैव बुध्यते स्वाद भुजानो न पुनः परे ॥ १७२७ ।। विजयोश्या-सिखाया मूल धेगेनातिकामत्याद्वारः जात्यय इव । जिल्लामात्र पर रस सि जीयो न आला. रानुपरितः, न पुरसोऽप्रतः । जापान जिहा। कुतो भोक्राहारामुखमल्पमित्यवाह---. मुलारा-चोलेदि वेगेन जिल्ला पयित्वा यातीत्यर्थः । तत्थेव जिह्वामान एव । अल्पैथ जिला 1 रस स्वाद । जाणदि पेत्ति । भोक्ता । पुरदो जिवायाः पूर्वस्मिन मुखदेश । से जिह्वायाः। परदो परस्मिन्भागे गलदेशातौ ॥ अक्तं च जात्या इव वाहारो जिलामे त्यानिवेगतः ॥ तत्रैव तद्रस वेत्ति नैवापिरतोऽपि वा ॥ अर्थ--जैसे उत्तम घोडा बडे वेगसे दौडता है वैसेही यह आहार भी जिल्लाके अग्र भागका उल्लंघन करके शीघ्र पेटमें प्रवेश करता है. जिड़ाके अग्रभागमेंही आहारका रस जाननेका सामर्थ्य है अर्थात् संपूर्ण जिल्ला आहार का रस जानने में असमर्थ है ऐसा समझना चाहिय. आहार थालीम परोसा है एसी अवस्थामें अथवा वह पेटमें लेजानके अनंतर जीव उसका रसस्वाद लेने में असमर्थ है. और जिल्हा अल्प भी है इस लिये आहार का सुखानुभव अत्यल्प है. अच्छिणिमिसेणमेत्तो आहारसुहस्स सो हवइ कालो ॥ गिद्दीए गिलइ वेगं गिडीए विणा ण होइ सुखं ॥ १६६२ ॥ p९६ Page #1512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पठाराधना आमासः निमेषमात्रके सौख्यमाहारग्रहणे परं ॥ गृद्धितो गिलति क्षिप्रं तया न हि विना सुखम् ॥ १७२८॥ विजयोदया-अच्छिणिमेसणमित्तो अक्षिनिमेपणमात्रः कालः । याहाररससवाजनितसुखस्य गुजया बेगेन गिरति । यस्तो गृथा च विना नास्तीद्रियसुखं ॥ मूलारा-आहार सुहस्स आहाररसजनितसुखस्य । वेगं शीघ्रम् ॥ अर्थ-आहारके रसानुमबसे जो सुख मिलता है उसका काल आंख मूंदकर फिर उघदन में जितना काल लग सकता है उतना है. यह जीव अमिलाशसे आहारको शीघ्र निगल जाता है. और अभिलायाके बिना इंद्रिय सुखकी प्राप्ति होती नहीं. दुक्ख गिद्धीपत्थस्साहÉतरस होइ बहगं च ॥ चिरमाहट्टियदुग्गयचेडस व अण्णगिट्टीए ॥ १६६१ ॥ अशन कांक्षतो नित्यं व्याकुलीभूतचेतसः ।। दरिद्रचेटकस्येव गृद्धस्यास्ति कुतः सुखं ।। १७२९ ।। विजयोदया-दुक्म्यं गिदीवायरस दुरव महअधति लंपटनया प्रस्तस्याभिलपतः । निरमाइटिपदुग्गदचे उस्स व अण्णागिद्धीप धनगृया चिरं व्याकुलस्य दरिद्रसंबंधिनो दासेरस्येष। मूलारा-गिद्धीपत्थर लंपटताअम्तम्य । आहटुंतरस आहारमभिलपनः । आहदि व्याकुलस्यानगृद्धया । दुग्ग. दचहान दरिद्रदासेरस्य । अर्थ-आहारमें लंपट होकर जो उसकी अभिलाषा करता है उसको बडे बडे दुःख भोगने पड़ते हैं. जो चिरकालसे अन्नकी अभिलापासे पीडित हुआ है ऐसा दरिद्री पुरुष जैसे दुःख पाता है वैसा दुःखानुभव आहार लंपटीकी भी होता है. - - को णाम अप्पसुक्खस्स कारणं बहुसुखस्स चुक्केज्ज ॥ चुका हु संकिलिसेण मुणी सग्गापवग्गाणं ॥ १६६४ ॥ Page #1513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मा আম্মা १४९८ को नामास्पसमधस्पार्थे चंच्यते सुखतो बहोः॥ संक्लश क्रियते येन मृतिकालऽपि दुर्षिया ॥ १७३० ।। विजयोक्या-कोणाम अप्पसुक्खस्स कारण को नामापसुस्वनिमित्तं महतोऽनिमित्तमुखात्प्रच्यवतं च मुनि संक्शन स्वर्गापवर्गसुस्वाभ्यां । मूलारा-बहुसुहस्म नितिसुरुवात् । चुकेच प्रत्यधेत ॥ अर्थ-कोनसा प्राणी घोडेसे सुखक लिये बहुत सुस्व जिससे मिलता है ऐसे निमित्तांको छोड देगा. अर्थात् सपक : तूंगम भक्षण कर थोडासा सुग्व अल्पकालतक टिकनवाला प्रात कर लेगा परन्तु इसस तुझको स्वगसुख और मोक्षसखस वंचित रहना पडेगा. आहागभिलापास संक्श परिणाम वृद्धिंगत होत है और उनमें स्वर्गापर्ग सुखसं हाथ धोने पड़ते हैं, - महलि असिधार लेहइ भुंजइ य सो सविसमण्णं ।। जो मरणदेसयाले पच्छेज अकप्पियाहारं ॥ १६६५ ।। मधुलिप्तामसेर्धारा निशाता स लिलिक्षति ।। धभुक्षते विष घोरं संन्यस्तोयोडशनायति ।। १७११ ॥ विजयोदया-महुलितं मधुना लिप्तामसिधारां आस्वादयति । सविषमशनं भुसे यो मरणदेशकाले अयोग्या द्वारप्रार्थनां करोति । प्रत्याख्यातभक्तस्यासन्नमृत्योर्दुरिमोहोदयादाहारमिच्छतो दृष्टांतद्वारेण महांत बोषमावेदयसि-- मूलारा -मरणदेसयाले मरण दिशति ददामि कथयति या मरणदेशः स चासौ कालश्च तस्मिन्मृत्युवेलायामि त्यर्थः । पच्छेन्ज बांछेत् । अकप्पियाहारं अईदाविसाक्षिक प्रत्याख्यातत्वादयोग्यमाहारं ॥ . . अर्थ-जी क्षपक मरण समयमें अयोग्य आहारकी अभिलाषा रखता है वह शहदसे लपेटी हुई तरबारकी धाराको जिह्वासे चाटता है ऐसा समझना चाहिये. अथवा वह षिमित्र दुआ अन्न खाता है ऐसा समझना चाहिये. तात्पर्य यह है कि आहार की अभिलाषासे संक्लेश परिणाम होते हैं जो कि दुर्गती के कारण हैं. १४९ Page #1514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागवन! আস্থা - असिधारं ब विसं वा दोस पुरिसस्स कुणइ एयभवे ।। कुणइ दु मुर्णिणो दोस अकप्पसेवा भवसएसु ॥ १६६६ ।। असिधाराविष दोषमेकत्र कुरुतो भवे ।। अशमाया पुनर्जन्तोर्दुरितं भवकोरिषु ॥ १७३२ ॥ बिजयोवया-असिधार व असिधारा वा विष वा पुरुषस्य दोषमेकस्मिन्नेव भषे करोति । अयोग्यसेनं भषशतेषु मुमर्दोष करोति ॥ __ मूलारा-अकल्पसेवा अयोग्योपयोगः ।। अर्थ-तरवारकी धारा अथवा विष ये दोन चीजे एकभवमें ही पुरुषका नुकसान करती है परंतु मुनिओं | कलिय आयोग्य आहारका सेवन सैकडो भवोंमें हानिकारक होता है. अर्थात कुगति में दुःख देनेवाला होता है. जाति किंचि दुक्खं सारीरे माणसं च संसारे ।। पत्तो अणंतखुत्तं कायरस ममत्तिदोसेण ।। १६६७ ॥ शारीरं मानसं दुःखं दृश्यते यजगधये ॥ नदानि यतेः सर्व अशनाया विसंशयम् ॥ १७३३ ।। चिजयोदया--जावंति किं चि बुक्ख गावकिचिद्दःखे शारीरं मानसं वा संसार त्वमनंतधार प्राप्तवान् | तत्सर्य शरीरममतादोषणय ॥ कि च कायममत्वादेव तबाहारे स्पृहा प्रादुर्भवति तच्च संसार कारणकर्मबंधनिबंधनत्वाद्दुःखावर्तनिमित्तमत स्तत्परिहाराय संततं प्रयतस्वेति शिनायितु उत्तरप्रबंधमाह -- मूलरा-ममत्तिदोसेण ममायामस्य म्वामी उपलक्षवादग्रमेयामहमेचायमिति च ममत्वं तदेव दोषो वैकारिक रूपमात्मनः । नेन हेदना। अर्थ हे क्षपक! इस अनादि संसारमें अनंतवार जो शारीरिक अथवा मानसिक दुःख तुमको भोगने पडे हैं उनका कारण एक शरीरके ऊपर ममता करना यही है. अर्थात् शरीरस प्रेम आजतक तेरा नहीं नष्ट हुआ इससे ही सर्व दुखोंका तू पात्र बन चुका है. १४९५ AAISALC aARA Page #1515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराश्न! १५०० एण्डं पि जदि ममति कुणसि सरीरे तहेब ताणि तुमं ॥ दुक्खाणि संसरतो पाविहसि अनंतयं कालं ॥ १६६८ ॥ यते । देममत्वेन प्राप्तं दुःखमनारतम् ॥ रिकुरु । १७३४ ।। विजयोदयापदानीमपि द्वारी करोषि ममतां तथैव तानि दुःखानि चतुर्गतिषु परावर्तमानोऽनंतकालं प्राप्स्यसि ।। महारा-- संमरतो चतुरी परिवर्तनानः ॥ अर्थ - पूर्ववत् इस समय में भी यदि तू शरीरस्नेह को न छोड़ेगा तो चतुर्गतिओं में अनंतकाल भ्रमण करता हुआ तू पुनः उनही दुखाँका स्थान होगा- अर्थात् अनंतकालतक शरीरस्नेह दुःख देगा ही, शरीरस्नेह छोटना ही दुःखमे छूटने का उपाय हैं. स्थि भयं मरणसमं जग्मणसमयं पण विज्जदे दुःखं ॥ जम्मणमरणादक छिण्ण ममत्तिं सरीरादो || १६६९ ।। दुःखं जन्मसमं नास्ति न मृत्युसदृशं भयम् ॥ जन्ममृत्युकरीं छिंद्धि शरीरममतां ततः ॥ १७३५ ॥ विजयोदय--स्थि भयं मरणसमं भरणसदी भयं नास्ति । कुयोनिषु जन्मसमानं दुःखं न विद्यते । जन्ममर णालंकं छिंद्धि शरीरममतां । मूलारा–जम्मणभरणादकं जन्ममरणे आतंको मारणात्मकस्याधिरिष दुःखभयप्रकर्षत्वात् । तद्धेतुल्याच देहममत्वं तथोक्तम् । उक्तं च- दुःख जन्मसमं नास्ति न मृत्युसदृशं भयं ॥ जन्ममृत्यु विद्धि शरीरम्मत ततः ॥ अर्थ - इस जगत में मरणके समान अन्य भय नहीं है और योनियोंमें जन्म लेना महान दुःख दायक आश्वास ي १५०० Page #1516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "भूलाराधना है. इसके समान दूसरा दुःख है नहीं. इसलिये जन्ममरणरूपी म्याधीको उत्पन्न करनेवाली 'शरीरममता तु अपने हृदयसे दूर कर. आश्वासः असणं इम सरीरं अण्णो जीवोति णिच्छिदमदीओ ॥ दुक्खभवकिलसयरी माह ममत्ति कुण'सरीर ॥ १६७०।। परोऽयं धिंग्रहःसाधो! चतनोऽयं यतःपरः ॥ ततस्त्वं विग्रहस्नेह महाक्लेशकरं त्यज ॥१७३६ ॥ विजयोक्या-श्रण म सरीरं अन्यक्ति शरीरं अन्यो तुरिति मिश्रितमतिर्नुन संकलशसंपादनोघांमा कृथाः शरीरे ममताम् ॥ महादुःखोपायकायममत्वत्याजनाय देहात्मभेदभावनां भावयति भूलारा--दुकाबपरिकिलेसरि चित्ताप्रमादलक्षणन चित्तविशेषरूपेण वा दुःखेन क्रियमाणः परिक्लेश: शारीगे मानस मतापः । उत्करण कारणे । अर्थ-डे क्षपका यह शरीर भिन्न है और जीव इससे भिन्न है ऐसा निश्चयस समनकर दुःख और संक्श राहत परिणामोंकी जननी देहममता तू छोड दे. सव्वं अधियासंतो उवसम्यविधि परीसहविधि च ॥ णिरसंगदाए सल्लिह असंकिलेसेण तं मोहं ॥ १६७१ ।। सहमानो मुने! सम्यगुपसर्गपरीषहान् ॥ निःसंगरस्वमसालेष्टो देहमोहंतनूकूरु ॥ १७३७ ॥ विजयोदया-सव्य उपसम्गधिहि सर्व उपसर्गविकल्प परीपविकल्पं च सहमानो मोई मांस्तनूकुरु ।। णिस्संगतया असंक्लेशेन च । रामादिसंगत्यागभावनया आर्तरौद्रपरित्यागभावनया चोपसर्गाचभिभर्व परिहरन शरीरममत्वं त्रासयेति शिक्षार्थमाह-- १५०१ Page #1517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाराधना भावास मुळारा---विधि विकल्पं । णिस्संगदाए निःसंगत्वभावनया। सशिव कृशीकुक । असंकिलेसेण आसरौद्रभावना च सम्मोहं शरीर ममत्वं । उतं च-- सहमानो मुने! सम्यगुपसर्गपरीवहान् ॥ संक्लेशति- हे क्षपक सर्व प्रकासगस्त्य मसंक्लिष्टो देहमान अर्थ-हे क्षपक सर्व प्रकारके उपसर्ग और सर्व प्रकारके परीषह सहकर निःसंगत्वकी भावनासे और सक्लेशहित परिणामांसे तू मोह को क्षीण कर. वि कारणं तणादीसंथारो ण वि य संघसमवाओ ॥ साधुस्स सकिलेसो तस्स य मरणावसाणम्मि || १६७२ । राणानिसमारोशेवश्चतुर्दा संघमीलनम् ॥ निःफलं जायते साघो ! मृत्यौ संश्लिष्टचेतसः ।। १७३८ ।। विजयोदया- वि कारणं तणादी नैव कारण तृप्यादिनस्तरः सलेखनाया, नापि संघसमुदायः मरणावसाने संश्लिषयतः साधोः॥ मरणांते संक्लेश माविशतः संस्तसदिविधिधययमाह-- मूलारा-कारणं समाधिनिमित्नं । मरणावसामम्मि मृत्योनिकटे सति ।। अर्थ-यदि मरपाके समयमै संक्लेश परिणाम उत्पन्न होंगे. तो तृणादिकोंका संस्तर, और संघसमुदाय भी सल्लेखनाके मति कारण रूप नहीं होंगे, क्योंकि ये बाय कारण हैं, असंक्लेश रूप परिणाम ही सल्लेखनाकेलिए उपादान कारण माने गये हैं. इसलिए परिणामों में संक्लेश न उत्पन्न होगा ऐसा क्षपकने प्रयत्न करना चाहिए अर्थात् शरीरममताका त्याग करना चाहिए. जह वाणियमा सागरजलम्मि णावाहिं रयणपुष्णाहिं ।। पत्तणमासण्णा वि हु पमादमूढा वि बज्जति ॥ १६७३ ॥ Page #1518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासा रत्मसंभृतपावस्था वाणजःसागर यथा ॥ पत्तन निकषा साधो ' निमज्जति प्रभादतः ॥ १७३९ ।। बिज योदया--जह वाणियगा यथा वणिजो रत्नसं पूर्णामिभिः सह विनश्यति । समुद्रजलमध्य प्रमादन मूढाः पत्तनांतिकमागता अपि ॥ सम्यककृतशरीरसदेखनावतां संस्तरसंपवतामपि राद्वेषादिभावपरिप्रहापहिणामसमाधिकरणं स्यादिति प्रांतपुर:सरं समाधिभरणार्थिनमनुस्मरवि-- मूलारा-पमादमुढा निद्रादिना प्रमादेन तुर्वातमहामत्स्यचौरावित्रिनिपातमानतेवर्यतः (१) विषति मरणांता विपदमासादयति । रत्नपूर्णाभिनौमिः सह ।। अर्थ---जैसे नौकासे देशांतरमें जाकर व्यापार करनेवाले वैश्य रत्नोंसे भरी हुई नौकाके साथ शहरके समीप आकर भी प्रमादवश होनेसे समुद्रमें इनकर मरते है वैसे Sta सल्लेहणा विमुहा केई तह चेव विविहसंगहि ॥ संथारे विहरंता वि संकिलिश विवज्जति ॥ १६७४ ॥ तथा सिदिसमीपस्थाः शुद्धसस्तस्यायिनः॥ निपतंति भयावर्ते जीवाः संफ्लेशयोगतः ।। १७१० ॥ विजयोदया-सलेपणा विसुद्धा शरीरसलेखनाभावात् । संलचनया विशुद्धा अपि संतः। पूर्व केचित् वियि. घसंगहि विधिौरागद्वेषायिभावपरिग्रहः सह । सबारे विहरता पि संस्तर प्रवर्तमाना अपि । संविलिथा विवजनि संक्लिष्परिणता विनश्यन्ति ॥ मूलारा-सहना बिसुद्धा वि सम्यकृशीतपुपोऽपि । विविधसगेदि। विचित्र रागद्रषादिभावपरिग्रहे। सह । संकिलिट्टा आरौद्रध्यानाभ्यामाविष्टाः ।। अर्थ-शरीरसलखना तो जिनकी निरतिचार हो रही है परंतु मन में विचित्र संगद्वेषादिरूप भावपरिग्रह निवास करते हैं ऐसे मुनि कषायपल्लेख ना की शुद्धे नहीं होनेमे मस्तरमें आरूढ होनेपर भी संकेश परिणामांस क्लेशित होकर संसारसमुद्र में डूबकर मरते हैं. PRARA Page #1519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासा मल्लेहंगापारसममिमं कथं दुकरं च सामाणं ।। मा अप्पसोक्खहे तिलोगसारं वि गासेइ ॥ १६७५ ॥ सल्लेखनाश्रम सांधो ! धाग्निं च सदृश्चरम् ।। मा स्म त्याक्षीजगत्मारमल्पसाख्यजिघृक्षया ।। १७:१॥ विजयोदया सहाणायममिदं दारीपसलमानायां किरमा अनशनादिनरसा त्रिविधाहारस्यागेन, यायलीय वा पानारिशरण । जातं परिश्रममिम । शुभाच मामपणं दुक श य धामण्यं । चिरकालं त्रिलोकमा अनिशयितस्वीपत्रपसुम्नदानात् । अपसुपबहेर्दू अल्याहारसेवाजनितसुखमिमिले । मा विणायहि नैव विनाशय ।। एवं रागाभावमथदौर.त्म्यमवबुध्य खल्याहारसंघाजनितमुखाभिलाषणोकृष्टसुम्बमाधनं चिराम्यम्तदुरुकरनपोरन मागयेति शिक्षयति-- मुलारा-सलेयापरिस्सम शरीरसलेखनायो क्रियमाणायां अनशनादिना तपसा त्रिविधाझरत्यागेन याषजीर्य या पानपरिहारेण जातं देहेन्द्रियमनसा खेद । तिलोगसारं सातिशयाभ्युदय निःश्रेयससुखसंपादनात ॥ अर्थ- शरीरसल्लेखना करते समय अनशनादि तप करनसे, जलके बिना अन्य तीन प्रकारके आहारोंका त्याग करनेसे, तथा आमरण पानाहारका त्याग करनेसे जो श्रम हे पक! तुमको दुआ है उससे तुझको यह मुनि बत दुष्करसा दीखता है वो भी यह उत्कृष्ट स्वर्ग और मोक्षका सुख देनेवाला होनेसे लोक्यका अपूर्व सार है. ऐसे लोकोत्तर मुनिवतको आहारजन्य अल्प सुखके लिये हे क्षपक 'तू मत छोददे. धीरपुरिसपण्ण सप्पुरिसणिसेधियं उवणमिता ॥ घण्णा णिरावयस्वा संथारगया णिसञ्जति ॥ १६७६ ।। पुरुषकथितं धीरैमार्ग सद्भिनिषेवितम् ।। निरपेक्षाःभिता धन्या संस्सास्था निशेरते ॥ १७४२॥ विजयावया-धीरपुरिसपगणतं उपसर्गाणां परिपहाणां बोपनिपानेः अविचलधृतो ये धीरास्तरुपविष्ट सत्सव । सम्पुरिसणिसवियं सत्पुरुपनिषेवितं । मार्ग उवणमित्ता आश्रित्य । धण्णा धन्याः पुण्यचनः । जिराचयावा निरपेक्षाः परित्यक्तादानाः । संथारपया संस्तरारुदाः । सिर्जति शरते ॥ १५०५ Insi Page #1520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOOT आश्वासः मूलाराधना १५०५ । क्षपकप्रोत्साहनार्थमाह मूलारा-धीरा, उपसर्गायुपनिपातेऽपि अषियलधृतयः । उवणमित्ता आश्रित्य मार्ग । णिरावयक्खा प्रत्याख्यातप्रहणनिरपेाःसंतः । णिसज्जति निशेरसे विशुद्धयंतीत्यर्थः । वक्तंच पुरुषैः कथितं धारमार्ग सद्धिनिषेवितं ॥ निरपेक्षा:श्रिता धन्याः संस्तरस्था निशेरते ।। अर्थ-महान उपसर्ग और परिषहोंसे पीडित होनेपर भी जिनका धैर्य निश्चल रहता है ऐसे धीर पुरुषोंने इस मुनिग्रतका उपदेश दिया है. यह मुनिग्रत सत्पुरुषोंके द्वारा सेवन किया गया है. पुण्यवान मुनीश्वर जिन आहारोंका त्याग किया है उनका सेवन कभी भी नहीं करते हैं और संस्तरमें आरूढ होकर इस मुनिव्रतकी पूर्ण तया सिद्धि कर लेते हैं. तम्हा कलेबरकुडी पन्बोढव्वत्ति णिम्ममो दुक्खं ।। कम्मफलमुवेक्खंतो विसहसु णिव्वेदणो चेव ।। १६७७ ॥ कलेवरमिदं त्याज्यमिति विज्ञाय निःस्पृहः ५ सहस्व कर्मजं दुःवं निबेदन वाखिलम् ॥ १७४३ ॥ विजयोदया-तम्हा तस्मात् । कलेवरकुडी शरीरकुटी । पञ्चोढम्बात्त परित्याज्येति मत्वा । णिम्ममो शरीरे. ममतारहितो। दुपत्र विसहसु दुःखं बिसहस्व । कम्मफलमुयेकवतो कर्मफलमुपेक्षमाणो । णिम्वेदको चेव निषेदनमेव ॥ उपसंहारमाह--- मूलारा--पव्योहयत्ति परित्याग्मेति मत्वा । कम्मफलं निष्प्रतीकारमित्यर्थः । णिवेक्षणो चेष निवेदन इव ॥ अर्थ-इसलिये यह शरीररूपी मोपदी त्यागने योग्य है ऐसा समझकर हे क्षपक! शरीरमें तू ममता रहित होकर कर्मफलके विषयमें रागद्वेषरहित हो. वैराग्यमें तत्पर होता हुआ परीपहादिकोंसे उत्पन्न दुए दुःखोंको बेद- : नारहित समझकर सहन कर. CENTREATRETon १८९ Page #1521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास BASTER इय पण्णबिजमाणो सो पुच्वं जायसंकिलेसादो ॥ विणियत्ततो दुक्खं पस्सइ परदेहदुक्खं वा ॥ १६७८ ॥ एवं प्रज्ञाप्यमानोऽसौ त्यक्तसंशवासनः ।। अन्यत् पतमिवामी द्वारा पत्यति सर्वथा ।। १७४४ ॥ विजयोदया-नय एवं । पण्णविज्जमाणो प्रचाप्यमानः । सो पुवं जादसंकिलेसादो पूर्व जातसक्केशात् । विणियत्ततो विनिवर्तमानः । दुक्खं पस्सदि दुःख पश्यति । किमिव ! परदेहदुषत्र या परशरीरगतमिव दुःन । सम्यम्दृष्टिप्रशामिन क्षपकं प्रति तत्ताहक्प्रयोधनायाः फलबत्तां कथयति मूलारा--सो तत्त्वसंस्कारभावितःसन्यस्तः । पूव्यजाद पूर्वोत्तनात् । विणियसो विनिवृत्तः । विणियतो इति पाठे विनिवर्तमान इत्यर्थः । अर्थ--इस प्रकारसे जिसको उपदेश दिया जा रहा है ऐसा बह क्षपक उत्पन्न हुए संक्लेश परिणामोंको अपने मनसे घटाता है. और परीपहादिकोंसे उत्पन्न हुए दुःखको वह दुसरोंके शरीरगत दुःखके समान समझने लगता है. मानो मैं दुःखसे मुक्तही दुआ हूं ऐसा मानने लगता है. रायादिमहट्ठिययागमणपओगेण चा वि माणिस्स || माणजणणेण कवयं कायव्वं तस्स खबयस्स ॥ १६७९ ।। धन्यस्य पार्थिवादीनामागमादिप्रयोगसः ॥ . क्षपकस्यापि दातव्यो मामिनः कवचो दृढः ॥ १७४५ ॥ विजयोदया-रायादिमहद्रिययागमणपयोगेण राजाविमर्सिकागमनप्रयोगेण । चाचि माणिस्स मानिनोऽपि । माणजण मानसनेन । कवयं कायर्ष । कवचः कर्तव्यः । तस्स खषयस्स तस्प क्षपकस्य । मम धीरता द्रष्टुं अमी महदिका समायानाः। अमीषां पुरस्तावपि माणा यांति यांत काम तयापि स्वां मनस्विप्तां नाई त्यजामीति मानधनो दुःख सहते न कुरते बसभंग ॥ मानधनस्य प्रकारांतरेणापि कषयमितिकर्तव्यतयोपविशतिसुलारा-महिडियागमण महर्चिकानां तत्समीपनयन | माणजगणेण पूजाप्रशंसोत्पादनेन । तस्स दुर्निवारदुःखा १५०६ A Page #1522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५०७ तस्य । मानधना हि मम धीरतां द्रष्टुं इमे महद्धिकाः समायाता यद्यप्येषां पुरो वेदनायाः प्राणा यांति कामं यांतु । तथाप्य मनस्वितां न चामीति स्तभ्यमानो दुःख सहते ॥ अर्थ - हे क्षपक ! राजा वगैरह श्रीमान लोक तेरी सल्लेखाना देखने के लिये आये हैं ऐसा कहकर अभिमानी क्षपकको मान उत्पन्न कर कवच करना चाहिये. अर्थात् जब राजादिक श्रीमान् पुरुष क्षपकदर्शन करनेके लिये आते हैं तब उस क्षपककी अभिमानप्रशंसा करनी चाहिये. मेरी चढ़ता तथा धैर्य देखनेके लिये ये राजादिक पुरुष आये हैं इनके आगे मेरे प्राण चले जावे तोभी कुछ परवाह नहीं है. मैं अपना मान नहीं छोडूंगा. दुःख सहकर भी मैं अपने अतका नाश नहीं करूंगा ऐसे भाव क्षपकके मनमें राजादिकोंको लाकर उत्पन्न करने चाहिये. माइकवचं भणिदं उस्सग्गियं जिणमदम्मि ॥ अववादियं च कवयं आगाढे होइ कादव्वं ॥ १६८० ॥ इत्येष कोsयाणि संशेण गोपितः । विशेषेणापि कर्तव्यो दुःखे सति दुरुतरे ॥ १७४६ ॥ विजयtter- बेमादिकवचं भणिदं इत्येवमादिकः कचखः कथितो जिनमते । उस्सग्गिगो औत्सर्गिकः सामान्यभूतः । अषवादिगं कवचं काव्यं विशेषरूपोऽपि कवचः कर्तव्यो भवत्यागादे मरणे ॥ एवं दूर मरणश्य सामान्यरूपतया प्रबंधेन कवचमभिधाय निकटमरणस्य तं विशेषरूपतया विधेयमनुशास्तिमूलारा --- उत्सग्गियं सामान्यभूतः । अथवादियं विशेषरूपः । तत्कालोत्पन्नध्यानांत राय नि मिचक्षुदादिदुःखनिराकरणोपायतया यथायथं प्रयोज्य इत्यर्थः । अगाढे आसन्नमरणे || अर्थ --- इस प्रकार श्रीजिनमतमें कवचका औत्सर्गिक सामान्यस्वरूप कहर है. तथा जब आगाढमरण प्राप्त होता है तब विशेषरूप कवचभी करना चाहिये. जह कवचेण अभिज्जेण कवचिओ रणमुहम्मि सत्तूर्ण || जाय अलंघणिज्जो कम्मसमत्यो य जिणदि य ते ॥ १६८१ ॥ आश्वास 19 १५०० Page #1523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वास - - - स्तोष्यते क्षपक्रःसूरेर्वचनैर्हदयंगमैः ॥ चंद्रस्येच करैः शुद्धः शीतलैः कुमुवाकरः ।। १७४७ ।। क्षणेन दोषोपचयापसारिणः समेत्य वाक्यानि तमोऽपहारिणः ।। जबोऽपि सूरःक्षपको विबुध्यते महांसि भानोरिव नीरजाकरः।। १७१८ ॥ परीषई प्रभवति संस्तरे स्थितो निकर्तितुं परमपराक्रमक्रमः ॥ निराकुलः कवचधरस्तपोधनो रणांगणे रिपुमिव कर्कश भटः ॥ १७४९।। इति कवचः। विजयोदया-जह कयचेण यथा फवनेन । अभिज्जण अभेद्यन । कचिदो सन्नद्धः। रणमुहे सत्तूणमलंधिज्जो होदि रणमुखे शत्रूगामलंच्यो भवति । कम्मसमत्थो य महरणादिक्रियासमर्थः। जिणदि य हे जयति च तानरीन् । आमकवच चष्टान्तेनाध्यात्मिक्रकवचस्य फलं म्फुटयितुं गाथाद्वयमाह मूलारा- अभेजोण भत्तुमशक्येन । कवचिदो समतः । अलंघणिज्जो अनभिमाश्यः । कम्म प्रहरणफिश । ते शन ।। अर्थ--जैसे अभेद्य कवच पहना हुआ वीर पुरुष रणमें शत्रुके सम्मुख निःशंक होकर जाता है और वह शत्रुको अलंघनीय होता है अर्थात् शश्नु उसको मारनेमें असमर्थ होता है. शस्त्रमहारमें समर्थ वह वीरपुरुष शत्रु आको जीतता है. वैसे-- .. TATARRERA एवं खबओ कवचेण कवचिओ तह परीसहरिऊणं ॥ जायइ अलंघणिज्जो उझाणसमत्थो य जिणदि य ते ।। १६८२ ॥ घिमयोदया–पर्व खवगो एवं क्षपकः कवचनोपगृहीतः परीषदारिभिर्न लुप्यते, ध्यानसमर्थो जयति । तापरीषहारीन् । कवचुत्ति ॥ मूलाग--उबगहिदो आहितातिशयः । कवचः । सूत्रतः ३५ । अंकसः १७४ ॥ अर्थ--इस प्रकार क्षपक भी जब उपदेशरूपी कवचसे युक्त होता है तब परीषहरूपी शत्रु उसका पराजय Page #1524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १५०९ करनेमें असमर्थ होते हैं. इस कवचस पुल होकर धयार र शुक्लध्यान में तत्पर होकर परीषहरूप शत्रुको जीतता है. कवचाधिकारका वर्णन पूर्ण दुआ. एवं अधियासेतो सम्म खवओ परीसहे एदे ॥ सव्वत्थ अपडिबद्धो उवेदि सव्वस्थ समभाव ॥ १६८३ ॥ इत्येवं क्षपकः सर्वान्सहमानः परीषहान् । सर्वत्र निःस्पृहीभूतः प्रयाति समभित्तताम् ॥ १७५० ।। पिजयोदया-एवं अधिवासेंतो एवं सहमानः सम्यकपरीषहानेतान् । सर्वत्राप्रतिवनः शरीरे, वसती. गणे, परिचारकेषु च सर्वघोपैति समनित्तता । अथ तथाविधकवचोपग्रहालेन तादाविपरीपहसहिष्णोः अपकस्य निर्वत्या सर्वाधरणशिरोमणिकल्पामभिलध्यमाणसमाधिसाधनधौरेयतावलिला समतो गाथाषोडशकेन ब्याचष्टे-- गूला-एवं कवचोपग्रह विधिना । अधियासतो सहमानः । एदे तत्कालोपरिधतान । सब्वत्थ शरीरवसतिगणपरिचारकादौ । अपडिबद्रो ममेदमहमस्येति संकल्परहितः । उर्वदि प्रतिपद्यते । सब्वस्थ जीवितमरणादौ। समता वा रागद्वेपोपरम । अपि च अर्थ--इस प्रकार समस्त परीषहोंको अव्याकुलतासे सहन करनेवाला यह क्षपक शरीर, सतिका, गण और परिचारक मुनि इन सर्व वस्तुमें ममत्वरहित होता है. रागद्वेषोंको छोड़कर समताभावमें तत्पर होता है. . सव्वेसु दचपज्जयविधीसु णिचं ममत्तिदो विजडो ॥ णिप्पणयदोसमोहो उवेदि सव्वत्य समभावं ॥ १६८४ ।। समस्तद्रव्यपर्यायममत्वासंगवर्जितः ॥ निःप्रेमरागमोहोस्ति सर्वत्र समदर्शनः ।। १७५१ ।। विजयोदया-सम्धेसु सर्वेषु द्रव्यपर्यायविफलयेषु नित्यं परित्यचममतादोषः ममेदं मुखसाधनं मदीय इति बा । णिप्पणयदोसमोहो निस्नेहो, निदोपो, निर्माइः सर्वत्र समतामुपैति । Page #1525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५१० मुलारा - विधी विकल्पेषु । ममत्तदो विजो ममेद सुखसाधनं सदीयमिदमिति वा ममत्वेन त्यक्तः । णिपोसमोहो निस्नेहो, निद्वेषो ममेदभिष्टमिंदे श्रानिष्टमित्यज्ञानरहितश्च । उबेदि तत्तादृश्य चोपगृहीतः क्षपक इति सर्वत्र योज्यं ॥ सन् | अर्थ- संपूर्ण द्रव्य और उनके पर्याय भेदों में यह क्षपक ममतारहित होता है अर्थात् ये द्रव्य और पर्याय मेरे सुखसाधन हैं ऐसा विकल्प उसके मन में नहीं उत्पन्न होता है. वह स्नेह, मोह और द्वेषरहित होकर सर्वत्र समताभाव धारण करता है. संजोगविप्पओगे जहदि इहेसु वा अणि ॥ रदि अरदि उस्सुगतं हरिसं दीणचणं च तहा ॥ १६८५ ॥ प्रियाप्रियपदार्थानां समागमवियोगयोः ॥ विजहीहि त्वमौत्सुक्यं श्रनित्वमरतिं रतिं ।। १७५२ ।। विजयोदयासंयोगे रति विप्रयोगे अरर्ति, इष्टे वस्तुन्युत्कंठां दृष्टयोगे रविं रतिं वर्ष, ष्टविप्रयोगे अरि दीनतां । उस्तुगतं उत्सुकतां च तथा जहति क्षपकः कवचेनोपगृहीतः ॥ मूलारा - रदि इष्टे वस्तुनि संयुज्यमाने, वित्तविश्रांतिमनिष्टें वा वियुज्यमाने | अरवि अनिष्ट संयुज्यमाने इष्टे वा वियुज्यमाने वितानवस्थितिं । उगत्तं इष्टे वस्तुनि उत्कंठां, यदि तन्मे मिलति भद्रकं भवेदिति हृदयोत्कलिकां । इरिस इष्टयोगे रोमांच वचनप्रसादादिनाभिव्यज्यमानमानंद ॥ दीणचणं इष्टवियोगे बैवर्ण्यादिना व्यज्यमानं विषादं । कवचोपगृहीतो जातीति संबंध: । अर्थ - इष्टवस्तुका संयोग होनेसे चिचमें मेम उत्पन्न होता है अथवा अनिष्ट वस्तु अपने से हट जाने से भी प्रेम उत्पन्न होता है. अनिष्ट वस्तुका संयोग होनेसे अथवा इष्टवस्तुका वियोग होनेसे चित्तमें अस्थिरपना उत्पन्न होता है. इष्ट वस्तुमें उत्कंठा अर्थात् यदि इष्ट वस्तु मिलजाय तो बहुत ही अच्छा होगा ऐसा हृदयमें विचार उत्पन्न होना इसको उत्सुकता कहते हैं. इट वस्तुका संयोग होनेसे रोमांच, वचनमें प्रसन्नता इत्यादिसे ओ आनंद उत्पन्न होता है उसको हर्ष कहते हैं इष्ट वस्तुका वियोग होने पर मुखमें विवर्णता उत्पन्न होती है जिससे मनकी भावास 19 १५१० Page #1526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाधना S खिन्नताका अनुमान होता है इस खिन्नताको दीनता कहते हैं. क्षपक मुनि कवचसे युक्त होकर रति अरति, उत्सकत्व, हर्षे, दीनता इन मनोविकारोंका त्याग करता है. आचाता मित्सुयणादीसु य सिस्से साधम्मिए कुले चाथि ।। रागं वा दोस वा पुव्वं जायपि सो जहइ ॥ १६८६ ॥ मित्र शत्रौ कले संघे शिष्य साधर्मिक गुरौ ॥ रागद्वेषं पुरोत्पत्रं विमुंचस्व प्रधीयते ॥ १७५३ ।। विजयोदया--मित्तेसुयणादी य मित्र बंधुषु षा । शिरथेषु व सघर्मणि फुले चा पूर्व जातं रागद्वेषं वासी जहाति ॥ मुलात-सुयणादासु संधुभातारगुदिषु । पुत्रं जावं च वीक्षाग्रहणादा प्रागुत्पन्न संस्कारेपानुन्यध्यमानं । प शब्दाटुत्पद्यमान, उत्पत्स्यमानं च । सो कवचोपगृहीतः ॥ अर्थ-मित्र, बंधु-माता पिता. गुरु चगैरह, शिष्य, और साधर्मिक इनके ऊपर दीक्षा ग्रहणके पूर्वमें अथवा कवचसे अनुगृहीत होने के पूर्व जो रागद्वेष उत्पन्न हुए थे लपक उनका त्याग करता है. भोगेमु देवमाणुस्सगेसु ण करेइ पच्छणं खरओ ॥ मग्गो विराधणाए भणिओ विसयाभिलासोत्ति ॥ १६८७ ॥ कुर्यादिव्यादिभोगानां क्षएकः प्रार्थनां न तु ।। उक्ता विराधनामूलं विषयेषु स्पृहा यतः॥ १७५४ । विजयोदया--मोगसु देवमाणुस्सगेसु दद्यमानवगोचरभोगमार्थनां न करोति क्षणको व्यावर्णितकयचोप गृहीतः । विषयाभिलायो मुक्तिमार्गचिराधनाथा मूलमिति शात्वा ।। __ मूलारा-देवमाणुस्सगेसु सुरमरगोचरेषु । भगो उपायः । विराधणाए रत्नत्रयविप्लवनयोः ॥ भागदा रक्तः सूत्रे । विसवाभिलासोति विषयाकांक्षति मन्यमानः 1 हेवर्थे वा इति ।। १५११ FON : Page #1527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना अर्थ--इस कवचसे युक्त होकर अपक देव और मनुष्यक भोगों की अभिलाषा नहीं करता है. यह स विषयन्छा मुक्तिमार्गक विरुद्ध है. ऐसा समझकर धपक उसका त्याग करता है. आश्वासा इहेसु अणिठेसु य सदफरिसरसरूवगंधसु ॥ इहपरलोए जीविदभरणे माणावमाणं च ।। १६८८ ॥ सम्वत्थ णिविसेसो होदि तदो रागरोसरहिदप्पा ॥ खवयरस रागदोसा ह उत्तम; विराधेति ॥ १६८९ ।। शन्दे रूपे रसे गंधे स्पर्श साधो शुभेऽशुभे ।। सर्व समतामेहि तथा मानापमानयोः ।। १७५५ ॥ समानो भव सर्वत्र निर्विशेषो महामते! ।। रागद्वेषोदये जतोरुत्तमार्थो विनश्यति ।। १७५६ ।। विजयोदया-स्पएं। मलारा--परलोगे इहलोके इष्टे अनिष्ट वा तद्वत्परलोकेऽपि अथवा इहलोके परलोके च सम इति ग्राह्यम् । मूलारा-णिब्रिसेसो इष्टानिष्टविकल्पविमुक्तः । तदो निर्विशेषकाररूपचोपगृहीतत्वादा। उत्तम रत्नत्रयं, सद्धघानं, समाधिमरणं बा विराधेन्ति बिनाशयतः ॥ अर्थ--इए और अनिष्ट एसे शब्द, रस, गंध, स्पर्श, रूप विषयोंमें, इहलोक और परलोकमें. जीवित और मरण में, मान और अपमान में यह क्षपक समानभाव धारण करता है. अर्थात् रागद्वेष रत्नत्रय, उत्तम ध्यान और समाधिमरणका नाश करते हैं. इसीलिये क्षपक अपने हृदयसे इनको दूर करता है. उत्तरमाथाद्वयं जदि वि य से चरिमंते समुदीरदि मारणंतियमसायं ।। सो तह् वि असंसूढो उवेदि सब्वत्थ समभावं ॥ १६९० 11 Page #1528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ७ गुर्षी यद्यपि पीडास्ति प्रकृष्टा मारणान्तिकी । तथापि क्षपको याति सर्वत्र समचित्तताम् ॥ १७५७॥ पिजयोदया-जदि वि य से यद्यपि तस्य क्षपकस्य चरमकालांते मारणांतिकं दुःख भवेत् सो कवचेनोपगृहीतः क्षपकः सथापि असमूढः समभावं सर्वत्रोपैति ।। मारणांतिकेऽपि दुःख समुदीणे कवचोपगृहीतः साम्यात्र प्रच्यवते इति कवचानुभाष भावयति मूलारा-से करचोपगृहीतस्य क्षपक्रस्य । परिभते चरमकालांते । मारणतिय भरणं यावनोग्यं तथाविधास:योदयसंपादात्वान । आसाद दुःख । असमूहो हारी रामप्यनुत्पत्रात्मख्यातिः ॥ __ अर्थ-यद्यपि उस क्षपकको अंतसमय में मरण प्राप्त होनेतक दुःख होगा तो भी कवचमे युक्त होनेपर बह माहरहित होजाता है. देह और आत्माको भिन्नताका उसको सम्यग्ज्ञान हुआ है अतः वह सर्व देहादिक वस्तुआम समभाव धारण करता है. एवं सुभाविदप्पा विहरइ सो जावबीरियं काये ॥ उहाणे सयणे वा णिसीयणे वा अपरिदतो ॥ १६९१ ।। एवं भाक्तिचारित्रो यावदीयं कलेवरे॥ तावत्प्रवर्तते साधुरुत्थाय शयनादिषु ॥ १७५८ ।। विजयोवया-पवं सुभाषिप्पा निर्यापन सुरिणा गदितोर्थ रयमित्युच्यते । तेन सम्यग्भाषितचित्तः सन्धिहरदि प्रवर्तत अपरिश्रांतः । जायचीरियं काये याबच्छरीरे बलमस्ति उत्थाने, शयने आसने धा। निर्यापकसरिनिरूपितार्थसम्यग्भावितचित्तस्य सर्वत्र खेदाभावं यावदेहबळमभिलपति मूलारा--एवं गुरूक्तार्थेन । सुभाषिदप्पा सम्परभावितः सन् विहरति । सयणे शयने । णिसीयणे उपवेशने । अपरिदंतो अपरिश्रांतः ॥ अर्थ-इस प्रकार निर्यापकाचार्यके कहे हुए उपदेशसे जिसने पदाथोंका स्वरूप जानकर अपने आत्माको सुसंस्कृत बनाया है ऐसा वह क्षपक जब तक देहमें सामर्थ्य रहता है तबतक ऊठना, सोना, और बैठना इन क्रियाओंमें न थका हुआ प्रवृत्ति करता है. Page #1529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवासः १५१४ जाहे सरीरचेठा विगदत्थामरस से यदणुभूदा ॥ देहादि वि ओसगं सव्वत्तो कुणइ णिरवेक्खो ॥ १६९२ ॥ क्षीणशर्यदा चेष्टा स्वल्पा भवति सर्वथा ।। तदा देहप्रहाणाय यतते नि:स्पृहाशयः ॥ १७५९ ॥ विजयोदया-जाहे सरीरचेचा यदा शरीरचेष्टा विगतयलस्य तस्य स्वल्या जाता, तदा शरीरादुरसगं करोति सर्वतो मनोयाक्कायनिरपेक्षः। गृहीतकवचस्य मरावेलायां करणीयमाह मूलारा-जाधे यदा । थाम बलं । यदणुभूदा स्वल्पा जाता । विउम्सगा परित्यागं । सवत्तो मनोयाकायैः । कुणदि तदितिशेषः॥ अर्थ-जब उसका देहसामर्थ्य नष्ट होता है तब उसकी स्वयं ऊठना, बैठना, सोना वगेरह क्रियायें । चंद होती है. तब मनवचन और शरीर से निरपेक्ष होकर वह शरीर का त्याग करता है, उसके ऊपरका मोह पूर्ण तया छोड़ देता है. DURATES मम् मजाक सर्व शरीराविक त्याज्यमुत्तरगाथया दर्शयति सेज्जा संथारं पाणयं च उवधि तहा सरीरं च ॥ विजावच्चकरा वि य बोसरह समत्तमारूढो ॥ १६९३ ।। उपधि संस्तरं शय्यां पानं व्यावृत्तिकारिणः ॥ शरीरं मुंचते योगी सम्यक्त्यारूढमानसः ।। १७६०॥ विजयोदया-सज्जा वसति । संस्तरं तृणादिक, शन पिच्छ, शरीर व यावृल्यकरांश्च सुयुत्सृजति । समत्त. मारूढो समाप्तं संपूर्ण रत्नत्रयमारूढः।। उक्तार्थव्यवहरणार्थमाहमूलारा-सम्मर्स संपूर्ण रस्नत्रय, साम्यं वा || १५१४ Page #1530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलाराधना आभासा क्षपक शरीरादिकोंका त्याग करता है इस विषयका विवचन-- अर्थ-संपूर्ण रत्नत्रययर आरूढ होकर यह क्षपक वसतिका, तणादिकका संस्तर, पानाहार. अर्थात् जल पान, पिच्छ, शरीर और वैयावृत्य करनेवाले परिचारक मुनि इनका निर्मोह होकर त्याग करता हैं. अवहट्ट कायजोगे व विप्पओगे य तत्थ सो सत्वे ॥ सुद्धे मणप्पओगे होइ णिरुद्धझवसियप्पा ॥ १६९४ ॥ निराकृत्य बचोयोगं काययोग च सर्वथा।। स विशद मनोयोग स्थिरात्मा व्यवतिष्ठत ।।१७६१ ।। विजयोदया-अवकागजोगे वाम्योनान्काययोगांश्च सर्वान्निराकृत्य असावत्र मनोयोगे शुद्ध स्थितो भवति । विषयांतरसंचारान्निरुई अध्यवसितंच आस्मरूपतानाचं यस्य सः॥ मलारा--अवहट्ट निराकृत्व । यविष्पोगो वाग्व्यापारान् । तत्थ तस्मिम्मरणक्षणे । सो समत्वमारूढः । सुद्धे रागद्वे पमोहरहिते भनोयोग स्थितो भवति ।। णिरुद्धमानसिदप्पा निराद्धो विषयान्तरसंचारायवर्तितोऽध्यवसितश्च युक्त्युदर्कवितर्केण निश्चित आत्मा स्वरूपं जानाख्य येन स तथाभूतः सन् । उक्तं च समस्तान्कायवाग्योगाधिरस्यैकन संस्थितः ॥ __मनोयोगेऽस्ति संरुद्धनिश्चितात्मस्वरूपकः ।। अर्थ-वाग्योग और काययोग का पूर्ण त्याग कर अर्थात् शरीरकी प्रवृत्ति और घोलना बंदकर शुद्ध | मनोयोगमें निश्चल होता है. उसके मनसे इतर विषयाँका विचार हट जाता है और आत्मस्वरूप का विचार ही स्थान पाता है. एवं सव्वत्थेसु वि समभावं उवगओ विसुद्धप्पा ॥ मित्ती करुणं मुदिदमुवेर्ख खवओ पुण उवेदि ॥ १६९५ ।। समत्वमिति सर्वत्र प्रपद्यामलमानसः ॥ स मैत्रीकरुणोपेक्षामुदिताः प्रतिपयते ॥ १७६२ ॥ EPFOOTALABETESTIMOTASSNEERINDAS4 १५१५ Page #1531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आश्वास.. विजयोक्या-पथं सबस्थेसु वि एवं सर्ववस्तुपु समतापरिणाममुपगतो विशुद्धचित्तः, मैघी, करुणां, मुदिता. मुपेक्षां च पश्चादुपैति क्षपकः॥ समस्वपरिणत्यंतरकरणीया मैञ्यादिभावनाः प्रनिनिर्दिशतिमलारा-उवा उपेक्षा । तदो पश्चात । एतेनाभ्याकनिष्ट उत्साहोऽस्य विधय तगोपदिश्यते ।। अर्थ-इस प्रकार संपूर्ण वस्तुओंमें समताभाव धारण कर यह क्षपक अन्तःकरणको निर्मल बनाता है नथा उसमें मैत्री, अगोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाओंको स्थान देता है. | मैत्रीप्रभूतीनां चिंतानां विषयमुपदर्शपति जीवेसु मित्तचिंता मेची करुणा य होइ अणुकंपा ॥ मुदिदा जदिगुणचिंता सुहदुक्खधियासणमुक्खा ॥ १६९६ ।। जीवेषु सेव्या सकलेघु मैत्री परानुकंपा करुणा पवित्रा ।। बुधैरुपेक्षा सुखदुःखसाभ्यं गुणानुरामा भुदितावास्या ।। १७५३ ।। विजयोक्या-जीयेसु मित्तचिता अर्नसकालं चतसधु गतिघु परिभ्रमतो घदीयंत्रवत्सर्चे प्राणभृतोऽपि यहुशः कृतमहोपकारा इति तेषु मित्रताचिंता मैत्री । करुणा यहोर मणुकंपा शारीरं, मानस, स्वाभाविकं च दुःखमसहामानुषतो दृष्ट्वा हा चराका मिथ्यावर्शनेनाविरस्या कपायणाशुमेन योगेन च समुपार्जिताशुभकर्मयायपुद्गलस्कंधतदु. दयोद्भवा विपवो वियशाः प्राप्नुवन्ति इति करणा अनुकंपा 1 मुदिता नाम यतिगुणचिता यतयो हि विनीता, विरागा, विमया, विमाना, विरोषा, विलोमा इत्याविकाः सुखे अरागा दुःखे बा अद्वेषा उपेक्षत्युच्यते । समता गता ॥ मैत्र्यादीनां लक्षणान्याह गूलारा-मित्तचिंता उपकारकाभ्यवसितिः । आसंसारं नरकादिगतिषु घटीयंत्रवत्परिभ्रमतो ममामी सर्वेऽपि प्राणिनो बहुशः कृतम होपकारा इत्यंत विमर्श इत्यर्थः । अथवा सर्वत्तत्वेषु दुःखानुत्पत्त्यामलापः । परमार्थ सुखप्राप्त्याशंसन च। वितनं मित्रचिता मैत्रीत्युच्यते । तथा चोक्तम्-- मा कापीकोऽपि पापागि मा च भूत्कोऽपि दुःखितः ।। मुच्यतां जगदप्येपा मतिमैत्री निगद्यते ।। अणुकंपा-छिंश्यमानजन्तूद्धरणबुद्धिः । हा बराका इमे मिथ्यात्वाापार्जितदुष्कृतविपाकसंपाया विपद! १५१६ ARAAT Page #1532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः KATeasersecx पारतंत्र्येण प्राप्नुवंतः कथं तद्विमोक्षं लभेरनित्याचेतःस्रोतःप्रवृत्तिरित्ययः । जदिगुणचिंता यनीनों गुणा बिनीतत्वविरागस्वस्थपरहितैकरसिफत्वादयः । तेषां चिंता प्रमोद निर्भरेण मनसानुसंधान । सुइदुक्खाधिआसणा सुखदुःखयोः साम्येन भावनं उकंच मित्रचिंतांगिनां मैत्री करुणाप्यनुकंपनं ।। मुदिता सटुणस्तोष उपेक्षा समचित्तता ।। यथा बा तक्वार्थमतेनायोचाम धर्मामृते तथा मैञ्यादयो भाव्याः ॥ वृत्तं । मा भूत्कोपीह दुःखी भजतु जगवसद्भर्मशमति मैत्री । ज्यायो हत्तेषु रज्यन्नयनमधिगुणेष्वेष्विति प्रमोदम ।। जागोजमानिनिति का जातिगामेहि शिक्षा : का द्रव्ये श्वित्युपेक्षामपि परमपदाभ्युद्यता भावयन्तु । मैत्री वगैरह भावनाओंके विषयोंका वर्णन अर्थ-अनंतकालसे मेरा आत्मा घटीयंत्र के समान इस चतुगंतिमय संसारम भ्रमण कर रहा है. इस संसारमें संपूर्ण प्राणिओंने मेरे ऊपर अनेकवार महान उपकार किये हैं ऐसा मनमें जो विचार करना वह मैत्री भावना है. अथवा संपूर्ण माणिऑमें किसीको भी नुःख न उत्पन्न हो ऐसी मनमें इच्छा रखना इसको भी मंत्री भावना कहते हैं. शारीरिक, मानसिक, और स्वाभाविक ऐसी असह्य दुःखराशी प्राणीऑको सता रही है यह देखकर अहह इन दीनप्राणिओंने मिथ्यादर्शन, अविरति, कपाय और अशुभयोगमे अशुभकर्म उत्पन्न किया था वह कर्म उदयमें आकर इन जीवोंको दुःख दे रहा है, ये कर्मवश होकर दु:ख भोग रहे हैं इनके दुःखसे दुःखित होना करुणा है. ये इस दुःखसे कैसे मुक्त होंगे ऐसी मनमें आर्द्रता उत्पन्न होना करुणा है. यतिओंके गुणोंका विचार करके उनके गुणों में हर्ष मानना यह प्रमोद भावना का लक्षण है. यतिओंमें नम्रता, वैराग्य. निर्भयता, अभिमानरहितपना, निर्दोषता और निर्लोभीपना ये गुण रहते हैं. मुख प्राप्त होने पर रागरहित रहना और दुःख प्राप्त होनेपर द्वेषभाव न होना यह उपेक्षा भावना है, ऐसी भावना क्षपक अपने मनमें भाता है. समताका वर्णन समास. Page #1533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५१८ दंसणणाणचरितं तवं च विरियं समाधिजोगं च ॥ तिविहेणुवसंपज्जिय सब्बुवरिलं कर्म कुणइ ॥ १६९७ ॥ दर्शनज्ञानचारिचतपोवीर्यनिविष्टधीः। प्रकृष्टां कुरुते चेष्टां मनोवाक्कायकर्मभिः ॥ १७६४ ।। विजयोदया - दंसणणाणचरितं तवं विरियं समाधिजोगं व तरबधद्धानं तत्वावगमं बीतरागतां, अशनत्यागक्रियां, स्वशक्त्या निगूहनं चित्तकाप्रयोगं । तिविधेणुवसंपज्जिय मनोवाक्कायैः प्रतिपद्य । सबुवरिलं सर्वेभ्यः पूर्वमवृत्त दर्शनादिपरिणामेभ्योऽतिशयितमं कुर्यादि दर्शनादिपदन्यासं करोति । मैत्र्यादिभावनाबलाद्वयवहारमोक्षमार्ग प्रतिपद्य परमार्थमुक्तिपथप्रस्थानाय क्षपको यतत इत्युपदिशति मूळ - तवं अशनत्यागक्रियां । विरिये स्वशक्त्यनिगूहनं । समाधिजोगं रत्नत्रयैकामतथा संबंध शुद्धोपयोगं वा अथवा समाध्यास्यो योगो यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधिलक्षणानामष्टानां योगांगानां मध्ये अष्टममंग समाधियोगोत्र । विविण मनोवाक्कायैः उपसंपजिव प्रतिपद्य । सव्वुरलं सर्वेभ्यः पूर्ववृत्तदर्शनादिपरिणानेभ्योऽतिशयित । कर्म दर्शनादिपरिणामपदन्यासं शुभतमभ्यानकोयममिति यावत् । अर्थ --- जीवादितत्वोंपर श्रद्धा रखना, तत्वों का स्वरूप जान लेना, रागद्वेषरहित होना, अपनी शक्ती के अनुसार आहारका त्याग करना, चित्तको एकाग्र करना, इत्यादि क्रियाओंका स्वीकार करके मनवचन काय योगों से पूर्व के दर्शन ज्ञान चरित्र इत्यादिक गुणोंमें अधिकता से उज्ज्वल परिणाम उत्पन्न कर प्रवेश करता है. शुभध्यानमा रुक्षतः परिकरमान जिदरागो जिददोसो जिर्दिदिओ जिदभओ जिदकसाओ ॥ अरदिरदिमोहमणो ज्झाणोवगओ मदा होहि || १६९८ ॥ रागद्वषेोध मात्सर्यमौदा येन व्यक्ता निर्जिताक्षेण सर्वे ॥ ध्यानं ध्यातुं योग्यता तस्य साधोः सामग्रीतो याति कार्य प्रसिद्धिं ॥ ९७६५ ।। इति समता ॥ आश्वास १५१८ Page #1534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वास विजयोदया जिदरागो स्वतो व्यतिरिक्तेषु जीवाजीवदव्येषु तेषां पर्यायेषु रूपरसगंधस्पर्शशदाव्येषु विधिभदषु तत्संस्थानादिषु च यो रागः स जितो येन सोऽमिधीयते । तथा मनोज्ञेषु या प्रीतिः सदोष उच्यते स च जितो येन स जितदोषः । "णेटुनपिदगत्तस्स रेणुगो लगादे जहा अंगे तह रामदोसणेहोलिदस्स कम्मासवो होदि" इति जिनवचना. धिगमाइःखमीरुयंतिः सर्वदुःखाना मूलकारणभूतौ रागद्वेषाविति मनसा विनिश्चित्य यस्तयोर्न विपरिणमते सोऽभिधीयते जितरागद्वपः । तस्योपायो जितेंद्रियतेत्याचष्टे-जह जिदिदियो इति चाफ्यशेष कृन्त्रा संबंधः । झिदिदियो इंद्रियशद्धेन रूपाशलंबनोपयोगः परिगृह्यते स जितो येन स उच्यते जितेंद्रिय इति । कथमसौ मसियानोपयोगो जेतुं शक्यते इति चत् वतज्ञानोपयोगे आत्मनः प्रवृत्ती सत्यां, युगपदुपयोगद्वयस्यात्मन्येकदा विरोधादप्रवृत्तेः न च वाहाव्यालंबनमुपयोगमतरेणास्ति संभवो रागद्वेषयोः । संकल्पपुरोगी हि तायिति । जिदकसायो क्षमामार्दवार्जवसंतोषपरिणामनिरस्तकवायपरिणामप्रसरो जितकाय इत्युच्यते । अरते रतेध कर्मण उदये उपजाती रत्यरतिपरिणामी, मोहो, मिथ्यामानं च सम्यगना. नभावमयामध्नाति यः स भण्यसे भरदिशादिमोहमधणो पर्व निरस्तध्यानप्रतिपक्षपरिणामः । जमाणोयगदोहोदि ध्यानायं परिणाममाश्रितो भवति । न हि रामादिभियाकुलीकृतस्य अर्थयाधात्म्य प्राति भवति विज्ञानं अविचलं च नायतिष्ठते। अतिचलमेन तुमित्रानं नारी __ मूलारा-जिदरागो स्यतो व्यक्तिरिक्तेषु जीवाजीवतज्येषु तत्पर्यायेषु च रूपरसगंधस्पर्शशब्दास्येषु विचित्रभेदेषु तत्मस्थानादिषु च यौ रागः प्रीतिः स जितो येन । हुत्तप्पिदात्तस्स रेणुणा लागदे जया अंगे। तब रागदोसणेहोहिदस्स कम्मास्स बो होदि ।। इति जिनवचनाधिगमादुःखमीरोरते: सर्वदुःसानां मूलकारणभूनी रागद्वेपौ इति मनसा निश्चित्य यस्तयोर्न परिणमते स जिलरागद्वेय उच्यते । जिदिदिओ श्रुतमानोपयोगैकवृत्ति बलेन जितोऽभिभूतो रूपाद्यालंबनशक्षुरादापयोगो चेनासी जितेंद्रियः । अत एव जितरागद्वेषो याह्यद्रव्यालंबनोपयोगप्रवृत्तसंकल्पपुरःसरत्वेन तयोः संभवात् ॥ जिदभओन मे मृत्युःकुतो भीति रित्यादि भावनया तिरस्कृतभीलि: लिदसाओ श्रमादिभावनाप्रतिबद्धक्रोधादिपारतंत्र्यः । मोहो मिथ्याज्ञानं तन्मथनं सम्यग्ज्ञानसंस्कारेण साम्यभावनया रत्यरतिमधनवत् । सदा तथा निरस्तध्यानप्रतिप्रतिपक्षपरिणामत्वात् । एतद्गाथाद्वयमन्ये पुरस्तात्पठन्ति । समप्ता सूत्रप्तः ३६ ।। अंकतः १६ ।। शुभध्यानपर आरूढ होनेवालेकी सामग्रीका वर्णन अथे---जिदरागो जीवाजीय द्रव्य आत्मासे अर्थात स्वस्वरूपसे भिन्न है. रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द ये इन द्रव्योंके पर्याय हैं इनके भी अनेक उत्तरभेद हैं. तथा इन द्रव्योंकी अनेक प्रकारकी आकृतिया दृष्टिगोचर होती है. इन परसे जिसने अपनी प्रीति अलग की है अर्थात जो इनसे मोहरहित हुआ हैं उसको 'जितराग' कहते है. जीवादि द्रव्योंके अनिष्ट पर्यायाको देखकर देष करना जिसने कोरिया ने nि ' ने kostseite Rec ५१९ Page #1535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -मूलाराधना १५२० अपने अंगको तेल लगाकर बैठे हुए मनुष्य के सर्वांगपर वायुसे आये हुए धूलि रेणु चिपक जाते हैं वैसे राग, द्वेष और मोहसे लिप्त हुए जीवके संपूर्ण प्रदेशों में कर्मका आगमन होता है. जिनेश्वरके उपदेशका स्वरूप जानकर कुगतिके दुःखोंसे भययुक्त हुआ भव्य पुरुष रागद्वेष ही सर्व दुःखोंके मूल कारण हैं ऐसा मनमें निश्चयकर रागद्वेषोंमें परिणत नहीं होता है. ऐसे पुरुषको 'जित रागद्वेष' कहते हैं. इन रागद्वेषोंको जीतने का उपाय जितेन्द्रियता है. रूपरस वगैरह विषयोंके तरफ आत्माका उपयोग लगना यह इंद्रिय शब्दका अर्थ यहां समझना चाहिए अर्थात मतिज्ञानके उपयोग का नाम इंद्रिय है. यह मतिज्ञान उपयोग कैसा जीता जासकता है. इस प्रश्नका उत्तर- श्रुतज्ञानके उपयोग में आत्मा की प्रवृत्ति होने से मतिज्ञानोपयोग जीता जासकता है. एक समय में आत्मामें दोन उपयोगोंकी प्रवृत्ति नहीं होती है क्योंकि इन प्रवृत्तिअमिं विरोध पाया जाता है. बाह्य का आश्रय जिनका है ऐसे उपयोगों के बिना रागद्वेपकी उत्पत्ति नहीं होती हैं- रामदेव संकल्प से ही उत्पन्न होते हैं. इसलिए मतिज्ञानका उपयोग श्रुतज्ञानोपयोग आत्माको प्रवृत्त करनेसे जीता जाता है जिससे रागद्वेष का भी पराजय होता है. - जिदकसायः क्षमा, मार्दव, आर्जव और संतोषरूप परिणामोंसे क्रोधादिक चारों कपाय भी जीते हैं अति और रति कर्मका उपय होनेसे रति और अरति परिणाम उत्पन्न होते हैं. मोह और मिथ्याज्ञानका सम्पज्ञानकी भागनासे नाश होता है. जब आत्मा जितद्रिय होता है तब क्रोधादिक कषाय, रति, अरति मोह और मिथ्याज्ञान इनका नाश होता है और आत्मा में सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति होती है. उपर्युक्त सब परिणाम ध्यानके राष्ट हैं उनका नाश करनेपर आत्मा ध्यान नामक परिणामका आश्रय करता है. जब आत्मा रागादि कयोंसे व्याकुल होता है. तब उसका ज्ञान पदार्थोंका यथार्थ ग्रहण नहीं करता है और निश्वलभी नहीं रहता है. जब ज्ञान निश्चल होकर वस्तु स्थिर होता है तब उसकोही ध्यान कहते हैं. धम्मं चदुप्पयारं सुकं च चदुविधं किलेसहरं ॥ संसारदुक्खभीरो दुणि विज्झाणाणि सो ज्झादि ॥ १६९९ ॥ आश्वास ७ १५२० Page #1536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SONG मूलाराधना आश्वासः १५२१ धर्म्य चतुर्विधं ध्यात्वा संसारासुखभीमकाय शुक्ल चतुर्विधं ध्यानं ध्यातुं प्रक्रमत यतिः ॥ १७६६ ॥ विजयोदया-धम्म चदुप्पयारं धर्मध्यानं चतुःप्रकारं । धारयति वस्तुनो वस्तुनामिति धर्मः स्वभावातिशयादेव चैतन्यादिकाज्जीवानिक वस्तु भवति । अनिशसभाबादेव वस्तु मण्यते न खरविषाणानि तेन धर्मशब्दो वस्तुखभाववाची । धर्माहस्तुस्यभावादनतमिति धर्यमित्युच्यते । यद्येवमादिरपि धर्मादनपतत्वमस्ति । संप्रयुक्तामनोभ यस्तुखियोग, वियुक्तमनोवस्तुयोग, रोगातकादिप्रशमनं, अभिमतप्राप्तिं च धर्ममाश्रित्य प्रतिमानत्वाद्धर्मादनपेततेत्ति नैष दोषः विवक्षितधर्मविशेयवृत्तिधर्मशवः अत एवं आशापायविपाकसंस्थानमित्यादिकैमध्ययरनपेतत्वापजधानमामाविचयादिसंशामिरुभ्यते । ध्येयं सेयवस्तुस्वरूपं तदचिनामाघि महान ज्यानमिति संगतार्थ व्याख्येयं। अन्तु व्याचक्षते-क्षमामार्दवार्जवादिकाद्धर्मादपतवाद्धम्य इति । ननु च श्यानं ध्येयाविनामाथि न च क्षमादयो धर्मा ध्येया येन नदनपेतत्वमुख्यसे । अथ समाविको बाविधो धो ध्येयस्तस्मादनतस्तस्यान्यत्राप्रवृत्तेः 'बाहापायविपाकसंस्थानविनयाय धयमिति सूत्र न युज्यने ' उत्तमक्षमाविभर्मपरिणतादात्मनोऽनपेतस्यात् । धर्मावनपेततेति घयमित्युच्यत इति चेत् शुक्लममापि धर्मादनपेतत्वावयभ्यानता स्वादत्रोच्यते ॥ रुदिशद्वेषु कचित्संभाषिनी क्रियामाधिस्य भादव्युत्पतिमा क्रियते । न सा क्रियातंत्र आशुगमनावश्व इति व्युत्पाद्यमानः स्थिते शयिते च प्रवर्तते न बाशुपायिन्यपि पैनतेयादौ प्रवर्तते । विद्यापि शुक्लेम धर्मशदो वर्तते । धर्मादन्यत्रापयालादौ घर्तते । अथ किं ध्यान, उसमसहननीकाग्रचितानिरोयो ध्यानमिति बेत् पदमु संहननेण्याचसंहननं च वरिषभनाराचसंहनन, बननारासंहनम, नाराचसंहमममिति । तेषु त्रियु एकं संहननं यस्य स उत्तमसहननस्तस्य एकमय मुखमस्येत्येकाने याधितानिरोधः स ध्यानमित्युच्यते । ननु चिंतनिरोधः चिंताया अभावस्तस्य का एकमुखता कथं या कर्मणां भावे अभावे च निमित्तता आर्सरीदयोरशुभकर्मनिमित्ततेप्यते । इतरयोस्तु शुमकर्मणां निमिसता निर्जरायाच हेतुतेष्टा अत्रोच्यते । न निरोधशद्वोऽधा भाववाची किंतु रोधवचनो यथा मूनिरोध इति । ननु घ परिस्पववतो निरोधो भवति । चितायास्तु को गिरोध इत्यत्रोच्यते । केचित्तपर्वति नानार्थावलंबनेन चिता परिस्पंदरती तस्या एकस्मिक नियमाश्चितानिरोध इति तदं प्रएव्याः | नानार्थाश्रया चिंता सा कथमेकय प्रवर्तते? एकत्रैव चेत् प्रवृत्तानानार्थावलंबन परिस्पदं नासादयतीति निरोघवाचो युक्तिरसंगता, तसादवमत्र व्याख्यानं चिंताशद्वेन चैतन्यमुच्यते तच चैतन्यमन्यमय पार्थमवगच्छता शानपर्यायरूपेण बर्तत इति परिस्पदयत्तस्य निरोधो नाम एकत्रैव विषये प्रवृत्तिस्तथा हि य एकवध वर्तते स तत्र निरुद्ध रति भण्यते। उत्तमसंहनन प्रयोगादेवार्तरोइयोरमुत्तमसंहननेषु प्रवृत्तिर्न स्यात् ।तेन तयानावलंबनो गतिविभागो न स्यातेषामनुभवविरोधदानीतनानामपि तयोः सुत्रांतरविरोधश्च "तदपिरतदेशविरतप्रमत्तसयतानां" "विसानृतस्तयसंरक्षेपणभ्यो रौद्रमधिरतदेशविरतयो" रिति गुणस्थानमात्राश्रयणेनैव स्वामिनिर्देशकृतत्वात् । अत्र प्रतिविधीयते-निर्जराहेतुतया विकल्पे ज्यानेषु तत्पस्तुसे युक्तं साक्षात् मुफ्त्यगे ध्यान निदेष्टुमिति मन्यमानेन उत्तमसंहममग्रहणं कृतं सूत्रकारेण । यद्येवं आर्तरौद्रधार्यशुला Page #1537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५२२ ३ नीति सुत्रमुत्तरं नोपपद्यते न निर्जरानुतास्त्यार्त्तराद्रयोरिति । अत्रोच्यते । उत्तमसंहननस्यैकाग्र चितानिरोधो ध्यानमिती सूत्र मुख्यं ध्यानं मुक्त्यंगमुहित्य प्रवृत्तमुत्तरं तु सूत्रमासरोध शुक्लानीत्येतदेकाय चिंता सामान्येऽन्तर्भूतं अभिमतमपि ध्यानं निरूपयति । प्रस्तुतस्यैष ध्यानस्य अभिमतध्यानविविकरूपमधिगमयितुमतः प्रासंगिकयोः आ isabercre इति न दोषः ॥ अथवोत्तमसंहननग्रहणं वीर्यातिशयवत आत्मन उपलक्षणं, उत्तमस्य श्रीर्यातिशयघतो आत्मनो वस्तुनिष्ठत्व ध्यानं चतुर्विधं ध्यानं क्लेशहरं संसारदुःखभीरुः चतुर्गतिपरावर्तनेन यानि दुःखानि तेभ्यो भीतः । दोष्णि षि झाणाणि सो झादि ध्यान धर्म्याशुक्ले क्षपका झादि ध्यायति ॥ अथ तत्परिकर्माभ्याससमुद्धा वित्तवीर्यातिशयः संचिप्रतमः क्षपकः कर्मक्षपणप्रधान तमोपायं परीषाद्यभिभव तिरस्कारप्रचंड प्रताप मानंदसांद्रयानुभावं मंदाक्षितत्रिजगत्सुखसाधन स्कंध प्रशस्तध्यानविशेषं यथाविभवमाराधयतीत्युपक्षेपपुरःसरं गाथाद्वत्यधिकद्विशत्या ध्यानमासूत्रयति — मूलारा—धम्मं धर्म्यं | धर्माचेयाक्षेयमस्तुस्वरूपादुसमक्षमा मार्ववादेनपेतं ध्यानमुच्यते । धारयत्यवस्थापयति वस्तुनो वस्तुताभिहि धर्मो वस्तुयाथात्म्यं । वस्तुस्वभावातिशयादेव हि चैतन्यादिकाज्जीयादिकं वस्तु भवति । स्वभावातिशयाभावादेव बाऽवस्तु भण्यते खरविषाणादि । तेन धर्मशब्दो वस्तुवाच्यपी रूढिवशावाशादिविविक्षितधर्मविशेषवृत्तिर्गृह्यते । अन्यथा आतरौद्रयोरपि धर्म्यतानुषज्येत । वस्तुस्वभाव मात्रधर्मांनपेतत्वाविशेषात् । उक्तं चा प्रशस्तप्रणिधानं स्थिरमेकत्र वस्तुनि || पानमुक्तं मुक्त्यंग धन्यं शुलमिति द्विधा ॥ तत्रानपेतं यद्धर्मात ध्यानमिष्यते ॥ धर्मो हि वस्तुयाथात्म्यमुत्पादादिश्रमात्मकं ॥ श्रया चप्पयारं चतुर्विधमाज्ञापायविपाक संस्थानलक्ष्णध्येयविशेषविचयविकल्पात सुकं कपाप्ररजसः दुपशमाद्वा प्रति समयमाविर्भवद्भियथोत्तरं शुचिभिः संयमत्रिकल्पलक्षणैर्गुणैः संवध्यमानत्वाच्छुक्लमिति व्यपदिश्यने विशुद्धिस्वामिविशेषात्मज्ञस्ततरं ध्यानं । अत एव धर्म्यादर्थान्तरत्वं । उक्तं चशुचिगुणयोगाच्छुक्लं कषायरजसः श्रयादुपशमाङ्का || माणिक्यशिखावदिदं सुनिर्मलं निष्प्रकम्पं च ॥ आश्वास १५२२ Page #1538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः चतुर्विध पृथक्त्ववितकवीचारमेकत्ववितर्कवीचार, सूक्ष्मनियाप्रतिपातिव्यपरतक्रियानिवर्ति चेति चतुमिभेदैर्विकल्पनात् ।। किलेसहरं सहजशारीरमानसागंतुदुःखचक्रचेतनाव्यावर्तकत्वात् , तनिमित्तकदुष्कतकर्मविपाकानुवृत्तिनिरोधकत्यात्तथाविधनुःखनिमित्तकर्मशक्तिशातनपरत्वाच्च, क्लेशोच्छेदकर धयंशुक्लं च द्वितयं अपि । अत एव संसारदुःखभीतः कृतपरिकरः साधुस्तबमायति । अनचोश्च शुक्लस्य क्लेशहरतरत्वेऽपि पश्चादुपादानं धर्मापूर्वकत्वेदयुगीन मुमुक्षुमनासाभ्यत्वज्ञापनार्थ सूरिरकार्षीत् । तथा च भगवद्रामसेनपादाः काश्चनाबेदानीं ध्याननिषेधैकोतपरानुपाले भिरे । तद्यथा येऽत्राहुन हि कालोऽयं ध्यानस्य ध्यायतामिति ॥ तेऽईन्गतानभिज्ञत्त्वं स्पागम्य राहत्मनः । अत्रेदानी निषधन्ति शुक्र यानं जिनोत्तमाः ।। धर्यध्यानं पुनः प्राहुः अणीभ्यां प्राग्विवर्तिनाम् ॥ अशाणानि ध्यालियान मेकाधितागिरोधः । एकवस्तुनिष्ठमात्मनो शानमित्यर्थः । अत्र नितादायट्रेन चैतन्यमुच्यते तचैतन्यमन्यमन्यं चार्थमत्रगच्छता ज्ञानावरूपेण वर्तते इति परिश्चंदवङ्गवति । एकस्मिन्विवक्षितेऽये मुखे व्यालंगने चिंताया यथोक्तपरिम्पंदयानन्याश्रिताया अंतःकरणप्रवृत्तनिरोधोऽवरोधो नानार्थव्यावर्तनेन तत्रैवावस्थापन काग्रचितानिरोधो ध्यानस्वाक्षर्ण लक्षणमुपलक्षणीयम् । वदुक्तम्--- इष्टे ध्वेवे स्थिरा बुद्धिा स्यारसंतानवर्तिनी ।। ज्ञानांतरापरामृष्टा सा ध्यानियानमीरिता ।। छमस्थेषु भवेदेतलक्षणं विश्वश्वनाम् ॥ . योगात्रवस्य संरोधे ध्यानत्तमुपचर्यते ॥ ज्यादि ध्यायति प्रणिधत्त । पर्ये शुक्ले वा ध्याने परिणतो भवतीत्यर्थः । उरक च प्रत्याहत्य यथा चिंता नानालंयनवर्तिनी ॥ एकालंधन एवैनां निरुणद्धि विशुद्धधीः ॥ Page #1539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना, आश्वासा १५२४ तदास्य योगिनो योगश्चितैकामनिरोधनं ॥ प्रसंख्यानं समाधिःस्यायानं स्वेष्टफलप्रदम् ॥ अर्थ--धर्मध्यानके चारभेद हैं और शुक्लाध्यानके भी चार मेद हैं. इन दो ध्यानोंसे संसारके क्लेश दर होते हैं अतःसंसार से मययुक्त क्षपक इन दोनों ध्यानोंका हृदय चिंतन करते हैं. जो वस्तुकी वस्तुताको धारण करता है उसको धर्म कहते हैं अर्थात वस्तुका जो विशिष्ट स्वभाव उसको धर्म कहते हैं. चैतन्यादिक विशिष्ट स्वभाव होनेसेही जीवादिक पदार्थों को वस्तु कहते हैं. विशिष्ट स्वमावसे पदार्थको ' वस्तु यह नाम मात्र हुआ है. स्वरविषाणादिकोंको कोई भी विद्वान् वस्तु नहीं कहते हैं क्योंकि उसमें कोई भी धर्म नहीं है. अर्थात सरावाण चीज ही नहीं है अतः यहाँ धर्म यह शब्द वस्तुके स्वभावका वाचक है. इस धर्मसे अर्थात् वस्तुस्वभावसे ध्यानयुक्त रहता है उसको धHध्यान कहते हैं. शंका-यदि आप वस्तुस्वभावसे युक्त ध्यानको धर्मध्यान कहते हो तो आतघ्यान भी वस्तुस्वभावसे युक्त होनेसे उसको भी धर्मध्यान कहो, क्यों कि इनमें संयुक्त हुए अनिष्ट वस्तुका वियोग, संयुक्त इष्टवस्तुका अवि योग, रोगपीडा वगैरहका शमन, भाविकालमें इष्ट वस्तुको प्राप्ति इत्यादि वस्तु घमौका आश्रय लेकर ये ध्यान प्रवृत्त होने हैं अतः इनमें घमसे अनपेतत्व-सहितपना है. अतः इनको भी धर्मध्यान कहना चाहिये ? उत्तर-यहाँ धर्म शब्द विशिष्ट अर्थात विवक्षितधर्मका वाचक है इसलिये आज्ञा, अपाय. विपक, संस्थान इत्यादि विशिष्ट धस जो युक्त है ऐसे आज्ञाविचय, अपायविचय वगैरह ध्यानोको धर्मध्यान कहना चाहिये. आज्ञा, अपाय, विपाक वगरह धर्म धर्मध्यानके ध्येय हैं. अर्थात ज्ञेय ध्येय हैं. इन ज्ञेयांको धर्मध्यान विषय करता है. वस्तुस्वरूपही ध्येय और ज्ञेय बन सकता है. इन वस्तुस्वरूपके साथ अविनाभावी एकाग्ररूप जो ज्ञान उसको धर्मध्यान कहते हैं. इस प्रकार धमध्यान शब्द का अर्थ स्पष्ट करना चाहिये. उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव इत्यादिकाको धर्म कहते हैं इन धर्मोसे जो ध्यान युक्त है उसको धर्मध्यान कहना चाहिये ऐसा कोई आचार्य कहते है. शंका-ध्यान तो ध्येयके साथ अविनाभावी है. अर्थात् वह ध्येयके बिना रहताही नहीं. क्षमादिक धर्म ध्येय नहीं है अतः ध्यान इनसे युक्त रहता है ऐसा कहना योग्य नहीं है. यदि क्षमादिक दश धर्म ध्यानके विषय है ऐसा कहोगे तो - । १५२४ Page #1540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना asre आवासः १५२५ धर्मध्यानके ये क्षमादिक धर्म ही विषय-ध्येय ठहरेंगे. ऐसा होनेपर आज्ञापायविपाकसंस्थान विचयाय धर्म्यम् । यह सूत्र विरुद्ध है ऐसा मानना पड़ेगा क्योंकि इस मूत्र में आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान ये धर्मध्यानके ध्येय विषय हैं ऐसा कहा है. यदि उत्तम क्षमादि दश धाँसे आत्मा युक्त है और उस आत्मासे यह ध्यान मी अभिन्न है अतः यह ध्यान क्षमादि धर्मोसे युक्त है ऐसा कह सकते हैं. यह आपका भी कहना अनुचित है, क्योंकि शुक्ल ध्यान भी इन धर्मों से क्या अभिन्न नहीं है ? अर्थात् शुक्ल ध्यानको भी धर्मध्यान कहना चाहिये. इस प्रकार शंकाकारका कथन है. अब आचार्य इसका उत्तर देते हैं-- रूढ़ि शब्दोंमें जो क्रिया दिखाकर शब्दार्थ कहत है वह कंवल शब्दव्युत्पत्ति के लिये ही समझना चाहिये। उस रूदिशब्दोंमें वह किया होती ही हैं ऐसा नियम नहीं है. 'आशु गमनादश्वः' अर्थात जो शीघ्र गमन करता है-जाता है उसको अश्व कहते हैं यह अश्व शब्दकी व्युत्पत्ति दिखाने के लिये उसकी निरुक्ति दिखाइ है. परंतु यह अश्व शब्द सोये हुए अथवा खडे हुए घोडेमें भी ब्यबहत्त होता है. बहे वेगसे दौडनेवाले गरुड वगैरे प्राणिओं में इस अश्व शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती है. वैसे इस शुक्लध्यानमें धर्म शब्दकी प्रवृत्ति नही होती हैं धर्मध्यानसे भिम आर्त रोद्रध्यानमें भी इसकी प्रवृत्ति नहीं होती है. प्रश्न-ध्यान किसको कहते हैं ? उत्तर-'उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्' अर्थात् उत्तमसंहननवालेके एकाग्रचितानिरोधको ध्यान कहते हैं. छह संहननों में बनवृषभनाराचसंहनन, बचनाराचसंहनन, और नाराच संहनन इन तीन संहननोंको उत्तम संहनन कहते हैं. इन तीनोंमें से एक संहनन जिसको है ऐसा पुरुष उत्तम संहनन धारक है. वह पुरुष एकाग्रमें चिताका निरोध करता है. इस चिंताके निरोधको भ्यान कहना चाहिये. शंका-चिताके अभावको चितानिरोध कहते हैं. वह एकमुख कैसा होता है तथा वह कर्मके भाव अथवा अभावमें कैसा कारण होता है ? आसध्यान और रौद्रध्यान अशुभकर्मका निमित्त है. धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान शुभ कर्मका तथा निर्जराका निमित्त है. उत्तर-यहां निरोष शद्र अभावका वाचक्र नहीं है किंतु रोधका चाचक है जैसे मूत्रविरोध. शंका-जो पदार्थ चंचल है उसका निरोध होता है परंनु चिंताका निरोध कैसे हो सकता है ? उत्तर-कितनेक विद्वान अनेक पदार्थाका आश्रय लेकर चिंता चंचल होती है. उसको एक विषय में स्थिर करनाही चिंतानिरोध है ऐसा कहते हैं. उनको ऐसा FECNOR १९२५ Page #1541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास और यदि एकही पदार्थम स्थिर १५२६ पूछना चाहिये-पदि चिंता अनेक अर्थोंका-पदार्थोका आश्रय लेती है तो वह एक वस्तु में ही कैसी स्थिर होगी और यदि एकही पदार्थमें स्थिर होगी नो अनेक पदार्थोंका वह अवलंबन क्यों लेगी. इस वास्ते उसके निरोध का वर्णन करना असंगतसा दीखता है. चिंतानिरोधका यहां ऐमा विवेचन करना चाहिये चिंता शब्दसे चैतन्य अर्थ समझ लेना. यह चैतन्य अन्य अन्य पदार्थको जानता हुवा ज्ञानपर्यायसे परिणत होता है. ऐसे परिस्पंदयुक्त चिंताका निरोध करना अर्थात एकही विषयमें उसकी प्रवृत्ति होनाही चिंता निरोध समझना चाहिये. जो एक पदार्थमेही निरुद्ध हुआ है वह वही प्रवृत्त हुआ है ऐसा कहा जाता है. उत्तम संहननवालाको ध्यान होता है ऐसा सूत्रप्रयोग है इससे उत्तमसंहनननरहित जीवों में आर्त रौद्रध्यानकी प्रवृत्ति नहीं होगी. इससे इन ध्यान के आश्रयसे जो नरकादि गतिओंकी प्राप्तिका वर्णन आचायने किया है वह अनुभवसे विरुद्ध होता है. इस कालमें भी इन ध्यानाकर सद्भाव है अतः अन्धशाखोसे भी उपर्युक्त कथन विरुद्ध पड़ता है. यह कथन अन्यसूत्रोसेभी विरुद्ध होता है. 'तदवितरतदेशविरतपमत्तसंयतानाम् ' हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ' इन सूत्रों में केवल गुणस्थानोंका आश्रय लेकर ही आर्तरौद्रध्यानके स्वामीओंका वर्णन किया है. इससे भी ध्यान अनुत्तमसंहननवालीको भी होता है यह सिद्ध होता है. उपर्युक्त आक्षेपका निराकरण निर्जराके कारण जो ध्यान है उनका यहां वर्णन है. इसवास्ते मुक्तीके लिये साक्षात्कारणभूत ध्यानका वर्णन करनेके लिये आचार्यने ' सूत्र में उचमसंहननस्य' ऐसा शब्द ग्रहण किया है. शंका-यदि ऐसा है तो आतरौद्रधHशुक्लानि ऐसा आगेका सूत्र है वह असंगत है क्योंकि आतध्यान और रौद्रयान निर्जराके कारण नहीं हैं. उत्तर- उत्तमसंहननस्यैकायचिन्तानिरोधो ध्यानं' यह सूत्र मुख्य ध्यान जो कि मुक्तिका अंग है उसको उद्देश करके प्रबृत्त हुआ है. और उस के आगेका 'आत्तरौद्रधHशुक्लानि' यह सत्र एकाग्रचिताको सामान्यसे उद्देशकरके लिखा है, यह सूत्र अनभिमत अनिष्टध्यानका वर्णन करता है. प्रस्तुत ध्यान अनभिमत ध्यानसे-आर्त और रॉद्रध्यानसे अलग है और इसका स्वरूप बिलकुल आरोद्र ध्यानसे उलटा है यह दिखाने के लिये यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है, इसलिये प्रासंगिक आर्त रौद्रध्यानका मुख्यध्यानके आगे उल्लेख किया है. RRORETATE १५२६ Page #1542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा १५२७ अथवा 'उत्समसंहननस्य' यह शब्द विशिष्ट वीर्यवान् आत्माके लिए उपलक्षण है. अर्थात उत्तमसंहनन वीर्यातिशयवान् आत्माका एकवस्तु में स्थिर ऐसा जो ध्यान उसको ध्यान कहना चाहिये ऐसा सूत्रार्थ है. शुक्ल ध्यान चार प्रकारका है (इसका ग्रंथकार आगे वर्णन करंगे) यह ध्यान चतुर्गतिके दुःखाका नाश करता है. चतुर्गति भ्रमण करनेसे जिसको भय उत्पन्न हुआ है अर्थात् चतुर्गतिके दुःखोंसे जो भययुक्त है. ऐसा क्षपक धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान ऐम दो ध्यान का चिंतन करता है, ण परीसहेहि संताविउं बि सो झाइ अट्टरुहाणि ॥ सुट्टवहाणे सुई पि अट्टरुदा वि णासंति॥ १७०० ।। आर्तरौद्रद्वयं त्याज्यं सर्वदा दुःस्वदायकम् ।। तेन निश्चलाते शानं दुर्गा समयः॥ १७६७ ॥ विजयोदया-ण परिस्संही सनपकः परिस्सहदि परीपहेः । संताविदो विवाधितोऽपि भट्टरुहाणि आत्त रौद्रं च न झाइ नाध्याति । सुश्वहाणे मुष्ठ उपधाने । शुद्धमपि अाणि णासंति आर्तरौद्ध्याने नाशयतः ॥ तीप्रदुःखातोऽप्यसौ सयानं प्रतिपद्यते इति स्वरूपानुवादाभिव्यक्त तुर्थानप्रतिषेधमनुशास्ति मूलारा....सो सयानोवतः साधुः । सुविधाणं विसुद्धपि सुष्ठूपधानरसंक्लेशपरिणामर्षिशुद्ध विशिष्ट शुद्धि कर्मनिर्भरणशक्तिसंहिन प्रापितमपि सद्धपानमातरौद्रे नाशयतः। किं पुनरितरदिति त्वया संसारभीक्षणा घोरपरीषदोपहतेनापि ते दुाने मनागपि नालंबनीये इति प्रतिषेधपरोक्तिः ॥ अर्थ-यह क्षपक परीवहोंके द्वारा पीडित होनेपर भी आर्त ध्यान और रौद्र यानका चिंतन नहीं करता है. शुद्ध परिणामों के द्वारा उस क्षपकका ध्यान कर्मनिर्जरा करने में समर्थ है तो भी ये आतरीद्रध्यान उस उत्तम श्यानका नाश करते हैं, इसलिये हे क्षषक! संसारदुःख से भययुक्त होकर परीपहोंसे पीडित होनेपर भी इन अशुभ घ्यानोंका स्वीकार करना तेरे लिये बिलकुल अयोग्य है. न Page #1543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा अट्टे चउप्पयारे रुद्दे य चरबिधे य जे भेदा ! ते सव्वे परिजाणादे संथारगओ तओ खबओ ॥ १७.१ ॥ रोद्रं चतुर्विध ध्यानं ये चाते सन्ति केचन ।। ते भेदा दूरसस्त्याज्या विज्ञाय विधिविना ।। १७६८ ॥ बिजयोदया-अ चप्पयारे आतै चतुःप्रकारे. जे भेदा कहे य चदुन्विधे ये भेदाः । ते सव्ये परिमाणदि तान् सर्यान् विजानाति । संधारगदो संस्तरगतःतमो सधगो असी अपकः। जो यत् परिहरे धुरस कथं तत्वतोऽनवबुध्यमानो नियोगतः परिहरेदि छदि । यार्थ आर्तरौद्र परिहरन् तस्मात् महातव्येप्ति इति दर्शयति । यो पत्रियोगतः परिनिहीति स नित्य तस्वरूपपरिज्ञानपरो भवतीति सविकल्पमपि दुर्ध्यानद्वयं अपक्रम विमर्शनीयभित्युपदेष्टुमिदमाह मूलारा-4रिजाणदि लक्षणनियंचनभेदस्वामिदेशकालफलभाषगुणस्थानप्रमदानामर्थनिर्णयविषयलाधारात रौद्रं च अपयुध्यते इत्यर्थः ।। अर्थ-आध्यानके चार प्रकार है तथा रौद्रघ्यानक चार भेद है. संस्तरपर पड़ा हुआ क्षपक इनके सर्व भेदोंका स्वरूप जानता है. यदि इनके भेदोंका परिज्ञान उसको न होगा तो वह उसका त्याग नहीं कर सकेगा. आर्तरौद्रध्यानका त्याग करनेके लिये उसके स्वरूपका ज्ञान होना अवश्यंभावी है. अमगुण्णसंपओगे इविओए परिस्सहणिदाणे ॥ अद्रं कसायसहियं झाणं भणियं समासेण ॥ १७०२॥ तेणिकमोससारक्खणेसु तह चव छविहारंभे ॥ रुई कसायसहियं झाण भणियं समासेण ॥ १७०३ ॥ अवहट्ट अदृरुद्दे महाभये सुग्गदीए पञ्चूसे ॥ धम्मे सुक्के य सदा होदि समण्णागदमदीओ ॥ १७०४ ।। १५२८ Page #1544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः स्तेयासत्यवचोरक्षापडिधारंभभदतः ॥ कषायसहितं रौद्रं ध्यानं ज्ञेयं समासतः ॥ १७६९ ॥ प्रियायोगाप्रियप्राप्तिपरीषहनिदानतः ॥ कषायकलितं ध्यानमार्न प्रोक्तं चतुर्विधम् ॥ १७०। रौद्रमार्त्त त्रिधा त्यक्त्वा सुगतिप्रतिबंधकम् ।। धर्म्यशुक्लये योगी साम्यं कर्तुं प्रवर्तते ।। १७७१ ॥ विजयोदया-अवष्ट अपहत्य । अरुहेचाननीटे । प्रहहो भागय त्याम्नायो । मुगदर घुसे सुगतचिप्रभूत । धम्म सुक्के वा धम्र्ये धक्के वा ध्यानेऽसौ क्षपकः । समण्णागमवी सो होवि सम्यगनुपरतमतिर्भवति ॥ संक्षेपेणार्तध्यानविकल्पान्ध्याचष्टेमूलास-अहं ते अमनोज्ञसंयोगादिना पीडिते पुंसि भवमात । उक्तं पाएँ ऋते भवप्रथा क्याथानमा पतुर्विधं ॥ इष्टानवाप्त्यनिष्टातिनिदानासातहेतुकम् ॥ कसायसहिद प्रमादाधिष्ठितत्वात् ।। समासेण संक्षेपेण । विस्तरस्त्वा!क्तो यथा ऋने बिना मनोज्ञार्थाद्ववमिष्टवियोगजम् ॥ निदानप्रत्ययं चैवमप्राप्वष्टार्थचित्तनात् ।। भरते छपगतेऽनिले भवमात नृतीयकम् ॥ भवेश्चनर्थमप्येक वेदनोपगमोद्भवम् ।। प्रात्यायोमनो तरार्थयोः स्मृसियोजने ॥ निदानवेशनापायविषये चानचितन ।। इत्युक्तमार्समाात्मचिंत्यं ध्यानं चतुर्विधम् ।। प्रमादाधिष्ठित तत्तु षड्गुणस्थानसंश्रितम् ॥ अप्रास्ततम लेश्यात्रयमाश्रित्य भितम् ।। - - - - - १५२९ Page #1545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५३० अंतर्मुहूर्तकालं सवप्रशस्तावलंबनम् ॥ क्षायोपशमिकोऽस्य स्याद्भावस्तिर्यगातिः फलम् ॥ तस्मादर्थ्यानमार्त्ताख्यं देयं श्रेयोर्थिनामिदम् ॥ मूच्छा कौशील्य कैनाश्यकौसीयान्यतिगृध्नुता ॥ भयोद्वेगानुशोकाश्च लिंगान्यार्ते स्मृतानि वै ॥ बाह्य च लिंगमार्तस्य गात्रग्लानिर्विवर्णता ।।' हस्तन्यस्तक पोलवं युतान्यज्ञ लाया । रौद्रभेदानाह मूल्ारा---सारक्खणेलु शस्त्रादि गृहीत्वा स्वद्रव्यादिरक्षणे । छत्रिवधारभ पट्जीवनिकाय हिंसनं । कई द प्राणिन इति रुद्रोस्रो रुद्रे भवं रौद्रं ॥ समासेण संक्षेपेण, विस्तरस्यापारको | यथा— प्राणिनां रोदनाद्रः क्रूः सत्येषु निर्घृणः ॥ पुमांस्तत्र भवं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम् ॥ हिंसानंदमृपानंदस्तेयसंरक्षणात्मकम् ॥ षष्ठान्तु तद्गुणस्थानात्मा पंचगुणभूमिकम् ॥ प्रकटतर दुर्लेश्यात्रयोपोद्बलबृंहितम् ॥ अंतर्मुहूर्त कालोत्थं पूर्ववद्भाषमिध्यते || वधबंधाभिसंधानसंगष्ठछेदोपतापने ॥ डपारुष्यमित्यादि हिंसानंदः स्मृतो बुधैः || हिंसानंद समाधाय हिंखः प्राणिषु निर्घृणः ।। हिनत्यात्मानमेव प्राक् पश्चाद्धन्यान वा परान् ॥ पुरा किलारविदाख्यः प्रख्यातः खचराधिपः ॥ रुधिरस्नानरौद्राभिसंधिः श्राधी विवेश सः ॥ अश्वास ७ १५३० Page #1546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SBIGEN बुलाराधना आश्वासः - - म - अमानुशंस्याहसोपकरणादानतत्कथाः ।। निसर्गहिंम्रता चेति लिंगान्यस्य स्मृतानि वै ॥ मृषानंदो मृषावाक्यैरतिसंधानातिनम् ॥ वापारयादिलिंग सदितीयं रौद्रमिष्यते ॥ स्तेयानंद: परद्रव्यहरणे स्मृतियोजनम् ॥ भवेत्संरक्षणानंवः स्मृतिर्थार्जनादिषु । प्रतीतलिंगमेवैतद्रौद्रभ्यानद्वयं भुवि ।। नारकं दुःसमस्याहुःफलं रौद्रस्य दुस्तरं ।। था तलिंगमस्याहुरभंग मुखबिक्रियाम् ।। प्रस्वेदमंगकंपं च नेत्रयोति ताम्रताम् ।। प्रयत्नेन विनवतद्रौद्रध्यानद्वयं भवेत् ।। अनादियासनोदूभृतमतम्तद्धिमजेग्मुनिः ।। अपि च-अनत्त्वमित्यतत्त्वाज्ञावपरीत्येन भावयन्।। प्रीत्यप्रीती समाधाय संक्लिष्ट्र भ्यानमच्छति ।। संकल्पो मानसी वृत्ति विपयेध्वनुतर्षिणी ।। सैब दुाप्रणिधान स्यादपध्यानमतो पितुः ।। स्वार्थघातकस्वादानं त्यक्त्वा नित्यं सयानकतानो भवेत्युपदेशमाह - मूलारा-- अवह अपहत्य । महाभये दुर्गतिदुःखहेतुबुरितधानिंदानत्वात् । सुगदीए सदेवत्वसुमानुपपंचमागतिरूपायाः सुगतेः । पच्चूहे विनभूते तत्कारणपुण्यवंधनश्मयप्रतिबंधित्वात् । समण्णागवमदीओ सभ्यगनुगतबुद्धिः । अर्थ-अमनोज्ञसंप्रयोग-अनिष्टपदाथोंका संयोग होनेपर उसका वियोग किस उपायसे होगा ऐसा बार २ विचार करना अमनोज्ञ संप्रयोग नामक आतध्यान है, इष्टवियोगज-स्त्रीपुत्रादिक पदार्थोंका वियोग होनेपर उनकी माबि की बार बार चिंता करना, परीषह प्राप्त होनेपर ये कैसे दूर होंगे ऐसा मनमें बार २ विचार करना, DANARAMAIRALAPANA १५३१ Page #1547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CON मूलाराधना १५३२ अगेके भवमें मेरेको अच्छे २ पदार्थ मास होने चाहिये ऐसा विचार करना यह निदान नामक आतध्यान है. चोरी करने का वार २विचार करना, चोरसे धन न लूटा जावे इस लिये उसका संरक्षण करनेके लिये शस्त्रादिक ग्रहणकर उनका रक्षण करनेके रुद्रपरिणाम वारंवार होना, छह प्रकारके आरंभ करना अर्थात् पकायजीवोंकी जिसमें हिंसा होती है ऐसा आरंभ करने में तल्लीन होना इसको रौद्रध्यान कहते हैं. हिंसा करनेवाले मनुष्यको रुद्र कहते हैं ऐसे मनुष्यमें उत्पन्न हुआ जो ध्यान उसको सैद्रध्यान कहते हैं ऐसा रौद्र ध्यानका लक्षण संक्षेपमे कहा है. ये आर्त और शैद्रध्यान दोनो भी त्यागने चाहिये. क्योंकि ये महाभयक कारण हैं और सुगतिके प्रतिबंधक है अर्थात् दुर्गति के कारण हैं. ये धर्मध्यान और शुक्लध्यानके बाधक हैं ऐसा समझकर धर्म और मुकार, ध्यान में क्षपक सदा स्थिर रहता है. ... यान प्रबुती कारणमाएइंदियकसायजोगणिरोध इच्छचणिज्जरं विउलं || चित्तस्स य घसियर मग्गा अविप्पणासं च ॥ १७०५ । ध्याने प्रवर्तते कांक्षन्कषायाक्षनिरोधनम् ।। वश्यत्वं मनसो मार्गावभ्रंशं निर्जरां पराम् ॥ १७७२ ॥ विजयोदयादियकसायजोगणिरोध स्पर्शादिधूपजात उपयोग इंद्रियशडेदनोच्यते । कामयाः क्रोधादयस्तै योगः संवैधस्तस्य निरोधं निवारणामिच्छशियं च विपुलामिच्छन्, बस्तुयाथात्म्यसमाहितचिसस्य नेद्रियषिपय जन्योपयोगसमवः, कषाणां योत्पत्तिः, चित्तस्स य घसियत्तं चित्तस्य स्ववशत्य पच्छन् स्वेष्टविषये चिसमसकृत्स्था. पयनोऽनिपाच्च ध्यावतंयतः स्ववश भयति ॥ चित्तस्य मग्गादो अषिप्पणासंच मार्गाद्रल्मषयादविपाशं च वांछन् , अभियानप्रवृत्ती रत्नत्रयात्प्रच्युतो भवामीति ध्याने प्रयतते ॥ धर्मध्यानस्य' प्रयोजनमांतरं परिकर च नि ९ गाथाचतुष्टयमाचष्टे मूलारा--जोग संबंधः । इच्छं वांछन् । णिज्जरं शुभकमेकदेशसंशयं । पिटलं बाधाभ्यंतरतपोविकल्पांतरसाध्य निर्जरातोऽतिशायिनीं । वसियतं स्ववश्यतां । स्वेशेऽर्थे चित्तं स्थापयितुं अनिष्टाच्च ब्यावर्तयितुमित्यर्थः । मग्गादु अविप्पणास रत्नत्रयादप्रययनम् । १५३२ Page #1548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा १५३३ यह क्षपक शुभध्यानोंमें क्यों मात्त होता है इस शंकाके उत्तरमें कारणका निवेदन करते हैं अर्थ-स्पर्शादिक विषयों में उत्पन्न हुआ जो उपयोग उसको यहां इंद्रिय कहते हैं. इंद्रिय और कषायोंका | संबंध नष्ट करनेकी यदि इच्छा हो, काँकी विपुल निर्जरा करनेकी यदि इच्छा हो, तो तू अपना चित्त स्वाधीन रखने का प्रयत्न कर. वस्तके यथार्थ स्वरूप को जाननेमें अपने मनको एकाग्र कर. जब मन स्वाधीन होता है तब इंद्रियोंके विषयके प्रति उपयोग नहीं लगता है और कषायों की भी उत्पत्ति नहीं होती है. चिसको अपने इष्ट विषयमें अर्थात उत्तम क्षमादिक धर्मों में स्थिर करना चाहिये. और अनिष्टविषयोंसे परावृत्त करना चाहिये. रत्नत्रयमार्गसे अपनी च्युति न हो ऐसी इच्छा करनेवाले क्षपक को अशुभ ध्यानका त्याग करना चाहिये. और शुभ ध्यानमें स्थिर रहना चाहिये. थानपरिकरप्रतिपावनायोत्तरगाथा किंचित्रि दिहिमुपावत्तइत्तु झाणे णिरुद्धदिछीओ !! अप्पाणहि सदि सधित्ता संसारमाक्खट्ठम् ॥ १७०६ ।। एकाग्रमानसश्चक्षुर्यावर्त्य परवस्तुतः ॥ आत्मनि स्मृतिमाधाय ध्यानं श्रयति मुक्तये ॥ १७७३ ।। विजयोदया-किंचिवि विटिमुपावसहनु पाहाव्यालोकात् किंचिच्चनुर्वावर्तभिवा । झाणे शिरुद्धदिछीओ एकविषये परोक्षशान निरुद्धचैतभ्यः। दृष्टिनिमिसे हिचैतन्य दृषिशब्दोऽप युक्तः । अपाणहि प्रान्मनि । सदि स्मृति । संधिप्ता संधाय । स्मृतिशब्दनात्र थुतक्षानेनावगतस्यार्थस्य स्मरणगुच्यते, संसारमोक्नई संसारधिमुक्तये ॥ प्रयोजनमुक्त्वा परिकाह--- मलारा-किचिधि किंचित्वं । दिष्टुिं चक्षुः । उच्चेसवितु उपावत्यै । बाह्यद्रव्यालोकनाट्यावर्त्य नासाने दृष्टि कृत्वेत्यर्थः । णिरुद्ददिट्ठीओ एकविषये परोक्षक्षाने निरुद्धचैतन्यः दृष्टिनिमित्ते हि चैतन्ये दृष्टिशब्दोत्र प्रयुक्तः । अप्पागम्मि स्वसंवेदनसुत्यक्ते शुद्धिचिपे स्वात्मनि । सदि श्रुतज्ञानाधिगतार्थस्मरणं । उक्तं च पूर्वश्रुतेन संस्कार स्वात्मन्यारोपयेसतः । तत्रैकाग्यं समासाच न किंचिदपि चिंतयेत् ।। १५३३ Page #1549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधार अपि च- गहियं न मृगणगण पर संगोण गोड। जाणटु सुअमरल रवि मोमादि अप्पसम्भावे ॥ ध्यानका परिकर कहनेके लिये गाथा अर्थ-नेत्रोंको बाम पदार्थोके अवलोकनसे हटाना चाहिये अर्थात नाकके अग्रभागपर नेत्रोंको निश्चल करना चाहिये. तदनंतर एक विषयको धारण करनेवाले परोक्षज्ञानमें अपना ज्ञानोपयोग स्थिर करना चाहिये. स्वसंवंदनज्ञानसे जिसका अनुभव आता है ऐसे अपने शुद्ध चतन्यरूप आत्मामें श्रुतज्ञानके साहाय्यसे आगमसे जाने हुए पदाथोंका स्मरण करना चाहिये. यह ध्यान मुनिमण संसारसे मुक्त होनेके लिये करते है. पच्चाहरितु विसयहिं इंदियेहि मणं च तेहिंतो ॥ अप्पाणम्भि मणं तं जोगं पणिधाय धारेदि ।। १७०७ ।। प्रत्याहत्य मनोक्षाणि विषयेभ्यो महायलः॥ प्रणिधानं विधत्तेसावत्मनि ध्यानसालसः ॥ १७७४ ॥ विजयोदया-पच्चाहरितु प्रत्याहृत्य । विसयहिं विषयेभ्यः। इंदियाई इंद्रियाणि मणं च मनश्च व्यावतं । तेहितो विषयेभ्यः । मण तं धारेवि तम्मनो धारयति । अप्पाणंहि आत्मनि । जोगं योगं वीर्यातरायक्षयोपशमजवीयपरिणाम । पणिधाय प्रणिधायास्थाच्य,एतदुक्तं भवति वीर्यपरिणामेन नोदंद्रियमति धारयतीति । पुनरांतरमेच परिकर्माह मूलारा---पच्चाहरितु व्यावयं । इंदियाई चक्षुराद्युपयोगान् । मणं नो इंद्रियमति । तोहितो तेभ्यः । च विषयीकृतं । जोगं पणिधाय वीर्यातरायक्षयोपशम वीर्यपरीणाममवष्टभ्य वीर्यपरिणामविशेषेण शुद्धस्वात्मनि निविपयां नोइंनियमति धारयतीत्यर्थः । स एषोऽन्तः परिकरः सूत्रकृसोक्तः । वास्त्वयं--- पर्वतगुदायां, गिरिकदरे, पर्या, तरुकोटरे, नदीपुलिने, पिसृषने, जीर्णोचाने, शून्यागारे, वा व्यालमृगानं पशूनां पक्षिणां, मनुष्याणां या ध्यानविनकारिणां सान्निध्यशून्ये, तन्त्रस्थैरागंतुभिश्च क्षुद्रजीवर्वर्जिते उष्णशीतीने प्रवातादिविहिते निरस्तेन्द्रियमनोविक्षेपड़तो, शुपावनुकूलस्पर्शभूभागे मंदमंदप्राणापानमचारी नामेरुवं, हदि ललाटे षा यन्त्र वा मनोवृत्ति यथापरिचयं प्रणिधाय ध्यायतीति तथैव चाज्ञाचक्षुस्सत्र मतो भगवड्रामसेनपादा:-- १५ Page #1550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुलाराधना आश्वास यथोक्तलक्षणो ध्याता च्यातुमुत्सहते यदा ।। तदेदं परिकर्मावी कृत्वा ध्यायतु धीरधीः ।। शून्यागारे गुहायां च दिवा वा यदि वा निशि || स्त्रीपशुक्लीवजीवाना क्षुद्राणामप्यगोचरे॥ अन्यत्र या कचिदेशे प्रशस्ते प्रासुके समे ॥ चेतनाचेतनाशेषध्यानविनविवर्जिते ॥ भूतले वा शिलापट्टे सुशील स्थितोऽपया। सममृज्वाय गात्रं निष्कंपावयव दधत् ।। नासाप्रन्यस्तनिःस्पैदलोचनो मंदमुहसन ॥ द्वात्रिंशष्ठोषनिर्मुक्तकायोत्सर्गव्यवस्थितः ।। प्रत्याङ्कत्याक्षलुटाकारतवर्थेभ्यः प्रयत्नतः ॥ चिंतां चाकृष्य सर्वेभ्यो निरुभ्य ध्येयवस्तुनि ।। निरस्तनिद्रो निर्मितिनिरालस्यो निरतरः ।। स्वरूपं पररूपं या ध्यायेदंसम्शुिरये ॥ किंच-देहावस्था पुनयेव न स्यादपानोपरोधिनी ।। सदबस्यो मुनिायेत्स्थित्वासित्त्वाधिशम्य वा ।। देशाविनियमोऽप्ये प्रायो वृत्तिन्युषाश्रयः ।। कृतात्मनो तु सर्वोपि देशादिनिसिद्धये ॥ अर्थ-विषयोंसे इंद्रियां और मनको हटाना चाहिये. अर्थात् इंद्रियोंका उपयोग और मनका उपयोग बाह्य पदार्थमें रागद्वेषस प्रवृत्त होता है. उनको रागोषरहित होकर वहांसे हटाना चाहिये. और बीयांतरायकर्मके क्षयोपशयसामर्थ्य से मनोयोगको अपने आत्मामें स्थिर करना चाहिये. Page #1551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मात्रामा -- - रुतमलोनिरोधः किं करोनीत्याशक्या: एयग्गेण मणं रुभिऊण धम्म वउविहं झादि । आणापायबिधार्ग विचयं संठाणविचयं च ॥ १७.८॥ ध्यायत्येकाग्रतस्को धर्मध्यानं चतुर्विधम् ॥ आज्ञापायचिपकानां संस्थाया विचयं सुधीः ॥ १७७५ ।। विजयोदयाय म्गेण पकभ्ययमुखतया । मण भिवृषा मनो निरुध्य । धम्म धम्यवस्नुस्वभाव । चविहं चतु. किलो दि ध्यायनि । अन्नपनिकरोयमुक्ता मयकारंजा । वायापरिकर उच्यत । पर्वतगृहरयां, गिरिकंदरे, दया भर कार। नहापुन्निने, पितृवंग, जाणीवाने, शुन्यामार वा व्याटलगायो पशुना, पक्षिणां, मनुष्याणां वा ध्यानविनकारि गाँ राजधानन्य नवम्भरागभिक्षा जीववैजिने. जशीवानरवानादिविरहिते, निरस्तेद्रियमनोविक्षहती.शुचावनुकृल मा भूभाग मंद मंद प्राणापानविचार नायक हदि ललाटेप वा मनोति यथापरिचय प्रणिधातीति वाह्यपरिकरः। आणापायविपाकविनय आशपिवयभपायनिचयं विपाकविनाप, मटाणधिनये न मम्मानविचयं च 1 ताशाविचयो निरूप-कर्माणि मूलोत्तरप्रतानि तषां चतुर्विधो बंधपर्याय उदयफलविकल्पः जीवद्रव्यं मुषत्यवस्थ ल्येषमादीना मतौद्रियत्वात् श्रुतक्षानाधरणक्षयोपशमप्रकर्षाभावात् युद्धपतिशये असति दुरवयोधं यदि नाम षस्तुतत्वं तथापि सर्वशवानप्रामाण्यास् आगमविषयतत्यं तथैव नान्नाथेति निश्चयः सम्यग्दर्शनस्वभाचा घारमोक्षदेतरित्याशाविचारनियमानं आकाविचयाक्यं धर्मध्यानं । अन्ये तु वदंति स्वयमधिगतपदार्थतत्वस्य परं प्रतिपादयितुं सिद्धांतनिरूपितार्धप्रतिपशिलभूतयुक्तिगवेषणावहितन्निसा सर्वज्ञानप्रकाशनपर अनया युक्त्या इयं सविदामाशापयोधयितुं शक्येति प्रपतमामस्वादशाषिचय इत्युच्यत इति ॥ अमादौ संसारे खैर मनोवाकायवृत्तमम मममनो याकायस्थाऽपाया कथं स्यादिति अपाये विचयो मीमांसास्मिन्नस्तीत्यपायपिचयं द्वितीय धर्मध्यानं । जात्यंधसंस्थानीया मिथ्याएयः समीचीनमुक्तिमार्गापरिज्ञानात् दूरमेवापयति मार्गादिति सम्मापाये प्राणिनां विचयो विचारो यसिमस्तदरायविचयं इत्युच्यत इति मिथ्यावर्शनशानवारिप्रेभ्यः कथमिमे प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृतिससम्बाहारोऽपायधिवयः। चिपाकविचय उच्यते-समूलोत्तरप्रकृतीनां कर्मणामप्रकाराणां चतुर्विधबंधपर्यायाणां मधुरकटुकषिपाकानां तीनमध्यमदंपरिणामपंचकृतानुभाषीयशषाणां द्रब्यक्षेत्रकालभावापेक्षाणां पतासु मतिषु योनिषु या इत्थंभूतं फसमिति विपाके कर्मफले चिचयो विचारोऽस्मितिति विपाकविचयः ॥ वेवासनझल्लरीमृद संस्थानो लोक इति लोकत्रयस स्थाने विचयोऽस्मिश्रिति संस्थानविचयता। एवं कृतपरिकर्मा मुमुक्षुः किं करोतीत्यात्राइमूलारा-एयगोण एक येयमुखतया । रुभिऊण निरुध्य । आयेत्यादि आशादिषु विषयः सम्यविचारणानिष्ट Page #1552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्चासः ज्ञान यस्मिन्नस्ति तदाशाविषयमपायविचय, विपाकविचयं, संस्थानविषय घेति चतुर्विध धर्मध्यानं मुमुक्षा प्रणिधत्ते । तयथा-- उपदेष्टुरमावान्मंदबुद्धित्वात्कर्मोदयात्सूक्ष्मत्याच पदार्थानां हेतुरष्टांतोपरमे सर्वशप्रणीतमागर्म प्रमाणीकृत्य इत्थमेवेवं नान्यथा वादिनो जिना इति गहनपदार्थ श्रद्धानादर्थावधारणमामाविषयः । अथवा स्वयं विदितपदार्थतत्त्वस्य सतः गई प्रतितिराव दियो, रणतिवादाविरोधेन तस्मसमर्शनस्तर्कनयप्रमाणयोजनपरः स्मृविसमन्वाहारः सर्वशासाप्रदर्शनार्थत्वावाझाषिचय इत्युच्यते ।। जात्यंधवन्मिभ्यादृष्टयः सर्वप्रणीतमार्गाद्विमुखा मोक्षार्थिनः सन्मार्गापरिझानात्सुदूरमेयापयांतीति सन्मार्गापायचिंतनमपायविचयः । अथवा मिध्यादर्शनशानचारित्रेभ्यः कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिसि स्मृतिसमन्वाहारोपावविषयः ॥ कर्मणां झानाधरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकालभवभाषप्रत्ययं फलानुभवं प्रति चिंताप्रबंधो विपाकचिचयः॥ त्रिलोकसंस्थानस्वभावविचारणप्रणिधान संस्थानविषयः । स एवं संक्षेपेण धर्मध्यानभेदनिर्णयो विस्तरतस्त्वाति धर्म्य यया तदातापायसंस्थानविपाकविषयात्मकं ।। चतुर्विकल्पमाम्नातं ध्यानमाम्नायवेदिभिः ॥ तत्रत्यागमः सूक्ष्मविषयः प्रणिगंद्यते ।। दृश्यानुमेयवयं हि श्रद्धेयांशे गतिः श्रुतेः ।। जैनी प्रमाणयमाहां योगी योगविदाधरः ।। ध्यायेवास्तिकायादीम्भावान्सूक्ष्मान्यभागमम् ।। माशाविषय एष स्यादपायविषयः पुनः ।। तापत्रयादिजन्माधिगतापायषिचिंतनम् ॥ सवपायप्रतीकारचित्रोपायानुपिंसनम् ॥ अत्रैवान्तर्गतं ध्येयमनुप्रेक्षाविलक्षणम् ॥ शुभाशुभविमक्तानां कर्मणां परिपाकता भवावर्तस्य वैघियमभिसंदधतो मुनेः। विपाकविषयं धर्यमामनंति कृतागमाः ।। Page #1553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास बिपाकश्च द्विधाम्नातः कर्मणामाप्तसूक्तिषु ।। यथाकालमुपायाच फलपक्तिर्वनस्पतेः ॥ यथा तथैव कर्मापि फलं दत्ते शुभाशुभं ॥ मूलोसरप्रकृत्यादिबंधसत्वायुपाश्रयः॥ कर्मणामुदयश्चित्रः प्राप्य तव्यापिसमिधि ।। त परिपालाय चेष्टते ।। ततो ध्येयमिदं ध्यानं मुन्त्युपायो मुमुक्षुभिः।। संस्थानविषयं प्राहुलझेकाकारानुचितनम् ॥ तदन्तर्भूतजीवादितत्वान्धीक्षणलक्षणम् || दीपाविधवलयानद्रीन्सरितश्च सरांसि च ॥ विमानभवनयंतरावासनरकक्षितीः ।। त्रिजगत्सन्निवेशेन सममेतान्यथागमम् ॥ भाषान्मुनिरनुध्यायेन्संस्थानविषयोपगः ।। जीवभेदाश्च तत्रस्यान्ध्यायेन्मुक्ततरात्मकान् ।। ज्ञातकर्तृत्वभोक्तृत्वद्रष्टत्वादीभ तद्गुणान् । तेषां स्वकृतकानभावोत्थमतिदुस्तरे। भवाधिव्यसनावर्त दोपयादाकुलाकुलं || मझामनावा संतार्यमतार्य ग्रंथिकात्मभिः ।। अपारमतिगंभीर ध्यायेदध्यात्मविद्यतिः ।। किमत्र बहुनोक्न सर्वोप्यागमविस्तरः ।। नयभंगशताकीर्णो ध्येयोऽध्यात्मविशुद्धये ॥ तदप्रमत्तमालब स्थितिमांवर्मुदानिकीम् ।। १५३८ Page #1554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः दधानमप्रमत्तेषु परी कोटिमधिष्ठितम् ॥ सद्दृष्टिषु यथाम्नाय शेषेध्वपि कृतस्थितिः ॥ प्रकृष्टिश्शुद्धिमहेश्याश्योपोटूल हितम् ।। शापोशामिक मारतात्य नि । मोहोदक महाप्रामहर्षिभिरुषासितं ॥ वस्तुधर्मानुयायित्वात्प्रासावनिरुक्तिकम् ॥ धर्म्य ध्यानमनुध्येयं यथोक्तध्येयविस्तरं ।। प्रसिद्धचित्तता धर्मसंवेगः शुभयोगता ।। सुश्रुतत्वं समाधानमाशाधिगमजा रुचिः ॥ भवन्त्येतानि लिंगानि धर्वस्यांतर्गतानि वै ।। अनुप्रेक्षाश्व पूर्वोक्ता विविधा शुभभावनाः ।। बराहो हि लिंगमंगानां सनिवेशः पुरोहितः। पसमयकता सौम्या दृष्टिक्षेत्यादिलक्षणं ।। फलं ध्यानवरस्यास्य विपुला निर्जरैनसां । शुभकमायोद्भुतं सुखं च विबुधेशिनां ।। स्वर्गापवर्गसंप्राप्तिं फलमस्य प्रचक्षते ॥ साक्षात्वर्गपरिप्राप्ति पारंपत्पिरं पदं ॥ ध्यानेऽप्युपरते धीमानभीक्ष्णं भावयेन्मुनिः ।। सानुप्रेक्षाः शुभोदक भवाभावाय भावनाः॥ इति ।। व्याख्यावार्थसुग्वस्मृत्यर्थ चेयं गीलिरंतश्चिन्त्या--- ध्यानस्य लक्ष्मभिनिर्धचोधिपतिदेशकालफलभावाः ॥ स्थान प्रभेदनामार्थनिर्णयो गोचरो बलाधानम् || १५३९ Page #1555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा । मनका निरोध करनेके अनंतर ध्याताका कर्तव्य बताते हैं, अर्थ-एक विषयके तरफ मनको निश्चल कर चार प्रकारके वस्तु स्वभावोंका बह क्षपक ध्यान करता है, यहांतक भ्यानका अभ्यंतर परिकर कहा है. अब पाहा परिकरका वर्णन आचार्य करते हैं. पर्वतकी गुहा, कंदा, दर्ग, पक्षका कोटर, नदीका रतीला किनारा, स्मशान, जीर्ण बगीचा, शून्य मकान, ऐसे स्थानों में तथा दुष्ट पशु. गाय, बैल, हरिण वगैरे भद्र प्राणी, पक्षी और मनुष्य जिनसे ध्यानमें विम आसकता है ऐसे प्राणिओसे वर्जित स्थानमें ध्यान करना चाहिये. जहां ध्यान करना हो वह स्थान आगंतुक ऋमिकीटादिओंसे रहित होना चाहिये, पा, शीन: जोरदार वायु और धूप इत्यादि ध्यानमें विश उत्पम करनेवाली अवस्थास रहित ऐसे स्थानमें ध्यान करना चाहिये. जो स्थान इन्द्रिय और मन में विकार उत्पन्न करेगा उसका त्याग करना चाहिये. पवित्र, अनुकूल, स्पर्शयुक्त ऐसा भूप्रदेश ध्यानयोग्य है, ऐसे प्रदेशमें जाकर पद्मासनसे बैठकर श्वासोच्छास धीरेधीरे करना चाहिये. नाके ऊपर, हृदय में, ललाटपट्टमें अथवा अन्य स्थानमें अपनी मनोवृत्तीको यथाम्यास एकाय करना चाहिये. यह सब ध्यानकी पाष सामग्री है. धर्मध्यानक आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाक विचय और संस्थानविचय ऐसे चार भेद हैं. प्रथम आझात्रिचयका वर्णन करते हैं-कर्मके मूल कर्म और उत्तर कर्म ऐसे बहुत भेद हैं. इन कर्मोके प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभाग बंध और प्रदेशबंध ऐसे पर्याय है. इन काँका उदय होना, फल मिलना ऐसे अनेक प्रकार हैं.जीवद्रव्यके मुक्यवस्था वगैरह पर्याय होते हैं. ये सब अतीन्द्रिय है. ज्ञानावरणकर्मका विशिष्ट क्षयोपशम नहीं होनेस मंद बुद्धिके द्वारा इन पदाथोंका निश्रय नहीं होता है, यद्यपि उपर्युक्त पदार्थोंका स्वरूप हमसे नहीं जाना जाता है. सर्वज्ञका ज्ञान प्रमाण है और उपर्युक्त पदार्थ उसने कहे हुए आगमके विषय है, जैसा जिनेश्वरने इन वस्तुओंका स्वरूप कहा हैं वह सब सत्य ही है असत्य नहीं है ऐसा निश्चय करना यह निश्चय सम्यग्दर्शनका स्वभाव होनेसे मुक्तिका कारण है. इस प्रकार प्रभूके आज्ञाका विचार करना, निश्चय करना उसको आज्ञा विचय कहते हैं. यह आशाविषय नामक | धर्मध्यान है. अन्य आचार्य इसी आज्ञाविचय धर्मध्यानका स्वरूप इसप्रकार से भी कहते हैंस्वयं तो पदार्थीका स्वरूप जानता है, सिद्धान्त में कहे हुए जीवादि तत्वोंका ज्ञान करा देने वाली सत्ययुक्तीका १५४० Page #1556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Trinition मूलाराधना आश्वासः १५४१ अन्वेषण करने पाली, सर्वज्ञकी आज्ञाको मगट करनेवाली ऐसी तर्कशक्तिके द्वारा में भव्यजीवोंको जिनमतिपादित तत्वोंका स्वरूप कह सकंगा ऐसा तत्वस्वरूप जाननेवालेके मनमें जो चार बार विचार उत्पत्र होना यह भी आज्ञाविचय नामक धर्मध्यान है. मैं अनादिकालसे इस घोर संसारमें भ्रमण कर रहा हूं, मेरे मनवचन और कायकी प्रवृत्ति स्वछंदसे होती है. इस अशुभ मन वचन काय योगसे में किस उपायसे अलग हो सकुंगा एसी अपायम बार बार स्मृति होना यह अपायविषय नामक धर्मध्यान है.. मिध्यादृष्टि लोक जन्मांध मनुष्य के समान हैं. उनको सत्य मोक्षमार्गका शान नहीं है इसलिए सन्मार्गसे वे बहुत दूर जारह हैं. एसा उनके विषयमें चार बार विचार उत्पन्न होना इसको भी अपायविचय कहते हैं. ये मिथ्या दृष्टि लोक मिथ्यादशेन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र से कैसे अलग होंगे ऐसा बार बार मनमें चिंता होना | यह भी अपायविषय ध्यान है. कर्मके मूल भेद आठ है . उत्तरभेद एक सौ अहचालीस है. इन कर्मों के प्रति बंधादिक चार भेद होते हैं. इनका मधुर और कटुक ऐसा फल मिलता है. आत्मामें तीव्र. मंद, मध्यम रूप अनुभवबंध उत्पन्न होता है. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपक्षास इन कर्मों में विशेषता उत्पन्न होती है. विशिष्ट गतिमें और विशिष्ट योनिओंमें विशिष्ट कर्मका फलानुभव जीवको प्राप्त होता है. इस प्रकार विपाकका अर्थात् कर्मफलका गर बार विचार जिसमें उत्पन्न होता है उस ध्यानको विपाकविचय. ध्यान कहते हैं. घेतका आसन, झाष्ट्ररी और मृदंगके समान तीन लोकका आकार है ऐसा विचार करना संस्थानविचय नामक धर्मध्यान है। धर्मध्यानस्य लक्षणं निर्विशति धम्मरस लक्खणं से अज्जवलहमत्तमद्दवोबसमा ॥ उवदेसणा य सुत्ते णिलग्गजाओ रुचीओ दे ॥ १७.९ ॥ माहवार्जवनैःसंग्यहेयोपादेयपाटवं ।। जयं प्रवर्तमानस्य धय॑ध्यानस्य लक्षणं ॥ १७०६ ।। १५४१ Page #1557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आधार विजयोदया-धम्मस्स लपवणं से,से तस्य। धम्मस्स धर्मस्य ध्यानस्य । लक्खणं लक्षणं । लक्ष्यत धम्य ध्याने येन तलक्षण । अज्जवलहुगत्तमद्दमुपदेसा आकष्टानद्वयरम्जुबत्तनुधकुटिलताविरह आर्जवं । लघुगत लघुता निस्संगता झाल्यावविधाभिमानामाचो मादव । उपेत्य जिनमन देशनं कथनमुपदेशः हितोपदेश रति यावत् ।। आजवादिभिः कार्यलेश्यते धर्मध्यानमिति आर्जवादिकः लक्षण । न वातरोटे आर्जवादिकं संपादयतः धदार्जवादिकं परिणाममात्मनः करोति तद्धय॑ध्याननिति लक्षणभावः अभवा भाजवादिपरिणामसद्भाव एच धर्यध्यान प्रवर्तते नासत्यार्जवादी । नहि मानमायालोभकयायाविष्ठो धर्म प्रयतते, तेनार्जधादिकं कारणं तेन लक्ष्यते धर्यमिति लक्षणतार्जवादीनाम् ॥ धर्भध्यानलिंगम याम्यनि--- मूलारा--लक्षणं को गर्म या कम भूरोन कारणवेन या सापादिना हत्तस्य चिन्ह । दे ते । प्रसिद्धाः । लहुगत्त निःसंगत्वं । उपदेसणा य सुत्ते जिनमतोपदेशे। च निसम्पजा स्वभावोत्था। अन्ये तु उक्लेसणो सुत्ने इति पठित्वा उपदेशे आशायां तत्रैव रुचय इत्यर्थमाहुः ।। धर्मध्यानका लक्षण अर्थ-जिससे धर्मध्यानका परिज्ञान होता है यह धर्मध्यानका लक्षण समझना चाहिए. आर्जव, लघुत्व, मार्दव, और उपदेश ये इसके लक्षण हैं. टोरीके दोनों छोर पकहकर खीचनेसे वह सीधी होती है, उसमें वक्रता नहीं रहती है वैसे कुटिलता अर्थात् कपटका अभाव होना यह आर्जब नामक स्वभाव है. निःसंगता अर्थात निलोभी स्वभावको लघुत्व कहते हैं. जातिका गर्व, कुलगर्व इत्यादि आठ प्रकारके गोंका अभाव होना इसको मार्दव कहते हैं. इन गुणोंसे युक्त होकर उपदेश करना यह उपदेश नामक गुण है. इसको हितोपदेश भी कहते हैं. आर्जबादिक कार्योंको देखकर धर्मध्यानको जान सकते है अतः आर्जशदिक धर्मध्यानका लक्षण माने गए हैं. आर्तध्यान और चंद्र ध्यानोंसे आर्जवादिक गुणोंकी प्रानि नहीं होती है. जो आर्जवादिकपरिणाम आत्मा में उत्पन्न करता है उसको धर्मभ्यान कहते हैं. अथवा आर्जवादिक परिणाम होने परही धर्मध्यान उत्पन्न होता है उनके अभावमें नहीं उत्पन्न होता है. मान, माया, लोभादिकपायपरिणत मनुष्य धर्ममें प्रवृत्त नहीं होता है इसलिये आर्जवादिक धर्मध्यानके कारण है अतः धर्मध्यान और आर्जवादिक इनमें लक्ष्यलक्षणभाव सिद्ध होता है. १५४ Page #1558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना आभासः । आलंबणं च चायण पुष्छण परिवडणाणुपेहाओ । धम्मरस तेण अविसुद्धाओ मवाणुपहाओ ॥ १७१०॥ षाचनाप्रज्ञानाम्नायानुपेक्षाधर्मदेशनाः॥ भवत्यालंबन साधोर्धय॑ध्यान चिकीर्षतः ।। १७७७ ।। विजयोदया-आलंबनप्रतिपादनायोत्तरगाथा । आलंबणं च आथयश्च करस धम्मस्स धर्मध्यानस्य, शायण पुच्छण परिबट्टणागुपटाउ, पाचना प्रश्नः परिवर्तनमनुप्रक्षेति स्वाध्यायविकल्पाः । वाचनादिस्वाध्यायाभावे यनुयाथा रम्यज्ञानमेव नास्तीति ध्यानाभावः । सति स्वाध्याय भवनि भान विचलं ध्यानसंशितमित्यालंघनता स्वाध्यायस्य । तेषण, तेन धर्मेण ध्यानेनाविरुद्धासब्यागुपदाउ, मान प्रक्षाः पककत्राधये वृत्तेविरोधः । अनित्यतादिवस्तुस्वभावानुप्रक्षा मनुप्रेक्षासावा वनं ध्यानमिति । एतेनानुप्रेक्षाया ध्यानेऽन्तःपातित्यमाचक्षाणनानुपेक्षोपन्यास पीजाधानं कृतम् ॥ धर्मस्याश्रयमाह मूलारा--आलंवर्ण पाचनादिस्वाध्यायाभावे वस्तुयाथात्म्यज्ञानमेव नास्तीति ध्यानाभावः । सति स्वाध्याये भवति ज्ञानमविचलं ध्यानसंज्ञितमित्यालम्बनता वाचनादेधम्म प्रति । परियट्टण पाठगुणनं । अणुपेहा अर्थचिंतनं । तेणधर्मेण । अविरुद्धाओ अनित्यत्यादिवस्तुस्वभावानुप्रेक्षणमाश्रित्य तत्प्रवृत्तस्तदालंकनमनित्यायनुप्रेक्षाः संप्रेक्ष्याः ।। धर्मध्यानके आधारभूत कारण-- अर्थ-वाचना, प्रच्छना, अनुप्रक्षा, आम्नाय और परिवर्तन ये स्वाध्यायक भेद है. ये भेद धर्मध्यानके आधार भी हैं. वाचनादिक स्वाध्यायक अभावमें वस्तुका यथार्थ ज्ञान ही नहीं होता है. ज्ञानके अभावमें धर्मध्यान नही होता है अतः स्वाध्याय धर्मका अचलंबन है. स्वाध्यायसे जो निश्चलज्ञान प्राप्त होता है उसको ध्यान कहते हैं. इस धर्मध्यानके साथ अनुप्रेक्षाओंका अबिरोध है. वस्तुके अनित्यादिधाका चार विचार करना यह अनुप्रेक्षाका लक्षण है. ये अनुप्रधाए ध्यानके लिये आधार हैं इसलिप ध्यानमें इनका अन्तभीय होता है. इसीलिय ग्रंवार आगे अनुप्रेक्षाओंका सविस्तर वर्णन करेंगे. पूर्वोक्तान धर्मस्य चतुरो भेदान् व्यावष्ट चतसूभिर्गाथाभिः । तत्रासावित्रयं निरूपयत्ति पंचव अस्थिकायां छज्जीवणिकाए दब्बमणे य॥ आणामन्भे भावे आणाविचएण विचिणादि ॥ १७११ ॥ ANCH VER १५४३ Page #1559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास पंचास्तिकायषट्रायकालद्रव्याणि यत्नतः ।। पाशाग्राह्याणि दक्षेण विचार्याणि जिनाज्ञया ॥ १७७८ ।। विजयोदया-पंचेच अस्थिकाया पंचास्तिकाया जीवाः पुद्रलधर्मास्तिकाया अधर्मास्तिकाया आकाशमिति तान् छज्जीपणिकायो पजीपनिकायान काल कालाप्यं । अण्णे य अभ्यांच कर्मबंधमोक्षाधीन भाणागण्य भाषे सर्यशाशयागम्यान्माचान । आणाधिचयण अभाविच याख्येन धर्मध्यानेन विचिपणादि विचारयति । सर्वविद्धिरणास्तरागद्वेवैः परमकामाणिकै यथामीति निरूपितास्ते तवति चिताप्रबंध आशावित्रय यावत् । आणापायचिवागषिचये इत्यस्मिन्पोठे अपायविचयो नाम धर्मध्यानमिति गाथापूर्थेिन म्याचष्टे । आशाविषयादीन्क्रमेण व्याचष्टे मलारा--पंचस्थिकाय जीवपुलधर्माधर्माकाशान् ।। जीवलिकाये पृथिव्यप्तेजोषायुषनस्पतित्रसान् अण्णे बंध मोक्षादीन् । आणागम्भे सर्वशाज्ञागम्यान् । विपिणावि विचारयति । सर्वविद्भिरपास्तरागद्वषैः परमकारुणिकथामी निरूपितास्तथैवेति प्रबंधन तियतीसर्पः॥ आज्ञाविषय धर्मध्यानका वर्णन-- अर्थ-जीवद्रव्य, पुद्गलद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य इनको पंचास्तिकाय कहते है. पृथिवी, जल, वायु, अनि और वनस्पति ये पांच स्थावर जीव है तथा दौद्रियसे लेकर पंचेंद्रिय तक जीवों को प्रस कहते हैं. इनको आगममें पदकाय संज्ञा है. कालद्रव्य, कर्मबंध, मोक्ष वगैरह अनेक पदार्थोका स्वरूप सर्वज्ञ जिनश्वर प्रणीत आगमसे जाना जाता है. इन तत्वोंका स्वरूप आज्ञाविचय नामक ध्यानसे ध्याता वार २ स्मृतिमें लाता है, | जिनके रागद्वेप नष्ट हुए हैं, ऐसे परमदयाछ श्री जिनश्वरने जैसे इन तत्वोंका स्वरूप कहा है वैसाही उनका स्वरूप है ऐसा वार २ स्मरण करना इसकी आज्ञाषिचयनामक धर्मध्यान कहते हैं. कल्लाणपारगाणउपाये विचिणादि जिणमदमुवेच्च ।। विचिणादि वा अवाए जीवाण सुभे य असुभे व ॥ १७१२ ॥ कल्याणमापकोपाधितनीयो जिनागमे ।। शुभाशुभविकल्पानामपायः कर्मणां परम् ॥ १७७९ ।। Page #1560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास विजयोदया-कल्लाथापावगाण उपाये तीर्थकरपददायकानां दर्शनविशुण्याहीनामुपायान निःशंकादीन् विधिनोति जिनमतं जिनकथितं उपदेश । यिचिणादि वा अपाये जीवाणं सुभे य अमुभे य जीवानां शुभाशुभकर्मविषयानपायान तान्विच्चारयति एतदुक्तं भवति । शुभाशुभकर्मणः कथमपायो भवति जीवस्य इति चिंताप्रवाहोऽपायविचयो नाम स्पष्टाचौमादा। अपायवियं तदन्तर्गतोपायविचयपुरःसरं व्याचष्ट्र मूलारा-कलाणपावगाणमुवार कल्याणानामभ्युदयनिःश्रेयससुख्खानां प्रापकाणि संपादकानि सम्यग्दर्शनादीनि ते यामुपायानसाधनानि द्रव्यक्षेत्रादीनि । जिणमदमुवेकच जिनमतमाश्रित्य । सहे शुभकर्मविषयान । शुभाशुभकर्मभ्यः कथमपायो जीवानां भवेदित्यपायषि चयं ध्यावतीत्यर्थः । श्रीविजयाचार्योऽत्र आणापायविरागविषयो नाम धर्मध्यानं आणापाय इत्यस्मिन्पा स्वपायविषयो नामेति व्याख्यात् ।। अर्थ---अभ्युदय अर्थात इहलोकके सुख निःश्रेयस-मोक्षसुखकी प्राप्ति करा देने वाले दर्शनविशुद्धयादिक सोलह कारण अर्थात् सोलह भावना तीर्थकर पदकी प्राप्ति करा देते हैं ऐसा जिनागमका उपदेश है इस उपदेशका वारंवार स्मरण करना इसको उपाय विचय धर्मध्यान कहते हैं. द्रव्य, क्षेत्रादिकोंका आश्रय लेकर शुभ कर्म विषयक और असभाकर्मविषयक, अपायोंको जीव प्राप्त होता है ऐसा वारंवार विचार करना इसको अपारविषय. नामक धर्मध्यान भी करते एयाणेयभवगर्द जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं । उदओदीरणसंकमबंधे मोक्वं च विचिणादि । १७१३ ॥ अहतिरियउनुलोए विचिणादि सपज्जए ससंठाणे ॥ एत्थे व अणुगदाओ अणुपेहाओ वि विचिणादि ॥ १७१४ ॥ एकानेकभवोपात्तपुण्यपापात्मकर्मणाम् ।। उदयोदीरणादीनि चिंतन यानि धीमताम् ।। १७८० ॥ ऊर्ध्वाधः सत्रिलोकस्था द्रव्यपर्यायसंस्थितीः ।। विचिंतयत्यनुप्रेक्षास्तत्रैवानुगतो यतिः ॥ १७८१ ॥ Page #1561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वाम १५४६ विजयोदया- अवसिरियलोप ऊघिस्तियंग्लोकान । चिचिणादि विचारयति । कीदग्भूताग । सपजए सपर्ययान संस्थानसद्वितान् सपर्यायं सभिभुवनं संस्थानविचारविचास्य धर्मध्याने । पत्थच अव । अणुगताओ अनुगताः। अणुपेषखाओ विमनुप्रेक्षा अपि । चिचिणादियिचारयति । अनित्यत्यादिस्वभावविचारं करोति धर्मध्यान इति कथितं भवति। विपाकविचयं व्याचष्टे--- मूलारा-उदयक्रमेण कर्मणोऽनुभवने । उदीरण अक्रमेण कर्मणां मुक्तिः । उक्तं च-- कर्मणां फलदातृस्वं द्रव्यक्षेत्राणि योगतः ॥ उदयं पाकजं ज्ञेयमुदीरणमपाकजम् ॥ ... समुदीर्यानुदीर्णानां स्वल्पीकृत्य स्थिति बलाम् ।। कर्मणामुदयावयां प्रक्षेपणमुदीरण ॥ संक्रमः प्रकृतेः सजातीयप्रकृतिस्वरूपेण परिणमनम् ।। संस्थानविषयं निर्विशति --- महारा--सपन्जए सभेवान् । ससंठाण बेनासनमासरीमृदंगसमानाकारसहितान् । एत्व अप्रैव धर्माध्याने । अणुगायो तरसाधकतममनोनिर्जयांगस्वेन संषताः । तदुक्तम्-- .. संचितयन्मनुपेक्षाः स्वाध्याये नित्यमुखतः ।। जयत्येष मनःसाधुरिन्द्रियार्थपराङ्मुखः ।। अर्थ-जीवोंको पुण्य और पाप कर्मका फलानुभवन संसारमें करना पड़ता है. इन कर्मका उदय, उदीरणा संक्रम, बंध और मोक्षका बारबार विचार करना उसको विपाकविच्य कहते हैं, व्यक्षेत्रादिके आश्रयसे कर्मका योग्य कालमें आत्माको फल मिल जाना उदय कहा जाता है, और उदयमें आनेका जो निश्चित काल था उसके पूर्व ही कर्म अपना फल जीवको देता है उसको उदीरणा कहते हैं. एक कर्मप्रकृति सजातीय कर्म के स्वरूप परिणत होना संक्रमण कहते है. आत्माके प्रत्येक प्रदश पर अनंतानंत कम आकर दूध और पानीके समान आत्म प्रदेशसे मिल जाना पंध है और संपूर्ण कर्म आत्मास अलग होकर आत्मा पूर्ण शुद्ध स्वरूपधारक होता है वह मोक्ष है. इस प्रकार वार २ विचार करना बिपाकत्रिचय है. PATRA careANATA Page #1562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः पी. - अर्थ---यह जगत् अघोलोक, मध्य लोक व ऊर्ध्वलोक ऐसा तीन मकारका है. वेत्रासन, मल्लरी और मृदंगके समान क्रमसे तीन लोकोंका आकार हैं. इनका बार बार विचार करना संस्थान विचय नामक धर्मध्यान है. इन ही धर्मप्यानोंमें अनुपेक्षाओंका भी अन्तर्माब हैं. कास्ता अनुप्रेक्षा रत्याशंकायामध्चादीरभुप्रेक्षा निरूपयस्युनरप्रबंधन अहुवमसरणमंगत्तमण्णसंसारलोयमसुइत्तं ॥ आसवसंबगणिज्जर धम्म चोधि च चिंतिज्ज ।। १७१५ । लोगो विलोयदि इमो फेणोन सदेवमाणुसतिरिक्खो॥ रिबीको सवाओ सिविणयसंदसणसमाओ ।। १७१६ ॥ अधूवाशरणकान्यजन्मलोकविसूचिकाः ।। आस्वः संबरश्चिन्त्यो निर्जराधर्मयोधयः ॥ १७८२ ।। विंडीरपिंजवल्लोकः सकलोअप विलीयत ।। समस्ताः संपदशान स्वशभूतिसमागमाः।। १७८३ ॥ विजयोदया-लोगो बिलीयदि इमो लोको विल्यमुपयाति । किमिव फेणोच्च फेनवत् । सदेव माणुसतिरिक्खो देवमानुपस्तिम्मिश्च समन्वित इत्यनेन लोकमयमयापि विनाशिताभिहिता । रिडीओ सब्चामो कनया साः। मुषिणमनं. सणसमाभो स्थानमानसमाः । ननु लोगो बिलीपदित्यनेन सर्वस्यानित्यता व्याख्याता, कानयादयोऽपि लोकांतर्भूता इति किमर्थ भेदोपन्यास: । अयोच्यते । समुदायम्याययचान्मक स्यावययानित्यतामन्तरेण तदनित्यता न सुखनावगम्यत इति भिदोपन्यस्यते ॥ अनुप्रेक्षा अध्रुवादिविषयत्वेन द्वादश चिंतयेदित्याह-- मूलारा-अण्ण देहात्मनादं । असुइत्त अशुचित्वं । एतां विजयो नेच्छति। अधुनानुप्रेक्षां त्रयोदशगाथामिग्नुप्रेक्षते तत्र गाथान समुदायस्यानित्यतां निरूप्योत्तरप्रपंचेन तदन्तर्गतावयवानित्यतां भावयतिमुलारा–सिविणयसंदमणसमाओ स्वप्नमानसमानाः ।। - Page #1563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १९४८ अ अनुवाद अनुप्रेक्षाओंका सविस्तर वर्णन करते हैं- अर्थ - - अधुर, अशरण rare, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि ऐसे बारा अनुप्रेक्षाओं का भी चिंतन करना चाहिए अर्थ - देव, मनुष्य और तिर्यंच सहित यह जगत् फेनके समान नष्ट होता है सब ऋद्धिया भी स्वप्नमें देखे हुए पदार्थोंके समान नष्ट होती हैं. शंका- सर्व लोकका नाश होता है इस कथनसे ही सर्व पदार्थोंकी अनित्यता सिद्ध हो गई अतः ऋद्धि भी लोकान्तभूती हैं उनके नाशका वर्णन करनेकी क्या आवश्यकता थी ? क्यों भेदरूपसे उनका वर्णन किया गया है ? उत्तर—समुदाय जो कि अवयवी हैं उसकी अनित्यता अवयवकी अनित्यता दिखाये बिना अवयवी भूत पदार्थोंकी अनित्यता सुखसे ध्यानमें नहीं आसकती हैं. इस लिये मेदोपन्यास किया है. द्रव्यगतो लोभो महान् प्राणभृतां तन्मूलत्वादिद्रियसुखस्याप्राणानव्ययं त्यजति द्रव्यनिमित्तमतस्तदनित्यतामेव प्रागुपदर्शयति । निस्संगतामात्मनः संपादयितुं ॥ विजून चंचलाई पकाई सञ्चसोक्खाई " जलम्बुदोन्त्र अधुवाणि हुंति सव्वाणि ठाणाणि ॥ १७१७ || दृष्टानि सौख्यानि स्फुरितानीव विद्युताम् ॥ बुदबुदा इव निःशेषा नम्बराः सन्ति गोचराः ।। १७८४ ॥ विजयोदया-पिज्जू लाई विद्युदिनि पानि सन्चोखा सर्वाणि सुखानि अभिमतरूपादिविषय पेचकस्य प्रवस्य सन्निधानादुपजातानि यानि मनः समुत्थानि सर्वेषां वा मानवानां तिरखां दिवि जानां वा सुखानि सुखलंपटतथा जनः शाशतिशत निपातमपि सहते, तानि च नीरभरचिनतसंभारगंभीरधीरारामनीलनीरदोदरपरिस्फुरतडिलतेच, एतेनानित्यतादोषोत्कटनेन सांसारिकपराङ्मुखतोपायो निगदितः । जलयुध्युदोष जलदषुदयम् । अध्युषाणि अधुवाणि होति भवंति । ठाणाणि सव्वाणि सर्वाणि स्थानानि । तिष्ठत्येतेषु जीवा इति स्थानानि । प्रामनगरपतनादीनि ॥ इदं सदीयं स्थानं अत्राह पसामीति माहथा संकल्पं । तानि यनित्यानि नित्यबुद्धया परिगृहीताम विनाशे शशताम्पानयंतीति कथितं ॥ अथवा तिष्ठत्यसिन्स्कृतविचित्र कर्मोदयात्प्राणिन इतद्वत्वं नखांना, गणाचिपति या पतानि स्वानाम्यमित्यानि ॥ माश्वासः ७ १५४८ Page #1564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वासः १५४९ मूलारा-सध्यसोक्खाई मनःषष्चक्षुराविविषयानुभवप्रभवानि देवमानुपतियसंबंधीनि वा सुखानि । ठाणाणि इंद्रत्वादिपदानि प्रामपुरपननादीनि वा। प्राणिओंको सबसे बड़ा द्रव्यहीका लोभ है. द्रव्य लोभसे इंद्रिय सुख की प्राप्ति होती है. द्रन्यके निमित्त प्राणोंको भी त्यामते हैं इस लिए द्रव्यकी अनित्यताका साथमतः दिपन कर .इस दिग्दर्शनसे द्रध्यमे आत्मा निःसंग होता है अर्थ-सब प्रकारके सुख विजलाके समान दीखकर नष्ट हो जाते हैं. इष्ट रूपादिक पांच प्रकारके विपयोंके सानिध्यसे मनसे मनुष्य तिर्यंच और देवाकै मुखमें प्राणी सुखलंपट होकर लुब्ध होता है. इस मुखके लिये हजारों क्लश देनेवाली आपत्ति भी भोगने के लिये जीव तयार होते हैं. परंतु ये सुख जलसे नम्र और गंभीर गर्जना करनेवाले नलि मेत्रों में चमकनेवाली बिजलकि समान चंनल हैं, जहां जीव निवास करता है ऐसे ग्राम, नगर, पत्तन वगैरह स्थान अधुव अर्थात् नाशवंत हैं. यह मेरा स्थान है, मैं यहां रहता हूं ऐमा मनमें तू संकल्प करना छोटद क्यों कि य स्थान अनित्य है परंतु इनमें नित्यपनाका संकल्प करके स्वीकार करनेपर उनका नाश होनेसे सैकडो सक्लेश परिणाम उत्पन्न होते हैं. अथवा इस जगतमें अपन किय हुए विचित्र कर्मके उदयसे जीवीको इंद्रपना, चक्रवर्तिपना, गणधरत्व ऐसे स्थानोंकी प्राप्ति होती हैं परंतु इन स्थानोंकी अनित्यता ही है. णावागदाब बहुगइपधाविदा हुंति सन्वसंबंधी ।। सम्वेसिमासया वि अजिच्चा जह अब्मसंधाया ॥ १७१८॥ नानादेशागताः पांथा नौगता इव बांधवाः ।। गत्वरा आश्रयाःसर्वे शारदा इब नीरदाः ॥ १७८५ ।। विजयोदया–णाचामवाय जलयानपात्रारुदा इध बहुगदिएधाविदा हुँति सव्यसंबंधी: पिचित्रशुभाशुभपरिपामोगासगनिः कर्मवशात्तदुपनीयमानदेवमानधनारकत्तियंघाख्यगतिपर्यायग्नडणाय कृतप्रथाणबंधयः सर्वेऽपि । पतेन बंधुताया अनित्यतोका | उपात्तगत्यपरित्यागे बंधुता स्थिरा भवति, उपात्ता चेत् स्यक्तान्या च गृहीता पितृपुत्रादीनां गत्य. तरमुपगतानामपि बंधुस्वे स्वजनपरजनविवेक एव ने स्यादिति मन्यते । जयसिमासया पि सर्वेषामाश्रया अपि यानाधिस्य प्राणिनो जीवितुमुत्सहते तेप्याश्रयाः स्वामी मृत्यः पुत्रोभ्रातस्येवमादयोऽनित्या यथा अंब्भसंघादा अभ्रसंघाव। मलारा-णाबागदाव यानपात्रारूदा इव । बहुगदिपघाविदा विचित्रशुभाशुभपरिणामोपात्तगतिकर्मवशात्तदुपनी - Page #1565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROSCARRIES मूलाराधना आश्वा यमानदेवनारकमानवतिर्यकत्वारव्यगतिपरिणाममहणाय प्रभूतमार्गगमनाय च कृतप्रयाणाः । संबंधी बांधवाः । आसया यानाश्रित्य प्राणिनो जीवितुमुत्सईते ते आश्रयाः स्वामी, भृत्यः पुत्रो भ्रातेत्येवमादयः । अर्थ-नानाप्रकारके शुभाशुभपरिणामोंसे जिनको भिन्न २ गतिबंध हुआ है ऐसे अपने पंधुगण कर्मके वश होकर देवगति, मनुष्यगति, तिथंचगति और नरकगति एतत्स्वरूप पर्याय ग्रहण करने के लिये प्रयाण करते हैं. इसलिय बधुगण भी अनित्यही हैं. उनके ऊपर मोहयुक्त होना अयोग्य ही है. जिस गतिका बंध हुआ है उसको स्यागनका सामर्थ्य इनमें यदि होता तो ये स्थिर माने जाते थे. परंतु जो गति ग्रहण की थी उसको छोडकर जीव अन्य अन्य मति ग्रहण करते जाते हैं. पिता पुत्रादिक पूर्व पर्याय छोडकर अन्यगतिको प्राप्त करते हैं तो भी उनका भुवी माना जायगा तो ये मेरे स्वजन है ये परजन है इनका विवेकही नहीं रहेगा NewsO MAR संवासो वि अणिच्चो पहियाण पिण्डणं व काहीए ॥ पीदी वि अच्छिरागोत्र अणिच्चा सव्वजीवाणं ॥ १७१९ ॥ छायानामिच पांथानां संवासो नश्वरों गिनाम् ॥ चक्षुषामिव रागोऽनन स्नेहो जायते स्थिरः॥ १७८६ ।। विजयोदया-संचासो पि सहारस्थानमपि बंधुभिभित्रैः परिजनी, अणिस्बो अनित्यः । पधिपाणंपिण्ड इधछाहीए नानादिरदेशागतानां पथिकानां मित्रस्थानयायिनां मार्गोएकंठस्थितनिविडतरवदिपलाशाबारविनतशा. खाकरशतनिवारितधर्मरहिमप्रसरतरुवरशीतलाचिरलविपुलछायायो पांधानां समाज इव । पीदीवि प्रीतिरपि । अपिल सगोच्च प्रणयकलहपांसुपातदृवितप्रियतमालुठापाठीनोदरधषलळोचनांतराग इच अनित्या सर्वजीवानां । नयायधियावरणविष कणिकाप्रणालोचनप्रलयं संविधातीति प्राणभृतामनुभवसिद्धमेध ॥ मुलारा--- संवासो बंधुमित्रपरिजनादिभिः सहावस्थानं । पथियाणं नानादिग्देशागतानां भित्ररथानाविना पांधानां । पिडणं मीलणे । छाहीए मार्गोपकंठस्यवृक्षवितानछायाशं । अच्छिरागोब्ब प्रणयकलहपांमुपासदूषितप्रियतमालुठनपाठीनोदरधवरलोचनगतो रागो लौहित्यं यया। जिनके आश्रयसे प्राणी अपना जीवित धारण करनेमें समर्थ होते हैं वे मालिक, नोकर, पुत्र भाई वगैरह आश्रयस्थान भी वादलोंके समुदायक समान चंचल है. अतः सबसे मोह त्याग करके निःसंग होना चाहिये. १५५. Page #1566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बूदाराचना १५५१ अर्थ -- बंधु मित्र और परिजनोंके साथ अपना रहना भी नित्य नहीं है जैसे रास्तेमें अनेक दिशा और देशसे आये हुए पथिक भिन्न भिन्न स्थानके प्रति जानेवाले होते हैं परंतु मार्गके समीप के सघन जो पलाश: खदिर वृक्ष सूर्यकिरणों को निवारण करनेवाली विस्तृत, शीतल, विपुल छाया क्षणापर्यंत बैठकर विश्रांति लेते हैं अनंतर वे भिन्न भिन्न स्थानको प्रयाण करते है तत मित्रादिक बंधुओं का सहवासभी अनित्य है. बांधवोंकी प्रीति मी अनित्य है, प्रणयकलहरूपी धूल पद से कुपित प्राणप्रिय स्त्रीके कुदनेवाली मछलकेि समान सफेत आखों में जैसा लालपना थोडी देरतक रहता है वैसा मित्रादिक बंधुओंका सहवास भी थोडी देरके लिये है. अप्रिय आचरण रूपी विषण प्रेमरूपी नेत्रका नाश होता है. यह संपूर्ण प्राणिओंके अनुभव में आई हुई बात है. रात एगम्मिदुमे सउणाणं पिण्डणं व संजोगो । परिवेसोत्र अणिन्चो इस्सरियाणाधणारोम्गं || १७२० ॥ संयोग देहिनां वृक्षे शर्वर्यामिव पक्षिणाम् ॥ आज्ञेश्वर्यादयो भाषाः परिवेषा इव स्थिराः - १७८७ ॥ विजयोदयात रात्रौ । गमि तु एकस्मिन् हुमे। सगुणाणं पचिणां । पिण्डणं व प्रिण्डित संजोगो सं योगो यस्यास्तसमुखं तत्र घयं प्रास्यामोन्योन्यमित्य कृतसंकल्पानां यथाकथंचिन्योन्यमातिररूपकाला तथा प्राणभृतामपि समानकालका मारुतप्रेरितानामेकस्मिन कुलविटपिनि कतिपयविभाषी संप्रयोगः । परिसो व परिवेष इध । अणि अभियं । किं ? सिरियाणाधणारोगं । ऐश्वर्ये प्रभुता भाशा धनं भारोग्यं च ॥ मूला- दुमे वृक्षे । संजोगो अकृतसंकल्पानां प्राणिनां एकस्मिन्कुले अन्योन्यमाप्तिः । परिबेसो सूर्यपरिधिः । इरियाणं प्रभुत्वमाशां वा ॥ अर्थ- जैसे रात में एक वृक्षपर पक्षियोंका समुदाय आकर बैठता है हम सब मिलकर एक वृक्षपर निवास करेंगे ऐसा मनमें संकल्प कर वे वृक्षपर आकर नहीं बैठते हैं. रातमें निवासकर प्रातः काल में वे वहांसे स्वेच्छासे गमन करते हैं वैसे प्राणीभी समान कालरूप वायुसे प्रेरित होकर एक कुलरूप वृक्षपर कुछहि कालपर्यंत आकर उत्पन्न होते हैं. जैसे सूर्यके चारो तरफ परिवेश उत्पन्न होता है परंतु वह थोडे कालतक ही टिकता है वैसे जीवोंमें आरोग्य सामर्थ्य, ऐश्वर्य थोडे दिनका है. आवासः 'शु १५५१ Page #1567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास HEIR इंदियसामग्गी चि अणिचा संझाव होइ जीवाणं ॥ मज्झण्डंबणराणं जोव्वणमणवादं लोए । १७२१ ।। जीवानामक्षसामग्री शंपेवास्ति चला चलम् ।। विनचरमशंपरणां मध्याह इव यौवनम् ।। १७८८ ॥ विजयोदया-रदियसामग्गीचि इंद्रियाणां सामान्यपि। मणिच्चा अनित्या । अंधता बधिरताच दृश्यत पवामझाई व मध्यान्ह यत्, पराणं जोब्यणमणदि लोगे नराणां यौवनमनवस्थितं लोफे यौवनोऽहमिति अनः लापते, यौवनदर्गविकागदेव बुध्यमानोपि ध न प्रयतते तदनित्यं मध्यान्हपत् ॥ क्षिपतरं व्यतिवर्तिनि यौवन को यौषनरुतात्तीर्णमदर मारच मनस्विनाम् ॥ मूलारा-अणवाहिएं क्षिप्रसरगत्यरं ॥ अर्थ-इंद्रियोंकी सामग्री भी इस जीवको अपूर्ण रहती है. कोई जीव अंधा रहता है तो कोई जब बहरा होता है. अर्थात् संध्याकाल के समान यह सामग्री नित्य है. मनुष्योंका तारुण्य अस्थिर है परंतु मनुष्य मैं तरुण ई ऐमी स्वयं प्रशंसा करता है. तारुण्यके अभिमानमें आकर धर्ममें तत्पर नहीं होता है. परंतु तारुण्य चिरकालतक नहीं रहता है. वह भी मध्यान्ह कालके समान जली नष्ट होता है. ऐसे जल्दी नष्ट होनेवाले तारुण्यके विषय में गर्व करना क्या बुद्धिमानोंको योग्य है? कभी भी नहीं. चंदो हीणो व पुणो विद्वदि एदि य उदू अदीदो वि ॥ णदु जोवणं णियत्तइ नदीजलमदछिदं चेव ॥ १७२२ ॥ चंद्रमा वर्द्धने क्षीण ऋतुरेति पुनर्गतः ॥ नदीजलमिवातीतं भूयो नायाति यौवनम् ।। १७८९ ।। विजयोदया- वदो हीणोच पुणो वदि नित्यगडुमुखकुट्टरप्रवेशाद्धानिमुपगतोऽपि निशानाधः कृष्णपक्षे हीयन ॥ दीनो भवति । पुणो वदि पुनः शुक्लपक्षे पाते । प्रतिदिनोपनीयमानकालः। पदिय उद् अदीदोवि हिमशिशिर वसंनाइयाःतीता अपि ऋतवः पुनरायांति न तु जोयणं णियत्तेदि नेव बीवन निवर्ततेतिकांतम् । तस्मिन्नेव भवे नदीजल मदछिन चेव नदीजलमतिकांतमिव न पुनरति ॥ तनादि यौवनमित्यनेनानित्यततातिशयो यौवनस्य दर्शितः ॥ १५.२. Page #1568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५५३ मूलारा - होणो नित्य राहुमुखकुहरप्रशाद्धानि गतः । यदि पुनरायाति च । उ हेमंतादि ऋतुक्षत्रं वा । पियट्टदि पुनरायाति । अदिच्छिदं अतिक्रांतं । चेन यथा । अर्थ - हमेशा नित्य राहु के मुखमें प्रवेश करनेसे हानिको प्राप्त होता हुआ भी अर्थात् कृष्णपक्ष में प्रतिदिन कम कम होता हुआ भी चंद्र शुक्ल पक्षमें बढने लगता है. अर्थात् चंद्रकी एकांत रूपसे हानि ही नहीं है. उसकी बुद्धि भी हैं. हिम, शिशिर वसंतादिक ऋतु व्यतीत होनेपर भी पुनः उनका आगम होता है परंतु तारुण्य बीवनेगर लौटा नहीं है होती नहीं है. जैसे नदीका गया हुआ पानी फिर ही नहीं आता है वैसा यह तारुण्य पुनः आता नहीं है. इससे तारुण्य में अनित्यताका अतिशय हैं यह सिद्ध होता है. धावदि गिरिणदिसोदंव आउगं सव्वजीवलोगम्मि || सुकुमालदा वि हीयदि लोगे पुत्र हछाही व || १७२३ ॥ धावते देहिनामायुरापगानामिथोदकम् ॥ क्षिप्रं पलायते रूपं जलरूपमिवांगिनाम् ॥ १७९० ॥ विजयोदया - धावदि गिरिणदिसोदंव धावति गिरिनदीप्रवाह इव किं ? आउगं आयुः । सब्दजीवलोगंहि सर्वस्मिन् जीवलोके । सुकुमालदा वि द्वीयदि सुकुमारतापि दीयते । पुन्नण्ड छाही व पूर्वाकृछाया हव । यथा यथोि तामरसबंधुस्तथा तथोपसंहरति छायां शरीरादीनां ॥ मूलारा—गुब्बष्णछाहीच पूर्वाहृछाया यथा । सूर्यो हि यथा यथोदेति तथा तथोपसंहरति शरीरादीनां छा अर्थ - पर्वतपरसे बढेवेग से बहने वाली नदीके प्रवाहके समान प्राणियोंका आयुष्यप्रवाह शीघ्र बहकर समाप्त होता है, जैसे जैसे कमलबंधु सूर्य ऊपर आता है वैसे २ शरीरादिकों की छाया कम होती है. इस सर्व जीबाँके जगतमें प्राणिओकी कोमलता भी पूर्वाह्न की छाया के समान कम कम होती जाती है. अर्थात् प्राणिओंका सौदर्य वृद्धावस्था आनेपर नए होता है. १९.५ आश्वासः 5 १५५१ Page #1569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १५५४ अवरहरुक्खछाही व अद्विदं वदे जरा लोगे ॥ रूवं पिणासइ लहुँ जलेव लिहिदल्लयं रूपं ॥ १७२४ ॥ पौर्वाह्निकी यथा छाया हीयते सुकुमारता॥ पराहिकी यथा छाया सर्वदा वर्धते जरा ।। १७९१ ॥ विजयोदया-अबरण्डसक्वकाहीष अपराण्यश्नध्छायेव । अद्विदं बढ़दे अस्तित्वं बर्दते ॥ कियाधिशेषणन्या अपुंसकता। जरा लोगे लोके । सौप्यपल्लवनवानलशिस्वा. सौभाग्यप्रसूनकरकावृष्टिः, युरतिहरिणालीव्याधीमानलोच. नपांशुवृष्टिस्तपस्तामरसघनस्य हिमानी,दीनताया जननी, परिभवस्य धाची, मृतेर्दूती, मीते प्रियसखी या जरा सा बदेते। रूबंपि जासदि लई रूपमपि विलासिनीकटाक्षक्षणशरशततीरायमाण, चेतोवलक्षसुक्ष्मघसनरंजने कौसभरसाय. मान, प्रीतिलतिकाया मूलं, सौभाम्यतरुफलं, कूलं पूज्यताया ययं तलघु विनश्यति ॥ किमिय जलेय लिहिंदलग रूपं जले लिखितरूपमिव ॥ मूलारा-अद्विदं बढदे अथांत वर्धते । लिहिदेलयं लिखितं ।।। अर्थ-दिवसके उत्तरार्धमें पक्षकी छाया जैसी चढने लगती है जरा वृद्धावस्था भी प्राप्त होनेपर प्रति दिन बढ़ने लगती है. यह वृद्धावस्था सौंदर्य रूप कोमल कोपलपर अग्नीकी ज्वालाके समान आक्रमण कर उसको जलाती है. सौभाग्यरूपी पुष्पपर ओले की सृष्टि के समान है. तारुण्यरूपी हरिणपर यह व्याघी के समान टूट पडती है ज्ञानरूपी नेत्रपर यह धुलीवृष्टिके समान है. तपरूपी कमलवनके लिये यह वृद्धावस्था बर्फके समान है.अथात् वृद्धपना तुपको नष्ट करता है. यह वृद्धावस्था दीनताकी माता है. अपमानकी धाय है,मृत्युकी दती है. भय की प्रिय सहेली है. इस बृद्धावस्थाकी प्राप्ति होनेपर रूपका नाश होता है. यह रूप गुणसुंदर खियोंके कटाच बाणोंका आश्रयस्थान है. मनरूपी स्वच्छ वस्त्र को रंगाने के लिये कुसुंबी रंगके समान है. प्रीतिलताका यह मूल है. सौभाग्य वृक्षका यह फल है,पूज्यताका यह किनारा है. ऐसा भी उत्तम रूप पानी में लिखे हुए चित्रके समान शीध्र नष्ट होता है. तेओ वि इंदघणुतेजसपिणहो होइ सयजीवाणं ॥ दिट्ठपणठ्ठा बुद्धी बिहोइ मुकाव जीवाणं ॥ १७२५ ॥ Page #1570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवासः १५५५ संजो नश्यति जीवानां निलिंपधनुषामिव ॥ उत्क्लेशनम्बरी बुद्धिर्दृष्टनष्टा मजायते ॥ १७९२ ॥ विजयोदया-तेजोषि इंदणुतजसपिणहो शरीरस्य तेजोपि पौलोमीप्रियत्तमचापस्य तेज इय गर्जज्जन नयनचेतःप्रमोदादायि क्षणेन भयमपवजति ॥ विपणा दृष्टप्रणा बुद्धिः सकलवस्तुयाथाम्याकुटमासानतमम्पटल पाटनपटीयसी, विचित्रदुःखप्राइकबाकीर्णकुगतिविशालनिरगामधेशमियारणोचता, चारित्रनिधिप्रकटनक्षमादीपचतिः, सकलसंपदाकर्षणविधा शिवगतिनायिकासंफली पर्वभूता बुतिरप्युक्षाशु नामुपयाति॥ मूलारा-तेओ देवप्रभा । बुद्धि यथार्थप्रतिपत्तिा। अर्थ-मनुष्य के शरीकी कांति इंद्रधनुष्यके समान क्षणपर्यंत नेत्रोंको लुभाती है परंतु क्षणके अनंतर नष्ट होती है. संपूर्ण पदार्थ का यथार्थ स्वरूप दिखानेवाली, अज्ञानांधकारके समुइको नष्ट करनेवाली, अनेकदुःखरूपी मगरोंसे भरी हुई कुगतिरूप विशाल नदीमें जीवके प्रवेशको रोकनेवाली, चारित्ररूपी निधिको प्रकट करने को दीप के समान संपूर्ण संपत्तिको उत्पन्न करनेवाली, मंत्रविद्याके समान, मुक्ति लक्ष्मी के दतिक समान ऐसी बुद्धि भी व्यभिचारिणी स्त्रीके समान मनुष्यसे विदा लेती है. PHOTORATOTASTARAMATATAKATAR रजा ॥ अदिवडइ बलं खिप्पं स्वं धूलीकदंबरं छाए ॥ वीचीव अद्धवं बीरियषि लोगम्मि जीवाणं ।। १७२६ ॥ बलं पलागते रूपमिव रथ्यागतं रजः ॥ जलानामिव कल्लोलो वीर्य नश्वरमंगिनाम् ॥ १७५३ ॥ चिजयोदया-अतिवडर बलं विक्षिप्रमतिपतति बलं, रुवं धृती कर्दवर छाप रथ्यायां पशुचितरूपमिव । वीचीच चण्डप्रभंजनाभिघातोत्थापिततरलतरंगमालेच, अदुवं अध्वं । पीरियं बीर्थमपि । जीयानां शरीरस्य दृढता घलवीर्यमात्मपरिणाम मूलारा-अदिपहदि नश्यति । धूलीकदन रवायां पासुरचित रूपमिव । वीची लहरी । अबुवं अभुवं । लोगम्मि लोके प्रसिद्ध । अर्थ-रास्तेमें वायुसे धूली ऊठकर उसकी बर्तुलाकृति उत्पन्न होती है. परंतु वह शीघ्र ही नष्ट होती है वैसे मनुष्यका बलभी जल्दी मष्ट होता है. चढे मल्लभी क्षयरोगसे ग्रस्त होते हैं. मनुष्योंका पराक्रम भी प्रचंड हवाके १५५५ SEARRIAGAR Page #1571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आपातोंसे उठी हुई लहरियोंकी पंक्तिके समान नष्ट हो जाता है. शरीरकी दृढ़ता को बल कहते हैं, आत्माके अदम्य उत्साह को-धैर्य को वीर्य-पराक्रम कहते हैं. आश्वासः हिमणिचओ वि व गिहसयणासणभंडाणि होति अधुवाणि ॥ अरुकित्ती वि अणिच्चा लोए संज्झब्भरागोव ॥ १७२७ ॥ हिमपुंजा इथानित्या भवन्ति स्वजनादयः॥ जंतनां गत्वरी कीर्तिः संध्याश्रीरिव सर्वथा ॥ १७९४ ॥ मूलारा–बेव इव । जसकित्ती यशाकीर्तिः । संझम्भ दिनांतमेघः । अर्थ-बर्फ के समुदायके समान घर, शय्या, आसन, पात्र बगरह पदार्थ नश्वर है. और यशकी प्रसिद्धि भी संध्याकालीन मयके समान नश्वर है. BHASHMIRE स्पष्टोत्तरगाथा किह दा सत्ता कम्मवसत्ता सारदियमेहसरिसमिण ॥ ण मुणंति जगमणिच्च मरणभयसमुत्थिया संता ॥ १७२८ ॥ इदं जगच्छारयवारिदोपमं न जानते नश्वरमंगिनः कथम् ॥ यमेन हंतुं सकलाः पुरस्कृता मृगाधिपनेव मृगा पलीयसा ॥ १७९५॥ इति अध्रुवम् ॥ विजयोदया-किड कथं सावत् । अणि जगंण मुक्ति मादनिस्पं न जानति । के सत्तावी सीदति स्पकतपापथशाप्तासु तासु योनिष्यिति सत्वाः । सारदिगमेघसरिसमिणं शरहतुसमुत्पनं नैकवर्णविचित्र संस्थानजीमूतमालासहवां । मरणभयसमुश्छिदा संता मरणं विषं पूष तमजीवितस्य सरीत्कृतं प्रियवियोगादारकस्य, शोकाशने लवपटलं, अयस्कांतोपलः दुःखलोहाकर्षणे, बंधुश्योपलानां द्राषकमौषधमायतापदामायतनं पयंभूतमरणमयसमुस्थिताःसंतः ॥ पयमनित्यतामशेषवस्तुविषयां ध्येयीकृत्य प्रवर्तते धम्य ध्यान ॥ अदुच ॥ १५५६ Page #1572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५५७ भोगार्थमाणां प्राणिनो जगदनित्यत्वाज्ञानं साधर्यमनुशोचति मूलारा दातावत् । वाक्याकारे । सता प्राणिनः । कम्मपसत्ता कृष्यादिष्वासतां । सारा शरत्प्रभवः । समीचिदा आच्छादिता अपि । उक्तं च कर्माः कथं सत्याशिरन्मेघनमं जगत | सर्वमेतन्न जाति मृत्युभीतियुता अपि ॥ अपिच --- कथमिव दुरितज्वरो भोगासक्ताः सरधनप्रतिमं ॥ जानंति जगदनित्यं न जन्मिनो मरणभीतिभृतः ॥ अनित्यतानुप्रेक्षा ॥ अर्थ-ये सर्व प्राणी मृत्युभयसे युक्त होकर भी शरत्कालके मेघके समान इस विनश्वर जगत् को क्यों नहीं जानते हैं यह बडा आचर्य है. ये सर्व प्राणी अपने किये पापों के आधीन होकर अनेक योनियोंमें दुःख पाते रहते हैं. इसलिये ' सीदतीति सत्वाः ' अर्थात् सत्य ऐसे अन्वर्धक नामको धारण करते हैं. शरदृतुमें उत्पन्न हुए अनेक रंगोंको धारण करनेवाले, अनेक आकृति युक्त परंतु नश्वर ऐसे मेघसमूहके समान यह जगत् नश्वर हैं. प्राणिओं को मरण विषके समान अप्रिय है. शोकरूपी वज्रपातको उत्पन्न करनेवाला मानो मेघ पटल ही है, दुःखरूप लोहको खीचने के लिये मरण लोहचुंबके समान है. बंधुओके हृदयरूपी पत्थरको द्रवयुक्त करनेमें औषधी के समान है. यह मरण दीर्घआपत्तिओं का घर है. इस प्रकार मरणभयसे युक्त सत्पुरुष संपूर्ण विषय अनित्य धर्मसे युक्त है ऐसा समझकर उन वस्तुओंको धर्मध्यानका विषय करते हैं. अशरणताकथनायो सरप्रबंधः । कर्माण्यात्म परिणामोपनीत चिरकालस्थितीनि समिति क्षेत्रकालभावाक्य सहकारिकारणानि यदा फलमशुभं प्रयच्छति तदा तानि न निवारयितुं कश्चित्समर्थोऽस्ति तेनाशरणोऽस्म्यहमिति चिंता प्रबंधः कार्य हायटे णासदि मदी उदिष्णे कम्मेण य तरस दीसदि उबाओ ॥ अमपि विसं सच्छं तणं पि णीयं वि हुति अरी || १७२९ ॥ आश्वास 5 १५५७ Page #1573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ५ ज्ञानावरण कर्मका उदय आनेसे उपर्युक्त बुद्धि नष्ट हो जाती है. ज्ञानी पुरुष, ज्ञान और उपकरण इनका द्वेष करना, इनको छिपाना इनका नाश करना. इनके साथ मत्सरभाव रखना, इनमें विन उत्पन्न करना इनको अयोग्य बतलाना, इनमें दोष लगाना, इनको पीडा देना, अकालमें अध्ययन करना दुसरों की इंद्रिया विषाडना इत्यादि कारणोंस ज्ञानावरणीय कर्मका बंध होता है यह बंध अवग्रह ईहा, अवाय और धारणा रूप मतिज्ञान अपना मुरझान:सिकता नाश करता है. १ ज्ञानको आच्छादन करनेवाला कर्म जब यह अपुण्यवान जीव बंध लेता है तब अचग्रह ईहा, अवाय और धारण ऐसे चारों ज्ञानोंसे भी पदार्थोका सम्या स्वरूप जानने में असमर्थ होता है. (२ जो मनुष्य पदार्थोके विशेषधर्मोको नहीं जानता है वह नेत्रवान होकर भी अंधा है, सुनता हुआ भी बहिरा है, और जिव्हा युक्त होनेपर भी रसोंको नहीं जानता है ऐसा समझना चाहिये। कर्मसे ढका हुआ यह कभी एकेंद्रिय, कभी द्वीद्रिय, श्रींद्रिय, चतुर्रािद्रिय और कमी असंत्री पंचद्रिय बनता है. ४ कर्माच्छादित यह जीव हितकर वस्तु को न देख सकता है न सुन सकता है और में उसका विचार करने में समर्थ होता है. कर्मके वश होकर भी न दान देता है और न धनका स्वयं उपभोग ले सकता है इसलिये ऐसा कर्माच्छादित जीव पशुके बराबरीका समझना चाहिये. ५ अल्प बुद्धि होनेसे मनुष्य अपने समीपका भी हितकर पदार्थका स्वरूप जानने में असमर्थ होता है. फिर जो श्रुतज्ञानसे ही जाना जाता है, जो परलोक हित करनेवाला है ऐसे पदार्थका स्वरूप वह अन्न कैसा जानेगा? १ महाभयानक गुहाके सघन अंधकारमें प्रवेश करनेसे, आगाध पानी में प्रवेश करनेसे, दृढ़ ऐसे कैदखानेमें डाला जानेसे प्राधीको कृष्ट दायक अज्ञानका अनुभव आता है. अंधकारमें प्रवेश, पानी में डूबना, कैदखानेमें डाला जाना इन बातोंस प्राणिओंको एक जन्ममें-ही कष्ट होगा परंतु अज्ञानजन्य दुःख अनंत भवतक प्राणिओका साथ नहीं छोड़ता है. ८ जो पुरुष स्वाभाविक बुद्धिम रहित है वह विशाल तज्ञान जो कि मनुष्यकी तीसरी आंख है धारण करनमें असमर्थ होता है. Page #1574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्चम १५६१ जिसको यह भ्रतज्ञान है वह नेत्रास अंध होने पर भी मोक्ष नगरीके कल्याणकारक मार्गमें सुखसे जा सकता है. यह ज्ञानावरण कर्म इस प्रकारका अज्ञान उत्पन्न कर देता है कि उसको हटाने में कोई समर्थ नहीं है. इसका निवारण करने में कोई उपाय है नहीं. असावावेदनीय कमके उदयस अमृत भी विष होता है और तण मी छगका कामना है. बंधु भी बन जाते हैं. शानाबरणस्य तु क्षयोपशम किं स्पादिश्याह मुक्खस्स वि होदि मदी कम्मावसमे य दीसदि उवाओ। णीया अरी वि सम्छं बितणं अमयं च होदि विसं ॥ १७३० 11 अस्ति कमोक्ष्ये बुद्धिरूपायमवलोकते। विपक्षो जायने पंधुः शस्त्रं पुष्पं विषं सुधा ॥ १७९७ ॥ विजयोदया-मुक्खस्स वि होदि मही मूर्खस्यापि भवति मतिः 1 कम्मोषसमेय वीसदि उपाओ कोपशमे शानावरणस्य तु क्षयोपशमे सति उपायोपने शिमगत्यपुण्यकरियाल । जीया अरी विशषयोऽपि वंधत्रो भवति सञ्छपि तणे शरणमपि सूर्ण भवति, अमई होदि विसं विषमण्यमृतं भवति सद्योदये। तद्विपर्ययवर्शनात्तत्तत्कौनिवार्यतां दृढयति मूलारा-सुम्सस्स वि यथाजातस्य । कम्मोवसमे तथाविधमतिज्ञानावरणझयोपनमे सति । उवाओ कर्मोपशमस्य साधनं । न बिम विषमपीत्यर्थः । असद्वेगोदयामात्र सद्योदये वा सति विषदादयोऽपि यांचवादिभावं अनंति । सद्भापकरणक्षपणप्रगुणकर्मण उपशमे उदये वा उपायो लोके शालेच प्रतीयते इति समन्वयः ॥ झानावरणीय कर्म के क्षयोपशमसे क्या होता है इसका विवेचन अर्थ-ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होनेपर मुर्ख भी विद्वान होनेमें देर नहीं लगती है. ज्ञानावरण शयोपशमसे संकटसे पार पडनेका उपाय ध्यानमें आ सकता है. क्योंकि उस समय पुण्यकर्मका उदय होजाता है, शत्रु भी मित्र होते हैं. शस्त्र भी नृणतुल्य निःसार होता है अर्थात शस्त्रप्रहार भी पुष्पमालाके समान अनुभवमें आ जाता है. विष भी अमृत होता है. HORS Page #1575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवामः मूलाराधना १५३२ पाओदएण अत्थो हत्थं पत्तो वि जस्सदि परस्म । दूरादो वि सपुण्णरस एदि अत्थो अयत्तेण ॥ १७११ ॥ अर्थः पापोदये पुंसो हस्तप्राप्तोऽपि नश्यति ॥ दुरतो हस्तमायाति पुण्यकमोदये सति ।। १७९८ ।। पिजयोवया-पायोदयण लामांनरायस्थ कर्मण उदयन, अग्थो हुन्थं पत्तो घि जस्सदि णरस्स हस्तप्राप्तोप्यों नश्यति पुंसः । दूरादो वि दूरतोऽपि । सपुण्णस्य पुण्यवतः । पति अत्यो आपत्यर्थाः । अयत्तेण अयत्नेन । तद्वद विप्लवसंप्लवाचपि तत्कारणकर्मायत्ताविति ध्येयत्वेनोपदिशति-- मूलारा-पायोदयेण लामांतरायविपाकेन । सपुण्यात सद्योदयषतः । अयत्तेण यत्नं विनापि । अर्थ- साहाय का उद: अलग हलगर गर भी नष्ट होजाता है. और पुण्यवानको प्रयत्न के बिना ही दूर देशसे भी धन प्राप्ति होती है. पाओदएण सुख वि चेट्ठतो को वि पाउणदि दोस ।। पुण्णोदएण दुह बि चेतो को वि लहदि गुणं ॥ १७३२ ।। नरः पापोदय दोष यतमानोऽपि गच्छति ।। गुणं पुण्योदये श्रेष्ठ यत्नहोनो पि नत्यतः 11 1 ७२०।। विजयोदया-पायोपण अयशम्मीने मदन । म ति चतो मम्यक नेएमानः । कोवि पाउणदि दोस । कश्चित्माप्नोति दोपं । पुण्णोदयेण पुण्यकर्मा जयन । दुलछु बि लुतो अतिकचिदकार्य कुलपि । कोवि लभदि गुण कश्विल्लभते गुणाम् ॥ मूलारा-पादोदपण अयश कीर्गिक्रर्भपाकेन। सुटु'व सम्पापि । दोस उपालंभं । सुठट वि चेटुंगो अत्यर्थ विरुद्धं चेष्टमानो यत्किचित्कार्य कुर्वत्रपि इत्यर्थः । गुगं लायां । अर्थ-पापका उदय आनपर अर्थात् अयशस्कीर्ति कर्मका उदय होनेपर सदाचारी मनुष्य भी दोपी माना जाता है. पुण्यके उदयस अकाय करनवाला भी कोई मनुष्य प्रशंसा का पात्र बनता है, Re १५६६ Page #1576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वामः पुण्णोदएण करसह गुणे असंते वि होइ जसकित्ती । पाओदएण कस्सइ सगुणस्स वि होइ जसघाओ ॥ १७३३ ।। पुणगोदा परी कीर्तिसमटे गणनर्जितः || पापोदपेऽनुने गुर्वीमकीर्ति गुणवानपि ॥१८०० ॥ विजयोदया---पुण्णोदएण पुण्यस्योदयेन । कस्सइ दोर जसकिनी कस्यचिनयति यशस्कीतिध । पाचोदएण पापस्योदयेन । कस्सा सुगुणस्स वि कम्यचिन सुगुणवतोपि । जसमादी होदि यशोधातो मवति ।। मुलारा-अलकित्ती यश:कीर्तिश्च । छायादो छायाघात: यशोविनाश इत्यर्थः । अर्थ- पुण्योदयस किसी मनुष्य का यश सर्वत्र फैल जाता है. पापके उदयसे गुणी सदाचारी मनुष्यका भी यश नष्ट होता है काम - - - णिश्वकमस्म कम्मरस फले समुवहिदमि दुखंमि ॥ जादिजरामरणरुजाचिंताभयवेदणादीए ॥ १७३४ ॥ जन्ममृत्युजरानक दुःवशोकभयादिके ।। दीयमान विपक्षेण निरुपनमकर्मणा ॥ १८०१ ।। विजयोदया-णिरुषमस्स निःप्रतीकारस्य कर्मणः । फले लमुपदिहि तुक्खहि समुपस्थिते दुःख, जादिजरामरणरुजाचिंतामयचेदणादीगे जातो, जराथां, मरणे, व्याधी, चिंतायो, भये, वेदनादी व समुपस्यिते ॥ दुरिकर्मोदयहेतुके जात्यादौ दुःखे संप्राप्त कश्चित्क्वचित्राता आश्रयो या नास्तीति भावनां गायावयेनाह-- मुलास-णिरुवकमरस निष्प्रतीकारस्म । समुपदिम्मि संप्राप्ते। . . अर्थ--उपायरहित फर्मका जब उदय आता है तप उसका फल जो दुःख वह भोगना पडता ही है. अर्थात् जन्म, जरा-वृद्धावस्था, मरण, रोग, चिंता, भय, वंदना वगैरह दुःख भोगने पड़ते ही हैं, Page #1577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना সম্পন্ন म जीवाण णथि कोई ताणं सरणं च जो हवेज इधं ॥ पायालमदिगदो वि य ण मुच्चदि सकम्मउदयम्मि ।। १७६५ ।। न कोऽपि धियते नाणं वेहिनो भुवनम्रये ॥ म प्रविष्टोऽपि पातालं मुच्यते कर्मणा जनः ॥ १८०२।। बिज़योदया सीमणीयमा नाटिकद्रामाशा या । जो बचेगा यो भवेत् । पावालमदिगो वि पाताले प्रविष्टोपि । ण मुच्चादि । न मुच्यते दुःखात् । सम्मउदयदि स्वकर्मोदये सति ॥ मूलारा-साणे रक्षा । सरणं आश्रयः। इधं अस्मिन । मुच्या मुच्यते । लोके । अवि य अपि च । एतेन दुर्गमक्षेत्रलमधेयथ्य समर्थयते । ण मुञ्चदिन विछिपते जात्याक्षिकाद्दुःखात ।। अर्थ-माणिओंको जगतमें कोई भी शरण नहीं है. यह जीव फर्मसे पिंड छडानेके लिये पातालमें पला जाय तो वहां भी यह कर्म उसको छोडता नहीं, जबतक यह जीव स्वकर्मदरसे बसम नहीं होगा तब तक इसका दुःख से छुटकारा नहीं होगा. 1858400 गिरिकंदरं च अडवि सेल भूमि च उदधि लोग त ।। अदिगंतूर्ण वि जीवो ण मुञ्चदि उदिण्णकामेण ॥ १७३६॥ नगदुर्गे क्षिती शैले लोकांने काननेऽम्भुधी । गनोऽपि कर्मणा जीवो नोदीर्णन विमुच्यते ॥ १८०३ ।। विजयोदया-गिरिदरं च गिरिकंदर अटवी शैलभूमिमुदधि । लोकांतं प्रविश्यापि जीचो मुच्यते । उव. थागतन कर्मणा ॥ __ भूयोऽपि क्षेत्रलब्धि प्रबंधन निरस्करोति -. मूलारा-गिरिकंदरं पर्वतपानीयविदारितस्थानं । अदिगंतूण वि गत्या पि तिष्ठन् । अर्थ-पर्वतकी दरीमें, जंगलमें, पर्वतमें, जमीनमें, समुद्र में इतना ही नहीं लोकके अंतमें भी जीव यदि जाकर वसेगा तो भी उदयमें आये हुए कमसे बद्द छुटकारा नहीं पाता है. Page #1578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागधना आश्चात दुगचदुअणेयपाया परिसप्रदी य जंति भूमीओ ॥ मच्छा जलम्मि पक्खी भमि कम्मं तु सव्वत्थ ॥ १७३७ । द्विचतुर्थहुपादा येत गच्छात नहानलं ॥ . जले मीनाः बगा योनि कर्म सर्वत्र सर्वदा ॥ १८०४ ।। विजयोध्या-दुगवअणेगपादा विचतुश्चरणादिकाः । परिसादी 4 जति भुमीमो परिसादयश्च यांति भूमावेव । मत्स्या जले पक्षिणो नभसि यांतिः । कर्म सर्वत्रगं । मुलारा-परिसप्पत्ता अपादा उरगादवः । कम्मै तु मबत्य स्वकृतकर्मविपाकेन जीनाः कचिदपि न मुच्यते इत्यर्थः । अर्थ-दो पांवके जीव, प्यार पांधके जीय, अनेक पांचक जीव और सादिक जीव जमीन पर निवास करते हैं. मत्स्य पानी में रहते हैं. पक्षी आकाशमें रहते हैं. परंतु कर्म सर्वत्र रहता है. रविचंदवावेउध्वियाणमगमा वि अस्थि हु पदेसा ॥ ण पुणो अस्थि पएसो आगमो. कम्मल होइ इधं ॥ १७ ॥ अगम्या विषयाः शिरविचंद्रालिलामरैः ॥ प्रवेशी वियो कोफिनागम्यः कर्मणा पुनः ॥ १८०४॥ विजयोदया-रविचंधावयेडठियगाणं सूर्यण, बग्रेण. पातेन, देवेश्चाभ्यासंति प्रदेशाः कर्मणामगम्योऽत्र प्रवेशोऽस्ति लोके ।। कुच इत्याइ.मूलारा-देउविमाण चैक्रियिकाओं । देवविद्याधरादीनां । अगमा अगम्याः । अर्थ-सर्य, चंद्र, वायु और देव भी जहां प्रवेश नहीं कर सकेंगे ऐसे भी बहुतसे प्रदेश हैं. परंतु कर्मके लिए अगम्य प्रदेश कोई भी नहीं है. Page #1579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्व विज्जोसहमंतबलं बलवीरिय अस्सहत्थिरह जोहा ॥ सामादिउवाया वा ण होति कम्मोदए सरणं ॥ १७३९ ॥ न योधा रथहस्ताश्चा विदामंत्रौषधादयः॥ सामादयोऽपि चोपायाः पान्ति कमादयेऽङ्गिनाम् ॥ १८०५ ॥ विजयोदया-विज्लामतोसधिबलबीरियं विद्या स्वाहाकारांता तद्रहितता मंत्रस्य वीर्यमात्मनः शक्त्यतिशयः। यलमाहारच्यायाम शरीरस्य दा, अनीकर्षधः। सामभेददण्डोपप्रदानाथाच देतवा न शरणं ॥ दुष्कृतपाकोद्रेकनिराकरणविचारमंत्रादीनामपि माहात्म्यप्रतिघातमनुसंधत्ते-- मूलारा-बल आहारव्यायामादिज देहदाव्यं । णीया बांधवाः। अयं जिसके अंतर्म महाकार है वह विद्या है. मंत्र स्वाहाकारसे रहित होता है.)मंत्रकी शक्तिको वीर्य कहते हैं. शरीरम आहार और व्यायाम करनेसे जो दृढता उत्पन्न होती है उसको बल कहते हैं. ये पदार्थ कर्मके उदयसे आत्माका रक्षण करने में असमर्थ है. पोहे, हाथी, स्थ, योद्धागण, साम दंडादिक उपाय, इनका भी सामर्थ्य कर्मोदय आनेपर न होता है. कर्म सबसे बलवान है. जह आइश्चमुर्देत कोई वारंतउ जगे णस्थि ॥ तह कम्ममुदीरत कोई वारेंतउ जगे णस्थि ॥ १७४० ।। केनेहादीयमानानां कर्मणां ज्योतिषामिव ।। निषेधः शक्यते कर्तुं स्वकीये समये सति ।। १८०६ ।। विजयोदया-जद्द आपच्चमुदतं यथा विनमणिमुदयावलचूडामणितामुपयातं न निवारयति कचित्तथा समधिगतसहकारिकारणं कर्म न निभास्त समर्थः ।। किंबहुनामूलारा-आइच्चं आदित्यं । उदीरतं उदयावलिकाप्रवेशोद्यनं । अर्थ-जैसे उदयाचल पर आनेवाले सूर्यको कोई रोक नहीं सकता वैसे सहकारी कारण मिलनेपर उदय में आये हुए कर्मको कोई भी जीव रोक नहीं सकता. १५६ Page #1580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५६७ रोगाणं पडिगारा दिठ्ठा कम्मस्स णत्थि पडिगारो ॥ कम्मं मलेदिह जगं हत्थीव निरंकुसो मत्तो ॥ १७४१ ॥ प्रतीकारोऽस्ति रोगाणां कर्मणां न एनर्जने ॥ कर्म गृहाति हस्तीव लोकं मत्तो निरंकुशः ॥ १८०७ ॥ विजोदरोगा पगारा दिट्ठा व्याधीनां प्रतीकारा दृष्टा औपधादयः । कर्मणां नास्ति प्रतीकारः जगदशेष मईयति कर्म मदगज इव निरंकुशी नानीवनं ॥ समुद्यतमेवार्थी ट्रान्तद्वारेण विवृण्वन्नाह - मूलारा - रोगाणं व्याधीनां अर्थादुपचारजानां कर्मजानां तु छानामेव प्रतीकारः अर्थ - रोगोंका प्रतिकार औषधादिक इलाज तो देखे गये हैं. कर्मका इलाज किसीने भी नहीं देखा है. उन्मत्त हाथी अंकुशकी भी पर्वाह नहीं रखता हुआ कमलवनका मर्दन करता है वैसे ये कर्म भी संपूर्ण जगका मर्दन करते हैं. रोगाणं पडिगारो णत्थि य कम्मे णररस समुद्दिष्णे ॥ रोगाणं पडिगारो होदि हू कम्मे उवसमंते ॥ १७४२ ॥ प्रतीकारो न रोगाणां कर्मणामुदये सति ॥ उपचारो भुवं तेषामति कर्मशमे सति ॥ १८०८ ॥ विजयोदया - रोगाणं पडिगा व्याधीनां प्रतीकारो नास्ति कर्मण्यसद्वेध प्राप्तोदये सति पथ्योषधादिभिरुपशर्मा रोगादीनां सोपि कर्मण्युपशमं गत एवं नानुपशांते ॥ मूळारा - समुदिष्णे सम्मुखोदये । उपलमंदे उपशमं याति मंदोदये भवतीत्यर्थः । अर्थ- जब असातावेदनीय कर्मका उदय आता है तब रोगोका नाश करने में औषधियां असमर्थ हो जाती हैं. यद्यपि पथ्य और औषधियों का सेवन करनेसे रोगों का शमन होना अनुभव में आता है तो भी वहां कर्मका आश्वास ७ १५६७ Page #1581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना | आश्वासः उपशमन होना ही मूल कारण है. अंतरंग कारण कर्य जब उपशांत होता है तब औषधि और पथ्य सेवन रोगनाश करने में समर्थ होते हैं अन्यः । निगल हो जाते है, विज्जाहरा य बलदेवयासुदेवा य चक्कवट्टी था । देविंदावण मरणे कस्सइ कम्मोदए होति । १७३३ ॥ पलकेशवचशिदेवविद्याधरावयः ॥ सन्ति कर्मोदये व्यक्तं शरणं न शरीरिणाम ।। १८८९ ।। विजयाडया-विजाहरा य विद्याधरायो महायलपराक्रमा अपि श शरणं भयंति कोदय रति गाथार्थः ॥ नलाग--सटम् । अर्थ--जन कर्मोदय तीव्र होता है तब महापराक्रमी विद्याधर, बलदेव, वासुदंच और चक्रवर्ति भी प्राणीका रक्षा करने में समर्थ नहीं होते हैं. इतनाही नही. देवेंद्रभी उस प्राणीका रक्षण करने में असमर्थ है. ADMIRE वोल्टेज च कमतो भूमि उदधि तरिग्ज पबमाणो ॥ ण पुणो तीरदि कम्मरूल फलमुदिष्णस्स बोले? ॥ १७३१ ॥ गन्नुल्लंघते क्षोणी नरस्तरति नीरधिम् ।। नातिक्रांतुं पुनः कोपि कर्मणामुदयं क्षमः ॥ १८१ ॥ विजयदया-बोल्लज्ज उल्लंघयेत् गछन भूमि, समुद्रातरुत्प्लवमानः । उदीयमय कारणः फलमुलंधयितुं न चत्ति कोऽयो वा महावलोगि ॥ मलारा-बोलेज नरन् । चकमो पझ्या गछन् । एवमाणो 'लवमानः । तीरदि शक्नोति । अर्ध--भूमिपर चलता हुआ पाणी भूमीके अंततक जा सकेमा समुद्रको भी उलंधकर जा सकेमा, परन्तु कर्मका उदय आनेपर उसको उलंघनकी ताकद महाबलवान पुरुषों में भी नहीं है. अल्पशक्तियों की तो क्या कथा ? - १५६८ - । Page #1582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलारावना १५६६ सहतिमिगिलगहिदस्म शत्थि मच्छो मगो व जघ सरण || कम्मोदय जीव त्थि सरणं तहा कोई ॥ १७४५ ॥ मृगमीनों परौं जन्त्योः सिंहमीनगृहीतयोः ॥ जायते रक्षकः कोऽपि कर्मग्रस्तस्य न पुनः ॥ १८११ विजयोद्रवासीद्दतिर्मिगिलगद्दिदस्य सिंहेन तिर्मिगिलाख्येन महामत्स्येन च गृहीतस्य नैव शरणं भवति अभ्यो मृगो मत्स्यो वा । तथा कर्मोश्ये जीवस्य नास्ति करिणम् ॥ मूलारा-- तिमिंगिलो मद्दामत्स्यः । मच्छो तिर्मिगिलादन्यः || अर्थ - सिंह किंवा तिमिंगल ( महामत्स्य ने) पकडे हुए प्राणीको कोई पशु अथवा मत्स्य उससे नहीं छुडा सकता है से तीव्र कर्म के उदयसमय में इस प्राणी को कोई भी व्यक्ति नहीं क्रुद्धा सकती है उसे उस कर्मकर फल भोगना ही पड़ता है. व्यावर्णितानामशरणत्वं मनसावधार्थ हवं शरणमिति चित्तनीयमिति कथयतिदंसणणाणचरितं तवो य ताणं च होइ सरणं च ॥ जीवरस कम्मणासह कम्मे उदिष्णमि ॥ १७४६ ॥ कर्मनाशनसहान जनानां ज्ञानदर्शनचरित्रतपांसि ॥ नापहाय सति कर्मणि पक्के रक्षकानि च संति पराणि ।। १८१२ ॥ इति अशरणम् विजयोदयालाणचरितं तथो यशाने दर्शर्शनं चारित्रं तपन रक्षा शति । जीवस्य कर्मणां नाशहेतुः कर्मण्युदीर्णेन्यसद्वद्या । एवानुमेक्षा गता । असम् असत्कर्मदिये प्रतानामशक्यतां मणिवाय दर्शनादिकं शरण्यतया प्रणिधेव मित्यनुशाशितमूलारा -- कम्मणासण हेतु अशुभकपणकारणत्वात । अक्षरणानुस | ऊपर जिनका वर्णन किया गया है वे अधरणरूप हैं परंतु जागेकी गाथा में प्रतिपादित पदार्थ शरण समझकर उनका चिंतन करना चाहिये ऐसा आचार्य वर्णन करते हैं आवासः 0 १५६९ Page #1583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचार १५७० अर्थ-सभ्यग्दर्शन, ज्ञान,चारित्र और तप ये चार आत्मगुण ही आत्माके शरण-रक्षक है. जबिके कोका ये ही नाश करते हैं. असतावेदनीयादि कर्मके उदय होनेपर भी उपर्युक्त चार पदार्थ ही आत्माका रक्षण करते हैं, अशरणानुप्रेक्षा समाप्त एकत्यानुप्रेक्षा उत्तरेण प्रबंधेनोच्यते पावं करेदि जीवो बंधवहेदु सरीरहेदं च ॥ णिरयादिसु तस्स फलं एको सो चेव वेदेदि ॥ १७४७ ।। मातिपातक जन्तुर्देहयांधवहेतवे ।। श्वभ्रादिषु पुनःखमेकाकी सहते चिरम् ।। १८१३ । विजयोन्या-पाप करोति जीवो बांधवनिमितं शरीरनिमिस च । बांधवशरीरपोपणाय सतस्य कर्मणः फलं नरकादिष्वेक पवानुभवति । नरकादिगतिषु प्राप्तं दुःखमपश्यंतस्तत्रासंतो वांधवाः किं कुर्वतीति आशंकां निरस्थतिसन्निहिताः पश्यंतोप्याकिंचित्करा इति कथनेन । धर्यध्यानध्येयतया भावयितुमेकत्वं गाथासप्तकेन वर्णयति-- मूलारा-बंधवेत्यादि बंधूना स्वदेवस्य च पोषणार्थ । एक्कओ चेव एकक एच । असहाय एवेत्यर्थः । एकत्वानुप्रेक्षाका सविस्तर वर्णन. अर्थ- अपने शरीरका पोषण करने के लिये तथा बांधवों के पोषणार्थ यह जीव पाप करता है. किये हुए कर्मका फलभी इस अकेले जीवको ही भोगना पड़ता है. नरकादिगतिके जो दुःख इस जीवको भोगने पड़ते हैं. बंधुओ को उनषा प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता है अतएव वे उसका दुःख दूर करने में असमर्थ होते हैं ऐसा कहना भी योग्य नहीं है. क्यों कि जब इस प्राणी को इस लोकमें रोगादिसे दुःख होता था तब भी वे केवल देखकर भी दूर करने में असमर्थ थे वो परलोकका दुःख उनसे दूर होगा ऐसी आशा करना कैसा योग्य होगा? रोगादिवेदणाओ वेदयमाणस्स णिययकम्मफलं ॥ पेच्छंता वि समक्खं किंचिवि ण करति से णियया ॥ १७१८ ।। Page #1584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५७१ वेदनां कर्मणा वत्तां रोगशोकभयादिकाम ॥ किं भुजानस्य कुर्वन्तु पश्यन्त्यो ज्ञातयो ऽङ्गिनः ॥ १८१४ ॥ विजयोदय-रोगादिवेवप्पा रोगादिदुःखानि । विययकम्मफलं निजकर्मफलं स्वयोगत्रयोपचितकर्मणः फलं । वेदयमाणस्स वेश्यमानस्य । समवं पेच्छताथि प्रत्यक्षं पश्यंतोषि । जियया निजका बांधयाः, से तस्स किंचिचि ण करति किंचिदपि प्रतीकारजातं न कुर्वेति । परञेह वा जन्मन्येक पधानुभवति जंतुर्न तदीयकर्मफलसंविभागकरणे समर्थः दिति भवति || नरकादिदुर्गतिगतस्य दुःखमपश्यंती बांधवाः कथं प्रतिविदभ्युरित्यभिसंधि प्रत्याचष्टे मूलाच — किंचिथि प्रतीकारजातं परत्रेह वा जन्मनि स्वकर्मफलमनुभवतो जीवस्य न कश्वित्संविभागी भवतीति भावः ॥ अर्थ- - इस जीवको रोगादिकस जो वेदना होती है वह मन वचन और काययोगसे उपार्जन किये ree फल है. इस फलका अनुभव जब यह जीव लेता है तब उसका बंधुगण प्रत्यक्ष देखकर भी उस दुःखका प्रतीकार नहीं कर सकता है. इह लोक हो चाहे परलोक हो अकेले प्राणीको ही दुःख भोगना पड़ता है. उसके किये हुए कर्म का भागीदार कोई नहीं हो सकता है. तह तथा यथा दुःखे स्वकर्मफलक एवानुभवति - तह नरइ एक्कओ चेव तरस ण विदिज्जगो हबइ कोई ॥ भोगे भोत्तुं यिया विदिज्जया ण पुर्ण कम्मफलं ॥। १७४९ ॥ एकाकी म्रियते जीवो न द्वितीयो ऽस्य कश्चन ॥ सहाया भोगसेवायां न कर्मफलसेवने || १८१५ ॥ विजयोदया - तथा स्वायुगलने । एकगो ने मरदि एक एव प्राणांस्त्यजति ॥ प्ण विदिज्जगो कोई न सहायो भवति कचित् । तदीयं मरणं संविभज्य गृहीत्वा सहायतां न कश्चित्करोतीत्यर्थः ॥ अन्यथा एक एष त्रियते इत्यघटमाने यहूनामध्ये मरणात् | भोगे भुज्यतेऽनुभूयत इति भोगाः द्रव्याणि अशनवसनमुखवासादीनि । भोसुमनुभवितुं निजका बांधवाः । विदिज्जगा सहायाः । ण पुणे न पुनः । कम्मफलं मोतुं णीयगा विदिजया, सदीयकर्मफलं भोक्तुं न बंधस्सहायाः ॥ आश्वास ७ १५७१ Page #1585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५७२ दुःखानुभूति निदर्शनेन मरणे सहायामात्र माचयति--- मुलारा--प्रध दुःखानुभव नवम् । ण विदिज्जगो न द्वितीय: । दुःखयन्मरणं विभज्य गृहीत्वा सहायो न कश्विवतीत्यर्थः । भोगे अशनवसनादीन् ॥ जैसे अपने किये हुए कर्मका दुःखरूपी फल यह जवि स्वयं ही भोगता है वैसे अर्थ - इस प्राणीका आयुष्य पूर्ण होनेपर उसको अकेलेको ही मरण का स्वीकार करना पडता है. अर्थात् मक विभाग लेकर उसकी कोई साहायक नहीं होता है. अन्यथा एकही मरता है इस वचनकी घटना ही अयुक्त दीखेगी. क्योंकि बहुत जन एक समय में मरेंगे परन्तु ऐसा नहीं होता है अतः 'तह मरह एकओ चैव यह वचन युक्तियुक्त है. अन्न, वस्त्र, तांबुल, धन इनका उपभोग लेनेके लिए चांधव सहाय्य करते हैं परन्तु कर्मफल का अनुभव अकेले को ही लेना पडता है. अन्य बांधव उनको सहायक नहीं होते हैं. , प्रकारांतरेणेत्यभावनामाच या अत्या देहादिया य संगा ण करस इह होति ॥ पग्लोग अमेत्ता जदि विदइति ते सुरु || १७५० ॥ देहार्थांधवाः सार्धं न केनापि भवांतरम् ॥ बलमा अपि गच्छन्ति कुर्वन्तो ऽपि महादरम् || १८१६ ।। स्वकीया देहिनो sea देहार्थस्वजनादयः ॥ स्वीकृताः संभ्रमेणापि न कदाचिद्भवान्तरे ।। १८१७ ॥ विजयोदया- गीगा अस्था बंधवो धनं शरीरादिकाश्च परिग्रहाः कस्यचिदपि संबंधिनो न यांति परलोकं प्रति प्रस्थितं । यद्यपि सुद्ध काम्यते परिषदाः । गृहीत्वा तान्यवि नामास्य गंतुमुत्कंठा तथापि ते नानुगच्छत्येक एच यातीत्ये कत्व भावना ॥ भूपरिग्रहाः परलोके सहगसारः पृष्ठतारस्तु भविष्यन्ति इति व्यामोहव्यपोहनार्थमाह---- आश्वासः 67 १५७२ Page #1586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूताराधना 7463 मूला - अजेता अत्रेतारः । परलोके गच्छतः कस्यचित्पश्रागामिनो न किने कायेत इत्यर्थः । भवतस्त्विथः । दायजात अर्थ-बांधव, धन, शरीर, पुत्र, स्त्री, वगैरह सम्बन्त्रीजन परलोक यात्रा करनेवाले प्राणी के साथ आते नहीं है- सुन्दर परिग्रहों पर इस जीवका समस्य रहता है और परलोकमें भी इनको ले जानेकी उत्कण्ठा उसके मन में उत्पन्न होती हैं परन्तु वे उसके साथ नहीं जाते हैं अर्थात् यह मोही जीव भी उनको ले जानेका सामर्थ्य अपने में नहीं रख सकता है. ऐसी एकत्वभावना भानी चाहिए. लोगबंधवा ते नियया पण परस्स होंति लोगस्स । तह चैव धणं देहो संगा सयणासणादीयं || १७५१ ॥ स्वकीयं परकीयं न विद्यते भुवनत्रये ॥ नैकस्यादाट्यमानस्य परमाणोरिवांशिनः ।। १८१८ ।। विजयोदया--रडलोगबंधवा स्मिसेच जन्मनि बांधवाः । परस्स लोगस्स ण णीयया होंति अन्यस्य जन्मनो नवंधवो भवंति । तह व बांधवाश्व धनं देहो संगा यणासणादी य धनं शरीरं शयनासनादयश्च परिश्रद्दा इव लोके एव न परजन्मनि उपकारका भवंति । एवं हि ते बांधवाः परिग्रहाच लढाया इति ग्रहीतुं शक्यते यद्यनपायितया उपकारिणः स्युः । इह जन्मन्येव ये प्रयति ते परलोकं गच्छतमनुसरतीति का प्रत्याशा || मूलारा-वध क्षेत्र बांधत्रा इवैविनादयोऽपि नामुत्रोपकारकाः स्युरित्वर्थः ॥ अर्थ-लोकमें अपने हैं इहलोकसम्बन्धी ही है. परलोकमें अर्थात् अन्यजन्म में वे अपने नहीं माने जाते हैं. इनके समान धन, शरीर, परिग्रह - शयनामनादिक परिग्रह भी हह लोफक ही समझाए परलोक में इनसे सहाय होगा ऐसा संकल्प मनसे हटाना चाहिए. इसलिए बांधव और परिग्रह सहायक नहीं है ऐसा समझना चाहिए. इस जन्ममें भी इस प्राणीका सम्बन्ध में बांधवादिक छोड़ देते हैं ऐना अनुभव आता है तो परलोक में जीत्र के साथ ये आयेंगे ऐसी आशा रखना क्या अज्ञानताका खेल नहीं है आश्वासः ७ १५.७२ Page #1587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भावास Mero यघेते यांधवादयो न सहायाः कस्तई सहाय इस्याकायामाच जो पुण धम्मो जीवेण कदो सम्मत्तचरणसुदमइओ ॥ सो परलोए जीवस्स होइ गुणकारकसहाओ ।।१७५२ ॥ 'मांतर समं गत्या धर्मो रत्नत्रयात्मकः ।। उपकारं परं नित्यं पितय कुरुते निनः ॥ १८१९ ॥ विजयोदया-जो पुण यः पुनः । जीवण कहो धम्मो जायेन रुतो धर्मः,सम्मत्तचरणसुनमइगो रत्नत्रयरूपो दुर्गति प्रस्थित जी धारयति घने या शुभे स्थान इति रत्नत्रयं धर्म इत्युच्यते । सो सः व्यावस्तिो धर्मः। जीवस्स जीवस्य । परलोगे परजन्मनि । गुणकारका सहायो भवति ॥ अभ्युदयनियससुखप्रदानात् ॥ तथा चोक्तं दत्वा द्यावापृथिव्योर्वरधिषपति वीतभीशुग्विषार्थ, कृस्वा लोकत्रयदर्य मुरनरपतिभिः प्राप्य पूजा विशिष्टयं ॥ मृत्युख्याधिप्रसूतिप्रिय त्रिगमोगशीकाही मोक्ष नित्योरुसौरुष क्षिानि निरूपम यस्स मोऽव्यामुधर्म इति । ननु असहायस्वभावगाधिकार सदायनिरूपणका कथमुपयुज्यते ॥ नैप दोपः यो यन जनुना सहायत्वेनाध्यवसितो यांधयादिरसा सहायो न भवतीति न तनादरः कार्यः । सम्यक्त्यज्ञानचागितात्मकस्तु धर्मः । धर्मोपि जीवपरिणाम उपफारि सहाय रति । नयादगे जम्बत सूरिणा | अतिशयितधर्मास्थसहायनिरूपणेन शातिधनादीनां तथाभूतसहायता समर्थता भविष्यति । अघोच्यते । सम्यवादयः शुभपरिणामाः प्रशस्लगतिजातिगोत्रसंघातसहननायुःसवद्यादिकमात्मनि निधाय नश्यनि तेन देवो या नरः पंचेद्रियः पर्याप्तकः कुलीनः शुभनीरोगशरीरश्चिरजीची मुखी भविष्यति ॥ धर्मानुधिनः पुण्यस्योदयात् ।। दीक्षाभिमुखा बुग्धिनिरतिचाररत्नत्रयसंपत्ति भविष्यतीति संभक्त्युपकारसहायता धर्मस्य । मनु च मानपूर्वकत्वाच्चरणस्य सम्मत्तचरणसुदमागो इति कथमुपन्वस्त ? अथमभिप्रायः सत्यपि श्भुत ज्ञाने असंयतसम्यग्हशरिप्राभावान महत्या संवरनिजरे मुख्यगुण सचसः । तस्मान्मुख्याधिनचारित्र प्रधान, किंच तनानमुपायश्चारित्रमुपेयं अतः परार्धत्याज्ञान प्रधान उपयत्वाचारप प्रधान मिति। जो पुण धम्मो जीवेण कदो इत्यनेन धर्मस्प सर्वथा निस्यत्वं प्रतिषियं फलवैचित्र्यमनुभवसिद्ध, सर्यदैकरूपत्यं धर्मस्य विरुध्यते । सुखसाधनानां स्त्रीवलगंध माल्यादीनां वैचिड्यात् । तत्कार्यसुखस्यापि वैश्यरूप्यं नित्यत्षेपि धर्मस्य घटयेदिति चेत् अत्रोच्यते ॥ अतिशयितानतिशयितसुस्थसाधनता तस्य धर्महेतुना न चेत्यत्र विकल्पद्धये धर्मदेतुत्याभ्युपगमे कथं न वैविध्य धर्मस्य । अथ न धर्मों हेतुः सतुसामाभ्यायत्तसुखसाधनानां सातिशयनिरतिशयतदायत्तः फलविभाग इति । धर्मस्थानर्थक्यमापद्यते ॥ ततो न धर्मस्य सर्वथा निस्यता॥ कस्तहि प्रेत्योपकारीत्यत्रा-- मूलारा-गुणकारयसहाओ अभ्युदयनिःश्रेयसप्रदानादुपकारः सहगामी। उर्फ 4-. १५७४ Page #1588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूलाराधना १५७५ दयावापृथिव्योर्वरविषयरति वीतभीविषादां ॥ कृत्वा लोकत्रयां सुरनरपतिभिः प्राप्य पूजां विशिष्टाम् || मृत्युल्याधिप्रसूविप्रियविगम जरारोगशोकप्रहीणे ॥ मोक्षे नित्योरुसौख्ये पिति निरुपमे यः सो नोडव्यात्सुवर्सः ॥ बांधवादयोत्रामुत्र परमार्थेनोपकारक सहाया न स्युरिति तेषु न मनागप्यादरः कार्यः । धर्मे तु तद्विलक्षणत्वादभीक्षणमादरवता भवितव्यमित्युपदेशेनासहायवत्प्रकरणेऽपि धर्मस्योपकारक सहायतोतिरूपयोगिनी । नतु चारित्रप्रधानस्य धर्मस्य प्रेत्यलहायत्वाभावात्सहायतानुपपन्नेति न शक्यं धर्मानुबन्धितदनुरागजन्यसुकृतसम्भारस्य निःश्रेयसाचसाना भ्युदयसाधकतमस्योपकारक सश्य भावसम्भवाविरोधात् ॥ अर्थ — सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र और सम्यग्ज्ञान रूप अर्थात् रत्नत्रयरूप धर्म जो इस जीवने धारण किया था वही पर लोक में इसका कल्याण करनेवाला सहायक होता है. यह रत्नत्रयात्मक धर्म दुर्गतिके तरफ जानेवा ले जीवको धारण करता है अर्थात् शुभ इंद्रादिपदोंमें स्थापन करता है. इसलिये इस रत्नत्रयको धर्म यह अन्वर्थ नाम प्राप्त हुआ हैं. यह जीव इस जीवको परलोकमें कल्याण करनेवाला मित्र है क्योंकि यह अभ्युदयसुख और मोक्षसुखको देनेवाला है. आम इस धर्म के विषय में ऐसा कहा है भय, शोक और खिन्नताको दूर कर यह धर्म जीवको इस भूतलके और स्वर्गक सौख्याको अर्पण करता है. लोकत्रयके ऐश्वर्य देकर यह धर्म देवेंद्र और राजेंद्रों के द्वारा जीवको पूजित करता है. यह जीव धर्म के प्रसादसे मृत्यु, रोग. इष्ट पदार्थोंका वियोग, वृद्धावस्था, शोक इत्यादिक आपत्तियोंसे रहित होता है. और नित्य, उपमारहित और महान् सौख्य जिसमें हैं ऐसे मोक्षकी भी प्राप्ति कर लेता है. ऐसा अपूर्व हितकारक वर्म अर्थात् रत्नत्रयात्मक धर्म हमारा नित्य रक्षण करे. -- शङ्का --- असहायत्व भावनाके प्रकरण में सहायका निरूपण करना कैसा योग्य दीखता है ? उत्तर- इस जंतुने जिन बांधत्रोंको सहायक समझकर रक्खा है ये वास्तवतथा सहायक नहीं है इसलिये उनमें आदर नहीं करना चाहिये और सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्रात्मक धर्म में आदर करना चाहिये क्योंकि यह आश्वासः ७ १५७५ Page #1589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा जीवपरिणाम हैं और उपकारक अर्थात् सहायक हैं. इस धर्ममें आचार्य आदर उत्पन्न करते हैं. धर्म ही सबसे उत्कृष्ट सहायक है, जाति, धन वगेरह पदार्थोंसें ऐसी उस्कृष्ट सहायता कमीभी नहीं मिलती है और न मिलगी. इसलिये प्रकृत असहायताकाही यह वर्णन हुआ. सम्यक्त्वादिक शुभपरिणाम उत्तमगति, जाति, गोत्र. गंधात, संहनन, आयुष्य, सातावेदनीयादि शुभकर्म इत्यादिक उत्तम सामग्राको देकर नष्ट हो जाते हैं. इन परिणामोंसे देवपना, मनुष्यपना, पंचेंद्रियपूर्णता, पर्याप्तक, अवस्था, कुलीनपणा, शुभ और नीरोगशरीर. दोघजीनित्व और सुखारस्था प्राप्त होती हैं क्योंकि इन परिणामोंसे पुपयका उदय होता है. इन परिणामांसे दीक्षा लेने के लिये आत्मा तयार होता है, और निरतिचार रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है, इमलिये धर्मसे उपकाररूप सहायता प्राप्त होती है. शंका -- परित्र ज्ञान पूर्वक होता है परंतु गाथाम सम्मनधरणसुदममा एमा उलटा क्यों कहा है अर्थात् चारित्रपूर्वक शान होना है श्य- उस ?... उत्तर इस उल्लेख का अभिमाय ऐसा है—गम्यग्ज्ञान होनेपर भी असंयत मम्यग्दृष्टिको चारित्रका अभाव रहता इ इसलिथे चाम्बिकं विना महान् संघर और निर्जराभी मुख्यगुण नहीं माने जात है. इस लिये पुख्यनाका अभिप्राय लकर चारित्रको प्रधानता दी गई है. आर इस विषयमें एसी युक्ति है--सम्यग्ज्ञान उपाय है और शारित उपर है. परार्थ की दृष्टिम सम्प्रज्ञान प्रधान है अर्थात कारण की दृष्टिय ज्ञान प्रधान ई परंतु चारित्र माप्य है इस प्टिसे मुख्य है.. 'जो पुण धम्मो जीवण कदा' इस वाक्यम धर्म सर्वथा नित्य है इस कल्पना का परिहार हुआ. क्योंकि धर्माचरणसे प्राणिऑको जो विविध सुखादि फलों का अनुभव आजाता है इसलिए धमका मचंदा एक स्त्ररूप नहीं है. अर्थात रत्नत्रय रूप परिणाम जिनको धर्म संज्ञा आचार्योने दी है उनमें तरतमता हानस उनसे प्राप्त हुए सुखादि फलामें भी तरतमता अवश्य अनुभव में आती है. सुखके साधक स्त्री, वस्त्र, गन्ध, पुष्पमालादिक पदाधों में विविधता देखी जाती है इससे उसका कार्य जो सुख वह भी अनेक रूपका अनुभवमें आता है. धर्म नित्य मानने पर भी ऐसी विचित्रता हो सकेगी ऐसा कहना योग्य नहीं है. अतिशय सुखके साधक अथवा असाधन ये स्त्री गंधादिक पदार्थ होता है उसके लिए धर्म कारण है या नहीं. एस दो विकल्प यहां होते हैं. MOHTAS १५७६ Page #1590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना यदि धर्म कारण है ऐसा मानते हो तो धर्म की विचित्रता अर्थात नानाविधता है ऐसा मानना होगा. यदि धर्म उसका हेतु नहीं है तो सामान्यकारणोंके आधीनता से सुखके साधनोंमें निरतिशय और सातिशय ऐसा फल विभाग नहीं हो सकता है. अत एव धर्म ही कारण मानना चाहिये. नहीं तो धर्म की व्यर्थता होती है. इस वास्ते धर्म को सर्वथा नित्य मानना योग्य नहीं हैं. शरीरद्रविणादीनां असहायताभावनां तद्गोचरानुरागनिवर्सनमुनेन स्थिरयत्युत्तरगाथा बरस बंधणे व ण रागो देहम्मि होइ णाणिस्स ॥ विससरिसेसु ण रागो अत्थेसु महाभयेसु ता ॥ १७५३ ॥ भोग रोग धनं शल्य गेहं गुप्तिः स्त्रियो यथा। बंधुं च मन्यते बंध साधुरकत्वचासित ।।। १८२० ।। पदस्थ बंधननेव रागो यस्य न विग्रहे ।। स करोत्यादरं साधुःकिमर्थे ऽनकारिणि ।। १८२१ ।। बंधनतुल्यं चरणसहायं पश्यति गात्रं मथितकषायः ॥ यो मुनिवयों जनधनसंगे तस्य न रागःकृतहितभंग ॥ १८२२ ॥ इति एकत्वम् । विजयोदया-बद्धस्स बंधणेष ण रागो रज्जुनलाभिवस्य बंधनीयासाधकतमे ज्यादौ तुःखदेती यथा न रागः। तथा देवम्मि होदि गाणिस्म सुखदुःस्वसाधन विवेकास्य दुःखहेतायसारेऽस्थिरेऽशुचिनि काये न रागो भवति । गुणपक्षपातिनो हिमामा । बिससरिसेसु पिक्सशेष्वपि रागो गाणिस्स ज्ञानिनो नैव रागः । केषु? अत्धेसु सम्वेसु ॥ कथमर्थानां विषसाशतेति चेत् । यधा विर्ष दुःखवाय प्राणाधियोजयति तथाधान्यर्जमरक्षणादिषु व्यापृतं दुःखन योजयति, प्राणानां च विनाशे निमित्तं भवति । तथाहि । प्राणिनोऽधि एव परस्परं प्रघाते प्रयतते अतएव महाभयहेतुत्वान्महाभयतार्थानां सूत्रकारेणोक्ता । अत्थेसु महाभयेसु इति यद्धि यस्यानुपकारि तस्य तस्मिन्न विवेकिनः सहाय बुद्धिय था विपर्कटकादी, अपकारि शरीरविणादिकमिति पुनः पुनरभ्यस्यतो नेतरः सहायोऽयमिति चिंताप्रबंधः प्रवतेते ॥ १५७७ Page #1591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भलाराधना অাঘাত तनुभमायनुरागनिवारणद्वारेण लब सहायनान्मात्रयितुगाह ---- मूलारा- बन्धणे रज्जुशंग्वलादौ । ग रागी न प्रीतिः दुःखहेतुत्वात् । गाणिस्त सुखदुःखसावविवेकज्ञस्य । विससरिसेट दुखश्त्वात्प्राणप्रशियाच वडकल्पेषु । महमा विषपकारकतमत्वादतिभयं करे५ । यदि यस्यानु. पकारि तत्र तस्य न विवेकिन सहायबुद्धिर्यथा विपकंटकादि । अपकार च शरीरदक्षिणापिकमिति पुनः पुनरस्य पश्यती यतेरसहायोइ मिति चिंता का प्रवर्तके काम कालानु ता" अर्थ---रज्जु अथवा शंखलासे बद्ध हुआ पुरुष बंधनक्रिया करने में साधकतम ऐसी रज्जु-दोरी और लोह की सांखल में प्रेम नहीं करता है वसे सुखदुःख के साधनोंका विवेकज्ञान जिनको है ऐसे पुरुष शरीर में स्नेह नहीं रखते है. यह शरीर, निःसार, अस्थिर, अपवित्र है ऐसा समझकर वे इससे विरक्त होते है. क्योंकि वे | गुणोंके पक्षपाती हैं. ज्ञानी पुरुप विषके समान दुःखद ऐसे धनोंमें राग भाव नहीं रखते हैं. विषके सदृश धन दुःख दायक क्यों हैं इसका उत्तर ऐसा है-विष दुःख देता है और माषाका नाश करता है वैसे धन भी कमाना, रक्षण करना इत्यादि कायॉमें तत्पर पुरुष को दुःख उत्पन्न करता है-यह धन प्राणों का भी नाश करनेमें निमित्त है. इस धनके लिये प्राणी परस्पर घातपात करनेमें प्रवृच होते हैं. इस लिये यह महाभयका कारण है. जो जिसका नाश-अपाय करता है उसमें उसकी-अर्थात् विवेकी पुरुषकी सहायता बुद्धि उत्पन्न नहीं होती है. विपकंटकादिकॉमें जैसे लोक ये मेरे उपकारक है ऐसा नहीं समझते हैं वैसे शरीर, धनादिक पदार्थ भी अपकारी हैं ऐसे विवेकी जन समझंत हैं. और बारबार इसी विषयका आभ्यास कर यति मैं असहाय हूं ऐसी चिता करते हैं. एकत्वानुप्रक्षाका वर्णन समाप्त. अन्यन्बभावननिरूपणार्थमुत्तर प्रबंधः ॥ एकत्त किहदा जीवो अपणो अण्णं सोयदि हु दुखियं णीयं ।। ण य बहुदुरखपुरक्कडमप्पाणं सोयदि अबुद्धी ।। १७.४॥ दुखव्याकुलितं रष्ट्या किमन्योऽन्येन शोच्यते ॥ किं नात्मा शोग्यसे जन्ममृत्यूवुःखपुरस्कृतः ॥ १८२३ ॥ विजयोदया-फिद्दा अपणो जीयो अण्णं भीग किरदात्तोयदिति पदघटना । भन्यो जीयो नीगं स्वस्मादन्य माम १५७८ Page #1592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वास शातिवम । दुक्खि दुःखेनाभिभूतं, कथं तापस्छोयति । ण य सोचदि नेत्र शोचते ॥ कं अत्ताणं मात्मानं कीवरभूत बहुदुक्खपुरफई शारीरैरागंतुकः, मानसैः, स्वाभाविकैश्च बहुमि :वैः पुरस्कृतं अबुद्धिमापतिते काले चतसषु गतिषु वि. चित्रासचिोदयात् ब्यक्षत्रकालभाचसहकारिकारणसानिध्यापेक्षयानुपरतमापदः प्राप्ताः पुनरप्यागमिष्यति मां खलीकत्त । न हि कारणाभ्यासस्थितसहकारिप्रत्यये सति कार्यस्यानुद्भवो नामास्ति, यो यद्वापि नासादयेवुदयं स कथमिव तदनुका, यथा सत्यापि परवीजेऽनुपजायमानदचूतांकुरस्तथा सत्यसद्वद्योदये यदि न स्युःखादीन्यसद्यकारणा. -नि न स्युन भवति च तस्मादात्मप्रदेशाचस्थितस्य दुःखधीजस्य केनोपायनापायो मविष्यतीत्यक्तबुद्धिः तथा अबुद्धिः । पतदुक्तं भवति परस्य दुःख आत्मन पच दुःखमिति मत्वा शोकमयमुपैति तद्विनाशे च सततं प्रयत्नं च करोति तथा च प्रवर्तमानस्य स्वदुःसस्य निवृत्तये न प्रारंभोऽस्ति ततोयं दुःखं भोज भोज पर्यटति न च परो दुःखात्रातुं शक्यते तन हि संचितानि कर्माणि कथे फलं न प्रयच्छति ॥ न हि परस्प शोकः फलदायिनां कर्मणां प्रतिबंधकः, तथा चाभ्यधायि ॥ प्रीति पूर्व कृतं कर्म मनोधाक्कायकर्मभिः । न निवारयितुं शक संइतषिौरपि । इति तेमान्यवुःखापेक्षः शोकोऽस्य व्यर्थः ।। अम्पशनेन च स्वदःखात्यक्त्वं परदुःखस्योच्यते । अन्यत्र परतुःस्वागतस्यानुप्रेक्षणमन्यत्वामुप्रेक्षा एव परदुःखस्यान्यतामरे प्रेक्षमाणः परदुःखस्योपहनन कर्तुं न शक्यत इति म शोचति, स्वासोन्मूलने प्रयतत इति भावोऽस्य सूरेः॥ धयं ध्ययता प्रापयितुं अन्यत्वं श्रयोदशगाथामियाच माणः स्वदुःखात्परदुःखमन्यवित्यबुद्धिः कथमन्य दुःखात शोचतीति सखदानमिदमाह मूलारा—णीयं निजं ज्ञातिवर्ग। पुरको पुरस्कृतं । भावविचित्रदुर्गतिदुःखबीजस्यासदेयादेवात्मनि अवस्थितत्वात् । अबुद्धी आत्मस्थदुःखबीजापायोपायचिंताशून्यत्वादनिवार्यपरदुःखशोचनानुचरणाच्चाबुद्धिः । एतदुक्तं भवति--परस्य दुःखमात्मन एव मन्यमानः शोकमयमझो जनो याति । तदुच्छेदे च मिस प्रयतते । तथा चास्य न स्वदुःखो. पछेदाय प्रयत्नः स्यान् । सतोऽयं दुःखं भोज भोजे संसरति । न च परो दुःखामातुं शक्यते । न हि परस्य शोचनं तहःखफलं तत्कर्मणां प्रतिबंधकं । तथा चाभ्यधाथि---- प्रीतिपूर्व कुन कर्म मनोवाकायकर्मभिः ।। न नियारयितु शक्यं संहतत्रिदरपि ।। एवं परदुःखस्य मदुःखादन्यनामनुप्रेक्षमाणः परत निराकतुं न शक्यने । इनि न शोचति परगं । दुःख वा उत्तं यत्तत इत्यभिप्रायः ।। अर्थ-अपने संबंधी जनोंको दुःखस पीडित देखकर यह अयुद्धि मनुष्य दुःख करता है शोक करने 181 लगता है. शोक करना उसके लिय अयोग्य है. क्योंकि वह स्वयं अनेक दुःखांसे पीडित हुआ है, अर्थात् अपना stone Page #1593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आत्रामा RTOOG दुःख दूर करने में असमर्थ जन दूसरों का दुःख दूर करने में कैसा समर्थ होगा शारीरिक, मानसिक और स्वाभाविक दुःखों से पीडित होकर वह अपने को सुखी समझ रहा है अन एवं स्वयं अज्ञानी है चारो गतिओं में नाना प्रकारके असाता वेदनीय कर्म के उदयस और ट्रच्ध, क्षेत्र, काल, भाव रूप सहकारी कारणों की सहाय्यतासे अनेक आपनियां मेरे उपर आई हुई थी और भविष्यकालमें आवंगी, मेरे को दुःखित करेंगी इसको वह स्वयं नहीं जानता है, उपादान कारणों को सहकारी कारणाकी मदत होनेपर अवश्य कार्य होता है. जो जिसक होनेपरमी उत्पन्न नहीं होता है वह उसका कैसा कार्य माना जायगा! जैसे मानका भीज होने पर भी आम्रवृक्षका अंकुर उत्पन्न नहीं होता है क्यों कि वह यवनीजका कार्य नहीं है वैसा यदि असता वेदनीय कर्म का उदय हानेर भसुख, शोक, सामाक्षिक कार्य नहीं होंगे तो असता वेदनीय कर्म उदयका कारण नहीं है ऐसा मानना पड़ेगा. परंतु दुःखादिक उत्तम होते है. इससे असावा वेदनीय कर्म उनका उपादान कारण है ऐसा सिद्ध होता है. इसलिए आत्मप्रदेशोंमें ठहरा हुआ, दुःखका कारणभूत असातावदनाय कर्म किस उपायसे नष्ट होगा इसका ज्ञान इस जीवको नहीं है. इसलिए इसको अज्ञानी कहा है. यह जीव अन्यके दुखों को अपने ही समझकर शोकको प्राप्त होता है और उसका नाश करनेका प्रयत्न सतत करता है. ऐसी प्रवृत्ति करनेवाला यह अज्ञानी पर दुःख दूर करने के लिए प्रवृत्त होता है. परंतु स्वदुःख र करनेका प्रयत्न नहीं करता है जिससे संसारमें पार बार दुःख भोगता हुआ भ्रमण करता है. परंतु उससे दूसरा पुरुष दुःखाँसे रहित नहीं किया जा सकता है. जिसने जो फर्म उपार्जित किए हैं वे उसको फल देते ही हैं शोक करनेपर क्या फल देने वाले कर्म रुक सकते हैं ? अर्थात् शोक करने से स्वजनोंको दुःख देनेवाला कर्म कोई दूर नहीं कर सकते हैं. आगममें इस विषय में ऐसा प्रीतिपूर्वक मन वचन और कायके द्वारा जो प्राणिओने कर्मोपार्जन किया है उसके फलको सर्व देव एक्रडे होकर भी दूर नहीं कर सकते हैं. इसलिये दूसरोंका दुःख देखकर शोक करना व्यर्थ है. अपने दुःखसे परकीय दुःख भिन्न है. ऐसा विचार करनेवाला जवि दुसरोंका दुःख दूर करना अशक्य है ऐसा समझकर शोक नहीं करता है. और अपने दुःखाको दूर करनेका प्रयत्न करता है ऐसा अभिप्राय आचार्य ने व्यक्त किया है. १५.० Page #1594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध मूलाराधना १५८१ संघस्य जीवराशेरात्मनोऽन्यत्सम्यैवानरेक्षणमा टेलि का पनागरगाथा संसारम्मि अणंते सगेण कम्मेण हीरमाणाणं ।। को कस्स होइ सयणो सजइ भोहा जणम्मि जणो ॥ १७५५ ॥ ससारे भ्रममाणानामनं कर्मणादिनः ॥ कः कस्यास्ति निजो मूढः सज्जतेऽत्र जने जने ॥ १८२४ ॥ विजयोदया-संसारमि अणते अंतातीते पंचविधे संसारे परिवर्तने | सोय कम्मेण आत्मीयमिध्यदर्शनादि परिणामोत्पादितकर्मपर्यायेण पुदलस्कंधेन हीरमाणाणं आकृष्यमाणानां बहुविधो गति प्रति । को कस्स होटि सयणो नैव कश्चित् कस्यचित्स्वजनो नाम प्रतिनियतोऽस्ति ! युज्यत्तय विवेक स्वजनोऽयं परजनोऽयमिति । यदि यो यस्य स्वज़नवनाभिमतरस तस्यैव खजनः सर्वदा भयेत् । परजनो या स्थजनता नोपेयात्न चायमस्ति प्रतिनियमः स्वकर्म परतंत्राणामतो न कश्चित् स्वो जनः परो वा ममास्ति ।सों जीवराशिमिथ्यात्वादिगुणविकल्पोपनीतनानापोऽन्य पयेति नव्यवसायमा शनिदेव दया प्रीतिर्या कचिनिर्दयता द्वेषोऽसमानतारूपो न प्रादुर्भवति ॥ ततो विरागद्वेषस्य चारित्रमयिक्रध गति ! सजदि जणमि जणो भासक्ति करोति जने जनोममाय भ्राता पिता पुत्रो भागिनेयो दास स्वामीति वा मोहावस्तुतत्वस्य अन्यतामात्ररूपस्य निरस्तस्वजनस्पस्य परिक्षानात् ॥ न कश्चित्कस्यापि स्वो जनः परो वास्तीति सर्वेभ्य:पृथक्त्वं भावयितुमाह मूलारा-हीरमाणार्ण त तां गति नीयमानानां । को इत्यादि । यदि हि यो यस्य स्वअनत्वेनाभिमतः । स तस्य स्वजन एच स्यारसा । परत्वेनाभिमतो षा कदाचिदपि स्वाजन्य गच्छेत् तदा स्वजनोऽय परजनोऽयं इति नियमो युज्येत । नैषोऽस्ति, स्वस्वकर्मपरतंत्रत्यासर्वेषां तर्हि कुतस्थोऽयं स्वपरषिमाध इत्यत्राह-सअदि ममार्य पुत्रो भ्रातेत्यादि तथा प्रीतिविषयतया शत्रुरपर्णवादीत्यादिनियत्वद्वेषविषयतया वा आसक्ति अध्नाति । मोहो मत्तः। सर्वेऽप्यन्ये, सर्वेभ्यो पि वामन्य इति भेदहानाभावाम् । एवं प भावयतो यतेः स्वपरविभागबुद्धिव्यामादप्रादुर्भवद्रागद्वेषपरिणतेः सर्वत्र समताचरणचूडामणिः परिणमते । संपूर्ण जीवराशि अपनेसे भिन्न है ऐसा विचार करना ही अन्यत्वानुप्रेक्षा है ऐसा आगेकी गाथा, आचार्य कहते हैं अर्थ-पांच प्रकार के परिवर्तनोंसे युक्त इस अनंत संसार में मिथ्यादर्शन, अधिरति, वगैरह परिणामोंसे Page #1595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना १५८२ उत्पन्न हुए कर्मरूपी पुशल स्कंधोंसे बद्ध होकर यह जीव अनेक गतिओम भ्रमण करता है.इम लिये इस संसारमें कोई भी जीच किसी का नियमसे स्वजन है नहीं. यदि स्वजनसंबंध होता तो यह स्वजन है और यह परजन है ऐसा मानना योग्य होता. यदि जो जिसका स्वजन है वह उसका हमेशा ही स्वजन मानना पडेगा. जो परजन है वह कभी भी स्वजन नहीं होगा अतः यह नियमन नहीं है.सब जीव कमसे परतंत्र हो रहे हैं.अतःमेरा कोई स्वजन और परजन नहीं है.सर्व जीवसमुदाय मिथ्यात्वादि भिन्नभिन्न परिणामोंसे एक दूसरेसे मित्र ही है ऐसा विचार कर हे क्षएक तू किसी में प्रेम किसी में निर्दयता द्वेष ऐसी असमानता नहीं धारण करनी चाहिये. जब रागद्वेषरहित तू हो जायेगा तब निर्विकल्प चारित्रका धारक मनेगा. मोहसे यह मेरा भाई है, यह मेरा पिता है, पुत्र है मानजा है एसी कल्पना करके अन्धजनोपर आसक्ति करता है. मैं इनसे मिशहूँ और ये मेरेसे मिल हैं. ऐसा भेदशान नहीं होनेसे अन्य जनोंमें आसक्ति उप्त होती है, कारगर साकिसmes सव्वो वि जणो सयणो सव्वस्स वि आसि तीदकालम्मि । पंते य तहाकाले होधिदि सजशो जणास जणो ॥ १७४६ ॥ काले तीते ऽभवत्सर्वः सर्वस्यापि मिजो जमः॥ सथा कर्मानुभावेन भविष्यति भविष्यति ।। १८२५ ।। विजयोदया- सम्यो चि जणो सजणो निरयशेषो अंतुरनंतः स्वजनः । सञ्चस्स वि सर्वस्थापि प्राणभृतः। नीद कालंमि अतीत काले आसि आसीन् । पते य तथा काल भविष्यति तथा काले। होहिनि मरिष्यति । सजणो जगस्स जणो स्वजनो जनस्य जनः । एतदननाध्यायत ।। अतीत भविष्यति च काले सर्वस्य सर्वः स्वजन असीविष्यति चानतस्सर्वसाधारणात्ये स्वजनत्वस्य सति ममायं स्वजन इति मिथ्यासकल्पः । तेऽप्यम्ये ममाप्यन्यस्सस्य इत्येतदेष तत्वमित्य: म्यत्वस्य स्वपरविषयस्यानुप्रक्षणमन्यत्यानुप्रक्षा। सर्वः सर्वस्य स्वजन आसीत्कर्मवशाहविष्यति भवति चेति सर्वसाधारणे स्वजनत्वे सति ममैवायं स्वजन इत्येप संकल्पो मम स्यात् , ते मदन्ये तेभ्ययाहमन्य इति स्वपरविषयान्यत्वभावनार्थमाह मूलारा-जणो जन्तुः । सध्वम्स प्राणिन: ' तीद अतीताः । पते भविष्यति । Page #1596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ReRATE E R मुलाराधना आ १५८३ स्वजन और परजन इस विवेकका अभाव प्रकारांतरसे दिखाते है. ___अर्थ-इस जगत में जितने प्राणी है उनसे भूतकालमें मेरा बंधुत्वका संबंध था भविष्यकालमें भी इनसे | स्वजन संबंध रहेगा अर्थात् सर्वजन सर्वजनके पंधुथे और आगंभी अथीत भविष्य काल में भी रहेंग अर्थात स्वजनत्व संबंध सर्व जीवोके साथ सर्वजीवोका सामान्य रूपसे होनेपरभी यही मेरा स्वजन है और ये मेरेसे भिन्न है. ऐसा समझना भूलसे खाली नहीं है. इसलिये ये प्राणी मेरेसे भिन्न है और में इनसे भिन्न हूं ऐसा विचार करना अन्यत्यानुपेक्षा है. रति रति रुक्खे रुक्खे जह सउणयाण संगमणं ।। जादीए जादीए जणस्स तह संगमो होई ।। १७५७ ।। संगमोऽस्ति शकुंताना रात्री रात्री तरौ तरी ।। तथा तथा तनूभाजां जाती जाती भये भये ॥१८२६ ॥ विजयोदया-रति रसिं रात्री रायौ। रुपने रक्खे वृक्ष वृक्षे ।जह सउपायाण संगमणं यथा पक्षिा संगमनं । जावीप जादीप जन्मनि अम्मनि । जणस्स जनस्य । तहा तथा संगमो होवि संगमो भवति । यथा रात्रायाश्रयमंतरेण स्थातुमसमर्थाः पक्षिणो योग्यं वृक्षमन्विष्य ढीकते ॥ तद्वत्पापिनोपि निरवशेषगलिसायापदलस्कंधाः परित्यक्तमाकमश. रीराः शरीरांतरग्रहणार्थिनः शरीरब्रहणयोग्यवेश योनिसंहितमारकवति ॥ तत्र ययोः शुरुयोणितमयमाश्रितोऽशुचि तम तो पितराविति संकल्पयति । तथाभूतयारथ शुकशोणितयोरपासदेहा भ्रातर इति ॥ अन्ये नषभूताच स्वजनिनोतिसुलभाः। कांतारे पक्षियां निवासवृक्षा श्वेति भायः ॥ तदेव स्वजनाप्रतिनियतत्त्वं रष्टान्तेन स्पष्टयति ।। मूलारा-जादीप जन्मनि । अर्थ----प्रत्येक रात्री में प्रत्येक बक्षपर जैसे पक्षी आकर बैठते हैं. वैसे प्रत्येक जन्ममें प्राणिओंका संगम होता है, जैसे रात्री में आश्रयके पिना पक्षी ठहर नहीं सकते हैं इस लिय योग्य वृक्षको शोधकर उसका आश्रय लेते हैं. वैसे प्राणी भी संपूर्ण आयुष्य रूपी पुगलस्कंध नष्ट होने पर पूर्व शरीरका त्याग करते हैं. अन्य शरीरको धारण करने की इच्छा करते हुए शरीरग्रहणके योग्य प्रदेशकी जिसको योनि ऐसा नामान्तर है प्राप्त कर लेते हैं. यहां MATATAMAKERATASSISTANSAATSAEBARCOAST PART १५० Page #1597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना जिनके रक्त और वीर्यका आश्रय इम को मिला है उनको यह जीव मातापिता समझने लगता है. तथा जिन्होने उसके समान जिनके रक्तवीर्य का आश्रय लेकर जन्म धारण किया है व उसके भाई है इस प्रकारसे स्वजनता सुलम है, जैसे जंगलमें पक्षिओको रहने के लिये वृक्ष मुलभ है. POSTATUR पहिया उवासये जह तहिं तहिं अल्लियति ते य पुणो । छंडित्ता जति गरा तह णीयसमागमा सव्वे ॥ १७५८ ॥ अध्वनीमा इवैकत्र प्राप्य संग तमोऽगिनः॥ स्थान निजं निजं यन्ति हित्वा कर्मवीकता ॥ १८७॥ विजयोदया-पहिया पधिकाः। उपासये उपाश्रय कमिश्चित् । जब यथा । तहि तहि तस्मिस्तस्मिन् ग्रामनगरादौ । अल्लियंति अन्योन्य दोकते।तेय तेच संगता-पधिकाः। गुगो पक्षात्। उंद्वित्ता त्यक्त्वा। जति यांति स्वामिमतं देश । तथा। णीयसमार्गमा सधे तथा बंधुसमागमा सर्वेपि च ॥ पतेन पंधुसमागमस्थानित्यता व्याख्याता ॥ बंधूनां विघटनद्वारेणान्यत्वं भावयितुमाह मूलारा-उवासए बसेरकस्थाने । तहि प्रामनगगशुपतिपर्तिनि । अल्लियति अन्योन्यं दौकन्ते । तथ पथिकनरसंगमसमा बंधुसमागमा यद्यमी स्वतः पृथक् न स्युः कथं विघटते इत्यनित्यत्यानुप्रेक्षणम् ॥ अर्थ-जैसे किसी एक धर्मशाला में पथिक लोक आकर ठहरते है. तथा किसी ग्राम और नगरमें मिलकर भी जाते हैं पुनः वे पथिक नियुक्त होकर भी इधर उधर अपने इष्ट स्थान को जाते हैं. वैसा ही सर्व बंधुसमागम है. इस गाथासे बंधुसमागमकी अनित्यता स्पष्ट की गई है. घटनद्वारणामागमा सर्वपि च ॥ एतमी पक्षात् । छडित्ता त्याला हि तस्मिस्तरिम भिष्णपयडिम्मि लोए को कस्स सभावदो पिओ होज्ज ॥ कज पडि संबंध वालुयमुट्ठीव जगमिणमो ॥ १७५९ ।। नानाप्रकृतिक लोके कस्य कस्तत्त्वतः प्रियः ।। कार्यमुद्रिश्य संबंधो वालुकामुष्टिवज्जनः ।। १८२८ ।। १५० Page #1598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा १५८५ विजयोदया-भिषणपडिम्मि लोगे नानास्वभावे लोके । फस्स सभावदो पिलो होज्न का कस्य स्वभावेन प्रियो भवेत् । समानशीलतायां हि सख्यं भवति । न च सर्वबंधषः समानशीलाः कथं तर्हि तेषां वा स बांधषः । कज्जं पति संबंधो कार्यमेवोहिश्य संबंध नासति कार्येऽस्ति संबंधः ।यालुगमुट्ठीव वालुकामुएिरिव । जगमिणमो लोकोयं । यथा बालकानां भिन्नप्रकृतीनां वश्यमंतरेण न स्वाभाविक: संयंधो येम संगता मुष्टिमुपेयुः । उदकाविद्रव्योपनीय संगसिस्तासां, एवं कार्योपनीतैब संगतिः स्वजनानां ।। मा भदनुभवविरोधिमा तदात्मनो बंधुभिः संबन्धः। स्वाभाविकमादिभावेन भविष्यति इति मोहादमिनिविशमानमुद्बोधयति मूलारा-भिषणपडिम्मि नानास्वमाये । को इत्यादि समानशीलतायां हि सत्य । न च सर्वे बंधवः समानशीलाः कथं तहि तेषां संबंध इत्याह-कजं पद्धि कार्यमुद्दिश्य, स्वाभिमतसाध्यमपेक्ष्य । संबंधः प्रियत्वेन वृत्तिः । न चायं स्श्रेयान । यल्लोकः गते ते लोचने तात ये लो त्रिफलारसे ।। कार्यानुबंधे यत्प्रेम तविद्धि गतमेव हि ॥ तः कि स्थिमित्याह- जगमिणमो लोकोय। वाल कामुष्टिरिव । यथा बालका अद्रव्येणैव न स्वाभाविक मधेन मंगना: मन्यो मुशिगपंदतथा ज्ञागमः कार्यापेक्षयैव संचद्धा एकत्वं गच्युरिति भावः । एवं च भावयतः का. पिनीनमंगानबलप्रवृननादाम्यविभ्रमविभ्रंशा दन्यत्कान निधन धर्मध्यानाय योग्यता ममुन्भीलति ॥ अर्थ – यह जग नाना स्वभावात्मक है. इसलिय कोन प्राणी स्वभावतः प्रिय है? समानशील प्राणीमही सख्य रहता है. परंतु सर्व बंधु समानशील-समान स्वभाववाले नहीं होने हैं. किस कार्यके वश होकर ही संबंध होता हैं, कार्य हो जानेपर संबंध नष्ट होता है. जैसे बालुके कण भिन्नभिन्न रहते है परंतु उनमें जलादि द्रवपदार्य का प्रवेश होनेपर वे कण अन्योन्य मिल जाते हैं अर्थात् स्वाभाविक संबंध उनमें नहीं है. उदकादि द्रव्यसे ही उनका परस्पर संबंध होता है. उसी प्रकार कार्यसही स्वजनोंके साथ संबंध है, BARMERAPATANAMATKAR तं च कार्यकृते संबंध स्पष्टयत्युत्तरगाथा माया पोसेइ सूर्य आधारो मे भबिस्सदि इमोति । पोसेवि सुदो मादं गम्भे धरिओ इमाएत्ति ॥ १७६० ॥ Page #1599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास SHATATWARANAMAHATARNAerinarayas माता पोषयते पुत्रमाधशरोऽयं भविष्यति ॥ मातरं पोषयत्यष गर्भेऽहं विधुतोऽनया ॥ १८२५ ।। बिजयोदया-माश पोसेनि समं माता मयति मतं आधारो मे भधिस्सदि इमोशि अयं ममाधारो भविष्यतीति । पासाद सुवो माद पोषयति सुता मातरं । गम्भे धारदो रमाएति गर्भ धारितोऽनयेति ॥ कार्यापेक्षमेव सम्बन्धं निर्दिशति-- मुलारा-इमाए त्ति अन्नया । मातरं पोषयतो मे कृतज्ञतातिशयादनुरक्तोऽन्योऽप्युपकाराय प्रवर्तिष्यत इति तदाऽपोषणे प यो मातुरपि न प्रत्युपकरोति स कथमम्यस्य कृतघ्नः प्रत्युपकरिष्यतीत्यपरवनु (१) सर्वोऽपि जनो मम विश्वसनवार्थेन प्रवर्तिष्यते कार्यापेक्षयैव पुत्रो मातरं पुष्णातीति मन्यते । इस संबंध को उदाहरणसे स्पष्ट करते हैं अर्थ-- माता यह मेरा लडका मेरा आधार होगा इस हेतुसे पुत्र का पोपण करती है. तथा इसने मेरेको गर्भ में नउ महिने तक धारण किया था ऐसा समझकर पुत्रभी माताका रक्षण करता है. अर्थात् कार्योद्देशसे स्वजन परजन यह विभाग होता है. उपकारसे मित्रता और अपकारसे शत्रुता होती है. उपकारापकारयोः प्रतिबंधात् शत्रुता मित्रता वेति कथयति होऊण अरी वि पुणी मित्तं उबकारकारणा होइ ।। पुत्तो वि खणेण अरी जायदि अवयारकरणेण ॥ १७६१ ॥ अमित्रं जायते मिन्नमपकारविधानतः ।। सनूजो जायते शत्रुरपकारविधानसः॥ १८३० ।। विजयोदया-होऊग अरी चि शधुरपि भूत्वा । पुणो पुनः। मित्तो होदि सुहृद्भवति स पवारि। कुतः एकारकरणा तुपकारकरणेन । पुत्तोविखणेण अरी जायदि पुरोपि क्षणेन शत्रुर्भवति, केन ? भपकारकरणेन, मिर्भर्सनताडनाद्यपकरण क्रियायाः ॥ यस्मादयं । मित्रत्ववच्छत्रुत्वस्याप्यौपाधिकत्वमेव बोधयतिमुलारा-अरी अपमानायपकारकरणादपकारकत्वेन शत्रुरपि भूत्वा । अत्र मार्य शत्रुरित्यपकार्यापकारकभावे T ETAKO ADANAREDI astakistenerstarATARATHARAT Page #1600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाराधना आश्चार POSTERSTICIRST R नेव ममायं पुत्र इस्युपकार्योपकारकभावेनापि संबंधस्थानवस्थितस्वात् शत्रुणव पुत्रेणापि न स्वाभाविक संबंधोऽस्तीति भाषनाद्वोरण अन्यत्त्वनिष्ठतावसीयते । इसका विवेचन अर्थ-जो शत्रु है वही उपकार करनसे मित्र बनता है. पुत्र भी एकक्षण में अपकार करनेसे शत्रु बनता | है. अर्थात् निर्भर्त्सना करना, ठोकना इत्यादि अपकारोंसे पुत्रं पिता का शत्रु बन जाता है. तमा ण कोई करसइ स्नगो व ज टि संसार कज्जै पडि हुति जगे णी याव अरीब जीवाणं ॥ १७६२ ॥ ने कोपि देहिनः शत्रुर्न मित्रं विद्यते ततः ॥ जायते कार्यमाश्रित्य शत्रुर्मिन विनिश्चितम् ।। १८३१ ।। विजयोदया सहा तस्मात् । णको कस्सा सयणोष जणो व अस्थि संसारे नेय कविरकस्यचिरस्वजनः परजनो विद्यते किज परि होदि भीगा ये अरीब अम कार्यमेवोपकारापकारलक्षणे प्रति वः मति । स्वभाषिक पंधुता शत्रुता धा जीवानामस्ति उपकारापकारक्रिययोरनवस्थितत्वात्सन्मूलोऽरिमित्रभाषीप्यमवस्थित रति नै रागची क्वचिदपि कायौँ। मत्तोऽन्ये सर्व पथ प्राणभृत इति कार्यान्यत्यानुप्रेक्षेति प्रस्तुताधिकारेणाभिसंबंधः।। यत एवम मूलारा-सयणो व जणो व स्वजनो या बंधुः । जनो वा सामात्परजनः । अथवा अवजणो अपकर्ता जन इति प्रायम् । कजं उपकारांपकारलक्षणं कार्य । एवं च बंधुत्वशत्रुत्वयोःअनवस्थितत्वाध्यवसायाद्रागद्वेषोपरमान्मसोऽन्ये सर्वेऽपि जन्मिन इत्यन्यत्वानुप्रेक्षयकाभिसंबंधः ॥ अर्थ--इसलिये इस संसारमें कोई किसीका स्वजन और परजन नहीं है. कार्य के वंश होकर स्वजन परजन व्यवहार दुनिया में चलता है, जिसके ऊपर हम उपकार करते हैं वह हमारा मित्र पनता है. और जिसके ऊपर हम अपकार करेंगे वही इमारा शत्रु होमा. स्वाभाविक बंधुता किसी में नहीं है. शत्रुता भी किसी के साथ स्वाभाविक नहीं रहती है. उपकार और अपकार पर शत्रुत्व और मित्रत्वका व्यवहार निर्भर है ऐसा समझकर किसी भी रागद्वेष नहीं करना चाहिये. सभी प्राणी मेरसे भिन्न हैं यह भावना हृदयमें सदैव धारण करनी चाहिये Re १५८७ Page #1601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५८८ शत्रुक्षणमात्रष्टे जो जस्स वद हिदे पुरिसो सो तस्स बंधवो होदि ॥ जो जस कुणदि अहिंद सो तस्स रिवुचि णायव्त्रो || १७६३ ॥ हितं करोति यो यस्य स मतस्तस्य बांधवः ॥ स तस्य भण्यते बैरी यो यस्याहितकारकः ॥ १८३२ ॥ विजयोश्या - जो जस्स वहदि हिंदे यो यस्य उपकारे वर्तते । पुरिसो पुरुषः । सो तस्स बंधयो होदि स तस्य धुर्भवति। जो जस्स कुदि अहिले यो यस्य करोत्यतिं । सो तस्स रिति णायव्य स तस्य रिपुरिति ज्ञातव्यः ॥ किरणेन समर्थयते- गूला हिंदे उपकारे || शत्रु और मित्रका लक्षण कहते हैं- अर्थ- जो मनुष्य जिसका हितकार्य करता है यह मनुष्य उसको अपना बंधु समझता है. जो जिसका अहित करता है उसको वह अपना शत्रु समझता है. अभिप्राय यह है कि. उपकार और अपकार पर क्रमले मित्रत्व और शत्रु अवलंबित है. लक्षणं बंधुषु दर्शयति- णीया करंति विग्धं मोक्खमुदयावहस्स धम्मस्त ॥ कार्रिति य अइबहुग असंजम तिब्वदुक्खकरं । १७६४ ॥ कुर्वन्ति बांधवा विनं धर्मस्य शिवदायिनः । ती दुःखकरं घोरं कारयन्त्यन्यसंयमम् ।। १८३३ ।। विजयोदया - णीया करनि विग्यं बंधत्रः कुर्वन्ति विघ्नं । फस्य ? धम्मस्स धर्मस्य, कीदृशः ? मोक्खभुद यावर निरवशेषदुःखकारिकर्मपायं सांसारिक्रमतिशययत् सुखं संपादयतो रत्नत्रयस्य । कारंति य कारयति च । किं ? असंयमं । हिंसामृतस्तेयादिकं, अविचहुगं अतीव महांतं । तिब्वदुक्खकरं दुःसहनरकादिदुः खोत्थापनोद्यतं । हितस्थ किरणाददिते च प्रवर्तनात् दर्शिता शत्रुता धूनामेतेन । अन्येषां बांधवाद्यभिमतानां शत्रुत्वेनानुप्रेक्षणं अन्यत्वानुप्रेक्षेति कथितं भवति ॥ आश्वास 6: १५८८ Page #1602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना RAREERTERATURE आश्वासा १५८९ बधूनां हितविघाताहितप्रवर्तनपरत्वेन शत्रुत्वावस्थपनादन्यस्वं भावयभाइमूलारा-असंजमं हिंसानृतस्तेयादिकं ।। बंधुभी वास्तविक शत्रु है ऐसा अभिप्राय अर्थ-- जिसका आचरण करने से संपूर्ण काँका नाश होकर आत्मा को मोक्षप्राप्ति होती है और संसारिक उत्कृष्ट सुख की-अर्थात् जामेन्द्र नुसत्री जिससे प्राति सी ऐसा समय धारण करने में बंधुगण विघ्न उपस्थित करते हैं. इतनाही नहीं परंतु हिंसा, असत्य, चोरी वगैरेह असंयमभी इस जीवसे वे कराने हैं. अति शय घोर, दुःस्सह नरकादि दुःखोंसे प्राणीका उद्धार करनेवाले धर्ममें ये बंधु विघ्न करते हैं और अहितमै प्रवृत्त करते हैं. इस लिये इन बंधुओंमें शत्रुता दीख पडती है. इस प्रकार बंधुओंक विषयमें विचार करना अन्यत्वानु प्रेक्षा है. aaraamanartRNAGATHE 8499999806/ इदानीमन्यशन्देन साधवो भण्यते तेषामुपकारकन्वरूपेणानुप्रक्षेति चेतसि त्या व्याचं णीया सत्तू पुरिसस्स हुंति जदिधम्मविपकरणेण ।। कारति य अतिबहुगं असंजमं तिब्बदुःखयरं ।। १७६५ ।। विजयोन्या-अन्येषां यतीनां येधुलो कथमनस्तुतायो अन्यत्वानुप्रेक्षायामुपयुज्यतेऽस्य । अन्य शब्दसे सत्पुरुषोंका ग्रहण होता है उनको उपकारक समझकर चिंतन करना यह भी अन्यत्यानुप्रेक्षा शब्दका अभिप्राय है. इसका खुलासा अर्थ-बंधुगण यतिधर्ममें चिन्न करनेमें प्रवृत्त होता है और नरकादि गतिओंमें तीन दुःख देनेवाला असंयम कराता है इस लिये बह ही पात्र है. और सत्पुरुष---- पुरिसस्स पुणो साधू उज्जोवं संजणंति जदिधम्मे ।। तध तिव्वदुक्खकरणं असंजमं परिहराति ॥ १७६६ ॥ Page #1603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PANIRUDDHA मृलाराधना बंधुरं साधयो धर्म वर्धयन्ति शरीरिणः । संसारकारणं निंचं त्याजयन्यप्यसंयमम् ॥ १८३४ ।। विजयोदया-पुरिसस्स पुरुषस्य। पुणो साधू पुनः साधयः । पुनः उजावं संजति उद्योग सस्यग्जनयंति || अदिधम्मे सरिंभपरिग्रहत्यागलक्षणे यतिधर्म, तध असंजर्म परिहराति तथा असंयम परिद्वारयति । कीडग्भूतं ? तिम्वदुक्खयरं तीव्राणां दुःखानामुत्पादकं ॥ एवं बंधूनामपकार फरूपेणान्पसमनुप्रेक्ष्य साधूनामुपकारकरूपेणाप्यन्यत्वमनुचितयति. मूलारा-उज्जमं उपमं । जदिधम्मे सर्वारंमपरिग्रहत्यागलाण मुनिम । परिहार्वेहि त्याजयति । अत्रओपकार्योपकारकभावदर्शनेनान्यत्वं वेद्यते। अर्थ-यति धर्ममें पुरुषको आतिशय दृचित्तवाला करते हैं तथा असंयमसे प्रयत्न पूर्वक हटाते हैं. सर्व आरंम और परिग्रहोंका जिसमें पूर्ण त्याग हो जाता है ऐसे मुनिमम तीव दुःख देनेवाले असंयमोंके त्यागम जीवको मुनिगण प्रवृत्त करते है अतः वे ही परमार्थसे द्वित करनेवाले बांधच है. -- - उपसंहरति प्रस्तुतमर्थ तथा हिते प्रर्धनादहिताविपर्तनात् ॥ तमा णीया पुरिसस्स हॉति साहू अणेयसुहहेदु ॥ संसारमदीणता णीया य णररस होति अरी ॥ १७६७ ॥ साधको बांधवास्तस्माईहिनः परमार्थतः। जातनः शवको रौद्रभवाम्भोधिनिपाततः ॥ १८३५ ।। शरीरावात्मनोऽन्यत्वं निशिस्लेव कोचतः । परवतं न ज्ञानन्ति मोहान्धतमसावृताः ॥ १८३६ ॥ अनादिनिधनो हानी कर्ता भोक्ता च कर्मणाम् ।। सर्वेषां देहिनां झेपो मतो वहस्ततोऽन्यथा ॥ १८३७ ।। १५९ FRAMERAama Page #1604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १५९१ पूर्वजन्मकृतकर्मनिर्मित पुत्रमित्रधनबांधवादिकम् ॥ न स्वकीयमखिलं शरीरिणा इति अन्यत्वं । विजयोदया--तह्मा तस्मात् । द्विते प्रवर्त्तनात् । मोगा पुरिसस बंधवः पुरुषस्य के ? साधू साधवः अगसुख देह इंद्रियानिद्रिय कलसुखहेतवः । संसारमदीर्णता संसारपानक दुःखसंकुलश्वतारयतः । णीया य णरस्स हाँनि अरी शत्रवो भवंति मनुष्यस्थ बंधवः । पतेन सूत्रेण अशं यतीनां बंधूनां मित्रत्वशत्रुत्वानुप्रक्षणं अन्यत्वानुप्रक्षेति कथ्यते । एवमनुप्रेक्षमाणस्य धर्मे तदुपदेशकारिणि च यतिजन महानादरो भवति । अभिमत सकलसुखमुपस्थापयतो धर्मस्य विध्वं भवति संपादयत्सु चतुर्गतिघटीयंत्रे दुःखभारे यारोहर नितरामादरो भवति ॥ अण्णत्तं ॥ वस्तुवृत्त्या यतीनां च गंधुत्वेनापि बंधूनां च शत्रुतयापि स्वस्मादन्यत्वं भावयितृव्यमन्यथा विभ्रमावेशादिष्टसिद्धि व्याघातो भवेदित्यन्यत्वानुप्रेक्षा सर्वस्वमुपदेष्टुमाइ मूळारा - अणेग ऐंद्रियिकमतीद्रियं च । अदीर्णता प्रवेशयंतः अन्यस्वानुप्रेक्षा ॥ अर्थ --- सत्पुरुष प्राणिओंको हितमार्ग में लगाते हैं इसलिए वे ही सच्चे बांधव हैं. ये सत्पुरुष ही जीवों को इंद्रिय सुख और अतींद्रिय सुखकी प्राप्ति होने में हेतु होते हैं, परंतु अपने जो बंधु हैं वे अनेक दुःखोंसे व्याप्त अपार संसार में डुबोते हैं इसलिए वे मनुष्य के शत्रु हैं. इस गाथासे अपने मित्र जो सत्पुरुष हैं वे बंधु और अपने मित्र संगण वास्तविक शत्रु हैं ऐसा विचार करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है ऐसा कहा गया है. इस प्रकार जो पुरुष विचार करता है उसके मनमें वर्म के विषयमें और उसका उपदेश करनेवाले सत्पुरुषों में महान आदरभाव उत्पन्न होता है. और बंधुओंमें अनादर होता है. क्योंकि वे इष्ट सुख देनेवाले धर्माचरण में बाधा लाते हैं. संसार वर्धक क्रियाओंमें जीवोंको लगाते हैं. चतुर्गतिरूप घटी यंत्र जो कि दुःखका भार है उसपर स्वयं उन्होंने आरोहण किया है. इस प्रकार अन्यत्वानुप्रेक्षाका वर्णन समाप्त हुआ । संसारानुप्रेक्षा कथ्यते प्रबंधन संरण । १८३८ ।। सिच्छत्तमोहिदमदी संसारमहाडबी तदोदीदि !! जिवयविप्पणट्टो महावीविप्पणी वा || १७६८ ॥ आश्वास 19 १५९१ Page #1605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलाराधना आश्वासः १५:२ मिथ्यात्वमोहितस्थान्तो भव भ्रमति दुर्गमे ।। मार्गभ्रष्ट हवारण्ये भवेभारिभपकरे ।। १८३९॥ विजयोदया-मिच्छत्तमोहिवमदी वस्तुयाथाम्याश्रद्धानं दर्शनमोहोदयज मिथ्यान्वं तेन मिथ्यान हेतुना मोहमुगमता मतिर्यस्यासौ संसारमहाडी संसारो महाटबी दुस्तरत्वादनेकदुःखस्वादहुत्वाद्विनाशयितुमुद्यनत्वासच तो संसारमहाटव । सदो नम्मात् मिथ्यात्वमूहमतित्वादतीति प्रविशति ।। ननु मिथ्यात्वासंयमकवाययोगाश्चत्वारोऽपि संसारस्य निमिसभूताः सूर्य किमुच्यते मिथ्यात्यमूहमतिः संसारमहाटवी प्रविशतीति । अत्रोच्यते--उपलक्षणं मिथ्यात्व ग्रहणं असंयमादीनां । जिणषयणधिप्पणटो ब्रभावकारातिमधात् जिनास्तेगं घनं जीयापर्धयाधाभ्यप्रकाशन पटु प्रत्यक्षादिममाणांतराविरोधिसतो विमनस्तापरिझानान् यत्सत्वाथद्धानं तन्निरूपितेन मार्गणानाचरणाच महाटपी प्रविशति । विष्णट्टो वा मार्गाविप्रनष्ट इच । संसारमविगम्म जीवपोतो भमदि संसारमहासमुदं प्रविश्य जीषयानपात्रं भ्रमति ॥ क्रीटरभून संसारमहोदधि । अHध्यानालंबनत्वेन संसारकारणस्वरूपपकारादिपरिकर गाथासप्तर्विशत्यानुपेक्षयिध्यन्नादौ संसारप्रवेशपर्यटने गाथाचतुष्टयेनानु चिंतयति-. __ मूलारा--मिकाछत्त अपलमणावसयमादिश्व । नदो मिथ्यात्वमोहितमलित्वात् । अदीदि प्रविशति । विपणट्रो तदर्थानप्रबोधाबद्धानाननुष्ठानाउिजनवचनादपसृतः ॥ विप्पणट्टो व मार्गमूढ इव ।। संसारानुप्रेक्षाका वर्णन विस्तारसे करते हैं अर्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके उदय से जीवादि पदाघोपर यथास्वरूप श्रद्धा जीव नहीं करता है. जीवके इस अश्रद्धारूप परिणामको मिथ्यात्व कहते हैं. इस मिथ्यात्व परिणामसे जिसकी बुद्धि मोहित हुई है ऐसा प्राणी दुस्तर, नाश करनेवाला अनेक दुःखोंसे परिपूर्ण और अपार ऐसे संसाररूपी जंगल में भ्रमण करता है. अर्थात् जैसे सच्चे मार्गस प्रष्ट हुआ पथिक भूल कर महावन में प्रवेश करता है और दिङ्मूढ होकर उसमें ही इतस्ततः भ्रमण करता है. वैसे जिनेश्वर के वचनोंका अभिप्राय न जाननेस जीवादिक पदार्थोके सत्य स्वरूप पर श्रद्धा न रखनेवाला और जिनेवरके दिखाए हुए मार्गसे जानेवाला ऐसा ग्राणी संसारयनमें भ्रमण करता है। ज्ञानावरणादि कमोंको द्रव्यकर्म कहते हैं और राग, द्वेष मोह, क्रोधादिक मनोविकारको भावकर्म | कहते हैं. जिसने इन दोनो कमौका अत्यंत नाश किया है ऐसे अईत्परमात्माको जिन कहते हैं. उनके मुखसे जो २२ Page #1606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वासा उपदेश निकलता है वह सत्य और हितकारक ही होता है. यह जीवादि पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप दिखाता है और प्रत्यक्षादि प्रमाणसे अबाधित है. परंतु ऐसे उपदेशका अनादर करनेवाला जीव मिध्यात्वी होकर अवश्य संसार भ्रमण करेगा ही. 'मिच्छत्तमोहिदमदी, ऐसा माथामें पद है. यहां मिथ्यात्व शब्द उपलक्षणात्मक है. इस शब्दसे असंयम, कषाय और योगोंका भी ग्रहण करना चाहिये. बहुतिव्वदुक्खसलिलं अणतकायप्पवेसपादालं ॥ चदुपरिचट्टावत्तं चदुगदिबहुपट्टणमणत ।। १७६९ ॥ अनेकवुःखपानीये नानायोनिभ्रमाकुले ॥ अनंतकायपाताले विचित्रगतिपत्तने ॥ १८४०॥ विजयोदया-बहुतिब्बदुक्यसलिल बहनि तीत्राणि दुःखानि सलिलानि यस्मिन्संसारमहोदधौ तं । अर्णतकायपवेसपादालं अनंतानां जीवानां कायः शरीरमर्नसकायस्तत्र प्रवेशास्ते पातालसंस्थानीया यस्य तं । अथवा न विद्यते अंतो निश्वयोऽस्यैव जीवस्येदं शरीरमिति यहूनां साधारणत्वात् यस्मिन् काये सोऽनंतः कायोऽस्य जीवस्येत्यचंतकायः । मन्तरेणापि भावप्रत्ययं भावप्रधानो निर्देशः । तेनायमथा अनंतकायत्वस्य प्रषेशः अनंतकायरोश- स प रिवतायतं चत्वारः व्यक्षेत्रकालंभावाख्याः परिचर्ताः आवर्मा यस्मिस्तं चयदिपहु पट्टणं चतम्रो गतयो बहुनि महांति पत्सनानि यस्मिस्तं । भणंत अनंते। मूलारा- अगंतत्यादि अनंतानां जीवानां कायस्तत्र प्रवेशाः पातालानि यस्य । चदुपरिषट्टावत्तं द्रव्यक्षेत्रकालभावपरिवर्तनजलभम ।। यह जीवरूपी नौका संसारसमुद्र में प्रवेश कर उसमें भ्रमण करती है आचार्य संसारसमुद्रका विस्तारसे वर्णन करते हैं अर्थ-संसारसमुद्र नानाविध दुःखरूपी पानीसे भरा हुआ है. अनंतजीवोंके जो शरीर उनमें मवेश करना ये ही यहाँ पाताल है.साधारण जीव अर्थात निगोदी जीवोंका जो निवासस्थान है वह ही इसमें पातालप्रदेश समझना चाहिये.साधारण जीवोंके शरीर को अनंतकाय कहते हैं.यह नाम अन्वर्थक है इसही जीवका यह शरीर है ऐसा निश्चय नहीं कर सकते हैं क्योंकि यह साधारण होनसे अनंत जीवांका आश्रयस्थान पड़ा है.अर्थात् एकही जीवका अथवा अमुक Page #1607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधा १५९४ Sant जीवका यह शरीर है ऐसा निश्चय नहीं होता है. द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परि परिवर्तन, काल परिवर्तन और भाषपरिवर्तनरूपी भोवरे इस संसारसमुद्र में हमेशा भ्रमण करते हैं. इस संसारसमुद्र में चार गतिरूपी बडे बडे द्वीप है, और यह समुद्र अनंत है. हिंसादिदोसमगरादिसावदं दुविहजीवबहुमच्छं ॥ जाइजरामरणोदयमणेयजादीसुदुम्मायं ॥ १७७० ॥ रागद्वेषमवक्रोधलोभमोहावियादास ॥ अनेकजातिकल्लोले सस्थावरबद्ध ।। १८४१ ॥ वियोव्या-हिंसादिवोसमगरविसावद हिसान्तस्म यात्रापरिग्रह हिंसादिदोषास्ते मकरादयः भ्यापवा यस्मिस्तं । दुविधजीवषमस्थं मिथिधाःस्थावर जगमीयकरपा जीया तिं द्विविधा जीपासते पाहयो मस्या पस्मिस्तं । जादिजरामरणोदयं जातिरभिनषशरीरमहणं, अरा नाम गृहीतस्य शरीरस्य तेजोवलादिमिरुनता, मरण शरीरादपगमः पतानि शातिजरामरणानि चदर्थ उद्गतिस्मिस्तं । अणेयजादीसुम्मीर्ग श्रमेकानि आसिशतानि ऊमयो यस्मिस्तं । एकद्विविधतुपेद्रियजातयः प्रत्येकमयांतरभेदापेक्षया पृथियोकायिका, अप्कार्यिकास्तेजस्कायिकषमस्पतिकायिका इति । एकेद्रियजतिरने का सिपाधिकल्पा पृथिवी। आपोऽपि हिमधिमानीकरकादिभेदभिमाः। अनिरपि प्रदीपोषमुकमर्थिरित्य नेकभेदः ॥ वायुरपि गुजामण्डलिकादिविकल्पः या वनस्पतयोपि तरुगुल्मबल्लीलतातणाविभेदास्ततो जातिशतानीत्युक्तं ॥ मूलारा-दुविधाजीचा स्थावरानसाश्च । जादि अभिनवशरीरहणं । उदचं जलं । जादीसद जातीनामेकेन्द्रियाविजातिभेदानां पृथिवीकायिफाकानिकाद्यांतरजातिप्रभेदयुक्तानां शतानि । अर्थ--हिंसा असत्य, चोरी, कुशीलसवन और परिग्रहाभिलाषा इत्यादि पानकरूप मगर वगैरह क्रूर हि प्राणी जिस में हैं, उसस्थावर जीव रूपी मत्स्य जिसमें हैं. जन्म-नवीन शरीर ग्रहण करना, जरा-ग्रहण किये हुए शरीरमैसे तेज, चल वगैरह शक्तिया कम होते जाना, मरण-शरीरसे आत्माका गमन होना इत्यादि अवस्थाओंसे यह संसार समुद्र उन्नत हुआ है. अनेक. एकेद्रियादि सैंकडो जातिरूपी तरंग जिसमें है ऐसा यह संसारसमुद्र महाभयानक है, जातिकर्मके एकद्रिय, दींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिद्रिय, पंचेंद्रिय जाति ऐसे पांच भेद हैं. इन प्रत्येक जातिओंके अवांतर भेट बहुतं है. पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक Page #1608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाराधना १५९५ ऐसे एकेंद्रिय जातिके भेद हैं. उनमें भी अवांतर मे इस प्रकार है. अर्थात् पृथ्विकाकि छन्दीस भेद हैं, जलके मी वृष्टि, हिम, बर्फ, ओलें इत्यादि भेद हैं- अग्नीके भी प्रदीप, उल्मुक ज्वाला इत्यादि अनेक भेद हैं. वायुके भी गुंजा, वायु, मंडलिक बाबु वगैरह भेद हैं. इस तरह जांति कर्मके अनेक भेद होने से जातिरूपी तरंगों से यह संसारसमुद्र युक्त है ऐसा समझना चाहिये. दुविहपरिणामवादं संसारमहोदधिं परमभीमं ॥ अदिगम्म जीवपोदो भभइ चिरं कम्म भण्डभरो ॥ १७७१ ॥ जीवपोतो भवभोधौ कर्मनाविकचोदितः ॥ जन्ममृत्युजरावर्ते चिरं भ्राम्यति संततम् ॥ १८४२ ॥ विजयोदया दुविधपरिणामवादे द्विविधाः शुभाशुभपरिणामा चांता यस्मिस्तं । परमभीमं अतिभयंकर । अदिगम्म प्रविश्य । जीवपोदो जीवपोतः भमयं चिरं चिरकालं भ्रमति । कम्मभण्डभरो कर्मद्रविणभारः । त्रिभिः संबंधः ॥ भवसंसारं निरूपयति ॥ मूलास -- दुविधा शुभाशुभाः । अदिगम्म प्रविश्य पोदं यानपोतं । अर्थ -- यह संसारसमुद्र शुभ और अशुभपरिणामरूप हवा से युक्त है और अतिशय भयानक है. इसमें जीवरूपी नौका कर्मरूपी द्रव्यसे युक्त होकर जब प्रवेश करती है तब चिरकालतक भ्रमण करती है. एगविगतिगचउपचिदियाण जाओ हवंति जोणीओ सव्वाउ ताउ पत्तो अनंतखुत्तो इमो जीवो ॥ १७७२ ॥ एकद्वित्रिचतुःपंचहृषीकाणामनंतशः ॥ जातयः सकला भ्रान्ता देहिना भ्रमतां भवे ।। १८४२ ॥ विजयोदया- एमविगतिगच उपचिदियाण नामकर्मगतिजात्यादिविचित्रमेवं तत्र जातिकर्म पंचविकल्प पदचतुःपयिंजातिविकल्पेन तासां जातीनामुदात् ॥ केंद्रित पर्यापभानो जीवा प्रयाविश नोच्यते । तेषामेकेंद्रियांदीनां योनय माश्रया बावरसुक्ष्मपर्याप्तकाख्या जीवद्रव्याणामिहाश्रयत्वेन विवक्षिताः । आश्वास ف १५९५ Page #1609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARAN CASE मृलागधना आश्वासः सचिन शीतसंवृता सेतरा मिश्राश्चैकशस्त धोनय इति सूत्रे ये निर्दिष्टाश्चतुरशीतिशतसहस्रविकल्पास्त इह न गृहोते । यतः सूतिरे देवाचगारकत्वमनुष्यन्यतिर्थक्त्वाम्या भवपर्यायपरावृत्तिर्भवसंसार हन्युक्तः॥ णिग्यादिजहगणाविसु नाव दु उल्लिया रोवजा । मिच्छत्तसिदेण महिदी मज्जिदा पशुसो इति वचनात् । योनयो न भवशब्दवाच्याः। जीवषयीयो दि भयस्तत्र भन्नसमारशिद्विधः- शिव्यमेजोघायुवनपत्रिकायाः प्रतीक यादरमध्यपर्याप्तकापर्याप्त विकल्पाद्विशतिविधाः। द्विविचतुरिद्रियासंज्ञाविधिकल्पा: पंद्रियाच पक्षापयाप्तकविकल्पा देशविधाः । अन्ये तु भवपरिवर्तनमेवं वदति | नरकगतौ सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि । तेनायुपा तत्रोत्पत्र पुनः पविभ्राम्य तेनैवायुया तब जायते । एवं दशवर्यसहस्राणां यावंतः समयास्तावत्कृत्वा तव जातो सृतः पुनसेकसमयाधिकभाषन प्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण परिसमापितानि ततः प्रयुल्य तियेग्गती अंतर्मुदायुःसमुत्पन्नः पूर्वोक्तन क्रमेण त्रीणि पश्योपमानि परि. समापितानि ततः प्रत्युत्य एवं मनुष्यगसी । देवगतो नारकवत् । अयं तु विशेषः,एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि यावत्तावनयपरिवर्तगाः सास्ता भवंति । अनंतवारमय प्राप्तो जीवः॥ मूलारा-भवसंसारमाइ-जोणीओ आश्रयाः । ते ह जीवतव्याणां पादरसूक्ष्मपर्यातकापर्याप्तकालयाः स्थावराणो विंशतिः नसानां च बादरवनियमादशेति त्रिंशत्पर्याया विवक्षिताः । चतुरशीतिलनसंख्याःसचित्तादियोनयः। देवत्यनारकत्वमनुष्यत्व तिर्यक्वाण्यपर्यायपरावृत्तेर्भवसंसारस्वेन प्रधान्तरे ऽमिधानात् । तथा चोक्त णिरयादिजहणाविसु जाब दु उवरिल्लियाटु गेवेजा ।। मिच्छचसंसिदेण दु भवलिदी भन्निदा बहुसो। अन्ये तु भवपरिवर्तनमेवमातुः ॥ नरकगतौ सर्वजघन्यमायुर्दशवर्षसहस्राणि । तेनागुपा तत्रोत्पन्नःपुनः परिभ्रम्य तेनैवायुपा तत्रैव जातो मृत: 1 पुनरेकसमयाधिकभावेन तत्रैव जातो; यावत् प्रयस्त्रिंशरमागरोपमाणि परिसमापितानि । ततः प्रच्युत्य तिर्गमातौ सर्वजघन्यांत हूर्तायुषोत्पन्नः । पूर्वोक्तेन क्रमेण त्रीणि पल्योपमानि तेन परिसमापितानि, एवं मनुष्यगतौ च । देवगतौ मारकगनिबत । अयं तु विशेषः । एकत्रिंशत्सागरोपमाणि परिसमापितानि । एवं समुदितं यावत्तावद्भवपरिवर्तन ॥ अर्थ-नामकर्मके गति जाति वगैरे अनेक भेद हैं. उसमें जातिकर्मके पांच भेद हैं इन जातिकर्मके उदयसे एकेद्रियादि जीवोंके जो आश्रय है उनकी योनि कहते हैं. बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे इन योनिओंके भेद है. येही जीवद्रव्योंको यहां आश्रयभूत समझने चाहिये. सचित्तयोनि, शतियोनि वगैरह चौरासीलक्ष.योनिमेद जो सूत्रमें कहे हैं उनका यही संबंध नहीं है. क्योंकि सूत्रांतरमें देवत्व, नारकत्व, मनुष्यत्व और Page #1610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वास पशुत्वरूपसे जो संसारमें पर्याय धारण करने पड़ते हैं उसको भवसंसार कहते हैं. नरकगति, मनुष्यगति, पशुगति पद पतिओंमें जाना सायुष्य प्राप्यता सिध्यत्वका आश्रय करनेसे इस दिने भ्रमण किया है. देवगतिमें भी मिथ्यात्वयुक्त बनकर जघन्य आयुष्यसे नौचे ग्रैवेयकतक उत्कृष्ट आयुष्य धारण कर इस जीवने भ्रमण किया है. ऐसा मवसंसारका वर्णन किया है. इससे योनिओंका यहाँ मव शब्दसे संग्रह नहीं होता है. किंतु मादर सूक्ष्मादि अवस्थाकोही भवसंसार कहना चाहिये. जीवकी अवस्थाको मब कहते हैं. इस भवमें उत्पन्न हुए संसारीके ३. भेद हैं. पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति इनके प्रत्येकके गदर, सूक्ष्म, पर्याप्तक और अपर्याप्तक ऐसे भेद होनेसे मिलकर बीस भेद होते हैं. दीद्रिय, वींद्रिय, चतारांद्रिय, संज्ञिपंचेंद्रिय, असंझी पंचेद्रिय इनके पर्याप्त और अपर्याप्त के मेदसे दस भेद होते हैं. दूसरे आचार्य भवपरिवर्तनका स्वरूप इस प्रकार कहते हैं-नरकगतिमें सबसे जघन्य आयुष्य दस हजार वर्षका है. उस आयुष्यसे कोइ जीव पहिले नरकम उत्पन्न हुआ. आयुसमाप्तिके अनंतर संसारमें भ्रमण कर पुनः पूर्वोक्त आयुरोही बह जीव उसरी नरकमें उत्पन्न होता है. इस प्रकार दस हजार वर्षके जितने समय होते हैं उतनी बार पहले नरको पूर्वोक्त आयुका धारक होता है. आयुसमीप्त के अनंतर संसारमें भ्रमण कर उसी नरकमें फिर उत्पन्न होता है परंतु अबकी बार एक समयाधिक दसहजार वर्षका आयुष्य उसको प्राप्त होता है. इस प्रकार एक एक समय वृद्धिंगत होते २ इस जविने तेहतीस सागरोपम आयुष्यातक असंख्यात बार जन्ममरण किया है. तदनंतर सप्तमनरकसे निकल कर यह जीव तिथंचगतिम उत्पन्न होता है. वहां उसका जघन्य आयुष्य अन्तर्मुहर्त प्रमाण का होता है. पूर्वक्रम के अनुसार तीन पल्योपम आयुष्य समाप्त किया. तदनंतर मनुष्यगतिमें भी उत्कृष्ट तीन पल्योपम आयुग्यतक तिम्गतिके समानही क्रम जानना चाहिए. देवमातमें नरकगतिके समानही क्रम जानना चाहिये. परंतु इतनी विशेषता है--देवगतिमें एकतास सागरोपम आयुध्य की समासि होनेतकही भवपरिवर्तन हैं. ये सर्व परिवर्तन इस जीवके अनंतवार हो चुके हैं, KARMERSEARS SHRISTOTRACT Page #1611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १५९८ द्रव्यपरिवर्तनमुच्यते ॥ अण्णं गिण्हदि देहं तं पुण मुत्तूण गिण्हदे अण्णं ॥ घडिजंतं व य जीवो भमदि इमो दध्वंसंसारे ॥ १७७३ ।। गृहीते मुंचमानोऽङ्गी शरीराणि सहस्रशः ॥ भ्रमति द्रव्यसंसारे घटीयधमिवानिशम् ॥ १८४४ ॥ विजयोट्या-मगर गेहनि देव सम्पमापीर गृहाति । तं पुण तच्छरीरं मुक्त्वा पुमान्यत् काति । घटीयंत्रमिष जीयो घटीयंत्रयजीवः । यथा घटायचे अम्यज्जलं मृण्डाति तत् त्यक्त्या पुनरत्यदादसे पषमय शरीराणि एकन मुंचन भ्रमति । शरीराणि विचित्राणि व्यशम्देनोच्यते तत्स्वात्मनः परिधर्तनं व्यसंसार इति सूत्रकारस्यास्य व्याण्या स्थलघुजीनुदिश्य । पर्य तु द्रव्यपरिवर्तन ग्राह्य । द्रव्यपरिवर्तनं विविध-नोकर्मपरिवर्तन कर्मपरिवर्तनं चेति । तत्र नोकर्मपरिवर्तन नाम प्रयाणां शरीराणां षषणां पर्याप्तीनां योग्या ये पुन्द्रला पकन जीवेन पंकस्मिन्लमये गृहीताः खिग्ध रूझवर्ण गधादिभिस्तीनमदमध्यमभावेन च यथास्थिता द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णा अगृहीताननंतवारानतीत्य, मिश्रकांश्च अनंतवारानतीत्य मध्ये तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभाषमापचंते यावत्तावत्समुदित नोकर्मद्रव्य परिवर्तन । कर्मद्रव्यपरिवर्तनमुच्यते-एकस्मिन्समये एकेन जीवन अपविधकर्ममावन ये च गृहीताः समयाधिकावलि कामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु मिर्जीर्णाःपूर्वेतिनैव क्रमेण त एवं तेनैव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मभावमापते यांवतावकमध्यपरिवर्तनं ।' ट्रम्पसंसारमाह मूलारा-घडिजतं घटीयंत्रमिष जलं गृहीतं गृहीत मुक्त्वा अन्यदन्यच्छरीरं गृहन्जीयो भ्रमति इति स्थूलबुद्धीनुदिश्य द्रव्यसंसार: सूत्रकारेगोक्तः ॥ एवं तु द्रव्यपरिवर्तनं ग्राह्यम् । द्रव्यपरिवर्तनं द्विविध-नोकर्मद्गन्यपरिवर्तन कर्मव्यपरिवर्तन चेति । तत्र नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन उच्यते-त्रयाणां शरीराणां, पपणां पर्याप्तीना योग्या ये पुद्गला एकेन जीवे. नैकस्मिन्समये गृहीता स्निग्धरूक्षवर्णगधादिभिस्तीवमंदमध्यमभावेन च यथावस्थिता द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णाः । अगृहीताननंवारानतीत्य मिथकांश्च अनंतबारानतीत्य, मध्ये गृहीतांश्वान्तवारानतीत्य त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभावमापद्यते यावत्तापत्समुदित नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं । कर्म द्रव्यपरिवर्तनं उच्यते-एकस्मिन्समये एकेर जीवेनाष्टविधकर्मभावेन गृहीताः समयाधिकामावलिकामचीत्य द्वितीयादिषु समशेषु निर्णाः पूर्वोकिनव प्रकारेण तस्य जीवस्य कर्मभावमापते यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनं ।। उक्त च १५९८ Page #1612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १५९९ सव्व वि पुगगला खलु कगसो मुत्तुझिया य जीवेण ।। असई अर्णतखुनो पुग्गलपरियट्टसंसारे ।। अर्थ-जैस घटीयंत्र पूर्व जलका त्याग करके दुसरा दूसरा जल ग्रहण करता है वैसे यह आत्मा भी पूर्व शरीरका त्याग कर उत्तरोत्तर भिन्न भिन्न शरीर धारण करता है. इस प्रकार यह जीप पूर्व शरीरका त्याग कर और उत्तर शरीर को ग्रहण कर संसारमें अनादि कालसे भ्रमण कर रहा है. नाना प्रकारके शरीर को द्रव्य कहते हैं इनको धारण कर जीवका जो संसारमें भ्रमण करना है उसी को द्रव्यसंसार कहते हैं. इस प्रकार स्थूल बुद्धिके लोगों को समझाने के लिए आचार्यने द्रव्यसंसारका वर्णन किया है. द्रव्यपरिवर्तनका इस प्रकारसे भी स्वरूप कहा है द्रव्यपरिवर्तनके नोकर्म परिवर्तन और कर्मपरिवर्तन ऐसे दो भेद है-- नो कर्म परिवर्तन-जीन शरीर ( औदारिक, वैक्रियिक और आहारक) और छह पर्याप्ति (आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छरास, भाषा और मन इनके योग्य पुद्गल एक जीवन एक समयमें ग्रहण किये उनमें स्निग्ध रूव, स्पर्श, वर्ण, गन्ध जैसा तीय, मंद, मध्यम भावसे था द्वितीयादि समयमें ये पुल निर्जीर्ण हुए. तदनंतर अ. गृहीत पुगलोंको अनंतवार उलंघकर, मिश्रवर्गणाको भी अनंतवार ग्रहण कर मध्ये गृहीत नामक वर्गणाको भी अनंतबार ग्रहण कर पुनः ये ही वर्गणा उसी जीवको प्रथम समयमै जैस ग्रहण की गई थी वैसी जर ग्रहण की जाती है तब नोकर्मपरिवर्तन होता है. कर्मद्रभ्य परिवर्तनका स्वरूप कहते हैं एक समयमें एक जीवने आठ प्रकारके कर्म रूप से जो पुद्गल ग्रहण किए थे ये समयाधिक आवील प्रमाण काल व्यतीत होनेपर द्वितीयादिक समय में निर्जीण हो गये. तदनन्तर पूर्वोक्त क्रमानुसारही वे ही पुद्गल उसी जर्जावको जब कर्मरूप वन जाते हैं तब कर्मद्रव्यपरिवर्तन होता है. to रंगगदाडो व इमो बहुविहसंठाणवण्णरूवाणि ॥ गिहदि मुच्चदि अठिदं जीवो संसारमावण्यो । १७७४ ॥ १५९९ Page #1613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ETS8a485 आश्वासा यहसंस्थानरूपाणि चिनचेष्टाविधायकः ।। रंगस्थनटवज्जीवो गृहीते मुंचते भवे ॥१८५५ ।। विजयोदया-रंगगवणडोव रंगप्रविएनट इप । इमो अयं बहुविहसंठाणवण्णरुवाणि बहुविध संस्थानवर्ण खभाषान् । गिण्डदि य मुच्चदि अठिदं गृण्वाति मुंचति अवस्थितं । क्रियाविशेषणमेतत् । जीयो मंसारमावणो जीयो दध्यसंसारमापनः॥ विचित्रशरीरद्रव्यपरिवर्तनमेव निदर्शनांतरेण प्रण पतिमूलारा–अलिंद अनारतम् ॥ अर्थ-रंगभूमिपर आया हुआ नट नाना प्रकार की आकृति, वर्ण, और स्वभाव को ग्रहण करता है और छोड़ देता है वैसे द्रव्यसंसारमें भ्रमण करनेवाला यह जीव नानाप्रकारके आकार, वर्ण और स्वभाव को धारण करके गर बार छोड़ देता है. क्षेत्रससार निरूपयति जत्थ ण जादो ण मदो वेज्ज जीवो अणतसो चेव ।। काले तीदम्मि इमो ण सो पदेसो जए अस्थि ॥ १७७५ ॥ भृत्या भूत्वा मृतो यत्र जीवो मेऽयमनंतशः॥ अणुमायोऽपि नो देशो विद्यते स जगण्य ॥ १८४६ ।। विजयोदया-जस्थ न जादोण मदो हवेज्ज यत्र क्षेत्र आतो मृतो वा न भवेज्जीवः । अपांतसो चेय मनंत पारान् । काले तीवंमि प्रमोशातीते कासेऽयं न सो पदेसो जगे अस्थि नासौ प्रदेशो जगति पिचते। अन्ये तु क्षेत्रपरिबर्तममेषं घम्लि-जमति जघन्यप्रदेशशरीरो लोकस्यापमध्यप्रदेशान् खशरीरमध्यप्रदेशान् कृत्वोत्पन्नः,क्षुद्भवग्रहणं जीवित्वा मृत्तः, स एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विशत्पन्नस्तथा त्रिचतुरिति पर्व यापतोऽगुलस्यासंख्येयमागप्रमिताकाशप्रेदशास्तावत्कृत्वा तत्रैव जनित्या पुनरे कैकप्रदेशाधिकमारन सर्वलोक आत्मनो जन्मक्षेत्रभावमुप्पच जीवो भवति यावत्तावत् क्षेत्रपरिवर्तनं । उक्तंच सम्बंम्भि लोगखित्ते कमसो तं णस्थि जम्म उप्पण्णं ॥ ओगाहणा य बहुसो परिभमिदो खित्तसंसारे ॥ १७४६ ॥ १६०० Page #1614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास: क्षेत्रसंसारमाह-- मूलारा--जए लोकाकाशे । प्राग्वरसंक्षेपेणेदमुक्तम् । विस्तर तस्त्वेवं क्षेत्रपरिवर्तनमाहुः-- सूक्ष्मनिगोतजीवोऽपर्याप्तकःसर्वजघन्यप्रदेशशरीरो लोकम्याटमध्यप्रदेशान्स्वशरीरमध्यप्रदेशात्कृत्वोत्पन्नःक्षुद्रभव. महणं जीविन्वा मृतः । स एव पुनस्तेनैवावगाहेन द्विरुत्पन्नस्तथा त्रिस्तथा चतुरिति । एवं यावंतोऽगुलस्यासंख्येयभागप्रमिताकाशप्रदेशास्तावत्कृत्वरतत्रैव जनित्वा भृतः । पुनरेकैकप्रदेशाविकभावेन सर्वलो आत्मनो जन्मक्षेत्रभाषमुपनीतो भवति यायत्ताबभत्रपरिवर्तनम् ॥ उक्तं च सम्वम्लिोगवते कम्मो तं गास्थि जस्थ उत्पण्णो ॥ ओग्गाड गण वहुनो परिभागिदा खनसार ।। क्षत्रसंमारका निरूपण करते हैं अर्थ -यह जीव अतीनकालमें लोकक जिम प्रदेशमें अनंतवार जन्म लेकर मृत्युवश नहीं हुआ है ऐसा प्रदेशही न मिलेगा. अर्थात् लोकाकाशमें-त्रैलोक्यमें सर्वत्र सर्व जीव अनंतबार जन्ममरण कर चुके हैं. यह क्षेत्रपरिवर्तनका स्वरूप है. अन्य आचार्य इस परिवर्तनका स्वरूप एसा भी कहते हैं--- सबसे जघन्य प्रदेशयुक्त शरीरका धारक, अपर्याप्तक सूक्ष्मनिगोदी जीव, जगतके आठ मध्य प्रदेशोंको अपने शरीरके मध्यमें करके उत्पन्न हुआ. क्षुद्रभत्र ग्रहणसे जीकर मरणवश हुआ अर्थात् श्वासके अठरावा हिस्सा प्रमाण आयु समाप्त होनेके अनंतर मर गया. पुन: उसी अवगाहनसे दुसरीबार तिसरीबार, चौथीबार उत्पन्न हुआ इस प्रकार अंगुलासंख्यात भागसे नापे गये लोकके असंख्यात भागमें जितनी प्रदेशसंख्या है उतनीशर उस जीवन वही जन्ममरण किया. तदनंतर एक एक प्रदेश अधिक आगे बहकर उसने सर्व लोक अपना जन्मक्षेत्र बना लिया इसको एकक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं. ऐसे क्षेत्र परिवर्तन इस जीरके अनंतो होगये हैं. आगममें इस विषय में ऐसा कहा गया है. इस समस्त लोकक्षेत्रमें क्रमसे यह जीव जहाँ उत्पन्न नहीं हुआ है ऐसा क्षेत्रही नहीं है. यह जीव इस जगतमें इस अवगाहनसे यातबार परिभ्रमण कर चुका है. कालपरिवर्तनमुच्यते तत्कालतदाकालसमएसु जीवो अणंतसो चेव ॥ जादो मदो य सब्बेसु इमो तीदंम्मि कालम्मि ॥ १७७७ ॥ १६०१ Page #1615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ये कल्पानामनंतानां समयाः सन्ति भो यते । जातो मृतः समस्तेषु शरीरी तेष्वनेकशः ॥ १८४७ ।। विजयोदया-तकालनदाकालसमयेसु उत्सर्पिण्यवसर्पिणीसक्षितयोः कालयोयें समयास्तेषु । जीयो अणंत सो चध जीयोऽ अनंतबारान् । जादो सवो य सम्बेमु जातो मृतश्च सर्वषु समयेपु । इमो तीबंम्मि कालंम्मि अयमतीते काल॥ इयमस्या गाथायाः-प्रपंचव्याख्या-उत्सर्पिण्याः प्रथमममये जातः कधिज्जीवः स्त्रायुपः परिसमाप्तौ मृतः,स एव पुनाती याच्या उत्सर्पिण्या द्वितीयसमये जानः स्वायुषः शयान्मृतः । स एव पुनस्तृतीयाथा उपियास्मृतीयसमये जातः । पवमनेन क्रमेण उत्सर्पिणी परिसमाप्ता तथावसर्पिणी । पर्व जन्मनरैतर्यमुक्तं । मरणस्पापि नरंतर्य तथैव ग्राहामवं तावत्कालपरिवर्तनं । उक्तं च उपसप्पिणिअवसप्पिणिसमयावलिगासू गिरवसेसा ॥ जाटो मदो य बहुमो भमणण ? कालसंसोर !! १७७८ ॥ कालसंसारमाहमूलारा-कालसनाकालसमय सत्सपिण्यवसर्पिण्याः समथषु । अत्रापि प्रपंचेनय क्याम्या--- उत्सर्पिण्याः प्रथमसमये जातः कश्चिज्जीचः स्वायुधः परिसमाप्तौ मृतः । स एव पुनर्द्धितीयाया उत्सपिण्या द्वितीयसमये जासः स्वायुध:क्षयागृतः । स एव पुनस्तृतीयाया उत्सपियास्तृतीयसमये जातो मृतल स्वायुःक्षयात । एवमनेन कमेण उत्सर्पिणी परिसमाप्ता । तथा अवसर्पिणी च । एवं जगरन्त मुक्तम । तथैव मरणमपि ग्राह्यम् । एतावत्कालररिवर्तनम् । उक्तं च उत्सपिणिश्रवसपिणि समयावलियासु गिरवसेसाम् ।। जादो मदो द बहुसो भमण दु कालसंसारे । कालपरिवर्तनबा स्वरूप कहते हैं अर्थ-यह जीव अतीत उत्सापणी अबसार्पणी कालके समयाम अनंतवार उत्पन्न हुआ है और मृत्युवश हुआ है. ऐसा कालपरिवर्तनका संक्षेप है. इसका विस्तार इस प्रकार हैपहिले उत्सार्पणीक समयमै कोइ जीव उत्पन्न हुआ आयुष्यक्षय होनेपर उसने मरण किया. वहीं जीत्र दूसरी उत्सार्पणी ६. Page #1616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थलारायना आश्वासा - - के दुसरे समय में उत्पत्र दुआ. आयुष्य समाप्त होनेपर फिर मरा. वहीं जीच तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समयमें उत्पन्न हुआ. इस प्रकार इस जीवने क्रमसे उत्सर्पिणी काल समाप्त किया. इसी प्रकार जन्मसे उसने अवसर्पिणी कालभी पूरा किया. मरणकी निरंतरता जन्मकी निरन्तराके समान समझनी चाहिये. इतना यह स्वरूप कालपरिवर्तनका है ऐसा समझना चाहिये, आगममें इस विषयमें ऐसा कहा है यह जीय उत्सर्पिणी और अवसापणी कालकी संपूर्ण समय पंक्तिओंमें कालसंसारमें भ्रमण करता दुआ अनंतवार भ्रमण कर चुका है. स्पंदनंससारं निरूपयन्युत्तरमाथा अठ्ठपदेने मुत्तूण इमो सेसेसु सगपनेस ॥ तन्तैपि व अधरणं उव्वत्तपरतणं कुणदि ॥ १७७९ ॥ प्रदेशाष्टकमत्यस्य शेषेषु कुरुते भवी ॥ उदर्शनपरावत संतप्ताप्स्विव दुलाः || १८४८ विजयोदया-अठ्ठपदेसे मुत्तृण अष्टी प्रदेशारुचकाकारान् मुक्त्वा । इसो अयं जीधः। सेससु सगपदेसेसु शेषेषु स्वप्रदेशेषु क्षेत्रषु । संसारनामात्मनः क्षेघसंसारत्वेनोच्यते ॥ स्वप्रवेशलक्षणक्षेत्रसंसरणरूपं क्षेत्रसंसारात्मकस्पंदनसंसारमाह--- भूलारा-अठ्ठपदेसे अष्टौ प्रदेशात चकाकाराम् । ततंपिअसहणं तमियाधिश्रयणम् । ततजलमध्यस्थिलतंयुल. धरित्यर्थः । उक्त्तणपरसणं उद्धर्तनपरावर्तन । उसोच प्रदेशाष्टकमस्यस्य शेषेषु कुरुते भवी ॥ उद्वर्तनपरावर्त तप्तास्वस्विप संडुलाः ॥ स्पंदन संसारका वर्णन अर्थ-रुचकाकार आठ प्रदेश छोड़कर बाकी के सर्व आत्म प्रदेश हमेशा चंचल रहते हैं और जैसे अग्नीसे गरम जलमें डाले हुए चावल इमेशा उपर नीचे होते हैं वैसे इस संसारी जीवके आठ मध्यप्रदेश छोड़कर बाकीके प्रदेश हमेशा ऊपर नाचे हमेशा घूमते हैं. Page #1617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मूलाराधना आश्वासा लोगागासपएसा असंखगुणिदा हवंति जावदिया ॥ तावदियाणि हु अज्झवसाणाणि इमस्स जीवरस ॥ १७८० ॥ असंख्यलोकमानेषु परिणामेषु वर्तते ॥ शरीरी भवसंसारे कर्मभूपवशीकृतः ॥१८५० ।। जघन्पा मध्यमा धर्या निषिष्टाः स्थितपोऽग्विलाः ।। अतासांनमशः काल भवभ्रमणकारिणा ॥ १८५० ।। चिजयोदया-लोगागासपदसा लोकाकाशस्य प्रदेशाः । असंखगुणिदा असंख्य गुणिताः । इयंति जावदिया यावन्तो भवति । तावदिगाणिहु असमयसामाणि ताबदध्यवसायस्थानानि भवंति । इमस्स जीवस्स अस्य जीवस्य । जीवस्य असंण्यातलोकप्रमाणेच्यभ्यषसायसंमितेषु भाषेषु परावृत्तिर्भावसंसारः ॥ असंख्यातलोकप्रमाणाध्यषसानस्थानामिधानभाषपरिवर्तनलक्षण भावसंसारमारमूलारा--स्पष्टम ।। अर्थ--लोकाकाशके प्रदेशको असंख्यातसे गुणित करने पर जो मख्या उत्पन्न होगी जायके उतने अध्यवसायस्थान होते हैं. अर्थात असंख्यात लोकपरिमाण जधिक पायाध्यवसायस्थान, स्थिति बंधाध्यवसायस्थान योग और अनुभागाध्यवसायस्थान होते हैं. अज्झवसाणठाणंतराणि जीवो विकुम्बइ इमो हु । णिच्चं पि जहा सरडो गिण्हदि जाणाबिहे वण्णे ॥ १७८१ ।। परिणामांतरध्वंगी सर्वदा परिवर्तते ॥ वणेपु चित्ररूपेषु कुकलास इव स्फुटम् ।। १८५१ ॥ विजयोदया-अज्मयसापठाणतराणि जीयो चिकुवर इमो ग्बु अध्ययमायस्थानांतराणि जीवः परिणमन्ययं । मिनयंषि नित्यमपि था सरडोणाणाबिह वण्णे यथा गोधा नानाविधान्यांनुपादसे । एवं संसारः॥ अपरापरपरिणामपरिणम नसातत्यमात्मनो दृष्टान्तेन स्पष्टयतिमूलारा--विकुव्वदि विकरोति परिणमतीत्यर्थः । पयलासरडो ककलासः ।। उक्तंच १६०४ Page #1618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना PR आश्वास भावस्थानान्तराण्येवं देहबान्त प्रपद्यते ॥ कर्केटुको यथा नित्यं वर्णान्स्वीकुरुते यहूम् । भविपरिवर्तनप्रपंचस्वयम्--- पंचेन्द्रियः संज्ञी पर्यातको मिथ्याष्टिः कश्चिजीयः सर्वजपन्या स्बयोन्या ज्ञानावरणप्रकृतेः स्थितिमन्तःकोटोकोटिसंक्षिकामापद्यते । तस्य कायाध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकप्रभितानि पदस्थानप्रमितानि तस्थितियोग्यानि भवंति । तत्र सर्वजधायकषायाध्यवसायस्थाननिमित्तान्यनुभागाध्यवसायस्थानान्यसंख्येवलोकप्रमितानि भवन्ति । एवं सर्वजघन्यो स्थिति, सर्वजघन्यं च कपायाध्यवसायस्थान, सर्वजधन्यमेवानुभागबंधस्थान आस्कंदतस्तयोग्यं सर्वजघन्यमेकं योगस्थानं भवति । तेषामेष स्थितिकायानुभागस्थानानां द्वितीयमसंख्येयभागवृद्धियुकं योगस्थान भवति । एवं तृतीयादिषु चतुःस्थानपतितानि तानि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि भवति । तथा तामेव स्थिनि, तदेव कसायाव्यवसायस्थानं च प्रतिपद्यमानस्य द्वितीय मनुभागाभ्यवसागरमा गाति । सहर र योगस्थान दितस्यानि । एवं तृनीयादिषु अनुभागाध्यवसायस्थानेषु आ असंख्येयलोकपरिसमाप्तेः । एवं तामेब स्थितिमापत्रमागत्य द्वितीयं कषायाध्यवसायस्थानं भवति । तस्याप्यनुभागाध्यवसायस्थानानि पूर्ववद्वेदितव्यानि । एवं तृतीयाविग्यपि कपायावसायस्थानेषु श्रेण्यसंख्येवलोकपरिसमाप्ततिक्रमो बेदितव्यः । उफाया जश्रन्यायाः स्थितेः समयाचिकायाः कपादिस्थानानि पूर्वदेव । एवं समयाधिकक्रमेण । उत्कृष्टस्थितेत्रिंशत्सागरीपराकोटी कोटीपरिमितायाः कपाबादिस्थानानि पूनवदेव वदितम्नानि ।। एवं सर्वगः कर्मणां मुलप्रकृतीना मुत्तरप्रकृतीनां च परिवर्तनकमो वेदितव्यः । तदेतत्सर्व समुदितं पायपरिवर्तनं । उक्तं च सम्बा पयडिठिदीओ अणुभागपदेसटाणागि। मिच्छत्तसंसिदेश व भभिदा पुण भावसंसारे । इस प्रकार हम जीपका भावपरिवर्तनरूप संसारका स्वरूप है. अर्थ-जैस सरड नामका प्राणी हमेशा अपने रंग बदलता है से इस संसारी जीवके उपर्युक्त परिणामों में हमेशा तरतम भाव होता ही रहता है. इस प्रकार पांच प्रकारके संसारोंका स्वरूप आचार्यने दिखाया है. Vera Na - --- १६04 Page #1619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास तस्य भयमुपदर्शयति ॥ आगासम्मि वि पक्खी जले वि मच्छा थले वि थलचारी॥ हिंसंति एक्कमकं सब्वत्थ भयं खु संसारे ॥ १७८२ ।। आकाशे पक्षिणोऽन्योन्य स्थले स्थलविहारिणः ।। जल मीनाश्च हिंसन्ति सर्वत्रापि भयं भवे ।। १८५२॥ विजयोट्यान्यायासम्मि वि पक्षी आकाश रंनरंनं परकीयपक्षिणो त्रियाधते | जलेवि मच्छा जलेपि मत्स्याः। लेटिमचारी परम सति वाकमेकं अन्योन्य । सव्वस्थ नयं ग्यु संसारे सर्वत्र भयं संसार। एवं पंचप्रकार संसार निरूप्य तद्यापायादीपंचदशगाथामिश्रिनयनिमूलारा- एक मेक अन्योन्याम् ॥ अब संसारसे भय दिखाते है। अर्थ-आकाशमें विहार करनेवाले छोटे २ पक्षिाको दुसर ऋर पक्षी पीडा देते हैं. अर्थान् उनको मारंत हैं- खा जाते हैं. पानी में बड़े मत्स्य छोट मत्स्यको निगल जाते है, और भूतलपरभी हिंस्रप्राणी परस्परको मारते हैं अतः इस जगतमें सर्वत्र भयही भय है. ससउ वाहपरद्धो बिलिचि णाऊण अजगरस्स मुहं ॥ सरणत्ति मण्णमाणो मच्चुस्स मुहं जह अदीदि ॥ १७८३ ॥ शयालोर्मुखमभ्यस्य व्यापारब्धो यथा शशः ।। मन्वानो विवर दीनः प्रयाति यममंदिरम् ॥ १८५३ ॥ चिसयोदया-ससगो वाहपरद्धो शाशो व्याधेनोपटुतः, चिलिक्षिणाऊण अजगरस्य मुई बिलमिति वास्या अजगरस्य मुखं । सरणत्ति मपणमाणो शरणमिति मन्यमानः । मच्चुस्स मुई जद्द अदीदि मृत्योर्मुख यथा प्रविशति । मुलारा-पाहपरद्धो व्याधनोपद्रुतः । विलिसि बिलमिति । सरणति त्राणमिति । अर्थ-पारधीसे पारित हुआ खरगोश अजगरके मुखको बिल समझकर उसमें प्रवेश करता है. इस बिल में मैं रह सकूँगा इस अभिपायसे उसमें घुसता है. परंतु वहां वह मृत्युके वश होता है वैसे । Page #1620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वास - तह अण्णाणी जीवा परिमाणच्छुहादिबाहेहि || अदिगच्छति महादुहहेदु संसारसप्पमुहं ॥ १७८४ ॥ क्षुत्तृष्णादिमहाव्याधप्रारब्धश्चेतनस्तथा ॥ अज्ञो दुःखकरं याति संसारभुजगाननम् ।। १८५४॥ विजयोदया-तह अण्णाणी जीया तथा अशानिनो जीवाः । परिमाणमछुहादिवा हि अनुभाग्यमानाः क्षु दादिभियात्रैः व्याधैश्च । अदिगच्छन्ति प्रविशति । महावुहहेदु महतो दुःखस्य निमितं । संसारसप्पमुहं संसारसपमुलं ॥ मूलारा-अदिगच्छति प्रविशति । अर्थ-ये अज्ञ संसारी जीव क्षुधा, दक्षा रूप व्याधोंसे और व्याघ्रोसे पीडित होकर महादुखदायक संसाररूपी सर्पके मुंह में प्रवेश करते हैं. जावदियाइं सुहाई हवंति लोगम्मि सबजोणीम् ।। साईपि विधाइ अगतखुत्ती इमो पत्तो ॥ १७८५ ॥ यावन्ति सन्ति सौख्यानि लोके सर्वासु योनिषु ॥ प्रामानि तानि सर्वाणि यहवार शरीरिणा ।। १८५५ ।। विजयोदया-जावदियाई याति । सुहाणि होति लोगस्मि सुखानि भवति लोके । सव्वजोणीसु सर्वासु । योनिषु। ताईपि बटुविधाई तान्यपि बहुविधानि । तखुनो रमो पत्तो अनंतवारमय जीवः प्राप्तः ।। मूलारा-पष्टम् । अर्थ-सर्व योनिआ जितने नानाप्रकारके सुख है वे भी इस जीवको अनंतयार प्राप्त हो गये हैं. Dha enा दुक्खं अणतसुत्तो पावेत्त सहपि पावदि कहिं वि ॥ तह वि य अणंत खुत्तो सव्वाणि सुहाणि पत्चाणि ॥ १७८६ ।। अवाप्यानतो दुःखमेको लभते यदि ।। सुर्य तथापि सर्वाणि तानि लडधान्यनेकशः॥ १८५६ ।। Page #1621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६०८ विजयोदया- दुकं अतखुत्तो पायेसु सुईदि पावदि कवि दुःखमपि नेतारं प्राप्य सुखमपि प्राप्नोति कथं । तवि य अनंतखुचो तथाप्यनंतधारं सम्वाणि सुखाणि पक्षाणि सर्वाणि सुखानि प्राप्तानि || गणतां चक घर्तिनां पंचानुत्तर विमानयासिनां लोकांतिकानामहमिद्राणां च सुखानि मुक्त्वा ॥ मूळारा-सम्बाणि गणधृत, चक्रवर्तिनां अनुविज्ञानुत्तरविमानवासिनां लोकांतिकादीनां च सुखानि मुक्त्वा ॥ अर्थ -- इस संसार में गणधर नारायण, प्रतिनारायण चक्रवर्ती, पंचानुत्तर निमानवासि देव, और लोकोंfar देव इनके सुखोंकी इन जीवोंकी प्राप्ति नहीं हुई है. बाकी के संपूर्ण सुखांक प्रकार इन जीवांको अनंतकार प्राप्त हुये हैं. करणेहि होदि विमल बहुसो वचिचिचसोदणित्तेहि ॥ घाण य जिम्मा चिह्नाबलविरियजोगेहिं ॥ १७८७ ॥ स चतुर्भिस्त्रिभिभ्यामेकेनाक्षेण वर्जिनः ॥ संसारसागरेऽनंत जायते ऽनन्तशोऽसुमान् ।। १८५७ ।। विजयोदया करणेहिं होषि विगलो बिकलेंद्रियः कचिद्भवति । बहुलो बहुशः । वत्रित्ति सोदत्तिर्हि मनसा arer श्रोत्रेण नेत्रेण कम्पेन हीनः । स्पर्शनेद्रियवैकल्यस्यासंभवात् तदनुपन्यासः ॥ घणय घ्राणेन च। जिघ्याए । जिन्हया चेझबलचिरियजोगेहिं वेश्या बलेन वीर्ये च ॥ मूळारा - करणेहिं चितादिभिः कचिद्विकलः स्यात् । स्पर्शनेत्रियस्य वैकल्पासंभवादनुपन्यासः ॥ अर्थ -- यह जीव अनेकवार विकलेंद्रिय हुआ है. कभी नेत्र रहित, कभी कान रहित हुआ था. कभी असज्ञी मन रहित और वचन रहित हुआ था. कभी इसको नाककी प्राप्ति नहीं हुई और कभी इसको शक्ति, बल: पराक्रम इससे रहित होना पडा था. ऐसी अनेक दुरवस्थायें इस जीवकी अनंत बार हुई हैं जबहिरमूओ छादो तिसिओ वणे व एयाई ॥ म सुचिरपि जीवो जम्मवणे णसिद्धिपहो । १७८८ ॥ आश्वास ७ १६०८ Page #1622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना १६३९ farari मूको वामनः पामनः कुणिः ॥ दुर्वर्णो दुःस्वरो मूर्खचुल्लचिपिटनासिकः । १८५८ ॥ व्याधितो व्यसनी शोकी मत्सरी पिशुनः शठः ॥ दुगो गुणविद्वेषी मंचको जायते भवे ।। १८५९ ।। क्षुभितस्तृषितः श्रांतो दुःख भारवशीकृतः ॥ एकाकी दुर्ग में दीनो हिंडते भवकानने ।। १८६० ॥ विजयोदया - जच्च धवधिर भूगो जात्यंधो बधिरो, मूकः । छादी शुदा पीडित, तिसिदो तृपाभिभूतः । षणे च पगागी भ्रमदि असहायो यथा वने भ्रमति । तथा सुनिरपि चिरकालमपि जीवो जम्मवणे जन्मचने भ्रमति । णसिद्धि पदो नए सिद्धिमाः ॥ उक्तं च- कलुषचरितैर्नानस्संचितकर्मभिः । करणविकलः कमजूतो भवार्णवपाततः । सुचिरमवश दुःखार्तोऽयं निमीलितलोचनो भ्रमति कृपणो नत्राणः शुभेतर कर्मकृत् ॥ श्रवणविकलो वाग्ग्रीनो ऽशो यथातलोचनः। तृषितमलिनो नष्टोऽव्यां चरेदसहायक अलकुदसकृत् गृण्डन मुंधराच देवतां । भ्रमति सुचिरं जन्मादव्यां तथादेशकः ॥ इति ॥ मूलारा-- छादो श्रुतिः । एगामी असहायः ॥ अर्थ-कभी यह जीव जन्मसेही अंधा, बहिरा, गूंगा होकर जन्मा था अनंतवार भूख और प्यास से पीडित हुआ था जैसा कोई मार्गभ्रष्ट जीव जंगलमें अकेलाही भ्रमण करता है भैंस यह संसारी जीव मोक्षमार्गसे भ्रष्ट होकर संareer सहायके बिना भ्रमण करता है. आगम में इस विषय में ऐसा कहा है- यह अज्ञजीव हिँसा दिक पापोंसे कर्मसंचय करके भ्रमण करता है. कभी कभी यह जीव संपूर्ण इंद्रियोंस पूर्ण नहीं होता है अर्थात् नेत्रादिक इंद्रि के अभाव से वह अंधा, बहिरा, गूंगा वगरे अवस्थाको प्राप्त होता है. इस संसार में अशरण, दुःखपीडित और दीन होकर अशुभ कार्य करके भ्रमण करता है. जैसे बहिरा, मूक, अंध, अज्ञ ऐसा प्राणी रनमें भूख और प्यास से utter होकर सदायरहित अशरण दीन होकर एकाकी भ्रमण करता है वैसे यह जीवभी त्रस, स्थावर जीवोंके देह को ग्रहण करता है, कभी छोड़ता है. इस तरह चिरकालसे जन्मवनमें भ्रमण कर रहा है. 상사 एइंदिये पंचविधेसु वि उत्थाणवीरियविहूणो || ममदि अनंत कालं दुक्खसहस्साणि पावेंतो ।। १७८९ ॥ आश्वास ७ १६०९ Page #1623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६० एकेंद्रियप्वयं जीवः पंचस्वपि निरंतरम् ॥ उत्थानवीयराहतो दीनो वंभ्रम चिरम् || १८६३ ॥ विजयोदया-निधिस पंचायवेसु वि पद्रियेषु पंच प्रकारेण्याप । पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पति शरीरस्थारिपु । उत्थाणाचीरियविहीणो पृथिव्यादिकायान परित्यज्य उसकायनामिनिमित्तोत्थानवीयरहितः । भमदि अणतं कालं भ्रमति अनंतकालं । दुक्खसहस्साणि पाचतो दुःखसहस्त्राणि माजुवम् ॥ मूलारा-उत्थाणवीरियविहीणो पृथिव्यादिकायत्यागेन असकाद्यप्राप्तये यदुत्थानवीर्यमुद्भवशक्तिस्तद्रहितः ।। अर्थ-पृथिवी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति ये पांच स्थावरकायिक जीव है इनमें अपना पर्याय त्याग कर प्रसत्व प्राप्त करनकी शक्ति नहीं रहती है. इसालये अनंतकालतक हजारो दुःख सहन करते हुये ये जीव इसही पर्याय में भ्रमण करते हैं. बहुदुक्खावत्ताए संसारणदीए पावकलुसाए । भमइ घरागो जीवो अण्णाणनिमीलिदो सुचिरं ।। १७९० ॥ चित्रदःस्त्रमहावामिमां संमृतिवाहिनीम् ।। अज्ञानमिलितो जीवो गाहते पापपाथसम् ॥ १८६२ ।। विजयोदया-बहुदुक्सवसार बहदुसतयां । समसारणदीप संसृतिना । पावकलुसाप पापकलंकहितार्या । वरागो जीवो भमदि दीनी जात्रो भ्रातः । मुन्दिर अग्णाणनिमीलिदो अज्ञानन निमीलितः ॥ मूलारा-स्पटम् ॥ अर्थ-अनेक दुःखरूपी गावर जिसमें हैं. पायरूपी मलिन पानीस जो युक्त है एसी इस संसारनदम यह दीन जीव अज्ञानसे बेसुध होकर भ्रमण करना है. विसयामिसारगाढं कुजोणिणेमि सुहदुक्खदढखीलं ।। अपणाणतुबधरिद कसायदढ़पट्टयाचंध ।। १७९१ ॥ Page #1624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वा इंद्रियार्धाभिलाषारं चंचलं योनिनेमिकं मिथ्याज्ञानमहातुंब दुःखकीलकयंत्रितम् ।। १८६३ ॥ विजयोदया–विसमामिसारगार्ट विषयाभिलापारर्गाढ स्तब्ध । कुजोगिणमि सुदुक्खदढखीलं कुत्सित योनिनेमिकं । मुहानलं । अनुप्रियानि । कला ढपट्टिगायः कषाय हद पट्टिकाबंध ॥ नलास-विसथामिमाम्गादं विपयाभिलापररैरिव स्तम्भ निधि वा । अर्थ-यह संसारचक्र विषयाभिलाषारूपी आरोसे गाढ अर्थात् मजबुत है. कुयोनिरूपी नेमिस युक्त है अर्थात् नरकादि दुर्गतिरूप नेमिस पूठीसे यह संसारचक्र युक्त है. सुखदुःखरूपी कीलसे यह युक्त है नथा इसमें अज्ञानभावरूपी तुंबा है. कषायही इस संसारचक्रपर लोहकी पट्टी है. बहुजम्मसहरसविसालबत्तणि मोहवेगमहिचवलं ॥ संसारचकमारुहिय भमदि जीवो अणप्पवसो ॥ १७९२॥ कपावपट्टिकाबद्धं जरामरणवर्तनम् ॥ संसारचक्रमामय चिरं भ्राम्यति चेतनः ॥ १८६४ ॥ विजयोदया--बहुजम्मसहस्सरिसालपत्तर्षि अनेकजन्मसहस्राधशालमार्ग । मोहवेग मोहवेगं । संसारचकमासहिय पर्यंभूतं संसारचक्रमारहा। अगम्यवसो जीवो भमधि अनात्मवशो जीपो भ्रमति । मूलारा--विसालयत्तणि विपुलमार्ग ॥ अर्थ-अनेक जन्मरूपी विशाल मार्गपर यह संसारचक्र भ्रमण करता है. मोहरूपी वेगसे यह पक अतिश यचंचल दीखता है. ऐसे संसाररूपी चक्रपर आरोहण कर यह जीच परवश होकर भ्रमण करता है. भारं णरो वहंतो कहंचि विस्समदि ओरुहिय भारं ॥ देहभरवाहिणो पुण ण लहंति वणं पि विस्समिदु ॥ १७९३ ॥ वहमानो नरो भारं कापि विश्राम्पति ध्रुवम् ।। म देहभारमादाय विश्राम्यति कदाचन ॥ १८६५ ।। Page #1625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आधासा मूलाराधना विजयोदया-भारं नरो वहतो भार बहन कहंचि भारमोहिय कस्मिबिशे काले व भारमयतार्य । विस्समदि विश्राम्यति । दहमरवाहिणी पुण देहसागरोद्वादिनो जीवाः पुनः । नभनि खणं पि विस्समिटुं न लभते क्षणमपि विनाम कतु । औदारिकनिधिको विनष्टयोगि कार्माण जसपोरयस्थानालु ॥ मूलारा- कहिं पि देशे काले च । ओहिय अवतार्थ । गोइत्यादि औदारिकवकियिकयोविनष्टयोरपि कार्मण तैजसयोरवस्थानान् । अर्थयोझा उठानेवाला मनुष्य किसी स्थानमें कुछ कालतक बोझा अपने मस्तकपरसे उतार कर विश्रांति लेता है. परंतु देहका भार बहनेवाला यह संसारी जीव एक क्षणमात्रभी देहभारको उतार कर विश्रांति नहीं ले सकता है. यद्यपि औदारिक और वैक्रिषिक शरीर इस जीवके कुछ कालतक अर्थात् एकसे तीन समयतक नहीं रहते हैं तोभी कार्मण और तैजस शरीर इस जीवक साथ सतत रहते है इसलिये इसको सदाही विश्रान्तिका अभाव है. कम्माणुभावदुहिदो एवं मोहंधयारगहणम्मि ॥ अंधोव दुग्गमग्गे भमदि हु संसारकतारे ।। १७९३ ।। यंभ्रमीति चिरं जीवो मोहांधतमसावृतः ॥ संसार दु:खितस्वान्तो विचक्षुरिव कानने ॥ १८६६ ॥ बिजयोदया-कम्माणुभावहिदो असवद्यादिपापकर्ममाहात्म्य जानतदुःखः । एवमुक्तन कमेण । संसार कतारे भमदि संसारकांतारे भ्रमति । कोश मोहंधयारगहाणे मोहांधकारगहने ! अंधो व दुग्गमम्गे अंध इष दर्भमार्ग ॥ मूलारा-कम्माणुभाव असद्वेद्यादि पापकर्ममाहात्म्यम ।। अर्थ--अमातावदनीयादि पापकर्मक प्रभावसे दुःखित होकर यह जीव पूर्वोक्त क्रमसे संसारखनमें भ्रमय करता है. यह संमारयन मोहरूपी अंधकारसे व्याप्त होनेस अधा मनुष्य जैसे खराब रास्तम जाता दुआ दुःख पाता है मसारी मनुष्यभी इसमें दुःखी होता है, दुक्खस्स पडिगरेतो सुहमिछतो य तह इमो जीवो ॥ पाणवधादीदोसे करेइ मोहेण संछण्णो ॥ १७९५ ।। Page #1626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा भीतः करोति दुःखेभ्यः सुग्वसंगमलालसः ॥ अज्ञानतमसा छन्नो हिंसारमादिपातकम् ।। १८६७ ॥ विजयोदया-दुक्खस्स पडिगरेंतो दुःखस्य प्रतीकार कुर्षन । सुहमिन्छतो व रंद्रियमुखमभिलपन् । इमो जीषो अयं जीवः। पाणवधादीदोसे हिंसाविदोषान् । करेण संहारयो पातेतिमोर नतमशि-दुखभीरुनरो विशेषदुःखात्यापस्यापायं न वेत्ति ॥ दुःखनिराकरणार्यपि दुःखहेतूनष हिंसादीन प्रवर्तयति । इंद्रियसुख लंपटोऽपि तेप्वेष दिसादिषु दुःसहेतुषु प्रवर्तते । ततोऽस्थ सकलो व्यापारो दुःखस्यैव मूलमिति । मूलारा-दुक्खस्येत्यादि दुःखभीररपि नैध निःशेषदुःखापायोपायं वेत्ति । दुःखनिराकरणायेपि दुःखहेतून हिसादीन्प्रवर्तयति । इंद्रियसुखलंपटोऽपि ते वेष हिंसादिषु दुःखहेतुषु वर्तते । ततोऽस्य सकलोपि व्यापारो दुःखस्यैव मूलमिति भावः ॥ अर्थ---यह जवि दुःखका नाश करने की इच्छा रखता है और सुखको चाहता है. परंतु मोहवश होकर हिंसादिक दोषाको करता है. तात्पर्य यह है कि संसारी जवि दुःखसे डरता है परंतु दुःखके नाशका उपाय वह नहीं जानता है. दुःखका निराकरण करनेकी इच्छा है परंतु दुःखोंके कारणोंकाही आश्रय करता है. इंद्रियसुखमें लंपट होकर हिंसादि दुःखोंके कारणमें प्रवृत्त होता है. इस वास्ते इसकी सब प्रवृत्ति दुःखकाही मूल है. दोसेहिं तेहिं बहुगं कम्मं बंधदि तदो णच जीवो । अध तेण परचइ पुणो पविसितु व अग्गिमग्गीदो।। १७९६ ।। हिंसारंभादिदोपेण गृहीतनबकल्मषः 11 प्रदयते प्रविष्टोऽङ्गी पावकादिव पावकम् ।। १८६८।। विजयोदया-दोसेहि तेहिं प्राणिवधादिकविः। यहुगं कम्मं बंदि महत्कर्म वनाति । नव प्रत्यग्रं । तदो पश्चात् । अध कर्मबंधानंतर । तेण पचदि तेन बंधनेन करणा पच्यते । पविसित्त्व प्रविश्येव । किं अगि अनि। अग्गीवो अने। अनेरागत्य अझिं प्रविश्य यथा बाध्यते । एवं पूः कर्मभियोधितः पुनः प्रत्यग्रफर्मानलेन (नियंघेन) वद्यते इति ।। मूलारा-परिसित्तुष प्रविश्य यथा ॥ अर्थ-यह जीव प्राणिवधादिक अनेक दोषोंसे महातवि कर्मका नवीन बंध करता है. जब उस कर्मका Second Page #1627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलाराधना १६१४ उदय आता है तब एक अग्नीसे निकल कर दुसरे अग्निमें पढनेवाला जीव जैसे घोर दुःखका अनुमच करता है वैसा इस जीवको कर्मोदयसे दुःख होता है. अर्थात् पूर्वकर्म उदयमें आकर वह स्थिर हो जाता है और उसीसमय नवीन कर्म भी बंध जाता है. अतएव दुःखका कारण जो पूर्व कर्म उसका नाश होते समय ही नवीन कर्म बंद जाता है. इसलिये वह भी कर्म उसके अनंतर उदयमें आता है इसलिये इस जीवको सतत दुःखही दुःख भोगना पडता है बंधतो मुच्तो एवं कम्मं पुणो पुणो जीवो ॥ सुहकामो बहुदुक्ख संसारमणादियं ममइ || १७९७ ।। गृहता सुचना दारुणं कल्मषं सौख्यकांक्षेण जीवन मूढात्मना ॥ भ्रम्य संस्कृती सर्वदा दुःखिना पावनं मुक्तिमार्गं ततोऽपश्यता || १८६९ ॥ इति जन्मानुप्रेक्षा ॥ विजयोदयावंत मुतो बंधन मंचन । एवं कम्मे पुणो पुणो जीषो कर्म पुनः पुनर्जीघः दत्तफलानि मुंचति, कर्मफलानुभव कालोपजात रागद्वेपपरिणामेर भिनवानि कर्माणि वनाति । सुकामी सुखाभिलाषवान् । बहुदुक्खं विचित्र दुःखं । संसारमणादिगं भमदि अनादिसंसारं भ्रमति । संसारचिंता || मूलारा - बंधतो पूर्व कर्मफलानुभवकाले जाताभ्यां रागद्वेषाभ्यां अभिनयं बनन् । मुञ्चंतो उपयुक्तफलं प्रानं सुचन् || संसारानुप्रेक्षा ॥ अर्थ -- जिन कर्मोसे आत्माको फल मिल चुका है ये कर्म गल जाते हैं. परंतु पूर्व कर्मके फलोंका अनुभव लेते समय यह जीव रागद्वेषयुक्त होता है अतः उसको नवीन कर्म बंध जाता है. इस जीवके मनमें सुखकी तीव्र अभिलाषा है परंतु वह सुख उसके उपायोंका ज्ञान न होनेसे प्राप्त नहीं होता है. उलटे उपायोंमें मवृत होनेसे इसको नानादुःखों से परिपूर्ण ऐसे अनादि घोर संसारमें भ्रमण करना पडता है. लोकानुप्रेक्षा निरूप्यते नामस्थापनाद्रव्यादिविकल्पेन । यद्यप्यनेकप्रकारो लोकस्तथापीद लोकशब्देन जीवद्रव्य लोक पचोच्यते । कथं ? सूत्रेण जीवधमप्रवृत्तिक्रमनिरूपणात् ॥ आश्वा 19 १६१४ Page #1628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना | आश्वास आहिंडयपुरिसस्स व इमस्त णीया तहिं तहिं होति ॥ सब्वे वि इमो पत्तो संबंधे सव्वजीवहिं ।। १७९८ ॥ सर्व सईः समं प्राप्ताः संबंधा जंतुनांगिभिः॥ भवति भ्रमसः कस्य तत्र तबास्य बांधवास ॥१८७०॥ विजयोदया-आहिउयपुरिसरस व देशांतरं भ्रमतः पुंस इव । इमस्स पीगा ताई तहिं होति अस्य बंधवस्तर तत्र भत्ति । सम्वेचिरमो पत्तो सर्वानयं प्राप्तः । संयंधे संबंधान् । सय्यजीवेहिं सर्वजीवैः सह । धर्मेध्येयतया छोक पंचदशगाथाभिरनुप्रेक्षते । नामस्थापनाद्रव्यादिविकल्पेन यद्यपि पानेकप्रकारो लोकस्तथापि | इहलोकशब्देन जीगर महोम एबोर : सूप कमीप नेस्यान । मूलारा-आहिंडग देशांतरभ्रमणपरः । लोकानुमेक्षाका वर्णन आचार्य करते हैं. नाम स्थापना, द्रव्य वगैरे विकल्पोंसे लोकके अनेक भेद हैं तथापि यह लोग शब्दसे द्रव्यलोक ही ग्राव है, क्योंकि जीवक धर्म प्रवृत्तिका क्रम यहां कहा गया है. अर्थ-एकदंशसे दुसरे देशको जानेवाले पुरुपके समान इस जीवको सर्व जगमें बंधुलाभ होता है अर्थात् सर्व जीवोंसे अनादिकालसे इसका संबंध होता चला आया है. अमुक जीवके साथ इसका पिता पुत्र वगैरह रूपस MI संबंध नहीं हुआ था ऐसा कालही नहीं था अतः सर्व जीव इसके संबंधी है. माया वि होइ भज्जा भजा मायत्त पुणमुवेदि । इय संसारे सच्चे परियट्टते हु संबंधी ॥ १७९९ ॥ माता सता स्नुषा भार्या मुना कांता स्वसा स्नुषा ।। पिता पुत्रो नृपो दासो जायतेऽनतशो भव ॥ १८७१ ।। विजयोदया-मादा य होदि मज्जा माता भार्या भयति । भाषा मातृतां पुनरुपेति । पंवं संसारे सर्व संबंधाः परिवर्तते इति गाथार्थः ॥ मूलारा स्पष्टम् ॥ Page #1629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना आश्वासः अर्थ-इस लोकमें माताभी पत्नी होती है और पत्नी भी माता होती है. अर्थात स्ववीयसे खुद उसमें उत्पन्न होकर यह पतिरूपजीव उसका पुत्र बनता है.इस प्रकार इस संसारमें सर्व संबंधोंका परिवर्तन होता रहता है. जणणी वसंततिलया भगिणी कमला य आसि भजाउ ।। धणदेवरस य एवम्मि भवे संसारवासम्मि ॥ १८..॥ वसंततिलका माता भगिनी कमला च ते ।। एकत्र धनदेवस्य भार्या जाता भवे ततः ॥ १८७२ विजयोदया-जगणी पसंततिलपा धनदेवस्य जननी वसंततिलका | कमला भगिनी । ते उभे भाये जाते धनचम्य । नम्मित्रच भवे भावांतरेणु राबधान्यथाभावे किमस्ति त्राच्य ? बंधकद वाहन लभंत पवाद । दुग्वं ततो यथनमुग्रबलं च पापं । नानादारीरबह कथेन दुःखं । प्राप्नोति केन विषयार्जितपापकर्म ।। उक्तं च-कुर्थान्न तन्मदनओखतरनेवा। बड़ो विरुष्टबलपाणिविनुषधारः । कुर्वति दुसमधिक विषया नराणां तस्मात्यजति विषयान् परिरएतत्वाः । एवमय को लोकधर्मः ।। मुलारा--आसि भज्जाओ जाते द्वे अपि मातृस्वसारी भायें । तस्मिन्नेव भचे,कि मांतरेषु संबंधान्यत्वे कश्यमित्यर्थः। अर्थ-एकही भवमें धनदेव नामक मनुष्यके पसंततिलका माता और कमला नामक भगिनी दोनो पत्नी हुई थी. जब एकही भवमें ऐसे विचित्र संबंध होते हैं तो मवातर के संबंधोंमें कहनाही स्या' आगममें इसवि. पयमें ऐसा कहा है-एकही मक्में एक शरीर धारण करने में भी इस जीवको नाना प्रकारके अपवाद सहन करने परते हैं. उससे उसको दुःख क्यों न होगा अर्थात अपवादसे इस जीत्रको तीव्रदुःखानुभव होता है.विषयोपभोग करनेसे पापकर्मका बंध होता है.एक शरीरके साथ जीवकासंबंध होनेसे इसको इतना कष्ट होता है तो अनेक जन्मोंमें इसने आजतक अनंत शरीर धारण कर छोड दिये है तो इन देहोंके आश्रयसे अपवादजनित दुःख और अनंत दुःखदायक कर्मोका संबंध होनेसे कितना कष्ट हुआ होगा इसका विचार विचारी पुरुष मनमें कर सकते हैं. Page #1630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना ૧૬૭ उतना झन नहीं करता चलवान पुरुषका रहनेवाला तीव्र धारका खद्ग भी लोगोंकी उतनी हानि नहीं करेगा. परंतु त्रिषयसुख मनुष्योंकी उनसे भी अत्यंत अधिक हानि करता है. अतिशय दुःख देता है. इसलिये तत्वदर्शी लोग ऐसे विषयोंका त्यागकर सुखी होते हैं. इसप्रकार ये लोकधर्म कष्टदायक है. राया वि होइ दासो दासो यत्तणं पुणसुवेदि ॥ इय संसारे परिवहते ठाणाणि सव्वाणि ॥ १८०१ ॥ संसारे जायते यस्मिन्नृपोऽपि खलु किंकरः ॥ कीशी क्रियते तत्र रतिनिंदानिधानके ।। १८७३ ।। विजयोदया श्रावि होइ दासी राजा दासो भवति, नीचैमार्जनात् दासो राजतां पुनहतैति उस्त्र कर्मण उदद्यात् । पर्व संसारे परिवर्तते सर्वाणि स्थानानि ॥ मूलाग— दासो नीचैर्गोत्रोदयात् । अर्थ- राजा भी जब उसको नीच गोत्रका उदय होता है तब भवांतर में दास होता है और दासभी उच्चगोत्र कर्मका उदय होने से भवांतर में राजा होता है. इस प्रकार इस संसार में सर्व स्थानों में परिवर्तन होता है. कुरुवतेयभोगाधिगवि राया विदेहदेवदी बच्चघरम्मि सुभोगो जाओ कीडो सकम्मेहिं ॥। १८०२ ॥ विदेशधिपती राजा तेजोरूपकुलाधिकः ॥ जातो बच्चों कीटः सुभोगः पूर्वकर्मभिः ॥ १८७३ ॥ विजयोदया - कुलरूयभोगाधियो वि कुलेन रूपेण तेजसा भोगेनाधिकोषि । विदेदजनपदाधिपती राजा सुभोगसंहः सुवचगृहे कीटो जातः स्वैः कर्मभिः प्रेरितः । उक्तं च दृष्टाः कचित्सुरमनुष्यगणप्रधानाः सर्वदीत वपुषः शशिकांतरूपाः ॥ भ्रास्त व पुनरन्यगर्ति पना हीना भवंति कुलक पधनमतायैः ॥ मूलारा - वञ्चकुडिम्म विष्ठागृहे । सुभोगो सुभोगाख्यो राजा सन् ॥ २०३ आश्वास १६१७ Page #1631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना १६१८ अर्थ - फुल, रूप, तेज, और भोगों से इतर जनोंसे श्रेष्ठ ऐसा विदेह देशका अधिपति सुभोग नामका राजाभी भरकर पैरवाने में गूथमें कीटक हुआ. अपने किये हुए कर्मके वश होकर सुभग राजाकी ऐसी दुर्दशा हो गयी. इसलिये कहा भी है कि, दव और मनुष्योंमे प्रधान, सवं ऋद्धिकी प्राप्ति हानसे जिनका शरीर तेजस्वी और सुंदर दीखता था, जिनका रूपगुण चंद्रके समान आल्हादकारक था, वे भी मनुष्य भ्रष्ट होकर अन्यगतिको प्राप्त होकर कुल रूप, मताप इत्यादिकोंसे हीन होगये हैं. होऊण महीउ देवो सुभवण्णवध ॥ कुणिमम्मि बसदि गम्भे धिगत्थु संसारवासरस ॥ १८०३ ॥ देवो महर्द्धिको भूम्या पवित्रगुणविग्रहः ॥ गर्ने वसति वीभत्से घिसंसारमसारकम् ॥ १८७४ ३ विजयोदय होऊण महती देवो महर्द्विको देवो भूत्या सुभवण्णगंधरूयधरो प्रशस्तते जोगंधरूपान्वितः ॥ इंडिराणां यदाशु गगन सदव || जन्म संभवति तदमणं जन्म वैशुचितं ॥ १ ॥ बातपित्तकफः परिमुकं व्याधिभिर्विगतखेदमती, अच्युतं परमयवनयुक्तं सबैतोऽविकलमुत्तमांनि ॥२॥ सर्वतश्च विमलांचर वर्णस्वधिवराकितहास । सद्विलासगतिचेष्टितली ते शरीरसरमत्र लत ॥ ३ ॥ गीतवाद्यसनिनूपतिनादेस्तांस्तदा समुपत्य सहीः । देवदेववनिताः प्रणिपत्य कुर्वतेऽव समुपासनमेां ॥ ४ ॥ फुल फजल भरथ दस्तैईक्षिणैः लक्षणकीर्णैः । चारुचंद्रवदना नतिमेषां स्निग्धहरिहसिताः प्रतिगृह ॥ ५ ॥ मृगपातको पनि मृगपानगतानिवाचलानां । अथ तानभिषेकमापयंति मुदितास्तत्र सुराः सुवर्णकुंभैः ॥ ६ ॥ प्रकाश पंकजानि सुरनाया गुणांशुभिःसुराणां कुरु नः सुचिरं त्वमाधिपत्यमिति तात्याग्भिरभिष्टुवति चैत्र ७ आदाय नेदाघरा शिरः व्यस्तैरिवतैर्मुकुटानि भूत्वा । विभूषिताखामरजेनईरेहागकुण्डलाः ॥ ८ ॥ ज्योतिर्विभृवान् गगनशान, विद्युद्धिनान् रुचिरांद रस्नार्चितान हे ममहा गिरीश्च विशेषयत्तोऽभ्यधिकं विभांति orataमायुष दिव्यदीप दिशो दश । भापयंति बिमांवर राषहित्य सौम्यवपुषः शशांकवत् ॥ १० ॥ दूरध्यतिपतंति लाघवात् गौरवान्हिरिसमा भवति च ॥ वर्णचाइतिविशंति मेदिनीं पार्थिवाच्च महतोऽपि रुंधते ॥ ११ ॥ काष्ठमग्निमनिले जले मह संप्रविश्य च सः शरीरिणां । निर्विशेषगुणकाः सहासितुं ते भवंति सुचिरं शक्तयः ॥ १२ ॥ पायकालमुरन् धनापनीसागरांश्च सहसा निपत्य ते ॥ स्थानमीप्सिततमं श्रमादिना यांति चाप्रतिहताशरीरयत् ॥ १३ ॥ उत्क्षिपेयुरधना मद्दाचलात् पातयेयुरपि मंदरान्करैः । मंदराद्रिशिखरं धरास्थितास्ते स्पृशेयुरपि यद्यमीप्तिं ॥ १४ ॥ आश्वासा 19 १६१८ Page #1632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा इशितुं सुरनृणामयत्नतः कर्तुमात्मवशगान्मृगानपि । रूपमात्ममनसा समीप्सितं स्प्रष्टुमायलमास ससहस्रया ॥१५॥ संयाका स्वासरभिगंधेर्ता मौः हामकुसुमैश्च ॥ संतानाधविरचितमाला नित्यामलानाः परिवहमानों ॥१६॥ मात्यगंधः सुखमनुलिप्ता वस्त्रायतिविरजासि सानाः । रंरम्यते रतिनिपुणाभिस्स्वाभिः साई धरयनिताभिः ॥२७॥ सुसेनयं जीवं याति बियोगफ्तं परितापं, तत्र महादियुता अपि देवाः स्त्रीपुरुषा विषमायुष पव ॥१८॥ माणभृतामिह मध्यमलोक तीव्रतगदिकापायचतुष्क । स्यात्सुरसंततयः समकालः, तत्र भति हि कर्मघशेन ॥१५॥ अच्युतमानितजीवितदेवे, स्त्री चिरजीवितवत्यति तस्याः। पल्यमितं बत जीवितकालं तेन थियोगमितः सुरलोकः ॥ २० ॥ मृत्युरतं च विचित्य साख भावि लुरापरिभीतमनस्काः। तत्र मजंति मृगा इब बद्धा व्यावसमीपमुपेत्य सभीकाः ॥ २९॥ गर्भकृतामपि ते नुरवस्था संपरिचित्य पुनः समवाप्य । शोकमये चिपुले परियांति चारकरोध स्वाभ्युपयाते ॥ २२ ॥ मूत्रपथावरचेरतितुन निर्गमनं स्मरतामनुचीनां जन्मतवेति भयं दिविमानां, स्यावधिकं तवधाप्य सुखं तत् ।। २३ ॥ तानपि चासुपतेत् क्षुदनिष्टा पश्यत सर्पवधूरिष कहा, वर्षसइकमिसीह गतेपि कालदरो न जहात्यहमिद्र ।। २४ ।। उससनं श्रमज नृपतेरपि पक्षमितैर्दियसैदियोति । कान्यसुरेष कथावत लोके छा सभयो जननार्णधवासः॥ २५॥ रोमजराषिकलस्वविहीनापत्र पुनध भवानुजानां तत्सहित प्रसमीक्ष्य पुरस्तात् प्राप्यमवश्यमताच्युतमात्रे ।। २६॥ 1 अन्यवशादरशा विलपंतो पेशमिवान्पमुपद्रपयुक्त । संप्रतिपस्सय जनभयं ते शोकवशा बहुशोऽपि भवंति ॥ २७ ॥ यस्मरसौख्यमवाप्य विमाने भूतरूजो जगतीरपि यांति । तत्परिचितयतां कुशलानां केन सुरेषु भवेद्वहुमान ।। २८ ॥ तेऽवधिना विधिना बहुत दूरगताम्यपि जानत एच । तेन भथापनुभूय पुरस्तावश्नुबते भयकच्छदपश्चात् ॥ २९ ॥ यःसहसा भयमभ्युपयाति पूर्वतरं न भयं स उगति प्राविदितात्मवधं सुनरःप्राक्प्राप्य भयं पधमेति हि पश्चात् ॥ ३।। अतो न सोप्य तदिहास्ति किंचन विमश्यमाने मनसाभचाणवे। सुखे प्रसको पिपुले पुमान मजेत दुःखेन विनाणुनापि यत्।। स्थाणुकेशोपदतेऽपि भोजने न तनरो रोचयते कुलोबितः तथास्पदोषोप्यसुखे सुख सति न तयुधो रोचयते कदाबन ३२ प्रपीयमानें बुनि पातितो यथा लवोषि मूत्रस्य तदवु दूषयेत् । तथा लबोशोग्यसुखस्थ सत्सखे करोति सर्वस्य सुखस्य दुपणं॥ गुणैरनेकरपिसंयुतां स्त्रियं कृतापना सकृष्यनिर्गुणः नरो जहात्येव यथा तथा युधो न इणिदोषादिव सोत्रुमिच्छति (?) कुणिमम्मि वसदि गम्भे कुथितगर्भ यसति । धिगन्धु संसारवासस्स धिगस्नु संसार बासस्य ॥ उक्तं च योगाद्भोगादेष समुत्थ मनुजेषु गर्भस्मृत्या गर्भनिपातं च समीक्ष्य । त्रस्तावेव देहाशुचीनपि निरीक्ष्य गर्भाविष्टा दुखमिचांतेनुभवंति || मूलारा-पष्टम् ।। अर्थ--देवगति नामक कर्मके उदयसे यह जीव महान ऋद्धि धारक, शुभ वर्ण, गंध, रूप इत्यादि उत्कृष्ट गुणोंका स्थान बनता है. अर्थात् स्वगीय देव मनता है. परंतु आयुष्य समाप्त होनेपर दुर्गध युक्त गर्भावासमैं उसको रहना पड़ता है इसलिये ऐसे विचित्र संसारको धिक्कार हो. RAMETERSaavat १६११ Page #1633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६२० १ जैसे आकाश में इंद्रधनुष्य, बिजली, और मेघ अकस्मात् उत्पन्न होते हैं वैसे देवोंका अकस्मात् जन्म होता है. इन देवोंका जन्म अशुचितासे - अपवित्रता से रहित होता है ऐसा समझना चाहिये. २ चात पित्त और कफ इन तीन दोषोंसे जो व्याधिया मनुष्य देहमें उत्पन्न होती हैं उनसे देवोंका शरीर रहित होता है. स्वेद उनमें नाममात्र भी नहीं रहता है. सदा तरुणताही रहती है. सर्वावयवपरिपूर्णता और उत्तम कांती से वह सदाही युक्त होता है. 1 ३ उण विद्या यहि दे और लीलासे वह मन हरण करता है. निर्मल वस्त्र, वर्ण, स्पर्श, सुगंध, मिष्ट भागण और हास्य से उसकी शोभा चित्तको अपने तरफ आकर्षित करती है. ऐसा शरीर शुभ कर्मके उदयसे देवोंको प्राप्त होना है. ४ जब उपपाद शय्यावर देवका जन्म होता है तब देव देवांगना पेसे उसके सामने आकर नमस्कार करते हैं. और गीत वाद्यादिक ध्वनिओसे उसका अभिनंदन कर अपना हर्ष भाव प्रकट करते हैं उसकी उपासना करते हैं. ५ उत्तम लक्षणोंसे युक्त, प्रफुल्ल कमल समान सुंदर ऐसे हाथोंसे किया हुआ नमस्कार ये उत्पन्न हुए देव ग्रहण करते हैं. चंद्रके समान सुंदर मुखवाले ये देव स्निग्ध दृष्टिसे हंसकर देवोंके नमस्कारका स्वीकार करते हैं६ पर्वत शिखरपर बैठे सिंहके समान सिंहासनपर बैठे हुए उन उत्पन्न हुए देवोंका आनंदित हुए देव सुवर्ण कलशसे अभिषेक करते हैं, ७ हे देवेंद्र के समान गुणोंसे हमारे मुखकमलोंको आप प्रफुल्लित करो. और हमारे ऊपर आपका दीर्घकाल तक आधिपत्य रहे ऐसी देव उनकी वचनोंके द्वारा स्तुति करते हैं. ८ वे देवेंद्र मानो ग्रीष्यकालके सूर्य ही हैं ऐसे रत्नोज्ज्वल मुकुट मस्तकपर धारण करते हैं. हार, अंगद, कुंडल वगैरह अमूल्य रत्नाभरणोंसे ये अलंकृत रहते हैं. ९ बिजलीसे व्याप्त हुए सुंदर मेघोंको, रत्नोंसे जडित सुवर्ण पर्वतों को अलंकृत करते हुए वे देव अतिशय शोभाको धारण करते हैं. १० जो दिव्य बल, वीर्य और पराक्रमोंसे युक्त हैं. जिनका शरीर दिव्य और दीप्तियुक्त है. ऐसे देव आश्वासः 6. १६२० Page #1634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा विमल आकाशस्थित सूर्यके समान दश दिशाओंको प्रकाशित करते हैं. तथा चंद्रके समान अपनी सौम्य कांतीसे दश दिशाओंको सौम्ययुक्त बनाते हैं । १. अतिशय लघु होकर वे अतिशय दूर जाते हैं. और गुरु होकर चे पर्वतके ममान विशाल बनते हैं. जलके समान होकर पृथ्व में प्रवेश करते हैं और पृथ्वी के समान अन्य पदार्थों का रोध करते हैं । १२ लकडी. अग्नि, हवा, पानी, पृथ्वी इनमें और पाणिऑके शरीर में ये प्रवेश करनेमें समर्थ होते हैं. उनके मुणके समान गुण और प्राणिऑके नहीं होते हैं. और चे समर्थ होते हैं। १३ वे देव अग्नि, पर्वत, जंगल, समुद्र वगैरहको एकदम उलंघकर बिना परिश्रमके इच्छित स्थानपर पोहोन जाते हैं. सिद्धके समान उनको किमी पदार्थ से बाधा नहीं पोहोचती हैं. २४ उनमें पर्वताको जमीनपर गिरा देनेका सामध्ये होता है. वे मंदर पर्वतोंको भी गिरा सकते हैं. जमीनपर ठहर कर भी मंदर पर्वतक शिखरको स्पर्श कर सकते हैं. १५ देव और मनुष्यॉपर विना प्रयत्नसे वे ईशव रख सकते है. और सर्व पशुओंको वश करते हैं. मनमें वे जिस रूपको चाहते हैं तत्काल उसको धारण कर सकते हैं. वे जिस पदार्थको बाहते हैं तत्काल उसको प्राप्त कर सकते हैं। १६ अपने शरीरकी सुगंधसे संपूर्ण दिशाओंको भर देते हैं. उनके गले में संतानकादि कल्पवृक्षोंके पुष्पोंकी आम्लान माला रहती है। १७ पुष्प, गंघोंसे सुगंधित वन वे धारण करने हैं. और संभोगमें प्रवीण देवांगनाओंके साथ वे हमेशा रतिक्रीडा करते है। १८ वे महान ऋद्धिधारक देव और देवांगना विषमायुष्य होनेसे वियोग दुःखको प्राप्त होते हैं. अर्थात् देवको देवीका और देवीको देवका वियोग होता है। १९. इस मध्यमलोकमें प्राणिओंको तीव्रतर तीव्रतम वगैरह विकल्पोंके क्रोधादि कषाय उत्पन्न होते हैं. परंतु देवलोकमें कषायोंका तीव्रभाव नहीं रहता है. २० अच्युत स्वर्गतक देवांमनाका दीर्घकाल आयुष्य यद्यपि है तो भी वह पल्यप्रमाण ही है अर्थात् Page #1635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६२२ सागरोंसे उनका आयुष्य नही नापा जाता है. और देवोंका आयुष्य सामराको होता है इस लिये देवोंको चारवार अनेक देवनाओंका वियोग होता है. २१ मृत्यु के समय में होनेवाले दुःखका विचार कर उनके मनमें दुःख उत्पन्न होता है जैसे व्याघ्रके समीप बांधे हुए हरिणको दुःख होता हैं वैसे इन देवोंको मृत्यु समय दुःख होता है. २२ कैदी होने का प्रसंग आनेपर जैसा मनुष्यको बहुत शोक और भय उत्पन्न होता है पैसे देवभी यहांका अयुष्य समाप्त होनेपर हमको मनुष्यखी के गर्भ में जो कि कदखाने के समान है रहना पडेगा ऐसा विचार कर बहुत शोकयुक्त और भगवान होते हैं. २१ गर्भके अनतर अपवित्र ऐसे मूत्रमार्गसे हमको बाहर निकलना पडेगा, यह तो बहुत कष्टकी बात हैं. यह मनुष्य जन्म महान् अपवित्र है ऐसा विचार करने से उन देवोंको महान भय होने लगता है. २४ इस स्वर्ग में हजारो वर्ष बीतनेपर भी इमको क्षुधा बाधा न होती थी. परंतु मनुष्यत्व प्राप्त होनेपर सर्पिणीके समान यह क्षुधाचाघा हमको तकलीफ देगी हा यह पढा कष्ट है. २५ देव गती में एकपक्ष बीतने पर उच्छृंस लेते थे परंतु यहां मनुष्यगती में उच्छ्वासका भी परिश्रम होगा हाय हाय इससंसारसमुद्र में रहना वा कठिन है२५ इस देवावस्थामें रोग, जरा- वृद्धावस्था, इंद्रिय विकलता, इत्यादि दोष नहीं रहते हैं. परंतु मनुष्यमें ये बायें अवश्य भोगनी पडेंगी ऐसा मनमें देव विचार करते हैं. यहांसे हम च्युत होनेके अनंतर दुःखद परिस्थिति प्राप्ति होगी ऐसा वे विचार करते हैं. २६ यद्यपि देव परतंत्र नहीं होते है. तथापि उपद्रवयुक्त देशको मानो हम प्राप्त हुए हैं ऐसा समझकर मनमें शोक उक्त होकर अतिशय तीव्र भीतिको प्राप्त होते है. २७ जिनको कभी भी रोग पीडा नहीं हुई श्री ऐसे भी देव आयुष्य समाप्ति के अनंनर इस मनुष्य लोक में उत्पन्न होते हैं. ऐसा समझकर कोन विद्वान देवावस्थाको अच्छी समझेगा ? अर्थात् वह भी कटयुक्त है ऐसा समझकर विद्वान लोक उसमें अनादर करते हैं. २८ ये देव अपने अवधिज्ञानसे बहुत दूर की बात भी जानलेते हैं. अतः आगे आनेवाली विपत्तिको जानकर वे प्रथम ही भययुक्त होते हैं. और तदनंतर वास्तविक भयका अनुभव करते हैं. आश्वास 9 १६२२ Page #1636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SterePER मुलासधना आश्वासा २९ जिसको अकस्मात् भय उत्पन्न होता है वह प्रथम ही अर्थात भय प्राप्त होनेके पूर्वमें भय युक्त नहीं होता है. परंतु देव भयकी वार्ता प्रथमही जान लेते हैं अतः वे प्रथमही दुःखी होते हैं. जैसे अपने वध होनेकी बात जिसको प्रथमही मालूम पडी है वह मनुष्यु प्रथम ही भयको प्राप्त होकर अनंतर वधयुक्त हो जाता है. ३० इसलिए इस संसारमागरमें विचार करनेवाले पुरुषको कहां भी सौख्य नहीं है ऐसा अनुमर आयेगा. अतिशय सुखमें आसक्त ऐमें भी पापीको यदि अणुमात्र भी दुःख हो जायेगा तो भी गृखमें न्यूनता है पसा मानना पडेगा. तात्पर्य यह है फि. जिममें अणुमात्र भी दुःख हो वह सुख है नहीं. जस भोजन करत यमय अन्नमें छोटामा भी कश निकला ती व अन्न कुलीन मनुष्यको अप्रिय होता है. वैसा सुखमें यदि अल्प भी दोष होगा तो वह सुन्च बुद्धिमानोंको अप्रिय लगता है । ३१ पीने के लिए जो पानी दिया गया है उसमें यदि मूत्रका एक भी बिंदु पडेगा तो वह पानी दूषित होता है. वैस उत्तम सुखम यदि थोडासा भी दुःख उत्पन्न होगा नो वह सुख दोषयुक्त ही भानना चाहिए. २ यदि अनेक गुणांस सी संपन्न है ना भी एक दफे भी जिसने व्यभिचार किया है उसको दयाद्र मनुष्य भी छोड ही देगा. वसे धुद्धिमान लोग जिसमें दोप दीखता है ऐस मुखकी इच्छा नहीं करते हैं. अभिप्राय यह निकला कि यह संमार दुःखमय है. इस संसारमै कुथित मांस रक्तादि से भरे हुए गर्भम निवास करना पडता है. इसलिए इस संसारबासका धिकार हो. शास्त्रमें इस विषयमें एसा कहा है-इस मनुष्य जन्ममें आनेकेलिए गर्ममं रहना पड़ता है. इसका स्मरण होने में दुःख होता है. गर्भ में आकर भी कोई जीवका पतन भी हो जाता है. यह शरीर भी अपवित्र है. और यहांक भोग भी राम के समान है. इत्यादि विचार करने से देवोंको गर्भ में प्रवेश करने के समान दुःख होता है. इध कि परलोगे वा सत्तू पुरिसस्स हुंति णीया वि ॥ इहई परत वा खाइ पुन्तर्मसाणि सयमादा ॥ १८०४॥ यन्त्र चादति पुत्रस्य जमन्यपि कलेवरम् ॥ तत्तनामुत्र वा बंधी शत्रुत्वे कोऽस्ति विस्मयः ॥ १८७५ ॥ Page #1637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना विजयारत्या वालोमा इलोके गालो के युवा परिषस्य जीवा विवाद पनि प्रयोग जो आश्वासः १६२४ विजयोदया-रघर परलोगेषा हवलोके परलोके बा, पुरिसस्स णीया वि सत्तू होति अंधयोपि शत्रयो भवंति पुरुषस्य । इहां परत्न वा खाइ हा या परब वा असि, पुत्तमंमाणि सयमादा पुत्रस्य मांसं आत्मीयजननी पत्ति किमतः परं करी ॥ मुलारा-इधई इहलोके । परं कष्टमिति भावः ।। अर्थ-इह लोक अथवा परलोक में बंधु भी पुरुषका मनुष्यका शत्रु होता है. इस लोक में जननी भी माता भी अपने पुत्रका मांस खाती है, अहह इस से अधिक कष्टकारक क्या होमा ? होऊण रिऊ बहुदुक्रवकारओ बंधवो पुणो होदि । इय परिवट्टइ णीयत्तणं च सत्त्तणं च जये ॥ १८०५ ॥ बंधू रिपू रिपुर्वधुर्जायते कार्यतस्ततः॥ यतो रिपुत्ववधुत्व संसार न निसर्गतः ।। १८७६ ।। विजयोदया-होऊण रिऊ रिपु त्वा पूर्व । वहुहुक्खकरो विचित्रदुःखकारी। स एव पणो पश्चादपि । बंधवो होदि प्रियवांधवो भवति । इय परिचदि गवं परिवर्तते । णीगनणं च सनुत्तर्ण च बंधुर्व च शत्रुत्वं च । जगे जीवलोके ।। मूलारा--णीयत्तणं पश्रुत्वम् || अर्थ---जो अपना कट्टर शत्रु है जिसने नाना प्रकारके दुःख दिये थे वह भी बंधु-प्रिय बांधव होता है. इस प्रकार शत्रुत्व और वन्धुत्वका जगतम परिवर्तन होता रहता है. विमलाहेदु बकेण मारिओ णिययभारियागम्भे ॥ जाओ जाओ जादिभरो सुदिछी सकम्मेहिं ॥ १८०६ ॥ वक्रेण चिमलाहेतोः सुदृष्टिर्विनिपातितः ।। निजांगनांगजो भूत्वा जातो जातिस्मरो यत ।। १८७७॥ विजयोदया-विमलाहे विमलनिमित्तं । वकेण नारिदो वक्रास्थान भूतकेन मारितः। कः सुदिछी सुदृष्टिनामधेयः। सकम्महि आत्मीयैः कर्मभिः । जादो उत्पन्न । क निययमारियागन्भे निजभार्यागर्ने जाविमरो जावो जातिस्मरश्च जातः॥ १६२४ Page #1638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः गलारा-केण वक्राख्येन स्वशिष्येण । मारिदो विमलानाम्न्या बिभायया सह मैथुनं कुर्वाणो इत: 1 भारिया भार्या । जादिभरो जातिस्मर जातः । सुदिट्ठी सुदृष्टिनामनगरवैज्ञानिकः अर्थ-विमला नामक स्त्रीके वश होकर वक्र नामक पुरुपने अपने स्वामीका वध किया. वह स्वामी उसही स्त्रीके उदरमें कर्मादयसे गर्भ रूप होकर उसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ. उसका मुरष्टि नाम रक्खा गया. उसको कालोतरसे जातिस्मरण हो गया तब मैं अपनी खीमें ही पुत्र उत्पन्न हुआ हूं ऐसा उसको ज्ञान होगया. BREAKIKATARASATAR होऊण बंभणो सोत्तिओ खु पावं करितु माणेण || सुणगो व मूगगे वा पाणो वा होइ परलोए ॥ १८०७ ॥ श्रोत्रियो बामणो भूत्वा कृत्वा मानेन पातकम् ।। सूकरो मंडलः पाणो शृगालो जायते यकः ॥ १८७८ ।। विजयोदया-होऊण बभपो सोलिओ श्रोत्रियो माझी भूरबा भावजातिमदेन । गुणिजनांनदावमानायां पापं करि पाप कृत्वा नीचे गाँधमुपचित्य । सुणगोय सूमरो घा पाणो वा होनि परलोए श्वा शूकरचाण्डालो वा भवति पर जन्मनि ॥ __ मूलारा--मापोण जातिमदेन । गुगिजननिंदावमानाभ्यां नीवैर्गोत्रमुपाय शुनकादिर्भवतीति संबन्धः ।। अर्थ-यह जीव श्रोत्रिय ब्रामण होकर जातिमदसे गुणिजनोंका अपमान करता है, निंदाकरता है. इस कार्यसे पापसंचय करके अर्थात नीच गोत्र कर्मका पंच करके परभवमें कुत्ता, अथवा सुबर किंवा चांडाल होता है. दारिई अद्वित्तं जिंदं च थुदिं च वसणमन्भुदये ॥ पावदि बहुसो जीवो पुरिसिस्थिणवुसयत्तं च ॥ १८१८ ॥ निदा दारिद्रयमैश्वर्य पूजामभ्युदयं स्तुतिम् ।। स्त्रैण पौंस्नं चिरंजीवः षंढत्वं प्रतिपद्यते ॥ १८७९ ॥ __ बिजोदया-दारिह वारियं । बटुसो जीवो पावदि यहुशः जीवः प्रमोति लाभांतरायोदयात् । अदितं आव्यता पूर्वपदेव संबंधः पावदि बहुसो इमो इत्यनेन । लाभांतरायक्षयोपशमावीप्सितानि दन्याणि लभते, लब्धानि च नश्यति ॥ १६२५ Page #1639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारावना १६२६ ततः भवतां । निंया पांडाल कुणः काणी दुभंगो मूर्खः कृपण इत्यादिकां ॥ धुर्दिन स्तुतिं च कुलीनो रूपवान वाग्मी आयः प्राह इत्यादिकां यशस्वीर्तिरुयात् । एवं वलणं दुःखं असयोदयात् । अमुदयं देवमनुजनदजं सुखं पायात् । पुरिसितिणस व पुरुषायं च स्त्रीधे नपुंसक चाः प्राप्नोति ॥ मुलारा---अद्वृित्तं आढ्यत्वं भान्तयोपशमानेश्वरत्वं प्राप्तो विपाकः, पान, सूरिः कृपण इत्यादिकं निद्रां प्राप्नोति अयशः कर्त्या || बस दुःखं । श्रभ्युदयं उत्तमदेवस्य मानवस्त्र भयात् ॥ अर्थ--इस जीवको अनेकगर लामांतराय कर्मका उदय होनेपर दारिद्र्य प्राप्त होता है. वैसे इसको अनेक वार धनमाप्त होनेसे घनश्यपनोभी हुआ था. लामांतराय कर्मके क्षयोपशमसे यह जीव धनाढ्यभी हुआ था. बहुतबार मिला हुआ धनभी नष्ट हुआ है. इसकी बहुतबार तूं चांडाल हैं. लंगडा है, अंधा, कृपण, मूर्ख है. ऐसी निंदा भी हुई है. अयशस्कीर्ति कर्मके उदयसे जगतमें जीवकी निंदा होती है. इसी प्रकार असातावेदनीय कर्मके उदयसे अनेकप्रकारके संकटोंसे यह जीव ग्रस्त होता है. देवगतिके और मनुष्यके सुखोंको अभ्युदय कहते हैं. यह अ भ्युदय सातावेदनीय कर्मके उदयसे प्राप्त होता है. यह जीव पुरुष, स्त्री और नपुंसक इन पर्यायकोभी अनेकवार प्राप्त हुआ ई. कारी होइ अकारी अप्पडिभोगो जणो ह लोगम्मि || हु कारी व जनसमक्ख होइ अकारी सपडिभोगो || १८०९ || निर्दोषमपि निःपुण्यं सदोषं मन्यते जनः ॥ मपि पुण्या निर्दोषं पुरुषः पुनः ॥ १८८० ॥ विजयोदया-अकारी अपि दोषमकुर्वन्नपि कारी भवति, अपडिभोगो जनो पुण्यरहितो जनः। कारीवि कुर्य नयनाचार, जनसमक्खं जनानां प्रत्यक्षं अकारी होति दुरावारो न भवति । पडिभोगो पुण्यवान् ॥ मूलारा -- कारी शेषकर्ता । अकारी दोपमकुर्वपि । अध्यभागो अपुण्यः । कारी वि शेषं कुर्वन्नपि । रूपडि T भागो पुण्यः ॥ अर्थ -- जो मनुष्य पुण्यराहत होता है तब उसने दोष नहीं भी किये हो तो भी वह दोषी माना जाता है तथा अब पुग्योदय होता है तब अनाचारी होकरभी निर्दोषी माना जाता है. लोक उसकी निर्दोष समझते हैं. आश्वास 19 १६.६ Page #1640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६२७ सरिसीए चंदिगाये कालो वेस्सो पिओ जहा जोन्हो ॥ सरिसे वि तहाचारे कोई बेस्सो पिओ कोई ॥ १८१० ॥ निसर्गतः कोपि समेऽपि वल्लभो विचेष्टतेऽन्योऽसृमतामवल्लभः ॥ समानरूपे सति चंद्रिकोदये प्रियो हि पक्षो धवलः मिथोऽपरः ।। १८८१ ॥ विजयोदया-सरिसीए चंविगाए चंद्रिकायां समानायामपि । कालो थेस्लो कालपक्षो द्वेष्यः । पिनो जहा जो दो शुक्लपक्ष था प्रियः । सरिसे वि तहाचारे सहशेप्याचारे द्वयोः पुसोः ॥ कोई येस्सो पियो कोई कश्चित् वेष्यः प्रियः ॥ मूलारा - चंदियाए ज्योत्सना सत्यामपि । कालो कृष्णपक्षः । जोदो सितपक्ष कोई दुर्भगनामकर्मोदयं प्राप्तः || अर्थ – चंद्रका प्रकाश दोन पक्षमें समानही रहता है नोभी कृष्णपक्ष लोकोंको अप्रिय लगता है और शुक्लपक्ष प्रियसा मालूम पडता है. वैसे आचार समान होने परभी किसीको लोक अप्रिय समझते हैं और किसीको क्षिय समझते इय एस लोगधम्मो चिंतितो करेड् णिव्वेदं ॥ धण्णा ते भयवंता जे मुक्का लोगधम्मादो ॥ १८११ ॥ विचित्य मान जगतो विचेष्टितं विचित्ररूपं भयदापि दुर्गमम् || करोति वैराग्यमनन्यगोचरं दुरीहितं पूर्वमिवोदयं गतम् || १८८२ ॥ एख लोगधम्मो अयमेष प्राणिधर्मः। विज्जिसो चिंत्यमानो करेह शिव्येदं निर्वेदं करोति । धण्णा ते भयवंता पुण्यवंतस्ते यतयः जे मुक्का लोगघम्मादो ये मुक्काः प्राणिधर्माव्यावर्णिवात् ॥ विजया प्राणिस्वरूपचितामुपसंह स्तत्फल माह मुलारा- लोगधम्माको प्रावर्णितमणिस्वरूपे अनासक्तपिता इत्यर्थः ॥ अर्थ - इस प्रकार यह लोकोंका धर्म है. इसका विचार कर कोई महात्मा विरक्त होता है. वे पूज्य ऋषि धन्य हैं जिन्होने लोकधर्मका त्याग किया है. आश्वास १६२७ Page #1641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६२८ विज्जू व चंचल फणदुब्बलं वाधिमहिमचुहृदं ॥ गाणी हि पेच्छतो रमेज्ज दुक्खुद्धदं लोगं || १८१२ || लोकस्वभावं प दुरंतं दुःखानि दातुं सकलानि शक्तम् ॥ निरीक्षमाणाना रमते भयंकरं व्याघमिवानिवार्यम् ॥ १८८३ ॥ इतेि लोकानुप्रेक्षा ।। विजयोदया - विज्जूष बलं विद्युदिव चंचल, फेणुदुम्बलं फेनमिव दुर्बलं । वाधिमदिदमच्हदं व्याधिभिर्मथितं मृत्युना । लोग पेच्छतो लोकं पश्यन् गाणी किव रमेज ज्ञानी कथं तत्र रतिं कुर्यात् ॥ तदनासक्तिकारणं व्यनक्ति मूलारा – फेणडुब्बले नीरडिंडीरवभिःसारम् । णाणी रत्यरतिकारणशः । दुक्खुबुदं दुःखेन कंपितं । उक्तं चद्विजपलं फेनदुर्बलं व्याधिपीडितम् ॥ ज्ञानी पश्यरति कुर्यात्कथं दुःखार्दितं जगत् ॥ लोकानुप्रेक्षा ॥ अर्थ - - यह जगत् बिजली के समान चंचल हैं, समुद्रके फेसके समान बलहीन हैं, व्याधि और मृत्युसे पीडित हुआ है. ज्ञानी पुरुष दुःखोंसे भरा हुआ यह लोक देखकर उसमें कैसी प्रीति करते हैं, अर्थात् ज्ञानी इस लोकसे प्रेम नहीं करते हैं. इसके ऊपर वे माध्यस्थ भाव धारण करते हैं. || लोगधर्चिता ॥ अशुभत्वानुप्रेक्षा प्रकम्यते ॥ अहा अत्था कामाय हुंति देहो य सव्वमणुयांग ॥ एओ व सुभो वरि सव्वसोक्खायरो धम्मो ॥ १८१३ ॥ अशुभाः सन्ति निःशेषाः पुंसां कामार्थविग्रहाः ॥ शुभोsa केवलं धर्मी लोकद्वयसुखप्रदः ।। १८८४ ।। विजयोदया - असुद्दा जत्था कामा य हुंति अशुभ अर्थाः कामाच भर्चति । देो य सव्यमणुयाणं देव सर्व आश्वासः મ १६२८ Page #1642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा मूलाराधना मनुजानाम् ॥ रक्को चेव मुभी एक पब शुभः पुनः । सन्त्र सुस्वायरी धम्मो सर्वेषां सौख्यानामाकरो धर्मः ॥ धर्म्यध्यानशुयर्थ अशुचित्वं गायाष्टकेनानुचितच ति अशुचित्राशुभो ऽपध्यश्च भावो मण्यत । तत्रादौ दु: रत्न का मूलरवेन अर्थकामकायानामशुभत्वं व्यवस्थाप्य लोकदयसुग्रप्रदत्यन धर्गम्य शुभत्वं भाषयति-- मूलारा --स्पष्टम् ।। अमुचित्यानुप्रेक्षाका वर्णन अर्थ---अर्थ पुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ अशुभ है. सर्व मनुष्यों का दंह अपवित्र है, एक धर्मही पवित्र है और वही सर्व सौख्योंका दाता है. अर्थस्याशुभता व्यायप्टे इहलोगियपरलोगियदोसे पुरिसस्स आवहइ णिचं ॥ अत्थो अणत्यमूलं महाभयं मुत्तिपडिपंथो ॥ १८१४ ।। अर्थो मूलमनर्थानां निर्वाणप्रतिबंधकः ॥ लोकये महादोषं दसे पुंसां दुरुत्तरम् ।। १८८५ ।। विजयोदया-बद्दलोगियपरलोगियचोसे ऐहिकान् पारलौकिकांश्च दोषान् । पुरिसस्स आवहा णिच्चं पुरुषस्य भापति नित्यं । अस्थो अगत्थमूलं अर्थोऽनर्थानां मूलं, महाभयस्य मूलस्वान्महाभयं | मुत्तिपडिपंथो मुकरर्गलीभूतः ॥ अर्थस्याशुभत्व समर्थयते-- मूलारा--दोसे दुःखानि । 'अपत्धमूल अधर्मविपदादिनिदान । महाभयं विपुलभीतिनिमिनत्वात । मुत्तिपडिपंथो मुक्तरर्गलीभूतः ।। अर्थकी अशुभताका वर्णन---- अर्थ-इह लोकके दोष और परलोकके दोष अर्थ पुरुषार्थस मनुष्यको भोगने पड़ते हैं, अर्थ पुरुपार्थके वश होकर पुरुष अन्याय करता है. चोरी करता है. और राजासे दंडित होता है और परलोकमें नरकमें नाना १६२९ Page #1643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SMARATHI मूलाराधना आश्वासः १६३० दुःखोंका अनुभव लेता है इसलिए यह अर्थ अर्थात धन अनर्थका कारण है. महामयका कारण है. मोक्ष प्रासिके लिए यह अर्गलाके समान प्रतिबंध करता है. कामस्याशुभतमतामाचरे कुणि डिभवा लहुगत्तकारया अप्पकालिया कामा । उवधो लोए दुक्खावहा य ण य हुति ते सुलहा ॥ १८१५ ॥ निघस्थानभवाः कामा भीमा लाघवहेतवः ।। दुःस्वपदा दूये लोक स्वल्पकाला सुदुर्लभाः ॥ १८८६ ।। विजयोदया-कुणिमकुडिभचा लहुगतकारया अशुचिकुटिभचाः अलघुत्वकारिणः । अप्पकालिया कामा अल्प कालेषु भवाः । कामकाले उवधो लोप लोकद्वये । दुःखावाहाच । ण य हॉति ते सुलभाः नैव ते सुलभा भवति ॥ कामाशुभत्वमाख्याति-- मूलारा-कुणिमकडिमवा अशुचिस्वपरशरीरप्रभषाः । अप्पकालिया स्तोककाळभवाः । कामा काम्यमानाः । इंद्रियायाः तत्प्रभवप्रीतयो था। उबधी लोए लोकद्वये ॥ काम पुरुषार्थ अत्यंत अशुभ है अर्थ-यह काम पुरुषार्थ अपवित्र शरीरसे उत्पन्न होता है. इससे आत्मा हलकी होता है. इसकी सेवासे आत्मा दुर्गति दुःख पाती है. यह पुरुषार्थ अल्पकालमें ही उत्पन होकर नष्ट होता है. और प्रास होने में कठिन है. अद्विदलिया छिरावकवछिया मंसमट्टियालित्ता ।। बहुकुणिमभण्डभरिदा विहिंसणिज्जा खु कुणिमकुडी ॥ १८१६ ।।. मसलिमा सिराबद्धा कृषितास्थिदलाचिता 11. सतां कायटी कुत्स्था कृधिसर्विविधैर्भूता ॥ १८८७॥ विजयोदया-अदिलिया अस्थिदलनिष्पना चिरावस्यद्धिया सिरायकलवद्धा । मंसमट्टियालित्ता मांस मृत्तिकालिसा । बहुकुणिमभण्डारदा अनेकाशुचिद्व्य पूर्णा विहिंसपिज्जा खु कुणिम कुडी जुगुप्सनीया अनुचिकटी । maan - . S - Page #1644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आवास देहाशुचित्वं मीमांसते-- मूलारा-अद्विदलिया अस्थीनि दलानि पत्राशि यस्यां सा अस्थिवलिका सिरावग्वदा । कुणिमकुडी कुटीवा प्रांगशब्दस्य गतार्यवाहोपः ।। उक्तं च -- अस्थिजालदला स्नायुधलकबद्धातिनिदिता ॥ अशुन्चंगकुटी मोसमृतिकाकृतलेपना || अर्थ --- इस गाथामें शरीररूपी झोपडीका वर्णन करते हैं. . यह शरीररूपी झोपडी हाडोंमें बनी है. अस्थिरूपी पत्नोंसे यह झोपड़ी रची गई है, नसा जालरूप बकलसे बांधी गई है, मांगरूपी भट्टोमे ये लीपी गई है. अपवित्र रक्तादि पदावास भरी हुई हैं और जुगुप्सा उत्पन्न करनेवाली है. गालो धोतो सुद्धिमुवयादि जब जलादीहि ॥ तह देहो धोव्वंतो ण जाइ सुद्धिं जलादीहि ॥ १८१७ ॥ निलमलिनः कायो धाग्यमानो जलादिभिः ।। अंगार व नायाति स्फुट शुद्धिं कदाचन ॥ १८८८ ॥ विजयोदया-इंगालो योवना प्रक्षाल्य माना मी न शुद्धिमुपयाति, न शक्रतामुपयाति । जह यथा । जलादी जिलादिभिः तह देहो धोवीनरी प्रश्नाक्ष्यमान ग जाहि मुझे जलादीनि याति झदि जहादिभिः ॥ देहस्थाशक्यशोधरस्वाममूलारा-पष्टम् । अर्थ-अंगारको पानी वगैरह के द्वारा धोनेपर भी वह अपना कालावर्ण छोडकर सफेद नहीं बनता है। वैसे शरीरको धोनेसे शुद्ध नहीं होता है. ... RAMATATE सलिलादीणि अमेझं कुणइ अमेज्झाणि ण दु जलादीणि ।। मेऽझममेझं कुव्वंति सयमवि मेज्माणि संताणि ॥ १८१८ ॥ १६३१ Page #1645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना stsARictAthathaHARASHARASHARACRE---- मेध्यान्यमेध्यानि करोत्यमेध्यं सद्यः शरीरं सलिलानि नूनम् ।। अभेध्यमिश्राणि पुनः शरीरं न तानि मेध्य विधात्यमध्यम् ॥ १८८९ ।। विजयोदया-सलिलादीणि सलिलादीनि ध्यागि शुचीनि । अमेझं कुणदि अमेध्यं करोति । अमेज्झाणि अशुम्रीनिण दु जलानीणि मेज्झ कुणदि नवं जलादीनि शुचितामापादयंतीति । अभेज्माणि अशचीनि सयममेजमाथि संताणि अमेध्ययोगात् स्वयमशुचीनि संति ॥ जलादिशुचित्वादोत्कट्यं फायाशुचित्वस्याचष्टेमूलारा-अमेझं स्वभावनाशुचिर्भूतं शरीरं कर्त। उक्तं च अशुचि शरीरं सोयादिकानि विधात्यमेध्यरूपाणि || खलिलादीनि न मेध्य विदधाति देहं श्वमेध्यमयम ।। एप मारमा :-- यामाणीति पठित्वा अमेध्ययोग्यात्स्वग्रमशुचीनि सतीत्यर्थमाहुः ।। तदुक्तम मध्यान्यम यानि करोत्यमे व्यं सत्रः शरीरं सालिलानि नूनम् ।। जिलागि पुनः शरीरं न तानि भेन्यं विदधत्यमेध्यम् ।। अपर पुनः सनि लामोगादि सूत्र मामाच्या व्यायायोनरसूत्रेण प्रकृत दहाशुचित्वं अनुसंधते । अर्थ-पानी धगरह पवित्र पदार्थाको दह अपने संसर्गम अपवित्र बना देता है. पानी स्वयं अपवित्र नहीं है. दहक संसर्गम उसको अपवित्रता आती है. तारिसयममेज्झमयं सरीरयं किह जलादिजोगेण ॥ मेझं हवेज मेझं ण हु होदि अमेज्झमयघडओ ॥ १८१९ ॥ अभेध्यनिर्मितो देहः शोध्यमानो जलादिभिः ॥ अमेध्यैर्विविधैः पूर्णो न कुंभ इव शुद्धयति ।। १८९० ॥ घिजयोदया-सारिसमयममेज्झमय शुचीनामशुचिताकरणसमर्थाचिमयशरीरकं । किड कथं । जलादिजोगेणजलादिसंबंधेन । मेझं वेज्म शुचिर्भवेत् ॥ अमेजनमय घडगो अमेध्यमयो घरः । न खु मेमो होदि नैव शुचिर्भवति ॥ १६३२ ITran Page #1646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा भूलाराधना मूलारा-तारिसगामेज्झमय शुचिद्रव्याणामशुचित्वापादनसमर्थनामंध्येन मुहलपचयेन निबृत्तं सत् । अन्य तारिसयममेज्यमय इति मत्यानुतंत्रमाहुः । तद्यथा-- तारक्षम मेध्यमयं शरीरक किं जलाभियोगेन ।। मेध्यं भवेद्विमेध्येनामेध्यमयो घटो भवति ॥ अर्थ-पवित्र पदार्थोको अपवित्र बनानेवाला यह शरीर जलादिकोंके द्वारा शुद्ध कैसा हो सकता है। विष्ठास भरा हुआ घट क्या पवित्र हो सकता है ? नहीं कभी नहीं. यदि शरीमचि किं ताई शुचीत्यवाह--- णवरि हु धम्मो मेज्झो धम्मस्थस्स वि णमंति देवा वि ॥ धम्मेण चेब जादि खु साहू जल्लोसधादीया ॥ १८२०॥ भवन्ति जल्लोषधयो मुनीन्द्रा धर्मेण देवाः प्रणमन्ति सेन्द्राः ।। पतस्ततो नास्ति ततः प्रशस्ता कल्याणविश्राणनकल्पवृक्षः ॥ १८२१॥ इति अशुच्यनुपक्षा। विजयोदया-वरि दुधम्मामी धर्मः पुनःन्ति । करमार बुझदो पदार्थ वर्तते । धम्मत्स्स घि पामेति देवादि यस्मादमें रत्नत्रयात्मके स्थितस्य देवा अपि नमस्कारं कुर्वति॥धर्मेण शुचिना योगादाम्मापि शुचिरिति, धम्मण व जादि ग्यु साधू धर्मेणैव प्राप्नुवैति साधवः । किं अलोसघादीया जल्लीपच्यादिकमुस्पति शयं ।। मशुभसं ।। योमवशुचिः कायः किं तर्हि पर शुचि इत्यवाह मूलारा---- णवरि केवलं । चरि हु इति पाठे धर्म एत्र केवल मेध्य इत्यर्थः। धम्मत्थरस रत्नत्रये तिष्ठतः साधोः। जल्लोसधादीया सर्वांगीणमलौषधविष्ठौषधप्रभृसिकाः ।। अशुचित्वानुप्रेक्षा ॥ अर्थ-इस जगतमें धर्म ही पवित्रतम वस्तु है, जो रत्नत्रयात्मक धर्ममें स्थिर है उसको देव भी बंदन करते हैं. इसके संयोगसे आत्माभी पवित्र हुआ है. साधु धर्मके प्रसादसेही जल्लोपवादि ऋदीको प्राप्त कर सकते हैं. अशुचित्वानुप्रेक्षा समाप्त १६३३ २०५ Page #1647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयासः मूलाराधना आनवानुमेक्षा निरूप्यते__जम्मसमुद्दे बहुदोसवीचिए दुक्खजलयराइण्णे ।। जीवरस परिभमणम्मि कारणं आसबो होदि ॥ १८२१ ।। दुःखोदके भवाम्भोषों कषाद्रि पवाचरैः ।। आस्रवः कारण जय भ्रमतो भव भागिनः ॥ १८९२ ।। विजयोदया-जम्मममुद्दे जन्मसमुच । बहुदोसचीचिप विचित्रकोषतरेगे । नुक्खजलपराकिणे दुःखजलनरैराकीणे । जीवस्स परिम्भमणमि जीयस्थ परिभ्रमणे यत् कार तस् आसंघों पाम्चो भवति । मनु च कर्माणि कारणानि नयात्रवः । अयोग्यते॥ कम परिचमणकारणानां कारणत्वादामधः कारणमित्युतं ।। धन्यच्चान आसवं चतुदशगाथामिर नुचित्तयति--- . मूलारा-संसारपरिम्रमणकारण कर्मणां कारणत्वात् ।। सवो मिध्यात्वादिः ।। आसवामुप्रक्षा का वर्णन-- अर्थ --यह जन्मसागर विचित्र दोषरूपी तरंगांसे व्याप्त हुआ है. दुःखरूपी नक्रमकरादि जलनर प्राणिऑसे यह भरा हुआ है. जीके परिभ्रमघा में जो कारण है उसको आसत्र कहते हैं. कर्म जीवको संसारमें घुमाता है परन्तु यह आस्रव उनका भी कारण है अतः यही संसारमें धुमाता है ऐसा आचार्य ने कहा है. संसारसागरे से कम्मजलमसंवुडस्स आसवदि ॥ आसवणीणावाए जह सलिलं उदधिमज्झम्मि ।। १८२२ ॥ कर्मास्त्रवति जीवस्य संसारे विषयादिभिः ।। सलिल विविधै रन्धैः पोतस्य पथोनिधों ॥ १८९३ ॥ चिजयोद-1-संसारसागरे संसारसमुद्र । से संस्य । मसंधुस्स संवररहितस्य सम्यक्त्वसंग्रमक्षमामार्दवार्जघ संतोषपरिणामरहितस्य । कम्मजलमासषदिशानायरचादिकमै अलमास्वंत्यागछति । आसषणीवाणाप मानवणशीलार्या नापि यथा सलिल प्रविशति । उदधिमज्भे समुद्रमध्ये ॥ मुलारा-कम्मंजलं कर्मशब्देनात्र कर्मपरिणामोन्मुखः पुद्गलस्कंधो गृह्यते | कर्म जलमिनेत्युपमासमासः । असं १६२१ Page #1648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स आवास। माTI वुटरस' सम्यक्त्वाचारमकसदररहितस्य । आस बदि कर्मविपरिणतियोग्यतामागछति प्रविशति च । आसवणीणायात आस्रवणशीलायां नायि ॥ १६३५ अर्थ-जो जीव इस संसारसमुद्रम संवररहित प्रवृत्ति करता है. अर्थात जो जीय सम्यकत्व, संयम, उसमक्षमा, माश्य, आजप, रसीप इन परिणामोस रहित है उसमें कर्मरूपी जल प्रवेश करता है. जैसे छिद्रसहित नौकामें पानीका प्रवेश होनेस वह समुद्रम दृवती है पैंसा यह आत्माभी संसाररूपी समुद्र में कर्मरूपी जल प्रवेश करनेसे हचता है. धूली हुत्तुष्पिदगते लग्गा मलो जधा होदि ।। मिच्छत्तादिसिणेहोछिदरस कम्म तधा होदि ॥ १८२३ ।। कर्मसंबंधता जाता रागद्वेषाक्तचेतसः ।। स्नेहाभ्यरूशरीरस्य रजोराशिरिवानिशम् ॥ १८९४ ॥ विजयोदया-धूली पोठुनुप्पिगत्ते लग्गा धूली महाभ्यक्तशरीरलग्ना । जहा मलो होवि यथा मलं भवति । मिच्छत्तादिसिणेहोलिदस्स मिय्यात्वासंयपकषायपरिणामलेदाभ्यक्तस्यात्मनः प्रदेशेववस्थित कर्मप्रायोग्य द्रव्यं । तहा तथा कम्मं होनि तथा कर्म भवति । एतदुक्तं भवति-यात्मपरिणामाग्मिध्यान्घादिकात विशिए पुद्गलद्रव्य क.मत्वेन परिणम तीति कर्मवपर्यायहेतुरात्मनः परिणाम आपच रयर्थः ।। मूलारा-णेहुत्तुस्पिदगत्तत्ति तेलाद्यभ्य रक्तशरीरे । मिच्छत्तादिसिणे होल्लिदस्स मिथ्यात्वासंयमकायस्नेहास्यक्ताय जीवस्य । फम्म प्रदेशेष्ववस्थितं कर्भप्रायोग्य द्रव्यं मलो इत्यनुवृत्तमलो भवतीति सम्बंधः । एतदुक्तं भवनि-आमपरिणामामिथ्यात्वादिकाद्विशिष्टं पुद्रलद्रवं कर्मत्वेन परिणमते तेन विशिष्टस्य पुद्गलद्रव्यस्य कर्मत्वपर्याय हे तुमित्यादिजीवपरिणाम आस्रव इत्यर्थः। ___अर्थ-जैसे जिसने अपने सागमें तेल लगाया है ऐसे मनुष्य के शरीरपर धूली आकर चिपक जाती है. और वह मल बनती है वैसे मिथ्यात्व, असंयम, कषायात्मक परिणामरूपी तैलस लिप्त हुए आत्मप्रदेशों में बैठा हुआ कर्मरूप परिणतिको प्राप्त होनेवाला पुद्गल द्रव्य कर्म बन जाता है. इस विवचनका यह अभिप्राय है-मिध्यात्वादि HTea Page #1649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६३६ रूप आत्मपरिणामों का निमित्त पाकर विशिष्ट पुद्गलद्रव्य कर्मपयायको धारण करता है. इस लिये कर्मात्मकपर्यायको आत्माका मिथ्यात्वादिरूप परिणाम कारण है. उसीको आसव भावास्रव कहते हैं. ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलदचेहिं सव्वदो लोगो ॥ हमे बादरेहिं य दिसादिस्सेहिं य तहेव || १८२४ ॥ अक्षुषा पश्यैः स्थूलैः सूक्ष्मेश्वपुलैः ॥ विविधैर्निचितो लोकः कुंभो धूमैरिवाभितः ॥ १८९५ ।। विजयोदया - ओगाढमाढणिविदो अनुप्रवेशगाढं निचितः पुग्गल पुनलयैः सम्यदो लोगो कात्न्यैन लोकः । सुइमेदि पाइरेडिय सूक्ष्मैः स्थूलैव | दिस्लादिस्सेहि चक्षुषा दृश्येश्यैश्व तदेव तथैव । पतया गाथया कर्मत्यपर्याय योग्यानां पुलव्याणां सर्वलोकाकाशे बहूनामस्तित्वमाख्यातं ॥ कथं जीवप्रस्थितत्वं कर्मायोग्यद्रलानां संभवतीत्याशंकायामाद- मुलारा - आगाढगादणिचिदो अवगाहनमवगाढं परस्परानुप्रवेशः तेनागाई निर्भरं विचिदो व्याप्तः । दित्सादिस्नेहिं चक्षुषा दृश्यैरदृश्यैन । अर्थ - - इस जगत् के प्रदेशों में पुद्गलद्रव्य अतिशय निषिडरूपसे भरा हुआ हैं. अर्थात लोकाकाशका एक भी प्रदेश इस पुद्गलद्रव्यसे रिक्त नहीं है. इस लोकाकाशमें सूक्ष्म, स्थूल, नेत्रसे देखने योग्य व नहीं देखे जानेवाले ऐसे पुल भरे हैं. इस गाथासे कर्मत्वपर्यामको प्राप्त होने की योग्यता रखनेवाले बहुतसे पुद्गलद्रव्यांका आकाश में अस्तित्व है ऐसा सूचित होता है. के से आलवा हत्य श्राद मिच्छतं अविरमणं कसाय जोगा य आसवा होंति ॥ अरहंत अत्सु विमोहो होइ मिच्छतं ।। १८२५ ॥ मिथ्यात्याव्रतको पावियोगानश्रास्त्रबान्विदुः ॥ मिथ्यात्वमर्हदुक्तानां पदार्थानामरोचनम् ॥ १८९६ ।। माश्वासः ७ १६३६ Page #1650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आभासा विजयोबया-मिच्छत अविरमण कसायजोगा य पासवा होति मिथ्यात्वमसंयमः कषाययोगाश्च मानवा भति । आमवंत्यागच्छति । कर्मवपर्यायं पुतला पभिः कारणभूतरिति मिध्यात्यादय आमषशब्दवाच्याः ॥ तेण्यासवेषु मिथ्यात्वस्वरूपं कथयति । बरहंतमुत्तमत्थेसु अईवुक्तेषु अनंतद्रव्यपर्यायात्मकेषु घिमोहो मिच्छतं होदि अचान मिथ्यात्वं भवति । असंयममाचष्टे । के ते आसवा इत्यत्राह. सुजः-जालमा चासईयागच्छति कर्मत्वपर्याय पुद्गला बैरित्याचा मिथ्यावादयश्चत्वारः प्रमादाना कषायान्तर्भावात्पृथगनुपादानं । अत्धेसु अनंतद्रव्यपर्यावात्मकेषु भावेषु । विमोहो विपरीताभिनिवेशलभणमश्रद्धानम् । वे आस्रव कोनसे हैं । इस प्रश्नका उत्सर अर्थ-मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग ये आसबके प्रकार हैं, जिनका निमित्त पाकर पुद्गलाको कर्मवपर्याय प्राप्त होता है एसे जो कारण उनको आस्रव कहते हैं. अर्थात् मिथ्यात्वादिकको आस्रव कहना यह अन्वर्थक है. इन आस्रवोंमेसे मिथ्यात्वनामक आसवका स्वरूप इस प्रकार समझना चाहिय-अईन्द्रगवानने अनंत द्रव्यपर्यायात्मक जीवादिक पदार्थोका जो स्वरूप कहा है उसमें विमोह अर्थात अश्रद्धान करना वही मिथ्यात्व है. अविरमण हिंसादी पंच वि दोसा हवंति णायव्वा ।। कोधादीया चत्तारि कसाया रागदोसमया ॥ १८२६ ॥ हिंसावयो मता दोषाः पंचाप्यवतसंज्ञकाः॥ कोपादयः कषायाः स्यू रागद्वेषद्वयात्मकाः ॥ १८९७॥ विजयोदया-मधिरमण मविरमण नाम 1 हिसादि पंच वि दोसा हिंसान्तस्तेयानपरिग्रहास्याः पंचापि दोषाः इति णाचा अधिरमणं भवतीति ज्ञातव्याः1 प्रमसयोगात्प्राणज्यपरोपणं, ससदभिधान, भत्तादानं, मैथुमकर्म विशेषः, मूर्छा वेति पते परिणामा भविरमणशदेनोच्यते । विरमण हि मिवृत्तिस्ततोऽन्यस्यात् । प्रवृत्तिरूपा हिसावयः अधिरमणं इत्युच्यते । कोधादीया क्रोधसानमायालोमाः। चत्तारि चरवार कसाया कषाया इत्युच्यते। रागदोसमया राग देषात्मकाः॥ मुलारा-रागदोसमया रागद्वेषात्मकाः । अर्थ-हिंसा, असत्य भाषण, चोरी करना, मैथुन सेवन, परिग्रह ऐसे पांच दोषोंको अविरति कहना Page #1651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचा १६३८ चाहिये. कषापयुक्त होकर प्राणीके दस प्राणोंका नाश करना हिंसा है. प्राणीओं को पीडा देनेवाला भाषण असत्य । कहा जाता है. लेने देनेका व्यवहार जिस वस्तूमें होता है ऐसी आपकी नहीं दीनी वस्तुलेना उसको चोरी कहते हैं. चारित्रमोहके उदयसे रागाविष्ट होकर परस्परोको स्पर्शन करनकी जो स्त्री पुरुषों में इच्छा उत्पन होती है उसको मैथुन कहते हैं. चेतन, अचेतन और मिश्र पदार्थों में और रागडेषादिकोंमें जो ममत्वयुद्धि होती है उसको परिग्रह कहते हैं. इन परिणामाको अविरति कहते हैं. क्रोध, मान, माया और लोभ ये 'चार कषाय है ये सब परिणाम गंग द्वेषमय है. रागद्वेषयोमर्माहात्म्य दर्शयति किहदा राओ रंजेदि गरं कुणिमे वि जाणुगं देहे ॥ किहदा दोसो वेसं खणेण णीयपि कुणइ परं ।। १८२७॥ जानंतं कुधित काय रागो रंजयने कथम् ।। बांधवं कुरुते द्रुष्ण षोहीक्षणतः कथम् ॥ ८१८ ॥ विजयोदया--किहदा गओ रजदि गार कथं नाचगागोजयनि नरं । कुणिमे विदेरे अन्यायदि, अनुगग. स्यायोग्य । जाणुग शरीराशुचिव जानतं अझ रंजयति सारे वस्तुनिन रंजवतीति न सफिचच हातारमशुचिम्पसार शारीरे रंजयतीत्येतदभुतमिति भावः, दोसो दोपः,किडदा दोस कुणादि कथं तावदयं करोति। खणे क्षणमात्रणा | जीयपि पर बांधवमपि न अनेनापि वपमाहात्म्यमारवायत । रागाश्रवानांध बंधून द्वेष्यान कशेतीनि ।। रागद्वेषयोमर्माहात्म्यमाह मुलारा किहदा कथमिति विस्मये । तावदिति वाक्यालंकारे । कुणिमे वि अशुन्यसारेपि । जाणुगं देहस्याशुचित्तमसारत्वं च जनामा हातारं अनुरागोऽयोग्येऽनुरंजयतीत्येतद्भुतं इति भावः । बस द्वेष्य णीय पि रागाश्रयं बंधुमपि ॥ अर्थ-यह शरीर अपवित्र है इसके ऊपर प्रीति करना योग्य नहीं है. परंतु यह रागभाव अज्ञजीचको इस शरीरपर अनुरक्त करता है. सार वस्तुमें इस जीवको अनुरक्त नहीं करता है. आर्य यह है कि विद्वान लोकों को भी अपवित्र और निःसार शरीरमें यह अनुरक्त करता है. यह रागभाव अपने निकट जनोको भी एक क्षणमें द्वेषयोग्य करता है. अर्थात् जिनके ऊपर प्रेम करना योग्य है उनके ऊपर भी यह द्वेष उत्पन्न करता है. Page #1652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभ्रामा मूलाराधना १६३९ सम्मादिठ्ठी वि परो जेसि दोसेण कुणइ पावाणि ॥ धित्तसि गारविंदियसण्णाभयरागदोसाणं || १८२८ ॥ कल्मषं कार्यते घोरं सद्दष्टिरपि पर्जनः ॥ रागद्वेषविपक्षांस्ताधिक्संज्ञागौरवात्मनः ॥१८९९ ॥ विजयोदया-सम्माविष्टी चिरो तत्वज्ञानश्रद्धानसमन्यितोऽपि नरः । जेसि दोसण कुणदि पाचाणि येषां दोषण करोति पापानि, धिमि गारवेदियमण्णामयागोसाणं धिक्ताम्गौरवानिद्रियाणि सम्रामदान रागद्वेषांश्च । मला- सम्पादिली नवना : दोसेण अपराधेन विकारप्रापणेनेत्यर्थः । धित्तेसि धिक्तान् । एय एतान् । वित्तीयार्थ षष्ठी ॥ . अर्थ--तत्वज्ञान और श्रद्धानसे युक्त भी भव्य जीच जिनके दोषसे पाप करते हैं उन मारव, इंद्रिय, संज्ञा रूप रागद्वेषाँको धिक्कार हो. जो अभिलासो विसएम तेण ण य पावए सुंह पुरिसों ।। पावदि य कम्मबंधं पुरिसो विसयाभिलासेण ॥ १८९९ ॥ विषयेष्वभिलापो यः पुरुषस्य प्रवर्तते ॥ न ततो जायते सौख्यं पातकं वध्यते परम् ॥ १९०० ॥ विजयोदया-जो अभिलासी विसासु यो अमिलापो विषय स्पशादिषु । तेण विषयाभिलापेण य पावदे सुई पुरिसो सुत्र प्रासोति नैव सुखं पुरुषः पावधि य कम्म प्रागति।च कमपंध,पुरिसो चिसयाभिलासेण पुरुपो विषया. भिलाषेण निमित्तेन । पसेन विश्वामिलापपरिणामस्य प्राणिनामसकत प्रवर्तमानस्याहितना निवेदिता, सुत्रं न प्रयच्छति फर्मबंधकारणं तु भवतीति विषयाभिलायस्यारूावस्य स्वरूप कश्चितं ॥ विषयाभिल्लाप सुन्तं न प्रयकति कर्मबंधे च निमित्तं भवतीत्युपदिश्यते मूलारा---पथम् । .. . .... अर्थ-पंचद्रियों के विषयों में जो अभिलापा उत्पन्न होती है वह पाणओको सुख नहीं देती है. अर्थात ६६३ Page #1653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MPATION मूलाराधना | उस अभिलाषासे कर्मबंध होता है जो कि दुःख देने में कारण है. यह विषयाभिलाषा प्राणिोंमें हमेशा उत्पम || होती है परंतु वह सुखके बदले आत्माका अहितही करती है. यहाँ विषयाभिलाषरूप आबका स्वरूप कहा है. आप्पासा १६१० विषयाभिलायस्य दुतां प्रकारान्तरेणाचरे-- कोई डहिग्ज जह चंदण गरो दारुगं च बहुमोल्लं ॥ गासेइ मणुस्सभवं पुरिसो तह विसर्यलोहेण ॥ १८३० ॥ इंद्रियायमुख धन मानुब्ध प्राप्य योज्यते ॥ भस्मार्थ प्लोषते काष्ठं महामौल्यमसौ स्फुटम् ।। १९०१॥ विजयोदया-कोई हिज जर वर्ण कविधथा हेरुचंदनं । बहुमोल्लं महामूल्य । दासग द अगुपादिवाक घ, यथा दद्दति भस्मादिक स्वल्पं समुद्दिश्य, तद्दा णासेदि मणुस्समंघ तथा नाशयति मानुषमषं अर्नाद्रियानंतसुम्न कारणं । पुरिसो तह बिसयलोभेण अतितुच्छविषयगायन ॥ उक्त च ॥ विषया अनिनेद्रियोत्सवा बहुभिधापि समन्विता रसैः। विषगर्भसुसंस्कृतानषत् परिभुक्ताःपरिणामवारुणाः| विषयसुख प्रतिबद्धलोलवितो विषयमिमिसमनिश्कर्म कस्वा विषय. मुखप्रचिट्ठीणजातिजातो विषयसुखं लभतेन ना पिपुण्यः।। भयंतरेण विषयलापल्यस्य दौष्टयमाचष्टे__ मूलारा--दहेज्ज भस्मार्थ दहेन् । दारुगं का बहुमूल्यमिति विशेषेणागुवादिकम् । मणुस्सभर्व यहूमूल्यमित्यनुवृत्तेरतीन्द्रियानंतसुखकारणसम्यगाचरणमूलं मानुष जन्म ॥ अर्थ--कोई मनुष्य भस्मादिकके लिये अतिशय मूल्यवान् अगुरुचंदनको लकडी जला देता है, वैसे यह मनुष्य भी अतिशय तुच्छ विषयों में लंपट होकर अतीन्द्रिय अनंत सुखको देनेवाले इस मनुष्य जन्मको नष्ट कर देता है. आगममें इस विषयमें ऐसा कहा है-ये विषय इन्द्रियोंको आल्हाद उत्पन्न करते हैं और अनेक रसांसे युक्त है परंतु जैसे विपमिश्रित अन्न बडुत रसोसे युक्त होने पर भी भक्षण करनसे प्राण लेता है वैसे ये विषय आत्माका नाश करते हैं अर्थात दुर्ग में घुमाते हैं. जो मनुष्य विषयसुखमें आसक्त होता है वह उस विषयके लिये अनिष्ट कार्य करता है. जिससे विषयसुखरहित लोगों में जन्म लेता है. उचित ही है कि पुण्यरहित मनुष्यको विषय मुखकी प्राप्ति होती नहीं. 2499TOMANCE Page #1654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वासा १६४१ धुट्टिय रयणाणि जहा रयणदीवा हरेज्ज कठाणि ॥ माणुसभ वि धुट्टिय धम्म भोगे भिलसदि तहा ॥ १८३१ ।। नृत्वे बोक्षसुत्रं मूढो धर्म मुक्त्वा निषेवते ॥ लोष्टं गृह्णात्यसौ मुक्त्वा रत्नद्वीपेऽमधं मणिम् ॥ १९०२ ।। विजयोदया-धुष्ट्रिय रयणाणि जहा रत्नानि त्यक्त्वा यथा, रयणदीवा हज कहाणि रत्नद्वीशकाष्ठान्थाहरति । तहासय विद्यासमभ : धाः पिलाजोगे भिलसदि भोगाम्यांछति । तदुक्तं भवति-यने कसार मानास्पद रत्नही सुदुर्लभ प्रापय मुधा लब्धान्यपि रत्नान्यनुपादाय असागर्मिधनं सुलभं साम्बुद्धया वधा कश्चिदाहरति अहः । तथानक गुणरत्माकर मनुष्यभवं दुग्धा पमनान्य अती पराधीन अल्पकालिक बिषयसुखमभिलपति ॥ अनेकगुगरत्नाकर सुदुल मनुष्य भवनामाच पायत्तमनपर्क स्वल्पकालं विषयमुग्यमभिलगत अनुश चिनिमूलारा-रयणागि सुधा लब्धान्यपि हीरकादीनि । रयणसीया रत्नदीपात । हरेज सारदुलभबुद्धयाऽनयेत् ।। अर्थ--जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीप में जाकर भी रन्नोंका त्याग कर काष्ठ लाता है वैसे मनुष्यभव में भी कोई धर्मको छोड़कर भोगोंकी अभिलाषा करता है. अभिप्राय यह है कि, अनेक उत्कृष्ट रत्नीका स्थान जो रत्नदीप जो कि बहुत दुर्लभ है वहां जाकर सहज प्राप्त हुए रत्नाको ग्रहण न कर जो तुच्छ निःसार और अयत्नप्राप्य इंधनों को सारयुक्त समझकर उनका संग्रह करता है वह जैसा मुखशिरोमणि समझा जाता है वैसा अनेकगुणरत्नाकी मनुष्यभर खान है. ऐसा अलभ्य मनुष्यजन्म पाकर यदि दृप्ति उत्पन्न नहीं करनेवाला, पराधीन अल्पकाल तक टिकनेवाला ऐसा विषयसुख मनुष्य चाहता है तो यह चाइना रत्नहीप में जाकर लकडिओंका संग्रह करने के समान है. गंतुण गंदणवणं अमय छंडिय त्रिस जहा पियइ ॥ माणुसभवे वि छड्डिय धम्म भोगे मिलसदि तहा ।। १८३२ ॥ यो नृत्वे सेवते भोगं हित्वा धर्ममकल्मषम् ।। असौ विमुच्य पीयूषं विषं गृह्णाति नंदने ।। १९०३ ॥ विजयोन्या-गंभूण वणवणं गत्वा नंदनवन । अमर्य छलिय अमृत त्याचा । विसं जहा पिया विष यथा पियति कश्चित् । माणुसमवे चि छद्रिय मनुष्यभधेपि त्यक्त्वा । धम्म धर्म । भोमेभिलसदि तहा,मोगानाभिलाषरति तथा । १६४१ २०६ Page #1655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना १६४२ मुलारा-अमयं देवाहारम् ।। अर्थ-जैसे कोई मुर्ख मनुष्य नन्दन बनमें जाकरमी वहां अमृतका त्याग कर विषपान करता है. वैसे कोई मनुष्य मनुष्पमपमें भी वर्मको छोडकर भागोको अभिलासा करता है. योगशब्दार्थमाचष्टे पावपओगा मणवचिकाया कम्मासर्व पकुवति । भुज्जतो दुभत्त वणम्मि जह आसवं कुणइ ॥ १८३१॥ योगः कर्मासर्व दुष्टो मनोवाक्कायलक्षणः ॥ यथा मुक्तो दुराहारो विदधाति प्रणास्रवम् ॥ १९०४॥ विजयोदया--पायपोगा पापे प्रयुज्यते प्रवर्त्य ते एभिरिति पापप्रयोगाः । मणवत्रिकाया मगोपाकायाः,कम्मासर्व पकुव्यंति कमाय पर्यायागमं पुललानां कुबति । मुंजतो दुभतं भुजमानो दुराहार । वर्णमि अह आसवं कुणदि, त्रणे यथा आम स्तुति पूतीनों करोति ।। योगान्व्याच मूलारा-पायपओगा पापं दुष्कृत, कर्ममात्र वा म्युज्यते प्रवत्यते वैरिति पापप्रयोगाः । वर्मत्वपरिणमाशनियुक्ता इत्यर्थः । कम्मासवं पुदलान कर्मत्वपर्यायोपगमनं । मुजतं मुख्यमानं । दुभत्तं अपथ्यानपानं । वमि बणे | आसषं आमुनि पूरादीनां ।। योगशब्दका स्पष्टीकरण-- अर्थ-जिनसे पापोंकी प्रवृत्ति की जाती है ऐय मनोयोग, वचनयोग और काययोग पुद्गलों में कर्मत्व पर्याय उत्पन्न करते हैं. जैसे अपथ्याहारका भक्षण करनसे व्रण में दुर्गंध रक्त, पीव उत्पन्न होता है वैसे इन पापयोगोंसे कर्म उत्पन्न होता है. कमर्माणि शुभाशुभरूपाणि विविधानि, तत्र कस्य कर्मणः क यास्मय हत्यत्राह अणुकंपासुवओगो वि य पुण्णस्स आसबदुवार ।। तं विवरीद आसवदारं पावरस कम्मरस || १८३४ ॥ १६४२ SHRASTAS RSS Page #1656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा मलाराधना १६४३ ना आसवं कुरुते योगो विशुद्धः पुण्यकर्मणाम् ।। विपरीत पर मशः सेनिसः नागकर्मणाम् ॥ १९०५ ॥ बिजयवेदया-वणुकंपा अनुकंपा | सुद्धयोगो शुवध प्रयोगः परिणामः, पुण्णस्स आसपदुपारं पुतलाना पुण्यत्त्वपर्यायागमनमुखं सद्वंद्य सम्यक्त्वं रतिद्धास्यपुंचेदाः शुभे नामगोने शुभ चायुः पुण्यं पतेभ्योऽन्यानि पापानि । अनुकंपा विप्रकारा ॥ धर्मानुकंपा मिथानुकंपा सर्वानुकंपा चेति ॥ तत्र धर्मानुकंपा नाम परित्यक्तासंयमेषु मानायमान सुग्नदुःखलामालाभतणसुवर्णादिषु समानाचत्तेयु दातेंद्रियांतःकरणेषु मातरमिव मुक्तिमाश्रितेषु परिहनोग्रकाशय विषयपु दिव्येषु मोगपु दोषान्विचिन्य विगगतामुपगत, संसारभद्दासमझायन निशास्वप्यल्पनिटे पु, अंगीतनिगरवेषु, क्षमादिदशषिधधर्मपरिपातेप यानुकंपा सा धानुकंपा, यथा मयुक्तो जनो विवेकी नद्योग्वान्नानावसथैपणादिक संयमसाधन पतिभ्यः प्रयास । स्वामपिनिगुह्य शक्ति उपसर्गदोपानपसारयति आहायतामिति मा करोति चरमार्गाणा पंथानमुपदर्शयति । तैः प्रयोगमवाप्य अहो सपुण्या वयमिति दृष्यति, सभासु तेषां गुणाकातयति स्वांत गुरुभिव पश्यति नेपां गुणानामभीक्ष्ण स्मरति, महात्मभिः, कदा नु मम समागम इति । तैः संयोग समीसति, नदीयान् गुणान् परैरमिवर्यमानान्निशम्य तुष्यति । इत्थमनुकंपापरः साधुगुणानुमननानुकारी भवति ! त्रिधा च संतो बंध मुपदिशंति स्वयं कृतेः, कारणायाः, परैः कृतस्यानुमतेश्च ततो महागुणराशिगतहर्षात् मट्टान पुण्यात्रवः । मिश्रानुकंपोच्यते । पृथुपापकर्ममूलभ्यो दिसादिभ्यो व्यावृत्ताः संतोपवैराग्यपरमनिरताः दिग्विरति, देशविरति, अनर्थवज. विरर्ति चोषयतास्तीवदोपाद योगोपभोपानिवृत्य शेषे च भोगे कृतप्रमाणाः पापात्परिभीतवित्ताः, विशिष्पदेशे काले च चिवर्जितसर्वसांचद्याः पर्वस्वारंभयोग सफलं विसृज्य उपचासं ये कुर्वति तेषु संयतास्यतेषु क्रियमा. णानुकंपा मिश्रानुकंपोकयते ॥ जीयेषु श्यां च कृत्वा हरस्नामयुध्यमानाः जिनरसूत्राबाया येऽन्य पाख. डरताविनीताः कानि तपांसि कुर्वति, तेषु क्रियमाणानुकंपा तया सपि कर्म पुण्यं प्रचिनोति देश प्रवृसिग्रीधणामकरस्नत्वात् । मिथ्यावदोषोपहतोन्यधर्म इस्थेष मिचो भयति धर्मों मिश्चानुकांमधगच्छजितुः ॥ सरएयो वापि कुष्पयो चा स्वभावतो मावसंप्रयुक्काः॥ यां कुर्षते सर्वशरीरवर्ग सर्चानुकंपेत्यभिधीयते सा ।। छिनाम् विद्वान् पक्षान् प्रकृतषिटुप्यमानाच मान, सहनसो निरनसोपा परितक्ष्य मुगाम्बिहमान सरीसृपान् पशूध मांसदिनिमित्तं प्रहन्यमानान् परलोके परस्पर या तान हिसतो भक्षयतश्च एवा सूक्ष्मांकान् कुंथुपिपीलिका प्रभृति प्राणभृतो मनुसकरमनर शरभकरितुरगायिभिः समृद्यमानानाधीश्य असाध्यरोगोरमदशनात् परितप्यमानान् मृतोस्मि नष्टोम्यमिधावतेति रोगानुभूयमानान् , स्वपुत्रकलादिमिर प्राप्तकालिः (?) सहसा वियुज्य कुर्वतो राजा विक्रोशतः, स्वांगानि नतच, शोकेन उपार्जितद्रविणेचियुज्यमानान प्रनष्टघून धैर्यशिल्पविद्याव्यवसायहीनान यान् प्रनामशक्त्या वराकान् निरीक्ष्य दुःखमात्मस्थमिच चिचित्य स्वास्थ्यमुपशमनमनुकंपाः। सुदुर्लभ मासुषजन्म लवामा क्लेशपावापिण. चैव भूत ॥ धमें झूमे भूतहिते यतध्यमित्येवमाद्यैरपि चोपदेशः। कृतकरिष्यमाणोपकारानपेक्षिरतुकंपा कृता भवति । पुण्यानचं सा त्रिविधानुकंपा भूतेषु पुत्र जननी शुभेय तेनानुकंपा प्रभाविपुण्यासाके मृता अभ्युपपसिमीयुः शुद्धप्रयोगो निरूप्यते १६४३ Page #1657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६४५ स च द्विप्रकारः । यतिगृहिगोचर मेदेन यतेः शुद्धोपयोग इत्थम्भूतः । जीवास हन्यां नमृषा चदेयं । चौर्य न कुर्यान्न भजेयभोगान् ॥ धर्म नवचक्षपास भुंजीव कृच्छ्रपि शरीरापे ॥१॥ रोषेण मानेन च मायया च । लोभेन चा बहुदुःखकेन युंजय नारंभपरिख, दीक्षां शुभामभ्युपगम्य भूयः ॥२॥ यथा न भायाच्चलमौलिमालो || भिक्षां चरन्कार्मुकवाणपाणिः, तथा न भायां यदि दीक्षितः सन् । महेय दोषाना लज्जां ॥३॥ लिंग गृहीत्वा महतामीणां अंग व विस्त्यरिकर्महीन । नानामविचित् कष्टं । कथं कामगुणे कुर्याम् ॥४॥ चर्यामनार्याचरितामय प्रेर्येण हीनाः कृपणत्वमेत्य कथं वृधामुण्डशिरश्धिरण लिंगभवविकारयुक्तः ॥ ५ ॥ इत्येवमादिः शुभकर्मत्रिता सिद्धादाचार्यबहुश्रुतेषु । चैत्येषुसंघे जिनशासने च भक्तिर्विरनिर्गुणरागिता च ॥ विनीतता संयमो प्रेमलता, मृदुता, क्षमा, मार्जवं संतोषः संज्ञाशल्पगारयविजयः उपसर्गपरीषद्वजयः सम्यग्दर्शनं तद्विज्ञानं सरागसंयमं दशविध धर्मध्यान जिनेंद्र पूजा, पूजोपदेशः, निःशंकित्वादिगुणा एक प्रशस्तरागसमेता तपोभावना, पंचसमितयः तिस्रो गुप्तय इत्येवमाद्याः शुद्धप्रयोगाः । गृहिणां शुद्धोपयोग उच्यते गृहीतवतानां धारणपालनपोरिच्छा क्षणमपि व्रत भंगोsar: अभीक्ष्णं यतिसंप्रयोगः, अन्नादिदानं श्रवादिविधिपुरस्सर मनोवनाथ भोगान् भुक्त्वापि स्थगित शक्तिविग सदा गृहप्रमोक्षप्रार्थना, धर्मषणोपलं भात्मन सोतितुष्टिः भक्त्या पंचगुरुस्तवनप्रणामेन तत्पूजा, परेशां च स्थिरीकरणसुपबृंहणं, वात्सल्यं, जिनेंद्रभक्तानामुपकारकरणं, जिनेंद्रशास्त्राभिगमा, जिनशासनमभावना इत्यादिकः । तव्विघरीदं अनुकंपाशुद्धप्रयोगाभ्यां विपरीतः परिणामः । आसनदार आवारे पाप कम्मरस अशुभस्य कर्मण आनवं । संवरानुप्रेक्षा कथ्यते । संघियं निरुध्यतेऽभिनयाः कमेपयायाः पुहलाना येन जीवपरिणामेन मिथ्यात्वादिपरिणामो वा निरुध्यते स संवरः । तत्रायं सूरिर्मिथ्यात्वादिपरिणामसंवरात् सम्यक्त्वानां संवरतामाच ॥ कः पुण्यस्यास्रवः कश्ध पापस्थास्रव इत्यत्राह - मूलारा - अणुकंपा कृपा । सा चत्रिधा। धर्मेश्रर्वानुपाभेदात् । तत्र धर्मानुकंपा नाम यया प्रयुक्तो विवेकि लोकः स्वशक्त्यनिगूहनेन संयम निष्ठेभ्यस्तयोग्यान्नपानवसत्युपकरणीपश्वादिकं संयम साधनं प्रयच्छति । तेषामुपसर्गानपसायति | आज्ञाध्यतामिति सेवां करोति । पथि विभ्रान्तानां पंथानमुपदिशति । तत्सम्प्रयोगमवाप्य सुपुण्योऽद् मिति हृष्यति । सभासु गुणकीर्तयति । कीर्यमाचाननुमोदते, स्मरनि चाभीक्ष्णं । तैर्महात्मभिः कदा तु मे समागमो भविष्यतीति तत्सम्प्रयोगाय लोकंठः स्पयति । एवमादिमहागुणराशिगत हर्ष प्रकर्षान्महान्पुण्यासवो भवति । यद्वत्संयतासंयतेषु जिनसूत्रपरिषु च यथायोग्यं क्रियमाणानुकंपा मिश्रानुकेपोच्यते । सा च मिश्रपुण्यास्रवः स्यात् । सदृष्टिभिः कुदृष्टिभि र्वा क्रियमाणा क्लिश्यमान सर्वप्राणिषु अनुकंपा सर्वानुकंपेत्युच्यते । यथा श्रयुक्तोऽन्यदुःखं स्वात्मस्थ मिव मन्यमानस्तत्स्वाया प्रत्युपकारनिरपेक्षं प्रयतते । सदुपदेशं च ददाति । सांपि पुण्यासषायैव स्यात् । सुद्धोपओगो शुद्ध परिणामः । आश्वासर ७ १६४४ Page #1658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १.६४५ स च द्वेधा यतिगृहिगोचर मेदात् । तत्र यतिशुद्ध प्रयोगो निमनशीलस्वाध्यायध्यानादिलक्षणः । गृहिशुद्धप्रयोगस्तु हिंसादिविरतिरूपाणुव्रतशीलादिलक्षणः । पुण्यस्य सद्वेद्यसम्यक्त्व र ति हास्य वद शुभायुर्नामगोत्ररूपस्य कर्मणः । सवदुदारं पुलानां पुण्यत्वपयागमनम् ॥ आखवानुप्रेक्षा ॥ कर्मके शुभकर्म और अशुभ कर्म: ऐसे दो भेद हैं उनमें किस कर्मका कोनसा आम्रव है इसका विवेचन आचार्य करते हैं- अर्थ --- अनुकम्पा दया, शुद्धोपयोग - आत्मा के निर्मल परिणाम ये पुण्यकर्मके आगमनद्वार हैं इन परिणा'मोंसे पुण्यकर्मका पर्याय पुष्गलमें उत्पन्न होता है. सातावेदनीय, सम्यक्त्यप्रकृति, रति, हास्य, पुंवेद, शुभनाम कर्म , और उच्च गोत्र, शुभआयु इनको पुण्य कहते हैं. इनसे जो भित्र कर्म है उसको पाप कहते हैं. अनुक्रया-पप-हमुझे छीनेद है धर्मातुरूपा, मिश्रानुकम्पा और सर्वानुकम्पा, धर्मानुकंपा का स्वरूप इस प्रकार है जिन्होंने असंयमका त्याग किया है. मान, अपमान, सुख दुःख, लाभालाभ, तृण सुवर्णं इत्यादिकों में जिनकी बुद्धि रागद्वेषरहित हो गयी है, इंद्रिय और मन जिन्होने अपने वश किये हैं. उग्रकपाय और विषयोंको जिन्होंने छोड दिया है, दिव्यभोगोंके दोष देखकर जो वैराग्ययुक्त हो गये हैं, संसारसमुद्रकी भीति से रात में भी अल्पनिद्रा लेनेवाले, जिन्होंने संपूर्ण परिग्रहों को छोडकर, निःसंगता धारण की है, जो क्षमादि दश प्रकार के धर्मो में इतने तत्पर रहते हैं कि मानो स्वयं क्षमादि दशधर्म स्वरूपही बनेहो ऐसे संयमी मुनिओके ऊपर जो दया करना उसको धर्मानुकंपा कहते हैं. यह धर्मानुकंपा अंतःकरणमें जब उत्पन्न होती है तब विवेकी गृहस्थ यतिओंको योग्य अन्नपाणी, सतिका पधादिक पदार्थ देता है, अपनी शक्तिको न छिपाकर वह मुनि के उपसर्गको दूर करता है. हे प्रभो ! आप आज्ञा दीजिये ऐसी प्रार्थनाकर सेवा करता है. यदि कोई मुनि मार्गभ्रष्ट होकर दिङ्मूढ हो गये हो तो उनको मार्ग दिखाता है. मुनियों का संयोग प्राप्त होनेसे हम धन्य है ऐसा मनमें समझ कर आनंदित होता है. सभामें उनके गुणोंका कीर्तन करता है. मनमें मुनिओंको धर्मपिता, गुरु, समझता है. उनके गुणोंका चिंतन मन में हमेशा करता है. ऐसे महात्माओं का फिर कच संयोग होगा? ऐसा विचार करता है. उनका सहवास हमेशाही आश्वास ७ १६४५ Page #1659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आया PRAriestateRAMANARASIMHATARNAMASTAR होनकी इच्छा करता है. दुसरों के द्वारा उनके गुणोंका वर्णन सुनकर संतुष्ट होता है. इस प्रकार धर्मानुकंपा करनेवाला जीर साधुके गुणोंको अनुमोदन देनेवाला और उनके गुणोंका अनुकरण करनेवाला होता है. आचार्य बंधके तीन प्रकार कहते हैं. अच्छे कार्य स्वयं करना, कराना, और करनेवालों को अनुमति देना इससे महान् पुण्यालव होता है. क्योंकि महागुणोंमें प्रेम धारण कर जो कुत कारित और अनुमोदन प्रवृत्ति होती है वह महापुण्यको उत्पन्न करती है. मिश्रानुकंपाका वर्णन-महान् पातकोंके मूलकारणरूप हिंसादिकोसे विरक्त होकर अर्थात् अणुव्रती बनकर संतोष और वैराग्य में तत्पर रहकर जो दिग्विरति, देशविरति, और अनर्थ दंडत्याग इन गुणवतोको धारण करते हैं, जिनके सेवनसे महादोष उत्पन्न होते है ऐसे भोगोपभोगाका त्याग कर बाकीके भोगोपभोग के वस्तुओंका जिन्होंने प्रमाण किया है, जिनका मन पापसे भययुक्त हुआ है. अर्थात् पापसे डरकर विशिष्ट देश और कालकी मर्यादा कर जिन्होंने सर्व पापांका त्याग किया है अर्थात् जो सामायिक करत है. पोंके दिनमें संपूर्ण आरंभका त्याग कर जो उपवास करत है एसे संयतासंयत अर्थात गृहस्थोंपर जो दया की जानी है उसको मिश्रानुकंपा कहते हैं. जो जीवोपर दया करते हैं. परंतु दया का पूर्ण स्वरूप जो नहीं जानते हैं. जो जिनसूत्रसे बाह्य हैं, जो अन्य पाखंड गुरूकी उपासना करते हैं, नम्र और कप्टदायक कायक्लेश करते हैं इनके ऊपर कृपा करना यह भी मिश्रानुकंपा है, क्योंकि गृहस्थोंकी एकदेशरूपतासे धर्ममें प्रवृत्ति है वे संपूर्ण चारित्ररूप धर्मका पालन नहीं कर सकते हैं. अन्य जनोंका धर्म मिथ्यात्वसे युक्त है, इसयास्ते गृहस्थधर्म और अन्यधर्म दोनोंके ऊपर दया करनेसे मिश्रानुकंपा कहते हैं सुदृष्टि अर्थात् सम्यग्दृष्टिजन, कुष्टि मिथ्यारष्टि जन ये दोनों भी स्वभावतः मार्दवसे युक्त होकर संपूर्ण प्राओंके ऊपर दया करते हैं इस दयाका नाम सीनुकंपा है. जिनके अवयव दृट गये हैं, जिनको जखम हुई है, जो बांधे गये हैं, जो स्पष्ट रूपसे लूटे जारहे हैं ऐसे मनुष्योंको देखकर, अपराधी अथवा निरपराधो मनुष्यों को देखकर मानो अपनेको ही दुःख हो रहा है ऐसा मानकर उनके ऊपर दया करना यह सर्वानुकंपा है, हरिण, पक्षी, पेटसे दौडनेवाले प्राणी, पशु इनको मांसादिकके लिये लोक मारते है ऐसा देखकर अथवा A Page #1660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १५४७ | आपसमें उपयुक्त पाणी लडते हैं और भक्षण करते हैं ऐसा देखकर जो दया उत्पन्न होती हैं उसको सर्वानुकंपा कहते हैं. सूक्ष्म कुंथु, चींटी. वगैरह प्राणी, मनुष्य, ऊंट, गधा, शरभ, हाथी घोडा इत्यादिकोके द्वारा मर्दित किये जा रहे हैं ऐसा देखकर दया करना चाहिये. असाध्य रोगरूपी सर्पसे काटे जानेसे जो दुःखी हुए हैं. में भर रहा है, मेरा नाश हुआ, हे जनहो दौडो ऐसा जो दुःखसे शब्द करते हैं उनके ऊपर दया करनी चाहिय. पुत्र कलत्र- पत्नी वगैहरसे जिनका नियोग हुआ है. जो रोग पीडासे शोक कर रहे हैं. अपना मस्तक बगैरह अवयव जो बदनासे पीटते हैं. कमाया हुआ धन न होनेसे जिनको शोक दुआ है. जिनके बांधव छोडकर चले गये हैं, जो धैर्य, शिल्प, विद्या, व्यवसाय इत्यादिकोंसे रहित हैं उनको देखकर अपनको इनका दुःख हो रहा है ऐसा मानकर उन प्राणिऑको स्वस्थ करना उनकी पीड़ाका उपशम करना यह सानुकंपा है. यह मनुज जन्म अतिश्य दुर्लभ है. सज्जनो! इसकी प्राप्ति आपको हुई है इस वास्ते अकृत्य करके आप दुःखके पात्र मत बनो. कल्याण कारक शुभ ऐसे सत्य धर्ममें दृढ रहनेका आप प्रयत्न करो. इस प्रकारका उपदेश देना चाहिये. जो प्राणि ऑपर दया करते हैं उनको इसने मेरे ऊपर उपकार किया है. यह मेरे ऊपर उपकार करेगा ऐसी आशा करना योग्य नहीं है. इस प्रकार प्राणिऑपर तीन प्रकारकी दया की जाती है. इस दयासे जो पुण्य संचित होता है उसस स्वगर्म जन्म होता है. अब शुद्ध प्रयोगका निरूपण करते हैं- यतिका शुद्धपयोग और गृहस्थोंका शुद्ध प्रयोग ऐसे इसके दोन भेद है. यतिके शुद्धग्रयोगका वर्णन इस प्रकार है'मैं जीवोंको नहीं मारूंगा, असत्य भाषण नहीं बोलूंगा, और घौर्य नहीं करूंगा, भोगोंका उपभोग मैं नहीं करूंगा. धनका सेवन नहीं करूंगा और शरीरको अतिशय का होनेपर भी सतमें भोजन नहीं करूंगा, क्रोध, मान, माया और लोभसे बह दुःख देनेवाले आरंभ परिग्रहीका सेवन नहीं करूंगा, मुनिदाक्षा धारण कर ऐसा कर्म करना मेरे लिये अत्यंत अयोग्य है. - जम जिसने अपने किरीटपर माला धारण की है, हाथमें धनुष्य और याण धारण किये हैं ऐसा राजाके सहश मनुष्य यदि भीख मांगगा तो उसके लिये यह भीख मांगना बिलकुल योग्य नहीं है. वैसे मैं भी दीक्षा लज्जाको छोडकर आरंभ परिग्रहादिक कार्य करूंगा तो क्या वह मेरेलिए योग्य होगा? कदापि नहीं. मैंने पूज्य १६४७ Page #1661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाराधना आश्वासः महर्षियाँका लिंग धारण किया है, मैने यदि व्रतोंके नाशकी पर्वा नहीं की तो यह योग्य नहीं होगा. यदि मैने आवश्यकादि पट् कर्म भी नहीं किये तो यह मेरे लिए योग्य नहीं होगा. दीक्षा धारण कर काम विकार में मैं अपनी आसक्ति कैसी करूं? धेर्य छोडकर चाहे जैसी प्रवृत्ति करना यह अनार्यपना का सूचक है. धैर्य छोडकर हीन होकर प्रवृत्ति करना योग्य नहीं हैं. यदि मेरे देहमें विकार रहेगा ही तो व्यर्थ मस्तक मुंडकर यति का आचरण करना उपक्ष है. इस प्रकार विचार कर आरंभ परिग्रहादिकॉमें बेराम्य बढाना चाहिए. सिद्ध, अईत, आचार्य, उपाध्याय, जिनप्रतिमा, संघ, जिनधर्म इनके ऊपर भक्ति करना, विषयस विरक्त होना, इनके गुणोंपर मेम रखना, नम्रता, संयम, अप्रमाद स्वकृत्योंमें सावधान रहना, मादेव, क्षमा, आर्जव, संतो प ये गुण धारण करने चाहिये. आहारादिक चार संज्ञाओंको जीतना चाहिये, शल्य और गारवोंका त्याग करना उपसग और परीपहोंको जीतना, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, परागसंयम, दस प्रकारका धर्मध्यान ये गुण धारण कर जिनन्द्रकी पूजाका उपदेश करना, निशकितादिक आठगुण, प्रशस्तरागी तपोभावना अर्थात मैं तपद्वरा काँका क्षय कगाएमी उत्कृष्ट अभिलापा, पांच समिनि, तीन गुप्ति इत्यादिक मुनियों का शुद्ध प्रयोगका वर्णन है. गृहस्थाक शुद्ध प्रयोगका वर्णन जो व्रत धारण किया है उसको धारण करना और पालन करने की इच्छा रहना, एक क्षणतक भी व्रतका नाश होना अनिए है, अकल्याण कारक है ऐसा समझना, इमेशा यतियोंके सहवास की इछा रखना, श्रद्धादिविधाके अनुसार आहारादिकदान देना, श्रमपरिहार करनेकी इच्छासे भोगोंको भोगकरी इनका मैं त्याग करनेमें असमर्थ हूं ऐसी अपनी निंदा करना. सदा घरका त्याग करने की इच्छा रखना, धर्मश्रवण करने पर मनमें अत्यानंदित होना, भक्तीसे पंच गुरुओंकी स्तुति करना. प्रणाम करना, पूजा करना, अन्य लोगों को भी जैनधर्म में स्थिर करना, उपगूहन करना, साधार्मिकोंपर प्रेम रखना, जिनेंद्रके भक्तोंपर उपकार करना जिनशाखका सत्कार पूजा करना, जिनधर्म की प्रभावना करना इत्यादिक गृहस्थोंक शुद्ध प्रयोग है. अनुकंपा और शुद्ध प्रयोगके विपरीत परिणाम होने से अशम कर्म के अब आते हैं, अब संवरानुप्रेक्षाका आचार्य वर्णन करते हैंपुद्गलों में होनेवाले कर्मपर्याय जिस जीपपरिणामसे रुक जाते हैं उस परिणामको संबर कहते हैं, १६४८ Page #1662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना अथवा जिस जीवके परिणामसे मिथ्यात्वादिपरिणाम रुकजाते हैं उस सम्यक्त्यादि परिणामको आचार्य संबर कहते । हैं. मिथ्यात्वादि परिणामोंको रोकनेसे सम्यक्त्वादि परिणामोंको संबर कहते है. आश्वासा -awanRImasan -- मिच्छत्तासबदार रंभइ सम्मतदिढकवाडेण ।। हिंसा विदढवदफलहहिं रुभति ॥ १८३५ कुदर्शनावृत्तकषाययोगैर्जीवो भवे मज्जति कर्मपूर्णः ॥ दुरापपारे विवरैरनेक पोलः पयोधाविव वारिपूर्णः ॥ १९०६ ।। इत्यासवानुमेक्षा । मिध्यात्वमासचद्वारं पिधत्ते सत्वरोचनम् ॥ संघमासंयम सयो गृहीत्वारमिवाररे ॥ १९०७ ॥ विजयोदया- मित्तासयदार तस्वाश्रयानमारपवार । भसि रुंधते, सम्मत्तदिढकवाडेण तत्वज्ञान कवाटेन । दिसादिदुधाराणि वि दिसाविशाराण्यपि, वढषदफलहेहि रमति हनुमतपरिधः स्थगयंति ॥ धर्म ध्यापयितु गाथाशकेन संवरमनुप्रेक्षते---तत्रा सत्रियन्ते निरुध्यते प्रत्ययाः कर्मपर्यायाः पुदलानो येन जीवपरिणामेन मिथ्यात्यादिवों पेन निरुभ्यते स संवर इति मिथ्यात्वादिपरिणामसंचरणात्प्राधान्येन सम्यक्त्वाधीनां संघरसां निरूपयविधेयतां भावयति-- मूलारा-भति रुन्धन्ति के मुमुक्षयः । कलिहेईि अर्गलामिक का आचार्य वर्णन करते हैं अर्थ-तच्यार्थ श्रद्धानको सम्बग्दर्शन कहते हैं. सभ्यग्दर्शनरूप मजबुत किवाडकेद्वारा पुरुष मिथ्यात्वरूपी दरवाजा जोकि पापकर्म आनेका कारण है बंदकर देते हैं. अहिंसादि व्रतरूपी अर्गलाओंसे पुरुष हिंसादि दरवाजों को बंद कर देते हैं. उबसमदयादमाउहकरण रक्खा कसायचोरोहि॥ सक्का काउं आउहकरण रक्खाव चोराणं ।। १८३६ ॥ १६४९ । २० Page #1663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १६५० BATA कषायतस्करा रद्रा दयादमशमायुधैः ।। शक्यंत रक्षितुं दिन्पैरायुधैरिय तस्कराः ।। १९०८ ॥ विजयोदया-उवसमदयादमाउद्दकरणा उपशम कपास्यवदनीयस्थ कर्मणस्तिरोमयनं, क्या सर्थप्राणियिपया, दमः कषायदोषभावनया चिचनिग्रहः । पते भय आयुधाः करे यस्य तेन । सायचारहि कपाथचोरेभ्यः । रक्खा सक्का कार्नु रक्षा शक्या कर्तु, मायुधकरण रक्खाव चोरोहिआयुधहस्तेन गोरेश्यो रक्षेच, क.पायदोषपरिमानेनासकृत् प्रवृत्तेन क्रोधादिनिमित्तषस्तुपरिहारेण तत्प्रतिपक्षमादिपरिणामेन च कषायनिवारणं ।। उक्तं च ॥ जेयस्सदा क्रोधमुपाश्रितः क्षमा, अयेकच माने समुपेन्य मादच । तथंव मायामपि वार्जबाजयेत् , जयेच्च संतोषवशेन लुब्धतां । जिताः कषाया यदि किस जितं कषाय मूलं सकलं हि धनमिति ॥ मूलारा-जबसम-कषायवेदनीयकर्मणा उदयनिमित्तबजनेन श्रमादिभावनया था तिरोभावादात्मनः प्रसत्तिः ।। दमकवायदोषभायनया चित्त निग्रहः ।। अर्थ----कपाय वेदनीय कर्मका उदय न होना उसको उपशम कहते हैं. सर्व प्राणिऑफे ऊपर उनका दुःख देखकर अपना अंतःकरण आर्द्र होना दयाका लक्षण है.कषायोंके दोषोंका विचारकर चित्तको स्वाधीन रखना निग्रह कहते हैं. उपशम, दया और निग्रह ये तीनशस्त्र जिसने अपने हाथ में लिये है यह पुरुष कपायरूपी पोरोसे सशस्त्र मनुष्य जैसा चोरोंसे अपना रक्षण करता है रक्षण करता है- संवरकी इच्छा रखनेवालोने वारंवार कषायोंके दोषोंका परिज्ञान कर लेना चाहिये. जिन वस्तुओंका आश्रय करनेसे क्रोधादि कषाय उत्पन्न होंगे उनका त्याग करना चाहिये. और क्रोधादिकों के प्रतिपक्षीरूप क्षमा, विनय, सरलपना, निलोमता वगैरह परिणाम आत्मामें उत्पन्न करने चाहिये. इससे कपायोंका अवश्य निवारण होगा. इस विषयमें ऐसा कहा ई-क्षमाका आश्रय लेकर क्रोधको जीतना चाहिये. मार्दवके आश्रयसे मानकषायका पराभव करना चाहिये. आर्जन गुणसे मायाको और संतोष धारण कर लुब्धताका परिहार करना चाहिय. यदि जिसने कपाय जीत हैं उसने सर्व जीत लिया ऐसा समझना चाहिये. योंकि संपूर्ण कर्मबंधन के लिये कषायही कारण हैं. मिथ्यात्वनवर कपायसवरं निरूप्य दियघर ध्याच इंदियदुइतस्सा णिग्धिप्पंति दमणाणखलिणेहिं ॥ उप्पहगामी णिग्धिप्पंति हु खलिणेहिं जह तुरया ॥ १८३७ ॥ Page #1664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६५१ इन्द्रियाश्वा नियम्यते वैराग्यखलिनेष्टः ॥ उत्पथप्रस्थिता दुष्टास्तुरगाः खलिनैरिव ।। २९०९ ॥ furunarratतस्सा इंद्रियदुदीताश्वाः णिग्धिप्पति मिगृहांते निरुध्यते, केन दमणाणख लिहि प्रधानानि दमशानानि तान्येव सलिनानि ते।। शब्दादिषु वर्तमानानि इंद्रियज्ञानानि रागद्वेषमूलानि तानीबेंद्रियशब्दनोव्यंते तेषां चावानां निरोधस्तत्यज्ञानभावनया भवति । अथो रुपयोर्युगपदेकस्मिनात्मन्यप्रवृत्तेः । उपपथगामी उन्मार्गयायिनः । जट तुरगामिति यथाश्या निगृहांते । सहि सः खलः ॥ एवं मिध्यात्वा संयम कषायसंवरान्निरूप्य करणसंवरं व्याकरोति- मूलारा — इंदिय इष्टानिष्टरूपादिषु प्रवर्तनामानि चक्षुरादिज्ञानामि । मिथिष्यति निगृहांते । दमणानखलिंगनिदम प्रधानानि ज्ञानानि तत्वावधाः जाति खलीनानि इव वाजिनामिव रामद्वेन्द्रियशानां निरोधनिमित्तवान् । इंद्रि यज्ञानं हि इष्टानिष्ठे वा स्वविषये रानं द्वेषं वा जनयन्तदुपेक्षाचता ज्ञानेन प्रतिबध्यते । योपयोग बुगपदेकस्मिन्नागम्यप्रवृत्तेः ॥ मिथ्यात्यसंवर और कषाय संवरका निरूपण किया. अब इंद्रिय संवत्का वर्णन करते हैं अर्थ--इंद्रियरूपी दुष्ट घोडों को दमगुणकी मुख्यनासे युक्त ऐसे ज्ञानरूपी लगामोंसे जो पुरुष वश करते हैं. शब्द, स्पर्श, रस वगैरह विषयों में प्रवृत्ति करनेवाले इंद्रियज्ञानोंको रागद्वेषही कारण हैं, अर्थात् रागद्वेषसे इन्द्रियज्ञानकी प्रवृत्ति स्पर्शादि विषयों में होती हैं. इस गाथामें इंद्रियज्ञानको ही 'इंद्रिय' कहा है. इंद्रियज्ञानसे उत्पन्न हुए आका विशेष तस्वज्ञान की भावनासे होता है. स्पर्शादिविषयों प्रवृत्ति और तत्वज्ञान ये दोन उपयोग एकसमय आत्मा में नहीं होते हैं. एक समयमे दोन उपयोग उत्पन्न नहीं होते हैं ऐसा आगम में कहा है. उन्मार्गपर जानेवाले दुष्ट घोडों का जैसे लगाम के द्वारा निग्रह करते हैं वैसे तत्वज्ञान की भावनासे इंद्रियरूपी अश्वोंका निग्रह हो सकता है. अदिमणसा इंदिसप्पाणि णिहिदु ण तीरंति ॥ विज्जामंतोसघहीणेणव आसीवसा सप्पा || १८३८ ॥ नाक्षसर्पा निगृन्ते भीषणाञ्चलमानसः ॥ दशूका व ग्राह्या विद्यासंवादवर्जितः || ।। १९१० ।। आश्वास ७ १६५१ Page #1665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वास Rossa SSAGE क्षमा. मार्दव, आर्जव, और संतोष ये कषाय नामक प्रमाद के शत्रु हैं. ज्ञानका हमेशा अभ्यास करना, रागद्वेप उत्पन्न करनेवाले इंद्रियोंके विषयोस अलग होकर एकान्त प्रदेशमें रहना, झानसे मनको स्वस्वरूपमें एकाग्र करना, इंद्रिय विषयौसे उत्पम होनेवाले रागद्वेषोंका स्मरण न करना, विषयमाप्ति होनेपर उनमें आदर न करना, ये सब कारण इंद्रियप्रमादके शत्रु हैं. इन विषयों का वर्णन इस प्रकार हैं. १ रागभावसे युक्त होकर प्रमादरहितमुनि सुंदर JEE स्त्रीके अंग नहीं देखते है. अथवा यदृच्छासे देखकर उनपर अनुरक्त नहीं होते हैं. द्वेषके वश होकर वे अशुभरूप देखना चाहते नहीं है ऐसा नहीं. अर्थात् अशुभरूप दखनपर उनक मनमें द्वेषभावना और सुंदररूप देखनपर राग भावना उत्पन्न नहीं होती है. यदृच्छासे अशुभरूप देखकर भी वे द्वेष नहीं करते हैं. ऐसे मुनिआन नेत्रद्रियोंको जीत लिया है ऐसा समझना. उत्तम गायन और वायके मनोहर स्वर और उत्तम युवतिओंके-खियाके कंठमेस निकले हुये मधुर भाषण जो आदरसे सुननेकी इच्छा नहीं रखते हैं और यदृच्छासे सुन पहनेपर उनमें आसक्त नहीं होते हैं तथा अनेक अमनोहर-कर्कश शब्द सुननेपरभी जिनको क्रोध आता नहीं है वे मुनि कर्णको जीतनेवाले समझने चाहिये. ३ कालागुरु, कुष्ट, केशर, तमालपत्र, कमल, चंपक वगैरहके मनोहर सुवासको जो आदरसे चाहते नहीं है. यहच्छासे ऐसे पदार्थोंका सुवास प्राप्त होनेपर जो उसमें आसक्त होते नहीं. तथा अशुभ गंधका संबन्ध होनेपर जो उससे द्वेष नहीं रखते हैं अथवा शुभगंका सेवन करनपर भी जो उसमें आसक्त नहीं होते हैं, वे मुनिराज धाणेंद्रियको जीतनेवाले समझन चाहिये. जो अतिशय सुंदर और विशिष्ट मधुर भोजनों के रसमें लोलुप नहीं होते हैं अथवा यदृच्छासे सेवन करके उसमें आसक्त नहीं होते है. अमनोहर रसोंकी सेवा करनेसे मनमें द्वेष भी उनको नहीं उत्पन्न होता है. यहच्छासे अमनोहर रस सेवन करनेका प्रसंग आपउनेपर जिनको द्वेष उत्पन नहीं होता है वे रसनेन्द्रियजता माने जाते हैं. सुन्दर शय्या, सुंदर खिया, और शुभ स्पर्श ये मन हरण करते हैं. परंतु मुनि रागवश होकर उनका सेवन करनकी इच्छा नहीं रखते हैं. यहाछासे सुन्दरस्प का सेवन करनेसे अनुरक्त नहीं होते हैं. पुनि मर्दन करना, वस्त्रसे अंगको ढकना, अंगको स्पर्श करना, विलेपन लगाना, आंखों में अंजन लगाना, ये कार्य नहीं करते हैं. इन १६५४ कृत्योंसे शरीरको सुख होता है. परंतु वैराग्य युक्त मुनीश्वर इनसे विरक्त रहते हैं. शीतस्पर्श, उष्णस्पर्शसे युक्त ऐसी भूमि, पर्वत, शीला और तृण इत्यादिकोंके अमनोहर स्पर्शके विषय में ये द्वेष नहीं करते है. जो मुनि अच्छे Page #1666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना १६५५ स्पर्शयुक्त पदार्थ की इच्छा नहीं करते हैं और अगम स्पर्शके पदार्थ प्राप्त होनेपर द्वेष भी नहीं करते हैं थे पर्शने. द्रियजयी माने जाते है. जैसे निर्भय वीर पुरुष युद्धमें शत्रुको जीतता है वैसे ये महामुनि निर्भय और वैराग्ययुक्त इंद्रियों को जीतते है. निद्राके प्रतिपक्षभुत अपमाद ये है-अनशन, अवमोदर्य, रसाका त्याग करना, संसारसे भययुक्त रहना निद्राके दोषोंका विचार करना, रत्नत्रयमें प्रीति रखना, अपने दुष्कृत्योंका स्मरण कर शोक करना. स्नेह के प्रतिपक्षी-बंधुगण अस्थिर हैं, उनके लिये अनेक आरंभ परिग्रह करनेकी चिंता होती है जिसमे नरकादि कुगतिकी प्राप्ति होती है. धर्मम बंधुगण विघ्न उपस्थित करते हैं. इत्यादिक दोषोंका विचार 'करनेसे स्नेह प्रमादका नाश होता है. इस प्रकार अममादरूपी दाल हाथमे लेकर यति प्रमादरूपी शत्रसे लढते हैं. जैसे नौकाका छिद्र चंद करनेसे जल नहीं आता है वैसे अप्रमाद प्रवृत्ति प्रमाद जनित आगमन बंद होता है. HTTERARA गुत्तिपरिखाइगुत्त्रं संजमणयरं ण कम्मरिउसेणा ।। बंधेइ सत्तुसेणा पुरं व परिखादिहिं सुगुत्त ॥ १८४० ॥ कर्मभिः शक्यते भेत्तुं न चारित्रं कदाचन ॥ सम्यग्गुप्तिपरिक्षिप्त विपक्षरिय पत्तनम् ।। १९१२ विजयोदश-गुत्तिपरिखाइगुत्तं गुतिपरिणाभिगुप्त, संयमनगरं कमरिपुसेना न भक्तुं शक्नोति । परिखादिभिर्गुप्त शत्रुसेनेबेति । गुसेः संवरताख्याता ।। गुप्तीनां संवरलामाख्याति-- मूलारा - धंसेदि भनक्ति । अर्थ—परिखा-खाई, तट बगरहोंसे रक्षित नगरका शत्रुसेना नाश नहीं कर सकती वैसे गुप्तिरूपी खाईसे रश्रित किया गया यह संयमरूपनगर कर्मरूप शत्रु के द्वारा ध्वस्त नहीं किया जाता है. Page #1667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नूलाराधना १६५६ समिदिदिढणावमारुहिय अप्पमन्तो भवोदाधे तरदि ॥ छज्जीवणिकायवधादिपावममरेहिं अच्छितो ।। १८४१ ॥ गुणबंधनमारुत्य संयतः समितिप्लवं ॥ हिंसादमकराग्रस्तो जन्मभोधिं विलेघते ॥ १९१३ ॥ विजयोदय-समिदिश्विनावमारुद्विय समितिसंज्ञितां दहनावमारुह्य । अयमन्तो अप्रमत्तो भोदधि तरति । पजीवनिकायाधादिपापमकरेरस्पृष्टः ॥ एतेन सर्मितः संवरताख्याता ॥ समितीनां संवरत्वमाह मूलारा- अदिको अस्पृष्टः || अर्थ- जो यमितिरूपी व नात्र आरोहण करता है यह अप्रमत्तमुनि परकायजीवोंका वध, असल्य भाषणादिपापरूपमगसे पीडित नहीं होता है. और वह सुखसे संसार उत्तीर्ण होता हैं. समिि संवर होता है यह इस सूत्र सिद्ध हुआ arta दारवालो ह्रिदये सुप्पणिहिदा सदी जस्स ॥ दोसा संति ण तं पुरं सुगुतं जहा सत्तु || १८४२ ॥ द्वारपाल द्वारे यस्यास्ति हृदये स्मृतिः ॥ दूषयति न दोषा गुप्तं पुरमिवारयः || १९९४ ।। विजयोदया - दारेघ दारवालो द्वारे भिभवति पुरं सुगुर्त शश्रय इव । स्तुवत्वस्मृतेः संवरतां वक्ति द्वारपाल इव । हृदये सम्यक्प्रणिहिता वस्तुमानां स्मृतिस्तं शेष ना * मूलारासदी वस्तुतस्वचित्तनम् ॥ देवेति ण नाविभवन्ति । अर्थ -- जैसे सुरक्षित नगरका शत्रु विनाश नहीं कर सकते हैं वैसे जिसके हृदयमें दरवाजेपर द्वारपालके समान वस्तुतत्वोंकी एकाग्रस्मृति स्थिर रहती है. दोष उसका पराभव नहीं करसकते हैं. आश्वास १६५६ Page #1668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः SAREER जो खु सदिविप्पणो सो दोसरिऊण गेज्झओ होइ ॥ अंधलगोव चरंतो अरीणमविदिज्जओ चेव ।। १८४३ ।। न यस्पास्ति स्मृतिश्चित्ते स दोषैस्यते स्फुटम् ॥ असहायोखलें क्षिप्रं विचक्षुरिष वैरिभिः ॥ १९१५ ।। विजयोदया-जो खु सदिविप्पाहणो यः स्मृतिहीनः । सो दोसरिऊण मेज्यमोहोर मसौ वोपरिपुभिर्माहो भवति । अरीणां मध्ये असहायोऽन्धा शत्रुनायो यथा ॥ स्मृतिहीनस्यापायमाहमूलारा-गेझओ प्रायः । अविदिनओ असहायः । अर्थ---जिसकी स्मृति वस्तुततत्वॉमें एकाग्र स्थिर नहीं है ऐसा यति दोपोंके आधीन होता है. अंध मनुष्य जैसे शत्रुग्राय होता है वैसे तत्त्वज्ञानकी स्मृति जिसको नहीं है वह यति दोषोंसे पराभूत होता है. अमुयंतो सम्मत्तं परीसहसमोगरे उदीरंतो || णेव सदी मोत्तव्वा एत्थ दु आराधणा भणिया || १८४४॥ ज्ञानदर्शनचरित्रसंपद पूर्णता नयति स व्रती स्फुटम् ।। यो विमुंचति परीषहारिभिर्वाधितोऽपि न कदाचन स्मृतिम् ॥ १९१६ ।। इति संवरानुप्रेक्षा. विजयाददा-अमुयतो ममुंचता । सम्मत रत्नन्नयं परीसहसमोगरे, परीषद्याप्रकरे अभिभषायपि नैव स्मृतिर्मोंक्त व्या अाराधना कथिता । संवरः। तीनदुःखकारणपरीघडव्यूहाभिभवेऽपि रत्नत्रयमत्यजता तत्त्वस्मृतिरनुसर्वव्येत्यनुशास्ति मूलारा-समत्तं समस्तं रत्नत्रय समत्व वा साम् । एत्य विनिपातोपनिपातेऽपि रत्नत्रये घेते तेन स्मृत्यष. लंबने सति । संवरानुप्रेक्षा । १६५७ Page #1669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६५८ अर्थ - परीषद के समूह के द्वारा पीडा होनेपर भी रत्नत्रयको धारण करनेवाले यतिओने स्मृतिका त्याग नहीं करना चाहिए अर्थात् तपके साथ रत्नत्रयकी आराधना करनी चाहिये. संघरानुप्रेक्षा समाप्त निर्जरानुप्रेक्षोध्यसे इय सब्वासवसंघरसंबुडकम्मासवो भवित्तु मुणी ॥ कुवंति तवं विवि सुत्तुतं निजराहेदुं || १८४५ ॥ यो सुनिदि शुद्धात्मा सर्वथा कर्मसंवरम् ॥ करोति निर्जराकांक्षी सिद्धये विविधं तपः ॥ १९१७ ॥ विजयोदया - श्य पर्व । सव्वासयसवर उक्त संस्कारैः संकम्मासवों भवित्तु मुणी संवृतकर्माच भूत्वा मुनिः करोति विविधं तपः सूत्रोकं निर्जराहेतु ॥ धर्म्यं व्यापयितुं द्वादशगाथाभि र्निजेरामनुचितविध्यन्नादौ संवृतानां सूत्रोक्तविचित्रतपसा निर्जरां भावयतिमुहारा संबुद्ध निरुद्धः । भवितु भूत्वा ॥ निर्जरानुप्रेक्षा का वर्णन - अर्थ - इस प्रकार से संवरके प्रकारोंसे जिसने कमौके आय का निरोध किया है ऐसा मुनि निर्जराका कारण ऐसा सूत्रोक्त तप करता है. तवसा विणा ण मोक्खो संक्रमित्रोण होइ कम्मस्स || उवमोगादीहिं विणा धणं ण हु खीयदि सुगुतं ॥ १८४६ ॥ न कर्मनिर्जरा जन्तोर्जायते तपसा बिना । संचितं क्षीयते धान्यमुपयोगं बिना कृतः ॥ १९१८ ॥ विजयोदया - तसा विणा तपसॉतरेण न कर्ममोक्षो भवति संवरमात्रेण । सुरक्षितमपि धनं जैव दीयते । उपभोगमंतरेण । तथा तस्मात् तपोनुष्ठातथ्यं निर्जरार्थ का सा निर्जरा नाम पूर्वकृसकर्मशातनं तु निर्जय ॥ आश्वासा ७ १६५८ Page #1670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १६५९ संवरणैव कर्मक्षय इति मत्या तपस्यनुत्सहमानमुत्साह्यतिमुलरा----उपभोगादीहि स्वयमुपभोगपात्रविनियोगादिभिः ।। अर्थ-तप से ही केवल कर्मके संवरसे मोक्ष नहीं होता है. जिस धनका संरक्षण किया है वह धन उपभोग नहीं लिया तो समाप्त नहीं होगा इसलिए कर्मकी निर्जरा होने के लिए तपश्चरण करना चाहिये. पुवकदकम्मसडण तु णिज्जरा सा पुणो हवे दुबिहा ॥ पढ़मा विवागजादा विदिया अविवागजाया य ।। १८४७॥ पूर्वस्य कर्मणः पुंसो निर्जरा द्विविधा माता ।। आद्या विपाकजातात्र द्वितीया त्वचिपाकजा ॥ १९१९॥ विजयोयया-पुरवगनकम्मसक्षण पूर्वगतकर्म पुलस्कंधावयवानां जीवप्रदेशेभ्योऽपगमनं निर्जरा तथा चोक्तं । एकदेशकर्मसंक्षयसकारेति । निजामानिरासपिजरा चेति । द्रव्यनिर्जरा नाम गृहीताना. मशनपानादिदव्याणां एक.देशाधगमनं घमनादि । भारनिरा नाम कर्मत्वपर्यायीवगमः पुगलानां । सा पुन िविधा, आधा विपाकजाता द्वितीयाऽविपाकजाता। निर्जरां द्विधिकल्पां निर्दिशति-- मूलारा-पुठबकयकम्मसडणं प्रासंचितकर्म पुरळस्कंधावयवानां जीवप्रदेशेभ्योऽपगमनम् । विवागजादा म्बका लेन दत्तफलानां कर्मणां गलनं विपाकजा निर्जरा । अविवागजादा उपक्रमेण दत्तफलानां कर्मणां गलगमविपाक जा । उक्त च जह क्रालेण तबेण य मुत्तरस कम्मपुरगलं जेण ॥ भावंण सदि गया तस्सडण दि गिजरा दुबिहा ॥ अर्थ-पूर्व कर्मके स्कंधोंमेंसे थोडा घोडा कर्मका हिस्सा जीवके प्रदेशोंसे निकल जाना यह निर्जराका खरूप है. आगममै इस निर्जराका लक्षण ऐसा किया है- 'एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा । अर्थात् कर्मक एक देशका क्षय होना यह निर्जराका लक्षण है. निर्जराके द्रव्यनिर्जरा और भावनिर्जरा. ऐसे दो भेद हैं. भक्षण किए हुए अन्नपानादि पदार्थोंका एक देशका क्षय होना यह द्रव्यनिर्जरा है. और वमन होना अथवा पूर्ण पचन होना यह PATHARTeries १६५९ Page #1671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६६० मावनिर्जरा है. हलका कमपर्याय नष्ट होना निर्जराका लक्षण है. इसके भी दो भेद है. विपाकजाता निर्जरा और अविपाकजाता निर्जरा. अत्र दृष्टांतमाचऐ द्विविधां निर्जरामवगमयितुं -- काण उवायेण य पचति जहा वणादिफलाई | तह कालेन तवेण य पचति कदाणि कस्माणि ॥। १८४८ ॥ नानाविध कर्माणि गृहीतानि पुराभवे ॥ फलानीव विपच्यते कालेनोपक्रमेण च ।। १९२० ।। विजयोदया कालेा उचारण य यथा कालेनोपायेन च वनस्पतीनां फलानि पच्यते तथा कालेन तपसा पच्यते कृतानि कर्माणि ॥ कर्म कालोपायानां पाक्यत्वं दृष्टान्तेन स्फुटयति मूलारा- उदारण ऊष्मधूमादिप्रयोगेण । दृष्टांतके द्वारा इनका स्पष्टीकरण अर्थ — जैसे वृक्षोंके फल योग्य कालकी अपेक्षाकर अर्थात् योग्य काल प्राप्त होनेपर पक्क होते हैं अथवा उपायसे पक्कावस्था को प्राप्त होते हैं वैसे पूर्व कर्मभी योग्यकाल प्राप्त होनेसे तथा तपसे पक्क होते हैं. योनिर्जरयोः का कस्य भवतीत्याशंकायामाच सव्वा उदयसमागदस्त कम्मस्स णिज्जरा होइ ॥ कम्मरस तवेण पुणो सव्यरस वि णिज्जरा होइ || १८४९ ॥ कालेन निर्जरा नदीर्णस्यैव कर्मणः ॥ तपसा कियमाणेन कर्म निर्जीर्यतेऽखिलम् || १९२९ ।। विजयोदया सब्वैसमुदयस मागदस्य सर्वेषां समयपूर्वके तपसि वृत्तानां अबूतानां अथवा मिध्याह प्रचादीनां सम्यग्दृष्ट्यादीनां वा उद्यापलिकाप्रविष्टस्य सस्य फलस्य कर्मणो निर्जरा भवति । एतेन विपाक निर्जरा आश्वासः ७ १६६० Page #1672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६६१ स्वस्पेभ्याख्यातं भवति । कयेन सर्वाणि कर्माणि मिन्नस्थितिकानि सहकारिकारणानां द्रच्य क्षेत्रादीनां युगपदसाभिघ्यादुदयं सर्वस्य नोपसंति, ततो यदद्यप्राप्तं सर्वेषागच्छति नेतरदिति । तषेण पुणो तपसा पुनः । कम्मस्स सम्धरूस वि कर्मणः सर्वस्यापि निर्जरा भवति ॥ सर्वसाधारण्या विपाकज निर्जराया इसरानजेरायाः सुतरां विधेयतां दर्शयितुं विशिष्टतां भावयति मुलारा-- उदयसमयागवस्स अनुभवसमयावलिकाप्रविष्टस्य दसस्य फलस्येत्यर्थः । पिन्जरा अपगमः । एतेन विपाकनिर्जरा स्वल्पेत्युक्तं भवति । सव्वस्स उदितस्यानुदिवस्य ॥ उक्तं च- काले निर्जरा नूनमुदीर्णस्य कर्मणः || ahar क्रियमाणेन कर्म निर्जीर्यतेऽखिलं || एतेन नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ॥ अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम ॥ सिद्धान्तोक्तः प्रत्युक्तः ॥ इत्येकांत इन दो निर्जराओं में कोन किसकी होती है ? इस प्रश्नका उत्तर--- अर्थ --जो तपश्चरण में प्रवृत्त हैं अथवा नहीं है ऐसे लोकोको अर्थात् मिध्यादृष्टि वगैरह किंवा सम्यग्दृष्टी वगैरहको कर्म उदयपंक्ति में प्रवेशकर अपना फल देकर नष्ट होता है यह विपाकनिर्जराका स्वरूप है. यह विपाक निर्जरा अल्प होती है. क्योंकि सर्व कमोंकी भिन्न भिन्न स्थिति रहती है. द्रव्य क्षेत्रादिक सहकारी कारण सबके एकदम नहीं मिलते हैं इसलिये कर्म एकसाथ उदयमें आकर फल देकर नष्ट नहीं होता है जो उदयमं आता है वही फल देकर नष्ट होता है अन्य नहीं. और तपश्चरणके द्वारा सर्व कर्मकी निर्जरा होती है. ण कम्मर अबेदिदफलस्स करसइ हवेज्ज परिमोक्खो || होज्ज व तरस विणासो तबग्गिणा उज्झमाणस्स ॥ १८५० ॥ अनिर्दिष्टफलं कर्म तपसा दह्यते परम् || हुताशनेनेव बहुभेवमुपार्जितम् || १९२२ ।। आश्वास 9 १६६१ Page #1673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १६६२ SOTES विजयोदया-कम्मरस ण हुयेज्ज परिमोक्खो अननुभूतफलस्य कर्मणो नैष कस्य चित् मोक्षो भवति इति ततः फल प्रदायापयाति । एतेन विपाकनिर्जरोका, होज्जव तस्स कम्मस्स विणासो भवेद्वा तस्य कर्मणो विनाशः समिाणा इजामाणस्स तपोऽशिना दह्यमानस्य पतेन कृतं कर्म तत्फलमदत्वा न निवर्तत इत्येतन्निरस्तं । उक्कमेवार्थ उत्सर्गापवादाम्यां दृढयति मूलारा-अयेविदफटस्स अमुक्तफलस्य । एतेन वफलं प्रवायापयाति कर्मेति विपाकनिर्जरा सामान्ये नोक्ता । उज्झमाणस नि:जीक्रियमाणस्य । एतेन कृतं कर्म यत्तत्फलमदत्वा न निवर्तते इत्येकान्तो निरस्तः ॥ वक्तं च अनिर्दिष्टफल कर्म तपसा दाते परं ।। ___ सस्य हुताशनेनेव पहुभेदमुपार्जितम् ।। अर्थ--जिस कर्मका फल जीवकेद्वारा नहीं भोगा गया है ऐसा कर्म नष्ट नहीं होता है. अर्थात् कर्म अपना फल जीवको देकर ही चला जाता है. इस विवेचनसे विपाक निर्जरा कही गयी. परंतु तपोग्नीस जो कर्म दग्ध होता है वह कर्म आत्माको फल न देकर ही नष्ट होता है. इससे जो कर्म इस जीवने किया है वह फल जबतक नहीं देता है, तबतक नष्ट नहीं होता हैं. ऐसा एकान्त मत खंडित होता है. तात्पर्य यह है कि, विषाकनिर्जरा जिस कमकी होती है वह कर्म आत्माको फल देता है, अविपाक निर्जराका कम फल नहीं देना है. डहिऊण जहा अग्गी विद्धंसदि सुबहुगपि तणरासी । बिहंसेदि तबममी तह कम्मतणं सुबहुगंपि ।। १८५१ ।। तपसादीयमानेन नाश्यते कर्मसंचयः ।। __ आशुशुक्षपिना क्षिप्रं दीप्तेनेव तणोत्करः ।। १९२३ ।। घिजयोदया---इहिऊण जहा अग्मी रथाग्निर्दग्ध्वा नाशयत्ति मदांतमपि तृणराशि तया तपोग्निः सुमहदपि कर्मतृणं विनाशयति ॥ तपसः कर्मशातनसामर्थ्य समर्थयतेमूल्टाग-स्पष्टम् । उक्तं च तत्कालयपि तद्धयानं स्वदेकाममात्मनि ॥ उःकर्मोरचयं भिवादळ शैलमिव क्षणात् ।। १६६२ Page #1674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबासा महाराधना अर्थ-जैसे प्रज्वलित अग्नि बढी भारी तृण शशिको भी जलाकर भस्म कर दालती है. वैसी तफरूपी अमि पहुत मोटाभी कर्मसमूह तृण के समान नष्ट कर देती है. १६६३ पसः कर्मविनाशनकममुपदर्शयत्युत्तरगाधा लम्मं विपरिणमिजद सिरिमोनएण सुलत्रेण ॥ तो तं सिंणहमुकं काम परिसडदि धूलिव्ब ॥ १८५२ ॥ स्वयं पलायते कर्म तपसा बिरसीकृतम् ।। रजोऽयतिष्ठत कुत्र नीरसे स्फटिकमाने ।। १९२४ ।। विजयादया-फम्म यि परिणमिजदि कर्मण्यांप अन्पधा भाचं नीयते, केण सुतवेण शानदर्शनवरसदमाविना तपसा । सिंगापरसोसगेण कर्मपुद्रलगतस्नेहपरिणामविशोषणकारिणा । तो पश्चात् । स्नेहपरिणामविनाशोत्तरकालं। कम्म परिसइति कर्म परितोऽपयाति,सिंगमुकं स्तहमुकधुलीव । दृश्यते हिस्नेहाबंधमुपागतानां तत्क्षतः। परस्परतो वियोगः यथा जलेनैव पिण्डतागतानां सिकतामां शुरके जले वियोगशपधमामता। सपसः कर्मविनाशनक्रम कथयत्ति -- मुकारा-विपरिणमिजयि अम्प्रथाभाय नीयसे जीवपरतंत्रीकरणशक्ति त्याज्यते इत्यर्थः। अन्ये परिसोसिज्जदि इति पठति सिणहपरिसोसगेज कर्मपुरलगतस्नेहपरिणामविशोषणकारिणा । सुतरेण रत्नत्रयसहभाविना तपसा। धूलीय यथा जलाद्वधं गतानां सिकताना जळे शुष्के परस्परतोऽपगम 1 एई कषायादिकृतस्नेहाज्जीवेन सहकलोलीमा गतानां कर्मपदलानो तपसा सनत्यं गामेतानां ततोऽपयम इत्यर्थः ।। उस य--- स्वयं पलायने कर्म तपसा विरसीकृतं ।। रजोऽबतिप्रेत कुत्र नीरसस्फटिकमनि ।। तपश्चरण के कर्म विनाशक्रमका स्वरूप कहते है.... अर्थ-तपश्चरणसे अर्थात् ज्ञान, दर्शन चारित्रके साथ रहनेवाले तपसे कर्ममें फरक किया जाता है. अर्थात् जीवको परतंत्र करनेका स्वभाव कर्ममें रहता है तपके द्वारा उस स्वभावका नाश होता है. यह तपश्चरण कममें जो स्नेहशक्ति थी उसको नष्ट करता है. जिससे कर्म आत्मासे संबंध छोड़कर चला जाता है. जैसे स्नेहसे अलि SPIRINGTPLOR Page #1675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६६४ एकत्र होती है. परंतु स्नेहके हरनेसे धूली के कण बिखर जाते हैं उनका बंधन नही रहता है. पानी बालुका पिंड बनता है परंतु पानी सूख जानेपर वालुके कण अलग होते हैं, वैसी स्नेहशक्ति तपसे नष्ट होनेपर कर्म आत्मासे अलग होता है अर्थात् पुगलका कर्मत्वपय नष्ट होता है. धादुगर्द जह कणयं सुझइ धम्मंतमग्गिणा महदा || सुज्झइ तवग्गितो तह जीवो कम्मधादुगदो ॥ १८५३ ॥ तपसा मायमानोऽङ्गी क्षिप्रं शुद्धयति कर्मभिः ॥ पाषाणः पावकेनेव कानकः सकलैर्मलैः ॥ १९२५ ॥ विजयोदया - धादुगदं यथा सुवर्णपानगतं कनकं महतासिना दह्यमानं शुध्यति, मलात् पृथग्भवति तथा जीवः कोऽमिना रामानः शुध्यति ॥ सपसा शुद्धस्वास्मनि दीप्यमानस्यात्मनः कर्मभ्यः पृथग्भावं भावयति - मूलाराधादुदं सुवर्णपाषाणस्थे । सुन्झवि प्रथग्भवति । धम्मंतं वाप्यमानं । तत्ररिंगधतो तपोऽमि नाध्मातः शुद्धस्वचिद्रूपे देदीप्यमानः कृतः । तपसा ध्यायमानोऽगी क्षिप्रं शुष्यति कर्मभिः ॥ पाषाणः पावकेनेथ कानफः सकलैः ॥ अर्थ - महान् अग्निसे दग्ध होनेपर जैसे सुवर्णपाषाणमेंसे सुवर्ण शुद्ध होता है अर्थात् मलसे अलग होता है. वैसे कर्मरूपी घातुओंसे मित्र हुआ यह जीवरूपी सुवर्ण तपरूपी अग्निसे जब दग्ध होता है तब वद निर्मल होता है. यद्येवं तप एषानुष्ठातव्यं किं संवरेणेति शंकां निराकरोति तवसा चैव ण मोक्खो सेवरहीणस्स होइ जिणत्रयणे || सोचे पविते किसिणे परिसुस्सदि तलायं ॥ १८५४ ।। मोक्षःसंवरहनिन तपसा न जिनागम ॥ रविणा शोष्यते नीरं प्रवेश सति किं सरः || १९२६ ॥ आश्वासः ७ १६६४ Page #1676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासन विजयोदया-तबसा चेत्र ण मोकात्रो तपसब न सर्यकर्मापायो भवति, संयरहीनस्य जिनवचंने । स्रोतसि प्रविशति जलादि करने परिशुभ्थति। यद्येवं सहि तदेवानुष्यं न संवर इत्यत्राहनालाग-मोक्खो भत्रकर्मापगमः । उक्तं च.. मोक्षः मंचरह नेग तपसा न जिनागमे ! रविणा शोग्यते नीरप्रवेश मति कि सरः ॥ यदि तप से आत्मा शुद्ध होता है तो तप ही करना चाहिए, संवरकी क्यों आवश्यकता है ? आचार्य इस शंका का उत्तर देते हैं अर्ध-जो मुनि संवररहित है केवल तपश्चरणसे ही उसके कर्मका नाश नहीं हो सकता है ऐसा जिनबचनमें कहा है. यदि जलप्रवाह आता ही रहेगा तो तालाब का सूखेगा ? अर्थात् महीं सूखता है. एवं पिणडसंवरबम्मो सम्मत्तवाहणारूढो ॥ सुदणाणमहाधणुगो झाणादितबोमयसरेहि ॥१८५५॥ चिजयोदया-एवं पिणदसंबरघम्मो एवं पिनसंबरफबचा, सम्यक्त्ववाइनारूढः, श्रुतशानवापथरस, स्याना. दितपोमयशरैः ॥ चतुर्विधाराधनानिष्ठः संवरसहितया निर्जरया कर्मारिच निःशेच्याम्नयामनंतज्ञानाविराज्यभियं प्राप्नोति इति गाथाद्वयेनोपसंहरति मूलारा-पिणढसंवरवम्मो बहालवनिरोधस माइः । अर्थ-जिसने संत्रररूपी वकृतर पहना है, जो सम्यग्दर्शनरूपी वाहनपर चहा है. जिसने सम्यग्ज्ञानरूपी धनुष्य हाथ में लेकर भ्यान और तपरूपी शर-बाण सम्यग्ज्ञानरूप घनुष्य के ऊपर जोड दिये हैं. संजमरणभूमीए कम्मारिचमू पराजिणिय सव्वं ॥ पावदि संजमजोहो अणोवमं मोक्खरज्जसिरिं ॥ १८५६ ॥ Page #1677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६६६ दर्शनद्विमधिष्ठितो बुधो लब्धबोधसचिवस्तपः शरैः ॥ कर्मशत्रुमहत्य संवृतः सिद्धिसंपदमुपैति शाश्वतीम् ॥ १९२७ ॥ इति निर्जरा । विजयोदया संजमरणभूमीण संयमयुडांगण कर्माविचम् सर्वामभिभूय प्राप्नोति संयतयोधः अनुपमांमोक्षराज्यश्रियं ॥ निर्जरा || मूलारा - स्पष्टम् ॥ निर्जरानुप्रेक्षा । अर्थ - ऐसा मुनिरूप वीर गुरण में संपूर्ण कर्मसेना का मुरूप राज्यलक्ष्मीकी प्राप्ति कर लेता है । धर्मगुणानुप्रेक्षणयोच्यते जीवो मोक्खपुरकड कल्लाणपरंपरस्स जो भागी । भावेणुववज्जदि सो धम्मं तं तारिमुदारं ॥ १८५७ ॥ मोक्षासानकल्याणभाजनेन शरीरिणा ॥ आहेतो भावनाधमों भाषतः प्रतिपद्यते || १९२८ ।। विजयोदया- जीवो मोक्णपुरक कलाणपरंपरस्स जो भागी, यो जीवः मोशावसानकल्याणपरंपराया भाजनभूतः । स धर्मभावेन प्रतिपद्यते से तामुवारं सकलसुख संपादनक्षमं महांत धर्म ॥ धध्यान सिद्धये गाथानयकेन धर्ममहिमानमनुचितयति मूलारा -- मोक्खपुर व कडक परंपररल मोक्षण पुरःसरतां नीतानि यानि कल्याणानि सुदेवत्व सुमानुषत्व पदाभ्युदयसुखानि मोक्ष सुखावसानसांसारिक सुखामीत्यर्थः ॥ तत्प्रबंधस्य भागी भजनयोग्यः । भावेणुववज्जदि परमार्थेन प्रतिपद्यते । उदारं सकलसुख संपादन समर्थत्वान्महान्तं । उक्तं च- मोक्षावसान कल्याण भाजनेन शरीरिणा ॥ आईतः पावनो धर्मो भावतः प्रतिपद्यते ॥ अर्थ - मोक्षप्राप्ति तक जो जो कल्याणपरंपरा प्राप्त होती हैं वह सब धर्म की सहायतास ही होती है आश्वास ७ १६६६ Page #1678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुलाराधना आश्वासा अर्थात् धर्मसे अभ्युदय और मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है. म उदार, सर्व सुगादी पारित भन देने में साई धर्म को भव्यजीव हृदयसे धारण करता है. धम्मेण होदि पुज्जो विस्ससणिज्जो पिओ जसंसी य ॥ सुहसउझो य णराणं घम्मो मणणिव्वुदिकरो य ॥ १८५८ ।। यशस्वी सुभगः पूज्यो विश्वास्यो धर्मतःप्रियः ।। सुसाध्यः सोऽभ्यकार्येभ्यो मनोनितिकारकः ॥ १९२५ ॥ विजयोदया-धम्मेण लोदि पुज्जो धर्मेण पूयो भवति । विश्वसनीयः मियो यशस्वी च भवति, सुखेनैव साध्यो. नराणां धर्मः ॥ उक्तं च ॥ ऐ थुते च विदिते स्मृतं च घमें फलागमो भवतीति मनसो निवृत्तिं च करोति ॥ मूलारा-जसंसी कीर्तिमान । सभसाझो शुभपरिणाममात्रसाध्यः अथवा सुखेन साधयितुं शक्यः । 'दृष्टे धुते व विदिते स्मने न्य धमें फलागमो भवति इति वचनात् ।। अर्थ-इस धर्मके आचरणसे मनुष्य पूज्य, विश्वसनीय, प्रिय और यशस्वी होता है. यह धर्म सुखसे भव्य जीव धारण कर सकते हैं. धर्म धारण करनेसे मनुष्योंका मन संतुष्ट होता है. धर्मका फल देखनेसे, सुननेसे, जान लेनसे और स्मरण करने से मन प्रसन्न होता है. एसा शास्त्रों में कहा है. जावदियाई कल्लागाइं सग्गे य मणुअलोग य ॥ आवहदि ताण सव्वाणि मोक्खं सोक्खं च वरधम्मो ॥ १८५९ ॥ धर्मः सर्वाणि सौख्यानि मदाय मुवनेशिनम् || निधत्ते शाश्वते स्थाने निर्वाधसुखसंकुले॥ १९३०॥ विजयोदया-जायबिगाई कल्लाणाई याति कल्याणानि स्वर्गे मनुष्यलोके च तानि सण्यिाकर्षति धर्मो मोक्षं सुखं च ॥ मूलारा-पष्टम् ॥ Page #1679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६६८ अर्थ-स्वर्गलोक में और मनुष्यलोक में जितने सुख प्राप्त होते हैं ये सत्र धर्मसे ही प्राप्त होते हैं. मोक्ष सुखकी प्राप्ति भी धर्मसे ही होती है. ते घण्णा जिणधम्मं जिणदिहं सव्वदुक्खणासयरं ॥ fear त्रिधिदिया विशुद्धमणसा णिरावेक्खा ॥ १८६० ॥ ते धन्या ये नरा धर्म जैनं सर्वसुखाकरम् || निरस्तनि विग्रंथाः प्रपन्नाः शुद्धमानसाः ॥ १९३१ ।। घण्णा पुण्यवंतः । जिन धर्म सर्वदुःखनाशकरं प्रतिपक्षाः शुद्धेन मनसा दृढपृतिका, विजयोत्रा निर्व्याकुलाः ॥ मूलारा-दधिदिया अविचलधूतयः । अर्थ- जिन्होंने निर्मल मनसे निःस्पृह होकर धैर्य धारण कर सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला जिनेश्वर प्रतिपादित जिनधर्म धारण किया है वे पुरुष धन्य हैं. • विसावीए उम्मग्गविहरिदा सुचिरमिंदियस्सेहिं || जिदिबुदिप घण्णा ओदरिय गच्छेति ॥ १८६१ ॥ ये च बीद्रियाश्वेभ्यो नीता विषयकानने !! धर्ममार्ग प्रयन्ते ते धन्या नरपुंगवाः । १९३२ ॥ विजयोदया-बिसगाडबीर वाटव्यां उन्मार्गविहारिण सुनिमित्रियावैभीताः संतः ते जिनदृष्ट निवृतिमार्ग गच्छति धन्या इंद्रियाश्वेभ्योऽवस्थ || मूलारा — उम्मग्गविहरिदा इंद्रियामिध्यात्वादित्रयं विशेषेण नीताः । ओरिय इंद्रियाश्वेभ्योऽवरुह्य || अर्थ - इंद्रियरूपी घोटे इस जीवको उन्मार्ग में दौड़कर विषय रूपी जगलमें ले जाते है. ऐसी परिस्थिवीमें जो इंद्रियरूपी अश्वोंसे नीचे उतरकर जिनेश्वरने देखे हुए मोक्षमार्गपर जाते हैं वे पुरुष जगमें धन्य समझने चाहिये. ---.. आश्वासः ७ १६६८ Page #1680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १६६९ रागेण य दोसेण य जगे रमंतम्मि वीदरागम्मि ।। धम्मम्मिणिरासादम्मि रदी अदिल्लहा होइ॥ १८६२ ॥ अहों द्वेषण रागैणं लोके क्रीडति सर्वदा ॥ वीतरागे मिरास्वाचे बोधिधतिदुलभा ।। १९३३ ।। विजयोत्या-रामेण य दोसेणय जगे रमतंम्मि रागद्वेषाभ्यो सहजगति क्रीडति । शीतराग धर्म निरास्वावे रतिः रतीच दुर्लभा भवति ॥ उक्तं च ॥ फुलं च रूप च यशश्च कीर्तिधनं स विद्या च सुख न लक्ष्मीः । मारोग्यमाक्षेपिसत. संप्रयोगो द्वेष्यवियोगोऽपि च दीर्घमायुः ॥१॥ स्वर्गश्च मोक्षश्च मयोपदिष्टा भावा इमेऽन्ये च जगत्प्रशस्ताः । धर्मेण शक्या जमती लधुं, हिताय से कर्नुमतोहसि त्वं ॥ जिनधर्मरतेरतिदर्लभतां भावयति - मूलारा—गणेत्यादि बहिरात्मप्राणिगयो रागद्वेषाम्यां सह क्रीडति । एतेन संसर्गजा दोषगुणा भवंति इत्याथित्य कथभीशि लोके प्रवर्तमानानां रागाद्यप्रादुर्भावलक्षणाहिंसात्मनि निरास्वाद चा भाषितपूर्ववादाच्ये धौ रत्ति कर्तु शक्यते इति मन्यते ॥ अर्थ-राग और पके साथ यह जगत रममाण हो रहा है इस लिये निरास्वाद वीतराग धर्ममें प्रेम हूंना अतीव कठिन है. शास्त्रमें इस विषय में ऐसा कहा है---कुल, रूप, यश, कीर्ति, धन विद्या, मुख, और संपत्ति, आरोग्य, आशा, इच्छित पदार्थों की प्राप्ति, अनिष्ट पदार्शसे वियोग, दीर्घ आयुष्य, स्वर्ग मोक्ष इनका मैने वर्णन किया है. अतः हे भव्य जीव । तूं स्वहित के लिय धर्माचरण कर. सहलं माणुसजम्मं तस्स हबदि जस्स चरणमणरजं ।। संसारदुक्खकारणकम्मागमदारसंरोध १८५३ ॥ सदीय सफल जन्म सदीयं कृत्समुज्ज्वलंम् ॥ जन्ममृत्युजराकारिकासबनिरोधकम् ॥ १९३४ ॥ विजयोदया सहलं माणुसम्म तस्य मनुष्यस्व जन्म सफलं भवति यस्य चरणमनषधी कीदृशं संसारदुससंपादनोयतकांगमद्वारनिरोधकारी । अनेन चारित्रमिह शब्दो धर्मत्वेनोच्यत इत्याख्यातं भवति । Page #1681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६७० इ६ धर्मचारित्रभित्याख्यातुमाइ - मूलारा - अणवज्जं निरतिचारम् । अर्थ - जिसका चारित्र निर्दोष है, संसारदुःखोंको करनेवाले कर्मका आनेका द्वाररूप जो अविरत्यादि परिणाम जिससे बंद पडता है ऐसा निर्दोष चारित्र जिसने धारण किया है उसी मनुष्यका जन्म सफल माना जाता है. उपर्युक्त चारित्रकोही यहां धर्म समझना चाहिये. पुरुषस्य ॥ आता है. जह जह णिव्वेदसमं बेरगयामा पवति ॥ तह तह अवभासयर णिव्त्राणं होइ पुस्सिस्स || १८६४ | यथा यथा विवर्द्धते निर्वेदप्रसादयः ॥ प्रयात्यासन्नतां पुंसः सिद्धिलक्ष्मीस्तथा तथा । १९३५ ।। विजयोद्या यथा यथा निर्वेद उपशमो दा भिखानिग्रहथ प्रवर्तते तथा तथा समीपतरं नवति निर्वाण सद्ध काय निर्वाणाम्यचरत्वमाद- मूलारा अभासद सभीपतरम् ॥ अर्थ -- जैसे र वैराग्य, रागद्वेषों का प्रशम, दया, जितेंद्रियता ये गुग बाँगे तैसे २ पुरुषके पास मोक्ष धर्म स्तीति सम्मदंसणतुंबं दुवालसंगारयं जिर्णिदाणं ॥ वयमियं जगे जयइ धम्मचक्रं तवोधारं ॥ १८६५ ॥ द्वादशात्मकतपोरयंत्रितं तत्वबोधचित्तनेमिकम् ॥ धर्मचक्रमनवयमा विष्ट विजयतामनश्वरम् ।। १९३६ ।। ॥ इति धर्मानुप्रेक्षा ॥ अश्वासा 15 १६७० Page #1682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः धूलाराधना . १६७१ विजयोदया–सम्मइसणतुब द्वादशांगारकं व्रतनेमिकं तपोधार जिनेंद्राणां धर्मचक जगति जयति ॥ धम्म ॥ | धर्म स्तोतुमाह - मूलारा-तुवं नाभिः । दुवालसंगारयं मुन्याचारादीन्याचाराणि यस्य । वदनेमियं प्रतमेव नेमिर्धारा यस्य । तबोधारं तप एव धारा द्वितीया नेमियस्य । धर्मानुप्रेक्षः || धर्मकी स्तुति करते हैं. अर्थ----धर्मरूप चक्र सम्यद्गर्शन रूप तुंबा है, इस धर्मचक्रको दादांमज्ञान रूप ओर हैं, पांच महावत नेमिके स्थानमें हैं. और तप धारा है. ऐसा जिनेंद्रोंका यह धर्मचक्र जगत में जयवान रहे. बोधितुलभानुप्रेक्षा कथ्यते-- दसणसूदतवचरणमइयम्मि धम्मम्मि दुल्लहा वोही : जीवस्स कम्मसत्तरस संसरंतस्स संसारे ॥१८६६।। धर्मे भवति सम्यक्त्वज्ञानवृत्ततपोमये ॥ दुर्लभा भ्रमतो योधिः संसारे कर्मतोऽगिनः ।। १९३७ ॥ विजयोदया-ईसणसुदतवचरणामइयम्मि दर्शनश्रुतत्तपश्चरप्पमये धर्मे दुर्लमा चोधिर्जीवस्य कर्मसक्तस्य संसारे संसरतः॥ धोलपनत्वेन योधि गावाटकेन भावयति मूलारा-बोधी दीक्षाभिमुखा बुद्धिः प्राप्तिर्वा शेधिशब्देने होच्यते । रत्नत्रयप्रामिः खलु बोधिः प्रसिद्धा । कम्मसन्तस्स कर्मप्रस्तस्य कर्मणि वा कायादिव्यापारे सक्तस्य प्रयतस्य ।। घोधिदुर्लभानुप्रेक्षाका वर्णन-- अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यम्नान, तप और चारित्र एतत्स्वरूप धर्ममें चोधिको प्राप्ति होना दुर्लभ है, यह जीव कर्मस लित है और संसारमें भ्रमण कर रहा है इसको बोधिप्राप्त होना कठिन है. Page #1683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १६७२ सस्या दुर्लभतां प्रकटयत्युत्तरप्रबंधेन-- संसारम्मि अगते जीवाणं दुल्लहं मणुस्सत्तं ॥ जुगसमिलासं जोगो जह लवणजले समुद्दम्मि ।। १८६७ ॥ संसारे देहिनोऽनने मानुष्यमतिदुर्लभं ।। समिलायुगसांगत्यं पयोधाचिव दुर्गमे ॥ १९३८ ॥ - विजयोदया-संसाराम्म अणत अनंतसंसार । जीवाना मनुष्यत्वं दुर्लभ, पूर्वापरसमुद्रनिक्षिप्तयुगतत्संबंधिकासंयोग इत्र । कथं दुर्लभता योधेरियवाई मुलारा--लवणजले एतेन समुद्रांवरेभ्यः प्रस्तारसलिम्वः सकाशालवणोदसमुद्रस्य बेलाकुलेन वैशिष्ट्रय लक्षयति । अत एव पूर्वादिदिग्विभागप्रक्षिप्तयूपसमिल्लयोरतिदुर्घटः संयोगः स्यात् ।। चोधिकी दुर्लभताफा आचार्य सविस्तर वर्णन करते है अर्थ-इस अनंत संसारमें जीयको मनुष्यपनाका लाम होना कठिन है. जैसे पूर्वसमुद्र और अपरसमुद्र में क्रमशः जुवा और उनकी लकडियां फेक देनेपर उनका पुनरपि संयोग होना अत्यंत कठिन है वैसा नष्ट हुआ मनुष्य जन्म पुनःप्राप्त होना अतिशय कठिन है, मनुजताया दुर्लभषे कारणमाह असुहपरिणामबहुलवणं च लोगस्त अदिमहल्लत्तं ॥ जोणिबहतं च कणदि सदलहं माणसं जोणी ॥ १८६८ ॥ प्राचुर्य गर्दा भावानां महत्त्वं जगतोऽङ्गिनाम् ।। विधत्ते योनिबाहुल्यं मानुष्यं जन्मदुर्लभं ॥ १९३२ ।। विजयोदया--असहपरिणामबहुलत्त च अशुभरणानाला निध्यात्वासंयम सायनमादानां परिणामानां बहत्यं मनुजयोनियुलभतां करोति । मनुजरहिवलोकस्यातिमहत्वं च तत् दुर्लका करोति । असंभोगा हि हीपसमुद्र गारकावासाः, स्वर्गपदलानि, इतरश्च लोकामासमतिमहत् । योनीना वदुत्वं चतासां निबंधनं तदुर्लभतायाः॥ aaa PUR Page #1684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास १६७३ मानुषत्वसुदुलमत्वयाः कारणत्रयमाह मूलारा-असुभपरिणामबहुलत्तणं प्रचुरा मिथ्यात्वादयः कुयोनिजन्ममिमित्तकमहेतवः परिणामा इत्यर्थः ।। लोगस्स अदिमहलत्तं । मनुजरहितस्य लोकाकाशस्य विपुलत्वं । जयद्वीपाद्यर्थतृतीयद्वीपेष्वेव हि मनुजाः संभवन्ति | जोणिवत्तं मनुध्ययोनिभ्यश्चतुर्दशलक्षसंख्याभ्योऽन्या योनयो वलयः सप्ततिलक्षसंख्यात्वात् ॥ मनुष्यपना दुर्लभ क्यों है इसका उत्तर-- ___अर्थ-मिथ्यात्य, असंयम, कषाय, प्रमाद इनसे युक्त परिणाम-अशुभ परिणामोंसे ही यह जगत् भरा हुआ है. इसमें मनुष्यजन्म प्राप्त होना कठिन है. मनुष्यास रहित लोकक्षध बहुत ही वस्तीण है और मनुष्य युक्त लोकक्षेत्र अत्यल्प है इससे हि मनुष्यपना दुर्लभ है यह बात सिद्ध होती है. असंख्यात द्वीपसमुद्र मनुष्यविरहितही हैं, नरकभूमि, स्वर्गभामि और इतर लोकाकाश ये सब मनुष्यविरहित हैं. इतर योनिआकी बहुलता होनेसे मनुष्ययोनीकी दुर्लभता सिद्ध होती है. अपरामपि दुर्लभतापरंपरां दर्शयत्युत्तरगाथा-- देसकुलरूवमारोगमाउगं बुद्धिसवणगहणाणि ॥ लद्धे बि माणुसत्ते ण हुति सुलभाणि जीवरस ॥ १८६९ ॥ देशो जातिः कुलं रूपमायुर्नीरोगता मतिः॥ श्रवणं ग्रहणं श्रद्धा नृत्वे सस्यपि दुर्लभम् ।। १९९० ॥ विजयोत्या-रेसकुलस्यमारोग्ग देशकुलरूपमारोग्य । आयुगमायुष्क। बुद्धिसषणगणाणि बुद्धिभषणप्रहणानि । लब्धेपि मनुष्यत्ये मनुष्यगतिनामकाँवयात् , जिनप्रणीतधर्मप्रगममानयपालो देशो दुर्लभः । मंतवानां शफययन किरातवरपारसीकसिंहलादिदेशानां धर्महमानवरहितानामतिषहुलत्वात् ॥ लब्धेपि देशे सुजनापासे ब्राह्मणक्षधियवैश्यादिक कुलं दुरधिगमनीयं सन्कुलानामरूपस्वास् । असन्नीचैगाँनबंधनात् । मिथ्यात्वोदयात् प्रायेण प्राणिनो गुणान् गुणिजनं च निवस्याकोशति, निर्गुणोऽपि कुलाभिमानमतिमहातमुखाति, तेन नीवैत्रिमुपचिनोति, गुणे गुणिजने चातुरागः कुलाभिमानतिरस्करणं वा कवानिदेव भवति इति शोभनं कुल कदाचिदेव लभ्यते, चारित्रमोहोदयात पदजीवनिकाययाघाकरणे सततमुद्यतः तबीयरूपशोमोन्मूलनसंपादनेनोपार्जितेनाशुभरूपनामकर्मणा विरूपो बहुशो भवति । जीव १६७३ Page #1685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६७४ दयां कदाचिदेव करोति । प्रशस्त रूप नामकर्मलभ्य सौरूप्यमपि क्लेशेन लभ्यते । परजीवसंतापकरणे कृतोत्साहः सर्व वैवेति रोगी भवति बहुशः, परसंतापपरिहारं वैयावृत्यं च कदाचिदेव करोति इति नीरोगतापि कादाचित्का दुर्लभा । परेषां प्रायेणायुर्निहतीति स्वायुरेवायं जनो जायते । कदाचिदेवाहिसात परिपालना चिरंजीविता सदा न लभ्यते । समीचीनशानिजनदूषणात्तन्मात्सर्यात् तद्विघ्नकरणासदासादनाच्चक्षुरादींद्रियोपधातकरणाच्च मतिश्रुतज्ञानावरणे वराको बना सीति दुर्मेधा भवति । बहुषु जन्मशतसहस्रेषु मतिधुतज्ञानावरणक्षयोपशमात् शुभपरिणामोपनीतात् कदाचिदेव विषेक कारिणी बुद्धिर्भवति, सत्यामपि बुद्धी हिताहितषिवारणक्षमं धर्मश्रवणमतिदुर्लभं यतीनां विरागद्वेषाणां समीचीनशानप्रकाशनोन्मूलित मोहांधतानां अशेषजीय निकायव्याक्रियोपतानां सौम्यात् तीव्रमिथ्यादर्शनोपनीत गुणिजनपेण मिथ्याज्ञानभलाभ बुदिग्धतया स्वगृहीत तत्व परवशतया आलस्येन वा यतीनां स्वपरोद्धरणप्रवीणतापरिज्ञानाय न ढोकते यतिजनमिति धर्मश्रवणस्य दुर्लभता । कदाचिदेव पापोपशमाद्यति जनानु ढौकनेपि नयपुरस्सरे संप्रश्ने प्रशस्तबागनुयायिनि गुरुजने चाभिमुखे सति श्रवणं भवतीति श्रवणस्य च प्रतिजननिकेसनमुपगतोषिच्छया निद्राति, स्वयं परेषां यत्किचिदसारं वदति, मुग्धानां या वचनं श्रुणोति न विनयेन ठोकत इति या दुर्लभं श्रवणं । श्रयणं श्रुतेपि धर्मे तत्परिज्ञानमतिदुर्लभं श्रुतानामरणोदयात् । दुःकरत्वं मनःप्रणिधानस्य कदाचिदप्यश्रुतपूर्वत्वात् सूक्ष्मत्वाच्च जीवातित्वस्य श्रुतज्ञानाधिकरणे क्षयोपशमे मनःप्रणिधानं वक्तुर्वचनसौष्ठव घेति । सकलमिदमसुलभमिति धर्मज्ञानं दुर्लभं । शापि धर्मे अस्ति घर्मो जीवपरिणामसम्यकत्यांनधरण तपोरानपूजा तुमको ऽभ्युदयनिश्रेयस फलदायी जिनेयवर्णितरूपइति श्रद्धानं न सुखेन लभ्यते, दर्शन मोहोदयात् । उपदेशकालकरणलब्धयक्ष कदाचित्का इति ॥ मनुष्यत्व लाभेऽपि देशादीनां यथोत्तरं दुर्लभत्वमाह- मूलारा -- देखो जिनधर्मप्रगल्भ मानवबहुलो विषयो दुर्लभः । शकयवनादिदेशानां धर्मज्ञरहिताना गत्रिहुलत्वात् । कुल ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यवंशः । सुकुलानामस्पत्वादसकुन्नीचैर्गोत्रबंधनाथ मिध्यात्वोदयाद्धि प्रायेण निर्गुणोऽपि कुल्प्रभिमानमति महान्तं उद्वहन्गुणिश्च निदति । वेन नीचे बनाति गुणं गुणिनि चानुरागः कुलाभिमानतिरस्करण वा । कदाचिदेव भवतीति शोभनं कुछ कदाचिदेव लभ्यते । रूवं सौरूप्यं जीवो हि चारित्रमोहोदयात्पड्जीव वाघाकरपनित्योद्योगाचद्रूपशोभानिमीलनसंपादिता शुभ रूपनाम कर्मविपाकेन बहुशो विरूपः स्यात् जीवदयां कदाचित्कचित्करोतीत शुभ रूपनाम कमै निर्मेय सौरूप्यमपि क्लेशेन लमते । आरोमां परजीव संतापन संततोत्साह वदस क्षेधोदयाद्धि जीवो बहुशो रोगी भववि । परसंतापत्या गुणवद्वैयावृत्यं च कदाचिदेव करोतीत्यरोगतापि कादाचित्की । आयुगं चिरजीषितुं जनो हि परे प्रायेणायुः संहरति इति बहुशः स्वल्पायुरेव जायते । कदाचित्कचिदेवा हिंसागतं चरति इवि दीर्घायुष्कतापि न सदातनी । बुद्धि अयं खल्वात्मा समीचीन ज्ञानज्ञानिप्रदूषण निन्हषादिकरणाच झुरावीद्रियोपधातसंपादनाच्च यद्धयोर्मतिश्रुत भाश्वासः 15 १६७४ Page #1686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना sale ज्ञानावरणयोक्यानाशो मतिश्रुतझानहीनो भवति । शुभपरिणामसंपायं तवावरणक्षयोपशमविशेष कदाचित्कचिदेव प्रानोतीति तत्त्वविवेकबुद्धिरप्यनेन बराकेण दुरवापा । सवण यतीनां शुसज्ञानप्रवीपनिरस्तांतस्वमसा विरागद्वेपाणां, करुणापरतंत्राणां, परहितप्रतिपादनककार्याणां अतिदुर्लभत्वातीप्रमिथ्यात्वकृतगुणिजनद्वेषेण, मिथ्याज्ञानलवलाभदुर्विग्धतया, स्वरहीततक्वपरवशतया, अलसतया, यतीनां स्वपरोद्धरणभावीण्यापरिक्षानाहा, प्रश्रयेण वदुपसर्पणाभावान्, कथंचित्पापोपशमातदुपसपणेऽपि विनयपुरःसरं संप्रश्नस्य कदाचिदेव संभवाच । मनुष्य त्वादिसप्तकप्राप्तावपि जीवस्य सद्धर्भश्रवणं दुष्पापं ।। यतिजननिकतने गतोऽपि यदृच्छया निद्रायति, स्वयं वा परेषां यत्किचिदसारं वदति, मुग्धानां चा वचनं शृणोति, विनवेन बा ढोकते । इति दुर्लभा धर्मतिः । गणाणि श्रुतेऽपि धर्म तत्परिज्ञानं अतिदुर्लभं । श्रुतशानावरणोदयादात्मनः प्रणिधानस्य दुष्करत्वाब्जीवादितत्वस्य कदाचिदच्य श्रुतपूर्ववारसूक्ष्मत्वाच्च । ज्ञातेऽपि धर्मेऽस्ति धर्मः सम्यक्त्वाधात्मकोऽभ्युदयनिःश्रेयसफलप्रदो जिनोक्त इति श्रद्धानमधिदुर्लभतमं कालगतिलकनीनां सम्मान । और भी बातोंको दुर्लभता आगकी गाथासे दिखाते हैं अर्थ-देश, कुल, रूप आरोग्य, आयुष्य, बुद्धि, श्रवण, ग्रहण, ये गते मनुष्य जन्म मिलनेपर भी दुर्लभ है. मनुष्यगति नायकर्मके उदयसे मनुष्यपना प्राप्त होता है. तो भी जिनमणीत धर्मसे प्रगल्भ मानव जिनमें | रहते हैं ऐसे देशमें जन्म होना बहुत दुर्लभ है. अंतीपोंमें जन्म होकर भी मनुष्यता मिलती है. शक, यवन, किरात, चर, पारसीक, सिंहलादिक देश धर्मज्ञ मनुष्योंसे रहित है ऐसे ही देश बहुत है. जहां सज्जन रहते हैं ऐसा देश प्राप्त होनेपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यादिक इलोंकी प्राप्ति होना दुर्लभ है. क्योंकि उत्तम कुल दुनियामें अल्प है. बारबार नीनगोषका बंध होता है. प्रायः मिथ्यात्वका उदय होनेसे मनुष्य गुणोंकी और गुणिजनोंकी निंदा करने लगता है. निर्गुण होनेपर भी अपने कुलका अतिशय अभिमान धारण करता है. ऐसे अभिमानसे यह जीव नीच गोत्रका संचय करता है, गुणमें और गुणिजनमें प्रेम होना, अपने कुलाभिमानका तिरस्कार होना यह बातें अत्यल्प पायी जाती है इसलिए उत्तम कुलकी प्राप्ति कचित् होती है. चारित्रमोहनीयके उदयसे यह आत्मा हमेशा षटकाय जीवोंका नाश करने में हमेशा उद्युक्त होता है. उन जीवोंकी रूपशोभाको विगाडता है इससे अशुभ नाम कमका बंध होता है. इस कर्मका उदय होनेपर यह जीव अनेक बार विरूप होता है. १६७५ Page #1687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वामः जीवदया कभी कभी करता है. प्रशस्त रूप नाम कर्मके उदयसे सुंदर रूपकी माप्ति बहुत क्लेशसे प्राप्त होती है. परजीवों को हमेशा संताप देने में ही सत्पर रहनसे सर्वदा दहमें रोग उत्पन्न होता है. परसंतापको दूर करना, वेयावत्य करना ये बाते कमी कमी करनेमे नीरोगताकी प्राप्ति होना दुर्लभ होगया है. प्रायः यह आत्मा दुसराको आयुको नष्ट करता है. इस लिये यह स्वल्पायु हो जाता है. कदाचित् अहिंसा व्रतका पालन करनेसे यह पुरुप कभी २ चिरंजीवी होता है. इस लिये चिरजीविताभी दुर्लभ है. समीचीन बानको क्षण देना, उससे भत्सर करना, ज्ञानमें विघ्न करना, उसका नाश करना, चक्षुरादिक इंद्रियोंका नाश करना, इन कार्योसे इसको भतिज्ञानावरणका और श्रुतज्ञानावरण कर्मका बंध होता है. जिसका उदय होनेसे यह जीव अतिमंदबुद्धि हो जाता है. लक्षावधि जन्मोकी प्राप्ति होनेपर मति श्रुतमानावरण कर्मका क्षयोपशम होनेके योग्य शुभपरिणाम जब होते हैं तब कदाचित् विचकको उत्पन्न करनेवाली घुद्धि उत्पन्न होती है. बुद्धि उत्पन्न होने परमी हिताहितका विचार सुझानेवाला धर्मश्रवण प्राप्त होना अतिशय कठिन है. रागओवरहित, समीचीन ज्ञान प्रकाशके द्वारा दुर्भेय मोहधिकारको हटानेवाले, संपूर्ण प्राणिमात्रापर दया करनेमें उद्युक्त रहनेवाले मुनिराज दुर्लम है इस लिये धर्मश्रत्रणका पाना दुर्लभ हो रहा है. तीव मिथ्यात्वके उदयसे गुणिजनो द्वेषभाव उत्पन्न होता है. मिध्याज्ञानकी प्राप्ति होनेसे बुराग्रह चढ़ता है, मैने जो पदार्थ स्वरूप जान लिया है वहीं सच्चा है ऐसी धारणा होनेसे, आलस्यसे यतिजन स्वपरोद्धारमें प्रवीण रहते हैं इसका परिझान न होनेसे यह जीव यतिराजोंके पास जाता नहीं है. इससे धर्मश्रवणसे इसको वंचित रहना पडता है. कदाचित् पापका उपशम होनेपर यतिजनके पास यह पुरुष जाता भी है. वहाँ नयोंके अनुसार प्रश्न होता है, प्रशस्त भाषण बोलने वाले गुरुजन धर्मोपदेश देनेपर इसको धर्मश्रवणका लाभ होता है. इससे धर्मश्रवण दुर्लभ है यह सिद्ध हुआ, यह जीव यतिके स्थानपर जाकर भी यथेच्छ सो जाता है. अथवा स्वतः दुसराके साथ निःसार भाषण करने लगता हैं. मूखोंके भाषण सुनता है. विनयका आश्रय नहीं करता है. इस लिये मी आचार्यजीने धमत्रवणकी दुर्लभता दिखाई है. १६७१ Page #1688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VERSE मूलाराधना आश्वासा १६७७ धर्म सुननेपर भी उसका ज्ञान होना दुर्लभ है. क्योंकि श्रुतज्ञानावरण कर्मके उदयसे उपदेशका अभिमाय जाननेकी पात्रता नहीं रहती है. कमी गुरूका उपदेश पूर्वमें नहीं सुना था, इसलिये मन एकाग्र नहीं होता है. जीवादिक तत्व सूक्ष्म हैं इसलिये भी मन एकाग्र नहीं होता है. श्रुतज्ञानका आधारभूत क्षयोपशम प्राप्त होनेपर मन एकाग्र हो सकता है. वक्ताके वचनोंमें सुंदरता होनेसे भी मनमें एकाग्रता उत्पन्न होती है. संपूर्ण देश, कुल, आरोग्य दीर्घायु इत्यादिक उत्तरोत्तर दुर्लभ है ऐसा ज्ञान होना कठिन है. धर्मका स्वरूप जानने पर भी सम्पग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप, दान, पूजा एतत्स्वरूपी आत्मपरिणाम ही धर्म है यही धर्म अभ्युदय व मोक्षसुखको देता है ऐसी श्रद्धा होना कठिन है. दर्शनमोहनीय का उदय होनेसे श्रद्धान नहीं होता है. उपदेश, काल, करणलब्धि ये बातें कभी कभी जीवोंको प्राप्त होती हूँ सर्वदा नहीं है. लहेसु वि तेसु पुणो बोधी जिणसासणम्मि ण हु सुलहा ॥ कुपधाकुलो य लोगो जं वलिया रागदोसा य ।। १८७० ॥ देशादिष्वपि लब्धेषु दुर्लभा वोधिरजसा ॥ कुपवाकुलिते लोके रागद्वेषवशीकृते ॥ १९४१ ।। विजयोदया-लद्धेसु वि तेसु पुणो लम्वष्यपि तेषु मनुजभवादिषु घोधिक्षिाभिमुखा युदिन सुलभा प्रबलत्वात्सं. यमघातिकर्मणः । कुमार्गाकुलत्वात् लोकस्य बाहनामाबरणमेघ प्रमाणयन यकि चनाचरति, घलचंतश्च रागद्वेषाः शानश्रद्धामोपेतमपि न सन्मार्ग दौकितुं ददति ॥ मूलारा-कुपचाकुलो लोको हि बहूनामेवाचरण प्रमाणयन् यत्किचनाचरति । दृष्टानुसारी च प्रायेण जनः स्वकार्य भुयति । यलिया तत्वज्ञानअद्भानतोलिसदाचरणानुचरणप्रतिबंध कायात् ।। अर्थ मनुजमव वगैरहकी प्राप्ति होने पर भी जिनधर्ममें दीक्षा धारण करनेकी बुद्धि उत्पन्न नहीं होती है. संयम धारण करनेकी बुद्धि प्राप्त होना बहुत कठिन है क्योंकि संयमघात करनेवाला कर्म प्रबल रहता है. लोक प्रायः बहुत लोगोंका आचरण देखकर वैसा स्वयं भी आचरण करते हैं. अन्य जनोंका आचरण योग्य है १६७७ Page #1689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना या नहीं इसका विचार ही नहीं करते हैं. लोग मार्गपर चलते हैं लस कुमार्गसे वे आकुल हो रहे हैं. उनको देखकर यह अझ मी वैसा ही कुछ मी आचरण करता है. जीयमें रागद्वेष प्रबल है वे सन्मार्ग पर इसको चलने नहीं देते हैं. ज्ञान और श्रद्धानसे युक्त होनेपर भी यह जीव सन्मार्ग से पराङ्मुख होता है. आश्वास १६७८ इय दुल्लहा पबोहीए जो पमाइज्ज कह बि लहाए ॥ सो उल्लट्टइ दुक्खेण रदणगिरि सिहरमारुहिय ।। १८७१। इत्थं यो दुर्लभां घोधि लब्ध्वा तत्र प्रमाद्यति ।। रत्मपर्वतमारुहा ततः पतति नष्टधीः ॥ १९४२ ।। विजयोदया-रय दुलहा पयोहीए उक्तेन क्रमेण वुर्लभायां वीक्षाभिमुखायर्या यही लब्धायामपि यः प्रमाद्यत्यसी रानगिरिशिखरमारहा ततः पतति प्रमादी। एवं दुर्लभा बोधि लब्ध्वापि प्रमाद्यतमनुझोचतिमूळारा-बटादि पतति । रागिरि सिहरे मेरुदागम् ॥ अर्थ-ऊपर कहे मुजब दीक्षाभिमुख बुद्धि दुर्लभ है. उसकी प्राप्ति होनेपर भी यदि कोई जीव प्रमादी बनेगा तोरलपर्वतके शिखरपर चढ़कर फिर उससे वह गिरता है ऐसा समझना चाहिये. - - - फिडिदा संती बोधी ण य सुलहा होइ संसरंतस्स ॥ पडिदं समुद्दमझे रदणं व तमंघयारम्मि || १८७२ ॥ नष्टा प्रमावतो धोधिः संसारे खुर्लभा भयेत् ॥ नष्ट तमंसि सव्रत्नं पयोधो लभ्यते कथम् ॥१९४३ ।। विजयोदया-फिडिदा संती बोधिनिष्टा सती दीक्षाभिमुखा युधिः पुनर्न सुलमा भवति संसरतः। अंधकार समुद्रमध्ये पतित रत्नमिव । ' Page #1690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AtomarARRC मूलाराधना आश्वास। उक्तार्थसमर्थनार्थ माह.मूलारा--फिडिदा विनष्टा ॥ अर्थ--यह दीक्षाकी बुद्धि नष्ट होनेपर फिर मिलती नहीं है. अंधकारमें समुद्र में रत्न फेक देनेपर जैसे पुनः रत्न नहीं मिलता है. बैंस दीक्षासे बदि हट जानेपर पुनः दीक्षा भरण काता दुर्गा है PATANAMA ते घण्णा जे जिणवर दिवे धम्मम्मि होति संबुद्धा ॥ जे य पवण्णा धम्मं भावेण उवट्टिदमदीया ॥ १८७३ ॥ विपुलसुफलाना कल्पने कल्पवल्ली भवसरणतरूणां कल्पने या कठारी॥ भवति मनसि सुद्धा सा स्थिरा शुद्धपोधिः फलममलमलभिप्राणिप्तव्यस्य तेन ॥१९४४|| इति बोधिः । विजयोदया-स्पष्टोत्तरा गाया । योधित्ति || जिनोक्तधमें सबुद्धान्भावन परिणतांश्च परिणीतिमूलारा-स्पष्टम् ।। बोध्यनुप्रेक्षा ।। अर्थ--जो पुरुष जिनेश्वरने कहे हुए धर्ममें प्रबुद्ध होते हैं वे धन्य है. तथा जिन्होंने प्रबुद्ध होकर जैन धर्मका आचरण किया है-करते हैं अर्थात् हृदयसे जिन्होंने जैन धर्मको अपनाया है ऐसे महात्मा इस संसारमें धन्यताके पात्र हैं, अनुप्रेक्षाओंका वर्णन समाप्त हुआ. प्रस्तुतमर्थमुपसहरति-- इय आलंबणमणुपेहाओ धम्मरस होति ज्झाणस्स ।। ज्झायंतो ण वि णस्सदि ज्झागे आलंबणेहिं मुणी ॥ १८७१ ॥ Page #1691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास द्वावशापीत्यनुप्रेक्षा धर्मध्यामावलंबनम् ।। नालंयन विना चित्तं स्थिरतां प्रतिपद्यते ॥ १९४५ ॥ विजयोदया-य आलंबणे पषमालंबन भवत्यनुप्रेक्षा धर्मध्यानस्य भ्याने प्रवृत्तो न विप्रणश्यति ध्याननिमिसालेबनेभ्यो यतिः । यो हि यस्तुस्वरूप प्रणिहितचिसः सततं यस्तुयाथात्म्यात्प्रच्यवते तस्थ विस्मरणात् ॥ एवं द्वादशाप्रमोक्षः निरूप्योर येत यी । मूलारा--माणे आलंधणेहि प्याननिमित्तालंबनान्याश्रित्य चायन्न विनश्यति । ध्यानान्न प्रत्ययते इत्यर्थः । ___ इसी विषयका उपसंहार अर्थ...धर्मध्यानमें जो प्रवृत्ति करता है उसको ये हादशानुप्रेक्षा आधाररूप है. अनुप्रेक्षाके बलपर ध्याता धर्मध्यानमें स्थिर रहता है. जो जिस वस्तुम्वरूपमें एकाग्रचित्त होता है यह विस्मरण होनेपर उससे चिगता है परंतु बार बार उसको एकाग्रताके लिए आलंबन मिल जावेगा तो यह नहीं चिगेगा. - ध्यातुगलबनबाहुल्यं दर्शयत्युत्तरागाथा आलंबणं च वायण पुच्छणपरिवट्टणाणुहाओ। धम्मस्स तेण अविरुद्धाओ सव्वाणुपहाओ ॥ १८७९ ॥ आलंबणेहिं भरिदो लोगो झाइदुमणस्स खवयस्स ।। जं जं मणसा पेच्छदि तं तं आलंबणं हवइ ॥ १८७६ ।। आलबने तो लोको ध्यातुकामस्य योगिनः॥ · यवेचालोकते सम्यक् तदेवालंबन मतम् ॥ ११४६ ।। विजयोदया-धम्मस्स आलंबणेहि भरिदो ध्यानस्यालबनैः पूर्णी लोको ध्यातुकामस्य क्षपकस्य यद्यन्ममता पश्यति तत्तदालंबनं भवति । दिध्यासोरालंबनबाहुल्यमाहमूलारा-पष्टम् ॥ १६८० Page #1692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना १६८९ ध्याताको ध्यानके लिए अनेक आलंघनोंकी आवस्यकता है. इस विषयका विवेचन-- अर्थ-वाचना, प्रच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा ये सब धर्मध्यानके आलंबन हैं. इनके आश्रयमे धर्मध्यान उन्नत दशाकी प्राप्ति कर लेता है. इस लिए पूर्वोक्त द्वादशानुप्रेक्षायें भी धर्मध्यानके अनुकूल ही हैं. धर्मध्यान करनेकी इच्छा करनेवाले यतिराजको यह संपूर्ण लोक भी आलंबन है. क्षपक जो जो चीज देखेगा वह २ ध्यानकी आलंबनभूत होगी. धर्मध्यानं व्याख्याय स्थानांतरं व्याख्यानुमुत्तरप्रबंधः-- इच्गानिकतो धामझा जदा हवइ खत्रओ ॥ सुऋज्झाणं झायदि तत्तो सुविसुद्धलेम्साओ । १८७७ ।। धर्मध्यानमतिक्रांतो पदा भवति शुद्धधीः । शुद्धलश्यस्तदा ध्यान शुक्लं ध्यायति सिद्धये । १९४७ ।। पिंजयोदया- इच्चे धमनितो धर्मध्यानमेवं व्यावर्णितरूपमतिक्रांतो यदा भवेत् क्षणकः शुक्लध्यानमसौध्यानि सुविशुद्धलेश्यासमन्वितः ॥ परिणामयेण्या हि उत्तरोत्तरानुगुणतया स्थितः । क्रमेणैव प्रवर्तते न हि प्रथमे सोपाने स्थापित करणः द्वितीयादिकं सोपानमारोढुं प्रभवति ॥ परमप्रभत्तो धर्मध्यान प्रवृत्त पय शुक्लध्यानमतीति सूत्रेणानमसापित एवं धगध्यान व्याख्याय शुक्लं प्रवन व्याचिग्यासुरप्रगनी धम्में शुक्लमहतीति ज्ञापयति मुलारा-सुविसुद्धलेस्साओ परिणामश्रेण्या हुत्तरोऽनुगुणतया स्थितोपक्रमेणैव प्रवर्तमानो न हि प्रयमे सोपाने स्थापितपादो द्वितीयादिकं सोपानमारोढुं क्षमते धर्मध्यानकं अनंतर शुक्ल ध्यानका सविस्तर आचार्य वर्णन करते हैं-- अर्थ-जिसका स्वरूप पूर्वमें वर्णित हुआ है ऐसे धर्मध्यान के अनंतर क्षपक शुक्ल ध्यानका चिंतन करता है. तब विशुद्ध लेण्यायुक्त होता है अर्थात् उस ध्याताके परिणामोंमें क्रमसे अधिकाधिक निर्मलता आती है. जैसे जिसने प्रथम सोपान पर पैर रखा है वह दुसरे सोपानपर आरूद नहीं हो सकता है. अर्थात प्रथम सोपानपर आरूढ होकर ही दिखीय सोपानपर-सिंडीपर अनंतर पैर रख सकता है. वैसे यहाँ मी धर्मध्यान के १६८१ Page #1693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास अनंतर अप्रमत गुणस्थानवती क्षपक शुक्लध्यानमें प्रवेश करता है. बिना धर्मध्यानके शुक्लध्यानका चिंतन ध्याता नहीं कर सकता है, चतुर्विघशुक्लध्यानं नामतो दर्शयति गाथाद्वयम् ॥ झाणं पुधत्तसवितकसबीचारं हवे पढमसुक्कं ॥ सवितक्केकत्तावीचार ज्झाणं विदियसक्कं । १८७८॥ विजयोदया-ज्याणं पुधप्ससवितककसचीचारं ध्यान पृथकत्वसयितर्कसवीचारं प्रथमशुक्लं भवति । सविसकेकत्ताधीचारं सवितकत्वानीगर द्वितीयं शुकमध्यानं ॥ शुक्लष्यानस्य चतुरो भेदानामतो दयितुं गाथायमाह मूलारा-पुधत्तसवित्तकसविचारं पृथक्त्वस्य वितर्क सबिचारं यत्र तत्पृथक्त्वसवितर्कसविचार । पृथक्त्वबिलकवीपारमिति प्रथमशुक्लस्यान्वर्थ नामेत्यर्थः । उक्तं चा पृथक्त्वेन वितर्कस्य वीचारो यत्र तद्विदुः ।। सत्रितर्कसवीचारं पृथक्त्वादिपदाहयं । सवितकत्तवीचा सवितर्क मेकत्वमयीचारं यत्र तत्सवितकत्यावीचारं एकत्ववितकावीचार मिति द्वितीयशुक्लस्यान्वधं नामेत्यर्थः । उक्तं चा---एकत्वेन वितस्य स्याद्यत्र विवरिष्णुता ।। सवितर्कमवीचारमेकत्वाविपदाभिधम् ॥ सुहुमकिरियं खु तदियं सुक्कज्झागं जिणेहि पणतं ॥ वेति चउत्थं सुकं जिणा समुग्छिण्णकिरियं तु ॥ १८७९ ।। गद्य-पृथक्त्यवितर्कधीचारैकत्वरितार्याचारसूक्ष्माफियासमुच्छिन्नक्रिया णि त्र्येकयोगकापयोगायोगध्येयानि चत्वारि शुक्लानि यथार्थानि ।।१९४८॥ विजयोदपा-सुलुमकिरियं तु दियं तृतीयं शुक्लध्यानं जिनः प्रशस मुक्ष्म क्रियमिति, वंति चउत्थं सुक्क बुयते चतुर्थ शुक्लं जिनाः समुन्छिकि । एवं द्विभे शुक्लं निरूप्य द्विविध परमशुक्लं निरूपयति १६८ Page #1694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः मूलास-सुहुमकिरियं सूक्ष्मा क्रिया कायच्यापारो यत्र तत्सूक्ष्मक्रियमन्वर्थनाम्ना तृतीय शुक्लं श्रुते प्रसिद्ध । समुच्छिन्न क्रियनित्यम्बर्थ चतुर्थ शुक्लमाख्यायते ॥ चार शुक्लध्यानाके नाम दो गाथाओंसे कहते हैं अर्थ-पृथक सवितर्क सवीचार नामक प्रथम सुटसम्यान, सपिशवीला सागा असर. सुगलाध्यान, सूक्ष्मक्रिया नामक तीसरा शुक्लध्यान, समुच्छिन्न क्रिया नामक चौथा शक्लध्यान ऐसे जिनेश्वरने शुक्लध्यानके चार भेद कहे हैं. पृथक्त्यसविसकलधीचारं व्याच गाथात्रयेण दव्वाइं अणेयाई तीहि वि जोगेहिं जण ज्झायंति ॥ उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तंत्ति तं भणिया ।। १८८० ॥ वितको भण्यते तन श्रुतध्यानपिचक्षणः ।। अर्थव्यंजनयोगानां वीचारः संक्रमो अधः ।। १९४९ ।। तत्र दयाणि सर्वाणि ध्यायता पूर्ववादना ।। भेदन प्रथमं शक्लं शांतमोहेन लभ्यते ।। १९५० ॥ विजयोदया-दब्वाई अणे याई तीहि धि जोपट्टि जेण ज्झायंति द्रव्याभ्यनेकानि विभियोगैः परावर्तिमाना अन चिंतयंत्युपातमोहनीयातन पृथक्त्वमिति- प्रथमध्यानमुक्त, पतदर्थ कथयति-अन्यदन्यद्रव्यमवलंब्य प्रवृत्तनान्येनान्येन योगेन प्रवृत्तस्यात्मनो भवतीति पृथकाचव्यपदेशो ध्यानस्पेति ॥ प्रथमशुक्लनाम गाथात्रयेण निर्विविक्षुः प्रथमं तत्पृथक्त्वं व्ययस्थापयति मूलारा--अणेगाई द्विध्यादीनि । तीहिं वि जोगेहि बिभिरपि योगैमनोवाकायच्यापारैः परावर्तमानाः । उपसंत मोहणिज्जा उपशांनमोहनीयकर्मणः । त्रियोगैरुपशांतमोहै: प्रथमं शक्ल साध्यते इत्यर्थः । पुत्तत्ति अन्यदन्यद्रध्यमलंब्य प्रवृत्तेन्येिनान्येनयोगेन प्रवृत्तस्वात्मनो भवति इति पृथक्त्वमित्युक्तमित्यर्थः ।। पहिले शुक्लध्यानका तीन गाथाओंसे आचार्य निरूपण करते हैंअर्थ-इस पृथक्त्व सवितर्क सविचारध्यानमें अनेक द्रव्य विषय होते हैं और इन विषयांका विचार १६८३ Page #1695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ an आश्वासः चिन्तन करते समय मनोयोग वचन योग और काययोग इन योगोंका परिवर्तन होता है. अर्थात उपांत मोहमृलाराधना नीय मुनि कभी मनोयोगके आश्रयमे, कभी वचनयोगस और कभी काययोगसे भिन्न भिन्न द्रव्योंका विचार करता है. ध्यानमें विषयभिन्नता, योगभिन्नता और पचनभिन्नता रहती हैं. इस वास्ते इस ध्यानको पृथक्त्व सवितर्क मविचार एमा आचार्य कहते हैं. जम्हा सुदं वितकं जम्हा पुब्वगदअत्थकुसलो य || झायदि झाणं एवं सवितरक तण तं झाणं ॥ १८८१ ॥ विजयोदया-जम्हा सुदं बितकं यस्मात् श्रुतं वितर्क यस्मात् पूर्वगतार्धकुशलो भ्यानमेतत्पवर्तयति । तेन तत् ध्यान सयितकः । चतुर्दशपूर्माणां ध्रुतत्वातदुपविष्टोर्थः । साहचर्यात् वितर्कशाप्दनोच्यते । तेन पितणार्थथुतेन ध्येयेन सह वर्तत इति श्रुतशानमेवावलंब्य सबितकमिस्नुमा वा तिरसुदे कानात शुलमानसंशितं सह कारणेन थुतेन वर्तत इति सचितर्कः ॥ सवितर्कमिति समर्थय ते.... मूलारा-पुब्बगद भरथफुसलो सकलमत्रार्थ पटुः । स वितर्क वितर्काऽत्र अतस्वाकचतुर्दशपूर्वाणि सत्साहचर्याकच तदुपदिष्टोऽर्थी वितर्कशकदेनेष्टः । सह वितर्केण चतुर्दशपूपिविष्टार्थश्रुतेन ध्येयं घर्तते इति सबितर्कम् ॥ अथवा पितः। शब्दभुतं तसेतु । प्राकभुसमान ध्यामसंशितं । सह वितर्केण कारणेन श्रुतेन वर्तते इति सवितर्क ।। अर्थ--इस ध्यानका स्वामी १४ पूर्वोके ज्ञाता मुनि होते हैं. श्रुतज्ञानको वितर्क कहते हैं. अर्थात् चौदा पूर्वोका जो ज्ञान उसको श्रुतज्ञान कहना चाहिये. पूर्वमें जो विषय कहा गया है उसकाभी ज्ञान के साहचर्यसे श्रुत कहते हैं. जैसे यष्टिके साहचर्यसे पुरुषकोभी यष्टि कहते हैं. इस श्रुतविषयकाभी वितर्क कह सकते है. यह विषय ध्येय है. तात्पर्य यह है कि श्रुतशत पूर्वज्ञानका व तद्गत विषयकाभी याचक हैं ऐसा समझना चाहिये. यह श्रुत ANI ज्ञान इस ध्यानका कारण हैं इसलिये इसकोभी ध्यान कह सकने हैं. अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो॥ तस्स य भावेण तयं सुत्ते उत्तं सवीचारं ॥ १८८२ ।। १६८४ Page #1696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना PE आश्वासा १६८५ विजयोदया-अत्याण पंजणाण य जोगाण य संकमो खु वीचारो अर्थानां ये व्यंजनाः शम्दास्तेषामिति, पैयधिफरपयेन संबंधः,न पुनरर्थानी व्यंजनानां चेति समुच्चयः। अर्थपृथक्त्वशःमोपादानात योगानां च सफमो वीचारः तस्स प भावेण वीचारस्य सद्भाधेम 1 तय तद्धि शुक्लध्यानं सूत्र सवीवारमित्युकं । अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुरला इत्येवमादिपरिमितानेक इश्यप्रत्ययमपरथुतयाश्योद्भूतं ध्यानमिति पृश्वम्भूतव्यालंपनस्वेन रूपेण एकद्रव्यालंबनात् एकस्वचितौद्भिद्यते योगत्रयसहायत्वादकयोगादरित्राराद्वितीयध्यानाद्भिद्यते । उपशांतमोहनीयस्वामिकत्यात् क्षीणकपायस्वामिकाथानाद्भिद्यते । सवितकत्वन अधितोपो तुतीयत्रीभ्यां विलक्षणं । अत एव नामनिदेशेनन ध्यानांतरषिलक्षणं पृथक्स्यसधितर्कसवीचारमिति लक्षणमुक्तं ॥ सविचारमिनि छियणोति मूलारा-अत्थाण बंजणाण अथाना ध्येयद्रव्यागा, तत्पर्यायाणां वा यानि व्यंजनानि व्यंजकाः शम्दास्तेषां इति वैयधिकरण्येन संबंधेन पुनरर्थानां व्यंजनानां चेति समुच्चयः । अर्भपृथक्त्वशब्देनोपादानात् । संक्रमो परावर्तनम् ।। उप-योगायोगांतरं यायावयंजनाद्व्यंजनांतरम् ॥ पर्यायादपि पर्याय द्रव्याणोतिषणुम् ॥ भाषेण सद्भावेन एतेन ध्यानांतरबैलक्षण्यं प्रथमशुक्लस्योक्तं । इंदं हि जीबकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला इत्येवमादिपरिमितानेकद्रव्यप्रत्यायनपरश्रुतवाक्योभूनं ध्यानमिति पृयम्भूतद्रव्यालंघनत्वेन रूपेणेकद्रव्यालंबनादेकत्वरितीद्योगत्रयसहायत्वाचेकयोगात्सविचारत्वाचाविचारादिनीयशुक्लध्यानाद्भिद्यते । तथोपशांतमोहनीयत्वादेकत्वाम्मोहोपशमकक्षपकत्वाद्वा श्रीणमोहनीयस्वामिका केपघातित्रयाघाति चतुष्ट पक्षपकाद्विनीयादिशुश्रयागिनाते । सवितर्कत्याज्ञावितर्कान्य शुक्लद्वयान । उक्त चा-पृथक्त्वं विक्षि नानात्वं वित्तकैःश्रुतमुकयते ॥ अर्थव्यंजनयोगाना वीचार:संक्रमो मतः ।। अर्थादातरं गच्छन्सयजनाद्वयंजनांतरं ॥ योगायोगांतरं गच्छन्न्यायतीदं वशी मुनिः ।। त्रियोगः पूर्व घियस्माद्रयायत्येनं मुनीश्वरः ।। सवितक सवीचारमतः स्याछुक्रमादिगम् ।। ध्येयमस्य श्रुतस्कंधयाधेाग यिस्तरः ।। ASSETTE १६८५ Page #1697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६८६ भवति चात्र वृत्तम् - फलं स्यान्मोहनीयस्य प्रयया ॥ प्रशान्तक्षीणमादेषु श्रेण्योः शेषगुणेषु च ॥ यथाम्नायमिदं ध्यानमामनंति मनीषिणः ॥ द्रव्यं भावमथातिसूक्ष्ममधियन्युक्त्या बितर्फे स्फुरन् || अर्थ व्यंजन मंगगीरपि पृथक्त्वेनापि कामता ॥ कमशाननवस्थितेन मनसा पूर्णाकोत्साहवत् । कुंदन दुभिवाशः परशुना विदश्यतिर्मे गतिः ॥ विचार शब्दका स्पष्टीकरण ---- अर्थ - इस ध्यानमें अर्थ के वाचक जो शब्द उनका विचार होता है. अर्थात् संक्रमण होता है. वैसे योगोंके संक्रमणको योगसंक्रमण योगवीचार कहते हैं. ऐसे विचारोंका सुझाव होनेसे इस ध्यान को सत्रोचार कहते हैं. जीव, धर्म, अधर्म आकाश, पुद्गल इत्यादि परिमित अनेक द्रव्यांका ज्ञान करानेवाला जो शब्दभुत वाक्य उस से यह ध्यान उत्पन्न होता है. यह ध्यान एकत्व वितर्क ध्यानसे भिन्न है क्योंकि एकत्ववितर्क ध्यान एक द्रव्यका ही आलंबन लेकर उत्पन्न होता हैं. यह प्रथम ध्यान तीन योगों के सहायसे उत्पन्न होता है और दुसरा शुक्लध्यान फक्त एक योगसे ही उत्पन्न होता है. उपशांत मोहनीय मुनि इस ध्यानका स्वामी है और इतर ध्यानोंके स्वामी क्षीणकराव सुनि हैं. यह ध्यान सवितर्क है इसलिये अवितर्क युक्त जो तीसरा और चौधा ध्यान वह इस ध्यान से भिन्न माना जाता है. इस ध्यानका पृथवस्य सवितर्क सवीचार ऐसा नाम हैं. नामसे ही अन्य ध्यानो से यह विलक्षण है ऐसा मालुम पड़ता है. जेणेगमेव दव्त्रं जोगेणेगेण अण्णदरगेण ॥ खीणकसाओ ज्झायदि तेणेगतं तयं भणियं ॥ १८८३ ॥ ध्यायता पूर्वदक्षण क्षीणमोहन साधुना ॥ एकं द्रव्यमभेदेन द्वितीयं ध्यानमाप्यते । १९५१ ॥ आश्वास 1 १६८६ Page #1698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना १६८७ विजयोदया- जेणेगमेव वच्च जोगणेगेण अण्णदरंगण यनैकमेघ द्रव्य अन्यतरेणकन सहयता, क्षीण कषायो ध्याति तेनैकत्वं तऋणितं एकद्रव्यालबनत्वात् । अन्यतरयोगपत्तेरेवात्मन उत्पसेरेकत्वं ध्यानं क्षीणकशय स्वामिक भवेत् ।। द्वितीय शुक्लनाम व्युत्पादयिष्यस्तस्यै कवं समर्थयते मूलारा--पगमेव षण्ण मध्ये चकिचिदिष्ट अथवा एकशब्दोत्र प्रधानार्थत्वेन सर्वसद्व्ये ष्वेक प्रधानमात्मान मेवेत्यर्थः उतर मित्रिचारावताराम सेन स्रोत प्राजिए । भास्मन्यष स्फुरमात्मा तस्सयानमधीजकम् ।। गगेण प्रधानतयोपातेन । अण्णवरगेण त्रयाणां मध्ये येन तेनापि सह वृत्तः । तेण एफद्रव्यालंबनत्वेनैकयो- | गतिक्षीणकषायस्वामिकत्वेन च । तयं तद्वितीय शुक्ल पतेन परिमितानेकासर्वपर्यायगव्यालषनान्धियोगोपशांतमोहप्रथमशुक्लारस मस्तवस्तुविषयाभ्यां सयोगायोगकेशलिस्वामिकाभ्यां तृतीयचतुर्थशुक्लाभ्यां चास्य भेदः । अर्थ-एकत्व वितर्क अविचार नामक दुसरे ध्यानका स्वरूप इस प्रकार है- इस ध्यानके द्वारा एकही योगका आश्रय लेकर एकही द्रव्यका ध्याता चिंतन करता है इसलिये यहां अर्थसंक्रमण, योगसंक्रमण और शब्दसंक्रमण नहीं है. इस भ्यानका स्वामी क्षीण कपारी मुनि है. तीनयोगोंमेसें एक ही योग यहां है. इसस ही यह ध्यान उत्पन्न होता है. एक ही द्रव्य इस ध्यानका आलंबन है. जम्हा सुदं वितकं जम्हा पुब्बगदअत्थकुसलो य ॥ ज्झायदि ज्झाणं एवं सवितकं तेण तं ज्झाणं ॥ १८८४ ॥ अस्थाण वंजणाण य जोगाणं संकमो हु वीचारो ॥ तस्स अभावण तयं झाणं अविचारमिति वुत् ॥ १८८५ ॥ विजयोदया-पकइल्यालंयनत्वेन परिमितानकर्सवपर्यायव्यालंबनात् प्रथमध्यानात्समस्तवस्तुविषयाभ्यां तृतीयचतुर्धाभ्यां च विलक्षणता द्वितीयस्थानया माधया निवेदिता । क्षीणायमहणेन उपशांतमोहस्वामिकरात् । । सयोग्ययोगकेवलिस्वामिकाभ्यां च मेदः धषितर्कता पूर्वषदेय । पूर्वव्यापातिषीचाराभायादवीवारत्वं । Page #1699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आयास: ORICp4 TA द्वितीयस्य सवितर्कत्वमाह--- मलारा--स्पष्टम् ।। अर्थ-यह भ्यान एक द्रव्य का ही आश्रय करता है इसलिये परिमित अनेक पर्यायों सहित अनेक व्यों का आश्रय लेनेवाले प्रथम शुक्लभ्यानसे भिन्न है, तीसरा और चौथा ध्यान सर्व वस्तुओंको विषय करते हैं अतः इनसे भी यह दुसरा शुक्ल ध्यान भिम है. ऐसा इस गाथासे सिद्ध होता है. इस ध्यानका स्वामी क्षीण बपायवाला मुनि है. पहिले भ्यानका स्वामी उपशांत कपायवाला मुनि है, और तीसरे नया चौथे शुक्ल ध्यानका स्वामी सयोग केवली और अयोग केवली मुनि है अतः स्वामित्वको अपेक्षासे दूसरा शुक्ल ध्यान इन ध्यानोसे भिन्न है. ---- - - - तृतीयध्यानमाचरे ॥ __ अवितक्कमबीचारं सुहुमकिरियचंधणं तदिवसुक्कं ।। सुहमम्मि कायजोगे भणिदं तं सबभावगदं ॥ १८८६ ॥ विजयोदया-अषितपकमबीयार थुतानालंघनत्वादधित स्त्रयं ध्रुतमाने भवतीति वा अवितर्फ पूर्वमालंयी. कृतादादातरालघनत्वं नाम वीचारो नास्तीत्वविचार, सुहमकिरिवयंधणं सूक्ष्मक्रियास्येति सूक्ष्मक्रिया आरमसंवैधनमाधयोऽस्थति सूक्ष्ममियाबंधनः, सूतीपशुक्ल, मुमम्मि काययोगे सूक्ष्मकापयोगे सति प्रवृत्ते, भणितं सूक्ष्मक्रियमिति तं लघ्वभावगर्द तृप्तीयं शक्लध्यान त्रिकालगोचरानंतसामान्यधिशेषात्मकद्रव्यपदयुगपत्यकाशमस्वरूप, युगपापकाशनमेकम मुखमस्थति ॥ पफमुखतापि विद्यत इति ध्यानशनस्रार्थोऽमिमुगे विद्यते ॥ एकाचितानिरोधो ध्यानमित्या सूत्र चिताशब्दो ध्यानसामाग्यवचनःतेग अतश्शानं कचिध्यानमित्युच्यते, कचिरकेवलशाम कचितशानं चिन्मतिझाने मन्यमान वा. यतोऽविचलत्यमेव ध्यान, ज्ञानस्य तस्यानिचलत्वं साधारण सर्वज्ञानोपयोगानां । तस्यैवावीचारत्वं यूते-- मूलारा-पष्टम् ।। वीसरे ध्यानका स्वरूप कहते हैं-- अर्थ---तीसरा सूक्ष्मक्रिया नामक शुक्लः ध्यान वितर्करहित अर्थात् श्रुतज्ञान रहित होता है. श्रुतज्ञान STAHSTANSAR StezeroJerrer ६८८ Page #1700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलायम भ আঘাম। १६८९ का आलंबन इस ध्यान में नहीं रहता है. सयोग केवली मुनि का यह ध्यान अवीचार है अर्थात् इस ध्यान में एक पदार्थ का आश्रय लेकर उसको छोडकर दूसरे पदार्थका आश्रय लेना यह क्रिया नहीं होती है. अर्थात् संपूर्ण पदार्थ उनके केवल चानमें प्रतिक्षण युगपत् जाने जाते हैं. अतः यह ध्यान । अवीचार ' है. सूक्ष्म क्रिया करने बाला आत्मा इस ध्यान का स्वामी है. अर्थात् इस ध्यानमें आमा मनोयोग. वचनयोगको सूक्ष्म करता है. यह ध्यान सूक्ष्म काययोग से प्रात होता है. विकालको विषय होनेवाले जीवादि छह पदार्थोंको युगपत्प्रगट करनेका इस भ्यानका स्वभाव है. युगपन सर्व पदार्थाको प्रगट करना यही एकाग्रता इस ध्यान में है. पदार्थ के अभिमुख होना यह ध्यान शब्द का अर्थ है. ' एकाग्रचितानिरोधो ध्यानम् ' इस सूत्रमें चिंता शब्द ज्ञानसामान्यका वाचक है. इसलिए कचित् श्रुतज्ञानको ध्यान कहते हैं, शचित् केवल ज्ञानको और क्वचित् मतिज्ञानको तथा मत्यज्ञानको और श्रुताशानको भी "यान कहते हैं. एक पदार्थ पर स्थिर होना यह ध्यान का लक्षण है. यह स्थिरत्व सर्व ज्ञानोपयोगी है. सुहुमम्मि कायजोगे बढ़तो केवली तदियसुक्कम् ।। झायदि णिरंभिदुंजे सुहुमचाणकायजोगपि ॥ १८८७ ॥ सर्वभाषगत शुक्लं विलोकिसजगत्त्रयं ॥ सर्वसूक्ष्मक्रियो योगी तृतीयं ध्यायति प्रभुः ॥ १९५२ ॥ विजयोदया-सुमंम्मि कायोगे सूक्ष्मे काययोगे प्रवर्तमानः केवली तृतीय शुक्लं भ्याति निरोधतमपि सूक्मकाययोग। प्रथमं परमशुक्लं अन्धर्थसझया लायति मूलारा- सुहुमकिरियपंधर्ण सूक्ष्मा क्रिया आत्मा स बंधनमायो यस्येसि सूक्ष्म कियधनं । भणि सूक्ष्म काययोगे सति प्रवृत्तम्तत्सूक्ष्म क्रियमिति भणितमिति संबंधः । सध्वभावगर्द त्रिकालगोचरतानंतसामान्यविशेषात्मक द्रव्यपदफयुगपरप्रकाशनस्य रूपं एकमग्रं मुखं यस्येत्येकाप्रताप्यस्य विद्यते इति ध्यानशब्दोऽपि मुरुयो घटते ॥ एकाग्रनितानिरोधो ध्यानमित्यत्र च सूत्रे पिताशब्दो मानसामान्यवचनः । तेन भुतिज्ञानं कचिदष्यानमित्युरुयते, क्वचिकेवलज्ञानं, कचिन्मतिज्ञान, कचिका श्रुताज्ञानं, मत्यज्ञानं वा यतोऽबिचलमेव ज्ञान ध्यानम् । तदुक्तम् १६८९ Page #1701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .मूलाराधना आश्वास १६९० एकाग्रप्रहणं चात्र याम्यविनिवृत्तये । नवमहागने - को किमर्थ केवली सूक्ष्म क्रियायोगवृत्तिःसन्ध्यायनीत्यवाहमूलारा--णितंभिटुंजे विनाशयितुं । तो तमपि । उक्तं च ज्ञानार्णवे विस्तरेण यदायुरधिकानि स्युः कर्माणि परमेष्ठिनः ।। समुन्यातविधि साक्षात्प्रागेवारभते सदा ।। अनसंधीर्यप्रभवानिनशो कपाट प्रसर विधाय || स लोकमान समयैश्चतुर्भिः निःोषमापूर यति क्रमेण ।। लोकपूरणामासान करोति भयानवीर्यतः आयु:समानि फर्माणि भुक्तिमानीय तक्षणे ॥ ततःक्रमेण तानेष स पश्चाद्विनिवर्तते ।। लोकपूरणतः श्रीमांश्चतुर्भिः समयः पुनः ॥ काययोगस्थिति कृत्वा पादरेऽ चिंत्यचेष्टितः ।। सूक्ष्मीकरोति वाकचित्तयोगयुग्म स बादरम् काययोगे तत:सूक्ष्मे पुनः कृत्वा स्थिति क्षणात ॥ योगद्यं निगृहाति सद्यो याक्चित्तसंक्षितं ।। मूक्ष्मक्रियं ततो ध्यान समझो ध्यातुमहति ।। सूक्ष्मैककायचोगस्थतृतीयं तद्विपच्यते ॥ अर्थ--इस सूक्ष्म काययोगमै रहनेवाले कंबली तृतीय शुक्लघ्यानके धारक है. उस समय मुक्ष्मकाययोगका चे निरोध करते हैं. अवियस्कमवीचारं आणियट्टिमकिरियमं च सीलसिं ॥ उझाणं णिरुद्धयोग अपच्छिमं उत्तम सुक्कं ॥ १८८८ ॥ । Page #1702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना १६६१ अयोगकेवली शुक्लं सिद्धिसौधमियासया || चतुर्थं ध्यायति ध्यानं समुच्छिन्नक्रियो जिनः ।। १९५३ ॥ विजयोदद्यादकमवीचारं पूर्वोकथितकमी चार र द्वितत्यान् अवितर्कमवीचार, अणियहि सकलकर्मनमकृत्वा न वर्तत इत्यभिवर्ती अभिवियं समुप्राणापानप्रचारस काय चागनोयोग परिस्पंदनक्रियाया रत्वात अकिये। सीलनि शीलानामीशः शीलेशः पथास्यातचारित्रं शीलेशस्य भावः शैलेश्यं तत्सहचारि ध्यानमपि शैलेशयं । निरुद्धयोग अनि विद्यते पश्वाद्वाविध्यानमस्मादित्यपश्चिमं । उसमें सुकं परमं शुक्लं ॥ द्वितीयं परमशुक्लं लक्षयति- मूलारा फलक दास्त नमकृत्या न निवर्तते निवर्ति । अक्रिरियं अक्रियं समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारं सर्वका यथा मनोयोग सर्वदेशपरिश्पंदन क्रियाव्यापारत्यात् । मलेसि शीलानामीशः शीलेशस्तस्य भावः शैलेश्यं यथाख्यात चारित्रं । वराहचर्याद्धद्यानमपि तथोत्तम । निरुद्धओगं निषिद्धनिःशेषकर्मासम् । अपमिं न विद्यते पश्चाद्भावि ध्यानमस्मादिति अपश्चिमम् । उत्तमं उत्कृष्टं संसारकारणकर्मनिर्मूलनात् ॥ अर्थ -- यह ध्यान वितर्क और विचाररहित है ऐसा पूर्वमें कह चुके हैं. जबतक संपूर्ण कर्मका नाश यह नहीं करता है तक यह निवृत्त नहीं होता है. इस ध्यान में सर्व श्वासोच्छ्रासका प्रचार बंद होता है. सर्व काय योग, वचनयोग और मनोयोग यहां नष्ट होते है. इस लिये यह ध्यान निष्क्रिय माना गया है. यह अठारह हजार शीलके भेद प्रकट होते हैं. इस लिये इस ध्यानके ध्याता शीलेश बनते हैं अर्थात् यथाख्यात नारित्रके धारक होते हैं. यह ध्यान संपूर्ण योगोंका निरोध करनेवाला है. इससे संपूर्ण कर्मोंके आसव यहां बंद होते हैं. इसको सबसे उसम शुक्ल ध्यान कहते हैं. यह अन्तिम ध्यान कहते हैं. यह अन्तिम ध्यान हैं. तं पुण निरुद्ध जोगो सरीरतियणासणं करेमाणो || सव अपडिवादी ज्झायदि झाणं चरिमसुक्कं ॥ १८८९ ।। विजयोदयानतरचतुर्थ शुरुभ्यानं निरुद्धयोगः सर्वेशः अतिशतिध्यानं ध्याति शरीरविनाशं कुर्वन, अयोग परिणामः केशानं चतुर्थशुपलं, तृतीयं तु सूक्ष्म काययोगपरिणामः केवलमिति भेदस्तृतीयचतुर्थयोः । आश्वासः ७ P३५: Page #1703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृधना १६९२ नाफिले निर्दिशति मूलारा - सरीरविंय औदारिकने जसकाशानि शरीराणि तन्नाशनमेव हि तत्फलं । अपडिवादी अप्रतिपाति । अयोगात्मपरिणामः । केवलज्ञानं चतुर्थं शुक्लं, तृतीयं तु सूक्ष्मकाययोगाश्मपरिणामस्तदिति तयोर्भेदः । उक्तं नार्पेततो निरुद्धयोगः सम्योगी स बिगताश्वः ॥ समुच्छिक्रियं ध्यानमनिवर्ति तदा भजेत् ॥ अन्तर्मुहूर्त मान्यस्तद्ध्यानमतिनिर्मलम् ॥ विधताको जिनो निर्वात्यनंतरम् ॥ त्रयोदशास्य कर्माशाः क्षीणाअरक्षणे ॥ द्वासरूपत्ये स्युरयोगपरमेष्ठिनः ॥ ऊर्ध्वं वण्यस्वभावात्समयेनैव नीरजाः ॥ लोकांतं प्राप्य शुद्धात्मा सिद्धरामणीयते ॥ अर्थ - यहां संपूर्ण योगोंका निरोध होनेसे औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरोंका नाश होता है. ये सर्व जिनेश्वर अयोगपरिणामात्मक बनते हैं. यहां केवलज्ञान योगरहित होता है. तिसरे शुक्लध्यान में केवलज्ञान योगसहित होता है. ऐसा इन दो ध्यानोंमें अंतर है. यह चतुर्थध्यान अप्रतिपाति है अर्थात हमेशा अयोग स्वरूपमेंही रहता है इय सो खवओ ज्झाणं एयग्गमणो समस्सिदो सम्मं ॥ विबुलाए णिज्जराए बट्टदि गुण सेढिमारूढो || १८९० ॥ इत्थं यो ध्यायति ध्यानं गुणश्रेणिगतः शुभः ॥ निर्जरां कर्मणामेष क्षपकः कुरुते पराम् ॥ १९५४ ॥ विजयोदया - इय सो खवगो एवमसौ क्षपकः, एकाग्रचित्तः सम्यग्ध्यानं समाधित्य विपुलायां कर्मनिर्जरायां वर्तते. गुणसेदिमारुढो गुणश्रेणीमारूढः उपशांतयादिकां ॥ आश्वासः 9 १६९२ Page #1704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा प्रकृते योजयन्नुपसहरतिमूलारा-समस्सिको समाभितः । गुणसेलुि उपांतकषायादिकां ।। अर्थ--इस प्रकार यह यह क्षपक एकाग्रचित्त होकर उपशांत करायादि गुणस्थानोपर क्रमसे आरोहण करता हुआ सम्परछानके आश्रयसे बहुत कमोंकी निर्जरा करता है. ध्यानमहात्म्यस्तवनाथ उत्तरप्रबंधः ॥ मनिम नि किजिद विद्वान हाणाम्बरविहूण ॥ झाणेण संबुडप्पा जिणदि अहोरत्तमत्तेण ॥ १८५१ ॥ तपस्यवस्थितं चित्रं चिर नियानसंवरम् ।। ध्यानेन संवृतःक्षिप जयति क्षपकः स्फुटम् ॥ १९५५ ।। बिजयोदया–सुचिरमवि संकिलिलु घिरत पूर्वकोटिकालं देशोनं क्लेशसहितचारियोचतं माणसंवरविण ध्यानाल्यन संवरेण विहीन । जिणदि जयति । कः माहोरत्तमेतण झाणेण संयुद्धप्पा अहोरात्रमात्रेण ध्यानेन संवृतात्मा। ध्यानमाहात्म्य प्रबंधेग स्तोनुमाइ मूलारा-सुपिरमवि देशोनपूर्वकोटिकालमपि । मकिलिलु विडूनं । क्लेशसहितचारित्रोद्यत । मुमुक्षु मनुटुप्पा संवृतचितो मुमुक्षुः । मिणदि ग्यकरोति ।। ध्यानमाहात्म्यकी स्तुति करने के लिये उत्तर प्रबंध-- अर्थ-- कुछ कम कोटि पर्व वर्षतफ क्लेशसहित चारित्र धारण करनेवाला मुमक्ष मुनि ध्यानरूपसंवरसे रहित है इस लिये रातदिन भ्यानसे जिनका आत्मा एकाग्र हुआ है उनको नवीन कर्मका संवर होता है. ऐसे मुनि संचररहित मुनिकी अपेक्षा श्रेष्ठ हैं. एवं कसायजुद्धमि हवदि खवयस्स आउधं झाणं ॥ ज्झाणविहणो खवओ जुद्धेव णिराबुधो होदि ॥ १८९२ ॥ Page #1705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवाह आयुधं योगिनो पानं कषायसमरे पर। निानः संस्तर युद्ध निरखभटसनिमः ॥ १९५६ ॥ विजयोक्या-पयं कसायजुद्ध हि कषायसंग्रहारे ध्यानमायुधं झएकस्य भवति । ध्यानद्दीनः क्षपकः युद्धे निरायुध इव न प्रतिपक्ष अंदतुमलं कायविनाशकारित्य ध्यानस्थानया कथितं । ध्यानस्य कषायविनाशकत्वमाहमूलारा-बाउबं प्रहरणम् ॥ अर्थ----कषायोके साथ युद्ध करते समय ध्यान मुनिको शसके समान उपयोगी होता है अर्थात् पानरूप खडसे संयमी मुनि कोका संवर और निर्जरा करते हैं. शस्त्ररहित बीर पुरुष युद्धमें शत्रुका नाश नहीं कर सकता है. वैसे ध्यान के बिना क्रमशत्रुको पनि नहीं जीत सकते हैं. कपार्योको नष्ट करनेका सामयं ध्यानमेंही है ऐसा इस गाघाका अभिप्राय है. रणभृमीए कवचं होदि ज्झाणं कसायजुडम्मि । जुद्धे व णिराबरणो झाणेण विणा हवे खाओ ॥ १८५३ ॥ कपायसंयुगे ध्यानं मुमुक्षोः कवनो हदः ॥ ध्यानहीनस्तदा युद्धे निःकंकरभटोपमः । १५५७ ।। विजयोदया-रगाभूमीप युद्धभूमौ कवच काय ध्यानं कयनों भवति पतेन कपायपाडारक्षा कति ध्यानमित्याख्यातं । ध्यानाभावे दायमाचए। जुद्धे व णिरावरणी युद्धे निराचरण व भवति ध्यानेन विना क्षपकः ।। भ्वानस्य कापायपीडारक्षकत्वमाहमूलारा-णिराबरणे सन्नाहरहितः । अर्थ-रणभूमीमें कवच जैसा रक्षण करता है वसा कपायके साथ युद्ध करते समय कबचके समान ध्यान मुनिका रक्षण करता है. कषायसे होने वाली पीदाका नाश ध्यान करता है इसलिये ध्यान रखकत्व गुण है ऐसा इस गाथासे सिद्ध Page #1706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६९५ होता हैं. युद्ध में कवचरहित पुरुषका बाणादिकोंके महारसे रक्षण नहीं हो सकता है वैसे ध्यानसहित मुनि कपायशत्रु से अपना रक्षण नहीं कर सकते हैं. यष्टिरुप ज्झाणं करेइ स्ववयस्तोभं विहीणचेस ॥ थेररस जहा जंतरस कुणदि जट्टी उभं ॥ १८९४ ॥ ध्यानं करोत्यवष्टम्भं क्षीणचेष्टस्य योगिनः ॥ दंडः प्रवर्तमानस्य स्थविरस्येव पावनः || १२५८ ।। विजयोदया-झा करेदि ध्यानं करोति क्षत्रकस्योपष्टमं दीनवेष्टस्य स्थविरस्य गन्छतो यथा करोति ध्यानस्य बढदायित्वं गाथाद्वयेन सहान्तं स्फुटयति- मूलारा -- उभं कायनिये बलावानं । विद्दणखेडुरस मनोवाक्कायैश्वारित्रं साधयितुमशक्तत्व | अर्थ --- जैसे निर्बल को गमन करते समय लाठी मदत करती है वैसे मन वचन और शरीर से चारित्र साधने में असमर्थ मुनिको ध्यान मदत करता है. मल्लस हाणं व कुणई खवयस्स दढबलं झाणं || झाणविहीणी खवओ रंगे व अपोसिवो मल्लो ।। १८९५ ।। पलं ध्यानं यत्ते मल्लस्येव घृतादिकम् ॥ समोऽपुष्टेन मल्लेन ध्यानहीनो यनिर्मितः ॥ १९५९ ।। विजयोदय-मलस्स पार्थ व महस्य स्नेहपानमिव क्षपकस्य ध्यानं करोति, प्यानहीनः क्षपको रंगे अपोषितो मल देव न प्रतिपक्ष जयति ।। मृलाश-- रंगे वाढयुद्धोपक्रमे ॥ अर्थ- दूध, घी वगैरह स्नेहयुक्त पदार्थ खानेसे मल्ल जैसे पुढं होता है और बाहुयुद्ध में अपने प्रति आश्वास १६९५ Page #1707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार मूलाराधना पक्षीको धराशायी करता है. वैसे भ्यानभी योगी मुनिाम चल उत्पन्न करता है जिससे वे कर्मशत्रुका नाश RJ करने में समर्थ होते हैं. स्नेह पदार्थ के अमावसे कृश दुधा मल्ल शत्रुको नहीं जीत सकता है वैसे ध्यानहीन क्षपक । कपाय शत्रुको कर्म शत्रुको नहीं जीत सकते हैं. बहरे रदणेसु जहा गोसीसं चंदणं च गन्धेसु । बेरुलियं व मणीणं तह उझाण होइ खवयस्स ॥ १८९६ ॥ बन रत्नेषु गोशीर्ष वने व पधा मतम् ।। ज्ञेयं मणिषु वैदूर्य यथा व्यानं व्रतादिषु ॥ १९६० ॥ विजयोदगा-- दणेसु च गोशी यम । मणिवैयमिच क्षपकस्य ध्यानं । सदर्शनचरित्रतपस्सु सारभूत । ध्यानस्य दर्शनचारित्रतपस्सु सारभूतत्वं दृष्टांतत्रयेण द्योतयत्ति मूलारा-परं हीरक । रणे पद्मरागादिषु । गोसीस गोशीपाख्नं गंधम गंभद्रव्येषु । सारभूते । वेरुलियं पेयं । मणीणं मोक्तिकादीनां । माण सम्यक्त्वादिषु मुक्त्यगेषु मध्ये प्रधानम् ॥ अर्थ-जैसे रत्नोमें बजरत्न श्रेष्ठ है, सुगंधि पदार्थोमें गोशीर्ष चंदन उत्कृष्ट है, मणिओंमें बैडूर्य रन्न उत्तम है वैसे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपॉमें ध्यानही सारभूत-सर्वोत्कृष्ट है. झाणं किलससावदरक्खा रख्खाव सावदमयम्मि॥ झाणं किलेसवसणे मितं मित्तव बसणम्मि ॥ १८५७ ॥ कषायव्यसने मित्र कपायव्यालरक्षणम् ।। कषायमारुते गहें कषायज्वलने हृदः ॥ १९६१ ॥ विजयोदया-झाण किलेससापदरक्या ध्यान दुखश्वापदानां रक्षा श्वापदभय रक्षेव ध्यान क्लेशव्यसन मित्र व्यसने मित्रमिय। १९०६ Page #1708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना 2012 मूलारा-बसणम्मि आपदावर्ते ॥ अर्थ यह ध्यान संक्लेशयरिणामरूप श्वापदोस मुनिऑकी रक्षा करता है. जैसे श्वापदों के भयसे हम अपनी रक्षा कर लेते हैं. जैसे संकटों में मित्र सहायक होकर संकटों से बचाता है वैसे संक्लेश परिणामरूप संकटोंसे ध्यान आत्माका रक्षण करता है. ज्झाणं कसायवादे गम्भघरं मारुदेव गभ्भधरं । झाणे कंसायउपहे छाही छाहीव उपहम्मि ॥ १८९८ ॥ झाणं फंसायडाहे होदि वरदहो दहोब डाहम्मि ॥ ... झाणं कसायसीदे अग्गी अग्गीव सीदम्मि ॥..१८९९ ॥ . . . ... सी. कसारालादानए एलरहदो . ": 1: परचक्कभए। बलवाहणढओ होइ जह राया ॥ १९.. । ........ .... . .. .. झाणं कसायरोगेसु होदि बेज्जो तिगिछिदे कुसलो ।। ... रोगेसु जहा वेज्ज़ो पुरिसस, तिगिछिदे कुसलो. ॥ १९०१ ॥ झाणं विसयछुहाए य होइ.. अण्णं जहा छुहाए वा ।। . . . . . . ... झाणं विसयतिमाए उदयं उदयं व तण्डाए । १९०२ ॥ कषाया/तपे छाया कषायशिशिरेऽनलः ।। कषायारिमये याणं कषायन्याधिभेषजम् ॥ १९६१ ॥ तोयं विषयतृष्णायामाहारो विषयभुवि ।। जायते योगिनो ध्यानं सर्वोपद्रवसुदनम् ॥ १९६२॥ स्पार्थोसरगाथा । Page #1709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६९८ मुलाराम घरं गृहः || मूलारा स्पष्टम् ॥. मूलारा - बलवाणडुओ राओ सैन्येन हस्त्यादिवाहनेन च समृद्धो नृपः 11 मूढारा - तिर्गिच्छिदे चिकित्सायां ॥ मूलारा स्पष्टम् । अर्थ -- जैसे हवासे गर्भगृह बचाता है वैसे कायरूपी हवासे ध्यान मुनिको गर्भगृह के समान बचाता है. सूर्यके संतापसे छाया प्राणिओंका रक्षण करती है वैसे ध्यान कायरूपी संतापसे आत्माको बचाता है. जैसे अग्नतापसे पानीका द्रह पुरुषोंका बचाता है जैसे कपायान्नकि संतापसे ध्यानरूपी ग्रह मुनिओंका रक्षण करता हैं. जैसे जाडेसे होनेवाली पीडा अग्नि दूर करता है वैसे कषायरूपी जाडेसे होनेवाली संपीडा ध्यानानि क्षण भरमें नष्ट कर देता है. जैसे सैन्यसे अर्थात् हाथ, रथ, घोडे वगैरह सेनासे परिपूर्ण राजा परचक्र के मंयसे प्रजाकी रक्षा करता है वैसे कषायरूपपरचकसे होनेवाली पीडा ध्यानरूपी राजा क्षणमें दूर करता है अर्थ - जैसे रोगकी परीक्षा करनेमें कुशल वैद्य रोग दूर कर मनुष्यको सुखी करता है, जैसे ध्यानभी वैद्यके समान कषायरूपरोगकी परीक्षाकर उसको नष्ट करता है. जैसे अनसे भूक नष्ट होती है वैसे विषयधामी ध्यानरूपी अमसे दूर होती है, जैसे पानीसे प्यास बुझती है वैसे ध्यानरूपी पानसे विषयरूपी प्यास शांत होती है. इय झायंतो खवओ जइया परिहीणवायिओ होइ ॥ आराधनाए तझ्या इमाणि लिंगाणि दंसेई || १९०३ ॥ आराधनावयोधार्थं योगी व्यावृत्तिकारणम् || तदा करोति चिन्हानि निश्रेष्ठो जायते यदा || १९६४ || विजयोदयाय सायंतो खबभ एवं ध्यानेन प्रवर्तमानः क्षपकः । यदा वक्तुमसमर्थो भवति तदा आराधणाए रत्नत्रयपरितेरात्मनो लिंगानीमानि दर्शयति ॥ ध्यानपरिणतस्य शासनमरणस्य बामाशे प्रकाश्यान्याराधना चिह्नान्याह - मूलारा--परिहीणवाचिओ वक्तुमशकः । आश्वासन ७ १६९८ Page #1710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १६९९ अर्थ - - इस प्रकार ध्यान से प्रवृत्ति करनेवाला क्षपक जब पोसनेमें समर्थ होता है तनत्रयमें मेरी परिणति होरही है ऐसा अपना अभिप्राय वह हुंकारादिकचिह्नोंसे निर्धापकाचार्य को बतलाता है हुंकारंजलि भमुहंगुलीहिं अच्छीहिं वीरमुट्ठीहिं || सिरचालणेण यता सण्णं दावेदि सो खबओ ॥ १९०४ ॥ हुंकारांगुलित्रमूर्द्धक पांजलिक्रियाः ॥ यथा संकेतमव्यग्रः क्षपकः कुरुते सुधीः || १९६५ ॥ विजयोदय - कारंजलि मुहंगुली मच्छी हुंकारेण वा अंजलिरचनया, स्रक्षेपेण, अंगुलिपंचकदर्शनेन उपदेष्टारं प्रति प्रसन्नता कि समाहितचितोऽसीत्युक्ते शिरःकंपनेन संज्ञां दर्शयति क्षपकः ॥ मूलारा --- अंजलि हस्तद्वयमुकुलीकरणं समुद्र भूझेप: । अंगुली अंगुलिपचकेन । सभ्णं प्रसन्नया या । किं समाहितचितोऽसीति निर्यापण पुष्टे सति स्वचेतनाम् ॥ अर्थ - - हुंकारसे, हाथ जोडनेसे भद्दे उठाकर, हाथके पांचो अंगुलिया दिखाकर उपदेशकको अपनी प्रसन्नता दिखाता है. तथा अपना मस्तक हिलाकर वहाष्टके द्वारा 'क्या तुम्हारा मन प्रसन्न है न इस प्रश्नका उत्तर देता है. तो पडिचरया खवयस्स दिति आराधणाए उवओगं ॥ जाणंति सुदरहस्सा कदसण्णा कायखवपूण ॥ १९०५ ॥ संकेतवंतः परिचारकास्ते मेटाविशेषेण विवन्ति साधोः ॥ आराधनोद्योगमवेत शाखा धूमेन चित्रांशुमिव ज्वलन्तम् ।। १९६६ ।। इति ध्यानम् विजयोदय ! – तो पडिचरगा ततः प्रतिचारकास्तस्य क्षपकस्याराधनायामुपयोगं जानंति श्रुतरहस्याः क्षपकेण कृतसंकेताः || झाणचि आश्वास ७ १६९९ Page #1711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मूलाराधना आश्वास मूलारा--तो हुंकारादिकरणात् । सुदरहस्सा ज्ञातशास्त्रान्तस्तत्वाः । कदसंकेदा वक्तुमशक्तोऽहं निजरत्नत्रयपरि जति युष्मान्हुंकाराद्यन्यतमेन ज्ञापयिष्यामीति कृतः प्रागेव.विहितः संकेतः समयः येषां ते कृतसंकेताः । उक्तं च- . संकेतवतः परिचारकास्ते अष्टाविशेषेण बिसि साधोः ॥ आराधनोद्योगमषेतशास्त्रा धूमेन चित्रांशुभिष व्वलंतम् ॥ ध्यानं । सूत्रत: ३७ । अंकत: २०२. ।। .. ............. .... अर्थ--जिनको शास्त्रका अंतस्तवं मालुम दुआ है. ऐसे परिचारक मुनि क्षपकके संकेतोसे चारो आराधनाओमें आपकका उपयोग है ऐसा जानते हैं, ध्यानका वर्णन समाप्त हुआ. लेश्यायां सबंधं करोति इय समभावमुवगदो तह झायतो पसत्तझाणं च ॥ लेत्साहिं विसुज्झतो गुणसे ढिं सो समारुहदि ॥ १९०६ ॥ इत्थं समत्वमापन्नः शुभध्यानपरायणः ।। आरोहति गुणश्रेणी शुद्धलेश्यो महामनाः ॥ १५६७ ॥ विजयोदया--स्य समभावमुक्गदो एवं समचित्ततां गतः प्रशस्तध्यान प्रवर्तयेत् , लेश्याभिर्विशुद्धगुणश्रेणीमारोहति ।। अथ यधोक्तविधिमा साम्यमधिष्ठाय तथा प्रशस्तध्यानकतानमानसीभवता भपकेण समधिगम्या लेश्याविशुद्धि गाथानां सप्तदशकेन च्याचिख्यासुरादौ तत्फलसंबंधमभिपत्ते-- मूलारा-तु प्रशस्तध्यानमेव ध्येयं न मनागम्याचरौत्रे इत्यर्थः । लेस्साहिं विमुज्झतो तेजःपयशुक्ललेश्यासु कमेण परिणममाणः कषायाभावैविशुद्धपरिणामो भवन्नित्यर्थः ।। ..... अर्थ--इस प्रकार समतामावको धारण करनेवाला वह क्षपक मशस्त ध्यानमें प्रवृत्त होता है. लेश्या ओमें तेज, पन और शुक्ललेश्याओमें परिणत होकर गुणभ्रेणीपर आरोहण करता है अर्थात उत्तरोचर अधिक निर्भल परिणामका धारक होता जाता है... MAMAnntireRASTAVAATAL Page #1712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १७०१ जह बाहिरलेस्साओ किण्हादीओ इति पुरिसरस 11 अम्मंतरलेस्साओ तह किण्वादी य पुरिसस्स || १९०७ ॥ किण्हा पीला काओ लेस्साओ तिण्णि अप्पसत्थाओं ॥ इस विरायकरणी संगमन्तरं पसी । १९०८ ॥ बाह्याभ्यंतरभेदेन द्वेधा लेइया निवेदिता । शुभाशुभविभेदन पुनर्वेधा जिनश्वरैः ।। १९६८ ॥ कृष्णा नीला व कापोती तिस्रो लेश्या विगर्हिताः || धीरो वैराग्यarvaः स्वैरिणीरिव सुचते || १९६९ ।। विजयोदया -जह बाहिरलेस्साभरे कृष्णनीलकापरेताश्चेति तिमः प्रशस्ताः मजहाति वैराग्यभावनावान् संसारभीस्तां परामुपागतः ॥ प्रसिद्ध बाह्यकृष्णा दिलेश्यामदर्शनेन तदितरास्ताः साधयति- मूलारा किण्हादी मियात्यादिकृतास्ती ब्रतमादिसंस्कारा जीवस्य कृष्णाश्यः पभावलेश्या भवन्ति ॥ योगाविरति मिथ्यात्व कषायजनितास्तु यः । संस्कारः प्राणिनां भावलेश्यासौ कवितागमे ॥ तीनो लेश्या स कापोता नीला तीव्रतरच सः । कृष्णा तीव्रतमः पीता संस्कारो मंद इष्यते ॥ पद्मा मंदतरः शुक्ला से स्यान्मंदतममाः । श्रद्स्थानगतयो वृद्धया प्रत्येक पड़पीरिताः ॥ फलार्थिनां वृक्ष निर्मूलोच्छेदादिपु तीव्रतमादिकषायानुरंजिता वाकायमनः प्रवृत्तयो भाबलेश्या व्यवन्हियन्ते तत्र वाचि यथा--- निर्मूलकं घशाखोपशाखोच्छेदे वरोर्षयः । उच्चये पतितादाने भावलेश्या फळार्थिनाम् ॥ एवं कायेन मनसि वाऽभ्यूक्षम् 1 तत्कर्मणि यथा -- दुर्मदुष्टचित रागद्वेषादिभिर्युतः || कुम्मान वंचनालोमैस्तथानंतानुबंधिभिः ॥ हः सततवैरश्य निर्दयः कलहप्रियः । मधुमांससुरासक्तः कृष्णलेश्यो मतोऽसुमाम् ॥ आश्वास ५ १७०१ Page #1713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा १७०२ மாமாமாமாமாதாவாகாதாதாபாபாபா निबुद्धिानवान्मायी मैदो विषयलंपटः ॥ निर्विज्ञानोसो भीरुनिद्राला परवंचकः ॥ नानाविध धने धान्ये मषाविलिना सामोरीलया प्राणी लेश्यया संयुधो भवेत् ।। मशः शोकभीप्रस्तो रुष्यत्यपि प निदति । अस्यन्दूषयनित्यं परं परिभवत्यपि ॥ बात्मानं बहुशः स्तौति स्तूयमानश्च तुष्यति । मन्यमानः परं खम्बा न प्रत्येति कुतश्चिता ।। हानि नावैति वृद्धिम्वा यष्टि मृत्यु रणांगणे । माध्यमानस्तरां दरो जीवः कापोतलेश्यया ॥ सर्वत्र समहम्वेचि कुत्याक्रत्वं हिताहितम् । दयादानरतो विद्वांस्तेजोलेश्यावशोऽसुमान् ।। खागी झांतिपरयोक्तो भद्रात्मा सरलक्रियः । साधुपूजोशवो जीवोऽधिनितः पालेश्यया ।। सर्वत्रापि शमोपेतरत्यक्तमायानिवानकः । रागद्वेषव्यपेतात्मा स्यात्प्राणी शुक्ललेश्यया ॥ त्यक्तकृष्णादिलश्याकाः सिद्धि याता निरापदाः । अंतातीतसुखा जीवा निलेश्याः परिकीर्तिताः।। कृष्णायशुभभाषलेश्वात्रययागयोग्यतां दर्शयतिमूलारा--कायो कापोती विरागकरणो पैराग्यभावनाबान । जिनेंद्रियो था। अर्थ--जैसे पुरुपके चाह्यमें अर्थात् शरीरमैं कृष्ण, नीलादिक रंग दीखते हैं वैसे पुरुष अभ्यंतरमें कृष्ण नीलादिक लेश्या रहती हैं. अर्थ-- कृष्ण लेश्या : नील लेश्या और फापोत लेश्या ये तीन लेश्यायें अशुम हैं. क्षपक इनका त्याग कर वैराग्यवान होकर संसारसे अत्यंत भय युक्त होता है. तेओ पम्मा सुक्का लेस्साओ तिष्णि विदुपसत्थाओ ।। पडिवजेइय कमसो संवेगमणुत्तरं पत्तो ॥ १९०९ ॥ तेजः पमा तथा शुक्ला तिम्रो लेश्याः प्रियकराः ॥ निसिमिध गृह्णाति निर्वाधसुखदायिनी ॥ १९७० ।। विजयोवपा--तेको एम्मा सुक्का तेजःपप्राकललेपया प्रतिपद्यते परिपाट्या | Page #1714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास तेजोलेश्यादित्रयपरिणतियोग्यतामाह--- मूलारा-तेऊ तेजालेश्या । पम्मा पद्मलेश्या ।। अर्थ---तेजो लेण्या, पालेश्या और शुक्ल लेश्या ये तीन लेश्या प्रशस्त लेश्या है, उत्कृष्ट पैराग्यसे संसारभयको धारण कर यह क्षपक इन तीन लेश्याओंको क्रमसे धारण करता है. एदेसि लेस्साणं विसोधणं पडि उवकमो इणमो ॥ सव्वेसि संगाणं विवजण सव्वहा होई ।। १९१० ॥ कुरुष्व सुखहेतुना मल्लेश्यानां विशोधनम् ।। यत्संगानामशेषाणां सर्वथापि विजिनम् ॥ १९७१।। विजयोदया-पवेसि लेस्लाणं एतासां शुभलण्यानां शुदि प्रत्ययमुएफमः बाह्याभ्यंतरसवपरिप्रइत्यागः। शुभलेश्याविशुद्धसुपायमाइ---- मूलार!-उबकमो उपायः ।। । अर्थ--संपूर्ण परिग्रहोंका अर्थात् बाह्य और अभ्यंतर परिग्रहोंका सर्वथा त्याग करनेसे इन लेश्याओंसे विशुद्धि होती है अर्थात् परिग्रहत्यागही लेश्या विशुद्धिका उपाय है. लेस्सासोधी अज्झवसाणविसोधीए होइ जीवस्स ॥ अज्झवसाणविसोधी मंदकसायस्स णादव्वा ॥ १९११ ॥ लेश्यानां जायते शुद्धिः परिणामविशुद्धितः ।। विशुद्धिः परिणामानां काषायोपशमे सति ॥ १९७२ ।। विजयोदया-लेस्सासोधी लेश्यानां शुद्धिः । अम्यवसाणचिसोधीए होदि परिणामषिशुझ्या मवति । अग्सवसाणषिसुद्धी परिणामविशुद्धिध। मंदकसायरस मदकपायस्य भवतीति शातव्या । उक्तार्थसमर्थनार्थमाइमूलारा- अयवसाण परिणामः। १७०३ Page #1715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ eBOURN मूलाराधना आश्वासः १७०४ अर्थ-परिणाम निर्मल होनेसे लेश्याम उत्तरोत्तर निर्मलता होती जाती है, तथा मंदपायी पुरुषके परिणाम निर्मल रहते हैं. कषायाणां मंदता कथमित्यमबाह मंदा हुंति कसाया बाहिरसंगविजडस्स सव्वस्स ॥ गिण्हइ कसायबहुलो चेव हु सव्वंपि गंथकलिं ॥ १९१२ ॥ मंदीभवन्ति जीयस्य कषायाः संगवर्जने ॥ कषायबहुलः सर्व गृहीते हि परिग्रहम् ॥ ९९७३ ॥ विजयोदया-मंदा हुंति कसाया कपाया मंदा भति, कृतबाह्यसंगपरित्यागस्य । कषायपाहुल पवायं सों जीपः सर्व ग्रंथकालिं गृहाति ॥ . . कपायमांधोपायमाह-- . मूलारा--सम्वत्ध मनोवाक कार्यः । गंभकलि गंध एवासौ कलिन पापबंधनिबंधनत्वात् ।। .. कषायोंकी मंदता कैसी होती है । इस प्रश्नका उत्तर अर्थ-जिसने बामपरिग्रहोंका त्याग किया है उसके कपाय मंद होते हैं. कषायोंसे मरा हुआ जीव ही सम्पूर्ण परिग्रहरूप पातकका स्वीकार करता है. . जह इंधणेहिं अग्गी वइ विज्झाइ इंधणेहिं विणा ॥ गंथेहिं तह कसाओ बढुइ विज्झाई. तेहिं विणा ॥ १९१३ ॥ वृद्विहानी कषायाणां संगग्रहणमोक्षयोः ।। अग्नीनामिव काष्ठादिप्रक्षेपणनिरासयोः ॥ १९९४ . बिजयोदया--जह धणेवि अम्गी रंधनैर्यचाग्निर्वते तैर्चिना प्रशाम्पत्ति ग्रंथैस्तथा कषायो बईते, हैबिना मंदो भवति ॥ ग्रंथानां भावाभाषयोः कषायवृत्युपशमनिमित्तत्वं समर्थयते--- मूलारा-सष्टम् ॥ ॥ Page #1716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास। अर्थ-लकडीओसे अग्नि वृद्धिंगत होता है परंत उनके भानमें यह शांत होता है. तथा परिग्रहाँसे कपाय बढ़ते हैं और उनके अभावमें वे नष्ट होते है. जह पत्थरो पड़तो खोभेइ दहे पसण्णमवि पंकं ॥ खोभेइ पसंतंपि कसायं जीवस्त तह गंथो ॥ १९१५ ॥ कषायो ग्रंथसंगेन क्षोभ्यते तनुधारिणाम् ॥ प्रशांतोऽपि दादीनां पाषाणेनेव कर्दमः॥ १९९५ ।। चिजन्योदया-जह पत्थरो पडतो यथा पापाणः पतन हर प्रशांतमपि पंक क्षोभयति, तथा जीवस्य कपायं ग्रंथाः क्षोभयति ॥ ग्रंथानां कपायोभणसामध्यं दृश्यतिमूलारा--सोभेदि उदीरयति ॥ अर्थ-जैसे हद में पाषाण पडनेसे तलभागमें दबा हुआ भी कीचड क्षुब्ध होकर ऊपर आता है वैसे परिग्रह जीवके प्रशांत कपायोंको भी प्रगट करते हैं. अभंतरसोधीए गंथे णियमेण बाहिरे चयदि ॥ अभ्भंतरमइलो चेव बाहिरे गेण्डदि हु गंधे ॥ १९१५ ॥ अभंतर सोधीए बाहिरसोधी वि होदि णियमेण ॥ अब्भतरदोसैण हु कुणदि गरो बाहिरे दोसे ॥ १९१६ ॥ अंतर्विशुद्धितो जीचो बहिर्ग्रथं विमुंचति ।। अंतरामलिनो याचं गृहीते हि परिग्रहम् ।। १९९६ ॥ अंतर्विशुद्धितो जन्तोः शद्धिः संपयते बहिः॥ याचं हि कुरुते दोषं सर्वमांतरदोषसः ॥ १९९७ ।। १७०५ २६४ Page #1717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C मूलाराधना आवासः । विजयोदया- अम्मतरसोधीए अभ्यंतरशुद्धया नियमेन वाह्यान्परिग्रहास्त्यजति, अभ्यंतरदोष याह्यान् कायगतान् दोषान् करोति । बानमंबद्दानावानयोरंत शुद्ध शुध्यधीनस्वं आइमूलारा-स्पष्टम् || मनःशुद्धबधीनतां धामायशुद्धचोरभिधत्तेमूलारा- बाहिरे वाकासमतान् ॥ अर्थ-अंतरंग शुद्धीसे अर्थात परिणामोंकी निर्मलतासे बाह्य परिग्रहाँका नियमसे त्याग होता है. अभ्यंतर अशुद्ध परिणामोंसे ही बचन और शरीरसे दोषाकी उत्पत्ति होती है. अंतरंग शुद्धि होनसे बहिरंग शुद्धि भी नियम पूर्वमहोती है, पक्कि परिणाः मरिन होंगे तो मनुष्य शरीरसे और वचनोंसे अवश्य दोष उत्पन्न करेगा. जध तंडुलरस कोण्डयसोधी सतुसस्स तीरदि ण कादं ॥ तह जीवस्स ण सक्का लिस्सासोधी ससंगस्त ॥ १५१७ ॥ ससंगस्याङ्गिनाकर्तुं लेश्याशुद्धिर्न शक्यते ॥ अंतराशोध्यते केन तुपयुक्तोऽपि तंदुलः ।। १९९८ ॥ चिजयोदया-मह तंदुलस्स यथा तेवुलस्य अभ्यंतरमलशुद्धिः कतु न शक्यते वाहानुयसद्वितस्त्र । नथा जीवस्य न शक्या लइयाशुद्धिः कर्नु सपरिग्रहस्य । संप्रथस्य लेश्यानामशक्यशोधनत्व माह--- मूलारा- स्पष्टम् । अर्थ-जैसे बाह्य तुषसहित तंडुलकी अभ्यंतर शुद्धि नहीं होती है. अर्थात तुष इटनेपर ही तंडुल खच्छ होता है वैसे परिग्रहसहित जबिके परिणामोंकी अर्थात लेश्याओंकी विशुद्धि नहीं होती है. इत उत्सरं लेयाश्रयेणाराधनाविकल्पो निरुप्यते सुकाए लेस्साए उकस्सं अंसयं परिणमित्ता । जो मरदि सो हुणियमा उक्कस्साराधओ होई ।। १९१०॥ १७०६ N " .. "- --- -.... . . . ... Page #1718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना আঘাম: शुक्लेश्योत्तमांशं यः प्रतिपद्य विपद्यते ॥ उत्कष्टाराधना नस्य जायते पुपयकर्मणः ॥ १९९५ ।। विजयोदया-सुमाप लेस्साप शुक्ललेश्यया उत्कृष्टांश परिणतो यो मृतिमुपैति स नियमादुकृपाराधको मयति । लेझ्याविशेषवशेनाराध माविका प्रबंधन प्रवीति -- मूलारा- उक्करसं अंसयं उत्तमभाग । उकस्साराधओ। तस्योत्कृष्टाराधनेत्यर्थः । उक्तं च शुभ-उलेश्योत्तमांशं यः प्रतिपश्च विपद्यते ।। टत्कृष्टाराधना तस्य जायते पुण्यकर्मणः || लेश्याके आश्रयसे आराधनाके विकल्प कहते हैं अर्थ-शुक्ललेश्याके उत्कृष्ट अंशसे परिणत होकर जो क्षपक मरणको प्राप्त होता है उस महात्माको नियमसे उत्कृष्ट आराधक समझना चाहिये. TOPATI - खाइयदसणचरणं खओवसमियं च णाणमिदि मागो । तं होइ खीणमोहो आराहिता य जो हु अरइंतो ॥ १९१९ ॥ जे सेसा सुकाए दु अंसया जे य पम्मलेरसाए ।। तल्लेस्सापरिणामो द मज्झिमाराधणा मरणे ॥ १९२.॥ शेषांशान शुक्ललेश्यायाः पद्मायाश्च तथा श्रितः ।। नियत मध्यमा तस्य साधोराराधना मता ॥२०००। विजयोदया-जे सेसा सुषकाप.दुसया उत्कृशंशादम्ये येशुक्लतल्याया अंशा ये चापि पद्मश्याया अंशाः तत्र परिणामो मरणे मध्यमाराधना मूलारा- सेसा मध्यमाधमौ । जे यथेच प्रयोज्यशकाः ॥ अर्थ-धायिक सम्यक्त्व, और चारित्र और क्षायोपशमिक सम्यग्ज्ञान इन की आराधना करके आत्मा क्षीणमोही बनता है और तदनंतर अरईत होता है. (क्षेपक) २००७ Page #1719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः - अर्थ-शुक्ल लेश्याके मध्यम और जघन्य अंशसे तथा पञ्चलेश्याके अंशोंसे जो आराधक मरणको प्राप्त करते हैं वे वे मध्यम आराधक माने जाते हैं. तेजाए लेस्साए ये अंसा तेसु जो परिणमित्ता। कालं करइ तस्स ह जहणियाराधणा भणदि ।। १९२१ ॥ लेजोलेश्यामधिष्ठाय आपको यो विपद्यते ॥ जघन्याराधना तस्य वर्णिता पूर्वसूरिभिः ।। २००१॥ विजयोदया-तजाप लेस्साप तेजोलश्याया ये अंशास्तेधु परिणतो यदि कालं कुर्यात् तस्य जघन्याराधना भवति॥ मृलारा- स्पष्टम् ॥ अर्थ-पीत लेण्याके जो अंश है उनसे परिणत होकर जो मरणवश होते हैंधे जघम्याराषक माने - - --- जाते हैं. जो जाए परिणिमित्ता लेस्साए संजुदो कुणइ कालं ॥ तल्लसो उववज्जइ तल्लेसे चेव सो सग्गे ॥ १९२२ ॥ प्रतिपद्य तपोवाही यो यां लेश्यां विपद्यते ।। तम्लेश्ये जायते स्वर्गे तल्लेश्यः स सरोत्तमः।। २००२ ।। विजयोत्या--जो जाए यो यया लेश्यया परिणतः कालं करोति, समलेश्य परोपजायते, तल्लेश्यासमम्बिते स्वर्गे ॥ लेश्याविशेषवशेन स्वर्गविशेषोपपादमाहमूलारा- तल्लेस्सा इत्यादि । यत्र यत्र देवलोके सा सा लेश्या तम्र तत्रोत्पद्यते इत्यर्थः ।। अर्थ-जो जीव जिस लेश्यासे परिणत होकर मरणको माप्त होता है वह उत्तर भवमें उसही लेश्याका धारक होकर स्वर्ग में उत्पन्न होता है. - अध तेउपउमसुक्कं अदिच्छिदो णाणदसणसमग्गो ॥ आउक्खया दु सुद्धो गच्छदि सुद्धिं चुयकिलेसो ।। १९२३ ।। १७०८ Page #1720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलाराधना १७०९ सर्वलेश्याविनिर्मुक्तः प्राणांस्त्यजति यो यतिः ॥ आयुषो बंधनेनेव मुक्तो याति स निवृतिम् ॥ २००३ ॥ शुद्धतमा गुणवृद्धिगरिष्ठा भव्यशरीरिनिवेशित चेष्टाः ॥ दूरनिवारितसंसृतिवेश्याः कस्य सुखं जनयन्ति न लेश्याः || २००४ || इति लेश्याः । विजयोदया - अध ते उपमक्कं अथ तेजःपद्मशुक्ललेश्या अतिक्रांतः अश्यतामुपगतः ज्ञानदर्शनसमग्र आयुषः क्षयात् सिद्धिं गच्छति कर्मलपापराम 'द्विशुद्धो निरस्ताशेषक्लेशः ॥ लेस्सेति ॥ निर्देश्यस्य सिद्धिप्रतिमाह- मूलारा- अदिदि अतिक्रान्तः । अश्यतां गत इत्यर्थः ॥ लेश्या सूत्रतः ३८ अंकतः १७ ॥ अर्थ - तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ल लेश्यासे अतिक्रांत हुआ अर्थात् जो लेश्यारहित अयोगावस्थाको प्राप्त हुआ है जिसके ज्ञान और दर्शन परिपूर्ण होगये हैं ऐसा जीव सर्वकर्मका विनाश होनेसे संपूर्ण inter रत होकर आयुष्य के क्षयसे सिद्धावस्थाको प्राप्त होता है. एवं सुभाविदप्पा झाणोवगओ पसत्थलेस्साओ || आराघणापडा हरइ अविग्घेण सो खबओ || १९२४ ॥ अनि विशुद्धात्मा लेश्याशुद्धिमधिष्ठितः ॥ प्रवर्तितशुभध्यानो गृह्णात्याराधनाध्वजाम् ॥। २००५ ।। इरत्यविध्नेन || विजयोदया -- एवं सुभाविदप्पा एवं सुष्ठु भाषितात्मा ध्यानमुपगतः प्रशस्तलेश्यापरिणत आराधनापताकां अथाराधनाविराधनयोः फलं गाधाभिरकचत्वारिंशता व्याचिख्यासुरादावाराधनाफलं गायाचविंशत्या निरूपय तार्थोपसंहारपुरःसरं सामान्येन तत्फलं निर्दिशति मूलरा एवं अर्हलिंगादिप त्रिशक्रियाविशेषविधिना ॥ यतः ॥ आश्वास १७०९ Page #1721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ--इस प्रकारसे जिसने अपने आत्माको सुसंस्कृत किया है शुक्ल भ्यानको प्राप्त हुआ, शुभलेश्यासे परिणत हुआ ऐसा वह क्षपक निर्विघ्नतासे आराधना पताकाको हस्तमें ग्रहण करता है. आधासः तेलोकसव्वसारं चउगइसंसारदुक्खणासयरं ॥ आराहत पा सो भय मुक्खपडिमुल्लं ॥ १९२५ ॥ दवाति चिंतितं सौर्य चिनत्ति भयपादपम् ।। इत्धमाराधना देवी अन्येनाराध्यते सदा ॥ २००६ ।। यैरेषाराधना देवी सिद्धिसौधप्रवेशिनी॥ आराधिता न सैलाभः को लब्धो भुवनत्रये ॥ २००७ ।। विजयोदया-तेलोक्फसवसारं त्रैलोक्ये सर्वस्मिन्सारभूनां चतुर्गतिसंसारवुमनाशकरणीमाराधनां प्रपमोऽसौ भगवान् मोक्षमप्रतिमौल्यं ।। मूलारा- सो अदिक्रियाकृतपरिकर्मा, शुभध्यानकतानमानसो विशुद्धलेश्यश्चाराधनां प्रयतो यतस्ततस्तत्यताका निर्षिनेन हरप्तीति पचासेन संबंध:-भोक्खपछिमोहं मोक्षस्य केतन्यस्य परिपूर्णाभूतां ॥ अर्थ-इस त्रैलोक्पमें सारभूत, चतुर्गतिरूप संसारदुःखोंका नाश करनेवाली आराधनाको जिसने प्राप्त किया है उस भगवानने जिसका मूल्प नहीं है ऐसा मोक्ष प्राप्त किया है. DORE एवमधखादविधि संपत्ता सुद्धदमणचरित्ता ॥ केई खयंति खवया मोहावरणतरायाणि ॥ १९२६ ॥ पथारूयातविधि प्राप्ता विशुद्धज्ञामवर्शना पहन्ति घालिदारूणि केचिदयानकृशानुना १२००८ ॥ विजयोदया-पयमप्रसाद विधि एवं यथाख्यासविधि संप्राप्ताः शुदर्शनचारित्राः केचित्क्षपका याति.. कर्माणि क्षपति॥ act २७१० Page #1722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचामा उत्कृष्टाराधनाफलं गाथाचतुष्टयेन ध्याचष्टेमूलारा- अधावादविधि यथाख्यातचारित्रम् । केई चरमदेवाः ॥ श्रावरण ज्ञानदर्शनावरणे द्वे ॥ अर्थ-जिन्होने यथाख्यात चारित्रको प्राप्त किया है, निर्मल सम्यग्दर्शन चारित्रको जो प्राप्त हुए हैं क्षपक घातिकमाका नाश करते हैं. १७११ केवलकप्पं लोगं संपुष्णं दवपज्जयविधीहि ।। ट्झायंता एयमणा जहंति आराया देहं ॥ १९२७ ।। त्यजत्याराधका देहं ध्यायन्लो भुवनत्रयम् ॥ द्रव्यपर्यायसंपूर्ण केवलालोकलोकितम् ।। २००९ ॥ विजयोदया केवलकप्य कवलनानस्य परिच्छचत्धे या लोकं संपूर्ण द्रव्यपर्यायविकल्पैः परिच्छिदंतः जद्दति ते स्वदेहे ॥ पर्व जीवन्मुक्तिमनंतचतुष्टयात्मिकामुत्कृष्धाराधनाफलमुक्त्वा परममुक्किमपि तत्कलरवेनाह मूलारा- केवलकाप केवलज्ञानस्य परिकलेयत्वेन योग्यं । बिधीहि भेदै ।। ज्झायंता जानतः । एयमणा विशुद्धस्थिरमानाः । तो पश्चात् स्वायुःक्षयानसरमित्यर्थः। सयं निज । . अर्थ--केवलज्ञान के द्वारा जानने योग्य जगतको संपूर्ण द्रव्यपर्याभों के विकल्पोंके साथ जानते हुए वे क्षपक आराधक अपना देह छोड़ देते है. सवुकसं जोगं जुजता दंसणे चरित्ते य ॥ कम्मरयविप्पमुक्का हवंति आराधया सिद्धा ॥ १९२८ ॥ रत्नत्रयकटारेण छिस्वा संसारकाननं ॥ भवंति सहसा सिद्धा सुरासुरवंदिताः ॥ २०१० ॥ १७ Page #1723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलामधना १७१२ विजयोदया सक्कस्सं सर्वोत्कृष्टं दर्शनचारित्रयोर्योग प्रतिपद्यमानाः कर्मरजोभ्यो विप्रमुक्ता आराधकाः सिद्धा भवति ॥ TI मूलारा सर्वोत्कृष्ट | परमनैः कम्यै परिणामात् । जोगं संबंध जुजेता प्रतिपद्यमानाः । कम्मरयविमुक्का अवातिक्रमं चतुष्काच्युताः ॥ अर्थ --- सर्वोत्कृष्ट सम्यग्दर्शन और चारित्रको प्राप्त कर कर्मरूप रजसे रहित होकर वे क्षपक आराधक मुक्तावस्थाको प्राप्त होते हैं. इयमुकस्सिय माराघणभणुपालेत्तु केवली भविया | लोगहरवासी हवेति सिद्धा धूयकिलेमा || १९२९ ॥ आराध्याराधनामेवमुत्कृष्टां धूतकल्मषाः ॥ भूत्वा केवलिनः सिद्धाः सन्ति लोकाप्रवासिनः ।। २०११ ।। विजयोदयाय उपकस्तिय एवमुत्कृष्टामाराधनामनुपालय केवलिनो भूत्वा तिरस्तक्लेशाः लोकाप्रशि खासिनः सिद्धा भवंति ॥ वक्तार्थोपसंग्रह माह मूलारा- उमरियं उत्कुष्टं । अणुपालेतु आग | भविय भूत्वा ॥ अर्थ - इस प्रकार उत्कृष्ट आराधनाका पालन कर केवलज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं. संपूर्ण कर्म क्लेश से मुक्त होकर लोकाग्रशेखरवासी मिद्ध परमेष्ठि होते हैं. अह सावसेसकम्मा मलिकसाया पणडुमिच्छन्ता ॥ हासरइअरइभयसोगदुमुंछावेयणिम्हणा || १९३० ॥ अवशेषितकर्माणः पवित्रागममातृकाः । कामको पादिहास्यादिमिथ्यादर्शनमोचिनः ॥ २०१२ ॥ बाखासर ૭ १७१२ Page #1724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः विजयोदया-अहसाबसेसकम्मा अथ सावशेषकर्माणो मथितकायाः प्रणष्टमिध्यावहास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सावनिकमथनाः ॥ मध्यमाराधनाफलं गधादशकेनादिशतिमूलारा- अध। गभ्यगाराचनाफलगधि कि पने इत्यर्थः । मलिद अभिभूताः ।। अर्थ--जिनके कर्म यने हैं, जिन्होंने अनंतानुबंध्यादि कणयोंका मथन किया है, जिनका मिथ्यात्वकर्म नष्ट हुआ है, हाम्य, रति, अरति. भय, शक, जुगुप्सा, पुरुपवेद और वीवेद, नपुंसक वेदोंका जिन्होंने मथन किया है पंचसमिदा तिगुत्ता सुसंवुडा सव्वसंगउम्मुक्का ।। 'धीरा अदीणमणसा समसुहदुक्खा असंमुढा ॥ १९३१ ॥ चिजयोदया-चसभिदा समितिपंचकोपेता गुप्तित्रयोपेताः सुसंवृता अपाकृतसवैसंगा धीरा भवीनमनसः समसुखदुःखा असमूढाः॥ मूलारा--सुसंडा ध्यानाख्यप्रधानसंबरोपेताः । अर्थ--जिन्होंने पांच समितिया पाली हैं, जो तीन गुप्तिओं में तत्पर हैं, जिन्होने कर्मोका संबर किया है, अर्थात् संवरका प्रधान कारण जो ध्यान उससे जो युक्त है, जो परिग्रहोंसे दूर है, धीर हैं, जिनके मनमें दीनता नाममात्र भी नहीं रही है. जो दुःख सुखमें समान चुद्धि रखते हैं, तथा जो मोहरहित हुए हैं. सव्वसमाधाणेण य चरित्तजोगे अधिछिदा सम्म ॥ धम्मे वा उवजुत्ता झाणे तह पढमसुक्के वा ।। १९३२ ॥ सुखदुःखसहा वृत्तज्ञानदर्शनसस्थिताः ॥ संवृत्ताः ससमाधाना शुभध्यानपरायणाः ।। २०१३ विजयोन्दया-सवममाधाणेण सर्वेण समाधानेन चारित्रे सम्यगपस्थिता धर्मध्याने प्रथमशुक्ले वा उपयुक्ताः ।। मूलारा--सन्चसमाधाणेण मनोवाकायपणिधानेन । Page #1725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः अर्थ--मन, वचन,और शरीर इन तनि योगोंसे जो आत्मस्वरूपमें स्थिर हुए हैं. अर्थात् चारित्र में जो तत्पर रहते हैं. जो धर्मभ्यान तथा , प्रथम अथवा दुसरे शुक्लभ्यनमें तत्पर होगये हैं. इय मझिममाराधणमणुपालित्ता सरीरयं हिचा । हुति अणुत्तरवासी देवा सुविसुद्धलेस्सा य ॥ १९३३ ।। विधायाराधनां देवीं मध्यमां मुक्तविग्रहाः ॥ शद्धलेश्यान्विता देवाः सन्त्यनुत्तरवासिनः । २०१४ ॥ विनोकर.- पिसम नामनुपाल्य शरीरं त्यक्त्वा विशुद्धलेण्याघरा अनुसरयासिनो खेवा भवति॥ मूलारा-हिचा त्यक्त्वा । अणुत्तरवासी पंचानुत्तरवासिनः ॥ अर्थ-इस प्रकार मध्यमाराधनाका पालनकर शरीरका त्याग करनेवाले मुनिराज विशुद्धलेश्याको धारण कर अर्थात् उत्कृष्ट शुक्ललेश्याके स्वामी बनकर अनुत्तरवासी देवों में उत्पन्न होते हैं. दसणणाणचरिते उक्किट्ठा उत्तमोपधाणा य ॥ इरियावहपडिवण्णा हवंति लवसत्तमा देवा ॥ १९३४ ॥ ..विजयोदया-वसणणाणचरिसे सम्यग्दर्शनशानचारित्रे प्रकश उत्तमाभिग्रहा ईर्यापथं प्रपन्ना लयस तमा देवा भवति । मूलारा-उठिा कल्पोपपाविरत्नत्रयाराधकेभ्य उत्कृष्टाः । उत्तमोपधाणा प्रधानाभिमहाः । इरियावहपडिवणा तद्योग्य सुकृतकारणशुभाम्प्रचाश्रिताः । लवमत्तमा अहमिंद्राः । मैवेयकानुविशषिमानवासिन इत्यर्थः ॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र पालने में पूर्ण दक्ष अर्थात कल्पोपपत्र देवों में जिस रलय से जन्म होता है उससे भी उत्कृष्ट रत्नत्रयको धारण करनेयाले, उत्कृष्ट तप, ध्यान वगैरह नियमोंके धारक इर्यापथको जिन्होने प्राप्त किया है अर्थात कल्पातीत देवत्व पात होने के लिये योग्य ऐसे शुभासवको जो प्राप्त हो गये हैं ऐसे मुनिराज लवसत्तम देव होते है अर्थात् मरकर गंधक, अनुदिशविमानमें रहनेवाले देव हो जाते है। Page #1726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास कप्पोवगा सुराज अग्छरसहिया सुहं अणुहवंति ।। ततो अर्णतगुणिदं सुई दु लवसत्तमसुराण ॥ १९३५ ।। सुस्वं साप्सरसो देवाः कल्पगा निर्विशति यत् ॥ संतोऽनंत गुणं स्वस्थं लभंते लवसत्तमाः ॥२.१५ ॥ विजयोव्या कप्पोवगा सुरा जंकल्पोपन्नाः सुराः अप्सरोभिस्तहिता यत्सुखमनुमति ततोऽप्यनंतगुणितं सबससमकाला। तत्सुनपरिमाणमाद्द--- मूलारा कप्पोवगा कल्पोपपन्नाः। अर्थ-अप्सराओंके साथ सौधर्मादिक कल्पवासी देव जिस मुखका अनुभव लेते हैं उससे भी अनंत गुणित सुख अहामंद्र देवाको मिलता है, जाणम्मि दंसणम्मि य आउत्ता संजमे जहक्खाद ।। वद्रुिदतवोवधाणा अवहियलेस्सा सदमेव ॥ १९३६ ॥ विशुद्धदर्शनज्ञानाः सयथाख्यातसंयमाः॥ शन्वामिललश्याका यद्धेमानतपोगुणाः ।। २०१६ ॥ विजयोदया-गाणम्मि सम्मि य ज्ञानदर्शनयोर्यथास्पाने च संयमे यायुक्ता वार्द्धतपोऽभिप्रहाः सततं विशुद्धलेश्याः क्षएकाः ॥ मूलारा-आउत्तो आसक्ताः । अवहिदलेस्सा संशुद्धलेश्याः ॥ अर्थ-सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और यथारख्यात चारित्र इनमें हमेशा तत्पर रहनेवाले तथा तपोंके नियम जिन्होंने बढाये हैं, जिनकी शुभलेश्यायें उत्तरोतर विशुद्ध होती है ऐसे धपक पजहिय सम्म देहं सददं सञ्चगुणावद्विदगुणवा ॥ दोवदधरमठाणं लहंति आराधया खवया ॥ १९३७ ।। १७१५ Page #1727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १७१६ अदीनमनसो मुक्त्वा कचारामिव विग्रहम् ।। देवेंद्रचरमस्थानं प्रपद्यन्ते बुधार्चिताः ॥ २०१७ ।। थिजयोदया-पजद्दिय देई विहाय देहं सम्यक्सदा सर्वगुणवर्धितगुणाच्या देवेंद्रचरमस्थानं लभते ।। मूलारा-सध्वगुणवद्धिदगुणा सर्वगुणेन सर्वोत्कृष्टगुणकारेण यद्धितगुणैरणिमादिभिः समृद्धाः । परिमठाणं उपरिमस्वर्गस्थानम् ।। अर्थ- औदारिक शरीरका त्याग कर संपूर्ण गुणोंके कारणोंसे अणिमादिक गुणाकी उनको प्राति होती है तथा देवेंद्रका अन्तिम पद उनको प्राप्त होता है, सुयभत्तीए विसुद्धा उम्गतवोणियमजोगसंसुद्धा ।। लोगतिया सुरवरा हवति आराधया धीरा ।। १९३८ ॥ जावदिया रिद्धीओ हवंति इंदियगदाणि य सुहाणि ॥ ताई लहति ते आगमेसि भद्दा सया खवया ॥ १९३९ ।। वर्यरत्नत्रयोद्योगाः कषायारातिमर्दिनः ॥ संति लोकांतिका देवा देहोद्योतिस पुष्कराः ।। २०१८ ।। ऋद्धयः संति या लोके यानींद्रियसुखानि च । क्षपकास्तानि लप्स्यन्तं सर्वापयेष्यत्यनेहसि ॥ २०१९॥ विजयोदया-जावडिया रिडीओ यावत्यः ऋद्धयो भनि यावंतीद्रिय सुखानि च मर्चति तानि सर्वाणि लप्स्यते भद्राशयाः क्षपकाः ॥ मूलारा--णियम अश्राइविशेषः। जोग भ्यानमासापनादि । मूलारा-लईति लप्स्यते । ते मध्यमाराधनाराधकाः। आगमोस आगामिनि काले । भहासया प्रशस्त चिताः । अर्थ-श्रुतभक्ति-सम्यग्ज्ञानाराधनासे जिनका मन निर्मल बना है; उग्रतष, विशिष्ट नियम, आतापनादिक योग और ध्यानसे जिनका आत्मा निर्मल बना है ऐसे धीर आराधक लोकांतिक नामक उत्कृष्ट देव होते है. इस जगतमे जितनी ऋद्धिया और इंद्रियसुख है वे सब निर्मल परिणामके क्षपकोंको अवश्य प्राप्त होते हैं, ७ . Page #1728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना जे वि हु जहणियं तेउलेसमाराहणं उवणमंति । ते वि हु सोधम्माइस हवंति देवा ण हेडिल्ला ॥ १९४० ।। जघन्याराधनां देवीं संजोलेश्यापरायणाः ।। आराध्य क्षपकाः संति सौधर्मादिषु नाकिनः ॥ २०२० ।। विजयोदया-जे वि दु जहरिणयं यऽपि जघन्यामाराधनां तेजोलेश्यामवृत्तामुपनमंति तेऽपि सौधर्मादिषु देवाभवति ॥ नात्रोमाविनो नेवाः। जघन्याराधनाफलमा-- मुलारा-तेउलेस तेजोलेश्याप्रयूसां । ण देहिले नाचोभाविनः । अर्थ ... तेलोले शोधाकरापरी भासा जघन्याराधना कहते है इस आराधनाके आराधक क्षपक सौधर्मादिस्वों में देव होते हैं. इन देवोंसे हीन देवों में इनका जन्म नहीं होता है. किं जंपिएण यहुणा जो सारो केबलस्स लोगरस || तं अचिरेण लहंते फासित्ताराहणं णिखिलं ।। १९३१ ।। यहुनात्र किमुक्तन यत्सारं भुवननये ॥ आराध्याराधनां देवी लभते तन्मनीषिणः ।। २०२१ ॥ विजयोदया कि पिपण अष्टुणा किंयानोक्तेन यसर्वस्यास्य लोकस्य सारभूतं तदचिरेण लभते आराधन प्रपन्नाः । त्रिविधाया अप्याराधनाचा माहात्म्यमभिष्टौति-- मुलारा-.- केवलरस सरस्य । फासित्ता आराध्य । जघबाहुनोक्न कि सारो लोकस्य सकलस्य वः ॥ लभंते चिरापृष्टा सम्यगाराधनाविधिम् ।। अर्थ--अब हम और जादा नहीं कहते हैं जो संपूर्ण लोकका सारभूत पदार्थ है वह आराधनाओं को प्राप्त | हुए जीवोंको शीघ्र ही प्राप्त होता है . इसमें संदेह नहीं है. Page #1729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास भोगे अणुत्तरे भुंजिऊण तत्तो चुदा सुमाणुस्से ॥ इष्टिमतुलं गहना गति जिणदेसियं धम्मं ।। १९४२ ।। भुक्त्वा भोग च्युताः सन्तो भूत्वा भुचि नरोत्तमाः ।। विहाय महती भूर्ति भूत्वा सिध्यन्ति साधवः । २०२२ ॥ विजयोदया-भोगे अणुत्तरे भोगानुत्कृष्टान भुक्त्या स्वर्गच्युता मनुष्यभवेऽपि प्राप्य सकलामृद्धि तोच त्यक्या जिनाभिहितं धर्म चरति ।। मध्यमाराधनाजघन्याराधकानां स्वर्गसुलभुक्त्युत्तरकालभोग्यसुखं कृत्यं चोपदिशतिमूलारा-अणुत्तरे उत्कृष्टान् । तत्तो चुदा स्वर्गादवतीर्णाः । पत्ता त्यक्त्वा । धम्म चारित्रम् ।। अर्थ-आराधकजीवोंको स्वर्गमें भोगोंकी प्राप्ति होती हैं. उनका भोग लेकर आयुष्य समाप्त होनेपर घे स्वर्गस च्युत होकर इस मनुष्यभवमें जन्म धारण करते है. इस मनुष्यमवमें भी संपूर्ण ऋद्धिकी उनको प्राप्ति होती है. उसको छोडकर वे बिनधर्मका पालन करते हैं अर्थात् मुनि होकर तप, स्वाध्याय और ध्यान करते हैं. सदिमंतो धिदिमतो सदासंवेगवीरियोवगया ।। जेदा परीसहाणं ऊबसग्गाणं च अभिभविय ॥ १९४३ ॥ धृतिस्मृतिमतिश्रद्धावीर्यसंवैगभागमः ॥ परीषहोपसर्गाणां जेसारी विजितेन्द्रियाः ॥ २०२३ ।। बिजयोदया-सदिमंतो स्मृतिमंतः धृतिसमन्विताः श्रद्धासंधेगवीर्यसहिताः परीपहाणां विजेतारः उपसर्गा. मामभिभवितारः । धर्म चरंतस्तरकीदृशाः स्युरित्याइमूलारा-सदिमता स्मृतियुक्ताः । जेदा जेतारः । अभिभविदा अभिभवकर्तारः । अर्थ-वे शास्त्रका अध्ययन करके उसके तत्वों को खूब ध्यान में रखते हैं. परीषह और उपसर्ग प्राप्त होने. | १७१८ Page #1730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा पर भी धैर्यसे डिगते नहीं. श्रद्धा, संवेग-संसारमय, और वीर्य आत्मसामर्थ्यसे वे च्युत नहीं होते हैं. वे उपसर्ग और परीषहों को सह लेते हैं, इय परामवसाद डिवण्णा सुद्धदसणमुवेदा ॥ सोधिति झाणजुत्ता लेस्साओ संकिलिट्ठाओ ॥ १९४४ ॥ सयथाख्यातचारित्राः पवित्रज्ञानदर्शनाः ॥ विशोध्य मलिनां लेश्यां शुद्धध्यानविद्धि नः ।। २०२४ ॥ विजयोदया-इय चरणमघ्रसाद एवं यथाख्यातचारित्रं प्रतिपशः शुद्धदर्शनमुपगता घ्यानयुक्ताः संक्लिप लेझ्या विनाशयति ।। मूलारा-इय एवं चरंतः । सोधिति नाशयन्ति । अर्थ- इस प्रकारसे यथाख्यात चारित्रका लाम कर वे शुद्ध दर्शनको प्राप्त होकर ध्यानमें तत्पर होते हैं और अपने सकिष्ट लेण्याआका-मलिन परिणामोंका क्षय करते हैं. सुक्कं लेरसमुवगदा सुक्कझाणेण खविसंसारा ॥ सम्मुक्ककम्मकच्या सार्वति सिहं धुदकिलेसा ॥ १९४५ ॥ शुक्ललेश्यांगनाश्लिष्टा ध्वस्तनिशिषकल्मषाः॥ भवन्ति सहसा सिद्धा भूवनोत्तमवंदिताः ।। २.२५।। विजयोदया-सुक्क लस्समुचगवा शुक्ललेश्यामुपगताः शुक्लध्यानम क्षपितसंसारा उन्मुक्तकर्मकपचा दुरीफ़त फ्लेशाः सिद्धिमुपयांति ॥ मूलारा स्पष्टम् । अर्थ-शुक्ल लेश्याकी प्राप्ति कर वे आराधक शुक्लथ्यानसे संसारका नाश करते हैं. कर्मरूप कवचको फोडकर संपूर्ण क्लेशोंका अर्थात् चतुर्गतिके दुःखोका नाश करके मुक्त होते हैं. eace P १७१९ Page #1731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुलाराधना १७२० एवं संथारगदो विसोइता वि दसणचरितं ॥ परिवsदि पुणो कोई झायंतो अट्टहाणि ॥। १९४६ ॥ इत्थं संस्तरमापन्ना रौद्रावर्तिनः ॥ रत्नत्रयं विशेष्यापि भूयो भ्रश्यन्ति केचन । २०२६ ॥ विजयोदया एवं संधारणको उकेन प्रकारेण संस्तरमुपगतोऽपि कृतदर्शनचारित्रशुद्धिरपि कचित्कर्मगौर वारीपरिणतः पतति ॥ तत्र दोषमाचष्टे ॥ एवं साक्षात्पारंपर्येण च प्राप्यमाराधनाफलं व्यावर्ण्य दुर्दैववशेन दुयनाद्विराधतां श्रामस्य फलं प्रबंधना - मुलारा - परिवदि रत्नत्रयात्मच्यवते । अर्थ – कोई मुनि संसारका आश्रय करने पर भी सम्यदर्शन और चारित्रकी शुद्धि करने पर भी पूर्वकर्म के भारसे आर्त ध्यान रौद्रध्यान में परिणत होकर अपने शुद्धस्वरूप से भ्रष्ट होते हैं. झयंत अणगारो अरुद्दं च चरिमकालम्मि || जो जहइ सयं देहं सोण लहइ सुग्गादें खवओ ॥। १९४७ ॥ आतरौद्रपरः साधुय मुंचति कलेवरम् ॥ एतां दुःखप्रदामेष देवदुर्गतिमृच्छति ॥ २०२७ ॥ विजयोश्याज्झायंतो अणगारी मरणकाले मातेरोद्रयोः परिपतो भूषा यः स्वदेषं जहाति नासी क्षपकः गतिं लभते ॥ बिरामिणस्य दक्षेत्रमाह--- मूलारा - स्पष्टम् ॥ आर्त रौद्र में परिणति होनेसे क्या हानि होती है इस प्रश्नका उत्तर --- अर्थ - मरणके कालम आर्तध्यान और रौद्रध्यानका आश्रय करने से वह क्षपक आयुष्यकी समाप्ति होनेपर सुगति को प्राप्त नहीं कर सकता है. आश्वास ७ १७२० Page #1732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास ... जदि दा सुभाविदप्पा वि चरिमकालम्मि संकिलेसेण || . परिबडदि वेदणट्टो खवओ संथारमारूढो ॥ १९४८ ॥ चिराभ्यस्तचरित्रोऽपि कषायाक्षवशीकृतः ॥ सल्युगाले माग पदिश्यति संयतः ॥ २०२८॥ विजयोन्या-जदिदा सुमाचिनमा वि.यदि तायत्तुमाधितात्मापि संस्तरमारूढः वेदनातः आपकः संक्लेरोन दतुना सन्मार्गत्परिपत्तति ।। चिराभ्यस्तचारित्रोऽपि आपको यदि मरणक्षणे वेदनावशात्प्रातसक्लेश: सन्मार्गाच्यवते सदा नित्यावसमादीनां तत्पच्यवने किमाश्चर्य वाच्यमित्यभिधातुं प्रबंधमभिधत्त---- मूलारा-- सम् ॥ अर्थ-जिसने आत्माको आराधनाओंसे सुसंस्कृत किया था तो मी मरणसमयमें संक्लेशपरिणामोंकी उत्पति होने से वह संस्तरपर आरूढ हुआ श्रमण सन्मार्गसे भ्रष्ट होता है. किं पुण जे ओसण्णा णिच्चं जे वा वि णिच्चपासस्था । जे वा सदा कुसीला संसत्ता वा जहाछंदा ॥ १९४९ ।। अवसम्रो यशाचंदो यः पार्श्वस्थः कुशीलकः ॥ संसक्तश्च तदा किं न स भ्रश्यति कुमानसः॥ २०२९ ।। घिजयोदया- पुण किं पुनर्न परिपतंति ये नित्यमवसभा ये च नित्यं ावस्था ये वा सदा कुशीला: संसक्ता पा स्वछंदाः। तत्र अघसन्नाः निरूप्यते-- गन्छहि केइ पुरिसा पक्खी इव पंजरंतरणिरुहा ॥ सारणपंजरचकिदा ओसण्णामा पविहरति ॥ १९५० ।। विजयोदया-यथा कर्दमे क्षुण्णः मागाद्धीनोऽवसन इत्युच्यते स द्रव्यतोऽवसनः ।भावायसन्नः अशुद्धचरित्रः सीदति उपकरणे, वसतिसंस्तरप्रतिलेखमे, स्वाध्याये ,विहारभूमिशोधने, गोचारशुद्धौ, ईर्यासमित्यादिषु, स्वाध्यायका. BARASADARPARAN arai Page #1733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना भावासा १७२२ लावलोकने, स्वाध्यायविसर्गे, गोचरे, च अनुद्यता, आवश्यकेष्वलसः, अनातिरिको या जनाधिकं करोति च यथोक्तमावश्यकं चाकायाभ्यां करोति नभाचत एवंभूतश्चारित्रेऽवसीदतीत्यवसन्नः। पंथानं पश्यबपि तत्समीपे म्येन कश्चिद्गच्छति, यथासी मार्गपावस्था, एवं निमनिममा जारभितीजे, किंतु राय पगाणा तिष्ठति नेकांतेनासंयतः, न च निरविचार संग्रमासोऽभिधीयते पावस्थ इति । शय्याधरपिण्डमभिहितं नित्यं च पिई भुक्त,पूचीपरकालयोतिसंस्तव करोति, उत्पादनषणादोषदुष्ट या अन, नित्यमेकस्यां घसती वसति, पकस्मिन्नेव संस्तरे शेते, एकस्मिन्नेव क्ष वमसि । गृहिणां गृहाभ्यंतरे निषधां करोति, गृहस्थीपकरणयचरति, दुःप्रतिलेखगमतिलेस या ग्रहाति, सूचीकरिनखच्छदसंदंशनपट्टिकापुरकर्णशोधनाजिनपाठी, सीवनप्रक्षालनायधूननरंजनादिवहुपरिफर्मव्यापृतश्च या पार्श्वस्थः । क्षार घूर्ण सविीरलघणसर्पिरित्यादिकं अनागाहकरणेऽपि गृहीन्या स्थापयन् पार्थस्थः । रात्री यथेष्टं शेते, संस्तरं च यथाकाम चहुतरं करोति, उपकरणरशो। देवकुमाः-विचसेवा शेरो च यः पावस्थः । पदप्रक्षालनं म्रक्षणं था पत्कारण मैतरेण करोति, यश्व गणोपजीवी प्रिपंचकसेवापरश्व पार्श्वस्थः। अयमत्र संक्षेपः-अयोग्यं सुखशीलतया यो निषेवते कारणमंतरेण स सर्वथा पार्श्वस्थः । कुत्सितशील कुशीलः, यो अवसमादीनां कुशीलत्वं पामोति, नेयं लोकमकरकुत्सितशीलः कुशील इति विवेकोऽन ग्राह्यः । स च कुशीलोऽनेकप्रकारः, कश्चित्कौतुकशीलः औषधषिलेपनविद्याप्रयोगेणैव, सौमाम्यकरण रामदार कौतुफमादर्शयति यः कौतुककुशीलः । कश्चित् भूतिकर्मफुशीलः भूतिग्रहणमुपलक्षणं भूत्या, धूल्या, सिद्धार्थकः, पुणे, फलैरुदकादिभिर्वा मंमित रक्षा वशीकरण वा यः करोति स भूतिकुशीलः॥ उक्तं च भूदीव धूत्वीय या सिद्धस्थग पुष्फफालुदकादीदि। र पसिगरणं चा करेदि जो भूदिगकुसीलो कश्चित्तसेनिकाकुशीलः, अंगुष्टम से निका, अक्षरप्रसनी, प्रदीपप्रसेनी, शशिप्रसेनी, सूर्यप्रसनी स्वप्नपसनीत्येवमादिभिर्जने रंजयति यः सोऽभिधीयते प्रसेनिकाकुशील इति । कवियसेनिकाकुशीला विद्याभिमौषधप्रयोगों मसयंत चिकित्सा करोति सोऽमसेनिकाकुशीलः ॥ कश्चिशिमित्तकुशीला अगनिमित्तं ज्ञात्वा यो लोकरुयावेश करोति स निमिसपुशील: पात्मनो जाति कुलं वा प्रकाश्य यो भिक्षादिकमुत्पादयति स आजीवकुशीलः । केनचि दुपछुतः परं शरणं प्रविशति, अनाथशाला या प्रविश्य आत्मनश्चिकित्सां करोति सवा पाजीवकुशलः । विद्यायोगादिभिः परद्रव्यापहरणदभप्रदर्शनपरः फककुशीला, इंद्रजालादिभियों जनं विस्मापयति सोऽभिधीयते फुडनकुशील इति । वृक्षगुल्मादीनां पुष्पा, फलानां च संभवमुपवर्शयति, गर्भस्थापनादिकं च करोति यः स संमूर्छनाकुशीलः । सानो, कीटादीनां, वृक्षादीना, पुष्पफलादीनां, गर्भस्य परिशातनं अभिसारिकं च यः करोति शापं च प्रयच्छति स प्रपातनकुशीला उक्तं च । काओनिकभूदिकम्मे परिणा पसिणे पिणमित्तमामीचे, काकुहन समुन्छण परादणादीफुनीलो दु । उनि | आशिवपारगृहीताः कुशीला उच्यत-शत्रं हिरण्यं चतुष्पदं च परिप्रष्ट ये गृलंनि हरितकदफलमोजिनः इतकारितानुमतपिपोषधिवसतिसेवापराः, रत्रीकथारतया, मैथुन सेवापरायणाः, विवेकानवादिश्रधिकरणोद्यताश्च कुशीला ! धृष्टः प्रमत्तधिकृतबेषश्च कुशीलः । संसको निरूप्यते-प्रियचारिखे प्रियचारित्रः अप्रियचारित्रे दृष्ट अप्रियचारित्रा, नदपवनकरूपमाही संसक्तः, पंचेंद्रियेषु प्रसक्तः विविधगौरवप्रतिपद्धः, स्त्रीविषये संक्लेशसहितः, गृहस्थजनप्रियश्च - - - १७२२ Page #1734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासा १७२३ - - - संसक्तः भवसष्णो अवसना, पार्थस्थसंसर्गात्स्वयमपि पार्श्वस्था, कुशीलसंसर्गात्स्वयमपि कुशीलः, यः स्वरद संपर्कास्वयमपि स्वच्छंदवृत्तिः । यथाशंदो निरूप्यते-उत्सूत्रमनुपदिष्ट स्वेच्छाविकल्पितं यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाछंद इति । तद्यथा वर्षे पतति जलधारणमसंयमः । भुरकर्तरिकादिभिः केशापनयमप्रशंसनं आत्मधिराघनान्यधा भवतीति । भूमिशय्या तृणपुंजे वसतःअवस्थितानाशाति,उद्देशिकादिके भोजनेऽदोषः प्रामं सकलं पर्यटतोमहवीजीव. निकायविराघनेति, गृहामपुभोजनमदोष इसि कथन, पाणिपात्रिकस्य परिशातनदोषो भवतीति निरूपणा, संप्रति यथोक्तकारी न विद्यत इति च भाषणं पवमादिनिरूपणापराः स्वयंवा इत्युक्यते । मूलारा-- किं पुण किं पुनर्न परिपतंति । सर्वदा येऽवसन्नादिरूपतां धृत्वा पश्चिमकाले एच सन्मार्गमनुसृतास्ते संस्तरारूढाः संतो बेदनावशात्प्रासंक्लेशास्ततः प्रध्यवंत एवेत्यर्थः। ओसण्णा चारित्रेऽवमीदन्तः पथिका इय पंके । यथोक्तमुनिकर्मस्वालस्थादिना पद पदे रखलन्त इत्यर्थः। णिकच दीक्षामहणारभतिचरमकालं यावत् । निच्चपामस्था निरतिचारसंयममार्ग जानती पि ये सदा तदवृत्तयो कानन्द संगता न च निरतिचारसंयमाः किंतु संयममार्गपाव तिष्ठन्ति । यथा केचित् प श्य तो असे बलिदश झा विना ये निषेयते ते पावस्था इति सात्पर्य । कुमीला लोकप्रकट कुन्तितशीलाः । संसत्ता ये पियचाहिऐ प्रिवचारित्राः, अशियपारिने च अमिय चारित्राः । नटवदनेकरूपमाहिणोऽवस शादिसंसर्गात्स्वयमपि सहावभाज इति भावः ।। जधाईदा उत्सूत्रानुपदिष्टम्वेच्छाबिकस्पिन निरूपणापराः || अर्घ-क्या जो अबसन्न, पार्थस्थ, कुल, संसक्त और यथा छंद मुनि है वे अवश्य मन्मार्ग से भ्रष्ट नहीं होते हैं ! अवश्य ही भ्रष्ट होंगे. अर्थ-जसे कीचडमें फसहए और मार्गभ्रष्ट पथिकको अवसन कहते हैं उस को द्रच्यावसनभी कहते हैं. वैसे जिसका चारित्र अशुद्ध बन गया है ऐसे मुनिको भावासन कहते हैं. यह मुनि पिंछी कमंडस्वादिक उपकरणोंमें, आसक्त होता है. इसति और सस्तरकी शोधना करनमें प्रमादी बनता है. स्वाध्यायमें विहारभूमिशोधनमें, आहारकी शुद्धि में, ईर्यासमित्यादिक समितिओं में, स्वाध्यायकालके अवलोकनमें स्वाध्यायको समाप्ति करने में तत्पर नहीं होता है. अर्थात् उपयुक्त कार्यों में वह प्रमादी बनता है. आवश्यकादि कार्यों में आलस्य करता है. इतर मुनिओंकी अपेक्षा से यह अयसन्नमुनि आवश्यकोंका अधिक भी पालन करता है परंतु वचन और काय-शरीरसेही करता है. मनसे उनका पालन नहीं करता है. इस प्रकार वह चारित्रसे भ्रष्ट होता है इसलिये ऐसे मुनिको अत्रसम्म कहते हैं, १७२३ Page #1735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वाः १७२४ ___ मागको जानता हुआ भी कोई अन्य पुरुषके साथ उस मार्गके समीप जाता है उसको जैसे मार्गपार्श्वस्थ | कहते हैं वैसे अतिचाररहित संयममार्गका स्वरूप जानकर भी उसमें जो प्रवृत्ति नहीं करता हैं परंतु संयममार्गक पास ही बह रहता है. यद्यपि वह एकातरूपसे असंयमी नहीं है परंतु निरतिचार संयमका पालन नहीं करता है इसलिये उसको पार्श्वस्थ कहना चाहिये, वसतिका को धनवानेवाला, उसकी मरम्मत करनेवाला, और यहां आप ठहरो ऐसा कहकर मुनिओंको वसतिका देनेचाला इन तीनो को शय्याधर कहते हैं. इनके यहां हार ग्रहण करना मुनिओफेलिये निषिद्ध दे. परंतु इनके यहां जो हमेशा आहार ग्रहण करते हैं. दाताकी आहार लेने के पूर्व और आहार लेनेके अनंतर प्रशंसा करते हैं, उत्पादन दोप, एपणा दोप सहित आहारको ग्रहण करते हैं. हमेशा एकही वसनिकामें रहते हैं. एकही संस्तरमें हमेशा सोते हैं, एकही क्षेत्रमें रहते हैं. गृहस्थोंके घरमें अपनी बैठक लगाते हैं. गृहस्थोपकरणोंसे अपनी शौचादि क्रिया करते हैं. जिसकी शोधना अश्क्य है अथवा जो सोधा नहीं गया है उसको ग्रहण करते हैं. सूई, कैंची, नख छेदनका शस्त्र. सांडस (जिसको चिमटा कहते है) वस्तरा तीक्ष्ण बनानेका पत्थर, वस्तरा, कर्णमल निकालनेका साधन, इन वस्तुओंको ग्रहण करते हैं. सीना, धोना, उसको झ टकना. रंगाना इत्यादि कार्यो में जो तत्पर रहते हैं एसे मुनिको पार्थस्य मुनि कहते हैं. जो अपने पास क्षारचूर्ण सोहाग चूर्ण, नमक, घी बगैरह पदार्थ कारण न होने परभी रखते है उनको भी पार्श्वस्थ कहना चाहिये. जो रात में यथेष्ट सोते हैं, अपनी इच्छाके अनुसार निछानाभी वहा पनाते हैं, उपकरणों का संग्रह करते हैं, उनको उपकरण बकुश कहते है. जो दिनमें सोता है उसको देहबकुश कहते हैं ऐसे पार्श्वस्थके भेद हैं. कारणके बिना पाव धोना अथरा तेल लगाना, गणके ऊपर उपजीविका करना, तीन अथवा पांच मुनिओंकी सेवा करना ? ऐसे जो कार्य करता है वह भी पार्श्वस्थ है. जिसका आचरण कुत्सित है दोष युक्त है उस मुनिको कृत्सित कहत हैं. यदि ऐसा कुशील मुनिका लक्षण किया जावेगा तो अबसमादिक मुनिओंको भी कुशीलही कहना होगा ? उत्तर-जिसका बुरा आचरण लोकमें प्रगट हुआ है उसको कुशील कहते हैं ऐसा अभिप्राय यहां समझना चाहिये. इस कुशील मुनिके अनेक प्रकार है. कोई कौतुककुशील है- औषध, विलेपन और विद्याके प्रयोगसेही राजद्वारमें कौतुकं दिखाना, लोकमें मियता संपादन करना. Page #1736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वासः भूतिकुशील-भूति शब्द यहां उपलक्षण है इसलिये भूतिका अर्थ इस प्रकार समझना चाहिये-अभिमंत्रित किये गये धूल, सफेत सरसों, पुष्प, फल, पानी इत्यादिकोंके द्वारा किसीका रक्षण करना, किसीको वश करना, ऐसे कार्य करने वालको भूतिकुशील कहते है. उपर्युक्त अभिप्राय भिदीय धलियं वा' इस गाथामें भी व्यक्त किया है. प्रसेनिका कुशीलका लक्षण इसप्रकार है. अंगुष्ठ प्रसेनिका, अक्षरप्रसनिका, प्रदीपप्रसेनी, शशिप्रसनी, और स्वप्नप्रसेनी इत्यादि विद्याओंसे जो लोकों का मन अनुरंजित करता है उसको प्रसेनिकाकुशील कहते हैं. अग्रसेनिका कुशील-विद्याओसे और औषधोंसे असंयतोंकी जो चिकित्सा करता है वह अप्रसेनिका कुशील है. अशंगनिमिसको जानकर जो लोकोंको उनका उपदेश करता है वह निमित्त कुशील है. अपजी, जाति ष कुल प्रकाशित करके जो मिक्षादिककी उत्पत्ति करता है उसको आजीयकुशील कहते है. किसीके द्वारा उपद्रव होनेपर दुसरोको जो शरण जाता है. अथवा अनाथशालामें प्रपेश कर अपनी चिकित्साको करवाता है उसको आजीवकुशील कहते हैं. विद्या मंत्रादिकोंके द्वारा पथ्यापहरण करके दंभ प्रदर्शन करनेवाला उसको कफकुशील कहते हैं। इंद्रजालादिकोंके द्वारा जो जनोंको आश्चर्यचकित करता है वह कुहनाकुशील है. वृक्ष, छोटे छोटे पेड वगैरहोंको पुष्प और फलोंकी उत्पत्ति का उपाय बतलाता है. गर्भस्थापनाहिक | कार्य जो करत हैं उसको सम्मुर्छनाकुशील कहते है. बस जातिके कीटादिक, वृक्ष, छोटे पेड इनके पुष्य फलादिकोंका जो नाश करते हैं, गर्भका जो नाश करते है. जो शाप देते हैं उनको प्रपातन कशील कहते हैं. इन सब कुशीलोंका आचार्यन 'कायोतिक भूति कम्मे' इस गाथामें नाम निर्देश किया है. माथामें आदि शब्द पाया है इससे और भी कुशीलोके भेद होते हैं. उनका स्वरूप इस प्रकार-जो क्षेत्र-जमीन, सुवर्ण, चतुप्पदप्राणी इन परिग्रहाँका स्वीकार करते हैं. हरित, कंद, और कच्चे फल भक्षण करते है। कृत, कारित, और अनुमत ऐसी वसतिका, आहार उपाधि-इनका सेवन करते हैं। स्त्रियों की कथाओंमें प्रेम रखते हैं. मैथुन सेवामें तत्पर होते हैं १७२५ Page #1737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १७२६ afaast होते हैं, आके अधिकरणों में हमेशा उद्युक्त रहते हैं इनको भी कुशील कहते हैं. जो घृष्ट, निर्लज्ज, प्रमुच, और विकारयुक्त वेष धारण करते हैं. उनको भी कुशील कहते हैं. संसक्त मुनिका वर्णन - ऐसे मुनि चारित्रप्रियमुनिके सहवान रह है कि ये भी बन जाते हैं. जिनकी चारित्रप्रिय नहीं हैं ऐसे मुनिके सहवासमें रहनेपर जो चरित्रको अप्रिय मानने लगते हैं. नटके समान इनका आचरण रहता हैं. ये संसक्त मुनि पंचेंद्रियों के विषयों में आसक्त होते हैं. तीन प्रकारके गौरवोंमें ऋद्धिगौरव, रसगौरव और सातगौरव इनमें आसक्त होते हैं. स्त्री के विश्व में इनके परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं. गृहस्थोपर इनका अतिशय प्रेम रहता है. अवसन्नमुनिसंसर्ग से ये अवसन्न बनते हैं. पार्श्वस्यक संससे पार्श्वस्थ हो जाते है. कुशील के संसर्ग से कुशील और स्वच्छंद के संयोग होनेपर से बनते हैं. अर्थात् नट इनका आचरण हैं. यथाछंद मुनिका वर्णन - जो मुनि आगमके विरुद्ध आगमेन न कहा हुआ और च्छकल्पित पदा थका स्वरूप कहते हैं उनको यथानंद मुनि कहते हैं वर्षाकालमें जो पानी गिरता है उसको धारण करना यह असंयम है. वस्तरा और कैचीसे केश निका लना ही योग्य है. केशलोच करनेसे आत्मविराधना होती है. सचित्ततृणपुंजपर बैठने से भी भूमिशय्या मूलगुण पाला जाता है. तृणपर बैठने से भी जीवोंको बाधा नही होती है. उद्देशादिक दोषसहित भोजन करना दोषास्पद नहीं हैं. आहार के लिये सच ग्राम में घूमनेसे अनेक जीवोंका घात होता है. घर में हि भोजन करना आच्छा है. अर्थात् सतिका ही भोजन करना अच्छा हैं. हाथमे आहार लेकर भोजन करनेसे जीवोंको बाधा पोहोंचती है. ऐसा वे उत्सूत्र कहते हैं. इस कालमें यथोक्त आचरण करनेवाले मुनि कोई नहीं है ऐसा कथन करना इत्यादि प्रकारसे विरुद्ध भाषण करनेवाले मुनियोंके यथाछंद अर्थात् स्वछंदी मुनि कहते हैं. अविभावदोसा कसायवसाय मंदसंवेगा अच्चासाद्णसीला मायाबहुला णिदाणकदा || १९५१ ॥ आव Page #1738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्चार १७२७ अशुद्धमनसो वश्याः कषायेन्द्रियविद्विषाम् ।। पूज्यात्यासादनाशीला नीचा मायानिदानिनः ॥ २.३० ॥ विजयोदया-अविसुभावदोसा भावाः सम्यग्दर्शनशानचारित्रपरिणामाः, तेषां दोषाः शंकादयः ते अविशुद्धा अनिरुता चैस्ते अविशुद्धभावदोषाः । कसायवसिगा कपायवशवर्तिनः। मंदसयेगा। अच्चासादणलीला गुणानां गुपिशां चापमानकारिणः1 प्रचुरमायानिधानं गताः॥ कुतस्ते मृत्युकाले सन्मार्गात्मयते इत्यत्र गाथाषट्कमाहमूलारा-अविसुद्धभावदोसा अनिराकृतरत्नत्रयाविचाराः। अशासावणसीला गुणानां गुणिनां चापमानकारिणः। अर्थ-सम्बद्र्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको आचार्य भाव कहत हैं. इनके शंकादिक दोष हैं. इन दोपॉको न हटानेसे सम्यद्गर्शनादिक निर्मल नहीं होते हैं. अर्थात् अवसमादिक मुनिओंका रत्नत्रय निर्दोष नहीं हमा हैं वे कार के वश हो जाने में मग पर पाया जाता है. वे गुपोका और गुणिजनों का अपमान करते हैं. उनमें माया और निदान ये दो शस्य प्रचुर पाये जाते है. सुहसादा किंमज्झा गुणसायी पावसुत्तपडिसेवी ॥ विसयासापडिबद्धा गारबगरुया पमाइला ॥ १९५२ ॥ धर्मकार्यपराधीनाः पापसूनपरायणाः ।। संघकृत्ये ममानेन किं कृत्यमिति वादिनः ॥ २०३१ ॥ सर्वननातिचारस्थाः सुखास्वादनलालसाः ॥ अनाराधितचारित्राः परचिंताकृतोद्यमाः ।। २०३२।। विजयोदया-सुखसादा सुखास्वादनपराः । किंमझा कि मां केनचिदिति सर्वेषु संघकाच नाहताः । गुण सायी गुणेषु सम्यग्दर्शनादिषु शेरत व निरुत्साहः । पाचसुत्तपडिसवी आत्मनः परेषां धा अशुभपरिणामस्य मिथ्यात्वा. संयमकवायाणां प्रवर्तक शास्त्र पापसूत्र निमित्त, वैद्यकं, कौटिल्यं, स्त्रीपुरुषलक्षण, धातुवादः, कायनाटकानि, चौरशाख शनलक्षणं पहरणविद्याचित्रकलामांधर्वगंधयुक्त्यादिकं एतस्मिन् पापसूत्रे फतादराभ्यासाः, चिसयासापष्टिद्धा अभिमतविषयपरिप्राप्त्यर्था या भाशा तस्यां प्रतिबद्धाः, तिगारवगुरुका गारसत्रयगुरवः । पमाइला षिकथादिपंचदश प्रमावसहिताः॥ १५२७ Page #1739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १७२८ मूलारा--सुइसादा सुखास्वादनपराः । किमजमा कि मम केनचिदिति सर्वेषु संघकार्येष्वनादसाः । गुणसायी गुणेषु सम्यग्दर्शनादिषु शेरत इच । सम्यक्त्वादिनिरुत्साहा इत्यर्थः । पावमुक्तपमिसेषी स्वपरयोमिथ्यात्वादिनिवेदकनिमित । कौटिल्य स्त्रीपुरुषलक्षण, धातुषादकाश्यनाटकचौर्यशचित्रगीतनृत्यवाचगंधयुक्त्यादिशालेषु कृतादराभ्यासाः । पमादिला विकादिप्रमादयतः ॥ अर्थ--इन मुनिओंका स्वभाव मुखिया बनता है इसलिये मेरा किसीसे कुछ भी संबंध नहीं है ऐसी कल्पना करके संघके कार्योंसे वे उदासीन रहते हैं. सम्यग्दर्शनादि गुणोंमें घे निरुत्साह रहते हैं अर्थात इनकी वृद्धि करनेकी उनको इच्छा नहीं होती. अपने अथवा अन्यजनोंके अशुभ परिणाम बनानवाल अर्थात् जो मिथ्यात्व, असंयम, कषायरूप परिणामाकी उत्पत्ति करत हैं ऐसे शास्त्रोंका पाप कहते हैं. जैसे निमित्त, वैद्यक, कौटिल्य (चाणक्यका अर्थशास्त्र ) स्त्रीपुरुषलक्षण, अर्थात् सामुद्रिक, धातुवाद, काव्य, नाटक चौरशास्त्र, शस्त्रलक्षण, शास्त्रविद्या चित्रकला. गांधर्व, गंधयुक्त्यादिक इन शास्त्रों को पापसूत्र कहते हैं. ये पार्थस्थादि मुनि इन शास्त्रोंका आदरसे अभ्यास करते हैं. इस विषय की प्राप्ति करानेवाली जो आशा है उससे ये बंध गये हैं. तीन गारवसे ये सदा युक्त रहते है. विकथादिक पंदरह प्रमादोंसें ये पूर्ण रहते हैं. समिदीमु य गुचीसु य अभाविदा सीलसंजमगुणेसु ।। परतत्तीसु पसत्ता अणाहिदा भावसुडीए ॥ १९५३ ॥ विजयोदया-समिदीसु य समितिषु गुप्तिषु च संयमगुणेषु भाषनारहिताः परव्यापारेउ मवृत्ता भावशुशाबनारताः । मुलारा-परतत्तीसु परव्यापारचिंतासु णाहिदा अनादृता अस्थिरा वा ।। अर्थ--समिति, गुप्ति, इनकी भावनाओंसे-अभ्याससे ये दूर रहते हैं. संयमके भेद जो उचरगुण शील बगैरह इनसे ये दूर रहते हैं. दूसरों के कार्योकी चितामें लगे रहते है. और आत्मकल्याणके कार्योसे कोसों दूर रहते है. इसलिए इनके रत्नत्रयमें निर्मलता नहीं रहती है. १.७२८ Page #1740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्व सः गंधाणियत्ततण्हा बहुमोहा सबलसेवणासेवी! सहरसरूवगंधे फासेसु य मुस्किदा घडिदा ॥ १९५४ ॥ लोकक्रियोदातरः परलोकक्रियालसाः ।। मोहिनः शबलाः क्षुद्राः संक्लिष्टा दीनवृत्तयः ॥ २०३३ ।। विजयोत्या-थाभियसतपदा अतृप्तपरिग्रहताणा, बहुमोडा, अकानयटुलाः, शबलसघनापराः, शब्दादिषु विषयेषु भूठिताः, आस्रवटिप्ताः॥ मूलारा-गंथाणियत्ततण्डा अनिवृत्तपरिग्रहस्पृहाः । बहुमोहा अज्ञान बहुलाः । सबलसेवणासेवी गृहमारंभसेविमः । मुच्छिदा गृद्धिं गताः । घडिदा संबद्धाः ।। अर्थ--परिग्रहम इनकी अभिलापा तृप्त होती नहीं बढती ही रहती है. ये आज्ञानसे घिरे रहते हैं. अर्थात आत्मस्वरूप का ज्ञान इन को नहीं होता है. गृहस्थोके आरंभादि कार्य ये करते रहते हैं. शब्द, रस. गंध, रूप, स्पर्श इन विषयों में वे अत्यासक्त होते हैं... परलोगणिप्पिवासा इहलोगे चत्र जे सुपडिबद्धा ॥ सज्झायादीसु य जे अणुष्ठिदा संकिलिमदी ॥ १९५५ ।। विजयोदया-परलोयणिपिवासा परलोकनिस्पृष्टाः, पेडिकेम्वेव कापु प्रतिबद्धाः, स्वाध्यायादिष्यनुयताः, सडिएमतयः॥ मूलारा-णिपिपासा निस्पृहाः । अणुट्टिदा अनुद्यताः ।। अर्थ-ये परलोकके विषय में निस्पृह होते हैं. परंतु ऐहिक कार्यों में ही इनका मन तत्पर रहता है. स्वाध्याय, आलोचनादिक कार्यों में इनका मन लगता नहीं है. इनके घुद्धीमें सक्लेश परिणाम रहते हैं. सव्वेस य मूलुत्तरगुणेसु तह ते सदा अइचरंता ॥ ण लहंति खवोवसमं चरितमोहरस कम्मरस ॥ १९५६ ॥ १७२५ ११७ Page #1741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वास विजयोदया-मूलोत्तरगुणेषु सदा सातिधारा न लभते चारित्रमोहस्य क्षयोपशम ।। मूलारा-ते निमावसमावयः समाधिमरणोपत्ताः । अदिवरता अन्तर्युल्या रहिवृत्त्या वा भजनः । अन्ये बिच | रंता इति पठित्वा सर्वस्मिन्मूलोत्तरगुणेऽप्रवर्तमाना इत्यर्थमाहुः ॥ णेत्यादि असंबता एव ते भवन्तीत्यर्थः ।। अर्थ- मूलगुण और उत्तरगुणोंमें हमेशा अतिचार युक्त ही रहते हैं. अर्थात इन गुणोंमें इनको हमेशा अतिचार लगते हैं, उनको चारित्र मोहनीय कर्मका क्षयोपशम नहीं रहता है. अर्थात् वे असंयत ही होते हैं. एवं मूढमदीया अयंतदोसा करेंति जे कालं ॥ ते देव भगत्तं मायामोसेण पावति ॥ १९५७ ।। आलोचनामनाधाय ये नियत कुबुद्धयः 11 त्रिदिधे निविताचारा दुर्भगाः संति ते सुराः ।। २०३४ ।। विजयोदया-एवं मूहमदीया एवं मूढयुद्धयो अनपास्तदोषा ये काले. कुर्वति त देवदुर्भगनां प्रानुनि मायया ॥ तगत्यंतरं प्राप्यं दर्शयन्तिमूलारा–अवंतदोसा अनिराकृतातिचाराः । देवाश्च ते दुर्भगाश्च देवदुर्भगास्तभावं । उक्त 'च आलोचनामनाधाय ये म्रियते कुबुद्धयः ।। त्रिदिवे निदिनाथारा दुर्भगाः सन्ति ते मुराः ॥ अर्थ-इस प्रकार मृढमति ये अबसनादिक मुनि अपने दोषों को नहीं हटाते हुए अपना सर्व आयुष्य योंही व्यतीत करते हैं, जिससे मायाचारी इन मुनिआको देव दुर्गतिकी प्राप्ति होती है. किंमझ गिरुन्डाहा हवंति जे सव्वसंघकजसु ॥ ते देवसमिदिबझा कप्पते हुँति सुरमेच्छा ॥ १९५८ ।। संघकृत्य निरुत्साहाः किमेनन ममेति ये ॥ ते भवन्ति मुरा म्लच्छा वाधवाविदियोकसां ।। २.३५॥ Page #1742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना| आश्वासा विजयोदया- मज्झणिरुच्छाहा कि ममिति ये सर्वसंघकार्येच्यनारतास्ते देवसमितियाहाः कल्पानामते । सुरम्लेच्छा भवंति ॥ संघकार्यानाहतानां देवदुर्गतिमाह-- मूलारा-किं मज्म णिरुच्छाहा कि ममेत्यनारताः ॥ समिदि सभायां । कप्पते सौधर्मादिकल्पानां प्रत्यते । सुरमेच्छा देबम्लेकलाः कर्मचांडाला इत्यर्थः ।। अर्थ-जो संबके कार्योंका अनादर करते हैं ऐसे मुनि सौधर्मादिक स्वर्गके अंतमें सुरम्लेच्छ अर्थात चांडालके समान देव होते हैं. कंदप्पभावणाए देवा कंदप्पिया मदा होति ।। खिभिसयभावणाए कालगदा होंति खिभिसया ॥ १९५९ ॥ अभिजोमभावणाए कालगदा आभिजोगिया हुति ॥ तह आसुरीए जुत्ता हवंति देवा असुरकाया ॥ १९६० ॥ सम्मोहणाए कालं करित्तु दो दुदुगा सुरा हुँति ।। अण्णंपि देवदुग्गइ उवयंति विराधया मरणे ॥ १९५१ ॥ कंदपभावनाशीलाः कंदर्पाः सति नाकिनः ॥ निंद्याः किल्यिषिकाः संति मृताः किल्बिषभावनाः॥२०३६ ।। अभियोग्यक्रियासक्ता आभियोग्यासुरा मृताः।। आसुरीभावनाः कृत्वा मृत्वा सन्त्यसुराः पुनः॥ २०३७ ॥ समोहभावनायुक्ताःसंमोहास्त्रिदशा मृताः ॥ विराध पराप्येवं प्राप्यते देवदुर्गतिः॥ २०३८ ॥ विजयोदया-स्पार्थमुप्तरगाथात्रयं । RANTERPRISE १७३१ Page #1743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधामः कन्दादिभावनामृताना तथाविधदेवभूयमभिधत्तेमूलारा-पदा मताः || मुलारा-असुर काया असुराः ।। मूलारा --- करित्तु कृत्वा । भाद्रपदमासकुक्कुराणामनुहारमाणाः । कामातुरतया शुनौनामिव देवीना अनिनिंदा पुगेलुलनादिचष्टा कापिण इत्यर्थः । अयं च अपरमपि । उनयंति प्राप्नुवंचि ।। अर्थ-कंदर्प भावनाके वश होकर ये मुनि कंदर्प जाति के देव होते हैं. किल्बिषभावनाके वश होनेसे माणोत्तर किल्विय देवपयोगकी प्राप्ति इनको होती है. आभियोग्य भावनासे जो मुनि मरण करते है न स्वर्गम अभियोग्य देव अर्थात वाहनदेव होते हैं. आसुरीभावनासे प्राणत्याग करनेवाले मुनि असुर देव होते हैं. सम्मोह भावनाके वश होकर मरण करनेवाले मुनि स्वर्गमें सम्मोह नामक देव होते हैं. कामधिकारके बाहुल्यसे ये देव दंवीके साथ हमेशा कामसेवन करते हैं. मरणकालमें जो आराधानाकी विराधना करते हैं ऐसे मुनि अन्यमी देवदुर्गती में जन्ममें लेते हैं. इय जे विराधयित्ता मरणे असमाधिणा मरेज्जण्ह॥ तं तेसि बालमरणं होइ फलं तस्स पुन्बुत्त ।। १९६२ ॥ इत्थं विराध्य ये जीषा नियंते-संयमादिकम् ॥ तेषां यालमृतिस्तस्याःफलं पूर्वत्र धर्णितम् । २०३९ ॥ बिजयोदया-नय से विराधयित्सा एवं ये रत्नत्रयं धिनाश्य मरप्पकाले यसमाधिना मृतिमुपयांति तत्तयां वालमरणं भवति । तस्य पालमरणस्य फल पूर्वमुक्तमेध ॥ रत्नत्रयं विराध्य मृतानां कतमम्मरणं स्यादित्यत्राहमूलारा-मरेजण्ह निरन् । तं असमाधिमरणं ॥ अर्थ-जो इस प्रकार रत्नत्रयका नाश कर मरणको प्राप्त होते हैं. अर्थात् असमाधिसे मरण करते हैं. उनका यह मरण बालमरण है ऐसा आचार्य कहते हैं. बालमरणके फलका वर्णन पूर्वमें आ चुका है. न Page #1744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वाराधना आभास १७३३ जे सम्मत्तं खखया विराधयित्ता पुणो मरेज्जण्ह ।। ते भवणवासिजोदिसभोमेज्जा वा सुरा होति ॥ १९६३ ।। विराध्य ये विपयंते सम्यक्त्वं नष्टबुद्धयः । ज्योतिर्भावनभौमेषु ते जायन्ते वितेजसः ।। २०१० ॥ विजयोदया--जे सम्मत्तं खबगा ये क्षपकाः सम्यक्त्यं विनाश्य म्रियते भवनषासिनो ज्योतिका व्यंतर या भवंति ॥ सम्यक्त्व विराधनामरणफलमाह-- मूलारा--भोमेन्सः यनराः । अथ---जो आपक सम्यक्त्वका नाश कर कर मरण को प्राप्त होते हैं उनकी भवनवासि, व्यंतर अथवा ज्योतिक दयों में उत्पत्ति होती हैं. दसणणाणविहूणा तदो चुदा दुक्खबेदाम्मीए॥ संसारमण्डलगदा भमंति भवसागरे मूढा ।। १९६४ ॥ वर्शनज्ञानहीनास्ते प्रच्युता देवलोकनः ।।। संसारसागरे घोरे यंभ्रमन्ति निरन्तरम् । २०४१ ।। जियोदया-दसणणापाविहीणा सम्यग्दर्शनशानदीनास्तलः स्वर्गारस्युता दुःसवेदनोमांकि भवसागरे मूढा भ्रमंति, मंडलं गताः॥ घिराधनाधिगतदेवभावभंशोद दुर्जन्मपरंपरां प्रीतिमूलारा-दो चुदा तत्तरेषभाष भ्रष्टाः । दुक्खबेदणुम्मीए क्लेशानुभुतिबीचिके। मंडल आपतः ।। अर्थ--सम्यग्दर्शन, सम्परज्ञान इन गुणों से रहित देव आयुष्य समाप्त होने पर स्वर्गसे भ्रष्ट होकर दुःखानुभवरूप तरंगों से भरे हुए संसारसमुद्र में अज्ञानसे अचेत होकर भ्रमण करते हैं. १७३३ Page #1745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना माश्वान १७२४ जो मिच्छतं गतृण किण्हलेरसादिपरिणदो मरदि ॥ तल्लेस्सो सो जायइ जल्लेस्सो कुणदि सो कालं ॥ १९६५ ॥ ये मृता मुक्तसम्यक्त्वाः कृष्णलेश्यादिभाविताः ॥ सधालेश्या भवाम्भोघी ते भ्रमन्ति दुरुत्तरे ॥ २०४२ ॥ निवेशयंती भुवनाधिपत्ये मनीषितं कामदुघेर धेनुः ।। आराधिता किं न ददाति पुंसामाराधना सिद्धियधूवयस्या ॥ २०१३ ॥ इति फलम् ।। चिजयोदया-जो मिच्छत गंतूण यः कृष्णलेझ्यादिपरिणतो मिथ्यात्वं गरवा म्रियते तलेश्यो जायते, परपच यल्लेश्यः कालं कृतवान् । फलत्ति । मिथ्यात्वपरिणतस्य मरणप्राप्यदुश्यापरिणामानो संसरणानुबंधमभिधत्तेमुलारा-जायदि परत्र उत्पद्यते । उप-- ये मृता मुझसम्यक्त्वा कृष्णलेश्यादिभाविताः । तथालेश्या भवाम्भोधी ते भ्रमति दुरुसरे ॥ फलं । सूचनः ३९ अंकतः ४५ ॥ अर्थ-जो मुनि कृष्णा लेण्या वगैरह लेण्याओंके वश होकर मिथ्यात्वी बन कर मरण करते हैं वे पर लोकमें भी उसी लेश्या के धारक होते हैं. तात्पर्य जिम लेश्या से मरण होता है परलोकमें भी वही लेश्या उस जीवकी रहती है. इस प्रकार फल का वर्णन हुआ. चिजहणा निरूप्यते एवं कालगदरस दु सरीरमंतोबहिज्ज वाहिं वा ।। विज्जाबचकरा तं सयं विकिंचति जदणाए ॥ १९६६ ॥ १७३३ Page #1746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना স্বাসঃ १७३५ एवं कालगतस्यास्य बहिरंतनिवासिनः । स्थति यत्नतो गात्रं वैयावृत्त्यकराः स्वयम् ।। २०४४ ।। विजयोदया-पवं कालगदस्य एवं कालगतस्य शरीरमंतबहिर्वावस्थित वैयावृत्यकराः स्वयमेवाएनयंति यत्नेन । अथ लोकांतरप्राप्तक्षपशरीरस्य त्यजन विधि गावाचतुस्त्रिंशता व्याचप्ले मूलारा-एवं यथोक्तसन्यासविधिना | कालगदरस मृतस्य क्षपकस्य । अंतो मध्ये नगरादेः स्थितस्य । बाहि बहिः । वे निस्तरणांतसम्यक्त्वाचागद्यानाधिगतपरगपवित्रभावं । विकिचंनि अपनयंति । जदशाए यत्नेन वक्ष्यमाणेन । अर्थ-जो क्ष्षक लोकांतर को प्राप्त हुआ है अर्थात् मर गया है तब वैयाकृत्य करने वाले मुनि उसका शरीर जो कि नगरादिमें अथवा बाहर वसतिकाम पड़ा रहता है उसे आगे कहे हुए प्रयत्नसे ले जाते हैं. अभिप्राय यह है कि-पूर्वोक्त संन्यास विधीसे जो क्षपक सम्यक्त्यादिक चार आराधनाओंकी निस्तरण पर्यंत प्राप्तिकर पवित्र हुआ है वह नगरादिके बीच में अथवा बाहर जम मरण करता तव यास्य करने बाल मुनिगण उसके शवको घटे प्रयत्नसे स्वयमेव ले जाते हैं. समणाण टिदिकप्पो वासावासे तहेब उडुबंधे ॥ पडिलिहिदव्वा णियमा णिमीहिया सन्वसाधूहि ॥ १९६७ ॥ साधूनां स्थितिकल्पोऽयं वर्षासु ऋतुबंधयोः ॥ समस्तःसाधुभिर्यत्नाद्यनिरूप्या निषधका ॥ २१४५॥ विजयोक्या-समणाणं ठिविकप्पो श्रमणानां स्थितिकल्पो वर्षापासे ऋतुपारेभे व नियमेन सः साधुभिः निषीधिका नियमेन प्रतिलेखनीया। स्वदेहेऽपि निरीक्षाः मुमुक्षवः कुतस्तरीरत्वगाय स्वंय यतते इत्यारेकायामुप्सरबति-- मूलारा-ठिदिकप्पो एष स्थितिकल्पोऽत एव पचनान्मासपज्जास्यस्थितिकल्पद्वयान्तर्गतत्वेन भवति । वासायासे वर्षासु चतुर्मास्यामेका वासे प्रतिपद्यमाने चातुर्मासिफयोगप्रारंभ इत्यर्थः । उबंध ऋतु प्रारंभे । पडिलिहि दव्वा यदि विशेषः णिसीधिया आराधकशरीरस्थापनस्थानम् ।। उक्तं प -- १७३५ Page #1747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः राधना साधुनां स्थितिकल्पोऽयं च वासानुबंधयोः ।। समस. साधुभिनायधिमा अन्ये सु वासे वासे इति पाठित्वा वर्षे वर्षे इत्यर्थं व्याचक्रुः । अपरे मासे मासे इति पार्ट मत्वा एवशएं विकल्पार्थगीपुः । तथा चोक्तम् श्रवणानां स्थितिफल्यो मासे मास लधर्तुबंधे या ।। प्रतिलख्येपा नियंत निषधका सबभंग भिभिः ॥ यरमाशिष यादर्शन काळनयत्येन सूत्रे साधूनामवश्यकर्तव्यतयोपदिष्टं तस्मात्रिपद्या विधानाय मुमुक्षुभिःस्वयं प्रय तितव्यमिति भावः ॥ अर्थ-चातुर्मासिक योगको प्रारंभकालमें तथा प्रारंभ में जहां आराधकके शरीर का स्थापन किया है उस स्थानकी प्रति लखना सर्व साधुओं को नियमसे करनी चाहिये. अर्थात् उस स्थानका दर्शन करना चाहिय, पोछीसे उसको स्वच्छ करना चाहिये. ऐसा यह मुनिका स्थित कल्प है. तस्या रक्षणाच एगता सालोगा णादिविक्रिका ण चावि आसपणा ॥ वित्थिपणा बिद्धता णिसीहिया दूरमागाढा ॥ १९६८ ॥ निषद्या नातिदूरस्था विविक्ता प्रासुका घना ।। कर्तव्यास्ति परागम्या बालवृद्धगणोचिता ॥ २०४६॥ विजयोदया-गता सालोगा एकांता पर प्रायेणारया नातिदूरा माल्यासना विस्तीणी विश्वस्ता दरमय - गांधा। कि लागषा निषद्या स्यादित्यत्राह --- मला-पता एकानप्रदेशम्या । सालोगा भाकाहा । दिविया नाशिदूर। नगराधपेक्षया । ण वादियामा नायगास्ना वित्थिा वियुला । विद्धत्या प्रानुका । दूरमोगाढा अनिस्टा । उन च निषद्या नातिदूरस्था विविका प्रासुका धना। कर्तव्यास्ति परागम्या बालवृद्धगणोचिता ।। २७३६ Page #1748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना १७३७ अन्य एता साना इति पठि एकांतपरैः प्रायेणाश्या इत्यर्थं प्रतिपन्नाः । एकांतैरेकांतचादिभिः न सम्यक् सुखेनालोक्य दृश्यते इति व्युत्पत्तेः । तदुक्तम् विदू न चासन्ना विदूयस्ता प्रायशः परैः || अदृश्या तु तथा दूरदगाठानिपयका || अपरे तु दूरमोगाटा इत्यस्य निपणास्थानस्तंभापेक्षया श्रधः प्रवेशेत्यर्थमाहुः । टिप्पन के तु दूरे दूरे त्या व्याख्याचि ॥ निषधिकाका लक्षण कहते हैं अर्थ --- निषधिका एकान्तप्रदेशमें अन्यजनो को दीख न पढेगी ऐसे प्रदेश में हो. प्रकाशसहित होनी चाहिये. वह नगरादिकों से अतिदूर न हो. न अति समीप भी हो. वह टूटी हुई, विध्यस्त की गई ऐसी न हो. वह विस्तीर्ण प्राशुक और होनी चाहिये. अभि असिरा अघसा उज्जोवा बहुसमा य असिणिडा ॥ निजेतुगा अहरिदा अविला य तहा अणाबाधा ॥ १९६९ ॥ जा अवरदक्खिणाए व दक्खिणाए व अधव अवराए || सीदो वणिज्जदि णिसीधिया सा पत्थति ॥ १९७० ॥ Read भागे दक्षिण पश्चिमेऽपि वा ॥ freeका स्थिता या सा प्रशस्ता परिकीर्तित || २०४७ ॥ विजयोश्या-जायवरदक्षिणा परदक्षिणाशायां दक्षिणस्यां परस्यां वा दिशि वसवितः निधी धिका प्रशस्ता ॥ तदप्यशेषमाह मूलारा - अभिसुआ उद्देकारहिता असुलिग अधःप्रवेशिच्छिद्ररहिता । अघसा पुप्पटिकारहिता । उज्जोआ सोचोता । बहुलमा बहुसमा भूमिका असिणिवा अनार्द्रा । अविद्या विर्यविवररहिता । अणाशधा बाधारहिता एतां श्रीविजयो च्छति ॥ आश्वासा ७ १७३७ Page #1749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा मूलारा--अवरदक्खिगाए नहत्यदिशि । अपराण पाश्चिमविशि । घसधीदो पकवसतेः सकाशान् । वणिज्जदि प्रतिपाधत्ते पूर्वाचार्यः ॥ अर्थ-वह निषिधिका चीटिओंसे रहित, छिद्रोंसे रहित होनी चाहिये. घिसी हुई न होना चाहिये. प्रकाशसहित होतं. समान भूमिके स्थानपर होवे, निजन्तुक. चाधारहित होवे. बह गीली नथा इधर उधर हिलन वाली नहीं होवे. यह निपीधिका क्षपककी वसविकासे नैऋत्य दिशामें, दक्षिण दिशा में अथवा पश्चिम दिशा में होनी चाहिये. ऐसी इन दिशाओंमें निषिधिका की रचना करना पूर्व आचार्यों ने प्रशस्त माना है. सम्बसमाधी पढ़माए दक्षिणाए दु भत्तगं सुलभं ॥ अबराए सुहबिहारो होदि य उवधिस्स लाभो य ॥ १९७१ ॥ सर्वस्यापि समाधानं प्रथमायां तथान्यतः । आहारसुलभोऽन्यस्यां भवेत्सुखविहारिता ।। २०४८ ।। विजयोथा-सब्बसमाथी पढमाप सर्वेषां समाधिपति परमाए अपरदक्षिणदिगवस्थितायां निपीधि काथां, दक्षिणबिगवस्थितायामाहार: सुलभः पधिमायां सुखविहारः उपकरणलाभध ।। पूर्वोक्कदिनयनिषद्याकरगे शुभफलविशेषान्प्रकाशयत्ति मूलारा-सव्वसमाधी सर्वेषां संघांतर्षति श्रमणादीनां समाधान । भत्ता अन्नपानं । सुहाविहारो सुखमयर्तना । परधिस्स पुस्तफायुपकरणस्य ॥ अर्थ--नैऋत्यदिशाकी निषिधिका सर्व संघके समाधिके लिये कारण हो जाती है. अर्थात इस दिशाकी निषिधिका संघका हित करनेवाली होती है. दक्षिण दिवाकी निषिधिकासे आहार सुलभतासे संघको मिलता है. पश्चिमदिशामें निषिधिका होनेसे संघका सुखसे बिहार होता रहेगा और उनको पुस्तकादिक उपकरणोंका लाभ होता रहेगा. जदि तेसि वाघादो दठ्ठव्वा पुन्वदक्खिणा होइ ॥ अवरुत्तरा य पुष्वा उदीचिपुन्चुत्तरा कमसो ॥ ११७२॥ १७३८ Page #1750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना तदभावेऽनलाग्रायां वायव्यायो हर्दिशि ॥ निषद्यकोत्तरस्यां या मतेशानस्य वा दिशि ॥ २०४९ ।। विजयोदया- मदि तासि बाधादो यदि ता निपीधिका न लभ्यते, पूर्वदक्षिणनिपीधिका द्रव्या, अपरोत्तरा या पूर्वाचा उदीची या पूर्वोत्तरा या क्रमेण || आग्नेयादिदिक्षु निपद्याषिधाने यथोत्तरोत्कृष्टफलानि वर्शयन गाथाद्वयन निषेध व्यनक्ति-- मूलारा--तालि वाघादो भागुक्तनिपयानां प्रतिबंधः । अपरदक्षिणादिदिक्षु निपीधिकाः कर्तु न लभ्यते इत्यर्थः ॥ ददृव्या निषद्याचंधाने वक्ष्यमाणथयोत्तरोत्कृष्माशुभफलप्रदतया निरूप्या भवन्ति । पुब्बदक्षिणा आग्नेयी दिक् । अवहसरा चायवी दिक् । उदीचि उत्सरा । पुज्युसरा ऐशानी दिक् ।। अर्थ-यदि नैत्य, दक्षिण और पश्चिम दिशा दिपित्रिका बनवाने में उन स्थित होते. आग्नेय दिशाम, वायव्य दिशामें, ऐशान्य दिशामें व उत्तर दिशामें इन दिशाओमें से जिस दिशामें सुभीता हो वहां बनवानी चाहिये। एदासु फल कमसो जाणज्ज तुमंतुमा य कलहो य ।। भेदो य गिलाणं पि य चरिमा पुण कदे अपणं ॥ १९७३ ॥ प्रमेण फलमंतासु स्पर्धा रादिश्च जायते ।। भेदश्वापि तथा व्याधिरन्यस्याप्यपकर्पणम् ।। २०५० ।। विजयरोदया-पदासु एतासु निपीधिकासु । फलं कमशो विजानीयान् तुमंतुमा य पूर्वदक्षिणस्या स्पर्धा,अपरो. सरस्या कलदः पूर्वस्यां भेदः उदीयर्या व्याधिः, पूर्वोत्तरस्य अन्योन्येनापकृप्यते ॥ मूलारा-तुमंतुमा पर्दा अहमेवंभूतात्यमेवंभूतोऽन्ये वा ईग्भूता इत्यादिसंघर्षः । कलहो रादिः । भदो संघस्य परस्परं द्विधाभावः। गिलाणं व्याधिः । चरिमा ईशानदिक् । कटुदे आकर्षति । पूर्वोचरदिग्निपयाकरणैः परो मुनिम्रियते इत्यर्थः । एतेनेदमुपदिष्टं भवति । प्रागेव तथा क्षपकाय वसतिः कल्प्या यथा तश्रिया नैऋत्यादिदिक्वन्यतमस्यां कर्तुं शक्यते इति ॥ १७३९ Page #1751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः __ अर्थ--परंतु इन दिशाओंकी मिषीधिकाओंका फल इस प्रकार क्रमसे समझ लेना चाहिये. पूर्व दक्षिण दिशामें स्पर्द्धा, अर्थात् मैं ऐसाई ऐसा तूं है। दूसरे इस प्रकारके हैं ऐसी स्पर्धा, उत्पन्न होगी. पाश्चमोत्तरदिशामें कलह होगा, पूर्व दिशामें संघमें फूट पड़ेगी, उत्तर दिशामें व्याधि उत्पन्न होगी, ईशान्य दिशामें संवमें परस्पर स्त्रीचतानी होगी. पूर्वोत्तर दिशामें निपिधिका करनेसे प्रथमतः मुनिमरण होगा पेसा इन दिशाओंका फल है. जं बेलें कालगदो भिक्खू तं वेलमेव गीहरणं ।। जग्गणबंधणछेदणविधी अवेलाए कादवा ॥ १९७४ ।। यदेव म्रियते काले त्यजनीयस्तदैव सः ।। अयेलायां विधातव्या छेवबंधनजागराः ।। २०५१ ।। विजयोदया-जबलं कालगवो भिक्खू त खेलमेव जीडवण यस्यां वेलायां मनो भिक्षुः तस्यां वेलायामवापनयने कर्तव्यं, अबलायो मृतश्चेत् जागरणं बंधन छन्दन वा कर्तव्यं ।। निष्कासनं तद्योम्यवेलायो मृतस्य कार्यमन्यदा जागरणादिकमित्युपदिशति मूलारा----जं वेलं यस्यां वेलायां । तं बेलमेव तस्यां बेलायामेव । णीहरणं यथाकथंचित्तरेहापनयनं यतिभिः | कर्तव्यम् । अबेलाप अवेलायां मृतस्य । अर्थ-जिस समय भिक्षुका मरण हुआ होगा उसी बेलामें उसका प्रेत ले जाना चाहिये. यदि अवेलामें मर जानेपर जागरण, बंधन, अथवा छेदन करना चाहिये. के जागरण कुपतीत्याखो पाले बुढे सीसे तवस्तिभीरूगिलाणए दुहिदे ॥ आयरिए य विकिचिय धीरा जम्गति जिदणिहः ॥ १९७५ ॥ भीमशेक्षणिग्लानबालवृतपस्विनः।। अपाकृत्यापारधीरा जित निद्राःप्रजापति ।। २०५२ ॥ Page #1752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा १७४१ विजयोदया-चाले बुट्टे वालवृद्धान, शिक्षकान, तपस्विनः, भीरून्, व्याधितान्, दुःखितानाचारध अपाकृत्य धीरा मिनिद्रा जागरणं कुर्बति । भूतभिक्षुसमीपे जागरणादिकारणानि निर्दिशतिमूलारा-गिलाणएं व्याधितान् । विकिंचिय मुक्त्वा अर्थ-बालमुनि, नद्धमुनि, शिक्षकमुनि, तपस्वी मुनि भययुक्त मुनि, रोगीमुनि, दुःखपीडित मुनि और आचार्य इनको बचकर धीर, निद्राको जिन्होने जीता है ऐसे मुनिओको जागरण करना चाहिये. के बनतीत्याच गीदत्था कदकज्जा महाबलपरकमा महासत्ता ॥ बंधंति य छिदंति य करचरणगुष्ठयपदेसे ॥ १९७६ ।। कृतकृत्या गृहीतार्था महायलपराक्रमाः ।। हस्तांगुष्ठाविदेशेषु पंघं छेदं च कुर्वते ॥ २०५३॥ विजयोवया-गीवस्था गृहीतार्थाः कृतकरणा महायलपराक्रमा महासत्वा यानति छिति च करचरणं अंगुष्ठप्रदेश था ॥ के कुत्र बंधच्छेदौ कुर्वन्तीत्यवाह--- मूलारा-फदकरणा असकृत्कृतक्षपककृत्याः । करेत्यादि हस्त, पादमंगुष्ठप्रदेश वा ॥ अर्थ-जिन्होने पदार्थका सत्य स्वरूप जाना है और क्षपकके कुस्प जिन्होने अनेक बार किये है, | जिनमें महाबल, पराक्रम और धैर्य हैं ऐसे मुनि क्षपकके हाथ और पाय तथा अंगुठा इनका कुछ भाग बांधते है अथवा छेदते है. पचमकरणे को दोप इत्याशंकायां नोपमाच जदि वा एस ण कीरेज्ज विधी तो तत्थ देवदा कोई ॥ आदाय तं कलेवरमुहिज्ज रमिज्ज बाधेज ॥ १९७७ ॥ १७४१ Page #1753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलाराधना १७४२ विधीयते न यधेयं तदा काचन देवता ॥ कलेवरं तदादाय विधत्ते भीषणक्रियां ।। २०५४ ॥ विजयोदया - जदि वा एस यद्येष विधिर्न क्रियते कदाचिद्वेष कीडनशीला मृतकमादाय उत्तिष्ठेत् प्रधावेइमेत वा वाघयेद्वा तद्दर्शनात् बालानां संक्षोभः पलायनं मरणं वा भवेत् ॥ उक्तविध्यविधाने दोषमाह - मुलावा अहो | ण कीरेज्ज न क्रियेत । तत्थ सस्मिन् स्थाने । देवदा कोई क्रीडनशीलो भूतः पिशाचो वा । तदुत्थानादिदर्शनाच बाळादीनां चित्तमेक्षोभः पलायनं मरणं वा भवेत् । अर्थ - यदि यह विधि न की जावेगी तो उस मृतकशरीर में क्रीडा करनेका स्वभाववाला कोई भूत अथवा पिशाच प्रवेश करेगा. उस प्रेतको लेकर वह अंडे भाग कोड करा. इस कार्यको देखकर बालमुनि, भीरु. सुनि इनके मन में क्षोभ उत्पन्न होकर ये मांगेंगे अथवा मरण होगा इस लिये हाथपाय व अंगुठा बांधना चाहिये अथवा उनके कुछ प्रदेशका छेदन करना चाहिये. उयस्यपडिदावणं उवसंगहिदं तु तत्थ उवकरणं ॥ सागरियं च दुहिं पडिहारियमपडिहारं वा । १९७८ ॥ जदि विकखादा मतपइण्णा अज्जव होज कालगदो || देउलसागाग़ित्ते व सिवियाकरण पिं तो होज्ज || १९७९ ।। यस्योपकरणं किंचित्कृत्वा यांचां प्रदाहृतम् ॥ कृत्वा संबोधनं सर्व तत्तस्याप्यं विधानतः ॥ २०५५ ॥ प्रसिद्धो यदि संन्यासे स्थानरक्षार्थिका यदि ॥ विपन्ना विधिना कार्या तदानीं शिविकोत्तमा । २०५६ ।। विजयोदया-जत्र विक्यादा भत्तरदिष्णा यदि सर्वजनका सहखना आर्थिक वा भवेत् कालगतास्थान |क्षका गृहस्था या त शिविका कर्तव्या ॥ आश्वाम 19 १७५२ Page #1754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTRA आश्वास दलारापना क्षपफोपचारार्थ उपकरणप्रकारान्प्रतिनिर्षिशति-- मूलारा----वसयपडियावगं वसत्तिकाप्रतिबद्धं । तस्य अपकनिमित्तं । सागारियं गृहस्थसंबंधि । पडिहारिय अत्यजनीयं । अप्पबिहारि त्यजनीय एता श्रीविजयो नच्छति । एवं यथोक्तसन्यासविधिमृतस्म संवतजनविषेयं यथाकथंचिदहापनयन विधाय सांप्रत प्रसिद्धसंन्यासविधीनां आर्यिकादीनां तद्विधिमभिधत्त-- भूलाराजा अविशेपोक्तावपि स्थानरक्षार्थिका या । साहयर्थात ।। तथा चोकम्-- प्रसिद्धा यदि सन्यासे स्थानरक्षार्यिका यदि ॥ विपत्रा विधिना कार्या तदानी शिविकोत्तमा । देउल मठपतिः । सागारित्ति । सागार इति । एवं प्रकारो गृहस्थः क्षुटको वा । नदुक्तम्भरुत्यागः रूपातो यार्थी शुमकोऽय सागार: ।। कालगती देवकुली शिविकाकरणं ततोयुतम || सर्वजनप्रकट भक्तप्रत्याख्यानेन माना आयिकादीन निश्काशनार्थ शिबिकायाः कुटीनिशेषस्य निमा अपि शब्दाद्विमान गपीति केचित् ।।। - अर्थ---क्षपक की शुश्रूषा करने के लिये जिन उपकरणोंका संग्रह किया जाता था उनका वर्णनवमतिका सम्बन्धी उपकरण, कुछ उपकरणा गृहस्थास लाये जाते थे जैसे औषध, जलपात्र, थाली वगैरह. कुछ उपकरण त्यागने योग्य रहते हैं. और कुछ उपकरण त्यागने योग्य नहीं होते हैं. जो त्याज्य नहीं है वे गृहस्थोंको वापिस दिये जाते हैं. कुछ कपडा वगरह उपकरणा त्याज्य रहता है. यदि सर्वजनों को विदित ऐसी किसी आर्यिकाने अथवा क्षुल्लकने सल्लेखना धारण कर मरण किया होगा तो उत्तम पालखी अथवा विमानमें उसके पावको स्थापन कर ले जाना चाहिये. संन्यास स्थानका रक्षण करनेवाली आर्यिका, गृहस्थ, मठपति, क्षुल्लक इनका मरण होनेपर शिविका अथवा विमान में इनका शव आरोहण कर गृहस्थ ग्रामके बाहर ले जाते हैं. तेण पर संठाविय संधारगदं च तत्थ बंधिता॥ उठेतरक्खणट्ठ माम तत्तो सिरं किरवा ।। १९८० ॥ संस्तरेण समं यद्धृया मृतक विधिना दृढम् ॥ विधायोत्थानरक्षार्थ ग्रामस्य विमुखं शिरः ॥ २०५४ ।। १७४३ Page #1755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधासः १७१५ विजयोदया-तेग पर संस्थाप्य तेन मृतकेन संरतरपंधात्ततो मृतकबंधनं कृत्या प्रामाभिमुख शिर त्या उस्थानरक्षणार्थ ॥ मस कनिष्कासन विधानं गाथात्रयेणाह मुलारा-तेण परं शिविकानिष्पादनानंतरं । संठायिय शिबिकायां प्रवेश्य । बंधिसा संस्तरेण समं पद्भवेत्यर्थः। उन्हें तरक्वणळू सत्तिष्ठतो मृतकस्य निवारणार्थ भन्यथा शिरसि कृते कदायित्तत्तिविति भावः । गार्म तत्तो प्रामाभिमुखे ।। ____ अर्थ-शिक्षिकाकी रचना करनेके अनंतर बिछाने के साथ उस शवको बांधकर शिविका में उसको सुलाना चाहिये. ग्रामके सन्मुख उसका मस्तक करना चाहिये. प्रामके सम्मुख ही मस्तक करनेका कारण यह है कि कदाचित् वह उठेगा तो उसका मुख ग्रामके तरफ नहीं होगा. और ग्रामके तरफ पैर करके शिविका स्थापन करनेसे बह उरनेपर ग्राममें प्रवेश करेगा इसलिये ग्रामके तरफ सिर करनेका विधान लिखा है. पुव्वाभोगिय मग्गेण आसु गच्छति तं समादाय ॥ अछिदमणियत्तता य स्ट्रिदो ते अणिम्भता ।। १९८१ ।। क्षिप्रमादाय गच्छति चीक्षितेनाध्वना पुरा॥ निवर्तनमवस्थानं त्यक्त्वा पूर्वावलोकनम् ॥ २०५८ ।। विजयोदया-पुवामोनियमाण पूर्भालोकितन मार्गग आशु गम्छंति तासमादाय अस्थित अनिधर्तमानाः गृएत आन्दोकन मुक्या । मूलारा --स्वाभोगिय प्राग्रमा । अलि अविभाअणियत्ततो अमानतः पहिदी पृष्ठतः । अणि तो अनालोकमानाः । उर्फ च संस्तरेण सभ घद्ध्वा मृतक विधिना हवं ।। विधायोत्थानरक्षार्थ ग्रामस्थाभिमुन्य शिरः ।। भिप्रमादाय गच्छंति वीभितेनावना पुरा ।। निवर्तनमवस्थानं त्यक्त्वा पूर्वावलो फनम् ।। ___अर्थ-पूर्वसे देखे हुए मार्गसे वह शब शीघ्र लेकर जाना चाहिय. रास्ते न खडे होना चाहिंय न पीछे । लोटकर देखना भी चाहिये. Page #1756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आवास। कुसमुधिं घेत्तूण य पुरदो एगेण होइ गंतव्वं ॥ अद्विवणियत्ततण पिट्टदो लोयण मुच्चा ॥ १९८२ ॥ परी गन्तव्यमेकन गृहीतकुशमुष्टिना ।। पूर्वावलोकनस्थाननिवर्तनविवर्जिना ।। २०५० ॥ बिजयाच्या कुसमुष्टि घेसूण कुशमा गृहीत्वा पुरस्तादेकेन गंतव्यं, अस्थि अनिवर्तमानेन अपृष्टायलोकिना। मृलारा--कुसमुदि मुष्टिधृतदर्भान । पुरदो अप्रे। मुथा त्यक्त्वा । अर्थ- उस शवके आगे एक मनुष्य मुहिम कुखदर्भ लेकर जावे, यह पीछे न देखे न मार्ममें ठहरे. तेण कुसमुद्विधाराए अब्बोन्छिणणाए समणिपादाए ॥ संथारो कादत्वो सब्वत्य समो सार्ग तत्थ ।। १९८३ ॥ कृत्यस्तत्र समस्तेन संस्तरः कुशधारया ।। अच्छिन्नया सकृदेश दीक्षिते समपातया ॥ २०६०।। विजयोदयातेण कुसमुहिधाराए तेन पुरस्तातेन पूर्वनिरूपित्तनिपीधिकास्थोन कुशमुष्टिधारया मम्युच्छिाया समनिपातया सर्वत्र समः संस्तर कार्यः॥ कुशमुष्टिकस्वमाह-- मूलारा--सेण पुरोगतेन । धाराप, धारया निक्षेपेण । अन्योच्छिण्णाए निरंतरया । समणिपादाप सशं पर्वया । कादयो प्रस्तरितव्यः । सांगें एकबारेण । तरथ पूर्वनिरूपितनिपीधिकास्थाने ।। अर्थ-जिसने निपीधिका स्थान प में देखा है वह मनुष्य वहाँ जाकर दमुष्टिकी समान धारासे सर्वत्र सम ऐसा संस्तर करना चाहिये. जत्थ ण होज तणाई चुण्णेहिं वि तत्थ केसरहिं वा ॥ संघरिदवा लेहा सन्वत्थ समा अयोच्छिण्णा ॥ १९८४ ॥ Page #1757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वायना १७४६ स चूर्णः केशरैर्वापि कुशाभावे विधीयते ।। समानः सर्वतोऽच्छिन मता विधिना सकृत ॥ २०६१ ।। विजयोदया - अभ्यण होज्ज तपाई यत्र न लभ्यते कुशतृणानि तत्र चूर्णैषी केसरेवी संस्तरः कार्यः सर्व समोऽव्युच्छिनः ॥ कुशालामे संस्तस्तिमाह- मूळारा--तलाई कुशाः । चुण्णेहिं प्रासुकतंदुलमसूरादिविष्टैः । फेसरेहिं प्रापद्मादिकिंजल्कैः । लेहा रेखा । सम्वत्थ मस्तकांताप्रभृति पादांतं यावत् । समा धान्युत्कर्षरहिता || अर्थ-यदि दर्भ तृण नहीं मिला तो प्रामुक तंडुल, मसूर की दाल इत्यादिकोंके चूर्णसे, कमलकेशर इसे मस्तक से लेकर पांवतक समान नहीं तुटी हुई रेखाए लिखनी चाहिये. असमध्ये दोषमाहे जदि विसमो संथारो उवरिं मज्झे व होज्ज हेडा वा ॥ मरणं व मिलाणं वा गणिवसभजदीण णायव्वं ॥। १९८५ ।। आदौ मध्येवसाने व विषमो यदि जायते ॥ आचार्य वृषभः साधुमृत्युं रोगमधाश्नुते ॥ २०६२ ॥ विजयोदय-जदि विसमो संथारो यदि विषमः संस्तर उपरिष्टात् मध्ये अधस्ताद्वा । उपरिषैषध्ये गणिनो मरणं व्याधिषां मध्ये विषमवेत् वृषभस्य मरणं व्याधिर्षा, अधस्ताद्विषये यतीनां मरणं व्याधिर्वा ॥ संस्तर पावैषम्ये दोषमाख्याति --- मूलारा -- गिलाणं व्याधि । गणिवसभजदीणं याचाच लाचार्य सामान्यमुनीनां । तत्र शिरोदेशे संस्तरवैपम्ये नां मरणं व्याधिर्वा स्थान देशेनपम्ये एलाचार्यस्य भरणं व्याधिर्वा स्यात् । पादांते तद्वैपम्ये तरसाधूनां मरणं व्याधिच स्यात् इति टीकाकारों व्याचक्रतुः । उच- आदी मध्येऽवसाने च वि यदि जायते ॥ आचार्यो भः साघुर्मृत्युं रोगमथाश्नुते || आश्वासः ७ १.७५६ Page #1758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाराधना १७४७ fers चैषममिवम् उपरि वैपम्ये गणिनो मरणं । मध्यवैपम्ये एलाचार्यस्य व्याधिः । अधो वैपम्ये यती नां व्याधिः स्यात् ॥ यदि असम रेखाए लिखी जाय तो दोष है इसका विवेचन- अर्थ---- ऊपर, मध्य में अथवा नीचे रेखाओं में यदि विषमता होगी तो वह अनिष्टसूचक हैं ऊपर की रेखायें विषम होंगी तो गणीका- आचार्यका मरण अथवा व्याधि सूचित होता है. मध्यकी रेखा विषम होनेपर एलाचार्य मरण अथवा व्याधि सूचित होता है और नीचेकी रेखा विषम होनेपर सामान्य यतीका मरण अथवा व्यधिक सूचना मिलती है. जन्तोदिसाए ग्रामो तत्तो सीसें करितु सोधियं ॥ उतरख बोसरिदन्त्रं सरीरं तं ॥। १९८६ ॥ ग्रामस्याभिमुखं कृत्वा शिरस्त्याज्यं कलेवरम् ॥ उमा कार्क किसके उप ॥ ए०५५ ॥ विजयोदय - जसो दिलाए गामो यस्यां दिशि ग्रामः ततः शिरः कृत्वा सर्पिछकं शरीरं व्युत्त्रयं उत्था नरक्षणार्थं ग्रामादिकमभिमुखतया शिरोरचना || तच्छरीरशिरः स्थापनादिर्श नियमयति मूलारा-जतो दिलाए यस्यां दिशि । सोबघिय सर्पिछकं शिरः स्थापयित्वा । प्रामवैमुख्येन शिरसि स्थापिते कदाचिन्मृतक मुसिछेदपीत्यभिप्रायं शिरः क्रियते । उक्तं च--- सद्ग्रामस्य दिशं केन कृत्वा सोपधिकं शिरः ॥ तदुत्थाननिषेधाय व्यत्स्रष्टव्यं कलेवरम् ॥ अन्ये तु दक्षिणहस्ते पिछे स्थाप्यते इत्याह । तथा चोक्तम्- ग्रामपराङ्मुखदनं संयम साधनसमन्वितं कृत्वा ॥ उत्तिष्टशार्थ विसर्जनीयं वपुस्तस्य ॥ अर्थ - जिस दिशा में ग्राम होगा उस दिशा में रखना चाहिये. ग्रामके सम्मुख मस्तक करनेका अभिप्राय मस्तक कर पिंछीके साथ उस शबको उस स्थान पर पूर्वमें लिख चुके हैं. आश्वास ફ १७४७ Page #1759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः उपकरणस्थापनायां नत्र गुणमाच जो वि विराधिय देसणमंते कालं करितु होज सुरो ॥ सो वि विबुज्झदि ठळूण सदेई सोबाधं सनी ९५.७ ॥ विजयोदया-जो वि विराधिय योऽपि वर्शनं विनाश्यांते कालगतस्सुरो भवेत् सोपि जानाति सोपकरणं स्वदेई दृष्ट्वा प्रागई संयत इति । तत्र किमर्थ पिंछ स्थाप्यते इत्याह---- मूलारा-विबुज्झदि प्रागई संयतोऽभूवं सम्यक्त्वविराधनानुगतमरणावीशी गति प्राप्त इति योधि लभते । सज्जो सपिंछप्राक्कनवदेहवर्शनानंतरमेव ॥ 'पिंछीकी स्थापना करनेका उद्देश बताते हैं अर्थ-जिसने सम्यग्दर्शनकी विराधनासे मरण कर देवपर्याय पाया है. वह भी पिंछीके साथ अपना देह देखकर मैं पूर्वभवमें मुनि था ऐसा जान सकेगा. णचा भाए रिक्खे जदि कालगदो सिर्व तु सम्वेसि ॥ एको दु समे खेत्ते दिवट्ठखेत्ते मरंति दुवे ॥ १९८८ ॥ सदभिसभरणा अद्दा सादा असलेस्स जिट्ट अवरवरा ॥ रोहिणिविसाहपुणवसु त्तिउत्तरा मज्झिमा सेसा ॥ १९८९ ।। शांतिर्भवति सर्चेरामृक्षल्प क्षपके मृते ।। मध्यम मृत्युरेकस्य जायते महति द्वयोः ।। २०६४।। विजयोत्या-त्ता भागे रिफ्ले अल्पनक्षत्रे यदि क्षपकः कालं मतः सर्वेभ्यः शिर्ष भवति, मध्यमत्ताने यदि मृतः अन्यलेको मृतिमुपैति, महानक्षत्रे यदि मृतो द्वयोर्भपति मरणं ॥ जघन्यमध्यमोत्कृष्टनक्षत्रेषु क्षपकमरणे फलानि कथयति मूलारा-साभागे रिकने जपन्ये पंचदशमुहूर्तिके शतभिपरभरण्यास्त्रात्याशेषाज्येष्ठानां पाणां मध्ये एकस्मिन्ननत्र तदशे वा अपके मृते सर्वेषां क्षेमं स्यात् ।। ससे खेत्ते मध्यमे त्रिंशन्मुहृतिके अश्विनी कृस्तिकामृगशिरःपुष्यमघा Page #1760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PC HTTARE सूत्राधना आश्वासा १७१९ पूर्वाफाल्गुनीइस्तचित्रानुराधामूलपूर्वाषाढामवणघनिष्ठापूर्वभाद्रपदारेवतीना मध्ये एफस्मिन्नक्षत्रे तदंशे वा मृते एकोऽन्योऽपि मुनिम्रियते । दिवाखेत्ते उत्कृष्ठे पंचचत्वारिंशन्मुहूर्ति के उत्तर फल्गुन्युत्तरापादोत्तरभाद्रापुनर्वसुरोहिणीविशाखानां मध्ये एकमिमा गांको पाप गणेशानन्यायनि गुनी प्रियेगे । उक्त - शातिर्भवति सर्वेषागृक्षऽरूपे अपके मृते ।। मध्यमे मृत्युरेकस्य जायते महति द्वयोः ।। अर्थ-अप नक्षत्र में यदि क्षपक्रका मरण होगा तो वह सबको सुखदायक होगा. मध्यनक्षत्र में मरण होनस और एक मुनिका मरण होता है. महानक्षत्रपर मरण होने से दो मुनिओंका मरण होता है. जो नक्षत्र पंधरा पुहूर्तक रहत उनको जवन्य मुहून कहत है. शनाभपक्, भरणी. आा. स्वाति, आश्लेषा, इन छह नक्षत्रोमसे किसी एक नक्षत्रपर अथवा उसके अंशपर यदि क्षपकका मरण होगा तो सर्व संघका क्षेम होता है. तीस मुहूर्त के नक्षत्राको मध्यम नक्षत्र कहते हैं. अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा ,पूर्वी, पूर्वाषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वभाद्रपदा, और रेवती इन पंधरा नक्षत्रोंपर अथवा उसके अंशोपर क्षपकका मरण होनेसे और एक मुनिका मरण होता है. उत्कृष्ट पंचेचालीस मुहूर्तके नक्षत्रोंको उत्कृष्ट नक्षत्र कहते हैं. उत्तर फाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरभाद्रपदा, पुनर्वसु, रोहिणी इन छह मुहूर्तमेस किसी मुहूर्तपर अथवा उसके अंशपर क्षपकका मरण होनेसे और दो मुनिओंका मरण होता है. 1990RRICExamATA गणरक्वत्थं तह्मा तणमयपडिबिंबयं खु कादूण ॥ एवं तु ममे खेत्ते दिवळुखेत्ते दुवे देज्ज ॥ १९९० ॥ महन्मज्यमनक्षत्रे मृते शांतिषिधीयते ॥ यत्नती गणरक्षार्थ जिनार्याकरणादिभिः ॥ २०६५ ॥ षिजयोदया-गणरक्खार्थ गणरक्षणार्थ तस्मात्तृणमयं प्रतिषियकं कृत्वा मध्यमनक्षन्ने पकं दद्यात् । उत्तमनक्षत्रे प्रतिबियद्वयं ॥ मध्यमोकृष्टगक्षत्रक्षपकमरणोत्पाते संघशांतिविथानाभिधानार्थ गाथात्रयमाह - मूलारा--तम्हा एफद्विमरणाखेनोः । दुबे द्वे तृणमयतिविषके । देज दद्यसंप्रशासर्थी । १७४९ Page #1761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना अर्थ-गणके रक्षण हेनुसे मध्यमनक्षत्र में तृणका एक प्रतिचि कर रखना चाहिये तथा उत्तम नक्षत्रपर दोन तृणके अविविध करके अर्पण करना चाहिये. आश्वास । । प्रतिबिदानमाच तठाणसावणं चिय तिक्खुत्तो ठविय मडयपासम्मि ॥ विदियवियप्पिय भिक्खू कुज्जा नद विदिरातविया ॥ १९९१ विजयोदया-तट्ठाणसाधां मृतपाय तस्मतिबिंध स्थाप्य त्रिकमुघोषयेत्, तस्मिन्स्थाने द्वितीयोर्पित इति एकार्पणेऽयं फमः । द्वयोः प्रतिस्बियोरपणे द्वितीयत्तीयो दसापिति त्रिः थावयेत् ॥ प्रतिबिंबदानविधानमाह-तवाणसावयं तत्स्थानश्रावकं कुर्यात् । मृतकपा सत्प्रसिविध संस्थाप्य तस्य स्थानेऽयं द्वितीयो मयार्पितः । स चिरं तिष्ठतु तपो वा करोत्विति त्रिरुपियदित्यर्थः एष एकापणे क्रमः | उवरिषदो समर्पितः । मृतकपाधै एकं तत्प्रतिनिय स्थापयित्वा तस्यैक्रस्थ स्थाने भया द्वितीयोऽयमर्पितः स वितिष्ठतु नो वा करोत्विति ब्रोन्यारानुदीरयेदित्यर्थः । विदियतदियाणं द्वितीयतृतीययोस्त धानश्रावणं तथा कुर्यान ।। मृतकपा द्वे उत्पनिायवे म्थापगिया सयोईयो:स्थाने द्वाविमौ मथार्पितौ तौ वा तितो तो वा कुरता इति त्रिकरुचारयेत इत्यर्थः । उन...... संस्थाप्य मृतकपा त्रिस्तस्थाने ममायमामुक्तः ।। इत्पत्थत द्वितीयो विधिसमन्यत्र च ज्ञेयः ।। प्रति विचा) तृष्णालाभे प्रकारांतरेण शांतिकर्मोपदिशति--- उक्त प संस्थाप्य मृतकपा. विस्तस्थाने मयायभागुक्तः ।। इत्यर्यते द्वितीयो विधिरयमन्यत्र व ज्ञेयः । अर्थ-मृतकके पास प्रतिबिंब स्थापन कर उसे मुनीके स्थान में मैंने यह यह दूसरा अर्पण किया है यह चिरकाल यहां रहे अथवा तप करे ऐसा जोरसे तीन चार उच्चारण करना चाहिये. एकका अर्पण करनेमें यह क्रम कहा है. मृतकके पास दोन तृणप्रतिबिंग स्थापन करके दोनोंके स्थानमें मैंने ये दो अर्पण किये हैं ये यहां चिरकाल रहे अथवा तप करे ऐसा जोरसे तीनवार बोलना चाहिये. १७५० Page #1762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भलाराधना आश्थामा असदि तणे चुणेहिं च केसरच्छारिट्रियादिचुण्णेहिं । काव्वोथ ककारो उचार हिडा यकारो से ।। १५९२ ॥ विजयोदया-असदि तणे प्रतिबिकरणार्थमसति तग चूर्णः पुष्पकेसरैर्वा भस्मना इश्काचूर्ण उपरि ककार लिखित्वा तस्यास्थात् यकारं कुर्यात् काय इति लिखेदित्यर्थः ॥ प्रतिथियार्थ मृगालाभे प्रकारांतरेण शांतिकर्मापदिशति --- मूलारा-केसर पुष्पकेखरः । छार भस्मना । इट्टियादिषुण्ण दि. इष्टकारापागादिचूर्गः । संघशान्त्यर्थिना । अत्थ अन्न क्षपके म्धापयिष्यम्म गर्न वाम -- लिजिसा तदुपरि पकं स्थापयेत् इत्यर्थः । से तस्योपरि लिखितस्य ककारस्याधस्तकारो लिखितम्य इत्यर्थः । एतेन तेति व्यंजनाय लेख्यमाम्नातम् । अईत्पूजादिना चात्र शान्तिरिते । तदुक्तम्-- महन्मध्यम नक्षत्रमृते शांतिर्विधीयते । यक्षातो गणरक्षार्थ जिनार्याकरणादिभिः ।। अर्थ-मतिबिंब करनेके लिए यदि तृण नहीं होगा तो तंडलचूर्ण, पुष्पके केसर, भस्म, अथवा ईटोंका चूर्ण इसमेसे जो कुछ प्राप्त होगा उससे ऊपर ककार और उसके नीचे यकार लिखना चाहिय. अर्थात 'काय' ऐसा शब्द लिखना चाहिये. संघ शांतिके लिये ऐसा कार्य करना चाहिये क्षिपकको स्थापन करने के पूर्व में प्रासुक धान्य चूणादिकसे के लिखकर उसके ऊपर क्षपकको स्थापन करना चाहिये. क कारके नीचे यकार भी लिखना चाहिये. अईन्तकी पूजा वगैरइसे भी शाति करते हैं ऐसा मूलाराधनामें उल्लेख है) उचगाहदं उवकरणं हवेज ज तत्थ पाडिहरियं तु ॥ पडिबोधित्ता सम्म अप्पेदव्वं तयं तेसि ॥ १९९३ ।। विजयोत्रया-उवगहिदं उचकर मृतकशयने यगृहीतमुपकरण वस्त्रकाष्टादिकं गृहस्थयांचा कृत्या तत्रोपकरण यत्मतिनितनीयं बसादिकं तत्पाडिहारिकमित्युच्यते । तदर्पयितव्यं तेषां गृहस्थानां सम्पपप्रतियोध्यम् ॥ मृतकनयने यद्गृहस्थेभ्यो याचिधानीतमुपकरण दत्प्रत्यर्पणयिधिमाह मूलारा-तत्थ तस्मिन् बखकाष्टादौ पडिहरियं प्रातिहारिक व्याघोय समर्पणा योग्यं इत्यर्थः । सम्म यथा दिचि. कित्सा तत्स्वामिन न भवति तथा तान्प्रतियोभ्य । ते सि येभ्यः प्राानीतं तेषां । कंच १७५१ Page #1763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मलागवना आश्वास १७५२ यदुपातं तु वस्त्रादि नयनासरे व्यसोः ।। तस्वामिभ्यस्तदर्य स्यात् कृत्वा सम्यकप्रबोधनम् ।। अर्थ--- मृतकको निपीधिकाके पास ले जानेके समय जो कुछ बखुकाष्ठादिक उपकरण गृहस्थोंसे याचना करके लाया गया था उसमें जो कुछ लौटकर देने योग्य होगा वह गृहस्थोंको समझाकर देना चाहिये. आराधणपत्तीय काउसगं करेदि तो संघो । अधिउत्ताए इच्छागारं खवयस्स सधीए || १९९४ ।। संपचतां नौनि बिमांतरकाःरानि रोम कार्यः ।। - वपुर्विसर्गः क्षपकाधिवासे पृच्छा च तस्मिन्नधिदेवतानाम् ।। २०६६ ॥ विमयोदया---गाराधणपतीय आराधनामाकमित्येवं यथा स्यादिति संघः कायोत्सर्ग करोति, क्षपकस्य बसती अधियुक्तदेवता प्रति माछाकारः कार्य: युग्माकमिछया संघोऽपासितुमिस्मृतीति । आराधकवसत्यां संघस्य तदनंतरकृत्यमनुशास्ति मूलारा--आराधणपतीय आराधनार्थ । अस्माकमप्येवमाराधना भवविति । अधिउत्ताए तदधिष्ठितदेवतानां । इलाकार युष्माफमिकछया संघोऽत्रासितुमिच्छत्तीयधिकृतदेवता अनुमति कारयितुं उपरोधं च संघ: करोतीति सम्बन्धः । अर्थ-चार आराधनाओंकी प्राप्ति हमको हो। एसी इच्छासे संघको एक कायोत्सर्ग करना चाहिये. क्षपकके वसतिकाकी जो आधिष्टानदेवता होगी उसके प्रति यहां संघ धैठना चाहते हैं ऐसा इच्छाकार करना चाहिये. STOR मगणत्थे कालगद खमणमसम्झाइयं च तदिवसं ॥ मज्झाइ पाणये गणिज्जं खमणकरणपि ।। १९९५ ।। उपवासमनध्यायं कुर्वन्तु स्वगणस्थिताः॥ अनध्यायं मृतेऽन्यस्मिन्नुपवासो विकल्प्यते ।। २०६॥ विजयोदया-सगणरथे कालगरे आत्मीयगणस्थे यती कालं. गते उपचासः कार्यः स्वाध्यायश्च न कर्तव्यस्तसिन् दिने । परमयास्थ कालं गते पठति उपचासकरणमपि भायं । अन्ये तु पठति, ण जमाइ परगणरथेन स्वाध्यायः कर्तव्यः परगणस्थे मृते उपवासकरणीयं भाज्यमिति सेशं व्याख्या। Page #1764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवास आत्मीयसमुदायस्थयखौ मते तस्मिन्दिने संघेनोपवासोऽनध्ययनं च कार्यमत्यगणस्थे तु मृतेऽनध्ययनमवश्य कार्यमुपवासस्तु विकल्प्य इत्युपदेष्टुमाघ--- मूलारा--असमाश्य अनभ्ययन संघेन कार्य । ण जहादि न पठति संधः । अर्थ-अपने गणका मुनि मरण को प्राप्त होनेपर उपवास करना चाहिये. और उसदिन स्वाध्याय नहीं करना चाहिये. परगणके मुनिका मृत्यु होनेपर स्वाध्याय नहीं करना चाहिये. उपवास करना विकल्प्य है अर्थात उपवास करे अपयन करे. एवं पडिष्टवित्ता पुणो वि तदियदिवसे उवेक्खंति ॥ संघस्स्स सुहाविहारं तस्स गदी चेव णा९जे ।। १९९६ ।।। गत्वा सुखविहाराय संघस्य विधिकोविदः॥ द्वितीयेऽहि तृतीये वा द्रष्टव्यं तत्कलेवरम् ।। २०६८ ।। विजयोदया-एवं पढिवित्ता उक्तम क्रमेण क्षएकशरीरं प्रतिष्ठाप्य पुनस्तृतीये दिवसे गत्वा पति, संघस्य सुस्वबिहारं तस्य च गति ज्ञातु ॥ तत्तीयदिनकृत्यमाह मूलारा-पडिवित्ता पकशरीरं प्रमुच्य । उबेरवत्ति तत्र गत्वा पश्यसि विधिना । सुहविहारं सुखाय देशांतरे गमनं । चेव तद्रायसुभिक्षादिक पेत्येवमर्थोऽध च | णाएंजे ज्ञातुं । फेषिरगुणोवीत्यत्र अपिशब्दमनुक्तसमुच्चयार्थमभिप्रेत्य द्वितीयदिनेऽसीति प्रतिपत्राततुक्तम्-- मत्या सुखविहाराय संघस्य विधिकोविदः । द्वितीयेऽडि सृतीये वा तद्रष्टव्यं कलेवरम् ॥ अर्थ-उपर्युक्त क्रमसे क्षपकके शरिकी स्थापना कर पुनः तीसरे दिन वहां जाकर देखते हैं. अर्थात् संघका सुखसे विहार होगा या नहीं और उसको कोनसी गति हुई है इसका परिज्ञान करनेकेलिये तिसरे दिन फिर वहां मुनि जाते हैं. ASSAREERA Page #1765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १७५४ जदिदिवसे संचिदि तमणालडं च अक्खदं मडयं ॥ तदिवरिसाणि सुभिक्खं खेमसिवं तम्हि रज्जम्मि ॥। १९९७ ॥ . यावन्तो वासरा गात्रमिदं तिष्ठत्यविक्षतम् ॥ शिवं तावन्ति वर्षाणि तत्र राज्ये विनिश्चितम् । २०६९ ।। जियोदय - जमवले यावंतो दिवसाः शृगालका विभिरस्पृष्टमक्षतं च तन्मृतकं तदिषरिसाणि तावंति वर्षाणि सुभिक्षं क्षेमं शियं न तस्मिन्राज्ये ॥ तद्राज्य सुभिक्षादिकालेयता निर्णयार्थ तावदाह- मूलारा — जदि दिवसे याति दिनानि । खम् | अशतिमित्यन्ये । तदि सावंत । खेमं क्षेमं अणाल अस्पृष्टम् | शृगालादिभिरत्रोटितमित्यन्ये । अम्ल क्षतवनिपरिरक्षणं । सिवं सुखं । तम्मि क्षपक मरण विषयभूते । I अर्थ -- जिसने दिनतक प्रकादिक पशु पक्षियोंके द्वारा वह क्षपकशरीर स्पर्शित नहीं होगा और अक्षत रहेगा उतने वर्षतक उस राज्य में क्षेम रहेगा ऐसा समझना चाहिये. जं वा दिसमुवणीदं सरीरयं खगचदुप्पद्गणेहिं ॥ मं सिवं सुभिक्खं विहरिज्जो तं दिसं संघो ॥ १९९८ ॥ आकृष्प नीयते यस्यां तदंगं श्वापदादिभिः ॥ 1. विहतुं युज्यते तस्यां संघस्य कक्रुभि स्फुटम् ॥ २०७ ॥ विजयोदया - जं वा दिसणी यां वा दिशमुपनीतं शरीरं पक्षिभिश्चतुष्पदेर्वा तां दिशं संघो विहरेत् क्षेमा त्रिकं तत्र शात्वा ॥ संघ विहरणोचितहिनिमार्थं तावदाइ -- मूलाराजं या यां च । खेममित्यादि क्षेमादिकं ज्ञात्वेत्यर्थः । उक्तं च--- उपनीतं दिशं यां वा मृतक शकुनादिभिः ॥ वां दिशं बित्संघो विज्ञाच कुशलादिकम् ॥ आश्वास १७५४ Page #1766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना १७५५ अर्थ - पक्षी अथवा चतुष्पद प्राणी जिव दिशामें उस क्षपकका शरीर ले गये होंगे उस दिशा में संघ बिहार करे उस दिणके तरफ मार्दिक समझना चाहिये. जदि तस्स उत्तगं दिस्सदि दंता व उबगिरिसिहरे ॥ कम्ममलविप्पमुको सिद्धिं पतन्ति नांदल्यो । १९९९ ॥ यदि तस्य शिरो दन्ता दृश्येरन्नगमूर्धनि ॥ तदा कर्ममान्मुक्तो ज्ञेयः सिद्धिमसौगतः ॥। २०७१ ॥ विजयोदया - जदि तस्स उत्तमं यदि तस्य शिरो दृश्यते दंता वा गिरिशिखरस्योपरि कर्ममलविप्रमुक्तः सिद्धिमसी प्राप्त इति ज्ञातव्यः ॥ पकगतिनिर्णयाथ गाथाद्वयमाइ - मूलारा — उसमेंगे शिरः । सगतालुगण स्वतालुना सह । श्रीविजयस्तु दिस्सदि ईवा व उबरीति पाठ मन्यमानो ज्ञायते तथा चोक्तम् - यदि तस्य शिरो दंना येरन्नगमूर्धनि । तथा कर्ममान्मुक्तो शेयः सिद्धिमसी गतः ॥ कम्मेत्यादि अन्न कमल मिध्यात्वादिस्तोककर्माणि । सिद्धिं सर्वार्थसिद्धिमिति जयनंदिदिपणे व्याख्या । प्राकृत टीकायां तु कम्ममलविपक्को कम्ममलेग मेसिदो । सिद्धि गाणं पोति प्राप्त इति । अर्थ --- क्षपकका मस्तक अथवा दंतपंक्ति पर्वत के शिखरपर दीख पडेगी तो यह क्षपक कर्ममलमे अलग होकर मुक्त होगया है ऐसा समझना चाहिये. माणिओ थलगदो समम्मि जो दिसि य वाणवितरओ ॥ गए भवणवासी एस गदी से समासणे || २००० || वैमानिकःस्थल यातो ज्योतिषको व्यंतरः समम् ॥ गत च भावनस्तस्य गतिरेषा समासतः ॥ २०७२ ॥ आश्वासः ७ १७५५ Page #1767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १७५६ इदं विधानं जिननाथदेशितं ये कुर्वते श्रधते व भक्तितः ॥ आदाय कल्याणपरंपरामिमे प्रयति निष्ठामपनीतकल्मषाम् ॥ २०७३॥ इति आराधकांगत्यागः ॥ मणि थलगत वैमानिकों देवो जात उत्तमभूमिस्थे उत्तमांगे, समभूमिदेशे यदि दयते सं यांदे उभ्यते भवनवासी देषां जातः, एषा गतिस्तस्य संक्षेपेण निरूपिता । विजहणत्ति सूत्र विजयोदया ज्योतिष्यंत जातः पदं गतं । विजहणा || मूलाय-थलग उच्च प्रदेशस्थ मस्तके दृश्यमाने विमानवासी देवो जात इति ज्ञातव्यम् । समम्मि समभूमिदेशस्थिते बागवानोद्भव इति जयनंदी । अन्ये तु वाणवितरओ इत्यनेन व्यंतरमात्रमाहुः । तदुक्तम्वैमानिकः स्थलगते ज्योतिषको व्यंतरब्ध समभागे || गर्ते भाषनदेवो गतिरेषा तस्य संक्षेपात् ॥ आराध कांगत्यागः । सूत्रतः ४० अंकतः ३४ ॥ अर्थ — क्षपकका मस्तक उच्च स्थलमें दीखेगा तो वह वैमानिक हुआ है ऐसा समझना चाहिये. समभूर्मामें यदि दीखेगा तो ज्योतिष्क अथवा व्यंतर हुआ है ऐसा समझना चाहिये. ममें यदि दीखेगा तो भवनवासी हुआ है ऐसा मानना चाहिये. इस प्रकार क्षपकके गतिका संक्षेपसे वर्णन किया है. विजया सूत्रपदफा निरूपण समाप्त हुआ. विधत्ते- आराधकस्तदनमुसरं ते सूरा भगवंता- ते सूरा भयवंता आहच्चइदूण संघमज्झमि || आराधणापडायं च उप्पयारा हिदा जेहिं ॥ २००१ ॥ भगवंतोत्र ते शूरातुर्द्वाराधनां मुदा ॥ संघमध्ये प्रतिज्ञाय निर्विघ्नां साधयन्ति ये । २०७४ । विजयोदया--ते सूरा भगवंतः आदच्त्रण प्रतिक्षां कृत्वा संघमध्ये चतुष्यकाराधना पताका बैरागृहीता ॥ एवं सव चारभक्तप्रत्याख्यानं प्रबंधन व्याख्याय सांप्रतमाराधकादीन्प्रबंधन सुष्टुपुराराधकस्तवनं गाथात्रयेण आवा 10 १७५६ Page #1768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १७५७ गूलारा – आश्च्चइदूम प्रतिज्ञां कृत्वा । हिदा गृहीचा || अर्थ-वे क्षपक शूर और भगवान् अर्थात पूज्य है जिन्होंने संघ में प्रतिज्ञा कर आराधना पताका ग्रहण की थी ते धण्णा ते गाणी लद्धो लाभो म तेहि सब्वेहिं ॥ आराधणा भयवदी पडिवण्णा जेहिं संपुण्णा || २००२ ॥ ते धन्या ज्ञानिनो धीरा लब्धनिःशेषचिंतिताः ॥ पैरेपाराधना देवी संपूर्णा स्ववशीकृता । २०७५ ॥ विजयोदया -- ते घण्णा पुण्यवंतः ते ज्ञानिनः ते लग्धलामाः सर्वेभ्यो वैराराधना भगवती संपूर्ण प्रतिपन्ना ॥ मुलारा स्पष्टम् ॥ अर्थ- वे आराधक पुण्यवंत और ज्ञानी समझने चाहिये जिन्होंने उत्तम पुण्य देनेवाली भगवती आराधनाका स्वीकार किया था. इन आराधकोनेही वास्तविक जो प्राप्त करने योग्य था वह प्राप्त किया है. किं णाम तेहिं लोगे महाणुभावेर्हि हुज्ज ण य पत्तं । आराधना भगवदी सयला आराधिदा जेहिं ॥ २००३ ॥ किं न तैर्भुवने प्रास चंदनीयं महोदयः ॥ लीलाराधना प्राप्ता यैरेषा सिद्धिसंफली ॥। २०७६ ॥ विजयोदय– किं णाम तेहि लोग किनाम तेलोंके महानुभागमा वैराराधिता सकला आराधना भगवती ॥ मूलारा--स्पष्टम् ॥ अर्थ - इन महाभागोने संपूर्ण भगवता आराधना की आराधना की है. अतः इन्होने कोनसा अप्राप्त पदार्थ नहीं प्राप्त किया है ? अर्थात् सर्व लोकोत्तर पदार्थ उनको प्राप्त हुए हैं ऐसा समझना चाहिये. आश्वास। ७ १७५७ Page #1769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १७५८ निर्यापकस्तधनमुत्तर ते बि य महाणुभावा धण्णा जेहिं च तस्स खक्यरत ॥ सवादरसत्तीए उवविहिदाराधणा सयला ॥ २००४।। धन्या महानुभावास्ते भाक्तितः क्षपकस्य यैः ।। दौकिताराधना पूर्णा कुर्वद्भिः परमादरम् ॥ २०७७ ।। विजयोदया-ते वि य महाणुभावा तेपि च महाभागा धाया पैस्तथा तस्य क्षपकस्य सादरेण शक्त्या च सकलाराधना उपविहिता॥ आराधकसहायानभिष्टौति- । मूलारा-ते कि य झपकस्य महानुभावत्वयन्यत्वयोःकतमो विस्मय; कर्तव्य इत्यपि चेत्यनेन निरूप्यते । उवविहिदा संपादिवा ।। | अर्थ--वे निर्यापक भी धन्य है. महापुण्यवान हैं. जिन्होंने बडे आदरसे और पूर्ण प्रयत्नसे क्षापकको सर्व आराधनाकी पूर्ण प्राप्ति होनमें अच्छी सहायता दी है. निर्यापकानां फलमाचष्टे जो उपविधेदि सब्वादरेण आराधणं खु अण्णरस । संपज्जदि णिबिग्घा सयला आराधणा तस्स ।। २००५ ॥ परस्य दीकिता येन धन्यस्याराधनाशिनः ॥ निर्विता तस्य सा पूर्ण सुख संपद्यते मृती ।। २८७८ ।। विजयोदया-उयविधदि यो दोकयति सर्यादरेण अन्यस्याराधनी तस्य आराधना सकला निर्विघ्न। संपद्यते ॥ आराधकशुश्रूषाफलमादर्शयन्नुक्तमय समथैयतेमुछारा-उबविधेदि दौकति ॥ . . . निर्यापकाको क्या फल मिलता है ? इस प्रश्नका उत्तर Entrananime Page #1770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्र मूलाराधना आश्वास tana अर्थ-जो पूर्ण आदरभावसे अन्यों को संपूर्ण आराधनाओंकी प्राप्ति कर देते हैं. उनको सर्व आराधनाओंकी निर्विघ्न प्राप्ति होती है. ये क्षपकप्रेक्षणाय यांति तानपिस्तौति-- से मिकदत्था धण्णा य हुँति जे पावकम्ममलहरणे । व्हायति खवयतित्थे सव्वादरभत्तिसंजुत्ता ॥ २००६ ।। स्नांति क्षपकतीर्थे ये कर्मकर्दमसूदने । पापपंकन मुच्यन्ते धन्यास्तेऽपि शरीरिणः ।। २०७९ ॥ विजयोत्या-तेपि कदत्था तेपि कृतार्था धन्याच भवति ये क्षपकतीर्थे पापकर्मप्रलापहरणे सादगाभियुक्ताः स्मांति ॥ क्षपकप्रेक्षणयात्रिकान्त्रिकत्यते---- मूलारा-- वि किं पुननिर्यातका इत्यपिशब्देनोच्यते । पहायन्ति स्नान्ति 1 क्षरकपेक्षणाचनादिताः वात्मानं शोधयन्तीत्यर्थ: । सवयतित्थं क्षपातीर्थ संसारसरिदुतारणनिमित्तत्वात् ।। जो क्षपकके दर्शन करन के लिये जाते हैं उनकी स्तुति अर्थ-जो पुरुष संपूर्ण पापरूपी मलहरण करनेमें समर्थ ऐसे क्षपकरूपी तीर्थ में अतिशय भक्तीसे स्नान करते हैं ये रुपक बंदना करनेवाले भध्यजीव कृतार्थ और धन्य हैं. क्षपकस्य तीयतां व्याचऐ गिरिणदियादिपदेसा तित्थाणि तवोधणेहिं जदि उसिदा । तित्थं कधं ण हुज्जो तवगुणरासी सयं खण्ड ॥ २००७ ॥ पर्वतादीनि तीर्थानि सेषितानि सपोधनः ॥ जायंते यदि सत्तीर्घ कथं न क्षपकस्तदा ।। २०८०॥ १७५९ Page #1771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास विजयोदया--गिरिणदियादिपवेता गिरिनधादिप्रवेशा यदि तपोधनैरुषितानि तीर्थानि तीर्थ स्वयं कथं न भवेत् क्षयकस्तपोगुणराशिः ॥ क्षपकस्य तीर्थतो मुख्यरुयोपपादयतिमलारा--सिदा आश्रिताः । ण होमओ न भवेत् । सय परनिरपेक्षतया ।। क्षपक क्यों तीर्थ माना जाता है, इस प्रश्नका उत्तर अर्थ--पर्वत, नदी वगैरह प्रदेश जहाँ तपोधन मुनिओने निवास किया था वे भी यदि तीर्थ है. तो तपस्वी और गुणोंका राशि स्वरूप क्षपक क्यों न तीर्थ माना जायगा. अर्थात् क्षएकको तो अवश्य तीर्थ समझना चाहिये. पुन्वरिसीणं पडिमाओ बंदमाणस्स होइ जदि पुण्णं ॥ खवयस्स बंदओ किह पुण्णं विउल ण पाविज्ज ॥ २००८ ॥ धंदमानोऽश्नुते पुण्यं योगिनां प्रतिमा यदि ॥ भक्तितो न तपोराशिस्तदानी क्षपकः कथम् ॥ २०८१ ।। विजयोदया-पुचरिसी पद्धिमाउ पूर्वेषां ऋषीणा प्रतिमा घंवमानस्य यदि पुण्यं भरति भपके घेदनोधता कथं विपुलं पुण्यं न प्राप्नुयात् ॥ क्षपकवंदारोचिपुलपुण्यलाभमुपपापयतिमूलारा स्पष्टम् ॥ अर्थ-प्राचीनमुनिओं के प्रतिमाओंकी वंदना करने वालोंको यदि पुण्य प्राप्त होता है तो आपककी बंदना करने पाले भन्यो को क्यों न पुण्यलाम होगा? अर्थात् क्षपकवदनसे अवश्य पूण्यप्राप्ति होती है. जो ओलग्गदि आराधयं सदा तिव्यभसिसजुचो । संपज्जदि णिविग्धा तस्स वि आराहणा सयला ॥२००९॥ १७८ Page #1772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काराधना आश्वास सेव्यते क्षपको येन शक्तितो भक्तितः सदा ॥ तस्याप्याराधना देवी प्रत्यक्षा जायते मृतौ ।। २०८२ ॥ विजयोदया-झो ओलम्पादि आराधयं यस्सयते माराधकं सदा तीवभक्तिसंयुक्तः, संपद्यते निर्षिना तस्याप्याराधना सकला। क्षपकोपास्तिफलमनुशास्ति ---- मूलारा--ओलगइ सेवते ॥ अर्थ-जो भव्य जीव क्षपक की उपासना करता है. अंतःकरण में तीवभक्ति धारण करता है. उसको भी संपूर्ण आराधनाए प्राप्त होती है. सविचारभत्तबोसरणमेवमुक्वण्णिदं सबित्थारं ।। अविचारभत्तपच्चक्खाण एतो परं धुच्छं ।। २०१०॥ भक्तत्यागः सबाचीरो विस्तरेणेति वर्णितः ॥ अधना तमवीचार वर्णयामि समासतः ॥ २०८३ ॥ भक्तत्यागः । वित्रयोदया-विचारतवोसरण सविचारभनमत्यारापानमयमुपण सविस्तरं अषिचारमकप्रत्याख्यान अनः परं प्रवक्ष्यामि। प्रकृतोपसंहार पुरःसरं अवीचारभक्तप्रत्याख्यानं व्याख्यातुमपक्षिपतिमूलारा-एतो इतः। इति सविचारभक्तप्रत्याख्यानध्याख्यान समाप्तम् ।। अर्थ-इस प्रकार सविचार भक्तप्रत्याख्यान का हमने सविस्तर वर्णन किया है. अब यहाँसे अवीचार | भक्त प्रत्याख्यानका वर्णन करते हैं. . तत्थ अविचारभत्तपइण्णा मरणम्मि होइ आगाढो । अपरक्कम्मरस मुणिणो कालम्मि असंपुहुत्तम्मि ॥ २११॥ १७६१ Page #1773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुलाराधना १७६२ भक्तत्यागोत्यवfचारो निश्चेष्टस्य दुरुत्तरे || सहसोपस्थिते मृत्यों योगिनो वीर्यधारिणः ॥ २०८४ ॥ विजयोदया— अविचारभत्तपदिष्णा अविचारभक्तप्रत्याख्यानं सहसोपस्थिते मरणे भवति । अपराक्रमस्य यतेः सथिदारभक्तप्रत्याख्यानस्थ काले असति ॥ अथ अविचारमप्रत्याख्यानस्य स्वामिसमय निर्णयार्थमाह- मूला ---तस्य तद्वचने प्रकृतो । आगाढे सहसोपस्थिते । अपरकमरस निश्वेष्टस्य | कालम्मि असंपुत्तम्मि । सविचारभक्तत्यागस्य कालेऽसति । स्तोकजीवितकाले सतीत्यर्थः । उक्तं च---- त्यागो वीचारो मरणे सहसागतं ॥ भवत्युत्साहद्दीनस्य यतः काले सीयति ॥ अर्थ – सविचारभक्त प्रत्याख्यानकाल नहीं होने पर अर्थात् अकस्मात् मरण उपस्थित होनेपर असमर्थ मुनि को अविचारमत्तप्रत्याख्यान करना योग्य हैं. तत्थ पढमं निरुद्धं णिरुद्धतरथं तहा हवे विदिये । तदियं परमणिरुद्धं एवं तिविधं अवीचारं ॥। २०१२ ॥ निरुद्धं प्रथमं तत्र निरुद्धतरमूचिरे ॥ द्वितीयं तु तृतीयं च निरुद्धतममुत्तमाः ।। २०८५ || विजयोदया - तन्ध पदमं निरुद्धं तत्र अची चारभक्तप्रत्याख्याने प्रथमं निरुद्धं, द्वितीयं निरुद्धवरकं तृतीयं परम निरुद्धं एवं विविधमवीचारभतप्रत्याख्यान ॥ अविचारभक्तप्रत्याख्यानस्थ निरुद्धनिरुद्धत रपरमनिरुद्धभेदात्रे विभ्यमुद्दिशति मूलारा---- तत्थ अभिचारभक्तत्यागं ॥ अर्थ - अविचार भक्त प्रत्याख्यानके निरुद्ध, निरुद्धतर और परमनिरुद्ध ऐसे तीन भेद हैं निरुद्वेषभूतस्य भवतीत्याचष्टे तस्स णिरुद्धं भणिदं रोगादंकेहिं जो समभिभूदो || जंघाबलपरिहीणी परगणगमणम्मि ण समत्यो । २०१३ आश्वासः ७ સર્ Page #1774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः मा निरुद्धं कथितं तस्य रोगातकादिपीडितं ॥ जंबाबलविहनिो यः परसंघगमाक्षमः ॥ २०८६ ॥ विजयोदया-तस्स बिरुद्ध भणिदं तस्य निरुशमुक्तं रोगेण आत फेन था यस्लमभिभूतः शबलपरिहीनो वा परगणगमनासमों यः॥ निरुद्ध गावापंचकेन व्याचले.--- मूलार!—ण समत्थो रोगेणानकेन वा संतताभिभवाजंघाचलपरिहीनतया वा परगणं गतुमशक्त इत्यर्थः ।। निरुद्धभक्त प्रत्याख्यान किसको होता है इस प्रश्नका उत्तर अर्थ-- छोटे रोग अथवा बडे रोगसे पीडित होनेपर तथा पैरों में चलने का सामर्थ्य जिसको नहीं है, जो परभणमें जाने में असमर्थ हैं वह मुनि निरुद्धअविचारभक्तप्रत्याख्यान करते हैं. SHASTRITERRORatoreserBaMBTATE जावय बलविरियं से सो विहरदि ताव णिप्पडीयारो ॥ पच्छा विहरदि पडिजग्गिज्जतो तेण सगणेण ॥ २०१४ ॥ यावदस्ति बलं वीर्य स्वयं तावत्प्रवर्तते ॥ . क्रियमाणोपकारस्तु तदभावे गणेन सः॥ २०८७ ॥ विजयोदया-जावय बलविरिय यायलयीय चास्ति । से तस्य । सो विहरति स तावद्गुणे प्रवर्तते निष्पतीकारः यदा शक्तिस्तीवन्यूना तदा पश्चाविहरति तेन स्यगणेन क्रियमाणोपकारः॥ निरुद्धस्वामिनः प्रवृत्ती परानपेक्षाव्यपेक्षावसरो निर्दिशति---- मूलारा-पच्छा अतीव शक्तिन्यूमतायां । पडिजगिर्जतो उपक्रियमाणः । अर्थ-जबतक देह में बल, वीर्य था तबतक वह गुणोंमें प्रवृत्ति करता है जब शक्ति तीबतासे कम होती जाती है तब स्वगणसे उपकृत होता हुआ अपने रत्नत्रयमे प्रवृत्ति करता है. अर्थात् अत्यंत अशक्त होनपर गणस्थ मुनि उनकी सेवा करते हैं. १७६२ Page #1775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः इय सण्णिरुद्धमरणं भणियं अणिहारिमं अवीचारं॥ सो चेव जधाजोग्गं पुवुत्तविधी हवदि तरस ॥ २०१५ ॥ सन्निरुद्धमवीचार स्वगणस्थमितरतम्।। अपरः प्रक्रमः सर्वः पूर्वोक्तोऽत्रापि जायते ॥ २०८८ ॥ विजयोदया-दय सण्णिरुपमरणं भणिदं एवं सनिरुदमरण भणितं, जंधावलपरहीनतया व्याप्यभिभयेन वा स्वस्मिमाणे निरुद्धो या मरणं नियाममा EिET परिचा:मयायायायानोक्तपरित्यागाभावात्, परित्यागहीनं अनियतविहारादिविधिविचारणाभावावधीचारं । आत्मीय एवं गणे आचार्यस्य समीपे प्रययातीचार उक्त्वा निंदामपिरः कृतमतिकमः छत्तप्रायश्रितो याबद्रीर्यमस्ति तायनिष्प्रतीकारो विहरति, यबर हीनसर्वचेएस्तदा परैरनुगृह्यमाणो विहरति । मूलारा--सण्णिरुद्धमरणं जघायलंपरिहीनतया। रोगातंकाभिभवेन वा स्वगण सनिरुद्धस्य प्रतिवद्धपरगणगमनासमर्थस्थ गरणं । अनिहारिमं सविचारभक्तप्रत्याख्यानोक्तस्वगणपरित्यागाभावात् । अवीनारं अनियतविहारादिविचारणाविरहात् । सो इत्यादि । स्वगग एव गणिनश्चरणमूले प्रव्रज्यायतिधारमालोक्य निंदागापरस्कृतप्रतिक्रमप्रायश्चित्तो यावदीयमस्ति तावन्निष्पत्तीकारो विहरति । सर्वचेष्टापरिक्षये पुनः परैरनुगृह्यमाण इत्यतोऽन्यो यथोचितो विधिः पूर्वोक्त एवेत्यर्थः । ____ अर्थ--इस प्रकार सविरुद्ध मरण का स्वरूप कहा है. पैरोंका सामर्थ्य कम होनेसे अथवा रोगपीडित होनेसे अपने गणमें ही जिसको रहना पड़ता है अन्य गणमें जो नहीं जा सकता है ऐसे मुनिको सनिरुद्ध मुनि कहते हैं. ऐसे मुनिके भरणको सनिरुद्ध मरण कहते हैं. सविचारमक्तके प्रत्याख्यानमें स्वगणका परित्याग कर परगणमें जानेका विधि पतलाया है. वह इसमें नहीं है इसलिये इसको ' आणिहारिम कहते हैं. अनियत विहारादि विधि इसमें नहीं है इस लिये इसको अवीचार कहते हैं. यह मुनि स्वगणमें ही रहकर आचार्यके चरणमूलमें दीक्षासे आजतक हुए अपराधों की आलोचना करता है. निंदा और गर्दा करता है. प्रतिक्रमण करके प्रायश्चित्त लेकर जबतक सामर्थ्य है तबतक दुसरोंके सहायके विना रत्नत्रयाचरणमें तत्पर रहता है. जब प्रवृत्ति करने में बिल. कुल असमर्थ होता है तब अन्यमुनिओंसे शुश्रूषा साहाय्य लेकर रत्नत्रयमें तत्पर होता है. Page #1776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - --. लाराधना आश्वासा DramanantarashatanAmAamateuraemam दुविधं त पि अणीहारिम पगासं च अप्पगामं च ॥ जणणादं च पगास इदरं च जणेण अण्णादं ॥ २०१६ । प्रकाशमप्रकाशं च स्वगणस्थमिति द्विधा ।। जनज्ञात मतं पूर्व जनाज्ञातं परं पुनः॥ २०८९ ।। विजयोन्या-दुविध त पि अणीहारिम द्विविधं तदपि अणीहारसंक्षितं भक्तप्रत्याख्यान प्रकाशरूपमप्रकाश. रूपमिति जनेन शातं प्रकाशरूपमितरदप्रकाशात्मकं निरुद्धावीचारभक्तप्रत्याख्यानस्य प्रकाशानकाशभेदादौ विध्यमभिधत्तेमूलारा-अशीहारिम अनिहार संझं । स्वगणनिर्गमर हित्वात् । अत एवान्ये स्वगणस्थमितीदमभ्यधुः । तदुक्तम् सग्निरुद्ध मीचारं स्वगणस्थामतीरितम् ।। अपरः प्रक्रमः सर्वः पूर्वोक्तोऽवापि जायते ।। निरुद्धावीचारभक्तप्रत्याख्यान के प्रकाश और अप्रकाश ऐसे दो भेद हैं. इनका आचार्य स्वरूप कहते हैं. अर्थ-अनिहार नामक इस भक्त प्रत्याख्यानके प्रकाशरूप और अप्रकाशरूंपे ऐसे दो भेद है. जो जनोंके द्वारा जाना गया है उसको प्रकाशरूप कहते हैं और जो नहीं जाना गया है उसको अप्रकाशरूप कहते हैं. खवयस्स चित्तसारं खितं कालं पडुच्च सजणं वा ।। अण्णम्मि य तारिसयम्मि कारणे अप्पगासं तु ।। २०१७ ॥ द्रव्यं क्षेत्र यलं कालं ज्ञात्वा क्षपकमानसं ॥ अप्रकाशं मतं देसाधन्यत्रापि सतीशे ॥ २०९० ॥ इति निरुद्धं चिजयोदया-खवगस्स चित्तसारं क्षपकस्य नदि, यम, क्षेत्र, कालं, स्वजन वा प्रतिपद्य अन्यस्मिन्या तारशे कारणे जाते अप्रकाशभक्तप्रत्यारूपानं, सदिक्षाकः क्षुदादिपरीषहासदा, वसतिर्वा मधियिता, कालो या अतिरूझो, बंधवो वा यदि परित्यामविघ्रं फुर्वति न प्रकाशः कार्यः । णिसद्ध गदं॥ १७६५. Page #1777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूलाराधना आश्वास: १७ अप्रकाशस्य कारणान्याह-- मुलारा-चित्तसारं मनोबलं । पच प्रतीत्य । सयण बंधुलोकं । अप्पयासं यदि क्षपकः क्षुदादिपरीपहासहो, पसतिर्वा अविविक्ता,कालो वातिरक्षः, बांधवा वा संन्यासं विनयंति तदा न प्रकाशः कार्योऽस्मिन्नित्यप्रकाशक । निरुद्धम् । अर्थ-क्षपकका मनोबल, अर्थात् धैर्य, क्षेत्र, काल, उसके बांधव अथवा अन्य भी कारण का विचार कर क्षपकके निरुद्धावीचारभक्त प्रख्यानको प्रगट करते है अथवा अप्रगट करते हैं. यदि क्षपक क्षुधादि परीपहोंसे याडित होगा, अथवा वसतिका एकान्त स्थानमें न होंगी, यदि काल समय अति रूक्ष होगा, यदि बंधुगण इस परित्याग विधीमें बाधा करनेवाले होंगे तो यह प्रत्याख्यान-मरण प्रकाशित नहीं करना चाहिये. निरुद्धतरगं व्याचरे .. बालग्गिवग्घमहिर गयरिंछ पडिभीय तेक मेछाह ॥ मुच्छाविसूनियादीहिं होज सज्जो हु वावती ॥ २०१८ । जलानलविषव्यालसनिपातविसूचिकाः॥ हरति जीवितं साधो नूसा इव सामसम् ॥ २.९१ ।। विजशेवया-बालमिाघग्घमहिस व्यालेनाग्निना, ज्यानेण, महिषण, गजेन, ऋक्षेण,शत्रुणा,स्तेनेन, म्लेच्छेन, भूईया,विसूचिकादिभिर्या सद्यो व्यापत्तियत् ।। अथ निमद्धतया वीचारभक्तप्रत्याख्यानं गाथाचतुष्टयेन व्याधिख्यासुरादाबायुरपवर्तिन्याः सद्यो व्यापत्तेः संभवमभिधत्ते मूलारा-बाल सर्पाः । पडिणीय शत्रुः । विसचिवादीहि विसूचिकया दंडकालशकृत्तीत्रमुलादिभित्र च । वारनी सद्यो मरणकारणवेदना, मरणं वा ।। निरुद्धतर विधीका स्वरूप कहते हैं--- अर्थ--सर्प, अग्नि, व्याघ्र, भैसा, हाथी, रीछ, शव, चोर, म्लेच्छ, मूर्छा, तन्नि शूलरोग इत्यादिसे तत्काल मरण का प्रसंग प्राप्त होता है. Page #1778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAMASTARAMATKARS मृलाराधना आश्वास PICS जाव ण वाया खिप्पदि बलं च विरियं च जाव कायम्मि ॥ तिन्वारा वेदणाए जाव य चित्त विक्ख ॥ २०१९॥ यावन्न क्षीयते वाणी यावर्दिद्रियपाटयम् । यावद्वैये पलं चेष्टा हेयादेयविवेचनम् ॥ २०९२ ।। विजयोदया-जाय ण वाया खिप्पदि यदि यायद्वारा विनश्यति बलं वीयं च यावदस्ति काये तीवया वेदनया वापधित्तं न व्याक्षिप्तं भवति तावत् ॥ तत्क्षणे मुमुक्षुणा यत्करणीय तदुपदिशतिमूलारा--क्खिापदि विनश्यति । विविण्यात व्याक्षिप्तम् । अर्थ--जबतक वचन मुंहसे निकलता है. जबतक शरीरमें बल और वीर्य है और जबतक शरीरमें होनेवाली तीव्र वेदनासे चित्त आकुलित नहीं हुआ है तबतक aree णच्चा संबट्टिग्ज तमाउगं सिग्यमेव तो भिक्खू ॥ गणियादीण सण्णिहिदाणं आलोचए सम्मं ॥ २०२०॥ तावद्वेदनया ज्ञास्या न्हियमाणं स्पजीवितम् ॥ आलोधनां गुरोः कृत्वा धीरा मुंघन्ति विग्रहम् ।। २०९३ ॥ चिजयोदया–च्चा संवट्टि शास्वोपसनियमाणमायुः शीघ्रमेव ततो भिक्षुराचार्यादीनां सशिवितानामा. लोचनां सम्यक कुर्यात् रत्नत्रयाराधनायां परिणतः व्युस्सओत् घसति, संस्तरमाहारमुपधि शरीरं परिचारकान्, बलवीर्य हानेः पराणगमनासमर्थः । निरुतः प्रवेशं प्रकर्षण नियति निरुद्धतरक इत्युच्यते ॥ मूलारा--संवट्टितं उपसज्यिमार्ण । तीबवेवनायां अन्तर्मुहूर्त्तमात्रभोग्यदशायां प्रवेशमाने || तो ततः । आयुरप्रवर्तनाचतो: आचार्यादीनाममे ॥ अर्थ-तबतक अपना आयुष्य प्रतिसमयमें क्षीण हो रहा है ऐसा जानकर आचार्यादिकोंके पास शीघ्र अपने संपूर्ण पूर्व दोषोंकी आलोचना करनी चाहिये. रस्नत्रयाराधनामें तत्पर होकर वसति, संस्तर आहार, उपधि, १७६७ Page #1779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाराधना ७६८ शरीर. परिचारक इन सबका त्याग करना चाहिये. अर्थात् इनके ऊपरसे ममत्व हटाना चाहिये. तात्पर्य - जय बल और वीर्यकी हानि होती है तब परमण में गमन करने में असमर्थ सार्नको निरुद्ध कहते हैं. इससे भी जो अधिक असमर्थ होता है उसको निरुद्धटर कहते हैं. एवं णिरुदयं विदियं अभिहारिमं अवीचारं ॥ सो चेव जधाजोग्गो पुव्वुत्तविधी हवदि तस्स || २०२१ ॥ स्वगणस्थमिति प्राज्ञैर्निरुद्धतरमीरितम् ॥ अवशेषो विधिस्तस्य ज्ञेयः पूर्वत्र दर्शितः ॥ २०९४ ॥ इति निरुद्धतरम् । विजयोदया - स्पष्टार्थगाथा ॥ निरुद्धदरं ॥ मूलारा -- णिरुद्धतरगं सथो मरणकारणोपनिपातेन सुतरां बलवीर्याने परगणगमनेऽसमर्थान्निरुद्धात्प्रकर्षेणासमर्थो निरुद्धतरस्तद्योगान्मरणमपि निरुद्धतरं ततः संज्ञायां कः ॥ निरुद्धतरम् ॥ अर्थ -- तत्काल आयुका नाश करनेके कारण प्राप्त होनेपर बल और वीर्यकी अतिशय हानि जब होती है तब परगण में जानेके लिये जो मुनि अत्यंत असमर्थ होता है. अतः ऐसे साधुके मरणकोभी आचार्य निरुद्ध तरक मरण कहते हैं. निरुद्धत्तर मरणका वर्णन हुआ. बालादिजइया अक्खिता होज्ज भिक्खुणी बाया ॥ तझ्या परमणिरुद्धं भणिदं मरणं अवीचारं ॥ २०२२ ॥ यदा संक्षिप्यते वाणी व्याधिव्यालविषादिभिः ॥ तदां शुद्धधियः साधोर्निरुद्धतममिष्यते ॥। २०९५ ॥ विजयोदया - बालाविपद्दि व्यालादिभिः पूर्वोक्तः यदोपहतस्य वाम्यिनद्रा तदा परमनिरुद्धमरणं वाझिरो - थोऽत्र परमशब्देनोच्यते ॥ आश्वास ७ १७६८ Page #1780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- HPATAstA लागधना आश्वामः - - अथ परगनिहावीचारभक्तप्रत्याख्यानं गाथासप्तकेन ब्याख्यास्यन पूर्व गाथात्रयेण तलायति-- मृदाग---यालादिशनि व्याक्षितिः । 'पूक्तिरुपद्रुतस्य अस्तित्ता विनमा । परमविरुद्ध परमेण वाग्निरोधेन मध्यस्य सायन्यापागनिरुद्धानिस्यास्यायते । उक्तं च-- या संक्षिप्य वाणी व्याधिव्यालविणादिभिः ॥ तदा शुधियः माधोर्निरूद्वतरमिष्यते ॥ अर्थ- सप च्याघ्रादिसे पीडित हुए साधुक अंगमें विषका संचार होकर उसका भाषण भी जब बंद होता है, तब परमनिरुद्ध नामका मरण मात होता है. वचननिरोध होनेपर परमनिरोध माना जाता है. पकना संवहितमार्ग नियमेत तो भिस्तु ।। अरहंतसिहसारण अंतिगे सिग्घमालोचे । २०२३ ॥ .. हासी जीवितं दृष्ट्या वेदनामनिवारणाम् ।। जिनादीनां पुरो धीरः करोत्यालोचना लघु ॥ २०९६ ॥ विजयोदया–णच्चा संचिट्टितं आउग शान्योपसन्दियमाणमायुः अईता सिवानां साधूनां चांतिके शीघ मालोचनाः कुर्यात् ॥ मूलारा- अंतिगे सन्निधाने । मनस्य दादीन्सन्निहितान्कृत्वेसर्थः । आलोचे आलोचना कुर्यात् । अर्थ-उस समय वह मुनि अपना आयुष्य शीघ्र ही समाप्त होनेवाला है ऐसा जानकर मनमें अहंत और P सिद्धादि परमेष्ठिओंको धारण कर शीघ्र आलोचना करता है. आराधणाविधी जो पुव्वं उबवण्णिदो सवित्थारो ॥ सो चेव जुज्जमाणो एत्थ विहीं होदि णादयो । २०२२ ॥ आराधनाविधिः पूर्व कथितो विस्तरण यः॥ अवापि युज्यमानोऽसौ द्रष्टव्यः श्रुतपारगैः ।। २.९७ ।। विजयोत्या-आराधणाविधी आराधनापिधेर्मः पूर्व विस्तरो व्यावर्णितः स पयानापि युज्यमानो सातव्यः । ९७६९ मातदयः। Page #1781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मूलारा-जुज्जमाणो प्रयुज्यमानः | सहसा मरणाराधनाया वैफल्याशंकामपाकरोति-- अर्थ--आराधना विधीका जो पूर्वमें सविस्तर वर्णन किया है उसीकीही इस मरणमें योजना करनी चाहिये आश्वासा एवं आसूक्कारमरणे वि सिझंति कइ धुदकम्मा ॥ आराधयित्तु केई देवा ।माणिया होति ॥ २०२५ ॥ आराध्याराधनादेवी आशुकारं मृतावपि ।। केंचित्सिध्यन्ति जायन्ते केचिद्वैमानिकाः सुसः ।।२०९८ ॥ विजयोदया-पवं भामुक्कारमरणे यि एवं सहसा मरणेऽपि सिध्यति विधुतकर्मसंहतयः केनिदाराध्य वैमा. | निका देवा भवति ॥ मुलारा एवं अनेन विधिना । चतुर्विधाराधनामुपक्रम्य । आसुकारे मरणे झटिति प्राणत्यागे । धुदकम्मे परीतसंसारतया निरस्तकर्मसंहतयः संतः पंडितपंडितमरणेन सिर्वि गच्छन्तीत्यर्थः । आराधहत्ता भक्तप्रत्यास्यानेन मरणेनैव चतुर्विधाराधनामाराध्य मृताः संतः।। अर्थ-इस प्रकार चार प्रकारकी आराधनाका प्रारंभ करनेपर उपर्युक्त कारणोंसे यदि शीघ्र प्राणत्यागका | समय प्राप्त हुआ तो कोई साधु संपूर्ण कर्मों का नाश करके पंडितमरणसे मोक्षकी प्राप्ति कर लेते हैं. और कोई मुनि इन आराधनाओंकी आराधना कर वैमानिक देव होते है.. आराधणाए तत्थ दु कालरस बहुत्तर्ण ण हु पमाणं । बहवो मुहुत्तमत्ता संसारमहण्णवं तिष्णा ॥ २०२६ ॥ प्रमाणं कालयाहुल्यमस्य नाराधनाविधेः॥ तीर्णा मुहर्तमात्रेण यहयो भवनीरधिम् ॥ २०९९ ॥ विजयोत्या कथमस्पेन कालेन निर्वृतिर्मान्पत्याशका न कार्येति वति । भाराधणाए तत्थ दु तस्यामा | राधनायां कालस्य बहुरन प्रमाणं । बहवो मुहर्तमात्रणाराध्य संसारमहार्णवं तीणाः ॥ १७७० Page #1782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १७७१ कमल्पेन कालेन निर्वृतिः साध्येत्याह--- मूला -- तत्थं तस्यां । पमाणं साधकतमं । तच्छा मुहूर्तमानायां स्थिताः । अर्थ - इतने अल्पकालमें कैसा मोक्ष प्राप्त होता है ऐसी शंका नहीं करना चाहिये. अर्थात् आराधनाका काल बढा होना चाहिये ऐसा कुछ नियम नहीं हैं. मुहूर्त मात्रमही कोई रत्नत्रय की आराधना करके संसार सं . मुद्रको लांघ गये हैं. खणमेचेण अणादेियमिच्छादिठ्ठी वि वणो राया ॥ उसहरस पादमूले संबुज्झिता गर्दा सिद्धि । २०२७ ॥ सिद्धो विवर्द्धनो राजा चिरं मिध्यात्वभावितः ॥ वृषभस्वामिनो मूले क्षणेन धुतकल्मषः ॥ २१०० ॥ इति निरुद्धतमम् । विजयोद्या-खणमेत्तण क्षणमात्रेणानादिमिध्यादृष्टिरपि धन्ननामधेयो राजा ऋषभस्य पादमूले सबुद्धो गतः सिद्धिं ॥ क्षणमात्राराधनायाः सिद्धिसाधनत्वमर्थाख्यानेन समर्थयते— महारा-दिवो विवर्धनो नामा | संबुझिसा सम्यगात्मानं आत्मनात्मनि संवेध ॥ अर्थ - अनादि मिथ्यादृष्टि ऐसा वर्धन नामका राजा ऋषभ भगवान के चरणमूल में आत्मस्वरूपका ज्ञाता होकर क्षणमात्रमें निर्वाण को माप्त हुआ. 1 सोलसतित्थयराणं तित्थुप्पण्णस्स पढमदिवसम्मि || सामण्णणाणसिद्धी भिण्णमुहुतेण संपण्णा || २०१८ || विजयोदयापरमनिरुद्धं ॥ सोम Ema आश्वास .. 19 21010 Page #1783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः केवलशानं निर्वाणगमनं पाभिण्णमुहतेण स्तोककालेन संपत्ता संप्राता बह्वः। अन्यस्तु सामणेति चारित्रमर्मस्त । उक्तंच षोडशतीर्थकराणां तोर्योत्पन्नस्य वासरे प्रथमे ॥ भामण्ययोधिसिद्धिर्मिनमुहर्तेन संवृता ॥ एतां श्रीविजयो नेच्छति ॥ . . . . . ... - अर्थ--ऋषभनाथसे लेकर शांतितीर्थकरपर्यत सोलह तर्थिकराको जिस दिन दिव्य ध्वनिकी प्राप्ति हो गयी थी उस दिन बहुत मुनिआको केवलज्ञान और निर्वाण की प्राप्ति भिमसुइतम हुई थी. इस प्रकार परमनिरुद्ध क मागवा वर्णन समय सुजा एसा भत्तपइण्णा वाससमासेण वण्णिदा विधिणा ॥ .. . इत्तो इंगिणिमरणं वाससमासेण वण्णसि ॥ २०२९ ।। प्रोक्ता भक्तपतिज्ञेति समासब्यासयोगतः॥ हवानीमिगिनीं वक्ष्ये जन्मकक्षकठारिकाम् ॥ २१०१।। विजयोदया-सा भत्तपदिशा एततप्रत्याख्यानं व्यासेन संशेषेण च वर्णिसं अत ऊ सोन्यासि कामगिणीमरपां व्याससमासाभ्यां पर्यायिष्यामि ॥ प्रस्नुनोपसंहार पुरःसरं व्याख्येयांतरमुपक्षिपतिमूलाग-विधिणा पूर्वसूत्रक्रमेण । सिं व्याख्यास्यामहम् ॥ वृत्तम् एवं दीक्षादिकालोचिनविधिमुचित्तज्ञानभक्तप्रतिज्ञाऔद्विव्यूदोगार्थः करतलकलिताराधनाकेतनभीः ।। कोऽष्यत्राशाधरांतश्वरविशदयशोगानरज्यन्मुमुक्षुः समिक्षुः स्वर्गलक्ष्मीप्रणयहृतशिवश्रीकटाक्षात्सवः स्यात् ॥ इत्याशापरानुस्मृतमंथसंदर्भ मूलाराधनावर्षणे परप्रमेयार्थप्रकाशीकरणप्रवणे सप्तम आश्वासः ॥ ७ ॥ इति भक्तप्रव्याख्यानमरणव्याख्यानं समाप्तम् ॥ अर्थ-इस भक्तप्रत्याख्यान मरणका विस्तारसे और संक्षेपसे वर्णन किया है. अब संन्यास मरणरूप इंगिणी मरणका विस्तार और संक्षेपसे वर्णन करताई. EN Page #1784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १७७२ जो भत्तपदिण्णा उवकमो वणिदो सवित्थारो ॥ सो व जधाजोग्गो उवकमो इंगिणीए वि ॥। २०३० | उक्त भक्तप्रतिज्ञाया विस्तारो यत्र कथन | इंगिनी मरणेऽप्येष यथायोगं विबुध्यताम् ॥ २१०२ ॥ सपदिण्णाप यो भक्तप्रत्याख्यामस्य उपक्रमो व्यापार्णितः सविस्तारः स एष यथासंभव विजयोदया - जो मुपक्रमो इंगिणी मरणेऽपि ॥ अशुभ अन्वासः ॥ अत्रस्यैरधुनातनैरपि यतैः खाभ्यामित्यादियो । भक्तयागमृतस्तथा निगदितो व्यायात्समासादपि || तत्रज्ञान शेष मध्यनुगुणं मुक्त्यर्थिनामित्यथ । व्याक्यास्त इवः सुमृत्युविवयस्तेऽपीगिणी पूर्वकाः ॥ अथातः स्वकृतयत्यमात्रापेक्षाउक्षण पंडितमरणस्य द्वितीयकरूपमिंगिणी मरणं गाथाश्रयस्त्रिंशता प्रबंधन व्याप क्षाणः प्रथमं तदुपकमातिदेशार्थं इदमाश- मूलारा- उवकमो प्रयोगविधिः || अर्थ - भक्तप्रतिज्ञा मरणमें जो प्रयोगविधि कहा है वही यथासंभव इस इंगिणीमरणमें भी समझना चाहिये. पव्वज्जाए सुद्धो उब संपत्ति लिंगकप्पं च ॥ पवणमोगाहित्ता विणसमाधीए विहरिता || २०३१ ॥ ज्याग्रहणे योग्यो योग्यं लिंगमधिष्ठितः ॥ arrantभ्यास विनंयस्थः समाहितः ।। २१०३ ।। विजयोदयापाज्जाय सुद्धो प्रवज्यायां युद्धो वीक्षाग्रहणयोग्य इत्यर्थः । एतेन अर्हता निरूपिता । उवसंपत्ति प्रतिपद्य | लिंगकप्पं च योग्यं विंग लिंग इत्यनेन सूचितम्। पषयणमोगाद्दित्ता श्रुतमवगाहा एतेन शिक्षा उपन्यस्ता, पिणय समाधीए विहरिता विनयसमाधी विहृत्य ॥ ! आश्वास ८ १७७३ Page #1785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आचार ८ FRE तदुपक्रमयमौचित्यविधेचनामाह- . . मूलारा-पच्चजाए सुयो वीक्षामहणयोग्यः । अविख्यापनार्थमिदं । एवमुत्तरपदानामपि लिंगादिविकरम | विधिल्यापनेन साफल्यमवकरूप्यम् । ४वसंपब्जिन्तु प्रतिपद्य । लिंगकाप निर्मन्धानुष्ठानम् । विणयसमाधीर विनये समाधौ | च । बिरिता परिणतो त्या । अत्रामाविपचतयो विश्चितता अर्थ-जो दीक्षाग्रहण करने योग्य है. ऐसा मुनि योग्य लिंग धारण कर श्रुत-आगममें अवगाहन करता है. तथा विनयम और समाधि विहार करता है. तात्पर्य यह है कि, सविचारभक्तप्रत्याख्यान मरण में जैसा प्रयोग विधि बतानेके लिये अई, लिंग, शिक्षा वगैरह चालिस सूत्रोंका पूर्व में वर्णन किया है. वैसा यहां भी ६ वही वर्णन समझना चाहिये। णिप्पादिता सगणं इंगिणिविधिसाधणाए परिणमिया ॥ सिदिमारुहितु भाविय अप्पाणं सल्लिहिताणं ।। २०३२ ॥ ___... निष्पाद्य सकलं संई इंगिनीगतमानसः ॥ ..... श्रितिस्थी भारितस्वान्तः कृतसल्लेखनाविधिः 11 २१०४ ॥ - विजयोदया-पिप्पावित्ता समणे योग्यं कृत्वा स्वगणं । इंगिणोविधिसाधनाय परिणतो भूत्वा, सिदिमादितु' | परिणामणिमारुख भाषिय भावना प्रतिपय । मप्पा सद्धिहिलाण आत्मानं संलेख्य ॥ । मूलारा--णिप्पादिता योग्य कस्वा । इंगिणी विधिसाधनांयामित्यत्रापि योग्यं । परिणभिय परिणम्य । सापयिध्यामहर्मिगिणी विथिमिति निश्चलं चेतासे निवेश्येत्यर्थः । सिदि शुभपरिणामश्रेणी । भाषिय फेदपोदिदुर्भपनात्यागेन शमलतादिभावनाभिः संस्कृत्य । सलिहिताणं कायकषायौ कृशीकृत्य | अर्थ-अपने गणको सौनओके चरण में योग्य बनाकर तदनंतर इंगिणी मरण साधनेके लिये वह मुनि परिणति करता है. तदनंतर परिणामके श्रेणीपर आरोहण कर कंदादि भावनाओंका त्याग कर तपोभावना, श्रुत भावना, इत्यादि भावनाओंका अभ्यास करता है और शरीरके साथ कपायं कुश करता है. १७७ Page #1786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माराधना आश्वास १७७५ परियाइगमालोचिय अणुजाणित्ता दिसं महजणरस ॥ - तिविधण खमावित्ता सवालवुढाउलं गच्छं । २०३३ ।। संस्थाप्य गणिनं संघ क्षमपित्वा त्रिधाखिलं ॥ याषज्जीव वियोगार्थी दत्या शिक्षा भियंकराम ॥ २१०५॥ विजयोदया-परियाहगमालोचिय मसेर रजयारामाणिसं गणघरं। महजणस्स महाजनस्य चतुर्विधसंघस्येत्यर्थः । तिविषेण खमापिसा त्रिविधेन क्षमा ग्राहयित्वा । सबालवृयाकुलं गच्छं। मुलारा-परियाइयं रत्नत्रयातिधारपरिपाटीं । दिसं आचार्य परिस्थाप्य । महजणस्स महाजनस्य चतुर्विध संघस्येत्यर्थः। रवमावेत्ता क्षमा प्राहयित्वा । ___ अर्थ-स्नत्रयके पालन करते समय जो अतिचार लगे थे उनकी आलोचना कर संघका त्याग करने पूर्वमें अपने स्थानमें दूसरे आचार्य की स्थापना करनी चाहिये. अर्थात् चतुर्विध संघको नवीन आचार्यके स्वाधीन कर देना चाहिये. उस समय पालमुनि, बृद्धयुनि वगैरह संपूर्ण गणको क्षमाके लिये प्रार्थना करनी चाहिये. अणुसद्रिं दादूण य जावज्जीवाय बिप्पओगच्छी ॥ अम्भदिगजादहासो गीदि गणादो गुणसमग्गो । २०३४ ।। कृतार्थतां समापनो हर्षाकुलितमानसः ॥ निर्यातो गणतः सूरिगुणशीलविभूषितः ।। २१०६ ।। विजयोदया-अणुसदि दादूपय शिक्षा इत्वा गणपतगणस्य च । जायज्जीवाय विप्पओगच्छी यावज्जीव विप्रः योगार्थी 1 अध्भदिगजावहासो कृताधोऽस्मीति जातहर्षः। णीदि गगादो नियोति यतिगणात् । गुणसमग्गो संपूर्णगुणः ।। मूलारा--दादूण गणपतये गणाय च दत्वा । जात्र-जीवाय यावज्जीवं । विष्पजोगत्थी गणेन वियोगमिच्छन् । अभधियजादेहासो कृतार्थोऽस्मीति निर्भरोत्पन्नप्रीतिः | णीदि निगच्छति । अर्थ-आचार्य स्थापनाके अनंतर आचार्य और गणको भी उपदेश देना चाहिये और तदनंतर अब यावजीब मैं आपसे अलग होना चाहता हूं ऐसा कहकर गणसे प्रयाण करना चाहिये. आज मैं कृतार्थ दुआ ऐसा मानकर संपूर्ण गणयुक्त एलाचार्यका यह आचार्य त्याग करे. १७७५ Page #1787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वास एवं च णिकमित्ता अंतो वाहिं च थंडिले जोगे ॥ .... . " .:" - 'पुढवीसिलामए वा अप्पाणं णिज्जवे एको ।। २.३५ ।। निःक्रम्य स्थंडिलादौ स विविक्ते बहिरंतरे।। 'भूशिलासंस्तरस्थायी स्वं निर्यापयति स्वयम् ॥ २१०७ ।। विजयोदया--पषं च णिक्कमित्ता एवं विनि क्रम्य | थंडिले जोगे समे समुनते कठिन जीवरहिततथा योग्ये । अंनो वाईि व अंतर्वहिर्वा । पुढवीसिलामर वा पृथ्वी संस्तरे शिलामये वा । अयाण णिज्जये एकको आत्मानं निर्जयेद सहायः। तस्य संस्तरारोहणविधि गाथायनाई -- मूलारा-अंतो वाहिं च गुदादेरभ्यंतरे बाहिरेवा । पंडिले समसमुन्नत कठिनभूमिदेशे । जोगे जीयरहितत्वेन योग्ये । पुटवौसिलामए पृथिवीसस्तरे शिलास्तरे.या | गिन संसार्णवान्निर्गमयति । एको देहमानसहाथः ॥ अर्थ-स्वगणसे निकलकर अंदर और बाहर जो समान ऊंचा और कठिन है ऐसे भूमिप्रदेश में अर्थात् स्थंदिलम जो कि जीवरहित होना चाहिये. उसका आश्रय को तथा निर्जन्तुक जमीन अथवा शिलाका भी संस्तर के लिये आश्रय करे. उस समय वह शरीरमात्र जिसका सहायक है एसा होता है. TETRIESISE पुव्युत्ताणि तणाणि य जाचित्ता थडिलम्मि पुवुत्ते । __... - जदणाए सथरिता उत्तरसिरमधव पुवसिरं ॥ २०३६ ॥ योग्य पूर्वोदितं कृत्वा संस्तरं स्थंडिले तृणैः ॥ पूर्वस्यामुत्तरस्पां चा शिरो दिशि फरोति सः ॥ २१०८ ।। विजयोदया-पुब्बुसाणि तणाणि य पूर्वोक्तानि तृणानि निस्संधिछिन अंतुरहितानि शरीरस्थितिसाधनमाप्राणि मृदूनि प्रतिलेखनायोग्याचिःमाम नगरं या प्रषिय.यांचया गृहीतानि पूर्वोके स्थण्डिले कोऽसौ सालोकः विस्तीर्ण विध्यस्तः असुसिरोऽबिलः मिर्जेनुकस्तस्मिस्पंदिले जदणाप संघरित्ता यत्नेन संस्तरं कृत्वा, को यत्नः तृणानां पृथक्करण संस्तरभूमिप्रतिलेखन, उत्तरसिरमधव पुष्धीखर संथारं संचरित्ता य पूर्योसमांगमुत्तरोत्तमांगं या संस्तीर्य शिरप्रभृति कार्य पादौ च यत्नेन प्रमाय ।। TerersTAR Page #1788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास पृथिवीशिळासंस्तरासंपसौ तृणसंस्तरविधानमुपदिशति भूलारा-पुन्वुत्ताणि संस्तरसूत्रोक्तानि । निःसंधिनिश्च्छिद्रनिर्जन्तूनि, मृदूनि, प्रतिलेखनयोग्यानि । शरीरस्थिति साधनमात्राणि च । जाचित्ता प्रामं नगरं वा प्रविश्य प्राध्य गृहीतानि । पुबुत्ते सालो कविस्तीर्ण विश्वस्तासुषिरनिलिनिजतुके। जदणाए तृष्णप्रधकरणसंस्तरभूमिप्रतिलेखनलक्षणेन यत्नेन । संघरिशा यथाविधि तृणसंस्तरं तारशिरस्क पूर्वशिरस्कं वा कृत्वा तत्रात्मानं निर्वापयतीति पूर्वेण संबंध अर्थ-पूर्वोक्त स्थंडिलपर तृपको पसारना चाहिये वह तूण ग्राममें अधत्रा नगरमें जाकर याचना करके आना पाईये. छिद्रहित, जहरहित, दुपस्थिरताके लिये कारण, प्रतिलेखनाके योग्य ऐसा वह तृण उस स्थडिलपर प्रयत्नसे पसारना चाहिये. वह स्थंडिल भी प्रकाशयुक्त, विस्तीर्ण, छिद्ररहित, बिलरहित, निजंतुक होना चाहियेउस स्थंडिलपर यत्नसे तृप विछाना चाहिये. अर्थात तृणको पृथक्करण करना, संस्तरकी भूमिका प्रतिलेखन करना, झाडकर स्वच्छ करना यहाँ इस कृत्योंको यत्न कहते है. पूर्व दिशा अथवा उत्तर दिशाको मस्तक करने योग्य तृणकी रचना करनी चाहिये. तदनंतर मस्तक बगैरे शरीरके अवयव और पांच पिच्छसि प्रमार्जित करने चाहिये. Anision पाचीणाभिमुहो वा उदीचिहुत्तो व तत्थ सो ठिच्चा ॥ सीसे कदज़लिपुड़ो भावेण विसुद्धलेस्सेण ॥ २०३७ ॥ भावशुद्धिमधिष्ठाय लेश्याशुद्धिविवर्द्धितः ।। कर्मविध्वंसनाकांक्षी मूर्धन्यस्तकरद्वयः ॥ २१०९॥ विजयोदया-पाचीणाभिमुखोपा उनीचिनुत्तो व तत्थ सो ठिच्चा प्रामुखो उत्तराभिमुखो या भूत्वा तत्र संस्तरे संस्थित्वा । सीसे कदंजलिपुडो मस्तके कृतांजलिः | भावण घिसुद्धलेस्सेण विशुमलेश्यासमन्वितेन भावन ॥ स्वयं स्वनिर्यापणविधि गाथापंचकेनोपदिशति मूलारा-पाचीणाभिमुहो पूर्णाभिमुखः । उपीचिहुत्तो उत्तराभिमुखः । तत्थ पृथिव्याघन्यतमसंस्तरे । सो इंगिनीमरणोधतः साधुः । ठिमा उद्रस्थित्वा, पर्यफायासनेनपार्श्वशयनेन वा यथाशक्त्ययस्थाय । बिसुलेरसेण पीता. दिलेश्यासमन्वितेन । १७७७ Page #1789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना] आश्वासः अर्थ--उस संस्तरपर बह इगिणीमरणकी प्रतिज्ञा करनेवाला पुनि पूर्व दिशा अथवा उत्तर दिशाके तरफ मुख करके खड़ा हो जाता है. अपने मस्तकपर हाथ जोडकर रखता है. अंतःकरणमें परिणामोंकी निर्मलता उत्पन्न करता है. १७७८ अरहादिअंतिगं तो किच्चा आलोचणं सुपरिसुद्धं ।। दसणणाणचरितं परिसारेदूण णिस्सेसं ।। २०३८ ॥ विधापालोचनामने जिनादीनामदूषणाम् ॥ दर्शनशान चारित्रतपसां कृतशोधनः ॥ २११० ॥ विजयोदया-अरहादितिय अईदातिक । तो पश्चातू आलोचनां कृत्वा सुपरिशुद्ध, दसणणाणचरितं पडि. सारेदूण वर्शनमानचारित्राणि संस्कृत्य निरवशेष ।। मूलारा-अरहादिअंतिग अई हादिपावे । पडिसारेदूण निर्मलीकृत्य || अर्थ-तदनंतर अहंदादिकों के समीप सम्बग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें लगे हुए दोषोंकी वे मुनि आलोचना करते हैं. और संपूर्णतासे रत्नत्रयको संस्कृत करते हैं अर्थात निर्मल करते हैं . सव्वं आहारविधि जावजीवाय वोसरित्ताणं ॥ वोसरिदूण असं अम्भतरबाहिरे गंथे ॥ २०१९ ॥ याधज्जीवं विधाहारं पत्याख्याय चतुर्विध ।। याह्यमाभ्यंतरं ग्रंथमपाकृत्य विशेषतः ॥ २१११॥ विजयोवया-सर्व माहारविधि सर्व माहारविकल्पं । यावज्जीवं परित्यज्य बाह्याभ्यंतरानशेषान परिप्रहांश्च मूलारा--विधि अशनाविभेद । अर्थ-संपूर्ण आहारों के विकल्पोंका वे यावजीव त्याग करते हैं. तथा संपूर्ण बात च अभ्यंतर परिग्रहोंका त्याम करते हैं. SelectorateSARAN त्यक्त्वा STARNA Page #1790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वासः सब्वे विणिज्जिणंतो परीषहे धिदिबलेण संजुत्तो ॥ लेस्साए विसुझंतो धर्म ज्झाणं उवणमित्ता ॥ २०४०॥ परीषहोपसगाणां कुर्वाणो निजयं परम् ।। गाहमान पर शुद्धिं घमध्यानपरायणः ॥२११२॥ विजयोदया-सव्वे षिणिज्जितो सर्वोध जयन् परिषद्वान सिपलसमन्वितः लेश्याभिशुद्धः सन् धर्मध्यानं मूलारा-जवणमित्ता प्रतिपय ॥ अर्थ-वे मुनि सर्व परिषहोंको अपने धैर्य बलसे सहन करते हैं. विशुद्ध लेश्यायुक्त परिणामोसे धर्म प्रतिपय भ्यानक: आश्रय करते हैं. . ... . . .. . ... .. ठिच्चा णिसिदित्ता या तुबट्टिदूणव सकायपडिचरणं । सयमेव णिरुबसग्ने कुणदि विहारम्मि सो भयवं ॥ २०४१ ॥ निषद्योत्थाय निःशेषामात्मनः कुरुते क्रियाम् ।। विहरन्नुपसर्गेऽसौ प्रसाराकुंचनादिकम् ।। २११३ ।। विजयोदया-टिया स्थिस्था आसिस्वा शयनं धा कृत्वा स्वकायपरिकर स्वयमेव निरुपसर्गे विदारे करोति । स्वयमेवारमनः करोत्याकुंचनाविकाः क्रियाः,उचारकादिकं च निराकरोति प्रतिष्ठापनासमितिसमन्वितः। यदि पुण उपस. गगा यदा पुनरूएसगो देवमनुष्यतिर्यकृता भवंति तदा निष्प्रतीकारस्तान् सहते विगतभयः !आदितिगसुसंघडणो माघेषु त्रिषु संहननेषु अन्यतमसहननःशुभसंस्थानोऽमेयधृतिकवचो जितकरणो जितानदो महाबलो नितरां शूरः॥ मूलारा-ठिन्छ। उद्भकायोत्सर्गेण स्थित्वा । पर्यकादिना आसित्वा । तुवट्टिण एकपादिना पत्तित्वा । सकायपडिचरणं स्वशरीरप्रतिकर्म शौषमतिलेखमादिक । विहारम्मि निरुपसर्गे संन्यासे सति । सो ठिया इत्यत्र निर्दिष्टं स इत्येवस्पदं करोतीत्यनेन सम्बभ्य वाक्यसमाति:कार्या । कुत एवं करोतीत्याह सो भयवं स तथा कृते गणी परिफरो भगना Page #1791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन मूलाराधना | आश्वासः अर्थ- खडे कायोत्सर्गसे खडे होकर, अथवा पर्यकादि कायोत्सर्गसे बैठकर, किंवा शयन कर एक बाजू पर पड़े हुए वह मुनिराज स्वयं ही अपनी शरीर क्रिया करते हैं. अर्थात उपसर्ग रहित अवस्थामें वे शौच, प्रतिलेखनादि क्रिया स्वयं ही करते है. ये क्रिया करते समय प्रतिष्ठापनासमितिमें तत्पर रहते हैं. यदि देव मनुष्य और तियंचोंके द्वारा उपसर्ग होने लगा तो वे उसका प्रतिकार नहीं करते हैं. उनका धैर्यरूपी कवच अमेय रहता है. अंतःकरणमें जरासर भी भय नहीं रहता है. इंगिनीमरणके धारक मुनि पहिले तीन संहननों से कोई एक संहनन के धारक रहते हैं. उनका शुभ संस्थान रहता है. वे निद्राको जीतते हैं. महापली व शूर रहते हैं. सयमेव अपणो सो करेदि आउंटणादि किरियाओ । सुपचारादणि धारको वित्तिनिदे निषिगा । २०४२ ॥ जाधे पुण उवसम्मे देवा माणुस्सिया ब तेरिच्छा ॥ ताधे गिप्पडियम्मो ते अधियासेदि विगंदभओ || २०४३ ॥ आदितियसुसंघडणो सुभसंठाणो अभिज्जधिदिकवचो ॥ जिदकरणो जिदणिदो ओघबलो ओघसूरो य ॥ २०४४ ॥ बीभत्थभीमदरितणविगुम्बिदा भूवरक्खसपिसाया ॥ खोभिज्जो जदि वि तयं तधवि ण सो संभम कुणइ ।। २०३५॥ स्वयमेवात्मनः सर्व प्रतिकर्म करोति सः॥ आकांक्षति महासंवा परतोऽनुग्रहं न हि ।। २१२४॥ देवमानवतिर्यग्भ्यः सपन्नमतिदारुणम् ॥ उपसर्ग महासत्वः सहतेऽसौ निराकुलः ॥२१.१५ ॥ दुःशीलभूतवेतालशाकिनीग्रहराक्षसैः ॥ म सभीषयितुं शक्योभीमरपि कथंचन ।। २११६॥ . . -. -. - .--. - .-..... . . ... .... .. Page #1792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवासः मूलाराधना विजयोदया-धीसत्थभीमदसणषिगुब्बिदा बीभत्समीमदर्शन विक्रिया भूतराशमीपशाचा यद्यपि क्षोभ कुति तथा प्यसी न संभ्रमं करोति ॥ अन्यश्चानुपसर्गस्य तत्कृत्यमाह-- मूलारा--आवंटणादि वाचनप्रसारणादि । विकिंचदे स्फेटयति । विधिणा प्रतिष्ठापनिकासमितिषिधानेन । उपसर्गसंभवे स किं करोतीत्याह -- मूलारा-जाधे यदा । य अचेतनकताश्चेति समुचिनोत्ययं च । साधे तदा । णिप्पडियम्मो प्रतिकाररहितः। अधियासेदि सहते। तदुपसर्गसहनसामर्थ्यसमर्थनार्थमाह मूलारा-श्रावितियसुसंपणो यत्रपुषभनाराचं, वजनारापं नाराचं चेत्यायेषु त्रिषु शोभनसंहननेषु मध्येऽन्यतम संहनन इत्यर्थः । सुभसंठाणो समचतुरस्रसंस्थानः । अभेद्य अमेय । ओधवलो महाबलः । ओधसूरो नितरां शूरः अत एवं देवादिकृतादुपसर्गानिमयःसन्सहते इति पूर्वेण सम्बन्धः। पुनरतस्य महासात्विकत्वं प्रतिकूलोपसर्गसंक्षोभानुषमुखेन व्यक्ति मूलारा-पीमच्छभीमसणविटविदा विकृतभयंफरदर्शन विविधक्रियाः ।खोभिजो क्षोभिवेयुः । संभम संक्षोभ । अर्थ-बीभत्स और भय दिखानेवाला जिनका दर्शन और विक्रिया है ऐसे भूत, राक्षस और पिशाचोंके द्वारा यदि क्षोभ उत्पन्न करनेका प्रयत्न किया जानेपर भी उनके मनमें मय उत्पन्न नहीं होता है. इडिमदुलं वि उब्धिय किण्णरकिंपरिसदेवकपणाओ॥ लोलंति जदिवियतगं तधवि ण सो विभ्भयं जाई ॥ २०४६ ॥ घिदशर्विक्रियावनिश्चेतश्चोरणकारिणी॥ प्रदर्य महतीमृद्धि लोभ्यमानो न लुभ्यति ॥ २११७ ।। विजयोत्या-इडिमदुलं विगुब्बिय ऋविमतुलां विकृत्य किनारकिंपुरुषादिदेवकन्या यद्यप्युपलालनं कुर्येतितदाप्यसौ म विस्मयं याति ।। Page #1793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः किंनरादिकन्याप्रलोभन लक्षणानुकूलोपसर्गेऽपि तस्य विस्मयाभावं ते ॥ मूलारा-नादि ऋदिकालते लोभवति । विश्य विनय कियामा ।। अर्थ---अनुपम ऋद्धि प्रगट करके किलर किंपुरुषादिककी देवकन्याए उनको लुब्ध करनका प्रयत्न मी करेंगी तो भी उनका मन आचर्यचकित नहीं होता है. १७८२ सव्वो पोग्गलकाओ दुक्खत्ताए जदि तमुवणमेज्ज ॥ तधवि य तस्स ण जायदि ज्झाणस्स विसोत्तिया को वि। २०४७ ॥ संपचतेऽखिलास्तस्य दुःखाय यदि पुनलाः॥ तथापि जायते जातु ध्यानपिनो न धीमतः॥२११८॥ विजयोदया-सब्बी पोग्गलकामओ सर्वे पुलद्रव्यं दुखतया यदि तमभिहति तथापि तस्य न जायते ध्यानस्पान्यथावृतिः॥ मूलारा-सब्बो त्रैलोक्योदरवर्ती । पोम्पलकामो पुदलद्रव्यं । दुक्खचाए दुःखतया । दु:खोपादरूपतयेत्यर्थः उवणमेज उपढौकेत । विसोत्तिया अन्यथाभाषः । आतेरौद्रपरिणतिरित्यर्थः । अर्थ-जगतके संपूर्ण पुद्गल दुःखरूप परिणतिको प्राप्त होकर उनको पीडा करनेके लिए उद्यत होनेपर भी उनका मन ध्यानसे च्युत नहीं होता है. सवो पोग्गलकाओ सोक्खचाए जदि वि तमुवणमेज्ज ॥ तध विहु तस्स ण जायदि उझाणस्स विमोत्तिया को वि.|| २०३८ ।। मुखाय यदि लभ्यते सर्वे पलसंचयाः।। तथापि धीरधी सी ध्यानसश्चलति स्फुटम् ॥ २११९॥ विजयोदया--स्पष्टोत्तरगाथा ।। मूलारा-सोक्खसाए सुखावहतया । १७८२ Page #1794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ-सर्व जगतके पुदल यदि सुखरूप बनकर उनको मुखी करनेके लिए उद्यमी होनेपर भी इन पुनिराजका मन उनमें लुब्ध होता नहीं अर्थात् अपने आत्मध्यानमें ही स्थिर रहता है. आश्वास सच्चित्ते साहरिदो तत्थोवेक्वदि वियत्तसगो।। सबागे र पाते जाणाए थण्डिलमुवेदि ॥ २०४९ ॥ उपेक्षते विनिक्षिप्तः सचित्तहरितादिषु॥ उपसर्गशमे भयो योग्यं स्थान मियर्ति सः॥२१२०।। विजयोदया--सम्धिते साहरिदो व्याघ्रादिभिः सचित्ते निक्षिप्तः स तत्रेवोपेक्षते त्यक्तसर्वागः। उपसमें प्रशांते यत्नेन स्थण्डिलमुपैति । व्याघ्रादिभिः प्राणि संकुलभूतले प्रक्षिपोऽसौ किं करोतीत्याह __ मूलारा--सचिने हरिचतृणादिप्राणियहुलो देशे सा हरिदो व्याघ्रादिभिनीत्वा पक्षिप्तः । तत्थ तत्रैव उवक्खदि | तिष्ठत्युपसगातं यावत् । विपतसव्वंगो त्यक्तसर्वकायः । पसते स्वयमेव प्रशभ गते ॥ ___ अर्थ-हरा तृण वगैरह प्राणिोंसे व्याप्त ऐसे भूप्रदेशमें यदि व्याघ्रादिकोंने लेजाकर फेक दिया तो भी उपसर्ग दूर होने तक ये मुनि शमभाव धारण कर शरीरमोहसे रहित होकर वहाँ ही रहते हैं. उपसर्ग दर होनेपर यत्नस स्थंडिलके तरफ आते हैं. एवं उव सग्गविधि परीसहविधि च सोधिया संतो॥ मणबयणकायगुत्तो सुणिच्छिदो णिज्जिदकसाओ ॥ २०५० ॥ परीषहोपसर्गाणामेव विषहमोद्यतः॥ मनोयाकायगुतोऽसौ निकषायो जिद्रियः ॥ २१२१ ।। विजयोदपा एवं उपसविधि एवमुपसर्गान् परिषदांश्च सहमानस्त्रिगुप्तः सुनिश्चितो निर्जितकरायः॥ मूलारा-पष्टम् ।। १७८३ Page #1795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आधार __अर्थ---इस प्रकार वे मुनिराज उपसर्ग और परीषदों को जीतते हैं. मन वचन और शरीरकी क्रियायें वेद करते है अर्थात् तीन गुप्तिाको पालनकर क्रोधादिक कषायोंको जीतते हैं. आत्मस्वरूप में स्थिर रहते हैं. . इहलोए परलोए जीविदमरणे सुहे य दुक्खे य ॥ णप्पांडबद्धो विहरदेि जिददुक्खपारस्समो धिदिभं ॥ २०५१ ॥ हामुन सुरेख दुःख जीविते मरणे सुधीः ।।। सर्यधा निःमतीकारश्चतुरंग प्रवर्तते ।। २१२२ ।। विजयोदया-लोगे परलोगे इव परत्र च जीविते मरणे सुखे दुःने घ अप्रतिपंधो बिरति जितदुःख परिश्रमः धृतिमान् ॥ .. मूलाराणिप्पनिबद्धो इच्छाद्वेपरहितः । धिदिम धृतिमान । अर्थ --इहलोको और परलोकमें जीवित और मरमें, सुख और दाख में वे इच्छा और द्वेष नहीं रखते || है. धैर्य धारण करते हैं और दुःखोंके परिश्रमसे थे पीडित नहीं होते है. கலைத்தாக்கத்தக்க बायणपरियट्टणपुच्छणाओ मोत्तूण तधय धम्मश्रुदि ॥ सुत्तच्छपोरिसीसु वि सरेदि सुत्तत्थमेयमणो ॥ २०५२ ।। वाचनापृच्छनाम्नायधर्मदेशनचर्जिताः ॥ धीरः सूत्रार्थयोः सम्यग्ध्यायत्ये काग्रमानसः ॥ २१२३ ॥ विजयोदया-बायणपरियट्टणपुच्छणामो वाचनों, परिवर्तनं, प्रभं च मुक्त्वा च तथा धर्मोपदेशं सूत्रस्यार्थ पास्य या स्मरत्येकचिसा वाचनादिस्वाध्यायभेदेषु मध्ये सूत्रार्थानुप्रेक्षामेयासौ करोतीत्यनुशास्ति मूलारा-परिपट्टण आम्नायः । धम्मधुदी धर्मोपदेश देतर्षवनां च । मुत्तत्थपोरिसीयु पंचसु स्वाध्यायभेदेपु मध्ये अथवा पूर्वाहमध्याहार्बरानसमयेषु चतुर्भु षषट्पटिकास्तीर्थकरध्वनिर्निर्गच्छति शेयपि अस्वाध्यायकालेष्वपि इत्यर्थः । सरेदि चितयति । उक्तं घ-, .. १७८४ -. -. . - . .. . .. . in Page #1796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा वाचनापृच्छनाम्नायधर्मदेशनवर्जितः। धीरः सूत्रार्थयोः सम्यकभ्यायल्येकापमानसः ।। __ अर्थ-वे मुनि वाचना, प्रच्छना, परिवर्तन और धर्मापदेश इस रूपसे चार प्रकारके स्वाध्यायक, त्याग कर सूत्र और अर्थका एकाग्रतासे स्मरण करते हैं. अथवा दिनका पूर्वभाग, मध्यभाग. अन्तभाग तथा अर्ध- रात्र ऐसे चार समयों में तीर्थकरांकी दिव्यध्वनि निकलती है. ये काल स्वाध्यायके नहीं है. एस कालमें भी ये अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं. एवं अडवि जामे अनुवट्टो तच्च ज्झादि एयमणो । जदि आधचा णिहा हविज्ज सो तत्थ अपदिण्णो । २०५३ ॥ एवमष्टसु यामेषु निर्निद्रो ध्यानलालसः || भवन्तीं हठसो निद्रा म निषेवत्पसौ पराम् ॥ २१२४ ।। विजयोदया-पयं अवि जामे रखमेचाएस यामेषु निरस्तशयनकियो ध्यात्येकचित्तः, यद्याइत्य निद्रा भषेद तत्र श्रप्रतिशोऽसौ॥ सस्य स्थापक्रिया निविभ्य शक्कावनुजानाति मूलारा-अनुवट्टो अनिद्रः सन् । तच तवं । आशा आइत्य हठात् । अपदिण्यो प्रतिक्षारहितः । हठावती भजतीत्यर्थः। अर्थ-इस प्रकार आठो प्रहरॉमें निद्राका परित्याग करके एकाग्रचित्त होकर वे मुनि तत्वोंका विचार करते हैं. यदि बलात् निद्रा आगई तो निद्रा लेते हैं. emagenerateTURATE सज्झायकालपडिलेहणादिकाओ ण संति किरियाओ || जम्हा सुसाणमझे तस्स य झाणं अपडिसिई ।। २०५४ ।। स्वाध्यायकाले विक्षेपाचतास्तस्य न च क्रियाः ॥ ध्यानं श्मशानमध्येऽपि कुर्वाणस्य निरंतरम् ।। २१२५॥ १७८५ २२४ Page #1797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मूलाराधना विजयोदयासजमायकालपटिलहणादिकायों स्वाध्यायकालप्रतिलेखनादिका किया संति यस्मात मशा ममध्येपि तस्य ध्यानं न प्रतिषिखं । स्वाध्यायकालगवेषणादिना पित्तावक्षेपसंभवे क्षेत्राशुद्धौ वा थ्यानाप्रवृत्तेः कथं तस्याहोरात्रिकमात्मध्यावं स्यावित्यवाह मुलारा-पहिलेइणा गवेषणा शुद्धियों । सुसाण श्मशान । अपरिसिध्धं न प्रतिषिद्ध ।। अर्थ---स्वाध्याय काल और शुद्धि वगैरह क्रियायें उनकी नहीं हैं. श्मशानमें भी उनको ध्यानके लिये । निषध नहीं है. आवासगे च कुणदे उवधोकालम्मि जं जहि कमदि॥ उवकरणपि पडिलिहइ उवधोकालम्मि जदणाए । २०५५ ॥ यथोक्तं कुरुते सर्वमावश्यकमतंद्रितः । विधत्ते सद्वयं कालं उपधिप्रतिलेखनम् ॥ २१२६॥ विजयोदया-आवासगं च कुणदे आवश्यकं घ करोति कालइयेऽपि यस्मिन्काले प्रवर्वते, उपकरणप्रतिलेखममरि पत्मेम कालमये करोति।। . . . एवं तहि नावश्यकादिकमध्यसौ बिधास्यतीत्याशंकामपाकरोति-- मूलारा-च पुनः । उबंधोकाळम्मि रात्रिदिनयोः । कर्मादि प्रवर्तते ।। अर्थ--जो आवश्यककर्म जिस कालमें करने का विधान कहा गया है उस काल में ये मुनि वह कर्म करते हैं। उपकरणोंका प्रतिलेखन-शुद्धि मी प्रयत्नसे सूर्योदय और सूर्यास्त समयमें अवश्य करते हैं. सहसा चुकरकलिदै णिसीधियादीसु मिच्छकारे सो ॥ आसिअणिसीधियाओं णिग्गमणपवेसणं कुणइ ।। २०५६ ॥ सहसा स्खलने जाते मिथ्याकार करोति सः।। आसीनिषधकाशदी विनिःक्रांतिप्रषेशयोः ।। २१२७ ।। १७ Page #1798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STARA मूलाराधना आयोर्स १५८७ MKARATETATAmepareTATATATATTARARATANDAstatutumnAnamera AITASATTATANAMATALAtAGRAATHARANAASHRAM विजयोक्या-सहसा चुटरकलिचे सहसा संबलने जाते मिथ्या मया कृतमिति नीति,निष्कमणमवेशयोःमा कानिपीधिकाशवप्रयोग करोति ॥ . मूलारा-सुरक्खलिद अफरणे किंचित्करणे घा संपन्ने सति । मिच्छाकारी मिध्या मया कृतमिति भावणं । आसि. य निर्गमने आसिका' शब्दोच्चारणं णिसिधियायो । प्रवेशे निपीधिका' शब्दोच्चारणं ॥ अर्थ-कुछ स्खलन होनेपर अर्थात् आवश्यककर्म थोडासा किया गया किंवा नहीं किया गया तो मैने मिथ्या किया - मिथ्या मया कृतं ' ऐसा बोलते हैं. बंदनादि कार्यके लिये जाते समय और प्रवेश करते समय असाह और मिसही ऐसा शमीचमार प्रामसे करते है. पादे कंटयमादि अच्छिम्मि रजादियं जदावेज्ज ॥ गच्छदि अधाविधि सो परणीहरणे य तुसिणीओ।। २०५७ ॥ पादयोः कंटके भने रजसक्षिणयोर्गते ।। तूष्णीमास्ते स्वयं धीरो परेणोद्धरणेऽपि सः ।। २१२८॥ विजयोदया-पादे कंटयमादि पादयोः कंटकप्रवेशे नेत्रयोः रजःप्रभृतिप्रवेशेपि तूष्णीमास्ते, परनिराकरणेपि सतूणीमास्ते ॥ पादादो कंटकादिमवेशनस्योपेक्षामुपदिशति-- मुलारा-फटपमादी फंटककीलकादिकं । आवेज प्रविवेत् । अधाविधि यथाविधि । पोतविधिना याति निराकर्तुं न प्रवर्तते इत्यर्थः । परणीहरणे परेण निष्कास्यमाने पादभग्नकंटके इत्यर्थः । सुण्डीए मौनेन विष्ठति । तुसिणीओ इति पाठे तूष्णीको मौनशीलो भवतीत्यर्थः ॥ .. अर्थ-पैरोमें काटा चुभ गया और नेत्रमें रज-धुलीका कग चला गया तो मी ये अपने हाथसे नहीं निकालते हैं. दूसरोंके द्वारा निकाला जानेपर मौन धारण करते हैं. वेउव्वणमाहारयचारणखीरासादिलखीसु॥ तबसा उप्पणास वि विरंगभावेण सेवदि सो ॥ २०५८ ॥ Page #1799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १७८८ नानाविधासु जातासु लब्धिष्वेष महामनाः ॥ न किंचित्सेवते जातु विरागीमूतमानसः ॥ २१२९ ॥ विजयोदया - उब्वणमाहारय विक्रियादी भाहारकर्यो चारणऋतौ क्षीरास्तथाविलब्धिषु वा तपसोत्पन्नावपि चिरागतया न किंचित्सेवते सः ॥ विनोदारमख--- मूलारावणविक्रियाविधः आहारय आहारफलाधिः । चारण आकाशगमनलब्धिः । खीरासनादि क्षीरसावित्यमधुस्रावित्यादिकवयः ॥ अर्थ - तपके द्वारा वैकिविक ऋद्धि, आहारक ऋद्धि, चारण ऋद्धि, क्षीरास्रावित्वादि लब्धि प्राप्त होनेपर मी विरक्तता युक्त परिणाम होनेसे थे उनका सेवन नहीं करते हैं. अर्थात उसका उपयोग नहीं करते हैं. दीनामपि ॥ मोणाभिम्गहणिरदो रोगादंकादिवेदणाहेदुं । ण कुणदि पडिकारं सो तहेव तण्हाछुहादीणं ॥ २०५९ ॥ daarai प्रतीकारं क्षुदादीनां च धीरधीः ॥ न जातु कुरुते किंचिन्मौनव्रतमवस्थितः ॥ २१३० ॥ विजयोदया - मोणाभिग्नइणिरदो मौनव्रतोपपन्नः रोगातका विवेदनानिमित्तं प्रतीकारं न करोति तथैव दडा रागद्यप्रतीकारमपि तस्याह--- मूलारा - मोणाभिन्न मौनस्वीकारः ॥ अर्थ -- मौन व्रतको धारण करते हैं. रोगादिकोंसे पीडा होने पर उनका प्रतीकार इलाज नहीं करते हैं. भूख, प्यास, श्रीत, उष्ण, इत्यादिकों का भी वे प्रतीकार नहीं करते हैं उवएसो पुण आइरियाणं इंगिणिगदो वि छिष्णकधो ॥ देवे माणुसेहिं व पुडो धम्मं कधेदित्ति ॥ २०६० ॥ आश्वास ८ १७८८ Page #1800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साराधना १७८९ उपरासः ॥ त्रिदशैर्मानुषैः पृष्टो विधते धर्मदेशनाम् ॥ २१२१ ॥ विजयोदय- असो पुण आइरियाणं उपदेशः पुनः आचार्याणां इंगिणीगतोपि धर्म कथयति देवैर्मनुष्येर्धा पृष्ठः । कथं कथयदि छिटकथं प्रपर्तते न महता ॥ केचिदेशन मंगिण्यामप्युपदिशंतीयि दर्शयन्ति मूलारा - आयरियाणं आचार्यांतराणाम् । विच्छिष्णको विधिमा स्तोका कथा यस्यासौ विच्छिन्नकः स्यात् । विष्णकधी इति षा योज्यं । देवैर्मानवैव धर्म कथयेति पृष्टः समिगिणीगतोऽपि स्तोकां धर्मकयां करोति । इत्यन्येषां ममित्यर्थः ॥ अर्थ - इंगिनीमरण में तत्पर रहकर भी वे मुनि देव अथवा मनुष्यके द्वारा पूछे जानेपर थोडासा धर्मोपदेश भी करते हैं ऐसा अन्य आचार्यों का मत है. एवमधस्वादविधिं साधिता इंगिणीं धुद किलेसा ॥ सिज्यंति के कई हवंति देवा बिमाणे || २०६१ ॥ इंगिनी मरणेऽप्येवमाराध्याराधनां बुधाः ॥ केचित्सध्यन्ति केचिच्च सन्ति वैमानिकाः सुराः ॥ २१३२ ।। इंगिनीमृतिं सुखानुषंगिणीं निर्मलां कषायनाशकौशलाम् ॥ पूजिता भजति विनवर्जितां ये नरा भवंति तेऽजरामराः ।। २१३३ ॥ इति इंगिणीमरणम् ॥ विजयोदयापमथस्वादविधि एवं यथाख्यातक्रमेण इंगिणी प्रसाध्य निरस्तफ्लेशाः केचित्सिध्यति, चिद्वैमानिकदेवा भवंति ॥ इंगिणीमाहात्म्यमभिट्टौति — मूलारा - अधक्वादविधिं यथोक्तक्रमं । घुट् किलेसा यथोक्तक्रमेणेंगिण प्रसाध्य जीवन्मुक्ताः संच इत्यर्थः । सिन्ांति प्रक्षीणकृत्स्नकर्माणः पंडित पंडितमरणेन निर्षान्तीत्यर्थः । आश्वास ८ १७८९ Page #1801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १७९० अर्थ-यहां तक जो इंगिनी मरणका विधि कहा है उसको सिद्ध करके कोई मुनि संपूर्ण कर्मक्लेशों को दूर करके मुक्त होते हैं. और कोइ वैमानिक देव होते हैं. एवं इंगिणिमरणं वाससमासेण वणिदं विधिणा || पाओग मणणिमित्रो समासदो चेव वशेसि ॥। २०६२ ॥ इंगिनी मरणं प्रोकं समासव्यासयोगतः ॥ प्रायोपगमनं वक्ष्ये व्यासेन विधिनाधुना ॥ २१३४ ॥ विजयोदय-स्पष्टार्थी गाथा | शंगिणी ॥ प्रकृतमुपसंहरन्नुपदे श्यांवरमुपक्षिपति मुळारा - वासमासेण समासवर्णनात्र 'जो सत्तापदिष्णादिवि एवमिंगिणी मरणव्याख्यानं समाप्तम् ॥ अर्थ - इस प्रकार इंगिणी मरणका विधि विस्तारसे और समाससे संक्षेपसे हमने वर्णन किया है. अब आगे मान मरणका संक्षेप से वर्णन करते हैं. इंगिणी मरणका वर्णन समाप्त हुआ. पाओगमणमरणस्स होदि सो चेव वुवकमो सवो ॥ gat इंगिणिमरणरसुमो जो सवित्थारो ॥ २०६६ ।। इंगमरवाचि प्रक्रमो यो. विशेषतः ॥ प्रायोपगमनेऽप्येष द्रष्टव्यः श्रुतपारगैः ॥ २१३५ ॥ विजयोदया - स्पष्टार्थः ॥ अथातःपरवैयावृत्यानपेश्वालक्षणं पंडितमरणं स्वतृतीयविकल्पं प्रायोपगमन मरणं गाथानकेन व्याधिरूपासुरादौ तदुपक्रममतिदिशति मूलारा स्पष्टम् ॥ कर आव ८ १७९० Page #1802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डावास राधना Porn. प्रायोपगमन मरणका वर्णन-- अर्थ--इंगिणीमरणका जो सविस्तर विधि कहा है वही प्रायोपगमन मरणका भी विधि समझना चाहिए. णवरि तणसंथारो पाओवगदस्स होदि पडिसिद्धो ॥ आदपरपओगेण य पडिसिद्ध सब्बपरियम्म ।। २०६४ ॥ संस्तरः क्रियते नान तृणकाष्ठादिनिर्मितः ॥ . स्वकीयमन्यपि य चैयाकृत्यं न विद्यते ।। २१३६ ॥ विजयोत्या-वरि सणसंधारो णवरं संस्तरः प्रायोपगमनगतस्य प्रतिषियः, आत्मपरप्रयोगण यस्मात्र तिषिद्धः सर्पः प्रतीकारः । स्थपरसंपाचप्रतीकारापेक्षा भक्तमस्यास्पानाविधिः, परनिरपेक्षमात्मसंपाचप्रतीकारामिगिणीमरणं, सर्वप्रटीकाररहितं प्रायोपममनमित्यमीषां भेदः । उत्सर्गेणोपदिश्यापवादमाह मूलारा-पवरिं किंतु । पाओवगवस्स संघात्पादाम्यां योग्यवेशमुपगम्य गृहीतसन्न्यासे सतीत्यर्थः । डिसियो निषिद्धः । आदेत्यादि सर्वप्रतीकाररहितमिदमित्यर्थः । एतेन भक्तप्रतिशगिणीभ्यामस्य भेवो वयते ॥ अर्थ-इस प्रायोपगमनमरणमें तृणके संस्तरका निषेध है. क्योंकि यह प्रायोपगमन करनेवाले मुनि स्वतः और परतः शुश्रूषा नहीं करते हैं. स्वयं भी अपनी शुश्रूषा नहीं करते हैं और दूसरोंको भी शुश्रूषा नहीं करने देते हैं. भक्तप्रत्याख्यान विधीमें स्वपरशुश्रूषा विधिकी अपेक्षा है. इंगिनी मरणमें परशुश्रूषाका निषेध है, परंतु स्वयं अपनी शुश्रूषा करते है. ऐसा इन तनि मरणों में आपस में भेद हैं.. सो सल्लेहिददेहो जम्हा पाओवगमणमुवजादि । उच्चारादिविकिंचणमवि पत्थि पवोगदो तम्हा ॥ २०६५ ॥ करोत्येनं ततो योगी कृतसल्लेखनाविधिः ॥ उच्चारनम्रबादीनां ततो नास्ति निराकिया ।। २१३७ ॥ १७९१ Page #1803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PSEPTET मूलाराधना आश्वासः विजयोदया-सो सल्लेविदेहो स सम्यक्तनूकृतशरीरो यस्मात्मायोपगमनमुपयाति तस्मादुचारादिनिराकरणमपि नास्ति प्रयोगतः। अस्थिवर्भावशेषित्तशरीरत्वाद्विमूत्राद्यपनयनगम्यस्य स्वयं परेण वा न स्यादित्याइ-- . मूलारा--पओगदो स्वपरब्यापारणया । अर्थ- उत्तम प्रकारसे जिसने अपना देह कुश किया है ऐसे ये मुनि प्रायोपगमन मरण विधीको करते समय विष्ठा मूत्र वगैरहका निराकरण स्वयं नहीं करते हैं और अन्यके द्वारा भी कराते नहीं है. पुढवी आऊतेऊवणप्फदितसेसु जदि वि साहरिदो ॥ बोमवत्तहा अधाउन पालए तत्थ ॥ २०६६ ॥ पृथ्वीवाय्वग्निकायादी निक्षिप्तस्त्यक्तविग्रहः॥ आयुः पालपमानोसाघुदासीनोऽवतिष्ठते ।। २१३८ । विजयोदया-पुढधी आऊतेऊत्रणप्फदितसेसु जदि वि साहरिदो पृथिव्यादिषु जीयनिकायेषु यचरि केनचिपाकष्टस्तथापि उयुत्सृष्टशरीरसंस्कारस्त्यक्तदेहः स्वमायुः पालयेत् ।। पृथिव्यादिष्यपि जीवनिकायेषु केनचित्प्रतिकूलोपसर्ग चिकीर्षुणा प्रतिक्षिप्तोऽप्यसौ तोव म्रियते इत्युपदिशति मूलारा-पोसहवत्तदेहो संस्कारममकाराविषयीकृतशरीरः। अधाउगं पालए यथायुः प्रतीक्षते । स्वायुःक्षयं याववतिष्ठते इत्यर्थः ।। अर्य-सचित्त पृथ्वी, अमि, जल, वनस्पति इत्यादि जीवनिकायमें यदि किसीने उनको फेक दिया तो वे शरीरसे ममत्व छोडकर अपनी आयुसमाप्ति होनेतक घद्दाही निश्रल रहते हैं. मजणयगंधपुष्फोबयारपडिचारणे वि कीरते ॥ बोसट्टचत्तदेहो अधाउगं पालए तधि ॥ २०६७ ॥ गंधप्रसूनरूपायैः क्रियमाणेऽप्युपग्रहे ॥ त्यक्तदेहतयोदास्ते स स्वजीवितपालकः ॥ २१३९ ॥ १७९२ समा Page #1804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास BAI विजयोदया-मजणायगंध्रपुरकोवयारपस्चिारणे वि कीरतो यद्यपि कश्चिदभिषचयत् गंधपुष्पादिभिः संस्तुतस्तथापि व्युत्सएत्यक्तशरीरो न रुण्यति न तुष्यति न निवारयति ॥ केनचिदभिषेकादिनोपर्वमागोप्यसौ न तुष्यति न रुष्यति नापि निवारयतीत्यस्यानुकूलोपसपिक्षामुपदेष्टुमाहमूलारा-तधषि तथैव प्रतिकूलोपसर्गवदेवेयर्थः । अर्थ-यदि कोइ उनका अभिषेक करेगा अथवा उनकी गंध पुष्पादिकोंसे पूजा करेगा तो वे उनके ऊपर न क्रोध करते हैं न प्रसन्न होते हैं. तथा उनका निवारण भी नहीं करते हैं. वोसट्टचत्तदेहो दुणिक्खिवज्जो जहिं जधा अंगं ॥ जावज्जी नु सर नहिं लगा : वाजत ॥ २०६८ ॥ यन्न निक्षिपते देहं निःस्पृहः शांतमानसः ततश्चलयते नासौ यावज्जयिं मनागपि ।। २१४॥ विजयोदया-चोसट्टचत्तदेदो व्यत्पृष्टत्यक्तशरीरो निक्षिपेत् कश्चिद्यस्मिन्यथांग यावज्जीवं स्वयं तस्मि स्तदंगे न चालयति ॥ पत्र यथा यत्स्वांग प्राग्निभिन्न ततस्तथाभावाच्च तत्स्वयं यावज्जीवनचालयतीत्याचष्टमूलारा--णि विखोज्जो मिक्षिपेत् । जहिं यत्र स्थाने । तहिं तस्मात् । स्थानादेवस्थानाच । अर्थ-जिस के ऊपर इन मुनिने अपना अंग रख दिया है उसपरते वे मुनि स्वयं यावज्जीव अपना अंग बिलकुल हिलाते नहीं हैं. एवं णिप्पडियम्म भणंति पाओवगमणमरहंता ।। णियमा अणिहारं तं सिया य णीहारमुबसग्गे । २०६९ ॥ इत्युक्तं निःप्रतीकारं मायोपगमनं जिनैः ॥ नियमेनाचलं ज्ञेयंमुपसर्ग पुनश्चलम् ॥ २१४१ ॥ १७९३ Page #1805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १७९४ विजयोत्रया एवं णिष्पडियारं एवं स्वपरकृतप्रतीकाररहितं प्रायोपगमनं जिना वदति, निश्चयेन तत्प्रायोपगमनमनीहारमचलं स्याच्चलमपि उपसर्गे परकृतचलनमपेक्ष्य ॥ उक्तार्थोपसं महमाइ मूलारा - नियमा अणीद्दारं निश्वयेनाचलं स्वकृतशरीरचलनाभावात् । सियाय स्यादवि । णीहारमुषस उपसर्गे परत चलनमपेक्ष्य चलमपि भवेदित्यर्थः । अर्थ - इस प्रकार स्वयं प्रतिकार किया जाना और अन्यके द्वारा प्रतिकार किया जाना इन दोनों प्रतीकाऐसे रहित इस मरणको प्रायोपगमन नामक मरण कहते हैं. निश्वयसे यह मरण अनीहार अचल है. परन्तु उपसर्ग अपेक्षा इसको चल भी माना जाता है. उवसग्गेण य साहरिदो सो अण्णत्थ कुणदि जे कालं ॥ तम्हा वृत्तं णीहारमदो अण्णं अणीहारं । २०७० || उपसर्गहतः कालमन्यत्र कुरुते यतः ॥ ततो मतं चलं प्राज्ञैरुपसर्गले स्थिरम् ॥ २१४२ ।। एतदेव स्पष्टयति- मूलारा -- अण्णत्थ स्थापान्नस्थानादपरत्र | अ अतः || अर्थ - उपसर्ग के वश होने पर स्वस्थानको छोड़कर यदि अन्यस्थानमें मरण हो जाता है तो उसको नीहार प्रायोपगमनमरण कहते हैं. और जो उपसर्ग के अभाव में स्वस्थान में ही हो जाता है उसको अनीहार कहते हैं. एतदेवोत्तरगाथया स्पष्टयति- पडिमा पडिवण्णा विह करंति पाओवगमणमप्पेगे ॥ दीह विहरंता इंगिणिमरणं च अप्पेगे || २०७१ ॥ प्रायोपगमनं केचित्कुर्वते प्रतिमास्थिताः || पधाराधन देवीमिंगिनीमरणं परे ।। २१४२ ।। इति प्रायोपगमनम् ।। आश्वास १७९४ Page #1806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना विजयोवया-पडिमापिगडचण्णा विदु प्रतिमापतिपना अपि पके प्रायोपगमनं कुर्वत्ति, एके इंगिणिमरणं ॥ पाउगं। प्रायोपगमनं केचित्सल्लेखनामकृत्वैव कायोत्सर्ग प्रतिपत्रा अपि कुर्वन्स्यन्ये पुनश्चिरमुपवास कृत्वाप्येवमिगिणी मपीति विभा वर्शयतिमूलारा-पडिमा कायोत्सर्ग: । दीहई चिरकाळ । विहरिता उपवासं कृत्वा । एतं च प्रायोपगमन केचिदाथितमसिमा अपि । कुर्वन्त्यन्ये विहत्यो रिंगिणीमरणं तया || इति प्रायोपगमनमरणव्याख्यानं समाप्तम् ॥ इसी प्रायोपगमनमरणका स्पष्टीकरण करते है-- अर्थ-कायोत्सर्ग को धारण कर कोई मुनि प्रायोपगमन मरण करते हैं. और कोई दीर्घकालतक उपचास कर इस मरणसे शरीरका पाग करते हैं. इसी प्रकार इंगिनीमरणके भी भेद समझने चाहिये. आगाढे उवसग्गे दुभिक्खे सबदो विदुत्तारे ॥ कदजोगिसमधियासिय कारणजादेहिं वि मरंति ॥ २०७२ ॥ उपसँग सति प्राप्ते दुर्भिक्षे च दुरुत्तरे ॥ कुर्वन्ति मरणे शुद्धिं परीषहसहिष्णवः ॥ २१३४ ।। विजयोदया-आगाहे उपसम्गे उपसर्ग मइति दुर्भिक्ष दुरुत्तरे जाते कृतयोगिनः परीषहसहाः कारणजातमाचित्य मरणे कृतोत्साहा भवंति । तस्यैव षस्तुन उदाहरपाानि उत्सरगाथामिस्सूच्यते ।। एवं पंडितमरणविकल्पान्भक्तप्रत्याख्यानादींझीनपि निरूप्य महोपसर्गादौ सति कारणजासमन्याश्रित्य सुभाविसारमानः कृतपहिवमरणोत्साहा भवन्ति इत्युपवेशार्थ चूलिकागाथापट्कमाह मूलारा-दुत्तारे दुरुत्तरे । कद्जोगी रत्नप्रययुक्ताः । समाधिवासिय उपसर्गारिसड्नसमर्थाः । कारणजादेविवि अपराग्यपि मरणकारणानि उत्पन्नान्याश्रित्य । अन्यस्तु कारणे जाते इति मन्यते । तदुक्तं महोपसमें दुभिक्षे सर्वतोऽपि दुरुत्तरे। नियंते कारणे जाते कृतयोग्यधिवासिनः । १७९५ Page #1807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माधासः मूलाराधना १७९६ प्रायोगमन मरण वर्णन समाप्त हुआ. अर्थ-मतान् उपसर्ग, पात होने पर ला हिसकी नए दोनकी आशा नहीं है ऐसा भयंकर दुष्काल आपडेनपर रत्नत्रययुक्त, उपसर्ग सहन करनेमें समर्थ-ऐसे मुनिराज मरणमें उत्साहयुक्त हो जाते हैं. कोसलय धम्मसीहो अठं साधेदि गिद्धपुट्टेण ॥ णयरम्मि य कोल्लगिरे चंदसिर विप्प सहिदूण ॥ २०७३ ॥ पाटलिपुत्ते धूदाहेर्दू मामयकदम्मि उबसग्गे ॥ साधेदि उसभसेणो अठं विक्खाणसं किच्चा ॥ २०७४ ।। अहिमारएण णिवदिम्मि मारिदे गहिदसमणलिंगेण ॥ उहाइपसमणत्यं सत्थग्गहणं अकासि गणी २०७५ ।। सगडालएण बि तथा सत्तग्गहण साधिदो अत्थो । घररुहपओगहेदुं रुटे गंदे महापउमे ।। २०७१ ॥ एवं पण्डियमरणं सबियप्प वणिदं सबित्थारं ।। तुरुछामि बालपण्डियमरणं एचो समासेण ॥ २०७७ ।। कोषलो धर्मसिंहोऽर्थ ससाध श्वासरोधतः ॥ कोणतीरे पुरे धीरो हित्वा चंद्रश्रियं नृपः॥ २१५५ ॥ सुतार्थ पाटलीपुत्रे मातुलेन कर्थितः ॥ जग्राहर्षमसेनोऽर्थ ग्वानसमृर्ति श्रितः ॥ २१४६ ॥ नृपे हते हि चोरेण यतिलिंगमुपेयुषा ।। आचार्यःसंघशान्त्यर्थ शस्त्रग्रहणतो मृतः ।। २१४७॥ १७९६ Page #1808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ s a यूलाराधना आश्वासा १७९७ rdast TREESOME टाल शनग्रहणतः स्वार्थःशकटालेन साधितः । कुतोऽपि हेतुतः क्रुद्ध नेदे सति महीपती ॥ २१५८ ।। अकारि पंडितस्येति सप्रपंचा निरूपणा ।। इदानीं वर्णयिष्यामि मरणं यालपंडितम् ।। २१४५ ॥ इति पंरितमरणम् विजयोदया-पणितमरण ॥ एवं पण्डितमरण सपिकल्पं सविस्तर व्यावर्णित, चश्यामि बालपण्डितमरणमित ऊर्य संक्षेपेण ॥ उतार्थसमर्थनार्थमाख्यानचतुष्टयमायले महारा-कोसलय अयोध्यायां । धम्मसीहो धर्मसिंहो नाम राजा । अहं आराधनां । साधेदि साधयति । तत्कालापेक्षया वर्तमाना, साधयति स्मेत्यर्थः । एवमुत्तरत्रापि । गद्धपुढेग हस्ति कलेवरप्रवेशेन । फोल्लगिरे कोडगिरिनाम्मि । चंदमिरिं चंद्रश्रीसंहिता स्वभार्या । विष्पजहिदूण त्यक्त्या ।। मूलारा-धूदाहेर्नु पुत्रीनिमित्त । मामयकदम्मि श्वशुरेण कृते । बिक्खागमं वैरवामसं भासनिरोथमित्यर्थः ।। मूलारा--अहिमारपण अहि मारकनाम्ना बुद्धोपासकेन । णिवदिम्मि म्यादम्निकानगरीनाथे जयसेनात्य । वाहपसमणत्वं स्वापवादनिवारणार्थ: । अकासि कृतवान् । गणी यतिवृषभनामाचार्यः। मूलारा-सगढाउएग शकटालनाम्ना मुनिना । सत्थगणेण धरिकया जठरविदारणेन । चररुचिपओगहेदं वररुचिप्रयोगेण हेतुना । महापनमे महापाप महापद्मधर्माचार्यस्य समीपे प्रविपनदीमत्यर्थः । प्रकृतोपसंहारपुरःसरं ध्यायेतिरमुपक्षिपति गलारा-सविय भक्तप्रत्याख्यान गिनीमायोपगमनभेदप्रयसहितं । चलिका ॥६॥ इति पंडित मरण व्याख्यान समाप्तम | उनके कुछ उदाहरण बताते हैं अर्थ-अयोध्या नगरी में कोलगिरिपर्वतपर धर्मसिंह नामक राजाने अपनी पत्नी चंद्रश्रीका त्यागकर हा. थीके शरीरमें प्रवेशकर आराधनाकी सिद्धि की है. पाटलिपुत्र नगरमें अपनी पुत्रीके लिये मामाके द्वारा उपसर्भ ESTERan १७१० Biha Page #1809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १७९८ किया जानेपर वृषभसेन नामक पुरुषने श्वासरोध करके आराधना की सिद्धि की है. अहिभारकनामक बुद्धधर्मका उपासक पुरुष था उसने सुनेका वेष धारण किया था, उसने स्रावस्ती नगरीके जयसेन राजा को मार दिया. उस समय अपने ऊपर राजाको मारने का अपवाद आयेगा इस हेतुसे वृषभसेन नामक आचार्यने पत्रके द्वारा अपना घातकर आराधनाकी सिद्धि की है. शकटाल नामक मुनिने समीप दीक्षा धारण की थी इस शकटाल मुनने वररुचिके कारण शस्त्रसे अपना नामक धर्माचार्यके आराधनाओंकी सिद्धि की है. महापद्म घात कर इस प्रकार पंडित मरणका विकल्पोंके साथ आचार्यने सविस्तर वर्णन किया है, अब यहांसे बालपंडित मरणका संक्षेप में वर्णन करते हैं. दे सेकसविरदो सम्मादिट्ठी मरिज्ज जो जीवो || तं होदि बालपण्डमरणं जिणसासणे दिडं || २०७८ ॥ संयतासंयतो जीवः सम्यग्दर्शनभूषितः ॥ यत्तस्य मरणं प्रोक्तं श्रुत र्याल पंडितम् ॥ २१५० ॥ विजयोदया- सिक्कदेव विरदो सर्व्वासिंयमप्रत्याख्यानस्थालमर्थः प्राणातिपातादिपचकादेशविरत इत्युच्यते । एकदेशवितो नाम देशविरमणेपि एकदेशाव्यावृत्तः हिंसाद्येकदेशाद्विरतः स्थूलभूत म्रियते तस्य तद्वालपण्डित मरणं ॥ सम्यग्दृष्टियों अथातो यापंडितमरणं गाथादशकेन व्याचिख्यासुरादौ स्वामिनिर्देशमुखेन तलक्षयति मूलारा---- देखेकदेसविरो] स्थूलहिंसादिपंचकान्मनोवाक्काय कृतादिना व्यावृत्तो देशविरत इत्युच्यते । एकदेशचिरतस्तु देशत्रिरमणेऽपि एकदेशाद्वत्यावृत्तः । स्वशक्त्यनुसारेण कृत हिंसादिनिवृत्तिरित्यर्थः । एतेन सकलेन विकलेन च सागारधर्मेण युक्तः श्रावको निर्दिष्टः । सं तस्य ॥ अर्थ-स्थूलहिंसादि पाप से मन, वचन, शरीर, कृत, कारित और अनुमोदन इनके द्वारा जो विरक्त हुआ हैं उसको देशविरत कहते हैं. और एक देशविरत उसको कहते हैं कि जो एक देशवितिके भी एक देशसे विरक्त आश्वास ८ १७९८ Page #1810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना है अर्थात् अपनी शकेि अनुसार जिसने हिंसादिक्ये निानि धारण की है. संपूर्ण गृहस्थके व्रत पालनेवाला अथवा कुछ व्रत पालनेवाला ऐसा जो सम्यग्दृष्टि उसके मरणको जिनागममें बालपंडित मरण कहते हैं. आश्वास पतदेच स्पष्यति ॥ पंच य अणुव्वदाई सत्तयसिक्खाउ देसअदिधम्मो ॥ सव्येण य देसेण य तेण जुदे होदि देसजदी || २०७९ ॥ पंचधाणुव्रतं प्रोक्तं त्रिधा प्रोक्तं गुणत्रतम् ।। शिक्षावतं चतुर्धा च धर्मो देशयतेरयम् ॥ २१५१ ॥ विजयोदया-पंच य अ गुय्ययाई पत्राणुप्रतानि शिक्षाप्रतानि वा सप्त प्रकाराणि देशयतेर्धमः तेन समस्तेन धर्मेण युतः स्वशक्त्या या तदेकदेशेन युतोऽपि वेशयतिरेव द्वादशविधगृहिधर्मपत्यायनपराणि सूत्राण्युत्तराणि प्रसिद्वार्थानि ॥ दर्शकदेशविरतपदार्थ विवरणार्थमाइ मूलारा-सिक्नाओ गुणवतत्रयं, चत्वारि, शिक्षाप्रतानीत्यर्थः । सब्वेण सम्यक्त्वपूर्वकद्वादशवतात्मकेन | देसेण सदर्शनसमावस्यशक्त्युपकल्पितत्रतरूपेण ॥ अर्थ- सम्यक्त्व के साथ पांच अणुव्रत और सात शिक्षाप्रत ये गृहस्थके धर्म हैं. इसलिये इन चारा व्रतोंसे जो युक्त है उसको उस गृहस्थको देशयति कहने हैं. इस संपूर्ण धर्मसे अथवा स्वशक्तिसे उस धर्मके एक देशसे जो युक्त है वे भी गृहस्थ देशयति कहे जाते हैं. पाणवधमुसाबादादत्तादाणपरदारगमणेहिं अपरिमिदिच्छादो वि अ अणुक्याई विरमणाई ॥ २०८० ।। जं च दिसावेरमणं अणत्थदंडोहि जं च चेरमणं ।। देसावमासियं पि य गुणन्वयाई भवे ताई ॥ २०८१ ॥ Page #1811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १८०० भोगाणं परिसंखा सामाइयमतिहिसंविभागो य ॥ पावधी यस दुरो सिक्खाउ बुत्ताओ || २०८२ ॥ आक्कारे मरणे अच्छिण्णाए जीविदासाए || णादीहि वा अमुक्की पाहणमकासी ॥। २०८३ || हिंसामसूतं स्तेयं परमारीनिषेवणम् ॥ त्रिमुचतो महालोनं दिग्देशान दंडानां त्यागस्त्रेधा गुणवतम् ॥ शिक्षाव्रतमिति प्राज्ञैश्चतुर्भेदमुदाहृतम् || २१५३ ॥ भोगोपभोगसंख्यानं सामायिक्रमखंडितम् ॥ २१२ म गांव प्रोषधोपोषितत्रतम् ॥ २१५४ ।। सहसोपस्थित मृत्यो महारागे दुरुत्तरे ॥ स्वबांधवैरनुज्ञातो याति सल्लेखनामसी ॥ २१५५ ।। विजयोदया-सुकारे मरणे सहसा मरणे अच्छिभायां जीविताशायां बंधुभिर्वा न मुक्तः पश्चिमसलेखनामकृत्वा तालोचनो निश्शल्यः स्वगृह एवं संस्तरमा देशविरतस्य मृतियलपण्डितमित्युच्यते ।। पंचास निर्देशार्थमाह मूलारा -- दिसाविरमणं सर्वहिंसादिनिवृत्यर्थं दिविदिशामनं परिमाणावधारणं । अगत्य देडेहिं पापोपदेशहिंसो पकरणदानापध्यान कुशाश्रवगादाचरणेभ्यः पंचभ्यः । सावगासिये गृहक्षेत्रादिषु हिंसादिनिवाथे स्थितिगमनादि परिमाणकारणम् ॥ शिक्षाव्रत चतुष्टयं दर्शयति- मूलारा - भोगाणं पढिसंखा भोगोपभोगपरिमाणं । सामायिये त्रिकालदेव वंदनादिकं । अदिधि पात्रं पोस धविधी पर्व उपवासक भक्तादिवपञ्चरणं । सिक्खाबो शिक्षात्रतानि । आश्वासः ८ १८०० Page #1812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आभासः १८.१ यथोक्तापकस्याकृतसल्लेखनस्य मरणं बालपंदितमरणसंज्ञया व्यपदेष्टुं नाथायमाहमूलारा-आसुकारे सइसोपस्थिते । अब्बोच्छिण्णाप अनिछन्नायां ॥ गृहस्थके यारा ब्रताका वर्णन. अर्ध-प्राणोंका घात करना, असत्य बोलना, चोरी करनापरस्त्री सेवन करना. परिग्रहमें अमर्याद इच्छा रखना, इन पापोंसे विरक्त होना अणुव्रत है. सर्व हिमादि पातकोंका त्याग करने के लिये दिशा तथा विदिशामें गमन का परिमाण करना दिग्बत है. पापोदेश, हिंसादान, अपध्यान, कुशास्त्र श्रवण और प्रमादयुक्त आचरण इन पांच अकार्योसे विरक्त होना अनर्थदंडवत कहा जाता है. घर, खेत बगैरह की मर्यादा कर हिंसादिनिवृत्ति करना अर्थात क्षेत्रादि मर्यादाके बाहर जानका त्याग करना, मादामें ही रहना देशाबकाशित व्रत है.भोग और उपभोगोंका परिमाण करना भोगोपभोग परिमाणवत है, त्रिकालमें देववंदनादिक करना सामायिक है. चागें पर्वतिथिओंमें उपवास करना, एकदफे भोजन करना इत्यादि तप करना प्रोषधोपचास प्रत है. पात्रको दान देना आतीयसंविभागवत है, ये चार शिक्षाबत हैं. इन व्रताको पालनेवाले गृहस्थ सहसा मरण आनेपर, जीवितको आशा रहनेपर, अथवा बंधुओने जिसको दीक्षा लेने की सम्मति नहीं दी है ऐसे प्रसंगमें शरीरसल्लेखना और कषायसल्लखना न करके भी आलोचना कर, निश्शल्य होकर घरमें ही संस्तरपर आरोहण करता है. ऐसे गृहस्थकी मृत्युको बालपंडित मरण कहत है. - - PARRI - आलोचिदणिरसल्लो सघरे चेवारुहितु संथारं ।। जदि मरदि देसबिरयो तं बुलं बालपण्डिदयं ॥ २०८४ ॥ जो भत्तपदिण्णाए उवकमो वित्थरेण राणीट्टिो ॥ सो चे बालपण्डिदमरणे णेओ जहाजोग्गो ॥ २०८५ ॥ वेमाणिएसु कप्पोवगेस णियमेण तस्स उबवादो ॥ णियमा सिम्झदि उनकस्सएण वा सत्तमम्मि भवे ।। २०८६ ॥ Page #1813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना मआश्वासन १८०२ न इय चालपंडियं होदि मरणमरहतसासणे दिटुं || एत्तो पण्डिदपण्डिदमरणं वोच्छं समासेण ॥ २०८७ ॥ विधायालोचनां सम्यक् प्रतिपद्य च संस्तरम् ।। म्रियते यो गृहस्थोऽपि तस्योत यासपण्डितं ।। २१५६॥ मोक्तो भक्तप्रतिज्ञायाःप्रक्रमो यः सविस्तरम् ।। अत्रापि स यथायोग्यं द्रष्टव्यः श्रुतपारगैः ।। २१५७ ।। येन देशयतिना निषव्यते वालपंडितमृतिर्मिराकुला ॥ भोगसांख्यकमनीयतावधिः कल्पयासिविषुधः स जायते ।। २१५८ ॥ एकदा शुभमना विपद्यते शलपडितमूर्ति समेत्य यः॥ स प्रपद्य नरदेवसंपदं सप्तम भवांत निवतो भवं ॥ २१५९ ॥ इति बालपंडितम् ॥ एवं समासतोऽयाचि मरणं बालपंडितम् ॥ अधुना कथयिष्यामि मृत्यु पंडितपंडितम् ॥ २१६० ।। विजयोवया-स्पष्टार्थत्रया गाथाः॥ वालपण्डिदं । मूलारा--आलोचिद विधिवत्कृतालोचनः । णिस्सहो मायानिदान मिथ्यात्वमुतः । सघरे व स्वगृह एच, न चैत्यादयादी। तस्प्रयोगविधिमतिदिशाति--- मूलारा-जधाजोग्गो यो यो योग्यः श्रावकरत्नत्रयोचितः । शीलविनयसमाध्यादिः स स इत्यधः। तत्फलमभ्युदयपुरःसरं निःश्रेयसमवश्यंतचा निरूपयतिमुलारा--कप्पोब गेसु सौधर्मादिकल्पोपपन्नेधु देवेषु मध्ये । तस्स बालपंडितमृतस्य । प्रस्तुतोपसंहारपुरस्सरं व्याख्येयान्तरमुपचिपतिमूलारा-स्पष्टम् ॥ इति बालपंडितमरणव्याख्यानं समाप्तम् ।। - १८०२ Page #1814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा अर्थ-भक्तप्रत्याख्यान मरणमें जो प्रयोगविधि विस्तारसे हमने कहा है. वहीं इस बालयडितमरणमें गृहस्थ के योग्य समझना चाहिये. श्रावकके रत्नत्रय को योग्य ऐसा जो जो विनय, समाधि वगैरह विधि है वह यहां भी समझना चाहिये. बालपंडित मरणसे मरण करनेवाला आवक नियमसे सौधर्मादिकल्पोंमें उत्पन्न होता है. तदनंतर उत्कृष्टतासे सात भवों में वह नियमसे सिद्ध होता है. इस प्रकार अरइतके आगममें बालपंडित मरणका स्वरूप कहा है. अब यहाँसे आगे पंडितपंडितमरणका स्वरूप हम (आचार्य) कहते है. साह जधुत्तचारी बट्टतो अप्पमत्तकालम्मि ॥ झाणं उवेदि धम्म रविट्टकामो खवगसेटिं ।। २०८८ ।। अप्रमत्तगुणस्थाने वर्तमानस्तपोधनः ।। आरोक्षपकणी धर्मध्यानं प्रपद्यते ॥ २१६१ ॥ विजयोवया-- साह अधुत्तचारी शास्त्रोक्तन मार्गेण प्रतिमानस्साधुरप्रमत्तगुणस्थानकाले धर्य ध्यान मुपैति क्षपकथणि प्रवेष्टुकामः ५ अथवं नाबालमरणादिचतुष्टयं प्रणिगरा पंडितपंडितमरणं गाथावासलया निरूपयजीवन्मुक्तिप्रादुर्भावप्रकमोपक्रम पंचदशगाथाभिरभिधत्ते--- मूलारा-पयि मिदुकामो प्रवेटुमिच्छन् । अर्थ-शास्त्रोक्त मार्गका अनुसरण करनेवाले मुनिराज अप्रमत्तगुण स्थानमें क्षपकश्रेणीकी प्राप्ति कर लेनके लिये धर्मध्यानको धारण करते हैं. ध्यानपरिकर बाह्य प्रतिपादयति सुचिए समे विचित्ते देसे णिज्जंतुए अणुग्णाए॥ उज्जुअआयददेहो अचलं बंधेत्तु पलिअंकं ॥ २०८९ ।। अनुज्ञाते समे देशे विविक्त जंतुवर्जिते ॥ कावायतवपुर्यष्टिः कृत्वा पर्यकर्वधनम् ॥ २१६२ ॥ १८०३ Page #1815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास विजयोदया-सुचिए समे शुची समे एकाते देशे निज्जतकं अनुशाते तत्स्वामिभिः ऋचायतदेहःपल्यकमन्त्रलं पदभ्या ॥ धयच्या नस्व बाह्यपरिकर्मानुस्मरयितुं गाथात्रयमाह-- मूलारा-चिचित्ते एकान्ते । अणुण्णादे तदधिष्ठातृदेवताभिरनुमते । धर्म्यध्यानके बाह्यपरिकरका वर्णन अर्थ-पवित्र, सम, निर्जन्तुक, देवतादिकोंसे अनुमति जहां ली गई है ऐसे स्थानपर मुनि निश्चल खडे होकर अथवा पल्यंकासनसे ध्यान करते हैं. या वृत्तः॥ बीरासणमादीयं आसणसमपादमादियं ठाणं । सम्म अधिढिदो अध बसेज्जमुत्ताणसयणादि ॥ २.९.॥ वीरासनादिकं अनुवा समपावादिकां स्थितिम् ॥ आश्रित्य वा सुधीः शय्यामुत्तानशयनादिकम् ॥ २१६३ ॥ घिजयोदया-बीरासपादिगं धीरासनादिकमासनं अश्या समपादाविना स्थितो वा अथवा उत्तानशयनादिना मूलारा--सयणादी आदिशकपादिशयनं । अर्थ-वीरासनादिक आसनसे बैठकर अथवा समपादादिकसे खडे होकर किंवा उत्तान शयनादिकसे सोते हुए धध्यान करते हैं. पुत्वमणिदेण विधिणा झायदि उझाणं विसुद्धलेरसाओ ॥ पवयणसंभिष्णमदी मोहस्स खयं करेमाणो ॥ २०९१ ।। पूर्वोक्तविधिना ध्याने शुद्धलश्यः प्रवर्तते ।। योगी प्रवचनाभिज्ञो माहनीयक्षयोद्यतः ॥१६॥ विजयोदया-पुष्यमणिदेण विधिणा पूर्वोक्तेन क्रमेण ध्याने प्रवर्तते विशुखलेझ्यः । प्रवचनार्थमनुप्रविष्टमतिः मोहनीयं भयं नेतुमुद्यतः॥ १८०४ Page #1816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १८०५ SEARNIRAHASRANAMATA मूलारा-पषवणसंभिण्णमदी चतुर्दशपूर्भिस्तुतानुप्रविष्टबुद्धिः ॥ अर्थ--मोहनीयकर्मका क्षय करने में उद्युक्त होकर चौदहवों में कहे गये जीवादिक पदार्थोंके सरफ अपनी बुद्धिका उपयोग लगाते हैं. और परिणामोंको निर्मलकर पूर्वोक्त विधीसे धर्मध्यान करते हैं. संजोयणाकसाए खवेदि झाणेण तेण सो पढमं । मिच्छत्तं सम्मिरस कमेण सम्मन्तमवि य तदो॥ २.९२ ।। पूर्व संयोजनान्हन्ति तेन ध्यानेन शुद्धधीः ।। मिथ्यास्वमिश्रसम्यक्त्वत्रितयं क्रमतस्ततः ।। २१६५ ।। विजयोदया-संजोयणाकसाए मनतानुबंधिमा कोषमानमायालोभान क्षण्यति ध्यानन, तेनासा प्रथम मिथ्यात्वं, सम्पष्ठियथ्यात्वं, सम्यक्त्वं च क्रमेण एवं प्रकृतिसप्तकं विनाध्य क्षायिकसम्यग्दृष्टिभूत्वा भपकण्यधिरोहा. भिमुखोऽयधाप्रवृत्तकरण अप्रमत्तस्थाने प्रतिपय ।। धम्येध्यानक्षपणीयसम्यक्त्वघातिमोहप्रकृतिसमकक्षपणमुपदिशति मूलारा-संजोवण अनन्तसंसार कारणत्वादनंत मिष्यात्वं अनुचनेतीत्यनंतानुबंधिनः । कोषादीनामवस्थाविशेषाश्वत्वारः संयोजनाशट्रेनोच्यते । तेण धर्मेण । मिस मिश्यार्थाभिनिवेशनिमित्तं दृमोइनीयं । सम्मिरस सम्यकमिथ्यात्वं सामिशुद्धस्वरसं मिथ्यात्वमित्यर्थः सम्म सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरुद्धस्वरसे मिध्यात्वमित्यर्थः । तदुदपि तरवार्थअद्भानं स्यात् ॥ अर्थ-मिथ्यात्वको संसारका कारण होनेसे अनंत कहते हैं, इस अनंतका अर्थान मिथ्यात्वका संबन्ध करा देने वाले कषायाँको-क्रोध, मान, माया और लोभको अनंतानुबंधी कषाय कहते हैं. धर्मध्यानसे इन कषायोंका मुनिराज नाश करते हैं. तत्त्वोंपर मिथ्याश्रद्धान कराने वाली कर्म प्रकृतिको मिथ्यात्व कहते हैं. जिसमें आधी शु. द्धता उत्पन्न हुई है ऐसे कर्मको सम्मिश्र अर्थात् सम्यक् मिथ्यात्व कहते हैं. इस कर्मके उदयसे एक समयमें मिथ्यात्व और सम्यक्त्व परिणाम युगपत् उत्पन्न होते हैं. शुभपरिणामसे अतत्पश्रद्धान परिणाम उत्पन्न करानेवाली शक्ति जिसकी नष्ट होगई है ऐसे मिथ्यात्व प्रकृतिको सम्यक्त्व कहते हैं. इन सातोंका क्षय करके अप्रमत्त गुणस्थानवी । मनि क्षायिक सम्यक्त्वी होते है. तदनंतर धर्मध्यानसे धपकश्रेणीपर आरोहण करनेकोलिये उन्मुख होते हैं. SAGAS १८०५ Page #1817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १८०६ क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर क्षपक श्रेणिपर चढ़ने के लिए उद्युक्त होते हैं तब प्रथमतः अप्रमत्त गुणस्थानमें अध: करणको प्राप्त होते हैं. अध खवयसेढिमधिगम्म कुणइ साधू अपुवकरणं सो॥ होइ तमपुवकरण कयाइ अप्पत्तपुवंति ॥ २०९३ ।। आरुह्य क्षपकश्रेणीमपूर्वकरणो यतिः ॥ भू यते रधानमनिरिगुणाभधम् ।। २१६६॥ विजयोदया-अघ खबमसेविमधिमम्म अथ क्षकश्रेणीमधिगम्य करोति साधुरपूर्वकरणमसा । किं तदपूर्व करणमित्याशंकायामुच्यते । होदि तमपुब्धकरणं भवति तदपूर्पकरण, कदाइ अप्पत्तपुब्बति कदाचिदप्राप्तपूर्वमिति । बमध्यानेनासंयतसम्यग्दध्यादिपु चतुर्वन्यतम स्थितः सम्यक्त्वघातिप्रकृतिसप्तकं निशात्य क्षायिकसम्यक्त्वमध्यास्य क्षपकण्यारोहणाभिमुखःभन्न प्रमत्तस्थाने तथा प्रवृत्तकरणमधिगम्य साधुरपूर्वगुणं झपकणिप्रथमसोपानमारोहवीत्युपदेष्टुमाह मूलारा- अध अपकण्यारोहणमधिक्रियते इत्यर्थः । सो धर्मध्यावसाधितप्रथम शुकृभ्यानोपक्रमः । कयाइ कदाचित । अनादिकाल । अपनपुनि पूर्व अप्राप्ता परिणामा यस्मिस्तदिदं अपातपूर्व यतः। अर्थ-क्षपक श्रेणिकी प्राप्ति होनेके अनंतर ये मुनिराज अपूर्व करणको करते हैं. यह अपूर्वकरण पूर्वमें कभी प्राप्त नहीं हुआ था. अतः इसको अपूर्वकरण यह अन्वर्थक नाम है. अनादिकालमें ये परिणाम इस जीवको प्राप्त नहीं हुए थे क्योंकि धर्मध्यानके अनंतर प्रथम शुक्लध्यानकी प्राप्ति पूर्वकालमें कभी नहीं हुई थी. -text * अणिवित्तिकरणणाम णवम गुणठाणयं च अधिगम्म ॥ णिहाणिद्दा पयलापयला तथ थीणगिाई च ।। २.९४ । * टिप्पणी-अध सो खवेदि भिक्खू अणियट्टिट्ठाणमुचगमित्ताणं । इति मूलाराधनायां पाठः ॥ Page #1818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PHRATASSADARAMADARA मूलाराधना आचासा १८०७ सूक्ष्मसाधारणोशोतम्यागशिप मापान॥ एकाक्षविकलाख्यानां जाति तिर्यग्द्वयं मुनिः ॥ २१६७ ।। विजयोदया-अणियट्टिकरणणाम णवम गुपाठाणमधिगम्म अनिवृत्तिगुणस्थानमुपगम्य पिदाणिदा पयलापयला निमि प्रचलामचलां स्त्यानाद्धं च । अनिवृत्तियादरसापरायनपकस्थान प्राप्य क्रमेण क्षपणीयानि कर्माणि गाधाचनुष्टयेन व्याचष्टे मूलारा-अध अपूर्षकरणानंतरं । सो पृथक्वचितचीचारायशुक्लथ्यानप्रविष्टः । रववेदि वक्ष्यमाणानिद्रा निद्रादीन्सतविंशकर्मविशेषान् । षोडशाटककसंख्याक्रमेण विश्लेषयत्तौति समुदावार्थः । अणियट्टिठाणमुवचित्ताणं अनिवृत्तिकरणप्राप्त्या अनिवृत्तिवादरतापरायझपक गुणस्थानमुसंगम्य । जिहाणिहा भुक्तानपरिणाममदखेदकलमादेविनोदार्थो निद्रास्पदर्शनावरणकर्मविशेषत्रिपाकनिमित्तो जीवस्य दियारमाननो-गरुत्सूक्ष्मायस्थालक्षण: स्वापो निद्रा । निद्राया उपरि उपरि वृत्तिनिद्रानिद्रा । निद्रातिद्रादीनाचरणकमविशेपोदयजन्यश्चेतनस्य दुःखप्रोधस्थापपरिणाम इति यावत् ॥ वक्तं च गिदा सुश्परिचोदा गिहाणिहा य दुक्खपाडवोहा ॥ पयला होइ टियरस वि पयलापयला य चंकमंतस्स ॥ __ स्थलापयला या क्रियात्मानं प्रचलयति घूर्णयति सा प्रचला प्रयळाक्यदर्शनावरणफर्मविशेषषिपावशस्य जीवस्यासीनस्थापि शोकश्रममदादिममवो ने गात्रविक्रियासूचितः स्वापरिणाम इत्यर्थः । प्रचलेव पुन:पुनरावर्तमाना प्रचलाप्रचला । चंक्रममाणस्थापि आफ्ननः प्रपळाप्रवलाख्यदर्शनाबरण कमेरिकलाविपाकशाजायते । यीणगद्धि स्वप्ने यया वीर्य विशेशविर्भावः सा त्यानगृद्धिदर्शनारणकर्मविशेषः । स्त्याने स्वप्ने गृद्धयति यदुदवादात्मा रौद्रं बहु कर्म करोति । अब निद्रादिशब्दहेतुफळ भावापनभावस्वभावदर्शनावरण कर्मविकल्पाः पुदलजीवविधता गृह्यन्ते ।। अर्थ-अनिवृत्तिकरण नामक नवमें गुणस्थानको प्राप्त होनेपर मुनिराज निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानमृद्धि इनका नाश करते हैं. विशेपार्थ-पृथक्त बितर्क विचार नामक ध्यान में प्रवेश करनेपर निद्रा निद्रादिक सदतीस कर्म प्रकतिओंका क्षय करते हैं. उस समय वे अनियुतिकरण गुणस्थानमें रहते है. निद्रा-भोजन किए हुए अनका मद उत्पन्न होनेसे, तथा खेद, क्लम इनको नष्ट करनेके लिए सो जाना उसको निद्रा कहते हैं. जब निद्रा नामक दर्शनावरण कर्मविशेषका उदय होता है तब जीवके इंद्रिय Page #1819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १८.८ और मन तथा श्वासोच्छ्वासकी सूक्ष्म प्रवृति होती है. पुनः पुनः निद्रा जब आती है. तब उसको निद्रानिद्रा कहते हैं. अर्थात् निद्रानिद्रा नामक दर्शनावरण कर्मके उदय से वह कष्टसे जागृतावस्था उत्पन्न होती है. परन्तु निद्र। जल्दी खुलती है. बैंठ हुए मनुष्य के अंगमें, नेत्रों में जो विक्रिया उत्पन्न होती है उसको प्रचला कहते हैं. यह अवस्था प्रचलादर्शनावरण कर्मके उदयसे होती है. ऐसी अवस्था पुनः पुनः उत्पन्न होना उसको प्रचला प्रचला कहते हैं. यह अवस्था प्रचलाप्रचला दर्शनावरण कर्मोदगसे होती है. निद्रामें जिसके उदयसे वीयविशेष प्रगट होता है उस कर्मको स्त्यानाद्ध दर्शनावरण कर्म कहते हैं. इसके उदयसे रौद्रकम आत्मा करता है निद्रादेरूप परिणति जो होती है, उसका भाव निद्रा, भाव प्रचल वगैरे कहते हैं. और निद्रादि कर्मोको जो उदय है वह पहल दृव्यकी विशेष अवस्था है. - णिरयगदियाणुब्धि णिरयगदि थावरं च सहमं च ।। साधारणादवुज्जोत्रतिरयगदि आणुपुबीए ॥ २०९५ ॥ स्थावरं नारकद पोडश प्रकृतीरिमाः॥ प्लोषते प्रथम तत्र शुक्लध्यानकृशानुना ।। २१६८।। विजयोदया-गिरयगदिवाणुपुचि नरकगत्यानुपूर्षि, नरकगति, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, भातपं, उद्योत तिर्यमास्यानुपूर्वि ॥ मूला--गिरयदि आणुपुचि यदुननादात्मा भातरं गच्छति सा गतिः । नरकस्य गतिनेरकातिरत्मनो नारकभावनिमित्तं नामकर्मविशेषः । पूर्वशरीराकाराविनाशो अस्योदयाद्भवति तदानुखियं नाम । अगत्यूपेशरीराकार अविनाश्य जीवेन सह नरकादियावदेव बोलापकवद्गति तन्नर कादिरातिप्रायोग्यानुयूादिभेदारपतुधि, तन्मध्यान नरकगतिमायोग्यापूर्वी अपयतीति संबंधः । थावर स्थावरारूपं जीवम्यकेंद्रियेषु प्रादुर्भावकार नागकर्म । मुहुमं सूक्ष्मसंझं परानुपघातकसूक्ष्मशरीरनिर्वतकं नामकर्म । साधार बहूनामात्मनां प्रपभोगतत्वेन साधारण शरीरं चतो भवति सत्साधारणशरीरनाम । आदव यदुदयादातपनं निप्पद्यते तदानप नाम तच्च प्रामोदयमादित्ने वर्तते ॥ जोबो-जयोतननिमित्तमुद्योतमाग्न लवंद्र क्योतादिषु सफलोभिव्यक्तं वर्तते ॥ तिरियगदि आणुपुब्बीओ तिर्यातिप्रायोग्यानुपूर्व्य॥ Page #1820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नलाराधना अर्थ---इस अनिचिकरण गुणस्थानमें जैसे निद्रानिद्रा, प्रचला मचला, और स्त्यानगृद्धि इनका नाश | 16 आवास होता है. बैंस नरकगत्यानुपूर्वी, नरकगति, स्थावर, मूक्ष्म, साधारण, आतष, उद्योत, नियंग्गत्यानुपूर्वी इन कर्मोका भी नाश होता है. जिसके उदयसे आत्मा भवानरको माग होता है उस वर्गको गतिकर्म कहत है. आत्माको नरकावस्थाकी प्राप्ति जिम कर्म के उदयसे होती है उस कर्म को नरकगति नामकम कहते हैं. पूर्व शरोराकार का नाश जिस कम के उदय से नहीं होता है उस कर्म को आनुपूर्वी कर्म कहते हैं. पूर्वशरीरका नाश न कर जो कर्म जीव के साथ नरक तक जाना है. उसको नरकगत्यानुपूर्वी कर्म कहते हैं. जो जीवको एकेंद्रिय प्राणिमें उत्पन्न करता है ऐसे कर्म को एकेन्द्रिय कहते हैं. दूसरों को जिससे बाधा नहीं होती है ऐसे सूक्ष्म शरीरको निर्माण करनेवाले कर्म को सूक्ष्म नामकर्म कहते हैं. जो शरीर बहु आत्माओं को उपभोग्य बनता है अर्थात् जिसमें अनंत जीव रहने हैं ऐसा जो निगोदशरीर उसको साधारण शरीर कहते हैं. एसा शरीर जिससे अनता है उस को साधारण नाम कर्म कहते है. जिसके उदय से संताप उत्पन्न होता है ऐसे कर्म को आतपनाम कर्म कहते हैं. इस कर्मका उदय सूर्य के चिंबाम रहता है. उद्योत को निमित्त जो कर्म है उसको उद्योतनाम कर्म कहते है. इस कर्मका उदय चंद्र विच, खद्योत-जुगनु इत्यादिकों में पाया जाता है. नियमति प्रायोग्यानुपुर्व्य-जिमके उदयसे जीव के पूर्व शरीराकारका नाश नहीं होता है तथा जो जीवको तिथंच गतितक ले जाता है उसको तिर्यग्गति आनुपूर्वी कहते हैं. - इगविगतिगचदुरिंदियणामाई तब तिरिक्खगदिणाम ॥ खवयित्ता मझिल्ले स्ववेदि सो अबि कसाए ॥ २०९६ ॥ कषायान्मध्यमानष्टी पंढथेदं निकृन्तति ।। नषिवं क्रमतः षटुं हास्यादीनां ततःपरम् ॥ २१६० ।। विजयोदया-इगविग एकपित्रिचतुरिट्रियजातीः, तिर्यग्मति, अप्रत्याख्यानचतुष्क, प्रत्याख्यानचतुष्कं च अपयति । मूलारा-पारितियवादियणामाओ एकेन्द्रियादिजातीश्ववस इत्यर्थः । नरकादितिवन्यभिचारिणा सार Page #1821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STATI मुलाराधना भाश्वासः श्येनेकीकृतोऽयमा जातिः । तत्कारणं जातिनामकर्म तवैकेन्द्रियादिजाति विकल्पापंचधा । यदुदयादात्म। एक द्रिय इति शब्द्यते नंदकेन्द्रियजानिनाम । एवं दोपेवपि योज्यम् । खवयित्ता निद्रानिद्रादिका यथोक्ताः पोडश कर्मप्रकृतीयुगपद्विश्लेष्य । अट्टवि ईपत्पत्याख्यानमत्याख्यान देशर्सयममावृश्यन्ति निरुन्धन्तीत्यप्रत्याख्यानापरणाः क्रोधमानमाया लोभाः । अल्पस्यापि देशसंयमस्य शाकि योदयेन हतारः । प्रत्याख्यानं सकलसंयम आवृण्वन्तीति प्रत्यारूपानावरणाः कोपादयः करनसंग्रमाक्लिरियाति विराकाः । तानष्टापि मध्यमकपायाभपयतीति संबंधः । अर्थ--इस बी गुणस्थानों में एकेन्द्रिय जाति, द्वींद्रियजाति, त्रीन्द्रिपजाति, चतुरिद्रिय जाति, तिर्यग्गति नाम कर्म, अप्रत्याख्यान ऋांध, मान; माया, लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया लोग इलेवनीका क्षय होता है. एकद्रियादि चार जातिकर्मीका इस गुणस्थान में क्षय होता है. नरकादि गतिओंमें अविरुद्ध ऐसे सादृश्यसे एक रूप दिखानेवाला जो पदार्थका धर्म उसका जाति कहते है. इसीको सामान्य भी कहते है. यह सामान्यावस्था जिससे उत्पन्न होती है ऐसे कर्मको जाति नामकर्म कहते हैं. उसके एकेंद्रिय जाति वगैरह पांच भेद है. जिसके उदयसे आस्मा एकेंद्रिय माना जाता हैं ऐसे फर्मको एकेंद्रिय जातिकर्म कहते हैं, इसी प्रकार हीन्द्रियादि जातिनामकर्मका स्वरूप जानना चाहिए. निद्रा निद्रादिक सोलहप्रकृत्तिओंका इस मुणस्थान में युगपत् नाश होता है. जो देशसंयमको होने नहीं देते हैं ऐसे कपायोंको अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं. इसके प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे चार भंद हैं. इनका जर उदय होता है तब जीवकी देशसंयम धारण करनेकी शक्ति नष्ट होती है. जो प्रत्याख्यानको अर्थात् सकल मयमको नष्ट करते हैं उनके प्रत्याख्यान क्रोध. मान माया लोम एने नाम हैं. इनमें सकल संयमकामहातका घात करनका सामथ्य हैं. इन आठ मध्यम कषायोंका इस गुण स्थानमें नाश होता है. RAMAKAuran तत्तो णपुंसगित्थीवेदं हासादिछक्कवेदं । कोधं माणं मायं लोभं च खवेदि सो कमसो । २०९७ ॥ पुवेदं क्रमतच्छित्वा शुक्लध्यानमहासिना । क्रोधं संज्वलनं मानं मायां संज्वलनाभिधाम् ॥ २१७० 11 १८१० Page #1822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास विजयोदया-तत्तो णपुंसं सतो मपुंसकं येई, लीये, हास्याविषट्कं, पुयेवं,संज्वलनशोधमानमायाःक्षपयति । पालोभसंज्वलनं ॥ तदनंतरमपणीयाकमेशाह--- मूलारा--"बुसगिस्थिवेदं नपुंसकवेदं नपुंसकभावप्रातिनिमित्तोदयकपायवेदनीयविशेषम् । एवं सीवर मीभावपरिणति कारणत्रिपाकम | हासादि छक्क हास्याविर्भावफलं हास्य । देशान्तरोद्यानौत्सुक्यानिमित्तोदया रतिः । तद्विलक्षणा रतिः । अनुप्राहकसंबंधिविच्छे वक्तव्यविशेषः शोकायद्विापाकाज्जायते सशोकः। उद्वेगहेतूदयं भयं । यदुदयादात्मदोष संचरणं अन्य दोष साधारण सा जुगुप्सा चिलिसाइतुः । तत्तो कपायषेदनीयफ्टं पुवेदे प्राप्य रुपयति, वेदं पुभावा पत्तिनिमित्त पुंदाय नोकपायवेदनीयं । क्रोधसंज्वलने प्रक्षिप्य पयति । कोधमित्यादि । संयमेन सहारस्थानादेकीभूता ज्वलन्ति, संयमो च। उबलत्येषु सरस्पीति संञ्चलमाः शोधादयोऽत्र पारिशध्यादहीताः सत्र क्रोधसंज्वलनं, मानसंबलने | तं मानसंचलने तं च लोभसवलने प्रक्षिप्य क्षपयति । ततो बादरकृष्टिविभागेन त लोभसंचलन र क्षपयति । इनके अनंतर नाश होनेवाली प्रकृतिका उल्लेख-- अर्थ-तदनंतर नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अति, शक, भय, जुगुप्सा, पुंवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन ग्यारह कोका नाश करता है. जिसके उदयसे नपुंसक भावकी प्राप्ति होती है ऐसा अकपाय वेदनीयका एक विशेष भेद है. उसको नपुंसक वेद कहते हैं.स्त्रीके समान परिणाम उत्पन्न करना यह जिसका फल है उस कर्मको स्त्रीवेदनीय कहते हैं.जिससे हास्य उत्पन्न होता है वह हास्यवेदनीय है. देशांतर, उद्यान वगैरह पदार्थोके तरफ जाने के लिये जो मनमें उत्कंठा जिस कर्मके उदयसे उत्पन्न होती है उसको रति कहते हैं, अरतिका स्वरूप इससे विलक्षण है अनुग्रह करनेवाले पदार्थोका संबंध बिच्छेद होनेपर मन में जो खद उत्पन्न होता है उसको शोक कहते हैं. जिससे मनमें उद्वेग-हर उत्पन्न होती है उसको भय कहत हैं. जिसके उदयसे अपने दोष छिपाकर दूसरों के दोष प्रगट करना वह जुगुप्सा कर्म है. इन अकपाय वेदनीय की छहों मकृतिओंका वेदमें मक्षेपण करते हैं. पुरुषके परिणामोंकी उत्पत्ति जिसके उदयसे होती है ऐसे कर्मको-वेदको भी क्रोधसंज्वलनमें क्षेपण करते हैं. ये संज्वलनक्रोधादिक काय संयमके साथ रहकर ज्वलित होते हैं अथवा संयम इनके रहनेपर भी प्रज्वलित होता है. क्रोधसंज्वलनको मान संज्वलनमें, मानको Page #1823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ alls मूलाराधना माया संज्वलनमें और मायाको लोभ संज्वलनमें क्षेपण करके नष्ट करते हैं. इसके अनंतर यादरष्टि विभागसे लोभको भी कृश करते हैं. आश्वासः १८१२ अध लोभसुहमकिहि वेदतो सुहमसंपरायत् ॥ पावदि पावदि । तधा तण्णामं संजमं मुई ।। २०९८ ॥ सूक्ष्मलोभगुणस्थाने सूक्ष्मलोभं निशुंभति ॥ प्राप्नोति संयमं शुद्धं तदा सदभिधानकम् ।। २१७१ ॥ विजयोन्या-अध लोभसुहमकिट्टि अथ पश्चाद्वावरकृष्टरुत्सरकालं लोभसूचमकृधि वेश्यमानः सुहमसंपराब पाषदि सूक्मसापरायता प्राप्नोति ॥ पायदि य तथा प्राप्नोति तथा तमामकं संयम शुद्ध सूक्ष्मसापरायता अधिगच्छति ॥ तदनन्तरमाप्यसूक्ष्मसापरायसंयमप्राप्त्युपपत्ति कथयति मूलाराधना | अध संचलनलोभवादरष्टिपरेयोत्तर काळं । किष्टि कटिं। तैलाधवस्थितकिट्टिकाकल्पं । सुकुमसंपराय सूक्ष्मसापरायक्षपकमा । दशमगुणस्थानम् । खण्णामं । सूक्ष्मसापरायसंझं । मुद्धं प्रथमशुक्लध्यानप्रकर्षप्रतिबद्ध सूक्ष्मलोभकठिशक्तिकत्वाचयाख्यासारख्यशुद्धसयमोसमनिमित्तत्वाद्वा निष्कलंकम् ।। अर्थ-वदनंतर अर्थात् लोभकी यादरकृष्टि के अनंतर लोभकी सूक्ष्म कृष्टिका अनुभव करनेवाले मुनिराज सूक्ष्म सापाराय नामक दसवे गुणस्थानका आश्रय करते हैं. तन उनको सूक्ष्म सांपराय नामक चारित्रकी प्राप्ति होती है, प्रथमशुक्लभ्यानके सामर्थ्यसे बादर संज्वलन लोभ कपाय सूक्ष्म होता है. इससे उनको सूक्ष्मसांपराय चारित्र प्राप्त होता है. तो सो खीणकसाओ जायदि खीणासु लोभकिट्टीसु ॥ एयत्त वितकावीचारं तो उझादि सो झाणं।। २.९१ ॥ क्षीणासु लोमकृष्टिषु नष्टकषायो यदा यतिभवति । एकस्वमवीचारं सवितर्क ध्यानमभुत स तदा ।। २१७२ ।। SAMPIAS १८१२ Page #1824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १८१३ विजयोत्रया-सो सो श्रीकसाओ जायदि ततः सूक्ष्मपरायत्यादनंतरं खीणकसाओ जायदि क्षीणकषायो जायते । खीणासु लोभट्टी संज्वलन लोभसूक्ष्मकृfष्टषु श्रीणा । तो ततः एकत्तविसक्काधीचार झाणं तो शादि एकत्वबितकीबीचारं ध्यानं ध्याति ॥ तदनंतर आध्यक्षीणकषायत्वगुणस्थानसाध्यशुक्लध्यानविशेषोपदेशार्थमाह-मूलारा - लोभ किट्टीसु संज्वलन लोभसूक्ष्मकृष्टिषु । अर्थ – सूक्ष्मां परायंगुणस्थानकं अनंतर क्षीणकपायगुणस्थान प्राप्त होता है. अर्थात् जब संज्वलन लोभ की सूक्ष्मष्टि हो जाती है तब ये भुनिराज एकत्ववितर्क विचार नामक ध्यान करते हैं. झाणेण य तेण अधक्खादेण य संजमेण घादेदि || साणि धादिकस्माणि समयमवरंजणाणि मदो ॥ २१०० ॥ सेन ध्यानेन तदा सयथाख्यातेन शेषधातीनि ॥ भकारणानि युगपत्प्रणिहन्ति मुनीश्वरस्तूर्णम् ॥ २१७३ ॥ विजयोदयासाणेण य तेण तेन ध्यानेन । तो तेनैकत्वचितकविचारेण यथाख्यातेन चारित्रेण शेषघातिकर्माणि समकालमेव क्षपयति । अचरंजणाणि जीवस्पान्यथाभाव कारणानि ॥ सद्ध्धानविरागसंयम साध्यं जीवस्व भाषप्रतिबंध का पायमावेदयति मूडारा - अधक्रवारेण यथास्यातेन वीतरागेणेत्यर्थः । अत्रोभयकर्तरि तृतीया । परमार्थवीतरागसंयमसद्धीचीनैकत्ववित कर शुक्लध्यानेन तथाविधध्यानसहायेन संयमेन वा कर्त्रा वातयतीत्यर्थः ॥ सेखाणि वक्ष्यमाणानि निद्रादीनि पोडश । समयं युगपत् । एककालता चात्र निर्मूलोच्छेदविवक्षायामुपान्त्य चरम समययोरतिसूक्ष्मत्वेनाभेदो दिव क्षितः । शक्तिघातनविवक्षायां तु शेकानवकाश एव । अथवा समयमव रंजणाणि युगपज्जीवस्वभावघातकानीति व्याख्येयं । दर्शनज्ञानावरणत्रन्तराया ानंतदर्शनज्ञानवीर्यात्मकं पारमार्थिक मात्मस्वभाव मे ककालमेव प्रतिबध्नाति । तदुक्तं ध्यानेन ते वीतरागसंयमेन च इति सः । एकदा चातिकर्माणि दोषाणि च ततः परम् ॥ अर्थ – इस एकत्ववितर्क वीचार नामक दूसरे शुक्रुध्यानसे यथाख्यात चारित्र प्राप्त होता है. इस चारित्रसे युगपत् बाकी के घात कमका अर्थात् ज्ञानावरण, और अन्तराय इन क्रमोंका नाश होता है. जीत्रका स्वरूप इन आश्वास १८१३ Page #1825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आभास १८१४ DESRAMAN कोने विपरीत कर दिया था. क्षीणकषाय गुणस्थानमें सोलह प्रकृति ओंका अर्थात् ज्ञानावरणकी पांच मति ज्ञाना वरणादि प्रकृतियां, अंतराय कर्म की दानांतराय, लाभांतरायादि पांच प्रकृतिया, निद्रा, प्रचला, चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवल दर्शनावरण ऐसी छह दर्शनावरणको प्रकृतियां इन सोलह प्रकृति ओंका नाश संपूर्ण मोहनीय कर्मका नाश होने के बाद होता है. मत्थयसूचीए जधा हदाए कसिणो हदो भाद तालो ।। कम्माणि तधा गच्छति खयं मोहे हदे कसिणे ॥ २१०१ ॥ मोहनीये हते शेषधातिकमकदंयकम् ।। तृणराज इवाशेपसूचीबंधे प्रणश्यति ।। २१७४ ।। विजयोदया-मत्थरसूचीप जधाहदाए मस्तकसूच्यां यथा इसाय कसिणो तालो हवो भवति कृत्सास्तालवुमो हतो भवति । कम्माणि तघा कर्माग्यपि तथैव खयं गच्छंति क्षयमुपयांति। मोहे हदे फसिणे मोहे हते कृस्ने । ननु च वास्तवात्मस्वभावोपलंभे सत्येव तत्प्रतिबंधकप्रक्षयस्तत्प्रक्षये च तदुपलंभ इत्यन्योन्याश्रयावतारादना प्रोपज्ञामिदमाभासते इत्याशंकायामिदमाह मूलारा-तालो तालवृक्षः । खयं जीवस्वभावघातकत्वशक्तिविनाश । मोहनीयसहायान्येव हि ज्ञानावरादीनि जीवस्वभावापघाताय प्रभवन्ति । प्रक्षीण च सरसहकारिणि मोइकर्मणि तानि प्रक्षीणकल्पान्येव स्वकार्यासंपादफत्वान् । मस्तकसूचीविनाशे प्रत्यप्रपप्रषफलादिस्वकार्यासमर्थतालवत् । ततः सत्स्वपि तेघु वास्तवात्मस्वरूपोपलेभो निथराजस्वास्य न विरुध्यते इत्याप्तीपशमेवेदमिति स्थितम् । उक्तं च तालसूच्या विनष्टायां यथा तालो विनश्यति । तथा कर्म क्षयं याति मोहनीये क्षयं गते । अर्थ-मस्तक सूचीका नाश होनेसे संपूर्ण तालवृक्षका नाश होता वैसे मोहनीय कर्मका नाश होने पर कमों का भी नाश होता है. णिद्दापचलाग दुवे दुचरिमसमयम्मि तस्स खीयति । सेसाणि घादिकम्माणि चरिमसमयम्मि खीयति ॥ २१०२ ॥ १८१४ Page #1826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलारश्चना १८१५ सूक्ष्मलोभगुणस्थाने सूक्ष्मलोभं निशुंभति ॥ सनिले क्षीणमोहस्योपान्तिमे ततः ।। २१७५ ॥ पंचज्ञानावृतीस्तत्र चतस्रो दर्शनावृतीः ॥ पंच विज्ञानसौ हन्ति वरमशे चतुर्दश ।। २१७६ ।। विजयोदयाणा पत्रलाय दुवे निद्राप्रचला च द्वे तस्य क्षीणकषायस्य उपांत्यसमये नश्यतः । सेाणि पादिक्रम्माणि अवशिष्टानि यातिकर्माणि श्रीणि तस्य चरमसमये नश्यंति, पंच ज्ञानावरणानि चत्वारि दर्शनाचरणानि, पंचां तरायाश्व ॥ शेषघातिकर्मनिर्मूलोच्छेदक्रमं कथयति— मूलारा- दुबे द्वे अपि । दुरिमसमयम्म चरमसमयात्पश्चिमे समये । वीर्यति निर्मूढं नश्यतः सर्वात्मना जीवाद्विष्यत इत्यर्थः ॥ सेसाणि मतिश्रुतावधि मनः पर्यय केवलज्ञानावरणविकल्पात्पंचविदे ज्ञानावरणं । चक्षुररकेवलदर्शनावरणशचतुर्विधं दर्शनावरणं । बानलाभ भोगोपसोगबीयांत राय भेदास्यं च विभवान्तराय इति त्रीणि घातिकर्माणि । इत्थं येध्यानेन नामकर्मप्रकृती: प्रयोदशाचरणप्रकृतीस्तिचारित्रमोहस्य च प्रकृतीरेकविंशतिमेकत्व वितर्क बीचाराख्य द्वितीयशुभ्यामेन च पट्टजेनाचरणप्रकृती: पंच ज्ञानावरण प्रकृती: पंच, पंचान्तरायप्रकृतीः क्षपयतीत्युक्तार्थ समद्दः । नारक विग्देवायुषां च बंधाकारणमेव क्षपणं, सतविष्टिमेताः कर्मप्रकृतीः क्षपयित्वा पंडितपतिमर शोधतो मुमुक्षुतदर्शनज्ञानवीर्यसुस्वभावं जीवन्मुकिं चिरमपि अनुभवतीति प्रतिपसव्यम् । भवतश्चात्र वृत्तेसम्यग्दृष्टिकृशाकशशुं भोत्साहेषु तिष्ठत्कचित् । धर्म्यध्यामवादयत्नग हिताश्रायुः यः सप्त यः ॥ दृष्टिप्रकृतीः समातपचतुर्जातित्रिनिद्राद्विधा । यात्र स्थावरसूक्ष्मतिर्यगुभ योगोता पायाष्टकम् ॥ वयं णमथादिभेन नवमे स्थादिषट्कं नृतां । क्षिश्वोदीदि पृथक्क्रुदादिदशमो लोभ कषायान्तकः ॥ निद्रां प्रचारसमये विघ्नविघ्नां । द्विः पंचाक्षपयत्परेण चरमे शुक्लेन सोईप्रमुः ।। अर्थ- क्षीणकषाय गुणस्थानके उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला ये दो प्रकृतिओंका नाश होता है. और अन्तिम समय में ज्ञानावरण. दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनों फर्मोंका नाश होता है. आश्वास ८ १८१५ Page #1827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वारा तत्तो शंतरसमए उम्पज्जदि सब्बपञ्जयणिबंध 11 केवलणाणं सुद्धं तध केवलदसणं चैव ।। २१.३ ॥ हुत्वकत्वविताना धातिकमन्धन सुधीः।। वर्शकं सर्वभावाना केवलज्ञानमश्नुते ।। २१७७ ।। विजयोक्या-सच्चो शानदर्शनापरणांतरायक्षयात अनंतरसमय उत्पद्यते केवलज्ञानं सर्षपर्याया विशेषकपाणि तत्र प्रतिबद्धं परिन्छेनुकत्वेन शानस्याशियों वस्तुभविशेषता परिच्छी नाम सामान्यरूपस्य सुगमस्या दिन्याख्यातं भवति । केवल दिय सहायानपेक्षयात केवलमसहाय ज्ञानं रागादिमन्दाभावात् । शुद्ध तथा केयलदर्शन घ॥ जीवन्मुक्तिप्रादुर्भापक्रमोपक्रमवर्णन-इत उत्तर प्रबंधन भय जीवन्मुक्ति गावाचविंशत्यानुवर्णविन्यन्नादौ फेवलज्ञानदर्शनोत्पप्तिगुणातिशयसंपत्ती वर्गपति-- मूलारा--तसो ज्ञानदर्शनावरणांजरा यक्ष यान । समयजयणिपद्धं सर्वेषां व्याणां पर्यायात्रिकालविष पाणि विशेषरूपाणि तम निबद्ध परिच्छेदकत्वेन संचद्रं । पोन बानुगतरूपरिच्छेदो ज्ञानर यानिशयो निरूप्यते । सामान्यरूपपरिच्छेदस्य सुगमवादनुक्तिः । फवल इंद्रियाद्य पेनत्वादतहार्य । सुद्धं रागादिनलरहितम् । अर्थ-तदनंतर समय में संपूर्ण द्रव्योंके सम्पूर्ण त्रिकालवी पर्यायोंको विषय करनेवाला. रागादिदोपका अभाव होनेसे निर्मल एसा केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होता है. वस्तुका सामान्य स्वरूप सुगम हैं. उस को जानने में ज्ञानका अतिशय प्रगट नहीं होता है. चस्नुके विशेष रूप पयायोंको जानने में ज्ञान का अतिशय प्रगट होता है. अतः 'सच्चपज्जयणिबन्धं ऐसा गाथामें पद है. इन्द्रियो की सहायताके बिना यह ज्ञान होता है इसलिये इस को केवलज्ञान कहते हैं. केवलज्ञान क समान केवलदर्शन मी रागादिमलोंसे रहित और इंद्रियापेक्षारहित है. dhakashNHALALANDMIN अन्वाघादमसंदिदमुत्तमं सम्बदो असंकुडिदं॥ एयं सयलमर्णते अणियत्तं केवलं पाणं ।। २१०४ ॥ अनंतमप्रतीबंध निःसंकोचममिंद्रियम् ।। निःक्रम केवलज्ञान निकषायभकल्मपम् ॥ २१७८ ।। wered १८१६ Page #1828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः मूलाराधना विजयोदया-अव्याघादं न विद्यते प्रत्ययांतरेण व्याघातो वाधास्येत्ययाघातं । निश्वयात्मकत्यावसंदिग्धं । सर्वेभ्यो मानेभ्य उत्तम प्रधान श्रुतादिभिरिद केय साध्यत इति। असंकुडिदं न मत्यादिवदल्पविषयमिति । पकं एकस्मियात्मनि स्वयंमय प्रवर्तत इति । सकलं संपूर्णमात्मन. स्वरूपमिति । मस्यादीनि यथाऽसंपूर्णानि न तथदं । अर्णतं अनंतप्रमाणावस्थे । यशियसं न विद्यते निवृत्तिविनाशोऽस्येः त्यनिवृनं केवलशानं ॥ केवलज्ञानाभिशयगुणग्रामगशिपोति मूलाग--अव्वाचादं नास्ति व्याघातो निखिलद्रव्यपर्यायसाक्षात्कारप्रतिबंधः प्रत्ययांतरेण यम्य । असंदिर्दू निश्चयात्मकत्वादसंशयितं । उत्तम सर्वज्ञानप्रधान । सम्वदो असंकुडिदं सर्वेषु द्रव्यांचेषु प्रपर्त मानत्वात। एग एकम्मिप्रात्मनि स्वयमेव पर्तते इत्येकं भेदहीनं वा । सबलं संपूर्ण । अर्शते अनंतप्रमाणावलेय । निरवधीत्यर्थः । अणियत्तं अविनाहमानं उत्कीर्तयति (१)|| . अर्थ--यह केवलज्ञान किसी कारणोंसे रुकता नहीं है. अव्याघाती है. निश्चयात्मक होनेसे संशयरहित है. सर्व ज्ञानोंमें श्रेष्ठ है. श्रुतादिक ज्ञानोंसे यह केवल ज्ञान प्राप्त होता है. मत्यादिशानों के समान इसका विषय अल्प नहीं है अतः इसको असंकुटित कहते हैं. यह एक है अर्थात् यह आत्मामें स्वयं प्रवृत्त होता है. मत्यादिक ज्ञान संपूर्ण नहीं है परंतु यह वैसा नहीं है. यह आत्माका संपूर्ण स्वरूप है. इसलिये इसको संपूर्ण कहते हैं. यह अनिवर्ति है अविनाशी है. चित्तपडं व बिचित्तं तिकालसहिद तदो जगमिण सो॥ सवं जुगवं परसदि सबमलोगं च सव्वत्तो ॥ २१०५ ॥ करस्थितमिवाशेष लोकालोकं विलोकते ॥ युगपत्तेन चोधेन योगी विश्वप्रकाशिना ॥ २१७९ ।। विजयोदया-चित्तपय विचित्तं चित्रपटयद्विचित्र विचिन्नद्रव्यपर्यायरूपेण प्रत्यवभासनात् । तिकाल सहिदं कालत्रयसहित जगदिदं, ततः तेन फेवलशानन सर्य युगपत्पश्यस्यलोकं कृत्स्नं सपेतः समतात् ॥ मूलारा-विचित्तं चानाप्रकाराकारं विचित्रद्रव्यपर्यायरूपेण प्रत्यवभासनात् । तदो तेन केवलज्ञानेन । पस्सदि साक्षात्करोति 1 सम्वत्तो सर्वतः समंतात् । सबण्हू इत्यन्ये पठन्ति । Page #1829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १८१८ अर्ग- --- एस केवल विनित्रसित होते हैं इस लिये अनेक रंगों से रंगे हुए के समान यह केवलज्ञान है. तीन कालके साथ इस त्रैलोक्यको और अलोकको केवलज्ञान युगपत् देखता है. वीरियमणंतरायं होड़ अतं तव तस्स तदा ॥ कप्पातीदरस महामुणिस्स विग्धम्मि खीणम्मि ।। २१०६ ॥ विजयोदयाचीरियमणंतरायं द्वोदि निर्विघ्नं धोत्रे भवति । क्षायोपशमिकस्य हि वीर्यस्य पुनः श्रीयतरायोये सति विघ्नो भवति तथा तस्य निरषशेषक्षये । अनंतं । कपातीस्स उमस्थकल्पानां अतीतस्य महामुनेर्विशे विनऐ ।। तदनंतर वीर्या विर्भावमभिधत्ते- मूलारा -- अनंतरावं निर्विघ्नं कल्पातील ब्रह्मस्थकल्पनारहितस्य । विग्वम्मि अंतरायकर्मणि । एवंत्रज्ञाना त्रियसाहचर्यातत्रानंतर सुखाधिगमो भवति । इति चदनिर्देशः । अर्थ - केवलज्ञानको उत्पत्ति होनेसे आत्मामें जो सामर्थ्य उत्पन्न होता है वह अंतराय - विघ्न-रहित होता है. क्षायोपशमिक शक्ति वीर्यावराय कर्म के उदय से विघ्नयुक्त होती है. सम्पूर्ण वीर्यांत रायकर्मकाही केवल ज्ञानके समय नाश होनेसे प्राप्त हुए अनन्त शक्तिको बाधित करनेवाला पदार्थ ही नहीं रहा है. अतः वह शक्तिगुण अनन्त हुआ है. तो सो वेदयमाणो विहरइ सेसाणि ताव कम्माणि || जावसमन्त्ती वेदिज्जमानयस्ता उगस्त भवे ॥ २१०७ ॥ ततो वेदयमानोऽसौ शेषाघातिचतुथ्र्यम् ॥ कुर्वाणो जनतानंद भ्रमत्येष सुरार्चितः ॥ २१८० ॥ विजयोदया तो सो वेदयमाणो केवलहानादिपरिमाप्त्यनंतर कालं वेदयमानो विहरति, सेसाणि ताव कम्माणि अवशिष्टानि तावत्कर्माणि । जावसमती यावत्परिसमाप्तिः । वेदिज्जमानयस्स आउगस्स भवे अनुभूयमानस्य मनुष्यायुषो भवेत् ॥ आवा ८ १८१० Page #1830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TATARNAKederer Teres आश्वास मूलाराधना १८१९ सर्वज्ञविहारसीमानमाह-~ मूलारा-तो केवलज्ञानाविपरिप्राप्त्यनंतरम् । विहरदि यथास्यातचारित्रमभिवर्धयति । सेसाणि अपातीनि । वेदनीयनामगोत्रापि । आउगरस मनुष्यायुष्कर्मणः । अर्थ---जस्तक भुज्यमान आयुकर्मकी समाप्ति नहीं होती है तबतक बाकीके अधाति कमाकों मोगते हुए केवला भगवान् यथाख्यान चारित्रको वृद्धिंगत करते हैं. काHिAN दसणणाणसमग्गो विहरदि उच्चावयं तु परिजायं ॥ जोगणिरोधं पारभदि कम्मणिल्लेवणठाए ॥ २१०८॥ विवर्द्धमानचारित्रो ज्ञानदर्शनभूषितः ।। शेषकर्मविघाताय योगरोधं करोति सः।। २१८१॥ विजयोदया-इसणणाणसमग्गो क्षायिकेन मानेन दर्शनेन च समग्रो, चिहत्य उच्चावचं पर्यायं, चारित्रमभिवर्षयम् योगनिरोध प्रारमते, कर्मणामघातिनामपहरणार्थः ॥ सयोगकेवलिनचारित्राभिवर्धनकालस्योत्कर्षांपकर्षावधातिधात्तोपायोपक्रम पनिर्देष्टुमाइ मूलारा-बाययं उत्कर्षेण देशोनपूर्वकोटिमात्रं । जघन्येन च अन्तर्मुहूतमित्यर्थः । परिचाय केवलिसंयमकालं । जोगणिरोधं सत्यानुभयवाझनसचतुष्टयपरमौदारिकतन्मिश्रकार्मणकायत्रयव्यापारलक्षणाना सामान्म योगानां निमई । कम्मणिलेषणट्टाए अघातिकर्मनिभूलोकछेदनार्थ । अर्थ--क्षायिक दर्शन और क्षायिक ज्ञानसे पूर्ण वह केवली भगवान् उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटिकाल तक और जयन्यसे अन्तर्मुहूर्ततक यथाख्यात संयमावस्थाको धारण कर विहार करते हैं. तदनंतर अघातिकर्मका नाश करनेके लिये योगनिरोध करते हैं. अर्थात् सत्यवचन योग, अनुभय वचनयोग, सत्य मनोयोग, अनुभय मनोयोग, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्र और कार्मणयोग ऐसे सात योगांके व्यापारको वे रोकते हैं. उक्करसएण छम्मासाउगसेसम्मि कंवली जादा ।। वच्चंति समुग्धाद सेसा मज्जा समुग्धादे ॥ २१०९ १८१९ Page #1831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा मूलाराधना १८२० यः षण्मासावशेषायुः केवलबानमश्नुते || अवश्यं स समुद्धातं याति शेषो विकल्प्यते ॥ २१८२॥ विजयोदया-उक्स्सगेण उत्कण षण्मासावशेषे आयुषि जाते केलिनो जातास्ते समुद्धातमुपयाति । शेषाः समुद्धाते भाज्याः॥ योगनिरोधोन्मुखाना केवलिनो समुद्घातविधेनियमविकल्पो निर्दिशति-- मूलारा-बच्चंति गच्छन्ति । समुग्धादं जीवप्रदेशानां शरीरादहिण्डावाकारेण निःसरणं । भञा विकल्प्याः। दण्डादिसमुद्घातं प्रति न बेयर्थः ।। उक्त - यदायुरधिकानि स्युः कर्माणि परमेमिनः । समुद्धासविधि साक्षालागेवारभते तदा ।। पामासायुषि शेषे स्यादुत्पनं यस्य केवलम् । समुद्घातमसो याति केवली वा परः पुनः ।। अर्थ-उत्कर्षसे जिनका आयु छह महिनेका अवशिष्ट रहा है ऐसे समय में जिनको केवलज्ञान हुआ है वे केवली नियमसे समुद्धातको प्राप्त होते हैं. आत्माके प्रदश शरीरके बाहर दंडादिके आकारसे निकलते हैं ऐसी अब स्थाका नाम सपुद्धात है. बाफीके केवलीओंको आयुष्य अधिक होनेपर समुद्घात होगा अथवा नहीं भी होगा. नियम नहीं है. जेसिं अउसमाई णामगोदाइं वेदणीयं च ॥ ते अकदसमुग्यादा जिणा उवणमंति सेलेसि ।। २११० ॥ आयुषा सहर्श यस्य जायते कर्मणां श्रयम् ।। स निरस्तसमुद्धातः शैलेश्यं प्रतिपद्यते ।। १८३ ।। अनंतं वशनं ज्ञान सुखं वीर्यमनश्वरम् ॥ जायसे तरसा तस्य चतुष्टयमखडितम् ।। २१८.४ ।। ... विजयोक्या-जेसि माउसमाई येषामपि आयुःसमानि शेवाण्यघातिकर्माणि तेऽकृतसमुशाता एव शैलश्य प्रतिपद्यते॥ १८२० Page #1832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १८२१ - - समुद्घातमतरेण शैलेश्योपगमे कारणमघातिचतुष्टयसमस्थितित्वमाषष्टेमूलारा-नवणमंति-आश्रयन्ति । सेलेसिं शीलगुणसं पूर्णतां ॥ अर्थ- अयुके समानही अन्य कमकी स्थिति धारण करनेवाले कवली समुबात किये बिना संपूर्ण । शीलोंके धारक बनते हैं. जेसिं हवंति विसमाणि णामगोदाउवेदणीयाणि ॥ ते दु कदसमुग्यादा जिणा उवणमंति सेलेसिं ॥ २१११ ॥ ठिदिसंतकम्मसमकरणत्थं सब्वेसि तेसि कम्माणं ॥ अंतीमुहत्त सेंस जति समुग्घादमाउम्मि ॥ २११२ ॥ यदायुषोऽधिकं कर्म जायते त्रितयं परम् ॥ समुद्धातं तदाभ्येति तत्समीकरणाय सः ॥ २१८५॥ अंतमूहर्तशेषायुर्यदा भवति संयमी ॥ समुद्धातं तदा धीरो विधत्ते कर्मधूतये ।। २१८६ ॥ विजयोदया-डिदिससकम्म सत्कर्मणां स्थिति समीकर्तुं चतुर्णा अंतमहावशेष आयुपि समुद्धातं याति ॥ व्यतिरेकेणाइमूलारा-स्पष्टम् ।। पता श्रीविजयो नेच्छति ॥ दंडादिस मुद्घातविधानप्रयोजनमादिशति-- मूलारा-ठिदिसंतकम्मसमकरण । स्थित्या कृत्या सतां विद्यमानानां चतुणी कर्मणां ममपरिणामतः कर्तु ।। अर्थ-जिनके वेदनीय नाम, और गोत्रकर्मकी स्थिति अधिक रहती है वे केवलि भगवान समुद्घातके द्वारा उनकी आयुकौके परामरीकी स्थिति करते हैं इस प्रकार वे संपूर्ण शीलके धारक बनते है. अर्थ--आयुकर्म अंतमुहर्तमात्र जब रहता है तब नाम गोत्र और बेदनीय कर्मकी स्थिति आयुके समान करने के लिए समुद्धात करते है. १८२१ Page #1833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाराधना आश्वासः १८२२ ओलं संत वत्थं विरलिदं जध लहु विणिवादि ॥ संवेढियं तु ण तधा तधेव कम्म पि णादव्वं ॥ २११३ ।। प्रविकीर्ण यथा वस्त्रं विशुष्यति न संघृतम् ॥ तथा कर्मापि योद्धब्यं कर्मविध्वंसकारीभः ॥ २२८७ ।। विजयोदया--भोलं सत आई साथा धनं विपकीण लघु शुष्यति न तथा संवेष्टित परमेय कर्मापि सातव्यम् ।। आत्मप्रदेशानां देहाइहिंदडाद्याकारेण प्रसारणाय कर्गस्थित्यपकर्षणलान्तेनोपपादयति-- मूलारा--ओ. आई 1 विरलिंद प्रसारित । विणिञ्चादि विशेषेश सुश्यति । संवेदिदं संवृत्त ।। अर्थ-गीला वस्त्र पसारनेसे जल्दी शुष्क होता है. परंतु वेष्टित पत्र जल्दी सूखता नहीं उसी प्रकार समद्घातसे कर्म विरल होकर उनकी स्थिति कम होती है. ठिदियधस्स सिणेहो हेदू खीयदि य सो समुहदरस ॥ सडदि य खीणसिणेहं सेसं अप्पट्टिदी होदि ॥ २११४ ।। समुन्द्रात कृते स्नेहस्थितिर्विनश्यति ॥ क्षीणस्नेह ननः शेषमल्पीयःस्थिति जायते ।। २१८८ ।। विजयोदया-ठिदिबंधस्स स्थितिबंधस्य स्नेहो द्वेतुर्विनश्यति । समुद्धात गते सति च क्षीणस्नेई शेष कर्माल्पस्थितिकं भवति । एतदेव स्पष्टयति-- मूलारा-सिणेहो स्नेहः । इंदू जीवन सह कर्मणः कालावधारणमसंश्लेषणे निमित्तं भवति । समुदस्स दंडाचाकारेण शरीरादहि निसूतप्रदेशस्य पुंसः । महदि शटति, प्रच्यवते । सेस अक्षीपास्नेह कर्म । अर्थ-स्थिति पंधका कारण जो स्नेहगुण वह इस समुद्घातसे नष्ट होता है इस समुद्धातसे कर्मका स Page #1834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना -८२३ समहगुण कम हाल उसका अल्प स्थिति हावी है. चदुहिं समएहि दंड कवाड पदरजगपूरणाणि तदा ॥ कमली करेदि तह चैव णियन्ती चदुहिं समएहिं ॥ २११५ ॥ दंड का लोक चतुर्भिः समयोगी तावद्भिश्व निवर्तते ॥ २१८९ ॥ विजयोदया - चतुहिं चतुर्भिस्तमयैर्दण्डादिकं कृत्वा क्रमशो निवर्तते चतुर्भिरेव समयैः ॥ दंडादिप्रवर्तन निवर्तकालपरिमाणावधारणार्थमाह मुहारा -- चतुहि इत्यादि एकैकेन समयेन दंडादीन् कृत्वा क्रमेणैकैकेनैव लोकपूरणतो निवर्तयतीत्यर्थः ' अर्थ - चार समयों में क्रमशः दंडादिक समुदघात केवली करते हैं. अर्थाद प्रथम समय में दंड समुदघात, दूसरे समय में कवाद, तीसरे में प्रतर और श्रीथेमें लोकपूरण समुद्घात करते हैं, तद्नंतर उतरते वखत अर्थात् पांचवे समय में अंतराकार, छठे समय में कपाटाकर, सातवे समयमें दंडाकार और आठ समय में मूलदेव प्रमाण आत्माके प्रदेश होते हैं. करते हैं. काऊमाउसमाई णामागोदाणि वेदणीयं च ॥ सेलेसिमन्भुवेंतो जोगणिरोधं तदो कुणदि || २११६ || autoमगोत्राणि समानानि विधाय सः ॥ प्राप्तुं सिद्धिवधूं धीरो विधत्ते योगरोधनम् ॥ २१९० ।। विजयश्या - काऊण नामगोत्रषेदनीयानां बापा साम्यं कृत्वा मुक्तिमभ्युपनयन् योगनिरोधं करोति ॥ समुद्घातायुः समीकृत फर्म त्यानंतरकरणीयमाह - मूलारा- अच्भुत आश्रयन् ॥ अर्थ - नाम, गोत्र और वेदनीय कमकी स्थिति आयुके समान कर योगनिरोध से मुक्तिको प्राप्त १८२२ आश्वास ८ Page #1835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O Mect मूलाराधना आम्वासा १८२४ योगनिरोधकममाच बादरबचिजोगं बादरेण कायेण बादरमणं च ॥ बादरकार्यपि तथा रंभदि सुहुमेण कारण ॥ २११७ ॥ स्थूलो मनोवचोयोगी रुणद्धि स्थूलकायतः ।। सूक्ष्म काययोगेन स्थूलयोगं च कायिकम् ॥ २१९१ ।। विजयोदया-पादरी पाजनोयोगी पादरकायेन रुगदि । बादरफाययोग सूक्ष्मेण काययोगेन || योगनिरोधक अभिधतेमूलारा-मादरेण कायेण स्थूल काययोगे स्थित्वेत्यर्थः । रंभदि निगृहात । अर्थ-वादर बचनयांग और चादर मनायोगको बादरकाययोगमें स्थिर होकर निरोध करते है तथा वादरकाय योगको प्रक्ष्म काययोगसे रोकते हैं. तध चेय सहुममणवाजोगं सुहमेण कायजोगेण ॥ रंभित्तु जिणो चिट्ठदि सो सुहमे काइए जोगे ॥ २११८ ॥ सुक्ष्मी मनोवयोयोगो द्धे कर्मवर्जिनः ।। सूक्ष्मेण काययोगेन सेतुनेव जलास्रवम् ॥ २५९२ ।। विजयोदयाप चैव तथैव सूकमयायनोयोगी सूक्ष्मकाययोगेन रूपाद्धि । मूलारा स्पष्टम् ।। अर्थ-उसही प्रकारसे सूक्ष्म वचन योग और सूक्ष्म मनोयोगको सूक्ष्म काययोगमें स्थिर होकर निरोध करते है. और उसी काययोगसे ये जिनभगवान् स्थिर रहते हैं. सुहमाए लेस्साए सुहमकिरियबंधगो तगो ताधे ॥ काइयजोगे सुहुमम्मि सुहमकिरियं जिणो झादि ।। २११९ ॥ १८२४ Page #1836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा १८२५ लेझ्याशरीरयोगाभ्यां सूक्ष्माभ्यां कर्मबंधकः ॥ शुक्लं सूक्ष्मक्रियं ध्यान कर्तुमारभते जिनः ।। २१५३ ।। विजयोदया- सूश्मलश्यया सूक्ष्म क्रियाया बंधकस्तदासौ सूक्ष्मकिय ध्यान ध्याति ॥ सूक्ष्मकाययोगस्य करणीयद्वयमयधारयति मूलारा--लेस्साए उत्कृष्टशुक्लले इग्रया । सुहमकिरिचधयो सूक्ष्मकाययोगेन सातवेदनीवस्य बंधकः ।। ताई नदा । सुहमकिरियं सूक्ष्मक्रिय नाम परमशुक्लं ।। अर्थ-उत्कृष्ट शुक्ललेश्याके द्वारा धमकाययोमस सातावदनीयकर्मका बंध करनेवाले वे जिनभगवान सूक्ष्मक्रिय' नामक तीसरे शुक्लध्यानका आश्रय करते हैं. सूक्ष्मकाययोग होनेसे उनको सूक्ष्मकिय शुक्लध्यानकी प्राप्ति होती है. सुहमकिरिएण झाणेण णिरुद्धे सुहुमकाययोगे वि ॥ सेलेसी होदि तदो अबंधगो णिच्चलपदेसो ॥ २१२० ॥ सुक्ष्मक्रियण रुद्वोऽसौ ध्यानेन सूक्ष्मविग्रहः ॥ स्थिरीभूतप्रवेशोऽस्ति कर्मबंधविवर्जितः ॥ २१९४ ॥ बिजयोदया-मुहमकिरियेण तेन ध्यानेन निरुद्धे सूक्ष्मकाययोगे निबलमदेशोऽधको भवति । बंघनिमिस्तानामभायात् ॥ तबयानफल प्राप्त्यानंतरभाषिनी सांसिद्धिकीमवस्था पुरुषस्योपदिशतिमूलारा-तपो अलेश्यात् । अधओ समस्तधनिमिसानामभाषात् ।। अर्थ-- सूक्ष्माक्रिय शुक्लध्यानके द्वारा वे सश्मकाय योगका निरोध करते हैं. तब आत्माके प्रदेश निश्चल होते हैं और उनको अब साता बेदनीय कर्मका भी पंध होता नहीं है. क्योंकि बंधके कारणही उस समय नष्ट हो गये हैं. अर्थात अंधका कारण योग भी उस समय नष्ट होता हैं. १८२५ Page #1837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वासः १८२६ माणुसगदितज्जादि पजच्चादिजसुभगजसकित्तिं ।। अण्णदरवेदणीयं तसबादरमुच्चगोदं च ।। २१२१ ॥ अयोगोऽन्यतरद्वेध नरायुद्वय त्रसम् || सुभगादेयपर्याप्त पंचाक्षोच्चयशांसि सः॥ २१९५ ॥ विजयोदया-माणुसगदि मनुष्यगति, पंचेद्रियजाति, पर्याप्तिमादेयलुभग, यशस्कीर्तिमन्यतरवेदनीय, प्रसयादरं, उच्वोत्र घेदयते । तत्कालभोग्या मुंडकेवलिनः एकादशकर्मप्रकृतीस्तीर्थकरस्य द्वादश विशति-- मूलारा-तनादि पेंद्रियजाति । पज्जत्त आहारादिपर्याप्तिनिवर्तकं पर्याप्तास्य नामकर । आवेज आदेयं प्रभोपेतशरीरताकारणं नामकर्म । सुभग परमीति प्रभवलं सुभगाख्यं नाम । जस कित्ती पुण्यगुणण्यापन कारणं यश कीर्विनाम | अण्णदरवेदणीयं यदुवयादेवादिगतिषु शारीरमानससुख प्राप्तिस्तत्सद्वेयं । यत्फलं दुःसामनेकरिधं तदसदेचं । तयोर्मध्ये एकतरं । तस हरन्द्रियाविपु जन्मानिमित्त नसाख्यं नाम । यादरं अन्य बाधाफरशरीरकारणं नाम । एच्चगोदं लोकपूजितषु फुलेषु जन्मकारणमुद्यर्गोत्रम् ।। अर्थ-मनुष्यगति, पंचेंद्रिय जाति, पर्याप्ति, आदेय, सुभग, यश-कीर्ति, साता घेदनीय और अमाता वेदनीय इन दोनोमेंसे कोई एक, प्रस, वादर और उच्च गोत्र इन काँका अनुभव करते हैं. मणुसाउगं च वेदेदि अजोगी होहिदूण ते कालं ॥ तित्थयरणामसहिदाओ ताओ वेदेदि तित्थयरो ॥ २१२२ ॥ यादरं तीर्थकृत्वैतास्तीर्थकारी त्रयोदश ॥ न परो बंधयते साधुस्तवानी द्वादश स्फुटम् ।। २१९६ ।। विजयोदया-मनुष्यायुश्च वेदयते अयोगी भूत्वा तीर्थकरनामसहितास्तीर्थकरो घेदयते ॥ मूलाय-मणुसाजगं मनुध्ययु भवधारणकारणं कर्म । होहिण भूत्वा। नित्थवरणाम पाईन्त्यकारणं तीर्थकरत्व | नाम । शाओ मनुष्यगत्यादिका एकादश ॥ १८२१ Page #1838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलाराधना आश्वास अर्थ-मनुप्यायुके साथ ऊपरके दस प्रकारके कोका अयोगि मुनि अनुभवन करते हैं. जो तीर्थकर है उनको तीर्थकरकमके साथ ऊपरके ग्यारह प्रकृति का उदय होता है और मुंडवलीको ग्यारह प्रकृतिओंका उदय होता है। १८२७ देहतियबंधपरिमोक्खत्थे केवली अजोगी सो ॥ उवयादि समुच्छिण्णकिरियं तु झाणं अपडियादी ॥ २१२३ ॥ दहेत्रितयधस्य ध्वंसायायोगकेवा ।। समुच्छिन्नक्रियं ध्याने निश्वलं प्रतिपयते । २१९७ ।। विजयोदया-दसिय देवत्रिकबंधपरिमोक्षार्थ समुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिभ्यानं ध्याति ॥ तत्कालकरणीयमशरीरत्वकार परमतरशुक्लध्यानमभिधन्ते भूलारा-देहतिय परमौदारिक, तेजस, कार्मणं चेति त्रीणि शरीराणि । अपष्टिवादी य समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति । व्युपरतिक्रिया निवर्तीत्यपराख्यम् ।। अर्थ-औदारिकशरीर, तेजस व कार्मणशरीर इन नि शरीरोंका बन्धनाश करनेके लिये घे अयोगकेवली भगवान् समुच्छिभक्रिया निवृत्त नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्याते हैं. BB सो तेण पंचमत्ताकालेण खवेदि चरिमझाणेण ॥ अणुदिपणाओ दुचरिमसमये सव्वाओ पयडीओ ॥ २१२४ ।। माबापंचककालेन तेन ध्यानेन वर्तते ।। प्रकृतीनामपकानां दासप्ततिमसौ समम् ॥ २१९८॥ विजयोदया-सो तेण स तेन पंचमात्राकालेनानेन ध्यानेन पयति विचरमसमये अनुदीर्णाः सर्वाः प्रकृती ॥ पंचल चक्षरोच्चारणकालभाविना तद्वयानेन करणीयामनुदीर्णत्रिसप्ततिकर्मप्रकृतिक्षपणामालक्ष्यति-~मूलारा-पंचमत्ताकाण अ इ उ ऋल इति पंचमात्रोच्चारणकालप्रमाणेन । अणुदिण्णाओ अनुदर्य प्राप्ताः | Page #1839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूखापना भाश्वासः १८२८ BametTOBER सव्वाश्री त्रिसप्ततिसंख्याः । सामा:-देवगतिः, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, यदुव्यादात्मनः शरीरनिवृत्तिस्तच्छरीरनाम पंचधा । औदारिकशरीरं, वैक्रियिकशरीरं, आहारकशरीर, कार्मणशरीरं चेति ॥ यदुदयादंगोपांगविवेकस्तदंगोगनाम त्रिविध औदारिकशरीरांगोपांगं, 'वैफ्रिविकशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग चेति । यनिमित्ता परिनिष्पत्तिस्तन्निर्माण द्वधा । स्थाननिर्माण प्रमाणनिर्माण चेति । तजातिनामोदयापेक्ष नक्षुरादीनां स्थानं प्रमाण व निर्वतयदेकमेव परिगण्यते । औदारिकाविशरीरनामकर्मोदयशादुपात्तानो पुद्गलाना अन्योन्यप्रदेशसंश्लेषणं यतो भवति तद्वंधनं नाम पंचविधमौदारिकपंधन, वैक्रियिक बंधनं, आहारकबंधनं, तैजसबंधनं, कार्मणबंधनं चेति । यदुदयादौदारिकाविशरीराणां विवरविरहितान्योन्य प्रदेशानुप्रवेशेनैकत्वापादनं भवति तत्संघातनाम पंचमकारमौदारिकस पातनामाविभेवात् ।। यदुदयाचौदारिकाविशरीरानिनिर्वृतिस्तसंस्थाननाम पविध । समचतुरघसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुरुजसंस्थान, वामनसंस्थानं, हुंडसंस्थान पेवि ॥ यदुनयादस्थिबंधनाबंधनविशेषस्तत्संहनननाम पोढा । वर्षभनाराचसंहननं, पजनारायसंहनगं, नाराचसंचननं, अर्धनारायसहननं, कीलिकासंहननं, असंप्राप्तामृपाटिकासंहनने चेति ॥ यदुक्यास्पोत्पतिस्तत्स्पर्शनामाष्टविध । कर्कश, मृदु, गुरु, लघु,निग्धं, सों, शीतमुष्णं वेति ॥ यमिमित्तो रसविकल्पस्तद्रसनाम | प्रशस्ताप्रशस्ततिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदादशापि तिक्ताविसामान्यापेक्षयह पंचधा परिगण्यते । यदयाइंधरतद्धनाम वेधा सुरभिगंघमसुरभिगंध चेति । यद्धेतुको अर्णविभागस्तवर्णनाम । प्रशस्ताप्रशस्तशुक्लकृष्णनीलरक्तहारिखमेदादशवापि शुक्लादिसामान्यापेक्षया इह पंचधैव संख्यायते । यस्योदयादयःपिंडबद्गुरुत्वान्नाधः पतति न पार्कतूल वसधुवादूर्व गच्छति तदगुरुलघुनाम । यस्योदयारस्वयं कृतोद्वंधनभाणापाननिरोधादिनिमित्न अपघातो भवति तदुपधातो नाम । यत्कारणकः शरशस्त्राद्याघातस्तस्परयातनाम । यद्धेतुरुच्छ्वासस्तदुख्छवासनाम । आकाशे गतिनिवर्तक विहायोगसिनाम द्वेधा प्रशस्ताप्रशस्तभेदात् । शरीरनामकर्मोदयानिष्पद्यमानं शरीरमेकास्मोपभोगकारण बत्तो भवति तत्प्रत्येकशरीरनाम । यदुदयापादिगुणोपेतोऽपि अप्रीतिकरस्तदुर्भगनाम । मनोझामनोज्ञस्वरनिर्वत के सुस्वरदुःस्बरनाम्नी। रमणीयत्यारमणीयत्वकारणे शुभाशुभनाम्नी । षविधपयाप्त्यभावहेतुरपानाम | चलाचलभावनिर्वतके अस्थिरस्थिरनाम्नी । निष्प्रभशरीरता कारणमनादेयनाम । अपुण्य गुणल्यापनकारणमयशः कीर्तिनाम । एवमे कसप्ततिनामकर्माण्यन्यतरवेदनीयं नीचर्गोत्र चेति निसप्ततिः । अन्ये मनुष्यगतिप्रायोग्यागुपूर्वीक्षपणे चरमसमये बांछतीति तम्मतेन द्वासप्रतिरुपान्त्यसमये तु तीर्थ करेनयोदशन्यैश्च द्वादश क्षि यन्ते । तथा चोक्तं पंचसंग्रहे १८२८ Page #1840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १८२९ पंच सरीररस येणं चैव ॥ ठाणं तह य छ च ॥ तिणि य अंगोवंग संघवणं तद्द य होइ छ । या दो अगुरुलहुयचउक्कं विहायगदिदुग थिरथिरं चैव ॥ सुहसुरसरजुयला विथ पत्तेयं भगं अजसे ॥ अगदेवं णिमिगं न अपनतं तह य जीवगोयं च ॥ अष्णदर देयणीयं अजोगदुरिमम्मि बोाि ॥ अण्यस्येयणीयं मया मनुवदुगं च बोहल्या ॥ पंचेंदियजाई विय तससुभगादेज पज्जतं !! यादरजस कित्तीविय तित्यथर उच्चगोययं चैव ॥ एए तेरस पयडी अजोइडिय संभवोच्छिष्णा देवदुय पण सरीरं देव व संघार्थ अर्थ -- वे अयोगि जिन पंच स्वस्वर उच्चारण मात्र कालमें उदयमें नहीं आई हुई सब प्रकृतिओंका इस गुणस्थान के उपान्त्य समयमें क्षय करते हैं. अर्थाद तिहत्तर प्रकृतिका क्षय करते हैं. चरिमसमयम्मि तो सो खवेदि वेदिज्जमाणपयडीओ ॥ बारस तित्थयर जिणों एक्कारस सेससव्वण् ॥ २१२५ || शरीरं पंचधा तत्र पञ्चधा देहबन्धनम् || संघातः पञ्चधा पोडा संस्थानममरद्वयम् || २१९९ ॥ अंगोपांग त्रिसंख्यानं षोढा संहननक्षणे ॥ पंच वर्णा रसाःपंच गंधस्पर्शा द्विषाष्टधा ।। २२०० ॥ क्षीयते गुरुलध्वादिचतुष्कं वे नभोगती ॥ शुभ स्थिरद्वन्द्वं प्रत्येकं सुस्वरवयम् ॥ २२०१ ।। आवास -१८२९ Page #1841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BE मूलाराधना आवास १८३० अनादेयाघशो निर्माण थापूर्णानि दुर्भगम् ॥ वेद्यमन्यतरत्तस्य वृषासप्ततिरुपान्तमे ।। २२०२ ॥ अंतिमे समये इत्वा प्रकृतीः स त्रयोदश ॥ बंद्यमानः सदाऽयोगःप्रयाति पदमव्ययम ।। २२०३ ।। विजयोदया-चरिमसमरामि अंत्ये समग क्षगान गाना ही नीर्थकरजिनः । शपसर्वज्ञः । पकादश नामक्खपण नामनो विनाशेन तेजसशरीरबंधो नश्यति । आयुषः क्षण औदारिकर्वधनाशः॥ तीर्थकरेतरचरमक्षणक्षपणीयाः प्रकृती:संख्याविशेषणावधारयतिमूलारा–चारसमणुस्सगदिमित्यादिना प्रागुक्ताः॥ अर्थ- अन्त्यसमयमें तीर्थकरकेवली अनुभवमें आनेवाली पारा प्रकृतिओंका क्ष्य करते हैं और सामान्य केवली ग्यारह प्रकृतिका क्षय करते हैं. णामक्खएण तेजोसरीरबंधी वि खीयदे तस्स ॥ आउखएण ओरालियरस बंधो चि खीयदि से ॥ २१२६ ॥ तं सो बंधणमुक्को उर्दू जीवो पओगदो जादि ॥ जह एरण्डयचीयं बंधणमुक्कै समुप्पपदि ॥ २१२७ ॥ नामकर्मक्षयात्तस्य तेजोवन्धः प्रलीयते ॥ औदारिकवपुर्वधो न सन्यायुःक्षये सति ॥ २२०४ ।। एरंडवीजवजीवो बन्धव्यपगमे सति ।। उदय याति निसर्गेण शिवेव विषमार्चिषः ॥ १२०५॥ विजयोदया-स्पष्टोत्तरगाधान्यं । तेजसौदारिफशरीरबंधविकछेदनिधनविषनिर्देशार्थमाइ मुलारा-तेया जसं । ओरालिदस्स औदारिकशरीरस्य । एधी अन्योन्यप्रदेशानुप्रदेर्शनकत्वापत्त्यावस्थानम् । इति जीवन्मुरितवर्णनम् ।। Page #1842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना बाबासा इतः प्रबंधन गाथै कत्रिशता परममुरिक वर्णविष्यन्नादौ यंघच्छेदानंतरभाषिनी लोकान्तप्रापणीमेकसमयिकी नैस. गिकी जीवस्योर्तुगविं दृष्टान्तेन समर्थयते-- मूलारा-पयोगको प्रकृष्टदेगेन । समुपपनि यथा पीजकोशबंधावरंडवीजमाश्वेचो गच्छति तथा मनुष्यादिभवप्रापकगत्याविकनबंधच्छेदादात्मापीत्यर्थः ।। अर्थ-नाम कर्मक क्षयसे तैजस बन्धका नाश होता है और आयुफमके क्ष्यसे औदारिकपन्धका भी नाश होता है, इस प्रकार बंधमुक्त हुआ यह जीप एरंडका चीज जैसे बंधनमुक्त होकर ऊपर जाता है वैसे उत्कृष्ट घेगसे जाकर मुक्तिस्थानमें स्थिर होता है. अयोगिकेवली उपान्त्य समयमें तेहत्तर प्रकृतिओंका क्षय करते हैं उन प्रकृतिओंके नाम इस प्रकार है देवगति २ देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी ३ मनुष्यगतिमायोग्यानुपूर्वी. ५ औदारिकादिक पांचशरीर, औदारिकादि तनि अंगोपांग, निर्माण नामकर्म, बंधननामकर्मके पाचप्रकार, संघातके पांच मेद, छह संस्थान, छह सहनन, स्पर्श नामकर्मके आठभेद, रसनामके ५ भेद, गंधनामकर्म के दो भेद, वर्णके पांचभेद, अगुरुलघु, उपधात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विद्यायोगति, अप्रशस्त विहायोगति, प्रत्येकशरीर, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, शुभ, अशुभ, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, अनोदयः अयशकीर्ति, अन्यतरवेदनीय और नोर्गोत्र ऐसी तिहत्तर प्रकृति है उनमें मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्व कर्मका नाश अन्त्य समयमें होता है ऐसा कोई आचार्य कहते हैं उनके मतसे उपान्त्य समयमें ७२ बहतर प्रकृतियोंका क्षय होता है. तीर्थकरके तेग प्रकृतिओंका अन्त्य समयमें क्षय होता है और अन्य मुनिओक चारा प्रकृतिका क्षय होता है. संगजहणेण चलहुदयाए उर्दु पयादि सो जीवो । जध लाउगो अलओ उप्पददि जले गिधुडो वि ॥ २१२८ ॥ आवेशनाशुगमिव संपूर्णेन नियोजितः ॥ अलावुरिव निर्लेपो गत्वा माक्षेऽवतिष्ठते ॥ २२०६ ॥ . Page #1843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः विजयोदया-संगजहणेण संगत्यागालघुतयो प्रयाति जलनिमग्ननिलंपालायुक्त् ॥ मुक्तात्मा संगत्यागाइघुतयोई गच्छत्तीखेतद्दष्टान्तेन यति मूलारा--संगजहणेण शरीरत्रयसंसर्गत्यागेन । ला उगी उपकं । अलेओ मृदादिलेपमुक्तं । णिबुछो निमग्नं । यथा मृदादिलेपजनितगौरवमलाबुद्रव्यं जलेऽधः पतितं जलकले दधिश्लिममृदादिबंधनं लघुसदुई मेय गच्छति । तथा कर्मभराकातिवशीकृत आत्मा तपापेशवशात्संसारेऽनिन मेन गच्छति । तत्संगतिविषमुक्त उपर्येव यातीत्यर्थः । अर्थ-डीचहका लेप इटने पर लैंमा सूचीका फल जलमेंसे ऊपर कुदकर आता है वैसे औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीन शरीरोंका संग हटनेपर यह आत्मा हलका होकर मुक्तिस्थानपर चला जाता है. शाणेण य तह अप्पा पउइदो जेण जादि सो उ8 ॥ बेमेण पूरिदो जह ठाइदुकामो वि य ण ठादि ।। २१२९ ।। ध्यानप्रयुक्तो यात्यूर्वमात्मावेगेन प्रितः ॥ । तथा प्रयत्नमुक्तोऽपि स्थातुकामो न तिष्ठति ॥ २२०७ ।। विजयोदया-झाणेण य ध्यानेनात्मा प्रयुक्तो याल्यूवं बेगेन परितो यथा न तिष्ठति स्थातुकामोपि । पुनरुदाहरणांतरेण मुक्तात्मनोऽस्खलितोगतिमुपपादयति मूलारा-पउदो प्रेरितः । तेण अपवर्गप्राप्तये बहुशः पूर्व कृतन प्राणिधानेन पूरिदो निर्भराविष्ठः । ठाइटु कामो वि स्थातुमिच्छन्नपि । उक्तं च-- ध्याननयुक्तो पास्यूद्धमारमा वेगेन पूरितः ।। तथा प्रयत्नमुक्तोऽपि स्थातुकाभो न तिवृत्ति । अत्रेयं तत्वार्थोक्तापि दृनांतयुक्तिचित्या । यथा कृलालप्रयोगापादितहस्त टचकसंयोगपूर्वक चभ्रमणमुपरतेऽपि तस्मिन्पूर्वप्रयोगादासंस्कारक्षयाद्भवत्येवं भवस्थनात्मनापयर्गप्राप्तये यशो यत्प्रगिधानं कृतं तदभावेऽपि तदावेश पूर्वक मुक्तस्योर्द्धगमन अवसीयते इति ।। an FASTHAOS - Page #1844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासा अर्थ-जैसे कोई पुरुप बडे वेगसे दौड रहा है. वह ठहरना चाहता है तथापि ठहर नहीं सकता है क्योंकि वह बेगके आधीन हो चुका है. वैसा यह आन्मा शुक्लभ्यानसे उधगमन करता है. लोकके अंततक उसकी गति होकर सिद्धशिलाके उपर वह ठहरता है. १८३३ जह वा अग्गिस्स सिहा सहावदो चेव होहि उढुगदी । जीबस्स तह सभावो उनुगमणमप्पवसियस्स !। - १३० ॥ यथामशिस्त्रा नित्यमृवं याति स्वभावतः ॥ तथो याति जीवोपि कर्ममुक्तो निसर्गतः ॥ २२०८।। विजयोदया-पोसरगाथा॥ पुनर्मुक्तात्मनः प्रालिको गमनमा निर्माना या हि .. मूलारा-जवेत्यादि तथागतिपरिणामान् यथा तिर्यकप्लवनस्वभावसमीरणसंबंधनिरुत्सुका प्रदीपशिखा स्वभावादुत्पत्तति तथा मुक्तात्मापि नानागतिविकारकारगकमनिवारणे सत्यूई गविस्वभावत्यादूर्वमेवारोहतीत्यर्थः । अर्थ-जैसी अग्नि की ज्वाला स्वभावमे ऊर्च गमन करती है वैसा यह आत्मा स्वभावतः उर्ध्वगमन - करता है. तो सो अविग्गहाए गदीए समए अणंतरे चव ॥ पावदि जयस्स सिहर खित्तं कालेण य फुसंतो ॥ २१३१ ॥ याप्यविग्रहया गत्या नियाघातः शिवास्पदम् ॥ एकन समयमासौ न मुक्तोऽन्यत्र तिष्ठति ।। २२.९ ।। चिजयोदया-तो सो अविगहाण ततोऽसायनिग्रहया गत्या अनंतरसमय एक जगतपिशखरं प्राप्नोति ।। तदेकसमयिकाविग्रहगतिप्राप्यं स्थानमाह-- मूलारा-अबिगहाए अत्रकथा । पाणिमुक्तालागलीगोमूत्रिकाभ्यो गतिभ्योऽन्यया । अणं तरे कर्मश्यानंतर Page #1845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमासा मूलाराधमा LATA+A+A+ ADAPATIBAPPA भाविनि समये । जयस्म सिहरं लोकान्त । तथा च सूत्र-तवनंतरमुटुं गच्छत्यालोकांतादिवि ' खेसमित्यादि कालकर याप्यंतराले सप्तरज्जुप्रमाणमाकासप्रवेशमस्पृशन् । उक्तं प __ सोऽविप्रया गत्या समयेनैकेन याति लोका || कालकलयापि लोकं न मीलयन्वेगयोगेन || श्रीचंद्रस्तु समयेणणतरेगेवेति पार्टी मत्वा फालेपत्यन्येन संबंधमदर्शयत् । अनंतरसमयमात्रेण कालेन लोकांत प्राप्नोतीत्यर्थः ।। अर्थ--यह कमरहित आत्मा विप्र गतिकार अनंतर समयमें सप्तरज्जु प्रमाण आकाशको स्पर्श करता हुआ लोक शिखरको प्राप्त होता है. एवं इहई फ्यहिय देहतिगं सिद्धखेत्तमुवगम्म ॥ सवपरियायमुक्को सिज्झदि जीवो सभावत्थो ॥ २१३२ ॥ विच्छिा ध्यानशस्त्रेण देहात्रितपबंधनम् ॥ सर्वद्वंद्वविनिमुक्तो लोकाग्रमधिरोहति ।। २२१० ।। . विजयोदया-पवं इहई पमिद देवत्रिक विहाय सिद्धक्षत्रमुपगम्य सर्वप्रचारयिमुक्ता सिध्यति जीपः स्वभावस्थः ॥ प्रस्तुतोपसंहारमाह-- मूलारा-घई इह अरिमपंचचत्वारिंशलायोजनप्रमितमानुषोसरशैलाते मनुष्यक्षेत्रे । सिद्धिखेत्तं तनुवातयलयपर्यन्ताव यवारफाशदेश । उवगम्म प्राण्य । सम्बपरियायमुक्को सकलवैभाविकमावा रित्यक्तः ।। अन्ये परियायशब्देन प्रचारमाहुः । सिज्मदि टंकोत्कीर्णकक्षायकभावस्त्रभाष स्वात्मानमुपलभमानः, कृतार्थतया निद्वमास्ते । समावस्थो अनंतझानादिचतुष्टयात्मकादात्मस्वरूपादनपगच्छन् ।। अर्थ-इस प्रकार इस पैतालिस लक्ष अमित मानुषोत्तरपर्वतपर्वतके क्षेत्रमें औदारिक, वैजस और कार्माण ऐसे तीन देहोंका त्याग करके तनुवातवलयपर्यन्तके आकाश देशमें प्राप्त होकर सर्व वैभाषिक अवस्थाओंका त्याग कर स्वभावतः जीच सिद्ध होता है, १८३४ Page #1846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास मूलाराधना १८३५ ईसिप्पभाराए उवर अत्यदि सो जोयणम्मि सीदाए । धुवमचलमजरठाणं लोगसिहरमस्सिदो सिद्धो ॥ २१३३ ॥ ईषत्मारभारसंज्ञायां धरित्र्यामुपरि स्थिताः।। त्रैलोक्याग्रऽवसिष्ठन्ति ते किंचिन्यूनयोजने ।। २२११॥ विजयोदया-ईसिप्पन्भाराप षत्मारभाराया उपरि न्यूनयोजमे रवमन्वल स्थान लोकशिखरमास्थितःसिद्धमा सिरिसायोपिलामोलिवी निर्दिश्य तरक्षेत्रस्यौत्तम्यमाचष्टे मूलारा-ईसिप्पन्भाराए ईपत्प्राम्भाराभिधायाः सिद्धिशिलायाः । जोयणम्मि किनिदुनैकयोजने। सीवाए पृथिव्यावस्वरूपप्ररूपक आगमो यथा-. ईपलाग्भारसंशा सावष्टमी पृथिवी स्तुता । अष्टयोजनबादस्या मध्ये हीनक्रमाप्ततः । पर्यन्तेऽगुलसंख्येयभागमानत मुस्थितिः । सोत्तानितमहावृत्ता श्वेतष्टछनोपमाकविः ।। चत्वारिंशत्तु विस्तारो लक्षा: पंचभिरन्विताः । योजनानि शितेस्तस्या विद्वद्भिराभधीयते ॥ ४५०००००॥ कोटी तु परिधिलक्षा द्वाचत्वारिशविष्यते । द्विशत्येकानपंचाशत्रिसहस्री दशाहता ॥ १९२३०२४९ ॥ अचलं निष्कर्ष । अजरं जरारहितं शरीरसंबंधाभावात् ।। उक्तं च-ईपरमारभारसंज्ञाया उपरि न्यूनयोजने । लोकाप्रमचलं स्थान सिद्धस्तदधितिष्ठति ।। अर्थ--सिद्धभूमीका ईषत्यारभारा पृथ्वी ऐसा नाम है, एक योजनमें वह कुछ कम है, ऐसे निष्कप, स्थिर स्थानमें, सिद्ध प्राप्त होकर तिष्ठते हैं धम्माभावेण दु लोगग्गे पडिहम्मदे अलोगेण || गदिमुवकुणदि हु धम्मो जीवाणं पोग्गलाणं च ॥ २१३४ ॥ न धर्माभावतः सिद्ध गच्छन्ति परतस्ततः॥ धर्मो हि सर्वदा कर्ता जीव पुनलयो-गतेः २२१२॥ . विजयोदया-धम्माभावेण दु धर्मास्तिकायस्याभाषे लोकाग्रे प्रतिहम्यते अलोकेन, यतो जीषपुगलानां गतेरुपकारको धर्मः स चोपरि नास्ति । Page #1847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १८३६ मुक्तात्मा यशुधगतिस्वभाष नियसो निश्चिततहि लोकान्तादूर्वमपि कस्मानोत्पतति इत्यारेका निराकारोति मूलारा-धम्माभाषेण गत्युपमाइकधर्म द्रव्यशून्यतया 1 पढिहम्मदे लोकं अतिक्रम्य गाछन्मुक्तात्मा प्रतियध्यते । अलोगेण धर्मद्रव्यरहितत्वात्केवलेनाकाशेन । उपकुपदि उपकरोति । युपपद्भावगतिपरिण्यामोन्मुखानां जीपपुद्गलानां गतये पलाधान करोतीत्यर्थः।। - गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीचाण गमणसहयारी ।। सोयं जद्द मल्छाणं अच्छंता व मो जेई ।। स चोपरि नास्ति इति साधारणपहिरंगगमन कारणाभावावालोकाकाशे मुक्तात्मनो गमनाभावः सिद्धः ॥ अर्थ-त्रैलोक्यके अन्ततक धमास्तिकाय है इसलिए सिद्ध जीयों की गति लोकान्त तक ही होती है. अलोक में जीव और पुद्गलकी गतिको उपकारक धर्म द्रव्य नहीं है इसलिए सिद्ध जीवोंकी ऊपर गति नहीं होती है, ज जस्स दु संठाणे चरिमसरीरस्स जोगजहणम्मि ॥ तं संठाणं तस्स दु जीवणं होइ सिद्धस्स ॥ २१३५ ॥ दसविधपाणाभावो कम्माभावेण होइ अच्चत ॥ अचंतिगो य मुहदुक्रवाभावो विगददेहरस ॥ २१३६ ॥ निष्ठिताशेषकृत्यानां गमनागमनादयः ।। व्यापारा जातु जायते सिद्धानां न सुखात्मनाम् ॥ २२१३ ॥ कर्मभिः क्रियते पातो जीवानां भवसागरे । तेषामभावतस्तेषां पातो जातु न विद्यते ।। २२१४ ।। क्षुधातृष्णादयस्तेषां न काभावतो यतः ॥ .आहाराचैस्ततो नार्धस्तत्प्राप्तीकारकारिणिः ।। २२१५॥ . यस्सर्वेषां ससौख्यानां भुवनत्रयवसिनाम् । ततोऽनंतगुणं तेषां सुखमस्त्वविनश्वरम् ॥ २२१६ ॥ Page #1848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - आभास। मूलाराधना १८३७ अंत्यविग्रहसंस्थानसशाकृतयः स्थिराः ॥ सुखदुग्नविनिर्मुक्ता भाविनं कालमासते ॥ २२१७ ।। तेषां कर्मव्यपायेन प्राणाः संति दशापि नो॥ न योगा भावतो जातु विद्यते स्पंदनादिकम् ॥२२१८ ॥ दिजयोदया-दशविमानां रामनामयंतामोवन भवति आस्पतिक सुखदुःस्वाभावः ॥ मुक्तात्मसंस्थान निर्णयार्थ माह--- मूलारा--जोगजहणम्मि मनोवाकायव्यापारपरिहारसगये । जीन पण जीवस्वरूपनिभरभृतं । एतां श्रीविजयो नेपाछति ॥ मुक्तस्य निमित्तामायादात्यंतिक प्राणानां सुखदुःखयोश्वाभावं भावयति-- मूलारा-सविधपाणाभावो पंचेंद्रियाणि मनोवाकायचलानि आयुरुच्छासश्च । अञ्चतं सर्वथा । विगदहस्स इंद्रियाधिष्ठानदेहामावादेन्द्रियिफे सुखदुःखे च मुक्तस्य न स्त इत्यर्थः ।। अर्थ-मन वचन और शरीर इनके योगोंका त्याग करते समय घरमशरीर धारकोंके शरीरका जो आकार रहता है वही आकार पूर्ण स्वस्वरूप को प्राप्त हुए सिद्धों का रहता है. दम प्रकारके प्राण सिद्धों को नहीं रहते हैं अर्थात् पांच इंद्रिय प्राण, मनोबल, बचनबल, कायबल, आयुष्य, उपन्यास इन दस पाणोंका सिद्धपरमेष्ठी में अत्यन्त अभाव रहता है. इंद्रियोंको आश्रय देने वाला देह नहीं होनेसे इंद्रिय जनित सुख दुःखोंका भी अभाव रहता है. इंद्रियोंके अभाव में भी उनको अतींद्रिय अनन्त सुख प्रगट हुआ है. जं णत्थि बंधहेदुं देहग्गहणं ण तस्स तेण पुणो ॥ कम्मकलुसो हु जीवो कम्मकदं देहमादियदि ॥ २१३७ ॥ न फर्माभावतो भूयो विद्यते विग्रहग्रहः ।। शरीरं श्रयते जीवः कर्मणा कलुषकृितः ।। २२.९॥ विजयोदया-ज शरिथ बंघडे यन्नास्ति बंधकारणं तेन न मुक्तस्य देहग्रहणं, कर्मकलुषीकृती हि जीथः कर्मः कृतदेहमावते ।। Page #1849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १८३८ मुक्तस्य पुनः शरीरमणाभावे युक्तिमाह-- मूलारा---पंधहेदू बंधस्य हेतुमिथ्यावादिः। स च मुक्तस्य भास्तीति पुनः कर्मबंधाभावात् । तद्धेतुफदेहाहणाभावः । अथवा बंधश्रासौ हेतुश्च पुनः शरीरप्रणे निमित्तमिति प्रायम् ॥ अर्थ- उन सिद्ध परमेष्ठिक कर्मबंधनके कारण रूप मिथ्यात्वादिकोंका अभाव हो चुका है इस लिए पुनः उनको नवीन कर्मपन्ध नहीं होता है. कर्म के बन्धनेसे देहका ग्रहण होता था. अब कर्मबन्ध ही नही तो नवीन देहकी प्राप्ति कहांसे हो सकेगी. जो जीव कर्मस मलिन हुआ है. उसके ही नवीन देह की उत्पचि होती है. अन्य को नहीं होती है. कम्जाभावण पुणो अच्चं पत्थि फंदणं तस्स ॥ पओगदो वि फंदणमदेहिणो आत्थ सिद्धस्स ॥ २१३८ ॥ विजयोदया-कज्जाभाषण पुणो कार्थाभावेन तत्पंदनं नास्ति तस्य परप्रयोगगतमपि स्पंदनमस्यादेहस्य सिदस्य ॥ सिद्धस्य कृतकृत्यतथा प्रयोजनाभावाददेहतया च वातादिप्रयोगागम्यत्वात्कदाचिदपि ततश्चलनं नास्ती:यव. गमयति ___मूलारा-फजाभावेण प्रयोजना भावेन । अञ्चतं सर्वकान्ह । फंदणं चलनं । पओगदो वि वातादेरपि । अदेहिमो देहसंयोगमुक्तस्य अमूर्तस्येत्यर्थः । अर्थ---कुछ भी प्रयोजन नहीं होनसे सिद्ध परमप्टिके मंदशाम परिस्पंदन-चंचलपना नहीं होता है तथा वातादिकके संयोग से भी उन में चंचलपना नहीं है, क्योंकि उन के देहका ही अभाव हुआ है. कालमणतमधम्मोपग्गहिदो ठादि गयणमोगाढो ॥ सो उवकारो इहो अठिदि सभावेण जीवाणं ।। २१३९ ॥ अधर्मवशतः सिद्धास्तत्र तिष्ठन्ति निश्चलाः ।। सर्वदाप्युपकर्तासौ जीवपुगलयोः स्थितेः ॥ २२२० । १८१८ Page #1850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलाराधना आश्वासा १८३९ विजयोदया-कालमणतं अनंतकालं अधर्मास्तिकायोपगृहीतः गमनमनुप्रविष्टः तिष्ठति । उयकारोठो अधर्मास्तिकायेन संपायमानोपकारः अवस्थानलक्षण इयो यस्मात्र जीवस्य स्थितिस्वभाचश्चतन्यादिवत् ॥ सिद्धस्य लोकापाकाशदेशावस्थाननित्यतायामुपपतिमाह मूलारा-अधम्गोपगहिदो अधर्मास्तिकायेन स्थितो वादितथलः। आगादो अनुपविष्टः। सो अधर्मसंपाधावस्थान लक्षणः । अठिदिसभावेण स्थिति स्वभावाभावेन । न हि जीवस्य स्थितिःस्वभावश्चेतनत्वादिवत् । वतः स्थितिः सिखस्याधर्मकृतैव । कचित्तु ठिदिस्सहावेण जीवरसेति पाठः ।। अर्थ-मिद्धजीव अनंतकाल तक अधर्म द्रव्यके अनुग्रहसे आकाशमें रहते हैं. अचेतनके समान जीवका स्थितिस्वभाव नहीं हैं अर्थात् जीवमें चैतन्य जैसा बात है बैना मिसिना अनः सर्ग, द्रव्यके अनुग्रहसे ही सिद्धजीव स्थिर रहते हैं. तेलोकमत्थयत्थो तो सो सिद्धो जगं णिरवसेसं । सव्येहिं पज्जएहिं य संपुण्णं सव्वदन्वेहि ॥ २१४० ॥ लोकमूर्धनि तिष्ठन्ति कालत्रितयवर्तिनं ।। जानाना धीक्षमाणास्ते द्रव्यपर्यायधिस्तरम् ।।२२२१ ॥ विजयोदया-तेलोक्कमस्वयत्यो प्रैलोक्यमस्तकस्थः ततोऽसौ जगन्निरवशेष सपर्यायैस्लम्स्सं पूर्ण ।। पस्सदि जाणदि य तहा तिणि वि काले सपज्जए सच्चे ॥ तह वा लोगमसेस परसदि भयवं विगदमोहो ॥२१११॥ चिजयोदया-स्सदि जाणटि पश्यति जानाति च कालत्रये पर्यायसहितानशेषांस्तथा चालोकमशेपं पति भगवान् विगतमोहः। सिद्धस्य दर्शनज्ञानमहिमानमभिष्टौतिमृलारा-जगं लोके ।। मूलारा-लिणो जीवन्मुक्तयत् । सपनर पर्यायसहितांनी नपि कालान । एतेन वैशेषिकादिकल्पिता ज्ञानादिगुणात्यन्तोच्छित्तिलक्षणा परममुक्तिः प्रत्युक्ता।। Page #1851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १८४० अर्थ-सिद्ध परमेष्ठी त्रैलोक्यके मस्तकपर आरूढ हुए हैं. ये अहाँसेही संपूर्ण द्रव्य और उनके पर्यायोंसे भरे हुए सम्पूर्ण जगत् को तीनों काल में जानते हैं और देखते हैं. तो भी ये मोहरहित ही रहते हैं. भाव सगावतपत्थे सुरो जुग जहा पयासह ॥ सब्ब बि तथा जुगवं केवलणाणं पयासेदि ॥ २१४२ ॥ युगपत्वलालोको लोकं भासयतेऽखिलम् ।। घनावरणनिर्मक्तः स्वगोचरमिवांशुमान् ॥ १० ॥ विजवोदया-भाव सगत्रिसयथे आमगोचरस्थान भायान् सूर्यों युगगाथा प्रकाशपति तथा सर्वमपि ज्ञेयं युगपत्केवलशान प्रकाशयति । केवलज्ञानस्य युगपदशेपार्थप्रकागत्वं रवान्तेन स्पष्टयति-- मुलारा-भाचे पदार्थान् । सगविलगत्ये आत्मनोवरस्थान ।। अर्थ-जैसे सूर्य अपने प्रकाशम जितने पदार्थ समाविष्ट होने हैं उन सबको युगपत्प्रकाशित करता है || वैसे सिद्ध परमेष्ठोका कंवलज्ञान संपूर्ण ज्ञयों को-पदार्थाको युगपत् जानता है, गदरागदोसमोहो विभवो विमओ णिरुस्सओ विरओ। बुधजणपरिगीदगुणो णमंसणिज्जो तिलोगरस ।। २१४३ ।। रागद्वेषमदकोचलोभमोहचिवर्जिताः ॥ ते नमस्यात्रिलोकस्य धुन्वते कल्मषं स्मृताः ।। २२२३ ।। घिजयोदया-दरागदोसमोहो दूरीतरागोपमोहर, विभओ विगतमयः विमो घिमतमदः, कचिदप्यनुत्सुको, निरस्तकमरजःपटला, युधजनपरिगीतगुणः विश्एप्रयेण नमस्करणीयः॥ मुक्तात्मनः सकलविकारनिराकाराधिगम्य मात्यंतिकमन यलम्यं परमस्त्रापमा वेदयतिमूलारा-णिरुस्सुगो फचिदप्यनुत्सुकः । अर्थ-जिन्होंने रागद्वेष और मोह आत्मारो दूर किये हैं जो निर्भयः मदरहित और उत्कंठारहित हैं. ALLin १८४० Page #1852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १८४१ जिन्होंने अपनी आत्मासे कर्मरूपी धूल अलग की है, जिनके गुणोंका वर्णन गणधरादिक विद्वन्मडली करती है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी त्रैलोक्र के द्वारा वंदनीय है. णिव्वावइत्तु संसारमहरिंग परमणिन्बुदिजलेण ॥ णिब्यादि सभावस्थो गदजाइजरामरणरोगो ॥ २१४४ ॥ जन्ममृत्यजरारोगशोकाकादिव्याधयः ॥ विध्याताः सकलास्तेषां निर्वाणशरवारिभिः ॥ २२२४ ।। चिजयोदया-णिव्यावसु क्षयमुपनीय संसारमहानि परमनियंतिजलन तृप्यति स्वरूपस्थो यिनष्टजातिजरामरणरोगः । मूलारा--णियावहत्तु विध्याय । परमणिव्वुदि परमानंदमयी मुक्तिः । णियादि उदितोदितसुखो भवति ।। अर्थ- इन सिद्ध परमेष्ठीसोने संसाररूपी महाग्निको अनंतमुखरूप जलसे बुझाया है. और वे अपने स्वरूपमें ही हमेशा तृप्त रहते हैं. जन्म, जरा, मरणरूपी रोगोंका उन्होने नाश कर दिया है. जावं तु किंचि लोए सारीरं माणसं च सुहदुक्खं ॥ तं सज्वं णिजिणं अमेसदो तस्स सिद्धस्स ॥ २१४५ ॥ शारीरं मानसं सौख्यं वियते यज्जगत्त्रये ॥ तयोगामाचतस्तेषां न मनागपि जायते ।। २२२५ ।। विजयोदया-जावं तु किंचि लोए यावत् किंचिल्लोके शारीरं मामसं या यत्सुखं दुःख च तत्संघ निजी निरवशेष प्रकारका निरासार्थमशेषग्रहणं । सायोपाधिकसुखदुःस्वप्रक्षयमाला गति मूलारा--सुहदु स्थितमिति शेपः । णिजियो नष्टम् । असेसदो सर्वप्रकारतः। प्रकारका निरासार्थमशेषग्रहणम् ॥ 220 Page #1853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आबासा अर्थ-इस जगतम जो कुछ शारीरिक और मानसिक सुख अथवा दुःख होता है वह अपने सम्पूर्ण प्रका. रॉके साथ मष्ट हुआ है. अर्थात सिद्धोंको शारीरिक और मानसिक दुःखोंका सर्वथा अभाव है. क्योंकि उनको देह और मन नहीं है. वे अशरीर और अमनस्क हैं. १८२ जं स्थि सव्वबाधाउ तस्स सन्धं च जाणइ जदो से || जं च गदज्झवसाणो परमसुही तेण सो सिहो । २१४६ ॥ जामता पश्यतां तेषां वियाधारहितात्मनाम् ॥ मुखं वर्णयितुं न शक्यते हतकर्मणाम् ॥ २२२६ ॥ विजयोदया-जंगस्थि सम्वाधाओ यत्र सन्ति सर्यषाधाः, सर्वं च यतो जानाति, यथापगतास्यवसानः, तेनासौ सिजः परमसुखी भवति । तत्परममुखित्वं समर्थयतेमूलारा-बाधाओ शरीराविदुःखानि स्खलनानि वा । गदम्झवसाणो निश्चितः ॥ अर्थ-इन सिद्धोंको सम्पूर्ण पाधा नहीं रहती हैं. जाननेकी इच्छाके बिना ही सर्व जगत् जानते हैं. इसलिये ये सिद्धजीव परमसुखी है. परमिट्ठि पत्ताणं मणुसाणं णत्थि तं सुहं लोए । अव्यावाघमणोबमपरमसुहं तस्स सिद्धस्स ।। २९४७ ॥ भोगिनो मानवा देवा पत्सुखं मुंजतेऽखिलम् ।। तषामात्मनीनस्य सुखस्यांशोऽपि विद्यते ॥ २२२७॥ विजयोश्या-परमिट्टि पसार्या परमामा चकलांछनतादिको प्रातानामपि मनुजानां मास्ति तत्सुखं लोके यदनुपमं तस्य सिद्धस्य सुम्नमव्यायाधं ॥ तत्सुररस्यानुपमत्वमाह--- मूलारा-परमिट्टि चक्रवर्ति विभूति ॥ १८४२ Page #1854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आबासा अर्थ-इस जगतमें उत्कृष्ट प्रद्धिको अर्थात् चक्रपतिपद धगैरहकी सम्पत्ति प्राप्त होने पर भी मनुष्यों को वह सिद्धोंका अनुपम मुख प्राप्त नहीं होता है. अतःइन सिद्धोंका सुख अन्यावाघ है. देविंदचकवठी इंदियसोखं च जे अणुहवंति ॥ सद्दरसरूगांभफरिसपश्यनाम लोए ॥ २११८॥ रूपगंधरसस्पर्शशब्दैर्यत्सेवितः सुखम् ॥ तदेतदीपसौख्यस्य नानतांशोऽपि जायते ॥ २२२८॥ विजयोदया-देविंदचकपट्टी देवाचकर्तिनश्च यदिद्वियसुखमनुभवंति शनरसरूपगंधस्पर्शात्मकं लोके प्रधान ॥ अव्वाबाधं च सुहं सिद्धा जं अणुहवंति लोगग्गे ॥ तस्स हु अणंतभागो इंदियसोक्खं तयं होज्ज ॥ २१४९ ॥ विजयोव्या-अय्याचाध मुई अध्यावाधात्मकं मुर्ख यत्सिद्धा लोकाऽनुभवंति तस्यानंतभागो भवति यदिद्रिय सुसं पूर्वव्यावर्णितं ॥ मूलारा-फरिसप्पयं स्पर्शात्मक शब्दाधुपमोगप्रभवत्वात् । इंद्रादिसुखस्य सिद्धसुखानंत मागत्वमाह-- मृलारा-पष्टम् । अर्थ-स्पर्श, रस, गंध रूप, शब्द इत्यादिकों से जो सुख देवेंद्र चक्रवर्ति वगैरहों का प्राप्त होता है. जो कि इस लोकमें श्रेष्ठ माना जाता है. वह मुख सिद्धोंके मुखका अनन्तवा. हिस्सा है. सिद्धोंका सुख घाघारहित है वह उनको लोकाग्रमें प्राप्त होता है. जं सम्बे देवगणा अच्छरसहिया सुहं अणुहवंति ॥ तत्तो वि अणंतगुणं अव्वाबाहं सुहं तस्स ॥ २१५० ॥ १८४३ Page #1855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृलाराधना आश्वासः १८४५ विजयोदया-जसव्वे देवगणा यासुखमनुभवंति सासरोगाः सर्व देवास्ततोऽप्यनंतगुणं तस्य सिदस्याज्यावाधामुखं ॥ सर्वदेवसुखस्यापि तदनंतभागत्यमाह-- भूलारा--सअच्छरगणा अप्सरसा गणेः सहिताः ।। अर्थ-अप्सराओंके साथ देव जिस सुखका अनुभव लेते हैं सिद्धोंका सुख उससे भी अनंत गुणित है और बाधारहित है. तीसु वि कालेसु सहाणि जाणि माणुसतिरिखदेवाणं । सव्वाणि ताणि समाणि तस्स खणमित्तसोक्खेण ॥ २१५१ ।' कालत्रितयमावी नि यानि सौरूयानि विgपे ।। सिदैकक्षणसौख्यस्य सानि यांतिन तुल्यताम् ॥ २२२९ ।। विजयोदया-तीस वि कालेसु विष्वपि कालेषु यानि मानधाना, तिरश्चा, देवानां च सुखानि सोणि तानि न समानि सिद्धस्य क्षणमात्रेण सुनेन ॥ त्रैकालिकसांसारिक सुखाना क्षणमात्रभाषिनापि सिद्धसुखेनातुलनामाइमूलारा--ण समाणि । पक्कं च-- यदत्र चक्रिणां सौख्यं यच स्वर्गे दिवौकसां ॥ कलयापि न ततुल्यं सुखस्य परमात्मनाम् ।। अर्थ-तीन कालमें मनुष्य, वियंच और दैवाको जो सुख मिलते हैं वे सब मिलकर भी सिद्धके एक क्षणके सुखकी भी बराबरी नहीं करते हैं. ताणि हु रागविवागाणि दुक्खपुवाणि चेव सोक्खाणि ॥ ण हु अस्थि रागमवहत्थिदूण किं चि वि सुहं णाम ॥ २१५२ ॥ रामहंतु पराधीनं सर्व वैधापिकं सुखम् ।। स्वाधीनेन विरागेण सिद्धसौख्थेन नो समम् ॥ २२३० ।। १८४४ Page #1856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः विजयोदया-ताणि रागविपाकाणि तानि रागविपाकानि रामस्य दुःख तोर्जनकानि, एतेन दुःखानुबंधित्त्वं नामंद्रियमुखानां दोषोऽभिहितः। दुःखपूर्वाणि न हि क्षुधादिदुःखमंतरेण अशनादिकं प्रीति जनयति ॥ न चास्ति रागमनपा कृत्य सुखं नाम किंचित् ॥ मूलारा-रागविवागाणि रागस्प सुखेहतोसनकानि । एतेन दुःखानुबंथित्वमिद्रियाणं दोषोऽभिहितः । दुःखकारण दुष्कृतयंधनिपंधनरागकारणत्वात्तेषां । दुक्खपुत्र्याणि न हि नुदादिदुःखमतरेण भोजनादिकं प्रीति जनयति । अवहः स्थिदूण त्यक्त्वा । अक्षयसुखस्य खल्वाल्हापनाकारताविवक्षायां रूपादिविषयगतप्रीतिरूपरागात्मका मंद्रियमन:प्रसादास्मकत्वविवक्षायां तु तथाविध रागयुर्वकत्वं प्रतीयते ॥ अर्थ--उपर्युक्त सर्व सुख गगविपाकज हैं, यह गगभाव दाग्यको उत्पन्न करता है. अर्थान् इंद्रियसुख दुःखानुसंधि है ऐसा सिद्ध होता है. भूख, प्यास, थंडी, उष्णताके बिना अनादिक पदार्थ प्रीति उत्पन करने में असमर्थ हैं. इन पदार्थोम जो रागभाय उत्पन्न होता है उसको ही इंद्रियसुख कहते है. द्रियसुखस्वरूपमभिधाय अनिद्रियसुत्र यावर्णयति अणुवमममेयमक्खयममलमजरमरुजमभयमभव च ।। एयंतियमच्चतियमध्वाचा मुहमजेयं ॥ २१५३ ॥ अक्षयं निर्मलं स्वस्थं जन्ममृत्युजरातिगं ।।। सिद्धानां स्थावरं सौख्यमात्मनीनं जनार्थितम् ॥ २२३१ ।। विजयोदया-अणुपमममेयं तत्समानस्य तदधिकस्याभावात् सुखस्य तदनुएम, छवास्थशानिर्मातुमशक्यत्वादमेये, प्रतिपक्षभूतस्थ दुःखस्याभावावक्षय, रागादिमलाभावावमलं, जरारहितम्यादजरं, रोगाभावादरजं, भयाभावाभयं, भवाभावादभव, पेक्रांतिकं तुःस्वस्थ सहायस्यामाचादकांतिकमसहाय अव्यावाधरूपं तत्सुखं ॥ इंद्रियसुखं षरूपतो ठयावातीन्द्रियसुख स्वरूप व्यावर्णयति मूलारा-अणुवमं तत्समानस्य तदाधिकस्य कस्यापि सुस्वस्याभावान् । अमेयं छद्मस्यज्ञानातुं परिमातु या शक्यत्वात् । अक्खयं प्रतिपक्षभूनस्य दुःखस्याभावात । अमलं रागादिमलाननुषक्तत्वात् । सिंघ विपदामगम्यत्वात् । अजरमित्यादि जरारोगभयभवाभावादजरादिविशेषणं । यतिय असहायं । आत्मसमस्थत्वात् । अरचेतियं अनंतकालमात्रि | पदं सिद्धं । १८४५ Page #1857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आशस १८४६ अर्थ-सिद्धसुखके समान अथवा इससे अधिक सुख जगतमें दुसरा नहीं है. अतः सिद्धोंका सुख अनुपम है. छपस्थ जीव अपने छानसे जानने में अथवा उसका परिमाण कहनमें असमर्थ है. अतःवर सिसुख अमेय है. प्रतिपक्षरूप बुःखका इसमें अभाव है अतःवह अक्षय है. रामादिदोषोंसे रहित है अतः यह अमल है. जरावस्थासे रहित होनेसे इसको अजर कहते हैं, रोगरहित होनेसे यह अरुज है. भय रहित होनेसे अभय है. संसारभ्रमणसे मुक्त होनेसे इसको अभय कहते हैं, यह सिद्धमुख फक्त आत्मासेही उत्पन्न होता है इस लिये यह ऐकांतिक असहाय है. इस प्रकार यह सिद्ध सुख अन्यायाध कहा जाता है. विसएहिं से ण कज्जं जं पथि छुदादियाउ बाधाओ ॥ रागादिया य उवमोगहेदुगा णात्य जं तस्स ॥ २१५४ ॥ विजयोबया विसपदि से ण कम्ज शब्दादिभिर्विषयः न कार्य यतः सिद्धस्य न संति क्षुधादिका घाधाः, रागादयश्च विषयोपमोगहेतवो न संति यस्मात्तस्य || प्रतिकायोपभोगहेत्वभावात्सिद्धाममो विषयामर्थित्वगाह मूलारा–पिसपईि अन्नपानादिमिः । उवभोगइदुगा अनुभवकारणानि । रागादिग्रहाविष्टो हि विषयाननुभुक्ते । वेदनाप्रतीकारार्थी वा न च सिद्धस्य तायमप्यस्ति । अर्थ--शब्द, अन्नपानादिक विषयोंसे सिद्धसुख नहीं उत्पन्न होता है. क्यों कि, भूख, प्यास, रागादिक विकार जो कि विपयोपभोगके हेत हैं ये सिद्धोंके नहीं है. एदेण चेव भणिदो भासणचंकमणचिंतणादीणं ॥ चेदाणं सिद्धम्मि अभावो हदसम्वकरणम्मि ॥ २१५५ ।। विजयोदया-पदेण बेव भागिदो पतेन चोक्तः भाषणं चंक्रमण चिंतनादीनामभावः सिझे इतसर्व क्रिये ।। सिद्धस्य सर्वचेष्टोच्छेदमतिदिशति-- मूलारा-हदसव्वकरणमि निवितसर्व क्रिय । सक्रियासाधनातीते पाग १८४६ Page #1858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १८४७ अर्थ - - भाषण, गमन, चिंतन वगैरह क्रियायें सिद्धोंमें नहीं हैं क्योंकि उन्होने सर्व इंद्रियोंके व्यापारोका नाश किया है. यह सब उपर्युक्त अभिप्रायसे सिद्ध होता है. मूग से खाइयत सिद्धदाविरियदिट्टिणाणेहिं || अच्चतिगर्हि जुत्तो अब्बाबाहेण य सुहेण || २१५६ ॥ कर्माष्टकविनाशेन ते गुणाष्टक वेष्टिताः ॥ संतिष्ठन्ते स्थिरीभूताः सुवनत्रय वंदिताः ॥ २२३२ ॥ विजयोदया सो साहय यमसी क्षायिकेण सम्यक्त्वेन सिद्धतया घीर्येण अनंतज्ञानाथनंतदर्शनेन चात्यंतिकेन युक्तोऽयायाधेन सुखेन ॥ सवात्यति फालौकिक धर्म कलापं समुल्लपति- मूलारा-सिद्धदा सिद्धत्वं स्वःत्मलाभक्त्वम् । अर्थ - इस प्रकार क्षायिक सम्यक्त्व, स्वस्वरूपकी प्राप्ति, अनंतवीर्य, अनंवज्ञान, अनंत दर्शन और अव्याचाच सुख इन गुणोंसे सिद्ध विराजमान हुए हैं. अकसायत्तमबेदत्तमकारकदाविदेहदाचेव ॥ अचलत्तमवत्तं च हुंति अच्वंतियाई ॥ २१५७ ॥ विजयोश्या-अकसाया अपायत्वं अवेदत्यमकारका विदेहता अचलत्वमपत्वं व आत्यंतिक व तस्य भवति । कोधादिनिमित्तानां कर्मणां प्राकनानां विनाशादभिनवानां वाऽभावादकषायत्वमात्यंतिकं एवमेवदित्वं । साध्यस्पापरस्याभावादकारकत्वं । माक्तनस्य शरीरस्य विलीनत्वाद्देहांतरकारिणः कर्मणोऽभावाद्विवेद्दतया अवस्थांतरप्राप्तिनिमितांतराभायाचलर कर्मनिभितपरिणामाभावात् । प्रातनान कर्मणां विनाशादले पत्थमप्यास्यंतिकं ॥ मूला----अकसायत्तनवेदत्तं कृत्वादिनां प्राकतानां विनाशादभिनवानां चानुत्पादात् अपश्यत्वा वेदत्वे शाश्वति । अकारणदा साध्यस्यापरस्याभावान्नित्यमकारकत्वं विदेहदा प्रातनस्य देवस्य विलीनत्वादेहान्तर देते। श्वा भाषाधनारत मशरीरत्वम् | अचलवं अवस्थांतर प्रतिनिभित्ताभावात् अजस्रमचचत्वं । अलेवतं कर्मनिर्मितपरिणाम | भावात्पूर्व बिनाशाद शाश्वतमले पत्वम् ॥ आश्वास ८ १८४७ Page #1859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुलासधना अस्वासः १८४८ अर्थ--कषायोसे रहित, स्त्री, पुरुष, और नपुंसक इन तीन वेदोंसे रहित, ऐसी सिद्धोंकी अवस्था है. सिद्ध कारकत्वरहित, अचल और अलेप हैं. इनकी ये अवस्थायें अविनाशी हैं. क्रोधादिक कषाय तो नष्ट होनेसे और नर्वान कवाय उत्पन्न नही होनेसे वे अपाय और अवेद हैं. अब कुछ साध्य करना नहीं रहा है इस लिये वे अकारक हैं. मोक्षरूप साध्यही अन्तिम साध्य था वह उन्होंने प्राप्त कर लिया इस लिये वे अकारक है. पूर्व शरीर नष्ट होगया है और नबीन देह उत्पन करनेवाले नाम कर्मका नाश हुआ है अतःचे अदेह ही हैं. जो उनका स्वस्वरूप ॥ है उसमें फभीभी अवस्थांतर नहीं होगा क्योंकि, स्वरूपांतर उत्पन करनेवाले कर्मका अत्यंत अभाव होगया है. अय सिद्धमें नवीन फर्मका अभाव है और पूर्वकर्म नष्ट हुआ है इसलिये वे सदा अलग है. जम्मणमरणजलोघं दुक्खपरकिलेससोगत्रीचीयं ।। इय संसारस मुई तरते चदुरंगणावाए ॥ २१५८ ।। संसारार्णवमुत्तीर्णा दुःखनक्रकुलपकुलं ।। ये सिद्धिसौधमापन्नास्ते सन्तु मम सिद्धये ॥ २२३३ ॥ विजयोदया-जम्मणमरणजलोघं जन्ममरणजलौघं दुःखसंक्शशोकवीचिकं संसारसमुद्र । सम्यादर्शन शानचरित्रतपस्संचितचतुरंगनाया सरंति ॥ परममुक्तिवर्णनम्-संसारोच्छे पूर्वफत्यात्परम मुक्तेलदुनोपाय मनुशास्ति मुलारा--परिकिलेस परिततिः। घदुरंग सम्यग्दर्शनज्ञानाचारित्रतरांति व्यवहारेण संसारलंघनोपायः पर. मार्थव तु तन्मय आत्मैच ॥ अर्थ---यह संसारसमुद्र जन्म और भरण रूपी पानीसे भरा हुआ है, दुःख, संक्लेशपरिणाम और शोक रूपी लहरें इसमें नित्यही उछलती है. सम्यग्दर्शन, सम्यग्वान, सम्यकचारित्र और तप इन चार अवयवाँसे बर्ना हुई आराधना रूप नौकासे सत्पुरुष इस संसारसमुद्र से उत्तीर्ण होते हैं. १८४८ Page #1860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वास १८४९ एवं पण्डिदपण्डिदमरणेण करंति सबदुक्खाणं ।। अंत णिरंतराया णिच्वाणमणुत्तरं पत्ता ॥ २१५९ ॥ भवति पंडितपंडितमृत्युना सपदि सिद्धिवधर्वशवर्तिनी ॥ विमलसौख्यविधानपटीयसी सुभगतेय गुणेन निरेनसा ॥ २२३४ ।। इति पंडितपंडितम् ॥ विजयोदयापर्ष पण्डितपण्डितगरणेण एषमुक्तेन क्रमेण पण्डितपण्डित मरगण सर्वतुःखानामतं कुर्वति । निरंतराया निर्मिना निर्वाणमनुतरं प्राप्ताश्च । एतेम पण्डितपंडित मरणव्याख्यातं ॥ पंक्तिपंडितमरणं गर्द। प्रकृतमुपसंहरति मूलारा-अंतं विनाशं । णिरंतराया निर्विघ्नाः । संतो भब्या: । पत्ता प्राप्तुमारब्धाः । जीवन्मुक्ता इत्यर्थः। इति पंडितपंडिसमरणयाण्यानं समाप्तम ॥ अर्थ--इस प्रकार इस पंडितपंडित मरणके द्वारा महापुरुष केवल ज्ञानी अपने सर्व दुःखोंका अन्त करते हैं. जिससे उनको निर्विघ्न और सबसे उत्कृष्ट ऐसा मोक्ष प्राप्त होता है, इस प्रकार पंडितपंडितमरण का वर्णन समाप्त हुआ. एवं आराधित्ता उक्करसाराहणं चदुक्खधं ॥ कम्मरयविप्पमुक्का तेणेव भवेण सिझंति ॥ २१६० ॥ विजयोदया-एवं आराधित्ता पवमाराम्य । जनस्साराधणं उत्कृष्टाराधनां । पदुक्खधं समीचीनदर्शनशान चरतपोभिधानचतुष्कत्यं । कम्मरजविण्यमुस्का कर्मरजोविनमुक्तास्तेनैध मवेन सिति ॥ अथ चतुर्विधाराधनाया उस्कृष्टमध्यमजयन्यभावनाप्राप्यानाः सिद्धर्भवावधारणाय गाधात्रयेण चूलिकामाहमूलारा--चदुखधं चतुर्विधाम् ।। अर्थ-- जिसके चार भेद हैं ऐसी उत्कृष्टाराधनाकी अर्थात् सम्यग्दर्शन:ज्ञान, चारित्र और तप इनकी आराधना करके जो महापुरुष कमरजसे मुक्त हुये हैं अर्थात् जिन्होंने घातिकमौका नाश किया है वे उसी भक्मे मुक्त होते हैं. १८१९ Page #1861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १८५० आराधयित्तु धीरा मज्झिममाराहणं चदुक्खंधं ॥ कम्मरयविष्यमुक्का तच्चेण भवेण सिझंति || २१६१ ॥ आराघत्ति धीरा जहृम्णमाराहणं चदुक्खधं || कम्मर समजम्मेण सिझति ।। २१६२ ॥ आराधना जन्मवतश्चतुर्धा निषेव्यमाणा प्रथमे प्रकृष्टा । भवे तृतीये विदधाति मध्या सिद्धिं जघन्या खलु सप्तमे सा ॥ २२३५ ॥ विजयोदया - आराधयित्तु धीरा आराध्य धीरा जघन्यामाराधनां चतुष्कंधां कर्मरजोविप्रमुक्ताः सप्तमेन जन्मना सिध्यति ॥ मुळारा--- तचेण तृतीयेन || मूळारा स्पष्टम् ॥ चूलिका || अर्थ - धीर पुरुष इस चार भेदवाली मध्यम आराधनाका आराधन कर कर्मरजसे रहित होकर तृतीय भवसे मुक्त होते हैं. तथा कोई धीर पुरुष चार भेदवाली जयम्य आराधनाका आराधन कर कर्मरजसे मुक्त होकर सातवे भव सिद्ध होते हैं. एवं एसा आराधना सभेदा समासदो बुत्ता ॥ आराघणाणिबद्धं सव्वंपि ह होदि सुदणाणं ॥ २१६२ ॥ विजयोदयाप एसा पवमेषा आराधना सप्रभेदा समासतो निरूपिता आराधनायामस्यां निबद्धं सर्वमपि श्रुतज्ञानं भवति ॥ प्रकृतोपसंहारपुरः सरमाराधनाषितरानभिधाने निबंधनमात्मनः समर्थयते----. मुखारा - आराधणाणिचद्धं आराधनायां प्रतिपाद्यमानायां प्रतिपादकत्वेन संबद्ध यसो द्वादशांगमवि श्रुवं ॥ ततः को माहास्तां व्यासेन व्यावर्णयितुं प्रभवतीत्युत्तरगाथार्द्धन संबंधः || आश्वासा ८ १८५० Page #1862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासः दुलाराधना १८५१ अर्थ----इस प्रकार इस आराधनाकं भेद संक्षेएसे मैंने कहे हैं क्योंकि इसमें आराधना प्रतिपाद्य विषय है और प्रतिपादक शुतज्ञान है. यह श्रुतज्ञान मरे में अल्प है अतःमने आराधनाका संक्षपसं वर्णन किया है. आराधणं असेसे वण्णेर्यु होज्ज को पुण समत्थो॥ सुदकेवली वि आराधणं असेस ण वणिज ॥ २१६४ ॥ आराधनषा कथिता समासतो ददात सिद्धिं मम मंदमेधसः । अयुध्यमानैरखिलं जिनागमं न शक्यते विस्तरतो हि भाषितु ॥ २२३६ 11 विजयोदया-आराधणं असेस निरवशेषामायधनां वर्णयितुं कस्समर्थो भवेत्, श्रुतकेवल्यपि निरवशेष न वर्णयेत् मूलारा-को म पश्चिदल्पवतो निशेषांमाराधनां वर्णयितुं क्षमते इत्यर्थः । तहिं धुतकेवळी ता समस्तां वर्णयितुं प्रभविष्यती सत्राह-सुवेत्यादि एसेन भगवान्सर्वक्ष एवाराधनासर्चस्वव्यावर्णने समर्थ इति गमयति अर्थ-इस आराधनाका सविस्तर वर्णन करने में कोन समर्थ है ? क्योंकि श्रुतकेवलिभी संपूर्ण आराधनाका वर्णन नहीं कर सकेंगे, अर्थात केवलज्ञानी अर्हद्भगवान् ही इसका वर्णन करने में समर्थ है. अन्य नहीं है. अज्जजिणणनिगणि, सत्वगुत्तगणि, अज्जमित्तणंदीण || अवगामिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्थं च ।। २१६५ ॥ बिजयोदया-अज्जाजणणंदि धाचार्यजिननंदिगणिनः, सर्वगुप्तगणिनः, भाचार्यमित्रनंदिनच पादमूले सम्यगर्थ श्रुतं वावगम्य ॥ इदानीमात्मनः सांप्रदायिकत्वमवधानपरत्वं ए प्रकाशयन्नात्मकर्तृकत्वेनास्य शास्त्रस्य विनेजयनविश्वासनाय प्रमाणता व्यवस्थापयितुं गाथाद्वयमाह - मूलरा--अज्जजिपणं दिगणि मुमुक्षुजनाभिगम्य आर्य जिननंद्याचार्यः। सत्वगुत्तगणि सर्वगुणाचार्यः । अज्जमित्तणंदीणं आचार्यमित्रनंदी। आगमिय पठित्वा एतेनात्मनः सूत्राषिसंवादकत्वमुक्तम् ।। अर्थ--आर्य जिननंदिगणि, आर्य सर्व गुप्तगणी, तथा आर्य मित्रनंदिगणी इनके चरणमूलमें मैने उत्तम रीतीसे श्रुत और उसके अर्थका अध्ययन किया है. तदनंतर १८५१ Page #1863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १८५२ पुन्धाययरियणिवा उवजीवित्ता इमा ससत्तीए । आराधना सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रहदा ॥ २१६६ ॥ विजयोदयापुब्वायरिय पूर्वाचार्यकृतामिव उपजीव्य इयं आराधना स्वशक्त्या शिवाचार्येण रचिता पाणि तलभोजिना ॥ मूलारा— रा— कयाणि आराधनाशाखागीति शेषः ॥ उषजीवित्ता स्तोकं स्तोकं तदर्थमुपसंगृह्य सत्ती सेनात्मनोऽवधान परताप्रतिपादनद्वारेणोढत्या भावाभिधेयस्य च परमगांभीर्य दर्शितम् || सिवज्जेण शिवकोट्याचार्येण मतेति लक्षयति । पाणिलभोणा हस्ततलभोजनत्रतेन यतिनेत्यर्थः । एतेन प्रसारकत्वाशंकानिरासः ॥ अर्थ - पूर्वाचा बनाये हुए शास्त्रांसें थोडा थोडा अर्ध संग्रहीत करके हस्वरूपी पात्र में भोजन करनेवाले अर्थात् मुनि ऐसे शिवार्य - शिवकोटी आचार्यने यह आराधना नामक महाशास्त्र रचा है. जियो वत्सलतया ॥ छदुमत्थदाए एत्थ दुजं बद्धं होज्ज पवयणविरुद्धं ॥ सोधेंतु सुगीदत्था तं पवयणवच्छलसाए || २१६७ ॥ विशोध्य सिद्धांतविरोधिबद्धं ग्राह्या श्रुतः शिवकारिणीयम् ॥ पलालमव्यस्य न किं पवित्रं गृह्णाति सस्यं जनतोपकारि ॥ २२३७ ॥ छमस्थदा छभस्थतया यदत्र प्रवचननिदर्शनयद्धं भवेत् तत्सुगृहीतार्थाः शोधयंतु प्रवचन अधुना स्वस्य बालमाषप्रकाशनेनैवं युगीन थुतघरधुरीणानामनुप्रहेण स्वशास्त्रमामाण्यप्रतिष्ठार्थं सधर्मवत्सलता मुहासयति मूलारा—छदुमत्थदाए सावरणज्ञानतया । एत्थ एवास्मैन आराधनाशास्त्रे । पयणवच्छता मयि सधर्मणि जिनसूत्रे वा नैसर्गिकानुरागपरवत्तया । आश्वासः ८ १८५२ Page #1864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना अर्थ-मैं शिवकोटि आचार्य) छप्रस्थ होनेसे मेरे द्वारा जो प्रवचनका वर्णन किया गया है वह यदि विरुद्ध होगा तो जिन्होने आगमके अर्थका सम्यक निर्णय किया है वे साधार्मिक प्रेमसे उस अर्थका संशोधन करें. आश्वास १८५३ आराधणा भगवदी एवं भत्तीए वणिदा संती॥ संघस्स सिवजस्स य समाधिवरमुत्तमं देउ ॥ २१६८।। आराधना भगवती कथिता स्वशक्त्या चितामणिर्वितरितुं बुधर्चितितानि ।। अहाय जन्मजलधि तरितुं तरण्ई भव्यात्मना गुणवती ददतां समाधि ।।२२३८।। करोति वशवर्तिनीस्त्रिदशजिताः संपदो । निवेशयति शाश्वते यतिमते पदे पावने ।। अनेकभवसंचितं हरति कल्मषं जन्मिनाम् ।। विदग्धमुखमंडनी सपदि सेचिताराधना ।। २२३५ ।। चिजयोदया-आराधणा भगवदी आराधना भगवती एवं भक्त्या कीर्तिता सर्वगुप्तगणिनः संघस्य शिवाचार्यस्य च विपुलां सफलजनमाथनीयां अव्ययाधमुखां सिदि प्रयच्छतु । शास्त्रकदेवं भक्त्या परमाराधना न्यावर्य स्वल्यावर्णनफलं प्रार्थयतेमूलारा-समाहिवरं शुक्र यानं । उत्तम व्युपरतक्रियानिवर्तिनामधेयमिति भत्रम् ॥ · अर्थ-इस प्रकारसे भक्तिवश होकर वर्णन की गई यह भगवती पूज्य आराधना सर्व संघको और शिवकोटि आचार्यको सर्व जीव जिसकी अभिलाषा करते हैं, जो अव्याबाध सुख देती है ऐसी अनन्त मुक्तिको प्रदान करे. असुरसुरमणुयकिण्णररविससिकिंपुरिसमहियवरचरणो ॥ दिसउ मम बोहिलाहं जिणवरवीरो तिहुवर्णिदो ॥ २१६९ ॥ १८५३ Page #1865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOGGER500AM पृलाराधना आश्वास: १८५४ खमदमणियमधराण धुदरयसुहदुक्खविप्पजुत्ताणं ॥ णाणुज्जोदियसल्लेहणम्मि सुणमो जिणवराणं ॥ २१७ ॥ अर्थ-असुर, सुर स्वर्गवासी देव, मनुष्य, किन्नर, सूर्य, चंद्र किंपुरुष इनके द्वारा जिनके चरण पूजे गये हैं, जो त्रैलोक्य नाथ हैं ऐसे श्रचिीर जिनेश्वर मेरेको रत्नत्रयका लाम करदे । अर्थ-क्षमा, जितीन्द्रयता, और नियमोंको धारण करनेवाले, कर्ममलको नष्ट करनेवाले, शारीरिक और मानसिक सुखदुःखसे राहत, केवल ज्ञानसे जिन्होंने सम्लेखनाको प्रगट किया है ऐसे संपूर्ण जिनश्वरोको मे नमस्कार करता हूँ. श्रीमदपराजितसूरेष्टीकाकृतः प्रशस्तिः नमः सकलतत्वार्थप्रकाशनमहौजसे ॥ भव्यचकमहाचूडारत्नाय सुखदायिने ॥ १॥ श्रुतायाज्ञानतमसः प्रोद्यद्धमाशवे तथा ॥ केवलज्ञानसाम्राज्यभाजे भव्यकबंधवे ॥ २ ॥ चंद्रनंदिमहाकर्मप्रकृत्याचार्यप्रशिया भारतीयसूरिचूलामणिना नागनंदिगणिपादपोपसयाजातमतिलेश्वन बखदेवसूरिशिष्येण जिनशासनोद्धरणधीरे लब्धयशःप्रसरेण अपराजितमरिणा श्रीनागनंदिगणिनायचोधिनेन रचिता आराधनाटीका धीविजयोदयानाम्ना समाप्ता॥ ॥एवं भगवती आराधना समाप्ता ।। टीकाकार श्रीअपराजितसूरीकी प्रशस्ति. अर्थ-संपूर्ण जीवादि तत्वाधाको प्रमट करने में जो अतिशय समर्थ है जो भन्यसमुदायको महाचूदामणिके तुल्य है और जो सुखदायक है ऐसे श्रुतज्ञानको मैं नमस्कार करता हूं अर्थात् श्रुतकवलीको मैं वंदन करता हूं. १८५४ Page #1866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूलाराधना १८५५ SMS अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करनेमें जो ऊगे हुए सूर्यके समान है- जिन्होंने केवलज्ञानरूपी साम्राज्यपद धारण किया हैं जो भक्योंके अद्वितीय मित्र हैं ऐसे जिन भगवानको मैं नमस्कार करता हूँ. श्री अपराजित सूरि, चंद्रनंदि और महामकृत्याचार्य नामक मुनिराजोंके प्रशिष्य थे, आरातीय विद्वानों चूडामणिके समान श्रेष्ठ थे. इन्होने नागनंदि आचार्य के चरणकमलोकी सेवा करके ज्ञान मास किया था. ये बलदेव के शिष्य थे. जिनशासनका उद्धार करनेमें ये धीर समर्थ थे. इनको खूब यश प्राप्त हुआ था. इन्होने नागनंदि आचार्यकी प्रेरणा से विजयोदया नाम की यह आराधना टीका रचकर समाप्त की है. ये चितयंति तदत्तद्भवसिद्धिप्य दाराधनानुगत मृत्यु विकल्पकल्पं ॥ ऐदयुगीनमुनयोऽर्हदुपज्ञमेनं सत्यद्वमुताभ्युदय मुक्तिमुदीशिनस्ते ॥ १ ॥ इमामष्टश्रासीतं त्रित्रिचतुरे। निमन्धैष्टीकाथैः स्थविरवचनैरप्यवितथैः ॥ कृतां संच=च्चैः शिवश्चनमीत रद्द ये प्रत्याशाधरपुरुषदूरं पदमि ॥ इत्याशाधरानुस्मृतमंथसंदर्भ मूलाराधनादर्पणे पदप्रमेयार्थ प्रकाशीकरवणेऽष्टम आश्वासः ॥ स्वस्ति स्यात्कारकेतनाय श्रीमदनेकान्तशासनाय ॥ अथ प्रारब्धनिर्विघ्नपरिसमाप्तिप्रमोद भरानुविद्धभक्तिपर वशमानसो प्रथकृत्परमाराध्यां भगवतीमाराधनाममिष्टोतुमिदं वृत्तदशकमपाठीत् ॥ लब्बा लचश्विरेण रचिताः कालादिलीः सतां भिव्वाराधकतां विशुद्धिमती भव्या भवाद्विभ्यतः ॥ यामाराध्य शिवाध्ववृत्तिमसिधसिध्यन्ति सेरस्यति वा । तां वंदे व्यवहार निश्चयमयी माराधना देवताम् ॥ १ ॥ सर्वज्ञाभिधहिम्यभूधर हृदोद्भूतेन बाक्स्रोतसा । तवज्ञप्ति मितिसंगसुभगेनासंगकुंडाश्रिता ॥ भस्मान्वः पुनतात्रिमार्गविलसद्वेदाय रूदौजसा । चित्धुिं पृक्ती धुनोतु मदधाम्याराधनास्वर्धुनी || २ || या सम्यक्स्वमुखेन दोधव पुपोधोता दिदोविंशति- भीसारेण तपश्चरित्रचरणेनोत्सिक्तपिच्छसिना ॥ रूपेणाभिगवानि भाक्तिकजनैः संयोजयंत्यं जसा || तामानंदसुधाधिदेवतभुवैम्याराधनां प्रश्रयान् ॥ ३ ॥ दीप्रास्तिक्यकिरीटिकामुपशगस्फारोरुद्दाएं स्फुरनिर्वित्संसृतिभीतिकुंडलरुचि स्फूर्जत्कृपामुद्रिकाम् ॥ आश्वासः ८ १८५५ Page #1867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वासर १८५६ सवारशनामुरदारयतनां संतोषपादांगवाम् ।। दोषीकृतभावनां प्रणिपताम्याराधनामम्बिकाम् ॥ ४ ॥ हीसाटी पिनयोत्तरीयसचिरा वीर्याहसत्कंधुकाम् ॥ श्रयान तोज्ज्वला मुबिमलस्वाध्याय लीलाम्बुजाम् ॥ सम्लेश्याहरिचंद्नद्रषरुचं साम्यावतंसोत्सवाम् ।। वर्षन्ती हदि मे सुधां भगवतीमाराधनां धारये ॥ ५ ॥ चेत:पंचनमस्क्रिया श्रुतिमुलनाविश्य यज्ज॑भसे मव्यानां मरणक्षणे त्रिभुवनश्रीणां तदाप्युल्वणम् ॥ किंचित्कार्मणमन्वयत्पुनरवाप्नम्येन धाम्ना तदा । तात्कानप्यचळ चिनोरि वरदे सा तात्विको पुस्थितिः ॥ ६॥ पद्धत्षेम मसीनसमदमपोशाक्षावभासात्मनः ।। स्वं स्वेन सस्वैन स्वगात्मना विशदविम्मात्रात्मकायात्मने ॥ पश्यन्नात्मनि निस्सरंगमहसि स्वां निश्चयाराधने || मातश्रेदहमुस्किराम्यपुनरावस्या तार्थोऽस्मि तत् ॥ ७ ॥ फि चित्रं जिनप्रिसाधुवपुषा त्वशक्तिसेवापुपाम् ॥ संस्कारेण पविविता: सुरवरदिध्यानयो वह्नयः ।। पूज्यंते द्विजसत्तमर्षिशिवदाधानादिकत्येषु यत् । तत्रिं त्वति यत्पुनंत्यपि गिरि प्रायो जग सद्युतः ।। ८॥ एकानेफभवेद्यमात्परमनैष्क्रम्यानिमयासितः । प्राप्य पंडितपहितैः सकलचिच्छतमवोच्छेदिनी स्वं विदन्भवती यथात्र भवतीमाजन्मयी ज्ञाकुरन्यायेनानुपजद्भिरेभिरसुभिर्मुच्येऽनुचर्या तथा ॥९॥ इत्युदामलसत्परापर कहालीलाविलासाखिलम्लेशा । तत्पदसंपदार्पण परामागधनां संस्तौति यः ॥ स प्राणोपरमोपजाततदुपरकारः शिवाशाधरैराराभ्यक्रमकोऽचलचिदानंदे सदास्ते पदे ।। १०॥ इत्याराधनास्तवः ।। पं. आशापुरजीने मूलाराधना नामकी टीका भगवती आराधनाके उपर लिखी है. उस की निर्विन समाप्ति होनेसे उनको बढा आनंद हुआ. तय भक्तिवश होकर उन्होने परम आराधनीय ऐमे भगवती आराधनाकी स्तुति करनेके दशश्लोक रचे हैं. उसका अनुवाद हम यहाँ पाठकोंके लिये देते है १ सत्पुरुषोंको मान्य ऐसी कालादि लब्धि पाकर भव्य जन संसारसे मययुक्त होते हैं. और सम्यद्गशनाराधनादिचार प्रकारकी आराधनाओंका आराधन करके आपने परिणाम आतशय निर्मल बनाते हैं. ये आराधनायें मोक्षमार्गमें प्रवृत्त होने वाले भव्य लोंगोको कलेवाके समान है. इनकी आराधनासे ही पूर्व कालमें बहुत भव्य लोकोने मुक्ति की प्राप्ति करली है, मुक्तिकी प्राप्ति करते हैं. ब करेंगे. अतः व्यवहाराराधनदेवता-भेद रत्नत्रयरूपी आराधना और अभेद रत्नत्रयरूपी निश्चयाराधना मानो देवता ही है, इस देवताको में मस्तक नमाकर नमस्कार करता हूं. १८५६ Page #1868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास THISTARTIYAYSANSAR १८५७ वाताको विनय शक्तिरूपी सौगात मंद होत SHANKAAREERSTARDAMRATARAaweeniestanesecrere २ यह आराधनारूपी महागंगा नदी सर्वत्र जिनेश्वररूपी पम सरोवरसे उत्पन्न हुई है. दिव्यधनिरूपी जल प्रवाहसे सुंदर दीखती है. इसका यह दिव्यध्यानरूपी जलप्रवाह तत्वज्ञप्ति अर्थात् तत्वज्ञानस्वरूपी आकाशसे उत्तरकर निग्रंथतारूपी कुंडमें पड़ता है. रत्नत्रयरूपी वेदाध्य पर्वतके पास आये हुए इसकी तेजस्विता बहुत बढ़ गई है. यह गंगानदी ज्ञानसमुद्रको पूर्ण भरती है. भव्योंको पवित्र करनेवाली यह आराधनारूप गंगा मेरे पापोंका नाश करे. ३ इस आराधना देवीका सम्यक्त्वही मुख है. सम्यग्ज्ञान ही शरीर है. उद्योत, उद्यवन, निर्वाह, सिद्धि और निस्तरणरूपी वीस माहुओंकी शोमासे यह आराधना देवता बडी सुंदर दीखती है. प्रत्येक आराधनामें ये उयोसादिक पांच स्वभाव है. चार आराधना के मिलकर उघोसादिक बीस भेद होत है. तप और चारित्ररूपी सुंदर चरणोसे बड़ी सुहावनी दीखती है. बढी हुई चैतन्य शक्तिरूपी सौंदर्यसे यह युक्त है. एसी यह आराधना आनंद सुधाकी मुख्य देवता है. मैं इस देवाताको विनयसे शरण जाता हूं. इस आराधनारूपी अम्बिकाको मैं वंदन करता हूं. इसने उज्ज्वल आस्तिक्यरूपी किरीट अपने मस्तक पर धारण किया है. कषायोपशमरूपी कांतिसंपन्न पहा हार गलेमें धारण किया है. वैराग्य और संसारमय रूपी कुंडल इसने अपने दोनो कानोंमें धारण किये है. कृपारूपी अंगुठी अपने करांगुलीमें धारण की है. तत्व. चर्चारूपी रशना-करधनी इसने धारण की है. संतोपरूपी नूपुर अपने पांचों में धारण किये है. अहिंसादिक व्रतोंकी भावनारूप मुजालंकार इसने धारण किये हैं ऐसी इस आराधनारूप आम्बकाको मैं नमस्कार करता हूं. ५ मैं इस भगवती आराधनाको अपने हृदयमें धारण करता हूं. इसने लज्जारूपी साडी पेहेनी है, तथा विनयरूपी ऊपरका वस्त्र धारण किया है. शक्तिरूपी कंनुलासे यह सुंदर दीखती है. पुण्यरूपी पत्रलतासे यह उज्ज्व ल दीखती है. निर्मल स्वाध्यायरूपी क्रीडाकमल इसने अपने करमें धारण किया है. पति पभादि शुभ लेश्यारूपी चंदनचर्चासे इसका शरीर सुंदर दीखता है. साम्यरूपी कर्णभूषणों से इसका मुख उज्ज्वल है. ऐसी यह आराधना देवता मेरे हदयपर नानामृतकी वर्षा करे. ६ हे जननी, तूं पंचनस्कारके मिष से मरणके समय भन्योंके अन्तःकरण में कर्णद्वारा प्रवेश करती है. जब तं उनके अन्तःकरणमें प्रवेश करती है तब वे मरणोत्तर त्रलोक्यलक्ष्मीके उत्कृष्ट पात्र बन जाते है. हे भगवति! इष्ट में प्रवर्मनात प्रदेश भगवीत १८५७ २३३ Page #1869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आवासः १८५८ तेरा ऐसा प्रभाव है कि उसका मैं वचनों के द्वारा वर्णन करने में असमर्थ है.हे जननि जो तेरा आराधन करते हैं. उनको अचल अनन्त-विनाशरहित ऐसा पुरुषपद प्राप्त होता है. अर्थात उनको मोक्ष मिलता है. ७ हे आत्मम् ! तूं इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानोंको छोडकर निर्मल चैतन्यरूप शरीर धारण करने वाला आत्माकी प्राप्ति होने के लिये उसको स्वानुभव के द्वारा देख ले जिससे तुझको असीम-अमार्याद आनंद प्राप्त होगा. यह आत्मा आनंदरूप हैं ऐसी तृ श्रद्धा कर. हे जननी आराधने 'तुझको निश्चल तेजास्वरूप अपनी आस्मामें देख लेता हूं. मैं तेरको स्वस्वरूपमें सर्व तरफ फैलाता हूं जिससे मेरा संसारमें पुनरागमन न होगा और मैं कृतार्थ होउंगा. ८ हे मातः! तेरी भक्ति करनेत साधुगण का चैतन्य स्वरूप पुष्ट हो जाता है. इंद्रादिक श्रेष्ठ देवोने दक्षिणीय, आवहनीय व गाईपत्य ऐसे तीन अग्नि साधुओंके शरीरस्पर्शसे पवित्र किये हैं. गर्भाधानादिक कार्यके समय ये तीनो अग्नि गृहस्थाचायोंके द्वारा पूजे जाते हैं. इसमें आश्चर्य क्या है ? ९हे आराधना माता, पंडितपंडित अर्थात केवल ज्ञानी मुनि तेरी प्राप्ति कर लेते हैं. तूं भवका-संसारका नाश करने वाली है. जो नेरी भक्ति करता है उसको निजस्वरूपकी प्राप्ति होती है. हे मातः! मैं भी तेरी सेवा करूंगा जिससे संसारमें जब तक मैं रहूंगा तबतक बीजांकरन्यायसे मेरे साथमें रहनेवाले इन प्राणोंसे मैं स्वस्वरूपकी प्राप्ति होने के अनन्तर रहित होऊंगा. १. जिसमें सम्पूर्ण दु:खों का अन्त हुआ है ऐस। मुक्तिपद अर्पण करने वाली इस आराधना जननीकी जो स्तुति करता है उसके प्राणोंका त्याग होने से वह मुक्त हो जाता है. उसके चरण कमलोंको मोक्षेच्छु भव्य पूजते हैं और वे भी अचल ज्ञानरूपी आनंद जिसमें भरा हुआ है ऐसे मोक्षपदमें सदा ही निवास करते हैं. इस प्रकार आराधनाकी स्तुति समाप्त हुई.(इस स्तुतीके शोकोंका अर्थ ठीक हम नहीं लगा सके जैसा हमको जंचा पैसा लिखा है.) __ अथ परममुख्यावसानमंगलं सिद्धस्तवः ॥ यस्यानुग्रह्तो दुराग्रहपरित्यक्तात्मरूपात्मनः । सद्रव्य चिचित्रिकालविषय स्पैःस्वैरभीक्ष्ण गुणैः ॥ सार्थव्यंजनपर्यवैः सनियर्जानाति बोधः समं । तत्सम्यकत्वमशेयकर्मभिदुर सिद्धाः परं नौमि वः || १ ॥ १८५८ Page #1870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास BHIGIOBANApamadamASARITAMBRATAMENTATARATHARASHTRA यत्सामान्यविशेषयोः सहपृथक्स्वान्यस्थयोर्दीपयत् । विसं द्योतकमुद्रिरन्मुवमरं नो रज्यति टेष्टि न । धारावापि तत्प्रतिक्षणनवीभावोद्धरार्पित-प्रामाण्य प्रणमामि वःफलितहप्त्युक्तिमुक्तिश्रिये ॥२॥ सत्तालोधनमात्रमित्यपि निराकार मतं वर्शनम् | साकारं च विशेषगोचरमित्ति हानं प्रवादीच्छया ॥ ते नेत्रे क्रमवर्तिनी सरजसा प्रादेशिक सर्वतः । स्फूर्जन्ती युगपत्पुनबिरजसा युष्माकमंगातिगाः ॥ ३ ॥ शक्तिव्यक्तिविभक्तविश्वविविधाकारोधकर्मीरितानंतानंतभवस्वमुक्तपुरुषोत्पादव्ययधौष्यवत ॥ स्वं स्वं तत्त्वमसंकर व्यतिकरं कर्तृन्क्षणं प्रत्यथो भोकृनन्धयतः स्मराभि परयाश्चर्यस्य वीर्यस्य वः ॥ १ ॥ ५:४ान्ति र जा रिमिक मार कर । यनिष्पीतसमस्तवस्त्वपि सदा केनापि न स्पृश्यते ।। यत्सर्वज्ञसमक्षमप्यविषयस्तस्यापि चार्थादि । तरः सूक्ष्मतम स्वतत्वमभि या भावा भवोरिछत्तये ॥५॥ गया लोकशिरस्वधर्मवशतश्चंद्रोपभे सन्मुखप्राभाराव्यशिवावलोपरि मनानैकगम्यूनिके। यागोज्झांगदरोनमित्यपि मिथो संबाधयेकत्र यालब्धान्तमितोऽपि तिवति स धः स्तुत्योऽवगादो गुणः ॥ ६ ॥ सिद्धाश्चद्गुरवो निराश्रयतया अश्यत्ययःपिंववत् । तेऽवश्वेल्ट्यवोऽर्कतूलवदितश्वेतश्च चंडेन तत् 11 क्षिप्यन्द तनुवातवातवलयेनेत्युक्तियुक्तवुद्धतैनानोपनमपीध्य तेऽगुरुलघुः क्षुद्रः कथं को गुणः ॥७॥ यत्तापत्रयमेति भरवगबोदधिःशमाय श्रमो। युष्माभिधिध व्यपस्थत सदव्यासायमेतदुवम् ।। येनोद्वैलसुखामृतार्णवनिरातकागिपेकोलस- शिकायाकलयामि वः कळयितु याम्यन्ति योगीश्वराः ॥ ८ ॥ एतेऽनंतगुणोद्गणाःस्फुटमपोइत्याद दिया भवत । तत्याद्भावयितुं सतां व्यवहातिप्राधान्यतस्ताविकैः ॥ एतद्भावनया निरंतरगलतीकल्पजालस्य मे । स्ताइत्यंतलयः सनातनचिदानंदात्मनि स्वात्मनि ॥ ९॥ उत्कीर्णामिष वर्तितामिव हृदि न्यस्तामिवालोकयन् । एतां चिद्गुणसंस्तुचि पठति यः शश्वच्छिवाशाधरः।। रूपातीतलमाधिलाधितवपुःपात:पतहुष्कृत-प्रातः सोऽभ्युदयोपभुक्तसुकृतोद्रेकै किसिध्यति ॥ १०॥ इति सिद्धस्तवः ।। १ अब पं. आशाधर जी परममुख्य आरै अन्तिम मंगल ऐसी सिद्धपरमेष्ठिओंकी स्तुति करते हैं-सम्यग्दर्शन संपूर्ण कर्मसमुदायका नाश करनेवाला है. यह दुराप्रहरहित आत्माका स्वरूप दर्शानवाला है. इसका अनुग्रह जब आत्मापर हो जाता है अर्थात् यह सम्पकात्र जय आत्मामें प्रगट होता है तब बानगुणका पूर्ण विकास Page #1871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आभास १८६० PROPORNER होता है. वह केवलज्ञानकी अवस्थाको धारण करता है तब इस आत्मामें संपूर्ण गुणांसे हमेशा परिपूर्ण, और सूक्ष्म व्यंजन पर्याय और स्थल नर नारकादि पर्याय जिसमें उत्पन्न होते हैं ऐसे जीवपद्लादि पद्रव्योंको जाननेका सामर्थ्य उत्पन्न होता है. संपूर्ण भूत भविष्यद्वर्तमानकाल संबंधी पर्यायों सहित जाननेका सामथ्र्य प्राप्त होता है, सिद्धोंमें ऐसा सामर्थ्य प्राप्त दुआ है अतः मैं उनको नमस्कार करता। २दीपक जैसा सामान्य और विशेष पदार्थों को एकदम और अलगमी प्रगट करता है वैसा केवलज्ञान भी वस्तुके सामान्य और विशेष पर्याय युगपत् और कथंचिद् भिन्नरूप अपने और तमाम पदार्थोको प्रगट करता है. पहायजाम अनंत सुख देनेशला है. इसकी प्राप्ति होनपर संपूर्ण पदार्थ आत्मा जान लेती है तो भी यह उन पदार्थों में आसक्त नहीं होती है और द्वेपी भी नहीं होती है. यह केवलझान धारावाही ज्ञानके समान होकर मी प्रत्येक क्षणमें नवीन पर्यायाँको धारण करने वाले पदार्थ इसका विषय बनते हैं अतः इसमें प्रामाण्य प्राप्त होता है. अनंत दर्शनके साथ यह केवलज्ञान मुक्तिलक्ष्मी की प्राप्ति कर देता है. हे सिद्ध परमेष्ठिन् ! ये दो गुण आपमें सदाके रहते हैं अतः मैं आपको नमस्कार करता है. ३दर्शन सत्ताको विषय करता है और शान पदार्थ की विशेषताको दिखाता है. ये दर्शन और ज्ञान संपूर्ण जीवोंको नेत्रसमान समझने चाहिये. परंतु दोनोंमें इस प्रकार अंतर है-जो जवि कर्मसहित हैं अर्थात् जो ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मसे सहित है उनको ये नेत्र दर्शन पूर्वक वस्तुका स्वरूप दिखाते हैं. अर्थात छअस्थ जीवोंको प्रथम दर्शनोपयोग होता है अनंतर ज्ञानोपयोग होता है. वह भी संपूर्ण पदार्थो में नहीं होता है. परंतु जिनका ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म नष्ट होगया है उनके ज्ञान दर्शनमें ऐसा सामर्थ्य प्रगट हुआ है कि जिसके सामर्थ्य से वे युगपत्संपूर्ण पदार्थीको देखते हैं और जानते हैं. हे सिद्ध भगवन् ! आप शरीररहित हुए हैं और आपको ऐसे अद्वितीय नेत्र प्राप्त हुए हैं. इसलिए मैं आपको नमस्कार करता है, । सिद्धपरमेष्ठिओंको अनंत शक्ति नामक आत्मगुण प्रकट होता है. इसके सामर्थ्यमे उनका ज्ञान आत्मतत्व को जानता है. सिद्ध पुरुषोंमें आत्माको नानाप्रकारकी शक्ति अर्थात् गुण प्रगट हुए हैं. ये सर्व गुण आपसमें मिले रहनेपर भी सिद्धों को इनके स्वरूपका स्पष्ट अनुभव आता है. अपने उत्पाद, व्यय, और धीच्यके साथ संसारी जीवोंके समस्त शक्तिरूपमें रहनेवाले गुणोंको भी सिद्धपरमात्मा जानते हैं. उनके जानने में संकर व्यतिकर दोष उत्पन्न नहीं होता है. वे इन गुणोंके कर्ता और भोक्ता है. अतः ऐसे सिद्ध परत्माओंफा मैं मनमें स्मरण करता हूं. Page #1872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना १८६१ ५ सिद्धो सूक्ष्मता नामक गुण है उस गुणसे इतर जीवोंको प्रतिबंध नहीं होता है और न वे इसको प्रतिबंध कर सकते हैं. समस्त वस्तुओं को वह स्पर्श करती है परंतु कोई भी उसको स्पर्श करनेमें असमर्थ है. भगवान् इस गुणको जान तो लेते हैं परंतु उनके भी वचन संपूर्णतया इसके वर्णन में असमर्थ है. अर्थात् यह सूक्ष्मतागुण इतना है कि सूक्ष्मा जिनवाणी भी इसको ग्रहण नहीं करती है. है सिद्धपरमात्मन् मैं संसारनाशके लिए उस तुझारे सूक्ष्म गुणका चिंतन करता हूं. ६ सिद्ध परमेष्ठि लोकके अग्रभागमें ऊ गति स्वभावसे जाकर वहां चन्द्रसमान शुभ्र ऐसी मोक्ष शिला परविष्ठते हैं. उस शिलाको प्राग्भारा ऐसा नाम है. वह एक योजन में कुछ कम ऐसे लोकाग्र में है. और वातवलय में विराजमान है जब सिद्ध परमेष्ठि सर्व योगोंसे रहित हो जाते हैं तब उनका आकार अन्तिम शरीरसे कुछ कम ऐसा होता है. उस समय उनमें पवित्र अवगाह नामक गुण उत्पन्न होता है. इस गुणके जलसे एक स्थानमें भी पाधारहित अनंतसिद्धों के साथ में रहते हैं. यद्यपि अनन्त गुणों का आश्रय स्थान हैं तो भी वे निराकुल अनन्त सिद्धोंके साथ रहते हैं यह सब हे सिद्धात्मन् ! आपके अवगाहगुणका ही प्रभाव है. ७] कोई क्षुद्र वादी लोक ऐसा कहते हैं - यदि सिद्धात्मायें भारी वजनदार हैं तो निराधार लोके पिंड समान नीचे गिरने चाहिए और यदि वे हलकी हैं तो अकके कापीस समान प्रचण्ड तनुराववलय के द्वारा इधर उधर फेके जाने चाहिए. परंतु जिनेंद्र भगवान् सिद्धों को लघु अथवा गुरुभी नहीं मानते हैं. वे अगुरुलघु नामक गुणके धारक हैं ऐसा कहते हैं. इस गुणका स्वरूप वे क्षुद्रलोक क्या जान सकते हैं ? ८ शारीरिक, मानसिक तथा वाचनेिक दुःखरूपी शस्त्रोंका आघात होनेसे जो भयंकर संसाररूपी अग्नि प्रकट हुआ था उसके नाशके लिये हे सिद्धपरमात्मन् ! आपने जो तपरूपी परिश्रम किया था उससे आपको अव्या बाघ नामक गुण प्राप्त हुआ हैं. तटको उल्लंघकर बहनेवाले गुरवसमुद्र के द्वारा आपका चैतन्यमय शरीर अभिषिक्त हो रहा है. आपके उस अव्यावाध गुणकी अंशमात्र भी प्राप्ति हमको होवे इस हेतुसे योगीश्वर श्रम करते हैं अर्थात् तप करते हैं. ९ सिद्धपरमेष्टी यद्यपि अनंत गुण है तोभी उनमेसे ये आठगुण अलग आचार्यने वर्णन किये हैं. अर्थात् व्यवहारको प्रधानता देनेवाले विद्वानोंनं सिद्धों का स्वरूप सत्पुरुषोंके द्वारा भाया जावे इस हेतुसे इन गुणों आश्वास ८ १८६१ Page #1873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना माधान १८६२ का अलग स्वरूप कहा है. इन गुणोंकी भावना में करता हूं जिससे मेरे सर्व विकल्पोंका नाश होकर चित्स्वरूपी अनाद्यनंत ऐसे आत्मामें मेरा अत्यंत लय होवे. १० चतन्यानुभवमय ऐसे सिद्धों के गुणोंकी स्तुति जो महात्मा अपने हृदयमें मानो उकीरी गई, अथवा लिखी गई, हृदयमें मानो स्थापित की गई है इस प्रकार हमेशा मोक्षको इच्छाकरके करता है वह निर्विकल्प शुक्लध्यानसे शरीरके त्यागके साथ संपूर्ण पापराशिका नाश करता है. जबतक ऐसा महात्मा संसारमें रहता है तबतक पुण्योदयसे संसारके वैभवोंको भोगता है. योग्य ही हैं कि पुण्योदयसे क्या हस्तगत नहीं होता है ? इस प्रकार सिद्भस्तव समाप्त हुआ. यशक्तिः। श्रीमानस्ति सपादलक्षविषयः शाकंबरीभूषणः । तत्र श्रीरतिधाममंडलकर नामास्ति दुर्ग महत् ।। श्रीरल्यामुदपादि तन्त्र विमळव्यारवालान्वया । च्छीसलक्षणतो जिनेंद्रसमयवद्धालुसशाधर ॥१॥ सरस्वत्यामिवात्मानं सरस्वत्या मजीजनन् । यःपुर्व छाडं गुण्य रंजितार्जुनभूपतिम् ।। २।। व्यारवालपरवंशसरोजहंसःकाव्यामृतौघरसपानसुतृप्तगात्रः .. .. सलक्षणस्य तनयो भयविश्वचनुराशाधरो विजयतां कलिकालिदासः ।। ३॥ . इत्युदयकीर्तिमुनिना कविसुष्टदा योऽभिनंदितःप्रीत्या | प्रज्ञापुजोऽसीति प योऽभिहितो मदनकीर्तियविपतिना ॥ म्लेच्छशेन सपादलक्षविषये व्याने सुवृत्तक्षति-॥ त्रासाद्विन्ध्यनरेन्द्रदो:परिमळ स्फूर्जभिवोजसि ।। प्राप्तो मालच मंडळे बहुपरीवारः पुरीमावसन ॥ यो धारामपठन्जिनममितिवाकशास्त्र महावीरतः ॥ प्रशस्ति अपूर्ण है. पं. आशाधरजीने अपनी प्रशस्तीका जो परिचय दिया है उसका वर्णन इसप्रकार १ साबर सरोवर जिसका भूषण स्वरूप है ऐसा सपादलक्ष नामका देश है वह त्रिवर्ग संपत्तिसे युक्त है. मंडलकर नामका लक्ष्मीका क्रीडागृहके समान एक बहा काला है. इस काले में बघेरवाल नामक वंशमें जिनेंद्रमतमें श्रद्धालु पेसे पं. आशाधरजी उत्पन्न हुए. इनके पिताका नाम सल्लक्षण था और माताका नाम श्रीरत्नी था. १८६२ Page #1874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबासा मूलाराधना १८६३ २५० आशाधरजीके पत्नी का नाम सरस्वती था. वाग्देवताम अर्थात सरस्वती में जैसा पंडितजीने अपने को उत्पन्न किया था से सरस्वती नामक अपने पत्नी में उन्होंने छाइट नामका पुत्र उत्पन्न किया. यह पुत्र गुणधान था और इसने अर्जुन नामक मालवदेशके राजाको संतुष्ट किया था. ३-४ बघेरवाल वंश रूपी कमलमें जो ईसके समान है, काव्यामृत रसका पान करने से जिसका शरीर पुष्ट हुआ है, जो नयरूपी आखोंसे युक्त है, सल्लक्षणके सत्पुत्र एसे इस आशाधर कविको हम 'कलिकालिदास इस उपाधिसे भूषित करते हैं. ऐसा कहकर कविके मित्र उदयकीर्ति मुनीन बड़े प्रेमसे जिसका आदर किया है ऐसे आशाधर कवि जगत में हमेशा विजयी होवं. इसी तरह मदनकीर्ति यतश्विरने प्रज्ञापूंज ऐसा बिरुद देकर इनको भूषित किया था. ५ साहिबुद्दीन नामक श्वनराजाने सपादलक्ष नामक देश जब अपने कब्जे में कर लिया तब अपने सदा चारका विनाश होगा इस डरसे विंध्यराजाके गद्यप्रताप से जिसका रक्षण हो रहा था ऐसे मालव देशमें अपने बड़े परिवार के साथ प्रवेश करके धारा नगरी में उन्होंने निवास किया. यहां वादिराज पंडितके शिष्य श्रीधरसेन थे और उनके शिष्य महावीर थे उनसे इन्होंन जैनेंद्र व्याकरण व जैनन्यायका अध्ययन किया. ( यहां तक यह प्रशस्ति है. अत एव अपूर्ण है. विशेष जिज्ञासुओंको सागार धर्मामृत अनगार धर्मामृत की प्रशस्ति देखलेना चाहिए. श्रीमदमितगतियतिपतिप्रशस्तिः । श्रीवेवसेनोऽजनि माथुराणां गणी यतीनां विहितप्रमोदः॥ तत्वावमासी निलतप्रदोषः सरोकहाणामिव तिग्मरश्मिः ॥२२४० ॥ धृतजिनसमयोऽजनि महनीयो गुणमणिजलधेस्तदनु यतियः ।। शमयमनिलयोऽपितगतिसूरि प्रदलिनमदनः पदनतसूरिः ।। २२४१ ॥ सर्वशास्त्रजलराशिपारगोनेमिषणमुनिनायकस्ततः ।। सोऽजनिष्ट भुवने समोपहः शीतरश्मिरिच थो जनप्रियः॥ २२४२॥ माघयसेनोजनि मुनिनाथो ध्वंसितमायामदनकवर्थः ॥ तस्य गरिछो गुरुरिय शिष्पस्तत्त्वविचारप्रवणमनीषः ॥ २२४३ ॥ PARARIAAWAJAST: १८६३ Page #1875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वास १८६४ शिष्यस्तस्य मनीपिणोऽमितगतिर्गित्रयालंबिनीम् ।। एना कल्मषमोषिणी भगवतीमाराधनां स्धेयसीम् ।। लोकानामुपकारको कृत सती विध्वस्ततापां हृदः ।। पद्मः सत्वमिषेवितस्य विमलां गंगा हिमाद्रेरिव ।। २२४४ ॥ आराधनपा पदकारि पूर्णा मासश्चतुर्भिर्न तदस्ति चित्रम् || महोयमानां जिनभाक्तिना सिध्यन्ति कृत्यानि म कानि सद्यः ।।५२४५।। स्फुटीकृता पूर्वजिनागमादियं मया जने यास्यति गौरवं परम् ॥ प्रकाशितं किं न विशुद्धघुदिना महार्घतां गच्छति दुग्धसो घृतम् ॥२२५६।। यावत्तिष्ठति पांडकंबलशिला देवाद्रिमूर्षिन स्थिरा ।। यावास्सिद्विधरा त्रिलोकशिखरे सिन्द्रः समाध्यासिता ।। सावत्तिष्तु भूमले भगवती विध्वंसयंती तमः ।। सा चैषा श्रमदुःग्यनोदनपरा चंद्रप्रभेवोऊचला ॥ २२४७ ।। .. श्रीमदमितगातिसूरिप्रशस्तिः ।। १ माथुरसबके यतिओंके आचार्य, सब मुनिओं को आनन्द प्रद ऐसे देवसन आचार्य होगये, जैस सूर्य कमलाको विकसित करता है, रावीका नाश करता है और पदार्थोको दिखाता है बस ये देबसन आचार्य निहत प्रदोष थे अर्थात दोषरहित थे और अन्यमुनिओंको दायासे रहित करते थे. जीवरादि तत्वोंका स्वरूप इन्होने भव्य लोगोंको दिखाया था २ देवसेनाचार्य के शिष्य आमिनगति नामक मुनि थे. वे गुणसमुद्र, शम और बताका आधारभूत थे। मदनका नाशकरनेवाले थे उनको बड़े विद्वान भी बंदन करते थे. आचार्य जैनमतकी प्रभावना करनेवाले इपे है. ३ इनके अनन्तर इस माथुर संघ नेमिषेण नामक आचार्य हुए हैं. सर्व शास्त्रसमुद्र के दूसरे किनारेके ये प्राप्त हुए थे. चंद्र जैसा लोकप्रिय रहता है. वैसे ये आचार्य लोकप्रिय व अज्ञानाधकारका नाश करनेवाले थे. PRANATERASHTRA १८६५ Page #1876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनका नाशकरनेवाले थे उनको चूलाराधना आश्वासः ४ नभिषेण आचार्य के शिष्य माधवसन नामक आचार्य थे. इन्होंने माया और मदनका नाश किया था. IN ये वृहस्पतिके समान चतुर थे और इनकी बुद्धि तत्वत्रिचारमै प्रयीण थी. ५ माधवसेन आचार्यके शिष्य अमित्तगति हुए है. उन्होंने यह भगवती आराधना बनायी है. यह पाप नाशिनी, संसारताप हरण करनेवाली गंगानदी के समान है. गंगानदी हिमाद्रीय उत्पन्न हुई है. यह भगवती आराधना अमितगत्याचार्यरूपी हिमाचलमे उत्पन हो गई है. ६ आचार्यश्रीने यह ग्रंथ केवल चार महिनेम बनाया है. इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है. क्यों कि महाप्रयत्नशाली जिनभक्त कोनसे कार्य सिद्ध नहीं कर सकते हैं। ७ पूर्व जिनागमका [ शिवकोट्याचार्य का भगवती आराधना ग्रंथ ] आधार लेकर मैने यह ग्रंथ रचा है. मेरा यह ग्रंथ विद्वज्जनों में आदरणीय होगा कि दुक्षसे निकाला हुआ वृत मोल्यवान् और आदरणीय होता है. ८ जब तक मेरु पर्वतके शिखरपर पांइशिला रहेगी, जब तक सिद्धों से अधिष्ठित सिद्धशिला त्रैलोक्य के शिखरपर विराजमान रहेगी, तब तक चन्द्रकांतिक समान उज्ज्वल, श्रमदुःख का परिहार करने वाली, , अज्ञानांधकार का नाश करने वाली यह भगवती आराधना इस संसार में स्थिर रहे. SHETATARTS आराधनास्तवनम् । बंधुःस्वर्गापवर्गप्रभवसुरवफलमापणे कर्मवल्ली ।। नानावाधाविधायिप्रचितकलिमलक्षालने जहनुकन्या रागद्वेषाविभाविव्यसनधनवनच्छेदने छेदनी या ॥ सारामाराधनासी वितरतु तरसा शाश्वती वो विभूतिम् ।। २२५८ ।। ए यह आराधना स्वर्ग और मोक्ष का मुखफल देने में बंधुके समान है. नाना प्रकारकी गधाओं को उत्पन्न करने वाले पापरूपी कीचडको धोने के लिए यह आराधना गंगानदी के समान है. रागद्वेषादि विकारों से उत्पन्न होनेवाले संकटरूपी वनको तोडने वाली कुल्हाडी के समान यह आराधना ग्रंथ है. ऐसी यह आराधना तुम लोगों को इच्छित फल देने में समर्थ हो. Page #1877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलासपना आश्वासः १८६६ यामासाधावनम्रत्रिदशपतिशिरोघरपादारविन्दाः ।। सद्यः कुंदावदातस्थिरपरमयशाशोधिताशेषविकाः ।। जायंत जतयोऽमी जनज निनमुद केवल ज्ञानभाजो।। भूपादाराधना सा भवभयमधनी भूयस श्रेयसे वः ॥ २२४२ ॥ १० इस की आराधना से भव्यजन इंद्रों के द्वारा पूजे जाते हैं. इस आराधनाके माहास्य से तत्काल भन्यजन कुंदपुष्प के समान अपने यशक द्वारा लोक्य भर देते हैं. इस आराधनाका साहाय्य मिलनेसे भव्योंको आनंदित करनेवाले केवलजानकी उत्पत्ति होती है. ऐसी यह आराधना तुम लोगों को विपुल श्रेयः संपत्ति प्रदान करे. यामाराध्याश गंता शकलितविपदः पंचकल्याणलक्ष्मीम् ।। माप्यां पुण्यैरपापां त्रिभुवनपतिभिर्निर्मितां भक्तिमाद्रिः ।। सम्यक्पवज्ञानष्टिममुग्वगुणमणिभ्राजितां यान्ति मुक्तिं ।। सा वंद्या हृद्यविविलसतु हृदये सर्वदाराधना वः॥ २२५० ।। ११ इस आराधनाकी आराधना से विपत्तिका नाश होता है और देवेंद्र, धरणेद्र और चक्रवर्तिद्वारा भव्य जीवोंको पंचकल्याणकी विभूति प्राप्त होती है. सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र इत्यादि सगुणमणिऑसे अलंकत होकर वे मुक्तीके नाथ.बन जाते हैं. हम अज्ञानी हैं हम इस आराधनादेवीको चंदन करते हैं. यह हमारे हृदय में सर्वदा निवास करे. या सौभाग्यं विधत्तं भवति भवभिधे भक्तित: सेव्यमाना। या छिन्ते मोहदैत्यं भुवनभयभृतां साध्वसं बसयंती। यो चानासाद्य देही भ्रमति भववने भूरिभाषाद्रिरोद्रे॥ सा भद्राराधना वो भवतु भगवती वैभवोद्भावनाय ॥ २२५१ ॥ १२ जो आराधना साभाग्यको उत्पन्न करती है, भक्तीसे इसकी सेवा करनेसे यह संसारका नाश करती है. मोहरूपी दैत्यका विध्वंस करके संसारमें प्राणिओंके भयको दूर भगाती है. इसकी प्राप्ति नहीं होनेपर प्राणी. ऑको नाना प्रकारके कुभावरूप पर्वतों से घिरे हुए संसारजंगलमें भ्रमण करना पड़ता है. अतः यह कल्याण करनेवाली आराधना हमको ऐश्वर्य प्राप्तिमें सहायक बने. Page #1878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आबासा १८६७ AARADADIMANARTHABARAMATAARAMETAARATI या कामक्रोधलोभप्रभृतिषहविधग्राहनकायकीर्णा ।। संसारापारासिंधोभवमरणजरावर्तगर्तादुपेत्य ॥ गच्छत्त्युत्तीर्य सिदि सपदि भवभृतः शाश्वतानंतसोख्यम् ॥ भव्पराराधनानौगुंणगणकलिता नित्यमारुता सा ।। २२५२ ।। - १३ यह संसारसमुद्र काम, क्रोध, लोभ, वगैरह नाना प्रकारके प्राह और नकोसे मरा हुआ है. इसमें जन्म, मरण और जरारूपी भोवरें है ऐसे संसार समुद्र में पड़ा हुआ प्राणी सगुणास बनी हुई आराधनाका आश्रय लेकर उससे उचीर्ण होता है तथा नित्य अनंत सुख देनेवाले मोक्षको प्राप्त कर लेता है. या मैत्रीख्यातिकांतिद्युतिमतिसुगतिश्रीविनीस्याविकांताम् ।। संयोज्योपार्जनीयामसमितमानिधिर्मक्तिकांता पुनफि॥ मुक्ताहाराभिरामा मम मदशमनी सम्यगाराधनाली ॥ भूयानेदीयसी सा विमलितमनसां साधयन्तीप्सितानि ॥ १२५३ ॥ १४ आराधनाकी सेवा करनेसे वह सेवकोंको मैत्री, ख्याति, कांति, शोभा, बुद्धि, सुगति, संपत्ति, नम्रता इत्यादि स्त्रियोंके साथ संयुक्त करती है. और अन्तमें अवश्य प्राप्ति करनेके योग्य ऐसी मुक्ति भी देती है. यह आराधना मोतिओंकी मालाके समान सुंदर है. मेरे मदको नष्ट करके निर्मल चित्तवाले पुरुषोंको इष्ट पदार्थ सम र्पण करती हुई मेरे साभिध हमेशा रहनेकी कृपा करें. स्वांतस्था या दुरापा नियमितकरणा सृष्टसर्वोपकारा ।। माता सर्वाश्रमाणां भषमधनपराऽनंगसंगापहारा | सत्या चित्तापहारी चुहिसजननी ध्वस्तयोषाकरश्रीः॥ दद्यादाराधना सा सकलगुणवती नीरजा वः सुखानि ॥ २२५४ ॥ १५ यह आराधना दुर्लभ है. जब प्राणिआंके मन में यह मुकाम करती है तब उसको जितेन्द्रिय ब. नाती है. सर्व प्रकारके उपकार करती है. ब्रह्मचर्यादि चारो आश्रमोंकी यह माता है, संसारका नाश करके, कामविकारको दूर भगाती है. सत्यही इसका स्वरूप होनेसे चिन्मय आत्माके संसारतापको दूर करती है. विवानोंका १८६७ मय Page #1879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना १८६८ Pr हित करती है. संपूर्ण दोषोंको हटाती है और चंद्रकी शोभाको नष्ट करती है अर्थात् चंद्रकी शोभा भी इसके सा मने फीकी मालूम पडती है. सकलगुणसंपना पापरहित यह आराधना हम लोगों को सदा सुखी करेउगवुर्ग गुरुदुरितदयं वरधुमनीयमाना || हर्तु मोहान्धकारं कवलितनिखिला तिग्मरश्मीयमाना ॥ निःशेषं वस्तु दातुं भवदभिमतं कामधेनूयमाना ॥ निधा या विधसाममितगतिसुखं शीघ्रमाराधना वः ।। २२५५ ॥ १६ जो अत्युच्च दुःखरूपी पर्वतों से घिरा हुआ है ऐसे पापरूपी बडे बनको भस्म करनेमें यह आराधना अनि समान हैं. मोहरूपी अंधकारको नष्ट करनेके लिये यह सूर्य के तुल्य है. संपूर्ण इच्छित वस्तु देने में यह काम धेनूकी बराबरी करती है. ऐसी यह आराधना निर्वाध अनंत ज्ञान जिसमें भरा हुआ है ऐसा सुख तुम लोगोंको प्रदान करे. श्वभूमिज्वलद्वद्वेऽविच्छिन्नजलोङ्गतिः ॥ अयं नः शरणं सास्तु रत्नत्रयविशुद्धिता ॥ २२५६ ।। १७ नरकभूमिमें प्रज्वलित अग्रिको शांत करनेके लिये यह आराधना अविच्छिन्न मेघाक समान है. ऐसी रत्नत्रय से निर्मलरूप आराधना हमको प्राप्त हो. यैषा कुदालिका शाता तिर्यग्दुःखांकुरोद्धृतौ ॥ अग्र नः शरणं सास्तु रत्नत्रयविशुद्धिता ॥ २२५७ ॥ १८ तिर्यग्गतिके दुःखरूपी तृणांकुरको उरवाडने के लिये जो कुद्दालकतुल्य है. ऐसी यह आराधना हमारा रक्षण करें. म तितलाभाय येषा कल्पद्रुमायते ॥ अयं नः शरणं सांस्तु रत्नत्रय विशुद्विता ॥ २२५८ ॥ १९ मनुष्योंको चिंतित पदार्थ देनेके लिये जो कल्पवृक्षके तुल्य मानी गई है ऐसी रत्नत्रय से विशुद्ध हुई यह आराधना हमारा रक्षण करें. आश्वासः ८ : १८६८ Page #1880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास फुलाराधना १८६९|| दूतिका हृतो यं महर्द्धिकसुरश्रियः ।। अब नः शरणं सास्तु रत्नत्रयविशुद्धिता ॥ २२५५ ।। २० महाऋद्धिशाली देवोंकी लक्ष्मीको बुलाने के लिये जो दुनीके समान है ऐसी यह रत्नत्रयसे निर्मल बनी हुई आराधना हमारा रक्षण करे.. मुक्तिदाने क्षमा यास्ति विरतिभवसंततः॥ अद्य नः शरणं सास्तु रत्नत्रयविशुद्रिता ॥ २२६०॥ २१ जो मुक्तिप्रदान करनेमें समर्थ है, जो भवपरंपराका नाश करनी है ऐसी यह रत्नत्रयनिर्मल आराधना हमारा संरक्षण करे. एषैव परमो धर्म एघ परमं तपः ॥ पषैवाहदचो वाच्यमेव ध्यानसंगतिः ।। २२६१ ।। एव परमो लाभ पपैव परमं मतम् ।। एषैव परमं तत्वमेव परमा गतिः ।। २२६२ ॥ पसगा नदि निगोपप. अतः शरणमेपेका भवतान्मे भवे भवे ।। २२६३ ।। २०-२३ यह आराधनाही उत्कृष्ट धर्म है, उत्कृष्ट तप है, जिनवान अपनी दिव्यध्वनीसे इसकाही वर्णन किया है. इसकोही ध्यान की प्राप्ति होने में कारण मानना चाहिये. जगत में आराधनाकी प्राप्ति होना ही परम लाम है. यही उत्तम मत है. यही उत्तम तत्व है और यही हमारी परम संरक्षिका है. इापकी जिसको प्राप्ति हुई है उसको जगत में कोनसा मुख परम दुर्लभ है ? इसलिये प्रत्येक मदमें मैं इसका ही आश्रय ग्रहण करूंगा. या सर्वज्ञहिमाचलादपमृता शीलप्रवाहात्मिका ।। या सर्वर्द्धिसमर्थितगणधरैराराधिता निर्मला ॥ या दुर्वारभवा सुखाहतणां निर्वापणी स्वधुनी ।। सावः पापविशोधनाय शुभदा भूयात्सदाराधना ॥ २२६४ ।। Page #1881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साराधना भावासा १८७० २४ सर्व जिनेश्वर रूपी हिमाचलसे इस आराधनारूपी गंगा नदीकी उत्पचि हुई है. यह शीलरूपी प्रवाइसे युक्त है. सर्व ऋद्धि के धारक गणधरों से यह मानी गई है. यह निर्मल है. दुर्गार संसार के असुख से पीडित पुरुपोंको आनंदित करनेवाली, ऐसी यह आराधना गंगा पापनाश करनेके लिए कारण होवे. और हमारा हमेशा कल्याण करें या सज्ज्ञानसमृद्धिनालकलिता सम्यक्त्वसस्कर्णिका ।। या चारित्रपलाशसंचयाचताधा तपोभासुरा॥ या भव्योत्तमषट्पदेः पारवता नै संग्यपद्माकुला || सा वोऽस्याद्भचतापमुज्ज्वलगुणराराधना पद्मिनी ॥ २२९५ ॥ २५ सम्यग्ज्ञानकी उन्नति होना ही जिसका नालंदंड है. सम्यक्त्वरूपी कार्णिका से जो युक्त है, तेरह प्रकारका चारित्र ही जिसके पत्र है. दो प्रकार के तप से जो प्रफुल्लित है, जो भव्य पुरुषरूपी उसम भ्रमरोंसे बेष्टित हुई है, और निष्परिग्रहता रूप कमलसे जो सुन्दर दीखती है ऐसी यह आराधनारूप पामिनी-कमलिनी अपने उज्ज्वल गुणों से आराधक ऐसे तुम लोगों का भवसंताप दूर करे.. या सर्यास्रवरोधिनी कलिमलं दूरं निरस्यांगजम् ।। सैद्धं चारुप नयद्गुगुणवतो भव्यात्मनो वांछितम् ।। चक्रेशादिसुख सुरैरभिनुतं संयोज्य संन्पस्यतां ॥ सा वः स्पान्मुनिहंससेचिनरसा देवापगाराधना ॥२२६६.॥ २६ यह आराधनारूप गंगा नदी संपूर्ण आस्रवोंको रोकती है, शरीर में उत्पन हुए रागद्वेषादिक मल नष्ट कर गुणवान् भव्य जीवको इष्ट सुन्दर ऐसा सिद्धपद अर्पण करती है. सोखना मरणका जिन्होंने आश्रय लिया.है ऐसे सत्पुरुषोंको देवोके द्वारा चन्दनीय ऐसा चक्रवादिकोका सुख देती है. मुनिहंस जिसके रसका पान करते हैं ऐसी आराधना रूप गंगा आपको प्राप्त हो. या शीलोज्ज्वलपुष्पगंधसभमा सभ्यानसत्पलया ॥ . भास्वदर्शनसंभवा वरतप-पत्रोचयनचिता ।। रूप गंगा आपावलपुष्पगंधमुमोचपेनाधित AMARRERARAMATARAKAR Page #1882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वासा लाराधना १८७१ IN सम्यग्वृत्तलसन्महाफलवती भव्यालिशंकारिता ॥ सा वो मानसभूतले प्रसरतादाराधनावल्लरी ।। २२६७ ।। २७ यह आराधना लता शीलरूपी उज्ज्वल पुष्पगंध से सुरम्य दीखती है, धर्मध्यान और शुक्लध्यान रूपी पल्लयोंसे युक्त है, निर्मल सम्यग्दर्शनरूपी बीजसे इसकी उत्पत्ति हुई है, उत्कृष्ट तपरूपी पत्तों से भर गयी है। सम्यक्चारित्र रूपी महाफल इसको उत्पन्न हुए हैं भव्य पुरुषरूपी भ्रमर इस के ऊपर गुंजारव कर रहे हैं. ऐसी यह आराधनारूप वल्ली तुझारे मनोभूमी में खूब प्रसारको प्राप्त होवे. या श्रीमच्छ्रतशीलनीरकस्थिता निर्वाणदानक्षमा । या पुण्याषितारिणी शुचितया रंगत्तरंगाकुला ।। या निर्धूय कलेबराणि महतः संस्थापयेत्सत्सुखे ॥ सा वो मंगलमातनोतु नितरामाराधनास्वधुनी ॥ २२६८॥ २८ यह आराधना रूप गंगा नदी श्रुतज्ञान और शीलरूप पानी से भरी रहती है. निर्वाणमोक्ष देनमें समर्थ है. पुण्यसमुद्रको प्राप्त होती है. दोपरहित है. शुक्ल ध्यानरूपी तरंगोंसे युक्त है. सत्पुरुषों के शरीरका नाच करके जो उनको उत्कृष्ट मोक्ष सुख देती है ऐसी यह आराधनागंगा तुम लोकोंका पूर्ण कल्याण करें. या मोहासुरसंगलञ्चविजया सर्वार्थसंपादनी। शराणामसमाधिनाशनधिया कार्तित्रयाणां सताम् ॥ (2) या दुर्यारमहोपसर्गमधनी सिद्धिप्रियाणां सती॥ सा यः पातु भवादी प्रतिगतानाराधनाध्यविका ॥२२६९॥ २९ यह आराधनारूप अंबिका देवी मोहासुरका पराजय करके विजयी हुई है. इसकी भक्ति करनेवाले पुरुपोको सर्व इष्ट पदाथों की प्राप्ति होती है. यह दवी परोषहसहिष्णु शूर मुनिओंका दुःख नष्ट कर समाधिकी प्राप्ति कर देती है. मुनिओंके उपसर्ग कष्ट नष्ट करके सिद्धिकी प्राप्ति कर देती है. ऐसी यह आराधना देवता संसार चनमें भटकनेवाले हम लोगोंका रक्षण कर या बुद्धयटकचाकमाक्तिकफलमध्यस्थदिङनायकः ।। भास्वबोधविचित्रसूवरचितश्चारित्रसमक्षणः ।। Page #1883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराघना १८७२ श्रीमद्भुसिसमुज्ज्वलैर्विरचिता दोषोग्ररोगापहा ॥ सा वस्तिष्ठतु चक्षसीह सुतरामाराधनाकठिका ।। २२७० ।। ३० यह आराधना कंठके मुक्ताहार तुल्य है. इसमें पोडशकारण भावनारूप मोती पिरोये गये हैं. बीच बीच दशलक्षण रूप नायकरत्नों की रचना की गयी है. उज्ज्वल सम्यग्ज्ञानरूपी मृतके द्वारा यह आराधनारूप मुक्ताहार रचा गया है. चारित्र और गुप्ति एतत्स्वरूपी मौक्तिक भी इसमें हैं. ऐसी यह आराधना कंठी आप लोगों के बक्षस्थलपर हमेशा रहे. या निःशेषपरिग्रहेमद दुर्वारसिंहायते ॥ या कुज्ञानत मोघटाघटने चंडांशुरोचीयते ॥ या चिंतामणिरेव चिंतितः संयोजयंती जनान् ॥ सा चः श्रीवसुनदियोगि महिला पायान्दारावना ।। २२७१ ।। ३१ यह आराधना सर्व परिग्रहरूपी हाथिका बात करनेके कार्य में सिंह समान है. अज्ञानांधकार का समूह नष्ट करनेके लिये सूर्यकांतिके समान है. चिन्तितफलोंके देनेके लिये यह सब जनों को चिन्तामणि रत्नतुल्य है. श्रीसुनंदि आचार्य से पूजित ऐसी यह आराधना आप लोगोंका नित्य रक्षण करे. या संसारमहोदधेः प्रत्तरणी नौरेव भन्यात्मनाम् ॥ या दुःखज्वलनीष निर्वापणी स्वधुनी ! या चिंतामणिरय नितिफलैः संयोजयन्ती जनान् ॥ सा निःश्रेयसहेतुरस्तु भवतामारधना देवना ।। २२७९ ।। ३२ भव्य जीवोंको संसारसमुद्र नरनेके लिये यह आराधना नौका के समान है दुःखरूपी अग्नीसे जलनेवाले लोगों को शांतिसुख देनेवाली स्वर्गगाके समान है, जो चिंतित इष्टफलीसे लोकोंको संयुक्त कर देती है वह आसधना तुम लोगोंको मोक्ष देने में हेतु बने. या पुस्रमूर्तिरेकपदधी स्वर्गाला रोहिणाम् || या मार्गश्रवर्तिनीति विदिशा निर्धूतनानारजाः ॥ आश्वास ८ १८७२ Page #1884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 --- लागधमा आचामः ranamamuime - यस्याः सद्गुरुपर्वतः प्रभव हत्याहः परावे दिनः ॥ सा व पापमलानि गालपतु ग्तल्वाराधनास्वधुनी ।। २२७३ ।। ३३ पुण्यासबकी मानो मुर्ति ऐसी यह आराधना गंगा स्वर्गारोहण करनेवालोंको मार्गस्वरूप होवे. रत्न प्रयरूप होनेसे लोग इसको बिमार्गगा कहते है. इसकी सबासे नानाप्रकारक पाचक नए होते हैं. मदुरुरूपी पर्वतसे इस आराधनागंगाका जन्म हुआ हैं ऐसे प्राचीन आचार्य कहते हैं. अतः पापगलसे रहित यह गंगानदी तुमार अन्तः करणमें वास करे. या सर्वज्ञहिमाचलात्मगलिता पुण्यांपुर्णा शुचिः ॥ या सज्झानचरित्रलोचनधरैर्मधर्ना गणीन्र्धता। या कर्मानलघमीडितमुनींद्रभावगाहक्षमा ।। सा वो मंगलमालनोतु भगवत्याराधनास्यधुनी ।। ६२७४ ।। ३४ यह आराधनागंगा सर्वज्ञ जिनेश्वररूपी हिमालबसे उत्पन्न हुई है. पुण्यरूपी जलसे भरी है और पवित्र है. सम्यग्ज्ञान और नारित्ररूप लोचन-आंख धारणा करनेवाले मणधगॅन जिसको अपने मस्तकपर धारण किया है. कर्मरूपी अग्नासे पीडित मुनीश्वररूपी हाथी जिसमें अवगाहन करते हैं ऐसी मा आराधना स्वर्गनदी तुह्माग़ मंगल करे. या पुण्यांवधि पूरवि कलिमलप्रक्षालनकोगमा ।।। या निधूप कलेघागि विमलीकतुं क्षमायकान् ।। यामासाथ मुनीमयुगपतयो निर्वान्त्यपंकात्मिकाम् ।। सा बोऽन्तर्मलदाहमाशु निहतादाराधनास्त्रधुनी ।। २२७५ ॥ ३५ यह नदी पुण्यसमुद्रको पूर्ण करती है. पापमल धोने के कार्य में यही समर्थ है. यही मनिओंके शरीरका नाश करके उनको निर्मल बनाती है. पापरूपी कांचइसे रहित ऐसी इस नदीको प्राा करके मुनिरूपी हाथीके नायक प्रमोदयुक्त होते हैं. एसी यह आराधनानदी हमारी आत्माके अन्तःस्थित कर्ममलके दाहका नाश करे. या संसारमहाविपापहरणे सन्मंत्रविद्यायते ॥ या कर्मावृतताटषीप्रदहने दावानलोबीयते ॥ -RINi Page #1885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाराधना आश्वास ५८७४ या दुर्मोहतमोघटाविघटने चंडाशुरोचीयते ॥ सावः पापमलानि तु मचिरा रत्नपाराधना ।। २३७६ ।। २६ जो संसाररूपी तीव विषका हरण करने में उत्तम विद्या के समान है, जो कमरूपी चल्लीका वन जलानेमें दावाग्नीके समान है, जो मिथ्यामोहांधकार को नष्ट करने में सूर्यकान्ती के समान आचरण करती है ऐसी यह मनोहर रत्नत्रयाराधना हमारे पापमलोंका नाश फरे.. धाराममहातरोः फलवती या पुण्य सन्मंजरी ।। मुक्तिश्रीललनाभितारणपद्धष्टाक्षरा शंफली ।। स्वर्गाग्रप्रविभासिसौधशिखरारोहकनिःश्रेणिका ॥ सावः पातु पवित्रमूतिरमत्ता रत्नत्रयाराधना ।। ।। २२.७७ ।। ३७ यह आराधना धर्मरूपी बगीच के बडे वृक्षको फलयु उत्तम मंजरी है. यह आराधना मुक्तिरूपी सुंदरी को अभिसरण करने लिये प्रवृत्त करनेवाली स्पष्ट और मधुर बोलनेवाली दासी है. स्वर्गक अग्रभागपर शोभनेवाले मोक्षरूप प्रासादके उपरके भागपर आरोहण करनेके लिये यह आराधना नसैनीके समान है. ऐसी यह पवित्र और निर्दोष आराधना तुझारा संरक्षण करे. या सदृष्टिरुचिप्रभास्वरसनुः संज्ञाननत्रोज्ज्वला ।। सच्चारित्रविभूपणा शुचितपशीलौघमाल्यांवरा ।। मुक्तिश्रीवरकामिनीप्रियसखी पुष्पेषुविद्वेषिणी॥ सा धीरैरभिवंदिता मम हृदि स्तानित्यमाराधना ॥ २२७८ ।। ३८ यह आराधना सम्यग्दर्शनरूपी कांतिसे सुंदर दीखती है. पवित्र तप और शीलसमुदायरूपी पुष्पमाला और वस्त्र धारण करनवाली है. मुक्तिलक्ष्मीरूपी सुंदर स्त्री की यह प्रियसखी है. यह मदनका द्वेष करती है. विद्वान पुरुषोने जिसको वंदन किया ऐसी यह आसपना मेरे हृदय में नित्य वसती करे या शुद्धयष्टकयुक्तदर्शनदलं ज्ञानोल्लसत्कर्णिकम । चारियोज्ज्वलदीर्घनालममलं शीलोल्लसत्केसरम् ।। AMERA Page #1886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः मुक्तिश्रीललनानिवासकमलं धत्ते गुणनिर्मितम् ॥ सा मे हृत्सरसि स्फुट विकसतादाराधनापशिनी ।। २२७९ ।। ३९ शुद्धयष्टकोके साथ रहनवाला सम्यग्दर्शन ही जिसके दल हैं, अर्थात निकितादिक आठ अंग ही इस कमलके दल है. ज्ञानही जिसकी उज्ज्वल कर्णिका है, चारित्रही जिसका उज्ज्वल और दीर्घनाल-दंड है, निर्मल शील समुदायही जिसका केसर है.जो मुक्तिरूपी लक्ष्मीका निवास स्थान है ऐसे कमलको धारण करने वाली, गुणांसे उत्पन्न हुई ऐसी यहा आराधनारूप कमालनी मेरे हृदयरूप सरोवरमें हमेशा विकास युक्त रहे. इसपकार श्री अमितगत्याचार्यविरचित आराधनास्तव समाप्त हुआ नक्षत्रगुणान्वर्णयिष्यामि । १ तं जधा। अस्सिणीणक्यत्ते जइ संथारं गिण्हदि तो सादिणक्खत्ते रत्ते कालं करेदि ।। २ भरणिणखत्ते जदि संथारं गेण्हदि तो रेवविणकावत्ते पन्धुसे मरदि। ३ किंतिगणवत्त जदि संधारं गण्हदि उत्तरफागुणिणक्खत्ते मझण्हे मरह।। .४ रोहिणीणखत्ते जदि संथारं गेहदि सो सवणणक्खत्ते अद्भरते मरदि। ५ मियसिरणक्खत्ते जदि संथारं गेहदि तो पुवफगुणणक्खने मरवि । ६ अदाणकरखते जदि संधारं गेण्हदि तो उत्तरदियसे मरदि । जदि ण मरेदि तवा तरिम पुरोगदे णक्वत्त मरिस्सदि ॥ ७ पुनर्वसुणवत्ते जदि संधारं गेण्हदि तदा अस्सणिणक्खत्ते अवरण्हे भरदि ।। ८ पुस्सणक्खत्ते जदि संधार गेण्हदि तो मियसिरणवत्ते भरदि। १ असलिसणखते जदि संधारं गण्हदि सो चिनणवत्ते मरवि ॥ १० मघणक्खन जदि संधारं गेण्हदि तो तहिवसे मरदि यदि ण मरदि तदा तलि पुरोगदे णखत्ते मरदि। ११ पुष्वफरगुणिणक्वते यदि तो धणियाणक्खत्ते दिवसे मरवि ॥ ARREARRARAMAR Page #1887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाराधना आश्वासः १८७६ १२ उत्तरफग्गुणिणखत्ते यदि तो मूलणक्खत्ते पदोसे मरदि । १३ हत्यणखत्ते यदि सो भरणिणवत्ते दिवसे मरदि । १४ चित्ताणकरबत्तेण यदि सो मियासिरणखते अदरले मरदि। १५ साविणक्वते यदिलो रेवदिणवत्ते एमादे मरदि । १६ विसाहणक्खत्ते जदि तो अपिलसाणक्खने मरदि ।। १७ असिसाणक्वत्त जदि तो पुश्चमणक्खत्त दिवस मरदि। १८ मूलणखत जदि तो जेट्टणखत्ते पभादवेलाए मरदि ।।। १५ पुनासाढणखले जदि तो मियसिरणक्खन पदोसवेलाए मरदि। २. उत्तरासादावखत जदि तो दिवस चव अहवा भरपदणकवने अवररहे मरदि ॥ साणाने दिगोणवत्तेण तहिवस कालं करेदि ॥ २२ धणियाणवते यदि तो तदिवसे कालं करेदि, यदि नदिवस कालं ण करदि तो पुण तदिवसे चेव आगंदे मरदि ॥ २३ सदभिसणक्खत्तेण यदि गिहदि जेठाणक्वतेण अस्थवणवेलाए मरदि। २४ पुब्वभड्पदणक्खतेण जदि तो पुणवसुप्रक्वचे रत्तिं मरदि ।। २५ उत्तरभद्दपदे जदि तो दिवसे वहमाणे वा पुण रादो या मरदि ।। २६ रेवतिणखत्ते जदि तो मघणवखने मरदि। इति मरणकटिका णवतगणना सम्मत्ता। . नक्षत्रगुणोंका वर्णन१ यदि अश्विनी नक्षत्रके समय क्षपकने संस्तर ग्रहणा किया होगा तो स्वाति नक्षत्रके समय रातमें उसको समाधिभरण प्राप्त होता है. २ यदि मरणि नक्षत्रक समय क्षपकने समाधि मरणके लिये संस्तरका-बिछानेका आश्रय किया होगा तो रेवती नक्षत्रके समय दिनके प्रारंभ समयमें उसको प्रमाधिभरण प्राप्त होगा. SAHATE १८७६ Page #1888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ si मूलाराधना आश्वासा -- - - -RAMumitr ३ कृतिका नक्षत्रके समयपर यदि मुनि बिछानेपर शयन करेंगे तो उत्तर फाल्गुनी नक्षत्रपर मध्यान्ह कालमें उनका मरण होगा, ४ रोहिणी नक्षत्रपर संस्तर ग्रहण करनेवाले मुनिओको श्रवण नक्षत्र में आधी रातके समय मरण प्राप्त होगा. ५ मृगशिर नक्षत्रएर सालेखनाका आश्रय करनेसे पूर्व कालानि नक्षत्रपर पनिका देहान्त होया. ६ आद्रा नक्षत्रमे यदि संस्तर ग्रहण किया जायगा तो उत्तरा नक्षत्रके दिन मरण होगा यदि न होगा तो आगेके नक्षत्र में उसकी मृत्यु होगी. ७ पुनर्वसुनक्षत्र पर बिछाना ग्रहण करने से अश्विनी नक्षनगर अपराहकालमें मरण होगा. . पुष्य नक्षत्रपर शय्या ग्रहण करनेसे मृगशिर नक्षत्रपर गरण होता है. १. आश्लेपानक्षत्रके समय शगाका ग्याकार करनेगे चित्रा नक्षत्रपर मरण होता है. १. मघानक्षत्रके समय शय्याका स्वीकार करने मे उसी नक्षत्रके दिन मरण होता है यदि न होगा तो आमेके नक्षत्र में होता है. ११ निनावगं यदि मन्ना प्रणा कनक लिंग या पीकार किया होगा तो घनिष्ठानक्षत्रके ममय दिनमें मरण होगा. १२ उत्तर 'फाल्गुन नक्षत्र में यदि नया ग्रहण की होगी तो मूलनक्षत्रपर सायंकाल में मरण होगा. १३ हस्तनक्षत्रपर यदि संन्यास ग्रहण किया जायगा तो भरणी नक्षत्रपर दिन में मरण होगा. १४ चित्रानक्षत्र में यदि संन्यास ग्रहण किया हो तो मृगशिर नक्षत्रपर आधीरातमें मरण होगा. १५ स्वाती नक्षत्र पर शय्याग्रहण करनेसे वतिनक्षत्र के समय प्रभात कालमें मरण होगा. १६ विशाखा नक्षत्रपर शय्या धारणा करनस आश्लेषा नक्षत्रपर मरण होता है. १७ आश्लेषा नक्षत्रपर शरया ग्रहण करनसे पूर्वभाद्रनक्षत्रम दिनमें मरण होगा. १८ मूलनक्षत्रपर शय्या ग्रहण करनेसे ज्येष्ठानक्षत्रपर प्रभात कालमें मरण होना है. १९ पूर्वापाडानक्षत्र में शय्या ग्रहण करनेरो मृगशिर नक्षत्रपर रातक प्रारंभक समय मरण होता है. ७७ Page #1889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REPARAN मूलाराधना आवासः २० उत्तरापाहा नक्षत्रपर संन्यास ग्रहण करनेसे उसी दिनमें अथवा भाद्रपदा नक्षत्र में अपराण्ड कालमें IE मरण होता है. २. थरणनक्षत्र में यदि शय्या ग्रहण की जाय तो उत्तरभाद्रपदनक्षत्र में दिनमें काल होगा. २२ धनिष्ठा नक्षत्रपर शय्याग्रहण करनेसे उसी नक्षत्रके दिनमें मरण होगा यदि न होगा वो आगके उसी नक्षत्रके दिनमें मरण होगा. २३ शतभिषजनक्षत्रपर संन्यास ग्रहण करनेवाले मुनीका ज्येष्ठानक्षत्रपर सूर्यास्त समयमें मरण होता है. २५ पूर्वभाद्रपदनवनमें यदि शय्या ग्रहण की जाय तो पुनर्वसुनक्षत्रपर रातमें भरणकाल होगा. २५ उचर भाद्रपदनक्षत्रमें संस्तर ग्रहण करनेपर उस दिनमें अथवा रातम मरण होगा. २६ रेवती नक्षत्रपर संस्तरग्रहण करनेवाले क्षपकका मृगनक्षत्रपर मरण होता है. नक्षत्रगणनाके अनुसार यह मरणकंडिका समाप्त हुई है. शुभं भवतु पाठकानुवादकप्रकाशकमुद्रकाणामित्याशासे ।। Hokuniturdashu arundkrnylture ikunt ॥समामोऽयं ग्रंथः || BASTARATA SimpRTANTHARTIYATIMESARIMEHETirani Page #1890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28kbp ASON Kantenushrutrugandhru adituatact uscholu xfarin E. Sudharkhandrvoriterstta: :their . : श्रीविजयोदयामूलाराधनासहिता हिंदीभाषोपेता ...... भगवती आराधना समाता। RADUNIJRISTIANESENTINARITRA