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________________ मूगाराधना आश्वासा ८२५ ज्ञात्वा वक्रानवका वा सूरिरालोचनां यते ॥ विदधाति प्रतीकार शुद्धिरास्ति कुतोऽन्यथा ॥ ६४५।। विजयोदया-ख्यगेण सम्म आलोचिम्मि क्षपकेन सम्यगालोचिते । देवसुदजा, गगणी सो छेदसूगम सूमिः सः। तो पचाल । भागममीगंस भागविचार करेदि करोति । कथं ? सुत्ते य अत्थे य सूत्रे च अर्थे न । मूत्रं अस्य चायमर्थ इति अपराधस्थंभूतस्य इदं प्रायश्चित्तमनेन सरेण भेद निर्विइति माग्निरूपयति ।। यशिना निर्दोषभालोनित मूरिः किरोनीयवाह-- गूलामा–दद मुजाण गगणी प्रायश्रिरासूत्र आचार्यः । आगममीमस । प्रायश्चित्तशास्त्रविचारणा । सुते य अस्य य इदं नूवमस्य वायार्थ इति विचारप्रतीत्यर्थः । पतिके द्वारा निर्दोष आलोचना किय जानेपर आचार्य का क्या कतव्य है इस शंका का उत्तर कहते हैं .. अर्थ-- क्षपकमुनि जत्र निर्दोष आलोचना करते हैं प्रायश्चित्तसूत्रके ज्ञाता आचार्य तब आगम से अपराधोंकी परीक्षा करते हैं. अर्थात् यह प्रायश्चित्तको बतानेवाला सूत्र है, इसका यह अर्थ है, इस अपराधको यह प्रायश्चित्त देना योग्य है, इस सत्र के द्वारा यह प्रायधिस बतलाया है. इत्यादिरूपस आचार्य प्रथम प्रायश्चित्त का विचार करते हैं. परिणामश्च निरूपमितन्यमनदीयः किमर्थबित आह-- पडिसेवादो हाणी अट्ठी धा होइ पावकम्मस्स ।। परिणाम द जीबम्म सत्य तिव्वा व मंदा वा ।। ६२३ ॥ जानस्य प्रतिसंचानो हानिवृद्धिश्च देहिनाम् ।। पापस्य परिणामन तवा मंदा च जायते ॥ ६४६ ॥ विजयोदया--गडिसेवादो जानस पात्रामाम्मम परिणामेण हाणी यही बा होदि। कीरशी? तिव्यापमंदा बाइति पदवटना प्रतिसेचनातो जातस्य पापकर्मणः परिणादसेन पाश्चात्येन करणेन शानिर्चा वृद्धिा भवति । तीया हानिस्तीमा वृद्धिः । मंदा वा हानिर्मदा या युविः ।। यथा प्रायधिन निरूपयता पूरणा अनिपारसहभादी तदुत्तरकालभाध्यषि क्षपकस्य परिणानो निरूदनयी यमः . .
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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