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मूलाराधना
आश्वास
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यो यति मिठति स तं बलादपि तल प्रवर्तयति यथा माता बालं घृतपाने इति समर्थयितुं गाथायमाह - मूलारा-पेलेगुण हस्ताभ्यामवष्टभ्य । रडतपि पूरकुर्वन्तमपि । पायदि पाययत्ति ।।
जो जिसका हित करना चाहता है वह उसको हितके कार्यमें बलात्कारसे प्रवृत्त करता है, जैसे हित करनेवाली माता अपने बालकको घृत पिलाने में प्रवृत होती हैं.
यह अभिप्राय आगेके सूत्र में आचार्य कहते हैं.
अर्थ-जैसे बालकको हित करनेवाली माता बालक रोता है तो भी उसको पकडकर और उसका मुख बलात्कारसे उपाहकर उसको प्रत पिलाती है. उत्पीडक आचार्य भी वैसी ही प्रवृत्ति करते हैं. यह बात आगेकी गाथामें आचार्य प्रकट करते हैं
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तह आयरिओ बि अणुज्जयस्स खवयस्स दोसणीहरणं । कुणदि हिंद से पच्छा होहिदि कड ओसह वनि ॥ १८.० ।। अवपीय तधोत्पीडी हितारोपपरायणः ।।
अनृजंक्षपकं सुरिदोष त्याजयतेऽखिलम् ।। ४९४॥ - विजयोदया तह तथा । आयरिओ आचार्योऽपि । अणुज्जयस्स खचगस्स अमृजोक्षपफस्य । दोसणीहरण कुणर मायाशल्यनिरासं करोति । कहुगोसधं वत्ति कटुकमौषधमिया से तस्य । पच्छाहिद होदि पश्चाद्धितं भवतीति ॥
दृष्टान्तं प्रदर्य दाष्टातिकेन योजनाहमूलारा-अणुज्जगरस अमृजोः । दोसणीहरणं । माग्नाशल्यनिरासं । कहुगोसह पनि कटुकौंपश्रमिवति ।।
अर्थ- आचार्य भी मायाचार धारण करनेवाले क्षपकको जबरदस्ती सदोषोंकी आलोचना करने में बाध्य करते हैं तब वह दोष कहता है. कहु औषधि जैसे रोगीमनुष्य का मंचन करनेके नंतर कल्याण करती है जैसे दोपोंकी आलोचना करनेसे क्षपकका कल्याण होना है. अर्थात् आलोचनास भविष्यत्कालीन संसारपरिभ्रमणस वह मुक्त होता है.
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