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________________ पचाराधना आश्वासा इंगवरीडको भवतीत्यात्र उन्जरमा तंजरसी वच्चरमी पहिदांकतियायरिओ॥ सीहाणुओ य भणिओ जिणेहि उप्पीलगो णाम ॥ ४७८ ॥ कंठीरव इवाजस्वी तेजस्वी भानुमानिव ।। चक्रवर्तीच वर्चस्वी सृरिरुत्पडिकोऽकथि ।। ४०२ ॥ स ताई कीगुत्पीडको भवति इति प्रश्न सत्याह-- मूलारा-ओजस्ती बलवान । तेजस्मी प्रतापवान् यतः सर्वोऽपि विति परैः स्यैश्चाधृष्य इत्यर्थः । वच्चम्सी प्रभोत्तरदागकुशलः । सीहाणुगा सिंहसमानः अक्षोभ इत्यर्थः ।। अवपीडक आचार्यका लक्षण आचार्य कहते हैं अर्थ - उत्पीलक गुणधारक आचार्य ओजस्वी, बलवान् और तेजस्वी प्रतापवान् होते हैं, अर्थात् उनसे | स्यसंयके मुनि और परसंघके भी-भययुक्त होते हैं. अर्थात् सर्व मुनिओंपर वे अपना रोब जमानेवाले होते हैं. स्वसंघ और परसंघके मुनि उनकी आज्ञा नहीं उलंघते हैं. वे वचस्वी अर्थात् प्रश्नका उत्तर देनेमें कुशल होते हैं. उनकी कीर्ति चारो दिशाओं में रहती है ये सिंह समान अक्षोभ्य रहते हैं. वे किसीको डरते नहीं है, । विजयोदया-यो यद्धितकामस्स तं यलासन प्रवर्तयति । यथा हिता माता बालं घृतपाने । इत्येतदुचरसूत्रेणाच पिल्लेदण रडतं पिजहा बालस्स मुहं विदारिता ।। पन्जेद घदं माया तस्सेव हिद विचिंतंती ॥७९॥ गधावष्टभ्य हस्ताभ्यां विदार्ग बदनं घृत ॥ बाल पाययतं माता रटतं हितकारिणी॥ ४५३ ।। विजयोन्या-पिलदण मुह विदगीता बदं फांजदि यथा जननी बालहितचितोद्यता पूरकुन्तमपि बाद अवसभ्य मुखं विदार्य घृतं ययति । दान्तिकन योजयति ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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