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________________ लागधना Gan होती है. इस ना ही सुंदर निर्जरा होते हैं. कवायोंसे नवीन कर्मका ग्रहण होता है, चंध होता है, और स्थिति होती है. अतः इनको आत्मासे हटाना चाहिये. सब कषायोंमें मावा बडी खराब है. यह प्राणिओंको तिर्यग्योनीकी प्राप्ति करा देती है. ' माया तैर्यग्योनस्य ऐसा तत्वार्थशास्त्र में उल्लेख हैं. यदि तुम इस मायाका त्याग न करेंगे तो इस भवसमुद्र में शियग्गतिक भोचरे में पढकर खूब भ्रमण करोगे. फिर बहांसे छूटना बडा ही कठिन हो जायगा. केवल मात्रका त्याग करनेसे तुम अपनेको निर्बंध सुनि समझ रहे हो परंतु याद रखो कि केवल के त्यागसे नियता की प्राप्ति नहीं होती है. क्योंकि पशु भी निर्वस्त्र अर्थात् नम्र रहते हैं. उनको भी निग्रंथ मानना पड़ेगा. मिध्यात्व क्रोधादिक बार कपाय, और हास्य, रति, अरति शोक भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक, ऐसे चोदा अभ्यंतर परिग्रहोंका त्याग करनेसे भावनियताकी प्राप्ति होती है. यही मोक्षलाभके लिये उपाय है. अभ्यंतर परिग्रहका त्याग बाह्य परिग्रहत्यागके लिये उपयोगी है. केवल जीव और पुलोंका सान्निध्य होनेसे कर्मबंध नहीं होता है. परंतु कर्मबंधन के लिये योग्य जीवपरिणामही उसके आधार हैं. अविचारयुक्त सम्यग्दर्शनादिक जीवको मोक्षकी प्राप्ति कर देने में समर्थ नहीं है. 'सम्यग्दनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात् रत्नत्रय की पूर्णता होना मुक्तिप्राप्तिका उपाय हैं. क्या यह जिनेश्वरका वचन तुमने नहीं सुना हैं ? ज्ञान दर्शन और चारित्रका उत्तम पालन करने से ही निरतिचारपना प्राप्त होता है. गुरुओंने कहे हुए प्रायश्चित्तका पालन करने से वह निरतिचारपना प्राप्त होता है. गुरु भी जिन्होंने अपने दोषोंकी आलोचना की है उनकोही प्रायचित्त देते हैं. तुम तो दूर भव्य अथवा अभव्य हो ऐसा हम समझते हैं. यदि तुम आसन्नभव्य होते तो तुमारेमें यह बड़ा मायाशल्य क्यों रहता ? तुम मुनिजनके लिये वंदनीय नहीं है. समणं बंदेज्ज मेधावी संजदं सुसमाहितं, अर्थात् जीवित और मरण, लाभ और अलाभ निंदा और प्रशंसामें जिसका मन समान रहता है। वही समान कहा जाता है. अतिचारका निरूपण करने पर मेरी निंदा करेंगे प्रशंसा न करेंगे ऐसा तुम मनमें विचार कर रहे हो इस लिये तुमको समान मानना व्यर्थ है. इस वास्ते तुम वंद्य नहीं है. ऐसा भाषण करके अबपीडक आचार्य क्षपकके सब मताद्यतिवार बाहर निकलवाते हैं. उसके हृदयमें जो मायाशल्य बैठा था उसको बाहर निकालवाते हैं. आश्रासा ७००
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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