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मुलारावना
आयासः
यो न निर्भसयति दोघं हष्ट्यापि प्रियमेष पक्ति स गुरुः योभन ति न भवद्भिर्मतव्यमित्युपदिशति
जिब्भाए वि लिहंतो ण भद्दओ जत्थ सारणा पत्थि ॥ पाएण वि ताडितो स भद्दओ जत्थ सारणा अस्थि ।। ४८१ ।। भद्रः सारणया हीनो न लिहम्नपि जिया ।।
ताइयन्नपि पादेन भद्रः सारणया युतः ।। ४१५ ॥ बिजयोदया-जिन्माण, वि लिईनो जिलया स्यादपि न भहगा नैव भद्रकः । जन्य सारणा गन्धि। यस्मिम्गी दोपनियारणा नास्ति। पाण्ण वितानो पादन ताडयपि स महगी समरिभदकः । सारमा जत्थ प्रन्धि सरप्पा गुरा यत्र विगन ॥
दोपं हापि त्वां न निर्भसयति अपि तु प्रियमेव ब्रवीति स गुरुः शोमन इति त्वया न मंतव्य इत्युपदिशतिमूलारा-निहन्तो स्यादयन् प्रियवचनादिभिः सुखयनपीत्यर्थः । सारणा दोपनिवारणा गुणप्रवर्तनं था।
जो शिष्योंके दोष देखकर भी गिदी बोलता निरीना करता नहीं है वह जुरूकतम है ऐसा हे मुने ! तुम मनमें मत समझो. ऐसा आचार्य उपदेश करते है
अर्थ-जो गुरु शिप्पोको दोषोंसे निवारण नहीं करते हैं वे जिव्हासे मधुर भाषण बोले तो भी वे शिप्योंका अकल्याणही करनेवाले मानना चाहिये. जो गुरु लातोंसे शिष्योंका समाचार लेता है परंतु जो दोषोंसे शिष्योंको अलिप्त रखता है वही गुरु हित करनेवाला समझना चाहिये. सारणकस्य सूरेभवताप्रकटनाय गाथा-.
सुलहा लोए आदचितगा परहिदम्मि मुकधुरा ॥ आदछं व परळं चिंतता. दुल्लहा लोए । ४८२ ॥ परकार्यपराचीनाः सुलभाः स्वार्थकारिणः ।
आत्मार्थमिव कुर्वाणाः परार्थमपि दुर्लभाः॥ ४९६ ।। विजयोदया-सुलभा लोप आवचिंतमा सुलभाः प्रचुराः । लोप लोके । भादचितगा स्वकार्य तत्पराः । परहिदम्मि मुकधुरा परहिवकरणे अलसाः । आदढ़ व आत्मप्रयोजनमिव । पर चिंतता परप्रयोजनचिंतासमुखताः लोके दुर्लभाः।
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