________________
भावासा
मूलाराधना
मारकत्वसूरिदुलमत्वध्यापनार्थमाह - मूलारा-मुलभाः प्रचुराः । आठुचितया स्वकार्यचिंतनपराः। मुक्कधुरा अलसाः आदव स्वकार्यमिय ॥ दोषोंसे निवारण करनेवाले आचार्यकी भद्रता प्रकट करते हैं
अर्थ- इस जगतमें अपने कार्यमें ही तत्पर रहनेवाले और परहित करनेके कार्यमें अलसी एसे ही लोक महत हैं अपने हितके समान परहितकी चिन्ता करनेवाले लोक अतिशय विरल हैं.
आदछमेव चिंतेदुमुग्दिा जे परमवि लोगे ।। कडुय फरुसहिं साहेति ते हु अदिदुल्लहा लोए ॥ ४८३ ॥ ये स्वार्थ कर्तुमुधुक्ताः परार्थमपि कुर्वते ।।
कटुक परुषवाक्यैस्ते तरां सन्ति दुर्लभाः ॥ ४९७ ॥ विजयोदया--भावमेव चितेषुमुदिा आत्मीयमेष प्रयोजनं चितयितुमत्थिताः।जेये। परमधि पर प्रयोजनमपि कड़गफरुसेहि कदकैः परः प्रवचनः । साधेति साधयन्ति लोके । अतिदुल्लहा अतीव दुर्लमाः ॥
अमागनिवारकाणामतिदुर्लभत्वमाह -..
गूलारा-उटिदा उद्युक्ताः । युगप सपेहिं कटुकपचनश्चेष्टितेच दोषाभितयितुं प्रयुक्तः । साति । ज्ञापयन्ति निम्पादयन्ति वा ।
अर्थ-जो पुरुप आत्महित करने के लिय कटिबद्ध होकर आत्महित के साथ कदु और कठोर बचन बोलकर पराहत भी साधते हैं व जगतमें आतिशय दुर्लभ समझने चाहिये.
७०४
सूरियदि नावपीडयेत् नासौ.क्षपको मायाशल्यानिवर्तेत । निर्मायत्वे निरतिबाररत्नत्रयेच गुण न प्रवतेत पति आचार्यसंपाद्यमुपकारं प्रकटीकरोति -
खवयस्स जइ ा दोसे उग्गालेइ सुहमेव इदरे वा ।। ण णियत्तइ सो तत्तो खबओ ण गुणे य परिणमइ ।। ४८४ ।।