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मूलाराधना
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निवर्तनं न दोषेभ्यो न गुणेषु प्रवर्तनम् ॥
विधत्ते क्षपकः सर्वदोषमत्याजितो यतः ॥ ४९८ ॥
विजयोदया साथगस्स जर सुमेन इदरेघा दोसे ण उम्गालर क्षपकस्य सूक्ष्मान् स्थूलान्या दोषायदि मोहालयति । स खगी ततो नियत्ता स अपकस्तेभ्यः सूक्ष्मभ्यः स्थूलेो वा दोवेभ्यो न निवर्तेत नेत्र गु परिणमत निराकृतदा कथमागधकः स्थादाराधनार्थमायातोऽप्यसम्भवपीडके || उणीलनि गरे ।
सूरे रुपीडकत्वाभावे अपकम्यापकार माह---
मूलारा -- तत्ती स्थूलसूक्ष्मदोषेभ्यः । निर्मायत्वे निरतिचाररत्नत्रये च ॥
आचार्य यदि कठोर और कटु शब्द बोलकर क्षपकको व्यथित नहीं करेंगे तो वह मायाशल्यसे परावृत्त नहीं होगा. निष्कपटपना और निरतिचाररत्नत्रय पालन करना इन गुणोंमें उसकी प्रवृत्ति न होगी, परंतु क्षपकको आचार्य दोषोंसे परावच करते हैं; यह उनका महान् उपकार है. यही विषय आगेकी गाथामें प्रगट करते हैं
अर्थ -- यदि आचार्य क्षपकके सूक्ष्म अथवा स्थूल दोष उसके हृदयसे बाहर निकालने का प्रयत्न नहीं करते तो वह क्षपक गुणोंमें कभी प्रवृत्त नहीं होता. दोषोंका नाशकर यदि वह गुणमें प्रवृत्त न होगा तो वह आराधक कैसा होगा ? इस वास्ते आचार्यमें अवपीडक गुण होना ही चाहिये, आचार्य इस गुणके धारक न हो तो आराधनार्थ आया हुआ क्षपक आराधक न होगा.
ता गणिणा उप्पीलण खवयस्स सब्वदो साहु ॥ ते उग्गादन्या तस्सेव हिदं तहा चैव ॥ ४८५ ॥
नित्योत्पीडी पीडयित्वा समस्तांस्तस्माद्दोषांस्त्याजयेत्तं हितार्थी ॥
व्याधिध्वंस किं विधत्ते न वैद्यः तन्वन्याधां व्याधितस्येष्टकारी ॥। ४९९ ॥ कृति उत्पीडी |
उपसंहारमाह
मूळारा स्पष्टम् । उत्पी
अर्थ - इस लिये उत्पीडक आचार्यको क्षपकका हित करनेके लिये उसके सब दोष निकालना योग्य है.
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