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मूलाराधना
आश्वासः
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पघं अचपीउको व्याख्यायायसरमाप्तामपरिम्नायितां ध्याचऐ
लोहेण पादमुदयं व जस्स आलोचिदा अदीचाग ।। ण परिस्सर्वति अण्णत्तो सो अप्परिस्सयो होदि ।। ४८६ ।। दोषो निवशितो यत्र तते तोयमिवायसि ।।
न निर्याति महासारे स ज्ञातव्योऽपरिस्रवः ।। ५००॥ विजयोदया-लोहेण पीदमुवंग य पधमत्र पदसंबंधः । जस्स आलोदा दोसा ण परिस्सवंति अण्णात्तो यस्मै कथिता दोषा न परिम्नवन्त्यन्यतः । किमिय लोईण पीदमदगंध लोहेन संतसेन पीतमिवोदकं । सो सः । पर्वभूतोऽपरिस्सवो होदि अपरिम्राधी भवति ।
अपरिमावितां दशभिर्गाथामिकाकर्तुकामः पूर्व सल्लक्षणार्थमिदमाह
मूलारा-लोहेण अधीन संतमेन । पीदं पीतमन्तीतं । ण परिसबंति । न प्रकदा भवन्ति । अघणतो अन्यत: अन्योति यावन । उक्तंच
दोषो निबोशतो यत्र तप्त लोयभिवायसि ।।
न गिति महासारे स ज्ञातव्याऽपरिमाय।। इस प्रकार अवपीडक गुणका वर्णन हुआ. अब अपरिस्राविता गुणका वर्णन करते हैं
अर्थ-जैसे तपा हुआ लोहका मोला चारो तरफसे पानीका शोपण कर लेता है और वह शोषण किया गया पानी उससे बाहर निकलता नहीं वैसे क्षपकके दोष जो आचार्य सुनकर अपने मनमें ही रखते हैं अन्य जनों को इस क्षपकने ऐसे एस अपराध किये थे ऐसा नहीं कहते हैं वे आचार्य अपरिस्रावी गुणके धारक है ऐसा समझना चाहिये,
दसणणाणदिचारे वदादिचारे तवादिचारे य ॥ देसच्चाए विविध सब्बच्चाए य आवष्णो ॥ २८७ ॥
अतिचारास्तपोवृत्तज्ञानसम्यक्त्वगोचराः॥ मनोवाकाययोगेन जायते त्रिविधा यतेः ॥ ५.१ ।।