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मृलाराधना
आधासः
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विशेषार्थ-आत्माके जिस परिणामसे पुद्गलद्रव्य कर्मरूप बनकर आता है उस परिणामको आस्रव कहते हैं. अर्थात् आत्मपरिणाम पुद्गलमें कावस्था उत्पन्न होने निमित्त हुआ अतः आत्मपरिणामको आस्रव-भावानव कहते हैं. और पुद्गलकी कर्मरूप परिणातिको द्रव्यालय कहते हैं.
शंका - कर्मपुद्गलोंका अन्य स्थानसे आगमन नहीं होता है: जिस आकाशप्रदेशमें आत्मा है उसी आकाशप्रदेशमें अनंतप्रदेशी पुद्गल द्रव्य भी है. और वह कर्मस्वरूप बन जाता है. 'एयक्वित्तोबगाढ' ऐसा कर्मपुद्गलके विषयमें आचार्य वचन कहने हैं अर्थात् कर्म और आत्मा एक प्रदेशाबगाही है ऐसा शास्त्र वचन है. इस लिये आप पुद्गलद्रव्य आत्मामें आकर कर्मरूपता धारण करता है ऐसा क्यों कहते हैं ?
उसर - आपकी शंका ठीक है यहां पुद्गलद्रव्य आता है इसका अभिप्राय ऐसा ममझना चाहिये 'आगच्छति दौकन्ते ज्ञानावरणादिपायमित्येवं ग्रहीतव्यम्' अर्थात् जीवमें पुद्गल आते हैं ज्ञानाबरणादि पर्यायको प्राप्त होते है. ऐसा अभिप्राय यहां समझना चाहिये, देशान्तरसे आकर पुद्गल फर्मावस्था धारण करते हैं ऐसा कहनेका हमारा आशय नहीं है.
अतः प्रदोप, निन्हव भान्सादिक जीवके परिणाम प्रदगलकीकर्मरूप परिणति होनेमें माधकतम है. अर्थात जीवके मात्सत्यादिक परिणाम हानसही पुद्गल, कमरूप होता हे अन्यथा होताही नहीं. जीवपरिणाम करण रूप है. करणरूपपरिणामकी मुख्यता जब मानी जाती है तब उस परिणामकोही आस्रव कहते हैं. अथवा 'आम्रवर्ण कमतापरिणतिः पुगलाना आखपशब्देनोच्यते पुद्गलोंकी कमरूप परिणतिमें भी आसव शब्दका व्यवहार किया जाता है. इसको द्रव्यास्त्रव कहना चाहिये.
संचर-जिस सम्यग्दर्शनादि परिणामोंसे अथवा गुमि, समिति, धर्म, अनुप्रक्षा, परिषह जय इत्यादि परिणामोंसे मिथ्यादर्शनादि परिणाम रोके जाते हैं वे रोकनेवाले परिणाम संवर शब्दसे कहे जाते है, अर्थात् सम्यग्दर्शनादि परिणाम वा गुप्त्यादिपरिणामोको आचार्य संवर कहते हैं, उसको ही भाव संवर कहना चाहिये.
निर्जरा-आत्माके जिन परिणामोंसे आत्मासे कर्म झह जाता है उसको निर्जरा कहो. अर्थात् आन्माके प्रदेशों में जो कर्मबद्ध हो चुका है वह जिस परिणामों के द्वारा वहांसे अलग किया जाता है ऐसे परिणामाका नाम निर्जरा है. अथवा कर्मका आत्मासे अलग हो जाना यह भी निर्जरा है.