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________________ लाराधना आभासः १६७ जैसे जिनके रागदेप नष्ट हुये हैं जो त्रैलोक्यचूडामणि हैं ऐसे अईदादिक भन्योंको शुभोपयोग उत्पन्न होने में कारण हो जाते हैं. वैसे उनके प्रतिबिभी शुमोपयोग उत्पम करते हैं. बाझ पदार्थके आश्रपसे शुभ या अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं. आत्मामें इष्टानिष्ट पदार्थका सानिध्य होनेसे रागद्वेष उत्पन्न होते हैं. अपने पुत्रके समानही दुसरेका सुंदर पुत्र देखनेसे अपने पुत्रकी याद आती है. इसीतरह अदादिकोंके प्रतिबिंब देखनेसे अर्हदादि परमेष्ठिओंके गुणोंका स्मरण हो जाता है. इस स्मरणसे नवीन अशम कर्मका मंवर होता है. नवीन सभ कोका आगमन होता है. जो शुभप्रकृति, ग्रहण की गई है उसमें वृद्धि होती है. पूर्वम ग्रहण की हुई अशुभ प्रकृतियोंका रस कम करनेमें समर्थ होता है, इसलिये समस्त इष्टपुरुषार्थकी सिद्धि करनेमें प्रतिबिंब हेतु होते हैं. अतः उनकी उपासना अवश्य करनी चाहिये. इस तरहसे चैत्यकी महत्ता प्रकाशित करना यह चैत्यवर्ण जनन है. अतज्ञानवर्णजनन-अवज्ञान केवलज्ञानके समान संपूर्ण जीवादि द्रव्योंके यथार्थ स्वरूपका प्रकाशन करने में समर्थ है, कर्मरूपी उष्णताको नष्ट करनेके लिये उद्युक्त हुवा जो शुभ ध्यानरूपी चंदनवृक्ष उसको यह अतन्नान मलयपर्वतके समान है. स्वतःका और भव्यजीवोंका उद्धार करने में तत्पर ऐसे विद्वान लोगोंके द्वारा यह ज्ञान आराधने योग्य है. यह अशुभ कर्मके आम्रवोंकी उत्पत्ति होने नहीं देता है. इस श्रुतज्ञानसे आत्माका प्रमाद नष्ट होता है. सकल और विकल ऐसे प्रत्यक्ष ज्ञानोंकी उत्पत्ती यही कारणभूत है. सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रकी इससेही प्रवृत्ति टिक सकती है. इस तरहसे श्रुतज्ञानके महत्वका कथन है. धर्मवर्णजनन-यह जैनधर्म दुःखोंसे जीवको बचाता है. सुख देनेमें समर्थ है, नवनिधी और चौदह रत्नोंका अधिपति करता है, जिन्होंने अपने पक्ररत्नसे संपूर्ण भूगोचरी राजे, विद्याधर नृप और गणबद्ध देव वश किये है ऐसे चक्रवती भी इस धर्मके प्रभावसे नन होकर चरणोंपर नमस्कार करते हैं. इसके प्रभावसे इंद्र पदवी प्राप्त होती है. यह पदवी देवांगनाके चित्तको लुभानेवाली है. उसके चंचलमत्स्यके तुल्प नेत्रों में प्रेम उत्पन्न करती है. हर्षसे शरीरमें रोमांच उत्पन्न करती हैं. इस पदवीके धारक देवमें धर्मके प्रसादसे सर्व देवोंसे भी अधिक महत्त्वशाली अणिमामहिमादिक प्रद्धि प्राप्त होती है. हमेशा इंद्र तारुण्यसे युक्तही रहता है. उसका शरीर सौंदर्यरूपी लताके आरोहणके लिये यष्टीके समान होता है. इंद्रका आयुष्य अनेक सागरोंके जलबिदुओंकी गणना
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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