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________________ मूलाराधना अवस: १६८ तुल्य बरा रहता है. अर्थात अनेक समुद्रोंमें जलविदु जैसे अगणित रहने हैं चैसा इंद्रका आयुष्य अनेक सागरोपम रहता है. वह इंद्र मेरुपर्वत, कुरुभूमि [देवकुरु और उत्तरकुरु भोगभूमि ] गंगादि महानदियां, हिमबदादि कुल पर्वत, इत्यादि स्थानों में खेच्छासे विहार करता है. देवांगनाओंके विशाल नितंब, अधरोष्ठ, कठिन, ऊँचे और विशाल ऐसे सनतट इनके माथ वह क्रीडा करता है, उनको अवलोकन और स्पर्श करके बहुत आनंद लूटना हैं. ऐसी महत्वशालिनी इंद्रपदवी इस जिनधर्मके प्रमादसे मनुष्य प्राप्त कर सकता है. . इस जिनधर्मक प्रसादसे मोक्षकी भी प्राप्ति होती है. कुरूपता उत्पन्न करनेवाली वृद्धावस्था रूप डाकिनी इस अविनश्वर ज्ञानमय मोक्षको स्पर्श नहीं करती है, शोकरूपी वृकुर मोक्षभूमीमें प्रवेश नहीं करते हैं, यह भूमी विपत्तिरूप दावानीकी ज्वालाओस अंलिम रहती है. रोगरूपी दुष्ट सर्प इसके शरीरको देश नहीं करते हैं. यह मोक्षभूमि यममहिपके शंगसे अखंडित रहती हैं. भीतिरूपी वराहांसे उकीरी जाती नहीं है. संक्लेन परिणामरूपी शरभ इसमें वास नहीं करते हैं। मियवियोगरूपी ऋर च्यात्रोंसे यह रहित है। यह अनुपम सुखरूप रदको अपम वाली बनी है। ऐसी मचिनिः जिनधर्मके प्रसादसे भव्य जीव पा सकते हैं. इस तरह धर्मका माहात्म्यकथन फरना यह धर्मवर्णनजनन है. " . . सांधुवर्ग वर्णजनन-प्रियंत्रचन बोलने में चतुर ऐसे बंधुगण दुर्मेध शंखलाके समान है, परंतु साधुगण इस बंधुशंखलाको झटसे तोडते हैं. दुस्तर संसाररूपी भोवरोमें चिरकालतक भ्रमण करनेसे उनका हृदय भययुक्त रहता है, हमेशा अनित्य भावनामें उनका चित्त आसक्त रहनेसे शरीर, धन, वगैरे पदार्थोंमें ये आसक्ति नहीं रखते हैं. यह जिनधर्म ही सैंकडो दुःखोंसे हमारा रक्षण करता है. इनको छोडकर दुसरा कोई भी हमको दुःखासे छुटानेवाला नहीं है ऐसा मनमें विचार कर उसके ही शरणमें जाते हैं, श्रीमाधुपरमेष्ठी ज्ञानरूपी रत्नदीपककी ममान जगदपी गृहमें छिपकर बैठे हुए अज्ञानांधकारको भगाते हैं. कमोंको ग्रहण करना, उनके फलाको चखना और उनको निमूलन करना इन कार्योंमें हमको कोई सहाय्य नहीं कर सकता है. हमको ही ये कार्य करने पढते हैं, ऐमा अपने मनमें निश्चित करते हैं, अगाधारणतन्य हमारा लक्षण है इससे हम इतर अजीचादि पदाथोंगे भिन्न है एमी भावना कर इनर द्रव्योंस वे अपनको सर्वथा भिन्न भाते हैं. वे सुख में आदर तथा दुःखमें दंप करत नहीं है. यदि मेरमें सातावदनींव कम होगा तो अन्यजन मेरा आदर करेंगे यदि नहीं होगा तो मेरा वे ए करेंगे" अतः मैं
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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