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मूलाराधना
10 भारात
ही अपने ऊपर उपकार या अनुपकार करता है, शुभ या अशुभ फम उत्पन्न करनेमें में स्वतंत्र ई. अनुग्रह और निग्रह अन्य लोक करते हैं यह मानना औपचारिक है. ये लोक दीन है ये कुछ करने धरनमें समर्थ नहीं है ऐसा विचार कर ये मेरे बंधुगण है, ये मेरे शत्र हैं ऐसी भावनाको वं हृदयसे दूर करते हैं. जिनका सामर्थ्य अनिवार्य है ऐसे उपसर्गरूपी सोस घिरे हुए भी वे विलमात्र भी घबडाते नहीं है. क्षुधा, तृषादिपरीयहरूपी शत्रु बड़े जोरसे आक्रमण करते हैं, तथापि वे दीन होकर मनमें संक्लेशयुक्त नहीं होते हैं. वे तीन गुप्तिरूपी गुप्ती का आश्रय लेते हैं. अनशनादिपोराज्यका पालन करने में उद्युक्त होते हैं. संपूर्ण महारतरूप कवचको धारणकर हाथमें शीलरूपी ढाल लेते हैं. म्यानसे बाहर निकाली हुई ध्यानरूपी तरवार वे अपने हाथमें लेकर कर्मशत्रकी सेना जीतते हैं. इस तरहसे साधुपरमेष्ठीका माहात्म्य प्रगट करना यह साधुवर्णजनन है.
आचार्यवर्णजनन-मोतिओंका हार, मेघ, चंद्र, सूर्य, कल्पवृक्ष वगैरे पदार्थ प्रत्युपकारकी अपेक्षा न करके ही उपकार करते हैं, आचार्यपरमेष्ठी भी उनके समान परानुग्रह करने में सदा उद्युक्त रहते हैं, वे निर्वाणनगरी के प्रति ले जानेवाले निरतिचार चारित्ररूपी मार्गका स्वयं अवलेपन करके नत्र हुए ऐसे शियादिक भव्य जीदों को भी उस मागमें प्रवृत्त करते हैं. आचार्य निर्मल ज्ञान और विशालदर्शनरूपी पक्ष्मल नेत्रीसे सम पदार्थाको जानते हैं और देखते हैं, वे कुलीन, नम्र, निर्भय, अभिमानरहित, रागद्वेष रहित, माया, मिथ्यात्व, निदानरहित और मोहरहित होते हैं, बचनोंमें, तेजमें, तपमें थे अद्वितीय होते हैं. वे जमतके अद्वितीय अलंकार हैं, इस तरह आचार्यवर्णजनन समझना.
उपाध्यायवर्णजनन-उपाध्याय परमेष्ठी अच्छी तरहसे आगमके ज्ञाता होते हैं. वे जीवादि पदाथांका यथार्थ वर्णन करते हैं, शम्द और अर्थके वाच्यवाचक संबंधका निर्दोष विवेचन करते हैं, वे निद्रा, आलस्य और प्रमादका त्याग किये हुये हैं. निरतिचार चारित्रके धारक, शील संपन्न और सम्यग्ज्ञान संपन्न होते हैं, यह उपाध्याय वर्णजनन है.
मार्गवर्णजनन-रत्नत्रयही मोक्षका मार्ग है, इसका लाभ जीवको यदि न हो जायगा तो अनादि व अविनश्वर ऐसी यह भव्य जीवराशि मोक्षपुरकी प्राप्ति नहीं कर सकेगी. जब उसका लाम होता है तम जगतकी सर्थ संपत्ति इस जीवको प्राप्त होती है. यह मार्गवर्ण जनन है.
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