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________________ मूलाराधना १६६ प्रकट करना यह अर्हदादिकोंके वर्णजनन है. आत्मको जब मोक्ष प्राप्त होता है तब वह अपने चैतन्यर्मे स्थिर होता है ऐसा सांख्य कहते हैं. मुक्तात्माका चैतन्य फक्त स्वस्वरूपको जानता है, बाह्य पदार्थको वह जानता ही नहींऐसा उनका मत है. परंतु यह मत युक्तीसे बाधित होता है. प्रयत्नके बिना ही सर्व आत्मामें चैतन्य सदा विराज मान है ही, वैसा ही यदि मुक्तमें भी होगा तो उसका विशेषरूप संसारी आत्माके चैतन्यस्वरूपसे भिम नहीं है ऐसा मानना पडेगा. अर्थात् मुक्तात्माके चैतन्यमें कुछ अपूर्वता है नहीं ऐसा सिद्ध हो गया, जिसमें कुछ अपूर्वता नहीं रहती है वह चीज इतर वस्तुसे अपना मिश्रपना सिद्ध नहीं कर सकनेसे खपुष्पके समान असत् ही समझनी चाहिये । प्रकृतितच्च अचेतन होनेसे उसमें मुक्तिकी कल्पना करना फिजूल हैं. वह मैं बद्ध हूं अथवा मुक्त हुई है ऐसा जानती ही नहीं. अतः कापिलके-सांख्यके मत में मुक्तावस्था आत्माकी सिद्ध हो नहीं पाती. बुद्धयादि विशेष गुणोंसे रहित मोक्ष है ऐसा वैशेषिकों का मत है परंतु वह भी समुचित नहीं है. आत्मामें अचेतनताकी कल्पना कोन सचेतन प्राणी करेगा ? अर्थात् आत्मामें ज्ञान है यह बात बाल गोपालतक स्वीकारते हैं. यदि मुक्तावस्था में आत्माका ज्ञान नष्ट हो गया तो वह अपनी सिद्धिके लिये किसका आश्रय करेगा ? अर्थात् ज्ञान यह आत्माका विशेष लक्षण हैं. उसके बिना उसकी सत्ता ही नष्ट हो जाती है, जैसे भस्ममें ज्ञान न होनेसे उसको कोई आत्मा नहीं कहते हैं वैसे ही मुक्तात्मा ज्ञानशून्य हो जानेसे अपना आत्मत्व खो चुके हैं ऐसा मानना पडेगा. रागद्वेषादि क्लेशोंको उत्पन्न करनेवाला बासनाओंसे रहित जब ज्ञान हो जाता है तब वह मुक्त माना जाता है ऐसा बौद्धका मत है. यहां हम उनको पूछते हैं कि, यदि वह ज्ञान अत्यंत असाधारण रूप और एक ही है. दुसरे पदार्थ ज्ञानके समान असाधारणरूपके धारक नहीं है ऐसा कहोगे तो दुसरे पदार्थोंका स्वरूप वर्णन करने लायक नहीं है ऐसा निश्चित हो गया. जो जो वस्तु असाधारण स्वरूपसे रहित है वह वह आकाशपुष्पके तुल्य अभावरूप माननी पड़ेगी. इस रीतीसे अन्यमतमें सिद्धोंका स्वरूप सिद्ध होता नहीं. अतः बाधक सकलकर्मका नाश हो जानेसे अविनाशी आत्मस्वरूपको जो प्राप्त होगये हैं वे सिद्ध परमेष्ठी हैं. वे अनंत ज्ञानरूपसुखसे तृप्त हुये हैं. ऐसा उनका माहात्म्यकथन करना यह सिद्ध माहात्म्य वर्णन हैं. भावासः १ १६६
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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